लोढ़ा कमेटी की सिफारिशों पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर, बदल जाएगा क्रिकेट का चेहरा

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‘जस्टिस लोढ़ा समिति की सिफारिशें देश में केवल क्रिकेट ही नहीं, अन्य खेलों के लिए भी नजीर पेश करने वाली हैं. जितनी गहराई में वे गए हैं, उतनी गहराई से भारतीय क्रिकेट का पोस्टमार्टम कभी नहीं हुआ’

ये शब्द पूर्व भारतीय क्रिकेटर बिशन सिंह बेदी के हैं, जो क्रिकेट में सुधार को लेकर लोढ़ा समिति द्वारा पेश रिपोर्ट पर ‘तहलका’ से चर्चा करते हुए उन्होंने कहे.

इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) में सट्टेबाजी और मैच फिक्सिंग कांड ने भारतीय क्रिकेट में भूचाल ला दिया था. जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए पूर्व जस्टिस आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था. समिति को क्रिकेट में सुधार की गुंजाइशें तलाशने का काम सौंपा गया था ताकि देश में ‘धर्म’ माने जाने वाले इस खेल को भ्रष्टाचारमुक्त बनाया जा सके. पिछले दिनों लोढ़ा समिति ने अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी है. 159 पृष्ठीय इस दस्तावेज में कई क्रांतिकारी सुझाव दिए गए हैं. अगर इन्हें लागू किया जाता है तो देश में क्रिकेट के एक नए युग की शुरुआत होगी और क्रिकेट के प्रशासन से लेकर प्रसारण तक की तस्वीर ही बदल जाएगी. यह रिपोर्ट समिति द्वारा क्रिकेट से किसी न किसी रूप में जुड़ाव रखने वाले 74 व्यक्तियों से चर्चा करने के बाद तैयार की गई है.

रिपोर्ट में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) की कार्यप्रणाली पर कई गंभीर सवाल उठाए गए हैं. रिपोर्ट के हवाले से लोढ़ा समिति कहती है, ‘देश में क्रिकेट का कर्ता-धर्ता बीसीसीआई है पर वह हमेशा ही विवादों से घिरा रहता है. निर्णयों में पारदर्शिता और जबावदेही की कमी होती है. अपने पदाधिकारियों, कर्मचारियों और खिलाड़ियों के हितों के टकराव को बढ़ावा देने वाले कामों की अनदेखी की जाती है. चहेतों का दखल बोर्ड में बनाए रखने के लिए बार-बार नियम बदले जाते हैं. प्रभावी शिकायत तंत्र उपलब्ध नहीं है. गलत कार्यों के प्रति उदासीन रवैया अपनाकर रखा जाता है. सट्टेबाजी व मैच फिक्सिंग में खिलाड़ी और पदाधिकारी लिप्त पाए जाते हैं. बोर्ड सार्वजनिक इकाई है लेकिन कहा जाता है कि यहां कामकाज बंद दरवाजे या गुप्त रास्तों से होता है. वहीं न तो यह अपने फैसलों से प्रभावित होने वालों के प्रति जवाबदेह है और न ही इस खेल में सबसे ज्यादा हित रखने वाले प्रशंसकों के लिए. इसलिए इस खेल से प्यार करने वाले करोड़ों लोगों का विश्वास और जुनून दांव पर है.’

159 पृष्ठीय दस्तावेज में कई क्रांतिकारी सुझाव दिए गए हैं. अगर इन्हें लागू किया जाता है तो देश में क्रिकेट के एक नए युग की शुरुआत होगी

