इस क्रिकेट के साथ खेल क्यों ?

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वर्ष 2012 में भारत और पाकिस्तान के बीच बंगलुरु में पहले ब्लाइंड टी-20 विश्वकप का फाइनल खेला जा रहा था. पहले बल्लेबाजी करते हुए भारत के तीन बल्लेबाज 42 रन तक पैवेलियन लौट चुके थे. यहां से केतनभाई पटेल ने भारतीय पारी को संभाला और 43 गेंदों पर 98 रन की पारी खेलकर टीम के स्कोर को 258 रन तक पहुंचाया. यह मैच भारत ने जीता और विश्वकप पर कब्जा जमा लिया.

उस समय तक ब्लाइंड क्रिकेट में पाकिस्तान को अजेय माना जाता था. लेकिन इसके बाद से भारत ने अपना वर्चस्व कायम कर लिया. दो साल बाद 2014 में एकदिवसीय विश्वकप के फाइनल मुकाबले में पाकिस्तान को हराकर पहली बार  यह खिताब भी अपने नाम कर लिया. इसके बाद एशिया कप भी जीता. भारतीय ब्लाइंड क्रिकेट टीम विश्व की एकमात्र टीम बन गई जिसने ब्लाइंड क्रिकेट के तीनों बड़े खिताब अपनी झोली में डाले. इतनी बड़ी उपलब्धि हासिल करने के बाद भी आज भारतीय ब्लाइंड क्रिकेट विषम आर्थिक परिस्थितियों से जूझ रहा है. पैसे और संसाधनों के अभाव में खिलाड़ी प्रैक्टिस नहीं कर पा रहे हैं. प्रैक्टिस करना तो दूर कई खिलाड़ियों के पास घर चलाने तक के पैसे नहीं हैं.

टी-20 विश्वकप में जीत के हीरो केतनभाई पटेल 2006 से भारतीय टीम में ‘बी1’ श्रेणी के खिलाड़ी हैं. तीनों ही बड़ी जीतों के समय वे टीम का हिस्सा थे. गुजरात के वलसाड जिले के रहने वाले केतनभाई कुछ समय पहले तक एक स्थानीय कंपनी में पैकिंग का काम किया करते थे. उन्हें महज 50 रुपये प्रतिदिन का मेहनताना मिलता था. दिसंबर 2014 में जब भारतीय टीम एकदिवसीय विश्वकप खेलने दक्षिण अफ्रीका गई तब उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी थी. केतन बताते हैं, ‘विश्वकप जीतकर जब हम वापस लौटे तो हमारी उपलब्धि को देश भर में सराहा गया. भारत सरकार के खेल मंत्रालय ने पांच लाख रुपये और सामाजिक न्याय मंत्रालय ने दो लाख रुपये का इनाम दिया. वहीं गुजरात सरकार ने भी अपने राज्य के खिलाड़ियों को 10 लाख रुपये नकद और सरकारी नौकरी देने की घोषणा की. लेकिन गुजरात सरकार से अब तक हमें न तो कोई राशि मिली और न नौकरी. हम अब भी उम्मीद लगाए बैठे हैं, कम से कम नौकरी तो मिल जाए. अगर नौकरी न मिली तो फिर से वही पैकिंग वाला काम करना पड़ेगा.’ कुछ ऐसे ही हालात केतनभाई के साथी खिलाड़ी गुजरात के ही गणेश मुंडकर के हैं. वे भी दिहाड़ी मजदूर हैं.

इनके विपरीत मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के सोनू गोलकर इंडियन ओवरसीज बैंक में काम करते हैं. लगभग डेढ़ दशक तक जोनल क्रिकेट खेलने के बाद पिछले वर्ष इंग्लैंड दौरे के लिए पहली बार उनका भारतीय टीम में चयन हुआ. वे बताते हैं, ‘क्रिकेट से कोई आय नहीं होती बल्कि जेब से निवेश ही हो जाता है. हमारे लिए न बुनियादी सुविधाएं हैं, न संसाधन और न हमें आर्थिक सहयोग मिलता है. हमें अपनी क्रिकेट किट खरीदनी होती है और सारे संसाधन खुद ही जुटाने पड़ते हैं. जब कुछ बड़े टूर्नामेंट होते हैं तभी बोर्ड अफोर्ड कर पाता है. वरना अगर हम जोनल स्तर पर खेल रहे हैं तो आना-जाना सब हमें ही इंतजाम करना होता है. रोजमर्रा के खर्चों में कटौती कर पैसा बचाकर रखते हैं यह सोचकर कि क्रिकेट खेल रहे हैं तो जरूरत पड़ने पर लगाना पड़ेगा.’

