राँची : प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने ग्रामीण विकास मंत्री आलमगीर आलम पर शिकंजा कसना शुरु कर दिया है। बुधवार (15 मई) की शाम मंत्री आलमगीर आलम की गिरफ्तारी के बाद गुरुवार (16 मई) को उन्हें राँची स्थित पीएमएलए की विशेष अदालत में पेश किया गया। ईडी ने उन्हें रिमांड पर लेने के लिए कोर्ट में जो पिटीशन दिया है, उसमें चौंकाने वाले मामलों का जिक्र है।
ईडी का दावा है कि 23 मार्च 2023 को गिरफ्तार ग्रामीण विकास विभाग के तत्कालीन मुख्य सचिव वीरेंद्र राम से जुड़े केस में जांच से पता चला है कि वीरेंद्र राम टेंडर का कमीशन वसूलता था और मंत्री आलमगीर तक कमीशन का डेढ़ प्रतिशत हिस्सा पहुंचवाता था।कमीशन वसूलने और पहुंचाने का काम ग्रामीण विकास विभाग के सहायक अभियंता करते थे।
ईडी ने दावा किया है कि सितंबर 2022 में टेंडर कमीशन से वसूले गये 3 करोड़ रुपए एक सहायक अभियंता ने मंत्री आलमगीर आलम के एक करीबी तक पहुंचाया। मनी लॉन्ड्रिंग मामले में गिरफ्तार विभाग के पूर्व चीफ इंजीनियर वीरेंद्र राम ने भी पीएमएलए, 2002 के सेक्शन 50 के तहत दर्ज बयान में इस बात को स्वीकार किया है।इस मामले में 6 मई 2024 से हुई छापेमारी में अबतक 37.5 करोड़ रुपए बरामद किए जा चुके हैं।
ईडी का दावा है कि 6 मई को जिस जहांगीर आलम के राँची स्थित सर सैयद रेसिडेंसी फ्लैट से 32.2 करोड़ रु बरामद हुए थे, वे पैसे मंत्री आलमगीर आलम के हैं। उन पैसों को संजीव लाल के कहने पर जहांगीर आलम कलेक्ट करता था।जहांगीर आलम यह काम मंत्री के लिए ही करता था। जहांगीर आलम के घर से कई सरकारी दस्तावेज, सरकारी पत्र और सरकारी लेटर हेड भी मिले थे. इससे पता चलता है कि मंत्री के ओएसडी संजीव लाल कैश और कागजातों को छिपाने के लिए उस फ्लैट का इस्तेमाल करते थे।
रिमांड पिटीशन में ईडी ने इस बात का जिक्र किया है कि कमीशन का पूरा खेल ऑर्गनाइज तरीके से हो रहा था।इस काम में नीचे के कर्मचारी से लेकर ऊपर तक के अधिकारी शामिल हैं।पूरी डिलिंग कैश में होती थी।इसलिए अनुमान लगाया जा रहा है कि भारी मात्रा में कैश की मनी लॉन्ड्रिंग हुई है, जिसके खुलासे की कवायद चल रही है।ईडी ने कई गवाहों के बयान का हवाला देते हुए दावा किया है कि इस मनी लॉन्ड्रिंग में मंत्री आलमगीर आलम शामिल थे। ईडी अब इस नेक्सस में शामिल अन्य सफेदपोश तक पहुंचने की तैयारी में जुटी हुई है।
झारखंड में टेंडर का 1.5% कमीशन जाता था मंत्री आलमगीर आलम के पास,ईडी का खुलासा
मतदाताओं के डेटा का चुनाव में दुरुपयोग
चुनाव आते हैं और हैकर्स मतदाताओं का डेटा चुराकर उसे राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को पैसे के बदले बेचने के लिए सक्रिय हो जाते हैं! मार्च में आंध्र प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी को आईटी सेवाएँ प्रदान करने वाली हैदराबाद स्थित आईटी कम्पनी के ख़िलाफ़ एक ऐप के माध्यम से राज्य सरकार के डेटाबेस से 37 मिलियन मतदाताओं का डेटा चुराने की शिकायत दर्ज की गयी थी। जनवरी, 2024 में साइबर सुरक्षा फर्म, क्लाउड एसईके ने एक चौंकाने वाला ख़ुलासा किया कि भारत में 750 मिलियन टेलीकॉम उपयोगकर्ताओं का डेटा डार्कवेब पर बेचा जा रहा था। कुख्यात कोविन (CoVIN) मामले में कोविड वैक्सीन लगवाने वालों के डेटा का कथित उल्लंघन हुआ था, जिसके बाद सरकार को गहन जाँच शुरू करने के लिए मजबूर होना पड़ा। सन् 2018 को याद करें, यूके स्थित कैम्ब्रिज एनालिटिका की भूमिका तब संदेह के घेरे में आ गयी, जब व्हिसल-ब्लोअर क्रिस्टोफर वाइली ने भारत में एक राजनीतिक दल के लिए बड़े पैमाने पर काम करने के लिए यूके संसद के सामने गवाही दी।
अब ‘तहलका’ एसआईटी की पड़ताल से पता चला है कि बेईमान कम्पनियाँ और एजेंट व्यक्तिगत मतदाताओं का डेटा, जैसे- उनकी जाति, फोन नंबर और संपूर्ण प्रोफाइल चुराने के काम में लगे हुए हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कई मतदाताओं को फोन कॉल (स्पैम कॉल नहीं) प्राप्त होते रहते हैं, जिनमें कॉल करने वाले व्यक्तिगत विवरण के बारे में जानते हैं और किसी विशेष राजनीतिक दल या मैदान में उम्मीदवार को बेचने की कोशिश करते हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मतदाताओं के डेटा में व्यक्तिगत विवरण के अलावा राजनीतिक संबद्धताएँ, मतदान इतिहास और राजनीतिक दलों के लिए जनसांख्यिकी भी शामिल है, ताकि मतदाताओं के व्यवहार का विश्लेषण करके उन्हें लुभाने के लिए विशिष्ट रणनीतियाँ बनायी जा सकें। थोक डेटा राजनीतिक दलों के एजेंटों को पैसे पर बेचा जाता है और यहाँ तक कि हैकर्स थोक आवाज़ें, टेक्स्ट और व्हाट्सएप संदेश भेजने का अनुबंध भी लेते हैं। ऐसी कम्पनियाँ हैं, जो राजनीतिक पीआर, अभियान प्रबंधन, डिजिटल सेवाओं और चुनाव वॉर रूम के लिए चुनाव विशेषज्ञों की सेवा प्रदान करने की आड़ में वास्तव में मतदाताओं के व्यक्तिगत डेटा को क़ीमत पर बेचती हैं।
हमारी आवरण कथा- ‘बिक रहा है मतदाताओं का डेटा’ मतदान जैसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अखंडता और नागरिकों की गोपनीयता की सुरक्षा के बारे में सवाल उठाती है। जब ‘तहलका’ की एसआईटी ने नोएडा स्थित एक डिजिटल मार्केटिंग कम्पनी में काम करने वाले ऐसे ही एक एजेंट से संपर्क किया, तो उस व्यक्ति ने दिल्ली के एक पाँच सितारा होटल में हमारे गुप्त कैमरे के सामने एक बैठक के दौरान दावा किया कि वह ‘सर्वोच्च न्यायाधीशों का व्यक्तिगत डेटा भी प्रदान कर सकता है। इसके अलावा उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों के जजों, वकीलों के साथ-साथ डॉक्टरों, शिक्षकों, इंजीनियरों, छात्रों और कॉर्पोरेट घरानों का डेटा भी पैसे के लिए 2024 में चल रहे आम चुनावों के लिए उपलब्ध करा सकता है।’ डेटा न केवल सरकारी वेबसाइट्स से, बल्कि बैंकों और टेलीकॉम सेवा प्रदाताओं से भी लीक होता है। जैसे ही हमने पैसे के बदले मतदाता डेटा बेचने वाले विक्रेताओं की बहुत ज़रूरी गहन पड़ताल शुरू की, हमें आश्चर्य हुआ कि ऐसे कई विक्रेता अलग-अलग रेट (पैसे) के साथ मतदाताओं के व्यक्तिगत डेटा बेचने की पेशकश कर रहे हैं। लोगों की सहमति के बिना मतदाता डेटा की बिक्री नीति-निर्माताओं के लिए डिजिटल व्यक्तिगत डेटा को संभावित दुरुपयोग से बचाने की तत्काल आवश्यकता पर प्रकाश डालती है। डेटा सुरक्षा सुनिश्चित करना और पारदर्शिता प्रदान करना सरकार के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए और सार्वजनिक और निजी संस्थाओं को उनकी सहमति के बिना व्यक्तियों का डेटा एकत्र करने और उपयोग करने से रोकना चाहिए।
