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किसानों को मिले विशेष पैकेज ताकि करा सकें फसल बीमा

किसानों की अपनी समस्याऐं इतनी है कि वे कई बार जाने- अनजानें में सरकारी लाभ और सुविधायें लेने से वंचित रह जाते है। कोरोना काल में सरकार से जो सुविधायें मिली उससे किसानों को किसी भी तरह से कोई विशेष राहत नहीं मिली है। बताते चले कि किसानों ने अपनी तमाम मांगों को लेकर सरकार के समक्ष कई बार आंदोलन व प्रदर्शन किये है। अब केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने कहा कि किसानों को समय खत्म होने के पहले ही खरीफ की फसल का बीमा करा लेना चाहिये।  किसानों ने इस फैसले का स्वागत करते हुये  कहा कि किसान समय पर ही बीमा कराएंगा ।

कृषि मंत्री ने कहा कि प्राकृतिक आपदाओं से फसल को नुकसान की भरपाई के लिये अधिक से अधिक किसानों को योजना से जुडना चाहिये। प्रधानमंत्री फसल योजना के तहत 31 जुलाई तक खरीफ फसलों का बीमा किया जाएगा। हरियाणा के किसान राजकुमार सिंह का कहना है कि सरकार को किसानों की सही मायने में इस समय उनकी मौलिक जरूरतों पर ध्यान देना होगा । ताकि वे अपनी फसलों की ऊपज को आसानी से मंडियों में बेंच सकें । क्योंकि कोरोना महामारी के दौरान जो दिक्कतों किसानों ने उठाई है वो किसी से छिपी नहीं है। उनका कहना है कि किसानों को सरकार को कम से कम इतनी सुविधायें तो देनी चाहिये । कि वे आसानी से अपनी फसल का बीमा करवा सकें। लेकिन सुविधाओं के अभाव में किसान बीमा कराने से बंचित रह जाता है।उत्तर –प्रदेश के किसान व मजदूर नेता गोविन्द दास का कहना है कि मौजूदा दौर में किसान एक साथ कई समस्याओं से जूझ रहा है । जैसे इस बार मानसून का सूनापन जिससे किसानों की बुवाई नहीं हो पा रही है। वहीं किसानों को सरकार द्वारा जो मिलने वाली जो राहत है वो नहीं मिल पा रही है। ऐसे में किसानों से समय पर फसल बीमा की उम्मीद सरकार कम ही करें ।

सरकार का दावा है कि 2016 में योजना की शुरूआत से अब तक कुल 13 हजार करोड का प्रीमियम आया है जबकि 64 हजार करोड का दावा भी भुगतान किया गया है। किसानों का कहना कि सरकार की नीतियों का सही मायनें में बडें किसान ही लाभ ले पाते है । लेकिन जो छोटे किसान है । वो ना तो सरकार की किसी योजना का लाभ ले पाते है और ना ही सरकार द्वारा कोई लाभ उनको मिल पाता है। इस समय किसानों को डीजल के दामों में बढोत्तरी होने से काफी परेशानी का सामना करना पड रहा है। कर्ज में दबे किसानों का कहना है कि छोटा किसान सही मायने में बैंको से और साहूकारों से कर्जा लेता है । जब फसल कुदरत के कहर से सही ऊपज नहीं दे पाती है तो किसानों को आर्थिक संकट का सामना करना पडता है। ऐसे में सरकार को चाहिये कि किसानों की माली हालत कैसे दूर करने के लिये विशेष पैकेज दें । जिससे किसान अपनी बुनियादी जरूरतों के साथ फसल बीमा योजना का लाभ ले सकें।

अपराध की जुगलबंदी!

खादी, खाकी और अपराधी गठजोड़ का नतीजा है विकास दुबे जैसे अपराधियों का पनपना

शिवली का डॉन! यही नाम था उत्तर प्रदेश की आपराधिक दुनिया में बिकरू गाँव के बदमाश विकास दुबे का। बहुत कम लोगों को पता होगा कि उसका एक बेटा अमेरिका में शिक्षा ग्रहण कर रहा है। कई अपराध करने वाले विकास दुबे समेत उसके गैंग के कमोवेश कई बड़े बदमाशों को भले ही मार गिराया गया। लेकिन इससे इन अपराधियों और उनके उन राजनीतिक आकाओं का सच सामने नहीं आ सका, जिनकी छत्रछाया में विकास और उस जैसे अनेक अपराधी फल-फूलकर इतने ताकतवर अपराधी बन जाते हैं। उत्तर प्रदेश में जुलाई के पहले हफ्ते में उसकी गैंग के हाथों आठ पुलिस वालों की नृशंस हत्या सिर्फ दिल दहला देने वाली ही नहीं है, बल्कि यह घटना राजनीतिक, पुलिस और आपराधिक गठजोड़ पर एक बड़ा सवाल है। यह कह सकते हैं कि यह घटना खादी, खाकी और अपराधी गठजोड़ के खतरनाक खेल को उजागर करती है। घटना के बाद जिस तत्परता से उसके एक अड्डे (घर) की खुदाई करके बड़ों को जंजाल में डाल सकने वाले दस्तावेज़ी सुबूत नष्ट कर दिये गये और बेहद संदिग्ध हालात में जिस तरह से विकास का एनकाउंटर किया गया, यह सब कई गम्भीर सवाल खड़े करता है। इस घटना में अपराधियों का सफाया करने के बाद अब मामला खत्म मान लिया जाएगा; लेकिन राजनीति और पुलिस के उसके संपर्कों के चेहरों से जब तक नकाब नहीं उठ जाती, तब तक विकास दुबे जैसे अपराधी पनपते रहेंगे और समाज के सीने पर अपराध की कीलें ठोकते रहेंगे। खादी और खाकी में स्वच्छता के बिना क्या इस तरह के अपराध खत्म हो पाएँगे? यह एक बड़ा सवाल है।

राजनीति और पुलिस का अपराध के साथ गठजोड़ कितना ताकतवर है, यह उत्तर प्रदेश के बिकरू गाँव इस घटना से ही ज़ाहिर हो जाता है; जिसमें अपराधी विकास दुबे के यहाँ दबिश देने गयी पुलिस टीम का ही अपराधियों ने बेखौफ होकर खात्मा कर दिया। विकास और उसके गैंग को पुलिस के ही लोगों (विकास के मुखबिर) से यह खबर मिली कि फोर्स दबिश के लिए आ रही है। पुलिस में ही ऐसा एक व्यक्ति था, जिसे अपने साथी सिपाहियों की जान से भी प्यारा एक अपराधी था। क्या अपराधियों का साथ देने वाले इस पुलिस वाले के सिर पर कोई बड़ा या ताकतवर हाथ है, जो विकास को बचाना चाहता था? विकास की मुठभेड़ में मौत के बाद यह सच अब कभी सामने नहीं आ पायेगा।

मुठभेड़ में विकास दुबे की मौत पर शहीद सीओ देवेंदर मिश्रा के साढ़ू कमलाकांत दुबे ने कहा कि यह बड़ा सवाल है कि जिनके ऊपर सुरक्षा की ज़िम्मेदारी है, उनमें से कुछ अपराधियों के मुखबिर बन जाएँ, तो फिर सुरक्षाकर्मी कैसे सुरक्षित रह पाएँगे? मुश्किल यह है कि राजनेता अपराधियों को आश्रय देते हैं, फरार करवाते हैं, सरेंडर करवाते हैं। कुछ उच्च अधिकारी भी इसमें शामिल हो सकते हैं। इन सबकी जाँच के लिए ज़रूरी था कि इस व्यक्ति (विकास दुबे) को फिलहाल कैसे भी ज़िन्दा रखा जाता और उससे उसकी राजनीतिक साठगाँठ के राज उगलवाये जाते। देवेंद्र मिश्रा सहित आठ पुलिस वालों की जो हत्या हुई है, वह अकेले विकास दुबे या उसके गैंग ने नहीं की, बल्कि उसके भी सरपरस्त इन हत्याओं में बराबर के भागीदार थे; जिन्होंने अब उसका भी एनकाउंटर करवा दिया। उन्हीं की सलाह पर विकास दुबे ने नाटकीय अंदाज़ में सरेंडर किया था।

सवाल यह है कि बहुत ही आम व्यक्ति विकास दुबे किस तरह कुछ ही वर्षों में ही राजनीतिक सम्पर्क और पुलिस में अपनी पैठ के बूते 500 करोड़ की बड़ी सम्पत्ति का मालिक बन गया? ज़ोर-ज़बरदस्ती से हथियायी गयी ज़मीनें तो उसके पास बेहिसाब हैं। राजनीति और पुलिस में बैठे ऐसे लोग, जो अपराध को संरक्षण देते हैं, वे आम जनता की इस सोच से भली-भाँति परिचित हैं कि अपराधियों के मारे जाने पर वह तुरन्त यह मान लेती है कि चलो एक गुण्डे से मुक्ति मिली। इसकी वजह यह है कि अधिकतर आम लोगों को इस बात से कोई ज़्यादा लेना-देना नहीं होता कि अपराधी के पीछे असली ताकत वाला सफेदपोश कौन था? इस तरह अपराध के इस घृणित गठजोड़ का सिलसिला चलता रहता है।

हिमाचल में सूचना विभाग के निदेशक रहे बी.डी. शर्मा कहते हैं कि इसमें कोई दो-राय नहीं कि बिना राजनीतिक संरक्षण के कोई अपराधी इतने लम्बे समय तक अस्तित्व नहीं बचा सकता। इसे खत्म करने के लिए एक व्यापक प्रणाली बनाने की ज़रूरत है, ताकि ऐसे गठजोड़, जिसमें पुलिस के लोगों की भी बड़ी भागीदारी रहती है; पनपने ही न पाएँ।

विकास दुबे की जुर्रत देखिए कि उसने उसे पकडऩे गयी पुलिस पर घात लगाकर जिन लोगों को मौत के घाट उतार दिया, उनमें एक डीएसपी, तीन सब इंस्पेक्टर और चार सिपाही शामिल थे। उसने कुल 15 पुलिस वालों को अपनी गोलियों का शिकार बनाया, जिनमें पाँच घायल भी हुए। इसे पुलिस फोर्स का बहुत बड़ा नुकसान माना जाएगा। यही नहीं उसके गुर्गों ने पुलिस से एक एके-47, एक इन्सॉस राइफल और दो पिस्टल भी छीन लीं। विकास हत्या सहित 60 गम्भीर अपराधों में आरोपी था, लेकिन फिर भी वह इतने वर्षों से ठाठ से ज़िन्दगी जी रहा था और अपनी अपराध की दुकान चला रहा था। इसलिए, क्योंकि वह राजनीति और पुलिस में उसके सम्पर्कों का हाथ उसके सिर पर था।

उत्तर प्रदेश से सेवानिवृत्त एक बड़े पुलिस अधिकारी ने तहलका से बातचीत में नाम न छापने की शर्त पर कहा कि आपको जानकार हैरानी होगी कि उत्तर प्रदेश में पुलिस अधिकारी मनचाहा स्टेशन पाने के लिए अपराधियों की मदद लेते रहे हैं। ये अपराधी अपने राजनीतिक आकाओं के ज़रिये पुलिस अधिकारियों का काम करवा देते हैं। इस तरह सबका काम चलता रहता है।

हमारे तंत्र में राजनीति कितनी ताकतवर है? यह सब जानते हैं। जनसेवा के नाम पर मज़बूत होने वाले राजनीतिकों ने खुद को इतना ताकतवर कर लिया है कि उनके हस्तक्षेप के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। अपनी सत्ता बचाये रखने के लिए राजनीतिकों ने पुलिस को मोहरा बनाकर अपराधियों के साथ एक ऐसा गठजोड़ बना लिया है, जो सत्ता के समानांतर चलता है, और कई बार तो न्याय प्रणाली से भी ज़्यादा ताकतवर दिखता है। वैसे हैरानी की बात यह भी है कि उत्तर प्रदेश का इतिहास रहा है कि यहाँ अपराधी पुलिस वालों की हत्या कम ही करते रहे हैं।

अपराध में आकर ये लोग पैसा कमाते हैं। छोटे-बड़े दलों से सम्पर्क बनाते हैं और फिर राजनीति में कूद जाते हैं। पैसे के ज़ोर पर टिकट भी ले लेते हैं और अपने दबदबे से चुनाव जीत भी जाते हैं। इस तरह वे खुद को उसी तरह साफ-सुथरा बना लेते हैं, जिस तरह ब्लैक मनी को व्हाइट मनी में बदल लिया जाता है। ऊपर से माननीय का चोला इन्हें मिल जाता है, जिससे आसानी से अपराध करते रहते हैं।

उत्तर प्रदेश के बिकरू गाँव की घटना के बाद कुछ वीडियो और ऑडियो सामने आये हैं, जिनसे ज़ाहिर होता है कि कैसे विकास दुबे कई राजनीतिक दलों के नेताओं का सहारा बना। वह उनके लिए वोट का इंतज़ाम करता था, और बदले में पैसा और संरक्षण पाता था। एक वीडियो तो विकास की एसटीएफ की पूछताछ का भी है, जिसमें उसने दो भाजपा नेताओं से अपने अच्छे सम्बन्धों की बात को स्वीकार किया है; भले इन नेताओं ने इस दावे को गलत बताया हो।

लेकिन इनमें एक बहुत चौंकाने वाली मोबाइल ऑडियो रिकाॄडग भी सामने आयी है। यह रिकाॄडग विकास दुबे के शूटआउट कांड के शिकार बने पुलिस के एक सीओ देवेंद्र मिश्र की बेटी वैष्णवी मिश्र ने एसएसपी दिनेश कुमार को सौंपी है। इस मोबाइल रिकाॄडग (ऑडियो) में शहीद सीओ, एसएसपी से शिकायत करते सुनायी दे रहे हैं कि चौबेपुर के एसएचओ विनय तिवारी उनकी बात नहीं सुनते। अब इन विनय तिवारी को निलंबित कर दिया गया है, लेकिन यह रिकाॄडग खादी, खाकी और अपराधी गठजोड़ की ओर संकेत करती है।

तहलका की जानकारी के मुताबिक, बिल्लौर के सीओ देवेंद्र मिश्र ने चौबेपुर के निलंबित एसएचओ विनय तिवारी के खिलाफ आठ प्रारम्भिक जाँच रिपोर्ट अपने उच्च अधिकारियों को भेजी थी। इसमें उन्होंने विनय तिवारी को भ्रष्टाचारी बताया था। मिश्र ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा था कि विनय तिवारी की अपराधों और जुआ कारोबार में कथित भूमिका है।

विकास दुबे के पीछे कितनी राजनीतिक ताकत थी, यह इस तथ्य से ज़ाहिर हो जाता है कि उसने 19 साल पहले थाने में घुसकर तबके राज्यमंत्री संतोष शुक्ला की हत्या कर दी थी; लेकिन पुलिस गवाही से मुकर गयी। इस तरह जाँच कमज़ोर कर दी गयी और दुबे छूट गया। कहने को वह सिर्फ 25 हज़ार का इनामी बदमाश था। लेकिन सच यह भी है कि उसका अपने इलाके के दो दर्ज़न से ज़्यादा गाँवों में ज़बरदस्त आतंक था। चुनाव में राजनीतिक दलों के उम्मीदवार इन इलाकों में वोट लेने के लिए उसकी मदद लेते थे। विकास जहाँ कह देता था, वहीं वोट पड़ता था। किसी गाँव वाले की मजाल नहीं थी कि वोट इधर से उधर हो जाए।

विकास दुबे का अपराध फलक पर उभरना नतीजा है दशकों से चले आ रहे खादी, खाकी और अपराधी गठजोड़ का। इतने बड़े अपराधों को करने के बाद भी विकास दुबे का बाल बाँका भी नहीं हो पाना, इस बात का सबूत है कि कैसे राजनीति-पुलिस मिलकर अपराधियों को पाल रहे हैं। ऐसा नहीं होता, तो कैसे 25 हज़ार (जो बिकरू की घटना के बाद 5 लाख कर दिया गया) के इनाम वाला बदमाश एक सीओ सहित 8 पुलिस जवानों की इस तरह हत्या कर देता।

नहीं भूलना चाहिए कि डाकुओं के ज़माने में ऐसी घटनाएँ होती थीं; लेकिन एक बदमाश पुलिसकॢमयों की इतनी बड़ी टीम को मार डाले, तो इसे हैरानी भरा माना जाएगा। उत्तर प्रदेश में बदमाशी का इतिहास देखा जाए तो बदमाश आमतौर पर पुलिस वालों पर हमला नहीं करते रहे हैं। विकास दुबे ने फिर भी ऐसी हिमाकत की तो यह माना जा सकता है कि उसे भरोसा रहा होगा कि उसके राजनीतिक आका और पुलिस में आका उसका बाल भी बाँका नहीं होने देंगे।

उत्तर प्रदेश में बड़े माफिया, ऑर्गेनाइज्ड गिरोह और बाहुबली सभी रहे हैं। राज्य में पश्चिम से लेकर पूरब तक अपराधी गिरोह पनपे हैं। वैसे इस सूबे में राजनीति के अपराधीकरण का गढ़ गोरखपुर रहा है, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश का हिस्सा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि कानपुर में विकास दुबे ने आठ पुलिस वालों की हत्या करके पुलिस महकमे ही नहीं राजनीतिक गलियारों को भी हिलाकर रख दिया। इससे पहले पुलिस वालों की इतने बड़े पैमाने पर हत्या की घटना 20 नवंबर, 2004 को हुई थी; जब नक्सलियों ने लैंडमाइन उड़ाकर 17 पुलिस वालों की हत्या कर दी थी।

ऐसे में बिकरू गाँव में आठ पुलिस वालों की हत्या को हलके में नहीं लिया जा सकता। इसे महज़ एक अपराधी के दुस्साहस के रूप में नहीं देखा जा सकता। इसके पीछे के वृहद दायरे को पहचानना होगा। निश्चित ही यह खाकी, खादी और अपराधी के गठजोड़ का नतीजा है। उत्तर प्रदश और पश्चिम बिहार में इस तरह के गठजोड़ हाल के दशकों में खूब फले-फूले हैं। राजनीतिक संरक्षण के बिना कोई अपराधी इतना बड़ी जुर्रत नहीं कर सकता।

आठ पुलिस वालों को योजना बनाकर मार देना इस बात का सबूत है कि उसके पास पुलिस के आने की पूरी जानकारी थी और यह भरोसा भी कि वह इन्हें मारकर बचा लिया जाएगा। या यह भी हो सकता है कि राजनीति में उसके सरपरस्तों ने उसे ही रास्ते से हटाने के लिए यह सब तामझाम रचा, ताकि खतरनाक हो चुके विकास दुबे को ही रास्ते से हटा दिया जाये, या जेल की सलाखों के पीछे भेज दिया जाए।

दूसरा पक्ष यह भी है कि यदि विकास के पास पुलिस के आने की पहले से सूचना थी, तो वह पुलिस पर हमला करने के बजाय वहाँ से पहले ही भाग भी सकता था, जो उसके लिए कहीं बेहतर रास्ता होता। उसने ऐसा न करके पुलिस के लोगों को मारने का रास्ता चुना; जबकि उसे भी यह मालूम रहा होगा कि इससे बड़ा बबंडर मचेगा। या यह भी हो सकता है कि दबिश देने गयी पुलिस पार्टी में से कुछ चुनिंदा कॢमयों को कोई मरवाना चाहता था और विकास को आगे करके उसने एक तीर से दो शिकार कर लिए; पहले पुलिसकॢमयों को शहीद करवा दिया और बाद में विकास को भी एनकाउंटर करवा दिया। बहुत दिलचस्प बात बात है कि विकास दुबे के घृणित कृत्य के बाद उसे जाति के आधार पर महिमामंडित करने की बहुत कोशिश हुई। सोशल मीडिया पर आठ पुलिस वालों की हत्या के बाद ऐसे संदेशों की बाढ़-सी आ गयी, जिसमें विकास दुबे को ब्राह्मण शिरोमणि जैसे सम्बोधनों के साथ हीरो दिखाने की कोशिश हुई। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि राजनीति और पुलिस में जाति के आधार पर भी बदमाशों को संरक्षण दिया जाता है। खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति में इस तरह का होना आम बात रही है।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने घटना के बाद एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की, जिसमें उन्होंने प्रत्येक शहीद पुलिसकर्मी के परिवार के एक सदस्‍य को सरकारी नौकरी देने, असाधारण पेंशन दिये जाने के साथ-साथ एक करोड़ रुपये मुआवज़ा राशि दिये जाने का भी ऐलान किया। मुख्यमंत्री ने भरोसा दिलाया कि जवानों की शहादत बेकार नहीं जाएगी और इसके लिए ज़िम्मेदार लोग बख्शे नहीं जाएँगे। लेकिन यही बड़ा सवाल है कि क्या सचमुच असली चेहरे सामने आ पाएँगे?

