कर्ज़ में फँसे बटाईदार माफी पा रहे ज़मींदार

सरकारों की तरफ से कृषि कर्ज़माफी की घोषणा होने पर भू-स्वामी किसानों के बीच खुशी की लहर दौड़ जाती है। मीडिया और सोशल मीडिया पर भी इसे लेकर तमाम तरह की टिप्पणियाँ की जाती हैं। पिछले कई दिनों से महाराष्ट्र में जारी सियासी खींचतान के बीच शिवसेना का कहना है कि उनकी सरकार बनने के बाद किसानों के कर्ज़ा माफ किये जाएँगे। सिर्फ  महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि सभी राज्यों में खासकर चुनाव के समय नेताओं की तरफ से ऐसे लुभावने वादे किये जाते हैं। लेकिन भारत में अमूमन चार तरह के किसान होते हैं। एक बड़े जोत वाले किसान, जिनके पास 12-15 बीघा या इससे भी अधिक ज़मीन है। दूसरे मध्यम जोत के काश्तकार, जिनके पास पाँच-छ: बीघा ज़मीन है। तीसरे लघु किसान, जिनके पास तीन बीघा से भी कम ज़मीन है। चौथे भूमिहीन बटाईदार किसान, जिनके पास अपनी कोई ज़मीन नहीं होती और वे दूसरों की ज़मीन पर बटाई करते हैं। कर्ज़ माफी या कृषि सम्बन्धी अन्य लाभकारी योजनाओं का •यादातर लाभ बड़े किसानों को ही मिलता है। जबकि किसानों के बीच एक बड़ा तबका भूमिहीन बटाईदार किसानों का भी है, जिसे कर्ज़ माफी से कभी कोई राहत नहीं मिली है।

कर्ज़ माफी बना चुनावी कामयाबी का ज़रिया

हालिया कुछ वर्षों में कृषि कर्ज़ माफी के वादे अधिक होने लगे हैं। सियासी पार्टियाँ चुनावी रैलियों में किसानों से कर्ज़ माफी की यकीन दिलाने के साथ कर्ज़माफी की मियाद भी तय करने लगी हैं। पिछले साल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने कर्ज़ माफी की घोषणा की थी। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने उसे पूरा करने का दावा भी किया। यह दीगर बात है कि इसे लेकर अब भी कई सवाल मौज़ूद हैं। इस परिपाटी को आगे बढ़ाते हुए मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों क्रमश: कमलनाथ और भूपेश बघेल ने भी अपने शपथ-ग्रहण के कुछ घंटे बाद ही कृषि कर्ज़ माफी का ऐलान किया। दो दिन बाद ही राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी कर्ज़ माफी की घोषणा कर दी।

2014 के आम चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद कमज़ोर रहा। लिहाज़ा पार्टी को यकीन है कि ब-रास्ते कर्ज़ माफी वह चुनावी कामयाबी हासिल कर सकती है। 2008 में कांग्रेस यह नुस्खा बखूबी आजमा चुकी है। जब यूपीए (प्रथम) सरकार अपने आिखरी साल में ‘कृषि ऋण माफी और ऋण राहत योजना’ के तहत 52,259.86 करोड़ रुपये की कर्ज़ माफी की थी। देश-भर में 3.73 करोड़ किसानों को इसका फायदा मिला। वित्तीय अनियमितताओं की वजह से यह योजना भी सवालों के घेरे में रही। लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में इसका ज़बरदस्त फायदा कांग्रेस को मिला और डॉ. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए पुन: यूपीए की सरकार बनी। पिछले कई उप-चुनाव और उत्तर भारत के तीन अहम राज्यों की सत्ता खोने के बाद सम्भवत: भाजपा नीत केंद्र सरकार भी कर्ज़ माफी के इस प्रचलित विकल्प पर विचार कर सकती है। वैसे भारतीय रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन समेत अर्थ-वित्त मामलों के कई जानकारों का मानना है कि कर्ज़ माफी कृषि क्षेत्र एवं किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं है। वे आगाह कर चुके हैं कि कृषि कर्ज़ माफी के बढ़ते चलन से देश की अर्थ-व्यवस्था को नुकसान पहुँच सकता है। सियासी पार्टियों को भी कमोबेश इसका इल्म है; लेकिन सत्ता जाने का खौफ शायद अर्थ-व्यवस्था के नुकसान पर भारी है।

