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खींच ही लाता है शिल्प का आकर्षण

देश की सांस्कृतिक परम्परा को बचाये रखने के लिए शिल्पकारों का बचे रहना ज़रूरी है; साथ ही उनके शिल्प को अहमियत देने की भी ज़रूरत है। समय के साथ बदलाव को देखते हुए लोगों का आकर्षण पुन: देसीपन की ओर गया है। इससे लोग अब शिल्प से जुड़े उत्पादों को अहमियत और प्राथमिकता देने लगे हैं। चंडीगढ़ में 15 से 24 नवंबर तक 11वें राष्ट्रीय शिल्प मेले का आयोजन किया गया। इसमें देश-भर के क्राफ्ट से जुड़े शिल्पकार जुटे और अपने-अपने अनुभव बताये।

खुर्जा से आये सुल्तान अहमद पिछले 18 साल से पॉटरी (मिट्टी के बर्तन) के काम में लगे हैं। सुल्तान ने बताया कि एक समय था, जब कोयले की भट्टी का इस्तेमाल किया जाता था। 15 दिन में एक बार चलती थी और सारा माल तैयार हो जाता था। लेकिन अब ची•ों बदल गयी हैं। अब काफी खर्च किये जाने के बाद अडानी का गैस प्लांट लग गया है; लेकिन इससे छोटे व्यापारियों पर खतरा मँडराने लगा है। कोयल की भट्टी से प्रदूषण फैलने की बात पर सुल्तान कहते हैं कि छोटे व्यापारियों के लिए सरकार िकस्तों में गैस भट्टी लगाने की व्यवस्था करे। अडानी का गैस कनेक्शन फ्री में किया जाए साथ ही प्रशिक्षण की भी व्यवस्था की जाए।

मार्बल क्राफ्ट के कारोबार में आये मोहाली के सेवक सिंह मायूस नज़र आये। जब उनसे जानना चाहा, तो उन्होंने बताया कि लोग हस्तशिल्प से जुड़ी चीज़ों को देखने के लिए तो जुटते हैं, लेकिन छोटे-छोटे आइटम भी बेहद कम खरीद रहे हैं। सेवक सिंह ने बताया कि वह ऑनेक्स मार्बल अफगानिस्तान से मँगवाते हैं। इनकी विशेषता यह है कि पारदर्शी, चमकीला और ओरिजनल है। उनका मानना है कि प्लास्टिक को हटाने में भी यह मार्बल यह सहायक हो सकता है। सेवक को मलाल इस बात कहा है कि निर्यात करने में दिक्कत आती है साथ ही वाया पाकिस्तान आता था; लेकिन ट्रांसपोर्टेशन बन्द होने से यह और महँगा पड़ रहा है। भारतीय मार्बल सफेद और इससे भी कई उत्पाद तैयार किये जाते हैं। तैयार करने में बढ़ते लेबर खर्च को लेकर भी चिन्ता जतायी।

पश्चिम बंगाल के मिदनापुर •िाले के सारता गाँव से पहुँचे शिल्पकार खुश नज़र आये। वे नेचुराल फाइबर से बनी चटाइयाँ, पर्स और अन्य कई चीज़ें लाये, जिनके ज़रिये उन्होंने अच्छा कारोबार किया। शिल्पकार ने बताया कि उनके शिल्प उद्योग में दो से तीन हज़ार तमिल शिल्पकार काम करते हैं।

दरअसल, नेचुरल फाइबर खास िकस्म की घास है, जिसकी साल में तीन पैदावार हो जाती हैं या कहें कि तीन फसल मिल जाती हैं। इस घास को पानी में भिगोने, फिर सुखाने की प्रक्रिया में काफी समय लगता है, इसके बाद बहुद्देश्यीय क्राफ्ट तैयार किया जाता है। इसकी माँग देश से लेकर विदेश तक में भी बढ़ रही है।

झारखण्ड में भूमि-अधिग्रहण और आदिवासी आंदोलन

झारखण्ड में भूमि अधिग्रहण के िखलाफ आदिवासी आन्दोलन को समझने के लिए मैंने वहाँ के कुछ आन्दोलनकारी साथियों से बात की। उनमें से श्रमिक व उपेक्षित वर्गों के पक्ष में 80 वर्षीय आन्दोलनकारी ज्ञान शंकर मजूमदार से तथा अन्य लोगों से उनकी व्यथा की जानकारी मिली। दु:ख की बात यह है कि जिन आदिवासियों ने देश की आज़ादी में बढ़-चढ़कर भाग लिया, आज वही बेघर हो रहे हैं। उनका कुसूर सिर्फ इतना है कि वे आज भी जल-जंगल-ज़मीन को बचाने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। विदित हो कि हमारे देश में अगर सदैव साथ-साथ आज़ादी की पहली लड़ाई के समय झारखण्ड के आदिवासी इलाकों में विद्रोह शुरू हो गया था। मगर भारत के इतिहास में झारखण्ड के आदिवासियों की कुर्बानियों का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है। प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए आदिवासियों ने अंग्रेजों से भी लड़ाई लड़ी और आज सरकारों और पूँजीपतियों से भी लड़ रहे हैं। अंग्रेजों के िखलाफ पहला विद्रोह तिलका माझी ने किया। यह क्षेत्र आज का संथाल परगना क्षेत्र है। उस समय यह क्षेत्र दामिन ई कोह के नाम से जाना जाता था। बाद में इस क्षेत्र का नाम संस्थाल परगना पड़ा। पहले विद्रोह में तिलका माझी के साथ सिधू और कानू भी शामिल थे। इस लड़ाई का विस्तार भागलपुर तक भी हुआ। दूसरा महत्त्वपूर्ण आदिवासी-विद्रोह संथाल-विद्रोह हुआ; जिसको संथाल-विद्रोह के नाम से जाना जाता है। यह मुख्यत: दो मुद्दों पर था। सरकार 1855-1856 में रेलवे लाइन बिछा रही थी, जिसके लिए उनकी ज़मीनें ली जा रही थीं। रेलवे के निर्माण के लिए ज़बरदस्ती संथाल परगना में मज़दूरों से काम कराया जा रहा था। ये दो मुद्दे थे, जिसके कारण उन्होंने विद्रोह किया था। तीसरा कारण ज़मींदारों का शोषण था। पूर्वोत्तर भारत में ज़मींदारी प्रथा स्थापित हो चुकी थी। ज़मींदार उनसे कर (टैक्स) की वसूली करते थे। संथाल विद्रोह मुख्यत: अंग्रेजी सरकार और ज़मींदारी-व्यवस्था के विरुद्ध था। इस तरह के छोटे क्षेत्र में 10 हज़ार संथालों ने अपनी जान की कुर्बानी दी। इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास में इसका उल्लेख नहीं किया है; क्योंकि यह इतिहास ब्रिटिश-इतिहासकारों ने लिखा है। संथाल के आदिवासी-विद्रोह को ज़मींदारी-प्रथा और ब्रिटिश सरकार के विरोध में माना जा सकता है। इसका दूसरा पहलू भी है कि गैर- आदिवासी लोगों ने भी इस विद्रोह में मदद की थी। जैसे लोहार, कुम्हार और दूधिया लोगों ने मदद की थी। वे लोग आदिवासियों के संदेश वाहक थे। इसमें किसी जाति या वर्ग का हिस्सेदारी नहीं थी। इसके अगुआ आदिवासी थे और उसकी सहायता के लिए लोहार, कुम्हार, दुधिया और अन्य वर्गों के लोग शामिल थे। यह बहुत ही रोचक है।

संथाल विद्रोह के अलावा 1880 में कोल विद्रोह हुआ। आिखरी विद्रोह बिरसा मुंडा ने किया था; जिसको मुंडा-विद्रोह के नाम से जाना जाता है। वे आदिवासियों के सरदार थे; जिसे सरदार-विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है। इससे पहले भी कुछ सरदार-विद्रोह हुआ था; लेकिन इस विद्रोह के आिखरी सरदार बिरसा थे। यह विद्रोह संथाल विद्रोह से अलग था। यह विद्रोह फॉरेस्ट-विद्रोह था। जो 1870 फॉरेस्ट एक्ट के विरोध में हुआ था। यह विद्रोह मुख्यरूप से फॉरेस्ट-एक्ट के विरोध में था। बाद में उनको पकड़कर जेल में बंद कर दिया गया; जिनकी मृत्यु सन् 1900 में हो गयी। कुछ लोगों का कहना है कि उन्हें मार दिया गया और कुछ लोगों का कहना है कि वह मर गये। कुछ भी हो संथाल-विद्रोह में बहुत गंभीरता, गहनता और दिशा-निर्देश थे। झारखण्ड के खनिज पदार्थों से सम्पन्न प्रदेश होने का खामियाज़ा भी इस क्षेत्र के आदिवासियों को चुकाते रहना पड़ा है। यह क्षेत्र भारत का सबसे बड़ा खनिज क्षेत्र है, जहाँ कोयला, लोहा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है और इसके अलावा बाक्साइट, ताँबा चूना-पत्थर इत्यादि जैसे खनिज भी बड़ी मात्रा में हैं। यहाँ कोयले की खुदाई पहली बार सन् 1856 में शुरू हुआ और टाटा आयरन एंड स्टील कम्पनी की स्थापना 1907 में जमशेदपुर में की गयी। इसके बावजूद कभी इस क्षेत्र की प्रगति पर ध्यान नहीं दिया गया। केन्द्र में चाहे जिस पार्टी की सरकार रही हो, उसने हमेशा इस क्षेत्र के दोहन के विषय में ही सोचा था। आज़ादी के बाद कांग्रेस पार्टी के लिए यह सहूलियत हुई कि बिरसा भगवान थे। उन्होंने एक मज़हब स्थापित किया; जिसे विरसाइत के नाम से जाना जाता है। एक युवा के तौर पर बिरसा ने क्रिश्चियनिटी (इसाईयत) को अपनाया था। बाद में उन्होंने क्रिश्चियनिटी को छोड़ दिया और अपना धर्म स्थापित किया। जो बिसाइयत के नाम से जाना गया। बिरसाइयत में प्रकृति की पूजा होती है, जिसे धरती-आबा कहा जाता है। यह 10 कमांडमेंट के समान है। जैसे क्रिश्चियनिटी में अपने मानने वालों को 10 कमांडमेंट दिये जाते हैं। संथाल-विद्रोह का नेतृत्व सिधू और कानू नामक दो भाइयों ने किया था। उस विद्रोह में इतनी तीव्रता थी कि इन दोनों भाइयों का फाँसी पर लटका दिया गया। कानू उन दोनों में प्रमुख थे। वह पेड़, जिस पर उनको फाँसी दी गई थी; आज भी शहर में है। वह स्थान गोडा •िाला में है। इस विद्रोह ने उनको इतना झकझोर दिया कि वहाँ पर अर्द्धसैनिक बल का शासन स्थापित किया गया, जो आज भी वहाँ स्थापित है। इसका प्रमाण यह है कि आज भी वहाँ •िाला कमिश्नर का शासन स्थापित है। इनको •िाला कमिश्नर क्यों कहा जाता है? हरियाणा के कुछ इलाकों में भी •िाला कमिश्नर हैं, उनके पास अधिक शक्ति है। उनके पास पुलिस-बल भी है।