त्रिवेदी का डर और कोर्ट से गुहार

एनकाउंटर में मारे गये अपराधी विकास दुबे का गुर्गा अरविंद उर्फ ​​गुड्डन त्रिवेदी इन दिनों पुलिस हिरासत में है। उसने आशंका जतायी है कि पुलिस उसे भी मारकर एनकाउंटर दिखा देगी। हाल ही में गुड्डन ने अदालत से माँग की है कि उसे अदालत या कहीं और ले जाते समय सड़क की बजाय हवाई मार्ग से ले जाया जाए। फिलहाल गुड्डन त्रिवेदी और उसके ड्राइवर सोनू तिवारी को 21 जुलाई तक के लिए न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है। दोनों को 21 जुलाई तक तलोजा जेल में रखा गया है। इससे पहले दोनों की कोरोना वायरस के संक्रमण की जाँच की गयी है। बता दें कि विकास दुबे के दाहिने हाथ गुड्डन त्रिवेदी और उसके साथी सोनू तिवारी को ठाणे में मुम्बई एटीएस से दया नायक के दस्ते ने गिरफ्तार किया गया था।

भाजपा को भारी पड़ सकती है विकास की पटकथा

पुलिस ने भले ही अपराधी विकास दुबे का एनकाउंटर कर दिया, लेकिन उसकी पटकथा लोगों के गले नहीं उतर रही है। खासकर ब्राह्मण और सामान्य वर्ग के लोग इसे हज़म नहीं कर पा रहे हैं। इस पर जमकर सवाल उठ रहे हैं। सवाल यह है कि क्या 2022 के चुनाव में भाजपा और खासकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर विकास दुबे की अटपटी पटकथा भारी पड़ सकती है? विपक्ष और पुलिस एक्सपर्ट के साथ-साथ आम लोग भी सरकार पर उँगलियाँ उठा रहे हैं। सोशल मीडिया पर इस मामले की सीबीआई जाँच की माँग हो रही है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी से ब्राह्मण चेहरा जितिन प्रसाद ने इस पर सवाल उठाये हैं।

घर या अपराध का अड्डा?

उत्तर प्रदेश के कानपुर के बिकरू गाँव में पुलिस वालों की निर्मम हत्या करके फरार हुए गैंगस्टर विकास दुबे के अपराध के अड्डे (घर) को 4 जून को उसी जेसीबी से गिरा दिया गया, जिसे रास्ते में खड़ा करके उसने उसके यहाँ छापा मारने आ रहे पुलिस वालों को रोककर अपने गुर्गों की मदद से उनकी हत्या कर दी थी। िकलेनुमा उसके इस अड्डे के बाहर 10 फीट ऊँची दीवार बनायी गयी थी, जिसके ऊपर काँटेदार बाड़ लगायी गयी थी। अपने करीब 35 गुर्गों के साथ विकास यहीं रहता था।

प्रशासन के आदेश पर इस अड्डे को गिरा दिया गया। वहाँ से बड़े पैमाने पर हथियार, जिनमें हथगोले भी शामिल हैं; मिले। एक सरकारी नम्बर की गाड़ी भी वहाँ मिली। सवाल यह है कि पुलिस ने विकास द्वारा ढाल बनायी गयी जेसीबी का इस्तेमाल ही उसके अड्डे को ढहाने में क्यों किया? उसका अड्डा गिराने से पहले पुलिस ने विकास दुबे के पिता रामकुमार को और उनकी नौकरानी रेखा को बच्चों समेत घर से बाहर निकाला था।

विकास के घर को जिस तत्परता से गिराया गया, उसे लेकर जानकार यह मानते हैं कि इस कवायद के पीछे वास्तविक मंशा उन सुबूतों को अपने कब्ज़े में करना था, जो भविष्य में अपराध की बड़ी मछलियों और मगरमच्छों को संकट में डाल सकते थे। यही लोग राजनीति और पुलिस में उसके सरपरस्त रहे हैं। उसके अड्डे में कुछ न बचे यह सुनिश्चित करने के लिए उसके एनकाउंटर में मारे जाने के बाद भी बिकरू के इस अड्डे को खँगाला गया। शायद यह सुनिश्चित किया गया कि कुछ बच न जाए।

वर्षों तक कैसे बचा रहा विकास

घटनाक्रम, मीडिया रिपोट्र्स और तहलका की छानबीन से ज़ाहिर होता है कि विकास दुबे के मामले में उत्तर प्रदेश पुलिस ने घोर लापरवाही बरती। उस पर 60 अपराधों के मामले दर्ज हैं। ज़ाहिर है कि पुलिस अपने मुखबिरों के ज़रिये उस पर नज़र तो रखती होगी, फिर भी वह इतने साल से पुलिस और प्रशासन की नाक के नीचे एक से बड़ा एक अपराध करता रहा, तो इसके पीछे क्या मजबूरी या कौन-सी ताकत थी।

उसके मोबाइल फोन की डिटेल्स बताती हैं कि वह लगातार पुलिस वालों के सम्पर्क में रहता था। यही नहीं, उसके आपराधिक अड्डे को गिराने के समय एक सरकारी नम्बर की कार उसके परिसर से मिली। उसके खिलाफ इतने मामले थे, लेकिन वह बचा रहा। यहाँ एक बार फिर बिल्हौर के शहीद सीओ देवेंद्र मिश्र के पुलिस अधिकारी अनंत देव को लिखे गये पत्र का ज़िक्र करते हैं। इस पत्र के आधार पर अब कई चीज़ें सामने आ रही हैं।

इस पत्र में देवेंद्र मिश्र ने कहा कि 13 मार्च, 2020 को थाना चौबेपुर में अभियुक्त विकास दुबे और अन्य के खिलाफ धारा-386, 147, 148, 323, 504, 506 के तहत मामले दर्ज थे। जाँच अधिकारी अज़हर इशरत ने इसमें से धारा-386 आईपीसी को हटा दिया था। यही नहीं, देवेंद्र मिश्र ने जब इस बारे में पूछताछ की, तो जाँच अधिकारी  (आईओ) ने बताया कि उन्होंने चौबेपुर के एसएचओ विनय तिवारी के कहने पर ऐसा किया था। देवेन्द्र मिश्र ने एसएसपी कानपुर नगर को इस पर कार्रवाई की संस्तुति की थी।

अब आठ पुलिस वालों की हत्या के बाद प्रशासनिक जवाबदेही के अगुआ रहे आईपीएस अमिताभ ठाकुर ने डीजीपी एचसी अवस्थी को एक चिट्ठी लिखकर कानपुर के पूर्व एसएसपी अनंत देव पर कार्रवाई की माँग उठायी है। अमिताभ ने सीओ देवेंद्र मिश्र के अनंत देव को लिखे एक पत्र के आधार पर यह माँग की है।

अमिताभ का कहना है कि देवेंद्र ने अनंत देव को साफ तौर पर बताया था कि निलंबित एसओ विनय तिवारी का विकास के पास आना-जाना था और उससे बातचीत होती थी। अमिताभ इस बारे में कहते हैं- ‘एक साफ आरोपों वाले पत्र के बाद भी अनंत देव ने कोई कार्रवाई नहीं की। इसे घोर प्रशासनिक कदाचार कहा जाएगा। इन सब चीज़ों की पूरी जाँच होनी चाहिए, तभी सच सामने आ सकेगा।’

चौबेपुर के सीओ विनय तिवारी को बाद में 8 जून को गिरफ्तार भी कर लिया गया। बिकरू के दारोगा के.के. शर्मा  को भी गिरफ्तार कर लिया गया। आरोप है कि तिवारी विकास के यहाँ दबिश के लिए अन्य पुलिस वालों के साथ जा रहा था, लेकिन रास्ते ही वापस खिसक गया था।

छानबीन से ज़ाहिर होता है कि विकास दुबे के मामले में पिछले कुछ वर्षों, खासकर तीन साल में पुलिस ने कुछ नहीं किया, जिससे वह मज़े से अपनी गतिविधियाँ चलाता रहा। सवाल यह उठ रहा है कि कानपुर में जिन एडीजी जोन और आईजी रेंज जैसे अफसरों पर शातिर अपराधियों पर हुई कार्रवाई की निगरानी का ज़िम्मा था, उन्होंने 60 मुकद्दमों में फँसे विकास दुबे पर किसी भी कार्रवाई की समीक्षा क्यों नहीं  की? अगर बड़े अधिकारी विकास के मामले में हुई कार्रवाई की समीक्षा करते रहते, तो शायद वह जमानत पर जेल से बाहर ही नहीं आ पाता। एक सवाल यह भी है कि इन बड़े पुलिस अफसरों ने ऐसी ढील किन राजनीतिकों के कहने पर बरती?

हत्याकांड का घटनाक्रम

यह 2 जुलाई का दिन था, जब विकास दुबे को गिरफ्तार करने तीन थानों की पुलिस टीम दबिश देने बिकरू गाँव पहुँची। लेकिन विकास को इसकी पहले से सूचना मिल चुकी थी और उसने पुलिस को ही निपटाने की तैयारी कर ली थी। इस तरह उसके गैंग ने दबिश देने आये 8 पुलिसकॢमयों की मौके पर हत्या कर दी; जबकि एक घायल पुलिसकर्मी मौत हो गयी।

इस घटना से मचे कोहराम के एक दिन बाद 3 जुलाई को पुलिस ने तड़के विकास के मामा प्रेम प्रकाश पांडे और सहयोगी अतुल दुबे को एक मुठभेड़ में मार दिया। इसी दिन दो दर्ज़न नामजद सहित करीब 60 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर ली गयी।

विकास पर 2.5 लाख का इनाम घोषित किया गया (जिसे बाद में 8 जून को 5 लाख कर दिया गया), उसके सहयोगी और रिश्तेदार अमर दुबे पर 50 हज़ार और अन्य बदमाशों पर 18-18 हज़ार रुपये के इनाम घोषित कर दिये गये। पुलिस ने 5 जून को विकास के नौकर और उसके नज़दीकी सहयोगी दयाशंकर उर्फ कल्लू अग्निहोत्री को पकडऩे के दौरान घेर लिया। पुलिस की गोली दयाशंकर को लगी, जिससे वह घायल हो गया। उससे पूछताछ के दौरान पुलिस को यह जानकारी मिली कि विकास ने पुलिसकॢमयों पर हमले की पहले से ही योजना बना रखी थी।

इसके एक दिन बाद 6 जुलाई को पुलिस ने अमर दुबे की माँ क्षमा दुबे और दयाशंकर की पत्नी रेखा समेत तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया। शूटआउट की घटना के समय पुलिस ने बदमाशों से बचने के लिए क्षमा दुबे का दरवाज़ा खटखटाया था; लेकिन क्षमा ने मदद करने की बजाय बदमाशों को पुलिस की लोकेशन बता दी। आरोप है कि रेखा भी बदमाशों की मदद कर रही थी। विकास दुबे की खोज करने के दौरान 8 जुलाई को विकास हमीरपुर के एक होटल में आने के बाद भी पुलिस को चकमा देकर भाग गया; लेकिन एसटीएफ ने विकास के करीबी और रिश्तेदार अमर दुबे को एक मुठभेड़ में मार दिया। यह सब होने के बाद सारा फोकस विकास दुबे पर हो गया। अटकलें लगने लगीं कि विकास को भी एनकाउंटर दिखाकर मार दिया जाएगा।

संसद में दागी

राजनीति तक में अपराध कितने गहरी जड़ें जमा चुका है, यह 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म संस्था (एडीआर) के द्वारा जारी आँकड़ों से पता चलता है। एडीआर द्वारा जारी आँकड़ों में संसद में पहुँचने वाले आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोगों के बारे में बताया गया है।  इसमें यह दिलचस्प बात ज़ाहिर हुई कि आपराधिक केस वाले सासंदों की संख्या पहले से अधिक हुई है। एडीआर ने 2019 में चुने गये सभी 539 सांसदों के एफिडेविट की समीक्षा के बाद जो लिस्ट जारी की, उसके मुताबिक 17वीं लोकसभा में आपराधिक रिेकॉर्ड वाले सांसदों की संख्या 233 है। यही नहीं, इनमें से 159 के खिलाफ गम्भीर अपराध वाले मामलों में केस दर्ज हैं। महिलाओं के खिलाफ अपराध के आरोपी सांसदों की संख्या 19 है; जबकि दुष्कर्म (आईपीसी की धारा-376) के तहत मामले झेल रहे तीन सांसद हैं। वहीं 10 ऐसे हैं, जिनके खिलाफ किसी तरह के आपराधिक केस में दोष सिद्ध हुआ है। निश्चित ही यह चिन्ताजनक आँकड़े हैं। इसी साल जनवरी में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा साल 2018 के अपराध सम्बन्धी रिपोर्ट में जारी आँकड़ों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक आपराधिक मामले दर्ज किये गये। अपराधों के मामले में पहले स्थान पर उत्तर प्रदेश (2,503) और दूसरे स्थान पर तमिलनाडु (2,241) था। एडीआर ने नवनिर्वाचित 542 सांसदों में 539 सांसदों के हलफनामों के विश्लेषण के आधार पर बताया कि इनमें से 159 सांसदों (29 फीसदी) के खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, बलात्कार और अपहरण जैसे गम्भीर आपराधिक मामले लम्बित हैं। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक, आपराधिक मामलों में फँसे सांसदों की संख्या 10 साल में 44 प्रतिशत बढ़ गयी है। पिछले तीन लोकसभा चुनाव में निर्वाचित होकर आने वाले सांसदों में करोड़पति और आपराधिक मामलों में घिरे सदस्यों की संख्या में लगातार इज़ाफा हो रहा है। भाजपा के 303 में से 301 सांसदों के हलफनामे के विश्लेषण में पाया गया कि साध्वी प्रज्ञा सिंह सहित 116 सांसदों (39 फीसदी) के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं, जबकि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के 52 में से 29 सांसद (57 फीसदी) आपराधिक मामलों में घिरे हैं। इनके अलावा बसपा के 10 में से पाँच, जदयू के 16 में से 13 (81 फीसदी), तृणमूल कांग्रेस के 22 में से नौ (41 फीसदी) और माकपा के तीन में से दो सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। बीजद के 12 निर्वाचित सांसदों में सिर्फ एक सदस्य ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले की हलफनामे में घोषणा की है। रिपोर्ट कहती है कि 17वीं लोकसभा के 233 (43 फीसदी) सांसदों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय 25 राजनीतिक दलों में छ: दलों (लगभग एक-चौथाई) के 100 फीसदी सदस्यों ने उनके खिलाफ आपराधिक मामलों की जानकारी दी है। एनडीए की हिस्सेदार लोजपा के सभी 6 सदस्यों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले लम्बित होने की जानकारी दी है; जबकि एआईएमआईएम के दोनों सदस्यों और एक-एक सांसद वाले दल आईयूडीएफ, एआईएसउत्तर प्रदेश, आरएसपी और वीसीआर के सांसद आपराधिक मामलों में घिरे हैं। उत्तर प्रदेश के 56 फीसदी नये चुने गये सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले लम्बित हैं। (सभी रिकॉर्ड 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए जमा हलफनामों पर आधारित)

राजनीति में सुधार ज़रूरी

अप्रैल, 2014 में जब भारतीय जनता पार्टी ने अपना चुनावी संकल्प पत्र जारी किया था, तो उसमें चुनाव सुधार का वादा किया था। नरेंद्र मोदी के रूप में गुजरात मॉडल के साथ भाजपा के चेहरे के रूप में देश के सामने थे और पार्टी ने कहा था कि भाजपा अपराधियों को राजनीति से बाहर करने के लिए कटिबद्ध है। इसके बाद एक चुनावी जनसभा में नरेंद्र मोदी ने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा था- ‘आजकल यह चर्चा ज़ोरों पर है कि अपराधियों को राजनीति में घुसने से कैसे रोका जाए? मेरे पास एक इलाज है, और मैंने भारतीय राजनीति को साफ करने का फैसला कर लिया है। मैं इस बात को लेकर आशान्वित हूँ कि हमारे शासन के पाँच साल बाद पूरी व्यवस्था साफ-सुथरी हो जाएगी और सभी अपराधी जेल में होंगे। मैं वादा करता हूँ कि इसमें कोई भेदभाव नहीं होगा और मैं अपनी पार्टी के दोषियों को भी सज़ा दिलाने से नहीं हिचकूँगा।’ आज केंद्र और उत्तर प्रदेश दोनों में भाजपा की सरकारें हैं। मोदी के इस को वादे को छ: वर्ष से अधिक गुज़र चुके हैं, लेकिन स्थिति बद से बदतर ही हुई है। इन वर्षों में उनकी अपनी पार्टी भाजपा के कई सांसदों, मंत्रियों, विधायकों, नेताओं पर कई गम्भीर आपराधिक आरोप भी लगे। मोदी नीत केंद्र सरकार द्वारा ऐसे नेताओं-मंत्रियों पर मुकदमा चलाना तो दूर, इक्का-दुक्का मामलों को छोड़कर इस्तीफा लेने की नैतिकता तक नहीं दिखायी गयी। मोदी की तरह ही वादे उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने पर योगी आदित्यनाथ ने भी किये थे; लेकिन उत्तर प्रदेश आपराधिक घटनाओं से सबसे पीडि़त है। राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को रोकने के लिए दायर एक याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने सुनवाई के बाद फरवरी, 2020 में जस्टिस आर.एफ. नरीमन और जस्टिस एस रवींद्र भट की बेंच ने फैसला सुनाते हुए राजनीतिक दलों के लिए दिशा-निर्देश जारी किये थे। इसमें कहा गया गया था कि राजनीतिक पार्टी अगर किसी आपराधिक बैकग्राउंड वाले व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बनाती है, तो उस उम्मीदवार के सभी आपराधिक मामलों की जानकारी पार्टी को अपनी वेबसाइट पर अपलोड करनी होगी। पार्टी को यह भी बताना होगा कि पार्टी ने आिखर किन कारणों से ऐसे व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बनाया है? पार्टी की यह भी ज़िम्मेदारी होगी कि वह ऐसे दागी छवि वाले उम्मीदवारों की जानकारी पार्टी के आधिकारिक फेसबुक पेज और ट्विटर हैंडल पर दे। एक स्थानीय और कम-से-कम एक राष्ट्रीय अखबार में भी पार्टी को ऐसे उम्मीदवार की जानकारी देनी होगी। आपराधिक छवि वाले व्यक्ति को पार्टी का उम्मीदवार बनाये जाने के 72 घंटे के अन्दर पार्टी को उम्मीदवार से जुड़ी सारी जानकारियाँ चुनाव आयोग को देनी होगी। सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा कि अगर कोई पार्टी ऐसा नहीं करती है, तो चुनाव आयोग कार्रवाई करेगा। इसके अलावा इन वर्षों में पुलिस सुधार की बात होती रही है; लेकिन सब कुछ कागज़ों और बातों तक ही सीमित रहा है।

