Home Blog Page 947

नागरिकता संशोधन कानून पर देश भर में बवाल

नागरिकता संशोधन कानून, 2019 के िखलाफ जैसे ही दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों पर पुलिस बर्बरता की घटना हुई, देश भर के छात्र इसके विरोध में सडक़ों पर उतर आये। पीडि़त छात्रों के समर्थन में अन्य छात्र भी सडक़ों पर उतर आये। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, केरल, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक से लेकर पश्चिम बंगाल तक विरोध-प्रदर्शन हुए हैं। जबसे नागरिकता संशोधन विधेयक, 2019 संसद में पेश होकर पास हुआ है, असम और पूरा पूर्वोत्तर हिंसा भरे विरोध-प्रदर्शनों की जकड़ में है। इसके बाद यह हिंसा भरे विरोध-प्रदर्शन असम और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तक देखने को मिले हैं।

दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पुलिस की कार्रवाई और नागरिकता संशोधन कानून, जिसे वे असंवैधानिक और क्रूर कानून के रूप में परिभाषित करते हैं;  के िखलाफ गुस्सा देश के कई हिस्सों में फैल गया और इसे राजनीतिक दलों और समाज के कई वर्र्गों का समर्थन हासिल हो गया। दिल्ली का इंडिया गेट एक बार फिर प्रदर्शनों का केन्द्र बन गया है, जहाँ लोग जुटकर समाज को बाँटने वाले इस कानून के िखलाफ मुखर विरोध कर रहा है। लोकपाल और निर्भया मामले के बाद अब इस कानून के िखलाफ राज्यों और राजधानी में विरोध-प्रदर्शन बढ़े हैं।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 17 दिसंबर को छात्रों की गिरफ्तारी पर रोक और सीएए के िखलाफ जामिया मिल्लिया  इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय  में छात्र आंदोलन पर पुलिस कार्रवाई की न्यायिक जाँच को लेकर दािखल याचिकाओं को स्वीकार करने इन्कार कर दिया और याचिकाकर्ताओं से कहा कि वे हिंसा की घटना वाले क्षेत्रों के सम्बन्धित उच्च न्यायालयों में जाएँ।

कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) ने एक बयान जारी करके कहा कि जामिया मिल्लिया  के छात्रों के िखलाफ जो पुलिस हिंसा की अपराधी है, उसके िखलाफ कड़ी कार्रवाई की ज़रूरत है। पुलिस के िखलाफ कार्रवाई की माँग को लेकर हज़ारों छात्र सडक़ों पर लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं। छात्र जामिया मिल्लिया  की लाइब्रेरी में विश्वविद्यालय प्रशासन की मंज़ूरी के बिना घुसकर पुलिस द्वारा आँसू गैस इस्तेमाल करने और लाठीचार्ज करने को लेकर जाँच की माँग कर रहे हैं। देश भर के छात्र पुलिस की इस बर्बरता के िखलाफ भडक़े हुए हैं।

इसके बाद दिल्ली के सीलमपुर में भी 17 दिसंबर को नागरिकता संशोधन कानून के िखलाफ विरोध-प्रदर्शन हुए और फिर हिंसा भी भडक़ी। हालाँकि जल्द ही इस पर काबू पा लिया। इस दौरान प्रदर्शनकारी पुलिस से भिड़ गये थे। कई जगह पत्थरबाज़ी को देखते हुए पुलिस ने उन्हें खदेडऩे के लिए आँसू गैस का इस्तेमाल किया। इन विरोध-प्रदर्शनों के दौरान दिल्ली के सीलमपुर में एक पुलिस स्टेशन क्षतिग्रस्त हुआ। दिल्ली पुलिस ने कहा कि शुरुआत में विरोध-प्रदर्शन शान्तिपूर्ण था; लेकिन जब लोग वहाँ से हट रहे थे, तभी अचानक हिंसा भडक़ गयी।

वहीं, झारखंड में 17 दिसंबर को ही एक चुनाव रैली को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आरोप लगाया कि कांग्रेस राजनीतिक कारणों से मुस्लिमों को नागरिकता संशोधन कानून के िखलाफ उकसा रही है। उन्होंने दोहराया कि यह कानून किसी भी धर्म से ताल्लुक रखने वाले  देश के नागरिकों को प्रभावित नहीं करता है। उन्होंने हिंसा को दुर्भाग्यपूर्ण और बहुत निराशानजक करार दिया। विपक्ष पर हमला करते हुए उन्होंने आरोप लगाया कि कुछ दल छात्रों को उकसा रहे हैं और उन्हें अपने तुच्छ राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।

केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने आरोप लगाया कि विपक्ष नागरिकता संशोधन कानून को लेकर देश की जनता को गुमराह कर रहा है। पूरा विपक्ष देश के लोगों को गुमराह कर रहा है। मैं दोहराना चाहता हूँ कि किसी भी अल्पसंख्यक की नागरिकता वापस लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता। बिल में इस तरह का कोई प्रावधान नहीं है। उन्होंने कहा कि वे कहना चाहते हैं कि कांग्रेस, जो नेहरू-लियाकत समझौते का हिस्सा थी; ने इसे 70 साल तक लागू ही नहीं किया। क्योंकि वह एक वोट बैंक बनाना चाहती थी। हमारी सरकार ने समझौते को लागू किया है और लाखों लोगों को नागरिकता प्रदान की है।

दूसरी ओर एनडीए सरकार के सहयोगी दल विरोधी बन चुके हैं। इन दलों की तरफ से ही सरकार इस मामले में विरोध सह रही है। शिवसेना के प्रमुख और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, जिन्होंने पहले नागरिकता विधेयक पर सहमति जतायी थी; ने जामिया में छात्रों पर पुलिस बर्बरता घटना की निंदा करते हुए इसकी तुलना जलियांवाला बाग से करके भाजपा को बड़ा झटका दिया है।

कानून और जामिया की घटना के िखलाफ देशव्यापी प्रदर्शनों के बीच कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के नेतृत्व में विपक्ष के कई नेता 17 दिसंबर को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मिले। उन्होंने राष्ट्रपति से आग्रह किया कि वे देश के संविधान को बचाने के लिए कदम उठाएँ और सरकार को सलाह दें कि वह यह कानून वापस ले। उन्होंने यह भी माँग की कि एक कमीशन का गठन करके तमाम घटनाओं की जाँच करवायी जाए, ताकि दोषी लोगों के िखलाफ कार्रवाई हो सके।

विपक्ष के राष्ट्रपति को दिये ज्ञापन में कहा गया है कि यह जानना ज़रूरी है कि नागरिकों की इतनी क्षमता नहीं है कि सत्ता को चुनौती दे सकें। वे शान्तिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन करके ही अपना विरोध दर्ज करवा सकते हैं। यदि उनका यह अधिकार भी इस तरीके से कुचलने की कोशिश की जाती है, तो देश का लोकतंत्र नष्ट करने वाली बात होगी। प्रतिनिधिमण्डल ने राष्ट्रपति से आग्रह किया कि वे यह सुनिश्चित किया जाए कि भारत सरकार सत्ता की ताकत से देश के संघीय ढाँचे को तहस नहस न करे।

इस ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने वालों में सोनिया गाँधी, ए.के. एंटनी, गुलाम नबी आज़ाद, अहमद पटेल, आनंद शर्मा, कपिल सिब्बल, जय राम रमेश (सभी कांग्रेस), टीआर बालू (डीएमके), डेरेक ओ ब्रायन (टीएमसी), राम गोपाल यादव और जावेद अली खान  (सपा),  सीताराम येचुरी (माकपा), डी. राजा (भाकपा), शरद यादव (एलजेडी), प्रो. मनोज झा (आरजेडी), मोहम्मद बशीर (आईयूएमएल), जस्टिस हसनैन मसूदी (जेकेएनसी), सरजुद्दीन अज़मल (एआइयूडीएफ) और शत्रुजीत सिंह (आरएसपी) शामिल हैं।

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने कहा कि पूर्वोत्तर की स्थिति, जो अब राष्ट्रीय राजधानी सहित देश भर में दिख रही है; बहुत गम्भीर है और हमें भय है कि आने वाले समय में यह •यादा फैल सकती है। हम इस बात से खफा हैं कि जिस तरह पुलिस ने जामिया में जबरन प्रवेश किया और छात्र-छात्राओं को हॉस्टल से बाहर खींचा और उनकी निर्ममता से पिटाई की, वह बिलकुल भी जायज़ नहीं है। आप सभी ने देखा है कि कैसे मोदी सरकार कानून लागू करने के लिए जनता की आवाज़ दबाने में ज़रा भी नहीं हिचक रही।

इससे पहले कांग्रेस के नेताओं गुलाम नबी आज़ाद, कपिल सिब्बल, सीताराम येचुरी (माकपा), डी राजा (भाकपा), मनोज झा (आरजेडी), जावेद अली खान (सपा) और शरद यादव ने जामिया में सीएए के िखलाफ छात्रों पर पुलिस कार्रवाई की घटना की कड़ी निन्दा की। आज़ाद ने साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि पुलिस कैसे एक विश्वविद्यालय में बिना उसकी मंज़ूरी के प्रवेश कर सकती है और छात्रों पर ऐसा ज़ुल्म कर सकती है। जामिया में पुलिस की छात्रों पर बर्बरता की न्यायिक जाँच होनी चाहिए।

इस मामले की न्यायिक जाँच की माँग करते हुए बसपा प्रमुख मायावती ने ट्वीट करके सभी समुदायों से अपील की है कि वे शान्ति बनाये रखें। जामिया और बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में नागरिकता कानून के िखलाफ छात्रों के विरोध-प्रदर्शन जहाँ मासूम छात्रों और आम लोगों को निशाना बनाये जाने की घटना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। बसपा इसके शिकार लोगों के साथ खड़ी है।

उधर, समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव के परिवार में उभरे मतभेदों को खत्म करने की काफी कोशिशों के बाद भी अभी कोई हल नहीं निकला है। हालाँकि, नागरिकता कानून का सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव विरोध कर रहे हैं; जबकि मुलायम सिंह की छोटी बहू अपर्णा यादव एनआरसी का समर्थन कर रही हैं। अपर्णा यादव ने ट्वीट करके कहा है कि इसमें क्या गलत है कि जो देश के नागरिक हैं, उनका नाम रजिस्टर में पंजीकृत हो। सपा ने सरकार से आग्रह किया कि वह संसद का विशेष सत्र बुलाये, ताकि उसमें संशोधन करके यह सुनिश्चित किया जा सके कि किसी तरह का भेदभाव न हो सके।

समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने जामिया में छात्रों की पिटाई के बाद ट्वीट किया कि भाजपा सरकार ने एक खतरनाक कानून के ज़रिये देश को दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है। उन्होंने आरोप लगाया कि देश ने इससे पहले कभी भी भाजपा जैसी सत्ता की भूखी पार्टी नहीं देखी।

दिल्ली पुलिस का कहना है कि उसने 15 दिसंबर को जामिया मिल्लिया  इस्लामिया हिंसा मामले में 10 लोगों को गिरफ्तार किया है। हालाँकि उनमें से एक भी छात्र नहीं है। बाद में दिल्ली की एक अदालत ने उन्हें 31 दिसंबर तक के लिए  न्यायिक हिरासत में भेज दिया। मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट कामरान खान ने पुलिस के इनके लिए 14 दिन की न्यायिक हिरासत माँगने के बाद उन्हें न्यायिक हिरासत दे दी।  इनमें मोहम्मद हनीफ, दानिश उर्फ जाफर, समीर अहमद, दिलशाद शरीफ अहमद, मोहम्मद दानिश शामिल हैं।

जामिया और एएमयू ही विश्वविद्यालयों को खाली करवाने के अलावा इन्हें 5 जनवरी, 2020 तक के लिए बंद कर दिया गया, ताकि तनाव घटाया जा सके और आंदोलन कर रहे छात्रों का गुस्सा ठंडा किया जा सके। एएमयू सहित उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में विरोध प्रदर्शन भडक़ाने के बाद डीजीपी ओपी सिंह ने कहा कि अलीगढ़, सहारनपुर, मेरठ में  इंटरनेट सेवा बंद कर दी गयी है। सरकार ने •िाला प्रशासनों को सोशल मीडिया पर निगाह रखने को भी कहा, ताकि किसी तरह की अफवाहों से बचा जा सके और इससे शान्ति भंग न हो।

जामिया में छात्रों पर पुलिस बर्बरता के िखलाफ देश भर के 16 विश्वविद्यालयों और आईआईटी में प्रदर्शन शुरू हो गये। छात्र माँग कर रहे थे कि नागरिक संशोधन कानून को वापस लिया जाए।

दिल्ली विश्वविद्यालय के नार्थ कैम्पस में सामाजिक विज्ञान विभाग के सामने आंदोलन शुरू हो गया और बड़ी संख्या में छात्रों ने कक्षाओं का बहिष्कार किया। उन्होंने जामिया और अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ एकजुटता दिखायी।

छात्रों ने नदवा कॉलेज लखनऊ, जो इस्लामिक अध्ययन का केन्द्र है; से प्रदर्शन शुरू किया और उनका पुलिस से हल्का प्रतिरोध हुआ। सैकड़ों की संख्या में नदवा कॉलेज के छात्र इकट्ठे हुए और ‘आवाज़ दो, हम एक हैं’ जैसे नारे लगाते रहे। पुलिस ने स्थिति को नियंत्रण में कर लिया और प्रदर्शनकारियों को परिसर के भीतर धकेल दिया।

लखनऊ पुलिस ने ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुसलिमीन (एआईएमआईएम) के •िाला सचिव को नागरिकता कानून के िखलाफ प्रदर्शन करने के लिए पुराने लखनऊ इलाके में गिरफ्तार कर लिया। पुलिस दूसरे प्रदर्शनकारियों की भी तलाश कर रही है। ऐसे प्रदर्शन मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू विश्वविद्यालय हैदराबाद, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, जाधवपुर विश्वविद्यालय, कोलकाता, टाटा इंस्टीस्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुम्बई, केरल के केन्द्रीय विश्वविद्यालय, कासरगोड और पांडीचेरी विश्वविद्यालयों में भी देखे गये। इसके आलावा मुस्लिम विश्वविद्यालयों के साथ-साथ पटियाला स्थित पंजाबी विश्वविद्यालय और पटना विश्वविद्यालय में भी विरोध-प्रदर्शन हुए।

दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों के आलावा कानपुर, मद्रास और बॉम्बे की आईआईटी, बेंगलूरु की आईआईएस, आईआईएम अहमदाबाद अन्य संस्थान हैं, जहाँ के छात्र विरोध-प्रदर्शनों में शामिल हुए और परीक्षाओं का वहिष्कार किया और आंदोलन के प्रति अपना समर्थन जताया।

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी और कोलकाता में जाधवपुर विश्वविद्यालय के छात्रों ने माँग की सरकार पुलिस की गुंडागर्दी के िखलाफ कार्रवाई करे। बेंगलूरु में नागरिक समाज ने टाउन हाल में जमा होकर जामिया हिंसा के िखलाफ फ्रीडम पार्क की तरफ प्रदर्शन शुरू किया; लेकिन पुलिस ने इसे रोक लिया। प्रदर्शनकारी कह रहे थे कि सरकार को इस बात की इजाज़त नहीं दी जा सकती कि वह लिंग और धर्म के आधार पर हमें बाँटे।

दक्षिण के हैदराबाद (तेलंगाना) में मौलाना आज़ाद उर्दू विश्वविद्यालय और उस्मानिया विश्वविद्यालय परिसरों में तिख्तयाँ लेकर धरना आयोजित किया गया। आईआईटी मद्रास के अलावा तमिलनाडु में भी लॉयल कॉलेज, चेन्नई और तिरुवरूर के केन्द्रीय विश्वविद्यालय में भी ऐसे प्रदर्शन आयोजित किये गये। उधर साबित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय, पुणे में भी 300 छात्रों और नागरिकों ने विरोध दर्ज किया। त्रिवेंद्रम में प्रदर्शनकारियों पर तब पानी की बौछार की गयी, जब वे कानून के िखलाफ और उसे खत्म करने की माँग के साथ प्रदर्शन कर रहे थे। पुलिस ने 70 प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लिया गया।

एएमयू परिसर में सुरक्षा का ज़बरदस्त तामझाम किया गया है। इसे साम्प्रदायिक रूप से एक संवेदनशील जगह माना जाता है। एएमयू के रजिस्ट्रार अब्दुल हमीद ने कहा कि 15 दिसंबर को पुलिस परिसर में घुस गयी और भीतर से झड़पों की जानकारी आयी। पुलिस ने एएमयू में 21 लोगों को इसके आरोप में गिरफ्तार किया गया। अलीगढ़ के एसएसपी आकाश कुल्हारे के मुताबिक, 56 लोगों की पहचान के साथ और अन्य अनजान लोगों के िखलाफ एफआईआर दर्ज की गयी है। हॉस्टल खाली करने की प्रक्रिया जारी है और हॉस्टल खाली करा लिये गये।

नागरिकता संशोधन कानून पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक प्रताडऩा के कारण 31 दिसंबर, 2014 तक भारत में शरणार्थी के रूप में आए छ: गैर-मुस्लिम समुदाओं हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को भारतीय नागरिकता का रास्ता खोलता है। इसका इस आधार पर ज़बरदस्त विरोध हुआ है कि यह विभाजनकारी और मुस्लिम विरोधी है।

असम में प्रदर्शन के दौरान पाँच लोग पुलिस फायरिंग में अपनी जान गँवा चुके हैं। पूर्वोत्तर में कानून के िखलाफ सबसे •यादा विरोध देखने में आया है; क्योंकि उन्हें लगता है कि बाहर से आये लोगों को नागरिकता प्रदान करने से उनकी सांस्कृतिक और भाषाई पहचान खतरे में पड़ जाएगी। उन्हें यह भी लगता है कि यह कानून 1985 के असम समझौते का भी उल्लंघन है। असम में गैर-कानूनी गतिविधियाँ प्रतिबंध कानून (यूपीए) के तहत वहाँ के नेता अखिल गोगोई पर मामला दर्ज किया गया है, जिन्हें गिरफ्तार किया गया। नये कानून के तहत उन्हें केन्द्र बिना उनकी बात सुने उन पर आतंकवादी का ठप्पा लगा सकता है।

एनआईए की तरफ से दर्ज ताज़ा मामले के मुताबिक, किसान नेता और आरटीआई कार्यकर्ता गोगोई को जोरहाट •िाले में तब गिरफ्तार किया गया था। जब वे देश के िखलाफ जंग, षड्यंत्र और दंगों की तैयारी कर रहा था। वो नागरिकता कानून के िखलाफ प्रदर्शन में हिस्सा ले रहे थे।

असम के दूसरे हिस्सों में नागरिकता कानून के िखलाफ प्रदर्शन जारी हैं। गुवाहाटी में असम इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट परिसर में कवियों, गायकों, लेखकों और अन्य की तरफ से आयोजित प्रदर्शनों में बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए।

असम में 15 दिसंबर को दो और लोग ज़ख्मी हो गये और जान गँवा बैठे। यह लोग पुलिस की फायरिंग में घायल हो गये थे। उदालगुरी के ईश्वर नायक, जो की स्थानीय रिटेल स्टोर में काम करता था; को उस समय गोली लगी जब काम से घर वापस लौट रहा था। उसे गम्भीर घायल अवस्था में अस्पताल में दािखल किया गया। एक अन्य व्यक्ति अब्दुल आलमीन की भी 15 दिसंबर को गोली लगने से मौत हो गयी। पुलिस ने उसे लालुन गाँव में गोली मार दी थी। वहीं असम के डीजीपी ने पुष्टि की है कि राज्य में पुलिस कार्रवाई में चार लोगों की मौत हुई है।

कुल मिलाकर इन दिनों देश एक दुरूह दौर से गुज़र रहा है। देश की अर्थ-व्यवस्था बुरी हालत में है। महँगाई लगातार बढ़ रही है और अब तक के सबसे ऊँचे स्तर पर है। ज़रूरी चीज़ों की कीमतें आसमान छू रही हैं। देश में अभियांत्रिकी उत्पादन नीचे जा रहा, जिसके नतीजे में लोगों के रोज़गार छिन रहे हैं। ऐसे में हम भीतरी द्वंद्वों से होने वाले नुकसान को नहीं झेल सकते न ही सदियों पुराने अपने सह-अस्तित्व को खतरा पहुँचा सकते हैं, जो हमारे संविधान के उद्देश्यों को पूर्ण करने के पीछे हमारी सबसे बड़ी ताकत रहा है और जो समानता, स्वतंत्रता और राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय का आधार है।

सीएए : मिथक और वास्तविकता

सवालों पर सरकार ने विभिन्न पहलुओं पर स्पष्टीकरण दिया है। अहम बिन्दुओं को ऐसे समझें :-

मिथक : नागरिकता संशोधन कानून बंगाली हिन्दुओं को नागरिकता प्रदान करेगा?

