बचत और सेहत का खज़ाना गोबर गैस

आजकल सभी तरह के ईंधन जैसे पेट्रोल, डीज़ल, कैरोसीन और गैस सभी लगातार महँगे होते जा रहे हैं। इतना ही नहीं, जबसे इन ईंधनों का उपयोग बढ़ा है, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण भी बढ़े हैं, जिसका सीधा असर इंसानों की सेहत पर पड़ा है। यहाँ तक कि हमारा खानपान भी प्रदूषित हो गया है। आज खाने में वो स्वाद ही नहीं है। इसका कारण कृत्रिम खादों और कीटनाशक दवाओं का फसलों पर बेइंतिहां उपयोग है। अफसोस इस बात का है कि हमारा देश प्राकृतिक खजाने से भरपूर है, बावजूद इसके हम उनका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। केंद्र और राज्य सरकारें भी निजी कम्पनियों के मुनाफे के लिए किसानों और लोगों को प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के लिए प्रोत्साहित करने से बचती नज़र आती हैं।

कृषि प्रधान हमारे देश में खेती और पशुओं का एक-दूसरे पर निर्भर और पूरक होना यह बताता है कि मानव जीवन के लिए ये दोनों ही उपयोगी हैं। सच तो यह है कि पशु मनुष्य के एक अच्छे दोस्त हैं। पशुओं से खेती करना हमारे देश की परम्परा रही है। इतना ही नहीं, फसलों को खाद भी पशुओं से मिलती है।

क्या है गोबर गैस या बायो गैस

सभी किसान जानते हैं कि गोबर के रूप में प्राप्त पशुओं का अवशिष्ट खाद के साथ-साथ ईंधन का बेहतर संसाधन होता है। इसे सीधे जलाकर इस्तेमाल करने के साथ-साथ इससे गैस (गोबर गैस या बायो गैस) भी बनायी जा सकती है। गोबर गैस या बायोगैस पशुओं के गोबर से बनायी जाने वाली एक ऐसी गैस है, जिसका उपयोग घर से लेकर खेती तक के लिए किया जा सकता है। घर में इसका उपयोग रोशनी करने से लेकर खाना बनाने तक में किया जा सकता है, तो खेतों में ङ्क्षसचाई के लिए इससे उत्पन्न ऊर्जा का इस्तेमाल किया जा सकता है।

करीब दो ढाई दशक पहले गोबर गैस का जिस प्रकार उपयोग शुरू हुआ था, उससे किसानों को अनेक लाभ मिल रहे थे। मगर कृत्रिम खाद कम्पनियों को यह रास नहीं आ रहा था और आिखर सरकारों ने इस ओर कोई ध्यान देना बन्द कर दिया। 15-16 साल पहले तक गोबर गैस का जितना बजट था, उतना अब नहीं है। यही वजह है कि किसान भी अब इसमें रुचि नहीं लेते। क्योंकि एक आम किसान के बस की बात नहीं कि वह गोबर गैस या बायो गैस के टैंक बनवा सके। अगर कोई टैंक बनवा भी ले, तो उनमें लगने वाली दूसरी लागत भी कम नहीं होती। ऐसे में अधिकतर किसान इसका लाभ नहीं ले पाते।

सबसे बड़ी बात है कि कृत्रिम गैसों की तरह गोबर गैस नुकसानदायक नहीं होती। इसमें कई गैसों का मिश्रण होता है; जो प्राकृतिक रूप से तब बनती हैं, जब हवा की अनुपस्थिति में कार्बनिक यौगिक यानी गोबर सड़ता है। गोबर गैस में जिन गैसों का मिश्रण होता है, उनमें अन्य गैसों के अलावा मुख्य रूप से कार्बन डाइऑक्साइड (ष्टह्र2) और मीथेन (ष्ट॥4) होती हैं। यही वजह है कि यह ज्वलनशील यानी आग पकडऩे वाली गैस भी होती है। इस तरह इसका उपयोग ईंधन के रूप में उपयोग किया जाता है।

