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सर्दी का सितम टूटा 118 साल पुराना रिकॉर्ड

रिकॉर्ड बनते ही टूटने के लिये इस बार ऐसा ही हुआ दिल्ली में सर्दी के रिकॉर्ड का जो 118 साल के रिकॉर्ड को तोड़ते हुये दिल्ली में सर्दी के सितम से लोग काँप उठे। और लोगों ने कहा कि उन्होंने अपनी ज़िान्दगी में ऐसी सर्दी नहीं देखी। जो दिसंबर 2019 की 14 तारीख से लगातार 31 दिसंबर तक देखी। तहलका संवाददाता ने जब मौसम विशेषज्ञ और डॉक्टरों से सर्दी के बढ़ते प्रकोप और इससे होने वाले नफा-नुकसान के बारे में बात की, तो उन्होंने बताया कि कोई भी चीज़ हो एक अति के बाद  नुकसान ही पहुँचाती है। ऐसा ही सर्दी के प्रकोप से भी हृदय, दिमाग और अस्थमा रोगियों के साथ बच्चों के स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ा। प्रकृति के प्रकोप को कोई चैलेंज नहीं कर सकता है और जो करता है वह औंधे मुँह गिरता है। जैसा की आज के दौर में हो रहा है।

मैक्स अस्पताल साकेत के हृदय सर्जन डॉक्टर रजनीश मल्होत्रा का कहना है कि सर्दी के मौसम में ब्रेन अटैक, हृदय अटैक और बच्चों को सांस लेने में दिक्कत होती है। हृदय रोगियों के लिए तो सर्दी का मौसम कहर बनकर आता है अगर ज़रा-सी लापरवाही हुई तो काफी घातक हो सकती है, सर्दी। क्योंकि सर्दी के मौसम मधुमेह और हाई बीपी की शिकायत से पीडि़त मरीज़ों को सर्दी में सुबह-सुबह टहलने से बचना चाहिए, ताकि किसी प्रकार का कोई  नुकसान ना हो सके। डॉक्टर मल्होत्रा का मानना है कि सर्दी के मौसम हृदय अटैक के मामले ज़्यादा सामने आते हैं।

दिल्ली में पड़ी कडक़ड़ाती सर्दी के बारे में 48 वर्षीय रमन लाल ने बताया कि सर्दी तो दिसंबर और जनवरी में पड़ती ही है, पर ऐसी सर्दी उन्होंने अपनी उम्र में अभी तक नहीं देखी थी। सर्दी के पडऩे से इस बार सबसे ज़्यादा अगर कोई लाभ में रहा था तो वो हीटर विक्रेता, जिन्होंने अपने पुराने से पुराने हीटरों को जमकर मुँह माँगे दामों में बेचा है। लक्ष्मी नगर मेें हीटर विके्रता प्रदीप गुप्ता ने बताया कि गत वर्षों से सर्दी इस साल की तरह नहीं पड़ी थी, इसलिए उन्होंने हीटरों का स्टॉक कम रखा था पर सर्दी में लगातार 15 दिनों तक प्रकोप के कारण लोगों ने इससे बचने के लिए जमकर हीटरों की खरीददारी की। सर्दी के बढऩे से दिल्ली वाले काफी खुश भी दिखे उन्होंने कहा कि एक सदी बाद दिल्ली में जो सर्दी पड़ रही है, उसका मज़ा लीजिए, क्योंकि गर्मी के सितम से तो लोग बेहाल हो जाते हैं।

प्रादेशिक मौसम पूर्वानुमान केन्द्र के वैज्ञानिक डॉक्टर कुलदीप श्रीवास्तव ने बताया कि सर्दी तो दिसम्बर और जनवरी में हर साल पड़ती है। पर इस बार सर्दी पिछले कुछ दशकों की अपेक्षा अधिक पड़ी इसकी मुख्य वजह यह है कि 14 से 31 दिसंबर तक क्लाउड की लेयर पंजाब से लेकर पश्चिमी उत्तर-प्रदेश तक थी। इसके कारण सूर्य की रोशनी नहीं मिल सकी जो सर्दी कर कारण बनी और 12 और 13 दिसंबर को पश्चिमी विक्षोभ पहाड़ जो जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड की पहाडिय़ों से बर्फीली हवाओं का तेज़ चलना रहा है। जिसके कारण सर्दी पड़ी है। वैज्ञानिक का मानना है घना कोहरा भी सर्दी का कारण बनता है।

श्रीवास्तव ने बताया कि शिमला के पहाड़ों की ऊँचाई 15 से 18 सौ मीटर है। जबकि दिल्ली में 500 मीटर की ऊँचाई पर है, जिसके कारण ठंड ज़्यादा पड़ी है। 119 साल में 31 दिसंबर सबसे ठंडा दिन रहा है। दिसंबर 2019 का औसत अधिकतम तापमान 18.7 डिग्री सेल्सियस रहा है। इससे पहले दिसंबर 1997 का औसत अधिकतम तापमान 17.5 रहा है। मौसम विभाग के अनुसार 1901 से दिसंबर का औसत अधिकतम तापमान सिर्फ पाँच बार 20 डिग्री के आस-पास रहा है। जैसे 1919, 1929, 1961, 1997 और अब 2019 है। इस बार 30 दिसंबर को 118 साल के रिकॉर्ड को तोड़ दिया। इस दिन अधिकतम तापमान 9.4 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया है। जो 1901 के बाद का सबसे कम दिल्ली में 2.6 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया है।

दरअसल, वायु प्रदूषण भी तापमान को नीचे रखने में अहम भूमिका निभाता है। क्योंकि वायु प्रदूषण जब हवा में नमी लाता है। कोहरे जैसी स्थिति को बढ़ावा देता है, जिससे धरती पर पडऩे वाला सूर्य के प्रकाश में रुकावट पैदा करता है। जो तापमान का कम करने में सहायक बनता है।

2019 में गर्मी का भी टूटा रिकॉर्ड

सर्दी और गर्मी ने दोनों ने ही रिकॉर्ड तोड़े है। जून में जहाँ सबसे अधिक तापमान 48 डिग्री दिल्ली में दर्ज किया गया। और दिसम्बर में सबसे कम 2.6 दर्ज किया गया।

ग्लेशियर वैज्ञानिक प्रो. नवीन कृष्ण गिरि का कहना कि इस बार बर्फ का जल्दी गिरना कोई अचम्भे की बात नहीं हैं। क्योंकि सर्दियों के दिनों में इस तरह की हिमपात होता है। हाँ इतना ज़रूर है कि पिछलें दो दशकों से देख रहे हैं कि जनवरी महीने में ही बर्फ गिरने की जानकारी मिलती है वो भी कम ही मात्रा में। पर इस बार पश्चिमी हवाएँ मज़बूत होने की वजह से अच्छी बर्फबारी हुई है। दिल्ली की सर्दी को लेकर सोशल मीडिया और आम जनों में इस बार जमकर मज़ाक चला कि दिल्ली में पड़ रही है सर्दी, तो सर्दी से बचने के लिए शिमला जाएँ। खैर, कुछ कोई भी कहें, पर सर्दी का लुत्फ भी लोगों ने लिया।

दिल्ली चुनाव का ऐलान : धर्म, कर्म और मंदी पर राजनीति शुरू

दिल्ली विधानसभा चुनाव का घोषणा हो चुकी है। मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने 6 जनवरी को संवाददाता सम्मेलन में इसकी घोषणा की।  इस घोषणा के मुताबिक, 8 फरवरी को मतदान होगा और 11 फरवरी को चुनाव परिणाम घोषित किये जाएँगे। दिल्ली में एक करोड़ 46 लाख मतदाता हैं, जो 70 विधानसभा सीटों पर मतदान करेंगे। वहीं चुनाव घोषणा से पहले ही राजनीतिक बयानबाज़ी शुरू हो चुकी है। माना जा रहा है कि इस बार दिल्ली विधानसभा का चुनाव पिछले विधानसभा चुनाव की अपेक्षा काफी हटकर होगा। इस बार आरोप-प्रत्यारोप के साथ-साथ धर्म, कर्म और देश हित के मुद्दों को लेकर चुनाव लड़ा जाएगा। इसे लेकर नेताओं के बीच बयानबाज़ी शुरू हो चुकी है। तहलका संवाददाता ने दिल्ली के आप पार्टी, कांग्रेस और भाजपा के नेताओं से बात की है; तो उन्होंने अपने अपने तर्क दिये और बताया कि इस बार का चुनाव परिणाम बड़ा उलटफेर वाला होगा। क्योंकि दिल्ली में चुनाव के ऐलान के पूर्व, जो माहौल बन रहा है। इससे तो स्पष्ट है कि इस बार धर्म, कर्म और आर्थिक मंदी के साथ-साथ आरोप-प्रत्यारोप वाला चुनाव माहौल बनेगा।  भाजपा पूरी तरह से इस चुनाव को धर्म युद्ध की तरह चुनाव लडऩा चाहती है। वह हिन्दुत्व, हिन्दू और हिन्दू राष्ट्र को आधार बनाकर पहले भी चुनाव लड़ती रही है। इसके साथ ही इस बार भाजपा ने नागरिकता संशोधन कानून जैसा कार्ड खेला। इस कानून को लेकर पूरे देश में विरोध हुआ, जिसका आरोप भाजपा ने कांग्रेस और दूसरे विपक्षियों पर लगाया। इस कानून को लेकर भाजपा जनता मेंं यह मैसेज दे रही है कि सीएए कानून पूरी तरह से देश हित में है। इसका बेवजह विरोध करके हिंसा फैलायी जा रही है। भाजपा तो पूरी तरह से राष्ट्र धर्म का पालन कर रही है। भाजपा आलाकमान से लेकर दिल्ली के नेताओं का कहना है कि पार्टी अपने कर्म के साथ अपना राष्ट्र धर्र्म का पालन कर रही है। इसमें सभी नागरिकों को एक सामान सुविधाएँ मिलें, पर विरोधी लोग न जाने क्यों असमानता को बल दे रहे हैं, अफवाह फैलाकर लोगों को भडक़ा रहे हैं। भाजपा दिल्ली में हर रोज़ सीएए के समर्थन में रैलियाँ निकालकर जागरूक करने की चेष्टा करके वोट माँग रही है। भाजपा के नेता विजय गोयल का कहना है कि जबसे सीएए कानून पास हुआ है, तबसे कांग्रेस और आम आदमी पार्टी लोगों को भडक़ा रही हैं। भाजपा के नेता अमन जांगड़ा ने द्वारका में एक जनसभा में कहा कि सीएए कानून से किसी भी देशवासी को नागरिकता को कोई खतरा नहीं है। लेकिन जो माहौल बनाया जा रहा है, उससे ज़ाहिर है कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को चुनाव से पहले हार दिख रही है।

कांग्रेस पार्टी के दिल्ली प्रदेश के डेलीगेट श्याम सुन्दर कद ने कहा कि आप पार्टी और भाजपा दोनों ही एक सिक्के दो पहलू हैं। दोनों ही देश और दिल्ली वालों को गुमराह करने में लगे हैं। आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री चुनाव जीतने के लिए झूठे वादे कर रही है। नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतने वाले केजरीवाल ने अपने विधानसभा क्षेत्र में झुग्गी वालों को कोई सुविधा तक नहीं दी है। बस चुनाव के पहले 200 यूनिट बिजली फ्री करके लोगों का वोट हाहिल करना चाह रहे हैं; पर जनता समझदार है। कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी है, जो विकास की राजनीति करती है। श्याम सुन्दर कद का मानना है कि देश में आर्थिक मंदी है लोग बेरोज़गार है और चारों तरफ आर्थिक मंदी व्यापारी और किसान वर्ग जूझ रहा है। ऐसे में कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी है, जो देश को आर्थिक तंगी से जूझ रहे देश को बचा सकती है।

वहीं आप पार्टी के नेता व दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का कहना है कि आप पार्टी ने दिल्ली में कर्म किया है और लोगों को बिजली-पानी की फ्री में सुविधा दी है। स्कूलों के निर्माण करवाये हैं, प्राइवेट स्कूल वालों की मनमानी रोककर फीस बृद्वि को रोका है, जिससे अभिभावकों को काफी राहत मिली है। दिल्ली में हर क्षेत्र में सरकार ने काम किया गया हैं। आज तक दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और सरकार पर कोई भ्रष्ट्राचार का आरोप तक नहीं लगा है। सरकार ने पाँच साल तक, जो अच्छा काम किया है। उसी के आधार पर वह वोट माँग रही है। केन्द्र की मोदी सरकार सिर्फ देश में विभाजन वाली राजनीति कर रही है। उसको लोकसभा चुनाव के बाद जितने भी विधानसभा चुनाव हुए उसमें करारी हार मिली है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी ऐसा होगा।

