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यूरोपीय संघ में सीएए : भारत की कूटनीतिक जीत

यूरोपीय संसद में भारत के लिए यह बड़ी कूटनीतिक जीत रही कि वहाँ नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के िखलाफ एक संयुक्त प्रस्ताव पर होने वाले मतदान को मार्च 2020 तक टलवाने में सफल रहा। सीएए के िखलाफ वोटिंग का प्रस्ताव यूरोपीय पीपुल्स पार्टी के सदस्य माइकल गहलर द्वारा लाया गया। 751 सदस्यीय यूरोपीय संसद के 483 सदस्यों में से 271 सदस्य ने स्थगन के पक्ष में अपना मत दिया। यूरोपीय संसद में वोटिंग में देरी किये जाने का विरोध करने वाले 199 सदस्य थे, जिनमें 13 ने मतदान नीं किया।

पाकिस्तान की ओर से की गयी इस पैरवी को विफलता के रूप में देखा गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आगामी 13 मार्च को भारत-यूरोपीय संघ के शिखर स मेलन में शिरकत करने वाले हैं और भारत ब्रसेल्स यूरोपीय द्विपक्षीय व्यापार संघ का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है। भारत के साथ कारोबार की बात करें तो 2018 में 92 अरब यूरो का कुल व्यापार हुआ।

यूरोपीय संसद में छ: सांसदों ने प्रस्ताव के ज़रिये भारत पर विवादास्पद सीएए को लेकर तीखे हमले किये थे। साथ ही इसे भेदभावपूर्ण कानून करार दिया। इसके साथ ही राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के लिए माँगी जा रही जानकारी से उत्पन्न होने वाली मुश्किलों से अवगत कराया। कहा गया कि यदि यह सह लागू किया जाता है, तो आशंका है कि करोड़ों भारतीय, जिनमें ज़्यादातर गरीब होंगे और अपने ही देश की नागरिकता खो देने को मजबूर होंगे। आलोचना का सबसे अहम प्रस्ताव यूरोपी संघ के दूसरे सबसे बड़े पॉलिटिकल ग्रुप प्रोग्रेसिव अलायंस ऑफ सोशलिस्ट्स एंड डेमोक्रेट्स द्वारा लाया गया, जिसमें कहा कि गया इससे सीएए से दुनिया में सबसे बड़ा शरणार्थी (गैर नागरिकता) संकट पैदा हो सकता है।

अब सवाल यह उठता है कि हमने ऐसी स्थिति क्यों बनायी, जिससे दूसरों को हमारे देश की छवि धूमिल करने का अवसर मिला? कई विशेषज्ञों का कहना है कि एनपीआर, सीएए और एनआरसी के लिए सरकार को इतनी जल्दबाज़ी क्यों पड़ी है? जबकि दूसरी ओर बढ़ती बेरोज़गारी और घटती जीडीपी जैसे परेशान करने वाले मुद्दे सामने हैं। सीएए और एनआरसी को लेकर देशभर में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, जिससे हजारों आदमी काम पर नहीं जा रहे हैं। यह विरोध प्रदर्शन पिछले साल 15 दिसंबर को शुरू हुआ था, लेकिन सब व्यर्थ का ही है। ऐसा स्वस्थ लोकतंत्र में होना ही नहीं चाहिए।

सत्ताधारियों के जनप्रतिनिधियों को एनपीआर, सीएए और एनआरसी को मामले में विरोध करने वालों से सम्पर्क करना ही चाहिए और उनकी शिकायतों को सुनना चाहिए। किसी ने नागरिकता देने के इस कदम का विरोध नहीं किया, जिसमें धार्मिक आधार सताये गये पाँच साल पहले आ चुके अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के नागरिकों के लिए ऐसी व्यवस्था करने का केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अपने भाषण में उल्लेख किया। समस्या की जड़ यह है कि सताये गये लोगों की पहचान धर्म देखकर की जाती है। यह स्पष्ट रूप से भारतीय संविधान के िखलाफ, जिसके मूल में धर्मनिरपेक्षता है।

जैसा कि प्रख्यात गीतकार और चिंतक जावेद अख्तर ने कुछ दिन पहले कहा था कि देश के संविधान के संस्थापकों सर्वधर्म समभाव का सम्मान ऐसे समय में करने का फैसला किया था, जब उस समय देश साम्प्रदायिकता की लाग में जल रहा था। 1947 में देश विभाजन के बाद भारत की छवि एक अच्छे आगे बढ़ते हुए राष्ट्र के शान के रूप में प्रस्तुत करने की भी थी। अन्तर ने इशारा किया यह हमें विरासत में मिला कि हमारी सुरक्षा को कोई खतरा नहीं है।

संविधान के संस्थापक का कद तब और बढ़ जाता है, जब हमें पता चलता है कि उन्होंने यह सुनिश्चित करने का फैसला किया कि विभाजन के तत्काल बाद भी देश में धर्मनिरपेक्षता बनी रहे। यह उनका भारत को लेकर विचार था कि भारत में किसी व्यक्ति को धर्म के आधार या आस्था, जाति, रंग, पंथ, भाषा, क्षेत्र आदि को लेकर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। इस तरह भारत की छवि दुनिया में लोकतंत्र की बनी।

यहाँ कुछ बेहद मर्मस्पर्शी घटनाएँ हैं, जो मेरे दिमाग में चल रही हैं। तीन दशक पहले हमें ऊपर वाले के करम से एक बेटी का पिता बनने का उपहार मिला, वह महज़ कुछ महीने ही जीवित रह सकीं। जब उसकी मृत्यु हो गयी, तो हम उसकी नमाज़-ए-जनाज़ा अदा कर रहे थे, तो मेरे पास में एक शख्स खड़े थे। गैर-मुस्लिम होने के नाते उसे नहीं पता था कि नमाज़ का तरीका क्या है? लेकिन दु:ख की इस घड़ी में वह तमाम क्रियाकलापों में हमारे साथ था। यह हमारे भारतीय होने का सुबूत थे कि हम कैसे साथ रहते हैं और वर्षों से सुख और दु:ख की घड़ी दूसरे से साझा करते रहे हैं।

ऐसा ही हमारा भारत रहा है। हमने एक बगीचे में विभिन्न फूलों की तरह रहना सीख लिया है। सीएए-एनपीआर-एनआरसी हमारी मातृभूमि के चरित्र को डाँवाडोल नहीं कर सकते हैं। ऐसे विभाजनकारी कदमों को इससे पहले कि देर हो जाए, तत्काल खत्म कर दिये जाने चाहिए। इस तरह से हम अपने मुल्क के दुश्मनों और देश पर उँगली उठाने वालों को रोक सकते हैं।

जम्मू-कश्मीर लौटेंगे कश्मीरी-पंडित?

जम्मू-कश्मीर में धारा-370 हटने के बाद वहाँ से पलायन कर चुके कश्मीरी-पंडितों की घर वापसी का रास्ता खुलने का सवाल अब उठने लगा है। क्या कश्मीरी-पंडित जम्मू-कश्मीर वापस जाएँगे? इस सवाल का जवाब देते हुए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है कि दुनिया की कोई भी ताकत कश्मीरी-पंडितों को जम्मू-कश्मीर लौटने से नहीं रोक सकती। उन्होंने जम्मू-कश्मीर से हटायी गयी धारा-370 का ज़िक्र करते हुए कहा कि यह राज्य केंद्र्र शासित प्रदेश है। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार पहले की तरह ही राज्य सरकार के साथ कोई समझौता किये बगैर कश्मीरी-पंडितों की सुरक्षा के लिए कार्रवाई कर सकती है। बता दें कि उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने पहले ही कहा था कि जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ-साथ यह सभी देशवासियों का यह कर्तव्य है कि वे अपने देश के वीर जवानों की आतंकी हमले कराने और हत्या की साज़िश रचने वाले पड़ोसी देशों से रक्षा करने में सहयोग प्रदान करें।

 यदि हम सरकार के इन बयानों पर गौर करें, तो पाएँगे कि सरकार ने कश्मीरी-पंडितों में घर वापसी की उम्मीद जगायी है। इसको लेकर आजकल ट्विटर पर हैजटैग (प्त) के साथ एक ट्वीट वायरल हो रहा है कि हम वापस आएँगे। हालाँकि इस कथन पर लम्बी बहस शुरू हो चुकी है, जो कि दिन-ब-दिन विवादास्पद होती जा रही है। यही नहीं इस मुद्दे ने मीडिया का भी ध्यान आकॢषत किया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस बहस से वर्षों पहले घाटी से पलायन कर चुके कश्मीरी-पंडितों के लिए इसका कोई फायदा होगा? क्या अब वे घर वापसी कर पाएँगे? सवाल सबके मन में उठ रहे हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि किसी एक व्यक्ति के लिए भी इन सवालों का जवाब प्रस्तुत करना कठिन है; चाहे वह व्यक्ति सामान्य हो या विशेष।

 बता दें कि सन् 2015 में सरकारी सूत्रों ने कश्मीरी-पंडितों के लिए अलग बस्ती बसाने की योजना की बात कही थी। मीडिया में जब यह बात उठी, तो केंद्र सरकार ने भी इसे अस्वीकार नहीं किया। उस समय केंद्र सरकार ने तत्कालीन राज्य सरकार से उन जगहों की पहचान करने को कहा था, जिसमें 16,800 एकड़ ज़मीन को घाटी के तीन ज़िलो के रूप में बाँटा गया था। इन ज़मीन अनंतनाग, बारामुल्लाह और श्रीनगर में है; जहाँ पलायन कर चुके या बचे हुए पंडित परिवारों को बसाया जा सकता है।

प्रस्ताव के अनुसार, प्रत्येक बस्ती में 75 हज़ार से एक लाख तक लोगों को बसाया जा सकता है। जहाँ सरकार मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज स्थापित करने के साथ-साथ अन्य सुविधाओं का बंदोबस्त करेेगी। इस योजना के तहत 12 पुलिस स्टेशनों का भी निर्माण किया जाएगा, ताकि इन बस्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।

इस योजना में पुनॢवस्थापित पीडि़तों को केंद्र सरकार द्वारा दो साल के लिए आवास सहायता, परागमन आवास, नकद राहत, छात्रों को छात्रवृत्ति के अलावा राज्य सरकार में रोज़गार दिया जाएगा। इसके साथ-साथ किसानों को मदद दी जाएगी और 1990 से पहले पलायन कर चुके कर्ज़दार किसानों का ब्याज माफ किया जाएगा।

अब सवाल यह उठता है कि क्या सरकार इन वादों पर अमल करेगी? लेकिन यह देखते हुए कि केंद्र सरकार ने इस प्रदेश में अलग-अलग कॉलोनियाँ स्थापित करने की दिशा में अपना पक्ष रखा है। अंत: यह भी माना जा सकता है कि कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की योजना पर अमल किया जा सकता है। लेकिन यह भी स्पष्ट है कि केंद्र सरकार का यह वादा केवल एक योजना ही नहीं है, बल्कि इसमें राजनीतिक स्वार्थ भी छिपा हुआ है। बता दें कि अलगाववादियों और अन्य कश्मीरी लोगों ने कश्मीरी-पंडितों की अलग से बस्तियाँ बसाने का हमेशा से विरोध किया है। ये लोग चाहते हैं कि कश्मीरी-पंडित सभी के साथ मिलकर रहें। लेकिन घाटी में स्थिति बदलने के चलते उनकी इस बात पर अमल किया जाना सम्भव नहीं लग रहा। बता दें कि हाल ही में सरकार ने जम्मू-कश्मीर से धारा-370 और धारा-35 (ए) को समाप्त कर दिया, इसके चलते अब वहाँ बाहरी लोग ज़मीन खरीदने के साथ-साथ स्थायी घर भी बना सकते हैं। पहले बाहरी लोगों को यह अनुमति नहीं थी। अब बाहरी लोगों को यहाँ रहने अधिकार और नौकरी पाने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। पहले केवल राज्य के लोगों को ही ये अधिकार प्राप्त थे।

 इसलिए, पंडितों को घाटी में वापसी पर कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। लेकिन यह भी सच है कि यह मुद्दा जितना आसान दिखता है, उससे कहीं अधिक जटिल है। यह बात अलग है कि पंडितों की घर-वापसी का वहाँ कभी कोई विरोध नहीं हुआ है, लेकिन उनके पुनर्वास का तरीके और इस पर की जा रही राजनीति का विरोध भी हो सकता है। ऐसे में केंद्र सरकार को चाहिए कि वह घाटी में पंडितों को फिर से संगठित करने की कोशिश करे और अनुच्छेद-370 को रद्द करने के फायदे लोगों को बताये।

कोरोना वायरस दहशत के बढ़ते कदम

चीन से फैला कोरोना वायरस दुनिया भर को भयभीत कर रहा है। डॉक्टर और चिकित्सा विशेषज्ञ इस नयी बीमारी का इलाज ढूँढने में जुटे हैं। िफलहाल इसकी सटीक दवा बनाने में किसी को भी सफलता नहीं मिली है, लेकिन मरीज़ों को खास चिकित्सा दी जा रही है, ताकि इस वायरस को बढऩे से रोका जा सके। फिर भी इस वायरस ने बढऩा शुरू कर दिया है। चीन में इस वायरस से संक्रमित सबसे ज़्यादा लोग हैं। कोरोना वायरस की दहशत इस कदर बढ़ गयी है कि भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय सजग हो गया है। स्वास्थ्य मंत्रालय से प्राप्त जानकारी के अनुसार, देश में 5123 से अधिक लोगों को संक्रमण की आशंका वाले घरों को निगरानी में रखा गया है। समस्या यह है कि इस खतरनाक वायरस से निजात पाने के लिए दुनिया के अनेक बड़े डॉक्टर और चिकित्सा विशेषज्ञ और वैज्ञानिक लगे हुए हैं, लेकिन अभी तक कोई ऐसी वैक्सीन नहीं बन सकी है, जो इस वायरस को खत्म कर सके। डॉक्टर इसके लक्षणों के आधार पर दूसरी ज़रूरी दवाओं से मरीज़ों का इलाज कर रहे हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक, जर्मनी के कुछ वैज्ञानिकों व चिकित्सकों ने इसकी वैक्सीन का फॉर्मूला बनाने में कुछ सफलता हासिल की है। इसकी आधिकारिक दवा का ऐलान जल्द ही किया जा सकता है। इधर भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने आईपीसी यानी प्रयोगशाला जाँच, निगरानी, संक्रमण रोकथाम व नियंत्रण और जोखिम संचार सम्बन्धी विभागों को आवश्यक निर्देश जारी किया हैं। इसके साथ ही सामुदायिक निगरानी के लिए एकीकृत बीमारी निगरानी कार्यक्रम (आईडीएसपी) बनाया गया है।

5 फरवरी तक की रिपोर्ट की मानें, तो अकेले चीन में कोरोना से प्रभावित लोगों की संख्या पाँच चार हज़ार से अधिक हो सकती है। साथ ही चेतावनी दी है कि इससे जल्द से जल्द निपटा जाए अन्यथा यह वायरस चीन के साथ-साथ अधिकतर देशों में फैल जाएगा। चिकित्सा विशेषज्ञों की चेतावनी के बाद चीन में लोगों के आने-जाने पर रोक लगायी जा रही है। स्वास्थ्य संगठन ने यह भी माना है कि कोरोना वायरस पूरी दुनिया में पाँव पसार रहा है और इसे रोकना बहुत ज़रूरी है। अभी तक 10 देशों में कोरोना वायरस फैलने की पुष्टि की जा चुकी है।