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इन्हीं तथ्यों के आधार पर जो सिफारिशें लोढ़ा समिति ने की हैं, वे अक्सर विवादों में घिरे रहने वाले बीसीसीआई के ताबूत में आखिरी कील ठोकने जैसी हैं. सबसे पहले तो बोर्ड के अंदरूनी ढांचे पर ही प्रहार किया गया है. मंत्री और अफसरों की भागीदारी पर रोक लगाने की बात कही गई है. पदाधिकारियों की उम्र सीमा को अधिकतम 70 साल कर दिया गया है. कोई भी पदाधिकारी बोर्ड में नौ वर्ष से अधिक नहीं रह सकता है. नौ वर्ष का यह कार्यकाल भी उसे तीन चरणों में पूरा करना होगा, लगातार दूसरी बार उसका चुना जाना अवैध होगा. साथ ही बीसीसीआई का जो पदाधिकारी होगा, वो इस दौरान अपने राज्य की इकाई में कोई पद नहीं रख सकेगा. मतलब एक व्यक्ति एक वोट. इसके साथ ही सुझाव दिया गया है कि बोर्ड ‘एक राज्य-एक सदस्य-एक वोट’ की नीति पर चले. देश के सभी राज्यों में क्रिकेट बोर्ड हों और वही बीसीसीआई के पूर्ण सदस्य हों. सर्विस क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड, ऑल इंडिया यूनिवर्सिटी और रेलवे स्पोर्ट्स प्रमोशन बोर्ड की पूर्ण सदस्यता समाप्त कर एसोसिएट सदस्य का दर्जा दिया जाए. समान नियम क्रिकेट क्लब ऑफ इंडिया और नेशनल क्रिकेट क्लब पर भी लागू हों.

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इससे यह तो स्पष्ट है कि अब कोई भी पदाधिकारी बोर्ड में स्थायी नहीं रहेगा. लंबे समय से बोर्ड में जमे रहकर अपना आर्थिक हित तलाशने वालों की बोर्ड से छुट्टी हो जाएगी. लेकिन एक व्यक्ति एक वोट का फैसला कितना असरकारक होगा, इस पर संशय है. लोढ़ा समिति का कहना है, ‘बोर्ड और अपने संबंधित राज्य संघ दोनों में पदाधिकारी होने पर व्यक्ति बोर्ड की शक्तियों का अनुचित लाभ उठाकर अपनी राज्य इकाई को फायदा पहुंचाता है, जिससे राज्य संघों के बीच असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है. इसलिए यह नियम जरूरी है.’

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महिला क्रिकेट को मिलेगी आवाज

बोर्ड की कार्यसमिति में महिलाओं का अब तक कोई प्रतिनिधित्व नहीं रहा है. उनका घरेलू क्रिकेट सत्र केवल एक माह का ही होता है और न ही पुरुषों की तरह महिला क्रिकेटरों को बीसीसीआई कोई सेंट्रल कॉन्ट्रैक्ट देता है. क्रिकेट से उनकी नाममात्र की कमाई होती है. अन्य देशों में कॉन्ट्रैक्ट की व्यवस्था है. इन सब बातों को ध्यान में रख समिति ने बोर्ड में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने की भी सिफारिश रखी है. महिला क्रिकेटरों की आवाज न दबे इसके लिए एक महिला क्रिकेट समिति के साथ महिला क्रिकेटर संघ बनाने की सिफारिश भी की गई है. साथ ही बोर्ड की अपेक्स काउंसिल में भी एक महिला सदस्य को रखा गया है. कुछ ऐसा ही प्रावधान विकलांग क्रिकेटरों के लिए भी किया गया है. उनके लिए भी विकलांग क्रिकेटर संघ व विकलांग क्रिकेट समिति की बात कही गई है. यह समिति देशभर में विभिन्न श्रेणी के विकलांगों द्वारा खेले जाने वाले क्रिकेट को एक संयुक्त मंच पर लेकर आएगी. फिलहाल विकलांग क्रिकेट को बोर्ड कितनी गंभीरता से लेता है इसे इस बात से ही समझा जा सकता है कि बीसीसीआई देश में क्रिकेट की कर्ता-धर्ता है लेकिन न तो उसकी वेबसाइट पर विकलांग क्रिकेट से संबंधित कोई जानकारी मिलती है और न ही कभी इसके कर्ता-धर्ता मीडिया में इस पर बात करते नजर आते हैं. [/box]

