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नागरिकता क़ानून के खिलाफ अब दिल्ली के सीलमपुर में प्रदर्शन, हिंसा

जामिया में हुई हिंसा के बाद मंगलवार दोपहर राजधानी दिल्ली के ही सीलमपुर इलाके में नागरिकता संशोधन क़ानून के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गए। वहां अभी भी भीड़ जुटी हुई है। पहले पुलिस ने सड़क क्लियर करवा ली थी लेकिन दोबारा प्रदर्शनकारी  वहां इक्कट्ठे हो गए। कुछ जगह आगजनी और वाहनों में तोड़फोड़ की खबर है।

दरियागंज इलाके में भी कुछ लोग जमा हुए हैं और वहां ट्रैफिक को दूसरे मार्ग पर बदला गया है। पूरे इलाके में पुलिस पेट्रोलिंग कर रही है। छह मेट्रो स्टेशन दिल्ली भर में बंद किए गए हैं।  पुलिस का कहना है कि उसने किसी को भी हिरासत में नहीं लिया है। सीलमपुर में मेट्रो शाम पोने छह बजे बहाल कर दी गयी है।

जानकारी के मुताबिक कुछ जगह हिंसा हुई है। प्रदर्शनकारियों ने कुछ जगह आगजनी की और जाफराबाद थाने के पास उन्होंने एक शौचालय को आग के हवाले कर दिया। कई जगह वाहनों में तोड़फोड़ हुई है। जाफराबाद मार्ग पर एक पुलिस चौकी में भी तोड़फोड़ हुई है।

सीलमपुर इलाके में बड़ी संख्या में लोगों ने उग्र प्रदर्शन किया और मांग की कि नए नागरिकता कानून को वापस लिया जाए। प्रदर्शन के दौरान कई गाड़ियों के शीशे तोड़े गए। पथराव में कुछ पुलिसवाले और प्रदर्शनकारी घायल हुए हैं। पुलिस का कहना है कि उसने किसी को भी हिरासत में नहीं लिया है।

इलाके में बसों में तोड़फोड़ हुई है साथ ही पुलिस पर पथराव भी हुआ है। प्रदर्शन  देखते हुए दिल्ली में छह मेट्रो स्टेशन बंद कर दिए गए हैं। वहां एंट्री और एग्जिट दोनों बंद है। जाफराबाद और मौजपुर-बाबरपुर मेट्रो स्टेशन पर एंट्री और एग्जिट बंद किए गए हैं। इसके अलावा वेलकम, गोकुलपुरी, शिव विहार और जौहरी एन्क्वेव मेट्रो स्टेशन भी बंद हैं। वहां मेट्रो ट्रेन नहीं रुक रही।

तुरन्त जाँच-सुनवाई और न्याय ज़रूरी

हैदराबाद और उन्नाव कांड जैसी सामूहिक दुष्कर्म और हत्या की वारदात पर चिंता जताते हुए उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कहा- ‘देश में महिलाओं के िखलाफ हो रहे अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए ऐसे मामलों में त्वरित जाँच के साथ त्वरित सुनवाई और न्याय दिया जाना ज़रूरी है।’ उन्होंने कहा कि इसके लिए बिल लाना और कानून में बदलाव मात्र कोई समाधान नहीं है। 8 दिसंबर को वेंकैया नायडू ने कहा कि अदालतों में लम्बित पड़े मामलों के भारी बोझ को कम करने की ज़रूरत है। पुलिस को यह सुनिश्चित करना होगा कि हरेक शिकायत दर्ज की जाए और उस पर तत्काल कार्रवाई हो। यही नहीं, जाँच समय पर पूरी करते हुए सुनवाई शुरू होनी चाहिए और ऐसे मामलों में एक तय समय पर फैसला आना चाहिए। महिला अत्याचार के िखलाफ पूरे देश में गुस्सा है साथ ही विरोध-प्रदर्शन के चलते न्याय व्यवस्था पर सवाल उठे हैं कि कैसे सामूहिक दुष्कर्म के आरोपी जमानत पर छूट जाते हैं।

वीरेंद्र भाटिया मेमोरियल व्या यान में ‘लोकतंत्र के खम्भे’ विषय पर आयोजित कार्यक्रम में नायडू ने कहा कि त्वरित न्याय तो नहीं दिया जा सकता है, लेकिन इसमें निरंतर देरी भी नहीं होनी चाहिए। अन्यथा लोग कानून को अपने हाथ में लेने लगेंगे। न्यायिक प्रक्रिया को लोगों की सुविधा के अनुकूल होना चाहिए साथ ही कानूनी प्रक्रिया स्थानीय भाषा में होनी चाहिए, ताकि लोग आसानी से समझ सकें। सामाजिक कुरीतियों को मिटाने के लिए मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक कौशल के ज़रिये कानून में उपलब्ध मौज़ूदा प्रावधानों को सही ढंग से लागू किया जाना चाहिए। उन्होंने सुझाव भी दिया कि सुप्रीम कोर्ट की पूरे देश में 2-3 शाखाएँ भी खोली जानी चाहिए। इस तरह के बदलाव के संविधान में संशोधन की ज़रूरत नहीं है, ताकि लोग मुकदमा दर्ज करने के लिए सिर्फ दिल्ली के ही चक्कर न लगाएँ। यहाँ आने में उनका समय बर्बाद होता है साथ ही यहाँ रहना महँगा पड़ता है।

तय समय में मामले निपटाएँ

उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कहा कि सांसदों और विधायकों के िखलाफ चुनाव याचिका और आपराधिक मामलों को समयबद्ध तरीके से निपटाये जाने की आवश्यकता है। उन्होंने विधायी निकायों के पीठासीन अधिकारियों से आह्वान किया कि समय-सीमा में दलबदल विरोधी कानून के तहत अयोग्यता का फैसला किया जाए। उन्होंने न्यायपालिका के बारे में भी ज़ोर देकर कहा कि ऐसे मामले निपटाने में उनको भी प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

उन्होंने चिन्ता जताते हुए कहा कि न्याय देने में देरी से न्यायिक और विधायी निकायों में जनता का विश्वास खत्म हो जाता है। एक कुशल, पारदर्शी, सुलभ और सस्ती न्यायिक प्रणाली सुशासन का एक महत्त्वपूर्ण आधार होती है। यह व्यवसाय में आसानी के साथ-साथ जीवनयापन में भी सुधार कर सकता है। इससे सरकार में विश्वास बढ़ता है। विधायिका के कामकाज पर उप राष्ट्रपति ने कहा कि एक आम धारणा बन रही है कि संसद और विधानसभा में बहस की गुणवत्ता में लगातार गिरावट आयी है। उन्होंने विधायिका में समाज के कृयाण के लिए रचनात्मक योगदान देने की अपील की। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में विरोध करना सही है; लेकिन इससे व्यवधान नहीं होना चाहिए।

उन्होंने कार्यपालिका को दलितों और समाज के हाशिये पर रहने वालों को प्राथमिकता देने की बात भी कही। संस्था से जुड़े लोगों को न केवल विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों को लागू करने में सक्रिय भूमिका अदा करनी चाहिए, बल्कि उनके क्रियान्वयन में भी बढ़-चढक़र हिस्सा लेना चाहिए। लोकतंत्र के चार स्तम्भों- विधानमंडल, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया का उल्लेख करते हुए, नायडू ने कहा कि प्रत्येक स्तम्भ को अपने दायरे में काम करना चाहिए। लोकतंत्र की ताकत हर स्तम्भ के मज़बूत होने के साथ ही एक-दूसरे के पूरक होने पर निर्भर करती है। उन्होंने कहा कि कोई भी अस्थिर स्तम्भ लोकतांत्रिक ढाँचे को कमज़ोर बनाता है।

कानून का डर और स मान दोनों ज़रूरी

वेंकैया नायडू ने कहा कि समाज में कानून को लेकर डर और सम्मान दोनों का होना ज़रूरी है। लोगों में कानून का डर रहेगा तो वे गलत नहीं करेंगे। ये लोगों के लिए मूल्यों के क्षरण पर आत्मनिरीक्षण और विचार करने का समय है। महिलाओं के स मान की धारणा को कायम रखने के लिए समाज को एकजुट होना होगा।

हमारे प्रत्येक स्तम्भ को शक्तियों के अपने अभ्यास में स्वतंत्र होने की आवश्यकता है, लेकिन राष्ट्रीय एकता, अखंडता और समृद्धि के बन्धन को मज़बूत करने के माध्यम से अन्य दो स्तम्भों से जुड़े हुए हैं। पिछले 70 वर्षों में हमारा देश दुनिया के सबसे बड़े और दुनिया के सबसे अच्छे कामकाजी संसदीय लोकतंत्रों में से एक के रूप में उभरा है। इस बारे में कई कानून बनाये गये हैं। शासन प्रणाली को पहले से बेहतर बनाने के लिए संविधान में 103 बार संशोधन भी किया जा चुका है।

चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा तैयार की गयी नीतियों को लागू करके देश की सेवा करने के लिए सुधारने के प्रयास लगातार जारी हैं। योजनाओं से जुड़े मामलों में नीतिगत इरादे और सेवाओं के प्रभावी वितरण को सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय भाषा में जानकारी उपलब्ध कराना लोकतंत्र का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। लोगों को नीति निर्माण के केंद्र में लाना, यह सुनिश्चित करना कि लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली का लाभ हाशिये के लोगों तक पहुँचे, लोकतंत्र के लिए यह बेहद ज़रूरी है।

विभिन्न कानूनों के प्रभावी प्रसार और प्रवर्तन और जन-केंद्रित योजनाओं के क्रियान्वयन से हमारे लोकतंत्र की नींव मज़बूत होती है। लोगों को इससे जोडक़र और उन्हें परिवर्तन को अपनाने के तरीके से लोगों का जीवन स्तर सुधारने की ओर बढ़ता है। लोकतंत्र अपनी प्रासंगिकता और ताकत तभी बढ़ती है, जब लोगों के केंद्र में विकास ही मुद्दा हो।

न्याय प्रदान करना

लोकतंत्र का तीसरा और महत्त्वपूर्ण स्तंभ न्यायपालिका है। इससे यह भूमि से जुड़े कानून, समाज में अन्याय होने पर उसमें न्याय की भावना पैदा होती है। विधायिका और कार्यपालिका संवैधानिक ढाँचे का पालन करना सुनिश्चित करने और हमारे संविधान के मूल सिद्धांतों के अनुरूप कानूनों को लागू करने के लिए कानूनों की व्याख्या करने की महत्त्वपूर्ण •िाम्मेदारी है। विधायिका और कार्यपालिका की तरह, न्यायिक प्रक्रिया को भी अधिक से अधिक लोगों की सुविधा के अनुसार बननी चाहिए।

यह सुनिश्चित करना हम सबकी •िाम्मेदारी है कि न्याय तंत्र सुलभ, विश्वसनीय, न्यायसंगत और पारदर्शी हो। विभिन्न अदालतों में लम्बित लाखों मामले चिंता का कारण हैं। इस भारी बोझ के तले दबी व्यवस्था के लिए बार और बेंच के सामूहिक प्रयासों से तत्काल कदम उठाने की ज़रूरत है। न्याय में देरी का मतलब न्याय से वंचित रखना। उन्होंने कहा कि सांसदों और विधायकों के िखलाफ आपराधिक मामलों तक की सुनवाई की कोई समय-सीमा नहीं है। तय समय में फैसला देना सुनिश्चित करना होगा कि चुनाव याचिकाएँ, आपराधिक मामले और दलबदल विरोधी कानून के तहत अयोग्यता की कार्यवाही समयबद्ध तरीके से तय की जानी चाहिए। ऐसे मामलों में न्याय देने में  देरी से न्यायिक और विधायी निकायों में जनता का विश्वास खत्म हो जाता है।

हमें ऐसी संस्थानों पर ध्यान देने की ज़रूरत है, जिनसे तय समय में न्याय के साथ ही इस पर लोगों का भरोसा कायम करने वाले बिन्दुओं पर फोकस करना होगा। इसके लिए •यादा से •यादा फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाकर प्रक्रियाओं को तेजी से ट्रैक किया जाना चाहिए। गति और निष्पक्षता एक कुशल न्यायिक प्रणाली के अहम तत्त्व हैं। वर्तमान में न्याय वितरण प्रणाली की स्थिति पर राष्ट्रीय बहस केंद्र में हैं। हम अपने संस्थानों को निष्क्रियता या मानकों के कमज़ोर करके उन्हें हीन बनाने के लिए नहीं छोड़ सकते। उप राष्ट्रपति ने न्यायिक सुधारों के बारे में कहा कि एक कुशल, पारदर्शी, सुलभ और सस्ती न्यायिक प्रणाली सुशासन का एक महत्त्वपूर्ण आधार है।

 हैदराबाद के सामूहिक दुष्कर्म और हत्या के मामले में चार आरोपियों का एनकाउंटर किये जाने पर लोगों में अलग-अलग राय सामने आयी है। हालाँकि, साइबर टीम के पुलिस कमिश्नर वीसी सज्जनार के नेतृत्व में जाँच दल ने में दावा किया कि आरोपियों का एनकाउंटर आत्मरक्षा में किया गया। आलोचकों ने पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठाये हैं, तो बहुत से लोगों ने इसकी सराहना भी की है। पुलिस हिरासत से भागने के प्रयासों के दौरान मारे गये नक्सलियों और आदिवासियों की हत्याओं का एक कुख्यात इतिहास है। इस मामले में एनएचआरसी ने एक स्वतंत्र जाँच की सिफारिश की है और कहा है कि पुलिस चौंकन्नी नहीं थी, जिसके चलते चारों आरोपी मारे गये। एनएचआरसी के दिशा-निर्देशों में स्पष्ट है कि बल का उपयोग उचित नहीं, यह एक अपराध होगा और इस मामले में पुलिस अधिकारी हत्या का दोषी होगा।

न्याय तत्काल नहीं हो सकता

2012 के निर्भया कांड समेत देश के जघन्य अपराधों में सज़ा देने में देरी को लेकर हाल के समय में विभिन्न मंचों पर बहस का विषय बनी हुई है। इन मामलों में दोषियों को सज़ा दी जानी हैं और दया याचिका अभी भी राष्ट्रपति के पास लम्बित थी। अब हैदराबाद में सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले में आरोपी चार युवकों पुलिस रिमांड के दौरान हुई मौत पर न्यायिक प्रक्रिया को लेकर बहस छिड़ गयी है। देश के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने स्पष्ट किया कि न्याय तत्काल नहीं हो सकता है और बदला इसका विकृप नहीं है।

जोधपुर में आयोजित एक कार्यक्रम में सीजेआई एसए बोबडे ने कहा कि हाल की घटनाओं ने एक आपराधिक मामले को निपटाने में लगने वाले समय के बारे मेंबहस का मुद्दा बना हुआ है। उन्होंने माना कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि आपराधिक न्याय प्रणाली को अपनी स्थिति, समय के प्रति अपने दृष्टिकोण, आपराधिक मामले को निपटाने में समय लगता है।

चीफ जस्टिस एस.ए. बोबडे ने कहा किमुझे नहीं लगता कि इंसाफ कैसे भी किया जा सकता है और यह तुरन्त होना चाहिए। न्याय को कभी भी बदला लेने का रूप नहीं हो सकता। उन्होंने कहा किअगर न्याय बदला हो गया, तो वह अपने चरित्र को खो देगा। न्याय देने के तंत्र में अनुचित जल्दबाज़ी या देरी नहीं होनी चाहिए। 7 दिसंबर को एक राष्ट्रीय सम्मेलन में सीजेआई बोबडे ने कहा कि इसके बजाय तंत्र को उचित परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि त्वरित न्याय की अवधारणा दुनिया के सबसे बुरे शासनों से जुड़ी हुई है; लेकिन न्याय में देरी नहीं होनी चाहिए। कोई भी न्याय में देरी नहीं करना चाहता; लेकिन न्याय देने में समय लगता है और इसे सही परिप्रेक्ष्य में ही लेना चाहिए।

सीजेआई बोबडे ने बताया कि देश में प्रति 10 लाख जनसंख्या पर 20 न्यायाधीश हैं, जबकि अधिकांश देशों में प्रति 10 लाख लोगों पर यह 50 से 80 न्यायाधीश हैं। उन्होंने यह भी कहा कि दायर मुकदमों की तुलना में न्यायाधीशों का अनुपात एक और परिप्रेक्ष्य है, जिस पर विचार किया जाना चाहिए।

आईपीसी में बदलाव के संकेत

इस बीच केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने देश के लिए और अधिक अनुकूल बनाने के लिए आईपीसी और सीआरपीसी संशोधन करने के संकेत दिये हैं। इस बयान के बाद गृह मंत्रालय ने सभी राज्य सरकारों को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) को लेकर अपने सुझाव मँगवाये हैं ताकि लोगों को त्वरित न्याय प्रदान किया जाए। 8 दिसंबर, 2019 को पुणे में आयोजित पुलिस अधिकारियों के 54वें सम्मेलन में गृहमंत्री ने अपनी बात रखी।

9 दिसंबर को केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों को बलात्कार के मामलों को दो महीने के अंदर कानून के तहत जाँच प्रक्रिया पूरी कर ली जानी चाहिए।

उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों की सुनवाई छ: महीने के भीतर पूरी कर ली जानी चाहिए। प्रसाद ने कहा- ‘मैं सभी मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखने जा रहा हूँ; जिसमें बलात्कार और बाल यौन शोषण के मामलों में दो महीने के भीतर जाँच पूरी करने का आग्रह किया गया है।’ प्रसाद ने कहा कि महिलाओं के साथ बलात्कार और अपराध की घटनाएँ दुर्भाग्यपूर्ण और बेहद निंदनीय हैं। उनकी यह टिप्पणी हैदराबाद और उन्नाव में सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामलों पर देशव्यापी आक्रोश के बाद आयी है। हालाँकि, उन्होंने कहा कि इस बारे में कानून और सख्त किये जाने पर केंद्र सरकार विचार कर रही है।

पुलिस पर दबाव

देश-भर की पुलिस को आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है; क्योंकि महिलाओं के िखलाफ अपराधों में विशेष रूप से बलात्कार और हत्याओं के मामले बढ़े हैं। जब भी इस तरह की कोई घटना होती है, तो पुलिस पर दबाव और बढ़ जाता है। हालाँकि, तेलंगाना में मुठभेड़ का पुलिस संस्करण एक सवालिया निशान खड़ा करता है कि कैसे पुलिस वाले निहत्थे आरोपियों को मार सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि न्याय वितरण प्रणाली खराब है। जब न्याय में देरी होती है, तो यह स्वाभाविक रूप से न्याय से वंचित करना होता है। बलात्कार के मामलों में न्याय में देरी भी वजह हो सकती है, क्योंकि इसका रिकॉर्ड भी सुधरा नहीं है। उदाहरण के लिए 1971 में सज़ा की दर 62 फीसदी थी; 1983 में 37.7 फीसदी; 2009 में 26.9 फीसदी और 2013 में 27.1 फीसदी रही।

हैदराबाद में महिला पशु-चिकित्सक के साथ सामूहिक बलात्कार और हत्या की एफआईआर दर्ज करने में भी दिक्कत हुई थी। बावजूद इसके पुलिस को कानून को अपने हाथों में लेने का अधिकार नहीं देता है और न्यायाधीशों के साथ-साथ जल्लादों को भी कार्य करने की अनुमति देता है। बुनियादी कानूनी भी यही कहता है। अपराध के मामलों की जाँच में शॉर्टकट नहीं हो सकते।

नृशंस बलात्कार और हत्या में बलात्कार के संदिग्धों की हत्या पर जिस तरह से लोगों ने खुशी मनायी और मुठभेड़ करने वाले •िाम्मेदार पुलिसकर्मियों पर गुलाब की पंखुडिय़ों बरसायीं, वह लोगों के बीच में त्वरित न्याय चाहत को दर्शाता है। ऐसे जाँबाज़ पुलिसकर्मियों का भव्य स्वागत भी किया गया। उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने अन्य राज्यों में पुलिस से तेलंगाना पुलिस के उदाहरण का पालन करने की बात कही।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग

मीडिया रिपोर्ट के आधार पर पहले से ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने हैदराबाद में तडक़े आरोपियों का एनकाउंटर किये जाने का संज्ञान लिया है और जाँच शुरू कर दी है। एनएचआरसी की ओर से कहा गया है कि रिपोर्ट के अनुसार, सभी चार आरोपियों को जाँच के हिस्से के रूप में फिर से सीन रीक्रिएट करने के लिए हैदराबाद से 60 किलोमीटर दूर अपराध किये जाने वाली जगह पर ले जाया गया। पुलिस के अनुसार, आरोपियों में से एक ने दूसरे से पुलिसकर्मी का हथियार छीनने की कोशिश की और पुलिस पर गोलीबारी की। जवाबी कार्रवाई में चारों आरोपी मारे गये।

