Home Blog Page 971

दो बच्चों की हत्या कर दो पत्नियों सहित आठवीं मंजिल से कूदा पति, खुद की और एक पत्नी की मौत

उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद में एक व्यक्ति और उसकी एक पत्नी की आठवीं मंजिल से   कूदने के बाद मौत हो गयी जबकि इस व्यक्ति की दूसरी पत्नी इस घटना में घायल हुई है। इस घटना का सबसे दुखद पहलू यह भी है कि कूदने से पहले इन तीनों ने अपने दो बच्चों की गला दबा कर हत्या कर दी।

रिपोर्ट्स के मुताबिक इस व्यक्ति ने अपनी दो पत्नियों सहित अपार्टमेंट की आठवीं मंजिल से छलांग लगा दी। घटना गाजियाबाद के इंदिरापुरम की है। छलांग लगाने से इस व्यक्ति और उसकी एक पत्नी की मौत हो गई, जबकि दूसरी की हालत गंभीर है। उसे इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती किया गया है।

इस घटना के बाद पूरे इंदिरापुरम में हड़कंप मच गया। इस घटना का सबसे दुखद पहलू यह भी है कि कूदने से पहले इन लोगों ने अपने दोनों बच्चों को गला दबाकर मार डाला। पुलिस के मुताबिक घटना मंगलवार सुबह पांच बजे की है।

पुलिस ने बताया कि वैभव खंड के कृष्णा सफायर अपार्टमेंट में यह तीनों पति-पत्नी अपने दो बच्चों के साथ रह रहे थे। करीब डेढ़ महीने पहले ही ये यहां रहने आए थे।  मुताबिक इन लोगों ने सुसाइड नोट भी दीवार पर टांग रखा था। इसमें लिखा है कि आर्थिक तंगी के कारण उन्होंने आत्महत्या की है।

 पुलिस ने उनके परिजनों को सूचना दे दी है। फ्लैट में पुलिस को दो बच्चों के शव भी मिले हैं जिनकी आयु १०-१३ साल के बीच है। सभी शवों को पोस्टमॉर्टम के लिए भेजा गया है। पुलिस मामले की गहराई से जांच करने में जुटी है।

महाराष्ट्र पर तकरीबन पौने पांच लाख करोड़ का कर्ज!

महाराष्ट्र की नई सरकार ने जनता से बहुत सारे लोकलुभावन वादे तो कर लिए हैं लेकिन अब वक्त उन्हें मूर्त रूप देने का आ गया है। सरकार के सामने सबसे बड़ी समस्या राज्य की तिजोरी की है इस वक्त कर्ज में डूबी है। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार इस वक्त राज्य पर पौने पांच लाख करोड़ का कर्ज है।

महाविकास आघाड़ी सरकार के सामने और सबसे बड़ी समस्या कर्ज में डूबी अर्थव्यवस्था को संभाल कर, जैसा कि आघाडी का दावा है,राज्य को विकास की दिशामे ले जाना है।

पुरानी सरकार के कार्यकाल के दौरान बहुत सारे बड़े बड़े प्रोजेक्ट्स को आनन-फानन में हरी झंडी दिखा दी गई थी जिसके चलते ‘आमदनी अट्ठनी खर्चा रुपैया’ वाली स्थिति पैदा हो गई। अब नई सरकार, पुरानी अर्थव्यवस्था की समीक्षा कर नई अर्थव्यवस्था के मद्देनजर ‘व्हाइट पेपर’ जारी करेगी।

हालांकि शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की मिली जुली सरकार ने भी जो वादे किए हैं उन्हें पूरा करने के लिए भारी भरकम बजट की जरूरत है।इसलिए महाविकास आघाडी, चाहती है कि जनता के सामने पुरानी सरकार की असलियत जाहिर हो।

राज्य पर पौने पांच लाख करोड़ का कर्ज

पूर्व CM देवेंद्र फडणवीस के ड्रीम प्रोजेक्ट्स बुलेट ट्रेन, समृद्धि महामार्ग और मुंबई, पुणे, नागपुर की मेट्रो रेल परियोजनाएं काफी खर्चीली रही। बुलेट ट्रेन का खर्च एक लाख करोड़, समृद्धि महामार्ग का खर्च 48हजार करोड़ और मेट्रो परियोजनाओं में लगभग 30 हजार करोड़ का खर्च। इन सभी परियोजनाओं के चलते महाराष्ट्र की तिजोरी पर भरकम खर्च का भार बढ़ता चला गया और साथ ही कर्ज का बोझ भी। खर्च बढ़ने के साथ-साथ राजस्व भी घटता चला गया। सरकार हर बार घाटे का बजटपेश करती चली गई। इन सभी के चलते महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्था चरमरा गई है जिसे पटरी पर लाना ठाकरे की सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।

महा विकास आघाड़ी ने महाराष्ट्र के किसानों का कर्ज माफ करने व बेमौसम बारिश से हुए नुकसान की तुरंत भरपाई करने का वचन दिया है। अपने इस वादे पर खरा उतरना नयी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।

फडणवीस के कार्यकाल में राज्य सरकार पर 7,38,114 करोड़ का कर्ज़ बढ़ा। जिसमें से 2, 66, 472 कर्ज चुका दिया गया। फिलवक्त राज्य पर 4,71, 642 करोड़ का कर्ज़ बाकी है। यानी महाराष्ट्र पर तकरीबन पौने पांच लाख करोड़ का कर्ज है।

यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि नई सरकार अपने वादों को पूरा करने की चुनौती किस तरह से जामा पहनाती है, जो उसके लिए बहुत ही जरूरी है, या फिर तिजोरी खाली होने व कर्ज़ का बहाना बनाकर वक्त निकालती है।

प्रियंका गांधी की सुरक्षा में हुई थी बड़ी चूक !

गांधी परिवार की एसपीजी सुरक्षा वापस लेने की वजह से जहाँ राजनीतिक हलकों और लोक सभा में भी कांग्रेस विरोध के स्वर उठा रही है वहीं खबर है कि एसपीजी सुरक्षा वापस लेने के बाद कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी की सुरक्षा में बड़ी चूक हुई थी। घटना के मुताबिक एक वाहन बिना अनुमति उनके आवास में प्रवेश कर गया था और कुछ लोगों ने उन्हें सेल्फी का आग्रह किया था। इसकी शिकायत सीआरपीएफ से की गयी है।

यह घटना २५ नवम्बर की है। कुछ लोगों ने न सिर्फ बिना अनुमति प्रियंका गांधी के घर में प्रवेश किया बल्कि उनके साथ सेल्फी लेने की कोशिश भी की। एक सप्ताह पहले बिना किसी अपॉइंटमेंट के सेल्‍फी लेने के लिए गाड़ी सवार अज्ञात व्यक्तियों ने उनके आवास में प्रवेश कर लिया था। यह घटना लोधी एस्टेट स्थित प्रियंका गांधी वाड्रा के घर में २५ नवंबर के है।

रिपोर्ट्स के मुताबिक उस दिन एक कार ने उनके हर में प्रवेश कर लिया था। सुरक्षा में  इसे एक बड़ी चूक के रूप में देखा जा रहा है। रिपोर्ट्स के मुताबिक तीन महिलाएं और इतने ही पुरुष एक बच्चे के साथ प्रियंका गांधी के आवास के भीतर बिना परमिशन उसने में सफल हो गए थे। इन लोगों का दावा था कि ”वे प्रियंका गांधी के प्रशंसक” हैं, उनसे मिलने और उनके साथ सेल्फी लेने आए हैं।

