क्षतिपूर्ति से हितपूर्ति

offबीती 10 जून को छत्तीसगढ़़ के मुख्यमंत्री डॉ रमनसिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दोनों नेताओं की यह पहली मुलाकात थी. इस मुलाकात के दौरान रमन सिंह ने प्रधानमंत्री से राज्य के पिछड़े इलाकों के विकास के लिए केंद्र से ‘विशेष आर्थिक पैकेज’ तो मांगा ही, राज्य में चल रही केंद्रीय योजनाओं पर भी चर्चा की. बताया जाता है कि इसी क्रम में उन्होंने प्रधानमंत्री से मांग की कि ‘कैंपा फंड’ के तहत छत्तीसगढ़़ को मिलने वाली बकाया राशि उन्हें एकमुश्त दे दी जाए.

‘कैंपा फंड’ वह कोष है जिसे साल 2009 में वनीकरण एवं पर्यावरण संरक्षण के लिए केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा गठित किया गया था. रमन सिंह का तर्क था कि यह पूरी राशि एक साथ मिल जाने से उनकी सरकार इसके तहत होने वाले कामों को तेजी से अंजाम दे सकेगी. खबरों के मुताबिक उन्होंने प्रधानमंत्री के सामने कैंपा के तहत राज्य सरकार द्वारा अब तक किए गए कामों का खूब बखान किया जिसके बाद प्रधानमंत्री ने उनकी इस मांग पर विचार करने की बात कही.

लेकिन इस मुलाकात के अगले ही दिन उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर हो गई. रमन सिंह के दावों के उलट याचिका में राज्य सरकार पर ‘कैंपा फंड’ के दुरुपयोग के गंभीर आरोप लगाये गए थे. इस याचिका के मुताबिक छत्तीसगढ़ में पिछले पांच सालों के दौरान कैंपा की राशि से बहुत सारे ऐसे काम किए गए जो नहीं किए जाने चाहिए थे. कैंपा के उद्देश्यों से इन कामों का न तो दूर-दूर तक कोई वास्ता था और न ही ये ऐसे थे कि आम लोगों को ही इनसे किसी तरह का लाभ पहुंच पाया. इस याचिका में आरोप लगाया गया कि राज्य के आला अधिकारियों तथा सरकार के नुमाइंदों ने मिलाभगत करके इस राशि का उपयोग अपने हित किया और खूब चांदी काटी. कैंपा कोष की निगरानी के लिए केंद्रीय स्तर पर गठित की गई सेंट्रल एंपावर्मेंट कमेटी को भी इसके दुरुपयोग की पूरी जानकारी थी, इसके बावजूद राज्य में कैंपा का पैसा गलत तरीके से खर्च किया जाता रहा. इस याचिका के जरिए यह भी अंदेशा जताया गया कि राज्य सरकार, केंद्र से ‘कैंपा कोष’ की राशि का एकमुश्त भुगतान इसलिए चाहती है ताकि वह इसका और भी दुरुपयोग करके लाभ कमा सके. बताया जा रहा है कि कैंपा फंड के तहत अगले पांच सालों में छत्तीसगढ़ को करीब 3000 करोड़ रु की धनराशि मिलनी है. याचिका के जरिए उच्चतम न्यायालय से मांग की गई है कि किसी स्वतंत्र एजेंसी से इस पूरे मामले की जांच की जाए और दोषी अधिकारियों से सारे धन की वसूली की जाए. मामले की गंभीरता को देखते हुए उच्चतम न्यायालयने इस याचिका को स्वीकार कर लिया है. इसके बाद से कैंपा फंड की राशि एक साथ दिए जाने की मुख्यमंत्री रमन सिंह की मांग सवालों के घेरे में आ गई है.

उच्चतम न्यायालय में यह याचिका छत्तीसगढ़ के एक स्वतंत्र पत्रकार तथा सामाजिक कार्यकर्ता नारायण सिंह चौहान ने दायर की है. चौहान ने इस याचिका मे  कैंपा के कोष का गलत उपयोग करने वाली छत्तीसगढ़ सरकार की सभी करतूतों का सिलसिलेवार तरीके से जिक्र किया है. कैंपा कोष के दुरुपयोग की यह कहानी नियम विरुद्ध निर्माण कार्यों से लेकर आलीशान वाहनों की खरीद, इको टूरिज्म एक्टिविटी, संरक्षित वनों को काटने और आला अधिकारियों के सैर सपाटे तक फैली हुई है. याचिका के मुताबिक सरकार ने इन सभी कामों पर ‘कैंपा कोष’ से तकरीबन 100 करोड़ रुपये खर्च किए. चौहान का कहना है कि इस पूरे खेल में राज्य के आधा दर्जन से अधिक बड़े अधिकारी सीधे तौर पर शामिल हैं.

छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा ‘कैंपा कोष’ के गलत उपयोग की इस कथा का वर्णन करने से पहले एक नजर कैंपा के गठन के पीछे की वजहों और उसके उद्देश्यों पर डालते हैं.

दिशा-निर्देशों को ताक पर रखते हुए कैंपा की राशि का भयानक दुरुपयोग हुआ. बुनियादी सुविधाओं के नाम पर नौकरशाहों के लिए शानदार बंगले बनाए गए

कैंपा यानी कंपंसेटरी एफारेस्टेशन फंड मैनेजमेंट एंड प्लानिंग अथोरिटी का गठन 2009 में उच्चतम न्यायालय द्वारा एक जनहित याचिका पर दिए गए निर्णय के आधार पर किया गया था. इस याचिका के जरिए आधा दर्जन से अधिक सामाजिक संगठनों ने देश भर में होने वाली औद्योगिक गतिविधियों के चलते पर्यावरण को हो रहे नुकसान पर चिंता जाहिर करते हुए शीर्ष अदालत का ध्यान इस ओर खींचा था. इन संगठनों की मांग थी कि विकास की कीमत पर पर्यावरण को होने वाले नुकसान की भरपाई हर हाल में की जानी चाहिए. उच्चतम न्यायालय ने इन चिंताओं से इत्तेफाक रखते हुए एक आदेश जारी किया ताकि विकास और पर्यावरण एक साथ कदमताल मिला सकें. उसने केंद्र सरकार से देश के अलग-अलग हिस्सों में पूरी तरह उजड़ चुके वनों के साथ ही बिगड़े स्वरूप वाले वनों को फिर से हरा-भरा बनाने के लिए क्षतिपूर्ति वनीकरण कोष प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (कैंपा) का गठन करने को कहा. केंद्र को 14 राज्यों के साथ मिल कर एक कोष बनाने को कहा गया. उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार से कहा कि इस कोष की मदद से वनीकरण और पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से जरूरी समझी जाने वाली सभी गतिविधियों को अमली जामा पहनाया जाना चाहिए ताकि औद्योगीकरण संबंधी क्रियाकलापों के चलते होने वाले पर्यावरणीय नुकसान के असर को कम किया जा सके. यानी उद्योगों को दी गई भूमि के बदले पेड़ लगाने के लिए फंड इकट्ठा किया जाना था ताकि जितने वन क्षेत्र को उद्योगों के लिए दिया गया उतनी जमीन पर कहीं और पेड़ लगाए जाएं.

इसके बाद केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 28 अप्रैल 2009 को कैंपा के गठन का आदेश जारी किया, दो जुलाई 2009 को मंत्रालय ने इस संबंध में दिशा-निर्देश जारी किए. इनमें उन सभी बातों को लेकर प्रावधान बनाए गए जिनके आधार पर कैंपा कोष का उपयोग किया जाना था. मंत्रालय ने उन सभी क्षेत्रों का जिक्र तो किया ही जिनमें इस कोष के तहत मिलने वाले धन का उपयोग किया जा सकता है, साथ ही उन क्षेत्रों को भी साफ-साफ चिन्हित किया जिनमें इस फंड का पैसा लगाने की मनाही है. उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के अनुसार ‘कैंपा कोष’ में जमा राशि का 10 फीसदी हिस्सा हर साल संबंधित राज्यों के वन विभाग को दिया जाता है. इसी आधार पर 2009-10 से लेकर 2012-13 तक छत्तीसगढ़ को क्रमश: 123.21 करोड़, 134.11 करोड़, 99.54 करोड़ तथा 114.38 करोड़ रुपए दिए गए.