संदिग्ध हादसा और एनकाउंटर

फरीदाबाद में सीसीटीवी में दिखने के बाद विकास दुबे लगभग एक ही दिन  में करीब 774 किलोमीटर दूर यानी कार से 12 घंटे से भी ज़्यादा का सफर करके उज्जैन पहुँच गया; वह भी उत्तर प्रदेश होते हुए! और उसे किसी ने नहीं पकड़ा! उज्जैन के महाकाल मंदिर में उसकी गिरफ्तारी कितने आराम से हुई? जैसे यह सब वास्तव में योजनावद्ध आत्मसमर्पण हो। यह कैसे हुआ? क्या यह सुनियोजित था? जो झाँसा देकर उसे अपने कब्ज़े में करने की कोशिश थी, ताकि बाद में एनकाउंटर में उसे मार दिया जाए। जब उसे गिरफ्तार किया गया, वह ज़ोर-जोर से- ‘मैं विकास दुबे हूँ, कानपुर वाला’ कह रहा था। यही नहीं, उसने एक से ज़्यादा बार किसी बिट्टू भैया का नाम भी पुकारा और पूछा कि वह (बिट्टू) कहाँ गये। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक पुलिस को बिट्टू की तलाश थी। हैरानी यह है कि उज्जैन पुलिस ने विकास की गिरफ्तारी नहीं दिखायी! उसे ट्रांजिट रिमांड के लिए कोर्ट भी नहीं ले गयी! और उज्जैन से उसे लाते हुए रास्ते में जो कुछ हुआ, उसमें आशंका-ही-आशंका भरी पड़ी है। उज्जैन से उसे लेकर पुलिस वाहन 9 जुलाई को शाम सवा 7 बजे रवाना हुआ। टीवी पत्रकारों की कुछ गाडिय़ाँ भी लगातार इनके साथ चल रही थीं। मध्य प्रदेश के शाजापुर, गुना, शिवपुरी, झाँसी, जालौन से होते हुए जब एक टोल प्लाज़ा से विकास दुबे को ले जा रहे पुलिस वाहन क्रास कर गये, तो पत्रकारों को अन्य आम लोगों के वाहनों के साथ तलाशी के नाम पर रोक लिया गया। उन्होंने रोकने का विरोध किया, लेकिन उनकी नहीं सुनी गयी। करीब 10 मिनट बाद जब पत्रकार यहाँ से आगे बढ़े और भौंती नमक जगह पहुँचे, तो वहाँ एक वाहन सड़क पर पलटा हुआ था और विकास का एनकाउंटर हो चुका था। पत्रकारों को बताया गया कि बारिश के कारण सड़क पर बनी फिसलन में विकास को लेकर जा रही कार फिसल गयी और इस दौरान हादसे का फायदा उठाकर विकास ने एक पुलिस वाले के पिस्टल छीनकर भागने की कोशिश की; उससे दोबारा आत्म समर्पण करने को कहा गया, लेकिन उसने पुलिस वालों पर गोली चला दी और पुलिस द्वारा आत्मरक्षा में चलायी गयी गोलियों से विकास ढेर हो गया। यह सब कुछ फिल्मी कहानी जैसा लग रहा था। विकास दुबे एनकाउंटर के कुछ बिन्दु सवालों के घेरे में हैं। बिकरू कांड के आठ दिन के भीतर पाँच एनकाउंटर किये गये; जिनमें विकास दुबे और उसके पाँच गुर्गे मारे गये। उसके करीबी प्रभात का कानपुर और बऊआ दुबे का इटावा में एनकाउंटर हुआ। प्रभात के एनकाउंटर से पहले पुलिस ने गाड़ी पंक्चर होने की बात कही थी। इससे एक दिन पहले बुधवार को विकास का दाहिना हाथ शॉर्प शूटर अमर दुबे हमीरपुर में ढेर हुआ। इन चारों में एक सामान्य कहानी सामने आयी कि ये सभी पुलिस पर हमला कर भागने की कोशिश कर रहे थे। घटना के दूसरे ही दिन विकास के मामा प्रेमप्रकाश पांडे और सहयोगी अतुल दुबे को पुलिस ने बिकरू गाँव के करीब मुठभेड़ में मार गिराया था। पुलिस के मुताबिक, इन दोनों ने भी पुलिस को देखकर गोली चला दी थी। इनमें से तीन एनकाउंटर में आरोपित पुलिस की पिस्टल छीनकर फायर करते हुए भागे। विकास के एनकाउंटर में पुलिस थ्योरी पर बड़ा सवाल यही उठा कि ‌विकास को लेकर एसटीएफ उज्जैन से चली, तो उसे सफारी गाड़ी में बैठाया गया था। लेकिन एनकाउंटर के पहले जो गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हुई, वह महिन्द्रा की टीयूवी-100 थी। पुलिस अफसरों की सफाई थी कि बड़े अपराधी को ले जाते हुए काफिले में मौज़ूद गाडिय़ों में बदल-बदलकर बैठाया जाता है, ताकि उसके गुर्गे हमला न कर सकें। विकास के एनकाउंटर की पुलिस-कहानी में दर्ज़नों छेद हैं। सवाल यह है कि जो अपराधी आराम से पुलिस के कब्ज़े में आ गया, वह भागने का जोखिम क्यों लेगा? उसे पता होगा कि मार दिया जाएगा। जो वहाँ हादसे का शिकार बताया गया, उसे लेकर वहाँ ग्रामीणों ने कहा कि उन्होंने हादसा होते देखा ही नहीं। उसकी छाती पर तीन गोलियाँ मारी गयीं। भागते हुए अपराधी के सीने पर गोलियाँ कैसे लगीं? पीठ में लगनी चाहिए थीं। सवाल बहुत हैं, पर जवाब एक ही है कि विकास दुबे एनकाउंटर में मारा गया। उत्तर प्रदेश सरकार और पुलिस इस पर वाहवाही लूटने में मशगूल हैं, पर क्या अपराध खत्म हो गया? जवाब होगा- नहीं।

एसआईटी, ईडी के हाथ में जाँच 

योगी सरकार ने विकास दुबे के काले कारनामों की जाँच के लिए एसआईटी का गठन किया है। इसकी रिपोर्ट 31 जुलाई तक माँगी गयी है। लिहाज़ा यह ज़रूरी है कि यह जाँच निष्पक्ष हो और इसके दायरे में सिर्फ उसकी जमा की गयी अकूत सम्पत्ति की ही न रहे, बल्कि उसके राजनीतिक और पुलिस सम्पर्कों की भी जाँच होनी चाहिए। वैसे तो विकास दुबे के फरार होने के समय से ही पुलिस और एसटीएफ ने भी अपनी जाँच शुरू कर दी थी; लेकिन अब जाँच एसआईटी और ईडी के हाथ में पहुँच गयी है और तेज़ हो गयी है। विकास दुबे और जय वाजपेयी का गठजोड़ की जाँच भी हो रही है। इस मामले में दोनों के बीच लेन-देन का ब्यौरा पहले ही जुटाया जा चुका है।

विकास दुबे कानपुर वाला

वर्षों से उत्तर प्रदेश में अपराध का िकला खड़ा करने वाले विकास दुबे का परिवार काफी बड़ा है। उसकी पत्नी राजनीति में हाथ आजमा चुकी है। विकास के परिवार में उसके बूढ़े माता-पिता, भाई-बहन और बच्चे हैं। पत्नी ऋचा दुबे के अलावा उसके दो बेटे हैं। उसकी शादी करीब 26 साल पहले ऋचा से हुई थी, जो बाद में स्थानीय चुनाव लड़ चुकी है। विकास का बड़ा बेटा आकाश अमेरिका में पढ़ाई कर रहा है, जबकि छोटा शानू 12वीं का छात्र है और लखनऊ में माँ के साथ रहता है। विकास के बुजुर्ग माता-पिता भी अपने बेटों के साथ रहते हैं। पिता राम कुमार दुबे कानपुर के बिकरू में उसी घर में ही रहते थे, जहाँ पुलिस और विकास दुबे के बीच 3 जुलाई की रात मुठभेड़ हुई। माँ सरला देवी लखनऊ में रहती हैं, जो अब दूसरे बेटे के पास हैं। विकास का भाई दीप प्रकाश दुबे पत्नी अंजलि दुबे के साथ सरला देवी के साथ रहते हैं। विकास की दो बहनों- रेखा और किरण की मौत हो चुकी है; जबकि छोटी बहन चंद्रकांता दुबे शिवली में रहती है।

बिकरू से बैंकॉक तक सम्पत्ति

इसके अलावा विकास दुबे की सम्पत्ति की जाँच प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) भी करेगा। अपराधी विकास दुबे का एनकाउंटर होने के बाद प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) अब उसके करीबियों और फाइनेंसर जय वाजपेयी पर शिकंजा कस रहा है। प्रदेश सरकार दुबे का आॢथक साम्राज्य खँगालने में जुटी हुई है। ईडी ने यूपी पुलिस से विकास दुबे और उसके परिवार के सभी सदस्यों, सहयोगियों और आपराधिक गतिविधियों में शामिल रहने वाले लोगों की जानकारी माँगी हैं। साथ ही दुबे के खिलाफ आपराधिक मामलों की वर्तमान स्थिति की भी जानकारी माँगी है। ईडी ने कानपुर जोन के पुलिस महानिरीक्षक मोहित अग्रवाल को पत्र लिखकर विकास दुबे की सम्पत्तियों के बारे में जानकारी माँगी है। विकास दुबे के परिवार और उसके सहयोगियों पर मनी लॉन्ड्रिंग का मुकदमा भी दर्ज होगा। मनी लॉन्ड्रिग एक्ट के तहत अपराध के ज़रिये जुटायी गयी काली कमायी और अवैध सम्पत्तियों को अटैच किया जा सकता है। लखनऊ में ईडी के जोनल मुख्यालय के ज्वाइंट डायरेक्टर राजेश्वर सिंह का कहना है कि आयकर विभाग से भी दुबे और उसके गैंग के लोगों और करीबियों द्वारा बीते वर्षों में भरे गये आयकर रिटर्न की जानकारी भी माँगी गयी है। बताया जा रहा है कि दुबे के पास बिकरू से बैंकॉक तक अरबों रुपये की बेनामी सम्पत्ति है।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, विकास दुबे के लखनऊ और कानपुर में कम-से-कम 26 मकान और फ्लैट हैं। ज़मीनी अलग से हैं। उसकी विदेश यात्राओं की पड़ताल भी होने लगी है। कहा जा रहा है कि हाल के वर्षों में वह 14 बार विदेश गया था। यह भी आशंका है कि उसकी दुबई, थाईलैंड आदि में सम्पतियाँ हो सकती हैं। इस सिलसिले में उसके विश्वस्त सहयोगी फाइनेंसर जय बाजपेयी से पूछताछ हुई है।

कुछ बड़े सवाल

विकास दुबे को हमेशा पुलिस संरक्षण रहा, फिर उसने पुलिस वालों की हत्या क्यों की?

पुलिस वालों पर उसका हमला साधारण नहीं था। इसमें वहशीपन झलकता है और जिस तरीके से किया गया, उसमें समय भी काफी लगा होगा। एक-दो गोली की जगह उसने और उसके साथियों ने पुलिसकॢमयों पर दर्ज़नों गोलियाँ क्यों बरसायीं?

बिल्‍हौर के सीओ देवेन्द्र मिश्रा की तो गोली मारकर हत्या के बाद उनके अंग-भंग किये गये। उनके प्रति ऐसी घृणा क्यों दिखायी गयी?

मारने के बाद शवों का एक ढेर बना दिया गया। ऐसा असामान्य तरीका क्यों अपनाया गया?

पुलिस जब एक अपराधी पर दबिश देने आयी हो, तथा बाद में और पुलिसबल के आने का खतरा हो, तब अपराधी मौके से फरार होने की कोशिश करते हैं। लेकिन विकास और उसके साथियों ने काफी देर तक वहाँ रहकर खुद को खतरे में क्यों डाला? क्या उन्हें यह सब करने तक किसी सियासतदाँ ने संरक्षण दिया था?

वह इतने वर्षों से अपने घर (अड्डे) में कैसे इतना असलहा और अन्य खतरनाक चीज़ें जमा करता रहा?

उसके घर में 50 के करीब सीसीटीवी लगे हुए थे। यह सब पुलिस की नज़रों में क्यों नहीं आया?

उसने इतनी चल-अचल सम्पत्ति कैसे बनायी?

देश में जब आय से अधिक छोटी-सी सम्पत्ति को लेकर भी छोटे-मोटे कर्मचारियों के यहाँ छापे पड़ जाते हैं, तो एजेंसियाँ विकास को लेकर क्यों खामोश रहीं?

उसके आपराधिक अड्डे से सरकारी नम्बर वाली कार कैसे मिली?

क्या किसी अधिकारी /नेता का वाहन उसने अपनी सुरक्षा के लिए ले रखा था? या उसे सरकारी नम्बर दिलाया गया था?

उज्जैन में विकास ने खुद सरेंडर किया, तो भौंती के पास दुर्घटना के बाद भागने की कोशिश क्यों की?

उज्जैन पुलिस ने विकास की गिरफ्तारी क्यों नहीं दिखायी और उसे ट्रांजिट रिमांड के लिए कोर्ट क्यों नहीं ले गयी?

एनकाउंटर से ही ऐन पहले (करीब 10 मिनट पहले) मीडिया टीमों को क्यों बारा टोल प्लाजा पर तलाशी के नाम पर ज़बरदस्ती रोक दिया गया? इससे पहले कम-से-कम आधा दर्ज़न टोल थे; फिर भी किसी टोल पर पुलिस को क्यों नहीं रोका गया?

कानपुर की सीमा में ही एसटीएफ काफिले की गाड़ी क्यों और कैसे पलटी?

घटनास्थल पर वाहन पलटने के निशान सड़क पर क्यों नहीं थे? इस हादसे में भी उसका सिर्फ शीशा भर ही टूटा? एक भी व्यक्ति ने हादसा होते नहीं देखा, जबकि वहाँ लोगों की आवाजाही थी।

विकास खतरनाक अपराधी था, लाते हुए उसकी हाथ क्यों नहीं बाँधे गये थे?

विकास की एक जाँघ में समस्या थी, जिससे वह लँगड़ा कर चलता था। ऐसा व्यक्ति कड़ी सुरक्षा में पुलिस से हथियार छीनकर कैसे भाग गया?

उसकी गाड़ी कब और कैसे बदल गयी?

राजनीति और अपराध

अपराध के ज़रिये उत्तर प्रदेश में कई लोग राजनीति की सीढिय़ाँ चढ़े हैं। विधायक से लेकर सांसद तक बनते रहे हैं। कुछ तो ऐसे हैं, जो आज सम्मानित नेताओं में गिने जाते हैं। सच यह है कि उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में पिछले ढाई-तीन दशक में अधिकांश बाहुबलियों और गैंगस्टरों ने ही राजनीति में प्रवेश किया और जगह बना ली। गोरखपुर, मऊ, गाज़ीपुर, जौनपुर, वाराणसी, इलाहाबाद, बिहार के सीवान, जौनपुर और गोपालगंज इसके गवाह रहे हैं।

मई के आिखर में बिहार के गोपालगंज ज़िले में हथुआ थाना क्षेत्र के रूपनचक गाँव में एक परिवार के तीन सदस्यों को गोली मारकर हत्या कर दी गयी। इसके आरोप में जदयू विधायक अमरेंद्र पाण्डेय, जबकि उनके भाई सतीश पाण्डेय, भतीजे ज़िला परिषद् अध्यक्ष मुकेश पाण्डेय के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई और ये दोनों गिरफ्तार हुए। इससे पहले जुलाई, 2018 में कुख्यात गैंगस्टर मुन्ना बजरंगी, जिसकी बागपत जेल में  हत्या कर दी गयी थी; को बाहुबली विधायक मुख्तार अंसारी का करीबी माना जाता था। माफिया डॉन बृजेश सिंह जेल में हैं। हालाँकि वह विधान परिषद् का सदस्य है। सिंह के ऊपर मुम्बई और भुवनेश्वर में भी मामले दर्ज हैं। विधान परिषद् चुनाव के लिये-दिये अपने हलफनामे में बृजेश ने हत्या, हत्या का प्रयास, फिरौती वसूलने जैसे गम्भीर 11 मामलों की बात कही है। भाजपा विधायक सुशील सिंह पर हत्या, फिरौती आदि के पाँच मामले हैं। मऊ के विधायक मुख्तार अंसारी के हलफनामे के मुताबिक, उन पर 16 गम्भीर आपराधिक मामले दर्ज हैं।

हाल के वर्षों में अमरमणि त्रिपाठी का नाम भी सुॢखयों में रहा है। अमरमणि त्रिपाठी बसपा सरकार में मंत्री रह चुके हैं और वर्तमान में जेल में हैं। उन्हें कवयित्री मधुमिता शुक्ला की हत्या में आजीवन कारावास की सज़ा हुई है। उनके बेटे अमनमणि त्रिपाठी के खिलाफ भी पत्नी की हत्या का मामला चल रहा है, जो विधायक हैं। हाल में वह तब सुॢखयों में आये, जब लॉकडाउन के बावजूद उन्हें तीन वाहनों के साथ बद्रीनाथ जाने के लिए पास जारी हो गया। इस पर खूब हंगामा भी हुआ, लेकिन सत्ता और प्रशासन पर कोई फर्क नहीं पड़ा।

फूलपुर से 2019 में लोकसभा का चुनाव जेल से ही लड़ चुके अतीक अहमद अभी भी जेल में हैं। वह चुनाव में हार गये। उनके भाई पूर्व विधायक अशरफ भी गिरफ्तार हो चुके हैं और उन पर विधायक राजू पाल की हत्या सहित कई गम्भीर आपराधिक मामले दर्ज हैं।

