Wednesday, September 17, 2025
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लॉकडाउन से संकट में फँसे मज़दूरों पर तनातनी

पूरी दुनिया में लगभग सभी देशों पर कोरोना वायरस यानी कोविड-19 का खासा सन्नाटा पसरा दिख रहा है। तकरीबन पाँच-छ: महीनों से हर कहीं फैली इस लाइलाज बीमारी में लाखों की जानें जा चुकी हैं। लाखों लोग अभी भी अस्पताल में हैं और अंदेशा है कि करोड़ों लोग इससे संक्रमित हैं। अभी भी डॉक्टर इस बीमारी से निपटने के लिए वाजिब दवा ढूँढ नहीं पाये हैं। दुनिया के कई देशों में शोध कार्य चल रहा है। इस बीमारी के चलते हर देश मेें अर्थ-व्यवस्था चरमरा गयी है।

इस महामारी पर काबू पाने के विभिन्न तरीकों में लॉकडाउन सबसे मुफीद तरीका माना गया। विभिन्न देशों में अपने-अपने देश में विभिन्न चरणों लॉकडाउन रखा। लॉकडाउन के चलते उत्पादन ठप हुआ। माँग थम गयी। ठहराव हुआ। उद्योग के पहियों के ठहर जाने से प्रगति का सारा काम ठप हो गया। बड़े अमीर देश भी तेज़ी से आॢथक बदहाली की ओर बढऩे लगे। इसकी विभिन्न वजहों में पर्यटन, यातायात और उद्योगों में उत्पादन का ठप होना बताया गया। एशियाई देशों पर ज़्यादा असर पड़ा।

भारत में इस महामारी के चलते चार चरणों में लॉकडाउन हुआ। कई प्रदेशों में यह अभी भी है। यानी दो महीने से ज़्यादा की अवधि हो गयी उद्योग-धंधों के बन्द हुए। रोज़ी-रोटी के अभाव में असंगठिन क्षेत्रों के हज़ारों श्रमिक परिवारों के साथ अपने-अपने मूल प्रदेशों के गाँवों-कस्बों की ओर बिना सुविधा के लौट चले। इनमें हज़ारों को फरवरी महीने की पगार नहीं मिली थी। ठेकेदारों ने तो बहुतों के पैसे आज-कल करते हुए उन्हें घर लौटने के फैसले पर भी नहीं दिये। कोविड-19 के नाम पर तमाम प्रशासनिक जलालत झेलने के बाद ये मज़दूर क्या फिर काम पर लौटेंगे? यह एक बड़ा सवाल है।

चूँकि लॉकडाउन चरणों में बढ़ा, इसलिए इसकी बढ़ोतरी के दिनों को देखते हुए हज़ारों की संख्या में घर लौटने पर परिवार के परिवार चले। इनके न लौटने का असर परिधान, वस्त्र, हीरा उद्योगों और छोटे धंधों पर पड़ेगा। हालाँकि प्रधानमंत्री का आग्रह था कि इन्हें पूरा पैसा दिया जाए। किसी का पैसा न काटा जाए। किसी भी उद्यमी ने प्रधानमंत्री की बात पर कोई एतराज़ नहीं जताया। पर मज़दूरों को कोई ऐसा भरोसा नहीं दिया, जिससे वे घर न लौटने पर भी सोच पाते।

प्रधानमंत्री की अपील पर बड़े ही तरीके से कई छोटे-बड़े उद्योगपतियों ने कई नौकरशाहों के ज़रिये केंद्रीय मंत्रियों तक अपनी गुहार पहुँचायी। फिर अचानक मंत्रिमंडलीय बैठक ने बिना उत्पाद के मज़दूरी देने के अपने ही पुराने फैसले को ताक पर रख दिया। नये आदेश में कोई बात ही नहीं थी। इससे उद्योग जगत में खासी खलवली मची।

बड़े उद्योगों यानी कॉरपोरेट कम्पनियों के मालिकों को यह काफी नागवार गुज़रा। कुछ बड़े उद्योगपति जो देश-विदेश घूमते हुए यह मानते रहे हैं कि उद्योग कम्पनियों की अपनी कॉरपोरेट सामाजिक ज़िम्मेदारी भी होती है। उन्होंने इस सम्बन्ध में कॉरपोरेट के लिए देश मेें 2014 में सामाजिक ज़िम्मेदारी को विधेयक का हवाला भी दिया। यह अप्रैल महीने से ही लागू है। अभी हाल दावोस में हुए वल्र्ड इकोनॉनिक फोरम में भारतीय कॉरपोरेट प्रमुखों ने मिलकर एक विशेष फण्ड बनाने पर सहमति जतायी थी। इसके तहत जलवायु परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए शोध-विकास, श्रमिक-प्रबन्धन सहयोग और सामाजिक विकास के विभिन्न पहलुओं पर काम करते हुए धन की कमी के बाधा न बनने के लिहाज़ से इंडियन चैंबर्स ऑफ  कॉमर्स के साथ मिलकर यह योजना बनायी थी, जिन्हें खासी सराहना मिली।

भारतीय कॉरपोरेट के प्रमुख हस्ताक्षर यह मानते हैं कि प्रधानमंत्री की अपील के बाद समुचित जवाब में पाने के लिए सडक़ पर पहुँच गये प्रशिक्षित श्रमिकों और अनपढ़ मज़दूरों को तीन महीने का पैसा देकर वापस काम पर लिया जाना चाहिए था। इन्हें दूसरे बकाया पैसे भी दिये जाने थे, क्योंकि हाल-फिलहाल ज़रूरत है कि कम्पनियों को देश में ज़ीरो से उत्पादन शुरू करने की। परेशान और आॢथक-शारीरिक तौर पर यदि उनके पैसों को देकर रोक लिया जाता, तो लम्बे समय में कम्पनियों को लाभ ही होता। उत्पाद बने बाज़ार में पहुँचें, तभी पैसा भी आयेगा। श्रमिकों और मज़दूरों के उद्योग के प्रति अपना और अनुराग भी जगेगा। यह कहते हैं अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज। उनका कहना है कि उनकी पूरी देनदारी दी जानी चाहिए, जिससे वे अपना घर-बार सँभाल सकें और अपने दु:ख को दूर कर नये लक्ष्य के लिए खुद में फिर से हिम्मत जुटा सकें।

हालाँकि राजीव बजाज इस मुद्दे पर कहते हैं कि असल बात यह है कि कई व्यवसायी और उद्योगकर्मी, जो काफी छोटे स्तर पर स्टील, रबर, होटल आदि चलाते हैं; उनके लिए हो सकता है कि तीन महीने के लॉकडाउन की अवधि का पैसा देना कठिन हो। उन्होंने जापान, सिंगापुर, वियतनाम का उदाहरण दिया, जहाँ सरकार ने खुद आगे आकर मदद की पहल ली।

वहीं विप्रो कम्पनी के अज़ीम प्रेम जी ने कहा कि उद्योगपतियों को देशज मज़दूरों का भरोसा जीतना चाहिए। देश में कृषि और उद्योग को साथ-साथ लेकर चलना ज़रूरी है। दोनों के विकास से ही देश का विकास होगा और अर्थ-व्यवस्था मज़बूत होगी। मज़दूर को असंतुष्ट रखकर उद्योगों में उत्पादन नहीं बढ़ाया जा सकता।

राजीव का कहना है कि उनकी कम्पनी की किसी मज़दूर की पगार काटने में रुचि नहीं है। आपने देखा होगा इस कम्पनी की यूनियन ने अपनी ओर से वेतन मेें कटौती का प्रस्ताव दिया। बजाज कम्पनी को ऐसे मामलों पर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है। मेरा मानना है कि अमीर देश अपने यहाँ लम्बे लॉकडाउन रख सकते हैं। लेकिन भारत के लिए यह तर्क सम्भव नहीं है। कोरोना वायरस पूरे तौर पर चिकित्सा सम्बन्धी मामला है। इसमे एक साथ सब कुछ ठीक होने की उम्मीद नहीं है। लेकिन लम्बे समय तक बन्द रखने से बड़ा नुकसान होगा। हमारे यहाँ ऐसा सम्भव नहीं है कि हम एक साल में पिछले उत्पादन की सीमा पर पहुँच जाएँ। हमारे यहाँ ज़रूरी है कि मजदूर-उद्योगपति-प्रबन्धकों में समान सहयोग कायम रहे, जिससे प्रगति का पहिया थमे नहीं।

उधर, श्रम पर गठित संसदीय समिति (पैनेल) ने औदयौगिक सम्बन्ध कोड, 2019 पर अपनी रिपोर्ट भेज दी है। इस रिपोर्ट के अनुसार, किसी महामारी के कारण हुए लॉकडाउन, भूकम्प, तूफान, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के दौरान अपने कर्मचारियों को कम्पनी की बन्दी के दौरान का पैसा देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। इस पैनल की अध्यक्षता ओम बिरला ने की थी।

अज़ीम प्रेम जी का कहना है कि पिछले कुछ दशकों से श्रम कानूनों को इस तरह बदला गया है, मानो इनके कारण उद्योग चल नहीं पाते। जबकि यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या सामाजिक सुरक्षा हमने मज़दूरों को दी है? काम के दौरान सारी दुनिया में विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रहे मज़दूरों को वह उपयुक्त सुरक्षा पहनावा दिया जाता है, जिससे वे हादसों मेें बचे रहें। हम उसकी ज़रूरत ही नहीं समझते। टैक्स सम्बन्धी कानूनों में कटौती करने भर से देश में आॢथक सक्रियता नहीं आयेगी, बल्कि इससे न्यूनतम वेतन पाने वाले गरीब की हताशा और बढ़ेगी।

उन्होंने कहा कि जब आॢथक संकट की बात होती है, तो ग्रामीण कृषि क्षेत्र पर पड़ रहे प्रभाव की बात होती है और बेतकल्लुफी से अर्थ-व्यवस्था की चर्चा होती है। यह गलत है। एक महामारी पर काबू पाने के लिए आॢथक गतिविधि बढ़ाने की बात होती है। यह मुद्दों को गड्ड-मड्ड करना ही है। महामारी को स्वास्थ्य के मोर्चे पर निपटना चाहिए। पीडि़त व्यक्ति की मदद करनी चाहिए। केंद्र और राज्य सरकारों को यह करना चाहिए।

अभी हाल के लॉकडाउन के दौरान मेहनताना दिया जाना चाहिए या नहीं, इस पर एक कम्पनी द्वारा विभिन्न क्षेत्रों की कुछ कम्पनियों का एक सर्वे किया गया। इसमें यह बात साफ हुई कि हर 10 उद्योगपतियों में से आठ इस पक्ष में थे कि लॉकडाउन की अवधि का पूरा पैसा मज़दूरों को मिलना चाहिए। बहरहाल भारत सरकार ने लॉकडाउन के दौरान पैसा देने की  अपनी ही घोषणा वापस ले ली है। इसका अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन ने भी विरोध किया है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मंच पर भी भारतीय उद्योगपतियों के रुख को दर्ज किया गया होगा। देश की आज़ादी के 73 साल बाद भी देश के मज़दूरों के लिए काम के घंटों, श्रम कानूनों को खत्म करने और मज़दूरों को उनके पारिश्रमिक में कटौती करने पर असहमतियों के रुख एशियाई और यूरोपीय देशों में मज़दूरों और उद्योगपतियों में क्षमता, योग्यता और परिश्रम के लिहाज़ से करारनामा बनता है। अमूमन उसे कोई भी पक्ष तोडऩा नहीं चाहता।

कोरोना के खिलाफ व्हाट्स एप बना हथियार

संभवता कोरोना महामारी के खतरे को समझते हुए देश भर में यह पहला प्रयास था, जिसमें प्रशासन को महज़ एक व्हाट्स एप ग्रुप से घर बैठे जानकारी मिलनी शुरू हो गयी।

पहाड़ी सूबे हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा ज़िले में इसकी शुरुआत भी तब हो गयी थी, जब अभी लॉकडाउन लगा भी नहीं था। इसका असर यह हुआ कि जल्द सूचना उपलब्ध होने से वायरस का संक्रमण फैलने से रोकने में ही मदद नहीं मिली, लॉकडाउन से पैदा होने वाली दिक्कतों से जनता को राहत पहुँचाने, जिसमें मास्क और राशन देना भी शामिल हैं; में इसने बड़ी भूमिका निभायी। हिमाचल के कांगड़ा ज़िले में इसकी शुरुआत की जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ता सारिका कटोच ने। सारिका ने 21 मार्च को प्रशासनिक अधिकारियों से मिलकर यह ज़िम्मा उठाया और जल्दी ही बड़े स्तर पर ज़िले भर से पंचायत प्रधानों, महिला मण्डलों, युवा मण्डलों, स्वयं सहायता समूहों, एनजीओ और युवा क्लबों के प्रतिनिधियों के अलावा डीसी, एसपी, एसडीएम, चिकित्सा अधिकारियों को एक व्हाट्स एप ग्रुप ‘कांगड़ा अगेंस्ट कोविड-19’ से जोड़ दिया।

ग्रुप गठित होने के तीन दिन बाद ही लॉकडाउन लागू हो गया। ऐसे में यह व्हाट्स एप ग्रुप जमीनी स्तर से कोविड-19 से जुड़ी जानकारी जुटाने, ज़रूरतमंद लोगों को मास्क और खाने की चीज़ों की ज़रूरत बताने वाला बड़ा ज़रिया बन गया। यही नहीं, ये चीज़ें मिलने भी लगीं। यह इसलिए भी अहम था, क्योंकि कांगड़ा ज़िले में ही कोविड-19 के शुरू में सबसे ज़्यादा मामले आये और महामारी से पहली मौत भी वहीं हुई।

इस गो-एनजीओ एक्शन ग्रुप ‘कांगड़ा अगेंस्ट कोविड-19’ से जुड़े व्हाट्स एप ग्रुप के सदस्यों ने जानकारियाँ देने का सिलसिला शुरू कर दिया। बहुत बार ऐसा हुआ कि इसमें कई जानकारियाँ प्रशासनिक स्तर से भी पहले मिलने लगीं।