विरोध का अधिकार मत छीनिए
शिवेन्द्र राणा
नागरिकों की स्वतंत्रता तथा उनके नैसर्गिक अधिकारों की स्थिर गरिमा एवं मानव समाज में स्थापित शुचिता वो आधारभूत सिद्धांत हैं, जिन पर लोकतंत्र का सम्मान स्थापित होता है। यदि जनतंत्र को एक शरीर मान लें, तो चुनाव फेफड़ा है, जो प्राण वायु के परिसंचरण द्वारा इसे जीवित एवं स्वस्थ रखता है। चुनाव ही जन आकांक्षाओं का मापदंड है। यही वह पद्धति है, जिसके माध्यम से लोकतंत्र अपने वास्तविक स्वामी जनता-जनार्दन की सर्वोपरि इच्छा जान सकता है और उसका मान रख सकता है। लेकिन क्या हो, यदि जनता के प्रतिनिधि चुनने के इस संवैधानिक अधिकार का संवैधानिक तरीक़े से ही अपहरण कर लिया जाए? यह तो खुलेआम लोकतंत्र की वीभत्स हत्या है।
देश में 18वीं लोकसभा के लिए जन-प्रतिनिधियों के चयन की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के समय कुछ ऐसी अलोकतांत्रिक घटनाएँ हुई हैं, जिन्होंने जनतंत्र की मर्यादा कलुषित कर दी। पहली घटना सूरत (गुजरात) में घटित हुई, जिसमें भाजपा के साथ हुए अदृश्य सौदे के तहत कांग्रेस समेत सभी प्रत्याशियों ने चुनाव से पहले ही अपने नाम वापस ले लिये। यह जनतंत्र में राजनीतिक दुरभि संधि के निहायत ही निकृष्ट स्वरूप का उदाहरण है। लेखक शिव खेड़ा ने पिछले सप्ताह सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करके यह माँग की, कि यदि किसी चुनाव में नोटा को प्रत्याशियों से अधिक वोट मिलते हैं, तो उस सीट से चुनाव को रद्द घोषित करते हुए पुन: चुनाव कराये जाएँ।
दूसरी घटना इंदौर (मध्य प्रदेश) की है, जहाँ कांग्रेस प्रत्याशी अक्षय कान्ति बम ने आजकल भारतीय राजनीति में प्रचलित अंतरात्मा की आवाज़ के आधार पर नामांकन वापसी के अंतिम दिन न केवल अपना नाम वापस लिया, बल्कि लौटकर ख़ुद भी भाजपा में शामिल हो गये। राजनीति के इन विशुद्ध अवसरवादी घटिया कृत्यों ने भारतीय लोकतंत्र की नैतिक मर्यादा पर ही प्रश्न-चिह्न लगा दिया है। परन्तु उक्त परिदृश्य में मात्र सत्ताधारी पार्टी भाजपा को लोकतांत्रिक नैतिकता के कटघरे में खड़ा करके परिवाद का वास्तविक संदर्श पूर्ण नहीं होगा। यहाँ प्रश्न विपक्षी दल कांग्रेस से भी है, जिसने जनता और जनतंत्र की पीठ में ख़ंज़र घोंपने वाले ऐसे निकृष्ट तत्त्व को टिकट दिया ही क्यों? वह सारी ज़िम्मेदारी भाजपा एवं अपने प्रत्याशी पर थोपकर बच नहीं सकती, वह स्वयं भी इस लोकतंत्र हंता कृत्य में बराबर की सहभागी है।
असल में वास्तविकता यह है कि दुनिया में सबसे वृहत एवं सबसे प्राचीन विरासत का दावा करने वाला यह देश अपनी वर्तमान राजनीतिक गतिविधियों में कहीं से भी लोकतांत्रिक नहीं है। यदि ऐसा नहीं होता, तो पार्टियों में व्यक्ति विशेष समूह एवं कुछ चिह्नित परिवार ही उम्मीदवारों का निर्णय न कर रहे होते। अब ऐसी राजनीतिक दलों को किस तरह लोकतांत्रिक माना जाए, जिनमें पार्टी के लिए समर्पित, 20-25 साल का अपना स्वर्णिम जीवन दे चुके कार्यकर्ताओं को उम्मीदवार बनाना तो बहुत दूर की बात, उनसे ही एक बार यह जानने की ज़हमत भी नहीं उठायी जाती कि वे अपने क्षेत्र में अमुक उम्मीदवार के नाम पर सहमत हैं भी या नहीं? और यह दुर्गुण सभी दलों में है। एक ज़माने में पार्टी विद् डिफरेंस और एक वोट तक न ख़रीदने पर सरकार गिरने देने वाली भाजपा आज परिवारवाद और सत्तावाद की अवस्था में पहुँच गयी है, जहाँ दो ही लोग निर्णय कर रहें हैं कि टिकट किसे देना है और किसको नहीं। बाक़ी दलों में आतंरिक लोकतंत्र की चर्चा करना ही सिरे से मूर्खता है और अंतत: इसका दुष्परिणाम बेहतर कल की उम्मीद में बैठे मतदाता भुगत रहे हैं। चुनावी विकल्पहीनता का उदाहरण देखिए, बिहार की जमुई सीट से एनडीए गठबंधन की तरफ़ से लोजपा ने रामविलास पासवान के दामाद एवं कांग्रेस की पूर्व विधायक डॉ. ज्योति के बेटे अरुण भारती को टिकट दिया है, जिनके राजनीतिक अनुभव एवं जनसंघर्ष का प्रमाण परिवारवाद है। एनडीए और इंडिया गठबंधन, दोनों का यही हाल है। ऐसे में आम मतदाता को जन संघर्ष से विरत, छिछली प्रकृति के लोगों को ही अपना प्रतिनिधि चुनने को क्यों बाध्य होना पड़े? वह भी गुंडे-बदमाश, आर्थिक अपराधी से लेकर सिनेमाई भांड तक राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के अधिकृत प्रत्याशी के रूप में चुनावी मैदान में हैं। कांग्रेस पर परिवारवाद का हमेशा आरोप लगाने वाली भाजपा परिवारवाद में और गहरे धँसती जा रही है। यह देश के किसानों और मजदूरों के परिश्रम का अपमान है, जो आग उगलती गर्मी और कड़कड़ाती ठंड में देश की अवसंरचना का निर्माण कर रहे हैं। यह हर उस पत्रकार, शिक्षक और बुद्धिजीवी वर्ग के शालीन द्वंद्व का अपमान जो ख़ुद को दाँव पर लगाकर देश के भविष्य की चिन्ता में सत्य गढ़ रहा है। यह हर उस युवा का अपमान है, जो स्वयं में अर्जित योग्यता के बूते राष्ट्र निर्माण में सहभागी होना चाहता है। यह हर उस राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता का अपमान है, जो अपने कठिन मेहनत से जूझकर जन संघर्ष को दिशा देना चाहता है।
पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर अपनी आत्मकथा ‘जीवन जैसे जीया’ में लिखते हैं- ‘आप एक भी ऐसा व्यक्ति मानव इतिहास में बताइए, जिसके बिना ग़रीबी का अनुभव किये, ग़रीबी मिटाने का प्रयास किया हो। महात्मा बुद्ध को असली ज्ञान तब हुआ, जब उन्हें सुजाता की खीर खाने के लिए मजबूर होना पड़ा। भूख की पीड़ा को समझे बिना कोई भूख मिटा नहीं सकता। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि जिसने स्वयं ग़रीबी का अनुभव नहीं किया, वह ग़रीबी मिटाने का काम नहीं कर सकता।’
