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बँट गये मंत्रालय, अब वादे निभाए महाराष्ट्र सरकार

एक लम्बी खींचतान के बाद महाराष्ट्र में मंत्रिमंडल और उनके विभागों का बँटवारा हो ही गया। लेकिन इसमें  जितने दिन बीते उतने दिनों की भरपाई  मुश्किल लगती है। हालाँकि ऊपर से सब ठीक ठाक लग रहा है; लेकिन सभी दलों में अंदर-ही-अंदर कुछ-न-कुछ उबल रहा है। इस बँटवारे से लोगों में नाराज़गी है कइयों को लग रहा है कि उन्हें उनकी हैसियत के हिसाब से वह मंत्रालय नहीं मिला, जिसके वे काबिल हैं और कइयों को लग रहा है कि बँटवारे में पक्षपात हुआ है। एसा नहीं कि महा विकास आघाड़ी  का नेतृत्व इन सभी चीज़ों से वािकफ है; लेकिन वह विपक्ष यानी भाजपा को एक भी मौका नहीं देना चाहता, जिससे उनकी क्षमता पर कोर्ई प्रश्नचिह्न लगे और सरकार को पाँच साल का कार्यकाल पूरा करने के रास्ते में कोर्ई व्यवधान पैदा हो। इसमें दो राय नहीं इस बँटवारे में एनसीपी की छाप दिखाई देती है। एनसीपी की पोजिशन सबसे सही है दूसरे नंबर पर शिवसेना और तीसरे नंबर पर कांग्रेस है। माना जा रहा है कि यह नाराज़गी चलती रहेगी। िफलहाल मंत्रालयों का बँटवारा तो हो ही गया है। एक नजर डालते हैं सभी विभागों पर-

जैसा कि सब जानते हैं कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शिवसेना के उद्धव ठाकरे हैं, तो उप मुख्यमंत्री एनसीपी के अजित पवार हैं और उन्हें फाइनेंस एंड मिनिस्ट्री ऑफ प्लानिंग का ज़िम्मा मिला है। वहीं बाकी कैबिनेट मंत्रियों में एनसीपी के अनिल देशमुख को  गृह मंत्रालय मिला है। शहरी विकास मंत्रालय शिवसेना के एकनाथ शिंदे के हाथ में गया है। इंडस्ट्री एंड माइनिंग व मिनिस्ट्री ऑफ मराठी शिवसेना के सुभाष देसाई को दिया गया है। पर्यटन, पर्यावरण और प्रोटोकॉल मंत्रालय शिवसेना के विधायक आदित्य ठाकरे को मिला है। रेवेन्यू मिनिस्ट्री कांग्रेस विधायक बालासाहेब थोराट को दिया गया है। फूड, सिविल सप्लाइज एंड कंज्यूमर प्रॉटेक्शन एनसीपी के छगन भुजबल को मिला है। वहीं वाटर रिर्सोसेस एंड कमांड एरिया डेवलपमेंट एनसीपी के जयंत पाटिल को, पब्लिक वक्र्स (पब्लिक अंडरटेकिंग्स को छोडक़र) कांग्रेस के अशोक चव्हाण को, लेबर, स्टेट एक्साइज एनसीपी के दिलीप दत्तात्रेय पाटिल को, फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन एनसीपी के राजेंद्र भास्करराव सिंगणे को, पब्लिक हेल्थ एंड फैमिली वेलफेयर एनसीपी के राजेश अंकुशराव टोपे को, रूरल एनसीपी के हसन मुश्रीफ को, ऊर्जा कांग्रेस के नितिन काशीनाथ राउत को, स्कूल शिक्षा का ज़िम्मा कांग्रेस की विधायक वर्षा एकनाथ गायकवाड़ को, हाउसिंग एनसीपी के जितेंद्र सतीश आह्वाड़ को, डेयरी डेवलमपमेंट, स्पोट्र्स एंड यूथ वेलफेयर कांग्रेस के सुनील छत्रपति केदार को, अदर बैकवर्ड क्लासेस, सोशली एंड एजुकेशनली बैकवर्ड क्लासेस, खार लैंड डेवलमेंट कांग्रेस के विजय वडेट्टीवार को, मेडिकल एजुकेशन, कल्चरल अफेयर्स कांग्रेस के अमित देशमुख को, हायर एंड टेक्नीकल एजुकेशन शिवसेना के उदय रविंद्र सामंत को, कृषि, एक्स सर्विसमेन वेलफेयर शिवसेना के दादाजी भुसे को, वन, डिजास्टर मैनेजमेंट शिवसेना के संजय दुलीचंद राठौड़ को, वाटर सप्लाई एंड सैनिटेशन शिवसेना के गुलाबराव रघुनाथ पाटिल को, ट्राइबल डेवलमेंट कांग्रेस के के.सी. पाडवी को, एंप्लायमेंट गारंटी, हॉर्टिकल्चर शिवसेना के संदीपनराव आसाराम भुमरे को, को-ऑपरेशन, मार्केटिंग एनसीपी के बालासाहेब उर्फ श्यामराव पाटिल को, ट्रांसपॉर्ट, पार्लियामेंट्री अफेयर्स शिवसेना के अनिल परब को, टेक्सटाइल, मत्स्य व्यवसाय, बंदरगाह विकास कांग्रेस के असलम रमजान अली शेख को, वीमेन एंड चाइल्ड डेवलमेंट कांग्रेस के यशोमति ठाकुर को, सोशल जस्टिस एनसीपी के धनंजय मुंडे को, मृदा और जल संरक्षण शेतकरी क्रांतिकारी पक्ष के शंकरराव यशवंतराव को और अल्पसंख्यक विकास एवं प्रतिभा, कौशल, विकास और उद्यमिता एनसीपी के नवाब मोहम्मद इस्लाम मलिक को दिया गया है। अभी जनरल एडमिनिस्ट्रेशन, इन्फर्मेशन ऐंड पब्लिक रिलेशंस, लॉ ऐंड जुडिशरी और बाकी विभाग जो अभी आवंटित नहीं हुए हैं।

वहीं राज्यमंत्रियों में शिवसेना के अब्दुल सत्तार (मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट), रूरल डेवलपमेंट, पोर्ट लैंड डेवलपमेंट एंड स्पेशल असिस्टेंस, कांग्रेस के सतेज पाटिल को होम (अर्बन), हाउसिंग, ट्रांसपोर्ट, इनफर्मेंशन टेक्नोलॉजी, पाॢलयामेंट्री अफेयर्स, एक्स-सर्विसमेन वेलफेयर, शिवसेना के शंभुराजे देसाई को होम (रूरल), फाइनेंस, प्लानिंग, स्टेट एक्साइज, स्किल डेवलपमेंट एंड इंटरप्रेन्योरशिप, मार्केटिंग, एनसीपी के दताजी भरणे को पब्लिक वक्र्स (पब्लिक अंडरटेंकिग्स छोडक़र), सॉइल ऐंड वाटर कंजर्वेशन, फॉरेस्ट्स, एनिमल हजबेंडरी, डेयरी डेवलपमेंट ऐंड फिशरीज, जनरल एडमिनेस्ट्रेशन, कांग्रेस के विश्वजीत कदम को को-ऑपरेशन एग्रीकल्चर, सोशल जस्टिस, फूड, सिविल सप्लाइज एंड कंज्यूमर प्रटेक्शन, माइनॉरिटीज डेवलपमेंट एंड औकाफ, मराठी लैंग्वेज, शिवसेना के राजेंद्र पाटिल यद्रावकर को पब्लिक हेल्थ एंड फैमिली वेलफेयर, मेडिकल एजुकेशन, फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन, टेक्सटाइल, कल्चरल अफेयर्स, एनसीपी के संजय बनसोडे को इन्वाइरनमेंट, वाटर सप्लाई, पब्लिक वक्र्स (पब्लिक अंडरटेंकिंग्स ), एंप्लॉयमेंट गारंटी, अर्थक्वेक रीहबिलिटेशन, पार्लियामेंट्री अफेयर्स, एनसीपी के प्राजक्त तानपुरे को अर्बन डेवलपमेंट, इनर्जी, ट्राइबल डेलपमेंट, हाइयर एंड टेक्निकल एजुकेशन, डिसास्टर मैनेजमेंट, रिलीफ एंड रीहबिलिटिशेन, एनसीपी की अदिति तटकरे को इंडस्ट्रीज, माइनिंग, टूरिज्म, हॉर्टिकल्चर, स्पोट्र्स, यूथ वेलफेयर, प्रोटोकॉल, इनफर्मेशन एंड पब्लिक रिलेशंस और प्रहार जनशक्ति पार्टी के ओमप्रकाश उर्फ बच्चू बाबाराव कडू को जल संसाधन और क्षेत्र विकास,स्कूल शिक्षा, महिला और बाल विकास, अन्य पिछड़ा वर्ग, मुक्त जाति की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है।

राजनीति के पालने में बच्चों की मौतें

देश के विभिन्न राज्यों में हाल के महीनों में बड़े पैमाने पर बच्चों की मौत हुई है। लेकिन इसके बावजूद बजाय गम्भीर चिन्तन के इसे सिर्फ राजनीतिक का मुद्दा बना दिया गया है। चाहे उत्तर प्रदेश हो, राजस्थान या गुजरात। सैकड़ों बच्चे अस्पतालों या बाहर काल का ग्रास बन गये हैं। लेकिन इस विषय पर बजाय एक गम्भीर राष्ट्रीय बहस या बच्चों की बेशकीमती ज़िन्दगियाँ बचने के रास्ते खोजने के, देश के तमाम राजनीतिक दल बच्चों की मौत जैसे दु:ख भरे मसले को भी बेशर्मी से राजनीतिक सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल करने में जुट गये हैं।

अभी भाजपा कांग्रेस शासित राजस्थान में बच्चों की बड़े पैमाने पर मौतों को लेकर राजनीतिक हाहाकार मचा ही रही कि भाजपा शासित और प्रधानमंत्री मोदी के गृह राज्य गुजरात में बच्चों मौतों का डराबना आँकड़ा सामने आ गया। और भाजपा के विरोधी दल उस पर टूट पड़े। किसी ने भी यह ज़हमत नहीं कि इन मौतों को रोकने और देश के भविष्य को बचाने के लिए कोइ गम्भीर सुझाव देता।

देश को पाँच मिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनाने के दावों के बीच क्या यह शर्मनाक लगता कि हमारे अस्पतालों में सुविधाओं के अभाव में पिछले दो साल में 3000 बच्चे दम तोड़ चुके हैं। देश के नेता नागरिकता कानून आदि-आदि को अच्छा या खराब बताने के लिए मरे जा रहे हैं, लेकिन बच्चों की मौत पर चिन्ता करने वक्त उनके पास नहीं है। क्या करेगा देश ऐसी पाँच मिलियन इकोनॉमी का, जो हमारे बच्चों की जान बचाने के ही काम न आये?

पड़ताल बताती है कि कोई भी राज्य सरकार अपने यहाँ बच्चों की मौते जैसे गम्भीर मसले पर ज़रा भी संवेदनशील नहीं है। होती तो मौतों  की जानकारी सामने आने के बाद बजाय पिछली सरकारों के आँकड़े गिनाने के, बच्चों की जान बचाने के तरीके खोजती। भाजपा ने देखा कि कांग्रेस के शासन वाले राजस्थान में मौतें हो रही हैं, राजनीति की बहती गंगा में हाथ धो लो। अब गुजरात में बड़े पैमाने पर मौतों की सच्चाई सामने आ गयी, तो भाजपा की तो बोलती बंद हो गयी और कांग्रेस ने मौके को लपक लिया।

लेकिन यह सच है कि देश हरेक संवेदनशील व्यक्ति को बच्चों की बड़े पैमाने पर इन मौतों ने विचलित करके रख दिया है। राजस्थान से लेकर गुजरात तक अस्पतालों में बच्चे ज़िन्दगी और मौत की जंग लड़ रहे हैं। सैकड़ों बच्चों की मौत ने पूरे देश को हिला दिया है। राजस्थान के कोटा के जेके लोन अस्पताल का मामला सामने आने के बाद जोधपुर, बूंदी और बीकानेर में शिशुओं की मौत से हडक़ंप मचा हुआ थी कि 5 जनवरी को गुजरात में भी 200 बच्चों के मरने की जानकारी सामने आ गयी।  पहले राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत लगातार भाजपा के निशाने पर थे, अब भाजपा कांग्रेस के निशाने पर आ गयी। अहमदाबाद और राजकोट के अस्पताल में तकरीबन 200 बच्चों की मौत के बाद गुजरात की विजय रूपाणी सरकार सवालों के घेरे में है। रिपोट्र्स के मुताबिक, इनमें से 100 बच्चे तो उस क्षेत्र से हैं, जो खुद मुख्यमंत्री रुपाणी का गृह क्षेत्र है। अब भाजपा क्या कहेगी?