आयोग ने माना कि इस मामले की बहुत सावधानी से जाँच की आवश्यकता है। वारदात के तत्काल बाद अपने महानिदेशक (जाँच) को इस मामले की जाँच के लिए एक टीम को भेजा। एसएसपी की अध्यक्षता में आयोग के जाँच टीम पड़ताल करने के बाद आयोग को रिपोर्ट सौंपेगी। आयोग ने पहले ही सभी राज्य सरकारों और पुलिस प्रमुखों के साथ-साथ केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय से महिलाओं के साथ अत्याचार व बलात्कार के मामले में एक विस्तृत रिपोर्ट माँगी है। तेलंगाना के ताज़ा हैवानियत के मामले और फिर आरोपियों का एनकाउंटर सहित कई ऐसे मामलों ने आयोग को मामले में हस्तक्षेप करने को मजबूर किया। एनकाउंटर की यह घटना बताती है कि पुलिसकर्मी मौके पर आरोपियों की ओर से किसी भी अप्रिय गतिविधि के लिए चौंकन्ने नहीं थे। इसी के चलते चारों आरोपी मारे गये। पुलिस ने जाँच के दौरान आरोपियों को गिरफ्तार किया था और अभी अदालती सुनवाई होनी थी। अगर गिर तार किये गये आरोपी सचमुच दोषी थे, तो उन्हें न्यायालय के निर्देशों के अनुसार कानून के तहत सज़ा दी जानी थी।

हिरासत के दौरान पुलिसकर्मियों के साथ कथित मुठभेड़ में चार आरोपियों की मौत आयोग के लिए चिन्ता का विषय है। आयोग इस बात से अवगत है कि महिलाओं के िखलाफ यौन उत्पीडऩ और हिंसा की बढ़ती घटनाओं ने जनता में बड़े पैमाने पर भय और गुस्से का माहौल पैदा किया है; लेकिन कानून के तहत पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये गये शख्स की मौत को उचित नहीं ठहराया जा सकता। इससे समाज में गलत संदेश जाता है।

आयोग ने पहले ही बता दिया है कि पुलिस अधिकारियों द्वारा घबराहट की स्थिति में किसी को मार देने में ज़रूरी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है। आयोग सभी कानून लागू करने वाली एजेंसियों से आग्रह कर रहा है कि उनके द्वारा गिरफ्तार किये गये व्यक्तियों के साथ उचित व्यवहार करें साथ ही हिरासत में रखे जाने के दौरान मानवाधिकारों का पालन किया जाए। भारतीय संविधान में जीवन और समानता का अधिकार मौलिक अधिकारों में शामिल है।

अधिकारियों को स्वराज्य से सुराज की ओर जाना होगा

उप राष्ट्रपति ने कहा कि अधिकारियों को स्वराज्य से सुराज की ओर जाना होगा। इस दौर में बेहद ज़रूरी है कि भ्रष्टाचार मुक्त सुशासन जो नागरिकों के हितों की चिन्ता करे और उनकी मदद के लिए हमेशा काम करे। नायडू ने अफसरों से सरकार की नीतियों को धरातल पर मूर्तरूप में साकार करने में भूमिका निभाने का भी आह्वान किया।

बच्चों को सिखाएँ महिलाओं का सम्मान करना

नायडू ने शिक्षकों से बच्चों को महिलाओं का सम्मान करने की सीख देने की भी अपील की। साथ ही शिक्षण संस्थानों से माँग रखी कि इस विषय को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए और ज़रूरी तौर पर बच्चों को हमारे मूल्यों के बारे में बताया जाए।

बदला और न्याय

महिलाओं के िखलाफ नियमित होते अक्षम्य अपराधों ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। यह बहुत भयावह है। इसकी सज़ा भी ज़रूरी है; लेकिन हम कानून की परिधि से बाहर जाकर दी गयी सज़ा को न्यायोचित नहीं ठहरा सकते। जैसा कि एक पशु चिकित्सक से दुष्कर्म और उसकी हत्या के आरोपी चार लोगों के मामले में तेलंगाना में हुआ है। हालाँकि तेलंगाना पुलिस का दावा है कि उसने यह सब आत्मरक्षा के लिए किया; क्योंकि आरोपियों ने पुलिसकॢमयों के हथियार छीन लिये थे और हमला करके भागने की कोशिश कर रहे थे। पुलिस ने तो मुठभेड़ में आरोपियों को मार गिराया, लेकिन अब मानवाधिकार संगठन पुलिस के साथ-साथ राज्य सरकार पर भी आरोप लगा रहे हैं कि महिला सुरक्षा सुनिश्चित करने में उनकी विफलता को छिपाने के लिए मुठभेड़ का नाटक रचा गया। इस मामले में एनएचआरसी ने स्वतंत्र जाँच की सिफारिश करते हुए कहा है कि पुलिस ज़रूरत के हिसाब से सतर्क  नहीं थी, जिसके परिणामस्वरूप सभी चार आरोपी मारे गये। एनएचआरसी के दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि यदि बल प्रयोग करने का औचित्य साबित नहीं होता, तो यह एक अपराध होगा और पुलिस गैर-इरादतन हत्या की दोषी होगी। न्याय के पहिये धीमे ज़रूर चलते हैं, लेकिन यह देरी न्याय परिधि से बाहर जाकर की गयी हत्याओं को सही ठहराने का आधार नहीं हो सकती। समाज को दूषित सोच से भरी मर्दानगी और प्रचलित पितृसत्ता से छुटकारा पाने की आवश्यकता है।

उप राष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने भी स्वीकार किया कि त्वरित न्याय नहीं हो सकता है, लेकिन लगातार देरी भी नहीं हो सकती है। हमें और अधिक फास्ट ट्रैक अदालतों की आवश्यकता है; क्योंकि गति और निष्पक्षता एक कुशल न्यायिक प्रणाली के प्रमुख तत्त्व हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि न्याय प्रणाली कमज़ोर है और इसमें देरी से सज़ा की दर कम होती है। उदाहरण के लिए बलात्कार के मामलों में सज़ा की दर 1971 में 62 फीसदी थी, 1983 में 37.7 फीसदी, 2009 में 26.9 फीसदी; और 2013 में घटकर 27.1 फीसदी रह गयी। लेकिन यह स्थिति पुलिस को कानून को अपने हाथ में लेने और उन्हें न्यायाधीश और जल्लाद बन जाने का लाइसेंस नहीं दे देती; क्योंकि यदि ऐसा जारी रहा तो कानून के शासन की नींव ही हिल जाएगी। अपराध की जाँच में शॉर्टकट नहीं हो सकते। कानून के समक्ष जीवन और समानता का अधिकार से लेकर भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार हैं।

प्रधान न्यायाधीश एसए बोबडे ने स्पष्ट कर दिया है कि न्याय त्वरित नहीं हो सकता है और बदला इसका विकृप नहीं है। प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि आपराधिक मामलों को निपटाने में लगने वाले समय को लेकर आपराधिक न्याय प्रणाली को अपनी स्थिति और दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करना चाहिए। जस्टिस बोबडे ने कहा कि मुझे नहीं लगता कि न्याय तुरन्त हो सकता है या होना चाहिए। न्याय कभी भी बदले की जगह नहीं ले सकता। मैं मानता हूँ कि यदि न्याय बदले में तब्दील होता है, तो यह अपना वास्तविक चरित्र को खो देता है।

जि़ंदगी के लिए प्राथमिक चिकित्सा

अगर समस्या का तुरन्त इलाज किया जाए तो फस्र्ट एड से कई मौतों और चोटों को रोका जा सकता है। प्राथमिक उपचार किसी घायल व्यक्ति को दी जाने वाली प्रारम्भिक देखभाल है। उपयुक्त चिकित्सा सहायता उपलब्ध होने से पहले इस तरह की देखभाल का मतलब है कि जीवन और मृत्यु के बीच अन्तर को समझना। चोट या बीमारी होने पर तुरन्त उपचार दिलाएँ और तब तक देखें जब तक जारी रखना चाहिए, जब तक कि चिकित्सा सहायता नहीं आती या घायल दुरुस्त नहीं हो जाता।

महत्त्वपूर्ण चार मिनट :  सडक़ दुर्घटना के सबसे आम कारणों में से एक ऑक्सीजन की आपूर्ति में कमी हो जाना है। यह •यादातर ब्लॉक एयर-वे के कारण होता है। आमतौर पर अवरुद्ध वायुमार्ग के मृत्यु का कारण बनने में चार मिनट से भी कम समय लगता है।

गोल्डन ऑवर : ट्रॉमा के बाद के पहले घंटे को गोल्डन ऑवर कहा जाता है। यदि उचित प्राथमिक चिकित्सा दी जाती है, तो सडक़ दुर्घटना के शिकार लोगों के बचने की अधिक सम्भावना होती है और उनकी चोटों की गम्भीरता में कमी आती है।

प्राथमिक चिकित्सा के मूल उद्देश्य हैं 

1. जान बचाने के लिए।

2. घायल को अधिक नुकसान पहुँचाने से बचाने के लिए।

3. घायल को दर्द में तत्काल उपचार देना ट्रीटमेंट की प्राथमिकताएँ कम करना।

चेक, कॉल, केयर : किसी घायल व्यक्ति की मदद करने के लिए आपको जो सबसे पहला काम करना चाहिए, वह है आपातकालीन नंबर पर कॉल करना। कॉल लेने वाला जल्द-से-जल्द रास्ते में आपातकालीन चिकित्सा सहायता भेजेगा। हो सके तो किसी और को कॉल करने के लिए कहें। जब आप किसी बीमार या घायल से मिलते हैं, तो आप चेक, कॉल और देखभाल के चरणों को तब तक दोहराएँगे जब तक कि व्यक्ति की स्थिति में सुधार या मदद न मिल जाए। इमरजेंसी पर कॉल करो। व्यक्ति और घटना पर नज़र रखें। मदद आने तक देखभाल करें।

व्यक्ति को दूसरी जगह न ले जाएँ, यदि उसे आगे चोट लगने का खतरा न हो। किसी भी रक्तस्राव को रोकने के लिए हल्का-सा दबाएँं। दर्द या सूजन वाले क्षेत्रों पर आइस पैक का उपयोग करें। एक व्यक्ति, जो तेज़ी से साँस ले रहा है या बेहोशी महसूस कर रहा है, वह सदमे में जा सकता है और सम्भव हो तो पैरों को ऊँचा करके लिटाना चाहिए। घायल व्यक्ति को जितना सम्भव हो स्थिर रखें। पीडि़त व्यक्ति से बात करते रहना और भरोसा देते रहना उसे शान्त रखने में सहायक हो सकता है।

दुर्घटनास्थल के करीब पहुँचने पर आपको अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करना भी ज़रूरी है और यह तभी हो सकता है, जब ट्रैिफक रुक गया हो और यह सभी को यह जानकारी हो गयी है, वहाँ दुर्घटना हुई है। अन्यथा किसी और की जान हानि हो सकती है। वाहन में लाइट ऑन रखें और यदि उपलब्ध हो तो चेतावनी त्रिकोण (वाॄनग ट्राइएंगल) का उपयोग करें। यदि किसी घायल को बाद में ऑपरेशन की आवश्यकता हो, तो ऐसी स्थिति में दुर्घटना के बाद किसी को भी धूम्रपान न करने दें, न घायल को कुछ खाने या पीने दें।

घायल को अस्पताल भेजना

सुनिश्चित करें कि उसे और चोट न लगे।

मरीज को स्ट्रेचर पर ले जाना चाहिए, ताकि रीढ़ स्थिर रहे।

शिफ्ट करते समय मरीज़ की पीठ, गर्दन और चोट से बचाने के लिए वायुमार्ग की आवश्यकता होती है। इसलिए हमेशा दूसरे व्यक्ति की मदद लें।

यदि मरीज़ बेहोश हो गया है, तो धीरे से गर्दन के नीचे कपड़ा या तौलिया रखें, ताकि गर्दन ज़मीन पर न लटके।

मरीज़ को अस्पताल ले जाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली गाड़ी में मरीज़ की पीठ को सीधा रखने के लिए पर्याप्त जगह होनी चाहिए और साथ जाने वाले व्यक्ति को देखभाल करने और यदि आवश्यक हो तो मरीज़/घायल को फिर होश में ले आने में सक्षम होना चाहिए।

रास्ते में जाते हुए इस बात का ध्यान रखें कि क्या मरीज़ साँस ले पा रहा है और क्या आप मरीज़ की नाड़ी चलते हुए महसूस की जा रही है।

यदि केवल एक अंग में चोट है, तो मरीज़ को कुर्सी पर बैठकर भी सुरक्षित रूप से अस्पताल ले जाया जा सकता है। अंगों की चोटों और बँधी पट्टी की सुरक्षा के साथ रक्तस्राव का खयाल रखें।

महिला सुरक्षा के सुलगते सवाल

किसी की •िान्दगी का नहीं कोई मोल

बस हर तरफ हो रही राजनीति

इंसानियत और इंसान की नहीं रही कीमत

आिखर किससे करें शिकायत?

कोई हमदर्द भी तो नहीं दिखता

इस अत्याचार भरे माहौल में,

मौन है सरकार

बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के नारे के बीच

हर बेटी है लाचार

मानो खुले हों सरेआम अस्मत लूटने के बाज़ार

जहाँ बेटियाँ गाहे-बगाहे हो जाती हैं भेडिय़ों का शिकार

हाँ, उठती है कुछ •िान्दा लोगों की आवाज़

पर कौन सुनेगा मुर्दों की बस्तियों में

बहरी राजनीतिक गलियों में

पर हर माँ सोचने पर मजबूर है

क्या करे, कैसे बचाए?

अपनी लाडली की इ•ज़त

क्या नहीं है घिनौनी मानसिकता का कोई इलाज

आिखर क्यों नहीं सुनाया जाता

दङ्क्षरदों को सरेआम मौत की सज़ा का फरमान

मानव जाति की उत्पत्ति के साथ ही महिलाओं ने मानवाधिकारों में अहम भूमिका निभायी है। माँ, बेटी, बहन, पत्नी के रूप में महिला अपनी भूमिका बखूबी अदा करती है, फिर भी उसे वो तवज्जो नहीं दी जाती है, जिसकी वो हकदार है। कहावत सही है कि किसी-न-किसी ने भगवान को नहीं देखा है; लेकिन मानते सभी हैं। भगवान के रूप में माँ बेटे को जन्म देती है, जो महिला को बहुत बड़ा दर्जा (दिव्य रूप) प्रदान करता है। तमाम तरह की भूमिकाएँ अदा करने के बावजूद उसे हिंसा, उत्पीडऩ, शोषण, भेदभाव झेलने पड़ते हैं। पितृसत्तात्मक समाज में उसे हीन दृष्टि से ही देखा जाता है। हालाँकि, 18वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के बाद एकल परिवारों की बढ़ोतरी के साथ ही दुनिया-भर में महिला सशक्तीकरण की ज़रूरत महसूस की गयी। इसके परिणामस्वरूप भारत में भी पिछली दो शताब्दियों के दौरान महिला केंद्रित 39 कानून बनाये गये, ताकि महिलाएँ आज़ादी, गरिमा और व्यक्तिगत सम्मान के साथ जीवन बिता सकें साथ ही पुरुषों के समान हक भी उनको मिलें।

भारतीय संविधान में कई ऐसे कानूनों का प्रावधान किया गया है कि जिसके तहत महिला और पुरुष के बीच किसी भी तरह का भेदभाव न हो साथ ही मानवीय गतिविधियों में उन्हें समान अवसर प्रदान किए जाएँ। फिर भी महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य और धार्मिक अनुष्ठानों जैसी अन्य गतिविधियों समेत सार्वजनिक प्रशासन के सभी क्षेत्रों में भेदभाव किया जाता है। 1947 में आज़ादी के तत्काल बाद भारत सरकार ने महिलाओं और बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक कृयाण विभाग की स्थापना की।  बाद में इसे पूर्ण सामाजिक कृयाण विभाग बनाया गया, जो आगे चलकर महिला और बाल विकास मंत्रालय बना। 1993 में, राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना की गई। इसका मकसद देश की महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित किये जाने से बचाना साथ ही ज़रूरी कानूनी मदद मुहैया कराना है। इस सबके बावजूद महिलाओं के िखलाफ कई तरह की हिंसा और अपराध बढ़ते गये। दुनिया में महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार के रूप में देश को जाना जाने लगा।

फिर भी लोकतंत्र में कानून के मुताबिक, महिलाएँ आगे बढ़ीं और उन्होंने साबित किया कि वे पुरुषों से कम नहीं हैं और उन पर प्रतिबंध, नियंत्रण या तानाशाही नहीं चलने वाली है। इसका •िाक्र कानून और संविधान में स्पष्ट रूप से किया गया है। हालाँकि समाज में पितृसत्तात्मक प्रभुत्व अब भी कायम है। सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के नज़रिये से देखें तो बेटी, बहन, पत्नी, बहू के रूप में उनकी अलग-अलग भूमिकाएँ व दिक्कते हैं। भारत को पारम्परिक रूप से एक मनुवादी देश माना जाता है, जहाँ महिला को नीचा दिखाने के साथ ही भोग की वस्तु समझा जाता था। वर्तमान एनडीए सरकार मनुस्मृति के विचारों से प्रभावित है, कहना गलत नहीं होगा। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि केंद्र की एनडीए सरकार ने बड़े धूमधाम से ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ अभियान शुरू किया। इस तरह के प्रशंसनीय कार्यक्रम के लिए आवंटित राशि का दो-तिहाई हिस्सा प्रधानमंत्री के प्रचार पर खर्च कर दिया गया। सरकार की ओर से महिलासशक्तीकरण की ओर आगे बढऩे का ऐसा कदम सोचने को मजबूर करता है।

यह बेहद चिन्ता का विषय है कि दिसंबर, 2012 में मेडिकल छात्रा के साथ हैवानियत के बाद 2013 में दुष्कर्म मामलों में सख्त कानून लागू होने के बावजूद महिलाओं और लड़कियों के साथ बलात्कार और हिंसा की घटनाएँ कम होने के बजाय तीन गुना बढ़ गयी हैं। कानून में खामियों के चलते अपराधी छूट जाते हैं; क्योंकि पुलिस और सरकारी मशीनरी की असंवेदनशीलता के चलते मामले में निष्पक्ष और पारदर्शी परिणाम हासिल नहीं हो पाते। महिलाओं के उत्थान में यह भी दिक्कत है कि लोग लड़कियों के बजाय लडक़ों को प्राथमिकता देते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि महिलाओं के िखलाफ अत्याचार और भेदभाव हो रहा है। फिर भी महिलाओं को जहाँ भी समान अवसर मिल रहे हैं, वे अपनी काबिलियत को साबित कर रही हैं। उन्होंने जीवन के सभी क्षेत्रों में अपनी छाप छोड़ी है, जहाँ भी उन्हें समान अवसर दिये गये हैं।

सरकारी आँकड़ों की बात करें तो एनडीए सरकार ने महिला सुरक्षा को लेकर 2017-18 में आवंटित बजट में 313.13 करोड़ रुपये से घटाकर 81.75 करोड़ रुपये कर दिये, जो चिंताजनक संकेत हैं। महिला सुरक्षा के लिए दिसंबर, 2012 की भयावह बलात्कार की घटना के बाद भी इस फंड का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि संसदीय रिपोर्ट में भी खुलाया किया गया है कि इस दौरान महिलाओं पर अत्याचार के मामले बढ़े हैं। महिलाओं की सुरक्षा की योजनाओं के लिए 313.30 करोड़ रुपये के आवंटन के साथ ही इमरजेंसी रिस्पांस सपोर्ट सिस्टम (ईआरएसएस) के लिए 84.40 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया। इसके अलावा महिलाओं और बच्चों के िखलाफ साइबर अपराध रोकथाम के लिए 200 करोड़ रुपये और दिल्ली पुलिस को 28.90 करोड़ रुपये महिलाओं की सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करने के लिए आवंटित किये गये।

