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जो बाइडेन अमेरिकी राष्ट्रपति पद की रेस से बाहर , कमला हैरिस को दिया समर्थन

वाशिंगटन : अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने राष्ट्रपति पद की रेस से खुद के हटने का ऐलान कर दिया है। पिछले महीने रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप के साथ हुई एक बहस में खराब प्रदर्शन के बाद से ही आशंका जताई जा रही थी कि बाइडेन राष्ट्रपति की होड़ से बाहर हो सकते हैं। राष्ट्रपति जो बाइडेन ने रविवार को एक सोशल मीडिया पोस्ट में कहा कि वह डोनाल्ड ट्रम्प के खिलाफ चुनाव अभियान से हट रहे हैं। उन्होंने कहा कि देश व डेमोक्रेटिक पार्टी के सर्वोत्तम हित में मैं यह फैसला कर रहा हूं।

81 वर्षीय बाइडेन ने उपराष्ट्रपति कमला हैरिस को उनकी जगह डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से उम्मीदवार नामांकित करने का समर्थन किया। उन्होंने कहा, “मैं कमला को हमारी पार्टी का उम्मीदवार बनाने के लिए अपना पूरा समर्थन देता हूं। डेमोक्रेट को अब एक साथ आकर डोनाल्ड ट्रम्प को हराने का समय आ गया है।”

अगर अगस्त में होने वाले कन्वेंशन में कमला हैरिस को डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से नामांकित किया जाता है, तो वह व्हाइट हाउस के लिए नामांकन हासिल करने वाली पहली अफ्रीकी-अमेरिकी महिला और पहली भारतीय-अमेरिकी बन जाएंगी।

राष्ट्रपति जो बाइडेन ने देशवासियों को संबोधित एक पत्र में लिखा, “पिछले साढ़े तीन वर्षों में, हमने एक राष्ट्र के रूप में बहुत प्रगति की है। आज, अमेरिका दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था है। हमने अपने राष्ट्र के पुनर्निर्माण, वरिष्ठ नागरिकों के लिए दवा की लागत कम करने और रिकॉर्ड संख्या में अमेरिकियों के लिए सस्ती स्वास्थ्य सेवा का विस्तार करने में रिकॉर्ड खर्च किया है। हमने 30 वर्षों में पहला बंदूक सुरक्षा कानून पारित किया।

“सुप्रीम कोर्ट में पहली अफ्रीकी-अमेरिकी महिला को नियुक्त किया और दुनिया के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण जलवायु कानून पारित किया। मुझे पता है कि आप अमेरिकी लोगों के बिना यह सब संभव नहीं हो पाता। हमने साथ मिलकर सदी में एक बार आने वाली महामारी और महामंदी के बाद के सबसे बुरे आर्थिक संकट पर विजय प्राप्त की है। हमने अपने लोकतंत्र की रक्षा की है और उसे बनाए रखा और दुनिया भर में अपने गठबंधनों को पुनर्जीवित और मजबूत किया है।”

बाइडेन ने कहा, “आपके राष्ट्रपति के रूप में सेवा करना मेरे जीवन का सबसे बड़ा सम्मान रहा है। मेरा इरादा फिर से चुनाव लड़ने का रहा है, लेकिन अब मेरा मानना ​​है कि मेरे लिए यह मेरी पार्टी और देश के सर्वोत्तम हित में है कि मैं इस होड़ से बाहर हो जाऊं और अपने शेष कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति के रूप में अपने कर्तव्यों को पूरा करने पर ध्यान केंद्रित करूं।

अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा,”मैं उन सभी के प्रति अपनी गहरी कृतज्ञता व्यक्त करता हूं, जिन्होंने मुझे फिर से निर्वाचित होते देखने के लिए इतनी मेहनत की है। मैं इस काम में असाधारण भागीदार होने के लिए उपराष्ट्रपति कमला हैरिस को धन्यवाद देना चाहता हूं और मैं अमेरिकी लोगों का आभार जताता हूं, जिन्होंने मुझ पर विश्वास और भरोसा जताया।”

गौरतलब है कि इस साल नवंबर में अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होगा। चुनाव में जीत हासिल करने वाले को अगले साल 20 जनवरी को राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाई जाएगी। अमेरिका में मुख्य रूप से रिपब्लिकन व डेमोक्रेटिक पार्टियां ही राष्ट्रपति पद की दौड़ में शामिल होती हैं।

संसद में हंगामा : शिक्षा मंत्री बोले- पेपर लीक को लेकर कोई सबूत नहीं, राहुल ने कहा-गड़बड़ी हुई है

नई दिल्ली  : मानसून सत्र आज से शुरू हो गया। लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान नीट में हुई गड़बड़ी पर बोल रहे थे। इस दौरान विपक्ष ने हंगामा किया और उनके इस्तीफे की मांग की। जबाव में शिक्षा मंत्री ने कहा, मामला सुप्रीम कोर्ट में है और कोर्ट का जो भी निर्देश होगा हम उसे मानेंगे। कोर्ट ने सभी छात्रों के सिटी और सेंटर वाइज रिजल्ट जारी करने को कहा था, जो पब्लिक डोमेन में है।शिक्षा मंत्री ने कहा कि पिछले 7 साल में एक भी पेपर लीक का सबूत नहीं हैं। हां कुछ जगहों पर गड़बड़ी हुई है। उन्होंने कहा कि सरकार इस मामले में कुछ नहीं छिपा रही।

 नीट पेपर लीक मामले पर राहुल गांधी ने लोकसभा में कहा कि पेपर लीक एक गंभीर मुद्दा है। परीक्षा व्यवस्था में बड़ी गड़बड़ी हुई है। शिक्षा मंत्री समस्या को नहीं समझ पा रहे हैं। पैसा हो तो आप कोई भी सीट ले सकते हैं। राहुल गांधी के बयान पर धर्मेंद्र प्रधान ने पलटवार किया है। उन्होंने कहा है कि राहुल गांधी का बयान दुर्भाग्यपूर्ण है। उनसे मुझे सर्टिफिकेट लेने की जरूरत नहीं है। मुझे जनता ने चुनकर भेजा है। रिमोट से सरकार चलाने वाले बयान दे रहे हैं। परीक्षा व्यवस्था पर सवाल नहीं होने चाहिए. सिस्टम सुधारने के लिए सुझाव दें। वहीं नीट पेपर लीक के मुद्दे पर सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा कि सरकार पेपर लीक का रिकॉर्ड बनाएगी। जांच के बाद लोग जेल भेजे जा रहे हैं।

आँखों की रोशनी छीन रहा मोबाइल

– लगातार मोबाइल देखने वाले बच्चों और बड़ों तक की नज़र हो रही कमज़ोर

आजकल क़रीब 60 फ़ीसदी लोग अपने मोबाइल फोन में वीडियो देखने में ज़्यादातर समय निकाल देते हैं। बच्चों से लेकर बड़ों तक में यह आदत पड़ चुकी है। समझदार-से-समझदार लोगों को घंटों-घंटो मोबाइल से चिपके हुए देखा जाता है। घर हो या ऑफिस अपने काम को भूलकर ज़्यादातर लोग मोबाइल में लग जाते हैं और शॉर्ट वीडियो देखते-देखते उन्हें पता ही नहीं चलता कि उनका कई घंटे का क़ीमती समय किस तरह ख़राब चला गया?

मनोचिकित्सक कहते हैं कि यह मानव-प्रकृति है कि वह अपनी मुसीबतों भरी लाइफ में इंटरटेनमेंट चाहता है, जिसके चलते वह दूसरों की लाइफ में झाँकने के साथ-साथ फ़िल्में या वीडियो देखना पसंद करता है। यह एक आदत है, जो कई नुक़सान पहुँचाती है। इसमें दर्शक वीडियो बनाने वाले दूसरे व्यक्ति के प्रभाव में आ जाते हैं, भले ही वह वीडियो के ज़रिये उनके सामने अभिनय कर रहा हो। लेकिन इससे उन पर कई बार इतना प्रभाव तक पड़ता है, जिससे वे उसी अभिनय करने वालों की नक़ल तक करने लगते हैं। ऐसे भी मामले सामने आते रहे हैं, जब लोगों ने अभिनय करने वालों के प्रभाव में आकर ग़लत क़दम उठाये हैं या आत्महत्या कर ली है। लेकिन अब मोबाइल देखने वालों में एक नयी समस्या पैदा हो गयी है, जिसे ग्लूकोमा कहते हैं। इस समस्या के चलते लोगों में अंधेपन के ख़तरे बढ़ने लगे हैं। मोबाइल की स्क्रीन से निकलने वाली रंग-बिरंगी रोशनी, ख़ासकर नीली रोशनी के कारण इस बीमारी के ख़तरे बढ़ रहे हैं।

एक अध्ययन के मुताबिक, मोबाइल की वजह से तक़रीबन 40 फ़ीसदी बच्चों की आँखों की दृश्यता कम हो चुकी है। वहीं क़रीब 50 फ़ीसदी बड़ों की आँखें भी मोबाइल देखने से कमज़ोर हुई हैं। ऐसे मरीज़ों की आँखों में जलन, पानी बहना, आँखों में भारीपन रहना आम बात हो चुकी है। मोबाइल देखने से आँखों को सबसे ज़्यादा नुक़सान रात को होता है। क्योंकि ज़्यादातर लोग रात में मोबाइल की फुल स्क्रीन लाइट करके वीडियो देखते हैं। अँधेरे में मोबाइल देखना सबसे घातक है। अध्ययन में पाया गया है कि शहरों में ही नहीं, बल्कि गाँवों में भी लोग रात को खाना खाने के बाद देर रात तक मोबाइल देखने लगे हैं। फरवरी, 2023 में हैदराबाद की एक महिला मोबाइल देखते-देखते अचानक अंधी हो गयी थी। बताया जाता है कि महिला रात के अँधेरे में मोबाइल देख रही थी।

जनरल फिजिशियन डॉक्टर मनीष कुमार कहते हैं कि देश के ज़्यादातर लोगों, ख़ासकर बच्चों को मोबाइल फोन में वीडियो देखने की आदत हो चुकी है, जिसके चलते सिर्फ़ उनके समय और काम का नुक़सान ही नहीं हो रहा है, बल्कि उनकी आँखों की रोशनी भी जा रही है। मोबाइल देखते रहने के चलते बच्चों से लेकर बड़े तक चिड़चिड़े, ग़ुस्सैल और मनमौज़ी होते जा रहे हैं। रिश्तों से कटते जा रहे हैं और बाहरी दूर बैठे अनजान लोगों के साथ बिना किसी वजह के ही जुड़ रहे हैं, जिसके चलते साइबर क्राइम भी बढ़ रहा है। मोबाइल देखने के अलावा ज़्यादातर लोग कानों में हेडफोन लगाकर फुल आवाज़ में ऑडियो-वीडियो सुनते हैं, जिससे कई लोगों में बहरेपन या ऊँचा सुनने की शिकायतें भी आ रही हैं। दिक़्क़त ये है कि आँखों और कानों में समस्या शुरू होने पर भी लोग मोबाइल नहीं छोड़ते हैं और न ही डॉक्टरों को दिखाते हैं।

बाल रोग विशेषज्ञ डॉक्टर आनंद कहते हैं कि बच्चों को मोबाइल देने के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार माँ-बाप ही हैं। बच्चों के साथ सबसे ज़्यादा समय उनकी माँएँ रहती हैं, इसलिए इसमें उनका सबसे ज़्यादा भूमिका है। वो बच्चों को रोने से चुप कराने और ख़ुद को बच्चों पर ज़्यादा ध्यान देने से बचने के लिए उन्हें मोबाइल थमा देती हैं और बाद में बच्चे मोबाइल को छोड़ना नहीं चाहते। इससे बच्चों को कई तरह के बड़े नुक़सान हो रहे हैं, जो शुरू में किसी भी माँ-बाप को नज़र नहीं आते और बाद में उनका कोई इलाज नहीं होता। ऐसे भी पैरेंट्स हमारे पास आते हैं, जो यह कहते हैं कि उनका बच्चा खाना नहीं खाना चाहता, पढ़ने और खेलने में भी उसका कोई इंट्रेस्ट नहीं है। जबकि बच्चों के विकास के लिए उनका खेलना, घूमना और ठीक से भोजन करना बहुत ज़रूरी होता है। इस तरह से ज़्यादातर माँ-बाप अपने बच्चों के आज ख़ुद ही दुश्मन बन बैठे हैं।

