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आसान नहीं दिल्ली भाजपा अध्यक्ष की डगर

दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को नये तरीके से सँभालने और जनाधार बढ़ाने के लिए भाजपा आलाकमान ने उत्तरी दिल्ली नगर निगम में महापौर रहे आदेश गुप्ता को दिल्ली की बागडोर सौंपी है। लेकिन उनके लिए यह डगर आसान नहीं है। क्योंकि दिल्ली भाजपा में गुटबाज़ी चरम पर है। इसी गुटबाज़ी के चलते दिल्ली भाजपा अध्यक्ष पर चुने जाने से उन वरिष्ठ नेताओं को नज़रअंदाज़ किया गया है, जो सालों-साल से इसी उम्मीद में पार्टी की सेवा कर रहे थे कि उनको एक दिन पार्टी में दिल्ली प्रदेश की ज़िम्मेदारी मिल सकती है। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। ऐसे में पार्टी के वरिष्ठ नेता अपने आपको उपेक्षित मान रहे हैं। ऐसे हालात में आदेश गुप्ता को पार्टी कार्यकर्ताओं और वरिष्ठ नेताओं के साथ तालमेल करना काफी मुश्किल भरा होगा। दूसरी बात आदेश गुप्ता दिल्ली की सियासत में कोई चॢचत चेहरा नहीं रहे हैं। मगर कहा जाता है कि सियासत में नफा-नुकसान देखकर ही फैसले लिये जाते हैं। आदेश गुप्ता मूल रूप से उत्तर प्रदेश के कन्नौज के रहने वाले हैं। वह छात्र राजनीति और संगठन से जुड़े रहे हैं। इसका लाभ उनको मिला है। बताते चलें कि सम्भावित 2022 के मार्च-अप्रैल में दिल्ली नगर निगम में चुनाव हैं। दिल्ली में उत्तर प्रदेश के लाखों की संख्या में वैश्य समाज के लोग रहते हैं। ऐसे में सीधे तौर पर वोटरों के तौर पर वैश्यों को भाजपा के पक्ष में साधने का प्रयास किया गया है। दिल्ली की राजनीति में विरोधी दलों के बीच यह भी मैसेज दिया गया है कि भाजपा व्यापारी वर्ग को अपने साथ खुश रख सकती है। नवनियुक्त आदेश गुप्ता के व्यापारी वर्ग में अच्छा-खासा तालमेल है।

माना जा रहा है कि दिल्ली में भाजपा से वैश्य समुदाय नाराज़ चल रहा है और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का राजनीति में उदय होने से भाजपा का पारम्परिक मतदाता और दानदाता केजरीवाल के साथ खड़ा हो गया है। ऐसे में भाजपा के लिए वैश्य समुदाय को हर हाल में साधना चुनौती बन गया है। बताते चलें कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को वैश्य समुदाय से बड़ी उम्मीदें थीं कि वह भाजपा के साथ होगा। पर चुनाव परिणामों से भाजपा हार के कारण सकते में आ गयी। आदेश गुप्ता के सामने अगर सही मायने में कोई चुनौती है, तो वे हैं 2022 के दिल्ली नगर निगम में आम आदमी पार्टी (आप) के मुखिया अरविंद केजरीवाल। क्योंकि आम आदमी पार्टी का जनता में लोकप्रियता का ग्राफ लगातार बढ़ता ही जा रहा है। ऐसे में भाजपा का सीधा मुकाबला आप से होगा। मौज़ूदा दौर में दिल्ली की सियासत में आप का एक तरफा दबदबा है। दरअसल भाजपा में सही मायने में आप का कोई काट नहीं दिख रहा है। भले ही आप मुफ्त की ही राजनीति करके जनता को खुश करने का प्रयास कर रही है। जनता को तो सुविधाएँ चाहिए, उसे और क्या चाहिए? भाजपा का आलाकमान से लेकर पदाधिकारी और कार्यकर्ता भली-भाँति जनता से परिचित हैं कि अगर आप की मुफ्त वाली सियासत यूँ ही चलती रही, तो आगामी चुनावों में काफी दिक्कत हो सकती है। क्योंकि दिल्ली में बसों में जो यात्रा महिलाएँ कर रही हैं और बिजली-पानी को जो सुविधाएँ लोगों को मिल रही हैं, उससे दिल्ली वाले काफी खुश हैं। दिल्ली वालों का अपना मिजाज़ है कि जब सुविधाएँ और विकास आसानी से मिल रहा हो, तो क्यों दूसरा नेता चुनें? यह बात दिल्ली विधानसभा चुनाव में जनता ने आप को जिताकर जता दी है। ऐसे में अब भाजपा के सामने सही मायने में आप ही चुनौती है।

 आदेश गुप्ता को भले ही ज़मीनी नेता न माना जाता हो, पर उनकी संगठन और पार्टी आलाकमान में अच्छी पकड़ मानी जाती है और वह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के करीबी माने जाते हैं। तहलका के विशेष संवाददाता ने आदेश गुप्ता से पूछा कि वह पार्टी में गुटबाज़ी कैसे निपटेंगे और वरिष्ठ नेताओं के साथ कैसे तालमेल बिठाएँगे? तो उन्होंने कहा कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ काम किया है। उनके अनुभवों का लाभ लिया जाएगा और कार्यकर्ता तो पार्टी की रीढ़ हैं। उनको मज़बूत करेेंगे और पार्टी को भी। रहा सवाल पार्टी में गुटबाज़ी का, तो पार्टी में कोई गुटबाज़ी नहीं है। क्योंकि जिस पार्टी में निचले स्तर का कार्यकर्ता भी ऊँचे स्तर पर जा सकता है, तो वहाँ पर गुटबाज़ी नहीं हो सकती है। उन्होंने बताया कि इस समय पूरी दुनिया कोरोना वायरस जैसी महामारी से जूझ रही है। उस पर भी काम करना है।

बताते चलें कि दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष मनोज तिवारी का कार्यकाल नवंबर, 2019 में पूरा हो गया था; तबसे दिल्ली भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर कई नामों पर चर्चा थी। लेकिन आलाकमान 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव तक किसी नये चेहरे पर दाँव लगाना नहीं चाहती थी। दिल्ली विधानसभा का चुनाव मनोज तिवारी के नेम और फेम पर ही लड़ा गया था।

चुवाव में भाजपा को सम्भावित जीत तो नहीं मिल सकी, फिर कोरोना की दस्तक के कारण भापजा दिल्ली में किसी नये नाम पर मुहर नहीं लगा पा रही थी। पार्टी सूत्रों का कहना है जैसे-जैसे पार्टी में अध्यक्ष के नाम को लेकर नये-नये नामों पर चर्चाओं और अटकलों का दौर चल रहा था, वैसे-वैसे पार्टी में गुटबाज़ी भी बढ़ती जा रही थी। इन्हीं तमाम अटकलों को विराम देते हुए अन्त में आदेश गुप्ता के नाम पर ही मुहर लगा दी गयी।

साइकिल के स्वदेशी कारखाने का बन्द होना दु:खद

1947 में जब भारत आज़ाद हुआ था, तब यहाँ आज के आधुनिक युग की कल्पना भी नहीं की गयी थी। हाँ, कुछेक आधुनिक बदलाव की हवा ज़रूर चल रही थी। पर भारत की अधिकतर अर्थ-व्यवस्था बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, रब्बा और पालकी पर ही सवार थी। हालाँकि इन दिनों तक अनेक रईस घरानों की शान कार पर सवार होकर अलग दिखती थी, रेलगाड़ी भी लोगों के लिए तेज़ गति से चलने वाली एक अजूबा ही थी। लेकिन भारत की अर्थ-व्यवस्था की गाड़ी साइकिल पर सवार होकर ही आगे बढ़ी थी और इसे तब और मज़बूती मिली, जब भारत में साइकिल बनाने का कारखाना खुला।

आज आज़ादी के जब 73 साल पूरे होने को हैं, तब प्रगतिशील आत्मनिर्भर भारत की अर्थ-व्यवस्था का छोटा पहिया बन चुकी इसी साइकिल का एक अध्याय इतिहास का हिस्सा बनने के कगार पर है। यह अध्याय है- एटलस साइकिल का; जिसके सभी प्लांटों का बन्द होना इसकी बानगी है। भारत की एक मज़बूत और विदेशी साइकिल कम्पनियों को भारत में न घुसने देने वाली साइकिल निर्माता कम्पनी एटलस ने विश्व साइकिल दिवस यानी 3 जून, 2020 को साहिबाबाद में अपना अंतिम कारखाना बन्द कर दिया। लगभग 69 साल पहले 1951 हरियाणा के सोनीपत में जब एटलस साइकिल का कारखाना शुरू हुआ था, तब किसी के पास साइकिल होना बड़ी बात होती थी। बचपन में जब हम दादा-दादी, नाना-नानी के िकस्सों में कहीं-कहीं जब साइकिल का ज़िक्र सुनते थे, तो साइकिल किसी हवाई जहाज़ से कम नहीं लगती थी। उन दिनों मन में एक सपना होता था कि हम भी बड़े होकर साइकिल चलाएँगे। किस कम्पनी की? यह दिमाग में आते ही एटलस का नाम अनायास मन-मस्तिष्क पर उभर आता था। लेकिन स्टॉकहोम के नोबेल म्यूजियम की दीवारों पर चमकने वाली एटलस साइकिल अब इतिहास बन चुकी है। करोड़ों भारतीयों के ज़िन्दगी और करियर का अहम हिस्सा रही एटलस साइकिल की अहमियत वही लोग बता सकते हैं, जिनके क्षेत्र में आज भी साइकिल ही सफर का सबसे बेहतरीन संसाधन है। म्यूजियम क्यूरेटर की दीवार पर टंगी एक काले रंग की साइकिल आज भी लोग बड़े गौर से देखते हैं। यह साइकिल एटलस कम्पनी की ही है और भारत के जाने-माने अर्थशास्त्री तथा सन् 1998 में नोबेल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन की है। दरअसल इस साइकिल को अमत्र्य सेन के नोबेल पुरस्कार की अहम साथी कहें, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पश्चिम बंगाल में इसी साइकिल पर सवार होकर उन्होंने काफी समय तक गरीबी, असमानता और पिछड़ेपन पर अध्ययन किया। ऐसी ही कितनी सफलता की कहानियाँ हैं, जिनका सफर साइकिल से ही तय हुआ है।

क्यों बन्द हुआ साहिबाबाद कारखाना?

एटलस साइकिल के साहिबाबाद स्थित तीसरे और आिखरी कारखाने पर जब ताला लगा, तो पूरे देश में इसे लेकर तमाम तरह की चर्चाएँ होने लगीं। लेकिन सरकार ने इस ओर कोई ध्यान देने की ज़हमत नहीं उठायी। वह भी तब, जब उद्योगों को बचाने के लिए 20 लाख करोड़ के आॢथक पैकेज की घोषणा सरकार कर चुकी है। यह बात यहाँ इसलिए भी कहना ज़रूरी है। क्योंकि एटलस कम्पनी के मालिक कम्पनी के आॢथक तंगी से गुज़रने का हवाला दे रहे हैं। इसके लिए उन्होंने बाकायदा कारखाने के गेट पर एक नोटिस भी लगाया है, जिस पर लिखा गया है- ‘हमें अपने हर दिन के संचालन के लिए फंड जुटाने में परेशानी हो रही है। हम कच्चा माल खरीदने में भी असमर्थ हैं। मौज़ूदा संकट में प्रबन्धन फैक्ट्री चलाने की स्थिति में नहीं है।’

बजट आने पर होगा उत्पादन

एटलस के साहिबाबाद कारखाने के बन्द होने से हुए हंगामे के बीच कम्पनी की प्रबन्ध समिति ने इसे दोबारा शुरू करने की बात कहनी शुरू कर दी है। इस सिलसिले में श्रम विभाग के उपायुक्त राजेश मिश्रा कम्पनी के प्रबन्धकों और श्रमिकों के साथ बैठक भी कर चुके हैं। इस बैठक में कम्पनी प्रबन्धकों ने आश्वासन दिया कि सोनीपत में बन्द हो चुके एटलस कारखाने की ज़मीन बेचकर धन जुटाने के बाद साहिबाबाद स्थित कारखाने को दोबारा चालू किया जा सकेगा। कब तक एटलस कारखाने की सोनीपत वाली ज़मीन बिकेगी और कब यह कारखाना शुरू होगा? इस बात की पुष्टि तो अभी नहीं की गयी है; लेकिन ज़मीन बेचने की प्रक्रिया जून में ही शुरू की जाने की उम्मीद है। वहीं कम्पनी को श्रमिकों का पूरा वेतन घर बैठे देना पड़ेगा। कब तक? अभी यह भी तय नहीं है। क्योंकि इस सिलसिले में उप आयुक्त के साथ कम्पनी प्रबन्धकों और श्रमिकों की अगली बैठक इसी 23 जून को होगी, जिसमें कई मामलों पर स्पष्टीकरण की उम्मीद है। इस मामले को ज़िला प्रशासन ने भी अपने संज्ञान में लिया है और एडीएम प्रशासन ने कम्पनी की बैलेंस शीट माँगी है। कम्पनी प्रबन्धकों का कहना है कि फिलहाल सिर्फ कारखाने में उत्पादन का काम रोका गया है; उसे बन्द नहीं किया गया है।

कब बिक सकती है ज़मीन?

