मकाम फैज़ कोई राह में जँचा ही नहीं

फैज़ अहमद ‘फैज़’ एक ऐसे शायर हैं, जो हिंदुस्तान के हर घर में पढ़े या सुने जाते हैं। मैं जब हिंदुस्तान कहता हूँ, तो उसमें पाकिस्तान भी शामिल है। मैं भारत नहीं कह रहा। मैं उस आदमी के हिंदुस्तान की बात कर रहा हूँ, जिसने सारी ज़िन्दगी में से आधी ज़िन्दगी जिलावतनी (निर्वासन) में काटी हो और जितने दिन पाकिस्तान में रहे उससे आधा वक्त जेल में काटा हो। वहाँ की सरकार ने उसे इस्लाम का दुश्मन बताया और आज यहाँ की सरकार उसे हिन्दुओं का दुश्मन करार देने में तुली है।

एक बार फैज़ साहब मुम्बई आये। निदा फाज़ली के साथ लगा हुआ मैं भी पहुँच गया जावेद अख्तर के घर। शराब का दौर चल रहा था, बतकहियाँ चल रही थीं। उर्दू के अधिकाँश लोग थे, कुछ हिन्दी वाले भी थे। मैंने देखा जो भी बड़ा शायर था, या तो फैज़ न बन पाने के क्रम में उनसे जलता था या उनकी किसी-न-किसी तरह से िखलाफत करता था। अपने आपको बड़ा मानने का जो भ्रम था, वह बहुत बड़ा था और उर्दू शायरों में और भी बड़ा होता है। ऐसे ही मजरूह सुल्तानपुरी नाम के शायर थे, जो िफल्मों में गीत लिखते थे। उनका यह भ्रम था कि वह फैज़ से बड़े शायर हैं; क्योंकि इंकलाब पसन्द तहरीक उन्होंने ही शुरू की थी और वह अक्सर उर्दू  पत्रिकाओं के सम्पादकों को डाँट पिलाते हुए खत लिखते, यह बात फैज़ को पता थी। फैज़ ने इस बात पर ज़रा-सा जुमला कहा- ‘भाई  मजरूह  दुकानें, तो हमने साथ लगायी थीं, अब इसका कोई क्या करे कि किसी की चल गयी, किसी की नहीं चली।’

एक छोटी-सी घटना और याद आती है; शबाना आजमी ने उनसे कहा कि आप पढ़ते बहुत बुरा हैं। आप अब्बा की तरह पढ़ा कीजिए, यानी की कैफी आज़मी की तरह पढ़ा कीजिए। उस पर उन्होंने कहा- ‘आगे से लिख दूँगा, अब्बा से पढ़वा लेना।’

ऐसे ही एक बार इलाहाबाद में कुछ कवि पहुँचे वर्धा विश्वविद्यालय के चांसलर राय के घर। उन्होंने कवियों से कहा अपनी कविताएँ भी सुनाएँ। कवियों ने कविताएँ सुनायी और वह चुप मारकर बैठे रहे। कविताएँ खत्म हुईं, तो एक कवि ने कहा कि आपकी राय क्या है इनके बारे में? फैज़ ने कहा- ‘मेरी चुप्पी मेरी राय है।’ इस तरह के बहुत सारे िकस्से हैं। वह जुमलेबाज़ नहीं थे; लेकिन जो राय देते थे, वह अपने आपमें जुमला बनकर चारों तरफ फैल जाती थी। जो नज़्म उनकी ‘हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’ यह बहुत मशहूर नज़्म है। दरअसल, इसका बैकग्राउंड कुछ ही लोग जानते हैं। फैज़ तकरीबन नास्तिक आदमी थे। पर उन्होंने यह कभी कहा नहीं। लेकिन यह सबको पता है कि वह नास्तिक थे। उर्दू शायरी की परम्परा के हिसाब से वह उन्हीं प्रतीकों को लेते थे, जो इस्लाम में रिकग्नाईज्ड थे और उर्दू के रीडरों में आमफहम थे।