2017-18 में आठ शहरों दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता, मुम्बई, बेंगलूरु, हैदराबाद, लखनऊ और अहमदाबाद में महिलाओं के लिए सुरक्षित-शहर परियोजनाओं की खातिर 2919.55 करोड़ रुपये आवंटित किये और इस धन का क्या उपयोग किया गया, उसके अभी आधिकारिक आँकड़े प्राप्त नहीं हुए हैं। इसके अलावा केंद्रीय पीडि़त मुआवज़ा कोष (सीवीसीएफ) के लिए 200 करोड़ रुपये के निर्भया फंड की व्यवस्था की गयी, जिसे महिलाओं पर तेज़ाब हमले, दुष्कर्म पीडि़ताओं, तस्करी आदि के मामले में अनुदान के तौर पर देना था, इस पर किये गये खर्च का भी कोई हिसाब नहीं है। कोई नहीं जानता कि आवंटित राशि कैसे खर्च की गयी है। संसदीय समिति की रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि निर्भया फंड को महिलाओं की वास्तविक सुरक्षा के बजाय इसके मकसद को लेकर उलझाने में ही फँसा दिया। इस तरह के आवंटन का वह मकसद में असफल हो जाता है, जिसके लिए निर्भया फंड बनाया गया था।

कट्टरवाद, अराजक राष्ट्रवाद और पौरुषवादी नेतृत्व के बढऩे से महिलाओं के अधिकारों पर खतरा बढ़ा है। फिर भी पुरुषों के प्रभुत्व वाली राजनीति के दौर में यह लैंगिक समानता की लड़ाई है। लैंगिक समानता की लड़ाई को घर में, शैक्षिक संस्थान, सरकारी प्रतिष्ठानों और कॉर्पोरेट कार्यालयों में महिलाओं और लड़कियों के िखलाफ भेदभाव को समाप्त करने के लिए पूरी दुनिया में लोगों की मानसिकता को बदलना होगा और बदल भी रही है। ऐसा पूर्ण न्याय पाने के लिए महिलाओं को लम्बा संघर्ष करना पड़ता है। महज सरकार और कानून से ही महिलाओं के िखलाफ अपराधों से नहीं निपटा जा सकता है। हाल ही में हैदराबाद की महिला पशु चिकित्सक के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद निर्मम हत्या के बाद सरकारों की ओर से आयी प्रतिक्रियाओं से इसके निपटने में उनकी संवेदनहीनता को समझा जा सकता है। लेकिन हम सभी को महिलाओं के िखलाफ अपराध को रोकने लिए खड़ा होना होगा और लड़ाई लडऩी होगी। यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी, जब तक उनके साथ भेदभाव खत्म नहीं हो जाता। लैंगिक न्याय के लिए प्रयास करने और समाज में फैली सड़ाँध के खात्मे को हम सबकी जवाबदेही तो तय करनी होगी।

दहेज-प्रथा भी महिला-उत्पीडऩ की बड़ी वजह

आजकल पूरे देश में, खासकर उत्तर भारत में महिलाओं पर अत्याचारों के मामले काफी अधिक हो रहे हैं। दु:खद यह है कि पुरुष-प्रधान समाज में आज भी लोग तब भी महिलाओं को प्रताडि़त करने वाली मानसिकता रखते हैं, जब वे किसी माँ के बेटे होते हैं, किसी बहन के भाई होते हैं, किसी महिला के पति होते हैं और शायद किसी बेटी के बाप भी। महिलाओं के िखलाफ ये अत्याचार कोई नये नहीं हैं, बल्कि सदियों से होते चले आ रहे हैं। अगर हम इतिहास को खँगालें अथवा प्रथाओं की पड़ताल करें, तो पायेंगे कि भारत में अनेक प्रथाएँ ऐसी हैं, जो महिलाओं को दासी की तरह रखने और उन पर पुरुषों के वर्चस्व को बनाये रखने के लिए ही शायद बनायी गयी हैं। यही  कारण है कि महिलाओं को सदा से ही उपभोग की वस्तु की तरह इस्तेमाल किया गया है। आज जब महिलाएँ पुरुषों के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चल रही हैं; हर क्षेत्र में पुरुषों के बराबर का योगदान कर रही हैं, तब भी उन पर अत्याचार घट नहीं रहे हैं। इसके पीछे की वजहें क्या हैं? आिखर क्यों इस आधुनिक युग में, जब हम यह भी जानते हैं कि महिलाओं के बगैर पुरुष अस्तित्व की कृपना भी नहीं की जा सकती; महिलाओं पर अत्याचार थमने का नाम नहीं ले रहे हैं?

इन सब कारणों की जड़ में जाने पर हमें कई ची•ों ऐसी मिलेंगी, जो बहुत ही गलत हैं और कुरीतियों के रूप में समाज में विद्यमान हैं और कुछेक जगहों को छोडक़र पूरे देश में फैली हुई हैं। यही कुरीतियाँ वे असली जड़ें हैं, जिनके चलते महिलाओं पर अत्याचार होते हैं। इन्हीं कुरीतियों में से एक कुरीति है- दहेज-प्रथा।

अगर कोई भी सामान्य आदमी देश में दहेज-प्रथा के चलते होने वाले अत्याचारों के आँकड़ों पर नज़र डाले और दहेज के लिए महिलाओं पर किये गये अत्याचारों की कहानी सुने, तो शॢतया रो पड़ेगा। एक अनुमान के मुताबिक, महिलाओं पर तकरीबन 70 फीसदी अत्याचार उनके अपने घर में ही होते हैं, जिनमें करीब 55 फीसदी अत्याचार दहेज को लेकर होते हैं।

हालाँकि, दहेज-प्रथा के िखलाफ कानून बना हुआ है; लेकिन लालची लोग परम्परा और प्रथा की आड़ लेकर दहेज की जमकर माँग करते हैं और विडम्बना यह है कि लडक़ी वाले अच्छे वर और घर के लालच में खुद को बर्बाद करके भी दहेज पूरा करते हैं। लेकिन कितने ही लालची भेडिय़े इतने पर भी उनकी मासूम बेटियों को अत्याचारों की असहनीय पीड़ा से गुज़ारने के बाद आिखर मौत के घाट तक उतार देते हैं।

इस कुप्रथा का अंत आिखर कब होगा? इस सवाल का जवाब यह है कि जब तक हम ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, तत्र रमंते देवता’ वाले श्लोक को पूरी तरह मन से स्वीकार करके जीवन में धारण नहीं कर लेंगे। जब तक लोग महिलाओं के प्रति खुद को जन्म देकर जीवन देने वाली माँ को ईश्वर नहींं मानेंगे; जब तक उसे अपनी पहली शिक्षक नहीं मानेंगेे; जब तक बेटी को बेटे के बराबर प्यार नहीं देंगे; जब तक बहिन को एक भाई की तरह नहीं मानेंगे; जब तक पत्नी को सच्चा दोस्त और सहयोगी नहीं मानेंगे; तब तक अत्याचार नहीं रुकेंगे। अगर ऐसा हो गया, तो दहेज-प्रथा का आसानी से अंत हो जाएगा।

कुल मिलाकर दहेज-प्रथा का अंत ज़रूरी है, ताकि महिलाओं पर अत्याचार रुक सकें। इसके लिए संस्कार, शिक्षा और महिलाओं के प्रति सम्मान आदि को बढ़ावा देना होगा। दहेज-प्रथा कानून की सबको जानकारी देनी होगी और उसका भय भी दिखाना होगा।

पहले यही जानते हैं कि दहेज-प्रथा कानून क्या है?

दहेज लेने-देने पर सज़ा का प्रावधान

भारतीय दहेज निषेध अधिनियम, 1961 कहता है कि दहेज लेना, देना अथवा इसके लेन-देन में सहयोग करना कानूनी जुर्म है और ऐसा करने-कराने वालों को छ: माह से 10 साल तक की कैद और प्रत्येक पर 10,000 रुपये या उससे अधिक ज़ुर्माना लगाने का प्रावधान है। वहीं, दहेज के लिए प्रताडि़त करने पर भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के अन्तर्गत पूरे तीन साल की कैद की सज़ा के साथ ज़ुर्माने का प्रावधान भी है। यह सज़ा पीडि़ता के पति, ससुराल वालों और ससुराल पक्ष के रिश्तेदारों के द्वारा सम्पत्ति अथवा दहेज की अवैधानिक माँग करने पर न्यायालय द्वारा दी जा सकती है। वहीं, धारा 406 के अन्तर्गत लडक़ी के पति और ससुराल वालों के लिए तीन साल की कैद अथवा ज़ुर्माना अथवा दोनों का प्रावधान हैं, यदि वे लडक़ी को उसका अधिकार देने अथवा दहेज में मिला धन सौंपने से मना करते हैं।

दहेज-प्रथा रोकने के लिए सज़ा का प्रावधान

दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा-2 को दहेज (निषेध) अधिनियम संशोधन अधिनियम-1984 और 1986 में संशोधित किया गया है, जिसके अंतर्गत दहेज को कुछ इस तरह से परिभाषित किया गया है :-

दहेज का अर्थ प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष तौर पर दी गयी कोई भी सम्पत्ति अथवा मूल्यवान प्रतिभूति सुरक्षा अथवा उसे देने की सहमति से है। इसके अंतर्गत विवाह के किसी एक पक्ष द्वारा, दूसरे पक्ष को अथवा विवाह के किसी पक्ष के अभिभावकों/माता-पिता/अन्य परिजनों द्वारा अथवा विवाह के किसी पक्ष के किसी व्यक्ति के द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को विवाह के दौरान अथवा उससे पहले अथवा उसके बाद लेना कानूनन जुर्म है।

बता दें कि पहले दहेज के लेन-देन अथवा दहेज के लेन-देन के लिए उकसाने पर छ: माह की कैद की सज़ा थी। बाद में इसे बढ़ाकर न्यूनतम छ: माह और और अधिकतम 10 साल की कैद की सज़ा का प्रावधान किया गया। वहीं ज़ुर्माने की रकम बढ़ाकर 10,000 रुपये अथवा ली गयी अथवा दी गयी अथवा माँगी गयी दहेज की रकम; दोनों में से जो भी अधिक हो-के बराबर कर दिया गया है। हालाँकि दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 और 4 के अंतर्गत अदालत ने न्यूनतम सज़ा को कम करने का फैसला किया है; लेकिन ऐसा करने के लिए अदालत को ज़रूरी और विशेष कारणों की आवश्यकता होती है।

दहेज-प्रथा की धाराएँ और उनके प्रावधान

आइये जानते हैं कि दहेज के िखलाफ भारतीय कानून में कौन-कौन सी और कितनी धाराएँ हैं तथा इनके अंतर्गत किस तरह के प्रावधान हैं?

धारा-3 : इस धारा के अंतर्गत दहेज के लेन-देन अशवा दहेज के लिए उकसाने पर सज़ा और ज़ुर्माने का प्रावधान है। लेकिन यह भी नियम है कि यदि विवाह में के दौरान वर अथवा वधू को उपहार मिलते हैं, तो उन्हें सूचीवद्ध किया जाना चाहिए। ऐसा करने पर वह दहेज से बाहर माना जाएगा।

धारा-4 : इस धारा के अंतर्गत दहेज की माँग के लिए ज़ुर्माने और सज़ा का प्रावधान है। इस धारा के अंतर्गत यदि किसी पक्षकार के माता-पिता, अभिभावक, अन्य परिजन अथवा रिश्तेदार प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से दहेज की माँग करते हैं, तो उन्हें कम-से-कम छ: माह और अधिकतम दो साल की कैद की सज़ा के अलावा 10000 रुपये तक का ज़ुर्माना हो सकता है।

धारा-4 (ए) : इस धारा के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति द्वारा प्रकाशन अथवा मीडिया के माध्यम से पुत्र-पुत्री के विवाह में व्यवसाय अथवा सम्पत्ति अथवा हिस्से का कोई प्रस्ताव करना भी दहेज की श्रेणी में माना जाएगा। ऐसा करने अथवा करने को बाध्य करने पर कम-से-कम छ: माह और अधिकतम पाँच साल की कैद की सज़ा के अलावा 15000 रुपये तक का ज़ुर्माना हो सकता है।

धारा-6 : इस धारा में प्रावधान है कि अगर कोई दहेज वधु के अलावा अन्य किसी व्यक्ति द्वारा धारण किया जाता है, तो वह व्यक्ति दहेज लेने के तीन माह के अन्दर और अगर लडक़ी नाबालिग है, तो उसके बालिग होने के एक साल के अन्दर उसे हस्तांतरित कर देगा। यदि वधु/लडक़ी की मृत्यु हो गयी हो और संतान नहीं हो, तो उस दहेज को उसके अविभावकों अथवा माता-पिता अथवा परिजनों को दहेज-अन्तरण किया जाएगा और यदि संतान है, तो संतान को अन्तरण किया जाएगा।

धारा-8 (ए) : इस धारा में प्रावधान यह है कि अगर दहेज के लेन-देन की घटना से एक वर्ष के अन्दर इसके िखलाफ शिकायत की गयी हो, तो न्यायालय पुलिस रिपोर्ट के आधार पर अथवा क्षुब्ध/पीडि़त द्वारा शिकायत किये जाने पर अपराध का संज्ञान ले सकेगा और आरोपियों के िखलाफ फैसला सुनाते हुए सज़ा का प्रावधान कर सकेगा।

धारा-8 (बी) : आजकल आम लोगों को  दहेज-प्रथा से सम्बन्धित बहुत-से कानून नहीं मालूम होते हैं, जिसके चलते नवविवाहिता आसानी से दहेज-लोभियों का शिकार हो जाती हैं। आपको बता दें कि हर राज्य में एक दहेज निषेद पदाधिकारी होते हैं। इस धारा के हिसाब से प्रावधान है कि दहेज निषेध पदाधिकारी की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाएगी। अधिकारी बनाये गये नियमों का अनुपालन कराने अथवा दहेज की माँग के लिए उकसाने अथवा दहेज के लेन-देन को रोकने अथवा अपराध कारित करने से सम्बन्धित साक्ष्य जुटाने का कार्य करेगा, आरोपियों के िखलाफ न्यायोचित तरीके से कानूनी कार्रवाई की जा सके।

हरियाणा में ‘खरीदी गयी दुल्हनों’ के अधिकारों की रक्षा करेंगे पुरुष

साल 2003 में, मालदा, पश्चिम बंगाल की मीरा केवल 16 वर्ष की थी, जब उसे हरियाणा के मेवात में विजय को एक ‘दुल्हन’ के रूप में बेच दिया गया, जो उनसे दस साल बड़ा था। शादी के सिर्फ दो साल बाद, उसे फिर से एक पार्टी के लिए 50,000 रुपये की कीमत पर बेच दिया गया। कारण? उसने दो बेटियों को जन्म दिया था।

मीरा की पहली बार शादी के एक साल बाद, असम की एक अन्य 15 वर्षीय लडक़ी लक्ष्मी को हरियाणा के जींद में 29 वर्षीय नरेश को दुल्हन के रूप में बेच दिया गया। अपनी शादी के बाद, लक्ष्मी को जबरन या तो नरेश के खेत में काम करने या परिवार के मवेशियों को पालने के लिए मजबूर किया गया। आज इस अस्पष्ट पहचान के साथ वह अपने दो बेटों के साथ एक विधवा का जीवन जी रही है और उसके नाम पर कोई सम्पत्ति नहीं है। मीरा और लक्ष्मी के मामले अलग नहीं हैं।

हरियाणा जैसे राज्य में दुल्हन तस्करी काफी आम है, जहाँ पुरुष कमज़ोर लिंग अनुपात के कारण अपने समुदाय के बाहर पत्नियों की तलाश करने के लिए मजबूर होते हैं; और इस समस्या के लिए खुद उनके समुदाय •िाम्मेदार हैं। ऐसे कई मामले हैं, जो दूसरे राज्यों से तस्करी करने वाली दुल्हनों के बारे में बताते हैं, जहाँ उन्हें उपभोग की वस्तु मात्र माना जाता है और •यादातर घर की देखभाल करने, खेतों पर काम करने या परिवारों के लिए उत्तराधिकारी के रूप में बेटे पैदा करने के लिए कीमत (20,000 रुपये से 1,50,000 या अधिक) देकर लाया जाता है। राज्य सरकार की हाल में जारी एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि हरियाणा में 2012 में हर 1000 लडक़ों के पीछे  832 लड़कियों जबकि अगस्त 2019 में प्रति 1000 लडक़ों पर 920 लड़कियों का लिंग अनुपात रहा जिसे सुधार माना जाएगा। फिर भी राज्य में जल्द ही दुल्हन तस्करी का चलन समाप्त होता नहीं दिख रहा है। कई दशक बीत चुके हैं लेकिन हरियाणा की दुल्हनें (राज्य के बाहर से) अभी भी माल की बहू (शॉपिंग मॉल ब्राइड) के रूप में इंगित की जाती हैं। यह एक ऐसा शब्द है, जिसके कारण पूरा राज्य शर्मसार हो गया है। राज्य सरकार लिंगानुपात में सुधार का श्रेय लेती है और इसके इसके पीछे अपने अभियान ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ को श्रेय देती है, लेकिन यह अभी तक ‘मॉल की बहू’ जैसे शर्मनाक लेबल को ख़त्म करने से कोसों दूर है।

हालाँकि, राज्य में कम-से-कम कुछ हिस्से सक्रिय रूप से इस तस्करी के िखलाफ सामने आये हैं और पीडि़तों को बचाने के लिए कदम उठा रहे हैं। तस्करी करने वाली दुल्हनों को समान प्रतिनिधित्व देने के लिए राज्य के खरकरी गाँव ने ‘परदेशी बहू हमारी शान’ (गैर-राज्य दुल्हनें हमारा गौरव हैं) नामक एक बड़े अभियान की शुरुआत की है। इस पहल के साथ खरकरी दुल्हन तस्करी के िखलाफ लडऩे के लिए आगे आने वाला भारत का पहला गाँव बन गया है। परदेशी बहू हमारी शान अभियान के संयोजक सुनील जगलान ने 26 अक्टूबर, 2019 को दुल्हन की तस्करी की पुरानी लड़ाई को लडऩे के लिए ग्रामीणों के बीच सकारात्मक दृष्टिकोण को देखते हुए खरकरी को अभियान शुरू करने के लिए चुना।

जगलान, जो सेल्फी विद् डॉटर फाउंडेशन के निदेशक हैं, ने परदेशी बहू हमारी शान नामक अभियान की स्थापना दूसरे राज्यों से खरीदी गयी दुल्हनों को सम्मानित करने और ‘बेची गयी दुल्हनों’ के टैग को हटाने में मदद करने के लिए की है।  इस पत्रकार के साथ बात करते हुए, जगलान कहते हैं- ‘मैं हरियाणा के पुरुष प्रधान  समाज में तस्करी करने वाली दुल्हनों के अधिकारों के लिए लड़ रहा हूँ, जिन्हें हमारे राज्य में आने के लिए अवैध रूप से खरीदा गया, लालच दिया गया या मजबूर किया गया। यह समय है कि इन दुल्हनों को पूरे सम्मान के साथ जीने दिया जाए; क्योंकि वे भी हम में से ही एक हैं।’  उनका कहना है – ‘हरियाणा बाहरी दुनिया के लिए सभी गलत कारणों के लिए जाना जाता है। लेकिन, अब समय आ गया है कि हम अपनी गलती को स्वीकार करें और पश्चिम बंगाल, असम, उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य राज्यों के राज्य से खरीदी गयी दुल्हनों को समान दर्जा दें।’

सेल्फी विद डॉटर फाउंडेशन, जो महिला सशक्तीकरण के संरक्षकों में एक प्रमुख नाम है; ने एक सर्वेक्षण किया है, जो जुलाई 2017 और सितंबर 2019 के बीच का है। यह उन दुल्हनों के लिए किया गया है, जो अन्य राज्यों से हरियाणा में तस्करी करके लायी जाती रही हैं। वास्तव में 125 स्वयंसेवकों की उनकी टीम ने कुल 1,30,000 दुल्हनों का पता लगाया है, जिनकी हरियाणा के पुरुषों से अवैध रूप से शादी हुई है। सर्वेक्षण के अनुसार, अकेले मेवात में 60 से अधिक मामलों की पहचान की गयी है, जहाँ तस्करी करने वाली •यादातर लड़कियाँ भारत के दक्षिणी राज्यों से हैं। जगलान के अनुसार, गुरुग्राम और रेवाड़ी हरियाणा में पहले स्थान थे, जहाँ लोगों ने अन्य राज्यों से दुल्हनें खरीदीं।

शुरुआत में दुल्हनें पश्चिम बंगाल से खरीदी गयी थीं; लेकिन अब हरियाणा के लोग बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, मध्य प्रदेश और उत्तराखंड से लड़कियों को खरीदना शुरू कर चुके हैं। पिछले तीन साल से पंजाब से भी दुल्हनें खरीदने का चलन शुरू हुआ है। अन्य राज्यों से दुल्हन खरीदने का चलन अहीरवाल के क्षेत्र में शुरू हुआ। दक्षिणी हरियाणा के बाद बिकने वाली दुल्हनों का प्रतिशत रोहतक, जींद, सोनीपत, हिसार, कैथल, झज्जर, यमुना नगर और कुरुक्षेत्र में •यादा है। ऐसी दुल्हनें जाटों, यादवों और ब्राह्मणों के घरों में अधिक पायी जाती हैं। इसके अलावा अट्टा-सट्टा और तिगड़ी की रोड़ जाति अन्य राज्यों से खरीदी गयी दुल्हनों की एक महत्त्वपूर्ण आबादी है। मेवात •िाले में दुल्हनों की बढ़ती संख्या पायी गयी है, जो पिछले एक दशक में बेची गयी हैं।

पुरुष विवाह पंजीकरण के समर्थन में आगे आते हैं

अभियान के अलावा दिसंबर में हरियाणा में एक विवाह पंजीकरण शिविर का आयोजन किया जाएगा, जो जोड़ों को औपचारिक रूप से उनके विवाह को पंजीकृत करने की अनुमति देगा। शिविर उन मामलों की पहचान करने में मदद करेगा, जहाँ दुल्हन की तस्करी हो सकती है। विवाहितों का पंजीकरण, जिसमें दुल्हनें शामिल हैं; को समाज में एक समान स्थान देने के अलावा, अनुचित प्रथाओं के मामलों को रोकने के लिए, जहाँ कुछ दुल्हनों को तुच्छ मुद्दों पर उनके परिवारों द्वारा बेदखल कर दिया जाता है; अन्य राज्यों से आने वाली ऐसी महिलाओं के लिए यह शिविर बहुत फायदेमंद होगा।

अक्टूबर में ही गाँव के 22 पुरुष इस बात पर चर्चा करने के लिए बैठे थे कि कैसे शिविर तस्करी की शिकार महिलाओं पर नज़र रखने में उपयोगी साबित हो सकता है। जब  इस पत्रकार ने पूछा कि क्या वे खुद अभियान में हिस्सा लेंगे, तो समूह ने उत्साह से हाथ खड़े करके कहा – ‘हाँ, हम करेंगे!’