मीडिया रिपोर्ट्स  के मुताबिक यह मामला सीआरपीएफ के समक्ष उठाया गया है। यह घटना तब घाटी है जब केंद्र सरकार ने गांधी परिवार से एसपीजी सुरक्षा हटा कर उन्हें सीआरपीएफ की ”जेड प्लस” सुरक्षा दी है।

नासा ने विक्रम लैंडर का मलबा ढूंढ़ निकाला

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी ”नासा” ने भारत के मिशन चंद्रयान-२ के विक्रम लैंडर का मलबा ढूंढ़ लिया है। अपने एक ट्वीट में नासा ने इस दावे की जानकारी देते हुए उस जगह की तस्वीर भी शेयर की है।

रिपोर्ट्स के मुताबिक नासा ने ट्वीट में मंगलवार सुबह अपने लूनर रेकॉन्सेन्स ऑर्बिटर (एलआरओ) से ली गई एक तस्वीर जारी की है जिसमें विक्रम लैंडर के गिरने वाला स्थान दिखाई दे रहा है। नासा ने इस बयान में कहा  ”चंद्रमा की सतह पर विक्रम लैंडर मिल गया है”। याद रहे चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर विक्रम लैंडर ने सॉफ्ट की बजाए हार्ड लैंडिंग की थी जिसके कारण उसका इसरो से संपर्क टूट गया था।

नासा ने जो तस्वीर शेयर की है उसमें बताया है कि तस्वीर में नीले और हरे डॉट्स वाली जगह विक्रम लैंडर के मलबे वाला क्षेत्र है। नासा ने कहा है कि उसने २६  सितंबर को क्रैश साइट की एक तस्वीर जारी की थी और लोगों को विक्रम लैंडर के संकेतों की खोज करने के लिए बुलाया था जिसके बाद शनमुगा सुब्रमण्यन नाम के व्यक्ति ने मलबे की सकारात्मक पहचान के साथ एलआरओ परियोजना से संपर्क किया।

रिपोर्ट्स के मुताबिक इसके बाद एलओआरसी की टीम ने पहले और बाद की छवियों की तुलना करके लैंडर साइट की पहचान की पुष्टि की। शनमुगा ने क्रैश साइट के उत्तर-पश्चिम में लगभग ७५० मीटर की दूरी पर स्थित मलबे की पहचान की। यह पहले मोजेक (१.३ मीटर पिक्सल, ८४ डिग्री घटना कोण) की स्पष्ट तस्वीर थी। नवंबर मोजेक में इंपैक्ट क्रिएटर, रे और व्यापक मलबा क्षेत्र को अच्छी तरह से दिख रहा है। मलबे के तीन सबसे बड़े टुकड़े २ गुना २ पिक्सल के हैं।

NASA

@NASA
The #Chandrayaan2 Vikram lander has been found by our @NASAMoon mission, the Lunar Reconnaissance Orbiter. See the first mosaic of the impact site https://go.nasa.gov/33Dl5Fr

पीएम ने महाराष्ट्र को लेकर ‘मदद’ मांगी थी, मैंने ऑफर ठुकरा दिया : पवार

एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने यह खुलासा करके भाजपा को बड़ी पेचीदी स्थिति में डाल दिया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बनाने में मदद के लिए ”साथ मिलकर काम करने” का ऑफर दिया था, लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया था। उनकी बेटी सुप्रिय सुले को केंद्र में मंत्री पद देने की पेशकश भी की गयी थी। पवार ने यह ब्यान देकर एक तरह से यह साफ़ कर दिया है कि किसी भी लालच में पड़े बिना उन्होंने शिव सेना सरकार को समर्थन का अपना वादा किसी भी स्तर पर नहीं तोड़ा था। दूसरे पीएम जैसे व्यक्ति से अपनी बातचीत को सार्वजनिक करके पवार ने कुछ न कहकर भी यह सन्देश देने की कोशिश की है कि महाराष्ट्र में ”हर हालत में भाजपा की सरकार” बनाने की कोशिश पीएम के स्तर पर हो रही थी।

पवार ने पीएम की तरफ से ऑफर का यह खुलासा एक मराठी चैनल को दिए इंटरव्यू में किया है। पवार ने इस इंटरव्यू में कहा है कि महाराष्ट्र के किसानों के मुद्दे पर बातचीत करके जब वे बाहर आने के लिए उठ रहे थे तब पीएम ने उन्हें यह ऑफर दिया यानी ”साथ काम करने” का प्रस्ताव दिया।

महाराष्ट्र में शिवसेना-कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की विकास आघाड़ी सरकार बनने के बाद पवार का यह बड़ा खुलासा है। शरद पवार ने दावा किया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें ”साथ मिलकर काम” करने का प्रस्ताव दिया था लेकिन उन्होंने प्रस्ताव को ठुकरा दिया। पवार ने मराठी टीवी चैनल को साक्षात्कार में दावा किया कि उनकी बेटी सुप्रिया सुले को मोदी सरकार में मंत्री पद का ऑफर भी दिया गया था।

इंटरव्यू में पीएम से हुई मुलाकात पर पवार ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी ने जब ”साथ आकर काम करने” का प्रस्ताव दिया था उन्होंने पीएम से कहा था कि हमारे निजी संबंध बहुत अच्छे हैं और वे हमेशा रहेंगे, लेकिन मेरे लिए साथ मिलकर काम करना संभव नहीं है। पवार ने कहा कि पीएम मोदी ने बेटी सुप्रिया सुले को कैबिनेट मंत्री बनाने का भी प्रस्ताव रखा था।

शरद पवार ने कहा कि पीएम मोदी का प्रस्ताव मैंने खारिज कर दिया था। पवार ने आधी रात को हुए शपथ पर कहा कि २८ नवंबर को जब उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो उस समय अजित पवार को शपथ नहीं दिलाने का फैसला ”सोच समझकर” किया गया था। उन्होंने कहा कि अजित पवार के फैसले में मेरी सहमति नहीं थी। ”जब मुझे अजित के (देवेंद्र फडणवीस को दिए गए) समर्थन के बारे में पता चला तो सबसे पहले मैंने ठाकरे से संपर्क किया। मैंने उन्हें बताया कि जो हुआ वह ठीक नहीं है और उन्हें भरोसा दिया कि मैं अजित के बगावत को दबा दूंगा”। मराठा दिग्गज ने कहा कि जब एनसीपी में सबको पता चला कि अजित के कदम को मेरा समर्थन नहीं है, तो जो पांच-दस (विधायक) उनके (अजित) साथ थे, उनपर दबाव बढ़ गया। अजित ने जो किया माफी योग्य नहीं है।

महाराष्ट्र: गरीब, किसान लाचार हर तरह से पड़ रही मार

महाराष्ट्र के किसानों पर हर तरह से मार पड़ रही है और वे निरीह की तरह लाचार होकर सहने को मजबूर हैं। पिछली सरकारों ने किसानों की कभी नहीं सुनी, ऐसे में इस बार उन्हें हमेेशा की तरह आशा थी कि कोई नयी सरकार बनेगी और उनकी समस्याओं का कोई समाधान निकलेगा। मगर इस बार के चुनाव परिणाम ऐसे आये कि किसी एक पार्टी की सरकार बन ही नहीं सकती। यही कारण है कि वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू भी हुआ। परन्तु जब राष्ट्रपति शासन लगा था, तब उसका असर राजनीतिज्ञों की •िांदगी से ज़्यादा उन गरीब रोगियों पर पड़ा है, जो अपनी महँगे इलाज के लिए महाराष्ट्र सरकार द्वारा दी जाने वाली आर्थिक मदद पर आश्रित हैंं। इसके अलावा अतिवृष्टि और बेमौसम बारिश की वजह से फसलों से हाथ धो बैठे किसानों के सामने भी समस्या मुँह फाड़े खड़ी हो गयी कि उनकी मदद कौन करेगा? क्योंकि मुख्यमंत्री कार्यालय की तरफ से आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों को इलाज के लिए आर्थिक सहायता दी जाती है, जो राष्ट्रपति शासन लगते ही बंद हो गयी थी। मुम्बई ही नहीं महाराष्ट्र के दूरदराज क्षेत्रों से इलाज के लिए आर्थिक मदद चाहने वालों की लम्बी कतार मंत्रालय के इस कक्ष के बाहर लगी रहती थी। लेकिन इस कार्यालय के बन्द होने से तकरीबन साढ़े पाँच हज़ार से अधिक लोग प्रभावित हो गये।

