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कांवड़ यात्रा को कलंकित न करें

सावन का महीना शुरू होते ही पूरा भारत शिवमय हो जाता है। भगवान शिव के भक्त अपने-अपने तरीक़े से उनकी आराधना करते हैं। इसी आराधना का हिस्सा कांवड़ लाना भी है। कांवड़ यात्रा आसान नहीं होती है। कांवड़ लाने के कठोर नियम इसे विशेष बनाते हैं।

देखा जा रहा है कि पिछले कुछ वर्षों से ऐसे लोग कांवड़ यात्रा में शामिल होने लगे हैं, जो धर्मार्थ नहीं, बल्कि आनंदार्थ कांवड़ यात्रा लाने जाते हैं। इनमें छोटे बच्चों से लेकर अधेड़ उम्र तक के लोग तो शामिल होते ही हैं, महिलाएँ भी अब शामिल होने लगी हैं। कांवड़ यात्रा को निर्विघ्न और सुविधाजनक बनाने के लिए सरकारें आम सड़कों से लेकर हाईवे तक विशेष व्यवस्था तय करती हैं। तक़रीबन 40 प्रतिशत प्रशासनिक अमला और 60 प्रतिशत से ज़्यादा पुलिस प्रशासन कांवड़ियों की यात्रा सुगम बनाने के लिए लगाया जाता है। इसके अलावा ज़्यादातर राजनीतिक पार्टियाँ, नेता और संगठन कांवड़ियों की सेवा-सुश्रूषा में लग जाते हैं। ठहरने, खाने-पीने और पैर दबाने तक की सेवा के लिए पूरे उत्तर भारत में लाखों कैंप लगा दिये जाते हैं। लेकिन अफ़सोस की बात है कि कांवड़ लाने वालों में अधिकांश कांवड़िये कथित होते हैं, जो नशेड़ी, जुआरी, सनकी, व्यभचारी और उपद्रवी होते हैं। बड़े-बड़े डीजे, उनमें भजनों के नाम पर बजते हुए ऊटपटांग भौंडे गीत इनकी भक्ति के आदर्श बन चुके हैं।

नशे में उपद्रव करना, तोड़फोड़ करना और मारपीट करना इन कथित कांवड़ियों का शौक़ बन चुका है। इनकी कांवड़ को कोई छू ले या न भी छूए, तो इनकी धार्मिक भावनाएँ इतनी आहत हो जाती हैं कि किसी को भी आरोपी बनाकर पीटना शुरू कर देते हैं। हत्या तक पर आमादा हो जाते हैं। वाहन तोड़ देते हैं। सड़क पर बवाल करने लगते हैं। ऊपर से दु:खद यह कि प्रशासनिक अधिकारी और पुलिस के जवान इनके उपद्रव के आगे विवश दिखायी देते हैं। सरकारों की आज्ञा होती है कि कांवड़ियों को समस्या नहीं होनी चाहिए। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तो हर साल आदेश दे देते हैं कि कांवड़ियों के लिए विशेष व्यवस्था की जाए और उन्हें कोई समस्या न हो। उनके निर्देश पर कांवड़ शिविर लगते हैं। सड़कों की मरम्मत होती है। प्रकाश की पूरी व्यवस्था होती है। वॉच टॉवर और सीसीटीवी कैमरे लगते हैं। फूल बरसाये जाते हैं। शौचालय, स्वच्छ पेयजल और चिकित्सा व्यवस्था की जाती है। खंभों पर प्लास्टिक शीट लगायी जाती हैं। इसके अलावा मांस, मदिरा की दुकानें बंद कर दी जाती हैं। डिवाइडर कट पर बैरिकेडिंग होती है। भोजनालयों पर रेट लिस्ट लगती हैं। उनका मालिक किस धर्म का है; लिखना पड़ता है।

इसके बाद भी कांवड़ियों को नशा करने के लिए शराब से लेकर गांजा, भांग और दूसरे नशीले पदार्थ कहाँ से उपलब्ध हो जाते हैं? यह ईश्वर जानता है या शायद सरकार। हद तो यह है कि कथित कांवड़िये इस बार हिंदुओं के भोजनालयों में तरह-तरह के आरोप लगाकर तोड़फोड़ कर रहे हैं। लेकिन उपद्रवियों पर कोई कार्रवाई नहीं! कई ऐसे मामले सामने आ चुके हैं, जहाँ इन कथित कांवड़ियों ने भोजन करने के बाद उसमें प्याज के झूठे आरोप लगाकर भोजनालयों पर तोड़फोड़ और मारपीट की। इन कथित कांवड़ियों ने एक जगह भोजन करने के बाद यह कहकर तोड़फोड़ की कि भोजन जूठी थालियों में परोसकर दिया गया। कई जगह मामूली कहासुनी पर ही तोड़फोड़ की। कई भोजनालयों पर भोजन में प्याज होने के आरोप लगाकर इन तोड़फोड़ की है। लूटपाट की है। हैरानी इस बात की है कि पुलिस पीड़ितों के ख़िलाफ़ ही कार्रवाई कर रही है।