बयानबाज़ी ज़ोरों पर

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 को लेकर दिल्ली के नेताओं के बीच बयानबाज़ी ज़ोरों पर है। नेताओं की बयानबाज़ी का केन्द्र नागरिकता संशोधन कानून भी है। ऐसे में विकास जैसे मुद्दों और बेरोज़गारी जैसी समस्याओं पर कम ही चर्चा हो रही है।

दिल्ली में विधानसभा चुनाव में आप पार्टी, कांग्रेस और भाजपा के बीच मुकाबला है। क्योंकि इस बार के चुनाव में नागरिकता संशोधन कानून जैसे मामले सामने आने के कारण चुनावी राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी भी नपी-तुली बयानबाज़ी कर रहे हैं। चुनाव के पूर्व दिल्ली की सियासत उलझी-उलझी सी नज़र आ रही हैं। बस इतना ज़रूर है कि सभी सियासत दल इस बात की दावेदारी कर रहे हैं कि इस बार उनकी सरकार बनने जा रही है। चाहे आम आदमी पार्टी हो या कांग्रेस या फिर भाजपा।

आम आदमी पार्टी के मुखिया और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का कहना है कि भाजपा झूठ की राजनीति कर रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कह रहे हैं कि केन्द्र सरकार अनधिकृत कॉलोनी में पक्की रजिस्ट्री कराकर लोगों को मालिकाना हक दे रही है; पर ऐसा हो नहीं रहा है। केन्द्र सरकार ने अभी तक किसी के मकान की कोई रजिस्ट्री नहीं करायी है।

‘आप’ कार्यकर्ता नवीन जैन कहते हैं कि दिल्ली विधानसभा चुनाव के पहले ही कांग्रेस और भाजपा पार्टी की हार दिख रही है। क्योंकि दिल्ली की जनता मानती है कि जो काम दिल्ली में ‘आप’ की सरकार ने किया है, वह पिछली भाजपा और कांग्रेस की सरकारों ने नहीं किया। दिल्ली सरकार ने बिजली, पानी जैसी सुविधा के साथ महिलाओं को बसों में फ्री यात्रा की सुविधा दी है। इससे दिल्ली में आप पार्टी के प्रति लोगों की सोच बदली है। दिल्ली सरकार और आम आदमी पार्टी पर कोई भी धाँधलेबाज़ी का आरोप न लगने से जनता मान रही है कि यह एक ईमानदार पार्टी है। वहीं आम आदमी पार्टी में सभी के धर्मों का सम्मान भी किया जाता है।

कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सुभाष चोपड़ा का कहना है कि दिल्ली में जबसे आम आदमी पार्टी की सरकार बनी हैै, तबसे दिल्ली में विकास कार्य ठप पड़े हैं। उनकी सरकार आएगी, तो दिल्ली वालों को 500 यूनिट बिजली नि:शुल्क दी जाएगी। दिल्ली में लाड़ली योजना लागू की जाएगी, जो कांग्रेस के घोषणा-पत्र में है। कांग्रेस पार्टी के नेता वीर सिंह ने संगम बिहार में एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि दिल्ली में आप सरकार लाख दावे करे कि उसने राजधानी में खूब विकास कार्य किये हैं, पर जनता सब जानती है। दिल्ली का जितना भी विकास हुआ है, वह कांग्रेस के शासन में हुआ है। आम आदमी पार्टी केवल प्रचार में लगी है। मोहल्ला क्लीनिकों की हालत जर्जर है। जो एक घोटाले का रूप ले रहा है। मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने कहा था कि दिल्लीवासियों के इलाज के लिए एक हज़ार मोहल्ला क्लीनिक खोले जाएँगे। लेकिन मुश्किल से 300 के करीब मोहल्ला क्लीनिक खोले गये हैं।

इधर, भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता विजय पंडित ने कहा कि जिस प्रकार पूरे देश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश में एक खुशहाली का माहौल बना है, उससे लोग खुश हैं। विजय पंडित का कहना है कि दिल्ली में भाजपा के प्रति लोगों का विश्वास बना है। केजरीवाल सरकार से जनता परेशान है। क्योंकि केजरीवाल ने दिल्ली वालों को गुमराह कर 2015 में सरकार बना ली थी। पर अब जनता गुमराह होने वाली नहीं है।

भाजपा के पार्षद अमन जांगड़ा का कहना है कि केजरीवाल की पार्टी एक आंदोलन से निकली है। जिसकी चकाचौंध में दिल्ली की भोलीभाली जनता फँस गयी थी। लेकिन अब जनता फँसने वाली नहीं है। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार नागरिकता संशोधन कानून को लेकर मोदी सरकार के फैसले का विरोध हुआ है, उससे जनता अब जान गयी है कि दिल्ली में हिंसा और आगजनी करके करोड़ों की सम्पत्ति को जलाया गया है। इससे देशवासियों में नाराज़गी है। लोग जान गये हैं कि भाजपा ही ऐसी पार्टी है, जो देश को विकास के पथ पर ले जा सकती है।

हरिद्वार में…अब नहीं दिखते प्रवासी पक्षी

हरिद्वार में गंगा के कई घाटों पर साइबेरियन क्रेन (प्रवासी पक्षी) अपना डेरा डाल चुके हैं। पर्वतों के ऊँचे शिखर, समुद्र, रेगिस्तान के ऊपर से हज़ारों किलोमीटर की यात्रा करके आने वाले प्रवासी पक्षी अलग-अलग प्रजातियों के हैं। लेकिन अब पिछले कई साल से प्रवासी पक्षी दिखाई नहीं दे रहे। खासकर उत्तराखंड में आयी बाढ़ के बाद। दूसरी तरफ इस बार ये प्रवासी पक्षी समय से कुछ दिन पहले ही इस तराई क्षेत्र में पहुँच गये। हरिद्वार में जलीय और दलदलीय दोनों तरह का क्षेत्र है इसलिए हज़ारों की संख्या में यहाँ हर साल प्रवासी पक्षी आते हैं और तकरीबन चार महीने के प्रवास के बाद वापस लौटते हैं। पक्षी वैज्ञानिकों का कहना है कि इस बार अक्टूबर के महीने में जब तापमान 21 डिग्री सेल्सियस था, प्रवासी पक्षी यहाँ पहुँचने शुरू हो गये थे, जबकि बीते वर्षों में ऐसा नहीं था। वैज्ञानिकों का मानना है कि प्रवासी पक्षी भी बदलते जलवायु की मार झेल रहे हैं। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के पक्षी वैज्ञानिक प्रो. दिनेश भट्ट के अनुसार, पक्षियों के आने-जाने के मार्ग पर जलवायु परिवर्तन का असर हो रहा है। उन्होंने बताया कि पक्षियों के आवागमन में रुकावटों के चलते अब पिछले कई वर्षों से प्रवासी पक्षी दिखाई नहीं देते। उन्होंने बताया कि अफगानिस्तान में कई वर्षों के युद्ध भी हैं; जिससे विस्फोट रेडिएशन आदि। दूसरा वहाँ खानाबदोश, लड़ाकू इनका शिकार कर लेते हैं; क्योंकि यहाँ बहुत-सी झीलें हैं, जिस कारण इनका मार्ग भी यहीं से होकर गुज़रता है। प्राकृतिक त्रासदियों के कारण भी हर साल बहुत से पक्षी मारे जाते हैं।

प्रवासी पक्षी तो पाकिस्तान, अफगानिस्तान के रास्ते ही भारत पहुँचते हैं। प्रो. भट्ट बताते हैं कि भारत-भूमि में पेलिआर्कटिक क्षेत्र से यानी हिन्दुस्तान के ऊपर जो भू-भाग में अत्यधिक बर्फ पड़ती है। वहाँ पेड़ों से लेकर पृथ्वी की ऊपरी सतह, जहाँ खेती और बागवानी होती है; बर्फ से ढक जाती है। ऐसे में इन पक्षियों के निवास और खाने-पीने की दिक्कत होती है और इन्हें रहने के लिए अनुकूल वातावरण नहीं मिलता। विकास प्रक्रिया के दौरान जब इनको परेशानी हुई, तो उनमें अन्यत्र जाने की इच्छा पैदा हुई। धीरे-धीरे ये इच्छा इतनी तीव्र होती गयी कि इनके जैनेटिक मेकअप में (शारीरिक-मानसिक प्रणाली) एक स्थायी परिवर्तन हो गया। इनमें एक तरह की जैनिक घड़ी है, जो इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए विवश करती है। बायो केमिकल परिवर्तन के कारण पिंजरे के अंदर बंद पक्षी भी उस कस में उडऩे को तैयार रहता है। पिंजरा खुलते ही वह उड़ जाता है। एक स्टडी के मुताबिक, कॉर्निल यूनीवर्सिटी के वरिष्ठ शोधकर्ता एंड्रयू फ्रांसवर्थ का कहना है कि यदि जलवायु परिवर्तन इसी गति से जारी रहा, तो हो सकता है कि भविष्य में कई पक्षी विलुप्त होने के कगार पर पहुँच जाएँ या विलुप्त हो जाएँ। क्योंकि हर प्राणी एक सीमा तक ही वातावरण में होने वाले बदलावों को सह सकता है। फ्रांसवर्थ के अनुसार, यदि जैव विविधता को बनाये रखना है, तो हमें ग्लोबल वाॄमग को बढऩे से रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाने होंगे।

कौन-कौन से हैं प्रवासी पक्षी

हरिद्वार के गंगा घाटों, जैसे- भीमगोडा बैराज, झिलमिल झील, मिस्सरपुर घाटों पर प्रवासी पक्षी शीतकाल में बसेरा करते हैं। इनमें जल-काग, चकवा-चकवी, खंजन रेड स्टार्ट, वारबलर, फ्लाई कैचर, पलास गल, पिनटेल, वॉलक्रीपर, सैंड पाइपर, गल्स, टील्स, मैलार्ड, राजहंस, सुर्खाब, हलैक विंगस्टिलर, रीवर टर्नए, रेडऩेप्पड़, आइबिस आदि। ये प्रवासी पक्षी मध्य ए​​शिया, चीन, मंगोसिया, साइबेरिया और रूस आदि देशों से आते हैं।

हरिद्वार के डीएसएफओ डिवीजनल फॉरेस्ट अधिकारी आकाश वर्मा ने बताया कि जब शीतकाल होता है, तो चमोली, उत्तरकाशी से भी पक्षी इस तराई क्षेत्र में आते हैं। नार्दर्न लेपिंग दुर्लभ प्रजाति है, जो यहाँ आती है। मार्च, 2018 में बर्ड वाचिंग प्रोग्राम में झिलमिल झील पर 262 प्रजातियों की पहचान की गयी है। पिछले वर्षों से इनमें वृद्धि देखी गयी है। विदेशों से जो पक्षी आते हैं वे मूलत: प्रवास के दौरान प्रजनन के लिए भी आते हैं। प्रवासी पक्षी गंगा के तलहरी क्षेत्र में मझाड़ों मे, टापुओं में अपना निवास बनाते हैं और अण्डे देते हैं। ये पक्षी ऊपर के क्षेत्रों, जैसे- जंगल, नदी क्षेत्रों में होते हैं; जैसे- नीलधारा, देवपुरा एहलता। शहर से सटे क्षेत्रों में इनकी मात्रा कम होती है; क्योंकि यहाँ मानवीय दखल ज़्यादा होता है। इसके लिए हमारा विभाग हर हफ्ते ड्रोन सर्वे करता है, जिससे वहाँ की सारी स्थिति का पता चलता रहता है।

हंगामा है क्यूँ बरपा…!

