New Delhi, India - September 14, 2013. An Indian man delivers pails of fresh milk to awaiting customers in the old part of the city.
योगेश
उत्तर प्रदेश सरकार ने दूध में मिलावट रोकने के लिए दूध विक्रेताओं को आईडी कार्ड बनवाने और 500 लीटर दूध उत्पादन वाली डेयरी मालिकों को रजिस्ट्रेशन कराना ज़रूरी कर दिया है। भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (fssai) ने मिलावटी चीज़ों को रोकने के लिए मुहिम चलाते हुए मिलावटी और नक़ली दूध की बिक्री रोकने के निर्देश दिये थे, जिसके बाद उत्तर प्रदेश के खाद्य सुरक्षा विभाग ने दूध में मिलावट रोकने के लिए सभी दूध विक्रेताओं से आईडी कार्ड बनवाने और 500 लीटर से ज़्यादा दूध के विक्रेताओं और डेयरी मालिकों से रजिस्ट्रेशन कराकर दूध बेचने का लाइसेंस लेने को कहा है। खाद्य सुरक्षा विभाग के सहायक आयुक्त डॉ. सुधीर कुमार सिंह ने बताया है कि उत्तर प्रदेश में अभियान चलाकर दूध बेचने वालों का पंजीकरण कराया जाना तय हुआ है, जिसके अंतर्गत दूध विक्रेताओं को अब आईडी कार्ड लेकर चलना होगा।
इसके अलावा 500 लीटर या इससे ज़्यादा दूध उत्पादन करने वाले डेयरी मालिकों और दूध बेचने वालों को रजिस्ट्रेशन कराकर लाइसेंस लेना होगा, जिसकी फीस 100 रुपये से लेकर 7,000 रुपये तक है, जो डेयरी के आकार, दूध की बिक्री और दूसरी स्थितियों के हिसाब से ली जाएगी। यह सब सरकार ने दूध में मिलावट रोकने के लिए किया है। इससे मिलावट करके दूध बढ़ाने वालों की पहचान हो सकेगी और कोई भी नक़ली या मिलावट वाला दूध और दूध से बनी खाने-पीने की नक़ली चीज़ें नहीं बेच सकेगा। दूध बेचने वालों की पहचान के लिए प्रदेश में अभियान चलाया जा रहा है।
खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन ने कुछ दिन पहले खेरागढ़ में नक़ली दूध बनाने की फैक्ट्री पकड़ी थी, जिसमें हर दिन कई कुंटल नक़ली दूध बनाकर लोगों के घरों तक पहुँचाया जा रहा था। पिछले साल डेयरियों, दूध बेचने वालों और चिलर प्लांट से खाद्य सुरक्षा विभाग ने एक ही ज़िले से 246 नमूने लेकर जाँच की, तो उसमें से लगभग आधे 119 सैंपल असली दूध की कसौटी पर फेल हो गये थे। कई जगह बड़ी मात्रा में नक़ली दूध भी पकड़ा गया था। यह हाल एक ज़िले का है, तो पूरे प्रदेश का क्या हाल होगा? इसी को देखते हुए अब दूध बेचने वालों को आईडी कार्ड देने और 500 लीटर या इससे ज़्यादा दूध उत्पादन करने वाली डेरी मालिकों को लाइसेंस देने की ज़रूरत खाद्य विभाग को महसूस हुई। आईडी कार्ड बनने ओर लाइसेंस देने के बाद मिलावटी और नक़ली दूध बेचने वालों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करते हुए उन्हें छ: महीने की सज़ा या 10,000 रुपये का ज़ुर्माना या दोनों हो सकते हैं। लाइसेंस न लेने या आईडी कार्ड न बनवाने वाले दूध विक्रेताओं और डेयरी मालिकों के ख़िलाफ़ भी कड़ी कार्रवाई की जाएगी। नक़ली दूध और नक़ली दूध से बनी चीज़ें बनाने और बेचने वालों के ख़िलाफ़ हर साल कड़ी कार्रवाई होती है; लेकिन इस पर पूरी तरह रोक नहीं लग सकी है। अब खाद्य विभाग इसे रोकने के लिए पूरी तैयारी कर रहा है।
इसके बाद भी अगर कोई बिना लाइसेंस के दूध बेचेगा, तो उसके ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज होगा और मनमानी की पुष्टि होने पर 2,00,000 रुपये तक का ज़ुर्माना लगाने का प्रावधान होगा, जो ग़लती के हिसाब से कम या ज़्यादा हो सकता है। लाइसेंस लेने वालों और आईडी कार्ड बनवाने वालों को आधार कार्ड की कॉपी, पासपोर्ट साइज के तीन-चार फोटो, आधार से जुड़ा मोबाइल नंबर, पता आदि फार्म में संलग्न करना होगा। दूध बेचने वालों और डेयरी मालिकों को फार्म भरने के 24 से 48 घंटे में आईडी कार्ड और लाइसेंस मिल जाएगा। अगर कोई आईडी कार्ड बनवाकर 500 लीटर या उससे ज़्यादा दूध बेचता पकड़ा जाएगा, तो उस पर भी सख़्त कार्रवाई होगी। खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन के खाद्य सुरक्षा अभियान के तहत नक़ली और मिलावटी खाने-पीने की चीज़ों की पहचान का व्यापारियों को प्रशिक्षण दे रहा है। इसके तहत नक़ली और मिलावटी दूध और उससे बनी खाने-पीने की चीज़ों की पहचान भी करायी जा रही है। इस प्रशिक्षण के लिए छोटे व्यापारियों को शुल्क के रूप में 200 रुपये और बड़े व्यापारियों को 708 रुपये जमा करने पड़ रहे हैं। असली और नक़ली के अलावा मिलावटी चीज़ों की पहचान करने के लिए दूध, दूध से बनी दूसरी खाने-पीने की चीज़ें, खाना, मिठाई, पेय और मीट की पहचान करायी जा रही है, जिसमें डेयरी, होटल-रेस्टोरेंट, मिष्ठान भंडार के अलावा अन्य खाद्य पदार्थ और पेय सामग्री से जुड़े व्यापारी प्रशिक्षण ले सकते हैं।
उत्तर प्रदेश के खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन विभाग ने उपभोक्ताओं से भी अपील की है कि वे दूध लेते समय विक्रेता का आईडी कार्ड या लाइसेंस ज़रूर देखें, तब दूध लें। अगर कोई दूधिया अपना आईडी कार्ड या लाइसेंस नहीं दिखाता है या नक़ली या मिलावटी दूध या दूध से बने उत्पाद बेचने वाला नज़र आता है, तो टोल फ्री नंबर- 18001805533 पर सुबह 10:00 बजे से शाम 6:00 बजे तक सोमवार से शुक्रवार पाँच दिन शिकायत करके उसे सज़ा दिलाने में मदद करें।
लोकसभा में केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल नक़ली और मिलावटी दूध को लेकर सवाल उठा चुकी हैं। उन्होंने लोकसभा में कहा था कि दूध और दूध से बनी खाने-पीने की चीज़ों में मिलावट के सबसे ज़्यादा मामले उत्तर प्रदेश से आते हैं। इसके बाद से दूध और दूध से बनी खाने-पीने की चीज़ों की शुद्धता सुनिश्चित करने के लिए खाद्य सुरक्षा विभाग ने कमर कस ली और दूध बेचने वालों से लेकर दूध से बनी खाने-पीने की चीज़ें बेचने वालों की पहचान में जुट गया। यहाँ सवाल यह भी उठ रहा है कि उत्तर प्रदेश में ज़्यादातर पशुपालक छोटे स्तर पर ख़ुद ही गाँवों, क़स्बों और शहरों में दूध बेचने का काम करते हैं। उनके पास दूध असली होता है; लेकिन पानी ज़्यादातर दूध विक्रेता मिलाते हैं। इससे जाँच करने वालों को उन्हें ग़लत साबित करने का मौक़ा मिल जाएगा और वो उनसे रिश्वत लेना शुरू कर देंगे। दूध पहले ही पशुपालकों के लिए घाटे का सौदा बना हुआ है। अगर कोई पशुपालक असली दूध बेचेगा, तो उसे दूध देने वाले पशु की ख़ुराक भी नहीं मिलेगी। क्योंकि एक गाय या भैंस के दूध से बहुत ज़्यादा फ़ायदा पशुपालक को नहीं होता है।
पिछले साल उत्तर प्रदेश में योगी के शासन वाली सरकार ने देसी गाय पालन को बढ़ावा देने के लिए नंदिनी कृषक समृद्धि योजना लागू की थी, जिसका उद्देश्य दूध उत्पादन बढ़ाने और गायों की देसी नस्लें बचाने व बढ़ाने का था; लेकिन यह योजना सरकार की उम्मीद के मुताबिक सफल नहीं हुई। अब प्रदेश सरकार इस पर उतना काम भी नहीं कर रही है। इस योजना के तहत दलालों और बड़े पशुपालकों ने ख़ूब सरकारी पैसा हड़पा और उस पैसे का उपयोग अपने दूसरे कामों में कर लिया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ख़ुद नंदिनी कृषक समृद्धि योजना की शुरुआत की थी, जिसके तहत प्रदेश सरकार ने किसानों को 25 स्वदेशी दुधारू गायों को पालने को कहा था, जिसमें साहीवाल गाय, गिर गाय, थारपारकर गाय और गंगातीरी गाय पालने को कहा गया था।
इस योजना में 62 लाख 50,000 रुपये की लागत सरकार ने निर्धारित की थी, जिसमें से 31 लाख 25,000 रुपये की सब्सिडी तीन बार में देने की योजना रखी गयी। लेकिन इस योजना में दलालों और चालाक डेयरी मालिकों ने ख़ूब पैसा बनाया। इस योजना के तहत डेयरी के लिए आधा एकड़ ज़मीन और गायों के चारे के लिए 1.5 एकड़ ज़मीन वालों को ही लाभ दिया जाना था, जिससे छोटे किसानों और छोटे पशुपालकों को इसका कोई लाभ नहीं मिल सका।
ऐसे ही ही उत्तर प्रदेश सरकार ने नाबार्ड डेयरी योजना का भी ऐलान किया था; लेकिन यह योजना धरातल पर ही नहीं उतर सकी और अब ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश सरकार ही इस योजना को भूल चुकी है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का उत्तर प्रदेश में दूसरी बार शासन है; लेकिन प्रदेश में डेयरी विकास और पशुपालन की गतिविधियाँ ठप पड़ी हुई हैं। गाय को माता कहकर उसके संरक्षण की बात करने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रदेश में गोकशी तक नहीं रोक पा रहे हैं। गायों की दुर्दशा उनके मारे-मारे फिरने से ही देखी जा सकती है।
सन् 2013 में दुग्ध उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए अखिलेश यादव के शासन वाली उत्तर प्रदेश सरकार ने कामधेनु योजना शुरू की थी। इसके बाद 2014 में छोटे पशुपालकों के लिए मिनी कामधेनु योजना और 2015 में एकाध पशु पालने वालों को देखते हुए माइक्रो कामधेनु योजना अखिलेश यादव के शासन वाली उत्तर प्रदेश सरकार ने चलायी थी। लेकिन सन् 2017 में भाजपा की सरकार उत्तर प्रदेश में बनी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बने, तो उन्होंने एक सप्ताह के भीतर सबसे पहले अपनी पूर्ववर्ती सरकार की कई योजनाओं की तरह कामधेनु योजना को भी ख़त्म कर दिया।
रही-सही कसर गौरक्षा के एजेंडे ने निकाल दी, जिसमें गौरक्षकों के डर से लोगों ने गायों को पालना कम कर दिया। कई लोगों ने गायों का पालन ही बंद कर दिया। गौरक्षा के लिए योगी आदित्यनाथ के शासन वाली उत्तर प्रदेश सरकार ने गौशालाओं को खोलना शुरू किया; लेकिन आज उत्तर प्रदेश में गौशालाओं की दशा भी अच्छी नहीं है। आज गौमांस से लेकर दूसरे मीट निर्यात में पूरे देश में उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी हिस्सेदारी है, जो लगातार बढ़ती जा रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश से होने वाले कुल मीट निर्यात का 50.34 प्रतिशत हिस्सा उत्तर प्रदेश से ही निर्यात होता है।
जम्मू : जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव 2024 को लेकर कांग्रेस ने अपनी प्रचार की शुरुआत कर दी है। कांग्रेस ने पहले चरण के चुनाव प्रचार के लिए स्टार प्रचारक के रूप में राहुल गांधी को उतारा है। जम्मू के रामबन में जनसभा को संबोधित करते हुए कांग्रेस सांसद राहुल गांधी बीजेपी पर जमकर बरसे और जम्मू-कश्मीर के लोगों को स्टेटहुड वापस दिलाने का वादा किया।
उन्होंने कहा कि बीजेपी आज देश में नफरत फैला रही है। उनका काम नफरत फैलाने का है लेकिन हमारा काम मोहब्बत फैलाने का है। राहुल गांधी ने कहा कि नफरत को मोहब्बत से ही काटा जा सकता है। उन्होंने कहा कि देश में राज्यों का बंटवारा तो कई बार हुआ लेकिन पहली बार स्टेटहुड को छीना गया। जम्मू कश्मीर का स्टेटहुड छीना गया है। राहुल गांधी ने वादा किया है कि वह जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा वापस दिलाएंगे। उन्होंने बीजेपी और केंद्र पर यह कर निशाना साधा कि यहां केवल राज्य को ही समाप्त नहीं किया गया बल्कि लोगों का अधिकार भी छीना गया। राहुल ने कहा कि हम चाहते थे कि पहले आपको राज्य का दर्जा वापस मिले फिर चुनाव हो, लेकिन बीजेपी ये नहीं चाहती है। उनका कहना है पहले चुनाव होगा फिर राज्य के दर्जे पर बात होगी।
राहुल गांधी ने कहा कि लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी छाती चौड़ी कर के आते थे, अब उनके कंधे झुक गए हैं। इस बार उन्होंने संसद में घुसने से पहले संविधान माथे पर लगाया और फिर अंदर गए।
राहुल गांधी ने जम्मू-कश्मीर के लोगों से कहा कि आज आपका धर्म और आपका सब कुछ आपसे छीना जा रहा है और सारा फायदा बाहर के लोगों को मिल रहा है। उन्होंने कहा कि स्थानीय लोगों को बिजली के प्रोजेक्ट का फायदा नहीं मिल रहा। बिजली के प्रोजेक्ट का फायदा यहां के लोगों को मिलना चाहिए। उन्होंने कहा कि आप देश के लोगों को बिजली दे रहे हैं लेकिन आपकी जेब से बिजली का पैसा लिया जा रहा है।
राहुल गांधी ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में पहले राजा होते थे, 1947 में हमने राजाओं को हटाकर लोकतांत्रिक सरकार बनाई और देश को संविधान दिया। लेकिन अब फिर से यहां राजा का शासन हो गया है। राहुल गांधी ने इसी के साथ यहां के एलजी पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि अब एलजी यहां के राजा हैं। इसीलिए हमारा पहला कदम जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा वापस दिलाना है।
सिटी ऑफ जॉय कहलाने वाले कोलकाता में घूमने का मतलब इतिहास के साथ-साथ चलना है। लेकिन आरजी कर मेडिकल कॉलेज में ड्यूटी के दौरान एक प्रशिक्षु महिला डॉक्टर के साथ हुए बलात्कार व हत्या की दिल दहला देने वाली घटना ने कोलकाता की रंगत पर एक दाग़ लगा दिया। लेकिन महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले हर अपराध के दाग़ को राज्य सरकारों, ख़ासकर केंद्र सरकार को एक ही नज़रिये से देखना होगा।
कोलकाता की घटना के बाद कई राज्यों के कई शहरों में महिलाओं के साथ जिस प्रकार की वहशियों की तरह अपराधियों ने यौन उत्पीड़न की घटनाओं को अंजाम दिया है, उससे महिला सुरक्षा के क़ानून और सरकारों की महिला सुरक्षा की प्राथमिकता पर सवाल खड़े होते हैं। लेकिन कोलकाता में प्रशिक्षु महिला डॉक्टर के साथ हुए बलात्कार व हत्या की बर्बर घटना के बाद समूचे देश में जो रोष, प्रदर्शन देखने को मिला, वही रोष दूसरी बलात्कार की घटनाओं में देखने को क्यों नहीं मिला? क्यों कोई राजनीतिक पार्टी हर घटना को तेरे-मेरे के नज़रिये से ही देखती है? कहीं की भी आपराधिक घटना हो, सभी में अपराधियों को सज़ा देने के लिए देश में समान क़ानून ही है ना? फिर हर घटना को अलग-अलग नज़रिए से क्यों देखा जाता है? क्यों कुछ लोग, ख़ासकर नेता उन्हें दो आँखों से देखते हैं?