10 साल पहले यूपीए की सरकार में हुए कर्ज़ माफी पर जानकारों की अलग-अलग राय हो सकती है। लेकिन उस फैसले से वास्तविक किसानों को कोई फायदा नहीं मिला। इसके बरक्स देश की अर्थ-व्यवस्था पर एक अतिरिक्त और अनावश्यक दबाव झेलना पड़ा। देश-व्यापी कृषि कर्ज़ माफी का सकारात्मक असर तो दिखना चाहिए। बावजूद इसके बीते दस वर्षों में किसानों की आत्महत्याओं में तो कोई कमी नहीं आयी। लेकिन किसान आत्महत्या से प्रभावित राज्यों में इजाफा ज़रूर हुआ। साल 2008 में जो कृषि कर्ज़े माफ हुए उससे लाभान्वितों होने में एक बड़ी संख्या उन भू-स्वामियों की थी, जिन्हें किसान नहीं कहा जा सकता। सरल शब्दों में कहें तो वे ऐसे भू-स्वामी थे, जो अपनी ज़मीनें बटाई पर देकर परिवार सहित शहरों में रहते हैं। कर्ज़ माफी का वह साल ऐसे भू-स्वामियों के लिए एक बड़ा तोहफा साबित हुआ। जिस पर उनके अधिकारों का कोई मतलब नहीं था। हममें से •यादातर पत्रकारों-लेखकों का ताल्लुक किसी न किसी गाँव-कस्बों से रहा है। शायद आपने भी देखा और सुना होगा कि जिन भू-स्वामियों ने बैंकों से कृषि कर्ज़ लेकर उससे वाहन, भवन आदि का सुख प्राप्त किया। वैसे भू-स्वामियों के कृषि कर्ज़ जब माफ हुए, तो उन लोगों को पछतावा हुआ, जिन्होंने कृषि कर्ज़ नहीं लिये थे। वहीं दूसरी तरफ साहूकारों के कर्ज़ के बोझ से दबे लाखों भूमिहीन बटाईदार किसानों को सरकारों द्वारा कर्ज़ माफी का एक नया पैसा भी नहीं मिलता। यह एक भ्रामक तथ्य यह है कि किसान तो आिखर किसान हैं क्या भू-स्वामी, क्या बटाईदार? भारत में वास्तविक किसानों यानी बटाईदारों की संख्या कितनी है क्या ऐसा कोई आँकड़ा केंद्र व राज्य सरकारों के पास है? सरकारें इससे किनारा नहीं कर सकतीं; क्योंकि आज़ादी के तुरन्त बाद ही देश में किसानों के कई मुद्दे मसलन- ज़मींदारी प्रथा का विरोध, भूमिहीनों को भू-अधिकार और लगान निर्धारण, नहर सिंचाई दर जैसे सवालों पर कई आंदोलन हुए। बिहार जैसे राज्य में तो बटाईदारी कानून बनाने की भी माँग उठी। यह अलग बात है कि इसे अमल में लाना तो दूर कोई भी दल इस पर बहस करने की ज़हमत नहीं उठाना चाहता। वह उस राज्य में जहाँ पिछले तीन दशकों से समाजवादी पृष्ठभमि की सरकारें शासन में हैं। सिर्फ भू-स्वामी होने मात्र से किसी को किसान मान लेना सही नहीं है। ऐसे में उन लाखों भूमिहीन किसानों का क्या, जो दूसरों की खेतों में बटाईदारी करते हैं। यह बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि देश में किसानों से जुड़ी नीतियााँ बनाने वाले महकमों (कृषि मंत्रालय से लेकर नीति आयोग तक) को इस बात की खबर ही नहीं है कि मुल्क के करोड़ों किसानों में बटाईदार किसानों की संख्या कितनी है? और ऐसे भू-स्वामी कितने हैं, जो स्वयं खेती नहीं करते? अगर आज़ादी के सात दशक बाद भी देश में बटाईदार किसानों को चिह्नित नहीं किया गया है, तो यह सरकारों की एक बड़ी भूल है, जो ठीक नहीं।