एड्स के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की प्रतिनिधि रह चुकीं सारिका का कहना है कि यह प्रयास (व्हाट्स एप ग्रुप) प्रशासन और जनता के बीच पुल बन गया, खासकर लॉकडाउन शुरू होते ही; क्योंकि इसमें आवाजाही बन्द हो गयी थी।

‘तहलका’ से बातचीत में सारिका ने कहा कि हमें डीसी, एसपी और अन्य अधिकारियों से तो ज़बरदस्त सहयोग मिला ही है, पंचायतों, महिला और युवा मण्डलों से भी खूब सहयोग मिल रहा है। चूँकि वहाँ से मिलने वाली सूचना भरोसेमंद भी होती है, उस पर अमल करने में समय की भी बचत हुई। जब हमने इसे शुरू किया, तब सरकारी स्तर पर हैंड सेनेटाइजर और मास्क की बहुत कमी थी। महिला मण्डलों ने मास्क बनाने शुरू किये और फिर घर-घर पहुँचाया गया।

ज़िले में अभाव का सामना कर रहे प्रवासी मज़दूरों को खाना उपलब्ध करवाने में भी एक्शन ग्रुप ने बड़ी भूमिका निभायी है। एक चेन बनायी गयी है, ताकि ज़रूरत की चीज़ें सही व्यक्ति को मिल सकें।

सारिका कहती हैं कि बहुत से लोग, खासकर प्रवासी मज़दूर भोजन के मामले में भी संकट की हालत में थे। ग्रुप के सदस्यों ने ज़मीनी स्तर से इसकी जानकारी साझा की और इन मज़दूरों और अन्य ज़रूरतमंदों की मदद की गयी।

सारिका बताती हैं कि खाद्य सामग्री सम्बन्धित उप मण्डल के एसडीएम के ज़रिये की वितरित की जा रही है, ताकि वह ज़रूरतमंदों तक पहुँच सके। ग्रुप के वालंटियर्स के अलावा अन्य तमाम लोगों ने अब तक क्विंटलों खाद्य सामग्री ग्रुप के पास उपलब्ध करवायी है।

ग्रुप से जुड़े सभी महिला मण्डलों ने कपड़ों से मास्क बनाने का काम किया है। यह मास्क बड़ा भंगाल सरीखे अति दुर्गम इलाकों में भी लोगों को पहुँचाये गये हैं, जहाँ जागरूकता का बहुत अभाव रहा है। ग्रुप के कार्यकर्ताओं ने वहाँ भी लोगों को कोविड-19 महामारी के खतरे से अवगत करवाया है। बड़ा भंगाल में बड़ा इलाका ऐसा है, जहाँ साधनों की ज़बरदस्त कमी है और अखबार और टीवी जैसी सुविधाएँ वहाँ नहीं हैं। कई इलाके तो ऐसे हैं, जहाँ पहुँचने में ही हफ्तों लग जाते हैं।

कांगड़ा के डीसी राकेश कुमार प्रजापति और एसपी विमुक्त रंजन के नेतृत्व में सभी सरकारी टीमों ने ज़िले में कोविड-19 को लेकर जागरूकता बनाने के लिए बहुत तेज़ी से काम किया, जिसका नतीजा बहुत सकारात्मक रहा है। दोनों ही स्वीकार करते हैं कि ग्रुप बनने से प्रशासन को बहुत मदद मिली। बड़ी संख्या में संदेश आने से मुश्किल भी आयी, लेकिन तमाम ज़रूरतमंदों की मदद भी की गयी। एक ही प्लेटफॉर्म पर पूरे ज़िले की जानकारी उपलब्ध होने से महामारी से निपटने में बड़ी मदद मिली। ग्रुप के कार्यकर्ता भी बहुत सक्रिय हैं और तमाम मुश्किलों के बावजूद ज़मीनी स्तर पर काम कर रहे हैं। दूर-दराज़ के इलाकों में भी उन्होंने आपसी दूरी के महत्त्व के प्रति लोगों को समझाया है, जिसका लोग पालन कर रहे हैं। इंसानों के साथ-साथ ग्रुप ने पालतू पशुओं का भी ध्यान रखा है। चंगर जैसे पिछड़े इलाकों में पशुओं के चारे का इंतज़ाम किया गया है। जमानाबाद इलाके के एक पंचायत प्रधान ने कहा कि कांगड़ा ज़िले में पालतू पशु एक तरह से जीवन रेखा हैं। खेतों से लेकर दूध तक उनका बड़ा रोल है। उन्होंने कहा कि लिहाज़ा ऐसे संकट काल में ग्रुप के वालंटियर्स की तरफ से चारे का इंतज़ाम बहुत बड़ी सहायता है।

ग्रुप के सदस्यों ने स्कूलों को खाली करके उन्हें क्वारंटीन वार्ड बनाने में बड़ा रोल अदा किया। जो लोग बाहर से आये, उनके खाने का इंतज़ाम भी ग्रुप सदस्यों ने घर से किया। ये लोग नियमों के मुताबिक 14 दिन के बाद ही घर जा रहे हैं।

कांगड़ा के मुख्य चिकित्सा अधिकारी गुरदर्शन गुप्ता ने कहा कि ग्रुप के ज़रिये सदस्यों को यह जनता को समझाने को कहा गया कि कोरोना एक महामारी है, लिहाज़ा इससे पीडि़त होने वाले व्यक्ति से उचित व्यवहार किया जाए।

‘तहलका’ से बातचीत में गुरदर्शन गुप्ता ने कहा कि सबको समझना होगा कि कोविड-19 भी अन्य बीमारियों की भाँति एक संक्रमण है और कोई भी इसका शिकार हो सकता है। यह आवश्यक है कि हम सब समाज का नज़रिया इसके बारे में बदलें। रोगियों और उनके परिवार के  साथ कोई भेदभाव न हो, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए। यह एक बीमारी है, कोई सामाजिक कलंक नहीं।

ग्रुप ने खाद्य सामग्री, मास्क पर ही फोकस नहीं किया सारिका ने प्रशासन के दिशा-निर्देशों और नियमों का पालन करते हुए सदस्यों की मदद से स्थानीय इकोनॉमी पर भी काम किया। सारिका के मुताबिक, लोगों को घर में सब्ज़ी उगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया है। इससे लोकल सप्लाई चेन को बरकरार रखने में बहुत मदद मिली है। किचन गार्डनिंग से लेकर खेतों में सब्ज़ी का काम जब शुरू हुआ, तो किसी ने सोचा भी नहीं था कि एक महीने के बाद यही सप्लाई चेन बनाये रखने में रामबाण साबित होगी।

ग्रुप वेबिनार का भी लगातार आयोजन कर रहा है, जिससे देश की नामी हस्तियों से लाइव चर्चा करवायी जा रही है। इसका भी बहुत सकारात्मक असर हुआ है। इसके अलावा प्रशासन की तरफ से समय-समय पर खाद्य पदार्थों की जो रेट लिस्ट जारी की जाती है, उससे ग्रुप में साझा किया जा रहा है, ताकि सम्बन्धित पंचायत प्रधान यह सुनिश्चित कर सकें कि कोई दुकानदार ज़्यादा मूल्य न वसूल सके।

अफवाहों को फैलने से रोका

सारिका बताती हैं कि दिल्ली में जब तबलीगी वाला मामला हुआ, तो अफवाहों का दौर शुरू हो गया। हमने तुरन्त हरकत में आकर सदस्यों को सक्रिय किया। सारिका ने बताया कि हमें चढियार से कोई सूचना मिली, जिस पर सदस्यों ने तुरन्त छानबीन कर उसे अफवाह पाया और लोगों को इसके बारे में बताया। हमारी पूरी कोशिश रही कि आसामजिक तत्त्व तबलीग के नाम पर समुदाय विशेष के भाइयों को परेशान न कर सकें। हमने एसपी से लेकर सभी लोकल पुलिस अधिकारियों से इस मामले में लगातार सम्पर्क साधकर रखा। चम्बा के सिंहुता में भी ऐसा ही हुआ, जिसे तुरन्त पुलिस की मदद से रोका गया। वैसे कुल मिलाकर ज़िले में सामजिक सद्भाव बना रहा, जिसमें पुलिस/प्रशासन के साथ-साथ हमारे सदस्यों का बड़ा सहयोग रहा।

जनसेवा भी एक आदत है : सारिका

36 वर्षीय सारिका कटोच एक जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता हैं। कॉमनवेल्थ यूथ प्रोग्राम के रीजनल यूथ कॉक्स में सारिका भारतीय प्रतिनिधि रह चुकी हैं। साथ ही राष्ट्रमण्डल युवा कार्यक्रम में वह एशिया क्षेत्र के लिए उपाध्यक्ष (डिप्टी चेयर) भी रही हैं।

इस दौरान उनके ग्रामीण युवाओं और महिलाओं में एचआईवी और एड्स के प्रति जागरूकता को बहुत सराहना मिली है। साल 2008 में सारिका को दक्षिण अफ्रीकी देश घाना में राष्ट्रपति चुनाव के लिए एक ‘चुनाव पर्यवेक्षक’ के रूप में नामित किया गया था। इसके अलावा उन्हें बीबीसी वल्र्ड सर्विस ट्रस्ट उनके काम के लिए देश के ‘यूथ स्टार’ पुरस्कार से सम्मानित कर चुका है। उन्होंने 2006 में चीन के एक आयोजन में युवा प्रतिनिधि के रूप में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया था। सारिका हिमाचल प्रदेश चिल्ड्रन डेवलपमेंट आर्गेनाइजेशन की चेयरपर्सन भी हैं। सारिका कई बड़े सामाजिक आयोजनों का हिस्सा रह चुकी हैं।

वे सर्वश्रष्ठ युवा पुरस्कार, सर्वश्रेष्ठ कैडेट पुरस्कार, सर्वश्रेष्ठ सांस्कृतिक कार्यकर्ता सहित राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कारों से सम्मानित हो चुकी हैं। ग्रामीण विकास में पोस्ट ग्रेजुएट सारिका कांगड़ा के छोटे से गाँव से निकलकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने में सफल रही हैं। अपने सामजिक कार्यों को लेकर सारिका ने ‘तहलका’ से कहा- ‘मेरा मानना है कि यदि आप खुद को प्रेरित करने में सक्षम हैं, तो आप कुछ भी बदल सकते हैं।

जनसेवा एक आदत की तरह है।’ राष्ट्रमण्डल की 60वीं वर्षगाँठ पर एक युवा कार्यकर्ता के रूप में 9 मार्च, 2009 को वह विशेष रूप से लंदन के मार्लबोरो हाउस स्थित राष्ट्रमण्डल के मुख्यालय में आमंत्रित किये गये विशिष्ट अतिथियों में से एक थीं और वहाँ उन्हें महारानी एलिजाबेथ द्वितीय (राष्ट्रमण्डल की प्रमुख) से भी मिलने का अवसर मिला था। उनके पति अरविंद पंवर भी सामजिक कार्यकर्ता हैं। छोटी आयु से ही सामाजिक कार्यों में जुट गयीं सारिका के पिता सेना में थे, जबकि माँ गृहिणी।

कोरोना को लेकर चलाये अभियान को लेकर सारिका कहती हैं कि हिमाचल में बहुत दूर-दराज़ के इलाके हैं। कांगड़ा में भी बड़े भंगाल जैसे दुर्गम क्षेत्र हैं, जहाँ पहुँचना ही बहुत मशक्कत का काम है। सारिका ने बताया कि हमने जब इस ग्रुप की शुरुआत की, तब लॉकडाउन नहीं लगा था। कांगड़ा ज़िला में कोविड-19 के मामले सामने आने लगे थे। लिहाज़ा हमें लोगों की चिन्ता हुई और यह ग्रुप बनाने का फैसला किया, जिसके नतीजे बहुत ही सकारात्मक रहे।

हम लोगों तक उस समय हमारे महिला मण्डलों के बनाये फेस मास्क पहुँचाने में सफल रहे, जब अभी सरकारी स्तर पर इनकी उपलब्धता न के बराबर थी। इससे वायरस को रोकने में मदद मिली।

जब लॉकडाउन लगा, तो हमें गरीबों/प्रवासियों की रोटी की चिन्ता हुई। तब हमने अपने सदस्यों के ज़रिये ज़रूरत समझी और इसका प्रबन्ध किया, जिसमें हमें सरकारी अधिकारियों से लेकर तमाम संगठनों/अन्य का पूरा सहयोग मिला। यह एक ऐसी चेन बन गयी, जिसमें सूचना की उपलब्धता भी थी और सहयोग का एक बड़ा नेटवर्क भी।

कश्मीरी मज़दूरों की मदद

इस ग्रुप ने कांगड़ा ज़िले में कटान का काम करने वाले करीब 2,900 कश्मीरी मुस्लिम मज़दूरों के लिए न केवल क्वारंटीन करने का इंतज़ाम किया, बल्कि उनके प्रारम्भिक टेस्ट में भी मदद की; ताकि कोई संक्रमित न हो। ये मज़दूर बड़ी संख्या में यहाँ आते हैं। इनमें से ज़्यादातर कटान (चरान) का काम करते हैं। कुछ बस अड्डों पर सामान ढोने का भी काम करते हैं। जब लॉकडाउन लागू हुआ, तो इन लोगों को बाहर जाने का अवसर नहीं मिला। लिहाज़ा इनकी दिक्कत को देखते हुए ग्रुप के ज़रिये ज़िले भर में उनका इंतज़ाम किया गया। उन्हें मास्क से लेकर खाने तक का सामान अब तक उपलब्ध करवाया जा रहा है।

वकीलों को औपनिवेशिक ड्रेस कोड से मिलेगी मुक्ति!