सवाल बहुत ही छोटा है कि ज़िाद  बड़ी है या देश? जवाब भी बड़ा आसान है। लेकिन यह इतना आसान है कि गले नहीं उतरता। वजह यह है कि हम अपनी ताकत पूरी तौर पर आजमाना चाहते हैं। आजमा रहे हैं। मुझे एक िकस्सा याद आता है। एक नेता थे; बड़े चतुर और बड़े ही गुस्सैल! एक बार उन्हें दिल का दौरा पड़ा। वे चल बसे। उनकी लाश अस्पताल के पिछले दरवाज़े पर थी। दरवाज़े पर तैनात गार्ड ने चाहा कि वह भी देख ले कि अंतिम संस्कार के कागज़ात पूरे हैं या नहीं? फिर न जाने कैसे उसने इजाज़त दे दी। तभी एक आवाज़ आयी। ठहरो! इस नेता ने लोगों को जीना मुश्किल कर दिया था। मैं इसे आसानी से इस दुनिया से उठने नहीं दूँगा। लोगों ने बहुत समझाया, पर लाश ज़मीन पर पड़ी रही। अंतिम संस्कार का वक्त बीत रहा था। वहाँ एक बच्चा पहुँचा। उसने आँसू पोंछते हुए कहा कि पापा ज़िाद मत करो। चले जाने दो। हमें भाई का अंतिम संस्कार करना है। बच्चे के हाथ में गुुलाब का फूल था। उसने लाश पर उसे रखा और रोते पिता को लेकर चला गया। सभी उन दोनों को आँखों से ओझल होने तक देखते रहे। यह िकस्सा यह बताता है कि एक बड़े इरादे के लिए ज़िाद छोडऩी ही पड़ती है। उस बच्चे ने पिता को न केवल उसके मकसद की याद दिलायी, बल्कि गुलाब के फूल के ज़रिये उसने अपना इरादा भी जता दिया। यह इरादा बड़ा ही नेक था। यह इरादा था प्रेम, सद्भाव और एकता का; देश इसी से बनता है। अलग-अलग भाषाओं, संस्कृति और आपसी सहयोग से एक मज़बूत देश बनता है। एक देश, जहाँ कभी एक भाषा, एक संस्कृति का बोलबाला नहीं रहा। सबका अपना-अपना विकास हुआ; लेकिन आपसी समन्वय रहा। भरोसा बढ़ा, और देश रहा।

दिसंबर महीने में ठंड के बावजूद सडक़ों पर छात्र-छात्राएँ और अधेड़ लोग लगातार प्रदर्शन करते दिखे। दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया, सलेमपुर और दरियागंज छात्र-पुलिस टकराव के बड़े केन्द्र रहे। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया के छात्र, जामिया नगर और दरियागंज के आसपास के इलाकों के निवासी जंतर-मंतर, इंडिया गेट वगैरह जैसे स्थानों पर लगातार प्रदर्शन कर रहे थे, जिनमें कुछ जगह धरना आदि जारी हैं। इन प्रदर्शनों के साथ विभिन्न प्रदेशों के कई-कई नगरों में, चाहे वह वाराणसी हो या इलाहाबाद, जादवपुर विश्वविद्यालय हो या पटना विश्वविद्यालय; हर जगह छात्र आंदोलन चले हैं। उत्तर प्रदेश में मेरठ, बिजनौर, अलीगढ़, रामपुर, कानपुर यानी तकरीबन 21 ज़िालों में प्रदर्शन हो रहे हैं। तकरीबन 15 से ज़्यादा लोग मारे गये। बिहार में भी वैशाली, दरभंगा, चंपारण, नालंदा आदि ज़िालों में भी प्रदर्शन किये गये हैं। बंगाल के कोलकाता में पहले मुर्शिदाबाद, मेदिनीपुर आदि में हिंसक प्रदर्शन हुए। कर्नाटक के बेंगलूरु में प्रदर्शन हुए। मंगलोर में तीन प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज हुआ। वहाँ दो से ज़्यादा मौतों की भी खबर मिली थी। तेलंगाना में हैदराबाद में प्रदर्शन हुए। तमिलनाडु में चेन्नई में प्रदर्शन का खासा दौर रहा। असम, त्रिपुरा और मेघालय में अब भी प्रदर्शन जारी है। पूरे देश में नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजनशिप और सिटीजन एमेंडमेंट एक्ट के िखलाफ ज़बरदस्त प्रतिक्रिया हुई और हो रही है। इसकी वजह है कि देश के नागरिक यह मान रहे हैं कि संविधान में धर्मनिरपेक्षता की जो बात है, उसके विपरीत ये कानून बने हैं। प्रदर्शनों को रोकने के लिए सरकार ने अनेक राज्यों में इंटरनेट सेवा भी बंद कीं, दिसम्बर तक बहाल नहीं गयीं। जामिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों के सामने अर्से से चुनौतियाँ आती रही हैं कि वे वाकई देशभक्त हैं या नहीं?

अब जनवरी में सुप्रीम कोर्ट यह सुनवाई करेगा कि सिटीजन एमेंडमेंट एक्ट संवैधानिक है भी या नहीं। पूूरे देश में इस पर अमल उचित है या नहीं? क्योंकि मूलत: यह असम के लिए था; बाद में पूरे देश में इसे लागू करने की बात हुई। उससे देश भर के हज़ारों मुसलमानों में भय छा गया है।

हैदराबाद की सेंट्रल यूनिवर्सिटी में कुछ साल पहले एक युवा दलित ने आत्महत्या की थी। जाँच-पड़ताल से पता चला कि विश्वविद्यालय प्रशासन और सत्ता में बैठै कुछ हठधर्मी नेताओं के चलते उस युवक ने आत्महत्या की थी। सत्ता के प्रति नाराज़गी का यह छात्रों में बड़ा आधार बना। इसी तरह जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी नई दिल्ली, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी आदि में पढऩे वाले युवाओं के प्रति प्रशासनिक दुव्र्यवहार बढ़ता दिखा। शिक्षा संस्थानों में इस तरह की दखलंदाज़ी क्यों होनी चाहिए कि वहाँ टैंक और पुलिस ही रहे। आज़ादी की लड़ाई के दौरान इन्हीं विश्वविद्यालयों में पढक़र निकले छात्र देश के कुशल नेता और प्रशासिक भी हुए हैं। इन विश्वविद्यालयों के छात्रों में आज राष्ट्रवाद या देश भक्ति की तलाश करना निहायत बेतुकी हरकत है। 100 साल पुराने जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली में देश के दूर-दराज़ के इलाकों से पढऩे और छात्रों से नागरिक संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण पर ठीक तरह से बातचीत करने की बजाय पुलिस से पिटवाना, गोली चलवाना कतई सराहनीय नहीं कहा जा सकता। उनसे बातचीत की बजाय आन्दोलनकारी छात्रों को गिरफ्तार करना ज़्यादती है। पूरे देश में विभिन्न नगरों-विश्वविद्यालयों में ही पर खासी मुद्दों पर बातचीत कर प्रतिक्रिया हुई। जबकि मामले को संवेदनशीलता के साथ सँभाला जा सकता था। लेकिन ज़िाद, अहंकार और ताकत दिखाकर छात्रों का असंतोष बढ़ाया जाता रहा। पूरी दुनिया का ध्यान भारत में इस छात्र आन्दोलन की ओर आकृष्ट हुुआ। निन्दा भी हुई। आज सडक़ों पर चाहे राजधानी दिल्ली हो या वाराणसी, मुर्शिदाबाद हो या भागलपुर, चेन्नई हो या गोरखपुर मंगलोर हो या रामपुर; हर कहीं से हिंसा, आगजनी, पथराव की खबरें हैं। हर तरफ पुलिसिया दङ्क्षरदगी है। आँसू गैस, लाठीचार्ज और गोली चलाने के दृश्य हैं, वीडियो हैं। सडक़ें लड़ाई का मैदान बन गयी थीं। इस आन्दोलन में महिलाएँ और बच्चे भी दिखे। यानी अत्याचारों के बाद नागरिकों में अब डर नहीं है। नागरिक सिर्फ एक कानून का ही तो विरोध कर रहे हैं। वे सडक़ों पर उतरे हैं। वे युुवा हैं। वे संवाद करना चाहते हैं। संवेदना के साथ उनकी बात सुनी जा सकती थी। लेकिन सत्ता ने बात करने या उनकी सुनने की बजाय ज़िाद पकड़ ली। राज्य प्रशासन और केन्द्र के नौकरशाहों को विरोध इतना नागवार गुज़रा कि उसे कुचलने पर आमादा हो गये। अध्यापक और इतिहासकार रामचंद्र गुहा जब बेंगलूरु की सडक़ पर अपनी बात कहने आये, तो पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उनकी तरह अलग-अलग राज्यों में बुद्धिजीवियों और समाजसेवियों को पुलिस ने गिरफ्तार किया गया। दिल्ली में बैठी केन्द्र सरकार ही एक ऐसी सरकार है, जो इस देश में अब बुद्धिजीवियों और युवाओं की बात सुनने और उस पर गौर करने के िखलाफ है। वह इसे सिर्फ कुचलना चाहती है। किसी को भी पकडक़र जेल में बन्द कर देना चाहती है। कश्मीर में इंटरनेट बन्द करने का इसे पुराना अनुभव है। लेकिन क्या मसला इससे हल होगा?

क्या यह एक लोकहित वाली सरकार के कामकाज का यही तौर-तरीका है? यह शिक्षक रामानंद तिवारी पूछते हैं। दरअसल, यह छात्र आंदोलन अब तक नेता विहीन रहा। यह नागरिक आंदोलन बन गया। सवाल यह है कि क्या इनसे संवाद जनप्रतिनिधियों को नहीं करना चाहिए? क्या वे धमकाकर, डराकर, अत्याचार करके खुद को कामयाब मानते रहेंगे।

देश में बढ़ते छात्र आंदोलनों, प्रदर्शनों के चलते आज एनडीए के ज़्यादातर सहयोगी दल मसलन जद(यू), अकाली दल, बीजू जनता दल वगैरह ने भी किनारा कर लिया है। असम में जिस तरह नागरिक पहचान के कई-कई दौर चले। सुप्रीम कोर्ट की ओर में नागरिकता प्रमाणों की छानबीन हुई। राज्य में अवैध रूप से रह रहे लोगों के लिए ‘डिटेंशन सेंटर्स’ बनाये गये। कर्नाटक तक में बने ऐसी खबरों के लिए भारत में रह रहे हिन्दुओं, मुस्लमानों, सिखों, ईसाइयों और धर्म के लोगों में अब यह संदेह घर कर गया है कि ये कानून संविधान सम्मत नहीं हैं और देश के संघीय ढाँचे के विकल्प हैं। आिखर क्यों देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब और संस्कृति को भुला देना आज उपयुक्त माना जा रहा है? शायद पूरे देश में फैले हिंसा-प्रदर्शन को शान्त करने के लिहाज़ से प्रधानमंत्री को 22 दिसंबर को रामलीला मैदान में आना पड़ा। अपनी बात शुरू करने के पहले उन्होंने एक पुुराना नारा- ‘विविधता में एकता है’, लगाया और उनके आग्रह पर वहाँ मौज़ूद सभी लोगों ने उसे दोहराया भी मंच पर बैठे नेताओं में केन्द्रीय गृहमंत्री, रक्षामंत्री और वित्त मंत्री नहीं थे। अपने भावना प्रधान भाषण में प्रधानमंत्री ने बड़े साफ शब्दों में कहा कि 2014 में सत्ता में आने के बाद कभी उन्होंने सुना नहीं। इसका कोई ड्राफ्ट नहीं बना, कैबिनेट में इस पर कोई चर्चा नहीं हुई।

संसद में प्रस्ताव नहीं आया। उन्होंने कहा कि भारत में और रह रहे मुसलमानों को डरने की ज़रूरत नहीं है; जिसके पुरखे यहीं रहे। उनका यह कहना कि गृह मंत्री के राज्यसभा में दिये गये उस बयान के ठीक उलट है, जिसमें उन्होंने कहा था कि असम में अभी और फिर पूरे देश में इसे अमल में लाया जाएगा। यह विरोधाभास आश्चर्यजनक इसलिए है, क्योंकि पूरे देश में अलग-अलग शहर में शान्तिपूर्ण प्रदर्शनों का सिलसिला अब भी जारी है। उत्तर प्रदेेश में मुख्यमंत्री ने राज्य में सरकारी सम्पत्ति के नुुकसान पर कैमरों के चित्रों के आधार पर गिरफ्तारी और नुुकसान की भरपाई की धमकी दी, जिस पर अमल भी शुरू हो गया है। देश के विभिन्न राज्यों में छात्र आन्दोलन और अल्पसंख्यक वर्गों का आन्दोलन चल रहा है। इस आन्दोलन की गवाह हैं- सडक़ें, मस्जिद और कॉलेज। पुलिस की बर्बरता दिल्ली, रायपुर, गोरखपुर, वाराणसी और लखनऊ में जमकर दिखी। सडक़ों पर एक किनारे कर दी गयीं चप्पलें, खून से सनी कमीज़ों, कुर्तों के सूखे फटे टुकड़े, टूटे चश्मे नज़र आते हैं। धीरे-धीरे छात्रों का विरोध पूरे समुदाय का विरोध हो गया। नमाज पढक़र लौटने वालों में किसी एक नौजवान को लाठियों से मारकर गिरा देना और उस पर बुरी तरह लाठियाँ भाँजना, पुलिस की दङ्क्षरदगी का न भुलाये जा सकने वाला चित्र है। दिल्ली की जामिया मिल्लिया लाइब्रेरी में जाकर पुलिस के जवानों द्वारा शीशों को तोडऩा मेज-कुर्सियाँ तोडऩा, पढऩे वाले एक लडक़े की आँख पर लाठी मारकर उसे अन्धा बना देना और हॉस्टल में पढ़ रहे बच्चों की किताबें फाड़ डालना, आग लगा देना बताता है कि पुलिस में ही एक विशेष समुदाय ज़्यादा सक्रिय भूमिका में था। पुलिसिया दङ्क्षरदगी के चलते अब इस छात्र आन्दोलन से महिलाएँ, बच्चे वकील ओर कुछ नेता भी जुड़ते दिख रहे हैं। आज़ादी के 72 साल तक इस देश की बहुलतावादी वैचारि​क सोच को ज़ोर-ज़बरदस्ती से एक भाषा, एक राष्ट्र और एक समुदाय बनाने की कोशिश के िखलाफ उठे प्रतिवाद को यदि संवेदनशीलता के साथ नहीं थामा गया, तो यह मानवीयता के िखलाफ होगा।

 (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और उपरोक्त उनके अपने विचार हैं।)

अभूतपूर्व, अद्वितीय, पूज्यनीय, अद्भुत!