महिला एवं बाल रोग विशेषज्ञ डॉक्टर विकास कहते हैं कि आजकल कई माताएँ ख़ुद इतना मोबाइल देखने लगी हैं कि वे गर्भ से हों, तो भी मोबाइल के साथ ज़्यादा समय बिताती है। इससे न सिर्फ़ उन्हें कई नुक़सान होते हैं, बल्कि उनके गर्भ में पल रहे शिशु को भी बहुत नुक़सान पहुँचता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से गर्भवती महिलाओं के लिए शारीरिक एक्टिविटी सबसे ज़्यादा ज़रूरी है। लेकिन मोबाइल एक ऐसा किलर है, जिसे देखने के चक्कर में हर कोई एक जगह बुत की तरह बैठ जाता है, जिससे उसका शरीर जाम होने लगता है और शरीर में चलने वाली क्रियाशीलता बहुत धीमी हो जाती है। गर्भवती माताओं के लिए यह सबसे घातक होता है, जिसके चलते बाद में उनके बच्चे को ऑपरेशन करके बाहर लाना पड़ता है।

आज मोबाइल में चलने वाले वीडियो ने दुनिया के एक-चौथाई लोगों को अपने प्रभाव में ले रखा है। भारत में मोबाइल के प्रभाव में आने वालों की संख्या काफ़ी ज़्यादा है, जिसके चलते हर उम्र के लोगों को इसकी लत लग चुकी है। यहाँ तक कि ज़्यादातर लोगों के हाथ में मोबाइल तब भी देखा जाता है, जब  वो कोई भी काम कर रहे होते हैं। मोबाइल में खोये रहने के चलते भारत में सड़क दुर्घटनाएँ बढ़ गयी हैं। मोबाइल फोन पर वीडियो, वीडियो गेम और अन्य ऐप के अधिक इस्तेमाल से लोगों में तनाव, चिन्ता, ग़ुस्सा और कई गंभीर बीमारियाँ पैदा हो रही हैं। लगातार मोबाइल फोन के इस्तेमाल से आँखें ख़राब होना, कम सुनायी देना, सिरदर्द होना, रक्तचाप होना, माइग्रेन की शिकायत होना, दिल के रोग होना, पेट के रोग होना और शरीर में दर्द, थकान होना आम बीमारियाँ होती जा रही हैं।

अप्रैल, 2008 में सामने आये केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आँकड़ों के मुताबिक, भारत में नेत्रहीनों की संख्या (उस समय) क़रीब 1.20  करोड़ थी, जिसमें से सबसे ज़्यादा क़रीब 15 लाख नेत्रहीन उत्तर प्रदेश में थे। उस समय पूरी दुनिया में क़रीब 3.5 करोड़ नेत्रहीन लोग थे। लेकिन अब मोबाइल के कारण आँखों की रोशनी कम होने और नेत्रहीन होने के आँकड़े बढ़े हैं, जो अभी तक भले ही सामने नहीं आये हैं; लेकिन चश्मा लगाने वालों की बढ़ी तादाद से लगता है कि कम-से-कम भारत में आज कम-से-कम चार लाख नेत्रहीन और कम-से-कम 50 करोड़ कमज़ोर आँखों वाले लोग होंगे। अहमदाबाद के एक स्कूल के टीचर सोमेश ने बताया कि उनके स्कूल में 150 से ज़्यादा बच्चे हैं, जिनमें क़रीब 25-26 बच्चों को चश्मे लगे हैं। आँखों के विशेषज्ञ दिव्यांश कहते हैं कि आँखों के मरीज़ पहले से बढ़ रहे हैं। पहले 40 साल से ऊपर के ही आँखों के मरीज़ उनके पास ज़्यादा आते थे; लेकिन अब दो-तीन साल के बच्चे भी आँखों की समस्या के शिकार हो रहे हैं। स्थिति यह है कि अगर हमारे पास महीने में आँखों के 100 मरीज़ आते हैं, तो उनमें 40 मरीज़ 50 साल से ऊपर के होते हैं। बाक़ी में 30 महिला-पुरुष होते हैं और 20 नयी उम्र के बच्चे, जिनमें दो साल से लेकर 18-19 साल तक के युवा होते हैं। 

विशेषज्ञों के मुताबिक, आँखों की बीमारियाँ कई कारणों से होती हैं। लेकिन मोबाइल और कम्प्यूटर ने इसमें तेज़ी से बढ़ोतरी की है। स्थिति यह है कि आज आनुवांशिक और शारीरिक रूप से कमज़ोरी के चलते जितने लोगों की आँखें कमज़ोर हैं, उससे ज़्यादा मोबाइल और कम्प्यूटर के कारण आँखों की बीमारियाँ हो रही हैं। पहले कहा जाता था कि लोगों में अशिक्षा की वजह से नेत्रहीनता के मामले ज़्यादा हैं। लेकिन अब देखा जा रहा है कि पढ़े-लिखे लोग भी यह बीमारी मोबाइल और कम्प्यूटर से जानबूझकर ख़ुद में बढ़ा रहे हैं। कई रिपोर्ट्स में यह ख़ुलासा हुआ है कि मोबाइल और कम्प्यूटर के ज़्यादा इस्तेमाल से भारतीय अपनी आँखों की रोशनी खो रहे हैं। कुछ रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि दुनिया में सबसे ज़्यादा आँखों के मरीज़ भारत में हैं। एक शोध के मुताबिक, भारत में हर आदमी हर दिन औसतन 06 घंटे 36 मिनट मोबाइल पर वीडियो देखने में गुज़ार देता है, जबकि ज़्यादातर लोग मोबाइल पर बात करने समेत तक़रीबन 12 से 15 घंटे गुज़ार देते हैं। अगर मोबाइल फोन साथ रखने की बात करें, तो हर आदमी हर दिन औसतन 18 घंटे मोबाइल के साथ गुज़ार देता है। वहीं फिलीपींस में हर आदमी हर दिन औसतन 10 घंटे 56 मिनट, साउथ अफ्रीका में 10 घंटे 06 मिनट, ब्राजील में 10 घंटे 08 मिनट, यूएस में 7 घंटे 11 मिनट, न्यूजीलैंड में 6 घंटे 39 मिनट का समय मोबाइल स्क्रीन पर बिता रहे हैं। मोबाइल के इतने ज़्यादा इस्तेमाल से भारतीयों को बचाने के लिए सरकार को उन्हें सलाह-मशविरा देना चाहिए और डॉक्टरों को इसके लिए एक मुहिम चलानी चाहिए, जिससे लोग जागरूक हो सकें और मोबाइल के फ़िज़ूल के इस्तेमाल से बचकर बैठे-बिठाए बीमारियाँ मोल लेने से बचें।

हुज़ूर! अपनी गरिमा बचाइए

शिवेन्द्र राणा

यतो धर्मस्ततो जय: अर्थात् जहाँ धर्म है, वहाँ जय है। इस ध्येय वाक्य के साथ स्वतंत्र भारत में न्यायपालिका की स्थापना हुई थी। इस विश्वास के साथ कि वह भारत के संविधान और देश के हर नागरिक में न्याय के प्रति आस्था को ज़िन्दा रखेगी; उसकी उम्मीद का केंद्र होगी। लेकिन आज आज़ादी के क़रीब 77 वर्षों में जब हम अतीत की अपनी यात्रा का सिंहावलोकन करते हैं, तो इस न्यायिक निर्णय और न्याय की उम्मीद, दोनों की तस्वीर बड़ी धुँधली नज़र आती है।

इसमें कोई शक नहीं कि स्वतंत्रता के हर बीतते दशक के साथ भारत की संसद, लोकसेवा आयोगों, पुलिस प्रशासन जैसी प्रत्येक संस्था में नैतिक गिरावट आयी है, जो समय के साथ बढ़ती चली गयी। किन्तु इसमें सबसे दु:खद न्यायपालिका की पतनशीलता है। आपातकाल में और अब फिर से जिस प्रकार प्रकार माननीय न्यायाधीशों ने सत्ताओं के समक्ष घुटने टेके हैं, वो एक विभाजक रेखाओं के रूप में भी दिखी हैं। न्यायपालिका की गरिमा की अवहेलना एवं सत्ता की शक्ति और निजी स्वार्थ के चलते आज गणतंत्र दिवस के 75 वर्ष पूरे होने के बाद यह महसूस होता कि नकारात्मक परंपरा एक व्यवस्थित रूप ले चुकी है, जो दिनोंदिन और ढलान की ओर है। आज न्यायपालिका के अनैतिक-असंगत निर्णय और न्यायाधीशों के अनियंत्रित-अमर्यादित आचरण की एक लंबी फ़ेहरिस्त है, जिससे स्पष्ट होता है कि न्यायपालिका की प्रतिष्ठा आहत है।

इसी परिप्रेक्ष्य में न्यायपालिका के कुछ करामाती निर्णयों पर एक नज़र डालिए। जून, 2024 में राजस्थान हाईकोर्ट के जज अनूप कुमार ने बलात्कार के आरोपी को राहत देते हुए अपने निर्णय में कहा कि लड़की के अंत:वस्त्र उतारना, नंगा करना और ख़ुद नंगा होना बलात्कार का प्रयास नहीं है। इसी प्रकार पिछले दिनों उड़ीसा हाईकोर्ट ने छ: साल की बच्ची के बलात्कार के आरोपी मोहम्मद आकिल के लिए ख़ुद कहा कि वो पाँच व$क्त का नमाज़ी है। उसे सुधरने का समय दीजिए। वहीं दिल्ली हाईकोर्ट ने पिछले साल इस्लामिक क़ानून का हवाला देते हुए एक 15 साल की लड़की के निकाह को जायज़ ठहरा दिया। अरे भाई! संवैधानिक नियम किसलिए हैं? जब निर्णय धार्मिक-पंथीय आस्थाओं के आधार पर ही देना है, तो फिर सभी आरोपियों और अपराधियों के साथ यही होता रहेगा और वे अपराध करते रहेंगे। जजों के निर्णय ही नहीं, बल्कि उनके कारनामे भी नित्य चर्चा में हैं। बांदा के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट भगवान दास गुप्ता द्वारा उनके आवास के बिजली के लंबित बिल की वसूली के लिए जाने वाले कर्मचारियों पर फ़ज़ीर् मुक़दमा दर्ज करा दिया गया। मामले की सुनवाई के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इसे पद में दुरुपयोग का मामला मानते हुए कहा कि यह व्यक्ति जज बनने लायक नहीं है। फिर क्या? न्यायालय मात्र एक तल्ख़ टिप्पणी करके रह जाता है। यदि एक टिप्पणी करने भर से ऐसे व्यक्ति को ब$ख्शते हुए उसे न्यायिक प्रणाली का हिस्सा बने रहने दिया जाए, तो कल्पना करिए कि ऐसे लोग शुद्ध एवं पवित्र न्याय की भावना का मान कैसे रखेंगे?

इन सबसे बढ़कर चर्चित मामला रहा पुणे पोर्श मामला, जहाँ शराब के नशे में दो युवा इंजीनियरों को कार से कुचलकर मार डालने वाले रईस नाबालिग़ को मात्र 15 घंटों के अंदर ही सड़क दुर्घटनाओं के प्रभाव और उनके समाधान पर 300 शब्दों के निबंध लिखने, किसी नशा मुक्ति केंद्र में जाकर रिहैबिलिटेशन लेने, ट्रैफिक नियमों को पढ़ने जैसी शर्तों पर कोर्ट से जमानत मिल जाती है। वहीं दिल्ली के कथित शराब घोटाला मामले में राउज एवेन्यू कोर्ट की जज न्याय बिन्दु द्वारा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जमानत देते ही ईडी ने दिल्ली हाईकोर्ट जाकर उनकी जमानत रुकवा दी। और सीबीआई ने आनन-फ़ानन में गिरफ़्तारी अपने हाथ में ले ली। बाद में पता चला कि ईडी के वकील और हाईकोर्ट के जज सगे भाई हैं। इसे लेकर 157 वकीलों ने हाईकोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी, तब जाकर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को अंतरिम जमानत मिली; लेकिन सीबीआई मामले में अभी कुछ नहीं हुआ हैं। ऐसे ही महाठग सुकेस को बॉम्बे हाई कोर्ट से जमानत मिल जाती है।

न्यायपालिका के दरवाज़े पर एक ओर न्याय के लिए एड़ियाँ रगड़ते लोगों की ज़िन्दगी गुज़र जाती हैं और दूसरी तरफ़ पिछले वर्षों में ऐसे कई मामले सामने आये हैं, जिनमें प्रभावशाली, ख़ास तौर पर आपराधिक मामलों में फँसे सत्तापक्ष के समर्थकों को जमानतें मिल रही हैं। इनमें से एक है एचडी रेवन्ना, जो हज़ारों महिलाओं के बलात्कार का आरोपी है। उसे आराम से अंतरिम जमानत मिल जाती है। इस तरह अदालतें लगातार असमानतापूर्ण न्यायिक प्रणाली के उदाहरण दे रही हैं। वर्तमान में न्यायपालिका जिस तरह फ़ैसले दे रही है, यदि आगे वह इसमें सुधार का प्रयास नहीं करती है, तो यक़ीन मानिए अगले कुछ ही दशक में उसकी विश्वसनीयता रसातल में होगी।