कोरोना वायरस संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए 13 मई, 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने एहतियाती कदम उठाते हुए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये पेश होने के दौरान वकीलों को ड्रेस कोड में छूट दी है। अब सुप्रीम कोर्ट के वर्चुअल कोर्ट सिस्टम के माध्यम से सुनवाई के दौरान मेडिकल एग्जिबिशन होने तक या अगले आदेश तक वकीलों को सफेद कमीज़ या सफेद सलवार-कमीज़ या सफेद साड़ी पहनने की इजाज़त दी है। यानी अदालत ने अस्थायी रूप से गाउन पहनने की ज़रूरत को फिलहाल हटा दिया है। यह निर्देश तत्काल प्रभाव से लागू हो गये हैं। औपनिवेशिक ड्रेस कोड से मुक्ति पाने के लिए तमाम कानूनी अड़चनों के पचड़े में पडऩे के बजाय सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से फिलहाल कानूनी बिरादरी ने राहत की साँस ली है।

कहने की ज़रूरत नहीं है कि ड्रेस कोड आत्मविश्वास, अनुशासन और पेशे का प्रतीक है। एक पेशेवर के रूप में वकील का व्यक्तित्व गौरवशाली होता है। वकील के ड्रेस कोड के मामले में भारत में कई बार मामूली संशोधनों के साथ ब्रिटिश शासन से अपनी विरासत के रूप में हमारे सामने आया है। 1961 का अधिवक्ता अधिनियम, जिमसें वकील के लिए परम्परागत सफेद नेक बैंड के साथ ब्लैक रोब या कोट पहनना अनिवार्य है। वकील की पोशाक का मकसद बेहद उपयोगी होता है। एक तो वकील की पहचान आम लोगों से अलग हो जाती है, जो अदालत परिसर में उसको अन्य से अलग करती है। जब कोई वकील निर्धारित ड्रेस में होता है, तो उसको पहचानने में कोई भी गलती नहीं कर सकता है। हालाँकि दोनों पक्षों के वकील, याचिकाकर्ता और प्रतिवादी एक समान ड्रेस कोड पहनते हैं। आज़ादी के बाद से इस देश में तमाम अलग-अलग परिस्थितियों को देखते हुए ड्रेस कोड लागू करने, मुकदमा दायर करने और इसकी अयोग्यता के खिलाफ कानूनी बिरादरी का एक बड़ा वर्ग आन्दोलन कर रहा था। इसमें यह निवेदन किया गया कि ब्रिटेन में इस तरह का ड्रेस कोड वहाँ के ठण्ड मौसम के हिसाब से प्रासंगिक है। जबकि हमारे यहाँ मौसम कहीं ज़्यादा गरम होता है और गर्मी के दौरान काले रंग की पोषाक यानी गाउन पहनना आसान नहीं होता। 2014, 2016 और 2017 में मद्रास और कलकत्ता उच्च न्यायालयों के वकीलों ने आन्दोलन किया कि उनके क्षेत्रों में ज़्यादा गर्मी होने के दौरान काला कोट पहनने में स्वैच्छिक छूट दी जानी चाहिए। क्योंकि पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में ऐसी प्रथा थी। हालाँकि बाद में उनके इस अधिकार क्षेत्र को अंतत: स्वीकार कर लिया गया।

बार काउंसिल रेगुलेशंस के अनुसार, ड्रेस कोड में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, सबऑर्डिनेट कोट्र्स, ट्रिब्यूनल या अथॉरिटीज में आने वाले अधिवक्ताओं को गरिमापूर्ण ढंग से पेश आने के लिए गाउन के साथ सफेद कमीज़ और व्हाइट बैंड या ब्लैक टाई के साथ निर्धारित ब्लैक ड्रेस पहनें। सुप्रीम कोर्ट या उच्च न्यायालयों में पेश होने के अलावा अधिवक्ताओं का गाउन पहनना वैकल्पिक होगा। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को छोडक़र गर्मियों के दौरान काला कोट पहनना अनिवार्य नहीं है। औपचारिक ड्रेस कोड के चलते कुछ अदालतों को शाब्दिक रूप से धारण करने के लिए मजबूरन निर्धारित ड्रेस के बिना पेश होने को अनादर माना जाता है। जैसे अदालत चाहे, तो दर्शकों को आने से मना कर सकती है। न्यायालयों ने ज़ोर देकर कहा कि कुछ व्यवसायों के साथ जुड़े औपचारिक पोशाक और औपचारिक पोशाक की उपयोगिता और आवश्यकता कई देशों में मान्यता प्राप्त है। इसलिए निर्धारित ड्रेस कोड का पालन किया जाना चाहिए। विभिन्न उच्च न्यायालयों और यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस तरह के सभी प्रयासों को रद्द कर दिया कि बार काउंसिल द्वारा बिना किसी संदेह के नियमों को अधिवक्ता के लिए केवल एक निर्धारित ड्रेस कोड में अदालत में उपस्थित होना अनिवार्य है। फिर भी एक अधिवक्ता को बाहर निकालने की शक्ति न्यायालय में उपस्थित होना उस पोशाक में निहित निहितार्थ से है, जिसमें निर्धारित पोशाक के पालन को लागू करना होता है। इस लेख में वकीलों के ड्रेस कोड के सफर को दिखाया गया है। कुछ अपवादों को छोडक़र दुनिया भर में काले और सफेद रंग को कानूनी पेशे का प्रतीक माना जाता है। सकारात्मक पक्ष पर काला रंग शक्ति और अधिकार को दर्शाता है और सफेद रंग प्रकाश, अच्छाई, मासूमियत और पवित्रता को पेश करता है।

एक सामान्य व्यक्ति के लिए कानूनी प्रणाली न्याय को अपनी आिखरी उम्मीद के रूप में देखता है। उसका प्रतिनिधित्व करने के लिए सफेद रंग को चुना जाता है। वकील का सफेद बैंड भगवान और लोगों के बीच कानूनों का पालन करने को दर्शाता है। एंग्लो-सैक्सन न्यायशास्त्र पर आधारित सभी देश इस बात को मानते हैं कि पोशाक उद्देश्य की गम्भीरता और प्रस्तुति की भावना को प्रेरित करती है, जो न्याय के विस्तार के कहीं ज़्यादा अनुकूल है। हालाँकि अमेरिका में अदालत में पेश होने वाले वकीलों को सिर्फ रूढि़वादी व्यावसायिक पोशाक पहनना अनिवार्य है। अधिवक्ता अधिनियम-1961 के तहत वकीलों को दो वर्गों में मान्यता दी गयी है। एक- वरिष्ठ अधिवक्ता और दूसरे अन्य अधिवक्ता। जबकि बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा तैयार किये गये नियम में पोशाक के लिए कोई फर्क नहीं किया जाता है। वरिष्ठ अधिवक्ता के लिए एक अलग गाउन या कोट के डिजाइन को निर्धारित किया जाता है। फिर भी लम्बे समय से चली आ रही प्रथा को बरकरार रखा गया है। 1961 के एडवोकेट्स एक्ट से पहले भी वकीलों ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष भी गुहार लगायी कि एडवोकेट्स एक्ट के तहत नियम वरिष्ठ वकीलों और अन्य वकीलों के बीच पहनावे को लेकर किसी भी तरह र्का फर्क नहीं होता था। वरिष्ठ अधिवक्ता गाउन के साथ जुड़वाँ कोट पहनते हैं, जो अन्य अधिवक्ताओं द्वारा पहनने वालों से थोड़ा अलग होता है। हालाँकि वरिष्ठ अधिवक्ताओं द्वारा ऐसे कोट और गाउन का उपयोग अवैध था। क्योंकि कोई परम्परा किसी कानून को ओवरराइड (रद्द) नहीं कर सकती, जब तक कि संसद से पास कानून के ज़रिये उसे अधिनियमित न किया गया हो।

चूँकि एक वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में किसी वकील को नामित करने का अधिकार केवल उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय को है। इसलिए अपने स्वयं के अधिकार को संरक्षित करने के लिए एक तरह का शीर्षक (भले ही अनुच्छेद-18 निर्धारित करता है) अदालतों के पास है। यह वकीलों के बीच का मामला होता है, जिसमें एक अलग वर्ग को मान्यता न्यायालय के अनुसार दी जाती है। क्षमता, ज्ञान, अनुभव, विशेषज्ञता और बार में खड़े होने के आधार पर एक वकील को वरिष्ठ वकील के रूप में नामित किया जाता है। न्यायालय के मद्देनज़र उस सम्बन्धित वकील की क्षमता और खड़े होने की मान्यता (?) में अदालत की ओर से एक तरह का सम्मान होता है। इसलिए एक वरिष्ठ वकील द्वारा एक अलग गाउन या एक कोट पहनना जो अधिवक्ताओं द्वारा पहने जाने वाले एक से अलग हो सकता है। इसे किसी भी तरह से व्यवस्था के बीच भारत के संविधान के अनुच्छेद-14 के तहत उल्लंघन करार नहीं दिया जा सकता है।

न्यायालय के ज़रिये वरिष्ठ अधिवक्ताओं को नामित किया जाता है, जिसमें उनको विशेष अधिकार मिलता है, जिसके तहत दर्शकों को बुला सकते हैं। ज़मीनी हकीकत को रू-ब-रू कराने के लिए केवल नामित वरिष्ठ अधिवक्ता अपने कार्यों के ज़रिये न्यायालय के लगभग पूरे कामकाज का समय लेते हैं; जिसमें जनहित याचिका यानी पीआईएल आदि होती हैं। इस तरह से अन्य अधिवक्ता, जिनको कम भाग्यशाली कह सकते हैं; उन्हें कॉफर्स को भरना होता है। पारम्परिक ड्रेस कोड ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है, जहाँ एक ही शैक्षणिक योग्यता वाले पेशेवरों में वर्ग और अनुभव भी एक जैसा होने के बावजूद ओवरफेड किया जाता है; दूसरे को ड्रेस कोड के तहत पूरा किया जाता है। अब जब कानूनी पेशेवर कोविड-19 के चलते फिलहाल ड्रेस कोड से मुक्त हो गये हैं, तो ऐसी उम्मीद जगी है कि अब सुप्रीम कोर्ट के ज़रिये तदर्थ आधार पर निर्धारित पोशाक देश की अन्य अदालतों की एक स्थायी विशेषता बन जाएगी।

एफडीआई नियमों में बदलाव से होगी भारतीय हितधारकों की रक्षा

उद्योग संवर्धन और आंतरिक व्यापार विभाग (डीपीआईआईटी) के अनुसार कम्पनियों के अवसरवादी अधिग्रहण को रोकने के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के नियमों में 18 अप्रैल से बदलाव किया गया था। नये प्रावधानों से भारत के साथ सीमा साझा करने वाले किसी भी पड़ोसी देश को भारत में निवेश करने के लिए भारतीय सरकार से अनुमति लेनी होगी। यह नियम प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरह के निवेश पर लागू होगा। पहले ऐसी पाबंदी सिर्फ पाकिस्तान और बांग्लादेश पर थी। अब यह चीन, भूटान, नेपाल, म्यांमार और अफगानिस्तान पर भी लागू होगा।

सरकार को यह निर्णय इसलिए लेना पड़ा, क्योंकि कोरोना वायरस के कारण अधिकांश भारतीय कम्पनियों के शेयर भाव में भारी गिरावट देखने को मिल रही है। अगर सरकार एफडीआईके नियमों में बदलाव नहीं करती, तो चीन भारतीय कम्पनियों का शेयर खरीदकर उनका मालिकाना हक हासिल कर सकता है। हाल में चीन के सेंट्रल बैंक, पीपल्स बैंक ऑफ चाइना ने भारत की सबसे बड़ी हाउसिंग फाइनेंस कम्पनी हाउसिंग डेवलपमेंट फाइनेंस कॉरपोरेशन लिमिटेड में 1.01 फीसदी की हिस्सेदारी खरीदी थी, जिससे भारतीय सरकार को एफडीआईके नियमों पर पुनर्विचार करने का मौका मिला।

गौरतलब है कि नये नियमों के मुताबिक, भारत में होने वाले किसी निवेश के लाभार्थी भी यदि भारत की सीमा से लगे देशों से होंगे या इन देशों के नागरिक होंगे, तो भी निवेश के लिए सरकार से मंज़ूरी लेनी होगी। भारतीय कम्पनी में यदि एफडीआई से किसी कम्पनी का मालिकाना हक बदलता है और ऐसे निवेश में लाभार्थी भारत से सीमा साझा करने वाले देशों में होता है या वहाँ का नागरिक होता है, तो भी उसे सरकार से मंज़ूरी लेनी आवश्यक होगी।

नये नियमों के निहितार्थ

नये नियमों के मुताबिक, कोई भी अनिवासी निकाय या कम्पनी एफडीआई नीति के अंतर्गत भारत में निवेश कर सकती है। अनिवासी निकाय द्वारा केवल उन क्षेत्रों या गतिविधियों में निवेश करने की मनाही होगी, जो प्रतिबंधित हैं। उदाहरण के तौर पर भारत में लॉटरी, जुआ या सट्‌टेबाज़ी, चिट फण्ड, निधि कम्पनी, रियल एस्टेट, सिगार, चुरूट, तम्बाकू वाले सिगरेट आदि क्षेत्रों में विदेशी निवेश नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा वैसे देश की कम्पनी या निवेशक, जिनकी सीमा भारत से लगी हुई है; भी भारत में निवेश नहीं कर सकते हैं।

क्या है शेयर बाज़ार

कोरोना वायरस के कारण विश्व के अधिकांश देशों के शेयर बाज़ार ध्वस्त हो गये हैं। कम्पनियों के शेयर की कीमत कम होने का फायदा चीन जैसा अवसरवादी देश उठा सकता है। मामले में वस्तुस्थिति को समझने के लिए शेयर और शेयर बाज़ार के परिचालन को समझना ज़रूरी है। शेयर का अर्थ होता है हिस्सा। शेयर बाज़ार में सूचीबद्ध कम्पनियों के शेयरों को शेयर ब्रोकर की मदद से खरीदा व बेचा जाता है यानी कम्पनियों के हिस्सों की खरीद-बिक्री की जाती है। भारत में बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनयेसई) नाम से दो प्रमुख शेयर बाज़ार हैं। शेयर बाज़ार में बांड, म्युचुअल फंड और डेरिवेटिव भी खरीदे एवं बेचे जाते हैं।