कुछ जगह पर पुलिस द्वारा उपद्रवी कांवड़ियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई के भी मामले सामने आये हैं। कथित कांवड़ियों के उपद्रव के बीच पुलिस का यह साहस सराहनीय माना जाना चाहिए। क्योंकि ऐसे लोग कांवड़ के बहाने वही काम करते नज़र आते हैं, जो अपराधी करते हैं। कांवड़ की आड़ में इन्हें राजनीतिक संरक्षण मिल जाता है, जो राजनीतिक पार्टियाँ और नेता अपने फ़ायदे के लिए देते हैं। ऐसे में समझदार पुलिस जवानों का इस तरह के उपद्रवी कांवड़ियों से निपटना, क़ानून-पालन के मूल कर्तव्य की मिसाल है। सभी राज्यों की पुलिस और ज़िला प्रशासनिक अधिकारियों को ऐसा ही करना चाहिए। उपद्रियों को ख़िलाफ़ कार्रवाई करना कोई कांवड़ियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं है और न ही धार्मिक भावना को आहत करना है। यह कार्रवाई इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि कांवड़ की आड़ में उपद्रवी और आपराधिक तत्त्व अराजकता फैला रहे हैं। लूटपाट, मारपीट और तोड़फोड़ कर रहे हैं। नशे में धुत ऐसे लोग धर्म के लिए नहीं, बल्कि ऐश-मौज़ के लिए कांवड़ उठाकर चल देते हैं। पिछले वर्ष कई जगह कांवड़ियों ने उपद्रव मचाया था। कई हत्याएँ तक कर दी थीं। इस बार भी ऐसा न हो, इसके लिए प्रशासनिक अधिकारियों और पुलिस के जवानों को पूरी सतर्कता के साथ मुस्तैद रहना चाहिए और कांवड़ियों के वेश में छिपे अपराधियों को सबक़ सिखाना चाहिए; भले ही सरकारें कुछ भी कहें। क्योंकि ऐसे कथित कांवड़िये, वास्तविक कांवड़ियों के लिए भी सिर दर्द बने हुए हैं। कई बार कांवड़ियों में ही झड़पें होती देखी गयी है। इसकी वजह भी वे उपद्रवी ही होते हैं, जो कांवड़ के बहाने आपराधिक घटनाओं को अंजाम देने के लिए मौक़े की तलाश में रहते हैं। उपद्रव करने के लिए आमादा रहने वाले ये कथित कांवड़िये प्रशासनिक अधिकारियों और पुलिस के जवानों की नाक में भी दम करके रखते हैं और भक्ति के माहौल को भी ख़राब कर देते हैं।

विशुद्ध भक्ति-भजन बजाने तक से परहेज़ करने वाले ये कथित कांवड़िये वास्तविक भक्ति से भी कोसों दूर होते हैं। गाली-गलोज करना, नशा करना, हुड़दंग करना, वीडियो बनाना, चलती सड़कों पर अजीब से गानों पर नाचने के नाम पर उछलकूद करना और क़ानून की धज्जियाँ उड़ाना इन कथित कांवड़ियों का चलन बन चुका है। ऐसे कथित कांवड़ियों की बदमाशियों के चलते वास्तविक कांवड़ियों को भी बदनामी का बोझ उठाना पड़ता है। वे कांवड़िये, जो धर्म, जाति और क्षेत्र आदि की सीमाओं से परे शिव-भक्ति में मगन होकर कांवड़ को कंधों पर उठाये किसी से बिना सेवा कराये आते-जाते हैं। उन्हें यह भी पता नहीं होता कि रास्ते में उन्हें पानी की बोतल देने वाला किस धर्म से था, किस जाति से था। उनके मुख पर भक्ति की चमक और जिह्वा पर भगवान शिव का सुमिरन होता है। लेकिन हर चुनाव में मनचाही जीत हासिल करने के लिए जबसे धर्म की आड़ में राजनीति होने लगी है, राजनीतिक लोगों ने धार्मिक पाखंडियों को अपना सबसे मज़बूत हथियार बनाया हुआ है। यही लोग उपद्रवी हैं।

ज़ाहिर है कि धर्म के नाम पर सीधे जीत नहीं मिल सकती। इसलिए लोगों को डराना ज़रूरी है और लोगों को डराने के लिए प्रशासनिक ताक़त अपने हाथ में लेने के साथ-साथ अपराधियों की ज़रूरत पड़ती है। अपराधियों को भी खुल्लमखुला अपराध करने के लिए राजनीतिक अपराधियों की ज़रूरत पड़ती है। इस तरह ये दोनों एक-दूसरे के पूरक बन गये हैं। जब भी कोई धार्मिक त्योहार या अनुष्ठान आता है; राजनीतिक अपराधी ऐसे अपराधियों को सक्रिय कर देते हैं, जो धर्म की आड़ लेकर उपद्रव कर सकें। आजकल ऐसा लगभग हर त्योहार पर होने लगा है। चाहे वह त्योहार किसी भी धर्म का हो। जिस धर्म का त्योहार है, अगर उस धर्म के लोग उपद्रव नहीं करना चाहते, तो दूसरे धर्म के लोगों को उपद्रव के लिए उकसाया जाता है। कांवड़ यात्रा में उवद्रवी चाहे जिस धर्म के हों; लेकिन आख़िर हैं वे उपद्रवी ही। उनके ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई की सख़्त ज़रूरत है।

हालाँकि इतनी बड़ी संख्या में कांवड़ियों के हरिद्वार पहुँचने से लेकर हरिद्वार से सुरक्षित वापसी तक के लिए उत्तराखंड के प्रशासनिक अधिकारियों और पुलिस प्रशासन की प्रसंशा करनी चाहिए। लेकिन अच्छा हो, जब एक भी शर्मनाक घटना न हो। ऐसा हो भी सकता है कि हर जगह कांवड़िये ही ग़लत न हों। हो सकता है कि कुछ लोग भी कांवड़ियों के साथ भी दुर्व्यवहार कर देते हों। लेकिन कांवड़िये तो भगवान शिव की भक्ति करने निकले हैं। उन्हें क्षमा करना आना चाहिए। उन्हें अपने व्यवहार से ऐसी मिसाल पेश करनी चाहिए, जिससे स्व-धर्म के साथ-साथ दूसरे धर्म के लोग भी प्रभावित हों और उनकी सेवा-सुश्रूषा के लिए मन से आगे आएँ। अन्यथा जिन घटनाओं को कथित कांवड़िये अंजाम दे रहे हैं, उससे सभी कांवड़ियों के साथ-साथ सनातन धर्म और कांवड़ यात्रा बदनाम हो रही है। और यह गौरव की बात नहीं है। इसलिए कांवड़ियों से अनुरोध है कि वे कांवड़ यात्रा को कलंकित न करें।

भारत की उड़ान और अंधविश्वास

28 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक्सिओम मिशन-4 पर गये भारतीय अंतरिक्ष यात्री शुभांशु शुक्ला से जब वीडियो कॉल पर बातचीत की, तो ग्रुप कैप्टन शुक्ला ने कहा कि अंतरिक्ष से भारत बहुत भव्य दिखता है।’ अंतरिक्ष से भारत बहुत भव्य दिखता होगा। लेकिन ज़मीन पर क्या सूरत-ए-हाल है? क्या सत्ता चलाने वालों, प्रशासनिक अधिकारियों के पास इस पर भी ग़ौर करने का वक़्त है या उनकी नीयत है?

