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रहस्य के लबादे में लॉरेंस

यह बहुत दिलचस्प बात है कि लॉरेंस बिश्नोई को देश के मीडिया का एक बड़ा हिस्सा ऐसे समय में मुंबई के अंडरवर्ल्ड के नये मुखिया के रूप में स्थापित करने में जुटा हुआ है, जब भारत और कनाडा के द्विपक्षीय सम्बन्ध बहुत ख़राब स्थिति में पहुँच चुके हैं। दोनों देश हाल में एक-दूसरे के छ: राजनयिकों को निष्कासित कर चुके हैं। और यह तब हुआ, जब ओटावा ने यह आरोप दोहराया कि 2023 में सिख अलगाववादी नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या की साज़िश भारत सरकार ने रची थी। दिलचस्प यह है कि कनाडा की राजधानी ओटावा में भारत के वरिष्ठ राजनयिकों के ख़िलाफ़ इस मामले में जब साज़िश जैसे गंभीर आरोप लगाये गये, तब कनाडाई अधिकारियों ने चौंकाने वाला यह आरोप भी लगाया कि राजनयिक मिशन को भारत की एजेंसी रॉ (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) के इशारे पर कुख्यात अपराधी सरगना लॉरेंस बिश्नोई से मदद मिली।

ज़ाहिर है भारत ने इन सब आरोपों का खंडन किया है। गुजरात की साबरमती जेल में बंद होने के बावजूद लॉरेंस बिश्नोई के इतने ताक़तवर अपराधी हो जाने को लेकर सवाल उठना लाज़िमी है। लॉरेंस विश्नोई पिछले 10 साल, अर्थात् 2014 से गुजरात की जेल में बंद है। इसके बावजूद वह अपने गैंग के संपर्क में रहता है और अपने गुर्गों को जेल से ही दिशा-निर्देश देता है। आख़िर जेल में भी उसे इतनी ढील मिलने के पीछे कौन-सी ताक़त है? पुलिस चाहे, तो किसी क़ैदी के पास पंछी भी पर नहीं मार सकता, उसे मोबाइल फोन मिलना तो दूर की बात है। लेकिन लॉरेंस बिश्नोई को ये सब सुविधाएँ जेल के भीतर भी मिल रही हैं। यह इसलिए भी हैरानी की बात है कि देश की सरकार में दो सबसे ताक़तवर नेताओं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह गुजरात से ही ताल्लुक़ रखते हैं। ऐसे में वहाँ सुरक्षा में इतनी चूक कैसे की जा सकती है कि एक अपराधी धड़ल्ले से जेल के भीतर से भी गैंग चलाता रहे और उसके पास मोबाइल फोन और अन्य सुविधाएँ उपलब्ध हों?

हाल में मुंबई में एनसीपी नेता बाबा सिद्दीक़ी की हत्या की ज़िम्मेदारी बिश्नोई गैंग ने ही ली है। यह वही देश है, जहाँ कथित रूप से पुलिस की पकड़ से भागने की कोशिश के आरोप में दज़र्नों एनकाउंटर किये गये, जिसमें कई आरोपी-अपराधी मारे गये हैं। लेकिन लॉरेंस बिश्नोई जेल में बंद होने के बावजूद इतना गदर मचाये हुए है कि उसे दाऊद इब्राहिम के बाद अब मुंबई के ख़तरनाक अंडरवर्ल्ड का नया सरगना कहा जाने लगा है। पंजाबी गायक सिद्धू मूसेवाला से लेकर जो भी तमाम अपराध लॉरेंस बिश्नोई के नाम दर्ज हैं, वो यह साबित करते हैं कि निश्चित ही लॉरेंस ने अपराध की दुनिया में अथाह ताक़त हासिल कर ली है। लेकिन यहाँ यह गंभीर सवाल भी उठ रहा है कि क्या सचमुच लॉरेंस इतना ख़तरनाक अपराधी हो गया है कि यह सब अपने बूते कर रहा है? या उसके पीछे कोई राजनीतिक ताक़त भी है? उसके 14 देशों में अपने संपर्क होने की जानकारी छनकर बाहर आ रही है और यह भी दावा किया जा रहा है कि उसके पास आज की तारीख़ में 700 शूटर्स का गैंग है, जो उसके एक इशारे पर किसी का भी काम तमाम करने की क्षमता रखता है। और ये शूटर सिर्फ़ भारत में ही नहीं, बल्कि कई अन्य देशों में फैले हुए हैं। सलमान ख़ान जैसे बॉलीवुड के दिग्गज और ताक़तवर अभिनेता को अपनी धमकियों से डराना और उसके घर के बाहर गोलियाँ चलाने की हिम्मत करना आसान बात नहीं है। वह भी तब, जब सलमान ख़ान को तगड़ी पुलिस सुरक्षा मिली हुई है। लेकिन लॉरेंस के गुर्गे यह सब कर चुके हैं। फिरौती और हत्या जैसे कई मामलों में लॉरेंस आरोपी है। वह अपनी मज़ीर् से जब भी चाहे अपने गुर्गों के ज़रिये किसी से भी फिरौती लेता है या उसकी हत्या करवा देता है। बाबा सिद्दीक़ी की हत्या जब उसके गुर्गों ने की, तो इसकी ज़िम्मेदारी लेते हुए बिश्नोई के गैंग ने कहा कि चूँकि सिद्दीक़ी उनके सबसे बड़े दुश्मन सलमान ख़ान के दोस्त थे, इसलिए उन्हें मारा गया।

बलकरन बराड़ से लॉरेंस बिश्नोई बन जाने की कथा सचमुच अविश्वसनीय है क्योंकि यह आम धारणा है कि बिना किसी राजनीतिक संरक्षण के कोई भी अपराधी इतना ताक़तवर नहीं हो सकता कि किसी अन्य देश के बड़े अधिकारी उनके यहाँ हुई हत्या में उसका नाम जोड़ें। हाल में लॉरेंस बिश्नोई को लेकर एक हैरानी भरा सच सामने आया था, जब उसके चचेरे भाई रमेश बिश्नोई ने चौंकाने वाला ख़ुलासा किया कि जेल में बंद लॉरेंस पर उसका परिवार साल भर में 35-40 लाख रुपये ख़र्च करता है। हालाँकि इतना पैसा लॉरेंस का परिवार किसलिए ख़र्च करता है और किस चीज़ पर ख़र्च करता है? यह तो उस जेल की पुलिस ही जाने। लेकिन निश्चित ही यह ख़ुलासा कई सवाल खड़े करता है।

यह माना जाता है कि पंजाब यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के शुरुआती दिनों में कभी भी यह नहीं लगता था कि बलकरन भविष्य में इतना ख़तरनाक गैंगस्टर लॉरेंस बन जाएगा। अब तो उसकी तुलना दाऊद इब्राहिम से की जाने लगी है। हालाँकि यह अलग बात है कि उसके परिवार के लोग इसे ग़लत मानते हैं। रमेश बिश्नोई का कहना है कि लॉरेंस बिश्नोई पर कोई आरोप साबित नहीं हुआ है। रमेश के मुताबिक, लॉरेंस को फँसाने की साज़िश हो रही है। रमेश का कहना है कि लॉरेंस तो देशभक्त परिवार का बच्चा है। कॉन्वेंट स्कूल से 10वीं पास करने वाला लॉरेंस जब कॉलेज की पढ़ाई के लिए चंडीगढ़ गया, तो एक साल बाद हुए छात्र संघ के चुनाव में उसे हार का सामना करना पड़ा। माना जाता है कि इसके बाद कुछ ऐसी परिस्थितियाँ बनीं कि वह अपराध के रास्ते की तरफ़ चल पड़ा। उसे महँगे कपड़े और जूते पहनने अच्छे लगते थे। खेती के लिए अच्छी-ख़ासी ज़मीन थी, इसलिए परिवार की आर्थिक स्थिति भी बेहतर ही थी। अब लॉरेंस का नाम अन्य मामलों के अलावा तीन हाई प्रोफाइल मर्डर से जुड़ा हुआ है। इनमें 2022 में पंजाब के मानसा में पंजाबी गायक सिद्धू मूसेवाला की हत्या, कनाडा में सिख अलगाववादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में नाम सामने आने के अलावा बाबा सिद्दीक़ी की हत्या की ज़िम्मेदारी लेना शामिल है।

कनाडा की रॉयल माउंट पुलिस ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब यह दावा किया कि भारतीय एजेंट संगठित अपराध समूह बिश्नोई गैंग की मदद से कनाडा में दक्षिण एशियाई मूल के लोगों, ख़ासकर खालिस्तान समर्थकों को निशाना बना रहे हैं। इसके बाद निश्चित ही लॉरेंस ज़्यादा सुर्ख़ियों में आ गया और भारत में टीवी चैनल उसे मुंबई अंडरवर्ल्ड का नया डॉन बताने लगे। उसका देश के 16 राज्यों में दबदबा है और अब वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपराध की दुनिया में कुख्यात हो गया है। मुंबई में बाबा सिद्दीक़ी की हत्या के बाद जब मुंबई पुलिस ने पूछताछ करने के लिए गुजरात पुलिस से लॉरेंस बिश्नोई की रिमांड की माँग की, तो उसे बताया गया कि केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के एक आदेश के कारण लॉरेंस को रिमांड पर नहीं लिया जा सकता है।

जानकारी के मुताबिक, गुजरात तट से ड्रग्स तस्करी नेटवर्क चलाने के आरोप में गुजरात की साबरमती जेल में बंद लॉरेंस केंद्रीय गृह मंत्रालय के आदेश और सीआरपीसी की धारा-268 के तहत अहमदाबाद की साबरमती जेल से बाहर ले जाने पर एक साल की रोक है। यह रोक 2023 तक थी; लेकिन उपरोक्त धारा के तहत लगी रोक को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता-2023 की धारा-303 के तहत और एक साल के लिए बढ़ा दिया गया था।

