आज के समय में बैंडिट क्वीन बन ही नहीं पाती : गोविंद नामदेव

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फिल्म  ‘सोलर एक्लिप्स’  से आपने भी हॉलीवुड की ओर कदम बढ़ा दिया है. इन दिनों हॉलीवुड जाने की होड़ मची हुई है. एक भारतीय कलाकार के लिए हॉलीवुड की फिल्म करना बड़ी बात क्यों है?

ये बिल्कुल वैसे है जैसे कोई छोटे शहर से बड़े शहर जाना चाहता है. हॉलीवुड फिल्म निर्माण का मक्का है. हिंदुस्तान में बहुत अच्छी-अच्छी फिल्में बन रही हैं, लेकिन हॉलीवुड वालों ने जिस तरह का काम अपने अतीत में किया है और अभी कर रहे हैं उन्होंने साबित किया है कि वे और लोगों से बहुत बेहतर हैं. सो हर एक की इच्छा होती है चाहे वो एक्टर हो, डायरेक्टर हो, टेक्निशियन हो कि वहां जाकर काम करे और उनका काम पूरी दुनिया देखे. उसी के तहत मैंने हॉलीवुड की फिल्म ‘सोलर एक्लिप्स’ चुनी. 

इस फिल्म की क्या कहानी है? आपने ये फिल्म क्यों चुनी?

फिल्म ‘सोलर एक्लिप्स’ हॉलीवुड और बॉलीवुड दोनों का प्रोजेक्ट है. पंकज सहगल भारतीय हैं, दुबई की एक कंपनी इसकी प्रोड्यूसर है और शूटिंग श्रीलंका में हुई है. तकरीबन 70 प्रतिशत एक्टर और टेक्निशियन हॉलीवुड से और 30 प्रतिशत भारतीय हैं. ये फिल्म उस कालखंड की कहानी है जब गांधी जी की हत्या करने की कोशिश की जा रही थी और 1948 में उनकी हत्या कर दी गई थी. महाराष्ट्र उस समय बॉम्बे स्टेट था और वहां साजिश रची गई. मोरारजी देसाई जो उस समय वहां के गृहमंत्री थे उनका किरदार मैं निभा रहा हूं. चूंकि यह एक हॉलीवुड प्रोजेक्ट था और दूसरा मोरारजी देसाई का ऐतिहासिक किरदार था इसलिए मुझे ये फिल्म करनी ही थी.

गांधी, रामानुजन, बाल गंगाधर तिलक पर फिल्में भी हॉलीवुड की ओर से आ रही हैं. आपको नहीं लगता कि हमारे ऐतिहासिक नायकों पर बॉलीवुड से ज्यादा हॉलीवुड में काम हो रहा है. इसकी क्या वजह देखते हैं?

जैसा मैंने बताया कि हॉलीवुड में जो भी विषय चुना जाता है, वह बहुत ही रिसर्च के बाद दर्शकों के सामने रखा जाता है. उनकी तैयारी बहुत बड़े स्तर पर होती है. कहानी, किरदार, सीन, उसका प्रभाव आदि पर खूब चर्चा और शोध किया जाता है. इसमें कभी-कभी कई सालों का वक्त लग जाता है. उनका टेबल वर्क बहुत अच्छा होता है. उसके बाद वे फिल्म बनाना शुरू करते हैं. इस दौरान भी वे बहुत ही पेशेवर तरीके से काम करते हैं. ऐसे माहौल में काम करने का एक अलग मजा होता है. ऐसे में एक कलाकार जिम्मेदारी महसूस करने लगता है और पूरा फोकस उसका काम पर होता है. बॉलीवुड में भी ये हो रहा है. अभी संजय लीला भंसाली ने फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ बनाई जो विश्व स्तर की है. इस तरह के प्रयास बॉलीवुड में होने शुरू हो गए हैं. लोगों का ध्यान इस ओर गया है. अब ऐसे विषयों और किरदारों को खंगाला जा रहा है. मैंने एक नाटक लिखा था, ‘मधुकर शाह बुंदेला’. मुझसे उनके बारे में पूछा गया. माना जाता है कि पहला गदर 1857 में हुआ लेकिन उससे पहले 1842 में एक विद्रोह हमारे बुंदेलखंड में सागर के आसपास हुआ था. अंग्रेजों के खिलाफ पूरा ठाकुर समुदाय खड़ा हो गया था. एक बड़ा विद्रोह हुआ. इसके नायक मधुकर शाह बुंदेला थे. इस विद्रोह को उन लोगों ने बुरी तरह से दबा दिया और दूसरों को इसकी कानोंकान खबर भी नहीं हुई. मधुकर शाह को सागर जेल में ही फांसी दे दी गई थी. पूछा गया मुझसे कि क्या इस पर फिल्म बन सकती है. ये आपके ही सवाल का जवाब है कि बॉलीवुड में भी लोग ऐसे विषयों, कहानियों और किरदारों में रुचि लेने लगे हैं. हर एक का अपना स्तर है काम करने और फिल्म बनाने का.

