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खतरे में बचपन

पिछले एक पखवाड़े से जब भारतीय मीडिया महाराष्ट्र की राजनीतिक उथल-पुथल में उलझा है, ‘तहलका’ में हमने जलवायु परिवर्तन के उन विनाशकारी प्रभावों से जनता को जागरूक करने का बीड़ा उठाया है, जिसके गम्भीर दुष्परिणाम हमारी नयी पीढ़ी को झेलने होंगे। इसलिए हमारी कवर स्टोरी इस बार जलवायु परिवर्तन को लेकर है कि कैसे हमारे नौनिहाल तक इसकी चपेट में हैं और अभिभावक होने के नाते हमारी क्या िम्मेदारियाँ हैं? यह स्थिति एक बेहद गम्भीर खतरे की तरफ इशारा करती है। आप इसमें पढ़ेंगे कि कैसे गैसीय उत्सर्जन को कम करने के हमारे प्रयास वास्तविक लक्ष्यों से कम हैं। अब यह सुनिश्चित करने का वक्त है कि जलवायु परिवर्तन हमारे बच्चों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं डाल रहा। यदि हम अब भी नहीं जागते, तो विनाशकारी जलवायु परिवर्तन का असर हमारे बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ेगा। लैंसेट, जिसे दुनिया के सबसे पुराने और सबसे प्रतिष्ठित मेडिकल जरनल के रूप में जाना जाता है; ने इस महीने एक रिपोर्ट जारी की है। यह रिपोर्ट दुनिया, विशेषकर भारत के लिए एक गम्भीर चेतावनी का संकेत देती है। बढ़ती जनसंख्या, गरीबी, खराब स्वास्थ्य सेवा और कुपोषण से जूझते हुए भारत के लिए जलवायु परिवर्तन का खतरा अधिक चुनौतीपूर्ण है। यह रिपोर्ट हर महाद्वीप से 35 प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों और संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों के निष्कर्षों पर आधारित है। पेड़ कट रहे हैं और ग्लेशियर पिघल रहे हैं। पिछले एक दशक में आठ साल सबसे ज़्यादा गर्म दजऱ् किये गये हैं। आज जन्म लेने वाला बच्चा एक ऐसी दुनिया का अनुभव करेगा, जो पूर्व-औद्योगिक औसत की तुलना में चार डिग्री से अधिक गर्म है और जिसमें जलवायु परिवर्तन मानव स्वास्थ्य और किशोरावस्था से वयस्कता और बुढ़ापे तक प्रभावित होता है। दुनिया-भर में बच्चे जलवायु परिवर्तन से खासतौर पर प्रभावित हैं।

शोधकर्ता मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन कई संक्रामक रोगों को जन्म दे रहा है। 2019 लैंसेट काउंटडाउन रिपोर्ट डेंगू वायरस, मलेरिया और विब्रियो के संचरण के लिए पर्यावरणीय उपयुक्तता का एक अद्यतन विश्लेषण प्रदान करती है। ऊर्जा प्रणाली की कार्बन तीव्रता को 2050 तक कम करके शून्य तक लाना होगा। पिछले 15 वर्षों में कार्बन की तीव्रता काफी हद तक कम हो गयी है, क्योंकि जीवाश्म ईंधन को विस्थापित करने के लिए कम कार्बन ऊर्जा की वृद्धि अपर्याप्त है। न केवल जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए, बल्कि वायु प्रदूषण से होने वाली समस्याओं और मृत्यु-दर को कम करने के लिए एक महत्त्वपूर्ण उपाय के रूप में कोयले का उपयोग खत्म करना ज़रूरी है। दिसंबर, 2018 तक 30 देशों की सरकारों ने कई सरकारों और व्यवसायों के साथ पॉवङ्क्षरग पास्ट कोल एलायंस के माध्यम से बिजली उत्पादन के लिए कोयले को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की प्रतिबद्धता जतायी है। वैश्विक रूप से प्रति वर्ष 38 लाख मौतें घरेलू वायु प्रदूषण के कारण होती हैं, जो मोटे तौर पर कोयला, लकड़ी और बायोमास जैसे ठोस ईंधन के उपयोग से उत्पन्न होता है। ग्रीनहाउस-गैस उत्सर्जन और अल्पकालिक जलवायु प्रदूषकों को कम करने के अलावा हीटिंग तकनीक प्रदान करने के प्रयासों से स्वास्थ्य सम्बन्धी लाभ हो सकते हैं। हमें कोयले का उपयोग घटाना होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में सम्पन्न संयुक्त राष्ट्र जलवायु कार्रवाई शिखर सम्मेलन में भारत की नवीकरणीय ऊर्जा (आरई) लक्ष्य को बढ़ाकर 450 गीगा वाट करने के लिए एक मज़बूत जलवायु कार्य योजना के बारे में बताया है, जिससे नयी उम्मीद बँधती है।

वन्यजीवों के बचाव में लगा मंत्रालय

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने तीसरी राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना तैयार की है, जो देश में जंगली जानवरों को बचाने के लिए वर्ष 2031 तक लागू रहेगी।

राज्यसभा में इसकी जानकारी एक सवाल के लिखित जवाब में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री बाबुल सुप्रियो ने दी। उन्होंने बताया कि नयी वन्यजीव कार्य योजना सभी वन्य जीवों के संरक्षण के दृष्टिकोण पर केंद्रित है। नीति में उनके आवासों को संरक्षित करते हुए वन्यजीवों की खतरे वाली प्रजातियों को बचाने पर विशेष ज़ोर दिया गया है, जिसमें स्थलीय, अंतर्देशीय जलीय, तटीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र शामिल हैं।

अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस के अवसर पर जारी ऑल इंडिया टाइगर एस्टीमेशन के परिणामों के अनुसार, भारत में अब 2,967 बाघ हैं और दुनिया के प्रत्येक 10 में 7 भारत में हैं।

यह संख्या 2014 के मुकाबले 33 फीसदी  वृद्धि को दर्शाती है, जब देश में 2,226 बाघ थे। संख्या 2010 (1,706) और 2006 (1,411) के मुकाबले भी कहीं ज़्यादा है। इन 12 वर्षों के अंतराल में भारत में बाघों की संख्या दोगुनी से अधिक हो गयी है। यह ऐसा कारनामा है, विशेषज्ञ इसका श्रेय संप्रभु वित्त पोषण और फील्ड स्टाफ को देते हैं।  मध्य प्रदेश में 526 बाघों (2014 में 308) के साथ सूची में सबसे ऊपर है, जबकि कर्नाटक में यह संख्या 524 (406/2014) और उत्तराखंड में 442 (340/2014) है।

लगभग 3,000 बाघों वाला भारत दुनिया में बाघों के लिए सबसे बड़े और सुरक्षित आवासों में से एक है। दुनिया के तीन-चौथाई बाघ भारत में हैं। नये नम्बरों ने वन्यजीव संरक्षणवादियों को खुश कर दिया है। हालाँकि टाइगर स्टेट्स रिपोर्ट 2018 ने उत्तर पूर्व और छत्तीसगढ़ में बाघों की संख्या के बारे में कुछ चिन्ताएँ भी व्यक्त की हैं।

वैसे बाघों की संख्या छत्तीसगढ़ में 2014 में 46 मुकाबले 2018 में आधी से भी कम 19 हो गयी है। मिजोरम और उत्तरी पश्चिम बंगाल में 2014 में बाघों के होने के संकेत मिले थे; लेकिन इस बार ईसा कोई संकेत नहीं मिला। पश्चिम बंगाल के बक्सा, मिज़ोरम में डम्पा और झारखंड के पलामू में बाघों को दर्ज नहीं किया गया था। 2014 की जनगणना में सभी तीन इलाकों में बाघों के होने के संकेत दर्ज किये गये थे। ओडिशा में ही बाघों की संख्या में कोई सुधार दर्ज नहीं किया गया है।

टाइगर अधिवास-बाघों के कब्•ो वाले जंगल क्षेत्र पूर्वोत्तर में 9,901 वर्ग किमी से हटकर 3,312 वर्ग किमी हो गये हैं। शिवालिक रेंज में भी ऑक्यूपेंसी कम हो गयी है।

रिपोर्ट कहती है कि नॉर्थ ईस्ट हिल्स और ओडिशा में स्थिति विशेष रूप से कमज़ोर है और तत्काल बाघ संरक्षण की आवश्यकता है। नामेरी और पक्के के बाघ रिजर्व में गिरावट दर्ज की गयी है; जबकि इस आकलन में बक्सा, पलामू और दम्पा में बाघों को दर्ज नहीं किया गया है। इंद्रावती (छत्तीसगढ़) में कमज़ोर बाघ स्थिति इन क्षेत्रों में कानून और व्यवस्था की स्थिति से जुड़ी थी।

यदि सकारात्मक पक्ष देखा जाए, तो 83 फीसदी बाघ वास्तव में कैमरे की रेंज में थे, जिससे इस संख्या की विश्वसनीयता पर भरोसा किया जा सकता है। नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी (एनटीसीए) और वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूआईआई) की टीम के प्रभारी ने बाघों के कैमरा ट्रैप चित्रों पर अधिक निर्भरता के साथ कार्यप्रणाली में कुछ बदलाव किये। रिपोर्ट में कहा गया है- ‘व्यक्तिगत बाघ फोटो-कैप्चर पर स्थानीय डाटा का उपयोग सहचर के रूप में शिकार, निवास स्थान और मानवजनित कारकों पर स्थानिक डाटा के संयोजन में किया जाता है।’

कुछ वैज्ञानिक देश में बाघों की संख्या जानने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तथाकथित दोहरी नमूना पद्धति पर संदेह जताते हैं। भारत ने 2004 में पगमार्क  सेंसस को तब नकार दिया था जब यह सरिस्का बाघ अभयारण्य में बाघों के पूर्ण विलोपन का पता लगाने में विफल रहा था। नयी विधि में सभी बाघों के असर वाले जंगलों का ज़मीनी सर्वेक्षण, शिकार की बहुतायत का आकलन, आवास की विशेषताओं को समझना, अन्य बाघों के संकेतों की मैपिंग और बाघों की कैमरा ट्रैप तस्वीरें शामिल हैं। डबल सैंपलिंग विधि में बाघ की पटरियों की गिनती को क्षेत्र में व्यापक अनुमान प्रदान करने के लिए छोटे क्षेत्रों में फोटो खिंचवाने वाले वास्तविक बाघों के साथ सम्बद्ध किया जाता है।

अब विश्व की कुल संख्या के 70 फीसदी  से अधिक बाघ भारत में हैं। इस बार इनकी संख्या में सुधार का एक कारण बाघ के असर वाले जंगलों के स्थानिक कवरेज में वृद्धि हो सकता है। कैमरा ट्रैपिंग का क्षेत्र लगभग 25 फीसदी  (92,164 से 121,337 वर्ग किमी तक) बढ़ गया है। कैमरा ट्रैप स्थानों की संख्या में लगभग तीन गुना (9,735 से 26,838 कैमरा ट्रैपिंग स्थान) की वृद्धि हुई है और कवर किये गये राज्यों की संख्या भी 18 से 21 हो गयी है।

प्रमुख फ्लैगशिप प्रजातियों की जनगणना समय-समय पर सम्बन्धित राज्यों द्वारा राज्य स्तर पर की जाती है। हालाँकि, बाघ और हाथी की जनगणना राष्ट्रीय स्तर पर क्रमश: चार और पाँच साल में एक बार की जाती है।

राज्य और केंद्र सरकार द्वारा की गयी नवीनतम जनगणना की रिपोर्ट के अनुसार, देश में लुप्तप्राय प्रजातियों की संख्या-विशेष रूप से शेर, गैंडा, बाघ और हाथी की संख्या बढ़ गयी है। मंत्रालय गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियों की रक्षा कार्यक्रम के लिए राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों को गम्भीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियों की बचत के लिए रिकवरी कार्यक्रम और केन्द्र प्रायोजित योजना वाइल्ड हैबीटेट्स का विकास घटक के तहत वित्तीय सहायता प्रदान कर रहा है। वर्तमान में इस कार्यक्रम के तहत 21 गम्भीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियों की पहचान की गयी है।

वन्य प्राणियों की हत्या और शिकार को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने जो उपाय किये हैं, उनमें वाइल्ड लाइफ (संरक्षण) अधिनियम, 1972 शामिल है, जिसमें इसके प्रावधानों के उल्लंघन पर सजा का प्रावधान है। अधिनियम में किसी भी उपकरण, वाहन या हथियार को ज़ब्त करने का प्रावधान है, जो वन्यजीव अपराध करने के लिए उपयोग किया जाता है। राज्यों में कानून प्रवर्तन अधिकारियों को जंगली जानवरों के अवैध शिकार के िखलाफ कड़ी निगरानी बनाये रखने के लिए निर्देशित किया गया है।

जानकारी से पता चलता है कि वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो का गठन जंगली जानवरों के अवैध शिकार और इनके चमड़ी से बनी चीज़ों के गैर-कानूनी व्यापार के बारे में खुिफया जानकारी जुटाने और वन्यजीव कानून के प्रवर्तन में अंतर्र्राज्यीय और सीमा-पार समन्वय प्राप्त करने के लिए किया गया है। राज्य/केन्द्र शासित प्रदेशों से अनुरोध किया गया है कि वे क्षेत्र संरचनाओं को मज़बूत करें और संरक्षित क्षेत्रों में और इसके आसपास गश्त तेज़ करें।

