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महान् सिख नायक… महाराजा रणजीत सिंह

सभी जानते हैं कि पंजाब ने एक से बढक़र एक शासक भारत को दिये हैं। इतिहास इस बात का गवाह है कि तकरीबन सभी सिख शासकों ने दुश्मनों के दाँत खट्टे किये। इन शासकों में कई ने बड़ी-बड़ी कुर्बानियाँ भी दी हैं, जिसका मोल हम भारतीय नहीं चुका सकते। लेकिन इनमें अधिकतर शासक ऐसे थे, जिनकी ललकार से भी दुश्मन काँपते थे। ऐसे ही एक सिख शासक रहे हैं महाराजा रणजीत सिंह। महाराजा रणजीत सिंह इकलौते ऐसे पहले सिख शासक थे, जिन्होंने पंजाब को पख्तूनख्वा से कश्मीर तक विस्तार दिया। इससे भी बड़ी बात यह है कि 500 साल के इतिहास में महाराजा रणजीत सिंह सर्वश्रेष्ठ शासक सिद्ध हुए हैं। हाल ही में अमेरिकन यूनिवॢसटी ऑफ अलबामा ने एक सर्वे में इसकी पुष्टि की है।

यूनिवॢसटी की सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि उनकी कार्य शैली, रण-कौशल, प्रजा के हित में बनायी गयी नीतियाँ, सेना का नवीनीकरण और संरक्षात्मक सुधार के तौर-तरीके, आर्थिक और व्यापारिक नीतियाँ सिद्ध करती हैं कि महाराजा रणजीत सिंह सर्वश्रेष्ठ शासक थे। सूत्रों की मानें तो अमेरिकन यूनिवॢसटी ऑफ अलबामा ने पहले 10 प्रमुख शासकों का अध्ययन किया, जिसमें महाराजा रणजीत सिंह को इन शासकों में सर्वश्रेष्ठ पाया गया। इसके बाद यूनिवॢसटी ने पाँच प्रमुख शासनकाल को लेकर उन पर सूक्ष्मता से अध्ययन किया, जिसमें महाराजा रणजीत सिंह का शासन काल पहले स्थान पर आया है। अध्ययन में हैरान करने वाली यह बात भी सामने आयी है कि महाराजा रणजीत सिंह पढ़े-लिखे नहीं थे, मगर शिक्षा और कला को बहुत सम्मान तथा प्रोत्साहन देते थे।

अध्ययन की रिपोर्ट बताती है कि महाराजा रणजीत सिंह ने पंजाब प्रान्त पर पूरे 40 साल (1801-1839 तक) तक शासन किया था। अपने राज्य को उन्होंने इतना शक्तिशाली बना दिया था कि उनके शासनकाल में किसी भी आक्रमणकारी ने उनके साम्राज्य की ओर आँख उठाकर देखने तक की हिम्मत नहीं की। 59 साल की उम्र में 27 जून, 1839 में महाराजा रणजीत सिंह का निधन हो गया। विदित हो कि पिछले साल 27 जून को महाराजा रणजीत सिंह की 180वीं पुण्यतिथि के अवसर पर पाकिस्तान के लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह समाधि और सिख गुरु अर्जुन देव जी के गुरुद्वारे डेरा साहिब के निकट उनकी आठ फीट ऊँची प्रतिमा का उद्घाटन किया गया था। यह मूर्ति लाहौर क़िले में माई जिंदियन हवेली के बाहर एक खुली जगह में स्थापित है। इस प्रतिमा को तैयार करने में आठ महीने का समय लगा था, जिसे म्यूजियम के डायरेक्टर फकीर सैफुद्दीन की निगरानी में बनाया गया था। इस प्रतिमा को बनाने और स्थापित करने खर्चा ब्रिटेन स्थित एक सिख संगठन ने उठाया था।

बता दें कि महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 13 नवंबर, 1780 को पंजाब, जो कि अब पाकिस्तान में है; में हुआ था। 1798 में महाराजा रणजीत सिंह ने महज 17 साल की उम्र में जमन शाह दुर्रानी को धूल चटाकर पंजाब पर अपना कब्ज़ा जमा लिया। इस तरह 21 साल की उम्र में रणजीत सिंह पंजाब के महाराजा बन गये थे।

यूनिवॢसटी का अध्ययन बताता है कि महाराजा रणजीत सिंह की एक आँख की रोशनी बचपन में चेचक की बीमारी के कारण चली गयी थी। कहा जाता है कि जब वे महाराजा बने, तो कहते थे कि भगवान ने उन्हें एक आँख इसलिए दी है, ताकि वे हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, अमीर और गरीब सभी को एक बराबर देख सकें। इतना ही नहीं, महाराजा रणजीत सिंह ने अलग-अलग धर्मों में 20 शादियाँ की थीं। उनकी पत्नियाँ सिख, हिन्दू और मुस्लिम धर्म से थीं। कहा जाता है कि वे अपनी पत्नी महारानी जिंदियन, जिनका नाम जींद कौर था, को अत्यधिक प्रेम करते थे।

मूर्ति के अनावरण में गये थे भारतीय सिख

विदित हो कि महाराजा रणजीत सिंह की मूर्ति के अनावरण के लिए 463 भारतीय सिख पाकिस्तान गये थे। इसके लिए पाकिस्तान ने बाकायदा सभी 463 भारतीय सिख श्रद्धालुओं का वीजा जारी किया था। इस दौरान पाकिस्तान के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री ने ट्वीट करके महाराजा रणजीत सिंह की महानता, उनके जुझारूपन और उनके मज़बूत तथा समृद्ध शासन का ज़िक्र किया था।

खालसा सेना की थी गठित

महाराजा रणजीत सिंह ने खालसा सेना का गठन किया था। यह बात उनके वंशज डॉ. जसविंदर सिंह तथा एडवोकेट संदीप सिंह बताते हैं। उन्होंने बताया है कि महाराजा को भारत में वह महत्त्व नहीं मिल सका जो उन्हें मिलना चाहिए; लेकिन उन्होंने इस बात पर संतोष ज़ाहिर किया है कि सारी दुनिया उनके कुशल शासक होने का लोहा तो मान ही रही है, बल्कि उनके शासनकाल को भी श्रेष्ठ मानती है। महाराजा के वंशज बताते हैं कि महाराजा रणजीत सिंह ने देश के पश्चिमी छोर से दुश्मनों को न केवल रोका था, बल्कि उन्हें शिकस्त देकर सिख साम्राज्य की स्थापना भी की थी। वंशजों का कहना है कि महाराजा सच्चे देश भक्त, जनता के हितैषी, बहादुर और न्यायप्रिय थे।

वहीं यूनिवॢसटी के अध्ययन में पाया गया है कि महाराजा रणजीत सिंह ऐसे शासक थे, जिन्होंने पेशावर, पख्तूनख्वा और कश्मीर तक अपने शासन का विस्तार किया। अध्ययन की रिपोर्ट कहती है कि महाराजा रणजीत सिंह ने न केवल अपने राज्य पंजाब का विस्तार किया, बल्कि उस दौर में आपस में लडऩे वाले राजा-रजवाड़ों को भी एक किया। यही वजह थी कि उनका शासन समृद्ध और संगठित बना।

किसी को नहीं दिया मृत्युदण्ड

महाराजा के वंशज जसविंदर सिंह बताते हैं कि महाराजा ने ऐसी कानून व्यवस्था स्थापित की थी, जिससे अपराध न हों और किसी को भी अपने शासनकाल में मृत्युदण्ड नहीं दिया। वे एक धर्मनिरपेक्ष शासक थे और इसी नीति पर समस्त जनता को एक ही दृष्टि से देखते थे। उनके लिए सिख और दूसरे धर्मों के लोग एक बराबर थे और यही वजह थी कि वे किसी के साथ अन्याय न तो खुद करते थे और न ही किसी को करने देते थे।

नहीं लगने दिया जजिया

यूनिवॢसटी के अध्ययन में यह बात सामने आयी है कि महाराजा रणजीत सिंह ने हिंदुओं और सिखों से वसूले जाने वाला जजिया कर (टैक्स) नहीं लगने दिया था। इतना ही नहीं वे गरीबों की मदद करने में कभी हिचकते नहीं थे। न ही धर्म के आधार पर किसी से पक्षपात करते थे। अध्ययन की रिपोर्ट यह भी बताती है कि महाराजा रणजीत सिंह ने कभी किसी भी दूसरे धर्म के लोगों को सिख धर्म अपनाने के लिए बाध्य नहीं किया और न ही किसी धर्म के लोगों को कम समझा।

दानी शासक

अध्ययन की रिपोर्ट बताती है कि महाराजा रणजीत सिंह अत्यधिक दयालु तथा दानी प्रवृत्ति के शासक थे। उन्होंने अमृतसर के हरिमंदिर साहिब गुरुद्वारे में संगमरमर लगवाकर उसे सोने से मँढ़वाया। आज इस गुरुद्वारे के हम सब स्वर्ण मंदिर के नाम से जानते हैं।

टाइटल पर होने लगा है विवाद

महाराजा रणजीत सिंह के नाम के टाइटल पर अब विवाद भी होने लगा है। उनके नाम के आगे ‘संधावालिया’ शब्द जुडऩे से यह विवाद शुरू हुआ है। बता दें कि उनके नाम के आगे संधावालिया शब्द का इस्तेमाल न्यूयॉर्क के एक न्यूज पोर्टल ने इस्तेमाल किया था। इस पर सिख श्रद्धालुओं की ओर से इस पोर्टल को कानूनी समन भेजा गया। इस समन के बाद पोर्टल ने सिखों से माफी माँग ली थी। लेकिन इससे भी बड़ी बात तो यह है कि अब महाराजा रणजीत सिंह के वंशज ही टाइटल को लेकर एकमत नहीं हैं। पिछले साल महाराजा रणजीत सिंह की 7वीं पीढ़ी के वंशज कँवर सुखदेव सिंह संधावालिया ने इंग्लैड के चर्च मुखी जस्टिन वैलबी को ज्ञापन देकर माँग की थी कि एंड्यूज एंड सेंट पैट्रिक चर्च में दफ्न महाराजा दलीप सिंह की अस्थियों को वतन लाने की इजाजत दी जाए। बता दें कि चर्च प्रमुख उस समय भारत दौरे पर आये थे।

इस माँग पत्र में कँवर सुखदेव सिंह संधावालिया ने महाराजा रणजीत सिंह के नाम के आगे संधावालिया जोड़ा था तथा न्यूयार्क के न्यूज पोर्टल डेली सिख अपडेट ने महाराजा का यही टाइटल प्रकाशित कर दिया था। इसके बाद महाराजा के ही 7वींं और छठवीं पीढ़ी के वंशजों एडवोकेट संदीप सिंह तथा डॉ. जसविंदर सिंह ने पोर्टल को लीगल नोटिस भेजा था और पोर्टल ने इस बारे में जानकारी न होने का हवाला देते हुए माफी माँग ली थी। लेकिन अब महाराजा रणजीत सिंह के टाइटल का मामला उनके ही वंशजों में झगड़े की जड़ बनने लगा है। वहीं पादरी को मांग पत्र देने वाले महाराजा की7वींं पीढ़ी के वंशज कँवर सुखदेव सिंह संधावालिया का कहना है कि वह अपने कथन पर स्टैंड करते हैं और उन्होंने जो कुछ लिखा है वह इतिहास के आधार पर लिखा है। उन्होंने यहाँ तक कहा है कि महाराजा संधावालिया थे और जो लोग अपने आपको महाराजा का वारिस बताते हैं, वो वास्तव में महाराजा रणजीत सिंह के असली वारिस नहीं हैं।

काफी समय से रहा है विवाद

वैसे तो महाराजा रणजीत सिंह के टाइटल को लेकर चल रहा यह विवाद आज का नहीं है। देश-विदेश में रहने वाले उनके अनेक वंशज महाराजा का टाइटल अपने-अपने हिसाब से लगा रहे हैं और सत्यापित करने की कोशिश में लगे हैं। महाराजा के वंशजों का यह विवाद कई बार उठा है और फिर अपने आप ही शान्त भी हुआ है। लेकिन इस विवाद का प्रभाव महाराजा रणजीत सिंह के हक में उठाये जाने वाले उन ज़रूरी मुद्दों पर पड़ा है, जो उनके सभी वंशजों को मिलकर उठाने चाहिए। इस मुद्दों में सबसे बड़ा मुद्दा है इंग्लैंड में पड़ा कोह-ए-नूर हीरा, जिसकी वतन वापसी होनी चाहिए। दूसरा अहम मुद्दा है, महाराजा दलीप सिंह की अस्थियों का वापस लाकर सिख रीति-रिवाज के अनुसार उनका संस्कार करना।

महाराजा रणजीत सिंह के गुण

महाराज रणजीत सिंह महा सिंह और राज कौर के पुत्र थे। वे महज़ 10 साल की बाल्यावस्था से ही घुड़सवारी, तलवारबाज़ी एवं अन्य शस्त्र चलाने में पारम्गत हो चुके थे। उनका युद्ध-कौशल देखते ही बनता था। इस उम्र में वे अपने पिता के साथ सैनिक अभियानों में बड़ी रुचि से भाग लेते थे। कोई भी औपचारिक शिक्षा न मिलने के बावजूद उनमें एक कुशल शासक के गुण बचपन से ही झलकते थे। महाराजा रणजीत सिंह पर मात्र 13 साल की आयु में प्राण घातक हमला किया गया था। इस हमले का कारण उनका योद्धा होना था, इसी कौशल के दम पर उन्होंने हमलावर हशमत खाँ ही मौत के घाट उतार दिया। महाराजा रणजीत सिंह को बचपन से ही बहुत दु:ख झेलने पड़े, पर उन्होंने सभी दु:खों को पार करते हुए एक बड़े साम्राज्य की स्थापना की। महतबा कौर से उनका 16 साल की अवस्था में विवाह हुआ। महाराजा रणजीत सिंह युद्ध जीतने के बाद अपने शत्रु को जागीर दे दिया करते थे, ताकि वह अपना जीवनयापन कर सके। उनकी यह दयालुता जग प्रसिद्ध थी।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और विचारक हैं।)

आखिर न्याय में इतनी देर क्यों?