किसी कम्पनी की ज़मीन बेचने के लिए उस कम्पनी को सभी साझेदारों, निवेशकों और राष्ट्रीय कम्पनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) से अनुमति की आवश्यकता होती है। एटलस के सीईओ एनपी सिंह ने कहा है कि एटलस कम्पनी का उत्पादन ले-ऑफ प्रक्रिया के तहत को रोका गया है, जो कि सही है। क्योंकि यह आॢथक तंगी की वजह से करना पड़ा है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि सोनीपत वाली कम्पनी से उनका कोई मतलब नहीं है। वहाँ जो उनकी ज़मीन है, उसे बेचने के लिए एनसीएलटी से अनुमति के लिए प्रार्थना पत्र दिया हुआ है। इस पर जून में ही स्पष्टीकरण की उम्मीद है। अगर इस ज़मीन को बेचने की एनसीएलटी ने अनुमति दी, तो कम्पनी ऐसा करेगी। बिना अनुमति के कुछ भी नहीं किया जा सकता।

एटलस की कामयाबी का इतिहास

जानकी दास कपूर ने 1951 में एटलस नाम से साइकिल बनाने के एक कारखाने की शुरुआत एक टिन शेड में की थी। यह वह दौर था, जब साइकिल किसी के लिए भी आवाजाही का सुलभ, सस्ता और बेहतरीन माध्यम होती थी। हालाँकि गरीबों की पहुँच से तब साइकिल बहुत दूर हुआ करती थी। फिर भी पहले साल ही इस कारखाने में बनी एटलस की 12,000 साइकिल भारत में बिकी थीं। यही वजह रही कि टिन शेड से शुरू हुआ यह कारखाना एक साल के अंदर ही 25 एकड़ ज़मीन में फैल गया। इसके बाद एटलस साइकिल पर सवार इस कारखाने ने देखते-ही-देखते दुनिया भर में अपना नाम कमा लिया और सन् 1958 में एटलस कम्पनी ने साइकिलों की पहली खेप विदेश को निर्यात की। आज जब यह कम्पनी में सामान्य साइकिल से अत्याधुनिक साइकिलों का निर्माण कर रही थी, तब इसका बन्द होना भारत के लिए एक बड़ा झटका इसलिए भी है, क्योंकि यह एक पूर्णतया स्वदेशी कम्पनी है। अगर इसका इतिहास खंगाले, तो एटलस कम्पनी पर कई किताबें लिखी जा सकती हैं। लेकिन संक्षेप में कुछ बिन्दुओं को देखने पर पता चलता है कि सन् 1978 में एटलस कम्पनी ने भारत की पहली रेसिंग साइकिल लॉन्च की। यही नहीं सन् 1982 में दिल्ली एशियन गेम्स में यह कम्पनी साइकिल की आधिकारिक सप्लायर थी। सन् 2003-4 से एटलस कम्पनी पर संकट के बादल मँडराने शुरू हुए। इसके तकरीबन 10 साल बाद कम्पनी ने अपना 2014 में मध्य प्रदेश के मलनपुर स्थित एक कारखाना बन्द कर दिया। इसके बाद 2018 में सोनीपत स्थित कारखाने को बन्द किया गया। और अब कम्पनी के साहिबाबाद स्थित आिखरी कारखाने को कम्पनी ने बन्द कर दिया। एटलस साइकिल का यह कारखाना ऐसे समय में बन्द हुआ है, जब दुनिया के कई देशों में एटलस साइकिल का निर्यात होता है। इससे भी बड़ी बात यह है कि एटलस साइकिल ने अभी तक किसी विदेशी साइकिल कम्पनी का भारत में दाँत नहीं गढऩे दिया है।

कई कम्पनियों पर पड़ेगा प्रभाव

एटलस साइकिल के कारखाने के बन्द होने से उन कई कम्पनियों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा, जो साइकिल के पार्ट बनाकर एटलस को सप्लाई करती हैं। इसमें टायर-ट्यूब उद्योग, बैङ्क्षरग उद्योग के अलावा साइकिल में उपयोग किये जाने वाले अन्य कई उद्योग हैं। क्योंकि ज़ाहिर है हर साल एक करोड़ से अधिक साइकिल बनाने वाली एटलस कम्पनी करोड़ों के साइकिल पार्ट आयात भी करती होगी।

उत्पादन में आयी लगातार बढ़ोतरी

कोरोना वायरस के चलते इन दिनों भले ही साइकिल की बिक्री में कुछ कमी आयी हो, लेकिन तमाम इंजन वाहनों की संख्या बेतादाद बढऩे के बावजूद साइकिल के उत्पादन और बिक्री में कमी नहीं आयी। इसका कारण यह भी है कि एटलस कम्पनी साइकिल की दुनिया में एक भरोसेमंद नाम है। बहुत कम साइकिल बनाने से शुरू किये गये एटलस साइकिल के कारखाने में साल दर साल उत्पादन बढऩे का एक सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि सन् 2010-11 में तकरीबन डेढ़ करोड़ साइकिल हर साल यहाँ से बनकर निकलती थीं। साइकिलों की बिक्री बढऩे का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब कई विदेशी कार कम्पनियाँ तक साइकिल बनाने लगी हैं।

पर्यावरण की दोस्त और मुसीबत की साथी

भारत में लॉकडाउन होने पर कितने ही मज़दूरों की साथी बनी साइकिल की कीमत तो कोई उन्हीं से पूछे कि इस मुसीबत की घड़ी में उन्हें साइकिल मिलना कितने हर्ष की बात रही होगी। साइकिल का महत्त्व हरियाणा से बिहार करीब 1400 किलोमीटर अपने पिता को ले जाने वाली 15 साल की ज्योति बता सकती है, जिसके पिता ने 500 रुपये उधार लेकर एक पुरानी साइकिल खरीदी। साइकिल का महत्त्व एक विकलांग बेटे का वह मजबूर बाप बता सकता है, जिसे बड़ी शॄमदगी के साथ बेटे की खातिर साइकिल चुरानी पड़ी। या फिर वे अनगिनत परिवार बता सकते हैं, जिन्हें छोटे-छोटे बच्चों के साथ पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर का सफर तय करना पड़ा। आज जब पूरी दुनिया के पर्यावरणविद् कह रहे हैं कि पर्यावरण को बचाने और प्रदूषण को कम करने के लिए जितना मुमकिन हो साइकिल से सफर कीजिए। आज जब डॉक्टर सलाह देते हैं कि साइकिल चलाना सेहत के लिए लाभदायक है। आज जब पूरी दुनिया में अनेक अमीर भी साइकिल चलाने लगे हैं। दुनिया भर में अनेक लोग साइकिल से कार्यालय तक जाने लगे हैं, तब भारत में एटलस साइकिल के कारखाने का बन्द होना काफी दु:खद है।

साइकिल का आविष्कार

आज की युवा पीढ़ी में बहुत से लोग नहीं जानते होंगे कि साइकिल का आविष्कार सन् 1839 में स्कॉटलैंड में एक लुहार के हाथों हुआ था। इस लुहार का नाम था- किर्कपैट्रिक मैकमिलन। वैसे यूरोपीय देशों में 18वीं शताब्दी के उतराद्र्ध में साइकिल का विचार पनपने लगा था, जिसका अविकसित मूर्तरूप सन् 1816 में लकड़ी की साइकिल के रूप में पेरिस के एक कारीगर के द्वारा अस्तित्व में सामने आया, जिसे हॉबी हॉर्स कहा गया। इससे पहले साइकिल का एक अधूरा या कहें कि अपूर्ण रूप चलन में था और उसे बच्चों की बेङ्क्षरग गाड़ी की तरह पाँवों की तरह दोनों पाँवों से खिसकाना पड़ता था; जिसके चलते साइकिल का यह आविष्कार न तो चर्चा में था और न ही इसका उपयोग बहुत लोग करते थे। इसके बाद पैडल का आविष्कार सन् 1865 में पैरिस निवासी लालेमे ने किया। उन दिनों पैडल को क्रैंको कहा जाता था और इस यंत्र को वेलॉसिपीड। तब इसे चलाने वाले को बेहद थकावट हो जाती थी। इसलिए बहुत-से लोग इसे बोन शेकर यानी हाड़तोड़ कहते थे। कुछ भी हो साइकिल का आविष्कारक किर्कपैट्रिक मेकमिलन को ही माना जाता है। जब मैकमिलन ने इसे पैरों से चला सकने लायक बनाया, तो इसका उपयोग बढऩे लगा और साइकिल चर्चा में आने लगी। मैकमिलन ने पहले इसका नाम वेलोसिपीड रखा। उसके बाद इसे बायसडक़ल या बाइसिकिल कहा जाने लगा।

ऐसा माना जाता है कि साइकिल के शुरुआती स्वरूप की रूपरेखा सन् 1817 में जर्मनी के बैरन फॉन ड्रेविस ने तैयार की थी। तब यह लकड़ी से बनायी गयी थी और इसका नाम ड्रेसियेन रखा गया था। बताया जाता है कि यह साइकिल एक तेज़ चाल से चलने वाले पैदल व्यक्ति की तरह ही चल पाती थी, जिसकी रफ्तार 15 किलोमीटर प्रति घंटा थी। शायद इसीलिए इसका उपयोग कम ही लोग करते थे। कुछ प्रमाण यह भी कहते हैं कि सन् 1763 में ही फ्रांस के पियरे लैलमेंट ने पैरों से घसीटे जाने वाले एक साधन की खोज की थी, बाद में इसी का रूप सुधरता गया और साइकिल हमारे अस्तित्व में आयी। इसके बाद इसकी माँग बढ़ती गयी और इंग्लैंड, फ्रांस तथा अमेरिका ने इसे यात्रा के सुलभ साधन के रूप में विकसित कर दिया। साइकिल की पहला सही रूप सन् 1872 में में सामने आया, जिसे चलाने बहुत मुश्किल या बोझिल नहीं रह गया था। इसमें लोहे की पतली पट्टी के तानयुक्त दो पहिये लगाये गये थे। इसमें आगे का पहिया 30 इंच से 64 इंच तक के व्यास का और पिछला पहिया 12 इंच के व्यास का होता था। इसमें क्रैंकों के अतिरिक्त गोली के बैङ्क्षरग और ब्रेक भी लगाये गये थे, जिससे इसे चलाना बहुत मुश्किल नहीं था। भारत के आॢथक पहियों में साइकिल के पहिया भी एक अहम पहिया था। आज़ादी के बाद से अगले कई दशक तक यहाँ की यातायात व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा साइकिल ही रही है। जब मोटरसाइकिल का चलन बढ़ा, तो साइकिल का चलन कम होता दिखा; लेकिन फिर भी आज भी लाखों लोगों के पास साइकिल ही वाहन का एक मात्र निजी साधन है।

आॢथक मंदी की वजह से उत्तर प्रदेश की प्रसिद्ध एटलस साइकिल कम्पनी में उत्पादन बन्दी की खबर बेहद चिन्ताजनक है। इससे हज़ारों मज़दूरों के सामने रोज़ी-रोटी का संकट पैदा हो गया है। बेरोज़गारी के इस दौर में ये गरीब अब कहाँ जाएँगे? भाजपा की गलत नीतियों की वजह से अब एक और बन्दी शुरू।

अखिलेश यादव, सपा अध्यक्ष

विश्व साइकिल दिवस के मौके पर साइकिल कम्पनी एटलस की गाज़ियाबाद फैक्ट्री बन्द हो गयी है। सरकार के प्रचार में तो सुन लिया कि इतने पैकेज, इतने एमओयू (मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग), इतने रोज़गार। लेकिन असल में तो रोज़गार खत्म हो रहे हैं। फैक्ट्रियाँ बन्द हो रही हैं।

प्रियंका गाँधी, कांग्रेस महासचिव

ऐसे समय में जबकि लॉकडाउन के कारण बन्द पड़े उद्योगों को खोलने के लिए आॢथक पैकेज आदि सरकारी मदद देने की बात की जा रही है, तब यूपी के गाज़ियाबाद स्थित एटलस जैसी प्रमुख साइकिल फैक्ट्री के धन अभाव में बन्द होने की खबर चिन्ताओं को बढ़ाने वाली है। सरकार तुरन्त ध्यान दे, तो बेहतर है।

मायावती, बसपा प्रमुख

अभिशाप नहीं दिव्यांगता

इंसान का शरीर कितना भी ताकतवर हो, लेकिन अगर उसमें कुछ करने की इच्छा शक्ति नहीं है, तो वह किसी दिव्यांग के जैसा ही है। वहीं अगर किसी का शरीर या कोई अंग कमज़ोर हो; लेकिन कुछ कर गुज़रने का जुनून हो, तो वह इंसान ऐसे-ऐसे काम कर सकता है, जो स्वस्थ लोग भी नहीं कर सकते। विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन विलियम हॉङ्क्षकग के बारे में तो आपने सुना ही होगा। 8 जनवरी, 1942 में इंग्लैंड में जन्मे स्टीफन विलियम हॉङ्क्षकग का पूरा शरीर ही निष्क्रिय था। लेकिन उन्होंने वह कर दिखाया, जो आज तक कोई वैज्ञानिक नहीं कर सका। अपने मन की बात दूसरों को बताने के लिए कम्प्यूटर और दूसरे उपकरणों में कई नयी खोजें की, जिससे वह लोगों के सवाल सुनकर उनके उत्तर देते थे और अपनी इच्छाओं को प्रकट करते थे। क्योंकि उनकी मांसपेशियाँ काम नहीं करती थीं, इसलिए उन्होंने अपने चश्मे पर एक सेंसर जोडक़र उसे कम्प्यूटर से जोड़ दिया। यही नहीं शारीरिक तौर पर पूरी तरह अक्षम होने के बावजूद उन्होंने 12 मानद डिग्रियाँ हासिल कीं और ब्रह्माण्ड को समझने में अनोखी भूमिका निभायी और यूनिवॢसटी ऑफ कैंब्रिज में गणित तथा सैद्धांतिक भौतिकी के प्रोफेसर रहे। उन्होंने ‘अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ नाम की अद्भुत किताब भी लिखी। 14 मार्च, 2018 में जब उनकी मृत्यु हुई, तो पूरी दुनिया ने उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित की। सोचिए, अगर स्टीफन एक साधारण इंसान होते, तो उन्हें कौन याद करता? इसलिए कहा जाता है कि दिमाग अगर सही दिशा में काम करता है, तो हौसला काम करता है और आदमी बिना शारीरिक परिश्रम के या कम शारीरिक परिश्रम करके भी दुनिया पर राज कर सकता है।