तीसरी सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब 1872 के अधिनियम-3 को स्थापित किया गया, जिसके मुताबिक उनकी ज़मीन को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता है। आज़ादी के ठीक बाद 1949 में 1872 के अधिनियम-3 के नाम बदलकर संथाल परगना प्रवृत्ति अधिनियम कर दिया गया, जिसके अनुसार ज़मीन हस्तांतरित नहीं की जा सकती है। इसके अनुसरण में दूसरे अन्य विद्रोह भी किये गये। जब भारतीय संविधान बनाया गया, तो उसमें दो समितियाँ बनायी गयीं। एक नॉर्थ-ईस्ट रीजन और दूसरी सेन्ट्रल इंडिया। हम अभी 370 की बात कर रहे हैं; लेकिन हमारे संविधान के 6 शेड्यूल (अनुसूची) में नार्थ ईस्ट रीजन को प्रस्तावित किया गया था। 6 शेड्यूल (अनुसूची) आदिवासी का चयनित बॉडी है। यह शक्तिहीन रूप में भारतीय संविधान की अवधारणा का वहन करता है। 6 सेड्यूल आदिवासी क्षेत्रों के लिए है। इसमें झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, महाराष्ट्र, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और आन्ध्र प्रदेश के आदिवासी क्षेत्र शामिल हैं। संविधान की पाँचवीं अनुसूची में एरिया का विनियमन है। राज्यवार विनियमन अलग-अलग है। उन्होंने राज्यवार विनियमन बनाया है। इसके आधार पर जब पंचायत राज्य चेप्टर-9 को लागू किया गया, तो यह आदिवासी इलाकों में लागू नहीं हुआ। बाद में जब पेशा (पंचायत एक्सटेंशन डिफ्यूटेड एरिया एक्ट) पंचायती राज्य आदिवासी बहुल क्षेत्र के लागू किया गया। अभी भी 14 क्षेत्र ऐसे हैं, जो शेड्यूल एरिया में आता है। वहाँ कुछ शेड्यूल एरिया के साथ-साथ शहरी क्षेत्र (अर्बन एरिया) भी है। ज्ञानशंकर मजूमदार ने बताया कि जब झारखण्ड बनाया गया, उस समय बाबूलाल मरांडी मुख्यमंत्री थे। उन्होंने कानून को बदला और ब्लॉक के हिसाब से आरक्षण लागू किया। इससे पहले 1971 में शेड्यूल एरिया में •िालों को शामिल किया गया। 2003 में झारखण्ड बनाने के बाद भारत सरकार ने नोटिफिकेशन बाबूलाल मरांडी के विस्तार में जारी किया। दोबारा खासतौर पर मैंने इस पर पहल की थी। 2007 में री-नोटिफिकेशन जारी किया गया, जिसमें अब शहरी क्षेत्र भी शामिल किया गया।

पहले इसमें सिर्फ ग्रामिण क्षेत्र ही शामिल था। परमानेंट सेटलमेंट एक्ट (स्थायी अधिनियम) लागू होने के बाद जब बहुत-से आन्दोलन पूर्वी उत्तर प्रदेश तक चला, जिसमें बहुत सारे धरना-प्रदर्शन और आन्दोलन के बाद एक अधिनियम बना; उसमें संथाल परगना को छोड़कर छोटा नागपुर में  टेंडेंसी एक्ट (प्रवृत्ति अधिनियम) को लागू किया गया। यहाँ दो भूमि अधिनियम बने, जो बिहार भूमि प्रवृत्ति अधिनियम से भिन्न है। बिहार प्रवृत्ति अधिनियम बाद में आया। बंगाल प्रवृत्ति अधिनियम, बिहार प्रवृत्ति अधिनियम, संथाल परगना प्रवृत्ति अधिनियम और छोटा नागपुर प्रवृत्ति अधिनियम, बिहार को छोड़कर एक अलग अधिनियम है। इसमें अन्तर यह है कि संथाल परगना प्रवृत्ति अधिनियम में भूमि हस्तांतरित नहीं हो सकती है। लेकिन शक्तिहीन रूप में छोटा नागपुर प्रवृत्ति अधिनियम के अंतर्गत भूमि अपनी जाति के अंतर्गत हस्तांतरित हो सकती है। इसमें •िाले के अंतर्गत आदिवासी से आदिवासी, पिछड़ी जाति से पिछड़ी जाति में भूमि हस्तांतरित की जा सकती है।  अब वे इसमें परिवर्तन करने की कोशिश कर रहे हैं। इसीलिए सीएनटी एक्ट (छोटा नागपुर अधिनियम) लागू किया है। फिर 1912 में छोटा नागपुर उन्नत समाज छोटा नागपुर के इलाके के विकास के लिए बनाया गया। 1934 में छोटा नागपुर समाज के संघर्ष के परिणामस्वरूप छोटा नागपुर प्रवृत्ति अधिनियम लागू हुआ।

राजनीतिक स्तर पर 1938 में जयपाल सिंह के नेतृत्त्व में झारखण्ड पार्टी का गठन हुआ, जो पहले आमचुनाव में सभी आदिवासी •िालों में पूरी तरह से दबंग पार्टी रही। जब राज्य पुनर्गठन आयोग बना, तो झारखण्ड की भी माँग उठी; जिसमें तत्कालीन बिहार के अलावा उड़ीसा और बंगाल का भी क्षेत्र शामिल था। आयोग ने उस क्षेत्र में कोई एक आम भाषा न होने के कारण झारखण्ड के दावे को खारिज कर दिया। 1950 के दशकों में झारखण्ड पार्टी बिहार में सबसे बड़े विपक्षी दल की भूमिका में रही; लेकिन धीरे-धीरे इसकी शक्ति का क्षय होना शुरू हुआ। आंदोलन को सबसे बड़ा आघात तब पहुँचा, जब 1963 में जयपाल सिंह ने बिना अन्य सदस्यों से विचार-विमर्श किये झारखण्ड पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप छोटा नागपुर क्षेत्र में कई छोटे-छोटे झारखण्ड नामधारी दलों का उदय हुआ, जो आमतौर पर विभिन्न समुदायों का प्रतिनिधित्त्व करती थीं और विभिन्न मात्राओं में चुनावी सफलताएँ भी हासिल करती थीं।

झारखण्ड आंदोलन में ईसाई-आदिवासी और गैर-ईसाई आदिवासी समूहों में भी परस्पर प्रतिद्वंद्विता की भावना रही है। इसके कुछ कारण शिक्षा का स्तर रहे, तो कुछ राजनीतिक। 1940, 1960 के दशकों में गैर-ईसाई आदिवासियों ने अपनी अलग संस्थाओं का निर्माण किया और सरकार को प्रतिवेदन देकर ईसाई आदिवासी समुदायों के अनुसूचित जनजाति के दर्जे को समाप्त करने की माँग की, जिसके समर्थन और विरोध में राजनीतिक गोलबंदी भी खूब हुई। अगस्त 1995 में बिहार सरकार ने 180 सदस्यों वाले झारखण्ड स्वायत्तशासी परिषद् की स्थापना की। बिनोद बिहारी महतो 25 साल तक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। उनका अविश्वास अखिल भारतीय दलों से टूट चुका था। उन्होंने सोचा था कि कांग्रेस और जनसंघ सामंतवाद, पूँजीवादी लिए थे; दलित और पिछड़ी जाति के लिए नहीं थे। इसलिए इन दलों के सदस्य के रूप में दलित और पिछड़ी जाति के लिए लडऩा मुश्किल है। फिर उन्होंने झारखण्ड मुक्ति मोर्चा बनाया। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के बैनर तले झारखण्ड अलग राज्य के लिए कई आंदोलन हुए। 1986 में निर्मल महतो ने ऑल झारखण्ड स्टूडेंट्स यूनियन की स्थापना की और झारखण्ड नाम के अलग राज्य के लिए कई आंदोलन किये।

गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा अधिकतर आन्दोलनों का नेतृत्त्व किया गया। अलग राज्य की माँग के बाद बहुत बदलाव हुआ। भूमि-अधिग्रहण के िखलाफ सबसे बड़ा आन्दोलन बिरसा मुंडा का था। उसके बाद छोटा नागपुर उन्नत समाज का। उसके बाद सारा का सारा आन्दोलन अलग राज्य की माँग को लेकर हुआ। विस्थापन की समस्या वहाँ रही। इसका मोमेन्टम कुछ और रहा। राज्य में कोई बड़ा आन्दोलन नहीं हुआ। कुछ स्थानीय आन्दोलन रहे। वहाँ खतियानी आन्दोलन स्थानीय स्तर पर चला। यह आन्दोलन उच्च न्यायलय तक गया। लेकिन उच्च न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया। पंचायत चुनाव का मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय तक आया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि पंचायत चुनाव आरक्षण के आधार पर लड़ा जाए। यह उस इलाके के लिए बड़ा फैसला था। इसके अलावा कोई ऐसा मुद्दा मेरी नज़र में नहीं है जो सर्वोच्च न्यायालय तक गया हो। एक लड़ाई यह भी है कि निजी क्षेत्र में कोई आरक्षण नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्रों में अनुसूजित जाति अनुसूचित जनजाति के आधार पर आरक्षण दिया जाता है। 2013 में भूमि-अधिग्रहण संशोधन विधेयक में भूमि-अधिग्रहण अधिनियम पारित हुआ। उसमें में संथाल परगना के प्रावधान को नहीं छेड़ा गया है। यह उनके आन्दोलन की सबसे बड़ी कामयाबी है।

