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हर रोज़ देश में बलात्कार के 109 मामले!

भारत में हर रोज़ दुष्कर्म के 109 मामले रिपोर्ट होते हैं। सबसे चिंताजनक बात यह है कि प्रत्येक 6 प्रतिशत महिलाओं, जिनके साथ रेप की घटना हुई, में से सिर्फ 0.006 प्रतिशत ही इसकी शिकायत कर पाती हैं। यही नहीं पिछले करीब एक दशक में महिलाओं के िखलाफ अपराधों के लिए सज़ा की दर हमेशा 30 फीसदी से कम रही है।

यदि रेप में फाँसी की सज़ा की बात की जाए, तो हैरानी की बात है कि रेप के लिए देश में फाँसी की आिखरी सज़ा 15 साल पहले हुई थी।

इसी साल अक्टूबर में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2017 के लिए जारी रिपोर्ट में चौंकाने वाले तथ्य सामने आये हैं। वैसे हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय की मीडिया में बलात्कार की खबरों का स्वत: संज्ञान लिया था। पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, अनिरुद्ध बोस और दीपक गुुप्ता की बेंच ने इस मामले में राज्यों के हाईकोर्ट में दर्ज बलात्कार के मामलों के आँकड़े तलब किये थे।

सर्वोच्च अदालत के आदेश के सामने जब राज्यों से रेप के आँकड़े पेश किये गये, तो यह बहुत चौंकाने वाले थे। इसके मुताबिक पहली जनवरी, 2019 और 30 जून, 2019 के बीच देश में 24, 212 बलात्कार के मामले दर्ज हुए जो सिर्फ नाबालिग बच्चों और बच्चियों से सम्बन्धित थे। रिकॉर्ड के मुताबिक इनमें से 12,231 मामलों में पुलिस ने आरोप पत्र दायर किये थे, जबकि 11,981 मामलों की जाँच चल रही थी। यदि इन रेप मामलों में रेप से जुड़े सभी मामले का आँकड़ा जोड़ दिया जाए, तो वह निश्चित ही बहुत भयावह होगा।

रिकॉड्र्स के मुताबिक, औसतन 39 हज़ार में से 9 हज़ार रेप के मामले नाबालिग बच्चियों के थे। हर साल 2000 ऐसे मामले होते हैं, जिनमें पीडि़ता का गैंगरेप किया गया। रेप के मामलों में सिर्फ 25 फीसदी बलात्कारियों को ही सज़ा मिल पाती है। और भी चिन्ता की बात यह है कि रेप के 71 फीसदी मामले तो ऐसे हैं, जिन्हें रिपोर्ट ही नहीं किया जाता, जिससे ज़ाहिर होता है कि रेप के मामलों की असली संख्या कितनी होगी।

यदि एनसीआरबी की नवीनतम रिपोर्ट की बात की जाए, तो इसमें 2017 तक के रेप के आँकड़े हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2017 में भारत में दुष्कर्म के 32,559 के मामले रिपोर्ट हुए। रेप की घटनाओं में तीन हिन्दी भाषी राज्य सबसे ऊपर हैं। इनमें मध्य प्रदेश नम्बर एक पर है। एनसीआरबी की 2017 की रिपोर्ट में बताया गया है कि मध्य प्रदेश में 2017 में कुल 5562 मामले दर्ज किये गये।

देश का सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश दूसरे नम्बर पर है, जहाँ रेप के 4246 केस दर्ज किये गये। इसके बाद राजस्थान आता है, जहाँ दुष्कर्म के कुल 3305 मामले रिपोर्ट हुए। इनके बाद ओडिशा में 2070, केरल में 2003, महाराष्ट्र में 1933 और छत्तीसगढ़ में 1908 मामले रिपोर्ट हुए।

सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि 93.1 फीसदी मामलों में आरोपी, पीडि़त को जानने वालों या उसके परिजनों में से थे। वैसे 2017 के आँकड़ों को देखें तो 2015 के मुकाबले करीब दो फीसदी की कमी आयी है।

ब्यूरो की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक, ऐसे 30,299 मामलों में से 3,155 में आरोपी पीडि़त के परिवार के सदस्य थे। दुष्कर्म के 16,591 मामले पारिवारिक मित्र, नौकरी देने वाले, पड़ोसी या अन्य ज्ञात व्यक्तियों के िखलाफ ही दर्ज किये गये थे। इसके अलावा 10,553 मामलों में आरोपियों में दोस्त, ऑनलाइन दोस्त, लिव-इन पार्टनर या पीडि़तों के पूर्व पति थे।

दुष्कर्म के मामलों की अधिकतम संख्या मध्य प्रदेश में दर्ज की गयी है, जो 5,562 है। इनमें  97.5 प्रतिशत अपराध पहचान वाले लोगों ने ही किया गया। राजस्थान के रिपोर्ट हुए 3,305 मामलों में 87.9 प्रतिशत मामलों में दुष्कर्म की रिपोर्ट जानने वालों के िखलाफ दर्ज हुई। इसी तरह महाराष्ट्र में 98.1 प्रतिशत दुष्कर्म मामले दोस्तों, सहयोगियों या रिश्तेदारों के िखलाफ दर्ज हुए। मणिपुर में तो दर्ज दुष्कर्म के सभी 40 मामले पीडि़त व्यक्ति के परिचित लोगों के िखलाफ दर्ज हुए थे। यदि महिलाओं के िखलाफ हर तरह के अपराध की बात की जाए तो एनसीआरबी के आँकड़े चिन्ता पैदा करने वाले हैं। साल 2015 में महिलाओं के िखलाफ अपराध के 3,29,243 मामले दर्ज हुए, जो एक साल बाद 2016 में बढक़र 3,38,954 हो गये। इससे अगले साल 2017 में यह आँकड़ा बढक़र 3,59,849 पहुँच गया। अर्थात् इस एक साल के दौरान महिलाओं के िखलाफ अपराध के 20,895 मामले बढ़ गये।  रिकार्ड  के मुताबिक, देश भर में 2007 में रेप के 19,348 मामले दर्ज किये गये। 2008 में 20737, 2009 में 21467, 2010 में 21397, 2011 में 22172, 2012 में 24923, 2013 में 33707, 2014 में 36735, 2015 में 34210, 2016 में 38947 और 2017 में दुष्कर्म के 32,559 मामले रिपोर्ट हुए। महिलाओं के िखलाफ बढ़ते अपराध की बात की जाए, तो हर घंटे देश में 2007 में  21 मामले रिपोर्ट हुए। इसके बाद 2008 में 22, 2009 में 23, 2010 में 24, 2011 में  26, 2012 में 28, 2013 में 35, 2014 में 39, 2015 में 37, 2016 में 39 और 2017 में 43 मामले हर घंटे रिपोर्ट हुए।

दुष्कर्म की आखरी फाँसी सज़ा

बहुत कम लोगों को पता होगा कि देश में दुष्कर्म की लिए फाँसी की आखरी सज़ा का मामला 14 अगस्त, 2004 का है। नाबालिग छात्रा का दुष्कर्म कर उसकी हत्या करने के जुर्म में धनंजय चटर्जी को कोलकाता की अलीपुर जेल में फाँसी दी गयी थी। अब 15 साल हो गये और देश में इसकी बाद रेप की पाँच लाख घटनाएँ हो गयीं, देश दुष्कॢमयों में खौफ पैदा करने के लिए फाँसी का इंतज़ार कर रहा है।

रेप मामलों में सज़ा के आँकड़े

यदि आँकड़ों पर नज़र दौड़ाएँ, तो ज़ाहिर होता है कि पिछले 10 साल में रेप की घटनाओं में सज़ा का प्रतिशत कभी भी 30 प्रतिशत तक भी नहीं पहुँचा है। साल 2017 में यह करीब 26 प्रतिशत रहा तो 2016 में सिर्फ 25.5 प्रतिशत। पिछला रिकॉर्ड देखें, तो 2007 में सज़ा का प्रतिशत 26.4 रहा, 2008 में 26.6 प्रतिशत, 2009 में 26.9, 2010 में 26.6, 2011 में 26.4, 2012 में 24.2, 2013 में 27.1, 2014 में 28.0 और 2015 में 29.4 प्रतिशत रहा।

लुटती आबरू, सोती व्यवस्था

दिन-भर के थकाऊ काम के बाद शाम को घर लौटते हुए तेलंगाना में राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे 26 वर्षीय सरकारी पशु चिकित्सक के साथ सामूहिक दुष्कर्म और उसकी जघन्य हत्या ने देश को शर्मसार कर दिया है। घटना की भयावहता संकेत करती है कि देश में महिलाओं की सुरक्षा अभी भी एक कठिन लड़ाई है। हम महिलाओं को एक सामान्य और सम्मानजनक जीवन जीने के लिए एक सुरक्षित वातावरण प्रदान करने में विफल रहे हैं। देश भर में इस घटना के विरोध में उभरे शोक, आक्रोश और विरोध प्रदर्शनों के कारण रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को संसद में कहना पड़ा कि सरकार रेप से जुड़े कानून में और सख्त प्रावधान जोडऩे के लिए तैयार है। संसद में बहुत से सदस्यों की माँग थी कि रेप रोकने के लिए मृत्यु-दण्ड ही एकमात्र उपाय है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने भी आरोपियों को जल्द सज़ा के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट गठित करने का आदेश दिया है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हम कड़े कानून के बारे में बात तभी करते हैं, जब इस तरह की लोमहर्षक घटनाएँ हमारे सामने आती हैं। हैदराबाद की घटना की शिकार चिकित्सक उस समय एक नाबालिग रही होगी, जब 16 दिसंबर, 2012 को दिल्ली में सामूहिक बलात्कार और हत्या की घटना हुई थी और जिसने हमारी अंतरात्मा को झकझोरा था। लेकिन फिर भी हम महिलाओं का जीवन सुरक्षित बनाने में असफल रहे हैं। हमारे पास अभी भी कानून को कड़ाई से लागू करने की कुशल प्रणाली का अभाव है और पुलिस की नाक के नीचे आज भी देश-भर में बलात्कार और हत्यायाएं हो रहीं हैं। कानून लागू करने वाली एजेंसियाँ अपराध की दोषी हैं; क्योंकि वे महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने में असमर्थ रही हैं। दुष्कर्म के ऐसे अनगिनत मामले हैं, जिनमें पुलिस परिवार की शिकायत पर तेज़ी से कार्रवाई करने में विफल रही। वह कार्य क्षेत्र और इस तरह के अनेक बहाने बनाती रही, बजाय इसके कि लडक़ी को तलाशें और बचाये। बहुत दु:खदायी है कि डॉक्टर द्वारा अपनी बहन को फोन करने पर सवाल उठाया गया कि उसने अपनी बहन की जगह पुलिस को फोन क्यों नहीं किया? जबकि सवाल उठते हैं कि क्या यह पुलिस की ढिलाई नहीं है? क्या इतने गम्भीर अपराध के लिए पुलिस •िाम्मेदार नहीं है?

थॉमसन रॉयटर्स फाउण्डेशन की पिछले साल की रिपोर्ट में महिलाओं के मुद्दे पर 548 विशेषज्ञों का सर्वेक्षण किया गया था। उन्होंने महिलाओं के यौन उत्पीडऩ मामलों की घटनाओं के आधार पर भारत को सबसे •यादा असुरक्षित देश के रूप में रेखांकित किया था। इसके बाद पुलिस और अधिकारियों को अपनी मानसिकता बदलकर जागना चाहिए था; लेकिन अपराध नहीं रुके और नतीजा वही ढाक के तीन पात ही रहा। समस्या यह है कि हम विषाक्त मर्दानगी और पितृसत्ता वाली मानसिकता से अभी छुटकारा नहीं पा सके हैं। महिला सुरक्षा प्रदान करने के लिए राज्य और समाज की अक्षमता ने महिलाओं को एक तरह से दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया है, जिनके मौलिक अधिकारों का लगातार चीरहरण हो रहा है। ऐसे में पुलिस को कार्य क्षेत्र में सवालिया भूमिका से बाहर निकलकर अपराध के प्रति शून्य सहिष्णुता वाला सिस्टम तैयार करके पुलिस को अधिक कुशल और •िाम्मेदार बनना होगा। हम भारत को महिलाओं के लिए खतरनाक नहीं होने दे सकते। हैदराबाद की पशु चिकित्सक के साथ जो हुआ, वह हममें से किसी एक के भी साथ घटित हो सकता है। क्या हमारा आक्रोश लम्बे समय तक रहेगा या फिर नये एजेंडे के साथ गन्दी राजनीति होगी? हमारी हार, हमारे अपने लिए जोखिम के नये क्षेत्र खोलने जैसी होगी!