अब हीरो के ऊपर वैसा दबाव नहीं होता कि वो खलनायक बनेगा तो उसकी छवि खराब हो जाएगी. अभी अक्षय कुमार ‘रोबोट 2’ में खलनायक बनकर आ रहे हैं. तो समय बदल गया है. उनके पास अपनी प्रोडक्शन कंपनी है तो वे जैसे चाहें चीजों को घुमा सकते हैं

फिल्मों में निभाए गए नकारात्मक चरित्रों में आप ज्यादातर भ्रष्ट नेता या फिर पुलिसकर्मी के किरदार में नजर आते हैं, कोई  खास वजह?

नहीं-नहीं, ऐसा नहीं है. फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ में मैं डकैत बना हूं. उसके बाद फिल्म ‘प्रेमग्रंथ’ का खलनायक अलग तरह का है. फिर ‘विरासत’ आई, फिर ‘सरफरोश’, ‘सत्या’, ‘गॉडमदर’, ‘लावारिस’ आईं. ये सभी किरदार अलग तरह के हैं. आज समाज में खलनायक कौन है? या तो राजनेता हैं या फिर पुलिस. अब खलनायक राजनेता है तो मैं राजनेता का रोल करूंगा ही, खाकीवाले हैं तो पुलिसवाला बनूंगा ही.

भारतीय सिनेमा सौ साल का हो चुका है. क्या आपको लगता कि समय के साथ सिनेमा में परिपक्वता आई है?

फिल्म निर्माण में बहुत सारा पैसा लगता है. कोई अच्छा विषय ले आता है तो फिल्म से जुड़े कई लोग यही सलाह देते हैं कि इसमें गाने डाल दो, ग्लैमर डाल दो. इस वजह से वो पूरा विषय ही मर जाता है. हॉलीवुड की तरह बॉलीवुड अभी परिपक्व नहीं हुआ है. हॉलीवुड में जितना पैसा लोगों के पास है उतना यहां नहीं है. यहां पर अभी कुछ ही लोग ऐसे हैं जिनका उद्देश्य है कि उन्हें अर्थपूर्ण फिल्में ही बनानी हैं. लोगों के सामने कुछ अच्छे मुद्दे लाने हैं. हालांकि इसकी भी अपनी सीमाएं हैं. मुझे लगता है कि अभी दस फीसदी ऐसे हैं जो अपने रिस्क पर फिल्मों का निर्माण करते हैं ताकि लोगों में गंभीर सामाजिक मुद्दों के प्रति जागरूकता फैलाई जा सके. अब जैसे प्रकाश झा हैं, वे मुद्दा आधारित फिल्में बनाते हैं. उनके पहले महेश भट्ट भी ऐसी ही फिल्में बनाने के लिए जाने जाते थे. वहीं बाकी के लोग इस नजरिये से फिल्में बनाते हैं कि लोगों का मनोरंजन भी हो जाए और मुनाफा भी. ये है कि बॉलीवुड में अभी भी करोड़ों रुपये दांव पर लगाने वाले कम हैं. कुछ निर्देशक हैं जैसे कि संजय लीला भंसाली, राजकुमार हिरानी और विशाल भारद्वाज जो खास विषयों के साथ आते हैं और विश्व स्तर का सिनेमा बनाते हैं.

Govind-Namdevआजकल की फिल्मों में खलनायकों की जगह बहुत सीमित हो गई है. आज नायक ही खलनायक हैं. आप इस बारे में क्या सोचते हैं?