मित्रो, क्या आप जानते हैं कि विश्व में आज तक की सबसे महँगी ज़मीन कहाँ पर बिकी है! लंदन में? पैरिस में? न्यूयॉर्क में?

नहीं। विश्व में आज तक भूमि के किसी एक टुकड़े का सबसे अधिक दाम चुकाया गया है हमारे भारत में ही पंजाब स्थित सरहिन्द में, और विश्व की इस सबसे महँगी भूमि को खरीदने वाले महान् व्यक्ति का नाम था- दीवान टोडरमल। गुरु गोबिंद सिंह जी के छोटे-छोटे साहिबज़ादों बाबा फतह सिंह और बाबा ज़ोरावर सिंह की शहादत की दास्तान शायद आप सबने कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं सुनी होगी। यहीं सरहिंद के फतेहगढ़ साहिब में मुगलों के तत्कालीन फौजदार वज़ीर खान ने दोनों साहिबज़ादों को जीवित ही दीवार में चिनवा दिया था। दीवान टोडरमल, जो कि इलाके के एक धनी व्यक्ति थे और गुरु गोविंद सिंह जी तथा उनके परिवार के लिए अपना सब कुछ कुर्बान करने को तैयार थे; ने वज़ीर खान से साहिबज़ादों के पार्थिव शरीर की माँग की और उस भूमि पर, जहाँ वे शहीद हुए थे, उनकी अंत्येष्टि की इच्छा प्रकट की। वज़ीर खान ने धृष्टता दिखाते हुए भूमि देने के लिए एक अटपटी और अनुचित माँग रखी। वज़ीर खान ने माँग रखी कि इस भूमि पर सोने की मोहरें बिछाने पर जितनी मोहरें आएँगी, वही इस भूमि का दाम होगा। दीवान टोडरमल ने अपने सब भण्डार खाली करके जब मोहरें भूमि पर बिछानी शुरू कीं, तो वज़ीर खान ने धृष्टता की पराकाष्ठा पार करते हुए कहा कि मोहरें बिछाकर नहीं, बल्कि खड़ी करके रखी जाएँगी; ताकि अधिक-से-अधिक मोहरें वसूली जा सकें।

खैर, दीवान टोडरमल ने अपना सब कुछ बेच-बाचकर और मोहरें इकट्ठी कीं और 78,000 सोने की मोहरें (कीमत 2,50,00,00,000 यानी दो अरब 50 करोड़ रुपये) देकर चार गज़ भूमि को खरीदा, ताकि गुरु जी के साहिबज़ादों का अंतिम संस्कार वहाँ किया जा सके। विश्व के इतिहास में न तो ऐसे त्याग की कहीं कोई मिसाल मिलती है, न ही कहीं पर किसी भूमि के टुकड़े का इतना बड़ा मूल्य आज तक चुकाया गया। जब बाद में गुरु गोविन्द सिंह जी को इस बारे में पता चला, तो उन्होंने दीवान टोडरमल से कृतज्ञता प्रकट की और उनसे कहा कि वे उनके त्याग से बहुत प्रभावित हैं और उनसे इस त्याग के बदले में कुछ माँगने को कहा।

जऱा सोचिए दीवान टोडरमल ने क्या माँगा होगा गुरु जी से? दीवान जी ने गुरु जी से जो माँगा, उसकी कल्पना करना भी असम्भव है!

दीवान टोडरमल जी ने गुरु जी से कहा कि यदि कुछ देना ही चाहते हैं, तो कुछ ऐसा वर दीजिए कि मेरे घर पर कोई पुत्र न जन्म ले और मेरी वंशावली यहीं मेरे साथ ही समाप्त हो जाए। इस अप्रत्याशित माँग पर गुरु जी सहित सब लोग हक्के-बक्के रह गये। गुरु जी ने दीवान जी से इस अद्भुत माँग का कारण पूछा, तो दीवान जी का उत्तर ऐसा था, जो रोंगटे खड़े कर दे।

दीवान टोडरमल ने उत्तर दिया कि गुरु जी! यह जो भूमि इतना महँगा दाम देकर खरीदी गयी और आपके चरणों में न्योछावर की गयी, मैं नहीं चाहता की कल को मेरे वंश आने वाली नस्लों में से कोई कहे की यह भूमि मेरे पुरखों ने खरीदी थी।

यह थी नि:स्वार्थ त्याग और भक्ति की आज तक की सबसे बड़ी मिसाल। आज किसी धाॢमक स्थल पर चार ईंटे लगवाने पर भी लोग अपने नाम की पट्टी पहले लगवाते हैं। एक पंखा तक लगवाने पर उसके परों पर अपने नाम छपवाते हैं। हमारे पुरखे जो बलिदान देकर गये हैं, वह अभूतपूर्व है और इन्हीं बलिदानों के कारण ही हम लोगों का अस्तित्व अभी तक है। हमारी इतनी औकात नहीं कि हम इस बलिदान के हज़ारवें भाग का भी ऋण उतार सकें।

खनन महकमे की खाक उड़ी

खनन के पीछे कितने षड्यंत्र और घोटाले छिपे होते हैं? इसकी फैलती-पसरती मुश्क ही अफसरों के दरवाज़ों के पीछे मुसीबतों की दस्तक देती रहती है। सवाल है कि क्यों इन्हें अपशकुनों के संकेत दिखाई नहीं देते और क्यों ये अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आते? लेकिन क्या घूस के परनालों पर ढक्कन लगाने की बजाय विभागीय मंत्री प्रमोद भाया का औपचारिकता से सना जवाब जायज़ है कि ‘जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा!’ राजस्थान के खनन मंत्री प्रमोद भाया कहते हैं- ‘भाजपा सरकार में खनन महकमा बुरी तरह बदहाल था। लेकिन जब से मैंने कमान सँभाली महकमे को पटरी पर लाने की कोशिश कर रहा हूँ।’

लेकिन महकमे को पटरी पर लाने का उनका पहला कदम तो तभी लडख़ड़ा गया, जब महकमे के संयुक्त सचिव बी.डी. कुमावत ही भ्रष्टाचार के आरोपों में धर लिये गये। कोई महकमा सरकार के आठ महीनों के कार्यकाल में ही घूसखोरी की कालिख पुतवाकर कुख्याति का लबादा ओढ़ ले तो शुचिता का दावा करने वाले दरोगा कहाँ मुँह छिपाएँगे? क्या लोगों को इस बात का मलाल नहीं होना चाहिए कि जिस दिन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत माफिया मुक्त प्रदेश का दावा कर रहे थे, ठीक उसी दिन बेइमानी की खदान से मालामाल सरकारी नगीना पन्नालाल निकला। भ्रष्टाचार निरोधक दस्ते ने जब घूसखोरी में पकड़े गये अधीक्षण अभियंता पन्नालाल मीणा का घरवार खंगाला, तो जैसे कुबेर का खजाना फट पड़ा। करोड़ों की नकदी, बेशकीमती भूखण्डों के दस्तोवज़ तो निकले ही, साथ ही गैस एजेंसी, स्टोन फैक्ट्री और गाय-भैसों के तबेले तक निकल पड़े। पन्नालाल के तार एसीबी के हत्थे चढ़ चुके खनन विभाग के संयुक्त सचिव बी.डी. कुमावत से भी जुड़े पाये गये। हालाँकि, इस काली कमाई की बदोलत अपार सम्पदा जुटाने वाले पन्नालाल कितने बड़े कुबेर हैं? इसका पूरा ब्यौरा जुटाने के लिए एसीबी अभी तक उसकी दबी दौलत के परदे नोचने में लगी है। अब सवाल यह है कि पन्नालाल की काली कमाई की इस सुरंग को खोदने में एसीबी कितनी कामयाब हो पाती है? उधर तबादलों के खेल में 20 से 25 लाख के नज़राने को लेकर पहले ही मीडिया के निशाने पर चल रहे खनन मंत्री प्रमोद भाया सौंगध लेने में बेशक पीछे नहीं रहते, कि लानत है, जो एक पायी भी ली हो; लेकिन इस सवाल पर भाया क्यों मिमियाने लगते हैं। क्यों शिकायतों के कुंड में सिर से पाँव तक सने हुए अधीक्षक अभियंता पन्नालाल मीणा को मौज़ूदा जगह से नहीं हटाया जा रहा था? इसके विपरीत उसे अतिरिक्तमुख्य अभियंता का चार्ज भी क्यों सौंप दिया गया? उसे गुनाह के घेरे में लाने की बजाय कद्दावर पद का अतिरिक्त प्रभार देकर इनाम-इकराम से क्यों नवाज़ दिया गया? यह हकीकत मंत्री के कसमों, वादों का मखौल उड़ाने के लिए काफी नहीं है क्या? दिलचस्प बात है कि पन्नालाल घूसखोरी से उलीचती दौलत के परनालों का रुख अपने कुनबे की तरफ मोड़ता रहा। यहाँ तक कि फर्ज़ी कम्पनियाँ बनाता रहा। लेकिन मंत्री सिर्फ यह कहकर रह गये कि खनन महकमे में राजनीतिक दबाव भी तो रहता ही है।

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि तो क्या घोटालों का संस्करण गढऩे वाले पन्नालाल मीणा की जड़ें कोटा में जमाये रखने के पीछे कोई राजनीतिक दबाव था? जानकार सूत्रों की मानें, तो मीणा की जड़ें कोटा में ही जमाये रखने को लेकर महकमे के आला अफसरों में जमकर जुगाड़बाज़ी और विवाद चला था। यह विवाद इस कदर बढ़ गया था कि मुख्यमंत्री तक को दखलंदाज़ी करनी पड़ी। सूत्रों की मानें तो पन्नालाल मीणा की पहुँच का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है  कि जयपुर तक विवाद पहुँचने के बावजूद उसे हिलाने की किसी की ज़ुर्रत नहीं हुई। पुख्ता सूत्रों की मानें तो बजरी खनन की लीज और अवैध खनन की काली कमाई के बंदरबाँट को लेकर खनन महकमे में ‘गैंगवार’ सरीखे हालात पैदा हो गये। फिर भी सरकार ने इस मामले को अनसुना कर दिया। खनन का गोरखधंधा पूरी तरह ‘बीपीएल’ की मुट्ठी में बन्द रहता है। बीपीएल का ज़िक्र छिड़ते ही ज़ेहन में गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों की तस्वीर खिंच जाती होगी? लेकिन खनन महकमे में बीपीएल का मतलब है- ‘सबसे ज़्यादा भ्रष्ट अफसरों का ऐसा गिरोह, जो पट्टे दिलाने से लेकर अवैध खनन तक कराने के लिए खुली छूट देने को तैयार खड़ा रहता है।’ यहाँ ‘बी’ का मतलब बंशीधर यानी बी.डी. गुप्ता,  ‘पी’ का मतलब पन्नालाल और ‘एल’ का मतलब लेखराज से है। सूत्रों का कहना है कि ‘बंशीधर के बाद पन्नालाल को निशाने पर लेने के पीछे बीपीएल विरोधी गैंग की कारस्तानी है। पन्नालाल को गिरफ्त में लाने का बीड़ा उठाने वाले परिवादी राजेन्द्र शर्मा उसे बेहद सनकी और संगदिल िकस्म का इंसान बताते हैं।

