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‘ओवर की आखिरी गेंद… सचिन ने फाइन लेग की तरफ खेल दिया है … और इस एक रन के साथ ही सचिन का शतक पूरा..’

कमेंटटेर की आवाज के बीच अचानक से टीवी पर क्रिकेट प्रसारण रुक जाता है. फेयरनेस क्रीम का विज्ञापन आने लगता है. दो मिनट बाद प्रसारण शुरू होता है. सचिन नए ओवर की पहली गेंद खेल रहे होते हैं.

यह तो महज एक उदाहरण था. हम अक्सर टीवी पर क्रिकेट देखते समय ऐसी स्थिति से रूबरू होते ही रहते हैं. कभी-कभी तो ओवर की आखिरी गेंद फेंके जाने से पहले ही टीवी स्क्रीन पर विज्ञापन आ जाता है तो कभी ओवर की पहली गेंद देखने से चूक जाते हैं.

विज्ञापन क्रिकेट पर इतना हावी है कि यह खेल प्रसारण कंपनियों के लिए पैसा बनाने की मशीन बन गया है. केवल ब्रेक के ही दौरान विज्ञापन नहीं दिखाए जाते, प्रसारण के दौरान भी हर वक्त टीवी स्क्रीन पर विज्ञापन की पट्टी चलती रहती है. चौके-छक्के और विकेट के रिप्ले तक विज्ञापन के साथ दिखाए जाते हैं. इस कारण दर्शक कई ऐसे क्षण, जो एक दर्शक की भावनाओं को खेल से जोड़ते हैं, देखने से चूक जाते हैं.

विज्ञापनों के इस अर्थगणित के बीच पहली बार लोढ़ा समिति ने इस खेल से जुड़ी दर्शकों की भावनाओं की बात की है. समिति ने सुप्रीम कोर्ट को सौंपी अपनी रिपोर्ट में विज्ञापन प्रसारण  की गाइडलाइन तय की है. इसके अनुसार मैच के दौरान विज्ञापन केवल लंच और टी ब्रेक के समय ही दिखाए जाएंगे. अगर ऐसा होता है तो भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिहाज से यह एक ऐतिहासिक फैसला होगा, लेकिन बीसीसीआई का पूरा अर्थतंत्र गड़बड़ा जाएगा. बीसीसीआई के राजस्व के एक बहुत बड़े हिस्से का स्रोत टीवी प्रसारण अधिकार हैं. वर्तमान में साल में 650 करोड़ रुपये की कमाई वह इन्हें बेचकर करता है. 2018 तक यह अधिकार स्टार इंडिया के पास हैं. बीसीसीआई ने उसके साथ 2012 में 3,851 करोड़ रुपयेे का अनुबंध छह सालों के लिए किया था. वह एक मैच के प्रसारण का अमूमन 45 करोड़ रुपये बीसीसीआई को देता है. अगर लोढ़ा समिति की सिफारिशें मानने के लिए बीसीसीआई बाध्य होता है तो उसे स्टार इंडिया के साथ अपने अनुबंध को नए सिरे से करना होगा. उस स्थिति में बीसीसीआई को एक बड़ा आर्थिक नुकसान सहना पड़ सकता है.  ब्रॉडकास्टिंग कंपनियों के अार्थिक गणित को समझें तो वह अपना पैसा विज्ञापन और चैनल की सब्सक्रिप्शन फीस के जरिए निकालती हैं. सब्सक्रिप्शन फीस मामूली होती है. लंच और टी ब्रेक के दौरान ज्यादा विज्ञापन चला नहीं सकते. दर्शक चैनल बदल देता है. इससे विज्ञापन से होने वाली उनकी कमाई न के बराबर हो जाएगी. इस स्थिति में वह अपनी सब्सक्रिप्शन फीस तो बढ़ा सकते है पर वह पर्याप्त नहीं होगी. यह भार बीसीसीआई पर ही आएगा और अनुबंध राशि में भारी कमी आएगी. ऐसे में बोर्ड प्रयास करेगा कि ऐसा संभव न हो.

क्रिकेट विशेषज्ञ आशीष शुक्ला कहते हैं, ‘नुकसान उठाना पड़ेगा लेकिन बोर्ड का अर्थ नहीं बिगड़ेगा. पर्याप्त धन है उसके पास. विश्व का सबसे धनी बोर्ड है. विश्व क्रिकेट के अर्थ में 70 फीसदी हिस्सा उसका है लेकिन विज्ञापन हटाना जनहित में है. इससे मैच का रोमांच बिगड़ता है. वैसे भी आईपीएल तो इससे मुक्त है, वहां से बनाइए पैसा.’ क्रिकेट प्रेमी सौरभ अरोड़ा कहते हैं, ‘खेल के दौरान कई ऐसे क्षण आते हैं जब आपकी भावनाएं चरम पर होती हैं. आप खेल से भावुकता की हद तक जुड़ जाते हैं लेकिन विज्ञापन का दखल आपकी भावनाओं का मजाक उड़ाता जान पड़ता है. हम भी देखना चाहते हैं कि दर्द से कराहता एक चोटिल खिलाड़ी देश के लिए मैदान पर डटे रहने का जज्बा कहां से और कैसे लाता है. ओवर समाप्ति के बाद वह अपने दर्द को नए ओवर की शुरुआत के पहले कैसे पी जाता है. आखिरी बॉल तक चलने वाले करीबी मुकाबलों में ब्रेक के दौरान खिलाड़ी कैसे रणनीति बनाते हैं. दबाव दूर भगाते हैं लेकिन अभी तो स्थिति यह है कि स्क्रीन पर चलने वाली विज्ञापन की पट्टी के कारण हम स्कोर ही नहीं देख पाते हैं. अब ऐसी सिफारिश की गई है तो इस पर अमल होना चाहिए.’  एक अन्य क्रिकेट प्रेमी राहुल काले कहते हैं, ‘हम दर्शक ही हैं जिनकी दीवानगी क्रिकेट को इतना लोकप्रिय बनाती है. इसी लोकप्रियता को बीसीसीआई पैसे के रूप में भुनाता है. पैसा देखने से पहले उसे दर्शकों की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट का फैसला आए उससे पहले ही उसे विज्ञापन मुक्त प्रसारण की घोषणा कर देनी चाहिए.’ आशीष शुक्ला कहते हैं, ‘पैसे और प्रसारण का नेक्सस टूटना चाहिए. मैंने दूसरे देशों में भी रहकर क्रिकेट को फॉलो किया है. वहां निर्बाध प्रसारण होता है. विज्ञापन नहीं, खाली समय में भी क्रिकेट पर चर्चा होता है.’

बहरहाल अगर लोढ़ा समिति की इस सिफारिश पर अमल होता है तो देश में क्रिकेट के प्रसारण की तस्वीर ही बदल जाएगी. यह दूसरे खेलों के लिए भी नजीर साबित होगा. जहां तक बीसीसीआई को होने वाले आर्थिक नुकसान की बात है तो उसकी क्षतिपूर्ति लोढ़ा समिति की अन्य सिफारिशों से होती दिखती है. जैसे कि  सदस्य राज्य संघों को आत्मनिर्भर बनकर अपने पास उपलब्ध संसाधनों से स्वयं ही राज्य में क्रिकेट के विकास के लिए पैसा जुटाने के प्रयास करने होंगे. इसके तरीके भी सुझाए गए हैं. इन सिफारिशों से बोर्ड द्वारा उन्हें दी जानी वाली वार्षिक अनुदान राशि में कमी आएगी. जिससे प्रसारण अधिकार से होने वाले घाटे की भरपाई हो सकती है.