वर्तमान में बोर्ड अध्यक्ष शशांक मनोहर तीन वोट (एक कोई फैसला टाई होने पर) और अनुराग ठाकुर, अमिताभ चौधरी, अनिरूद्ध चौधरी, राजीव शुक्ला अपने पास दो-दो वोट का अधिकार रखते हैं. इस नियम के बाद सीधे तौर पर बोर्ड में इनके प्रभाव में कटौती हो जाएगी. लेकिन इस नियम में पूरी संभावना है कि इसका इलाज राज्य संघों में डमी उम्मीदवार को खड़ा करके किया जाएगा.

ऐसे कई राज्य और केंद्रशासित प्रदेश हैं, जो बीसीसीआई की सदस्यता तक से वंचित हैं. वहां क्रिकेट का कोई ढांचा नहीं है. क्या वहां प्रतिभाएं नहीं हैं?

वहीं ‘एक राज्य-एक सदस्य-एक वोट’ की नीति पर क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बिहार (कैब) के सचिव और पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता आदित्य वर्मा का कहना है, ‘आगे बढ़ने का अधिकार सबका है. बीसीसीआई का वर्तमान ढांचा भेदभावपूर्ण है. एक तरफ तो महाराष्ट्र के पास बोर्ड में चार वोट का अधिकार है, गुजरात के पास तीन वोट हैं. तो दूसरी तरफ ऐसे कई राज्य और केंद्रशासित प्रदेश हैं, जिन्हें बीसीसीआई की सदस्यता तक प्राप्त नहीं है. वहां क्रिकेट का ढांचा तक नहीं है. क्या वहां प्रतिभाएं नहीं हैं?’ वहीं क्रिकेट एक्सपर्ट आशीष शुक्ला कहते हैं, ‘सर्विस, रेलवे और  यूनिवर्सिटी के वोट चुनाव के वक्त अपने पक्ष में करना सबसे आसान होता है. मान लीजिए बोर्ड अध्यक्ष रेल मंत्री के करीबी हैं तो रेल मंत्री से सिफारिशी आवेदन लगवाकर रेलवे के वोट को प्रभावित कर दिया जाता है. यहां सौदेबाजी होती है.’

हालांकि असली विवाद तो महाराष्ट्र और गुजरात में खड़ा होगा. पूर्व भारतीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेटर मनिंदर सिंह कहते हैं, ‘महाराष्ट्र और गुजरात में तीन-तीन संघ हैं. तीनों बोर्ड के पूर्ण सदस्य हैं. तीनों घरेलू क्रिकेट में अपनी टीम उतारते हैं. यह सिफारिश लागू होने के बाद हर राज्य से दो संघों को अपनी पूर्ण सदस्यता छोड़नी होगी. हालांकि वे बोर्ड के एसोसिएट सदस्य बने रहेंगे लेकिन कौन छोड़ना चाहेगा अपनी पूर्ण सदस्यता! यहां बड़ा विवाद होगा. उसका निपटारा कैसे होगा, किसका वोटिंग अधिकार बरकरार रखा जाएगा? इस पर स्थिति साफ नहीं है.’ वैसे विशेषज्ञों का मानना है कि यह नीति देश में क्रिकेट की लोकप्रियता को बढ़ाने वाली साबित हो सकती है. इससे कई नए राज्यों में क्रिकेट का ढांचा खड़ा होगा और क्रिकेट का प्रसार देश के कोने-कोने तक हो जाएगा. उत्तर पूर्व भारत के राज्य जहां स्पोर्टिंग टैलेंट तो हैं पर खेल के लिए जरूरी संसाधन नहीं, वहां भी क्रिकेट अपनी पहुंच बना लेगा.