वास्तविकता : नागरिकता संशोधन कानून बंगाली हिन्दुओं को भारतीय नागरिकता प्रदान नहीं करता है। यह अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के छ: अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों के लिए बनाया जा रहा कानून है। यह बेहद मानवीय आधार पर प्रस्तावित किया गया है; क्योंकि अल्पसंख्यक समुदाय के ये लोग धार्मिक उत्पीडऩ के कारण इन तीन देशों से भागने को मजबूर हुए थे।

मिथक : नागरिकता संशोधन कानून असम समझौते को कमज़ोर करता है?

वास्तविकता : जहाँ तक कटऑफ डेट का सवाल है। यह नागरिकता संशोधन कानून असम समझौते को कमज़ोर नहीं करता है।

मिथक : नागरिकता संशोधन कानून असम के मूल निवासियों के हितों के िखलाफ है?

वास्तविकता : नागरिकता संशोधन कानून केवल असम पर केन्द्रित नहीं है। यह पूरे देश के लिए मान्य है। नागरिकता संशोधन कानून राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के िखलाफ नहीं है।

मिथक : नागरिकता संशोधन कानून से बंगाली भाषी लोगों का वर्चस्व बढ़ेगा?

वास्तविकता : अधिकांश हिन्दू बंगाली आबादी असम के बराक घाटी में बसी हुई है, जहाँ बंगाली को दूसरी राज्य भाषा घोषित किया गया है। ब्रह्मपुत्र घाटी में हिन्दू, बंगाली अलग-थलग बसे हैं और उन्होंने असमी भाषा को अपना लिया है।

मिथक : बंगाली हिन्दू असम के लिए बोझ बन जाएँगे?

वास्तविकता : नागरिकता संशोधन कानून पूरे देश में लागू है। धार्मिक उत्पीडऩ का सामना करने वाले व्यक्ति केवल असम में ही नहीं बसे हैं। वे देश के अन्य हिस्सों में भी रह रहे हैं।

मिथक : नागरिकता संशोधन कानून बांग्लादेश से हिन्दुओं के नये प्रवासन को बढ़ाने का काम करेगा?

वास्तविकता : अधिकांश अल्पसंख्यक पहले ही बांग्लादेश से पलायन कर चुके हैं। इसके अलावा, हाल के वर्षों में बांग्लादेश में उन पर अत्याचारों के मामलों में कमी आयी है। जहाँ तक शरणार्थियों को नागरिकता देने का सवाल है, तो 31 दिसंबर, 2014  की कटऑफ तारीख है और नागरिकता संशोधन कानून के तहत उन अल्पसंख्यक शरणार्थियों को इसका लाभ नहीं मिलेगा, जो कटऑफ तारीख के बाद भारत आते हैं।

मिथक : ये कानून हिन्दू बंगालियों को समायोजित कर आदिवासी भूमि हड़पने का एक हथकंडा है?

वास्तविकता : अधिकांश हिन्दू बंगाली आबादी असम के बराक घाटी में बसे हुए हैं, जो आदिवासी इलाके से काफी दूर है। दूसरी अहम बात कि ये बिल आदिवासी भूमि संरक्षण के लिए कानूनों और नियमों में विरोधाभास पैदा नहीं करता है। नागरिकता संशोधन कानून उन क्षेत्रों में लागू नहीं होता, जहाँ आईएलपी और संविधान की छठी अनुसूची के प्रावधान लागू होते हैं।

मिथक : नागरिकता संशोधन कानून मुसलमानों के िखलाफ भेदभाव करता है?

वास्तविकता : किसी भी देश का कोई भी विदेशी नागरिक भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकता है। यदि वह नागरिकता अधिनियम, 1955 के मौज़ूदा प्रावधानों के मुताबिक, ऐसा करने के लिए योग्य है। नागरिकता संशोधन कानून इन प्रावधानों से कोई छेड़छाड़ नहीं करता है। इस कानून में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आये छ: अल्पसंख्यक समुदाय के शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान है।

हिन्दू राष्ट्र, भाजपा और नागरिकता कानून

सुदूर असम और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों और बंगाल में विरोध की ज्वाला धधक रही है। इसके विपरीत दिल्ली में मजनूँ का टीला के शरणार्थी शिविर में एक नयी सुबह-सा उत्साह है। दोनों में कारक एक ही है- नागरिकता संशोधन कानून। आपातकाल के विरोध में जेलों से उपजे जो छात्र नेता आज सत्ता में हैं, वे असम के छात्रों का विरोध सुनने के लिए तैयार नहीं। देश के नक्शे में अजीब जटिलता भरी रेखाएँ उभर आयी हैं। महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती के वर्ष में अचानक देश एक दोराहे पर आ खड़ा हुआ है।

मजनूँ का टीला की पाकिस्तानी शरणार्थी बस्ती में भी तिरंगा लहरा रहा है- उनको ‘न्याय’ मिलने की खुशी में। और असम में भी लोगों के हाथ में तिरंगा ही लहरा रहा है – उनके साथ ‘अन्याय’ के विरोध में। विरोध-समर्थन के नारों के बीच नागरिकता संशोधन बिल राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की मंजूरी के बाद कानून बन चुका है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में इसे चुनौती देने वाली दो दर्जन याचिकाएँ भी दायर हो गयी हैं। सरकार नागरिकता संशोधन कानून के बाद एनआरसी लाएगी, यह तय है। दिलचस्प यह है कि भाजपा की सहयोगी जेडीयू भी एनआरसी का विरोध करने का ऐलान कर चुकी है।

भारत के प्रमुख विपक्षी दलों का कहना है कि मोदी सरकार सीएए से मुसलमानों को टार्गेट करना चाहती है। इसकी वजह ये है कि सीएए 2019 के प्रावधान के मुताबिक पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से से आने वाले मुसलमानों को भारत की नागरिकता नहीं दी जाएगी। कांग्रेस समेत कई पार्टियाँ इसी आधार पर नागरिकता संशोधन बिल का विरोध कर रही हैं। सरकार का तर्क यह है कि धार्मिक उत्पीडऩ की वजह से इन देशों से आने वाले अल्पसंख्यकों को सीएए के माध्यम से सुरक्षा दी जा रही है।

मोदी सरकार का तर्क है कि 1947 में भारत-पाक का बँटवारा धार्मिक आधार पर हुआ था। इसके बाद भी पाकिस्तान और बांग्लादेश में कई धर्म के लोग रह रहे हैं।  पाक, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यक काफी प्रताडि़त किये जाते हैं। अगर वे भारत में शरण लेना चाहते हैं, तो हमें उनकी मदद करने की ज़रूरत है।

बहुत लोग यह भी मानते हैं कि भाजपा का कांग्रेस पर देश का धर्म पर आधारित विभाजन का आरोप गलत है। कांग्रेस ने विभाजन को तो स्वीकृति दी थी; लेकिन धर्म के आधार पर नहीं। उनका कहना है कि मोहम्मद अली जिन्ना ने धर्म पर देश के बँटबारे की बात की थी। उनका यह भी मानना है कि उस समय हिन्दूवादी संगठनों, जिनमें आरएसएस भी है, का मुस्लिमों के प्रति आक्रामक रुख भी किसी हद तक इसका •िाम्मेदार था।

नागरिकता बिल ने देश की राजनीति के बीच के ध्रुवों की दूरी बढ़ा दी है। भाजपा और उसके समर्थक कानून के िखलाफ कुछ सुनने को तैयार नहीं। कांग्रेस और उसके साथ के विरोधी दल, जैसे टीएमसी आदि इसे किसी भी रूप में सहने को तैयार नहीं। भाजपा कहती है इससे देश मज़बूत होगा, कांग्रेस कहती है इससे संविधान की आत्मा तार-तार हो गयी है। अब राजनीतिक विरोधी न्याय की देहरी पर खड़े हैं, तो छात्र और स्वयंसेवी सडक़ों पर विरोध के नारे गूँज रहे हैं। दिल्ली और दूसरी जगह भी छात्र-प्रदर्शन हुए हैं।

बहुत से लोगों को लगता है कि भाजपा धीरे-धीरे हिन्दू राष्ट्र के अपने एजेंडे पर आगे बढ़ रही है। राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) भाजपा के एजेंडे में नागरिकता संशोधन कानून के बाद अगली कड़ी है। बहुत से लोग यह भी मानते हैं कि नागरिकता बिल और एनआरसी के ज़रिये भाजपा पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव को भी साधना चाहती है। भाजपा इस कानून को इस आधार पर सही ठहरा रही है कि यह सब मुद्दे उसके घोषणा-पत्र में थे। भाजपा इस कानून को इस आधार पर सही ठहरा रही है कि यह सब मुद्दे उसके घोषणा-पत्र में थे। भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा कहते हैं कि मई 2019 के लोकसभा चुनाव में हमें जनता ने इतना बड़ा बहुमत हमारे इन्हीं मुद्दों के लिए दिया था। सब बातें हमारे घोषणा-पत्र में थीं। जो लोग हमारा विरोध कर रहे हैं, वे वास्तव में जनमत का विरोध कर रहे हैं। नागरिकता संशोधन कानून पाकिस्तान-बांग्लादेश-अफगानिस्तान से धार्मिक प्रताडऩा के कारण आये हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई, पारसी शरणार्थियों के लिए भारत की नागरिकता हासिल करने का रास्ता खोल देगा। मुस्लिम इसमें शामिल नहीं हैं। लेकिन कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और अन्य, जिनमें छात्र और स्वयंसेवी संगठन शामिल हैं, इसे धर्म पर आधारित कानून बताकर इसका विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह कानून संविधान के िखलाफ है। असम के जिन इलाकों में इसका विरोध सबसे प्रचंड है, दिलचस्प रूप से वे हिन्दू बहुल इलाके हैं।

मोदी सरकार के इस कानून का पूर्वोत्तर में ज़बरदस्त विरोध हो रहा है। राजनीतिक स्तर पर पश्चिम बंगाल में भी। असम, मेघालय समेत कई राज्यों में लोग सडक़ों पर हैं और नागरिकता कानून को वापस लेने की माँग कर रहे हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों के विरोध के पीछे कारण है, उनका यह मानना कि यदि शरणार्थियों को वहाँ नागरिकता दी जाएगी, तो उनके राज्यों की अस्मिता और संस्कृति पर ही असर नहीं पड़ेगा, उनके रोज़गार की सम्भावनाएँ भी इससे प्रभावित होंगी।

वैसे सरकार ने कानून बनाते समय ऐलान किया है कि मेघालय, असम, अरुणाचल, मणिपुर के कुछ क्षेत्रों में कानून लागू नहीं होगा। स्थानीय लोगों की माँग के कारण केन्द्र सरकार ने यहाँ इनर लाइन परमिट जारी किया है, जिसकी वजह से ये नियम वहाँ लागू नहीं होंगे। दरअसल इनर लाइन परमिट एक यात्रा दस्तावेज़ है, जिसे भारत सरकार अपने नागरिकों के लिए जारी करती है; ताकि वे किसी संरक्षित क्षेत्र में निर्धारित अवधि के लिए यात्रा कर सकें। इस कानून को लेकर भारत में ही उबाल नहीं है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने भी नागरिकता संशोधन कानून को मुस्लिमों के प्रति भेदभावपूर्ण ठहरा दिया है। आयोग के प्रवक्ता ने कहा कि इस बिल के उद्देश्य का हम स्वागत करते हैं, जिसमें ज़ुल्म से पीडि़त समूहों को सुरक्षा देने की बात है। लेकिन यह प्रक्रिया राष्ट्रीय शरणार्थी व्यवस्था के तहत होनी चाहिए, जो भेदभाव और असमानता के सिद्धांत पर आधारित न हो। प्रवक्ता ने इस बात पर ज़ोर दिया कि संयुक्त राष्ट्र के अपने मूलभूत सिद्धांत हैं, जिनमें मानवाधिकारों के सार्वभौम घोषणा-पत्र में शामिल अधिकार निहित हैं। उम्मीद है कि उन्हें कायम रखा जाएगा। यही नहीं हमारे मित्र पड़ोसी देश बांग्लादेश में भी गृह मंत्री अमित शाह के इस बयान से नाराज़गी है कि बंगलादेश में हिन्दुओं की धार्मिक आधार पर प्रताडऩा हुई है। भारत में मोदी सरकार के इस कानून का विरोध इसलिए हो रहा है, क्योंकि इसे देश के धर्म-निरपेक्ष ताने-बाने को बदलने की तरफ भाजपा के एक कदम के रूप में देखा जा रहा है। अर्थात् देश को हिन्दू राष्ट्र की तरफ ले जाना।

वैसे भारत में अभी तक किसी को उनके धर्म के आधार पर भारतीय नागरिकता देने से मना नहीं किया गया है। इसका कानून पहले से था, जिसमें भारत की नागरिकता की इच्छा वाले व्यक्ति को 11 साल निवास करने के बाद ही नागरिकता का रास्ता साफ हो पाता था। अब नये कानून में अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में धार्मिक प्रताडऩा के कारण 31 दिसंबर, 2014 तक भारत आये हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदायों के शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता दी जाएगी। और इन छ: समुदायों के शरणार्थियों सिर्फ पाँच साल ही भारत में निवास की शर्त रहेगी, जो पहले 11 साल थी। चूँकि, इसमें मुस्लिमों को जगह नहीं दी गयी है, इसलिए मोदी सरकार के कानून को भेदभावपूर्ण कहा जा रहा है और इसकी कटु आलोचना की जा रही है।

इस कानून के विरोध के पीछे एक बड़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि यह धर्म आधारित है और देश की धर्म-निरपेक्ष सोच ही नहीं संविधान का भी उल्लंघन करता है। दरअसल, भारतीय समाज की रूह में धर्म-निरपेक्षता गहरे तक बसी है। एक समाज के रूप में भारत कभी धर्म आधारित नहीं रहा है। यही कारण है कि देश में ऐसे असंख्य जन हैं, जो मोदी सरकार के इस कानून को धर्म-निरपेक्षता पर गहरी चोट मानते हैं।

देश में धर्म-निरपेक्षता की जड़ें कितनी गहरी रही हैं, यह इस तथ्य से समझा जा सकता है कि जब 1950 में भारत का मूल संविधान बना तो इसमें धर्म-निरपेक्ष शब्द इस विचार के साथ नहीं डाला गया कि भारत की तो मूल सोच ही धर्म-निरपेक्ष है। तब भारत सम्प्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य के ही नाम से बना। धर्म-निरपेक्ष शब्द इसमें करीब ढाई दशक के बाद 1976 में संविधान में 42वाँ संशोधन करके जोड़ा गया, जब इंदिरा गाँधी आपातकाल का ज़बरदस्त विरोध झेल रही थीं। इसके बाद भारत संवैधानिक रूप से सम्प्रभु, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य कहलाया। विरोध रहे लोगों का कहना है कि जिस स्वरूप में यह बिल लाया गया है, उससे यह देश के धर्म-निरपेक्ष ढाँचे को तहस नहस कर देगा।

नागरिकता संशोधन विधेयक को संसद ने 2016 में जेपीसी के पास भेजा था। इस संसदीय समिति में लोकसभा से 19 और राज्यसभा से 9 सदस्य शामिल थे। साथ ही आईबी और ‘रॉ’ के प्रतिनिधियों को भी इसमें शामिल किया गया था। समिति के अध्यक्ष भाजपा के राजेंद्र अग्रवाल थे, जिन्होंने जेपीसी की रिपोर्ट को 7 जनवरी, 2019 को संसद में पेश किया था।

संसद में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि 1950 में नेहरू-लियाकत समझौता हुआ था, जिसके अंतर्गत भारत और पाकिस्तान को अपने-अपने अल्पसंख्यकों का ध्यान रखना था; किंतु ऐसा नहीं हुआ। शाह ने कहा कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश ने अपने संविधान में लिखा है कि वहाँ का राजधर्म इस्लाम है। पाकिस्तान में 1947 में अल्पसंख्यकों की आबादी 23 फीसदी थी, जो 2011 में घटकर 3 फीसदी रह गयी।  बांग्लादेश में भी यह संख्या कम हुई। उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि उनका अस्तित्व बना रहे और सम्मान के साथ बना रहे। शाह ने बताया कि भारत में मुस्लिम 1951 में 9.8 फीसदी थास जो आज 14.2 3 फीसदी हैं; जो इस बात का सबूत है कि भारत में धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता है। शाह ने कहा कि यदि पड़ोस के देशों में अल्पसंख्यकों के साथ प्रताडऩा हो रही है, उन्हें सताया जा रहा है, तो भारत मूकदर्शक बनकर नहीं रह सकता। भारत में किसी तरह की रिफ्यूजी पॉलिसी की ज़रूरत नहीं है।