पिछले साल उत्तर प्रदेश में सैकड़ों बच्चों की मौत की खबरें लम्बे समय तक चर्चा में हैं। यह सिलसिला अभी थमा नहीं है। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ राजस्थान में मौतों को लेकर दहाड़ रहे थे। तब अशोक गहलोत रक्षात्मक थे। हालाँकि, तर्क उनके भी बेहूदे थे। जैसे आज हो रही मौतों पर पिछली सरकारों के वक्त में हुई मौतों के आँकड़े गिनाना। भले पहले के आँकड़े ज़्यादा रहे हों, क्या एक सीएम को तरह के तर्कों से संकट का सामना करना चाहिए? और योगी, जो अशोक गहलोत से इस्तीफा माँग रहे थे, क्या अब अपनी ही पार्टी के विजय रूपाणी से भी इस्तीफा माँगने की हिम्मत दिखाएँगे, क्योंकि दोनों ही मामलों की संवेदनशीलता एक जैसी ही है।

यूपी में योगी सरकार के ही रहते पिछले महीनों में सैकड़ों बच्चों की मौत हुई है। राज्य में सबसे बड़े अस्पताल बीआरडी मेडिकल कॉलेज में अगस्त 2017 में ऑक्सीजन की कमी से कई बच्चों की मौत हो गयी थी। वहाँ आज तक सिस्टम को सुधारने के लिए कोई गम्भीर प्रयास नहीं हुए।

गुजरात में जब बच्चों की बड़े पैमाने पर मौत की जानकारी सामने आयी और मीडिया ने मुख्यमंत्री रूपाणी से सवाल पूछने चाहे, तो वे मुँह फेरकर निकल गये, जिससे हमारे नेताओं की इस तरह के संवेदनशील मुद्दों पर गम्भीरता का पता चलता है। वे कभी भी खुद को जवाबदेह नहीं बनाना चाहते। हाँ, राजनीति की रोटियाँ सेंकने का अवसर मिल जाये, तो पीछे नहीं हटते।

मीडिया रिपोट्र्स का अध्ययन करें, तो ज़ाहिर होता है कि राजस्थान में बच्चों की मौत का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। कोटा जेके लोन अस्पताल में 35 दिन में 110 बच्चों की मौत के बाद बीकानेर के पीबीएम शिशु अस्पताल में यह रिपोर्ट तक 31 दिन में 162 बच्चे काल का ग्रास बन चुके थे। अध्ययन किया जाए, तो ज़ाहिर होता है कि हर दिन औसतन पाँच से ज़्यादा बच्चों की मौत हुई है। दिसंबर, 2019 की ही बात करें तो अस्पताल में जन्मे और बाहर से आये 2219 बच्चे पीबीएम शिशु अस्पताल में भर्ती हुए जिनमें से 162 यानी करीब साड़े सात फीसदी की मौत हो गयी। दिसंबर में एनआईसीयू और पीआईसीयू में बच्चों की कुल मौतों की संख्या 146 है। एसएन मेडिकल कॉलेज से प्राप्त आँकड़ों के मुताबिक, इन दोनों ही अस्पतालों में दिसंबर महीने में 4689 बच्चों को भर्ती कराया गया था। इनमें से 3002 नवजात थे। इलाज के दौरान कुल 146 बच्चों की मौत हो गयी, जिनमें से 102 नवजात थे।

जनवरी, 2019 से दिसंबर तक कुल 1681 बच्चों की मौत हो चुकी है। अस्पताल में सुविधाओं का ज़बरदस्त टोटा है। विस्तर बहुत कम हैं। सबसे ज़्यादा मौतें नियोनेटल केयर यूनिट यानी नवजात बच्चों की देखभाल वाले केन्द्र में हुई हैं। वेंटिलेटर तक पूरे नहीं हैं।

गुजरात में मौतें

उधर अब राजस्थान के बाद भाजपा शासित और पीएम मोदी के गृह राज्य गुजरात में 200 से ज़्यादा बच्चों की मौत का मामला गरमा गया है। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक गुजरात के राजकोट और अहमदाबाद के दो सरकारी अस्पतालों में 200 के करीब बच्चों की मौत हो चुकी थी। सरकारी अस्पताल में शिशुओं की मौत की रिपोर्ट के बारे में पूछे जाने पर गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने कोई जवाब नहीं दिया। सीएम रूपाणी राजकोट की पश्चिम विधानसभा सीट से ही विधायक हैं, जहाँ ज़्यादा मौतें हुई हैं।

राजकोट और अहमदाबाद के सिविल अस्पतालों में बच्चों की मौत पर कांग्रेस ने भाजपा पर हमला बोला। अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की अध्यक्ष और पार्टी की राष्ट्रीय प्रवक्ता सुष्मिता देव ने ट्वीट कर पूछा- ‘क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन भाजपा शासित गुजरात में बच्चों की मौत पर मौन रहेंगे।’ रिपोट्र्स के मुताबिक, राजकोट के सिविल अस्पताल में 134 बच्चों, जबकि अहमदाबाद के सिविल अस्पताल में 85 बच्चों की मौत हुई है। खबर आने के बाद राजकोट सिविल अस्पताल के डीन मनीष मेहता ने कहा कि अस्पताल में दिसंबर के महीने में 111 बच्चों की मौत हो गयी थी, जबकि अहमदाबाद सिविल अस्पताल के अधीक्षक जीएस राठौड़ ने कहा कि दिसंबर में 455 नवजात शिशुओं नवजात शिशु गहन चिकित्सा इकाई में भर्ती किये गये थे, जिनमें 85 की मौत हो गयी। हालाँकि, बच्चों की मौत के लिए दोनों ही डॉक्टरों ने कोई कारण नहीं बताया।

भयावह आँकड़े

यदि आँकड़े देखें, तो यह सचमुच डराने वाले हैं। हाल के वर्षों में लखनऊ की किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी में एक साल में 650 बच्चों की मौत, भोपाल के हमीदिया अस्पताल में एक साल में ही 800 बच्चों की मौत, पुणे के ससून अस्पताल में एक साल में 208 बच्चों, जोधपुर के उम्मेद और एमडीएम अस्पताल में दिसंबर से 146 बच्चों की मौत, बीकानेर के पीबीएम अस्पताल में पिछले 35 दिन में 162 से ज़्यादा मौतें, रांची के सरकारी अस्पताल रिम्स में हर महीने औसतन 96 बच्चों की मौत और कोटा के जेके लोन अस्पताल में 35 दिन में 110 बच्चों की मौत के आँकड़े आधिकारिक रूप से सामने आ चुके हैं। और अब गुजरात में 200 बच्चों की मौत की खबर ने सभी को झकझोरकर रख दिया।

सिरदर्द बन चुका है दिल्ली का जाम

आज के दौर में हर किसी का एक-एक लम्हा कीमती है। एक समय था जब लोग एक-दूसरे से गप्पे मारने में, एक-दूसरे की मदद में या तास खेलने में काफी समय बिता दिया करते थे। परन्तु अब किसी के पास इतना समय नहीं है। आजकल हर इंसान रोज़ी-रोटी और तरक्की की दिन-रात कोशिशें करता रहता है। या यह कहें कि 99 के चक्कर में अब हर आदमी है। यह बात गाँवों पर भले ही पूरी तरह लागू न हो, मगर शहरों पर, खासकर बड़े शहरों पर तो ज़रूर लागू होती है। आजकल हर आदमी अपनी रोज़मर्रा की भागदौड़ में इतना मशरूफ हो गया है कि उसे एक लम्हा भी गँवाना गवारा नहीं। अब तो सफर के लिए सवारी भी लोग समय का आकलन करके किया करते हैं। कुल मिलाकर पैसे ज़्यादा खर्च हो जाएँ, पर समय की बचत होनी चाहिए। हमारे बहुत से बड़े-बूढ़े, विद्वान, यहाँ तक कि ग्रन्थ भी कहते हैं कि समय बहुत कीमती है। कहा जाता है कि जो लोग समय बर्बाद करते हैं, समय उनका भविष्य बर्बाद कर देता है। अगर बात देश की राजधानी दिल्ली की करें, तो यहाँ का छोटा-सा सफर बहुत समय खा जाता है। हालात यह हैं कि अगर किसी को पाँच किलोमीटर का भी सफर करना हो, तो कई जगहों पर आधे से एक घंटा तक खराब हो जाता है। हाल ही में किये गये एक सर्वे के मुताबिक, दिल्ली में एक कामकाजी इंसान को आठ घंटे की ड्यूटी के लिए 12 से 14 घंटे तक निकालने पड़ते हैं। इसकी वजह क्या है? इससे कैसे निजात पायी जा सकती है? इससे हर दिन सडक़ से गुज़रने वाले लोगों का कितना नुकसान होता है? आज के समय में कम-से-कम दिल्ली के मामले में यह सब गहन चर्चा के विषय हैं।

क्यों लगता है जाम?

दिल्ली में जाम के कई कारण सामने आते हैं, जिनमें से प्रमुख है निजी वाहनों की बढ़ती संख्या। एक अनुमान के मुताबिक, दिल्ली में लगभग सवा करोड़ वाहन सडक़ों पर दौड़ रहे हैं। इनमें 70 लाख से अधिक दोपहिया वाहन हैं। यह डाटा 2018 का है। दिल्ली में जाम का दूसरा बड़ा कारण एक कार में एक या दो लोगों का सफर करना है। वहीं तीसरा बड़ा कारण है- सडक़ों किनारे का अतिक्रमण। इस अतिक्रमण में घरों, दुकानों या आम सडक़ों के सामने खड़े वाहन बहुत बड़ा सिरदर्द हैं। कई जगह का तो यह हाल है कि आधे से ज़्यादा रास्ता सडक़ों पर खड़े वाहन ही घेर लेते हैं। जाम का चौथा कारण है- ज़ल्दबाजी। कुछ लोग ज़ल्दबाजी में अपने वाहन को उलटा-सीधा फँसा देते हैं, जिसके चलते थोड़ी ही देर में दूर तक जाम लग जाता है। हर रोज़ अपने ऑफिस के लिए लक्ष्मी नगर से करोल बाग जाने वाले सुमित गुप्ता कहते हैं कि वे कार से सफर करते हैं। लक्ष्मी नगर से करोल बाग पहुँचने में उन्हें लगभग डेढ़ से दो घंटे लगते हैं। कभी-कभी तो ढाई-तीन घंटे तक का समय उन्हें इस सफर को तय करने में लग जाता है। वहीं लाजपत नगर में एक इंश्योरेंस कम्पनी में मैनेजर पद पर कार्यरत रंजीत कुमार बताते हैं कि उन्हें हर दिन द्वारका से लाजपत नगर आना होता है। उन्हें हर रोज़ अपनी बाइक से यह सफर तय करना होता है। इसके लिए उन्हें हर रोज़ एक तरफ से ढाई से तीन घंटे का समय निकालना पड़ता है। उनकी हर दिन की ड्यूटी 15 से 16 घंटे की पड़ती है। जाम के चलते हर रोज़ उनके दो से तीन घंटे ज़्यादा खर्च होते हैं।

ट्रैफिक पुलिस मुस्तैद, फिर भी समस्या

दिल्ली में हर कहीं ट्रैफिक पुलिस खड़ी मिल जाएगी। धूल, सर्दी, गर्मी और बारिश में ट्रैफिक पुलिस के जवान जाम कम करने की जद्दोजहद से दिन भर उलझते हैं। परन्तु दिल्ली के कई इलाके ऐसे हैं, जिन्हें जाम से निजात दिलाना बीरवल की खिचड़ी पकाने से भी कठिन काम है। ट्रैफिक पुलिस की लाख कोशिशों के बावजूद भी दिल्ली को ट्रैफिक जाम से निजात नहीं मिल सकी है। ट्रैफिक पुलिस ऑफिसर विवेक का कहना है कि हम दिन भर ड्यूटी करके भी लोगों की नज़रों में खटकते रहते हैं। विवेक कहते हैं कि कोई भी मौसम हो, हमें किसी-न-किसी चौराहे पर खड़े रहकर ही ड्यूटी करनी होती है। मगर लोग फिर भी नहीं समझते कि हम लोग आिखर यह करते किसके लिए हैं। अकसर लोग कहते हैं कि ट्रैफिक पुलिस रिश्वत लेती है, चालान करती है। कहते हैं कि एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है। हम यह नहीं कह रहे कि ट्रैफिक पुलिस में सब ईमानदार हैं। कुछ लोग गलत भी हो सकते हैं, मगर ज़्यादातर ट्रैफिक पुलिस के जवान ईमानदार होते हैं। रही चालान की बात, तो वह भी हम काटना नहीं चाहते, परन्तु जब कोई कानून या ट्रैफिक रूल तोड़ता है, तो हमें चालान करना ही पड़ता है। जतिन कहते हैं कि वे चाहे भूखे खड़े हों, चाहे प्यासे, लोग उन्हें रिश्वत लेने वाले पुलिसकर्मी के नज़रिये से पहले देखते हैं। लोग यह भी नहीं समझते कि हर दिन वे कितने ट्रैफिक रूल तोड़ते हैं और उनकी वजह से कितने दूसरे लोगों को परेशानी होती है।

मेट्रो से राहत, फिर भी आफत

हालाँकि, राजधानी में दिल्ली मेट्रो ने ट्रैफिक की समस्या से काफी हद तक निजात दिला दी है, फिर भी अभी दिल्ली में जाम एक बड़ी चुनौती है। इसका एक कारण यह भी है कि दिल्ली में अभी कई स्थानों पर मेट्रो नहीं है। साथ ही कुछ मेट्रो स्टेशन भी जाम का कारण बनने लगे हैं। इन मेट्रो स्टेशन के नीचे वाहन चालक वाहन खड़े कर देते हैं, खासतौर से ई-रिक्शा, ऑटो रिक्शा वाले मेट्रो स्टेशनों के नीचे खड़े हो जाते हैं और आने-जाने वाले वाहनों के रास्ते में बाधा बनते हैं। वहीं सडक़ों पर दिन-ब-दिन बढ़ते ट्रैफिक के चलते जाम कम होने का नाम नहीं ले रहा है।

अभी और होना चाहिए मेट्रो का विस्तार

दिल्ली के बहुत-से इलाके ऐसे हैं, जहाँ मेट्रो की सख्त ज़रूरत है, परन्तु मेट्रो अभी पहुँची नहीं है। इनमें कुछ ऐसे इलाके भी हैं, जहाँ तक मेट्रो पहुँचना बहुत टेढ़ी खीर है। ऐसे इलाकों में अधिकतर घनी और कच्ची कॉलोनिया शामिल हैं।

डीटीसी और कलस्टर बसों की है कमी

दिल्ली में तकरीबन ढाई करोड़ की आबादी रहती है, जिसमें सवा करोड़ यहाँ वाहनों की संख्या है। यानी सवा करोड़ लोगों के पास अपना कोई वाहन नहीं है। जबकि यहाँ डीटीसी की तकरीबन 4,000 और कलस्टर की 1800 बसें दिल्ली और एनसीआर में दौड़ती हैं। जिसमें लगभग हर रोज़ 45 लाख लोग सफर करते हैं, जिनके हिसाब से बसों की यह संख्या काफी कम है।