हर दशक में बदलाव हुए हैं. नायक का ही खलनायक बन जाना, ये भी एक तरह का बदलाव है. उद्देश्य ये होता है कि लोगों के सामने अलग तरह से कहानी को रखा जाए. क्या शाहरुख कर सकते हैं खलनायक का किरदार? अभी अक्षय कुमार रजनीकांत की फिल्म ‘रोबोट 2’ में खलनायक बनकर आ रहे हैं. तो समय बदल गया है, अब हीरो के ऊपर वैसा दबाव नहीं होता कि वो खलनायक बनेगा तो उसकी छवि खराब हो जाएगी. बड़े कलाकारों के पास अपनी प्रोडक्शन कंपनी है तो वे जैसे चाहें चीजों को घुमा सकते हैं. ये जरूर है कि जो सिर्फ खलनायक का किरदार निभाते आ रहे थे उनके पास अब ज्यादा काम नहीं है. मेरे लिए तो स्थिति उस तरह की नहीं है क्योंकि मैं बीच-बीच में सकारात्मक किरदार भी निभाता चला आ रहा हूं.

अभी तक आपने जो भी किरदार निभाए उसमें आपका पसंदीदा कौन-सा है? ऐसा कौन-सा किरदार रहा जो चुनौतीपूर्ण था?

ऐसे पसंदीदा एक-दो किरदार हैं. जैसे फिल्म ‘विरासत’ का खलनायक एक लकवाग्रस्त व्यक्ति है. उसे करते हुए मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ी और फिल्म में निरंतरता बनाए रखने के लिए खूब अभ्यास भी करना पड़ा. इस किरदार की लोगों ने बहुत तारीफ की थी. ‘बैंडिट क्वीन’ के बाद ‘प्रेमग्रंथ’ आई और उसके बाद ‘दिल है तुम्हारा’ का खलनायक एक पहाड़ी व्यक्ति है. ‘ओह माई गॉड’ का किरदार, ये सब मेरे लिए पसंदीदा और हमेशा के लिए यादगार किरदार हैं. ‘बैंडिट क्वीन’ का किरदार इतना दबंग, निर्दयी और क्रूर है. ऐसा मैंने देखा नहीं था. एक छोटा-सा संदर्भ है. जब हम इस फिल्म की शूटिंग कर रहे थे तो फूलन देवी ग्वालियर की जेल में बंद थीं. जो भी शूटिंग होती थी उसके बारे में फूलन देवी को बताने के लिए हमारी टीम हर 10 से 15 दिन में जेल जाती थी. एक बार मेरी मित्र कलाकार और फैशन डिजाइनर डॉली अहलूवालिया जो कि फिल्म की कॉस्ट्यूम डिजाइनर थीं, वे भी हमारे साथ गईं.

फूलन देवी ने डांटते हुए कहा, ‘ये तो कुछ भी नहीं है. बाकी बताऊं.’ ऐसा बोलकर उन्होंने ब्लाउज खोलकर छाती दिखाई जहां जख्म से बने हुए गड्ढे थे और बताया कि ये ठाकुरों ने मुझे रेप करते हुए नोचा है. ये क्रूरता जब डॉली ने मुझे सुनाई तो मैं सिहर गया

उन्होंने फूलन देवी से पूछ लिया कि क्या हुआ था और कैसे हुआ था. तकरीबन 45 मिनट तक फूलन ने अपनी कहानी सुनाई तो डॉली रोने लगीं. इस पर फूलन देवी ने डांटते हुए कहा, ‘ये तो कुछ भी नहीं है. बाकी बताऊं.’ ऐसा बोलकर उन्होंने अपना ब्लाउज खोलकर अपनी छाती दिखाई जहां जख्म से बने हुए गड्ढे थे और बताया कि ये ठाकुरों ने मुझे रेप करते हुए नोचा है. ये क्रूरता जब डॉली ने मुझे सुनाई तो मैं सिहर गया. मैंने सोचा कि परदे पर वो किरदार उतना ही निर्दयी और क्रूर दिखाई देना चाहिए कि लोग उसके ऊपर थू-थू करें. ये कुछ किरदार हैं जिन्हें करके मुझे बहुत संतुष्टि हुई. आने वाली पीढ़ी जब हमारे काम को देखेगी तो लगेगा उनको कि कुछ ढंग का काम किया गया.