आज राष्ट्र के रूप में भारत की जो भी व्यथाएँ-समस्याएँ हैं, वे इन निकम्मे-अयोग्य जनतंत्र पर थोपे गये जनप्रतिनिधियों के शासन-सत्ता पर व्यापन के प्रभाव के चलते हैं। देश को जिस संभ्रांत वर्ग ने अपने घेरे में ले रखा है। जिसने कभी दु:ख, ग़रीबी तथा सार्वजनिक जीवन में अपमान का अनुभव न किया हो, वह भला इसे मिटाने का प्रयास ही क्यों करेगा? ऐसे में सहज़ ही नोटा के अधिकार की स्वीकार्यता को समझा जा सकता है। वास्तव में नोटा की माँग लोकतंत्र के उस मूल प्रतिरोध का प्रतिनिधित्व करती है, जो देश के राजनीतिक दलों की अहंमन्यता से उत्पन्न हुआ है। यह अधिकार आम नागरिकों को इसलिए चाहिए, ताकि वह देश को अयोग्य जनप्रतिनिधियों के दुष्चक्र एवं उनके प्रश्रयदाता राजनीतिक दलों के अधिनायकवादी कार्यशैली से आज़ाद कर सकें।
सूरत के संदर्भ में देखें, तो राजनीति के कुत्सित षड्यंत्र ने वहाँ जनता को चयन के विकल्प से वंचित कर दिया। सत्ता एवं धन-बल का प्रभाव देखिए कि लोकतंत्र की प्राणवायु यानी जन-निर्वाचन की प्रक्रिया को सूरत में रोककर बड़ी सहजता से वहाँ की जनता से मतदान का अधिकार छीन लिया गया। हालाँकि इंदौर में अब भी कई व्यर्थ के निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में है; लेकिन मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के न होने से चुनावी संघर्ष महत्त्वहीन हो गया है। लेकिन इस अप्रत्याशित घटना से भड़की कांग्रेस स्वयं इंदौर में नोटा पर अधिक से अधिक वोट करने की सार्वजनिक अपील कर रही है। किन्तु इसका भी परिणाम अर्थहीन होगा, क्योंकि यदि 99.99 प्रतिशत मत भी नोटा पर पड़ते हैं, तब भी नियम 64 के अनुसार बाक़ियों में से न्यूनतम में भी सर्वाधिक मत पाने वाला निर्वाचित होगा। अर्थात् नोटा जनता के निर्वाचन अस्वीकार्यता को पूर्णरूपेण अभिव्यक्त नहीं करता।
मूल प्रश्न है कि नोटा क्या है? नोटा यानी इनमें से कोई नहीं। निर्वाचन परिपत्र या ईवीएम में मौज़ूद एक ऐसा विकल्प है, जो मतदाताओं को किसी भी उम्मीदवार को प्राथमिकता न देने के लिए प्रयोग होता है। नोटा को भारत में सर्वप्रथम वर्ष 2013 में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर मतदान विकल्प के रूप में उपलब्ध कराया गया। सितंबर, 2013 को सुप्रीम कोर्ट की भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश पी. सदाशिवम् की अगुवाई वाली पीठ ने एक ऐतिहासिक फ़ैसले में कहा था कि लोकतंत्र चुनाव का ही नाम है। इसलिए मतदाताओं को नकारात्मक मतदान का अधिकार मिलना चाहिए। नोटा लागू होते ही मतदाताओं के विरोध और क्रोध के प्रदर्शन का सबब बनने लगा। सन् 2013 में हुए चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में नोटा का मत प्रतिशत 1.85 फ़ीसदी था। सन् 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में रिकॉर्ड 2.49 फ़ीसदी मत नोटा पर डाले गये। सन् 2017 के गुजरात विधानसभा चुनावों में ऐसे कुल 21 सीट ऐसी थीं, जिनमें शीर्ष दो प्रत्याशियों के बीच वोट का अंतर नोटा वोटों से भी कम था और ऐसी स्थिति 2013 से 2017 के बीच हुए विभिन्न चुनावों में 24 लोकसभा एवं 261 विधानसभाओं की सीटों पर रही, जहाँ नोटा को प्राप्त वोट जीत के अंतर वाले वोटों से ज़्यादा थे। वास्तविकता यह है कि दुनिया में सबसे वृहत एवं सबसे प्राचीन विरासत का दावा करने वाला यह देश अपनी वर्तमान राजनीतिक गतिविधियों में कहीं से भी लोकतांत्रिक नहीं है। यदि ऐसा नहीं होता, तो पार्टियों में व्यक्ति विशेष समूह एवं कुछ चिह्नित परिवार ही उम्मीदवारों का निर्णय न कर रहे होते।
दरअसल नोटा की प्रभाविता को लेकर न्यायपालिका में संघर्ष कर रहे नागरिक समूह के विरोध का आधारभूत तर्क भी यही है कि लागू होने के बावजूद इससे आम मतदाता को अयोग्य-अस्वीकृत प्रत्याशियों को ख़ारिज करने का अधिकार नहीं मिलता, जिससे चुनाव परिणाम अप्रभावित रहता है। ऐसे में नोटा आम नागरिक के मतदान के माध्यम से विरोध की अभिव्यक्ति मात्र बनकर रह जाता है। अत: आवश्यक है कि संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप नोटा के पक्ष सर्वाधिक मतदान के पश्चात् अन्य उम्मीदवार अयोग्य घोषित हों एवं उपरोक्त सभी उम्मीदवारों को नियत समय के लिए चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित किया जाए। साथ ही नोटा के अधिकार को मतदाताओं के ख़ारिज करने के अधिकार (राइट टू रिजेक्ट) में तब्दील कर दिया जाए, तभी इसकी सार्थकता सिद्ध हो सकेगी तथा यह भारतीय राजनीति में प्रभावकारी परिवर्तन का कारक बनेगा। प्रख्यात कथाकर मोहन राकेश लिखते हैं- ‘समय से अधिक ईमानदार, सच्चा और निर्मम मूल्यांकनकर्ता एवं निर्णायक और कोई नहीं होता।’
अब यह वक़्त को तय करना है कि नोटा की स्वीकार्यता का आन्दोलन कौन-सी दिशा लेता है? लेकिन यह तो तय है कि नोटा के प्रभावी अधिकार से आम मतदाताओं को वंचित रखना, उनसे अधिक स्वयं भारतीय लोकतंत्र को मूल अधिकार से वंचित करना होगा।
सुप्रीम कोर्ट के नक़्शेक़दम पर चलकर मिसाल पेश करें निचली अदालतें
के. रवि (दादा)
अदालतों की सुनवाई प्रक्रिया में सुधार की बड़ी ज़रूरत है। कई वर्षों तक मुक़दमों का चलते रहना अपराधियों के लिए फ़ायदे का सौदा हो जाता है। इसमें पिस जाता है, तो ईमानदार आदमी। पक्षपात और दबाव से भी अदालतों को निकलना ही चाहिए, नहीं तो फ़ैसलों पर उँगलियाँ उठती हैं। क़ानून को यूँ दिखाया गया है कि आँख पर पट्टी बँधी है, पर हाथ में तराजू है। आँख पर पट्टी इसलिए नहीं बँधी है कि अदालतों में बैठे जजों को कुछ नहीं दिखता, वो इसलिए बँधी है कि अदालत को किसी को पक्षपाती नज़रिये से देखे बिना, उससे जान पहचान निकाले बिना मुक़दमों को कानों से सुनना है, समझना है और न्याय के हक़ में तराजू से तोलने के जैसा नपा-तुला फ़ैसला करना है। लेकिन इसके विपरीत कई जज आँखों पर पट्टी बाँधकर ग़लत फ़ैसले दे जाते हैं, जिसके लिए कई जजों को तो बड़ी अदालतों ने समय-समय पर बर्ख़ास्त भी किया है। फिर सवाल यही सामने आता है कि अदालतों की सुनवाई प्रक्रिया में सुधार कैसे हो और वो सुधार करेगा कौन ?