 मिली जानकारी के अनुसार, मुख्यमंत्री के इस विभाग द्वारा पिछले पाँच साल में 21 लाख रोगियों को सहायता दी गयी और ज़रूरतमंद रोगियों को 1600 करोड़ से अधिक राशि का आवंटन किया गया। लेकिन जैसे ही महाराष्ट्र में  राष्ट्रपति शासन लगा, विभाग को इस कक्ष पर ताला लग गया।

हालाँकि, इस फंड से आर्थिक सहायता मिलना बहुत आसान नहीं है। कागज़ात की लम्बी फेहरिस्त और लम्बा समय कभी-कभी मरीज़ों की आस तोड़ देता है। ऐसे कई वाकये सामने आये हैं, जब फंड मिलने से पहले ही बीमारों ने दम तोड़ दिया है।

हालाँकि,  इलाज के लिए आर्थिक सहायता की आस लगाये बैठे लोगों को विश्वास है कि नई सरकार के गठन के बाद उन्हें आर्थिक मदद मिल जाएगी। यहाँ पर कई गैर-सरकारी संस्थान, ट्रस्ट और चैरिटेबल ट्रस्ट भी हैं, जो गरीबों के इलाज के लिए आर्थिक मदद करते हैं। महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन में ऐसे ट्रस्ट पर भीड़ भी बढ़ी।

दूसरी ओर किसान इस बात को लेकर परेशान हैं कि बेमौसम बारिश के चलते, जो उन्हें नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई कौन करेगा और कब? हालाँकि देवेंद्र फडणवीस ने अपने कार्यकाल के दौरान ही किसानों के लिए 10 हजार करोड़  की घोषणा की थी। और वे पुन: मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं। लेकिन अभी भी सियासी ऊँट करवट बदल सकने की शंका से घोषणा को काफी समय बीत गया और राज्य के फाइनेंस डिपार्टमेंट के पास इस बाबत किसी प्रकार का प्रस्ताव नहीं पहुँचा। 6 से 7 नवंबर तक महाराष्ट्र में किसानों को हुए नुकसान की रिपोर्ट पेश करने की बात की गई थी, लेकिन राज्य के कई •िालों में अभी तक यह काम पूरा नहीं हुआ है। नुकसान का पूरा विवरण •िालाधिकारी के मार्फत सम्बन्धित आयुक्तों से सम्बन्धित महकमे के पास पहुँचेगा। राज्य सरकार ने आपातकालीन निधि के लिए इस साल 6400 करोड़ की राशि आवंटित की है। इसमें से 3200 करोड़ रुपये की मदद एवं पुनर्बसन विभाग को वित्त विभाग द्वारा दे दी गयी। जुलाई में बाढ़ पीडि़तों की मदद के लिए यह राशि विभागीय आयुक्तों के मार्फत प्रभावित •िालों तक पहुँचाया गया, जिसमें से 2400 करोड़ रुपये ही खर्च हुए 800 करोड़ की राशि बिना खर्चे दिख रही है।

 महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उस समय फडणवीस सरकार ने 6800 करोड़ के पैकेज की घोषणा की थी। पता चलता है कि उसमें से आधे निधि का भी वितरण नहीं हुआ है। बेमौसम बारिश की मार झेल रहे किसानों की मदद के लिए सम्बन्धित विभाग के पास लगभग चार हज़ार करोड़ रुपये उपलब्ध हैं। यदि बाढ़ पीडि़त किसानों को इसमें से मदद देनी पड़ी, तो बेमौसम बारिश से पीडि़त किसानों को देने के लिए अतिरिक्त 10,000 करोड़ का प्रावधान करना होगा; जिसके लिए यह ज़रूरी है कि वित्त विभाग के पास  इस प्रावधान का प्रस्ताव भेजा जाए। लेकिन ऐसा होता नज़र नहीं आ रहा। राष्ट्रपति शासन के बाद से निधि के आवंटन के कार्यान्वयन को लेकर परेशानियाँ खड़ी हो रही हैंं। यह कहा जा सकता है कि निधि के प्रस्ताव से लेकर आवंटन तक के लिए •िाम्मेदार सम्बन्धित महकमे का समन्वय तंत्र सुषुप्त अवस्था में है। राज्य में किसान इतनी बुरी तरह परेशान हैं कि पिछले कुछ महीने के भीतर ही तकरीबन 70 किसानों ने आत्महत्या कर ली है।

गायब हो रहे दिल्ली के जौहड़

एक ओर तो सरकार जल, जगल और ज़मीन बचाओ अभियाान चला रही है। तमाम दावे कर रही है कि प्राचीन विरासतों को यथासम्भव बनाये रखा जायेगा।  लेकिन ज़मीनी स्तर पर ज़मीन के साथ किस कदर खिलवाड़ हो रहा है, इस बात का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिल्ली सरकार के आला अफसर जौहड़ों, तालाबों और जंगलों की ज़मीन को एलाउटमेंन्ट करने में लगे हैं। इसके कारण ज़मीन का संकट दिल्ली के •यादातर गाँवों में गहराता जा रहा है। ग्रामीण इलाकों में कंक्रीट के जंगलों, कुओं, तालाबों और जौहड़ों के अस्तित्व को समाप्त कर रहे हैं। इनके अस्तित्त्व को बचाने के लिए समाजसेवियों ने आवाज़ भी उठायी है और अदालत का दरवाज़ा भी खटखटाया है। वाबजूद इसके अभी तक इस मामले में कार्रवाई के तौर पर कुछ भी नहीं हुआ है, बल्कि बदस्तूर कब्ज़ा करने का सिलसिला जारी है। दिल्ली के बुराड़ी गाँव में तो हालत यह है कि  बुराड़ी गढ़ी, शक्ति एन्क्लेव, तोमर कॉलोनी के प्राचीन जौहड़ों की ज़मीन पर भू-माफिया ने राजस्व विभाग के अधिकारियों से साँठ-गाँठ करके कब्ज़ा कर रहे हैं। राजस्व विभाग के कर्मचारी ने बताया कि सरकार के कई बार सख्त रवैया के बाद भी राजस्व विभाग के आला अधिकारी अपनी मन की करते हैं और जौहड़ों की ज़मीन  पर कंक्रीट की बहु-मंजिला इमारत बना रहे हैं। इस बारे में बुराड़ी एकता एन्क्लेव आरडब्ल्यूए के अध्यक्ष राम अवतार त्यागी ने बताया कि वह लगभग एक दशक से जौहड़ बचाओ अभियान की मुहिम लगे हैं। उन्होंने अदालत का दावाज़ा खटखटाया, अधिकारियों और भू-माफिया के िखलाफ लिखित में शिकायतें भी की है। लेकिन किसी के िखलाफ कोई कार्रवाई नहीं होने से जौहड़ों की ज़मीन पर अब भी कब्ज़ा हो रहा है। यहाँ के निवासियों ने सरकार और राजस्व विभाग की नीतियों विरोध में कई बार प्रदर्शन भी किये हैं। फिर भी कुछ भी नहीं होने से लोगों में सरकार के प्रति में  गुस्सा है।