खरकरी अब विवाह पंजीकरण शिविर की मेजबानी करेगा, जिसे बाद में अन्य •िालों के गाँवों में आयोजित किया जाएगा। राम सिंह, जिनकी उम्र 80 वर्ष से अधिक है; का कहना है कि कुछ पुरुषों ने अवैध तरीकों से दुल्हनें खरीदकर समाज को शर्मसार किया है और उनका अपमान और उनपर अत्याचार कर रहे हैं। सिंह ने कहा- ‘यह बंद होना चाहिए। अगर हमारे पुरुष हरियाणा से बाहर शादी करना चाहते हैं, तो उन्हें रीति-रिवाज़ों और कानूनी औपचारिकताओं से गुज़रना चाहिए; लेकिन अवैध तरीकों से नहीं। शुरू में हमें नहीं पता था कि शादी को पंजीकृत करना कितना महत्त्वपूर्ण है; लेकिन अब जैसा कि मैं जानता हूँ; पहली बात मैं अपनी शादी को पंजीकृत करना चाहता हूँ। मैं सभी जोड़ों, युवा और बूढ़े, दोनों को अभियान शिविर में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित  करता हूँ।’ खरकरी गाँव के ही रामहर शर्मा कहते हैं कि विवाह पंजीकरण जैसी पहल राज्य का नाम अच्छा करेगी। साथ ही अन्य राज्यों को भी इस पर चलने के लिए प्रोत्साहित करेगी। मैं निश्चित रूप से अपनी पत्नी के साथ शिविर में पंजीकरण करने के लिए आऊँगा। एक अन्य गाँव के चरण सिंह (40) ने पहल के लिए सराहना की। उन्होंने कहा कि यह कदम स्थानीय दुल्हनों के समान अधिकारों का आनंद लें और कलंक को मिटाने में मदद करें।

दुल्हन तस्करी गिरोह में नया मोड़

दुल्हन तस्करी के मामलों के नया मोड़ तब आया, जब यह खुलासा हुआ कि बेची गयी कुछ दुल्हनें डकैती के कार्य में शामिल पायी गयी हैं। लड़कियों के परिवारों के साथ तस्करों द्वारा चलाया जाने वाला यह एक जाल है, जिसमें वे कुँवारे लडक़े वाले परिवारों की तलाश करते हैं।

अब सभी तस्करी वाली दुल्हनों को ‘लुटेरी दुल्हन’ के रूप में चिह्नित किया जाता है। राज्य में बेचे जाने के बाद लगभग 1,470 दुल्हनें या तो घर लौट आयींं या घरों से कीमती सामान लूटने के बाद फरार हो गयीं; जिसमें वे मामले भी हैं, जिनमें उनके माता-पिता भी शामिल हैं। कम उम्र की लड़कियों ने मामले दर्ज किये हैं, जहाँ कानूनी हस्तक्षेप के बाद लडक़े के परिवार को उन्हें भुगतान करना पड़ा। ऐसी दुल्हनों का आँकड़ा  सिर्फ 30 के आसपास पाया गया था।

असली कारण

उल्लेखनीय है कि हरियाणा में 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान सुनील जगलान ने ‘अविवाहित पुरुष संघ’ की स्थापना की थी, और उम्मीदवारों को शिक्षित करने के लिए ‘वोट दो, बहू लो’ अभियान की शुरुआत की थी। इसमें बताया गया था कि कैसे बिगड़ते लिंगानुपात के कारण अविवाहित युवाओं को अपनी ज़मीनों को बेचने के बाद दूसरे राज्यों से दुल्हन लाने के लिए मजबूर किया गया था। यह मुद्दा बहुत कम समय में ही राष्ट्रीय से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो गया।

हालाँकि आमतौर पर यह समझा जाता है कि अपराधियों की यौन माँगों के कारण तस्करी के मामले मौज़ूद हैं, जगलान का कहना है कि यह मुद्दा जितना लगता है, उससे कहीं अधिक जटिल है। वह बताते हैं कि हरियाणा में दुल्हन की तस्करी के प्रमुख रूप से दो महत्त्वपूर्ण कारक हैं। उनमें से एक सम्पत्ति के स्वामित्व से जुड़ा है। हरियाणा में परिवार आमतौर पर विवाहित पुत्रों के लिए सम्पत्तियों के स्वामित्व को स्थानांतरित करते हैं। इसका मतलब यह है कि जो भी अविवाहित है वह सम्पत्ति के अधिकारों का दावा नहीं कर सकता है। आमतौर पर जिन परिवारों में दो से अधिक बेटे होते हैं, माता-पिता तीसरे बेटे का विवाह करने से मना कर देते हैं, ताकि सम्पत्ति को आगे न बाँटें। ऐसी स्थिति में अविवाहित पुत्र दलालों के माध्यम से लड़कियों की तलाश करता है, ताकि पैतृक सम्पत्ति के अधिकार से वंचित न हो।

जगलान कहते हैं कि हरियाणा में परिवारों के बारे में यह सुनिश्चित करने की कोशिश की जा रही है कि परिवार का नाम पुरुष उत्तराधिकारियों के माध्यम से बना रहे। इससे यह भी पता चलता है कि दो बेटियों को जन्म देने के बाद मीरा को क्यों बचाया गया। दुल्हन तस्करी में एक अन्य योगदान कारक यह है कि जिन परिवारों में बेटे शारीरिक या मानसिक रूप से फिट नहीं होते हैं, उनके परिवार दलालों को गरीब परिवारों की लड़कियों को लाने का काम सौंपते हैं, ताकि उन लड़कियों को बेटों से शादी के लिए मजबूर किया जा सके। इस बीच आगामी विवाह पंजीकरण शिविर की तैयारी ज़ोरों पर है, जिसके दिसंबर में शुरू होने की उम्मीद है।

जगलान, जो अपने गांव बीबीपुर में सेल्फी विद् डॉटर अभियान से प्रसिद्ध हुए; इसे सफल आयोजन बनाने के लिए 125 स्वयंसेवकों और गुडग़ाँव के डिप्टी कमिश्नर के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। इस कार्यक्रम में जोड़े को पुरस्कार और प्रशंसा प्रमाण-पत्र दिये जाएँगे।

नये साल में नशे का ‘जश्न’

नये साल को यादगार बनाने की कोशिश में जश्न की तैयारी में लगे लोगों की •िान्दगी में ज़हर घोलने की सा•िाशें नाकाम करने की मुहिम है हमारी, और इरादे बुलन्द हैं। यह बात कहते हैं मूथा अशोक जैन, जो नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के डिप्टी डायरेक्टर हैं।

लेकिन इस सुनहरे अवसर को अपने हाथों से नहीं छूटने देने के लिए नशे के कारोबारी भी अपने नेटवकल को अलर्ट और मज़बूत बनाने में लगे हैं। ड्रग सिंडिकेट से जुड़े सूत्र बताते हैं कि थर्टी फस्र्ट से पहले ही नशीले कारोबार का बाज़ार गुलज़ार होने लगता है। साल-भर की कमायी का 50 फीसदी से •यादा कमायी इस दौरान हो जाती है। रेट दोगुना हो जाता है। 6000 रुपये प्रति ग्राम बिकने वाली कोकीन 10,000 रुपये के भाव बिकने लगेगा।

नये साल का गर्मजोशी से स्वागत करने और जश्न मानने के लिए अपनी नाईट लाइफ के लिए मशहूर िफल्मी नगरी मुम्बई और विदेश-सा खुलापन लिए गोवा से बेहतर डेस्टिनेशन शायद ही कोई हो, तभी तो हिंदुस्तान ही नहीं दुनिया के अलग अलग कोनों से लोग नये साल का जश्न मनाने की लिए मुम्बई और गोवा पहुँचते हैं।

ड्रग माफिया ने मुम्बई पर अपनी नापाक नज़र गढ़ा दी है। कानून  से आँख बचाकर अलग अलग रंग, अलग-अलग रूप में ड्रग्स की खेप मुम्बई पहुँचने लगी है। नये साल के जश्न में डूबे युवाओं को टारगेट करने करने के लिए, जो ड्रग्स मुम्बई लायी जा रही है; उसमें कोकीन उर्फ बम्बा, एमडी, एक्स्टेसी और गाँजे का समावेश है। वैसे तो जम्मू-कश्मीर, मध्य प्रदेश से सडक़ या ट्रेन के रास्ते ड्रग्स मुम्बई पहुँचती है, लेकिन कोकीन जैसा ड्रग विदेशों से मुम्बई पहुँचाने के लिए माफिया एयर वेज का इस्तेमाल करता है; लेकिन कस्टम की बढ़ती मुस्तैदी के चलते माफिया अब चेन्नई पोर्ट से ड्रग्स सडक़ के रास्ते गोवा और फिर मुम्बई में तस्करी करते हैं।

ड्रग्स का गोवा कनेक्शन

ड्रग्स का सबसे बड़ा बाज़ार है गोवा। इसीलिए हज़ारों मील दूर से माफिया यहाँ आकर बड़े पैमाने पर धन्धा सँभाल रहे हैं। आज इस काले साम्राज्य पर रशियन माफिया का कब्ज़ा है, जो बेहद ही खतरनाक है। गोवा पर कभी नाइजीरियन ड्रग माफिया का वर्चस्व हुआ करता था। लेकिन रशियन माफिया ने इतनी तेज़ी से धन्धे पर कब्ज़ा किया कि नाइजीरियन माफिया को भनक ही नहीं पड़ी और जब तक नाइजीरियन माफिया को पता चला, तब तक रशियन माफिया गोवा ड्रग बाज़ार के बड़े हिस्से पर अपना कब्ज़ा कर चुके थे। गोवा ड्रग बाज़ार पर वर्चस्व की लड़ाई में नाइजीरियन और रशियन माफिया के बीच छिड़े गैंगवार में कई लोगों को अपनी जान तक गँवानी पड़ी।

कहा जाता है कि जिसके सिर पर गोवा के कुछ कुख्यात पॉलिटिशियन और भ्रष्ट पुलिस अफसरान का वरदहस्त है, वो ही इस सफेद पाउडर के काले धन्धे का सुल्तान होता है। रशियन माफिया ने गोवा के इन सफेदपोश माफिया के मन की वो सभी मुरादें समय से पहले पूरी कीं, जो वो चाहते थे। यही कारण है कि गोवा का ड्रग बाज़ार आज रशियन माफिया के हाथ चला गया।

ऐसा नहीं कि ड्रग के इस खतरनाक कारोबार के िखलाफ आवाज़ नहीं उठायी गयी हो। लेकिन यह सिंडिकेट कितना खतरनाक है उसका अंदाज़ा गोवा के एक मिनिस्टर के बयान से लगाया जा सकता है, जिसमें उन्होंने ड्रग माफिया से उनकी जान को खतरा बताया है। गोवा फॉरवर्ड पार्टी के विनोद पालयेकर गोवा में फैले ड्रग माफिया के िखलाफ अपनी लड़ाई लड़ते रहे हैं।

चूँकि नये साल को सेलिब्रेट करने के लिए बड़ी संख्या से यंगएस्टर्स मुम्बई पहुँचते हैं, इसी लिए मुम्बई, गोवा ड्रग माफिया की पहली पसन्द रहा है। गोवा ड्रग्स सिंडिकेट से जुड़े जुनैद (बदला हुआ नाम) ने तहलका से बात करते हुए बताया कि मुम्बई उनके लिए सॉफ्ट टारगेट है और यहाँ आने वाले लोगों के पिछवाड़े (पॉकेट) में इतना दम होता है कि उनके सामान को आसानी से खपा लेते हैं। जुनैद के साथी सलीम (बदला हुआ नाम) ने तहलका के सामने खम ठोककर दावा है कि उन्हें किसी का खौफ नहीं है और यहाँ सब कुछ सेटिंग से चलता है। सलीम ने यह भी दावा किया कि उनके करियर बॉस के पेरोल पर पलने वाले कुछ साहब लोगों की निगरानी में माल को बिना किसी दिक्कत के मुम्बई सुरक्षित ठिकाने पर पहुँचा देते हैं।

गौरतलब हो कि मुम्बई पुलिस ने पिछले कुछ साल में अपने ही डिपार्टमेंट से जुड़े कुछ बड़े ऑफिसर्स को ड्रग्स तस्करों के साथ सीधे तौर पर काम करने और ड्रग माफिया को हेल्प करने के आरोप में गिरफ्तार किया था।

पब्स-डिस्को का फेवरेट ड्रग-बंबा

तहलका ने ड्रग्स के धन्धे से जुड़े कुछ और लोगों से बात की। यह वो लोग थे, जो ‘घोड़ा’ का काम करते हैं। इस धन्धे में घोड़ा वो शख्स होता है, जो ड्रग्स को पुलिस की नज़र से छुपा का ‘माल’ यानी ड्रग को ‘माइक्रो’ तक पहुँचाता है। ‘माइक्रो’ यानी वह आदमी जो ड्रग्स को कस्टमर्स तक पहुँचाता है। एक माइक्रो ने तहलका को बताया कि मुम्बई के वेस्टर्न सबर्ब के पॉश जुहू, सांताक्रूज, खार, बांद्रा एरिया के डिस्को, पब्स में आने वाले लडक़ों-लड़कियों की पहली पसंद कोकीन होती है। माइक्रो ने बताया कि वैसे तो उनके कोकीन के कस्टमर फिक्स ही होते हैं; लेकिन न्यू ईयर पार्टी में उनके फिक्स्ड कस्टमर्स ही नये कस्टमर्स से उनकी पहचान करवाकर देते हैं और इस काम के लिए वे अपना ‘कट’ रख लेते हैं। कट में यह कस्टमर या तो माल की पूड़ी लेते हैं या कैश।

मुम्बई के एक पब में एक्टिव रहने वाले माइक्रो ने बताया कि कोकीन के अलावा उनके कस्टमर्स एमडी की भी डिमांड करते हैं। बता दें कि पिछले कुछ साल में एमडी की डिमांड बहुत तेज़ी से बढ़ी है। सलीम की मानें तो, एमडी को सप्लाई करने में •यादा प्रॉब्लम नहीं आती, क्योंकि एमडी मुम्बई के आसपास आसानी से मिल जाती है और ट्रांसपोर्ट करने में •यादा रिस्क नहीं होता।

इस धन्धे से जुड़े मार्क (बदला हुआ नाम) बताया कि आज कोकीन 6,000 रुपये प्रति ग्राम  बिक रही है और 25 दिसंबर के बाद इसके दाम में 50 फीसदी बढ़ जाएगा। जबकि आज एमडी का रेट 4,000 रुपये प्रति ग्राम और आने वाले दिनों में उसकी कीमत भी डबल हो जाएगी। मार्क ने कहा- ‘एमडी का नशा कोकीन को टक्कर देता है और लम्बे समय तक असर करता है, रेट भी कोकीन के मुकाबले कम है; इसीलिए एमडी के कस्टमर तेज़ी से बढ़ रहें हैं।’

गौरतलब हो कि मुम्बई पुलिस की एंटी नारकोटिक सेल और ठाणे पुलिस ने पिछले कुछ साल में मुम्बई से सटे कुछ कस्बों से एमडी की कई फैक्टरियाँ सील करने में सफलता हासिल की है। इन फैक्टरियों में केमिकल से एमडी तैयार किया जाता था और मार्केट में सप्लाई किया जाता था। इसके अलावा वेस्टर्न रीज़न के एडिशनल कमिश्नर डॉ. मनोज शर्मा द्वारा चलाये गये विशेष अभियान के तहत जनवरी, 2019 से  सितंबर, 2019 के बीच 125 ड्रग पेडलर्स को अरेस्ट किया गया और इनके कब्•ो से 4 करोड़ रुपए से •यादा की ड्रग्स सीज की गयी। जिसमें एमडी, कोकीन, चरस और गाँजा शामिल है। डॉ. मनोज शर्मा के अनुसार, हमने 107 एफआईआर रजिस्टर की और 125 ड्रग पेडलर्स को अरेस्ट किया। पुलिस की सख्ती के बावजूद एमडी की मार्केट तेज़ी से बढ़ रही है।

ड्रग्स और मुम्बई नाइट लाइफ- पब, डिस्को 

मुम्बई की नाइट लाइफ को नौजवानों अपनी लाइफ लाइन मानते हैं। मुम्बई के समंदर से सटे वेस्टर्न सबर्ब के जितने भी पॉश एरिया हैं, ड्रग माफिया के अड्डे हैं। दरअसल मुम्बई के बड़े और आलीशान डिस्को-पब वेस्टर्न मुम्बई के पॉश जुहू, खार, बांद्रा सांताक्रूज में आबाद है। एक परिचित माइक्रो के साथ तहलका संवाददाता ने खार, सांताक्रूज, जुहू, अंधेरी स्थित कुछ डिस्को और पब का जायज़ा लिया। लेकिन माइक्रो संवाददाता को इस शर्त पर अपने साथ ले जाने को राजी हुआ था कि डिस्को में एंट्री करने के बाद वो हमारे लिए अनजान हो जाएगा।

डिस्को के अन्दर का नज़ारा बिलकुल वैसा ही था, जैसा िफल्मों में दिखाया जाता है। कभी अंग्रेजी, तो कभी हिंदी िफल्मों की तेज़ धुन पर एक-दूसरे को बाँहों में जकड़े और थिरकते नौजवान, किसी के हाथ में बियर के केन, किसी के हाथ में जाम और सुलगती सिगरेट। सब अपनी मस्ती में मगन, वहाँ मौज़ूद हर एक शख्स चिन्ता मुक्त दिख रहा था। देश की पॉलिटिक्स से दूर, न तो किसी को देश की अर्थ-व्यवस्था की चिन्ता थी और न ही अपनों की। अगर चिन्ता थी, तो बस अपने साथ आये साथी की।

इस अनजानी भीड़ में सबकी नज़रें या तो अपने बंदे को ढूँढ रही थीं या वह अपने साथी की बाँहों में बाँहें डाले झूम रहा था। सिगरेट के धुएँ ने पूरे डिस्को को अपनी गिरफ्त में लिया हुआ था। तहलका संवाददाता भी धुएँ को चीरते हुए जैसे ही आगे बढ़े अन्दर लाने वाले बन्दे से नज़रें मिलीं और उसने वॉशरूम में आने का इशारा किया। वैसे तो वॉशरूम काफी बड़ा था, लेकिन वहाँ लगे लडक़े-लड़कियों के मेले के आगे छोटा दिख रहा था। यह वो जगह थी, जहाँ से धुआँ पूरे डिस्क में फैल रहा था। यही थे माइक्रो के कस्टमर। लडक़े -लड़कियाँ एक-दूसरे से नज़र बचाकर उससे छोटी-छोटी पूडिय़ाँ खरीद रहे थे, इन पूडिय़ों में कोकीन भी था और एमडी भी।

बमुश्किल वो 15 मिनट वहाँ रुका और तेज़ी से बहार निकल गया। लेकिन कुछ पब्स-डिस्को से निकलने से पहले उसने वहाँ के स्टाफ को भी कुछ पूडिय़ाँ थमा दी थीं, स्टाफ में वेटर और बाउंसर का समावेश था। सभी पब्स-डिस्को में उसने कमोबेश ऐसे ही माल बेचा। उसने बताया कि अपुन ने जितना माल अभी बेचा न्यू ईयर पार्टी में इससे 50 फीसदी •यादा माल निकलेगा।

जब हमने उससे डिस्को में वेटर-बाउंसर्स को पूडिय़ां देने के बारे में जानना चाहा, तो उसने हँसते हुए बात टाल दी और बोला- ‘छोड़ो न भाई, इनका भी तो पेट है।’

इस बारे में जब जुनैद (बदला हुआ नाम) से पूछा, तब उसने बताया- ‘भाई ऐसी जगहों पर पुलिस का जीरो भी होता है। यहाँ •यादा टाइम रुकने मतलब है सीधे जेल। इसीलिए कुछ स्टाफ के लोग अपुन लोगों की थोड़ी हेल्प करता है; समझा क्या?’