लग सकता है स्वास्थ्य आपातकाल

चीन में कोरोना वायरस से बढ़ती पीढि़तों की संख्या और मरते लोगों पर चिन्ता जताते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विश्व भर की सरकारों के साथ-साथ चिकित्सकों और लोगों से भी सावधानी बरतने की अपील की है। फिलहाल चीन में आपात स्थिति की घोषणा की है। बाकी दुनिया के लिए अभी खतरा कम बताया है।

हालाँकि, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह भी कहा है कि जल्द ही विश्व स्वास्थ्य आपातकाल की घोषणा की जा सकती है। क्योंकि इस तरह की घोषणा होने पर कोरोना वायरस के प्रकोप से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रयास तेज़ होंगे।

चीन गये लोगों की जाँच

भारत में हाल ही में हुई एक समीक्षा बैठक में तय किया गया है कि 15 जनवरी के बाद चीन जाने वाले हर व्यक्ति की जाँच की जाए। इतना ही नहीं ज़रूरत पड़े, तो ऐसे व्यक्ति को निगरानी में रखा जा सकता है। इस बैठक में स्वास्थ्य मंत्रालय, विदेश मंत्रालय, उड्डयन मंत्रालय, गृह मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय और स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग के अधिकारी और विशेषज्ञ मौज़ूद थे। दिल्ली में केंद्रीय सचिव राजीव गाबा ने समीक्षा बैठक में कहा कि केंद्र सरकार ने चीन के लिए नये पर्यटन सुझाव जारी करके भारतीयों से चीन न जाने को कहा है। बैठक में बताया गया कि विदेश मंत्रालय ने चीन में रहने वाले भारतीय मंत्रालय के द्वारा हॉटलाइन नम्बर 86-186-10952903, 86-186-12083629 और ई-मेल ठ्ठष्श1२०१९ञ्चद्दद्वड्डद्बद्य.ष्शद्व जारी की गयी है। इसके साथ ही स्वास्थ्य सहायता के लिए 24 घंटे सेवा वाला हेल्पलाइन नम्बर +91-11-23978046 जारी किया गया है। मंत्रालय ने कहा है कि कोई भी ऐसा भारतीय व्यक्ति जो चीन में रहता है, इन नम्बरों या ईमेल आईडी पर सहायता अथवा जानकारी के लिए सम्पर्क कर सकता है।

बता दें कि भारत में कोरोना वायरस के संक्रमण की जाँच के लिए पिछले सप्ताह तक 741 लोगों की जाँच की जा चुकी थी। इनमें से एक दर्जन लोग इस वायरस से पीडि़त पाये गये, जबकि 738 लोग स्वस्थ पाये गये। केरल के 2,421 लोगों को निगरानी में रखा गया है। स्वास्थ्य विभाग ने कहा है कि इनमें से 100 लोगों को अलग-अलग अस्पतालों के आईसोलेशन वार्ड में रखा गया था। उनकी निगरानी की गयी। सूत्रों की मानें, तो भारत में 12 लोगों को अस्पतालों में भर्ती किया गया है, जिनमें से सबसे ज़्यादा सात मरीज़ केरल के हैं। वहीं मुम्बई के तीन मरीज़ हैं, जबकि हैदराबाद का एक और बेंगलूरु का एक मरीज़ है। हालाँकि केरल की पहली महिला मरीज़ स्वस्थ्य निकली है और बाकी में भी वायरस की पुष्टि के संकेत कम हैं। पिछले सप्ताह स्वास्थ्य मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि अभी तक अलग-अलग देशों से आ रहे 96 यात्री विमानों से आये लोगों की जाँच की गयी है। इन विमानों में सवार सभी 20 हज़ार 844 यात्रियों में कोरोना वायरस की पुष्टि नहीं हुई है।

चीन में मर चुके हैं 2000 लोग

कोरोना वायरस पीडि़तों के चीन में अब तक सबसे ज़्यादा मामले सामने आये हैं। इतना ही नहीं, चीन में हाल ही में एक ही दिन में 73 लोगों की मौत हो गयी। चीन के सरकारी आँकड़ों के अनुसार, वहाँ अब तक 2000 से अधिक लोगों की मौत कोरोना वायरस की चपेट में आने से हो चुकी है। इसके साथ ही इस वायरस से संक्रमित मरीज़ों की संख्या 70,021 तक पहुँच चुकी है। चीन से जारी सूत्रों की मानें एक ही दिन में 73 मेें 70 लोगों की मौत चीन के हुबेई राज्य की राजधानी वुहान में हुई। सूत्रों की मानें, तो चीन में पिछले एक सप्ताह में 5,328 नये संक्रमित लोगों की पुष्टि हुई है। इनमें से अकेले हुबई राज्य के 2,987 मामले हैं। बताया जा रहा है कि चीन में कोरोना वायरस से पीडि़तों में तीन हज़ार से अधिक लोग गम्भीर हैं।

कोरोना से पीडि़त मिला नवजात

चीन में कोरोना वायरस इस कदर फैल चुका है कि वहाँ के वुहान शहर में 5 जनवरी को एक नवजात कोरोना वायरस के पीडि़त मिला है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, नवजात में जन्म के 30 घंटे बाद कोरोना वायरस की पुष्टि हुई। चीन के चिकित्सक इस बात की जाँच में जुटे हैं कि इस नवजात में गर्भकाल से ही संक्रमण था या पैदा होने के बाद संक्रमण फैला। नवजात के संक्रमित पाये जाने के बाद उसकी माँ की जाँच की गयी, तो वह भी कोरोना पोजोटिव पायी गयी। नवजात में कोरोना वायरस पाये जाने से चीन में हड़कंप है।

चमगादड़ खाने से फैला कोरोना

चीन से फैला कोरोना वायरस पूरी दुनिया में पैर पसारता जा रहा है। केरल में इससे पीडि़त सात लोगों की पष्टि हो चुकी है। िफलहाल पूरी दुनिया की नज़रें इस बात पर टिकी हुई हैं कि आिखर इस वायरस के फैलने का कारण क्या है? सूत्रों की मानें तो परीक्षण में पता चला है कि यह वायरस चीन की एक लड़की के चमगादड़ खाने से फैला है। इस बात की पुष्टि चीन से जारी एक वीडियो से की जा रही है। सोशल मीडिया पर वायरल इस वीडियो में यह दावा किया जा रहा है कि चीन की एक लड़की के चमगादड़ के खाने से कोरोना वायरस का संक्रमण फैला है। इस मामले में यूके के प्रसिद्ध अखबार डेली मेल की एक रिपोर्ट के मुताबिक, लड़की के द्वारा चमगादड़ खाते और उसका सूप पीते हुए एक वीडियो वायरल हो रहा है। अखबार में प्रकाशित खबर की मानें तो यही लड़की कोरोना की पहली संक्रमित मरीज़ थी और इसी से यह वायरस तेज़ी से फैल गया। वहीं, चीन के वैज्ञानिक ने दावा किया है कि साँप और चमगादड़ खाने से कोरोना का संक्रमण फैला है। चीन के अन्य वैज्ञानिकों ने भी यही बात मानी है। बता दें कि कोरोना सबसे अधिक चीन के वुहान शहर में फैला है। बताया जा रहा है कि वहाँ के बाज़ार में चमगादड़, साँप, मैरमोट्स, अनेक प्रकार के पक्षी, खरगोश व अन्य कई प्रकार के वन्य जीव बिकते हैं, जिन्हें चीन के लोग खाते हैं।

यूरोप तक पहुँचा संक्रमण

कोरोना वायरस एशियाई देशों के अलावा यूरोपीय देशों तक पहुँच चुका है। सूत्रों की मानें तो फ्रांस में भी तीन लोग कोरोना वायरस से पीडि़त मिले हैं। वहाँ पहला मामला साउथ वेस्टर्न सिटी में सामने आया, जबकि दूसरे मामले की पुष्टि पेरिस में हुई। बताया जा रहा है कि तीसरा संक्रमित व्यक्ति दूसरे संक्रमित का रिश्तेदार है।

क्या है कोरोना वायरस?

स्वास्थ्य विशेषज्ञों की मानें, तो कोरोना वायरस विषाणुओं की एक प्रजाति है, जो जानवरों से इंसानों में आया है। यह वायरस साँप, चमगादड़ से लेकर ऊँट और बिल्ली जैसे जानवरों में भी पनपने लगा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, कोरोना वायरस सी-फूड से जुड़ा है।

कोरोना के लक्षण

कोरोना वायरस के लक्षण सामान्य वायरल की तरह ही हैं। इससे पीडि़त को खाँसी, जुकाम होने के साथ-साथ उसके गले में दर्द होता है, और साँस लेने में तकलीफ होती है। इसके अलावा उसे बुखार भी रहता है। समय से इलाज न होने पर इसके लक्षण निमोनिया में बदल जाते हैं और किडनी तथा फेफड़ों में संक्रमण पैदा करके नुकसान पहुँचाते हैं।

बचाव के उपाय

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सलाह दी है कि किसी भी संक्रमित व्यक्ति को सबसे पहले डॉक्टर के पास ले जाएँ। लेकिन यदि कोई व्यक्ति मरीज़ नहीं भी है, तो भी वह साबुन से हाथ धोये। सम्भव हो तो अल्कोहल युक्त हैंड रब हाथ साफ करे। यदि किसी को खासी अथवा छींक आती है, तो मुँह और नाक को ढककर खाँसे या छींके।

जिन लोगों को सर्दी या फ्लू जैसे लक्षण हों, उनके सम्पर्क से बचें। अच्छी तरह पका हुआ ही भोजन करें। खासकर साँस और अण्डे आदि अच्छे से पकाएँ।

भारत को होगा करोड़ों का नुकसान

दुनिया भर में कोरोना वायरस का खौफ इस कदर फैल चुका है कि इसका असर कारोबार पर पडऩे लगा है। भारत के औद्योगिक जगत को भी इसने अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया है। भारत में गुजरात राज्य का सूरत शहर इससे खासा प्रभावित हो रहा है। सूत्रों की मानें तो कोरोना वायरस के चलते अगले दो महीने में सूरत के हीरा कारोबार को 8,000 करोड़ रुपये का नुकसान हो सकता है। भारत के इस बेहतरीन कारोबार के ठप होने की वजह हांगकांग में स्वास्थ्य आपातकाल लागू होना बताया जा रहा है। बता दें कि चीन के हांगकांग को सूरत से बड़े स्तर पर हीरा निर्यात होता है। लेकिन वहाँ बाज़ार बन्द होने से हीरा कारोबार पर खराब असर पडऩे लगा है। इससे अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर अगले दो माह भी हीरे का निर्यात नहीं होता है, तो भारत को 8,000 करोड़ का नुकसान होगा। जेम्स एंड ज्वेलरी एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल के क्षेत्रीय अध्यक्ष दिनेश नवादिया ने कहा है कि हर साल तकरीबन 50,000 करोड़ रुपये का पॉलिश हीरा हांगकांग के लिए निर्यात होता है। दिनेश नवादिया ने बताया कि भारत में जितना हीरा आयात होता है, उसमें से 99 फीसदी हीरों पर सूरत में ही पॉलिश का काम होता है।

एक सप्ताह में 140 बिलियन डॉलर का नुकसान

कोरोना वायरस के कारण चीन बड़े नुकसान में है। सूत्रों की मानें तो चीन को 5 जनवरी तक केवल एक सप्ताह में 140 बिलियन डॉलर का नुकसान हो चुका था। चीन के मुताबिक, कोरोना वायरस का कारोबार पर बुरा असर पड़ रहा है। चीन में लूनर न्यू ईयर के बाद आमतौर पर लोग छुट्टी मनाने निकलते हैं। लेकिन कोरोना वायरस के संक्रमण के भय से लोग घरों से निकलना भी पसंद नहीं कर रहे हैं, जिसका असर बिजनेस पर पड़ गया। 2019 में इस त्योहार के दौरान होने वाला खर्च एक ट्रिलियन युआन (143 बिलियन डॉलर) था। लेकिन इस साल इस त्योहार पर कारोबार बिल्कुल ठप रहा है। इस वायरस का सबसे ज़्यादा असर पर्यटन, मनोरंजन, रिटेलिंग और रेस्तरां पर हुआ है। बताया जा रहा है कि वायरस को फैलने से रोकने के लिए सरकार ने इन पर रोक लगा दी है।

दिल्ली के बाज़ारों में चीन के सामान पर लग रहा ग्रहण

कोरोना वायरस के प्रकोप का असर दिल्ली-एनसीआर के बाज़ारों पर पड़ रहा है। यहाँ चीन का सामान आना कम हुआ है, वहीं लोग भी वहाँ की चीज़ों को खरीदने से कतरा रहे हैं। आलम ये है कि होली के पहले पिचकारी, रंग, खिलौने और अन्य सजावट के चीन के सामान से बाज़ार भरे नज़र आते थे, लेकिन इस बार बहुत कम सामान बाज़ारों तक पहुँच पाया है। तहलका संवाददाता ने दिल्ली के चाँदनी चौक, सदर बाज़ार, सरोजनी नगर मार्केट और नोएडा, ग्रेटर नोएडा के ऐच्छर मार्केट में दुकानदारों, ग्राहकों से बात की। लोगों ने बताया कि वैसे ही आर्थिक मंदी के चलते मार्केट की हालत खस्ता है। कोरोना वायरस का लोगों में खौफ है, जिससे चीन का सामान कम बिक रहा है और कम आ भी रहा है। यह सामान छोटे दुकानदारों तक कम पहुँच पा रहा है। बड़े दुकानदारे औने-पौने दाम में सामान बेच रहे हैं।

दिल्ली कुछ व्यापारी संगठनों का कहना है कि चीन का सामान न बिकने से स्वदेशी सामान की बिक्री बढ़ रही है। इससे देश की आर्थिक स्थिति को मज़बूत होगी है।

चीन के सामान की दिल्ली में होने वाली बिक्री का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि चाँदनी चौक को कुछ व्यापारी चाइना चौक के नाम से पुकारते हैं; क्योंकि यहाँ से पूरे देश में चीन का सामान जाता है। यहाँ के दुकानदारों का कहना है कि फरवरी से होली के निकट आते ही खरीददारों का तांता लगा रहता था; पर अब कोरोना वायरस के डर से व्यापारी कम आ रहे हैं। चाँदनी चौक के व्यापारी रमेश का कहना है कि चीन ने खुद कोरोना वायरस के डर से वहाँ की अनेक फैक्ट्रियाँ बन्द कर दी हैं, जिससे उत्पादन घट गया है। इससे दिल्ली के बाज़ारों में 30 फीसदी बिक्री घटी है। फेडरेशन ऑफ सदर बाजार ट्रेडर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष राकेश कुमार यादव का कहना है कि हर साल होली पर त्योहारी सामान और खिलौनों की माँग बढ़ जाती थी, पर इस बार मंदी है। 20 फीसदी की दर से सामान बेचना पड़ रहा है। उन्होंने कहा यह चिन्ताजनक है। वहीं नोएडा के व्यापारी भी इसी तरह परेशान हैं।  राजीव दुबे