महाराष्ट्र की ‘महा’ सियासत

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद फडणवीस और अजित पवार के इस्तीफे के दो दिन बाद 28 नवंबर को कांग्रेस और एनसीपी के सहयोग से महाराष्ट्र के  मुख्यमंत्री के तौर पर शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने शपथ ले ली।

महाराष्ट्र में तमाम उलटफेर के बीच ठाकरे परिवार से पहली बार आिखरकार शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बन गये। इसमें कांग्रेस का विधानसभा अध्यक्ष होने के साथ ही उसके 13 मंत्री होंगे, जिनमें नौ कैबिनेट स्तर के बाकी चार राज्य मंत्री होंगे। सरकार मेंबाकी दोनों सहयोगी दलों यानी शिवसेना की हिस्सेदारी 16 मंत्रियों की, जबकि एनसीपी कोटे से 15 मंत्रियों की रहेगी।

26 नवंबर को संविधान दिवस पर सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ का आदेश था कि अगले दिन शाम 5 बजे तक महाराष्ट्र विधानसभा में फडणवीस सरकार बहुमत साबित करे। वह भी लाइव और गुप्त मतदान नहीं होगा। इसके महज़ कुछ घंटों बाद ही पहले उप मुख्यमंत्री अजित पवार और उसके बार मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने इस्तीफा दे दिया। इससे पहले 23 नवंबर की सुबह 7:30 बजे तमाम अटकलों और कयासों के बीच रातोंरात नाटकीय ढंग से भाजपा के देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री और एनसीपी नेता अजित पवार ने उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इससे ठीक पहले शिवसेना, कांग्रेस और राकांपा ने मिलकर नयी सरकार के गठन का ऐलान किया था। राज्यपाल की मनमानी और दुर्भावनापूर्ण कार्यवाहियों और निर्णयों के िखलाफ तीनों दल सुप्रीम कोर्ट पहुँच गये थे। जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने 25 नवंबर को फैसला सुरक्षित रख लिया था।

इसके बाद शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने 27 नवंबर की शाम को कांग्रेस और शिवसेना के साथ मिलकर महाविकास अघाड़ी के बैनर तले मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।

24 नवंबर को शीर्ष अदालत ने निर्देश दिया था कि केंद्र सरकार मुख्यमंत्री फडणवीस को आमंत्रित करने का शपथ-पत्र व राज्यपाल के भेजे आमंत्रण-पत्र के साथ तलब करे। 25 नवंबर को जस्टिस एनवी रमना, अशोक भूषण और संजीव खन्ना की तीन जजों वाली बेंच ने कपिल सिब्बल और एएम सिंघवी के प्रतिनिधित्त्व वाले कांग्रेस-राकांपा-शिवसेना गठबन्धन की दलीलें सुनीं। केंद्र की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत में दलीलें दीं। भाजपा और कुछ निर्दलीय विधायकों की ओर से वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी पेश हुए।

केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्त्व करने वाले सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी और वर्तमान मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के पत्रों को प्रस्तुत करते हुए अनुरोध किया कि राज्यपाल तथ्यों से अवगत थे और चुनाव परिणाम आने के बाद ऐसी स्थिति बनी थी कि राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। राज्यपाल ने राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करने के बाद कहा था कि कोई भी राजनीतिक दल या गठबन्धन महाराष्ट्र में सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था।

सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और उप मुख्यमंत्री अजित पवार के पत्रों को देखा, जिनके ज़रिये सरकार के गठन के लिए दावा किया गया था। सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि पत्र में सभी 54 राकांपा विधायकों का समर्थन था। इसने महाराष्ट्र के राज्यपाल कोश्यारी के पत्र को भी स्कैन किया। कोशियारी ने पत्र के देवेंद्र फडणवीस को राज्य में सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था।

भाजपा और कुछ निर्दलीय विधायकों की ओर से पेश वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने दलील दी कि अजित पवार के पत्र ने देवेंद्र फडणवीस का समर्थन किया। किसी भी मामले में पत्र जाली नहीं थे और महाराष्ट्र के राज्यपाल ने सही तरीके से काम किया था। मुकुल रोहतगी की दलील पर सुप्रीम कोर्ट ने चुटकी ली और कहा कि अगर सब सही है, तो सदन में फडणवीस को बहुमत साबित करे।

शिवसेना की ओर से पेश कपिल सिब्बल ने सर्वोच्च अदालत को बताया कि तीनों दलों जब उद्धव ठाकरे को अपना मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया, तब ऐसा कौन-सा राष्ट्रीय आपातकाल आ गया था कि सुबह तड़के 5:27 बजे राष्ट्रपति शासन हटाना पड़ा और सुबह 8 बजे से पहले ही मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी गयी। उन्होंने कहा कि इस तरह का कृत्य इतिहास के पन्नों में दर्ज किया जाएगा कि कैसे राष्ट्रपति शासन हटाकर नयी सरकार का गठन किया गया। उन्होंने कांग्रेस-एनसीपी-कांग्रेस के 154 विधायकों का समर्थन किये जाने का तर्क रखकर अगले 24 घंटे में नयी सरकार को बहुमत साबित करने की दलील रखी।

शरद पवार की राकांपा और कांग्रेस की ओर से सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील एएम सिंघवी ने महाराष्ट्र के 154 विधायकों के समर्थन का हलफनामा पेश करते हुए फडणवीस सरकार को अनैतिक और धोखाधड़ी की सरकार करार देते हुए तत्काल बहुमत साबित करने की माँग रखी। फिर भी शीर्ष अदालत ने सिंघवी को गठबन्धन का समर्थन करने वाले महाराष्ट्र के 154 विधायकों के हलफनामे के साथ नई याचिका वापस लेने के लिए कहा; क्योंकि यह भाजपा को नहीं दी गयी थी। शीर्ष अदालत ने विधानसभा में फ्लोर टेस्ट की बात कहकर महाराष्ट्र विधानसभा के पाले में गेंद डाल दी थी।

22-23 की नाटकीयता

23 नवंबर की सुबह देवेद्र फडणवीस की महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में नाटकीय ढंग से वापसी करते हुए दोबारा मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। इसके लिए उन्होंने एनसीपी के अजित पवार का समर्थन लिया साथ ही उनको भी उप मुख्यमंत्री पद की राज्यपाल से बाकायदा शपथ दिलवा दी। मीडिया रिपोटों के अनुसार, अजित पवार ने चुपचाप 22 नवंबर की देर रात बैठक छोड़ दी और कथित तौर पर भाजपा में उनके वार्ताकारों के सामने आ गये और उन्हें 54 एनसीपी विधायकों के हस्ताक्षर वाला पत्र सौंप दिया।

निस्संदेह भाजपा की महाराष्ट्र इकाई के सूत्रों ने तब दावा किया था कि हस्ताक्षरों वाले पत्र में फडणवीस के नेतृत्त्व वाली सरकार को समर्थन देने का अधिकार एनसीपी विधानमंडल दल के नेता से मिला। इसलिए व्यक्तिगत रूप से अलग से समर्थन-पत्र माँगने की कोई आवश्यकता नहीं थी। बहरहाल कई विशेषज्ञों ने फडणवीस सरकार के •यादा दिन टिकने पर सन्देह ही जताया, खासकर तब जब 23 नवंबर की सुबह कुछ एनसीपी विधायक ही अजित पवार के साथ राजभवन पहुँचे, जिनको बाद में एनसीपी ने गुमराह करने की बात कही। बाद में अजित के साथ शामिल इन्हीं विधयकों में से तीन विधायकों ने शरद पवार के नेतृत्त्व में प्रदर्शन किया और प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी हिस्सा लिया। महाराष्ट्र में जब शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस मुख्यमंत्री के तौर पर उद्धव ठाकरे का नाम फाइनल किया था, तब उसके 11वें घंटे में ही तख्तापलट कर भाजपा ने अपनी सरकार बनवा ली।

पिछले कुछ दिनों में तीनों गठबन्धन सहयोगियों के शिविरों में व्यस्त राजनीतिक गतिविधियों की सुगबुगाहट हुई है, जिसमें भाजपा देखो और प्रतीक्षा करो की स्थिति में थी। पर अब सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद गठबन्धन सरकार की स्थापना के लिए विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद उद्धव ठाकरे का मार्ग साफ हो गया। इस तरीके से एक महीने से चल रहा उथल-पुथल अपनी परिणति को पहुँचा।

दशकों से भाजपा की सहयोगी रही शिवसेना और लम्बे समय से सहयोगी रहे एनसीपी और कांग्रेस के अलग-अलग वैचारिक दलों का एक साथ आना कई राजनीतिक पंडितों के लिए नये मौके प्रदान करने वाला है। विधानसभा चुनाव में शिवसेना और भाजपा के साथ लडऩे के बाद दोनों के बीच इस बात पर नाराज़गी बढ़ गयी कि दोनों का मुख्यमंत्री ढाई-ढाई का साल रहेगा। इसको शिवसेना ने नाक का सवाल बना लिया और इससे दूरी तब और बढ़ गयी, जब भाजपा ने शिवसेना को कोई भाव नहीं दिया। इसके बाद एनसीपी ने मौका देख फौरन शिवसेना को अपने पाले में कर लिया। इसमें कांग्रेस को भी जोड़ लिया; क्योंकि बिना कांग्रेस के सरकार का बनना सम्भव नहीं था।

भाजपा-शिवसेना का अलग होना

दिलचस्प है कि शिवसेना और भाजपा ने अक्टूबर, 2019 में महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में गठबन्धन सहयोगियों के रूप में चुनाव लड़ा था और संयुक्त रूप से 288 सीटों वाली विधानसभा में 161 सीटों पर जीत हासिल की थी। यानी सरकार बनाने में किसी भी तरह की दिक्कत नहीं थी। फिर भी शिवसेना के मुख्यमंत्री को लेकर ढाई-ढाई साल की माँग को भाजपा के अस्वीकार करने के बाद दोनों के बीच गतिरोध बढ़ गया। इससे पहले दोनों दलों के बीच तीखी बयानबाज़ी के बावजूद भाजपा ने 105 सीटें जीतीं और एक सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आयी। भाजपा के साथ मिलकर लड़ी शिवसेना ने 56 सीटें जीतीं, इसलिए अकेले किसी भी पार्टी के पास सरकार बनाने का विकल्प नहीं था।