हमारे सामने दो बड़े खुलासे हुए। पहला यह कि डिस्को और पब के स्टाफ के ज़रिये कस्टमर को सामान पहुँचाने का आइडिया पहली बार सामने आया। इसके अलावा जुनैद (बदला हुआ नाम) ने दूसरा खुलासा यह किया कि इस धन्धे में अब लड़कियाँ भी शामिल हो गयी हैं, जो बेखौफ माल निकालती हैं। जुनैद के अनुसार, लडक़ी पर जल्दी कोई शक नहीं करता, इन लोगों को कम माल ही दिया जाता है, जिसे यह अपनी बॉडी के पाट्र्स में आसानी से छुपा लेती हैं।

जुहू इलाके में कुछ कुख्यात डिस्को-पब आबाद हैं; इसीलिए जुहू पुलिस स्टेशन के सीनियर इंस्पेक्टर पंढरीनाथ वाव्हळ से तहलका संवाददाता ने बात की। सीनियर पीआई  वाव्हळ  ने बताया- ‘हमारी टीम को इन्फॉर्मेंट से ऐसी ही टिप मिली थी, जिसके बाद कुछ ठिकानों पर रेड की गयी, हमारे हाथ कुछ नहीं आया। लेकिन इस रेड के बाद मैनेजमेंट ने अपना पूरा स्टाफ चेंज कर दिया।’

ड्रग्स और हाई प्रोफाइल एजुकेशन इंस्टीट्यूूशन

डिस्को-पब कृचर और हाई-प्रोफाइल एजुकेशन इंस्टीटूशन का गहरा रिश्ता रहा है इसी लिए मुम्बई के हाई प्रोफाइल एजुकेशन इंस्टीटूशन भी ड्रग माफिया के सॉफ्ट टारगेट हैं। इन हाई-प्रोफाइल इंस्टीटूशन्स में पढऩे वाले स्टूडेंट्स रईस घरानों से ताल्लुक रखते हैं, जिन्हें शो-ऑफ करने और अपना स्टेटस मेन्टेन रखने का नशा होता है। यही कारण है कि स्टूडेंट्स डिस्को-पब-हुक्का पार्लर जाने के शौक रखते हैं। यहीं से इनको स्लो पॉइज़न मिलना शुरू हो जाता है और जब यह स्टूडेंट नशे के एडिक्ट हो जाते हैं तब नशे के सौदागर इन स्टूडेंट्स की हेल्प से दूसरे स्टूडेंट्स तक आसानी से पहुँच जाते हैं और अपना धन्धा चलाते हैं। सलीम(बदला हुआ नाम )ने बताया कि कॉलेज स्टूडेंट्स को टारगेट करने के लिए स्टूडेंट्स को ही अपने जाल में फांसते हैं और फिर सस्ती पूड़ी का लालच देकर इन से धन्धा हैं। सीनियर पीआई वहवळ ने बताया कि उनकी जुरिडिक्शन में भी कुछ बड़े एजुकेशन इंस्टीटूशन हैं और इन इंस्टीटूशन पर उनकी पैनी नज़र रहती है। बतौर सीनियर पीआई वहवळ, स्टूडेंट्स को नशे से बचाने के लिए मैं खुद अपने सीनियर्स और जूनियर्स  के साथ कॉलेजेस में विजिट करता हूँ, स्टूडेंट्स और टीचर्स को जागरूक करता हूँ। इसके अलावा मेरी टीम और हमारे इनफॉर्मर यहाँ होने वाली हर गतिविधियों पर नज़र रखतें हैं।

सीनियर पीआई वाव्हळ ने यह भी बताया कि उन्होंने आठ जवानों की एक स्पेशल टीम का गठन किया है, जो एपीआई के आधीन काम करती है और इस टीम का काम उनके पुलिस स्टेशन की हद में ड्रग माफिया नकेल कसना है। सीनियर पीआई वहवळ, न्यू ईयर में ड्रग माफिया से निपटने के लिए हमने पूरी तैयारी कर ली है।

पिछले महीने मुम्बई पुलिस की एंटी- नार्कोटिक्स सेल ने ड्रग माफिया की नयी मोडस ऑपरेंडी का खुलासा किया था। एंटी-नार्कोटिक्स सेल के डीसीपी शिवदीप लांडे ने मीडिया के सामने खुलासा करते हुए बताया कि ड्रग माफिया ने पुलिस की नज़र से बचने के लिए एमडी को टेबलेट शक्ल दे दी है, ताकि किसी को भी शक नहीं हो। टीचर्स और पेरेंट्स को आगाह करते हुए शिवदीप लांडे ने कहा कि अगर किसी को अपने बच्चों  के पास किसी भी प्रकार का सफेद या पर्पल कलर का टेबलेट मिले तो सावधान हो जाएँ।  एडिशनल सीपी डॉ. मनोज शर्मा ने बताया था कि ड्रग्स के िखलाफ चलाये गये ऑपरेशन के तहत पुलिस ने लोकल सिविल बॉडी के साथ मिलकर 80 ऐसे ठिकानों को ध्वस्त किया जो स्कूल-कॉलेजेस में ड्रग्स सप्लाई किया करते थे।

ड्रग्स और हुक्का पार्लर

मुम्बई में तेज़ी से फैलते हुक्का पार्लर कृचर ने स्कूल और कॉलेज जाने वाले स्टूडेंट्स को अपना अदि बना लिया है। आज की तारीक में हुक्का पार्लर स्टूडेंट्स के फेवरेट स्पॉट हैं। इसी का फायदा उठाकर ड्रग माफिया चोरी से हुक्के धुएँ के साथ बच्चों के दिलो-दिमाग में घुस गया।  अँधेरी के एक कुख्यात हुक्का पार्लर में काम करने वाले मंजू शेट्टी (बदला हुआ नाम ) ने तहलका को बताया कि लडक़े-लड़कियों को हुक्के का अदि बनाने के लिए कॉमन मसाले में थोड़ा थोड़ा नशे का पाउडर मिला देते हैं। हुक्का पार्लर में ड्रग माफिया की एंट्री की भनक लगते ही सामाजिक कार्यकर्ता हरकत में आये और कोर्ट का दरवाजा खटकाया क्यूंकि पुलिस ने मामले को गम्भीरता से नहीं लिया। सुप्रीम कोर्ट ने हुक्का पार्लर मालिकों को हिदायत दी की हुक्का पार्लर चलना है तो सिर्फ हर्बल मसाले का ही इस्तेमाल किया जाये। मुम्बई में हुक्का पार्लर अभी भी कानून  की आँख में धूल झोंककर अपना धन्धा चला रहे हैं। न्यू ईयर के लिए ड्रग माफिया ने अभी से हुक्का पार्लर में सेटिंग कर दी है। एक महिला ने बताया कि सबको सब पता है साहब, पुलिस को भी और ऊपर भी; सब चलता है। बता दें कि हुक्का पार्लर के •यादातर कस्टमर गाँजा के शौकीन होते हैं। डिस्को-पब्स में ड्रग सप्लाई करने वाले लोग हुक्का पार्लर के धन्धे को ‘चिंदी’ मानते हैं। जुनैद (बदला हुआ नाम ) के मुताबिक, अपना धन्धा हाई-प्रोफाइल धन्धा है, अपना माल खरीदने की औकात हुक्का के छोकरों की नहीं है, वहाँ गाँजा, बटन और चरस चलता है। मुम्बई पुलिस समय समय पर हुक्का पार्लर्स पर एक्शन लेती है और सब कुछ कण्ट्रोल में होने का दावा करती रही है, जबकि हकीकत इन दावों से अलग है। हुक्का पार्लर माफिया लोकल पुलिस स्टेशन और अपने कुछ खास पुलिस वालों की जेब गर्म करके अपना धन्धा चला रहें हैं। बता दें कि गोरेगाँव पुलिस स्टेशन की हद में एक हुक्के पार्लर पर कई बार रेड की गयी, बावजूद इसके हुक्का कभी बन्द नहीं हुआ। लेकिन जब इस हुक्के में दो गुटों में झड़प हुई और एक युवक का बेरहमी से मर्डर कर दिया गया, तब कहीं जाकर इस हुक्का पार्लर पर ताला लगा। मुम्बई में आज भी हुक्का पार्लर आबाद हैं, आज भी कुछ हुक्का पार्लर चोरी-छुपे नशा वाली ची•ों परोस रहे हैं।

ड्रग्स और बॉलीवुड

बॉलीवुड का ड्रग से रिश्ता पुराना है और किसी से छुपा नहीं है। बॉलीवुड सेलिब्रिटी अपने बेहद करीबी से ड्रग्स लेते हैं। ऐसा नहीं है कि बॉलीवुड से ताल्लुक रखने वाला हर शख्स नशे का अदि है लेकिन शोबिज की दुनिया के कुछ बड़े चेहरे अकेले में ही नहीं पार्टियों में भी मौका मिलते ही नशे का कश लगा लेते हैं।

बॉलीवुड एक्ट्रेस ममता कुलकर्णी और उसका हस्बैंड विक्की गोस्वामी ड्रग्स सिंडिकेट के सबसे बड़े मोहरे हैं, जो आज भी मुम्बई पुलिस फाइल्स में मोस्ट वांटेड हैं। कहा जाता है कि ममता कुलकर्णी और विक्की गोस्वामी बॉलीवुड में आज भी ड्रग्स के सबसे बड़े सप्लायर हैं। ममता कुलकर्णी, विक्की गोस्वामी के अलावा दूसरे ड्रग माफिया भी बॉलीवुड को ड्रग सप्लाई कर रहें हैं।

पुलिस इन्फॉर्मर अज़ीज़(बदला हुआ नाम) ने तहलका को बताया कि मुम्बई पर भले ही आज अंडरवल्र्ड का वर्चस्व कम हुआ हो; लेकिन पकड़ कम नहीं हुई है। अज़ीज़ के मुताबिक, डी-कम्पनी का डर आज भी बॉलीवुड पर है और आज भी डी-कम्पनी अपने लोगों की बदौलत बॉलीवुड में ड्रग पहुँचा रहा है। अज़ीज़ की माने तो, विक्की गोस्वामी और ममता कुलकर्णी का सिंडिकेट अंडरवल्र्ड के इशारे पर काम कर रहे हैं और बॉलीवुड में अपना माल दे रहा है।

एक्टर फरदीन खान ड्रग्स के साथ रंगे हाथ अरेस्ट कर लिया गया था। इसके अलावा एक्टर शक्ति कपूर के बेटा सिद्धांत कपूर को रेव पार्टी में नशा करते गिरफ्तार किया गया था।

बॉलीवुड  के कुछ बड़े सेलिब्रिटीज को ड्रग्स सप्लाई करने वाले आनंद (बदला हुआ नाम) ने तहलका को बताया कि दिन  काम करने वाले हीरो-हेरोइन अपनी बॉडी को एक्टिव रखने के लिए ड्रग्स का इस्तेमाल करती हैं। आनंद ने कुछ सेलिब्रिटीज का नाम लेते हुए दावा किया ,मैं इन लोगों को ‘बंबा’ सप्लाई करता हूँ। मैं चाहूँ तो इन लोगों का स्टिंग कर सकता हूँ, लेकिन इसके लिए मुझे बहुत बड़ी रकम देनी होगी) लेकिन उसने अमाउंट  खुलासा नहीं किया। वो बोला- ‘जब करना होगा, तब बताना; सब बताऊँगा।’

गौरतलब हो कि इसी साल जुलाई महीने में बॉलीवुड के कुछ बड़े सेलिब्रिटीज की एक प्राइवेट पार्टी का वीडियो जमकर वायरल हुआ था। यह वीडियो करण जौहर के घर में हुई एक प्राइवेट पार्टी का था, जिसमें एक्टर विक्की कौशल, वरुण धवन, अर्जुन कपूर, शाहिद कपूर, दीपिका पादुकोण, मलाइका अरोरा इत्यादि नशे में धुत्त दिखाई दिये थे। यह वीडियो करण जौहर ने ही अपलोड किया था। वीडियो वायरल होते ही सोशल मीडिया पर इन सेलिब्रिटीज के फैंस ने आड़े हाथ ले लिया था और लोगों ने ड्रग के

नशे ने धुत्त अपने हीरो-हीरोइन की जमकर आलोचना थी। यह बात दीगर है कि मसला बढऩे पर इन सेलिब्रिटीज ने उनके नशे की खबरों को गलत  करार दिया था। सोशल मीडिया पर यह वीडियो अब भी मौज़ूद है इस वीडियो को देखकर कोई भी कह सकता है कि जिस हालत में सेलिब्रिटीज दिखायी दे रहें हैं उन्होंने नशा किया हुआ है।

तहलका को मिली इनफॉर्मेशन के मुताबिक, बड़े स्टार्स के अलावा िफल्म इंडस्ट्री में स्ट्रगल कर रहे नौजवान लडक़े-लड़कियाँ भी बड़े पैमाने पर ड्रग्स का सेवन कर रहे हैं। ओशिवारा, लोखंडवाला, वर्सोवा यह वह एरिया है, जहाँ स्ट्रगलर्स रहना पसंद करते हैं। वह इसलिए कि िफल्म इंडस्ट्री से जुड़े तमाम बड़े डायरेक्टर्स-प्रोड्यूसर्स के ऑफिस इन्हीं एरिया में ही हैं। नशे करने वाले पेशे से िफल्म राइटर आदित्य (बदला हुआ नाम) ने तहलका से बात करते हुए अपना दर्द बयाँ किया कि वर्षों से इस इंडस्ट्री में हम मेहनत कर रहें हैं, बिहार से यहाँ आये थे कुछ बनने; लेकिन बेहतरीन राइटर होने के बाद भी काम नहीं मिला। क्या करते इतना टेंशन होता है कि यह (ड्रग की पूड़ी दीखते हुए) ही टेंशन दूर करती है। िफल्म इंडस्ट्री में आदित्य जैसे न जाने कितने होनहार हैं, जो कामयाबी नहीं मिलने की वजह से नशे के आदि हो गयी हैं। आदित्य के ही साथ मिली निशा (बदला हुआ नाम ), पाँच साल पहले निशा दिल्ली से मुम्बई आयी थी, सिल्वर स्क्रीन पर अपनी एक्टिंग का हुनर दिखाने। लेकिन उसे ऐसा काम नहीं मिला, जो वो सोचकर मुम्बई आयी थी। निशा ने एक काश खींचते हुए कहा कि क्राइम सीरियल में छोटे मोठे रोले मिले मुझे, मेरी एक्टिंग की सबने तारीफ भी की, लेकिन इस इंडस्ट्री में काम किसी को नहीं चाहिए सिर्फ लडक़ी की चमड़ी चाहिए। निशा ने आगे बताया कि मैंने वह भी किया, जिसका मैं विरोध करती थी। लेकिन काम फिर भी नहीं मिला, अब आप ही बताओ, यह नहीं करें, तो क्या करें? पखवाड़े पुलिस ने विवादों में रहने वाले और बिग-बॉस कंटेस्टेंट एक्टर एज़ाज़ खान को ड्रग्स के साथ गिरफ्तार किया था। पुलिस का दावा है कि बॉलीवुड पर भी उनकी नज़र है।

पार्टी ड्रग्स और रेव पार्टी

कानून  के कसते शिकंजे से बचने के लिए ड्रग्स माफिया अब अपने कस्टमर्स के लिए मुम्बई के आसपास के एरिया में आबाद पर्सनल बंगलो, रिसोर्ट में पार्टी अरेंज करता है। इस पार्टी को रेव पार्टी कहा जाता है। वैसे तो यह पार्टी आम पार्टी जैसी ही होती है, शराब-सबाब-सब कुछ मिलता है यहाँ; लेकिन जब इन पार्टियों में ड्रग्स का इस्तेमाल होता है, तब इसे रेव पार्टी कहा जाता है।

वैसे तो रेव पार्टी वर्षों से आयोजित होती आ रही हैं; लेकिन रेव पार्टी का पता पुलिस को सबसे पहले तब चला जब कि मुम्बई पुलिस ने 5 अक्टूबर, 2008 की रात पॉश जुहू एरिया के कुख्यात 72 डिग्री ईस्ट क्लब नामक डिस्को पर रेड की और 240 नौजवानों को नशा करते अरेस्ट किया था। अरेस्ट किये गये युवकों में एक्टर शक्ति कपूर का बेटा सिद्धांत कपूर भी शामिल था। पुलिस ने मौके से कोकीन, चरस के अलावा भारी मात्रा में एक्स्टैसी की टेबलेट और ड्रॉप्स बरामत किये थे। उस समय के डीसीपी विश्वास नांगरे पाटिल ने दावा किया था कि जप्त की गयी ड्रग्स की कीमत एक मिलियन रुपये है।

ऐसी एक रेव पार्टी पर 01 अगस्त, 2013 को पुणे की लोनावला पुलिस ने अपाती गाँव के एक प्राइवेट बंगले पर रेड की, यह बंगला मुम्बई के बिजनेसमैन गोल्डी चोपड़ा का था। पुलिस ने मुम्बई के 50 बड़े बिजनेसमैन और 12 बार लड़कियों को हिरासत में लिया। पुलिस को शराब की बोतलों के अलावा भारी मात्रा में ड्रग्स बरामद हुई। इस रेड से जुड़े एक पुलिस इन्फॉर्मर ने तहलका संवाददाता को बताया- ‘पहले तो पुलिस ऑफिसर्स को हमारी बात पर यकीन ही नहीं हुआ कि ऐसी कोई पार्टी भी होती है। लेकिन ड्रग माफिया के िखलाफ हमारी महीने की मेहनत रंग लायी।’

मुम्बई के कुछ इलाके प्राइवेट बंगलो से पटे पड़े हैं। तहलका को इनफार्मेशन मिल रही है कि न्यू ईयर सेलिब्रेट करने के लिए यह बंगले अभी से बुक कर दिये गये हैं। ड्रग माफिया अपने लोगों के जरिए बंगले बुक कर रहा है और अपने कस्टमर्स के लिए सभी सुविधाएँ यानी मनपसंद ड्रग्स बिना किसी प्रॉब्लम के पहुँचाने की प्लानिंग कर चुका है। ड्रग सिंडिकेट से जुड़े मुन्ना एयरपोर्ट (बदला हुआ नाम) ने बताया कि उसके कस्टमर्स ने अभी से बंगले भी बुक कर लिये हैं और डिमांड भी फिक्स कर दी है। मुन्ना ने बताया कि रेव पार्टी के लिए इस बार एमडी की डिमांड •यादा हैं।

गौरतलब हो कि मुम्बई पुलिस कि एंटी-नार्कोटिक्स सेल ने दो हफ्ते पहले एक गैंग से पर्पल कलर की 97 कैप्सूल बरामद की। डीसीपी शिवदीप लांडे ने दावा किया कि एक बार ड्रग सीज होने के बाद मीडिया में खबर आने के बाद ड्रग माफिया अलर्ट हो जाते हैं और अपना तरीका चेंज कर देेते हैं। डीसीपी शिवदीप लांडे ने यह भी बताया कि इस पार्टी ड्रग्स का नशा ऐसा होता है कि उसका सेवन करने बाद नशा सिर चढक़र बोलता है। सेवन करने वाला घंटों तक अपनी सुध-बुध खोकर नाचने गाने और एन्जॉय करने में ही बिजी रहता है, इसीलिए इसे पार्टी-ड्रग्स कहा जाता है।