मंत्री बाबुल सुप्रियो के अनुसार, विलुप्तप्राय वन्यजीवों की सुरक्षा के अन्य उपायों में संरक्षित क्षेत्र, जिनमें राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य, संरक्षण रिजर्व और सामुदायिक रिजर्व शामिल हैं; जो वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम 1972 के प्रावधानों के तहत पूरे देश में महत्त्वपूर्ण वन्यजीवों के आवासों को कवर करते हैं। इसका उद्देश्य जंगली जानवरों और उनके आवासों का संरक्षण करना है। वन्यजीवों को बेहतर संरक्षण और निवास स्थान में सुधार के लिए राज्य/केन्द्र शासित प्रदेश सरकारों को वन्यप्राणी हैबिटेट का ‘एकीकृत विकास, ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ और ‘प्रोजेक्ट एलिफेंट’ की केन्द्र प्रायोजित योजनाओं के तहत वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है।

संसदीय समितियों में प्रज्ञा और फारूक के नामों पर विवाद

भाजपा की सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला। इन दो नामों में क्या समानता है? वैसे तो कोर्ई नहीं। एक हिन्दूवादी नेता हैं, तो फारूक जम्मू-कश्मीर की नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रमुख। हाल ही में इन दोनों को संसद की रक्षा समिति में सदस्य बनाया गया, तो इस पर खासा विवाद हो गया। कारण था, साध्वी प्रज्ञा का मालेगाँव ब्लास्ट में आरोपी होना और फारूक का अनुच्छेद-370 खत्म करने के बाद से जम्मू-कश्मीर की जेल में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) के तहत नज़रबंद होना।

बहुत दिलचस्प बात है कि जब साध्वी प्रज्ञा की तरफ से लोकसभा चुनाव और उसके बाद विवादित बयान आये थे, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि वे साध्वी प्रज्ञा को इसके लिए कभी माफ नहीं करेंगे। उसके बाद कभी आज तक पीएम मोदी का ऐसा कोई बयान नहीं आया कि उन्होंने प्रज्ञा को माफ कर दिया है।

जैसे ही प्रज्ञा का नाम रक्षा मामलों की समिति के सदस्य के रूप में घोषित हुआ कांग्रेस ने इस पर करारा तंज कसा। कांग्रेस ने कहा – ‘आिखर मोदी ने प्रज्ञा ठाकुर को दिल से माफ कर ही दिया। आतंकवादी हमले की आरोपी को रक्षा मंत्रालय की समिति में जगह देना उन वीर जवानों का अपमान है, जो आतंकवादियों से देश को महफूज़ रखते हैं।’ इस समिति के अध्यक्ष रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह हैं। इक्कीस सदस्यों वाली इस अहम सूची में सांसद साध्वी प्रज्ञा को शामिल करने पर विपक्षी दलों ने कई सवाल उठाये। प्रज्ञा मालेगाँव बम धमाकों की आरोपी हैं।

यह भी सवाल उठता है कि ब्लास्ट मामले की आरोपी को रक्षा मंत्रालय जैसी समीति में लेकर क्या भाजपा ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि विपक्ष चाहे साध्वी प्रज्ञा को लेकर कुछ भी बोले, पार्टी के लिए वह अहम नेता हैं। एक तरह से भाजपा ने साध्वी के विवादों को आत्मसात कर लिया है। विवाद नेशनल कॉन्फ्रेंस के सुप्रीमो फारूक अब्दुल्ला को लेकर भी है, जिन्हें इसी समिति में जगह दी गयी है। फारूक 5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने और अनुच्छेद-370 खत्म होने के बाद से कश्मीर में नज़रबन्द हैं; वह भी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत। इसे लेकर विवाद इसलिए भी है कि यदि सरकार फारूक अब्दुल्ला को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून जैसे कानून के तहत नज़रबंद रखती है, तो कैसे उन्हें रक्षा जैसे अहम मंत्रालय की संसदीय समिति में जगह दे सकती है?

वैसे फारूक को लेकर मामला साध्वी प्रज्ञा के मामले से अलग है। फारूक की नज़रबंदी पर विपक्ष का कहना है कि यदि सरकार उन्हें रक्षा मंत्रालय जैसी संसदीय समिति के लायक मानती है, तो राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत उनकी नज़रबंदी का क्या औचित्य रह जाता है? संसद में भी विपक्ष फारूक की नज़रबंदी पर सवाल उठा चुका है। सीपीएम सदस्य ने शीतकालीन सत्र के पहले दिन प्रश्नकाल शुरू होते ही सवाल पूछा- ‘इस सदन के सदस्य फारूक अब्दुल्ला कहाँ हैं?’

बहुत से लोगों का मानना है कि फारूक अब्दुल्ला जैसे नेता को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में नज़रबन्द करना मोदी सरकार की एक बड़ी भूल है। इसका कारण यह है कि वे हमेशा भारत के साथ खड़े रहे हैं। आतंकवाद को लेकर वे पाकिस्तान को भी खरी-खोटी सुनाने में पीछे नहीं रहते हैं। उनके विपरीत साध्वी प्रज्ञा के िखलाफ बम विस्फोट का आरोप है, जिसे आतंकवादी घटना माना जाता है।

भाजपा सदस्यों का कहना है कि साध्वी प्रज्ञा के िखलाफ सिर्फ आरोप हैं और किसी अदालत ने उन्हें दोषी नहीं ठहराया है। भाजपा के मुताबिक, एक सांसद के नाते साध्वी प्रज्ञा का किसी भी संसदीय समिति में चुना जाना उनका अधिकार है।

जहाँ तक प्रज्ञा ठाकुर की बात है, तो वे मालेगाँव बम धमाकों की मुख्य आरोपी हैं। बॉम्बे हाई कोर्ट ने मौज़ूदा भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञा को अप्रैल, 2017 में खराब स्वास्थ्य के आधार पर जमानत दे दी थी। इससे पहले एनआईए ने प्रज्ञा पर महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गेनाइज्ड क्राइम एक्ट के तहत आरोप दर्ज किए थे। जमानत पर रिहा होने के बाद भोपाल से प्रज्ञा ठाकुर लोकसभा चुनाव में भोपाल से भाजपा के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरी थीं और जीत हासिल की थी।

यही नहीं जमानत पर रिहा होने के बाद भी प्रज्ञा लगातार विवादों में घिरी रहीं। लोकसभा में उनके शपथ लेने के समय विवाद खड़ा हो गया था। उन्होंने अपना नाम साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर पूर्णचेतनानंद अवधेशानंद गिरी बोला था। कांग्रेस समेत लोकसभा सदस्यों ने उनके नाम पर आपत्ति जताई थी। बाद में स्पीकर के हस्तक्षेप के बाद यह मामला शान्त हुआ था।

इससे पहले लोक सभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रज्ञा ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त बता दिया था। जिस पर खासा बबाल मच गया था और उनकी निन्दा हुई थी। साध्वी प्रज्ञा ने चुनाव प्रचार के ही दौरान मुम्बई हमले में शहीद पूर्व एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे के बारे में कहा था कि करकरे को संन्यासियों का शाप लगा था। प्रज्ञा ने कहा – ‘मैंने कहा तेरा (हेमंत करकरे का) सर्वनाश होगा। ठीक सवा महीने में सूतक लगता है। जिस दिन मैं गई थी, उस दिन उसे सूतक लग गया था और ठीक सवा महीने में  आतंकवादियों ने उसको मारा और उसका अंत हो गया।’

करकरे मुंबई में 26 नवंबर, 2008 में हुए हमले में आतंकवादियों से बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हो गये थे। हेमंत करकरे ने मालेगाँव बम धमाकों के मामले में सबूत इकट्ठे किये थे और इसके बाद साध्वी प्रज्ञा के िखलाफ मुकदमा चलाया गया था। साध्वी प्रज्ञा मालेगाँव बम धमाकों के मामले में लंबे समय तक जेल में रह चुकी हैं। हालाँकि इस बयान पर बवाल होने के बाद साध्वी प्रज्ञा ने अपना बयान वापस ले लिया था।

यही नहीं साध्वी प्रज्ञा ने लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान बाबरी मस्जिद विध्वंस में अपनी भूमिका पर गर्व करते हुए बयान दिया था- ‘मैं ढाँचे को तोडऩे के लिए इसकी सबसे ज़्यादा ऊँचाई पर चढ़ी थी। मुझे इस बात पर गर्व है कि भगवान ने मुझे यह मौका दिया और इस काम को करने के लिए ताकत दी, तभी मैं यह काम कर पायी। हमने देश पर लगे कलंक को खत्म कर दिया। अब हम वहीं राम मंदिर बनाएँगे।’

दिलचस्प यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने भी प्रज्ञा की निन्दा करते हुए कहा था कि वे साध्वी प्रज्ञा को इसके लिए कभी मन से माफ नहीं करेंगे। विवादों में फँसता देख भाजपा ने नोटिस जारी कर प्रज्ञा ठाकुर से बयानों के लिए माफी माँगने के लिए कहा था।

बाद में जब भाजपा के कुछ बड़े नेताओं का अचानक निधन हो गया, तो फिर साध्वी प्रज्ञा ने अपने बयान से हंगामा मचा दिया। पूर्व वित्त मंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता अरुण जेटली के निधन पर प्रज्ञा ठाकुर ने दावा कर दिया कि भाजपा नेताओं पर विपक्षी दल के सदस्य मारक शक्तियों का इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्होंने दावा किया था कि एक संन्यासी ने उनसे ऐसा कहा है कि भाजपा नेताओं की असमय मृत्यु का कारण विपक्षी दलों का मारक शक्ति का प्रयोग है।

प्रज्ञा से जुड़े विवाद

करीब 12 साल पुरानी बात है। फरवरी, 2007 में दिल्ली से अटारी (पाकिस्तान) जा रही समझौता एक्सप्रेस में हरियाणा के पानीपत के दिवाना रेलवे स्टेशन के पास विस्फोट हुआ था। पुलिस को घटनास्थल से दो सूटकेस बम मिले। जुलाई, 2010 में समझौता ब्लास्ट की जाँच एनआईए को सौंपने के बाद आठ लोगों के िखलाफ चार्जशीट दायर की गयी, जिनमें केवल चार पर मुकदमा चला। यह चार कमल चौहान, राजिन्दर चौधरी, लोकेश शर्मा और असीमानंद हैं। मार्च में एनआईए की विशेष अदालत ने इन सभी को बरी कर दिया था। अभियुक्तों में से एक सुनील जोशी की दिसंबर, 2007 में हत्या कर दी गयी, जबकि तीन रामचंद्र कलसांगरा, संदीप डांगे और अमित चौहान फरार चल रहे हैं।

असीमानंद को एनआईए ने नवंबर, 2010 में गिरफ्तार किया और उन्होंने एक महीने बाद मजिस्ट्रेट के सामने इकबालिया बयान दिया, इसमें उसने मालेगाँव, मक्का मस्जिद, अजमेर शरीफ और समझौता एक्सप्रेस, सभी में शामिल होने की बात कबूल ली। दिलचस्प यह है कि असीमानंद ने धमाके करने की योजना में मुख्य रूप से आरएसएस के वरिष्ठ नेता इंद्रेश कुमार, सुनील जोशी, साध्वी प्रज्ञा सिंह के शामिल होने का दावा किया था। इसके एक महीने बाद असीमानंद के वकील ने कोर्ट में दावा किया कि एनआईए ने यह बयान दबाव डालकर दिलवाया है। कुछ समय बाद असीमानंद ने बयान वापस ले लिया। इसके अलावा अजमेर स्थित ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में अक्टूबर, 2007 में बम विस्फोट हुआ। इस ब्लास्ट में साध्वी प्रज्ञा का नाम सामने आया। मामले की जाँच राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) को सौंपी गयी, जिसने अप्रैल, 2017 में प्रज्ञा और अन्य को क्लीन चिट दे दी। साल 2007 में ही संघ प्रचारक सुनीज जोशी की दिसंबर में मध्य प्रदेश के देवास •िाले में उनके घर के पास हत्या कर दी गयी। इस मामले में भी प्रज्ञा का नाम सामने आया।  करीब नौ साल तक विभिन्न एजेंसियों की जाँच हुई; लेकिन 2017 में अदालत ने प्रज्ञा समेत सभी अभियुक्तों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि उनके िखलाफ पर्याप्त सबूत नहीं मिले। जब यह फैसला आया जब एक अभियुक्त लोकेश शर्मा के पास से हत्या में इस्तेमाल किये दोनों हथियार बरामद हो चुके थे।

एक साल बाद सितंबर, 2008 में महाराष्ट्र के मालेगाँव में बम धमाके हुए। इन धमाकों में 6 लोगों की जान चली गयी और 100 से ज़्यादा घायल हुए। ये धमाके एक मोटरसाइकिल के ज़रिये किये गये थे जिसे साध्वी प्रज्ञा ने अपने एक करीबी रामचंद्र उर्फ रामजी कलसांगरा को दिलवाया था। कलसांगरा पर बाइक में बम लगाने का आरोप है। जाँच में मोटरसाइकिल में लगे रजिस्ट्रेशन नम्बर प्लेट में लिखा नम्बर एमएच-15पी-4572 भी नकली था। अभिनव भारत के सह-संस्थापक लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित ने साध्वी प्रज्ञा को ही मालेगाँव धमाकों का •िाम्मेदार बताया था। इस मामले की जाँच के बाद साध्वी प्रज्ञा को गिरफ्तार कर लिया गया और वह लगभग 9 साल तक जेल में रहीं। साल 2017 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने साध्वी प्रज्ञा को सशर्त जमानत दे दी।

कांग्रेस ने किया विरोध

साध्वी प्रज्ञा को रक्षा मंत्रालय की समिति में जगह मिलने पर कांग्रेस ने सरकार की जमकर निन्दा की। कांग्रेस नेता जयवीर शेरगिल ने ट्वीट किया-  ‘भाजपा सरकार ने राष्ट्रवाद को नया मॉडल दिया है। बम ब्लास्ट मामले में ट्रायल पर चल रहीं नेता को डिफेन्स मामलों की कमेटी में शामिल किया गया। चिंता की कोर्ई बात नहीं, भारत माता की जय। कुछ महीने पहले पीएम ने साध्वी प्रज्ञा को कभी माफ न करने की बात कही थी; लेकिन अब संदेश साफ है कि नाथूराम गोडसे के भक्तों के अच्छे दिन आ गये हैं।’  पार्टी के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने ट्वीट कर कहा – ‘यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आतंक फैलाने का आरोप झेल रही सांसद को रक्षा सम्बन्धी समिति का सदस्य बना दिया। मोदी जी इन्हें मन से माफ नहीं कर पाए लेकिन देश की सुरक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर •िाम्मेदारी दे दी। इसीलिए तो कहा है- मोदी है तो मुमकिन है।’

क्या होती हैं संसदीय समितियाँ?