अगली सरकार के गठन में हर पार्टी अब किसी दूसरी बड़ी पार्टी पर निर्भर हो गयी। शिवसेना ने भाजपा से मुख्यमंत्री पद हासिल करने का साहसिक निर्णय लिया, जिसमें कहा गया कि सत्ता में साझेदारी के लिए 50-50 के फार्मूले को आपसी सहमति चुनाव से पहले ही दी गयी थी। हालाँकि भाजपा का यह आग्रह कि उसका कार्यकाल पूर्ण कार्यकाल के लिए मुख्यमंत्री होगा और शिवसेना-भाजपा के बीच कोई समझौता नहीं किया। इसके बाद शिवसेना और भाजपा के बीच 1990 में बना तीन दशक पुराना गठबन्धन टूट गया। 1990 के बाद से महाराष्ट्र की राजनीति ने विधानसभा और लोकसभा चुनाव साथ-साथ लडऩे के साथ ही हिन्दुत्व की राजनीति के तौर पर विपक्ष के तौर पर उभरे। तत्कालीन सत्तारूढ़ कांग्रेस के लिए एक मज़बूत विपक्ष के रूप में उभरा। करीब दो-ढाई दशक तक शिवसेना और भाजपा ने मिलकर चुनाव लड़ा और दोनों में अच्छी बनी, हालाँकि कुछ मामलों में एक-दूसरे के िखलाफ बयानबाज़ी भी चलती रही। बावजूद इसके दोनों साझेदार रहे। यहाँ तक कि भाजपा ने लोकसभा में काफी बेहतर प्रदर्शन करने के बाद विधानसभा में शिवसेना के साथ बराबर की हिस्सेदारी दी। 2014 में शिवसेना-भाजपा में दूरी तब बनी जब मई, 2014 में लोकसभा चुनाव में भाजपा ने मोदी और शाह के नेतृत्त्व में शानदार जीत दर्ज की थी। इसके बाद दोनों ने विधानसभा चुनाव अलग लडऩे का फैसला किया। हालाँकि अपनी सरकार बनाने के लिए पर्याप्त संख्या में जुटने में नाकाम रहने पर भाजपा ने शिवसेना के समर्थन से सरकार बनायी। मई, 2019 में लोकसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर भाजपा ने शिवसेना के साथ गठबंधन किया। 2014-2019 की अवधि के दौरान दोनों दलों के बीच दूरियाँ बढ़ी थीं; जबकि शिवसेना ने राज ठाकरे की विदाई के साथ एक विभाजन पहले देखा था, जिसने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) गठन किया। यह अलग बात है कि वह कुछ खास नहीं कर सके और परम्परागत वोट उद्धव ठाकरे के साथ ही रहा।

हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा के दबदबे वाले प्रदर्शन और अपनी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बावजूद अपनी सरकार बनाने में कामयाब न होने पर शिवसेना अलग हो गयी। अपनी शर्तों को निर्धारित करने के लिए शिवसेना ने एनसीपी और कांग्रेस का सहारा लिया। फिर भी हाल ही में आये बदलावों को देखते हुए दोनों के बीच की खाई और बढ़ा दी, जिससे दोनों के बीच िफलहाल रास्ता बन्द कर दिया।

कांग्रेस+एनसीपी+शिवसेना गठबन्धन

हफ्ते-भर से अधिक समय तक चली बातचीत के बाद कांग्रेस और एनसीपी ने शिवसेना के साथ गठबन्धन बनाकर नयी सरकार बनायी। इसमें तय किया गया कि शिवसेना का मुख्यमंत्री पूरे पाँच साल तक रहेगा। इसके अलावा एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय किया गया, जिसमें मंत्री पद और अन्य विभागों के बँटवारे पर आम सहमति बनायी गयी। इसके अलावा अन्य समितियाँ भी बनायी गयीं, जो वैचारिक मतभेदों के मामलों को अलग से दूर करने में मदद देेंगी।

विशेषज्ञों का मानना है कि तीनों के बीच हुए गठबन्धन में सत्ता के लिए आगे राह आसान नहीं रहने वाली है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, गठबन्धन पार्टियों के बीच मंत्रियों का बँटवारा 16-15-12 के अनुपात में होगा। इसमें यह भी स्पष्ट कर दिया गया था कि मुख्यमंत्री शिवसेना का रहेगा। इन रिपोर्टों में कहा गया कि शिवसेना के लिए 16 मंत्री, एनसीपी के 15 और कांग्रेस के 12 मंत्री की बात कही गयी। इसके अलावा गठबन्धन में बहुजन विकास अघाड़ी, समाजवादी पार्टी, सीपीआई-एम और किसानों से जुड़ी पार्टी को भी इस गठबन्धन में शामिल किये जाने की बात कही गयी।

आगे क्या?

गठबन्धन सरकार के गठन के बाद अब नई तरह की चुनौतियों का सामना करना होगा। इसमें मंत्री पदों को लेकर बँटवारे पर भी असर हो सकता है जैसा कि पहले देश में जनता पार्टी की सरकार (1977-79) के समय देखने को मिला था। महाराष्ट्र की राजनीति में आगे भी कई उलटफेर देखने को मिलेंगे। महाराष्ट्र की सियासत में हुए उलटफेर के नतीजे आने वाले कई चुनाव में नज़र आएँगे। इसके साथ ही उद्धव ठाकरे के लिए मुख्यमंत्री पद की कुर्सी किसी काँटों से कम ताज वाली नहीं रहने वाली है।

70 हज़ार करोड़ के घपले का आरोप फिर भी बन गये उप मुख्यमंत्री

बात 2012 की है। महाराष्ट्र के  पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस विधानसभा में अपोजिशन बेंच पर बैठ, अजित पवार (जिन्होंने अभी हाल ही में फडणवीस के साथ उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण की थी) को तकरीबन 70 हज़ार करोड़ के सिंचाई विभाग घोटाले का •िाम्मेदार बताकर अपना राजनीतिक करियर चमकाना चाह रहे थे। महाराष्ट्र के इस बड़े घोटाले के लिए अजित पवार को पानी पी-पीकर कोसने वाले देवेंद्र अब अजित (यदि सरकार सलामत रहती तो) साथ-साथ सत्ता के सुख का उपभोग करते। आिखर ऐसा क्या हुआ, जो अजित पर उनका प्यार उमड़ आया?

समझते हैं घोटाला है क्या? और वाकई इसके तार अजित पवार के उप मुख्यमंत्री बनने से जुड़े हैं?

1982 मेंं विदर्भ के विकास के लिए समर्पित मधुकर उपाख्य मामा किंमतकर नाम के एक मंत्री हुआ करते थे, इसी महकमे के। उन्होंने अपनी स्टडी में पाया कि विदर्भ में किसानों की आत्महत्याओं का बढ़ता ग्राफ लिंक कहीं-न-कहीं सिंचाई परियोजना में हो रही विलंब से जुड़ा है। इस परियोजना मेंं हो रही देरी और बढ़ता बजट कहीं-न-कहीं किसी बड़े घपले से की ओर इशारा कर रही थी। मुद्दे की इंटेंसिटी को समझते हुए फडणवीस ने इसेे तकरीबन सात हज़ार करोड़ का बड़ा घोटाला बताते हुए इस मामले की जाँच की माँग की। उन्होंने तत्कालीन सरकार से इस मामले पर व्हाइट पेपर जारी करने की भी माँग की। सिंचाई घोटाले में मुख्य रूप अजित पवार, जो उस वक्त भी उप मुख्यमंत्री थे और सुनील तटकरे को •िाम्मेदार ठहराया गया। 2011 में एडवोकेट श्रीकांत खंडालकर ने मामले की जाँच सीबीआई से करवाने की माँग की। 2012 की फिनान्शिल रिपोर्ट के अनुसार, 1999 से 2009 के बीच महाराष्ट्र में सिंचाई परियोजनाओं में लगभग 35000 करोड़ व अन्य गैर-व्यवहार की बातों का खुलासा हुआ। फरवरी 2012 में गवर्नर और मुख्यमंत्री को प्रस्तुत रिपोर्ट में इस बाबत जानकारी दी गई।  2012 में ही ‘जनमंच’ नामक एनजीओ ने हाई कोर्ट के नागपुर खंडपीठ में एक जनहित याचिका दायर कर सिंचाई परियोजनाओं में 70 हज़ार करोड़ के घोटाले का आरोप लगाते हुए मामले की जाँच सीबीआई द्वारा कराने की माँग की। महाराष्ट्र में सिंचाई परियोजनाओं के घोटाले और भ्रष्टाचार को लेकर तत्कालीन सरकार के िखलाफ ऐसी लहर चली कि महाराष्ट्र की सत्ता ही बदल गयी।

अक्टूबर, 2014 भाजपा-शिवसेना की सरकार बनी। दिसंबर के महीने में नागपुर में चल रहे नयी सरकार के पहले अधिवेशन में जनमंच की याचिका पर हाई कोर्ट में सरकार को अपनी भूमिका स्पष्ट करने का आदेश दिया। 12 दिसंबर को मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, जो गृह मंत्रालय भी सँभाल रहे थे; ने सिंचाई घोटाले की जाँच एंटी करप्शन ब्यूरो से करवाने का आश्वासन दिया। राज्य सरकार ने हाई कोर्ट को बताया कि इस जाँच में पूर्व उप मुख्यमंत्री अजित पवार, सुनील तटकरे, छगन भुजबल के साथ ऑफिसर्स व ठेकेदारों की भूमिका की भी जाँच की जाएगी।