ड्रग्स और नाइजेरियन

मुम्बई में ड्रग्स के धन्धे के सबसे बड़े खिलाड़ी नाइजीरियन मूल के लोग हैं। स्टडी वीजा पर मुम्बई आते हैं। पूरी प्लानिंग के तहत यह लोग मुम्बई और दूसरे शहरों में आते हैं और फिर पहले से ही यहाँ ड्रग्स का धन्धा कर रहे अपने लोगों के साथ इस काले कारोबार को फैलाने में लग जाते हैं। तहलका संवाददाता अपने इन्फॉर्मर के ज़रिये मुम्बई में ड्रग्स का धन्धा कर रहे नाइजीरियन माफिया तक पहुँच तो गये, लेकिन इन लोगों ने अपने धन्धे के बारे में बिलकुल भी बात नहीं की। इन्फॉर्मर रेहान (बदला हुआ नाम) ने बताया कि नाइजीरियन ड्रग पेडलर्स कभी साउथ मुम्बई, खासकर मस्जिद बंदर और आसपास के एरिया में ही बंबा का धन्धा करते थे; लेकिन पिछले 10 वर्षों में इनकी पॉपुलेशन भी तेज़ी से बढ़ी और इन लोगों ने तेज़ी से अपना धन्धा साउथ मुम्बई के अलावा मुम्बई सबर्ब, यहाँ तक कि मीरा रोड, वसई-नालासोपारा तक फैला दिया।

मुम्बई पुलिस इन नाइजीरियन माफिया पर नकेल कसने की कोशिश करता रहा है; लेकिन पुलिस को वह सक्सेस नहीं मिली, जो मिलनी चाहिए थी। मुम्बई क्राइम ब्राँच से जुड़े एक अधिकारी ने नाम नहीं लिखने की शर्त पर बताया कि पुलिस अपनी पूरी ताकत से इन ‘कल्लू’ लोगों पर एक्शन लेती है; लेकिन यह लोग हर मामले में पुलिस पर भारी पड़ते हैं। बॉडी में ताकत में यह लोग पुलिस से बहुत •यादा हैं, हम लोग इनका मुकाबला नहीं कर सकते।

इस अधिकारी ने आगे बताया कि पुलिस को देखते ही यह लोग हम पर अटैक करते हैं और जिस रफ्तार यह लोग भागते हैं, उस स्पीड से हम भागना हम सोच भी नहीं सकते।

ड्रग सिंडिकेट और पुलिस

ड्रग माफिया बहुत तेज़ी से मुम्बई को जकज़ रहा है। पुलिस द्वारा सीज की गयी विभिन प्रकार के ड्रग्स की खेप इस बात की तस्दीक करती है। ड्रग माफिया जिस तेज़ी से ड्रग मुम्बई भेज रहा है, पुलिस भी उतनी ही मुस्तैदी से माफिया पर नकेल कसने में लगी है। मुम्बई पुलिस के अलावा महाराष्ट्र एंटी टेररिज्म स्क्वॉड भी ड्रग माफिया से आज़ाद करवाने के मिशन में शिद्दत से लगा है। महाराष्ट्र एटीएस ने 6 दिसंबर, 2019 को मुम्बई के विलेपार्ले एरिया से दो लोगों को एमडी ड्रग्स के साथ गिरफ्तार किया और इनके पास से 14.3 किलो एमडी बरामत की। सीज की गयी ड्रग्स की कीमत 5.60 करोड़ रुपये बतायी गयी है। एटीएस का दावा है कि यह ड्रग्स न्यू ईयर के लिए मुम्बई में ड्रग्स का रिटेल धन्धा कर रहे लोगों तक पहुँचाना था। महाराष्ट्र एटीएस की नवी मुम्बई यूनिट ने सितम्बर, 2019 में पनवेल में चोरी छुपे चल रही एक लेबोरेटरी पकड़ी थी, जिसमें एमडी ड्रग्स बनाया जाता था और मुम्बई के ड्रग माफिया  को सप्लाई किया जाता था। एटीएस ने इस मामले में पाँच लोगों को अरेस्ट किया था और 51.6 करोड़ रुपये कीमत की 129 किलोग्राम दवा ज़ब्त की थी। प्रेस कॉन्फ्रेंस में एटीएस ने दावा किया था कि अरेस्ट किये गये लोग रेंट पर जगह लेते थे, लेबोरेटरी सेट करते थे उसके बाद दवा कम्पनियों से केमिकल खरीदते थे और मेफेड्रोन (एमडी) तैयार करते थे, जिसके लिए इन्होंने कुछ मज़दूर भी काम पर रखे थे। एटीएस के डीसीपी विक्रम देशमाने के मुताबिक, यह लोग 5-6 महीने में लेबोरेटरी की जगह बदल दिया करते थे। एटीएस ने इनके पास से 1.4 करोड़ रुपये भी बरामद किये थे और दावा किया था कि उन्होंने मुम्बई को ड्रग्स सप्लाई करने वाले एक बड़े अड्डे का शटर हमेशा के लिए गिरा दिया है। मुम्बई लोकल पुलिस और एंटी नारकोटिक्स सेल भी तेज़ी से ड्रग माफिया के िखलाफ ऑपरेशन चला रही है लेकिन बतौर एंटी नारकोटिक्स सेल के डीसीपी शिवदीप लांडे, न्यू ईयर आ रहा यह पुलिस के लिए चैलेंज होगा इसे कैसे क्रेकडाउन किया जा सके।

ड्रग्स यानी नशीले पदार्थ। इनकी अपनी रहस्यमय और खतरनाक दुनिया है, जहाँ पर ड्रग्स बनाने वाले से लेकर उसे जल, थल, वायु मार्ग से स्मगल करने वाला और अंत में उसे लेने वाला, छिपकर ही काम करता है जाँच एजेंसियों से की नज़रों से बचकर। ड्रग्स को उनके असली नामोंककी जगह उसे मार्केट में कोड वर्ड से पहचाना जाता है। कुछ ड्रग्स वनस्पति से पाये जाते हैं तो कुछ प्योर केमिकल हैं। कुछ ड्रग्स वनस्पति, केमिकल और दवाइयों का मिलाजुला खतरनाक रूप है। बाज़ार में मिलने वाले कुछ ड्रग्स और उनके कोड वर्ड :

मारिजुआना : बंबा, गांजा, पोर्ट, वीड, 420.

कोकीन : चिता, ब्लो, स्नो, डिस्को पाउडर।

एलएसडी : एसिड, बूमर, ब्लाटर, लूसी।

हेरोइन : ब्राउन शुगर, पाउडर, स्मैक, एच, ए हैज़ल।

जी एच बी : डीआरडी (डेट रेप ड्रग), फैंसी, जी रेफक, कैप्स, चरी मेथ्स।

एमडीएमए : एमडी, एक्सटसी, ई, मौली, हैप्पी पिल्स।

मेथ / मेथाएंफेटामाइन : आइस क्रैग, क्रिस्टल।

पीसीपी/फैंसी क्लेडिंन : पीपी, बेलाडोना रॉकेट फ्यूल, एंजल डस्ट, डस्ट।

एड्रिल : पेप, ऐडी, स्पीड, अपर।

केटामाइन : पर्पल, हनी के, विटामिन के, स्पेशल के, एसके, एचके।

मशरूम : बूमर, बटन, एमएम, मैजिक एम।

फेंटानिल : चाइना टाउन, टीएनटी, पॉइजन।

रूफी : पिंक, सर्कल, वुल्फी।

ऑक्सीकोडॉन: किकर ,ऑक्सी, ओसी, ऑक्सीकॉटन।

पेडलर, पुलिस एंड पॉलीटिशियंस का खतरनाक नक्सेस है गोवा में – वाल्मीकि नाईक नेता ‘आप’ गोवा

देखिए इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि कोई भी इंलीगल एक्टिविटीज या धन्धा बिना लोकल सपोर्ट के चल सकता है। मामला चाहे रशियन ड्रग माफिया का हो या नाइजीरियन का, यह बिजनेस बिना लोकल अथॉरिटी सपोर्ट के नहीं चल सकता। इन्हें पॉलीटिशियन की तरफ से प्रोटेक्शन मिलता है। अगर ऐसा नहीं होता तो इतने बड़े पैमाने पर यह धन्धा फल फूल नहीं सकता। यहाँ पर जो भी रेड्स होते हैं सिर्फ दिखाने के लिए कि एक्शन लिया जा रहा है। और यह बात बिलकुल सच है कि जितना माल जप्त बताया जाता है, उससे कई गुना •यादा पकड़ा जाता। मैं कहूँ तो गोवा में एक पीपीपी मॉडल है। पेडलर, पुलिस एंड पॉलीटिशियन यह नक्सेस यहाँ पर काम करता है और यहाँ की जनता को उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है।

इसमें हम किसी एक पार्टी को दोषी नहीं ठहरा सकते।

लेकिन अंत में कहानी खत्म होती है पैसों पर। और पैसों का कोई रंग नहीं होता। पैसा कोई भी दे कोई भी ले। पैसे का व्यवहार चलता रहता है। गोवा में काफी सरकारें बदल चुकी हैं। कांग्रेस की सत्ता रही है, अब बीजेपी की गवर्नमेंट चल रही है। यहाँ की लोकल पार्टी भी सत्ता में रही है; लेकिन ऐसा कभी भी नहीं हुआ कि ड्रग्स का कारोबार कम हुआ है। यह सिर्फ बढ़ता चला गया है।

गोवा का टूरिस्ट कोस्टल बेल्ट है करंगुट से अरंबोल तक जो फैला हुआ बेल्ट है, वहाँ पर सबसे •यादा अपनी पकड़ बनाये है।

अभी सबसे बड़ी भयंकर खबर यह है कि यह कारोबार अब टाउन में, सिटी में भी फैल रहा है।

एजुकेशनल इंस्टीट्यूट, स्कूल, कॉलेज तक। यंगस्टर और स्टूडेंट्स को भी टारगेट बनाया जा रहा है, जो बहुत खतरनाक है। ड्रग्स के ओवरडोज से मौत की भी खबरें आती रहती हैं।

गोवा में पॉलीटिशियंस और ड्रग्स माफिया के सम्बन्ध को लेकर खुलासे अकसर होते रहते हैं। लेकिन गम्भीर बात यह है कि इन खुलासों के बावजूद न तो इंवेस्टिगेशन किसी नतीजे पर पहुँचा है और न ही आज तक किसी को इन मामलों में पनिशमेंट मिला है।

कभी-कभी ऐसा लगता है ड्रग कार्टल्स पॉलिटिशन से •यादा पॉवरफुल हैं। उन्हें लाइफ थ्रेटस मिलती है। इन कर्टल से निपटने के लिए ऐसे लोगों की ज़रूरत जो इनसे भिड़ सके, निपट सके और खत्मकर सके। लेकिन यह सुनने में जितना आसान लगता है, उतना इंप्लिमेंट करने में आसान नहीं है। बहुत से पॉलीटिशियंस हैं, जो दिल से चाहते कि ड्रग माफिया के िखलाफ जंग लड़ें। लड़ भी रहे हैं, लेकिन उनको भी जब लाइफ थ्रेटस मिलती है, तो थोड़ा सा मामला गड़बड़ा जाता है।

ड्रग्स के खिलाफ लड़ाई जारी

इस बारे में नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (दक्षिण-पश्चिम कमान) के डिप्टी डायरेक्टर जनरल मुथा अशोक जैन से बातचीत करने पर उन्होंने ड्रग्स तस्करी के फैले जाल और उससे निपटने के बारे में तहलका संवाददाता को विस्तार से बताया। प्रस्तुत हैं कुछ अंश ड्रग्स के िखलाफ लड़ाई लडऩे के लिए दो महत्त्वपूर्ण पार्ट हैं। पहला है- सप्लाई रिडक्शन और दूसरा है- डिमांड रिडक्शन। सप्लाई रिडक्शन का मतलब है जड़ को उखाडऩा, कारोबारियों को पकडऩा, उनके नेटवर्क को ट्रेस कर उसे तो खत्म करना हमारी प्राथमिकता होती है। इस काम में इन्वेस्टिगेशन एजेंसी जैसे हम हैं नारकोटिक्स ब्यूरो, डीआरआई, पुलिस, एक्साइज डिपार्टमेंट और बहुत सारी जाँच एजेंसीज हैं, जो मिलकर काम करती हैं।

यह तो हो गया सप्लाई रिडक्शन, लेकिन उतनी ही ज़रूरी है डिमांड रिडक्शन। इसके लिए जागरूकता पैदा करना, काउंसलिंग करना, इलाज करना, रिहेबिलिटेट करना, जिससे डिमांड कम हो जाए। जब तक डिमांड है और पैसा है तब तक यह लोगों को आकर्षित करता रहता है। यह भी एक महत्त्वपूर्ण पहलू है इस कारोबार की कमर तोडऩे के लिए।

डिमांड रिडक्शन को मिनिस्ट्री ऑफ सोशल जस्टिस और मिनिस्ट्री ऑफ हेल्थ सँभालते हैं। सप्लाई रिडक्शन के फ्रंट पर देश की होम मिनिस्ट्री, स्टेट की पुलिस, एक्साइज और फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन मिलकर तैनात हैं। ड्रग्स भी कई प्रकार के होते हैं। कुछ होते हैं नेचुरल पारम्परिक ड्रग्स जैसे ओपियम, कैनबीज। सेमी सिंथेटिक जैसे हीरोइन, ओपियम से बनाया जाता है। लेकिन तैयार करने में केमिकल प्रोसेस का इस्तेमाल किया जाता है। कोकीन भी नेचुरल प्लांट से बनाया जाता है। मैंफेड्रोन, एलएसडी, एक्सटेसी जो पूरी तरह से सिंथेटिक है यानी केमिकल है। मार्केट में बहुत किस्म के ड्रग्स हैं। जो कई प्रकार के केमिकृस को मिलाकर बनाये जाते हैं और यह सोशल इकोनॉमिक प्रोफाइल को देखते हुए तैयार किये जाते हैं ।

आप देखेंगे कि जहाँ पर हीरोइन बिकती है, वहाँ पर कोकीन के खरीदार नहीं होते। पिछले कई दशकों में केमिकल ड्रग्स तेज़ी से अपनी मार्केट बना रहे हैं। उसकी वजह है इनकी कीमतों का कम होना और आसानी से उपलब्ध हो जाना। नये-नये केमिकल को मिलाकर इस तरह के। तैयार किए जाते हैं, जो •यादा असरदार होते हैं और नवीनता लिए भी होते हैं, इसलिए इन्हें ट्रेस कर पाना आसान नहीं होता यह बड़ा चैलेंज है

एक संस्था है इंडियन इंटरनेशनल नारकोटिक्स ब्यूरो, जो हर साल एक मीटिंग करती है और इसमें तय किया जाता है कि किस ड्रग को बैन किया जाए। उसे हर देश को फॉलो करना पड़ता है। और हम भी उन इस को फॉलो करते हैं। उदाहरण के तौर एक ड्रग है ट्रामाडोल कई देशों में बैन है। बेहतर शब्दों में कि कई देशों में इसकी बिक्री पर कंट्रोल है। हिंदुस्तान में आप बिना प्रिसक्रिप्शन से इसे मेडिकल स्टोर से नहीं खरीद सकते। लेकिन ऐसे भी कई देश है जहाँ पर इस पर बैन नहीं है। यह ड्रग्स के कारोबारी इस बात का फायदा उठाते हैं। जहाँ पर यह बहन नहीं है वहाँ से दवाइयाँ खरीद उसे ड्रग्स में तब्दील कर मार्केट में भेज देते हैं। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो भारत सरकार की अपैक्स एजेंसी है, जो कि ड्रग्स के मामले में हर प्रकार से डील करने के लिए अधिकृत हैं। हम ऑपरेशंस, पॉलिसी मेकिंग और अंतर्राष्ट्रीय तौर पर कोआर्डिनेशन करते हैं। अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसीज से हमारी बातचीत होती है। एक-दूसरे से इनपुट शेयर करते हैं, एक्शन लेते हैं। सभी संस्थाएँ मिलजुल अंतर्राष्ट्रीय तौर पर फैले गिरोह के साथ लड़ाई लड़ रही हैं।

सिर्फ गोवा, मुम्बई में ही नहीं बेंगलूरु, दिल्ली सारे देश में ही विदेशी गिरोह इस कारोबार में लिप्त हैं। उसमें से कई लोग हैं, जिनकी पासपोर्ट की अवधि खत्म हो गयी है या फिर जाली पासपोर्ट के सहारे वह अनधिकृत तौर पर रहते हैं। इस नशे के इस कारोबार में जो बदलाव आया है, वह यह है कि इस कारोबार का संचालन कोई एक शख्स नहीं करता। कोई एक मास्टरमाइंड नहीं है, जैसे की िफल्मों में दिखाया जाता है। दरअसल, इसके कारोबारी कुकुरमुत्तों की तरह उगते चले जा रहे हैं।

एक ही साथ पैरेलल तौर पर अलग अलग देशों में, देश के ही अलग-अलग जगहों पर यह कारोबारी अपना काम कर रहे हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन से जुड़े हुए लोग भी आपस में एक-दूसरे को नहीं पहचानते हैं। आपने एक गिरोह को पस्त कर भी दिया, तो दूसरा गिरोह आराम से अपना काम कर रहा होता है। इजी मनी के चक्कर में लोग इससे जुड़ जाते हैं। उन्हें पता नहीं चलता कि वह किस मकडज़ाल में फँसते जा रहे हैं। यहाँ पर मिनिमम सज़ा 10 साल की होती है और फाँसी तक की सज़ा का प्रावधान कई देशों में है।  एम्स की रिपोर्ट के अनुसार यूथ •यादा ड्रग्स की चपेट में आ रहे हैं। इसकी कई वजह है क्यूरोसिटी, पियर प्रेशर, डिप्रेशन, पढ़ाई का प्रेशर, पारिवारिक कलह आदि।  डिमांड रिडक्शन के तहत अवेयरनेस कैंपेन, स्पोट्र्स, आट्र्स ,हेल्थी एक्टिविटीज भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। पेरेंट्स, एजुकेशनल इंस्टीट्यूट और समाज को इनिशिएटिव लेना होगा इस गम्भीर मसले पर।

एनकाउंटर कितने सच्चे, कितने फर्ज़ी

तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में एक डॉक्टर से दुष्कर्म और बेरहमी से उसकी हत्या के चार आरोपियों के एनकाउंटर (मुठभेड़) में मारे जाने के बाद एक बार फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि देश में पुलिस की तरफ से किये जाने वाले एनकाउंटर कितने सच्चे होते हैं और कितने फर्ज़ी? पूर्व में भी इस तरह के कई एनकाउंटर सवालों के घेरे में रहे हैं। यहाँ इसके साथ ही एक बड़ा सवाल यह है कि क्यों इस तरह के एनकाउंटर हमारे देश में एक उत्सव के रूप में सामने आने लगे हैं? क्या न्याय में देरी ने हमें इतना अधीर कर दिया है कि न्याय की जगह बदले की माँग होने लगी है?

सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे का हैदराबाद एनकाउंटर के बाद यह बयान बहुत अहमियत रखता है कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि आपराधिक मामलों को निपटाने में लगने वाले समय को लेकर आपराधिक न्याय प्रणाली को अपनी स्थिति और दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करना चाहिए। लेकिन, मुझे नहीं लगता कि न्याय तुरन्त हो सकता है या होना चाहिए। न्याय कभी भी बदले की जगह नहीं ले सकता।

दुर्भाग्यवश हैदराबाद एनकाउंटर को कुछ इस तरह पेश किया गया मानो अपराध का बदला लिया गया हो। टीवी चैनलों की फ्लैश हेडलाइन तक कुछ ऐसी रहीं, मानो आरोपियों की अमानुषिकता का शिकार डॉक्टर को न्याय मिल गया हो। इस घटना और पूर्व की घटनाओं में न्याय की देरी से गुस्सा उठना स्वभाविक है; लेकिन न्याय की देहरी पर पहुँचने से पहले ही आरोपियों को गोलियों से उड़ा देने के बाद पुलिस पर फूलों की बारिश कर, उन्हें राखी बाँधकर इस घटना को एक उत्सव का रूप देने का समर्थन करके क्या हम न्याय को कमज़ोर करने की कोशिश नहीं कर रहे?