बंगाल और अन्य राज्यों का विरोध

पश्चिम बंगाल सहित कांग्रेस शासित राज्य इस कानून का ज़बरदस्त विरोध कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पहले ही ऐलान कर चुकी हैं कि राज्य में न तो नागरिकता संशोधन कानून और न ही एनआरसी को लागू किया जाएगा। पश्चिम बंगाल, केरल और पंजाब के मुख्यमंत्रियों ने कहा है कि वो अपने यहाँ नागरिकता संशोधन कानून को लागू नहीं होने देंगे। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने भी अपने यहाँ नया नागरिकता कानून नहीं लागू करने की बात कही है। महाराष्ट्र में शिवसेना नेता संजय राउत ने कहा है नया एक्ट संविधान का उल्लंघन करता है।  उनका कहना है कि राज्य में इसे लागू करने या न करने का फैसला मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे लेंगे, जबकि महाराष्ट्र में सरकार में साझीदार कांग्रेस पार्टी के नेताओं का कहना है कि वो राज्य में नया नागरिकता कानून लागू नहीं होने देंगे। केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने कहा कि नया कानून असंवैधानिक है। ये धर्म के आधार पर भेदभाव फैलाने वाला है, जिसकी इजाज़त संविधान कतई नहीं देता। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने कहा है कि पंजाब विधानसभा नये कानून को राज्य में लागू करने से रोक देगी। ये संविधान के िखलाफ है। यहाँ यह देखना भी दिलचस्प है कि क्या राज्य इस कानून को लागू करने से रोक सकते हैं। सरकार का कहना है कि राज्यों को ऐसा अधिकार नहीं है। ज़ाहिर है राज्य जब इसका विरोध करेंगे, तो टकराव की स्थिति बनेगी। इससे केंद्र-राज्य सम्बन्धों पर भी आँच आ सकती है।

पूर्वोत्तर में विरोध

गृह मंत्री अमित शाह का कहना है कि नरेंद्र मोदी सरकार पूर्वोत्तर राज्यों की भाषाई, सांस्कृतिक और सामाजिक हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं। शाह ने कहा है कि अधिनियम के संशोधनों के प्रावधान असम, मेघालय, मिजोरम या त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्र पर लागू नहीं होंगे; क्योंकि संविधान की छठी अनुसूची में शामिल हैं और पूर्वी बंगाल के तहत अधिसूचित ‘इनर लाइन’ के तहत आने वाले क्षेत्र को कवर किया गया है। मणिपुर को इनर लाइन परमिट (आईएलपी) शासन के तहत लाया जाएगा और इसके साथ ही सिक्किम सहित सभी उत्तर पूर्वी राज्यों की समस्याओं का ध्यान रखा जाएगा।

सरकार के तमाम भरोसों के बावजूद पूर्वोत्तर राज्यों में नागरिकता कानून के िखलाफ उपजे आन्दोलन में अब तक तकरीबन चार-पाँच लोगों की जान जा चुकी है और दर्जनों घायल हुए हैं।   कानून को लेकर देश कई हिस्सों में प्रदर्शन जारी है। सबसे •यादा तनाव की स्थिति असम में रही है। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक असम में चार लोगों की जान जा चुकी है, जो पुलिस की गोलीबारी के कारण गुवाहाटी में मारे गये।

राज्य में 200 से •यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया है, जबकि करीब 1600 हिरासत में हैं। सरकारी सम्पत्ति का बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ है। असम में कई जगह इंटरनेट सेवाओं को बन्द कर दिया गया है। स्कूल और कॉलेज भी बन्द हैं। कई जगह कफ्र्यू लगाया गया है और सेना को मदद के लिए बुलाना पड़ा है।

असम गण परिषद् (एजेपी) भी कानून के िखलाफ ताल ठोक चुकी है, जिससे सोनोवाल सरकार की चिन्ता बढ़ी है। असम में बढ़ते तनाव के बीच मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल 15 दिसंबर को दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात कर चुके हैं।

प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि नागरिकता संशोधन विधेयक साल 1985 में हुए असम समझौते (असम अकॉर्ड) का उल्लंघन है और इसे कतई स्वीकार नहीं किया जाएगा।

पुराना इतिहास है असम में संघर्ष का

असम में बाहरी बनाम असमिया के मसले पर आन्दोलनों का दौर बहुत पुराना है। 50 के दशक में बाहरी लोगों का असम आना राजनीतिक मुद्दा बनने लग गया था। ब्रिटिश-काल में बिहार और बंगाल से चायबगानों में काम करने के लिए बड़ी तादाद में मज़दूर असम पहुँचे। अंग्रेजों ने उन्हें यहाँ खाली पड़ी ज़मीनों पर खेती के लिए प्रोत्साहित किया। विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से बड़ी संख्या में बंगाली पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और असम में आये। लिहाज़ा बाहरियों को लेकर चिंगारियाँ भी फूटती रहीं।

वर्ष 1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना ने दमनकारी कार्रवाई शुरू की, तो बड़े पैमाने पर बांग्लादेश सीमा पारकर यहाँ पहुँचे। करीब 10 लाख लोगों ने असम में शरण ली। बांग्लादेश बनने के बाद •यादातर वापस लौट गये लेकिन एक लाख लोग असम में ही रह गये। उसके बाद भी बांग्लादेशी यहाँ आते रहे जिससे असम के किसानों और मूलवासियों को यह डर सताने लगा कि उनकी ज़मीन-ज़ायदाद पर बांग्लादेश से आये लोगों का कब्ज़ा हो जाएगा। जनसंख्या में होने वाले इस बदलाव ने मूलवासियों में भाषाई, सांस्कृतिक और राजनीतिक असुरक्षा की भावना पैदा कर दी।

असम के मूल निवासियों और बाहरी शरणार्थियों के बीच संघर्ष की खुली शुरुआत साल 1979 में हुई जब राज्य की मंगलदोई लोक सभा सीट पर उपचुनाव में मतदाताओं की संख्या अचानक कई गुना •यादा बढ़ी पायी गयी। छानबीन में सामने आया कि बांग्लादेशी शरणार्थियों की वजह से मतदाताओं की संख्या बढ़ी है। इसके बाद ही राज्य में मूल निवासी बनाम शरणार्थी का मामला गरमा गया। बांग्लादेशी शरणार्थियों के िखलाफ राज्य में बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गया।

साल 1983 में असम में हुए नीली दंगे ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। महज 24 घंटे के भीतर करीब 2000 लोगों (शरणार्थियों) की हत्या कर दी गयी। ये असम में बांग्लादेशी नागरिकों के िखलाफ सबसे बड़ी हिंसा थी। इस हिंसा ने इंदिरा गाँधी सरकार तक को हिला दिया।

असम समझौता

असम में इल्लीगल इमीग्रेंट डिटरमिनेशन बाई ट्रिब्यूनल एक्ट (आईएमडीटी) लागू किया गया। इससे असम में आंदोलन और तेज़ी से भडक़ उठा। ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (आसू) की अगुवाई में चल रहे आंदोलन से 1984-85 में अराजकता की स्थिति पैदा हो गयी। आल असम स्टूडेंट यूनियन और आल असम गण संग्राम परिषद् ने करीब छ: साल तक वहाँ उग्र आंदोलन चलाया। असम में जब हालात बहुत खराब हुए तो 1985 में उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने असम समझौता किया। समझौते में कहा गया कि 25 मार्च, 1971 के बाद असम में आये विदेशियों की पहचान करके उन्हें देश ने बाहर निकाला जाए। दूसरे राज्यों के लिए यह समय सीमा 1951 निर्धारित की गयी। यह समझौता 15 अगस्त, 1985 को हुआ। समझौते के बाद विधानसभा को भंग करके चुनाव कराये गये, जिसमें असम गण परिषद् की सरकार बनी। राज्य में असम समझौते से शान्ति तो बहाली हो गयी; लेकिन नयी बनी राज्य सरकार खुद भी इसे लागू नहीं करा पायी।

 इस समझौते में कहा गया कि भारत और पूर्वी पाकिस्तान विभाजन के बाद (1951 से 1961 के बीच) असम आये सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता और वोट का अधिकार दिया जाएगा। साल 1961 से 1971 के बीच असम आने वालों को नागरिकता और अन्य अधिकार दिये जाएँगे; लेकिन उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं होगा। असम को आर्थिक विकास के लिए विशेष पैकेज भी दिया जाएगा। असमिया भाषी लोगों के सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषाई पहचान की सुरक्षा के लिए विशेष कानून और प्रशासनिक उपाय किए जाएँगे। साल 1971 के बाद असम में आने वाले विदेशियों को वहाँ का नागरिक नहीं माना जाएगा, उन्हें वापस लौटाया जाएगा।

भारत में शरणार्थी

देश में शरणार्थियों को लेकर कोई कानून नहीं रहा है। हाँ, 2011 में भारत शरणार्थी (रिफ्यूजी) दर्जे के लिए आवेदन करने वाले विदेशी नागरिकों के मामलों सुलटाने के लिए भारत ने मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) सामने लेकर आया था। एसओपी में शरणार्थी के दर्जे का दावा करने वाले ऐसे विदेशी को ही दीर्घकालिक वीजा (एलटीवी) जारी करने का प्रावधान है, जो जाँच प्रक्रिया पास कर लेते हैं और जिनका दावा वास्तविक (जेनुइन) पाया जाता है।

भारत शरणार्थियों की स्थिति के बारे में 1951 के संयुक्त राष्ट्र समझौते और 1967 के प्रोटोकॉल का भी सहभागी नहीं है; क्योंकि भारत ने इस पर हस्ताक्षर नहीं किये थे। यदि रिकॉर्ड देखा जाए, तो भारत में पिछले दशकों में अफगानिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका के अलावा तिब्बती भी पनाह लेते रहे हैं। कोई कानून नहीं होने के बावजूद भारत इन शरणार्थियों को राजनीतिक और प्रशासनिक उपायों के ज़रिये राहत और पुनर्वास देता रहा है। यहाँ तक की उन्हें शरणार्थी का दर्जा भी अमूमन भारत में विदेशियों पर लागू होने वाले घरेलू कानूनों के तहत ही निर्धारित करता रहा है। इनमें मुख्यता विदेशी अधिनियम, विदेशी पंजीकरण अधिनियम, प्रत्यर्पण अधिनियम, पासपोर्ट (भारत में प्रवेश), पासपोर्ट अधिनियम और नागरिकता अधिनियम आदि कानून हैं।

चकमा शरणार्थियों से लेकर श्रीलंकाई तमिल और तिब्बती शरणार्थियों तक भारत में आने वाले शरणार्थियों की एक लम्बी फेहरिस्त रही है। यह दिलचस्प है कि भारत की सरकारें अलग-अलग शरणार्थी समूहों से अलग-अलग व्यवहार करती रही हैं। मसलन श्रीलंकाई तमिल शरणार्थियों, जो तमिलनाडु के अलावा ओडिशा के राहत शिविरों में रहते हैं; को हर महीने नकद राशि, सस्ता राशन, नि:शुल्क कपड़े, वर्तनों के अलावा अंतिम संस्कार और श्राद्धकर्म आदि के लिए अनुदान देती रही है।

उधर, तिब्बती शरणार्थियों के लिए सरकार ने 2014 में तिब्बती पुनर्वास नीति की घोषणा की। सरकार ने देश में तिब्बती शरणार्थियों के सामाजिक कृयाण के लिए केंद्रीय तिब्बती राहत समिति (सीटीआरसी) को 2015-16 से 2019-20 तक पाँच साल की अवधि के लिए 40 करोड़ रुपये का सहायता अनुदान प्रदान करने की योजना को भी मंज़ूरी दी है। ‘तहलका’ संवाददाता द्वारा संकलित जानकारी के मुताबिक, नागरिकता संशोधन कानून के तहत अब पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आये 31,313 गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को भारत की नागरिकता मिलने का रास्ता खुल जाएगा। आईबी की जाँच में यह माना गया है कि यह सभी अपने-अपने देश में धार्मिक प्रताडऩा का शिकार हुए। भारत में इन्हें इसी आधार पर दीर्घकालिक वीजा (एलटीवी) जारी हुआ। इसी साल जनवरी में संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) रिपोर्ट में यह आँकड़ा सामने आया था। यह वे शरणार्थी हैं जिन्हें इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) ने अपनी जाँच में वास्तविक (जेनुइन) आवेदक माना था, अर्थात् वो धार्मिक आधार पर इन देशों में प्रताडऩा के शिकार हुए थे।

वैसे, चूँकि नागरिकता कानून को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी है, लिहाज़ा यह अभी साफ नहीं कि कानून सही मायने में कब तक लागू होगा। आईबी की तरफ से इन तीन देशों (पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान) से आये जिन 31,313 गैर मुस्लिम शरणार्थियों के नाम भारतीय नागरिकता के लिए क्लीयर होने की सम्भावना है, उनमें सबसे •यादा 25,447 हिन्दू हैं। इसके अलावा 5807 सिख, 55 ईसाई और 2-2 क्रमश: पारसी और बौद्ध हैं।

मार्च, 2016 में उस समय के गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने संसद में एक सवाल के जवाब में बताया था कि सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक, 31 दिसंबर, 2014 तक पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आये शरणार्थियों की संख्या 1 लाख 16 हजार 85 है। वैसे इस आँकड़े में मुस्लिम और गैर-मुस्लिम शरणार्थियों की अलग-अलग जानकारी नहीं थी। रिजिजू ने बताया था कि 31 दिसंबर, 2014 के स्थिति के अनुसार भारत के अलग-अलग राज्यों में दूसरे देशों से कुल 2,89,394 शरणार्थी हैं। इनमें से 1,16,085 शरणार्थी पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आये थे। यदि इनमें से जेपीसी के 31,313 गैर मुस्लिम शरणार्थियों को घटा दिया जाए, तो ज़ाहिर होता है कि इन तीन देशों से आये इनसे करीब तीन गुना 84,772 शरणार्थी मुस्लिम हैं।

सरकार का पक्ष

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में नागरिकता (संशोधन) विधेयक-2019 पर  इस बिल को लाने को लेकर पूरा पक्ष रखा। शाह ने कहा- ‘यह बिल करोड़ों लोगों को सम्मान के साथ जीने का अवसर प्रदान करेगा। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आये अल्पसंख्यकों को भी जीने का अधिकार है।’ उन्होंने कहा कि इन तीनों देशों में अल्पसंख्यकों की आबादी में काफी कमी हुई है। वह लोग या तो मार दिए गए, उनका जबरन धर्मांतरण कराया गया या वे शरणार्थी बनकर भारत में आये। तीनों देशों से आये धर्म के आधार पर प्रताडि़त ऐसे लोगों को संरक्षित करना इस बिल का उद्देश्य है, भारत के अल्पसंख्यकों का इस बिल से कोई लेना-देना नहीं है। शाह ने कहा कि इसका उद्देश्य उन लोगों को सम्मानजनक जीवन देना है, जो दशकों से पीडि़त थे ।

शाह ने कहा कि देश का बँटवारा और बँटवारे के बाद की स्थितियों के कारण यह बिल लाना पड़ा। उनका कहना था कि 10 साल तक देश को भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया। नरेंद्र मोदी सरकार सिर्फ सरकार चलाने के लिए नहीं आयी है। देश को सुधारने के लिए और देश की समस्याओं का समाधान करने के लिए आया है। शाह ने कहा कि हमारे पास पाँच साल का बहुमत था, हम भी सत्ता का केवल भोग कर सकते थे। किन्तु देश की समस्या को कितने साल तक लटकाकर रखा जाए? समस्याओं को कितना कितना बड़ा किया जाए? उन्होंने विपक्षी सांसदों से कहा कि अपनी आत्मा के साथ संवाद करिए और यह सोचिए कि यदि यह बिल 50 साल पहले आ गया होता, तो समस्या इतनी बड़ी नहीं होती।

शाह का कहना था कि 2019 के घोषणा-पत्र में असंदिग्ध रूप से इस बात की घोषणा की गयी थी और यह इरादा जनता के समक्ष रखा गया था कि पड़ोसी देशों के प्रताडि़त धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए सीएबी लागू करेंगे, जिसका समर्थन जनता ने किया है। गृह मंत्री ने कहा कि देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ यह सबसे बड़ी भूल थी। उन्होंने कहा कि 8 अप्रैल, 1950 को नेहरू-लियाकत समझौता हुआ, जिसे दिल्ली समझौते के नाम से भी जाना जाता है; में यह वादा किया गया था कि दोनों देश अपने-अपने अल्पसंख्यकों के हितों का ध्यान रखेंगे, किंतु पाकिस्तान में इसे अमल में नहीं लाया गया। भारत ने यह वादा निभाया और यहाँ के अल्पसंख्यक सम्मान के साथ देश के सर्वोच्च पदों पर काम करने में सफल हुए, किन्तु तीनों पड़ोसी देशों ने इस वादे को नहीं निभाया और वहाँ के अल्पसंख्यकों को प्रताडि़त किया गया ।

गृह मंत्री ने कहा कि नागरिकता बिल में पहले भी संशोधन हुए और विभिन्न देशों को उस समय की समस्या के आधार पर प्राथमिकता दी गयी और वहां के लोगों को नागरिकता प्रदान की गयी। आज भारत की भूमि-सीमा से जुड़े हुए इन तीन देशों के लघुमती (अल्पसंख्यक) शरण लेने आये हैं, इसलिए इन देशों की समस्या का •िाक्र किया जा रहा है।

शाह का कहना था कि पासपोर्ट, वीजा के बगैर, जो प्रवासी भारत में आये हैं। उन्हें अवैध प्रवासी माना जाता है, किन्तु इस बिल के पास होने के बाद तीनों देशों के अल्पसंख्यकों को अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा। यह बिल भारत के अल्पसंख्यक समुदाय को लक्षित नहीं करता है। धार्मिक उत्पीडऩ के शिकार इन तीनों देशों के लोग रजिस्ट्रेशन कराकर भारत की नागरिकता ले पाएँगे। शाह का कहना था कि 1955 की धारा-5 या तीसरे शेड्यूल की शर्तें पूरी करने के बाद जो शरणार्थी आये हैं, उन्हें उसी तिथि से नागरिकता दी जाएगी; जबसे वह यहाँ आये और इस कानून के लागू होने के बाद उनके ऊपर से घुसपैठिया अवैध नागरिकता के केस स्वत: ही खत्म हो जाएँगे। शाह ने कहा कि अगर इन अल्पसंख्यकों के पासपोर्ट और वीजा समाप्त हो गये हैं, तो भी उन्हें अवैध नहीं माना जाएगा।