लोगों का होता है बड़ा नुकसान

जो लोग दिल्ली में हर रोज़ काम के सिलसिले में सफर करते हैं, उनका जाम के चलते काफी समय जाया चला जाता है। घरोली डेयरी फार्म के रहने वाले कालीचरन सिंह कहते हैं कि उन्हें हर रोज़ ओखला तक नौकरी के लिए जाना होता है। अपने घर से बाइक से ऑफिस तक जाने और ऑफिस से घऱ आने में उन्हें हर रोज़ तीन से चार और कभी-कभी पाँच-छ: घंटे भी लग जाते हैं, जबकि अगर जाम न हो तो वे तीन घंटे के अंदर दोनों तरफ का सफर आसानी से तय कर सकते हैं। बाकी का समय हर रोज़ उनका नष्ट ही होता है। अगर वे इस समय का उपयोग कर सकें, तो इसी खराब हुए समय में वे 200 से 250 रुपये का काम कर सकते हैं। कालीचरन सिंह कहते हैं कि समय की इंसान के जीवन में बहुत कीमत होती है, ऐसे में हमारा हर रोज़ जो घंटों का समय बर्बाद हो जाता है, वह बहुत खलता है। जाम को लेकर रवि चौहान ने बताया कि वे नोएडा में नौकरी करते हैं और उनके घर से नोएडा जाने में उन्हें 45 से 50 मिनट ही लगने चाहिए, लेकिन उन्हें हर रोज़ एक से डेढ़ घंटा सिर्फ जाम के चलते लगता है। कभी-कभी जाम के चलते वह देरी से ऑफिस पहुँचे हैं, जिससे काफी दिक्कत होती है।

दिल्ली सरकार के प्रयास

मौज़ूदा दिल्ली सरकार ने जाम से मुक्ति के कई तरीके निकाले हैं। इससे पहले कांग्रेस की दिल्ली सरकार ने भी दिल्ली को जाम से मुक्ति दिलाने के लिए अनेक फ्लाई ओवर, सडक़ चौड़ीकरण और अंडरपास बनवाये। वहीं मौज़ूदा सरकार भी जाम से मुक्ति के लिए अनेक फ्लाई ओवर बनवा चुकी है, जिनमें कुछ पिछली सरकार के अधूरे पड़े फ्लाई ओवर्स को भी पूरा करने का काम शामिल है। आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार ने बाहरी रिंग रोड से एयरपोर्ट जाने वाले राव तुला राम (आरटीआर) फ्लाई ओवर भी बनाया है। तीन लेन का यह फ्लाई ओवर 2.85 किलोमीटर लम्बा है। बता दें कि इस फ्लाई ओवर के देरी से बनने के चलते दिल्ली सरकार ने ठेकेदार पर ज़ुर्माना भी लगाया गया था। इसके अलावा विकासपुरी से मीना बाग के बीच एक फ्लाई ओवर और दिया मौज़ूदा सरकार ने। इसी तरह और भी फ्लाई ओवर दिल्ली सरकार ने बनाए हैं। हालाँकि दिल्ली सरकार का दिल्ली को 23 फ्लाई ओवर देने का वादा है, जो अभी पूरा नहीं हुआ है, लेकिन काम जारी है।

हाल ही में दिल्ली के मुख्यमंत्री ने ओखला क्षेत्र का दौरा किया था और वहाँ लगने वाले जाम के बारे में जैसे ही उन्हें मालूम हुआ, उन्होंने तत्काल घोषणा कर दी कि वे ज़ल्द ही ओखला क्षेत्र को जाम से मुक्ति दिलाएँगे। इसके लिए कुछ जगहों पर काम भी शुरू हो चुका है।

पाॄकग की है कमी

दिल्ली में जितने वाहन हैं, उनके हिसाब से पाॄकग की संख्या बहुत कम है। जबकि चार पहिया वाहन खरीदने के लिए हर किसी को पाॄकग दिखानी पड़ती है। मगर आधे से अधिक लोगों के पास पाॄकग की व्यवस्था नहीं है। दिल्ली में प्राइवेट पाॄकग भी अनेक हैं, परन्तु उनमें भी बहुत-से लोग अपना वाहन खड़ा न करके, अपने घर या दुकान के सामने सडक़ पर खड़ा कर देते हैं।

अधूरी पड़ी हैं पाॄकग

दिल्ली में कांग्रेस के समय में ही कुछ मल्टीलेवल पाॄकग का मसौदा तैयार हुआ था, जिनमें से कुछ पर काम भी होना शुरू हो गया था, पर कुछ अधूरी ही रह गयीं। इन पाॄकग में से एक कनॉट प्लेस में है, जिसका काम कांग्रेस की दिल्ली सरकार के समय में ही रुक गया था। बताया जाता है कि यह पाॄकग किसी विवाद के चलते नहीं बन सकी है।

साधनों को विकसित करने की ज़रूरत

बढ़ते जाम को देखते हुए दिल्ली की सडक़ों और फ्लाई ओवर को तकनीकी रूप से विकसित करने की ज़रूरत है। यह कहना है- दिल्ली की एक प्राइवेट फर्म में कार्यरत इंजीनियर नयन प्रकाश का। नयन प्रकाश के अनुसार, दिल्ली की कई सडक़ें पहले के हिसाब से बनी हुई हैं। ज़ाहिर है कि उस समय इतना ट्रैफिक नहीं होता होगा; परन्तु अब उनमें ज़रूरत के हिसाब से परिवर्तन की ज़रूरत है।

130 फुट ऊँची टॉवर पाॄकग तैयार

एक तरफ जहाँ दिल्ली में पाॄकग की दिक्कत है। चारों नगर निगमों ने दिल्ली में अपने-अपने क्षेत्र में कई पाॄकग बना रखी हैं। लेकिन मल्टीलेबल पाॄकग की अभी भी दिल्ली में कमी है। वहीं ग्रीन पार्क एरिया में पहली सबसे ऊँची टॉवर पाॄकग ग्रीन पार्क  में बनायी गयी है। स्टील फिटेड इस पाॄकग में दो टॉवर बनाये गये हैं। पाॄकग की ऊँचाई करीब 130 फीट है, जिसमें 102 गाडिय़ाँ खड़ी की जा सकती हैं। इसके अलावा ज़ल्द ही दो और मल्टीलेबल पाॄकग साल 2020 में बनाने का प्रस्ताव भी है।

घरेलू हिंसा पर कोई बात क्यों नहीं?

29 दिसंबर की आधी रात को, तहलका संवाददाता ने अपनी माँ से व्हाट्सएप संदेश प्राप्त किया, जो संवाददाता को अंदर तक हिला देता है। जो कुछ उसके सामने था, यह संदेश संवाददाता की माँ की पहचान वाली महिला के बारे में था। महिला के व्यथित कर देने वाले संदेश थे, जिसमें वह अपने पति के अपमानजनक और गाली-गलोच करने वाले व्यवहार से छुटकारे की गुहार लगा रही थी। संवाददाता की माँ ने भय से भरे स्वर में पूछा- ‘क्या हम उसकी मदद कर सकते हैं?’

व्हाट्सएप पर और भी सन्देश थे, वीडियो और तस्वीरें थीं, जहाँ महिला को रोते हुए देखा जा सकता था। उसके सिर पर एक चोट से खून बह रहा था, जो कथित रूप से उसके पति ने उसे पहुँचायी थी। इस संवाददाता ने अपनी माँ से जानकारी लेने के बाद, बिना देर किये महिला को फोन किया और उसे पुलिस के हेल्पलाइन नंबर 100 पर कॉल करने की सलाह दी। शुरू में उसके मन में पुलिस को फोन करने को लेकर इसलिए संकोच था कि ऐसा करने से उसके प्रति होने वाली घरेलू हिंसा बढ़ सकती है; क्योंकि वह जिन लोगों पर भरोसा कर सकती थी, वे सभी उस रात शहर में नहीं थे; जिनमें संवाददाता की माँ भी शामिल थी। लेकिन, बहुत समझाने के बाद उसने आिखर पुलिस को फोन किया।

पहले से ही दो घंटे बिना किसी चिकित्सा सहायता के बीत चुके थे और उनका खून बह रहा था। इससे भी बद्तर, पुलिस कंट्रोल रूम में किसी ने भी उसके कॉल का जवाब नहीं दिया। संवाददाता ने तब घरेलू हेल्पलाइन नम्बर मिलाने की कोशिश की, जो 24 घंटे खुली रहती है। 181 महिला हेल्पलाइन कार्यालय की एक सदस्य ने जवाब दिया और संवाददाता महिला को टीम के साथ कनेक्ट करने में सफल हुई। हालाँकि बहुत देरी से, पुलिस को कई बार फोन करने के बाद और महिला को आश्वासन देने कि उसे बचा लिया जाएगा। लेकिन पुलिस सुबह 4:00 बजे पीडि़ता के घर पहुँची।

उसे अस्पताल ले जाया गया और उसके साथ गाली-गलोच करने वाले पति को जेल भेज दिया गया। यह सब उन वीडियो और व्हाट्सएप संदेशों के कारण ही हो सका और हम उस रात उसकी मदद कर सके। लेकिन, इस घटना से होने वाले नुकसान उसके जीवन में कहीं अधिक गहरे परिणाम वाले होते और अंतत: उसके 20 वर्षीय दो बेटों के ऊपर इसका असर होता। दरअसल, ऐसे मामले सामान्य नहीं हैं, खासकर कामकाजी महिलाओं के मामले में। इस मामले से एक सप्ताह पहले संवाददाता दो बच्चों की एक माँ से मिली, जिसने अपनी दर्दनाक कहानी बतायी। उसने बताया कि उसके पुरुषवादी मानसिकता वाले पति से रोज़ गालियाँ मिलती हैं और अपमान सहना पड़ता है। महिला ने बताया कि दुनिया के लिए, मैं एक सम्मानित, आधुनिक, स्वतंत्र, कामकाजी महिला हूँ। दुर्भाग्य से, मैं अभी भी घरेलू हिंसा का शिकार हूँ। दु:खद यह है कि 33 साल के वैवाहिक जीवन में उसे पति ने इतना प्रताडि़त किया है कि अब वह अवसाद से बचने वाली दवाइयों पर निर्भर हो गयी है और भावनात्मक उपचार के लिए आध्यात्मिक ज़रियों का सहारा लेती है। दिसंबर में घरेलू हिंसा का यह तीसरा मामला था, जिसे संवाददाता ने सीधे सम्पर्क के माध्यम से या किसी ज्ञात व्यक्ति के माध्यम से देखा था।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएचएफएस-4) की रिपोर्ट के अनुसार, 15 वर्ष की आयु के बाद से देश में हर तीसरी महिला विभिन्न तरीकों से घरेलू हिंसा का सामना करती है। यह रिपोर्ट केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की तरफ से जारी की गयी थी। 33 फीसदी विवाहित महिलाएँ शारीरिक, यौन या भावनात्मक हिंसा शिकार हुई हैं। सबसे सामान्य प्रकार की हिंसा शारीरिक हिंसा (30 प्रतिशत) है, जिसके बाद भावनात्मक हिंसा (14 प्रतिशत) है। एनएचएफएस-4 की रिपोर्ट के अनुसार, हर विवाहित महिला में से सात प्रतिशत ने यौन हिंसा का अनुभव किया है। रिपोर्ट में बताया गया है कि जो महिलाएँ कामकाजी हैं, वे उन महिलाओं की तुलना में शारीरिक हिंसा का ज़्यादा सामना करती हैं, जो कामकाजी नहीं हैं। उदाहरण के लिए, 39 प्रतिशत महिलाओं जिन्होंने पैसे के लिए नौकरी की, उन 26 फीसदी महिलाओं की तुलना में, जो कामकाजी नहीं हैं; ने 5 साल की उम्र से शारीरिक हिंसा का सामना किया है। रिपोर्ट के अनुसार, शहरी इलाकों में 25 फीसदी महिलाओं की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों की 32 फीसदी महिलाएँ शारीरिक हिंसा की शिकार होती हैं।

समाज में घरेलू हिंसा को कैसे लिया जाता है?

महिलाओं के िखलाफ हिंसा के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में घरेलू हिंसा को इस प्रकार परिभाषित किया गया है- ‘परिवार में होने वाली शारीरिक, यौन और मनोवैज्ञानिक हिंसा, जिसमें महिलाओं को पीटना, घर में महिला और कन्याओं का यौन शोषण, दहेज-सम्बन्धी हिंसा, विवाह बाद बलात्कार के अलावा महिला विरोधी पारम्परिक प्रथाएँ शामिल हैं, जिनमें शोषण से सम्बन्धित हिंसा भी शामिल है।’

समाज के प्रमुख मुद्दों में से एक, जो कभी भी चर्चा के केन्द्र तक नहीं पहुँचता, घरेलू हिंसा है। घरेलू हिंसा के मुद्दे को आमतौर पर समाज में दुव्र्यवहार के बजाय किसी के व्यक्तिगत मामले के रूप में लिया जाता है, जिसके कारण महिलाओं को अभी भी भेदभाव, उत्पीडऩ और विभिन्न तरह के दुव्र्यवहार का शिकार होना पड़ता है, चाहे वह घर या हो या कार्यस्थल पर। चाहे परिवार हो, रिश्तेदार या दोस्त हों, हम उन्हें घरेलू हिंसा के मामले में शायद ही कभी समर्थन या हस्तक्षेप करते हुए देखते हैं। घरेलू हिंसा हमेशा शारीरिक हमले- मार-पीट करना, के रूप में नहीं होती है  बल्कि भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक, मौखिक और यौन स्तर की भी हो सकती है।

हिंसा के मामले क्यों, कैसे-कैसे?