निर्भया बलात्कार मामले में दोषियों की फाँसी को लेकर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से हर आदमी- चाहे वो लडक़ा-लडक़ी, प्रौढ़ या फिर बुजुर्ग हो; संतुष्ट नज़र आ रहा था। लेकिन दोषियों की सज़ा टल सकने की खबर से सब उदास हैं। हर किसी की ज़ुबान पर पहला सवाल यही है कि पहले से ही इस मामले में इतनी देर लगी और अब न्याय हुआ भी, तो दोषियों को बचाने की कोशिशें क्यों हो रही हैं? जनता में दोषियों के पक्ष में किसी को भी सहानुभूति नहीं है; बल्कि लोगों का यह कहना है कि ऐसी सज़ा का कानून बने, ताकि फिर कोई ऐसी घटना न घटे जो इस देश की संस्कृति पर धब्बा लगाए।

हाल ही में पंजाब विश्वविद्यालय के कई विभागों के युवक-युवतियों और अन्य लोगों से जब इस बारे में बात की गयी है, तो सबसे दोषियों की फाँसी को जायज़ ठहराया। गणित विभाग, साइकोलॉजी, हिन्दी, लॉ डिपार्टमेंट व यूआईईटी के स्टूडेंट्स ने एक आवाज़ में कहा कि जैसा अपराध किया है, सज़ा भी वैसी ही होनी चाहिए। लेकिन फैसला इतनी देर से क्यों हुआ? और हुआ भी तो अब फिर अन्याय जीतता क्यों नज़र आ रहा है? कुछ ने कहा कि चलो फैसला देर से ही सही, निर्भया के साथ-साथ न्याय तो हुआ। माने गुप्ता, शिवेंद्र, ज्योति अहलावत समेत कई स्टूडेंट्स ने बताया कि बाकी देशों की सूची देखें, तो वहाँ बलात्कार-कत्ल केस कम हैं; लेकिन हमारे देश में कोई कोई डर नहीं। विदेशों में अगर कुछ गलत होता है, तो उसकी सज़ा भी सख्त होती है। हमारे देश में भी ऐसे मामलों में जल्द फैसला होना चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाने जाते मनोविज्ञान के वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ. जितेंद्र मोहन के साथ इस मामले पर जब चर्चा की गयी, तो उन्होंने बताया कि 19 दिसंबर, 2012 को वह लाहौर में एक कॉन्फ्रेंस में गये हुए थे, तब एक पत्रकार ने उन्हें सूचना दी। अगले दिन जब चंडीगढ़ पहुँचे, तो सभी अखबार इस घटना से पटे हुए थे। उस वक्त पहला विचार यह आया कि देश में ऐसी स्थिति तो पहले कभी नहीं हुई। बलात्कार या कत्ल मानवीय प्रकृति से जुड़े हैं, जो होते रहे हैं; लेकिन इस तरह को जघन्य अपराध के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। उन्होंने इस थीम पर महिला सशक्तिकरण को लेकर एक जर्नल भी प्रकाशित किया था। वे मानते हैं कि सेमिनार करवा देने से, वुमेन सेंटर बना देने से समाज पर असर नहीं होता; क्योंकि मानसिकता नहीं बदल रही।

डॉ. मोहन कहते हैं कि यह एक आम केस क्यों बन गया, क्या कानून का कोई ऐसा तरीका नहीं था, जिससे निर्भया को न्याय जल्द मिल पाता? ऐसे कई सवाल ज़ेहन में उठते रहे हैं। इस बात पर वे अफसोस ज़ाहिर करते हैं कि अपने देश में ऐसा लगता है जैसे कानून को फुटबॉल की तरह खेला जाता हो। सुप्रीम कोर्ट के अंतिम निर्णय के बाद भी इस मामले में दखलंदाज़ी बताती है कि कानून सियासी हाथों की कठपुतली बन चुका है। जब दोषियों ने इस जघन्य अपराध करते वक्त कोई नियम-कानून का ध्यान नहीं रखा तो उनके लिए कैसा कानून। वह कहते हैं कि जंगल के भेडि़ए को आम जानवर की तरह ट्रीट नहीं किया जा सकता। हैरानी तो इस बात की है कि छठा लडक़ा पहले ही बच गया, जिसने सर्टीफिकेट जमा कर दिया और कानून ने मान लिया। उसका डीएनए नहीं, एनालिसिस नहीं। तीन साल बाद जब वह बाहर आया, तो क्या उसमें सुधार हुआ; यह बहुत ही चिंतनीय और व्यवस्था पर सवाल खड़ा करने वाला है। डॉ. मोहन ने मीडिया की इस बात पर ऐतराज़ जताया कि इनके फोटो प्रकाशित नहीं किये जाने चाहिए; इनको हीरो की तरह पेश नहीं किया जाना चाहिए; जबकि अदालत से जेल लाने-ले जाने के वक्त इनके मुँह क्यों ढके रहते हैं? इसके पीछे उनका तर्क है कि लोग जब अखबार पढ़ते हैं, तो सबसे पहले फोटो पर ध्यान जाता है। ऐसा क्यों हुआ? कैसे हुआ? यह सब बाद में देखते हैं। दूसरी तरफ बच्चे इनको हीरो समझते लगते हैं। जेल में बन्द दोषियों को भी कई बार लगता होगा कि 15-20 अखबारों, चैनलों मे हमारी फोटो आ रही है।

प्रो. जितेंद्र का कहना है कि उम्मीद थी कि 22 जनवरी को निर्भया के साथ न्याय होगा; पर अफसोस न्याय में अड़ंगे लगते नज़र आ रहे हैं। जब सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया, तब फैसले के दिन की प्रासंगिकता थी। कुछ सवालों पर शिद्दत और गम्भीरता के साथ विचार-विमर्श किये जा रहे थे कि कि ऐसा अपराध भविष्य में ऐसा न हो, इसके लिए दिल्ली सरकार ने क्या उपाय किये? स्कूलों-कॉलेजों में कैसी जागरूकता फैलायी जा रही है? इन न्याय से अपराधी डरेंगे, आदि-आदि। पर फाँसी पर रोक लगते ही सब बदल गया। अब सवाल उठ रहे हैं कि आज देश में सडक़ किनारे खड़ी लडक़ी कितनी सुरक्षित है? क्या हमारा सफर सुरक्षित है? देश की संस्कृति में आयी विकृति को कैसे ठीक किया जाए? डॉ. मोहन और अनेक युवक-युवतियों का कहना है कि अगर हमारे देश में बलात्कार-कत्ल के ऐसे मामले ज्यादा हैं, तो हमें फिर से सोचना चाहिए कि हमारा धर्म, हमारे नेता, हमारा न्याय क्या कर रहा है?

सीधी जंग की सियासत

शताब्दी वर्ष की तरफ तेज़ी से बढ़ते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सत्ता में सीधी धमक के दस्ताने पहन लिए हैं। इन दिनों राजस्थान में जिस तरह भाजपा की राजनीति संघनिष्ठ संगठन मंत्री चन्द्रशेखर के इर्द-गिर्द घूम रही है उसने संघ समर्थक विश्लेषक राकेश सिन्हा के इस तर्क पर मुहर लगा दी है कि वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में सत्ता में सीधा दखल न सिर्फ संघ की विवशता है। बल्कि समय की माँग और अनिवार्यता भी है।’ राजनीतिक विश्लेषकों ने उन्हें सियासी खेल का धुरंधर और कामयाबी की चाबी मानते हुए ऐसा हुनरमंद माना है, जो प्रदेश में भाजपा को सत्ता के गलियारों में ले जा सकता है। मीडिया विश्लेषक सौरभ भट्ट का कहना है कि भाजपा के लिए नये पॉवर सेंटर बनते चंद्रशेखर की सक्रियता को देखते हेतु ताड़ लेना स्वाभाविक है कि पार्टी खुद को अतीत से बाहर निकाल रही है। प्रदेश के सियासी हलकों में इसे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर एक योजनाबद्ध प्रहार माना जा रहा है, जिन्होंने संघ को चुनौती देते हुए कहा था कि संघ को हिन्दुत्व और संास्कृतिक संगठन के नाम पर लोगों दिग्भ्रमित करने की बजाय खुलकर राजनीति करनी चाहिए। उन्होंने संघ के पाले में चुनौती की गेंद फेंकते हुए कहा था कि संघ फ्रंट फुट पर राजनीति करे फिर देखिए किसकी नीतियाँ क्या है? अब इससे पहले कि इस मसले पर कोई बहस आगे बढ़े? संघ ने ‘फ्रंट फुंट’ पर राजनीति करने की शुरुआत कर दी है। िफलहाल ज़िला स्तर पर गणिताई में बदलाव करते हुए संघनिष्ठों को ज़िलों का प्रभार सौंपा गया है। शुरुआत कोटा से हुई है। शहर जिला अध्यक्ष की कमान रामबाबू सोनी को सौंपी गयी है, तो देहात ज़िलाध्यक्ष मुकुट नागर को बनाया गया है। हालाँकि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया इन नियुक्तियों को ‘संघम शरणम गच्छामि’ के जुड़ाव से टालते नज़र आये कि कोटा भाजपा में गुटबंदी के चलते यह व्यवस्था करनी पड़ी। चर्चा है कि इसकी एक बड़ी वजह कोटा के सांसद और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के दबाव से भी सहज रहते हुए केवल यही विकल्प स्वीकार्य हो सकता था। भाजपा के प्रदेश छगन माहुर यह कहकर ‘रहस्य कथाओं’ से लुकाछिपी करते हुए नज़र आये कि पार्टी ने ज़िलाध्यक्ष पद पर ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ताओं को मौका दिया है। लेकिन क्या ऐसा है? िफलहाल इन नियुक्तियों को लेकर भाजपा के राजनीतिक हलकों में सियासत बुरी तरह गरमायी हुई है और गुटबाज़ी के रंग और गहरे हो गये हैं।

