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तुमने दिल जीत लिये विनेश!

दुनिया में किसी भी सत्ता की ऊँचाई पर पहुँचे अयोग्य लोग कभी न्याय नहीं करते। ऐसे किंकर्तव्यविमूढ़ लोगों का अहंकार चरम पर रहता है। किसी पद पर पहुँचने वाले ऐसे लोगों ने अब तक न जाने कितने ही होनहार लोगों का जीवन तबाह कर दिया, और लगातार कर रहे हैं। संस्कृत में नये तरीक़े से कहा जा सकता है- अभिमानी कस्यचित् हानिं कर्तुं न संकोचयति अर्थात् अहंकारी व्यक्ति किसी का नुक़सान करने से भी नहीं चूकता है। असल में अहंकारी लोग साज़िश करते हैं और इस तरह से करते हैं कि अधिकांश लोगों को उनकी साज़िश का पता ही नहीं चलता। लेकिन समझदार और ईमानदार लोग ऐसे किसी भी चेहरे पर चढ़े हुए हर मुखौटों को उतार फेंकते हैं। इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन करने वाली भारतीय महिला पहलवान विनेश फोगाट के साथ जो हुआ, उसकी निंदा पूरे देश में हो रही है। सोशल मीडिया पर टिप्पणियों की बाढ़-सी आ गयी है। ऐसी साज़िशों की निंदा की भी जानी चाहिए। यह साज़िश सिर्फ़ विनेश के साथ ही नहीं हुई, पूरे भारत के साथ हुई है। भारत के नाम एक और स्वर्ण पदक जीतने की उम्मीद जगाने वाली विनेश का 100 ग्राम वज़न बढ़ा दिखाकर उन्हें अयोग्य खिलाड़ी साबित करने के षड्यंत्र ने पिछले साल की उनकी आशंका को सच साबित कर दिया। सेमीफाइलन में विनेश को जीत की बधाई न देना और बाहर होने पर षड्यंत्र पक्ष के लोगों का विनेश में ही दोष निकालना इसके प्रमाण हैं। कई अन्य विनेश-विरोधी गतिविधियों से विश्वास हो गया है कि उनके ख़िलाफ़ षड्यंत्र किया गया। षड्यंत्र होने का विश्वास इसलिए भी होता है कि जो खिलाड़ी अपनी एक दिन पहले की प्रतिस्पर्था में 50 किलो की थी और जिसने विश्व की सबसे बड़ी विजेता को हराया, वह जीतने के अगले दिन भी पहले 50 किलो की ही रहती हैं; लेकिन अंतत: 50 किलो 100 ग्राम की कहकर निकाल दी जाती हैं। उन्हें नंबर नहीं दिये जा रहे थे। साज़िश यहाँ तक हो रही है कि विनेश को रजत पदक देने से इनकार किया जा रहा है। लेकिन विनेश खेल से बाहर होकर भी जीत गयीं और दिलों में उन्हें जो जगह मिली है, वह स्वर्ण पदक से कहीं ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है।

पेरिस ओलंपिक-2024 के महिला फ्री स्टाइल 50 किलोग्राम की तीन प्रतिस्पर्धाओं में हिस्सा लिया। इसमें उन्होंने प्री-क्वार्टर फाइनल में 14 साल से लगातार जीतने वाली टोक्यो ओलंपिक की चैंपियन यूई सुसाकी को हराया। इसके बाद सेमीफाइनल में क्यूबा की युस्नेलिस गुजमैन लोपेज को 5-0 से हराया, जिसके बाद भारतीय पहलवान विनेश फोगाट फाइनल में पहुँचीं। लेकिन यहाँ 100 ग्राम वज़न के बहाने उन्हें प्रतिस्पर्धा से बाहर कर दिया गया। सार्वजनिक चर्चा है कि अब तक देश के लिए कई पदक जीतने वाली विनेश के साथ यौन उत्पीड़न के आरोपी बृजभूषण शरण सिंह के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के अंजाम में जो हुआ, वह ठीक नहीं है। 28 मई को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकतंत्र के मंदिर कहे जाने वाले 1,200 करोड़ रुपये की लागत से बने नये संसद भवन का उद्घाटन कर रहे थे, उससे पहले आधी रात को विनेश के साथ अपराधियों जैसा बर्ताव किया जा रहा था। विनेश को जूतों तले रौंदा जा रहा था और उनके साथ उस तिरंगे को भी जूतों तले रौंदा जा रहा था, जिसे लेकर वह धरने पर बैठी थीं। उस समय न केंद्र सरकार ने देश का मान बढ़ाने वाली इस पीड़ित बेटी की मदद की और न ही किसी न्यायिक संस्था ने ही न्याय किया। विनेश के ख़िलाफ़ उनका करियर चौपट करने के षड्यंत्र रचे गये। आरोपी बृजभूषण ने तो यहाँ तक कह दिया कि 15-15 रुपये में मेडल मिलते हैं। महिला पहलवानों को मेडल और इनाम की राशि लौटाने की हूल भी बृजभूषण ने दी। लेकिन ख़ुद सत्ता नहीं छोड़ी। जब हर तरफ़ से दबाव बना और न्यायालय ने पुलिस को मामले की जाँच के आदेश दिये, तब केवल भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दिया। इस सबका सही जवाब विनेश ने जब अपनी प्रतिभा से दिया है, जिससे कई लोगों के अहं को गहरा धक्का लगा है। लेकिन अफ़सोस कि विनेश की तरह ही देश की कई प्रतिभाओं का करियर चौपट करने वाले लोग आज ऊँचे ओहदों पर बैठे हैं। ऐसे क्रूर लोगों का कोई विरोध कर दे, तो उसी के ख़िलाफ़ झूठी एफआईआर और कार्रवाई की जाती है। इस बार की मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए की केंद्र्र सरकार ने आपातकाल लागू करने के दिन 25 जून को संविधान हत्या दिवस घोषित किया है। जबकि लोकतंत्र की हत्या के कई उदाहरण इसी सरकार के पहले से लेकर तीसरे कार्यकाल में अब तक सामने आये हैं; लेकिन इस पर चर्चा भी नहीं की जाती।

दु:खद यह है कि विनेश फोगाट अपने साथ हुए इस अन्याय का सदमा सहन नहीं कर सकीं और उन्होंने खेल-जगत से संन्यास ले लिया। सोचिए, उन्होंने अपना पूरा करियर दाँव पर लगाते हुए अब तक की सारी मेहनत और अपने सपनों का ख़ून करते हुए किस भारी मन से सोशल मीडिया अकाउंट पर लिखा होगा- ‘माँ! कुश्ती मेरे से जीत गयी, मैं हार गयी। माफ़ करना आपका सपना मेरी हिम्मत सब टूट चुके। इससे ज़्यादा ताक़त नहीं रही अब। अलविदा कुश्ती 2001-2024, आप सबकी हमेशा ऋणी रहूँगी। माफ़ी!’  इसके जवाब में यही कहना होगा- ‘तुमने दिल जीत लिये विनेश!‘

जनगणना के बहाने…

शिवेन्द्र राणा

इस बार जाति की लड़ाई से संसद हलकान रही। ऐसा लगा कि राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श का एक ही और सबसे प्रमुख मुद्दा शेष है- जाति। जाति जनगणना, जाति आधारित आरक्षण, जाति आधारित प्रतिनिधित्व इत्यादि। एक देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए जातिवाद से अधिक शर्मनाक स्थिति नहीं हो सकती। कोई राहुल गाँधी की जाति पूछ रहा है, तो कोई सरकारी सचिव की। जबसे मोबाइल का डेटा सर्वसुलभ हुआ है, तबसे सड़कछाप इतिहासकारों की एक ऐसी प्रजाति पैदा हो गयी है, जो प्राचीन राजवंशों, सम्राटों की ही नहीं, बल्कि स्वतंत्रता आन्दोलन के क्रांतिकारियों की भी जाति निर्धारित कर रही है।

ख़ैर, मूल राजनीतिक विवाद का केंद्र बिन्दु है- जाति आधारित जनगणना। 2024 के आम चुनावों में कांग्रेस-सपा गठबंधन के अप्रत्याशित सफलता के बाद दोनों ही दलों ने जाति जनगणना को आधार बनाकर आक्रामक रूप से सरकार पर दबाव बनाने का प्रयास किया है, जबकि सरकार इस मुद्दे पर नकारात्मक दृष्टिकोण रखती है। लेकिन इसमें कोई दो-राय नहीं कि भाजपा ने भी जातिवाद का खेल कम नहीं खेलती है। विपक्ष से जनता को ढेरों उम्मीदें हैं कि वह एक सकारात्मक भूमिका निभाएगा; लेकिन उसके पास सरकार की कमियों और नाकामियों पर पूछने के लिए सैकड़ों सवाल होते हुए भी सवाल नहीं हैं। मेक इन इंडिया, मेड इन इंडिया, स्मार्ट सिटी, स्मार्ट गाँव, दो करोड़ रोज़गार, बढ़ती ग़रीबी, बढ़ती भुखमरी, चीन की घुसपैठ, आत्महत्या के बढ़ते मामले, सरकारी पदों को ख़त्म करने, सरकारी संपत्तियों की नीलामी, हर ज़िले में भाजपा के फाइव और सेवन स्टार होटलनुमा आलीशान कार्यालय, देश से पैसा लेकर भागने वालों की लंबी लिस्ट, देश पर बढ़ता क़र्ज़, ख़ाली होते बैंक, पूँजीपतियों की क़ज़र्माफ़ी, संसद की छत टपकना, किसानों पर अत्याचार, पेपरलीक, बढ़ती नशा$खोरी, शिक्षा क्षेत्र का महँगा होना, कम होते सरकारी स्कूल, शिक्षा पर जीएसटी, मणिपुर, चुनाव में गड़बड़ी, विपक्षी नेताओं को जेल भेजने से लेकर न जाने कितने ही ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर विपक्ष सवाल पूछ सकता है। लेकिन उसे अपने वोट बैंक की चिन्ता है और इसी के चलते वह जातिवाद पर अड़ा हुआ है। असल में विरासत में मिली राजनीति सत्ता प्राप्ति का हमेशा आसान विकल्प तलाशती है, जहाँ ज़मीन पर उतरकर ग़रीबी, अभाव, अवसंरचना, शिक्षा, स्वास्थ्य के मुद्दे पर संघर्ष के बजाय जाति, धर्म के आसान ज़हरीले वाचिक बातों से सत्ता का मार्ग तलाशा जाता है। इस समय कांग्रेस-सपा गठबंधन के नेतृत्व की भी यही स्थिति है। इसलिए सत्ता पक्ष के एक नेता ने नेता प्रतिपक्ष की जाति पूछी, तो सपा अध्यक्ष उत्तेजित हो गये कि आप उनकी जाति कैसे पूछ सकते हो? लेकिन यह महानुभाव देश के नागरिकों की जाति पूछने का कार्य संवैधानिक रूप से करना चाहते हैं।

हालाँकि इसमें कोई शक नहीं कि भारत के सार्वजनिक जीवन में एक दौर ऐसा रहा है, जब समाज के एक बड़े वर्ग को जन्मना सार्वजनिक जीवन में भेदभाव सहना पड़ा, उसे विकास के लाभ से वंचित रखा गया। लेकिन आज जो लोग रुदाली बने हुए हैं, वे न इसके भुक्तभोगी हैं और न जिन पर आरोप लगाये जा रहे हैं, वे इसके आरोपी हैं। हालाँकि कुछ उदाहरण हो सकते हैं, जिसमें उनके साथ अन्याय हुआ है और कई पिछड़े इलाक़ों में आज भी हो रहा है। लेकिन ज़्यादातर मामलों में वे अपने पूर्वजों की भूलों का परिमार्जन करते हुए, अपनी योग्यता और मैरिट को अपमानित करते हुए, आरक्षण के दावों को स्वीकार करते हुए सामाजिक समरसता में योगदान कर रहे हैं। लेकिन तब भी कुछ घटनाओं के लिए समूचे सवर्ण समाज दोषी क़रार देना भी तो ग़लत है। ज़रा सोचिए, आज आप जब सड़क पर गोलगप्पे, चाट खाने जाते हैं, किसी होटल में जाते हैं, तो क्या यह जानने का प्रयास करते हैं कि इसे बनाने और परोसने वाला कौन हैं? या कि आपकी बग़ल में खा रहा शख़्स कौन हैं? क्या स्कूल, कॉलेज, सिनेमा हॉल या किसी सार्वजनिक स्थल पर जाति परिचय के आधार पर प्रवेश दिया जाता है? असल में ऐसा नहीं होता। लेकिन आज जब जातिवाद काफ़ी हद तक ख़त्म होने की स्थिति में दिखायी देता है और केवल रिश्ता करने तक ज़्यादातर सीमित है, तब भी छुआछूत की भ्रामक दुष्प्रचार के आख्यान चरम पर सुनाये जाते हैं।

दुनिया विकास की राह पर दौड़ रही है, सभ्यता आधुनिकता के नये प्रतिमान गढ़ रही है; लेकिन भारत में पिछड़ा, अति पिछड़ा और दलित बनने की होड़ लगी है। कई सामान्य वर्ग के लोग भी आरक्षण के चक्कर में उनमें शामिल हो रहे हैं। हालाँकि अब तो सरकार ने सवर्ण ग़रीबों को भी ईडब्ल्यूएस के तहत 10 फ़ीसदी आरक्षण दिया हुआ है, जिसकी ग़रीबी का मानक निचले तबक़ों की अमीरी के मानक से तक़रीबन मेल खाता है। यानी यहाँ भी असमानता का एक पैमाना साफ़ दिखायी देता है। इसका मतलब यह है कि भारत में सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों ही जातिवाद  के भेदभाव की राजनीति से अछूते नहीं हैं।

