Home Blog Page 894

दूर क्यों जा रहे हैं भाजपा-अकाली दल?

एक कहावत है कि सफलता में हर कोई साथ होता है और असफलता में आप अकेले रह जाते हैं। दिल्ली के विधानसभा चुनाव के बाद में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की हार के बाद गठबन्धन सहयोगी शिरोमणि अकाली दल (शिअद) ने नतीजों की ज़िम्मेदारी लेने के बजाय भाजपा को सहयोगियों के साथ तालमेल की कमी के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है।

शिअद के प्रवक्ता दलजीत सिंह चीमा ने कहा है कि हमारे साथ बेहतर समन्वय बनाया जाता, तो भाजपा के लिए बेहतर नतीजे मिलते। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा कि स्थानीय भाजपा नेता चाहते थे कि अकाली चुनाव में भाग न लें, जिसके चलते हम चुनाव से दूर रहे। इसके अलावा मुसलमानों को सीएए में शामिल करने के मामले में हमारे और भाजपा के रुख में मतभेद थे।

अकाली दल के नेता ने कहा कि मतदान से कुछ ही पहले मतभेदों को दूर किया गया, लेकिन तब तक हमारे लिए चुनाव प्रचार में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए बहुत देर हो चुकी थी। चूँकि हमारी पार्टी का कोई उम्मीदवार मैदान में नहीं था, इसलिए कैडर को सक्रिय नहीं किया जा सका। हमारी भागीदारी भाजपा को फायदा दे सकती थी।

अकाली नेता ने कहा कि भाजपा सिख बहुल विधानसभा सीटों, जैसे- तिलक नगर, राजौरी गार्डन, हरि नगर, कालकाजी और शाहदरा में बुरी तरह हार गयी। यदि उसे इन सीटों पर जीतना था, तो वह क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर चलती।

दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष मनजिंदर सिंह सिरसा ने कहा कि अगर भाजपा ने उसके स्थानीय नेतृत्व को किनारे नहीं किया होता, तो परिणाम अलग होते। सिरसा ने कहा कि राजौरी गार्डन और तिलक नगर जैसी सिख बिरादरी की सीटों से सिख उम्मीदवारों को मैदान में उतारना भी भाजपा ने उचित नहीं समझा।

उन्होंने कहा कि राजौरी गार्डन में मतदान में 10 फीसदी की गिरावट आयी। हमें लगता है कि ये सिख वोटर थे, जो मतदान से दूर रहे। यह एकमात्र कारण नहीं है कि शिरोमणि अकाली दल अपने सबसे पुराने सहयोगी भाजपा से नाराज़ है।

 बहुत कम लोगों को पता है कि 31 जनवरी की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन (एनडीए) की बजट से पहले की बैठक को छोडक़र शिअद ने सार्वजनिक रूप से क्यों हंगामा किया? एसएस ढींढसा और एचएस फूलका को पद्म पुरस्कारों से सम्मानित करना भी शिअद की नाराज़गी का एक कारण था; क्योंकि अब ढींढसा से पार्टी के कटु रिश्ते हैं। ढींढसा पहले शिअद के महासचिव थे, लेकिन बाद में उनके सम्बन्धों में दरार आयी और सीनियर ढींढसा ने आिखर पार्टी से किनारा ही कर लिया।

सूत्रों का कहना है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल के पुत्र और राज्यसभा सांसद व अकाली दल के नेता नरेश गुजराल ने सिखों के मामलों में महाराष्ट्र सरकार के हस्तक्षेप पर आपत्ति जतायी थी और भाजपा नेतृत्व के सामने शिअद का पक्ष रखा था। यह मामला पंजाब के पूर्व उप मुख्यमंत्री और शिअद अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने गृह मंत्री अमित शाह के समक्ष भी उठाया था। तब गृह मंत्री ने कथित तौर पर वादा किया था कि वह सुनिश्चित करेंगे कि महाराष्ट्र सरकार (तत्कालीन देवेंद्र फडणवीस सरकार) तख्त श्रीनांदेड़ बोर्ड अधिनियम में विवादास्पद संशोधन वापस ले ले। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बता दें कि विवाद की जड़ वह अधिकार है, जो राज्य सरकार को श्राइन बोर्ड के अध्यक्ष नियुक्त करने के लिए मिला है। इस तरह का विवाद वर्ष 2000 में भी देखने को मिला था, जब तत्कालीन आरएसएस प्रमुख केएस सुदर्शन ने कहा था कि सिख हिन्दू धर्म का ही हिस्सा हैं और उनकी आस्था का मूल आधार मुगल शासकों के अत्याचार के िखलाफ हिन्दुओं की रक्षा करना था, जिसके लिए उन्हें तैयार किया गया था।

अकाली दल ने दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा के साथ अपना गठबन्धन तोड़ा था और जब वे फिर से वरिष्ठ साथी से जुड़े, तो दिल्ली में समर्थन करने में बहुत देर हो गयी। इसका नतीजा यह हुआ कि सिख बहुल इलाकों में आम आदमी पार्टी (आप) की जीत हुई। यह कोई रहस्य नहीं है कि ऐतिहासिक रूप से अकाली दल ने नागरिकता कानून मामले में मुसलमानों का पक्ष लिया है। शिअद के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि पार्टी का विचार था कि केवल सीएए ही नहीं, पार्टी को संविधान के अनुच्छेद-370 के हनन के िखलाफ भी सख्त रुख अपनाना चाहिए, जिसने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म कर दिया।

विडम्बना यह है कि केंद्रीय मंत्री और अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल की पत्नी हरसिमरत कौर बादल ने कैबिनेट की बैठकों में नागरिकता (संशोधन) विधेयक के िखलाफ बिल्कुल आवाज़ नहीं उठायी। यहाँ तक कि संसद में सीएए के पक्ष में भी अपनी बात रखी। यही नहीं, विधानसभा चुनावों के सम्पन्न होने के बाद अकाली दल ने आिखर भाजपा से हाथ मिला लिया; लेकिन पंजाब में इसका क्या असर होगा? इसका अंदाज़ा किसी को नहीं है। सूत्रों का कहना है कि भाजपा नेतृत्व ने शिअद के साथ सम्बन्ध जारी रखे हुए थे; क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह सहित भाजपा नेता शिअद के वरिष्ठ नेता सुखबीर सिंह बादल का काफी सम्मान करते हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा के रिश्ते खत्म होने के बाद भाजपा सहयोगियों को खो रही है; क्योंकि शिअद और भाजपा की नाराज़गी के बारे में सभी जानते हैं।

शिअद देश में भगवा पार्टी के सबसे पुराने गठबन्धन सहयोगियों में से एक है। दोनों दल 1977 से तब से गठबन्धन करते आ रहे हैं, जब अकालियों ने विधानसभा चुनाव जनसंघ के साथ लड़ा; जो उस समय जनता पार्टी गठबन्धन का हिस्सा था। माना जा रहा है कि दोनों दलों के सम्बन्धों में अभी और खटास आ सकती है; क्योंकि भाजपा के नेता 2022 में अगले राज्य विधानसभा चुनावों में अकेले जाने की बात कर रहे हैं। सूत्र बताते हैं कि कुछ भाजपा नेता अकालियों से कटे रहते हैं।

साल 2017 के विधानसभा चुनावों के दौरान शिअद और भाजपा का गठबन्धन तीसरे स्थान पर आ गया था, जब आप और शिअद दोनों को हराकर कांग्रेस सत्ता में आ गयी थी। मई, 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को ज़बरदस्त जीत मिली; लेकिन पंजाब में उसे मुँह की खानी पड़ी। अब भाजपा ने पहले ही अपने इरादे दिखा दिये हैं कि अगर पंजाब में 2022 में शिअद और उसके रिश्ते खट्टे हो जाएँ, तो शिअद अकेला पड़ सकता है।

पंजाब में अपना आधार बढ़ाने के लिए भाजपा पहले ही बड़े स्तर पर सदस्यता अभियान शुरू करने की तैयारी कर चुकी है। वह यह देख रही है कि ग्रामीण इलाकों में कैसे उसका आधार बन सकता है। खासतौर से भाजपा उस वोटबैंक में सेंध लगाना चाहती है, जो कि पारम्परिक तौर पर अकालियों का है। इतना ही नहीं, सिखों को खुश करने के लिए भाजपा लंगर पर से जीएसटी खत्म करने और सिख कैदियों को रिहा करने जैसे लुभावने फैसले कर चुकी है। यह भी सच है कि भाजपा ने पंजाब में अपना कार्यकर्ता आधार बढ़ाया है। यह भी हो सकता है कि भाजपा अगले पंजाब विधानसभा चुनाव से पहले शिअद से गठबन्धन के बिना चुनाव लडऩे का फैसला करके सबको चौंका दे।

भाजपा के लिए एक और विकल्प होगा कि वह अधिक सीटों पर दावेदारी करे और शिअद को गठबन्धन में बड़े भाई की तरह काम न करने दे। दोनों पार्टियों के बीच के मनमुटाव से सम्बन्धित कई सवालों के साथ-साथ एक असमंजस पंजाब में विधानसभा चुनाव करीब आने तक बना रहेगा भाजपा और शिअद की पंजाब इकाइयों के भीतर होने वाली चर्चा और उथल-पुथल को देखना दिलचस्प होगा। संयोग से देश की सबसे पुरानी क्षेत्रीय पार्टी शिअद इस साल 2020 में अपने अस्तित्व के 100 साल पूरे कर रही है।

क्या सुधर पाएगी पुलिस व्यवस्था?