दुनिया की पाँचवीं अर्थव्यवस्था का रुतबा दिखाने वाली इस देश की सरकार को देश में बलात्कार महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर होने वाले अपराध समान रूप से दिखने चाहिए और समान रूप से हर मामले में कार्रवाई होनी चाहिए। दरअसल इसके असली आँकड़े जनता के सामने आते ही नहीं; क्योंकि सरकारें इस अपराध के प्रति उस स्तर पर संवेदनशील व गंभीर नहीं हैं, जितना उन्हें होना चाहिए। बलात्कार के प्रति जो नज़रिया होना चाहिए, वह भी नदारद है। दरअसल देश में क़रीब 69 करोड़ आधी आबादी है। और राजनीतिक दल इन्हें कई तरह से अपना-अपना वोट बैंक बनाने की होड़ में लगे हुए हैं।
नेता अक्सर कहते हैं कि स्त्री का अपमान करना देश का अपमान है और स्त्री का सम्मान देश का सम्मान है। लेकिन जब स्त्रियों के साथ बलात्कार की ख़बरें आती हैं और कुछ मामले देश भर में सु$िर्खयाँ बटोरते हैं, तो यही राजनेता, चाहे वे किसी भी दल के क्यों न हों; सेलेक्टिव एप्रोच के साथ सामने आते हैं। अति संकीर्ण यह नज़रिया किसी भी सूरत में स्त्रियों के हित में नहीं है। ऐसे मामलों में सियासत से बचना चाहिए।
यह सही है कि लोकतंत्र में विपक्ष कई मर्तबा सत्तारूढ़ दल पर कई गंभीर मुददों पर दबाव डालकर सार्थक भूमिका निभाता है। कोलकाता वाले मामले में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने उनके सूबे में होने वाले प्रदर्शन को वाम-राम से प्रेरित बताया। वह ख़ुद पीड़िता के परिवार को इंसाफ़ दिलाने के लिए सड़क पर उतरीं और प्रधानमंत्री मोदी को एक पत्र भी लिखा, जिसमें महिलाओं की सुरक्षा संबंधित क़ानूनों को और कड़ा बनाने की माँग की। लेकिन भाजपा रोज़ ममता बनर्जी को कटघरे में खड़ा कर रही है। वामपंथी भी इस घटना के ज़रिये अपनी रणनीति के तहत वहाँ के राजनीतिक माहौल को अपने हित में साधने की कोशिश में लगे हैं।
हाल के वर्षों में बलात्कार की कई ऐसी घटनाओं का ज़िक्र करना ज़रूरी है, जहाँ पर सियासत ख़ूब हुई और दो धड़े बन गये थे। 19 साल की दलित लड़की के साथ उत्तर प्रदेश के हाथरस में सामूहिक बलात्कार की घटना का राजनीतिक इस्तेमाल हुआ। भाजपा सवाल पूछ रही है कि प्रतिपक्ष नेता राहुल गाँधी हाथरस गये थे; क्योंकि वहाँ भाजपा की सरकार है। क्या वह पश्चिम बंगाल जाएँगे? जहाँ पर ममता बनर्जी मुख्यमंत्री है। पर इसके साथ यह भी ध्यान में आता है कि उत्तराखण्ड में भी हाल के दिनों में सामूहिक दुष्कर्म का मामला सामने आया है, पर वह महज़ एक ख़बर बनकर रह गया।
भाजपा ने वहाँ महिलाओं की सुरक्षा के सवाल पर आँखें मूँद लीं। हरियाणा में बीते 10 साल से भाजपा की सरकार है। वहाँ बलात्कार के जुर्म में 20 साल की सज़ा काट रहा राम रहीम कैसे बार-बार पैरोल पर जेल से बाहर आता रहता है? इन दिनों भी वह सज़ायाफ़्ता अपराधी 02 सितंबर, 2024 तक पैरोल पर बाहर है। सन् 2017 में सज़ा सुनायी गयी थी और तबसे अब तक उसने 235 दिन जेल से बाहर बिताये हैं। हरियाणा में विधानसभा चुनाव हैं और इस पैरोल को चुनावी मौसम से जोड़कर देखा जा रहा है। आरोपियों, अपराधियों की राजनीतिक दलों से घनिष्ठता और उनके बचाव में होने वाली सियासत पर सोचने की ज़रूरत है।
इस सबके साथ-साथ एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, 151 मौज़ूदा सांसदों व विधायकों पर महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध से सम्बन्धित मामले दर्ज हैं। सवाल यह है कि जब राजनीतिक पार्टियों के ही सांसद और विधायक महिलाओं पर अत्याचार करने में गले तक लिप्त हैं, तो देश में होने वाली आपराधिक घटनाओं को ये लोग कैसे रोकेंगे? हो सकता है कि अपराध करने वाले नेता अपराधियों को बी संरक्षण देते हों? सज़ा तो हर अपराधी को होनी चाहिए, चाहे फिर वह कोई हो।
मुंबई एक ऐसा बिजी शहर है, जहाँ किसी को किसी का हाल जानने की फ़ुरसत नहीं है। इसी का फ़ायदा उठाकर बड़े-बड़े माफ़िया, अपराधी, तस्कर और ठग मुंबई में छुपकर सारे अवैध धंधे करते हैं, जिनमें ज़्यादातर महिलाओं और लड़कियों का शारीरिक शोषण करने वाले भी हैं। पर इनमें से कुछ ऐसे अपराधी भी हैं, जो चेहरे पर शराफ़त की नक़ाब ओढ़ी हुई है। ऐसे अपराधी बिजनेसमैन और नेताओं में भी हैं, जो रसूख़दार और मोटी असामी हैं, जिनकी सरकार और पुलिस में अच्छी पकड़ है। ऐसे लोग क़ानून के लंबे हाथों से भी बचे रहते हैं।
ऐसे ही एक शख़्स का नाम सागर रमाकांत जोशी उर्फ़ सागर जोशी है, जिस पर महिलाओं का यौन शोषण करने के आरोप हैं। सागर जोशी पर माननीय अदालत में मुक़दमा भी चल रहा है। सरकार में अच्छी पकड़ वाला असामी सागर जोशी कुछ साल पहले इतना पैसे वाला नहीं था, लेकिन जबसे उसने एमएलएम मार्केटिंग वाला कस्टमर सेवा का धंधा शुरू किया है, वो अमीर होता चला गया। उसके कुछ कर्मचारियों से जो जानकारी मुझे मिली, उससे पता चला कि सागर जोशी जब किसी से मिलता है, तो एक सीधा, भोला और हंसमुख इंसान बनकर मिलता है। लेकिन अपने ही कर्मचारियों, ख़ासकर महिला कर्मचारियों के प्रति उसका रवैया कुछ और ही है। उस पर अपनी ही महिला कर्मचारियों के साथ बलात्कार और दुर्व्यवहार करने के आरोप हैं।
अमूमन मुंबई से लेकर बेंगलूरु के थाने तक में सागर जोशी के ख़िलाफ़ एफआईआर भी दर्ज हैं। लेकिन फिर भी यह शख़्स बिना किसी टेंशन के अपना धंधा हँसी-ख़ुशी से करके काफ़ी धन जुटा चुका है। सागर जोशी पहले गिरफ़्तार हो चुका है। लेकिन अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आ रहा है। इसकी पुष्टि तब और हो गयी, जब उसकी कम्पनी में काम करने वाली एक तलाक़शुदा महिला कर्मचारी, जो किराये के मकान में अपने एक बच्चे और अपनी माँ का पेट पालती है; को सागर जोशी की सच्चाई पता चली। इस महिला कर्मचारी को एक अख़बार के ज़रिये पता चला कि जिसे वह देवता मानती है, वह बलात्कार का आरोपी है। कई लोग सागर को देवता मानते हैं। लेकिन जब उसकी इस महिला कर्मचारी ने सागर जोशी को सूचित किया कि सर आपके ख़िलाफ़ मीडिया में मामला आ चुका है, जो आगे चलकर सोशल मीडिया के ज़रिये यदि सरेआम हो जाएगा, तो हमारा क्या होगा? आप तो हमारे अन्नदाता हैं। हम सब आपको भगवान मानते हैं। इस पर आपको गंभीरता से ग़ौर करना चाहिए।
इस पर महिला कर्मचारी के साथ भी शारीरिक दुर्व्यवहार करते हुए सागर जोशी ने महिला से कहा कि ‘मेरा कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता, भले मुझ पर अदालत में बलात्कार का मामला दर्ज है। पॉवर, पुलिस और पैसा मेरी जेब में हैं।’ कुछ दिन चुप्पी साधने के बाद सागर जोशी ने उलटा महिला कर्मचारी के ख़िलाफ़ ही काशीमीरा पुलिस थाने में ब्लैकमेल करने और फिरौती माँगने की एफआईआर दर्ज करा दी। इससे महिला काफ़ी डर गयी और अपनी नौकरी छोड़ने का मन बना बैठी। उसे डर हो गया। पुलिस ने भी बिना तफ़्तीश किये महिला को बार-बार थाने बुलाकर प्रताड़ित किया। फिर कुछ पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ता एवं वकील की मदद लेकर महिला थाने पहुँची और उसने अपनी तरफ़ से भी पूरी सच्चाई लिखकर थाने में देकर सागर जोशी के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज करायी। शिकायत में कहा कि सागर पैसे और पॉवर से मज़बूत है, जो मेरे साथ कोई अनहोनी न कर दे।
ग़ौरतलब है कि मैंने सागर जोशी जैसे लोगों की गतिविधियों पर पैनी नज़र रखते हुए पिछले छ: महीने से जानकारी हासिल की है। तीसरी आँख की तरह जब मुझे सागर जोशी पर बलात्कार का मुक़दमा चलने और अपनी ही कर्मचारी को धमकाने और शारीरिक अभद्रता का मामला पता चला, तो न्यायालय सम्बन्धी मालूमात करते हुए सम्बन्धित काग़ज़ात इकट्ठा किये। इन काग़ज़ात में सागर जोशी की हक़ीक़त और मुंबई की एक अदालत में बलात्कार के मुक़दमे के साक्ष्य हैं। संदेह है कि जिस महिला कर्मचारी पर सागर ने फिरौती का मुक़दमा दर्ज करवाया है, उसके अलावा दफ़्तर की अन्य महिलाओं के साथ भी उसने शारीरिक शोषण किया न हो? क्योंकि सागर जोशी पर अदालत में चल रहे बलात्कार के मुक़दमे की एक मेडिकल जाँच रिपोर्ट के अनुसार, ऐसा नहीं कहा जा सकता कि पीड़िता का बलात्कार सागर जोशी ने न किया हो। सागर के ख़िलाफ़ चल रहे मुक़दमे और एफआईआर के काग़ज़ मेरे पास हैं और उसी आधार पर यह रिपोर्ट पेश की गयी है।
हमें नहीं पता कि मुंबई में सागर जोशी जैसे और कितने लोग हैं? लेकिन जितने भी हैं, उनके ख़िलाफ़ सही तरीक़े से कार्रवाई होनी चाहिए। क्योंकि कार्रवाई न होने के चलते ये लोग अपने दाएँ-बाएँ रहने वाली महिला का यौन शोषण तक करते रहते हैं और उनका कुछ नहीं बिगड़ता। हमारी मुंबई पुलिस के साथ-साथ देश भर की पुलिस से विनती है कि ऐसे दरिंदों को किसी भी हाल में न बख़्शे, ताकि मुंबई समेत पूरे देश में महिलाएँ ख़ुद को सुरक्षित महसूस कर सकें। वैसे भी मुंबई, बदलापुर और दूसरे कई शहरों में महिलाओं पर अत्याचार की घटनाओं ने हाहाकार मचा रखा है।
देश में बच्चियों से लेकर बुजुर्ग महिलाओं तक के साथ हो जाती है दरिंदगी !