राजेन्द्र कहते हैं- ‘मैंने यह कहते हुए दो लाख की बजाय 50 हज़ार देने की पेशकश की कि मेरे पास ज़्यादा पैसा नहीं है। बेटी की शादी की है, उसमें सारा पैसा खर्च हो गया है।’ इस पर पन्नालाल ने मुस्कुराते हुए कहा- ‘यह मान लेना कि मेरी बेटी का कन्यादान कर रहे हो? राजेन्द्र शर्मा की पीड़ा को समझें तो, पिछले छ: महीनों से वो 19 लाख की धरोहर राशि को रिलीज करवाने के लिए खनन महकमे के चक्कर लगा रहा था। लेकिन बात घूस की मुँह माँगी रकम को लेकर फँसी हुई थी। लाख मनुहार के बाद भी पन्नालाल नहीं माना, तो राजेन्द्र शर्मा को उसे सबक सिखाना ही बेहतर लगा। एक बड़े राजनेता ने अपना नाम प्रकाशित नहीं करने की शर्त पर कहा कि मौज़ूदा राजनीतिक माहौल में तबादले सबसे बड़ा उद्योग बन चुके हैं। इस उद्योग में सिर्फ चाँदी के जूते की आवाज़ ही सुनाई देती है। अब इस खनक में खनन मंत्री प्रमोद भाया दावा करें कि ‘तबादले राजनीतिक और प्रशासनिक दबाव से होते हैं, पैसों से नहीं; तो इससे बड़ा मज़ाक क्या हो सकता है? राजनेता का कहना था- ‘पिछली गहलोत सरकार में प्रमोद भाया को विवादों के कारण ही अपना पद गँवाना पड़ा था। इस बार फिर विवादों मे फँसते नज़र आ रहे हें?’ लेकिन प्रमोद भाया ने विवादों की बात को साफ नकारते हुए कहा कि पिछली बार संगठन को लगा होगा कि कैबिनेट में मेरी ज़रूरत नहीं है।’ इसलिए बदलाव हुआ। लेकिन असल में न तो पिछली बार कोई विवाद था और न ही इस बार कोई विवाद है। भ्रष्टाचार की अखण्ड गाथा की व्यास गद्दी पर बैठे हुए अफसरों ने काली कमाई के रंग को अमावस की रात से भी गाढ़ा कर दिया है कि सच तो आँखें गढ़ाने के बावजूद दिखाई नहीं देता। इस महकमे में कड़ी से कड़ी जोडऩे का एक ऐसा तंत्र बन गया है कि उसे तोडऩे तो दरकिनार ताडऩा ही मुश्किल है। पन्नालाल की गिरफ्तारी से कोई एक महीने पहले एक बड़ा घडिय़ाल माइनिंग इंजीनियर गोपाल बच्छ एसीबी के जाल में फँस चुका था। लेकिन पन्नालाल ने उससेे सबक तक नहीं लिया। इसे अवसरों और शक्तियों के केन्द्रीकरण की संज्ञा दी जानी चाहिए कि गोपाल बच्छ की वसुंधरा सरकार के दौरान 2015 में हुए चर्चित घूसकांड के मास्टर माइंड अशोक सिंघवी से आज भी नज़दीकी बनी हुई है। दिलचस्प बात है कि बच्छ ने अपने कारोबार में कई बड़े नेताओं, पुलिस और वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों के नाम गिनाये हैं। एसीबी की बेचैन निगाहें बच्छ पर अभी भी पूरी तरह टिकी हुई हैं। एसीबी ने खनन महकमे को लेकर अपने दाँत पूरी तरह बन्द नहीं किये हैं। लिहाज़ा जल्दी ही कुछ और बड़े खुलासों का इंतज़ार तो बेकरारी के साथ रहेगा ही। खनन महकमे में पैठ बनाये हुए बीपीएल से दिलजले भी तो इसी िफराक में होंगे? खनन मंत्री प्रमोद भाया बेशक ‘मेरा दामन सबसे सफेद’ का नारा लगाते रहे। लेकिन खनन महकमे का बुनियादी चरित्र तो नहीं बदल सके।

अपहरण में भी रंगे हाथ!

घूसखोरी के खेल में गले-गले तक डूबा पन्नालाल अपहरण और रंगदारी के खेल में भी लिप्त था। खान महकमे के वरिष्ठ लिपिक योगेश भट्ट की पत्नी चंद्रा भट्ट द्वारा थाने में दर्ज करायी गयी रिपोर्ट इस बात की तस्दीक करती है। चंद्रा भट्ट द्वारा पुलिस को दी गयी शिकायत में कहा गया है कि उसके पति पिछली 24 नवंबर से लापता है। उस दिन घर से बाँसवाड़ा जाने को निकले योगेश का आज तक कोई पता नहीं है। योगेश भट्ट लम्बे समय से महकमे में चल रहे भ्रष्टाचार का खुलासा करने में लगा था, उसने  ही पन्नालाल मीणा की अवैध सम्पत्ति की शिकायत की थी। योगेश भट्ट महकमे में फर्ज़ी दस्तावेज़ के ज़रिये 38 साल तक नौकरी करने वाले बाबू लेखराज मीणा की हकीकत का भी खुलासा किया था। योगेश बजरी माफिया के ख्ेाल को भी बेनकाब कर चुका था। इस मामलेे में एक बड़े राजनेता के सुरक्षाकर्मी ने येागेश को मामला रफा-दफा करने को कहा था। लेकिन योगेश ने अनसुनी कर दी। नतीजतन उसे देख लेने की धमकी भी मिल चुकी थी। सूत्रों की मानें तो येागेश भट्ट फेसबुक पर पोस्ट डाल कर पन्नालाल मीणा को चेता चुका था। कि अब तेरी बारी है…., तेरा काउंट डाउन शुरू हो चुका है। उधर अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक दिलीप सैनी का कहना है कि मामले की जाँच की जा रही है। अभी ज़्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता?

अर्थव्यवस्था को नज़रअंदाज़ करना पड़ सकता है महँगा

वर्ष 2019 में बेशक भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नतेृत्व में भाजपा ने 2014 की तुलना में अधिक सीट जीती थीं; लेकिन 2019 के अंत ने प्रधानमंत्री को विचार-मनन की एक डोज यानी खुराक भी दी है, जिसे नजरअंदाज़ करना भविष्य में उन्हें व उनकी पार्टी को महँगा साबित होगा। इस समय मुल्क में सीएए-एनआरसी मुददे पर बहस हो रही है और इस मुददे के साथ-साथ देश की अर्थ-व्यवस्था की हालत भी चिन्ता का गहन विषय है। इस साल भारत ने दुनिया में सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थ-व्यवस्था का िखताब ही नहीं खोया, बल्कि जीडीपी की वृद्धि दर गिरकर छ: साल के निचले स्तर पर में पहुँच गयी। जिसके चलते, विश्व बैंक की 2018 की रैंकिंग में भारत की अर्थ-व्यवस्था छठे स्थान से फिसलकर सातवें पर आ गयी है। जबकि सरकार के मंत्री आने वाले वर्षों में अर्थ-व्यवस्था को पाँचवें स्थान पर लाने का दावा कर रहे थे। अर्थ-व्यवस्था से जुड़ी एक अन्य खबर भी भारत की मौज़ूदा सरकार के महिला आर्थिक सशक्तिकरण पर सवालिया निशान लगाती है। वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम 2020 की लैंगिक समानता को लेकर दिसंबर के आिखरी पखवाड़े जारी रिपोर्ट खुुलासा करती है कि भारत में महिलाएँ आर्थिक मोर्चे पर पिछड़ गयी हैं। 153 मुल्कों की सूची में भारत महिलाओं की आर्थिक हिस्सेदारी वाले मानक में 149वें स्थान पर आ गया है। आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी के मामले में भारत सबसे नीचे स्थान पाने वाले पाँच देशों में शमिल हैं। हमारे देश में आर्थिक हिस्सेदारी में महिलाओं का फीसद 35.4 है। जबकि पकिस्तान में 32.7 फीसद, यमन में 27.3 फीसद और सीरिया में 24.9 फीसद है। गौरतलब है कि भारत में कामकाजी महिलाओं की हिस्सेदारी करीब 27 फीसद है। 2004-5 में यह हिस्सेदारी 37 फीसद थी। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक मुल्क है, जहाँ दुनिया की 18 फीसद आबादी रहती है और इसमें महिलाओं की संख्या करीब 48 फीसद है; लेकिन सवाल यह है कि आर्थिक हिस्सेदारी तथा अवसरों में महिलाओं की कम संख्या क्यों है? इस समय देश में हैदराबाद में युवा पशु चिकितस्क के साथ घटित सामूहिक दुष्कर्म और उसके बाद उसकी हत्या के मामले ने महिलाओं की सुरक्षा के मुददे को फिर से केन्द्र बिन्दु में ला खड़ा किया और फिर से महिला सुरक्षा वाला बिन्दु कामकाजी महिलाओं और मुल्क की युवतियों के बीच चर्चा में आ गया। इस मुददे का एक पहलू यह भी है कि जब ऐसे दर्दनाक हादसे होते हैं, तभी केन्द्र सरकार व राज्य सरकार इस दिशा में अधिक सक्रिय दिखती है और कुछ समय बाद सरकारी मशीनरी ढीली पड़ जाती है। 2012 निर्भया मामले के बाद महिलाओं की सुरक्षा के लिए विशेष निर्भया कोष की स्थापना की गयी; लेकिन उस फंड के एक बहुत बड़े हिस्से का इस्तेमाल ही नहीं किया गया। सरकारी व्यवस्था के ढीलेपन से भी महिलाएँ असुरिक्षत हो रही हैं। इस संदर्भ में एक कामकाजी युवा महिला पत्रकार का एक ट्वीट याद आ रहा है, जिसका हिन्दी अनुवाद इस तरह है- ‘दिसंबर महीने में उसके जन्मदिन पर उसके दोस्त उससे पूछ रहे हैं कि वह अपने जन्मदिन पर क्या लेना पंसद करेगी? ईमानदारी से कहूँ तो, यह बहुत ही दु:ख वाली बात है कि मेरे दिमाग में सबसे पहले आने वाली चीज़ मिर्ची स्प्रे है।’

मुल्क की राजधानी दिल्ली में मौज़ूदा आप सरकार ने करीब दो महीने पहले ही दिल्ली की सरकारी बसों में महिलाओं की सुरक्षा के लिए मार्शल तैनात किये हैं। ऐसे कदम के बाद बसों में सफर करने वाली महिलाएँ कितना सुरक्षित महसूस करती हैं? इस पर सर्वे की दरकार है। बहरहाल, महिलाओं की सुरक्षा और कामकाजी महिलाओं की संख्या, उनकी क्षमताओं का भरपूर इस्तेमाल करने के बीच सम्बन्ध है। केन्द्र सरकार की स्किल इंडिया योजना के तहत देश भर में किशारों, युवाओं को कौशल प्रशिक्षण दिया जा रहा है।

ऐसा ही दिल्ली में एक कौशल प्रशिक्षण चलाने वाले परिचित ने मुझे बताया कि उनके सेंटर से कौशल प्रशिक्षण हासिल करने वाली दो लड़कियों को उनके घर से दूर दिल्ली ही में नौकरी का प्रस्ताव मिला; लेकिन उनके अभिभावकों ने उन्हें यह कहकर नौकरी करने से इन्कार कर दिया कि कार्य-स्थल बहुत दूर है। लड़कियों की सुरक्षा पहले है। अभिभावक समाज के लिए लड़कियों की चिन्ता उनकी सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शुमार है। इस संदर्भ में वे कोई जोखिम नहीं लेना चाहते। लिहाज़ा सरकार चाहे केन्द्र की हो या राज्य की, उसे महिलाओं की सुरक्षा के प्रति विशेष रणनीतियाँ बनाने के गम्भीर प्रयास करने चाहिए।