भ्रष्टाचार की रसोई मिड-डे मील

बच्चों को नमक के साथ रोटी खिलाने के बाद एक लीटर दूध में एक बाल्टी पानी पिलाया गया। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि यह घटनाएँ उस मिड-डे मील योजना से जुड़ी हैं, जिसका देश-भर का सालाना बजट 11,000 करोड़ रुपये है? एक बहुत ही अच्छे उद्देश्य से शुरू की गयी इस योजना की हालत यह है कि पिछले तीन साल से भी कम समय में इसे लेकर 52 शिकायतें मिल चुकी हैं। भ्रष्टाचार और लापरवाही का असर है कि बिहार में 2013 में मिड-डे मील का खाना खाकर 23 बच्चों की जान चली गयी थी। बच्चों के बीमार होने की घटनाएँ तो बहुत •यादा हैं।

यदि मिड-डे मील योजना का गहराई से मूल्यांकन किया जाए, तो इसका सबसे उजला पहलू यह है कि यह दूरदराज़ के इलाकों में बच्चों को घरों से स्कूलों की चौखट तक लाने में सफल रही है; साथ ही स्कूल छोडऩे का प्रतिशत कम करने में भी। आँकड़े इसके गवाह हैं। लेकिन नमक के साथ रोटी खिलाने और एक लीटर दूध में बाल्टी-भर पानी डालकर बच्चों को पिलाने जैसी घटनाएँ इस योजना की छवि को दागदार कर गयी हैं। योजना का अध्ययन करने से सामने आता है कि देश-भर के 11.30 करोड़ बच्चों को स्कूल में दोपहर का भोजन देने वाली इस योजना में बहुत खामियाँ हैं। स्वच्छता से लेकर मानदंडों के मुताबिक भोजन बच्चों को देने तक बड़े पैमाने पर नियमों को ताक पर रखा जाता है। तहलका की जुटाई जानकारी के मुताबिक पिछले करीब ढाई साल में मिड-डे मील का भोजन खाने से सरकारी स्कूलों में करीब 930 बच्चे बीमार हो चुके हैं, जिनमें कई को गम्भीर स्थिति से गुज़रना पड़ा। इस योजना के तहत खाना स्कूल में ही बनाना होता है, जहाँ सुविधाएँ न के बराबर होती हैं। एक साफ किचन में जो होना चाहिए, वह मिड-डे मील योजना की •यादातर स्कूली रसोइयों में नहीं मिलता। छिपकली से लेकर तमाम ज़हरीले कीड़े-मकौड़े वहाँ दिखते हैं, जो कभी भी जानलेवा साबित हो सकते हैं। मिड-डे मील का खाना खाकर दर्जनों बार बच्चों के बीमार होने की घटनाएँ इसकी गवाह हैं। साल 2013 में तो 23 बच्चों को इसी लापरवाही के चलते अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। जुलाई, 2019 के 2019-20 के बजट में स्कूलों में मध्याह्न भोजन के राष्ट्रीय कार्यक्रम के लिए 11,000 करोड़ रुपये आवंटित किये गये हैं। लेकिन एक सच यह भी है कि सरकार ने पिछले साल इस योजना के लिए निर्धारित राशि से 1050.96 करोड़ रुपये कम खर्च किये गये।

वैसे इस साल (2019-2020) के लिए केन्द्र सरकार की तरफ से मिड-डे योजना के लिए रखे गये 11,000 करोड़ रुपये राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 की कवर की गयी योजना के लिए मोदी सरकार की तरफ से आवंटित सबसे अधिक राशि ज़रूर है; लेकिन यह 2013-14 के दौरान किये गये मनमोहन सिंह सरकार के बजट आवंटन 13,215 करोड़ रुपये से 2,215 करोड़ रुपये कम है। इससे पहले मोदी सरकार ने जब वित्त वर्ष 2013-14 में वार्षिक बजट 13,215 करोड़ रुपये से घटाकर वित्त वर्ष 2014-15 में 9,236 करोड़ रुपये कर दिया, तो कई सामाजिक संगठनों ने इस पर सवाल उठाये थे। हालाँकि कुछ महीने पहले ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने स्कूलों में दोपहर के खाने पर तैयार करने वाली कीमतों में बढ़ोतरी की है। इसके तहत प्राइमरी तक के लिए प्रति छात्र 13 पैसे की बढ़ोतरी की गई है, जबकि अपर प्राइमरी यानी छठी से आठवीं तक के लिए प्रति छात्र 20 पैसे की बढ़ोतरी की गयी है।

इसके तहत प्राइमरी स्तर के प्रति छात्र का खाना तैयार करने का खर्च अब 4.48 रुपये हो गया है; इनमें केन्द्र 2.69 रुपये देगा, जबकि राज्य 1.79 रुपये का खर्च उठाएगा। वहीं बढ़ोतरी के बाद अपर प्राइमरी स्तर के प्रति छात्र खाना बनाने का खर्च 6.71 रुपये कर दिया गया है। इनमें से 4.03 रुपये केन्द्र देगा, जबकि 2.66 रुपये राज्य को देना होगा।

इस योजना का एक बड़ा उद्देश्य बच्चों को आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवारों के बच्चों को कुपोषण से भी बचाना है। लेकिन स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य के हाल में जारी किये गये सर्वे के आँकड़े बताते हैं कि देश में पाँच साल से कम आयु के 35.7 फीसदी बच्चे कम वजन के हैं। अर्थात् उन्हें पर्याप्त पोषण नहीं मिल पा रहा है। यही नहीं सर्वे बताता है कि 38.4 फीसदी बच्चे अविकसित हैं। और भी चिंताजनक बात यह है कि 58.5 फीसदी बच्चे खून की कमी झेल रहे हैं यानी एनेमिक हैं।

योजना की शुरुआत

मिड-डे मील कार्यक्रम को एक केन्द्रीय प्रवर्तित योजना के रूप में 15 अगस्त, 1995 को पूरे देश में लागू किया गया था। सितंबर 2004 में कार्यक्रम में व्यापक परिवर्तन करते हुए मेन्यू आधारित पका हुआ गर्म भोजन देने की व्यवस्था शुरू की गयी। इस योजना के तहत न्यूनतम 200 दिन के लिए निम्न प्राथमिक स्तर के लिए प्रतिदिन न्यूनतम 300 कैलोरी ऊर्जा और 8-12 ग्राम प्रोटीन, जबकि उच्च प्राथमिक स्तर के लिए न्यूनतम 700 कैलोरी ऊर्जा और 20 ग्राम प्रोटीन देने का प्रावधान है।

मिड-डे मील कार्यक्रम एक बहुद्देशीय कार्यक्रम है और यह राष्ट्र की भावी पीढ़ी के पोषण और विकास से जुड़ा हुआ है। इसके प्रमुख उद्देश्य प्राथमिक शिक्षा के सार्वजनीकरण को बढ़ावा देना, विद्यालयों में छात्रों के नामांकन में वृद्धि और छात्रों को स्कूल में आने के लिए प्रोत्साहित करना, स्कूल ड्रॉप-आउट को रोकना और बच्चों की पोषण सम्बन्धी स्थिति में वृद्धि और सीखने के स्तर को बढ़ावा देना रखा गया है।

क्या-क्या हैं खामियाँ

मिड-डे मील योजना को जिन स्कूलों में चलाया जाता है, उन सभी के लिए सरकार ने गाइडलाइंस तैयार की हैं और इनका पालन हर स्कूल को करना पड़ता है। मिड-डे मील से जुड़ी प्रथम गाइडलाइन के मुताबिक जिन स्कूलों में मिड-डे मील का खाना बनाया जाता है, उन स्कूलों को ये खाना रसोई घर में ही बनाना होता है। कोर्ई भी स्कूल किसी खुली जगह में और किसी भी स्थान पर इस खाने को नहीं बना सकता है। एक और गाइडलाइन के मुताबिक रसोई घर, क्लास रूम से अलग होना चाहिए, ताकि बच्चों को पढ़ाई करते समय किसी भी तरह की परेशानी न हो। स्कूल में खाना बनाने में इस्तेमाल होने वाले ईंधन जैसे रसोई गैस को किसी सुरक्षित जगह पर रखना अनिवार्य है। इसी के साथ ही खाना बनाने वाली चीज़ों को भी साफ जगह पर रखने का •िाक्र इस स्कीम की गाइडलाइन में किया गया है। लेकिन इन नियमों को ताक पर रखा जाता है। देश में ऐसे सैकड़ों स्कूल हैं, जहाँ बच्चों को पढ़ाई के लिए ही पूरे कमरे उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में भला मिड-डे की रसोई के लिए जगह कहाँ होगी?

गाइडलाइन के मुताबिक, खाना बनाने के लिए केवल एग्मार्क गुणवत्ता और ब्रांडेड वस्तुओं का इस्तेमाल किया जाना ज़रूरी है साथ ही जिन चीज़ों का इस्तेमाल खाना बनाने के लिए किया जाएगा, उनकी क्वालिटी अच्छी होनी चाहिए। इसमें पेस्टिसाइड वाले अनाजों का प्रयोग किसी भी प्रकार के खाने में नहीं करने का भी साफ •िाक्र है।

लेकिन सच इससे उलट है। भ्रष्टाचार के चलते कई जगह बिना गुणवत्ता के उत्पादों से समझौता किया जा रहा है। बच्चों के मुँह में जाने वाला निवाला भ्रष्टाचारियों के पेट में जा रहा है। गाइडलाइन के मुताबिक, कक्षा एक से पाँच तक के हर बच्चे को दिए जाने वाले खाने में कैलोरी की मात्रा 450 और प्रोटीन (ग्राम में) की मात्रा 12 तक होनी चाहिए, जबकि छठी से आठवीं कक्षा में पढऩे वाले छात्र को दिए जाने वाले खाने में कैलोरी की मात्रा 700 और प्रोटीन (ग्राम में) की मात्रा 20 होनी चाहिए। लेकिन इसका पालन बहुत काम स्कूलों में किया जा रहा है। यदि निष्पक्ष जाँच हो तो ऐसा कड़ुवा सच सामने आयेगा, कि इस योजना पर ही गम्भीर सवाल खड़े हो जाएँगे, जबकि यह योजना बहुत ही अच्छे उद्देश्य के लिए शुरू की गयी थी।

जहाँ तक सफाई की बात है, उसका बहुत कम ध्यान रखा जाता है। अगर सफाई रखी जा रही होती, तो ढाई साल में 900 से •यादा बच्चों के बीमार पडऩे के मामले सामने नहीं आते। लापरवाही का प्रमाण बिहार के जमुई •िाले के सिकन्दरा से सटे लखीसराय के हलसी के उत्क्रमित मध्य विद्यालय बेला मध्याह्न भोजन खाने से 30 अप्रैल, 2019 को करीब 60 बच्चे बीमार पड़ गये। मध्याह्न भोजन में छिपकली मिलने के बाद छात्रों को पेट दर्द की शिकायत हुई, जिसके बाद उन्हें इलाज के लिये अस्पताल भेजा गया। वहीं 2013 में 23 बच्चों की जान जाने की शर्मनाक घटना न होती। वैसे गाइडलाइन में साफ लिखा है कि खाना बनाने से पहले सब्•िायों, दालों और चावलों को अच्छे से धोया जाए। लेकिन बहुत कम स्कूलों में इस गाइडलाइन को सही तरीके से फॉलो किया जाता है। खाना खिलाने से पहले बच्चों के हाथ तक नहीं धुलवाए जाते। यहाँ तक कि खाना बनाने वाले भी सफाई के मामले में घोर लापरवाही बरतते हैं। उनके नाखून भी बड़े होते हैं, जो कि गाइडलाइन का एक अहम हिस्सा है।

गाइडलाइन में एक जगह लिखा गया है कि खाना बनने के बाद उसे बच्चों को परोसने से पहले खाने का स्वाद पहले 2-3 लोगों को चखना होगा और इन दो तीन लोगों में से कम से कम एक टीचर होना चाहिए। यही नहीं गाइडलाइन में साफ है कि समय-समय पर बच्चों को दिये जाने वाले इस खाने के नमूनों का टेस्ट स्कूलों को मान्यता प्राप्त प्रयोगशालाओं में करवाना होगा।

बहुत कम स्कूलों में ऐसा किया जाता है। बहुत से स्कूलों में खाना खाने के बाद बच्चों की तबीयत खराब होने या उनके बीमार पडऩे की खबरें आयी हैं, जो ज़ाहिर करती हैं कि न तो खाना पहले 2-3 लोग टेस्ट करते हैं, न कभी किसी प्रयोगशाला में खाने के नमूनों की जाँच कर उनकी क्वालिटी जाँचने की जहमत उठायी जाती है। ऐसा किया गया, तो बच्चों को बीमार पडऩे से बचाया जा सकता था। गाइडलाइन के मुताबिक, जैसे ही बच्चों को खाना परोस दिया जाए, खाना बनाने में इस्तेमाल हुए बर्तन साफ कर दिये जाएँ, सच यह है कि कई जगह ऐसा नहीं होता। कई स्कूलों में बर्तन माँझने का काम भी बच्चों से करवाया जाता है। यही नहीं कई स्कूलों में भोजन की मात्रा में भी गड़बड़ की जाती है। भोजन न तो संतुलित होता है न पौष्टिक, जबकि नियमावली में साफतौर पर छ: के छ: दिन का चार्ट बनाया गया है।

इसी साल सितंबर में एक वेबसाइट की रिपोर्ट ने चौंकाने वाला खुलासा किया कि देश के विभिन्न स्कूलों में नामांकन या एडमिशन लेने वाले लगभग तीन करोड़ बच्चों को मिड-डे मील यानी मध्याह्न भोजन योजना का लाभ नहीं मिल पाता है। मिड-डे मील की सरकारी वेबसाइट पर दिये वार्षिक आँकड़ों के मुताबिक, पिछले वित्तीय वर्ष यानी 2018-19 में देश में कुल 11.93 करोड़ बच्चों का दािखला विभिन्न स्कूलों में हुआ है; लेकिन इनमें से 9.036 करोड़ बच्चों को ही मिड-डे मील दिया गया है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि मिड-डे मील की मॉनीटरिंग करने वाली बॉडी पीएबी (प्रोजेक्ट अप्रूवल बोर्ड) ने ही स्कूलों में भर्ती कुल छात्रों की संख्या को दरकिनार करते हुए करीब 9.58 करोड़ बच्चों को मिड-डे मील का आवंटन किया। यानी पीएबी ने ही करीब 2.40 करोड़ बच्चों का मिड-डे मील (स्वीकृत) नहीं किया।