आज देश में दो-तीन महीने से लेकर 70 साल की वृद्धाओं तक की अस्मत की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। एक तरफ़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर चुनाव में बड़े गर्व से देश भर के लोगों को ज़ुबानी गारंटियों की झड़ी लगाते हैं, तो दूसरी तरफ़ महिला सुरक्षा की गारंटी उनकी गारंटी की तरह ही खोखली साबित हो रही है। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी का बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ का नारा लोगों को सतर्क करने के लिए है कि अपनी-अपनी बेटी बचा सको, तो बचा लो। सवाल यह है कि देश में इतनी गुंडागर्दी फैल कैसे रही है? बच्चियों से लेकर महिलाओं तक के साथ जो दरिंदगी हो रही है, उसके लिए ज़िम्मेदार कौन-कौन है? एक मनोचिकित्सक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि जब किसी महिला पर कोई अपराध होता है, तो उसमें पाँच तरह के अपराधी होते हैं। पहला अपराधी वो होता है, जो अपराध करने वाला है। दूसरे वो लोग अपराधी हैं, जो अपराधियों को पहचान लेने के बाद भी पुलिस को नहीं बताते। तीसरे नंबर के अपराधी वो लोग हैं, जो अपराध होने के बाद चुप रहते हैं। चौथे नंबर के अपराधी वे लोग हैं, जो क़ानूनी तौर पर अपराध रोकने के लिए तैनात हैं; लेकिन अपराध नहीं रोक पाते। और पाँचवे अपराधी के रूप में वो सरकार होती है, जिसके शासन में अपराध होता है। जब कहीं कोई अपराध हो, तो इन पाँचों तरह के अपराधियों को सज़ा मिलनी चाहिए।
आज भारत के कई राज्यों में बलात्कार की दहला देने वाली घटनाएँ हो रही हैं, और रोकने के बजाय उन पर राजनीति हो रही है। सही आँकड़ों को देखें, तो देश हर घंटे में सैकड़ों बलात्कार होते हैं, जिनमें से मुश्किल से चार फ़ीसदी मामले पुलिस के पास आते हैं। आज देश का ऐसा कोई शहर नहीं है, जहाँ हर रोज़ 10-20 बलात्कार न होते हों। ये बलात्कार कहीं घर में, तो कहीं बाहर होते हैं। लेकिन ज़्यादातर महिलाएँ और लड़कियाँ इसे नियति समझकर ख़ामोश रह जाती हैं; लेकिन ये ख़ामोश रहने वाली महिलाएँ यह नहीं समझतीं कि इनके ख़ामोश रहने से ही अपराधियों के हौसले बुलंद रहते हैं। पुलिस अगर अपनी ड्यूटी को अपना फ़ज़र् मानकर सुरक्षा व्यवस्था में लग जाए, तो बलात्कार ही नहीं, हर तरह के अपराध पर रोक लग सकती है। लेकिन ऐसा नहीं होता और तकलीफ़ तो तब होती है, जब कई अपराध पुलिस थाने और पुलिस चौकी के आसपास हो जाते हैं। आज मणिपुर से लेकर कई राज्यों में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध हो रहे हैं; लेकिन इन अपराधों को रोकने के लिए बने क़ानून और क़ानून के रखवाले क़ानून के पुतले की तरह हाथ में न्याय की तराजू तो दिखा रहे हैं; लेकिन आँखों पर काली पट्टी बाँधे हुए हैं।
हाल की घटनाओं पर नज़र डालें, तो पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में ट्रेनी डॉक्टर के साथ हुई बलात्कार और हत्या की घटना के बाद तो देश भर में बलात्कारों की घटनाओं की झड़ी लग गयी। लेकिन दूसरी तरफ़ कहीं बलात्कारियों को जमानत मिल जाती है, कहीं उनके ख़िलाफ़ दर्ज केस वापस लिए जाते हैं, तो कहीं पीड़ित महिलाओं के साथ ही बदसलूकी करतेे हुए उन्हें और परेशान किया जाता है। अभी कुछ दिन पहले महाराष्ट्र के बदलापुर के एक स्कूल में दो नाबालिग़ बच्चियों से बलात्कार की ख़बर आयी। इसी राज्य के अकोला में स्कूल की ही बच्चियों से छेड़छाड़ की घटना हुई, जिसके बाद आम जनता ने सड़कों पर उतरकर विरोध-प्रदर्शन करके दोषियों को फाँसी देने की माँग की। लेकिन आज फाँसी किस आरोपी को होती है। अब तो बलात्कारियों और हत्यारों के बचाव में ही रैलियाँ निकाली जाती हैं। राजनीतिक पार्टियाँ अपने-अपने अपराधी नेताओं और अपने-अपने अपराधी समर्थकों का बचाव खुलकर करती हैं। देश की एक बड़ी पार्टी ने खुलकर अपने आपराधिक आरोपों से घिरे नेताओं और समर्थकों को खुलकर बचाने का काम किया है।
हाल ही की कुछ घटनाओं का ज़िक्र करें, तो अभी 24 अगस्त को हरियाणा के महेंद्रगढ़ सदर थाना क्षेत्र से एक महिला ग़ायब हो गयी। 24 अगस्त को ही असम के नागांव ज़िले में नाबालिग़ लड़की से सामूहिक बलात्कार के आरोपियों को पकड़ा, तो उनमें से तफ़ज़्ज़ुल इस्लाम नाम का आरोपी भागने लगा और पानी में गिर गया, जिससे उसकी मौत हो गयी। 24 अगस्त को ही महाराष्ट्र में एक नाबालिग़ लड़की के बलात्कार के आरोपी तस्लीम ख़ान को जैसे ही जमानत मिली, पीड़ित लड़की ने आत्महत्या कर ली। कहा जा रहा है कि जमानत पर छूटने पर आरोपी नाबालिग़ लड़की को फिर से परेशान कर रहा था। उसे उसके परिवार वालों को मारने की धमकी दे रहा था। दहीवड़ी पुलिस ने आईपीसी की धारा-107 के तहत मामला दर्ज करके आरोपी को फिर से गिरफ़्तार किया है। देश के कई राज्यों में महिलाओं के ख़िलाफ़ अत्याचार की घटनाओं का अंत ही नहीं है। डेढ़ साल से हिंसा की आग में सुलग रहे मणिपुर में तो महिलाओं के साथ जो हुआ है, उससे पूरा देश शर्मिंदा हुआ; लेकिन ऐसा लगता है कि मणिपुर की और केंद्र की सरकारों को इससे शर्मिंदगी नहीं हुई। शर्मिंदगी होगी भी कैसे? जब आज कई नेता ही दज़र्नों आपराधिक घटनाओं में आरोपी हैं।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक 300 पन्नों की रिपोर्ट के मुताबिक, मौज़ूदा समय में 151 मौज़ूदा विधायकों और सांसदों के ख़िलाफ़ महिला उत्पीड़न के मामले दर्ज हैं, जिनमें से 16 सांसद हैं और 135 विधायक हैं। ये सभी 23 अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के हैं। देश के कुल 4,809 मौज़ूदा सांसदों और विधायकों में से 4,693 के चुनाव आयोग को सौंपे गये हलफ़नामों के संयुक्त अध्ययन में एडीआर और नेशनल इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट के आधार पर यह रिपोर्ट जारी हुई है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, इन सांसदों और विधायकों पर बलात्कार से लेकर महिलाओं से छेड़छाड़, उनके साथ बदतमीजी-मारपीट, नाबालिग़ लड़कियों को वेश्यावृत्ति में धकेलने, उनकी ख़रीद-फ़रोख़्त करने और घरेलू हिंसा जैसे आपराधिक मामले दर्ज हैं। महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध करने वाले इन सांसदों और विधायकों में 54 सांसद और विधायक तो अकेले भाजपा के हैं, जो सबसे ज़्यादा क़रीब 40 प्रतिशत हैं। इसके अलावा कांग्रेस के 23 सांसद और विधायक, तेदेपा यानी तेलुगु देशम पार्टी के 17, आम आदमी पार्टी के 13 हैं। बाक़ी दूसरी पार्टियों के हैं।
केंद्र सरकार के साल 2023 के आँकड़े बताते हैं कि भारत में आये दिन महिलाओं और लड़कियों के अपहरण के मामले तेज़ी से बढ़े हैं। साल 2023 में संसद में केंद्रीय गृह मंत्रालय के द्वारा पेश किये आँकड़ों के मुताबिक, भारत में साल 2019 से साल 2021 के बीच महज़ तीन साल में क़रीब 13.13 लाख महिलाएँ और लड़कियाँ ग़ायब हुई हैं। इनमें से सबसे अधिक 1,60,180 महिलाएँ और 38,234 लड़कियाँ मध्य प्रदेश से ग़ायब हुई हैं। इसके अलावा पश्चिम बंगाल से 1,56,905 महिलाएँ और 36,606 लड़कियाँ ग़ायब हुईं। महाराष्ट्र से1,78,400 महिलाएँ और 13,033 लड़कियाँ ग़ायब हुईं। ओडिशा से 70,222 महिलाएँ और 16,649 लड़कियाँ ग़ायब हुईं। छत्तीसगढ़से 49,116 महिलाएँ और 10,187 लड़कियाँ ग़ायब हुईं। दिल्ली से 61,054 महिलाएँ और 22,919 लड़कियाँ ग़ायब हुईं। जम्मू-कश्मीर से 8,617 महिलाएँ और 1,148 लड़कियाँ ग़ायब हुईं। इसमें उत्तर प्रदेश के आँकड़े नहीं हैं। साल 2021 में एक आरटीआई के जवाब में मिली जानकारी के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में हर दिन तीन लड़कियाँ ग़ायब होती हैं। इस जानकारी के मुताबिक, उत्तर प्रदेश से एक साल कुल 1,763 बच्चे ग़ायब हुए, जिनमें से 1,166 लड़कियाँ थीं। इनमें से 12 से 18 साल की 1,080 लड़कियाँ थीं। हालाँकि पुलिस के मुताबिक, 1166 लड़कियों में से 966 लड़कियाँ ढूँढ निकाली थीं, जबकि 200 का पता नहीं चल पाया था।
साल 2019 से साल 2021 के बीच तीन साल में भारत से ग़ायब हुई 10,61,648 महिलाएँ और लड़कियाँ में बालिग़ यानी 18 साल से ज़्यादा उम्र की थीं। जबकि 18 साल से कम उम्र की लड़कियों की संख्या 2,51,430 है। एक लोकतांत्रिक देश और न्याय की गारंटी देने वाली सरकार के शासन में महिलाओं और लड़कियों के ग़ायब होने की स्पीड इतनी ज़्यादा है कि इस अपराध को समझने और अपराधियों को पकड़ने में समय नहीं लगना चाहिए; लेकिन इतना बड़ा और गंभीर मुद्दा आज केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों और चुनावों में पार्टियों की गारंटियों से बाहर ही दिखता है।
भारत को विकसित और राम राज्य जैसा शासन बताने वाली भाजपा सरकारों को इस ओर ध्यान देना चाहिए और समय रहते महिला उत्पीड़न की इन घटनाओं पर रोक लगानी चाहिए। भारत में कड़े क़ानून हैं; लेकिन सज़ा देने की रफ़्तार बढ़ाते हुए सज़ा को और सख़्त करना चाहिए। देश भर में महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते अपराधों पर राजनीति करने से अच्छा है, अपराधियों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की जाए। सरकारों, पुलिस प्रशासन, अदालतों के अलावा समाज और परिवार की भी ज़िम्मेदारी बनती है कि अपने घर से लेकर बाहर तक अपराधियों पर नज़र रखें। आम आदमी को चाहिए कि अगर कोई अपराधी कहीं नज़र आता है, तो उसकी सूचना तुरंत पुलिस को दे। इसके लिए हर राज्य में अपराध निरोधक शाखाएँ खुली हुई हैं और पुलिस तैनात है। समाज की अच्छी सोच अपराधियों को डरा सकती है। बाक़ी काम क़ानून को करना चाहिए। लेकिन ऐसा करने से पहले सभी पार्टियों को अपराधी नेताओं को सज़ा दिलाने के लिए क़दम उठाने होंगे, जिसकी शुरुआत हर पार्टी को अपनी ही पार्टी के आरोपी नेताओं से करनी होगी और उन्हें जेल पहुँचाना होगा। वर्ना महिला सुरक्षा की गारंटी कौन लेगा?