इसी तरह पहले भी कई रसूख़दारों को तो आरोप तय होने के बाद भी अग्रिम जमानत मिलती रही है। पहलवान बेटियों के द्वारा आरोपित बृजभूषण सिंह के मामले में ही कौन-सी अदालत ने उन्हें जेल का रास्ता दिखाया? लेकिन आन्दोलनकारी किसानों पर झूठे मुक़दमे और उन्हें जेल में डाले जाने पर कोई सुनवाई नहीं है। क्या जो सुविधा सत्ता तक पहुँच वालों और रसूख़दारों को उपलब्ध है, वही सुविधा आम भारतीयों को भी हासिल है? यह समझना ज़रा कठिन है। असल में स्थिति ऐसी है कि इस देश में क़ानून का स्वरूप एक-सा ज़रूर है; लेकिन वह व्यक्ति की पृष्ठभूमि के अनुरूप अलग-अलग तरीक़े से काम करता है। वेदांत अग्रवाल के मामले (पुणे पोर्श कांड) में ही इस देश की न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था का वह रूप दिखा, जो धन-बल के समक्ष नंगा खड़ा था। इस मामले में दो चीज़ें एक स्पष्ट थीं- पहली, इस देश में आम, मेहनतकश लोगों के जान की कोई क़ीमत नहीं है। क्योंकि यदि आपकी मौत किसी धनवान-तथाकथित संभ्रांत परिवार के बिगड़ैल बच्चे के एडवेंचर का हिस्सा है, तो उसके धनबल से अभिभूत देश का क़ानून और प्रशासन इसे सड़क के कुत्ते की मौत से अधिक नहीं मानता। और दूसरा, यदि आप शक्तिशाली वर्ग यानी धन और वर्ग से संपन्न हैं, तो इस देश में आपको कुछ भी करने की इजाज़त है; यहाँ तक कि शराब पीकर किसी के ऊपर गाड़ी चढ़ाकर उसे मार डालने की भी। अब नीट पेपर घोटाले का मामला ही लें, तो सर्वोच्च न्यायालय का इसे रद्द करने का असमंजस समझना कठिन है। सरकार का कहना और कोर्ट का सुनना कि इसे रद्द करने से बच्चों का भविष्य ख़राब होगा; पूर्णत: अस्वीकार किया जाना चाहिए। यदि सरकार को, पुलिस-प्रशासन को, परीक्षा एजेंसी को लगता है कि पेपर लीक हुआ है, परीक्षा में धाँधली हुई है; चाहे एक या दो जगह, चाहे कम या अधिक, तो फिर उसे निरस्त करने में न्यायालय को क्या समस्या है? एक ओर हज़ारों बच्चे अपने भविष्य की चिन्ता में सड़कों पर आन्दोलन कर रहें हैं, तो फिर न्यायपालिका एक त्वरित और कठोर निर्णय से परहेज़ करके आख़िर किसका भविष्य बचाना चाहती है? इन न्याय-निर्णयन की विसंगतियों के अतिरिक्त बहुत-से ऐसे मुद्दे हैं, जिनमें न्यायपालिका का आचरण अनुचित है। जैसे आज भी ब्रिटिश परंपरा के अनुरूप न्यायधीश कई ह$फ्तों के ग्रीष्म और शीत अवकाश पर चले जाते हैं। उस देश में, जिसका जनमानस समस्याओं, मुक़दमों के बोझ तले श्वास लेने में घुटन महसूस कर रहा है। यानी अंग्रेजी सत्ता की विदाई के सात दशकों बाद भी न्यायपालिका की औपनिवेशिक मानसिकता यथावत् है। पूरे देश को संवैधानिक मूल्यों का पाठ पढ़ाने वाली न्यायपालिका को आत्ममूल्यांकन का भी प्रयास करना चाहिए। वो कोलिजियम सिस्टम, जिसे संविधान सभा ने ख़ारिज किया; उसे न्यायपालिका ने 1993 में लागू कर दिया और इसके बाद परिवारवाद-वंशवाद का नंगा खेल शुरू हो गया। 2014 में संसद के दोनों सदनों ने भारी बहुमत से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को पारित किया; लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इसे मूल ढाँचे के विरुद्ध बताते हुए ख़ारिज कर दिया। क्या न्यायपालिका को लगता है कि इस देश में मात्र वही सत्यता की प्रतिमान है? या वह स्वयं को संसद के समानांतर सत्ता का केंद्र मानती है? जो भी हो, किन्तु उसका यह एकांगी आचरण संवैधानिक मर्यादा के अनुरूप नहीं है।

इतना ही नहीं, आज जजों में सत्ताधारी दलों से संपर्क साधकर मानवाधिकार आयोग जैसे सांविधिक निकायों में पद हथियाने की होड़ लगी है। ऊपर से माननीय न्यायधीशों की विधानमण्डलों में पहुँचने की महत्त्वाकांक्षा ने न्यायपालिका की विश्वसनीयता को खोया है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई का सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद राज्यसभा के मनोनीत सदस्य का पद स्वीकारना सरासर अनुचित निर्णय था। हालाँकि ये कोई नयी बात नहीं है। इससे पूर्व रंगनाथ मिश्र, मोहम्मद हिदायतुल्ला, बहरुल इस्लाम जैसे कई न्यायाधीश और आज के कई न्यायिक और ग़ैर-न्यायिक पदाधिकारी सत्ता और सत्ताधारी दलों की कृपा से राज्यसभा तक पहुँच चुके हैं। लेकिन इनमें कलकत्ता हाईकोर्ट अभिजीत गंगोपाध्याय तो सबसे विशिष्ट निकले। वह अपने पद से इस्तीफ़ा देकर एक बड़ी राजनीतिक पार्टी में शामिल हो गये। कहने का तात्पर्य यह है कि न्यायमूर्तियों की सत्ता-सुख में शामिल होने की अशुभ त्वरा न्यायपालिका की साख को चोटिल कर रही है।

हालाँकि आज भी कोई आम भारतीय जब सरकार, प्रशासन, धनिकों, बाहुबलियों और अपराधियों से पीड़ित-प्रताड़ित होकर ख़ुद को संघर्ष के लिए खड़ा करता है, तो इसके पीछे उसका यही विश्वास होता है कि न्यायपालिका उसकी आवाज़ ज़रूर सुनेगी और न्याय के इस मंदिर में उसे इंसाफ़ ज़रूर मिलेगा। लेकिन विडंबना देखिए, कई जज ही उत्कोच के वशीभूत होकर याचियों की पुकार और उनकी पीड़ा को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। क्या आम लोगों की वेदना से उपजा क्रोध इस पूरी न्यायिक मान्यता को ही संकट ग्रस्त नहीं कर देगा? वर्तमान संकट केवल यह नहीं है कि देश की प्रमुख संवैधानिक संस्था का इक़बाल ढह रहा है, बल्कि उसकी विश्वासनीयता दाँव पर लग गयी है, जिसे संविधान का एक आधार स्तम्भ, उसके मूल्यों का संरक्षक और व्याख्याकार माना जाता है।

जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं- ‘जब शुद्ध भावनाएँ बुद्धि द्वारा दूषित हो जाती हैं, तब जीवन बहुत मामूली दर्जे का होता है।’ न्यायपालिका में पैठ कर चुकी भौतिक स्वार्थ और पद-सत्ता की लालसा ने न्याय के मंदिर की प्रतिष्ठा को दाँव पर लगा दिया है। हालाँकि अभी भी देश के करोड़ों लोगों ने इससे अपनी आस्था का त्याग नहीं किया है। क्योंकि जिस दिन ऐसा होगा, उसी दिन राष्ट्र और समाजों का संतुलन बिगड़ जाएगा। यदि मी लार्ड सुन रहे हैं, तो उनसे गुज़ारिश है- ‘हुज़ूर! अपनी गरिमा बचाइए।’

कंचनजंगा ट्रेन हादसे में लोको पायलट को मिली क्लीन चिट

नई दिल्ली : पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में कंचनजंगा एक्सप्रेस की मालगाड़ी ट्रेन से टक्कर हो गई थी। ये ट्रेन सियालदाह जा रही थी। इस घटना में पैसेंजर ट्रेन के गार्ड और मालगाड़ी के लोको पायलट अनिल कुमार समेत 10 लोगों की मौत हो गई थी। टाइम्स ऑफ इंडिया डॉट कॉम में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, अब कंचनजंगा एक्सप्रेस हादसे में जान गंवाने वाले लोको पायलट अनिल कुमार के परिवार को आखिरकार न्याय मिल गया है।

रेलवे सुरक्षा के मुख्य आयुक्त (CCRS) की रिपोर्ट के मुताबिक, उन्हें 17 जून को हुए हादसे के लिए दोषी नहीं पाया है।अनिल कुमार पर आरोप लगने को लेकर उनकी पत्नी रोशनी कुमार का बयान सामने आया है। उन्होंने कहा कि ट्रेन हादसे के कुछ ही घंटों के अंदर मेरे पति को दोषी ठहरा दिया गया था। पत्नी ने आगे कहा, हम उनकी मौत का गम भुला नहीं पाए थे, इसके तुरंत बाद ही ट्रेन हादसे के लिए अनिल को मौत का जिम्मेदार ठहराने के बाद हम सदमे में आ गए थे। अब हमें खुशी है कि रेलवे ने उचित जांच की और उन्हें निर्दोष पाया। अब उनकी आत्मा को शांति मिलेगी।

जांच में हुआ सच का खुलासा : सीसीआरएस की रिपोर्ट में माना गया था कि कंचनजंगा एक्सप्रेस की मौजूदगी के बावजूद मालगाड़ी के लोको पायलट को एक सेक्शन पर जाने की अनुमति दी गई और बिना किसी सावधानी आदेश के सभी सिग्नलों को पार करने के लिए एक गलत मेमो दिया गया।

जांच में पाया गया कि मालगाड़ी 78 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से यात्रा कर रही थी जब उसने कंचनजंघा एक्सप्रेस के पिछले हिस्से को देखा और आपातकालीन ब्रेक लगाया। लेकिन कंचनजंगा में दुर्घटनाग्रस्त होने से पहले ट्रेन केवल 40 किमी प्रति घंटे तक ही धीमी हो सकी। रिपोर्ट में कहा गया है कि अनिल ने 5 मिनट में 10 बार थ्रॉटल को एडजस्ट किया था, जो उनकी सतर्कता को दर्शाता है।

क्रिकेट में कोचिंग घोटाला !

– आईसीसी तक है दलालों की पहुँच, बनवा देते हैं कोचिंग प्रमाण-पत्र

इंट्रो-

पिछले वर्षों के मैच फिक्सिंग जैसे घोटालों की गूँज अभी तक क्रिकेट जगत में सुनायी देती है। अब क्रिकेट जगत एक और संकट का सामना कर रहा है, जिसमें कुछ दलाल अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) कोचिंग प्रमाण-पत्र दिलवाते हैं। ‘तहलका’ एसआईटी ने अपनी इस पड़ताल में कुछ दलालों से नक़ली ग्राहक बनकर आईसीसी कोचिंग प्रमाण-पत्र लेने की बात की, जिसमें बड़े पैमाने पर इस धोखाधड़ी का ख़ुलासा हुआ है। ये दलाल आईसीसी कोचिंग प्रमाण-पत्र दिलवाने का दावा करने के साथ-साथ नौकरी का दिलासा भी दे रहे हैं। इसी ख़ुलासे को लेकर तहलका एसआईटी की रिपोर्ट :-

आपको चयन प्रक्रिया या परीक्षा के बारे में चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। मैं भारत में बैठकर इसका ख़याल रखूँगा। आमतौर पर प्रमाण-पत्र परीक्षा के तीन महीने बाद जारी किये जाते हैं। लेकिन मैं आपके पाठ्यक्रम पूरा करने के तुरंत बाद फोन पर व्यवस्था कर दूँगा। मैंने पहले ही इस तरह से दो प्रमाण-पत्र प्राप्त कर लिये हैं; एक मेरे छोटे भाई के लिए और दूसरा एक रिश्तेदार के लिए। लेकिन मैं केवल आपके किसी क़रीबी के लिए प्रमाण-पत्र सुरक्षित करूँगा; किसी अन्य के लिए नहीं। अन्यथा लोग मुझ पर इससे लाभ कमाने का आरोप लगा सकते हैं।’

यह बात तहलका रिपोर्टर से एक बिचौलिये (दलाल) उस्मान (जिसे अपना पहला नाम ही पसंद है), जो स्थानीय क्रिकेटर और खेल मैदान तैयार करने में शामिल है; ने कही। दिल्ली में रहने वाले उस्मान का दावा है कि उसके पास ऐसे संपर्क हैं, जो उसे दुबई में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) मुख्यालय से सीधे आईसीसी लेवल-1 क्रिकेट कोचिंग प्रमाण-पत्र बनवाकर देते हैं।