एंटी करप्शन ब्यूरो द्वारा सिंचाई घोटाले की जाँच शुरू हुई, उस वक्त विदर्भ में 38 सिंचाई परियोजनाओं पर काम चल रहा था; जनमंच में एंटी करप्शन ब्यूरो को हज़ारों दस्तावेज़ सौंप दिये। समय बीत गया और जनमंच को लगा कि सरकार इस मामले में ढिलाई बरत रही है। 2015 में एक बार फिर हाईकोर्ट के पास अपनी फरियाद लेकर पहुँची। जाँच में ढिलाई के मद्देनज़र कोर्ट ने सरकार व एंटी करप्शन ब्यूरो को आड़े हाथ लिया।

हाई कोर्ट के रुख को देखते हुए एंटी करप्शन ब्यूरो ने अपनी ओर से सफाई देते हुए बताया कि मामले की जाँच में ढिलाई नहीं बरती जा रही है। 23 फरवरी, 2016 को सिंचाई घोटाले के सम्बन्ध में राज्य में पहला मामला मुम्बई के ऐसे कंस्ट्रक्शन कम्पनी के िखलाफ नागपुर के पुलिस स्टेशन में दर्ज की गयी है। यह मामला गोसीखुर्द के घोड़ाजारीमे हुए घपले को लेकर किया गया। इस पहले आपराधिक रिपोर्ट दर्ज करने के बाद राज्य-भर में एक के बाद एक कई अपराधिक मामले दर्ज किये जाने लगे। इस बीच कोर्ट को लगा कि सारे आपराधिक मामले सरकारी अधिकारियों और ठेकेदारों, कम्पनियों और उनके मालिकों के िखलाफ किये जा रहे हैं। राजनीति से जुड़े लोगों को लेकर गम्भीरता नहीं बरती जा रही है। एसीबी के महानिदेशक संजय बर्वे ने नागपुर हाई कोर्ट में एक हलफनामा देकर कहा था कि सिंचाई घोटाले के लिए अजित पवार •िाम्मेदार हैं। यह हलफनामा जनहित मंच की याचिका पर दाखिल किया गया। इस मामले में न्यायिक लड़ाई लड़ रही ऐक्टिविस्ट अंजली दमनिया ने दावा किया था कि हलफनामे से हमारे वे सभी आरोप सही साबित होते हैं; जो हम पवार और अन्य पर लगा रहे हैं। मुम्बई हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने महाराष्ट्र सरकार को निर्देश दिया था कि सिंचाई घोटाले में एनसीपी लीडर और पूर्व उप सीएम अजित पवार की भूमिका स्पष्ट करेंं। 3 सितंबर, 2016 को नागपुर बेंच में इस घोटाले से सम्बन्धित 6450 पन्नों की चार्जशीट पेश की गयी। इसमें भाजपा के कई मंत्री के खास अधिकारियों के नाम भी थे। 22 दिसंबर, 2017 को भाजपा नेताओं की कुछ कम्पनियों के िखलाफ भी आपराधिक मामला दर्ज हुआ।

एक बार फिर जाँच की गति धीमी देखते हुए कोर्ट ने एनसीबी को जवाब तलब किया। इस बार एनसीबी की ओर से कहा गया कि उनके पास जाँच करने के लिए ज़रूरत के हिसाब से मैन पॉवर नहीं है। कोर्ट के आदेश के बाद 4 अप्रैल, 2018 को सिंचाई घोटाले की जाँच के लिए नागपुर और अमरावती में स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम का गठन किया गया।

अमरावती के जीगाँव, निम्नपेढ़ी वाघरी और रायगढ़ सिंचाई परियोजनाओं में हुई गड़बडिय़ों की जाँच के लिए एक सोशल एक्टिविस्ट अतुल जगताप ने हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की। इस जनहित याचिका की सुनवाई से एक बात सामने आयी कि अजित पवार और बाजोरिया कंस्ट्रक्शन के मालिक संदीप बाजोरिया के बीच अच्छे सम्बन्धों के चलते, बाजोरिया कंस्ट्रक्शन कम्पनी को कॉन्ट्रैक्ट दिया गया; जो कि इस लायक नहीं थी। सिंचाई परियोजना में हुए घपले को लेकर कोर्ट इतनी सीरियस थी कि उसने इस मामले की जाँच के लिए रिटायर्ड जस्टिस के तहत एक समिति गठित करने की अनुशंसा भी की थी।

10 अक्टूबर, 2018 को हाई कोर्ट ने एक बार फिर अपनी नाराज़गी व्यक्त करते हुए कठोर शब्दों में राज्य सरकार से सिंचाई घोटाले में अजित पवार की भूमिका स्पष्ट करने की बात कही। लम्बा समय बीत जाने के बाद भी इस बाबत कोई जवाब न आने के चलते एक बार फिर कोर्ट ने इस घोटाले में अजित पवार की भूमिका को लेकर सरकार से स्पष्ट तौर पर जवाब माँगा। अब पवार को बचाना राज्य सरकार को दुरूह लगने लगा और उसने 27 अक्टूबर, 2018 को 40 पन्नों का हलफनामा पेश करके सिंचाई घोटाले में अजित पवार को •िाम्मेदार ठहराया। महाराष्ट्र गवर्नमेंट रूल्स ऑफ बिजनेस एंड इंस्ट्रक्शन 10(1) के मुताबिक, हर महकमे के कामकाज के लिए उस महकमे का मिनिस्टर जवाबदेह होता है।

सरकार द्वारा पेश किये गये हलफनामे में सरकार ने अजित पवार को इस घोटाले के •िाम्मेदार ठहराते •िाक्र किया है। दस्तावेज़ बताते हैं कि अजित पवार ने विदर्भ में इन सिंचाई परियोजना को लेटलतीफी से बचाने के लिए ऐसी व्यवस्था बनाई थी, ताकि परियोजनाओं से जुड़ी फाइलें सीधे उन तक पहुँच जाएँ। इसी व्यवस्था के चलते घोटाले होते चले गये विदर्भ सिंचाई परियोजनाओं के बजट बढ़ते चले गये और तीन दशक बीत जाने के बावजूद योजनाएँ पूर्ण नहीं हो सकीं। बात बड़ी रोचक है कि सरकार ने सिंचाई घोटाले की जवाबदेही अजित पवार पर डाली है, लेकिन उनके िखलाफ एक भी मामला दर्ज नहीं दिखाई देता। अजित पवार के िखलाफ मामला दर्ज न होने को लेकर जो कयास लगाये जा रहे हैं, वह तो यही है कि यह सरकार सरकार की प्रेशर टेक्टिस थी कि समय आने पर अजित पवार का इस्तेमाल किया जा सके। िफलहाल एसआईटी 17 फरवरी चुनाव के 302 मामलों की जाँच कर रही है ।

राजस्थान में राजे पर राजनीति

सियासत के साज पर अपनी धुन का लोहा मनवा चुकीं वसुंधरा राजे क्या अब गुज़रे ज़माने के कद्दावरों की जमात में ठेल दी जाएँगी? प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से हालिया मुलाकात के नतीजे तो इसी बात की तरफ संकेत करते हैं।

सूत्रों का कहना है कि प्रधानमंत्री से लगभग 30 मिनट की मुलाकात में सतीश पूनिया ने उप-चुनावों और निकाय चुनावों में पार्टी के खराब प्रदर्शन की नज़ीर पेश की। उन्होंने बताया कि उप-चुनावों में सक्रिय रहना तो दरकिनार, राजे ने पिछले तीन महीने से सांगठनिक गतिविधियों से भी दूरी बनाये रखी है। सूत्रों का कहना है कि मोदी ने पूनिया के शिकवा-शिकायतों को पूरी तफसील और संजीदगी के साथ सुना। मौके पर ही एक बड़ा फैसला लेते हुए मोदी ने पूनिया को यह कहते हुए ‘फ्री हैंड’ दे दिया कि आप एक नयी टीम तैयार करें और संगठन को मज़बूत करें। िकस्सा-कोताह समझें तो प्रदेश के भाजपा हलकों में फैलती-पसरती इन चर्चाओं को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता कि वसुंधरा राजे का रुतबा बदस्तूर कायम है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि हर गुज़रते दिनों के साथ यह और साफ होता गया कि चुनावी पराजय के बाद सक्रिय होने की बजाय वसुंधरा राजे ने खामोशी अिख्तयार कर ली। आज भी वे कार्यकर्ताओं से दूरी बनाये हुए हैं। सर्वाधिक अप्रिय तथ्य तो यह है कि सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष बनाये जाने के दौरान पार्टी आलाकमान ने राजे को कतई भरोसे में नहीं लिया। सूत्रों का कहना है कि सतीश पूनिया कोटा के  सांसद और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के निकटस्थों में गिने जाते हैं। बिरला और वसुंधरा के बीच सियासी खटास तो जग-ज़ाहिर है। विश्लेषकों का कहना है कि ऐसे में इन अटकलों का कोई मतलब नहीं रह जाता कि भाजपा के पास अनुभवी नेताओं की कमी के मद्देनज़र राजे को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किया जा सकता है। लेकिन क्या सब कुछ वैसा ही हो रहा है, जैसे खाँचे गढ़े जा रहे हैं? नवंबर के शुरुआती पखवाड़े की खबरों पर नज़र डालें, तो तथ्यों की एक जुदा तस्वीर नज़र आती है, इसके मद्देनज़र क्या शनिवार 2 नवंबर को पूनिया की राजे से मुलाकात को रस्मी मुलाकात माना जाना चाहिए? सूत्रों का कहना है कि पूनिया ने राजे के राजकीय आवास पर जाकर मुलाकात करते हुए किरण बेदी की लिखी हुई पुस्तक- ‘यह संभव है’ तथा देवदत्त पटनायक द्वारा रची ‘रामायण बनाम महाभारत’ पुस्तक भेंट की। सूत्रों का कहना है कि दोनों के बीच निकाय चुनावों की तैयारियों और संगठन चुनावों पर चर्चा हुई। विश्लेषकों का कहना है कि वसुंधरा राजे का मिज़ाज आँकना आसान नहीं है। लेकिन यह तस्वीर तो पूनिया की प्रधानमंत्री मोदी के साथ मुलाकात से सर्वथा उलट है। क्या पूनिया सियासी विवशताओं के चलते हकीकत से मुँह चुरा रहे थे?