ब्लाइंड क्रिकेटरों को मिलने वाले मेहनताने की बात की जाए तो जब उनकी टीम कोई प्रतिस्पर्धा जीतती है तो उसमें मिलने वाली इनामी राशि ही उनका मेहनताना होती है जिसे वे आपस में बांट लेते हैं. जबकि कुछ समय पहले तक तो जीतने वाली टीम को कोई राशि नहीं मिलती थी

कुछ ऐसा ही हाल है टीम के कप्तान आंध्र प्रदेश के रहने वाले अजय रेड्डी का, जो स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद में काम करते हैं, वे बमुश्किल इतनी पगार पाते हैं कि अपने बीवी-बच्चों का पेट पाल सकें. वे बताते हैं, ‘हम पेशेवर क्रिकेटर नहीं हैं. खेल से हमको कोई कमाई नहीं होती. उल्टा हमें जेब से लगाना पड़ता है. मेरे एक बैट का खर्च 15 हजार रुपये आता है और जूतों का 8 से 10 हजार रुपये. इतनी मेरी तनख्वाह भी नहीं है. कम से कम छह महीने तक घर खर्च में कटौती करते हैं तब जाकर इतने पैसों का इंतजाम हो पाता है. बावजूद इसके क्रिकेट खेल रहा हूं तो सिर्फ इसलिए कि इस खेल से मुझे प्यार है, क्रिकेट के लिए जुनून है, देश गर्व कर सके ऐसा कुछ करने की इच्छा है.’

छठी कक्षा तक अजय की आंखें सामान्य थीं फिर उन्हें दिखना बंद हो गया तो ब्लाइंड स्कूल में उनका दाखिला करा दिया गया. वे क्रिकेट को बहुत पसंद करते थे और देश के लिए खेलना चाहते थे लेकिन दुर्भाग्य कि वे अपनी आंखें खो चुके थे. स्कूल में उन्होंने ब्लाइंड क्रिकेट के बारे में जाना. ऐसा सुना कि पाकिस्तान इस खेल का चैंपियन है. दो बार से वही विश्वकप जीत रहा है. यहां से उन्होंने यह ठानकर ब्लाइंड क्रिकेट खेलना शुरू कर दिया कि भारत के लिए विश्वकप लाना है. ‘बी 2’ श्रेणी के खिलाड़ी अजय बताते हैं, ‘विश्वकप जीतकर बचपन का सपना तो पूरा कर लिया पर हमें कभी भी वो सम्मान नहीं मिला जिसके हम हकदार हैं. एक ओर जहां सामान्य क्रिकेटरों को खेलने के एवज में करोड़ों रुपये मिलते हैं तो वहीं हम खुद से पैसा लगाकर खेलते हैं. हमारे क्रिकेट में सामान्य क्रिकेट से ज्यादा एकाग्रता की जरूरत होती है. इसके अलावा संसाधनों का इतना अभाव है कि हम किसी भी बड़े टूर्नामेंट से पहले सिर्फ 15-20 दिन प्रैक्टिस कर पाते हैं. वहीं पाकिस्तान तीन महीने तक प्रैक्टिस कर मैदान में उतरता है. वहां ब्लाइंड क्रिकेट को बहुत समर्थन मिलता है. उनके लिए क्रिकेट अकादमी हैं. खिलाड़ियों को पगार भी दी जाती है. सरकार और मुख्य क्रिकेट बोर्ड पीसीबी का उन्हें पूरा समर्थन है. पर हमें न तो सरकार से मदद मिलती है और न बीसीसीआई हमें मान्यता दे रहा है.’

ओडिशा के जफर इकबाल भी इन सबसे जुदा नहीं हैं. वे 2006 से भारतीय टीम का हिस्सा हैं. ‘बी 1’ श्रेणी के खिलाड़ी जफर बताते हैं, ‘रोज प्रैक्टिस का मौका नहीं मिलता यही सबसे बड़ा दुर्भाग्य है क्योंकि ब्लाइंड क्रिकेट में कोई क्रिकेट अकादमी नहीं है. एक अकादमी अभी खुली है जो केरल में है तो मैं केरल तो जा नहीं सकता. अगर प्रैक्टिस करनी हो तो 500 रुपये एक दिन का खर्च करना पड़ता है वो भी तब जब ग्राउंड खाली मिल जाए. पहले ग्राउंड के लिए आग्रह करो फिर अकेले तो प्रैक्टिस कर नहीं सकता इसलिए लड़के जुटाने पड़ते हैं, उन्हें काॅलेज से लाओ और वापस पहुंचाओ. इसलिए जब कोई जरूरी सीरीज खेलनी होती है तभी प्रैक्टिस करते हैं. सबसे बड़ी समस्या यही है कि सभी राज्यों में कम से कम एक ब्लाइंड क्रिकेट अकादमी होनी चाहिए, जिससे इस क्रिकेट को बढ़ावा मिले. आप सामान्य क्रिकेट देखो, जगह-जगह अकादमी हैं. पर ब्लाइंड क्रिकेट में क्रिकेट क्लब और अकादमी कहीं नहीं हैं. जिससे हम भी प्रैक्टिस कर सकें. जब प्रैक्टिस ही नहीं होगी तो नए लड़के कैसे निकलेंगे?’