असम को लेकर शाह का कहना है कि असम आंदोलन के शहीदों की शहादत बेकार नहीं जाएगी। साल 1985 में राजीव गाँधी ने क्लॉज सिक्स के तहत एक कमेटी बनाने का निर्णय किया था, जो वहाँ के लोगों की भाषा, संस्कृति और सामाजिक पहचान की रक्षा करती; किंतु यह आश्चर्यजनक बात है कि 1985 से लेकर 2014 तक तीन दशक से •यादा समय बीत जाने के बाद भी वह कमेटी ही नहीं बन सकी। उनका कहना था कि 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद कमेटी का गठन किया गया। उन्होंने असम  के लोगों से आग्रह किया कि वह समझौते के प्रावधानों को पूरा करने के लिए प्रभावी कदम उठाने के लिए जल्द-से-जल्द अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपे। उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों के लोगों की आशंकाओं को दूर करते हुए गृह मंत्री ने कहा कि क्षेत्र के लोगों की भाषाई, सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान को संरक्षित रखा जाएगा और इस विधेयक में संशोधन के रूप में इन राज्यों के लोगों की समस्याओं का समाधान है। पिछले एक महीने से नॉर्थ ईस्ट के विभिन्न हितधारकों के साथ मैराथन विचार-विमर्श के बाद शामिल किया गया है। उन्होंने कहा कि इस मुद्दे को राजनीतिक विचारधाराओं से परे एक मानवतावादी के रूप में देखा जाना चाहिए।

कांग्रेस का पक्ष

नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर संसद में कांग्रेस ने ज़बरदस्त विरोध दिखाया है। राज्यसभा में कांग्रेस सांसद आनंद शर्मा ने कहा कि हमारा विरोध राजनीतिक नहीं, बल्कि संवैधानिक और नैतिक है। यह भारतीय संविधान की नींव पर हमला है। यह भारत की आत्मा पर हमला है। यह संविधान और लोकतंत्र के िखलाफ है।

आनंद शर्मा ने कहा कि इस नागरिकता संशोधन बिल (अब कानून) से पूरे देश में असुरक्षा की भावना भर गयी है। लोगों के मन में आशंका है। अगर ऐसा है, तो क्‍या पूरे भारत में डिटेंशन सेंटर बनेंगे? यह अन्‍याय होगा। कांग्रेस के वरिष्‍ठ नेता ने कहा कि यहाँ पुर्नजन्‍म पर विश्‍वास किया जाता है। उन्‍होंने कहा कि सरदार पटेल अगर मोदी जी से मिलेंगे तो काफी नाराज़ होंगे। गाँधी जी का चश्‍मा सिर्फ विज्ञापन के लिए नहीं है। यह बिल भारत के संविधान की मूल भावना के िखलाफ है। संविधान की प्रस्‍तावना में ही धर्मनिरपेक्षता का •िाक्र है, यह उस मूल भावना के भी िखलाफ है। शर्मा ने महात्‍मा गाँधी का •िाक्र किया और कहा कि उनका कहना था कि मेरा घर ऐसा हो जहाँ कोई दीवार न हो, जहाँ सभी धर्म के अनुयायी हो।

कांग्रेस नेता ने कहा कि सरकार जो संशोधन लेकर आयी है, वो नयी बात नहीं है। नागरिकता पर नौ बार संशोधन हुआ है। लेकिन जो हमारा संविधान है, उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं हुआ। संविधान की आत्मा से कभी छेड़छाड़ नहीं की गयी। किसी भी संशोधन में धर्म को आधार नहीं बनाया गया। इतिहास बड़ा महत्त्व रखता है।  महात्मा गाँधी, सुभाष चंद्र बोस, मौलाना आज़ाद, सब लोग आज़ादी की लड़ाई में शामिल थे। विभाजन की पीड़ा पूरे देश को हुई। साल 1937 में हिन्दू महासभा ने प्रस्ताव पारित किया था। टू नेशन थ्योरी कांग्रेस की थ्योरी नहीं थी। आनंद शर्मा ने कहा कि छह साल अटल बिहारी वाजपेयी भी इस देश के प्रधानमंत्री रहे। नागरिकता पर उनके समय में भी चर्चा हुई थी। स्वामी विवेकानंद ने 9 सितंबर, 1983 को भाषण दिया था कि भारत सदियों से शरण देता रहा है। हिन्सा का शिकार हुए लोगों को हमने शरण दी। हम आपके जनादेश का सम्मान करते हैं। संविधान की शपथ सबने ली है। उस बारे में चर्चा ज़रूरी है। आपने कहा कि हमने सब समाधान कर दिया; लेकिन आपने कुछ नहीं किया। आपने 11 साल से 7 साल कर दिया; लेकिन आपने कुछ नहीं किया। आपने कहा कि एनआरसी पूरे देश में लाएँगे। असम में क्या हुआ? अगर आप अच्छा कर रहे हैं, तो वहाँ के लोगों के मन में डर क्यों है?

भारत की करुणा और भाईचारे के लिए यह ऐतिहासिक दिन है। मुझे खुशी हो रही है कि नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 पास हो गया है। उन सभी सांसदों का धन्यवाद, जिन्होंने वोट दिया।

नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री

एनआरसी और सीएए को राज्य में लागू नहीं किया जाएगा। नागरिकता संशोधन विधेयक और एनआरसी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब तक टीएमसी पश्चिम बंगाल में सत्ता में है, इन्हें लागू नहीं होने दिया जाएगा। देश के एक भी नागरिक को शरणार्थी नहीं बनने दिया जाएगा। एनआरसी और सिटिजनशिप बिल को लेकर िफक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं है। हम कभी भी बंगाल में इसकी इजाज़त नहीं देंगे।

ममता बनर्जी, सीएम, प. बंगाल

नागरिकता संशोधन कानून मोदी-शाह सरकार की पूर्वोत्तर को नस्ली तौर पर साफ कर देने की कोशिश है। यह पूर्वोत्तर, उसकी जीवनशैली और भारत के विचार पर आपराधिक हमला है। मैं पूर्वोत्तर के लोगों के साथ एकजुटता से खड़ा हूँ; और उनकी सेवा में तत्पर हूँ। यह कानून संविधान पर भी हमला है। जो कोई भी इसका समर्थन करता है, वो हमारे देश की बुनियाद पर हमला और इसे नष्ट करने का प्रयास कर रहा है।

राहुल गाँधी, कांग्रेस नेता

आज का दिन भारत के संवैधानिक इतिहास में एक काले दिन के तौर पर दर्ज होगा। इस विधेयक के पास होने से भारत की बहुलता पर संकीर्ण और कट्टरपंथी मानसिकता वालों की जीत हुई है। बुनियादी तौर पर यह विधेयक उस विचार के िखलाफ है, जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने लम्बी लड़ाई लड़ी। यह विधेयक एक ऐसे विभाजित भारत का निर्माण करने वाला है, जहाँ धर्म राष्ट्रवाद का निर्धारक बन जाएगा।

सोनिया गाँधी, कांग्रेस अध्यक्ष

विवाद का कानून

नागरिकता संशोधन कानून संसद से पारित होने के साथ ही असम, मेघालय, त्रिपुरा के साथ ही पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, दिल्ली समेत देश भर में बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन हुआ है। इस कानून के तहत गैर-मुस्लिम छ: धर्मों हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के सदस्यों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है। अगरसरकार ने विरोध के बावजूद इस कानून को वापस नहीं लिया, तो 31 दिसंबर, 2014 तक पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत में शरण लेने वाले हिन्दुओं, सिखों, बौद्ध, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों को नागरिकता प्रदान की जाएगी।

इसका आगे चलकर पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर के राज्यों में क्या राजनीतिक प्रभाव पड़ेगा, यह तो समय के गर्भ में है। लेकिन िफलहाल पूर्वोत्तर के सातों राज्यों में भाजपा सत्ता में है और 2019 लोकसभा चुनाव के दौरान यहाँ उसका प्रदर्शन अच्छा रहा है। पूर्वोत्तर की 25 में से 18 सीटें उसने जीती थीं। अब भाजपा पश्चिम बंगाल में भी खुद को साबित कर जड़ें जमाना चाहती है। पूर्वोत्तर राज्यों में नागरिकता कानून के विरोध के पीछे लोगों को डर है कि इससे उनकी सांस्कृतिक और भाषाई पहचान खतरे में पड़ जाएगी। वहीं, असम के बाद पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में विरोध-प्रदर्शन हिंसक हो गये है; इसके पीछे कथित तौर पर मुसलमानों के साथ भेदभाव करने वाले अधिनियम की आलोचना की जा रही है। असम के लोगों ने आशंका जतायी है कि इसके बाद 1985 का असम समझौता निरर्थक हो जाएगा। असम समझौते ने 1971 के बाद राज्य में प्रवेश करने वाले सभी लोगों को अवैध प्रवासी माना था। इस अधिनियम को अब उच्चतम न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दी गयी है कि यह भेदभाव करने वाला है; साथ ही असंवैधानिक भी।

नागरिकता कानून के बाद विदेश नीति और रिश्तों पर भी असर पड़ा है। बांग्लादेश के विदेश मंत्री एके अब्दुल मोमन ने कहा कि उनके देश ने भारत से अनुरोध किया है कि वह देश में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशी नागरिकों की सूची प्रदान करे और वे उनको लेने के लिए तैयार हैं। उन्होंने कहा कि उनके अपने देश के बाशिंदों को घर वापसी का अधिकार है। इससे पहले मोदी सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत की विदेश नीति को मज़बूत करने के लिए अच्छा काम किया था। लेकिन राजनयिक मोर्चे पर विरोध एक बड़ा झटका होगा; क्योंकि जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने वार्षिक द्विपक्षीय शिखर सम्मेलन के लिए अपनी भारत यात्रा िफलहाल टाल दी है। इसका आयोजन गुवाहाटी में ही किया जाना था और जापान से पूर्वोत्तर में निवेश सम्बन्धी हस्ताक्षर किये जाने की उम्मीद थी। संयुक्तराष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय, अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग और हाउस फॉरेन अफेयर्स कमेटी ने भी लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों को कम करने के लिए नागरिकता संशोधन कानून की आलोचना की है। फ्रांस, इज़राइल, अमेरिका और ब्रिटेन ने भारत में अपने नागरिकों के लिए विरोध-प्रदर्शन को देखते हुए एडवाइजरी जारी की है। पश्चिम बंगाल, पंजाब, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और केरल जैसे राज्यों ने इसे लागू करने से इन्कार कर दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नागरिकता कानून से जुड़े मामले में कई ट्वीट किये और कहा कि लोगों को संयम बरतना चाहिए। यह कानून किसी भी भारतीय की नागरिकता को प्रभावित नहीं करता है। यह देश की सदियों पुरानी संस्कृति, सद्भाव, और भाईचारे की स्वीकारोक्ति है। हालाँकि यह काम बहुत पहले होना था, पर देर से सही, इसका स्वागत किया जाना चाहिए।

सीएए : विधेयक-विरोध, हिंसा-प्रतिहिंसा

नागरिकता संशोधन विधेयक यानी कैब अब कानून बन चुका है। लेकिन इसके बाद जैसे ही केन्द्र सरकार ने जैसे ही असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स ऑफ इंडिया यानी एनआरसी के अनुरूप काम कराना शुरू किया, असम के साथ-साथ पूरे देश में इसका विरोध शुरू हो गया। असम में एनआरसी के अनुरूप नागरिकता प्रमाण-पत्रों के जमा कराने को लेकर जहाँ बाहरी लोगों में उबाल है, वहीं सीएए के लागू होने से असम के लोगों में भी गुस्सा है।

असम के लोगों का कहना है कि यदि सीएए के अनुसार काम होगा, तो बाहरी लोगों का असम पर कब्ज़ा हो जाएगा। बता दें कि सीएए लागू करने के बाद इसी शीत सत्र में कुछ दिन पहले गृहमंत्री अमित शाह ने राज्य सभा में कहा था कि जल्द ही पूरे देश में एनआरसी लागू किया जाएगा। उस समय उनकी बात को कुछ ही लोगों ने गम्भीरता से लिया, जिसमें आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह भी शामिल थे। लेकिन अब जब लोक सभा के बाद राज्य सभा में भी सीएए विधेयक पारित हो गया, पूरे देश में इसका विरोध शुरू हो चुका है। हालाँकि सीएए के बारे में बहुत से लोगों को ठीक से जानकारी ही नहीं है। सीएए को कई राज्यों में लागू कर दिया गया है। वहीं इसके प्रत्युत्तर में जनता ने विरोध-मार्च निकालने शुरू कर दिये हैं। लेकिन अब ये विरोध-मार्च हिंसा और हिंसा से प्रतिहिंसा में तब्दील होने लगे हैं। कुछ लोग पुलिस पर हिंसा का आरोप लगा रहे हैं, तो कुछ लोग प्रदर्शनकारियों पर। लेकिन इसके पीछे के कारण क्या हैं? पहले यह जानना भी बहुत ज़रूरी है। दरअसल, यह समझने-समझाने में कहीं कुछ लोचा है कि सीएए और एनआरसी विधेयक हैं क्या? क्योंकि अगर यह समझ में आ जाता, तो न तो सरकार को इसे बिना किसी बेहतर तैयारी के इसे अचानक लागू करना पड़ता और न ही लोग असंतुष्ट होकर विरोध-मार्च निकालते। तो पहले तो यही जानना ज़रूरी है कि सीएए क्या है? और एनआरसी क्या है?

क्या है सीएए?

नागरिकता संशोधन विधेयक यानी सिटीजनशिप अमेनमेंट बिल यानी सीएए का मतलब है कि देश में रह रहे अफगानी, पाकिस्तानी, बांग्लादेशी से 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले आये हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन, पारसी और ईसाई धर्मों के अवैध प्रवासियों के लिए 11 साल वाली शर्त 5 साल कर दी गयी है। सीएए-2019 सिटीजनशिप एक्ट-1955 का संशोधित रूप है। इस कानून के तहत इन छ: धर्मों के उन प्रवासियों को अवैध माना जाएगा, जो बिना किसी प्रामाणिक पहचान दस्तावेज़ के भारत में आये हैं। जबकि प्रामाणिक पहचान दस्तावेज़ के साथ आये लोगों की पहचान कर भारत में पैदा हुए लोगों को नागरिकता प्रदान की जाएगी। सीएए नागरिकता अधिनियम-1955 यानी सिटीजनशिप एक्ट-1955 में भारत के विदेशी नागरिक यानी ओवरसीज सिटीजन्स ऑफ इंडिया (ओसीआई) का रजिस्ट्रेशन रद्द करने मौज़ूद प्रावधानों में एक नया प्रावधान जोडऩे की बात करता है, जिसके अंतर्गत ऐसे लोग अपना रजिस्ट्रेशन करा सकते हैं, जिनका जन्म भारत में हुआ है अथवा जिनके पति/पत्नी भारतीय मूल के हैं। ऐसे लोगों को भारत में घूमने, रहने, शिक्षा और काम करने की अनुमति होगी। इस बिल के पास होने से कुछ लोग काफी भयभीत और उलझन में और परेशान हैं। दरअसल, विधेयक लाने के दौरान गृहमंत्री ने कहा था कि नागरिकता संशोधन बिल न तो अनुच्छेद-14 का उल्लंघन करता है और न ही यह किसी भी तरह से गैर-संवैधानिक है। उन्होंने यह भी कहा कि सरकार मुसलमानों की विरोधी नहीं है। यहाँ बता देना ज़रूरी है कि इस बिल के बाद यह बात फैल रही है कि सरकार ने सीएए में मुसलमानों को शामिल नहीं किया यानी सरकार मुसलमानों को देश से बाहर या बाहरी यानी विदेशी बना देना चाहती है। हालाँकि, यह पूर्णत: सत्य नहीं है। क्योंकि जिन मुसलमानों को पास भारतीय दस्तावेज़ हैं, वे बाहरी नहीं माने जाएँगे। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि यह विधेयक 31 दिसंबर, 2014 से पहले आये छ: धर्मों के लोगों को भारतीय नागरिकता प्रदान करना चाहती है। लेकिन उसकी भी शर्तें हैं। परन्तु इस तारीख के बाद आये किसी भी धर्म के लोगों को भारतीय नागरिकता का इस विधेयक में कोई प्रावधान नहीं है। हालाँकि पाँच साल की भारतीय प्रामाणिकता का भी प्रावधान रखा गया है।

किसे आसानी से मिल जाएगी भारतीय नागरिकता?

सीएए के तहत अफगानिस्तान, बांग्लादेश, पाकिस्तान से गैर-मुस्लिम शरणर्थियों यानी हिन्दू, सिख, पारसी, ईसाई, बौद्ध और जैन धर्म के लोगों को भारत की नागरिकता मिलनी आसान हो जाएगी। इसके लिए उन्हें भारत में कम से कम छ: साल बिताने होंगे। इससे पहले 11 साल भारत में बिताने पर भारतीय नागरिकता के पात्र होने का प्रावधान था। भारतीय नागरिकता के लिए इन लोगों को भारत में पैदा होने या पति/पत्नी के भारतीय होने और खुद के छ: साल से अधिक समय भारत में रहने के दस्तावेज़ पेश करने होंगे। पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आये मुसलमानों के लिए भारतीय नागरिकता की छूट नहीं है।

एनआरसी क्या है?