मध्य प्रदेश के खरगोन ज़िले में जन्मे दिव्यांग आयुष अद्भुत पेंटिंग करते हैं। वह यह कलाकारी हाथों से नहीं, बल्कि पैरों से करते हैं। आयुष जन्म से ही न तो बोल सकते हैं, न उनके हाथ-पैर काम करते हैं। उनकी ज़िन्दगी शुरू से ही व्हील चेयर पर टिकी हुई है। लेकिन उन्होंने अपनी माँ से प्रेरणा लेकर पैरों से पेंटिंग बनाने की प्रैक्टिस शुरू की और धीरे-धीरे इतने निपुण बन गये कि उन्होंने जब अमिताभ बच्चन की पेंटिंग पैरों से बनाकर ट्विट की, तो अमिताभ बच्चन उनसे मिलने को बेचैन हो गये। अपने खर्च पर आयुष और उसके पूरे परिवार को मुम्बई बुला लिया। यह बात कौन बनेगा करोड़पति के 11वें सीजन की है। उस समय अमिताभ बच्चन ने आयुष से पूछा कि उनकी इच्छा क्या है? पीयूष ने अमिताभ बच्चन के साथ हॉट शीट पर बैठने की अपनी इच्छा इशारों से अपनी माँ से ज़ाहिर की। तब अमिताभ बच्चन ने उनसे कौन बनेगा करोड़पति के 12वें यानी इसी सीजन में अतिथि बनाने का वादा किया। इस समय कौन बनेगा करोड़पति का 12वाँ सीजन शुरू हो चुका है।

जयपुर के रोशन नागर के दोनों हाथ नहीं हैं। दरअसल वह पैदा तो सही-सलामत हुए थे, लेकिन बचपन में एक बार पतंग लूटने के चक्कर में उनको बिल्ली का ऐसा झटका लगा कि उनके बचने की उम्मीद ही नहीं रही थी। ऐसे में डॉक्टरों ने उन्हें बचा तो लिया, मगर उनके दोनों हाथ और एक पैर को काटना पड़ा। लगभग एक साल तक इलाज के बाद जब वह एक नकली पैर लगवाने के बाद चलने तो लगे, मगर अब उनकी ज़िन्दगी में अंधकार के सिवाय कुछ नहीं था। मगर उन्होंने हार नहीं मानी, वह जैसे ही ठीक हुए उन्होंने आगे की पढ़ाई की सोची और मुड्ढे तक कटे हाथ में पेन बँधवाकर लिखने की प्रैक्टिस शुरू की। उन दिनों उन्हें हाथ में विकट दर्द होता था, मगर उन्होंने प्रैक्टिस जारी रखी और कटे हाथ से तीन घंटे लगातार लिखने की आदत डाली। इसके बाद उन्होंने आठवीं से लेकर ग्रेजुएशन की पढ़ाई तक की, वह भी फस्र्ट डिवीजन से और बिना किसी की मदद के। फिर उन्होंने सरकारी नौकरी के लिए अप्लाई किया। मगर योग्यता होते हुए भी उन्हें नौकरी नहीं मिली। उनकी िकस्मत ने उन्हें यहीं तक ठोकर नहीं मारी, बल्कि इसके बाद भी अनेक परेशानियाँ उनके आड़े रहीं। क्योंकि उन्हें किसी ने प्राइवेट नौकरी भी नहीं दी। इसका कारण यह था कि वह कम्प्यूटर पर काम तो कर सकते थे, पर बहुत-से निजी काम ऐसे होते हैं, जो व्यक्ति को स्वयं करने होते हैं और रोशन उन कामों को करने में सक्षम नहीं थे। तब उन्होंने इलैक्ट्रिक हाथ लगवाने की सोची, पर उनके पास इतने पैसे नहीं थे। कहते हैं कि हिम्मते मर्दा मददे खुदा और वही हुआ उनके इस हौंसले को देखते हुए जयपुर के ही एनजीओ के मालिक ने रोशन की मदद की और उन्हें इलैक्ट्रिक हाथ लगवाया। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुडक़र नहीं देखा और अपना काम करने की मन में ठानी। आज रोशन अपना कोचिंग सेंटर चलाते हैं और अच्छी ज़िन्दगी जीने के लायक कमाते हैं। रोशन कहते हैं कि उन्होंने जीवन में एक ही बात सीखी है कि ज़िन्दगी उन्हीं के साथ खेलती है, जो अच्छे खिलाड़ी होते हैं। मैदान में हारे हुए इंसान को तो कोई भी देखना नहीं चाहता। वह कहते हैं कि जब आपके साथ कुछ बुरा होता, तो यह यकीन मानिए कि आपके साथ कुछ अच्छा होने वाला है।

मध्य प्रदेश के जबलपुर ज़िले की कुन्डम तहसील के छोटे-से गाँव रमपुरी में 1 जुलाई, 1986 को जन्मे डॉ. अजीत मार्को जन्म से ही दिव्यांग हैं। जब वह पैदा हुए, तो न तो उनके बायें पैर का अँगूठा था और न दायाँ पैर पूरा था। उनका दायाँ पैर घुटने के नीचे विकसित ही नहीं हुआ था। इसके कारण अजीत का बचपन बहुत कष्ट में बीता। लेकिन उन्होंने कभी इसे अपनी कमज़ोरी नहीं बनने दिया। एक लकड़ी के सहारे चलना सीखा और उसी लकड़ी को अपना दूसरा पैर मानकर ज़िन्दगी का सफर तय करते रहे। अजीत के लिए पाँचवीं तक तो पढऩे में कोई मुश्किल नहीं हुई, क्योंकि स्कूल गाँव में ही था। लेकिन पाँचवीं के बाद उन्हें पहाड़ी और जंगली रास्तों से होकर 7 किलोमीटर दूर पढऩे जाना था। अजीत ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होंने पैदल ही एक लकड़ी के सहारे हर रोज़ इस सफर को तय किया और सातवीं तक यहीं पढ़े। इसके बाद वह अपने पिता के साथ शहर (जबलपुर) चले गये और यहीं आगे की शिक्षा प्राप्त की। यह वह समय था, जब जबलपुर में अजीत के पिता सरकारी अस्पताल में ओटी अटेंडेंट की नौकरी पर लगे थे। एक छोटी-सी तनख्वाह में परिवार को पालना तथा तीन बच्चों पढ़ाना आसान नहीं था; लेकिन उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी और अपने सभी बच्चों को उच्चस्तरीय शिक्षा और अच्छे संस्कार दिये। अजीत ने 12वीं तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद रेडिएशन ओंकोलोजी एमबीबीएस और एमडी की डिग्री हासिल की। एमबीबीएस में प्रवेश लेने के लिए अजीत के पिता ने सारी जमा पूँजी निकाल ली और कुछ रुपये अपने परिचितों से उधार लिए। स्थिति यह थी कि अजीत के दाखिले की व्यवस्था के बाद उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि खुद जाकर अजीत को हॉस्टल तक छोड़ आयें या अजीत को रेलवे स्टेशन तक किराये से भेज सकें। अजीत अपनी ट्राईसाइकिल पर अपना सामान बाँधकर रेलवे स्टेशन पहुँचे और वहाँ से अकेले ही हॉस्टल गये। आज वही अजीत मार्को डॉक्टर अजीत मार्को हैं और लोगों की सेवा कर रहे हैं। डॉक्टर अजीत की इस प्रेरणा के बारे में पूछने पर वह कहते हैं कि उन्होंने अपने पिता की हिम्मत, मेहनत और सादा ज़िन्दगी से बहुत कुछ सीखा है। डॉक्टर बनने का खयाल उन्हें तब आया जब वह अपने पिता के साथ सरकारी अस्पताल के क्वार्टर में रहते थे और डॉक्टरों को देखते थे। इसके अलावा गाँवों में लोगों के पास इलाज की समुचित व्यवस्था न होने से भी वह परेशान थे। उनका कहना है कि कई गाँवों में लोगों को अभी तक बीमारी के इलाज कराने के लिए समुचित व्यवस्थाएँ नहीं मिल सकी हैं और लोग आज भी अनेक बीमारियों का इलाज झाड़-फूँक समझते हैं। इसलिए उन्होंने गाँव के लोगों की सेवा करने का निश्चय किया है और वह आज रेडियोथेरेपी विभाग श्याम शाह मेडिकल कॉलेज एवं संजय गाँधी स्मृति चिकित्सालय के रीवा (मध्य प्रदेश) केंद्र में सहायक प्राध्यापक हैं तथा जितनी सम्भव हो पाती है, एक प्राइवेट समाजसेवी संगठन के ज़रिये बीमार ग्रामीणों की सेवा करते हैं। उन्हें झाड़-फूँक के भ्रम से निकालकर किसी बीमारी के इलाज का सही रास्ता दिखाते हैं।

मध्य प्रदेश के ही शहडोल ज़िले के डॉ. विपिन पाठक हैं। विपिन पाठक का जन्म 22 जून, 1987 को शहडोल के एक टाँव नामक गाँव में हुआ। विपिन के दोनों पैर बचपन से ही पोलियोग्रस्त हैं। ऐसे में बचपन से ही चलने-फिरने में दिक्कतें रहीं। विपिन की प्राथमिक शिक्षा देवलौद से शुरू हुई। इसके बाद उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद  उन्होंने श्याम शाह चिकित्सा महाविद्यालय, रीवा एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी की और आज वह ज़िला चिकित्सालय, रीवा में मेडिसिन विभाग में चिकित्सा अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। डॉ. विपिन पाठक कहते हैं कि उन्होंने दिव्यांगता को कभी भी अपनी कमी या कमज़ोरी नहीं माना। क्योंकि उनके माता-पिता ने उनके जीवन में एक आदर्श की भूमिका निभायी है। उनके एक डॉ. बनने के पीछे उनके माता-पिता, मित्रों और शिक्षकों के मार्गदर्शन की बड़ी भूमिका रही है। अब मानव जीवन की सेवा ही मेरा लक्ष्य है। जीवन में संघर्ष व मेहनत के द्वारा यह सम्भव हो सका। इसलिए लोगों की मदद करना ही मेरा लक्ष्य है। वह कहते हैं कि जीवन में कामयाबी मिलने तक कभी भी किसी को हार नहीं माननी चाहिए। अगर आपका खुद पर विश्वास है और आप मेहनती हैं, तो सफलता अवश्य मिलेगी; फिर चाहे आप शारीरिक रूप से अक्षम हों या आॢथक रूप से।

अभद्र दबंगई

हरियाणा में भाजपा की एक महिला नेत्री सोनाली फोगाट ने पुलिस की मौज़ूदगी में एक सरकारी अधिकारी सुल्तान सिंह की सरेआम पिटाई कर दी। करीब खड़ा पुलिसकर्मी देखता रहा। उसने रोका नहीं। शायद इसलिए, क्योंकि पीटने वाली का रुआब पार्टी में अच्छा-खासा है। भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के अलावा उनकी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में भी अच्छी पैठ है। ऐसे में पुलिस का मूक-दर्शक बने रहना समय का तकाज़ा ही माना जा सकता है।

सोनाली ने हिसार ज़िले के आदमपुर विधानसभा में भाजपा टिकट पर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के बेटे कुलदीप बिश्नोई के खिलाफ चुनाव लड़ा, लेकिन सफल नहीं हो सकी। बावजूद इसके वह पार्टी में पूरी तरह से सक्रिय है। अनुशासन के तुर्रे पर भाजपा अपने को अन्य दलों से अलग बताते नहीं अघाती; लेकिन इस अनुशासनहीनता पर अभी उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। किसी बड़ी नेता ने स्पष्ट तौर पर घटना की निंदा नहीं की; क्यों? जबकि पिटने वाला उसकी सरकार का ही कर्मचारी है। ड्यूटी पर तैनात किसी अधिकारी की सरेआम तमाचे और सैंडल से पिटाई छोटी बात नहीं है। कानून हाथ में लेकर जिस तरह से भाजपा नेत्री सोनाली ने यह दबंगई दिखाई है वह पार्टी के लिए शुभ संकेत नहीं है। घटना का चौतरफा विरोध होने लगा है। सर्व कर्मचारी संघ और खाप पंचायत पीडि़त सुल्तान सिंह के समर्थन में आ गये हैं। आने वाले दिनों में मामला काफी तूल पकड़ेगा। ज़ाहिर है, इससे भाजपा की साख को ही बट्टा लगने वाला है।

आिखर वजह क्या रही कि बालसमंद मंडी परिसर में सोनाली फोगाट ने मंडी बोर्ड के सचिव की यह कहते हुए पिटाई कर डाली कि तुम्हारे जैसे लोगों को जीने का हक नहीं है। कुछ तो रहा होगा, जिसके चलते उन्होंने ऐसी दंबगई दिखायी। वजह बतायी कि उसने (सुल्तान) ने अभद्रता की नतीजन उसे सबक सिखाया गया, ताकि भविष्य में वह गलती करने की हिमाकत न कर सके। अगर आरोप सही हैं, तो पुलिस में शिकायत दी जा सकती है कानून अपने हाथ में लेने की ज़रूरत क्यों आयी? क्या सोनाली के पास ऐसा कोई अधिकार है? क्या किसी पार्टी नेता या पदाधिकारी को ऐसा अिख्तयार है? अन्य दलों में ऐसे जूतमपैजार पर अक्सर पार्टी प्रवक्ता तुरन्त प्रभाव से कार्रवाई के बयान जारी करते दिखते हैं; लेकिन इस मामले में किसी ने स्पष्ट कहने से कन्नी ही काटी।