साथ ही वे बताते हैं कि उनके क्रिकेट को इतना बढ़ावा नहीं है कि वे इसे अपना पेशा बना सकें. जफर कहते हैं, ‘जब पेशा समझूंगा तभी रोज प्रैक्टिस कर सकूंगा. अभी तो स्थिति यह है कि जब क्रिकेट के टूर पर कहीं जाते हैं तो नौकरी से छुट्टी का पैसा कट जाता है. ऐसी परिस्थितियों में आखिर कब तक हम खेल पाएंगे और नई प्रतिभाएं कैसे सामने आएंगी?’ अगर ब्लाइंड क्रिकेटरों को मिलने वाले मेहनताने की बात की जाए तो जब उनकी टीम कोई प्रतिस्पर्धा में जीतती है तो उसमें मिलने वाली इनामी राशि ही उनका मेहनताना होती है जिसे वे आपस में बांट लेते हैं. लेकिन यह राशि भी बेहद मामूली होती है. जबकि कुछ समय पहले तक तो जीतने वाली टीम को कोई राशि मिलती भी नहीं थी.

विश्वकप विजेता टीम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मुलाकात की थी. बावजूद इसके ब्लाइंड क्रिकेट के आर्थिक हालात में कोई सुधार नहीं आया
विश्वकप विजेता टीम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मुलाकात की थी. बावजूद इसके ब्लाइंड क्रिकेट के आर्थिक हालात में कोई सुधार नहीं आया

देश में ब्लाइंड क्रिकेट का संचालन करने वाला बंगलुरु स्थित क्रिकेट एसोसिएशन फॉर द ब्लाइंड इन इंडिया (कैबी) भी आर्थिक रूप से उतना सक्षम नहीं है कि खिलड़ियों को खेलने के एवज में कोई आर्थिक राशि दे सके और न ही उसके पास इतने संसाधन हैं कि वह खिलाड़ियों की प्रैक्टिस के लिए सुविधाएं जुता सके. वह स्वयं उस ‘समर्थनम ट्रस्ट’ के सहयोग से चल रहा है जो दान पर आश्रित है. वह इतना भी मुश्किल से जुटा पाता है कि टीम को विदेशी दौरों पर भेज सके और देश भर में टीम चयन की प्रक्रिया चला सके.

कैबी के कोषाध्यक्ष ई. जॉन डेविड बताते हैं, ‘सभी खिलाड़ी सामान्य पृष्ठभूमि के हैं. कोई छात्र है तो किसी की बैंक में नौकरी है तो कोई खेती करता है तो कोई मजदूर है. क्रिकेट खेलकर इन्हें एक रुपया भी हासिल नहीं होता. हम उन्हें पैसा नहीं दे पाते, वे बस खेल के प्रति अपने जुनून और देशप्रेम की खातिर खेलते हैं. अगर उन्हें कुछ पैसा मिलता भी है तो वो बोनस मान लीजिए. वहीं इन लोगों को काम से छुट्टी मुश्किल से ही मिल पाती है, इसलिए हमें चयन का ट्रायल भी उस हिसाब से रखना पड़ता है कि ये लोग आ सकें. विश्वकप के समय ही खिलाड़ियों को लगभग 35 दिन देने पड़े थे. इतनी विषमताओं के बावजूद उनका प्रदर्शन विश्वस्तरीय से भी ऊंचा है.’ खिलाड़ी ही नहीं टीम के कोच सजु कुमार भी टीम को निःशुल्क प्रशिक्षण देते हैं. वे कहते हैं, ‘मेरा भुगतान यही है कि खिलाड़ी देश के लिए खेलकर सम्मान ला सकें और मैं उसमें भागीदार बन सकूं. हमें किसी की मदद नहीं मिलती. तब भी हम अपना सब कुछ खेल में झोंक देते हैं. मैदान पर अपना 100 नहीं 150 प्रतिशत देते हैं और आगे भी देते रहेंगे. देश के सम्मान के लिए खेलते रहेंगे और बार-बार जश्न के मौके लेकर आएंगे, फिर आर्थिक हालात साथ दें या न दें.’

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जानिए ब्लाइंड क्रिकेट के बारे में

टीम संयोजन

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ब्लाइंड क्रिकेट में खिलाड़ियों की तीन श्रेणियां होती हैं;

  • बी1 – वे खिलाड़ी जो बिल्कुल नहीं देख सकते.
  • बी2 – वे खिलाड़ी जो 3 मीटर तक देख सकते हैं.
  • बी3 – वे खिलाड़ी जो 6 मीटर तक देख सकते हैं.

ऐसा नियम है कि 11 खिलाड़ियों की एक टीम में कम से कम 4 बी 1 श्रेणी के खिलाड़ी अनिवार्य हैं, 3 खिलाड़ी बी2 श्रेणी से होने चाहिए और बी3 श्रेणी के अधिकतम 4 खिलाड़ी हो सकते हैं.