महिलाओं को सफल होने का अवसर मुहैया कराने न सिर्फ सही कदम है, बल्कि यह समाज व अर्थ-व्यवस्था को भी बदल सकता है। लैंगिक असमानता घटने से आय में असमानता भी घटेगी और ग्रोथ अधिक होगी। कई अध्ययन बताते हैं कि कार्यस्थलों में महिलाओं की संख्या बढ़ाने के सकारात्मक नतीजे सामने आये हैं। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ अपनी हायर पॉलिसी में बदलाव कर महिलाओं की संख्या को बढ़ाने पर तरजीह दे रही हैं। वे इसे गुड प्रैक्टिस को एडाप्ट करने वाले पहलू से भी देख रही हैं।

गौरतलब पहलू यह भी है कि मुल्क में अगर कार्यबल में महिलाओं की पुरुषों के समान भागीदारी हो जाए, तो भारत की जीडीपी 27 फीसद तक बढ़ सकती है। मैकिन्जी ग्लोबल इंस्टीट्यूट के अनुसार, अगर महिलाओं को बराबरी के लिए प्रोत्साहित किया जाए, तो बिजनेस में जो वर्तमान हालात हैं उसके मुकाबले भारत 2025 तक अपनी जीडीपी 0.7 ट्रिलियन डॉलर या 16 फीसद तक बढ़ा सकता है। भारत उन मुल्कों में से एक है, जहाँ कम्पनी के निदेशक मंडल में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है। भारत में यह आँकड़ा 13.8 फीसद है, जबकि फ्रांस में यह आँकड़ा 43.4 फीसद है। इस मामले में फ्रांस पहले नम्बर पर है और उसके बाद आइसलैंड है, जहाँ 43 फीसदी का आँकड़ा है। नार्वे 42.1 फीसदी के साथ तीसरी रैंक पर है और स्वीडन 36.3 फीसदी के साथ चौथी रैंक पर है। विश्व में पाँचवीं रैंकिंग इटली की है, जहाँ यह संख्या 34 फीसदी है। ज़ाहिर है, यहाँ कम्पनी के निदेशक मंडल में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए व्यापारियों और सरकार को तेज़ी से प्रयास करने होंगे।

वल्र्ड इकोनॅामिक फोरम 2020 की लैगिंक समानता वाली रिपोर्ट यह भी बताती है कि दुनिया में महिलाओं व पुरुषों के बीच आर्थिक अवसरों के अन्तर पाटने में 257 साल लगेंगे, जबकि पिछले साल की रिपोर्ट में 202 साल लगने का अनुमान लगाया गया था। हर साल बढऩे वाला बिन्दु देश-दुनिया की आधी आबादी के लिए अच्छी खबर नहीं है। आज दुनिया तेज़ी से आधुनिक होती जा रही है और स्किल्ड लेबर/हयूमन पॉवर पर ज़ोर दिया जा रहा है। ऐसे में लड़कियों/महिलाओं पर विशेष फोकस करने के लिए कार्यक्रम/योजनाओं पर ध्यान देना ला•िामी हो जाता है। क्लाउड कंप्यूटिंग, इंजीनियरिंग, डेटा, एआई जैसे क्षेत्रों में बराबरी कम हुई है। अर्थ-व्यवस्था किसी मुल्क की हो या विश्व की, उसे सुधारने के लिए महिलाओं को सुरक्षित माहौल में आर्थिक रूप से भागीदारी के बराबर के मौके मुहैया कराने की दिशा में गहन मनन के साथ उस पर अमल करना भी ज़रूरी है।

मरू उत्सव के रूमानी रंग

अतीत के अभिशाप, गौरव और वर्तमान की सुरीली रुनझुन से सराबोर जैसलमेर एक विश्व विख्यात विरासत है। सूरज की रोशनी में दपदपाते सुनहरी आभा वाले भव्य र्कशों को शिखर पर धारण किये ‘सोनार िकला’ ही इस शहर की अनूठी पहचान है। हर साल सर्द मौसम में आयोजित होने वाला ‘मरू उत्सव’ परम्परागत नृत्य, संगीत, कला और बेजोड़ शिल्प के साँस रोक देने वाले नज़ारे सँजोये रखता है। थार के बालुई टीबों में खिले इस नैसर्गिक सौन्दर्य को निहारने के लिए वैश्विक सैलानियों की सबसे ज़्यादा भीड़ उलटती है।

विकास की राह में कुलाँच भरते इस शहर ने अकाल की वीभत्स त्रासदी भी भुगती है। इसके साक्ष्य शहर सेे 15 किलोमीटर दूर स्थित जीवाश्म पार्क में आज भी देखने को मिल जाएँगे। पश्चिम राजस्थान का द्वार कहे जाने वाले जैसलमेर को लेकर अगर सैलानियों में सबसे बड़ी कोई दीवानगी है तो, वो है जैसलमेर का िकला…. इसे ‘सोनार िकला’ के नाम से ही ज़्यादा पुकारा जाता है।

इतिहास के पन्ने पलटें, तो सात सौ साल पहले का अतीत करवट लेने लगता है। 12वीं शताब्दी में राजपूती शासक राव जैसल सिंह ने इसे  बसाया  था। लेकिन ‘इतिहास को खँगालें तो, इस बात के भी साक्ष्य मिलते हैं कि तुर्क आक्रांता खिलजी वंश के अलाउद्दीन खिलजी ने भी जैसलमेर को कब्ज़ाने की कोशिश की थी। तब भाटी राजपूतों से अलाउद्दीन खिलजी की ज़बरदस्त जंग छिड़ी थी। थार का यह इलाका मुगलों और भाटी राजपूतों के बीच कोई एक ही युद्ध का साक्षी नहीं है। बल्कि इसका एक लम्बा खूनी इतिहास रहा है। आिखरी जंग में जब फतह का सेहरा अलाउद्दीन के सिर पर बँधा, तो भाटी वंश के रजवाड़ी राजपूत कहीं और ठौर तलाशने चले गये। कई भाटी राजपूत, तो उस क्षेत्र में जाकर बस गये, जो अब पाकिस्तान में है। लेकिन बर्तानवी हुकूमत के दौरान भाटी राजपूतों ने फिर अपनी वापसी की। उस दौर में जैसलमेर मध्य एशिया, इजिप्ट और खाड़ी देशों के लोगों का आकर्षण केन्द्र बन चुका था। इसकी बड़ी वजह थी, जैसलमेर में अनेक व्यावसायिक और परम्परागत सांस्कृतिक मेले आयोजित होने लगे थे। ‘मरू उत्सव’ उसी की कड़ी है। ‘सोनार िकला’ यूनेस्को में दर्ज एक वैश्विक विरासत है। सूर्योदय और सूर्यास्त के दौरान सोनार िकले को एक रहस्यमयी आभा में छिपते-उभरते देखना अद्भुत लगता  है। इसका निर्माण स्थानीय वास्तुकारों ने किया था। ‘दिवंगत प्रसिद्ध िफल्मकार सत्यजीत रे तो सोनार िकले के अद्भुत रहस्य से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इस पर वृत्त चित्र भी बनाया है।

12वीं शताब्दी में जैसलमेर कैसा था? विगत वास्तुशिल्प के वैभव की अनेक कहानियाँ यहाँ छतरियों, महलों, हवेलियों और जलाशयों में बिखरी पड़ी हैं। सबसे मनोरम और आकर्षक है- बड़ा बाग स्थित ‘व्यास छतरी’। यह छतरी पोराणिक धर्म ग्रन्थ महाभारत के रचयिता वेदव्यास की स्मृति को ताज़ा करती है और उन्हीं को समर्पित है।

अगर सैलानियों को जैसलमेर में सबसे ज़्यादा कोई चीज़ लुभाती है, तो इसकी बड़ी वजह है- यहाँ से नज़र आने वला सूर्यास्त का अद्भुत नज़ारा! लोहित होता सूर्य और उसके सामने पसरी सुनहरी बलुई रेत में सिमटी लालिमा! कुल मिलाकर एक सुनहरे सूर्यास्त के अद्भुत दर्शन का नज़ारा यहाँ देखने को मिलता है। लोक संगीत के साथ ताल मिलाती अलगोझा की तान पर थिरकते नर्तकों का दल इस अवसर के रोमांच को दोगुना कर देता है। बड़ा बाग के नाम से चर्चित इस क्षेत्र में महाराजा जय सिंह समेत राज परिवार के दिवंगत पुरोधाओं के स्मारक भी मिल जाएँगे। यहाँ छतरियों का अद्भुत वास्तुशिल्प ठिठकने को बाध्य कर देता है।

जैसलमेर में भी हवेलियों की बहुतायत मिल जाएगी। फर्क सिर्फ इतना ही है कि इन्हें व्यावसायिक नहीं बनाया गया। पटवों की हवेली, सलीम सिंह की हवेली, नथमल जी की हवेली, ऐसी ही हैं। इनकी दीवारों और आस्तानों पर उकेरी गयी मिनिएचर पेंटिग्स (लघु चित्रकला) सैलानियों को लुभाती है। पथरीले रंगों से इनका चित्रण तो बेहद चकित करता है। पटवों की हवेली यहाँ ज़्यादा विख्यात है। सँकरे से गलियारे में पाँच मंज़िला हवेली का निर्माण कौशल ही चकित करता है। लेकिन जिस तरह कई जगह चित्रित पेंटिंग्स खुरच दी गयी हैं; शीशे उखड़ चुके हैं; उससे लगता है ति पुरातत्त्व विभाग को इनकी सार-सँभाल की िफक्र नहीं है।

मंदिरों की शृंखला में पेगोड़ा की मानिंद बना हुआ ‘बादल महल’ ताज़िया टॉवर की तरह लगता है। पाँच मंजिला बादल महल का निर्माण-कौशल को देखते हुए लगता है कि शायद इसे किसी मुस्लिम वास्तुकार ने बनाया होगा। जैन मंदिर का निर्माण-कौशल 12वीं और 15वीं शताब्दी की वास्तुकला की याद ताज़ा करता है। सभी मंदिर किसी-न-किसी जैन तीर्थंकर की स्मृति में बनाये गये हैं। इनका शिल्प प्रख्यात देलवाड़ा के वास्तु कौशल की याद ताज़ा करता है। जैसलमेर से करीब 125 किलोमीटर दूर स्थित तनोट माता मंदिर जाने का लोभ तो शायद ही कोई विस्मृत कर पाता होगा। उन्हें श्रद्धालु हिंगलाज माता का दर्जा देते हैं। हिंगलाज माता की चमत्कारों की अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान तानोट पूरी तरह घिर गया था। लेकिन सैकड़ों बमों की बरसात के बावजूद मंदिर को खरोंच तक नहीं आयी थी। इस चमत्कार ने तनोट माता के प्रति लोगों की श्रद्धा को दोगुना कर दिया। इस मंदिर की देखरेख बॉर्डर पर तैनात सुरक्षा सेना करती है। जैसलमेर मार्ग पर ही पड़ता है- प्रसिद्ध रामदेवरा मंदिर। अधिकांश लोगों की मान्यता है कि यह भगवान राम का मंदिर है। लेकिन वास्तव में यह मंदिर संत बाबा रामदेवजी का है।