हाल ही में यूपीएससी में सीधी भर्ती यानी लेटरल एंट्री को लेकर जमकर हंगामा हुआ और आख़िरकार केंद्र सरकार को पिछले दरवाज़े से अधिकारियों की भर्ती पर रोक लगानी पड़ी। इसमें मामला था- आरक्षण के हिसाब से लेटरल एंट्री न देने का। हालाँकि मेरा मानना यह है कि लेटरल एंट्री के ज़रिये देश के योग्य लोगों को ही चुना जाता है, जिसमें कुछ नहीं देखा जाता, न ज़ात-पात, न धर्म और न अपना-पराया। सन् 1950 से पिछली केंद्र सरकारों ने भी लेटरल एंट्री के ज़रिये ऐसी भर्तियाँ की हैं, जिसके ज़रिये कई क़ाबिल लोग इस देश को मिले। इनमें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे, जिन्हें बाद में राजनीति ने देश के सर्वोच्च पद पर भी बैठाया गया। इसके अलावा आई.जी. पटेल, वी. कृष्णमूर्ति, मोंटेक सिंह अहलूवालिया और आर.वी. शाही के अलावा कई बड़ी विद्वान हस्तियों को ऐसी ही चुना और सरकार में लाया गया था।
लेकिन सवाल यह है कि क्या अब ऐसे लोगों को ही लेटरल एंट्री के द्वारा केंद्र सरकार अधिकारी बना रही है? या इस पिछले दरवाज़े का दुरुपयोग करते हुए सिर्फ़ अपने मतलब के लोगों को महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त कर रही है। क्योंकि अगर हम कुछ पदों पर ध्यान दें, तो देखेंगे कि उन पदों पर बैठे लोग केंद्र सरकार यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए काम कर रहे हैं। कुछ लोगों को शायद यह बात बुरी लगे; लेकिन यह सच है। क्योंकि चाहे वो चुनाव आयोग हो, चाहे सीबीआई हो, चाहे ईडी हो, चाहे इनकम टैक्स विभाग हो, चाहे पुलिस प्रशासन हो, इन सबने जो काम पिछले 10.5 वर्षों में किया है, उसमें केंद्र सरकार की मंशा साफ़ झलकती है। हालाँकि पहले भी सरकार के हिसाब से अधिकारी काम करते थे; लेकिन इस क़दर खुलेआम नहीं।
दरअसल, पहले मीडिया का डर सरकारों को रहता था, जो अब ख़त्म हो चुका है। इसके लिए आज जितनी सरकारें ज़िम्मेदार हैं, उससे कहीं ज़्यादा आजकल के पत्रकार और मीडिया हाउस ज़िम्मेदार हैं, जिन्हें पत्रकारिता अब एक सेवा नहीं, बल्कि पेशा नज़र आता है। और यही वजह है कि ज़्यादातर पत्रकारों को आज अवाम गोदी मीडिया का दर्जा दे रहा है। ये सब मोटे पैकेज, ऊपर की कमायी के चक्कर में पड़े हैं और लग्जरी लाइफ का इन्हें चस्का लग चुका है। और आज के ये पत्रकार मोटा पैसा बड़ी आसानी से एसी रूम में बैठकर कमा भी रहे हैं। भले ही इन्हें ख़बरों और पत्रकारिता का ज्ञान हो या न हो; लेकिन इन्हें चैनलों पर बेकार के मुद्दों पर पार्टी प्रवक्ताओं, विश्लेषकों और पत्रकारों को मुर्गे की तरह लड़ाकर टीआरपी बटोरने का धंधा आता है, जिसके पिछले दिनों बड़े चर्चे रहे और लोगों को झूठी ख़बरें परोसने का हुनर बख़ूबी नज़र भी आया। हमने जब पत्रकारिता शुरू की थी, तब 10 रुपये का पेन जेब पर लगाकर दिन भर की कड़ी मेहनत करके ख़बरें ढूँढकर लायी जाती थीं और ख़बर के चलने पर महीने की तनख़्वाह के अलावा कोई आमदनी भले ही नहीं होती थी; लेकिन अख़बार में बाई लाइन छपने से नाम और इज़्ज़त हुआ करती थी और जिसके ख़िलाफ़ ख़बर होती थी, वो डरता था। किसी ग़लत आदमी को पता चल जाता था कि सामने कोई पत्रकार है, तो उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाया करती थी। और आज न वो इज़्ज़त है और न वो पत्रकार। जो हैं भी, उनके पीछे अब ग़लत लोग पड़े हैं।
बहरहाल, केंद्र की मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने उस विज्ञापन पर रोक लगा दी है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देश पर लेटरल एंट्री के ज़रिये यूपीएससी ने 17 अगस्त को मंत्रालयों के लिए 45 ज्वाइंट सेक्रेटरी, डिप्टी सेक्रेटरी और डायरेक्टर लेवल की भर्तियाँ करने के लिए निकाला था। विपक्ष ने हंगामा किया कि इस लेटरल एंट्री में आरक्षण का ख़याल नहीं रखा गया। इस लेटरल एंट्री के ख़िलाफ़ देश भर में एससी, एसटी और ओबीसी के लोगों ने प्रदर्शन भी किये। उत्तर प्रदेश में दो साल पहले 6,800 शिक्षकों की भर्ती में भी आरक्षण पूरा न देने को लेकर एक विरोध पहले ही खिंचा आ रहा था। लेटरल एंट्री के विज्ञापन ने आरक्षण लेने वाले वर्गों के इस ग़ुस्से में आग में घी का काम किया और 21 अगस्त को सभी ने मिलकर भारत बंद किया। लेकिन इस भारत बंद के दौरान कुछ राज्यों में आगजनी, तोड़फोड़ जैसी घटनाओं को अंजाम दिया गया, जिससे मन काफ़ी दु:खी हुआ।
दरअसल, लेटरल एंट्री के तहत केंद्र सरकार कुछ पदों पर सभी क्षेत्रों से कुछ क़ाबिल लोगों की बिना यूपीएससी की परीक्षा दिये सीधी भर्ती करती है। इस भर्ती के तहत किसी क्षेत्र में किसी बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति को केंद्र सरकार सीधे नियुक्ति पत्र देकर बड़े आधिकारिक पद पर काम करने का सुनहरा मौक़ा देती है, जिससे उस पद पर बैठकर वह व्यक्ति देश की तरक़्क़ी में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सके। लेकिन पिछले कई वर्षों से देखा जा रहा है कि केंद्र की सरकारें अपने मतलब के लोगों की भर्ती लेटरल एंट्री के ज़रिये करके ख़ुद के फ़ायदे के लिए उनका इस्तेमाल करती हैं। केंद्र की मोदी सरकार पर इसके और हर साल बड़ी संख्या में लेटरल एंट्री के ज़रिये अपने चहेतों को भर्ती करने के कई आरोप लगे हैं। इसी प्रकार से मोदी सरकार पर अपने चहेते अधिकारियों को प्रमोशन देने, उन्हें ख़ास महकमे देने के साथ-साथ कई-कई बार जबरन एक्सटेंशन देने के भी आरोप लगे हैं। और किसी ने कोई आवाज़ भी नहीं उठायी। लेकिन इस बार जैसे ही लेटरल एंट्री का विज्ञापन जारी हुआ, विपक्ष के नेताओं ने इसे आरक्षण का मुद्दा बनाते हुए प्रतिबंधित करने की माँग कर दी। इस डायरेक्ट भर्ती को लेकर राहुल गाँधी, अखिलेश यादव, मायावती, संजय सिंह और कई दूसरे नेताओं ने खुलकर विरोध किया।
दरअसल, यूपीएससी देश की सबसे मुश्किल परीक्षा है, जो तीन मुश्किल चरणों के ज़रिये ऐसे युवाओं का चुनाव करती है, जिनमें देश को विकास की राह पर चलाने और देश-विदेश नीति को समझने की क्षमता होती है। इन परीक्षाओं में पहले 400 अंकों की प्रीलिम्स यानी प्राथमिक परीक्षा होती है। यह परीक्षा पास करने के बाद उम्मीदवारों को 1,750 अंकों की मेंस यानी मुख्य परीक्षा पास करनी होती है और इस परीक्षा को भी पास करने वालों को इंटेलिजेंट अधिकारियों के एक पैनल के सामने जाकर 275 अंकों का एक इंटरव्यू पास करना होता है। जो उम्मीदवार परीक्षा के इन सभी पड़ावों को पार करके चुने जाते हैं, उनकी नियुक्ति आईएएस, आईएफएस, आईपीएस और तमाम मंत्रालयों व सरकारी विभागों में अधिकारियों के रूप में होती है।
लेकिन लेटरल एंट्री के ज़रिये जिन लोगों की भर्ती की जाती है, उन्हें कठिन परीक्षा के किसी भी दौर से नहीं गुज़रना होता है और वो इन अधिकारियों के बराबर का दर्जा पाते हैं। और यह सब उनकी ख़ास क़ाबिलियत की वजह से ही होता है। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार किसी क्षेत्र में विशेष योग्यता रखने वाले लोगों को कोई यूनिवर्सिटी पीएचडी और डी.लिट की उपाधि देती है।
लेकिन सवाल यह उठता है कि मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने अपने पिछले क़रीब साढ़े 10 वर्षों के कार्यकाल में एक तरफ़ सरकारी पदों को पूरी ईमानदारी से भरने की बजाय सरकारी नौकरियों को ख़त्म करने का काम किया है, वहीं दूसरी तरफ़ वो लेटरल एंट्री से अधिकारियों के ऐसे पदों पर भर्ती करने में पूरी दिलचस्पी दिखाती रही है, जिन पदों पर बैठकर अधिकारी बहुत कुछ कंट्रोल करते हैं और कई अधिकारी अपनी मनमानी भी करते हैं।
विपक्ष सरकारी पदों पर भर्ती न करने और बेरोज़गारी को लेकर लगातार आवाज़ उठाता रहा है। पिछले दिनों आयी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि देश में श्रम बल सहभागिता दर 49.9 फ़ीसदी होने के बावजूद सिर्फ़ 1.4 फ़ीसदी लोग ही सरकारी नौकरी पा सकते हैं यानी सरकारी नौकरी सिर्फ़ काम करने योग्य लोगों में से सिर्फ़ 1.4 फ़ीसदी के लिए ही सरकारी नौकरियाँ बची हैं। इससे साफ़ है कि सरकारी नौकरियाँ अब न के बराबर ही बची हैं। लोकसभा में दिये गये केंद्र सरकार के एक बयान के अनुसार, नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद साल 2014 से लेकर जुलाई 2022 तक अलग-अलग सरकारी विभागों में कुल 7,22,311 सरकारी पदों पर भर्ती की है। लेकिन उनका वादा था- हर साल दो करोड़ नौकरियाँ देने का और जब यह सवाल आया, तो उन्होंने पकौड़ा बेचने को रोज़गार बता डाला। हैरत की बात का कि साल 2018-19 में महज़ 38,100 लोगों को ही सरकारी नौकरी मिली, जबकि इस दौरान 5,09,36,479 ज़रूरतमंद युवाओं ने सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन किये।
हालाँकि सरकार ने दावा किया था कि साल 2019-20 में देश भर में 1,47,096 युवाओं को सरकारी नौकरी दी गयी। और यह भी दावा है कि मोदी सरकार के समय में रोज़गार दर लगभग 40 फ़ीसदी है। लेकिन दूसरी तरफ़ आ रही जानकारियों से पता चल रहा है कि देश भर में हर विभाग में बड़ी संख्या में सरकारी पद ख़ाली पड़े हैं। जो पद ख़ाली हो रहे हैं, उन पर भर्तियाँ नहीं हो रही हैं। मंत्रालयों तक में ठेकेदारी प्रथा शुरू हो चुकी है। परीक्षाएँ रद्द होने और पेपर लीक होने का खेल तो खुलेआम चल ही रहा है।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के मुताबिक, देश में साल 2020 में बेरोज़गारी दर 7.11 फ़ीसदी और साल 2021 में 7.9 फ़ीसदी थी। लेकिन सरकार ख़ुद कह रही है कि वह 100 में सिर्फ़ 40 लोगों को ही नौकरी दे पा रही है। इस प्रकार तो बेरोज़गारी दर 60 फ़ीसदी हुई। फिर बेरोज़गारी के आँकड़े 7-8 फ़ीसदी के बीच में क्यों अटके हुए हैं? इसमें तो गड़बड़ी साफ़ दिख रही है। लेकिन लेटरल एंट्री में कोई कमी नहीं आयी। प्राइवेट नौकरियाँ भी घट रही हैं। अभी हाल ही में ख़बर आयी है कि महज़ एक साल में टाइटन और रिलायंस समेत पाँच बड़ी कम्पनियों ने अपने 52,000 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया। अगर मैं मीडिया क्षेत्र की बात करूँ, तो हर मीडिया हाउस इन दिनों 10-10 कर्मचारियों का काम एक या दो कर्मचारी से ले रहा है और तनख़्वाह की बात की जाए, तो वो कई मीडिया हाउस में तो चपरासी से लेकर शुरुआती पद के लेवल की भी नहीं है। कोरोना की पहली लहर में साल 2020 में क़रीब 1.45 करोड़ लोगों को कम्पनियों ने नौकरी से हटा दिया था। इसी प्रकार से कोरोना की दूसरी में क़रीब 52,00,000 लोगों की और कोरोना की तीसरी लहर में क़रीब 18,00,000 लोगों की नौकरी छिन गयी। और ये केंद्र सरकार के ही आँकड़े हैं। लेकिन नौकरियाँ मिलीं कितनी? यह इस बात से ज़ाहिर होता है कि आज जब कहीं किसी एक पद पर भर्ती निकलती है, तो लाखों बेरोज़गार उसके लिए अप्लाई करते हैं। सरकार अगर सरकारी पद बढ़ाने में असमर्थ है, तो कम-से-कम उन पदों को ज़रूर भरे, जो ख़ाली पड़े हैं। और सिर्फ़ लेटरल एंट्री, रिश्वत और सोर्स के ज़रिये सरकारी पदों पर भर्तियों का खेल भी रोके, जिससे किसी भी वर्ग या जाति के युवा को ईमानदारी से उसका हक मिल सके और बार-बार आरक्षण का मसला ही न उठे। क्योंकि जब-जब आरक्षण को लेकर कोई आन्दोलन होता है, तो सरकार और जनता दोनों का नुक़सान होता है। बिना मतलब पुलिस प्रशासन को लगाने में करोड़ों के ख़र्च के अलावा आगजनी और तोड़फोड़ जैसी घटनाओं से जान-माल का नुक़सान होता है। इसे सरकार को रोकने की कोशिश करनी चाहिए।