शेयर खरीदने से आशय

कोई भी सूचीबद्ध कम्पनी पूँजी उगाहने के लिए शेयर जारी करती है। कम्पनी के प्रस्ताव के अनुसार निवेशकों को शेयर खरीदना होता है। जितना निवेशक शेयर खरीदते हैं, उतना उसका कम्पनी पर मालिकाना हक हो जाता है। निवेशक अपने हिस्से के शेयर को ब्रोकर की मदद से शेयर बाज़ार में कभी भी बेच सकते हैं। ब्रोकर इस काम के एवज में निवेशकों से कुछ शुल्क लेते हैं। जब शेयर जारी की जाती है, तो शेयर किसी व्यक्ति या समूह को कितना देना है, का निर्णय कम्पनी का होता है।

कम्पनी के सूचीबद्ध होने की प्रक्रिया

शेयर बाज़ार में खुद को सूचीबद्ध कराने के लिए कम्पनी को शेयर बाज़ार से लिखित करारनामा करना होता है। इसके बाद कम्पनी सेबी के पास वांछित दस्तावेज़ों को जमा करती है, जिसकी सेबी जांच करता है। जाँच में सूचना सही पायी जाने पर आवेदन के आधार पर कम्पनी को बीएसई या एनएसई में सूचीबद्ध कर लिया जाता है। तदोपरांत, कम्पनी को समय-समय पर अपनी आॢथक गतिविधियों के बारे में सेबी को जानकारी देनी होती है, ताकि निवेशकों का हित प्रभावित नहीं हो।

चीनी निवेशकों का भारतीय स्टार्टअप में लगभग 4 अरब डॉलर का निवेश

भारत-चीन आॢथक एवं सांस्कृतिक परिषद् के आकलन के अनुसार, चीन के निवेशकों ने भारतीय स्टार्टअप में लगभग 4 अरब डॉलर निवेश किया है। डीपीआईआईटी के आँकड़ों के अनुसार, दिसंबर, 2019 से अप्रैल, 2000 के बीच भारत में चीन के निवेशकों ने 2.34 अरब डॉलर यानी 14,846 करोड़ रुपये का निवेश किया है, जबकि समान अवधि में बांग्लादेश ने 48 लाख रुपये, नेपाल ने 18.18 करोड़ रुपये, म्यांमार ने 35.78 करोड़ रुपये और अफगानिस्तान ने 16.42 करोड़ रुपये का निवेश भारत में किया है, जबकि पाकिस्तान और भूटान ने इस अवधि में भारत में कोई निवेश नहीं किया है। गौरतलब है कि पिछले वित्त वर्ष में अप्रैल से दिसंबर तक की अवधि में भारत में कुल 36.77 अरब डॉलर का एफडीआई आया था, जो उसके पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 10 फीसदी ज़्यादा था।

एफडीआई का अर्थ

एफडीआई का मतलब होता है- प्रत्यक्ष विदेशी निवेश। अगर किसी देश की कम्पनी या उस देश का निवेशक किसी देश में या वहाँ की किसी कम्पनी में निवेश करता है, तो उसे एफडीआई कहते हैं।

कई देशों में सख्त हुए एफडीआई नियम

कोरोना वायरस के कारण भारत समेत कई दूसरे देशों ने एफडीआई के नियमों को सख्त बनाया है। यूरोपीय संघ ने भी हाल ही में सुरक्षा को दृष्टिगत करते हुए एफडीआई नियमों को सख्त बनाया है। अमेरिका भी चीन से आने वाले निवेशों की कड़ाई से जाँच-पड़ताल कर रहा है। ऑस्ट्रेलिया ने भी बीते दिनों एफडीआई के नियमों को सख्त बनाया था।

निष्कर्ष

कोरोना महामारी का फायदा उठाते हुए चीन भारत की कम्पनियों में निवेश करके उनका अधिग्रहण कर सकता है, क्योंकि देशव्यापी आॢथक गतिविधि बन्द होने के कारण भारतीय कम्पनियों के शेयर औंधें मुंह गिर रहे थे। लेकिन मोदी सरकार द्वारा 20 लाख करोड़ रुपये के सहायता पैकेज की घोषणा करने के बाद विविध कम्पनियों के शेयरों की कीमत में उछाल देखा गया। फिलवक्त, चीन पूरी दुनिया में अपना निवेश तेज़ी से बढ़ा रहा है। कोरोना के कहर को वह एक अवसर के रूप में देख रहा है। इसलिए भारत ने चीन के नापाक मंसूबों को नाकामयाब करने के लिए एफडीआई के नियमों में बदलाव किया है।

हरियाणा शराब घोटाला सैंया भये कोतवाल…

हरियाणा में लॉकडाउन के दौरान बन्द शराब के ठेकों के बावजूद अन्दरखाते यह खूब बिकी। यह काम अधिकृत ठेकेदार अंजाम दे रहे थे या फिर कोई माफिया, यह सरकार की जानकारी में नहीं था। अगर होता तो गोदाम की दीवार में सेंधमारी से पता चल जाता। चोरी के बाद दीवार को फिर से पहले जैसा कर दिया गया। बाहर सील लगी है अन्दर से माल गायब हो रहा है। कुछ पुलिसकर्मियों के अलावा किसी को भनक तक नहीं है।

सरकार और उसका पूरा अमला कोविड-19 अभियान मेें जुटा था। शराब दोगुने या इससे कुछ ज़्यादा के दाम पर आसानी से उपलब्ध थी। माफिया का नेटवर्क इतना मज़बूत की सीआईडी विभाग को इसकी भनक नहीं थी। अगर इस दौरान राज्य के सोनीपत ज़िले के खरखौदा के सीलबन्द गोदाम से चोरी का मामला उजागर न होता, तो करोड़ों के वारे-न्यारे हो गये होते।

भ्रष्टाचार और अनियमितताओं पर जीरो टोलरेंस का दावा करने वाली मनोहर लाल खट्टर सरकार की छवि पर बट्टा लगा। माफिया ने पुलिस की मदद से हज़ारों बोतलें सीलबन्द गोदाम से पार की और उन्हें महँगे दामों पर खपा दिया। लाकडाउन के दौरान राज्य में शराब के ठेके पूरी तरह से बन्द थे; लेकिन उसकी माँग तो बराबर बनी हुई थी। कहें तो माँग पहले के मुकाबले ज़्यादा हो चली थी, पर यह मिले कैसे।

जब शासन-प्रशासन कोरोना से बचाव में लगा था, तो शराब माफिया ने इसका पक्का जुगाड़ कर लिया था। सोनीपत ज़िले के खरखौदा में भी अनधिकृत रूप से ज़ब्त की गयी शराब को जमा करने के लिए अस्थायी गोदाम था। वैसे तो यह गोदाम सीलबंद था। इसकी ज़िम्मेदारी करीबी थाने खरखौदा की ही थी। मामला उजागर हुआ, तो संदेह की सुई पुलिसकर्मियों पर गयी। बिना खाकी के हज़ारों बोतलें सीलबंद गोदाम से चोरी होना इतना आसान नहीं था। लगभग छ: हज़ार पेटियों वाहनों में ले जाया गया होगा। ये वाहन लॉकडाउन के दौरान नाकों से कैसे निकल गये।

बड़े पैमाने पर शराब चोरी के इस मामले को गृहमंत्री अनिल विज ने गम्भीरता से लिया। आदेश के बाद शुरुआती जाँच और प्रथम दृष्टया में पुलिस की मिलीभगत सामने आ गयी। थानाधिकारी जसबीर सिंह समेत छ: पुलिसकर्मियों की भूमिका संदिग्ध मिली। सभी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर ली गयी। थानाधिकारी जसबीर सिंह को पहले निलंबित और बाद में स्पष्ट भूमिका पर नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। जल्द ही शराब माफिया के तौर पर भूपेंद्र सिंह का नाम उभरा।

यह अस्थायी गोदाम उसकी माँ के नाम पर था। अवैध तौर पर ज़ब्त शराब के लिए क्या किसी शराब तस्कर का गोदाम लिया जाना चाहिए था, जिस पर इससे जुड़े दर्ज़न से ज़्यादा मामले लम्बित हैं। पुलिस ने भूपेंद्र सिंह को गिरफ्तार कर लिया, उसके घर से 97 लाख रुपये की नकदी के अलव दो पिस्तौल और तीन मोबाइल बरामद हुए। पूछताछ में जो खुलासे भूपेंद्र सिंह ने किये वे चौंकाने वाले थे। उसने यह काम थानेदार तत्कालीन थानेदार जसबीर सिंह की देखरेख में किया। इसमें अन्य पुलिसकर्मी भी शामिल रहे। सभी की बड़ी हिस्सेदारी थी। इसका पूरा हिसाब-किताब होता उससे पहले भाँडा फूट गया।

आबकारी और पुलिस विभाग की ज़ब्त शराब की चोरी और उसको खपा करोड़ों रुपये कमाने के खेल में क्या भूपेंद्र सिंह और कुछ पुलिसकर्मी ही शामिल थे? यह संभव नहीं लगता, इसमें कुछ सफेदपोश लोगों की भूमिका से इनकार नहीं। सरकार ने विशेष जाँच समिति गठित कर दी है। अतिरिक्त मुख्य सचिव टीसी गुप्ता की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति (एसईटी) में सहायक पुलिस महानिदेशक सुभाष यादव और आबकारी विभाग के अतिरिक्त उपायुक्त विजय सिंह हैं।

समिति ने जाँच शुरू कर दी है। यह जाँच शराब चोरी के अलावा अन्य कई बिन्दुओं की भी होगी। क्या ज़ब्त किया पूरा स्टाक गोदाम में पहुँचा। गड़बड़ी का खेल कहाँ भी होता है। हर स्तर पर गड़बड़ी का खुला खेल चलता है। अवैध शराब की बिक्री को रोकने के लिए आबकारी और कराधान विभाग और पुलिस व्यापक स्तर पर अभियान चलाती है, ताकि सरकारी राजस्व को नुकसान न हो। ऐसी ज़ब्त शराब को अदालती मामलों के निपटान के बाद नष्ट करने का प्रावधान है। इसमें कई तरह की कानूनी बाधाएं आती है लिहाजा कई बार नष्ट करने की प्रक्रिया लम्बी हो जाती है। खरखौदा के इस गोदाम की भी यही कहानी है।

 कहाँ करीब-करीब एक साल का ज़ब्त स्टाक केस प्रापर्टी के तौर पर रखा हुआ था। पुलिस की मदद से माफिया ने शराब को महँगे दामों पर बेच डाला। सोनीपत के साथ लगते जिला पानीपत में भी कमोबेश ऐसा मामला उजागर हो गया। कहाँ भी लॉकडाउन के दौरान करीब 4500 शराब पेटी चोरी हो गयी। ठेकेदार का यह गोदाम किसी मामले के चलते सरकार ने सील कर रखा था। कहाँ भी संयोग यह रहा कि जिस ईश्वर सिंह के नाम गोदाम था, वही मुख्य आरोपी निकला। मामला दर्ज हुआ तो पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया।

पूछताछ में ईश्वर ने हिस्सेदार सतविंदर राणा का नाम लिया, तो राजनीतिक गलियारों में कुछ हलचल मच गयी। राणा कैथल के राजौद हलके से दो बार विधायक रह चुके हैं। पिछला विधानसभा चुनाव उन्होंने कलायत से जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) की टिकट पर लड़ा था लेकिन हार गए। चूँकि जेजेपी सरकार में शामिल है और इसके नेता दुष्यंत चौटाला उप मुख्यमंत्री हैं फिर आबकारी विभाग भी उनके पास है। ऐसे में सरकार पर उँगली उठी, तो गृहमंत्री अनिल विज को स्पष्ट कहना पड़ा कि जाँच में दोषी पाये जाने पर कड़ी कार्रवाई निश्चित तौर पर होगी चाहे वह शख्स कोई भी क्यों न हो? उनका बयान बहुत कुछ स्पष्ट कर देता है।

विशेष जाँच समिति को 31 मई तक अपना काम पूरा कर रिपोर्ट देने के आदेश हैं। अगर जाँच के दौरान सभी तथ्यों का पता लगाया गया, तो निश्चित तौर पर पुलिसकर्मियों और शराब तस्कर के अलावा कुछ बड़े नाम सामने आ सकते हैं। बिना संरक्षण के इतना बड़े घोटाले को अंजाम देना सम्भव नहीं लगता। यह बरदहस्त किसका होगा, इसका खुलासा जाँच रिपोर्ट में सामने आएगा। गुप्ता आधारित जाँच समिति बिना किसी दबाव के पूरे मामले की पड़ताल करने में सफल होगी, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए। वरना अन्य कई घोटालों की तरह इसकी भी लीपापोती हो जाएगी।

मामला सरकार की प्रतिष्ठा से जुड़ा है। सरकार के आदर्श वाक्य में ज़ीरो टालरेंस अंकित है। गृह विभाग अनिल विज के पास है। वे कड़े आदेशों के लिए जाने जाते हैं। सामान्य दिनों में वह थानों का औचक निरीक्षक कर कोने में रखी किसी आलमारी के कागज भी खंगाल लेते हैं। ज़रा कहीं कोताही मिली तुरन्त निलंबन या लाइन हाज़िर जैसे आदेश देते हैं। बावजूद इसके उनके ही विभाग के लोगों की भागीदारी शराब घोटाले में सामने आयी है। जाँच में आरोपियों के खिलाफ मामले दर्ज हुए, गिरफ्तारियाँ हुईं, कहीं निलंबन तो कहीं बर्खास्ती हुई। उन्होंने जता दिया कि वे मामले को कितनी गम्भीरता से लेते हैं। देखना यह होगा कि शराब घोटाले को किसके संरक्षण में दिया होगा।

छोटे किसान से करोड़पति

शराब घोटाले को फील्ड में अंजाम देने वाला भूपेंद्र सिंह करोड़ों की सम्पत्ति का मालिक है। यह सब उसने कहाँ से अर्जित किया? उस पर एक दर्ज़न के करीब शराब तस्करी के मामले लम्बित हैं। उसके तार पंजाब से लेकर बिहार तक जुड़े हैं। दिल्ली, उत्तर प्रदेश और गुजरात में उसका नेटवर्क है। सस्ती शराब के बोतलों के लेबल बदलकर उन्हें महँगे दाम पर बेचने का धन्धा भी उसे बखूबी आता है। कहने को उसका कई तरह का कारोबार है, लेकिन शराब तस्करी उसका अब भी मुख्य धन्धा माना जा सकता है। खरखौदा गोदाम से गायब की गयी शराब को उसने कहाँ-कहाँ और किन-किन लोगों को बेचा यह जाँच से पता चलेगा। लॉकडाउन के दौरान शराब की सहज उपलब्धता के लिए भूपेंद्र सिंह सरीखे अन्य लोग भी हैं। लाखों बोतलों को उसने अकेले या कुछ लोगों ने नहीं बेचा होगा। राज्य के कई ज़िलों में उसका नेटवर्क है। इस सारे नेटवर्क का पर्दाफाश करना होगा, वरना यह गोरखधन्धा इसी तरह चलता रहेगा।