इतना ही नहीं, जिन 9.58 करोड़ बच्चों को मिड-डे मील का अप्रूवल मिला है, उनमें से भी लगभग 55 लाख बच्चों को मिड-डे मील वित्तीय वर्ष 2018-19 में नसीब नहीं हुआ है। यानी मिड-डे मील को लेकर सरकार भले ही लाख दावे कर ले, वास्तविकता उससे बहुत दूर है। अब भी बड़ी संख्या में बच्चों को गर्म खाना मुहैया नहीं कराया जा सका है। ये सरकारी और अब तक के नवीनतम आँकड़े हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर राज्यों के आँकड़े देखें और उदाहरण के तौर पर राजस्थान को लें, तो यहाँ पर 2018-19 में लगभग 62 लाख बच्चों का दािखला हुआ; लेकिन पीएबी ने 45 लाख बच्चों के लिए ही मिड-डे मील अप्रूव किया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, बच्चों को मिड-डे मील मुहैया करा पाने में नाकाम रहने वाले बड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश पहले नम्बर पर आता है। यहाँ पर सिर्फ 57.08 प्रतिशत नामांकित बच्चों को ही मिड-डे मील मिल पा रहा है। इसके बाद बिहार का नम्बर आता है। यहाँ पर 59.39 प्रतिशत बच्चों को मिड-डे मील मिलता है। तीसरे नम्बर पर झारखण्ड है। यहाँ के 61.45 प्रतिशत बच्चों को दोपहर का गर्म खाना मिलता है। चौथे नम्बर पर मध्य प्रदेश और पाँचवें पर राजस्थान हैं। यहाँ क्रमश: 71.45 और 73.80 प्रतिशत नामांकित बच्चों को मिड-डे मील दिया जा रहा है। इसमें आगे कहा गया है कि यदि बेहतर प्रदर्शन की बात करें, तो बच्चों को मिड-डे मील देने में पूर्वोत्तर के राज्यों का प्रदर्शन अच्छा हैं। अगर पाँच बड़े राज्यों की बात करें, तो उनमें अरुणाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, केरल, असम और कर्नाटक आते हैं, जहाँ 90 प्रतिशत से •यादा बच्चों को मिड-डे मील मुहैया कराया जा रहा है। मिड-डे मील में सरकार द्वारा प्रति छात्र खर्च की जाने वाली रकम भी बहुत कम है। यह योजना वैसे तो पूरी तरह से केन्द्र सरकार की है, लेकिन इसको तैयार करने पर होने वाले खर्च में केन्द्र और राज्यों दोनों की हिस्सेदारी रहती है। इसका फैसला केन्द्रीय फंडिंग पैटर्न के आधार पर तय होता है।

एक रिपोर्ट में राजस्थान के उपायुक्त, (क्रिन्यान्वन और मूल्यांकन) मिड-डे मील आयुक्तालय, आशीष व्यास का बयान भी दिया है, जिसमें उन्होंने कहा कि कुल भर्ती छात्रों की संख्या नि:संदेह •यादा है। लेकिन मिड-डे मील की मॉनीटरिंग करने वाली बॉडी पीएबी छात्रों की उपस्थिति के आधार पर अप्रूवल देती है। राजस्थान राज्य में पिछले पाँच साल में छात्रों की उपस्थिति लगभग 75 प्रतिशत के करीब है। अप्रूवल भी इसी आधार पर दिया गया है। आप आँकड़ों को देख लीजिए। दूसरी बात स्कूल में आने वाले हर बच्चे को मिड-डे मील दिया गया है। हम इसकी गारंटी लेते हैं।

भ्रष्टाचार के उदाहरण

हाल में उत्तर प्रदेश के तीन •िालों- रायबरेली, कन्नौज और प्रतापगढ़ में हुए एक बड़े मिड-डे मील घोटाले में 29 लोगों के िखलाफ मामला दर्ज किया गया था। आरोपियों पर मिड-डे मील के लिए आवंटित अनाज को बाज़ार में बेचने के आरोप हैं। रायबरेली में एक निजी व्यापारी के गोदाम में इस योजना के लिए भारी मात्रा में आये खाद्यान्न की बरामदगी के लिए छापेमारी के बाद प्रतापगढ़ के चार पर्यवेक्षकों और 17 आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को निलंबित कर दिया गया।

रायबरेली के सलोन ब्लॉक के गोदाम में लगभग 155 बैग (करीब 9,300 किलोग्राम) अनाज मिला, जिसे पड़ोस के प्रतापगढ़ से लाया गया था। विभागीय जाँच के बाद यह खुलासा हुआ कि मिड-डे मील के लिए आया यह अनाज प्रतापगढ़ के रामपुर-संग्रामगढ़ और रामपुर खास ब्लॉकों के लिए था, जिसे गैर-कानूनी ढंग से रायबरेली के व्यापारियों के बेच दिया गया। जाँच रिपोर्ट के आधार पर व्यापारी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। योजना के वितरण में अनियमितता पाये जाने के बाद कन्नौज में भी चार मुख्य सेविकाओं और एक मुख्य क्लर्क को निलंबित कर दिया गया था। कन्नौज में •िाला मजिस्ट्रेट (डीएम) की टीम को मिड-डे मील के लिए आवंटित अनाज बड़ी मात्रा में एक ऑटो रिक्शा में मिले थे, जिसे कहीं ले जाया जा रहा था।

पत्रकार के िखलाफ ही कर दी कार्रवाई

करीब तीन महीने पहले एक वीडियो सामने आया, जो उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के एक गाँव का था। सरकारी स्कूल के बच्चे मिड-डे मील में नमक-रोटी खाते दिख रहे थे। वीडियो वायरल में हंगामा मच गया। परेशान अधिकारियों को और कुछ नहीं सूझा तो उस पत्रकार के िखलाफ ही मामला दर्ज कर लिया गया, जिसने वीडियो रिकॉर्ड किया था। सच्चाई सामने लाने वाले पत्रकार पर धोखाधड़ी और आपराधिक सा•िाश के आरोप जड़ दिये गये। इस मामले में नमक के साथ रोटी खिलाने वालों के िखलाफ क्या कार्रवाई हुई, किसी को पता नहीं।

इस घटना की स्याही अभी सूखी भी नहीं थी कि उत्तर प्रदेश में ही एक और घटना सामने आ गयी। मिड-डे मील में दिये जाने वाले दूध की यह शर्मनाक घटना भी तब सामने आयी, जब रसोइया द्वारा दूध में पानी मिलाने का वीडियो स्कूल के ही किसी कर्मचारी ने वायरल कर दिया। रसोइये का कहना था कि उसने ऐसा शिक्षा मित्र के कहने पर किया। सोनभद्र सलाइबनवा प्राइमरी स्कूल की रसोइया फूलवंती ने मीडिया को बताया कि मात्र एक पैकेट दूध में बाल्टी भरकर पानी डाला गया और 81 बच्चों को पिलाया गया। घटना सामने आने के बाद दो शिक्षामित्र बर्खास्त कर दिये गये।

फिर लापरवाही, खाने में मिला मरा चूहा

मिड डे मील में लापरवाही की एक और बड़ी घटना इसी 3 दिसंबर की है। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर स्थित एक सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल में कक्षा छ: के छात्रों को परोसे गये मिड-डे मील के भोजन में मरा हुआ चूहा मिला। इसे खाने से कई बच्चों की हालत बिगड़ गयी। इसकी सूचना मिलते ही स्कूल प्रशासन में हडक़ंप मच गया। मिड-डे मील बाँटने वाली संस्था युवा कल्याण सेवा समिति की ओर से मिड-डे मील में दाल-चावल स्कूल भेजे गए थे। इस घटना के बाद इस एनजीओ को ब्लैकलिस्ट कर उनके िखलाफ एफआईआर दर्ज कर दी गयी।

घट रहा योजना का बजट

वर्ष 2001 में शुरू की गयी मिड-डे-मील योजना का उद्देश्य देश-भर के सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में पढऩे वाले बच्चों के लिए पौष्टिक भोजन प्रदान करना है। लेकिन मोदी सरकार में इस योजना प्राथमिकता नहीं मिली है। कुल खर्च में एमडीएम की हिस्सेदारी वित्त वर्ष 2014-15 में 0.63 फीसदी  से घटकर वित्त वर्ष 2019-20 में 0.39 फीसदी  (आवंटित 11,000 करोड़ रुपये) हो गयी है। दूसरी तरफ करोड़ों वंचित बच्चे कोर्ई लाभ नहीं उठा सके। उदाहरण के लिए केवल बिहार में कुल 1,80,95,158 छात्रों (कक्षा 1-8) का उन स्कूलों में दािखला है जहाँ ये योजना लागू है। इनमें से लगभग 41 फीसदी  या 73 लाख छात्रों को बिहार में इस योजना के तहत लाभ नहीं मिल पाया।

तीन साल में 52 शिकायतें

पिछले तीन साल के दौरान देश भर में मिड-डे मील में भ्रष्टाचार की 52 शिकायतें मिली हैं। इनमें उत्तर प्रदेश नम्बर एक पर है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, अक्टूबर, 2019 तक उत्तर प्रदेश में सबसे •यादा 14, बिहार से 11, पश्चिम बंगाल 6, महाराष्ट्र 5, राजस्थान 4, असम, दिल्ली, हरियाणा से 2-2 और छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, पंजाब, त्रिपुरा और उत्तराखंड से एक-एक शिकायत मिली है। वैसे यह वे आँकड़े हैं, जो सामने आये हैं। जानकारों के मुताबिक, देश के कई दूर-दराज़ इलाकों से आमतौर पर कोई शिकायत नहीं मिलती; जबकि बड़े पैमाने पर मिड-डे मील योजना में गड़बड़ की जाती है। इन इलाकों में शिकायत आये भी तो उसे दबा दिया जाता है। गौरतलब है कि अकेले उत्तर प्रदेश में करीब 1.59 करोड़ बच्चों को मिड-डे रोज़ परोसा जाता है।

घात में दरिन्दे, निठल्ली पुलिस

रविवार 01 नवंबर की कुहासे में डूबी सर्द सुबह थी। तकरीबन 6 बज रहे होंगे। ठंडी हवा चल रही थी। टोंक •िाले के खेडली गाँव के पोखर में उठती-गिरती लहरें बार-बार किनारे पर फैली हुई झाडिय़ों के झुरमुटों से टकरा रही थी। फरागत के लिए आने वाले लोग इन झाडिय़ों की ओट का ही सहारा लेते थे। रोज़मर्रा की तरह गाँव के बाबूलाल ने जैसे ही झुरमुटों की तरफ कदम बढ़ाये, वो ठिठककर रह गया। सामने हैवानियत का नज़ारा था। उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं। एक बच्ची का लहूलुहान नग्न शव पड़ा था। उसके गले में कसी हुई बेल्ट से बच्ची की आँखें बाहर निकली पड़ी थीं। पास में ही बीयर की बोतल, कचोरी के टुकड़े और टॉफी के रैपर बिखरे पड़े थे……! सब कुछ इतना डरावना था कि बाबूलाल कुछ और देखने की ताब नहीं ला सका। उसके शरीर ने झुरझुरी ली और वो हाथ का लोटा वहीं फेंककर चीखता-पुकारता उलटे पाँव गाँव की तरफ दौड़ा…।

दुष्कर्मों की घटनाओं से अटे रेगिस्तानी सूबे में यह एक और वारदात थी। इस त्रासदी से पहले भी इससे मिलते-जुलते कई मामले हुए। पुलिस की फाइलों से पता चलता है कि पिछले छ: महीनों में 1992 मामले दर्ज हो चुके हैं। ताज़ातरीन मामला टोंक •िाले के खेडली गाँव का है। मध्य प्रदेश के श्योपुर •िाले के थाना मानपुर के एक गाँव की छ: वर्षीय बालिका को उसके माता-पिता ने उसकी दादी के पीहर खेडली में पढऩे-लिखने के लिए छोड़ रखा था। रोज़ाना की तरह वह शनिवार, 30 नवंबर को भी पढऩे के लिए गयी थी; लेकिन देर शाम तक नहीं लौटी। परिलोगों ने उसकी तलाश की; लेकिन कहीं पता नहीं चला। अगले दिन उसका शव लहूलुहान हालत में गाँव के पोखर के झुरमुटों में मिला। वारदात सोच समझकर अंजाम दी गयी थी? पुलिस का मानना था कि मौका-ए-वारदात पर बिखरे टॉफी के रैपर इस बात की तस्दीक करते हैं कि आरोपी जानता था कि बच्ची कब स्कूल से लौटती है? और अकेली घर जाती है? आरोपी टॉफी कचोरी खिलाने का लालच देकर उसे जंगल में ले गया…।

अगले दिन सोमवार, 2 दिसंबर को आरोपी पकड़ा गया। महेन्द्र उर्फ धोल्या नामक हैवान गाँव का ही निकला। पेशे से ट्रक ड्राइवर है। आदतन शराबी, यह दरिन्दा शनिवार की दोपहर स्कूल से लोटती मासूम को टॉफी का लालच देकर जंगल में ले गया और फिर हैवानियत को अंजाम दिया। इसके बाद पहचाने जाने के डर से हत्या को अंजाम दिया। बच्चों और महिलाओं के साथ यौन हिंसा में राजस्थान पहले स्थान पर है। 18 साल से •यादा उम्र की युवतियों और महिलाओं के साथ राजस्थान में सबसे •यादा दुष्कर्म की घटनाएँ हुईं। इस घटना पर डॉ. आशिमा विजय की मार्मिक टिप्पणी शिराओं में खून का दौरा बढ़ा देती है कि ‘अँधेरे कोनों से एक साया आया। नन्हीं परी को आगोश में दबाया। न कोई रोया, न कोई चिल्लाया। कली उगी ही नहीं कि उसे मसल और रौंद ही डाला…।’

आशिमा कहती है- ‘एक छोटी-सी बच्ची, जिसने अभी माँ का आँचल छोडक़र चलना सीखा था। उसने पूरी दुनिया देख ली उस रात… क्या बीती होगी उस पर? शायद उसे अचेत अवस्था और दर्द की हद में पता भी न चला हो?