उस्मान का दावा है कि उसने कई साल पहले ऐसे दो प्रमाण-पत्रों की व्यवस्था की थी; एक अपने भाई के लिए और दूसरा अपने रिश्तेदार के लिए। उस्मान के अनुसार, उन प्रमाण-पत्रों के आधार पर यह जोड़ी अब भारत में क्रिकेट कोच के रूप में कार्यरत है। उस्मान ने ‘तहलका’ रिपोर्टर से ये चौंकाने वाले दावे किये, जो उससे एक (नक़ली) ग्राहक बनकर मिले थे। बिचौलियों के इस ग़ैर-क़ानूनी काम के ख़ुलासे के लिए ‘तहलका’ रिपोर्टर ने क्रिकेट का मैदान तैयार करने के काम के लिए अपने एक काल्पनिक व्यक्ति को आईसीसी प्रमाण-पत्र दिलाने के लिए उस्मान और उसके साथियों से बातचीत की।

बता दें कि आईसीसी साल में दो बार लेवल-1, लेवल-2 और लेवल-3 के लिए क्रिकेट कोचिंग शिक्षा पाठ्यक्रम आयोजित करता है। लेवल-1 विकास पर केंद्रित है और सबसे छोटे स्तर पर काम करने के लिए योग्यता प्रदान करता है। लेवल-2 लेवल-1 से ऊपर बनता है और मध्य स्तर का प्रतिनिधित्व करने का मौक़ा देता है। अंत में लेवल-3 उच्चतम स्तर पर क्रिकेट की कोचिंग पर ध्यान केंद्रित करने का मौक़ा देता है और सबसे उच्च स्तर के लिए होता है। उस्मान ने दावा किया कि सन् 2017 में उसने अपने भाई और एक रिश्तेदार के लिए लेवल-1 क्रिकेट कोचिंग कोर्स की व्यवस्था करने के लिए दुबई में आईसीसी मुख्यालय में अपने सम्बन्धों का लाभ उठाया था। उस्मान ने दावा किया कि उसने उनका (अपने दोनों सम्बन्धियों का) चयन और परीक्षा की सफलता का काम सुनिश्चित किया। उसने कहा कि अब अगर हम उन्हें क्रिकेट मैदान तैयार करने का ठेका सौंपते हैं, तो वे हमारे उम्मीदवार के लिए भी यह वादा करते हैं। उस्मान के अनुसार, हमें (रिपोर्टर को) बस अपने प्रतियोगी को एक सप्ताह के लिए दुबई भेजना है, जो कि लेवल-1 कोर्स पूरा करने के लिए आवश्यक अवधि है और बाक़ी काम वह ख़ुद कर लेगा।

आईसीसी क्रिकेट के लिए वैश्विक शासकीय निकाय के रूप में कार्य करती है, जो 108 सदस्य देशों का प्रतिनिधित्व करती है। इसकी प्राथमिक ज़िम्मेदारियों में खेल का प्रबंधन करना और दुनिया भर में क्रिकेट को बढ़ावा देने के लिए सदस्य देशों के साथ सहयोग करना शामिल है। अपने प्रयासों के तहत आईसीसी दुनिया भर में कोच, अंपायर, स्कोरर और पिच क्यूरेटर के विकास को बढ़ावा देने के लिए एक व्यापक प्रशिक्षण और शिक्षा कार्यक्रम प्रदान करता है। इस कार्यक्रम का एक महत्त्वपूर्ण घटक आईसीसी कोचिंग कोर्स लेवल-1 है। यह पाठ्यक्रम प्रतिभागियों को नये और शुरुआती खिलाड़ियों के लिए क्रिकेट सत्र आयोजित करने के लिए आवश्यक तकनीकी ज्ञान प्रदान करता है। हालाँकि लेवल-1 कोर्स में दाख़िला लेने से पहले इच्छुक कोचों को आईसीसी कोचिंग फाउंडेशन सर्टिफिकेट सफलतापूर्वक पूरा करना होता है।

लेवल-1 पाठ्यक्रम में छ: मॉड्यूल शामिल हैं, जिनमें से प्रत्येक में कोचिंग की आवश्यकता होती है। प्रत्येक मॉड्यूल के अंत में प्रतिभागी का मूल्यांकन होता है और उसे अगले चरण में प्रगति के लिए उत्तीर्ण होने के लिए 75 प्रतिशत अंकों का लक्ष्य पाना होता है। सभी मॉड्यूल और मूल्यांकन के सफल समापन पर प्रतिभागियों को समापन प्रमाण-पत्र प्राप्त होता है, जो आधिकारिक तौर पर उन्हें आईसीसी-प्रमाणित कोच के रूप में मान्यता देता है। उस्मान, जिससे ‘तहलका’ रिपोर्टर ने कोचिंग प्रमाण-पत्र मिलने की हक़ीक़त जानने के लिए उससे मुलाक़ात की थी; ने दावा किया कि वह प्रमाणन प्रक्रिया में हेरफेर कर सकता है। उस्मान ने दावा किया कि उसने दो आईसीसी कोचिंग प्रमाण-पत्र प्राप्त किये हैं- एक अपने भाई के लिए और दूसरा एक रिश्तेदार के लिए। इस प्रकार वे आईसीसी-प्रमाणित कोच बनने में सक्षम हुए। अब उस्मान ने ‘तहलका’ रिपोर्टर के काल्पनिक उम्मीदवार के लिए इस उपलब्धि को दोहराने का वादा किया।

आईसीसी लेवल-1 कोचिंग प्रमाण-पत्रों को ठीक करने का विषय उस्मान के साथ हमारे रिपोर्टर की बातचीत के केंद्र में था। हमारे रिपोर्टर की प्रारंभिक बैठक से ही, उस्मान ने उन्हें आत्मविश्वास से आश्वासन दिया कि वह दुबई में अपने ख़ास स्रोत से संपर्क करके हमारे (काल्पनिक) प्रतिभागी के लिए कोचिंग प्रमाण-पत्र सुरक्षित कर सकता है।

रिपोर्टर : होती सिर्फ़ दुबई से ही है?

उस्मान : हाँ; पहले दूर था, अब इन्होंने दुबई, …मेन ब्रांच दुबई में बना ली है। …पहले लंदन में था।

रिपोर्टर : आईसीसी का?

उस्मान : पहले लंदन में था, अब दुबई में ब्रांच खोली है। …तो वहाँ जाना पड़ेगा। तीन-चार दिन रहना पड़ेगा वहाँ पर, …वो मैं करा दूँगा। उसमें कोई दिक़्क़त नहीं है।

रिपोर्टर : वहाँ क्या होता है?

उस्मान : एग्जाम होता है। वो मैं निकलवा दूँगा। यहाँ से बैठे-बैठे निकलवा दूँगा। …परेशान मत हो।

अब उस्मान ने न केवल हमारे लिए आईसीसी लेवल-1 क्रिकेट कोचिंग प्रवेश परीक्षा तय करने का वादा किया, बल्कि हमें यह भी आश्वासन दिया कि हमें आईसीसी की मानक तीन महीने की प्रतीक्षा अवधि को दरकिनार करते हुए पाठ्यक्रम पूरा करने के तुरंत बाद कोचिंग प्रमाण-पत्र प्राप्त होगा।

रिपोर्टर : कितने दिन रहना पड़ेगा?

उस्मान : मेरे ख़याल से 5-6 दिन रहना पड़ेगा। …वो हैंड-टू-हैंड (हाथोंहाथ) आपको सर्टिफिकेट भी दे देंगे।

रिपोर्टर : अच्छा! वैसे प्रोसीजर (प्रक्रिया) क्या है?

उस्मान : प्रोसीजर है तीन महीने में सर्टिफिकेट देते हैं। पर मैं फोन कर दूँगा, …हैंड-टू-हैंड सर्टिफिकेट दे देंगे; …वो आपको सर्टिफिकेट दे देंगे। आप बस बैग में रखकर लाइएगा।

उस्मान ने आगे ख़ुलासा किया कि वह दुबई में आईसीसी में अपने स्रोत को बुलाएगा, यह सुनिश्चित करते हुए कि कोई भी हमारे उम्मीदवार से कई सवाल नहीं पूछेगा। उसने बताया कि एक चार-व्यक्तियों का पैनल, जिसमें इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, भारत और संयुक्त अरब अमीरात के प्रतिनिधि शामिल हैं; कोचिंग नौकरी के लिए हमारे (काल्पनिक) प्रतिभागी की जाँच करेंगे। हालाँकि उस्मान ने कहा कि उसके यूएई प्रतिनिधि से संपर्क हैं, जो यह सुनिश्चित करेगा कि हमारा प्रतिभागी आसानी से उत्तीर्ण हो जाए। उसने हमारे रिपोर्टर को आश्वासन दिया कि आईसीसी प्रबंधन के भीतर अपने सम्बन्धों का लाभ उठाकर प्रमाण-पत्र बिना किसी समस्या के सौंप दिया जाएगा।

उस्मान : वो आपसे ज़्यादा नहीं पूछेंगे। मैं फोन कर दूँगा। (आगे बोलते हुए)…लेकिन वहाँ पर लंदन का भी, इंग्लैंड का कोच आता है। …चार जगह के लोग होते हैं। एक लंदन का था, एक आस्ट्रेलिया का था, एक यूएई का था, और एक इंडियन था। पहले जो थे xxxxx भाई, वो भी हैं; …उनसे भी काम करवा दूँगा। तो आपको सर्टिफिकेट हैंड-टू-हैंड दे दूँगा।

रिपोर्टर : xxxxx भाई आईसीसी में हैं?

उस्मान : आईसीसी में हैं वो, पहले xxxxx थे यूएई के; अब वो मैनेजमैंट हैं आ गये हैं।

अब उस्मान ने ख़ुलासा किया कि कैसे वह आईसीसी लेवल-1 कोचिंग परीक्षा में अपने भाई दानिश के लिए ग्रेड-ए हासिल करने में कामयाब रहा, जिसे हासिल करना काफ़ी मुश्किल है। उसने बताया कि आईसीसी प्रतियोगियों की परीक्षाओं के लिए एक ग्रेडिंग प्रणाली का पालन करता है, जिसमें सम्बन्धित पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद प्रतियोगियों को ग्रेड-ए, ग्रेड-बी और ग्रेड-सी दिये जाते हैं। ग्रेड-ए सर्वोत्तम प्रदर्शन का प्रतिनिधित्व करता है, ग्रेड-बी उसके ठीक नीचे है, और ग्रेड-सी बहुत ख़राब है। उस्मान के अनुसार, आईसीसी केवल ग्रेड-ए और ग्रेड-बी हासिल करने वाले उम्मीदवारों को प्रमाण-पत्र जारी करता है; लेकिन ग्रेड-सी वाले उम्मीदवारों को नहीं। उसने अपने छोटे भाई दानिश के लिए ग्रेड-ए हासिल करने का दावा किया और हमारे उम्मीदवार के लिए भी ऐसा ही करने का वादा किया।

रिपोर्टर : तो ये पास कैसे करते हैं?

उस्मान : पास मैं करवा दूँगा। आप क्यूँ टेंशन ले रहे हो?

रिपोर्टर : नहीं, दूसरे लोगों को कैसे पास करते हैं? आप तो अपने हो, करवा दोगे…।

उस्मान : बाक़ी सब जो हैं ना! ये मान लीजिए टेस्ट दे रहे हैं वो, …उनके वहाँ ग्रेड सिस्टम है। अगर ग्रेड-सी है, तो आप क्वालीफाई नहीं कर पाओगे। ग्रेड-ए है, तो अच्छा है। निकाल देते हैं। बी में भी वो निकाल देते हैं। लेकिन सी वाले को नहीं निकालते। ये समझ लीजिए 50-60 हज़ार रुपीज आपके फिर आपको दोबारा देना पड़ेगा।

रिपोर्टर : ग्रेड-सी वाले को नहीं निकालते?

उस्मान : नहीं, वो सर्टिफिकेट नहीं इश्यू करेंगे।

रिपोर्टर : ग्रेड-बी वाले को?

उस्मान : दे देंगे।

रिपोर्टर : ग्रेड-ए वाले…?

उस्मान : ग्रेड-ए वाले हो, तो आप नेक्स्ट लेवल पर जाओगे, तो उसके लिए और आसानी हो जाएगी।

रिपोर्टर : तो ये आप करवा दोगे?

उस्मान : करवा दूँगा।

रिपोर्टर : ग्रेड-ए का सर्टिफिकेट दिलवा दोगे?

उस्मान : कोशिश करूँगा, थोड़ा दिमाग़ लगाना पड़ेगा। क्योंकि दो और होते हैं वहाँ लंदन…, और पता नहीं कौन होगा…!

रिपोर्टर : दानिश भाई किससे पास हुए हैं?