बिहार के पूर्णिया ज़िले के रानीपतरा टेटगामा गाँव में झाड़-फूँक के तीन दिन बाद एक बच्चे की मौत होने पर ग्रामीणों ने डायन के शक में एक ही परिवार के पाँच लोगों से मारपीट की, फिर पेट्रोल छिड़ककर ज़िन्दा जला दिया। इसके बाद सभी शवों को घर से दो किमी दूर तालाब में फेंक दिया। दिल दहला देने वाली यह घटना 06 जुलाई की रात हुई। पाँच में तीन महिलाएँ थीं। इसके बाद पूर्णिया में ही एक और महिला पर डायन कहकर कुछ ग्रामीणों ने पत्थरबाज़ी की।

विश्व की चौथी अर्थव्यवस्था वाले देश भारत के लिए यह सिर्फ़ घरेलू स्तर पर ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी शर्म की बात है। जब देश में चारों और हिंदूवाद का ऐसा माहौल बनाया जा रहा हो, जो मन में एक दहशत पैदा करता हो। अभिव्यक्ति की आज़ादी को सिकोड़ा जा रहा है, तो डायन के नाम पर अशिक्षित, कमज़ोर तबक़े के लोगों की हत्या क्या इस भव्य दिखने वाले भारत के लिए गंभीर चिन्ता का विषय नहीं होना चाहिए? ऐसी घटनाओं को दूर-दराज़ भारत में घटने वाली अपवाद घटना के रूप में आँकना देश के सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक पहलू के लिए सही नहीं है। मोदी का विजन 2047 तक विकसित भारत है। क्या 2047 तक डायन प्रथा का उन्मूलन संभव है? बहुत पुरानी यह कुप्रथा आज़ादी के 78 साल बाद भी मौज़ूद है। एक तरफ़ शुभांशु शुक्ला ने अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में प्रवेश करने वाले पहला भारतीय बनकर इतिहास रच दिया और इसी भारत की ज़मीन पर जादू-टोना, डायन सीरखे अंधविश्वास लोगों को ख़ासकर महिलाओं को निशाना बना रहे हैं। एक अहम सवाल यहाँ पर यह भी उठता है कि बीते 11 वर्षों से प्रधानमंत्री महिलाओं के उत्थान, सशक्तिकरण के जो दावे करते हैं, उसकी पड़ताल कितनी ज़रूरी है। पूर्णिया की यह दर्दनाक घटना एक आईना है।

दरअसल ऐसी घटनाएँ देश के 12 राज्यों में अधिक हैं- झारखण्ड, बिहार, ओडिसा, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र और असम। ऐसी घटनाएँ अधिकतर यहाँ के आदिवासी इलाक़ों में होती हैं। कई राज्यों- बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओडिसा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान, असम ने तो इस कुप्रथा पर लगाम लगाने के लिए इसके ख़िलाफ़ क़ानून भी बनाये हैं। लेकिन क़ानून कितने कारगर हैं? यह अहम सवाल है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, 2012 से 2022 तक डायन शिकार से सम्बन्धित हिंसा में 1,184 लोगों की जान चली गयीं डायन प्रथा के ख़िलाफ़ असम में जो क़ानून बना है, वह बहुत कड़ा है। यहाँ दोषी पाये जाने पर अपराधी को आजीवन जेल तक की भी सज़ा का प्रावधान है।

ग़ौरतलब है कि यह क़ानून सबसे पहले बिहार राज्य ने ही बनाकर एक मिसाल क़ायम की थी और दूसरे राज्यों को एक राह दिखायी थी; लेकिन वहाँ इसका अमल प्रभावी नहीं दिखता। निरंतर संस्था द्वारा 2023-2024 में बिहार में किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार, यह प्रथा 25 साल बाद भी जारी रहेगी। कम-से-कम 75,000 महिलाएँ संभवत: बिहार के प्रत्येक गाँव में दो या अधिक महिलाएँ डायन होने के आरोप के कारण लगातार ख़तरे में रहती हैं।

इस सर्वेक्षण में यह पाया गया कि जादू-टोने की शिकार लगभग 75 प्रतिशत महिलाएँ 46 से 66 वर्ष की आयुवर्ग की थीं, जिनमें से 97 प्रतिशत दलित, पिछड़ी, अति पिछड़ी जातियों से थीं। अधिकांश महिलाएँ अनपढ़, ग़रीब थीं। केवल 31 प्रतिशत ऐसी महिलाओं ने अपने मामले पुलिस या पंचायतों को बताये और जिन लोगों ने बताये उनमें से भी 62 प्रतिशत को कोई हल नहीं मिला। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि इस सर्वेक्षण में शामिल 85 प्रतिशत ग्राम प्रधान 1999 के अधिनियम से वाक़िफ़ नहीं थे। दिसंबर, 2024 में सर्वोच्च अदालत ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि जादू-टोने के नाम पर महिलाओं को प्रताड़ित करना संवैधानिक भावना पर धब्बा है। बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव बाबत राजनीतिक पारा चरम पर है। लेकिन अफ़सोस कि संवैधानिक भावना पर यह धब्बा किसी भी राजनीतिक दल के लिए कोई मतलब नहीं रखता। यह धब्बा चुनावी परिदृश्य में अदृश्य है।

मराठी न बोलने पर मारपीट किस लिए?

के. रवि (दादा)

मराठी मानुस होना अपने आप में गौरव की बात मानी जाती है। राजतंत्र से लेकर पिछले कुछ दशक पहले तक मराठों ने बाहर से आये हुए लोगों की मदद ही की है। पर अब कुछ संगठन ग़ैर-मराठी लोगों से मार-पीट कर रहे हैं। पिछले 15-20 वर्षों में बिहार और यूपी वालों पर तो कई बार मुंबई में हमले हो चुके हैं। अब मायानगरी मुंबई में मराठी न बोल पाने पर कई महीने से बाहर के लोगों की पिटाई की जा रही है। पर ग़ैर-मराठी भाषी मानुसों पर हमला करना मराठा मानुसों की शान में कभी रहा ही नहीं है। मराठी से प्यार बुरी बात नहीं है, पर ग़ैर-मराठी मानुसों को प्यार से मराठी सिखायी जाए, तो अच्छा है।