यौन हिंसा के मामलों में अगर कोई दोहरा चरित्र उभरता है, तो वो है पुलिस का पाखण्ड। पुलिस के सामने जब भी कोई मामला आया? अधिकारियों ने पड़ताल और पीडि़ता को सुरक्षा मुहैया कराने के सवाल को गोटियों की तरह अपनी सुविधानुसार आगे-पीछे करने की कोशिश की। यह एक ऐसी रक्तरंजित लकीर है, जो निर्भया कांड से लेकर टोंक •िाले के खेडली गाँव की मासूम के साथ हुई दरिन्दगी तक खिंची चली आयी। पुलिस की संवेदनहीनता की ऐसी कई कहानियाँ मिल जाएँगी जब गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराने वाले को फौरी कार्रवाई की बजाय दो-टूक जवाब मिल गया होगा कि ‘भाग गयी होगी किसी के साथ। दो दिन इंतज़ार करो, फिर आना…!’ अबोध बच्चियाँ स्कूल परिसर में ही छेड़छाड़ की शिकार हो जाती हैं, तब फौरी कार्रवाई के नाम पर पुलिस ठिठकती नज़र आती है। कोई पाँच महीने पहले एक मासूम को वहशी ने शिकार बनाया था। हँसती-खेलती बच्ची अब घर में सिमट गयी है। किसी पुलिस अधिकारी ने आकर उसकी बाबत पूछा तक नहीं। हादसे के बाद जख्म अभी तक भरे नहीं है। हर महीने अस्पताल जाना पड़ता है। डॉक्टर ने परिवार को यह तो बताया कि ‘इसे कोई गम्भीर बीमारी हो गयी है। •िान्दगी-भर दवाइयाँ चलेगी। लेकिन क्या बीमारी हुई? कतई नहीं बताया। मीडियाकर्मियों ने मेडिकल रिपोर्ट देखी, तो माथा ठनके बिना नहीं रहा। रिपोर्ट में एचआईवी पॉजिटिव था, साफ लिखा था। सवाल है कि पुलिस ने मेडिकल रिपोर्ट पर नज़र तक क्यों नहीं डाली? बेिफक्र पुलिस तो तब हरकत में आयी जब यह बात अखबारी सुॢखयों में ढली। नतीजतन पुलिस आयी और रिपोर्ट की कॉपी लेकर चली गयी। इसे पुलिस की संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ही कहा जाएगा कि चार महीने तक इस घटना का फॉलोअप ही नहीं किया। किया होता, तो क्या पता नहीं चलता? सूत्र मासूम को ‘एड्स’ जीवाणु उर्फ सिकंदर की देन बता रहे हैं। सवाल है कि जब उसने 25 बच्चियों समेत किन्नरों को अपना शिकार बनाया था, तो किस किसको बीमारी का दंश दिया होगा? बच्चियों से लेकर प्रौढ़ महिलाएँ तक दरिन्दों के निशाने पर है। लेकिन पुलिस का दायित्व उसके निशाने पर क्यों नहीं है? सवाल है कि पुलिस ने इतनी बड़ी बात को नज़रअंदाज़ कैसे कर दिया?

राजस्थान में दरिन्दों को कितनी आज़ादी है? और पुलिस ने किस तरह आँखे मूंद रखी हैं? इसे समझने के लिए यह तथ्य काफी है कि पिछले छ: महीनों में दुष्कर्म के 1992 मामले दर्ज हुए और कार्रवाई सिर्फ पाँच मामलों में हुई। बीते बरस 165 मामलों पर तो पुलिस ने ‘एफआर’ ही लगा दी। सवाल है कि लम्पटों पर लगाम कब कसी जाएगी? जो किसी को छेडऩे और बलात्कार की मानसिकता में सिर से पैर तक डूबे हुए हैं। सवाल उठता है कि वीडियो पर महिलाओं को मुसीबत में देखना और चटखारे लेना कुछ लोगों के लिए ऐसी सनसनी है, जिसका आनन्द वह तो ले ही रहे हैं। कई और लोगों को दिखाने के लिए उसको वायरल भी कर रहे हैं। महिलाओं की गरिमा, अस्मिता और आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने वाले वीडियो का देखना-दिखाना नैतिकता के पहरुओं को क्या शर्मिन्दा नहीं करता?

भरतपुर के नदबई में ईंट भट्टे पर काम करने वाली दिव्यांग महिला से भट्टे के चार मालिकों ने दुष्कर्म का प्रयास किया। माँ की चीखें सुनकर पास में सो रहा आठ साल का बच्चा जाग गया, तो दरिन्दों ने गला दबाकर उसकी हत्या कर दी। समाज और सभ्यता को शर्मसार करने वाली घटना चुरू में भी हुई। अत्याचारी ससुरालियों ने घर की बहू के साथ मारपीट की और कपड़े फाडक़र बाहर निकाल दिया। निर्वस्त्र महिला बिलखती हुई तीन किलोमीटर पैदल चलकर थाने पहुँची। संवेदनहीनता की हद तब हो गयी, जब लोग तमाशबीन बने रहकर उसका वीडियो बनाते रहे। यह लम्पट सोच समाज को कहाँ ले जाएगी? वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी कहते हैं- ‘क्या 24 घंटे साथ रहने वाले मोबाइल ने लोगों को पर पीड़ा में आनन्द लेने वाला बना दिया। महिलाओं को जलील होते देखना भी कुछ लोगों के लिए ऐसी सनसनी है, जिसका वह तो आनन्द ले ही रहे हैं। अपने जैसे कई लोगों को दिखाने के लिए उसका वीडियो वायरल भी कर रहे हैं।

इस सवाल पर बूँदी के दुगारी गाँव की घटना का उदाहरण देना पर्याप्त होगा। घटना के मुताबिक, दो युवकों ने एक युवती को नशीला जूस पिलाकर बलात्कार की शिकार बना डाला। हुआ क्या था रविवार, 22 जून को? पीडि़ता अपनी बुआ के यहाँ जाने के लिए बस स्टैंड से बस में बैठी थी। गाँव के ही दो युवक भी उसी बस में सवार हुए। युवती नैनवां बस स्टेण्ड पर उतरी, तो दोनों युवक भी उतर गये। लडक़ी ने उनसे बुआ के गाँव जाने वाली बस में बिठाने को कहा। बस की प्रतीक्षा के दौरान युवक उसके लिए जूस लाये, जिसे युवती ने पी लिया। जूस ने युवती को निढाल कर दिया। युवकों ने तब मनमानी करनी ही थी। लेकिन सवाल है कि,‘युवती ने क्यों कर उनका विश्वास किया? उसके बाद वीडियो बनाकर वायरल कर दिया।

समाज शास्त्रियों का कहना है कि बेशक वासना की आग में भडक़ा हुआ मर्द शिकार की टोह में ही रहता है। पोर्नोग्राफी, शराब और उत्तेजक िफल्में इस आग में घी का काम करती है। लिहाज़ा अपराधों की जड़ को उखाडऩे की कोशिश क्यों नहीं होती? सांस्कृतिक वालंटियरों को असली मुद्दे क्यों नज़र नहीं आते? बहरहाल, कितना खौफनाक सच है कि राजस्थान में बच्चियाँ बुरी तरह असुरक्षित हैं। जून 2019 तक छोटी बच्चियों से पोक्सों के कुल 1250 मामले सामने आये। इनमें 545 मासूम बच्चियाँ बलात्कार का शिकार बनी। लडक़ी अपनी आबरू और अस्मिता के लिए किस पर सबसे •यादा भरोसा कर सकती है? पिता पर? लेकिन कोटा में तो एक पिता ही वहशी निकला।

पिछले दिनों जयपुर के शास्त्री नगर इलाके में सात और चाल साल की मासूम बच्ची को 9 दिन के अंतराल में अगुवा कर दुष्कर्म करने वाला सिकंदर उर्फ जीवाणु कितना बड़ा दरिन्दा निकला? उसका खुद का कुबूलनामा ही चौंकाता है। उसने कहा- ‘अब तक 25 बच्चियों और किन्नरों से यौनाचार कर चुका हूँ। मैं पिस्तोल रखता हूँ; उसके बूते पर लोगों को डरा-धमकाकर खामोश कर देता हूँ। शराब मेरी वासना भडक़ाने का काम करती है। मैंने आज तक जो भी किया, शराब पीकर किया।’ 34 साल का यह सिरफिरा सनकी बदमाश खानाबदोश है। जिस वक्त उसे कोटा से पकड़ा गया, वो जमानत पर जेल से बाहर था। जीवाणु सीरियल बलात्कारी निकला। गिरफ्तारी के बाद पूछताछ में उसने न सिर्फ एक अन्य 7 साल की बालिका से बलात्कार की बात स्वीकार की, बल्कि उसके घर में पुलिस को एक कॉपी मिली, जिसमें लिखा था- ‘सिकंदर उर्फ मौत का कहर!’

कॉपी के पहले पेज पर एक महिला का स्केच बना रखा था, जिस पर लिखा था- ‘शहनाज।’ उसी कॉपी के आिखरी पेज पर सिकंदर ने खुद का स्केच बना रखा था। उसके िखलाफ एक दर्जन केस दर्ज है और वह छ: बार जेल जा चुका है। वर्ष 2004 में जयपुर के मुरलीपुरा से एक बच्ची को ब्रेड दिलाने अपने साथ ले गया। फिर दुष्कर्म के बाद उसकी हत्या करके शव पानी की टंकी में डाल दिया। इस मामले में उसे उम्र कैद की सज़ा हुई थी; लेकिन वर्ष 2015 से वो जमानत पर जेल के बाहर था। जीवाणु सीरियल बलात्कारी निकला। डॉ. नीता जिंदल कहती है- ‘जीवाणु वाला केस परवर्टेड माडेऊड वाला केस है, जो शख्स शर्त लगाकर दुष्कर्म करता होगा, उसका मनोविकार कितना गलीज होगा? ऐसे लोग समाज का नासूर बन गये हैं। इनका जल्दी ही समाज से अलगाव ज़रूरी है।

दिल्ली में बात और घात की राजनीति

दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले राजनीतिक बयानबाज़ी शुरू हो चुकी है। दिल्ली की सत्ता में काबिज़ आम आदमी पार्टी, भाजपा और कांग्रेस अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग बजा रही हैं। सभी पाॢटयों की बयानबाज़ी पर गौर किया जाये, तो बातों और घातों की ही राजनीति नज़र आ रही है। ऐसे में यह माना जा सकता है कि इस बार का चुनाव अपने आप में अनोखा होगा। क्योंकि आप पार्टी और भाजपा के बीच मुकाबले के तौर देखा जा रहा है। लेकिन कांग्रेस के अपने ही दावे हैं। वहीं हकीकत यह है कि दिल्ली के मतदाताओं का मिज़ाज कोई नहीं जानता। इस बार अधिकतर मतदाताओं का मिज़ाज कुछ उखड़ा-उखड़ा सा भी है। वहीं पाॢटयों की बात करें तो कांग्रेस जीत का दावा ठोकते हुए खोये हुए जनाधार को वापस पाने के लिए सेंध लगाने में लगी है।

एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि जब आम आदमी पार्टी जब दिल्ली में नहीं थी, तब सीधा मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच होता रहा है। लेकिन 2014 और 2015 में आप के आने के बाद और आप की सरकार बनने के बाद दिल्ली की सियासत का मिज़ाज बदला है। यहाँ पर हर हाल में मूलभूत सुविधाएँ समाज के आिखरी नागरिक तक को मिलनी चाहिए। ऐसे में दिल्ली के चुनाव पूर्व ये अनुमान लगाना मुश्किल होगा कि सरकार किस पार्टी की बनेगी। इन्हीं तमाम मुद्दों पर ‘तहलका’ संवाददाता ने पड़ताल की।

मुद्दा यह भी है कि दिल्ली में आप पार्टी के मुखिया अरविन्द केजरीवाल की जिस पर अभी तक सीधे तौर पर किसी घोटाले या फिर धोखाधड़ी का कोई आरोप नहीं लगा है। यानी उनकी छवि एक साफसुथरे मुख्यमंत्री की है। ऐसे में चुनाव के दौरान आरोपबाज़ी के जवाब देने के लिए वे और उनकी पार्टी तैयार हैं। उन्होंने  दिल्ली में विकास भी किया है और कोई दाग भी अभी तक नहीं लगा, जिस पर आम आदमी पार्टी की सरकार की किरकिरी हुई हो। वहीं केजरीवाल मँझे हुए नेता की तरह राजनीति करने लगे हैं। क्योंकि जब अनुच्छेद 370 को हटाया गया, तो उन्होंने देश की सियायत को भाँपते हुए तुरन्त इस मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि वे 370 हटाने के पक्ष में है। ऐसा ही उन्होंने राम मंदिर मामले में कहा कि अदालत के फैसले का वह स्वागत करते हैं। इन्हीं मामलों में अगर केजरीवाल की प्रतिक्रिया केन्द्र की भाजपा सरकार के विरोध में होती, तो वह ज़रूर चुनाव में भाजपा के लिए मुद्दा बनती; पर पिछली बयानबाज़ी से उन्होंने शायद सीख ली है। वहीं, दिल्ली में लोगों को उन्होंने तमाम सुविधाएँ मुफ्त में दे रखी हैं। चुनाव में मतदाताओं को मुफ्त में मिली ची•ों अगर वोट में तब्दील होती हैं, तो परिणाम फिर चौंकाने वाले होंगे। दिल्ली के लोगों का कहना है कि आंदोलन से निकली आप पार्टी को जनता ने बढ़ाया है और सरकार भी बनवायी; साथ ही दिल्ली में काम भी हुए हैं। ऐसे में एक मौका तो केजरीवाल के लिए और बनता है। इन्द्रजीत सिंह का कहना है कि कांग्रेस और भाजपा के विकल्प के तौर उभरी आप पार्टी ने आम आदमी के लिए काम किया है। क्योंकि इससे पहले तक दिल्ली में जो भी सरकारें बनीं, किसी ने भी दिल्ली वालों को कोई भी सुविधा मुफ्त में नहीं दी। केजरीवाल सरकार ने तो पानी के साथ-साथ बिजली की सुविधा भी मुफ्त दी है। इसके साथ शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ बेहतर की हैं। यह अपने आप में अनोखी सरकार है। अब हाल यह है कि आप पार्टी पर घात लगाये बैठी विरोधी पार्टियों को कोई भी मुद्दा नहीं मिल पा रहा है। जिससे वे आप पार्टी की राजनीति को तितर-बितर कर सकें। पर ऐसा होता नहीं दिख रहा है।