विज्ञान के इस युग में जब लोग परलोक और आत्माओं के अस्तित्व को मानने को तैयार नहीं, कुलधारा का रहस्य उनके लिए बड़ी चुनौती है। कुलधारा जैसलमेर से करीब 18 किलोमीटर दूर स्थित है। बड़ी रहस्यमय दास्तान समाये हुए है यह खंडित कस्बा। कुलधारा 18वीं शताब्दी की अजीबोगरीब दास्तान कहता है। इसका िकस्सा एक सुन्दर लडक़ी, एक विलासी मंत्री और उसके अत्याचारों से भडक़े लोगों के बीच छिड़ी जंग का है। पता नहीं क्या हुआ कि एक ही रात में सब खत्म हो गया। पूरा कस्बा वीरान हो गया। 80 गाँवों वाला कस्बा एक ही रात में श्मशान में तब्दील हो गया। उस खौफनाक रात के बाद किसी को भी जीवित नहीं देखा गया। कस्बा आज भी वीरान पड़ा है। इस कहानी को जानने के लिए सैलानी इतने दीवाने हैं कि वहाँ जाने की कोशिश तो करते हैं, लेकिन रात को वहाँ ठहरने की कोई भी हिम्मत नहीं जुटा पाता। बहरहाल, कुलधारा सैलानियों के लिए आकर्षण तो है ही, राजस्व भी उलीचता है। डेजर्ट नेशनल पार्क भी सैलानियों से अटा रहता है। यहाँ पशु-पक्षियों की अनगिनत और अद्भुत प्रजातियाँ देखने को मिल जाएँगी। झीलों, तालाबों के लिए बहुचर्चित गढ़सीसर का निर्माण 14वीं शताब्दी में हुआ था। इसे महारावल गढ़सी सिंह ने बनवाया था, ताकि बंजर भूमि में सिंचाई हो सके। झील के इर्द-गिर्द देवालयों की जैसे कतार-सी बन गयी है। नतीजतन पर्यटकों के अलावा श्रद्धालुओं के लिए भी यह तीर्थस्थल बन गया है। जैसलमेर के बाहरी पश्चिम इलाके में बनी हुई अमर सागर झील, अमर सिंह भवन को लेकर ज़्यादा चर्चा में है। 17वीं शताब्दी में बनाये गये अमर निवास भवन के साथ तालाब और कुएँ भी बने हुए हैं। सभी जलाशय भगवान शिव को समर्पित हैं। इनके निर्माण में वास्तुकला का अद्भुत शिल्प झलकता है। सैलानी दीवानों की तरह इन पर टकटकी लगाये रहते हैं।

थार में बरसते हैं 75 करोड़

ठिठुराने वाली सर्द रातों में जब लोग गर्म कपड़ों में दुबकते हैं या अलाव तापते दिखाई देते हैं, उस समय जैसलमेर की दुनिया में गज़ब-सी चमक आ जाती है। नये साल की अगवानी में पलक-पावड़े बिछाये स्वर्ण नगरी जैसलमेर में इन दिनों ‘मरू उत्सव’ की धूम रही। पर्यटन सीजन की धूम है। 5 जनवरी तक यही आलम रहा। हालाँकि पर्यटक तो अभी भी जमे हैं। जानकारों के अनुसार इस दौरान पर्यटन व्यवसाय में हर साल अनुमानित रूप से 75 करोड़ बरसते हैं। यह पैसा होटलों से लेकर रिसोट्र्स और बड़े हैण्डी क्राफ्ट्स शोरूम से लेकर गाइड और थडिय़ों तक पर खर्च होता है। इस बार 20 दिसंबर से 5 जनवरी तक तकरीबन 50 हज़ार सैलानी जैसलमेर भ्रमण पर पहुँचे। वैकेशन टूरिज्म ने जैसलमेर में पुख्ता जड़ें जमा ली हैं। ऐसे में पर्यटन कारोबारियों को भी हर साल इस समय क इंतज़ार रहने लगा है। नये साल के कार्यक्रमों के लिए सम्बन्धित आयोजक अलग-अलग थीम बनाकर जश्न की तैयारियाँ कर रहे हैं। बड़े होटलों में राजस्थानी व्यंजनों की बहार रहती है। होटलों में न्यू ईयर का पैकेज अलग से तैयार हो जाता है। यह बात ज़्यादा दिलचस्प रहती है कि थार के बलुई इलाकों के धोरों में मौज़-मस्ती की जो रंगत बिखरती है, वह बदरंग भी हो जाता है। सवाल यह है कि इस मुद्दे पर शासन कितना सतर्क है?

मरू उत्सव में बिखरते हैं लोक रंग

सांस्कृतिक परम्पराओं के अम्बार पर खड़ा मरू उत्सव जैसलमेर की बलुई िफज़ाओं में महक और मौज़-मस्ती के इतने रंग घोलता है कि उनके आगे हर रंग फीका नज़र आता है। उत्सव में ‘लोक रंग’ जिस तरह ठिठोली करते नज़र आते हैं कि दिल करता है ताउम्र इन्हीं धोरों में बस जाया जाए। इस स्वादी उत्सव में कोलाहल के कितने रंग रचे-बसे होते हैं, शुमार करना मुश्किल है। उत्सव का हर रंग मन को बाँधने वाला होता है। यहाँ रात-भर मौज़-मस्ती चलती है। ऐसे िकस्से भी बहुत हैं कि अनेक विदेशी युवतियों ने प्रेम-प्यार में पडक़र यहीं पर प्रेम घरोंदे बना लिये। उत्सव में सबसे ज़्यादा जगमग तो नाइट लाइफ  में रहता है। महोत्सव का आगाज़ सोनार दुर्ग से किया जाता है। यहाँ से निकलने वाली शोभा-यात्रा विभिन्न रास्तों से होते हुए स्टेडियम पहुँचती है। शोभा यात्रा में सजे-धजे ऊँट-घोड़े जब थिरकते हुए चलते हैं, तो मन मचल-मचल उठता है। उत्सव में प्रतियोगिताओं का भी गज़ब आकर्षण होता है। स्पर्धाएँ लोक-संस्कृति पर आधारित होती हैं। मसलन मूँछ प्रतियोगिता, साफा प्रतियोगिता, रस्साकशी और मटका प्रतियोगिता। इन प्रतियोगिताओं की लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विदेशी सैलानी भी इनमें शिरकत करते नज़र आते हैं। सीमा सुरक्षा सेना का ‘कैमल टेटू’ उत्सव के विशिष्ट आकर्षण में गिना जाता है। उत्सव में भोपा, लंघाज और माँगणियारों का आलाप भी मन को बाँधने वाला होता है। सबसे बड़ा आकर्षण होता है-  ऊँट दौड़ ऊँट पोलो और ऊँटों की जिमनास्टिक! ऊँटों के निराले करतब सीमा सुरक्षा सेना के जवान ही दिखाते हैं।

सुरक्षा में सबसे ज़्यादा छेद

पर्यटन की विभिन्न विधाओं के बढ़ते प्रवाह और उसकी बदौलत उलीचते राजस्व के बावजूद सबसे बड़ा सवाल आज भी यथावत् है कि पर्यटकों की सुरक्षा के लिए राज्य सरकार ने अब तक क्या प्रावधान सुनिश्चित किये? जबकि ऐसी घटनाओं की कमी नहीं है, जब पर्यटकों ने बदसुलूकी, प्रताडऩा और यौन उत्पीडऩ तक की शिकायतें की हैं। पर्यटकों के मार्केटिंग रुझान को कभी नहीं समझा गया। जबकि इसकी गाइड लाइन का बाकायदा निर्धारण किया जाना चाहिए। राज्य सरकार के पास इस बात की बाकायदा योजना होनी चाहिए। पर्यटकों के लिए परिवहन की व्यवस्था ही अव्वल तो लचर है। सबसे बड़ी समस्या तो पर्यटकों के लिए लम्बे पर्यटन के दौरान आती है। उन्हें पैसों के लिए परेशान होना पड़ता है। नतीजतन असुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है। राजस्थान सरकार ने बेशक डेजर्ट पर्यटन के विकास की बातें तो की है। इसके लिए 63.96 करोड़ की राशि भी स्वीकृत है। लेकिन यह आर्थिक प्रावधान नज़र क्यों नहीं आता? जैसलमेर पर्यटन में अगर कोई बड़ी समस्या है, तो गाइड और लपकों (ठगों) को लेकर भी है। गाइडों के लिए गाइडलाइन होगी भी, तो दिखाई क्यों नहीं देती? ठग तो जयपुर से लेकर जैसलमेर तक सक्रिय दिखाई देते हैं। एक महत्त्वपूर्ण बात है कि कुटीर उत्पादों के प्रति पर्यटकों के रुझान को मनमाने दामों पर भुनाना। क्यों इसे कोई देखने वाला नहीं है? जैसलमेर का मरू उत्सव का पर्यटन के सालाना कैलेंडर में क्यों दर्ज नहीं है? यह बात अखरने वाली है। हैण्डीक्राफ्ट्स को लेकर राज्य सरकार नये सॢकट्स का निर्माण करने की तैयारी में थी। खासकर मेगा डेजर्ट सॢकट को लेकर। लेकिन क्या हुआ? जैसलमेर जाने वाले पर्यटकों को लग्जरी कोच में कितनी छूट मिल रही है? इसका कोई खाका साफ नज़र नहीं आता? राज्य सरकार ने पर्यटकों की सुविधा के लिए ‘पर्यटक मित्र’ योजना बनायी थी। लेकिन पर्यटक मित्र नज़र क्यों नहीं आते? बहरहाल, पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए योजनाएँ तो बहुत हैं। लेकिन सवाल है कि ज़मीन पर कितनी उतरी हैं?

मौत के खिलाडिय़ों को फाँसी

आतंकवाद के नेटवर्क का भूगोल बदल रहा है। इसकी ताज़ा मिसाल 11 साल पहले राजस्थान की राजधानी जयपुर में देखने को मिली। दहशत की वो तारीख 13 मई, 2008 थी। ढलते सूरज के साथ ही जयपुर दहल उठा। 13 मिनट में हुए आठ बम विस्फोटों ने ऐसी चीख-पुकार मचायी कि संगदिल िकस्म के शख्स भी काँप गये। आरती से सजी थालियाँ ही नहीं उड़ीं, उन्हें उठाये हुए हाथ भी उड़ गये। आरती के स्वर आर्तनाद में बदल गये। बम विस्फोटों की जद में जो भी आया, अपंग हो गया अथवा जान गँवा बैठा। जयपुर के सबसे ज़्यादा रौनक वाले ठौर-ठिकाने धुएँ और आग की लपटों में घिर गये। मंदिरों और बाज़ारों का नज़ारा तो बुरी तरह खौफज़दा करने वाला था, जिसने 1993 के मुम्बई विस्फोटों के दर्दनाक मंज़र की यादें ताज़ा कर दीं। इस आतंकवादी हमले ने गुलाबीनगर के परकोटे की दीवारों को खून से सुर्ख कर दिया। आतंकवादियों के निशाने पर जयपुर के मुख्य हनुमान मंदिर चाँदपोल स्थित पूर्वामुखी और साँगानेरी गेट स्थित हनुमान मंदिर रहे। बम ब्लास्ट के छर्रों, भगदड़ और ज़बरदस्त अफरातफरी भी कइयों के लिए जानलेवा बनी। आतंक का कहर 80 लोगों को निगल गया। घायल हुए करीब 170 लोग आज भी अपंगता का अभिशाप भोग रहे हैं। शुक्रवार 20 दिसंबर को विशेष न्यायालय ने सिलसिलेवार बम धमाके में चार आतंकवादियों को मौत की सज़ा सुनायी। न्यायाधीश अजय कुमार शर्मा ने दोषियों को सज़ा का ऐलान करते हुए सबसे पहले सैफुर्रहमान को सज़ा सुनायी। फिर मोहम्मद सरवर, मोहम्मद सैफ और सलमान को अलग-अलग धाराओं में सज़ा सुनायी। न्यायालय ने सभी दोषियों को भा.द.स. की धारा-302 और धारा-16 (1) में मृत्युदंड से दंडित किया। न्यायाधीश ने चारों आरोपियों को बम प्लांट करने के लिए चार मामलों में जहाँ मुख्य तौर पर दोषी ठहराया। वहीं चार मामलों में बम रखने में सहयोग करने और आपराधिक षड्यंत्र रचने के लिए दंडित किया। चारों आरोपियों के चेहरों पर मृत्युदंड सरीखी सज़ा का लेशमात्र भी रंज नहीं था। इसके विपरीत अपनी दरिन्दगी पर वे हँसते-खिलखिलाते नज़र आये। उनका कहना था- ‘हम हाई कोर्ट में सज़ा को चुनौती देंगे।’ इस मामले में बरी किये गये शाहबाज की नज़ीर देते हुए उनका कहना था- ‘जिस आधार पर शाहबाज़ को बरी किया गया। उन्हीं में दूसरों को सज़ा मिली है। हम इसी तर्क पर हाई कोर्ट में अपील करेंगे।’ हालाँकि विशेष लोक अभियोजक श्रीचंद का कहना था कि न्यायालय ने दस्तावेज़ और साक्ष्यों के आधार पर फैसला किया है। इसमें कहीं कोई खामी नहीं है। उन्होंने कहा कि शाहबाज़ को बरी किये जाने के फैसले को हम हाईकोर्ट में चुनौती देंगे।