सूत्रों का कहना है कि पिछले विधानसभा चुनावों में वसुंधरा राजे को कमान सौंपने के मामले में भाजपा नेतृत्व का तुजुर्बा काफी कसैला रहा था। बावजूद अजमेर और जयपुर में आयोजित आरएसएस के चिंतन शिविरों में राजे के विकल्प का मुद्दा काफी कसमसाता रहा। लेकिन भाजपा नेतृत्व ने पारम्परिक सुल्तान को ही इस तर्क के साथ कमान सौंपना बेहतर समझा कि राजे-शाह का गठजोड़ प्रदेश में भाजपा को फिर से सत्ता में ला सकता है। लेकिन चुनावी नतीजे झिंझोड़ कर बता गये कि वसुंधरा राजे मोदी मॉडल की सबसे कमज़ोर कड़ी थी। इसके कसैले सबक के बाद ही संघ के पदाधिकारी उन सूरमाओं पर टकटकी लगाये हुए थे, जो पार्टी को सँवारकर फिर से सत्ता का राजमुकुट पहना सके। सूत्रों का कहना है कि पाँच राज्यों में सत्ता के घाट पर फिसल चुका भाजपा नेतृत्व भी अब यह मानने लगा है कि राज्यों के चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों की बजाय क्षेत्रीय मुद्दों और स्थानीय चेहरों पर दाँव खेला जाना चाहिए। मीडिया विश्लेषकों का कहना है कि अब नये सियासी महामंथन के बाद अगर संघ खुलकर सत्ता के संघर्ष की दहलीज़ पर कदम रखने जा रहा है, तो देखना ज़्यादा दिलचस्प होगा। खासकर संघ प्रमुख भागवत के उस बयान के बाद कि केवल राजनीति देश में परिवर्तन नहीं ला सकती। परिवर्तन तो केवल लोगों के द्वारा ही लाया जा सकता है। बहरहाल सूत्रों का कहना है कि अपने राजनीतिक कौशल की सबसे बड़ी परीक्षा देने के लिए संघ ने राजस्थान को चुना है। संघ प्रदेश में भाजपा को फिर से सत्ता में लाने के लिए कई मोर्चों पर काम कर रही है। सीएए को लेकर भाजपा के समर्थन अभियान से भी संघ सतुष्ट नहीं है। उसी का नतीजा है कि संघ ने सम्पर्क अभियान की बागडोर अपने हाथों में थाम ली है। संघ के कार्यकर्ता घर-घर जाकर लोगों को ऐसे पम्पलेट बाँट रहे हैं, जो सीएए की अच्छाइयों का बखान करते नज़र आते हैं। राजनीतिक दक्षता के इस मुहाने पर अगर चंद्रशेखर खूबियों से लबरेज नज़र आते हैं, तो इसकी बेशुमार वजहें हैं। सत्ता और संगठन में खम ठोककर तालमेल का मसौदा पढऩे वाले चंद्रशेखर ने विस्तारक योजना जैसे कार्यक्रम चलाये और संगठन को मज़बूती देने क लिए 50 लाख सदस्य जोड़ेे है। विधानसभा और लोकसभा चुनावों में सम्भाग स्तर पर प्रभारी बनाये गये। पदाधिकारियों को संगठनात्मक कामकाज का बँटवारा किया। चंद्रशेखर यही पद वाराणसी में भी 2014 में सँभाल चुके हैं। जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वहाँ से संसदीय चुनाव लड़ा था। विश्लेषकों का कहना है कि ऐसा 29 साल में पहली बार हुआ जब किसी संगठन महामंत्री की पकड़ को इतना मज़बूत देखा गया। चंद्रशेखर ने बेशक अपने लिए कोई सुॢखयाँ बटोरने की कोशिश नहीं की। लेकिन उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि गिनी जाएगी कि वसुंधरा राजे की बुझती चमक के बीच सिर्फ चंद्रशेखर ही ऐसा नेता साबित हुए, जो महज़ ढाई साल में प्रदेश भाजपा का सबसे बड़ा चेहरा बन गये। मीडिया विश्लेषक सौरभ भट्ट की मानें तो करीब दो दशकों से राजस्थान में भाजपा की सियासत वसुंधरा राजे तक ही सीमित रही। इससे पहले भैरोसिंह शेखावत पार्टी के केन्द्र बिन्दु रहे। लेकिन प्रदेश संगठन महामंत्री के तौर पर चाहे ओम प्रकाश माथुर हो या प्रकाश चंद्र प्रदेश भाजपा में वैसा वर्चस्व कायम नहीं कर पाये? जैसा चंद्रशेखर ने किया। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के रूप में सतीश पूनिया की तैनाती समेत कई बदलावों में चंद्रशेखर का प्रभाव साफनज़र आता है।

संगठन मंत्री के पद को पार्टी और संघ के बीच महत्त्वपूर्ण कड़ी माना जाता है। बाद में  राजे और पार्टी नेतृत्व के बीच टकराव के चलते यह पद आठ साल तक खाली ही रहा। लेकिन इस टकराव को दूर करने में चंद्रशेखर ही कामयाब रहे। सौरभ भट्ट कहते हैं कि अतीत से भविष्य का निर्माण तो सम्भव नहीं है। लेकिन चंद्रशेखर पर अगर संघ की नज़रें गड़ी है, तो उन्हें अतीत ओर वर्तमान दोनों टटोलने होंगे। उधर केन्द्रीय गृहमंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अब भी राजे से मुँह फुलाये हुए हैं। पिछले दिनों नागरिकता संशोधन कानून के समर्थन में जोधपुर में हुई शाह की सभा से वसुंधरा राजे ने दूरी ही बनाये रखी। शाह की सभा के लिए शहर में लगाये गये पोस्टरों में भी वसुंधरा राजे की तस्वीर नदारद थी। सूत्रों का कहना था कि राजे को शाह के कार्यक्रम में आने का निमंत्रण ही नहीं दिया गया था। इससे पहले जयपुर में सीएए के समर्थन में निकाली गयी भाजपा की सभा में राजे को आमंत्रित नहीं किया गया था। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि राजे के लिए इससे बड़ा अप्रत्यक्ष संकेत क्या हो सकता है कि सीएए को लेकर 5 जनवरी को देश में लॉन्च किये गये सम्पर्क अभियान में भी उन्हें  शामिल नहीं किया गया, जबकि इसमें शिवराज सिंह से लेकर रमण सिंह, रघुवरदास और देवेन्द्र फडणवीस सरीखे सभी पूर्व मुख्ममंत्री मौज़ूद थे। सूत्रों का कहना है कि राजमहलों में साज़िशकर्ताओं को भाँपने में माहिर राजे समझने में कोताही नहीं कर रहीं कि सब कुछ वैसा ही नहीं हो रहा, जैसा सोचकर वे चल रही थी। पार्टी नेतृत्व की उपेक्षा केा आँख भरकर देख चुकीं राजे िफलहाल तो एक नया राजनीतिक मंतव्य समेटे हुए संघ के लिए मंगलमय ज़ुबान बोल रही है कि अपनी माँ की वजह से मैंने संघ को बहुत करीब से देखा और महसूस किया है। यह संगठन सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रहित के लिए बना है। संघ का राजनीति से नहीं राष्ट्रनीति से नाता है, जिसमें राष्ट्रहित सर्वोपरि है। मीडिया विश्लेषक कहते हैं- ‘लेकिन मैडम, बहुत देर कर दी आते-आते!’ दूूसरी तरफ सूत्रों का कहना है कि नितिन गडकरी और पीयूष गोयल सरीखे कद्दावर नेताओं की छत्रछाया में वसुंधरा राजे पूरी तरह आश्वस्त है कि उन्हें प्रदेश के राजनीतिक फलक से इतनी आसानी से फिनिश नहीं किया जा सकता। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि सियासत के लिए इतिहास को नकारना आसान नहीं होगा। तब जबकि इस बार संघ सीधा उनसे मुकाबिल है।

डीआईजी को बचाने में लगी महाराष्ट्र पुलिस

नाबालिग बच्चियों की सुरक्षा का दम भरने वाली महाराष्ट्र पुलिस इन दिनों अपने ही एक डीआईजी की करतूत की वजह से बदनाम हो रही है। पुलिस इस दागी अधिकारी की सरगर्मी से तलाश रही है। इस डीआईजी पर अपने पारिवारिक मित्र की नाबालिग लडक़ी के साथ छेड़छाड़ करने और उसके परिवार को धमकाने के संगीन आरोप लगे हैं। बता दें कि छ: महीने बाद पुलिस ने डीआईजी निशिकांत मोरे के िखलाफ बच्ची से छेड़छाड़ का केस रजिस्टर किया गया था और इतने ही महीने सरकार ने इस दागदार आईपीएस ऑफिसर को सस्पेंड करने में लगा दिये।

कब का है मामला?

पुणे में तैनात डीआईजी निशिकांत मोरे कानून से भागते फिर रहे हैं। 2019 में एक परिवार ने आरोप लगाया कि निशिकांत मोरे 5 जून की शाम को परिवार की बेटी के 1।वें बर्थ-डे पार्टी में अपनी पत्नी के साथ बिना बुलाये पहुँचे और वहाँ उन्होंने शराब पीकर उनकी बेटी के साथ अश्लील हरकत की। जब पार्टी में मौज़ूद परिजनों और दूसरे लोगों ने उनकी हरकत का विरोध किया, तो उन्होंने फैमिली को गम्भीर परिणाम भुगतने की धमकी भी दी। पार्टी में मौज़ूद परिजनों ने आईपीएस निशिकांत मोरे की हरकत को अपने मोबाइल कैमरे में सबूत के तौर पर कैद कर लिया था। मामला बिगड़ते देख निशिकांत मोरे की पत्नी उन्हें वहाँ से ले गयी।

बचाने में लगा रहा पूरा विभाग

पीडि़त फैमिली का आरोप है कि वारदात वाली रात ही उन्होंने तलोजा पुलिस स्टेशन में डीआईजी निशिकांत मोरे के िखलाफ कंप्लेंट की थी। लेकिन पुलिस ने उनकी कंप्लेंट लिखनी, तो दूर उलटे उन्हें ही चुप रहने की सलाह दे कर लौटा दिया था। पीडि़ता के परिजनों ने बताया कि उनकी बेटी के साथ छेड़छाड़ करने वाले आईपीएस ऑफिसर निशिकांत मोरे की कंप्लेंट उन्होंने पुलिस स्टेशन से लेकर डीजीपी तक को की, लेकिन डिपार्टमेंट अपने आदमी को बचाने में लगा रहा। पीडि़त लडक़ी के पिता ने रोते हुए कहा- ‘वो इतना बड़ा अफसर है कि आम आदमी तो क्या डीसीपी भी उसके िखलाफ कंप्लेंट लेने से कन्नी काट रहा था।’

पीडि़ता का किया गया पीछा

पिछले दिनों एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें पीडि़त लडक़ी के परिजनों ने निशिकांत मोरे को पीडि़ता का पीछा करते पकड़ा था। इस वीडियो में निशिकांत मोरे तो नज़र नहीं आया; लेकिन उसके ड्राइवर को परिजनों ने पकड़ लिया था। पीडि़त लडक़ी का आरोप था कि निशिकांत मोरे उसका पीछा कर रहा था, लेकिन उसके शोर मचाने के चलते वो दूसरी कार में बैठकर वहाँ से निकल गया। पीडि़ता के पिता ने बताया कि जब से उन्होंने निशिकांत मोरे के िखलाफ कंप्लेंट करने की कवायद शुरू की है, तभी से उनकी मुसीबतें बढ़ गयी हैं। उन्होंने कहा कि मेरे बेटे को अनजान लोग कभी भी पीट देते हैं और पुलिस हमारी शिकायत तक स्वीकार नहीं करती।

6 महीने बाद दर्ज हुई एफआईआर

6 महीने तक पुलिस स्टेशन और बड़े अफसरान के दफ्तरों के चक्कर काटने के बाद आिखरकार 26 दिसंबर 2019 को नवी मुम्बई की तलोजा पुलिस ने डीआईजी निशिकांत मोरे के िखलाफ एफआईआर दर्ज की। पीडि़त लडक़ी ने सबूत के तौर पर मोबाइल कैमरे में रिकॉर्ड वो क्लिप भी दिखाया, जिसमें डीआईजी निशिकांत मोरे लडक़ी के साथ अश्लील हरकत करता पकड़ा गया था।  डीसीपी अशोक दुधे ने कहा कि वारदात के वीडियो क्लिप और चश्मदीदों के बयान के आधार पर पुलिस ने पुणे में तैनात डीआईजी (मोटर ट्रांसपोर्ट) निशिकांत मोरे के िखलाफ केस रजिस्टर किया गया।  पुलिस ने निशिकांत मोरे के िखलाफ पॉस्को एक्ट और आईपीसी के सेक्शन 354 (ए), 506 के तहत केस रजिस्टर किया।

कोर्ट में भी मिली धमकी

पीडि़ता के परिवार का आरोप है कि उन्हें पनवेल सेशंस कोर्ट में पेशी के दौरान भी धमकाया गया। पीडि़त लडक़ी के पिता ने बताया उन्हें कोर्ट में धमकी दी गयी। उन्होंने कहा- ‘हम लोग सुनवाई के लिए कोर्ट में थे; वहाँ हमें एक आदमी ने धमकी देते हुए कहा कि मैं सीएम का ड्राइवर हूँ, तुम लोग चुप रहने का।’

बता दें कि पीडि़त के भाई ने उस शख्स की रिकॉॄडग अपने मोबाइल में कर ली थी। पीडि़त परिवार ने इस घटना की शिकायत तलोजा पुलिस स्टेशन में दर्ज करायी। वीडियो वायरल होने के बाद जाँच शुरू हुई, तब पता चला कि पीडि़ता के परिजन को कोर्ट में धमकाने वाला शख्स कांस्टेबल दिनकर साल्वे है, जो मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का ड्राइवर है। साल्वे ने यह भी बताया कि उसने निशिकांत मोरे के साथ मुम्बई के नागपाड़ा मोटर ट्रांसपोर्ट यूनिट में काम किया था ,उस वक्त निशिकांत मोरे असिस्टेंट कमिश्नर ऑफ पुलिस (एसीपी) था। इसके बाद  मोरे को डिपार्टमेंट ने तत्काल प्रभाव से सस्पेंड कर दिया।

परिजनों को लगातार किया गया तंग

पीडि़त फैमिली के आरोप हैं कि निशिकांत मोरे के िखलाफ एफआईआर रजिस्टर होने के बाद से उनकी दिक्कतें और बढ़ गयी हैं। पीडि़त के पिता ने बताया कि एफआईआर दर्ज होने के बाद से धमकियों का सिलसिला बढ़ गया है। मेरे बेटे के साथ बार-बार मारपीट की जा रही है। केस वापस लेने के लिए दबाव बनाया जा रहा है।