निमोनिया में लापरवाही ले सकती है जान

पिछले साल प्रत्येक 39 सेकेंड में एक बच्चे की मौत हुई। यह बात चौंकाने वाली भी है और हमें सचेत करने के लिए एक रेड अलर्ट भी। पिछले सप्ताह बार्सेलोना में ग्लोबल फोरम ऑन चाइल्डहुड निमोनिया कार्यक्रम में विश्व की स्वास्थ्य संगठनों ने बच्चों की मौत का यह आँकड़ा बताकर सभी को चौंका दिया है। बार्सेलोना में पेश आँकड़ों का हवाला देकर हमने बाल रोग विशेषज्ञ डॉक्टर धवल कुमार से बातचीत की। उन्होंने कहा कि आपको याद होगा कि पिछले एक-डेढ़ साल के बीच में भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और गुजरात राज्यों में एक साथ सैकड़ों बच्चों की मौत हुई थी। अगर कुल मिलाकर देखें तो चारो राज्यों में हज़ार से ज़्यादा बच्चों की मौत हुई होगी। यह अलग बात है कि ये सभी मौतें निमोनिया से नहीं हुईं, पर इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि बच्चों की जितनी भी मौतें हुईं बीमारी के कारण ही हुईं। ऐसी ही एक जानलेवा बीमारी निमोनिया भी है, जो बच्चों में बहुत जल्दी पनपती है। अगर समय पर ध्यान नहीं दिया गया, तो यह जानलेवा साबित हो सकती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठनों की रिपोर्ट की अगर बात करें, तो निमोनिया के िखलाफ बेहतर प्रयासों से पूरी दुनिया में एक दशक में मरने वाले तकरीबन 9 मिलियन यानी 90 लाख बच्चों को बचाया जा सकता है। यह तथ्य बार्सेलोना में चाइल्डहुड निमोनिया पर आयोजित कार्यक्रम में विश्व स्वास्थ्य संगठनों के एक नये विश्लेषण में सामने आया है। विश्व स्वास्थ्य संगठनों ने ग्लोबल फोरम से पहले इस विश्लेषण के परिणाम जारी किये।

बचाये जा सकते हैं लाखों बच्चे

जोन होपकिन्स यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट के अनुसार निमोनिया की रोकथाम एवं उपचार सेवाओं के द्वारा पाँच साल से कम उम्र के 3.2 मिलियन यानी 32 लाख बच्चों को बचाया जा सकता है। इन प्रयासों से सिर्फ निमोनिया से मरने वाले बच्चों को ही नहीं बचाया जा सकता, बल्कि अन्य बीमारियो से होने वाली 5.7 मिलियन यानी 57 लाख मौतों को भी रोका जा सकता है। रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि निमोनिया बैक्टीरिया, वायरस या फंगस के कारण होती है, जिसकी वजह से रोगी बच्चे के फेफड़ों में मवाद भर जाता है और उसे साँस लेने में विकट तकलीफ होती है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि निमोनिया बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण है। इस बीमारी से पिछले साल 8 लाख बच्चों की मौत हुई थी। यानी हर 39 सेकेंड में एक बच्चे की मौत हुई। इस कार्यक्रम में विश्व स्वास्थ्य संगठनों ने कहा है कि अगर सावधानी बरती जाए और बीमार होने वाले बच्चों का समय पर सही इलाज किया जाए, तो इस बीमारी से असमय होने वाली बच्चों की मौतों को रोका जा सकता है।

रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि निमोनिया के कारण होने वाली ज़्यादातर मौतें गरीब देशों में होती हैं। रिपोर्ट की मानें, तो वंचित समुदायों के बच्चे इस बीमारी की चपेट में सबसे ज़्यादा आते हैं।

अगले एक दशक में होंगी लाखों मौतें!

विश्व स्वास्थ्य संगठनों ने अपनी रिपोर्ट में चौंकाने वाली भविष्यवाणी की है। स्वास्थ्य संगठनों का कहना है कि अगर निमोनिया पर काबू नहीं पाया गया, तो यह अगले एक दशक में यानी 2020 से 2030 तक और पाँव पसार लेगी। इतना ही नहीं, इस एक दशक में निमोनिया के कारण पाँच साल से कम उम्र के 6.3 मिलियन यानी 63 लाख बच्चों की मौत हो सकती है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पोषण में सुधार करने, एंटीबायोटिक उपलब्ध कराने, वैक्सीन की कवरेज बढ़ाने, स्तनपान की दर बढ़ाने और सर्दी से बचाव करने से बच्चों को निमोनिया से बचाया जा सकता है।

निमोनिया का बड़ा कारण वायु प्रदूषण

इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन के द्वारा किये गये एक अध्ययन के मुताबिक, दुनिया भर में बाहरी हवा का प्रदूषण के चलते निमोनिया होता है, जिससे 17.5 फीसदी यानी पाँच में से लगभग एक बच्चे की मौत हो जाती है। इसके अलावा घर में ईंधन जलाने से उत्पन्न प्रदूषण से एक लाख 95 हज़ार यानी 29.4 फीसदी बच्चों की मौत होती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया की 91 फीसदी आबादी ऐसी

बाहरी हवा  में साँस ले रही है, जो विश्वस्थ्य संगठन के मानकों के अनुरूप नहीं हैं। वायु प्रदूषण के घातक प्रभाव निमोनिया के समाधान के लिए किये जाने वाले हस्तक्षेपों को कमज़ोर बना सकते हैं।

बच्चों की मौत मामले में दूसरे पायदान पर भारत

रिपोर्ट में कहा गया है कि अगले एक दशक में सबसे ज़्यादा मौतें नाइजीरिया में होंगी, जबकि दूसरे पायदान पर भारत रहेगा। रिपोर्ट के अनुसार, अगले एक दशक में नाइजीरिया में 1.4 मिलियन 14 लाख,  भारत में (8 लाख 80 हज़ार, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में 3 लाख 50 हज़ार और इथियोपिया में 2 लाख 80 हज़ार मौतें होने की सम्भावना है। पिछले साल भी नाइजीरिया में निमोनिया से सबसे अधिक एक लाख 62 हज़ार बच्चों की मौत हुई। वहीं भारत में एक लाख 27 हज़ार मौतें हुईं। वहीं पाकिस्तान में 58 हज़ार, कांगो में 40 हज़ार और इथोपिया में 32 हज़ार बच्चों की मौत निमोनिया से हुई। रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान में भारत में पाँच साल से कम उम्र के एक लाख 27 हज़ार यानी 14 फीसदी बच्चों की निमोनिया से मौत होती है। फाइटिंग फॉर ब्रेथ इन इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, 2013 में भारत में एक लाख 78 हज़ार बच्चों की मौत हुई थी। वर्तमान में निमोनिया के कारण प्रति एक हज़ार बच्चों के जन्म लेने के दौरान ही पाँच बच्चों की मौत हो जाती है। हालाँकि, उसके बाद मौत के आँकड़ों में कमी आयी है और लक्ष्य रखा गया है कि 2025 तक इसे कम करके तीन मौतों तक लाने का लक्ष्य तय किया गया है।

भारत में किये जा रहे सुधार के प्रयास

विशलेषण रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत सरकार ने पोषण अभियान और मिशन इन्द्रधनुष के माध्यम से टीकाकरण में सुधार लाने के प्रयास शुरू किये हैं, जो निमोनिया से बच्चों को बचाने में कारगर सकते हैं। 2019 में सरकार ने सोशल एवर्नेस एंड एक्शन टू न्यूट्रेलाइज़ निमोनिया सक्सेसफुल (साँस) कैंपेन अभियान के माध्यम से निमोनिया के िखलाफ संघर्ष की शुरुआत की है। इस अभियान की रणनीति में उपचार के संशोधित निर्देश शामिल हैं, जैसे- उपचार के लिए सबसे पहले अमॉक्सिलिन का उपयोग और स्वास्थ्य एवं वैलनैस केन्द्रों में पल्स ऑक्सीमीटर का उपयोग किया जाए। स्वास्थ्य कर्मियों के लिए कौशल आधारित प्रशिक्षण और बच्चों को निमोनिया से सुरक्षित रखने के लिए बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाया जाए।

क्या कहते हैं विशेषज्ञ?

बार्सेलोना में आयोजित निमोनिया चाइल्डहुड कार्यक्रम में विश्व भर के बाल रोग विशेषज्ञों, अन्य चिकित्सकों, स्वास्थ्य संगठनों और दवा कम्पनियों ने भाग लिया। इस दौरान अनेक विशेषज्ञों ने अपने विचार रखे। सेव द चिल्ड्रन के चीफ एक्जीक्यूटिव डॉ. केविन वाटकिन्स ने कहा कि अगर निमोनिया के कारकों पर ध्यान दिया जाए, बच्चों को बचाने में मदद मिल सकती है। इसके अलावा ऑक्सीजन की उपलब्धता, वायु प्रदूषण के स्तर को कम करने के लिए उचित कदम उठाने से निमोनिया के खतरे को कम किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि ये परिणाम दर्शाते हैं कि नैतिक रूप से इस बीमारी से निपटने की कोशिशें नहीं की जा रही हैं। उन्होंने सवाल उठाया कि क्या उन बच्चों को इस बीमारी के होने पर मरने दिया जाए, जिन्हें किफायती एंटीबायोटिक, वैक्सीन और नियमित ऑक्सीजन उपचार की आवश्यकता है? युनिसेफ के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर हेनेरीटा फोरे ने कहा कि अगर हम सच में अपने बच्चों का जीवन बचाना चाहते हैं, तो हमें निमोनिया से गम्भीर रुख अपनाकर लडऩा होगा। वर्तमान में कोरोनावायरस के प्रकोप को देखते हुए साफ है कि समय पर निदान और रोकथाम बेहद ज़रूरी है।

गावी और द वैक्सीन अलायन्स के सीईओ डॉक्टर सेठ बर्कले कहते हैं कि न्यूमोकोकल निमोनिया की रोकथाम सम्भव है और इसका इलाज भी सम्भव है। इसके लिए हमें तय करना होगा कि किसी भी बच्चे की मौत न हो। पिछले दशक में हमने बढ़ी संख्या में बच्चों को जीवनरक्षक न्यूमोकोकल वैक्सीन दी हैं। हमारी अगली पीढ़ी को इस जानलेवा बीमारी से बचाने के लिए इन प्रयासों को जारी रखना अनिवार्य है। जून में आयोजित गावी का डोनर प्लेजिंग सम्मेलन अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को अवसर देगा कि वे इस दिशा में मदद कर सकें।

बार्सेलोना इन्सटीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ के रिसर्च प्रोफेसर और ग्लोबल फोरम ऑन चाइल्डहुड निमोनिया के चेयरपर्सन क्विके बसट ने कहा कि ऐसी बीमारी की उपेक्षा नहीं की जा सकती, जो दुनिया भर में इतनी बड़ी संख्या में बच्चों की जान ले रही है। हमें अनुसंधान एवं इनोवेशन के आधार पर नीतिगत बदलाव लाने होंगे और निमोनिया के कारण होने वाली मोतों को रोकने के लिए मार्ग प्रशस्त करना होगा।

एवरी ब्रेथ काउन्ट्स कोएलिशन के को-ऑर्डिनेटर लीथ ग्रीनस्लेड ने कहा कि यह विश्लेषण दर्शाता है कि बच्चों को निमोनिया से बचाने के लिए किये जाने वाले सामूहिक प्रयास बाल सुरक्षा के सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में कारगर हो सकते हैं। विश्व की सभी सरकारों एवं अन्तर्राष्ट्रीय एजेन्सियों को सबसे संवेदनशील बच्चों की सुरक्षा के तत्काल कदम उठाने चाहिए, जो कुपोषण, वायुप्रदूषण के कारण इस बीमारी की चपेट में आ सकते हैं।

वहीं बाल रोग विशेषज्ञ डॉक्टर धवल ने हमसे बातचीत में कहा कि निमोनिया से दो साल से कम उम्र के बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। उन्होंने कहा कि निमोनिया किसी को भी हो सकता है, परन्तु बच्चों में यह जल्दी पनपने वाली बीमारी है। डॉक्टर धवल कहते हैं कि अगर सावधानी बरती जाए, तो निमोनिया से बच्चों को बचाया जा सकता है। डॉक्टर मनीष कहते हैं कि प्रदूषण निमोनिया का बहुत बड़ा कारण है और आज दुनिया में जिस तेजी से प्रदूषण बढ़ रहा है, वह बच्चों के लिए तो बिल्कुल भी ठीक नहीं है। बच्चों को निमोनिया से बचाने के सवाल पर डॉक्टर मनीष का कहते हैं कि सावधानी ही हर बीमारी से बचने का सबसे बेहतर उपाय है। फिर भी यदि कोई बच्चा बीमार पड़ जाए, तो उसे तत्काल बाल रोग विशेषज्ञ को दिखाना चाहिए।

बच्चों के बचाव के लिए रखे लक्ष्य

बार्सेलोना में विश्व स्वास्थ्य संगठनों ने एक साथ निमोनिया से लडऩे का बीड़ा उठाया है। ग्लोबल फोरम ऑन चाइल्डहुड निमोनिया ने निमोनिया से होने वाली मौत से बच्चों को बचाने के लिए अनेक घोषणाएँ की हैं। इन घोषणाओं में प्रमुख इस प्रकार हैं- किफायती दवाएँ और सीरम उपलब्ध कराने के प्रयास किये जाएँगे। पीसीवी वैकसीन उपलब्ध करायी जाएगी। सरकारों की ओर से राजनीतिक प्रतिबद्धता बनायी जाएगी। उच्च बोझ वाले देशों में निमोनिया के कारण होने वाली मौतों को कम करने के लिए राष्ट्रीय रणनीतियाँ तैयार की जाएँगी।

चीन से सीखो सरकार…डेंगू, स्वाइन फ्लू पर करो वार

आखिर ऐसा क्यों है कि जब कोई वायरस या बीमारी विदेशों में फैलती है, तब ही भारत में स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर सर्तकता बरती जाती है? वैसे देश में स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर राजनीति ज़्यादा होती है और आईएमए व तमाम स्वास्थ्य संगठन स्वास्थ्य सेवा के नाम पर अपने-अपने तर्क देते रहते हैं। दिल्ली सहित देश के शहरों और गाँवों के डॉक्टरों, स्वास्थ्य कर्मचारियों से तहलका संवाददता ने बात की। उन्होंने बताया कि स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर केंद्र और राज्य सरकारें अच्छा-खासा बजट देती हैं, लेकिन सरकारी अस्पतालों तक पैसा सही मद में नहीं पहुँच पाता है, जिससे स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा जाती है। इस समय देश-दुनिया में कोरोना वायरस को लेकर हड़कंप मचा हुआ है। ऐसे में भारत सरकार गम्भीर है, सरकारी अस्पतालों में बार्ड बनाये गये हैं। लेकिन हम उन बीमारियों से निपटने में नाकाम क्यों हैं, जिन बीमारियों से हर साल हज़ारों लोग मौत के मुँह में समा जाते हैं। डॉक्टरों का ही कहना है कि भारत को चीन से सीखना चाहिए कि कोरोना वायरस से हुई मौतों पर वहाँ की सरकार गम्भीर है। चीन की सरकार हर वह प्रयास कर रही है, जिससे कोरोना वायरस पर काबू ही नहीं पाया जाए, बल्कि उसका खात्मा किया जा सके। लेकिन हमारे यहाँ बीमारी के नाम पर राजनीति होती है। इस समय दिल्ली सरकार के अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवाओं में चिकित्सा सेवाओं का टोटा है। केंद्र सरकार के अस्पतालों में तो दवाइयों की कमी के चलते मरीज़ों को अक्सर परेशानी होती है। वहीं केंद्र और राज्य सरकारें व्यवस्था सुधारने के लिए बचाव की कोशिश में दिखती हैं, न सेवाओं के विस्तार पर कोई पहल करती है। डॉक्टरों का कहना है कि जब भी स्वाइन फलू या डेंगू का प्रकोप होता है, तब सरकारें दवाइयों की खरीद-फरोख्त करती हैं। इतना ही नहीं विज्ञापन और मीडिया के माध्यम से शोर-शराबा शुरू कर दिया जाता है कि डेंगू और स्वाइन फलू ने दस्तक दी। ऐसे में लोगों में एक भय का माहौल बनाया जाता है, जिससे  दवा कम्पनियाँ जमकर चाँदी काटती है।