संसदीय समितियाँ दो प्रकार की होती हैं- स्‍थायी समितियाँ और तदर्थ समितियाँ। स्‍थायी समितियाँ स्‍थायी और नियमित समितियाँ हैं, जिनका गठन समय-समय पर संसद के अधिनियम के उपबन्धों अथवा लोक सभा के प्रक्रिया और कार्य-संचालन नियम के आधार पर किया जाता है। वित्तीय समितियाँ, विभागों से सम्बद्ध स्‍थायी समितियाँ और कुछ अन्‍य समितियाँ स्‍थायी समितियों की श्रेणी के तहत आती हैं। तदर्थ समितियाँ किसी विशिष्‍ट प्रयोजन के लिए नियुक्‍त की जाती हैं और जब वे अपना काम समाप्‍त कर लेती हैं और अपना प्रतिवेदन प्रस्‍तुत कर देती हैं, तब उनका अस्‍तित्‍व खत्म हो जाता है। प्रमुख तदर्थ समितियाँ विधेयकों सम्बन्धी प्रवर और संयुक्‍त समितियाँ हैं। रेल अभिसमय समिति, संसद भवन परिसर में खाद्य प्रबन्धन सम्बन्धी संयुक्‍त समिति इत्‍यादि‍ भी तदर्थ समितियों की श्रेणी में आती हैं। मोटे तौर पर संसदीय समितियों के नि‍म्‍नलि‍खि‍त श्रेणियों में रखा जाता है – वित्‍तीय समितियाँ, विभागों से सम्बद्ध स्‍थायी समितियाँ, अन्‍य संसदीय स्‍थायी समितियाँ और तदर्थ समितियाँ। रक्षा समिति विभागीय समिति मानी जाती है और इसे विभागों से संबद्ध स्‍थायी समिति कहा जाता है। संसद का बहुत-सा काम इन समितियों द्वारा निपटाया जाता है, जिन्‍हें संसदीय समितियाँ कहते हैं। संसदीय समिति अपना प्रतिवेदन सदन या अध्‍यक्ष को प्रस्‍तुत करती है। समिति का सचिवालय लोक सभा सचिवालय से उपलब्‍घ कराया जाता है।

प्राथमिक चिकित्सा और फस्र्ट एडर की भूमिका

प्राथमिक चिकित्सा और कार्डियो-पल्मोनरी रिससिटैशन (सीपीआर) नियमावली में स्पष्ट है कि आपात स्थितियों का सामना कैसे किया जाए? हर घर, कार और कार्यस्थल पर हमेशा प्राथमिक चिकित्सा (फस्र्ट एड) किट ज़रूर होनी चाहिए। इसका समय-समय पर नियमित रूप से निरीक्षण किया जाना चाहिए। ज़रूरी है कि हर व्यक्ति को हमेशा आगे आकर आपात स्थिति में मदद देने या लेने में संकोच नहीं करना चाहिए।

मदद को आगे आने में संकोच क्यों?

लोग इमरजेंसी में इसलिए आगे नहीं आते, क्योंकि वे सोच लेते हैं कि इसकी कोई और व्यक्ति देखभाल कर लेगा। हालाँकि किसी और के बारे में सोचने से पहले स्वयं यह सोचना चाहिए कि वो व्यक्ति भी तो यही सोच सकता है। ऐसे में तो कोई किसी की मदद को आगे आयेगा ही नहीं। आप जिस भी तरह से मदद कर सकते हैं, आगे आकर खुद पेशकश करें। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो चोट या बीमारियों को देखकर यह कहते नज़र आते हैं कि इससे वे खुद को रोगी महसूस करते हैं। इसलिए वे इसे नज़रअंदाज़ करके आगे बढ़ जाते हैं।

किसी को राहत देने देने के लिए स्थितियों से निपटना सीखें। यह भी भय रहता है कि कहीं आप भी बीमार न हो जाएँ। ‘मैं बीमार नहीं होना चाहता।’ इसके लिए आपको कुछ आसान से कदम उठाने होंगे। पहला, दस्ताने पहन लें। इसमें बीमारी होने का जोखिम नहीं है। साथ ही कुछ गलत या अधिक नुक्सान हो जाने की आशंका भी होती है। ‘कहीं मैं उस ज़रूरतमंद व्यक्ति को और ज़्यादा मुसीबत में न डाल दूँ।’ ऐसे में सबसे ज़्यादा नुकसानदेह स्थिति होती है आपका कुछ नहीं करना।

कानूनी अड़चनों से बचना होगा

कानूनी अड़चनों से बचने के लिए फस्र्ट एड देने वाले कुछ ज़रूरी कदम पहले ही उठाएँ। मसलन, सम्भव हो तो किसी ज़रूरतमंद की मदद करने से पहले उसकी अनुमति ले लें और उतनी ही देखभाल या इलाज करें, जितना आपने प्रशिक्षण हासिल किया हो। जब तक उस ज़रूरतमंद के लिए कोई अन्य प्रशिक्षित व्यक्ति जिम्मा सँभाल न ले, उसे यूँ ही न छोड़ दें। जब तक उस व्यक्ति की चोट या बीमारी में राहत नहीं मिल जाती है या उसे लगता है कि अब उसको देखभाल की ज़रूरत नहीं है, तब तक अकेला न छोड़ें। हालाँकि किसी भी तरह का उपचार शुरू करने से पहले उसकी अनुमति अवश्य ले लें। कानून भी मानता है कि आपके पास अनुमति है, यदि व्यक्ति बोल पाने या प्रतिक्रया देने की स्थिति में नहीं है। एक मासूम, जिसकी कोई देखभाल करने वाला न हो और उसे मदद की ज़रूरत हो, तो ऐसे में अनुमति अनिवार्य नहीं होती। हमारा फजऱ् बनता है कि हम बाल शोषण या उसके उपेक्षा किये जाने की रिपोर्ट भी दर्ज कराएँ। यदि आपको लगता है कि किसी बच्चे को नुक्सान पहुँच रहा है, तो बाल संरक्षण या पुलिस को रिपोर्ट करने की ज़रूरत है।

कैसे करें मदद?

फस्र्ट एडर के रूप में आपकी भूमिका कुछ इस तरह हो सकती है।

1. आपातकाल को मान्यता दें।

2. खुद के साथ ही दूसरों को बचाएँ।

3. प्राथमिक चिकित्सा प्रदान करने का सबसे सरल और महत्त्वपूर्ण तरीका सहायता करें।

4. अपने कौशल और प्रशिक्षण के अनुसार काम करें। यदि आपको या अन्य को किसी भी तरह का कोई मेडिकल से जुड़ा खतरा होने पर और कोई मदद को मौज़ूद न हो तो आपातकालीन चिकित्सा सेवाओं को कॉल करें। इमरजेंसी कॉल करने वाली स्थितियाँ हो सकती हैं जैसे कि मानसिक स्थिति ठीक न हो, साँस लेने में दिक्कत हो। लगातार छाती में दर्द हो या दबाव की बात कर रहा हो। जानलेवा रक्तस्राव हो। दौरा पड़ा हो। सिर, गर्दन या रीढ़ की हड्डी में चोट लगी हो।

प्राथमिक उपचार दिये जाने के मामले में युद्ध के मैदान पर घायलों के लिए बिना किसी भेदभाव के सहायता प्राप्त करने के लिए मानवता के मूल सिद्धांतों को हमेशा याद रखना चाहिए। जहाँ भी मानव पीड़ा को रोकना सम्भव हो, उसे रोका जाना चाहिए। इसका मकसद जीवन और स्वास्थ्य की रक्षा करना और मनुष्य के लिए सम्मान सुनिश्चित करना है। इससे लोगों में आपसी समझ, मित्रता, सहयोग और सुकून हासिल होता है। ऐसी ज़रूरत पडऩे पर किसी की राष्ट्रीयता, जाति, धार्मिक विश्वास, वर्ग या राजनीतिक विचारों के अनुसार भेदभाव नहीं करना चाहिए। यह व्यक्तियों की पीड़ा को दूर करने के लिए उनकी ज़रूरत के अनुसार और संकट के सबसे ज़रूरी मामलों को प्राथमिकता देने का प्रयास करता है। सभी का विश्वास जीतने के लिए राजनीतिक, नस्लीय, धार्मिक या वैचारिक सोच के हिसाब से पक्षपात नहीं किया जाना चाहिए। फस्र्ट एड को बिना किसी सोच, भेदभाव के बिना लाभ की इच्छा के इसे एक स्वैच्छिक सेवा के रूप में अपनाने को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

कमलनाथ को सिंधिया की नाराज़गी पड़ सकती है भारी

कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व राष्ट्रीय महासचिव ज्योतिरादित्य सिंधिया के ट्विटर अकाउंट पर स्टेटस बदलने से मध्य प्रदेश कांग्रेस में हलचल मच गयी है। सिंधिया ने ट्विटर अकाउंट पर खुद को जनसेवक और क्रिकेट प्रेमी बताया है। सिंधिया ने ट्विटर पर बेशक सफाई दे दी है कि वे एक माह पहले ट्विटर अकाउंट का स्टेटस लोगों की सलाह पर चेंज कर दिये थे; इसे लेकर जो बातें हो रही हैं, वे सभी आधारहीन अफवाहें हैं। लेकिन इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि भीतर-ही-भीतर मध्य प्रदेश की राजनीति में घमासान जारी है। जहाँ भाजपा काफी समय से मध्य प्रदेश की सत्ता पाने के लिए मोल-तोल में लगी है, वहीं सिंधिया के ट्विटर के स्टेटस बदलने से मुख्यमंत्री कमलनाथ की नींद उड़ गयी है।

सिंधिया समर्थक एवं मध्य प्रदेश की महिला एवं बाल विकास मंत्री इमरती देवी ने भी 25 नवंबर की सुबह अपने ट्विटर अकाउंट पर अपना बायो बदल लिया; लेकिन जब यह खबर फैली कि सिंधिया समर्थक भी अपने-अपने बायो बदल रहे हैं, तो इमरती देवी ने अपने परिचय में विधायक के साथ मंत्री महिला एवं बाल विकास भी जोड़ दिया। हालाँकि, सिर्फ इमरती देवी ने ही अपना परिचय बदला; किसी अन्य विधायक या मंत्री ने नहीं।

सोशल मीडिया में भी हलचल

सोशल मीडिया में सिंधिया समर्थकों ने इसे ज्योतिरादित्य की छवि बदलने की कोशिश बता रहे हैं, जबकि कई भाजपा समर्थक इसे कांग्रेस से नाराज़गी और भाजपा से नज़दीकी के रूप में पेश कर रहे हैं। सोशल मीडिया में सिंधिया की प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह एवं मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ पिछली मुलाकातों के फोटो को भी काफी ट्रेंड किया गया और बताया गया कि सिंधिया समर्थक 20 से •यादा विधायक लापता हैं।

पूर्व मंत्री व कांग्रेस के वरिष्ठ विधायक केपी सिंह ने फेसबुक पर शायराना अंदाज़ में लिखा- ‘जहाँ कदर न हो अपनी, वहाँ रहना िफज़ूल है। चाहे किसी का घर हो या चाहे किसी का दिल। केपी सिंह के इस फेसबुक पोस्ट के कई मायने निकाले जा रहे हैं।

सिंधिया खेमा जता चुका है नाराज़गी

बता दें कि मध्य प्रदेश का विधानसभा चुनाव 2018 सिंधिया और कमलनाथ के चेहरे पर लड़ा गया था। लेकिन सभी लोग यहीं कयास लगा रहे थे कि सिंधिया ही मुख्यमंत्री बनेंगे। सिंधिया समर्थकों एवं खुद सिंधिया को भी यही अनुमान था कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री वे ही बनेंगे; लेकिन कमलनाथ के मुख्यमंत्री बनने के साथ ही सिंधिया खेमा पूरी तरह नाराज़ हो गया।

सिंधिया खेमे की मध्य प्रदेश कांग्रेस एवं राज्य सरकार से नाराज़गी और मतभेद अक्सर देखने को मिल जाती है। सिंधिया ने पिछले महीने ही किसानों की कर्ज़माफी को लेकर कमलनाथ सरकार को घेरा था और इस योजना के क्रियान्वयन पर सवाल भी खड़े किये थे।

दो माह पहले मध्य प्रदेश सरकार में सिंधिया समर्थक मंत्री- वन मंत्री उमंग सिंघार, परिवहन मंत्री गोविंद सिंह राजपूत और श्रममंत्री महेन्द्र सिंह सिसोदिया ने मध्य प्रदेश के पूर्व-मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह पर सीधा हमला बोला और कहा कि उन्हें सरकार में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं।

दूसरी ओर अन्य कांग्रेसी नेताओं और सिंधिया के बीच मतभेद तब सामने आया, जब केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हटायी। अन्य कांग्रेसी नेताओं ने जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हटाने का विरोध किया, जबकि सिंधिया ने समर्थन किया।

क्या कहते हैं मध्य प्रदेश के मंत्री?