फिर क्या हुआ

पूर्व विधायक और जजपा नेता सतविंदर राणा की गिरफ्तारी के बाद पार्टी स्तर पर कार्रवाई पर उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने कहा कि वह आरोपी हैं। दोष साबित होगा, तो कार्रवाई की जाएगी। राजनीतिक गलियारों में कहा जाने लगा कि ऐसे बयान से न केवल उनकी, बल्कि पार्टी की छवि ही बिगड़ेगी। लाकडाउन में दिल्ली और पंजाब की तर्ज पर हरियाणा में शराब ठेके खोलने की माँग भी उठी। आबकारी विभाग विभाग दुष्यंत चौटाला के पास है। ऐसे में उनके बयान को अलग अंदाज़ में लिया गया। एक मायने में तो उनकी माँग वाजिब ही थी। अगर समय रहते ठेके खोलने की मंज़ूरी मिल जाती, तो अवैध शराब की बिक्री पर रोक लगती। खरखौदा और समालखा शायद चर्चा में न आते। उनके बयान को दोनों ही अर्थों में देखा जा सकता है।

भुवनेश्वर की समय के साथ बहस

1935 से 1947 के बीच भुवनेश्वर ने अपना पूरा साहित्य रचा। प्रेम और दया, माया, ममता जैसे परम्परागत मूल्यों के नाम पर बनी नैतिकता के पीछे छिपकर समाज ने नैतिक पतन ही ज़्यादा किया। मंटो की तरह भुवनेश्वर ने किसी नैतिकता की लाग-लपेट को स्वीकारे बिना अपने समाज के भीतर झाँकने का साहस किया। उनके पात्र इसीलिए ज़्यादा प्रकृत हैं और ज़्यादा तीखे भी। वैयक्तिक जीवन में निराशा और उपेक्षा झेलने के कारण भुवनेश्वर कटु हो गये थे।

इस तथ्य की ओर प्राय: सभी आलोचकों का ध्यान गया है। पर यह कटुता सिर्फ वैयक्तिक जीवन से उपजी हो, यही एकमात्र तथ्य नहीं है। साहित्य पढऩे-पढ़ाने वालों के प्रति समाज की उपेक्षा, व्यक्ति की खेमेगत पहचान और आदर्शवादिता के झूठे ढाँचों के बीच के नंगे चेहरे भी भुवनेश्वर को उतना ही परेशान करते रहे, जिससे उनका वैयक्तिक और सामाजिक जीवन प्रभावित अवश्य हुआ। एक तरफ आदर्श की चाशनी में देश के लिए जान देने को तैयार युवा दिख रहे थे, तो दूसरी ओर कड़वी वास्तविकता, जहाँ उनके लिए कोई जगह नहीं थी। जान देने वाले युवक मर रहे थे। वहीं नेता बना उच्च वर्गीय समाज आने वाले दिनों में अपनी सुविधा के रास्ते तलाश रहा था। बाबूगीरी इस वर्ग के हिस्से नहीं आयी, बल्कि शान-ओ-शौकत और ताकत का पर्याय बन यह वर्ग आने वाले समय का सत्ता वर्ग बनने वाला था। साठोत्तरी दौर में जिस मोहभंग की परिभाषा गढ़ी गयी। भुवनेश्वर उसे शायद पहले ही अनुभव कर रहे थे। मोहभंग के इस दौर ने भुवनेश्वर को बोहेमियन भी बनाया और झूठे तर्कों से भी निजात दिलायी।

हिन्दी समाज जिस तरह खेमेबाज़ी में उलझा अपनी तरह का एक बन्द समाज है; भुवनेश्वर उसके विरुद्ध रच रहे थे। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में तीखापन और कड़वाहट ज़्यादा है। एकदम आदर्श से मुक्त, कड़वे यथार्थ से लबरेज और हर तर्क को अताॢकक करती रचनाएँ।

कितना आत्ममुग्ध है हिन्दी समाज? जिसने बड़ी आसानी से न समझ आने वाले रचनाकार को 100 बरस बाद का रचनाकार कहकर आसानी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। यही प्रसाद के साथ हुआ और यही भुवनेश्वर के साथ भी। मोहभंग की इस त्रासदी का एक सूत्र खुद उनके जीवन से जुड़ा है, तो दूसरी ओर अपने युग के साथ संवाद से। जयशंकर प्रसाद पारसी मंच के विरोध में लिख रहे थे और इसीलिए आदर्श की व्यापकता उनकी रचनाओं में बहुत अधिक है। भुवनेश्वर शाहजहाँपुर के जिस समाज से आये थे, वहाँ तब उसी पारसी मंच का बोलबाला था। एक बौद्धिक समझ से बना युवक जो कुछ बदलना चाहता था; पर कहीं कुछ बदल नहीं रहा था। कितनी खलबली रहती होगी भुवनेश्वर के भीतर? माँ की मृत्यु के बाद परिवार का साथ न देना। शिक्षा पूरी न होना। बौद्धिकता के कारण समकालीनों द्वारा भी अस्वीकृत किया जाना। पश्चिम की नकल का आरोप और धीर-धीरे आत्मविस्मृति के संसार का बनना। इस सबसे भुवनेश्वर टूटते चले गये। लेकिन किसी का अहसान लेने को तैयार नहीं हुए। जहाँ भी गये, अपना अधिकार दिखाकर ही गये; छोटे बनकर नहीं। हो सकता है कि यह किसी को उनका अभिमान ही लगे। पर हिन्दी में कुछ अभिमानी बचे ही रह जाएँ, तो इस भाषा का भी भला हो जाए।

1947 के बाद कहानी का कलेवर बदला, जहाँ आज़ादी के बाद अतीत की स्मृतियाँ भी थीं और मनुष्यता के समाप्त होने की महागाथा भी। भुवनेश्वर आदमी के भीतर छिपे इस भेडिय़े को देख रहे थे और साफ-साफ महसूस कर रहे थे कि आदमी कहा जाने वाला जीव अपनी जान बचाने के लिए हर चीज़ को दाँव पर लगा सकता है। आदर्शों की चिन्दियाँ उड़ा देने वाले भुवनेश्वर झूठे नकाब को उधेड़ फेंकने के लिए बेसब्र थे। इस यथार्थवाद के प्रकृत रूप की सबसे अधिक शिकार होती है स्त्री। भुवनेश्वर स्त्री के प्रति सदाशय नहीं रहे। इसके कई कारण हो सकते हैं। मसलन, विमाता का व्यवहार अथवा अपने जीवन में आने वाली स्त्रियों से मिली उपेक्षा। अथवा एक तरह की पितृसत्ता, जिसके शिकार होते हुए भी भुवनेश्वर उससे अलग नहीं हो सकते थे। या फिर वह उस समाज की ग्रन्थियों का प्रकृत चित्रण करना चाहते थे, जो आदर्शों के नाम पर झूठी शान-औ-शौकत को बनाये रखता है। हो सकता है कि भुवनेश्वर उस सत्य को पकड़ पाने में समर्थ हुए हों, जहाँ देवी बनाने के खेल के साथ महत्त्वहीनता की स्थिति भी स्त्री के हिस्से में ही आती है। यह समाज जहाँ स्त्री को देवी कहकर प्रेम, दया, ममता को उसका गुण बताकर झूठी महिमा के तले उसे दबाये रखता है। वहीं काम-वासना का संचार करने वाली कहकर कभी मन-मुताबिक अप्सरा कहता है, तो कभी कुलटा! जब ज़रूरत हो, तब सबसे पहले झटककर जिसे अलग किया जाता है, वह भी स्त्री ही है। दान देने से लेकर सम्पत्ति से विलग सबसे पहले उसे ही किया जाता है। डाॢवन के सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट के सिद्धांत के मुताबिक भी फिटेस्ट होने (स्वस्थ्यतम उत्तरजीविता) का अधिकार अभी भी स्त्री के पास नहीं है। पुरुष को जन्म देना उसके महत्त्व की कसौटी है और उसी के इर्द-गिर्द घूमती स्त्रियों के लिए समाज में स्वीकार भाव है। हो सकता है कि भुवनेश्वर इस बनी-बनायी व्यवस्था को ढहाने के लिए हर स्त्री की आदर्श झाँकी तोड़ देते हैं; ताकि ठहरकर कुछ विचार तो किया ही जा सके। ब्रेख्त की एलियनेशन की सैद्धांतिकी यहाँ हमें इस टूटन को समझने की कुंजी दे सकती है। पर उससे पहले कहानियों पर नज़र डाल ली जाए।

1934 में ‘हंस’ में कहानी प्रकाशित हुई ‘मौसी’। कहानी के प्रचलित फॉर्म में ही लिखी गयी हृदय को खोलकर लुटा देने वाली स्त्री की कथा। पर साथ ही आदर्श के खोल के बीच यथार्थ की हल्की-सी आहट, स्त्री-पुरुष के बीच के वे सम्बन्ध, जिन्हें समाज अवैध कहकर तिरस्कृत करता है और उन्हें छिपाने की ज़िम्मेदारी भी स्त्री की और तिरस्कार भी उसका। भुवनेश्वर अपनी पहली ही कहानी में पुरुष की फितरत साफ कर देते हैं- ‘बसंत का बाप उन मनुष्यों में से था, जो अतृप्ति के लिए ही जीवित रहते हैं। जो तृप्ति का भार नहीं उठा सकते।’ यानी पुरानी छायावादी भाषा में नयी ज़मीन तोडऩे की तैयारी। कंकाल की रचना कर रहे प्रसाद इसी काल में अवैध सम्बन्धों को लेकर काशी की ओर प्रस्थान का रास्ता ढूँढ रहे थे। वहीं भुवनेश्वर की पतित दिखने वाली मौसी उसी की याद को लेकर दम तोड़ देती है, जिसने उसकी ओर देखने का भी समय नहीं जुटाया। पर साथ ही बसंत का चरित्र रचकर वे पुरुषों की धूर्तता की कड़ी को छोटी-सी कथा के भीतर रच देते हैं। मोह का तोडऩा मौसी को भी तोड़ देता है। कड़वा होते हुए भी यह आज भी सत्य ही है। सारे स्त्री विमर्श के बीच ऐसी ही स्त्रियाँ हमारे आस-पास हैं, जो जीवन दे देती हैं। पर समर्पण को नहीं छोड़ती। ऐसा घुला-मिला आदर्शनुमा यथार्थ तब भी था, आज भी है। भले ही कथा-कहानियों में स्त्री मुक्ति के कदम आगे बढ़ गये हों। भुवनेश्वर की कहानियाँ लम्बे समय तक आदर्श के इसी जामे में नज़र आती हैं।

‘हाय रे मानव हृदय’ कहानी का पहला साक्षात्कार किसी गुमनाम और अनजाने सिहरन भरे अहसास से गुज़रने जैसा होता है। जैसे आप किसी भूतिया कहानी के भीतर प्रवेश कर रहे हों और न जाने अन्त में क्या हासिल हों? कहानी के अन्त तक भुवनेश्वर इस रहस्य को खोल देते हैं और कहानी के अन्त में एक बदनाम स्त्री के भीतर छिपी घर के प्रति समर्पित स्त्री को दिखाते हैं। शायद अपने पहले परिवार की याद उसे उनके प्रति दया भाव से भरती है। जहाँ वह उनके लिए कुछ करना तो चाहती है, पर समाज के बने-बनाये नियमों के कारण वह लौट नहीं सकती। वेश्या कही जाने वाली स्त्री के भीतर के द्वंद्व और उसके भीतर छिपी स्त्री कोमलता को दिखाने में भुवनेश्वर कामयाब तो होते हैं, पर कहानी कुछ खास नहीं कहती। इतना अहसास ज़रूर हो जाता है कि भुवनेश्वर बने-बनाये प्रतिमानों में दखल देना शुरू कर चुके हैं।

‘जीवन की झलक’ कहानी पूरी तरह द्विवेदी युगीन आदर्शवाद से प्रेरित कथा है। कुछ-कुछ प्रेमचन्द अंदाज़ में लिखी आदर्श और भावुकता की कहानी। पति और पत्नी के रिश्ते के बीच भावुकता की बहती कहानी। जहाँ कुछ लोग साथ छोडक़र चले जाते है और अन्त में क्षमा माँगते हुए फिर लौट आते हैं। पर पत्नी को पति की अर्धांगिनी बनकर हर जन्म में उनके साथ रहने की साधना पर विश्वास है, जिसके लिए वह पूजा और पुजारी जैसे शब्दों का इस्तेमाल भी करती है। मिला-जुलाकर यह कहानी भुवनेश्वरीय यथार्थ की कहानी न होकर प्रेमचंदीय यथार्थ की ही कथा शैली का विस्तार है।