सरकार ने इंटरऑपरेबल क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम (आईसीजेएस) भी लॉन्च किया है, जिसके ज़रिये अदालतों, पुलिस, अभियोजन, जेलों और फॉरेंसिक प्रयोगशालाओं के बीच डाटा के आदान-प्रदान की प्रक्रिया त्वरित हो सकेगी और जल्द न्याय का रास्ता खुलेगा। यौन उत्पीडऩ के मामलों में पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज करने के दो महीने के भीतर पुलिस जाँच पूरी करने के लिए सरकार ने इंवेस्टिगेटिंग ट्रैकिंग सिस्टम फॉर सेक्सुअल ऑफेंसेज (आईटीएसएसओ) पोर्टल के माध्यम से सीसीटीएनएस डाटा का उपयोग करते हुए जाँच पर नज़र रखी जा सकेगी। आईटीएसएसओ कानून से जुड़ी प्रवर्तन एजेंसियों के लिए उपलब्ध है और इसमें लम्बित मामलों का विवरण रहता है। इसके साथ ही सरकार ने कानून से जुड़ी एजेंसियों के लिए यौन अपराधियों का भी एक राष्ट्रीय स्तर का डाटा बेस तैयार किया है। एनडीएसओ ऐसे यौन अपराधियों पर नज़र रखती है, जो बारम्बार अपराध करते हैं; साथ ही इनसे बचाव की पहल भी शुरू की गयी है। एक साइबर क्राइम पोर्टल भी काम कर रहा है।

भारतीय संविधान के अनुसार, पुलिस और पब्लिक ऑर्डर राज्य के विषय हैं। इसमें पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए राज्यों की मदद की योजना के तहत सम्बन्धित राज्यों की पुलिस फोर्स को अधुनिक उपकरणों से लैस करने की ज़रूरत है, ताकि उनको अपराधियों से निपटने में आसानी हो सके। राज्यों की पुलिस के आधुनिकीकरण की योजना के तहत राज्यों को केंद्र से सहयोग मिलता है, जिसके तहत गैजेट का प्रशिक्षण प्रदान करना, उन्नत संचार, पुलिस भवन, आवास फॉरेंसिक उपकरण शामिल हैं। इसमें राज्य सरकारों के पास प्राथमिकताओं और ज़रूरतों के आधार पर चुनाव करने का भी विकल्प है। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) के लिए कॉमन कॉज और लोकनीति प्रोग्राम की तैयार ‘भारत में पुलिस बल की स्थिति रिपोर्ट-2019’ में स्थितियों में नीति निर्धारण का ज़िक्र किया है कि किस तरह से भारतीय पुलिस काम करती है। इसमें पुलिसकर्मियों की संवेदनशीलता और सेवा शर्तों के साथ ही संसाधनों का भी विस्तार से विश्लेषण किया गया है। इसके साथ ही ​इस रिपोर्ट में पुलिस तंत्र के बुनियादी ढाँचे, आम लोगों से सम्पर्क व उनके नियमित कार्य और राज्य की पुलिस के कामकाज की स्थिति की जानकारी प्रदान की गयी है।

अपर्याप्त क्षमता

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) और ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट (बीपीआरडी) के आँकड़ों से पता चलता है कि भारत में पुलिस अपनी स्वीकृत क्षमता के 77 फीसदी या अपनी ज़रूरी क्षमता के महज़ तीन-चौथाई हिस्से पर काम कर रही है। कांस्टेबल स्तर से लेकर सीनियर रैंक तक के अधिकारियों के लिए रिक्तियाँ की जानी हैं। यह तथ्य है कि केवल दो राज्यों पश्चिम बंगाल और बिहार से इतर पद्मनाभ समिति की सिफारिश के अनुसार, हर चार कांस्टेबल पर प्रति वरिष्ठ अधिकारी का अनुपात है। बाकी सभी राज्यों में हर अफसर की तुलना में कांस्टेबल की संख्या कहीं ज़्यादा है। पिछले पाँच वर्षों में औसतन केवल 6.4 फीसदी पुलिस बल को इन-सर्विस प्रशिक्षण प्रदान किया गया। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को कांस्टेबल स्तर के कर्मियों की तुलना में इन-सर्विस प्रशिक्षण कहीं ज़्यादा प्रदान किये गये। 22 राज्यों के 70 पुलिस स्टेशनों में वायरलेस डिवाइस तक नहीं हैं, 214 पुलिस स्टेशनों में टेलीफोन की सुविधा नहीं है और 24 पुलिस स्टेशनों में न तो वायरलेस और न ही टेलीफोन की पहुँच है। भारत में पुलिस स्टेशनों में औसतन प्रति थाने में छ: कम्प्यूटर होते हैं, लेकिन असम और बिहार जैसे राज्यों में औसतन हरथाने से एक से कम कम्प्यूटर है।

22 राज्यों के करीब 240 पुलिस स्टेशनों में वाहनों की पहुँच नहीं है। आरक्षित पदों पर भारी रिक्तियों के साथ पुलिस में एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं का प्रतिनिधित्त्व न के बराबर है। यूपी और हरियाणा में एससी के आरक्षित पदों के लिए क्रमश: 60 और 53 फीसदी पद रिक्त पड़े हैं। ये रिक्तिया राज्य के कुल पदों की तुलना में काफी अधिक हैं। रिपोर्ट बताती है कि एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं को सामान्य पुलिसकर्मियों की तुलना में अधिकारी स्तर की भर्ती / तैनात किये जाने की सम्भावनाएँ भी बेहद कम हैं। हालाँकि, दो साल से कम समय में एसएसपी और डीआईजी स्तर के अधिकारी का स्थानांतरण 2007 से काफी कम हो गया है। 2016 तक अखिल भारतीय स्तर के 12 फीसदी अफसरों का तबादला दो साल से भी कम समय में कर दिया गया। हरियाणा और यूपी में दो साल से कम समय में तबादले सबसे ज़्यादा देखे गये। चुनावी राज्यों में समय से पहले स्थानांतरण के मामले सबसे अधिक देखने को मिलते हैं।

14 घंटे तक की ड्यूटी

रिपोर्ट बताती है कि पुलिसकर्मी औसतन 14 घंटे काम करते हैं, जिसमें लगभग 80 फीसदी पुलिसकर्मी 8 घंटे से अधिक काम करते हैं। नागालैंड को छोडक़र सर्वे किये गये 21 राज्यों में पुलिसकर्मियों के काम करने के औसत घंटे 11 से 18 के बीच हैं। लगभग हर दो में से एक पुलिसकर्मी नियमित रूप से ओवरटाइम काम करता है, जबकि 10 में आठ पुलिसकर्मियों को ओवरटाइम का कोई भुगतान नहीं किया जाता है। तकरीबन पाँच में से तीन के परिवार वाले सरकार द्वारा उपलब्ध कराये आवास से संतुष्ट नज़र नहीं आये। आधे पुलिसकर्मियों को कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं मिलता है। चार में से तीन कर्मियों का मानना है कि उनके काम के बोझ के चलते उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है। हर चार में से एक पुलिसकर्मी ने बताया कि उनका सीनियर अफसर अपने जूनियर से अपने घर / व्यक्तिगत काम करवाता है; जबकि यह उनका काम नहीं होता है। एससी, एसटी और ओबीसी कर्मियों को अन्य जाति समूहों की तुलना में इस तरह का काम करवाने के मामले अधिक पाये गये हैं। हर पाँच में से दो वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पुलिस वालों से बदतमीजी से बात करते हैं। 37 फीसदी पुलिसकर्मी नौकरी मिलने पर किसी और पेशे में जाने को तैयार हैं, भले ही इसके लिए उन्हें इतना ही वेतन और भत्ता मिले।