अब जागी सरकार, डीआईजी को किया गया निलंबित

मामले को तूल पकड़ता देख 9 जनवरी, 2020 को महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख ने डीआईजी निशिकांत मोरे को सस्पेंड करने के आदेश पारित कर दिये। इस मामले पर एक पत्रकार वार्ता में अनिल देशमुख ने कहा कि रिपोर्ट के बाद यह फैसला लिया गया। सरकार का यह फैसला निशिकांत मोरे पर एफआईआर दर्ज होने के दो सप्ताह बाद आया है।

मोरे की जमानत याचिका खारिज

गिरफ्तारी से बचने के लिए निशिकांत मोरे ने पनवेल सेशंस कोर्ट में एंटी सेफ्टी बेल के लिए याचिका दायर की थी, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया। एफआईआर रजिस्टर होने के बाद निशिकांत मोरे ने पनवेल कोर्ट में अग्रिम जमानत याचिका दायर की थी जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया। इसके बाद गृह मंत्रालय ने भी डीआईजी निशिकांत मोरे को सस्पेंड कर दिया। बता दें कि पनवेल सेशंस कोर्ट से अग्रिम जमानत याचिका खारिज होने के बाद निशिकांत मोरे ने बॉम्बे हाई कोर्ट में जमानत याचिका दायर की है।

आरोपी पूर्व डीआईजी भूमिगत

बेल रिजेक्ट होने के बाद से ही आरोपी निशिकांत मोरे अंडर-ग्राउंड हो गया है। पुलिस उसकी सरगर्मी से तलाश कर रही है। पुलिस से इस बारे में पूछने पर एक ही जवाब मिल रहा है कि आरोपी कोई भी हो, पुलिस हमेशा ईमानदारी से काम करती है। मोरे को भी जल्द ही ढूँढकर गिरफ्तार कर लिया जाएगा।

मोरे पहले भी कर चुका है हरकतें

तहलका को मिली इनफार्मेशन के मुताबिक साल 2004 में नागपाड़ा मोटर ट्रेनिंग यूनिट के एसीपी रहते वक्त भी निशिकांत मोरे पर ऐसे ही संगीन आरोप लगे थे। निशिकांत मोरे की सरकारी कार का एक्सीडेंट हो गया था, उस वक्त वो अपनी सरकारी कार में पार्लर चलाने वाली लडक़ी के साथ गुलछर्रे उड़ा रहा था, जिसके बाद तत्कालीन मुम्बई पुलिस कमिश्नर ए.एन. रॉय ने एसीपी निशिकांत मोरे के िखलाफ जाँच के आदेश दिये थे। विभागीय जाँच में निशिकांत मोरे को दोषी पाया गया था और कुछ महीनों के लिए सस्पेंड किया गया था।

लडक़ी हुई थी गायब

इस बीच पुलिस फोर्स से निलंबित पुणे के डीआईजी निशिकांत मोरे के िखलाफ मोलेस्ट्रेशन का आरोप लगाने वाली नाबालिग लडक़ी को पुलिस ने देरहादून से ढूँढ निकाला। यह नाबालिक लडक़ी 6 जनवरी की रात करीब 11.30 बजे से घर से गायब हो गयी थी।

खुदकुशी का लिखा था पत्र

घर छोडऩे से पहले लडक़ी अपने पिता के नाम खुदकुशी-पत्र छोड़ गयी थी। पत्र में उसने लिखा था कि उसे ढूँढने की कोशिश नहीं की जाए, वह निशिकांत मोरे की वजह से होने वाली जिल्लत और पुलिस डिपार्टमेंट की बेरुखी से परेशान होकर खुदकुशी कर रही है और उसकी खुदकुशी का ज़िम्मेदार डीआईजी मोरे को माना जाए।

तलाश में लगीं पुलिस की कई टीमें

बेटी के अचानक घर से गायब होने से सदमे में आये परिजनों ने तलोजा पुलिस में बेटी की गुमशुदगी की शिकायत दर्ज करवायी थी। चूँकि मामला काफी संगीन था इसी लिए पुलिस की कई टीमें लडक़ी की तलाश में जुट गयी थीं।

रिश्तेदार के साथ मिली देहरादून में

पुलिस टीम ने मोबाइल सर्विलांस की मदद से लडक़ी को देहरादून में एक रिश्तेदार के साथ ढूँढ निकाला। पुलिस टीम लडक़ी और उसके रिश्तेदार को नवी मुम्बई ले आयी, जहाँ दोनों से पूछताछ की गयी है। सूत्रों का दावा है कि पुलिस लडक़ी के उस रिश्तेदार के िखलाफ भी केस दर्ज किया जा रहा है, जिसके साथ लडक़ी घर से भागकर देहरादून गयी थी। नवी मुम्बई पुलिस कमिश्नर ने मीडिया से बात करते हुए इस बात कि पुष्टि की। उन्होंने कहा कि लडक़ी देहरादून में मिली। हमारी टीम उसे 14 नवंबर को करीब 5 बजे वापस ले आयी है और उनके बयान दर्ज किये जा रहे हैं। इस मसले पर लडक़ी का परिवार बात करने से बच रहा है।

मोरे की पत्नी ने पीडि़तों पर जड़े गम्भीर आरोप

इधर, निशिकांत मोरे की पत्नी कनिशिका मोरे ने पीडि़त लडक़ी के परिवार पर उसके पति मोरे को झूठे मामले में फँसाने आरोप लगाया है। मोरे की पत्नी का कहना है कि मेरे पति को बेल नहीं, मिले इसी लिए पूरा ड्रामा रचा गया। कनिष्का मोरे ने अपनी बात रखते हुए कहा कि पुलिस को लडक़ी और उसके पूरे परिवार के िखलाफ केस दर्ज करना चाहिए; यह पूरा ड्रामा प्लानिंग से किया गया है।

महासागरों में घट रही ऑक्सीजन खतरे में पड़ रहा समुद्री जीवन

महासागरों में ऑक्सीजन घट रही है और इससे समुद्री जीवन सहित मछलियों की कई प्रजातियाँ खतरे में घिर गयी हैं। प्रकृति के लिए काम करने वाले समूह ‘आईयूसीएन’ की नयी रिपोर्ट के एक अध्ययन में यह जानकारी सामने आयी है। यह रिपोर्ट हाल ही में जारी की गयी है।

समीक्षा रिपोर्ट, ‘ओसेन्स डीऑक्सीजनेटिंग : एव्री वन्ज प्रॉब्लम’, महासागर डीऑक्सीजनेटिंग के कारणों, प्रभावों और सम्भावित समाधानों में अब तक की सबसे बड़ी समीक्षा रिपोर्ट है। इसमें शोधकर्ताओं का कहना है कि कई दशक से इस बात की जानकारी है कि समुद्र में पोषक तत्त्व कम हो रहे हैं; लेकिन अब जलवायु परिवर्तन की वजह से स्थिति लगातार खराब होती जा रही है।

रिपोर्ट से जानकारी मिलती है कि 1960 के दशक में महासागरों में 45 ऐसे स्थान थे, जहाँ ऑक्सीजन कम थी; लेकिन अब इनकी संख्या बढक़र 700 हो गयी है। शोधकर्ताओं का कहना है कि ऑक्सीजन की कमी के कारण ट्यूना, माॢलन और शार्क सहित कई प्रजातियों को खतरा है। आईयूसीएन एक सदस्यता संघ है, जो सरकार और नागरिक समाज दोनों संगठनों से बना है। इसमें 1300 से अधिक सदस्य संगठन और 15 हज़ार से ज़्यादा विशेषज्ञ हैं। विविधता और विशाल विशेषज्ञता प्राकृतिक दुनिया की स्थिति और इसे सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक उपायों पर आईयूसीएन को वैश्विक अधिकार बनाती है।

यह रिपोर्ट बताती है कि वैश्विक स्तर पर, वाॄमग-प्रेरित ऑक्सीजन हानि पोषक तत्त्व साइर्कि और रीसाइक्लिंग, प्रजातियों के वितरण, समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं और निवास स्थान की उपलब्धता में लगातार परिवर्तनशील है।

रिपोर्ट में शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि ऑक्सीजन की कमी के कारण ट्यूना, माॢलन और शार्क सहित कई प्रजातियों को खतरा है। लबे वक्त से माना जाता रहा है कि खेतों और कारखानों से नाइट्रोजन और फास्फोरस जैसे रसायनों के निकलने से महासागरों को खतरा रहता है और समुद्र में ऑक्सीजन का स्तर प्रभावित होता है।  तटों के करीब ये अभी भी ऑक्सीजन की मात्रा घटने का प्रमुख कारक है; लेकिन हाल के वर्षों में जलवायु परिवर्तन से खतरा बढ़ गया है।

शोध से ज़ाहिर होता है कि अधिक मात्रा में कार्बन डाई ऑक्साइड निकलने से जब तापमान बढ़ता है, तो अधिकांश गर्मी समुद्र सोख लेता है, इसके कारण पानी गर्म होता है और ऑक्सीजन घटने लगती है। वैज्ञानिकों के अनुमान के मुताबिक, साल 1960 से 2010 के बीच महासागरों में ऑक्सीजन की मात्रा दो फीसदी घटी है।  आईयूसीएन की इस रिपोर्ट के मुताबिक, समुद्र जीवाश्म ईंधन से पैदा होने वाले कार्बन उत्सर्जन के चौथाई हिस्से को सोख लेते हैं। समुद्र में ऑक्सीजन कम होने की यही गति रही तो साल 2100 में वैश्विक स्तर पर समुद्र में घुली ऑक्सीजन की मात्रा में तीन से चार फीसदी कमी आएगी। अभी ऑक्सीजन की मात्रा दो फीसदी तक गिरी है। ऑक्सीजन की कमी समुद्र की सतह से एक हज़ार मीटर की गहराई तक आएगी, जो समुद्री जैव विविधता के सबसे सम्पन्न हिस्से हैं। आईयूसीएन के कार्यवाहक निदेशक ग्रेथल एगुइलर ने कहा- ‘समुद्र में ऑक्सीजन की मात्रा में हो रही कमी को लेकर किये गये अध्ययन की समीक्षा से पहले ही समुद्र जीवों के संतुलन में अव्यवस्था पैदा हो गयी है और उन प्रजातियों के लिए खतरा है, जिन्हें अधिक ऑक्सीजन की ज़रूरत है। टूना, मर्लिन और शार्क जैसी प्रजातियाँ पहले ही खतरे में हैं और अपने बड़े आकार और अधिक ऊर्जा ज़रूरत के चलते कम ऑक्सीजन के प्रति संवेदनशील हैं।’

आईयूसीएन में समुद्री विज्ञान संरक्षण के वरिष्ठ सलाहकार डैन लैफोले ने कहा- ‘महासागरों की ऑक्सीजन कम होने से समुद्र के इकोसिस्टम पर खतरा बढ़ गया है। समुद्री पानी का तापमान बढऩे और खारेपन की वजह से यहाँ पहले से ही संकट की स्थिति है।’ उन्होंने कहा कि ऑक्सीजन की कमी वाले इलाकों को बढऩे से रोकने के लिए ग्रीनहाउस से निकलने वाली गैसों पर प्रभावी तरीके से रोक लगाने की ज़रूरत है। इसके साथ ही खेती और दूसरी जगहों से पैदा होने वाले प्रदूषण पर काबू पाना भी ज़रूरी है। महासागर ऑक्सीजन की कमी समुद्री वाॄमग और अम्लीकरण से पहले से ही समुद्री पारिस्थितिक तंत्रों को प्रभावित कर रही है। ऑक्सीजन-शून्य क्षेत्रों के चिन्ताजनक विस्तार को रोकने के लिए, हमें निर्णायक रूप से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है। अधिक मात्रा में कार्बन डाई ऑक्साइड निकलने से जब तापमान बढ़ता है, तो अधिकांश गर्मी समुद्र सोख लेता है। इसके कारण पानी गर्म होता है और ऑक्सीजन घटने लगती है। महासागरों में ऑक्सीजन की मात्रा दो फीसदी घटी है। अगर दुनिया के देशों का उत्सर्जन पर रोक लगाने को लेकर मौज़ूदा रवैया बरकरार रहा, तो साल 2100 तक महासागरों की ऑक्सीजन तीन से चार फीसदी तक घट सकती है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में इसके बुरे असर की सम्भावना है। जैव विविधता में सबसे समृद्ध जलस्तर के ऊपरी 1,000 मीटर में बहुत नुकसान होने की आशंका है। ऑक्सीजन में कमी का ये वैश्विक औसत है और हो सकता है कि ये ज़्यादा न लगे लेकिन कुछ जगहों पर ऑक्सीजन की मात्रा में 40 फीसद तक कमी आने की आशंका ज़ाहिर की गयी है।  बड़ी मछलियों को अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होती है। शोधकर्ताओं के अनुसार, ये जीव समुद्रों के उथले स्थान पर आ रहे हैं, जहाँ ऑक्सीजन की मात्रा अधिक है। हालाँकि, यहाँ इनके पकड़े जाने का खतरा अधिक रहता है।