राम अवतार त्यागी ने बताया कि 2011 में राजस्व अधिकारियों की शिकायत प्रधानमंत्री से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री और राज्यपाल तक से की। फिर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई। इसके बाद उन्होंने 2013 में दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर की अदालत का आदेश 31 अक्टूबर को आया कि जौहड़ों की ज़मीन को भू-माफिया से मुक्त किया जाए; पर ऐसा नहीं हुआ। अधिकारी अपनी मनमर्ज़ी पर लगे रहे और कब्ज़ा जारी रहा। फिर उन्होंने अदालत के आदेश की अवमानना का मामला भी दायर किया, तो उसका असर ये हुआ कि काम तो रुक गया और अधिकारियों ने कार्रवाई के तौर पर कुछ नहीं किया। अब फिर से भू-माफिया राजस्व अधिकारियों के साथ मिलकर जौहड़ों की ज़मीन पर कब्ज़ा करने में लगे हैं। उन्होंने कहा कि आज दिल्ली सरकार के अधिकारियों को न तो अदालत के आदेश का डर है और न ही सरकार का; वे लगातार ज़मीन पर कब्ज़ा करने में लगे हैं। स्थानीय निवासी प्रियरंजन ने बताया कि बड़ा ही दु:खद है कि एक ओर तो दिल्ली सरकार भ्रष्टाचार को समाप्त करने का दावा करती है; पर उसी के अधिकारी जल, जंगल और ज़मीन पर अवैध रूप से कब्ज़ा करने में लगे हैं। शिकायत करने वालों को डराया और धमकाया जाता है। ऐसे में दिल्ली की प्राचीन विरासत लुप्त होती जा रही है।

देश के सबसे युवा जज बने मयंक

मंज़िलें उनको मिलती हैं, जो सपनों को पंख लगाकर मेहनत में जुट जाते हैं। ऐसे ही लोगों को कामयाबी मिलती भी है। वैसे हमारे देश के युवाओं में प्रतिभा की कमी नहीं है। बस उनको सही समय पर उचित मौका मिलना चाहिए। पिछले दिनों राजस्थान न्यायिक सेवा परीक्षा 2018 का परिणाम सामने आया। इसमें सबसे ज़्यादा चर्चा बटोरी महज़ पहले प्रयास में ही 21 साल की उम्र में टॉप करके सबसे युवा जज बनने वाले मयंक प्रताप सिंह ने। मयंक राजस्थान की राजधानी जयपुर के रहने वाले हैं। लोगों के मन में जजों के प्रति सम्मान देखने के बाद मयंक ने ठान लिया था कि उन्हें भी एक दिन जज ही बनना है। आरजेएस में सबसे मुश्किल साक्षात्कार होता है। इसके साक्षात्कार में हाई कोर्ट के दो न्यायाधीशों के साथ-साथ कानून के विशेषज्ञ भी बैठते हैं। इस मुश्किल परीक्षा को महज़ 21 की उम्र में पास करना इसलिए भी मायने रखता है, क्योंकि इस उम्र के अनेक युवा तो करियर बनाने का निर्णय तक नहीं ले पाते।

मगर कहते हैं कि अगर किसी चीज़ को दिल से चाहो तो उसे मिलाने के लिए पूरी कायनात लग जाती है। बात अगर प्रतियोगिता की हो मेहनत के साथ ही माहौल और उचित मार्गदर्शन भी मायने रखता है। इस पर मयंक को परिवार, शिक्षकों के साथ ही सहपाठियों का भी भरपूर सहयोग मिला। इसी साल राजस्थान यूनिवर्सिटी से पाँच साल का एलएलबी कोर्स पूरा करने वाले मयंक युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत बनेंगे। क्योंकि मयंक स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के महज दो महीने बाद सफलता हासिल करके अलग पहचान बनाने में कामयाब रहे।

खास बात यह है कि इससे पहले 2018 तक न्यायिक सेवा परीक्षाओं में आवेदन करने के लिए न्यूनतम उम्र ही 23 साल हुआ करती थी। इत्तेफाक से इसी साल राजस्थान हाई कोर्ट ने यह उम्र घटाकर 21 साल की थी। इस आदेश के बाद ही मयंक कम उम्र में ही परीक्षा में बैठ सके और जज बनकर नाम रौशन किया।

सफलता के राज़ और मयंक

खदु फेसबुक जैसी सोशल साइट से दूर रहने वाले मयंक प्रताप सिंह को माइक्रो ब्लॉगिंग साइट्स पर बधाइयों का सिलसिला चल पड़ा।

परीक्षा के लिए किसी भी कोचिंग का सहारा नहीं लिया, पर पढ़ाई के दौरान कानून की बारीकी को पढ़ा और समझा।

जयपुर के मयंक ने महज 21 साल 10 महीने 9 दिन की उम्र में पहले प्रयास में ही न्यायिक परीक्षा में टॉप करके मुकाम हासिल किया।

पढऩे के लिए वक्त देने की बात करें, तो मयंक ने रोज़ाना औसतन 6 घंटे तक का समय पढ़ाई में बिताया। उपन्यास पढऩे का शौक है।

मयंक के पिता राजकुमार सिंह और माँ डॉ. मंजू सिंह उदयपुर में सरकारी स्कूल में शिक्षक हैं। बड़ी बहन इंजीनियर हैं।

इंटरव्यू में एक दिन पहले सबरीमाला पर आये फैसले के सवालों का उचित जवाब देने के बाद सफलता की उम्मीद तो थी, पर टॉप करने की नहीं थी।

अच्छा जज बनने के लिए ईमानदारी सबसे ज़रूरी है। यह कहावत भी चरितार्थ हुई कि आप मेहनत और ईमानदारी से काम करें, तो सफलता आपके कदम चूमेगी।

मयंक अपने परिवार में न्याय के क्षेत्र में जाने वाले पहले शख्स हैं। जजों की कमी के चलते उनका रुझान इस ओर रहा।

समाज सेवा में भी रुचि रही है साथ ही महिला और बच्चों के कल्याण के लिए भी वह एनजीओ के साथ भी जुड़े रहे हैं।

कानून का क्षेत्र चिकित्सक की तरह होता है, जिसमें इससे जुडऩे वाले को हर वक्त अपडेट रहना होता है।