महिला और बाल विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में एक राज्य स्तरीय विश्लेषण में महिलाओं के िखलाफ घरेलू हिंसा के विभिन्न रूपों का अध्ययन अपराधों के विभिन्न मामलों जैसे डाटा का उपयोग करके किया गया है, जिसमें महिलाओं के िखलाफ घरेलू हिंसा, दहेज के लिए हत्या या उत्पीडऩ, सम्मान हत्या (ऑनर किलिंग), पति और रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता और परिवार के सदस्यों द्वारा बलात्कार, महिलाओं की सहमति के बिना गर्भपात, घरेलू हिंसा अधिनियम का उल्लंघन और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 गर्भपात के इरादे से की गयी हत्याएँ शामिल हैं।

घरेलू हिंसा के िखलाफ कानून

घरेलू हिंसा अधिनियम (घरेलू हिंसा अधिनियम से महिलाओं की सुरक्षा, 2005), घरेलू हिंसा से महिलाओं को सुरक्षा की गारंटी देता है। अधिनियम महिलाओं को न केवल शारीरिक हिंसा के िखलाफ ही सुरक्षा प्रदान नहीं करता है, बल्कि हिंसा के अन्य रूपों- भावनात्मक, मौखिक, यौन और आर्थिक दुरुपयोग से भी सुरक्षा प्रदान करता है। सिविल कानून जो जम्मू, कश्मीर और लद्दाख को छोडक़र पूरे भारत में लागू है, मुख्य रूप से सुरक्षा आदेशों के लिए है और इसमें आपराधिक आधार पर दंडित करने का प्रावधान नहीं है। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, 2016 में घरेलू हिंसा अधिनियम से महिलाओं के संरक्षण के तहत कुल 437 मामले सामने आये। बिहार में सबसे अधिक (171 मामले) और केरल (111 मामले) दर्ज हुए। केरल में उच्चतम अपराध दर (1) पायी गयी। सभी केन्द्रशासित प्रदेशों ने इस अपराध के तहत रिपोर्ट किये गये शून्य मामलों के साथ शून्य की अपराध दर दर्ज की।

फिर, भारतीय दंड संहिता की धारा-498/ए है जो घरेलू हिंसा को व्यापक परिभाषा प्रदान करती है। धारा 498/ए के तहत अपराध संज्ञेय, गैर-जमानती और गैर-समझौता है (यह अपवाद आंध्र प्रदेश में है, जहाँ 498/ए को कंपाउंडेबल (समझौता आधारित) बनाया गया था।

धारा-498/ए (आईपीसी) के अनुसार, किसी महिला के पति या पति के रिश्तेदार उस पर क्रूरता करते हैं- कोई भी, किसी महिला के पति का पति के रिश्तेदार होने के नाते, ऐसी महिला से क्रूरता करते हैं को तीन साल तक कैद की सज़ा हो सकती है और ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है। स्पष्टीकरण इस खंड के प्रयोजन के लिए, क्रूरता का अर्थ है- कोई भी दुराग्रह भरा आचरण जो इस तरह की प्रकृति का है, जिसमें महिला को आत्महत्या करने या महिला के जीवन, अंग या स्वास्थ्य (चाहे मानसिक या शारीरिक) के लिए गम्भीर चोट या खतरे की सम्भावना हो या उस महिला का उत्पीडऩ, जहाँ यह उसे या उससे सम्बन्धित किसी भी व्यक्ति के साथ गैर-कानूनी माँग को पूरा करने के लिए हो।

आवाज़ उठाने का समय

भारती बेन बिपिन भाई तंबोली बनाम गुजरात राज्य और अन्य के मामले में घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत प्रावधानों पर व्यापक चर्चा करते हुए, गुजरात उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की- ‘इस देश में घरेलू हिंसा बड़े पैमाने है और कई महिलाएँ किसी-न-किसी रूप में या लगभग हर रोज़ हिंसा का सामना करती हैं।’ महिलाओं के लिए बनाये गये मौज़ूदा कानूनों के प्रति अज्ञानता और सामाजिक रवैया भी महिलाओं को कमज़ोर बनाता है।

घरेलू हिंसा के ज़्यादातर मामलों की रिपोर्ट कभी नहीं की जाती है, यह सामाजिक कलंक के भय और खुद महिलाओं के रवैये के कारण होता है, जहाँ महिलाओं से अपने पुरुष समकक्षों ही नहीं, बल्कि पुरुष रिश्तेदारों के भी अधीन रहने की उम्मीद की जाती है। वर्ष 2005 तक, घरेलू हिंसा की शिकार महिला के लिए उपलब्ध ज़रिये सीमित थे। महिलाओं को या तो तलाक के लिए दीवानी अदालत में जाना पड़ता था या आईपीसी की धारा-498/ए के तहत दंडनीय अपराध के लिए आपराधिक अदालत में मुकदमा दायर करना होता था। दोनों कार्यवाही में पीडि़त को कोई आपात राहत नहीं मिलती है। साथ ही, शादी से बाहर के रिश्तों को मान्यता नहीं दी गयी थी।

परिस्थितियों के इस चक्र ने यह सुनिश्चित किया कि अधिकांश महिलाएँ, अपनी मर्ज़ी नहीं, बल्कि मजबूरी में चुप रहकर पीडि़त होती रहें। इन सभी तथ्यों के सम्बन्ध में, संसद ने घरेलू हिंसा अधिनियम को लागू करना उचित समझा। अधिनियम का मुख्य उद्देश्य महिलाओं को एक पुरुष या एक महिला की तरफ से की हिंसा से सुरक्षा प्रदान करना है। यह एक प्रगतिशील अधिनियम है, जिसका एकमात्र उद्देश्य महिलाओं को सुरक्षित रखना है, चाहे वह आरोपी के साथ किसी भी तरह का सम्बन्ध रखती हो। अधिनियम के तहत पीडि़त की परिभाषा इतनी व्यापक है कि इसके दायरे में ऐसी महिलाएँ भी आती हैं, जो लिव-इन-रिलेशनशिप में अपने पार्टनर के साथ रह रही हैं।

हर तीन में से एक महिला घरेलू हिंसा का शिकार है, जो भारत में लगभग हर रोज़ होती है। यह सम्भावना कम ही है कि सभी मामले तलाक और जुदाई शब्द से जुड़े लांछन के कारण देखे जाएँगे। समाज के ठेकेदार महिला को तलाक के लिए अपमानित और सवालों के घेरे में खड़ा करते हैं; क्योंकि समाज के यह ठेकेदार उन्हें रूढि़वादी हठधर्मिता के चश्मे से देखते हैं। हालाँकि कई रिपोर्ट और निष्कर्ष बड़े दावे करते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में तलाक की दर में कमी आयी है; लेकिन वास्तव में तलाक की दर बढ़ रही है। कारण है महिलाओं का घरेलू हिंसा के िखलाफ रवैये में बदलाव और इससे जुड़ा लांछन। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि अधिक संख्या में महिलाएँ अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही हैं और आवाज़ उठा रही हैं। पुराने समय के मुकाबले महिलाएँ आर्थिक रूप से भी स्वतंत्र होती जा रही हैं। वे अब ज़्यादतियों को अपने जीवन के अंतिम भाग्य के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहती हैं। हालाँकि, जब तक समाज घरेलू हिंसा पर गम्भीर चर्चा से नहीं जुड़ता, घरेलू हिंसा के अभियुक्तों को कड़ी सज़ा नहीं देता, बहुत सी महिलाएँ अपने उत्पीडक़ के िखलाफ सामने आकर रिपोर्ट करने या बोलने में संकोच करेंगी।

पुस्तक मेला

पुस्तकों में छिपा खजाना

आज भले ही सोशल मीडिया के युग में युवा कितना ही तकनीकी ज्ञान हासिल क्यों न कर लें, लेकिन पुस्तकों से जो ज्ञान प्राप्त हो सकता है, वह मोबाइल या कम्प्यूटर से नहीं मिल सकता। पुस्तकों में ज्ञान का खजाना छिपा है। यही कारण है कि समझदार देशी-विदेशी लोग पुस्तक प्रेम में दिल्ली के प्रगति मैदान में हर साल लगने वाले विश्व पुस्तक मेले में खिंचे चले आते हैं। नयी-नयी जानकारियों और साहित्य के लिए युवाओं को प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेले का इंतज़ार रहता है।

 हर साल 9 दिवसीय विश्व पुस्तक मेला इस बार 28वीं बार लगा, जिसमें दूर-दराज से पुस्तक प्रेमी आ रहे हैं। 4 जनवरी से 12 जनवरी तक यह मेला चला। इस बार मेले की थीम महात्मा गाँधी पर आधारित है, जिसमें महात्मा गाँधी पर लिखी पुस्तकों की खासी माँग है। इस बार पुस्तक मेला में देश विदेश के लगभग 6,00 प्रकाशकों ने भाग लिया। वहीं इस बार पाकिस्तान, बंगाल और अफगानिस्तान को आमंत्रित नहीं किया। इसकी वजह मौज़ूदा हालात हैं। इतना ही नहीं, इस बार किसी भी देश को अतिथि भी नहीं बनाया गया। इसकी वजह प्रगति मैदान मेंं निर्माण कार्य का होना बताया गया। फिर भी इस बार के पुस्तक मेले में 25 देशों ने भाग लिया है।

मेले का उद्घाटन केन्द्र्रीय मंत्री रमेश पोखिराल निशंक ने किया। उन्होंने कहा ऐसे समय मे आज जब पूरी दुनिया में आतंकवाद जैसी घटनाएँ भय फैला रही हैं और लोग निहित स्वार्थ के लिए राजनीति कर रहे हैं। लोगों में विश्वास एक-दूसरे के प्रति कम हो रहा है। ऐसें में दुनिया महात्मा गाँधी के बताये रास्ते चलने की ज़रूरत महसूस कर रही है। उन्होंने कहा कि महात्मा गाँधी के सत्य और अहिंसा ही एक ऐसा हथियार है, जो दुनिया में एकजुटता और विश्वास ला सकता है। निशंक ने कहा कि यह मेला छात्रों, लेखकों और प्रकाशकों के लिए मील का पत्थर साबित होगा। पुस्तक मेला साहित्य और नयी-नयी जानकारियों का महाकुम्भ है। बता दें कि यह मेला राष्ट्रीय पुस्तक न्यास एनबीटी के सौजन्य से आयोजित किया जाता है। एनबीटी के अध्यक्ष प्रो. गोविन्द प्रसाद शर्मा का कहना है कि महात्मा गाँधी के 150वीं जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में मेले में गाँधी मंडप तैयार किया गया है, जिसमें महात्मा गाँधी के लेखों और उन पर विभिन्न भाषाओं में लिखी गयी 500 से अधिक पुस्तकें की प्रदर्शनी लगायी गयी हैं।   वाणी प्रकाशन के हॉल नम्बर 12-ए में नरेन्द्र कोहली की महासमर और शंभूनाथ की हिन्दी साहित्य ज्ञानकोश इसी तरह डायमंड बुक्स आर ऑक्सफोर्ड के बुक स्टॉल्स में छात्र-छात्राओं ने बताया कि मेले में दिल्ली के बुक स्टॉल्स में कोई विशेष अन्तर नहीं है। पर यहाँ पर पुस्तकों के चयन को लेकर बहुत से विकल्प मिल जाते हैं। एनबीटी के स्टॉल पर जाने- माने कानून के जानकार सुभाष कश्यप की हमारी संसद और हमारा संविधान की पुस्तक को लेकर कानून के छात्रों ने खूब पसंद किया।

मेले में साहित्कार अनुज शर्मा ने कहा कि अब मेले में उनके विचारों को मानने वालों को कोई खास महत्त्व नहीं दिया जा रहा है। जैसे गाँधीवादी विचारधारा और सामाजवादी विचार की जगह इस बार सरकारवादी विचारधारा का रंग ज़्यादा दिख रहा है। पुस्तक मेला में नीरज शुक्ल ने बताया कि वह बीते पाँच वर्षों से प्रगति मैदान मेले में बनारस से आते हैं और मनपसंद की किताबों को लेते हैं। उनका मानना है कि जो पुस्तकों का प्यार यहाँ खींच लाता है। ज्ञान का भंडार यहाँ जितना मिलता है, वह कहीं नहीं होता है। दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा स्वाति गुप्ता ने बताया कि पुस्तक मेले में वह चुटकलों की पुस्तकों के साथ-साथ अन्य मनपसंद पुस्तकें खरीदती हैं। उनकी माँग है कि मेले में छात्रों को पुस्तकों पर अतिरिक्त छूट मिलनी चाहिए। क्योंकि ऐसा न होने के चलते छात्र कम ही किताबें खरीद पाते हैं।

 एनईजी के निदेशक मकसूद अहमद ने कहा कि शिक्षा और पुस्तकें भविष्य का पासपोर्ट होती हैं। पुस्तकों के बिना ज्ञान नहीं, पुस्तकें ही इंसान की सच्ची दोस्त होती हैं, जो इंसान को मुसीबत से बचाती हैं। पुस्तक मेले में अनेक पुस्तकें एक ही जगह पर मिल जाती हैं, यानी एक ही जगह पर ज्ञान का भण्डार आसानी से उपलब्ध है।