‘हंस’ पत्रिका में छपी वर्ष 1936 की कहानी ‘एक रात’ से भुवनेश्वर अपने लिए भाषा ढूँढ लेते हैं- अलगाव और झटककर अलग कर देने की भाषा। खीजने, तोडऩे और फिर तटस्थ करके एक विचित्रता बोध से भरने वाली भाषा। यहाँ भुवनेश्वर का वाक्य याद करना चाहिए- ‘यथार्थ और आदर्श का अन्तर पाठक के मस्तिष्क में होता है; लेखक के मन में नहीं।’ एक बैचेनी-सी पैदा करके ठण्डे हथौड़े से वार करती भाषा और पाठक ठगा-सा खड़ा रह जाता है। पहले तो स्त्री की बनावट और रूप रचना को भुवनेश्वर जिस तरह से तैयार करते हैं, उसमें प्रेम के नाम पर खिलवाड़ को वह केंद्र में रखते हैं, जो केवल हृदय से खेलती है। पुरुष स्त्री को देखने की एक खास दृष्टि विकसित करता है। भुवनेश्वर के जीवन में जो घटनाएँ घटीं, उनके केंद्र में स्त्री तो थी ही, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। मध्य वर्ग के भीतर आदर्श के नाम पर जो बन्धन बाँधे गये हैं, उसी के भीतर कुत्सित और घृणित स्थितियाँ नहीं होती। यह कहना एक तरह से मध्यवर्गीय सच्चाई से पलायन करना है। लिजलिजे और गीज से भरे मध्य वर्ग के भीतर न तो विद्रोह का साहस है, न ही बदलाव का। …और इसमें स्त्री-पुरुष दोनों की अपनी ज़िन्दगी के क्षणों को चुराते और छिपाते देखे जा सकते हैं। इसी मध्यवर्गीय समाज पर नैतिकता की ठेकेदारी भी है और इसी के बीच पतन की हज़ारों कहानियाँ भी। भुवनेश्वर जिस सच को उधेडक़र रख देते हैं, वह बड़े समाज का सत्य भले ही न हो; पर एक छोटे तबके का सच तो ज़रूर है। आज जब वेब-सीरीज के दौर में ऐसी ढेरों कहानियों को मैट्रो की भरी भीड़ में देखते और छिपाते युवाओं को देखती हूँ, तो भुवनेश्वर बहुत याद आते हैं। नैतिकता बोध के संकट में घिरे इन युवाओं के बीच स्त्री-पुरुष की यौनिक वर्जनाओं की टूटन की लोकप्रियता के सत्य को भुवनेश्वर पहले ही दरका देते हैं। एक रात की पत्नी प्रेमा पति को छोडऩा नहीं चाहती। प्रेमी को पाकर अघा चुकी है। फिर पति को पाकर सम्पूर्णता और असम्पूर्णता के द्वंद्व के बीच जी रही है। मध्यवर्गीय समाज के बीच रिश्तों में सबसे पहले रस खत्म होता है और फिर रिश्ते केवल आॢथक और सामाजिक मजबूरी के नाम पर जीए जाते हैं। भुवनेश्वर की रचनाओं में जिस तबके का सत्य मूर्त हो रहा है, उसे खारिज नहीं किया जा सकता। डी.एच. लौरेंस का प्रभाव भले ही उन पर रहा, लेकिन आज के समाज में ऐसे ढेरों उदाहरण हैं, जिसे केवल पश्चिमी प्रभाव कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। भावुकता की लिजलिजाहट से प्रेमा को कुछ हासिल नहीं होता। पति रूपी यथार्थ में लौटकर ही उसका जीवन चल सकता है। इस सत्य का सटीक नमूना है- ‘चुम्बन’, पर उसमें तृप्ति कहाँ। तृप्ति तो अतृप्ति में ही खोजी जा सकती थी। पर प्रेमा उसे भी हासिल नहीं कर पायी। क्या इसे केवल स्त्री की तृष्णा के अंदाज़ में पढ़ा जाए? क्या इसे मध्यवर्गीय तृष्णा के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता? जो लगातार भाग रहा है, पर कहीं संतुष्टि नहीं…; तेरे फिरोज़ी होठों पर बर्बाद मेरा जीवन के अंदाज़ में!

भुवनेश्वर की कहानियों का कैनवस स्त्री-पुरुष सम्बन्ध पर टिका होने के कारण अत्यंत विस्तृत तो नहीं है पर निम्न मध्य वर्ग और मध्य वर्ग के बीच सेंध लगाता उनका कैनवस कई सूक्तियों का निर्माण करता है जिसके सहारे उनकी दृष्टि को पढ़ा जा सकता है। ‘डाकमुंशी’ कहानी में कई सूक्तियाँ हैं, जो कहानी को ही नहीं, बल्कि भुवनेश्वर के साहित्य को समझने में सहायता देती हैं; जैसे- ‘कल्पना जीवन और प्रकृति के विरुद्ध विद्रोह है।’ कल्पना को भुवनेश्वर एक तरह का भुलावा मानते हैं जो हमें एक सीमा तक यथार्थ से दूर ले जाती है। भुवनेश्वर कल्पना की अतिशयता से दूर यथार्थ की अतिशयता का निर्माण करते हैं। इस अतिशयता से घबराहट भले ही हो, पर इसके होने से इन्कार करना मुश्किल है। डाकमुंशी चीना के प्रति कई काल्पनिक कहानियों के निर्माण से उसके लिए एक दयाभाव निर्मित करता है। पर जब सच उसके सामने आता है, तो केवल एक कड़वाहट ही बची रह जाती है। ऐसी कड़वाहट जिसका असर उसके आने वाले पूरे जीवन पर होने वाला है। कल्पना की दुनिया उसे जीने का सहारा तो देती है। पर वह सहारा पूरी तरह पलायनवादी है, झूठा और निकम्मा सहारा! चीना का एक पत्र लिखने का अनुरोध उसे एक झूठी दुनिया से निकालकर केंद्रविहीन कर देता है। इस पूरी कहानी को एक तरफ चीना और दरोगा के प्रेम प्रसंग और उस प्रेम प्रसंग के कारण चीना के घर छोडऩे या छूट जाने के रूप में पढ़ा जा सकता है। वहीं दूसरी ओर डाकमुंशी की झूठी कल्पना और उस कल्पना के रथ पर सवार होकर मसीहा बनने की लालसा और धड़ाम से ज़मीन पर गिरने और बिखर जाने की कथा के रूप में भी देखा जा सकता है। डाकमुंशी इतना बोदा और कायर है कि चीना पर क्रोध होने पर चीना को गाली भी नहीं दे सकता, बल्कि एक बालक को गाली देकर अपना अहम तुष्ट करने की कोशिश करता है… आहत सर्प के समान फुफकारकर क्या भाषा है और क्या बिम्ब! फुफकार कर ही रह आता है डाकमुंशी और यथार्थ की चोट इसे तोडक़र रख देती है। भुवनेश्वर की भाषा का तीखापन यहाँ और धारदार होकर चीर देता है।

‘माँ-बेटे’ कहानी मौत की पदचाप की कहानी है, ऐसा लगता है जैसे मौत धीरे-धीरे अपने कदम रखती कहानी की माँ को घेर रही है, पर असल में मर रहे है सारे पात्र, सारा परिवार! मौत का यह भयावह मंज़र, जिसमें आदमी तिल-तिलकर मरता है, पर भाग नहीं सकता। पूरी कहानी में अपनी तीव्रता के साथ मौज़ूद है। दूधनाथ सिंह इस कहानी के कुछ मूमेन्ट्स को भुवनेश्वरपन कहते हैं। जहाँ भुवनेश्वर उस लपट को पकड़ लेते हैं, जो मरने वाले के भीतर कौंध रही है। अल्ल-बल्ल प्रसंगों से भुवनेश्वर इस मृत्यु बोध को और गहरा ही करते हैं, तोड़ते नहीं! कथा प्रवाह के भीतर मध्य वर्ग की कटुताएँ भी है, बोदापन और छोटापन एक साथ है। मरने वाले के जाने का इंतज़ार भी है। ठीक वैसे ही जैसे हर परिवार के भीतर होता है- कड़वे यथार्थ की तरह! पल-पल रिसता हुआ!

‘भेडिय़े’ कहानी को आज कम-से-कम एक पुरानी विसंगत-सी कहानी कहकर नहीं टाला जा सकता! अपने पूरे खूनी अंदाज़ में यह कहानी चेतन और अवचेतन दोनों से टकराती है। खारू के नाम में जो कड़वाहट, खारापन और कसैली-सी गन्ध है वो भेडिय़ों के पूरे आतंक के साथ पाठक पर तारी रहती है। क्या ये भेडिय़े वही हैं, जो दिखाई देते हैं? पता नहीं! मुझे भेडिय़ों की इस प्रकृति के संदर्भ में कुछ ज्ञान नहीं पर यदि ये वही भेडिय़े भर हैं, तो कहानी कुछ विशेष नहीं कहती। बस इतना भर ही कि आदमी सबसे पहले कम मूल्यवान चीज़ों से निजात पाता है और इस लिहाज़ से औरतें हमेशा कम-मूल्यवान होती हैं या मूल्यवान होती ही नहीं! उन्हें किसी भी हालत में फेंका जा सकता है- कभी खुद को बचाने के लिए तो कभी किसी मुसीबत से बचने के लिए! एकदम कड़वी कहानी उतनी ही कड़वाहट से ज़िन्दगी के सच पर थूकती कहानी भुवनेश्वर ही लिख सकते थे। मैं इसे स्त्री विरोधी कहानी नहीं मानती, क्योंकि ये सच का जिस तटस्थ तरीके से बखान करती है, उसे विरोध न मानकर आईना क्योंकर न माना जाए? मध्य वर्ग की लालसाएँ और भौतिकताओं की होड़ में आगे रहने की शिकार हर जगह स्त्री ही बनती है—एशट्रे के साथ बॉस के सामने परोसी/ फेंकी जा सकती है, बाज़ार में उतारी जा सकती है। आदमी वैसे भी इतना नंगा है कि अपने आप को बचाने के नाम पर वह किसी को भी खत्म कर सकता है- जीने की लालसा इतनी प्रबल है कि उसके लिए सब कुछ दाँव पर लगाया जा सकता है। आज के बाज़ार के माहौल में तो यह और भी बड़ा सच है कि अधिक मूल्य की वस्तु (यहाँ जीवन) पाने के लिए कम मूल्य (यहाँ व्यक्ति) की वस्तु दाँव पर लगायी जा रही है। कहानी में तो भेडिय़े के सामने औरों को फेंका जा रहा है, ताकि जीवन बचा रह सके पर आज तो आदमी अपना जीवन भी दाँव पर लगा देता है; जिससे वस्तुएँ और भौतिक आपूर्ति हो सके।

भुवनेश्वर इस पूरे सिस्टम और बाज़ार को भेडिय़ा बनाकर नंगा कर देते हैं और इस कहानी का भुवनेश्वरपन यही है कि खारू भागता है पर लडऩे के लिए लौटता है, हार नहीं मानता। ये भुवनेश्वर कर सकते थे और उन्होंने किया भी! खारू ने अगले बरस और भेडिय़े मारे, खारू ने हार नहीं मानी! बाज़ार हमें हरा रहा है पर हार मानकर उसी के अनुसार खुद को फेंक देना भुवनेश्वर का लक्षण नहीं! खारू लौटता है, भेडिय़ों को मारता है और अगले बरस और अधिक भेडिय़े मारने का संकल्प लेता है। कहानी एक अलग स्तर पर सब कुछ सहते जाने का ही विरोध करती है। अपनी जान बचाकर खारू केवल ज़िन्दगी की आड़ में एक कायर बनकर भी समय काट ही सकता था, जैसा हम सब करते हैं। यहाँ खारू उतना ही पैना और हमलावर है जितने भेडिय़े हैं। बाज़ार जितनी तेज़ी से हमला करेगा, उतनी ही आक्रामकता से उसका विरोध भी करना होगा वर्ना हाथ से जीवन निकल जाएगा। भुवनेश्वर किसी अहिंसा के मिथ से कहानी का अन्त नहीं रचते, बल्कि हिंसक के प्रति हिंसा का सूत्र भी कहीं-न-कहीं रच देते हैं। जब आदमी के पास कुछ खोने के लिए नहीं रहता तब वह विरोध की भाषा और ताकत को रचता है। खारू उस मध्य वर्ग की लिजलिजी सन्तान नहीं, जो सुविधाओं के लालच में हिंसा भी सहती चली जाती है। खारू नंगा है। भूखा है और इसीलिए ज़्यादा विश्वसनीय भी है। ‘और वह भूखा, नंगा उठकर सीधा खड़ा हो गया।’

‘मास्टरनी’ कहानी एक ऊब और उदासी के पीलेपन की रंगत की कहानी है। स्केचिंग की भुवनेश्वर के पास अद्भुत प्रतिभा है। जिस तरह ‘भेडिय़े’ कहानी में भुवनेश्वर खारू का स्केच खींचते है; ठीक वैसे ही मास्टरनी की बाहरी से ज़्यादा भीतरी बुनावट का स्केच खींचकर कहानी को और पीला और रंगहीन कर देते हैं। ‘उसका चेहरा और भी लम्बा, और भी पीला, और भी चिड़चिड़ा हो गया था…’ यहाँ और भी पर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है। मुझे लगता है कि कम से कम शब्दों में ताकतवर कथन की प्रवृत्ति भुवनेश्वर में गज़ब है। उसकी परिस्थितियों ने उसे पहले भी कमज़ोर, पीली और चिड़चिड़ी बनाया हुआ था; जिसके विरोध स्वरूप वह शायद या फिर उससे लडऩे के लिए अपेक्षित साहस जुटाकर वह जिस काम को कर रही थी, उस काम से भी उसकी परिस्थितियाँ नहीं बदलीं; बल्कि उसका जीवन और भी पीला, अधमरा, रंगहीन होता चला गया! एक वाक्य और उसके भीतर उदासी और आॢथक, सामाजिक, वैयक्तिक, भौतिक हार की इतनी परतें? यह एक ईसाई औरत है। हालाँकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि यह कहने को तो ईसाई है, पर उसका जीवन हिन्दुस्तान की निम्नतम परिस्थितियों में जीने वालों जैसा ही भयावह और भयंकर है। हो सकता है कि नौकरी और मुक्ति की बहस के लिए भुवनेश्वर ईसाई महिला को चुनते हों। क्योंकि हिन्दू परिवारों के बन्द समाज में तो उस समय उन्हें ऐसी स्त्री शायद ही दिखी हो। ईसाई वर्ग की यह महिला निम्न-मध्यवर्गीय समाज से आती है, जिसका नाम एक बार उसके भाई के मुख से ही सुनाई देता है-लूसी!