अस्सी के दशक में उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में गोरखपुर में ब्राह्मण और ठाकुर समुदायों में वर्चस्व और हत्यायों की जो जंग शुरू गयी, जो राजनीति के बड़े मंच तक पहुँची। छात्र राजनीति से शुरू हुई इस जंग में लम्बा खूनी संघर्ष और हत्याएँ देखी गयीं। आपातकाल खत्म होने और कांग्रेस की हार के बाद जनता पार्टी बनी थी और उसके टिकट पर जीते रवींद्र सिंह की 30 अगस्त, 1979 को हत्या हो गयी। वह गोरखपुर विश्वविद्यालय ही नहीं, लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ के भी अध्यक्ष रह चुके थे।

कुछ समय के ही बाद बदले की कार्रवाई में छात्र नेता रंग नारायण पाण्डेय की हत्या कर दी गयी। इसके बाद गोरखपुर की राजनीति में हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र प्रताप शाही के नेतृत्व में दो विरोधी गुट बन गये। इन दोनों के खिलाफ अपराध से जुड़े गम्भीर मामले दर्ज थे। तिवारी छ: बार विधायक और तीन बार मंत्री बने; जबकि शाही दो बार विधायक बने।

इनके अलावा राजा भैया का नाम भी सामने आता है। उनके बारे में आरोप रहा था कि उन्होंने अपने घर में एक तालाब बना रखा था, जिसमें वह अपने दुश्मनों को मगरमच्छों के आगे फेंक देते थे। राजा भैया राजनीति और अपराध में बराबर चलता रहा। मायावती ने उन्हें जेल में डाला, लेकिन सपा सरकार आते ही वह फिर मंत्री बने।

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल से लेकर पश्चिम के कमोवेश हर ज़िले में ऐसे बाहुबलियों की कहानियाँ हैं, जो अपराध की दुनिया से राजनीति में आ गये। विकास दुबे राजनीति का शौकीन था। उसकी पत्नी ऋचा दुबे ज़िला पंचायत सदस्य है; जो यह ज़ाहिर करता है कि विकास भविष्य में राजनीति में आने की तैयारी कर रहा था।

इनकी अपराध में शुरुआत छोटे-मोटे अपराधों से होते हुए ठेके-पट्टे, कोयला-रेत, प्रॉपर्टी डीलिंग के कारोबार तक पहुँच जाती है। बहुत-से लोग ऐसे हैं, जो अपराध करते हुए ही पंचायत आदि के चुनाव जीत जाते हैं और बाद में उनकी ख्वाहिशें विधानसभा, विधानपरिषद्, लोकसभा चुनाव लडऩे और जीतने तक जा पहुँचती हैं।

अपराधी का अन्त हो गया। अपराध और उसको संरक्षण देने वाले लोगों का क्या? भाजपा सरकार ने उत्तर प्रदेश को अपराध प्रदेश बना दिया है। विकास दुबे जैसे अपराधी सत्ता के लोगों से पनपते और फलते-फूलते हैं। कांग्रेस इस पूरे प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट के जज से जाँच की माँग करती है।

प्रियंका गाँधी

कांग्रेस महासचिव, उत्तर प्रदेश प्रभारी 

कानपुर पुलिस हत्याकांड और इसके मुख्य आरोपी दुर्दांत विकास दुबे वाली पुलिस गाड़ी के पलटने और उसके भागने पर उत्तर प्रदेश पुलिस के उसे मार गिराये जाने आदि के समस्त मामलों की माननीय सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए।

मायावती

बसपा प्रमुख एवं पूर्व मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश 

यह कार नहीं पलटी है; राज खुलने के डर से सरकार पलटने से बचायी गयी है।

अखिलेश यादव

पूर्व मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश, सपा अध्यक्ष 

मरे हुए लोग कोई कहानी नहीं सुनाते।

उमर अब्दुल्ला

पूर्व मुख्यमंत्री, जम्मू-कश्मीर

जिसका शक था, वह हो गया। विकास दुबे और उसके साथियों का एनकाउंटर एक ही पैटर्न पर हुआ; कैसे?दिग्विजय सिंह

पूर्व मुख्यमंत्री, मध्य प्रदेश

तीन बातें रहस्य की परत में हैं। वह उज्जैन तक कैसे पहुँचा? वह महाकाल परिसर में कितनी देर रहा? उसका चेहरा टीवी पर इतना दिखा कि उसे कोई भी पहचान लेता, तो उसको पहचाने जाने में इतना समय कैसे लगा? लेकिन यह सच्चाई तो सामने आ गयी कि भगवान महाकाल ने देवेंद्र मिश्र जैसे ईमानदार पुलिस अधिकारी के हत्यारे का संहार कर दिया।

उमा भारती

पूर्व मुख्यमंत्री, मध्य प्रदेश

कई जवाबों से अच्छी है खामोशी उसकी। न जाने कितने सवालों की आबरू रख ली।

राहुल गाँधी, कांग्रेस नेता

कानून ने अपना काम किया है। अफसोस और मातम की बात उन लोगों के लिए होगी, जो कल उसके पकड़े जाने पर कह रहे थे कि ज़िन्दा क्यों पकड़ लिया? आज मर गया, तो कह रहे हैं कि मर कैसे गया? कई राज दफ्न हो गये। मध्य प्रदेश की पुलिस ने अपना काम किया, उसे गिरफ्तार करके उत्तर प्रदेश पुलिस के हवाले कर दिया।

नरोत्तम मिश्रा

गृह मंत्री, मध्य प्रदेश

मानव तस्करी का मकडज़ाल

आजीविका के लिए उन्होंने विदेश का रास्ता चुना; लेकिन गलत लोगों ने उन्हें ऐसी राह दिखायी कि वे डिटेंशन सेंटर या जेल पहुँच गये। गनीमत यह रही कि सब कुछ लुटाकर वे किसी तरह घर तक पहुँचने में सफल रहे, जिनको कभी घर पहुँचने की उम्मीद भी नहीं थी। यातनाओं में ही विदेशी धरती पर मर जाने का खौफ का मंज़र उनके ज़हन में अब भी है। घर तो सकुशल पहुँच गये, लेकिन वह भयावह मंज़र ज़हन से जाता नहीं।

बाहर नौकरी कर अच्छी ज़िन्दगी का उनका सपना मर गया, यहीं नौकरी या छोटा-मोटा काम करके इज़्ज़त की ज़िन्दगी परिजनों के साथ बसर करने की हसरत ही रह गयी है। देश में हज़ारों लोग गलत दस्तावेज़ के आधार पर विदेश पहुँच जाते हैं, जिनमें से ज़्यादातर गुमनामी की ज़िन्दगी जीने को मजबूर होते हैं। कुछ ही लोग किसी तरह कुछ साल गुज़ारकर, पैसा कमाकर सकुशल वापस घर पहुँचने में सफल रहते हैं। ऐसे लोग विदेश घूमने नहीं, बल्कि नौकरी और काम की तलाश में जाते हैं; लेकिन एजेंट गैर-कानूनी तरीके से उन्हें ऐसी जगह पहुँचा देते हैं, जहाँ से वापसी बहुत मुश्किल से होती है।

गैर-कानूनी तरीके से अमेरिका और मेक्सिको पहुँचे सैकड़ों भारतीयों को पिछले दिनों वहाँ की सरकारों ने विशेष विमान से जबरन भेज दिया। इनमें से 200 से ज़्यादा लोग हरियाणा और पंजाब के थे। 21 से 35 वर्ष के इन युवकों की दर्दभरी दास्तान सुनकर या पढ़कर कोई दूसरा बाहर जाने से पहले हज़ार बार सोचेगा। जंगलों और दुर्गम रास्तों से एक से दूसरे देश की सीमा चोरी-छिपे पार करना और छिपकर रहा। फिर अगले पड़ाव के लिए चल देना। इन्हें पहले बताया नहीं गया था कि उन्हें ऐसा करना होगा। उन्हें तो लाखों रुपये देने के बदले सीधे अमेरिका में उतारने और काम दिलाने की गारंटी दी गयी थी। इन्हें क्या पता था कि वे ऐसी अँधेरी सुरंग में पहुँच जाएँगे, जिसका सिरा उन्हें दूर-दूर तक नज़र नहीं आयेगा।

कोरोना महामारी के चलते वहाँ की सरकारों का फैसला एक मायने में उचित ही कहा जाएगा, वरना लम्बे समय तक यातना केंद्रों में रख सकती थी। उन पर अवैध तरीके से देश में घुसपैठ या अन्य गम्भीर धाराओं के तहत मुकदमा चलाया जा सका था। किसी भी देश में गलत दस्तावेज़ के आधार पर रहना गम्भीर अपराध है। इसे वे भी जानते थे; लेकिन यह उन्हें बताया नहीं गया था। उनकी आँखों में विदेशी धरती पर नौकरी कर पैसा कमा खुद अच्छी ज़िन्दगी गुज़ारने और परिजनों की मदद करने का था।

हरियाणा में ज़िला करनाल के गाँव शांबली का कुलजीत सिंह 12वीं तक पढ़ा है। खेती की ज़मीन तीन एकड़ है, परिवार का गुज़र-बसर मुश्किल से होता है। यहाँ नौकरी के लिए कोशिश की, लेकिन मिली नहीं। पिता जगजीत सिंह की मुलाकात किसी शिवकुमार नामक व्यक्ति से हुई। उन्होंने बेटे के बारे में बताया, तो उसने कहा कि क्या मुश्किल है। उसे बाहर भेजो देखो घर की हालत कैसे बदलती है। वह यह काम आसानी से करा देगा। कई लड़कों को वह भेज चुका है, कुलजीत भी चला जाएगा। उसके लिए पुर्तगाल ठीक रहेगा, उसे वहाँ काम मिल जाएगा। उन्होंने परिवार में बात की तो बेटा तैयार हो गया, भला बाहर नौकरी का मौका इतनी आसानी से किसे मिलता है। यहाँ घर बैठे काम हो रहा है। तीन लाख में सौदा पक्का हो गया। लेकिन इतना पैसा जगजीत सिंह के पास नहीं था। तीन एकड़ में से कुछ ज़मीन उन्होंने 12 लाख में बेच दी।

शिव कुमार ने सभी दस्तावेज़ भी तैयार कर दिये। सब कुछ ठीकठाक ही था। घर वाले बेटे के पुर्तगाल पहुँचने और काम शुरू करने की खबर का इंतज़ार करते रहे वह नहीं आयी। उन्हें पता चला कि कुलजीत पुर्तगाल नहीं, बल्कि मलेशिया में है। वहाँ की सरकार ने उसे अवैध तौर पर देश में घुसने के आरोप में पकड़ लिया है। एजेंट उसे छुड़ाने की एवज़ में जगजीत सिंह से पैसे वसूलता रहा। कुल मिलाकर उसने 4 लाख 19 हज़ार रुपये ले लिए। इनमें 30 हज़ार रुपये उसके बैंक खाते में जमा कराये बाकी राशि नकद दी गयी थी।

जगजीत कहते हैं, वहाँ कुलजीत को डेंगू हो गया था। हम लोग बिल्कुल टूट से गये थे। अब बात नौकरी की नहीं, बेटे की सकुशल घर वापसी की थी। लगभग एक महीने के बाद किसी तरह बेटा घर पहुँच गया, यही हमारे लिए बड़ी बात है। जगजीत ने थाने में मामला दर्ज करा दिया है, जिसकी जाँच चल रही है। पैसों की वापसी की उन्हें ज़्यादा उम्मीद नहीं लगती। उनका कहना है कि फिर किसी कुलजीत के साथ ऐसा न हो फिर बाहर जाकर नौकरी कर अच्छी ज़िन्दगी जीतने का सपना न टूटे इसलिए ऐसे लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए।

करनाल के राहुल यादव स्नातक है। यहाँ नौकरी नहीं मिल रही थी, अमेरिका में काम और अच्छा पैसा मिलने का भरोसा मिला, तो तैयार हो गये। पर इसके लिए लाखों रुपये का बंदोबस्त कैसे हो? यह पैसा कैसे जुटाया गया यह उनके परिजन ही जानते हैं। इस उम्मीद के साथ कि बेटा किसी तरह अमेरिका पहुँच जाए, वहाँ काम कर अच्छा पैसा कमाने लगेगा, तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। ट्रेवल एजेंटों ने राहुल और उसके साथियों को 10 से 20 लाख रुपये में अमेरिका तक पहुँचाने की बात तय की थी। उन्हें सपने में भी गुमान नहीं था कि उनके बुरे दिन शुरू हो गये हैं। जिन ट्रेवल एजेंटों को वे जाने से पहले भद्र पुरुष मान रहे थे, उन्हें बाद में शैतान नज़र आने लगे।

अमेरिका में प्रवेश से पहले उन्हें मेक्सिकों की पुलिस ने पकड़ लिया। वे मेक्सिको तक कैसे पहुँचे, कैसे-कैसे खतरे उठाये, इसे वे कभी भुला नहीं पाएँगे। कई बार जान जाते-जाते बची। उन्हें पता चल चुका था कि वे गैर-कानूनी तरीके से अमेरिका में पहुँचेंगे, जबकि तय शर्तों में इसका कहीं उल्लेख नहीं था।

राहुल कहते हैं कि लाखों रुपये खर्च करके और मुसीबतें उठाकर हम किसी आरामदायक घर में नहीं, बल्कि डिटेंशन सेंटर (नज़रबंदी शिविर) में पहुँच गये। जहाँ भेड़ बकरियों की तरह हमें ठूँस दिया गया। वहाँ भारतीयों के अलावा अन्य देशों के लोग भी थे। ये भी हमारी ही तरह गैर-कानूनी तरीके से देश में घुसने के आरोपी थी।

रवि यादव के मुताबिक, वहाँ कैदियों से भी बदतर ज़िन्दगी थी। अपराध बोध का अहसास होता था। कभी लगता हम कोई बड़ा गुनाह कर बैठे हैं, जिसकी कितनी सज़ा होगी यह हमें नहीं मालूम। शिविरों में न रहने की व्यवस्था और न खाने पीने की। पुलिस की सख्ती के आगे कोई कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कर पाता था। रात दिन अपने को विदेश जाकर नौकरी करने और ट्रेवल एजेंटों को कोसते, जिन्होंने हमें ऐसे दुर्दिन दिखा दिये। अब कोई चारा नहीं था, अमेरिका में काम, पैसे और अच्छी ज़िन्दगी की बातें पीछे छूट गयी। अब अपने देश पहुँचने के ही लाले थे। कोई उम्मीद नज़र नहीं आती थी। करीब पाँच माह तक हम लोगों ने कैदियों जैसी ज़िन्दगी गुज़ारी। वह भयावह सपने जैसा नहीं, बल्कि हकीकत थी। जिसे हम लोगों ने भोगा। हम लोगों को डुप्लीकेट वीजा पर भारत से रवाना किया गया था, इसका पता हमें बाद में हुआ।

हम लोग मुश्किल में थे, तो हमारे परिजन किसी तरह हमारी वापसी की दुआएँ माँग रहे थे। वे अपने तौर पर कोशिश कर रहे थे और हम भी चाहते थे कि किसी तरह से यहाँ से मुक्त हो जाएँ। हमारे कई साथी तो मानने लगे थे कि शायद वे यहीं मर जाएँगे। इन शिविरों में लम्बे समय तक वे नहीं जी सकेंगे। कहते हैं कि खाने में उन्हें गाय का मांस (बीफ) दिया जाता, तो भूख गायब हो जाती थी। ऐसे में भूखे रहने के अलावा दूसरा चारा नहीं था। शारीरिक और मानसिक तौर पर हम सभी टूट चुके थे। सभी को गाँव, घर, परिजन और देश याद आते, लेकिन वह तो सपने जैसा ही था। करीब पाँच माह इन शिविरों में गुज़ारे जो हमारे लिए पाँच साल जैसे रहे।

हरियाणा के सुखविंदर सिंह पोलीटेक्निक डिग्री होल्डर है। अमेरिका आने के लिए उन्होंने एजेंटों को 18 लाख रुपये दिये। यह पैसा बड़ी मुश्किल से जुटाया गया। पहले पढ़ाई पर पैसा खर्च हुआ और अब बाहर नौकरी करने के लिए लाखों रुपये लगे, लेकिन मिला क्या कुछ भी तो नहीं। सब कुछ बर्बाद होने जैसा है, इसकी भरपाई कौन करेगा? कितने सपने थे, अमेरिका में जाकर यह करेंगे, वह करेंगे। पैसा कमाएँगे और आराम से रहेंगे। फिर घर वालों की मदद करेंगे, जिन्होंने न जाने किन-किन लोगों से ऊँचे ब्याज पर पैसा जुटाया था। परिजनों को हमारी वजह से मुसीबतें उठानी पड़ी है।

नौकरी की तलाश में जाली दस्तावेज़ों के आधार पर गैर-कानूनी तरीके से विदेशों में जाने वाले की संख्या हज़ारों में है। ट्रेवल एजेंसी वाले कहते हैं कि उनके सम्पर्क शीर्ष स्तर तक है। उनकी पहुँच सीधे दूतावास तक है। ऐसा ही हवाला देकर वे ग्रामीण और भोले भाले युवकों को अपना शिकार बनाते हैं। बड़ी आव्रजन एजेंसी वाले ग्रामीण स्तर पर अपने एजेंट तैनात करती है जो कमीशन के आधार पर ऐसे लोगों को अपने जाल में फँसाते है। पैसों के बदले वे सभी काम अपने पर ले लेते हैं। वीजा से लेकर विदेश पहुँचाने की गारंटी तक देते हैं। विदेश जाने और वहाँ की चकाचौंध जैसी ज़िन्दगी गुज़राने के लालच में युवा आ जाते हैं। कुछ ही समय में पैसा कमा सारी भरपाई कर लेने का भ्रम भी उन्हें रहता है।

मेक्सिको से जबरन भेजे गये युवकों में कुछ तो इंजीनियर तक है, जिन्हें यहाँ काम नहीं मिला, तो बाहर जाने की सोची थी। इनमें से कुछ तो अब ज़िन्दगी में कभी भी देश के बाहर जाने की सोचेंगे भी नहीं; क्योंकि जो उन पर गुज़री है, वह उन्हें हमेशा याद रहेगा। उनकी राय में विदेश जाकर नौकरी करना कोई गलत बात नहीं; लेकिन इसके लिए सही दस्तावेज़ से कानूनी तौर पर जाना चाहिए। सरकार का ट्रेवल एजेंसियों पर कोई नियंत्रण नहीं है। अगर ऐसा होता, तो हमारे जैसों को क्यों सुनसान जंगलों से गुज़रना पड़ता? क्यों रात के अँधेरे में खतरनाक रास्तों से चलकर चोरी से सीमा पार करनी पड़ती। इसके लिए हमसे ज़्यादा ट्रेवल एजेंट दोषी है। वे बड़े लोग हैं, उनकी पहुँच ऊपर तक है; उनका कोई कुछ नहीं बिगड़ सकता। पर हम जैसे लोग पूरी तरह से बर्बाद हो जाते हैं।