हालाँकि, इससे पहले 19 दिसंबर को मामले की सुनवाई के दौरान आरोपी दलीले देते गिड़गिड़ाते नज़र आये कि ‘हम प्रतिष्ठित परिवारों के हैं। हमारा कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है। लेकिन न्यायाधीश ने कहा- ‘अभी सज़ा के बिन्दु पर बहस है, जो अपील करनी है, हाई केार्ट में करना।’ अगले दिन अपने फैसले में न्यायाधीश अपने फैसले में लिखा कि अभियुक्तों के कम उम्र होने, स्टूडेंट होने या कुलीन परिवार का होने से छूट नहीं मिल जाती कि वे निर्दोष लोगों की हत्या करें। न्यायाधीश ने कहा कि इनका सम्बन्ध इंडिया मुजाहिदीन से होना पाया गया है। अभियुक्तों का अपराध विरल से विरलतम श्रेणी में आता है। ऐसे अपराध के लिए मृत्युदंड के अलावा और कोई दंड नहीं हो सकता। आतंक फैलाकर लोगों की हत्या करने वाले अभियुक्तों के जीवित रहने से समाज को खतरा है। इस मामले में एसआईटी की चार्जशीट का ब्यौरा खँगाले तो, मोहम्मद सैफ अपने आठ साथियों के साथ दिल्ली से ज़िन्दा बम थैलों में रखकर बस से जयपुर आया था। जयपुर में अलग-अलग जगह से नो साइकिलें खरीदी। बम पलांट करने के बाद इन्हें अलग-अलग जगह खड़ा किया। विस्फोटों का वीडियो बनाया और टैऊन से दिल्ली लौट गये। बेशक दोषी सज़ा पा गये, लेकिन ज़ख्मों की यह दर्दनाक तस्वीर जयपुर शायद ही भूल पाए।

अभी तिश्नगी बाकी है…

मोहतरम आप कई दशक से शायरी के ज़रिये, अफसानों और नस्र के ज़रिये दुनिया को इल्म, तअलीम देते आ रहे हैं। आपने बहुत से बड़े शे’र दुनिया को दिये, जिन्हें सदियाँ अमल में लाएँगी, पीढिय़ाँ बरतेंगी। कभी तसल्ली हुई कि अब आपने काफी कुछ कह दिया या बहुत कुछ दुनिया को दे दिया?

नहीं, तसल्ली या कहें संतुष्टि तो कभी हुई नहीं। बल्कि हमने अपने एक शे’र में कहा है-

जितना लिक्खा है उसी ने हमें इज़्ज़त दे दी

जो न लिख पाये वो लिखते तो कयामत होती

तो कभी-कभी यह अहसास होता है कि बीमारियों ने, कुछ परेशानियों ने, कुछ कारोबारी मशरूिफयत ने, कुछ ज़िन्दगी के हंगामों ने उतना हमको लिखने का मौका नहीं दिया या उतना हम नहीं लिख सके या ज़िन्दगी से हमने उतना काम नहीं लिया, जितना एक दबीरुल शायर को लेना चाहिए।

लेकिन जहाँ तक मैं आपको जानता हूँ, जहाँ तक मैंने आपको पढ़ा है, उससे मुझे लगा जो और जितना आपने दुनिया को दिया, वह बहुत है। पहले के बड़े शायर जो नहीं दे पाये, वह आपने दिया। आपका एक अलग ही दर्शन है…!

नहीं असल में…, जैसे कि एक अधूरेपन का एहसास होता है। जैसे हमने आपको मुकम्मल नहीं किया, या हम अपने आपको मुकम्मल नहीं कर पाये। बिल्कुल यूँ कि जैसे हमारी पिछले दिनों एक किताब आयी है; ऑटो वायोग्राफी है- ‘मीर आके लौट गया।’ हमारा एक शे’र है उसी से हमने इसका शीर्षक उठाया है-

न होंगे हम तो हमारा ही तज़किरा होगा

कहेंगे लोग कि फिर मीर आके लौट गया

यह 640 पेज की किताब है। और उसका दूसरा एक हिस्सा हमने कुछ लिक्खा भी है। लेकिन बीमारियों ने खासतौर से, कुछ परेशानियों ने, कुछ घरेलू मशरूिफयत ने इसको मुकम्मल करने का मौका नहीं दिया अभी तक; तो यह अधूरेपन का जो एहसास है, इससे हम कभी-कभी डर जाते हैं। कि अगर इसको मुकम्मल किये वगैैर दुनिया से चले गये, तो दुनिया की भी प्यास बरकरार रह जायेगी। दुनिया यही सोचेगी कि न जाने मुनव्वर राणा और क्या-क्या कहना चाहते थे?

नहीं, इंशा-अल्लाह आप बहुत लम्बी उम्र जिएँगे। अल्लाह/ईश्वर आपको सेहतमंद रखे। तो यह तिश्नगी जो है, यह तड़प जो है, अधूरेपन की; यह तड़प एक शायर की है या एक आम गृहस्थ व्यक्ति की है?

नहीं, देखिये असल में अगर आप गृहस्थी से कटते हैं, तो इसका मतलब है कि आपने अपने बीवी-बच्चों का हक अदा नहीं किया; आपने अपना जीवन अपनी खुशी के लिए बर्बाद कर दिया। अब जैसे हमारे छ: बेटे-बेटियाँ हैं। एक बेटा और पाँच बेटियाँ। तो यह ज़िम्मेदारी मेरे पास बड़ी थी। अब इनकी शादी-ब्याह करना, एक कविता मुकम्मल करना है, एक किताब लिखना है, एक उम्र गुजारना है, एक जीवन व्यतीत करना है। तो एक बेटी की शादी का मेरे दिल में तसव्वुर यही है कि हमने एक ज़माना जी लिया। तो यह भी ज़रूरी था। और सीधी-सी बात यह है कि अगर यह प्यास का एहसास न रहे जाये कि अब हमारी प्यास बुझ गयी, तो शायद आदमी मर जाता है। तो अगर हम यह सोचते हैं कि अभी हमें और लिखना है, तो शायद यही चीज़ हमें ज़िन्दा रखेगी और शायद यही चीज़ हमसे कोर्ई और काम ले ले।

हुज़ूर लोगों ने आपको एक तरफ रख दिया कि आपने माँ पर शायरी की है। जबकि आपने माँ पर तो शायरी की है, यह तो आपका एक अलग हासिल है, यह आपकी वसीयत है। माँ पर कभी किसी ने नहीं लिखा। लेकिन दुनिया को और भी बहुत कुछ दिया, दुनिया को अलग तरीके से देखा, और जिस तरीके से आपने दुनिया को देखा है, उसमें कई तरीके भी नये हैं, अलग हैं। आपका एक अलग अंदाज़ है; जो मुनव्वर राणा का अंदाज़ है, वह किसी का है ही नहीं?

हाँ, यह आपने एक तरह से यूँ कहिए कि हमारी दुखती रग पर हाथ रख दिया। कि मुझे भी यह एहसास होता है कि जो हमारा जितना काम है, उतना लोगों ने देखा नहीं। हमारा एक शे’र है-

मैं शब्द-शब्द बनाकर गुहर दिखाता हूँ

तुम्हें गज़ल में मैं अपना हुनर दिखाता हूँ

तो अपना हुनर मैंने दिखाया है। लेकिन लोग उसी में उलझकर रह गये। लेकिन इसका मुझे दु:ख नहीं होता है। इसलिए कि मैंने यह हमेशा महसूस किया है कि शायरी इज नॉट वन-डे मैच कि शाम को रिजल्ट आ जाएगा। यह तो सदियों के लिए है, एक सदी इसके एक पन्ने की तरह होती है। तो मुमकिन है कि अगर हमने अच्छा लिखा होगा, तो आज नहीं तो मेरे मरने बाद लोग उसको समझेंगे। अच्छा, बहरहाल खुशी यह भी होती है कि मुझ पर कई लोगों ने पीएडी भी मुकम्मल की, डीलिट की उपाधि हासिल की। लेकिन इसका गम है कि आवामी तौर पर लोग समझते हैं कि मुनव्वर राणा ने माँ पर शायरी की। लेकिन यह ज़ाहिर सी बात है कि सैकड़ों, हज़ारों, लाखों माँओं की दुआ है कि आज हम ज़िन्दा-सलामत हैं, आज भी लिखते-पढ़ते रहते हैं। आज तक हमने जो ज़िम्मेदारियाँ थीं- बेटियों की शादियाँ करना, बेटे को ज़िम्मेदार बनाना। तो यह है कि हमने एक चैप्टर मुकम्मल कर दिया। तो माँ पर ही हमने शायरी नहीं की, हमने गद्य (नस्र) बहुत लिखा, हमने पद्य (काव्य) बहुत लिखा। अब अगर आप लोगों की दुआएँ रहीं, तो और भी लिखेंगे।

नहीं, आप सलामत रहेंगे। साहब! एक मुझे हैरत होती है कि लोग कहते हैं कि मुनव्वर राणा तो अपनी शायरी में रोने लगते हैं। मुझे ऐसे लोगों की तंगदिली या नासमझी पर हैरत होती है कि अभी भी वो समझ नहीं पाये कि मुनव्वर राणा आिखर हैं क्या? आपकी शायरी की दुनिया कितनी बड़ी है, लोग वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाते।

देखिए, असल में बहुत से लोग हैं कि उनको आलोचना करने का शौक होता है। किसी भी तरह से वो आलोचना करते रहते हैं। लेकिन, यह भी है कि शायद हम बहुत दुखे दिल के इंसान हैं। हम चाहें अपना दु:ख बयान कर रहे हों या दूसरे का दु:ख सुन रहे हों, हम नहीं सुन पाते हैं। हमको सुनाने में भी तकलीफ होती है। चाहे वो दु:ख की कहानियाँ हों, चाहे हकीकत हो, हमारी आँखें छलक जाती हैं। हम शायद इतने तंग दिल नहीं हैं कि दूसरे के दु:ख को हम कहानी की तरह सुनें। हम दूसरों के दु:ख को अपने दु:ख की तरह सुनते हैं, महसूस करते हैं।

साहब! आपकी कुछ शायरी की किताबें मैंने पढ़ी हैं। आपका गद्य नहीं पढ़ा। आपने माँ पर किताब लिखी, फिर मुहा•िारनामा लिखी, फिर कुछ किताबें आपकी हैं, जैसे- गज़ल गाँव, पीपल छाँव, बदन सराय, नीम के फूल, वगैैर नक्शे का मकान है, तो यह जो नाम हैं, लगता है जैसे उपन्यास या कहानी की हों, तो क्या यह शायरी की किताबें हैं या कहानी, उपन्यास आदि भी हैं?

वगैैर नक्शे का मकान गद्य की किताब है। जो गद्य की हमारी किताबें हैं, उसमें आलोचक की हैसियत से भी हमने बहुत कुछ लिखा है। कहानियाँ भी हमने लिखी हैं। और जो हमारे पूर्वज थे, उन लोगों पर भी हमारे लेख हैं। जैसे नीरज जी थे, उन पर हमने बहुत लिखा है, वो लोकमत वाले नीम के फूल के नाम से हर हफ्ते हमारा लेख छापते थे। तो एक लेख उन्होंने हमारा नहीं छापा, उन दिनों नीरज जी बहुत बीमार थे। तो वह लेख उन्होंने नहीं छापा। जब उनसे हमने पूछा, तो वो कहने लगे कि मुनव्वर भाई, यह जो पत्रकार होते हैं, बहुत बेईमान और खुदगरज़ होते हैं। नीरज जी की जो हालत है, उससे लगता नहीं कि नीरज जी बहुत दिन रहेंगे, तो जिस दिन नीरज जी नहीं रहेंगे, तब हम इस लेख को छापेंगे। और हमें खुशी होगी कि ऐसा लेख पूरे हिंदुस्तान के किसी भी हिन्दी-उर्दू अखबारों में इससे अच्छा मज़मून कोर्ई भी नीरज जी पर नहीं है। तो जब नीरज जी गुज़रे, तब उन्होंने वह लेख छापा।

…एक किताब है हमारी मीर आके लौट गया। तो उसमें हमारे गद्य के पोर्सन (अंश) मिल जाएँगे। तो दुश्मनों ने यह उड़ा दी कि मुनव्वर राणा का गद्य जितना अच्छा है उतनी अच्छी शायरी नहीं है। तो मैंने कहा कि चलिए मुझे यह भी अच्छा लगता है। लेकिन मैं शायरी छोड़ नहीं सकता है; क्योंकि जो शायरी है, तेज़ी से असर करने वाली दवा है। और गद्य होम्योपैथिक की दवा है, जो धीमे-धीमे, धीमे-धीमे असर करता है ….!(शेष अगले अंक में…)