सलमान ख़ान के घर गोलीबारी के मामले में पिछले साल जून में मुंबई पुलिस ने लॉरेंस को हिरासत में लेने के मक़सद से कोर्ट में एक से ज़्यादा बार अर्जी दी; लेकिन मुंबई पुलिस को हिरासत नहीं मिली। साबरमती की जेल हाई सिक्योरिटी जेल है। लेकिन क़रीब 32 साल का लॉरेंस उस जेल से धड़ल्ले से मोबाइल फोन का इस्तेमाल करता है। पूरे गैंग को जेल से चलाता है। यह सब तब है, जब उसे मुंबई अंडरवर्ल्ड का अगला डॉन माना जा रहा है। हत्या, हत्या के प्रयास, वसूली और धमकाने के दज़र्नों मुक़दमे उस पर दर्ज हैं। निश्चित ही लॉरेंस बिश्नोई एक ख़तरनाक अपराधी है और प्रतिष्ठित लोगों के साथ-साथ समाज को भी उससे ख़तरा है। लेकिन जिस तरह से वह गैंग चला रहा है, उससे लगता ही नहीं कि वह जेल में बंद है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि मुंबई अंडरवर्ल्ड सरगना दाऊद इब्राहिम के वहाँ लगभग निष्क्रिय हो जाने के बाद लॉरेंस यह जगह भरने की फ़िराक़ में है। लेकिन यहाँ सवाल यह है कि क्या यह सिर्फ़ लॉरेंस की ही कोशिश है या इसके पीछे कोई और भी ताक़त है? जो मुंबई की फ़िल्म इंडस्ट्री को अपने हिसाब से चलाना चाहती है।

यह देखना होगा कि जेल में बंद होने के बावजूद अपनी आपराधिक गतिविधियों को चलाये रखने वाले लॉरेंस बिश्नोई का भारत में उसके बिश्नोई गैंग की तरफ़ से किये जा रहे अपराधों के शिकार लोगों और कनाडा में निज्जर हत्याकांड में उसके तार जुड़े होने के कनाडा के अधिकारियों के आरोपों के बीच कोई कड़ी है? बेशक भारत कनाडा के आरोपों को ग़लत बता चुका है; लेकिन ये आरोप इतने छोटे नहीं हैं कि इन पर सवाल न उठें। सवाल इसलिए भी उठने लाज़िम हैं, क्योंकि बड़े-बड़े अपराध करने-कराने के आरोप के बाद भी लॉरेंस बिश्नोई के ख़िलाफ़ कोई बड़ी कार्रवाई न होना और यह कहा जाना कि उसके ख़िलाफ़ कोई ठोस सुबूत नहीं है; देश में गुंडागर्दी और आतंकवाद को ख़त्म के दावों पर तमाचा है। हालाँकि लॉरेंस पर आरोप महज़ भारत को बदनाम करने की साज़िश है या इसके पीछे कोई ठोस आधार है? यह अभी नहीं कहा जा सकता। बाबा सिद्दीक़ी की हत्या के बाद मोबाइल से ईयर फोन के ज़रिये रिकॉर्ड लॉरेंस की आवाज़ में देश भक्ति से लबरेज गीत ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।’ वायरल हो रहा है। दावा किया जा रहा है कि यह वीडियो साबरमती जेल की बैरक में हाल ही में रिकॉर्ड किया गया है। हालाँकि कई जानकार यह वीडियो आठ साल पुराना बता रहे हैं। निश्चित ही लॉरेंस बिश्नोई एक अपराधी से ज़्यादा एक रहस्य भी बन गया है, जिससे पर्दा उठना ज़रूरी है।

अपराध के साये में उत्तर प्रदेश

– दरिंदगी, हत्या एवं लूटपाट से लेकर दंगों तक की आग में कई बार झुलस चुका है प्रदेश

– बुलडोज़र एवं एनकाउंटर का डर दिखाने के अलावा योगी के पास नहीं है कोई चारा

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कितने भी दावे कर लें मगर उत्तर प्रदेश में राम राज्य का सपना पूरा नहीं हो सका है एवं निकट भविष्य में इसकी संभावना भी दिखायी नहीं दे रही है। धरातल का सच तो यह है कि विज्ञापनों एवं भाषणों में ही उत्तर प्रदेश अपराध मुक्त हुआ है; मगर वास्तव में हत्या, लूट, चोरी, बलात्कार एवं दंगे सरीखे कलंक उत्तर प्रदेश के माथे पर बढ़ते जा रहे हैं, जिन्हें मिटाने के प्रयास ही नहीं हो रहे हैं। ले-देकर एक बुलडोज़र है, जिसका डर आमजन को दिखाया जा रहा है। इस प्रकार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कथित राम राज्य वाले उत्तर प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था राम भरोसे ही चल रही है।

मास्टर नंदराम कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में यदि प्रशासनिक व्यवस्था सँभाल ली जाए, तो शान्ति व्यवस्था बहाल हो जाए। मगर यहाँ स्थिति अलग है; क्योंकि जो जनप्रतिनिधि एवं अधिकारी जनसेवा के लिए हैं, उन्होंने जनता को लूटने-पीटने को ही अपना कर्तव्य मान रखा है। भड़काऊ राजनीतिक भाषणों एवं धार्मिक त्योहारों पर निकलने वाली यात्राओं एवं जुलूसों में उपद्रवियों को बढ़ावा देने के प्रयासों ने प्रदेश में आपसी भाईचारे को समाप्त कर दिया है।

बहराइच के प्रवीण सिंह कहते हैं कि आज उत्तर प्रदेश धार्मिक उन्माद की उस भट्ठी पर बैठा है, जिसमें लकड़ियाँ नहीं, बल्कि विस्फोटक रखा हुआ है। जैसे ही इस भट्ठी में कोई चिंगारी डालता है, दंगे भड़क जाते हैं। आज बहराइच में जिस तरह दंगे भड़काये गये हैं, वैसी स्थिति कहीं भी पैदा की जा सकती है; क्योंकि आमजन में समझ ही नहीं है कि वह धर्म के नाम पर राजनीति का शिकार हो रहा है। बहराइच में दंगों के उपरांत दंगे भड़काने वाले अधिकतर आरोपी पतली गली से इधर-उधर हो गये। मगर जो पकड़े गये हैं, उनमें अधिकतर निर्दोष हैं।

बहराइच दंगे की पड़ताल

बहराइच में 13 अक्टूबर की सुबह त्योहारी उमंग के साथ सदैव की तरह निकली थी। हिंदुओं के घरों में कन्या पूजन, हवन आदि का आयोजन हो रहा था एवं मुस्लिम घरों में शान्ति पूर्वक सामान्य दिनचर्या का पालन हो रहा था। बहराइच के महाराजगंज क़स्बे में हिंदुओं की एक टोली दुर्गा प्रतिमा के विसर्जन के लिए एक शोभायात्रा निकाल रहे थे। यह शोभायात्रा निकालने के लिए मुस्लिम बस्ती का रास्ता चुना गया। शोभायात्रा की व्यवस्था के लिए पुलिस प्रशासन की एक छोटी-सी टुकड़ी भी थी। अचानक हंगामा होने लगा, जिसके बाद गोली चलने की आवाज़ आयी एवं रेहुवा निवासी रामगोपाल मिश्रा नाम के युवक की मौत हो गयी। इसके उपरांत पूरे महाराज गंज में मारपीट, आगजनी एवं तोड़फोड़ का दृश्य दिखायी देने लगा। मुस्लिम परिवारों पर हमले होने लगे। हिंदुओं ने आरोप लगाये कि दुर्गा विसर्जन के लिए निकल रही शोभा यात्रा पर मुसलमानों द्वारा पथराव किया गया।

यह समाचार पूरे जनपद में आग की तरह फैल गया एवं समाचार की तरह ही हिंसा की आग ने भी पूरे शहर को अपनी चपेट में ले लिया। हिंसा भड़कने के लगभग डेढ़ घंटे बाद प्रशासन की आँख खुली एवं हिंसक झड़पों को रोकने के प्रयास उसी प्रकार किये जाने लगे, जिस प्रकार किसी घर में भीषण आग लगने पर लोग बाल्टियों से पानी डालते हैं। दंगे रुकने का नाम नहीं ले रहे थे एवं चार दिनों तक शहर भर में दंगाइयों का तांडव चलता रहा। बहराइच के जिस महसी तहसील क्षेत्र में हिंसा की चिंगारी रखी गयी, वह क्षेत्र हरदी थाना पुलिस के अंतर्गत आता है। हिंसा को रोकने में हरदी थाना पुलिस से लेकर जनपद पुलिस एवं जिला प्रशासन ने जिस लापरवाही का परिचय दिया, उससे स्पष्ट लगता है कि दंगों के पीछे कोई बड़ी शक्ति का हाथ है अन्यथा पुलिस इतनी भी लापरवाह नहीं है कि दंगे हो रहे हों और उन्हें वह शान्त न करा सके।

इसके संकेत ये हैं कि हरदी थाने के निलंबित कर दिये गये एसओ सुरेश कुमार वर्मा ने दंगे भड़काने की किसी गोपनीय सूचना के आधार पर प्रतिमा विसर्जन से दो दिन पूर्व ही पुलिस उच्चाधिकारियों को पत्र भेजकर क्षेत्र में प्रतिमा विसर्जन के शान्तिपूर्वक निपटान के लिए डेढ़ सेक्शन पीएसी एवं पैरा मिलिट्री फोर्स तैनात करने की माँग की थी; मगर उनकी माँग पर किसी अधिकारी ने कोई ध्यान नहीं दिया। अंत में वही हुआ, जिसकी आशंका एसओ सुरेश कुमार को थी। मगर दंगे भड़कने के उपरांत महसी थाने के सीओ एएसपी ग्रामीण पवित्र मोहन त्रिपाठी, कुछ पुलिसकर्मियों एवं तहसीलदार के अतिरिक्त एसओ सुरेश कुमार वर्मा भी निलंबन की भेंट चढ़ गये। अब महसी थाने के नए एएसपी दुर्गाशंकर तिवारी बने हैं। दो थानों के 29 पुलिसकर्मी लाइन हाज़िर किये गये।