सिंधिया समर्थक और मध्य प्रदेश सरकार में श्रम मंत्री महेन्द्र सिंह सिसोदिया ने मीडिया को बताया कि सिंधिया पहले से खुद को जनसेवक कहते रहे हैं, स्टेटस पर भी वहीं लिखा है। नाराज़गी की बात अफवाह है। हम उनके कार्यकर्ता हैं और हम जनसेवक भी हैं। सिंधिया समर्थक और मध्य प्रदेश परिवहन मंत्री गोविन्द सिंह राजपूत ने कहा कि कोई बड़ा नेता अपने आपको समाजसेवक या कार्यकर्ता बताता है, तो यह उसका बड़प्पन है और कार्यकर्ता भी उत्साहित होते हैं। वैसे भी हर पार्टी का कितना भी बड़ा नेता क्यों न हो वह पहले जनसेवक ही होता है। सिंधिया समर्थक और मध्य प्रदेश स्वास्थ्य मंत्री तुलसी सिलावट ने कहा कि सिंधिया स्वयं सारी बात स्पष्ट कर चुके हैं, तो किसी और की प्रतिक्रिया की कोई ज़रूरत ही नहीं। दिग्विजय सिंह के बेटे और मध्य प्रदेश नगरीय प्रशासन मंत्री जयवर्धन सिंह ने कहा कि स्टेटस बदलना कोई बड़ी बात नहीं है। सिंधिया कांग्रेस नहीं छोड़ेंगे। कमलनाथ समर्थक और मध्य प्रदेश उच्च शिक्षा मंत्री जीतू पटवारी ने कहा कि यह सिंधिया जी का निजी मामला है।

भाजपा में शामिल होने का न्यौता

मध्य प्रदेश से भाजपा के सांसद और केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते ने कहा कि भाजपा के दरवा•ो हमेशा सिंधिया जी के लिए खुले हैं। पार्टी में आना चाहें, तो स्वागत है। जबकि भाजपा के दिग्गज नेता कैलाश विजयवर्गीय ने कहा कि कांग्रेस में खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे थे सिंधिया। वहीं मध्य प्रदेश भाजपा प्रवक्ता रजनीश अग्रवाल ने कहा कि जनता की माँग पर सिंधिया जी ने अभी स्टेटस बदला है। यानी जनता चाहती है कि वे पुराने व लम्बे परिचय के साथ न रहे। बात सीधी और सपाट है।

नाराज़गी की वजह क्या है?

ज्ञात हो कि लोकसभा चुनाव में गुना लोकसभा सीट से चुनाव हारने के बाद से सिंधिया पार्टी में उपेक्षाओं का सामना कर रहे हैं, जिससे पूरा सिंधिया खेमा काफी नाराज़ है। बीते जुलाई माह में राहुल गाँधी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद सिंधिया ने भी कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव पद से इस्तीफा दे दिया था। अगस्त में सिंधिया की नाराज़गी और उनके समर्थक कार्यकर्ताओं की इस्तीफे की धमकी के बीच सीएम कमलनाथ खुद सोनिया गाँधी से मिलने दिल्ली भी गये थे। वहाँ से लौटने के बाद कमलनाथ ने कहा कि सब ठीक है। लेकिन ऐसा लगता है कि सब ठीक नहीं है; क्योंकि सिंधिया को कांग्रेस ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में प्रभारी बनाया था। लेकिन सिंधिया वहाँ भी सक्रिय नहीं दिखे। दूसरी वजह यह है कि अगले साल अप्रैल माह में मध्य प्रदेश से राज्यसभा सांसद दिग्विजय सिंह, प्रभात झा और सत्यनारायण जटिया का कार्यकाल पूरा हो रहा है। अनुमान लगाया जा रहा है कि राज्यसभा की दो सीटें कांग्रेस के पक्ष में आ सकती हैं और सिंधिया राज्यसभा जाना चाहते हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि सिंधिया ने शिवपुरी और दतिया में कार्यक्रम के दौरान कह चुके हैं कि सरकार में उनकी सुनवाई नहीं हो रही है। कई मामलों को लेकर उन्होंने मुख्यमंत्री कमलनाथ को चिट्ठियाँ भी लिखीं; लेकिन किसी भी चिट्ठी का जवाब मुख्यमंत्री ने नहीं दिया। सिंधिया प्रदेश अध्यक्ष की दौड़ में भी शामिल हैं; लेकिन उनके नाम पर अभी तक आम सहमति नहीं बन सकी है।

बगावत से बढ़ेगी कमलनाथ की मुश्किल

यह तो स्पष्ट है कि पूरा सिंधिया खेमा कमलनाथ से नाराज़ चल रहा है; लेकिन सरकार के साथ होने का दावा भी कर रहा है। स्थिति अभी तक स्पष्ट कहना जल्दबाज़ी होगी। इन्हीं कारणों से मध्य प्रदेश में सरकार बनाने-गिराने को लेकर अटकलबाज़ी भी चल रही है। विधायकों के खरीद-फरोख्त की अफवाहें भी अक्सर राजनीतिक सरगर्मी को बढ़ा देती हैं। मध्य प्रदेश में सरकार को लेकर राजनीतिक जानकारों की मानें तो प्रदेश में करीब 35 से 40 विधायक सिंधिया के समर्थक माने जाते हैं। विधानसभा में 230 सीटों के हिसाब से बहुमत का जादुई आँकड़ा 116 है। कांग्रेस के पास अभी 121 विधायकों का समर्थन है; लेकिन सिंधिया की कांग्रेस से यह नाराज़गी जारी रहती है, तो निश्चित ही आगे चलकर कमलनाथ सरकार के लिए काफी मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं।

(लेखक मध्य प्रदेश समेत देश के तमाम आदिवासी इलाकों में सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय हैं)

सहकारिता के गिद्धों का करोड़ी डाका

बिजली महकमे की नौकरी से रिटायर हुए 75 वर्षीय हरिनारायण मीणा के चेहरे की चमक बुरी तरह बुझ चुकी है। उनके भावशून्य चेहरे पर खुशी की कोई रेखा अब शायद ही कभी उभर पाये? सेवानिवृत्ति के बाद मिली 10 लाख की रकम उन्होंने बैंक में जमा करवा दी थी। इस बीच गाँव के किसी संगी-साथी ने उन्हें फटाफट रकम दोगनी करने की राह सुझा दी। हरिनारायण भूल गये कि ‘बचत के रोमांच को जोखिम से बचाये रखना चाहिए। बुढ़ापे में आसरा देने वाली जमापूँजी को कमोबेश सुरक्षित फंड में लगाना चाहिए। लेकिन प्रलोभन के प्रभाव में आये हरिनारायण ने 10 लाख की जमा पूँजी बैंक से निकालकर संजीवनी क्रेडिट को-ऑपरेटिव सोसायटी में फिक्सड डिपॉजिट करवा दी। भारी मुनाफे की आस लगाये हरिनारायण के तोते तो तब उड़े, जब उन्हें पता चला कि वे बुरी तरह ठगे गये हैं। संजीवनी सोसायटी के कर्ताधर्ता तो फर्ज़ीवाड़े के डैनों पर सवार गिद्ध थे, जो न जाने कितने लोगों को कंगाल कर गये? इस सदमे ने हरिनारायण को अवसाद में धकेल दिया और पत्नी को विक्षिप्त कर दिया है। अब बेबस हरिनारायण की आवाज़ पुलिस प्रशासन के गलियारों से लौट-फिरकर उन्हीं को डस रही है। जोधपुर के पावटा इलाके की कमला देवी चार लाख की ठगी का सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकीं और मौत के मुँह में समा गयीं। ठगी का अपशकुनी गिद्ध जयपुर की पिंकी के परिवार की ड्योढ़ी पर भी बैठा और निवेश किये गये 22 लाख ले उड़ा। लेकिन पिंकी अवसाद के कुहासे में भटकने की बजाय जालसाज़ों के िखलाफ मुश्कें कस चुकी है। िफलहाल उसकी उठापटक ने एसओजी को मुस्तैद कर दिया है। ठगों की टकसाल को खील-खील करने में एसओजी कितनी कामयाब हो पाती है? इसका तो िफलहाल इंतज़ार करना होगा। अलबत्ता एसओजी ने इस खेल की नब्ज़ टटोलना तो शुरू कर ही दिया है। इसकी शुरुआत का शगुन भी अच्छा ही हुआ है। दो लाख निवेशकों से एक हज़ार करोड़ की ठगी करने वाला विक्रम सिंह एसओजी के हत्थे चढ़ चुका है। विक्रम सिंह संजीवनी क्रेडिट को-ऑपरेटिव सोसायटी का प्रबन्ध निदेशक बताया जाता है। आिखर क्यों कर संजीवनी ने खम ठोककर बड़े पैमाने पर जाल फैलाया होगा। संजीवनी के सूत्रधारों ने राजस्थान में 211 और गुजरात में 26 शाखाएँ खोल लीं। राजस्थान में 953 लोगों के साथ ठगी की। गुजरात में 50 हज़ार का तियाँ-पाँचा कर दिया। विक्रम सिंह गिरफ्तार हुआ, तो उसके चार साथी- देवी सिंह, किशन सिंह, शैतान सिंह और नरेश सोनी भी धर लिये गये। इतनी बेशुमार दौलत का उन्होंने क्या किया? रहस्योद्घाटन चौंकाने वाला था। जालसाज़ों ने निवेशकों की रकम से रियल एस्टेट कम्पनी और फार्मा कम्पनियाँ खोल लीं। दक्षिण अफ्रीका में काफी ज़मीन खरीद ली और न्यूजीलैंड में एक होटल बना लिया।

सहकारिता कानून की खामियाँ और अफसरों से रसूख बनाकर लोगों को ठगने वाली संजीवनी कोई इकलौती को-ऑपरेटिव सोसायटी नहीं है। ऐसी करीब सवा सौ समितियाँ फर्ज़ीवाड़े की ज़मीन पर खड़ी हैं। इस पंक्ति में आदर्श क्रेडिट को-ऑपरेटिव सोसायटी तो सबसे बड़ा नाम है। इस कम्पनी को ज़मीनी हकीकत देने वाला वीरेन्द्र मोदी कभी सिरोही जैसे छोटे शहर में मामूली ड्राइवर था। आदर्श को-ऑपरेटिव सोसायटी ने 20 लाख लोगों से 14800 करोड़ हड़प लिये। चार हज़ार पन्नों की चार्जशीट में एसओजी ने तर्क दिया है कि वीरेन्द्र मोदी ने इतालवी ठग चाल्र्स पोजी की तरह ठगी को अंजाम दिया। इसी शृंखला में 40 करोड़ की ठगी करने वाली अर्बुदा को-ऑपरेटिव सोसायटी का जन्मदाता राकेश अग्रवाल उर्फ बॉबी कभी एक टी-स्टॉल चलाता था। लेकिन राजनीतिक रसूख के बूते उसने बड़े सपने दिखाकर निवेशकों के करोड़ों हड़प लिये।

आदर्श क्रेडिट को-ऑपरेटिव सोसायटी के 14,800 करोड़ के घोटालों से जुड़ी चार्जशीट के 40 हज़ार पन्नों में एक-से-एक चौंकाने वाले तथ्य है। मुकेश मोदी ने एडवाइजर के रूप में कागज़ों में महावीर कंसल्टेंसी नाम की कम्पनी बनाकर करोड़ों रुपये का कमीशन बाँट दिया। यह कम्पनी सोसायटी के संस्थापक अध्यक्ष मुकेश की पन्नी मीनाक्षी व पुत्री प्रियंका के पति वैभव लोढ़ा की है, जिसका प्रधान कार्यालय हरियाणा के गुडग़ाँव में सुशांत लेक फेस-1 में सुशांत शॉपिंग एक्रेड बिल्डिंग में था। राजस्थान एसओजी की टीम जब जाँच करने यहाँ पहुँची तो ग्रांउड फ्लोर में 12 गुणा 15 फीट की दुकान मिली। इसने 123 फर्ज़ी शैल कम्पनियों का भी रजिस्ट्रेशन किया, जो अस्तित्व में नहीं थी। 14,800 सौ करोड़ रुपये के आदर्श क्रेडिट को-ऑपरेटिव सोसायटी घोटाले में करीब ढाई हज़ार करोड़ रुपये का लेन-देन किसके साथ हुआ? यह रकम कहाँ है? यह बात ईडी समेत अन्य जाँच एजेंसियों के लिए एक गुत्थी बनी हुई है। सवाल यह है कि आिखर क्योंकर सहकारिता अधिनियम की खामियों और जाली-झरोखों का इस्तेमाल कर जालसाज़ों नेे एक दर्जन से ज़्यादा क्रेडिट सोसायटीज बनाकर हज़ारों लोगों की तबाही का सामान कर दिया। चौंकाने वाली बात है कि हेराफेरी की अलख जगाने वाले इस खेल में सहकारिता महकमे के अफसरों ने जमकर पैसा खींचा। सबसे बड़ा और अहम सवाल है कि सहकारिता अधिनियम के तहत ऑडिट का प्रावधान है। फिर भी आिखर क्यों यह खेल पकड़ में नहीं आया?