बहरहाल मोदी की हिदायत पर अमल करते हुए प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया सांगठनिक चुनाव करवा चुके हैं। दिसंबर में गठित होने वाली नयी कार्यकारिणी इस सवाल का सटीक जवाब हो सकता है कि राजे का रुतबा आज भी कायम है। उनके लिए इतिहास के पन्नों में सिमटने का वक्त आ गया है? लेकिन इस मुहाने पर वसुंधरा के राजनीतिक राजनामचे की इबारत बाँच चुके रणनीतिकार इन सम्भावनाओं से इत्तेफाक नहीं रखते उनका कहना है कि सियासी अनश्चितता के अपशकुनी पखेरुओं को उड़ाने का उन्हें खासा तजुर्बा है। विश्लेषकों का कहना है कि पिछली बार आरएसएस ने प्रदेश के राजनीतिक मानक तय करते हुए वसुंधरा के दावों से उलट चुनावी कमान थामने का ऐलान कर दिया था; लेकिन राजे की गुर्राहट ने इस ऐलान को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि मैं कहीं नहीं जाने वाली; चुनाव मेरे ही नेतृत्त्व में लड़े जाएँगे। यही हुआ भी और इस ठस्से के साथ हुआ कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को उसी ज़ुबान में कहना पड़ा कि राजस्थान में भाजपा में नेतृत्त्व कोई मुद्दा नहीं है। बहरहाल, आज भी राजे के हाथों में तुरुप का पत्ता तो है ही। वे पहले ही कह चुकी हैं कि उप-चुनाव और निकाय चुनाव मेरी कमान में लड़े जाते, तो पार्टी की इतनी किरकिरी नहीं होती। इन चुनावों में पराजय तो भाजपा का खुला घाव है। वसुंधरा राजे को भारी-भरकम लाव-लश्कर और लम्बे-चौड़े कािफले से घिरा देखने के आदी हो चुके लोगों को कभी यह गुमान तक नहीं रहा होगा कि वे गिने-चुने लोगों के बीच तन्हा और गुमनाम शिख्सयत की तरह नज़र आ सकती हैं। इस मंज़र के संकेतों और अन्य-अर्थों को समझें, तो वसुंधरा राजे अपनी ‘साख’ की पूँजी गँवा चुकी हैं। जनता ने भी अपनी बेज़ारी दिखाकर उनकी रुखसती का पर्चा थमा दिया है। यह मंज़र सरकार परस्त खबरिया चैनलों के गलत साबित होने का सुख भी है, जो सुराज गौरव यात्रा में महारानी के गिर्द उमड़ते सैलाब को देखकर उनकी वापसी के दावों पर मुतमईन थे। इस फरेब का तिलस्म टूटा तो हकीकत चौंकाने वाली थी कि सारा मजमा सरकारी अफसरों और कारिन्दों का था; जो आचार संहिता लगने के बाद गायब थे। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि राजे की इस कदर फज़ीहत की वजह ‘मेरा वचन ही मेरा शासन’ की सामंती लीक पर हुकूमत करना था और अपने इर्द-गिर्द ताकत बटोरने की इसी अदा ने उनके सामने आईना रख दिया था। विश्लेषकों का कहना है कि यह जनता की अप्रत्यक्ष लताड़ थी, जो उन्हें सत्ता से बाहर करने का रास्ता दिखा रही थी और गवर्नेंस के उस मसौदे को ही नकार रही थी, जो उन्होंने मनमानी के बूते कायम की थी।

सूत्रों की मानें, तो यह एक दिलचस्प हकीकत है कि जब तक लालकृष्ण आडवाणी कद्दावर रहे वसुंधरा राजे निरंकुश बनी रहीं और उन्होंने किसी की परवाह भी नहीं की। नतीजतन भाजपा और संघ में उन्होंने कितने दुश्मन बनाये? इसकी गिनती करना मुश्किल है। तबसे वे किस कदर आँखें तरेरने में माहिर थीं, इससे वे लोग अच्छी तरह वािकफ होंगे, जो उनके गुस्से देख या झेल चुके हैं।

वसुंधरा राजे का चेहरा भले ही पोस्टरों की तरह नहीं है; लेकिन बावजूद इसके उसका वजूद ठीक वैसा ही है और उनकी छवि और रुतबे पर किसी को अवांछित इश्तहार दर्ज करने की इजाज़त नहीं देता। उनके राजनीतिक जीवन का इतिहास बाँच चुके विश्लेषकों का कहना है कि वसुंधरा राजे हथेलियों में राजयोग की गहरी हो चुकी लकीरों को देखने की इस कदर अभ्यस्त हो चुकी हैं कि सियासी इदारों में गैरों की खुदमुख्तारी के ऐलान उन्हें नहीं चौंकाते। रणनीतिकार उनकी इस मन:स्थिति से कतई दुविधाग्रस्त नहीं हैं। पर सियासतदान ज़रूर टकटकी लगाये हुए हैं कि क्या आने वाले दिनों में वसुंधरा की राजनीतिक हैसियत सिमटकर रह जाएगी? अथवा वे भाजपा नेतृत्त्व को बेचैन करने वाली किसी नयी िकस्सागोई की शुरुआत कर देंगी?

 वक्त के दिन और रात…!

भाजपा प्रदेश के जिस सम्भाग को पूरे पचाकर बड़ी हो रही है, कोटा उसमें अव्वल है। कोई और क्या कहता है? इसे दरकिनार कर दें, तो भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया कई चेहरों पर बँटती पार्टी के लिए काफी कुछ मुखतलिफ कहते हैं। कोटा में चंबल के पानी का करंट है, जो उनमें प्रभाहित हो रहा है। सबसे बुरी खबर इन दिनों भाजपा के लिए पूर्व विधायक प्रह्लाद गुंजल के िखलाफ दर्ज मामले को लेकर है। गुंजल राजे के करीबी माने जाते हैं। मामला डेढ़ साल पहले का कोटा का है। कोटा के टेगौर हाल में 12 मई, 2018 को भाजपा की •िाला स्तरीय समीक्षा बैठक में तत्कालीन कोटा उत्तर विधायक विधायक प्रह्लाद गुंजल पार्टी की ही महिला विधायक चन्द्रकांता मेघवाल की किसी बात को लेकर भड़क उठे। गुंजल इस कदर आवेश में आये कि आपा खोते हुए चन्द्रकांता मेघवाल को दो कौड़ी की कह दिया। गुंजल के ये बोल वीडियो में रिकॉर्ड में दर्ज हो गये, जो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुए। अपमान से आहत चन्द्रकांता ने अगले ही दिन पुलिस केा परिवाद दे दिया। लेकिन गुंजल के रसूख और दबंगई के चलते पुलिस ने परिवाद को अनसुना कर दिया। चंद्रकांता ने पुलिस के उच्चाधिकारियों की देहरी पर भी दस्तक दी। लेकिन फरियाद नहीं सुनी गयी। चन्द्रकांता स्तब्ध तो तब हुईं, जब चन्द्रकांता ने तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से व्यक्तिगत तौर पर भेंट करके अपनी व्यथा बतायी। लेकिन गुंजल का बाल भी बाँका नहीं हुआ। मामला प्रधानमंत्री तक पहुँचा। लेकिन बात नहीं बनी। आिखर चन्द्रकांता की बेबसी पर तरस आया, तो कांग्रेस सरकार को। सरकार ने कानूनी राय के बाद एससी/एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज किया है। विश्लेषकों का कहना है कि तोप तनी है, तो गुंजल भरमाने, बरगलाने की कोशिश तो कर सकते हैं; लेकिन सियासत के इस सातवें रंग से पार पाना क्या गुंजल के लिए सम्भव हो पाएगा? लेकिन इस सातवें रंग का चितेरा कौन है? और क्यों है? यह सवाल ही है।

कर्ज़ में फँसे बटाईदार माफी पा रहे ज़मींदार

सरकारों की तरफ से कृषि कर्ज़माफी की घोषणा होने पर भू-स्वामी किसानों के बीच खुशी की लहर दौड़ जाती है। मीडिया और सोशल मीडिया पर भी इसे लेकर तमाम तरह की टिप्पणियाँ की जाती हैं। पिछले कई दिनों से महाराष्ट्र में जारी सियासी खींचतान के बीच शिवसेना का कहना है कि उनकी सरकार बनने के बाद किसानों के कर्ज़ा माफ किये जाएँगे। सिर्फ  महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि सभी राज्यों में खासकर चुनाव के समय नेताओं की तरफ से ऐसे लुभावने वादे किये जाते हैं। लेकिन भारत में अमूमन चार तरह के किसान होते हैं। एक बड़े जोत वाले किसान, जिनके पास 12-15 बीघा या इससे भी अधिक ज़मीन है। दूसरे मध्यम जोत के काश्तकार, जिनके पास पाँच-छ: बीघा ज़मीन है। तीसरे लघु किसान, जिनके पास तीन बीघा से भी कम ज़मीन है। चौथे भूमिहीन बटाईदार किसान, जिनके पास अपनी कोई ज़मीन नहीं होती और वे दूसरों की ज़मीन पर बटाई करते हैं। कर्ज़ माफी या कृषि सम्बन्धी अन्य लाभकारी योजनाओं का •यादातर लाभ बड़े किसानों को ही मिलता है। जबकि किसानों के बीच एक बड़ा तबका भूमिहीन बटाईदार किसानों का भी है, जिसे कर्ज़ माफी से कभी कोई राहत नहीं मिली है।

कर्ज़ माफी बना चुनावी कामयाबी का ज़रिया

हालिया कुछ वर्षों में कृषि कर्ज़ माफी के वादे अधिक होने लगे हैं। सियासी पार्टियाँ चुनावी रैलियों में किसानों से कर्ज़ माफी की यकीन दिलाने के साथ कर्ज़माफी की मियाद भी तय करने लगी हैं। पिछले साल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने कर्ज़ माफी की घोषणा की थी। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने उसे पूरा करने का दावा भी किया। यह दीगर बात है कि इसे लेकर अब भी कई सवाल मौज़ूद हैं। इस परिपाटी को आगे बढ़ाते हुए मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों क्रमश: कमलनाथ और भूपेश बघेल ने भी अपने शपथ-ग्रहण के कुछ घंटे बाद ही कृषि कर्ज़ माफी का ऐलान किया। दो दिन बाद ही राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी कर्ज़ माफी की घोषणा कर दी।