इस रिपोर्ट में पाया है कि मछलियों की 6000 से ज़्यादा प्रजातियाँ गम्भीर रूप से संकट में हैं। इसमें कहा गया है कि वस्तुत: हज़ारों प्रजातियाँ हैं, जो 2030 तक विलुप्त हो सकती हैं; क्योंकि कई इसकी कगार पर हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि पृथ्वी इनके विलुप्त होने के संकट का सामना कर रही है और दुनिया भर में सरकारें उचित रूप से प्रतिक्रिया देने में विफल हो रही हैं। जानवरों को विलुप्त होने से बचाना महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि हम सीधे रूप से उनसे जुड़े हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, 2030 से पहले खत्म होने की आशंका वाली कुछ प्रजातियों में सुमात्रा राइनो जैसे प्रमुख स्तनधारी हैं। वे एक बार पूर्वी हिमालय में भूटान और पूर्वी भारत, म्यांमार, थाईलैंड, वियतनाम और चीन में पाए जाते थे। साल 1986 में, अनुमानित 800 सुमात्रा राइनो जंगल में रहते थे। साल 2008 में यह संख्या घटकर महज़ 275 रह गयी और अब इनकी संख्या 110 से भी कम हो सकती है। मछली की कई प्रजातियाँ पहले ही विलुप्त हो चुकी हैं।

भारत सरकार के प्रयास

भारत में लुप्तप्राय प्रजातियों की सुरक्षा के लिए केंद्र सरकार ने कुछ कदम उठाये हैं। इनमें वाइल्ड लाइफ (प्रोटेक्शन) एक्ट, 1972 के प्रावधानों के तहत शिकार और व्यावसायिक शिकार के िखलाफ कानून हैं। वाइल्ड लाइफ (प्रोटेक्शन) एक्ट 1972 में संशोधन किया गया है और इसे और सख्त बनाया गया है। अधिनियम के तहत अपराधों के लिए सज़ा बढ़ा दी गयी है। संरक्षित क्षेत्रों, अर्थात्, राष्ट्रीय उद्यानों, अभयारण्यों, संरक्षण रिजर्व और सामुदायिक रिजर्व में वन्य जीवों (उनके संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के प्रावधानों के तहत पूरे देश में महत्त्वपूर्ण वन्यजीवों के आवासों को शामिल किया गया है। वन्यजीव के अवैध शिकार और इसके पदार्थों के व्यापार पर नियंत्रण के लिए कानून को मज़बूत करने के लिए वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो की स्थापना की गयी है। पर्यावरण और वन मंत्रालय वन्यजीव आवासों के एकीकृत विकास की केंद्र प्रायोजित योजना के एक घटक के रूप में गम्भीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियों को बचाने के लिए कार्यक्रम शुरू करने के लिए राज्य सरकारों को वित्तीय सहायता भी प्रदान करता है। वर्तमान में ऐसे रिकवरी कार्यक्रमों को लेने के लिए 16 प्रजातियों को प्राथमिकता दी गयी है, जिनमें स्नो लेपर्ड, बस्टर्ड (फ्लोरिकंस सहित), रिवर डॉल्फिन, हंगुल, नीलगिरि तहर, समुद्री कछुए, डगोंग और कोरल रीफ्स, एडिबल-नेस्ट स्विफ्टलेट्स, एशियाई जंगली भैंस, निकोबार मेगापोड, मणिपुर ब्रो-एंटीलेयर हिरण, गिद्ध, मालाबार सिवेट, महान् वन-सींग वाले गैंडे, एशियाई शेर, दलदली हिरण और जेरडन कोर्सेर शामिल हैं।

सज़ा पर सियासत क्यों?

हाल निर्भया के गुनाहगारों को 22 जनवरी को फाँसी नहीं होगी। अदालत ने 17 जनवरी को नया डेथ वारंट जारी कर उनकी मौत का समय 01 फरवरी सुबह 6 बजे तय कर दिया है। दोषी मुकेश की याचिका पर यह फैसला आया। कानून जानकारों का मानना है कि दोषी लगातार कानूनी पैंतरे अपना रहे हैं। जैल मैनुअल के अनुसार किसी केस में अधिक दोषियों को मौत की सज़ा मिली है तो फाँसी एक साथ ही होगी। दया याचिका खारिज होने के 14 दिन बाद ही फाँसी दी जा सकती है। इन्हीं नियमों का फायदा उठाकर दोषी फाँसी टलवा रहे हैं। फाँसी की नयी तारीख और दिल्ली में 8 फरवरी को होने वाले विधानसभा चुनाव के माहौल में निर्भया मामले में दिल्ली में सियासत भी गरमा गयी है। दिल्ली राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने तो यहाँ तक कह दिया कि अब समय है कि मुल्क के हर बलात्कारी को फाँसी की सज़ा दी जाए और एक कड़ा संदेश दिया जाए। केंद्रीय मंत्री व भाजपा के नेता प्रकाश जावड़ेकर की राय में चारों दोषियों को फाँसी देने का दिल्ली की अदालत का फैसला महिलाओं को सशक्त करेगा और न्यायपालिका पर लोगों के विश्वास को मज़बूत करेगा।

गौरतलब है कि फाँसी के समर्थन में राजनेताओं, दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल की फाँसी के पक्ष उठती आवाज़ के माहौल में वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने निर्भया की माँ से अपील की कि वह दोषियों को माफ कर दें। उन्होंने ट्वीट किया कि जिस तरह सोनिया गाँधी ने नलिनी (राजीव हत्याकांड की दोषी) को माफ किया, उन्हें भी दोषियों को माफ कर देना चाहिए। इस पर निर्भया की माँ आशा देवी ने कहा कि पूरा देश चाहता है कि दोषियों को फाँसी की सज़ा हो। दरअसल, दुनिया भर में फाँसी की सज़ा के पक्ष व विरोध में लोगों की अपनी-अपनी राय है। समर्थन करने वालों की राय है कि इससे अपराधियों,अपराधिक प्रवत्ति वाले लोगों के मन में भय पैदा होगा और वे ऐसा जधन्य अपराध करने से पहले कई बार सोचेंगे। मगर फाँसी का विरोध करने वाले इसे मानवाधिकार से जोडक़र देखते हैं और सभ्य व आधुनिक समाज में इसकी कोई जगह नहीं कहकर अपना पक्ष रखते हैं। फाँसी किसी भी जुर्म को खत्म करने का शर्तिया इलाज नहीं है। वैसे महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली कार्यकर्ताओं का एक वर्ग ऐसा भी है, जो फाँसी का विरोध करता है। उनकी अशंका है कि फाँसी की सज़ा का खामियाज़ा लड़कियों/महिलाओं को अधिक भुगतना पड़ सकता है। बलात्कार करने के बाद बलात्कारी पीडि़ता की हत्या करने वाले जुर्म की ओर बढ़ेगा क्योंकि उसे पता होगा कि पीडि़ता को अगर ज़िन्दा छोड़ दिया, तो वह उसके बारे में पुलिस को बता देगी और उसे फाँसी हो जाएगी। वह अपनी जान बचाने के लिए पीडि़ता की जान ले लेगा। बलात्कार, लड़कियों के साथ होने वाले यौन अपराधों के मामलों में अपराधी अक्सर जान-पहचान/दूर के रिश्तेदार होते हैं। ऐसे में अपराधियों को बचाने, उन्हें फाँसी से बचाने के लिए पीडि़तों पर रिपोर्ट दर्ज नहीं कराने का दबाव बढ़ सकता है। इस बीच दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा है कि अगर दो दिन के लिए उन्हें दिल्ली पुलिस दे दी जाए, तो दोषियों को फाँसी पर लटका दिया जाएगा।

गौरतलब है कि दिसंबर, 2012 में दिल को दहला देने वाली घटना के बाद मुल्क में महिलाओं के िखलाफ होने वाले अपराधों को लेकर लोगों का गुस्सा सडक़ों पर दिखाई दिया। सरकार पर दबाव बनाया और फौजदारी कानून में संशोधन किये गये। जस्टिस जेएस वर्मा समिति का गठन किया गया और इस समिति के सुझावों के मुताबिक, दुष्कर्म और महिलाओं के िखलाफ होने वाले दूसरे अपराधों के मामले में कठोर सज़ा की व्यवस्था की गयी। कुछ मामलों में फाँसी का भी प्रावधान किया गया। दंड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य विधि में संशोधन किया गया। मुल्क की अवाम को उम्मीद जगी कि अब यहाँ की धरती पर देवी सुरक्षित है। लेकिन हकीकत सबके सामने है। हर 13 मिनट में एक दुष्कर्म। 28 नवंबर, 2019 को हैदराबाद में चार युवकों ने एक महिला पशु चिकित्सक को दुष्कर्म के बाद ज़िन्दा जला दिया। 30 नवंबर, 2019 को राजस्थान के टोंक में छ: साल की छात्रा के साथ दुष्कर्म के बाद स्कूल बेल्ट से गला घोंटकर उसकी हत्या कर दी गयी।। जनवरी को निर्भया के चारों दोषियों का अदालत ने फाँसी का समय तय किया, अगले दिन अखबारों में इस खबर के साथ यह खबर भी छपी कि 5 जनवरी को पश्चिम बंगाल के दक्षिण दिनाजपुर ज़िले में एक युवती के साथ पहले दुष्कर्म किया गया और फिर उसे ज़िन्दा जला दिया गया। 2020 के दशक का समाज क्या महिलाओं के प्रति अधिक संवेदनशील साबित होगा और क्या अदालतों, कानून से उन्हें सही समय पर पूरा इंसाफ मिलेगा। रष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट ‘क्राइम इन इंडिया-201’ के अनुसार वर्ष 2018 में देश में बलात्कार की कुल 33,356 घटनाएँ हुईं। इनमें से 5,433 घटनाएं मध्य प्रदेश में हुर्ईं, इनमें छ: साल से कम आयु की 54 बच्चियों के साथ हुईं दुष्कर्म की घटनाएँ भी शमिल हैं। बलात्कार की कुल घटनाओं में से 16 फीसदी मध्य प्रदेश में हुईं और इस तरह मध्य प्रदेश देश में बलात्कार के मामलों में पहले नम्बर पर है। मध्य प्रदेश के बाद राजस्थान दूसरे नम्बर पर और उत्तर प्रदेश तीसरे नम्बर पर है। 201। में बलात्कार के 32,550 मामले दर्ज किये गये। 2018 में 201। की तुलना में बलात्कार के अधिक मामले दर्ज किये गये। यही नहीं 201। में बलात्कार के बाद पीडि़ता की हत्या करने वाले मामलों को संख्या 223 थी, जो कि 2018 में बढक़र 291 हो गयी। क्या इस बढ़ी हुई संख्या के पीछे दोषी को फाँसी की सज़ा देने वाला कानूनी प्रावधान है, एक आला पुलिस अधिकारी का मानना है कि ऐसे निर्णय पर पहुँचने के लिए कुछ साल इंतज़ार करना होगा। इधर नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली द्वारा हाल ही में जारी एक रिपोर्ट बताती है कि 2018 में दुष्कर्म के बाद हत्या के 58 मामलों में फाँसी की सज़ा दी गयी है। वर्ष 201। की तुलना में 2018 में यौन अपराध के मामलों में फाँसी की सज़ा देने में 35 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। मध्य प्रदेश में लोक अभियोजन विभाग की प्रमुख जनसम्पर्क अधिकारी मौसमी तिवारी का कहना है कि बच्चियों से बलात्कार के मामलों में जल्द से जल्द सज़ा दिलाने के मामले में मध्य प्रदेश देश में नंबर-वन है। मध्य प्रदेश में 2019 में बच्चियों से दुष्कर्म के 11 मामलों में दोषियों को फाँसी की सज़ा दी गयी। एक अहम सवाल ऐसे मामलों में अदालत द्वारा मिलने वाली तारीख पर तारीख का भी है। कई मर्तबा पीडि़ता की हिम्मत जबाव दे जाती है। कानून कितना ही कड़ा क्यों न हो अगर अदालतों में मामले कई साल-साल तक लम्बित रहेंगे, तो अपराध करने वालों के लिए यह प्रक्रिया ऑक्सीजन का काम करती है। आँकड़े बहुत कुछ बयाँ करते हैं-2018 में दुष्कर्म के 1,38,642 मामले लम्बित थे। 201। में ऐसे मामलों में सज़ा की दर 32.2 फीसदी थी; लेकिन 2018 में यह दर पिछले साल के मुकाबले  घटी है और 2।.2 फीसदी है। 19।3 में यह दर 44.3 फीसदी थी। अदालतों में बलात्कार के मामलों की जल्द सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक अदालतें यानी त्वरित अदालतों की माँग नयी नहीं है, जब भी कोई ऐसी घटना देश की सुॢखयाँ बनती हैं, तो यह माँग ज़ोर पकडऩे लगती है। वक्त बीतने के साथ-साथ महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा भी पीछे छूटता चला जाता है। निर्भया मामले के बाद निर्भया कोष का गठन किया गया; लेकिन उसका पूरा इस्तेमाल नहीं किया गया। आिखर क्यों? ऐलान करने के पीछे मंशा खुद को महिला हितैषी दिखाना मगर कार्यान्वन की ज़िम्मेदारी में ढीलापन क्यों? हाल ही में दुष्कर्म के 1.60 लाख से अधिक लम्बित मामलों के जल्द-से-जल्द निपटारे के लिए 24 राज्य और केंद्र शसित प्रदेश 1023 विशेष त्वरित अदालतों की स्थापना से जुड़ी एक योजना में शमिल हुए हैं। इनमें आंध्र प्र्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, दिल्ली, नागालैंड, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलगांना, केरल, त्रिपुरा, चंडीगढ़, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश शामिल हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि मिजोरम, मेघालय, सिक्किम, जम्मू-कश्मीर, लद्दाख और पुडुचेरी इस योजना का हिस्सा नहीं बने हैं। यह योजना कितनी कारगर साबित होती है और इसके कार्यान्वन को लेकर सरकार कितनी गम्भीर है, यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा।