संसाधनों की कमी

12 फीसदी कर्मियों ने बताया कि उनके पुलिस थानों में पीने के पानी तक की व्यवस्था नहीं है। 18 फीसदी ने कहा कि साफ शौचालय नहीं है और 14 फीसदी ने माना कि लोगों के लिए बैठने की जगह नहीं है। करीब 46 फीसदी कर्मचारियों के लिए ऐसी परिसिथतियाँ आती हैं कि उन्हें सरकारी वाहन की आवश्यकता होती है, लेकिन ये उपलब्ध नहीं होते हैं। इसके अलावा 41 फीसदी पुलिसकर्मी अक्सर ऐसी स्थितियों में रहते हैं, जहाँ वे कर्मचारियों की कमी के चलते समय पर अपराध या घटना वाली जगह पर नहीं पहुँच पाते हैं। डिजिटल और तकनीकी की उपलब्धता का विस्तार अभी न कि बराबर हुआ है। आठ फीसदी कर्मियों ने कहा कि कम्प्यूटर पर काम करने की उपलब्धता कभी नहीं होती है। 17 फीसदी ने कहा कि सीसीटीएनएस सुविधा सुविधा नहीं है। 42 फीसदी बोले कि थानों में फोरेंसिक तकनीक की सुविधा है ही नहीं। पश्चिम बंगाल के 31 फीसदी और असम के 28 फीसदी पुलिसकर्मियों ने कहा कि काम करने योज्य एक भी कम्प्यूटर उनके पुलिस स्टेशन / कार्य स्थल पर नहीं मिला। इन तमाम तथ्यों के बावजूद एनसीआरबी के जारी आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार, सीसीटीएनएस के अनुपालन के मामले में असम सबसे आगे है। रिपोर्ट बताती है कि तीन में से एक पुलिसकर्मी को कभी भी फोरेंसिक तकनीक का प्रशिक्षण नहीं मिला।

साइबर क्राइम, मनी लॉन्ड्रिंग, आतंकवाद और उग्रवाद के नये तरीके के खतरे उभर रहे हैं, जिनसे निपटना खुफिया एजेंसियों और पुलिसिंग के लिए नयी चुनौतियाँ हैं। दुनियाभर में पुलिस के लिए प्रशिक्षण और दक्षता के नए स्तरों का प्रयोग किया जा रहा है, इनमें रीयल टाइम डाटा, मानवीय पर प्रभावी तरीके से पूछताछ की तकनीक और निगरानी के लिए पारदर्शी उपकरण शामिल हैं।

साइबर क्राइम जैसे-फिशिंग (मसलन, जंक ई-मेल के ज़रिये फँसाना), जानकारी चुराना, ऑनलाइन बैंकिंग धोखाधड़ी से पुलिस को निपटने के लिए आधुनिक तकनीक के साथ खुद को अपडेट रखना मजबूर है। इसके लिए पुलिसिंग को आधुनिक और डिजिटल बनाये जाने की तत्काल आवश्यकता है। डिजिटल इंडिया जैसे अभियान तब तक खोखले होंगे, जब तक पुलिस तक कम्प्यूटर व ज़रूरी सॉफ्टवेयर के साथ-साथ कुशल और प्रशिक्षित कर्मचारी न हों।

काम का दबाव

निष्पक्ष प्रतिनिधित्व और विविधता बरतने से इतर पुलिस में महिलाओं का एकीकरण, पुलिस संरचना पर सकारात्मक सुधार है। अध्ययनों से संकेत मिला है कि पुलिस में बढ़ता महिलाओं का प्रतिनिधित्व सीधे तौर पर औरतों के िखलाफ हिंसक अपराधों की रिपोॄटग और घरेलू हिंसा में कमी का सबब बन रहा है। इसका असर प्रभावित क्षेत्र व अपराध के स्तर और कर्मचारियों की मौज़ूदगी के हिसाब से अलग-अलग हो सकता है। पड़ताल में कर्मियों के अनुभव और उनकी अड़चनों के बारे में जानना चाहा जैसे कि बाहरी दबाव या राजनेताओं, मीडिया, जनता आदि का हस्तक्षेप। इसके अलावा ऐसे तमाम तरह के दबावों के बावजूद नियमों का पालन करते हुए सामान्य परिणाम हासिल करना। 36 फीसदी पुलिसकर्मियों के अनुसार, पिछले दो-तीन वर्षों में अपराध में वृद्धि दर्ज की गयी। इसके पीछे बड़ा कारण बेरोज़गारी और शिक्षा की कमी जैसे सामाजिक कारण माने गये हैं। जो लोग सोचते हैं कि अपराध के मामले कम हुए हैं, तो वे इसका श्रेय बेहतर पुलिसिंग (पुलिस अधिक सक्रिय, सख्त इत्यादि) बनाने की सम्भावनाओं को कम कर रहे हैं। 28 फीसदी पुलिसकर्मियों का मानना है कि राजनेताओं का दबाव अपराधियों की जाँच करने में सबसे बड़ी बाधा तीन में से एक पुलिसकर्मी ने माना कि आपराधिक जाँच के दौरान उन्होंने कई बार राजनीतिक दबाव का अनुभव किया। 38 फीसदी पुलिसकर्मियों ने रिपोर्ट के लिए बताया कि प्रभावशाली व्यक्तियों से जुड़े अपराध के मामलों में हमेशा राजनेताओं का दबाव रहता है। पाँच में से तीन कर्मियों ने ऐसे बाहरी दबावों का अनुपालन नहीं करने के चलते तबादला किये जाने से परिणाम भुगते।

पुलिस बल में महिलाएँ

इस अध्याय में लिंग के आधार पर पुलिसिंग को देखा गया। हम एक तरफ पुलिस बल के भीतर महिलाओं के अनुभवों को परखते हैं, साथ ही महिलाओं को लेकर पुलिसकर्मियों की सोच और काम के तौर तरीकों को परखते हैं। दूसरी ओर, हम महिलाओं और लिंग आधारित हिंसा के िखलाफ अपराधों की शिकायतों के बारे में कर्मियों की धारणाओं को देखते हैं। महिला पुलिसकर्मियों को घर के कार्यों में लिप्त होने की सम्भावना के चलते जैसे रजिस्टरों, डेटा आदि को बनाये रखने की होती है, जबकि पुरुष कर्मियों के क्षेत्र-आधारित कार्यों में शामिल होने की अधिक ज़्यादा सम्भावना रहती है, जैसे कि जाँच, गश्त, कानून-व्यवस्था का पालन आदि।

पाँच में से एक महिलाकर्मी ने अपने पुलिस स्टेशन / कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए अलग शौचालय न होने की जानकारी प्रदान की। चार पुलिसकर्मियों में से एक ने माना कि उनके पुलिस स्टेशन / अधिकार क्षेत्र में कोई यौन उत्पीडऩ समिति नहीं बनायी गयी थी। आधे से अधिक कर्मियों (पुरुषों और महिलाओं दोनों) को लगता है कि पुलिस बल में पुरुषों और महिलाओं को पूरी तरह से समान व्यवहार नहीं किया जाता। उच्च रैंक पर पुलिसकर्मी भेदभाव की रिपोर्ट करने की अधिक सम्भावना रहती हैं। बिहार, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में पुलिस बल में महिलाओं के िखलाफ पूर्वाग्रह का स्तर सबसे अधिक है। इन राज्यों के कर्मियों को सबसे ज़्यादा लगता है कि महिला पुलिसकर्मी कम मेहनती, कम कुशल होती हैं और उनको अपने घरेलू कामों पर ध्याना देना चाहिए। पाँच में से लगभग एक पुलिसकर्मी की राय ये है कि लिंग भेदभाव या इससे जुड़ी हिंसा की शिकायतें झूठी हैं और किसी को फँसाने के लिए की जाती हैं। आठ फीसदी पुलिसकर्मियों की राय है कि ट्रांसजेंडर स्वाभाविक रूप से बहुत कम ही अपराध में शामिल होते हैं।