हद तो यह हुई कि देश के विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं और सांसदों तक ने बिना कुछ सोचे समझे एनकाउंटर का समर्थन कर दिया। यह भी नहीं देखा कि जिस पुलिस को एनकाउंटर करने के लिए महिमामंडित किया जा रहा है, उसकी लापरवाही भी डॉक्टर से रेप और उसकी निर्मम हत्या की •िाम्मेदार है। चार आरोपियों को नहीं सँभाल पाने और अपने हथियार छीनने देने का अवसर देने की भी •िाम्मेदार पुलिस है।

हैदराबाद की एनकाउंटर घटना के बाद देश के आम लोगों के बीच से समर्थन की जो प्रतिक्रिया आयी, वह स्वभाविक थी। निर्भया और उसके बाद असंख्य ऐसे मामले जिस तरह न्याय-अन्याय के झूले में झूलते रहे हैं, उससे ऐसा जन आक्रोश होना स्वभाविक है। लेकिन देश के •िाम्मेदार लोगों की तरफ से जैसी प्रतिक्रिया आयी, उसकी उम्मीद नहीं थी। बहुत ही खराब कारण देते हुए इस एनकाउंटर का औचित्य साबित करने की जैसी कोशिश हुई, उसे किसी भी सूरत में सही नहीं कहा जा सकता। न्याय के रास्ते को अस्वीकार कर झटपट न्याय हासिल करने के इस शॉर्टकट में बहुत खतरे छिपे हैं, जिन्हें समझना ज़रूरी है। देश में मॉब लिंचिंग की घटनाओं के भी ऐसे ही खतरे हैं। ऐसे ही खतरे जाति-धर्म के नाम पर प्रेमियों को पीटने और जान से मार देने में भी हैं। यह हमें अव्यवस्थित समाज की तरफ धकेल रहे हैं, इसे बहुत चिंताजनक कहा जाएगा।

हैदराबाद एनकाउंटर को लेकर बहुत से सवाल उठे हैं। यह भी कहा गया है कि इसके पीछे राजनीतिक कारण रहे हैं। घटनाएँ भी इस एनकाउंटर की ईमानदारी को लेकर सवाल उठाती हैं। कुछ गलियारों में तो यह भी कहा गया कि कहीं असली अपराधी कोई और तो नहीं, और जिन्हें एनकाउंटर बताकर मार दिया गया, वे निर्दोष थे?

मानवाधिकार संगठन पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने तो हैदराबाद एनकाउंटर को सुनियोजित हत्या का दर्जा दे दिया। संगठन ने सवाल किया कि सीन रीक्रिएट करने के लिए तडक़े 3:00 बजे का समय क्यों चुना गया?

पीयूसीएल ने यह भी सवाल किया कि सीन रीक्रिएट करने के दौरान क्या इनमें से किसी आरोपी ने पुलिस के लोगों पर फायरिंग की? कहा कि आिखर आरोपियों की तरफ से ऐसा क्या हुआ कि पुलिस को गोली चलानी पड़ी।

संगठन का कहना है कि सभी आरोपी सात दिन से पुलिस की हिरासत में थे। उनके पास हथियार नहीं होंगे। जैसा कि तरीका है आरोपियों के हाथ बाँधकर, चेहरा ढककर वहाँ लाया गया होगा। ऐसे में वे कैसे भाग सकते हैं? पुलिस को गोली चलानी पड़ी, तो गोली घुटनों के नीचे क्यों नहीं मारी गयी। उनको ऊपर गोली क्यों मारी गयी? पीयूसीएल ने आरोप लगाया कि यह प्लान्ड मर्डर है और पुलिस के िखलाफ एफआईआर दर्ज होनी चाहिए।

मानवाधिकार संगठन ही नहीं, बहुत-से राजनीतिक दलों और उनके नेताओं ने एनकाउंटर के औचित्य पर सवाल खड़े किये हैं। इनमें •यादातर का कहना था कि कानून के रास्ते से इन सभी को देर-सवेर फाँसी की सज़ा मिल ही जाती। मानवाधिकार के मामले में हमेशा आगे रहीं भाजपा सांसद मेनका गाँधी ने तो साफ कहा कि जो हुआ, बहुत भयानक हुआ है इस देश के लिए। मेनका ने मीडिया से बातचीत में कहा कि आप सिर्फ किसी को इसलिए नहीं मार सकते, क्योंकि आप ऐसा करना चाहते हैं। आप खुद ऐसे कानून हाथ में नहीं ले सकते। उन्हें आज या कल कोर्ट से मौत की सज़ा मिल ही जाती। अगर आप उनको पहले ही बंदूक से मार दोगे, तो फिर फायदा क्या है- अदालत का, पुलिस का, कानून का? फिर आप बंदूक उठाओ और जिसको भी मारना है मारो।

राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने कहा कि एनकाउंटर हमेशा ठीक नहीं होते हैं। इस मामले में पुलिस के दावे के मुताबिक, आरोपी बंदूक छीनकर भाग रहे थे। ऐसे में शायद उनका फैसला ठीक है। हमारी माँग थी कि आरोपियों को फाँसी की सज़ा मिले, लेकिन कानूनी प्रक्रिया के तहत। हम चाहते थे कि स्पीडी ट्रायल हो। पूरी कानूनी प्रक्रिया के तहत ही कार्रवाई होनी चाहिए। आज लोग एनकाउंटर से खुश हैं, लेकिन हमारा संविधान है, कानूनी प्रक्रिया है।

कांग्रेस नेता शशि थरूर ने ट्वीट किया- ‘मैं सिद्धांतों में विश्वास करता हूँ। हमें अभी और •यादा जानने की ज़रूरत है। मान लें अगर अपराधी हथियारबंद थे, तो पुलिस गोली चलाने की वजह जस्टिफाई कर सकती है। जब तक पूरी जानकारी नहीं आ जाती है, तब तक हमें आलोचना नहीं करना चाहिए। लेकिन इसके बिना एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल किलिंग नियमों से बँधे समाज में स्वीकार्य नहीं है।’

राजनीति में सबसे बड़ी दिक्कत यह होती है कि इसमें तथ्य से •यादा वोट की चिन्ता रहती है। इस बार भी ऐसा हुआ। बहुत से नेताओं ने जनता के मूड के हिसाब से बात की, न कि यह कि संविधान को ध्यान में रखकर। कुछ दलों ने तो संतुलन साधने की भी कोशिश की। यानी पक्ष विपक्ष वाले दोनों ही स्वार्थ साध लिये।

ऐसे में राजनीतिक दलों की सोच पर भी एक बड़ा सवाल खड़ा होता है। राजनीतिक दल ही सत्ता चलाते हैं। प्रशासन और पुलिस उनकी ही सरकारों के अधीन होती है। इसी पुलिस पर जब एनकाउंटर के नाम पर न्याय देने की कोशिशों पर सवाल उठेंगे, तो यह दल और सरकारें कैसे इन मामलों में नैतिकता दिखा पाएंगे? सत्ताधीश और विरोधी-दल ही मिलकर न्याय की बखिया उधेडऩे वाली घटना के लिए एकजुट हो जाएँ, तो उसमें उनसे •यादा क्या उम्मीद की जा सकती है?

एनकाउंटर में होने वाली हत्याओं को एकस्ट्रा-ज्यूडिशियल किलिंग की संज्ञा दी गयी है। सर्वोच्च न्यायलय ने साफतौर पर कहा है कि इसके लिए पुलिस से तय नियमों का पालन करना ज़रूरी हैे। एक मामले की सुनवाई के दौरान 23 सितंबर, 2014 को भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश आर.एम. लोढा और जस्टिस रोहिंग्टन फली नरीमन की बेंच ने एक फैसले के दौरान एनकाउंटर का •िाक्र करते हुए अपने फैसले में लिखा था कि पुलिस एनकाउंटर के दौरान हुई मौत की निष्पक्ष, प्रभावी और स्वतंत्र जाँच के लिए नियमों का पालन किया जाना चाहिए।

कोर्ट का साफ निर्देश है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-141 के तहत किसी भी तरह के एनकाउंटर में इन तमाम नियमों का पालन होना ज़रूरी है। अनुच्छेद 141 भारत के सर्वोच्च न्यायालय को कोई नियम या कानून बनाने की ताकत देता है।

यह तो इस एनकाउंटर के मामले की जाँच में सामने आ पाएगा कि इसमें उन नियमों का पालन हुआ या नहीं; लेकिन एनकाउंटर की घटनाओं को लेकर जिस तरह से सवाल उठे हैं, उससे यह आशंका जतायी जाती रही है कि लीपापोती की कोशिश हो सकती है।

उस फैसले में सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि फर्ज़ी एनकाउंटर के आरोपी पुलिस वालों को न तो बहादुरी से जुड़े पुरस्‍कार दिये जाएँ और न ही उन्‍हें तरक्की दी जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने एनकाउंटर के सन्दर्भ में पुलिस के लिए जो दिशा-निर्देश जारी किये हैं, उनमें मानवाधिकार संगठनों और आम लोगों के पुलिस पर फर्ज़ी मुठभेड़ के आरोपों के मद्देनजर रखकर किये गये हैं। वैसे सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा है कि राष्‍ट्रीय मानव‍ाधिकार आयोग को पुलिस एनकाउंटर से जुड़े हर केस में दखल नहीं देना चाहिए। अदालत के मुताबिक, आयोग तभी कोई कदम उठाये, जब एनकाउंटर के फर्ज़ी होने को लेकर पुख्‍ता आरोप हों।

एनकाउंटर पर सवाल हमेशा उठते रहे हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपनी जाँच रिपोर्ट में भोपाल की सेंट्रल जेल में कथित रूप से सिमी से जुड़े विचाराधीन कैदियों से साथ उत्पीडऩ की शिकायतों को काफी हद तक सही पाया और इसके लिए जेल स्टाफ के िखलाफ कानूनी कार्रवाई की अनुशंसा की। साल 2017 में भोपाल सेंट्रल जेल में सिमी से सम्बन्धित मामलों में आरोपी 21 विचारधीन कैदियों के परिवार वालों ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से शिकायत की थी कि जेल स्टाफ ने कैदियों का शारीरिक और मानसिक रूप से उत्पीडऩ किया। यह मामला 31 अक्टूबर, 2016 की रात भोपाल सेंट्रल जेल में बंद सिमी के आठ संदिग्धों के कथित रूप से जेल से भागने और फिर उनके एनकाउंटर से जुड़ा हुआ है। यह एनकाउंटर भी अपने पीछे कई गम्भीर सवाल छोड़ गया था।

हैदराबाद एनकाउंटर को लेकर सवाल इसलिए भी हैं, क्योंकि जिन चार लोगों को इसमें मारा गया वे आरोपी थे; दोषी नहीं। बहुत से लोगों का यह मानना है कि हो सकता है कि इनमें से कोई एक या •यादा दुष्कर्म या हत्या से जुड़ा ही न हो। ऐसे में उनका दोषी साबित हो जाने से पहले मारा जाना, न्याय को बाधित करता है।

हैदराबाद एनकाउंटर पर जितने भी सवाल उठे हैं, उन्हें पुलिस गलत बताती रही है। उसका कहना है कि पुलिस ने आरोपियों पर गोली तब चलायी, जब उन्होंने पुलिस से हथियार छीनकर उस पर हमला कर भागने की कोशिश की। पुलिस का कहना था कि डॉक्टर से रेप और उसकी निर्मम हत्या के बाद माहौल जैसा था, उसमें यदि आरोपी भाग जाते तो बवंडर खड़ा हो जाता। हो सकता है कि पुलिस की बात सच हो। और ऐसी परस्थितियां बनी हों। हमेशा पुलिस पर शक नहीं किया जा सकता। लेकिन हैदराबाद एनकाउंटर मामले में टाइमिंग और घटनाएं बहुत से संशय तो पैदा करती ही हैं, जिनका निराकरण ज़रूरी है। पूर्व में ऐसी घटनाएँ होती रही हैं, जिन पर सवाल उठे हैं।

लेकिन हैदराबाद एनकाउंटर का एक बड़ा सामजिक पहलू भी है, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। यह है त्वरित न्याय के लिए तमाम कानूनों को बाईपास करके थाली में रखा न्याय हासिल करना। इसे किसी भी रूप में स्वीकृति नहीं दी जा सकती। हाँ, यह ज़रूरी है कि न्याय-व्यवस्था में परिवर्तन किया जाए, जिससे न्याय समय पर उपलब्ध हो सके।

निर्भया मामला उदाहरण है कि फास्ट ट्रैक कोर्ट से छ: महीने में फैसला आ जाने के बाद सात साल बाद भी निर्भया और उनके परिवार को न्याय क्यों नहीं मिल पाया? क्यों उनके परिजन आज भी दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। निर्भया जैसे अनेक मामले देश में हैं, जो न्याय के इंतज़ार में थक-हार चुके हैं।

मानवाधिकार को लेकर वैसे भी भारत में कई सवाल उठते रहे हैं। पिछले साल में भारत का मानवाधिकार रिकॉर्ड खराब होता रहा है। नार्थ-ईस्ट से लेकर जम्मू-कश्मीर तक में कई घटनाओं पर गम्भीर सवाल उठे हैं। संयुक्त राष्ट्र के अपनाये मानवाधिकार सम्बन्धी घोषणा-पत्र में कहा गया था कि मानव के बुनियादी अधिकार किसी भी जाति, धर्म, लिंग, समुदाय, भाषा, समाज आदि से इतर होते हैं। रही बात मौलिक अधिकारों की, तो यह देश के संविधान में उल्लिखित अधिकार हैं। लेकिन कई घटनाएँ गबाह हैं कि इनका हनन होता रहा है।

हैदराबाद एनकाउंटर ने देश में नयी बहस को जन्म दे दिया है। त्वरित न्याय की यह मान क्यों आमजन में घर कर रही है। यह भी कि सत्ता-शासन इतने पंगु क्यों हो गये हैं कि लोग कानून को बेहिचक और बिना डर अपने हाथ में लेने लगे हैं। जिस गति से यह सब हो रहा है, उससे तो न्याय प्रणाली ही अप्रासांगिक हो जाएगी। फिर कोर्ट-कचहरी का क्या काम रह रह जाएगा। फिर तो खुद ही हाथ में हथियार लो और न्याय हासिल कर लो। ऐसे में इस सोच को खत्म करना ज़रूरी है कि हमें हाथों-हाथ न्याय मिल जाये छ: इसके लिए कानून को बलिबेदी पर चढ़ा दिया जाए। यह सोच देश में खतरनाक अव्यवस्था पैदा कर देगी, जिसके नतीजे बहुत ही भयावह होंगे।

हैदराबाद एनकाउंटर

सुप्रीम कोर्ट ने जाँच के लिए आयोग बनाया 

सर्वोच्च न्यायालय ने 12 दिसंबर को हैदराबाद एनकाउंटर के लिए एक आयोग का गठन किया है जो छ: महीने के भीतर सर्वोच्च अदालत को अपनी रिपोर्ट देगा। हैदराबाद एनकाउंटर के मामले में गुरुवार को सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई हुई। इसमें अदालत ने इस आयोग के गठन का फैसला सुनाया। इस आयोग में तीन सदस्य होंगे। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज बीएस सिरपुरकर इस आयोग के अध्यक्ष होंगे, जबकि इसमें बॉम्बे हाई कोर्ट की पूर्व जज रेखा बेलदोटा और सीबीआई के पूर्व निदेशक कार्तिकेयन भी होंगे। याद रहे हैदराबाद में एक डॉक्टर से रेप और उसकी निर्मम हत्या के चार आरोपियों को पुलिस जब घटनास्थल पर सीन री-क्रिएट करने ली गयी ही, तब पुलिस के अनुसार इन आरोपियों ने पुलिस के हथियार छीन लिए और हमला कर दिया। पुलिस के मुताबिक, सके बाद उनसे मुठभेड़ हुई, जिसमें यह चारों मारे गये। सर्वोच्च अदालत में 12 दिसंबर को हुई सुनवाई में चीफ जस्टिस एसए बोबडे की अध्यक्षता वाली खंडपीठ, जिसमें जस्टिस एस. अब्दुल नजीर और जस्टिस संजीव खन्ना भी हैं; ने यह फैसला दिया। इससे पहले पीठ ने कहा था कि हम इससे अवगत हैं कि इस मामले को तेलंगाना हाईकोर्ट देख रही है। लिहाज़ा हम सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज को मामले की जाँच के लिए नियुक्त कर सकते हैं। पीठ ने तीन जजों का आयोग गठित करने और छ: महीने में इसकी रिपोर्ट देने को कहा है।

 क्या कहती है तेलंगाना पुलिस

साइबराबाद के पुलिस कमिश्नर वीसी सज्जनार ने कहा कि 27-28 नवंबर की रात युवती के साथ दुष्कर्म हुआ और बाद में •िान्दा जला दिया गया। पहले आरोपियों ने युवती के साथ गैंगरेप किया, उसके बाद पेट्रोल डालकर जलाया। हमने इस मामले में चारों आरोपियों के िखलाफ ठोस सबूत इकट्ठे किये और बाद में उन्हें गिरफ्तार किया। हमें 10 दिन के लिए पुलिस कस्टडी मिली थी। इसके बाद 4 और 5 दिसंबर को हमने आरोपियों को पुलिस कस्टडी में लेने के बाद पूछताछ की। हमने आरोपियों का डीएनए टेस्ट भी किया है, ये सभी लोग कर्नाटक-तेलंगाना में कई मामलों में आरोपी थे। रिमांड के चौथे दिन हम उन्हें बाहर लेकर आये, उन्होंने हमें सबूत दिये। आज हम उन्हें आगे के सबूत इकट्ठा करने के लिए घटना स्थल लेकर आये थे। जब हम क्राइम सीन रीक्रिएट करने के लिए घटना स्थल पर पहुँचे थे। यह एनकाउंटर सुबह 5.30 से 6.15 बजे के बीच हुआ है। चार में से एक आरोपी ने पुलिस से पिस्तौल छीनी और फायरिंग शुरू कर दी, जबकि बाकी तीन रॉड-पत्थर लेकर खड़े हो गये। इसमें दो लोग घायल हुए थे। इसके बाद 15 पुलिसकॢमयों ने आरोपियों पर फायरिंग शुरू कर दी थी। चारों आरोपियों की मौत गोली लगने के कारण से ही हुई है। यह आरोपियों के साथ हमारी मुठभेड़ थी।

सुप्रीम कोर्ट में याचिका

तेलंगाना में पशु-चिकित्सक से दुष्कर्म और हत्या के 4 आरोपियों के एनकाउंटर पर सुप्रीम कोर्ट में 7 दिसंबर को याचिका दायर की गयी। इसमें एनकाउंटर में शामिल पुलिसकर्मियों के िखलाफ एफआईआर, जाँच और कार्रवाई की माँग की गयी। याचिकाकर्ता एडवोकेट जीएस मणि और प्रदीप कुमार यादव ने कहा है कि इस मामले में पुलिस ने 2014 की सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन का पालन नहीं किया।

उधर तेलंगाना हाईकोर्ट में 9 दिसंबर को हैदराबाद एनकाउंटर मामले की सुनवाई शुरू हुई है। कोर्ट के निर्देश के अनुसार, सामूहिक दुष्‍कर्म के सभी आरोपियों के शवों को संरक्षित करके रखा गया है। साइबराबाद पुलिस के िखलाफ एक शिकायत भी दर्ज करायी गयी कि 6 दिसंबर को 4 आरोपियों के िखलाफ पुलिस ने जो एनकाउंटर किया था, वो फर्ज़ी था। इधर तेलंगाना सरकार ने भी एनकाउंटर पर उठ सवालों के बाद मामले में स्पेशल इन्वेस्टिगेशन कमेटी (एसआईटी) का गठन कर दिया है।