विश्व शान्ति की चिन्ता में यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की को सांत्वना देने प्रधानमंत्री मोदी शान्तिदूत बनकर पहुँचे। यह अच्छी बात है। इससे युद्ध शान्त हो, न हो; लेकिन शायद प्रधानमंत्री की शान्ति-पुरुष की छवि बन जाए। उन्हें शान्ति के क्षेत्र में नोबेल मिल जाए। आख़िर विश्व शान्ति की चिन्ता हर किसी को थोड़े ही होती है? अंतरराष्ट्रीय नेता बनना इतना आसान थोड़े ही है। इसके लिए सभी देशों के शीर्ष नेताओं को रईसी दिखानी पड़ती है। विश्व शान्ति की छवि बनानी पड़ती है। अपने देश में भले ही अशान्ति हो। आख़िर दूसरे दो देशों की अशान्ति के आगे देश की अशान्ति क्या मायने रखती है? अपनों में बदनाम आदमी बाहर वालों के लिए अच्छा हो, तो अच्छा है। उसे बदनाम नहीं करना चाहिए। वह आदमी अगर देश के शीर्षस्थ पदों में से किसी पर हो, तब तो बिलकुल भी नहीं करना चाहिए। अब यह देशद्रोह माना जाता है। संसद में सांसदों के द्वारा यशस्वी की उपाधि पा चुके प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ़ कीजिए कि उन्होंने विश्व भर में भारत के नाम का डंका बजवाया है। वर्ना पहले तो भारत की स्थिति बक़ौल प्रधानमंत्री- ”पता नहीं पिछले जनम में क्या पाप किया था, हिन्दुस्तान में पैदा हुए थे। यह कोई देश है? यह कोई सरकार है? ये कोई लोग हैं? चलो छोड़ो, चले जाएँ कहीं और।’’
होंगे पहले के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति जिनके सामने बैठकर आलोचक खुली आलोचना कर देते थे। यह अब नहीं चलता। अब तो लोकसभा और राज्यसभा के सभापति भी आलोचना नहीं सुनते। सुनें भी कैसे? आलोचना के लायक कुछ है ही नहीं। सब कुछ अच्छा ही अच्छा है। भारत तरक़्क़ी कर रहा है। दुश्मन डर से थरथरा रहे हैं। संसद से भारत को विकसित भारत कहा ही जा चुका है। नया संसद भवन बन चुका है। राम मंदिर बन चुका है। छतों से पानी टपकने वाले दोनों ऐतिहासिक निर्माणों की तकनीक नयी है। सड़कें स्पेस टेक्नोलॉजी से बन रही हैं। ये सड़कें सिर्फ़ सड़कें नहीं हैं, बल्कि बारिश के दौरान स्वीमिंग पूल बन सकती हैं और किसी को कभी भी अचानक पाताल की सैर करा सकती हैं। भ्रष्टाचारी जेल में डाले जा रहे हैं। सरकार उतनी ही ईमानदार है, जितनी ईमानदारी प्रधानमंत्री के चरित्र में है। बिलकुल साफ़-सुथरी छवि। कोई लूट नहीं; कोई संपत्ति नहीं बटोरी। जो कुछ भी है; सब ईमानदारी का है।
हालाँकि फिर भी प्रधानमंत्री मोदी को एक बेचैनी है। शायद यह बेचैनी विश्व शान्ति की ही है। कई पड़ोसी देशों में तनाव भी तो बढ़ रहा है। रूस-यूक्रेन, फिलिस्तीन-इजरायल, इजरायल-ईरान लड़ रहे हैं। उनकी विश्व शान्ति की चिन्ता अमेरिका की शान्ति की चिन्ता से मिलती-जुलती है। अपनी चिन्ता उन्हें बिलकुल नहीं है। अपनी चिन्ता उन्होंने कभी की भी नहीं। जब भी चिन्ता की; दूसरों की ही की। वैसे भी अपनी चिन्ता करके करना क्या? किसी बात का मोह है नहीं। देश की सेवा का ज़िम्मा जनता जनार्दन ने सौंपा है; सो दिन-रात सेवा में लगे हैं। जिस दिन जनता आदेश करेगी, झोला उठाकर चल देंगे। अपने मन की शान्ति का मंत्र वह जानते ही हैं। किसी भी गुफा में ध्यान लगा सकते हैं। योग से लेकर ध्यान तक में वह पारंगत हैं। राजनीति के जादूगर हैं। केंद्र की सत्ता में आने का भी उनका तरीक़ा अद्भुत था। पूरा देश गुजरात मॉडल पर ख़ुश था, जो पूरे देश में लागू होना था। शायद हुआ भी है। आज पूरा देश उसका नतीजा देख रहा है। अभी तो तीसरे कार्यकाल की शुरुआत हुई है। आगे भी बहुत कुछ होगा।
कुछ मतदाता फिर भी नहीं समझ रहे हैं। अयोध्या, प्रयागराज, बाँदा, रामटेक, चित्रकूट और रामेश्वरम् के मतदाताओं ने भी नहीं समझा। अब लोकपोल के सर्वे बता रहे हैं कि हरियाणा वाले भी नहीं समझना चाहते। वहाँ मुश्किल से 20 से 29 सीटें ही मिलने के आसार नज़र आ रहे हैं। जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र और झारखण्ड में भी स्थिति यही है। महाराष्ट्र में तो शिवाजी महाराज के चरणों में सिर रखकर माफ़ी भी माँग ली। लेकिन राज्यों की सत्ताएँ खिसकती हुई नज़र आ रही हैं। कोई समझने को तैयार ही नहीं है। लोग विकास पुरुष की छवि को पहचान ही नहीं रहे हैं। आरएसएस अलग से नाराज़ है। भाजपा के कई नेता भी विद्रोह की सही घड़ी का इंतज़ार कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर चर्चा कुर्सी हिलने की है। विरोधी वैश्विक नेता की छवि वाले प्रधानमंत्री पर हमले कर रहे हैं। विपक्षी विरोध के सुर अलाप रहे हैं। जनता को भड़का रहे हैं। कुर्सी हिलाने की कोशिश में लगे हैं। देश के एक लोकप्रिय और सर्वश्रेष्ठ नेता को बदनाम कर रहे हैं। अब तो कई अपने भी दुश्मन बन गये।
समझ में नहीं आता कि भारत को विकसित भारत बनाना किसी को क्यों नहीं दिख रहा है? विश्व भर में बजता भारत के नाम का डंका क्यों सुनायी नहीं देता? अच्छे दिन क्यों नहीं दिखते? सबको अपना परिवारजन भी कह दिया, फिर भी तरस नहीं आया। अपने दो कार्यकालों में कितने विकास कार्य किये? लेकिन देशवासियों को वो भी नहीं दिखा। तीसरी बार में लोकसभा पहुँचाया भी, तो बैसाखियों के सहारे। पता नहीं कब कुर्सी की कौन-सी टाँग टूट जाए।
चुनाव आयोग ने दो विधानसभाओं- जम्मू-कश्मीर और हरियाणा के लिए चुनाव की तारीख़ों की घोषणा कर दी है। ये चुनाव राजनीतिक और सुरक्षा, दोनों ही स्तर पर चुनौती भरे हैं। जम्मू-कश्मीर का चुनाव सुरक्षा की दृष्टि से काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। 10 साल बाद हो रहा यह चुनाव राज्य की जनता के लिए राहत लेकर आएगा, जो पिछले छ: साल से बग़ैर किसी चुनी सरकार के तमाम परेशानियाँ झेल रही है। इस चुनाव के नतीजों से यह भी पता चलेगा कि अनुच्छेद-370 ख़त्म करने और जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा छीनने को राज्य की जनता ने कैसे लिया है? उधर हरियाणा के चुनाव सत्तारूढ़ भाजपा के लिए चुनौती भरे हैं; क्योंकि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन से पाँच सीटें जीतकर उसके ख़ेमे में हलचल मचा दी थी। भाजपा के सामने अब अपनी सरकार को बचाने की मुश्किल चुनौती है।
देश में महाराष्ट्र सहित कुछ और राज्यों में इसी साल चुनाव होने हैं। लेकिन चुनाव आयोग ने फ़िलहाल दो ही राज्यों के लिए चुनाव घोषित किये हैं। विपक्ष ने इस पर विरोध भी जताया। उसका तर्क है कि प्रधानमंत्री मोदी तो रोज़ एक राष्ट्र-एक चुनाव का राग अलापते रहते हैं और हक़ीक़त में चार राज्यों के चुनाव तक एक साथ नहीं करवा पा रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में चुनाव की घोषणा स्वागत योग्य है; क्योंकि वहाँ लोग पिछले छ: साल से दिक़्क़तें झेल रहे हैं। उनका यह आरोप है कि राष्ट्रपति (राज्यपाल) शासन में भ्रष्टाचार बढ़ गया है और अपनी दिक़्क़तें सुलझाने या बताने के लिए उनके पास कोई मंच या प्रतिनिधि नहीं है। कश्मीर ही नहीं, जम्मू में भी लोग इस बात से नाख़ुश हैं कि उनका पूर्ण राज्य का दर्जा ख़त्म कर दिया गया है।
जम्मू-कश्मीर में लोगों में अनुच्छेद-370 ख़त्म होने से जो नाराज़गी बनी थी, वह अभी ख़त्म नहीं हुई है। मोदी सरकार को देश ही नहीं, दुनिया के सामने भी यह साबित करना है कि उनका जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 ख़त्म करने का फ़ैसला महज़ उनकी पार्टी के एजेंडे का हिस्सा भर नहीं था और इस फ़ैसले से देश, राज्य और वहाँ के अवाम को फ़ायदा हुआ है। नहीं भूलना चाहिए की जम्मू-कश्मीर में अभी भी सुरक्षाबलों की अब तक की सबसे बड़ी संख्या 2017 के बाद से तैनात है। आतंकवाद की बात करें, तो जम्मू-कश्मीर अभी भी दोराहे पर खड़ा है। केंद्र की लाख कोशिशों और दावों के विपरीत आतंकवादी घटनाएँ वहाँ जारी हैं।
अकेले इस साल के आठ महीनों में जम्मू-कश्मीर में 25 से ज़्यादा आतंकी घटनाएँ हो चुकी हैं, जिनमें 30 से ज़्यादा जवानों शहादत और आम लोगों की मौत हो चुकी है। बेशक केंद्र सरकार का दावा है कि अनुच्छेद-370 ख़त्म करने के बाद जम्मू-कश्मीर में शान्ति बहाल हुई है; लेकिन यह पूरी तरह सच नहीं है और आतंकी घटनाएँ अब जम्मू क्षेत्र में भी होने लगी हैं। ऐसे में मोदी सरकार के लिए जम्मू-कश्मीर में शान्तिपूर्ण चुनाव करवाना एक बड़ी चुनौती रहेगी। यह ज़रूर हो सकता है कि घाटी की जनता भाजपा के विरोध-स्वरूप बड़ी संख्या में वोट डालने के लिए घरों से निकले।
याद रहे यूपीए सरकार की 10 साल की कोशिशों से जम्मू-कश्मीर के 2014 के विधानसभा चुनाव में काफ़ी सकारात्मक असर देखने को मिला था; भले चुनाव के समय मोदी केंद्र की सत्ता में थे। घाटी में पत्थरबाज़ी की घटनाएँ ज़रूर हो रही थीं। लेकिन रणनीतिक तौर पर यूपीए सरकार घाटी की अवाम को बाक़ी के देश से जोड़ने में सफल हो रही थी। वहाँ विकास ने भी ज़ोर पकड़ा था। उस चुनाव में पहले दौर में 71.28 फ़ीसदी, दूसरे दौर में 71 फ़ीसदी, तीसरे दौर में 58.89 फ़ीसदी, चौथे दौर में 49 फ़ीसदी और पाँचवें दौर में 76 फ़ीसदी मतदान हुआ था। घाटी में मतदान जम्मू के मुक़ाबले बेशक कुछ कम था; लेकिन इतने ज़्यादा वोट तब भी पड़े, जब हुर्रियत कॉन्फ्रेंस और आतंकी संगठनों ने मतदान के वहिष्कार की अपील की हुई थी। निश्चित ही कश्मीर की जनता ने इतने दशकों में लोकतंत्र और भारतीय व्यवस्था पर भरोसा जताया है।
इसमें कोई दो-राय नहीं कि जम्मू-कश्मीर में लागू की गयी मोदी सरकार की नीतियों के पक्ष में जनता का समर्थन न के बराबर है। ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि उसने 05 अगस्त, 2019 को राज्य की जनता और राज्य के राजनीतिक नेतृत्व को भरोसे में लिए बिना अनुच्छेद-370 और घाटी का पूर्ण राज्य का दर्जा ख़त्म कर दिया। इसे घाटी की जनता ने नई दिल्ली (केंद्र) की नकारात्मक नीति के रूप में देखा। और 2004 के बाद घाटी की जनता को देश से जोड़ने की जिस रणनीति पर काम किया गया था, उसे भी गहरा झटका लगा। इससे पहले 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने घाटी में सख़्त रुख़ रखने वाली मुफ़्ती मोहम्मद सईद की पार्टी पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने का फ़ैसला करके बहुत बेहतर संदेश दिया था, जिसका घाटी की जनता में सकारात्मक सन्देश गया था।
नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा के किसी राष्ट्रीय नेता की कश्मीर घाटी में यदि सबसे ज़्यादा स्वीकार्यता थी, तो वह अटल बिहारी वाजपेयी थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में श्रीनगर से पाकिस्तान की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाने की पहल भी की थी। अब सच्चाई यह है कि उनके बाद भाजपा के नेता के रूप में केंद्र की सत्ता में आये नरेंद्र मोदी की घाटी में स्वीकार्यता न के बराबर है। जम्मू के हिन्दू-बहुल क्षेत्रों में बेशक वह लोकप्रिय हैं। अनुच्छेद-370 ख़त्म करने को लेकर घाटी के लोग सोचते हैं कि वाजपेयी होते, तो ऐसा नहीं होता। भाजपा के इन फ़ैसलों का सबसे बड़ा नुक़सान उसके साथ सरकार चला चुकी पीडीपी को झेलना पड़ा है, जिसे घाटी की जनता ने हाल के लोकसभा चुनाव में समर्थन नहीं दिया। लिहाज़ा उसका एक भी उम्मीदवार चुनाव में नहीं जीता। फ़िलहाल राज्य में चुनावी गतिविधियाँ शुरू हो गयी हैं। वहाँ 2014 की कुल 87 सीटों के मुक़ाबले इस बार 90 सीटों पर चुनाव होगा। अब सरकार बनाने के लिए 46 सीटें जीतनी ज़रूरी हैं। कांग्रेस और फ़ारूक़ अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस में चुनावी गठबंधन हो चुका है। तीन चरणों में- 18 सितंबर, 26 सितंबर और 01 अक्टूबर को मतदान प्रस्तावित है; जबकि 08 अक्टूबर को नतीजे आएँगे। भाजपा घाटी में खाता खोलना चाहती है। उसके कुछ समर्थक दल घाटी में हैं। उम्मीदवारों की घोषणा शुरू हो चुकी है। देखना दिलचस्प होगा कि पीडीपी और पूर्व कांग्रेस नेता गुलाम नबी आज़ाद का क्या रोल इन चुनावों में रहता रहता है?