बता दें कि गोबर गैस प्रणाली का आविष्कार कृषि वैज्ञानिक सी.बी. देसाई ने किया था। इससे गोबर का उपयोग कई कामों में किया जाने लगा था। गोबर गैस में सड़ रहे गोबर को बाद में निकालकर खेतों में खाद के रूप में उपयोग किया जा सकता है। गोबर से तैयार इस जैविक खाद से खाद्यान में किसी प्रकार का विष नहीं रहता और उसका स्वाद तथा सुगन्ध बढ़ जाती है।

हर कोई नहीं बना पाता गोबर गैस टैंक

गोबर गैस कोई आम राज मिस्त्री नहीं बना सकता। इसे वही राज मिस्त्री बना सकता है, जिसे इसे बनाने की विधि पता होने के साथ-साथ इसमें लगने वाली उपयोगी चीज़ों की जानकारी होगी। एक गोबर गैस से बिजली से लेकर गैस तक को इस तरह निकालने के सिस्टम तैयार किया जाता है कि उसका सही उपयोग हो सके। इसलिए जब भी कोई किसान गोबर गैस टैंक तैयार करवाये, तो कृषि वैज्ञानिकों से सलाह लेकर उनकी निगरानी या जानकार राज मिस्त्री से ही करवाये।

गोबर गैस में क्या-क्या डालें

अक्सर किसानों के मन में एक सवाल रहता है कि गोबर गैस में क्या केवल गोबर ही डाल सकते हैं? ऐसा नहीं है। गोबर गैस में गोबर के अलावा पशुओं का मूत्र, गलनशील कूड़ा यानी पेड़ों के पत्ते, घास, खराब सब्ज़ी, सब्ज़ी के छिलके, खराब फल, फसलों के अवशेष और पशुओं का मूत्र भी डाल सकते हैं। लेकिन इन सबकी मात्रा गोबर से अधिक नहीं होनी चाहिए, बल्कि इन सबकी मात्रा गोबर से कम ही रखें।

गोबर से बन रही सीएनजी

आजकल गोबर से बॉयो सीएनजी (कंप्रेज्ड नेचुरल गैस) भी बनायी जा रही है। गोबर से तैयार यह सीएनजी ल्यूकोफीड पेट्रोलियम गैस यानी एसपीजी की तरह काम करती है और एसपीजी से काफी सस्ती पड़ती है। यही नहीं यह पर्यावरण को भी नुकसान नहीं पहुँचाती। बॉयो सीएनजी को गाय भैंस समेत दूसरे पशुओं के गोबर के अलावा सड़ी-गली सब्जियों और फलों से भी बनाया जाता है। इसका टैंक यानी प्लांट गोबर गैस की तरह ही काम करता है, मगर इससे निकलने वाली गैस से बॉयो सीएनजी बनाने के लिए मशीनें अगल से लगायी जाती हैं। यह भी कमायी वाला कारोबार है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में ऐसे प्लांट लगाये जा चुके हैं। इस प्लांट का बड़ा फायदा यह है कि यह कम लागत से लग जाता है और सीएनजी के उत्पादन के बाद इसके टैंकों से जैविक खाद भी निकलती है, जो बिक जाती है।