आपने एनएसडी से प्रशिक्षण लिया और फिर 12-13 साल तक इसी से जुड़े रहे? इस दौरान आपने किस तरह का काम किया? आम तौर पर एनएसडी के बाद लोग सीधे मुंबई भागते है. आपने इतना समय दिल्ली में ही क्यों बिताया?

1975 से 1978 तक मैंने एनएसडी में कोर्स किया. 1978 में एनएसडी की रेपर्टरी कंपनी की ओर से एक साल की फेलोशिप मिल गई. इसमें पेशेवर कलाकारों के साथ काम करने का मौका मिलता है. यह कंपनी अच्छे नाटक तैयार करती है. यह देश भर में थियेटर को बढ़ावा देने का काम करती है. कोर्स खत्म करने के बाद सवाल था कि मैं अब कहां जाऊं. सतीश कौशिक और अनुपम खेर मेरे साथ के लोग हैं. अनुपम खेर ने तय किया कि वे लखनऊ जाएंगे और एक साल वहां थियेटर के बारे में सिखाएंगे. कुछ लोग सीधे मुंबई चले आए. मुझे लगा कि अभी मेरे अभिनय में उतनी परिपक्वता नहीं आई है. इसलिए मैंने वो फेलोशिप ले ली. इसके बाद काम करते-करते मुझे समझ में आया कि अभी तो अपने अभिनय पर बहुत काम करने की जरूरत है. फिर अपने वरिष्ठों के बारे में पता चला कि फलां ने आठ साल थियेटर किया, किसी ने 10 साल. इसे देख मैंने भी निर्णय किया कि मैं भी आठ से 10 साल थियेटर करूंगा. मन में ये था कि जब मैं ऋषि कपूर या किसी ऐसे ही बड़े कलाकार के सामने परफॉर्म करूं तो उसे देखकर मुझे और दो-चार काम मिल जाएं. उस स्तर की परिपक्वता मुझे अपने अभिनय में चाहिए थी. काम करते-करते मुझे रेपर्टरी कंपनी में रेगुलर कर दिया गया और तकरीबन 11 साल थियेटर से जुड़ा रहा. जर्मनी, पोलैंड और लंदन जाकर हमने शो किए. बहुत कुछ हासिल किया, सीखा. ये मेरा गोल्डन टाइम था और आज भी मुझे रोमांचित करता है. 1990 में लगा कि अब मुंबई जा सकता हूं. मेरा नाम मेरे पहुंचने से पहले ही मुंबई पहुंच गया था इसलिए मुझे ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा. श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी साहब जैसे निर्देशक मुझे पहले से जानते थे.

आपने थियेटर, धारावाहिक व फिल्म में काम किया है. तीनों में क्या अंतर पाया?

इन तीनों विधाओं की अपनी-अपनी चुनौतियां हैं. किसी के बारे में ये नहीं कह सकते कि ये बेस्ट है. थियेटर में आप गड़बड़ी नहीं कर सकते हैं और अगर गड़बड़ी की तो परफॉर्म करने के दौरान ही उसे ठीक करना होता है. फिल्मों के लिए अभिनय करते हुए आपको 100 फीसदी नेचुरल व वास्तविक रहना होता है और साथ-साथ अपना 100 फीसदी इमोशन भी देना होता है. अब इमोशन को लाना और वास्तविक रहना, ये फिल्मों की चुनौती है. फिल्में आपको अमर कर देती हैं. 100 साल बाद भी आपको देखा जा सकता है. फिल्मों में जाने का एक मोह भी था. इसी तरह टीवी गांव-गांव में देखा जाता है. यहां हर कोई सिनेमा देखने हॉल में नहीं जाता है. इसलिए तीनों विधाओं की अपनी चुनौतियां हैं और अपने फायदे हैं.

हाल ही में आप फिल्म  ‘प्रोजेक्ट मराठवाड़ा’  में नजर आए. किसानों की समस्याओं पर बनी फिल्में किस हद तक उनके लिए मददगार साबित होती हैं?