महाराजगंज क़स्बे के रहने वाले एक बुजुर्ग कहते हैं कि मुख्यमंत्री योगी के शासन में आप शान्ति की आशा नहीं कर सकते। उनका सीधा नियम है कि कहीं भी कुछ हो बुलडोज़र चला दो; मगर उन्होंने कभी नहीं समझा कि न्याय ऐसे नहीं होता है। न्याय के लिए जनता को समान दृष्टिकोण से देखा जाना आवश्यक होता है। गुंडों का आतंक समाप्त करने के उनके दावे खोखले हैं। कहीं भी हिंसा भड़कने पर कुछ अधिकारियों का निलंबन एवं आमजनों की गिरफ़्तारी, यही योगी के शासन में होता ही है।

जिन लोगों ने महराजगंज क़स्बे में दंगे भड़कने को अपनी आँखों से देखा उनमें दो मत सामने आ रहे हैं। एक मत के लोग यह कह रहे हैं कि दुर्गा विसर्जन शोभायात्रा निकालने वालों ने दंगे भड़काये हैं एवं दूसरे मत के लोग यह कह रहे हैं कि मुसलमानों ने शोभायात्रा में भाग लेने वालों पर हमला किया, शोभायात्रा पर पथराव किया एवं रामगोपाल मिश्रा की हत्या कर दी। हालाँकि इन आरोपों में कोई सच्चाई नहीं है; क्योंकि अभी तक रामगोपाल मिश्रा की हत्या के ठोस प्रमाण सामने नहीं आये हैं। कुछ वीडियो सामने आये हैं जिनमें से एक वीडियो में रामगोपाल मिश्रा किसी मुस्लिम के घर की छत पर चढ़कर नारे लगाते हुए उसका धार्मिक झंडा गिरा रहा है। शोभायात्रा में चल रही भीड़ में से कुछ लोग उसका साथ दे रहे हैं। इसी बीच मारपीट होती है एवं रामगोपाल मिश्रा को एक गोली आकर लगती है, जिससे उसकी मौत हो जाती है।

सूचना है कि शोभायात्रा में बाबा (योगी) का महिमामंडन करने एवं मुस्लिमों को नाम लिए बिना गाली देने वाला कोई लोकल गाना डीजे पर बजाया जा रहा था, जिसे सुनने के बाद एक मुस्लिम परिवार के व्यक्ति ने उस गाने की जगह भजन बजाने को कहा एवं मस्जिद से निकलकर कुछ मुसलमानों ने गाने पर आपत्ति जतायी। इसी बीच रामगोपाल मिश्रा मुस्लिम की छत पर नारे लगाते हुए चढ़ गया एवं उसका धार्मिक झंडा गिराकर अपना धार्मिक झंडा लहराने लगा। हिंसा भड़काने के लिए जब इतना कुछ पर्याप्त नहीं हुआ, तो गाली-गलौज एवं पथराव का काम कुछ उपद्रवियों ने किया। यह पथराव किधर से हुआ? किसने किया? यह जाँच का मुद्दा है।

लेकिन रामगोपाल मिश्रा की हत्या के उपरांत भड़की हिंसा में कुछ मौतें हुई हैं। कई दज़र्न लोग चोटिल हुए हैं। दज़र्नों घर जला दिये गये। दुकानें एवं वाहन जला दिये गये। समाचार तो बलात्कार के भी हैं; मगर इसकी पुष्टि नहीं हुई है। तीन दिन बाद गिरफ़्तारियाँ होनी शुरू हुईं एवं हिंदू-मुस्लिम सब गिरफ़्तार होने लगे। गिरफ़्तार किये गये कई लोगों ने स्वयं को निर्दोष बताया; मगर पुलिस ने किसी की कुछ नहीं सुनी। कई भाजपा कार्यकर्ता भी गिरफ़्तार हुए हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने अपनी साख बचाने के लिए दंगों में मारे गये रामगोपाल मिश्रा के परिजनों को मुआव•ो के रूप में 10 लाख रुपये, आयुष्मान कार्ड, घर के एक सदस्य को नौकरी, आवास, शौचालय और पीड़ित परिवार को सरकार की सभी योजनाओं का लाभ देने की घोषणा कर दी। मगर मृतक के परिजन इससे संतुष्ट नहीं हैं। वे आरोपियों के एनकाउंटर की माँग कर रहे हैं। मृतक की विधवा रोली मिश्रा ने ऐसा न करने पर परिवार समेत आत्मदाह की धमकी दी है। उसका कहना है कि परिवार को सरकार से न्याय की आशा थी, जो नहीं मिला।

अचंभे की बात यह है कि बहराइच के महसी विधानसभा क्षेत्र से भाजपा विधायक सुरेश्वर सिंह ने ही पार्टी के भाजपा की युवा मोर्चा इकाई के नगर अध्यक्ष अर्पित श्रीवास्तव समेत उपद्रवी भीड़ पर मुक़दमा दर्ज करा दिया। उनका आरोप है कि जब वह रामगोपाल मिश्रा का शव पोस्टमार्टम हाउस में रखवाकर लौट रहे थे, तब अर्पित श्रीवास्तव एवं उसके साथियों ने उनकी गाड़ी पर पथराव किया एवं फायरिंग की।

कई अन्य लोगों ने भी अपने विपरीत पक्ष के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज करायी हैं। हिंसा के उपरांत 23 घरों पर अतिक्रमण के आरोप में बुलडोज़र कार्रवाई के समन चस्पा कर दिये गये हैं। अनेक लोग क़स्बा छोड़कर जा चुके हैं। पूरे जनपद में पुलिस तैनात है। बहराइच की पुलिस अधीक्षक वृंदा शुक्ला ने कमान सँभाल रखी है। रामगोपाल की हत्या मामले में पाँच लोगों को हत्यारोपी बनाकर जेल भेजा गया है। कुछ लोग कह रहे हैं कि पूरे महराजगंज निवासी अभी तक डरे हुए हैं, जबकि कुछ लोग कहे रहे हैं कि अब जनपद में शान्ति है। इस हिंसा से किसको क्या लाभ होगा यह तो नहीं पता; मगर भाईचारे की हत्या हो चुकी है, जिसके चलते निकट भविष्य में ईर्ष्या समाप्त होने की संभावना नहीं है; भले ही लोग पुलिस के डर से शान्त रहें।

दशकों पहले भी हुई थी हिंसा

बुजुर्ग जानकार कहते हैं कि महाराजगंज जनपद में हिंदू मुस्लिम विवाद वर्ष 1975 में आरंभ हुआ था। उस समय विवाद में हिंसा भी हुई थी; मगर तत्कालीन राज्य सरकार ने इसे निपटा दिया था। मगर वर्ष 1985 के अक्टूबर महीने में मुसलमानों ने एक अर्धनिर्मित छोटी मस्जिद में निर्माण कार्य आरंभ कर दिया, जिसके उपरांत हिंदुओं ने अदालत से इसके स्थगन के आदेश लेकर उस विवादित भूमि में बने कुएँ के पास शिवलिंग की स्थापना करके विवाद और बढ़ा दिया। जब विवाद बढ़ा, तो जनपद प्रशासन ने विवाद निपटाने के पूरे प्रयास किये; मगर किसी भी पक्ष ने प्रशासनिक अधिकारियों के सुझाव स्वीकार नहीं किये। इसके उपरांत प्रशासन ने विवादित भूमि को ही कुर्क कर दिया। इस बार बहराइच में उसी महाराजगंज क़स्बे में हिंसा भड़की, जहाँ 49 वर्ष पूर्व इसकी नींव पड़ी थी।

विज्ञापनों एवं भाषणों में प्रशंसा

भाजपा नेताओं की आदत है कि वे लच्छेदार एवं अपनी पीठ थपथपाने वाली बातें करने को ही काम मानते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी ने भी विज्ञापनों से लेकर अपने भाषणों तक में अपने शासन को सबसे अच्छा बताते हुए अपनी पीठ थपथपाने का कार्य किया है। मगर सच्चाई यह है कुल 75 जनपदों एवं 18 मंडलों वाले प्रदेश की शासन व्यवस्था उनसे भी नहीं सँभल रही है। मात्र बुलडोज़र एवं एनकाउंटर का डर दिखाकर भले ही उन्होंने कुछ ऐसे गुंडों एवं उपद्रवियों को डरा लिया हो, जो उनके विरुद्ध खड़े दिखे हैं। मगर इसका अर्थ यह भी नही है कि जिन लोगों पर अब तब बुलडोज़र कार्रवाई हुई है, वे अपराधी ही थे। क्योंकि योगी सरकार के विरुद्ध जाने वालों पर चुनकर कार्रवाइयों की लंबी सूची है, जबकि योगी एवं उनकी सरकार की प्रशंसा करने वाले अगर अपराधी भी हों, तब भी सुरक्षित रहते हैं। न्याय का यह मापदंड नहीं हो सकता।

उत्तर प्रदेश में मार्च, 2017 से योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री के रूप में शासन कर रहे हैं। तबसे सितंबर, 2024 तक पुलिस ने 12,964 एनकाउंटर किये हैं, जिनमें पुलिस रिकॉर्ड में 207 अपराधी मारे गये हैं। 27,117 अपराधी पकड़े गये हैं एवं 6,000 घायल हुए हैं। इन मुठभेड़ों में 1,601 पुलिसकर्मी भी घायल हुए हैं एवं 17 शहीद हुए हैं। मगर प्रदेश में गुंडाराज समाप्त नहीं हुआ है। हिंसक झड़पें, बलात्कार, हत्याएँ, चोरियाँ एवं लूट की घटनाएँ नहीं रुक रही हैं। आश्चर्य यह है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ स्वयं को इसके लिए कभी ज़िम्मेदार नहीं मानते हैं।