राष्ट्रीय नागरिक रजिस्ट्रार यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स ऑफ इंडिया यानी एनआरसी अभी लागू नहीं हुआ है। हालाँकि असम में एनआरसी रजिस्टर के हिसाब से लोगों की नागरिकता तय भी हुई है। मगर यह पूरे देश में लागू नहीं है। दरअसल, सीएए लागू होने के बाद एनआरसी रजिस्टर के हिसाब से ही लोगों की पहचान की जानी है। लेकिन सरकार भी समझ रही है कि अगर पूरे देश में एनआरसी को लागू कर दिया गया, तो हालात बेकाबू हो जाएँगे। इसीलिए एनआरसी का •िाक्र करने के बाद एनआरसी से पहले सीएए को लागू किया गया। यहाँ यह भी जान लेना ज़रूरी है कि लोगों को न तो सीएए के बारे में ठीक से जानकारी है और न ही एनआरसी के बारे में, जिससे  उनकी नागरिकता के प्रमाण देने में उन्हें परेशानी तो हो ही रही है, साथ ही उन्हें कुछ अन्धी कमाई करने वालों के ज़रिये डराया भी जा रहा है। यही वजह है कि सीएए के लागू होने बाद अधिकतर लोगों ने सीएए को ही एनआरसी मान लिया है और सरकार तथा एनआरसी के िखलाफ देश भर में विरोध-प्रदर्शन शुरू हो चुके हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि इस शीत सत्र में सीएए लागू करने से पहले अमित शाह ने कहा था कि अवैध लोगों की पहचान के लिए पूरे देश में एनआरसी लागू होगा और इसमें सभी धर्मों और सम्प्रदायों के लोगों को शामिल किया जाएगा।

इसके साथ ही होंगे, जिससे अधिकतर लोगों को परेशानियाँ हो सकती हैं। इसके साथ ही असम में सीएए लागू करने के बाद एनआरसी के अनुसार दस्तावेज़ माँगे जा रहे हैं। असम में इस विधेयक के लागू होने से 19 लाख लोग भारतीय नागरिकता से बाहर हो गये। इसका वहाँ भरपूर विरोध भी हुआ, जो अभी तक जारी है। इस बात का भी पूरे देश पर असर पड़ा है और विरोध शुरू हो गया। बता दें कि अगर देश भर में एनआरसी लागू हो गया, तो एनआरसी के हिसाब से वे लोग भारतीय नागरिकता से बाहर कर दिये जाएँगे, जो 25 मार्च, 1971 से बाद के भारत से बाहर और भारत के किसी राज्य के नागरिक हैं, जो दूसरे राज्य में बस गये हैं और उनके पास छोड़े हुए राज्य का कोई प्रमाण नहीं होगा। ऐसे में नागरिकों को वे प्रमाण पेश करने होंने, जिससे यह साबित हो कि उनके बुजुर्ग 25 मार्च, 1971 या उससे पहले से ही भारतीय मूल के नागरिक थे। हालाँकि एनआरसी लागू करना इतना आसान नहीं है।

एनआरसी पर उठते सवाल?

सीएए के लागू होते ही एनआरसी के मामले में सरकार का विरोध पूरे देश में शुरू हो चुका है। असम के बाद त्रिपुरा, बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली समेत अनेक राज्यों में लोग इसका विरोध कर रहे हैं। ऐसे क्या कारण हैं, जिनके चलते लोग इस विधेयक का ज़बरदस्त विरोध कर रहे हैं? यह जानने से पहले कई अनसुलझे सवालों पर नज़र डालनी होगी। पहला सवाल यह कि ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे लोग, खासतौर से वे लोग जिनके पास कोई ज़मीन नहीं है; कहाँ से 25 मार्च, 1971 से पहले के प्रमाण लाएँगे? क्योंकि ग्रामीण इलाकों में घरों के कोई दस्तावेज़ नहीं होते। क्या इन दस्तावेज़ों को बनवाने के लिए उन लोगों से ठगी नहीं की जाएगी? क्या फर्ज़ी दस्तावेज़ बनवाने का काम शुरू नहीं हो जाएगा? क्या लालफीताशाही और अधिकृत अफसर अवैध काम नहीं करेंगे? क्या इससे घुमक्कड़ जातियों के लोग, जिनके पास न कोई ज़मीन है, न कोई घर, न कोई प्रमाणित दस्तावेज़, इस कानून से गैर-भारतीय नहीं मान लिए जाएँगे? इसके अलावा ग्रामीण इलाकों में भी बहुत से ऐसे लोग हैं, जिनके पास कोई ज़मीन  नहीं है; न ही उन्हें अपने खानदान की ठीक से जानकारी है। ऐसे में अगर उनके पास कोई टूटा-फूटा घर है, तो उसके कगज़ नहीं हैं। इसका एक कारण यह है कि गाँवों में बने घरों की रजिस्ट्री आज भी नहीं होती है, पुराने बसे हुए गाँवों में लोग कई पीढिय़ों से रहते आ रहे हैं। साथ ही कुछ लोग इतने गरीब हैं कि वे अपने कागज़ बनवाने के लिए सौ रुपये खर्च करने तक की हैसियत नहीं रखते। ऐसे में वे लोग 25 मार्च, 1971 और उससे पहले के प्रमाण कैसे दे पाएँगे? ग्रामीण तो दूर शहर में रहने वालों में भी अधिकतर 20-25 साल पहले जन्में लोगों के पास बहुत से दस्तावेज़ नहीं होते, जैसे- जन्म प्रमाण-पत्र, मूल निवास प्रमाण-पत्र, को क्या वे भारतीय नहीं माने जाएँगे? वे लोग जो अपने गाँव छोडक़र शहरों या दूसरे राज्यों में सन् 1971 के बाद आकर बस गये और उनकी गाँवों में कोई भी प्रामाणिक पहचान या वहाँ के दस्तावेज़ नहीं हैं; क्या वे लोग अपने ही देश में विदेशी घोषित कर दिये जाएँगे? क्या हर व्यक्ति को उस राज्य का माना जाएगा, जहाँ का मूल रूप से उसका परिवार रहने वाला है? उन लोगों के लिए कौन-सा विकल्प दिया जाएगा, जिनके माँ-बाप या दादा-दादी दो राज्यों के रहे हैं? जिनके परिवार आज भी दो राज्यों या उससे अधिक जगहों पर रह रहे हैं और उनकी 1971 से पहले की मूल पहचान नष्ट हो चुकी है, क्या उन्हें विदेशी घोषित कर दिया जाएगा?

सरकार को पहले खँगालने थे रिकॉर्ड, फिर करानी थी जनगणना

अगर एक्सपर्ट या बुद्धिजीवीयों की मानें, तो सरकार को सीएए जैसा विधेयक पारित करने से पहले प्रामाणिक दस्तावेज़, जैसे- भू-प्रमाण, नागरिकता-दस्तावेज़ और अन्य तरह के भारतीय दस्तावेज़ खंगालने चाहिए थे और उसी के आधार पर जनगणना कराकर यह पता लगाना चाहिए था कि कितने लोग भारतीय मूल के हैं और कितने लोग विदेशी हैं? साथ ही यह भी पता लगाना चाहिए था कि कितने भारतीय ऐसे हैं, जिनके पास भारतीय मूल के ठोस या पूरे प्रमाण नहीं हैं? इससे यह होता कि जो लोग डरे हुए हैं, वे डरते नहीं और न ही विरोध-प्रदर्शन होते। साथ ही एनआरसी का हौवा लोगों को नहीं दिखाना चाहिए था।

आखिर क्यों होने लगी हिंसा?

सवाल यह है कि आिखर पूरे देश में इसके विरोध में प्रदर्शन होते-होते हिंसा क्यों होने लगी? इसका सीधा-सा उत्तर है कि पुलिस को विरोध-प्रदर्शन पर उतरे लोगों पर लाठीचार्ज नहीं करनी चाहिए थी। पुलिस द्वारा की गयी इस हिंसा के फलस्वरूप प्रदर्शन कर रहे लोगों की तरफ से प्रतिहिंसा शुरू हो गयी और असम के बाद बिहार और दिल्ली में पुलिस तथा प्रदर्शनकारियों में हिंसक झड़पें तथा आगजनी की घटनाएँ हुई हैं। बेहतर होता, अगर सरकार लोगों के विरोध-प्रदर्शन पर उन्हें सीएए और एनआरसी पर जानकारी देती और लोगों में बैठे इन विधेयकों के डर और संदेह को दूर करती। लेकिन जैसे ही लोगों ने विरोध-प्रदर्शन शुरू किये, उन पर पुलिस ने लाठियाँ भाँजनी शुरू कर दीं, जिसकी प्रतिक्रिया हिंसक झड़पों और आगजनी के रूप में सामने आने लगी।

एनडीए में भी हो रहा है विधेयक का विरोध

भले ही दबी ज़ुबान से ही सही, लेकिन एनडीए की केन्द्र सरकार में ही सीएए का विरोध हो रहा है। वहीं जब यह विधेयक पास होने का प्रस्ताव रखा गया था, तब पूर्वोत्तर में भारतीय जनता पार्टी की साथी असम गण परिषद् ने विधेयकों का खुले तौर पर विरोध किया था। असम गण परिषद् का कहना था कि विधेयक लाने से पहले सरकार ने सहयोगी दलों से बात नहीं की; जबकि उसने इस पर सहयोगी दलों से बात करने का वादा किया गया था।

क्या भाजपा को होगा फायदा?

विरोधी दल कह रहे हैं कि सीएए और एनआरसी लागू करके भाजपा अपने राजनीतिक हित साधने और तानाशाही तरीके से हमेशा के लिए भारत पर शासन करने की योजना बना चुकी है। सवाल यह उठता है कि क्या वास्तव में भाजपा को इससे लाभ होगा? बता दें कि देश में लोक सभा चुनाव से पहले और असम तथा बंगाल आदि राज्यों में भाजपा ने घुसपैठियों का मुद्दा उठाया था। और एनआरसी को लागू कर विदेशी घुसपैठियों को देश से बाहर करने की बात कही थी। जिसका पार्टी को जनाधार का फायदा भी मिला। अब जब पश्चिम बंगाल, दिल्ली जैसे राज्यों में चुनाव आने वाले हैं, भाजपा सीएए और एनआरसी लागू कर रही है। ऐसे में विपक्षी और विरोधी दल इसे भाजपा और एनडीए सरकार के राजनीतिक फायदे से जोडक़र देख रहे हैं।

अगर सीएए और एनआरसी विधेयक लागू होते हैं, तो दो कैटेगरी के अनुरूप अपने दस्तावेज़ नागरिकों को प्रमाण के तौर पर पेश करने होंने। जैसा कि असम में इन दस्तावेज़ों की माँग की गयी थी और इन दस्तावेज़ों में कमी के चलते तकरीबन 19 लाख लोग शरणार्थी मान लिये गये। इन कैटेगरी में ‘ए’ और ‘बी’ सूची बनायी गयी है। आइये जानते हैं, कौन-सी सूची में किस तरह के दस्तावेज़ दिखाने होंगे?

सूची ‘ए’ के तहत माँगे गये दस्तावेज़

आवश्यक : इस सूची में माँगे गये प्रमाण-पत्रों में कोई भी 24 मार्च, 1971 से पूर्व का नहीं होना चाहिए। लेकिन अगर किसी राज्य में बसे व्यक्ति के पास कोई प्रमाण 24 मार्च, 1971 से पहले का नहीं है, तो वह अन्य राज्य में बसे अपने खानदान के बुजुर्गों के प्रमाण दिखा सकता है।

1951 का एनआरसी प्रमाण

परिवार या कुल का 24 मार्च, 1971 तक का मतदाता सूची में नाम

जमीन के मालिकाना हक के दस्तावेज़ अथवा किरायेदार होने का प्रमाण

भारतीय नागरिकता के प्रमाण-पत्र

मूल-निवास प्रमाण-पत्र

अगर विदेशी हैं, तो शरणार्थी पंजीकरण प्रमाण-पत्र

किसी भी सरकारी प्राधिकरण द्वारा जारी प्रमाण-पत्र/कोई लाइसेंस आदि

सरकार अथवा सरकारी उपक्रम के तहत नियुक्ति प्रमाण-पत्र

बैंक या पोस्ट ऑफिस में खाता

जन्म प्रमाण-पत्र

विद्यालय, महाविद्याल या विश्वविद्यालय से शैक्षणिक प्रमाण-पत्र

अदालत के आदेश-पमाण

पासपोर्ट

एलआईसी पॉलिसी

सूची ‘बी’ में माँगे गये ज़रूरी दस्तावेज़

इस सूची में दिये गये दस्तावेज़ दिखाकर नागरिक को अपने दादा-दादी/माता-पिता से उनका कोई दस्तावेज़ दिखाकर सम्बन्ध साबित करना होगा। यानी नागरिक के दस्तावेज़ में उसके दादा-दादी/माता-पिता आदि का नाम शामिल होना चाहिए।

जन्म प्रमाण-पत्र

ज़मीन के दस्तावेज़

किसी विद्यालय, महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय के शैक्षणिक प्रमाण-पत्र

बैंक या पोस्ट ऑफिस या बीमा पॉलिसी के दस्तावेज़

राशन कार्ड

मतदाता सूची में नाम

कानूनी रूप से स्वीकार्य अन्य दस्तावेज़

विवाहित महिलाओं के केस में सर्कल अधिकारी या ग्राम पंचायत सचिव द्वारा दिया गया प्रमाण-पत्र

नागरिकता संशोधन कानून सियासी आग का खेल

नागरिकता संशोधन कानून को लेकर नॉर्थ-ईस्ट, बंगाल और उत्तर प्रदेश के बाद दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया (विश्वविद्यालय) में छात्रों के विरोध-प्रदर्शन  के बाद राजधानी में एकबारगी ङ्क्षहसा की आग ही जल पड़ी। अगर इस सियासी आग पर गौर किया जाए, तो निश्चित तौर पर यह बात समझ आ रही है कि यह आग आसानी से बुझने वाली नहीं है। क्योंकि यह आन्दोलन और माँग कम, सा•िाश •यादा नज़र आ रही। तहलका संवाददाता ने जब जामिया के प्रदर्शनकारी छात्रों से बात की, तो उन्होंने बताया कि सरकार पहले सभी पहलुओं पर गम्भीर विचार-मंत्रणा करती, ताकि सभी धर्मों के लोगों को लगता कि यह कानून सही है। पर ऐसा नहीं किया गया। इसके कारण छात्रों में गुस्सा है। उन्होंने कहा कि छात्र तो विरोध-प्रदर्शन के तौर-तरीके से वािकफ हैं। ऐसे में वे कैसे तोडफ़ोड़ और आगजनी की घटनाओं को अंजाम दे सकते हैं। ज़रूर इसके पीछे राजनीति है। जबकि हॉस्टल में जो पुलिस वालों ने किया है, वो निन्दनीय, शर्मनाक के साथ-साथ दर्दनाक भी है। इन्हीं पहलुओं पर छात्रों और गैर भाजपा नेताओं से बात की तो उनका कहना है कि यह नागरिकता कानून पूरी तरह से देश को बाँटने वाला है। अगर समय रहते मुखालिफत नहीं की, तो निश्चित तौर यह विनाशक सिद्ध होगा। मुस्लिम समुदाय के लोगों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। इस विरोध क्रम में पुलिस की भूमिका की जो छवि उभरकर छात्रों के सामने आयी है, वह यह है कि पुलिस ने जामिया को बदनाम ही नहीं किया, बल्कि छात्रों को ‘अपराधी’ बनाने का अब तक प्रयास किया है। पुलिस द्वारा लाठी चार्ज आँसू गैस के गोले छोड़े जाने और लाइब्रेरी में घुसकर छात्र- छात्राओं को बुरी तरह पीटा गया। इस पिटाई में 200 के करीब छात्र-छात्राएँ घायल हुए हैं। पुलिसकर्मी को भी चोटें आयी हैं। ऐसा नहीं है कि पुलिस और छात्रों के बीच जो संघर्ष चला है, उसमें एक पक्ष पूरी तरह से दोषी है। पुलिस के भी अपने तर्क  हैं। पुलिस की ओर से कहा गया है कि पुलिस ने कई दफा छात्रों और उनके टीचर्स के मार्फत समझाने का प्रयास किया, फिर भी छात्रों के हिंसक प्रदर्शन के कारण पुलिस ने कार्रवाई की है। प्रदर्शन में मीडियाकर्मियों के साथ तीखी नोकझोंक के साथ मीडिया वालों को भी खदेड़ा गया है। इस प्रदर्शन में सबसे चौंकाने और हैरान करने वाली बात यह सामने आयी है कि कुछ अराजक तत्त्वों के कारण और सोशल मीडिया की अफवाहों के चलते मामला काफी हिंसक हुआ है। जिसके कारण दक्षिणी दिल्ली में एक भय का माहौल बना है। पुलिस की जिस्पी और छ:-सात बसों के जलाये जाने को लेकर छात्राओं, पुलिस और बस चालकों के अपने-अपने तर्क  हैं, जो ये बताते हैं कि बस और सार्वजनिक सम्पत्ति को जो क्षति पहुँचायी गयी, वह ज़रूर सियासी लोगों से जुड़े लोगों की सोची-समझी सा•िाश हो सकती है।

जामिया की वाइस चांसलर प्रो. नजमा अख्तर का कहना है कि पुलिस के कारनामे से वे दु:खी हैं। क्योंकि पुलिस के कारण जामिया की सम्पत्ति को जो नुकसान पहुँचा है, वह अलग है; इसके साथ ही छात्रों के मनोबल पर गहरा असर पड़ा है। इसकी भरपाई आसान नहीं है। उन्होंने कहा कि जामिया को बदनाम नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि वे इस मामले की जाँच की माँग करती हैं। क्योंकि जितना मामला बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा रहा है, उतना है नहीं। उन्होंने इस बात की पुष्टि भी की है। किसी भी छात्र की इस मामले में कोई मृत्यु नहीं हुई है। यह सिर्फ अफवाह है, जिसका वह खंडन करती है। वह केन्द्रीय शिक्षा सचिव से मिलकर जामिया मामले में हुए घटनाक्रम की बात रखेगी। जामिया में 5 जनवरी तक छुट्टी घोषित की गयी है; ताकि आसानी से जो छात्र घर जाना चाहें, जा सकते हैं। अगर हालात फिर भी सामान्य नहीं हुए, तो छुट्टियों को आगे भी बढ़ाया जा सकता है।

छात्रों ने 15 दिसंबर को पुलिस मुख्यालय पर प्रदर्शन किया। जेएनयू, डीयू के सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने जामिया परिसर में घुसने के विरोध में पुलिस मुख्यालय पर प्रदर्शन किया और पुलिस के िखलाफ नारेबाज़ी की और न्यायायिक जाँच की माँग की है। छात्र शहजाद और सलीम ने कहा कि केन्द्र सरकार और दिल्ली पुलिस हमारी माँगों को और आंदोलन को दबाने का प्रयास कर रही है। पर उनका आंदोलन तब तक जारी रहेगा, जब तक उनकी माँगों को मान नहीं लिया जाता है। क्योंकि नागरिकता कानून में एक सा•िाश की बू आ रही है, जिसको वह बर्दाश्त नहीं करेंगे। चाहे उनको अपनी जान पर ही क्यों न खेलना पड़े।