मकाम फैज़ कोई राह में जँचा ही नहीं

फैज़ अहमद ‘फैज़’ एक ऐसे शायर हैं, जो हिंदुस्तान के हर घर में पढ़े या सुने जाते हैं। मैं जब हिंदुस्तान कहता हूँ, तो उसमें पाकिस्तान भी शामिल है। मैं भारत नहीं कह रहा। मैं उस आदमी के हिंदुस्तान की बात कर रहा हूँ, जिसने सारी ज़िन्दगी में से आधी ज़िन्दगी जिलावतनी (निर्वासन) में काटी हो और जितने दिन पाकिस्तान में रहे उससे आधा वक्त जेल में काटा हो। वहाँ की सरकार ने उसे इस्लाम का दुश्मन बताया और आज यहाँ की सरकार उसे हिन्दुओं का दुश्मन करार देने में तुली है।

एक बार फैज़ साहब मुम्बई आये। निदा फाज़ली के साथ लगा हुआ मैं भी पहुँच गया जावेद अख्तर के घर। शराब का दौर चल रहा था, बतकहियाँ चल रही थीं। उर्दू के अधिकाँश लोग थे, कुछ हिन्दी वाले भी थे। मैंने देखा जो भी बड़ा शायर था, या तो फैज़ न बन पाने के क्रम में उनसे जलता था या उनकी किसी-न-किसी तरह से िखलाफत करता था। अपने आपको बड़ा मानने का जो भ्रम था, वह बहुत बड़ा था और उर्दू शायरों में और भी बड़ा होता है। ऐसे ही मजरूह सुल्तानपुरी नाम के शायर थे, जो िफल्मों में गीत लिखते थे। उनका यह भ्रम था कि वह फैज़ से बड़े शायर हैं; क्योंकि इंकलाब पसन्द तहरीक उन्होंने ही शुरू की थी और वह अक्सर उर्दू  पत्रिकाओं के सम्पादकों को डाँट पिलाते हुए खत लिखते, यह बात फैज़ को पता थी। फैज़ ने इस बात पर ज़रा-सा जुमला कहा- ‘भाई  मजरूह  दुकानें, तो हमने साथ लगायी थीं, अब इसका कोई क्या करे कि किसी की चल गयी, किसी की नहीं चली।’

एक छोटी-सी घटना और याद आती है; शबाना आजमी ने उनसे कहा कि आप पढ़ते बहुत बुरा हैं। आप अब्बा की तरह पढ़ा कीजिए, यानी की कैफी आज़मी की तरह पढ़ा कीजिए। उस पर उन्होंने कहा- ‘आगे से लिख दूँगा, अब्बा से पढ़वा लेना।’

ऐसे ही एक बार इलाहाबाद में कुछ कवि पहुँचे वर्धा विश्वविद्यालय के चांसलर राय के घर। उन्होंने कवियों से कहा अपनी कविताएँ भी सुनाएँ। कवियों ने कविताएँ सुनायी और वह चुप मारकर बैठे रहे। कविताएँ खत्म हुईं, तो एक कवि ने कहा कि आपकी राय क्या है इनके बारे में? फैज़ ने कहा- ‘मेरी चुप्पी मेरी राय है।’ इस तरह के बहुत सारे िकस्से हैं। वह जुमलेबाज़ नहीं थे; लेकिन जो राय देते थे, वह अपने आपमें जुमला बनकर चारों तरफ फैल जाती थी। जो नज़्म उनकी ‘हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’ यह बहुत मशहूर नज़्म है। दरअसल, इसका बैकग्राउंड कुछ ही लोग जानते हैं। फैज़ तकरीबन नास्तिक आदमी थे। पर उन्होंने यह कभी कहा नहीं। लेकिन यह सबको पता है कि वह नास्तिक थे। उर्दू शायरी की परम्परा के हिसाब से वह उन्हीं प्रतीकों को लेते थे, जो इस्लाम में रिकग्नाईज्ड थे और उर्दू के रीडरों में आमफहम थे।

ज़िया-उल-हक का दौर आया। पाकिस्तान में इस्लाम ज़बरदस्ती नाज़िल किया गया। इस्लाम के नाम पर ज़बरदस्त मज़ाक था। तब ज़िया-उल-हक ने कुछ लोगों से कहा- ‘हम देखेंगे उसको। किसी दिन शराब पीते हुए पकड़ा जाएगा, 50 कोड़ों की सज़ा मिलेगी।’ इस पर फैज़ ने कहा- ‘लाज़िम है हम भी देखेंगे।’ बाद में यह नज़्म बहुत प्रसिद्ध हुई- ‘हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे।’

बस नाम रहेगा अल्लाह का

जो गायब भी है, हाज़िर भी

जो मंज़र भी है नाज़िर भी।

उट्ठेगा अन-अल-हक का नारा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

और राज करेगी खल्क-ए-खुदा

यह नज़्म जिया-उल-हक के ज़माने में शायद 85 में मशहूर गायिका इकबाल बानो ने लाहौर के अल हमरा ऑडिटोरियम में लगभग 50 हज़ार लोगों के सामने गायी थी। इकबाल बानो उस दिन काली साड़ी पहनकर सामने आयी थीं। जबकि काले रंग पर पाबंदी लगी थी; क्योंकि यह विरोध करने का प्रतीक माना गया था। जिया-उल-हक की नज़र में साड़ी पहनने को वहाँ ओछा और हिन्दुओं का रिवाज़ माना जाता था। 50 हज़ार दर्शकों के स्टेडियम में इंकलाब ज़िन्दाबाद के साथ श्रोता भी गायक बन गये थे। पुलिस ने जिया-उल-हक की पुलिस ने इस कार्यक्रम को रोकने की बहुत कोशिश की। लेकिन 50 हज़ार दर्शकों के सामने उनकी कुछ नहीं चली। पुलिस ने यह भी कोशिश की कि किसी तरह से वह ऑडियो टेप बाहर न निकल पाये; लेकिन चोरी-छिपे वह ऑडियो टेप बाहर निकल आया। बानो को गाते सुनकर, जोश के साथ आँसू निकल आते हैं। मैंने जब भी सुना है, मेरी यही हालत हुई है।

जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गराँ

रूई की तरह उड़ जाएँगे

हम महकूमों के पाँव तले

ये धरती धड़-धड़ धडक़ेगी

और अहल-ए-हकम के सर ऊपर

जब बिजली कड़-कड़ कडक़ेगी

जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से

सब बुत उठवाये जाएँगे

हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम

मसनद पे बिठाये जाएँगे

सब ताज उछाले जाएँगे

सब तख्त गिराये जाएँगे

इस पर 10 मिनट तक तालियाँ बजती रहीं। इंकलाब ज़िन्दाबाद के नारे लगते रहे। इकबाल बानो के इस कार्यक्रम के बाद  फैज़ अहमद ‘फैज़’ का पाकिस्तान में रहना मुमकिन न रहा। पहले वह भारत आये; यहाँ छ: महीने तक मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता और लखनऊ में आते-जाते रहे। उसी दौरान जावेद अख्तर ने उनकी शान में यानी अपने मामा मजाज़ लखनवी के दोस्त फैज़ अहमद ‘फैज़’ की शान में पार्टी भी रखी, जिसमें मैं भी शामिल हुआ। जगह-जगह घूमने के बाद वह इस्तांबुल में बस गये। फैज़ ने बीस-एक विषयों पर कलम चलायी होगी, इससे ज़्यादा विषय नहीं रहे होंगे, उन्हें कलम चलाने के लिए। लेकिन वह कितने महान् और क्रान्तिकारी थे। उनके सामने सब हेच (तुच्छ) हैं। वह हिंदुस्तान में हर घर में पढ़े जाने वाले लोगों के पसंदीदा शायर हैं। उनकी शायरी के पीछे उनकी ज़िन्दगी खड़ी है। हर शायर फैज़ अहमद ‘फैज़’ बनना चाहता है।

बन्ने भाई बताते हैं कि वह पाकिस्तान चले गये थे कि वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी का काम कर सकें। शराब पीते हुए बन्ने भाई और फैज़ अहमद ‘फैज़’ के साथ एक मेजर जनरल अकबर खान भी बैठे थे। वह अयूब खान का दौर था। अकबर खान पी कर बहक गये, बहुत बुराई करने लगे तानाशाह की। दूसरे दिन फैज़ अहमद ‘फैज़’, बन्ने भाई और अकबर खान पकड़े गये। फैज़ अहमद ‘फैज़’ अंडरग्राउंड कम्युनिस्ट पार्टी में काम करते थे और बनने भाई लीडर थे। इन पर रावलपिंडी कॉन्सप्रेसी केस चला, जिससे हाहाकार मच गया। जाने ये क्या करने वाले थे? तब जेल में तन्हा कैदी थे फैज़ अहमद ‘फैज़’। और उन्होंने वहाँ जो गज़लें और नज़्म लिखी व सबसे अभूतपूर्व थी। उन्होंने लिखा-

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल ज़बाँ अब तक तेरी है

तेरा सुत्वाँ, जिस्म है तेरा

बोल कि जाँ अब तक तेरी है

एलिस फैज़, जो उनकी अंग्रेज बीवी थीं; दो बच्चों के साथ पाकिस्तान में हीं डटी रहीं। वह चाहतीं तो इंग्लैंड जा सकती थीं। फिर जो हंगामे फैज़ अहमद ‘फैज़’ की ज़िन्दगी में हुए, वैसे हंगामे किसी और की ज़िन्दगी में होते, तो वह पागल हो जाता। लेकिन फैज़ तो फैज़ थे। वह खड़े रहे उनकी नज़्में आती रहीं, उनकी गज़लों और नज़्मों ने पाकिस्तान में तूफान मचा दिया। बन्ने भाई को तो नेहरू ने छुड़वा लिया, हिंदुस्तान वापस ले आये। फैज़ आठ या 10 साल कैद में रहे। एक जगह आज के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान की पहली वाइफ के बारे में लिखा था, उसकी तुलना एलिस से भी की गयी। लेकिन एलिस, फैज़ के साथ पाकिस्तान में ही बनी रहीं। यह फर्क है एलिस और इमरान की बीवी में। एलिस से उन्होंने मोहब्बत की थी और उन्हीं से शादी भी। एलिस और उनकी पहली मुलाकात सन् 1941 में अमृतसर में हुई थी, एलिस अपनी बहन से मिलने हिन्दुस्तान आयी थीं।

फैज़ अहमद ‘फैज़’ के वालिद सियालकोट के मशहूर बैरिस्टर सुल्तान मोहम्मद खान थे। पाँच बहन और चार भाइयों में सबसे छोटे थे। बचपन में कुरआन की आयतें तो याद नहीं कर पाये, लेकिन स्कूल में पहुँचते-पहुँचते शायरी करने लग गये थे। उनकी शायरी ने, उनकी नज़्मों ने उन्हें कुरआन के गूढ़ को न समझने वालों के िखलाफ खड़ा कर दिया। सन् 19।। में विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी प्रोटोकॉल तोडक़र फैज़ अहमद ‘फैज़’ से मिलने पाकिस्तान में गये और चार घंटे उनके साथ रहे; तब फैज़ ने उनसे पूछा- ‘आपको मेरी गज़लों में से कोई शे’र पसंद तो होगा? कोई शे’र पढि़ए।’ तब अटल बिहारी वाजपेयी ने एक ही शे’र सुनाया-

‘मका़म फैज़ कोई राह में जँचा ही नहीं

जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले’

मगर यह कितनी घनघोर विडम्बना है कि जिन फैज़ को अटल बिहारी वाजपयी पसन्द करते थे, उनकी आज की पार्टी में नफरतें बोयी जा रही हैं।

फैज़ अहमद ‘फैज़’ को बिना पढ़े, बिना समझे चैनल्स पर बकवास करते लोग, लिपस्टिक पाउडर लगाये चेहरे, जो हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर बवाल मचाकर टीआरपी बटोरने में लगे हैं; उनकी लेखनी को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। इन लोगों को पता होना चाहिए कि 194। के हिन्दू-मुस्लिम के दंगे से फैज़ किस कदर तकलीफ में थे। फैज़ ने अपना दर्द  अपनी नज़्म ‘सुबह-ए-आज़ादी’ बयाँ में किया है-