लोकतांत्रिक राजनीति का संकट

शिवेन्द्र राणा

आज कांग्रेस की राजनीति संकट में हैं और भारतीय लोकतंत्र का भविष्य भी। आख़िर सशक्त विपक्ष के बग़ैर जनतंत्र का भविष्य अंधकारमय ही होता है। राजनीति में पार्टियों एवं विचारधाराओं का उत्थान-पतन एक सामान्य प्रक्रिया है; किन्तु वर्तमान कांग्रेस की दशा देखकर प्रतीत होता है कि पराभव उसकी स्थायी नियति बन चुकी है। निकट ही हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय एक अप्रत्याशित घटना-क्रम था। वो तो भला हो जम्मू-कश्मीर में गठबंधन का, जहाँ नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रभाव में कांग्रेस की थोड़ी इज़्ज़त बच गयी। हालाँकि यह गंभीर विमर्श का विषय है; क्योंकि भारतीय लोकतंत्र की सबसे पुरानी पार्टी के अस्तित्व पर संकट लोकतंत्र के जनतांत्रिक स्वरूप के लिए ख़तरा है।

असल में वर्तमान कांग्रेस की राजनीतिक दुर्गति के कई कारण हैं। सर्व प्रमुख दिक़्क़त यह है कि कांग्रेस ने अपनी नियति को नेहरू परिवार के साथ आबद्ध कर लिया है। दूसरी दिक़्क़त, राहुल गाँधी की राजनीतिक सक्रियता के स्विच ऑन-ऑफ मोड को अब भी समझना कठिन है। वह अकस्मात् ही भारतीय राजनीति में अति सक्रिय होते हैं; जैसे कि भारत जोड़ो यात्रा, जिससे कांग्रेस को वाक़ई लाभ मिला। फिर तुरंत ही अवकाशीय सुषुप्त हो जाते हैं या यूँ कहें कि रहस्यमयी छुट्टियों पर चले जाते हैं, जो कि पार्टी के नेतृत्व के परिप्रेक्ष्य से एक घोर नकारात्मक स्थिति है।

संसद के पहले सत्र में जिस तरह राहुल गाँधी विपक्ष के नेता के रूप में आक्रामक भूमिका में नज़र आये, वह कांग्रेस की राजनीति को नयी दिशा दे रही थी। लेकिन जल्द ही वह फिर से पुराने ढर्रे पर दिखे। वास्तव में उन्हें अभी भी यह समझना है कि राजनीति कोई अंशकालिक (पार्टटाइम) व्यवसाय नहीं है, जिसे वह अपनी सुविधा के अनुसार संचालित करेंगे। तीसरे उनकी बहन प्रियंका वाड्रा से जितनी अप्रत्याशित उम्मीदें काडर ने लगा रखी थीं, वे भी टूटती दिख रही हैं। क्योंकि लगातार चुनावी मैदान में प्रत्यक्ष भूमिका निभाकर भी वह ख़ास प्रभाव या परिवर्तन नहीं पैदा कर सकीं। और ग़ैर-नेहरू परिवार के किसी ज़मीनी नेता के माध्यम से नेतृत्व परिवर्तन की इच्छाशक्ति कांग्रेस के डी.एन.ए. में है ही नहीं, भले ही अब तक उसने कई अध्यक्ष और प्रधानमंत्री ग़ैर-नेहरू परिवार के चुने हों। कांग्रेस अभी भी नहीं समझ पा रही कि परिवार का बलिदान, आज़ादी की लड़ाई जैसी पारिभाषिक शब्दावलियाँ और दीदी दादी जैसी दिखती हैं या भइया पापा जैसे दिखते हैं; के भावनात्मक नारों से 21वीं सदी की राजनीति, विशेषकर युवा भारत की त्वरापूर्ण लोकतांत्रिक राजनीति नहीं चल पाएगी। वह संभवत: समझ नहीं पा रहे हैं कि 21वीं सदी के आधुनिक युवा भारत को राजनीतिक धरोहरों की राजनीति आकर्षित नहीं कर पा रही है।

हालाँकि नेहरू परिवार को ऐसी नसीहतें लंबे समय से दी जाती रही हैं; लेकिन वास्तव में कांग्रेस नेतृत्व की राजनीति अहंकार, अहमन्यता, सर्वसत्तावादी मानसिकता का ऐसा समिश्रण हो गयी है, जिसके लिए नेहरू परिवार को तरजीह लोकतांत्रिक आस्था और जन-आकांक्षा से अधिक रुचिकर है। एक समय स्वयं इंदिरा गाँधी ने भूतपूर्व राजा-महाराजाओं को जन्म के बजाय कर्म आधारित प्रतिष्ठा पाने की नसीहत दी थी। लेकिन स्वयं अपने परिवार को यह ज्ञान नहीं दे पायीं, जिसका ख़ामियाज़ा अब कांग्रेस के साथ-साथ लोकतंत्र भुगत रहा है। दूसरी बड़ी समस्या गठबंधन धर्म की है। एक ओर कांग्रेस फिर से अपनी खोयी ज़मीन पाने के प्रयास में है, तो दूसरी ओर उसके इंडिया गठबंधन के साथी एवं दूसरे वैचारिक सहयोगी उस पर लदने के प्रयास में तो हैं ही, बल्कि अपने अनायास के विवादों में कांग्रेस को भी संकट में डाल रहे हैं। इनमें सबसे ऊपर हैं- समाजवादी राजकुमार एवं स्वयंभू पिछड़ावाद के मसीहा अखिलेश यादव। 2024 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के सफल प्रयोग और अपनी वरिष्ठता स्थापित करने के बाद वह सपा को कांग्रेस की पीठ पर चढ़ाकर पड़ोसी राज्यों में अपने प्रसार की जुगत में लगे हैं। मध्य प्रदेश, हरियाणा के पश्चात् अब उन्होंने महाराष्ट्र में भी उन्होंने सीटों की अनैतिक माँग शुरू कर दी है, जबकि इन राज्यों में सपा और अखिलेश यादव का प्रभाव नगण्य है।

असल में अखिलेश यादव अनायास प्राप्त चुनावी लाभ के आवेग से उपजे जोश को नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि उत्तर प्रदेश की प्रभावी घेरेबंदी के बूते वह कांग्रेस को दबाव में लेकर पड़ोसी राज्यों में राजनीतिक सत्ता की हिस्सेदारी कर सकेंगे। हालाँकि कांग्रेस के पूर्व के निर्णयों को देखते हुए लगता भी नहीं है कि वह महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी गठबंधन में मिलने वाली अपने हिस्से की सीटों में सपा को कुछ देगी; और उसका यह निर्णय सही होगा। क्योंकि यदि वह सपा की ऐसी अनर्गल माँगों के सामने झुकती है, तो अन्य राज्यों में उसके सहयोगी भी इसी दबाव की राजनीति का रास्ता अपनाएँगे। उधर यही स्थिति राजद की भी है, जो झारखण्ड में क्षमता से अधिक सीटों की दावेदारी कर रही है, जिसका ख़ामियाज़ा भी अंतत: कांग्रेस को भुगतना पड़ रहा है; क्योंकि गठबंधन की वरिष्ठ सहयोगी होने के नाते यह सारी ब्लैकमेलिंग उसी के मत्थे पड़ रही है। दूसरी ओर पार्टी की सिकुड़ती ज़मीन पर उसके कनिष्ठ सहयोगियों- सपा, राजद, झामुमो, शिवसेना जैसे क्षेत्रीय दलों के क़ाबिज़ होने की समस्या भी है।

इसके अतिरिक्त गठबंधन और राजनीतिक सहयोग की परिधि कांग्रेस के लिए हानिकारक सिद्ध हो रही है। उसके सहयोगियों की राजनीतिक कार्यशैली एवं असंयमित बयानबाज़ी का दुष्परिणाम कांग्रेस की राजनीति पर दिख रहा है। तमिलनाडु में सनातन धर्म-विरोधी निकृष्ट बयान देने वाले डीएमके के युवराज उदयनिधि स्टालिन और उत्तर प्रदेश में सपा प्रमुख अखिलेश यादव की एमवाई-समर्थन वाली राजनीति एवं विघटनकारी जातिवाद की बयानबाज़ी कांग्रेस को भारी पड़ रही है। अपने इन सहयोगियों के कारण वर्तमान कांग्रेस पूरी तरह सनातन धर्म एवं सवर्ण विरोधी तथा जातिवादी दिख रही है, जिसका लाभ अंतत: चुनाव दर चुनाव भाजपा को स्पष्ट मिलता दिख रहा है। हालाँकि इसमें कांग्रेस के रणनीतिकारों की भी भूमिका कम नहीं है। पिछले एक-दो दशकों यानी संप्रग सरकार (2004-2014) तथा उसके बाद के 2014 से अब तक की विपक्ष की भूमिका में कांग्रेस अपनी रीति-नीति, आचार-व्यवहार में पूरी तरह अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की लीक पर चल रही है। भले ही वह यह सब सेक्युलरिज्म की आड़ में कर रही है। राम सेतु, राम मंदिर के सम्बन्ध में कांग्रेस का जो सनातन-विरोधी रुख़ रहा, वो तो रहा ही; लेकिन इस्लामिक कट्टरपंथ के तुष्टिकरण में तो उसने एक नकारात्मक मिसाल ही पेश की है। भले ही कांग्रेस स्वयं की सेक्युलर राजनीति का दम भरे; लेकिन यथार्थ में उसकी वर्तमान राजनीति सांप्रदायिक ही है।