ओखला के विधायक अमानतुल्लाह खान का कहना है कि केन्द्र सरकार की किसी भी प्रकार की मुस्लिम विरोधी चाल को सफल नहीं होने देंगे। क्योंकि हमारा भी देश को बनाने में योगदान है और हम भी भारतीय कानून को मानते हैं। संविधान को बचाना है। उन्होंने कहा कि अमित शाह समझते हैं कि हिन्दुस्तान का मुसलमान डरता है। उन्होंने कहा कि जब तीन तलाक कानून लाये, तब हम चुप रहे। फिर अनुच्छेद-370 लाये तब हम चुप रहे। लेकिन अब एनआरसी आर नागरिकता कानून लाकर जो छल मुस्लिमों के साथ किया जा रहा है, उसको मुस्लिम आसानी से समझते हैं। उन्होंने बस में आग लगने वाली घटना की वह निन्दा करते हैं। अमानतुल्ला ने कहा कि उन्होंने शान्तिपूर्वक प्रदर्शन किया है। आगजनी जैसी घटना के पीछे ज़रूर भाजपा की सा•िाश है।

दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सुभाष चोपड़ा ने कहा कि लोकतंत्र में हिंसक घटनाओं का कोई स्थान नहीं है। वह हिंसक घटनाओं की निन्दा करते हैं। उन्होंने कहा नागरिकता कानून का वह विरोध करते हैं। साथ ही वह अपील करते हैं कि आंदोलन और विरोध-प्रदर्शन को शान्तिपूर्वक करें, ताकि देश की सम्पत्ति को नष्ट नहीं होना चाहिए।

इंडिया गेट पर दो घंटे के सांकेतिक धरने पर कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गाँधी बाड्रा ने कहा कि वह जामिया के छात्रों के साथ इस आंदोलन में शामिल हैं। क्योंकि इस देश में सरकार अन्याय को बल दे रही है और न्याय को दबा रही है। जिस प्रकार छात्रों को विश्वविद्यालय में घुसकर पुलिस ने भाजपा की शह पर पीटा है, उसकी कड़े शब्दों में वह निन्दा करती हैं। धरने में उनके साथ पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटनी सहित तमाम वरिष्ठ नेता मौज़ूद थे। प्रियंका गाँधी ने केन्द्र सरकार को तानाशाह करार देते हुए कहा कि कांग्रेस चुप बैठने वाली नहीं है। पूरे देश में नागरिकता कानून के विरोध में कांग्रेस आन्दोलन करेगी। क्योंकि देश का माहौल पूरी तरह से खराब किया जा रहा है।

 कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आज़ाद ने कहा कि जामिया में पुलिस द्वारा छात्रों पर जिस प्रकार बर्बरता पूर्वक हमला किया गया, वह निन्दनीय है। क्योंकि देश-दुनिया में कोई भी यूनिवर्सिटी ऐसी नहीं है, जहाँ पर छात्र अपनी माँगों को लेकर प्रदर्शन न करते हों। लेकिन पुलिस ने हॉस्टल में जाकर छात्रों की बेरहमी से पिटाई के पीछे भाजपा की मोदी सरकार की सा•िाश है। इससे दिल्ली पुलिस ने बिना विश्वविद्यालय प्रशासन की अनुमति के छात्रों को इस कदर पीटा है कि कई छात्र तो पिटाई के कारण ऑन द स्पोट बेहोश होकर गिर पड़े थे, तो कई छात्रों के शरीर से खून बह निकला। सर्दी में लाठियों की मार से छात्रों को बुरी तरह गुम चोटें आयी हैं। तमाम छात्र-छात्राओं का अस्पताल में उपचार चल रहा है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने ङ्क्षहसक घटना की कड़े शब्दों में निन्दा की और कहा कि किसी प्रकार के हिंसक प्रदर्शन को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। वे इस घटना में शामिल लोगों के िखलाफ कानूनी कार्रवाई की माँग करते हैं। घटना की गहन जाँच होनी चाहिए, ताकि दोषी बच न पाएँ।  दिल्ली के उप राज्यपाल अनिल बैजल ने कहा कि हिंसा को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा उन्होंने शान्ति स्थापित करने के लिए पुलिस को आदेश दिया है और मौके पर जाने को कहा है कि ताकि कोई अप्रिय घटना दोबारा न घट पाए। सोशल मीडिया में जिस तरीके से दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया द्वारा यह वीडियो जारी किया गया कि दिल्ली में भाजपा किस कदर हिंसा कर रही है और बसों व कारों में आग लगवा रही है। इसके बाद दिल्ली पुलिस द्वारा उस बस को ढूँढ निकाला गया, जिसकी मनीष सिसोदिया यह पुष्टि करते दिखे कि इस बस में आग लगायी गयी। जबकि वह बस क्षतिग्रस्त हालत में राजघाट डिपों में मिली। ऐसे में भाजपा ने मामले को देखते हुए आप पार्टी पर हमला की मुद्रा में आकर मनीष सिसोदिया और अमानतुल्लाह के िखलाफ पुलिस में मामला दर्ज कराकर दिल्ली में हिंसा और झूठी अफवाह फैलाने के िखलाफ गिरफ्तारी की माँग की है। भाजपा के नताओं ने कहा कि छात्रों के आंदोलन के पीछे जिस प्रकार घिनौनी राजनीति की जा रही है। उसको दिल्ली की जनता माफ नहीं करेगी।

वहीं आप पार्टी के नेता और राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने कहा है कि दिल्ली में शांति बहाली के लिए उन्होंने लोगों से अपील की है और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मिलने का समय माँगा है।

क्या कहती है पुलिस

साउथ दिल्ली के डीसीपी चिन्मय बिस्वाल का कहना है कि जिन लोगों ने भी बसों और पुलिस की जिस्पी में आग लगायी है, उनके िखलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी। चाहे वो लोग कितने बड़े पद पर क्यों न हों। दिल्ली पुलिस प्रवक्ता मंदीप सिंह रंधावा का कहना है कि जामिया नगर और न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी थाने में दो अलग-अलग एफआईआर दर्ज की गयी हैं। हिंसक घटनाओं में अभी तक 69 लोग घायल हुए हैं, जिसमें 30 पुलिस वाले भी शामिल हैं। बसों में आग लगाए जाने और सार्वजनिक सम्पत्ति को नष्ट किये जाने की जाँच रिपोर्ट क्राइम ब्रांच को सौंपी गयी है, जिसकी जाँच शीघ्र ही आएगी। प्रदर्शन मेें 39 लोग जो घायल हुए उनकी एमएलसी बनी है।  प्रवक्ता का कहना है कि जो भी इस ङ्क्षहसक घटना और भय का माहौल बनाने में शामिल हैं उनके िखलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

भडक़ायी जा रही ङ्क्षहसा!

हकीकत में सच कुछ और ही है…

सच दबाया जा रहा और झूठ उछाला जा रहा है; हिंसा भडक़ायी जा रही है। राजनेता राजनीतिक नफा-नुकसान देखकर बयानबाज़ी करके अपनी •िाम्मेदारी से बच रहे हैं। ऐसा माहौल बनता जा रहा है कि लोग भय में जीने को मजबूर हो रहे हैं। नये नागरिकता संशोधन कानून को लेकर जो माहौल दिल्ली मेें बना है, उसको लेकर विरोध-प्रदर्शन इतने उग्र हो रहे हैं कि लोगों में सरकार के प्रति गुस्सा है। सीलमपुर में पथराव-आगजनी में भयानक स्थिति देखने को मिली तीन बसें क्षतिग्रस्त की गयीं। पाँच मोटरसाइकिल तोड़ी गयीं और तीन को आग के हवाले कर दिया गया। इसके अलावा 20-22 लोग घायल हुए, जबकि 10-12 पुलिस वालों को चोटें आयीं। पत्थरबाज़ी से यमुनापार के लोगों में भय और तनाव का माहौल बना।  दिल्ली के यमुनापार और दरियागंज में जो भी हिंसक-प्रदर्शन और सार्वजनिक सम्पत्ति को नष्ट किया गया, उससे यहाँ पर आने-जाने वाले लोगों को काफी परेशानी हुई। लोगों ने बताया कि हर रोज़ अपनी रोज़ी-रोटी के लिए वे आते-जाते हैं, 17 दिसंबर को वे ऐसे फँसे कि जान हलक में अटक गयी थी। वहीं कुछ लोगों का कहना है कि उनको यह तक पता तक नहीं है कि यह कानून क्या है? अगर इस कानून से किसी को भी दिक्कत है। तो सीधे तौर पर सरकार से सवाल-जबाब करे, पर आम लोगों को परेशान न करे। वहीं दिल्ली में दिहाड़ी मज़दूरी करने वाले दिनेश सिंह, रामकुमार और जानकी लाल का कहना है कि सीलमपुर, जाफराबाद, ब्रिजपुरी और दरियागंज में जो कुछ भी सियासत हुई, उनसे उनको दिहाड़ी नहीं मिल रही और उनके घर रोज़ी-रोटी का संकट आ गया है। क्योंकि जहाँ पर वे काम करते हैं वहाँ मालिक ने िफलहाल काम रोक दिया है।

तहलका संवाददाता को जाफराबाद में देर शाम सुहेल और वसीम ने बताया कि सरकार द्वारा मुस्लिमों के साथ नागरिकता कानून पर ऐसा भेद किया जा रहा है, जैसे पड़ोसी देश के गैर-मुस्लिमों को हिन्दुस्तान में नागरिकता देने की बात की जा रही है। इसका मतलब यह है कि मुस्लिम समाज को हिन्दुस्तान की सुविधाओं से वंचित किये जाने का सरकार का प्लान है। उनका कहना है कि हिंसक-प्रदर्शन में मामले में जब जाँच आएगी तब उनके नाम नहीं आएँगे। क्योंकि सरकार की चाल मुस्लिमों को फँसाने वाली रही है। पर अब ऐसा नहीं होगा। छात्र व जाफराबाद में वस्त्र विक्रेता सुहेल ने बताया कि जो भी जामिया में छात्रों के साथ हुआ है, वह पूरी तरह से सरकार के इशारे में किया गया। छात्रा परवीन खान ने बताया कि देश में महिलाओं के साथ अत्याचार हो रहे हैं, उस पर सरकार कुछ नहीं कर रही है। वे वजह एक खास धर्म को परेशान किया जा रहा है। दरियागंज केन्द्र सरकार के नागरिकता कानून के विरोध में सैकड़ों लोगों के विशाल प्रदर्शन में पूर्व विधायक शोएब इकबाल ने कहा कि केन्द्र सरकार जानबूझकर मुस्लिमों को निशाना बना रही है। जैसे पहले तीन तलाक, अनुच्छेद-370 और अब नागरिकता कानून के बाद एनआरसी कानून को लाकर मुस्लिमों को दबाने का प्रयास किया जा रहा है, अब मुस्लिम समाज दबने वाला नहीं।

एम.सी. शर्मा का कहना है िफलहाल दिल्ली में जो भी सियासी आग लगायी जा रही है, उसमें दिल्ली के आम नागरिकों को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। उनका कहना है कि सदियों से लोग दिल्ली मेंं ही नहीं, पूरे देश में मिलजुलकर रहते आये हैं। पर अब ऐसा क्या हो रहा है, जहाँ देखा वहाँ मारो-भागो और पुलिस की झड़पों की आवा•ों आ रही है। उन्होंने कहा कि अगर ऐसा ही चलता रहा, तो वो दिन दूर नहीं जब देश में एक विभाजन की रेखा ङ्क्षखचती नज़र आएगी। सामाजिक कार्यकर्ता रवि रंजन का कहना है कि दिल्ली में अब आर-पार की लड़ाई वाली बातें हो रही है, जो किसी भी तरीके से सही नहीं है। उनका कहना है कि दिल्ली पुलिस ने जैसे-तैसे जामिया मामले को शान्त किया था। अचानक यमुनापार में हिसंक झड़पें और आगजनी की घटनाओं ने उनको झझकोर रख दिया। जो स्वतंत्र लोकतंत्र के लिए सही नहीं ठहराया जा सकता है।

आखिर किसको झुलसा रहीं सियासी लपटें?

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में जो सियासी आग लगायी जा रही है, उसकी लपटों में नागरिक इस कदर झुलस रहे हैं कि उनके मन में सियासतदानों के प्रति नफरत और गुस्सा पनपने लगा है। ये नेता सिर्फ बयानबाजी कर बच रहे हैं। सच्चाई ये है कि जो भी हिंसक वारदात हो रही है, उसके पीछे निश्चित तौर पर राजनीतिक खेल चल रहा है। वे आम और भोले-भाले बेरोज़गार युवाओं को भटकाने में लगे हैं। तहलका ने अपनी पड़ताल में पाया कि दिल्ली में विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के चलते मुख्य पार्टी के नेताओं ने सुनियोजित तरीके से हिंसा भडक़ायी है। जामिया के छात्र तो अपनी बात शान्तिपूर्वक तरीके से सलीके से रख रहे थे, लेकिन अचानक किसी सियासतदाँ ने रातोंरात ऐसी दस्तक दी कि वेे नागरिकता कानून के विरोध की आड़ में कुछ अराजक तत्त्व कानून को हाथों में लेने से भी नहीं चूके।

इसके बाद पूर्वी दिल्ली, जो छोटे-मोटे काम-धन्धे वालों और दिहाड़ी मज़दूरों का अड्डा माना जाता है; में जो हिंसक झड़पें हुईं। ये हिंसक झड़पें कुछ ही अराजक तत्त्वों द्वारा की गयीं। क्योंकि उनमें •यादातर युवाओं को तो यह भी मालूम नहीं है कि नागरिकता कानून है क्या और इससे किसे क्या फायदा या नुकसान हो सकता है? वे मानते हैं कि हिंसा व तोडफ़ोड़ सब बेकार है। 17 दिसंबर के हिंसक मंज़र से वे खुद दु:खी है।

 विश्वसीयनीय सूत्रों का कहना है कि इस वारदात के पहले पैसों का लालच दिया गया और उन्हें हिंसा के लिए उकसाया गया। सबसे गम्भीर बात यह सामने आयी कि यह नागरिकता कानून से तुम्हें खतरा है, जैसी मनगढ़ंत बातें की गयीं। नशे में धुत दर्जनों युवाओं ने हिंसक प्रदर्शन में भाग लिया। जब पुलिस की तरफ से प्रदर्शनकारियों का भगाया जा रहा था, तब वे लडख़ड़ाकर गिर पड़े। इसी दौरान हिन्दूवादी नेताओं का एक जमघट भी वहाँ पर मामले को भाँपने में लगा था और नागरिकता कानून •िान्दाबाद के नारे भी लगा रहा था।

पाकिस्तान में पहली बार पूर्व तानाशाह को सज़ा-ए-मौत

पाकिस्तान के इतिहास में पहली बार किसी पूर्व राष्ट्रपति व पूर्व सेना प्रमुख को अदालत ने सज़ा-ए-मौत का फैसला सुनाया है। इस्लामाबाद की विशेष अदालत ने पूर्व तानाशाह परवेज़ मुशर्रफ को देशद्रोह के मामले में फाँसी की सजा सुनायी है। नवंबर, 2007 में संविधान की धज्जियाँ उड़ाकर आपातकाल लागू करने के मामले यह सज़ा सुनायी गयी है। उन्होंने देश में आपातकाल लागू करने के बाद मार्शल लॉ लगा दिया था। देशद्रोह का यह मामला दिसंबर, 2013 से लम्बित था। कुछ समय पहले दुबई से परवेज़ मुशर्रफ ने वीडियो जारी कर अपनी खराब सेहत का हवाला देते हुए जाँच आयोग के अपने पास आने का आग्रह किया था, कि वे आयें और जानें कि वेे कैसी हालत में है। उन्होंने देशद्रोह के मामले को निराधार बताया था। विशेष अदालत की तीन सदस्यीय पीठ ने 2-1 के बहुमत से फाँसी की सज़ा का फैसला सुनाया।

क्या है पूरा मामला

विशेष अदालत ने 31 मार्च, 2014 को देशद्रोह के एक मामले में पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख और पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ को आरोपी बनाया था। 2013 के चुनावों में जीत के बाद पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) सरकार में आयी। सरकार आने के बाद पूर्व राष्ट्रपति मुशर्रफ के िखलाफ संविधान की अवहेलना का मुकदमा दायर किया गया था। अभियुक्त परवेज़ मुशर्रफ केवल एक बार विशेष न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत हुए जब उन पर आरोप लगाया गया था। उसके बाद से वो कभी कोर्ट में पेश नहीं हुए। इस बीच मार्च, 2016 में स्वास्थ्य कारणों का हवाला देकर मुशर्रफ विदेश चले गये।

अभी दुबई में हैं मुशर्रफ

मुशर्रफ 2016 में इलाज के लिए पाकिस्तान से दुबई चले गये और अभी वे वहीं निर्वासन का जीवन बिता रहे हैं। अदालत उन्हें पहले ही भगोड़ा घोषित कर चुकी थी साथ ही तल्ख टिप्पणी की थी कि अगर वे फलाँ तारीख को पेश नहीं होंगे, तो वे अपनी बात रखने का हक खो देंगे। हालाँकि, मुशर्रफ की दलील रही है कि वह बीमारी के चलते बाहर हैं और उन्हें सुनवाई में पूरा मौका नहीं मिला। एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक, पाकिस्तान में 2017 में 60 लोगों को फाँसी दी गयी थी और 2018 में यह संख्या घटकर 14 रह गयी।

तानाशाह मुशर्रफ

परवेज़ मुशर्रफ ने 1999 में पाकिस्तान की तत्कालीन नवाज़ शरीफ सरकार का तख्तापलट करके सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया था। उस समय प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ श्रीलंका यात्रा पर गये हुए थे। उनके इस्लामाबाद लौटने के पहले ही उनकी सत्ता छीन ली थी। मुशर्रफ ने खुद को पाकिस्तान का सैन्य तानाशाह घोषित कर दिया। तब लोग बड़ी संख्या में अर्थ-व्यवस्था के लिए चौपट करने वाले प्रशासन से छुटकारा के तौर पर देख रहे थे। 11 सितंबर, 2001 में अमेरिका में हुए अलकायदा के आतंकी हमले के बाद अमेरिका का साथ देकर मुशर्रफ ने अमेरिका को अपना करीबी बना लिया। इसके बाद मिली अमेरिकी आर्थिक मदद से उनको पाकिस्तान की अर्थ-व्यवस्था में तेज़ी लाने में कामयाबी हासिल की। इसी भूमिका ने उनको पाकिस्तान का राष्ट्रपति बनाने में मदद पहुँचायी। 2001 में मुशर्रफ ने पाकिस्तानी सेना प्रमुख रहते हुए खुद को राष्ट्रपति भी घोषित कर दिया। जब राष्ट्रपति बनने के बाद आर्मी चीफ पद छोडऩे की बारी आयी, तो वे मुकर गये। इस तरह से वे 2001 से 2008 तक शासन करने वाले पाकिस्तानसबसे लम्बे शासको में से एक बन गये। हालाँकि, आर्मी चीफ के पद पर नवंबर, 2007 तक यानी रिटायर होने तक वे इस पद पर भी बने रहे।