हरियाणा की बात करें, तो वहाँ सत्तारूढ़ भाजपा के लिए अपनी सरकार को बचाये रखने की मुश्किल चुनौती है। कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में जैसा प्रदर्शन किया था, उसके बाद लगता है कि राज्य में उसकी स्थिति काफ़ी मज़बूत हुई है। आम आदमी पार्टी भी वहाँ अपना खाता खोलने की कोशिश में है, जिसके प्रमुख और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हरियाणा के ही रहने वाले हैं। देखना होगा केजरीवाल के जेल में रहते पार्टी कितनी मज़बूती से चुनाव में उतर पाती है। भाजपा की हरियाणा में घबराहट इस बात से महसूस की जा सकती है कि उसने चुनाव आयोग से छुट्टियों को देखते हुए मतदान की तारीख़ आगे बढ़ाने की माँग की थी, जिसके बाद चुनाव आयोग ने 27 अगस्त को बैठक तो की; लेकिन नयी तारीख़ को लेकर कोई फ़ैसला नहीं दिया था। फिर दोबारा चुनाव आयोग ने 31 अगस्त को नयी तारीख़ की घोषणा कर दी। विपक्षी कांग्रेस ने पहले ही कहा था कि भाजपा की मतदान की तारीख़ आगे बढ़ाने की माँग से ज़ाहिर हो गया है कि राज्य में उसकी बुरी हार होने वाली है।
अब हरियाणा में 01 अक्टूबर की जगह 05 अक्टूबर को मतदान होगा, जिसके नतीजे 08 अक्टूबर को आएँगे। राज्य में भाजपा ख़ेमे में दो कारणों से चिन्ता है। एक तो यह कि पिछले विधानसभा चुनाव में उसे अपने बूते बहुमत नहीं मिला था और उसने जजपा की मदद से सरकार बनायी थी, जो अब उसका साथ छोड़ चुकी है। लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा आलाकमान ने मनोहर लाल खट्टर को लोकसभा चुनाव लड़ाने के लिए मुख्यमंत्री पद से आनन-फ़ानन हटा दिया था, जिसके बाद मुख्यमंत्री बने नायब सिंह सैनी कुछ ख़ास प्रभाव डालने में सफल नहीं दिखे हैं। हाल ही में हिमाचल से भाजपा की बड़बोली सांसद कंगना रनौत ने किसानों को लेकर जो टिप्पणी की, उसने भाजपा को और नुक़सान पहुँचाया है। राजनीतिक रूप से यह इतनी घातक टिप्पणी थी कि भाजपा को कंगना को फटकार लगानी पड़ी।
जाट भी भाजपा से सख़्त नाराज़ दिखते हैं। कांग्रेस की चुनावी कमान अघोषित रूप से पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा ने सँभाली हुई है, जिनकी राज्य में काफ़ी लोकप्रियता है। यह माना जा रहा है कि यदि कांग्रेस सत्ता में आयी, तो हुड्डा ही मुख्यमंत्री होंगे। हालाँकि कांग्रेस की वरिष्ठ नेता सांसद कुमारी शैलजा भी मुख्यमंत्री बनने की चाहत रखती हैं। देखना होगा कि क्या कांग्रेस मुख्यमंत्री का चेहरा आगे करके चुनाव में उतरेगी? लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं करने वाली आम आदमी पार्टी दावा कर रही है कि वह भी बेहतर प्रदर्शन करेगी। जाटों में पैठ रखने वाली जजपा और अन्य छोटे दलों के सामने अस्तित्व का संकट है। हालाँकि दुष्यंत चौटाला की जजपा ने चंद्रशेखर आज़ाद की आज़ाद समाज पार्टी से गठबंधन किया है। ज़मीनी स्थिति देखें, तो मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस-भाजपा के बीच है और अन्य दल बहुत कम सीटों पर सिमट सकते हैं।
ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन और मानवीय गतिविधियों के कारण होने वाली प्राकृतिक आपदाएँ आदमी को आईना दिखा रही हैं। इस बार गर्मी में देश के कई राज्यों में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस, तो कई का 52 डिग्री से भी ऊपर चला गया था। गर्मियों के बाद कई राज्यों में बारिश का कहर जारी है। पिछले दिनों उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग, जोशीमठ और केदारनाथ मार्ग पर हुए भूस्खलन (लैंडस्लाइड) इंसानी ग़लतियों का ही परिणाम है। हालाँकि पर्वतीय क्षेत्र में भूस्खलन प्राकृतिक घटनाएँ हैं, जो अक्सर होती रहती हैं। लेकिन पिछले कुछ दशकों से जिस तीव्रता से ये आपदाएँ बढ़ी हैं, वह पहाड़ों और वहाँ रहने वालों के लिए ख़तरनाक संकेत है। ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन के अलावा बिना सूझबूझ के असीमित निर्माण कार्य और अंधे शहरीकरण से हिमाचल से लेकर उत्तराखण्ड तक के पहाड़ दरका रहे हैं। पहाड़ों के जानकार और वैज्ञानिक इस बात से चिन्तित हैं कि उनकी राय और सुझावों को लगातार दरकिनार किया जा रहा है। उनका कहना है कि यदि लोग अब भी नहीं चेते, तो विनाशकारी आपदाएँ बढ़ती रहेंगी और भविष्य में जान-माल का अधिक नुक़सान होगा। हालाँकि इसके लिए सरकार को कड़े क़दम उठाने होंगे। आईआईटी रुड़की की एक रिपोर्ट में जोशीमठ के धँसने से पहले ही चेतावनी दी थी कि जोशीमठ का 50 फ़ीसदी से अधिक क्षेत्र अत्यधिक जोखिम वाला है।
वर्ष 2013 में हुई केदारनाथ त्रासदी के बाद भी लगातार पहाड़ों पर निर्माण जारी है और लोगों की संख्या बढ़ रही है। जोशीमठ इसी के चलते तबाह हो चुका है और उत्तराखण्ड के कई संवेदनशील ज़िलों में बार-बार लैंडस्लाइड की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं। गौरीकुंड-केदारनाथ मार्ग पर चिड़वासा के पास, जोशीमठ से तीन किलोमीटर पहले नेशनल हाईवे पर हुए लैंडस्लाइड में काफ़ी नुक़सान हुआ है। नुक़सान के अलावा जो दूसरे पहलू हैं, जैसे- सड़कों का अवरुद्ध हो जाना, ट्रैफिक का बाधित होना, आने-जाने का संपर्क टूट जाना। केवल ऐसी आपदाओं का किसी एक स्तर पर ही असर नहीं होता, बल्कि पूरा प्रशासन तंत्र, सरकारी कामकाज और आपदा वाली जगह पर बसे लोगों को मुश्किलें आती हैं।
कुछ दशक पहले तक पहाड़ी क्षेत्रों में जाने का मतलब होता था- गर्मियों की छुट्टियों में घूमना-फिरना, पर्वतीय क्षेत्र के सौंदर्य का आनंद लेना। न ज़्यादा वाहन, न ज़्यादा गैजेट्स; और सादगी से लोग घूम-फिर कर आ जाते थे। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के असर के चलते लोगों ने अब पहाड़ी क्षेत्रों का रुख़ करना शुरू कर दिया है। दूसरा धार्मिक और अन्य पर्यटकों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती चली जा रही है। ऐसे में ज़ाहिर है कि पहाड़ी क्षेत्र में आबादी का बोझ बढ़ रहा है। इसके चलते सड़कों का चौड़ीकरण, राजमार्गों का निर्माण, रिहायशी व व्यावसायिक बहुमंजिला इमारतों का अंधाधुंध निर्माण और असीमित शहरीकरण हो रहा है। पेड़ों और चट्टानों को काटा जा रहा है। पानी-बिजली के लिए बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण आदि ऐसे कारक और कारण हैं, जो हिमालय क्षेत्र को और कमज़ोर बना रहे हैं।
*कोचिंग सेंटर्स की मिलीभगत से पूरे भारत में फल-फूल रहे हैं डमी स्कूल !
इंट्रो– अभिभावक अपने बच्चों को कितने ही महँगे स्कूलों में पढ़ा लें; लेकिन उन्हें यह डर रहता है कि बिना कोचिंग के बच्चों के अच्छे अंक नहीं आएँगे। इसके पीछे स्कूलों द्वारा सही तरीक़े से पढ़ाई न कराने की सीधी-सी कहानी है। आज पूरे भारत में जितने भी स्कूल हैं, उनमें से ज़्यादातर स्कूलों के प्रबंधकों की कोचिंग सेंटर्स से मिलीभगत है, जिसके दम पर अब डमी स्कूल फल-फूल रहे हैं। ये डमी स्कूल अवैध रूप से विद्यार्थियों को नियमित कक्षाएँ न देकर छोटी-बड़ी प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं, विशेष रूप से नीट, जेईई और दूसरी प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं के लिए कोचिंग करने पर ज़ोर देते हैं। हैरानी की बात यह है कि यह सब सीबीएसई की नाक के नीचे होता है। ‘तहलका’ ने नियमों को ताक पर रखकर चल रहे कई कोचिंग सेंटर्स की ख़ुफ़िया जानकारी जुटाकर पिछले अंक में भी आवरण कथा प्रकाशित की थी, जिसके बाद कई कोचिंग सेंटर्स पर बड़ी कार्रवाई करते हुए शिक्षा विभाग ने उन्हें सील कर दिया। अब ‘तहलका’ के ख़ुफ़िया कैमरे में हमारी एसआईटी ने डमी स्कूलों और कोचिंग सेंटर्स की साँठगाँठ को लेकर जानकारी जुटायी है। पढ़िए, तहलका एसआईटी की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट :-
भारत के बड़े कोचिंग सेंटर्स चलाने वाले ‘तहलका’ के ख़ुफ़िया कैमरे पर यह स्वीकार करते हुए क़ैद हुए हैं कि वे डमी स्कूलों (बनावटी विद्यालयों), जिन्हें नॉन-अटेंडिंग स्कूल (अनुपस्थित विद्यालय) भी कहा जाता है; में प्रवेश दिलाने के लिए इच्छुक विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों का मार्गदर्शन करते हैं। उल्लेखनीय है कि इनमें से एक संस्थान, ओटीटी प्लेटफॉर्म, अमेजॅन प्राइम पर एक वेब शृंखला के बाद भारत में एक घरेलू नाम बन गया। ये डमी स्कूल विद्यार्थियों को नियमित कक्षाएँ छोड़कर केवल और केवल नीट / जेईई जैसी प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं के लिए कोचिंग पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह और अनुमति देते हैं।
इन कोचिंग सेंटरों और डमी स्कूलों के बीच गहरा सम्बन्ध है। जो अभिभावक और छात्र एनईईटी / जेईई कोचिंग के लिए इन संस्थानों से संपर्क करते हैं, उन्हें डमी स्कूलों में प्रवेश के अनुरोध के साथ-साथ संस्थानों द्वारा बिचौलियों की सहायता प्रदान की जाती है। ये बिचौलिये दिल्ली-एनसीआर में सीबीएसई-संबद्ध डमी स्कूलों की सूची जुटाकर हर हफ़्ते कोचिंग सेंटर्स के कुछ दौरे करते हैं, जहाँ इच्छुक विद्यार्थियों को प्रवेश मिल सकता है। ये बिचौलिये विद्यार्थियों को डमी स्कूलों में प्रवेश दिलाने के बदले में कोचिंग सेंटर्स को कमीशन का भुगतान करते हैं।
डमी स्कूलों में प्रवेश प्रक्रिया केवल 11वीं कक्षा में होती है। माता-पिता / अभिभावक और विद्यार्थी खुले तौर पर डमी स्कूलों के लिए अपनी प्राथमिकता व्यक्त करते हैं। वे अपने बच्चों को कोचिंग सेंटर्स के माध्यम से ऐसे चयनित सीबीएसई स्कूलों में दाख़िला दिलाते हैं, जहाँ उन्हें कक्षा में जाकर पढ़ने की आवश्यकता नहीं होती है। यद्यपि विद्यार्थी डमी स्कूलों को भी मासिक शुल्क (मंथली फीस) देते हैं; लेकिन वे स्कूल की नियमित कक्षाओं में पढ़ने नहीं जाते हैं। इसकी जगह वे कोचिंग सेंटर्स में पढ़ाई करते हैं। ‘तहलका’ एसआईटी की पड़ताल से पता चला है कि डमी स्कूलों में इन अनुपस्थित विद्यार्थियों की उपस्थिति नियमित मासिक शुल्क के बदले में स्कूल प्रशासन द्वारा दर्ज की जाती है। विद्यार्थियों को केवल इन डमी स्कूलों की वार्षिक परीक्षा / मुख्य परीक्षाओं में ही शामिल होना होता है।
शिक्षकों का तर्क है कि डमी स्कूल देश में स्कूली शिक्षा प्रणाली को कमज़ोर कर रहे हैं। वे सीबीएसई से स्कूलों का निरीक्षण करने और उन स्कूलों की पहचान करने का आग्रह करते हैं, जो निजी कोचिंग सेंटर्स के साथ मिले हुए हैं। कुछ लोगों ने चेतावनी दी है कि यदि यह अनुचित शिक्षा प्रणाली अनियंत्रित हो गयी, तो ज़्यादातर स्कूल भी इसका अनुसरण करेंगे, जिससे समग्र शिक्षा व्यवस्था में गिरावट आएगी और स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था चौपट होने लगेगी। एक जनहित याचिका (पीआईएल) से पता चलता है कि दिल्ली के स्कूलों में अन्य राज्यों के छात्रों को दाख़िला देने के लिए डमी स्कूलों का भी उपयोग किया जाता है, जिससे वे दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में 85 प्रतिशत कोटा के लिए पात्र हो जाते हैं। अन्य लोग परीक्षा की तैयारी के लिए डमी स्कूल पसंद करते हैं; क्योंकि यह हर दिन स्कूल और कोचिंग सेंटर, दोनों में जाने की तुलना में कम थका देने वाला होता है।
पिछले साल सितंबर में दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली में सीबीएसई से संबद्ध स्कूलों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की माँग वाली याचिका के जवाब में दिल्ली सरकार और केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) को नोटिस जारी किया था। ये स्कूल कथित तौर पर कक्षा 11 और 12 के छात्रों को डमी स्कूलों द्वारा शिक्षा देने के अवैध कारोबार में शामिल थे। सीबीएसई द्वारा डमी छात्रों को नामांकित करने के लिए दिल्ली के पाँच स्कूलों सहित 20 स्कूलों को असंबद्ध करने के बावजूद डमी स्कूलों का अवैध धंधा धड़ल्ले से फल-फूल रहा है। यह अखिल भारतीय व्यवसाय एक दशक से अधिक समय से चल रहा है। इस फलते-फूलते कारोबार का पर्दाफ़ाश करने के लिए ‘तहलका’ ने कोचिंग संस्थानों के साथ मिलकर संचालित होने वाले डमी स्कूलों की उत्सुकता से प्रतीक्षित गहन पड़ताल की। ‘तहलका’ रिपोर्टर ने दिल्ली और नोएडा के कई प्रमुख कोचिंग सेंटर्स से संपर्क किया। उल्लेखनीय रूप से ये कोचिंग सेंटर्स नीट / जेईई की तैयारी कराने के लिए रिपोर्टर द्वारा काल्पनिक रूप से प्रवेश के लिए बताये गये विद्यार्थी के प्रवेश के लिए उनके अनुरोध पर सहमत हुए और रिपोर्टर को आश्वासन दिया कि वे (कोचिंग सेंटर्स) दिल्ली में सीबीएसई से संबद्ध डमी स्कूल में बच्चे (काल्पनिक विद्यार्थी) को प्रवेश दिलाने की सुविधा भी देंगे।
‘हम भी नक़ली व्यवसाय में हैं। कोचिंग सेंटर्स के लिए डमी स्कूल एक बहुत-ही लाभदायक व्यवसाय है। हमें डमी स्कूल में प्रत्येक प्रवेश के लिए कमीशन के रूप में 15-20 हज़ार मिलते हैं। यह कमीशन बिचौलियों से आता है, जो डमी स्कूल और कोचिंग सेंटर्स के बीच समन्वय स्थापित करते हैं। डमी स्कूल कोचिंग उद्योग के लिए महत्त्वपूर्ण रूप से पैसा कमाने का ज़रिया हैं। वर्तमान में हमारे डमी स्कूलों में 10-12 छात्र नामांकित हैं। इन डमी छात्रों के लिए हम सुबह नहीं, बल्कि शाम को कक्षाएँ संचालित करते हैं।’ -एक संस्थान की प्रबंधक रति चौहान (बदला हुआ नाम) ने यह ‘तहलका’ के ख़ुफ़िया कैमरे के सामने बताया।
‘तहलका’ रिपोर्टर ने रति से पूर्वी दिल्ली के निर्माण विहार स्थित उसके एक सेंटर में मुलाक़ात की, जो ख़ुद को नीट / जेईई की तैयारी कराने और एक डमी स्कूल में रिपोर्टर द्वारा ख़ुद को एक अभिभावक के रूप में प्रस्तुत करने पर उनके द्वारा अपने बच्चे के रूप में बताये गये (काल्पनिक) विद्यार्थी के लिए प्रवेश दिलाने को तैयार थी। रति हमारे (काल्पनिक) बच्चे को एनईईटी / जेईई की तैयारी के लिए दाख़िला देने के लिए सहमत हो गयी और उसने डमी स्कूल व्यवसाय को कोचिंग सेंटर के लिए अत्यधिक आकर्षक बताते हुए डमी स्कूल में प्रवेश दिलाने में सहायता करने का रिपोर्टर से वादा किया। रति के मुताबिक, संस्थान में फ़िलहाल 10-12 विद्यार्थी डमी स्कूलों में नामांकित हैं। बातचीत से यह बात सामने आती है कि डमी स्कूलों की धुँधली दुनिया में विद्यार्थी और संस्थान दोनों ही धोखे के जाल में फँस गये हैं। बिचौलियों और स्कूलों के बीच सम्बन्ध सिर्फ़ मुनाफ़ा कमाने की योजना को उजागर करते हैं, जो गोपनीयता और हेरफेर पर पनपती है।
रति : हम भी डमी कराते हैं। डमी हम भी कराते हैं; …बट (परन्तु) हम प्रमोट नहीं करते। क्यूँकि बच्चा ख़राब हो जाता है। फ़ायदा है उसमें!