एक सिफारिश यह भी है कि बोर्ड खिलाड़ियों का एक संघ बनाए. पर यह पहली बार नहीं है जब खिलाड़ियों का संघ बनाने की बात उठी हो. इससे पहले भी कई पूर्व खिलाड़ियों ने संघ बनाने के प्रयास किए हैं पर बोर्ड उन्हें साम, दाम, दंड, भेद के सहारे कुचलता रहा है. पूर्व भारतीय खिलाड़ी अरुण लाल के अनुसार, ऐसा ही एक प्रयास कुछ वर्ष पहले भी हुआ था. कुछ पूर्व खिलाड़ियों ने मिलकर प्लेयर्स एसोसिएशन का गठन किया था, जिसके अध्यक्ष नवाब पटौदी थे और संस्थापक सदस्यों में सचिन तेंदुलकर, सौरभ गांगुली जैसे दिग्गज थे. लेकिन बीसीसीआई ने उसे मान्यता नहीं दी. मनिंदर सिंह बताते हैं, ‘हमारी परेशानी यही रही है कि बोर्ड को लगता है कि अगर खिलाड़ी संघ बन गया तो क्रिकेट पर उसका एकाधिकार समाप्त हो जाएगा. उसके समकक्ष खिलाड़ियों का एक ऐसा संगठन खड़ा हो जाएगा जो उसे चुनौती दे सकेगा. इसलिए जब भी ऐसे प्रयास हुए बोर्ड ने हमें किसी न किसी हथकंडे का प्रयोग कर इसे तोड़ दिया.’ वह आगे कहते हैं, ‘प्लेयर्स एसोसिएशन कोई समकक्ष संस्था नहीं होती. बोर्ड को यह समझना होगा. यह खिलाड़ियों और शासकों को जोड़ने की कड़ी है. कुछ इस तरह समझिए, अभी होता यह है कि साल के बीच बोर्ड को कभी भी खाली समय मिला वो कोई सीरीज फिक्स कर देता है. अब मान लीजिए अगर प्लेयर्स एसोसिएशन अस्तित्व में है तो खिलाड़ी उसके सामने अपनी बात रख सकते हैं. वे कह सकते हैं कि हम पर खेल का दबाव ज्यादा है और शरीर को आराम का मौका नहीं मिल रहा. एसोसिएशन बोर्ड पर दबाव डाल सकती है, लेकिन फिलहाल तो तानाशाही है. खिलाड़ियों को जैसे चाहे जोत लो.’ अरुण लाल कहते हैं, ‘अभी समिति ने केवल कोर्ट के समक्ष अपनी सिफारिशें रखी हैं. यह तय नहीं हुआ है कि खिलाड़ियों का संघ बन ही रहा है. यह तो भविष्य बताएगा कि क्या होता है.’ मनिंदर सिंह कहते हैं, ‘क्रिकेट एसोसिएशन बनती है तो खिलाड़ियों पर दबाव कम होगा और उनके खेल में भी सुधार आएगा.’ इससे उन खिलाड़ियों की भी आवाज बुलंद होगी जो आर्थिक तौर से क्रिकेट पर ही निर्भर हैं और बीसीआईआई के खिलाफ आवाज उठाने का जोखिम नहीं उठा पाते.

‘क्रिकेट जनता की धरोहर है. फिर जनता को उसके बारे में जानने का हक क्यों नहीं है? यह ताकतवर लोगों की जागीर नहीं है’

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लोकपाल की नियुक्ति से बोर्ड की कार्यप्रणाली में आएगा सुधार