सबसे गम्भीर और चौंकाने वाली बात यह है कि देश में मलेरिया, डायबिटीज, अस्थमा, बीपी, एचआईवी, हृदय रोग सहित अनेक बीमारियाँ ऐसी हैं, जिनके चलते भारत में हर रोज़ दर्ज़नों मौतें हो रही हैं; लेकिन सरकार और स्वास्थ्य विभागों को इसकी चिन्ता नहीं है। इसकी तह में जाएँ, तो पता चलता है कि दवा कम्पनियों के साथ अनेक सरकारी और गैर-सरकारी डॉक्टरों की साँठगाँठ है। अमूमन कोई भी स्वास्थ्य एजेंसी इन बीमारियों पर चर्चा तक को तैयार नहीं होती।

दिल्ली मेडिकल ऐसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष अनिल बंसल ने बताया कि देश में डॉक्टरों की कमी है, जो सरकारें जानती हैं। यही कारण है कि गाँवों-कस्बों में स्वास्थ्य सेवाएँ न होने के कारण झोलाछाप डॉक्टर मरीज़ों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। चिकुनगुनिया, हैजा, उलटी-दस्त जैसी बीमारियों के कारण मरीज़ों का हाल वे हाल रहता है, उनको पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं मिल पाती है। देश में स्वास्थ्य सेवाएँ 30 फीसदी तो सरकार के हाथों में हैं, जबकि 70 फीसदी निजी हाथों में हैं। इसमें से 30 फीसदी झोलाछाप डॉक्टरों के हाथों में है, जिसके कारण सही जाँच और बीमारी की पहचान नहीं हो पाती है। ऐसे में ये बीमारियाँ और पनप रही हैं।

नेशनल मेडिकल फोरम के चैयरमेन डॉक्टर प्रेम अग्रवाल का कहना है कि वह कई बार केंद्र और राज्य सरकारों से मिलकर लिखित में यह बात रख चुके हैं कि देश में जागरूकता के अभाव में बच्चों से बुजुर्ग तक हृदय, लीवर, किडनी और अस्थमा जैसी बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। ये बीमारियाँ अघोषित महामारी हैं। सरकारों को इन बीमारियों के िखलाफ ठोस कदम उठाने चाहिए, लोग स्वस्थ रह सकें। पर इस ओर किसी का भी ध्यान नहीं है। ऐसे में भारत को चीन से सीखने की ज़रूरत है। डॉक्टर प्रेम का कहना है कि कोरोना वायरस की तरह स्वाइन फ्लू छुआछूत की बीमारी है; लेकिन इस पर तुरन्त काबू पाया जा सकता है।

स्वाइन फलू और डेंगू के नाम पर घोटालों पर रोक लगनी चाहिए। कई बार तो पुराने विज्ञापनों को नया करके अस्पतालों के बाहर लगा दिया जाता है। दवा कम्पनियाँ ऐसे ही मौकों का इंतज़ार करती हैं। जैसे ही बीमारी की आहट होती है, कम्पनियाँ सरकारी-गैर सरकारी अस्पतालों में सप्लाई शुरू कर देती हैं, जिनके मोटे दाम वसूले जाते हैं। एक सच्चाई यह भी है कि डेंगू एडीज मच्छर से होता है, उस पर काबू तक नहीं पाया गया है, जो एक साज़िश की ओर इशारा करती है। दिल्ली के लोकनायक अस्पताल व राममनोहर लोहिया अस्पताल के मरीज़ों रामकिशन तथा परम सिंह ने बताया कि इन अस्पतालों की स्वास्थ्य सेवाएँ बदत्तर हो गयी हैं। करोड़ों रुपये की नयी जाँच मशीनें खरीदी गयी हैं, पर आम मरीज़ों उनका लाभ नहीं मिल पा रहा है। अस्पताल के कमचारियों का कहना है कि जितनी राजनीति अस्पतालों में होती है, उतनी राजनीति शायद ही किसी महकमे में होती हो। अब अस्पतालों में सिफारिश के आधार पर मरीज़ों का इलाज होता है। एम्स में सांसदों, मंत्रियों के पत्रों के आधार पर ही लोगों के ओपीडी कार्ड बनते हैं। आलम यह है कि एम्स में बड़ी सिफारिश पर आये मरीज़ों को तत्काल भर्ती कर लिया जाता है, जबकि गरीब मरीज़ महीनों धक्के खाते रहते हैं। लेडी हाॄडग की दशा भी बहुत खराब है। यहाँ अनेक कमियाँ हैं, जिन पर किसी का ध्यान नहीं है। स्वास्थ्य कर्मचारी लीलाधर कहते हैं कि सरकार को चीन से कुछ सीखना चाहिए। चीन ने कोरोना को बड़ी गम्भीरता से लिया है।

कैसे गुरुदेव ने अयोध्या विवाद को सुलझाने में मदद की

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 9 नवंबर, 2019 को अयोध्या विवाद पर निर्णायक फैसला सुनाया। न्यायालय ने विवादित 2.77 एकड़ भूमि राम जन्मभूमि मंदिर के लिए भारत सरकार की तरफ से बनाये जाने वाले ट्रस्ट को सौंपने का आदेश दिया, साथ ही मस्जिद बनाने के लिए सुन्नी वक्फ बोर्ड को 5 एकड़ ज़मीन देने का भी निर्देश दिया। तब से कई व्यक्तियों और संगठनों ने इस विवाद को सुलझाने के श्रेय का दावा किया है। हम यहाँ गुरुदेव श्री श्री रविशंकर के अयोध्या विवाद के निपटारे के लिए गुरुदेव श्री श्री रविशंकर के सचिवालय से ली गयी सूचना के आधार पर किये गये प्रयासों का अवलोकन करते हैं, जो मानते हैं कि समन्वय और विश्वास की कमी हर टकराव के पीछे के विशेष कारक होते हैं।

अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद एक सदी से अधिक के इतिहास में  भारत के सबसे लम्बे समय तक चलने वाले विवादों में से एक है। हिन्दुओं की आस्था और विश्वास है कि उत्तर प्रदेश के उत्तरी राज्य का एक शहर अयोध्या, उनके सबसे प्रतिष्ठित देवताओं में से एक भगवान राम का जन्मस्थान है। यह माना जाता है कि एक प्राचीन राम मंदिर को नष्ट कर दिया गया था और 1528 में भारत पर विजय प्राप्त करने वाले मुगल सम्राट बाबर ने इसके ऊपर एक मस्जिद का निर्माण किया था। तबसे इस मुद्दे को लेकर साम्प्रदायिक तनाव रहा।

इस ज़मीन के साथ हिन्दुओं का जितना मज़बूत भावनात्मक जुड़ाव रहा है, उतना ही मुस्लिमों का भी रहा है। खासकर, साल 1992 के बाद जब एक उन्मादी भीड़ ने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया था। इस विध्वंस के बाद भारत के कई हिस्सों में हुए साम्प्रदायिक दंगों में 2,000 से अधिक लोगों की जान चले गयी और अरबों की सम्पत्ति का नुकसान हुआ था। सात दशक तक चली अदालती लड़ाइयों के बावजूद, विवाद का स्थायी हल निकालने के लिए कोशिशें जारी रहीं, जो राजनीतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक-धार्मिक जटिलताओं से भरा था। एक पारिस्थितिकी तंत्र में, जिसमें निहित स्वार्थ भी शामिल थे और इस मुद्दे का हल नहीं चाहते थे, शान्तिपूर्ण समाधान के लिए आम सहमति बनाने के लिए यह बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य था।

पहला चरण (2001-2003)

जब गुरुदेव श्री श्री रविशंकर 2001 में दावोस में विश्व आर्थिक मंच को सम्बोधित करने के बाद भारत लौटे, तो उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ एक बैठक की। बैठक के दौरान, वाजपेयी ने गुरुदेव से कथित तौर पर पूछा कि क्या वह अयोध्या विवाद के समाधान में हस्तक्षेप कर सकते हैं। उस समय, विश्व हिन्दू परिषद् (वीएचपी) भगवान राम के जन्मस्थान पर एक भव्य मंदिर बनाने के आन्दोलन को तेज़ कर रही थी।

एक ऐसी स्थिति में जहाँ हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोगों अन्याय महसूस कर रहे थे, से एक शान्तिपूर्ण समझौता निकलने की कृपना कर पाना भी मुश्किल था। विश्वास बनाने और बातचीत शुरू करने के इरादे से, गुरुदेव ने सितंबर, 2001 से मार्च, 2002 के बीच दोनों पक्षों के हितधारकों के साथ कई बैठकों में हिस्सा लिया। उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दलों के साथ सामूहिक और व्यक्तिगत रूप से बैठकों में शामिल हुए। दिवंगत वीएचपी नेताओं अशोक सिंघल, आचार्य गिरिराज किशोर और डॉ. प्रवीण तोगडिय़ा के साथ भी उनकी इस सम्बन्ध में कई बैठकें हुईं।

गुरुदेव ने नई दिल्ली के ओखला में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के कार्यालय में ज़फरयाब जिलानी और कमाल फारुकी सहित मुस्लिम नेताओं के साथ कई बैठकें कीं। इन बैठकों के दौरान कुछ पक्ष बातचीत के ज़रिये समझौता करने के इच्छुक थे। हालाँकि, उनके वकीलों ने उन्हें इंतज़ार करने की सलाह दी, क्योंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट इस मामले की सुनवाई कर रहा था और अदालती फैसले के ऐलान से कोई भी पक्ष मज़बूत स्थिति में आ सकता है।

नई दिल्ली के शान्ति निकेतन में बुद्धिजीवियों से मुलाकात के बाद गुरुदेव ने एक के बाद एक बैठक में सामाजिक कार्यकर्ता और शिक्षाविद् डॉ. सैयदा हमीद, ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत के अध्यक्ष नवेद हामिद, अनुभवी पत्रकार सैयद नकवी, संसद सदस्य जावेद अख्तर और शबाना आज़मी के अलावा लालकृष्ण आडवाणी के करीबी सुधींद्र कुलकर्णी से बैठकें कीं। इन बैठकों में गुरुदेव की तरफ से प्रस्तावित लाइन पर लोगों ने वार्ता को आगे ले जाने के लिए सहमति जतायी। इसके अत्यधिक सकारात्मक परिणाम सामने आये। तब हितधारकों के एक बड़े प्रतिनिधित्व के साथ बैठक के लिए तारीख और स्थान तय किया गया। आश्चर्यजनक कदम उठाते हुए भारत के तत्कालीन उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के करीबी सुधींद्र कुलकर्णी ने कांची शंकराचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती के साथ अचानक मध्यस्थता की बातचीत शुरू कर दी। इससे यह स्पष्ट हो गया कि वह गुरुदेव को इस मसले का हिस्सा नहीं बनना देना चाहते थे और इसलिए गुरुदेव ने अपने कदम खींच लिये। हालाँकि, आगामी वार्ता अधिक उत्साहजनक नहीं रही। कुछ मुस्लिम नेताओं में यह धारणा थी कि उन्हें समान भागीदार नहीं माना जा रहा और उन्हें शंकराचार्य की तुलना में कम महत्त्व देने के लिए यह सब किया गया है।

कोर्ई समझौता सामने नहीं आ सकने के बाद गुरुदेव ने फरवरी, 2003 में एक सौहार्दपूर्ण समझौते के लिए अपना फार्मूला सामने रखा। यह सूत्र दया और क्षमा के मूल्यों पर आधारित था। साल 2003 के अन्त तक एक समझौते तक पहुँचने के प्रयास गतिरोध के उच्च स्टार तक पहुँच गये; क्योंकि पार्टियाँ मूलभूत बिन्दुओं पर सामंजस्य स्थापित करने में विफल रहीं।

29 महीने की मध्यस्थता

मार्च, 2017 में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे.एस. खेहर ने ‘धार्मिक भावनाओं से जुड़े संवेदनशील मुद्दे’ को ‘ले और दे’ के दृष्टिकोण को अपनाते हुए सबसे अच्छा समाधान बताते हुए न्यायालय से बाहर एक समझौते का सुझाव दिया। जून, 2017 में अयोध्या टाइटल सूट में मुख्य वादी निर्मोही अखाड़े के 92 वर्षीय रामचंद्राचार्य ने गुरुदेव से मुलाकात की और उनसे सौहार्दपूर्ण समझौते के लिए प्रक्रिया शुरू करने की अपील की। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के कुछ सदस्यों उनके साथ थे।

गुरुदेव नये सिरे से बातचीत की प्रक्रिया शुरू करने के लिए सहमत हो गये; क्योंकि  यह राष्ट्र के हित में था। इस प्रकार 29 महीने की मध्यस्थता की लम्बी यात्रा शुरू हुई, जिसके दौरान गुरुदेव ने दोनों पक्षों के नेताओं और मूल वादियों के साथ एक बीच का रास्ता खोजने के लिए मुलाकात की। गुरुदेव ने उन कई लोगों के साथ बैठकों की एक शृंखला की, जो एक समझौते की तरफ बढऩे में भूमिका निभा सकते थे। निर्मोही अखाड़ा से लेकर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तक, मुस्लिम और हिन्दू निकायों से लेकर बुद्धिजीवियों तक, सभी को देश में स्थायी शान्ति और सद्भाव के लिए एक दृष्टिकोण के साथ काम करने के लिए साथ जोड़ा गया। हालाँकि, समय से पहले बातचीत के बिन्दु लीक होने से एक ऐसी संवेदनशील प्रक्रिया, जिसे अभी उड़ान भरनी थी; को उन्मादी आलोचना भी झेलनी पड़ी।

गुरुदेव ने जैसे-जैसे बातचीत जारी रखी, अधिक-से-अधिक पार्टियाँ एक सौहार्दपूर्ण समाधान खोजने की प्रक्रिया में उनके समर्थन में मुखर हो गयीं। यूपी शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष सैयद रिज़वी से लेकर प्रमुख हिन्दू संगठनों के वरिष्ठ नेता जैसे कि निर्मोही अखाड़ा के प्रमुख महंत दीनेंद्र दास, अखिल भारत हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चंद्र प्रकाश कौशिक और अन्य वरिष्ठ पदाधिकारियों ने खुलकर उनका समर्थन किया। गुरुदेव ने श्रीराम जन्मभूमि निर्माण आयोग के राष्ट्रीय अध्यक्ष महंत जन्मेजय शरण, दिगंबर अखाड़ा के महंत सुरेश दास, मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महल, एआईएमपीएलबी के सदस्य महंत सुरेश दास, दिगंबर अखाड़े के प्रमुख नेताओं, अयोध्या मामले में मूल मुकदमे के वादी के पुत्र, महंत नृत्य गोपाल दास, अध्यक्ष, श्री राम जन्मभूमि न्यास, हाजी महबूब, मुख्य वादियों में से एक, डकोर के महंत राजा रामराचार्य और महंत दिनेंद्र दास, प्रमुख, निर्मोही अखाड़ा, मौलाना तौकीर 200 मिलियन अनुयायियों के साथ सुन्नी मुसलमानों के बरेलवी सम्प्रदाय के प्रमुख और मौलाना शहाबुद्दीन रिज़वी, अखिल भारतीय तनज़ेमुलामा-ए-इस्लाम के राष्ट्रीय महासचिव और कई अन्य के साथ विशेष विचार-विमर्श किया। गुरुदेव ने फरवरी, 2018 में काशी में भारत के विभिन्न हिस्सों से आये हिन्दू संतों और विद्वानों के एक बड़े समूह से मुलाकात की। उन्होंने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से और व्यक्तिगत बैठकों में पूरे भारत के 500 से अधिक इमामों के साथ बातचीत की। उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र संघ के वरिष्ठ पदाधिकारियों के साथ एक अत्यंत फलदायी बैठक की। इन सभी मुलाकातों का नतीजा बहुत सकारात्मक था और मुस्लिम बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग और पादरियों ने शान्तिपूर्ण आउट ऑफ कोर्ट प्रस्ताव के लिए अपना समर्थन देने का वादा किया। संवाद और विश्वास निर्माण की प्रक्रिया को लोगों के बीच बढ़ाते हुए, गुरुदेव ने 15-16 नवंबर, 2017 को अयोध्या के पवित्र शहर का दौरा किया। गुरुदेव की इस धारणा कि दीर्घकालीन और शान्तिपूर्ण समाधान के लिए दोनों ही समुदायों के आध्यात्मिक और धार्मिक नेताओं को एक समान जीत वाले पथ पर पहुँचना होगा; को व्यापक समर्थन मिला।