यौन उत्पीडऩ के मामले देखने के लिए नहीं है कोई कमेटी

2013 के कार्यस्थल अधिनियम में महिलाओं का यौन उत्पीडऩ के मामले में सभी कार्यस्थलों के लिए एक समिति का गठन करना अनिवार्य बना दिया गया है। किसी भी कार्यस्थल पर महिला कर्मचारियों द्वारा यौन उत्पीडऩ की शिकायतों के लिए यह समिति विचार करेगी। सर्वेक्षण में सामने आया कि पुलिस महिलाओं में से लगभग एक-चौथाई (24 फीसदी) ने अपने कार्यस्थल या अधिकार क्षेत्र में इस तरह की समिति की न होने की सूचना दी। इस मामले में पूरे देश में स्थिति निराशाजनक है। सर्वेक्षण किये गये राज्यों में से 13 में यानी तीन-चौथाई से भी कम में महिला पुलिसकर्मियों ने ऐसी किसी समिति के होने के बारे में जानकारी दी। बिहार की स्थिति सबसे ज़्यादा खराब थी, जहाँ पर 76 फीसदी महिला पुलिसकर्मियों ने ऐसे किसी समिति न होने की बात कही। दिल्ली, आंध्र प्रदेश, राजस्थान और ओडिशा की स्थिति इस मामले में थोड़ी बेहतर है, जहाँ 79 फीसदी या इससे अधिक महिला पुलिसकर्मियों ने माना कि उनके यहाँ ऐसी समिति है। तकरीबन हर पाँच में से दो महिला पुलिसकर्मियों (37 फीसदी) ने कहा कि वे पुलिस बल छोडऩे और किसी अन्य नौकरी के लिए जाने की इच्छुक हैं, भले ही उनको वेतन और भत्ते उतने ही क्यों न मिलें, जितने इसमें मिल रहे हैं। इससे उनके पेशे को लेकर असंतोष को समझा जा सकता है। यूपी में 63 फीसदी महिला पुलिसकर्मी कोई दूसरी नौकरी मिलने पर अपनी जॉब छोडऩे को तैयार हैं, जो उन्हें समान वेतन और भत्तों के साथ प्रदान करती है। मामले में उत्तर प्रदेश टॉप पर है, इसके बाद उत्तराखंड (54 फीसदी) और हिमाचल प्रदेश (52 फीसदी) का नम्बर आता है। गुजरात, छत्तीसगढ़ और केरल में भी असंतोष का स्तर काफी ज़्यादा था, जहाँ पर महिला पुलिसकर्मी अपनी नौकरी छोडऩे के लिए तैयार थीं। इससे ऐसा लगता है कि पुलिस विभाग में महिला कर्मियों के लिए उचित माहौल नहीं बन सका है। महिला और ट्रांसजेंडर के मामले में अभी पुलिस बल में समानता के लिए लम्बा सफर तय करना होगा।

महिला पुलिसकर्मियों में पहली दफा गर्भाधान बेहद कम देखने को मिला। यहाँ तक कि महिलाओं के काम के प्रोफाइल जो मौज़ूदा पुलिस बल का हिस्सा हैं, उनको कमज़ोर माना जाता है। लिंग समानता के बीच के अंतराल को पाटकर पुलिस की दक्षता को बेहतर किया जा सकेगा। लिंग-समावेशी पुलिस बल होने से कानून व सम्बन्धित एजेंसियों और लोगों के बीच भरोसा बढ़ सकता है। इससे पुलिस और आम लोगों के बीच काम करना भी आसान होगा। अगर थानों में पर्याप्त महिलाएँ होंगी, तो महिलाओं का उन तक पहुँचना भी आसान हो जाएगा, लेकिन इसमें अभी लम्बा समय लग सकता है।

यह क्या…!

‘मैडम, मुझे भी एनुअल-डे के कल्चरल प्रोग्राम में पार्टिसिपेट करना है। प्लीज, मुझे भी ग्रुप डांस में ले लीजिए…’ सातवीं में पढऩे वाली 12 वर्ष की कुषा ने झिझकते हुए अपनी म्युजिक टीचर से कहा।

‘अब तो डाँस ग्रुप कम्प्लीट हो गया, अब अगले साल आना, ओके।’

 ‘तो फिर मुझे ऑर्केस्ट्रा ग्रुप में ले लीजिए।’

‘क्या बजाओगी?’

‘मैडम! जो भी आप बताओगे, जो भी सिखाओगे…’ कुषा की आँखों में चमक आ गयी।

‘तुम्हारे घर पे तानपुरा है? या हारमोनियम?’

‘नहीं, मैडम! वो तो नहीं है…’ मायूसी ने अभी-अभी आयी चमक पर डाका डाल दिया।

‘अरे, तो प्रैक्टिस कैसे करोगी तुम? क्योंकि ज़्यादा दिन नहीं बचे हैं हमारे पास, और घर पर प्रैक्टिस के बिना कैसे होगा?’

‘मैडम! मैं पापा से बोलूँगी, तो वो दिला देंगे; तो फिर मैं घर पर प्रैक्टिस कर लूँगी…’ पूरे विश्वास के साथ बोली कुषा।

‘अच्छा, तो ठीक है…; जब हारमोनियम आ जाए घर पर, तब आ जाना।’

‘ठीक है मैडम! आज सैटर्डे है, कल सन्डे को मेरे पापा हारमोनियम ले आएँगे, तब मन्डे से मैं भी आर्केस्ट्रा ग्रुप में प्ले करूँगी, है न!’

‘हाँ…’ आश्वासन मिलते ही कुषा बेसब्री से इंतज़ार करने लगती है स्कूल की छुट्टी की घण्टी बजने का… आज तो जैसे वह चल नहीं रही थी, उड़ रही थी; सोचती जा रही थी कि कब जल्दी-से-जल्दी घर पहुँचे, कब शाम हो, कब पापा आएँ और कब वह उनसे कहे कि उसे एनुअल-डे में पार्टिसिपेट करना है, जिसके लिए घर पर हारमोनियम होना चाहिए।

मगर ये घण्टे भी आज कितनी मुश्किल से सरक रहे थे? कुषा का मन छटपटा रहा था, खेल में भी उसका मन नहीं लग रहा था।

पापा के आते ही रोज़ की तरह सबसे पहले दौडक़र हाथ का सूटकेस और फ्रूट का लिफाफा लिया, दौडक़र पानी का गिलास दिया कि पानी पीएँ, हाथ-मुँह धोकर फ्रेश हो लें, तो अपने पेट में पड़ी बात कहे…। पाँच भाई-बहनों में चौथे नम्बर की कुषा जानती थी कि पिता ने बच्चों को हर वह चीज़ दिलायी, जो स्कूल के लिए उन्होंने माँगी।

भले ही पिता के ऊपर न सिर्फ अपने पाँच बच्चों, बल्कि अपने भाई-बहनों व वृद्ध होते पिता की भी ज़िम्मेदारियाँ थीं…; इतने खर्चों के बाद भी वे बच्चों को हर ज़रूरी चीज़ दिलाते थे; भले ही उन्होंने एक-एक पैसा जोडक़र ज़मीन खरीदी, फिर ईंटों की चिनाई से धीरे-धीर दो कमरे बनवाये और फिर केवल लैन्टर डलवाकर, बिना फर्श-प्लास्टर और बिना खिडक़ी-दरवाज़े के घर में रहना शुरू कर दिया था, ताकि किराये के पैसे बचें और घर चल सके। अब तो घर में प्लास्टर, फर्श था और खिडक़ी-दरवाज़े भी लग चुके थे।

कुशा के बड़े भइया कॉलेज में पढ़ रहे थे और एक भाई तथा दो बहनें अभी स्कूल में थे, पर सब अलग-अलग स्कूल में पढ़ रहे थे। कुछ समय पहले ही बुआ की शादी भी हो गयी थी।

कुषा की उद्विग्नता पिता से कहाँ छुपती, सो पानी पीते-पीते मुस्कुराते हुए पूछ लिया-

‘क्या बात है? तुझे कुछ कहना है?’

 ‘ये क्या, पापा को कैसे पता चल जाता है?’

‘न, हँहाँ; न-न… आप पहले पानी पीजिए पापा! लगभग मुँह से बाहर निकलती बात को कुशा ने बड़ी मुश्किल से रोका…।

‘अच्छा, चल ठीक है; होमवर्क कर लिया?’

‘हाँ जी, पापा!’

सिर हिलाते हुए, पापा कपड़े बदलने चले गये। बस, अब थोड़ा-सा सब्र और, फिर कुषा का उतावलापन खत्म…। पापा के फ्रेश होकर लौटते ही कुषा ने मैडम से हुई सारी बात पापा को बतायी… ‘पापा! अगर हारमोनियम नहीं हुआ तो मुझे मैडम फंक्शन में नहीं लेंगी!’