इसके लिए हम कुछ उदाहरण ऐसे देख सकते हैं, जिनमें कुछ जजों ने बहुत अच्छे काम किये हैं। जैसे कि आजकल हम ख़बरों में सुनते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश निष्पक्षता से फ़ैसले सुना रहे हैं। कोरोना-काल में अदालतों की कार्यवाही लाइव हुई थी। राष्ट्रीय महत्त्व के मामलों में अदालती कार्रवाई की लाइव स्ट्रीमिंग को सुप्रीम कोर्ट ने हरी झंडी दे दी थी। ये काम 2018 में भी किया गया था, पर वो सभी अदालतों में नहीं हुआ था। अब ज़्यादातर अदालतों की कार्रवाई की लाइव स्ट्रीमिंग होने लगी है। 26 अगस्त, 2023 को आम लोगों को सरकारों द्वारा दी जा रही मुफ़्त सुविधाओं के मामले पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की सुनवाई लाइव दिखायी गयी थी।

अब एक और अच्छा क़दम उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुआई में नौ जजों की पीठ ने एक व्हाट्सएप नंबर- 8767687676 जारी कर दिया है। इस व्हाट्सएप नंबर के ज़रिये सुप्रीम कोर्ट में होने वाली फाइलिंग, लिस्टिंग और कॉज लिस्ट वाले मुक़दमों की जानकारी वकीलों को समय-पूर्व ही मिल जाया करेगी। सुप्रीम कोर्ट का यह व्हाट्सएप नंबर जारी करने की पहल सराहनीय और तहे दिल से स्वागत करने वाली है। ये न्याय के इतिहास में पहली बार हुआ है और सुप्रीम कोर्ट में चलने वाले हर मुक़दमे की सुनवाई को आसान बनाने के लिए एक अनोखी पहल है। सुप्रीम कोर्ट व्हाट्सएप मैसेज करके अब उन मुक़दमों की जानकारी कुछ दिन पहले दे देगा, जिस मुक़दमे की तारीख़ आने वाली होगी।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद-39(बी) के तहत एक प्राइवेट प्रॉपर्टी से जुड़े मामले की नौ जजों की पीठ के सुनवाई करते समय सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि 75वें साल में सुप्रीम कोर्ट ने व्हाट्सएप मैसेज को सुप्रीम कोर्ट की आईटी सेवाओं के साथ जोड़कर न्याय तक पहुँच को मज़बूत करने की पहल शुरू की है। इस व्हाट्सएप के माध्यम से एओआर, पार्टी / पिटीशनर इन पर्सन को मुक़दमे की सुनवाई से सम्बन्धित जानकारी मिला करेगी।
चीफ जस्टिस ने सुप्रीम कोर्ट के व्हाट्सएप नंबर के जारी करने की ख़ुशी में कहा है कि मुक़दमों की सुनवाई में पारदर्शिता बढ़ाने, परिवर्तन लाने और सुधार करने की दिशा में यह भी एक छोटा क़दम है, पर इसका असर बड़ा होगा। इस एक क़दम से सुप्रीम कोर्ट में कागज का इस्तेमाल तो सीमित होगा ही, भविष्य में काग़ज़ी ख़र्चे को ख़त्म करने पेपरलेस मुहिम बनाने में इससे बहुत बड़ी मदद मिलेगी।
विदित हो कि फरवरी, 2023 में अतिरिक्त ज़िला और सत्र न्यायाधीश, 15वीं अदालत, अलीपुर ने सुप्रीम कोर्ट के उस मामले को स्थगित कर दिया था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के जजों जस्टिस कौल और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने स्पष्ट रूप से निर्देश दिया था कि अलीपुर स्थित अतिरिक्त ज़िला और सत्र न्यायाधीश, 15वीं अदालत निष्पादन की कार्यवाही की सुनवाई एक दिन के आधार पर करे। इस मामले में मार्च, 2023 में सुनवाई के समय सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर काफ़ी नाराज़गी व्यक्त की थी। सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने इस मामले पर कहा कि यह देखा गया कि इस मामले में सावधानी बरती जानी चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेशों के माध्यम से जो मंशा व्यक्त की है, उस पर पूर्ण प्रभाव से फ़ैसला दिया जाए। पीठ ने कहा कि जज को ये तय करने में सावधानी बरतनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को समझने के बाद अनुपालन किया जा रहा है या नहीं। मामले को अतिरिक्त ज़िला और सत्र न्यायाधीश, 15वीं अदालत के सामने निगरानी रखने और यह सुनिश्चित करने के लिए रखा गया कि निष्पादन की कार्यवाही समाप्त हो जाए, इसलिए नहीं कि अदालत के मामले की सुनवाई कर रहे जज इस मामले को ही स्थगित कर दें।

सुप्रीम कोर्ट ने 03 फरवरी, 2023 को निष्पादन अदालत को निर्देश दिया कि वह याचिका को दैनिक आधार पर ले, पर याचिकाकर्ता के पेश वकील ने शिकायत की कि जब 03 फरवरी, 2023 की तारीख़ के आदेश को निष्पादन अदालत के संज्ञान में लाया गया, तो उसने विशेष अनुमति याचिका के परिणाम की प्रतीक्षा करते हुए सुनवाई को 31 मार्च, 2023 तक के लिए स्थगित कर दिया। पीठ ने कहा कि हमें नहीं पता कि निचली अदालत के जज सरल आदेशों को क्यों नहीं समझ सकते। हमें क्या कहना चाहिए? सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कहा कि पीठ इस बात से परेशान है कि 03 फरवरी, 2023 के आदेश में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि निष्पादन की कार्यवाही नियमित आधार पर होनी है, इसके बाद भी निचली अदालत के जज ने सुनवाई स्थगित कर दी। ये बिलकुल साफ़ है कि अलीपुर की अतिरिक्त ज़िला और सत्र न्यायाधीश, 15वीं अदालत ने 03 फरवरी के आदेश के अर्थ को नोटिस करने के बाद भी नहीं समझा। उस आदेश के संदर्भ में अतिरिक्त ज़िला और सत्र न्यायाधीश, 15वीं अदालत को दिन-प्रतिदिन लेने के बजाय यह बहाना बनाया गया कि मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित है। इस मामले के निष्पादन में क़रीब चार साल पहले निष्पादन अवार्ड की पुष्टि की गयी थी, पर निष्पादन याचिका आज तक लंबित है।
पीठ ने कहा कि पिछली तारीख़ पर कलकत्ता हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार को इस मामले की प्रगति के बारे में ट्रायल जज से रिपोर्ट प्राप्त करने के लिए बुलाया गया, तो फिर 12 नवंबर, 2018 को शुरू की गयी निष्पादन याचिका साढ़े चार साल सुनवाई चलने के बाद भी लंबित क्यों है? इस पर निचली अदालत ने सुप्रीम कोर्ट को कई तरह की सफ़ाई दे दी। ऐसी फटकार सुप्रीम कोर्ट कई जजों को अब के इतिहास में लगा चुका होगा, पर कई निचली अदालतों ने कई स्तरों पर आज तक सुधार नहीं किया है। अब निचली अदालतों को सुप्रीम कोर्ट के नक़्शेक़दम पर चलकर न्याय व्यवस्था की एक मिसाल पेश करनी चाहिए, जिससे वर्षों से बदनाम भारत की न्याय व्यवस्था दुनिया में एक मिसाल बन सके और दुनिया हम पर न्याय के लिए विश्वास कर सके।
हमारे देश में सुप्रीम अदालत, उच्च अदालतें और ज़िला अदालतें दो तरह के मुक़दमे सुनती हैं, जिन्हें दीवानी और फ़ौजदारी कहते हैं। पर इन अदालतों में चलने वाले मुक़दमों के फ़ैसले आने में इतनी देरी होती है कि कई बार वादी-प्रतिवादी दुनिया से रुख़सत तक हो जाते हैं, पर फ़ैसला नहीं हो पाता। इसके लिए कोई और ज़िम्मेदार नहीं है, बल्कि अदालतें ही ज़िम्मेदार हैं। दिसंबर, 2023 के तीसरे हफ़्ते तक तीनों प्रकार की अदालतों में लंबित पड़े सभी प्रकार के मामलों की संख्या क़रीब पाँच करोड़ से ऊपर हो गयी थी। इन लंबित मामलों में ज़िला अदालतों और उच्च अदालतों में 30 साल से ज़्यादा समय से लंबित मामले 1.69 लाख से अधिक थे। दिसंबर, 2022 तक पाँच करोड़ मामलों में से 4.3 करोड़ से ज़्यादा 85 प्रतिशत मामले ज़िला अदालतों में लंबित हैं। अचंभा तो यह है कि जिन मामलों में सरकार वादी है, वो भी 50 प्रतिशत मामले ऐसे हैं, जो लंबित पड़े हुए हैं। निचली अदालतों में 66 प्रतिशत से ज़्यादा मामले जमीन और संपत्ति विवाद के हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय किये गये मामलों में से 25 प्रतिशत भूमि विवाद के मामले हैं, नहीं तो उनमें भूमि विवाद शामिल है।