यहीं से इस कोष के दुरुपयोग की कहानी भी शुरू होती है. उच्चतम न्यायालय में दायर की गई याचिका में इस कहानी का विस्तार से वर्णन किया गया है. यह याचिका बताती है कि वन मंत्रालय के दिशा-निर्देशों को ताक पर रखते हुए छत्तीसगढ़ में कैंपा की राशि का भयानक दुरुपयोग किया गया है. जो पैसा नए जंगल लगाने के लिए इस्तेमाल होना चाहिए था उससे अधिकारियों और मंत्रियों के लिए महंगी गाड़ियां खरीदी गईं,  इंन्फ्रास्टक्चर यानी बुनियादी सुविधाओं के नाम पर नौकरशाहों के लिए शानदार बंगले और हॉस्टल बनवाए गए. दुरुपयोग की यह सूची लंबी है.

2010-11 तथा 2011-12 में आई कैग की रिपोर्टों में भी कैंपा कोष के दुरुपयोग की बातें उजागर हुई थी. इसके अलावा आरटीआई तथा अन्य स्रोतों से प्राप्त दस्तावेज भी इस याचिका में लगाए गए आरोपों की सत्यता को साबित करते हैं. ये सभी दस्तावेज बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में कम से कम आधा दर्जन ऐसे क्षेत्रों में ‘कैंपा कोष’ का पैसा खर्च किया गया जिनमें इसे खर्च नहीं किया जाना चाहिए था.

इन सभी क्षेत्रों मे हुए कैंपा राशि के दुरुपयोग को लेकर नारायण सिंह चौहान ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से लेकर छत्तीसगढ़ के राज्यपाल, मुख्यमंत्री तथा लोक आयोग (लोकायुक्त) तक से शिकायत की थी. लेकिन सभी मोर्चों से उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा. इसके बाद अब वे इस मामले को न्यायालय में ले गए हैं.

राज्य सरकार द्वारा कैंपा मद के दुरुपयोग के मामले कई तरह के हैं. सबसे पहले अधिकारियों के लिए महंगी गाड़ियों की खरीद संबंधी मामले का जिक्र करते हैं. आरटीआई से प्राप्त दस्तावेज बताते हैं कि 2009 से लेकर 2013 तक छत्तीसगढ़ में कैंपा की राशि से तकरीबन 20 करोड़ रुपये सिर्फ गाड़ियों की खरीद पर ही खर्च कर दिए गए. केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की गाइड लाइन के मुताबिक कैंपा राशि से केवल बेहद जरूरी परिस्थितियों में ही से रेंज आफिसर (रेंजर) तथा इससे निचले स्तर के कर्मचारियों के लिए ही वाहन खरीदे जा सकते थे. लेकिन इस कोष से खरीदी गई अधिकतर गाड़ियों को रेंजर स्तर से उपर के अधिकारियों को आवंटित किया गया. इन गाड़ियों में टाटा सफारी, टाटा मांजा, टोयटा तथा एंबेसडर जैसी गाड़ियां शामिल हैं जबकि कैंपा की राशि से महंगे वाहनों की खरीद की मनाही थी. कैंपा के दिशानिर्देशों के विपरीत जाकर वाहनों की खरीद का मामला 2011-12 की कैग रिपोर्ट में भी सामने आया था. इस रिपोर्ट के मुताबिक सरकार ने उस साल कैंपा कोष से 23 वाहन खरीदे. रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश के वन मंत्री तथा प्रमुख सचिव (वन) के लिए ही तकरीबन 20 लाख रुपये खर्च करके कैंपा की राशि से दो टाटा सफारी खरीदी गईं.

रामपुर गांव जिसे श्रीरामपुर के नाम से एक दूसरी जगह पर बसाया गया है.

नारायण सिंह चौहान कहते हैं, ‘यह पूरी तरह से कैंपा के पैसों का खुला दुरुपयोग है. कैंपा के दिशानिर्देशों के मुताबिक रेंजर स्तर से ऊपर के अधिकारियों के लिए कोई भी वाहन नहीं खरीदा जाना चाहिए था, लेकिन यहां जितने भी वाहन खरीदे गए उनमें से अधिकांश वाहनों को बड़े अधिकारियों को ही दिया गया.’