भावनात्मक रूप से ओतप्रोत इस मुद्दे पर अदालत के एक फैसले से एक समुदाय की भावना को हेस लग सकती थी। ऐसी बहुत सम्भावनाएँ थीं कि सुधार की माँग वर्षों बाद फिर से हो सकती है अगर एक सौहार्दपूर्ण तरीके से इस मसले का हमेशा के लिए निपटारा नहीं किया जाता है। फरवरी, 2018 में, गुरुदेव के साथ आगे की बातचीत के लिए वरिष्ठ मुस्लिम नेताओं का एक प्रतिनिधिमंडल बेंगलूरु आया। प्रतिनिधिमंडल में नदवा (लखनऊ) से सबसे सम्मानित विद्वान, सलमान नदवी और यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष ज़फर अहमद फारुकी शामिल थे।

बैठक एक महत्त्वपूर्ण सफलता के साथ पूरी हुई। देश में साम्प्रदायिक सौहार्द को मज़बूत करने के लिए विवादित भूमि पर दावा करने और मस्जिद को दूसरी जगह स्थानांतरित करने के लिए मुस्लिम समूह के भीतर एक आम सहमति बनायी गयी थी। विद्वानों के समूह ने सुल्तान हुदैबिया (हुदैबिया शान्ति सन्धि) के पैगंबर मोहम्मद के उदाहरण का हवाला दिया, जिसने पुष्टि की कि कैसे मक्का और मदीना शहरों के लोगों के बीच संघर्ष में पैगंबर ने संघर्ष पर शान्ति को प्राथमिकता दी। यह सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया था कि उपरोक्त प्रस्ताव सभी के लिए जीत वाली स्थिति बनायेगा, जिसमें मुसलमान एक अरब हिन्दुओं की सद्भावना हासिल करेंगे। यह भविष्य की पीढिय़ों और आने वाली शताब्दियों में इस मुद्दे को हमेशा के लिए खत्म हो जाने के लिए भी याद रखा जाएगा। इस बैठक में गुरुदेव के प्रेम और भाईचारे की भावना से युक्त संयुक्त उत्सव के प्रस्ताव का स्वागत किया गया। उत्सव के हिस्से के रूप में मुस्लिम धर्मगुरुओं को भारत के गाँवों और शहरों में फैले सैकड़ों-हज़ारों राम मंदिरों में आमंत्रित और सम्मानित किया जाएगा।

12 नवंबर, 2018 को अयोध्या के प्रमुख मुस्लिम याचिकाकर्ताओं में से एक हाजी महबूब और प्रमुख मुस्लिम नेताओं ने गुरुदेव को समर्थन देने और अयोध्या विवाद के एक आउट ऑफ कोर्ट निपटान के लिए उनके साथ काम करने की इच्छा व्यक्त करते हुए एक बयान पर हस्ताक्षर किये। जैसे-जैसे गुरुदेव की लोगों से बातचीत बढ़ती गयी, सौहार्दपूर्ण समाधान के लिए उनके प्रस्ताव में अधिक-से-अधिक लोग जुड़ते गये। लखनऊ में मार्च, 2018 में आयोजित सिविल सोसाइटी की एक बड़ी उपस्थिति वाली संगोष्ठी ने मुस्लिम धर्मगुरुओं को गुरुदेव के साथ जुडऩे और अयोध्या विवाद का हल निकालने का आह्वान किया। प्रमुख मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने एआईएमपीएलबी के अध्यक्ष मौलाना सैयद मुहम्मद राबे हसनी नदवी और जमीयत उलमा-ए-हिन्द के अध्यक्ष मौलाना सैयद अरशद मदनी को सम्बोधित अलग-अलग पत्रों पर भी हस्ताक्षर किये। अयोध्या विवाद को सौहार्दपूर्ण और बातचीत के ज़रिये सुलझाने के लिए गुरुदेव के प्रयासों को डॉ. फैंक इस्लाम और प्रो. अली शम्सी का भी समर्थन मिला, जब वह अप्रैल, 2018 में अमेरिका में उनसे मिले।

बाधाएँ भी आयीं सामने

व्यक्ति और समूह जबकि गुरुदेव की पहल का स्वागत और समर्थन कर रहे थे, निहित स्वार्थ मध्यस्थता प्रक्रिया को पटरी से उतारने के लिए प्रयासरत थे। वर्षों से अयोध्या मुद्दा न केवल भारत के सबसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामले में बदल गया था, बल्कि दोनों ओर के कई लोगों के लिए दुधारू गाय बन गया था। उनकी रुचि विवाद को लम्बा खींचने की थी। परिणामस्वरूप इस पहल के पीछे गुरुदेव पर हमले किये गये, यहाँ तक कि उनके इरादों पर भी सवाल उठाया गया। हर बार जब अयोध्या मसले के हल की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रगति किये जाने के कोशिश हुई, निहित स्वार्थ प्रक्रिया को बाधित करने और पटरी से उतारने में लगे रहे।

इन ताकतों की तरफ से इस्तेमाल की जाने वाली आम तकनीक थी अफवाह फैलाकर हल निकलने के लिए जुटे लोगों को बदनाम करना। मौलाना सलमान नदवी को भी घृणित हमलों का सामना करना पड़ा, जब उन्होंने 8 फरवरी, 2018 को गुरुदेव के साथ बंगलौर की बैठक में बनी सर्वसम्मति के फार्मूले को सार्वजनिक किया। पूर्ण ईमानदारी से वह एक ऐसे समाधान पर पहुँचना चाहते थे, जो देश में एकता और सद्भाव को बढ़ावा दे। दुर्भाग्य से इस कोशिश के दौरान उन पर पैसा बनाने का झूठा आरोप लगाया गया। एआईएमपीएलबी के कुछ सदस्यों ने यहाँ तक कहा कि उन्हें बोर्ड से बाहर किया जाए।

कई लोगों ने गुरुदेव को सुझाव दिया कि उन्हें मध्यस्थता के काम में शामिल नहीं होना चाहिए और उन्हें चेतावनी दी कि यदि वे इसे जारी रखते हैं, तो उन्हें इसके दुष्परिणाम झेलने पड़ेंगे। कई हितधारकों, जिन्होंने निजी बैठकों में प्रक्रिया के लिए समर्थन व्यक्त किया, उन्हें अपनी प्रतिष्ठा और जीवन के लिए खतरे के कारण सार्वजनिक रूप से इन्कार करना पड़ा। हालाँकि, गुरुदेव इस सब से निर्विवाद थे और सबकी जीत से  समाधान तक पहुँचने के लिए और आगे जाने के लिए तैयार थे। ऐसा समाधान जो दोनों समुदायों की संवेदनशीलता को समायोजित करता हो और यह सब संवाद से ही सम्भव था। जनता में कटु चर्चाओं के बावजूद, कई महीनों जो एक माहौल बन रहा था; उसको फरवरी, 2018 में तेज़ी मिली। भले लोगों ने खुले में बोलने में संकोच किया।

निजी रूप से अधिकांश हितधारकों ने विवाद का सौहार्दपूर्ण अंत और समाधान के लिए एकजुटता दिखाई। मध्यस्थता के माध्यम से निपटारे के लिए समर्थन जारी रहा। यह ज्ञात तथ्य है कि अधिकांश हिन्दू और मुस्लिम शान्तिपूर्ण समाधान चाहते थे। अगर विवादित पार्टियाँ बीच का रास्ता निकाल सकतीं, तो इससे पूरे देश को फायदा होता।

कोर्ट-निगरानी में मध्यस्थता

8 मार्च, 2019 को मध्यस्थता के एक विकल्प वाला सुझाव देने के दो सप्ताह बाद, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या मामले में शामिल पक्षों को एक गोपनीय, अदालत की निगरानी वाली मध्यस्थता प्रक्रिया में शामिल होने का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने गुरुदेव को आधिकारिक रूप से इस मामले में तीन मध्यस्थों में से एक के रूप में नियुक्त किया, जिनमें सर्वोच्च न्यायालय के जज एफएम कल्लीफुल्ला और वरिष्ठ अधिवक्ता श्रीराम पंचू भी थे।

अदालत की निगरानी वाली मध्यस्थता 13 मार्च, 2019 को शुरू हुई। मध्यस्थता पैनल ने कई सुनवाइयाँ कीं। पैनल के सदस्यों ने सामूहिक और व्यक्तिगत रूप से विवाद वाले पक्षों से मुलाकात की। इसके अलावा वे कई प्रभावितों, निर्णयकर्ताओं और समाज के प्रमुख सदस्यों और सभी समुदायों के नेताओं से भी मिले। अयोध्या मध्यस्थता समिति ने 18 जुलाई, 2019 को सर्वोच्च न्यायालय को अपनी पहली स्थिति रिपोर्ट सौंपी। अदालत ने समिति को एक निपटारे की दिशा में काम जारी रखने का निर्देश दिया। 31 जुलाई, 2019 को पैनल ने मध्यस्थता में हुई प्रगति पर अपनी दूसरी रिपोर्ट प्रस्तुत की। उस समय कुछ दल मध्यस्थता के पक्ष में नहीं थे और कार्यवाही रुक गयी थी। हालाँकि, 16 सितंबर, 2019 को सुन्नी वक्फ बोर्ड और निरवानी अखाड़ा के दो प्रमुख हितधारकों के अनुरोध पर, अदालत ने मध्यस्थता प्रक्रिया को फिर शुरू करने के लिए एक कदम आगे बढ़ाया। 16 अक्टूबर, 2019 को सुप्रीम कोर्ट के बनाये मध्यस्थता पैनल ने अपनी अंतिम रिपोर्ट शीर्ष अदालत में सीलबंद कवर में दािखल की। रिपोर्ट में हिन्दू और मुस्लिम पार्टियों के बीच समझौते का विवरण शामिल था।

लोगों के बीच समझ बढ़ाने और तनाव काम करने की दिशा में निश्चित ही प्रगति हुई है। अधिकांश हितधारक शान्ति और भाईचारे का संदेश भेजना चाहते हैं और  सामाजिक समरसता का ताना-बाना मज़बूत करना चाहते हैं। इस लंबे जुड़ाव के दौरान, गुरुदेव ने सभी पक्षों की जीत की स्थिति बनाकर समाज में शान्ति और सद्भाव बनाये रखने के एकमात्र उद्देश्य के साथ काम किया, जिसमें किसी भी समुदाय के मन में अन्याय होने की आशंका नहीं थी।

प्रेमविवाह और बच्चे के बाद अब कारोबार की चुनौती

जिस राजघराने के सदियों तक लगभग दुनिया भर में राज किया आज उसी परिवार के बच्चे राजशाही की शानो-शौकत, रीति-रिवाज से कहीं दूर अपना एक अलग घोंसला बना रहे हैं। यह राज परिवार हैं इंग्लैंड का। दुनिया में आज भी राजा और उनकी सल्तनत कई देशों में है। इन सबमें ज़्यादा पारम्परिक और ऐतिहासिक राजघराना इंग्लैंड का ही है।

इंग्लैंड के इस राजघराने में महारानी एलिजाबेथ अब नब्बे पार हैं। लेकिन वे आज भी बड़ी सजगता से परिवार और देश की चिन्ता में रहती हैं। उनके पुत्र प्रिंस चाल्र्स मशहूर मानवशास्त्री और जीव-जन्तुओं, पर्यावरण और पारिस्थितिकी के प्रेमी हैं। उन्होंने प्रेम विवाह किया था। उनकी पत्नी डायना की मृत्यु दुर्घटना में उससे उनके दो पुत्र हुए। एंड्रय और हैरी। हैरी को कनाडा में पली बढ़ी युवा अभिनेत्री मेगन मार्केल से 2016 में कभी इश्क हो गया और 14 मई, 2018 को विवाह हुआ। राजपरिवार की परम्पराओं, रीति-रिवाज़ों में इस नवदम्पति को असहजता महसूस हुई। हालाँकि विवाह के बाद ही हैरी को ड्यूक ऑफ ससेक्स और उनकी पत्नी को उचेस की पदवी, ज़मीन-ज़ायदाद, ज़िम्मेदारी मिली। उन्हें फिर भी राजमहल में रहना रास नहीं आया। इन्होंने अपना एक अलग ब्रांड ससेक्स रॉयल नाम से परिधान बनाने बेचने का सिलसिला जमाया। व्यवसाय चल गया। फिर भी अपने शिशु के साथ मेगन तो कनाडा लौट गयीं। अब पिं्रस हैरी भी जनवरी 2020 को कनाडा पहुँच गये हैं।

दरअसल लगातार चुनौतियों से वे मुकाबला कर रहे थे। इसलिए कोई और चारा ही नहीं बचा था। रविवार (19 जनवरी 2020) को उन्होंने अपने एक बयान मे कहा कि यह सब मैंने कभी हल्के में नहीं लिया। लेकिन इतने साल से लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। मुझे यह जानकारी है कि वह जो हुआ वह ठीक नहीं था, लेकिन हमारे पास कोई और राह नहीं थी। हम न तो भाग रहे हैं और न आप सबसे कहीं दूर ही जा रहे हैं।’

35 साल के राजकुँवर हैरी, वैनकूवर, कनाडा में पत्नी मेगन मार्केल और आठ महीने के शिशु के पास पहुँच गये। उन्हें जो भी राजकीय उपाधियाँ और सम्बन्धित ज़मीन-ज़ायदाद मिली थीं, वे सब राजघराने ने वापस ले लीं। अब हैरी और उनका परिवार एक साधारण युवा दम्पति के रूप में अपने व्यापार को सँभालेंगे। यह ज़रूर है कि पिता प्रिंस चाल्र्स की ओर से उन्हेें जो आर्थिक सहयोग मिलता था, वह जारी रहेगा। उन्होंने मीडिया का जानकारी दी थी कि एक ताकतवर हस्ती ही वह बड़ी वजह थी, जिसके कारण उन्हें दुनिया के सबसे मशहूर राजघराने की चमक-दमक से खुद को और अपने परिवार को अलग-थलग करना पड़ा था।

हैरी की पत्नी मेगन मार्केल न तो किसी राजपरिवार से जुड़ी हैं और न पूरी तौर पर गोरी चमड़ी की हैं। वे एक साधारण अश्वेत परिवार की सुन्दरी हैं, जो मनोरंजन की दुनिया में अभिनय से अपना नाम कमा रही थीं। एक बार 2016 मे किसी कार्यक्रम में प्रिंस हैरी की नज़रों में किसी के ज़रिये वे आयीं फिर प्यारा तो धीरे-धीरे परवान चढ़ता गया। प्रिंस हैरी ने उन्हें पूरा सम्मान दिया। बाकायदा राजकीय तरीके से उनका 13 मई, 2018 में विवाह हुआ। राजमहल में नवदम्पति खुशहाल ज़िन्दगी जीने लगे। लेकिन यह ठीक से नहीं चला।