पिछली बार यमुनापार की 16 विधानसभा सीटों में से सिर्फ विश्वास नगर विधानसभा सीट पर ही भाजपा का खाता खुला था, जिसमें भाजपा के विधायक ओपी शर्मा ने जीत दर्ज की थी। किरन बेदी जैसी नेता भाजपा के टिकट पर चुनाव हार गयी थीं। कांग्रेस के डॉ. अशोक वालिया और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अरविन्दर सिंह लवली जैसे दिग्गज चुनाव हार गये थे। दोनों कांग्रेस की दिल्ली सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

इधर, दिल्ली भाजपा के नेताओं का कहना है कि दिल्ली में पाँच साल में केजरीवाल सरकार ने काम कम, दाम •यादा खर्च किये हैं। जैसे पार्टी और अपने प्रचार-प्रसार के लिए पैसा बर्बाद किया है। केजरीवाल दिल्ली में विकास का ढिंढोरा पीट रहे हैं। चुनाव में लोगों को ठगने के लिए वह मुफ्त में बिजली और पानी दे रहे हैं। जनता केजरीवाल की बातों में आने वाली नहीं है। क्योंकि केजरीवाल की बातों और घातों को जनता समझ चुकी है। दिल्ली भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी का कहना है कि केजरीवाल शुद्ध हवा और पानी देने में नाकाम रहे हैं दिल्ली वाले केजरीवाल सरकार को कोस रहे हैं। आज बच्चे और बुजुर्ग बीमार हो रहे हैं। मनोज तिवारी का कहना है कि दिल्ली वालों को भरोसा है कि भाजपा ही एक ऐसी पार्टी है, जो जनता के हित की सोचती है। अनधिकृत कॉलोनी को लेकर भाजपा की कोशिश रंग लायी है। अब दिल्ली वाले अपने मकान की पक्की रजिस्ट्री करा सकेंगे। जो अभी तक किसी पूर्व की सरकारों ने नहीं किया है।

इस बारे में हरियाणा कांग्रेस पूर्व अध्यक्ष व बागी नेता अशोक तँवर का कहना है कि दिल्ली की सियासत मेें हरियाणा में हुए हाल में चुनाव का काफी असर देखने को मिलेगा। क्योंकि यमुनापार छोड़ तीन तरफ दिल्ली हरियाणा के बॉर्डर से टच है। अक्टूबर मेें जो चुनाव परिणाम सामने आये हैं। वो यह इशारा कर रहे हैं कि लोकसभा के चुनाव परिणाम अलग हैं और विधानसभा के चुनाव परिणाम अलग हैं। क्योंकि लोकसभा के चुनाव में दिल्ली की सातों सीटों पर भाजपा ने अपना कब्ज़ा बरकरार रखा है। ऐसे में भाजपा यह नहीं कह सकती कि वह दिल्ली विधानसभा सीटों पर अपना रुतबा दिखायेगी। उन्होंने कहा कि हरियाणा चुनाव में आप पार्टी की 90 सीटों पर जमानत ज़ब्त हुई है और कांग्रेस पार्टी की 27 सीटों पर। भाजपा भी 75 से 40 सीटों में सिमट गयी है। भाजपा को लोकसभा चुनाव मेें 58 प्रतिशत वोट मिले थे, विधानसभा चुनाव में 36 प्रतिशत वोट मिले हैं। ऐसे में 22 प्रतिशत वोटों को गिरना भाजपा की साख और कामकाज पर सवालिया निशान लगाते है। तँवर का कहना है कि हरियाणा में हाल ही में जन्मी जेजेपी पार्टी, जिसके मुखिया को लोकसभा चुनाव में लगभग 5 प्रतिशत वोट मिले थे; मगर उसी पार्टी ने विधानसभा चुनाव में 16 प्रतिशत वोट हासिल कर 10 विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज की और भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनायी। ऐसा ही मामला दिल्ली में हो सकता है। क्योंकि दिल्ली की आप पार्टी की सरकार से और केन्द्र की भाजपा सरकार से जनता दु:खी है।

वहीं अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के राष्ट्रीय सचिव जीतेन्द्र बघेल का कहना कि भाजपा की नीतियों की वजह से देश की आर्थिक-व्यवस्था चौपट हो रही है। युवा बेरोज़गार हो रहे हैं और फीस बढ़ोतरी से छात्रों और परिजनों पर वित्तीय बोझ बढ़ा है। व्यापारी परेशान हैं कल कारखाने बन्द हो रहे हैं। यही हाल आप पार्टी का है कि केजरीवाल साढ़े चार साल तक चुप रहे। भाजपा और आप पार्टी लड़ती रहीं, जिससे विकास कुछ नहीं हुआ। अब वोट पाने के लिए आप सरकार खैरात बाँट रही है। झूठे विज्ञाापन कर रही है कि दिल्ली वायु प्रदूषण कम हुआ है। जबकि सच्चाई यह है कि दिल्ली में प्रदूषण कम नहीं हुआ है। केजरीवाल नें ऑड-ईवन के नाम पर अपने वालंटियरों पर जमकर पैसा खर्च किया है। आम लोगों का पैसा बर्बाद किया है। दिल्ली में कांग्रेस के शासनकाल में जो विकास हुआ है, वह दिल्ली की जनता मान रही है।

जितेन्द्र बघेल ने बताया कि कांग्रेस पार्टी समय-समय पर दिल्ली में आप पार्टी और भाजपा की जनविरोधी नीतियों को उजागर करती रही है। क्योंकि आप पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल पहले तो कुछ बोलते थे, पर अब वे जनता को गुमराह कर कुछ चीज़ों को खैरात में बाँट रहे हैं, ताकि वोट हासिल कर सकें। पर कांग्रेस, भाजपा और आप पार्टी को चुनाव में सफल नहीं होने देंगे।

महाराष्ट्र के नये सियासी समीकरण

महाराष्ट्र में सत्ता को लेकर यह जो नया समीकरण बना है, इसका असर पूरे देश में होगा। शिवसेना जो नेचुरल अलायंस थी भाजपा की, हिन्दुत्व के मुद्दे पर, विचारधारा के आधार, पर वह अलग होकर विपरीत विचारधारा वाली पार्टियों के साथ मिलकर सरकार बना रही है। बल्कि ऐसा कह सकते हैं कि शिवसेना को उद्धव ठाकरे को कांग्रेस और एनसीपी का साथ मिल रहा है यह बहुत महत्त्वपूर्ण है

देवेंद्र फडणवीस का यह कहना कि यह तीन चक्के वाली सरकार है वह अपनी जगह में राजनीतिक बयान के रूप में सही है लेकिन यहां पर मामला प्रतिष्ठा का नहीं अस्तित्व का भी है। ठाकरे परिवार पहली बार सत्ता की राजनीति में आया है जिसे छोडऩा नहीं चाहेगा और वह इसी के माध्यम से शिवसेना विस्तार करना चाहेगी; क्योंकि वह भाजपा से अलग हो चुकी है।  वहीं पर कांग्रेस और एनसीपी शिवसेना को सामने रखकर पूरी कोशिश करेगी कि वह भाजपा का सफाया करें यह उनका सबसे बड़ा लक्ष्य है। स्टेट जो सबसे महत्त्वपूर्ण राज्य है। देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई है, उस पर गैर-भाजपा का कब्ज़ा होना ही बड़ा संकेत है और इस अवसर को कांग्रेस एनसीपी छोड़ेगी नहीं।

आपसी टकराव नहीं

जब एक ही पार्टी की सरकार बनती है, तब भी उनमें आपस में टकराव होता है। यहाँ पर तो तीन पार्टियों ने मिलकर सरकार बनायी है; तो कहीं-न-कहीं यह बात सामने आयेगी। क्योंकि तीनों का अपना-अपना एजेंडा है और लक्ष्य है। बावजूद इसके ज़रूरत पडऩे पर जो कॉमन मिनीमम प्रोग्राम इन्होंने बनाया है, तीनों समझौता करने से नहीं चुकेंगे। किसी भी हालत पर सरकार पर आँच नहीं आने देंगे।

अमित शाह की रहस्यमय खामोशी

24 अक्टूबर को चुनाव परिणाम आये। यह वाकई एक रहस्य है कि भारतीय जनता पार्टी जो हर तरह से सक्षम मानी जा रही है, सरकार है, सब है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह जो चाणक्य कहलाते हैं, जिन्होंने छोटे-छोटे राज्य जैसे गोवा, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और हरियाणा में भी उलटफेर करके सरकार बना दी; लेकिन महाराष्ट्र जैसे आर्थिक राजधानी वाले प्रदेश में, जहाँ पर सरकार बनाने की कवायद एक महीने तक चली शाह की खामोशी अखरन लायक है। इतना ही नहीं उनकी जो शेड्यूल मीटिंग थी, मुम्बई आकर उद्धव ठाकरे को मिलने की, वह भी कैन्सिल कर दी गयी। अमित शाह ने महाराष्ट्र मे प्रयास क्यों नहीं किये? चाहे ऑपरेशन लोटस हो या अन्य कोई स्ट्रेटजी, अमित शाह की सोच और उनके सहयोग के बिना सफल नहीं होती। भाजपा, जो सक्षम थी; हर तरह से उसने सरकार क्यों नहीं बनायी? यह वाकई सोचने वाली बात है।

केन्द्र में उनकी सत्ता है। प्रधानमंत्री ने अपने उस अधिकार का दुरुपयोग किया, जो आपातकालीन स्थितियों के लिए है कि वह कैबिनेट को बाईपास कर सकते हैं। कौन-सी ऐसी ज़रूरत थी या कौन-सी ऐसी आपात स्थिति थी कि राष्ट्रपति शासन रीवॉक करने के लिए राष्ट्रपति को रात को 2:00 बजे जगाया गया। यह सब करने के बावजूद अमित शाह का मौन उनका नदारद रहना, मैं कह सकता हूँ कि उन्होंने अपनी तरफ से कोई प्रयास नहीं किया। यह वाकई एक रहस्य है। आने वाले समय में ज़रूर परदा उठेगा। मैं मानता हूँ कि अगर गम्भीरतापूर्वक ऑपरेशन लोटस को सफल बनाने के प्रयास किये जाते, तो ऑपरेशन सफल होता। लेकिन इसके फेल होने के पीछे कुछ और कारण छिपे हुए हैं।

मोदी शाह और फडणवीस

देवेन्द्र फडणवीस ने जो पाँच साल सरकार चलायी कमोवेश बेदाग और अच्छी सरकार चलायी इसमें कोई दो राय नहीं। फडणवीस के ऊपर कोई आरोप और लांछन नहीं लगा। उन्होंने पाँच साल तक शिवसेना जैसे दल के साथ सरकार चलायी। उस दौरान बहुत सारे मुद्दे थे, जिनको उन्होंने बड़ी समझदारी से सुलझाया।

यह बिलकुल सच है कि अमित शाह इस बार मुख्यमंत्री के तौर पर किसी और को सामने लाना चाहते थे। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महाराष्ट्र में आये और अपनी कैम्पेनिंग के दौरान उन्होंने नरेंद्र और देवेंद्र का फॉर्मूला सामने रख दिया। खुले तौर पर सार्वजनिक सभा में कह दिया कि अगले पाँच साल के लिए एक बार फिर देवेंद्र फडणवीस को लाइए। सार्वजनिक तौर पर प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्री के तौर पर फडणवीस के नाम की घोषणा कर दी। ऐसे में शाह क्या करते? उन्होंने अपने आपको पीछे रखा एक यह वजह हो सकती है।

वरना त्रिपुरा, हिमाचल, गोवा जैसे छोटे स्टेट्स में आप डायरेक्ट पहुँच रहे हो, अपने मंत्रियों को डेप्यूट कर रहे थे। याद होगा गोवा में उन्होंने नितिन गडकरी को भेजा था, उन्होंने बैठकर रातों-रात सारा उलटफेर करवाया। त्रिपुरा अरुणाचल में उन्होंने सीधे-सीधे हस्तक्षेप किया और महाराष्ट्र में अमित शाह जैसा व्यक्ति मौन और शान्त रहा।