जेएनयू में फिर बवाल

आखिरकार ऐसा क्या हो गया कि जेएनयू में आये दिन बवाल, मारपीट होने लगी है। जिस जेएनयू का पढ़ाई के मामले में दुनिया भर में नाम रहा है, वह अब इसलिए सुॢखयों में है कि उसमें अब पढ़ाई कम, मतभेद और मनभेद की लड़ाई ज़्यादा होने लगी है। हालात यह हैं कि कुछ गुट छात्रों का खून बहाने से भी नहीं चूक रहे। कभी प्रशासन और छात्रों के बीच मतभेद या विवाद शुरू होता है, तो कभी छात्रों के बीच और यह मतभेद या विवाद खूनी संघर्ष में बदल जाता है। ऐसा ही हुआ 5 जनवरी की शाम को, कुछ नकाबपोश छात्र जएनयू परिसर में घुसे और छात्रावास में पहुँचकर छात्र-छात्राओं पर हमला करने लगे। इस हमले में कई छात्र-छात्राओं और महिला प्रो. सुचारिता सेन को भी गम्भीर चोटें आयी हैं। नकाबपोशों को देखकर जेएनयू परिसर मेें छात्रावास से चीत्कार की आवाज़े गूँजने लगीं, छात्र-छात्राओं का भागना मुश्किल पड़ गया। इस घटना में जेएनयू की छात्र संघ की अध्यक्ष आईसी घोष सहित 18 छात्र गम्भीर रूप से घायल हुए, जिनका उपचार एम्स के ट्रामा सेंटर में चल रहा है। जेएनयू में जो भी हुआ उसे किसी भी तरह से सही नहीं कहा जा सकता है। लेकिन छात्रों की जंग को सियासी जंग में किस कदर बदला गया, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जेएनयू से लेकर एम्स ट्रामा सेंटर तक में भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के नेताओं का आना-जाना शुरू हो गया। अपने-अपने राजनीतिक नफा-नुकसान के हिसाब से सब राजनीतिक बयानबाज़ी कर रहे हैं, तो किसी ने कहा कि जेएनयू को खत्म करने की साजिश की जा रही है। जेएनयू की घटना को गम्भीरता से लेते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली पुलिस आयुक्त अमूल्य पटनायक से बात की, वहीं मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने कहा कि जेएनयू की घटना की जाँच करवायी जाएगी। तहलका संवाददाता ने जेएनयू से लेकर एम्स में भर्ती घायल छात्रों से बातचीत की, तो यह बात सामने आयी कि इस खूनी संघर्ष के पीछे सोची-समझी साज़िश है। लेकिन, यह केवल पीडि़तों के बयान हैं, सच्चाई क्या है? यह अभी नहीं कहा जा सकता।

जेएनयू छात्र संघ की अध्यक्ष आईशी घोष ने बताया कि नकाबपोश एवीबीपी के छात्रों द्वारा बुलाये गये थे। नकाबपोश गुण्डों ने उन्हें जान से मारने की कोशिश की थी। वहीं एवीबीपी के एक छात्र रमेश ने बताया कि ये लेफ्ट के कार्यकर्ताओं की देन है, जो काफी समय से लड़ाई और देश-विरोधी बातें करके हमसे लडऩे के िफराक में थे। ये सब उन्हीं की वजह से हुआ है।

इस घटना में सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि एक फोन पर जेएनयू परिसर में नकाबपोशों का झुंड कैसे घुस गया। बताया जा रहा है कि तकरीबन 50 नकाबपोशों ने जेएनयू में छात्र-छात्राओं पर अचानक हमला किया। क्या यह नकाबपोश हमले के लिए पहले से तैयार बैठे थे। हमले के जो वीडियो फुटेज सामने आये हैं, उससे यह प्रमाणित होता है कि हमलावरों में लड़कियाँ भी शामिल थीं। कुछ पीडि़तों का कहना है कि सभी हमलावर एबीवीपी के ही छात्र-छात्रा थे। अगर यह सच है, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि नकाबपोश पहले से ही जेएनयू में मौज़ूद थे। इन नकाबपोशों ने न केवल छात्रावास में तोडफ़ोड़ भी की, पत्थरबाजी की और लाठियों-दंडों से छात्र-छात्राओं को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा। जेएनयू के प्रोफेसर्स ने बताया कि उन्होंने अपनी नौकरी के दौरान अभी तक ऐसा डरावना माहौल कभी नहीं देखा, जो 5 जनवरी को देखा। ऐसा लग रहा था जैसे कैम्पस किसी जंग का मैदान हो।

बताते चले जेएनयू में 8 अक्टूबर को हॉस्टल फीस वृद्धि को लेकर छात्रों ने लगभग एक महीने तक उग्र-प्रदर्शन कर अपनी माँगों को रखा था, जिसमें मानव संशाधन विकास मंत्रालय ने कुछ माँगों को मान लिया था। फिर मामला शान्त हो गया। लेकिन छात्र कुलपति प्रो. जगदीश कुमार के इस्तीफे और अन्य माँगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं।

छात्र कुलदीप ने बताया कि छात्रों ने दिसंबर में परीक्षा का विरोध किया था। 5 जनवरी को विटंर सेमेस्टर का आिखरी दिन था। दो दिन तक लेफ्ट संगठनों ने सर्वर रूम में कब्ज़ा करके रजिस्ट्रेशन में बाधा पहुँचायी थी। फिर शाम 4 बजे साबरमती टी प्वाइंट पर छात्रों की बैठक हो रही थी, तभी अचानक एबीवीपी और लेफ्ट के छात्र आपस में भिड़ गये। फिर 6:00 से 7:00 बजे के बीच कुछ नकाबपोशों का एक बड़ा झुंड आया और हमला कर दिया। यह खूनी संघर्ष काफी देर चला। तकरीबन 8:00 बजे के बाद पुलिस आयी और घायलों को ट्रामा सेन्टर में भर्ती कराया गया। वहीं देर रात छात्रों ने नकाबपोशों की गिरफ्तारी के लिए पुलिस मुख्यालय पर धरना-प्रदर्शन किया।

जेएनयू जंग से सियासी जंग

जेएनयू मामले पर कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गाँधी बाड्रा ने कहा कि आज छात्रों की आवाज़ को फासीवादी सरकार दबा रही है। उन्होंने घायल छात्रों से ट्रामा सेंटर में मुलाकात कर कहा कि वे किसी की आवाज़ को दबने नहीं देंगी। वहीं कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद ने कहा कि सरकार ने आज ऐसा माहौल बना दिया है कि छात्रों तक को नहीं बख्शा जा रहा है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने कहा कि यह बेहद दु:खद घटना है कि आज पढऩे वाले भी छात्र सुरक्षित नहीं हैं। केन्द्र सरकार को इस मामले में ठोस कार्रवाई करनी चाहिए, ताकि छात्र-छात्राओं की पढ़ाई बाधित न हो। भाजपा के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी ने कहा कि यह दु:खद घटना है। इसकी उच्चस्तरीय जाँच होनी चाहिए। घटना के बाद मामले की जाँच की ज़िम्मेदारी संयुक्त पुलिस आयुक्त शालिनी सिंह को सौंप दी गयी।

बगदाद में अमेरिकी एयर स्ट्राइक, ईरान के कुद्स सेना प्रमुख की हत्या

आतंकवाद के िखलाफ अमेरिका अपने हिसाब से कार्रवाई कर उसे सही साबित करता रहा है। 3 जनवरी को अमेरिका ने ईराक की राजधानी में बगदाद एयरपोर्ट पर रॉकेट से हमला किया, इसमें ईरान के कुद्स सेना के प्रमुख कासिम सुलेमान समेत आठ लोगों की मौत हो गयी। हमले के बाद ईरान-अमेरिका की सेनाएँ सक्रिय हो गयी हैं और दोनों देशों ने एक-दूसरे पर ज़ुबानी जंग छेड़ दी है, साथ ही मध्य पूर्व में जंग का खतरा भी मँडरा रहा है। रॉकेट हमले का बाकायदा वीडियो जारी किया गया, जिसमें लोग जान बचाने के लिए भागते हुए दिखाई दे रहे हैं।

मीडिया रिपोर्ट में अमेरिका ने बगदाद में किये इस हमले की ज़िम्मेदारी ली। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के निर्देश पर अमेरिकी सेना ने इस हमले को अंजाम दिया है। अमेरिका ने कहा कि जनरल सुलेमानी ईराक और आसपास के इलाकों में मौज़ूद अमेरिकी डिप्लोमेट्स और उनके सदस्यों को निशाना बनाने की योजना बना रहे थे। जनरल सुलेमानी और उनकी कुद्स फोर्स को सैकड़ों अमेरिकियों की मौत का भी ज़िम्मेदार ठहराया गया है। इतना ही नहीं, ट्रम्प ने कहा कि दिल्ली में हुए आतंकी हमले में भी सुलेमानी का हाथ था। इससे मध्य पूर्व में हमले का खतरा मँडरा रहा है। वहीं दोनों देशों के बीच तनाव व खाड़ी क्षेत्र में हालात को देखते हुए भारत ने गहरी चिन्ता जतायी है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने ईरान और अमेरिका के अपने समकक्ष से इस बाबत फोन पर वार्ता की और संयम बरतने की बात कहते हुए हालात पर चिन्ता जतायी। हमले की आशंका में पेट्रोल और डीज़ल के दामों में इज़ाफा हो सकता है।

ईरान का बदला लेने का संकल्प

ईरान की रिवॉल्यूशनरी गाड्र्स के पूर्व प्रमुख ने कहा कि कमांडर कासिम सुलेमानी की बगदाद में हत्या का बदला लिया जाएगा। गाड्र्स के पूर्व प्रमुख मोहसिन रेजाई ने ट्वीट किया- ‘सुलेमानी अपने शहीद भाइयों में शामिल हो गये हैं; लेकिन हम अमेरिका से बदला लेंगे।’ अमेरिका को इस हमले का लम्बे समय तक अंजाम भुगतना होगा। अमेरिकियों को भी आने वाले वर्षों तक इसका दंश झेलना होगा। वहीं, ईराक में भी विरोध प्रदर्शन हुए साथ ही अमेरिकी सेना को देश से बाहर भेजने के लिए संसद में संकल्प भी पारित किया गया।

ईराक में अमेरिकी हवाई हमले में ईरान के शीर्ष कमांडर कासिम सुलेमानी की मौत के कारण बढ़े तनाव के बीच अमेरिकी दूतावास को निशाना बनाया गया। दो बार रॉकेट दागकर हमला किया गया। गत दो माह में अमेरिकी प्रतिष्ठानों को 14वीं बार निशाना बनाया गया।

परमाणु समझौते को मानने से किया इन्कार

हमले के बाद ईरान ने ऐलान किया कि 2015 में हुए परमाणु समझौते की किसी शर्त और बन्धन को अब ईरान नहीं मानेगा। ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने कहा- ‘देश अब यूरेनियम संवर्धन और उनके प्रसार पर किसी पाबंदी को स्वीकार नहीं करेगा, इससे जुड़े तमाम कार्यक्रम को आगे बढ़ाएगा।’

ट्रम्प ने ईरान को फिर दी धमकी

ईरानी जनरल कासिम सुलेमानी की हत्‍या के बाद विदेशी सेनाओं को वापस भेजने के ईराकी संसद के फैसले पर अमेरिकी राष्‍ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प फिर भडक़ गये हैं। ट्रम्प ने कहा कि अगर ईराक ने अमेरिकी सेनाओं को वापस जाने के लिए बाध्‍य किया और ईरान ने अमेरिका या अमेरिकियों पर हमले की किसी भी तरह की हिमाकत की, तो उसका ऐसा मुँहतोड़ जवाब दिया जाएगा कि दुनिया ने पहले कभी नहीं देखा होगा।

ट्रम्प ने कहा कि हमारा ईराक में असाधारण और बेहद कीमती एयरबेस है। इसे बनाने और हथियारों को खरीदने में हमने 2000 अरब डॉलर से ज़्यादा खर्च किये हैं। अगर हमारी सेना को एयरबेस छोडऩे के लिए मजबूर किया गया, तो हम उनके िखलाफ ऐसे कठोर प्रतिबन्ध लगाएँगे, जिनका अब तक उन्‍होंने सामना नहीं किया गया होगा।

ट्रम्प पर 8 करोड़ डॉलर का इनाम

सैन्य कमांडर सुलेमानी की हत्या के बाद से ईरान और अमेरिका दोनों एक-दूसरे के िखलाफ सख्त तेवर अपनाये हुए हैं। डोनाल्ड ट्रम्प ने जहाँ ईरान को नये और अत्याधुनिक हथियारों से हमले की धमकी दी। वहीं, इंटरनेशनल मीडिया की रिपोर्ट की मानें, तो इसके तत्काल बाद ही ईरान ने ट्रम्प का सिर कलम करने वाले को 8 करोड़ डॉलर के इनाम का ऐलान किया है।

मोदी सरकार ने इमरान को 370 के रूप में दिया है उपहार : रेहम

मैं इस टॉक शो में आपका स्वागत करता हूँ। आपने पाकिस्तान और उसके वर्तमान प्रधान मंत्री इमरान खान को करीब से देखा है और आप हमेशा पाकिस्तान और प्रधानमंत्री इमरान खान को लेकर सटीक टिप्पणियों के साथ सामने आयी हैं। जो मैं आपसे जानना चाहता हूँ, वह यह है कि पाकिस्तान के बारे में आपके मन में किस तरह की छवि थी और वर्तमान में आप इसे किन परिस्थितियों में देखती हैं?

धन्यवाद! जहाँ तक पाकिस्तान का सवाल है और जिन परिस्थितियों से वह वर्तमान में गुज़र रहा है, उसका मैंने बहुत पहले अनुमान लगा लिया था और वह उसी दिशा में जा रहा है। वर्तमान में, पाकिस्तान एक महत्त्वपूर्ण चरण से गुज़र रहा है। लोगों ने इमरान खान से बहुत उम्मीद की थी, फिर भी, वह उनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे हैं। क्योंकि आप देख सकते हैं कि देश में युवा बहुत गुस्से में हैं। अराजकता व्याप्त है। लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं। इस देश की बिगड़ती अर्थ-व्यवस्था के कारण लोगों के लिए उम्मीद की कोर्ई किरण दिखाई नहीं दे रही है। एक वर्ष गुज़र चुका है और इस अवधि के दौरान सरकार ने कोर्ई सकारात्मक उपाय नहीं किया है। नतीजतन लोग उम्मीद खो चुके हैं और हताश हो गये हैं। इस निराशा के कारण लोगों में बेचैनी की स्थिति पैदा हो रही है। लोग बेरोज़गार हैं और अर्थ-व्यवस्था जर्जर है। स्थिति स्थिर नहीं है। मुझे लगता है कि एक हिंसक धारा पूरे समाज में बह रही है और यह पाकिस्तान के लिए बहुत परेशान करने वाली स्थिति है।

यदि हम पाकिस्तान और भारत के रिश्तों को देखते हैं, तो दोनों देशों के बीच सम्बन्ध लगातार बिगड़ रहे हैं। जिस तरह से इमरान खान ने भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना शुरू किया, जैसे कि जम्मू-कश्मीर में 370 के अनुच्छेद को निरस्त करने के बारे में, जो भारत का आंतरिक मामला था, इमरान ने दुनिया भर में भारत की निंदा का मिशन अपना लिया। इसके अलावा, नागरिकता संशोधन कानून को लेकर जिस तरह से हंगामा किया गया, क्या आपको नहीं लगता कि यह पाकिस्तान को कहाँ ले जा रहा है?