‘पर बेटा, हारमोनियम कोई दो-चार, 10-20 रुपये का थोड़ी न आता है; कई सौ रुपये का आयेगा। अभी, महीना भी खत्म होने वाला है, पैसे खत्म हो चले हैं। अगली बार ले लेना भाग’

‘पता नहीं, अगली बार मैडम लें या नहीं…?’

पापा! दौडक़र कुषा अपनी गुल्लक उठा लायी, आप मेरी गुल्लक के पैसे ले लो’

‘अरे, तेरी गुल्लक में कितने पैसे होंगे?’ …हँसते हुए कुषा के पापा ने पूछा।

‘ज़्यादा तो नहीं, पर कम-से-कम 3-400 रुपये तो होंगे ही, और आप न मुझे अगले महीने के पॉकेट-मनी के भी पैसे मत देना…’

कहते हुए कुषा अपनी टीन वाले नारियल-तेल के डिब्बे के ऊपरी भाग को लगभग एक-डेढ़ इंच काटकर बनायी गयी गुल्लक को हिला-हिलाकर उसमें भरे सिक्के गिराने लगी। …और मुस्कुराहट लिए पापा के साथ-साथ भाई-बहन भी सारा खेल देख रहे थे…। थोड़ी-सी मेहनत के बाद गुल्लक खाली हो गयी और फिर शुरू हुआ सिक्के गिनने का काम… कुछ एक-दो, पाँच और 10 के नोट एक तरफ रखेे। नारियल तेल में हल्के भीगे एक, दो, तीन… 10, सिक्कों की ढेरी बनाकर रख दी। फिर दूसरी, तीसरी ढेरी, …ढेरियों की बढ़ती संख्या के साथ-साथ कुषा का दिल भी अपनी चाल बढ़ाता जा रहा था।

…और जब ढेरियाँ गिनीं तो आह्हा! पूरी 30 यानी पूरे 300 रुपये! और सारे नोट गिने, तो 90 रुपये; यानी 400 मैं बस 10 कम…! खुशी से कूदते हुए कुशा ने अहाते में चाय पीते पिता के हाथ में ले जाकर रख दिये।

‘पापा! ये 390 रुपये निकले हैं मेरी गुल्लक से; …लीजिए’ अपने बच्चों के स्वाभिमान को ऊँचा बनाये रखने की दिशा में यह भी कुषा के पिता की टैक्निक थी, ताकि बच्चों को पैसे का महत्त्व भी पता चले और बचत की महत्ता भी। साथ ही यह कि बच्चे को लगे कि उन्होंने भी अपना योगदान दिया है… पिता ने चुपचाप कुषा के दिये सिक्के रख लिये। अगली शाम को जब पिता ऑफिस से लौटे, तो साथ में था एक लकड़ी के बक्से में हारमोनियम! खुशी से उछल पड़ी कुषा… अब तो मैडम उसे एनुअल फंक्शन में ज़रूर भाग लेने देंगी…। रात भर कुषा ने सपने में खुद को स्कूल के प्रोग्राम में हारमोनिया बजाते हुए देखा। सुबह एक नये उल्लास और आत्मविश्वास के साथ स्कूल चल दी। प्रैक्टिस पीरियड के लगते ही वह दौडक़र म्युजिक मैडम के पास पहुँची…।

‘मैडम! पापा ने मुझे हारमोनियम ला दिया है। अब मुझे भी ग्रुप में शामिल कर लीजिए…।’

‘क्या? पापा ने ला दिया!’

 ‘यस मैडम!’ कुषा ने फख्र से कहा…।

‘अरे, नीता जी! देखो तो इसे, मैंने इसे ऐसे ही कह दिया और यह तो सचमुच खरीदवा ली…’ दोनों मैडम हँस पड़ीं। पै्रक्टिस करते ग्रुप के बच्चों में से कुछ मुस्कुरा रहे थे और कुछ कुषा के लिए बुरा महसूस कर रहे थे…।

और कुषा…!

चेहरों पर न जाइए…

16वीं शताब्दी के प्रख्यात अंग्रेजी के कवि और नाटककार विलियम शेक्सपियर ने मैकबैथ में लिखा- एपियरेंस कैन बी डिसेप्टिव यानी दिखावा भ्रामक हो सकता है। उन्होंने अपने नाटक द मर्चेंट ऑफ वेनिस में पहली बार कहा था- ऑल दैट ग्लिटर्स इज नॉट गोल्ड यानी हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती। इस बात का लब्बोलुआब यह है कि किसी भी व्यक्ति के बारे में उसका चेहरा देखकर उसके बारे में राय बनाना मूर्खता है।

इस विषय पर वर्षों बाद किये गये अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि किसी व्यक्ति के चेहरे के भाव उस व्यक्ति के मन की स्थिति को नहीं बताते। चेहरा देखकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचना पूरी तरह से सही नहीं हो सकता है।

16 फरवरी, 2020 को ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी ने एक अध्ययन की रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट में कहा गया है किकिसी व्यक्ति के चेहरे के हाव-भाव से उसकी मनोदशा का पता लगाना सही नहीं होगा। अगर उस शख्स के बारे में सही-सही जानकारी हासिल करनी है, तो उसके काम करने के अंदाज़, बातचीत के दौरान उसके द्वारा दिये जा रहे संकेतों को समझना होगा। मसलन, हमें लगता है कि मुस्कुराहट खुशी ज़ाहिर करने की पहचान है। यदि कोई मुस्कुराता है, तो हम भी उसकी प्रतिक्रिया में मुस्कुरा देते हैं। मगर यह हमें भ्रमित करने वाला हो सकता है। जैसे हम सोचते हैं कि कोई उदास है, तो हम उस व्यक्ति को खुश करने की कोशिश करते हैं।

कुछ व्यवसायी ऐसी तकनीक अपना रहे हैं, जिससे ग्राहकों के चेहरे के हाव-भाव देखकर उनकी संतुष्टि का पता लगाया जा सके। लेकिन किसी भी शख्स के चेहरे के हाव-भाव मन की भावना के विश्वसनीय संकेत नहीं होते। हाल ही में किये गये एक अध्ययन के मुताबिक, किसी भी व्यक्ति के चेहरे को देखकर उस पर भरोसा करना पूरी तरह से गलत होगा।

हाल ही में ‘साइंस डेली’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट में यह विश्लेषण किया गया कि क्या हम किसी व्यक्ति के चेहरे के हाव-भाव से उसकी भावनाओं का पता लगा सकते हैं? इस सवाल के जवाब में ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी में इलेक्ट्रिकल और कम्प्यूटर इंजीनियरिंग के प्रोफेसर ऐलेक्स मार्टिनेज़ ने कहा कि आप किसी के चेहरे के हाव-भाव से उसकी भावनाओं का पता नहीं लगा सकते। मार्टिनेज़, जिन्होंने चेहरे का विश्लेषण करने वाले कम्प्यूटर एल्गोरिदम पर फोकस किया है। वाशिंगटन के सिटल में 16 फरवरी, 2020 को हुई अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस की वार्षिक बैठक में उनके सहयोगियों ने तथ्य प्रस्तुत किये। इन्होंने चेहरे की मांसपेशियों की गतिविधियाँ और चेहरे के भावों की जाँच में पाया कि इन दोनों में कोई समानता नहीं है; यह आभास लगाना हमेशा ही गलत साबित हुआ है। मार्टिनेज़ का कहना है कि हर इंसान अपनी संस्कृति और संदर्भ के अभाव में अलग-अलग चेहरे के भाव बनाता है। और यह जानना ज़रूरी है कि जो हँस रहा है, ज़रूरी नहीं कि वह व्यक्ति वास्तव में खुश ही हो। यह भी ज़रूरी नहीं है कि अगर कोई शख्स कम हँस रहा है, तो वह खुश नहीं है। जब आप प्रसन्न होते हैं, तो यह अन्दर से ही अहसास करने वाली चीज़ होती है। इसे आप सडक़ पर चलते समय अपने चेहरे पर मुस्कुराहट लेकर नहीं जताते; क्योंकि आप खुश हैं, तो हैं! मार्टिनेज़ ने कहा है कि यह भी सच है कि लोग सामाजिक परिस्थितियों से अपने आपको मुक्त होने पर भी खुश हाते दिखते हैं। यह स्वाभाविक रूप से कोई समस्या नही हैं कि कोई मुस्कुरा नहीं सकता। मुस्कुराहट लाना या खुशी ज़ाहिर करना तो लोगों का हक है। लेकिन कुछ कम्पनियों ने चेहरे की मांसपेशियों को और भावों को भावों को पहचानने और पढऩे के लिए तकनीक विकसित करनी शुरू कर दी है। अमेरिकन ऐसोसिएशन फॉर एडवांसमेंट ऑफ साइंस (एएएस) में किये गये शोध में कम्पनियो द्वारा विकसित की गयी तकनीकियों का विश्लेषण किया और इसमें बहुत सारी खामियाँ पायी गयीं।