खेल के नियम

  • खिलाड़ियों की  पहचान उनकी दाहिनी कलाई पर पहने गए बैंड से की जाती है. ‘बी1’ श्रेणी के खिलाड़ी मैदान पर सफेद रिस्ट बैंड पहनकर उतरते हैं, वहीं बी2 लाल और बी3 नीला. साथ ही बी1 खिलाड़ी काला चश्मा पहनकर उतरते हैं जो पूरी तरह से अपारदर्शी होता है. नियमानुसार इसे अंपायर की अनुमति के बगैर छुआ भी नहीं जा सकता.
  • ब्लाइंड क्रिकेट में बारहवें खिलाड़ी के तौर पर हर श्रेणी का एक खिलाड़ी रखा जाता है. मतलब तीन खिलाड़ी बारहवें खिलाड़ी के तौर पर खेलते हैं. कुछ इस तरह समझिए कि अगर कोई बी3 श्रेणी का खिलाड़ी मैदान के बाहर जाता है या बी1 श्रेणी का मैदान के बाहर जाता है तो समान श्रेणी का खिलाड़ी मैदान में उसकी जगह लेता है.
  • खेल में दो अंपायर और एक मैच रेफरी का प्रावधान है.
  • बी1 खिलाड़ी को बल्लेबाजी के दौरान रनर उपलब्ध कराया जाता है जबकि बी2 खिलाड़ी के पास विकल्प होता है कि वह चाहे तो रनर ले ले. लेकिन जो खिलाड़ी एक बार रनर ले लेता है तो वह किसी और के लिए रनर नहीं बन सकता.
  • रनर के नाम अंपायर को मैच शुरू होने से पहले देने होते हैं.
  • बी1 बल्लेबाज द्वारा बनाए गए हर रन को 2 रन के बराबर गिना जाता है.
  • क्षेत्ररक्षण के दौरान बी1 द्वारा एक बाउंस पर पकड़ी गई गेंद को कैच माना जाता है और बल्लेबाज आउट हो जाता है.
  • बॉलिंग अंडरआर्म की जाती है.
  • गेंद का बल्लेबाज तक पहुंचने से पहले पिच के बीच एक बाउंस लेना अनिवार्य है, अगर ऐसा नहीं होता तो वह नो बॉल मानी जाती है.
  • गेंद करने से पहले गेंदबाज बल्लेबाज से पूछता है ‘रेडी’, जब बल्लेबाज कहता है ‘यस’ तब वह ‘प्ले’ कहकर गेंद बल्लेबाज की ओर फेंक देता है.
  • गेंदबाजी के दौरान गेंदबाज को नॉन-स्ट्राइकर एंड का स्टंप छूने की इजाजत होती है ताकि वह अंदाजा लगा सके कि उसी लाइन में दूसरे स्टंप पर गेंदबाजी करनी है.
  • गेंद कठोर प्लास्टिक की बनी होती है जिसके अंदर छर्रे भरे होते हैं जिससे गेंद आवाज करती है. उसी आवाज के सहारे कानों से यह खेल खेला जाता है.
  • स्टंप के ऊपर गिल्लियां नहीं होतीं. जबकि स्टंप धातु के बनाए जाते हैं ताकि गेंद टकराने पर वे भी आवाज करें.
  • विकेटकीपर बी2 या बी3 श्रेणी का होता है. विकेटकीपर का सबसे अहम रोल होता है. गेंदबाजी के पहले वह बी1 खिलाड़ी को ताली देकर बताता है कि उसे किस लाइन में गेंदबाजी करनी है. वहीं बल्लेबाज द्वारा शॉट खेले जाने पर विकेटकीपर क्षेत्ररक्षण कर रहे खिलाड़ियों को बताता है कि शॉट किस दिशा में खेला गया है. उसके बाद खिलाड़ी गेंद की आवाज के सहारे उसे पकड़ लेते हैं.
  • पिच 22 यार्ड लंबी और 3 यार्ड चौड़ी ही होती है.
  • बाउंड्री विकेट से कम से कम 45 यार्ड और अधिकतम 50 यार्ड की होती है.
  • कुल ओवरों का 40 प्रतिशत बी1 गेंदबाजों से कराया जाना अनिवार्य होता है.
  • बाकी सभी वही नियम लागू होते हैं जो क्रिकेट के लिए एमसीसी द्वारा बनाए गए हैं.[/symple_box]

वर्ल्ड ब्लाइंड क्रिकेट काउंसिल, जिसका गठन 1996 में भारत में ही हुआ था, वह भी इतना आर्थिक सक्षम नहीं कि अपने सदस्य देशों की आर्थिक मदद कर सके. सच तो यह है कि जो भी देश मेजबानी करता है वही विजेता को दी जाने वाली इनामी राशि का इंतजाम भी करता है. भारत में ब्लाइंड क्रिकेट के ये हालात हाल ही में पैदा हुए हों ऐसा भी नहीं है. इसके ढाई दशक पुराने इतिहास पर गौर करें तो यह शुरू से ही उपेक्षा का शिकार रहा है. 90 के दशक के शुरुआती सालों में देश में यह खेल चलन में आया. 1990 में पहला नेशनल ब्लाइंड टूर्नामेंट खेला गया. 1998 में भारतीय टीम ने पहला अंतरराष्ट्रीय मैच खेला. उस समय देश में ब्लाइंड क्रिकेट को संभालने वाली संस्था दिल्ली स्थित एसोसिएशन फॉर क्रिकेट फॉर द ब्लाइंड इन इंडिया (एसीबीआई) हुआ करती थी. कहीं से कोई आर्थिक मदद न मिलने के कारण 2008 आते-आते ब्लाइंड किक्रेट अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने लगा.