प्रकरण पर राजनीति शुरू हो गयी है। कुछ इसे भाजपा बनाम कांग्रेस से जोडक़र देख रहे हैं, तो कई न्याय और अन्याय की बता रहे हैं। सोनाली किसानों की शिकायत पर बालसमंद मंडी परिसर पहुँची थी कि 50 किलो चने को पचपन (55) किलो तोला जा रहा है। इसके अलावा खरीद का काम पूरी तरह से नहीं हो रहा है। मंडी का फर्श ठीक नहीं था; गेट लगने वाले थे। इसके अलावा वहाँ शैड की भी ज़रूरत थी, ताकि बारिश से अनाज खराब न हो।

शिकायतें वाजिब थी, लिहाज़ा हलका होने के नाते उन्हें ऐसा करना ही था। सुल्तान सिंह ने जल्द ही सब ठीक कराने की बात कही। कृषि मंत्रालय से इसके लिए फंड की बात कही गयी; लेकिन अधिकारी ने कहा मंडी बोर्ड इसे कराने में सक्षम है। बातचीत में काफी लोग आसपास मौज़ूद रहे। फिर मंडी स्थल के निरीक्षण के दौरान न जाने क्या हुआ कि सुल्तान सिंह को कुछ लोगों ने पीट दिया। ये लोग कौन थे? पार्टी कार्यकर्ता या फिर सोनाली के ही लोग। सुल्तान सिंह इन्हें सोनाली के लोग बता रहे हैं, जबकि सोनाली इन्हें पार्टी पदाधिकारी और कार्यकर्ता बता रही है। यह जाँच में ही स्पष्ट हो सकेगा। लेकिन क्या किसी को ड्यूटी पर तैनात सरकारी कर्मी की ऐसे पिटाई करने का हक है? अगर बाहरी लोग हैं, तो सीधे मामला बनता है। पार्टी कार्यकर्ता है, तो अनुशासित माने जाने वाली पार्टी को सच्चाई सामने आने के बाद कार्रवाई करनी होगी।

सुल्तान सिंह पर भी काफी आरोप है, पर इसका मतलब यह कतई नहीं कि खुद ही पुलिस और अदालत की भूमिका निभाये। सैंडल मारते हुए यह कहते हुए तुम्हारे जैसे व्यक्तिको जीने का हक नहीं; का वीडियो बनाने की क्यों ज़रूरत हुई। वीडियो बनाने वाले लौग कौन थे? इसे फिर वायरल करने वाले वे ही लोग थे, जिनका कोई मकसद रहा होगा। इसे विधानसभा चुनाव से जोडक़र देखा जा रहा है।

सुल्तान सिंह ने बताया कि बातचीत में सोनाली ने उन्हें आदमपुर विधानसभा में उनके खिलाफ प्रचार करने की बात कही, जिस पर उन्होंने बिल्कुल इन्कार किया था। शायद इसी बात की कोई खुन्नस रही होगी; लेकिन वाकई मेरा प्रचार से कोई लेना-देना नहीं रहा। चुनाव के इतने समय बाद यह मुद्दा अचानक बातचीत में क्यों आया यह भी जाँच का विषय है। पूर्व सांसद और वरिष्ठ कांग्रेस नेता जयप्रकाश (जेपी) कहते हैं कि यह मामला राजनीति का नहीं, बल्कि न्याय और अन्याय की लड़ाई है। राज्य सरकार की जाँच निष्पक्ष नहीं होगी। मामला गम्भीर है, लिहाज़ा इसकी सीबीआई जाँच होनी चाहिए। सरकार किसी की भी हो, कोई भी नेता या बड़ा पदाधिकारी क्यों न हो किसी को ड्यूटी पर तैनात कर्मचारी को मारने का हक नहीं है। लोकतंत्र है, ऐसा होगा तो फिर क्या मतलब रह जाएगा। सांपला मंडी बोर्ड की सचिव सविता सैनी ने कहा कि सुल्तान सिंह किसी महिला के खिलाफ अभद्र टिप्पणी नहीं कर सकते। इस बात पर यकीन करना मुश्किल है। दर्ज़नों लोगों की मौज़ूदगी में अभद्र भाषा और उस महिला के खिलाफ टिप्पणी करना, जिसका राजनीतिक रुतबा है; भरोसा नहीं किया जा सकता। रोहतक मार्केट कमेटी के सचिव दीपक लोचब कहते हैं कि मामले में कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। अगर नहीं हुई, तो व्यापक स्तर पर आन्दोलन शुरू होगा। यह घटना निंदनीय है। कल को किसी के साथ कोई नेता या पदाधिकारी, जब चाहेगा मारपीट करके उसे बेइज़्ज़त कर देगा। कर्मचारियों का भी कोई स्वाभिमान है। अगर यही नहीं रहा, तो फिर काहे की नौकरी। सर्व कर्मचारी संघ ने स्पष्ट चेतावनी दी है कि अगर सोनाली फोगाट के खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं होगी, तो राज्य स्तर पर आन्दोलन शुरू हो जाएगा।

राज्य में खाप पंचायतों का अपना अलग महत्त्व है। ऐसे कई आन्दोलन हुए, जिनमें उनके आगे सरकार को झुकना पड़ा है। पंचायत प्रतिनिधियों का कहना है कि पिटाई का वीडियो बनाकर उसे वायरल करना बताता है कि यह सब साज़िश थी। पहले से सब कुछ तय था। अचानक यह सब नहीं हुआ। यह शोभा नहीं देता कि कोई महिला किसी सरकारी कर्मचारी की इस तरह पिटाई करे। खाप पंचायत इस मामले में न्याय चाहती है। अगर न्याय नहीं हुआ, तो इसके नतीजे सरकार को भुगतने पड़ेंगे।

इंडियन नेशनल लोकदल के विधायक अभय चौटाला ने कहा कि सुल्तान सिंह दूध का धुला हुआ व्यक्तिनहीं है। उनके खिलाफ किसानों की शिकायतें गम्भीर हैं। गनीमत यह रही कि किसानों ने अब तक सोनाली फोगाट जैसा काम नहीं किया। उन्होंने पिटाई को सही बताते हुए कहा कि अब आगे से गड़बडिय़ाँ करते हुए सचिव कई बार सोचेगा। मामला हरियाणा राज्य महिला आयोग में पहुँच गया है। आयोग की अध्यक्ष प्रतिभा सुमन ने कहा ऑडियो को सुनकर लगता है कि सचिव सुल्तान सिंह ने वाकई शिकायतकर्ता से अभद्रता की है; लेकिन बिना जाँच ऐसा कोई बयान दिया जाना उचित नहीं है। ऑडियो की बाकायदा जाँच होने देनी चाहिए; उसके बाद किसी नतीजे पर जाना चाहिए। उन्होंने अभी शिकायतकर्ता का भी पक्ष जाना है। सभी से बाचतीत के बाद आयोग किसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा। इस मामले में गृहमंत्री अनिल विज ने कहा है कि कानून की नज़र में सब बराबर हैं। कानून अपना काम करेगा और दोषी के खिलाफ कार्रवाई होगी।

परिवार का संताप

इस घटना के बाद से सुल्तान सिंह का परिवार सदमे जैसी हालत में है। उनकी माँ रोते हुए बताती हैं कि उनका सुल्तान किसी महिला का अपमान नहीं कर सकता। उसे साज़िश के तहत पीटा गया। उसे बेइज़्ज़त करना था, इसीलिए उसका वीडियो बनाया और सारे संसार में चला दिया। हमारे परिवार की क्या इज़्ज़त रह गयी? उसने कुछ गलत किया, तो सरकार कार्रवाई करती; लेकिन उसकी पिटाई क्यों की? पत्नी ने बताया कि जिस तरह से उन्हें मारा-पीटा गया है, अगर कुछ हो जाता, तो परिवार के लोगों का क्या होता? वीडियो के बाद उनकी हालत को देखकर बच्चों को रोना आ गया। स्नातक कर रहे उनके बेटे ने कहा कि वह एनडीए के माध्यम से सेना में अफसर बनना चाहता है। लेकिन जब नेता लोग कर्मचारियों को ऐसे पीटेंगे, तो कौन देश-सेवा के लिए जाना चाहेगा? बेटी ने कहा उनके पिता का कोई कुसूर नहीं था। उन्हें बेवजह पीटा गया। हमारे परिवार की इज़्ज़त को नीलाम कर दिया गया। हम इज़्ज़ततदार लोग हैं। हमारे स्वाभिवान को बहुत आघात लगा है। यह आरोप बिल्कुल झूठा है कि उनके पिता ने सोनाली से अभद्र भाषा में कुछ कहा। पिटाई के समय का वीडियो देखें, कैसे डरे हुए हैं; उठ भी नहीं पा रहे हैं। यह शर्मनाक है। सरकार को चाहिए कि वह हमारे परिवार को न्याय दिलाये। सुल्तान सिंह ने बताया कि घटना के बाद वह इतने शर्मसार हुए कि खुदकुशी करने तक की सोची; लेकिन अब कुछ हिम्मत आयी है। वह न्याय के लिए लड़ेंगे। हर वर्ग के लोग उनके साथ हैं। वह किसी तरह का समझौता नहीं करेंगे। हर तरह की जाँच का सामना करने को तैयार हैं। उनके खिलाफ आरोप हैं, तो विभाग उनकी जाँच करा ले; वह तैयार हैं।

सोनाली का पक्ष

छोटे परदे से राजनीति में आयी सोनाली फोगाट भाजपा की कर्मठ कार्यकर्ता हैं। उन्होंने अन्य प्रदेशों में भी पार्टी के लिए प्रचार किया है। टिकटॉक वीडियो की वजह से उन्हें काफी शोहरत मिली है; उन्हें केवल इसी नाम से जाना जाए, यह उन्हें अच्छा नहीं लगता। वह लोगों के बीच रहकर काम करना चाहती हैं। पार्टी ने उनके काम के महत्त्व को समझा और विधानसभा में उन्हें टिकट दिया। हार के बावजूद वह इलाके में सक्रिय हैं। सचिव की पिटाई प्रकरण पर वह स्पष्ट कह चुकी हैं कि उन्होंने (सुल्तान सिंह) ने उनके साथ अभद्रता की। ऐसी कि उसे सार्वजनिक बताया नहीं जा सकता। ऑडियो इसे स्पष्ट समझा जा सकता है। उनकी कोई राजनीतिक खुन्नस नहीं है। मंडी का दौरा उन्होंने किसानों की शिकायतें मिलने के बाद किया था।

सुल्तान का पक्ष

मंडी बोर्ड के सचिव सुल्तान ने अभद्रता पर माफीनामा क्यों लिखकर दिया? अगर उन्होंने कुछ गलत नहीं किया, तो ऐसा करने की क्या ज़रूरत थी? क्या वह गलती के बाद क्षमा माँगकर मामले पर मिट्टी डालना चाहते हैं? इस पर उन्होंने कहा कि माफीनामा उनसे ज़बरदस्ती लिखवाया गया। उन्हें बुरी तरह से मारा-पीटा गया। उन्हें उलटी के साथ चक्कर आ रहे थे। माफीनामा न लिखने की सूरत में बुरे अंजाम भुगतने की धमकी मिल रही थी, तो वह क्या करते? वह एक बार किसी तरह उनके चंगुल से मुक्त होना चाहते थे। वह बेहद डर गये थे। सब कुछ अचानक हुआ, जिसके लिए वह तैयार नहीं थे। उन्होंने मैडम की शान में कोई गुस्ताखी नहीं की। इसका सवाल ही नहीं है। उनके साथ चार-पाँच गाडिय़ाँ थीं। कोई 8-10 लोग उनके साथ थे। मैं तो सम्मानपूर्वक बात कर रहा था। अचानक मैडम ने कहा कि तुमने (सुल्तान) ने गाली दी है। उसके बाद साथ आये लोगों ने उन्हें बुरी तरह से पीटा। बाद में मैडम ने सैंडल से पिटाई की। उसका वीडियो बनाकर उनकी इज़्ज़त को सरेआम नीलाम कर दिया। वह न्याय के लिए हर-सम्भव संघर्ष करेंगे। लोग उनके साथ हैं। उनके दादा स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं।

नयी योजनाओं पर रोक से व्यापारियों में संशय

कोरोना काल में कोई भी सेक्टर ऐसा नहीं है बचा है, जहाँ पर भारी नुकसान न हुआ हो। शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, शेयर बाज़ार, लोहामंडी, अनाज मंडी सहित तमाम कम्पनियाँ धाराशाही हुई हैं। ऐसे में सरकार ने ज़रूर तमाम भारी-भरकम राहत पैकेजों की घोषणा करके देशवासियों को साधने का प्रयास किया है। लेकिन इन प्रयासों में लोगों को तब संशय होने लगता है, जब सरकार कई नयी योजनाओं को इस आधार पर ही रोक लगाती है कि अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए खर्चों में कटौती की जाएगी।