संभवत: भारतीय समाज दुनिया में इकलौता ऐसा समाज है, जहाँ पिछड़ेपन, वंचना को ग्लोरिफाइड एवं ग्लैमराइज किया जाता है। उस जातिवाद में भी धर्म का तड़का अलग ही है। अयोध्या बलात्कार कांड में आरोपी सपा का नेता मुसलमान है, इसलिए न कोई कांग्रेस-सपा का पिछड़ा नेता पहुँचा और न ही भीम आर्मी के दलित मसीहा। क्यों? क्योंकि यहाँ आरोपी कोई सवर्ण नहीं है। इसी तरह जब कोई सवर्ण अपराध करता है, तो भाजपा नेताओं में ख़ामोशी छा जाती है। यानी दोनों ही तरफ़ जातिवाद का समर्थन है। इसलिए भारत में जातिवाद छोड़कर एकता और एकतरफ़ा आपराधिक विद्रोह की कोई संभावना नहीं है। न ही पिछड़ा-अल्पसंख्यक राजनीतिक लामबंदी या दलित-पिछड़ा जातियों के ध्रुवीकरण की संभावना है। इसके साथ ही सभी पार्टियों को ज़्यादा जाति वाले गढ़ में उनकी नाराज़गी का डर रहता है, इसलिए कोई नहीं बोलता। मुसलमानों की नाराज़गी का भी ख़तरा किसी को कम नहीं है; ख़ासकर विपक्ष को ज़्यादा है।

वास्तव में देश में आरक्षण की सुविधा और सामाजिक न्याय को लेकर राजनीतिक दोमुहापन सदैव चरम पर रहा है। उदाहरणस्वरूप, अभी पिछले दिनों हुआ जब एससी / एसटी वर्ग के आरक्षण को संपन्न और सुविधा भोगियों (क्रीमिलेयर) द्वारा हड़पे जाने के विरुद्ध निर्णय देते हुआ सर्वोच्च न्यायलय ने 01 अगस्त 2024 को अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के अंतर्गत वर्गीकरण को उचित माना। लेकिन उसके बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष, सभी इस निर्णय के विरोध में खड़े हो गये और सबका साथ, सबका विकास के नारे वाली सरकार ने घोषणा कर दी कि वह इसे लागू नहीं होने देगी। क्या यह सामाजिक समानता के दावों का अपमान नहीं है? सरकार और विपक्ष समेत यह पूरी राजनीतिक जमात किस मुँह से बाबा साहेब अंबेडकर के सपने और सामाजिक उत्थान और समरसता के दावे करते हैं? लगातार कई पीढ़ियों से सुविधाभोगी अपने ही वर्ग के ग़रीबों की संवैधानिक सुविधाएँ छीन रहे हैं। वे इस क्रीमीलेयर को छोड़ना नहीं चाहते। यही कारण है कि पिछली कई पीढ़ियों से निचले तबक़ों के ग़रीब आज भी ग़रीब हैं। यह सिर्फ़ निचले तबक़ों में ही नहीं है, बल्कि सवर्णों में भी है। यहाँ भी अमीर सवर्ण ग़रीब सवर्णों का हक़ मारने में ज़रा भी संकोच नहीं करते। और ग़रीब सवर्णों से उसी तरह घृणापूर्ण व्यवहार तरते हैं, जैसा व्यवहार वे निचले तबक़े के ग़रीबों से करते हैं। इसी वजह से करोड़ों के संपत्तिधारी, जो उच्च शिक्षा लेने के अलावा विदेश से प्राप्त डिग्रियाँ होने के बावजूद पिछड़ा, दलित बनने में लगे हुए हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अमीर होने पर कोई भेदभाव नहीं रहता और जातिवाद के बंधन से लगभग सभी मुक्त हो जाते हैं।

जाति जनगणना की ओछी सोच भले ही क्षुद्र लाभ की रणनीति में प्रभावकारी दिखती हो; लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से निकृष्ट ही है। यह मानसिकता लोगों को पिछड़ा, दलित बनाये रखने का कुत्सित षड्यंत्र है, ताकि समाज में जाति आधारित विभेद बना ही रहे। क्या किसी ने भी हासिये पर पड़े उस अन्तिम दलित, वंचित या किसी ग़रीब सवर्ण व्यक्ति से जानने की कोशिश की कि वह क्या सोचता है? क्या चाहता है? नहीं। क्योंकि इन्हें शुरू से ही अमीरों यानी कथित सम्भ्रांत वर्ग के पीछे खड़ा रहने वाला वोट बैंक माना गया है और मात्र राजनीतिक ग़ुलामी करायी गयी, जिसका चलन आज भी है।

विपक्ष की जाति जनगणना की माँग इस तर्क पर आधारित है कि इसके द्वारा प्राप्त आँकड़ों के आधार पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाया जाए। लेकिन जातिगत जनगणना लुप्त हो रही जाति आधारित पहचान को और पुख़्ता करेगी। इससे सामाजिक टकराव उत्पन्न होगा, जिसका नकारात्मक असर लंबे समय तक राष्ट्रीय एकता पर पड़ेगा। कहने का तात्पर्य है कि आज जब बदलते युग के साथ जाति आधारित पहचान एवं सामाजिक रूढ़ियाँ दिनोंदिन शिथिल होती जा रही हैं, तब जाति जनगणना जातीय एवं वर्गीय विभाजन को मज़बूत करेगी। इससे अगले कई दशकों तक देश का सामाजिक जीवन विषाक्त कर देगा। असल में जाति आधारित एक ऐसा ज़हरीला कुण्ड है, जिससे नफ़रत का ज़हर निकलने के सिवाय कभी भी प्यार का अमृत नहीं निकलेगा।

हालाँकि आज के उग्र जातिगत ध्रुवीकरण के राष्ट्रव्यापी माहौल में ऐसे वैचारिक तर्क देना और सुनना, दोनों ही अपराध हैं। अब राजनीति के विघटनकारी उन्मादी माहौल में सामाजिक एकता के तर्क स्वीकृत नहीं किये जाते। इसलिए जाति जनगणना हो ही जानी चाहिए। इससे पिछड़ा वर्ग के आरक्षण पर हावी यादव, कुशवाहा, कुर्मी जैसी जातियों के तथा दलित वर्ग में मीणा, जाटव जैसी सशक्त जातियों के आरक्षण पर एकाधिकार की विवेचना ज़रूर हो सकेगी। जाति जनगणना से यह पता लगाना भी संभव होगा कि आख़िर 70 वर्षों में आरक्षण का लाभ सर्वव्यापी क्यों नहीं हुआ? किन जातियों ने आरक्षण की धार को अपनी सुदृढ़ राजनीतिक और सामाजिक प्रभुता के बूते बाधित कर रखा है? वैसे भी संविधान के अनुच्छेद-340 के तहत गठित रोहिणी आयोग (2017) की रिपोर्ट भी तैयार है और इसके लागू होते ही पिछड़ावाद के ध्रुवीकरण की मुहिम हमेशा के लिए ध्वस्त हो जाएगी। उसके बाद आरक्षण के लाभ के सबसे तीव्र एवं कटु संघर्ष पिछड़ा वर्ग की जातियों का आतंरिक ही होगा। यक़ीन मानिए, इसके बाद यही जाति जनगणना के मुरीद जातिवादी नेता और बौद्धिक जमात ही अपनी राजनीतिक साख और सम्मान बचाते दिखेंगे। तब देखना होगा कि इनके पास सामाजिक समानता एवं आरक्षण को उसके वास्तविक ज़रूरतमंदों तक पहुँचाने के पक्ष में इनके पास कितना तर्क शेष है?

अपराध मुक्त नहीं हो पा रहा उत्तर प्रदेश

उत्तर प्रदेश को सुंदर एवं अपराध मुक्त बनाने के प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के प्रयासों की विवेचना की जाए तो कहीं ख़ुशी कहीं ग़म की तस्वीर देखने को मिलेगी। एक ओर प्रदेश को अपराध शून्य बनाने के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दावों की पोल हर दिन के आपराधिक समाचार खोल रहे हैं तो दूसरी ओर कुछ कार्य भी हो रहे हैं एवं कुछ कार्य अधर में लटके हैं। इस प्रकार डबल इंजन की उत्तर प्रदेश सरकार के सभी दावों में कहीं न कहीं झोल स्पष्ट दिखायी देती है। आपसी मनमुटाव से जूझ रही भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता रमेश चौधरी कहते हैं कि अब तक लोगों ने भारतीय जनता पार्टी पर जिस विश्वास के साथ उसे जो अपना महत्त्वपूर्ण मत दिया है, मुझे नहीं लगता कि प्रदेश में सत्ता मिलने के बाद पार्टी नेताओं ने अपने मतदाताओं के उस विश्वास को अडिग रखा है। आज अधिकतर लोग पूर्ववर्ती सरकारों के काम की तुलना योगी सरकार की सरकार से करने लगे हैं। लोगों को जो अपेक्षा थी, उन्हें वो नहीं मिला है। अपराधों के प्रश्न पर रमेश चौधरी कहते हैं कि अपराध पर लगाम कसने के मुख्यमंत्री योगी के प्रयासों को नकार तो नहीं सकते, मगर अपराध तो हो ही रहे हैं।

विदित हो कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रदेश में राम राज्य लाने के दावे करते हुए प्रदेश को अपराध शून्य बनाने का दावा करते रहे हैं। उन्होंने अपराधियों को चेतावनी भी कई बार देते हुए कहा है कि अपराधी सुधर जाएँ या प्रदेश छोड़कर चले जाएँ अन्यथा उन्हें छोड़ा नहीं जाएगा। अपराधियों से निपटने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस ने कई एनकाउंटर भी किये, जिसमें कई नामचीन आपराधिक लोग मारे गये। प्रदेश के अपराध-शून्य का लक्ष्य प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार फिर भी प्राप्त नहीं कर सकी। हर दिन प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों में हर जनपद की सात-आठ आपराधिक घटनाएँ अवश्य होती हैं, जिनमें एक-दो बड़ी आपराधिक घटना भी होती है। पुलिस प्रशासन को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कड़े आदेश हैं कि अपराधियों को किसी भी स्थिति में छोड़ा नहीं जाना चाहिए। इसके उपरांत भी उत्तर प्रदेश में अपराधियों का आतंक थम नहीं रहा है।

पुलिस को चकमा दे रहे अपराधी

उत्तर प्रदेश में अपराध थम नहीं रहे हैं। इससे पूरे प्रदेश में कहीं-कहीं दहशत है। हर जनपद में अपराध की घटनाएँ तब घट रही हैं, जब प्रदेश पुलिस चप्पे चप्पे पर कड़ी निगरानी करती है। बीते एक डेढ़ महीने में कई जनपदों में जघन्य आपराधिक घटनाओं ने आमजन को डराकर रख दिया है। बरेली मंडल के पाँचों जनपदों में अपराध की नित्य नयी वारदात हो रही हैं। बीते दिनों एक ही गाँव में कई बार चोरियाँ करने वालों से पुलिस ने निपटा ही था, तब तक एक सनकी हत्यारे ने पुलिस की साँस फुला दी। यह सनकी हत्यारा महिलाओं की हत्या कर रहा है। कुछ लोग कहते हैं कि हत्यारा कोई एक नहीं कई हैं। बीते 14 महीने में बरेली में 10 महिलाओं की हत्या करने वाला सनकी हत्यारा पुलिस की गिरफ़्त से दूर है। पुलिस ने लोगों की निशानदेही पर इस सनकी हत्यारे का के स्केच छपवाकर दीवारों पर लगाये हैं। समाचार पत्रों में छपवाये हैं। बरेली दक्षिणी प्रभाग के पुलिस अधीक्षक मानुष पारीक बताते हैं कि शाही थाने के क्षेत्र में पूर्व मिले महिलाओं के शवों के सम्बन्ध में हुई छानबीन एवं आसपास के निवासियों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, तीन संदिग्धों के स्केच जारी किये गये हैं। स्केच बनवाने वाले का नाम गोपनीय रखा गया है। हत्यारों को पकड़वाने के लिए कुछ मोबाइल नंबर जारी किये गये हैं, जिनमें 9454402429, 9258256969, 9454401327, 9454403101, 9258256965 आदि हैं। पुलिस अधीक्षक ने कहा कि हत्यारों को पकड़ने के लिए पूरे जनपद में पुलिसकर्मियों को सतर्क रहने का आदेश दिया गया है।

08 अगस्त को शाहजहाँपुर के रोजा थाना क्षेत्र में गायत्री नाम की महिला ने अपने ही पति की हत्या कर दी। आरोपी महिला ने पुलिस से कहा कि उसका पति उसे हर दिन मारता था इसलिए उसने एक ही बार में उसे मार डाला। बीते वर्ष शीशगढ़ एवं शाही क्षेत्र में एक नदी के आसपास कई महिलाओं की हत्या हुई थी। अगस्त, 2024 के पहले सप्ताह में उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जनपद में एक हत्याकांड पर संज्ञान लेते हुए न्यायालय ने एक ही परिवार के पाँच लोगों को उम्रक़ैद की सज़ा सुनायी थी।

चंदौली जनपद के सैयदराजा विधानसभा के धानापुर में नया फ़ौजदारी क़ानून लागू होने के पहले ही सप्ताह में अपराधियों ने एक हत्‍या कर दी। आरोप है कि इस क्षेत्र में 06 जुलाई को प्रात: 6:30 बजे के लगभग भूमि विवाद को लेकर पिछड़ी जाति के अजय प्रसाद (35) की हत्या क्षत्रिय जाति के नरेंद्र सिंह एवं उसके आशीष सिंह उर्फ़ विनायक सिंह एवं अभिषेक सिंह ने सिर पर फावड़ा मारकर कर दी। पर अजय प्रसाद की हत्या करने का आरोप है। इस सम्बन्ध में मृतक के भतीजे आदर्श कुमार ने थाने में भारतीय न्याय संहिता 2023 की धारा-115(2), 352, 151(2), 109, 110, 103(1) एवं 3(5) के तहत नरेंद्र सिंह, आशीष सिंह एवं अभिषेक सिंह के विरुद्ध प्राथमिकी लिखवायी; मगर इस प्राथमिकी के एक घंटे के उपरांत पुलिस ने हत्या के एक आरोपी नरेंद्र सिंह की ओर से भी मृतक अजय प्रजापति एवं उसके बड़े भाई शम्भू प्रजापति के विरुद्ध भी भारतीय न्याय संहिता 2023 की धारा 115(2), 352, 151(2), 109, 110, 117, 103(1) एवं 3(5) के तहत प्राथमिकी लिख ली।