ज़िया-उल-हक का दौर आया। पाकिस्तान में इस्लाम ज़बरदस्ती नाज़िल किया गया। इस्लाम के नाम पर ज़बरदस्त मज़ाक था। तब ज़िया-उल-हक ने कुछ लोगों से कहा- ‘हम देखेंगे उसको। किसी दिन शराब पीते हुए पकड़ा जाएगा, 50 कोड़ों की सज़ा मिलेगी।’ इस पर फैज़ ने कहा- ‘लाज़िम है हम भी देखेंगे।’ बाद में यह नज़्म बहुत प्रसिद्ध हुई- ‘हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे।’

बस नाम रहेगा अल्लाह का

जो गायब भी है, हाज़िर भी

जो मंज़र भी है नाज़िर भी।

उट्ठेगा अन-अल-हक का नारा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

और राज करेगी खल्क-ए-खुदा

यह नज़्म जिया-उल-हक के ज़माने में शायद 85 में मशहूर गायिका इकबाल बानो ने लाहौर के अल हमरा ऑडिटोरियम में लगभग 50 हज़ार लोगों के सामने गायी थी। इकबाल बानो उस दिन काली साड़ी पहनकर सामने आयी थीं। जबकि काले रंग पर पाबंदी लगी थी; क्योंकि यह विरोध करने का प्रतीक माना गया था। जिया-उल-हक की नज़र में साड़ी पहनने को वहाँ ओछा और हिन्दुओं का रिवाज़ माना जाता था। 50 हज़ार दर्शकों के स्टेडियम में इंकलाब ज़िन्दाबाद के साथ श्रोता भी गायक बन गये थे। पुलिस ने जिया-उल-हक की पुलिस ने इस कार्यक्रम को रोकने की बहुत कोशिश की। लेकिन 50 हज़ार दर्शकों के सामने उनकी कुछ नहीं चली। पुलिस ने यह भी कोशिश की कि किसी तरह से वह ऑडियो टेप बाहर न निकल पाये; लेकिन चोरी-छिपे वह ऑडियो टेप बाहर निकल आया। बानो को गाते सुनकर, जोश के साथ आँसू निकल आते हैं। मैंने जब भी सुना है, मेरी यही हालत हुई है।

जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गराँ

रूई की तरह उड़ जाएँगे

हम महकूमों के पाँव तले

ये धरती धड़-धड़ धडक़ेगी

और अहल-ए-हकम के सर ऊपर

जब बिजली कड़-कड़ कडक़ेगी

जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से

सब बुत उठवाये जाएँगे

हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम

मसनद पे बिठाये जाएँगे

सब ताज उछाले जाएँगे

सब तख्त गिराये जाएँगे

इस पर 10 मिनट तक तालियाँ बजती रहीं। इंकलाब ज़िन्दाबाद के नारे लगते रहे। इकबाल बानो के इस कार्यक्रम के बाद  फैज़ अहमद ‘फैज़’ का पाकिस्तान में रहना मुमकिन न रहा। पहले वह भारत आये; यहाँ छ: महीने तक मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता और लखनऊ में आते-जाते रहे। उसी दौरान जावेद अख्तर ने उनकी शान में यानी अपने मामा मजाज़ लखनवी के दोस्त फैज़ अहमद ‘फैज़’ की शान में पार्टी भी रखी, जिसमें मैं भी शामिल हुआ। जगह-जगह घूमने के बाद वह इस्तांबुल में बस गये। फैज़ ने बीस-एक विषयों पर कलम चलायी होगी, इससे ज़्यादा विषय नहीं रहे होंगे, उन्हें कलम चलाने के लिए। लेकिन वह कितने महान् और क्रान्तिकारी थे। उनके सामने सब हेच (तुच्छ) हैं। वह हिंदुस्तान में हर घर में पढ़े जाने वाले लोगों के पसंदीदा शायर हैं। उनकी शायरी के पीछे उनकी ज़िन्दगी खड़ी है। हर शायर फैज़ अहमद ‘फैज़’ बनना चाहता है।