बुरे दिनों की शुरुआत

2007 तक पाकिस्तान में सब कुछ मुशर्रफ की योजनाओं के अनुसार ही हुआ। जैसे ही 2007 में उन्होंने देश के मुख्य न्यायाधीश को पद से हटाने की कोशिश की, तो उनका विरोध शुरू हो गया। हालात इतने बिगड़ गये कि आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी। इतना ही नहीं, उन्होंने पाकिस्तान के सैकड़ों नेताओं और जजों को भी नज़रबंद करना शुरू कर दिया, कई को नौकरियों से बर्खास्त कर दिया। दिसंबर, 2008 में बेनज़ीर भुट्टो की हत्या ने माहौल को पूरी तरह से उनके िखलाफ बना दिया। 2008 के अगस्त में राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद कुछ समय उन्होंने लंदन में निर्वासित का जीवन बिताया।

नागरिकता क़ानून विरोधी आंदोलन के पीछे कांग्रेस, शाह का आरोप

गृह मंत्री अमित शाह ने गुरूवार को नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर हो रहे प्रदर्शनों और हिंसा के लिए विपक्षी दलों, खासकर कांग्रेस पर, निशाना साधा। शाह ने कांग्रेस को इस आंदोलन के पीछे बताया। दिल्ली में जल्द होने वाले पर चुनाव के मद्देनजर शाह ने केजरीवाल सरकार को  ”झाड़ू सरकार” बताते हुए कहा कि यह सरकार बहुत बड़ा रोड़ा है और हर विकास के काम में अड़ंगा लगाती है।

मौका दिल्ली के कड़कड़डूमा में डीडीए ईस्ट दिल्ली हब के उद्घाटन समारोह का था जहाँ अपने सम्वोधन में शाह ने नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शनों को लेकर भी खूब नाराजगी जताई और हिंसा के लिए कांग्रेस सहित विपक्षी दलों को जिम्मेदार बताया। उन्होंने समारोह में कहा – ”दिल्ली के टुकड़े-टुकड़े गैंग को सबक सिखाया जाना चाहिए।”

केजरीवाल सरकार पर हमला बोलते हुए शाह ने कहा – ”करीब ६० महीने होने वाले  हैं केजरीवालजी को मुख्यमंत्री बने। आज से पहले ये सारे वादे पूरे क्यों नहीं किए।  अभी भी ये वादे पूरे नहीं होने वाले हैं, सिर्फ विज्ञापन देकर ये लोगों को झांसा दे रहे हैं।  उन्होंने जीवन में सिर्फ विरोध करने और धरना देने का काम किया है।”

शाह ने आरोप लगाया कि केजरीवालजी ने प्रधानमंत्री आवास योजना का फायदा गरीब लोगों को इसलिए नहीं पहुंचाया, क्योंकि उस योजना के आगे प्रधानमंत्री नाम जुड़ा है। केजरीवालजी ने भले ही काम नहीं होने दिया लेकिन मोदी सरकार ने अनाधिकृत कालोनियों को स्थाई करने का फैसला कर जनता के बड़े हिस्से को लाभ दिया है।

उन्होंने कहा कि दिल्ली के मुख्यमंत्री नई-नई चीजें करते रहते हैं। उन्होंने एक नई शुरुआत की है, सोचना भी क्यों? बजट भी क्यों देना? भूमि पूजन भी क्यों करना ? उद्घाटन भी क्यों करना? किसी का करा कराया है बस उसपर अपने नाम का ठप्पा लगा देना।

केजरीवाल को ”विकास विरोधी” बताते हुए शाह ने कहा – ”मैं आज आपको सबसे बड़ा रोड़ा क्या है बताना चाहता हूं, मोदीजी, हरदीपजी द्रुत गति से काम करना चाहते हैं, लेकिन ये केजरीवाल झाड़ू सरकार जो है वो बहुत बड़ा रोड़ा है। हर विकास के काम में ये अडंगा लगाते हैं।” शाह ने पिछली कांग्रेस सरकारों को भी विकास के मामले में ”सुस्त” बताया।

सबसे कम उम्र की जलवायु कार्यकर्ता लिसिप्रिया कनगुजम

2011 में मणिपुर की राजधानी इंफाल में पैदा हुई लिसिप्रिया कनगुजम दुनिया के सबसे कम उम्र की जलवायु कार्यकर्ता के तौर पर शुमार हो गयी हैं। उन्हें भारत की ‘ग्रेटा थनबर्ग’ का नाम दिया गया है। उन्होंने मैड्रिड में दुनिया-भर के नेताओं को जलवायु परिवर्तन को लेकर झकझोरा और खरी-खोटी भी सुनायी। उन्होंने कहा कि अब इस पर ज़मीनी स्तर पर काम करने की ज़रूरत समय की दरकार है। उन्होंने इस संकट से लडऩे के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का एक विशेष सत्र बुलाने की भी माँग की।

दिसंबर 2019 में स्पेन की राजधानी मैड्रिड में जलवायु परिवर्तन पर आयोजित कॉप-25 में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस बोले कि भारत की आठ साल की बच्ची की मौज़ूदगी यादगार रही और इसने दुनिया की भावी पीढिय़ों को उनके उत्तरदायित्वों की याद दिलायी। इससे पहले कनगुजम ने यूएन महासचिव से मुलाकात करके दुनिया-भर के बच्चों की ओर से उनको ज्ञापन सौंपा था। ग्रेटा थनबर्ग की तरह ही मासूम ने दुनिया-भर के नेताओं से धरती, इंसानी नस्ल और उसके जैसे बच्चों के भविष्य को बचाने के लिए बिना देर किये कार्रवाई करने का आग्रह किया। यह अपने आप में महत्त्वपूर्ण है कि अगर कोई संवेदनशील व्यक्ति अपने आसपास की आबोहवा पर नज़र रखने के साथ हो रहे बदलावों को करीब से महसूस कर रहा है।

सवाल यह है कि आिखर ऐसा क्यों है कि हर अगले वर्ष जलवायु के सामने खड़ी चुनौतियाँ और गहरी होती जा रही हैं? दुनिया के जो देश कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे •यादा •िाम्मेदार हैं, वे •िाम्मेदारी से बच निकलते हैं। अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का दबाव क्यों नहीं काम कर पा रहा है? ऐसी नौबत क्यों आयी कि नयी पीढ़ी के बच्चोंं की भी नज़र इस समस्या पर जा रही है और वे न केवल खुद अपने स्तर पर काम कर रहे हैं; बल्कि दुनिया को आईना दिखा रहे हैं। जून में भी दुनिया-भर के बच्चों क्लासेज छोडक़र जलवायु परिवर्तन से जुड़ी तिख्तयाँ लेकर सडक़ों पर जुटे और नेताओं व •िाम्मेदारों को जगाने का प्रयास किया था।

क्राउडफंडिंग से पहुँचीं मैड्रिड

कंगुजम जलवायु परिवर्तन पर अब 21 देशों में अपनी बात रख चुकी हैं। उन्हें दक्षिणी गोलाद्र्ध की ‘ग्रेटा थनबर्ग’ का नाम दिया गया है।

पिता के.के. सिंह ने बताया कि जब मैड्रिड का निमंत्रण मिला तो खुश भी थे और नाखुश भी। नाखुशी की वजह यह थी कि उनको समझ नहीं आ रहा था कि पैसे कहाँ से आएँगे।

पिता के अनुसार, कई मंत्रियों को ई-मेल कर यात्रा खर्च उठाने का अनुरोध किया, पर कोई जवाब नहीं मिला।

इसके बाद क्राउडफंडिंग (लोगों से चंदे के ज़रिये पैसे जुटाना) की कोशिश के बाद भुवनेश्वर के एक सज्जन ने मैड्रिड के टिकट करवाये।

कंगुजम की माँ ने अपनी सोने की चेन बेच दी, जिसके बाद होटल में ठहरने की व्यवस्था हो सकी।

खुशी की बात यह रही कि यह सब करने के बाद उनको ई-मेल मिला कि 13 दिन की यात्रा का खर्च स्पेन सरकार उठाएगी।

क्यों तेवर में दिखी थीं ग्रेटा थनबर्ग

दुनिया-भर के नेताओं को सितंबर, 2019 में संयुक्त राष्ट्र के ‘क्लाइमेट एक्शन’ समिट के दौरान झकझोरने वाली 16 वर्षीय ग्रेटा थनबर्ग के तेवर यूँ ही नहीं दिखे थे, बल्कि इससे वो खुद पीडि़ता हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक, ग्रेटा थनबर्ग एस्परजर सिंड्रोम नामक बीमारी से पीडि़त है। एस्परजर सिंड्रोम एक तरह का ऑटिज़्म है, जो लोगों के बातचीत करने और दूसरों से सम्पर्क बनाने की क्षमता को प्रभावित करता है। ग्रेटा ने बताया था कि उन्होंने लम्बे समय तक अवसाद, अलगाव और चिन्ता झेली है। इससे प्रभावित लोगों के व्यवहार में कई बार दोहराव दिखता है और इससे पीडि़त लोग अपनी बात सामान्य ढँग से नहीं रख पाते।

कांग्रेस की भारत बचाओ रैली में दिखा गाँधी परिवार का रुतबा

भारत बचाओ रैली में कांग्रेस पार्टी के देश भर से आये नेताओं व कार्यकर्ताओं ने 14 दिसंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान से भाजपा की मोदी सरकार और संघ विचारधारा पर हमला किया। इस रैली से कांग्रेस ने साफ संदेश दिया कि मोदी है, तो देश में असफलता और अराजकता है।

रैली से यह भी साफ हुआ कि भले ही कांग्रेस पार्टी चुनावों में असफल रही है, मगर उसका जनाधार देश में है और कई राज्यों में सरकारें हैं। रामलीला मैदान में पार्टी के कार्यकर्ताओं को देखकर कांग्रेस आलाकमान गदगद दिखा। इस दौरान राहुल गाँधी ने कहा कि कांग्रेस पार्टी देश में केन्द्र सरकार की जनविरोधी नीतियों को डटकर मुकाबला करेगी। राहुल गाँधी ने जब कहा कि मैं राहुल सावरकर नहीं हूँ, राहुल गाँधी हूँ। उन्होंने कहा कि वे किसी भी हालत में संसद में रेप इन इंडिया वाले बयान पर माफी नहीं माँगेेंगे। रैली में देश भर से आये कांग्रेस के नताओं और कार्यकर्ताओं से तहलका संवाददाता ने जब बात की, तो उन्होंने कहा कि कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी है, जो देश के सभी वर्गों के लोगों को साथ लेकर चलना चाहती है और संविधान पर भरोसा करती है। रैली में प्रदर्शन कर कांग्रेस पार्टी ने इस बार इस ओर इशारा कर दिया है कि राहुल गाँधी ही कांग्रेस के नेता होंगे और देर-सवेर उनको ही कांग्रेस की बागडोर सौंपी जाएगी। रैली में कार्यकर्ताओं ने काले गुब्बारे उड़ाकर केन्द्र सरकार की नीतियों का विरोध किया और मौज़ूदा दौर में देश में मची अराजकता और आर्थिक मंदी पर विरोध जताया गया। रैली को कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गाँधी, उपाध्यक्ष राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी सहित वरिष्ठ नेताओं ने सम्बोधित कर एक सुर में मोदी की जनविरोधी और देश तोडऩे वाली नीतियों पर जमकर हमला बोला। नेताओं ने कहा कि अब तो आर-पार की लड़ाई से ही देश की रक्षा की जा सकती है।

सोनिया गाँधी ने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में केन्द्र सरकार पर हमला करते हुए कहा कि आज का माहौल ऐसा हो गया है कि सरकार जब मर्ज़ी हो, तो जो चाहे धारा लगा देती है और कोई भी धारा हटा देती है। उन्होंने कहा कि भाजपा तो संविधान बचाओ के नाम पर संविधान दिवस मनाती है। जबकि भाजपा का संविधान से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे में वह कोई भी बिल बिना बहस के पास करती है; जो लोकतंत्र के लिए सही  नहीं है। सोनिया ने रैली के मार्फत यह संदेश  दिया है कि अब केन्द्र सरकार की जो भी देश-विरोधी नीतियाँ हैं, उनका विरोध करना ही एक मात्र रास्ता है। उन्होंने कहा कि अब देश में अंधेर नगरी चौपट राजा वाली बात सही साबित हो रही है। राहुल गाँधी ने कहा कि आज देश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं और मज़दूरों के अधिकार  छीने जा रहे हैं। आर्थिक व्यवस्था चौपट हो रही है। उन्होंने कहा कि बड़ा ही दु:खद है कि जब संसद में उन्होंने सवाल किया कि देश में अभी तक कितने किसानों ने आत्महत्या की है, तो जवाब मिला कि पता नहीं है। ऐसी देश में सरकार चल रही है। नागरिकता कानून के नाम पर नॉर्थ ईस्ट जल रहा है, वहाँ के लोग गुस्से में हैं। सरकार क्या कर रही है? नागरिकता कानून के नाम पर कानून की धज्जियाँ उड़ा रही हैं। राहुल आरोप है कि जिस प्रकार नागरिकता कानून को लेकर देश में एक विभाजन की रेखा खींचने का प्रयास किया जा रहा है, उसका वह पुरज़ोर विरोध करते हैं और करते रहेंगे। क्योंकि देश में सभी धर्मों व वर्गों के लोगों को एक साथ रहने का अधिकार है। इस मामले पर वे चुप बैठने वालों में से नहीं हैं कि सरकार कुछ भी करती रहे और हम चुपचाप देखते रहें। सबसे चौंकाने वाली बात राहुल गाँधी के  भाषण ये सामने आयी है कि राहुल गाँधी के तेवर आक्रामक दिखे और कार्यकर्ताओं की हौसला अफजाई वाले दिखे। जैसे उनहोंने कहा कि कांग्रेस का कार्यकर्ता, किसी से नहीं डरता। उन्होंने भी कहा कि संसद वाले बयान पर वह माफी नहीं माँगेगे चाहे वह मर जाएँ।

कांग्रेस पार्टी की महासचिव प्रियंका गाँधी ने कहा कि देश में मोदी है, तो मुमकिन है- आर्थिक मंदी और बेरोज़गारी। क्योंकि देश में आर्थिक मंदी से कई कम्पनियाँ बन्द हो रही है। युवाओं के सामने रोज़ी-रोटी का संकट है, वे बरोज़गार है। यह भाजपा की सरकार झूठों की सरकार है। उन्होंने रैली में आये कार्यकर्ताओं से अपील की है कि वे आवाज़ उठाएँ, नहीं तो देश बँट जाएगा। क्योंकि जिस प्रकार देश में भाजपा सरकार जो काम कर रही है, वे पूरी तरह से देश को बाँटने वाली नीतियाँ हैं। उन्होंने कहा कि अगर आज देश में आवाज़ नहीं उठायी जाएगी, तो यह आवाज़ झूठे प्रचार के नाम पर दब जाएगी।

इस अवसर पर दिल्ली कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सुभाष चोपड़ा ने कहा कि दिल्ली में सन् 2020 में विधानसभा के चुनाव हैं। दिल्ली का चुनाव कांग्रेस पार्टी के लिए अहम चुनाव है। उन्होंने कहा कि केन्द्र और दिल्ली की आप पार्टी की सरकारों से जनता दु:खी है। उन्होंने कहा कि दिल्ली में आप पार्टी सरकार और केन्द्र सरकार हर मोर्चे में असफल हैं। देश और दिल्ली में प्याज की बढ़ती कीमतों से हाहाकार मचा हुआ है और दिल्ली की आप पार्टी की सरकार अपनी •िाम्मेदारी से बचने के लिए केन्द्र सरकार को •िाम्मेदार मान रही, तो मोदी सरकार दिल्ली की सरकार को •िाम्मेदार मान रही है। ऐसे हालात दिल्ली में है, जिससे जनता काफी दु:खी है।

रैली में पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, पूर्व गृह मंत्री पी. चिदंबरम, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री सहित कांगेस के राष्ट्रीय व राज्य प्रवक्ताओं ने सम्बोधित कर मोदी सरकार पर जमकर हमला बोला। कांग्रेस नेताओं ने कहा कि भाजपा के शासन में देश जल रहा है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं। मोदी सरकार देश को बाँटकर लोगों को गुमराह करने में लगी है। जैसे नागरिकता कानून के नाम पर जहाँ देखो, वहाँ विरोध हो रहा है; पर सरकार इसे अपनी उपलब्धि बताकर जश्न मना रही है। दिल्ली के अलावा उत्तर प्रदेश, मध्य-प्रदेश और राजस्थान से आये कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने कहा कि कांग्रेस पार्टी ही एक ऐसी पार्टी है, जिसने देश को सब कुछ दिया है। देश में जब भी भाजपा और अन्य दलों की सरकारें बनी हैं, तो वे देश को नहीं सँभाल पायी हैं और हर मोर्चे पर असफल रहीं। ऐसे में कांग्रेस पार्टी ही एकमात्र विकल्प बनकर उभरी है। अब फिर देश में कांग्रेस ही एक विकल्प बची है, जो देश में विकास करके भाईचारा ला सकती है।

थार में जलधार, लेकिन बढ़ते तापमान से किसानों का पलायन बढ़ा, फसल चक्र गड़बडाय़ा

खेती-किसानी तो भूरजी की •िान्दगी में उम्र के तेरहवें बरस में ही रच बस गयी थी। पिता की ऊँगली थाम कर खेत-खलिहान जाने लगे तो पुश्तैनी धन्धे की बारीिकयों से भी बावस्ता हो गये। लेकिन इस पूरे दौर में उन्होंने मौसम को बदमिजाज़ होते नहीं देखा। गर्मी, सर्दी और फुहार छोड़ते बरसाती थपेड़े अपने वक्त के साथ आते जाते रहे। मानसून की विदाई भी तय वक्त पर होती रहीं। मौसम की इस नियमित आवाजाही को भूरजी ने चढ़ती उम्र के साथ बखूबी देखा। कुदरत के इस मिजाज़ के टूटने-बिखरने की उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी। लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता यह तस्वीर धुँधलाने लगी। उम्र के 50वें साल की दहलीज लाँघते भूरजी के बालों में सफेदी झलकने लगी है। चेहरे पर उम्र की दस्तक देती झुर्रियों के बीच मिचमिचाई आँखों से झाँकते भूरजी की बातों में गहरा अवसाद झलकता है कि राजस्थान में तो इस सदी की शुरुआत में ही बरसात ने अपने तेवर बदलने शुरू कर दिये थे। भूरजी कहते हैं, पिछले एक दशक में तो सब कुछ छिन्न-भिन्न हो गया। अजमेर •िाले के रेगिस्तानी हलके में पडऩे वाले नरेरा गाँव में ईंटों से बनी अपनी टापरी में बिछी चारपाई पर बैठे भूरजी की आँखें यह कहते हुए डबडबा जाती है कि अंधाधुन्ध बारिश के बाद सुलगते आसमान से कहर बरसाता तापघात पानी की बूँद भी नहीं छोड़ेगा? ऐसे में क्या उगाएँगे? और क्या खाएँगे? नतीजा होगा- गावों से पलायन! किसान की इससे बड़ी बदनसीबी और क्या होगी कि अपनी धरती खेती और ढोर-डंगर छोडक़र रोटी-रोजगार के लिए भटकना पड़ जाए?