समर्थनम ट्रस्ट के फाउंडर मैनेजिंग ट्रस्टी और कैबी के सचिव महांतेश जी. बताते हैं, ‘तब ब्लाइंड क्रिकेट मृतावस्था में था. इंग्लैंड से भारतीय टीम को खेलने बुलावा आया था पर एसीबीआई की हालत ऐसी नहीं थी कि वह टीम भेज सके. उस समय हमारे पास देश के दक्षिणी राज्यों के ब्लाइंड क्रिकेट की बागडोर थी. उन्होंने देश भर में ब्लाइंड क्रिकेट को पुनर्जीवित करने की जिम्मेदारी भी हमें सौंप दी. हमने टीम भेजी और 2010 में कैबी का गठन किया. हम तभी से प्रयासरत हैं कि ब्लाइंड क्रिकेट को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिला सकें और खिलाड़ियों के लिए जरूरी संसाधन जुटाकर उन्हें खेलने का माहौल प्रदान कर सकें. फंड की समस्या तो अभी भी है. समर्थनम पैरेंट बॉडी है, जब तक कैबी आत्मनिर्भर नहीं होता है, तब तक समर्थनम सहायता कर रहा है और टूर्नामेंट प्रायोजित कर रहा है. पिछली बार जब दक्षिण अफ्रीका गए तब जरूर सरकारी मदद मिल गई थी वरना बहुत दिक्कत होती. लेकिन यह मदद स्थायी नहीं है. अभी बहुत सहयोग चाहिए. विशेषकर खिलाड़ियों के लिए आर्थिक सहयोग. वे बहुत ही विपरीत परिस्थितियों में खेलते हैं.’

ऐसी ही एक कहानी वेंकटेश की भी है जिन्होंने अपने क्रिकेट के जुनून के चलते पढ़ाई को कुर्बान कर दिया और आज महज पांच हजार रुपये मासिक तनख्वाह पर ठेका कर्मचारी के तौर पर काम कर रहे हैं. इंटर के बाद उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए एक प्रवेश परीक्षा देनी थी लेकिन परीक्षा और राष्ट्रीय टीम में चयन की तारीख एक ही दिन पड़ गई. ऐसे में उन्होंने क्रिकेट को चुना. बाद में उनके पिता की तबीयत बिगड़ गई और परिवार बिखर गया. फिर वे आगे की पढ़ाई के बारे में सोच भी नहीं सके और घर-परिवार की जिम्मेदारी उठाने में लग गए. पांच हजार रुपये की मामूली तनख्वाह में वे अपना घर चलाते है और जब क्रिकेट खेलने जाते हैं तो इस तनख्वाह से भी हाथ धोना पड़ता है.

पिछले दिनों कैबी को एक चंदा जुटाने वाली वेबसाइट पर विश्वकप की तैयारियों के लिए चंदा मांगते देखा गया. कैबी ने देश भर में चयन प्रक्रिया चलाने, खिलाड़ियों की यूनिफॉर्म, किट आदि के लिए पचास लाख रुपये चंदे की मांग की. लेकिन बस ढाई लाख रुपये का चंदा इकट्ठा हो सका

टीम के कप्तान अजय बताते हैं, ‘टीम का लगभग हर खिलाड़ी ऐसे ही बुरे हालात में है. केतन और गणेश दिहाड़ी पर काम करते हैं. रोज कमाते हैं तब घर चलता है. एक दिन न कमाएं तो पेट भरना भी मुश्किल हो जाता है. पर क्रिकेट खेलने के लिए वे एक महीना घर छोड़कर आते हैं, वो भी पैसा उधार लेकर. हमारा खेल कानों से खेला जाता है, इसलिए मानसिक एकाग्रता की बहुत जरूरत होती है. लेकिन हर वक्त दिमाग में यही रहता है कि घर पर लोग कैसे होंगे. खाना भी खा रहे होंगे या नहीं? बस जब मैदान में उतरते हैं तो यह सोचकर कि बाहर का बिल्कुल न सोचें, बाहर का सोचा तो खेल नहीं पाएंगे. मैच के बाद शाम को जब खाली समय मिलता है तब परिवार का हाल जानते हैं. बहुत मानसिक दबाव होता है हम पर जो हमारा ध्यान खेल से भटकाता है. लेकिन तब भी हम जब मैदान पर उतरते हैं तो ट्राफी लेकर ही आते हैं.’ वे पूछते हैं, ‘सामान्य क्रिकेटरों को इतना पैसा क्यों दिया जाता है? सिर्फ इसलिए कि वे चिंतामुक्त होकर पूरी एकाग्रता से खेल सकें. वो हम जैसे हालात का सामना नहीं करते. हमें ज्यादा नहीं बस खेल कोटे से एक नौकरी दे दी जाए और एक घर तो हम पूरा ध्यान खेल पर लगाकर और भी अच्छा कर सकेंगे और ये सरकार की जिम्मेदारी है कि वह खेलों को आगे बढ़ाए.’