‘ये दाग-दाग उजाला, ये शब-गज़ीदा सहर

वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं

वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर

चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं-न-कहीं

फलक के दश्त में तरों की आखिऱी मंज़िल

कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल

यह वे लोग हैं, जो सब बुत उठवाये जाएँगे को ज़रिया बना लेते हैं और हिन्दू-मुस्लिम का झगड़ा बना लेते हैं। न इन्होंने कुछ पढ़ा है और न ही कुछ समझा है। साहित्य में तो बिल्कुल फच्चर हैं। मोदी राज में यह भी देखने को मिलेगा था, पता नहीं था। इतने भी कूप-मंडूक कहीं हो सकते हैं, तो सिर्फ यहीं पर जो फैज़ की नज़्म को, जो कि हिन्दू भी नहीं था, मुसलमान भी नहीं था; के शब्द निकाल-निकाल कर उसके कुछ और मायने देखने की कोशिश में लगे पड़े हैं। फैज़ की नज़्म में ‘बस नाम रहेगा अल्‍लाह का’ पर हंगामा करने वालों को उसी नज़्म में लिखा – ‘उट्ठेगा अन-अल-हक का नारा’ क्यों नहीं दिखता? वह ‘अन-अल-हक’ को ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ से क्यों नहीं जोड़ते, जो वेदांत परम्परा का सबसे सुदृढ़ पाया है; जिसे सूिफयों ने वेदांत से उठाया और अन-हल-हक कहा। ऐसे चंद हिन्दू-मुस्लिम करने वाले लोगों इनकी वजह से भारत की बुद्धिमता शर्मसार होती है।

ऐसे मौके पर सिरमद और औरंगज़ेब की लड़ाई याद आती है, जो अन-अल-हक कहता था।

एक बार औरंगज़ेब जामा मस्जिद में नमाज पढऩे पहुँचा। नितंग नंगे सरमद (फकीर) वहाँ बैठे हुए थे। उसने कहा आप अपने अंग पर कोई कपड़ा डाल लें। सरमद ने कहा तू ही डाल दे। औरंगजेब ने कपड़ा उठाकर डालने की कोशिश की, तो उसे कपड़े के नीचे अपने भाइयों और भतीजे के सिर दिखायी दिये। उसने कपड़ा छोड़ दिया। सरमद ने कहा- ‘मैं अपने सर को ढकूँ या तेरे ऐब को ढकूँ?’

जब सरमद से कहा गया कि वह कलमा पूरा पढ़ें, तो उन्होंने पढ़ा- ‘ला इल्लाह’ इसी बात पर सरमद को फाँसी दे दी गयी। सरमद ने कहा- ‘मैं शुरुआत इतनी ही समझ पाया, आगे समझूँगा तो पढूँगा।’ औरंगज़ेब और सरमद का यह िकस्सा बहुत प्रसिद्ध हुआ। सरमद सूफी संत थे। जब फैज़ अहमद ‘फैज़’ अन-अल-हक कहते हैं, इसका मतलब है ‘अहम ब्रह्मास्मि’ जो मैं भी हूँ और तुम भी हो।

अमित शाह को चाहिए कि पार्टी में कुछ बुद्धिजीवी भी रखें। ऐसे बुद्धिजीवी, जो हिन्दू- मुस्लिम के दायरे से बाहर निकलकर सोचने की कुव्वत रखें। यह विडम्बना रहेगी तो फैज़ अहमद ‘फैज़’ पाकिस्तानी शायर बना दिये जाएँगे, जो कि खाँटी हिन्दुस्तानी शायर हैं। 6000 साल की सभ्यता उनमें बोलती है। उर्दू ज़ुबान कोई पाकिस्तान में नहीं पैदा हुई, दिल्ली में पैदा हुई। लेकिन अब इन्हें उससे भी दुश्मनी हो गयी है। इस धत्-कर्म पर जितनी लानत भेजी जा सके उतनी भेजिए।

क्या सीएए से सम्भव है संवैधानिक संकट?

तमाम कांग्रेस शासित राज्य केरल और पश्चिम बंगाल सहित गैर-भाजपा राज्य नागरिकता संशोधन कानून को अपने राज्यों में लागू नहीं करने का ऐलान कर चुके हैं। इसके विरोध में प्रदर्शन भी जारी हैं। इस बीच कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और जानेमाने वकील कपिल सिब्बल ने कहा है कि कोई भी राज्‍य यह नहीं कर सकता है कि वह इस संशोधित कानून को लागू नहीं करेगा। उनके मुताबिक, ऐसा करना असंवैधानिक होगा। अगर राज्य इसे लागू करने से मना करेंगे, तो क्या किसी तरह का संवैधानिक संकट खड़ा हो जाएगा, यह बड़ा सवाल है। हालाँकि अगले ही दिन कपिल सिब्बल बयान से पलट गये।

फिर भी सवाल है कि एक तरफ केंद्र सरकार ज़िद करके इस कानून को देश भर में लागू करना चाहती है, तो दूसरी ओर तकरीबन दर्जन भर राज्य सरकारें इसे अपने यहाँ लागू करने से मना कर रही हैं। ऐसे में सवाल यह है कोई राज्य जब इसे लागू नहीं करने पर अड़ जाएगा, तो क्या उस राज्य की सरकार के बर्खास्त होने जैसी नौबत भी आ सकती है? केरल सरकार विधानसभा इसके िखलाफ प्रस्ताव पास करके इस कानून के िखलाफ सर्वोच्च न्यायालय जा चुकी है, जबकि पंजाब की सरकार ने भी विधानसभा में इसके िखलाफ प्रस्ताव लाकर अपने इरादे जता दिये हैं।

कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल का कहना है कि अगर सीएए को संसद ने पारित कर दिया है, तो कोई भी राज्‍य यह नहीं कह सकता कि वह इसे लागू नहीं करेगा। आप विधानसभा में प्रस्‍ताव पारित कर सकते हैं और केंद्र सरकार से इसे वापस लेने की माँग कर सकते हैं; लेकिन यह नहीं कह सकते कि हम इसे लागू नहीं करेंगे। इससे संवैधानिक समस्‍याएँ पैदा हो सकती हैं। यहाँ यह सवाल उठता है कि तो क्या वास्तव में नागरिकता कानून को लेकर राज्य सरकारों के विरोध को देखते हुए देश में संवैधानिक संकट जैसी स्थिति पैदा होने का खतरा पैदा हो रहा है? यह तो साफ है कि इसे लेकर राज्यों और  केंद्र के बीच ज़बरदस्त रस्साकसी चल रही है और टकराव की सम्भावनाएँ हैं। िफलहाल मामले में कई पाॢटयों और लोगों ने इस कानून को असंवैधानिक बताते हुए सुप्रीम कोर्ट में दर्ज़नों याचिकाएँ दायर की हैं। अब शीर्ष अदालत तय करेगी कि इस कानून का भविष्य क्या होगा?

पंजाब में सत्तारूढ़ कांग्रेस ने संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) के िखलाफ राज्य विधानसभा में 17 जनवरी को जो प्रस्ताव पेश किया उसमें सरकार के मंत्री ब्रह्म मोहिंद्रा ने कहा कि संसद की ओर से पारित सीएए से देश भर में विरोध-प्रदर्शन हुए और इससे लोगों में काफी गुस्सा है। उन्होंने कहा है कि इससे सामाजिक अशान्ति पैदा हुई है। मोहिंद्रा ने कहा कि इस कानून के िखलाफ पंजाब में भी विरोध-प्रदर्शन हुआ जो कि शान्तिपूर्ण था। इसमें समाज के सभी तबके के लोगों ने हिस्सा लिया था। अब यह तो लगभग साफ हो चुका है कि मोदी सरकार के मंत्रियों को यह दावा वज़नदार नहीं था कि संशोधित नागरिकता कानून के िखलाफ सिर्फ एक समुदाय (मुस्लिम) ही सडक़ों पर उतरे। इसमें सभी धर्मों के लोग हैं और बड़े पैमाने पर सभी धर्मों से जुड़े छात्र इसके िखलाफ खड़े हो चुके हैं। बहुत लम्बे समय के बाद देश भर के विश्विविद्यालय परिसरों में किसी कानून के िखलाफ छात्रों की ऐसी एकजुटता देखने को मिली और शायद यही कारण है मोदी सरकार इससे चिन्ता में पड़ी है। राज्यों के विरोध की बात करें, तो केरल में राज्यपाल और प्रदेश की माकपा सरकार के बीच अभी से इस मसले पर ज़बरदस्त तनातनी शुरू हो गयी है। राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान कई बार केरल सरकार को चेता चुके हैं कि राज्य सरकार के पास इस कानून को लागू करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। उन्होंने कहा है कि इस कानून को अनुच्छेद-254 के तहत लागू करना होगा। आप इसे किसी भी कीमत पर लागू करने से इन्कार नहीं कर सकते। यह आपके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। राज्यपाल का तर्क है कि आप अपनी बुद्धि का उपयोग करके तर्क दे सकते हैं, आपको इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का अधिकार है; लेकिन नागरिकता अधिनियम संघ सूची का विषय है और राज्य का विषय नहीं है। राज्यपाल कह चुके हैं कि वो रबर स्टाम्प नहीं हैं; मूक दर्शक नहीं रह सकते। उन्होंने केरल के मुख्य सचिव से रिपोर्ट भी तलब की है।

हॉकी टीम की अग्निपरीक्षा है एफआईएच प्रो लीग

ओलंपिक खेलों में भारत की पहचान केवल हॉकी के कारण ही बनी है। आज तक ओलंपिक के 120 साल के इतिहास में भारत ने जो 28 पदक जीते हैं, उनमें से 11 अकेले हॉकी में आये हैं। इनमें से नौ स्वर्ण पदक हैं, जिनमें से आठ हॉकी में आये हैं। व्यक्तिगत मुकाबलों में एकमात्र स्वर्ण पदक अभिनव बिंद्रा ने निशानेबाज़ी में जीता है। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि हॉकी को छोडक़र भारत ने किसी भी और टीम स्पर्धा में टोक्यो ओलंपिक 2020 के लिए क्वालीफाई नहीं किया है।

बाकी टीमों-फुटबॉल, वॉलीबॉल, बास्केटबॉल, हैंडबॉल वगैरा में तो भारत एशिया स्तर भी काफी कमज़ोर है। फुटबाल में 1956 के मेलबोर्न ओलंपिक में भारत सेमीफाइनल तक पहँुचा, या फिर 1962 के एशियायी खेलों में भारत का प्रदर्शन शानदार रहा; लेकिन 1970 के एशियाड मेें जापान को 1-0 से हराने के बाद कांस्य पदक जीतने वाली भारत की फुटबॉल टीम पिछले 50 साल से कुछ नहीं कर पायी। यहाँ तक कि नेपाल जैसा देश भी कुछ नहीं कर पाया। यहाँ तक कि नेपाल जैसा देश भी भारत के बराबर खड़ा हो गया है। इस साल होने वाले टोक्यो ओलंपिक में भी भारत की नज़रें पुरुष हॉकी पर रहेंगी। यहाँ भी पदकों का अकाल है। 1980 के मास्को ओलेंपिक में स्वर्ण पदक जीतने के बाद पिछले 40 साल में देश की हॉकी टीम पदक के लिए तरस रही है। 1986 के लंदन विश्वकप में 12 टीमों में 120वें नम्बर पर रहने वाली यह टीम 2008 के ओलंपिक के लिए क्वालीफाई भी नहीं कर पायी थी। पर 2012 ओलंपिक और 2016 के रियो ओलंपिक में भारत का प्रदर्शन कुछ सुधरा। इस दौरान देश की हॉकी फैडरेशन में कुछ बदलाव आये। कई कोच बदले गये। विदेशी प्रशिक्षकों की सेवाएँ ली गयी। युवा खिलाडिय़ों को अवसर दिये गये और भारत फिर से आस्ट्रेलिया, जर्मनी, नीदरलैंड्स जैसी टीमों के लिए चुनौती बन गया। इस बीच यूरोप में बेल्जियम जैसी टीम और अमेरिकी महाद्वीप मे अर्जेंटीना जैसी नयी ताकतें भी उभरी। भारत के प्रशिक्षक ग्रहम रीड का दावा है कि इस बार भारत हॉकी पदक लेकर आयेगा। कुछ हॉकी पंडित इस बार भारत को टॉप की चार टीमों में आने का दावा कर रहे हैं।