सक्रिय होंगे एंटी रोमियो दस्ते

उत्तर प्रदेश में महिलाओं से छेड़छाड़ की घटनाओं पर अंकुश लगाकर उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए वर्ष 2017 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा आरंभ किये गये एंटी रोमियो पुलिस दस्तों को पुन: प्रदेश भर में तैनात किया जाएगा। कुछ दिन पूर्व अंबेडकर नगर में एक बैठक आयोजित करके मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अधिकारियों निर्देश दिया कि वे पुन: एंटी रोमियो दस्ते सक्रिय करें। इसके अतिरिक्त मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पुलिस विभाग को निर्देश दिये कि वो इस क्षेत्र के शीर्ष 10 अपराधियों की सूची सभी पुलिस स्टेशनों पर प्रदर्शित करवाएँ। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि महिलाओं की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके लिए एंटी रोमियो स्क्वाड दलों को पुन: सक्रिय करने के अतिरिक्त जनपद स्तरीय अधिकारी जनता के बीच जनसुनवाई एवं संवाद सुनिश्चित करें।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 08 अगस्त को आगामी त्योहारों को ध्यान में रखते हुए समीक्षा बैठक की, जिसमें हर स्तर के अधिकारी उपस्थित थे। मुख्यमंत्री योगी ने अधिकारियों को निर्देश दिये कि वे स्वतंत्रता दिवस, नागपंचमी, सावन समापन के अंतिम सोमवार, काकोरी वर्षगाँठ, रक्षाबंधन, चेहल्लुम एवं जन्माष्टमी पर पुलिस एवं स्थानीय प्रशासन 24X7 सतर्क रहे एवं अपराध न होने दे।

राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आँकड़े

भारत सरकार के अधीन राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, भारत की अपराध दर 2020 में प्रति 1,00,000 लोगों पर 487.8 घटनाओं से घटकर 2021 में 445.9 हो गयी। 2024 में अब तक भारत में दर्ज कुल अपराधों की संख्या प्रति 1,00,000 व्यक्तियों पर 445.9 रही है। इसमें उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति अपराध दर 7.4 है। अपराध रिपोर्ट 2023 की तुलना में 0.56 प्रतिशत की मामूली समग्र गिरावट दिखाती है। इस अनुपात का अर्थ है कि उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक अपराध होते हैं। इसलिए यह राज्य अकेली महिलाओं के लिए यात्रा करने के हिसाब से आज भी असुरक्षित ही माना जाता है। उत्तर प्रदेश की दैवीय अवतारों वाली भूमि पर प्रदेश की महिलाओं से लेकर दूसरे राज्यों की महिलाओं एवं विदेशी महिलाओं तक से बलात्कार की घटनाएँ हुई हैं। जघन्य अपराधों को देखते हुए मुख्यमंत्री ने अपराधियों के विरुद्ध लैंगिक अपराधों से बच्चों एवं महिलाओं की सुरक्षा के लिए संरक्षण अधिनियम-2012 अर्थात् पॉक्सो अधिनियम के तहत अग्रिम जमानत प्रदान न किये जाने का प्रस्ताव रखा है। इसके अतिरिक्त मुख्यमंत्री ने हर वर्ष की तरह रक्षाबंधन पर 24 घंटे तक महिलाओं के लिए नि:शुल्क एवं सुरक्षित रोडवेज बस यात्रा के भी निर्देश उत्तर प्रदेश परिवहन विभाग को दिये हैं।

संपत्ति-बँटवारा होगा आसान

उत्तर प्रदेश में संपत्ति के बँटवारे और दूसरों की संपत्ति हड़पने के लिए अपराध बहुत होते हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार शीघ्र ही मंत्रिमंडल में संपत्ति बँटवारे का सुगम प्रस्ताव प्रस्तुत करेगी। इस प्रस्ताव में संपत्ति का बँटवारा 5,000 रुपये में करवाने का प्रस्ताव है। बीते दिनों स्टाम्प पंजीयन मंत्री रविंद्र जायसवाल ने कहा कि उत्तर प्रदेश में संपत्ति बँटवारे को लेकर शीघ्र ही एक ऐसा प्रस्ताव लाकर पास किया जाएगा, जिसके तहत अब पारिवारिक संपत्ति का बँटवारा मात्र 5,000 रुपये में हुआ करेगा। इस प्रस्ताव के अनुसार, एक परिवार के सदस्‍यों के बीच अचल संपत्ति के बँटवारे अथवा किसी जीवित व्‍यक्ति द्वारा अपनी संपत्ति को अपने बच्चों अथवा परिजनों में बाँटने पर देय स्‍टाम्‍प शुल्‍क केवल 5,000 रुपये तय करने के लिए मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ ने निर्देश दिये हैं। यह एक नयी पहल है। उत्तर प्रदेश देश में ऑनलाइन रजिस्ट्री करने वाला दूसरा राज्य है। संभव है कि इस नये नियम के लागू होने से संपत्ति बँटवारे को लेकर झगड़े कम हों।

झूठ फैलाने वालों पर कार्रवाई

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अधिकारियों को निर्देश दिये हैं कि वे झूठे समाचार फैलाने वालों की कड़ी निगरानी करें। उन्होंने अधिकारियों से कहा कि सोशल मीडिया झूठे समाचार फैलाने का माध्यम बन रही है। झूठे समाचार प्रसारित करने वाले लोगों की निगरानी करें, जिससे वे तथ्यों को तोड़-मरोड़कर ऐसी सूचनाएँ न फैला सकें, जो समाज में विद्वेष पैदा करती हैं। सभी जनपदों में पुलिस एवं आपराधिक शाखाओं को सतर्कतापूर्वक झूठे समाचारों के विरुद्ध कार्रवाई करने के निर्देश हैं। माना जा रहा है कि त्योहारों एवं स्वतंत्रता दिवस के समय में लोकतांत्रिक संगठनों की आड़ में कुछ राष्ट्रविरोधी संगठन भी माहौल बिगाड़ने का प्रयास कर सकते हैं। झूठे समाचार प्रसारित करने वालों की पड़ताल करकरे उन्हें पकड़कर उन पर कठोरतम कार्रवाई करने के निर्देश हैं।

अगस्त में पुलिस भर्ती परीक्षा

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रेस वार्ता में सूचना जारी की है कि अगस्त के अंतिम सप्ताह में दिनांक 23, 24, 25, 30 एवं 31 को पुलिस भर्ती परीक्षा होनी प्रस्तावित हुई है। मुख्यमंत्री ने कहा कि इस बार पुलिस भर्ती परीक्षा शांतिपूर्ण ढंग से पूरी शुचिता के साथ सकुशल संपन्न कराने की व्यवस्था की गयी है। परीक्षा में किसी भी प्रकार की धाँधली रोकने के लिए परीक्षा से सम्बन्धित अधिकारियों को सतर्क रहने को कहा गया है। वरिष्ठ अधिकारीगणों को निर्देश दिये गये हैं कि वे अपने-अपने क्षेत्रों के हर एक परीक्षा केंद्र का सूक्ष्मता से निरीक्षण करके परीक्षा की शुचिता सुनिश्चित करें।

बांग्लादेश और षड्यंत्र

यह 2022 के दिसंबर की बात है। उस समय बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना को एक अर्जेंट गुप्त डोजियर मिला, जिसमें बताया गया था कि अमेरिका सेंट मार्टिन द्वीप में अपना सैन्य बेस बनाना चाहता है। वह बांग्लादेश पर क्वाड (चतुर्भुज सुरक्षा संवाद) का हिस्सा बनाने का प्रस्ताव रख सकता है। इस डोजियर में बताया गया था कि ऐसा नहीं होने पर अमेरिका उनकी सरकार को अस्थिर करने का षड्यंत्र रच सकता है। शेख़ हसीना यह जानकार चिंता में पड़ गयीं और अपने बहुत विश्वस्त सहयोगियों से इसकी चर्चा की। अगले कुछ महीनों में शेख़ हसीना पर बाक़ायदा दबाव बनाया जाने लगा कि वह सेंट मार्टिन द्वीप अमेरिका को दे दें। शेख़ हसीना ने दबाव के आगे झुकने से साफ़ इनकार कर दिया। इस घटना के 12 महीने के भीतर बांग्लादेश में शेख़ हसीना का तख़्तापलट हो गया और अब वह भारत में हैं।

इससे भी बहुत पहले की बात करते हैं; साल 1971 की। इंदिरा गाँधी भारत की प्रधानमंत्री थीं। इंदिरा सेना के साथ पूर्वी पाकिस्तान के गृहयुद्ध से जूझ रहे हिस्से में सैन्य अभियान कर उसे पाकिस्तान से अलग करने की रणनीति पर काम कर रही थीं। पूर्वी पाकिस्तान के इस हिस्से में शेख़ मुजीब-उर-रहमान पाकिस्तान की सेना के ज़ुल्म के ख़िलाफ़ अभियान चला रहे गुट का नेतृत्व कर रहे थे और भारत उनकी मदद कर रहा था। जब यह ज़ाहिर हो गया कि भारत पाकिस्तान में सैन्य अभियान की तैयारी कर चुका है, तब अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर ने इंदिरा गाँधी पर दबाव बनाने की भरपूर कोशिश की कि वह ऐसा न करें। उन्हें अपनी नौसेना का सातवाँ बेड़ा बंगाल की खाड़ी में भेजने की धमकी दी और भेज भी दिया। लेकिन बिना झुके इंदिरा गाँधी ने सैन्य अभियान, जिसे 1971 के भारत-पाक युद्ध के रूप में जाना जाता है; चलाकर स्वतंत्र बांग्लादेश बनवा दिया। न तो अमेरिका और न ही पाकिस्तान ने इसे पसंद किया और एक टीस के रूप में यह हमेशा दोनों देशों के दिलों में चुभता रहा।

इंदिरा गाँधी की ही तरह ही शेख़ हसीना ने भी अमेरिका के आगे घुटने टेकने से इनकार करते हुए सेंट मार्टिन द्वीप अमेरिका को सौंपने से साफ़ इनकार कर दिया। अब शेख़ हसीना ने ख़ुद कहा है कि यदि उन्होंने द्वीप की संप्रभुता को त्यागकर अमेरिका को बंगाल की खाड़ी पर अपना प्रभुत्व  क़ायम करने दिया होता, तो उनकी सत्ता नहीं जाती। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। अमेरिका द्वीप पर अपना सैन्य अड्डा बनाना चाहता है, ताकि दक्षिण एशिया में चीन और भारत पर नज़र रख सके। वैसे भी भारत के प्रति मित्र रुख़ रखने की हसीना की नीति से पाकिस्तान ही नहीं, अमेरिका भी सख़्त नाराज़ था। यहाँ तक कि चीन को भी यह ख़ास पसंद नहीं था; लेकिन हसीना ने हाल के महीनों में चीन को साधने की कोशिश की थी और वहाँ की एक अधूरी यात्रा भी हाल के महीनों में की थी।

दुर्भाग्य से चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हसीना को तरजीह नहीं दी। हसीना की यात्रा के दौरान वह उनसे मिले भी नहीं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नयी सरकार के शपथ ग्रहण के दौरान हसीना ने जून की यात्रा के दौरान भारत के शीर्ष नेतृत्व को बांग्लादेश में संभावित उथल-पुथल को लेकर अपनी आशंका से अवगत कराया था। यह माना जाता है कि यात्रा के दौरान जब शेख़ हसीना गाँधी परिवार से मिली थीं, तो उन्हें भी इसकी जानकारी दी थी। वह इस बात को लेकर बहुत चिंतित थीं कि यदि ऐसा कुछ हुआ, तो बांग्लादेश ने हाल में जो उन्नति की है, वह सब बर्बाद हो जाएगी। क्योंकि देश के कट्टरपंथियों और विदेशी ताक़तों के हाथ जाने का ख़तरा रहेगा। हसीना ने अप्रैल, 2023 में बांग्लादेश संसद में कहा था कि अमेरिका चाहे तो किसी भी देश में सत्ता बदल सकता है। अगर उन्होंने यहाँ (बांग्लादेश में) कोई सरकार बनवायी, तो वो लोगों की चुनी सरकार नहीं होगी। उसी दौरान ढाका के सांसद रशीद ख़ान मेनन ने ‘ढाका रिपोर्ट’ अख़बार के साथ एक इंटरव्यू में आशंका जतायी थी कि अमेरिका सेंट मार्टिन द्वीप के पीछे पड़ा है और नयी अमेरिकी वीजा नीति उसकी बांग्लादेश में शासन परिवर्तन की रणनीति का हिस्सा है। मेनन ने आरोप लगाया था कि वे (अमेरिका) मौज़ूदा सरकार को अस्थिर करने के लिए सब कर रहे हैं।