राष्ट्रपति और राज्यपाल की गरिमा को ठेस

महाराष्ट्र प्रकरण में राष्ट्रपति और राज्यपाल दोनों के अधिकारों का दुरुपयोग किया गया। इस मामले में कितना भी स्पष्टीकरण देंं, कानून का हवाला देंं यह स्पष्ट है कि केन्द्र ने सीधे-सीधे राजभवन का इस्तेमाल गलत ढंग से किया। और तो और महामहिम राष्ट्रपति, मैं उनका सम्मान करता हूँ; लेकिन एक आलोचक, समालोचक के तौर पर यह टिप्पणी कर सकता हूं कि राष्ट्रपति भवन का भी भेजा इस्तेमाल इस बार केन्द्र ने अपनी वासना की भूख मिटाने के लिए किया। कहीं-न-कहीं इसका कारण भारतीय जनता पार्टी के भीतर केन्द्र में आंतरिक खींचातानी भी रही है।

देवेंद्र फडणवीस जैसे व्यक्ति से दूसरी बार शपथ दिलायी गयी और 80 घंटे के भीतर ही उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा। यह एक काला धब्बा उनके करियर पर। इसके पीछे कहीं-न-कहीं दिल्ली से कोई खेल हुआ है। हालाँकि वह बात सामने नहीं आ रही है। अन्दर के तहखाने में चला कोई खेल है, जिसके चलते सरकार बनाने से पीछे हटी भाजपा।

संघ ने दिखायी हैसियत

इस असफलता को आरएसएस वर्सेस अमित शाह नहीं लिया जा सकता, क्योंकि अगर संघ कोई चीज ठान ले तो उसकी सफलता 101 फीसदी निश्चित है। यहाँ पर देवेंद्र फडणवीस भी आरएसएस के हैं और नितिन गडकरी भी। और नितिन गडकरी के, जो सम्बन्ध आरएसएस के साथ है; उसकी तुलना और किसी से नहीं की जा सकती। लेकिन बिटवीन द लाइन ध्यान रखने वाली एक बात है, वह है डर। जिस तरह अमित शाह को डर था कि भविष्य में केन्द्र में फडणवीस उनके कंपीटीटर बन सकते हैं उसी तरह नरेंद्र मोदी को हमेशा इस तरह का भय रहता है कि नितिन गडकरी दिल्ली में  उनके कंपीटीटर बन सकते हैं।

देखिए यह अजीब संयोग है या दुर्योग या कुछ और। ऐसा रहा कि जितने भी लोग वरिष्ठ थे एक-एक करके अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, मनोहर पॢरकर, अनंत कुमार ये गुज़र गये और उनसे पहले के जो सीनियर थे, जैसे आडवाणी मुरली, मनोहर जोशी उनको किनारे किया गया। उनका रास्ता साफ होता गया। अब एक उनके सामने है तो वह हैं  नितिन गडकरी। लेकिन उन्हें  कुछ नहीं कर पाते, क्योंकि संघ उनके साथ है।

इसे कुछ अलग तौर पर संघ वर्सेस शाह का मामला या केन्द्र का मामला कहा जा सकता है। क्योंकि इस बार संघ ने भी कोई •यादा दखल नहीं दिया। चूँकि महाराष्ट्र का मामला था संघ उन्हें उनकी हैसियत दिखाना चाहता था कि तुम दिल्ली में बैठकर क्या कर सकते हो, कर लो।

गडकरी के घर गये थे अमहद पटेल

बात कहाँ से शुरू हुई देखते हैं। अहमद पटेल का दिल्ली में नितिन गडकरी के घर जाकर मिलना। जैसे महाराष्ट्र मेंं बोलते हैं मातोश्री से बाहर ठाकरे नहीं जाते थे। पहली बार ठाकरे  बाहर निर्के। कांग्रेस में अहमद पटेल एक ऐसी शिख्सयत हैं, जो कहीं नहीं जाते हैं। लोग उनके पास आते हैं मिलने के लिए, जबकि यहाँ वह नितिन गडकरी के पास जाते हैं और मुलाकात करते हैं। उसके बाद नितिन गडकरी दिल्ली से नागपुर आते हैं और संघ में घंटों चर्चा होती है। महाराष्ट्र मेंं रहते हुए भी गडकरी ने कोई टिप्पणी नहीं की। सिर्फ एक बार उन्होंने कहा क्रिकेट और राजनीति में कुछ भी सम्भव है। मुझे लगता है खेल ऊँचे स्तर पर हुआ और उसके विक्टिम बने बेचारे देवेंद्र फडणवीस हर दृष्टि से अच्छा आदमी कुशल प्रशासक, ईमानदार साफ-सुथरी छवि वाले फडणवीस को सामने लाकर उसकी बेइज़्ज़ती करा दी गयी। छोटा-मोटा खेल नहीं है कभी-न-कभी परदा उठेगा। दिल्ली में बैठे पत्रकारों को मीडियाकर्मियों को इन बातों की जानकारी है? अभी तो नहीं। लेकिन बाद में इस सवाल खड़े करेंगे। नागपुर में मुझे यहाँ पर इतना पता है, तो उन्हें भी पता होगा ही। बातें धीरे-धीरे निर्केंगी िफलहाल नहीं लिख पा रहे होंं यह  पाठकों और दर्शकों के साथ बहुत बड़ा धोखा, विश्वासघात है।

शरद पवार किंगमेकर

शरद पवार शरद पवार हैं। और सच तो यह है कि जितने भी नेता हैं, सभी उनके सामने  बौने हैं। और उन्होंने इस बार दिखा भी दिया है। राजनीति में नया समीकरण आया है यह मज़ाक नहीं है। कभी किसी ने सोचा था शिवसेना कांग्रेस एनसीपी के साथ आएगी? शरद पवार ही हैं जिन पर विश्वास करके सभी लोग साथ में आये हैं। चाहे कांग्रेस  अध्यक्ष सोनिया गाँधी हों या शिवसेना चीफ उद्धव ठाकरे। आज की तारीख में वह किंग मेकर की भूमिका में हैं। ऐसा चाणक्य, जिसने केन्द्र की राजनीति को हिलाकर रख दिया।

सरकार पूरा कार्यकाल निभाएगी

मुझे लगता है कि कोई भी दल अपने ऊपर दाग नहीं लगने देगा, उसकी वजह से सरकार नहीं चल पायी। समझौते होंगे। जहाँ पर झुकना होगा तीनों दल झुकेंगे। उनका लक्ष्य एक ही है किसी भी हालत में भाजपा को सत्ता से बाहर रखना।

शुरुआत महाराष्ट्र से हो गयी है और इसके दूरगामी परिणाम होंगे। इसका असर झारखंड में होने वाले चुनाव पर भी होगा। चुनाव परिणाम से पता चलेगा उसके बाद दिल्ली और बंगाल के चुनाव हैं, वहाँ भी इसका असर दिखायी देगा। दिल्ली में बैठकर, जिसने भी पार्टी के अंदर चाल खेली है, केन्द्रीय नेतृत्व भाजपा पर ही इसका उलटा असर पडऩे जा रहा है।

क्षेत्रीय पार्टियों के लिए खतरा

दरअसल, भाजपा पर आरोप लगता ही जा रहा है कि वह अपनी सहयोगी क्षेत्रीय पार्टियों को खत्म करने का मौका नहीं छोड़ती। यह पाँच साल जो सरकार चली वह सचमुच तीन साल चली। आरम्भिक तीन साल 2014, 2015, 2016 और उसके बाद से ही भाजपा में बहुत अहंकार कर पैदा हो गया और दोबारा, जो 303 सीट के साथ जीतकर सत्ता में आयी, तो उन्होंने खुद को अजेय मान लिया और यह अहंकार उनके सर पर चढ़ गया कि हम जो चाहे वह कर सकते हैं। ऐसे में उन्होंने जिन क्षेत्रीय दलों के साथ उनके सहयोग से सरकार बनायी उन्हीं के पर काटने शुरू कर दिये। शुरुआत में बिहार में नीतीश कुमार के साथ किया। हालाँकि नीतीश की मज़बूरी थी; लेकिन आज वह भी उखडऩे लगे हैं। झारखंड असम गोवा सब जगह यही खेल खेला गया और शायद इसी का डर शिवसेना को भी था, जिसका •िाक्र ठाकरे ने भी किया की भाजपा शिवसेना को खत्म करना चाहती थी। एक वजह यह भी थी, क्यों शिवसेना ने अपने धुर-विरोधी एनसीपी और कांग्रेस से हाथ मिलाना ठीक समझा। और यहीं पर महाराष्ट्र की राजनीतिक तस्वीर बदल गयी। यहाँ पर जो पलटवार हो उसका असर सारे देश में दिखायी देगा। अब भाजपा नेतृत्व को इस मसले पर गम्भीर विचार-विमर्श करना पड़ेगा। चापलूसी, प्रशंसा और महिमामंडन छोडक़र। पार्टी हित में और देश हित में। सबसे पहले अहंकार का त्याग करके, प्रैक्टिर्क होकर, ज़मीन पर उतर के सच्चाई का सामना करके।

हकीकत

पिछले साल तीन बड़े स्टेट कांग्रेस के हाथ में आये राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक। कर्नाटक भी आ ही गया था, लेकिन ऑपरेशन लोटस ने खेल बिगाड़ दिया। छत्तीसगढ़ तो एक छोटा है; लेकिन राजस्थान और मध्य प्रदेश के बाद महाराष्ट्र यह इतनी बड़ी चोट है भारतीय जनता पार्टी के लिए और दोनों जोड़ी के लिए। यदि समय रहते डैमेज कंट्रोल नहीं किया गया, तो भाजपा 80 वाले दशक में न पहुँच जाए?

यह तीन टायर नहीं, त्रिदेव की सरकार है

महाराष्ट्र में काफी उथल-पुथल के बाद शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की सरकार बन चुकी है। लेकिन कयास लगाये जा रहे हैं कि यह सरकार बहुत अधिक चलने वाली नहीं है। एक दूसरा नज़रिया भी है, जो कहता कि अगर इस त्रिकोणीय सरकार ने रोज़गार, कृषि आदि के क्षेत्र में ठीक से काम किया, तो पूरे पाँच साल चल सकती है। इन्हीं सब पहलुओं पर एनसीपी (मुम्बई) के जनरल सेक्रेटरी सत्यवान सोनावणे से मनमोहन सिंह नौला ने बातचीत की। प्रस्तुत हैं कुछ अंश :

महाविकास अघाड़ी सरकार को 3 टायर वाली सरकार कहा जा रहा है। यह भी दावा किया जा रहा है कि यह •यादा नहीं चल पाएगी। आपकी क्या राय है?

यह तीन टायर नहीं, बल्कि त्रिदेव की सरकार है। एक खासतौर पर किसानों की समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करेगी। दूसरी रोज़गार निर्माण, बेरोज़गारी और युवाओं की समस्या पर विशेष फोकस करेगी और तीसरे का काम होगा राज्य में कानून व्यवस्था की ओवरहॉलिंग करना। जिससे आम आदमी, चाहे वो किसान हों या व्यापारी या फिर कर्मचारी निडर और बेिफक्र होकर अपनी •िान्दगी गुज़ारें।

तीन पार्टियों की मिली-जुली सरकार बनी है; मुद्दों को लेकर मनमुटाव से इन्कार तो नहीं किया जा सकता!

मनमुटाव आपस में क्यों होगा? जब हमने निश्चय कर ही लिया कि महाराष्ट्र के विकास पर ही फोकस करेंगे, तो मनमुटाव का सवाल ही नहीं उठता। कॉमन मिनिमम प्रोग्राम ऐसे ही नहीं तैयार हुआ है। हर पहलू पर गहराई से मंथन किया गया। मतभेद का सवाल ही नहीं उठता। अब विकास की बात होगी, बेरोज़गारी हटाने पर ज़ोर देंगे। नौजवान, जो देश का भविष्य हैं, उन्हें रोज़गार देंगे। रोज़गार में स्थानीय लोगों को प्राथमिकता दी जाएगी। किसानों का कर्ज़ माफ होगा। बीज, खाद और औज़ारों पर दी जाने वाली सब्सिडी शुरू होगी।

आपने राज्य में कानून-व्यवस्था दुरुस्त करने की बात कही; क्या कानून व्यवस्था ठीक नहीं है?

मैं यह नहीं कह रहा; यह रिपोर्ट बताती है, जिसे सरकारी महकमा नेशनल क्राइम ब्यूरो (एनसीबी) ही तैयार करता है। आज की तारीख में स्थिति विकट है। महिलाओं पर अत्याचार की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। साथ ही मासूम बच्चियों के यौन शोषण का ग्राफ भी बढ़ा है। पिछले वर्षों में सामाजिक ताने-बाने पर भी बुरा असर पड़ा है। सबसे बड़ी बात पुलिस महकमे की है। ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मियों को खाने-पीने की सुविधाओं के साथ-साथ पुलिस दल के आवासीय-व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। कोशिश होगी कि वे भी अपनी पारिवारिक •िान्दगी का बेहतरी से लुत्फ उठा सकें।

क्या यह सच नहीं है कि आरे प्रोजेक्ट को रोककर मुम्बई के विकास को रोकने की कोशिश की जा रही है?

मुंबई शहर की सबसे बड़ी समस्या है प्रदूषण, जो लगातार बढ़ती ही जा रही है। गाडिय़ाँ, फैक्ट्रीज, नवीन कंस्ट्रक्शन, मैट्रो कंस्ट्रक्शन आदि के प्रदूषण को रोकने का काम आरे की हरियाली कर रही थी। आप कह सकते हैं आरे मुम्बई का फेफड़ा है। विकास के नाम पर हज़ारों पेड़ों को काट डाला गया। वहाँ पर हज़ारों एकड़ बंजर ज़मीन थी; कार शेड बन सकता था। लेकिन निजी फायदे के लिए मेट्रो के नाम पर, विकास के नाम पर हरियाली का खात्मा किया जाना मुम्बई वालों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करना ही था। अगर ऐसा होता रहा, तो वह दिन दूर नहीं, जब शहर-भर को श्वसन सम्बन्धी बीमारियों से जूझना पड़ेगा।

इसका मतलब विकास कार्यों को रोक दिया जाए?