इस तरह की फिल्में अगर अच्छे ढंग से रिलीज हो जाएं और लोगों तक पहुंच जाएं तो निश्चित रूप से इसका असर पड़ता है. आजकल लोगों को पता ही है कि किसान किस तरह की जिंदगी बसर करते हैं. फिल्म ‘प्रोजेक्ट मराठवाड़ा’ एक किसान की जिंदगी की व्यथा को बहुत ही सशक्त ढंग से रखती है. किसान जो देश भर को रोटी देता है उसी के घर में खाने को नहीं है. नीति निर्धारकों ने ये कैसी व्यवस्था दी है? ऐसे नीति निर्धारकों को धिक्कार है. फिल्म देखकर ऐसा महसूस किया जा सकता है. लोगों तक अगर आपकी फिल्म पहुंचती है तो उसका असर होता ही है और ऐसे विषयों पर फिल्में बननी भी चाहिए.

किसानों की आत्महत्या के विरोध में फिल्म इंडस्ट्री से जिस तरह से नाना पाटेकर सामने आए हैं, महाराष्ट्र का बड़ा मुद्दा होने के बावजूद दूसरे कलाकार उस तरह से सामने नहीं आए.

नहीं, कई लोग मदद के लिए आगे आए हैं. आमिर खान ने एक गांव को गोद लिया है. जिनके हाथ में जो है वे वैसा कर रहे हैं. हां, बड़े संगठन सामने नहीं आ रहे हैं. जैसे- प्रोड्यूसर्स गिल्ड है, आर्टिस्ट एसोसिएशन है, ये सामने नहीं आ रहे हैं. समाज में एक तरह का स्वार्थ घर कर गया है, जिसमें सिर्फ अपनी जेब भरने की मानसिकता है. इसमें राजनेता, नौकरशाह जैसे तमाम लोग शामिल हैं. भ्रष्टाचार सिस्टम का हिस्सा बन गया है. इस वजह से किसान आत्महत्या कर रहे हैं. उन्हें बुरी तरह से प्रताड़ित किया जाता है. इन स्थितियों काे देखकर बहुत दुख होता है.

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आपने  ‘बैंडिट क्वीन’  जैसी फिल्म की है और अभी सेंसर बोर्ड की जो स्थिति है कि उसे तकरीबन हर फिल्म से आपत्ति है. फिल्म  ‘उड़ता पंजाब’ विवादों में है. आपको क्या लगता है आज के समय में ‘बैंडिट क्वीन’  रिलीज हो पाती?

नहीं हो पाती… बिल्कुल भी नहीं हो पाती. अगर बनती तो रिलीज नहीं हो पाती. उसकी तो शुरुआत ही गाली से होती है. ये सनसनी फैलाने के लिए नहीं किया गया था. एक औरत के साथ पूरा गांव रेप करता है. आप इसे देख हैरान होते हो, गुस्से से भर उठते हो. सेंसर बोर्ड को थोड़ा उदार होना पड़ेगा. ये एक रचनात्मक काम है. अगर हम बुराई दिखा रहे हैं तो इसलिए दिखा रहे हैं ताकि लोगों में इस बात की चेतना जगे कि ये बुराई मुझमें नहीं आनी चाहिए, मेरे समाज और शहर में नहीं आनी चाहिए. सेंसर बोर्ड को उस उद्देश्य के बारे में सोचना चाहिए कि फिल्म में कोई सीन या संवाद किसलिए रखा गया है. ‘उड़ता पंजाब’ में कट की बात करें तो आपको बताना चाहिए कि आप ये क्यों कर रहे हैं. वो दूसरे की संपत्ति है. पंजाब में इतना सब कुछ हो रहा है तो सामने आना चाहिए. यहां का युवा नशाखोर हो गया है! अगर ये बात ही फिल्म से हटा दी जाएगी तो फिल्म बनाने का उद्देश्य खत्म हो जाएगा. अगर शीर्षक से ‘पंजाब’ हटा दिया जाए तो किसकी बात हो रही है कैसे पता चलेगा. ये स्थितियां दुखद हैं.