बायो सीएनजी प्लांट से नहीं कोई नुकसान

पहले के लोग गोबर का उपयोग खाद बनाने, उपले पाथने और फसलों पर गोबर के घोल का छिड़काव करने के लिए करते थे। मगर अब लोग ऐसा नहीं करते, इससे गोबर बेकार तो जाता ही है, गन्दगी का कारण भी बनता है। आजकल शहरों में मौज़ूद डेयरी वाले भी गोबर को नालियों में बहा देते हैं, जिससे नालियाँ बन्द होने के साथ-साथ गन्दगी और बदबू भी फैलती है। इसके अलावा पशुओं को अवारा छोड़ देते हैं, जिससे वो कहीं भी गोबर और मूत्र कर देते हैं, जो गन्दगी और बदबू का कारण बनता है। अगर ये डेयरी मालिक पाले गये पशुओं के गोबर और मूत्र का उपयोग बायो सीएनजी बनाने में करें, तो काफी पैसा कमाने के साथ-साथ पर्यावरण को स्वच्छ बनाने में सहयोग कर सकते हैं। इसी तरह गाँवों में भी पशुओं के गोबर और मूत्र का सदुपयोग किया जा सकता है। इसमें वीपीएसए (वेरियेबल प्रेशर स्विंग एडसोरप्शन सिस्टम) टेक्नोलॅाजी से गोबर को प्यूरीफाई करके मीथेन गैस बनायी जा सकती है और उसे कम्प्रेस करके सिलेंडर में भरकर बेचा जा सकता है। इसके प्लांट में मुर्गी और कबूतर की बिष्टा भी मिलाकर डाल सकते हैं। इससे 10 से 15 फीसदी तक गैस भी ज़्यादा बनती है और खाद की गुणवत्ता भी बेहतर होती है। इस प्लांट को जनता बायो गैस प्लांट भी कहा जाता है। इससे निकलने वाली गैस को दूसरे टैंक में इकट्ठा किया जाता है और वहाँ से इसे उपयोग के हिसाब से निकाला जाता है।

गोबर गैस के असफलता के कारण

भारत में में गोबर गैस यानी बायो गैस की असफलता के कई कारण हैं। इनमें पहला कारण है- किसानों के पास धनाभाव। इसके अलावा उन्हें प्रोत्साहित भी नहीं किया जाता। इसके अलावा अधिकतर किसानों के पास पशुओं और जगह की कमी भी इसके प्रति हतोत्साहित होने का कारण है। क्योंकि अगर किसी के पास एक-दो पशु हैं, तो उनसे इतना गोबर नहीं मिल सकता कि इसका एक सामान्य टैंक ठीक से चल सके। हालाँकि, इससे उसे रात को एक बल्ब जलाने लायक बिजली मिल सकती है और सम्भव है कि एक समय का खाना भी बन जाए, लेकिन यह काफी महँगा साबित होगा। क्योंकि इतने गोबर को सीधे बेचने से तत्काल ज़्यादा फायदा होगा। और टैंक का खर्चा नहीं करना पड़ेगा, जो कि काफी आता है। वहीं गोबर के उपले भी बेचकर ठीकठाक पैसे कमाये जा सकते हैं। वैसे भी एक-दो पशु पालने वाला किसान इस काम में हाथ नहीं डालना चाहता। उसे इसका शुरुआती खर्चा और बाद में टैंक से खाद निकालकर खेत में डालने का खर्चा काफी लगता है। साथ ही उसे लगता है कि एक बल्ब के लिए वह क्यों इतना झंझट करे। ऐसे में सरकार को इस काम में बड़े पैमाने पर किसानों का सहयोग करना चाहिए। साथ ही कृषि विश्वविद्यालयों और सरकार को गाँव-गाँव में जागरूकता कैंप लगाने चाहिए और गोबर गैस प्लांट लगाने के इच्छुक किसानों की मदद करनी चाहिए।

भारत में में वातावरण और कृषि भूमि की अधिकता के कारण यहाँ गोबर गैस प्लांट काफी सफल और लाभकारी हो सकते हैं। मगर सरकार को इसमें विशेष रुचि लेनी पड़ेगी। कृषि मंत्रालय को सजग और ईमानदार होना पड़ेगा। बहरहाल ऐसा नहीं हो रहा है; क्योंकि इसमें सरकारों का तो स्वार्थ छिपा ही है, लोगों, खासकर किसानों का भी फसलों के अधिक पैदावार का स्वार्थ छिपा है। इसके साथ ही अब अधिकतर किसान मेहनत से बचना भी चाहते हैं। यही कराण है कि वे जैविक खादों का उपयोग ही नहीं करते; क्योंकि इसके लिए उन्हें जानवरों का गोबर इकट्ठा करना पड़ेगा और उसे कम-से-कम छ: महीने गड्ढे में सड़ाना पड़ेगा, तब कहीं जाकर उसे खाद मिलेगी। प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से देशवासियों को शुद्ध भोजन, शुद्ध वायु और शुद्ध जल मिलने के साथ-साथ स्वास्थ्य लाभ भी मिलेगा।