अर्थ-शास्त्रियों का कहना है कि या तो ऑडिट हुआ ही नहीं, अगर हुआ भी, तो ऑडिट के नाम पर लीपापोती कर दी गयी। सहकारिता मंत्री उदयलाल आंजना भी इस बात से इत्तेफाक जताते हैं कि ऑडिट जिस तरीके से होना चाहिए था, नहीं हुआ। आंजना कहते हैं कि हाल ही में केन्द्र सरकार द्वारा कानून बनाये जाने के बाद राज्य सरकार ने सहकारिता अधिनियम में संशोधन करने का निर्णय लिया है। यह संशोधन ऑडिट प्रक्रिया को लेकर किया जाएगा, ताकि समय रहते फर्ज़ीवाड़े का खुलासा हो सके। आंजना यह कहते हुए अपनी •िाम्मेदारी से बच रहे हैं कि सारे फर्ज़ीवाड़े पिछली सरकार में हुए। हमारी सरकार के सामने तो खुलासे हो रहे हैं। केन्द्र सरकार ने भी कानून फरवरी में बनाया है। लेकिन तब तक तो जालसाज़ करोड़ों की रकम बटोरकर उडऩ-छू हो चुके थे।

इस कांड में तबाही का दर्द झेल रहे पीडि़त बेशक किसी को नसीहत देने की स्थिति में नहीं हैं। लेकिन उनका कहना है कि हमने सरकार के सहकारिता कानून पर भरोसा किया। आिखर क्रेडिट को-ऑपरेटिव सोसायटीज का उद्भव तो सहकारिता कानून की ज़मीन पर ही हुआ था। बेशक सहकारिता रजिस्ट्रार तफसील से समझाने की स्थिति में नहीं है कि आिखर इस तरह की मनमानी कैसे हुई? लेकिन सवाल है कि इतने बड़े फर्ज़ीवाड़े के बाद अब कोई कैसे सहकारिता अभियान पर विश्वास कर पायेगा? चौंकाने वाली बात है कि बेईमानी के मलकुंड में गले-गले तक डूबी इन सोसायटीज का गठन तो महकमे के अफसरों और कर्मचारियों के रहम-ओ-करम से ही हुआ। इस समीकरण की बानगी बेहद दिलचस्प है। सहकारिता महकमे के हुक्कामों पर सोसायटीज की कोठरियों में झाँकने का •िाम्मा होता है। उनका यह भी •िाम्मा होता है कि कानूनी जाल फैलाकर उन घडिय़ालों को काबू किया जाए, जो निवेशकों की जमा-पूँजी को निगलने की िफराक में रहते हों? लेकिन जब अफसर ही सेवानिवृत्ति लेकर इन सोसायटीज के मोटी पगार वाले नौकर हो गये, तो जाल सिकुडऩा ही था। इन बेईमानों की पंक्ति में सहकारिता महकमे के संयुक्त रजिस्ट्रार जवाहरलाल परिहार, इंस्पेक्टर मुन्नालाल वर्मा के नाम लिये जा सकते हैं। यह तथ्य बहुत कुछ कह देता है कि जोधपुर जोन के एक दर्जन से अधिक अफसर और कार्मिक इन क्रेडिट सोसायटीज में नौकरी कर रहे हैं। सेवानिवृत्ति का मंसूबा बनाकर बैठे अफसरों और कार्मिकों ने सबसे पहले उन्हीं सोसायटीज का पंजीयन अनुमोदन करवाया। इस काम में कानूनी कायदों की जो भी अड़चनें रहीं, उन्हें खत्म करने के नाम पर भी इन्होंने खूब मलाई उड़ायी। मतलब कानून-कायदों को ध्वस्त करने में उन्होंने कोई गुरेज़ नहीं किया। इस अवैध खेल की भनक सरकार को लगी तो जाँच भी करवायी गयी। लेकिन किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया।

बहरहाल, अब राज्य सरकार ने केन्द्र की तर्ज पर क्रेडिट सोसायटीज पर नकेल कसने का मन बना लिया है। लेकिन इसकी सफलता तभी है, जब सरकार अफसरों के असमंजस का मर्म टटोल सके। लेकिन िफलहाल तो सरकार ने किसी भी नई सोसायटी के गठन पर रोक लगा दी है। भ्रष्टाचारियों पर सीधे हाथ डालने की बजाय नापतोल के पैमाने तय कर दिये हैं। देखना तो यह है कि यह कानून ठगी में डूबी सोसायटीज में कितना खौफ पैदा कर पाता है?

 ठगी की जाँच में तेज़ी

निवेश के नाम पर हज़ारों लोगों के साथ ठगी कर चुकी आदर्श, संजीवनी और नवजीवन क्रेडिट को-ऑपरेटिव सोसायटी के िखलाफ चल रही कार्रवाई में तेज़ी लाने के लिए पड़ताल को अब ‘द बेनिंग ऑफ अनरेगुलेटेड डिपॉजिट स्कीम एक्ट’ के तहत लाया जाएगा। सहकारिता समितियों के रजिस्ट्रार नीरज के. पवन को ही इस प्राधिकृत अधिकारी बनाया गया है। राज्य सरकार का मानना है कि इस नयी व्यवस्था से जालसाज सोसायटीज के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की राह खुल जाएगी। सहकारिता रजिस्ट्रार पवन का कहना है कि अब तक बहुराज्यीय क्रेडिट को-ऑपरेटिव सोसायटीज का लाइसेंस केन्द्रीय रजिस्ट्रार द्वारा जारी किया जाता था; जबकि एक ही राज्य में सक्रिय सोसायटी का लाइसेंस राज्य का सहकारी विभाग जारी कर रहा था। इस व्यवस्था से फर्जीवाड़े की सम्भावनाएँ ज़्यादा रहती हैं। िफलहाल जालसाज सोसायटीज के विरुद्ध चल रही जाँच में इस व्यवस्था से कई दिक्कते भी आ रही थी। अब नयी व्यवस्था से जाँच में सीबीआई का दखल हो सकेगा। सहकारिता रजिस्ट्रार पवन ने एक्ट के प्रावधानों का खुलासा करते हुए कहा कि एक्ट की धारा 30 के मुताबिक, निवेश स्वीकार करने वाली एजेंसी निवेशक तथा एजेंसी की संपत्ति देश और देश के बाहर हो, तो ऐसे मामलों की जाँच सीबीआई करेगी। इन मामलों को सरकार दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेबिलशमेंट एक्ट 1946 की धारा-6 के तहत केन्द्र सरकार को भेजेगी। केन्द्र सरकार धारा-5 के तहत प्रकरण जाँच के लिए सीबीआई को देगी। बहरहाल इससे ठगी के शिकार लोगों को आस तो बँधी है।

भाजपा के एजेंडे में मंदिर के बाद क्या?

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को ख़त्म करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय से अयोध्या में राम मंदिर पर भी फैसला आ गया। क्या अब भाजपा देश के आर्थिक मंदी, बेरोज़गारी और किसानों की समस्या जैसे गम्भीर मुद्दों पर भी लौटकर जाएगी? शायद नहीं। मई, 2019 के लोक सभा चुनाव में इन सब मुद्दों के होते हुए भी जिस तरह भाजपा ने उग्र राष्ट्रवाद को अपना चुनावी एजेंडा बना लिया, उससे ज़ाहिर होता है कि वह किसी भी सूरत में अपने कोर एजेंडे से अलग नहीं होना चाहती। तो क्या यह माना जाए कि अब उसके निशाने पर समान नागरिक संहिता (कॉमन सिविल कोड) है?

अगले लोक सभा चुनाव के लिए तो भाजपा के पास कमोवेश साढ़े चार साल पड़े हैं। लेकिन उसे इस बीच कुछ राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव की बड़ी बाधा पार करनी है। हाल ही में हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावी नतीजे उसकी उम्मीदों के अनुरूप नहीं रहे हैं। आने वाले महीनों में उसे पश्चिम बंगाल और गुजरात जैसे राज्यों के चुनाव झेलने हैं। इन चुनाव नतीजों के बाद बहुत से राजनीतिक पंडितों ने कहा है कि भाजपा के आम आदमी से जुड़े मुद्दों से दूर होने के कारण लोग भी उससे दूर होने लगे हैं। लेकिन क्या भाजपा के बीच भी ऐसी ही धारणा है? नहीं। भाजपा का थिंक टैंक मानता है कि हिंदुत्व का उसका एजेंडा ही उसकी रूह है और इससे छिटकते ही भाजपा एक साधारण राजनीतिक पार्टी बनकर रह जाएगी।

अगर गहराई से अध्ययन किया जाए, तो ज़ाहिर होता है कि भाजपा ने सत्ता में आने के बाद बहुत चतुराई से तमाम मुद्दों को किसी-न-किसी रूप से हिंदुत्व से जोड़ दिया है, जो उसका कोर एजेंडा है। यहाँ तक की पाकिस्तान के साथ तनाव को भी भाजपा ने कुछ इस तरह पेश किया है, मानो यह हिन्दू-मुस्लिम मसला हो; जबकि यह शुद्ध रूप से विदेश नीति और राष्ट्र की सुरक्षा से जुड़ा मसला है।

भाजपा ने अपने हर कदम को हिन्दू-मुस्लिम मसला ऐसे ही नहीं बना लिया। इसके लिए उसने दीर्घकालीन रणनीति पर काम किया है। इसके लिए एक मज़बूत सोशल मीडिया नेटवर्क खड़ा किया है। भाजपा ने इस चतुराई से इसका इस्तेमाल किया है कि विपक्षी दल जब तक भाजपा को घेरने की रणनीति बुनने की सोच रहे होते हैं, भाजपा अपने सोशल नेटवर्क से मुद्दे की परिभाषा ही बदल चुकी होती है।

ऐसे में जब कांग्रेस और विपक्ष के नेता भाजपा की आलोचना करने लगते हैं, तो भाजपा बहुत आसानी से उनकी आलोचना को देश के िखलाफ या पाकिस्तान परस्त बताकर विपक्ष के हमलों को कुन्द कर देती है। हाल के वर्षों में यह साफ देखने को मिला है कि विपक्ष की हर आलोचना को चाहे उसमें सच्चाई भी हो। भाजपा नेता इसे राष्ट्रवाद के िखलाफ और पाकिस्तान की बोली बताते रहे हैं।

भाजपा ने इन वर्षों में खासकर भाजपा की डोर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के हाथ में आने के बाद देश को बार-बार यह बताने की कोशिश है कि वही सच्ची राष्ट्रवादी पार्टी है और अभी तक की सरकारें देश के हितों से खिलवाड़ करती रही हैं। भाजपा ने इसके लिए बहुत मशक्कत की है। सच भले यह हो कि इंदिरा गाँधी जैसी ताकतवर प्रधानमंत्री ने 48 साल पहले पाकिस्तान के दो टुकड़े करके अलग राष्ट्र बांग्लादेश बना दिया था। वह भी अमेरिका के ताकतवर विरोध के बावजूद।

विपक्ष के नेता स्वीकार करते हैं कि भाजपा की इस रणनीति को विपक्ष बेहतर तरीके से काट नहीं पाया है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राज्य सभा में कांग्रेस दल के नेता गुलाम नबी आज़ाद कहते हैं कि भाजपा की यह राजनीति पहले से रही है। आज़ाद कहते हैं कि भाजपा साम्प्रदायिकता की सोच से चलने वाली पार्टी है। यह उसकी खुराक है और वह इसके बिना सर्वाइव नहीं कर सकती, क्योंकि देश के अन्य गम्भीर मसलों से उसका कोई लेना-देना नहीं है।

लेकिन भाजपा के युवा नेता और मोदी सरकार में राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर आज़ाद की बात से कतई सहमत नहीं। अनुराग ने कहा कि देश की आत्मा को हमारे नेतृत्त्व ने जगाया है। दुनिया भर में आज यदि भारत का डंका बज रहा है, तो यह यूँ ही नहीं हो गया। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नया भारत की जो कल्पना की है, उस पर देश चल पड़ा है। कांग्रेस जो रोना रोये, जनता अब जान चुकी है कि मोदी देश को बहुत सही दिशा में लेकर बढ़ चुके हैं।

लेकिन यह सवाल उठता है कि भाजपा सचमुच सही दिशा में है या उसके भीतर एक भय है कि यदि वह हिंदुत्व के एजेंडा से बाहर जाती है, तो उसकी राह कठिनाई भरी हो जाएगी। राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार एसपी शर्मा कहते हैं कि भाजपा को लगता है कि हिंदुत्व का एजेंडा इस देश में हमेशा काम कर सकता है; क्योंकि देश की बहुमत आबादी हिन्दू है। उसके नेता मानते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी ने भी कोर एजेंडे से बाहर जाकर विकास की राह से जीत की मं•िाल तलाशी; लेकिन इतने काम करने के बावजूद दूसरे ही चुनाव में भाजपा हार गयी। यह भय भाजपा को कभी हिंदुत्व से बाहर नहीं जाने देगा। लेकिन इस देश के ज्वलंत मुद्दे बहुत लम्बे समय तक नजरअंदाज़ करना भाजपा को भारी पड़ सकता है। जनता का मूड समझने में भाजपा भूल भी कर सकती है।

मई, 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जिस तरह पुलवामा, बालाकोट और पाकिस्तान का त्रिकोण बनाकर उग्र राष्ट्रवाद वाला चुनावी अभियान चलाया और जैसी बड़ी जीत उसे मिली, उससे उसके नीतिकारों में यह पक्की धारणा बनी है कि हिंदुत्व का एजेंडा छोडऩा समझदारी नहीं होगी।

हालाँकि, कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यह घातक भी साबित हो सकता है। हाल में ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2019 के आँकड़े ज़ाहिर करते हैं कि भारत भुखमरी के मामले में दुनिया के 117 देशों में 102वें नम्बर पर है, जो यह ज़ाहिर करता है कि देश की सत्ता वास्तविक मुद्दों से दूर है और यह चिंता की बात है। लेकिन भाजपा का थिंक टैंक इन सब तर्कों को नहीं मानता। याद कीजिए जिस दिन अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया, घंटे-भर के भीतर देश के रक्षा मंत्री और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने क्या कहा? राजनाथ सिंह ने कहा कि अब समान अचार संहिता (कॉमन सिविल कोड) भी देश में लागू होगी।