मारपीट के आरोप महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ताओं पर लग रहे हैं, जिसे संक्षेप में मनसे कहते हैं। मनसे के कार्यकर्ता उन लोगों के पास जाकर मराठी बोलने को कह रहे हैं, जो मुंबई कमाने-खाने को दूसरे राज्यों से आये हैं या सरकार द्वारा नियुक्त किये गये हैं। मराठी बोलने से मना करने एवं मराठी न बोल पाने पर उनकी पिटाई की जा रही है। अभी तक देखा गया है कि ऐसे लोगों को थप्पड़ मारे जा रहे हैं। इसके पीछे भी राज ठाकरे का एक बयान माना जा रहा है, जो गुड़ी पड़वा के रोज़ 30 मार्च को मनसे प्रमुख राज ठाकरे ने दादर वाले शिवाजी पार्क में दिया था। राज ठाकरे ने अपने कार्यकर्ताओं से कहा था कि महाराष्ट्र में मराठी भाषा का सम्मान होना ही चाहिए। अगर कोई मराठी भाषा का अपमान करता है, तो उसे करारा जवाब दो। सरकारी और अर्ध-सरकारी संस्थानों में मराठी का इस्तेमाल अनिवार्य होना चाहिए। जो लोग जानबूझकर मराठी नहीं बोलते, उन्हें थप्पड़ मारा जाएगा।

शिवाजी पार्क उस रोज़ मनसे कार्यकर्ताओं से खचाखच भरा था। यहीं से ग़ैर-मराठी मानुसों को मराठी बोलने पर मजबूर किया जाने लगा और जिसने मराठी नहीं बोली, उस पर थप्पड़ों की बरसात होने लगी। हालाँकि अब काफ़ी सियासत गर्माने के बाद राज ठाकरे ने कहा है कि अब इस आन्दोलन को रोकना ठीक रहेगा। हमने इस मुद्दे पर काफ़ी जागरूकता फैलायी है। हमने यह भी दिखा दिया है कि अगर मराठी भाषा का सम्मान नहीं किया गया, तो क्या हो सकता है। अब मराठी लोगों को ख़ुद आगे आकर आग्रह करना चाहिए। अगर हमारे अपने लोग ही पीछे हट जाएँगे, तो फिर आन्दोलन करने का क्या फ़ायदा? पर मनसे कार्यकर्ताओं ने इन दो-ढाई महीने में ग़ैर-मराठियों को थप्पड़ मारे और बहुत-सी जगह तोड़फोड़ भी की। इस बीच महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने बयान जारी किया था कि क़ानून हाथ में लेने का किसी को अधिकार नहीं है। इसके जवाब में राज ठाकरे ने कहा कि सबसे महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी सरकार की है। रिजर्व बैंक के नियम उन्हें पता हैं और उन नियमों का पालन करवाना सरकार का काम है।

मनसे की इस कर्मकांड से महाराष्ट्र ही नहीं, पूरे देश का राजनीतिक माहौल गर्म हो गया है। पर ऐसा कहा जा रहा है कि यह सब देश के सबसे अमीर नगर निगम अर्थात् बृहन्मुंबई महानगरपालिका, जिसे संक्षेप में बीएमसी कहते हैं; के चुनाव के चलते किया गया है।  

मनसे की स्थापना 2006 में राज ठाकरे ने शिवसेना से अलग होकर मनसे की थी। मनसे का प्रमुख एजेंडा मराठों के हितों की रक्षा करना और हिंदुत्व की विचारधारा को बढ़ावा देना रहा है। मनसे ने 2009 के विधानसभा चुनावों में 13 सीटें जीती थीं; पर 2014 और 2019 के चुनावों में उसका प्रदर्शन बहुत कमज़ोर रहा और 2024 में तो यह हाल हुआ कि विधानसभा में उसे एक भी सीट नहीं मिल सकी। 119 सीटों पर तो मनसे के उम्मीदवारों की ज़मानत तक ज़ब्त हो गयी। ऐसे में मनसे के लिए एक मौक़ा बीएमसी चुनाव में अपनी साख बचाने का आ रहा है। मुंबई मनसे का गढ़ है और बीएमसी जैसे महत्त्वपूर्ण निकाय में अगर उसकी अच्छी मौज़ूदगी रहती है, तो उसकी राजनीतिक ताक़त बढ़ेगी।

बीएमसी का बजट हज़ारों करोड़ रुपये का होता है और जो पार्टी बीएमसी में शासन करती है, उसको भ्रष्टाचार का ख़ूब मौक़ा मिलता है। बीएमसी पर शासन करने वाली पार्टी महाराष्ट्र सरकार के बाद सबसे ज़्यादा आर्थिक और राजनीतिक ताक़त मिलती है। लंबे वक़्त तक बीएमसी पर शिवसेना का शासन रहा है। पर 2022 में हुई शिवसेना की फूट में उद्धव ठाकरे कमज़ोर पड़े हैं। इसलिए राज ठाकरे ख़ुद को मज़बूत दिखाकर बीएमसी में न रहते हुए अपनी राजनीतिक ताक़त दिखाना चाहते हैं। यह कहना मुश्किल है कि बीएमसी चुनाव में राज ठाकरे भाजपा की मदद करना चाहते हैं या उद्धव ठाकरे की, पर भाजपा बीएमसी पर हर हाल में शासन चाहती है। इसलिए ऐसे आसार नहीं लगते कि अभी यह राजनीति ख़त्म हुई है। बीएमसी के चुनाव से पहले न तो मराठी और ग़ैर-मराठी मानुसों के बीच तनाव कम होने के आसार नज़र आ रहे हैं और न ही राजनीति की आग को ठंडा होने के आसार नज़र आ रहे हैं। यह सब तो ठीक है; पर मराठी न बोलने पर मारपीट किसलिए? किसी पर भाषा न बोल पाने के नाम पर मारना-पीटना उचित ही नहीं है। भारतीय संविधान इसकी इजाज़त किसी को नहीं देता।

राजनीतिक अपराधीकरण

अपराध सिर्फ़ अपराधी ही नहीं करते, ताक़तवर लोग भी करते और करवाते हैं। जो जितना ज़्यादा ताक़तवर है, उसके अपराध उतने ही संगीन हैं। लेकिन उन्हें अपराधी साबित करने के रास्ते लगभग बंद हो चुके हैं। जो ऐसी हिम्मत दिखाते हैं, उनकी अकस्मात् संदिग्ध मौत हो जाती है। लेकिन मौत सिर्फ़ उन्हीं की नहीं होती, बल्कि उनकी भी होती है, जिन्हें जीते-जी मार दिया जाता है। दुर्भाग्य से दोनों के लिए ही आवाज़ उठाने वाले बहुत कम लोग हैं।