देखें, जहाँ तक इमरान की अनुच्छेद 370 के बारे में बात है, तो हम पाकिस्तान में मानते हैं कि उन्होंने कश्मीर पर बात नहीं की। कश्मीर के बारे में पूरी योजना आमतौर पर पाकिस्तान में चुनाव प्रचार के दौरान ही की दिखती है। पाकिस्तान में, इमरान को दोषी ठहराया जाता है और उन पर इस तथ्य के आधार पर आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने कश्मीर के मुद्दे को ठीक से नहीं उठाया, भले सत्ता में आये उन्हें एक साल हो चुका है।

अनुच्छेद 370 को खत्म करना अगस्त 2019 में ही हुआ। लेकिन अगस्त 2018 से 2019 तक उन्होंने कुछ नहीं किया। अब अगर वह अनुच्छेद 370 के बारे में बात कर रहे हैं, तो वह ऐसा कर रहे हैं क्योंकि उन्हें एक मुद्दा मिल गया है। उनका प्रदर्शन लगभग नगण्य है। मैं समझती हूँ कि भारत और मोदी सरकार ने उन्हें उपहार दिया है। जब हम उनसे अमेरिकी डॉलर (पाकिस्तानी मुद्रा भी) के बारे में सवाल करते हैं, तो उनका जवाब कश्मीर होता है। जब हम उनसे रोज़गार पर सवाल करते हैं तो उनका जवाब होता है कश्मीर। जब हम उनसे पूछते हैं कि क्या आपने पाँच मिलियन घर बनाये हैं, तो वह कहते हैं कि मोदी ने क्या किया। इसलिए, हम समझते हैं कि भारत ने उन्हें अपनी सरकार के प्रदर्शन पर किसी भी चर्चा को रोकने के लिए एक बहाना दे दिया। वह जहाँ भी जाते हैं, कश्मीर के बारे में बात करते हैं। मैं यह नहीं देखती कि नागरिकता विधेयक के बारे में बात हुई है या नहीं। और मुझे भी बहुत आश्चर्य हुआ कि क्या वह नागरिकता विधेयक को भी समझते हैं। जब नागरिकता बिल आया था, मुझे खुशी है कि उन्होंने इसे उठाया।

वे जब नागरिकता विधेयक का मामला उठा रहे हैं, तो दुनिया में इस बात पर चर्चा चल रही है कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर किस तरह से अत्याचार हो रहे हैं। स्वतंत्रता के समय, पाकिस्तान में 22 फीसदी अल्पसंख्यक थे जो अब केवल 1.2 फीसदी हैं। क्या आपको नहीं लगता है कि नागरिकता बिल पर बहस करने से पहले इमरान खान अपने भीतर झाँकना चाहिए और उन्हें अपने बारे में सोचना चाहिए?

इमरान खान एकमात्र ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो अन्य देशों के मामलों पर अधिक ध्यान दे रहे हैं। भारत और पाकिस्तान ही नहीं, ब्रिटेन तक में यह एक रवायत बन गयी है कि उन्हें इस बात की ज़िक्र नहीं कि उनके अपने देशों में क्या हो रहा है। इसके प्रति वे जवाबदेह नहीं हैं। मैं यह भी कह सकती हूँ कि इमरान खान, जैसा कि वह हैं, मेरे प्रधान मंत्री हैं, और मुझे आपके साथ क्या करना है। भारतीय जनता की इमरान में रुचि है और इमरान की भी भारतीय जनता में रुचि है; क्योंकि दोनों का साझा इतिहास है। मुझे लगता है कि दोनों देशों के शासन का एक गठजोड़ चल रहा है कि पाकिस्तान के लोग पाकिस्तानी सरकार और भारत के लोग अपनी सरकार से कोई सवाल नहीं पूछ सकते। इमरान अपने विधानसभा सत्रों में मोदी-आरएसएस के बारे में बात करते हैं और अपने देश के मुद्दे नहीं उठाते। भारत और पाकिस्तान दोनों के राजनेताओं और लोगों को बहुत गम्भीरता दिखानी होगी और नफरत की राजनीति छोडऩी होगी।

जब आप रोज़गार की बात करते हैं, तो पाकिस्तान इस समय आर्थिक मंदी से गुज़र रहा है। अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी ने धमकी दी है कि अगर पाकिस्तान आतंकवाद को नहीं रोकता है, तो वह वित्तीय सहायता रोक देगा। क्या आप इमरान खान को इसके लिए ज़िम्मेदार मानते हैं?

देखिए, इमरान खान इसके लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भी ज़िम्मेदार हैं। जब पाकिस्तान में इतनी घटनाएँ हुईं, तो किसी ने कुछ नहीं किया और इमरान ने भी कुछ नहीं किया। दिसंबर में अतीत में बच्चों की सामूहिक हत्या कर दी गयी थी। बहरहाल, इमरान ने उनके लिए अब तक कुछ नहीं किया है। जबकि इमरान बड़े-बड़े दावे करते थे; लेकिन कुछ नहीं किया। इमरान ने अपनी राजनीति के लिए वो सब कुछ किया, जो उन्हें नहीं करना चाहिए था। उन्हें चरमपंथियों का समर्थन नहीं करना चाहिए था। लेकिन उन्होंने किया। हिन्दू लड़कियों का सिंध में जबरन धर्म परिवर्तन करवाया गया और उन्होंने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया, जबकि उन्हें ऐसा करना चाहिए था।

पाकिस्तान और भारत में सोशल मीडिया पर ऐसी बहुत सी बातें होती हैं कि इमरान खान की पत्नी को काला जादू आता है। ऐसा कहा जाता है कि उनकी पत्नी बुशरा बेगम ने दो जिन्नों को रखा है और उनके माध्यम से वह पाकिस्तान की स्थिति को बदल देंगी। आिखर इमरान कितने समय से इस काले जादू की गिरफ्त में है?

पहली बात जो लोगों को समझने की आवश्यकता है, वह यह है कि ऐसे व्यक्ति इस्लाम का लबादा ओढक़र ऐसी हरकतों में लिप्त हो जाते हैं और इस्लाम का प्रचार करते हैं, जबकि काले जादू और ऐसी हरकतों की इस्लाम में कोई गुंजाइश नहीं है। यह निषिद्ध है। इसकी अनुमति नहीं है। यह कुछ अजीब प्रकार का है, जो किया जाता है और मैंने इसे देखा है। जब मैं उनके घर पर थी, तो मैंने काले जादू के जैसी कुछ चीज़ें होती देखीं। जो इसे करवाना चाहता था, वो इसे करवा लेता था। लेकिन मैंने वहाँ बहुत कुछ देखा? कभी काली दाल बनाते, कभी तावीज़ लाते। जबकि इस्लाम में ऐसी हरकतों की कोर्ई गुंजाइश नहीं है। इसको उनका झुकाव कहना बहुत छोटी बात होगी। मैंने उन पर इसकी निर्भरता देखी है, जो मुझे लगा कि बहुत बुरा है। अगर अब कुछ है, तो मैं नहीं बता सकती कि अभी क्या हो रहा है; क्योंकि अब मैं उस घर में नहीं हूँ। मुझे क्यों झूठ बोलना चाहिए? लेकिन अगर ऐसा है और लोग ऐसा कह रहे हैं, तो यह बहुत बुरा है। और अगर ऐसा नहीं है, तो इमरान एक रोल मॉडल थे और हैं। उनके बारे में इस तरह की बेकार बात, जिसमें इस्लाम और यहाँ तक कि आधुनिक जीवन में भी कोर्ई जगह नहीं है, कहना एक तरह की निरक्षरता है। अगर यह ऐसा रोल मॉडल बन जाता है, तो वह देश को कहाँ ले जाएगा? उसने लोगों, नौजवानों को अपशब्द कहने सिखाये हैं। उन्होंने असहिष्णुता सिखाई, उग्रवाद को आगे बढ़ाया। संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने भाषण में, उन्होंने कहा कि कोर्ई भी सीमा पर जा सकता है और एक बम फेंक सकता है, जिसे कुछ लोगों द्वारा सराहा गया था, फिर भी बहुत बुरा लगा। यह एक शिक्षित व्यक्ति के असंतुलित होने जैसा है।

आप जिस रोल मॉडल की बात कर रहे हैं, पाकिस्तान के युवाओं को इमरान पर बहुत भरोसा था कि एक नया आदमी आ रहा है, एक नया पाकिस्तान बनाएगा। लेकिन उनके सारे सपने धराशायी हो गये। पाकिस्तान के युवा अब निराश हैं और उनकी सोच में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की छवि को लेकर बदलाव आया है। प्रधानमंत्री के िखलाफ जुलूस निकाले जा रहे हैं। बिलावल का बयान देखें, जिसमें उन्होंने कहा कि मुजफ्फराबाद भी अब हाथ से जाने वाला है।

देखिए, यह एक साधारण बात है। इमरान एक क्रिकेटर रहे हैं और उन्हें एक गेंदबाज़ के रूप में उनके प्रदर्शन के लिए जाना जाता है और कोर्ई भी उन्हें एक बुरा गेंदबाज़ नहीं कहेगा। यही उनका प्रदर्शन था। लेकिन उनके चेहरे के कारण कोर्ई उन्हें कप्तान नहीं रख सकता और इसके लिए उन्हें प्रदर्शन करना होगा। गलती चयनकर्ता के साथ होती है जो आपको अर्थ-व्यवस्था टीम में डालते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि जिस किसी को क्रिकेट की अच्छी समझ है, उसे भी अर्थ-व्यवस्था की भी अच्छी समझ हो। अब जबकि कोर्ई गलती की गई है, तो वे इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि इमरान को इसमें लाया गया है और वास्तव में यह उनका कार्य नहीं है। सभी को उसकी क्षमता पता थी। वे वोट से नहीं जीत सके, इसलिए वे उन्हें ले आये। एक साल बीत चुका है। अब हर कोर्ई उनकी क्षमताओं से परिचित हो गया है। यह व्यक्ति एक फाइल भी नहीं पढ़ सकता है। यह उनका काम नहीं है। कैसे एक ऐसे गैर-गम्भीर व्यक्ति को उस देश की पतवार थमायी जा सकती है, जहाँ परमाणु शक्ति और हथियार हैं। ऐसे व्यक्ति की ऐसी बातें सुनकर, यह दुविधा खड़ी हो जाती है कि इस पर हँसे या रोयें। गलती उनका चयन करने वालों की है। मैं इमरान को बिल्कुल भी दोष नहीं दे रही हूँ।

रेहम खान जी, एक बात बताइए। आपने अपनी पुस्तक में बहुत सी व्यक्तिगत बातों का उल्लेख किया है। आपने इमरान खान के बारे में भी बहुत कुछ लिखा है, ब्लैक मनी के बारे में भी लिखा है। यह वास्तविकता के कितने करीब है, क्योंकि आपने एक जगह लिखा है कि इमरान खान सब्ज़ी लाने में भी सक्षम नहीं थे या कभी लाये ही नहीं थे?

देखिए, मैंने अपने जीवन और उनके जीवन के बारे में एक पुस्तक लिखी है और उसमें एक भी बात झूठी है तो मुझे बताएँ। इस किताब की प्रतियाँ दुनिया में हर जगह उपलब्ध हैं। अगर किसी को लगता है कि इसमें कोर्ई झूठ है, तो आओ और मुझे बताओ। मैंने जो लिखा है वह 100 फीसद से अधिक सच है। फिर भी, मैंने कुछ मुद्दों के बारे में कुछ नहीं लिखा। मुझ पर जो कुछ भी लिखा गया है, उसके बारे में मुझ पर व्यक्तिगत आरोप लगाये गये हैं। पुस्तक में जो कुछ भी लिखा गया है, वह देश से सम्बन्धित है।

मुझे बताइए कि आप और इमरान खान शुरुआत में कैसे दोस्त बन गये? किसने पहल की? आप लोगों की शादी कैसे हुई?

शादी के दौरान ही दोस्ती हुई। मैंने 15 मई को उनका एक साक्षात्कार किया। उसके लगभग एक महीने बाद, उन्होंने मुझे एक संदेश भेजा और मुझे प्रपोज किया।

तो, क्या यह एक तात्कालिक जुड़ाव और तत्काल विवाह सम्बन्ध था?