तो क्या अब भाजपा कॉमन सिविल कोड पर फोकस करने वाली है? तहलका की जानकारी के मुताबिक, भाजपा तुरन्त इस पर हाथ नहीं डालना चाहती है। भाजपा के रणनीतिकारों को लगता है कि चूँकि राम मंदिर के निर्माण की प्रक्रिया का •िाम्मा सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से केंद्र सरकार पर डाल दिया है, पार्टी इसे अभी और भुना सकती है। केंद्र सरकार को ही सर्वोच्च अदालत के निर्देश के मुताबिक ट्रस्ट बनाना है, जो मंदिर निर्माण और मस्जिद के लिए 5 एकड़ ज़मीन देने की प्रक्रिया में नोडल एजेंसी होगा।

भाजपा कॉमन सिविल कोड से पहले एनआरसी पर ध्यान दे रही है। कारण है पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव। संसद में गृह मंत्री एक हफ्ता पहले ही कह चुके हैं कि मोदी सरकार एनआरसी को पूरे देश में लागू करेगी। पश्चिम बंगाल के चुनाव भाजपा के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। वो हर हालत में वहाँ जीतना चाहती है। यह माना जाता है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने इसे व्यक्तिगत प्रतिष्ठा मान लिया है।

लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी गृह मंत्री अमित शाह की घोषणा का पुरज़ोर विरोध कर चुकी हैं। ममता बनर्जी के रहते भाजपा की राह पश्चिम बंगाल में आसान नहीं कही जा सकती। माँ, माटी, मानुष का नारा देने वालीं ममता बनर्जी को ज़मीन से जुड़ा नेता माना जाता है और भाजपा के लिए उन्हें राज्य से उखाडऩा आसान नहीं है।

लेकिन भाजपा के लिए नेशनल सिटीजन रजिस्टर (एनआरसी) थाली में रखी खीर की तरह नहीं है। असम में भाजपा एनआरसी को लेकर बहुत दिक्कतें झेल चुकी है। उसे अपने ही सहयोगियों से असम और दूसरे उत्तर पूर्व राज्यों में एनआरसी की तौर-तरीकों पर ज़बरदस्त विरोध झेलना पड़ रहा है। असम में तो जब हिन्दू भी एनआरसी की चपेट में आ गये, तो भाजपा को बड़ी उलझन वाली स्थिति का सामना करना पड़ा है। ऐसे में सिर्फ पश्चिम बंगाल के चुनावों को जीतने के लिए भाजपा कितना बड़ा जोखिम लेगी, यह देखने वाली बात होगी।

लिहाज़ा भाजपा फूँक-फूँककर कदम रखना चाहती है। उसका थिंक टैंक मानता है कि उसके पास अभी अगले लोक सभा चुनाव तक का हिंदुत्व से जुड़े मुद्दों का खूब मसाला है, जो उसे विधानसभा चुनाव में ताकत दे सकता है। लेकिन बहुत से राजनीतिक जानकार मानते हैं कि भाजपा फिसलन वाली पिच पर खड़े रहने का रिस्क ले रही है। उनका मानना है कि भाजपा देश के ज्वलंत मुद्दों से ज़्यादा दिन दूर नहीं भाग सकती। देश में बेरोज़गारी, किसान और महँगाई बड़े मुद्दे हैं और जनता इन पर ज़्यादा लम्बे समय तक समझौता नहीं करेगी।

राजनीतिक जानकार इसके लिए विधानसभाओं के चुनाव नतीजों का उदाहरण देते हैं। हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव तब हुए जब मोदी सरकार संसद से जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जे वाले अनुच्छेद 370 को खत्म करने वाले कानून को पास करवा चुकी थी।

धारा 370 भाजपा का दशकों से बहुत बड़ा मुद्दा रहा था। ऐसे में यदि इसे हटाने के बाद भी भाजपा हरियाणा में बहुमत हासिल नहीं कर पायी और महाराष्ट्र में उसकी सीटें पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले ज़्यादा सीटों पर लडऩे के बावजूद घट गयीं, तो यह इस बात का संकेत है कि इस तरह के डॉन पर कम से कम राज्यों में चुनाव नहीं जीते जा सकते, क्योंकि जनता रोज़मर्रा के मुद्दों को ज़्यादा ज़रूरी मानती है।

 गोवा में लागू है ‘यूनिफॉर्म सिविल कोड’

आज जबकि देश भर में कॉमन सिविल कोड (समान आचार सहिंता) पर चर्चा हो रही है, तो बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि देश के ही एक राज्य गोवा में ‘यूनिफॉर्म सिविल कोड’ लागू है। वहाँ सभी धर्मों के लोगों पर एक ही कानून लागू होता है। सवाल यह है कि सिर्फ  एक राज्य में ऐसा कानून क्यों है? आपको बता दें कि यह मामला गोवा के भारत में विलय से जुड़ा है। वहाँ विलय और समान नागरिक संहिता लागू होना एक-दूसरे से जुड़े मुद्दे हैं। भारत 15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश हुकूमत से स्वतंत्र हुआ। लेकिन इसके बाद भी भारत के कुछ क्षेत्र पुर्तगाली, फ्रांसीसी उपनिवेशी शासकों के अधीन थे। इनमें गोवा के अलावा दमन दीव और दादर नगर हवेली भी हैं, जिनका भारत में विलय उस समय नहीं हुआ। भारत की पंडित नेहरू सरकार ने गोवा पर आधिपत्य के लिए ‘ऑपरेशन विजय’ चलाया। इस तरह साल 1961 में भारत में शामिल होने के बाद गोवा, दमन और दीव के प्रशासन के लिए भारतीय संसद ने गोवा, दमन और दीव एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट 1962 कानून पारित किया। इस कानून में भारतीय संसद ने पुर्तगाल सिविल कोड 1867 को गोवा में लागू रखा, जिसमें यूनिफॉर्म सिविल कोड की व्यवस्था थी। इस तरह भारत का हिस्सा होने के बाद भी गोवा में समान नागरिक संहिता लागू हो गयी, जो आज तक देश के अन्य किसी हिस्से में नहीं है। भारत का हिस्सा होने के बाद गोवा में सभी धर्मों के लोगों के लिए एक-सा क़ानून लागू होता है। उदाहरण के लिए गोवा में पंजीकृत शादियों वाले मुस्लिम पुरुष बहु-विवाह (एक से ज़्यादा विवाह) नहीं कर सकते। अब भले देश में कानून बनने के बाद खत्म हो गया, इस्लाम को मानने वालों के लिए मौखिक तलाक (तीन तलाक) का गोवा में कोई प्रावधान पहले से नहीं था। गोवा में उत्तराधिकार, दहेज और विवाह के सम्बन्ध में हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई के लिए एक ही कानून है। इस कानून में ऐसा प्रावधान भी है कि कोई माता-पिता अपने बच्चों को पूरी तरह अपनी सम्पत्ति से वंचित नहीं कर सकते। गोवा में लागू समान नागरिक संहिता में एक प्रावधान यह भी है कि यदि कोई मुस्लिम अपनी शादी का पंजीकरण गोवा में करवाता है, तो उसे बहु-विवाह की अनुमति नहीं होगी। दिलचस्प बात है कि हाल में सर्वोच्च न्यायालय में भी एक सम्पत्ति विवाद मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस दीपक गुप्ता और अनिरुद्ध बोस की पीठ ने गोवा में समान नागरिक संहिता की मिसाल दी थी।

 क्या है एनआरसी?

एनआरसी इस समय देश में सबसे ज़्यादा चर्चित मुद्दों में से एक है। संसद में गृह मंत्री के इस ब्यान पर कि मोदी सरकार एनआरसी पूरे देश में लागू करना चाहती है, बहस और चर्चा शुरू हो गयी है। भाजपा के एजेंडा एनआरसी बहुत पहले से रहा है। पहले यह जानना ज़रूरी है कि एनआरसी है क्या? तहलका के पाठकों के लिए बता दें कि यह सारी कवायद सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश में हो रही है।

दरअसल, इसकी शुरुआत 1986 में हुई, जब असम में अवैध रूप से रह रहे अप्रवासियों, खासकर बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान की ज़रूरत महसूस की गयी। नेशनल सिटिजन रजिस्टर असम में रहने भारतीय नागरिकों की पहचान के लिए बनायी गयी एक सूची है और आज की तारीख में सिर्फ असम में ही लागू है। इस प्रक्रिया के लिए 1986 में सिटीजनशिप एक्ट में संशोधन कर असम के लिए विशेष प्रावधान किया गया। इसके तहत रजिस्टर में उन लोगों के नाम शामिल किये गये हैं, जो 25 मार्च, 1971 के पहले से असम के नागरिक हैं या उनके पूर्वज राज्य में रहते आये हैं।

वैसे असम में पहली बार नेशनल सिटीजन रजिस्टर 1951 में बना था। तब बने रजिस्टर में उस साल हुई जनगणना में शामिल हर शख्स को राज्य का नागरिक माना गया। हालाँकि बाद के वर्षों में रिवाइज करने की माँग की जाने लगी। आरोप रहा है कि पड़ोसी देशों खासकर बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ के चलते वहाँ जनसंख्या संतुलन गड़बड़ा रहा था। स्थानीय लोग एनआरसी को अपडेट करने की माँग कर रहे थे। इस माँग और बांग्लादेशी घुसपैठ के विरोध में असम समय-समय पर विरोध-प्रदर्शन और हिंसा होती रही है।

साल 2015 में एनआरसी की प्रक्रिया शुरू हुई और 2018 तक राज्य के 3.29 करोड़ लोगों ने नागरिकता साबित करने के लिए 6.5 करोड़ दस्तावेज़ सरकार को भेजे। एनआरसी के प्रारूप का कुछ (पहला) हिस्सा 31 दिसंबर, 2017 को जारी किया गया; जबकि दूसरा ड्राफ्ट जुलाई, 2018 में प्रकाशित हुआ। दूसरी एनआरसी सूची में 3.29 करोड़ लोगों में से 2.89 करोड़ लोगों को नागरिक माना गया था; वहीं 40.37 लाख लोगों का नाम शामिल नहीं था। नेशनल सिटिजन रजिस्टर (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्ट/एनआरसी) की आिखरी सूची 31 अगस्त, 2019 को जारी की गयी थी। इस अंतिम सूची में राज्य के 3.29 करोड़ लोगों में से 3.11 करोड़ लोगों को भारत का वैध नागरिक करार दिया गया है; जबकि करीब 19 लाख लोग इससे बाहर हैं। इनमें वे लोग भी शामिल हैं, जिन्होंने कोई दावा पेश नहीं किया था। जिन लोगों के नाम लिस्ट में नहीं हैं, उनके सामने अब भी फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में अपील करने का मौका है। फाइनल एनआरसी में उन लोगों के नाम शामिल किये गये, जो 25 मार्च, 1971 के पहले से असम के नागरिक हैं या उनके पूर्वज राज्य में रहते आये हैं। इस बात का सत्यापन सरकारी दस्तावेज़ों के ज़रिये किया गया। हालाँकि, सूची को लेकर आहूत सवाल भी उठे हैं और ऐसे लोग भी सामने आये हैं, जिनके परिजन सेना में रहे हैं; लेकिन उनका नाम सूची में है ही नहीं। यहाँ तक कि पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के परिजनों तक को सूची से बाहर कर दिया गया है।

 समान आचार संहिता है क्या?

भाजपा के एजेंडे में समान आचार संहिता (कॉमन सिविल कोड) बहुत ऊपर रहा है।

आयोध्या पर फैसला आने के तुरन्त बाद वरिष्ठ नेता और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि अब समय आ गया है कि समान आचार संहिता पर बात हो। आपको बता दें कि कॉमन सिविल कोड है क्या और इसके क्या मायने हैं? िफलहाल यह मामला कोर्ट में भी है। सीधी भाषा में कहें तो कॉमन सिविल कोड (समान आचार संहिता) के मायने हैं- देश के तमाम नागरिकों के लिए एक-सा  कानून। अर्थात् इसमें धर्म या कोई और चीज़ आड़े नहीं आएगी। सरल शब्दों में कोई हिंदू हो, मुस्लिम हो, सिख हो, पारसी हो, ईसाई हो या किसी भी अन्य धर्म/सम्प्रदाय से हो, सभी को एक ही कानून के तहत चलना होगा। हालाँकि, इसके पक्ष और विपक्ष दोनों में लोग रहे हैं। भारत में समान नागरिकता कानून लाये जाने को लेकर बहस चलती रही है। समर्थक कहते हैं कि देश में सभी नागरिकों के लिए एक जैसा नागरिक कानून होना चाहिए, फिर चाहे वो किसी भी धर्म से क्यों न हो। लेकिन यह भी याद रखने लायक बात है कि स्वतंत्रता के बाद जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और कानून मंत्री डॉ. बीआर आंबेडकर ने समान नागरिक संहिता लागू करने की बात की, उस उन्हें ज़बरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा था। इस विरोध के चलते ही नेहरू को हिन्दू कोड बिल तक सीमित रहना पड़ा और संसद में वह केवल हिन्दू कोड बिल को ही लागू करवा सके, जो सिखों, जैनियों और बौद्धों पर लागू होता है। आंबेडकर भी समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे। लेकिन जब उनकी सरकार यह काम न कर सकी, तो उन्होंने पद छोड़ दिया था। वैसे आज कांग्रेस समान आचार संहिता विरोध करती है। इसके अलावा देश के कमोवेश सभी मुस्लिम संगठन भी इसके सख्त िखलाफ हैं। यहाँ तक कि भाजपा के कुछ सहयोगी दल भी इस पर बँटे-बँटे से दिख रहे हैं। हालाँकि, भाजपा की इस माँग को आरएसएस का भी ज़बरदस्त  समर्थन रहा है। लेकिन देश के लोग इस कोड के बारे में अभी भी ठीक से नहीं जानते हैं।