दिसंबर 2023 तक पिछले साल लाइव टीवी क़ानून और न्याय भारत के तहत सुप्रीम कोर्ट ने 52,191 मामले निपटाये, पर 80 हज़ार मामले अब भी लंबित पड़े हैं। पर 2022 में अदालतें 39,800 मामले ही अदालतें निपटा पायी थीं। इस प्रणाली को 2017 में शुरू किया गया, जिसके चलते 2018 से मामलों को निपटाने की गति तेज़ हुई। अब निचली अदालतों को सुप्रीम कोर्ट के नक़्शेक़दम पर चलते हुए अपने व्हाट्सएप नंबर जारी करने चाहिए। साथ ही हर मुक़दमे की सुनवाई की लाइव स्ट्रीमिंग करनी चाहिए, ताकि मुक़दमों में फँसे लोगों के सामने जल्द फ़ैसला आ सके और वे लम्बे समय की सुनवाई से बच सकें।
गेहूँ की ख़रीदारी के लक्ष्य से दूर क्रय केंद्र
योगेश
देश के ज़्यादातर राज्यों में बनी सहकारी समितियों की लेबी (क्रय केंद्र) पर 20 मई तक किसानों से गेहूँ की ख़रीद की जानी है। लोकसभा चुनावों के चलते केंद्र सरकार ने चालू विपणन वर्ष 2024-25 में गेहूँ ख़रीद को सात गुना बढ़ाकर 310 लाख टन गेहूँ ख़रीदने का लक्ष्य रखा है। लेकिन सहकारी समितियों के लेबी केंद्रों पर गेहूँ की ख़रीद करने में किसानों को कई अड़चनें आ रही हैं। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और बिहार राज्यों से किसानों की इस मामले में शिकायतें आ रही हैं। उत्तर प्रदेश के बहेड़ी क्षेत्र के कई किसानों ने इसकी शिकायत करते हुए बताया कि लेबी पर आढ़तियों से साँठगाँठ करके उनका भी गेहूँ लिया जा रहा है और किसानों को टालने की कोशिश की जा रही है। फ़तेहगंज क्षेत्र के किसानों ने भी इस प्रकार की शिकायतें की हैं। उनका कहना है कि लेबी पर किसानों के गेहूँ में कमियाँ निकालकर उन्हें परेशान किया जा रहा है। कुछ किसानों की शिकायत है कि गेहूँ लेने में देरी की जा रही है। कई किसानों और आढ़तियों का गेहूँ देर में आने पर भी पहले लिया जा रहा है और छोटे किसानों को टाला जा रहा है। इस तरह की कई समस्याओं के चलते किसान आढ़तियों और व्यापारियों को गेहूँ बेचने को मजबूर हो रहे हैं।
केंद्रीय खाद्य मंत्रालय ने चालू विपणन वर्ष 2024-25 के लिए उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार राज्यों के लिए कुल गेहूँ ख़रीदी का 16 प्रतिशत गेहूँ ख़रीदने का लक्ष्य निर्धारित किया है। लेकिन किसानों की शिकायतें सुनकर लगता है कि ये राज्य 20 मई तक इस लक्ष्य को भले ही पा लें; लेकिन कई किसानों का गेहूँ लेबी केंद्रों पर नहीं बिक पाएगा। विपणन वर्ष 2023-24 में मार्च और अप्रैल के दौरान ही इन तीनों राज्यों ने केंद्र सरकार के निर्धारित ख़रीद लक्ष्य से काफ़ी कम केवल 6.7 लाख टन गेहूँ ख़रीदा था। इस विपणन वर्ष 2024-25 में उत्तर प्रदेश सरकार ने 60 लाख टन गेहूँ ख़रीद लक्ष्य पूरा करने के लिए लेबी केंद्रों की संख्या 10 प्रतिशत बढ़ाकर 6,400 से ज़्यादा कर दी है। इतना गेहूँ ख़रीदने के लिए राज्य सरकार को 13,650 करोड़ रुपये का भुगतान किसानों को करना होगा।
केंद्र सरकार ने इस विपणन वर्ष 2024-25 के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य 2,275 रुपये प्रति कुंतल रखा है। विपणन वर्ष 2023-24 में 2,125 रुपये प्रति कुंतल था। विपणन वर्ष 2023-24 में उत्तर प्रदेश. राजस्थान और बिहार ने केवल 6,70,000 टन गेहूँ ही ख़रीदा था। इस प्रकार गेहूँ ख़रीद में इन तीनों राज्यों का योगदान लक्ष्य से कम रहा है। केंद्रीय खाद्य मंत्रालय ने इस बार उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार राज्यों को ख़रीद पूरी करने के निर्देश दिये हैं। अधिकारियों ने बताया है कि तीनों राज्य अपनी क्षमता से बहुत कम ख़रीदी योगदान दे रहे हैं। केंद्रीय खाद्य मंत्रालय ने इस विपणन वर्ष में गेहूँ ख़रीद का लक्ष्य बढ़ाकर 310 लाख टन तो कर दिया है; लेकिन उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार और संभवत: मध्य प्रदेश भी अपने-अपने गेहूँ ख़रीद लक्ष्य को पूरा करने में असमर्थ दिख रहे हैं। मध्य प्रदेश के सामने केंद्रीय खाद्य मंत्रालय ने विपणन वर्ष 2024-25 के लिए क़रीब 100 लाख टन गेहूँ ख़रीद का लक्ष्य रखा गया है, जिसके लिए मध्य प्रदेश सरकार को लगभग 22,750 करोड़ रुपये नहीं, बल्कि 24,000 करोड़ रुपये किसानों को चुकाने होंगे, क्योंकि मध्य प्रदेश के गेहूँ की क्वालिटी अच्छी मानी जाती है, जिसके चलते वहाँ के गेहूँ का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2,400 रुपये प्रति कुंतल है।
मध्य प्रदेश सरकार ने विपणन वर्ष 2023-24 में लगभग 56 लाख टन गेहूँ लेबी केंद्रों के माध्यम से ख़रीदा था। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए ही गेहूँ ख़रीद की तारीख़ बढ़ाकर 20 मई कर दी है। इसके अलावा अन्य राज्यों के लिए भी गेहूँ ख़रीद का लक्ष्य बढ़ाया गया है। सभी राज्यों से लक्ष्य पूरा करते हुए पूरी गेहूँ ख़रीद की उम्मीद केंद्रीय खाद्य मंत्रालय ने जतायी है। लेकिन लेबी केंद्रों पर किसानों से हो रहे व्यवहार और उन्हें टालने की कोशिश करने वालों की नीयत गेहूँ ख़रीद का लक्ष्य पूरा करने की नहीं लगती। लेबी के ईमानदार कर्मचारी ने अपना नाम छुपाने की शर्त पर बताया कि लेबी के प्रबंधकों और दूसरे कर्मचारियों ने व्यापारियों और आढ़तियों से साँठगाँठ कर रखी है। कुछ किसान लेबी पर होने वाली समस्याओं के चलते अपना गेहूँ मंडी में बेच रहे हैं। जब लेबी पर गेहूँ नहीं बिकता है, तो किसान मजबूरी में 1,900 रुपये प्रति कुंतल से 2,000 रुपये प्रति कुंतल गेहूँ आढ़तियों और व्यापारियों को बेच देते हैं। आढ़तिए और व्यापारी उस गेहूँ पर 200 रुपये से 250 रुपये प्रति कुंतल तक कमा रहे हैं, जिसमें कुछ हिस्सेदारी लेबी प्रबंधकों ओर कर्मचारियों की भी होती है। आटा बनाकर बेचने वाले व्यापारी भी गेहूँ ख़रीद रहे हैं, जो एमएसपी या उसके आसपास का भाव भी किसानों को दे रहे हैं और नक़द पैसा दे रहे हैं। इसके चलते भी सभी किसान लेबी केंद्रों पर गेहूँ बेचने नहीं जा रहे हैं।