ऐसे निर्णयों को लेकर जानकारों का कहना है कि केंद्र सरकार की सियासत से लोग राहत से ज़्यादा आहत हो रहे हैं। क्योंकि एक ओर तो केंद्र सरकार किसानों को बड़ी राहत देते हुए उन्हें अपनी उपज किसी भी कीमत पर कहीं भी बेचने की आज़ादी दे रही है और वहीं सरकार कोरोना के कहर के कारण मार्च 2021 तक नयी योजनाओं पर रोक लगा रही है। ऐसे में सरकार के दोनों निर्णयों से देश के व्यापारियों के सामने काफी असमंजस की स्थिति है। व्यापारियों का कहना है कि माना कि दुनिया के साथ-साथ भारत कोरोना के कहर से जूझ रहा है, पर सरकार के इन दोनों निर्णयों से अराजकता और बेरोज़गारी बढ़ेगी साथ ही व्यापारिक गतिविधियों पर अड़ंगा लगेगा। देश के व्यापारियों ने ‘तहलका’ को बताया कि अगर सही मायने में सरकार देश की अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाना चाहते हैं, तो एक निर्णय ठोस लेना होगा। अन्यथा अर्थ-व्यवस्था लडख़ड़ाती ही जाएगी। व्यापारियों का कहना है कि अगर देश को आत्मनिर्भर बनाना है, तो उसके लिए मज़बूत अर्थ-व्यवस्था की ज़रूरत है, जिसको देश का व्यापारी ही सही मायने में मज़बूती प्रदान कर सकता है। लेकिन सरकार की गलत नीतियों के कारण व्यापारियों को अनदेखा किया जा रहा है। सदर बाज़ार, दिल्ली के व्यापारी नेता राकेश यादव का कहना है कि केंद्र सरकार ने कोरोना वायरस के कहर को देखते हुए लडख़ड़ाती अर्थ-व्यवस्था को सँभालने के लिए 2020-21 के वित्त वर्ष में कोई नयी सरकारी योजना न शुरू करने का निर्णय लिया है। इससे देश में व्यापारिक गतिविधियों पर काफी नाकारात्मक असर पड़ेगा; क्योंकि जब कोई नयी योजना नहीं आयेगी, तो बाज़ार में मायूसी छायी रहेगी। क्योंकि मौज़ूदा दौर में जिस तरीकेसे लॉकडाउन के दौरान जो बाज़ार बन्द रहे हैं, उससे देश के छोटे, मझोले और बड़े व्यापारी की अर्थ-व्यवस्था इस कदर टूटी है कि उनको अब सरकार से ही आस है कि व्यापारियों की सुध लेगी। उनका कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ज़रूर 20 लाख करोड़ के भारी-भरकम राहत पैकेज देने का ऐलान किया है; पर व्यापारियों के मदद के लिए कोई राहत पैकेज नहीं दिया गया है। जबकि सच्चाई तो यह है कि लॉकडाउन के दौरान देश का व्यापारी काफी टूटा है। आॢथक मामलों के जानकार व व्यापारी विजय प्रकाश जैन का कहना है कि सरकार का कहना है कि कोरोना के कारण राजस्व कम आ रहा है, तो ऐसे में सरकार को योजनाओं पर रोक नहीं लगानी चाहिए; बल्कि योजनाओं को विस्तार देना चाहिए। इससे देश में बेरोज़गारों को काम के साथ व्यापारियों का व्यापार बढ़ेगा और राजस्व के इज़ाफे के साथ अर्थ-व्यवस्था को मज़बूती मिलेगी। उन्होंने चिन्ता ज़ाहिर की कि बजट में घोषित सभी योजनाओं को जिस अंदाज़ में रोका गया और इन पर हो रहे खर्च को भी रोका गया है, जिससे देश में हो रहे विकास और व्यापार में अड़ंगा लगेगा। क्योंकि वित्त मंत्रालय ने विभिन्न मंत्रालयों से कहा है कि 31 मार्च, 2021 किसी प्रकार की कोई योजना को शुरू न करें, तब तक निश्चित तौर पर असंमजस की स्थिति रहेगी।

दवा व्यापार से जुड़े रमन महाजन ने कहा कि नयी योजनाओं से प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना, आत्मनिर्भर भारत पर खर्चे में कोई रुकावट नहीं आयेगी; लेकिन यह भी सच्चाई है कि विभिन्न मंत्रालयों से धन आवंटित होने पर ही अर्थ-व्यवस्था को गति मिलती है। मगर इस रोक के क्या मायने हैं? यह तो आने वाला ही समय बतायेगा। क्योंकि देश की अर्थ-व्यवस्था के साथ-साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन व्यवस्था पूरी तरह से लडख़ड़ायी हुई है। इसको पटरी पर लाने के लिए सरकार को तमाम योजनाओं का विस्तार करना चाहिए। व्यापारी पवन अरोड़ा का कहना है कि सरकार के जो भी जतन कर रही है, उससे देश कोई खुशहाली नहीं दिख रही है। जो भी सरकार घोषणाएँ कर रही है, उसका धरातल से कोई वास्ता नज़र नहीं आ रहा है। जैसे सरकारी फैसलों में तालमेल का अभाव है। अचानक योजनाओं पर रोक दुविधापूर्ण है।

बताते चले मौज़ूदा दौर में मज़दूरों का जिस तरीके शहरों से गाँवों की ओर जो पलायन हुआ है, कल-कारखाने भी बन्द हुए हैं; उससे लोगों के पास रोज़गार का अभाव है। बेरोज़गारी चरम स्थिति में है। ऐसे में सरकार का दायित्व बनता है कि कोई ऐसी योजना को अंजाम दे, ताकि लोगों में बेरोज़गारी और भुखमरी का भय जो भय पनप रहा है, उससे आज़ादी मिल सके। क्योंकि इस समय सारा ज़ोर सरकार को इस बात पर ही लगाना चाहिए कि कोरोना-काल से हो रहे नुकसान को कैसे रोके? शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में व्यापक विस्तार के साथ सुधार की ज़रूरत है।

किसान नेता व व्यापारी सूरज पाल सिंह का कहना है कि किसान अब अपनी उपज को मनचाही कीमत पर बेच सकेंगे। एक देश, एक कृषि बाज़ार का रास्ता साफ होने से ज़रूर किसानों को लाभ होगा। सरकार ने नये अध्यादेश के ज़रिये 1955 के आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करके अनाज, तिलहन, खाद्य, तेल, आलू और प्याज इसके दायरे से बाहर हुए हैं। लेकिन सारा सिस्टम है तो व्यापार से ही जुड़ा हुआ। क्योंकि इस समय बाज़ार में पैसों की कमी है और किसानों को मंडियों में बेची गयी उपज का भुगतान समय पर नहीं हो रहा है। व्यापारी और किसान एक-दूसरे के पूरक हैं। अगर सरकार ने फौरी तौर पर व्यापारियों के हित में कोई सही योजना नहीं बनायी, तो बाज़ारों में सन्नाटा और गहराता जाएगा। क्योंकि आत्मनिर्भर भारत के लिए संशाधनों की ज़रूरत होती है; जिसमें धन और योजनाओं को लोगों तक पहुँचाने की बात होती है। पर अब तो ऐसा हो रहा है कि नयी योजनाओं पर रोक लगायी जा रही है; जिससे लोगों में भय और संशय का वातावरण बन रहा है।

मज़दूर त्रस्त, सरकार मस्त!

सुप्रीम कोर्ट ने प्रवासी मज़दूरों के अपने घरों को लौटने के बारे में 28 मई को एक विस्तृत अंतरिम आदेश पारित किया, जिससे इन प्रवासियों के सुरक्षित गंतव्य तक पहुँचने के लिए आशा की एक किरण जगी है। हालाँकि बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि शीर्ष अदालत के दिशा-निर्देश के मुद्दे किस हद तक केंद्र और राज्य सरकारी अनुपालन करती हैं। यह मामला 5 जून को फिर सुप्रीम कोर्ट के सामने आया और इसमें सर्वोच्च अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों से कहा कि प्रवासी मज़दूरों को अगले 15 दिन में अपने-अपने घर पहुँचा दिया जाए और राज्य मज़दूरों को रोज़गार भी दें।

25 मार्च को तालाबन्दी की घोषणा के बाद से देश में सडक़ों के किनारे तड़पते हुए और थके हुए प्रवासियों के हृदय-विदारक दृश्य देखे जा रहे हैं; जो अपने रोज़गार के लिए कभी घर से बाहर निकल गये थे और अब अपने मूल स्थानों तक पहुँचने के लिए पैदल यात्रा पर निकलने के लिए मजबूर हो रहे हैं। बुनियादी आवश्यकताओं से वंचित इन प्रवासियों की दयनीय दुर्दशा को समझे बिना लॉकडाउन के बार-बार के विस्तार ने इन प्रवासियों के लिए कोई विकल्प नहीं छोड़ा और अपने मूल स्थानों को लौटने के लिए मजबूर कर दिया। भारतीय अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ माने जाने वाले इन प्रवासी श्रमिकों को उनके योगदान के अनुरूप उचित सम्मान नहीं दिया जाता है। उस पर लॉकडाउन के अनियोजित कार्यान्वयन और गलत नीतियों के परिणामस्वरूप मानव निर्मित इस प्रतिकूलता के समय में, जब इन श्रमिकों ने अपने गंतव्य तक पहुँचने के लिए देश से थोड़ी सहायता माँगी, तो पूरा देश उन्हें भोजन, आश्रय और जाने के साधन प्रदान करने में विफल रहा।

प्रवासियों की दुर्दशा

कोरोना वायरस महामारी के मद्देनज़र 25 मार्च को जब महज़ चार घंटे के नोटिस के साथ लॉकडाउन लागू करने का ऐलान किया गया, उस समय भारत में लाखों अंतर्राज्यीय प्रवासी मज़दूर किसी भी सूरत में इसके लिए तैयार नहीं थे; जिससे उनके सामने संकट आ खड़ा हुआ। अप्रैल के मध्य में जब लॉकडाउन का विस्तार करने का ऐलान हुआ, तब इनमें से ज़्यादातर श्रमिकों ने फैसला किया कि वहाँ भूखे या कोरोना वायरस से मरने से अच्छा है कि किसी नौकरी और मज़दूरी और सार्वजनिक परिवहन के अभाव में वे समूहों में सैकड़ों मील दूर अपने घरों को लौट जाएँ। इन श्रमिकों को उनके गंतव्य तक ले जाने के लिए मई की शुरुआत में रेल या सडक़ मार्ग से परिवहन की कुछ व्यवस्थाएँ शुरू कर दी गयी थीं; फिर भी इन लोगों ने पैदल ही घरों को लौटना जारी रखा। इस बीच 28 मई को इस मामले पर स्वत: संज्ञान लेते हुए एक अंतरिम आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि इन प्रवासियों के लिए परिवहन व्यवस्था की जाए। एक अनुमान के अनुसार, भारत में करीब चार करोड़ प्रवासी श्रमिक हैं। व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें, तो भारत में 138.8 करोड़ की वर्तमान आबादी में से कुछ 53.8 करोड़ असंगठित श्रमिक हैं और यह संख्या कृषि, खनन और सेवा क्षेत्रों में भी शामिल है। तुगलकी अंदाज़ और बिना योजना के फैसलों से जिस तरह इन प्रवासी श्रमिकों को बिना उनकी किसी गलती के गम्भीर संकट में डाल दिया गया, उसे केंद्र और राज्यों के बीच एक टकराव को जन्म दे दिया; जिसमें राज्य केंद्र को दोषी ठहरा रहे हैं और केंद्र राज्यों के सिर पर ठीकरा फोड़ रहा है।

अंतर्राज्यीय प्रवासी श्रमिकों पर केंद्र और राज्यों के झगड़े के बीच कुछ विशेषज्ञों ने इस सम्बन्ध में संवैधानिक प्रावधानों पर ध्यान आकर्षित किया है। विशेषज्ञों के अनुसार, अनुच्छेद-217 में संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत सूची-1 के साथ साफतौर पर आइटम-

81 का उल्लेख करता है, जिसका अर्थ है- ‘अंतर्राज्यीय प्रवास और अंतर्राज्यीय क्वारंटीन’ केंद्र के तहत की शक्ति है। विशेषज्ञ बताते हैं कि लिहाज़ा सामान्य रूप से स्थिति से निपटने के लिए केंद्र सरकार अकेले ज़िम्मेदार होती है, और अंतर्राज्यीय प्रवासी श्रमिक निश्चित रूप से उसकी शक्ति और ज़िम्मेदारी का हिस्सा होते हैं। निस्संदेह राज्यों की शक्तियों और ज़िम्मेदारियों की सूची में अंतर्राज्यीय प्रवासियों का उल्लेख नहीं है। बहरहाल यह उन्हें पूरी तरह से नज़र अंदाज़ नहीं करता है। क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों ऐसे श्रमिकों और आने-जाने वालों के प्राप्तकर्ता हैं।

शक्तियों की समवर्ती सूची पर ध्यान आकर्षित करते हुए, जिस पर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं और प्रशासन कर सकते हैं; कुछ विशेषज्ञों ने कहा है कि इस सूची में कुछ प्रासंगिक प्रविष्टियाँ हैं। जैसे कि आइटम-22, जिसमें ट्रेड यूनियनों, औद्योगिक और श्रमिक विवादों का उल्लेख है; जबकि आइटम-24 श्रम के कल्याण और सम्बद्ध मुद्दों का हवाला देता है। कई विशेषज्ञों का मानना है कि इन प्रावधानों से बड़े पैमाने पर संगठित श्रमजीवी असंगठित श्रमिक लाभान्वित हुए हैं, जो पहले इससे वंचित रह जाते थे। शायद ही, यहाँ तक कि गृह मंत्रालय के कोविड-19 की स्थिति से निपटने के लिए आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 की धारा-6 (2)(द्ब) के तहत जारी किये गये आदेश में भी, सबसे ज़्यादा परेशान तबके और भूखे बेरोज़गार श्रमिकों की प्रमुख समस्याओं को नज़रअंदाज़ किया गया। यहाँ तक कि कथित थाली बजाओ और बत्ती बुझाओ जैसी कोरोना वॉरियर्स के प्रति आभार की अभिव्यक्ति के बावजूद वास्तविक योद्धाओं (प्रवासी मज़दूरों) को भुला दिया गया।