उस्मान : ग्रेड-ए से; …ग्रेड-ए से करवा दिया था मैंने। …फिर वो जानते भी थे पहले से।

उस्मान के अनुसार, आईसीसी लेवल-1 कोचिंग प्रमाणपत्र प्राप्त करना एक डिग्री हासिल करने के समान है, जो उम्मीदवार के लिए रोज़गार के प्रचुर अवसर खोल सकता है। उन्होंने ग्रेड-ए प्रमाण-पत्र के महत्त्व पर प्रकाश डाला और इस बात पर ज़ोर दिया कि यह नौकरी की संभावनाओं को महत्त्वपूर्ण रूप से बढ़ाता है। इसके अतिरिक्त उस्मान ने उल्लेख किया कि लेवल-1 प्रमाण-पत्र को पूरा करना भारत के भीतर लेवल-2 प्रमाणन को आगे बढ़ाने की क्षमता के साथ आगे की योग्यता और उच्च वेतन के लिए आगे का एक क़दम है।

उस्मान : लेवल-ए के सर्टिफिकेट में अपने आपमें एक बात होती है। …आप ये समझ लीजिए, आपको डिग्री जा रही है।

रिपोर्टर : इससे सैलरी भी मिल जाती होगी, जहाँ आप कोचिंग दे रहे हो?

उस्मान : हाँ; एक बात और बता दूँ, …अगर आपको नौकरी करनी है; लेवल-1 करिए। फिर मैं आपको बताऊँगा छ: मंथ का कोर्स होता है; वो यहीं हो जाएगा आपका इंडिया में। …वो आप कर लेंगे और लेवल-2 कर लीजिएगा। …कोई नहीं रोक सकता आपको किसी भी इंस्टीट्यूट में।

अब उस्मान ने ‘तहलका’ रिपोर्टर को एक बार फिर आश्वासन दिया कि वह सुनिश्चित करेगा कि हमारा उम्मीदवार आईसीसी लेवल-1 क्रिकेट कोचिंग परीक्षा में उत्तीर्ण हो। उन्होंने ख़ुलासा किया कि उन्होंने पहले दो आईसीसी लेवल-1 कोचिंग सर्टिफिकेट तय किये थे, एक उनके भाई दानिश के लिए और दूसरा एक रिश्तेदार के लिए। हालाँकि उस्मान ने इस बात पर ज़ोर दिया कि वह मुनाफ़ाख़ोरी की धारणा से बचने के लिए केवल उन लोगों की मदद करना चाहेंगे, जो हमारे क़रीब हैं। उन्होंने उम्मीदवार के लिए बुनियादी समझ के महत्त्व का भी उल्लेख किया और ज़रूरत पड़ने पर अतिरिक्त कोचिंग लेने का सुझाव दिया।

रिपोर्टर : लेकिन ऐसा न हो, ये बंदा पास न हो? …ये आपकी ज़िम्मेदारी है।

उस्मान : ये मेरी ज़िम्मेदारी है; मगर आप भेजिए तो सही एक बार। …लेकिन थोड़ी बेसिक्स समझा दीजिए; अगर नहीं हैं तो 2-3 दिन दे दीजिए, ताकि कोई समझा देगा। …(और जानकारी देते हुए), वैसे कोचिंग करने की ज़रूरत ही क्या है?

रिपोर्टर : नहीं, मैंने बताया ना मेरे भाई का है।

उस्मान : हाँ; तो फिर कर लीजिए। जो बिलकुल ख़ास हो ना, उसी का लेना। अभी मैंने भाई का कराया है और एक लड़का और है; उसका। बाक़ी लोगों को मैं मना ही कर देता हूँ। किसी के दिमाग़ में ये ना आ जाए कि हम पैसा कमा रहे हैं।

रिपोर्टर : वो लड़का भी ख़ास ही है आपका?

उस्मान : वो मेरी फूफी (बुआ) का लड़का है।

रिपोर्टर : बन गया या बनवाओगे?

उस्मान : बन गया। वो दुबई चला गया।

रिपोर्टर : वो ही सेटिंग से?

उस्मान : हाँ; पर ये दोनों खेले हैं भाई! वो भी यूनिवर्सिटी खेला हुआ है। वो भी आगरा से है।

रिपोर्टर : हमें मिलाकर तीन लोग हो जाएँगे? इस सर्टिफिकेट के बिना पर नौकरी मिल जाएगी?

उस्मान : बिलकुल; आईसीसी में। …मैं तो ये कहूँगा, इसको करने के बाद एक कोर्स है, वो कर लेना। उसके बाद ना अच्छे स्कूल में, कॉलेज में नौकरी मिल जाएगी।

रिपोर्टर : वो तो इंडिया में ही होगा ना! दूसरा कोर्स?

उस्मान : हाँ।

उस्मान ने ख़ुलासा किया कि वह यह सुनिश्चित करने के लिए ख़ुद दुबई गये थे कि उनके भाई दानिश को बिना किसी परेशानी के आईसीसी लेवल-1 कोचिंग सर्टिफिकेट मिले। हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि जहाँ उन्होंने सब कुछ व्यवस्थित किया, वहीं दानिश के पास आवश्यक कौशल भी थे।

रिपोर्टर : आपने ही बनवाया दानिश का सर्टिफिकेट आईसीसी का?

उस्मान : हाँ; मैं साथ में ही गया था। मैंने ही करवाया था।

रिपोर्टर : पूरी सेटिंग आपने करवायी?

उस्मान : हाँ; बाक़ी उसको आता भी था।

इसके बाद ‘तहलका’ रिपोर्टर की उस्मान से दूसरी मुलाक़ात हुई, इस बार वह अपने भाई मोहम्मद दानिश के साथ मिला, जिसने उस्मान की मदद से दुबई से आईसीसी लेवल-1 कोचिंग प्रमाण-पत्र हासिल किया था। इस बैठक के दौरान उस्मान ने हमें बताया कि कोचिंग पाठ्यक्रम के लिए आवेदन करने के लिए प्रतिभागियों को विश्वविद्यालय स्तर पर क्रिकेट खेला होना चाहिए। जब रिपोर्टर ने बताया कि हमारे उम्मीदवार ने केवल स्कूल स्तर पर खेला है; तो उस्मान ने हमें आश्वासन दिया कि वह विश्वविद्यालय स्तर के क्रिकेट अनुभव को दिखाने में हमारे (काल्पनिक) प्रतियोगी की मदद करने के लिए फ़ज़ीर् दस्तावेज़ों की व्यवस्था कर सकता है। इस तरह हमारा प्रतियोगी अभी भी आईसीसी लेवल-1 क्रिकेट कोचिंग प्रमाणन के लिए आवेदन कर सकता है।

उस्मान : बस यहीं बैठे-बैठे काम करवा दूँगा आपका। …आप टेंशन मत लो।

रिपोर्टर : आप काग़ज़ का इंतज़ाम करवा दो, काग़ज़ नहीं है यूनिवर्सिटी वाले।

उस्मान : मैं बात करता हूँ। टेंशन मत लो। …आप मुझे मेल तो करो। मुझे फोन आया था xxxx  भाई का; …बोले थे- नौकरी करनी है। सेम डे दिलवाया था, उसी दिन मैनेजमेंट से…। वो बस मुझे ना! आप मेल कर दो; स्कूल के सर्टिफिकेट भी मुझे मेल कर दो। उसके हिसाब से मैं कुछ करता हूँ मैनेज…।

आईसीसी-प्रमाणित कोच दानिश ने अब ‘तहलका’ रिपोर्टर को आईसीसी की आंतरिक कार्यप्रणाली के बारे में समझाया, और इस बात पर प्रकाश डाला कि साक्षात्कार पारंपरिक साक्षात्कारों के बजाय एक बोर्ड द्वारा आयोजित किये जाते हैं।

उन्होंने आश्वासन दिया कि उस्मान सीधे आईसीसी को प्रभावित करके हमारे उम्मीदवार को पास कराना सुनिश्चित करेगा। उस्मान ने प्रमाणन प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए हमारे उम्मीदवार की तस्वीर आईसीसी को भेजने का प्रस्ताव रखा।

रिपोर्टर : आपके टाइम में कितने लोग थे?

दानिश : 24 ही होते हैं।

रिपोर्टर : नहीं, नहीं; जो इंटरव्यू ले रहे थे, कितने लोग थे?

दानिश : वो बेसिकली इंटरव्यू नहीं लेते, वो बोर्ड में बढ़ाते हैं। …आपको प्रैक्टिकल कराते हैं। समझाएँगे, फिर जैसे आप एंट्री करोगे ना! आपका नाम होगा। आपको समझाएँगे। नीचे आके आपको डेमो देना है।

रिपोर्टर : पास की गारंटी उस्मान भाई ले रहे हैं?

उस्मान : उसकी टेंशन मत लो; …मैं फोन कर दूँगा।

दानिश : हाँ; ये फोन कर देंगे, …हो जाएगा काम।

उस्मान : आपको कुछ न तो बात करनी है, न कुछ करना है। मैं यहाँ से फोटो भेज दूँगा और उनसे कह दूँगा- ये बंदा है। ये नाम है। अब आपको सर्टिफिकेट देकर ही भेजेंगे। हैंड-टू-हैंड देकर ही भेजेंगे।

अब तहलका रिपोर्टर ने उस्मान से उसके इस धंधे के तीसरे पार्टनर राजबीर के साथ दिल्ली के एक पाँच सितारा होटल में एक बैठक की व्यवस्था की। उस्मान और राजबीर खेल मैदान तैयार करने में साझेदार के रूप में मिलकर काम करते हैं। राजबीर ने आश्वासन दिया कि वह हमारे उम्मीदवार को उनके संपर्कों के माध्यम से आईसीसी लेवल-1 कोचिंग कोर्स में प्रवेश दिलाएगा। उसने यह भी स्वीकार किया कि उन्होंने (उस्मान और राजबीर ने) अतीत में कई व्यक्तियों को प्रवेश में सहायता की है।

रिपोर्टर : इसमें आपकी क्या सेटिंग है? …मैं ये पूछ रहा हूँ?

राजबीर : एडमिशन में।

रिपोर्टर : अच्छा; आप एडमिशन करवाओगे?

राजबीर : हाँ। पास तो आप हो जाओगे। …दूसरे में आपको पढ़ना पड़ेगा।

रिपोर्टर : अच्छा! कोचिंग में एडमिशन के लिए आपकी सेटिंग है?

राजबीर : हाँ।

रिपोर्टर : एडमिशन ऐसे नहीं होता? …कितने आते हैं एडमिशन में? …आल ओवर वर्ल्ड कितने आते होंगे?

राजबीर : एशिया से 50, एशिया के ही आते हैं।

रिपोर्टर : 50 में से लेते कितने हैं ये?

राजबीर : 50 सीट हैं।

रिपोर्टर : और आते कितने हैं?

राजबीर : आते हैं इतने सारे…,(हाथ से इशारा करते हुए)।

रिपोर्टर : एडमिशन करा रहे हैं लोग?

राजबीर : ऐसी बात नहीं है; कितने लोगों की करायी है।

रिपोर्टर : अच्छा!

क्रिकेट, जिसे अक्सर सज्जनों का खेल माना जाता है; को आज कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। अतीत में ऐसे उदाहरण सामने आये हैं, जब कुछ खिलाड़ी इसकी नेक भावना को बरक़रार रखने में विफल रहे, जिससे कुख्यात मैच फिक्सिंग घोटालों से इसकी प्रतिष्ठा धूमिल हुई। इन घोटालों की गूँज विश्व स्तर पर सुनायी दी, जिसका असर खेल पर पड़ा।

इस कठिन समय के दौरान अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। अपने कर्तव्य को कुशलतापूर्वक निभाते हुए आईसीसी ने यह सुनिश्चित किया कि इस प्रतिष्ठित खेल की छवि को धूमिल करने वाले खिलाड़ियों को न्याय का सामना करना पड़े। हालाँकि ‘तहलका’ द्वारा उजागर किये गये नवीनतम घोटाले में एक अप्रत्याशित मोड़ आता है। इस बार क्रिकेट की छवि ख़राब करने के लिए खिलाड़ी नहीं, बल्कि एजेंट (दलाल) ज़िम्मेदार हैं। सवाल यह है कि क्या आईसीसी इस स्थिति से अवगत है?