अब तो इस तरह की हत्या के कई उदाहरण हर दिन देखने को मिल रहे हैं। जैसे, उत्तर प्रदेश में हज़ारों स्कूल बंद किये जा चुके हैं और 27,000 स्कूल बंद करने की तैयारी है। लेकिन शराब के ठेकों के लिए इसी वर्ष सरकार ने आवेदन आमंत्रित किये। 07 फरवरी, 2025 से आवेदन आने शुरू हुए और 27 फरवरी, 2025 तक मात्र 20 दिन में 1,99,232 आवेदन आये, जिनमें बिना कोई देरी किये उत्तर प्रदेश सरकार 27,308 शराब ठेकों के लाइसेंस जारी कर चुकी है। इन आवेदनों के प्रक्रिया शुल्क और शराब की बिक्री से करोड़ों रुपये कमाने के चक्कर में सरकार ने शराब ठेकों के लाइसेंस देने को प्राथमिकता पर रखा। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, शराब के ठेकों के आवेदनों से ही उत्तर प्रदेश सरकार को 1,066.33 करोड़ रुपये मिले हैं। लेकिन दु:ख की बात यह है कि 5,000 स्कूल में पढ़ने वाले मासूम बच्चे जब स्कूलों का विलय न करने की याचिका लेकर उच्च न्यायालय पहुँचे, तो उन्हें मायूसी हाथ लगी। अब मामला सर्वोच्च न्यायालय में है।

यह सच है कि पिछले कुछ वर्षों से विद्यार्थियों, किसानों, मज़दूरों, छोटे पेशेवरों और व्यवसायियों से लेकर आम जनता तक को किसी-न-किसी तरह से परेशान किया जा रहा है। ज़्यादा-से-ज़्यादा टैक्स की वसूली, अधिकारों का हनन, सुविधाओं की कमी, खुला भ्रष्टाचार, अपराधों को बढ़ावा, चुनावी बेईमानी, सुनियोजित दंगे, अन्याय, आतंकवाद, तस्करी, अराजकता; ये सब राजनीतिक अपराधियों की ही तो देन हैं।

कहीं अपराध खुलकर अपराध की तरह हो रहा है, तो कहीं क़ानूनी आड़ लेकर किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा और दूसरे कई राज्यों में ऐसे कई उदाहरण मिल जाएँगे। डराने और सताने की हद यह हो गयी है कि लोगों को न्याय के लिए शान्तिपूर्वक आन्दोलन तक नहीं करने दिये जाते। उत्तर प्रदेश में पहले जो बुलडोज़र विरोधी अपराधियों के ख़िलाफ़ चला था, अब वह हर भाजपा शासित राज्य में ग़रीबों के घरौंदों तक जा पहुँचा है। दिल्ली में तो यह झोंपड़ियों को उजाड़ते हुए कच्ची कॉलोनियों तक भी पहुँचने की तैयारी में है। सत्ता में बैठे नेताओं को सिर्फ़ ज़मीन के वे टुकड़े दिखायी दे रहे हैं, जिनकी क़ीमत करोड़ों रुपये है। जब तक वहाँ लोग बसे रहेंगे, ज़मीन सरकार को नहीं मिल सकेगी। इसलिए बुलडोज़र ही इसका अंतिम उपाय है। किसानों की ज़मीन जबरन अधिग्रहण करके छीनी ही जा रही है। इसमें आम लोग जीते-जी और वास्तविक रूप से बुरी तरह मारे जा रहे हैं।

क़ानूनी भाषा में इसे हत्या कहते हैं, जिसके लिए राजनीतिक अपराधी ही सबसे ज़्यादा दोषी हैं। लेकिन क़ानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ता; क्योंकि राजनीतिक अपराधी अपने संरक्षण और आम लोगों को कुचलने के लिए साम, दाम, दंड और भेद के ज़रिये क़ानून का इस्तेमाल करना भी जानते हैं। अपने अनुकूल अपराधों पर सत्ताओं की राजनीतिक चुप्पी और अपने पक्ष के अपराधियों को संरक्षण देने के चलते पुलिस प्रशासन और न्यायिक पदों पर बैठे अधिकांश लोग इन राजनीतिक अपराधियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने में अक्षम रहते हैं। ज़्यादातर आम लोग क़ानून के बारे में कुछ भी नहीं जानते। इसीलिए वे डरे रहते हैं। लोगों के इसी डर और क़ानूनी कार्रवाई न होने के कारण आजकल भारत में राजनीतिक अपराधियों की बाढ़-सी आयी हुई है। ये राजनीतिक अपराधी अपने स्वार्थ और साम्राज्यवाद के लिए अपने संरक्षण में अपराधियों का पालन-पोषण करने और देश को लूटने का काम कर रहे हैं। किसानों की ज़मीन छीनना, ग़रीबों के घर तोड़कर ज़मीन हड़पना, लोगों की कमायी पर नज़र रखकर क़ानून बनाकर कर-वसूली करना, उनके काम-धंधे छीनना, समाज में फूट डाले रखने के लिए नफ़रत उगलना तो जैसे इन राजनीतिक अपराधियों का कर्म हो चुका है।

अब तो हद यह हो गयी है कि कई पुलिसकर्मी पीड़ितों को ही प्रताड़ित करने का काम करने लगे हैं। राजनीतिक अपराधियों ने हर तरह से लूट के रास्ते निकाल लिये हैं। हर काम सरकारी और क़ानूनी बताकर किया जा रहा है, जिससे विरोध न हो सके।

कुल मिलाकर चंद चालाक लोग सिर्फ़ अपनी ख़ुशहाली बढ़ाने के लिए यह सब कर रहे हैं। यह जानते हुए भी कि मरने के बाद सब कुछ यहीं रह जाना है। लेकिन दौलत, शोहरत और इज़्ज़त की भूख इतनी ज़्यादा है कि अपराध का रास्ता अपना लिया है। अगर आम आदमी बनकर अपराध करते, तो जेल होती और समाज सीधे तौर पर अपराधी कहता। इसलिए सत्ता में आकर बैठ गये। अब कोई सीधे-सीधे अपराधी नहीं कह सकेगा। कहेगा, तो वही अपराधी साबित कर दिया जाएगा।