आॢथक पैकेज का झुनझुना

बहुप्रचारित आॢथक पैकेज में 20 लाख करोड़ रुपये शामिल हैं और इसे भारत की जीडीपी का 10 फीसदी बताया गया है, मुख्य रूप से कॉरपोरेट्स, एमएसएमई, बैंकों, वित्तीय संस्थानों की सहायता के लिए राहत और पुनर्वास का वादा करती है और इसका एक बहुत छोटा हिस्सा है, जो सबसे बुरी तरह प्रभावित असंगठित प्रवासी श्रमिकों के लिए है। यह 20 लाख करोड़ रुपये के आॢथक पैकेज का सिर्फ 0.175 फीसदी था, जिसे हाल ही में 0.155 फीसदी कर दिया गया है। प्रवासी श्रमिकों और छोटे किसानों के लिए आॢथक पैकेज के मद्देनज़र नकदी हस्तांतरण जैसे अधिक प्रत्यक्ष दृष्टिकोण पर लम्बे समय तक ऋण केंद्रित प्रस्तावों का पक्ष लेने वाले, पर्यवेक्षकों ने इसे ‘ऋण मेला’ कहा है, जो लॉकडाउन से सर्वाधिक प्रभावित आबादी के वर्गों को तत्काल राहत नहीं देता है। दूसरी िकश्त में घोषित 3.16 लाख करोड़ का आॢथक पैकेज नौ अलग-अलग चरणों का एक अजब मिश्रण है। प्रवासी श्रमिकों और शहरी गरीबों के लिए तीन, छोटे व्यापारियों और विक्रेताओं के लिए दो, किसानों के लिए दो, भारत के मध्यम वर्ग के लिए एक और एक रोज़गार कार्यक्रम, जिसमें वनीकरण के लिए अनिवार्य निधि का दोहन शामिल है। इसमें हज़ारों करोड़ रुपये जमा हुए हैं; लेकिन उसका उपयोग ही नहीं हुआ। हालाँकि अर्थशास्त्रियों और बाज़ार विश्लेषकों का कहना है कि इस वित्तीय वर्ष के लिए केंद्र का वास्तविक नकद परिव्यय बहुत कम होगा और यह 5,000 करोड़ रुपये से 14,750 करोड़ रुपये के बीच हो सकता है। वित्तीय विशेषज्ञ इन छोटे उपायों के प्रभावों या परिणामों के बारे में संदेह करते हैं। उनका मानना है कि यह पैकेज शायद ही लक्षित समूहों को त्वरित और आसान लाभ दे पाएँगे।

सत्ता में भाजपा के छ: साल

29 मई को भाजपा ने मोदी सरकार के छ: साल पूरे होने का कार्यक्रम अपनी अभूतपूर्व उपलब्धियों पर एक दृश्य-श्रव्य क्लिप जारी करके मनाया। दुर्भाग्य से यह उस घटना के कुछ ही घंटे के बाद हुआ, जिसमें 24 प्रवासी कामगारों की जान चली गयी। यह घटना बताती है कि मज़दूरों ने कितनी कठिन परिस्थितियाँ झेली हैं। भाजपा  के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से ‘मोदी सरकार के छ: साल बेमिसाल’ शीर्षक से जारी किया गया जश्न का वीडियो सरकार के कोविड-19 संकट से निपटने या प्रवासी मज़दूरों को राहत का कोई ज़िक्र नहीं करता है, और केवल मोदी सरकार की पुरानी योजनाओं का ढिंढोरा पीटता है।

भाजपा की तरफ से इस तरह के एक महत्त्वपूर्ण मोड़, जब देश महामारी और इसके नतीजतन गम्भीर मानवीय संकट से निपटने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है; पर जश्न मनाने वाला वीडियो जारी करना हास्यास्पद ही कहा जाएगा। ऐसा मार्मिक दृश्य, जो  देश ने विभाजन के बाद कभी नहीं देखा; जिसने सोशल मीडिया पर भाजपा और केंद्र सरकार की आलोचना का रास्ता खोला है। एक ट्विटर उपयोगकर्ता ने टिप्पणी की- ‘अविश्वसनीय,  लोग मक्खियों की तरह मर रहे हैं और भाजपा का हैंडल अपनी छ: साल की सालगिरह का जश्न मना रहा है। शर्मनाक, बिलकुल बहरे और सत्ता के नशे में चूर।’ कई अन्य लोगों ने भी महसूस किया कि देश में कोविड-19 की संख्या इतनी ज़्यादा और चीन से भी ज़्यादा हो जाने के बीच वर्षगाँठ मनाना क्रूर है और सडक़ों पर पैदल चल रहे लाखों बेरोज़गार प्रवासी मज़दूरों और सडक़ों पर जान गँवाने वाले लोगों का मज़ाक उड़ाने जैसा है। इसे देखकर सदियों पुरानी कहावत याद आती है, जिसमें कहा गया था- ‘रोम जल रहा था और नीरो बंसी बजा रहा था।’

भविष्य का रास्ता

प्रवासी श्रमिकों के मानवीय संकट ने पर्याप्त कानून, वित्तीय संसाधनों और बिना पक्षपात के दृष्टिकोण के दीर्घकालिक नीति उपायों पर काम करने की आवश्यकता महसूस करवायी है, ताकि इस तरह की त्रासदी की पुनरावृत्ति न हो। इन श्रमिकों को आॢथक योद्धाओं के रूप में सम्मानित किया जाना चाहिए। कुछ विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि केंद्र सरकार को एक कानून के साथ सामने आना चाहिए, जो प्रत्येक प्रवासी कामगार की काम के साथ पहचान करे और इसमें वे लोग भी शामिल हों, जो मौसमी या पार्ट टाइम श्रमिक हैं। इन श्रमिकों को गरिमा के साथ जीने में सक्षम बनाने के लिए समय-समय पर तत्काल नकद राहत प्रदान करने की आवश्यकता होती है और डिजिटल युग में यह असम्भव नहीं है। बशर्ते सरकार ऐसा करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाये; ताकि वर्तमान असफलता की पुनरावृत्ति को रोका जा सके।

(लेखक न्यूज 24 के कार्यकारी सम्पादक हैं और यह उनके निजी विचार हैं।)

अमेरिका में नस्लवाद की आग और ट्रंप की मुश्किलें

नोबेल शान्ति पुरस्कार से सम्मानित और विश्वभर में अमेरिका में नागारिक अधिकारों के संघर्ष को एक पहचान दिलाने वाले डॉ. मार्टिन लूथर ङ्क्षकग जूनियर ने 1965 में सेलमा में दिये अपने भाषण में कहा था- ‘जब कोई इंसान सही के हक में आवाज़ उठाने, इंसाफ के लिए खड़ा होने और सच का साथ देने से इन्कार करे; समझो वह मर चुका है।’ लगता है कि उनके ये विचार इस दुनिया के इंसानों की बार-बार परीक्षा लेते हैं।

ताज़ा मामला उन्हीं के देश अमेरिका का है और अमेरिका के अखबारों ने मार्टिन लूथर ङ्क्षकग के इस विचार को पूरे पेज के एक ब्लैक एंड व्हाइट विज्ञापन में प्रकाशित किया। इस विज्ञापन की पृष्ठभूमि यह है कि अमेरिका के मिनियापोलिस में 25 मई को 46 वर्षीय जॉर्ज फ्लॉयड नामक एक अश्वेत की बीच सडक़ पर दिनदिहाड़े एक श्वेत पुलिस अधिकारी द्वारा की गयी क्रूर व अमानवीय कार्रवाई से मौत हो गयी। जॉर्ज फ्लायड का कथित अपराध यही बताया जा रहा है कि उसने सिगरेट का एक पैकेट खरीदने के लिए नकली डॉलर दुकानदार को दिया और उस दुकानदार ने पुलिस को बुला लिया। जॉर्ज की ऐसी मौत के बाद अमेरिका ही नहीं, दुनिया के कई मुल्कों में विरोध-प्रदर्शन हुए। प्रसिद्ध रैपर जे-जेड ने पुलिस हिंसा में मारे गये अश्वेतों के परिजनों के साथ मिलकर जॉर्ज फ्लायड के सम्मान में अमेरिकी अखबारों में यह विज्ञापन प्रकाशित करवाया था। दुनिया की महाशक्ति अमेरिका के वर्तमान हालात चिन्ताजनक हैं। वहाँ कोरोना संक्रमण से मरने वालों का आँकड़ा एक लाख को पार कर गया है, जो विश्व में सबसे अधिक है।

एक तरफ कोरोना संक्रमितों का आँकड़ा रोज़ बढ़ रहा है, तो दूसरी ओर जॉर्ज फ्लायड की हत्या के बाद श्वेत-अश्वेत यानी रंगभेद वाले मसले ने एक बार फिर वहाँ तनाव पैदा करने के साथ-साथ लोगों को इस मसले पर एकजुट होने व सरकार पर कई तरह के दबाव डालने वाला माहौल बनाने का काम किया है। अमेरिका चाहे विश्व का सबसे पुराना लोकतांत्रिक मुल्क है; मगर वहाँ रंगभेद वाला मसला बार-बार सिर उठाता रहता है और सबसे अधिक शक्तिशाली व अर्थ-व्यवस्था में नम्बर एक पर गौरवान्वित होने वाले इस मुल्क को विश्वभर में शॄमदा करता रहता है। अश्वेत अमेरिकियों के साथ श्वेत अमेरिकी पुलिस अधिकारियों, कानून का अमल कराने वाले  अधिकारियों की बर्बरता बार-बार सुॢखयाँ बनती हैं; मगर अपराध करने वालों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं होती। लेकिन 25 मई को हुई बर्बर घटना के विरोध में तमाम अमेरिकी राज्यों में लोग चाहे वे अश्वेत हों या श्वेत; सडक़ों पर नज़र आये। यह विरोध-प्रदर्शन अमेरिका के अलावा लंदन, जर्मनी, न्यूजीलैंड, ब्राजील, पेरिस में भी देखने को मिला।

अमेरिका में इस विरोध-प्रदर्शन ने हिंसक रूप भी ले लिया; जिसके चलते 12 से अधिक प्रमुख शहरों में कफ्र्यू लगाना पड़ा। यही नहीं, नौबत यहाँ तक आ पहुँची कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को बंकर में ले जाया गया। 131 साल बाद यह पहला मौका था, जब व्हाइट हाउस की बत्ती बन्द की गयी। बेशक व्हाइट हाउस में बना बंकर गुप्त और सुरक्षित है; लेकिन राष्ट्रपति का वहाँ शरण लेना ही इस बात को दर्शाता है कि उस समय वहाँ स्थिति कैसी होगी? अमेरिका में नस्ली हिंसा और सामाजिक अन्याय के खिलाफ ज़बरदस्त प्रदर्शन पर काबू पाने के लिए वहाँ के राष्ट्रपति ने सडक़ों पर सेना की तैनाती की धमकी दी थी; लेकिन अमेरिका के रक्षा मंत्री मार्क एस्पर ने प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए सेना की तैनाती का विरोध किया। रक्षा मंत्री एस्पर ने कहा कि कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए सेना की तैनाती अंतिम विकल्प के रूप में की जानी चाहिए। यही नहीं, अमेरिका के पूर्व रक्षा मंत्री जिम मैटिस ने राष्ट्रपति डोनाल्ड को मुल्क को बाँटने वाला अमेरिका का पहला राष्ट्रपति करार दिया। उन्होंने कहा कि ट्रंप सेना और नागारिकों के बीच गलत ढंग से संघर्ष पैदा कर रहे हैं। उन्होंने यह कहा कि डोनाल्ड ट्रंप मेरे जीवन में पहले राष्ट्रपति हैं, जो अमेरिकी लोगों को एकजुट करने की कोशिश नहीं करते। यहाँ तक कि कोशिश का दिखावा भी नहीं करते। वह बाँटने की कोशिश करते हैं।

यही नहीं, ह्यूस्टन पुलिस प्रमुख ने तो एक टीवी साक्षात्कार में राष्ट्रपति ट्रंप से साफ कहा कि मैं अमेरिका के राष्ट्रपति को पूरे देश की पुलिस की तरफ से कह देना चाहता हूँ कि अगर आपके पास कुछ ठोस कहने को नहीं है, तो अपना मुँह बन्द रखें। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार प्रमुख मिशेल बाचेलेट ने पुलिस के हाथों हुई इस मौत की आलोचना की है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव ऐतेनियो गुतरेस ने कहा कि नस्लवाद को अवश्य खारिज करना चाहिए। उन्होंने हर तबके के नेताओं से सामाजिक एकजुटता पर ज़ोर देने की अपील की, ताकि हर समूह खुद को महत्त्वपूर्ण समझे।

पोप फ्रांसिस का कहना है कि उन्होंने जॉर्ज फ्लायड की हत्या को अमेरिका में ‘अशान्तिपूर्ण सामाजिक असंतोष’ को बड़ी चिन्ता के साथ देखा है। पोप ने अपने साप्ताहिक सम्बोधन में कहा कि हम जातिवाद को किसी भी रूप में बर्दाश्त नहीं कर सकते या आँखें बन्द नहीं कर सकते। हमें हर मानव के जीवन की रक्षा भी करनी है। खेल जगत के दिग्गज हों या संगीत की दुनिया या दिग्गज, या टेक कम्पनियाँ; हर कोई इस आन्दोलन के साथ किसी-न-किसी रूप में एकजुटता दिखा रहा है। 6 जून को पॉप स्टार मैडोना बैसाखी के सहारे लंदन में चल रहे प्रदर्शन के प्रति समर्थन जताने पहुँची।