नहीं, यह तत्काल सगाई या तत्काल विवाह का मामला नहीं था। बल्कि ऐसा होने में छ: महीने लग गये। उस समय, मैंने महसूस किया कि यह व्यक्ति मुझे जानता भी नहीं था और हम एक-दूसरे से परिचित भी नहीं थे। मैंने उन्हें किसी सामाजिक कार्यक्रम में भी नहीं देखा था। मेरा कोर्ई सामाजिक दायरा नहीं था, जबकि उनका सामाजिक दायरा व्यापक था। तब मैंने कहा कि मैं उन्हें नहीं जानती। तब कहा गया था कि ऐसा नहीं है। आप उस व्यक्ति को नकार रही हैं, जिसे सभी महिलाएँ चाहती हैं। उन्होंने दो-तीन महीने का समय लिया और अगस्त में मैंने अपनी सहमति दी। इसके बाद, उनकी कुछ हरकतें थीं, जिसमें वे रात में कुछ आश्चर्यजनक कहते थे और अगले दिन बदल जाते थे। निकाह की तारीख तय हो गयी थी और अचानक उन्होंने कुछ पागलपन भरी बात कह दी। इसलिए मुझे इतनी दिलचस्पी नहीं थी, फिर मैं पीछे हट गयी। उसके बाद उन्हें दो-तीन महीने लगे और फिर अक्टूबर में उन्होंने अचानक कहा कि निकाह कर लेना ज़रूरी था। मैंने महसूस किया कि उनकी एक खास तारीख थी और वे उसी तारीख को शादी करना चाहते थे। निकाह भी उसी तारीख को किया गया और तलाक भी उसी तारीख को हुआ।

निकाह और तलाक के बीच का समय बहुत पीड़ा भरा था?

यह मेरे लिए ऐसा नहीं था। इसे पीड़ाजनक नहीं कहा जा सकता। मेरी पहली शादी इतनी दर्दनाक थी कि यह मामला कुछ बेहतर था। मेरे सामने पति के रूप में वह बहुत अच्छा व्यक्ति था, लेकिन यह सब नकली था, एक नाटक था। मेरे सामने कुछ और था और मेरी पीठ पीछे कुछ और। लेकिन मेरे साथ जो भी हुआ उसमें मेरा कभी झगड़ा नहीं हुआ। लेकिन यह एक धोखा था। यह चालबाज़ी थी और चालबाज़ी उनके स्वभाव में थी। मैं सोचती थी कि मेरे पति मुझसे बहुत खुश हैं, लेकिन जब मुझे पता चलने लगा तो मुझे कुछ और ही लगा। व्यक्तिगत जीवन में झूठ बोलने वाला व्यक्ति देश के साथ कैसे ठीक हो सकता है? लोग बार-बार कहते हैं कि यह सब निजी जीवन के बारे में है। लेकिन उनका स्वभाव ऐसा है कि वे कुर्सी (सत्ता) की खातिर किसी का भी बलिदान कर सकते हैं।

आप भविष्य में भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों को कहाँ देखती हैं। आप क्या चाहती हैं? इस रिश्ते को किस रास्ते पर जाना चाहिए?

देखिए, भारत में इस समय अत्यधिक दक्षिणपंथी झुकाव है जो बहुत परेशान करने वाला है, क्योंकि हम भारत को एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश के रूप में देखते हैं। हम भारत में लोकतंत्र और भारत की पहचान को देखना चाहते हैं। भारत में कई रंग, कई नस्लें और सभी समुदाय हैं। विविध धर्मों के लोग हैं। होली के रंग भारत के रंग हैं। भारत में भी बदलाव आया है और पाकिस्तान में भी अत्यधिक दक्षिणपंथी रुख लाद दिया गया है। और इमरान इस लेबल को मज़बूत कर रहे हैं। यदि यही स्थिति बनी रही, तो दोनों देशों के लिए और अधिक कठिन समय आ सकता है, जिसका सीधा असर दोनों देशों की अर्थ-व्यवस्था पर पड़ेगा।

रेहम खान जी, यह बदलाव पूरी दुनिया में देखा जा रहा है। इंग्लैंड में भी, कंजर्वेटिव पार्टी ने प्रचंड बहुमत के साथ जीत हासिल की है। इसके बारे में बहुत आश्चर्यचकित न हों?

मुझे आश्चर्य नहीं है; क्योंकि हम जानते थे कि इस प्रकार का एक डिजाइन आ रहा था। यह अमेरिकी नीति है। ट्रम्प ने मोदी को गले लगाया और इमरान को भी बढ़ावा दिया। लेकिन हमें अपने देश पर ध्यान देना चाहिए। हमें पहले दोनों देशों के बीच सम्बन्धों को ठीक करना चाहिए। अगर अमेरिका हमें लड़ाना चाहता है, तो हमें समझदार होने की ज़रूरत है। अंग्रेजों ने पहले ही हमें एक-दूसरे से बहुत लड़ाया है, और अतीत को दोहराने की कोशिश हो रही है।

(हमसे बात करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, रेहम खान।)

पर्यावरण की अलख जगाते ऑटो रिक्शा ड्राइवर उमर

‘मैं जानता हूँ कि पेड़-पौधे हमारे पर्यावरण की रक्षा के लिए कितने ज़रूरी हैं। आपको भी पता होगा प्रदूषण की वजह से हरियाली खत्म होती जा रही है। उसी की वजह से ऑक्सीजन कम और कार्बन डाइऑक्साइड ज़्यादा बढ़ रहा है। प्रदूषण की वजह से लोगों को बीमारियाँ हो रही है, साँस लेने में दिक्कत हो रही है। ऑक्सीजन के कम होने से जानवर भी परेशान है इंसान तो छोडि़ए, पेड़-पौधे कम हो रहे हैं। इंसान इतना खुदगर्ज़ हो गया है कि वह अपने लिए अपनी खुशी के लिए जंगलों को काट रहा है, वह यह नहीं जानता कि जंगलों को काटने से उसकी आने वाली पीढिय़ाँ पूरी तरह से तकलीफ में रहेंगी। आज जिस तरह से जंगलों को काटा जा रहा है, जिस तरह मेनग्रोव्स खत्म किये जा रहे हैं, जिसकी वजह से पृथ्वी का समतोल बिगड़ रहा है। पानी के स्रोत सूख रहे हैं। ग्लेशियर सूख रहे हैं। मौसम बदल रहा है। बरसात कम हो रही है। गर्मी बढ़ रही है। अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा, तो इस कायनात को खत्म होने में वक्त नहीं लगेगा। मेरी तरफ से तो यह एक छोटा-सा प्रयास है। मैं चाहता हूँ कि हर शख्स कुदरत के इस अनूठे मुफ्त में दिये गये तोहफे यानी पेड़-पौधे कुबूल करें। पौधे लगाएँ, हरियाली फैलाएँ। इसमें खुदा का नूर है। यह हर किसी के ज़िन्दा रहने के लिए भी ज़रूरी है। इंसान के साथ-साथ दूसरे प्राणियों के लिए भी; यह भी हमारे जैसे ज़िन्दा हैं, साँस लेते हैं। इस काम में बहुत ज़्यादा कुछ नहीं है। बस थोड़ा-सा वक्त निकालना है। खुद के साथ-साथ बाकी सबको भी बचाने का प्रयास करना है। पर्यावरण को बचाना है। बस इसी उद्देश्य के साथ मैंने यह प्रयास शुरू किया है; आप भी शुरू कीजिए। दूसरों के लिए नहीं, तो कम-से-कम अपने और अपने बच्चों के लिए ही कीजिए।’ यह किसी वैज्ञानिक या पर्यावरण सुरक्षा से जुड़े किसी समाजसेवी या अधिकारी का के विचार नहीं है, बल्कि यह विचार नवी मुम्बई के एक ऑटो ड्राइवर उमर खान के हैं। उन्होंने अपने पूरे ऑटो रिक्शा को गमलों में लगे छोटे-छोटे पौधों से और हरी-भरी ग्रीनरी से सजा रखा है। इतना ही नहीं उमर पौधे लगाते हैं।

उमर बताते हैं कि इस छोटी-सी पहल से प्रभावित होकर हज़ारों यात्रियों ने, जो उनके ऑटो रिक्शा में बैठते हैं; ने अपने घर मे पौधे लगाये हैं और यही मेरी उपलब्धि भी है। नवी मुम्बई के नेरुल परिसर के करावे गाँव के निवासी रिक्शा चालक उमर खान को पर्यावरण की सुरक्षा का चिन्ता सता रही है। तकरीबन पिछले पाँच वर्ष से वह नवी मुम्बई परिसर में रिक्शा चलाते हैं। मध्य प्रदेश से नवी मुम्बई पेट पालने के लिए आने के बाद ध्यान में आया कि पर्यावरण का रक्षा करने के लिए अपना कुछ योगदान देना आवश्यक है। उमर ने अपने ऑटो रिक्शा में नौ अलग अलग प्रकार के पेड़ लगाये हैं। रिक्शा की छत पर कृतिम घास लगाकर रिक्शा को एक छोटा मैदान का स्वरूप दिया है। इस पूरे निकोबार में मेकओवर में उमर को 22 से 25 हज़ार रुपये खर्च करने पड़े। लेकिन इसका उन्हें कोई अफसोस नहीं है। वह कहते हैं कि लोग रिक्शा को देखकर उसकी तारीफ करते हैं। भीतर बैठते ही उन्हें सुकून महसूस होता है हरियाली देखकर आँखों में सुकून मिलता है, यह तो वैज्ञानिक भी साबित कर चुके हैं।

पर्यावरण को बचाने का संदेश देने वाले उमर को उनके इस अनोखे प्रयास से खूब सराहना मिलती है और साथ-साथ बढिय़ा बिजनेस भी। उमर बताते हैं कि कई यात्री उनके इस प्रयास से खुश होकर उन्हें अलग से भी पैसे दे देते हैं। क्या आप मान सकते हैं, उनका ऑटो रिक्शा जनवरी तक बुक हो चुका है?

ननकाना साहिब घटना पर सिखों में आक्रोश

सिखों के पहले गुरु श्री गुरुनानक देव जी के जन्म स्थल ननकाना साहिब गुरुद्वारा पाकिस्तान पर हुए हमले के विरोध में दिल्ली स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग के बाहर ज़ोरदार विरोध-प्रदर्शन कर पाकिस्तान सरकार को चेतावनी भरे लहज़े में कहा कि पाकिस्तान की इस हरकत को बर्दास्त नहीं किया जाएगा। प्रदर्शनकारियों ने कहा कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान का दोहरा चेहरा साफ दिख गया कि एक ओर तो ननकाना साहिब के नाम पर सिखों को जोडऩे की बात करते हैं, वहीं उनकी सरकार हमले में शामिल दोषी लोगों को गिरफ्तार करने में हिचकाती है। सिखों ने भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अपील की है कि वह इस मामले में ठोस कार्रवाई करें और पाकिस्तान से किसी प्रकार के रिश्ते न रखें। ननकाना साहिब गुरुद्वारा पर हमले के विरोध में दिल्ली में सियासत भी खूब हुई। सभी सियासतदानों ने हमले की निन्दा की। भाजपा ने कहा कि आज  कांगेस और उसके सहयोगी दलों को समझना होगा कि केन्द्रीय नागरिगता कानून क्यों ज़रूरी है? सिखों में गुस्सा इस कदर है कि उन्होंने कहा कि सिर कटा सकते हैं, तो काट भी सकते हैं। तहलका संवाददाता ने सिखों और सियासतदानों से बातचीत की, तो उन्होंने कहा कि पाकिस्तान अपनी ओछी हरकतों के लिए ही जाना जाता है। प्रदर्शन में दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के सदस्यों, अन्य सिखों, भाजपा और कांग्रेस के नेताओं ने भाग लिया और पाकिस्तान के झण्डे भी जलाये। दिल्ली सिख कमेटी के अध्यक्ष मनजिंदर सिंह सिरसा ने बताया कि सिखों का स्वभाव सेवाभाव का रहा है। पर इसका यह मतलब नहीं कि सिखों पर हमले को बर्दास्त किया जाएगा। सिख ईंट का जबाव पत्थर से देना जानते हैं। उन्होंने पाकिस्तान को याद दिलाया कि गुरुघर का निरादर करने वाले मस्से रंघण का सिर काटकर ले आये, तो फिर यह मोहम्मद हसन क्या है? पाकिस्तान में ही नहीं, कहीं पर भी सिखों के साथ अन्याय को बर्दास्त नहीं किया जाएगा। प्रदर्शनकारियों ने कहा कि एक ओर तो सोशल मीडिया में सक्रिय रहने वाले प्रधानमंत्री इमरान खान आज चुप हैं, वे चुप्पी तोड़े और कार्रवाई। कांग्रेस के नेता पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान के दोस्त नवजोत सिंह सिद्धू घर से बाहर निकलें और इस मामले में कुछ बोलें, ताकि पाकिस्तान में सिखों पर हमले न हों। भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता आर.पी. सिंह ने प्रदर्शन कर पाकिस्तान सरकार से कहा कि सिखों को सुरक्षा दें और सिखों से माफी माँगें। सालोंसाल से पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर हमले होते रहे हैं। इससे यह पता चलता है कि वहाँ पर अल्पसंख्यकों की कितनी दुर्दशा है? जेहादियों ने ननकाना साहिब गुरुद्वारा पर हमला कर उनका नाम मिटाने की धमकी दी है। भाजपा के नेता हेमंत प्रजापति ने कहा कि पाकिस्तान को सबक सिखाया जाएगा और भारत के लोगों को अब समझना होगा कि नागरिकता संशोधन कानून सीएए की आज कितनी ज़रूरत है। नागरिकता कानून से अल्पसंख्यकों की भारत में रक्षा की जाएगी। पर भाजपा विरोधी पाॢटयाँ न जाने क्यों सीएए का विरोध कर रही है?