लूसी को पुरुष मर्दानी अवज्ञा से देखते हैं और औरतें डर के भाव से। जिस जगह पर वह रहती है, वह स्कूल का ही कमरा है। इसी कमरे में क्लास भी होती है और क्लास के बाद इसी पीले, बदबूदार कमरे में लूसी रहती है। यहाँ पढऩे वाले विद्यार्थी भी जब जाते हैं, तो उनकी कमर बूढ़े लोगों की तरह झुकी है। सोचने की बात है कि शिक्षा प्राप्त होने पर भी उनके भीतर की उदासी क्यों नहीं जा रही? क्यों कमर बूढ़ों की तरह झुकी है? ये सवाल भुवनेश्वर अधूरे छोड़ देते हैं। पर आज की शिक्षा-पद्धति पर भी एक सवाल तो खड़ा करते ही हैं।

परिवार इस इंतज़ार में ही जी रहा है कि किसी तरह लूसी खुद को निचोडक़र उन्हें भी ज़िन्दा रखने की कोशिश करेगी। लूसी ऐसा कर भी रही है। पर शायद अब उसकी हिम्मत जवाब दे रही है। मोज़े बनाकर भेजे पर उससे ठण्ड जाने वाली नहीं, अब उसके भीतर की ऊष्मा भी खत्म हो गयी है; जो कभी उसे शायद अपने भाई को जिस्म से लगाकर मिलती भी थी। मास्टरनी भी अपना जीवन जीना चाहती होगी। पर जीवन वैसा कहाँ होता है, जैसा हम चाहते हैं। मास्टरनी मजबूरी के तहत ही शायद उस आदमी के प्रस्ताव को मानने पर बाध्य है, जिसकी दो बेटियाँ हैं और जो बुझे हुए चेहरे का किसान है। मास्टरनी का यह सपना भी झूठा ही साबित होगा। क्योंकि उस उदास जीवन में इससे कोई अन्तर नहीं आएगा। पर फिर भी जैसे दुनिया चलती है, वो भी चलना चाहती है! झूठे सपने, झूठी कल्पनाएँ और एक झूठा घरबन्दा बसने की चाहत। हालाँकि वह जानती है कि जो वह चुनने जा रही है, वह सपना उसके लिए है ही नहीं। भुवनेश्वर की कहानियों में शुरू से अन्त तक यह जो अनकही त्रासदी है, उससे किसी पात्र को निजात नहीं मिलती। लूसी भी अपने भाई और परिवार से कोई सरोकार नहीं रखना चाहती पर वह ऐसा सिर्फ कहती है, ऐसा कर नहीं सकती।

कड़वाहट और घृणा से भरी यह मास्टरनी अपनी तिक्त स्थितियों से तिक्त हो गयी है। वरना सपने उसके भीतर भी हैं। उसके सपने, जिसमें विवाह और माँ बनने की ललक शामिल है; जब किसी तरह पूरे होने वाले हैं, तो उसके भाव देखिए- ‘मैं कैसे ज़िन्दा दफना दी गयी? पर मुझे कब्र की शान्ति तो दे दो!’ कैसा विरोधाभास है? जिसे बाहर की नज़र-सी सपने पूरे होने जैसा देखा जा सकता है। भीतर से वह कब्र में दफ्न होने जैसा है। पर तकलीफ यह कि कब्र में भी शान्त होकर मरने का अधिकार सबको नहीं मिल जाता। वह जानती है कि इन स्थितियों से निकलने का उसके पास कोई उपाय नहीं। पर फिर भी वह उस मृत्यु बोध में भी कुछ शान्ति चाहती है, जो उसे जीवन में कभी नहीं मिली। भुवनेश्वर की कहानियों में यह ऊब, उदासी, निराशा अस्तित्व का गहरा संकट हर जगह मौज़ूद है। इससे भागकर आदमी कहाँ जाएगा? जिस काल में आदर्श बोध इतना अधिक था कि हर संकट का समाधान आदर्श निर्माण में दिखायी देता था, उस काल में भुवनेश्वर आदर्श खण्डन का काम करते हैं। यह खण्डन हमे मध्यवर्गीय नैतिकता के नियमों पर फिर से सोचने के लिए विवश करता है। यह नियम वास्तव में हैं भी? या हम ही झूठी मान्यताओं के फेर में ही आदर्शों का निर्माण कर रहे हैं? अक्सर मध्यवर्गीय/ उच्च-मध्यवर्गीय समाज इन आदर्शों की दुहाई देता है। पर निम्न मध्यवर्गीय समाज के सामने इनसे टकराने, तोडऩे या फिर खुद टूट जाने के अलावा कोई विकल्प दिखायी नहीं देता।

‘सूर्यपूजा’ कहानी ऐसे ही कई सवालों को हमारे सामने खड़ा करती है। ‘वेटिंग फॉर गोदो’ को जब बेकेट ने लिखा, तो दूसरे विश्वयुद्ध से उत्पन्न हताशा और निराशा के बीच मनुष्य के अस्तित्व के तलाश का सवाल केंद्र में था। यही सवाल यहाँ भुवनेश्वर की रचना ‘सूर्यपूजा’ में दिखाई देता है। भुवनेश्वर की कहानियों में अस्तित्व का संकट विशेष रूप से देखा जा सकता है। जीवन की तलाश इनकी कहानियों में हर जगह नज़र आता है। भुवनेश्वर बड़ी-बड़ी बातों के विरोध में हैं। क्योंकि उन्होंने जीवन की कड़वाहट को देखा और जीया है। एक तरह से विलास का चरित्र भुवनेश्वर के अपने चरित्र को प्रकट करता है, जो प्रोलीतरीयत को प्यार करता है और उसके लिए कुछ करना चाहता है। पर समाज उसे समझने में नाकाम है और उसकी पीड़ा को समझने के लिए तैयार नहीं।

इस कहानी में कुल जमा दो पात्र हैं- डॉक्टर और विलास! कहानी किसी ढाँचे में नहीं लिखी गयी, कम-से-कम उस समय के कहानी के खाँचे में तो कतई नहीं। कोई कथानक भी नहीं! कहानी की शुरुआत से लेकर डॉक्टर और विलास की ऊब का कोई कारण भी नहीं मिलता। पर अन्त तक आते-आते अहसास होने लगता है कि डॉक्टर ऊबे आदमी की तरह दिखता है और विलास प्रोलीतरीयत समूह से जुड़ा है। दोनों एक-दूसरे को समझते हैं। पर दोनों के बीच का वर्गीय चरित्र उन्हें अलग-अलग कर देता है- मोटा, भद्दा डॉक्टर और रोगी-सा विद्यार्थी विलास! डॉक्टर और विलास के वर्गीय चरित्र का घालमेल उन्हें एक दूसरे की चीज़ों में घुलने-मिलने नहीं देता। विलास उस जश्न से ऊबकर लौट रहा है, जिसका ज़िक्र भर कहानी में मिलता है। विलास जैसे ही म्यूनिसिपालिटी की लाल धुएँदार लालटेन देखता है- ‘आँख की तरह, चिपकी, सूजी हुई आँख, जिसमें सामने की रौशनी से खून की एक बूँद डबडबा उठी है…।’ उसके भीतर की बोरियत, ऊब सब मिट जाती है और उसे जीवन का उद्देश्य मिल जाता है। इसे वह ‘नयी दुनिया की रोशनी; कहता है। डॉक्टर वापस अपनी दुनिया में लौटकर जाना नहीं चाहता, वहाँ उसके लिए कुछ नहीं है। इस दुनिया में वह जा नहीं सकता। क्योंकि उसका इससे कोई सम्बन्ध नहीं। डॉक्टर इसीलिए सुबक रहा है। पर वो वापस ही लौटेगा, आगे का रास्ता विलास के लिए ही है। विलास जैसे लोग ही इस दुनिया को बदलने के लिए कोशिश कर सकते हैं और करेंगे। ऐसा लगता है, जैसे- मुक्तिबोध की कड़वता के पूर्वपक्ष में इन रचनाओं को पढ़ा जा सकता है।

(संदर्भ ग्रन्थ :- ‘भुवनेश्वर समग्र’ -दूधनाथ सिंह एवं ‘कथादेश’ -भुवनेश्वर अंक)

नाटकीय व्यक्तित्व विकार या सक्रियतावाद

14 मई, 2020 को बीएसएनएल ने अपने कनिष्ठ स्तर के कदाचारी कर्मचारी रेहाना फातिमा को अनुशासनात्मक आधार पर बर्खास्त कर दिया। इस सीधे-साधे नियोक्ता-कर्मचारी के मामले को प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के एक विशेष खण्ड में बहुत जगह मिली। गूँज प्रणाली में इस प्रतिध्वनि का कारण यह है कि एक वामपंथी कार्यकर्ता, जिसने अक्टूबर, 2018 में प्रसिद्धि की चर्चा के कारण की थी (जब उसे सबरीमाला मंदिर में प्रार्थना करने के लिए अपनी योजना को छोडऩे के लिए मजबूर किया गया था) उसे उसकी शरारतों और कदाचरण के लिए निकाल दिया गया है।

इस राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल के दौरान इस अदृश्य वायरस के रोगजनन के आसपास कोविड-19 और 24&7 (हर समय, हर दिन) चर्चा केंद्र के कारण हर नागरिक बड़े तनाव में है। हालाँकि एक अन्य अदृश्य रोगजनक विषाणु सक्रियतावाद के खतरनाक प्रभावों ने इस देश के पूरे शरीर को राजनीतिक रूप से पीडि़त कर दिया है, मीडिया में कोई स्थान नहीं पाता है। यह लिखना इस मुद्दे पर सार्वजनिक बहस को उत्प्रेरित करने के लिए है। सवाल उठता है कि कौन सक्रियतावादी है और कौन-सी सक्रियतावादीता है?

एक कार्यकर्ता तथ्यात्मक रूप से एक कारण का प्रस्तावक होना चाहिए। चाहे वह राजनीतिक हो या सामाजिक या कोई सार्वजनिक कारण हो, जो सभी बाधाओं के खिलाफ दृढ़ रहता है। चीज़ों को स्वीकार करने से इन्कार करता है, जिस तरह से वे हैं; भाषणों के माध्यम से दूसरों को प्रेरणा दे रहे हैं, कुछ की विशेषता हैं सक्रियतावाद। सक्रिय रूप से भारत में कार्यकर्ता सक्रियता, एक पुनरावृत्ति सक्रियतावादी, एक वोट सक्रियतावादी, एक विरोध सक्रियतावादी, एक लिंगाधार सक्रियतावादी, एक चोली-रहित सक्रियतावादी इत्यादि को सक्रिय करके तुरन्त पहचान प्राप्त कर लेते हैं। संक्षेप में सक्रियतावादी सक्रियता से अच्छी चीज़ों में बहुत अधिक होते हैं। अमेरिकी अर्थशास्त्री, थॉमस सोवेल सक्रियतावादियों के बारे में कहते हैं। मैं सक्रियतावादियों, विशेष रूप से वामपंथी लोगों की परवाह नहीं करता। क्योंकि वे ज़्यादातर अराजकतावादी हैं, जो केवल उकसाना चाहते हैं; समस्या का समाधान नहीं करते हैं। एक रोगजनक वह होता है, जो आमतौर पर वामपंथी कारणों के लिए सार्वजनिक रूप से या लिखित रूप में प्रदर्शन करता है। हम कई रूढि़वादी सक्रियतावादियों को नहीं देखते हैं। क्योंकि रूढि़वादी बहुत हल्के-फुल्के, नैतिक लोग हैं, जो परेशानी शुरू करना पसन्द नहीं करते हैं; खासकर विपक्षी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ हिंसा जैसे उदारवादी सक्रियतावादी करते हैं।

फातिमा रेहाना का मामला रोगजनक सक्रियता का एक ताज़ा उदाहरण है; जिससे उसने अपनी सबरीमाला मंदिर के प्रति प्रत्यक्ष अश्रद्धा होते हुए भी उच्चतम न्यायालय को सक्रियतावाद का ओढ़ावा पहनने को प्रेरित करके न्यायादेश करवा लिया, जिससे कई स्थलों पर उग्र विरोध भी हुए  और अंतत: बहुत-से कीमती न्यायिक समय को निगल लिया और अंतत: इसे नौ न्यायाधीशों की बेंच के लिए भेजा गया। मेरे विश्लेषण में सक्रियतावादी पूरी तरह से एक नाटकीय व्यक्तित्व विकार के प्रतिरूप में फिट होते हैं या आमतौर पर एक नाटकात्मक व्यक्तित्व विकार के रूप में जाना जाता है। सक्रियतावादियों में विशिष्ट जोड़-तोड़ और आवेगपूर्ण प्रवृत्ति होती है, जो उनके मानस में प्रकट होती है और जिसे वे सक्रियता के अपने स्वयं के टालमटोल लक्षण के रूप में दावा करते हैं। ऐसे लोग, जिनमें कभी भी उतावलापन हो सकता है; जब उन्हें लगता है कि उनकी सराहना की जा रही है या अवहेलना की जा रही है या वे ध्यान के केंद्र नहीं हैं। इसलिए वे किसी भी आयोजन के केंद्र होने के लिए तरसते हैं और जीवन से बड़ा होने के लिए है उपस्थिति। इसलिए वे नाटकीय होना पसन्द करते हैं और जनहित याचिका अतिशयोक्त रूप से ध्यानाकर्षण के लिए दाखिल करते हैं। जनहित याचिका और इसके घातक परिणामों का न्यायिक प्रणाली पर पडऩे वाले दुष्प्रभाव की विवेचना अलग से किसी लेख में करेंगे।

न्यायिक सक्रियता से तात्पर्य न्यायिक फैसलों से है, जो मौज़ूदा कानून के बजाय व्यक्तिगत राय पर आधारित होने का संदेह रखते हैं। कभी-कभी न्यायामूर्ति न्यायालय के समक्ष मामलों को तय करने में अपनी शक्ति से अधिक दिखायी देते हैं। सक्रियता के रूप में न्यायादेशों / विशिष्ट निर्णय वास्तव में विवादास्पद राजनीतिक मुद्दे हैं। बहुत ज़्यादा न्यायिक सक्रियता लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। इसे कभी-कभी न्यायिक संयम के अतिशयोक्ति के रूप में उपयोग किया जाता है। संविधान में विधिनुसार न्यायिक पुनर्वलोकन का कोई वर्णन न है। न्यायिकरूप से संयमित न्यायामूर्ति दृष्टांतानुसरण विधि की व्याख्या वाले निर्णय का सम्मान और स्थापित निर्णयों के सिद्धांत को कायम रखने का करते हैं। परिवर्तन-विमुख न्यायामूर्ति कानून की व्याख्या करते हैं और नीति-निर्माण में हस्तक्षेप नहीं करते हैं। लेकिन मामलों को संविधान लिखने वालों के मूल इरादे के आधार पर तय करते हैं, जो अनिवार्य रूप से उनके लिए आवश्यक है। कानून बनाना अन्य दो स्तम्भों का काम है, विधायिका और कार्यपालिका।