इस सबके बीच केंद्र में नई सरकार का गठन ब्लाइंड क्रिकेट के लिए उम्मीद की एक नई किरण लेकर आया. टीम जब विश्वकप खेलने दक्षिण अफ्रीका जा रही थी तो भारत सरकार के सामाजिक न्याय मंत्रालय द्वारा कैबी को 25 लाख रुपये की सहायता राशि स्वीकृत की गई. साथ ही टीम के विजेता बनकर वापस लौटने पर देश के प्रधानमंत्री ने टीम के साथ मुलाकात की और भारत सरकार के खेल मंत्रालय व सामाजिक न्याय मंत्रालय की ओर से विजेता टीम के हर खिलाड़ी को सात लाख रुपये की इनामी राशि दी गई. हालांकि यह राशि भी ब्लाइंड क्रिकेट की तस्वीर बदलने के लिए काफी नहीं है. महांतेश के अनुसार कैबी कम से कम भी खर्च करता है तो उसका साल भर का बजट डेढ़ से दो करोड़ रुपये बैठता है. इसमें भी खिलाड़ियों की फीस शामिल नहीं है. वहीं एक अन्य समस्या यह भी है कि सरकार से प्राप्त सहायता राशि न तो स्थायी है और न तुरंत मिलती है.

डेविड बताते हैं, ‘पहले हमें प्रस्ताव मंत्रालय भेजना पड़ता है. वहां से स्वीकृति मिलने के बाद यह राशि हमें केंद्रीय बजट के बाद मिलती है. तब तक हमें यहां-वहां से फंड जुटाकर या उधार लेकर काम चलाना पड़ता है.’ एक वाकया बताते हुए वे कहते हैं, ‘हमने नवंबर 2014 में विश्वकप में शामिल होने के लिए सहायता राशि का प्रस्ताव बनाकर सामाजिक न्याय मंत्रालय को भेजा था. 70 लाख का प्रस्ताव था, पर स्वीकृत 25 लाख रुपये हुए. पर यह पैसा तत्काल नहीं मिला. इसलिए टीम जब दक्षिण अफ्रीका जा रही थी तब हमारे पास एजेंट से अपने टिकट और पासपोर्ट लेने तक के पैसे नहीं थे. तब हमने और कुछ दोस्तों ने अपने-अपने क्रेडिट कार्डों से भुगतान किया और अफ्रीका पहुंचे. जून में हमें मंत्रालय से स्वीकृत सहायता राशि प्राप्त हुई. अगर हमें सरकार से मान्यता मिल जाए तो हमारे लिए बजट में एक स्थायी प्रावधान हो जाएगा. हमें इस तरह भटकना नहीं पड़ेगा और समय पर पैसा मिलता रहेगा.’ इन्हीं सब कारणों के चलते पिछले दिनों कैबी को एक चंदा जुटाने वाली वेबसाइट पर इसी साल दिसंबर में भारत में प्रस्तावित टी-20 विश्वकप की तैयारियों के लिए चंदा मांगते देखा गया. लगभग चार महीने चले इस अभियान में कैबी ने देश की जनता से खिलाड़ियों की यूनिफॉर्म, किट, यात्रा, क्रिकेट कैंप लगाने और देश भर में चयन प्रक्रिया चलाने के लिए 50,40,000 रुपये चंदे की मांग की थी. लेकिन बस 2,51,717 रुपये का चंदा जमा हो सका.

हालांकि 2014 की विश्वकप जीत के बाद ब्लाइंड क्रिकेट टीम को मिली प्रसिद्धी से परिस्थितियां थोड़ी सुधरी हैं लेकिन बदली नहीं हैं. सरकार से मिली सात लाख रुपये इनामी राशि से कई खिलाड़ियों को काफी मदद मिली है. वहीं डेविड बताते हैं, ‘इनामी राशि पाने वाले ऐसे कई खिलाड़ी हैं जिनके पास खाने के लिए तो दूर चाय पीने तक के पैसे नहीं थे. कई आंशिक अंधे थे और मजदूरी करते थे. ऐसे ही एक खिलाड़ी फरहान को केरल सरकार ने नौकरी और घर दिया है. जब फरहान को इनामी राशि मिली, उस समय उनकी बहन की शादी नजदीक थी और उनके पास शादी कराने तक के पैसे नहीं थे. लेकिन उनके लिए दोहरी खुशी की बात यह रही कि पूरे समुदाय ने तब उनकी मदद की और वे बहन की शादी धूमधाम से  करा सके. वहीं कर्नाटक सरकार ने अपने राज्य के हर खिलाड़ी को दस लाख रुपये दिए हैं. झारखंड सरकार ने भी हाल ही में गोलू कुमार को एक लाख रुपये की राशि दी है और भविष्य में खेल कोटे के तहत नौकरी देने का आश्वासन दिया है. वह अभी इंटर का छात्र है. इससे पता चल रहा है कि ब्लाइंड क्रिकेट को भी पहचान मिल रही है.’