यह भी दिलचस्प है कि नोबेल पुरस्कार जीत चुके जो मोहम्मद यूनुस बांग्लादेश में अंतरिम सरकार के मुखिया बने हैं, उन्हें अमेरिकी समर्थक माना जाता है। प्रधानमंत्री रहते हुए हसीना मोहम्मद यूनुस पर विदेशी एजेंट होने का आरोप लगाती रही हैं। हाल में हसीना के तख़्तापलट के बाद सेना अध्यक्ष वकर-उज-ज़मान ने जो अंतरिम सरकार बनायी, उसका मुखिया यूनुस को बनाया। वकर-उज-ज़मान शेख़ हसीना के बहुत क़रीबी माने जाते रहे हैं और कहा जाता है कि तख़्तापलट के बाद हसीना को बांग्लादेश से सुरक्षित बाहर निकालकर भारत भेजने में उनकी ही भूमिका थी। इससे पहले 31 जुलाई को भारतीय दूतावास के एक शीर्ष अधिकारी ढाका में हसीना से मिले थे और उन्हें भारतीय एजेंसियों का यह संदेश दिया था कि बांग्लादेश में कभी भी उथल-पुथल हो सकती है। माना जाता है कि शेख़ हसीना को भारत के समर्थन का भरोसा दिलाया गया था। बांग्लादेश के सेनाध्यक्ष ने जो सेफ पैसेज शेख़ हसीना और उनके परिजनों के लिए उपलब्ध कराया, वह उसी का हिस्सा था।

बांग्लादेश में हसीना की सत्ता जाने से अमेरिका के बहुत हित सध सकते हैं। यूनुस का पश्चिमी देशों से अच्छा संपर्क रहा है, क्योंकि वह वहाँ काम कर चुके हैं। यूनुस अमेरिकी सिस्टम से गहराई से वाक़िफ़ हैं। उन्हें अमेरिकी हितों के लिए काम करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होगी। अंतरिम सरकार को समर्थन देने में अमेरिका ने एक दिन भी नहीं लगाया। यूनुस रेमन मैग्सेसे अवार्ड भी जीत चुके हैं, जिसकी फंडिंग अमेरिका की फोर्ड फाउंडेशन करती है। हसीना सरकार के समय जब यूनुस को हत्या की धमकी मिली थी, तब उन्होंने अमेरिकी दूतावास में ही शरण ली थी। जनवरी, 2007 में जब सेना ने बांग्लादेश की सत्ता पर क़ब्ज़ा कर दो पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना और ख़ालिदा ज़िया भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल में डाल दिया था, तब सेना ने मोहम्मद यूनुस को कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश की थी; लेकिन यूनुस ने इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया था। हसीना से इस साल जनवरी में एक पश्चिम देश के दूत ने कहा था कि यदि वह बांग्लादेश में उनके देश के सैन्य अड्डे को मंज़ूरी देती हैं, तो चुनाव में बिना किसी परेशानी के जीत हासिल कर पाएँगी। माना जाता है कि हसीना ने दूत के ऑफर को कोई महत्त्व नहीं दिया। चुनाव में जब हसीना को बांग्लादेश की जनता ने बड़े बहुमत से जिताया, तो अमेरिका ने चुनाव साफ़-सुथरे नहीं होने का आरोप लगाया था। इस दूत के हसीना से मिलने की बात की तस्दीक़ उनकी पार्टी अवामी लीग के बड़े नेता सदरुल ख़ान ने की थी।

सत्तापलट के बाद बांग्लादेश की स्थिति भारत के लिए अब बड़ी चुनौती बन गयी है। वहाँ जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठनों, जिनकी डोर पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के हाथ में मानी जाती है; के ताक़तवर होने की आशंका है। जमात कट्टर भारत विरोधी है। शेख़ हसीना की राजनीतिक विरोधी ख़ालिदा ज़िया, जिन्हें सत्ता पलट के बाद जेल से रिहा कर दिया गया है; भी भारत विरोधी हैं। उन्हें पाकिस्तान और चीन समर्थक माना जाता है। इसमें रत्ती भर भी आशंका नहीं कि जो ताक़तें अब बांग्लादेश की सत्ता पर क़ाबिज़ होने की कोशिश में हैं, वही ताक़तें भारत के ख़िलाफ़ भी साज़िशें रचती रही हैं। ख़ालिदा ज़िया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जमात-ए-इस्लामी, दोनों आईएसआई के इशारे पर काम करती हैं। हसीना सरकार ने जब स्वतंत्रता सेनानियों को नौकरियों में 30 फ़ीसदी कोटा घोषित किया था और बाद में वहाँ के सुप्रीम कोर्ट ने इसे घटाकर पाँच फ़ीसदी कर दिया था, तब भी वहाँ छात्र आन्दोलन जारी रहने से ही ज़ाहिर हो गया था कि आन्दोलन के पीछे मकसद कुछ और है। छात्रों के विरोध-प्रदर्शनों के दौरान बीएनपी और जमात ने भारत के साथ दोस्ती और आर्थिक सम्बन्ध बनाने के लिए शेख़ हसीना को निशाने पर रखा था। यह ताक़तें वहाँ बाक़ायदा ‘इंडिया आउट’ कैंपेन चलाती रही हैं।

इस क्षेत्र में बालकेनाइजेशन प्लॉट के षड्यंत्र के बीच भारत की एक और बड़ी दिक़्क़त सारे पड़ोसी देश- नेपाल, श्रीलंका और मालद्वीव चीन के पाले में जा चुके हैं। अफ़$गानिस्तान में तालिबान का राज है और पाकिस्तान भारत विरोधी है ही। शेख़ हसीना के रूप में भारत के पास एक दोस्त था, उसकी सत्ता भी चली गयी। लिहाज़ा भविष्य में बांग्लादेश के भारत विरोधी गतिविधियों में शामिल होने से इनकार नहीं किया जा सकता। दिल्ली के लिए अब व्यापार और सुरक्षा की दोहरी चिन्ता है। बांग्लादेश, जहाँ हर आठवाँ व्यक्ति हिन्दू है; में हिन्दुओं पर अत्याचार की ख़बरें लगातार आ रही हैं। ख़ुद बांग्लादेश के लिए यह चिन्ता की बात है, जिसकी बेहतर होती जीडीपी हाल के वर्षों में पाकिस्तान के लिए ईर्ष्या का सबब बन गयी थी। इसमें कोई दो-राय नहीं कि हसीना को भारत का साथ देने की भी क़ीमत चुकानी पड़ी है। लिहाज़ा भारत पर उनके हित देखने का ज़िम्मा है।

तख़्तापलट के बाद ढाका में पाकिस्तान परस्त कट्टरपंथियों ने सबसे पहले देश की आज़ादी के सबसे बड़े हीरो शेख़ मुजीब-उर-रहमान की मूर्ति को तोड़ दी। इससे ज़ाहिर हो गया कि पाकिस्तान की एजेंसियाँ वहाँ हावी हो गयी हैं। क्या इन ताक़तों को हराने के लिए 75 साल की शेख़ हसीना वतन वापस लौटेंगी या निर्वासन में ही बाक़ी ज़िन्दगी काटने को मजबूर हो जाएँगी? एक बार पहले वह ऐसा कर चुकी हैं। हो सकता है, एक नयी जंग लड़ने के लिए वह जल्द ही अपने वतन वापस लौटें।

प्रकाश प्रदूषण भी बन रहा मुसीबत

तेज़ कृत्रिम प्रकाश के चलते रतौंधी समेत पनप रहीं कई गम्भीर बीमारियाँ

जगमगाती रोशनी और जगमगाते शहरों की चकाचौंध भले ही सबको अच्छी लगती हो; लेकिन इसे प्रकाश प्रदूषण यानी लुमिनस पॉल्यूशन कहते हैं। इसका एक नाम फोटो पॉल्यूशन भी है। यह प्रदूषण इंसानों द्वारा निर्मित कृत्रिम प्रकाश से फैलता है। यह कृत्रिम प्रकाश इंसानों से लेकर दूसरे जीव-जंतुओं तक की आँखों के लिए बहुत ज़्यादा हानिकारक और आँखों की क़ुदरती दृश्यता को कम करने वाला होता है, जिससे इंसानों से लेकर दूसरे जीव-जन्तुओं, ख़ासकर रात्रिचर जीव-जन्तुओं के लिए हानिकारक होता है। आजकल प्रकाश प्रदूषण से अनेक बीमारियाँ भी हो रही हैं। लेकिन कुछ जानकारों के अलावा पूरी दुनिया इससे अनजान है।

अंतरराष्ट्रीय डार्क-स्काई एसोसिएशन (आईडीए) ने प्रकाश प्रदूषण को आसमान की दृश्यता के लिए सबसे बड़ा बाधक माना है। आईडीए की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कृत्रिम प्रकाश के बढ़ते प्रदूषण से प्राकृतिक प्रकाश अव्यवस्थित हो रहा है और रात की दृश्यता कम हो रही है। इसके अलावा कृत्रिम प्रकाश से ऊर्जा की बर्बादी भी हो रही है। प्रकाश प्रदूषण भी ध्वनि प्रदूषण और वायु प्रदूषण की तरह ही नुक़सानदायक है, जिससे आज ज़्यादातर दुनिया अनजान है और लगातार इसके घातक साइड इफेक्ट देखे बग़ैर इसका उपयोग कर रही है। प्रकाश प्रदूषण के चलते ही अब रात में न आसमान साफ़ दिखता है और न ही आसमान में टिमटिमाने वाले तारे ही साफ़ नज़र आते हैं।

खगोलीय वेधशालाओं के काम में भी कृत्रिम प्रकाश हस्तक्षेप करता है। लेकिन खगोलीय वेधशालाओं के मिशन के काम करने के लिए भी कृत्रिम प्रकाश की ज़रूरत भी पड़ती है, जो ख़ुद में भी प्रकाश प्रदूषण ही है। वैज्ञानिक बहुत पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि कृत्रिम प्रकाश से पैदा होने वाला प्रदूषण इंसानों के साथ-साथ धरती पर मौज़ूद सभी प्रकार के जीव-जन्तुओं से लेकर पेड़-पौधों को भी प्रभावित कर रहा है। इस कृत्रिम प्रकाश से फैलने वाले प्रदूषण से धरती का पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित और बाधित हो रहा है, जिसका सभी के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। वैज्ञानिकों और खगोलविदों ने कृत्रिम प्रकाश से फैलने वाले प्रदूषण को मुख्य रूप से दो भागों में बाँटा है, जिनमें से पहला है- कष्टप्रद प्रकाश, जिसके प्रभाव को जल्दी महसूस नहीं किया जा सकता है और यह इंसानों से लेकर धरती पर मौज़ूद सभी प्रकार के जीव-जन्तुओं और प्राकृतिक चीज़ों की हल्की प्रकाश व्यवस्था में दख़लंदाज़ी करता है यानी धीरे-धीरे नुक़सान पहुँचाता है। दूसरा ज़्यादा घातक है, जिसके चलते किसी को भी तेज़ी से नुक़सान होता है और इस प्रकार का कृत्रिम प्रकाश आमतौर जल्दी ही नुक़सानदायक परिणाम दिखाना लगता है। उदाहरण के लिए तेज़ प्रकाश से आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है या आँखों से जलन के साथ आँसू निकलने लगते हैं। दूसरी प्रकार का कृत्रिम प्रकाश स्वास्थ्य पर जल्दी और ज़्यादा प्रतिकूल असर डालता है।

सबसे बड़ी समस्या यह है कि जो लोग यह जानते हैं कि कृत्रिम प्रकाश से निकला प्रदूषण बहुत नुक़सानदायक साबित हो रहा है, वही कृत्रिम प्रकाश की और अधिक दृश्यता यानी प्रकाश की तेज़ किरणों की खोज में लगे हैं, जिससे वे गहरे से गहरे अंधकार में भी आसानी से देख सकें। इसके अलावा सदियों से आसमान के रहस्यों को जानने की कोशिशों में लगे वैज्ञानिक भी ऐसे कृत्रिम प्रकाश को खोजने की कोशिश में लगे हैं, जिसकी मदद से अपने सौरमंडल के अलावा दूसरे सौर मंडलों का पता लगा सकें और ब्रह्मांड में बने ब्लैक होल्स में आसानी से झाँककर पता लगा सकें कि वहाँ क्या चल रहा है? इसके अलावा हर दिन ईजाद की जा रही ज़्यादा दृश्यता वाली ट्यूब लाइट्स और ज़्यादा रोशनी पैदा करने वाले रंग-बिरंगे बल्बों की खोज हो रही है, जिससे धरती पर और ज़्यादा तथा आकर्षक रोशनी की जा सके। आजकल तो गाड़ियों में इतनी तेज़ लाइट्स आ गयी हैं, जिनकी तरफ़ देखने भर से आँखों में परेशानी होने लगती है। जब तक इस तरह की खोजों पर रोक नहीं लगेगी और कृत्रिम प्रकाश की दृश्यता की एक सीमा निर्धारित नहीं की जाएगी, प्रकाश प्रदूषण रोकना तो दूर, उलटा यह बढ़ता ही रहेगा।

कृत्रिम प्रकाश के नुक़सानों को देखते हुए सन् 1980 के दशक की शुरुआत से दुनिया भर के कुछ जागरूक लोगों ने एक वैश्विक डार्क स्काई मूवमेंट चलाया, जिसे काला आसमान आन्दोलन भी कहते हैं। इस आन्दोलन का मक़सद दुनिया भर की सरकारों से कृत्रिम प्रकाश से फैलने वाले प्रदूषण को रोकने की अपील करना रहा है। लेकिन आज तक इस आन्दोलन का किसी पर कोई असर नहीं पड़ा और दुनिया भर के शहर आज पहले से भी ज़्यादा कृत्रिम प्रकाश में जगमगाते दिखते हैं। आज शहरों से लेकर गाँवों तक देर तक लोगों का कृत्रिम रोशनी में जागना, देर रात तक काम करना या मोबाइल देखना बहुत घातक होता जा रहा है।