हालाँकि सन् 1967 के आम चुनाव में कांग्रेस के उत्तर भारत के बहुत-से राज्यों में पराजित होने एवं लोकसभा में उसका बहुमत बहुत कम हो जाने के कारण पार्टी-नेतृत्व का ही नहीं, बल्कि मुस्लिम, नेताओं, मतदाताओं का यह भ्रम भी ध्वस्त हुआ कि चुनावों में जीत-हार की कुंजी मात्र उनके हाथ में है। लोकतंत्र में किसी भी दल की बुनियादी स्थिरता के लिए समर्थक एवं काडर वोटर का प्रभाव निश्चित रूप से स्वीकार किया जाता है। लेकिन सरकार हर जाति, हर वर्ग के सम्मिलित समर्थन और मतदान से बनती है। हाँ; उसकी सीटें परिस्थितिवश कम या अधिक हो सकती हैं। लेकिन कांग्रेस के रणनीतिकार यह समझ बैठे हैं कि अल्पसंख्यक भावनाओं को तुष्ट करके एवं बहुसंख्यक समाज की धार्मिक-सांस्कृतिक भावनाओं की अनदेखी, बल्कि निरादर से वे सत्ता प्राप्ति का समीकरण बना लेंगे। उस पर भी तुर्रा यह है कि लगातार चुनावी पराभव से भी यह सीखने को तैयार नहीं हैं। अन्यत्र कांग्रेस की वृहत् समस्या उसकी राजनीतिक काहिलियत है। उसे लगता है कि एक दिन एंटी-इनकंबेंसी से प्रभावित जनता उसे ख़ुद ही सत्ता सौंप देगी। इसलिए वह अपनी आत्मघाती राजनीतिक रणनीतियों को न समझने को, न सुधारने को उद्यत है; और निकट ही हरियाणा चुनाव में इस मानसिकता का मुज़ाहिरा भी हुआ, जहाँ सांगठनिक रूप से अव्यवथा फैली रही। हालात ये थे कि पार्टी प्रत्याशी ख़ुद प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदस्यों से संपर्क नहीं कर पा रहे थे, बल्कि उन्हें तो आख़िरी समय तक प्रचारकों के दौरों की भी जानकारी नहीं होती थी। ऊपर से हुड्डा परिवार ने जो जाट जाति आधारित गोलबंदी की आक्रामकता दिखायी, उससे बाक़ी जातियों के अतिरिक्त वोटों का ध्रुवीकरण भाजपा की ओर कर दिया। दूसरी ओर कुमारी शैलजा जैसी दमदार दलित नेतृत्व की उपेक्षा ने कांग्रेस के लिए सत्ता संकट आसन्न कर दिया; लेकिन पार्टी नेतृत्व अंत तक नहीं चेता। यह कोई अपवाद नहीं है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, लोकसभा 2024 से लेकर कांग्रेस की चुनावी पराजयों की फ़ेहरिस्त में एक नया अध्याय मात्र है, जिसके विश्लेषण एवं समाधान की कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व या उसके तथाकथित प्रबुद्ध योजनाकारों में न इच्छा है और न ही योग्यता; ऐसा प्रतीत हो रहा है।

हालाँकि एक दौर रहा है, जब राजनीति में प्रबुद्ध वर्ग प्रभावशाली था। यानी शिक्षक, लेखक, पत्रकार, वकील, डॉक्टर आदि। अब लम्पटों, अपराधियों, भ्रष्ट तत्त्वों का बोलबाला है। और यह हर पार्टी, हर राजनीतिक विचारधारा की स्थिति है। चाहे वो कांग्रेस हो, भाजपा हो या वामपंथी दल हों। इसलिए जनता के बुरी तरह नकारने-दुत्कारने तक इनसे सुधरने की उम्मीद तो निरी मूर्खता ही होगी। लेकिन वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व और सांगठनिक पदाधिकारियों को मलयाली के महान् कवि बल्लतोल को पढ़ना और सीखना चाहिए। वह लिखते हैं :-

निरुद्ध चैल मपौरुषत्तिल, चरुटु कूटोल्ल सर्पर वींटुम्।

गुरुपदत्ताक्षर विद्यनेटि, तिरुत्तणं वां धि दुर्विलेखम्।।

अर्थात् ‘मेरे भाइयो! कर से हम निरुद्ध चैतन्य न बनें, अपने अपौरुष में न डूब जाएँ। गुरुजनों द्वारा दी जाने वाली विद्या को सीखकर दुर्विधि के लिखे हुए लेख को सुधारें।’

उम्मीद है कि कांग्रेस नेतृत्व कवि बल्लतोल की इस सीख को सुनने, समझने एवं गुनने का प्रयास करेगी, ताकि वह अपनी जनतांत्रिक भूमिका का ईमानदारी से निर्वहन कर सके और लोकतंत्र को बचाने के लिए उसकी मौज़ूदगी बनी रह सके।

नशे की ओर बढ़ रहे भारतीय बच्चे

– देश में ड्रग्स और शराब की तस्करी बढ़ी, 1.58 करोड़ से ज़्यादा बच्चों को लगी नशे की लत

कुछ साल पहले उड़ता पंजाब फ़िल्म काफ़ी चर्चा में आयी थी, जो कि पंजाब के युवाओं के ड्रग्स की लत को लेकर बनी थी। लेकिन गुजरात पर ऐसी कोई फ़िल्म बनाने की हिम्मत किसी फ़िल्म डायरेक्टर में आज तक नहीं आ सकी है; जबकि सच्चाई यह है कि गुजरात ड्रग्स तस्करी और नशे का अड्डा बना हुआ है। जबकि इस राज्य में शराबबंदी 01 मई, 1960 से लागू है। लेकिन गुजरात में शराब और ड्रग्स की तस्करी नहीं रुकी है। इन दोनों नशीले पदार्थों की तस्करी ने गुजरात की क़रीब एक-चौथाई आबादी का जीवन बुरी तरह बर्बाद कर रखा है। अब तो हालत यह है कि ड्रग्स स्कूलों तक पहुँच चुकी है और स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे बड़ी संख्या में इसकी गिरफ़्त में आ रहे हैं। गुजरात विधानसभा में गुजरात में ड्रग्स और शराब की तस्करी को लेकर कई बार गहमागहमी हो चुकी है; लेकिन तस्करी पर प्रतिबंध नहीं लग सका है और नशा करने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है।

हाल ही में सिलवासा में स्कूल यूनिफार्म में झंडा चौक स्थित पंड्या टॉवर के पीछे स्थित आलीशा अपार्टमेंट की पार्किंग से स्कूल के दो नाबालिग़ बच्चे साइकिल चुराते हुए पकड़े गये थे। जब पुलिस ने उनके अभिभावकों को बुलाकर उनके सामने पूछताछ की, तो बच्चों ने चोरी की वजह ड्रग्स की तलब और उसे ख़रीदने के लिए पैसों की ज़रूरत बतायी। इससे पहले अक्टूबर में ही अहमदाबाद के मध्यम वर्गीय परिवारों के दो बच्चों के यूरिन में कोकीन की मात्रा पायी गयी, जिसके बाद पता चला कि दोनों बच्चे कोचिंग से आते समय कहीं कॉफी पीते थे और घर आते ही सो जाते थे। दोनों बच्चों के परिवार वालों ने बताया कि कुछ महीने से उनके बच्चे घर में किसी से सही व्यवहार नहीं कर रहे थे। पढ़ाई भी ठीक से नहीं करते थे और खाना भी ठीक से नहीं खाते थे। कोई उनसे बात करता था, तो चिढ़ जाते थे। इसके बाद उन्होंने एक डॉक्टर को दिखाया, जिसने उन्हें मनोचिकित्सक के पास भेजा, जिसने यूरिन टेस्ट लिखे। इसके बाद उन्हें पता चला कि बच्चे पिछले कई महीने से ड्रग्स ले रहे हैं। कई स्कूलों में बच्चों द्वारा ड्रग्स लेने की शिकायतें पहले भी गुजरात के अलग-अलग शहरों से आती रही हैं। सवाल यह उठता है कि आख़िर इन बच्चों को ड्रग कहाँ से मिलती है? स्कूल के किशोर बच्चों को ड्रग्स कौन दे रहा है?

बचपन बचाओ आन्दोलन एनजीओ की एक याचिका पर साल 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने ड्रग्स और दूसरी तरह का नशा करने वाले बच्चों की बढ़ती तादाद को लेकर केंद्र सरकार से सवाल पूछे थे। केंद्र सरकार ने तब सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि देश में 10 से 17 साल की उम्र के 1.58 करोड़ किशोर ड्रग्स लेने के आदी हो चुके हैं। एक सर्वेक्षण के आँकड़े रखते हुए केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को यह भी बताया था कि 16 करोड़ भारतीय शराब का नशा करते हैं, जो नशा करने वालों में सबसे बड़ी तादाद है। देश में 5.7 करोड़ लोगों को अफ़ीम की गंभीर लत लगी हुई है और 3.1 करोड़ लोग भाँग और भाँग से बनी दूसरी चीज़ों का नशा करते हैं।

साल 2020 में भी केंद्र सरकार ने ख़ुलासा किया था कि 10 से 17 साल के क़रीब 1.48 करोड़ नाबालिग़ बच्चे ड्रग्स और शराब का सेवन कर रहे हैं। यानी सिर्फ़ दो वर्षों में ड्रग्स लेने वाले बच्चों की तादाद 10 लाख बढ़ गयी। हो सकता है कि यह तादाद और ज़्यादा हो। क्योंकि देखा जाता है कि स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे, जिनमें लड़के और लड़कियाँ दोनों ही शामिल हैं; तेजी से नशे की गिरफ़्त में आते जा रहे हैं। इस मामले में न तो पुलिस कुछ ख़ास कर पा रही है और न सरकारें नशा मुक्ति की नीयत से काम करना चाहती हैं। नारकोटिक्स विभाग भी नशीले पदार्थों की तस्करी रोकने में नाकाम ही है। कहने को केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारें तक नशा मुक्ति अभियान चलाती हैं। 15 अगस्त, 2020 को केंद्र सरकार ने नशा मुक्त भारत अभियान की शुरुआत देश के सबसे ज़्यादा नशे की गिरफ़्त वाले 272 ज़िलों से की गयी थी। साथ ही 26 जून को नशीली दवाओं के दुरुपयोग और अवैध तस्करी के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय दिवस के अलावा सन् 2015 से हर साल 02 अक्टूबर को राष्ट्रीय नशा मुक्ति दिवस मनाया जाता है। इन सभी अभियानों के आयोजनों में हर साल करोड़ों रुपये ख़र्च किये जाते हैं; लेकिन इसके बाद भी ड्रग्स और शराब का सेवन कर करने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है, जिसमें बच्चों की तादाद बढ़ना बहुत चिन्ताजनक है। नशा करने वालों की बढ़ती तादाद का अंदाज़ा इस बात से भी लगता है कि नशा मुक्ति केंद्रों पर आने वाले मरीज़ों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।