वेंकटेश ने क्रिकेट के जुनून के चलते पढ़ाई कुर्बान कर दी. पढ़ाई के लिए एक प्रवेश परीक्षा देनी थी लेकिन परीक्षा और राष्ट्रीय टीम में चयन की तारीख एक ही दिन पड़ गई. ऐसे में उन्होंने क्रिकेट को चुना. बाद में उनके पिता की तबीयत बिगड़ गई और वे आगे की पढ़ाई के बारे में सोच भी नहीं सके 

दूसरी ओर विभिन्न राज्य क्रिकेट एसोसिएशनों से भी कैबी को थोड़ी-बहुत सहायता मिलने लगी है. कैबी के अनुसार कर्नाटक क्रिकेट एसोसिएशन  ने खेलने के लिए स्टेडियम दे दिया. केरल क्रिकेट एसोसिएशन ने भी मैदान एक हफ्ते के लिए दे दिया था, जिसका कोई शुल्क भी नहीं लिया. उस मैदान का एक दिन का किराया पांच लाख रुपये है. कोलकाता बोर्ड से भी हमें मदद मिली. वहीं आंध्र प्रदेश क्रिकेट बोर्ड ने टीम के इंग्लैंड दौरे का हवाई किराया दिया. ओडिशा क्रिकेट एसोसिएशन ने भी स्टेडियम दिया.

अगर दूसरे देशों की बात करें तो वहां ब्लाइंड क्रिकेट को उनके देश के मुख्य क्रिकेट बोर्ड से पूरा समर्थन मिलता है. पर भारत में बीसीसीआई से कैबी को किसी भी प्रकार की कोई सहायता नहीं मिलती. इस पर महांतेश कहते हैं, ‘2012 में विश्वकप जीतने के बाद हमारी मुलाकात तत्कालीन बोर्ड अध्यक्ष एन. श्रीनिवासन से हुई थी. तब उन्होंने हमें मान्यता देने का आश्वासन दिया था. इसके बाद 2014 विश्वकप के बाद अनुराग ठाकुर भी हमसे मिले, उन्होंने हमारी उपलब्धियां जानीं और हमारी मदद करने का यकीन दिलाया. जब वे बीसीसीआई में सचिव के पद पर थे तब उन्होंने बोर्ड की वर्किंग कमेटी में भी यह मुद्दा उठाया था, पर तत्कालीन बोर्ड अध्यक्ष जगमोहन डालमिया ने इसे बेतुका बताकर खारिज कर दिया. आज अनुराग ठाकुर अध्यक्ष हैं तो हमें पूरी उम्मीद है कि वे हमारे लिए कुछ करेंगे.’ समर्थनम के जनसंपर्क अधिकारी सतीश के. कहते हैं, ‘हमें बीसीसीआई से कोई बड़ी रकम नहीं चाहिए. हमारा गुजारा तो उतने पैसों में ही हो जाएगा जितना कि शायद आईपीएल की एक पार्टी में खर्च हो जाता है या फिर बोर्ड की एक एजीएम में.’ डेविड कहते हैं, ‘जैसे राज्य क्रिकेट एसोसिएशन हमारी मदद कर रहे हैं वैसे ही मान्यता न मिलने तक अगर कोई छोटी-मोटी मदद बोर्ड से मिल जाए तो काफी राहत मिले. पर बोर्ड अधिकारियों का कहना है कि उन्हें हमें दस करोड़ की राशि देने में भी कोई आपत्ति नहीं है, पर वे बोर्ड के संविधान और नियमावली से बंधे हुए हैं.’

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महांतेश कहते हैं, ‘अगर हमें बोर्ड का लोगो मिलता है तो हमारी बहुत-सी समस्याएं हल हो सकती हैं. सालाना अनुदान मिलने के साथ-साथ खेलने के लिए हमें मैदान उपलब्ध होंगे तो वहीं बीसीसीआई का नाम हमें स्पाॅन्सरशिप दिलाने में भी मदद करेगा. इस तरह हम आत्मनिर्भर बन सकेंगे. अपने खिलाड़ियों को भी आर्थिक मदद दे सकेंगे. आज स्पाॅन्सरशिप के लिए जाते हैं तो पहले यही पूछा जाता है कि बीसीसीआई से क्या आपको मान्यता प्राप्त है.’ वहीं सरकारी रुख पर उनका कहना है, ‘खेल मंत्री सर्वानंद सोनोवाल का रवैया हमेशा हमारे प्रति सहयोगात्मक रहा, वरना पिछली सरकार के खेल मंत्री अजय माकन ने तो कभी हमसे मिलने तक का समय नहीं निकाला था. सारी गड़बड़ी नौकरशाही के स्तर पर है. लालफीताशाही के चलते हमारी फाइल ही आगे नहीं बढ़ाई जाती. बार-बार नई शर्तें जोड़कर हमें चक्कर कटवाए जाते हैं. कभी हमसे कहा जाता है कि हम सबडिसेबल पैरास्पोर्ट से जुड़कर आएं तो कभी कहा जाता है कि क्रिकेट पैरास्पोर्ट का हिस्सा नहीं है.’