गूगल के मुख्य कार्यकारी निदेशक सुन्दर पिचई ने जॉर्ज फ्लायड की मौत पर अफ्रीकी-अमेरिकी समुदाय के साथ एकजुटता दिखाते हुए कहा है कि गूगल नस्लीय समानता का समर्थन करता है। यही नहीं, गूगल नस्ली भेदभाव से निपटने के लिए 3.7 करोड़ डॉलर लगभग 260 करोड़ रुपये की आॢथक मदद देगा। सुन्दर पिचई ने सभी कर्मचारियों को भेजे ईमेल में नस्ली हिंसा में जान गँवाने वाले लोगों के प्रति एकजुटता दिखाने के लिए आठ मिनट 46 सेकेंड का मौन रखने की अपील भी की थी। पिचई ने लिखा था- ‘यह नस्ली हिंसा के खिलाफ संाकेतिक विरोध है। जॉर्ज फ्लॅायड मरने से पहले इतनी ही देर तक साँस लेने के लिए तड़पता रहा। मौन रखना फ्लॉयड और अन्य लोगों के साथ हुए अन्याय की याद दिलाता रहेगा।’

अमेरिका में अश्वेतों के साथ अन्याय के बारे में वहाँ के अखबार इन दिनों दुनिया भर के पास जानकारी पहुँचा रहे हैं और अपनी सरकार पर भी सवाल उठा रहे हैं। द इकोनॉमिस्ट अखबार में बताया गया है कि अमेरिका में हर साल पुलिस की गोली से लगभग एक हज़ार लोगों की जान चली जाती है। मरने वालों की संख्या में अश्वेत अधिक होते हैं। यही नहीं अश्वेतों को सज़ा मिलने की सम्भावना भी अधिक रहती है। एक ही जुर्म के लिए उन्हें गोरों की तुलना में सज़ा भी अधिक मिलती है। जेलों में एक-तिहाई कैदी अश्वेत हैं। स्कूलों, स्वास्थ्य, रोज़गार में भी नस्ली भेदभाव नज़र आता है। कथित रंगभेद वाले स्कूलों में 15 फीसदी बच्चे अश्वेत हैं, तो श्वेत बच्चे एक फीसदी से भी कम हैं। अमेरिका में अश्वेत नवजातों की मृत्यु-दर श्वेत नवजातों की मृत्यु-दर की तुलना में दोगुनी है।

इसी तरह गर्भावस्था या प्रसव के दौरान श्वेत महिलाओं की तुलना में अश्वेत महिलाओं की मुत्यु-दर ढाई गुना अधिक है।

अमेरिका में अश्वेत बच्चों की औसत आयु भी भारत और बांग्लादेश में पैदा होने वाले बच्चों की तुलना में कम है। यही नहीं, वर्तमान कोरोना महामारी के दौरान भी अश्वेतों के साथ जाँच में भेदभाव की खबरें आ रही हैं। इस महामारी से मरने वालों की कुल संख्या में अश्वेतों की तादाद श्वेतों से ज़्यादा है। ज़्यादातर मामलों में अश्वेतों का कोरोना टेस्ट नहीं कराया जा रहा है। कोरोना के कारण जो आॢथक अस्थिरता के हालात पैदा हुए और उससे जिन लोगों की नौकरियाँ चली गयीं, उनमें अश्वेत अधिक हैं। द न्यूयॉर्क टाइम्स ने हाल ही में छापा है कि करीब 10 में से आठ अमेरिकियों ने माना है कि नस्लवाद और भेदभाव बड़ी समस्या है। 2015 के बाद अर्थात् 5 साल में ऐसा मानने वालों की संख्या में 26 फीसदी का इज़ाफा एक सकरात्मक बदलाव कहा जा सकता है। 71 फीसदी श्वेत ऐसा मानते हैं। नस्लवाद और भेदभाव पर अमेरिकी इतिहास की यह सबसे बड़ी सहमति है। 10 में से 6 अमेरिकी यह भी मानते हैं कि पुलिस भी श्वेतों की तुलना में अश्वेतों के साथ अधिक बर्बरता करती है। दरअसल रंगभेद को लेकर अमेरिकी पुलिस अक्सर सवालों के घेरे में रहती है और लोग चाहते हैं कि गलत, अनुचित कार्रवाई करने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए, उन्हें सज़ा दी जाए। मगर हकीकत जानना ज़रूरी है। मैपिंग पुलिस वायलेंस संगठन के अनुसार, अमेरिका में 2013 से 2019 के बीच हत्याओं में शमिल 99 फीसदी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अदालत में मामले पेश नहीं किये गये।

इन मामलों की जाँच में ढील बरती जाती है। अमेरिका में लोग, नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले संगठन पुलिस की जवाबदेही तय करने, पुलिस बजट में कटोती करने और पुलिस सुधार पर अधिक ज़ोर दे रहे हैं। जॉर्ज फ्लायॅड को इंसाफ दिलाने की मुहिम में शमिल लोगों, दिग्गज हस्तियों के दबाव के कारण ही उसकी हत्या के मुख्य आरोपी जॉर्ज शॅाविन पर थर्ड डिग्री हत्या वाले केस को दूसरी डिग्री की हत्या वाले केस में बदलना पड़ा। यही नहीं, अन्य तीन पुलिस वालों पर हत्या के लिए उकसाने और उसमें मदद देने के आरोप तय किये गये हैं।

दोषी करार दिये जाने पर चारों पुलिसकॢमयों को अधिकतम 40 साल जेल की सज़ा हो सकती है। आई कांट ब्रीथ यानी मैं साँस नहीं ले पा रहा, ब्लैक लाइव्स मैटर्स विरोध-प्रदर्शन, मुहिम के बीच अमेरिका में पुलिस सुधार की कवायद तेज़ हो गयी है। 8 जून को नैंसी पेलोसी के नेतृत्व में डेमोक्रेट सांसदों ने अमेरिकी कांग्रेस में एक ऐसा बिल पेश किया, जिसमें पुलिस के बल प्रयोग करने के साथ ही बिना वारंट तलाशी लेने या पूछताछ करने पर रोक लगााने का प्रावधान किया गया है। जॉर्ज फ्लॉयड की छ: साल की बेटी ज़ियाना से एक व्यक्ति ने पूछा- ‘तुम्हारे पिता ने क्या किया?’ ज़ियाना का जबाव था- ‘उसके पिता ने दुनिया बदल दी।’

गज़लें

जो ज़िन्दादिल हैं जीने का सलीका उनको आता है

 

1          चलो  दुनिया  में  ऐसी भी  मिसालें  छोड़ देते हैं

किसी के  वास्ते  हम  अपनी आँखें  छोड़ देते हैं

 

कहीं शाम-ओ-सहर चेहरों पे खुशहाली चमकती है

कहीं  हालात  चेहरों  पर  लकीरें  छोड़  देते  हैं

 

जो ज़िन्दादिल हैं  जीने का सलीका उनको आता है

जो बुज़दिल हैं,  वो जीने की  उम्मीदें छोड़ देते हैं

 

मुझे हैरत है  तुम उनसे  वफा की  बात करते हो

सगे  भाई  को भी  जो  दुश्मनों में  छोड़ देते हैं

 

हमीं  से   शोहरतें  पायीं   हमारे  रहनुमाओं  ने

हमीं  को   रास्तों  में   दायें-बायें  छोड़ देते हैं

 

‘खलील’ अक्सर हमारे रहनुमा ओहदों की चाहत में

हमारे  दिल  में  नफरत  की  दरारें  छोड़ देते हैं

 

2          तुम अपनी हर जगह पहचान रखना

बुज़ुर्गों  का  मगर  सम्मान  रखना

 

भला  है  दोस्तों  के  काम  आना

बुरा  है  बाद  में  अहसान  रखना

 

वतन पर जब भी कोई आँच आये

हथेली पर  तुम अपनी जान रखना

 

खुशी का जश्न तुम बेशक मनाना

पड़ोसी का भी लेकिन ध्यान रखना

 

मदद  तो  गैब  से  होगी  तुम्हारी

तुम अपने दिल में बस ईमान रखना

 

वतन  से  दूर भी  रहना  पड़े  तो

नज़र में, दिल में हिन्दुस्तान रखना

 

उजाला ऐ ‘खलील’ आयेगा लेकिन

तुम अपने घर में रौशनदान रखना

 

या यूँ कहिए ठोकर खाकर जीने का शऊर आ जाता है

 

1          मैं  जब भी  तन्हा  होता हूँ,  तू मेरे हुज़ूर  आ जाता है

कोई पास नहीं आता लेकिन गम तेरा ज़ुरूर आ जाता है

 

दुख-दर्द भूलकर भी इन्साँ  दुनिया में  सीखे है  जीना

या यूँ कहिए ठोकर खाकर जीने का शऊर आ जाता है

 

शक-सुब्हा पर ऐ दोस्त सुनो  रिश्तों के धागे मत तोड़ो

शक अगर यकीं में बदले तो रिश्तों में फितूर आ जाता है

 

चेहरे पे उदासी छायी हो,  गम हो, दु:ख हो, तन्हाई हो

ऐसे में अगर तू याद आये आँखों में भी नूर आ जाता है

 

जब दर्द बढ़े हद पार करे, बर्दाश्त के बाहर हो जाए

दिल को बहलाने ख्वाब तेरा मस्ती में चूर आ जाता है

 

जो  दिल को  प्यारे होते हैं  आँखों के तारे  होते हैं

कभी-कभी उनमें भी तो ऐ ‘बाबा’ गुरूर आ जाता है

 

2          बुत के आगे झुके  बन्दगी हो गयी

अपनी पत्थर से यूँ  दोस्ती हो गयी

 

वादा सुब्हो का था शाम भी हो गयी

गुफ्तगू  इश्क की  मुल्तवी हो गयी

 

उसने भी देखकर यूँ चुरा ली नज़र

तल्ख तेवर लिये  सादगी  हो गयी

 

रील उलटी चली ज़िन्दगानी की भी

जब शुरू होना था आिखरी हो गयी

 

इतनी नफरत दिलों में है क्यूँ आपके

चीज़ हर इक यहाँ मज़हबी हो गयी

 

उसने हमको सदा गमज़दा ही किया

हमसे ऐसी खता कौन-सी हो गयी

 

डर का माहौल ‘बाबा’ ये कम कैसे हो

बात अब यह बहुत लाज़िमी हो गयी

श्रद्धांजलि – हॉकी के गोल्ड बलबीर सिंह

दुनिया में बिरले ही लोग होते हैं, जिनके जाने के बाद हर कोई उन्हें याद करता है। ये वो लोग होते हैं, जो किसी-न-किसी क्षेत्र में दुनिया भर को अपने काम का लोहा मनवा देते हैं। भारत में हर क्षेत्र में ऐसे लोग हुए हैं। हॉकी में बलबीर सिंह ऐसा ही एक नाम है।

दो साल पहले गोल्ड नाम की एक फिल्म आयी थी। यह फिल्म 1948 के ओलंपिक में हमारे राष्ट्रीय खेल हॉकी में गोल्ड मेडल को जीतने की कहानी थी। खेल में आज़ाद भारत की यह पहली बड़ी जीत थी, जो भारतीय हॉकी टीम ने दिलायी थी। यह जीत इसलिए भी बड़ी थी, क्योंकि करीब 200 साल की ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी से आज़ाद होने के ठीक एक साल बाद भारतीय टीम ने ओलंपिक खेलों में उस ब्रिटेन को उसी की धरती पर हराकर हॉकी का गोल्ड मेडल जीत लिया था। इस जीत से हॉकी खिलाड़ी बलबीर सिंह हीरो की तरह उभरकर सामने आये और उन्हें हॉकी का गोल्ड कहा गया।

यह सच है कि दुनिया भर के हॉकी प्रेमी बलबीर सिंह सीनियर को कभी नहीं भुला पाएँगे। उनकी हॉकी का जादू दुनिया के रहने तक बना रहेगा। सदी के नायक बलबीर अब उन करोड़ों चाहने वालों में बँट गये, जो उनके खेल के दीवाने रहे हैं। उनके रिकॉड्र्स का अलग लेखा-जोखा है। देश को हॉकी के तीन स्वर्ण पदक देने वाले इस खिलाड़ी को देश एक पद्य पुरस्कार के अलावा और कुछ नहीं दे पाया। कमोवेश यही हालत हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की भी हुई। दुनिया भर के हॉकी प्रेमियों ने इन दोनों खिलाडिय़ों को बेहद स्नेह और सम्मान दिया; लेकिन करोड़ों के चहेते ये दोनों खिलाड़ी कभी आधिकारिक तौर पर भारत रत्न नहीं समझे गये। बलबीर सिंह सीनियर ने कभी इस पर कोई प्रतिक्रिया भी नहीं दी। वह इन बातों से बहुत ऊपर थे। वह ऐसे इंसान थे, जिन्हें न तो किसी की चापलूसी पसन्द थी और न ही हाथ पसारकर अपने लिए कुछ माँगने की आदत उनमें थी। उन्हें खेलों की सियासत भी समझ में नहीं आती थी। वह बस खेलते थे और हज़ारों दर्शकों की तालियाँ बटोरते थे। उनके पास अगर कोई खज़ाना था, तो वह था- तालियों, तारीफियों और प्रशंसकों का। इन दोनों (मेजर ध्यानचंद और बलबीर सिंह सीनियर) ने देश की झोली में तीन-तीन स्वर्ण पदक डाले। भारत ने ओलंपिक हॉकी में जो आठ स्वर्ण पदक जीते हैं, उनमें से छ: तो इन दोनों की ही देन हैं।