एक ऐसा मंदिर, जो बन गया हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक

दुनिया में सैकड़ों ऐसे उदाहरण हैं, जो हमारे देश की एकता और अखण्डता का परिचय देते हैं। लेकिन धार्मिक स्थल अगर इस एकता की पहल करते हैं, तो नफरतें ऐसी एकता को तोड़ नहीं पातीं। भारत में आज भी बहुत-से ऐसे धार्मिक स्थल हैं, जहाँ हिन्दू, मुस्लिम जाकर एक साथ इबादत करते हैं। बरेली का लक्ष्मी-नारायण मंदिर ऐसे ही धार्मिक स्थलों में से एक है। इस मंदिर का नाम इसके मुख्य निर्माता चुन्ना मियाँ के नाम पर प्रसिद्ध है। आज लोग इसे लक्ष्मी-नारायण मंदिर के नाम से कम, चुन्ना मियाँ का मंदिर के नाम से ज़्यादा जानते हैं। यह मंदिर कैसे बना? एक मुस्लिम ने यह मंदिर क्यों बनवाया? बरेली के मुस्लिम-बहुल इलाके में बने इस मंदिर की पूजा  दुनिया में सैकड़ों ऐसे उदाहरण हैं, जो हमारे देश की एकता और अखण्डता का परिचय देते हैं। लेकिन धार्मिक स्थल अगर इस एकता की पहल करते हैं, तो नफरतें ऐसी एकता को तोड़ नहीं पातीं। भारत में आज भी बहुत-से ऐसे धार्मिक स्थल हैं, जहाँ हिन्दू, मुस्लिम जाकर एक साथ इबादत करते हैं। बरेली का लक्ष्मी-नारायण मंदिर ऐसे ही धार्मिक स्थलों में से एक है। इस मंदिर का नाम इसके मुख्य निर्माता चुन्ना मियाँ के नाम पर प्रसिद्ध है। आज लोग इसे लक्ष्मी-नारायण मंदिर के नाम से कम, चुन्ना मियाँ का मंदिर के नाम से ज़्यादा जानते हैं। यह मंदिर कैसे बना? एक मुस्लिम ने यह मंदिर क्यों बनवाया? बरेली के मुस्लिम-बहुल इलाके में बने इस मंदिर की पूजा में आज भी अनेक मुस्लिम भाई क्यों शामिल होते हैं? इन सवालों का उत्तर एक कहानी में छिपा है, जो चुन्ना मियाँ से जुड़ी है। यह कहानी है बरेली के एक सदी पहले के सेठ फज़रुल रहमान उर्फ चुन्ना मियाँ की। यह आज़ादी से पहले की बात है। फज़रुल जब महज कुछ ही साल के थे कि उनके माता-पिता गुज़र गये। घर चलाने वाला कोई बड़ा घर में था नहीं। आस-पड़ोस के सगे-सम्बन्धियों ने कुछ दिन तक तो उनकी परिवरिश पर ध्यान दिया, फिर िकस्मत के हवाले छोड़ दिया। एक रिश्तेदार उन्हें अपने साथ ले गये। लेकिन उन्हें वहाँ जी-तोड़ काम करना पड़ा। सो फज़रुल रहमान 11 साल की अवस्था में अपने टूटे हुए छप्पर वाले घर में वापस आ गये। अब उनका हाल पूछने वाला कोई भी नहीं था। वे कभी किसी का काम करा देते, कभी किसी का। इसके बदले में पेट भर जाता। मगर कभी-कभी उन्हें भूखे ही सोना पड़ता। इन दिनों लोग उन्हें फज़रू-फज़रू कहकर पुकारते थे। किवदंती है कि एक दिन उनके मोहल्ले के सेठ धर्मचन्द की नज़र उन पर पड़ी। वे फज़रू और उनके घर की स्थिति से अच्छी तरह वािकफ थे। उन्होंने पहले फज़रू को अपने बच्चों की तरह ही मानते थे। सेठ को फज़रू का पेट के लिए इस तरह दर-दर भटकना अच्छा नहीं लगा। उन्होंने पहले तो फज़रू को अपने यहाँ काम देने की सोची। लेकिन, पता नहीं उनके मन में क्या विचार आया, उन्होंने फज़रू को दो रुपये दिये और कहा कि वे अपना खुद का कोई काम करें। इन दिनों फज़रुल रहमान 13 साल के थे और दो रुपये की उन दिनों आज के कम-से-कम 20,000 रुपये के बराबर तो होगी ही। फज़रुल रहमान ने एक ठेला लिया और उसी पर बिसात खाने का काम फेरी लगाकर करने लगे। एक महीने बाद फज़रुल रहमान सेठ जी के दो रुपये लौटाने पहुँचे। तब सेठ ने उनसे दो रुपये लेने से इन्कार कर दिया और पूछा कि उन्होंने अभी तक कितने रुपये कमा लिये। फज़रुल ने बताया कि काम चल रहा है, उनके पास बेचने को सामान भी है और ये दो रुपये, जो वे लौटाने आये हैं। सेठ जी ने उन्हें डाँटा और कहा कि बस तू संतुष्ट हो गया? अभी और कमा, जब तेरे पास 10 रुपये हो जायें, तब मेरे पैसे लौटाना। फज़रुल रहमान श्रद्धा से सिर झुकाये, जी कहते हुए वहाँ से वापस आ गये। करीब तीन महीने बाद फिर सेठ के दो रुपये लौटाने गये। सेठ ने फिर पूछा कि कितने पैसे कमाये? फज़रुल रहमान ने कहा 10 रुपये। सेठ जी ने यह कहते हुए फिर से लौटा दिया कि जब 20 रुपये कमा लेना, तब मेरे पैसे लौटा देना। बताते हैं कि सेठ ने इस तरह फज़रुल रहमान से कभी पैसे नहीं लिये और उनका हौसला बढ़ाते रहे। धीरे-धीरे फज़रुल रहमान के पास काफी पैसा हो गया और उन्होंने बीड़ी बनाने की फैक्टरी खोल ली। शेर छाप बीड़ी सेठ फज़रुल रहमान की ही थी। इन दिनों उनकी हिंदू-मुस्लिम दोनों भी मज़हब के लोगों से दोस्ती थी। दोनों ही मज़हबों में मनाये जाने वाले त्योहारों को वे मनाते थे। कहने वाले तो यह तक कहते हैं कि वे रामायण और गीता पढ़ा करते थे। राधेश्याम रामायण के रचयिता कवि राधेश्याम जी से उनके बहुत गहरे सम्बन्ध थे और वे उनकी रामायण का पाठ भी कराते थे। हर किसी की मदद को दौड़ पडऩे वाले फज़रुल रहमान 21-22 साल की अवस्था तक सेठ चुन्ना मियाँ के नाम से पहचाने जाने लगे थे। कहा जाता है कि सन् 1960 में जब उन्होंने लक्ष्मी-नारायण मंदिर का निर्माण कराया, तब उन्होंने न केवल एक लाख दस हज़ार एक रुपया इस मंदिर के निर्माण के लिए दान दिया था, बल्कि खुद के सिर पर ईंटें आदि भी ढोयी थीं। खुद ही जयपुर जाकर लक्ष्मी-नारायण की संगमरमर की मूर्ति लेकर आये थे और मंदिर में मूर्ति स्थापना और प्राण-प्रतिष्ठा के दौरान उपासना में शामिल भी हुए थे। लोग तो यहाँ तक बताते हैं कि चुन्ना मियाँ मांस, मदिरा तक का सेवन नहीं करते थे। 16 मई 1960 को चुन्ना मियाँ ने इस मंदिर का उद्घाटन तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के कर-कमलों से कराया। खास बात यह है कि इस मंदिर की आधारशिला भी चुन्ना मियाँ ने राष्ट्रपति से ही रखवायी थी। आज यह कहते हुए गर्व होता है कि यह मंदिर हिन्दू-मुस्लिम एकता की जीती-जागती मिसाल है। चुन्ना मियाँ के जीवन के कुछ और पहलू भी हैं, जिन पर संक्षिप्त में ही सही, पर चर्चा ज़रूरी है।

अशोक की लाट से सजा है मंदिर

चुन्ना मियाँ भारत भूमि से बहुत ही प्यार करते थे और इसके सम्मान के प्रतीकों का भी। वे इंसानियत को सच्चा धर्म मानते थे। जब लक्ष्मी-नारायण मंदिर का निर्माण हो रहा था, तब चुन्ना मियाँ ने इसके प्रवेश द्वार पर अशोक की लाट लगवायी और स्वयं मंदिर का निर्माण पूरा होने तक एक मज़दूर की तरह काम करते रहे।