अगर सिर्फ़ गुजरात में नशा करने वालों की पड़ताल की जाए, तो इस अकेले राज्य में नशा करने वालों की तादाद क़रीब-क़रीब 80 प्रतिशत तक निकल सकती है। इनमें शराब पीने वालों की संख्या कम से कम 30 प्रतिशत और ड्रग्स लेने वालों की तादाद कुछ नहीं तो 20 प्रतिशत होगी। नाबालिग़ बच्चों का ड्रग्स की लत में पड़ना और उनकी तादाद बढ़ते जाना गुजरात के विकास मॉडल एवं नशा मुक्त गुजरात जैसे अभियानों पर कलंक है। गुजरात में ड्रग्स और शराब तस्करी का आलम यह है कि यहाँ किसी-न-किसी ज़िले में पुलिस हर महीने अवैध शराब या ड्रग्स बरामद करती है। अभी 20-21 अक्टूबर, 2024 की रात को भरूच ज़िले के एशिया के सबसे बड़े औद्योगिक क्षेत्र अंकलेश्वर में पुलिस ने क़रीब 14.10 लाख रुपये क़ीमत की 141 ग्राम प्रतिबंधित मेथामफेटामाइन बरामद की थी। इसके अलावा इसी क्षेत्र से पुलिस ने 427 किलो दूसरी प्रतिबंधित संदिग्ध दवाइयाँ बरामद कीं। इस मामले में पुलिस ने कुछ गिरफ़्तारियाँ भी कीं। पुलिस ने यह छापेमारी स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप (एसओजी) के तहत की थी। इससे पहले 13 अक्टूबर, 2024 को भी अंकलेश्वर से ही केंद्र सरकार की जीरो टॉलरेंस नीति और नशा मुक्त भारत अभियान के तहत दिल्ली पुलिस और गुजरात पुलिस ने संयुक्त अभियान चलाकर क़रीब 5,000 करोड़ रुपये की 518 किलो कोकीन ज़ब्त की थी।

दिल्ली और गुजरात पुलिस की स्पेशल सेल की छापेमारी में इसी महीने 21 अक्टूबर तक 1,289 किलो कोकीन और 40 किलो हाइड्रोपोनिक थाईलैंड की मारिजुआना ड्रग्स बरामद हो चुकी है। पुलिस ने अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इस ड्रग्स की क़ीमत 13,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा बतायी है। इससे पहले सूरत में ड्रग्स की एक फैक्ट्री पकड़ी गयी थी। इससे पहले 27 फरवरी, 2024 को पोरबंदर में समुद्र के रास्ते आ रही 3,089 किलोग्राम चरस, 158 किलोग्राम मेथम्फेटामाइन और 25 किलोग्राम मॉर्फीन भारतीय नौसेना, एनसीबी और गुजरात पुलिस संयुक्त रूप से ज़ब्त की, जिसके लिए देश के गृहमंत्री अमित शाह ने इस उपलब्धि के लिए जवानों को बधाई भी दी थी। गुजरात के एक तट से फरवरी, 2022 में भी 221 किलोग्राम मेथम्फेटामाइन ज़ब्त की गयी थी। इसके बाद साल मई में एनसीबी ने पाकिस्तान से आ रहे एक जहाज़ से 12,000 करोड़ की क़ीमत की 2,500 किलोग्राम मेथम्फेटामाइन ज़ब्त की थी। कच्छ के मुंद्रा पोर्ट पर तो कई बार ड्रग्स की बड़ी-बड़ी खेपें बरामद हुई हैं। अडानी के इस मुंद्रा पोर्ट पर सितंबर, 2021 में तो राजस्व ख़ुफ़िया निदेशालय और एक केंद्रीय जाँच एजेंसी ने गुजरात पुलिस की एक टीम के साथ छापेमारी करके दो कंटेनरों से क़रीब 3,000 किलो से ज़्यादा हेरोइन बराबर की थी। लेकिन इस मामले में किसी भी प्रकार की कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हुई।

ड्रग्स की इस बड़ी-बड़ी बरामदगी के अलावा गुजरात पुलिस और नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने भोपाल की एक फैक्ट्री से 05 अक्टूबर को 907 किलो मेफेड्रोन (एमडी) ड्रग्स बरामद की थी। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इस ड्रग्स की क़ीमत क़रीब 1,814 करोड़ रुपये आँकी गयी थी। इधर 11 अक्टूबर, 2024 को दिल्ली में भी क्राइम ब्रांच ने अंतरराष्ट्रीय ड्रग्स गिरोह का पर्दाफाश करते हुए तीन करोड़ रुपये से ज्यादा की कोकीन बरामद करके तीन दो विदेशी तस्करों सहित तीन तस्करों को गिरफ़्तार किया था। इससे पहले 5,600 करोड़ रुपये की कोकीन और 2,000 करोड़ रुपये की कोकीन बरामद की गयी थी। दिल्ली के अलावा हर राज्य में ड्रग्स तस्करी और नशाख़ोरी के मामले सामने आते रहे हैं।

बता दें कि पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान से बड़ी मात्रा में भारत में ड्रग्स तस्करी होने की बात कई बार सामने आयी है। अब तक ड्रग्स की सबसे बड़ी खेपें गुजरात में ही पकड़ी गयी हैं। पिछले दो वर्षों में गुजरात में देश की सबसे ज़्यादा ड्रग्स की खेपें ज़ब्त की गयी हैं। जाँच एजेंसियों और पुलिस की छापेमारी के आँकड़ों के मुताबिक, सिर्फ़ साल जनवरी, 2021 से 31 दिसंबर, 2022 तक अकेले गुजरात में ही 4,058.01 करोड़ रुपये मूल्य की ड्रग्स और 211.86 करोड़ की शराब बरामद हुई थी। इन दो वर्षों में वडोदरा ज़िले से 1,620.70 करोड़ रुपये की ड्रग्स और शराब, भरूच ज़िले से 1,389.91 करोड़ रुपये की ड्रग्स और शराब तथा कच्छ ज़िले से 1,040.57 करोड़ रुपये की ड्रग्स और शराब बरामद हुई थी। यह जानकारी पिछले साल विधानसभा सत्र में गुजरात सरकार ने दी थी।

आज देश में जिस तरह ड्रग्स और शराब का सेवन करने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है, उससे यह नहीं लगता कि केंद्र सरकार द्वारा चलाये जाने वाले नशा मुक्ति अभियानों का कोई असर हो रहा है। राज्य सरकारें भी अपने-अपने राज्यों के लोगों को नशे से मुक्ति दिलाने के मामले में फेल ही दिखती हैं। सोचना होगा कि हर साल नशा मुक्ति अभियानों पर करोड़ों रुपये की बर्बादी का क्या मतलब है? जब देश में नशा तस्करी और नशाख़ोरी का चलन बढ़ता ही जा रहा है? ऐसा लगता है कि कहीं-न-कहीं ड्रग्स और शराब की तस्करी करने वालों के सिर पर कोई वरदहस्त है, जिसका पता तभी चल सकता है, जब जाँच एजेंसियाँ पूरी ईमानदारी से इसके तार छोटे ड्रग्स तस्करों को एक तरफ़ से गिरफ़्तार करके खँगालें। हर साल गुजरात में ड्रग्स और शराब के सेवन से लोग मरते हैं।

हाल ही में 17 अक्टूबर, 2024 को बिहार के सिवान और छपरा ज़िलों में ज़हरीली शराब पीने से 20 लोगों की मौत हो गयी थी। बिहार में भी 01 अप्रैल, 2016 से शराबबंदी लागू है। शराबबंदी वाले राज्यों में इस तरह की घटनाएँ बताती हैं कि इन राज्यों की सरकारें नशाख़ोरी रोकने में नाकाम हैं। वहीं दूसरी तरफ़ दिल्ली जैसे राज्यों में शराब की खुली बिक्री के बावजूद शराब से एक भी मौत का न होना यह बताता है कि नशाख़ोरी रोकना संभव नहीं है, इसलिए शराब की बिक्री अगर इतनी ही ज़रूरी है, तो सरकारों के द्वारा ही वैध रूप से करायी जानी चाहिए, न कि अवैध रूप से तस्करों से मोटी रिश्वत लेकर ज़हरीली शराब और ख़तरनाक ड्रग्स को बढ़ावा देना चाहिए।

रोज़गार न छीन ले हरिद्वार-ऋषिकेश गंगा कॉरिडोर

ऋषिकेश में काशी विश्वनाथ और उज्जैन महाकाल की तर्ज पर हरिद्वार-ऋषिकेश गंगा कॉरिडोर के निर्माण के लिए सर्वे चल रहा है। कई व्यापारी और आम लोग इसका विरोध कर रहे हैं, तो कई समर्थन। विरोध करने वालों का कहना है कि विकास करना अच्छी बात है; लेकिन विकास से लोगों की रोज़ी-रोटी नहीं छिननी चाहिए। हालाँकि सरकार ने आश्वासन दिया है कि जब भी कोई डीपीआर फाइनल की जाएगी, व्यापारी संघ से बातचीत की जाएगी।

उल्लेखनीय है कि हरिद्वार चार धाम यात्रा का प्रवेश द्वार है। यहाँ रोज़ाना हज़ारों की संख्या में श्रद्धालुओं और यात्रियों का आना-जाना लगा रहता है। त्योहारों और ख़ास तिथियों में तो भीड़ और बढ़ जाती है। इसी को देखते हुए हरिद्वार और ऋषिकेश शहरों के अलग-अलग हिस्सों का विकास किया जाना है। इस कॉरिडोर का उद्देश्य भी तीर्थाटन को बढ़ावा देना है। प्रशासन के अधिकारियों का कहना है कि कुंभ मेले और कांवड़ मेले के दौरान ट्रैफिक व्यवस्था दुरुस्त रहे, यह भी इस परियोजना का एक मक़सद है। वहीं दूसरी तरफ़ शहर का व्यापारी संघ इसे अनावश्यक बता रहा है।