रिपोर्टर : क्या फ़ायदा है मैम?
रति : आप जब भी चेक देंगे, वो स्कूल के नाम का चेक देंगे; …जितनी उनकी फीस होगी। हमारा 15 थाउजेंड या 20 थाउजेंड (हज़ार) मीडिएटर (बिचौलिये) का होता है।
रिपोर्टर : अच्छा; स्कूल आपको कमीशन देगा?
रति : स्कूल नहीं, जो मीडिएटर होगा; जिसको जिसके थ्रू हम कराएँगे। हमारे बीच में दो सोर्स होते हैं, …स्कूल के जो- मीडिएटर्स।
रिपोर्टर : मिडिलमैन?
रति : जो पब्लिक डीलिंग करते हैं। …जैसे आप स्कूल जाते हैं, कोऑर्डिनेटर होता है; आप सीधा प्रिंसिपल से नहीं मिल सकते। यू हैव टू मीट कोऑर्डिनेटर। सिम्पली हमें भी स्कूल से मिलने के लिए कोऑर्डिनेटर को सपोर्ट करना पड़ता है। उससे मिलते हैं, वो सारा सेटअप स्कूल से करवाता है। ऐंड देन इंस्टीट्यूट को बहुत फ़ायदा है डमी से। पैसा बहुत अच्छा आता है डमी से। वो कॉस्टली भी होता है।
रिपोर्टर : अभी कितने बच्चे होंगे डमी में?
रति : हम डमी भी देते हैं, तो ईवनिंग (शाम) में; …मॉर्निंग (सुबह) में कोई डमी क्लास नहीं देंगे। ईवनिंग ही देंगे; …सेम।
रिपोर्टर : अभी कितने बच्चे हैं?
रति : आप मानोगे नहीं! क़रीब 10-12 बच्चे हैं अभी।
‘हमारे पास कोचिंग सेंटर्स से जुड़े डमी स्कूलों की एक सूची है, जो सभी सीबीएसई से संबद्ध हैं और शाहदरा, लोनी और रोहिणी में स्थित हैं। छात्रों को दो साल में एक बार भी स्कूल जाने की ज़रूरत नहीं है, यही कारण है कि वे डमी स्कूल पसंद करते हैं।’ -रति ने ‘तहलका’ के अंडरकवर रिपोर्टर को बताया। निम्नलिखित बातचीत के आदान-प्रदान में डमी स्कूलों की छायादार दुनिया को उजागर किया गया है, जिससे यह उजागर होता है कि ये संस्थान भारतीय शिक्षा प्रणाली में कितनी गहराई तक घुसे हुए हैं। यह उस चिन्ताजनक सहजता को उजागर करता है, जिसके जाल में फँसकर विद्यार्थी पारंपरिक स्कूली शिक्षा को दरकिनार कर देते हैं।
रिपोर्टर : और अगर हम डमी के लिए जाते हैं नेक्स्ट ईयर (अगले साल), तो आपके कौन-कौन से स्कूल हैं डमी वाले?
रति : वो सब मैं आपको लिस्टिंग कर दूँगी।
रिपोर्टर : सब सीबीएसई के हैं?
रति : सीबीएसई एफिलिएटेड (संबद्ध) ही होते हैं। …गवर्नमेंट का नही होता है।
रिपोर्टर : आस-पास मिल जाएँगे स्कूल्स कहीं?
रति : सर! ये मुश्किल होता है। शाहदरा में एक है। लोनी के पास है। फिर रोहिणी में हैं दो-तीन स्कूल्स। क्यूँकि बच्चों को जाना तो होता नहीं, पूरे दो साल में एक बार भी नहीं जाता।
रिपोर्टर : एक बार भी नहीं?
रति : कुछ नहीं, तभी तो बच्चा लेता है।
‘वास्तव में डमी स्कूल की अवधारणा भारत में काफ़ी पुरानी है। जब मैंने 2013 में देवघर, झारखण्ड से 12वीं कक्षा पूरी की, तो मेरे क्षेत्र के छात्र पहले से ही दिल्ली से डमी स्कूलों और कोचिंग का उपयोग कर रहे थे।’ -रति ने ख़ुलासा किया। रति द्वारा यहाँ बताये गये तथ्य इस बात को रेखांकित करते हैं कि डमी स्कूलों की अवधारणा। हालाँकि अवैध और अनैतिक है, इसकी जड़ें गहरी हैं। यह बातचीत इसके इतिहास पर प्रकाश डालती है, जिससे पता चलता है कि कैसे यह एक दशक से अधिक समय तक चुपचाप अस्तित्व में रहा, जिसने झारखण्ड जैसे छोटे राज्यों के शैक्षिक परिदृश्य को भी प्रभावित किया।
रिपोर्टर : ये कॉन्सेप्ट शुरू क्यूँ हुआ मैम?
रति : कॉन्सेप्ट, …ये मेरे टाइम का कॉन्सेप्ट है। बहुत पुराना; जब मैंने ट्वेल्थ (12वीं) किया है, इन 2013 आई डिड ट्वेल्थ। (2013 में मैंने 12वीं की।)
रिपोर्टर : इतना पुराना है ये?
रति : आई एम टॉकिंग अबाउट माईसेल्फ। (मैं अपने बारे में बात कर रही हूँ।)
रिपोर्टर : आई एम टॉकिंग अबाउट डमी। (मैं डमी के बारे में बात कर रहा हूँ।)
रति : बहुत पुराना है। मैं स्माल स्टेट (छोटे राज्य) से हूँ; …झारखण्ड से। उस समय मेरे फ्रेंड्स, 2013 में; …दे वेयर डूइंग कोचिंग इन डेल्ही। (वे दिल्ली में कोचिंग कर रहे थे।)
रिपोर्टर : 11 ईयर्स (साल) पहले की बात है! हमने तो अभी सुना है।
रति : यस-यस। बहुत पुराना है सर! मेरे फ्रेंड्स दिल्ली में आकर; …दे वेयर डूइंग कोचिंग इन नारायणा ऐंड ऑल, ….वहाँ भी देवघर में जहाँ से मैं हूँ। वहाँ भी सबने छोटे-छोटे स्कूल्स बनाये हैं। सबकी श$क्लें दिखती हैं, जब बोर्ड एग्जाम देना होता है।
रति के बाद हम एक अन्य प्रमुख संस्थान के कार्यालय में राबिया सदफ़ (बदला हुआ नाम) से एक फ़र्ज़ी सौदे के साथ मिले कि हम अपने बच्चे को उनके संस्थान में नीट कोचिंग के लिए प्रवेश दिलाना चाहते हैं और उसे डमी स्कूल में भी प्रवेश दिलाना चाहते हैं। ‘हाँ, हमने डमी स्कूलों के साथ गठजोड़ किया है, क्योंकि कई छात्र प्रवेश के लिए कहते हैं। हमारे संस्थान के अधिकांश छात्र डमी स्कूलों में नामांकित हैं, जो सभी सीबीएसई से संबद्ध हैं और दिल्ली और नोएडा में स्थित हैं। इन दाख़िलों की सुविधा के लिए एक दलाल नियमित रूप से हमारे कोचिंग सेंटर में आता है।’ -नोएडा में एक प्रसिद्ध कोचिंग संस्थान की सेक्टर-18 शाखा में परामर्शदाता राबिया ने हमारे अंडरकवर रिपोर्टर को बताया। राबिया ने हमें आश्वासन दिया कि वह हमारे बच्चे को डमी स्कूल में दाख़िला दिलाने के लिए हर संभव मदद करेगी। संवाद इस छायादार शैक्षिक नेटवर्क को नेविगेट करने के व्यावहारिक पहलुओं का ख़ुलासा करता है। ग़ैर-उपस्थित स्कूलों से लेकर महत्त्वपूर्ण संदर्भों तक, यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि ये संस्थान कैसे संचालित होते हैं और छात्रों के लिए विकल्प प्रदान करते हैं।
रिपोर्टर : प्रतीक जी से बात हुई थी मेरी इलेवंथ (11वीं) में एडमिशन के लिए; नॉन अटेंडिंग स्कूल। (अनुपस्थिति वाले स्कूल।)
राबिया : तो वो स्कूल जा रहे हैं ना?
रिपोर्टर : ही विल लीव दि स्कूल। (वह स्कूल छोड़ देगा।)
राबिया : अच्छा; ही विल बी लीविंग दि स्कूल? हाँ; तो स्कूलिंग के लिए हम करवा देंगे। हाँ; डमी स्कूल्स से टाईअप है। वो हम करवा देंगे; अगर आपको लेना है।
रिपोर्टर : मुझे प्रतीक जी ने बताया- हम रेफरेंस दे देंगे आपको। …उनको डमी स्कूल्स कहते हैं।
राबिया : हाँ; डमी स्कूल्स।
रिपोर्टर : स्कूल्स कौन-कौन से हैं?
राबिया : वो तो मेरे पास नहीं हैं। एक मैम आती हैं, उनसे पूछना पड़ेगा।
रिपोर्टर : कौन-सी मैम हैं?
राबिया : उन्हीं के हैंड से है, जो हमारी मैम हैं; …रेफरेंस वाली। हमारे पास बच्चे आते हैं, तो उनको प्रोवाइड करना ही पड़ता है।
रिपोर्टर : हैं आपके पास बच्चे?
राबिया : हाँ; बहुत-से बच्चे। …मोस्टली तो नॉन-अटेंडिंग वाले ही होते हैं।
रिपोर्टर : मोस्टली नॉन-अटेंडिंग वाले हैं! ….डमी वाले?
राबिया : हाँ; अब बच्चों को लगता है स्कूल में टाइम ज़्यादा ऑक्यूपाइड (बर्बाद) हो रहा है।
रिपोर्टर : प्रतीक चौधरी क्या हैं?
राबिया : वो भी काउंसलर हैं।
रिपोर्टर : मैम! ये नॉन-अटेंडिंग स्कूल्स नोएडा के ही हैं या दिल्ली के भी हैं?
राबिया : दोनों ही रहते हैं मैम! प्रिफरेंस रहेगा आपका। आपको अगर बेनिफिट मिल रहा है, तो मिल जाता है दिल्ली का भी। …वो फोन उठा नहीं रही हैं। मैं नंबर दे दूँगी, आप बात कर लेना।
रिपोर्टर : आपके रेफरेंस से बात कर लूँ?
राबिया : हाँ।
रिपोर्टर : ये डमी स्कूल्स सीबीएसई रहेंगे?
राबिया : हाँ-हाँ; और अगर हम आपको रेफरेंस दे रहे हैं, तो डेफिनेटली एडमिशन होगा।
‘आप (बच्चे के लिए) दो साल की डमी स्कूल फीस के लिए 1.20 से 1.30 लाख रुपये का भुगतान करेंगे। आपकी (बच्चे की) उपस्थिति प्रबंधित की जाएगी और आपको कक्षा 11 में स्कूल जाने की आवश्यकता नहीं होगी। कक्षा 12 में आप केवल प्रैक्टिकल के लिए जाएँगे और अंतिम परीक्षा। आपको कक्षा 11 से 12 तक बिना परीक्षा के प्रमोट कर दिया जाएगा। बस उस जगह से एक स्कूल यूनिफॉर्म ख़रीदें, जो हम निर्दिष्ट करते हैं; जब तक आपको उपस्थित होने की आवश्यकता है।’ -राबिया ने स्वीकार किया। निम्नलिखित आदान-प्रदान से फीस, उपस्थिति आवश्यकताओं और परीक्षा प्रोटोकॉल सहित एक डमी स्कूल में नामांकन की व्यावहारिकता का पता चलता है। यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि कैसे ये संस्थान (डमी स्कूल) छात्रों के लिए अपरंपरागत होते हुए भी एक सुव्यवस्थित शैक्षिक मार्ग प्रदान करते हैं।
रिपोर्टर : इसका प्रोसीजर (प्रक्रिया) क्या है?
राबिया : उनका कोई 1.20 टू 1.30 लाख के बीच का फीस होगा। कौन-सा क्लास रहेगा आपका?
रिपोर्टर : इलेवंथ, ट्वैल्थ। (11वीं, 12वीं।)
राबिया : हाँ; 1.20 (लाख) रहेगा। एक लाख 20 हज़ार; …दोनों साल का। इसमें आपको स्कूल नहीं जाना पड़ेगा। अटेंडेंस मैनेज होगा। इलेवंथ में आपको जाना नहीं पड़ेगा। ट्वेल्थ में आपके प्रैक्टिकल्स होंगे। फाइल वग़ैरह सबमिट करना होगा। नंबर भी अच्छे दे देते हैं, ये प्रैक्टिकल्स में। यूनिफॉर्म कुछ लेना पड़ेगा। एग्जाम देने जाना पड़ेगा स्कूल; …वो भी आपको बता देंगे, कहाँ से कॉलेज करना है।
रिपोर्टर : फर्स्ट टर्म, सेकेंड टर्म, …सब देने जाना पड़ेगा?