यह बता पाना कठिन है कि नवदम्पति को क्या बुरा लगा; लेकिन अब वे इंग्लैंड से दूर, अमेरिका पार कनाडा के वैंकूवर में अपने बच्चे के साथ हैं। नये हौसले, हिम्मत और परिश्रम से अपनी नई ज़िन्दगी जीते हुए।

18वीं सदी के कम्यूनिस्ट विचारक और दार्शनिक कार्ल माक्र्स ने लिखा था कि पूँजीवाद एक दिन राजशाही की चूलें हिला देगा। वह सांभती सोच, जिसके चलते आदमी भावनात्मक तौर पर उनसे जुड़ा होता है, वह भी तब तार-तार हो जाएगा। वैश्विक बाज़ार के क्रान्तिकारी के आधार पर तब हर राष्ट्रीय संस्थान तौला जाएगा।

हालाँकि ब्रिटिश राजशाही देश की सामंती व्यवस्था में आज महज़ एक प्रतीक है। लेकिन इसमें महारानी विक्टोरिया के कार्यकाल में पँूजीवाद और रूढि़वादी बाज़ार को पलते-बढ़ते देखा था। बहरहाल, ब्रिटेन में अब न तो वह पूँजीवाद है और न राजशाही। ब्रिटिश जन समाज आज ज़रूर ताकत के वास्तविक केंद्र की तलाश में विभाजित दिखता है।

ससेक्स के ड्यूक और डचेस (हैरी और मेगन) का राजपरिवार छोडऩा निश्चय ही राजघराने के एडवर्ड अष्टम, राजकुमारी डायना और अभी हालत प्रिंस एंड्रयू की याद दिलाता है। अभी हुआ अलगाव भी शायद यही संकेत दे रहा है कि राजघराने से आज़ाद होकर युवा अब अपनी आमदनी बढ़ाने की कोशिश में बाहर निकले हैं। हैरी और मेगन का सपना छोटा सपना नहीं है। हैरी के पिता प्रिंस चाल्र्स आर्गेनिक आहार की बिक्री करते हैं और उससे हुए लाभ से अपने शौक मसलन जीव-जन्तुओं की देखभाल, पर्यावरण और पारिस्थितिकी के लिए बड़ी रकम खर्च करते हैं। हैरी और मेगन भी वैश्विक बाज़ार में अपने उत्पादों से काफी कामयाबी की उम्मीद कर रहे हैं। उनका यह प्रयोग सामंती नहीं है। यह 21वीं सदी का पूँजीवाद है, जहाँ आप सहयोगियों के साथ सीखते-बढ़ते और आगे निकलते हैं।

वैश्विक बाज़ार में कामयाबी की इच्छा से हैरी और मेगन कनाडा में हैं। इसके लिए उन्होंने राजकीय रीति-रिवाज़ छोड़े, जिससे सारी दुनिया में उनके ब्रांड का सिक्का जम सके। मेगन खुद अभिनेत्री रही हैं, तो लगता है ये हॉलिवुड की हस्तियों से भी सहयोग लें। दिसंबर में उन्होंने सूअेक्स रॉयल पेटेंट भी कराया था। इस ब्रांड में मोजों से लेकर रेडिमेड परिधान तक उपलब्ध होंगे। यही नहीं एक मीडिया हाउस भी उनका होगा, जिसके तहत बच्चों का चैनेल वगैरह होगा। डिज्नी से भी वे सम्पर्क में हैं। अपने ब्रांड की कामयाबी के लिए विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों से उनकी बातचीत जारी है। अब राजमहल में वापसी की सोचने की बजाय यह परिवार अपनी भावी योजनाओं को साकार करने में जुटा है। 21वीं सदी युवाओं का साल है और यह माना जा रहा है कि यह परिवार भी कामयाब होगा। चूँकि इनके पास पहलकदमी के लिए धन है और एक निश्चय है, इसलिए वैश्विक स्तर पर इनके ब्रांड के तहत आने वाले विभिन्न उत्पाद भी अपनी गुणवत्ता और आकर्षण के लिए सराहे जाएँगे।

कहानियों में आता है कि राजकुमार से मिली सुंदरी और दोनों ने बितायी ज़िन्दगी खुशहाली में, लेकिन अब बदलाव यह है कि दोनों को मिलकर जीवन भर करनी होती है मेहनत भी।

‘ये हवाएँ तो कुछ दिन की हैं…!’

देश में डर का माहौल है। जो हालात चल रहे हैं, उसमें विदेशों के मुस्लिम कलाकार यहाँ आने से डर रहे हैं। दूसरी आर्ट एंड कैलीग्राफी एग्जीबिशन में आने वाले 32 मुल्कों के कलाकारों में से 18 मुल्कों के कलाकारों ने ऐन मौके पर आना कैन्सिल कर दिया, जबकि उनकी टिकट और वीज़ा फाइनल हो चुके थे। इंटरनेशनल मीडिया में जाकर जो कुछ कहा गया है, उससे वे डर रहे हैं और कुछ अलग-अलग मुल्कों की एडवाजरी भी जारी हो गयी है। ऐसी स्थिति इस बात की गवाह है कि राजनीति कला पर कितनी भारी पड़ती है।’ ऐसा कहना है जयपुर की कोशिश फाउंडेशन के मकसूद अली खाँ का, जिन्होंने पिछले दिनों जवाहर कला केंद्र में दूसरी आर्ट एंड कैलीग्राफी प्रदर्शनों का आयोजन किया। प्रदर्शनी में भाग लेने वाले ज़्यादातर मुस्लिम कलाकारों ने देश के हालातों पर मलाल जताया; लेकिन वे हिन्दुस्तानी होने पर फख्र महसूस करते हैं।

दूसरी आर्ट एंड कैलीग्राफी प्रदर्शनी में जिन मुल्कों के कैलीग्राफरों ने हिस्सा लिया, उनमें तुर्की, अल्जीरिया, सीरिया, सूडान, ईरान, बांग्लादेश, सऊदी अरब, नेपाल आदि देशों के कलाकार शामिल थे। आयोजक मकसूद अली कहते हैं कि ऐसे माहौल में इस प्रदर्शनी का आयोजन करके एक-दूसरे को जोडऩे की कोशिश की गयी है। कैलीग्राफी एक लुप्तप्राय कला है। अब तो लोगों ने स्कूलों में लिखना बन्द कर दिया है; सुलेख की तो बात छोड़ो। उन्होंने कहा कि आम तौर पर ऐसा माना जाता है कि ये अरेबिक आर्ट है, पर ऐसा नहीं है। अंग्रेजी में भी कैलीग्राफी बहुत खूबसूरत होती है। अगर धार्मिक ग्रन्थों, पांडूलिपियों को देखें, यहाँ तक कि वेदों में भी एक तरह की कैलीग्राफी है। अब तो उर्दू में, देवनागरी में भी कैलीग्राफी शुरू हो गयी है। कला कैसे लोगों को आपस में जोड़ती है, इस सवाल पर खान कहते हैं कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान। पाकिस्तान वाले हिन्दुस्तानी िफल्मों के दीवाने हैं और हिन्दुस्तान वाले पाकिस्तानी टेलीविजन के वहाँ के गायकों के दीवाने हैं। उधर वाले कलाम यहाँ के पढ़ते हैं। जितने बड़े उस्ताद हैं, वो उतने मकबूल हिन्दुस्तान में और उतने ही पाकिस्तान में हैं। मज़े की बात तो यह है कि जहाँ उर्दू बोली नहीं जाती, समझी नहीं जाती, वहाँ भी जब हमारे कलाकार जाते हैं, तो उनकी बहुत तारीफ होती है, चाहे वो शायर हों या कव्वाल। सरहदें तो राजनीतिक होती हैं। कलाकार अपने को 100 फीसदी मानते हैं, क्या आप इस सवाल पर मकसूद अली नाराज़ हो जाते हैं। उनका कहना है कि मुस्लिमों के आने से पहले यह देश देश कहाँ या यहाँ तो रियासतें थी। इसको देश ही हमने बनाया। हिन्दुस्तान हमारा है, हमारे बाप का है और हम यहीं रहेंगे। ये हवाएँ कुछ दिन की हैं। कोशिश फाउंडेशन की ही तनवीर रज़ा कहती हैं कि हम शुरू से जयपुर में रहे हैं और यहीं रहेंगे। पाकिस्तान से कुछ लोगों को यहाँ लाने का फैसला गलत है। हिन्दुस्तान में पहले ही इतनी बेरोज़गारी है, पहले अपने लोगों के बारे में सोचना चाहिए। कश्मीर के मुद्दे पर तनवीर का कहना है कि हम दिल से चाहते हैं कश्मीर भारत को मिले, उसका विकास हो, लेकिन अमन के साथ। बशारत अहमद ने प्रदर्शनी में ड्राई फ्रूट का स्टॉल लगाया है। कश्मीर के हालात पर उसका कहना था कि (27 जनवरी से) तीन दिन पहले एसएमएस, प्रीपेड सर्विस शुरू हुई है, जबकि पोस्टपेड दो महीने से चल रहा है। इंटरनेट बन्द था। घर पे रोज़ बात होती है, तो हालात पता चलते रहते हैं। बशारत कश्मीर में धारा-370 हटने, उसके विकास का समर्थन करता है और कश्मीर को हिन्दुस्तान का हिस्सा मानता है। वह इस बात से खुश है कि कश्मीर के हालात ठीक हो जाने पर वह अपने घर से व्यापार कर सकेगा, उसको बाहर जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। बशारत ने बताया कि जयपुर में उसके साथ एम.ए., बीएड, पीएचडी युवक ड्राईफ्रूट बेच रहे हैं; कई मज़दूरी भी करते हैं। आज तक पिछली सरकारों ने कश्मीर के लिए क्या किया, इस सवाल पर उसका यही कहना था कि उन्होंने अपने घर भरे हैं, आम नागरिक के लिए कुछ नहीं किया। टोंक से आये कैलीग्राफर ज़फर रज़ा खान अपने को हिन्दुस्तानी कहलाने में फख्र महसूस करते हैं। यहीं पैदा हुए और यही बात है कि यहाँ हिन्दु-मुस्लिम, सिख, ईसाई सब साथ रहते हैं। कश्मीर को भारत का हिस्सा मानते हैं। उन्हें पाकिस्तान में रिश्तेदारी से मिलने जाना, तो भाता है। लेकिन वहाँ बसने को असम्भव मानते हैं। वहीं हरिशंकर वालोठिया हिन्दी, इंग्लिश, बंगला, गुजराती, गुरमुखी, उडिय़ा भाषाओं में कैलीग्राफी के उस्ताद है और अब तक 10 हज़ार विद्यार्थियों को यह कला सिखा चुके हैं। वर्तमान हालातों पर बात करते हुए वे कहते हैं कि नेताओं को तो अपनी रोटियाँ सेंकनी हैं; लेकिन जनता भी अज्ञानता में जा रही है। समझने की शक्ति खो रही है।

पेंसिल का कमाल है कैलीग्राफी

ड्राइंग, स्केचिंग, ग्राफिक्स डिजाइन आदि किसी भी काम के लिए शुरुआत कैलीग्राफी से ही होती है। कला का सारा काम अक्षर लेखन से शुरू होता है। इससे हैंडराइटिंग में सुधार होता है। हैदराबाद से आये मोहम्मद रफी को कला और कैलीग्राफी दोनों में महारत हासिल है। आर्टफॉर्म इन कैलीग्राफी एंड कैलीग्राफी इन आर्ट फॉर्म इन दोनों का बड़ा खूबसूरत मेल है और कैलीग्राफी प्राचीन कला है। अरब दोनों का बड़ा कुशल उस्ताद है और उन्हीें से हमने प्रेरणा ली है। जवाहर कला केंद्र की ही आर्ट गैलरी में जया जेटली द्वारा महात्मा गाँधी को श्रद्धांजलि देने के लिए, हाथों से निर्मित पेपर और कैलीग्राफी को प्रोमोट करने के लिए भी चित्र प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। जया जेटली के अनुसार भारत में कैलीग्राफी के कई नाम हैं, जैसे- सुलेखन, सुलिपि, खुशनफीसी, िफवाबत, सुलूस आदि-आदि। चित्रों में कलाकारों ने गाँधी जी के विचारों, शब्दों और कार्यों को अद्वितीय कैलीग्राफिक शैली में पेश किया गया।

सीएए और विरोधी संघर्ष का अर्थ

सीएए, एनपीआर और एनआरसी के बारे में हमें समझने की ज़रूरत है कि इसे किस रूप में इसे पेश किया जा रहा है? विशेषकर जेएनयू के अन्दर और दिल्ली चुनाव के चलते जनता को भ्रमित किये जाने की कोशिशें हुई हैं कि यह हिन्दू-मुसलमानों के बीच एक सवाल है। दूसरी बात, सरकार बताना चाह रही है कि जो हिन्दुस्तान के मुसलमानों को फिक्र करने की ज़रूरत ही क्या है? उनके लिए तो कुछ बात है नहीं। ऊपर से यह भी कहा जा रहा है कि तुम हमारे देश को कमज़ोर कर रहे हो। एक बात राजनीतिक पार्टियों के लिए कह रहे हैं तो दूसरी आन्दोलन को समर्थन करने वालों के लिए। यह सब केवल अपने वोट बैंक की राजनीति के लिए कर रहे हैं। आज ये तीन सवाल हमारे सामने हैं। क्या वे केवल हिन्दू-मुसलमानों का सवाल है? हमें गहराई में जाकर सोचने की ज़रूरत है। हमारा जो बेसिक वर्ग मज़दूर, किसान और महिलाएँ हैं, वो ज़मीन पर काम करते हैं और जिन पर असर हो सकता है। हकीकत यह है कि सीएए-एनपीआर की सच्चाई उन तक नहीं पहुँच पा रही है। इसीलिए हमारे वर्ग के अन्दर उनके लिए कितना बड़ा खतरा है। अगर ये बात हम नहीं पहुँचा पाएँगे तो हम प्रतिरोध की सभाओं के बावजूद नागरिक के रूप में अपना दायित्व  नहीं निभा पा रहे हैं।

वर्ग का मतलब आर्थिक वर्ग से है। जाति आधारित वर्ग की बात नहीं है। पूँजीवादी आर्थिक ढाँचे में जो शोषित वर्ग है उसमें सबसे गरीब ठेके पर काम कर रहे मज़दूर, कर्मचारी की बात है। उनके बीच हम कहाँ तक अपना संदेश लेकर जा रहे हैं। आज हमारे सामने यह सबसे बड़ा सवाल है। पर इसे समझना ज़रूरी है। दूसरी बात हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर छात्रों को निशाना बनाना। दिल्ली में विशेषकर जेएनयू को केन्द्रित करके कि जेएनयू राष्ट्रविरोधी केंद्र बता दिया। जेएनयू, एएमयू और जामिया मिल्लिया इस्लामिया इन तीनों उच्च शिक्षण संस्थानों के आधार पर कि ये सब समाजविरोधी हैं। इनको टुकड़े-टुकड़े गैंग बता डाला। तुर्रा यह कि ये देश को तोडऩा चाहते हैं और तमाम विरोधी पार्टी उनका पक्ष ले रही हैं।

सीएए विरोधी आन्दोलन और छात्र के अपने हितों के बचाव और पुलिस के दमन के िखलाफ आन्दोलन एक-दूसरे से जुड़ गये। जो जेएनयू में दिखा कि कैसे बाहर से नकाबपोश बाहरी गुंडे हिटलर की ब्राउसर्स की तरह घुसे थे, जिसका नारा था कि हमें पुलिस की ज़रूरत नहीं है। हम इलाके के लोगों को हथियार देकर कानून व्यवस्था कायम रखेंगे। इसके बाद पूरे देश भर में छात्रों का ज़बरदस्त प्रतिरोध हुआ। वह छात्रों का प्रतिरोध और सीएए विरोधी प्रतिरोध को मिला दिया और वे एक हो गये। सरकार की तरफ से उनके दो लक्ष्य थे। इसको साम्प्रदायिक रंग दो और दूसरे विश्वविद्यालय परिसरों में राष्ट्रविरोधी सवाल जो उठ रहे हैं, उसे कैसे दबाएँ।