आज दफ़्तरों में दिन भर जो लोग कृत्रिम प्रकाश में बैठकर कम्प्यूटर पर लगातार काम करते हैं, उन्हें इसके सबसे ज़्यादा नुक़सान होते हैं। इसलिए डॉक्टर सलाह देते हैं कि कम्प्यूटर पर लगातार काम करने वालों को हर 20-25 मिनट में उठकर टहल लेना चाहिए, वर्ना उन्हें इसके कई नुक़सान उठाने पड़ सकते हैं। अक्सर देखा गया है कि ज़्यादा देर तक कम्प्यूटर पर काम करने वालों को कई परेशानियाँ होने लगती हैं, जिनमें सबसे पहली परेशानी आँखों की रोशनी कम होना है। इसके अलावा ऐसे लोगों को रतौंधी, कमर दर्द, बीपी, शुगर, थायराइड के अलावा पेट में इंफेक्शन और जोड़ों में दर्द की शिकायत भी रहती है। ज़्यादा कृत्रिम प्रकाश यानी प्रकाश कोलाहल से सड़क से लेकर हवाई पर्यावरण को भी ख़तरा होता है, जिसकी वजह से दुर्घटना होने का ख़तरा ज़्यादा रहता है। आज दुनिया भर में होने वाली सड़क दुर्घटनाओं में से क़रीब 70 फ़ीसदी सड़क दुर्घटनाएँ रात में ही होती हैं, जिनकी ज़्यादातर वजह दृश्यता की कमी है और इसके लिए 80 फ़ीसदी तेज़ कृत्रिम प्रकाश ही ज़िम्मेदार है। इसलिए अगर बहुत ज़रूरी हो, तभी कम-से-कम दृश्यता वाले ही कृत्रिम प्रकाश का इस्तेमाल करें। उदाहरण के लिए अगर बल्ब जलाना पड़ता है, तो कम रोशनी करने वाले बल्ब का इस्तेमाल करें।

इसमें दो-राय नहीं कि आज कृत्रिम प्रकाश के बिना काम नहीं चल सकता। लेकिन इसका एक सीमा से ज़्यादा उपयोग और ज़्यादा दृश्यता वाले प्रकाश में काम करने की लत से लोग अपनी आँखों की रोशनी खो रहे हैं। डॉक्टरों के मुताबिक, कृत्रिम प्रकाश में अगर किसी को काम करना भी पड़े, तो उसे आँखों पर ऐसा चश्मा लगाना चाहिए, जो तेज़ रोशनी के प्रभाव को कम कर सके। ठीक वैसे ही, जैसे कोई वेल्डिंग करने वाला वेल्डिंग करते समय अपनी आँखों पर काला चश्मा लगाता है या अपनी आँखों के आगे एक काला गिलास लेकर काम काम करता है। समस्या यह है कि आज की औद्योगिक सभ्यता में कृत्रिम प्रकाश के बिना काम ही नहीं चल सकता। आज कोई भी काम हो और कोई भी जगह हो, कृत्रिम प्रकाश एक ऐसी ज़रूरत बन गया है, जिसके बिना काम ही नहीं चल सकता। लेकिन इससे फैलने वाला प्रकाश प्रदूषण इंसानों से लेकर दूसरे जीव-जन्तुओं और धरती के पर्यावरण को जितना नुक़सान पहुँचाता है, उससे भी हर किसी को वाक़िफ़ होना चाहिए; जिससे लोग ज़रूरत के मुताबिक ही कृत्रिम प्रकाश का उपयोग करें।

यूके स्थित इंस्टीट्यूशन ऑफ लाइटिंग इंजीनियर्स नाम का संस्थान काफ़ी पहले से ही अपने कर्मचारियों को प्रकाश प्रदूषण और इससे पैदा होने वाली समस्याओं के बारे में जानकारी देने के अलावा यह भी बताता रहा है कि इससे होने वाले नुक़सानों से कैसे बचा जा सकता है। इंस्टीट्यूशन ऑफ लाइटिंग इंजीनियर्स ने बहुत पहले ही अपने कर्मचारियों को कम रोशनी में काम करने के लिए कहा था और जहाँ ज़्यादा रोशनी की ज़रूरत है, वहाँ आँखों पर ख़ास तरह के चश्मे लगाने की सलाह दी थी। लेकिन भारत में लोगों की समस्या यह है कि अगर उन्हें धुँधला दिखता है, तो वे आँखों की सेफ्टी करने की जगह कृत्रिम प्रकाश बढ़ाने के बारे में सोचते हैं। उदाहरण के लिए अगर किसी को मोबाइल में कम दिखता है, तो वह उसकी स्क्रीन लाइट बढ़ा देता है। जबकि मोबाइल को पहले ही कम स्क्रीन लाइट में देखना चाहिए और वह भी जितना कम-से-कम हो सके, उतना ही देखना चाहिए। हो सके, तो आँखों पर प्रकाश-रोधी लेंस वाला चश्मा लगाकर ही मोबाइल देखना चाहिए। लेकिन भारत में ज़्यादातर लोग इसके उलट करते हैं।

आज प्रकाश प्रदूषण एक वैश्विक चिन्ता का कारण बनता जा रहा है; लेकिन इसके बावजूद न तो सभी देशों की सरकारें कृत्रिम प्रकाश की दृश्यता की सीमा तय कर रही हैं और न ही कोई संस्थान इसके लिए ख़ास काम कर रहा है। जो लोग इसे लेकर चेतावनी दे रहे हैं, उनकी कोई सुनने वाला नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक, अगर कृत्रिम प्रकाश की दृश्यता लगातार बढ़ती रही और लोग दिन-रात तेज़ कृत्रिम प्रकाश में काम करने से बाज़ नहीं आये, तो आने वाले 50 वर्षों में दुनिया के 60 फ़ीसदी लोगों को चश्मा लगाना होगा और हो सकता है कि 15 फ़ीसदी लोग 20 साल की उम्र तक ही अंधे हो जाएँ। आज मेड्रिड के आसपास के क्षेत्र में एक एकल विशाल समूह से उत्पन्न कृत्रिम प्रकाश के प्रदूषण का प्रभाव इसके केंद्र बिन्दु से चारो तरफ़ 100 किलोमीटर यानी क़रीब 3,28,084 फुट दूर तक महसूस किया जा सकता है। यह चिन्ता का विषय है और दुनिया के हर देश को इस पर विचार करना चाहिए।

कानून है, पर नहीं रुक रहे बाल-विवाह

भारत 145 करोड़ की आबादी वाला देश है, जो अनुमानित तौर पर दुनिया की पाँचवीं अर्थ-व्यवस्था है। लेकिन सरकारी दावा यह किया जा रहा है कि जल्द ही भारत तीसरी अर्थ-व्यवस्था बन जाएगा। भारत की आर्थिक प्रगति के संदर्भ में सरकारी आँकड़े चाहे कुछ भी बोलें; लेकिन क्या इस प्रगति ने सामाजिक प्रगति में अपेक्षित योगदान दिया है? यहाँ पर सवाल भारतीय समाज में होने वाले बाल-विवाह के संदर्भ में सरकार से पूछा जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त सवाल यह भी है कि लड़कियों के सशक्तिकरण सम्बन्धित सरकारी योजनाएँ भी ऐसे ग़ैर-क़ानूनी बाल-विवाह रोकने की दिशा में कारगर नतीजों को लाने में अधिक सफल होती नज़र क्यों नहीं आतीं? बाल-विवाह के संदर्भ में यह आँकड़ा काफ़ी चौंकाने वाला है कि भारत में आज भी हर मिनट में तीन नाबालिग़ लड़कियों की शादी हो रही है। बाल-विवाह मुक्त भारत नामक सिविल सोसायटी संगठनों के नेटवर्क की एक रिपोर्ट के अनुसार, बाल-विवाह की संख्या प्रति वर्ष 16 लाख पहुँच जाती है। इस नेटवर्क से जुड़े शोध दल ‘भारत बाल संरक्षण’ ने 2011 की जनगणना से जुड़े आँकड़ों के साथ राष्ट्रीय अपराध शाखा और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 (2019-21) की सूचनाओं को मिलाकर उनका विश्लेषण किया और बताया कि भारत में हर साल 16 लाख बाल-विवाह होते हैं। लेकिन हैरानी तब होती है, जब देश में होने वाले अपराधों के रिकॉर्ड को सार्वजनिक करने वाली सरकारी संस्था राष्ट्रीय अपराध शाखा कहती है कि सन् 2018 से सन् 2022 के दरमियान देश में 3,863 बाल-विवाह हुए थे। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 बताता है कि इस दरमियान देश में 20-24 आयु वर्ग की 23.3 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 वर्ष की आयु से पहले हो गयी थी।

ग़ौरतलब है कि भारत में विवाह के लिए लड़कियों की न्यूनतम आयु 18 साल और लड़कों के लिए 21 वर्ष क़ानूनन तय की गयी है। बाल-विवाह निषेध अधिनियम के बावजूद हक़ीक़त यह है कि बाल-विवाह का दाग़ भारत पर आज़ादी के 77 साल होने पर भी लगा हुआ है। यही नहीं, 21वीं सदी का 24वाँ साल चल रहा है और अगले साल 2025 के समाप्त होते ही इस सदी का एक-चौथाई वक़्त बीत जाएगा और अगर बाल-विवाह को बिलकुल नहीं रोका गया, तो दुनिया की सबसे बड़ी पाँचवीं अर्थ-व्यवस्था वाले इस देश के समक्ष बाल-विवाह तब भी एक बहुत बड़ी चुनौती होगी। बाल-विवाह के लिए जहाँ आर्थिक व सामाजिक कारणों की एक लंबी $फेहरिस्त गिना दी जाती है; वहीं इस कुप्रथा पर रोक नहीं लगती। लेकिन ऐसे बाल-विवाहों की आड़ में होने वाले अपराधों का अदालतों में क्या हश्र होता है? इस पहलू को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

इस रिपोर्ट के अनुसार, बाल-विवाह निषेध अधिनियम के तहत 2022 में विभिन्न अदालतों में सुनवाई के लिए सूचीबद्व कुल 3,563 बाल-विवाह मामलों में से केवल 181 मामलों में ही सुनवाई पूरी हुई। मामलों को निपटाने की धीमी गति चिन्ता का विषय है। क्योंकि इस मामले में लंबित मामलों का अंबार लगा हुआ है। ऐसा अनुमान है कि देश की न्याय व्यवस्था को 2022 तक लंबित मामलों को निपटाने में क़रीब 19 साल लग सकते हैं। ध्यान देने वाला बिंदु यह भी है कि शीर्ष अदालत कई मर्तबा अदालतों में सभी अपराधों के लंबित मामलों के प्रति अपनी चिन्ता ज़ाहिर कर चुकी है। यही नहीं, बाल-विवाह निषेध अधिनियम के तहत दर्ज मामलों में दोषसिद्धि दर पर नज़र डालें, तो यह भी चिन्ता का कारण है। वर्ष 2022 में इनमें से मात्र 11 प्रतिशत मामलों में ही सज़ा सुनायी गयी; जबकि उसी साल बच्चों के ख़िलाफ़ किये गये सभी अपराधों के लिए कुल दोषसिद्धि दर 34 प्रतिशत है।

सवाल यह भी उठता है कि आख़िर सज़ा दर इतनी कम क्यों है? अदालतों के समक्ष ऐसे मामलों की सुनवाई के दौरान कौन-सी ऐसी दलीलें अरोपी पक्षों की तरफ़ से पेश की जाती हैं कि मामले कमज़ोर पड़ जाते हैं? ऐसी कमियों को दूर करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जो बाल-विवाह निषेध क़ानून को पूरी तरह से सफल होने में रुकावट डालते हैं। यह भी सच है कि बाल-विवाह सरीखी सामाजिक बुराई के उन्मूलन के लिए एक साथ कई मोर्चों पर गंभीरता के साथ प्रयास जारी रहने चाहिए। जहाँ ख़ामियाँ हैं, वहाँ त्वरित कार्रवाई की दरकार है।

बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था यूनिसेफ का मानना है कि बाल-विवाह मानवाधिकारों का उल्लघंन है; क्योंकि इसके लड़कियों और लड़कों, दोनों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं। यही नहीं, स्थायी विकास लक्ष्य कहता है कि बाल-विवाह उन्मूलन स्थायी विकास का लक्ष्य हासिल करने के लिए अहम है, जिसका मक़सद 2030 तक लैंगिक समानता और महिलाओं और अविवाहित लड़कियों के सशक्तिकरण को हासिल करना है।

किसानों को कम ही लाभ पहुँचाएगा बजट

योगेश

किसानों को जिस तरह मूर्ख बनाने की कोशिश सरकारों ने की है, वो ठीक नहीं है। किसान इतने नासमझ नहीं हैं। लेकिन उन्हें खाद सब्सिडी के नाम पर, न्यूनतम समर्थन मूल्य के नाम पर, फ़सल बीमा के नाम पर ख़ूब ठगा और मूर्ख बनाया गया है। न्यूनतम समर्थन मूल्य भी उनको नहीं मिल रहा है। इस बार केंद्र सरकार में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वित्त वर्ष 2024-25 के लिए आम बजट में जिस तरह का कृषि बजट पेश किया है, उसकी भले ही कुछ लोग तारीफ़ कर रहे हों; लेकिन किसानों को इस बजट में भी झाँसा ही दिया गया है। इस बजट से किसानों को बमुश्किल बहुत-ही कम लाभ पहुँचेगा। क्योंकि कृषि क्षेत्र के लिए जो 1.52 लाख करोड़ रुपये का बजट इस वर्ष के लिए दिया गया है, पहले तो बहुत कम है और इस बजट का सीधा फ़ायदा भी किसी भी हाल में किसानों को नहीं मिलने वाला। इसके साथ ही लागत मूल्य, फ़सलों का कम भाव और महँगाई के हिसाब से इस बार का कृषि बजट बहुत कम है।

इससे पिछले वित्त वर्ष 2023-24 का कृषि बजट 1.25 लाख 36 हज़ार करोड़ रुपये रखा गया था। लेकिन पिछले साल किसानों को कुछ नहीं मिला। आन्दोलन करने वाले किसानों को लाठियाँ और कई तरह की यातनाएँ ज़रूर मिलीं। लेकिन ये दोनों बजट पिछले कृषि बजट से काफ़ी कम हैं। वित्त वर्ष 2020-21 में कृषि बजट 2.83 लाख करोड़ रुपये रखा था। इसमें कृषि संबंधित 16 सूत्री योजनाओं को शामिल किया गया था। इस बजट में 1.6 लाख करोड़ रुपये विशेष रूप से कृषि, सिंचाई और कृषि संबद्ध गतिविधियों के लिए रखे गये थे। अब पूरा कृषि बजट ही 1.52 लाख करोड़ का है, जो कि इस बार कम-से-कम तीन लाख करोड़ से ज़्यादा होना चाहिए था।