विशेषज्ञ ने बताया कि कुछ कम्पनियाँ यहाँ तक दावा करती हैं कि वो यह पता लगाने में सक्षम हैं कि फलाँ शख्स अपराध का दोषी है या नहीं। कोई बच्चा कक्षा मे ध्यान देता है या नहीं। कोई ग्राहक संतुष्ट है या नहीं? मार्टिनेज़ के मुताबिक, हमारे अध्ययन के हिसाब से ये सभी दावे पूरी तरह से बकवास हैं, ऐसी कोई भी चीज़ नहीं जो इस तरह के कारकों को निर्धारित कर सके, बल्कि ऐसा करना खिलवाड़ करने जैसा है।

मार्टिनेज़ ने कहा कि किसी व्यक्ति की भावना और इरादे, झूठ बोलने या चेहरे के जो भाव हैं, वो वास्तव में सही हैं या नहीं कहना सही नहीं होगा। उदाहरण के लिए, किसी कक्षा में शिक्षक जो मानता है कि बच्चा ध्यान नहीं दे रहा; शिक्षक की बात पर ध्यान नहीं देता; तो बच्चे के मुस्कुराये और शिक्षक की बातों पर सिर हिलाकर हाँ कहे, तो इसका मतलब ये नहीं है कि वह सब समझ गया है। बल्कि सब बाकी ऐसा कर रहे हैं, तो वह भी उनके साथ में शामिल हो जाता है। लेकिन अगर महज़ चेहरे के भाव के हिसाब से टीचर उस बच्चे को बाहर निकाल देता है, तो ज़रूरी नहीं है कि वह सही ही हो।

चेहरे के भाव और भावनाओं के सभी तथ्यों का विश्लेषण करने के लिए नॉर्थ-ईस्टर्न यूनिवर्सिटी, कैलीफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी और विस्कॉनसिन विश्वविधालय के की शोध टीम और वैज्ञानिक शामिल हुए। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि भावनाओं को सही ढंग से पहचानने में अधिक समय लगता है। उदाहरण के लिए चेहरे के रंग से क्लू में मदद मिल सकती है। मार्टिनेज़ का कहना है कि चेहरे के रंग से सामने वाले शख्स के मन की स्थिति का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है।  शोध में पाया कि जब हम भावनाओं का अनुभव करते हैं, तो हमारे दिमाग से पेप्टाइड्स निकलते हैं। इन्हीं पेपटाइड्स के साथ ही हमारे चेहरे का रंग बदलता है, जिनसे मन की भावनाएँ उजागर होती हैं। ज़्यादातर हार्मोन, जो खून के प्रवाह और खून की संरचना को बदलते हैं, उनसे यह पता चलता है कि हमारे शरीर के हाव-भाव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

मार्टिनेज़ ने अध्ययन में प्रतिभागियों को एक आदमी के चेहरे की आधी तस्वीर दिखायी, जिसमें उस व्यक्ति का चेहरा खिलता हुआ लाल और मुँह खुला हुआ था। जब दूसरे लोगों ने इस व्यक्ति की तस्वीर देखी, तो उन्हें लगा कि वह व्यक्ति किसी बात पर गुस्सा हो रहा है और चिल्ला रहा है। लेकिन जब उस व्यक्ति की पूरी तस्वीर दिखायी गयी, तब उन सभी लोगों ने पाया कि वह व्यक्ति एक फुटबॉल का खिलाड़ी है और वह अपना गोल करने की खुशी का जश्न मना रहा है। मार्टिनेज़ ने बताया वह आदमी खुश था; लेकिन उसके चेहरे को अलग कर देने से वह गुस्से में नज़र आ रहा था, जो कि गलत साबित हुआ। इसके साथ ही सांस्कृतिक मुद्दों पर राय भी मायने रखती है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में सरेराह किसी के सामने मुस्कुरा देना। हम सभी के साथ दोस्ताना होने का प्रयास करते हैं, लेकिन कहीं दूसरी जगह की संस्कृति में इसका मतलब कुछ और भी हो सकता है। कहीं-कहीं किसी को भी राह चलते मुस्कुराकर पेश आने से आपके लिए खतरे का सबब भी बन सकता है। इसके लिए ऐसी जगह पहुँच जाएँ जैसे कि अमेरिका में सुपरमार्केट, जहाँ पर हर शख्स के साथ मुस्कुराने का मतलब यह माना जाएगा कि आपने पी रखी है। मार्टिनेज़ ने कहा कि शोध समूह के निष्कर्षो से यह संकेत मिलता है कि मैनेजर, प्रोफेसर और क्रिमिनल जस्टिस एक्सपर्ट को महज़ चेहरे के भावों से ही मूल्यांकन नहीं करना चाहिए, बल्कि अन्य विकल्प अपनाकर भी उसके बारे में जानने के प्रयास किये जाने चाहिए।

हम मज़हबों की बात भी नहीं मानते

मानव सभ्यता का विकास सीढ़ी-दर-सीढ़ी और पीढ़ी-दर-पीढ़ी हुआ है। अगर विज्ञान की खोज और इतिहासकारों की बातों पर विश्वास करें, तो पता चलता है कि इंसान शुरू में जंगली था और उसे यह तक नहीं पता था कि वह क्या कर सकता है? धीरे-धीरे उसने सभ्य होना शुरू किया और आज हम आधुनिक युग के एक ऐसे दौर में कदम रख चुके हैं, जहाँ एक उँगली के इशारे पर बहुत कुछ हो सकता है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि हमने अपने ही द्वारा बनायी चीज़ों का दुरुपयोग शुरू कर दिया है, जबकि उनके सदुपयोग से इंसानों के साथ-साथ धरती के समस्त प्राणियों का भला हो सकता है। दरअसल, यह हमारे द्वारा किये गये वे निर्माण हैं, जो हमारी उन्नति के लिए हमारे विद्वान पूर्वजों ने किये। इंसान को इंसानियत के रास्ते पर लाने के लिए ऐसा ही एक निर्माण है-धर्र्म-ग्रन्थों के निर्माण का। आज हमने जिस तरह हर ग्रन्थ के आधार पर अलग-अलग मज़हब, यहाँ तक कि हरेक मज़हब में भी अलग-अलग पन्थ यानी रास्ते बना लिए। यानी हमने इन निर्माणों के बुनियादी रहस्यों को समझे बिना, उनकी जड़ों में अहंकार, ईष्र्या, वैमनस्य, मिथ्या, भेदभाव, आडम्बर, ढोंग, अतिरेक, स्वार्थ, तंगदिली, लालच और धर्मांधता का मट्ठा डाल दिया। इसका नतीजा यह निकला कि आज हम जहाँ खड़े हैं, वह न केवल भयावह, बल्कि खतरनाक भी है। आज न केवल हम मज़हबों के नाम पर, बल्कि एक ही मज़हब में अपने-अपने वैचारिक तौर पर ईज़ाद किये हुए पन्थों के नाम पर भी झगड़ रहे हैं। और यह किसी एक मज़हब में नहीं है, बल्कि सभी मज़हबों में है। कितने मूर्ख हैं हम? हम मज़हबों के नाम पर या अपने ही मज़हब में खड़ी की गयी पन्थों की दीवारों के नाम पर इतने संकीर्ण हो जाते हैं कि हम इतना तक भूल जाते हैं कि ईश्वर एक है; प्रकृति एक है; एक ही वातावरण है, जिसमें हम साँस ले रहे हैं और एक ही खून-पानी से हमें ईश्वर सींच रहा है। क्या है यह सब? क्या हम भूल गये कि अन्त में हमें इस दुनिया को छोडक़र एक ही तरह से जाना है। इतना ही नहीं इस दुनिया में हम सब आये भी एक ही तरह से हैं। सोचो अगर ईश्वर ने मज़हब या मज़हबों के हिसाब से हम सबको पैदा किया होता, तो हम सबमें पैदाइश के समय ही अपने-अपने मज़हब के हिसाब का कोई प्रतीक चिह्न या कोई लक्षण तो दिया होता। मज़हबों के हिसाब से हमारा दिमाग तो बाद में विकसित होता है, हमारा तन तो बाद में सजदे में झुकता है, पहले तो हमें यह भी पता नहीं होता कि हम कौन हैं? मज़हबों को अगर ईश्वर ने बनाया होता, तो उनमें इतनी खामियाँ क्यों होतीं? क्यों हम धर्म-गन्थों को लेकर तर्क-वितर्क और यहाँ तक कुतर्क कर पाते? तब क्या मज़हब से विलग होकर चलने वालों को ईश्वर दण्डित नहीं करता? क्या आपको नहीं लगता कि अगर सबका ईश्वर अलग-अलग होता, तो हर मज़हब के मानने वालों के लिए अलग धरती, अलग आसमान, अलग आब-ओ-हवा होती। लेकिन ऐसा नहीं है। हमने ईश्वर को बाँटने के चक्कर में खुद को आपस में बाँट लिया है, जिसके लिए हमने अपना हुलिया और चोला भी तय किया है। कितने पागल हैं हम। एक शे’र जो मैंने तकरीबन 14-15 साल पहले कहा था; यहाँ काफी सटीक बैठता है-