कैबी के पदाधिकारियों के अनुसार जरूर बीसीसीआई और वर्तमान सरकार का रुख अब तक ब्लाइंड क्रिकेट को लेकर सकारात्मक रहा हो लेकिन देखा जाए तो बावजूद इसके अब तक परिणाम नहीं आए हैं. सोचने वाली बात यह है कि जो बीसीसीआई अपने संविधान को अपनी सहूलियत के अनुसार वक्त-बेवक्त बदलता रहा है, उसके पदाधिकारी ब्लाइंड क्रिकेट की मदद करने में संविधान की दुहाई दे रहे हैं. वहीं विश्वविजेता टीम के साथ फोटो खिंचाने वाले और ‘मन की बात’ में ब्लाइंड क्रिकेटरों के कसीदे पढ़ने वाले देश के प्रधानमंत्री, जो अक्सर सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं, उनके कानों में इस बात का न पहुंचना कि विश्वविजेता टीम को अगला विश्वकप खेलने के लिए चंदा इकट्ठा करना पड़ रहा है, आश्चर्यचकित करता है. जफर कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री ने हमें बुलाया, हमसे मिले, ‘मन की बात’ में हमारा जिक्र किया, अच्छा तो लगा. लेकिन इतने से या सात लाख रुपये देने से सारा मसला हल नहीं होता. मुझे सात लाख दे दिए पर मैं हमेशा तो टीम में नहीं खेलता रहूंगा न. जब तक प्रदर्शन कर रहा हूं टीम में हूं. पर जो आने वाली पीढ़ी है वो कैसे आएगी? उसे तो कोई सुविधा ही नहीं है. वे हर दिन खेलने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. हमारी तरह उन्हें तब कुछ मिलेगा जब टीम में जाएंगे. लेकिन जाएंगे कैसे! उनके पास तो जाने के लिए न कोई सुविधा है और न संसाधन. इस बारे में प्रधानमंत्री को सोचना चाहिए.’

‘हम बिन पैसों के देश का झंडा ऊंचा रखने के लिए खेल रहे हैं. देश के लिए इतना कर रहे हैं लेकिन देश हमारे लिए कुछ नहीं कर रहा. फिर यह सोचकर कि जी तो देश में ही रहे हैं इसलिए अपनी इस कमी के बावजूद देश के लिए कुछ करना हमारा दायित्व बनता है’

बहरहाल कानों से खेले जाने वाले इस खेल  और देश के प्रति खिलाड़ियों का समर्पण देखते बनता है. यही कारण है कि जफर कहते हैं, ‘अगर पैसों के लिए खेलते तो इसे कब का छोड़ चुके होते. कोई हमें सामान्य क्रिकेटरों से भले ही कमतर आंके पर हम स्वयं को परफेक्ट मानते हैं और सोचते हैं कि हम भी देश के लिए खेलकर उसे गर्व का मौका दे सकते हैं. हमारे लिए सबसे बड़ी बात है कि हम भारत के लिए खेलते हैं. बस यह बात सालती है कि जब हम जीतकर आते हैं तो आप कहते हैं भारत जीता ये नहीं कहते कि जफर या अजय जीत गया. फिर भी हम वंचित क्यों हैं?’ वे आगे कहते हैं, ‘हमारी सबसे बड़ी ख्वाहिश यही है कि अगर सरकार और बीसीसीआई मदद दे तो हम पेशेवर के तौर पर खेल सकें. ज्यादा नहीं तो अगर खिलाड़ियों को एक सम्मानजनक नौकरी ही दे दी जाए या जो नौकरी कर रहे हैं उनकी नौकरी खेल कोटे में ले ली जाए तो हमें प्रैक्टिस के लिए मौका मिल जाएगा और खेलने के लिए छुट्टी का मसला नहीं रहेगा. वहीं इनामी राशि तो कभी भी खत्म हो सकती है.’ अजय कहते हैं, ‘कभी-कभी मन में ख्याल आता है कि हम बिन पैसों के देश का झंडा बुलंद रखने के लिए खेल रहे हैं, देश के लिए इतना कर रहे हैं लेकिन देश हमारे लिए कुछ नहीं कर रहा. फिर यह सोचकर कि जी तो देश में ही रहे हैं इसलिए अपनी इस कमी के बावजूद देश के लिए कुछ करना हमारा दायित्व बनता है. हम आस लगाते हैं कि देश हमारी प्रतिभा को पहचाने पर ऐसा होता नहीं है. हां, मीडिया ने हमें थोड़ी-बहुत पहचान जरूर दिलाई है लेकिन अब भगवान भरोसे हैं कि बोर्ड या सरकार कोई सुन ले. लेकिन अगर ऐसा नहीं होता तब भी हम इसी जुनून के साथ खेलते रहेंगे.’

इस बीच देश में ब्लाइंड क्रिकेट के लिए उम्मीद की किरण यह भी हो सकती है कि जस्टिस लोढ़ा समिति द्वारा बीसीसीआई में सुधार के लिए दिए गए सुझावों पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. इनमें एक सुझाव यह भी है कि बीसीसीआई देश में चल रहे हर प्रकार के क्रिकेट को समर्थन प्रदान करे. अगर सुप्रीम कोर्ट बीसीसीआई को सुझावों को मानने के लिए आदेश देता है तो ब्लाइंड क्रिकेट को स्वत: बीसीसीआई का साथ मिल जाएगा. बहरहाल ऊंट किस करवट बैठता है, यह तो भविष्य ही निर्धारित करेगा.