उन दिनों सबसे बड़े सेठ थे चुन्ना मियाँ

कहा जाता है कि चुन्ना मियाँ उन दिनों बरेली शहर के सबसे बड़े सेठ हुआ करते थे। मंदिर निर्माण के लिए उन्होंने न केवल सबसे अधिक धन दान किया, बल्कि श्रमदान भी दिया।

सनातन धर्म पंजाबी फ्रंटियर सभा का कराया पंजीकरण

मंदिर निर्माण के बाद चुन्ना मियाँ ने सनातन धर्म पंजाबी फ्रंटियर सभा का पंजीकरण कराया। इस संस्था के लिए उन्होंने 20,700 रुपये का अनुदान दिया। दान के मामले में चुन्ना मियाँ का उन दिनों कोई सानी नहीं था। कहा जाता है कि चुन्ना मियाँ ने अपने समय में अनेक गरीबों की दिल खोलकर मदद की थी। गरीब कन्याओं के विवाह में वे दान दिया करते थे। उनके पास मदद के लिए हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही मज़हबों के लोग आया करते थे और वे बिना किसी भेद-भाव के सबकी हर सम्भव मदद करने को हमेशा तैयार रहते।

गुरुद्वारे के लिए दान कर दी ज़मीन

कहा जाता है कि देश का जब विभाजन हुआ, तो पाकिस्तान से कुछ सिख लोग बरेली में आकर बस गये थे। वे लोग जहाँ बसे उसी के बराबर में चुन्ना मियाँ की ज़मीन थी। सिखों नें गुरुद्वारा बनाने के लिए उस ज़मीन को चुन लिया। चुन्ना मियाँ ने उन पर मुकदमा दायर कर दिया। लेकिन बाद में खुद ही सिख समुदाय को वह जगह दे दी और कोर्ट की पैरवी में हुआ ख़र्च भी सिखों को अपनी जेब से दिया। पुराने लोगों की मानें, तो चुन्ना मियाँ में यह परिवर्तन गुरु ग्रन्थ साहिब की पवित्रता और महिमा के बारे में जानने के बाद आया।

माथे पर लगाते थे तिलक

चुन्ना मियाँ एक ऐसे शख्स थे, जो सनातन पूजा-पाठ के दौरान न केवल उसमें भाग लेते थे, बल्कि अपने माथे पर तिलक भी लगाते थे।

मंदिर से जुड़े हैं चुन्ना मियाँ के परिजन

चुन्ना मियाँ के जाने के बाद उनकी इंसानियत की धरोहर को उनके बच्चे आज भी सँभाल रहे हैं। आज भी उनके पौत्र-प्रपौत्र चुन्ना मियाँ के मंदिर में सेवा-भाव से लगे हुए हैं। उनके पौत्र-प्रपौत और घर की महिलाएँ आज भी मंदिर के कार्यों में हिस्सा भी लेती हैं। पूरा शहर आज भी उनके परिवार का सम्मान करता है और इस परिवार पर फख्र करता है।

टेस्ट क्रिकेट को नया जीवन देने की कोशिश

करीब 142 साल पहले जब ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बीच 1877 में क्रिकेट इतिहास का पहला टेस्ट मैच हुआ था, तब लोग बिना स्टेडियम जैसी सुविधाएँ होते हुए भी खेल देखने बड़ी संख्या में आते थे। इसके बहुत साल बाद क्रिकेट में एक दिवसीय क्रिकेट आयी और फिर 20-ट्वेंटी। इसने टेस्ट क्रिकेट को मानो खत्म ही कर दिया। दर्शक एक दिवसीय और 20-ट्वेंटी की तरफ मुड़ गया और टेस्ट क्रिकेट दर्शकों के लिए तरस गयी। लेकिन सौरव गांगुली के बीसीसीआई अध्यक्ष बनते ही पिंक गेंद और खासकर डे-नाईट टेस्ट क्या शुरू हुआ, टेस्ट क्रिकेट के मैदान में फिर बहार आ गयी।

पिछले वर्षों में टेस्ट मैच के दौरान जिन मैदानों पर गिने-चुने दर्शक ही दिखते थे, बांग्लादेश के िखलाफ कोलकाता में पहले डे-नाईट टेस्ट मैच के पहले ही दिन स्टेडियम में तकरीबन 60,000 दर्शक पहुँच गये। यह किसी करिश्मे से कम नहीं। दिग्गज क्रिकेट िखलाड़ी राहुल द्रविड़ भी इससे बहुत उत्साहित दिखे। द्रविड़ ने कहा कि मैं बहुत खुश हूँ। इसने मेरी कुछ पुरानी यादें ताज़ा कर दी हैं। जब आपके सामने 45-50 हज़ार दर्शक होते हैं, तो आपको शानदार लगता है। इस तरह की भीड़ देखना अच्छा लगता है। इससे ज़्यादा आप और क्या चाह सकते हो? उम्मीद है कि हम ऐसा लगातार करते रहें।

क्रिकेट की माँ कहे जाने वाले टेस्ट क्रिकेट के दिन क्या अब सचमुच बहुरेंगे? भी कहना कठिन है; क्योंकि अभी तक डे-नाईट क्रिकेट सीमित रूप में ही सामने आया है। वैसे सौरव गांगुली हमेशा से पिंक बॉल और क्रिकेट में डे-नाईट क्रिकेट की वकालत करते रहे थे। जब 2016-17 में गांगुली तकनीकी समिति के सदस्य थे, तब उन्होंने घरेलू क्रिकेट में भी पिंक बॉल के उपयोग की सिफारिश की थी। साथ ही  गांगुली ने दिन-रात के मैच की वकालत भी की थी।

गांगुली ने पहले दिन-रात टेस्ट मैच करवाया भी अपने गृह मैदान कोलकाता में। जिसे फुटबाल और क्रिकेट दोनों का मक्का कहा जाता है। गांगुली वहाँ बहुत ज़्यादा लोकप्रिय हैं, लिहाज़ा उनके सम्मान के लिए भी दर्शक मैच देखने आये होंगे। लिहाज़ा टेस्ट क्रिकेट के लिए मैदानों में दर्शकों को खींचना अभी भी एक बड़ी चुनौती होगी। हाँ, एक गम्भीर कोशिश पिंक बाल और दिन-रात की टेस्ट क्रिकेट से हो ज़रूर गयी है और दर्शकों ने इसे बहुत बेहतर रिस्पॉन्स भी दिया है।

आज दुनिया में क्रिकेट के जो दिग्गज हैं, उनमें से ज़्यादातर टेस्ट क्रिकेट की उपज हैं। आज भी क्रिकेट के तकनीकी रूप से बहुत मज़बूत िखलाड़ी टेस्ट क्रिकेट को ही क्रिकेट की माँ मानते हैं। लेकिन टेस्ट क्रिकेट के प्रति दर्शकों की उदासीनता से इसे बहुत नुक्सान हुआ है। कॉरपोरेट ने भी एक दिवसीय और 20-ट्वेंटी को ही प्रोत्साहित किया है। दर्शकों को क्रिकेट के इन नये फॉर्मेट में खींचने में कॉरपोरेट का बड़ा रोल रहा है।

सौरव गांगुली क्रिकेट में बतौर कप्तान भी प्रयोगधर्मी रहे हैं और जब वे बीसीसीआई की तकनीति समिति के सदस्य थे, तब भी वे कुछ नया करने के पक्ष में रहे थे। अब तो बीसीसीआई के अध्यक्ष बन गये हैं, तो बहुत-सी शक्तियाँ उनके हाथ में हैं और वे कई बेहतर ची•ों करने की स्थिति में हैं, जिन्हें वे अभी तक सोचते रहे हैं।

