शायद वो पुलिसवाला पैसे के लालच में भूल चुका था कि समाज में उसकी भूमिका और जिम्मेदारी क्या है…

इलस्ट्रेशनः तहलका अार्काइव
इलस्ट्रेशनः तहलका अार्काइव
इलस्ट्रेशनः तहलका अार्काइव

बीते जून महीने में रामपुर अपने घर जाने का प्रोग्राम बना था. मैंने पुरानी दिल्ली से रामपुर के लिए रानीखेत एक्सप्रेस में रिजर्वेशन करवाया था. ट्रेन के आने का समय रात में तकरीबन 9:30 बजे था और डिपार्चर 10:30 बजे. जब मैं स्टेशन पहुंचा तो 10 बज रहे थे. स्टेशन पर ट्रेन पहले से खड़ी थी. मैं अपनी बोगी में घुसा. बोगी लगभग खाली थी लेकिन जहां मेरा रिजर्वेशन था वो थोड़ी भरी हुई थी. उसमें कुछ महिलाओं और बच्चों की सीटें थीं. असहजता और शोर-शराबे से बचने के लिए मैंने सोचा कि कहीं और बैठते हैं. कोई आएगा और अगर उसे कोई ऐतराज नहीं होगा तो अपनी सीट पर भेज दूंगा. इसके बाद मैंने एक खाली साइड लोअर की सीट अपने लिए चुन ली. अपना सामान सीट के नीचे जमा लेने के बाद मैं सीट पर लेट गया था.

कुछ समय बाद ट्रेन चल दी. सफर का पूरा एक घंटा बीतने के बाद भी उस सीट पर कोई नहीं आया था. रात का सफर वैसे भी रोमांचक होता है. कानों में संगीत की धुन (ईयरफोन से), घना अंधेरा और खामोशी की एक चादर जैसे ट्रेन के दोनों ओर बिछा दी गई हो. खिड़की से आती ठंडी हवा और मिट्टी की खुशबू माहौल को और प्यारा बना रही थी. दिमाग में विचारों के घोड़े बेलगाम दौड़ रहे थे. एक बार मन हुआ कि अपनी नोटबुक निकालकर कुछ लिखना शुरू करता हूं. लेकिन ऐसे समय में कुछ लिखना अच्छा विकल्प नहीं लगा. पूरे माहौल को मैं सिर्फ जीना चाहता था.

बाहर के साथ-साथ अब ट्रेन के अंदर का वातावरण भी शांत हो चुका था रात के दो बजे थे. ट्रेन की लाइटें बंद थीं और लगभग सभी लोग लगभग सो चुके थे. नींद तो दूर-दूर तक नहीं थी. इसका एक कारण यह था कि यह स्वाभाविक रूप से मेरे सोने का समय भी नहीं था. फिर सोचा क्यों न कोई फिल्म ही देख ली जाए. अभी मुश्किल से कोई एक घंटे की फिल्म देखी होगी कि लगा जैसे कोई मेरे सिर के ऊपर कोई खड़ा है. मैंने जब ऊपर देखा तो वह एक पुलिसवाला था. शायद वह मुझसे कुछ पूछ रहा था. कानों में ईयरफोन लगा होने के कारण मुझे उसकी आवाज नहीं आ रही थी. पहले मुझे लगा कि उसे सीट की जरूरत है. इसलिए ईयरफोन हटाने के साथ ही मैंने उनसे कहा कि अगर आपको सीट की जरूरत है तो मेरी ओर से आरक्षित कराई सीट का इस्तेमाल कर सकते हैं. लेकिन यहां मामला दूसरा था. दरअसल वो पुलिसवाला मुझसे यह जानना चाह रहा था कि कहीं मेरे पास साधारण टिकट तो नहीं.

‘मैं तलाश रहा हूं, अगर उस पुलिसवाले ने किसी को पैसे लेकर सीट दिलाई होगी तो साहब से मैं भी उसकी शिकायत करूंगा’

मैंने उस सीट पर बैठने का कारण बताकर अपना टिकट दिखा दिया. इसके बाद अपनी ‘व्यथा-कथा’ सुनाने की बारी उनकी थी. वे बोले, ‘मेरी इस ट्रेन में ड्यूटी लगी है. कल मैंने पैसे लेकर एक पैसेंजर को सीट दिला दी थी जिसकी खबर मेरे साथी पुलिसवाले को लग गई थी. मैंने उसे पैसे नहीं दिए इस वजह से उसने मेरी शिकायत बड़े साहब से कर दी थी.’ अपनी व्यथा-कथा सुनाने के बाद उन्होंने अपने उस साथी पुलिसवाले को दो-चार गालियों से नवाजा. मुझे उनकी बातें अजीब लग रही थीं और हास्यास्पद भी कि ये सब बातें मुझे क्यों बताई जा रही हैं.

वे अपना दुखड़ा सुनाने में लगे हुए थे.  मैंने इसके बावजूद उनसे बैठने को नहीं कहा. इसकी वजह यह थी कि उन्होंने शराब पी रखी थी. इसके अलावा मैंने यह भी सुन रखा था कि पुलिसवालों की न दोस्ती अच्छी होती है न दुश्मनी. मैंने पूछा, ‘आप मुझसे टिकट के बारे में क्यों पूछ रहे थे?’ तो वे बोले, ‘आज मैं तलाश कर रहा हूं, अगर उस पुलिसवाले ने किसी को पैसे लेकर सीट दिलाई होगी तो साहब से मैं भी शिकायत करूंगा. जो जैसा करे उसके साथ वैसे ही करना चाहिए.’

अब मुझे फिल्म से ज्यादा मजा उनकी बातों में आने लगा था. मैंने कहा, ‘ठीक है, आप आगे देख लो किस्मत अच्छी हुई तो शायद कोई मिल जाए.’ फिर वे आगे बढ़ गए और बहुत-से सवाल पीछे छोड़ गए. मैं बहुत देर तक यही सोचता रहा कि जिस कानून व्यवस्था से हम खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं वह खुद कितनी असुरक्षित है. शायद वह पुलिसवाला पैसे के लालच और शराब के नशे में भूल चुका था कि आखिर समाज में उसकी भूमिका और जिम्मेदारी क्या है. 

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)