राबिया : नहीं; इलेवंथ में तो कोई एग्जाम ही नहीं देना पड़ेगा। ट्वेल्थ में सिर्फ़ बोर्ड के लिए जाना पड़ेगा।
रिपोर्टर : फर्स्ट टर्म, सेकेंड टर्म, कुछ नहीं होगा? सिर्फ़ बोर्ड में जाना होगा?
राबिया : हाँ; सिर्फ़ बोर्ड में।
रिपोर्टर : इलेवंथ में फाइनल एग्जाम में नहीं जाना होगा?
राबिया : नहीं।
रिपोर्टर : पास कैसे करेगी फिर?
राबिया : एंट्री रहता है, उसमें सब डिटेल रहती है।
रिपोर्टर : अच्छा; कोई इश्यू नहीं है?
राबिया : कहीं पर भी जाते हो डमी के लिए, ऐसा ही प्रोसेस होता है।
‘निश्चिंत रहें, आपके बच्चे को बिना कोई परीक्षा दिये 12वीं कक्षा में दाख़िला दे दिया जाएगा। मैं आपको आश्वस्त कर सकती हूँ कि कोई परेशानी नहीं होगी। इन डमी स्कूल को चलाने वाले अनुभवी लोग हैं; क्योंकि वे वर्षों से ऐसा कर रहे हैं।’ -राबिया ने हमें आश्वस्त करने की कोशिश की। यह बातचीत डमी स्कूलों की सर्वव्यापकता और व्यावहारिकता को उजागर करती है, जिसमें विस्तार से बताया गया है कि वे न्यूनतम उपस्थिति के साथ प्रैक्टिकल और परीक्षाओं का प्रबंधन कैसे करते हैं। राबिया के अनुभव से पता चलता है कि यह प्रणाली एक सुस्थापित, राष्ट्रव्यापी घटना है।
राबिया : मैंने भी अपने टाइम पर जब किया था, तो हमें भी एग्जाम देने जाना पड़ता था। सिर्फ़ प्रैक्टिकल्स में जाना पड़ता है। दे देंगे क्या बनाना है। ट्वेल्थ में सिर्फ़ जाना होगा एग्जाम के लिए। …वो तो पैसा आपसे इसी बात का तो ले रहे हैं।
रिपोर्टर : अच्छा; इलेवंथ, ट्वेल्थ आपने भी डमी से की है?
राबिया : जी, सर!
रिपोर्टर : इसमें कोई इश्यू तो नहीं है बच्चे के लिए?
राबिया : नो सर!
रिपोर्टर : नहीं, ऐसा न हो सीबीएसई की तरफ़ से कुछ जाँच हो जाए?
राबिया : वैसे तो कुछ भी कभी भी हो सकता है, बट काफ़ी टाइम से ये लोग यही काम कर रहे हैं। इनका बिजनेस ही ये है। आप तो फिर भी एंड यूजर हो। कुछ होगा, तो सबसे पहले तो हम पर होगा।
रिपोर्टर : आप बिहार से हो और आपने भी डमी स्कूल से पढ़ा है। इसका मतलब ये तो ऑल इंडिया में होता है?
राबिया : हाँ-हाँ; एक्जेटली। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ यहाँ पर होता है, ये सब जगह होता है।
रिपोर्टर : वी आर सरप्राइज्ड। (हम हैरान हैं।) हम लोगों को अभी तक डमी स्कूल के बारे में पता ही नहीं था। वो तो मेरे बेटे ने बताया कि बहुत सारे बच्चे स्कूल नहीं आते हैं। …यहाँ इंस्टीट्यूट में हैं; …आपके डमी स्कूल वाले बच्चे?
राबिया : हाँ-हाँ; बहुत-से एडमिशन्स होते हैं।
‘कोचिंग सेंटर आपको एक डमी स्कूल में दाख़िला दिलाएगा। जो माता-पिता जागरूक हैं, वे डमी स्कूलों को पसंद करते हैं; क्योंकि अंतत: विद्यार्थियों को प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में शामिल होना पड़ता है। पूर्वी दिल्ली के प्रीत विहार में एक प्रमुख संस्थान के प्रशासक अनूप कुमार (बदला हुआ नाम) ने बताया।’ उसने कहा- ‘स्कूल और कोचिंग संस्थान दोनों में एक ही चीज़ पढ़ने का कोई मतलब नहीं है, इसलिए वे नक़ली स्कूल चुनते हैं।’ यह तीसरा कोचिंग संस्थान था, जहाँ ‘तहलका’ के अंडरकवर टीम ने ख़ुद को एक डमी स्कूल में अपने (काल्पनिक) बच्चे के लिए प्रवेश चाहने वाले माता-पिता के रूप में दौरा किया था। (तीसरे व्यक्ति से हुई) इस बाचतीत में अनूप डमी स्कूलों की अवधारणा को समझाया कि एक समानांतर प्रणाली जहाँ छात्र प्रतिस्पर्धी परीक्षा की तैयारी पर ध्यान केंद्रित करते हैं। अनूप ने कई शैक्षणिक प्रतिबद्धताओं को पूरा करने वाले छात्रों के लिए डमी स्कूलों के रणनीतिक उपयोग के बारे में बताया। उसे यह बताने में (संकोची) परेशानी भी हुई कि कैसे ये संस्थान छात्रों को नियमित स्कूली शिक्षा से विचलित हुए बिना अपने लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करने की अनुमति देते हैं।
रिपोर्टर : अच्छा; एक मैं काफ़ी बच्चों को देख रहा हूँ। जैसे टेंथ के बाद एक सिस्टम और भी चल रहा है, …हम लोग को जानकारी नहीं है; …आपसे पता करना चाह रहा हूँ, सिंस यू आर फ्रॉम दिस फील्ड। (क्योंकि आप इस क्षेत्र से हो।) कि इलेवंथ में बच्चा गया, वो स्कूल नहीं जाता…।
अनूप : डमी स्कूल?
रिपोर्टर : डमी स्कूल? …ये क्या है?
अनूप : सर! क्लासेस हैं। इलेवंथ, ट्वेल्थ में है क्या, वही आपका नीट में है, वही जेईई में। …अब जब हम भी आपको वही पढ़ा रहे हैं, वही चीज़ आप स्कूल में पढ़ रहे हो, दोनों जगह पर अलग-अलग आपको वर्कआउट करना है, आपका फोकस नहीं हो पाता है। जो पैरेंट्स अवेयर होते हैं, वो क्या करते हैं, बेटा एक ही जगह फोकस करो। इलेवंथ, ट्वेल्थ अपना डमी स्कूल से करो। कॉम्पिटिटिव (प्रतिस्पर्धा) की तैयारी कोचिंग से करो। आपको एंड ऑफ दि डे क्या चाहिए? कम्पटीशन लेवल पर ही बैठना है। जब सिलेबस आपका क्लीयर होता है, एग्जाम देने आये, सिर्फ़ एक सर्टिफिकेशन के लिए। आख़िरकार क्या करना है, कंपटीशन देना है। फोकस रहे, इसलिए डमी स्कूल प्रेफर करते हैं।
रिपोर्टर : वो डमी स्कूल सीबीएसई एफिलिएटेड (संबद्ध) होते हैं?
अनूप : ऑब्वियसिली। (ज़ाहिर तौर पर।)
रिपोर्टर : होता है स्कूल में? एनरॉल (नामांकन) कौन कराएगा? …कोचिंग सेंटर?
अनूप : हाँ।
‘डमी स्कूल सीबीएसई की आवश्यकता के अनुसार छात्रों की उपस्थिति का प्रबंधन करता है। हमारे पास लोगों की एक टीम है जो बच्चों के लिए डमी स्कूल प्रवेश का काम सँभालती है। कक्षा 10 उत्तीर्ण करने के बाद आपका बच्चा हमारे माध्यम से एक डमी स्कूल में प्रवेश ले सकता है।’ -अनूप ने कहा। अब अनूप ने बताया कि कैसे डमी स्कूल छात्रों की उपस्थिति प्रबंधन की सुविधा प्रदान कर सकते हैं; ख़ासकर 10वीं कक्षा के बाद। वह सीबीएसई आवश्यकताओं का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए इन स्कूलों के साथ समन्वय करने में अपनी टीम की भूमिका के बारे में बताते हैं। यह प्रणाली छात्रों को उनकी प्रतियोगी परीक्षाओं पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एक सुव्यवस्थित मार्ग प्रदान करती है।
रिपोर्टर : क्यूँकि सीबीएसई तो माँगेगा अटेंडेंस, जब बच्चा बोर्ड देगा।
अनूप : वो अटेंडेंस मैनेज करते हैं।
रिपोर्टर : कुछ स्कूल्स आपकी लिस्ट में हैं; …या सब स्कूल्स करते हैं?
अनूप : नहीं; हमारी टीम कॉर्डिनेट करती है। बता देगी।
रिपोर्टर : क्या हम अपने बच्चे का टेंथ क्लीयर कर लेता है, तो आपके साथ ये सिस्टम करवा सकते हैं?
अनूप : हाँ; बिलकुल करवा सकते हैं। अभी टेंथ पर फोकस करने दीजिए। आफ्टर दैट वी विल सिट ऐंड डिस्कस। (10वीं के बाद हम बैठकर बात कर लेंगे।)
‘यह डमी स्कूलों के लिए फ़ायदे का सौदा है। सबसे पहले उन्हें स्वचालित रूप से छात्र मिलते हैं। दूसरा, चूँकि वे उपस्थित नहीं होते हैं, इसलिए उन पर छात्रों को प्रबंधित करने का दबाव नहीं होता है। तीसरा, स्कूल 20 के बजाय 10 शिक्षकों को नियुक्त कर सकता है।’ -अनूप ने ख़ुलासा किया। शैक्षणिक संस्थानों की जटिल दुनिया में ये बातचीत ज़मीनी स्तर की वास्तविकताओं पर प्रकाश डालती है। जैसा कि अनूप ने डमी स्कूलों के सूक्ष्म लाभों के बारे में बताया, एक्सचेंज शिक्षा के विकसित परिदृश्य पर एक स्पष्ट ख़ुलासा करता है।
रिपोर्टर : अच्छा; सर! ये इसमें स्कूल का क्या फ़ायदा है? बेनिफिट है?
अनूप : स्कूल का ये फ़ायदा है, वैसे वो बच्चों के लिए भटकेंगे, ऐसे बच्चे मिल रहे हैं।
रिपोर्टर : बच्चों का प्रेशर कम होगा स्कूल पर मुझे ऐसा लगता है?
अनूप : बच्चों के प्रेशर के अलावा टीचर्स का भी। …जहाँ उन्हें 20 टीचर्स चाहिए पढ़ाने को, वहाँ 10 में ही काम चल जाएगा।
‘आपको हमारे माध्यम से एक डमी के रूप में एक प्रतिष्ठित स्कूल मिलेगा। वे उपस्थिति का प्रबंधन करते हैं और उम्मीद करते हैं कि छात्र कोचिंग सेंटरों में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी पर ध्यान केंद्रित करें। हमारे पास पूर्वी दिल्ली के आनंद विहार और कड़कड़डूमा में स्कूल हैं।’ एक स्पष्ट बातचीत में अब अनूप ने अपने नेटवर्क के माध्यम से प्रतिष्ठित स्कूल खोजने की बारीकियों के बारे में ‘तहलका’ रिपोर्टर को बताया। यह बातचीत इस बात पर प्रकाश डालती है कि कैसे कुछ संस्थान पारंपरिक दिखने के बावजूद प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए उत्साहित विद्यार्थियों की उपस्थिति को प्रबंधित करने के लिए स्कूल चलाने के नियमों में बदलाव करते हैं।
रिपोर्टर : ऐसे अच्छे स्कूल मिल जाएँगे आपके थ्रू (ज़रिये)?
अनूप : ऑब्वियसली सर! बहुत स्कूल हैं। xxxx पब्लिक स्कूल है, कड़कड़डूमा में।
रिपोर्टर : xxxx सीबीएसई बोर्ड है?
अनूप : xxxx वो भी अच्छा स्कूल है। आनंद विहार में है। xxxx वो भी अच्छा स्कूल है।
रिपोर्टर : वो भी डमी कराते हैं?
अनूप : प्रॉपर स्कूल्स ही होते हैं। पर वो मैनेज करते हैं, अटैंडेंस। कोई बात नहीं, नहीं आ रहा आप तैयारी करो कंपीटीटिव एग्जाम (प्रतिस्पर्धी परीक्षा) की सिंपल।
रिपोर्टर : आपके पैनल में भी हैं, हो जाएगा?
अनूप : हाँ।
‘तहलका’ की इस पड़ताल ने कोचिंग सेंटर्स और डमी स्कूलों के बीच एक चिन्ताजनक साँठगाँठ का ख़ुलासा किया है। एक गुप्त नेटवर्क को उजागर किया है, जहाँ कोचिंग सेंटर्स मध्यस्थ के रूप में कार्य करते हैं। ये केंद्र न केवल बिचौलियों के माध्यम से विद्यार्थियों और डमी स्कूलों के बीच समझौता कराते हैं, बल्कि इस संदिग्ध गठजोड़ से लाभ भी कमाते हैं। अतिरिक्त शिक्षकों या भौतिक स्थान के ओवरहेड के बिना अतिरिक्त राजस्व अर्जित करने से स्कूलों को लाभ होता है, जबकि कोचिंग सेंटर इस तरह के लेन-देन को सुविधाजनक बनाने और विद्यार्थियों के नामांकन से अपनी अतिरिक्त आमदनी सुनिश्चित करते हैं। यह पारस्परिक रूप से मुनाफ़ाख़ोरी की योजना शैक्षिक प्रणाली के भीतर गहराई तक व्याप्त मुद्दे को रेखांकित करती है।
अब समय आ गया है कि सीबीएसई इस प्रणाली के खुले दुरुपयोग को रेखांकित करते हुए शिक्षा क्षेत्र में अखण्डता बहाल करने के लिए निर्णायक कार्रवाई करे। ‘तहलका’ के रहस्योद्घाटन में व्यापक बदलाव और कड़े नियमों की माँग की गयी है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि शैक्षणिक संस्थान नैतिक मानकों से समझौता किये बिना अपने इच्छित उद्देश्य को पूरा करें।