बन्ने भाई बताते हैं कि वह पाकिस्तान चले गये थे कि वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी का काम कर सकें। शराब पीते हुए बन्ने भाई और फैज़ अहमद ‘फैज़’ के साथ एक मेजर जनरल अकबर खान भी बैठे थे। वह अयूब खान का दौर था। अकबर खान पी कर बहक गये, बहुत बुराई करने लगे तानाशाह की। दूसरे दिन फैज़ अहमद ‘फैज़’, बन्ने भाई और अकबर खान पकड़े गये। फैज़ अहमद ‘फैज़’ अंडरग्राउंड कम्युनिस्ट पार्टी में काम करते थे और बनने भाई लीडर थे। इन पर रावलपिंडी कॉन्सप्रेसी केस चला, जिससे हाहाकार मच गया। जाने ये क्या करने वाले थे? तब जेल में तन्हा कैदी थे फैज़ अहमद ‘फैज़’। और उन्होंने वहाँ जो गज़लें और नज़्म लिखी व सबसे अभूतपूर्व थी। उन्होंने लिखा-

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

बोल ज़बाँ अब तक तेरी है

तेरा सुत्वाँ, जिस्म है तेरा

बोल कि जाँ अब तक तेरी है

एलिस फैज़, जो उनकी अंग्रेज बीवी थीं; दो बच्चों के साथ पाकिस्तान में हीं डटी रहीं। वह चाहतीं तो इंग्लैंड जा सकती थीं। फिर जो हंगामे फैज़ अहमद ‘फैज़’ की ज़िन्दगी में हुए, वैसे हंगामे किसी और की ज़िन्दगी में होते, तो वह पागल हो जाता। लेकिन फैज़ तो फैज़ थे। वह खड़े रहे उनकी नज़्में आती रहीं, उनकी गज़लों और नज़्मों ने पाकिस्तान में तूफान मचा दिया। बन्ने भाई को तो नेहरू ने छुड़वा लिया, हिंदुस्तान वापस ले आये। फैज़ आठ या 10 साल कैद में रहे। एक जगह आज के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान की पहली वाइफ के बारे में लिखा था, उसकी तुलना एलिस से भी की गयी। लेकिन एलिस, फैज़ के साथ पाकिस्तान में ही बनी रहीं। यह फर्क है एलिस और इमरान की बीवी में। एलिस से उन्होंने मोहब्बत की थी और उन्हीं से शादी भी। एलिस और उनकी पहली मुलाकात सन् 1941 में अमृतसर में हुई थी, एलिस अपनी बहन से मिलने हिन्दुस्तान आयी थीं।

फैज़ अहमद ‘फैज़’ के वालिद सियालकोट के मशहूर बैरिस्टर सुल्तान मोहम्मद खान थे। पाँच बहन और चार भाइयों में सबसे छोटे थे। बचपन में कुरआन की आयतें तो याद नहीं कर पाये, लेकिन स्कूल में पहुँचते-पहुँचते शायरी करने लग गये थे। उनकी शायरी ने, उनकी नज़्मों ने उन्हें कुरआन के गूढ़ को न समझने वालों के िखलाफ खड़ा कर दिया। सन् 19।। में विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी प्रोटोकॉल तोडक़र फैज़ अहमद ‘फैज़’ से मिलने पाकिस्तान में गये और चार घंटे उनके साथ रहे; तब फैज़ ने उनसे पूछा- ‘आपको मेरी गज़लों में से कोई शे’र पसंद तो होगा? कोई शे’र पढि़ए।’ तब अटल बिहारी वाजपेयी ने एक ही शे’र सुनाया-

‘मका़म फैज़ कोई राह में जँचा ही नहीं

जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले’

मगर यह कितनी घनघोर विडम्बना है कि जिन फैज़ को अटल बिहारी वाजपयी पसन्द करते थे, उनकी आज की पार्टी में नफरतें बोयी जा रही हैं।

फैज़ अहमद ‘फैज़’ को बिना पढ़े, बिना समझे चैनल्स पर बकवास करते लोग, लिपस्टिक पाउडर लगाये चेहरे, जो हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर बवाल मचाकर टीआरपी बटोरने में लगे हैं; उनकी लेखनी को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। इन लोगों को पता होना चाहिए कि 194। के हिन्दू-मुस्लिम के दंगे से फैज़ किस कदर तकलीफ में थे। फैज़ ने अपना दर्द  अपनी नज़्म ‘सुबह-ए-आज़ादी’ बयाँ में किया है-