गंगा सभा के पूर्व अध्यक्ष रामकुमार मिश्रा ने इस ड्रीम प्रोजेक्ट हरिद्वार कॉरिडोर में आने वाली समस्याओं और उनके निवारण के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखकर बताया है कि हरिद्वार का वजूद हर की पौड़ी ब्रह्मकुंड में अविरल प्रवाहित गंगा से ही है। हरिद्वार में हज़ारों तीर्थ पुरोहितों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी हज़ारों वर्षों से निवास है। हर की पौड़ी, कुशा घाट के निकट इनकी गद्दियाँ हैं, जहाँ देश-विदेश के लोग गंगा स्नान करते हैं। दान-पुण्य करते हैं। अपने पूर्वजों का पितृ-कर्म करवाते हैं। कॉरिडोर पुरोहितों को उजाड़कर बनेगा। क्या ऐसे में कॉरिडोर बनाना उचित होगा? हरिद्वार में रेतीले कच्चे पहाड़ के नीचे ब्रिटिश सरकार के समय की बनी हुई 126 वर्ष पुरानी रेलवे सुरंग है, जिसमें से हरिद्वार से ऋषिकेश एवं देहरादून ट्रेन चलती है। क्या इसको भी हटाया जाएगा? या इसे विस्तारित किया जाना संभव होगा? क्या सैकड़ों वर्ष पुराने मंदिरों, आश्रमों और धर्मशालाओं को हटाना उचित होगा? क्या हर की पौड़ी पर असीमित श्रद्धालुओं के स्नान के लिए पर्याप्त स्थान उपलब्ध है? क्या हर की पौड़ी के प्राचीन स्वरूप को छुए बिना स्नान घाटों को विस्तारित किया जा सकता है?

रामकुमार मिश्रा ने प्रधानमंत्री से ऐसे सवालों के साथ सुझाव भी भेजे हैं। उन्होंने कहा है कि वाराणसी में छोटी-छोटी गलियाँ होने एवं गंगा के घाटों से मंदिर तक आवागमन की सुविधा न होने के कारण कॉरिडोर आवश्यक था। मगर हरिद्वार में हर की पौड़ी पर आने के लिए पहले से ही अप्पर रोड, मोती बाज़ार (बड़ा बाज़ार) सुभाष घाट जैसे मार्गों के अलावा रोड़ी बेलवाला से हर की पौड़ी तक लोहे से बने चार पुल, सीसीआर से हर की पौड़ी आने वाला शिव सेतु,  सीसीआर से आने वाला शताब्दी सेतु, भीमगोडा से हर की पौड़ी मुख्य मार्ग, अर्ध कुंभ 2004 में जयराम आश्रम से कांगड़ा घाट होते हुए हर की पौड़ी तक निर्मित घाट, पंतद्वीप से मालवीय द्वीप घंटाघर हर की पौड़ी पर बने सेतु आदि हैं।

हरिद्वार व्यापार संघ के अध्यक्ष संजीव नैयर का कहना है कि कॉरिडोर बेशक बने, इसका स्वागत है। हरिद्वार का सौंदर्यीकरण अच्छी बात है। लेकिन हरिद्वार के व्यापारी और नागरिक कॉरिडोर के नाम पर तोड़फोड़ बर्दाश्त नहीं करेंगे। जिन्हें आप कॉरिडोर के नाम पर उजाड़ेंगे, उनका समाधान क्या है? जहाँ-जहाँ सरकार ने कॉरिडोर बनाये हैं, वहाँ किसी की नहीं सुनी गयी। सरकार ने अपनी हठधर्मिता दिखायी है। हरिद्वार में तो कॉरिडोर का कोई मतलब ही नहीं है। हर की पौड़ी क्षेत्र में छ:-सात स्थान ऐसे हैं, जहाँ से हर की पौड़ी में प्रवेश किया जाता है। जबकि बाँके बिहारी में तो दो ही गेट हैं। पटना में विष्णु पथ पर एक ही गेट है। लेकिन हरिद्वार तो बहुत बड़ा तीर्थ स्थान है।

स्थानीय बजरंग धाम के प्रधान सुनील कुमार शर्मा इस कॉरिडोर का स्वागत करते हैं। उनका कहना है कि हरिद्वार-ऋषिकेश भारत के महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल हैं। गंगा कॉरिडोर के निर्माण से इन दोनों शहरों की धार्मिक महत्ता और अधिक बढ़ेगी। श्रद्धालुओं को एक व्यवस्थित और सुगम मार्ग मिलेगा। तीर्थ यात्रियों और पर्यटकों को शुद्ध पेयजल, शौचालय और विश्राम स्थल जैसी अच्छी सुविधाएँ मिलेंगी। स्थानीय लोगों को रोज़गार और आर्थिक विकास के नये अवसर मिलेंगे। इससे स्थानीय कलाकारों और व्यावसायिक संस्थानों को भी लाभ होगा। लेकिन कॉरिडोर के विकास में यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि गंगा की पवित्रता और पर्यावरण संरक्षित रहे।

विदेशियों की आस्था

हॉलीवुड की प्रसिद्ध अभिनेत्री और फ़िल्म टाइटैनिक की नायिका केट विंसलेट हरिद्वार में बसना चाहती थीं। पूर्व की संस्कृति और आध्यात्मिकता के दीवाने पश्चिम में भी कम नहीं हुए। 1975 के दशक में दुनिया में मचाने वाले अमेरिका के प्रसिद्ध बीटल गायक जॉर्ज हैरिसन एमबीई सन् 1967 में ऋषिकेश पहुँचे और 1968 में उन्होंने महर्षि महेश योगी से योग और ध्यान की शिक्षा ली। हैरिसन की इच्छा थी कि मृत्यु के बाद उसका दाह संस्कार किया जाए और उसकी राख को गंगा में बहाया जाए। आज भी बहुत-से विदेशियों को गंगा की पवित्रता आकर्षित करती है।

भारत में बढ़ते जा रहे वृद्धाश्रम

– माँ-बाप को घर से निकालने वाले बच्चों का न हो पैतृक संपत्ति में कोई अधिकार

के. रवि (दादा)

बचपन में हर बच्चे को अपने माँ-बाप से जितना प्यार होता है, उतना और किसी से नहीं होता। माँ-बाप भी अपने बच्चों पर जान न्योछाबर करते हैं और चाहते हैं कि उनका हर बच्चा एक अच्छा इंसान बनने के साथ-साथ इस क़ाबिल बने कि अपना जीवन ख़ुशहाल बना सके और बुढ़ापे में उनके सहारे की लकड़ी बन सके। लेकिन जवान होते ही बहुत-से बच्चे अपने उन्हीं देवतुल्य माँ-बाप को ठुकराकर घर से बाहर का रास्ता दिखा देते हैं, जिन माँ-बाप ने अपने सपनों और इच्छाओं को मारकर बच्चों की हर इच्छा पूरी की होती है। बच्चों के पीटने और घर से भगा देने से ये बुजुर्गों के पास तीन ही रास्ते होते हैं। कई सड़कों पर भीख माँगते हैं, जिन्हें वृद्धाश्रम का सहारा मिलता है, वो वृद्धाश्रम चले जाते हैं और कुछ तो तनाव में आत्महत्या तक कर लेते हैं।

ऐसे कपूत बच्चों की वजह से देश में अंदाज़न दो से ढाई लाख बुजुर्ग वृद्धाश्रमों में रहते हैं। कई ठोस रिपोर्ट देखने पर पता चलता है कि इन बुजुर्गों के साथ इनके ही बच्चों ने मारपीट और खाना न देने के मामले ज़्यादा मिले हैं। 2022 में भारत में 728 वृद्धाश्रम थे। 2016 में रजिस्टर्ड वृद्धाश्रमों की संख्या 500 के लगभग थी। सिर्फ़ छ: वर्षों में 228 वृद्धाश्रमों का बढ़ना यह बताता है कि हमारे देश के बच्चे अपनी सभ्यता और अपने संस्कार भूलते जा रहे हैं। भारत के 28 राज्यों में से एक भी राज्य ऐसा नहीं है, जहाँ एक भी वृद्धाश्रम न हो। भारत के केरल राज्य में 124 वृद्धाश्रम हैं। और  महाराष्ट्र में 49 से ज़्यादा वृद्धाश्रम हैं। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 2011 में 10.4 करोड़ बुजुर्ग वृद्धाश्रमों में थे। 2015 में इनकी संख्या आठ फ़ीसदी तक बढ़ गयी थी। लॉन्गिट्यूडिनल एजिंग सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, 2050 तक भारत में 19 फ़ीसदी वृद्धि के साथ भारत में बुजुर्गों की संख्या 31.9 करोड़ हो जाएगी।

वृद्धाश्रम में रहने वाले बुजुर्गों को वृद्धाश्रम भेजने वाले बच्चों में अमीर ज़्यादा होते हैं। ग़रीब बच्चे अपने माँ-बाप को कभी वृद्धाश्रम नहीं भेजते। अब तक की रिपोर्ट्स में सामने आया है कि 50 फ़ीसदी वृद्ध माताएँ और 45 फ़ीसदी वृद्ध बाप अपने ही बहू-बेटों से पिटते हैं।

क्यों न ऐसे बच्चों को संपत्ति से दूर कर दिया जाए, जो माँ-बाप को दो-जून की रोटी तक नहीं देना चाहते हैं? 2024 में केंद्र सरकार ने संपत्ति क़ानूनों में कई बड़े बदलाव करके ऐसे बच्चों को सबक़ सिखाने की कोशिश की है। इसमें पहला नियम बन गया है कि बेटों की तरह ही अब बेटियाँ भी माँ-बाप की संपत्ति में हिस्सा ले सकती हैं। नये क़ानून के मुताबिक, अब माँ-बाप की स्वयं अर्जित की गयी संपत्ति पर उनके बच्चों का कोई क़ानूनी अधिकार नहीं होगा। ऐसा करना माँ-बाप की इच्छा पर निर्भर करेगा। माँ-बाप अपनी संपत्ति सरकार को दे दें, किसी आश्रम को दान में दे दें या किसी मनचाहे व्यक्ति को दे दें; यह उनकी अपनी मज़ीर् होगी। इस नये क़ानून ने वृद्ध माँ-बाप की सेवा न करने वाले बच्चों के मन में डर रहेगा है कि कहीं उनके माँ-बाप किसी और को संपत्ति न दे दें। पर फिर भी कई बच्चे नौकरी लगने के बाद अपने माँ-बाप को वृद्धाश्रम जाने को मजबूर कर रहे हैं। कई ऐसे मामले सामने आये हैं, जिनमें बच्चों को अपने ही माँ-बाप को पीटते और भूख से तड़पाते हुए देखा गया है।