कृष्णमेनन का हस्तक्षेप

भारतीय हॉकी में उस समय भी भारी राजनीति थी, जब 1948 के लंदन ओलंपिक में भारत भाग लेने गया था। टीम को तिरंगे के साथ मैदान में उतरने का यह पहला अवसर था। उस टीम के कप्तान राइट आऊट किशन लाल थे। युवा बलबीर सिंह सीनियर का पहला ओलंपिक था। बलबीर सिंह को ऑस्ट्रिया के खिलाफ पहले मैच में नहीं खिलाया गया। भारत ने यह मैच 8-0 से जीता। उन्हें दूसरे मैच में खेलने का मौका मिला। यह मैच अर्जेंटीना के साथ था। भारत इस मुकाबले में 9-1 से जीता। भारत के नौ गोलों में से छ: बलबीर सिंह सीनियर ने किये थे। लेकिन टीम की राजनीति के चलते उन्हें स्पेन के खिलाफ मैच में नहीं उतारा गया। भारत इस मैच में बड़ी मुश्किल से 2-0 से जीता। इससे भारतीय दर्शकों में भारी रोष पैदा हो गया। इसके बावजूद उन्हें सेमीफाइनल में नीदरलैंड्स के साथ भी खेलने का अवसर नहीं मिला। दर्शकों का क्रोध बढ़ रहा था। उन्होंने ब्रिटेन में भारत के तत्कालीन उच्चायुक्त वी.के. कृष्णमेनन से शिकायत की; तब उनके हस्तक्षेप के बाद बलबीर सिंह सीनियर को फाइनल में ब्रिटेन के खिलाफ खेलने का अवसर मिला।

बलबीर सिंह सीनियर ने आते ही अपना जलवा दिखा दिया और पहले हाफ में दो गोल करके भारत की जीत लगभग पक्की कर दी। अन्त में भारतीय टीम 4-0 से विजय हासिल कर गयी। बाकी दो गोल पैट जॉनसन ने पेनॅल्टी कॉर्नर पर लिये। यह पहला मौका था, जब ओलंपिक खेलों में ब्रिटेन की हॉकी टीम को हार का मुँह देखना पड़ा। यह खुलासा आज तक नहीं हुआ कि बलबीर को तीन मैचों से दूर क्यों रखा गया?

विश्व रिकॉर्ड

अगले ओलंपिक खेल 1952 में हेलसिंकी (फिनलैंड) में हुए। इस बार टीम की बागडोर सर्वश्रेष्ठ राइट इन के.डी. सिंह बाबू के हाथ थी। भारत ने यहाँ कुल तीन मैच खेले और पहले मुकाबले में ऑस्ट्रिया को 4-0, फिर सेमीफाइनल में ब्रिटेन को 3-1 से तथा फाइनल में नीदरलंड्स को 6-1 से हराया। इस प्रकार भारत ने तीन मैचों में 13 गोल किये और इन 13 में से नौ गोल अकेले बलबीर सिंह सीनियर के थे। फाइनल में भारत के छ: गोलों में से पाँच बलबीर सिंह सीनियर ने किये थे। यह आज भी विश्व रिकॉर्ड है। 1952 से 2016 तक के 64 साल में कोई खिलाड़ी फाइनल में पाँच गोल नहीं कर सका है।

एक और कमाल

यह कमाल हुआ 1956 के मेलबॉर्न ओलंपिक में। युवा शंकर लक्ष्मण पहली बार ओलंपिक खेलने गये। वह गज़ब के गोल रक्षक थे। इस ओलंपिक में भारत ने पाँच मैच खेले और 38 गोल किये पर कोई विपक्षी टीम एक बार भी शंकर लक्ष्मण को नहीं भेद पायी। 1928 के बाद यह पहला मौका था, जब ओलंपिक में भारत पर एक भी गोल नहीं हुआ था। यहाँ भारत ने अपने पहले मैच में अफगानिस्तान को 14-0 से परास्त किया। इन 14 में से पाँच गोल अकेले कप्तान बलबीर सिंह सीनियर ने किये थे। पर इस मैच के दौरान लगी चोट के कारण वे अगले चारों मैचों नहीं खेल पाये। अगले मुकाबलों में भारत ने अमेरिका को 16-0, सिंगापुर को 6-0, सेमीफाइनल में जर्मनी को 1-0 और फाइनल में पाकिस्तान को 1-0 से हराया। इस प्रकार भारत लगातार छठी बार ओलंपिक हॉकी का सरताज बना।

1956 के बाद बलबीर सिंह सीनियर ने कोई ओलंपिक नहीं खेला और इसके बाद के 64 साल में हमें केवल दो स्वर्ण और एक रजत पदक मिले। इसके अलावा हम 1975 का केवल एक विश्व कप जीत सके। बलबीर सिंह सीनियर जैसे महान् खिलाड़ी और शिख्तयत सदियों में पैदा होते हैं और युगों को अपने दामन में बाँधकर साथ ले जाते हैं। औपचारिक तौर पर चाहे उन्हें भारत रत्न से नहीं नवाज़ा गया, लेकिन वह करोड़ों देशवासियों के लिए भारत रत्न ही हैं।

अगर हॉकी के इस गोल्ड मैन पर लिखना शुरू किया जाए, तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है। यही वजह है कि जिस दिन बलबीर सिंह सीनियर ने इस नश्वर संसार को अलविदा कहा, उस दिन पूरी दुनिया, खासकर खिलाडिय़ों और खेल प्रेमियों में शोक की लहर दौड़ गयी और लोग सोशल मीडिया पर उन्हें श्रद्धा-सुमन अॢपत करने लगे। वास्तव में ऐसे महान् खिलाड़ी का संसार से जाना खेल जगत, खासकर हॉकी के लिए बड़ी क्षति है। लेकिन यह तो विधि का विधान है, जिसे कोई नहीं टाल सकता। ‘तहलका’ परिवार भी ऐसे महान् खिलाड़ी को विनम्र श्रद्धांजलि अॢपत करता है और कामना करता है कि ईश्वर उनके परिवार को इस दु:ख को सहन करने की शक्ति प्रदान करे।

मूर्खता की पहचान है अभद्रता

सन्तों की खासियत होती है कि वे बुरे इंसान से भी भेदभाव या नफरत नहीं करते। लेकिन जब सन्तों की छवि के बारे में लोग सोचते हैं, तो उनके मन-मस्तिष्क में सन्तों की एक अलग रूप उभरता है। खासकर वेशभूषा को लेकर लोगों में सन्तों की एक खास छवि होती है। लेकिन समाज में रहने वाले सादामिज़ाज सन्तों को लोग जल्दी नहीं पहचानते। और अगर पहचान भी लेते हैं, तो कई बार उनके अच्छे कार्यों का विरोध भी होता है। सन्त कबीर इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। सन्त कबीर एक ऐसे समाज-सुधारक सन्त थे, जिनका हिन्दू और मुस्लिम, दोनों मज़हबों के दिकयानूसी और आडम्बरों से घिरे लोगों ने जमकर विरोध किया; उन पर हमले किये। इसी तरह और भी कई ऐसे सन्त हुए हैं, जो गृहस्थ जीवन में रहकर भी समाज को ज्ञान और सत्य का मार्ग दिखलाते रहे हैं। दिल्ली में रहने वाले उस्ताद शायर मुहतरम खुमार देहल्वी साहब भी ऐसे ही सन्त-मिज़ाज के इंसान हैं। वह कभी किसी भी मज़हब का अनादर नहीं करते। उनका कहना है कि वह बाकी लोगों की तरह सनातन या दूसरे धर्मों यानी मज़हबों में अवतरित महापुरुषों (अवतारों) की अवहेलना अथवा निन्दा नहीं कर सकते। क्योंकि ऐसी अभद्रता मूर्खता की पहचान होती है। वह कहते हैं कि इसके पीछे तीन बड़े कारण हैं। पहला यह कि कोई भी मज़हब दूसरे मज़हब से या दूसरे मज़हब के लोगों से बैर करना नहीं सिखाता और किसी भी मज़हब में ङ्क्षहसा, अभद्रता, घृणा तथा दूसरे मज़हब या दूसरे मज़हब को मानने वालों की बुराई करना नहीं सिखाया गया है। दूसरा कारण यह है कि सभी इंसान हैं और सबका एक ही मालिक है। चाहे उसे ईश्वर कह लो, चाहे अल्लाह कह लो और चाहे किसी और नाम से पुकार लो। तीसरा कारण यह है कि हर मज़हब में अवतारी शक्तियों का ज़िक्र है और लगभग सभी मज़हबों के अवतारों के गुण मिलते-जुलते हैं। यही नहीं कहीं-कहीं तो संख्या भी लगभग बराबर है। जैसे- वेदों में जितने अवतारों का ज़िक्र है, लगभग उतने ही नबियों (अवतारों) का ज़िक्र पवित्र कुरआन में भी है। इसलिए हम यह मानते हैं कि हो सकता है कि भाषाओं और संस्कृतियों के अलग-अलग होने से सभी लोगों ने इन अवतारों को अपने हिसाब से अपनी भाषा में नाम दिया हो और हो सकता है कि ये वही अवतार हों, जो हमारे इस्लाम में नबी हैं।

खुमार साहब कहते हैं कि अगर मान भी लें कि हिन्दू धर्म, जो वास्तव में सनातन धर्म है; उसमें वॢणत अवतारी शक्तियाँ अलग हैं, तो भी वे सब हैं तो परम् शक्तियाँ ही। ऐसे में हम इंसानों को उनका अपमान करने का कोई हक नहीं है, क्योंकि इंसान को किसी भी हाल में ईश्वर या ईश्वरीय शक्तियों का अनादर या अपमान करना नहीं चाहिए और जो इंसान ऐसा करता है, वह जहन्नुम (नर्क) का भागीदार होता है। चाहे वह दूसरे मज़हब के अवतारों को यह सोचकर ही बुरा-भला कहे कि वह अपने मज़हब की अवतारी शक्तियों की उपासना या इबादत करता है। वह कहते हैं कि ऐसे लोगों की अपने मज़हब में बतायी विधियों द्वारा की गयी इबादत या पूजा भी व्यर्थ ही जाती है; क्योंकि इस बात की इजाज़त तो उस व्यक्ति का मज़हब भी नहीं देता। वह सभी मज़हबों के लोगों को आपसी भाईचारे और प्यार से रहने की सलाह देते हैं।

मज़हबी एकता पर उनकी एक गज़ल देखें :-

      जलाया जाए दीये से दीया मुहब्बत का।

      यही है  फर्ज़  मेरे भाई  आदमीयत का।।

      तमाम धर्म  तो  देते हैं  प्यार की शिक्षा,

      तो फिर ये पाठ पढ़ाता है कौन नफरत का।

      मिटानी होंगी  दिलों की ये दूरियाँ पहले,

      मज़ा तब आयेगा पूजा का और इबादत का।

      वही है रास्ता अच्छा कि जो रहा था कभी,

      विवेकानंद का, अशफाक और शौकत का।

      हमारा काम मुहब्बत को आम करना है,

      करे वो काम सियासत, जो है सियासत का।

वह कहते हैं कि दूसरे मज़हबों से भी मोहब्बत करनी चाहिए। उनका सम्मान करना चाहिए और हो सके तो सभी का भला करना चाहिए। क्योंकि कोई भी मज़हब किसी भी तरह से गलत शिक्षा नहीं देता।

इसका एक बड़ा उदाहरण यह है कि जनाबे खुमार देहल्वी के घर के सामने एमसीडी का पार्क है। उस पार्क में तकरीबन चार-पाँच साल से हर मंगलवार को लाउडस्पीकर लगाकर हनुमान जी की पूजा और आरती होती है। इस कार्य में खर्च होने वाली बिजली वह अपने घर से देते हैं। इस पूजा और आरती में किसी प्रकार का कोई विघ्न न पड़े, इसके लिए वह हर सम्भव प्रयास करते हैं। हालाँकि उन्हें इस नेक काम से न तो कोई लालच है और न डर।  और न ही वह इससे किसी फायदे की कामना करते हैं। हालाँकि बहुत-से लोगों को उनका यह नेक काम अच्छा भी नहीं लगता; पर वह कहते हैं कि मेरा मकसद सिर्फ अच्छाई करना है और मैं अच्छाई का काम किसी लालच या डर से नहीं करता। मेरे हाथ से अगर किसी का भला हो सकता है, तो यह मैं मेरे मज़हब का हुक्म मानकर करता हूँ, जिसमें कहा गया है कि सवाब (पुण्य) का काम हमेशा आगे बढक़र करना चाहिए।

कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि सन्त और कैसे होते हैं? आिखर यह ही तो सन्तई है। सन्त वही तो है, जो दूसरों को पीड़ा न पहुँचाये। जहाँ तक हो सके हर किसी का भला करे और किसी की निन्दा न करे। मुझे याद है कि जब मैं पहली बार उनके घर गया था, तब उन्होंने जिस तरह मेरा सत्कार किया था, उससे मुझे यह लगा नहीं कि मैं उनसे पहली बार मिला हूँ। आज के नफरतों भरे माहौल में इसी भाईचारे और मोहब्बत की ज़रूरत है। आज जिस तरह हमारा देश मज़हबी और जातिवादी आग में जल रहा है, इस आग से सिर्फ और सिर्फ भाईचारे और मोहब्बत की पहल ही बचा सकती है। अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब हमारी पीढिय़ाँ इस आग में बुरी तरह जलती नज़र आएँगी। उस समय हम भले ही न हों, लेकिन हम अपनी ही पीढिय़ों में गुहनगार की तरह ज़रूर देखे जाएँगे।