गाड़ियों की खरीद के बाद कैंपा के पैसों के दुरुपयोग का यह क्रम आलीशान बंगलों के निर्माण की तरफ बढ़ता है. बीते पांच सालों में छत्तीसगढ़ में कैंपा की राशि से दर्जन भर से अधिक बंगलों का निर्माण किया गया. राज्य की अलग-अलग वन रेंजों के मुख्यालयों में बने इन बंगलों को डीएफओ से लेकर वंन संरक्षक स्तर तक के अधिकारियों को आवास के रूप में आवंटित किया गया है. इन बंगलों और कार्यालयों पर 24 करोड़ से अधिक रुपए फूंके गए. कैग की रिपोर्ट ने भी इस निर्माण पर सवाल खड़े किए थे लेकिन तब राज्य सरकार ने कैंपा के कुछ नियमों का हवाला देते हुए अपने इस कदम का बचाव किया था. दरअसल कैंपा के दिशा-निर्देशों के मुताबिक कैंपा संबंधी गतिविधियों के कुशल संचालन हेतु राज्य सरकारों को बुनियादी सुविधाओं के लिए कैंपा की राशि का उपयोग करने की छूट दी गई थी. वन मंत्रालय का कहना था कि वनीकरण संबंधी कामों के लिए आवश्यक संसाधन और सुविधाएं जुटाने के क्रम में राज्य सरकारें जरूरत पड़ने पर रेंजर तथा उससे नीचे के स्तर के कर्मचारियों के लिए आवासीय योजना बना सकती है, लेकिन सरकार ने इस प्रावधान की आड़ लेकर आला अधिकारियों के लिए आवास बना दिए. इसके अलावा तीन जगहों दुर्ग, विलासपुर और रायपुर में तीन ट्रांजिट हास्टल भी कैंपा की राशि से बनाए गए. इन हॉस्टलों के निर्माण पर भी 16 करोड़ रु से ज्यादा खर्च हुआ. कैंपा राशि के दुरुपयोग को रोकने के लिए बनाए गए दिशानिर्देशों के अलावा केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के आईजी फारेस्ट एवं मुख्य कार्यकारी अधिकारी सीडी सिंह ने भी आठ सितंबर 2013 को छत्तीसगढ़ के प्रधान मुख्य वन संरक्षक को पत्र लिख कर कैंपा मद के उपयोग संबंधी दिशा निर्देशों की प्रतिलिपि सौंपी थी. इसके मुताबिक नवीनीकरण, निर्माण, वाहनों की खरीद, विदेश यात्राओं तथा ईको टूरिज्म जैसी गतिविधियों पर होने वाले खर्च को कैंपा राशि से अलग रखा गया था. लेकिन इन सभी क्षेत्रों में कैंपा के पैसे लगाए गए.’

मुख्यमंत्री रमन सिंह का ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ बताई जाने वाली ‘जंगल सफारी परियोजना’ पर भी कैंपा की राशि के दुरुपयोग का आरोप लग रहा है

नियमों के मुताबिक ईको टूरिज्म संबंधी गतिविधियों में भी कैंपा की राशि का उपयोग प्रतिबंधित था, लेकिन इस राशि के बंटाधार की यह कहानी आगे बढ़ते हुए उसी ईको टूरिज्म के क्षेत्र में प्रवेश करती है. उच्चतम न्यायालय में दायर की गई याचिका के मुताबिक प्रदेश में ईको टूरिज्म को बढ़ावा देने के नाम पर कैंपा की राशि से तकरीबन 12 करोड़ रुपए खर्च किए गए. 2011-12 की कैग रिपोर्ट में भी इस पर सवाल उठाए जा चुके हैं. रिपोर्ट के मुताबिक सरकार ने प्रदेश की 77500 हैक्टेयर वन भूमि का उपयोग ईको टूरिज्म संबंधी गतिविधियों के लिए किया, जबकि वन संरक्षण अधिनियम के तहत ऐसा किया जाना प्रतिबंधित था. प्रदेश की ईको टूरिज्म परियोजना का एक अहम हिस्सा और मुख्यमंत्री रमन सिंह का ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ बताई जाने वाली ‘जंगल सफारी परियोजना’ पर भी कैंपा की राशि के दुरुपयोग का आरोप इस याचिका में लगाया गया है. 2011-12 का ऑडिट रिपोर्ट का हवाला देते हुए याचिका में कहा गया है कि कैंपा की राशि से इस परियोजना पर दो करोड़ 40 लाख के करीब रुपये खर्च किए गए. इस खर्च पर ऑडिट रिपोर्ट ने गंभीर सवाल उठाए थे. नारायण सिंह चौहान बताते हैं कि राज्य में पहले से ही नंदनवन के रूप में एक पार्क मौजूद था लेकिन सिर्फ मुख्यमंत्री की इच्छा पर जंगल सफारी परियोजना बनाई जा रही है, जिसका मकसद सिर्फ केंद्रीय मदद झटकना भर ही है. जंगल सफारी परियोजना को लेकर छत्तीसगढ़ में विपक्ष भी कई बार रमन सिंह सरकार की आलोचना कर चुका है. चौहान के मुताबिक उन्होंने केंद्र सरकार से भी ‘जंगल सफारी परियोजना’ में कैंपा की राशि के दुरुपयोग की शिकायत की थी, लेकिन इसको लेकर किसी भी तरह की कार्रवाई नहीं हुई. वे कहते हैं, ‘केंद्र सरकार द्वारा बरती गई इस उदासीनता के चलते किसी भी राज्य सरकार के हौसले बढ़ने स्वाभाविक हैं, ऐसे में रमन सिंह की सरकार डरे भी तो क्यों.’

