बाबरी मस्जिद और मेरे मित्र की उदासी!

babriअगर मुझसे पूछा जाए तो मैं यही कहूंगा कि हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद देश की राजनीति को सबसे गहरे तक प्रभावित करनेवाली कोई घटना अगर हुई तो वह थी बाबरी मस्जिद को ढहाया जाना. लेकिन वह घटना केवल राजनीतिक भी नहीं थी. भले ही उसको अंजाम देने का मकसद राजनीतिक लाभ हो, लेकिन उसने आम जनमानस को जिस कदर प्रभावित किया वह किसी से छिपा नहीं है. मेरे जीवन पर भी उस दिन की अहम छाप है.

मैं उस वक्त बेतिया के सेंट मैरी मिडिल स्कूल में पढ़ता था. मैं यूकेजी का विद्यार्थी था और यह 7 दिसंबर 1992 की बात है, यानी बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के अगले दिन की. उस वक्त कतई अंदाजा नहीं था कि यह घटना देश को किस हद तक प्रभावित कर सकती है. मैं तो बस इतना जानता था कि हिंदुओं ने एक मस्जिद तोड़ दी है, वह मस्जिद जो हमारा पूजा स्थल है. सच पूछिए तो उस वक्त तक इतनी समझ भी कहां थी कि हिंदू धर्म और आज के उग्र हिंदुुत्व में कोई फर्क कर सकूं.

मैं एक नन्हा बालक था और संघ परिवार, विश्व हिंदू परिषद के नाम और इनकी लीलाओं से पूरी तरह अपरिचित था. मेरे लिए राजनीतिक दल का मतलब केवल उसका चुनाव चिह्न होता था. मिसाल के तौर पर हाथ का पंजा (कांग्रेस), चक्र (तत्कालीन जनता दल)  आदि. उस दौर में चुनाव प्रचार की रणनीतियां भी अलग हुआ करती थीं.

चुनाव के वक्त पार्टी कार्यालयों से स्टीकर, बैज वगैरह मांगा करते थे. हाथ छाप का स्टीकर बटन के साइज का आता था जिसको हम शर्ट कीबटन पर चिपका लिया करते थे. चक्र छाप का बैज शर्ट की जेब पर फंसा लेते और एक ही बार में हाथ छाप और चक्र छाप दोनों का प्रचार कर देते थे.

‘मुझे नहीं मालूम कि उसे मस्जिद का अर्थ पता था या नहीं लेकिन वह हड़बड़ाता हुआ लगभग सफाई देने लगा कि उसने मस्जिद नहीं तोड़ी है’

तो बाबरी मस्जिद की शहादत को लेकर घटे पूरे घटनाक्रम में मेरा नन्हा मन केवल यही बात समझ पाया था कि वह मस्जिद हिंदुओं ने गिराई है. कहना न होगा कि उतना छोटा होने पर भी मुझे यह बात बुरी लगी थी. शायद इसलिए क्योंकि अपने आसपास मैं दिन-रात यही चर्चा होते देखता था. स्कूल में मेरा सबसे अच्छा दोस्त था शैलेश. 7 दिसंबर को जब मैं स्कूल पहुंचा तो शैलेश मुझे देखकर मुस्कराया. हम एक ही बेंच पर बैठा करते थे. लेकिन मेरे मन में तो उस दिन कुछ और ही चल रहा था. मैंने उसकी आंखों में आंखे डालकर कहा कि अब हम दोस्त नहीं हैं और वह मेरे साथ न बैठे. शैलेश को सवाल करना ही था सो उसने किया. मैंने जवाब में कहा कि तुम लोगों ने हमारी मस्जिद गिरा दी है. आज से हम बात नहीं करेंगे.

पता नहीं मेरी बात उसे कितनी समझ में आई, लेकिन उसका चेहरा एकदम उतर गया. मुझे नहीं मालूम कि उसे मस्जिद का अर्थ भी पता था या नहीं लेकिन वह हड़बड़ाता हुआ लगभग सफाई देने लगा कि उसने मस्जिद नहीं तोड़ी है, कि वह मुझे बहुत प्यार करता है वगैरह… वगैरह.

आज जब मैं उस घटना को याद करता हूं तो मुझे सबकुछ बहुत तकलीफदेह मालूम होता है. अगर कोई टाइम मशीन होती तो मैं अतीत में जाकर उन घटनाओं को दुरुस्त करता, जिनकी वजह से मुझे और शैलेश को इस तरह की तकलीफ पहुंची.

हालांकि कुछ दिन बाद सबकुछ दुरुस्त हो गया और हम फिर से पहले जैसे दोस्त बन गए. लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. मेरा स्कूल बदल गया और फिर हम दोबारा कभी नहीं मिल पाए. लेकिन आज भी कभी-कभी कुछ राजनीतिक बयानों को सुनकर मुझे अपने बचपन के वे दिन याद आते हैं और साथ ही याद आती है शैलेश की वह उदासी.

मेरी यही कामना है कि कभी किसी पर ऐसा कुछ न गुजरे कि उसे इस कदर उदास होना पड़े और ऐसा तो कभी न हो कि कोई दोस्त किसी दूसरे दोस्त की उदासी की वजह बने. क्योंकि जब दोस्त उदास होता है, तो ईश्वर की आंखों से भी दो बूंद आंसू छलक ही जाते हैं.