बटाईदार किसानों के परिजनों को नहीं मिलता मुआवज़ा

किसानों की त्रासदी यहीं खत्म नहीं होती।  दरअसल, किसानों के बीच फर्क न कर पाने से वास्तविक किसानों को कई और खामियाजे भुगतने पड़ते हैं। सरकारी अभिलेख में बटाईदारों का उल्लेख नहीं होने एवं भू-स्वामित्व सम्बन्धी दस्तावेज़ के आभाव में उन्हें सूचीबद्ध किसान नहीं माना जाता। किसान आत्महत्या से प्रभावित राज्यों में मौत और मुआव•ो का यही विचित्र दृश्य देखने को मिलता है। आत्महत्या करने वाला अगर कोई बटाईदार किसान है, तो शोक-संतृप्त उसके परिजनों को सरकारी मुआवज़ा और इमदाद नहीं मिलती। वजह मृतक किसान के परिवार में भू-स्वामित्व के दस्तावेज़ न होना। 1990 के बाद देश भर में फसलों की नाकामी व कृषि घाटे के कारण तकरीबन 3,96,000 किसानों ने आत्महत्या की। गैर सरकारी आँकड़े इससे भी अधिक संख्या बताते हैं। इस आलेख के लेखक कुछ साल पहले मराठवाड़ा और तेलंगाना के गाँवों में आत्महत्या करने वाले कई किसानों के परिजनों से मिले थे। पीडि़त परिवारों ने बताया कि बटाईदार होने की वजह से उन्हें कोई मुआवज़ा नहीं मिला। सम्बन्धित जि़ला कलेक्टरों से जब इसकी सच्चाई पूछी, तो उन्होंने कहा कि कृषि व राजस्व विभाग के मुताबिक आत्महत्या करने वाले उन्हीं किसानों के परिजनों को सरकार द्वारा घोषित मुआव•ो की रकम मिलती है, जिनके पास भू-स्वामित्व से जुड़े प्रमाण-पत्र और दस्तावेज़ होंगे।

बटाईदारों को नहीं मिलता ‘किसान क्रेडिट कार्ड’