जिस हौसले की तरफ चौहान इशारा करते हैं उसके साक्षात दर्शन रमन सरकार के एक और कारनामे में देखे जा सकते हैं. यह कारनामा केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के दिशा निर्देशों का खुला उल्लंघन करने के साथ ही ‘कैंपा कोष’ की अवधारणा को भी सवालों के घेरे में डालता नजर आता है. यह मामला राज्य के 25 गांवों के विस्थापन तथा पुनर्वास संबंधी योजना से संबंधित है.

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कायदे से ऊपर फायदे

  • नियमों के मुताबिक कैंपा कोष से रेंज आफिसर (रेंजर) तथा इससे निचले स्तर के कर्मचारियों के लिए ही वाहन खरीदे जा सकते थे, वह भी बेहद जरूरी परिस्थितियों में, लेकिन छत्तीसगढ़ में इस कोष के जरिये अधिकतर गाड़ियां रेंजर स्तर से ऊपर के अधिकारियों के लिए खरीदी गईं. इन गाड़ियों में टाटा सफारी जैसे कई महंगे वाहन शामिल हैं जबकि महंगी गाड़ियां खरीदने की मनाही थी
  • ईको टूरिज्म संबंधी गतिविधियों में भी कैंपा की राशि का उपयोग प्रतिबंधित था, लेकिन प्रदेश में ईको टूरिज्म को बढ़ावा देने के नाम पर भी कैंपा कोष से करोड़ों खर्च किए गए. कैग ने भी इस पर सवाल उठाए
  • बिगड़े वनों को संवारने के लिए 400 पौधे प्रति हैक्टेयर के हिसाब से दो वर्षों के लिए प्रति हैक्टेयर 15,100 रुपए का खर्च निर्धारित किया था, लेकिन कहीं-कहीं तो 52,704 रुपये प्रति हैक्टेयर की दर से पैसा खर्च किया गया
  • बताया गया कि नए पौधे लगाने के लिए गैरवनभूमि उपलब्ध नहीं है. इसके बाद जहां पौधारोपण दिखाया गया वहां पहले से ही घना जंगल था

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कैंपा संबंधी गतिविधियों को बेहतर स्वरूप देने के उद्देश्य से छत्तीसगढ़ सरकार ने 2010 में बारनवापारा अभयारण्य के अंतर्गत आने वाले 25 गांवों को अभयारण्य से बाहर बसाने का फैसला किया. इसके लिए सरकार ने पहले चरण में तीन गांवों रामपुर, लाटादादर तथा नवापारा को चिन्हित किया. इन गांवों में से एक रामपुर के 135 परिवारों को लगभग 58 किलोमीटर दूर महासमुंद जिले में श्रीरामपुर नाम देकर बसाने की योजना बनाई गई. इन परिवारों के लिए मकान बनाने, खेती के लिए जमीन देने तथा अन्य बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए प्रति परिवार दस लाख रुपये खर्च किए जाने थे. इस तरह 135 परिवारों के लिए कुल 13 करोड़ 50 लाख का रुपये का व्यय निर्धारित किया गया. यहां पर एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इन परिवारों के पुनर्वास के लिए केंद्र सरकार ने 2009 में छत्तीसगढ़ को अलग से पांच करोड़ 40 लाख रुपए की राशि भी आवंटित की थी. इस तरह कैंपा के तहत सिर्फ आठ करोड़ 10 लाख रुपए ही खर्च किए जाने चाहिए थे. लेकिन आरटीआई से मिली सूचना बताती है कि श्रीरामपुर गांव के पुनर्वास में कैंपा कोष से 14 करोड़ 60 लाख रुपए खर्च किए गए. इसकी पड़ताल करने पर एक हैरान करने वाली जानकारी सामने आती है. दरअसल केंद्र द्वारा मिली पांच करोड़ 40 लाख की उस अतिरिक्त राशि में से साल 2010-11 तक छत्तीसगढ़ सरकार सिर्फ 81 लाख रुपए ही खर्च कर सकी थी, जिसके चलते यह राशि लैप्स हो गई. इसके बाद कैंपा के फंड से ही पुनर्वास कार्यों को पूरा किया गया.