किसानों की शिकायत है कि सरकार ने लोकसभा चुनाव जीतने के लिए गेहूँ ख़रीद का लक्ष्य तो बढ़ा दिया; लेकिन किसानों को न तो उचित समर्थन मूल्य दिया है और न ही यह ख़रीद लक्ष्य पूरा होने वाला है। लेकिन सरकारी बाबुओं का बयान कहता है कि गेहूँ ख़रीद का लक्ष्य बड़ाने के पीछे प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना और अन्य कल्याणकारी योजनाओं के तहत गेहूँ आवंटन सुचारू रूप से चलाने की योजना है। सरकारी बयानों में कहा गया है कि केंद्र सरकार का आदेश है कि गेहूँ ख़रीदी के 48 घंटे के भीतर गेहूँ बेचने वाले किसानों के बैंक खातों में न्यूनतम समर्थन मूल्य के हिसाब से पैसा भेजा जा रहा है। इससे किसानों को पैसे के लिए परेशान नहीं होना पड़ेगा। केंद्रीय खाद्य मंत्रालय ने किसानों को 48 घंटे के अंदर भुगतान करने के लिए ख़रीद केंद्र बड़ाने के अलावा मोबाइल ख़रीद केंद्र भी स्थापित किये हैं। ये मोबाइल ख़रीद केंद्र स्वयं सहायता समूहों, पंचायतों, किसान उत्पादक संगठनों की मदद से चल रहे हैं। ख़रीद केंद्रों और एजेंसियों के बीच ख़रीद और समन्वय की निगरानी के लिए दिल्ली में एफसीआई मुख्यालय में एक केंद्रीय नियंत्रण कक्ष खोला गया है। यह मुख्यालय ख़रीद केंद्रों की कई गतिविधियों पर नज़र रख रहा है, जिसमें गेहूँ ख़रीद की गति, न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीद की समीक्षा और किसानों के लिए सुगमता का निरीक्षण कर रहा है।
कुछ जगहों पर किसानों को निजी हाथों में गेहूँ बेचने पर न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज़्यादा अच्छा भाव मिल रहा है, जिसके चलते किसान लेबी को गेहूँ न बेचकर व्यापारियों को बेच रहे हैं। मध्य प्रदेश में इस प्रकार के मामले ज़्यादा सामने आये हैं। मध्य प्रदेश की कुछ जगहों पर किसानों को व्यापारी 2,500 से 2,600 रुपये प्रति कुंतल तक का भाव दे रहे हैं, ऐसी ख़बरें मिल रही हैं। बाज़ारों में गेहूँ का अलग-अलग भाव गेहूँ की क्वालिटी के हिसाब से मिल रहा है। अच्छा भाव लेने के लिए पढ़े-लिखे किसान ऑनलाइन कमोडिटी पर भी भाव देखकर गेहूँ बेच रहे हैं। मध्य प्रदेश में गेहूँ की सबसे कम भाव 2,200 रुपये प्रति कुंतल मिल रहा है; लेकिन ये सबसे हल्की क्वालिटी का गेहूँ है। इस राज्य में गेहूँ का औसत मूल्य 2,306.92 प्रति कुंतल मिल रहा है, जबकि सबसे उच्च बाज़ार क़ीमत 2,500 रुपये से 2,600 रुपये प्रति कुंतल किसानों को मिल रही है। किसानों को भड़काकर गेहूँ की ख़रीदी करने वालों पर कार्रवाई भी मध्य प्रदेश में होने की छिटपुट ख़बरें मिली हैं।
गेहूँ के अलावा लेबी केंद्रों पर चना, सरसों की भी ख़रीद चल रही है। चना और सरसों की ख़रीद 31 मई तक होगी। लेबी केंद्रों पर चना 5,440 रुपये प्रति कुंतल और सरसों 5,650 रुपये प्रति कुंतल की दर से ख़रीदे जा रहे हैं। इन्हें भी किसान कम न्यूनतम समर्थन मूल्य के चलते व्यापारियों को बेचना पसंद कर रहे हैं। कुछ संपन्न किसान रबी के मौसम के सभी फ़सल उत्पादों को रोककर रख रहे हैं, जिससे भाव बढ़ने पर वे उन्हें अच्छे भाव में बेच सकें। लेबी केंद्रों पर किसानों का पंजीकरण हो रहा है। लेकिन रबी की फ़सलों का उचित न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलने के चलते किसानों में सरकारों के प्रति नाराज़गी है। किसानों का कहना है कि भाजपा ने कई राज्यों में विधानसभा चुनाव के दौरान गेहूँ का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2,500 से लेकर 2,700 रुपये प्रति कुंतल निर्धारित करने का वादा किया था। उसने धान का भी कहीं 3,000 रुपये प्रति कुंतल तो कहीं 3,100 रुपये प्रति कुंतल समर्थन मूल्य देने का वादा किया था। सरकार द्वारा कम समर्थन मूल्य दिये जाने से उत्तर प्रदेश समेत सभी राज्यों में नाराज़गी है। केंद्रीय खाद्य मंत्रालय को किसानों की माँग और लागत मूल्य बढ़ने के हिसाब से न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों को देना चाहिए। किसानों की दूसरी समस्याओं का भी समाधान केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को करना चाहिए। लेबी केंद्रों पर होने वाली धाँधली रोकनी चाहिए और किसानों के लिए महँगे मिलने वाले खाद, बीज और कीटनाशकों को सस्ता किया जाना चाहिए। किसानों को बारामासी घाटे से निकालने के लिए उनके साथ सरकारों को ईमानदारी से पेश आना होगा, तभी किसानों की आय दोगुनी करने का वादा पूरा हो सकेगा।
दोस्त, दोस्त न रहा!
आजकल एक तस्वीर काफ़ी चर्चा में है, जिसमें एक जहाज़ से उतरते हुए नरेंद्र मोदी विजय (वी) का चिह्न दिखा रहे हैं। दरअसल यह तस्वीर 23 मई, 2014 की है, जब भाजपा लोकसभा का चुनाव जीती थी। लेकिन इस तस्वीर में जो दिलचस्प बात है, वह यह है कि जिस जहाज़ पर मोदी खड़े हैं, वह देश के मशहूर व्यापारी अडानी का प्राइवेट जेट है। इस चुनाव के बाद भी मोदी को कई बार अडानी के जहाज़ में यात्रा करते देखा गया। हालाँकि एक बार अडानी ग्रुप के चेयरमैन गौतम अडानी ने इस पर कहा था कि इसके बदले वह सरकार से कोई लाभ नहीं लेते, न ही उन्होंने कभी मुफ़्त में विमान की सेवा दी है।
हालाँकि पिछले 10 साल में अक्सर यह माना गया है कि प्रधानमंत्री मोदी और अडानी के बीच घनिष्ठता है। लेकिन तीसरे चरण के मतदान के बाद जब प्रधानमंत्री मोदी ने भाजपा के लिए चुनाव प्रचार में अचानक कांग्रेस पर यह आरोप लगा दिया कि उसे अडानी से टेंपो में भर-भर कर काले धन के बोरे मिले हैं, तो सब चौंक गये। यहाँ तक कि भाजपा के ही कई लोग मोदी के आरोप सुनकर हैरान थे; क्योंकि मोदी ने यह भी कहा कि शहज़ादे (राहुल गाँधी) ने अब अडानी और अंबानी को गाली देना बन्द कर दिया है; जबकि सच्चाई यह है कि राहुल कमोवेश हरेक चुनावी-सभा में मोदी-अडानी के रिश्तों पर सवाल उठाते रहे हैं।

कांग्रेस पहले तो मोदी के आरोप से हैरानी में दिखी; लेकिन फिर पार्टी के नेता राहुल गाँधी के जवाब ने उलटे मोदी को ही उलझन फँसा दिया। राहुल ने बाक़ायदा एक वीडियो जारी कर कहा- ‘नमस्कार मोदी जी! थोड़ा-सा घबरा गये क्या? आमतौर पर आप बन्द कमरों में अडानी और अंबानी जी की बात करते हो। आपने पहली बार पब्लिक में अंबानी, अडानी बोला। आपको यह भी मालूम है कि ये टेम्पो में पैसा देते हैं। निजी अनुभव है क्या? एक काम कीजिए। सीबीआई और ईडी को इनके पास भेजिए। पूरी जानकारी करिये। जाँच करवाइए। जल्दी-से-जल्दी करवाइए। घबराइए मत मोदी जी! मैं देश को फिर दोहराकर कह रहा हूँ कि जितना पैसा नरेंद्र मोदी जी ने इनको दिया है न, …उतना ही पैसा हम हिंदुस्तान के ग़रीबों को देने जा रहे हैं। इन्होंने 22 अरबपति बनाये हैं। हम करोड़ों लखपति बनाएँगे।’