क्रिकेट प्रेमियों के रूप में हम आशा करते हैं कि खेल के संरक्षक इसकी अखण्डता को बरक़रार रखेंगे और किसी भी ख़तरे का तुरंत समाधान करेंगे। भ्रष्टाचार और घोटाले के ख़िलाफ़ लड़ाई जारी है और आईसीसी की सतर्कता आवश्यक बनी हुई है। यह ज़रूरी है कि सरकार खेल के भविष्य की सुरक्षा के लिए ‘तहलका’ एसआईटी के इस ख़ुलासे से उठी चिन्ताओं पर ध्यान दे।

ट्रम्प पर हमला… ध्रुवीकरण की तरफ़ इशारा

बटलर में पूर्व अमेरिकी रष्ट्रपति ट्रम्प की चुनावी रैली में गोलियाँ चलने के बाद जब उनके चेहरे से ख़ून बह रहा था, तब ट्रम्प की मुट्ठी उठाने की छवि दुनिया भर के लोकतंत्रों में गहरे ध्रुवीकरण के आसन्न ख़तरे की याद दिलाती है। हत्या का प्रयास और विद्रोही ट्रम्प के पहले पद पर बने रहने से रिपब्लिकन दावेदार के अभियान को बढ़ावा मिलेगा; लेकिन बढ़ती बंदूक-संस्कृति और विषाक्त राजनीतिक माहौल पर गंभीर सवाल खड़े होंगे। वास्तव में हमले के बाद संदेशों में अचानक आये बदलाव और अपेक्षित सहानुभूति को देखते हुए यह हमला डोनाल्ड ट्रम्प की संभावनाओं को धक्का पहुँचा सकता है। फिर भी इस घटना से बाक़ी दुनिया को चिन्तित होना चाहिए; क्योंकि यह हमला दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र के स्व-अभिषिक्त संरक्षण में हुआ है।

भारत की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, विपक्ष के नेता राहुल गाँधी और सभी वर्गों के नेताओं ने गोलीबारी की घटना की कड़ी निंदा की है। हालाँकि अब कोई भी राहत की साँस ले सकता है कि ट्रम्प सुरक्षित हैं। लेकिन यह घटना जो बाइडेन के विनाशकारी वाद-विवाद प्रदर्शन के बाद व्हाइट हाउस की दौड़ में डेमोक्रेट और उनकी गणना को ख़तरे में डाल देगी। भीषण राजनीतिक हिंसा और कटु बहसों से अमेरिका का रिश्ता बहुत पुराना है और ऐसी घटनाओं का इस्तेमाल घृणा अभियानों को समाप्त करने के बजाय भावनाओं को और अधिक भड़काने के लिए पार्टी लाइनों के नेताओं द्वारा किया जाता रहा है। अमेरिकी लोकतंत्र ऐसे कई जानलेवा हमलों के दा$गों से भरा पड़ा है। दु:ख की बात है कि पद पर रहते हुए चार अमेरिकी रष्ट्रपतियों- लिंकन, गारफील्ड, मैककिनले और कैनेडी की हत्या कर दी गयी; जबकि रीगन, फोर्ड, ट्रूमैन और रूजवेल्ट सहित कई अन्य उन लोगों में से हैं, जो अपने जीवन पर हमले के बाद बच गये। यह याद रखना चाहिए कि जिस लोकतंत्र में विचारधाराओं का टकराव होता है और जो स्वस्थ लोकतंत्र का आधार है, वहाँ राजनीतिक हिंसा का कोई स्थान नहीं है।

तहलका आवरण कथा : अब जबकि ‘तहलका’ दुनिया-भर में हत्या के प्रयास और लोकतंत्रों के लिए ख़तरे की निंदा करता है, हमारे इस अंक में की कवर स्टोरी- ‘क्रिकेट में कोचिंग घोटाला!’ में ‘तहलका’ एसआईटी ने कभी न ख़त्म होने वाले भ्रष्टाचार के बीच वर्षों पहले मैच फिक्सिंग कांड के बाद आईसीसी कोचिंग प्रमाण-पत्रों में बड़े पैमाने पर धोखाधड़ी को उजागर किया गया है। फ़ज़ीर् ग्राहक बने ‘तहलका’ रिपोर्टर के जासूसी कैमरे के सामने एक दलाल दावा करता है- ‘आपको चयन प्रक्रिया या परीक्षा के बारे में चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है। मैं इसका ध्यान रखूँगा; क्योंकि मैंने पहले भी इस तरह से प्रमाण-पत्र प्राप्त किया है।’

आईसीसी, जो क्रिकेट के लिए 108 सदस्य देशों का प्रतिनिधित्व करते हुए वैश्विक शासी निकाय के रूप में कार्य करता है; वर्ष में दो बार लेवल-1, लेवल-2 और लेवल-3 के लिए क्रिकेट कोचिंग शिक्षा पाठ्यक्रम आयोजित करता है। दलालों का दावा है कि उन्होंने प्रमाण-पत्रों की व्यवस्था करने के लिए दुबई में आईसीसी मुख्यालय में अपने संपर्कों का लाभ उठाया था और हमें (‘तहलका’ रिपोर्टर को) बस लेवल-1 का कोर्स पूरा करने के लिए अपने उम्मीदवार (जो कि काल्पनिक है) को एक सप्ताह के लिए दुबई भेजना है; और वे (दलाल) बाक़ी काम सँभाल लेंगे। इससे पता चलता है कि सज्जनों के इस खेल में सब कुछ ठीक नहीं है।

ज़हरीले भी हैं महँगे होते फल और सब्ज़ियाँ

योगेश

बाज़ार में बिकने वाले खाने के सामान की कोई गारंटी नहीं है। फलों और सब्ज़ियों को संरक्षित करने और ताज़ा दिखाने के लिए उन पर ज़हरीली दवाओं का प्रयोग मुनाफ़ाख़ोर व्यापारी कर रहे हैं। ग्राहकों को इस बारे में बहुत जानकारी नहीं है। फलों और सब्ज़ियों के भाव आजकल आसमान छूने लगे हैं, जिसका सीधा असर ग्राहकों की जेब पर पड़ रहा है। बीते एक महीने के अंदर कई सब्ज़ियों और फलों के दाम दो से चार गुने बढ़ चुके हैं। फलों और सब्ज़ियों के बढ़ते दामों ने आम ग्राहकों का बजट बिगाड़ दिया है। इस समय बाज़ार में फुटकर में आलू 40 से 50 रुपये किलो, प्याज 50 से 60 रुपये किलो, टमाटर 60 से 80 रुपये किलो, लहसुन 280 से 400 रुपये किलो और दूसरी सभी सब्ज़ियाँ 60 से 120 रुपये किलो तक बिक रही हैं। फलों के दाम आसमान पर हैं। ख़राब-से-ख़राब आम 40 रुपये किलो है और अच्छा आम 160 रुपये तक बिक रहा है। आडू, सेव, जामुन और दूसरे मौसमी फल 150 रुपये से 200 रुपये किलो तक बिक रहे हैं।

दालों, मसालों और सूखे मेवों के दाम भी आसमान छू रहे हैं। सब्ज़ियों, फलों और दूसरे खाद्य पदार्थों के महँगे होने से एक ऐसे समय में लोगों का बजट बिगड़ रहा है, जब केंद्र सरकार देश के विकास के लिए आम बजट पेश करने जा रही है। दूसरी ओर बाज़ारों में मिलने वाली हरी सब्ज़ियों और फलों में ज़हरीली दवाओं के छिड़काव या उनके इंजेक्शन लगाकर ग्राहकों को बीमार करने का खेल चल रहा है। ज़हरीले फल और सब्ज़ियाँ खाने से लोगों के शरीर में असाध्य रोग बढ़ रहे हैं। देश के पिछले महीने फुटकर सब्ज़ियों की महँगाई 7.4 प्रतिशत पर पहुँच गयी थी, जबकि फूड इन्फ्लेशन में सब्ज़ियों की दर 15 प्रतिशत के लगभग थी।

मौज़ूदा समय में सब्ज़ियों के दाम हर दिन बढ़ रहे हैं। गर्मियों और बारिश में हरी सब्ज़ियों की बढ़ी हुई माँग के कारण भी उनके दाम बढ़ रहे हैं। गर्मियों और बारिश में हरी सब्ज़ियों की पैदावार कम हो जाती है। इसके अलावा बारिश में सब्ज़ियों की फ़सलें ख़राब होने के चलते सब्ज़ियाँ बाज़ार में और कम आती हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि सब्ज़ियों पर महँगाई दर अभी और बढ़ सकती है। सब्ज़ियों की तरह ही फलों के दाम भी बारिश में बढ़ने का कारण इस बार बड़ी विकट गर्मी ही रही है।

महँगाई के बारे में जानकार कह रहे हैं कि भारत के प्याज के निर्यात पर रोक लगने के बाद भी इस बार प्याज का दाम 100 रुपये किलो तक जा सकता है। प्याज की तरह टमाटर भी 100 रुपये किलो से ऊपर जा सकता है। वहीं आलू भी 60 रुपये किलो से 80 रुपये किलो बिक सकता है। हाल ही में किये गये एक सर्वेक्षण में भारत के 343 ज़िलों के 48,000 से ज़्यादा घरेलू उपभोक्ताओं को शामिल किया गया। उपभोक्ताओं ने सब्ज़ियों के बढ़ते दाम को लेकर चिन्ता जतायी है। उन्होंने प्याज, आलू और टमाटर जैसी सब्ज़ियों की क़ीमतों में बढ़ोतरी को ग़तल बताया है। खाने के सामान में मिलावट की बात करें, तो एक ओर किसान अपने खेतों में कीटनाशकों का उपयोग कर ही रहे हैं और किसानों से ज़्यादा कुछ मुनाफ़ाख़ोर सब्ज़ी विक्रेता ग्राहकों और उनके परिवार के जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं। डॉक्टरों के यहाँ बढ़ती रोगियों की भीड़ से इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ज़हरीली सब्ज़ियाँ और फल खाने से उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ रहा है?

सलाह दी जा रही है कि फलों और सब्ज़ियों को साफ़ पानी से अच्छी तरह धोकर ही खाएँ। लेकिन इन फलों और सब्ज़ियों को ज़हरीला बनाने वालों पर कोई रोक नहीं लग रही है। डॉक्टर और दवाओं के जानकार कह रहे हैं कि केमिकल से पले, बढ़े, पके फल और सब्ज़ियाँ खाने से छोटे रोगों से लेकर कैंसर तक होने की संभावनाएँ बढ़ रही हैं। इन ज़हरीले फल और सब्ज़ियाँ खाने से ज़्यादातर लोगों के लीवर, किडनी, फेफड़े और आँतें कमज़ोर ओर ख़राब हो रही हैं। इससे बचने का उपाय ज़हरीली दवाओं का प्रयोग करने वालों को रोकने के अलावा कोई दूसरा नहीं है। किसानों को जैविक खेती करने पर ज़ोर देना चाहिए। जैविक सब्ज़ियाँ और फल जल्दी ख़राब नहीं होते और न ही वो जल्दी सूखते हैं।

जैविक खेती में कीट भी कम लगते हैं, और अगर लगते हैं, तो जैविक घोल बनाकर उन्हें समाप्त किया जा सकता है। फर्टिलाइजर के उपयोग से ज़्यादा पैदावार का लालच किसानों को नहीं करना चाहिए। देशी बीजों को संरक्षित करके उन्हें बोकर अपनी फ़सलों में देशी खादें डालें, जो गोबर, सब्ज़ियों के छिलकों, फ़सलों के अवशेषों, नीम, केंचुओं से बनती हैं। इससे फ़सलों की पैदावार बढ़ेगी, बचत होगी और किसानों को ख़ुद से लेकर उपभोक्ताओं तक को बीमारियाँ नहीं होंगी। जैविक फ़सलों में कीट ख़ुद ही कम लगते हैं; क्योंकि गोबर, नीम से कीट नहीं लगते। अगर फिर भी फ़सलों में कीट लगें, तो पशुओं के मूत्र, गोबर और नीम के घोल का छिड़काव करने से फ़सल को नुक़सान नहीं होगा और कीट नहीं रहेंगे।

किसानों से ख़रीदकर जो मुनाफ़ाख़ोर और व्यापारी सब्ज़ियों और फलों में ज़हरीली दवाएँ मिलाते हैं, उनसे निपटने के लिए सरकारों को खाद्य सुरक्षा विभागों, उपभोक्ता विभागों और पुलिस को निर्देश देना चाहिए। घातक बीमारियों को देखते हुए बाज़ारों की सब्ज़ियों के बजाय लोगों को घरेलू सब्ज़ियाँ अधिक उपयोग में लेनी चाहिए। जैसे दाल, बेसन, राजमा, मंगोड़ी, कड़ी, छोले, छाछ और दही से बनी सब्ज़ियाँ आदि। इनसे घातक रोगों से भी बचा जा सकेगा और महँगाई से भी। वहीं मुनाफ़ाख़ोरी के चक्कर में फलों और सब्ज़ियों को ज़हरीला बनाने वालों को पकड़ने के लिए गोदामों से लेकर सब्ज़ी मंडियों में ग्राहकों के रूप में छापेमारी की जानी चाहिए और फलों सब्ज़ियों में ख़तरनाक केमिकल्स का प्रयोग करने वालों को तुरंत पकड़ा जाना चाहिए। नये-नये रोगों को पनपने से रोकने के लिए सरकार को जैविक खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित करना चाहिए और मुनाफ़ाख़ोरों को जेल भेजना चाहिए।

ऑस्ट्रेलिया स्थित खाद्य मानक ऑस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड ने घरेलू और आयातित खाद्य पदार्थों में मौज़ूद कृषि और पशु चिकित्सा रासायनिक अवशेषों के लिए अधिकतम अनुमत सीमा निर्धारित की है और खाद्य पदार्थों में अनुमत कृषि और रासायनिक अवशेषों के स्तर को सुरक्षित मानकर सर्वोत्तम कृषि उद्योगों को शुद्धिकरण के नियमों का अनुपालन करने के न्यूनतम संभव स्तर का प्रतिनिधित्व करने को प्रतिबद्ध किया हुआ है।