अगर हम दूसरी तरफ देखें कि मई, 2019 में एक पार्टी और सरकार को दो-तिहाई से ज़्यादा बहुमत मिलता है और उसके छ: महीने के अन्दर-अन्दर एक पूरा विरोध, प्रतिरोध और एक स्वत: स्फूर्त आन्दोलन जिस रूप में विश्वविद्यालय परिसरों में आहूत हुआ और कई शहरों में फैला, यह बड़ा अवसर भी है, जिससे पता चलता है कि जनता में विरोध है। आर्थिक नीतियों के इस संदर्भ में भी इसे हमें देखना है। जो मंदी, हतोत्साह है, उसका गलत इस्तेमाल हमेशा दक्षिणपंथी ताकतों ने किया है। आज वह हतोत्साह छात्रों और नौजवानों द्वारा धर्मनिरपेक्ष, जनवादी नारों को लेकर आगे चल रहा है कि संविधान बचाओ।

क्या है सीएए नागरिकता संशोधन विधेयक? सीधे-सीधे संविधान पर हमला है। नागरिकता कानून 1955 में जो हमारे देश में बना था, उसमें पाँच आधारों पर नागरिकता हासिल करने की बात कही गयी थी- जन्म से, वंशानुगतता से, देसीकरण से, रजिस्ट्रेशन से और इलाके के विलय से। इसमें से किसी में भी धर्म का ज़िक्र नहीं है। यह नागरिकता ही हमारे संविधान में अपनायी गयी परिभाषा के अनुरूप है। हमारा संविधान नागरिकता हासिल करने के मामले में लोगों के बीच धार्मिक निष्ठा या जाति या वर्ग या लिंग के आधार पर कोई अन्तर या भेदभाव नहीं करता है।

सीएए में इसे बदल दिया गया है। यह किया गया है, धारा-1(बी) में अवैध अप्रवासियों से सम्बन्धित उस नागरिकता कानून का एक संशोधन के ज़रिये। इसमें ‘अवैध अप्रवासी’ (इल्लीगल माइग्रेंट) की संज्ञा वैसे तो 2003 में वाजपेयी सरकार के जमाने में ही जोड़ दी गई थी। फिर भी इससे जोडऩे के पीछे उस सरकार की मंशा साफ नज़र आने के बावजूद उस समय इन अवैध अप्रवासियों को धर्म के आधार पर परिभाषित नहीं किया गया था। मोदी सरकार ने अब यह काम भी कर दिया है। सीएए में धारा-1(बी) में संशोधन कर उसमें जोड़ दिया गया है- ‘अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान से हिन्दू, सिख, बौद्ध, पारसी या ईसाई समुदाय के किसी भी व्यक्ति को, जो 2014 के दिसंबर में या उससे पहले भारत में आया हो; अवैध अप्रवासी नहीं माना जाएगा।’

इस संशोधन के ज़रिये भारत के इतिहास में पहली बार धर्म को नागरिकता हासिल करने का आधार बना दिया गया है। मिसाल के तौर पर मान लीजिए कि भारत में दो ऐसे व्यक्ति रह रहे हैं, जिनके पास रिहाइश को साबित करने के लिए एक जैसे दस्तावेज़ हैं, पर अपने पूर्वजों के सम्बन्ध में सुबूत नहीं हैं। इस सूरत में जो गैर मुस्लिम को तो वैध मान लिया जाएगा। यह हमारे संविधान की धारा-14 पर ही हमला है, जो कि सबको समान होने का ऐलान करती है।

सीएए एक और पहलू से भेदभाव करने वाला है। उन तीन देशों के प्रवासियों को ही क्यों छाँटकर लिया गया है? श्रीलंका या म्यांमार से आये शरणर्थियों को क्यों नहीं लिया जा रहा है? और पाकिस्तान के अहमदिया समुदाय का क्या? वे भी तो अपने देश में खुद को उत्पीडि़त महसूस कर रहे हो सकते हैं? उन्हें क्यों इससे बाहर रखा जा रहा है? यह कानून छाँट-छाँटकर नागरिकता की छूट देता है और इसीलिए घातक है।

कानून में किये गये दूसरे संशोधन का सम्बन्ध, भारत की नागरिकता के लिए प्रार्थना करने की पात्रता के लिए आरत में रिहायश की आवश्यक अवधि से है। 1955 के मूल नागरिकता कानून की धारा 6.1 में इसे देसीकरण की प्रक्रिया के ज़रिये नागरिकता प्राप्त करना कहा गया है। देसीकरण के लिए पात्रता की शर्तों का और विवरण, इस कानून की शेड्यूल-3 में दिया गया है। इसमें कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जो पिछले 11 साल से भारत में रह रहा हो, देसीकरण के ज़रिये नागरिकता का पात्र होगा। इसमें धर्म का कोई ज़िक्र नहीं है। लेकिन, सीएए-2019 में धर्म के आधार पर उक्त तीनों देशों से मुसलमानों को छोड़कर अन्य सभी अप्रवासियों के लिए नागरिकता की पात्रता के लिए रिहायश की न्यूनतम अवधि, घटाकर पाँच साल कर दी गयी है। यह भी साफतौर से भेदभाव करने वाला है।

सीएए के ज़रिये किये गये इन संशोधनों से पहले 2015 के सितंबर में मोदी सरकार ने कानूनों में धार्मिक आधार वाली शब्दावली को जोड़ दिया था, जो अब सीएए के ज़रिये जोड़ी गयी है। इससे अंदाज़ा लगा सकते हैं सरकार काफी पहले से ही इसमें सेंध लगाने की फिराक में थी। नागरिकता पर 1955 में बने कानून पर कोई विवाद नहीं था। जब अटल सरकार, 2003 में बनी तो उसने एक शब्द जोड़ा गैर-कानूनी घुसपैठ। यह पहली बार हमारे कानून में आया। लेकिन 2003 में जब गैर-कानूनी घुसपैठिया जोड़ा गया, तब किसी धर्म का नाम नहीं था। अब 2019 में इस कानून को उन्होंने एक बार फिर संशोधन किया और कहा कि मुस्लिमों को छोड़कर बाकी गैर-कानूनी घुसपैठिये नहीं माने जाएँगे। इसके लिए तीन पड़ोसी देशों का नाम इस्तेमाल किया गया। पड़ोसी देश के नाम पर केवल तीन का नाम लिया। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान। तीसरा हिस्सा हैं- धर्म के नाम पर सताये हुए लोग, जो 2014 दिसंबर से पहले हिन्दुस्तान में आये हैं। उनको नागरिकता मिल जाएगी चाहे उनके पास दस्तावेज़ हों या न हों। यहभेदभाव क्यों? हम समझते हैं कि अगर कोई भी सताया हुआ है, अगर हिन्दुस्तान के लिए जब हमारा देश और उसके बाद पूरे इलाके में जहाँ-जहाँ हमारे लोग गये हैं और बसे हैं अगर वह सताये हुए हैं। अगर वह वापस आना चाहते हैं, तो एक नज़र से सबको देखना होगा। अगर आप धार्मिक या धर्म का नाम ले रहे हो, तो पाकिस्तान के अन्दर जो पाकिस्तानी मुसलमानों के अलग-अलग वर्ग हैं, जो मध्य प्रदेश, गुजरात और कुछ महाराष्ट्र से और कुछ जो वहाँ बसे थे। अगर पाकिस्तान का इतिहास उठाकर देखें, तो सबसे ज़्यादा सताये हुए अहमदिया हैं। लेकिन क्योंकि उनका सेक्ट मुसलमानों के अन्दर आता है, इसीलिए रहने अधिकार दिया। आज श्रीलंका से 90 हज़ार लोग हमारे देश में आये हैं। वहाँ तमिलों को भी उत्पीडि़त किया गया। फिर भी इसमें तमिल शामिल नहीं हैं। अगर बांग्लादेश में कट्टरपंथियों के िखलाफ जो सबसे बड़ा हमला हुआ है। जब पाकिस्तान और बांग्लादेश अलग हुए, तो वे धर्म के नाम पर नहीं हुए। वे बांग्ला पहचान के आधार पर अपनी संस्कृति-भाषा के लिए अलग हुए। बहुत से लोग तब भी हिन्दुस्तान आये। हिन्दू-मुस्लिम दोनों आये, जो बांग्लाभाषी थे। इनका आधार धर्म आधारित नहीं था। लेकिन नये प्रावधान में मुसलमान नहीं रह सकते। जबकि दोनों एक ही मुद्दे के चलते सताये हुए थे। केंद्र ने यह कानून लाकर हमारे देश की नागरिकता की परिभाषा बदल दी है। अभी तक कानून रहा है कि हिन्दुस्तान का नागरिक बनने के इच्छुक बाहरी लोगों के लिए बराबर के नियम रहे हैं। अब आगे धर्म के आधार पर नागरिकता का रास्ता तय होगा। मतलब सरकार समझाना चाहती है कि हिन्दू कभी बाहरी नहीं हो सकता है। चाहे वह बांग्लादेश में रह रहा हो या पाकिस्तान में। सरकार भले ही चिल्ला-चिल्लाकर कह रही है कि यह कानून विदेशियों के लिए है। लेकिन इसमें परिभाषा बदल दी गयी है। उसे धर्म के चश्मे से कैसे देख सकते हैं। हमारे संविधान का मूल आधार यह है कि नागरिकता चाहे बाहर के लोग लेना चाहते हैं या हमारे अपने जो जन्म, धर्म, धर्म, जाति, लिंग, भाषा के आधार पर कोई शर्त नहीं रखता। कुछ शर्तें हैं, तो सभी के लिए हैं। ये जो प्रोपेगेंडा है इनका कि आउटसाइडर का। यही आउटसाइडर ही तो कल इनसाइडर बनेंगे न! इसीलिए तो धर्म को जोड़ा है और विरोध के जड़ में वास्तव में मुसलमानों को टारगेट कर रहे हो। आप इसे कैसे तय करेंगे? इस पर कहा गया कि अभी मानदंड तय किये जा रहे हैं। कौन बता सकता है कि हम कब सताये हुए थे धर्म के नाम पर? कानून में लिखा है धार्मिक सबूत दो। क्या तुम वहाँ के थाने से लाओगे कि तुम धर्म के सताये हुए थे 1970 में। कानून का ये जो पूरा प्रसार है, वह कभी नहीं हो सकता है। फिर बोलेंगेतुम भारत का कोई भी दस्तावेज़ निकालो, जिसमें लिखा है कि तुम हिन्दू हो। वह कैसे दिखाएँगे। अगर कोई गैर-कानूनी ढंग से कोई दस्तावेज़ ले लिया है, तो 20 साल के गैर-कानूनी काम को कानूनी आधार बनाना चाहते हो। तो क्या वह कानून होगा? वो कैसे साबित करेंगे? जो हिन्दू है, उसके भी यह बात हवा में उड़ रही है। सीएए को समझने के लिए पूर्वोत्तर के राज्य को समझना होगा। विशेषकर बांग्लादेश युद्ध के बाद जब बहुत सारे रिफ्यूजी व हिन्दू-मुस्लिम आये। असम को लेकर उस समय कोई योजना भी नहीं बनी कि उसको हम कहाँ सेटल करेंगे। उनमें अधिकतर असम व पूर्वोत्तर में ही थे। वहाँ एक आन्दोलन शुरू हो गया कि जो असमी संस्कृति या बांग्लादेश से आकर हमारी जमीन और सब कुछ ले रहे हैं। इसीलिए ज़बरदस्त झगड़ा हुआ। मुजीबुर रहमान जो बांग्लादेश युद्ध के नेता थे, जिनकी बाद में हत्या हुई थी। उनका 1971-72 में एक समझौता हुआ और बाद में असम की सरकार ने हिन्दुस्तान सरकार से 1985 में एक समझौता किया। वह समझौता सिर्फ उस इलाके के लिए था। वह क्या था कि 1971 से पहले जो लोग आये उसे हिन्दुस्तान की नागरिकता दी जाएगी। उसमें धर्म कोई आधार नहीं था। अब ये सीएए इसमें भी रोड़ा बनने वाला है। लेकिन आसाम के लोग बोलेंगे हमारा समझौता तुमने कैसे तोड़ा? हमारा समझौता का कट ऑफ डेट 1971 है तुमने उसे 2014 बनाया। उन्होंने कहा चाहे हिन्दू-मुस्लिम हो हमारे लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। असम समझौता के आधार पर एनआरसी तय हुआ। वह सुप्रीम कोर्ट की हस्तक्षेप से वहाँ हुआ। सीएए के िखलाफ उत्तर-पूर्व का जो आन्दोलन चल रहा है और बाकी देश में जो सीएए के िखलाफ आन्दोलन चल रहा है, उसमें बुनियादी अन्तर है। असम के हर जाति, हर मज़हब के लोग इसके िखलाफ हैं।

आप अगर दूसरे देशों में देखें कि एनआरसी कैसे बनता है। वहाँ के पंजीकरण के आधार पर। जहाँ आपका पंजीकरण होता है, उसके आधार पर डिजिटाइज करके एनआरसी बनाते हैं। घर-घर जाकर आप एनआरसी कैसे बना सकते हो जिस देश के अन्दर लाखों करोड़ों लोग माइनर है। लाखों लोगों के घर ही नहीं है। असम के लोगों का एनआरसी बनाने का अनुभव क्या है? वह समझना है। उन्होंने कहा कि सबूत देने की ज़िम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है। उसके लिए तुम्हें दस्तावेज़ दिखाना है। उन्होंने कुछ तय किये थे। आप सब जानते हैं, जिस प्रदेश में हर साल बाढ़ आता है। लाखों लोग बच्चों को लेकर भागते हैं वे बच्चों को बचाएँगे या दस्तावेज़ बचाएँगे। कोई दस्तावेज़ नहीं थे। 19 लाख लोग हिन्दुस्तान के नागरिक नहीं हैं, जिसमें से 13 और 14 लाख लोग हिन्दू हैं। कुछ नेपाल के कुछ यूपी कुछ कहीं के और कुछ आदिवासी हैं। गरीबों के पास दस्तावेज़ नहीं हैं। इसीलिए उत्तर-पूर्व को अलग रखा जाए।