हरियाणा सरकार ने गैर-कानूनी तौर पर विदेश भेजने वालों शिकंजा कस दिया है। ऐसा करने वालों पर अब मानव तस्करी की धारा भी जोड़ी जाएगी। राज्य में दो साल के दौरान कोई 300 से ज़्यादा ऐसे मामले लम्बित हैं, जिनकी व्यापक स्तर पर जाँच चल रही है।

डंकी वीजा

फर्ज़ी दस्तावेज़ के आधार पर विदेश भेजने को डंकी फ्लाइट के तौर पर भी जाना जाता है। इस विधि से सीधे उस देश में नहीं, बल्कि कई रूटों के ज़रिये भेजा जाता है। उदाहरण के तौर पर अमेरिका तक पहुँचने के लिए कोलंबिया, पनामा, कोस्टारिका, निकारगुआ, ग्वाटेमाला और मेक्सिको और गंतव्य तक। इसमें हज़ारों तरह के खतरे उठाने पड़ते हैं। कहीं समुद्र के रास्ते, कहीं जंगलों के बीच, कहीं नदी-नालों को पार करना पड़ता है। इसी डंकी वीजा के बदले एजेंट लाखों रुपये वसूलते हैं। बहुत बार वे बता भी देते हैं कि कुछ खतरे तो उठाने पड़ेंगे, लेकिन उनकी जान को किसी तरह का खतरा नहीं होगा। कुछ तो सकुशल पहुँचाने के नाम पर अतिरिक्त पैसा भी वसूल कर लेते हैं। पकड़े जाने के बाद उन्हें छुड़ाने की एवज़ में मोटी रकम ऐंठते हैं। इसे फिरौती के तौर पर देखा जाना चाहिए। एजेंटों की ज़िम्मेदारी येन केन प्रकारेण अमुक देश तक पहुँचाने की है। उसके बाद क्या होता है, इसे वे देखते भी नहीं है।

एसआईटी गठित

हरियाणा में गैर-कानूनी तरीके से विदेश भेजने के मामलों को सरकार ने काफी गम्भीरता से लिया है। इसके चलते सरकार ने मानव तस्करी और अवैध वसूली जैसी धाराएँ जोडऩे को मंज़ूरी दी है। ऐसे मामलों की जाँच के लिए आई स्तर के अधिकारी के नेतृत्व में विशेष जाँच समिति (एसआईटी) गठित की गयी है, जो पूरे राज्य में ऐसे सभी मामलों की विस्तृत जाँच करेगी। गृहमंत्री अनिल विज ने कहा है कि जाँच समिति के पास व्यापक अधिकार रहेंगे। करनाल रेंज की आईजी भारती अरोड़ा के नेतृत्व में सात सदस्यीय समिति गठित की गयी है। उनके अलावा छ: आईपीएस अधिकारी रहेंगे। इनमें मोहित हांडा, नाजनीन भसीन, राहुल शर्मा, हिमांशु गर्ग, लोकेंद्र सिंह और शशांक कुमार हैं। ज़्यादातर मामले कुरुक्षेत्र, अंबाला, करनाल, पानीपत और कैथल क्षेत्रों से जुड़े हैं। एसआइटी 323 मामलों की व्यापक स्तर पर जाँच कर रही है। अभी तक कार्रवाई में 112 लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी है। इनके कब्ज़े से करीब 50 लाख रुपये बरामद हुए हैं। राज्य में वर्ष 2018-19 के दौरान 154 ऐसे मामले थे। इनमें 47 लोगों की गिरफ्तारी के समय एक लाख रुपये बरामद हुए। प्रभावितंों में ज़्यादातर ग्रामीण इलाकों के है। भारती अरोड़ा मानती है कि ऐसे मामले केवल गैर-कानूनी तरीके से विदेश भेजने तक सीमित नहीं है। ये मानव तस्करी जैसा है, जो बहुत गम्भीर अपराध है। सरकार ने ऐसे मामलों में कड़ी कार्रवाई का निर्देश दिया। मानव तस्करी के साथ अवैध वसूली की धारा भी आरोपियों पर लगायी जाएगी, ताकि उन्हें कड़ा दण्ड मिल सके।

अपराध के पदचिह्न

विकास दुबे प्रकरण, जिसकी शुरुआत एक डीएसपी सहित आठ पुलिसकर्मियों के नरसंहार से हुई और बाद में उसकी मुठभेड़ में मौत, खादी, खाकी और अपराधी साठगाँठ की ओर इशारा करती है। यह घटना एक बार फिर तत्काल सुधारों की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित करती है; ताकि कानून का शासन कायम रहे और अराजकता तथा ताकत का शासन खत्म हो। मुठभेड़ और एक हफ्ते के भीतर पाँच गुर्गों की मौत से कई सवाल के घेरे में फँसे नेता और अफसर अनुत्तरित रह गये हैं। विकास दुबे से पूछताछ और खुलासे से उन सफेदपोशों का पर्दाफाश हो सकता था, जिनका वरदहस्त उस पर था। उसके खात्मे के बावजूद, जनता के बीच सवाल तो रहेंगे ही।

मसलन, मध्य प्रदेश एक चार्टर्ड विमान भेजा गया था; लेकिन विकास दुबे को उज्जैन से इसके बावजूद एक वाहन में क्यों लाया जा रहा था? मुठभेड़ से कुछ मिनट पहले ही गैंगस्टर को एक अलग वाहन में क्यों स्थानांतरित किया गया और इस एनकाउंटर से ठीक पहले मीडिया वाहनों सहित पूरे यातायात को एक चेक पोस्ट पर क्यों रोक दिया गया था? विकास को मीडिया ने आखरी बार टाटा सफारी में देखा था; लेकिन पुलिस ने बताया कि उसने महिंद्रा यूटिलिटी वाहन से भागने की कोशिश की थी? गैंगस्टर को संरक्षण देने वाले कौन थे? जब उसने उज्जैन में ही गिरफ्तारी का विरोध नहीं किया, तो भला बाद में वह पुलिस हिरासत से भागने का जोखिम क्यों उठाता?

विकास दुबे ने कानपुर देहात इलाके में 2001 में, जब उत्तर प्रदेश में भाजपा और केंद्र में एनडीए की ही सरकार ही थी; भाजपा के ही दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री संतोष शुक्ला की थाने में दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी थी। तब दुबे को प्राथमिकी में नामित किया गया था। छ: महीने बाद उसने आत्मसमर्पण भी कर दिया था; लेकिन बाद में उसे बरी कर दिया गया था। क्योंकि मंत्री के गनर, सुरक्षाकर्मी और निजी कर्मचारियों ने विकास दुबे के ही पक्ष में बयान दिये थे।

इस बार आठ पुलिसकॢमयों की हत्या के बाद वह फरार होने में सफल रहा और फिर उसने नाटकीय अंदाज़ में आत्मसर्मण कर दिया। रास्ते में मुठभेड़ के दौरान उसकी छाती में तीन गोलियाँ लगीं और एक हाथ में; जिससे यह संकेत मिलता है कि भागते समय उसे सामने से गोलियाँ लगीं, पीछे से नहीं।

इस कहानी में कई छेद दिखाई देते हैं। वह 60 से अधिक मामलों में शामिल था और अभी तक मुक्त घूम रहा था और कोविड-19 की सिख्तयों और यात्रा प्रतिबन्धों के बावजूद राज्यों के बीच यात्रा करता रहा। वह एक अपराधी था और कानून के शासन के अनुसार उसे सज़ा मिलनी चाहिए थी। वैसे इसके लिए एक कानूनी प्रणाली है; लेकिन ऐसा लगता है कि पुलिस का अपना ही ऑपरेटिंग सिस्टम है। एनकाउंटर से ठीक एक दिन पहले, सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर सरकार और पुलिस को निर्देश देने की फरियाद की गयी थी कि विकास दुबे के जीवन की सुरक्षा हो और यह सुनिश्चित किया जाए कि पुलिस के हाथों उसकी हत्या न हो। लेकिन ऐसा ही हुआ।

दरअसल यह एनकाउंटर पिछले साल हैदराबाद में एक पशु चिकित्सक से सामूहिक दुष्कर्म के मामले में पुलिस द्वारा चारों आरोपियों के एनकाउंटर की याद दिलाता है। उस एनकाउंटर में भी सभी चार अभियुक्त मारे गये थे। क्योंकि पुलिस के मुताबिक, उन्होंने पुलिसकॢमयों से हथियार छीनकर उन पर गोलियाँ चला दी थीं। उस एनकाउंटर पर भले ही विपक्ष इतने सवाल नहीं उठा पाया था, लेकिन विकास दुबे एनकाउंटर को लेकर वह सरकार पर निशाना साध रहा है। सवाल जनता के मन में भी ढेरों हैं, जो सोशल मीडिया पर उठ रहे हैं। अब सरकार अपनी विश्वसनीयता को बनाये रखने के लिए जो सबसे बेहतर काम कर सकती है, वह यह है कि वह इस मामले की स्वतंत्र जाँच का आदेश दे।

कैसे होगी वसुंधरा की विदाई?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चहेते बनने की बात पर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष डॉ. सतीश पूनिया मुस्कुरातेहुए कहते हैं- ‘लगता है मेरी कड़ी मेहनत रंग ला रही है।’ कोरोना-काल में किये गये उनके कार्यों पर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा की गयी प्रशंसा ने सबका ध्यान उनकी तरफ खींचा है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि प्रदेश की राजनीति में बेशक उनकी हैसियत बढ़ी है; लेकिन इसके साथ ही वसुंधरा और सतीश पूनिया के समर्थकों के बीच टकराव की शुरुआत होती है, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बहरहाल भाजपा के राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि वसुंधरा समर्थक बेशक चुप्पी साधे हुए हैं, लेकिन उनकी कुलबुलाहट साफ दिखायी दे रही है।

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता केंद्रीय नेतृत्व के मूल्यांकन का हवाला देते हैं, जिसमें सतीश पूनिया को मज़बूत माना जा रहा है। उन्होंने तहलका को बताया कि कभी सत्ता और संगठन पर एक छत्र दबदबा रखने वाली वसुंधरा राजे को अपनी विदाई की धुन सुन लेनी चाहिए। सूत्रों का कहना है कि डॉ. पूनिया ने संगठन को राजे की छाया से निकालकर उस पर अपनी पकड़ मज़बूत बना ली है। जिस संगठन को ओम माथुर के हटने के बाद गरिमा की तलाश थी, वह अब बहाल होता नज़र आ रहा है। अतीत की चर्चा में हो रहे सूत्रों का कहना है कि यद्यपि यह अवसर अध्यक्ष रहते हुए संघनिष्ठ अरुण चतुर्वेदी को भी मिला था, किन्तु प्रदेश में भाजपा सरकार बनते ही वह संगठन का मुखिया पद छोड़कर केवल सत्ता के बनकर रह गये। उनके अध्यक्ष रहते वैसे भी वसुंधरा राजे ने संगठन पर अपनी पकड़ बना ली थी। संघनिष्ठ प्रदेश अध्यक्ष पूनिया कुछ अलग ही मिट्टी के बने हुए हैं। सूत्रों की मानें तो सांगठनिक मामलों में 38 साल के अनुभवी पूनिया की भाजपा अध्यक्ष नड्डा के साथ जिस तरह की जुगलबंदी दिखायी दे रही है, विश्लेषक उन्हें भाजपा का नया चेहरा बताने से गुरेज़ नहीं करते। लेकिन राजनीतिक पंडितों का यह भी कहना है कि फिलहाल कुछ भी कहना जल्दबाज़ी होगी। राजनीतिक पंडित इस उक्ति को दोहराते नहीं थकते कि राजस्थान में भाजपा का मतलब ही वसुंधरा राजे हैं, वहाँ कोई और चेहरा कैसे खिल पायेगा?

वसुंधरा राजे को प्रदेश की राजनीति से दरकिनार किये जाने की चर्चाओं को लेकर भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ओम माथुर कहते हैं कि पार्टी में कोई साइड लाइन (किनारे की रेखा) नहीं होती; सिर्फ भूमिका बदल जाती है। भाजपा तो नेतृत्व की भूमिकाएँ बदलती रहती है। बात स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि आिखर तो एक दिन हर किसी के नाम के आगे पूर्व लगना ही है। वसुंधरा राजे के नाम के आगे भी लग सकता है। उधर विधानसभा में उपनेता प्रतिपक्ष राजेन्द्र सिंह राठौड़ जिस तरह राजे से दूरियाँ बनाते हुए पूनिया से नज़दीकियाँ बना रहे हैैं, उसे देखते हुए लगता है कि राठौड़ को समझ में आ गया है कि अब राजस्थान में वसुंधरा राजे युग का तकरीबन अन्त हो गया है। सूत्र इस बात को यह कहते हुए पुख्ता करते हैंं कि जिस समय राज्यसभा के चुनाव हो रहे थे, राठौड़ ने वसुंधरा का स्वागत करने की बजाय संगठन की मीटिंग में जाने को प्राथमिकता दी। ज़ाहिर है उन्होंने अपने इरादे साफ कर दिये। बहरहाल सूत्रों की मानें तो चेहरे में बदलाव के सारे पत्ते संघ (आरएसएस) खेल रहा है।

वैसे भी वसुंधरा सरकार का पतन जिस ड्रामाई अंदाज़ में हुआ, उसको लेकर किसी को भी हैरत नहीं होनी चाहिए। क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें काफी समय से नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। दरअसल वसुंधरा ने जिस निष्ठुरता से राज्य में शासन चलाया और पार्टी आलाकमान को कड़ुवा संकेत भी दे दिया कि न तो वह किन्हीं मुद्दों पर ढीली पड़ेंगी और न ही अपना ताज किसी को छीनने देंगी; उससे उनके खिलाफ हवा बनाने में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को आसानी हुई। फिलहाल केंद्रीय नेतृत्व की यह ठण्डी रणनीति है कि केंद्रीय मंत्री बनाकर इनकी जगह नये नेताओं को बिठाकर नयी पौध तैयार की जाए। इस नयी पौध में जोधपुर से सांसद और केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत का चेहरा झिलमिलाने भी लगा था, किन्तु बाद में उसकी जगह पूनिया ने ले ली। बहरहाल समस्या सिर्फ वसुंधरा राजे को लेकर है। अव्वल तो संघ का शीर्ष नेतृत्व ही यह कहते हुए राजे के विरोध में है कि राजे आरएसएस की परम्पराओं और संस्कृति के अनुकूल नहीं हैं; इसलिए उन्हें साथ लेकर लुढ़कने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता? इस बात को गहराई से समझें तो लोकसभा चुनावों से ठीक पहले राजस्थान समेत पाँच राज्यों की पराजय से संघ की बेचैनी बढ़ गयी थी। वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश कुमावत ने इसका बड़ा कारण गिनाते हुए कहा कि सत्ता में रहते हुए जिस तरह संघ की शाखाओं के विस्तार को लेकर पंख लगे थे, आइंदा उनकी परवाज़ को लगाम लग सकती है। ऐसे में संघ क्यों वसुंधरा पर फिर से दाँव खेलने को तैयार होगा? सूत्र कहते हैं कि भाजपा नेतृत्व राजस्थान में चेहरे में बदलाव के साथ संगठन की खामियाँ दूर कर पार्टी को पटरी पर लाने की जद्दोजहद में है। लेकिन विश्लेषकों का सवाल है कि जब शीर्ष नेतृत्व के गेंदबाज़ वसुंधरा का स्टम्प चटखाने की कोशिश करेंगे, तो क्या वह संयम बनाये रख सकेंगी? विश्लेषकों का कहना है कि चुनावी नतीजों को देखें, तो वसुंधरा बिल्कुल फिसड्डी नहीं रहीं। उनका प्रदर्शन भाजपा नेतृत्व को सोचने को मजबूर कर सकता है कि विरोधी माहौल के बावजूद उन्होंने 73 सीटें झटक लीं। कम-से-कम पार्टी का सूपड़ा साफ तो नहीं हुआ। विश्लेषकों का कहना है कि शेखी में सत्ता गँवा चुकीं राजे के सामने अब अपनी साख बचाने का सवाल है। राजे इन दिनों दिल्ली में हैं और जिस तरह पार्टी नेताओं से मिल-जुल रही है; लेकिन वह बेबस तो कतई नज़र नहीं आ रहीं। यानी इस कदर सहज है, जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। उनके सियासी मिज़ाज को लेकर भाजपा के ही एक कद्दावर नेता का तो यहाँ तक कहना है कि वसुंधरा राजे जब भी चुनौतियों से दो-चार होती हैं, तो हमेशा लोकतांत्रिक होती हैं, और जब वह सत्ता में होती हैं, तो उनका अहंकारी और निरंकुश चेहरा साफ नज़र आता है। विश्लेषक उनके अतीत को खंगालते हुए एक बात तो साफ कहते हैं कि उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता। राजनीतिज्ञों का कहना है कि अगर वसुंधरा को किनारे किया गया, तो वह थर्ड फस्र्ट (तीसरे को पहला) बनाने से गुरेज़ नहीं करेगी।

वसुंधरा राजे ने भाजपा की मुश्किलों में जो इज़ाफा किया, वो आज भी यथावत् है। उन्होंने ऐलानिया तौर पर कह दिया है कि पार्टी उपाध्यक्ष पद के दायित्व का तो मैं निष्ठापूर्वक निर्वहन करूँगी, लेकिन राजस्थान नहीं छोड़ूँगी। उन्होंने बहुचॢचत मायड़ भाषी कहावत में अपनी मंशा पिरोते हुए साफ कह दिया था- ‘मेरी डोली राजस्थान में आयी थी और अर्थी भी यहीं से जाएगी।’ वसुंधरा राजे को पार्टी संगठन में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाये जाने के बाद यह कयास लगाये जा रहे थे कि राजस्थान की राजनीति में उनका दखल कम हो जाएगा। लेकिन पिछले कुछ दिनों से उलटफेर कर दिये जा रहे उनके बयानों ने ‘उडि़ जहाज़ का पंछी, उडि़ जहाज़ पर आवे’ की उक्ति चरितार्थ करते हुए बेशुमार सवालों का गुबार छोड़ दिया है। राजनीतिज्ञों का कहना है कि राजस्थान में राजनीतिक संगति का यह संयोग मुश्किल ही बन पायेगा। राजनीतिज्ञ इसे यह कहकर तर्कसंगत नहीं बताते कि जिस सूबे में भाजपा का अर्थ ही वसुंधरा है, वहाँ पार्टी नेतृत्व कूटनीतिक करवट कैसे ले पायेगा?