रिपोर्ट में बोर्ड पदाधिकारियों, कर्मचारियों और खिलाड़ियों पर हितों के टकराव, सट्टेबाजी और मैच फिक्सिंग के मामले में नजर रखने के लिए एथिक्स ऑफिसर (नैतिक अधिकारी), निष्पक्ष चुनाव के लिए चुनाव अधिकारी और बोर्ड के आंतरिक मसलों को निपटाने के लिए एक लोकपाल की व्यवस्था की भी बात की गई है. इससे संभावना है कि हमेशा विवादों में घिरे रहने वाले बीसीसीआई की कार्यप्रणाली में सुधार आएगा. वर्तमान स्थिति यह है कि कई मामलों में बीसीसीआई देश के विभिन्न न्यायालयों में मुकदमे लड़ रहा है. इसके बाद उम्मीद है कि ऐसे मामलों मे कमी आ सकती है. साथ ही बोर्ड के वित्तीय लेन-देन पर नजर रखने के लिए कैग के अधिकारी की नियुक्ति की बात भी की गई है. यही संरचना बोर्ड के हर सदस्य संघ को भी अपनानी होगी. देखा गया है कि अधिकांश राज्य क्रिकेट इकाईयां विवादों की शिकार हैं, जिससे खेल और खिलाड़ियों का प्रदर्शन भी प्रभावित हो रहा है. बिहार, राजस्थान, पुडुचेरी के संघों का बोर्ड से विवाद बना हुआ है. दिल्ली क्रिकेट संघ अपने ही आंतरिक भ्रष्टाचार से जूझ रहा है. सिक्किम और छत्तीसगढ़ के संघ भी पूर्ण सदस्यता की मांग के लिए बोर्ड से जूझते ही रहते हैं. मणिपुर क्रिकेट संघ से भी बोर्ड के मधुर संबंध नहीं हैं. वहीं मैचों के आवंटन को लेकर भी विवाद होते रहते हैं. लोकपाल की नियुक्ति के बाद इस स्थिति में निश्चित रूप से सुधार होने की संभावना है. साथ ही आईपीएल की गवर्निंग काउंसिल में पारदर्शिता लाने इसका ढांचा बदला गया है. अब इसमें नौ सदस्य होंगे जिनमें से चार बोर्ड से बाहर के होंगे. [/box]

लोढ़ा समिति की सिफारिशों की लगभग सभी पूर्व खिलाड़ियों ने सराहना की है लेकिन एक मुद्दा है जिस पर मतभेद बना हुआ है. टीम के चयन में पारदर्शिता लाने और इसे भाई-भतीजेवाद से दूर रखने के लिए समिति ने राष्ट्रीय चयन समिति को पांच की जगह केवल तीन सदस्यों तक ही सीमित रखने को कहा है. पूर्व खिलाड़ियों का मानना है कि भारत ऑस्ट्रेलिया नहीं है जहां कुछ चुनिंदा टीमें ही घरेलू क्रिकेट में हैं. भारत में क्रिकेट का ढांचा बहुत बड़ा है. केवल तीन चयनकर्ता सक्षम नहीं होंगे कि वह देशभर के खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर नजर रख सकें. मध्य प्रदेश क्रिकेट संघ के अध्यक्ष व पूर्व राष्ट्रीय चयनकर्ता संजय जगदाले कहते हैं, ‘तीन चयनकर्ताओं का फॉर्मूला व्यावहारिक नहीं होगा. इससे उन पर आवश्यकता से अधिक दबाव होगा.’ मनिंदर सिंह भी कुछ ऐसा ही सोचते हैं. वह कहते हैं, ‘चयनकर्ता तो पांच ही होने चाहिए थे. हां, अच्छी बात यह है कि एक क्रिकेट टैलेंट समिति भी बना दी गई है जो देशभर से प्रतिभा खोजने का काम करेगी. इससे चयनकर्ताओं पर दबाव कम होगा.’ पर आशीष शुक्ला का कहना है, ‘कैसा दबाव? चयनकर्ता घंटेभर में टीम का चयन कर लेते हैं. सारे खिलाड़ी वही होते हैं. विवाद तो बस अपने-अपने जोन के चहेते खिलाड़ियों को तवज्जो देने पर होता है. अब चयन प्रभावी होगा.’