राहुल का यह जवाब मोदी पर भारी पड़ा और वह अपने ही बुने हुए जाल में उलझ गये। आख़िर मोदी को क्यों अडानी को कांग्रेस के ख़ेमे में खड़ा दिखाने की ज़रूरत पड़ी? जबकि दशकों से अडानी को उनका नज़दीकी माना जाता रहा है। बेशक इसे लेकर मोदी पर काफ़ी आरोप भी लगे हैं, ख़ासकर कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने दोनों को लेकर हमेशा आक्रामक रुख़ दिखाया है। यह आरोप लगते रहे हैं कि जब राहुल गाँधी की लोकसभा सदस्यता छीनी गयी थी, तो उसके पीछे मूल कारण वास्तव में राहुल गाँधी का लोकसभा का वह भाषण था, जिसमें उन्होंने अडानी को लेकर सीधे-सीधे प्रधानमंत्री मोदी पर आरोप लगाये थे। अब यहाँ यह बड़ा सवाल है कि आख़िर कांग्रेस पर आरोप लगाते हुए मोदी ने उन्हीं अडानी के इस पैसे को क्यों काला धन कह दिया? अभी तक के चार चरण के मतदान के बाद विपक्ष जिस तरह भरोसे से भरा दिखा रहा है और भाजपा के यह चुनाव हारने का ज़ोर-शोर से प्रचार कर रहा है, क्या वह वास्तव में होने जा रहा है और क्या अडानी जैसे व्यापारी ने चुनाव की ज़मीनी हक़ीक़त देखते हुए कांग्रेस से नज़दीकियाँ बढ़ानी शुरू कर दी हैं? या क्या मोदी 2024 के लोकसभा चुनाव के आधे चरणों का मतदान हो जाने के बाद निराशा में इतने भर गये हैं कि कुछ भी बोल रहे हैं? यह सच है कि तेलंगाना में कांग्रेस की सरकार आने के बाद अडानी ने वहाँ अपने एक प्रोजेक्ट को लेकर समझौता किया था। क्या रेवंथ रेड्डी के ज़रिये अडानी कांग्रेस आलाकमान के साथ रिश्तों की डोर जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं? कहना कठिन है। लेकिन यह भी सच है कि ऐसा होता, तो राहुल गाँधी इस तरह हरेक जनसभा में मोदी-अडानी रिश्तों पर हमला नहीं कर रहे होते। तो भारतीय व्यापारी अडानी, जिन्हें पिछले 10 साल में प्रधानमंत्री मोदी से मित्रता की वजह से ज़्यादा चर्चा मिली है; का उन्हीं पर मोदी का हमला बोलना किस बात का संकेत है? मोदी ने मित्र कहलाये जाने वाले व्यापारी पर जिस तरह लांछन लगाकर कांग्रेस पर हमला बोलने की कोशिश की, उल्टा वह उन्हीं पर भारी पड़ गया है। कांग्रेस माँग कर रही है कि उनकी पार्टी को अडानी की तरफ़ से यदि पैसे दिये गये हैं, तो इसकी ईडी से जाँच होनी चाहिए। क्या इस चुनाव में भाजपा के नैरेटिव सेट करने में नाकाम रहने से ख़ुद मोदी ही प्रचार की दिशा में भटक गये हैं और वह कुछ भी बोलने लगे हैं? उनकी बात किसी के गले नहीं उतरी है। क्योंकि जनता में यह आम सोच है कि अडानी मोदी के दोस्त हैं और राहुल गाँधी देश में अकेले ऐसे नेता हैं, जो बेख़ौफ़ मोदी और अडानी के रिश्तों पर सवाल उठा रहे हैं।
दिलचस्प यह है कि मोदी ने अडानी को लेकर कांग्रेस पर जो आरोप लगाया, वह तेलंगाना के ही करीमनगर की एक जनसभा में लगाया। मोदी ने जनता के बीच दावा किया कि ‘साथियों! आपने देखा होगा कि कांग्रेस के शहज़ादे (राहुल गाँधी) पिछले पाँच साल से सुबह उठते ही माला जपना शुरू कर देते हैं। जबसे उनका राफेल वाला मामला ग्राउंडेड हो गया, तबसे उन्होंने एक नयी माला जपनी शुरू कर दी है। पाँच साल से एक ही माला जपते थे- पाँच उद्योगपति, फिर धीरे-धीरे कहने लगे अंबानी-अडानी। लेकिन जबसे चुनाव घोषित हुआ है, इन्होंने अंबानी-अडानी को गाली देना बन्द कर दिया। मैं आज तेलंगाना की धरती से पूछना चाहता हूँ कि शहज़ादे घोषित करें कि अंबानी और अडानी से कितना माल उठाया है? काले धन के कितने बोरे भरकर मारे हैं? क्या टेम्पो भरकर नोटें कांग्रेस के लिए पहुँची हैं? क्या सौदा हुआ है? आपने रातोंरात अडानी-अंबानी को गाली देना बन्द कर दिया। ज़रूर दाल में कुछ काला है।’
लेकिन वास्तव में मोदी का यह दावा आरोप से ज़्यादा मज़ाक़ का विषय बन गया। किसी ने भी इस पर भरोसा नहीं किया। उलटे कई लोग यह कहने लगे कि लगता है कि अडानी को भी ज़मीनी हक़ीक़त पता चल गयी है कि मोदी चुनाव हार रहे हैं। इसलिए वह कांग्रेस के पाले में जा रहे हैं। राहुल गाँधी ने इस पर कहा कि ‘मोदी जी को कैसे पता कि अडानी-अंबानी के यहाँ से टेम्पो में पैसा आता है। क्या उनका निजी अनुभव है। आख़िर आपको भी 10 साल बाद अडानी याद आ गयी।’
इंडिया गठबंधन के सभी सहयोगी इस मुद्दे पर राहुल गाँधी के साथ खड़े दिखे। कुछ राजनीतिक जानकार मानते हैं कि ख़ुद अपनी पार्टी के इस चुनाव में नैरेटिव बनाने में नाकाम रहने के कारण अब मोदी विपक्ष, ख़ासकर राहुल गाँधी के रोज़गार, किसान, महिला, युवा आदि के मुद्दों को दबाने के लिए ऐसे मुद्दे उछाल रहे हैं, जिससे जनता का ध्यान भटके। हालाँकि भाजपा के नेताओं को भरोसा है कि मोदी सोच-समझकर ही मुद्दे उठाते हैं और वह किसी भी तरह भाजपा को चुनाव जिता ही देंगे। लेकिन आज़ादी के बाद हुए चुनावों के नतीजे देखें, तो पाएँगे कि जनता कई बार पिछले चुनावों के आधार पर बनाये गये अनुमानों को ग़लत साबित करते हुए सत्ता को बदल देती है। यह भी देखा गया है कि जब भी कोई बड़ी पार्टी चुनाव के मुद्दों में बिखर जाती है, तो जनता उसे समर्थन देने से हिचकती है। भाजपा आज ऐसी ही स्थिति में खड़ी दिख रही है, जबकि कांग्रेस और राहुल गाँधी (इण्डिया गठबंधन) अपने मुद्दों पर शुरू से ही डटा हुआ है।
इसके विपरीत भाजपा के सबसे बड़े नेता मोदी बार-बार मुद्दे बदल रहे हैं। कभी विपक्षी नेताओं के भाषणों से कुछ उठाकर उन पर हमला कर रहे हैं, तो कभी ध्रुवीकरण वाले मुद्दे उठा रहे हैं। यदि ये मुद्दे चलते, तो मोदी को इन्हें बदलने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। यह इस बात से भी साबित होता है कि चुनाव के बीच में ही सरकार प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद् की एक रिपोर्ट सामने ले आयी, जिसमें दावा किया गया है कि सन् 1950 से 2015 के बीच देश में हिन्दुओं की तादाद 7.8 फ़ीसदी घट गयी है, जबकि मुसलमान आबादी 43.15 फ़ीसदी बढ़ी है। ज़ाहिर है चुनाव के बीच इस तरह की रिपोर्ट के आँकड़े सामने लाने, वह भी 2015 तक ही; यह ज़ाहिर करता है कि इसके राजनीतिक मायने हैं। हालाँकि इसका भी कुछ फ़$र्क चुनाव पर पड़ता नहीं दिख रहा।
यह चुनाव मंगलसूत्र और शहज़ादे से होता हुआ अडानी तक जा पहुँचा है। हो सकता है आने वाले समय में कुछ और आश्चर्यर्जनक देखने को मिले। अभी तो तीन बड़े चरण चुनाव के बाक़ी हैं। मतदान प्रतिशत और जनता ने इस चुनाव को रहस्य बना दिया है। नेता जितना इस रहस्य को खोलने की कोशिश कर रहे हैं, इसमें और उलझते जा रहे हैं। सचमुच 04 जून देश की राजनीति में बहुत बड़ा दिन होगा।
सुशील मोदी का निधन, 72 साल की उम्र में ली आखिरी सांस
नई दिल्ली : बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री व पूर्व राज्यसभा सांसद सुशील कुमार मोदी का निधन हो गया है।72 साल की उम्र में उन्होंने दिल्ली के AIIMS अस्पताल में आखिरी सांस ली।पिछले कुछ समय से वो कैंसर से जूझ रहे थे। बिहार की सियासत में सुशील मोदी एक अलग पहचान थी। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ उनकी जोड़ी काफी खास मानी जाती रही है। इस बीमारी के कारण वो पिछले कुछ समय से राजनीति से दूर भी थे।उन्होंने खुद कैंसर से संघर्ष करने की बात कही थी।
लोकसभा चुनाव के बीच सुशील कुमार मोदी का निधन बिहार बीजेपी के साथ-साथ राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए बड़ा धक्का है। पार्टी में उनकी सक्रियता काफी खास रही है।डिप्टी सीएम के अलावा राज्यसभा सांसद भी रह चुके हैं।तीन दशक के सार्वजनिक जीवन में राज्यसभा, लोकसभा, विधान परिषद और विधानसभा सहित सभी चार सदनों के सदस्य रह चुके थे।
सुशील मोदी का राजनीतिक करियर पटना विश्वविद्यालय में एक छात्र कार्यकर्ता के रूप में शुरू हुआ। वह 1973 में पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के महासचिव बने, लालू प्रसाद यादव जो बाद में उनके सबसे बड़े राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी बने, उस समय विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष थे। सुशील कुमार मोदी 1974 में बिहार प्रदेश छात्र संघर्ष समिति के सदस्य बने। ये वही छात्र संघर्ष समिति थी जिसने जिसने 1974 के प्रसिद्ध बिहार छात्र आंदोलन का नेतृत्व किया।