हालाँकि राज्य में समग्र बदलाव का खाका खींचने के लिए केंद्रीय नेतृत्व ने राजे को विकल्प भी दिया था कि आम चुनाव जीतने के बाद विधानसभा सीटों से इस्तीफा दिलाकर उनके बेटे दुष्यंत को चुनाव लड़वाया जाए, ताकि राज्य की सियासत में युवा सक्रिय भूमिका निभा सके। लेकिन राजे ने केंद्रीय नेतृत्व के दाँव पर खेलने से साफ इन्कार कर दिया। राजे लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए इसलिए भी तैयार नहीं थीं कि इससे उनके बेटे दुष्यंत की उम्मीदवारी खतरे में पड़ जाएगी, जो तब झालावाड़ से सांसद थे। राजे के निकटवर्ती सूत्रों का कहना है कि वह इस व्यवस्था के पीछे छिपा संदेश पढ़ चुकी थीं। उन्होंने इस बात को भी समझ लिया था कि उन्हें सियासत की किस धुरी पर स्थापित किया जाएगा? सूत्र कहते हैं कि राजे ने इस मुद्दे पर भी नाराज़गी भरी चुप्पी साध रखी है कि उन्हें पार्टी संगठन में उपाध्यक्ष का ओहदा तो बख्श दिया; लेकिन लोकसभा चुनावों के लिए बनायी गयी 17 समितियों में से उन्हें एक में भी जगह नहीं दी गयी? भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व राजे के बदलते तेवर देख तो पा रहा है; लेकिन उनके पैंतरों को पकड़ नहीं पा रहा है।

कौन होगा भाजपा का हिमाचल प्रदेश अध्यक्ष?

हिमाचल प्रदेश में भाजपा का संकट खत्म नहीं हो रहा। बहुत विवादित तरीके से वरिष्ठ नेता राजीव बिंदल की प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पद से विदाई के बाद अब नये अध्यक्ष की तलाश की जा रही है। लेकिन जो भी नाम सामने आ रहे हैं, उन पर कोई-न-कोई गुट विरोध जता रहा है। यदि भाजपा जल्दी ही नया अध्यक्ष नहीं चुनती है, तो निश्चित ही भाजपा की भीतरी लड़ाई बढ़ती जाएगी।

हाल में कुछ नाम सामने आये हैं; लेकिन उन पर  सहमति नहीं बन पा रही है। प्रदेश में भाजपा की सरकार अपना आधा कार्यकाल पूरा कर चुकी है और विधानसभा चुनाव से पहले संगठन को सक्रिय करने के लिए उसे अध्यक्ष और नयी टीम की सख्त ज़रूरत है। बिंदल की अध्यक्ष पद से विदाई जिन हालात में हुई, उससे प्रदेश में भाजपा को झटका लगा है।  अभी तक प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पद के लिए जो नाम सामने आये हैं, उनमें दो-तीन ही हैं जिनके लिए सम्भावनाएँ दिख रही हैं। इन में केंद्रीय राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर, हाल में राज्य सभा के लिए चुनी गयीं इन्दु गोस्वामी और वरिष्ठ नेता रणधीर शर्मा शामिल हैं। चूँकि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर राजपूत वर्ग से हैं, लिहाज़ा माना जा रहा है कि किसी ब्राह्मण को अध्यक्ष का ज़िम्मा मिलने की अधिक सम्भावना है। भाजपा के जानकारों की मानें, तो राज्यसभा सदस्य इन्दु गोस्वामी हिमाचल प्रदेश भाजपा की नयी अध्यक्ष बनायी जा सकती हैं। उनके चयन की सम्भावना के तीन मज़बूत कारण हैं। पहला, वह महिला हैं। आज तक प्रदेश भाजपा में कभी कोई महिला प्रदेश अध्यक्ष पद पर नहीं रही है। उनका पुराना रिकॉर्ड बहुत साफ-सुथरा रहा है। उनके किसी गुटबाज़ी में फँसने की भी कभी कोई ज़्यादा चर्चा नहीं रही, भले उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के करीब माना जाता रहा है।

इन्दु के पक्ष में दूसरा सबसे बड़ा और बहुत मज़बूत कारण यह है कि वह काँगड़ा ज़िले से हैं, जो हिमाचल प्रदेश में सबसे बड़ा ज़िला है और विधानसभा की सबसे ज़्यादा सीटें इसी ज़िले में हैं। कभी पूर्व मुख्यमंत्री शान्ता कुमार का ज़िले में खासा प्रभाव था; लेकिन समय के साथ शान्ता अपना प्रभाव खो चुके हैं। दूसरा पिछले लोकसभा चुनाव में टिकट न मिलने के बाद उनकी उतनी प्रासांगिकता अब उतनी नहीं रह गयी। भाजपा को वैसे भी काँगड़ा ज़िले में एक मज़बूत नेता की ज़रूरत रही है।  खासकर शान्ता की सक्रिय राजनीति से विदाई के बाद ऐसे में इन्दु भाजपा के लिए सशक्त चेहरा हो सकती हैं। उन्होंने भाजपा के कमोवेश सभी संगठनों से अभी तक का रास्ता नापा है, जिससे उनकी संगठन पर पकड़ भी अच्छी है। भाजपा में यह आम धारणा है कि प्रधानमंत्री मोदी जब हिमाचल भाजपा के अध्यक्ष थे, उस समय भी वह इन्दु के संगठन के प्रति समर्पण और मेहनत से काफी प्रभावित थे। हालाँकि इन्दु उस समय भाजयुमो और फिर महिला मोर्चा जैसे संगठनों से जुड़ी थीं। आज भी वह मोदी की करीबी मानी जाती हैं।  ऐसा माना जाता है कि काँगड़ा की राजनीती में पूर्व मुख्यमंत्री शान्ता कुमार इन्दु गोस्वामी के सबसे बड़े विरोधी रहे हैं; जबकि पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल का उन्हें मज़बूत समर्थन रहा है। ऐसे में यदि इन्दु के पक्ष को देखा जाए, तो वो मज़बूत लगता है। धूमल और केंद्रीय राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर के अलावा प्रधानमंत्री जयराम ठाकुर भी इन्दु के हक में रहेंगे, भले जयराम अपने किसी समर्थक को यह पद दिलवाने की कोशिश में रहे हैं। चूँकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा भी हिमाचल से ही हैं, उनकी राय भी बहुत महत्त्व रखती है। राजीव बिंदल, जिन्हें दो महीने पहले पीपीई किट खरीद में रिश्वत-कांड मामले में उँगलियाँ उठने के बाद प्रदेशाध्यक्ष पद छोडऩा पड़ा था; नड्डा की ही पसन्द थे। यह भी खबरें रही हैं कि बिंदल को ही दोबारा अध्यक्ष बना दिया जाए। लेकिन पार्टी की छवि को इससे नुकसान हो सकता है; ऐसा भाजपा के ही कई नेता मानते हैं। चर्चा है कि उन्हें पीपीई किट के लिए रिश्वत-कांड में क्लीट चिट दे दी गयी है। लेकिन अगर आम राय की बात आएगी, तो इन्दु गोस्वामी के लिए रास्ता शायद आसान रहेगा।

उनका तीसरा मज़बूत पक्ष उनका ब्राह्मण होना है। मुख्यमंत्री जयराम राजपूत समुदाय से हैं; लिहाज़ा माना जा रहा है भाजपा किसी ब्राह्मण या ओबीसी (पिछड़े वर्ग) नेता को अध्यक्ष पद से सकती है। वैसे जेपी नड्डा भी भी ब्राह्मण हैं; लेकिन प्रदेश की राजनीति का संतुलन साधने के लिए इन्दु भाजपा के लिए तुरुप का पत्ता साबित हो सकती हैं। अभी तक की खबरों के मुताबिक, भाजपा आलाकमान उनके नाम पर सहमत है। हालाँकि चर्चा के सभी रास्ते खुले रखे गये हैं। इन्दु के नाम को हाल ही में तब हवा मिली थी, जब पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने एक ट्वीट करके उन्हें बधाई और शुभकामनाएँ दे दी थीं। हिमाचल प्रदेश भाजपा ने जब इसे लेकर अनभिज्ञता जतायी, तो विजयवर्गीय ने फिर ट्वीट करके इसे अपनी टीम की चूक का नतीजा बताया और कहा अभी ऐसी कोई नियुक्ति नहीं हुई है। इस ट्वीट में उन्होंने पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा और केंद्रीय राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर को भी टैग किया था। लेकिन राष्ट्रीय महासचिव के ट्वीट के बाद इन्दु की नियुक्ति को पक्का माना जा रहा है। इन्दु यह चर्चा सामने आने मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर से राज्य सचिवालय में मिल चुकी हैं। काँगड़ा ज़िले के पालमपुर हलके के विकास को लेकर इन्दु काफी सक्रिय रहती हैं। उन्हें 2017 में भाजपा ने विधानसभा का टिकट दिया था; लेकिन उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा था। आरोप लगाया जाता है कि पूर्व मुख्यमंत्री शान्ता कुमार ने उनकी हार में कथित तौर पर मुख्य भूमिका निभायी थी।

इन्दु गोस्वामी का करियर देखें, तो करीब 30 साल से वह सक्रिय राजनीति में हैं। भाजपा युवा मोर्चा से राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने वाली इन्दु 1999 में पहली बार प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व में बनी भाजपा-हिविकां सरकार में हिमाचल प्रदेश महिला आयोग की अध्यक्ष रह चुकी हैं। पार्टी में और भी कई वरिष्ठ पदों के बाद 2016 में भाजपा महिला मोर्चा की प्रदेश अध्यक्ष बनीं। गोस्वामी विधानसभा चुनावों में महिलाओं को अधिक-से-अधिक टिकट दिये जाने की पैरवी करती रही हैं। इसकी नतीजा था कि भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश में 10 फीसदी टिकट महिलाओं को दिये थे। जहाँ तक रणधीर शर्मा की बात है, प्रदेश भाजपा की राजनीति में उन्हें एक तेज़-तर्रार नेता माना जाता है। संगठन के प्रति समर्पित रहे रणधीर शर्मा पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के करीबी रहे हैं। दो बार विधायक रहे रणधीर शर्मा का नाम इस साल के शुरू में तब भी सामने आया था, जब सतपाल सत्ती लम्बे समय तक अध्यक्ष रहकर बाहर जाने वाले थे। लेकिन राजीव बिंदल को उन पर तरजीह दी गयी थी। भाजपा के भीतर युवा तुर्क कहे जाने वाले अनुराग ठाकुर केंद्र में राज्य मंत्री हैं; लिहाज़ा उनके प्रदेश अध्यक्ष बनने की सम्भावना कम ही लगती है। मंत्री के रूप में उनका काम संतोषजनक रहा है। इसके अलावा अनुराग प्रदेश भाजपा की राजनीति में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं। चौथी बार सांसद चुने गये अनुराग का नाम कई बार प्रदेश के भविष्य के मुख्यमंत्री के रूप में भी लिया जाता है। इनके अलावा त्रिलोक जम्बाल का नाम भी चर्चा में रहा है।

आंतरिक लड़ाई

देश में भाजपा का ज़िम्मा सँभाल रहे जे.पी. नड्डा को अपने गृह प्रदेश हिमाचल में ही पिछले लम्बे समय से आंतरिक लड़ाई देखनी पड़ी है। उनके प्रदेश अध्यक्ष बनाये वरिष्ठ नेता राजीव बिंदल को एक बेहद विवादित मामले के बाद जून में इस्तीफा देना पड़ा और लगातार बड़े नेताओं की लड़ाई की घटनाएँ खुलेआम हो रही हैं। बिंदल के इस्तीफे से प्रदेश में भाजपा को शर्मनाक स्थिति से दो-चार होना पड़ा। इससे नड्डा को भी असहज स्थिति का सामना करना पड़ा।

हिमाचल भाजपा में जंग कोई नयी चीज़ नहीं है। कई दशक से यहाँ भाजपा गुटों में बँटी रही है। शान्ता कुमार-जगदेव चन्द, शान्ता कुमार-प्रेम कुमार धूमल जैसे बड़े नेताओं की लड़ाई के अलावा अन्य नेताओं में भी जमकर कलह होता रहा है। हिमाचल भाजपा के लिए यह भी एक सम्मान की बात रही है कि आज देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करीब तीन साल तक प्रदेश भाजपा के प्रभारी रहे हैं। भाजपा की राजनीति 2017 में तब बदली, जब वरिष्ठ नेता और उस साल हुए विधानसभा के चुनाव में भाजपा की नैया पार लगाने वाले प्रेम कुमार धूमल खुद अपनी सीट से हार गये। आरोप लगा कि उनकी हार के पीछे भाजपा के भीतर के ही कुछ कारण हैं। धूमल मुख्यमंत्री बनने की देहरी पर ठिठक गये और मौका मिल गया अपेक्षाकृत युवा जयराम ठाकुर के। यह माना जाता है कि उसके बाद प्रदेश भाजपा की राजनीति में काफी बदलाव आया है। हिमाचल के ही जेपी नड्डा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हो गये हैं। शान्ता कुमार चुनावी राजनीती से तो बाहर हो गये। लेकिन भाजपा की प्रदेश की राजनीति में दाँवपेच खेलते रहते हैं। शान्ता कुमार को लेकर कहा जाता है कि वह धूमल को पसन्द नहीं करते; क्योंकि 1989 में पार्टी ने उनकी जगह धूमल को मुख्यमंत्री पद के लिए तरजीह दी। तब मोदी ही प्रदेश भाजपा के प्रभारी थे। जयराम 2017 में मुख्यमंत्री तो बन गये, लेकिन उनका अपना कोई मज़बूत गुट कभी नहीं बन पाया। इसका कारण यह नहीं कि जयराम ऐसा नहीं चाहते थे। वह तो चाहते थे, लेकिन प्रदेश भाजपा में वे एक नेता के नाते ऐसी छवि ही नहीं बना पाये, जो उन्हें एक निर्विवाद नेता की हैसियत में ला दे। उनके साथ आज जो भी नेता या पार्टी के लोग हैं, वे सिर्फ इसलिए हैं कि वह मुख्यमंत्री हैं। हाँ, उनके कुछ कट्टर समर्थक पहले से ज़रूर उनके साथ हैं। जयराम ने 2019 में कोशिश की थी कि उनकी मर्ज़ी का कोई प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बन जाए। लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाये। उनसे पहले प्रेम कुमार धूमल का कद इतना बड़ा था कि वह आलाकमान से अपनी बात मनवा लेते थे। जैसे उन्होंने सतपाल सत्ती को प्रदेश अध्यक्ष बनवाकर किया था। सत्ती धूमल के कट्टर समर्थक हैं; लेकिन वह संगठन में भी माहिर हैं। उनके नेतृत्व में भाजपा 2017 में सत्ता में आयी और 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने चारों सीटें बड़े अन्तर से जीतीं। सत्ती के कार्यकाल के बाद बाद जब इस साल के शुरू में प्रदेश का नया भाजपा अध्यक्ष चुनने की बारी आयी तो जयराम अपने व्यक्ति को नहीं बैठा पाए। ताकतवर नड्डा राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके थे और वह चाहते थे कि उनकी ही पसन्द का प्रदेश अध्यक्ष उनके गृह राज्य में हो। उन्होंने राजीव बिंदल को चुना, जो धूमल का साथ छोड़कर उनके साथ आ चुके थे। उस समय बिंदल विधानसभा अध्यक्ष थे और 2007 में वह धूमल सरकार में स्वास्थ्य मंत्री भी रह चुके थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि बिंदल तेज़तर्रार हैं; लेकिन सच यह भी है कि बिंदल यदा-कदा विवादों में घिरते रहे हैं। वह नड्डा के आशीर्वाद से प्रदेश अध्यक्ष तो बन गये, लेकिन कुर्सी ज़्यादा दिन तक नहीं सँभाल पाये और मई में एक विवाद में उलझने के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इस्तीफा देते हुए बिंदल ने कहा कि वह नैतिकता के नाते इस्तीफा दे रहे हैं और जल्दी ही खुद को निर्दोष साबित कर देंगे। लेकिन उनके कहने के 24 घंटे के भीतर ही नड्डा ने उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया।

बिंदल का विवाद

स्वास्थ्य महकमे में पीपीई किट खरीद के विवाद के बाद बिंदल के इस्तीफे से भाजपा और राज्य की राजनीति में खासा बवाल उठ चुका है। कांग्रेस भाजपा पर हमले पर हमला कर रही थी। बिंदल ने 27 मई को त्याग-पत्र पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के पास भेजा, जिसे तत्काल ही स्वीकार कर लिया गया। दरअसल हिमाचल के स्वास्थ्य विभाग के निदेशक अजय गुप्ता की एक व्यक्ति के साथ ऑडियो रिकॉॄडग वायरल हो गयी थी, जिसमें पाँच लाख रुपये के लेन-देन की बात थी।

मामले ने इतना तूल पकड़ा कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को तत्काल विजिलेंस जाँच के आदेश देने पड़े। उन दोनों व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया गया, जो बातचीत में कथित रूप से शामिल थे। बातचीत में स्वास्थ्य विभाग में कथित खरीद को लेकर किसी काम की एवज में लेनदेन और किसी बड़े नेता की बात थी। ऑडियो सामने आते ही हंगामा मचना स्वाभाविक था और विपक्षी कांग्रेस ने इसके पीछे बड़े नेता के इस्तीफे की माँग उठा दी।

बड़े नेता के रुप में इस्तीफे की माँग का इशारा दरअसल अपरोक्ष रूप से बिंदल की तरफ था। बिंदल के खिलाफ इस कथित मामले में फिलहाल न तो कोई सीधा आरोप है, न कोई सबूत। लेकिन नैतिकता के आधार पर उनके इस्तीफे देते ही कई सवाल ज़रूर खड़े हो गये। फिलहाल मामले की जाँच चल रही है; लेकिन यह सवाल ज़रूर उठ रहा कि यदि आपका मामले से कुछ लेना-देना ही नहीं था, तो इस्तीफा क्यों दिया? और फिर आलाकमान ने इसे मंज़ूर करने में इतनी जल्दी क्यों दिखायी? बिंदल के इस्तीफे से हिमाचल भाजपा में बवाल मच गया। विपक्षी कांग्रेस ने मामला हाथोंहाथ लपका और भाजपा पर एक साथ कई हमले कर दिये। हिमचाल विधानसभा में विपक्ष के नेता मुकेश अग्निहोत्री ने भाजपा सरकार और भाजपा पर ज़ोरदार हमला बोला। अग्निहोत्री ने कहा कि इसकी पूरी जाँच किसी सिटिंग जज से करवानी चाहिए। कोरोना वायरस से फैली माहमारी के बीच प्रदेश भाजपा सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार कड़ी निंदा का विषय है। इस संकट की घड़ी में रिश्वत लेने के आरोप में स्वास्थ्य निदेशक की गिरफ्तारी से साफ है कि इसके तार सीधे भाजपा के बड़े नेताओं से जुड़े हैं।