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लेकिन बोर्ड का सबसे बड़ा सिरदर्द है सूचना का अधिकार कानून. जस्टिस लोढ़ा बोर्ड को इसके दायरे में लाना चाहते हैं. वैसे तो पहले भी बीसीसीआई को आरटीआई के दायरे में लाने की बात उठती रही है लेकिन बोर्ड हमेशा इससे बचने का प्रयास करता रहा है. बोर्ड तर्क देता है कि वह एक स्वतंत्र संस्था है, जो सरकार से किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता प्राप्त नहीं करता इसलिए उसे इसके बाहर रखा जाना चाहिए. यह उसकी स्वायत्तता पर हमला होगा. लेकिन जस्टिस लोढ़ा इस पर अलग ही राय रखते हैं. उनका मानना है कि बोर्ड सार्वजनिक कार्यों का निर्वहन करता है. इसलिए लोगों को अधिकार है कि वह बोर्ड की गतिविधियों पर सवाल उठाए. आशीष शुक्ला कहते हैं, ‘क्रिकेट जनता की धरोहर है. फिर जनता को उसके बारे में जानने का हक क्यों नहीं है? यह ताकतवर लोगों की जागीर नहीं है. जो लोग विरोध कर रहे हैं वे सिर्फ संरक्षक हैं और संरक्षक भी इसलिए क्योंकि हम इस खेल को पसंद करते हैं.’ मनिंदर भी आरटीआई के तहत बोर्ड को लाने के समर्थन में हैं. लेकिन उन्हें इस बात का भी डर है कि कल को अगर टीम के चयन पर भी आरटीआई लगाई जाने लगी तो क्या होगा? लेकिन आदित्य वर्मा का कहना है, ‘टीम में चयन प्रदर्शन के आधार पर होता है और प्रदर्शन दिखता है.’ मनिंदर इससे इत्तेफाक नहीं रखते. वह कहते हैं, ‘प्रदर्शन एक तो वह होता है कि खिलाड़ी घरेलू क्रिकेट में रनों का पहाड़ खड़ा कर दे या विकेटों की झड़ी लगा दे. और एक वह होता है कि खिलाड़ी में माद्दा कितना है. वह विपरीत परिस्थितियों में कैसे खुद को ढालता है. कई बार देखा गया है कि घरेलू सत्र में सर्वाधिक रन बनाने और विकेट लेने वाले खिलाड़ी का चयन राष्ट्रीय टीम में नहीं होता, उससे आधे रन या विकेट वाले का हो जाता है. ऐसा सिर्फ इसलिए कि भले ही कम रन बनाए पर जिन हालातों में बनाए वे बहुत कठिन थे. अब कल को होगा ये कि अगर सत्र के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज, गेंदबाज या ऑलराउंडर का चयन टीम में नहीं होगा तो लगा दो आरटीआई. इस चयनकर्ताओं की जरूरत ही नहीं रह जाएगी. सिर्फ जिसके आंकड़े सबसे ज्यादा प्रभावित हों, उसे ही खिलाइए.’ आशीष शुक्ला भी ऐसी संभावना जताते हैं पर यह भी मानते हैं कि अगर किसी काम से दस बुराइयों का अंत हो रहा है और एक पनप रही है तो उस काम को करना चाहिए. वह कहते हैं, ‘आज बोर्ड में इतना गड़बड़ घोटाला है कि अगर इसे आरटीआई के दायरे में नहीं लाया गया तो देश में क्रिकेट सिर्फ पैसा बनाने का एक हथियार बनकर रह जाएगा.’ पर क्या बीसीसीआई इसके लिए राजी होगा?

‘बोर्ड में इतना गड़बड़-घोटाला है कि अगर इसे आरटीआई के दायरे में नहीं लाया गया तो देश में क्रिकेट पैसा बनाने का हथियार बनकर रह जाएगा’