एनआरसी का पहला कदम इलाके में जाकर एक पापुलेशन का रजिस्टर बनाना है। एक इलाके आधारित आबादी का रजिस्टर बनाएँगे। वह जो इलाके का रजिस्टर बनेगा उसका नाम है पापुलेशन रजिस्टर और उसका नाम होगा नेशनल पापुलेशन रजिस्टर और उस नेशनल रजिस्टर के आधार पर वह नेशनल रजिस्टर ऑफ सीटीजन बनेगा। ये दोनों चीज़ें लिप्त हैं। इन दोनों को आपको सीएए के साथ देखना पड़ेगा, इसीलिए यह त्रिशूल का काम कर रहा है। अभी वह बोल रहे हैं हम एनआरसी नहीं करेंगे। लेकिन राजनाथ सिंह ने कहा क्यों नहीं एनआरसी करेंगे? सवाल यह है कि सब देश में क्या एनआरसी नहीं है? लोग प्रचार कर रहे हैं कि एनआरसी कांग्रेस ने भी लागू किया था। कांग्रेस ने 2010 तक किया। कांग्रेस के समय में जो एनपीआर की प्रक्रिया थी उसमें 15 सवाल नहीं थे। उसमें 6 और अलग सवाल जोड़कर 15 से 21 कर दिये हैं। उसमें जोड़ा है- माता-पिता का जन्म स्थान और जन्म तिथि क्या है? आधार कार्ड वगैरह। जो 19 लाख लोग जबाब नहीं दे पाये, असम में जब उनसे पूछा गया कि तुम कहते हो तुम्हारे बाप की जगह। बंगाल में जन्मे, तो उसकी प्रमाण-पत्र लाओ। किसके पास वह प्रमाणपत्र है? हमारे पास अपने जन्म का प्रमाण-पत्र नहीं है। हम अपना नाम लिखकर या एफिडेविट बनाकर दस्तावेज़ बनवा लेते हैं। लेकिन आपको जाकर दस्तावेज़ निकालना पड़ेगा। अब उस गाँव में उस समय कोई पंचायत थी क्या? कोई रजिस्टर है? जहाँ आपकी माँ का नाम लिखा हो? आप क्या दिखाएँगे? लेकिन नहीं दिखा सकते, तो इस कसरत का क्या अर्थ है? इतना झूठ कि कभी कहते हैं एनआरसी नहीं बना रहे हैं, कभी कहते हैं बना रहे हैं। प्रचार कर रहे हैं। एक नोटिफिकेशन निकाल लिया है कि 01 अप्रैल से लेकर 30 सितंबर तक एनपीआर में जो 21 सवाल हैं, वो अलग-अलग प्रदेशों में प्रदेश सरकार के आधार पर किसी भी समय शुरू हो जाएगा। अप्रैल से सितंबर के बीच राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किया हुआ अधिकारी हमारे घर पर आकर ये सब सवाल पूछेगा। उस सरकारी अधिकारी को कितनी ताकत है। आप जानते हैं कि राशन कार्ड बनाना है, तो वे कहते हैं कि इसका नाम कट जाएगा, नहीं तो पैसे दो। घर आने पर आपका रहन-सहन उसे पसन्द नहीं आया, आपकी शक्ल पसन्द नहीं आयी, आपका धर्म पसन्द नहीं आया। तो आपके नाम पर काला धब्बा लगा देगा। ये हिन्दुस्तान के गरीबों को परेशान करने के अलावा कुछ है नहीं। उसके पीछे है- साम्प्रदायिक मसौदा। केरल, पंजाब, राजस्थान, बंगाल सरकारों ने सीएए वापस करने को कहा है। केरल सरकार ने केंद्र को बता दिया कि सेंसेस हम करेंगे, लेकिन एनपीआर नहीं करेंगे। इसके बाद पंजाब, राजस्थान ने भी यही कहा। सिर्फ ममता बनर्जी ने नहीं कहा। महाराष्ट्र सरकार ने भी किया है। चाहे लाख अमित शाह खड़े होकर चिल्लाएँ कि हम एक इंच पीछे नहीं हटेंगे। मगर देश का संविधान ने तुम्हें मजबूर किया है, तुम्हें पीछे हटना ही पड़ेगा।

ई-कॉमर्स ने तबाह कर दिये पारम्परिक खुदरा स्टोर

भारत के प्रतिस्पर्धा आयोग की तरफ से 9 जनवरी, 2020 को भारत में ई-कॉमर्स पर बाज़ार अध्ययन विषय पर जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि ई-कॉमर्स ने मूल्य पारदर्शिता और प्रतिस्पर्धा में वृद्धि की है। हालाँकि, कड़ुवा सच यह है कि ई-कॉमर्स की वृद्धि आम स्टोर्स के लिए मौत की घंटी की तरह है। सच क्या है? हम पता लगाने की कोशिश करते हैं। 7 जनवरी, 2020 तक ई-कॉमर्स की दिग्गज कम्पनी अमेजन ने 796.78 बिलियन डॉलर का बाज़ार पूँजीकरण किया और पहली बार इसने मार्केट कैप का िखताब हासिल किया। अमेज़न ने पारम्परिक खुदरा स्टोर की दिग्गज कम्पनी वाल-मार्ट को पीछे छोड़ दिया है; जिसका 8 जनवरी, 2020 तक 330 बिलियन डॉलर का मार्केट कैप मूल्य था। जबकि ई-कॉमर्स ने रिटेल स्टोर पर कब्ज़ा कर लिया है। यह जानना दिलचस्प है कि कई अन्य व्यवसायों की तरह, ई-कॉमर्स ने भी डायरेक्ट सेलिंग को प्रभावित किया है।

डायरेक्ट सेलिंग का सरल शब्दों में अर्थ है, माल की मार्केटिंग, वितरण और बिक्री या डायरेक्ट सेलर्स के नेटवर्क के हिस्से के रूप में सेवाएँ प्रदान करना। विभिन्न डायरेक्ट सेलिंग कम्पनियों से जुड़े लोगों की वृद्धि उत्पाद, गुणवत्ता के साथ-साथ उत्पादों की बिक्री में व्यक्तिगत व्यवहार, जो उन्होंने एक सम्भावित उपभोक्ता के सामने प्रदर्शित किया है और उसे या उसे बनाये रखा है; पर निर्भर करती है। इंडियन डायरेक्ट सेलिंग एसोसिएशन की चेयरपर्सन रिनी सान्याल कहती हैं कि ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर डायरेक्ट सेलिंग इंडस्ट्री अपने उत्पादों की अनधिकृत बिक्री की समस्या का सामना कर रही है। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ब्रांड के मालिक (डायरेक्ट सेलिंग एंटिटी) कानून के अनुसार ज़िम्मेदार बने रहते हैं, उन्हें अनधिकृत ई-कॉमर्स की बिक्री को रोकने के लिए विभिन्न रणनीतियों को अपनाना पड़ा है। डायरेक्ट सेलर से एक उपभोक्ता को जो उत्पाद-अनुभव मिलता है, वह पोर्टल से खरीद पर नहीं मिल पाता है। यही नहीं, यह डायरेक्ट सेलर्स (भारत में 5 मिलियन से ज़्यादा) के आय अवसरों को कम करता है, जो ग्राहक आधार बनाने के लिए कड़ी मेहनत और समय लगाते हैं। ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर डायरेक्ट सेलिंग उत्पादों की उपलब्धता डायरेक्ट सेलर्स के लिए विनाशकारी हो सकती है; खासकर उनके लिए जो छोटे उद्यमी हैं।

उन्होंने कहा कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने 8 जुलाई, 2019 के फैसले में कहा कि  ई-कॉमर्स पोर्टल उपभोक्ता मंत्रालय के जारी डायरेक्ट सेलिंग दिशानिर्देशों का पालन  करने के लिए बाध्य हैं, जिससे वे सीधे विक्रय संस्थाओं की सहमति के बिना अपने प्लेटफॉर्म पर ऐसी बिक्री की अनुमति दे सकते हैं। यह आदेश भले डायरेक्ट सेलिंग के लिए एक अंतरिम राहत लेकर आया है, कई ई-कॉमर्स खिलाड़ी अभी भी इन उत्पादों को बेचना जारी रखे हुए हैं।

ज़ाहिर है, अदालतों की तरफ से कोई अंतिम फैसला ही इस मामले को तय करेगा। भारत उद्योग उद्योग मंडल का मानना है कि अमेजन जैसी ई-कॉमर्स कम्पनियों को प्रतिवर्ष करीब 3000 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है; लेकिन पारम्परिक व्यापार को नष्ट करने के लिए वे बड़े पैमाने पर धन झोंक रहे हैं। भारतीय उद्योग व्यापार मंडल के महासचिव विजय प्रकाश जैन ने कहा कि बड़ी ई-कॉमर्स कम्पनियों के पास बड़ा प्रभावशाली नेटवर्क है और अपने प्लेटफॉर्म का उपयोग कर उपभोक्ताओं को ऑनलाइन खरीद प्रणाली का उसने आदी बना दिया है।

अब ऑनलाइन कम्पनियाँ खाद्य उत्पादों की बिक्री कर रही हैं और इस प्रकार स्थानीय व्यापार को समाप्त कर रही हैं। यह और भी चौंकाने वाली बात है कि कोरसाइट रिसर्च ने भविष्यवाणी की है कि जो आम स्टोर बन्द हो रहे हैं; साल के अन्त तक उनकी संख्या 12,000 तक पहुँच सकती है। निवेश बैंक यूबीएस का कहना है कि 2026 तक 75,000 स्टोर बन्द हो सकते हैं। टॉप ब्रांड जैसे फॉरएवर 21, वाल्ग्रेन्स, ड्रेसबर्न, गेमटॉप, गैप और अन्य चेन पहले ही 8,500 से अधिक स्टोर बन्द होने की घोषणा कर चुके हैं। इंडिया ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन के अनुसार, ई-कॉमर्स ने भारत में व्यापार करने के तरीके को बदल दिया है। साल 2017 तक 38.5 बिलियन डॉलर वाला भारतीय ई-कॉमर्स बाज़ार 2026 तक 200 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँचाने की सम्भावना है। इंटरनेट और स्मार्टफोन की पहुँच बढऩे से इस उद्योग की बहुत वृद्धि हुई है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि देश में चल रहे डिजिटल परिवर्तन के दिसंबर, 2018 तक भारत के कुल इंटरनेट उपयोगकर्ता आधार को 2021 तक 829 मिलियन तक बढ़ाने की उम्मीद है। अप्रैल, 2017 तक भारत की 125 बिलियन डॉलर की इंटरनेट अर्थ-व्यवस्था दोगुनी होकर 2020 तक 250 बिलियन डॉलर हो जाएगी। भारत का 2017 का ई-कॉमर्स राजस्व 39 बिलियन अमेरिकी डॉलर था, जो बढ़कर 2020 में 120 बिलियन अमरीकी डॉलर तक पहुँचने की उम्मीद है। यह सालाना 51 फीसदी की दर से बढ़ रहा है और दुनिया में सबसे अधिक है।

बिजनेस इनसाइडर के एक विश्लेषण के अनुसार, हम इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि खुदरा विक्रेताओं ने इस साल अब तक 4,300 से अधिक स्टोर बन्द करने की घोषणा की है। जीएपी, जेसी पेनी और विक्टोरियाज सीक्रेट जैसे बड़े स्टोर ने एक सप्ताह में 24 घंटे के भीतर 300 से अधिक स्टोर बन्द करने की घोषणा की। पैलेस ने कहा है कि वह अपने 2,500 स्टोरों को बन्द करने की योजना बना रहा है, जो इतिहास में सबसे बड़ा फैसला हो सकता है। स्मार्टफोन की बढ़ती पैठ, 4जी नेटवर्क की लॉन्चिंग और बढ़ती उपभोक्ता सम्पदा से प्रेरित होकर, भारतीय ई-कॉमर्स बाज़ार के 2026 तक यूएस डॉलर 200 बिलियन तक बढऩे की उम्मीद है, जो 2017 में 38.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। फ्लिपकार्ट, अमेजन इंडिया और पेटीएम मॉल की अगुवाई में भारत में ऑनलाइन खुदरा बिक्री बड़े पैमाने पर बढऩे की उम्मीद है। दरअसल, भारत सरकार का ध्यान डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, स्टार्ट-अप इंडिया, स्किल इंडिया और इनोवेशन फंड जैसी विभिन्न पहलों पर रहा है। इस तरह के कार्यक्रमों का समय पर और प्रभावी कार्यान्वयन देश में ई-कॉमर्स के विकास का समर्थन करेगा। भारत में ई-कॉमर्स क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा कुछ प्रमुख पहल की गई हैं। ई-कॉमर्स क्षेत्र में विदेशी खिलाडिय़ों की भागीदारी बढ़ाने के लिए, भारत सरकार ने ई-कॉमर्स मार्केटप्लेस मॉडल में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) की सीमा को 100 प्रतिशत (बी 2 बी मॉडल में) तक बढ़ा दिया है। 5जी के लिए फाइबर नेटवर्क को चालू करने में भारत सरकार के भारी निवेश से भारत में ईकॉमर्स को बढ़ावा देने में मदद मिलेगी। साल 2018-19 के केंद्रीय बजट में, सरकार ने 150,000 ग्राम पंचायतों को ब्रॉडबैंड सेवाएँ प्रदान करने के लिए भारतनेट परियोजना को 8,000 करोड़ रुपये (1.24 बिलियन डॉलर) आवंटित किये।

ई-कॉमर्स ने रिटेल स्टोर्स को जो नुकसान पहुँचाया है, वह भारत के लिए एक सबक हो सकता है। भारत में 2019 में एक चेन ने दिवालियापन के लिए दायर की अर्जी में कहा कि उसकी अपने सभी 2,500 स्टोर बन्द करने की योजना है। इतिहास में यह सबसे बड़ा खुदरा परिसमापन हो सकता है। जिम्बोरी ग्रुप ने जनवरी में अध्याय 11 दिवाला संरक्षण के लिए दायर किया और कहा कि उसने अपने इस ग्रुप और क्रेजी 8 बैनर के तहत 800 से अधिक स्टोर बन्द करने की योजना बनायी है। जिम्बोरी ने इस प्रक्रिया में लगभग 400 स्टोर बन्द कर दिये। शॉपको ने भी पिछले साल दिवालिया होने की अर्जी दी थी और कहा था कि वह 251 स्टोर्स को बन्द कर देगी। यहाँ तक कि लोकप्रिय और ट्रेंडी टारगेट भी खुद को पैसे खोने वाले स्टोरों के साथ खड़ा पाता है।

फेडरेशन ऑफ सदर बाज़ार ट्रेडर्स एसो. के राकेश कुमार यादव ने कहा कि हमारा कारोबार प्रभावित हुआ है और कारोबार में गिरावट आयी है। सरकार शायद सो रही थी। ऑनलाइन कम्पनियाँ सस्ते दामों पर ग्राहकों को लुभाने के लिए नकली उत्पाद भी बेच रही थीं। सरकार कब उठेगी और भारत में गरीब खुदरा विक्रेताओं के बचाव में आएगी? भारत में, डिजिटल इंडिया आन्दोलन के तहत, सरकार ने कई पहलें शुरू कीं, जैसे- उदान, उमंग, स्टार्ट-अप इंडिया पोर्टल आदि। प्रोजेक्ट इंटरनेट साथी के तहत सरकार ने 16 मिलियन महिलाओं तक पहुँच बनायी है और 1,66,000 गाँवों तक पहुँचा है। उदयन, एक बी, 2 बी ऑनलाइन व्यापार मंच है, जो छोटे और मध्यम आकार के निर्माताओं और थोक विक्रेताओं को ऑनलाइन खुदरा विक्रेताओं से जोड़ता है और उन्हें रसद, भुगतान और प्रौद्योगिकी सहायता भी प्रदान करता है। भारत के 80 से अधिक शहरों में इसके विक्रेता हैं। सरकार ने डिजिटल भुगतान के लिए एक सरल मोबाइल-आधारित प्लेटफॉर्म भारत इंटरफेस फॉर मनी (भीम) की शुरुआत की है। भारतीय ई-कॉमर्स उद्योग की वृद्धि दर अनुमान के मुताबिक रही है और उम्मीद है कि यह 2034 तक दुनिया में अमेरिका के बाद दूसरा सबसे बड़ा ई-कॉमर्स बाज़ार बन जाएगा।  सीसीआई अध्ययन कहता है कि ऑनलाइन प्लेटफॉर्म की खोज और तुलना कार्यात्मकताओं ने उपभोक्ताओं को व्यापार के लिए चुनने के लिए विकृपों की एक विस्तृत श्रृंखला प्रदान की है और ई-कॉमर्स ने अभिनव व्यापार मॉडल का समर्थन करके बाज़ार की भागीदारी का विस्तार करने में मदद की है।