कब तक अपने व्यक्तिगत नाटकीय व्यक्तित्व विकारों के साथ सक्रियतावादी के रूप का बहाना करके और इस प्रकार मनमानी करते रहेंगे? यह एक विचारणीय मुद्दा है।

संकट में टूट रहीं मज़हबी दीवारें

अगर देखा जाए, तो हर इंसान हमेशा यही मानता है कि वह वास्तव में धर्म और सत्य के मार्ग पर है। फिर वह चाहे जिस भी प्रवृत्ति और चरित्र का क्यों न हो। कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि दुनिया में बुरे-से-बुरा इंसान भी खुद को हमेशा सही मानता है, फिर चाहे वह कितने ही गलत रास्ते पर ही क्यों न हो। बहुत कम लोग हैं, जो खुद की भूलों या गलतियों को स्वीकार करते हैं और उनमें सुधार करते हैं।

एक सच यह भी है कि दुनिया में अधिकतर लोग सत्य, धर्म और ईश्वर की तलाश में रहते हैं। लेकिन फिर भी ऐसे लोगों में अधिकतर यह मानते हैं कि सत्य, धर्म और ईश्वर के बारे में उनका ही मत सर्वोपरि और सत्य है। कहने का मतलब यह है कि हर आदमी खुद को धर्म के रास्ते पर मानता है और धर्म क्या है? इस सवाल की उम्र भर खोज करते हुए भी खुद को हमेशा धर्म का सबसे बेहतरीन अनुयायी और पालनकर्ता मानता है। दूसरा सच यह भी है कि दुनिया के अधिकतर लोग पुराने समय में लिखी चन्द किताबों को ही धर्म-ग्रन्थ स्वीकार करते हैं और उनमें बतायी गयी बातों को धर्म का सही और एक मात्र रास्ता मानते हैं।

हालाँकि सत्य यह भी है कि धर्म की परिभाषा समय-काल, स्थिति-परिस्थिति और इंसान की मंशा व कर्म के आधार पर बदलती रहती है। फिर भी अगर मान भी लिया जाए कि निर्धारित किताबें ही धर्म का एकमात्र स्रोत हैं, तो भी कितने लोग हैं, जो इन धर्म-ग्रन्थों में दी गयी शिक्षाओं का पालन करते हैं? शायद बहुत-ही कम। यही वजह है कि अब लोग धर्म से विलग होकर चलने लगे हैं। इस बात का दु:ख होता है कि इन किताबों को धर्म का स्रोत मानने वालों में अधिकतर लोग इनकी शिक्षाओं पर अमल नहीं करते। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो इन धर्म की किताबों से अनभिज्ञ होते हुए भी इंसान के असली धर्म यानी मानवता की मिसाल बनते हैं।

इन दिनों कोरोना वायरस जैसी महामारी और इसके चलते हुए लम्बी तालाबन्दी के समय में ऐसी सैकड़ों मिसालें सामने आ रही हैं, जिनमें मानवता कूट-कूटकर भरी हुई है। इन देशहित और जनहित की घटनाओं को भले ही घृणा फैलाने वाले कुछ टी.वी. चैनल न दिखा रहे हों, लेकिन सोशल मीडिया, यूट्यूब चैनल और कुछ टी.वी चैनल ज़रूर दिखा रहे हैं। ये ऐसी घटनाएँ हैं, जो साफ संदेश देती हैं कि भले ही मानवता के दुश्मन इस संकटकाल में भी मज़हबी दीवारें खड़ी करने की लाख कोशिश करें; लोगों को आपस में लड़ाने की कोशिश करें; इंसान को इंसान से दूर करने की कोशिश करें; लेकिन इन मज़हबी दीवारों को गिराकर ईश्वर के सच्चे भक्त और धर्म के सच्चे अनुगामी आपसी प्रेम और भाईचारे को मिटने नहीं देंगे। चाहे जितना भी बड़ा संकट आ जाए, वे मानव सेवा को ही अपना पहला फर्ज़ समझेंगे और दूसरों का भला करते रहेंगे। आज जब अनेक सरकारों ने परेशानी में फँसे लोगों की मदद करने से हाथ खड़े कर दिये हैं, तब ऐसे अनेक दयालु लोग पीडि़तों की मदद के लिए आगे आ गये हैं। इनमें कई ऐसे भी हैं, जिनके पास खुद अपनी आजीविका के बेहतर संसाधन नहीं हैं, मगर वे जन सेवा का पुनीत कार्य कर रहे हैं। काश! यही भावना देश के सभी धनाड्यों में होती। मगर लूटने की चाह रखने वालों के मन में दयाभाव नहीं रहता। अर्थात् जिन लोगों को सिर्फ और सिर्फ अपना हित दिखता हो; जो दिन-रात पैसे के अलावा किसी को बड़ा न मानते हों; जिनके लिए पैसा ईश्वर से भी कहीं बड़ा हो गया हो; वे लोग किसी की पीड़ा क्या समझेंगे? और क्या किसी की मदद करेंगे? संतों ने ऐसे लोगों को मरा हुआ तक कहा है। रहीमदास जी कहते हैं-

‘रहिमन वे नर मर चुके जे कहुँ माँगन जाँहि

उनते पहले वे मुए जिन मुख निकसत नाँहि’

अर्थात् हे रहीम! ऐसे लोग मर चुके जो आजीविका के लिए कहीं माँगने जाते हैं और उनसे पहले वे लोग मरे हुए हैं, जो माँगने पर भी नहीं देते।

मेरा मानना है-

‘ऐसो धन किस काम को, जा ते नङ्क्षह उपकार

कृपण मरिहे भूख ते, निर्धन मरि लाचार’

अर्थात् ऐसा धन किस काम का है, जिससे उपकार नहीं किया जा सके यानी जीवन भी नहीं बचाया जा सके। ऐसा धन ठीक उसी प्रकार है, जिसके होते हुए कंजूस भूख से मर जाए और  गरीब आदमी लाचारी में।

आज अनेक लोग हैं, जिनके पास अथाह दौलत है। यह अलग बात है कि वे खुद कभी भूखों नहीं रहते। यानी कम-से-कम अपने मामले में कंजूस नहीं होते। लेकिन दूसरों के लिए कभी एक फूटी कौड़ी भी देना उनके ईमान में नहीं है। वास्तव में ये वो लोग हैं, जो चाहते हैं कि गरीब लोग हमेशा ही गरीब रहें और हमेशा धर्म में उलझे रहें, ताकि वे गुलाम-मानसिकता से बाहर न निकल सकें और ऐसे लोगों का काला मन किसी लोगों का शोषण करने और उनका हक मारने में कभी कोताही नहीं करते।

ऐसे स्वार्थी लोग ही समाज में नफरत और ङ्क्षहसा फैलाते हैं। ऐसे लोगों का इसके पीछे का मकसद किसी भी कीमत पर सिर्फ और सिर्फ अपना सुख और अपनी ताकत बढ़ाना होता है; चाहे शेष लोग मरें या जीएँ। लेकिन आज जिन लोगों को यह लगता है कि वे इंसानों-इंसानों में धर्म की आड़ लेकर नफरत, भेदभाव फैला देंगे और झगड़े कराते रहेंगे, तो यह उनकी बड़ी भूल ही होगी। ऐसे लोगों को भी चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं, जो नफरत की आहट मात्र से डरे-सहमे हुए हैं और मानवता के खतरे की दुहाई देते हैं। मेरे खयाल से ऐसे लोगों को भी खतरे और अमानवीय घटनाओं की दुहाई देने की बजाय मानवता को बचाने के लिए आगे आना चाहिए, ताकि हमारे साथ-साथ आने वाली पीढिय़ाँ भी सुरक्षित और खुशहाल रह सकें।

पिछले २४ घंटे में ९८५१ नए मामले, अब तक ६३४८ की मौत

भारत में अब कोविड-१९ के मामले बहुत तेजी से बढ़ने शुरू हो गए हैं। पिछले २४ घंटे में ९८५१ नए मामले आए हैं जबकि २७३ मरीजों की जान गयी है। अब देश में कोरोना संक्रमित लोगों की अब तक की कुल संख्या २,२६,७७० हो गयी है।

स्वास्थ्य मंत्रालय की दी जानकारी के मुताबिक भारत में मामले बढ़ने की रफ्तार दुनिया में तीसरे नंबर पर पहुँच गयी है, जो चिंता की बात है। ब्राजील अभी भी दुनिया में रोजा मामलों के मामले में सबसे आगे है जहाँ बुधवार को २७,३१२ मामले सामने आये थे जबकि अमेरिका में २०,५७८ नए मामले और रूस में ८५३६ मामले आए।   भारत में आज ९८५१ नए मामले आए हैं। भारत अमेरिका, ब्राजील, रूस, ब्रिटेन, स्पेन और इटली के बाद कोरोना महामारी से सबसे ज्यादा प्रभावित सातवें नंबर का देश बन गया है।

स्वास्थ्य मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, देश में अबतक २,२६,७७० लोग कोरोना से संक्रमित हो चुके हैं जिनमें से ६३४८ की जान चली गयी है। हालांकि, एक लाख 9 हजार लोग ठीक होकर घर जा चुके हैं। देश में पिछले २४ घंटों में २७३ लोगों की जान गयी है।

मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक महाराष्ट्र में २७१०, गुजरात ११५५, दिल्ली ६५०, मध्य प्रदेश ३७७, पश्चिम बंगाल में ३५५, उत्तर प्रदेश २४५, तमिलनाड २२०, राजस्थान २१३, तेलंगाना १०५, आंध्र प्रदेश ७१, कर्नाटक ५७, पंजाब ४७, जम्मू-कश्मीर ३५, बिहार  २९, हरियाणा २४, केरल १४, झारखंड ६, ओडिशा ७, असम ४, हिमाचल ५ और  मेघालय में एक व्यक्ति की जान गयी है।

इस बीच ८ जून से कंटेनमेंट जोन से बाहर देश के धार्मिक स्थल खोले जाने की तैयारी की जा रही है। हालांकि, अब काफी कुछ बदल जाएगा। इसके लिए नई गाइडलाइन जारी हो गई हैं। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या चर्च में जहां भी पूजा या इबादत होगी वह नए तरीकों से होगी। अनलॉक शुरू होते ही देश में मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा और गिरजाघरों के लिए नए नियम लागू होंगे। मंदिरों के अंदर अब श्रद्धालुओं को न प्रसाद मिलेगा, न चरणामृत बांटा जाएगा।

पीएम केयर्स फंड जमा और खर्च का ब्योरा दो हफ्ते में दे सरकार

कोरोना वायरस से लड़ने के लिए फंड के नाम पर पीएम नरेंद्र मोदी एक नया फंड बनाने का ऐलान किया था। पीएम केयर्स फंड नाम से बनाए गए इस फंड को लेकर आम लोगों के बीच इसके हिसाब-किताब को लेकर काफी हलचल है। लोग यह जानना चाह रहे हैं कि इसमें कितना पैसा जमा हुआ है और वह कहां पर खर्च किया जा रहा है।
एक दिन पहले ही पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने भी पीएम केयर्स फंड से हर एक प्रवासी मजदूर को 10 हजार रुपये की मदद देने की अपील की थी। अब इस मामले को वकील अरविंद वाघमारे अदालत में ले गए हैं। मामले की सुनवाई करते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने पीएम केयर्स फंड को लेकर नोटिस जारी कर जवाब तलब किया है। हाईकोर्ट ने नोटिस केंद्र सरकार और फंड के ट्रस्टियों को भेजा गया है। कोर्ट ने पूछा है कि फंड में कितने पैसे जमा हुए और कितने खर्च किए गए हैं?

वकील अरविंद वाघमारे ने याचिका में कहा कि पीएम नरेंद्र मोदी पीएम केयर्स फंड के लिए बने ट्रस्ट के चेयरपर्सन हैं।गृह, वित्त और रक्षा मंत्री इसके सदस्य हैं। यह फंड कोरोना वायरस के चलते हुई समस्या से निपटने के लिए बनाया गया है। इसके जरिये इससे प्रभावित लोगों की मदद करने की बात कही गई थी। फंड बनाते समय कहा गया था कि तीन प्रतिष्ठित लोगों को बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज के लिए नॉमिनेट किया जाएगा, पर उनके नाम तक तय नहीं हुए। इसके बावजूद इस फंड में अरबों रुपये का दान लिया गया।

वाघमारे ने कहा कि इस फंड में जितना भी पैसा जमा हुआ है, उसकी जानकारी सरकार वेबसाइट पर मुहैया कराई जाए। इस फंड की जांच का जिम्मा भारत के नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक यानी कैग को दिया जाए। इसके अलावा फंड के लिए बने ट्रस्ट में दो सदस्य विपक्षी दलों के भी होने चाहिए।
याचिका पर सुनवाई के दौरान भारत सरकार की ओर से एडिशनल सॉलिसिटर जनरल अनिल सिंह पेश हुए। उन्होंने फंड की जांच कराने का न​ सिर्फ विरोध कि ब​ल्कि याचिका को खारिज करने की अपील भी की। उन्होंने कोर्ट को बताया कि अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने इसी तरह की याचिका को खारिज कर दिया था। लेकिन जस्टिस एसबी शुक्रे और जस्टिस एएस किलोर की पीठ ने सरकार की दलील को नहीं माना। पीठ ने आदेश दिया कि सरकार दो हफ्ते के अंदर याचिका के जवाब में एफिडेविट दाखिल करे।