ओलंपिक खेल तो अभी लगभग छ: महीने दूर हैं पर एफआईएच प्रो लीग में भारत अपने दोनों मैच पिछले कांस्य पदक विजेता नीदरलैंड्स के साथ इसी माह में खेलने वाला है। इस तरह विश्व की पाँच नम्बर की टीम भारत की ओलंपिक के लिए तैयारी का अंदाज़ा हो जाएगा। इस प्रो लीग में विश्व की सभी बड़ी टीमें हिस्सा ले रही हैं। नीदरलैंड के बाद भारत अगले दो मैच 8 और 9 फरवरी को बेल्जियम के साथ और फिर दो मैच 22 और 23 फरवरी को आस्ट्रेलिया के साथ खेलेगा। इसके बाद भारत की टीम जर्मनी जाएगी और वहाँ 25 और 26 अप्रैल को जर्मनी के साथ दो मैच खेलेगी। ग्रेट ब्रिटेन के साथ भारत 2 और 3 मई को खेलेगा। 1976 की स्वर्ण पदक विजेता, न्यूजीलैंड की टीम के साथ भारत के दो मैच भारत में 23 और 24 मई को खेले जाएँगे। इसके बाद यह टीम ओलंपिक चैंपियन अर्जेंटीना के साथ खेलने वहाँ जाएगी। भारत की टीम अपनी पूरी शक्ति से उतरेगी। चोट के कारण टीम से बाहर रहे चिंगलेनसाना और सुमित दोनों अब पूरी तरह फिट हैं और टीम में खेलने को अब तैयार हैं।

भारत ने नीदरलैंड को 5-2 से हराया एफआईएच प्रो हॉकी लीग के पहले मुकाबले में भारत ने विश्व में तीसरे नम्बर की टीम नीदरलैंड पर 5-2 से शानदार विजय हासिल की। दूसरे चरण में ये दोनों टीमें फिर भिड़ेंगी। इस मुकाबले में नीदरलैंड का पलड़ा भारी समझा जा रहा था, पर मंदीप सिंह और गुरजंट सिंह के तालमेल ने पहले 30 सेकेंड में भारत के लिए पहला गोल दाग दिया (1-0)। टीम के लिए दूसरा गोल तीसरे मिनट में रुपिंदर पाल सिंह ने तीसरे मिनट में पेनाल्टी कॉर्नर को गोल में बदलकर भारत को 2-0 की बढ़त दिला दी। जिप जेनसेन ने पेनाल्टी कॉर्नर पर गोल कर बढ़त को 2-1 कर दिया और जिरियन हर्टसबगर ने शानदार क्लिक से टीम को बराबरी पर ला दिया (2-2) यह गोल आधे समय की सीटी पर आया। पर तीसरे क्वार्टर में भारत ने अपने हमले जारी रखते हुए हरमनप्रीत और ललित उपाध्याय के गोलों से 4-2 की बढ़त हासिल कर ली। भारत का पाँचवा गोल 47वें मिनट में रुपिंदर पाल ने किया (5-2)।

यौन उत्पीडऩ की शिकार होतीं महिला खिलाड़ी

‘चक दे इंडिया’, दंगल, मेरी कॉम, सुल्तान सरीखी िफल्में मुल्क में महिला खिलाडिय़ों के संघर्ष व उनके जज़्बे को सिल्वर स्क्रीन के ज़रिये अवाम के सामने रखती हैं। इसी 24 जनवरी को कंगना रनोत की िफल्म पंगा रिलीज हुई है, जिसमें कंगना जया निगम नामक राष्ट्रीय स्तर की महिला कबड्डी खिलाड़ी के संघर्ष को दुनिया को बताया गया है। परिणीति चोपड़ा बैडमिंटन खिलाड़ी सायना नेहवाल की ज़िन्दगी पर बनने वाली िफल्म में काम कर रही हैं। अनुष्का शर्मा महिला क्रिकेट खिलाड़ी झूलन की बायोपिक में झूलन का िकरदार निभा रही हैं। अभी हाल ही में अनुष्का शर्मा ने इस िफल्म की शूटिंग शुरू की है और उनका खास ध्यान झूलन की चाल पर भी रहता है, झूलन के चलने का अंदाज़ कुछ अलग ही है। इन िफल्मों के जिक्र के पीछे एक मंशा यह है कि िफल्मों के ज़रिये भारत में महिला खिलाडिय़ों की उपलब्धियों की सराहना करना, उन्हें सम्मानित करना, लड़कियों/युवतियों को खेल सीखने व आगे बढऩे के लिए प्रोत्साहित करना। इसके साथ ही आधी दुनिया को यह संदेश देना कि खेल, खेल के मैदान, खेल की सामग्री, खेल प्रतियोगिताओं, खेल संघों, खेल मंत्रालय तक आप की पहुँच लडक़ों/पुरुषों के बराबर ही है। लेकिन क्या वास्तव में महिला सशक्तिकरण वाला माहौल भारत में खेल के क्षेत्र में नज़र आता है। ‘ खेलो इंडिया’ यानी खेल में महिला खिलाड़ी कितनी सुरक्षित हैं, यह सवाल खेल मंत्रालय के सामने इन दिनों है। 2020 भारतीय खेलों के लिए अहम साल है और 2020 के ही पहले महीने के दूसरे पखवाड़े यह खबर अंग्रेज़ी के एक प्रतिष्ठित अखबार में छपी कि बीते एक दशक (2010-2019) में सरकार द्वारा संचालित विभिन्न खेल संस्थानों में यौन उत्पीडऩ की 45 शिकायतें दर्ज की गयी हैं, इनमें 29 कोच के िखलाफ हैं। कई मामलों में आरोपी पर अधिक सख्ती नहीं बरती गयी। स्पोट्र्स अथॉरिटी ऑफ  इंडिया के 24 केंद्रों में यौन उत्पीडऩ की शिकायत दर्ज की गयी हैं। इनमें 29 कोच के िखलाफ हैं, 5 कोच को उनके वेतन में कटौती के रूप में दंड मिला, 2 कोच का अनुबंध खत्म कर दिया गया। एक कोच को सस्पेंड कर दिया गया। यहाँ पर यौन शोषण के मामले लम्बे साल तक खिंचते रहते हैं। दरअसल खेल प्रेमी अपने जुनून को दिखाने के लिए खेल के मैदान में जाते हैं, अपने-अपने घरों में टीवी स्क्रीन, सफर, दफ्तर में मोबाइल के ज़रिये यानी संख्या के आधार पर मैदान में उतरे खिलाडिय़ों की हौसला अफजाई तो करते हैं, लेकिन महिला खिलाडिय़ों के प्रति खेल संस्थानों के कोच, अधिकारियों के द्वारा किये जाने वाले यौन अपराधों को रोकने का दबाव बनाने वाली भूमिका में नज़र नहीं आते। बहरहाल महिला खिलाडिय़ों के यौन उत्पीडऩ की खबर छपने के बाद खेल मंत्री किरण रिजिजू ने ऐसे लंबित मामलों को चार सप्ताह के भीतर निपटाने का आदेश दे दिया है।  सवाल यह है कि अगर यह मामला अखबार ने नहीं उठाया होता, तो क्या खेल मंत्री ऐसा बयान जारी करते। गौरतलब है कि खेल के ढाँचे के भीतर ही कई महिला खिलाड़ी यौन उत्पीडऩ, शोषण की शिकार होती हैं, लेकिन सारे मामले सामने नहीं आते। 2018 में जब मुल्क में मी टू अभियान सुॢखयाँ बटोर रहा था, तब खेल की दुनिया से मी टू वाले मामले सामने नहीं आये। जब खेल संघों से पूछा गया कि क्या उनके यहाँ यौन उत्पीडऩ की कोई आधिकारिक शिकायत दर्ज की गयी है, तो अधिकतर संघों का जवाब नहीं था। लेकिन अगर कोई शिकायत नहीं दर्ज की गयी है, तो इसका अर्थ क्या यह मान लिया जाए कि भारतीय खेल सिस्टम इससे मुक्त है। इसका जवाब तो सूचना के अधिकार के ज़रिये हासिल किये गये आँकड़े हैं, जो बताते हैं कि सिस्टम किस तरह, कितनी चालाकी से काम करता है। स्पोट्र्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया की पूर्व निदेशक नीलम कपूर ने खबर छापने वाले अखबार को बताया कि हकीकत में ऐसे मामले अधिक हो सकते हैं; क्योंकि हरेक के अंदर शिकायत दर्ज कराने के लिए हिम्मत नहीं होती है। एक सच्चाई यह भी है कि अधिकतर खिलाड़ी गरीब हैं और पिछड़े इलाकों से आती हैं। उनके सामने खेल के ज़रिये पैसा व सम्मान पाने की तमन्ना होती है, वह खाली हाथ अपने-अपने घरों को लौटना नहीं चाहतीं। ऐसे में ताकतवर पोजीशन वाले अधिकारी, उनके खेल करिअर के निर्माता यानी कोच ऐसे हालात का भरपूर फायदा उठाते हैं और अधिकांश मामले दबे रह जाते हैं। 2007 में अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति ने एक आम सहमति बयान जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि यौन उत्पीडऩ और शोषण सभी खेलों व सभी स्तरों पर होता है। एलीट खेलों में अधिक होता है। शोध यह भी बताती है कि खेल में यौन उत्पीडऩ व शोषण का एथलीट के शारीरिक व मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य पर गम्भीर व नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसका असर उसके खराब प्रदर्शन के रूप में आ सकता है और यहाँ तक कि एथलीट बीच में ही खेल छोड़ सकती/सकता है। क्लीनिकल आँकड़े संकेत करते हैं कि मनोवैज्ञानिक बीमारियाँ, चिन्ता, अवसाद, मादक द्रव्यों का सेवन, खुद को नुकसान पहुँचाना और आत्महत्या गम्भीर स्वास्थ्य परिणामों की शक्ल में सामने आते हैं।

गौरतलब है कि मुल्क में कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन शोषण की रोकथाम के लिए कानून 2013 लागू है और इसके तहत जहाँ भी 10 या उससे अधिक कर्मचारी हैं, तो वहाँ आंतरिक शिकायत समिति का गठन अनिवार्य है। ध्यान देने वाली बात यह है कि खेल सुविधा प्रदान करने वाले संस्थान भी इस कानून की जद में हैं। कानून में कार्यस्थल की परिभाषा को साफ करने वाला एक उप-सेक्शन है, जो कहता है कि कोई भी खेल संस्थान, स्टेडियम, स्पोट्र्स कॉम्पलेक्स, और प्रतियोगिता या खेल की जगह, सब इसमें कवर होते हैं। लेकिन क्या खेल संघ इस मामले को गम्भीरता से लेते हैं? जवाब निराश करने वाला ही नहीं, बल्कि यह भी बताता है कि पुरुष वर्चस्व वाले खेल जगत में खेल की दुनिया का ढाँचा पुरुषों के प्रति झुका हुआ है। आज पुरुषों के मुकाबले महिला खिलाडिय़ों को मिलने वाले संसाधनों में बहुत अन्तर है। महिला खिलाड़ी कड़े संघर्ष के साथ मुल्क का नाम तो रोशन कर रही हैं, लेकिन उनकी बेहतरी के लिए सरकारी तंत्र को कड़ा बनाने की ज़रूरत है, ताकि महिला खिलाड़ी प्रशिक्षण केंद्रों में जहाँ वे अपनी ज़िन्दगी, करिअर के महत्त्वपूर्ण साल गुज़ारती हैं; सुरक्षित महसूस करें। इसके अलावा वे स्टेडियम में हों या किसी खेल-परिसर में, सुरक्षा उनका अधिकार है। महिला सुरक्षा राज्यों और राष्ट्र का पहला कर्तव्य होना चाहिए। तंत्र को उचित समय पर मामलों की सुनवाई कर दोषियों को कड़ी सज़ा देकर संदेश देना चाहिए कि तंत्र महिलाओं के साथ खड़ा है, न कि मामलों को लटकाकर अपनी असंवेदनशीलता का परिचय देना चाहिए। अपराध करने वालों के िखलाफ कड़ी कार्रवाई करना समय की माँग है। सज़ा में नरमी बरतना भी एक तरह से अपराधी के लिए दंड मुक्ति का ही काम करता है।

नाबालिग लड़कियाँ, खेल के ज़रिये देश के तिरंगे को फहराने का गौरव हासिल करने, तालिका सूची में देश को सम्मानजनक जगह दिलाने के लिए अपने खेल को बेहतर बनाने, खेल का हुनर सीखने के लिए अपने अपने कोच यानी गुरु पर भरोसा करती हैं कि उन्हें वहाँ गुरु की साया में सुरक्षित माहौल मिलेगा; लेकिन आँकड़े भयावह व भद्दी तस्वीर सामने रखते हैं। चमकते खेल मैदान और उनके चारों और लगे बड़े-बड़े विज्ञापन बोर्ड, टीवी चैनल पर खेल प्रतियोगिता के प्रसारण के दौरान आने वाले विज्ञापन हमारी आँखों के सामने खेल की दुनिया के इस कुरूप पक्ष को ओझल रखने में बड़ी भूमिका निभाते नज़र आते हैं। यह चकाचौंध माहौल हमें खेल का जश्न मनाने के लिए इस कद्र अपनी आगोश में ले लेता है कि इस सच्चाई की ओर ध्यान ही नहीं जाता कि सरकारी खेल तंत्र उन युवा खिलाडिय़ों को संरक्षण मुहैया कराने में विफल रहता है, जब वे नाबालिग होती हैं। ऐसे में आवश्यकता हैं ‘ज़ीरो टॉलरेंस’ अपनाने की। इसके साथ-साथ महिलाओं के प्रति सम्मानजनक नज़रिये वाले माहौल की भी दरकार है।