कई दूसरे देशों में भी ज़हरीली कीटनाशक दवाओं के प्रयोग पर प्रतिबंध है। लेकिन हमारे देश में नुक़सान वाले रसायनों के खुले प्रयोग पर कोई रोक नहीं है। किसानों को उनके खेतों में ज़हरीली दवाएँ लगाने के लिए उकसाया जाता है। जबकि ये कीटनाशक ऐसे ज़हरीले रसायन हैं, जो कृषि कीटों को मारने के के बाद अपना असर फ़सल उत्पादों पर छोड़ देते हैं और इन्हें खाने वालों में समस्याएँ पैदा करते हैं। इससे बचने के लिए किसानों को पशुपालन में विकास को बढ़ावा देने और फीड आवश्यकताओं में कटौती करने की ज़रूरत है। क्योंकि कीटनाशक ज़हरीली दवाओं से रोग बढ़ने के अलावा हमारी उम्र कम करती है और की आनुवंशिक रोगों को बढ़ाने के लिए ख़तरनाक हैं। कीटनाशकों का प्रयोग पशुओं के लिए भी नुक़सानदायक है, जिसका अर्थ है कि आप इनका जितना अधिक उपभोग करेंगे, संभावित जोखिम उतना ही अधिक होगा।

कुछ लोग फलों और सब्ज़ियों में रसायनों का प्रयोग बेधड़क होकर खुलेआम करते हैं। इससे प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाली शुद्ध सब्ज़ियाँ और शुद्ध फल ज़हरीले हो जाते हैं। रसायनों और कीटनाशकों पर कई देशों में प्रतिबंध होने के अलावा कई खाद्य पदार्थों को बेचने वालों से लेकर सरकारें परीक्षण करवाती रहती हैं। लेकिन हमारे यहाँ कभी अचानक कोई मिलावटी सामान पकड़ा जाता है, तब पता चलाता है कि लोग पूरी तरह ज़हर खा रहे थे। अफ़सोस कि कुछ दिन बाद फिर से लोग भूल जाते हैं और वही खाने की चीज़ें फिर बाज़ार में धड़ल्ले से बिकने लगती हैं। ऑस्ट्रेलिया में पिछले 30 वर्षों से फलों और सब्ज़ियों में कीटनाशक अवशेषों के स्तर पर बारीक़ी से निगरानी की जा रही है। कीटनाशकों जैसे कृषि रसायनों के सही प्रयोग की निगरानी के लिए वहाँ की सरकार ने कई उपज-निगरानी कार्यक्रम चला रखे हैं। इससे किसान इस बात का ख़याल रखते हैं कि जब उनका उत्पाद बाज़ार में जाए, तो उसमें कोई रसायन न हो। हमारे यहाँ इस तरह की कोई जाँच न पहले होती है और न बाद में। हमारे देश में हर साल ज़हरीला भोजन करने के कारण लाखों लोगों की मौत होती है। करोड़ों लोग पेट के रोगों से परेशान हैं और दूसरे रोगियों की संख्या भी बहुत बड़ी है। इसलिए हमारे देश में ज़हरीले खाद्य पदार्थ बिकने पर तुरंत रोक लगनी चाहिए और मिलावटख़ोरों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई होनी चाहिए। अगर केंद्र सरकार इस तरफ़ ध्यान देकर जैविक खेती करने और मिलावट रोकने के लिए क़दम उठाए, तो देश के लोगों को शुद्ध खान-पान उपलब्ध कराने में कम-से-कम 25 से 30 वर्ष से अधिक समय लग जाएगा। आज काफ़ी संख्या में लोग जैविक उत्पादों की माँग कर रहे हैं। लेकिन भ्रष्टाचारियों की रिश्वत की भूख के आगे उनकी माँग का कोई असर नहीं होता है और मुनाफ़ाख़ोर जीत रहे हैं।

धीरे-धीरे हो रहा योगी का घेराव!

– क्या सहयोगी दलों के ज़रिये की जा रही है योगी को कमज़ोर करने की साज़िश ?

के.पी. मलिक

लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा को भारी नुक़सान हुआ है। उत्तर प्रदेश का कंट्रोल दिल्ली अपने हाथ में रखकर चुनाव लड़ रही थी, जिसका ख़ामियाज़ा उसको 37 सीटें हारकर उठाना पड़ा है। बाबा ने इस चुनाव में शीर्ष नेतृत्व के इशारे पर काम किया। लेकिन अब दिल्ली अपने सहयोगियों के ज़रिये हार का ठीकरा बाबा पर फोड़ते हुए दबाव बनाने की कोशिश कर रही है। लेकिन बाबा ने अब पूरा कंट्रोल अपने हाथ में ले लिया है, जिसकी बानगी नये मुख्य सचिव की नियुक्ति के रूप में देखी है। कहा तो यह भी जा रहा है कि उपचुनाव में वह अपने हिसाब से उम्मीदवारों को मैदान में उतारने की कोशिश में हैं।

जानकारों का कथित आरोप है कि योगी आदित्यनाथ लंबे समय से गुजराती जोड़ी के निशाने पर हैं; लेकिन लोकसभा चुनाव का रिजल्ट अच्छा न आने के बाद हार का सारा ठीकरा उनके सिर पर फोड़ने की कोशिश की जा रही है। हालाँकि इसमें कोई दो-राय नहीं कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा के टिकट वितरण में भाजपा के नेतृत्व में उनकी दी हुई उम्मीदवारों की लिस्ट पर ग़ौर नहीं किया गया। यह ऐसे ही आरोप नहीं लग रहा है, बल्कि इस बात की बाक़ायदा चर्चा चल रही है कि उत्तर प्रदेश में टिकट बाँटने का काम देश के गृह मंत्री अमित शाह ने अपने हिसाब से किया, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सहमति तो होगी ही। लेकिन प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उससे ख़ुश नहीं थे; क्योंकि वह जानते थे कि कहाँ से किस उम्मीदवार की जीत आसानी से हो सकती है। लेकिन अब हार का ठीकरा मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के सिर पर फोड़ने की कोशिशें की जा रही हैं। और ये दबाव भाजपा के नेताओं से ज़्यादा सहयोगी दलों के नेताओं के ज़रिये बनाया जा रहा है, जिससे योगी पर आसानी से दबाव बन सके और वह कमज़ोर हो सकें। यानी उन्हें धीरे-धीरे घेरा जा रहा है।

सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के सहयोगी दलों को क्यों एकाएक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कमियाँ नज़र आने लगी हैं? केंद्र की एनडीए सरकार में पिछले 10 वर्षों से शामिल अपना दल (एस) की अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल को अब लगता है कि प्रदेश में आरक्षण का दुरुपयोग हो रहा है। पिछले दिनों उन्होंने मुख्यमंत्री योगी को एक पत्र लिखकर उनकी सरकार की ख़ामियों की ओर इशारा किया था। एनडीए की सहयोगी पार्टी अपना दल (एस) की प्रमुख अनुप्रिया पटेल को केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री की कुर्सी मिलते ही अचानक पिछड़ों की याद कैसे आ गयी? क्या अनुप्रिया पटेल को उत्तर प्रदेश में अपना पिछड़ा जनाधार खिसकता हुआ नज़र आ रहा है? और वह उसे बचाने के लिए भर्तियों में आरक्षण के मुद्दे को हवा देने की कोशिश कर रही हैं। अनुप्रिया पटेल के पत्र लिखने के साथ ही उनके पति आशीष पटेल, जो कि योगी सरकार में मंत्री हैं; भी मिज़ार्पुर में ख़राब प्रदर्शन के लिए प्रदेश में पिछड़ों की समस्याएँ गिना रहे हैं और कह रहे हैं कि पिछड़ों की समस्याएँ हल नहीं हो रही हैं।

हालाँकि केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया के आरोप को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। क्योंकि उन्होंने 69,000 अध्यापकों की जिस भर्ती में आरक्षण देने में अनियमितता का आरोप लगाया है, उस पर राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग पहले ही आपत्ति जता चुका है। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की एक छ: पन्नों की अंतरिम रिपोर्ट में कहा गया है कि इस भर्ती में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित 5,844 सीटें सामान्य वर्ग को दे दी गयीं। शिक्षक भर्ती में इस अनियमितता को विपक्ष ने लोकसभा चुनाव में मुद्दा भी बनाया था। विपक्ष ने इसे आरक्षण पर हमले के रूप में पेश किया था और वह आरक्षित वर्ग के लोगों में यह भावना पैदा करने में सफल हो गया था कि भाजपा फिर अगर सरकार में आयी, तो वह आरक्षण ख़त्म कर देगी। यही कारण है कि भाजपा को लोकसभा चुनाव में भारी नुक़सान उठाना पड़ा। हालाँकि प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने केंद्रीय राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल को पत्र के जवाब में कहा है कि भर्तियों में पूरी तरह आरक्षण लागू करने को लेकर पालन हो रहा है।

दूसरी तरफ़ एनडीए में ही शामिल निषाद पार्टी के प्रमुख और योगी कैबिनेट में मंत्री संजय निषाद ने भी योगी सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है। संजय निषाद कह रहे हैं कि आरक्षण के मुद्दे पर सपा, बसपा और कांग्रेस जैसे दल ख़त्म हो गये। आरक्षण संविधान का दिया हुआ हक़ है, जिसमें कई विसंगतियाँ हैं, जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। अगर ये कमियाँ दूर हो जाएँ, तो कई मुद्दों का हल हो जाएगा। उनकी माँग है कि पिछड़ों के साथ-साथ निषादों के आरक्षण पर भी सरकार को चर्चा करनी चाहिए। वह प्रदेश में 10 सीटों पर होने वाले उपचुनाव में अपने लिए दो सीटें भी माँग रहे हैं।

कुछ राजनीतिक जानकार मान रहे हैं कि इस प्रकार से योगी सरकार पर आरोपों से ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ख़िलाफ़ पिछड़ों को भड़काया जा रहा है और ऐसा नहीं है कि यह उत्तर प्रदेश में भाजपा के सहयोगी दल ही कर रहे हैं। कहीं-न-कहीं भाजपा में कई विधायक और मंत्री भी ऐसे हैं, जो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर हमलावर हैं। आरक्षण में घपला करने के आरोप कहाँ तक सही हैं और कितने ग़लत? यह तो मैं नहीं कह सकता। लेकिन इसका कुछ असर योगी के ऊपर ज़रूर पड़ रहा होगा, क्योंकि अभी वह दूसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं और उन्हें अपने समर्थकों की संख्या घटने का डर तो रहेगा ही। तो क्या माना जाए कि सहयोगी दलों के इस प्रकार के वाद-विवाद और पत्राचार से मुख्यमंत्री योगी को कमज़ोर करने की साज़िशें और कोशिशें केवल बाहर से नहीं, बल्कि अंदर भी हो रही हैं? लेकिन भाजपा के सहयोगी दलों के नेताओं के अलावा भाजपा के नेताओं को यह समझ होनी चाहिए कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को कमज़ोर करने से भाजपा ही कमज़ोर होगी। क्योंकि उत्तर प्रदेश में भाजपा के समर्थकों की आज जो भी संख्या है, उसमें सबसे ज़्यादा समर्थक योगी आदित्यनाथ के ही हैं। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को यह भी सोचना चाहिए कि विपक्ष जानता है कि जब तक दिल्ली और लखनऊ के रिश्ते तल्ख़ नहीं होंगे, तब तक उत्तर प्रदेश में भाजपा का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। इसलिए अगर भाजपा में या उसके सहयोगी दलों वाले एनडीए में योगी आदित्यनाथ की अगर ख़िलाफ़त रहेगी, तो आगामी चुनावों में भाजपा को प्रदेश में बड़ा नुक़सान होगा। हालाँकि योगी ने पिछले दिनों 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव की कमान अपने हाथ में लेते हुए पिछले दिनों 15 मंत्रियों की बैठक बुलाकर उनको इन 10 विधानसभा क्षेत्रों का प्रभारी बनाया और कहा कि इन विधानसभाओं पर कौन उपयुक्त उम्मीदवार हो? कहाँ किस वजह से नाराज़गी है? उसको कैसे ठीक किया जाए? इसकी रिपोर्ट वे जल्द ही उन्हें (मुख्यमंत्री को) सौंपें। योगी का 15 मंत्रियों का टीम बनाकर क्षेत्र की रिपोर्ट माँगना जताता है कि वह किसी भी हाल में यह उपचुनाव हारना नहीं चाहते; क्योंकि यह उपचुनाव भाजपा और योगी के लिए भी एक परीक्षा है, जो उत्तर प्रदेश में इस पार्टी और मुख्यमंत्री योगी का भविष्य तय करेगा।