‘वर्ष 1896 में पूना में जब प्लेग फैला था तो अंग्रेजी हुकूमत ने लोगों का दमन शुरू कर दिया था. होता ये था कि जिस घर में प्लेग होता था उस घर को अंग्रेज खाली कराकर कब्जा कर लेते थे, यह दावा करते हुए कि इससे प्लेग आगे नहीं फैलेगा’

आप अपनी आने वाली फिल्म- ‘चापेकर बंधु’  और अन्ना हजारे पर एक फिल्म में राजनीतिक और ऐतिहासिक किरदारों में नजर आएंगे. इनके बारे में कुछ बताइए.

मेरी एक फिल्म आ रही है ‘चापेकर बंधु’ जिसमें मैं बाल गंगाधर तिलक का किरदार निभा रहा हूं. वर्ष 1896 में भारत में जब प्लेग फैला था तो अंग्रेजों ने लोगों का दमन शुरू कर दिया था. होता ये था कि जिस घर में प्लेग होता था उस घर को अंग्रेज खाली कराकर कब्जा कर लेते थे, यह दावा करते हुए कि इससे प्लेग आगे नहीं फैलेगा. अंग्रेजों की ओर से ये भारतीयों की संपत्तियां हड़पने की एक साजिश थी. उस वक्त ऐसा हो गया था कि जिस घर में प्लेग हो जाता था भारतीय डर के मारे बताते भी नहीं थे. इसके खिलाफ भारतीय क्रांतिकारी एकजुट हुए. तीन भाइयों- दामोदर हरि चापेकर, बालकृष्ण हरि चापेकर और वासुदेव हरि चापेकर ने एक दल बनाया और पूना के प्लेग कमिश्नर डब्ल्यूसी रैंड की हत्या की साजिश रची गई. तीनों भाइयों ने मिलकर रैंड की हत्या कर दी. उसके बाद अंग्रेजों ने इन तीनों भाइयों को एक-एक कर फांसी दे दी. ये तीनों भाई अनसंग हीरो हैं, जिनके बारे में महाराष्ट्र तक में लोगों को कम जानकारी है. इस दृष्टिकोण से भी ये फिल्म बनाई गई है ताकि लोगों को चापेकर बंधुओं के बारे में पता चल सके. एक फिल्म ‘दशहरा’ आ रही है, जो बिहार के एक भ्रष्ट राजनेता की कहानी है. रावण का अंत दशहरा पर हुआ था. इसलिए इसे ये नाम दिया गया.

आपकी पृष्ठभूमि और अभिनय से जुड़ाव की कहानी क्या है?

मैं सागर में सातवीं कक्षा तक पढ़ा. मन में हमेशा ये रहा कि मुझे बड़ा आदमी बनना है इसलिए बड़े शहर में रहना और पढ़ना है. यही विचार मुझे दिल्ली ले आया. यहां आठवीं से स्नातक तक एक रिश्तेदार के यहां रहकर पढ़ाई की. इस दौरान सांस्कृतिक गतिविधियों में काफी सक्रिय रहा. तो लोगों की तारीफें मिलनी शुरू हो गईं. लोग कहने लगे तुम्हें मुंबई जाना चाहिए, अभिनय करना चाहिए. जहां पढ़ाई करता था, उसके बगल में ही नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा स्थित था. इससे भी माहौल बना. थियेटर की ओर झुकाव होने लगा और मैंने एनएसडी का फॉर्म भर दिया. इसके बाद  मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा.

सागर से ही आशुतोष राणा और मुकेश तिवारी भी हैं. वे भी खलनायक के रूप में ही प्रसिद्ध हैं. सागर की मिट्टी में कुछ खास है क्या?

ये लोग मेरे बाद सागर से यहां आए. मुंबई पहुंचने तक मेरी तरह इनकी भी हीरो बनने की उम्र निकल चुकी थी. इसलिए इन्हें भी खलनायक का रोल ही मिला होगा. सागर की बात करें तो हम लोग बुंदेलखंडी हैं. वहां के पानी में जोश तो है. एक योद्धा होने की सोच हमेशा जेहन में रहती है. खलनायकों की तरह दादागीरी की बात नहीं है, ये स्वाभिमान की बात होती है. ये तो हमारे अंदर है. थोड़ा एक्स्ट्रा स्वाभिमान जिनके अंदर होता है तो वो दादागीरी में आ जाता है (हंसते हुए) तो जो दादागीरी कर रहा है वो है विलेन.