श्रीरामपुर गांव के पुनर्वास की इस पूरी प्रक्रिया में कैंपा के पैसों के दुरुपयोग का एक और कारनामा दर्ज है. आरटीआई से मिले दस्तावेजों के मुताबिक जून 2012 में हुए इस गांव के लोकार्पण कार्यक्रम में ही सरकार ने तकरीबन 16 लाख रुपए फूंक दिए थे. इस लोकार्पण कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में मुख्यमंत्री रमन सिंह ने शिरकत की थी. नियमों को देखें तो यह साफ तौर पर कैंपा फंड के दुरुपयोग का मामला नजर आता है.

पांच करोड़ 40 लाख रुपए की उस राशि पर वापस आते हैं जिसमें से 81 लाख रुपये के अतिरिक्त बाकी पैसा लैप्स हो गया था. सरकार का कहना था कि इस राशि को पुनर्जीवित करने के लिए उसने केंद्र से गुहार लगाई थी. लेकिन आरटीआई से सूचना मांगे जाने के बाद भी अब तक वह इस राशि को लेकर कोई सटीक जानकारी नहीं दे पाई है. छत्तीसगढ़ के एक सामाजिक कार्यकर्ता की मानें तो सरकार जानती है कि देर-सवेर यह राशि उसको मिल ही जाएगी, इसलिए जब तक संभव हो सके वह कैंपा के पैसों को ही खर्च करना चाहेगी ताकि इस राशि से कुछ और कारनामों को अंजाम दिया जा सके.

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आरटीआई से मिले दस्तावेज साफ बताते हैं कि किस तरह नियम(बाएं) तोड़े(दाएं और नीचे) गए.

अब तक के पूरे घटनाक्रम से ‘कैंपा फंड’ के दुरुपयोग को लेकर छत्तीसगढ़ सरकार के कारनामों की एक लंबी सूची तैयार हो चुकी है. इसके बाद भी कई और घटनाएं ऐसी हैं जो साबित करती हैं कि राज्य सरकार कैंपा फंड के दुरुपयोग का कोई भी मौका नहीं गंवाना चाहती थी. जनवरी 2012 के एक घटनाक्रम से इस बात को आसानी से समझा जा सकता है. राज्य के वन विभाग के पांच आला अधिकारियों ने विदेश भ्रमण का कार्यक्रम बनाया. इनमें प्रधान मुख्य वन संरक्षक से लेकर वन मंडलाधिकारी स्तर तक के अधिकारी शामिल थे. छत्तीसगढ़ शासन ने इन अधिकारियों की विदेश यात्रा के संबंध में शर्त रखी कि इनकी यात्रा का पूरा खर्च ‘कैंपा कोष’ से किया जाएगा. यह फैसला कैंपा दिशा-निर्देशों के तहत बने प्रावधानों के प्रतिकूल था. इस बात का पता चलते ही कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आरटीआई का इस्तेमाल करके इन यात्राओं के खर्च को लेकर जानकारी मांग ली. खुद को घिरता देख छत्तीसगढ़ शासन ने आनन-फानन में इस फैसले को बदल दिया. इन अधिकारियों की विदेश यात्रा पर होने वाले खर्च का भुगतान कैंपा निधि से करने की शर्त को संशोधित करके शासन ने भुगतान का जिम्मा वन विभाग को सौंप दिया. लेकिन यदि आरटीआई से यह सूचना नहीं मांगी जाती तो क्या तब भी छत्तीसगढ़ सरकार इस शर्त में संशोधन करती ? नारायण चौहान इसका जवाब न में देते हैं. वे कहते हैं, ‘अगर अधिकारियों की इस यात्रा को लेकर सूचना नहीं मांगी जाती तो ‘कैंपा कोष’ के एक और बड़े हिस्से की कुर्बानी तय थी.’ दस्तावेज बताते हैं कि प्रदेश के अधिकारियों की इस विदेश यात्रा पर लगभग 22 लाख रु से भी ज्यादा की रकम खर्च हुई ती. साफ है कि ‘कैंपा कोष’ के उपयोग को लेकर छत्तीसगढ़ को केंद्रीय सरकार द्वारा बनाए गए प्रावधानों की कोई परवाह नहीं है.