बहरहाल सहयोगियों के बारे में तो कुछ नहीं कहा जा सकता; क्योंकि वो पाला कभी भी बदल सकते हैं और सरकार किसी और दल की बनते ही या बनने के आसार दिखते ही उन्हें ऐसा करने में समय नहीं लगेगा। लेकिन भाजपा के नेताओं को विचार करना होगा कि कोई भी पार्टी को सिर्फ़ बाहरी सहयोगियों के विरोध से नहीं, बल्कि भीतरघात से भी बचाया जाना ज़रूरी होता है। लेकिन दूसरी तरफ़ कुछ भाजपा नेताओं की कथित शिकायते हैं कि सरकार में उनकी सुनी ही नहीं जाती है।

मौत का सत्संग

धर्म और अंधविश्वास के बीच की रेखा बहुत महीन होती है। कब कोई उसे लाँघ जाए, पता ही नहीं चलता। यह अचरज की ही बात है कि सनातन धर्म में हम जिन देवी-देवताओं (भगवानों) को सदियों से पूजते आ रहे हैं, उन्हें किसी ने नहीं देखा। लेकिन हमारा उनमें अटूट विश्वास है। क्योंकि वे पौराणिक कथाओं से हम तक पहुँचे हैं। उनकी शक्तियों में भी असंख्य लोगों का विश्वास है; क्योंकि ये भगवान सनातन का आधार हैं। यह सही है कि भगवान के नाम पर पाखण्ड करने वाले भी असंख्य पैदा हो गये हैं, जिनमें से कुछ तो ख़ुद ही स्वयंभू भगवान बन बैठे हैं। ईश्वर की शक्ति और इन पाखंडियों के बीच की इस महीन रेखा को न समझ पाना ही अंधविश्वास में डूब जाना है।

यह अंधविश्वास कितना गहरा है, इसका उत्तर प्रदेश में हाथरस के हादसे से मिल जाता है। इतने वर्षों तक जो सूरजपाल उर्फ़ भोले बाबा अपने दर्शन मात्र से भक्तों को संकट से उवारने की घुट्टी पिलाता रहा, वह 121 लोगों की ज़िन्दगी लील लेने वाले हादसे के तुरंत बाद भक्तों को संकट में छोड़कर ग़ायब हो गया। भक्त-तो-भक्त, प्रशासन और पुलिस ने भी अपनी आँखें बंद कर लीं और हादसे के इतने दिन बीत जाने के बाद भी उसके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गयी है, जो दर्शाता है कि किस तरह धर्म के नाम पर जनता को उल्लू बनाने वाले तथाकथित बाबा पैसे और जन-समर्थन के दम पर राजनेताओं और प्रशासन के प्रश्रय में फलते-फूलते और बचते हैं।

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जिस उत्तर प्रदेश में यह हादसा हुआ, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ख़ुद उसी प्रदेश के एक संन्यासी हैं। कम-से-कम वह ख़ुद तो ऐसा दावा करते ही हैं। उनके भक्त और राजनीतिक समर्थक उन्हें बुलडोज़र बाबा कहते हैं। लेकिन न इस हादसे में 121 लोगों की जान लेने के आरोपी बाबा का कुछ बिगड़ा, न उसके आश्रम पर बुलडोज़र चला। क्या संविधान की शपथ लेने वाले मुख्यमंत्री आदित्यनाथ का यह धार्मिक पक्षपात है? क्या उनकी सरकार ने एक ऐसे बाबा, जो जातिगत कारणों से भाजपा की राजनीति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है; को अभयदान दे दिया? किसी मुस्लिम संगठन या संस्था के धार्मिक आयोजन में इतना बड़ा हादसा हुआ होता, तो क्या बाबा का बुलडोज़र अब तक ज़िम्मेदारों के यहाँ नहीं पहुँचता? योगी सरकार की पहचान ही बुलडोज़र-सरकार वाली बन गयी है। लिहाज़ा ऐसा सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या यह बुलडोज़र वहाँ थम जाता है, जहाँ योगी और भाजपा के राजनीतिक हित आड़े आ जाते हैं?

एक ऐसा ही बाबा है- गुरमीत राम रहीम सिंह। हरियाणा की जेल में बंद इस बाबा पर गंभीर आरोप हैं और दोषी सिद्ध होने के बाद सज़ा काट रहा है। लेकिन वहाँ भाजपा सरकार की बेशर्मी देखिए, जब तब उसे पेरोल दे दी जाती है। हद तो यह है कि पिछले एक साल में चुनाव के कारण उसे कम-से-कम तीन बार पेरोल दी जा चुकी है। शायद हाथरस में अपने अनियोजित सत्संग में 121 लोगों की मौत का कारण बनने वाले कथित भोले बाबा के ऊपर भी उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार की मेहरबानी इन्हीं राजनीतिक कारणों से हो!

इस हादसे के बाद बाबा के प्रबंधकों के हाथों प्रताड़ित होने वाले कई लोग अब खुलकर सामने आ रहे हैं। और जो ख़ुलासे वे कर रहे हैं, वो निश्चित ही चौंकाने वाले हैं। इनमें से एक यह भी है कि बाबा के आश्रम जाने वाले कुछ लोग हाल के वर्षों में अचानक ग़ायब हो गये। इनमें एक महावीर के परिजन अब खुलकर सामने आये हैं। इसे लेकर उन्होंने दन्नाहार थाने में बाक़ायदा शिकायत दर्ज करायी है। हाथरस की घटना के अब तक जो तथ्य सामने आये हैं, उनसे साफ़ ज़ाहिर होता है कि 121 लोगों की ज़िन्दगी लेने वाले इस हादसे के लिए बाबा के आश्रम के प्रबंधक (आयोजक) और योगी सरकार का प्रशासन, दोनों ज़िम्मेदार हैं। इतनी बड़ी तादाद में लोगों को एक ऐसी जगह क्यों इकट्ठा होने दिया गया, जहाँ उचित व्यवस्था ही नहीं थी? आयोजकों के ख़िलाफ़ एफआईआर हुई, बाबा को छोड़ दिया गया। क्यों? किसी को नहीं मालूम।

पुलिस की सफ़ाई है कि सत्संग की मंज़ूरी बाबा के नाम से नहीं ली गयी थी। अभी तक जो जानकारी सामने आयी है, उससे साफ़ पता चलता है कि सत्संग में न तो इतनी संख्या में लोगों के लिए इंतज़ाम था, न सुरक्षा की व्ववस्था थी और न ही आयोजकों में से कोई ज़िम्मेदारी से वहाँ यह सब कर रहा था। अस्पतालों के अधिकारियों ने स्वीकार किया है कि हादसे के बाद जब घायलों को उनके यहाँ लाया जाने लगा, तो उनके इलाज का कोई त्वरित इंतज़ाम वहाँ नहीं था। कई की मौत हो चुकी थी। ज़ाहिर है भक्तों / लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया गया। ख़ुद को भगवान कहने वाला उनका बाबा उन्हें संकट में छोड़कर ग़ायब हो चुका था।

उत्तर प्रदेश सरकार ने जो एसआईटी इस हादसे की जाँच के लिए बनायी, उसने अपनी रिपोर्ट में कई महत्त्वपूर्ण बातें कहने के अलावा यह भी कहा कि हादसे के पीछे किसी साज़िश से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन बहुत से जानकार मानते हैं कि ऐसा बाबा को बचाने के लिए किया जा जा रहा है। साज़िश की आड़ लेने की कोशिश हो रही है। जानकारी के मुताबिक, भीड़ के बीच भगदड़ के बाद कुचल रहे लोगों को रोकने और घायल लोगों के घटनास्थल पर छूटे कपड़ों, जूतों-चप्पलों आदि को उठाकर बाबा के लोगों ने पास के खेतों में उगी फ़सल के बीच फेंककर सुबूतों मिटाने का धत्कर्म किया। इस तरह बाबा के भक्तों की मौत आयोजकों और बाबा के सेवादारों की घोर लापरवाही के कारण हुई। बाबा के कार्यक्रम के आयोजकों और सेवादारों का यह कुकृत्य भारतीय न्याय संहिता-2023 की धारा-105 / 110 / 126(2) / 223 / 238 के तहत अपराध की श्रेणी में आता है।

घटना के बाद घायलों को जब हाथरस, अलीगढ़, एटा के अस्पतालों में इलाज के लिए ले जाया गया, तो उनकी संख्या इतनी ज़्यादा थी कि वहाँ इंतज़ाम बहुत कम पड़ गये और शायद कुछ लोग, जिन्हें बचाया जा सकता था; नहीं बचाया जा सका। आरोप है कि बाबा के सत्संग के आयोजकों ने वहाँ जुटने वाली भीड़ की संख्या को छिपाया। इंतज़ाम से कहीं ज़्यादा लोगों को वहाँ आने दिया गया। सत्संग स्थल पर अनुमति में ट्रैफिक-नियंत्रण के लिए प्रशासनिक दिशा-निर्देशों में से ज़्यादातर का आयोजकों ने उल्लंघन किया। हाथरस घटना में गंभीर धाराओं में दर्ज हुई एफआईआर में इनमें से ज़्यादातर आरोपों का ज़िक्र है। एसआईटी और पुलिस की प्रारंभिक जाँच के आधार पर बाबा के मुख्य सेवादार देव प्रकाश मधुकर सहित कई अज्ञात आयोजकों, सेवादारों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया गया।

नयी भारतीय न्‍याय संहिता के तहत दर्ज एफआईआर में धारा-105 (ग़ैर इरादतन हत्या) और धारा-238 (सुबूत छिपाना) भी लगायी गयी हैं। इससे ज़ाहिर होता है कि बड़े पैमाने पर लोगों के जीवन से खिलवाड़ किया गया और घोर लापरवाही की गयी। हालाँकि जिस बाबा के सत्संग में यह सब हुआ, उस कथित जगद्गुरु साकार विश्वहरि भोले बाबा पर आज तक एफआईआर दर्ज नहीं की गयी है। आयोजकों ने यह जानते हुए भी कि वहाँ लाखों की भीड़ जुटेगी, सिर्फ़ क़रीब 80,000 लोगों के शामिल होने की मंज़ूरी प्रशासन से ली थी। यह किसके कहने पर उन्होंने किया? क्या पहले भी ऐसा ही किया जाता रहा है और लोगों का जीवन ख़तरे में डाला जाता रहा है? यह गहन जाँच का विषय है। सत्संग के दौरान क़रीब ढाई लाख लोगों के जुटने से वहाँ के जीटी रोड पर यातायात ठप हो गया था।

कहा गया है कि यह भगदड़ तब हुई, जब अंधविश्वासी भक्तों ने सूरजपाल उर्फ़ भोले बाबा के प्रवचन के बाद उसके निकलने वाले मार्ग की धूल को भगवान का प्रसाद मानकर उसे समेटने की कोशिश की। इससे भीड़ में भगदड़ मच गयी। लोगों के ऊपर आने से नीचे फँसे हज़ारों लोग दबने लगे। आरोप है कि इतना कुछ होने के बीच बाबा के आयोजकों / सेवादारों ने दबती-कुचलती भीड़ को डंडों के ज़रिये जबरदस्ती रोक दिया। इससे बड़ी संख्या में लोगों का दबाव बढ़ गया और महिला, बच्चे, पुरुष कुचलते चले गये। ज़ाहिर है बाबा के ये लोग अपनी लापरवाही और बदइंतज़ामी के कारण कई लोगों की मौत का कारण बने।

घटना को लेकर राजनीति भी ख़ूब हुई। लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गाँधी अकेले ऐसे राष्ट्रीय नेता रहे, जो पीड़ित परिजनों से जाकर मिले। उन्होंने योगी सरकार से पीड़ितों के लिए अधिक मुआवज़े की माँग की। ख़ुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी हाथरस गये और तमाम जानकारियाँ लीं। लेकिन सवाल तो यह है कि देश में क्यों, कैसे और किसके आशीर्वाद से इतने ढोंगी बाबा फल-फूल रहे हैं? इनमें से बहुतों पर धर्म के नाम पर पैसे इकट्ठे करने, अय्याशी करने, क़त्ल और ठगी करने जैसे गंभीर आरोप हैं। जेल में बंद आसाराम उर्फ़ आशुमल शिरमानी, सुखविंदर कौर उर्फ़ राधे माँ, सचिदानंद गिरी उर्फ़ सचिन दत्ता, गुरमीत राम रहीम (डेरा सच्चा सिरसा), ओम बाबा उर्फ़ विवेकानंद झा, निर्मल बाबा उर्फ़ निर्मलजीत सिंह, इच्छाधारी भीमानंद उर्फ़ शिवमूर्ति द्विवेदी, स्वामी असीमानंद, ॐ नम: शिवाय बाबा, नारायण साईं और रामपाल से लेकर ऐसे ढोंगी बाबाओं की लंबी फ़ेहरिस्त है। इन घटनाओं से तभी बचा जा सकता है, जब धर्म में अंधे हुए पड़े लोग भगवान और ढोंगी बाबाओं के बीच अंतर को समझकर अंधविश्वास की सीमा नहीं लाँघेंगे।