दुनिया के तमाम क्रिकेट दिग्गज टेस्ट क्रिकेट के प्रति दर्शकों की रुचि काम होने के प्रति चिंतित दिखते रहे हैं। ऐसे भी मौके आये, जब यह कहा गया कि टेस्ट क्रिकेट को सीमित कर देना चाहिए। यह भी कहा गया कि टेस्ट मैच के प्रति दर्शकों रुचि जगाने के लिए सीमित ओवर्स की दो-दो पारियाँ करवायी जाएँ। लेकिन बहुत से लोग इसके िखलाफ रहे और उनका कहना रहा है कि इससे तो टेस्ट क्रिकेट महज़ एक मज़ाक बन कर रह जाएगी और उसकी आत्मा तो मर ही जाएगी।

हो सकता है कि टेस्ट क्रिकेट को लोकप्रिय करने के लिए गांगुली कुछ और लुभावनी योजनाएँ सामने लेकर आएँ। आईसीसी ने भी टेस्ट क्रिकेट को जीवित रखने के लिए इसका विश्व कप शुरू किया है, जिसमें हरेक मैच के नतीजे के आधार पर देश को अंक दिये जाते हैं। िफलहाल भारत ही इन अंकों के आधार पर सबसे आगे चल रहा है।

एक दिवसीय और 20-ट्वेंटी ऐसी ही दर्शकों के प्रिय फॉर्मेट नहीं हो गये। एक तो जल्दी नतीजा, दूसरे कॉरपोरेट के हाथ में इन फॉर्मेट की कमान का आ जाना। कॉरपोरेट ने क्रिकेट को एक तरह का चकाचौंध वाला तमाशा बना दिया। रंगीन ड्रेस, चौक्कों-छक्कों पर मैदान के एक कोने में चीयर गल्र्स, दर्शकों को टी-शट्र्स बाँटना, सफेद गेंद का प्रयोग वगैरह-वगैरह। इसके विपरीत टेस्ट क्रिकेट के लिए ऐसा कुछ नहीं किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि एक दिवसीय और 20-ट्वेंटी की चकाचौंध के आगे टेस्ट क्रिकेट नीरस-सी दिखने लगी। धीरे-धीरे दर्शक टेस्ट मैदानों से दूर होते गये। गांगुली के बीसीसीआई का अध्यक्ष बनने के बाद बोर्ड का मानना है कि दिन-रात का टेस्ट मैच खेल के सबसे बड़े प्रारूप को उसकी खोयी हुई पहचान दिलाने में बड़ी भूमिका निभाएगा। बांग्लादेश क्रिकेट बोर्ड का भी इस मैच को सफल करने में योगदान रहा, क्योंकि उसने बहुत कम समय के बावजूद इस मैच के लिए हामी भरी। गांगुली का कहना है कि दिन-रात का टेस्ट मैच एक बहुत बड़ा कदम है और हमारा मानना है कि यह दर्शकों और युवा बच्चों को स्टेडियम तक लेकर आयेगा। मैं बेहद गर्व महसूस कर रहा हूँ कि ईडन गार्डन भारत में हुए पहले दिन-रात के टेस्ट मैच में इतनी बड़ी संख्या में दर्शक आये। गांगुली ने कहा कि यह भारतीय क्रिकेट में एक विशेष चीज़ की शुरुआत है। हम इस प्रारूप को फिर लोकप्रिय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। भारत और बांग्लादेश के बीच हुए ऐतिहासिक डे-नाईट टेस्ट मैच में कुछ ऐसी ची•ों देखने को मिलीं, जो अभी तक आईपीएल, एक दिवसीय और 20-ट्वेंटी में ही देखने को मिलती थी। तमाम दिग्गज कपिल देव, सचिन तेंदुलकर, राहुल द्रविड़ जैसे कई-कई दिग्गज छोटे वाहन मैं बैठकर मैदान के चक्कर लगा रहे थे और दर्शक तालियाँ बजा रहे थे। वैसे यहाँ पिंक गेंद को लेकर कुछ सवाल भी उठे हैं। दिग्गज द्रविड़ को लगता है कि लाल गेंद से खेले जाने वाले दिन के टेस्ट मैच में सुबह का सत्र बल्लेबाज़ों के लिए काफी मुश्किल होता है, वैसा ही गुलाबी गेंद से शाम का सत्र हो सकता है। उन्होंने कहा कि बांग्लादेशी बल्लेबाज़ पहले दो घंटे संघर्ष करते हुए दिखाई दिये। टीम पहली पारी में 106 रन पर ही सिमट गयी। पहले (लाल गेंद) सुबह के सत्र में नई गेंद का प्रभाव होता था, जबकि अब आपके पास शाम के सत्र में है। बीसीसीआई ने 2015-16 के सीजन में दिलीप ट्रॉफी में पिंक गेंद का इस्तेमाल किया था। इसने दर्शकों को मैदान की तरफ खींचा भी। लेकिन कुछ क्रिकेटरों के पिंक गेंद को लेकर दिये बयान भी गौर करने लायक हैं। भारत में औंस एक बड़ा फैक्टर रहा है। इसकी वजह से ज़्यादातर बार दूसरी गेंदबाज़ी करने वाली टीम को भुगतना पड़ता है। गेंद सॉफ्ट होती जाती है और गेंदबाजों के लिए इसे सँभालना मुश्किल होता है। पिंक वॉल औंस में ज़्यादा खराब होती है। क्रिकेटर दिनेश कार्तिक कहते हैं कि पिंक गेंद को रात में ओस के समय सँभालना काफी मुश्किल हो जाता है।

चाइनामैन गेंदबाज़ कुलदीप यादव को भी पिंक गेंद के टर्न नहीं होने की शिकायत है। वे कहते हैं कि ये गेंद टर्न और रिवर्स स्विंग नहीं होगी, तो भारतीय उपमहाद्वीप वाला टेस्ट क्रिकेट के अंदाज़ धीरे-धीरे खत्म होता जाएगा। चेतेश्वर पुजारा का कहना है कि इस गेंद की ग्रिप को पकड़ पाना काफी मुश्किल है। स्पिनर्स की ग्रिप समझ नहीं आती है, जिससे परेशानी बढ़ जाती है। इसके बावजूद दिन-रात टेस्ट क्रिकेट ने दर्शकों को अपनी तरफ खींचा है। यह अच्छी शुरुआत है। शायद इसे देखकर दिग्गज डॉन ब्रैडमैन की आत्मा भी ऊपर कहीं सुकून महसूस कर रही होगी।

टेस्ट मैचों के वेन्यू का विस्तार ज़रूरी

दिन-रात्रि के मैच की शुरुआत सकारात्मक तरीके से हुई है। दर्शकों ने मैदान पर आकर इसे सफल बनाया है। लेकिन आने वाले समय में गांगुली की अध्यक्षता में टेस्ट मैचों के मैदानों का विस्तार हो सकता है। यह भी सही है कि सिर्फ पिंक बाल देखने दर्शक मैदान में नहीं आएँगे। टेस्ट क्रिकेट को छोटे शहरों तक ले जाना होगा। उसमें एक दिवसीय और 20-ट्वेंटी जैसे आकर्षण भी जोडऩे होंगे।

दिग्गज स्पिनर हरभजन सिंह का भी मानना है कि महज़ पिंक गेंद से टेस्ट मैच खेलने से फर्क  नहीं पड़ेगा। हरभजन कहते हैं कि सिर्फ गेंद का रंग बदलने से बात नहीं बनेगी। दर्शकों को क्रिकेट के बड़े फॉर्मेट को देखने मैदान पर लाने के लिए आपको बहुत कुछ करना होगा। मैं समझता हूँ कि छोटे शहरों में टेस्ट क्रिकेट करानी चाहिए। वहाँ के लोग क्रिकेट लेजेंड्स को पास से देख नहीं पाते। पंजाब के अमृतसर में मैच होता है, तो कहीं ज़्यादा दर्शक आपको मैदान में दिखेंगे।