सुशील कुमार मोदी ने 1990 के आसपास सक्रिय राजनीति में कदम रखा।पटना सेंट्रल विधानसभा जो अब कुम्हार है, चुनाव लड़े और पहली बार विधायक बने। इसके बाद 1995 और 2000 में भी वो चुनाव लड़े और विधानसभा पहुंचे। सन 1996 से 2004 तक वह राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता की भूमिका में रहे।
2005 के बिहार चुनाव में जब एनडीए सत्ता में आई तो सुशील कुमार मोदी को बिहार बीजेपी विधायक दल का नेता चुना गया।तब उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया और बिहार के उपमुख्यमंत्री का पद संभाला जबकि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री थे।2010 में बिहार चुनाव में एनडीए की जीत के बाद सुशील मोदी डिप्टी सीएम पद पर बने रहे। 2017 में बिहार में जेडीयू-आरजेडी ग्रैंड अलायंस की सरकार के गिरने के पीछे भी सुशील कुमार मोदी की भूमिका मानी जाती है।बिहार के डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी ने राज्य के पूर्व डिप्टी सीएम सुशील कुमार मोदी के निधन पर दुख व्यक्त करते हुए उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी है। उन्होंने कहा कि यह बिहार बीजेपी के लिए अपूरणीय क्षति है। वहीं, डिप्टी सीएम विजय सिन्हा ने भी सुशील कुमार मोदी के निधन को पूरे बीजेपी संगठन परिवार के साथ-साथ मेरे जैसे असंख्य कार्यकताओं के लिए यह एक अपूरणीय क्षति बताया है।
तीस नक्सलियों ने किया समर्पण, 9 पर घोषित था 39 लाख का इनाम
छत्तीसगढ़ :बीजापुर जिले में 39 लाख रुपये के 30 इनामी माओवादियों ने आत्मसमर्पण कर दिया है।बीजापुर एसपी, सीआरपीएफ डीआइजी समेत आला पुलिस अधिकारियों के सामने माओवादी कानून की मुख्यधारा में शामिल हुए। पुनर्वास के तहत आत्मसमर्पण करने वाले सभी माओवादियों को 25-25 हजार रुपये नकद दिये गये।गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ राज्य में सरकार बदलते ही सरकार नक्सलियों के खात्मे की दिशा में आगे बढ़ रही है।साथ ही नक्सलियों से बातचीत कर उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने की भी पहल की जा रही है।
इन्होंने किया आत्मसमर्पण
बीजापुर जिले में 39 लाख मिलिट्री कंपनी नंबर 02 के पीपीसीएम, प्लाटून नंबर 32 के पीपीएसएम, पीएलजीए बटालियन नंबर 01 के सदस्य, प्लाटून नंबर 04 के सदस्य, जनतांर सरकार अध्यक्ष, डीएकेएएमएस अध्यक्ष सहित 30 माओवादियों ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।
पुलिस अधीक्षक जितेंद्र यादव ने बताया कि सभी ने माओवादियों की विचारधारा से क्षुब्ध होकर और छत्तीसगढ़ सरकार की आत्मसमर्पण एवं पुनर्वास नीति से प्रभावित होकर आत्मसमर्पण किया है। 09 माओवादियों पर 39.00 लाख रुपये का इनाम घोषित किया गया है।
उन्होंने कहा कि सफलता पर नजर डालें तो जनवरी से अब तक 180 माओवादियों को गिरफ्तार किया गया है और 76 माओवादियों ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया है। मुन्ना हेमला उर्फ चन्द्रू के विरूद्ध 18 स्थाई वारंट एवं मुन्ना पोटाम के विरूद्ध 06 स्थाई वारंट लंबित है। माओवादियों ने कहा कि संगठन में काम की उपेक्षा, भेदभावपूर्ण व्यवहार और माओवादियों द्वारा आदिवासियों पर किये जा रहे अत्याचार से तंग आकर और छत्तीसगढ़ सरकार की आत्मसमर्पण नीतियों से प्रभावित होकर भारत के संविधान में आस्था रखते हुए माओवादियों ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। आत्मसमर्पण करने पर उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए सरकार की आत्मसमर्पण एवं पुनर्वास नीति के तहत 25,000-25,000 (पच्चीस हजार रुपये) का नकद प्रोत्साहन दिया गया।
पुलिस कर्मियों से परेशान युवा दुकानदार ने आत्महत्या की
यूपी:कानपुर से हैरान करने वाली खबर सामने आया है।दरअसल दारोगा से परेशान होकर एक दुकानदार ने अपनी जान दी है। सुसाइड करने से पहले दुकानदार ने एक वीडियो बनाया है, जिसमें आरोप लगाया है कि इंस्पेक्टर और सिपाही ने सब्जी विक्रेता से न सिर्फ पैसे छीने बल्कि उसके साथ अभद्रता भी की। पुलिस वालों की हरकत से क्षुब्ध होकर उसने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। इस घटना के बाद पुलिस विभाग में हड़कंप मच गया। अधिकारियों ने जांच के आदेश दिये हैं।
आत्महत्या करने से पहले सब्जी विक्रेता ने अपना दर्द बयां किया है। उन्होंने इंस्पेक्टर पर बार-बार पैसे छीनने और गाली-गलौज कर अपमानित करने का आरोप लगाया है। मृतक का दर्दनाक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। उन्होंने सोमवार आधी रात को आत्महत्या कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। वीडियो देखने के बाद परिवार ने पुलिस प्रशासन को सूचना दी।
भीषण सड़क हादसा, कार सवार 6 लोगों की मौत
यूपी : बीती रात भीषण सड़क हादसा हुआ उत्तर प्रदेश के हापुड़ में, जिसमें कार सवार 6 लोगों की मौत हो गई है। एक शख्स गंभीर रूप से घायल हुआ है, जिसे मेरठ रेफर कर दिया गया है। मिली जानकारी के अनुसार, हादसा दिल्ली-लखनऊ नेशनल हाईवे-9 पर अल्लाहबख्शपुर टोल प्लाजा के पास हुआ।एक कार डिवाइडर तोड़कर सड़क के दूसरी तरफ चली गई और ट्रक से भिड़ गई। हादसा तेज रफ्तार के कारण कार के बेकाबू होने से हुआ। टक्कर इतनी जोरदार थी कि कार के परखच्चे उड़ गए। कार बुरी तरह पिचक गई और कार खून से सनी थी। उसमें सवार 6 लोग मारे गए। कार की हालत इतनी खराब थी कि काटकर शवों को निकालना पड़ा। एक शख्स कार से निकलकर सड़क पर गिरकर चोटिल हो गया।पुलिस सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, हादसा रात करीब साढ़े 12 बजे हुआ। कार गाजियाबाद से मुरादाबाद जा रही थी, लेकिन तेज स्पीड के कारण टोल के पास बैलेंस बिगड़ने से हादसा हो गया। टोल कर्मियों ने हादसे की सूचना पुलिस को दी। जानकारी मिलते ही पुलिस टीम मौके पर पहुंची और जांच की। राहगीरों ने एक घायल को संभाला हुआ था, जिसे एंबुलेंस बुलाकर अस्पताल पहुंचाया गया।
लाशों को लोगों की मदद से कार काटकर निकाला गया। पंचनामा कराकर पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल भेज दिया गया। दस्तावेजों के अनुसार, मृतकों के नाम अनुपम, अंकित, जीतू, शंकर, संदीप हैं। एक शख्स का नाम पता नहीं चला। वहीं घायल शख्स का नाम सचिन है, जो डालूहेड़ा मेरठ का रहने वाला है। प्राथमिक उपचार देकर उसे डॉक्टरों ने मेरठ रेफर कर दिया।
पुलिस सूत्रों के मुताबिक, हादसे में मारे गए लोग गाजियाबाद के लोनी एरिया निवासी बताए जा रहे हैं। वहीं मृतकों की उम्र 30 साल के आस-पास बताई जा रही है। पुलिस ने हादसे का केस दर्ज करके जांच शुरू कर दी है। ट्रक ड्राइवर को भी चोटें आई हैं। मृतकों की पूरी शिनाख्त के प्रयास जारी हैं।