एनआरसी की मौज़ूदा स्थिति से राज्य (असम) का हर वर्ग नाराज़ है। देश के वास्तविक नागरिकों के हितों की सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए और उन्हें एनआरसी में शामिल किया जाना चाहिए। असम का हर वर्ग एनआरसी की स्थिति से नाराज़ है और भाजपा के मंत्री तक शिकायत कर रहे हैं। लापरवाही से क्रियान्वयन के कारण भारत के बहुत सारे वास्तविक नागरिकों को भी अदालतों का सामना करना होगा। कांग्रेस सबकी मदद करेगी। राजनीति से ऊपर देश हमारा लक्ष्य है।

गौरव गोगोई

असम से कांग्रेस सांसद

राम मंदिर का फैसला आ गया। अभी कॉमन सिविल कोड जैसे मुद्दे हैं, जिन पर काम किया जाना है।

राजनाथ सिंह, रक्षा मंत्री

सीबीआई जाँच में देरी से गहराया रहस्य

दीवान हाउसिंग फाइनेंस कॉर्पोरेशन लिमिटेड (डीएचएफएल) में बिजली कर्मचारियों के भविष्य निधि (पीएफ) कोष से 4,122.70 करोड़ रुपये के अवैध निवेश की जाँच केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) को स्थानांतरित करने के सरकार के बहु-प्रचारित कदम में देरी से घोटाले को लेकर रहस्य गहराता जा रहा है।

इससे कई लोगों की भृकुटि तनी है; क्योंकि कुछ वरिष्ठ नौकरशाहों के आचरण ने निर्णय लेने की प्रक्रिया को रोक दिया था। इस बीच राज्य सरकार ने 48 घंटे की सफल विद्युत कर्मचारी संयुक्त संघर्ष समिति (वीकेएसएसएस) के बैनर तले उत्तर प्रदेश पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड (यूपीपीसीएल) के हज़ारों बिजली कर्मचारियों और इंजीनियरों की काम छोड़ो हड़ताल की सफलता के बाद बेमियादी आन्दोलन को असफल करने की कोशिशों में जुट गयी है।

राज्य सरकार ने 23 नवंबर को एक आदेश जारी किया, जिसमें आंदोलनकारी कर्मचारियों को आश्वासन दिया गया था कि जब तक ट्रस्टों द्वारा वसूली की कार्यवाही नहीं की जाती है, तब तक सरकार पॉवर कॉर्पोरेशन कर्मचारियों की देनदारियों को समाप्त करने के लिए ब्याज मुक्त ऋण प्रदान करेगी; यदि वह अपने संसाधनों से ऐसा करने में विफल रहता है। कर्मचारियों ने इसके संचालन को सामान्य करने के लिए आन्दोलन स्थगित कर दिया है। सरकार ने दो अन्य गैर-बैंकिंग वित्त कम्पनियों के साथ-साथ एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस और पीएनबी हाउसिंग फाइनेंस में भी पीएफ कॉर्पस के विनिवेश की प्रक्रिया शुरू की है, जिसे मानदण्डों के अनुरूप अन्य सार्वजनिक क्षेत्र के वित्तीय संस्थानों में निवेश किया जाएगा।

20 नवंबर, 2019 को रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) के डीएचएफएल के बोर्ड को हटा देने और एक पूर्व बैंकर को वित्तीय रूप से कम्पनी का प्रशासक नियुक्त करने के बाद बिजली कर्मचारियों में पूरा धन गँवा देने का भय समा गया। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू दीवान हाउसिंग फाइनेंस कॉर्पोरेशन लिमिटेड (डीएचएफएल) में कर्मचारियों के भविष्य निधि ट्रस्टों के कोष से 4,122.70 करोड़ रुपये के अवैध निवेश को लेकर लगातार बिजली मंत्री श्रीकांत शर्मा पर हमला कर रहे हैं। जबसे कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी ने भाजपा के शासनकाल में पीएफ निवेश में भ्रष्टाचार पर हमला किया है, तबसे ही राज्य कांग्रेस अध्यक्ष अजय लल्लू बिजली मंत्री से मानहानि की धमकी के बावजूद मज़बूती से इस मुद्दे को उठा रहे हैं।

कांग्रेस नेता कह रहे हैं कि यह देखते हुए कि दागी डीएचएफएल में अधिकांश अवैध निवेश भाजपा के शासन के दौरान बिजली मंत्री के रहते किये गये थे, श्रीकांत शर्मा को नैतिक आधार पर पद छोड़ देना चाहिए। उन्होंने सवाल किया कि बड़ी मछलियों को क्यों बख्शा जा रहा है और जाँच एजेंसियों ने उन्हें पकडऩे के लिए पर्याप्त साहस क्यों नहीं दिखाया है? सीबीआई को जाँच क्यों नहीं सौंपी गयी है? क्यों सरकार इन निगमों को चलाने वाले वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों को बचा रही है? सरकार ने ऐसे गम्भीर मामले में मौन क्यों साध रखा है? शुरुआत में 2 नवंबर को ऊर्जा मंत्री श्रीकांत शर्मा ने कहा था कि चूँकि, डीएचएफएल निवेश मानदण्डों के पालन के बाद किये गये थे, इसलिए सरकार ने राज्य की आर्थिक अपराध शाखा (ईओडब्ल्यू) से जाँच को कहा था- जब तक केन्द्रीय एजेंसी के हाथ में जाँच न आ जाए।

 मामले में अब तक तीन सेवानिवृत्त और सेवारत यूपीपीसीएल के अधिकारियों सहित पाँच व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया है; लेकिन जाँच सीबीआई को स्थानांतरित नहीं की गयी है। वीकेएसएसएस नोएडा के संयोजक जितेन्द्र शांडिल्य ने कहा- ‘हम निगम के अध्यक्ष और घोटाले के लिए •िाम्मेदार अन्य आईएएस अधिकारियों की तत्काल गिरफ्तारी की माँग करते हैं। यह केवल वर्तमान अध्यक्ष के शासन के तहत है कि लगभग 4,122 करोड़ का निवेश किया गया है।’

वे कहते हैं कि 99 फीसदी से अधिक फंड जानबूझकर उनकी तीन अन्य कम्पनियों में निवेश किया गया था, जिनमें से अकेले डीएचएफएल में 65 फीसदी का निवेश किया गया था। इस घोटाले में शामिल अधिकारियों ने इस लूट को साझा करने के लिए सभी अवैध तरीकों को अपनाया। आन्दोलनकारी भी तत्काल की माँग कर रहे हैं कि राज्य सरकार द्वारा सरकारी भविष्य निधि (जीपीएफ) और अंशदान प्रदान करने वाली निधि (सीपीएफ) के निवेश से सम्बन्धित श्वेत पत्र जारी किया जाए। बिजली निगम के सामान्य कर्मचारियों को लगता है कि पीएफ घोटाले का स्वरूप कुछ ऐसा है कि ऐसा हो ही नहीं सकता कि शीर्ष नौकरशाही की इसमें सक्रिय भागीदारी न हो। सीबीआई को जाँच सौंपने में देरी से कर्मचारियों के मन में संदेह है कि प्रशासन जानबूझकर आरोपियों के नाम छिपा रहा है।

चुनाव से पहले ज़ुबानी जंग शुरू

इस समय दिल्ली में वायु प्रदूषण और दूषित पानी को लेकर आप पार्टी भाजपा और कांग्रेस के निशाने पर रही है। दोनों ही दल पानी पी-पीकर आम आदमी पार्टी को को कोस रही हैं। इतना ही नहीं वायु प्रदूषण को लेकर भी दोनों ने आम आदमी पार्टी पर जमकर निशाना साधा था। वायु प्रदूषण पर भाजपा ने कहा था कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने ऑड-ईवन को लागू करके दिल्लीवासियों को परेशान कर रहे हैं।

इधर, कांग्रेस पार्टी पानी और वायु प्रदूषण को लेकर दिल्ली सरकार और केन्द्र की भाजपा सरकार को •िाम्म्मेदार मान रही है। कांग्रेस का कहना है कि जल और वायु प्रदूषण पर ध्यान न देकर जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया गया है। वहीं, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का कहना है कि दिल्लीवासियों से आप पार्टी ने जो चुनाव में वादे किये थे, उनको पूरा किया है। उनका कहना है कि आप सरकार के प्रति जनता में विश्वास बढ़ा है। उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा के पास कोई मुद्दा नहीं है; ऐसे में कभी वायु प्रदूषण, तो कभी दूषित पानी को लेकर भाजपा नेता बेवजह के आरोप लगा रहे हैं; लेकिन उसको कुछ हासिल होने वाला नहीं है। क्योंकि दिल्ली की जनता को और किराये पर रहे लोगों को बिजली-पानी की जो सुविधा दी गयी है, उससे वह खुश है। केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने पानी के नाम पर, जो राजनीति की है, उससे जनता समझ चुकी है कि आप पार्टी के विरोध में विपक्ष के पास कोई ठोस मुद्दा नहीं है। ऐसे में झूठे आरोपों से भाजपा को कुछ हासिल होने वाला नहीं है।

आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह का कहना है कि पार्टी के पास मुख्यमंत्री के नाम को लेकर न पहले दिक्कत थी, न आज है। केजरीवाल ही मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं; वे ही दोबारा दिल्ली के मुखयमंत्री होंगे। भाजपा के पास मुख्यमंत्री के नाम को लेकर तनिक भी ठोस दावे ही नहीं हैं। इतना ज़रूर है कि केन्द्रीय शहरी विकास राज्यमंत्री हरदीप पुरी ने एक कार्यक्रम में भाजपा के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी के नाम की घोषणा की ही थी कि भाजपा में कोहराम मच गया; तुरन्त नाम वापसी हुई कि मनोज तिवारी मुख्यमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं। हालाँकि आप पार्टी ने भाजपा पर चुटकी लेते हुए मनोज तिवारी को बधाई भी दी हैै। संजय सिंह ने कहा है कि दिल्ली में सरकार बनाने का दावा करने वाली भाजपा नाम को लेकर अभी से विचलित है, तो चुनाव मैदान में किसके नाम पर जनता से वोट माँगेगी? उन्होंने कहा कि दूषित पानी के नाम पर जिस तरीके से केन्द्र और भाजपा आप पार्टी को घेरना चाहती थी, अब वह खुद ही घिर गयी है। आप पार्टी के नेता और दिल्ली वाले दिल्ली जलबोर्ड का पानी पी रहे हैं। कहीं कोई दूषित पानी नहीं है। अगर कुछ दूषित है, तो वह है विपक्ष की राजनीति।

इधर, दिल्ली भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी ने कहा है कि दिल्ली के लोगों के साथ मुख्यमंत्री केजरीवाल ने पानी के नाम पर धोखा किया है। इसका जवाब दिल्ली जनता विधानसभा चुनाव में देगी। दिल्लीवासियों का जीवन दिल्ली सरकार ने नरक कर दिया है। दूषित पानी पिला-पिलाकर केजरीवाल सरकार जनता के स्वास्थ्य के साथ विश्वासघात कर रही है। लोग पानी पीकर बीमार हो रहे हैंं। भारतीय मानक ब्यूरो ने जब पानी को दूषित पाया, तो केजरीवाल बात मानने को तैयार ही नहीं हैं। ऐसे में भाजपा दावा करती है कि दिल्ली में भाजपा की सरकार बनते ही सारी माँगों और जनता की जो परेशानी है, उनको दूर करेगी; क्योंकि लोगों का स्वास्थ्य पहली प्राथमिकता है। इस समय दिल्ली में ज़मीनी स्तर पर केजरीवाल सरकार कुछ नहीं कर रही है, बल्कि जनता को ठगने नाम पर मार्च तक मुफ्त में कुछ चीज़ों का झुनझुना दिखा रही है, जो चुनाव बाद सब गायब हो जाएगी।

दिल्ली कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सुभाष चोपड़ा ने बताया कि दिल्ली में इस बार कांग्रेस अपने खोये हुए जनाधार को वापस लाने के व्यापक जनसम्पर्क अभियान चलाये हुए है और कांग्रेस ने जो दिल्ली में विकास किया है, जिसको आप पार्टी ने दिल्ली में ध्वस्त कर दिया है। उसको जनता जान रही है, ऐसे में अब दिल्ली वालों से जब कांग्रेसी कार्यकर्ता मिलते हैं, तो वो कहते हैं कि कांग्रेस के समय में दिल्ली में पुलों और सड़कों का जो विकास किया जा रहा था, वह अब ठप्प पड़ा है। वहीं केन्द्र में एनडीए सरकार ने देश में जो तोडफ़ोड़ का माहौल बनाया है, उससे जनता काफी दु:खी है। सुभाष चोपड़ा का कहना है कि पिछले विधानसभा चुनाव में भले ही कांग्रेस असफल रही थी। जनता अब मान चुकी है कि दिल्ली ही नहीं सारे देश में कांग्रेस ही सही मायने में विकास और भाईचारे की राजनीति करती रही है।  दिल्ली के चुनाव को लेकर ‘रोडमैप टू विन इलेक्शन इन लास्ट ऑवर’ के प्रमुख व लेखक सुनील मिश्रा का कहना है कि दिल्ली मेें चुनाव को लेकर बयानबाज़ी का दौर चल रहा है; परन्तु यह स्पष्ट है कि जिस तरीके से आम आदमी पार्टी चुनाव पूर्व फ्री की रेवडिय़ाँ बाँट रही है, उससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वह चुनाव में पहले जैसी स्थिति में नहीं है।