अग्निहोत्री ने यह भी कि बिंदल का इस्तीफा भाजपा की अंतर्कलह का नतीजा है। मामले से लोगों का ध्यान हटाने के लिए यह असफल कोशिश की गयी है। नेता प्रतिपक्ष ने कहा कि स्वास्थ्य विभाग में कोरोना किट्स, वेंटिलेटर, मास्क, सेनेटाइजर और पीपीई जैसे आवश्यक उपकरणों की आपूर्ति को लेकर रिश्वत और प्रदेश सचिवालय में सेनेटाइजर की आपूर्ति घोटाले ने भाजपा की कथित ईमानदारी की पूरी पोल खोल दी है। पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने भी कहा कि उनके 60 साल के राजनीतिक करियर में उन्होंने कभी कोई ऐसा दौर नहीं देखा, जब ऐसी विपदा के समय कोई राजनीतिक दल संगीन भ्रष्टाचार के आरोप में संलिप्त पाया जाए। प्रदेश सरकार चुनौतियों से निपटने में पूरी तरह असफल साबित हो रही है। इस प्रकरण के बाद प्रदेश भाजपा और सरकार में विभिन्न धड़ों में खेमेबाजी सामने आ गयी है। बिंदल भाजपा के सत्ता में आने के बाद से ही बाद विधानसभा अध्यक्ष थे। उन्हें जब प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बनाया गया, तो वरिष्ठ विधायक और कैबिनेट मंत्री (स्वास्थ्य मंत्री) विपिन परमार को विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया। उनके खाली किये स्वास्थ्य मंत्रालय का ज़िम्मा मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के पास आ गया और जब ऑडियो-कांड सामने आया, जयराम के पास ही स्वास्थ्य महकमा था।

मई में ऑडियो क्लिप वायरल हुई और निदेशक और बातचीत करने वाले पर मामला दर्ज कर लिया गया। दिलचस्प बात तब हुई, जब निदेशक की पत्नी ने आरोप लगा दिया कि उनके पति को मोहरा बनाया गया है और अन्य अधिकारियों पर मामला नहीं बनाया गया। इस सारे मामले के बीच बिंदल ने इस्तीफा दे दिया। आरोप है कि ऑडियों में जिस अधिकारी (निदेशक) की दूसरे व्यक्ति से बातचीत है, वह कथित तौर पर भाजपा के बड़े नेता के रिश्तेदारों के सम्पर्क में था। बिंदल का इस्तीफा होते ही प्रदेश भाजपा की जंग खुले में आ गयी। काँगड़ा में पार्टी नेताओं की एक बैठक हुई, जिसके बाद हंगामा खड़ा हो गया।

इस बैठक में सांसद किशन कपूर भी शामिल थे। कुछ विधायकों ने इन नेताओं के खिलाफ कार्रवाई की माँगकर दी। यह जंग अभी जारी है। फिलहाल नये भाजपा अध्यक्ष पद के लिए पार्टी नेताओं में जंग जारी है। जयराम फिर सक्रिय हैं और चाहते हैं कि उनकी पसन्द पर आलाकामन मुहर लगा दे। मंत्रिमंडल में खाली पद भी भरे जाने हैं। बोर्डों-निगमों पर भी हारे-जीते नेताओं की नज़र है। विभिन्न धड़े अपना-अपना ज़ोर लगा रहे हैं। काँगड़ा में महिला मोर्चा की पूर्व अध्यक्ष इन्दु गोस्वामी भी राज्य सभा के लिए चुने जाने के बाद ताकतवर हो गयी हैं।

अब चर्चा यह भी है कि राजीव बिंदल को क्लीन चिट देने की तैयारी कर ली गयी है। ऐसा होता है तो उन्हें मंत्री पद भी दिया जा सकता है। प्रदेश अध्यक्ष की दौड़ में उन्हें उनके समर्थक दोबारा ज़रूर बता रहे हैं; लेकिन शायद भाजपा ऐसा न करे।

सख्त नाराज़ हैं रमेश धवाला

वरिष्ठ नेता, चार बार के विधायक और तीन बार कैबिनेट मंत्री रहे रमेश धवाला हिमाचल भाजपा की जंग में नये केंद्र बन गये हैं। भाजपा के काँगड़ा ज़िले के विधायकों में उठा घमासान मुख्यमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा की बातचीत के बाद ठण्डा ज़रूर दिख रहा है; लेकिन भीतर नहीं भीतर कहीं चिंगारी भड़क रही है। मुख्यमंत्री के सरकारी आवास ओकओवर में रमेश धवाला के साथ प्रधानमंत्री की मंत्रणा हुई थी और सारे विवाद पर चर्चा हुई थी। दरअसल अपने हलके में हस्तक्षेप से धवाला सख्त नाराज़ हैं। विधायक धवाला ने पार्टी महामंत्री पवन राणा के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है। उनका आरोप है कि उनके ही नहीं, बल्कि काँगड़ा के मामलों में उनका हस्तक्षेप कुछ ज़्यादा ही है। विधायक की स्थिति इससे कमज़ोर हो रही है, जिससे उन्हें अगले चुनावों में मुश्किल आ सकती है। धवाला की  मुख्यमंत्री के साथ बैठक में सभी माँगों और शिकायतों को सुना गया। मुख्यमंत्री को धवाला की शिकायतें सुनने के बाद उन्हें भरोसा देना पड़ा कि भविष्य में उनके हलके के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं होने दिया जाएगा और खुद मुख्यमंत्री उनके हलके के कामों की निगरानी करेंगे। बैठक के दौरान ही राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा से भी बात की गयी। उन्होंने भी धवाला को भरोसा दिया और कहा कि पार्टी के भीतर की बातों को आलाकामन या मुख्यमंत्री के समक्ष ही रखा जाए। इसे किसी भी रूप में सार्वजनिक मंच पर न लाया जाए। कहते हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री शान्ता कुमार के साथ भी इस मसले पर चर्चा हुई, जो कभी धवाला के मेंटर रहे हैं। धवाला की ज्वाला के बाद भले केंद्रीय दबाव में काँगड़ा के भाजपा विधायकों ने बोली बदल ली हो, पार्टी के भीतर चिंगारी सुलग रही है। अपने बूते नेता बने धवाला ओबीसी नेता हैं। लेकिन पिछले कुछ समय में उन्हें राजनीतिक स्तर पर दिक्कतें झेलनी पड़ी हैं। वह 2017 में भाजपा के सरकार बनने के बाद मंत्री बनना चाहते थे; लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। सरकार के अब ढाई साल ही बचे हैं; लिहाज़ा धवाला का धैर्य जवाब देता जा रहा है। ऊपर से विरोधी उनके नाक में दम किये हुए हैं। विपक्षी कांग्रेस मौके का फायदा उठाकर धवाला की ङ्क्षचगारी को हवा दे रही है। विधायक और युवा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष विक्रमादित्य सिंह ने धवाला का समर्थन करते हुए कहा कि सरकार में उनकी अनदेखी की जा रही है। एक विधायक की इस तरह अनदेखी करना उचित नहीं है। भाजपा सरकार में चुने लोगों को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है और लोगों के बीच न रहने वालों को तवज्जो दी जा रही है। इसका नुकसान काँगड़ा की जनता को झेलना पड़ रहा है। उधर भाजपा के वरिष्ठ विधायक नूरपुर के राकेश पठानिया संगठन और सरकार में तकरार की खबरों को गलत बताते हैं। पठानिया का कहना है कि काँगड़ा भाजपा में सब कुछ ठीकठाक है, वहाँ कोई सियासी विस्फोट नहीं हो रहा। संगठन मंत्री पवन राणा हमारे सम्मानीय नेता हैं। हालाँकि मामला इतनी जल्दी खत्म होने वाला नहीं दिखता। ज्वालामुखी मंडल भाजपा के अध्यक्ष मानचंद राणा की अध्यक्षता में पार्टी पदाधिकारियों ने विधायक रमेश धवाला के खिलाफ अशोभनीय टिप्पणी करने वालों के खिलाफ पुलिस में मामला दर्ज करवा दिया। कहा जाता है कि धवाला से आलाकामन ने एक खेद पत्र लिखवाया है, जिसमें धवाला ने भावुकता में कही बातों के लिए माफी माँगी है। हालाँकि सच यह है कि यदि ऐसा हुआ, तो धवाला इससे और क्रोधित हुए होंगे। उनके समर्थक महसूस कर रहे हैं कि इस ओबीसी नेता को किनारे लगाने की कोशिश हो रही है और पार्टी को यह चीज़ महँगी पड़ेगी।

वर्चस्व के लिए जद्दोजहद शिरोमणि अकाली दल विभाजित

पंजाब की राजनीति में हाशिये पर बैठे अकाली दल में हलचल शुरू हो गयी है। वरिष्ठ अकाली नेता सुखदेव सिंह ढींढसा ने मूल पार्टी शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के नाम से ही पार्टी का ऐलान कर दिया है। अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने घोषणा कर दी कि उनका दल असली शिअद है, जहाँ पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था होगी। मूल शिअद को वह बादल परिवार नियंत्रित ऐसा दल बता रहे हैं, जहाँ संगठन और सरकार में उनका ही दबदबा रहेगा।

 अब सवाल यह कि ढींढसा के असली शिअद के दावे में कितना दम है। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति और वर्ष 2022 में प्रस्तावित विधानसभा चुनाव में दल के दम का पता चल जाएगा। अकाली दल में पहले भी विभाजन होते रहे हैं; लेकिन कोई भी दल सफल नहीं हो सका है। मूल पार्टी से अलग हुए नेताओं ने दल ज़रूर बनाये; लेकिन जनाधार बनाने में असफल रहे। रविंदर सिंह के नेतृत्व वाला शिरोमणि अकाली दल (1920) और रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा की अध्यक्षता वाला शिरोमणि अकाली दल (टकसाली) तो इसके ताज़ा उदाहरण है। पार्टी से निष्कासन के बाद ढींढसा की नज़दीकी ब्रह्मपुरा से रही। पहले ढींढसा के उनके साथ जाने की अटकलें थीं; लेकिन उपेक्षित नेताओं के समर्थन के बाद वे अलग दल बनाने को तैयार हो गये।

उनके विद्रोही तेवरों को देखते हुए पार्टी से निष्कासन की अटकले काफी समय से थी; क्योंकि पार्टी अध्यक्ष सुखबीर बादल से उनकी बन नहीं पा रही थी। वह अध्यक्ष के तौर पर उनको मन से स्वीकार नहीं कर पाये। उन्हें ही क्या पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को यह गवारा नहीं था; लेकिन अनुशासनहीनता के चाबुक के डर से कोई विरोध करने को तैयार नहीं हुए। पर ढींढसा ने हिम्मत की, जिसका नतीजा उन्हें पार्टी से बेदखल होकर चुकाना पड़ा; लेकिन उन्हें इसका कोई अफसोस नहीं है। वह कहते हैं कि बादल नियंत्रित शिअद अब दल नहीं, बल्कि परिवार की जागीर जैसा है। जहाँ राजनीति इतनी संकुचित स्वार्थ वाली हो जाए, वहीं नीतियों और आदर्श की बात करना बेमानी जैसा है।

सवाल यह है कि उन्होंने सुखबीर को उप मुख्यमंत्री या फिर पार्टी अध्यक्ष बनाने के समय कोई विरोध नहीं किया। तब एक मायने में उनकी भी सहमति भी रही होगी। बाद में राजनीति के समीकरण बदलने लगे, वरिष्ठ नेता अपने को उपेक्षित महसूस करने लगे, तो उन्होंने दल में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम करने का प्रयास किया। धीरे-धीरे पार्टी नेतृत्व ने उनकी उपेक्षा शुरू कर दी, जिसका उन्हें काफी कुछ अंदाज़ रहा भी होगा।

चूँकि बादल परिवार की पार्टी पर पूरी पकड़ है। पहले दल पर प्रकाश सिंह बादल का नियंत्रण रहा बाद में उन्होंने बेटे को अध्यक्ष पद सौंप दिया था। प्रकाश सिंह बादल ने मुख्यमंत्री रहते बेटे सुखबीर को आगे बढ़ाने का काम जारी रखा। पिता मुख्यमंत्री और बेटा उप मुख्यमंत्री और बाद में पूरी तरह से पार्टी की कमान उन्हें सौंप दी। दल में सुखबीर सिंह बादल के बढ़ते कद और रुतबे से कई वरिष्ठ अकाली नेता खुश नहीं थे; लेकिन किसी ने खुलेआम विरोध करने का साहस नहीं जुटाया। ढींढसा के मतभेद पार्टी नीतियों और वैचारिक से ज़्यादा बादल परिवार के कब्ज़े को लेकर थे।

पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे और वर्तमान में राज्यसभा के सदस्य ढींढसा पार्टी नेतृत्व के खिलाफ खुलकर आ गये। उन्हें इसके नतीजे का भी पता था, पर वह इसके लिए बिल्कुल तैयार थे। बगावत के सुर बुलंद करने से पहले उन्हें पता था कि ऐसा होगा। उन्हें अपना ही नहीं, बल्कि अपने बेटे परमिंदर सिंह के राजनीतिक भविष्य को भी देखना था। शिअद सरकार में परमिंदर ढींढसा वित्तमंत्री रह चुके हैं। पिता के विद्रोही तेवरों के बावजूद परमिंदर उनके साथ खुले तौर पर सामने नहीं आये। वह दल की बैठकों में आने से भी परहेज़ करने लगे। लगने लगा था कि आिखरकार वह भी पिता के साथ ही जाएँगे।

पार्टियों में अक्सर विभिन्न मुद्दों पर विभाजन होते रहते हैं। इनमें निजी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा से लेकर पार्टी नीतियों का कारण रहता है। उम्र के आठवें दशक में चल रहे ढींढसा की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा अगर अब उबाल मार रही है, तो इसे क्या कहें? वे पार्टी में लोकतंत्र व्यवस्था के ज़बरदस्त हिमायती के तौर पर आवाज़ बुलंद कर रहे हैं। उन्हें जितना समर्थन मिलना चाहिए था, फिलहाल तो नज़र नहीं आता। उनकी नयी पार्टी की नीतियाँ भी कमोबेश मूल शिअद जैसी ही हैं। वह पंजाब और पंजाबियों के हितों की बात करते हैं और यही नीति कमोबेश मूल शिअद की भी है।

ढींढसा अब जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हटाने, राज्य का दर्जा खत्म करने और नागरिकता संशोधन कानून को पार्टी नीतियों से अलग बता रहे हैं। शिअद का इन मुद्दों पर केंद्र सरकार को मूक समर्थन उन्हें ठीक नहीं लग रहा। वह इसे पार्टी नीति के बिल्कुल खिलाफ बताते हैं।

सवाल यह कि यह सब तो केंद्र में भाजपा सरकार के एजेंडे में रहे थे, जिन्हें समय आने पर पूरा करना था। ढींढसा केंद्र में वाजपेयी सरकार के दौरान मंत्री रह चुके हैं, तो क्या उन्हें तब अपनी भावनाओं से अवगत नहीं कराना चाहिए था।

ढींढसा पक्के अकाली नेता के तौर पर जाने जाते हैं। वे संगरूर से लोकसभा सदस्य भी रह चुके हैं, इस नाते क्षेत्र में उनका कुछ आधार माना जा सकता है। इससे मूल अकाली दल को कितना राजनीतिक नुकसान होगा यह कहना फिलहाल मुश्किल है, क्योंकि विस चुनाव से पहले बहुत कुछ उलटफेर होने वाला है। सम्भव है कि कई अकाली नेता ढींढसा के साथ चले जाएँ। फिलहाल पूर्व केंद्रीय मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया, दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति के पूर्व अध्यक्ष मनजीत सिंह जीके, हरियाणा सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति के अध्यक्ष दीदार सिंह नलवी और बीर देविंदर सिंह ही प्रमुख समर्थकों में है।

मूल शिअद में कोई बड़ा विभाजन होगा, इसकी सम्भावना बहुत कम जान पड़ती है। विगत में पार्टी विभाजन इसके उदाहरण के तौर पर सामने है। राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके अकाली नेता सुरजीत सिंह बरनाला का पार्टी से अलग होने के बाद राजनीतिक अस्तित्व खत्म हो गया था।

ढींढसा समर्थकों के असली शिरोमणि अकाली दल के दावे को मूल शिअद के प्रवक्ता दलजीत सिंह चीमा बचकाना कहते हैं। उनकी राय में शिअद लगभग 100 साल पुरानी पार्टी है। क्या कोई भी व्यक्ति मोहल्ला समिति जैसी बैठक करके इस पर हक जमा सकता है? यह सम्भव नहीं है, पार्टी का अलग नाम रखा जा सकता है। आपको जिस पार्टी ने पार्टी विरोधी गतिविधियों के कारण निष्कासित कर दिया गया है ।आप उसे ही चुनौती देने लगते हैं। यह दावा कानूनी तौर पर भी कहीं नहीं ठहरता। चुनाव आयोग में शिअद पंजीकृत दल है, इसका अपना चुनाव निशान है। संवैधानिक तौर पर असली शिअद होने का भ्रम पाले हुए नेताओं को जल्द ही पता चल जाएगा कि असली कौन है और नकली कौन?