कांग्रेस पार्टी के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष सुभाष चोपड़ा और पूर्व अध्यक्ष अरविन्द सिंह लवली सहित हारून युसुफ  ने प्रदर्शन कर कहा कि गुरु के घर पर हमला बर्दास्त नहीं किया जाएगा। ननकाना साहिब घटना को लेकर सिर्फ सिख समुदाय ही नहीं पूरा देश आहत है। उन्होंने कहा कि इसमें भयानक साज़िश है। इस तरह की घटना और धर्म परिवर्तन का मामला गम्भीर है।

केन्द्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने पाकिस्तान स्थित श्री ननकाना साहिब हमले को लेकर कहा कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं है। वहाँ पर धार्मिक अल्पसंख्यकों किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता हैै। यह तो अब जग ज़ाहिर हो गया है। पर भारत में भाजपा विरोधी अभी भी नहीं समझ रहे हैं कि सीएए कितना ज़रूरी हैं। केन्द्रीय मंत्री ने सीएए का विरोध करने वालों को बताया कि उन्हें अभी भी सबूत ज़रूरत है, तो पकिस्तान में ननकाना साहिब की घटना को देख लें। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने पाकिस्तान के ननकाना साहिब गुरुद्वारे पर हमले की निन्दा करते हुए कहा कि ये बेहद कायराना हरकत हैं। ननकाना साहिब करोड़ों लोगों की आस्था का केन्द्र है। सिखों पर हमले और उत्पीडऩ को बर्दास्त नहीं किया जाएगा। पाकिस्तान सरकार इस मामले तुरन्त कार्रवाई करें और दोषियों के िखलाफ कार्रवाई करें।

रकाबगंज गुरुद्वारे के पीआरओ सरदार भूपेन्द्र सिंह ने कहा कि गुरुद्वारे पर हमला और सिखों को धर्म-परिवर्तन को लेकर कई बार वहाँ की सरकार से शिकायत की गयी है। लेकिन कार्रवाई न होने से आज वहाँ के अराजक तत्त्व ननकाना साहिब के बाहर उपद्रव कर रहे हैं और वहाँ की सरकार मूक-दर्शक बनी हुई है। बड़ी ही शर्मनाक है।

पाकिस्तान अल्पसंख्यकों के बिना रह लेगा, पर भारत मुस्लिम नागरिकों के वगैर अधूरा

कहा जाता है कि अंतर्विरोधों की कितनी ही जटिलताएँ हों, समय सब पर मरहम लगा देता है। कभी-कभी निशान भर जाते हैं, लेकिन सतह के नीचे घाव हरे रहते हैं, खासकर जब आघात पीढिय़ों तक चले। भारतीय इतिहास में कुछ घटनाएँ विभाजन से भी ज़्यादा दर्दनाक रही हैं।

नैतिक और राजनीतिक मामले के अलावा भारत के सभ्यतावादी दर्शन पर उस क्रूर हमले के िखलाफ एक व्यावहारिक तर्क यह था कि विभाजन के लिए कोई तर्कसंगत भूगोल नहीं था। देश भर में लगभग हर गाँव, छोटे शहर या शहरी समूह में मिलीजुली आबादी थी, विशेष कर पाकिस्तान, पंजाब और बंगाल के उन दो प्रांतों में जो आबादी को बड़े पैमाने पर समेटे थे। सन् 1916 की शुरुआत में भी, जब कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने कभी बहुत चर्चित, लेकिन अब भुला दिये गये लखनऊ समझौते की घोषणा की, के फार्मूले ने पंजाब में आधी सीटें और बंगाल में 40 फीसदी सीटें मुस्लिमों को दीं। यह उनकी वास्तविक संख्या से थोड़ा अधिक था। दूसरे शब्दों में, पंजाब में मुसलमानों के पास कोई बड़ा बहुमत नहीं था, जबकि बंगाल में तो वे आधे से भी कम थे।

जब मोहम्मद अली जिन्ना, जो एक आस्तिक के बजाय एक राजनीतिक मुस्लिम ज़्यादा थे, ने अपने जीवन के पहले भाग के सिद्धांतों को छोड़, वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो के साथ मिलकर एकता के िखलाफ एक विचित्र-सी मुहिम शुरू की, तब प्रतिशत नहीं बदला था। यह 1946 के चुनावों में यह फिर से साबित हो गया, जब मुस्लिम सीटों के बहुतायात के बावजूद लीग बंगाल और पंजाब में बहुमत हासिल नहीं कर सकी। लेकिन आँकड़े सच का केवल एक भाग ही बताते हैं। इस बात का कोई आँकड़ा नहीं है कि लोग उन वास्तविक इलाकों में किस तरह फैले थे, जहाँ वे रहते थे। वास्तव में बहुध्रुवीय गठजोड़ भारतीय मूल्यों से उत्पन्न समन्वयता और सौहार्द का जीवित प्रमाण था। बार-बार समझदार लोग, जिनमें ब्रिटिश, जिनमें पंजाब के गवर्नर ग्लेन्सी भी थे; ने बार-बार चेतावनी दी कि विभाजन रक्तरंजित और गृहयुद्ध को खुला निमंत्रण होगा। लेकिन जिन्ना, जिन्होंने 16 अगस्त, 1946 से एक जिहाद शुरू कर दिया था और डायरेक्ट एक्शन जो कलकत्ता हत्याओं की भयावहता का गवाह था; के बाद गृह युद्ध चाहते थे। इस ज्वालामुखी का लावा नोआखली और फिर बिहार तक फैल गया। हज़ारों लोगों का नरसंहार किया गया। कोई भी सुरक्षित नहीं था। जनवरी, 1947 में मुस्लिम लीग ने पंजाब में इसे हवा दी और संघवादी सरकार को खत्म करने की माँग की, जिसने एक दशक तक यह साबित किया था कि पंजाब और भारत साझेदारी से शासित किये जा सकते हैं।

जब भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने पंजाब के दंगा प्रभावित क्षेत्रों को देखा, तो वे उस भयावहता के बारे में विश्वास नहीं कर सके, जिसके बारे में उन्हें जानकारी दी गयी। विवरण जो मानवता में किसी के भी विश्वास को हिला सकते हैं, अभिलेखागार के बिना संचित खातों में दर्ज किये जाते हैं और पॉवर पेपर्स के हस्तांतरण में प्रकाशित होते हैं। अगस्त 1947 के पहले सप्ताह में गाँधीजी ने पंजाब का दौरा किया और टूटे दिल के साथ कहा- ‘क्या बर्बरता है? क्या श्रेष्ठता!’ शरणार्थी शिविर में गाँधीजी ने अपनी युवा आश्रित डॉ. सुशीला नायर, जो उनके सचिव प्यारेलाल की बहन थीं, को शरणार्थी शिविर में छोड़ दिया, ताकि यदि भारत लाये जाने से पहले शरणार्थियों पर दोबारा हमला किया जाता, तो वह सबसे पहले अपनी जान देतीं। गाँधीवादी होने की यही परिभाषा है।

ज़ाहिर है कि विभाजन के इन पीडि़तों के लिए भारत एकमात्र आश्रय था। पाकिस्तान आंदोलन में विश्वास करने वाले कई भारतीय मुसलमान अपने सपनों की भूमि पर चले गये। हालाँकि जल्दी ही उनका मोहभंग हो गया। लेकिन वह एक अलग कहानी है। वास्तविकता यह है कि अधिकांश भारतीय मुसलमान अपनी मातृभूमि में बने रहे। भारत और पाकिस्तान के बीच 8 अप्रैल, 1950 को छ: दिन तक चले विचार विमर्श के बाद के बाद, नेहरू-लियाकत संधि के रूप में पहला समझौता हुआ, जिसमें दोनों देशों में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की बात कही गयी थी।

अगले दशकों में जो हुआ, वह चौंकाने वाले आँकड़े से पता चलता है। जबकि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की आबादी लगभग 25 फीसदी से घटकर दो फीसदी से कम रह गयी है, इस दौर में ही भारत में मुसलमानों की आबादी बढ़ी है। धर्मतंत्र और जनतंत्र में यही अंतर है। ऐसा नहीं था कि विभाजन के लिए ज़िाम्मेदार लोगों को विरोधाभासों और नतीजों का पता नहीं था। एमसी चागला, जिन्होंने बॉम्बे में जिन्ना के कक्ष में अपना कानूनी करियर शुरू किया और श्रीमती इंदिरा गाँधी की सरकार में विदेश मंत्री बने, ने दिसंबर में अपनी आत्मकथा ‘रोज़िाज’ में बताया कि उन्होंने एक बार जिन्ना से पूछा कि अगर पाकिस्तान बनाया गया, तो यूपी और बिहार में भारतीय मुसलमानों का भाग्य क्या होगा, जिन्ना ने जवाब दिया कि उन्हें इसकी परवाह नहीं है।

दरअसल, जिन्ना को बंगालियों की भी परवाह नहीं थी। पूर्वी पाकिस्तान की अपनी एकमात्र यात्रा में उन्होंने ढाका में अपने सुनने वालों को चकित करते हुए कहा कि उन्हें बंगाली के बारे में भूलना होगा और यदि वे उर्दू को भाषा के रूप में नहीं अपनाते हैं, तो उन्हें गद्दार माना जाएगा। वीरता भरे मुक्ति युद्ध में, शेख मुजीब उर रहमान की अगुवाई में पूर्वी बंगालियों ने 1971 में पश्चिमी पाकिस्तान के लोकतांत्रिक अधिपत्य को समाप्त कर दिया और अपने देश को एक ऐसे भाषाई लोकाचार के साथ फिर से खड़ा कर दिया, जिसकी रूह में लोकतंत्र था। सन् 1975 में शेख मुजीब की हत्या से यह प्रक्रिया बाधित हो गयी थी; लेकिन जिन सकारात्मक सामाजिक ताकतों को उन्होंने अपने जीवनकाल में मज़बूत किया था, वे बहुत शक्तिशाली थीं और वे स्थितियों को पटरी पर लेन में सफल रहीं। उनकी विरासत को उनकी बेटी शेख हसीना ने आगे बढ़ाया है।

विभाजन एक क्रूर प्रक्रिया थी और इसे एक शरणार्थी से बेहतर कौन जान सकता था? उनका नाम डॉ. मनमोहन सिंह था। सन् 1947 में गाँधीजी ने पश्चिम पंजाब में डॉ. सिंह के जन्मस्थल के आसपास के एक शरणार्थी शिविर का दौरा किया था। यही कारण है कि डॉ. सिंह ने 2003 में राज्यसभा में माँग की कि शरणार्थियों को नागरिकता दी जाए। तत्कालीन गृह मंत्री एल.के. आडवाणी, जो खुद एक शरणार्थी थे, भी उनकी इस दलील में कोई अस्पष्टता नहीं देखते।

भाग्य ने 2004 में डॉ. सिंह को प्रधान मंत्री बना दिया और एक दशक तक उन्होंने यह जिम्मेवारी निभायी। डॉ. सिंह ने खुद उस माँग को पूरा करने के लिए कुछ नहीं किया, जो खुद उनकी माँग थी। लेकिन उनकी उत्तराधिकारी सरकार ने इसके बारे में कुछ किया है।

अफवाहों और भ्रामक राजनीतिक बयानबाज़ी के बीच, यह बार-बार स्पष्ट किया जाना चाहिए कि हाल में पारित नागरिकता संशोधन विधेयक किसी भी धर्म या वर्ग के भारतीय के अधिकारों को नहीं छीनता है। जैसा कि डॉ. सिंह समझते हैं कि विभाजन का एक परिणाम हमारे इतिहास में दर्दनाक घटना के पीडि़तों की नागरिकता को खत्म करना है। बस इतना ही। यह भारतीय मुसलमानों के किसी भी अधिकार को नहीं छीनता है, न ही अब और न ही भविष्य में। पाकिस्तान अल्पसंख्यकों के बिना पूर्ण हो सकता है, लेकिन भारत केवल अपने सभी भारतीय मुस्लिम नागरिकों के साथ ही सम्पूर्ण भारत होगा।

(एम.जे. अकबर प्रख्यात पत्रकार और लेखक हैं।)

नागरिकता : सरकारी शीर्षासन

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

नये नागरिकता कानून ने हमारे नेताओं को अधर में लटका दिया है। पड़ोसी मुस्लिम देशों के मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता दें या न दें? इस सवाल ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को यह कहने के लिए मजबूर कर दिया है कि भारत सरकार अब ‘राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर’ (एनआरसी) बनाएगी ही नहीं। ऐसा कहकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने भारत सरकार और भाजपा, दोनों को ही शीर्षासन करवा दिया है। उन्होंने कहा है कि सरकार तो सिर्फ ‘राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर’ ही बना रही है, जो अटलजी की भाजपा सरकार और डॉ. मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार के दौरान भी बनता रहा है।

जनसंख्या रजिस्टर और नागरिक रजिस्टर में फर्क यह है कि पहले में जो भी भारत में छ: महीने से रहता है, वह अपना नाम लिखा सकता है; लेकिन दूसरे में हर व्यक्ति के बारे में सप्रमाण विस्तृत जानकारी माँगी जाएगी और यदि उसकी जाँच में कोई कमी पायी गयी, तो उसे नागरिकता नहीं दी जाएगी। उसे घुसपैठिया करार दिया जाएगा। मोदी और शाह देश में फैले जन-आंदोलन से इतना घबरा गये हैं कि दोनों ने कह दिया है कि हम नागरिकता रजिस्टर बना ही नहीं रहे, जबकि भाजपा के 2019 के घोषणा-पत्र में उक्त रजिस्टर बनाने का साफ-साफ वादा किया गया है। अमित शाह ने 20 नवंबर, 2019 में राज्यसभा में कहा था कि सरकार राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर बनाने के लिए कृत्-संकल्प है। मेरी राय में यह देशहितकारी काम है। राष्ट्रवादी कर्तव्य है।

इसे ज़रूर किया जाना चाहिए; लेकिन मोदी और शाह शीर्षासन की मुद्रा में क्यों आ गये हैं? क्योंकि इन्होंने शरणार्थी-कानून बनाने में भूलकर दी। मुसलमान शरणार्थियों को अपनी सूची में नहीं जोड़ा। मोदी और शाह की इस छोटी-सी भूल की बड़ी-सी सज़ा अब देश को भुगतनी पड़ेगी। अब भारत, जो पहले से जनसंख्या-विस्फोट का सामना कर रहा है, दक्षिण एशिया का विराट अनाथालय बन जाएगा। सिर्फ अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश ही नहीं, भारत अब सभी पड़ोसी देशों के शरणार्थियों, घुसपैठियों, दलालों और जासूसों का अड्डा बन सकता है।