‘ये दाग-दाग उजाला, ये शब-गज़ीदा सहर

वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं

वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर

चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं-न-कहीं

फलक के दश्त में तरों की आखिऱी मंज़िल

कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल

यह वे लोग हैं, जो सब बुत उठवाये जाएँगे को ज़रिया बना लेते हैं और हिन्दू-मुस्लिम का झगड़ा बना लेते हैं। न इन्होंने कुछ पढ़ा है और न ही कुछ समझा है। साहित्य में तो बिल्कुल फच्चर हैं। मोदी राज में यह भी देखने को मिलेगा था, पता नहीं था। इतने भी कूप-मंडूक कहीं हो सकते हैं, तो सिर्फ यहीं पर जो फैज़ की नज़्म को, जो कि हिन्दू भी नहीं था, मुसलमान भी नहीं था; के शब्द निकाल-निकाल कर उसके कुछ और मायने देखने की कोशिश में लगे पड़े हैं। फैज़ की नज़्म में ‘बस नाम रहेगा अल्‍लाह का’ पर हंगामा करने वालों को उसी नज़्म में लिखा – ‘उट्ठेगा अन-अल-हक का नारा’ क्यों नहीं दिखता? वह ‘अन-अल-हक’ को ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ से क्यों नहीं जोड़ते, जो वेदांत परम्परा का सबसे सुदृढ़ पाया है; जिसे सूिफयों ने वेदांत से उठाया और अन-हल-हक कहा। ऐसे चंद हिन्दू-मुस्लिम करने वाले लोगों इनकी वजह से भारत की बुद्धिमता शर्मसार होती है।

ऐसे मौके पर सिरमद और औरंगज़ेब की लड़ाई याद आती है, जो अन-अल-हक कहता था।

एक बार औरंगज़ेब जामा मस्जिद में नमाज पढऩे पहुँचा। नितंग नंगे सरमद (फकीर) वहाँ बैठे हुए थे। उसने कहा आप अपने अंग पर कोई कपड़ा डाल लें। सरमद ने कहा तू ही डाल दे। औरंगजेब ने कपड़ा उठाकर डालने की कोशिश की, तो उसे कपड़े के नीचे अपने भाइयों और भतीजे के सिर दिखायी दिये। उसने कपड़ा छोड़ दिया। सरमद ने कहा- ‘मैं अपने सर को ढकूँ या तेरे ऐब को ढकूँ?’

जब सरमद से कहा गया कि वह कलमा पूरा पढ़ें, तो उन्होंने पढ़ा- ‘ला इल्लाह’ इसी बात पर सरमद को फाँसी दे दी गयी। सरमद ने कहा- ‘मैं शुरुआत इतनी ही समझ पाया, आगे समझूँगा तो पढूँगा।’ औरंगज़ेब और सरमद का यह िकस्सा बहुत प्रसिद्ध हुआ। सरमद सूफी संत थे। जब फैज़ अहमद ‘फैज़’ अन-अल-हक कहते हैं, इसका मतलब है ‘अहम ब्रह्मास्मि’ जो मैं भी हूँ और तुम भी हो।

अमित शाह को चाहिए कि पार्टी में कुछ बुद्धिजीवी भी रखें। ऐसे बुद्धिजीवी, जो हिन्दू- मुस्लिम के दायरे से बाहर निकलकर सोचने की कुव्वत रखें। यह विडम्बना रहेगी तो फैज़ अहमद ‘फैज़’ पाकिस्तानी शायर बना दिये जाएँगे, जो कि खाँटी हिन्दुस्तानी शायर हैं। 6000 साल की सभ्यता उनमें बोलती है। उर्दू ज़ुबान कोई पाकिस्तान में नहीं पैदा हुई, दिल्ली में पैदा हुई। लेकिन अब इन्हें उससे भी दुश्मनी हो गयी है। इस धत्-कर्म पर जितनी लानत भेजी जा सके उतनी भेजिए।