शुभांशु शुक्ला 20 दिन बाद अंतरिक्ष से पृथ्वी पर लौटे

नई दिल्ली: शुभांशु शुक्ला समेत चार अंतरिक्ष यात्री 20 दिन बाद स्पेस से पृथ्वी पर लौट आए हैं। 23 घंटे के सफर बाद ड्रैगन स्पेसक्राफ्ट ने कैलिफोर्निया के समुद्र पर लैंड किया। चारों एस्ट्रोनॉट एक दिन पहले शाम आईएसएस से पृथ्वी के लिए रवाना हुए थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कैप्टन शुभांशु शुक्ला की सकुशल वापसी पर हर्ष जताया है। उन्होंने अंतरिक्ष से धरती पर लौटने की इस यात्रा को मील का पत्थर करार दिया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक्स प्लेटफॉर्म के जरिए कहा, “मैं पूरे देश के साथ ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला का स्वागत करता हूं, जो अपने ऐतिहासिक अंतरिक्ष मिशन से पृथ्वी पर लौट आए हैं। अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन का दौरा करने वाले भारत के पहले अंतरिक्ष यात्री के रूप में, उन्होंने अपने समर्पण, साहस और अग्रणी भावना से करोड़ों सपनों को प्रेरित किया है। यह हमारे अपने मानव अंतरिक्ष उड़ान मिशन गगनयान की दिशा में एक और मील का पत्थर है।” वहीं, स्पेसएक्स ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म एक्स पर एक पोस्ट में लिखा, “ड्रैगन के सुरक्षित उतरने की पुष्टि हो गई है। एस्ट्रोपैगी, शक्स, एस्ट्रो_स्लावोज़ और टिबी, पृथ्वी पर आपका स्वागत है!”

शुभांशु शुक्ला, अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री पेगी व्हिटसन, पोलैंड के स्लावोज़ उज़्नान्स्की-विस्नीव्स्की और हंगरी के टिबोर कापू 26 जून को अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) की ओर रवाना हुए थे। वह राकेश शर्मा के बाद अंतरिक्ष की यात्रा करने वाले दूसरे भारतीय बने हैं। राकेश शर्मा ने यह यात्रा 1984 में की थी। जब अंतरिक्ष यान पृथ्वी के वातावरण में लौट रहा था, तो 18 मिनट का डी-ऑर्बिट बर्न हुआ, जो प्रशांत महासागर के ऊपर हुआ। इस दौरान यान ने पृथ्वी की कक्षा से बाहर निकलने की प्रक्रिया शुरू की।

अंतरिक्ष यान के वायुमंडल में प्रवेश करते समय, करीब सात मिनट तक यान से संपर्क टूट गया था। इसे ब्लैकआउट पीरियड कहा जाता है। यह आमतौर पर उस समय होता है, जब यान तेज गति और गर्मी के कारण सिग्नल नहीं पकड़ पाता। वापसी की प्रक्रिया में यान के ट्रंक (पिछला हिस्सा) को अलग किया गया और हीट शील्ड को सही दिशा में लगाया गया, ताकि यान को वायुमंडल में प्रवेश करते समय सुरक्षा मिल सके। उस समय यान को करीब 1,600 डिग्री सेल्सियस तक की गर्मी का सामना करना पड़ा। अंतरिक्ष यान की सफल लैंडिंग के दौरान पैराशूट दो चरणों में खोले गए। स्पेसएक्स ने बताया कि अप्रैल में एफआरसीएम-2 मिशन के जरिए ड्रैगन यान को पहली बार पश्चिमी तट (कैलिफोर्निया) पर उतारा गया था। यह दूसरा मौका था, जब ड्रैगन यान ने इंसानों को लेकर कैलिफोर्निया के तट पर लैंडिंग की। इससे पहले, स्पेसएक्स के ज्यादातर स्प्लैशडाउन (समुद्र में उतरने) अटलांटिक महासागर में होते थे। आईएसएस पर अपने दो सप्ताह से अधिक के प्रवास के दौरान, शुभांशु शुक्ला ने कुल 310 से ज़्यादा बार पृथ्वी की परिक्रमा की और लगभग 1.3 करोड़ किलोमीटर की दूरी तय की। यह दूरी पृथ्वी और चंद्रमा के बीच की दूरी से 33 गुना अधिक है, जो अपने आप में एक शानदार उपलब्धि है। अंतरिक्ष मिशन के दौरान चालक दल ने अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) से 300 से ज्यादा सूर्योदय और सूर्यास्त देखे — जो पृथ्वी की तेज परिक्रमा की वजह से संभव हुआ। इसी बीच, इसरो ने सोमवार को बताया कि शुभांशु शुक्ला ने अपने मिशन के दौरान सभी सात सूक्ष्म-गुरुत्व प्रयोग और अन्य नियोजित वैज्ञानिक गतिविधियाँ सफलतापूर्वक पूरी कर ली हैं। इसरो ने इसे “मिशन की एक बड़ी उपलब्धि” बताया है।

यमन में भारतीय नर्स निमिषा प्रिया की फांसी टली

नई दिल्ली:  यमन में हत्या के मामले में फांसी की सज़ा पा चुकीं केरल की नर्स निमिषा प्रिया की सज़ा पर अंतिम समय में रोक लगा दी गई है। निमिषा को 16 जुलाई को फांसी दी जानी थी, लेकिन भारत सरकार और कई धार्मिक व सामाजिक संगठनों के अथक प्रयासों के बाद यमनी अधिकारियों ने सज़ा पर फिलहाल रोक लगाने का फैसला किया है।

यह जानकारी ‘सेव निमिषा प्रिया इंटरनेशनल एक्शन काउंसिल’ के सदस्य सैमुअल जेरोम ने दी। हालांकि, यह एक अस्थायी राहत है क्योंकि पीड़ित यमनी नागरिक के परिवार ने अब तक निमिषा को माफ करने या ‘ब्लड मनी’ (खून के बदले मुआवजा) स्वीकार करने पर सहमति नहीं दी है।