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कुछ अन्य सिफारिशें

  • राष्ट्रीय चयन समिति का हिस्सा केवल वही खिलाड़ी होंगे जिन्होंने टेस्ट मैचों में देश का प्रतिनिधित्व किया है.
  • टीवी पर मैच के प्रसारण के दौरान केवल ड्रिंक/टी ब्रेक और लंच ब्रेक के दौरान ही विज्ञापन दिखाए जाएंगे. साथ ही पूरी टीवी स्क्रीन पर मैच का प्रसारण ही होगा. कोई विज्ञापन नहीं दिखाया जाएगा.
  • आईपीएल और बीसीसीआई के संचालन के लिए अलग-अलग तंत्र होगा.
  • खिलाड़ियों को आराम देने के लिए आईपीएल के सत्र और राष्ट्रीय कैलेंडर में 15 दिन का अंतराल रखना होगा.
  • खिलाड़ियों के एजेंटों का पंजीकरण करना होगा.
  • कमेंटेटर के साथ होने वाले अनुबंध से बोर्ड को वह शर्त हटानी होगी जो उन्हें बोर्ड की नीतियों की आलोचना से रोकती है.
  • बोर्ड से संबंधित हर गतिविधि, दस्तावेज और लेन-देन से संबंधित जानकारी वेबसाइट पर डालनी होगी. राज्य संघ भी इसके लिए बाध्य होंगे.
  • बोर्ड की रोजमर्रा की नान क्रिकेटिंग कार्रवाई के लिए पेशेवरों की टीम सीईओ के नेतृत्व में नियुक्त की जाए. जिससे बोर्ड की कार्यप्रणाली पेशेवर रूप ले.
  • मैच के दौरान स्टेडियम में किसी भी परिस्थिति में टिकट का कोटा 10 प्रतिशत से अधिक नहीं रखा जाएगा. इससे अब जनता के लिए अधिक सीटें उपलब्ध होंगी.
  • टिकट विक्रय और स्टेडियम की सुविधाओं  से संबंधित शिकायत लोकपाल से की जा सकेगी.
  • मैच फिक्सिंग को आपराधिक कृत्य बनाया जाए और भारतीय कानून के मुताबिक सजा हो.
  • फिक्सिंग से निपटने बोर्ड पुलिस में एक अपना विशेष जांच दस्ता बनाए, जो फिक्सिंग के मामले सामने आने पर सक्रिय हो जाए. इस दस्ते का खर्चा बोर्ड उठाए. [/box]

बोर्ड की हालिया स्थिति देखी जाए तो जस्टिस लोढ़ा द्वारा फेंके गए बाउंसर को वह न तो खेलने की स्थिति में है और न छोड़ सकता है. आगे क्या करना है इस पर बोर्ड का रूख अभी स्पष्ट नहीं है. फिलहाल बोर्ड सचिव अनुराग चौधरी ने सभी राज्य संघों को ई-मेल कर इन सिफारिशों पर उनके सुझाव मांगे हैं. उनसे पूछा गया है कि इन सिफारिशों से आपका संघ कितना प्रभावित होगा? लेकिन बोर्ड के लिए आगे की राह मुश्किल नजर आती है. देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा जैसी शख्सियत रखते हैं, उसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनकी सिफारिशों को सिरे से खारिज करने की संभावनाएं कम ही हैं. यहां बोर्ड पूरी तरह से फंसा हुआ है. वह न तो सभी सिफारिशों का अस्वीकार कर सकता है और न ही चुनिंदा को मानने की स्थिति में है. वह उच्चतम न्यायालय के आदेश पर निर्भर है. या तो उसे सभी सिफारिशों को मानना पड़ सकता है या फिर किसी को भी नहीं. वहीं इन सिफारिशों से जिनके हित प्रभावित हो रहे हैं, उनमें खलबली मची हुई है. मुंबई क्रिकेट संघ (एमसीसी) के संयुक्त सचिव पीवी शेट्टी कहते हैं, ‘हम इन सिफारिशों से सहमत नहीं हैं. इन पर विचार कर बीसीसीआई को बताया जाएगा.’ गौरतलब है कि एमसीसी के अध्यक्ष शरद पवार फिर से बोर्ड अध्यक्ष बनने का सपना पाले हुए हैं. लेकिन उनकी उम्र 70 के पार हो चुकी है.

अब यह देखना रोचक होगा कि क्या यह सिफारिशें लागू होती हैं और देश के क्रिकेट में लोढ़ा युग की शुरुआत होती है या फिर पहले की तरह ही खेल के साथ खिलवाड़ होता रहेगा.