‘तेरे बन्दों ने या खुदा मेरे

तुझको बाँटा है बँट गया हूँ मैं’

मैं यानी इंसान। लोगों ने, जो अपने आपको ईश्वर का भक्त कहते हैं; उसका पुत्र कहते हैं; उसका अंश कहते हैं; ईश्वर को बाँटने के चक्कर में अपने आपको भी ही बाँट लिया है। कितना बड़ा पागलपन है! एक ही हवा में हम साँस लेते हैं। एक ही धरती से पैदा चीज़ों को खा-पीकर जीते हैं। एक ही तरह का सबका खून है। एक ही तरह की सबकी काया है। एक ही तरह सब पैदा होते हैं और एक ही तरह सबको मरना भी है। सबके अन्दर एक ही ईश्वर का अंश है। मगर सब अपने आपको एक-दूसरे से इतना भिन्न मानते हैं, जैसे हम सबका आपस में कोई रिश्ता ही न हो। कहीं हम मज़हब के नाम पर आपस में कटे हुए हैं; कहीं वैचारिक मतभेद से एक-दूसरे से दूरी बनाकर रखते हैं; कहीं पन्थों के नाम पर खुद को एक-दूसरे से बड़ा साबित करने की कोशिश में लगे रहते हैं; कहीं जातियों, यहाँ तक कि उपजातियों के नाम पर एक-दूसरे से ईष्र्या करते हैं; तो कहीं गरीबी-अमीरी हमारे मानवी रिश्तों में दूरियाँ पैदा करने का बहाना है। कभी सोचा है हमने कि कितने नीचे चले गये हैं हम अपने ही मज़हबों से? उन मज़हबों से ही, जो इंसानों से प्यार करना सिखाते हैं। उन मज़हबों से ही, जो सदियों से हमें यह सीख देते आ रहे हैं, कि हम दूसरों को जीने दें, किसी की जान लेने या किसी पर अत्याचार करने का हमें अधिकार नहीं है; ऐसा करने से पाप लगता है। उन मज़हबों की बात हम नहीं मानते, जो कहते हैं कि ईश्वर एक है। उन मज़हबों से हम कट चुके हैं, जो सिखाते हैं कि दूसरे मज़हबों का सम्मान करो। आिखर कहाँ जा रहे हैं हम? क्या हम अपनी पीढिय़ों की ज़िन्दगी नर्क बनाने का काम नहीं कर रहे हैं?

आज हम अपनी ही मान्यता वाले मज़हब की बात नहीं मानते, बस आँखें बन्द करके मज़हब को मानते हैं। कभी नहीं सोचते कि हमने अपने ही मज़हब के कितने दिशा-निर्देशों का सच्चे मन से पालन किया है? कभी नहीं सोचते कि हम अपने ही मज़हबों का कहाँ-कहाँ, किस-किस तरीके से अपमान कर रहे हैं? सोचो, अगर हम दिन भर माता जी-पिता जी, माता जी-पिता जी रटते रहें और उनका कहना नहीं मानें, उनका खयाल नहीं रखें, तो क्या हमारे माता-पिता हमसे कभी खुश रह पाएँगे? इसी तरह हम ईश्वर को तो हर रोज़ कई-कई बार याद करते हैं; उसकी आराधना करते हैं; अपने सुख के लिए अपने मज़हब के हिसाब से उसकी उपासना भी करते हैं; लेकिन ईश्वर के बताये नियमों पर नहीं चलते। क्या इससे हमारा कभी उद्धार होगा? कभी नहीं; क्योंकि गलत रास्ते पर मुड़ गये हैं और आपस में लड़-मर रहे हैं। मशहूर शायर अल्लामा इकबाल साहब ने बिल्कुल सच कहा है-

‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

 हिन्दी हैं, हमवतन हैं, हिन्दोस्ताँ हमारा।’

महाराष्ट्र बजट 2020-21: महा विकास आघाड़ी, ठाकरे सरकार का पहला बजट पेश।

ठाकरे सरकार के फिनांस मिनिस्टर अजीत पवार का महिला सुरक्षा के महत्व पर जोर , महिला और बाल कल्याण विभाग के लिए 2,100 करोड़ का ऐलान। स्वास्थ्य सुविधा के लिए 5000 करोड़। शिव भोजन थाली के लिए 150 करोड़ ।

महाराष्ट्र विधानसभा में महाविकास अघाड़ी सरकार ने आज 6 मार्च को अपना पहला बजट पेश किया है। राज्य के फिनांस मिनिस्टर अजित पवार ने एमवीए सरकार का पहला बजट पेश किया। बजट से पूर्व पवार ने आर्थिक सर्वे पेश करते हुए बताया कि इस बार महाराष्ट्र पर पिछली बार की तुलना में 57 हजार करोड़ रुपये ज्यादा का आर्थिक बोझ पड़ा है।उन्होंने केंद्र सरकाार द्वारा पिछले साल बारिश से हुई फसल बर्बादी का सामना कर रहे किसानों के मुआवजा मंजूर नहीं किये जाने की जानकारी भी दी। पवार ने कहा कि केंद्र ने केवल 956 करोड़ रुपये मंजूर किए थे इसलिए हमने केंद्र की मदद की बजाए खुद किसानों की मदद करने की दिशाामें कदम उठाया।_

महाराष्ट्र बजट-2020-21 की मुख्य बातें :
– राज्य पर अब तक का कुल कर्ज 01 4,33,901 करोड़ है।

– महाराष्ट्र में एमएलए लोकल एरिया डेवलपमेंट फंड 2 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 3 करोड़ रुपये कर दिया गया ।

– महाराष्ट्र के हर जिले में महिलाओं के लिए एक अलग से महिला थाना बनाया जाएगा।

– नगर विकास के लिए 6025 करोड़ का ऐलान किया गया।

– नए मेडिकल कॉलेज बनाए जाने का ऐलान।

– 1,000 करोड़ की लागत से वर्ली में एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का एक्वेरियम और टूरिस्ट हब बनाया जाएगा। मुंबई में टूरिज्म को बढ़ावा देने के लिए 100 करोड़ की राशि सालाना निर्धारित की जाएगी।

– टूरिज्म में एक डिग्री और डिप्लोमा कार्यक्रम शुरू किया जाएगा। पर्यटन और सांस्कृतिक विकास विभाग को 1,400 करोड़ मिलेगा।

– महिला सुरक्षा के महत्व पर जोर। महिला और बाल कल्याण विभाग के लिए 2,100 करोड़ की राशि देने का ऐलान।

– राज्य के प्रत्येक माध्यमिक विद्यालय में हर लड़की को सैनिटरी नैपकिन उपलब्ध कराए जाने की घोषणा।

– स्वास्थ्य सुविधा के लिए प्रस्तावित राशि 5,000 करोड़ । चिकित्सा शिक्षा के लिए लगभग 2,500 करोड़ अलग। इसमें नए अस्पतालों का निर्माण, मौजूदा अस्पतालों का सुधार, मेडिकल कॉलेज और एम्बुलेंस की खरीद शामिल।

– गरीबों के लिए ‘शिव भोजना थाली’ की योजना के लिए 150 करोड़ की घोषणा ।

महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री को कोर्ट से और एक नोटिस : एक्सिस बैंक का मामला!

महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री फडणवीस परेशानियां कम होती नहीं दिखाई दे रही हैं। मुंबई हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने फडणवीस को एक्सिस बैंक मामले में नोटिस जारी किया है।

फडणवीस पर आरोप है कि उन्होंने अपनी मुख्यमंत्रित्वकाल में कई सरकारी विभागों के कर्मचारियों के वेतन के खाते सरकारी बैंकों के बजाए एक्सिस बैंक में ट्रांसफर करने का आदेश जारी किया था और इस आदेश की वजह उनकी पत्नी अमृता फडणवीस का एक्सिस बैंक से जुड़ा होना था।

दरअसल यह मामला उस वक्त भी काफी चर्चा में आया था लेकिन मामला तूल नहीं पकड़ पाया।हालांकि पिछले साल सरकार की दलील थी कि 2005 तक पुलिस कर्मचारियों के वेतन खाते यूटीआई बैंक में थे जो बाद में एक्सिस बैंक में खोले गए। मोहनीश जबलपुरे ने देवेंद्र फडणवीस के उस आदेश के खिलाफ मुंबई हाई कोर्ट नागपुर खंडपीठ बेंच में याचिका दायर करते हुए आरोप लगाया कि उन्होंने अपने पद का दुरुपयोग किया और एक्सिस बैंक को फायदा पहुंचाया। याचिकाकर्ता जबलपुर का कहना है कि मुख्यमंत्री के रूप में देवेंद्र फडणवीस के इस फैसले से नेशनल बैंक को आर्थिक नुकसान हुआ है बैंकों के पास उन्होंने इस पूरे मामले की जांच की मांग की है । इस याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस रवि देशपांडे और अमित बोरकर ने तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, महाराष्ट्र के मुख्य सचिव गृह सचिव और पुलिस महासंचालक को नोटिस भेजकर 8 हफ्तों में शपथ पत्र दायर कर जवाब देने कहा है। फडणवीस सरकार ने 11 मई 2017 को एक आदेश जारी कर पुलिसकर्मियों की सैलरी अकाउंट और संजय गांधी निराधार योजना के लाभार्थियों के खाते सरकारी बैंकों से हटाकर एक्सिस बैंक में खोलेन की बात की थी।

शेयर बाज़ार में हलचल, भारी गिरावट के साथ खुला

शेयर बाज़ार में शुक्रवार को फिर हाहाकार दिखा। शेयर बाजार भारी गिरावट पर खुला। बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का प्रमुख इंडेक्स सेंसेक्स १४३५.१४ अंक यानी ३.७३ फीसदी की गिरावट के बाद ३७,०३५.४७ के स्तर पर खुला।

नेशनल स्टॉक एक्सचेंज का निफ्टी ४०३.१५ अंक यानी ३.५८ फीसदी की गिरावट के बाद १०,८६५.८५ के स्तर पर खुला। इस तरह एक मिनट के भीतर निवेशकों के चार लाख करोड़ रुपये डूब गए।

उधर रिजर्व बैंक ने गुरुवार को संकट में फंसे यस बैंक पर मौद्रिक सीमा लगा दी जिससे  उसके खाताधारक अब यस बैंक से ५०,००० से ज्यादा की राशि नहीं निकाल सकेंगे। यह पाबंदी ३ अप्रैल तक जारी रहेगी। इस घोषणा के बाद शुक्रवार को यस बैंक का शेयर भारी गिरावट पर खुला। पिछले कारोबारी दिन ३६.८० के स्तर पर बंद होने के बाद आज यस बैंक का शेयर ३३.१५ के स्तर पर खुला। इसके बाद सुबह ११.३३ बजे यह ३०.८५ अंक यानी ८३.८३ फीसदी की गिरावट के बाद ५.९५ के स्तर पर कारोबार कर रहा था।

इस बीच शुक्रवार को डॉलर के मुकाबले रुपया ६५ पैसे टूटकर ७३.९९ पर खुला। मु्द्रा कारोबारियों के अनुसार कोरोना वायरस के बढ़ते प्रकोप से वैश्विक शेयर बाजार नुकसान में चल रहे हैं। घरेलू शेयर बाजारों की धीमी शुरुआत और विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों की लगातार निकासी से भी रुपये पर दबाव है। बृहस्पतिवार को डॉलर के मुकाबले रुपया छह पैसे टूटकर ७३.३३ पर बंद हुआ था।

कोरोना के कारण दिल्ली के सभी प्राथमिक स्कूल ३१ मार्च तक बंद

भले रिपोर्ट्स में यह दावा किया जा रहा हो कि चीन में धीरे-धीरे कोरोना वायरस का असर कम हो रहा है, भारत में अचानक कोरोना से जुड़े मामलों में बढ़ौतरी होने से एहतियाती कदम उठाये जाने शुरू कर दिए गए हैं। दिल्ली सरकार ने गुरूवार को कोरोना के चलते अपने सभी प्राथमिक (प्राइमरी) स्कूलों को ३१ मार्च तक बंद रखने का आदेश दिया है। इससे पहले पीएम मोदी सहित कई नेता होली मिलन समारोहों से दूर रहने का ऐलान कर चुके हैं।

अभी तक भारत में कोरोना वायरस के २९ पॉज़िटिव संक्रमित लोगों की पहचान हुई है। देश में कोरोना वायरस के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए ही पीएम मोदी ने इस बार होली सम्मेलनों में हिस्सा नहीं लेने का फैसला किया है। अब दिल्ली सरकार ने गुरूवार को बच्चों को वायरस (सीओवीआईडी-१९) से बचाने के लिए एहतियातन ३१  मार्च तक सभी प्राथमिक स्कूलों को बंद करने का आदेश दिया है।

भारत में कोरोना वायरस का सबसे ताजा मामला एक पेटीएम कर्मचारी का है जो इटली से घूम कर लौटा है। इस कर्मी के काम करने वाले पेटीएम दफ्तर को भी दो दिन के लिए बंद कर दिया गया है। अब तक सबसे ज्यादा मामले जयपुर से १७ आये हैं जबकि एक दिल्ली, छह आगरा और एक तेलंगना से सामने आया है। केरल में सबसे पहले कोरोना के जो तीन मामले आए थे, वे सभी लोग स्वस्थ हो गए हैं।

ताहिर गिरफ्तार, दिल्ली हिंसा में मरने वालों की तादाद ५३ हुई

पुलिस ने जहां गुरूवार को आईबी के हेड कांस्टेबल की मौत के मामले में छह दिन से फरार चल रहे पार्षद ताहिर हुसैन को गिरफ्तार कर लिया गया वहीं दिल्ली हिंसा में मरने वालों की तादाद बढ़कर ५३ हो गयी है। ताहिर ने गुरूवार को रोज एवेन्यू कोर्ट में आत्मसमर्पण की कोशिश की लेकिन अदालत ने अपने अधिकार क्षेत्र से इसे बाहर बताते हुए इंकार कर दिया। बाद में दिल्ली पुलिस ने उसे कोर्ट की पार्किंग से ही गिरफ्तार कर लिया।
ताहिर आप के टिकट पर पार्षद चुना गया था लेकिन हाल में उनका नाम एक आईबी अधिकारी की मौत के मामले में सामने आने के बाद पार्टी ने उसे निलंबित कर दिया था। पार्षद ताहिर ताहिर ने कड़कड़डूमा कोर्ट में अग्रिम जमानत के लिए भी अर्जी दी  थी लेकिन कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया था। ताहिर के खिलाफ आईबी के हेड कॉन्स्टेबल अंकित शर्मा के परिवार ने २८ फरवरी को हत्या का मामला दर्ज करवाया था, जिनका शव ताहिर के घर के नजदीक एक नाले से मिला था।

इस बीच दिल्ली हिंसा में मरने वालों की तादाद ५३ हो गयी है। हिंसा को लेकर पुलिस ने अभी तक ६५४ मामले दर्ज किए हैं जिनमें से ४७ आर्म्स एक्ट के हैं। हिरासत में लिए गए या गिरफ्तार किए गए लोगों की कुल संख्या १८२० हो गई है।

उधर ताहिर ने कहा था कि वो २४ फरवरी की पूरी रात और २५ फरवरी का पूरा दिन अपने दोस्त के घर पर था जबकि २५ फरवरी को सुबह साढ़े आठ बजे कुछ कपड़े लेने के लिए थोड़ी देर के लिए घर गया था, लेकिन घर के सामने भीड़ जमा थी इसलिए ऐसा नहीं कर पाया। उसके मुताबिक वहां मौजूद पुलिसवालों ने उसे सलाह दी कि यहां से चले जाओ। याद रहे उसके घर की छत से कुछ चीजें बरामद होने की बात कही गयी थी जिन्हें कथित तौर पर हिंसा के लिए इस्तेमाल किया गया था।