इस बार के बजट में जिस तरह से केंद्रीय वित्त मंत्री ने किसानों को जितना मूर्ख बनाने की कोशिश की है, उसका उतना ही ज़्यादा महिमामंडन सरकारी समर्थक और केंद्रीय मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री योगी ने किया है। मगर किसानों का समझने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है और न ही कोई किसानों का भला चाहता है। अगर केंद्र सरकार किसानों का भला चाहती, तो संसद में किसानों का स्वागत करती और उनकी समस्याओं को सुनती। केंद्र सरकार को किसानों की समस्याओं का समाधान करना चाहिए, जिससे उन्हें होने वाला घाटा रुक सके और वे भी ख़ुशहाल जीवन जी सकें। वित्त मंत्री ने कहा है कि केंद्र सरकार 32 फ़सलों की 109 नयी क़िस्में लाएगी। बाज़ार में हर फ़सल की नयी क़िस्में तो ऐसे ही आती रहती हैं। किसानों को नयी क़िस्मों के नाम पर हर फ़सल बुवाई के समय में ठगा जाता है। फ़सलों को बीज लगातार महँगे होते जा रहे हैं। फर्टिलाइजर बीजों के चलते ही तो किसानों की फ़सलें ख़राब होती हैं, जिन्हें ख़राब होने से बचाने के लिए किसानों को मजबूरी में कीटनाशकों का प्रयोग करना पड़ता है। इससे किसानों का पैसा तो बर्बाद होता ही है, फ़सलों की गुणवत्ता भी नष्ट हो जाती है।

इसके अलावा केंद्रीय वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती यानी जैविक खेती कराएगी। लेकिन सरकार जैविक फ़सलों का सही भाव तय नहीं कर रही है। अगर किसानों को जैविक फ़सलों का उचित मूल्य मिलेगा, तो किसान जैविक खेती करने के लिए ख़ुद ही प्रोत्साहित होंगे और वे पहले की तरह दोबारा जैविक खेती करने लगेंगे। वित्त मंत्री कह रही हैं कि प्राकृतिक खेती के लिए सरकार ने पिछले बजट से इस बार 21.6 प्रतिशत बजट बढ़ाया है; लेकिन यह नहीं कह रही हैं कि यह बजट पिछले 10 वर्षों में बढ़ती महँगाई और बढ़ती कृषि लागत के हिसाब से नहीं बढ़ा है। बीते 10 वर्षों में खाद, बीज, बिजली और दूसरी कृषि लागत में तीन से चार गुना बढ़ोतरी हुई है, जबकि किसानों को न तो फ़सलों का मूल्य बीते 10 वर्षों के हिसाब से तीन से चार गुना मिला है और न ही कृषि बजट तीन से चार गुना बढ़ा है।

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से एक सवाल है कि इस बजट में किसानों को सीधे तौर पर कितनी सौगातें दी गयी हैं? ख़ाली बजट को ऐसे बोल देने से जैसे दुनिया का सबसे बढ़ा बजट हो, काम नहीं चलेगा। कृषि प्रधान देश होने के बाद भी हमारे किसानों को सरकारी फ़ायदा सबसे कम मिलता है। बीमा कम्पनियाँ किसानों का मुआवज़ा हड़प जाती हैं, तो दलाल किसानों का लाभ हड़प जाते हैं। किसानों से हर जगह पर ठगी होती है। उन्हें ऐसे दुत्कारा जाता है। जैसे वे लोगों का पेट भराकर कोई गुनाह कर रहे हों। वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार कृषि क्षेत्र के प्रोत्साहन के लिए एग्रीकल्चरल रिसर्च सेटअप करेगी। इससे किसानों को क्या लाभ होगा? कृषि कार्यक्रमों को बंद करके, कृषि विश्वविद्यालयों व कृषि सम्बन्धी विभागों की दशा बिगाड़कर एग्रीकल्चरल रिसर्च सेटअप से किसानों को लाभ कैसे मिलेगा? क्योंकि किसानों को लाभ तब मिलेगा, जब उनके लिए गाँव-गाँव में कार्यक्रम आयोजित किये जाएँगे और उन्हें सीधे बेहतर कृषि तकनीक की ट्रेनिंग दी जाएगी।

ठीक से समझें, तो इस बजट से न तो किसानों का क़ज़र् माफ़ किया जा रहा है और न ही उनकी फ़सलों को उचित न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का प्रावधान किया गया है। पाँच राज्यों के किसानों को क्रेडिट कार्ड देने और क्रेडिट कार्ड की संख्या बढ़ाने की केंद्र सरकार ने घोषणा की है, जिससे किसानों पर क़ज़र् ही बढ़ेगा। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह भी नहीं बताया कि इस वित्त वर्ष के बजट के 1.52 लाख करोड़ रुपये में से किस मद में कितने रुपये रखे जाएँगे? क्या क्रेडिट कार्ड के मद में इसी बजट में से रुपये डाले जाएँगे? अगर केंद्र सरकार ऐसा कर रही है, तो यह किसानों के साथ सीधे तौर पर धोखा होगा; क्योंकि सरकार एक तरफ़ किसानों को क़ज़र् दे रही है और उसका हिसाब रख रही है बजट में। इससे बड़ा धोखा क्या होगा?

आगे वित्त मंत्री ने कहा कि प्राकृतिक खेती का सर्टिफिकेशन किया जाएगा। सर्टिफिकेशन से किसानों को कौन-सा भारत रत्न मिल जाएगा? इस पागलपन की जगह सरकार प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों को सम्मानित करे, तो उनमें उत्साह बढ़े। वित्त मंत्री कह रही हैं कि देश में 10,000 बायो रिसर्च सेंटर बनाये जाएँगे। बायो रिसर्च सेंटर बनाने का क्या लाभ, जब तक कि बायोगैस को पुनर्जीवित नहीं किया गया है? सरकार को किसानों को बायो गैस और जैविक ईंधन, जैविक खाद के उपयोग को प्रोत्साहित करना चाहिए। यह तो पुराने और सफल प्रयोग हैं, इन्हें सिर्फ़ पुनर्जीवित करने की ज़रूरत है। लेकिन इसे बढ़ाने के लिए सरकार को पशुपालन बढ़ाने पर ज़ोर देना चाहिए, जिससे बायोगैस, बायो ईंधन और जैविक खाद में बढ़ोतरी हो। लेकिन एक तरफ़ केंद्र सरकार किसानों को पुरानी तकनीक नये लिफ़ा$फे में रखकर परोसना चाहती है और दूसरी ओर सरकार उर्वरक खाद, फर्टिलाइजर बीज और कीटनाशक बनाने वाली कम्पनियों को लाभ पहुँचा रही है। उन्हें बहुत बड़ी सब्सिडी दे रही है। इसके बदले में कम्पनियाँ ईमानदारी का चोला ओढ़े मंत्रियों को क्या लाभ पहुँचाती हैं? इसकी जाँच हो, तो घोटाले ही निकलकर सामने आएँगे।

वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती के लिए मदद देगी, जिसे ग्राम पंचायतों के ज़रिये लागू किया जाएगा। क्या यह मदद किसानों को सीधे धन देकर की जाएगी? क्या किसानों को इस मदद के लिए जैविक खाद, जैविक बीज आदि मुफ़्त में बाँटे जाएँगे? ऐसा कुछ नहीं है, तो किसानों को क्या दिया जाएगा? प्राकृतिक खेती करने की बात रही, तो किसान इसमें सक्षम हैं। वित्त मंत्री ने कहा कि सब्ज़ियों की सप्लाई चेन पर ज़ोर दिया जाएगा। लेकिन उन्होंने यह नहीं कहा कि किसानों को सब्ज़ियों का उचित मूल्य दिया जाएगा। किसानों के हाथों से सस्ते में छीनी जाने वाली सब्ज़ियाँ बाज़ार में आठ से 15 गुनी महँगी बिकती हैं। टमाटर का उदाहरण लें, तो किसानों को इस समय टमाटर का अधिकतम मूल्य सात-आठ रुपये किलो का मिल रहा है। बहुत अच्छा टमाटर किसानों से 10-12 रुपये किलो लिया जा रहा है। लेकिन बाज़ार में यही टमाटर 80 से 120 रुपये किलो बिक रहा है। इसमें किसानों को क्या मिल रहा है? क्या वित्त मंत्री को किसानों को सब्ज़ियों का उचित मूल्य दिलाने की बात नहीं करनी चाहिए थी? केंद्रीय वित्त मंत्री ने कहा कि केंद्र सरकार 400 ज़िलों में फ़सलों का डिजिटल सर्वे कराएगी। इससे क्या लाभ होगा और किसानों को क्या मिलेगा? करोड़ों रुपये डिजिटल सर्वे में ख़र्च कर दिये जाएँगे और उसके बाद किसानों को कुछ नहीं मिलेगा। इससे अच्छा होता कि इतने रुपये से सरकार किसानों का क़ज़र् माफ़ करती।

वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार जलवायु के अनुकूल बीज विकसित करने के लिए निजी क्षेत्र, विशेषज्ञों को बजट देगी। क्या किसानों को बीज सँभालना नहीं आता? ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार बीज संरक्षण के नाम पर बजट में से काफ़ी बड़ा हिस्सा अपने चहेते लोगों को बाँटना चाहती है। अगर किसानों को ही उसे लाभ पहुँचाना है, तो किसानों को सीधे लाभ क्यों नहीं देती? सरकार किसानों को दिये गये क्रेडिट कार्ड पर तीन लाख तक का क़ज़र् चार प्रतिशत ब्याज दर पर देती है। सरकार को क्रेडिट कार्ड पर एक प्रतिशत वार्षिक ब्याज लेना चाहिए और एक साल के लिए बिना ब्याज के 3,00,000 रुपये देने चाहिए, जिससे ग़रीब और मध्यम वर्गीय किसान इसका सदुपयोग करके अपनी हालत सुधार सकें। वित्त मंत्री ने कहा कि कृषि बजट में कृषि क्षेत्र के विकास के लिए कोई योजना नहीं है। वित्त मंत्री बताएँगी कि क्या इस बार का कृषि बजट निराशाजनक और दिशाहीन नहीं है? जिस बजट से किसानों को सीधे कोई लाभ नहीं मिलेगा, वो बजट किसानों के किस काम का?

ट्रम्प बनाम कमला

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प पर एक सभा के दौरान हुए हमले के कुछ ही दिन के भीतर राष्ट्रपति जो बाइडेन ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए इस साल के आख़िर में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से अपना नाम वापस ले लिया है। इससे उप राष्ट्रपति कमला हैरिस के डेमोक्रेटिक पार्टी का उम्मीदवार होने का रास्ता खुल गया है। लम्बी ख़ामोशी के बाद आख़िर पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा और उनकी पत्नी मिशेल ओबामा ने हैरिस की उम्मीदवारी के लिए अपना समर्थन दे दिया। क्या ओबामा की ख़ामोशी के पीछे कारण यह था कि बाइडेन को रेस से बाहर कर वह अपनी पत्नी मिशेल ओबामा को राष्ट्रपति पद के लिए डेमोक्रेट उम्मीदवार बनाना चाहते थे? परदे के पीछे ऐसी चर्चा ख़ूब रही थी। अगले महीने डेमोक्रेटिक पार्टी की सभा में कमला हैरिस की उम्मीदवारी पर आधिकारिक मुहर लगने की अब पक्की संभावना है।

पेंसिल्वेनिया में एक रैली को संबोधित करते हुए जब एक हमलावर की गोली ट्रम्प के कान को छूने के बाद उनके चेहरे पर ख़ून की एक लकीर छोड़ते हुए निकल गयी, तो भले यह ट्रम्प के जीवन को संकट में डालने वाला क्षण था; लेकिन ट्रम्प ने इसे राजनीतिक रूप से भुनाने में देर नहीं की। चेहरे पर ख़ून की इस लकीर के साथ भिंची हुई मुट्ठी जब उन्होंने अपने समर्थकों की तरफ़ लहरायी, उस समय सीक्रेट सर्विस के अधिकारी ढाल बनाकर उन्हें सुरक्षित स्थान की तरफ़ ले जा रहे थे। ट्रम्प की यह तस्वीर दुनिया भर के अख़बारों और टीवी चैनलों ने बार-बार दिखायी। कोई शक नहीं कि सिर्फ़ इस एक तस्वीर ने ट्रम्प के प्रति अमेरिका में समर्थन का जबरदस्त माहौल बना दिया। लेकिन क्या यह माहौल स्थायी है? शायद नहीं।