2014 के आम चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद कमज़ोर रहा। लिहाज़ा पार्टी को यकीन है कि ब-रास्ते कर्ज़ माफी वह चुनावी कामयाबी हासिल कर सकती है। 2008 में कांग्रेस यह नुस्खा बखूबी आजमा चुकी है। जब यूपीए (प्रथम) सरकार अपने आिखरी साल में ‘कृषि ऋण माफी और ऋण राहत योजना’ के तहत 52,259.86 करोड़ रुपये की कर्ज़ माफी की थी। देश-भर में 3.73 करोड़ किसानों को इसका फायदा मिला। वित्तीय अनियमितताओं की वजह से यह योजना भी सवालों के घेरे में रही। लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में इसका ज़बरदस्त फायदा कांग्रेस को मिला और डॉ. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए पुन: यूपीए की सरकार बनी। पिछले कई उप-चुनाव और उत्तर भारत के तीन अहम राज्यों की सत्ता खोने के बाद सम्भवत: भाजपा नीत केंद्र सरकार भी कर्ज़ माफी के इस प्रचलित विकल्प पर विचार कर सकती है। वैसे भारतीय रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन समेत अर्थ-वित्त मामलों के कई जानकारों का मानना है कि कर्ज़ माफी कृषि क्षेत्र एवं किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं है। वे आगाह कर चुके हैं कि कृषि कर्ज़ माफी के बढ़ते चलन से देश की अर्थ-व्यवस्था को नुकसान पहुँच सकता है। सियासी पार्टियों को भी कमोबेश इसका इल्म है; लेकिन सत्ता जाने का खौफ शायद अर्थ-व्यवस्था के नुकसान पर भारी है।

10 साल पहले यूपीए की सरकार में हुए कर्ज़ माफी पर जानकारों की अलग-अलग राय हो सकती है। लेकिन उस फैसले से वास्तविक किसानों को कोई फायदा नहीं मिला। इसके बरक्स देश की अर्थ-व्यवस्था पर एक अतिरिक्त और अनावश्यक दबाव झेलना पड़ा। देश-व्यापी कृषि कर्ज़ माफी का सकारात्मक असर तो दिखना चाहिए। बावजूद इसके बीते दस वर्षों में किसानों की आत्महत्याओं में तो कोई कमी नहीं आयी। लेकिन किसान आत्महत्या से प्रभावित राज्यों में इजाफा ज़रूर हुआ। साल 2008 में जो कृषि कर्ज़े माफ हुए उससे लाभान्वितों होने में एक बड़ी संख्या उन भू-स्वामियों की थी, जिन्हें किसान नहीं कहा जा सकता। सरल शब्दों में कहें तो वे ऐसे भू-स्वामी थे, जो अपनी ज़मीनें बटाई पर देकर परिवार सहित शहरों में रहते हैं। कर्ज़ माफी का वह साल ऐसे भू-स्वामियों के लिए एक बड़ा तोहफा साबित हुआ। जिस पर उनके अधिकारों का कोई मतलब नहीं था। हममें से •यादातर पत्रकारों-लेखकों का ताल्लुक किसी न किसी गाँव-कस्बों से रहा है। शायद आपने भी देखा और सुना होगा कि जिन भू-स्वामियों ने बैंकों से कृषि कर्ज़ लेकर उससे वाहन, भवन आदि का सुख प्राप्त किया। वैसे भू-स्वामियों के कृषि कर्ज़ जब माफ हुए, तो उन लोगों को पछतावा हुआ, जिन्होंने कृषि कर्ज़ नहीं लिये थे। वहीं दूसरी तरफ साहूकारों के कर्ज़ के बोझ से दबे लाखों भूमिहीन बटाईदार किसानों को सरकारों द्वारा कर्ज़ माफी का एक नया पैसा भी नहीं मिलता। यह एक भ्रामक तथ्य यह है कि किसान तो आिखर किसान हैं क्या भू-स्वामी, क्या बटाईदार? भारत में वास्तविक किसानों यानी बटाईदारों की संख्या कितनी है क्या ऐसा कोई आँकड़ा केंद्र व राज्य सरकारों के पास है? सरकारें इससे किनारा नहीं कर सकतीं; क्योंकि आज़ादी के तुरन्त बाद ही देश में किसानों के कई मुद्दे मसलन- ज़मींदारी प्रथा का विरोध, भूमिहीनों को भू-अधिकार और लगान निर्धारण, नहर सिंचाई दर जैसे सवालों पर कई आंदोलन हुए। बिहार जैसे राज्य में तो बटाईदारी कानून बनाने की भी माँग उठी। यह अलग बात है कि इसे अमल में लाना तो दूर कोई भी दल इस पर बहस करने की ज़हमत नहीं उठाना चाहता। वह उस राज्य में जहाँ पिछले तीन दशकों से समाजवादी पृष्ठभमि की सरकारें शासन में हैं। सिर्फ भू-स्वामी होने मात्र से किसी को किसान मान लेना सही नहीं है। ऐसे में उन लाखों भूमिहीन किसानों का क्या, जो दूसरों की खेतों में बटाईदारी करते हैं। यह बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि देश में किसानों से जुड़ी नीतियााँ बनाने वाले महकमों (कृषि मंत्रालय से लेकर नीति आयोग तक) को इस बात की खबर ही नहीं है कि मुल्क के करोड़ों किसानों में बटाईदार किसानों की संख्या कितनी है? और ऐसे भू-स्वामी कितने हैं, जो स्वयं खेती नहीं करते? अगर आज़ादी के सात दशक बाद भी देश में बटाईदार किसानों को चिह्नित नहीं किया गया है, तो यह सरकारों की एक बड़ी भूल है, जो ठीक नहीं।

बटाईदार किसानों के परिजनों को नहीं मिलता मुआवज़ा

किसानों की त्रासदी यहीं खत्म नहीं होती।  दरअसल, किसानों के बीच फर्क न कर पाने से वास्तविक किसानों को कई और खामियाजे भुगतने पड़ते हैं। सरकारी अभिलेख में बटाईदारों का उल्लेख नहीं होने एवं भू-स्वामित्व सम्बन्धी दस्तावेज़ के आभाव में उन्हें सूचीबद्ध किसान नहीं माना जाता। किसान आत्महत्या से प्रभावित राज्यों में मौत और मुआव•ो का यही विचित्र दृश्य देखने को मिलता है। आत्महत्या करने वाला अगर कोई बटाईदार किसान है, तो शोक-संतृप्त उसके परिजनों को सरकारी मुआवज़ा और इमदाद नहीं मिलती। वजह मृतक किसान के परिवार में भू-स्वामित्व के दस्तावेज़ न होना। 1990 के बाद देश भर में फसलों की नाकामी व कृषि घाटे के कारण तकरीबन 3,96,000 किसानों ने आत्महत्या की। गैर सरकारी आँकड़े इससे भी अधिक संख्या बताते हैं। इस आलेख के लेखक कुछ साल पहले मराठवाड़ा और तेलंगाना के गाँवों में आत्महत्या करने वाले कई किसानों के परिजनों से मिले थे। पीडि़त परिवारों ने बताया कि बटाईदार होने की वजह से उन्हें कोई मुआवज़ा नहीं मिला। सम्बन्धित जि़ला कलेक्टरों से जब इसकी सच्चाई पूछी, तो उन्होंने कहा कि कृषि व राजस्व विभाग के मुताबिक आत्महत्या करने वाले उन्हीं किसानों के परिजनों को सरकार द्वारा घोषित मुआव•ो की रकम मिलती है, जिनके पास भू-स्वामित्व से जुड़े प्रमाण-पत्र और दस्तावेज़ होंगे।

बटाईदारों को नहीं मिलता ‘किसान क्रेडिट कार्ड’

हर साल रबी और खरीफ फसल के सीजन में नई अनाज खरीद नीति की लेकर भी जिज्ञासाएँ बनी रहती हैं; क्योंकि इसके तहत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा मिलता है। लेकिन बटाईदार किसानों को इसका भी लाभ नहीं मिलता। कारण भू-स्वामित्व के प्रमाण-पत्र सम्बन्धी वही पुराना मामला। नतीज़तन बटाईदार किसान औने-पौने दाम पर साहूकारों को अपनी उपज बेच देते हैं। या फिर अपनी उपज को भू-स्वामी की उपज बताकर सरकारी अनाज खरीद केन्द्रों पर बेचते हैं। किसानों के बीच ‘केसीसी’ यानी ‘किसान क्रेडिट कार्ड’ काफी लोकप्रिय है। इसकी शुरुआत वर्ष 1998 में हुई थी। वैसे तो इसके कई लाभ हैं; लेकिन इसका फायदा किसे मिल रहा है, यह एक बड़ा सवाल है। दरअसल, जिन किसानों को इसका वास्तविक लाभ मिलना चाहिए, उन्हें नहीं मिल पाता। अपनी ज़मीनें बटाई देकर शहरों में रहने वाले भू-स्वामियों को जब किसान क्रेडिट कार्ड के तहत बैंकों से पैसा लेना होता है, तब वे ब्लॉक-सबडिवीजन आते हैं।  राजस्व कर्मचारी से ‘मालगुज़ारी’ की रसीद और ‘लैंड पजेशन सर्टिफिकेट’ (एलपीसी) प्राप्त कर बैंक से कृषि कर्ज़ उठा लेते हैं। जबकि निर्धारित भू-सम्बन्धी प्रमाण-पत्र न होने से भूमिहीन बटाईदार किसानों को यह कर्ज़ नहीं मिल पाता। ओलावृष्टि, अतिवृष्टि-अनावृष्टि और बेमौसम बारिश होने पर खेतों में खड़ी फसलें जब तबाह हो जाती हैं, तो राज्य सरकारों की तरफ से किसानों को सरकारी मदद मिलती है। लेकिन इसका भी फायदा उन्हीं किसानों को मिलता है, जिनकी अपनी ज़मीनें हैं। यहाँ भी बटाईदार किसानों को निराश होना पड़ता है। वहीं, खुद से खेती नहीं करने वाले ढेरों भू-स्वामी इसका भी लाभ उठा लेते हैं। सरकार और उसकी व्यवस्था के लिए इससे अधिक शर्म की स्थिति और क्या हो सकती है?