अभी तक देखा जाए, तो टेस्ट क्रिकेट पुराने और परम्परागत मैदानों पर होती रही है। नये मैदानों को खोजने का प्रयोग नहीं हुआ। धर्मशाला और रांची को छोड़ दिया जाए, तो कुछ ज़्यादा नहीं हुआ है।

कैरी पैकर ने बदला क्रिकेट

यह 1976 की बात है। ऑस्ट्रेलिया के चैनल-9 के प्रमुख और व्यवसायी कैरी पैकर अपने लिए मैचों के प्रसारण के अधिकार चाहते थे; लेकिन ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट बोर्ड (एसीबी) ने इससे इन्कार कर दिया। कैरी पैकर इससे इतने खफा हुए कि उन्होंने ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट बोर्ड को सबक सिखाने की ठान ली। और जो उन्होंने किया उसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। उन्होंने क्रिकेट का समांतर ऐसा ढाँचा खड़ा कर दिया, जिसने पूरी क्रिकेट की सूरत ही बदल दी। इसे कैरी पैकर सर्कस के नाम से भी जाना जाता है। पैसे के बल पर कैरी पैकर ने दुनिया-भर के नाम क्रिकेटरों के लिए इतने लुभावने प्रस्ताव पेश किये कि दिग्गज िखलाड़ी भी इसके मोह से बच नहीं पाये और कैरी पैकर से जुड़ते चले गये। उन्होंने शीर्ष क्रिकेटरों को अपने साथ जोड़कर परम्परागत क्रिकेट का ढाँचा ही तहस-नहस कर दिया। कैरी पैकर ने वल्र्ड सीरीज क्रिकेट शुरू की। इस क्रिकेट की खास बात यह थी कि इसमें रंगीन जर्सी खिलाडिय़ों को दी गयी और मैच भी दिन-रात के करवाने की शुरुआत हुई। टोनी ग्रेग और इयान चैपल जैसे दिग्गज खिलाड़ी कैरी पैकर की इस क्रिकेट के सूतरधार बने। यह दोनों उस समय क्रिकेट के बड़े नाम थे। लेकिन कैरी पैकर ने यह सब कुछ बहुत गुपचुप तरीके से किया। दुनिया को इसकी भनक तक नहीं लगने दी। एक साल बाद जब 1977 में वल्र्ड सीरीज क्रिकेट की घोषणा हुई, तो हर कोई हैरान रह गया। क्रिकेट का ढाँचा हिल गया और आधिकारिक क्रिकेट बोर्डों को टीम बनाने तक के लाले पड़ गये। वल्र्ड सीरीज क्रिकेट के लिए तीन टीमों का गठन किया गया। वेस्टइंडीज और ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी सबसे ज़्यादा थे, लिहाज़ा इनसे डब्ल्यूएससी, ऑस्ट्रेलिया इलेवन और वेस्टइंडीज इलेवन तैयार हो गयी। अन्य देशों के सभी खिलाडिय़ों को मिलाकर वल्र्ड इलेवन टीम बनायी गयी। इयान और ग्रेग चैपल, डेनिस लिली, रॉड मार्श, ज्योफ थॉमसन, क्लाइव लॉयड, विव रिचड्र्स, एंडी रॉबट्र्स, माइकल होल्डिंग, जियोल गार्नर, गार्डन ग्रीनिज, कोलिन क्रॉफ्ट, रोहन कन्हाई,  बैरी रिचड्र्स, माइक प्रॉक्टर, क्लाइव राइस,  रिचर्ड हेडली, एलन नॉट, डेनिस एमिस, बॉब वूल्मर, इमरान खान, जावेद मियांदाद, ज़हीर अब्बास, सरफराज नवाज़, माजिद खान, मुश्ताक मोहम्मद जैसे धुरंधर कैरी पैकर से जुड़ गये। हालाँकि कैरी पैकर की इस क्रिकेट से खेल में क्रांतिकारी सुधार आये। खिलाडिय़ों को बड़े पैमाने पर पैसा मिलना शुरू हुआ। रंगीन ड्रेस की शुरुआत हुई, जो बहुत आकर्षक दिखती थी। परम्परागत चेरी (लाल) गेंद की जगह कूकाबुरा की सफेद गेंद इस्तेमाल की गयी। दिन-रात के मुकाबले पहली बार दूधिया रौशनी में हुए, जो बाद में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में भी शुरू हुए। बोड्र्स की क्रिकेट जहाँ गिने-चुने ही कैमरे मैच में होते थे, कैरी पैकर ने मैदान के हर कोने में दर्जन-भर कैमरों से खेल अपने चैनल-9 पर दिखाया। हालाँकि कैरी पैकर के साथ जाने का यह असर यह हुआ कि टोनी ग्रेग से लेकर अन्य को विभिन्न देशों के क्रिकेट बोड्र्स ने बाहर कर दिया और उनपर प्रतिबन्ध लगा दिया। कैरी पैकर की लीग को आईसीसी ने अमान्य घोषित कर दिया। जब क्रिकेट बोर्डों ने अपने स्टेडियम कैरी पैकर को देने से इन्कार कर दिया, तो पैकर ने दूसरे खेल मैदानों में मैच करवा दिये। ज़्यादा दर्शक मैदान तक नहीं पहुँचे। लीग 1979 तक दो सत्र तक ही चल पायी। बागी, यानी कैरी पैकर के साथ गये खिलाडिय़ों को अपना करियर बचने के लिए बोड्र्स के आगे समर्पण करना पड़ा। काफी सुलह के बाद आिखर बािगयों की अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में वापसी हो पायी। भले कैरी पैकर को क्रिकेट को उस समय नष्ट करने वाला •िाद्दी व्यक्ति बताया गया हो और उसकी क्रिकेट को सर्कस का नाम दिया गया हो, जो कैरी पैकर ने किया बाद में धीरे-धीरे आधिकारिक क्रिकेट का हिस्सा बन गया। इस तरह यह कहा जा सकता है कि अपनी कल्पना से पैकर ने क्रिकेट को एक नया आयाम भी दिया, जो आज की क्रिकेट का सबसे अहम हिस्सा है।

खेल के पारम्परिक प्रारूप (टेस्ट क्रिकेट) में दिलचस्पी बढ़ाने के लिए कायाकल्प की ज़रूरत है। भारत ने घरेलू मैदान पर पहले दक्षिण अफ्रीका के साथ टेस्ट शृंखला खेली थी, जिसमें मैदान में दर्शकों की काफी कमी रही; लेकिन बांग्लादेश के साथ दिन-रात के टेस्ट मैच में पहले तीन दिन के टिकट एडवांस में ही बिक गये। आगे बढऩे का यही तरीका है। यह दुनिया भर में हो रहा है। कहीं से इसे शुरू करना ही था। भारत क्रिकेट के मामले में सबसे बड़ा देश है। मुझे लगता है कि यह बदलाव ज़रूरी है।  हालाँकि दिन रात्रि टेस्ट का आयोजन चुनौतीपूर्ण तो है। हमारे पास दर्शकों को मैदानों में लाने की चुनौती है। दुनिया के किसी भी कोने में भारत और पाकिस्तान के बीच खेले जाने वाले मैच का स्टेडियम खचाखच भर जाएगा। आप जैसे ही घोषणा करेंगे, दर्शक पहुँच जाएँगे।

सौरव गांगुली,

अध्यक्ष, बीसीसीआई।