हर साल रबी और खरीफ फसल के सीजन में नई अनाज खरीद नीति की लेकर भी जिज्ञासाएँ बनी रहती हैं; क्योंकि इसके तहत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा मिलता है। लेकिन बटाईदार किसानों को इसका भी लाभ नहीं मिलता। कारण भू-स्वामित्व के प्रमाण-पत्र सम्बन्धी वही पुराना मामला। नतीज़तन बटाईदार किसान औने-पौने दाम पर साहूकारों को अपनी उपज बेच देते हैं। या फिर अपनी उपज को भू-स्वामी की उपज बताकर सरकारी अनाज खरीद केन्द्रों पर बेचते हैं। किसानों के बीच ‘केसीसी’ यानी ‘किसान क्रेडिट कार्ड’ काफी लोकप्रिय है। इसकी शुरुआत वर्ष 1998 में हुई थी। वैसे तो इसके कई लाभ हैं; लेकिन इसका फायदा किसे मिल रहा है, यह एक बड़ा सवाल है। दरअसल, जिन किसानों को इसका वास्तविक लाभ मिलना चाहिए, उन्हें नहीं मिल पाता। अपनी ज़मीनें बटाई देकर शहरों में रहने वाले भू-स्वामियों को जब किसान क्रेडिट कार्ड के तहत बैंकों से पैसा लेना होता है, तब वे ब्लॉक-सबडिवीजन आते हैं।  राजस्व कर्मचारी से ‘मालगुज़ारी’ की रसीद और ‘लैंड पजेशन सर्टिफिकेट’ (एलपीसी) प्राप्त कर बैंक से कृषि कर्ज़ उठा लेते हैं। जबकि निर्धारित भू-सम्बन्धी प्रमाण-पत्र न होने से भूमिहीन बटाईदार किसानों को यह कर्ज़ नहीं मिल पाता। ओलावृष्टि, अतिवृष्टि-अनावृष्टि और बेमौसम बारिश होने पर खेतों में खड़ी फसलें जब तबाह हो जाती हैं, तो राज्य सरकारों की तरफ से किसानों को सरकारी मदद मिलती है। लेकिन इसका भी फायदा उन्हीं किसानों को मिलता है, जिनकी अपनी ज़मीनें हैं। यहाँ भी बटाईदार किसानों को निराश होना पड़ता है। वहीं, खुद से खेती नहीं करने वाले ढेरों भू-स्वामी इसका भी लाभ उठा लेते हैं। सरकार और उसकी व्यवस्था के लिए इससे अधिक शर्म की स्थिति और क्या हो सकती है?

क्रॉप पैटर्न में बदलाव से होगा किसानों का भला

किसानों की आत्महत्या एक बड़ी समस्या बन चुकी है। भविष्य में ऐसी घटनाएँ न हों, इस बाबत ईमानदार प्रयास का अभाव दिखता है। किसानों को उपज का वाजिब दाम नहीं मिलना और फसलों के नाकाम होना इसकी प्रमुख वजह हो सकती है। लेकिन इसके कुछ कारण और भी हैं जिसकी चर्चा तक नहीं होती। ‘किसान आत्महत्या’ प्रभावित राज्यों की अध्ययन यात्राओं से कुछ अहम बातें समझ में आयी। मसलन, नब्बे के दशक में ‘कैश क्रॉप’ और ‘हाईब्रिड सीड्स’ ने यहाँ के खेतों में अपनी जड़ें जमा लीं। नतीज़तन मराठवाड़ा, विदर्भ और तेलंगाना के किसान अपनी परम्परागत खेती से दूर हो गए। बीजों का भण्डारण और उसका पुनप्र्रयोग ‘संकर बीजों’ की मेहरबानी से समाप्त हो गया। बाकी कसर उन ‘कीटनाशकों’  ने पूरा कर दिया, जिसके छिड़काव से फसलों के लिए लाभदायक कीट-पतंगे भी नष्ट हो गये। हालत यह होती चली गयी कि किसानों के महीने-भर के राशन के खर्च के बराबर या उससे •यादा भाव में हाइब्रिड बीज और कीटनाशक मिलने लगे हैं। इन राज्यों के किसान पहले ऐसी फसलें उगाते थे, जिससे पशुओं को भी चारा मिल जाता था। लेकिन कपास की खेती शुरू होने के बाद दुधारू पशुएँ गायब होने लगीं। नकदी फसल के मोह में पशुपालन जो कृषि का ही रूप है, उससे किसान वंचित हो गये। यानी गाय-भैंस के दूध से जो आमदनी किसानों की होती थी, वह बन्द हो गयी। किसानों के कर्ज़ा माफ हो, इसके लिए देश-भर से किसान ‘दिल्ली कूच’ करते हैं। लेकिन किसानों से हमदर्दी जताने वाले नेताओं और एनजीओ द्वारा कर्ज़ माफी के अलावा अन्य सार्थक विकल्पों, जैसे- क्रॉप पैटर्न में बदलाव और कृषि और पशुपालन के सम्बन्धों को मज़बूत बनाने पर बल नहीं दिया जाता।