इस बार चुनाव में काफी कुछ बदले हुए परिणाम सामने आएँगे। सुनील मिश्रा का कहना है कि भाजपा को ही नहीं, सभी पाटियों को यह समझना चाहिए कि लोक सभा और विधान सभा के चुनावों में काफी अन्तर होता है। िफलहाल इस बार चुनाव में कांग्रेस और भाजपा काफी बढ़त वाली स्थिति में होंगी।

िफलहाल देश की राजनीति कांग्रेस और भाजपा के बीच में है। ऐसे में अगर ये दोनों पाटियाँ मुकाबले वाला चुनाव लड़ती हैं, तो परिणाम काफी चौंकाने वाले सामने आएँगे। उन्होंने बताया कि हरियाणा में कांग्रेस पार्टी की बढ़त वाली बात उन्होंने कही थी, जो सत्य साबित हुई है। वहीं आम लोगों की राय देखें, तो अधिकतर लोग आम आदमी पार्टी की सराकर से काफी सन्तुष्ट हैं। इसलिए भाजपा और कांग्रेस के लिए दिल्ली जीत पाना इतना आसान नहीं होगा।

डिजिटलाइजेशन अभियान ज़ोरों पर, मगर ग्रामीणों के पास सिर्फ 4.4 फीसदी कम्प्यूटर

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के डाटा-विश्लेषण से पता चलता है कि डिजिटलाइजेशन के अभियानों के बावजूद देश में कम्प्यूटर रखने वालों की संख्या, खासतौर से ग्रामीण संख्या; बहुत कम है।

23 नवंबर, 2019 को जारी किये गये आँकड़ों से पता चलता है कि लगभग 4.4 फीसदी ग्रामीण परिवारों और 23.4 फीसदी शहरी परिवारों के पास कम्प्यूटर था। इसी तरह लगभग 14.9 फीसदी ग्रामीण परिवारों और 42.0 फीसदी शहरी परिवारों के पास इंटरनेट की सुविधा थी। ग्रामीण आबादी की कम्प्यूटिंग क्षमता भी बहुत कमज़ोर थी। कम्प्यूटिंग क्षमता को एक डेस्कटॉप, लैपटॉप, पामटॉप, नोटबुक, स्मार्टफोन और टैबलेट के संचालन के लिए उपयोगकर्ता की क्षमता के रूप में परिभाषित किया गया है। प्रमुख राज्यों में- केरल में सबसे अधिक कम्प्यूटिंग क्षमता है; जबकि छत्तीसगढ़ में सबसे कम। शहरी क्षेत्रों में, दिल्ली के बाद केरल दूसरे स्थान पर है। तमिलनाडु और पंजाब तालिका में मध्य में हैं। सामाजिक उपभोग और शिक्षा पर एनएसएस के आँकड़ों से मापी जाने वाली कम्प्यूटिंग क्षमता आदिवासी आबादी में सबसे कम पायी गयी है।

अध्ययन में पाया गया कि ग्रामीण क्षेत्रों में 5 वर्ष या उससे अधिक आयु के व्यक्तियों में 9.9 फीसदी ही कम्प्यूटर संचालित करने में सक्षम थे, 13.0 फीसदी इंटरनेट का उपयोग करने में सक्षम थे और अध्ययन के पिछले 30 दिन के दौरान 10.8 फीसदी इंटरनेट का उपयोग करते थे। शहरी क्षेत्रों में 5 वर्ष या उससे अधिक आयु के व्यक्तियों में 32.4 फीसदी कम्प्यूटर संचालित करने में सक्षम थे, 37.1 फीसदी इंटरनेट का उपयोग करने में सक्षम थे और 33.8 फीसदी ने पिछले 30 दिन के दौरान इंटरनेट का उपयोग किया था। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के तहत राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) ने घरेलू सामाजिक उपभोग को लेकर एक सर्वेक्षण किया है- एनएसएस के 75वें दौर के हिस्से के रूप के शिक्षा। इससे पहले भी इसी विषय पर 64वें दौर (जुलाई 2007-जून 2008) और 71वें (जनवरी-जून 2014) के दौरान सर्वेक्षण किये गये थे। एनएसओ देश में सांख्यिकीय प्रणाली के नियोजित विकास के लिए नोडल एजेंसी के रूप में कार्य करता है। आँकड़ों के क्षेत्र में मानदंडों और मानकों को बनाये रखता है, जिसमें अवधारणाओं और परिभाषाओं, डाटा संग्रह की कार्यप्रणाली, डाटा के प्रसंस्करण और परिणामों का प्रसार शामिल है। यह भारत सरकार और राज्य सांख्यिकी ब्यूरो (एसएसबी) के मंत्रालयों/विभागों के सम्बन्ध में सांख्यिकीय कार्यों का समन्वय करता है और भारत सरकार के मंत्रालयों/विभागों को सलाह देता है।

यह अंतर्राष्ट्रीय सांख्यिकीय संगठनों, जैसे- संयुक्त राष्ट्र सांख्यिकीय प्रभाग (यूएनएसडी), एशिया के लिए आर्थिक और सामाजिक आयोग और प्रशान्त (इएससीएपी), एशिया के लिए सांख्यिकीय संस्थान और प्रशान्त (एसआईएपी) और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ), एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी), फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ), इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन (आईएलओ) आदि के साथ सम्पर्क बनाये रखता है। यह गैर-सरकारी संगठनों और जाने-माने शोध संस्थानों को अनुदान सहायता जारी करता है। आधिकारिक आँकड़ों के विभिन्न विषय क्षेत्रों से सम्बन्धित विशेष अध्ययन या सर्वेक्षण, सांख्यिकीय रिपोट्र्स की छपाई और सेमिनार, कार्यशालाएँ और सम्मेलन आयोजित करना भी इसके कार्यक्षेत्र में शामिल है।

घरेलू सामाजिक उपभोग पर एनएसएस के 75वें दौर के सर्वेक्षण का मुख्य उद्देश्य शिक्षा प्रणाली में 3 से 35 वर्ष की आयु के व्यक्तियों की भागीदारी पर संकेतक का निर्माण करना था। घर के सदस्यों की शिक्षा पर खर्च और शिक्षा में हिस्सा नहीं लेने वालों के विभिन्न संकेतक। पाँच वर्ष या इससे अधिक आयु के व्यक्तियों के लिए पिछले 30 दिन के दौरान कम्प्यूटर संचालित करने की क्षमता, इंटरनेट का उपयोग करने की क्षमता और इंटरनेट का उपयोग करने की जानकारी भी एकत्र की गयी थी। इनके अलावा वर्तमान में 3 से 35 वर्ष की आयु के सदस्यों के सम्बन्ध में वर्तमान उपस्थिति और संबंधित व्यय के बारे में जानकारी प्राप्त की गयी थी।

वर्तमान सर्वेक्षण का दायरा पूरे देश तक था और केन्द्रीय नमूने के लिए 1,13,757 घरों (ग्रामीण क्षेत्रों में 64,519 और शहरी क्षेत्रों में 49,238) से 5,13,366 व्यक्तियों (ग्रामीण क्षेत्रों में 3,05,904) और 2,07,462 शहरी क्षेत्र) से एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण पद्धति के बाद लोगों से डाटा एकत्र किया गया था। इस सर्वेक्षण में 3 से 35 वर्ष की आयु के लोगों की कुल संख्या 2,86,456 (ग्रामीण क्षेत्रों में 1,73,397 और शहरी क्षेत्रों में 1,13,059) थी।

सात वर्ष और उससे अधिक आयु के व्यक्तियों में साक्षरता दर 77.7 फीसदी थी। यह ग्रामीण इलाकों में 73.5 फीसदी और शहरी क्षेत्रों में 87.7 फीसदी थी। ग्रामीण क्षेत्रों में 15 वर्ष और उससे अधिक आयु के व्यक्तियों में 30.6 फीसदी ने माध्यमिक या उससे ऊपर की शिक्षा पूरी की, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 57.5 फीसदी थी। भारत में 15 वर्ष और उससे अधिक आयु के 10.6 फीसदी व्यक्तियों ने शिक्षा स्नातक और उससे ऊपर का स्तर पूरा किया था। यह ग्रामीण क्षेत्र में 5.7 फीसदी और शहरी क्षेत्रों में 21.7 फीसदी थी। 3 से 35 वर्ष की आयु के लोगों में 13.6 फीसदी ने कभी नामांकन नहीं किया, 42.5 फीसदी ने कभी दािखला लिया; लेकिन हिस्सा नहीं ले रहे थे, जबकि 43.9 फीसदी वर्तमान में हिस्सा ले रहे थे।

ग्रामीण क्षेत्रों में 15.7 फीसदी ने कभी नामांकन नहीं किया, 40.7 फीसदी ने नामांकन किया; लेकिन वर्तमान में भाग नहीं ले रहे थ,े जबकि 43.5 फीसदी वर्तमान में भाग ले रहे हैं। शहरी क्षेत्रों में 8.3 फीसदी ने कभी नामांकन नहीं किया, जबकि 46.9 फीसदी ने नामांकन किया; लेकिन वर्तमान में भाग नहीं ले रहे थे, जबकि 44.8 फीसदी वर्तमान में भाग ले रहे हैं। पुरुषों में 11.0 फीसदी ने कभी नामांकन नहीं किया, 42.7 फीसदी ने नामांकन किया; लेकिन वर्तमान में भाग नहीं ले रहे हैं, जबकि 46.2 फीसदी वर्तमान में भाग ले रहे हैं। महिलाओं में 16.6 फीसदी ने कभी नामांकन नहीं किया, 42.2 फीसदी ने नामांकन किया; लेकिन वर्तमान में भाग नहीं ले रही हैं, जबकि 41.2 फीसदी वर्तमान में भाग ले रही हैं। प्राथमिक स्तर पर शुद्ध उपस्थिति अनुपात (एनआर) 86.1 फीसदी था। यह आँकड़ा उच्च प्राथमिक/ मध्य स्तर पर 2.2 फीसदी और 72 प्राथमिक और उच्च प्राथमिक/मध्य स्तर पर 89.0 फीसदी था। लगभग 96.1 फीसदी छात्र सामान्य पाठ्यक्रम का अनुसरण कर रहे थे और 3.9 फीसदी तकनीकी/व्यावसायिक पाठ्यक्रम अपना रहे थे। पुरुष छात्रों में लगभग 95.5 फीसदी सामान्य पाठ्यक्रम कर रहे थे और 4.5 फीसदी तकनीकी/व्यावसायिक पाठ्यक्रम में थे।

छात्राओं के मामले में लगभग 96.9 फीसदी सामान्य पाठ्यक्रम का अनुसरण कर रही थीं और 3.1 फीसदी तकनीकी/व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का। सामान्य पाठ्यक्रमों का अनुसरण करने वाले विद्याॢथयों में लगभग 55.8 फीसदी छात्र थे और 44.2 फीसदी छात्राएँ थीं। तकनीकी/व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का अनुसरण करने वाले विद्याॢथयोंं में लगभग 65.2 फीसदी छात्र थे और 34.8 फीसदी छात्राएँ थीं। 3 से 35 साल के छात्रों को मुफ्त शिक्षा, मुफ्त या रियायती पाठ्य पुस्तकों और स्टेशनरी से सम्बन्धित संकेतक, जो वर्तमान में पूर्व-प्राथमिक और उससे ऊपर के स्तर पर हैं; में पाया गया कि ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 57.0 फीसदी और शहरी क्षेत्रों में 23.4 फीसदी छात्र मुफ्त शिक्षा प्राप्त करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 15.7 फीसदी और शहरी क्षेत्रों में 9.1 फीसदी छात्रों ने छात्रवृत्ति/वजीफा/प्रतिपूर्ति प्राप्त की। ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 54.2 फीसदी और शहरी क्षेत्रों में 23.4 फीसदी छात्रों को मुफ्त/अनुदान प्राप्त पाठ्य पुस्तकें मिलीं। ग्रामीण क्षेत्र में 10.0 फीसदी और शहरी क्षेत्रों में 7.2 फीसदी छात्रों को मुफ्त/रियायती स्टेशनरी प्राप्त हुई। ग्रामीण क्षेत्रों में वर्तमान शैक्षणिक वर्ष में सामान्य पाठ्यक्रम के लिए प्रति छात्र औसत व्यय 5,240 रुपये था; जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 16,308 रुपये। ग्रामीण क्षेत्रों में वर्तमान शैक्षणिक वर्ष में तकनीकी/व्यावसायिक पाठ्यक्रम के लिए प्रति छात्र औसत व्यय 32,137 रुपये था; जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 64,763 रुपये था। करीब 4.4 फीसदी ग्रामीण परिवारों और 23.4 फीसदी शहरी परिवारों के पास कम्प्यूटर था। लगभग 14.9 फीसदी ग्रामीण परिवारों और 42.0 फीसदी शहरी घरों में इंटरनेट की सुविधा थी। ग्रामीण क्षेत्रों में 5 वर्ष या उससे अधिक आयु के व्यक्तियों में 9.3 फीसदी कम्प्यूटर संचालित करने में सक्षम थे, वहीं 13 0 फीसदी इंटरनेट का उपयोग करने में सक्षम थे और पिछले 30 दिन के दौरान 10.8  फीसदी ने इंटरनेट का उपयोग किया था। शहरी क्षेत्रों में 5 वर्ष या उससे अधिक आयु के व्यक्तियों में 32.4 फीसदी कम्प्यूटर संचालित करने में सक्षम थे, 37.1 फीसदी इंटरनेट का उपयोग करने में सक्षम थे और 33.8 फीसदी ने पिछले 30 दिन के दौरान इंटरनेट का उपयोग किया था।