यह परम्परा-सी बनी हुई है कि मूल पार्टी से छिटके हुए लोगों ने अलग नाम से पहचान बनायी; लेकिन यहाँ बात बिल्कुल उलटी ही है। वह कहते हैं कि ढींढसा उनके लिए आज भी सम्मानित व्यक्ति हैं। चाहे वह अब पार्टी में नहीं है; लेकिन असली पार्टी का बचकाना-सा दावा उनके कद को छोटा करता है। ढींढसा के समर्थकों में कोई बड़े जनाधार वाला नेता नहीं है। उनके साथ आने वाले कई नेताओं के अपने-अपने गुट हैं। ऐसे अवसरवादी लोगों के सहारे कहाँ तक सफल हो पाएँगे, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।

ढींढसा समर्थक नये दल को लेकर काफी उम्मीद लगाये बैठे हैं। उनकी राय मे सुखबीर के नेतृत्व में संगठन कमज़ोर है। कई वरिष्ठ अकाली नेता जिन्होंने दल के लिए पूरी निष्ठा से काम किया; लेकिन परिवारवाद के चलते वे आगे नहीं बढ़ पाये। ऐसे कई नेता हमारे साथ जुडऩे वाले हैं। वे पार्टी नीतियों से ज़्यादा नाखुश एक ही परिवार के दबदबे से हैं। वे कांग्रेस में गाँधी परिवार के कब्ज़े की खुलेआम निंदा करते हैं; लेकिन अपनी पार्टी में यह सब होता देख रहे हैं। बादल परिवार से इतर भी दल में नेता हैं, जिन्हें संगठन और सरकार का पूरा अनुभव है। लेकिन उन्हें मौका नहीं मिल रहा है। ऐसे उपेक्षित लोग आने वाले समय में बागी हो सकते हैं। अभी विभाजन की शुरुआत है, एक बार कारवाँ बन गया, तो लोग अपने आप ही जुड़ते जाएँगे।

आने वाले दौर में असली शिअद को लेकर कानूनी दाँव-पेच की लड़ाई शुरू होने वाली है। ढींढसा समर्थकों के इस दावे में कितना दम है? यह आने वाला समय ही बतायेगा। विधान सभा चुनाव से पहले प्रदेश में कांग्रेस सरकार के खिलाफ माहौल बनाने में दल अध्यक्ष सुखबीर बादल को पहले अपने िकले को और मज़बूत करना होगा। पिता प्रकाश सिंह बादल राजनीति में सक्रिय ज़रूर है; लेकिन उम्र के इस दौर में वह बहुत कुछ करने की स्थिति में नहीं होंगे। शिअद की मज़बूती के लिए उन्हें ही यह लड़ाई अपने बलबूते पर लडऩे होगी; क्योंकि आने वाले समय में उन्हें उनके ही दल में चुनौती देने वाले चेहरे सामने आएँगे।

अकाली दल का अतीत

अकाली दल का इतिहास बहुत पुराना है। एक मायने में तो यह कांग्रेस के बाद देश की दूसरी सबसे पुरानी पार्टी है। इसकी स्थापना 14 दिसंबर, 1920 को हुई थी। तब इसे सिखों की सबसे बड़ी धाॢमक संस्था शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति की टास्क फोर्स के तौर पर बनाया गया था। इसके पहले अध्यक्ष सरमुख सिंह थे। देश आज़ाद होने के बाद राजनीतिक तौर पर अकाली दल की पैठ बनी। इसके अध्यक्षों में मास्टर तारा सिंह, फतेह सिंह और खडग़ सिंह प्रमुख तौर पर जाने और माने गये। अकाली दल को सबसे बड़ी पहचान मास्टर तारा सिंह ने दी। सिखों के हितों के लिए इस पार्टी के बिना पंजाब में राजनीति की कल्पना नहीं की जा सकती। यह बात मशहूर हो गयी कि अकाली जब भी सत्ता आते हैं, इनके नेता आपस में लड़ते हैं और जब विपक्ष में होते हैं, तो सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करते हैं। लगातार दो बार सत्ता में रहकर यह मिथ भी तोड़ दिया। हर पार्टी की तरह यहाँ भी मनभेद और मतभेदों का सिलसिला चलता रहता है; लिहाज़ा विभाजन से यह दल भी अछूता नहीं रहा है। कई बार विभाजन हुए बड़े नेता अलग हुए नया दल बनाया; लेकिन सफलता नहीं मिल सकी। दल के अध्यक्ष रहे सुरजीत सिंह बरनाला और सिमरनजीत सिंह मान अलग होकर अस्तित्व ही नहीं बचा सके। इनमें बरनाला तो केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री और राज्यपाल भी रहे।

कितने अकाली दल

शिरोमणि अकाली दल (शिअद) में विभाजन का इतिहास भी लम्बा है। शिअद (डेमोक्रेटिक) शिअद (लोंगोवाल) शिअद (यूनाइटेड) शिअद (अमृतसर) शिअद (पंथक), शिअद (1920) और शिअद (टकसाली) प्रमुख तौर पर है। विभाजन के बाद इनमें से कोई भी पार्टी सफल नहीं रही। इतिहास यही बताता है कि मूल पार्टी ही मुख्य धारा के तौर पर चलती है। सुखदेव सिंह ढींढसा के नेतृत्व में बना शिअद क्या इस परम्परा को तोड़ पायेगा, यह देखने वाली बात होगी।

तो क्या उत्तर प्रदेश में दो बच्चे वाले ही लड़ सकेंगे ग्राम पंचायत चुनाव?

अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार कई बदलाव कर चुकी है। राजनीति में भी अब तक कई ऐसे बदलाव हो चुके हैं कि आम आदमी लाख कोशिशों के बावजूद भी राजनीति में नहीं आ सकता, जब तक कि वह अच्छी राजनीतिक साठगाँठ के अलावा अच्छा पैसे वाला न हो। अब तक यह सब ब्लॉक प्रमुख, निगम पार्षद, नगर पालिका अध्यक्ष, विधायक, सांसद जैसे स्तरों पर होता था। पर अब ग्राम पंचायत स्तर पर भी होने की उम्मीद है। इसकी शुरुआत उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों पर नियंत्रण करने से हो सकती है।

हाल ही में केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी राज्यमंत्री संजीव कुमार बालियान ने ग्राम पंचायत चुनाव में प्रत्याशियों की पारिवारिक स्थिति के हिसाब से टिकट देने को लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखा है। इस पत्र को लेकर कहा जा रहा है कि बालियान ने यह पत्र उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर लिखा है, लेकिन ऐसा लगता नहीं है। क्योंकि अगर ऐसा होता, तो वह जनसंख्या नियंत्रण को लेकर पत्र लिखते, चुनाव को लेकर नहीं। हालाँकि उन्होंने इस पत्र में सहारा जनसंख्या नियंत्रण का ही लिया है। इस पत्र में उन्होंने योगी से कहा है कि उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण का अभियान शुरू किया जाए और इसकी शुरुआत आगामी ग्राम पंचायत चुनाव से की जानी चाहिए। संजीव बालियान ने पत्र में लिखा है कि उत्तराखंड में दो से अधिक बच्चे वाले ग्राम पंचायत चुनाव नहीं लड़ सकते, यही कानून उत्तर प्रदेश में लागू किया जाना चाहिए। हालाँकि बालियान ने योगी से इस अभियान को विश्व जनसंख्या दिवस के अवसर पर शुरू करने को कहा था, लेकिन अभी तक योगी आदित्यनाथ सरकार ने इस पर कुछ कहा नहीं है।

पिछड़े तबकों को लगेगा झटका

अगर उत्तर प्रदेश में योगी सरकार संजीव कुमार बालियान के सुझाव को लागू करती है, तो पिछड़े तबकों के लोगों को ज़्यादा नुकसान होगा। सम्भव है कि अधिकतर सामान्य वर्ग के लोगों को ग्राम पंचायत चुनाव में टिकट मिलें और पिछड़े वर्ग के लोग सिर्फ दो से अधिक बच्चे होने के चलते चुनाव मैदान में उतर ही न सकें। क्योंकि पिछड़े तबकों के लोगों, जिनमें पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अल्पसंख्यक वर्ग- खासकर मुस्लिमों में अधिकतर के बच्चे दो से अधिक हैं। ऐसे में दो बच्चों की शर्त पर इन वर्गों के लोग आसानी से जनसंख्या नियंत्रण के बहाने से ग्राम पंचायत चुनाव की दौड़ से बाहर हो जाएँगे और अधिकतर सीटों पर सामान्य वर्ग का कब्ज़ा हो जाएगा।

कहीं अपने लोगों को कुर्सी सौंपने की कोशिश तो नहीं

भाजपा और संघ के बड़े नेता पार्टी के सदस्यों, कार्यकर्ताओं, छोटे स्तर के नेताओं का मज़बूत संगठन बनाकर खुद को हमेशा के लिए मज़बूत करना चाहते हैं, ताकि वो हमेशा सत्ता में बने रहें।

कहीं ऐसा तो नहीं कि भाजपा उत्तराखण्ड के बाद उत्तर प्रदेश में दो बच्चों वाले प्रत्याशियों के बहाने ग्रामीण स्तर पर अपने लोगों को राजनीति के सबसे छोटे स्तर पर सत्ता में लाकर जनाधार मज़बूत करना चाहती है। क्योंकि पार्टी कमान यह जानती है कि अगर ऐसा हो गया, तो उसे चुनावों के दौरान मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में आसानी होगी।

इसका कारण यह है कि गाँव के अधिकतर लोग प्रधान, ग्राम पंचायत अधिकार, ग्राम पंचायत सदस्यों आदि से अपना काम निकलवाने के चलते उनसे बिगाड़कर नहीं चलते और चुनावों में उनका कहना मानते हैं। ऐसे में अगर निचले स्तर की कुॢसयों पर भाजपा का कब्ज़ा होगा, तो विधानसभा और लोकसभा के चुनाव जीतने में भाजपा को आसानी होगी।

प्रियंका गाँधी को एसपीजी नहीं, तो बंगला नहीं

राजनीति हिंसा, प्रलोभन और बदले की भावना से शून्य नहीं होती है। कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा से बंगला खाली कराने को लेकर कोई कुछ भी कहें, पर हकीकत तो यह है कि यह मामला पूरी तरह से राजनीति से प्रेरित है। बंगला खाली कराये जाने को लेकर कांग्रेस का कहना है कि केंद्र सरकार कोरोना वायरस जैसी घातक महामारी में तमाम स्तरों पर असफल हुई है। भारत-चीन के बीच तनाव को लेकर भी सरकार कोई कारगर सफलता हासिल नहीं कर पायी है। ऐसे में सरकार ने अपनी नाकामियाँ छिपाने के लिए प्रियंका गाँधी वाड्रा का बंगला खाली का आदेश दिया है; लेकिन इससे केंद्र सरकार को कुछ हासिल होने वाला नहीं है। क्योंकि प्रियंका गाँधी वाड्रा अब लखनऊ में कौल हाउस में शिफ्ट हो सकती हैं। इससे कांग्रेस को और फायदा होगा। इतना ही नहीं, प्रियंका 2022 के विधानसभा चुनाव का शंखनाद यहीं से करेंगी।

केंद्र सरकार का कहना है कि स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (एसपीजी) सुरक्षा हटाये जाने के बाद प्रियंका लोदी एस्टेट के बंगला नंबर-35 में रहने की हकदार नहीं हैं। शहरी विकास मंत्रालय के सम्पत्ति निदेशालय ने नियमों के आधार पर बंगले का आंवटन रद्द किया है। बताते चलें कि नवंबर, 2019 में सरकार ने प्रियंका से एसपीजी की सुरक्षा हटा ली थी और जेड प्लस सुरक्षा प्रदान की थी। इसी आधार पर सरकार ने माना कि जब एसपीजी नहीं, तो बंगला नहीं।

मगर कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि मोदी सरकार इस आधार पर प्रियंका वाड्रा से बंगला खाली करा रही है कि वह सांसद भी नहीं हैं। लेकिन सत्ता के नशे में मोदी नीत केंद्र सरकार यह भूल रही है कि भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी न तो सांसद हैं और न ही एसपीजी सुरक्षा उनको मिली हुई है। उनको भी जेड प्लस सुरक्षा मिली हुई है, तो फिर उनका बंगला खाली क्यों नहीं कराया जा रहा है। कांग्रेस का कहना है कि ये दोनों नेता अब राजनीति में सक्रिय भी नहीं हैं, जबकि प्रियंका गाँधी राजनीति में सक्रिय भी हैं। प्रियंका को यह बंगला सन् 1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा के शासनकाल मिला था। उसके बाद अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार रही, लेकिन सरकार ने बंगला खाली कराने पर विचार नहीं किया। 2014 में मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार केंद्र में आयी, तब भी प्रियंका गाँधी से बंगला खाली नहीं कराया गया। लेकिन अब ऐसा क्या हो गया कि मोदी नीत केंद्र सरकार ने उन्हें बंगला खाली करने का सख्त आदेश दे दिया?

कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि सरकारें तो आती-जाती रहती हैं। लेकिन सत्ताधारी नेता बदले की भावना से काम करेंगे, तो लोकतंत्र में इसे जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। कांग्रेस ने किसी राजनीतिक दल के नेता को लेकर ओछी राजनीति नहीं की है। कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला का कहना है कि प्रियंका गाँधी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की पोती और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की बेटी हैं। इन दोनों नेताओं की हत्या भी हुई है। इस लिहाज़ से गाँधी परिवार की सुरक्षा का ज़िम्मा भी सरकार का बनता है। पर सरकार गाँधी परिवार को किसी-न-किसी बहाने परेशान करने में लगी रहती है, पर कांग्रेस केंद्र सरकार की इस ओछी राजनीति से डरने वाली नहीं है। यह केंद्र सरकार की घबराहट का नतीजा है। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय सिंह लल्लू का कहना है कि मोदी सरकार चीन से कब्ज़ा नहीं हटवा पा रही है; लेकिन जिसके परिवार ने देश की सेवा की है, उसके परिजनों को परेशान करने लिए बंगला खाली करवा रही है। उनका कहना है कि प्रियंका का बंगला ऐसे समय में खाली कराया जा रहा है, जब देश में कोरोना वायरस के कहर से हाहाकार मची हुई है। कांग्रेस के युवा नेता अम्बरीश का कहना है कि अजीब विडम्बना है कि केंद्र सरकार कोरोना वायरस और चीन जैसी समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं दे रही है। बस एक ही काम है कि कांग्रेस को किसी-न-किसी बहाने परेशान करो। लेकिन कांग्रेस मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों को उजागर करती रहेगी। उन्होंने कहा कि सम्पत्ति निदेशालय ने प्रियंका गाँधी के नाम जारी पत्र में सरकारी बंगला के किराये के तौर पर बकाया 3 लाख 46 हज़ार 677 रुपये का भुगतान करने को कहा गया था। इसका ऑनलाइन भुगतान किया जा चुका है। रही बात बंगले की, तो 01 अगस्त तक बंगला को खाली कर दिया जाएगा।

वहीं भाजपा के नेता राजीव प्रताप रूड़ी का कहना है कि बंगला को नियमों के तहत खाली कराया जा रहा है; न कि बदले की भावना से। हाँ, पर इतना है कि यह परिवारवाद का अध्याय समाप्त हो रहा है, जिससे कांग्रेस के नेता तिलमिला रहे हैं। क्योंकि न तो प्रियंका के पास एसपीजी की सुरक्षा है और न ही वह सांसद हैं; फिर किस आधार पर उनको बंगला दिया जा सकता है? भाजपा का तर्क है कि अभी हाल में राज्य सभा के चुनाव के ज़रिये नये राज्य सभा के सांसद चुनकर आये हैं, उनके रहने के लिए भी बंगलों की ज़रूरत है। राजनीतिक विश्लेषक हरिश्चंद्र पाठक का कहना है कि मौज़ूदा दौर में राजनीति का स्तर काफी गिरता जा रहा है। इसमें एक दल दूसरे दल पर आरोप लगाकर अपने आप में बचने का प्रयास करता है। जबकि सच्चाई यह है कि हम्माम में सब नंगे हैं। जब एनडीए सरकार अपने निक्कमेपन से घिरी होती है, तब विरोधियों को परेशान करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती है। जबकि मौज़ूदा समय में देश की आॢथक स्थिति ठीक नहीं है। युवाओं को रोज़गार नहीं है और मज़दूरों को काम नहीं है। इसलिए सरकार सियासी खेल न खेलकर बुनियादी समस्याओं पर ध्यान दे और उनका समाधान करे।

प्रसार भारती का अपना भर्ती बोर्ड गठित

प्रसार भारती (भारत का लोक सेवा प्रसारक) ने 01 जुलाई, 2020 से अपना भर्ती बोर्ड गठित कर लिया है। प्रसार भारती (भारत का प्रसारण निगम) अधिनियम, 1990 की धारा-10 के तहत प्रसार भारती (ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया) भर्ती बोर्ड नियम, 2020 की स्थापना के लिए 12 फरवरी, 2020 को केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने अधिसूचना जारी की थी। इसमें केंद्र सरकार में संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी के वेतनमान से कम वेतनमानों के विभिन्न पदों पर कर्मचारियों को नियुक्त करने का मार्ग प्रशस्त किया गया था।

इसके साथ ही अब आकाशवाणी और दूरदर्शन में मुख्य समाचार सेवाओं, प्रोग्राङ्क्षमग और इंजीनियङ्क्षमग विंग में भर्ती का रास्ता साफ हो गया है। इस कवर के तहत वर्तमान में मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) के अनुबन्ध के आधार पर भर्ती किये गये आरएसएस पृष्ठभूमि वाले कॢमयों को नियमित किया जाएगा।

इस तरह संघी विचारधारा के पुरुषों और महिलाओं को स्थायी आधार पर नियुक्त करके एनडीए सरकार की सार्वजनिक संस्थानों पर चौतरफा सीधे हमले की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी। इसका एकमात्र उद्देश्य केंद्रीय सरकार के कामों की समीक्षा और उन पर नज़र रखने का रास्ता बन्द करना और फासीवादी तरीके से जनता के विचारों और दिमागों को सरकारी प्रचार मशीनरी पर नियंत्रण करके सभी आयामों और अभिव्यक्तियों में बदलना है।

प्रसार भारती भर्ती बोर्ड की नियुक्ति के साथ निगम में मानव संसाधन (एचआर) प्रभाग विघटित हो गया है और भर्ती बोर्ड को सचिवीय सहायता (संचालन व्यवस्था) प्रदान करने के लिए प्रतिस्थापित किया गया है। संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएसई) और कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी) को भी प्रसार भारती में संयुक्त सचिव स्तर से नीचे के कर्मचारियों की भर्ती की ज़िम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया है। इसके साथ ही चुनाव के ज़रिये सरकार में परिवर्तन के बाद कॉन्ट्रेक्ट पर बड़ी संख्या में रखे गये कर्मचारियों की जगह उपरोक्त नव-नियुक्त कर्मचारियों को रखने की प्रक्रिया का निराकरण भी कर लिया गया है। यह केंद्र में सत्ता बदलने के बावजूद आकाशवाणी और दूरदर्शन में संघ विचारधारा के लम्बे समय तक असर को भी सुनिश्चित करेगा।

प्रसार भारती भर्ती बोर्ड में जगदीश उपासने की अध्यक्षता में छ: सदस्य होंगे। उपासने वर्तमान में भारत प्रकाशन के निदेशक हैं और माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके हैं। वह आरएसएस के साथ जुड़े हुए हैं और उनकी नियुक्ति से आने वाले समय में चीज़ें कैसी रहेंगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय में संयुक्त सचिव (बी-2) बोर्ड के पदेन सदस्य होंगे। बोर्ड के चार अन्य सदस्यों में दीपा चंद्रा- सेवानिवृत्त अतिरिक्त महानिदेशक (एडीजी) कार्यक्रम, प्रसार भारती; पी.एन. भक्त- सेवानिवृत्त एडीजी (इंजीनियङ्क्षरग), प्रसार भारती; किम्बुओंग किपगेन- सचिव, सार्वजनिक उद्यम चयन बोर्ड (पीईएसबी) और चेतन प्रकाश जैन- महाप्रबंधक, मानव संसाधन (एचआर), रेल विकास निगम लिमिटेड (आरवीएनएल। भर्ती बोर्ड 12 फरवरी, 2020 के सूचना और प्रसारण मंत्रालय की जारी अधिसूचना के अनुसार, खण्ड-5 के तहत निर्धारित अपने कर्तव्य के चार्टर के अनुसार कार्य करेगा।

प्रसार भारती भर्ती बोर्ड का गठन आकाशवाणी और दूरदर्शन में केंद्र की वर्तमान में एक व्यक्ति की सरकार की रणनीति को हिटलरी अंदाज़ में पूरी तरह थोपने में मदद करेगा। पहले ही अन्य सार्वजनिक संस्थान जैसे न्यायपालिका, चुनाव आयोग, यूपीएससी, सीएजी, सीबीआई, एनआईए, ईडी, आयकर प्राधिकरण, आरबीआई, सभी नियामक प्राधिकरण और अन्य, सरकार के आदेशों के अनुसार चल रहे हैं और कानून आधारित संवैधानिक लोकतांत्रिक शासन और सार्वजनिक जवाबदेही के नियम को कमज़ोर कर रहे हैं। वे ऐसा करके लोकतंत्र की होली जला रहे हैं और इन्हें केवल चुनाव केंद्रित करने के लिए काम कर रहे हैं। हालाँकि सच यह भी है कि सार्वजनिक प्रसारक की समाचार सेवाएँ हमेशा उस समय की सरकार के समर्थक जैसी रही हैं।