क्रॉप पैटर्न में बदलाव से होगा किसानों का भला

किसानों की आत्महत्या एक बड़ी समस्या बन चुकी है। भविष्य में ऐसी घटनाएँ न हों, इस बाबत ईमानदार प्रयास का अभाव दिखता है। किसानों को उपज का वाजिब दाम नहीं मिलना और फसलों के नाकाम होना इसकी प्रमुख वजह हो सकती है। लेकिन इसके कुछ कारण और भी हैं जिसकी चर्चा तक नहीं होती। ‘किसान आत्महत्या’ प्रभावित राज्यों की अध्ययन यात्राओं से कुछ अहम बातें समझ में आयी। मसलन, नब्बे के दशक में ‘कैश क्रॉप’ और ‘हाईब्रिड सीड्स’ ने यहाँ के खेतों में अपनी जड़ें जमा लीं। नतीज़तन मराठवाड़ा, विदर्भ और तेलंगाना के किसान अपनी परम्परागत खेती से दूर हो गए। बीजों का भण्डारण और उसका पुनप्र्रयोग ‘संकर बीजों’ की मेहरबानी से समाप्त हो गया। बाकी कसर उन ‘कीटनाशकों’  ने पूरा कर दिया, जिसके छिड़काव से फसलों के लिए लाभदायक कीट-पतंगे भी नष्ट हो गये। हालत यह होती चली गयी कि किसानों के महीने-भर के राशन के खर्च के बराबर या उससे •यादा भाव में हाइब्रिड बीज और कीटनाशक मिलने लगे हैं। इन राज्यों के किसान पहले ऐसी फसलें उगाते थे, जिससे पशुओं को भी चारा मिल जाता था। लेकिन कपास की खेती शुरू होने के बाद दुधारू पशुएँ गायब होने लगीं। नकदी फसल के मोह में पशुपालन जो कृषि का ही रूप है, उससे किसान वंचित हो गये। यानी गाय-भैंस के दूध से जो आमदनी किसानों की होती थी, वह बन्द हो गयी। किसानों के कर्ज़ा माफ हो, इसके लिए देश-भर से किसान ‘दिल्ली कूच’ करते हैं। लेकिन किसानों से हमदर्दी जताने वाले नेताओं और एनजीओ द्वारा कर्ज़ माफी के अलावा अन्य सार्थक विकल्पों, जैसे- क्रॉप पैटर्न में बदलाव और कृषि और पशुपालन के सम्बन्धों को मज़बूत बनाने पर बल नहीं दिया जाता।

पाक फायरिंग में २ नागरिकों की मौत

पाकिस्तान की तरफ से मंगलवार को एक बार फिर युद्धविराम (सीजफायर) का उल्लंघन करने से दो भारतीय नागरिकों की मौत हो गयी है। पाकिस्तान की तरफ से फायरिंग की इस घटना में सात लोग घायल भी हुए हैं।

मिली जानकारी के मुताबिक पाकिस्तान लगातार अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा। नई घटना के मुताबिक जम्मू संभाग के पुंछ इलाके में पाकिस्तानी सेना की तरफ से मंगलवार को फिर सीजफायर का उल्लंघन किया गया। पाक सेना की इस गोलीबारी में २ आम नागरिकों की मौत हो गई।

जानकारी के मुताबिक पाकिस्तान की इस फायरिंग में सात और लोग घायल हो गए हैं जिनमें कुछ की हालत गंभीर है। घायलों को इलाज के लिए पास के अस्पताल में भर्ती कराया गया है। पाकिस्तान की तरफ से सीजफायर के इस उल्लंघन के बाद भारतीय सेना की ने भी मुंहतोड़ जवाब दिया। इस साल में पाकिस्तान की तरफ से सीमा पर सीजफायर की १५० से भी ज्यादा घटनाएं हो चुकी हैं।

बिना हिसाब का १७० करोड़ मिलने पर कांग्रेस को आयकर नोटिस

आयकर विभाग ने कांग्रेस को हैदराबाद की एक कंपनी की तरफ से भेजे गए 170 करोड़ का हिसाब न देने के चलते नोटिस जारी किया है। विभाग ने इससे पहले भी पार्टी को नोटिस दिया था लेकिन उसका कोई सदस्य विभाग के समक्ष पेश नहीं हुआ।

रिपोर्ट्स के मुताबिक कांग्रेस को यह नोटिस आयकर विभाग ने राजनीतिक चंदे के मामले में भेजा है। पार्टी ने इस मामले में अभी तक कोई आधिकारिक बयान पेश नहीं किया है। ऐसा ही पैसा आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू को भी दिया गया और उन्हें भी नोटिस भेजने की तैयारी है।

इससे पहले आयकर विभाग ने ४ नवंबर को कांग्रेस को इसी मामले में नोटिस जारी किया गया था। लेकिन कांग्रेस का कोई भी सदस्य आयकर विभाग के समक्ष पेश नहीं हुआ। कंपनी के जरिए अन्य राजनैतिक दलों को भी चंदे की बात सामने आई है, हालांकि उनका नाम सामने नहीं आया है।

रिपोर्ट्स के मुताबिक हाल में आयकर विभाग की हैदराबाद की इस कंपनी में छापेमारी में पता चला कि कंपनी ने १७० करोड़ रुपये कांग्रेस को हवाला के जरिये भेजा है। कंपनी ने ये पैसा सरकार से फर्जी बिल लगाकर लिया, इस कंपनी के पास कई सरकारी प्रोजेक्ट हैं। कंपनी ने १५० करोड़ रुपये चन्द्रबाबू नायडू की टीडीपी को भी भेजे। रिपोर्ट्स में बताया गया है की उन्हें भी जल्दी ही नोटिस जारी होगा।

पुनर्विचार याचिका में राजीव धवन मुस्लिम पक्षकार के वकील नहीं

अयोध्या रामजन्मभूमि विवाद मामले में मुस्लिम पक्षकार के सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल करने के बाद अब यह जानकारी सामने आई है कि मुस्लिम पक्ष की ओर से पेश होने वाले वकील राजीव धवन को इस मामले से हटा दिया गया है। हालांकि इस मसले पर मुस्लिम पक्षकार बंटे हुए दिख रहे हैं।

रिपोर्ट्स के मुताबिक राजीव धवन ने सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखकर उन्हें इस मामले में वकील के रूप में हटाने की जानकारी दी है। राजीव धवन ने लिखा है – ”मुझे ये बताया गया कि मुझे केस से हटा दिया गया है, क्योंकि मेरी तबियत ठीक नहीं है। ये बिल्कुल बकवास बात है। जमीयत को ये हक है कि वो मुझे केस से हटा सकते हैं लेकिन जो वजह दी गई है वह गलत है।”

याद रहे इस मामले में सुप्रीमकोर्ट के फैसले पर पुनर्विचार के लिए सोमवार को एक मुस्लिम पक्षकार ने याचिका दायर की। इस प्रकरण के मूल वादकारों में शामिल एम सिद्दीक के कानूनी वारिस और उप्र जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना सैयद अशहाद रशीदी ने याचिका में कहा है कि बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण का निर्देश देने पर ही पूरा न्याय हो सकता है।

इधर धवन ने कहा कि ”बाबरी केस के वकील (एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड) एजाज मकबूल ने मुझे बर्खास्त कर दिया है जो जमीयत का मुकदमा देख रहे हैं। बिना किसी डिमोर के मुझे बर्खास्तगी का पत्र भेजा गया है। मुझे बताया गया है कि मदनी ने मेरी बर्खास्तगी के बारे में कहा है। मेरी तबीयत का हवाला देते हुए मुझे हटाया गया है जो कि बिल्कुल बकवास बात है”।

गौरतलब है कि राजीव धवन ने सुप्रीम कोर्ट में सुन्नी वक्फ बोर्ड और अन्य मुस्लिम पार्टियों का पक्ष रखा था। उन्होंने कहा कि अब वे इस मामले में शामिल नहीं होंगे।

हुक्का पीने पर छात्र पर नहीं लगा सकते पाबंदी : दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाई कोर्ट ने हुक्का पीने के चलते एक छात्र पर स्कूल की लगाई पाबंदी हटा दी है। मामले में छात्र ने दिल्ली हाई कोर्ट की शरण ली थी। इस पर अदालत ने कहा कि छात्र को स्कूल में प्रवेश से नहीं रोक सकते साथ ही एक नामी स्कूल और दिल्ली सरकार को नोटिस जारी कर जवाब तलब किया है। मामले की अगली  सुनवाई के लिए 17 दिसंबर की तारीख मुकर्रर की है।

जस्टिस राजीव शकधर ने छात्र की ओर से दायर याचिका पर कहा कि हुक्का पीने के चलते स्टूडेंट को कक्षा में प्रवेश करने से नहीं रोका जा सकता। अगर ऐसा किया गया तो उसकी पढ़ाई के नुकसान के साथ ही भविष्य भी खराब हो सकता है। कोर्ट ने मामले में कालका पब्लिक स्कूल और दिल्ली सरकार को नोटिस जारी कर जवाब तलब किया है। स्टूडेंट की ओर से यह याचिका वकील अशोक अग्रवाल ने दायर की और उसे स्कूल में प्रवेश पर रोक लगाने से छात्र की पढ़ाई के नुकसान के बारे में अदालत को अवगत कराया। अधिवक्ता ने कहा कि याची अभी नौवीं क्लास में है और उसने पढ़ाई की शुरुआत इसी स्कूल से ही की थी।

स्कूल ने क्यों लगाई पाबंदी

दरअसल, अक्तूबर में दोंस्तों के साथ छात्र का बर्थडे पार्टी का एक वीडियो सामने आया था जिसमें छात्र अपने दोस्तों के साथ हुक्का पीते नजर आ रहा है। यह वीडियो स्कूल का नहीं था और न ही छात्र ने स्कूल की ड्रेस पहन रखी थी। इस वीडियो के बाद ही स्कूल प्रशासन ने छात्र के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी। हालांकि परिजनों ने छात्र की इस गलती के लिए स्कूल प्रबंधन से माफी भी मांग ली थी। बावजूद इसके छात्र को स्कूल में प्रवेश नहीं दिया गया था।