बिल्कुल नहीं। विकास अपनी जगह है, नागरिकों का स्वास्थ्य अपनी जगह। स्वास्थ्य को हर हाल में प्राथमिकता दी जानी चाहिए। कानून बने कि हर तरह के कंस्ट्रक्शन साइट पर मुफीद तौर पर हर 10-15 फीट पर एक पेड़ लगाना अनिवार्य कर दिया जाए। पेड़ों की •िाम्मेदारी उन पर सौंप दी जाए और ऐसा न करने पर उनके िखलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए।

मोटे कर्ज़ में डूबा है महाराष्ट्र!

महाराष्ट्र में एक ही नहीं, अनेक समस्याएँ हैं। इनमें किसानों की समस्याएँ, रोज़गार की समस्या, पुराने अधूरे कार्यों को पूरा करने की समस्या, नये वादों को पूरा करने की समस्या तो है ही; साथ ही एक और बड़ी समस्या भी है और वह है- महाराष्ट्र पर लदे विकट कर्ज़ की। िफलहाल तो इस नवगठित त्रिशंकु सरकार ने जनता से बहुत सारे लोकलुभावन वादे कर रखेे हैं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और उनके मंत्रियों के सामने अब यह चुनौती है कि वक्त रहते सभी वादों को मूर्त रूप देते हुए राज्य की जनता का विश्वास जीतें। तिजोरी खाली हो या न हो, लेकिन राज्य पर भारी-भरकम कर्ज़ न केवल सरकार की चिंता बढ़ायेगा, बल्कि ठाकरे के सामने कई चुनौतियाँ बनकर खड़ा रहेगा। अब क्योंकि राज्य की तिजोरी इस वक्त कर्ज़ में डूबी है, इसलिए राज्य की नवगठित सरकार की प्राथमिकता विकास के साथ राज्य को कर्ज़-मुक्त या लदे कर्ज़ को कम करने की भी होगी ही।

सूत्रों से मिली जानकारी की मानें तो महाराष्ट्र पर इस वक्त तकरीबन पौने पाँच लाख करोड़ का कर्ज़ है। ऐसे में महाविकास अघाड़ी सरकार को इसी स्थिति में कर्ज़ में डूबी अर्थ-व्यवस्था को सँभालने के साथ-साथ जनता से किये गये वादों को पूरा करते हुए विकास करना है। जैसा कि अघाडी का दावा है कि वह राज्य को विकास की दिशा में ले जाएगी।

यह इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि इस नयी सरकार को न केवल जनता में अपना भरोसा मज़बूत करना है, बल्कि अगली बार फिर से अपने को और मज़बूत स्थिति में स्थापित करने के लिए मज़बूत जनादेश की भूमि भी तैयार करनी है। पुरानी सरकार के कार्यकाल के दौरान बहुत सारे बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स को आनन-फानन में हरी झंडी दिखा दी गयी थी, जिसके चलते ‘आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया’ वाली स्थिति पैदा हो गयी थी। कई काम भी अधूरे छूटे थे, कई कामों से जनता संतुष्ट भी नहीं थी। एक बैंक भी दिवालिया हो गया था। जंगल के कटान पर भी काफी ऊहापोह की स्थिति बनी थी, किसानों की विकट समस्याएँ और उनके द्वारा किये गये आन्दोलन तथा आत्महत्याएँ भी एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरी थीं। अब नयी सरकार के सामने इन सभी समस्याओं का समाधान करने के साथ-साथ पुरानी अर्थ-व्यवस्था की समीक्षा करने के साथ-साथ नयी अर्थ-व्यवस्था के मद्देनज़र श्वेत पत्र जारी करेगी।

हालाँकि शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की मिली-जुली सरकार ने भी जो वादे किये हैं, उन्हें पूरा करने के लिए भारी भरकम बजट की ज़रूरत है। इसलिए महाविकास अघाड़ी, चाहती है कि जनता के सामने पुरानी सरकार की असलियत ज़ाहिर हो।

अगर पुरानी सरकार की बात करें तो पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के ड्रीम प्रोजेक्ट्स बुलेट ट्रेन, समृद्धि महामार्ग और मुम्बई, पुणे, नागपुर की मेट्रो रेल परियोजनाएँ काफी खर्चीली रहीं और अधूरी भी। बुलेट ट्रेन का खर्च एक लाख करोड़, समृद्धि महामार्ग का खर्च 48 हजार करोड़ और मेट्रो परियोजनाओं में लगभग 30 हजार करोड़ का खर्च। इन सभी परियोजनाओं के चलते महाराष्ट्र की तिजोरी पर भारी-भरकम खर्च का भार बढ़ता चला गया और साथ ही कर्ज़ का बोझ भी। खर्च बढऩे के साथ-साथ राजस्व  भी  घटता चला गया। सरकार हर बार घाटे का बजट पेश करती चली गयी। इन सभी के चलते महाराष्ट्र की अर्थ-व्यवस्था चरमरा गयी है, जिसे पटरी पर लाना ठाकरे की महाराष्ट्र सरकार के सामने सबसे एक बड़ी चुनौती है। इस पर यह भी है कि महाविकास अघाड़ी ने महाराष्ट्र के किसानों का कर्ज़ माफ करने व बेमौसम बारिश से हुए नुकसान की तुरन्त भरपाई करने का वचन भी किसानों को दिया है। अपने इस वादे पर खरा उतरना नयी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। फडणवीस के कार्यकाल में राज्य सरकार पर 7,38,114  करोड़ का कर्ज़ बड़ा, जिसमें से 2,66,472 कर्ज़ चुका दिया गया।  फिलवक्त राज्य पर 4,71,642 करोड़ का कर्ज़ बाकी है। यानी महाराष्ट्र पर तकरीबन पौने पाँच लाख करोड़ का कर्ज़ है। यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि नयी सरकार अपने वादों को पूरा करने की चुनौती किस तरह से जामा पहनाती है? जो कि उसके लिए बहुत ही ज़रूरी है। देखना यह होगा कि नवगठित सरकार वाकई जनता से किये गये वादे पूरे करेगी या फिर तिज़ोरी खाली होने और राज्य पर विकट कर्ज़ होने का बहाना बनाकर वक्त निकालती है।

कॉनकोर पर पूँजीपतियों की नज़र

केन्द्र सरकार आिखरकार अपने चहेतों को फायदा पहुँचाने के लिए न जाने क्यों दशकों पुरानी संस्था, जो सरकार को समय-समय पर लाभ देती है; उसको निजी हाथों में सौंपने को आमादा है। बता दें कि कंटेनर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (कॉनकोर) इंडियन रेलवे की एकमात्र कम्पनी है, जिसको लॉजिस्टिक के क्षेत्र में नवरत्न स्टेटस हासिल है। कॉनकोर 1988 में करीब 65 करोड़ रुपये की लागत से शुरू किया गया था और आज पूरे देश में 83 टर्मिनल के साथ देश के आयात- निर्यात को सुचारू एवं व्यवस्थित सहयोग में अपना योगदान दे रही है। 65 करोड़ की कम्पनी करीब 20 साल में 8000 करोड़ रुपये कमाकर सरकार को दे चुकी है और 35000 करोड़ रुपये के कैपिटल के साथ बाज़ार में काम कर रही है। फिर भी न जाने क्यों सरकार फायदा पहुँचाने वाली इस कम्पनी को निजी हाथों में सौंपना चाहती है। कॉनकोर एम्प्लाई यूनियन से जुड़े पदाधिकारियों का कहना है कि अगर सरकार निजी हाथों में सौंपती है, तो निश्चित तौर पर सरकारी सम्पत्ति की लूट-खसूट मचेगी और यहाँ पर काम रहे कर्मचारियों का निजी हाथों में जाने से दोहन होगा।

यूनियन के अध्यक्ष विनय कुमार का कहना है कि देश की एकमात्र कम्पनी कानॅकोर, जिसे प्राइवेट कम्पनी आज तक कम्प्टीशन नहीं दे पा रही है, इसकी वजह कॉनकोर के कर्मचारियों की मेहनत है। रेलवे को एडवांस फ्रेट देकर रेलवे के वार्षिक घाटे को कम करने का काम किया है, जो किसी अन्य प्राइवेट लॉजिस्टिक कम्पनी ने नहीं किया है। उन्होंने बताया कि 600 वैगन रेल कोच फैक्ट्री से लगातार पाँच वर्षों से खरीदकर राष्ट्र के मेक इन इंडिया योजना में दे रही है। प्राइवेट कम्पनी देश के आयातक को ज़बरदस्त कॉटेज बनाकर नुकसान पहुँचाएँगे एवं देश का व्यापार बाधित होगा इतना ही नहीं, कॉनकोर के शेयर बेचने से जो कर्मचारी रात-दिन मेहनत करके इसे सँवारा है, उनके साथ विश्वासघात होगा। क्योंकि आज कॉनकोर के पास सरकारी शेयर 54.08 प्रतिशत है, अगर इसे कम किया गया और 51 प्रतिशत से नीचे आया, तो कम्पनी का स्टेटस बदल जाएगा। यह देश का नवरत्न पीएसयू अपने 30 वर्ष में ही खत्म हो जाएगा। क्योंकि 51 प्रतिशत से नीचे आते ही इसका सीपीएसयू का दर्जा समाप्त हो जाएगा। कॉनकोर के महासचिव देवाशीष मजूमदार का कहना है कि सरकार की ऐसी योजना कर्मचारियों को झझकोरने वाली है, जो फायदे में होने के बावजूद निजी हाथों में सौंप रही है। उन्होंने बताया कि जब से प्राइवेट कम्पनी को रेल चलाने का लाइसेंस मिला है, तब लगातार कॉनकोर के िखलाफ साजिशें हो रही हैं। एशियाड खेलों का बहाना बनाकर इसके बड़े डई पोर्ट आईसीडी तुगलकाबाद को बन्द करने की सा•िाश की गयी है। उन्होंने बताया कि 6 मई, 2017 को एक बड़े सा•िाश के तहत कंटेनर में गैस लीक का बहाना बनाकर सारी दिल्ली के महकमों एवं सम्बन्धित कार्यालयों को गुमराह किया गया, जिसकी जाँच की गयी, तब सारे मापदंडों पर कॉनकोर सही पाया गया। इन सारे आरोपों के बाद भी सारे मापदंडों को ध्यान में रखते हुए लगातार काम कर रही है और औद्योगिक विकास में अपना विकास जारी रखे हुए है। ट्रैंड का विश्वास लगातार बढ़ रहा है। इसका उदाहरण कम्पनी का लगातार बढ़ता हुआ टर्नओवर है, जो इस प्रकार है- 2015-16 में 2924026, 2016-2017 में 3102211, 2017-18 में 3531900 और 2018-19 में 3829419 टीयू (20 के बराबर कंटेनर) माल ढुलाई की है। ऐसे में करोड़ों के फायदे में चल रही संस्था को बेचने से सरकार कर्मचारियों के साथ खिलवाड़ कर रही है। कर्मचारियों का कहना है कि जो लोग इस कॉनकोर को खरीदना चाहते हैं, उनकी नज़र स्वयं को फायदा तो पहुँचाना ही है साथ ही सरकार की अरबों-खरबों की ज़मीन पर कब्ज़ा करना है। उन्होंने कहा कि इस सा•िाश के विरोध में कई बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को अवगत कराया है, फिर सुनवाई नहीं होने से कॉनकोर जैसी फायदे वाली कम्पनी को चौपट करने में लगे हैं।

देवाशीष मजूमदार का कहना है कि किसानों के लिए कॉनकोर का योगदान है। बनारस एवं राजघाट में सब्ज़ी हाट खोलने का निर्णय, नासिक में फूल के लिए महाराष्ट्र सिंधुग्रह में आम के लिए, हरियाणा के सोनीपत में मसाले एवं ड्राई फ्रूट्स के लिए, आज़ादपुर (दिल्ली) में फल एवं सब्ज़ी के लिए, बंगाल सिन्दूर में किसान प्रोडक्ट के लिए और कोल्ड स्टोरेज एवं दादरी (उत्तर प्रदेश) में रेफर पार्क पर लगातार काम कर रही है। करीब एक साल से ड्राई आइस बैटरी के तहत सौर ऊर्जा के द्वारा किसान उत्पाद को संरक्षित कर रही है। सीधे बाज़ार के पास ले जाकर हर किसान को सीधा फायदा कैसे हो इसका प्रयास कर रही है; जिससे सबको फायदा हो। जबकि फेक करेंसी प्रतिबंधित गुड्स, जो इंडिया में लाना अपराध है प्राइवेट कंटेनर यार्डों में सरकारी मशीनरियों द्वारा पकड़ा जाता रहे है; लेकिन कॉनकोर के टॢमनल सीआईएसएफ और डीजीआर एक्स मैन गार्ड के द्वारा रक्षा की जाती है। कोई पार्टी दुस्साहस नहीं करती एवं प्रतिबंधित सामान को लाने का इसके अलावा रक्षा मंत्रालय की सुरक्षा सामग्री, वोङ्क्षटग मशीन, मुद्रा, यूरेनियम एवं सामरिक सुरक्षा का हर सामान कॉनकोर ही ढोता है।

उन्होंने सरकार से अपील की है कि विनिवेश को रोककर सरकारी संपत्ति के साथ छेड़छाड़ न करें अन्यथा कॉनकोर के कर्मचारी सडक़ से लेकर संसद तक अपनी माँगों को लेकर प्रदर्शन करेंगे।