क्या है पूरा मामला- केरल निवासी निमिषा प्रिया पर 2017 में अपने यमनी बिजनेस पार्टनर की हत्या करने का आरोप लगा था, जिसमें उन्हें दोषी ठहराते हुए मौत की सज़ा सुनाई गई थी।

भारत सरकार के प्रयास जारी- इस मामले में भारत सरकार की सीधी दखल की सीमाएं हैं, क्योंकि यमन की राजधानी सना में भारतीय दूतावास कार्यरत नहीं है। इसके बावजूद भारत ने औपचारिक रूप से यमन से सज़ा पर रोक लगाने की मांग की थी। सरकार धार्मिक नेताओं के ज़रिए पीड़ित परिवार से बातचीत कर समाधान निकालने का प्रयास कर रही है। इस प्रयास में ग्रैंड मुफ्ती ऑफ इंडिया, कंथापुरम एपी अबूबक्कर मुसलियार एक अहम भूमिका निभा रहे हैं। शरिया कानून के तहत अगर पीड़ित परिवार आरोपी को क्षमा कर दे या ब्लड मनी स्वीकार कर ले, तो मौत की सज़ा को टाला जा सकता है।

Meta ने 1 करोड़ Facebook अकाउंट किए बंद

नई दिल्ली:  Meta ने एक बड़े एक्शन की जानकारी दी है और बताया है कि 1 करोड़ अकाउंट्स को ब्लॉक कर दिया है, जो चोरी-छिपे दूसरे डुप्लीकेट प्रोफाइल चला रहे थे। कंपनी ने इन अकाउंट्स को इस साल की पहली छमाही में डिलीट किया है, जिसको कंपनी ने Spammy Content का नाम दिया है।

दरअसल, कंपनी का मकसद फेसबुक फीड को और ज्यादा रिलेवेंट, क्लीन और ऑथेंटिक बनाना है। खासकर तब जब सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर AI जनरेटेड कंटेंट का विस्तार इतनी तेजी से हो रहा है जैसे की मानों यहां बाढ़ आ गई है। कंपनी ने बताया है कि ये फेक अकाउंट कथित तौर पर फेसबुक के एल्गोरिदम और ऑडियंस रीज का फायदा उठाना चाहते हैं, उसके लिए वे बड़े कंटेंट क्रिएटर्स के अकाउंट की डुप्लीकेसी बनाने की कोशिश करते थे।

कंपनी ने बताया है कि 5 लाख अन्य अकाउंट को गलत एक्टिविटी के लिए उनके खिलाफ एक्शन लिया है। यहां बताता चलें कि ये अकाउंट कमेंट स्पैम, बॉट जैसी एंगेजमेंट और कंटेंट रिसाइक्लिंग में शामिल थे।

Meta ने अपने ब्लॉगपोस्ट में बताया है कि मेटा ने ओरिजनल कंटेंट क्रिएटर्स, स्पेशली यूनिक इमेज या वीडियो बनाने वाले क्रिएटर्स को रिवॉर्ड देने के लिए नई नीति की जानकारी दी है। साथ ही कंपनी अब डुप्लिकेट कंटेंट का पता लगाने और उसकी रीज को कम करने के लिए एक तकनीक का उपयोग करेगी। Meta का यह एक्शन ऐसे समय लिया गया है, जब कंपनी खुद AI इंफ्रास्ट्रक्चर पर बड़े स्तर पर काम कर रही है।

जंतर-मंतर वाले अब जा टिके हैं चंडीगढ़ के बंगलों में

क्या आपको वे पुराने दिन याद हैं जब सत्येंद्र जैन और उनके गुरु अरविंद केजरीवाल ने केवल आदर्शवाद और ​​सीटी बजाकर दिल्ली की राजनीति में हलचल मचा दी थी? अब वही सत्येंद्र जैन पंजाब में स्वास्थ्य विभाग चला रहे हैं, वो भी चंडीगढ़ के एक शानदार सरकारी बंगले से। जी हां, वही व्यक्ति जो कभी दिल्ली की नौकरशाही से लड़ते थे, अब पंजाब के स्वास्थ्य विभाग की डोरें खींच रहे हैं, बिना किसी चीरफाड़ के। उनके पूर्व ‘विशेष कार्य अधिकारी’ शालीन मित्रा भी उनके साथ पंजाब जा चुके हैं, जिससे स्पष्ट है कि यह सिर्फ एक सप्ताहांत की पोस्टिंग नहीं है।

और जैन अकेले नहीं हैं। दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया, जो कभी मुफ्त पाठ्यपुस्तकों के पक्षधर थे, अब पंजाब के शिक्षा विभाग में सलाहकार की भूमिका में हैं। और रीना गुप्ता, जो कभी केजरीवाल के आलोचकों से तकरार करती थीं, अब पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की बॉस बन बैठी हैं। यह एक उल्टा राजनीतिक एक्सचेंज कार्यक्रम सा लगता है – दिल्ली के दिमाग अब पंजाब के लस्सी पसंद करने वाले लोगों में दुकान जमा रहे हैं। कभी दिल्ली डायलॉग कमीशन की उपाध्यक्ष रहीं जैस्मिन शाह अब पंजाब के आईटी विभाग में ‘लीड गवर्नेंस फेलो’ हैं। वहीं, कमल बंसल ने दिल्ली के तीर्थ यात्रा बोर्ड से पंजाब की तीर्थ यात्रा समिति का अध्यक्ष बन जाना पसंद किया है। सूत्रों के मुताबिक, चंडीगढ़ में कम से कम दस सरकारी फ्लैट अब दिल्ली से आए इन लोगों के पास हैं, जो ‘सिद्धांतवादी’ नौकरशाही की अपनी शैली भी साथ ढो कर लाए हैं। आलोचक कहते हैं – जो कभी व्यवस्था से लड़ते थे, वे अब खुद व्यवस्था बन गए हैं।