एनकाउंटर, जिनका आज भी होता है •िाक्र

एनकाउंटर शब्द की उत्पत्ति

पहले यह बता दें, एनकाउंटर शब्द की उत्पत्ति कब हुई। अस्सी और नब्बे के दशक के बीच के वर्षों में मुम्बई में गैंगवार की बढ़ती वारदात पर अंकुश के लिए पुलिस की एक यूनिट गठित की गयी, जिसे एनकाउंटर स्क्वॉड का नाम दिया गया। गठन के बाद दाऊद इब्राहिम की डी-कम्पनी, अरुण गावली गैंग और अमर नाईक जैसे खतरनाक गैंग से निपटने की योजनाएँ बनीं। देश की जनता 11 जनवरी, 1982 में पहली बार एनकाउंटर शब्द से रू-ब-रू हुई। मुम्बई पुलिस के दो अफसरों राजा तांबट और इशाक बागवान ने कुख्यात अपराधी मान्या सुर्वे को मुम्बई के वडाला के एक एनकाउंटर में मार गिराया। मान्या सुर्वे उर्फ मनोहर अर्जुन सुर्वे के बारे में कहा जाता है कि उसे जिस हत्या में सज़ा हुई, उसमें उसका हाथ नहीं था। इसके बाद वह गैंगस्टर बन गया। उसके गैंग ने कई हत्याएँ कीं। िफल्म शूटआउट एट वडाला इसी एनकाउंटर की घटना पर आधारित थी, जिसमें एक्टर जॉन अब्राहम ने मान्या सुर्वे की भूमिका निभायी थी।

कनॉट प्लेस एनकाउंटर

यह 31 मार्च, 1997 की बात है। दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने कनॉट प्लेस इलाके में एक एनकाउंटर किया। उसके निशाने पर उत्तर प्रदेश के गैंगस्टर थे। उस समय एसीपी एसएस राठी के नेतृत्व में क्राइम टीम ने जिन लोगों को मारा वो कोई गैंगस्टर नहीं, अपितु हरियाणा के कारोबारी प्रदीप गोयल और जगजीत सिंह थे। उन्हें गोली मारकर ढेर कर दिया गया। हाल के दशकों की यह ऐसी बड़ी घटना थी, जिसने लोगों को फर्ज़ी एनकाउंटर शब्द से रू-ब-रू कराया। इस फर्ज़ी एनकाउंटर मामले की सुनवाई 16 वर्ष तक चली। फैसले में अदालत ने आरोपी पुलिस और अन्य अधिकारियों को दोषी मानते हुए उन पर कार्रवाई के निर्देश दिये थे।

इशरत जहाँ एनकाउंटर

देश-भर में जिस दूसरे एनकाउंटर ने सबका ध्यान अपनी तरफ खींचा, वह 2004 का है। इस एनकाउंटर में गुजरात पुलिस ने इशरत जहाँ के अलावा उसके दोस्त प्रनेश पिल्लई उर्फ जावेद शेख और दो पाकिस्तानी नागरिकों अमजदाली राना और जीशान जोहर को पुलिस ने मार दिया। बताया गया कि ये लोग आतंक में लिप्त थे। इशरत मामले में पूर्व आईपीएस अधिकारी डीजी वंजारा, पूर्व एसपी एनके अमीन, पूर्व डीएसपी तरुण बरोट समेत 7 लोगों को आरोपी बनाया गया। पूर्व डीजीपी पीपीपी पाण्डेय को बीते साल सीबीआई अदालत ने इस मामले में आरोपमुक्त कर दिया था। अक्टूबर, 2019 में इशरत की माँ शमीमा कौसर ने सीबीआई कोर्ट में कहा कि वो न्याय के इंतज़ार में थक चुकी हैं और आगे केस नहीं लडऩा चाहतीं।

सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर

26 मार्च, 2003 को गुजरात के गृहमंत्री रहे हरेन पंड्या की गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। हत्या और उसकी सा•िाश रचने का आरोप सोहराबुद्दीन शेख पर था। घटना के बाद से वह फरार था, जबकि उसका साथी शॉर्प शूटर तुलसी प्रजापति पकड़ा गया था। साल 2005 में अहमदाबाद में राजस्थान और गुजरात पुलिस ने ज्वाइंट ऑपरेशन में सोहराबुद्दीन शेख को मार गिराया। उधर, 2007 में अहमदाबाद पेशी पर ले जाते समय तुलसी को उसके साथी छुड़ाने आये। इस दौरान मुठभेड़ हुई, जिसमें प्रजापति मारा गया। इस मामले की आँच पुलिस के साथ भाजपा नेता अमित शाह, राजस्थान के तत्कालीन गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया, उद्यमी विमल पाटनी, गुजरात के राजकुमार पंडेर पर भी आयी थी।

दारासिंह एनकाउंटर

स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप (एसओजी, जयपुर) ने 23 अक्टूबर, 2006 को जयपुर में दारासिंह का एनकाउंटर किया था। दारा सिंह उर्फ दारिया राजस्थान के चुरू का रहने वाला था और उसके िखलाफ अपहरण, हत्या, लूट, शराब तस्करी और अवैध वसूली से जुड़े करीब 50 मामले दर्ज थे। दिलचस्प यह है कि उसके एनकाउंटर से एक हफ्ता पहले ही पुलिस ने उस पर 25 हज़ार रुपये का इनाम घोषित किया था। हालाँकि दारा सिंह की पत्नी सुशीला देवी ने एनकाउंटर को फर्ज़ी बताया और इसे हत्या करार दिया। सुशीला की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को जाँच सौंपी थी। सीबीआई ने 23 अप्रैल, 2010 को केस दर्ज कर जाँच शुरू की। इस मामले में उस समय मंत्री राजेन्द्र राठौड़, तत्कालीन एडीजी ए.के. जैन सहित 17 लोगों को आरोपी बनाया गया।

बटला हाउस एनकाउंटर

दिल्ली के करोल बाग, कनॉट प्लेस, इंडिया गेट और ग्रेटर कैलाश में 13 सितंबर, 2008 को सीरियल बम ब्लास्ट हुए। इनमें 26 लोग मारे गये और 133 घायल हो गये। दिल्ली पुलिस की जाँच में सामने आया कि ब्लास्ट के पीछे आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिद्दीन (आईएम) का हाथ था। धमाकों के बाद 19 सितंबर को दिल्ली पुलिस को जानकारी मिली कि आईएम के पाँच आतंकी बटला हाउस इलाके के एक मकान में छिपे हैं। दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा के नेतृत्व में टीम बटला हाउस भेजी। इसके बाद दोनों ओर से फायङ्क्षरग हुई। इंस्पेक्टर मोहन को दो गोलियाँ लगीं और बाद में अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गयी। हवलदार बलवंत के हाथ में गोली लगी। इस एनकाउंटर में आतिफ अमीन और सा•िाद की मौत हुई और दो को पकड़ लिया गया, जबकि आरिज़ और शहजाद भाग निकले।

वारंगल एनकाउंटर

हैदराबाद रेप-मर्डर मामले के आरोपियों को एनकाउंटर में मारने वाले पुलिस कमिश्नर वीजे सज्जनार 2008 में चर्चा में आये थे, जब वे वारंगल के एसपी थे। दिसंबर 2008 में एक महिला पर एसिड अटैक हुआ। पुलिस के मुताबिक, जब वह आरोपियों को गिरफ्तार कर जब घटनास्थल पर ले जा रही थी, तो उन्होंने भागने की कोशिश की। इसके बाद हुए एनकाउंटर में वे मार दिये गये।

सिमी सदस्यों का एनकाउंटर

भोपाल की सेंट्रल जेल से 30-31 अक्टूबर, 2016 की आधी रात भागे 8 स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) आतंकियों को एक पहाड़ी पर घेरकर पुलिस ने एनकाउंटर में मार दिया। पुलिस का दावा था कि जेल से भागते हुए इन आतंकियों ने एक सुरक्षा गार्ड की गला रेतकर हत्या कर दी थी। यह लोग चादर की रस्सी बनाकर भागे थे। इन आंतकियों को पुलिस ने ईंटखेड़ी के पास घेर लिया। पुलिस के मुताबिक, दोनों तरफ से गोलीबारी में सभी फरार कैदियों को मार गिराया गया।

आनंद पाल एनकाउंटर

2017 में राजस्थान के सालासर में गैंगस्टर आनंद पाल का एनकाउंटर किया गया। मुठभेड़ के दौरान आनंदपाल और उसके दो साथियों ने एके-47 समेत अन्य हथियारों से पुलिस पर करीब 100 राउंड फायर किये। आनंदपाल को 6 गोलियाँ लगीं। इस मुठभेड़ में दो पुलिसकर्मी भी घायल हुए। आनंदपाल सिंह इससे पहले पुलिस की सुरक्षा को चकमा देकर भाग निकला था।

चर्चित एनकाउंटर स्पेशलिस्ट

देश में सबसे •यादा एनकाउंटर करने का रिकार्ड महाराष्ट्र पुलिस के अधिकारी प्रदीप शर्मा के नाम है। नब्बे के दशक में जब मुम्बई में आये-दिन गैंगवार होते थे, तब प्रदीप शर्मा ने 104 एनकाउंटर किये। साल 2010 में उन्हें निलंबित कर दिया गया और दोबारा सेवा ज्वॉइन करने के कई पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षण देकर एनकाउंटर स्पेशलिस्ट बनाया। अब वे पुलिस सेवा छोडक़र शिवसेना में शामिल हो गये हैं। साल 1995 में मुंबई पुलिस ज्वॉइन करने वाले दया नायक भी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट माने जाते हैं। वे अब तक 80 एनकाउंटर कर चुके हैं। विजय सालस्कर भी महाराष्ट्र पुलिस से थे, जो 26 नवंबर को मुंबई आतंकी हमले में शहीद हो गये। अपने सेवाकाल में उन्होंने 83 एनकाउंटर किये। छोटा शकील एनकाउंटर से चर्चा में आये प्रफुल भोसले भी मुम्बई पुलिस से हैं। उनके नाम 84 एनकाउंटर हैं। सचिन हिंदुराव वाजे महाराष्ट्र पुलिस से हैं और 63 एनकाउंटर कर चुके हैं। कानपुर के एसएसपी अनंद देव 2006 में आईपीएस अधिकारी बने। चंबल में एनकाउंटर के लिए मशहूर रहे देव के खाते में आधिकारिक तौर पर 60 एनकाउंटर दर्ज हैं। इनके अलावा राजेश कुमार पांडेय, दीपक कुमार, राजबीर सिंह भी एनकाउंटर्स के लिए जाने जाने वाले पुलिस अधिकारी हैं।

सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश

खुफिया गतिविधियों की सूचना लिखित या इलेक्ट्रॉनिक तरीके से आंशिक रूप में ही सही पर रिकॉर्ड अवश्य की जानी चाहिए। यदि सूचना के आधार पर पुलिस एनकाउंटर के दौरान हथियारों (असलहे) का इस्तेमाल करती है और संदिग्ध की मौत हो जाती है, तो आपराधिक जाँच के लिए एफआईआर अवश्य दर्ज हो। एनकाउंटर के तुरन्त बाद पुलिसकर्मियों को अपने असलहे जमा करवाने होंगे। ऐसी मौतों की जाँच एक स्वतंत्र सीआईडी टीम करे, जो आठ पहलुओं पर जाँच करे। एनकाउंटर के बाद सीआरपीसी के सेक्‍शन 176 के तहत तुरन्त मजिस्‍ट्रेट स्‍तर की जाँच शुरू हो। एनकाउंटर में हुई मौत के सम्बन्ध में तत्काल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या राज्य आयोग को सूचित किया जाए। पीडि़त घायल या अपराधी को मेडिकल सुविधा मिले और मजिस्ट्रेट उसके बयान दर्ज करे। एफआईआर और पुलिस रोजनामचे को बिना देरी कोर्ट में पेश करे। ट्रायल उचित हो और शीघ्रता से हो। अपराधी की मौत पर रिश्तेदारों को सूचित करें। एनकाउंटरों में हुई मौत का द्वि-वार्षिक विवरण सही तिथि और फॉर्मेट में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्य आयोग को भेजा जाए। अनुचित एनकाउंटर में दोषी पाये गये पुलिसकर्मी का निलंबन हो उन पर कार्रवाई हो। एनकाउंटर में मृतक के सम्बन्धियों के लिए सीआरपीसी के अंतर्गत दी गयी मुआवज़ा योजना अपनायी जाए। पुलिस अधिकारी को जाँच के लिए अपने हथियार सौंपने होंगे। दोषी पुलिस अधिकारी के परिवार को सूचना दें और वकील और काउंसलर मुहैया कराएँ। एनकाउंटर में हुई मौत में शामिल पुलिस अधिकारियों को वीरता पुरस्कार नहीं दिये जाएँ। इन दिशा-निर्देशों का पालन नहीं हो रहा हो, तो पीडि़त सत्र न्यायाधीश से इसकी शिकायत कर सकता है।

उत्तर प्रदेश : तीन साल, 3600 एनकाउंटर

इस साल जून में आधिकारिक रूप से यह आँकड़ा सामने आया था कि उत्तर प्रदेश में योगी सरकार आने के बाद ढाई साल में 3,599 एनकाउंटर हुए और इनमें 73 अपराधी/आरोपी ढेर किये गये। इस दौरान चार पुलिसकर्मियों की भी जान गयी। इस दौरान पुलिस ने 8,251 अपराधी गिरफ्तार किये गये, जबकि 1059 अपराधी/आरोपी एनकाउंटर में घायल हुए। अब सरकार को बने तीन साल के करीब हो गये हैं, तो यह आँकड़ा निश्चित ही और भी •यादा हुआ होगा। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, पुलिस के ‘ऑपरेशन क्लीन’ से पैदा हुई दहशत के चलते 13,866 अपराधी/आरोपी जमानत रद्द करवाकर जेल चले गये। करीब 13,602 आरोपियों के िकलाफ गैंगस्टर एक्‍ट के तहत कार्रवाई हुई। हो सकता है कि यह आँकड़े देखने में जनहित में दिखें कि शायद इनसे जनता को राहत मिली होगी। लेकिन किसी ने यह ध्यान नहीं दिया कि इतने गैंग और अपराधी कैसे पैदा हो गये? इसमें पुलिस की कितनी बड़ी नाकामी छिपी है। अपराधियों को राजनीतिक/पुलिस संरक्षण के सैकड़ों आरोप लगते रहे हैं।

वर्तमान शिवसेना नेता और मुम्बई के पूर्व पुलिस अफसर एनकाउंटर स्पेशलिस्ट प्रदीप शर्मा से एनकाउंटर मामले पर तहलका संवाददाता ने बातचीत की। प्रदीप शर्मा ने पुलिस की एनकाउंटर की मजबूरियों, आवश्यकताओं और हालात के बारे में बताने के साथ-साथ ट्रिपल एस यानी सेल्फ डिफेंस, सेक्स एजुकेशन, सुपर जजमेंट सिस्टम से भी क्राइम करने के बारे में बताया।

क्या सेल्फ डिफेंस से लड़कियाँ सुरक्षित रहेंगी? न्याय में तत्परता भी तो ज़रूरी है?

सेल्फ डिफेंस लड़कियाँ विपरीत परिस्थिति में खुद को बचाने में कामयाब होंगी। सेक्स एजुकेशन से छोटी बच्चियों को भी समझ में आ जाएगा कि उनको छूने वाले की मंशा क्या है? और सुपर जजमेंट सिस्टम के तहत रैपस्टो को फास्ट ट्रैक कोर्ट के जरिए कठोर सज़ा मिलेगी। फाँसी जैसी सज़ा से अपराधियों में खौफ पैदा होगा ।

एनकाउंटर का कानून में भी कोई प्रावधान है?

कानून में कोई प्रावधान नहीं है कि एनकाउंटर करो। यह तो एक एक्सीडेंट है, जो अचानक होता है। यदि 100 सीपीआरसी का प्रोटेक्शन है पुलिस को और ऐसे में उन पर कोई अटैक करता है, तो पुलिस सेल्फ डिफेंस में फायर करती है। कोई भी इसका अनुमोदन नहीं करेगा। लेकिन जो कुछ हम लोगों ने टीवी पर देखा, उससे तो यही लगा कि जवाबी फायर में वे लोग मारे गये। एक कॉन्स्टेबल और एक सब इंस्पेक्टर भी घायल हुए हैं। वैसे भी हर एनकाउंटर की एक जुडिशल इंक्वायरी होती है। जो कुछ हुआ हम उसका सपोर्ट नहीं कर सकते; लेकिन जो भी पुलिस ने किया वह कानून के दायरे में रहकर किया। लेकिन यह भी सच है। क्योंकि हम घटनास्थल पर नहीं गये हैं; न हमने कोई इंक्वायरी की है, तो हम किसी डिसीजन पर नहीं पहुँच सकते कि वह एनकाउंटर फेक था या कुछ और बात थी। दूसरी बात यह है कि यदि अपने प्रोटेक्शन में पुलिस फायर नहीं करती, तो पुलिस ऑफिसर एनकाउंटर में शहीद हो जाते और आरोपी भाग जाते। वह कंडीशन खराब हो जाती। लोग कहते हैं कि देखो पुलिस के हाथ से अपराधी भाग गये। इससे पुलिस की क्षमता पर संदेह होता किया जाता।

एनकाउंटर के अलावा कोई दूसरा रास्ता है अपराध रोकने का?

महामहिम राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी पोस्को के तहत कनविक्ट अपराधियों को मर्सी पिटिशन न देने की बात कही है। वहीं उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने भी त्वरित न्याय की बात कही है। इधर, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने ऐसे मामलों में जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाने की बात कही है। उम्मीद है कि न्याय प्रक्रिया में तेज़ी आयेगी।

पुलिस अधिकारियों को दी गयी उनकी सलाह काबिल-ए-गौर है। उन्होंने कहा कि पुलिस को शक्ति का उपयोग केवल तब करना चाहिए, जब बहुत आवश्यक हो। कभी-कभी आम नागरिक भी उचित माँग करने के लिए अहिंसक तरीके से सडक़ों पर उतरते हैं। उस समय सामने आये गम्भीर अपराधों को छोडक़र पुलिस को संयम बरतना चाहिए।

एनकाउंटर हमेशा ठीक नहीं होते हैं। इस मामले में पुलिस के दावे के मुताबिक आरोपी बंदूक छीनकर भाग रहे थे। ऐसे में शायद उनका फैसला ठीक है। हमारी माँग थी कि आरोपियों को फाँसी की सज़ा मिले, लेकिन कानूनी प्रक्रिया के तहत। हम चाहते थे कि स्पीडी जस्टिस हो। पूरी कानूनी प्रक्रिया के तहत ही कार्रवाई होनी चाहिए। आज लोग एनकाउंटर से खुश हैं। लेकिन हमारा संविधान है, कानूनी प्रक्रिया है।

रेखा शर्मा

अध्यक्ष, राष्ट्रीय महिला आयोग

वहाँ जो भी हुआ है, वह बहुत भयानक हुआ इस देश के लिए। क्योंकि आप कानून को हाथ में नहीं ले सकते हैं। वैसे भी उनको फाँसी मिलती। अगर आप उनको पहले ही बंदूक से मार दोगे, तो फिर फायदा क्या है, अदालत का, पुलिस का, कानून का। फिर तो आप बंदूक उठाओ और जिसको भी मारना है, मारो!

मेनका गाँधी

भाजपा सांसद

हैदराबाद की घटना से लोगों में संतोष और खुशी है। यह चिन्ता का विषय है कि देश की कानून-व्यवस्था से लोगों का विश्वास टूट चुका है। हम सबको मिलकर हमारी कानून-व्यवस्था और जाँच प्रणाली को मज़बूत करना होगा, ताकि लोग दोबारा इस व्यवस्था पर विश्वास करने लगें और हर पीडि़त को जल्द न्याय मिलेे।

अरविन्द केजरीवाल

मुख्यमंत्री, दिल्ली

मेरी पार्टी के लोगों को भी हमने जेल भेजा था, जिन पर किसी तरह के आरोप लगे थे। मेरा उत्तर प्रदेश की सरकार से कहना है कि हैदराबाद की पुलिस से यूपी पुलिस को सीख लेनी चाहिए और अपराधियों के िखलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए।

मायावती

बसपा प्रमुख

देर आए दुरुस्त आए।

जया बच्चन

सपा सांसद

मैं सिद्धांतों में विश्वास करता हूँ। हमें अभी और •यादा जानने की ज़रूरत है। अगर मान लें कि अपराधी हथियारबंद थे, तो पुलिस गोली चलाने की वजह जस्टिफाई कर सकती थी। जब तक पूरी जानकारी नहीं आ जाती है, तब तक हमें आलोचना नहीं करना चाहिए। लेकिन इसके बिना एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल किलिंग नियमों से बँधे समाज में स्वीकार्य नहीं है।

शशि थरूर

कांग्रेस सांसद

हैदराबाद में दङ्क्षरदों को अपने पाप की सज़ा मिली। सभ्य समाज मे ऐसे पापियों के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। मातृशक्ति की सुरक्षा सर्वोपरि है।

ज्योतिरादित्य सिंधिया

कांग्रेस नेता एवं सांसद