फास्ट टैग है क्या, कहाँ से लें इसे

जल्दी अब राष्ट्रीय राजमार्ग पर टोल प्लाजा पर वाहनों की लम्बी कतारें बीते दिनों की बात हो जाएंगी। नेशनल हाई-वे अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) बिना किसी मानवीय दखलंदाज़ी के टैक्स पा लेगा और गाडिय़ों को भी टैक्स अदा करने के लिए ठहरना नहीं होगा। इस प्रक्रिया का मकसद है कि मौज़ूदा परेशानियों का निदान और सभी ट्रेवल्स की टैक्स वसूली सीधे अथॉरिटी को। इसमें फास्टटैग की खास भूमिका होगी। वाहन चालक बिना किसी ठहराव के अपनी यात्रा जारी रख सकेंगे। इसके लिए फास्ट टैग शुक्रिया। इसमें रेडियो फ्रिक्वेंसी आईडेंटिफिकेशन का उपयोग भी है।

फास्ट टैग बैंक से लें

टोल प्लाजा पर फास्ट टैग की बिक्री जल्द ही बन्द हो जाएगी। जब बिना ठहराव के ट्रैफिक की शुरुआत हो जाएगी। यह आवश्यक है लेना, जिससे आपको आराम होगा। पिछले कुछ दिनों में फास्ट टैग की बिक्री तिगुना हो गयी। औसतन दैनिक तौर पर फास्ट टैग के ज़रिये भुगतान की तादाद 8.8 लाख तो इस साल जुलाई में थी, यह नवंबर में बढक़र 11.2 लाख हो गयी। जबकि औसतन प्रतिदिन टोल पर जो धन आता था, वह इस अवधि में 11.2 करोड़ से बढक़र 19.5 करोड़ हो गया है। अभी जो दबाव बना है, उसके चलते 70 लाख फास्ट टैग जारी किये गये हैं और यह संख्या बढ़ती ही जाएगी।

ई-कॉमर्स के पोर्टल मसलन अमेजन और पेटीएम भी इन टैग को विभिन्न बैंकों से खरीद कर बेचता है। यह 22 बैंक के सेल पर उपलब्ध हैं और एनएचएआई, सिंडिकेट बैंक, एक्सिस बैंक, आईडीएफसी बैंक, एचडीएफसी बैंक, भारतीय स्टेट बैंक, आईसीआईसीआई बैंक, और इक्विटास बैंक, इंडिक स्मॉल फाइनेंस बैंक पेटीएम, कोटक महिंद्रा सिंडिकेट बैंक, फेडरल बैंक, साउथ इंडियन बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, बीएसई इंडसइंड बैंक सिटी यूनियन बैंक, नागपुर नागरिक सहकारी बैंक, येस बैंक, फाइनो बैंक एयरटेल पेंमेंटस बैंक हैं, जहाँ से आप फास्ट टैग खरीद सकते हैं। कुल मिलाकर फास्ट टैग इस समय 22 बैंकों में उपलब्ध है और पूरे देश में 560 टोल पर भी। इसकी वैधता 5 साल की है। एक ऑनलाइन पोर्टल पर रिचार्ज सुविधा भी उपलब्ध है। एसएमएस के ज़रिये सजग भी किया जाता है, जब पैसे कम हो जाते हैं। यदि एनएचएआई से आप फास्ट टैग लें तो इसमें एक बार की फीस तो है 500 रुपये; लेकिन आपसे बतौर सुरक्षा जमा सिक्योरिटी डिपॉजिट 150 रुपये भी लिए जाएँगे। सरकार इसे अपनी ओर से प्रचार में रख रही है। इसकी कीमत यह है कि यदि फास्ट टैग है एनएचएआई ई-बैलेट के ज़रिये माय फास्ट टैग एप मोबाइल एप से जुड़ गया तो इस्तेमाल करने वाले को यहाँ 150 रुपये वापस पैसे आ जाएँगे। अभी हाल ही नमूने के तौर पर कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और हरियाणा से केन्द्र का एक और करार हुआ है कि राज्य राजमार्ग को भी फास्ट टैग मंज़ूर किये जाएँ। नेशनल इलेक्ट्रॉनिक टोल कलेक्शन (एनईटीसी) कार्यक्रम के तहत पेटीएम बैंक का नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) का करार हो गया है कि एनएचएआई टोल प्लाजा से गुज़रने वाले वाहनों से टैग इश्यू करने के 100 रुपये नहीं लिए जाएँ। जो उपभोक्ता पेटीएम फास्ट टैग लेंगे उनसे 100 रुपये नहीं लिये जाएँगे उपभोक्ताओं को सिर्फ 400 रुपये देने होंगे। इसमें मात्र 250 रुपये सिक्योरिटी डिपॉजिट होगा और 150 रुपये न्यूनतम बैलेंस बनाये रखना होगा।

कैसे काम करता है फास्ट टैग?

रोड ट्रांसपोर्ट एंड अथॉरिटी के मंत्री नितिन गडकरी की दिमागी सोच का नतीजा है फास्ट टैग योजना। यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के डिजिटल इंडिया की सोच से विकसित हुआ। फास्ट टैग रेडियो फ्रीक्वेंसी आईडेंटिफिकेशन (आरएफआईडी) तकनीक इस्तेमाल से टोल प्लाजा में हुए लेन-देन को सीधे-सीधे संचालित करता है। यहाँ तक कि जब वाहन गति में होता है, तब भी। यह वाहन की विंडो स्क्रीन पर लगता है और उपभोक्ता को यह सुविधा भी देता है कि वह खाते से सीधा भुगतान कर दें, जो फास्ट टैग से जुड़ा है। नेशनल इलेक्ट्रॉनिक टोल कलेक्शन (एनईटीसी) एक ऐसा कार्यक्रम है, जो फास्ट टैग के ज़रिये टोल प्लाजा से इलेक्ट्रॉनिक भुगतान करता-कराता है। एनईटीसी संयुक्त उपकरण है एनएचएआई, इंडियन हाईवेज मैनेजमेंट कम्पनी लिमिटेड (आईएचएमसीएल) और नेशनल पेमेंट्स कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया का। जो पूरे देश में टोल पर भुगतान को संचालित करता है, जो वाहन चालक एक टोल प्लाजा पार करने को होता है वह फास्ट टैग के ज़रिये किसी भी टोल प्लाजा पर सारे टैक्स अदा कर सकता है। उसका खाता वाहन चालक के बैंक खाते से जुड़ जाएगा। इससे समय और वाहनों की लम्बी कतारों से मुक्ति मिल जाएगी। इस भुगतान डिवाइस में रेडियो फ्रीक्वेंसी आईडेंटिफिकेशन (आरएफआईडी) तकनीक जुड़ी है। यह वाहन के विंडो स्क्रीन पर चिपकी होगी, जिससे प्लाजा पर बिना रुके वाहन आगे निकल जाए। यदि टैग किसी प्रीपेड खाते या एक डेबिट/क्रेडिट कार्ड से जुड़ा है, तो वाहन मालिक को उसे रिचार्ज कराना होगा। यदि सेविंग खाते से है, तो धनराशि बैंक के खाते से ही ली जा सकेगी। एक बार गाड़ी यदि टोल पर निकल गयी, तो वहाँ मालिक को एसएमएस से कटौती की जानकारी भी हो जाएगी। एक फास्ट टैग की अवधि 5 साल होगी। इसे जब चाहे कभी भी रिचार्ज करा सकते हैं। फास्ट टैग लेने के लिए वाहन मालिक को वाहन की रजिस्ट्रेशन की कॉपी भी रखनी चाहिए। इस पूरी प्रक्रिया में थोड़ा बहुत समस्या ज़रूर हो सकती है। कुछ लोगों की शिकायत की थी कि टैग रीडर टैग नहीं पढ़ पाता या एसएमएस की चेतावनी देर से आती है या फिर रुपये की कटौती की सूचना आती ही नहीं। एनएचएआई ने इस सम्बन्ध में एक हेल्पलाइन नम्बर 1033 भी जारी किया हुआ है, जिस पर शिकायत की जा सकती है।

सड़ते सेब, लुटते बागवान

कश्मीर घाटी देश के सेब कारोबार का कुल 77 फीसदी उत्पादन करती है। इससे राज्य को करीब 10,000 करोड़ की आय होती है। एक तरह से यह कश्मीर की आर्थिकी का आधार है। कश्मीर की अर्थ-व्यवस्था का करीब पाँचवाँ हिस्सा सेब कारोबार से आता है। करीब 33 लाख लोग इससे रोज़गार पाते हैं। लेकिन इस बार लगातार बन्द और संचार बाधाओं के अलावा हाल में प्रवासी ट्रक चालकों, व्यापारियों और मज़दूरों की हत्याओं के चलते ने सेब इंडस्ट्री की हालत पतली कर दी है।

इन हालत में सेब को प्रदेश से बाहर देश के मंडियों में भेजने का खर्चा बढ़ गया है। पहले नई दिल्ली के लिए सेब की जिस एक पेटी का भाड़ा 80 रुपये के आसपास बैठता था, वह अब 200 रुपये पहुँच गया है। सेब की एक पेटी 15-20 किलो के वज़न की होती है। एक सेब उत्पादक बशारत रसूल कहते हैं –  ‘इस साल ची•ों सचमुच बहुत कठिन हो गयी हैं। सेब की बड़ी फसल खरीदार या ट्रांसपोर्ट साधन के इंतज़ार में कमोवेश सड़ चुकी है।’

अक्टूबर के मध्य तक बुद्धन इलाके में बागों में पेड़ सेबों से अटे पड़े थे; क्योंकि तमाम हालात के चलते इन्हें पेड़ों से निकाला ही नहीं गया। रसूल का कहना है कि इन्हें निकालने, पैक करने और ट्रांसपोर्ट की सुविधाओं के अकाल के चलते सेब को मंडियों तक पहुँचाना लगभग असम्भव-सा था। रसूल के मुताबिक, यहाँ तक कि सेब को कश्मीर के ही भीतर सोपोर की मण्डी तक ले जाना भी दूभर था। संचार सुविधाओं का ठप पड़ जाना अकेला सबसे बड़ा कारण था कि सेब का व्यापार बुरी तरह प्रभावित हुआ। रसूल हाल ही में सरकार की तरफ से घोषित की गयी बाज़ार हस्तक्षेप योजना से भी असंतुष्ट दिखे। उनका कहना है कि यह काम नहीं कर रही। रसूल कहते हैं – ‘दावे के विपरीत सहकारी समितियाँ तय मूल्य से कहीं कम मूल्य दे रही हैं।’

कश्मीर की झेलम घाटी सडक़ के ज़रिये देश के बाकी हिस्सों से जुड़ी हुई है। जब उत्पादक अपना उत्पाद दिल्ली और देश की मंडियों को ले जाता है, तो इस सडक़ के साथ का कठिन भू-भाग सेब की परिवहन लागत को बढ़ा देता है। सिर्फ लम्बा रास्ता तय करना ही समस्या नहीं है, बल्कि ट्रांसपोर्ट और सुरक्षा से जुड़ी और बहुत चुनौतियाँ हैं, जिनमें बागवान हिफाज़त की ज़रूरत महसूस करते हैं।

अनुच्छेद-370 खत्म होने के बाद घाटी वैसे ही असाधारण परिस्थितियों से गुज़र रही है और इसका सबसे ज़्यादा नुकसान बागवानों को झेलना पड़ा है। इसके चलते करीब 1.87 लाख एकड़ क्षेत्र में फैली बागवानी खराब हो रही है। यह क्षेत्र नवगठित केंद्र शासित प्रदेश की 30 लाख की बड़ी आबादी को रोज़गार भी मुहैया कराता है। इसके अलावा घाटी में अपेक्षाकृत कम बागबानी सुविधाएँ और ट्रांसपोर्ट की कमी भी बड़ी समस्या है। इससे सैकड़ों किलो सेब देश की बड़ी मंडियों में पहुँचाने से पहले ही हर साल सड़ जाता है।

सेब को सुरक्षित रखने के लिए शीत वाहन की कोई व्यवस्था आज तक नहीं हो पायी है। यह सुविधा हो तो सेब सडऩे से बच सकता है। इसके अलावा कोल्ड स्टोरेज की भी ज़बरदस्त कमी है। यदि यह सब हो, तो उत्पादक सेब को इनमें सुरक्षित रख सकते हैं और ज़रूरत के समय मण्डियों में भेज सकते हैं। वर्तमान में तो सेब पेड़ों से निकलते ही मण्डियों में भेजना पड़ता है।

घाटी में इसके अलावा सेब के व्यापार को इसलिए भी मार पड़ी है, क्योंकि यहाँ फसल पूर्व के ठेकेदारों, आढ़तियों और किसानों का बोलबाला है। नाबार्ड के एक सर्वे से ज़ाहिर होता है कि दिल्ली में रहने वाले करीब 3000 कमीशन एजेन्ट फसल पूर्व ठेकेदारों के ज़रिये किसानों को पहले ही पैसा देकर बागानों को कब्•ो में करके सस्ते में उत्पाद खरीद लेते हैं। वहीं, अगर इस साल सेब की फसल बर्बाद होने की बात करें, तो इस बार 40 प्रतिशत से अधिक फसल सेब सडऩे से बर्बाद हो चुकी है, जबकि 10 से 16 फीसदी सेब ही बाहर जा पा रहा है।

सरकार का इस ओर ध्यान न देने से इसका विपरीत प्रभाव जम्मू-कश्मीर की अर्थ-व्यवस्था और वहाँ के जनजीवन के साथ-साथ पूरे देश पर भी पड़ रहा है।