संसद समिति के जम्मू-कश्मीर दौरे से पहलगाम को बाहर रखने पर बढ़ा विवाद

अंजलि भाटिया
नई दिल्ली: संसद की गृह मामलों की स्थायी समिति के प्रस्तावित जम्मू-कश्मीर दौरे से पहलगाम को बाहर रखने को लेकर राजनीतिक विवाद गहराता जा रहा है। समिति की दो दिवसीय बैठक गुरुवार से शुरू हुई, जिसमें साइबर अपराध की रोकथाम, समाधान और उससे निपटने के उपायों पर चर्चा की गई। बैठक की अध्यक्षता बीजेपी सांसद डॉ. राधामोहन दास अग्रवाल ने की।बैठक में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ बड़ौदा, इंडियन बैंक और इंडियन ओवरसीज बैंक के अधिकारियों ने हिस्सा लिया और साइबर अपराध से निपटने के लिए उठाए गए कदमों पर विस्तार से जानकारी दी। शुक्रवार को हुई बैठक में SEBI, नेशनल स्टॉक एक्सचेंज, नेशनल पेमेंट्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया, नेशनल क्रिटिकल इंफॉर्मेशन इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोटेक्शन सेंटर और नेशनल इंफॉर्मेटिक्स सेंटर के अधिकारी उपस्थित रहे।समिति जल्द ही जम्मू-कश्मीर दौरे पर जाने वाली है, जिसका उद्देश्य क्षेत्र की सुरक्षा स्थिति और विकास कार्यों का जायजा लेना है। यह समिति संसद की 24 विभागीय स्थायी समितियों में से एक है, जो विभिन्न मंत्रालयों और विभागों की कार्यप्रणाली की निगरानी करती है और उनकी कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए सुझाव देती है।दौरे के दौरान समिति के सदस्य स्थानीय प्रशासन, सुरक्षा बलों और आम नागरिकों से संवाद करेंगे, जिससे उन्हें क्षेत्र की वास्तविक स्थिति की प्रत्यक्ष जानकारी मिल सके। यह जानकारियाँ संसद में प्रस्तुत की जाने वाली रिपोर्ट और सिफारिशों का आधार बनेंगी।सूत्रों के अनुसार, 31 अगस्त से 7 सितंबर के बीच समिति श्रीनगर, जम्मू, लेह और कश्मीर के अन्य संवेदनशील क्षेत्रों का दौरा करेगी। हालांकि, हाल ही में आतंकी हमले से प्रभावित पहलगाम को इस सूची से बाहर रखा गया है, जिस पर सवाल खड़े हो रहे हैं।गौरतलब है कि इसी इलाके में हाल ही में हुए आतंकी हमले में कई निर्दोष पर्यटक मारे गए थे। इसके बाद ‘ऑपरेशन सिंदूर’ नामक सैन्य अभियान को लेकर देशभर में चर्चा तेज हुई थी, जिसमें सेना की कार्रवाई और महिला नेतृत्व की भूमिका की व्यापक सराहना हुई थी।ऐसे में पहलगाम जैसे संवेदनशील और हालिया घटनाओं के केंद्र रहे क्षेत्र को दौरे से बाहर रखना कई लोगों को असमंजस में डाल रहा है। राजनीतिक हलकों में यह सवाल उठ रहे हैं कि क्या इसे सुरक्षा कारणों से बाहर किया गया है या फिर इसके पीछे कोई राजनीतिक रणनीति है?विपक्षी दलों ने इस निर्णय को लेकर सरकार पर निशाना साधा है। उनका कहना है कि जिस क्षेत्र में हाल ही में आतंकी हमला हुआ, वहां की जमीनी हकीकत जानने से समिति का पीछे हटना समझ से परे है।बता दें कि अक्टूबर 2021 में संसद की साबऑर्डिनेट लेजिस्लेशन समिति ने भी लेह और श्रीनगर का दौरा किया था। लेकिन इस बार पहलगाम को बाहर रखने का फैसला सरकार के लिए एक नए राजनीतिक दबाव का कारण बनता दिख रहा है।

मोदी का नया उपदेश; नौकर शाही में खलबली

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने निर्देश दिया है कि सभी केंद्रीय सरकारी कर्मचारी, जिनमें अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी भी शामिल हैं, को कर्मयोगी पोर्टल के माध्यम से प्रतिवर्ष ऑनलाइन डिजिटल कोर्स को पूरा करना होगा। कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) ने अनिवार्य कर दिया है कि सभी कर्मचारी इन कोर्सों को पास करें, क्योंकि इसका सीधा असर उनकी एनुअल परफॉर्मेंस अप्रैजल रिपोर्ट यानी एपीएआर को प्रभावित करेगा।

डीओपीटी का यह आधिकारिक ज्ञापन मिशन कर्मयोगी के तहत एक मील का पत्थर है। पहले ये कोर्स अनिवार्य नहीं थे, लेकिन अब जुलाई 2025 से इन्हें अनिवार्य कर दिया गया है। इसका अर्थ है कि सभी कर्मचारियों को, चाहे उनका पद कोई भी हो, पदोन्नति और सेवा रिकॉर्ड के लिए इन कोर्सों को पूरा करना होगा। इस कदम का उद्देश्य भूमिका आधारित प्रशिक्षण को मजबूत करना और सरकारी कर्मियों में दक्षता बढ़ाना है।

पूरा कार्यक्रम सख्त समयसीमा में बांधा गया है : 31 जुलाई तक ओरिएंटेशन कार्यशालाएं पूर्ण होनी चाहिए, 31 अगस्त तक कोर्स प्लान अपलोड होने चाहिए और 15 नवंबर तक असेसमेंट लाइव कर दिए जाएंगे। सभी कर्मचारियों को 31 मार्च 2026 तक अपने लक्ष्य और मूल्यांकन पूर्ण करने होंगे। अधिसूचना के अनुसार, प्रत्येक मंत्रालय, विभाग या संगठन को विभिन्न सेवा अवधि वाले कर्मचारियों (9, 16, 25 वर्ष व उससे अधिक) के लिए प्रति वर्ष कम से कम छह उपयुक्त कोर्स निर्धारित करने होंगे। कर्मचारियों को इनमें से कम से कम 50% कोर्स पूरे करने होंगे। पाठ्यक्रमों की पूर्ति का डेटा एपीएआर प्रणाली में स्वतः परिलक्षित होगा। साथ ही प्रत्येक अधिकारी को अपने सौंपे गए कोर्सों के आधार पर वार्षिक असेसमेंट पास करना होगा, यह मूल्यांकन भी उनके औपचारिक कार्य निष्पादन रिकॉर्ड का हिस्सा बनेगा।