पौधारोपण के लिए महंगी से महंगी दरों पर गलत प्रजातियों की खरीद की गई जिससे एक करोड़ रु से भी अधिक की अतिरिक्त रकम खर्च हुई

एक और मामले का जिक्र किए बिना कैंपा के दुरुपयोग की यह कथा अधूरी होगी. 2009 में कैंपा कोष के गठन के पीछे सबसे प्रमुख मकसद यही था कि वनीकरण तथा अन्य पर्यावरणीय गतिविधियों की मदद से जंगलों की सूरत को संवारा जा सके. लेकिन दस्तावेजों की भाषा कहती है कि छत्तीसगढ़ में इस उद्देश्य का सहारा लेकर बेहद सुनियोजित तरीके से कैंपा की राशि का बंटाधार किया गया. 2011-12 की ऑडिट रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक ने बिगड़े वनों को संवारने के लिए 400 पौधे प्रति हैक्टेयर के हिसाब से दो वर्षों के लिए प्रतिहैक्टेयर 15,100 रुपए का खर्च निर्धारित किया, लेकिन दो जगहों, धमतरी और पूर्वी सरगुजा में इस राशि से कहीं अधिक 52,704 रुपये प्रति हैक्टेयर की दर से पैसा खर्च किया गया. इस कवायद में करीब ढाई करोड़ रु अतिरिक्त खर्च हुए. इसी रिपोर्ट के मुताबिक वनीकरण के लिए गैर वन भूमि उपलब्ध होने के बावजूद वनविभाग ने इसकी अनुपलब्धता बताई. जिन जगहों पर घना जंगल था वहीं पौधारोपण दर्शाया गया. इसके अलावा दस्तावेज यह भी बताते हैं कि कैंपा की राशि से छत्तीसगढ़ में रोपण परियोजना के लिए महंगी से महंगी दरों पर गलत प्रजातियों की खरीद की गई, जिसके चलते एक करोड़ रु से भी अधिक की अतिरिक्त रकम खर्च हुई.

उधर, अधिकारी इन सभी आरोपों को खारिज करते हैं. राज्य के कैंपा प्रभारी बीके सिन्हा कहते हैं, ‘कैंपा कोष के दुरुपयोग के सारे आरोप गलत हैं. कहीं भी इस कोष का दुरुपयोग नहीं हुआ है.’ सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका पर वे कहते हैं, ‘सरकार अदालत में ही अपना पक्ष रखेगी.’ आरोपों का जवाब अदालत में देने वाली इस बात से इत्तेफाक भी रखा जाय तब भी सवालों का गोलमोल जवाब देने का यह रवैया खुद कई सवाल खड़े करता है. नारायण सिंह चौहान कहते हैं, ‘दरअसल अधिकारियों के पास कोई जवाब है ही नहीं, यही वजह है कि वे हर सवाल पर ‘आरोप गलत हैं’ कह तक पल्ला झाड़ लेते हैं.’

कुल मिलाकर देखा जाए तो कैंपा कोष के दुरुपयोग की यह पूरी कहानी छत्तीसगढ़ सरकार की एक ऐसी सूरत पेश करती है जो उसकी ‘गुड गवर्नेंस’ वाली बहुप्रचारित छवि के बिल्कुल उलट है. पिछले साल के आखिरी दिनों में इसी ‘गुड गवर्नेंस’ के सहारे छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सरकार ने तीसरी बार जीत हासिल की थी. तब उन्होंने इस जीत को ‘अच्छे काम के लिए मिला ईनाम’ बताया था. इस बात में कोई दो राय नहीं कि जनता की अदालत से रमन सिंह ने तब वाकई में शानदार जनादेश हासिल किया था. लेकिन हो सकता है कि जल्द ही उनके कामकाज का आकलन करने वाला एक और आदेश आए. यह आदेश शीर्ष अदालत से आ सकता है.

pradeep.sati@tehelka.com