जो बाइडेन के डिबेट्स में कमज़ोर प्रदर्शन और उनकी भूलने की आदत ने ट्रम्प को बढ़त के पायदान पर लाकर खड़ा कर दिया। चिन्तित डेमोक्रेट्स यह चर्चा करने लगे कि क्या बाइडेन के साथ वह ट्रम्प को हराने की कल्पना कर सकते हैं? अधिकतर का जवाब न में था। बाइडेन को मैदान से बाहर करने की मुहिम के सबसे बड़े पैरोकार पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा थे। भले वह ट्रम्प की मज़बूती को देखते हुए बाइडेन को उम्मीदवारी से हटाने की मुहिम चला रहे थे; इसके पीछे एक मक़सद पत्नी मिशेल ओबामा के लिए पद की उम्मीदवारी की संभावना बनाना भी था। मिशेल का नाम पहले भी दो बार डेमोक्रेटिक पार्टी में राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए चर्चा में रहा है। लिहाज़ा ओबामा की कोशिश आश्चर्यजनक नहीं थी। लेकिन इस बीच बाइडेन ने अचानक अपना नाम राष्ट्रपति की उम्मीदवारी से वापस ले लिया। यही नहीं, उन्होंने पद के लिए कमला हैरिस की उम्मीदवारी का समर्थन कर दिया। बाइडेन ख़ेमे में ओबामा के प्रति नाराज़गी थी। लिहाज़ा ऐसा करने से ओबामा की कोशिशों को धक्का लगा। इसके बावजूद एक हफ़्ते तक ओबामा ने हैरिस के नाम का समर्थन नहीं किया, जबकि तब तक पार्टी के ज़्यादातर बड़े नेता हैरिस के समर्थन की घोषणा कर चुके थे। लेकिन अब यह तय हो गया है कि कमला हैरिस ही डेमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति पद की उमीदवार होंगी; भले इसका अंतिम फ़ैसला आधिकारिक रूप से अगस्त के पहले हफ़्ते होने वाली पार्टी की कन्वेंशन में होगा।

A voter casts her ballot at a polling station on Election Day in Falls Church, Virginia, U.S., November 7, 2023. REUTERS/Kevin Lamarque/ File photo

कमला हैरिस को मतदान के पहले दौर में नामांकन जीतने के लिए ज़रूरी 1,976 प्रतिनिधियों से ज़्यादा का समर्थन हासिल हुआ जिससे साफ़ दिख रहा है कि हैरिस नवंबर के राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन डोनाल्ड ट्रम्प को चुनौती देने के लिए तैयार हैं। वास्तव में यह रोल कॉल वोट कहलाता है। हैरिस को अगस्त में शिकागो में होने वाली डेमोक्रेटिक नेशनल कन्वेंशन में अब पूरा समर्थन मिलने की पक्की संभावना दिख रही है। राष्ट्रपति पद के लिए कमला हैरिस के विरोधी के रूप में सामने आने से डोनाल्ड ट्रम्प के पक्ष में जो माहौल बना था, उसमें कमी आयी है। उम्मीदवारी लगभग पक्की होने के बाद इजरायल के गाज़ा में हमलों में मरने वाले बेक़सूर लोगों को लेकर जिस तरह कमला हैरिस ने कड़ा रुख़ दिखाया है, उससे अमेरिका में उनका समर्थन बढ़ सकता है। ट्रम्प जिस तरह जो बाइडेन की उम्र (83 साल) को लेकर सवाल उठा रहे थे, अब केवल 59 साल की हैरिस यही सवाल ट्रम्प (79) की उम्र को लेकर उठा रही हैं। ट्रम्प के कोर्ट में चल रहे मामले भी हैरिस के लिए एक मुद्दा हैं। अमेरिका में यह सवाल उठाया जा रहा है कि यदि इन मामलों में दोषी पाये जाने पर ट्रम्प को सज़ा मिलती है, तो क्या होगा? कमला के राष्ट्रपति उम्मीदवार होने से बड़ी संख्या में भारतीय भी उनके साथ जा सकते हैं।

कमला हैरिस की विदेश मामलों में जानकारी को लेकर रिपब्लिकन सवाल उठा रहे हैं। यदि व्हाइट हाउस की वेबसाइट पर कमला हैरिस के पेज को देखा जाए, तो पता चलता है कि एक उपराष्ट्रपति के तौर पर कमला हैरिस ने पिछले साढ़े तीन साल के कार्यकाल के दौरान डेढ़ दज़र्न देशों का दौरा किया। इस दौरान कमला ने 150 से ज़्यादा विदेशी नेताओं से मुलाक़ात / बैठकें कीं। रिपब्लिक के विरोध के बावजूद अमेरिका में कई लोग मानते हैं कि राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में कमला हैरिस की नीतियाँ वास्तव में अब सामने आएँगी। इनमें से कई जानकार कहते हैं कि उप राष्ट्रपति के रूप में भूमिका के विपरीत अब कमला की छवि कहीं ज़्यादा मज़बूत नेता के रूप में सामने आ सकती है। अमेरिकी चुनाव पर बाहरी देशों- रूस, चीन और भारत की नज़र है। यह माना जाता है कि रूस की प्राथमिकता अपने हित देखने की रहेगी। डोनाल्ड ट्रम्प के पिछले कार्यकाल को लेकर रूस में निराशा ही अनुभव की गयी थी। यूक्रेन में रूस के हमले के बाद ट्रम्प लगभग ख़ामोश रहे। कारण था- जो बाइडेन का राष्ट्रपति पुतिन को किलर कहना।

उधर ट्रम्प ने तो एक मौक़े पर यूक्रेन को अमेरिकी मिलिट्री मदद पर सवाल खड़े किये थे। जहाँ तक चीन की बात है, ताइवान दोनों देशों के बीच तनाव का एक बड़ा कारण रहा है। ट्रम्प जहाँ ताइवान को निशाने पर रखते रहे हैं, वहीं बाइडेन ने राष्ट्रपति के रूप में ताइवान के साथ खड़े रहने की क़सम खायी थी। हैरिस चीनी नेता शी जिनपिंग के साथ 2022 में बैंकॉक में एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग शिखर सम्मेलन में मिल चुकी हैं।

बाइडेन की तरह हैरिस ताइवान के पक्ष में समर्थन जता चुकी हैं। एक गवर्नर के रूप में कमला हैरिस हॉन्गकॉन्ग और उइगर में मानवाधिकारों की मुखर समर्थक रही हैं। नहीं भूलना चाहिए कि 2019 में हैरिस ने रिपब्लिकन सीनेटर मार्को रुबियो के पेश किये हॉन्गकॉन्ग मानवाधिकार और लोकतंत्र अधिनियम को सह-प्रायोजित किया था। इसका मक़सद हॉन्गकॉन्ग में मानवाधिकारों को बढ़ावा देना था। बाद में उस समय के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने इस विधेयक पर हस्ताक्षर करके इसे क़ानून बना दिया था। उसी साल कमला ने उइगर मानवाधिकार नीति अधिनियम को पारित करने में मदद की। यह 2020 में क़ानून बन गया और इसने अमेरिका को शिनजियांग में मानवाधिकारों के उल्लंघन में शामिल व्यक्तियों या संस्थाओं पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार दिया।

जहाँ तक भारत की बात है, यह सर्वविदित है कि बाइडेन के कार्यकाल के दौरान अमेरिका-भारत के सम्बन्धों में कोई ख़ास गर्माहट नहीं दिखी है। इसका एक कारण जानकार डोनाल्ड ट्रम्प के प्रति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के झुकाव को मानते हैं। हाल में जब ट्रम्प पर हमला हुआ था, तो मोदी ने इस हमले की निंदा करते हुए उनके लिए दोस्त शब्द का इस्तेमाल किया था। यही कारण है कि भारत की नज़र अमेरिका के चुनाव पर लगी है। हाल के वर्षों में बाइडेन प्रशासन भारत में अल्पसंख्यकों, ख़ासकर मुसलमानों के प्रति मोदी प्रशासन की नीतियों को लेकर सवाल उठाता रहा है। कमला हैरिस को मानवाधिकारों के प्रति बहुत संवेदनशील नेता माना जाता है। ऐसे में जानकार मानते हैं कि ट्रम्प की जीत मोदी प्रशासन को ज़्यादा रास आएगी, बनिस्बत हैरिस के। जहाँ तक कमला के साथ डेमोक्रेटिक पार्टी में उप राष्ट्रपति पद के संभावितों की बात है, इनमें जोश शापिरो (पेंसिल्वेनिया के गवर्नर), मार्क केली (एरिजोना के सीनेटर), रॉय कूपर (उत्तरी कैरोलिना गवर्नर), एंडी बेशर (केंटकी के गवर्नर) जेबी प्रिटजकर (इलिनोइस के गवर्नर), ग्रेचेन व्हिटमर (मिशिगन के गवर्नर), परिवहन सचिव पीट बटिगिएग, टिम वाल्ज़ (मिनेसोटा के गवर्नर), सेवानिवृत्त एडमिरल विलियम मैकरेवन के अलावा मैरीलैंड के गवर्नर वेस मूर, सीनेटर एमी क्लोबुचर, कोरी बुकर और जॉर्जिया के सीनेटर राफेल वारनॉक के नाम चर्चा में हैं।

पूरी दुनिया की अमेरिकी के राष्ट्रपति चुनाव पर नज़र लगी हुई है। लेकिन सबसे शक्तिशाली और सभ्य होने का दावा करने वाले अमेरिका के चेहरे पर वहाँ चार राष्ट्रपतियों की हत्या के दाग़ भी हैं। इनमें अब्राहम लिंकन को 14 अप्रैल, 1865 को गोली मारी गयी, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी। जेम्स गारफील्ड को भी 02 जुलाई, 1881 को गोली मारी गयी और 19 सितंबर को उनकी मौत हो गयी। विलियम मैककिनले को 06 सितंबर, 1901 को गोली मारी गयी और 14 सितंबर को उनकी मौत हो गयी। और जॉन एफ. कैनेडी को 22 नवंबर, 1963 को गोली मारी, जिससे उनकी मौत हो गयी। इसके अलावा चुनाव के दौरान कई बार गोलीबारी की घटनाएँ हुई हैं, जिनमें सबसे ताज़ा घटना ट्रम्प पर गोली चलने की है। क्या दुनिया में लोकतंत्र भी बन्दूक के बंधक हो चुके हैं?

पुजारियों ने किया आस्था को शर्मसार

के. रवि (दादा)

किसी समय में महिलाओं का सम्मान करने में महाराष्ट्र का कोई सानी नहीं था। आज भी बहुत-से लोग महिलाओं के सम्मान के लिए अपनी जान की बाज़ी लगा देते हैं, पर कितने ही दरिंदे अब महाराष्ट्र में भी फल-फूल रहे हैं। उन्हें महिलाओं के साथ दुराचार करना किसी खेल से ज़्यादा नहीं है। 06 जुलाई, 2024 को तो दिल दहला देने वाले मामले ने लोगों की आस्था को भी झकझोरकर रख दिया।

महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले के डोंबिवली के पास शील-डायघर में बलात्कार की ऐसी घटना घटी कि सभी हैरान-परेशान हैं। किसी ने नहीं सोचा था कि मंदिर के ही तीन पुजारी इतने दरिंदे निकलेंगे कि घर से पीड़ित महिला, जो कि भगवान की शरण में अपना दुखड़ा लेकर फ़रियादी बनकर आयी, उसी के साथ सामूहिक दरिंदगी करके उसकी हत्या कर देंगे। पुलिस रिपोर्ट के मुताबिक, 06 जुलाई 2024 को शील-डायघर के मंदिर में बेलापुर निवासी एक 30 वर्षीय महिला से कथित रूप से सामूहिक दरिंदगी हुई और उसके बाद उसकी हत्या कर दी गयी।

स्थानीय सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक, शील-डायघर थाना क्षेत्र की एक महिला अपने घर के कलह से तंग आकर यहाँ के प्रसिद्ध घोल गणेश मंदिर में शान्ति तलाशने और भगवान को अपनी फ़रियाद सुनाने पहुँची। महिला घर नहीं जाना चाहती थी और भूखी भी थी, इसलिए दोपहर में जब कोई मंदिर में नहीं था, तब वहाँ पूजा करने वाले तीन पुजारियों ने उसे खाना खिलाया। महिला को पुजारियों पर भरोसा हुआ, तो वह वहीं रुकी रही। पर उसे क्या पता था कि पुजारियों के मन में खोंट है और वे उसके जिस्म को देखकर दरिंदगी का प्लान बना चुके हैं। शाम को पुजारियों ने महिला को चाय पीने को दी, जिसे पीकर महिला बेहोश हो गयी। रात भर मंदिर के अंदर ही उसके साथ तीनों दरिंदों ने दरिंदगी की। सुबह जब महिला को होश आया और उसे अपने साथ किसी अनहोनी की आशंका हुई, तो वह पुजारियों से इस बारे में ग़ुस्से से पूछने लगी। पकड़े जाने के डर से तीनों दरिंदे पुजारियों ने बेरहमी से पीट-पीटकर उसकी हत्या कर दी और शव पास के जंगल में फेंक दिया। तीन दिन बाद किसी भले मानुष ने शव देख लिया और पुलिस को सूचित कर दिया।

डायघर शील पुलिस थाने के वरिष्ठ पुलिस इंस्पेक्टर संदीपान शिंदे के मुताबिक, महिला का उसके पति से झगड़ा हुआ था, जिसके कारण वह घर से चली गयी। उसके पति ने अपनी ससुराल कोपरखैराने में पूछा कि वहाँ तो नहीं पहुँची है? जब अगले दिन भी महिला नहीं मिली, तो उसके माँ-बाप ने नवी मुंबई के एनआरआई पुलिस स्टेशन में गुमशुदगी का मामला दर्ज करा दिया। 09 जुलाई को जब पुलिस को मंदिर के पास पहाड़ी इलाक़े में एक महिला का शव होने की जानकारी मिली, तो पुलिस ने शव बरामद कर तहक़ीक़ात की। सीसीटीवी फुटेज से पता चला महिला को आख़िरी बार घोल गणेश मंदिर में जाते देखा गया। जब पुजारियों से स$ख्ती से पूछताछ की, तो मामले की पोल खुल गयी। पुलिस ने कथित सामूहिक बलात्कार और हत्या के आरोप में तीनों पुजारियों राजस्थान निवासी श्याम सुंदर शर्मा (62 वर्ष), राजस्थान निवासी संतोष कुमार मिश्रा (45 वर्ष) और उत्तर प्रदेश निवासी राजकुमार पांडे (52 वर्ष) को गिरफ़्तार कर लिया है और महिला के पति पर भी दहेज प्रताड़ना का मामला दर्ज किया है। पुलिस के मुताबिक, मंदिर का असली पुजारी उत्तर प्रदेश में अपने गाँव गया हुआ था। उसने अपनी अनुपस्थिति में इन पुजारियों को बुलाकर मंदिर की सेवा में लगा दिया; पर इन तीनों ने दिल दहला देने वाली दरिंदगी को अंजाम दे दिया।

महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले में ही जुलाई के पहले सप्ताह में एक नाबालिग़ बच्ची से दरिंदगी की घटना को अंजाम देकर एक दरिंदे ने उसकी गला दबाकर हत्या कर दी। वहीं बीड ज़िले के माजलगांव में एक 14 साल की छात्रा से भी एक दरिंदे ने दरिंदगी की। आज महाराष्ट्र में हर रोज़ कहीं हत्या, तो कहीं दरिंदगी की घटनाएँ सामने आ रही हैं। साल 2022 में दंगों के सबसे अधिक मामले भी महाराष्ट्र में ही हुए। इस साल राज्य में 8,218 दंगे हुए। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने ये आँकड़े जारी किये और ये भी बताया महाराष्ट्र में 2022 में बलात्कार के 2,904 मामले दर्ज हुए। ताज्जुब है 2022 में महाराष्ट्र में आईपीसी की धाराओं के तहत 3,74,038 आपराधिक मामले दर्ज हुए। इसके बाद के आँकड़े सामने नहीं आये हैं। पर हैरानी यह है कि महाराष्ट्र के कई नेताओं के ख़िलाफ़ भी बलात्कार के साथ महिला पीड़ितों के मामले दर्ज हैं। क़ानून के रखवाले ही जहाँ ऐसा चरित्र रखते हों, वहाँ अबला महिलाएँ कैसे सुरक्षित रह सकती हैं? इस घटना के बाद महाराष्ट्र की मराठी अवाम माँग कर रही है कि वर्षों से मुंबई के मंदिरों में परप्रांतीय पुजारियों की सरकारी निगरानी होनी चाहिए। सिर्फ़ चैरिटी कमिश्नर के पास मंदिर के पुजारियों की सूची होने से ही मंदिर में दर्शन करने आने वाली महिलाएँ सुरक्षित नहीं मानी जा सकतीं। डायघर के शील गणपति मंदिर में पुजारियों द्वारा की गयी दरिंदगी से साबित होता है कि सभी पुजारी अच्छे नहीं हैं।

जनसमस्याओं से दूर की राजनीति

उत्तर प्रदेश राजनीति का सबसे बड़ा अखाड़ा है। देश की सबसे अधिक लोकसभा सीटों एवं सबसे अधिक विधानसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में हर स्तर पर राजनीति होती है, जिसका रंग इतना गहरा है कि कोई भी आमजन इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। मगर उत्तर प्रदेश में जनसमस्याओं से अधिक जाति एवं धर्म की राजनीति होती है। वर्ष 2017 में रामज़ादे एवं हरामज़ादे से आरंभ हुई उत्तर प्रदेश की राजनीति राम राज्य, मंदिर, अपराधियों के अंत एवं बुलडोज़र के बाद अब दुकानों एवं रेहड़ी पटरी वालों के नाम की प्लेट तक आ गयी है।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के कांवड़ियों की धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाले आदेश के उपरांत प्रदेश में कहीं-कहीं धार्मिकता हावी हो चुकी है, तो कहीं-कहीं मानवता के उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं। मेरठ में आदेश के उपरांत जो हुआ, उसकी निंदा की जानी चाहिए। कुछ लोग कई जगह अभी तक धर्म एवं जाति के आधार पर जनता में फूट डालने के प्रयासों में लगे हैं। मगर कई मानवतावादी उदाहरण भी लोग प्रस्तुत कर रहे हैं।

अध्यापक बलवंत सिंह कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में राजनीति उपद्रव एवं विध्वंस लेकर चलती है। किसी भी पार्टी की सरकार हो, उसे स्वयं के गिरने का डर जब-जब सताता है, तब-तब वो धर्मों एवं जातियों में टकराव कराने का षड्यंत्र रचती है। मगर इस बार धर्म से ऊपर उठकर लोग अपने जीवन की समस्याओं को आगे लेकर चल रहे हैं, जिसके चलते प्रदेश में शान्ति बनी हुई है। मेरठ में धर्म की आग भड़काने के प्रयास हुए; मगर कुछ समझदार लोगों ने उसे सँभाल लिया। सभी प्रदेशवासी प्यार एवं भाईचारे की मशाल जलाना चाहते हैं। आठवीं बार कांवड़ लेकर जाने वाले विक्रम कहते हैं कि उन्हें आज तक किसी ने कभी तंग नहीं किया। न ही कभी किसी ने उन्हें भ्रष्ट करने का प्रयास किया। विक्रम कहते हैं कि उनके साथ कांवड़ लाने वालों की संख्या अत्यधिक होती है; मगर कभी किसी मुस्लिम ने उनकी पवित्रता समाप्त करने का कोई प्रयास नहीं किया। कई बार तो मुस्लिम समाज के लोगों ने उनकी सहायता की है। उत्तर प्रदेश में कांवड़ियों वाले मार्गों पर दुकानदारों एवं रेहड़ी लगाने वालों को अपना नाम लिखकर लगाना अनिवार्य करने के प्रदेश सरकार के कथित आदेश को सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिबंधित कर दिया है।

बिजली आपूर्ति का संकट

उत्तर प्रदेश में इन दिनों बिजली आपूर्ति एक बड़ी समस्या बनी हुई है। विकट गर्मी एवं उमस के बीच कई-कई घंटे के कट लगने से लोग बेचैन हैं। हालाँकि प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने आम जनता की समस्याओं के तत्काल निपटान के अतिरिक्त बिजली आपूर्ति बढ़ाने के निर्देश दिये हैं। सभी डिस्कॉम के प्रबंध निदेशकों को निर्देशित किया गया है कि तय समय सारणी के अनुरूप बिजली आपूर्ति को सुनिश्चित करें, जिससे बिजली के कट न लगें एवं जनता को समस्याओं का सामना न करना पड़े।

नगर विकास और ऊर्जा मंत्री ए.के. शर्मा ने निर्देश दिये हैं कि ग्रामीण क्षेत्र में 18 घंटे, तहसील मुख्यालय स्तर पर 21:30 घंटे एवं जनपदों में 24 घंटे बिजली आपूर्ति सुनिश्चित की जाए। हालाँकि बिजली के कट लगने से हलकान जनता को न दिन में ही चैन मिल रहा है एवं न ही रातों को चैन की नींद ही आ रही है। उत्तर प्रदेश में महँगी बिजली होने एवं बहुत अधिक बिजली बिल आने के उपरांत भी बिजली आपूर्ति न हो पाना एक गंभीर समस्या बन चुकी। इस समस्या ने व्यापारियों, किसानों, विद्यार्थियों, छोटे बच्चों एवं बुजुर्गों को सबसे अधिक रुला रखा है। लोग गर्मी के चलते रोग ग्रस्त हो रहे हैं। नगर विकास और ऊर्जा मंत्री ए.के. शर्मा ने कहा है कि आपूर्ति के दौरान यदि कोई स्थानीय गड़बड़ी के कारण कुछ समय के लिए बिजली आपूर्ति बाधित होती है, तो उसकी भरपाई कटौती के दौरान अतिरिक्त बिजली आपूर्ति करके की जाएगी। यही व्यवस्था कृषि क्षेत्र में बिजली आपूर्ति को लेकर की जाएगी।

ग्रामीणों की तहसीलों में समस्याओं की भी भरमार है। किसानों की समस्याओं का जल्दी निपटान नहीं हो पाता है। भूमि-विवादों के निपटान में भी बहुत अधिक समय लगता है। पिछले दिनों एक किसान की समस्या का निपटान न होने पर झगड़ा भी हो गया था। तहसील दिवस पर इतनी अधिक समस्याएँ होती हैं कि उनका निपटान नहीं हो पाता।

गर्मी से कई विद्यार्थी बेहोश

उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में बारिश हो रही है; मगर अधिकांश क्षेत्रों में गर्मी एवं उमस ने जनता को रुला रखा है। विद्यालयों में कहीं गर्मी से बचने की व्यवस्था में ही कमी है, तो कहीं बिजली कटौती के कारण अध्यापकों से लेकर विद्यार्थी तक सब बेचैन हैं। 30 जुलाई को को प्रदेश के कई विद्यालयों में कुछ अध्यापकों एवं 62 विद्यार्थियों के गर्मी से बेहोश होने के समाचार मिले। अकेले एटा जनपद में 33 विद्यार्थियों के बेहोश होने के समाचार मिले। एटा के के अतिरिक्त 30 जुलाई को गोंडा जनपद में 12 छात्राएँ एवं शिक्षिकाएँ गर्मी के चलते बेहोश हो गयीं। रामपुर में गर्मी के चलते सात विद्यार्थी बेहोश हो गये। इसके अतिरिक्त संभल एवं मथुरा में चार-चार, वहीं सीतापुर, रायबरेली एवं प्रयागराज में एक-एक विद्यार्थी के बेहोश होने के समाचार मिले। भीषण गर्मी से परिषदीय विद्यालयों में लगातार शिक्षकाएँ एवं विद्यार्थियों की बेहोश होने की घटनाओं के उपरांत उत्तर प्रदेशीय प्राथमिक शिक्षक संघ ने विद्यालयों को सुबह 07:30 से 12:30 बजे तक खोलने के लिए बेसिक शिक्षा विभाग से अनुरोध किया गया है।

भाजपा में असमंजस

उत्तर प्रदेश में 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं। सभी 10 सीटों को जीतने के प्रयास में लगी भारतीय जनता पार्टी में अंतर्कलह मचा हुआ है, जिसके चलते पार्टी के प्रमुख प्रचारक अभी अपने प्रचार-प्रसार की रणनीति नहीं बना पा रहे हैं। बहुजन समाज पार्टी एवं आज़ाद समाज पार्टी ने इस चुनाव में सभी 10 सीटों पर अपने अपने प्रत्याशी उतारने का मन बना लिया है, जिससे भारतीय जनता पार्टी की चिन्ता बढ़ गयी है। इसके अतिरिक्त एनडीए की सहयोगी पार्टियों के नेता संजय निषाद एवं ओमप्रकाश राजभर दो-दो टिकट माँग रहे हैं, जिससे भारतीय जनता पार्टी की समस्या बढ़ गयी है। इंडिया गठबंधन के आधार पर समाजवादी पार्टी एवं कांग्रेस में सीटों के बँटवारे को लेकर कुछ उलझन है। पहले समाचार आये कि 7-3 के अनुपात में बँटवारा होगा। मगर अब कुछ सूत्र कह रहे हैं कि कांग्रेस आधी सीटें चाहती है।

भारतीय जनता पार्टी में फूट एवं असंतोष की स्थिति है, जो भले ही बाहर नहीं दिख रहा है; मगर अंदर अंदर इसने विकराल रूप ले लिया है। सूत्रों की मानें, तो उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य केंद्र सरकार को रिझाने में लगे हैं एवं उन्हें विश्वास है कि एक-न-एक दिन वह प्रदेश के मुख्यमंत्री बनेंगे। भारतीय जनता पार्टी में इस इस असंतोष का लाभ उठाने का प्रयास करते हुए ही विदके हुए उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की ओर संकेत करते हुए समाजवादी पार्टी प्रमुख एवं प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री ने कह दिया कि 100 विधायक लाओ, मुख्यमंत्री बन जाओ। उत्तर प्रदेश की राजनीति को समझने वाले राजेंद्र सिंह कहते हैं कि अखिलेश यादव द्वारा फेंका गया चारा प्रलोभन का जाल है, जिसमें कभी न कभी कोई-न-कोई भारतीय जनता पार्टी का नेता फँसेगा अवश्य। अभी तो भारतीय जनता पार्टी के नेता 10 सीटों पर उपचुनाव का परिणाम देखने के लिए शान्त हैं। अगर चुनाव परिणाम सही नहीं आये, तो भारतीय जनता पार्टी में भगदड़ मच सकती है।

पौधरोपण से अधिक कटान

05 जून को विश्व पर्यावरण दिवस पर देशवासियों से एक पेड़ मां के नाम लगाने के प्रधानमंत्री मोदी के आह्वान के उपरांत उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पौधरोपण महाअभियान आरंभ कर दिया है। उत्तर प्रदेश के कई मंत्री, विधायक पौधे लगाने की मुहिम में लगे हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में 20 जुलाई से प्रदेश में 36.50 करोड़ पौधे रोपे जाने वाले अभियान का शुभारंभ हुआ है। मुख्यमंत्री योगी पेड़ बचाओ जन अभियान-2024 के तहत पौधरोपण को बढ़ावा दे रहे हैं। मगर वहीं दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में सरकार ने ही वृक्षों के कटान की अति कर दी है।

कांवड़ियों के मार्ग को अवरोध रहित करने के नाम पर ही राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण को अवगत कराते हुए जुलाई में योगी सरकार ने 33,000 हरे-भरे वृक्ष काटने की योजना बना डाली। लगभग 111 किलोमीटर लंबे कांवड़ यात्रा मार्ग के दोनों ओर लगे ये वृक्ष कांवड़ यात्रा में अवरोध थे भी या नहीं, यह सरकार ने नहीं सोचा। पहले भी योगी सरकार ने प्रदेश भर में लाखों वृक्ष कटवा दिये हैं। केंद्र सरकार की अनुमति पर ही प्रदेश में 1,10,000 वृक्ष काटे जा चुके हैं। अब मुख्यमंत्री योगी कह रहे हैं कि जितने वृक्ष काटे जाएँगे, उससे 10 गुना पौधे लगाये जाएँगे। यह तर्क तो अटपटा है। पौधों को वृक्ष बनने में कई वर्ष लगेंगे? इसके अतिरिक्त इसकी क्या गारंटी है कि सरकार आगे से वृक्ष नहीं काटेगी? पौधों की समुचित देखभाल भी करेगी कि नहीं?