इतिहास के फलक पर तियालीस अकाल देख चुके राजस्थान का दो-तिहाई हिस्सा मरुस्थलीय है। जैसलमेर जोधपुर, बाड़मेर, बीकानेर, गंगानगर, हनुमानगढ़ और सीकर समेत तेरह •िालों वाले इस हिस्से में औसत वर्षा 354 मिली मीटर होती रही है, जो कि सबसे कम है। नतीजतन यहाँ सर्वाधिक तापमान रहता है। गुरुवार 12 दिसंबर को यह रेस्तिानी इलाके तूफानी बारिश और ओलों की सफेद चादर में लिपट गये। रेगिस्तान में कश्मीर सरीखा नज़ारा था। मौसम विभाग का कहना था कि जम्मू-कश्मीर पर बने पश्चिमी विक्षोभ से राजस्थान तथा इससे सटे भागों पर बने कम दबाव के कारण मौसम ने करवट ली। गुरुवार 12 दिसंबर को शेखावाटी में तो मौसम पूरी तरह बदल गया। जबकि मौसम विभाग ने इस बार तो 9 अक्टूबर को थार में मानसून विदाई की घोषणा कर दी थी। इस बारिश ने थार में 1961 का रिकॉर्ड धराशायी कर दिया।

इससे पहले 1961 में 01 अक्टूबर को मानसून की विदाई हुई थी। इस बार मानसून राजस्थान में न सिर्फ एक सप्ताह देरी से आया था। जबकि पश्चिमी राजस्थान में तो इसकी आमद 20 दिन की देरी से हुई थी। वरिष्ठ पत्रकार गजेन्द्र सिंह दहिया का कहना है कि पश्चिमी विक्षोभों और उष्ण चक्रवाती तूफानों ने भारतीय उपमहाद्वीप की जलवायु में बड़े परिवर्तन के संकेत दिये हैं। मौसमी जानकारी से जुड़े सरकारी प्रतिष्ठान ‘काजरी’ के निदेशक डॉ. ओ.पी. यादव का कहना है कि जलवायु के विभिन्न कारकों में तेज़ी से परिवर्तन हो रहा है। विश्व को एक साथ बैठकर संकल्प के साथ इससे निपटना होगा। मौसम विभाग के अनुसार, पिछले पाँच साल में अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से आने वाले चक्रवाती तूफानो में 20 फीसदी इज़ाफा हुआ है। नवंबर के पहले सप्ताह में ही तीन चक्रवात ‘क्यार’ ‘महा’ और ‘बुलबुल’ आ गये। थार में इस बार मानसून देरी से 2 जुलाई को पहुँचा और 9 अक्टूबर को सिर्फ कथित रूप से विदा हुआ। इस तरह मानसून 100 दिन रहा, जो कि मौसम विभाग के इतिहास में रिकॉर्ड है।

मौसम विभाग के सूत्रों का कहना है कि इस साल भूमध्य सागर और कैस्पियन सागर से आने वाली हवाएँ देरी से आयीं। नतीजतन सर्दी 20 मार्च तक खिंच गयी। पश्चिमी से चलने वाली हवाएँ मई, जून तक चलती रहीं। नतीजतन अंधड़ उठे, तो मानसून आने में देरी हो गयी। मौसम विज्ञानियों का कहना है कि उत्तरी हिन्द महासागर में पिछले 10 साल में चक्रवाती तूफानों की तीव्रता 11 प्रतिशत बढ़ गयी। अरब सागर और बंगाल की खाड़ी दोनों में चक्रवाती तूफानों का औसत अनुपात 1.4 है। पिछले 10 साल में अरब सागर में 33 और बंगाल की खाड़ी में 262 चक्रवाती तूफान आये। लेकिन 2018 और 2019 में सात-सात चक्रवाती तूफानों ने वैज्ञानिकों की नींद उड़ा दी। जबकि सात में से छ: तो बहुत ही खतरनाक िकस्म के थें। चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि 1980 के बाद से देश में हैजे के बढ़ते प्रकोप की वजह भी जलवायु परिवर्तन रही। बेशक मलेरिया में कमी आयी, लेकिन डेंगू ने भारी आतंक मचाया। सेन्ट्रल एरिड जोन रिसर्च इंस्टीट्यूट (काजरी) जोधपुर की एक रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन को प्रदेश के रेगिस्तानी इलाकों में मानवीय जीवन केे लिए ज़बरदस्त खतरा बताया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि, तापमान बढऩे से पानी का वाष्पीकरण बढ़ेगा। रिपोर्ट में इस बात का साफ अंदेशा जताया गया है कि 35 मिलीमीटर से 96 मिलीमीटर तक वाष्पीकरण तो होना तय है। नतीजतन किसान भारी संख्या में खेती-बाड़ी और अपना पशुधन छोडक़र जाने को बाध्य हो जाएँगे।

काजरी के सूत्रों का कहना है कि तापमान में एक डिग्री बढ़ोतरी का मतलब है गंगानगर को 276.19 एमसीएम पानी की दरकार होगी और हनुमानगढ़ को 245.33 एमसीएम पानी की ज़रूरत बढ़ जाएगी। रिपोर्ट में कहा गया है कि थार क्षेत्र में सिंचाई के लिए कुल उपलब्ध भूजल 3516.9 एमसीएम है। लेकिन एक प्रतिशत बढ़ते तापमान से भूजल की ज़रूरत में 44 प्रतिशत का इज़ाफा हो जाएगा। नतीजतन अतिरिक्त जल की आवश्यकता •यादा तादाद में भूजल क्षेत्रों को डार्क जोन में धकेल देगी। अतिरिक्त पानी की ज़रूरत का मतलब होगा अतिरिक्त ऊर्जा और अतिरिक्त संसाधन। नतीजतन लोगों का जीवनयापन मुश्किल हो जाएगा। परिणामस्वरूप काश्तकारों के लिए अपना घर-बार छोडऩे के अलावा कोई विकल्प नहीं रहेगा। समाज विज्ञानियों का कहना है कि ‘काश्तकारों के पलायन की पहली खेप तो शुरू हो भी चुकी है। राजस्थानी संस्कृति और विरासत के संरक्षण में जुटी ज़ाहिदा शबनम का कहना है कि यह स्थिति तो काश्तकारों को जबरन गरीबी की खंदक में धकेल देगी। किसान नेता रामसिंह कस्वां का कहना है कि थार में जलवायु तो पूरी तरह बदल चुकी है। हालाँकि रेगिस्तानी इलाकों को सूखे से निजात दिलाने में मुख्य भूमिका तो इंदिरा गाँधी नहर की रही। तब थार के टीबों में हरियाली का अछूता सौंदर्य बिखर गया था। लेकिन जलवायु परिवर्तन फिर इसे डार्क जोन में धकेल रहा है। मौसम की बदमिजाज़ी से उबारने की कोशिशों में तेज़ी लाने के लिए पिछले दिनों जयपुर के छात्र भी सक्रिय हुए थे। तब एलबर्ट हाल पर जुटे छात्रों ने तापमान में बढ़ोतरी के चलते काश्तकारों के पलायन और फसल चक्र में बदलाव को रोकने के मुद्दे उठाये थे। छात्रों की अगुआई कर रही अंशिका जैन का कहना था- ‘हर पल में हमें बरसात के मिजाज़ में बदलाव देखने को मिल रहा है। बारिश है कि थम नहीं रही है। इस समस्या से निपटने के लिए तो हम सबको मिलकर काम करना होगा।

कुदरती खौफ को लेकर मौसम विज्ञानी बहुत कुछ पहले ही कह चुके थे कि दिसंबर में उत्तरी पश्चिमी मध्य भारत और उत्तर-पूर्व राज्यों में औसत तापमान एक से तीन डिग्री •यादा रहेगा। इस तरह 2019-20 की सर्दियों के मौसम में लगातार पाँचवाँ साल होगा। ‘स्काईमेट’ के महेश पालावत के मुताबिक, सर्दियों में हिमालय के दक्षिणी हिस्से में पश्चिमी विक्षोभ बढ़ जाते हैं। अक्टूबर, 2019 से लेकर फरवरी 2020 तक चार से पाँच पश्चिमी विक्षोभ, तो आएँगे ही आएँगे। हालांकि इस मामले में जापान की राष्ट्रीय मौसम एजेंसी ‘एप्लीकेशन लेबोरेट्री ऑफ जेम्सटेक’ की भविष्यवाणी को भी दरगुज़र नहीं किया जा सकता कि इस बार मानसून लम्बा चलेगा। इसका असर सर्दी पर भी दिखेगा। मानसून की देर से हुई विदाई से अगर कोई अच्छी बात हुई, तो •यादा दिनों तक ठहरे बादलों ने तापमान में गिरावट पैदा की।’ नतीजतन प्रदेश में 100 से 150 लाख यूनिट बिजली का उपभोग कम हुआ। इस बात की तस्दीक जोधपुर डिस्कॉम के निदेशक अविनाश सिंघवी भी करते हैं कि तापमान कम होने से थोड़ा प्रभाव तो पड़ा ही। हर साल 5 से 7 प्रतिशत बिजली उपभोग बढ़ता है। लेकिन इस बार नहीं बढ़ा। समाज शास्त्रियों का कहना है कि विद्युत संचय अच्छी बात हो सकती है। लेकिन जनहानि की कीमत पर तो इस बात से आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता।

पर्यावरण की •यादा ज़ाहिर त्रासदी तो बुरी तरह झकझोर देने वाली है। जल संकट दहलीज पर आ पहुँचा है और सरकार है कि अब भी तमाशाई की तरह खड़ी है। पर्यावरणविदों की इससे बड़ी चेतावनी क्या होगी कि, प्रदेश के जयपुर, जोधपुर, अजमेर और बीकानेर समेत 21 शहरों में 2020 तक भूजल पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। सूबे के 33 •िालों के कुल 275 भूजल ब्लॉक में से 184 अतिरोहित श्रेणी के हैं। चिंता की बात तो यह है कि पानी का दोहन जिस अंधाधुन्ध तरीके से हो रहा है। रिचार्ज उस स्तर पर नहीं हो रहा। जोधपुर में तो पानी 165 मीटर से भी •यादा नीचे चला गया है। केन्द्र व राज्य की सरकारें और देश की दशा व दिशा निर्धारित करने वाले राजनीतिक दल दशकों से योजनाएँ बना रहे हैं। भविष्य में हर घर में नल से पानी देने की घोषणाएँ हो रही है। लेकिन मसला इतना आसान नहीं रह गया है।

मौसम की बदमिजाज़ी का कहर फसलों पर बुरी तरह टूटा है। लागत बढ़ेगी और उत्पादन घटेगा तो किसान क्या करेंगे? किसान नेता राम सिंह कस्वां बताते हैं कि फसल चक्र में तो पूरी तरह बदलाव आ चुका है। किसान खरीफ की दूसरी फसलों की तरफ मुड़ रहे हैं। रामसिंह कहते हैं, संकर मूँग की फसल 60 दिन में पक जाएगी, तो किसान क्यों किसी और फसल का जोखिम लेगा? रामसिंह कहते हैं कि फिर सबसे बड़ी बात पैदावार का •यादा होना। इस सवाल पर कि फिर परम्परागत फसलों का क्या होगा? वे कहते है कि वो बात तो अब आप भूल जाइए। कृषि विभाग के एक बड़े अधिकारी जयंतीलाल कसेरा कहते हैं कि कोई तीन दशक पहले उड़द, मक्का और मूँगफली जैसी खरीफ की फसलें बोने वाले काश्तकारों ने कम लागत और अधिक पैदावार की उम्मीद में सोयाबीन की बुआई शुरू की थी। सोयाबीन की तरफ उनके रुझान को देखते हुए इसे पीला सोना कहा जाने लगा था। नतीजतन सोयाबीन का रकबा बढ़ा, तो माँग में भी तेज़ी आयी।

लेकिन मौसम ने इतना कहर ढाया कि इसी सोयाबीन ने कई किसानों को उजाड़ दिया। इस साल में अतिवृष्टि ने 60 फीसदी फसल को तबाह कर दिया। देश में मध्य प्रदेश को सोयाबीन का सबसे बड़ा उत्पादक सूबा माना जाता है। अकेले मध्य प्रदेश में अतिवृष्टि से 45 सौ करोड़ की फसल डूब गयी। कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि देश से सोयाबीन का सालाना 25 लाख टन निर्यात होता है। अब यह घटकर चौथाई रह जाए, तो ता•ज़ुब नहीं होगा? अलबत्ता सरकार वक्ती तौर पर जो कर सकती है, वो कर रही है। फसल नुकसान से काश्तकारों को दमदार या फिर किसानों का पलायन और पशुओं का निष्क्रमण रोकना। लेकिन ये कोशिशें भी तो आपदा को देखते हुए पर्याप्त नहीं कही जा सकती। लेकिन सबसे बड़ा सुलगता सवाल तो जलवायु परिवर्तन का असर कम करना है। यह एक बड़ी वैश्विक मुहिम का हिस्सा है। लेकिन िफलहाल तो लोग खामियाज़ा ही भुगत रहे हैं।

देश के जिन राज्यों में जल संकट मुहाने पर है, राजस्थान भी उनमें से एक है। राजस्थान में जलसंकट से निजात दिलाने की नदी जोडऩे की चार परियोजनाएँ पिछले कई साल से केन्द्र सरकार में अटकी पड़ी है। राजस्थान की ईआरसीपी परियोजना को लेकर मध्य प्रदेश और राजस्थान सरकार के बीच तो पिछले एक साल में एक ही बैठक हुई। आिखर ऐसे कैसे बात बनेगी? जबकि ईस्टर्न राजस्थान कैनाल प्रोजेक्ट (ईआरसीपी) की डीपीआर मंज़ूर हो चुकी है; लेकिन यह केन्द्रीय जल आयोग के पास पड़ी है। जबकि करीब 40 हज़ार करोड़ की लागत वाली इस परियोजना से जयपुर समेत थार के 13 •िालों को मुश्किलों से निज़ात मिल सकती है। नीति आयोग इस मामले के राज्यों की खिंचाई कर रहा है कि नदी जोडऩे का मुद्दा सुलझाने में राज्यों का रवैया सहयोगी नहीं है। लेकिन राज्यों पर इसका कोई असर नहीं हो रहा?

सूख जाएगा भूगर्भ जल?

राजस्थान में भूगर्भ जल दोहन के कारकों का अच्छा खासा अध्ययन कर चुके किसान नेता राम सिंह कस्वां दो टूक कहने से नहीं चूकते कि जल संचय के प्रति लोग अपेक्षित रूप से गम्भीर नहीं है। जल दोहन की रफ्तार अगर यही रही तो, जल्दी ही भगर्भ सूख जाएगा। इसका सीधा असर शुद्ध पेयजल, फसल सिंचाई और हरियाली पर पड़ेगा। ता•ज़ुब की बात है कि अजमेर सम्भाग में कई इलाके ‘डार्क जोन’ घोषित है। लेकिन बावजूद इसके धड़ल्ले से भूजल दोहन जारी है। रामसिंह कहते हैं कि राजस्थान में पीने के पानी का 87 प्रतिशत हिस्सा भूजल से लिया जाता है। सिंचित क्षेत्र का 60 प्रतिशत हिस्सा भी भूजल से ही मिलता है। बावजूद इसके भूजल दोहन की रफ्तार नहीं घट रही है। कस्वां कहते हैं, ‘राजस्थान में भूजल की तस्वीर सिहराने वाली है। राज्य के केवल 30 जोन ही सुरक्षित है। अन्यथा बाकी के 203 ब्लॉक तो पूरी तरह डार्क जोन में है। इनमें भी छ: तो बेहद खतरनाक स्थिति में है। सुरक्षित क्षेत्र अगर कोई है तो, उत्तर में गंगानगर और हनुमानगढ़ है, जहाँ इंदिरा गाँधी नहर से सिंचाई होती है। जबकि दक्षिण में बांसवाड़ा और डूंगरपुर है , जहाँ तीन बाँधों से सिंचाई होती है। राज्य के उत्तरी पश्चिमी इलाके में जहाँ मरुस्थल है, वहाँ भूजल रिचार्ज की काफी सम्भावनाएँ है। लेकिन कुदरती रिचार्ज की स्थितियाँ नहीं के बराबर है। इसकी वजह औसत वर्षा की कमी होना है। रामसिंह दो प्रतिरोधी स्थितियाँ भी बयान करते हैं कि जहाँ रिचार्ज के लिए पानी है, वहाँ भूमि की स्थिति रिचार्ज के अनुकूल नहीं है और जहाँ रिचार्ज की सम्भावनाएँ है, वहाँ बारिश नहीं होती।

कस्वां कहते हैं कि राजस्थान में पिछले 40 साल में भूजल स्तर में 20 से 80 मीटर की गिरावट आ चुकी है। राजस्थान में भूजल अगर सबसे प्रदूषित है, तो इसकी बड़ी वजह भी यही है। कुछ राज्य जल अनुबन्धों की भी राम सिंह विवेचना करते हुए सुझाव देते हैं कि घग्गर के जल को पाकिस्तान जाने से रोका जा सकता है। यमुना जल को राजस्थान में लाने की योजना कहाँ गुम है? जबकि इस पानी को शेखावाटी सम्भाग के चूरू और झुँझनू •िालों में लाया जाना है। इसमें देरी क्यों? माही बाँध का 40 टीए पानी गुजरात के कड़ाणा बाँध में जाता है। इससे गुजरात सरकार खेड़ा •िाले में सिंचाई करती थी। अब खेड़ा में नर्मदा से सिंचाई होने लगी। तो इस अनुबंध को खत्म किया जाना चाहिए। यह पानी पाली, जोधपुर, नागोर सरसब्ज़ कर सकता है। कस्वां कहते हैं, पश्चिमी राजस्थान में पानी के सम्पूर्ण बंदोबस्त के लिए भूगर्भ जल को एकत्रित करना होगा। इसके लिए राजस्थान में चार चुनिंदा क्षेत्र भी है, जहाँ भूमि के अंदर बड़े एक्वाफायर है। लेकिन सवाल इस दिशा में ठोस कदम उठाने का है।