वैसे भी हमारे देश में रेमंड के पूर्व मालिक विजयपत सिंघानिया के पुत्र गौतम सिंघानिया ने जिस तरह अपने पिता को संपति से बेदख़ल करते हुए अदालत में खींचा, उससे गौतम सिंघानिया की पूरे देश में थू-थू हुई। हो सकता है कि इस तरह के कई मामले उजागर न हुए हों, पर सरकार को ऐसे मामलो में गंभीरता दिखते हुए स$ख्ती से और ठोस क़दम उठाकर पीड़ितों को न्याय दिलाना चाहिए। इस मामले मेरी केंद्र सरकार और महाराष्ट्र सरकार से विनती है कि वो ऐसे बच्चों को सज़ा देने का प्रावधान भी करें, जो अपने माँ-बाप को उनकी संपत्ति पर क़ब्ज़ा करके घरों से निकाल देते हैं।

स्वास्थ्य से खिलवाड़

दिल्ली-एनसीआर में प्रसिद्ध फ्रेंचाइजी की खुदरा दुकानों पर बिकता है बाजार का घटिया और सस्ता सामान

इंट्रो- ‘तहलका’ ने अपनी इस बार की पड़ताल में केंद्र सरकार द्वारा फ्रेंचाइजी के तहत वितरित खुदरा श्रृंखला (फुटकर नेटवर्क) की दुकानों पर उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य को खतरे में डाले जाने की खास जानकारी जुटायी है। ‘तहलका’ एसआईटी ने हमेशा की तरह अपनी पड़ताल को जारी रखते हुए इस बार पाया है कि दिल्ली-एनसीआर में खुदरा स्टोर्स की फ्रेंचाइजी लेने वाले कुछ मालिक अपने स्टोर्स पर अवैध रूप से लाये गये अनधिकृत, सस्ते और घटिया उत्पाद बेचकर नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं। ‘तहलका’ ने दिल्ली-एनसीआर की प्रसिद्ध खुदरा श्रृंखला के फ्रेंचाइजी धारकों के द्वारा नियमों का उल्लंघन करने के नमूने के तौर पर दो स्टोर्स में अवैध रूप से खुले बाजारों से लाये गये सस्ते और घटिया उत्पाद बेचने के मामले को उजागर करते हुए स्टोर मालिकों की करतूतों का पर्दाफाश किया है। पढ़िए, तहलका एसआईटी के खुफिया कैमरे में रिकॉर्ड की गयी विस्तृत रिपोर्ट :-

सितंबर, 2024 में तिरुपति बालाजी मंदिर के प्रसाद वाले लड्डुओं में मिलावटी घी के कथित इस्तेमाल पर विवाद खड़ा हो गया था। इस हंगामे के बीच आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू ने दावा किया कि पूर्व मुख्यमंत्री वाई.एस. जगनमोहन रेड्डी के नेतृत्व वाली पिछली राज्य सरकार के दौरान तिरुपति जिले के तिरुमला पर्वत पर बने तिरुपति बालाजी मंदिर के देवता श्री वेंकटेश्वर को चढ़ाये जाने वाले प्रसाद में पशुओं की चर्बी वाली घटिया सामग्री का इस्तेमाल किया गया था।

बहरहाल, यह दीपावली और उसके आसपास मनाये जाने वाले त्योहारों का मौसम है, और हर साल की तरह इस बार भी पूरे भारत से खाद्य पदार्थों में मिलावट की कई रिपोर्ट्स सामने आ चुकी हैं, जिससे एक बार फिर उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा पैदा हो गया है। ‘तहलका’ की इस पड़ताल से मिलावट के मुद्दे के एक नये पहलू का पता चलता है कि दिल्ली-एनसीआर में फ्रेंचाइजी खुदरा स्टोर (फुटकर दुकान) चलाने वाला एक उद्यमी घटिया खाद्य सामग्री बेचने का काम कर रहा है। यह खुदरा श्रृंखला भारत में फलों और सब्जियों का सबसे बड़ा संगठित नेटवर्क है, जो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में 400 और बेंगलूरु में 23 आउटलेट्स (दुकानें) संचालित कराता है और इस नेटवर्क की ये सब दुकानें प्रतिदिन 1.5 लाख से अधिक ग्राहकों को सेवा प्रदान करती हैं।

इस नेटवर्क का स्वामित्व भारत सरकार के मत्स्य पालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के तहत एक अन्य ब्रांड के पास है। एक स्टोर के मालिक को ‘तहलका’ रिपोर्टर ने अपने खुफिया कैमरे पर खुदरा श्रृंखला के वरिष्ठ अधिकारियों की जानकारी के बिना नोएडा में अपने दो खुदरा स्टोर्स पर घटिया उत्पाद बेचने की बात क़ुबूल करते हुए कैद किया है। शहरी उपभोक्ताओं और किसानों को समर्थन देने के लिए सन् 1988 में लॉन्च किये गये ये स्टोर पूर्व सैनिकों या उनके आश्रितों द्वारा फ्रेंचाइजी स्वामित्व के माध्यम से चलाए जाते हैं। लेकिन आज हमारे खुफिया कैमरे में कैद हुआ एक दुकान मालिक खुदरा श्रृंखला के अधिकारियों को अँधेरे में रखते हुए घटिया उत्पाद बेचकर इस मिशन के साथ विश्वासघात कर रहा है।

‘ईमानदारी की कीमत नहीं होती। मुनाफा कमाने के लिए बेईमानी का सहारा लेना पड़ता है। मैंने बाहरी बाजारों से लायी गयी कई अनधिकृत वस्तुओं का स्टॉक कर लिया है और इस तरह मैं हर महीने 1.50 लाख रुपए कमा रहा हूं। अगर मैं केवल कंपनी की वस्तुओं को उनकी कीमतों पर बेचने पर अड़ा रहा, तो मैं कुछ भी नहीं कमा पाऊंगा। अब अगर कंपनी मेरे स्टोर पर छापा मारती है और मुझे दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करते हुए पकड़ती है, तो वे (अधिकारी) केवल एक छोटा-सा ज़ुर्माना लगाएंगे।’ नोएडा में दो रिटेल स्टोर के मालिक सुधीर चौधरी ने ‘तहलका’ के अंडर कवर रिपोर्टर से बात करते हुए बताया।

‘हम अपने स्टोर्स में बाहरी स्रोतों से प्राप्त अनधिकृत वस्तुओं की अनुमति नहीं देते हैं। बेंगलूरु में हमारे पास किसानों का अपना नेटवर्क है, जो सब्जियों और फलों की आपूर्ति करते हैं। हमारी फ्रेंचाइजी विशेष रूप से पूर्व सैनिकों या उनके आश्रितों को दी जाती है। हालांकि आपके मामले में एक सामान्य नागरिक होने के बावजूद हम आपको फ्रेंचाइजी देने को तैयार हैं।’ खुदरा श्रृंखला के नोएडा पर्यवेक्षक ने ‘तहलका’ रिपोर्टर से बातचीत में कहा।

‘यदि आप चतुराई से खेलते हैं, तो आप नियमों से बच सकते हैं और बाहर से लायी गयी अनधिकृत वस्तुओं को स्टोर में रख सकते हैं। पर्यवेक्षक केवल चालान की जांच करता है; स्टोर में स्टॉक की गयी वास्तविक वस्तुओं की नहीं।’ एक अन्य अवसर पर सुधीर के छोटे भाई शिवा चौधरी ने ‘तहलका’ रिपोर्टर को बताया।

सभी खुदरा स्टोर्स के मालिकों से अपेक्षा की जाती है कि वे मौसमी उपलब्धता के आधार पर प्रतिस्पर्धी दैनिक दरों के साथ सीधे किसानों से प्राप्त ताजा खाद्य उत्पाद ही उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराएं। वे एक ही छत के नीचे कड़े खाद्य सुरक्षा मानकों का पालन करते हुए सटीक वजन, निश्चित कीमतों और व्यापक उत्पाद श्रृंखला को कायम रखते हुए बिक्री करें। इसमें दैनिक डिलीवरी शेड्यूल (365 दिन, 24×7) के साथ प्रत्येक ग्राहक को खरीदारी के लिए एक मुद्रित बिल प्राप्त होता है। स्टोर विशेष रूप से ताजा फलों, ताजा सब्जियों और मूल्य वर्धित उत्पादों पर ध्यान केंद्रित करते हुए अनधिकृत वस्तुओं की बिक्री पर सख्ती से रोक लगाते हैं।

हालांकि सुधीर चौधरी जैसे फ्रेंचाइजी मालिक इन दिशा-निर्देशों का खुलेआम उल्लंघन करते हैं। क्योंकि नोएडा में उनके दो फ्रेंचाइजी स्टोर्स पर घटिया और सस्ते फल-सब्जियां और अन्य खाद्य उत्पाद बेचे जाते हैं। ‘तहलका’ रिपोर्टर ने एक सामान्य नागरिक बनकर उसके माध्यम से एक अन्य आउटलेट के लिए फ्रेंचाइजी लेने का काल्पनिक प्रस्ताव पेश करते हुए सुधीर से उसके नोएडा स्थित एक स्टोर पर जाकर मुलाकात की। सुधीर ने ‘तहलका’ रिपोर्टर को समझाया कि अच्छा मुनाफा कमाने के लिए बेईमानी का सहारा लेना पड़ता है। क्योंकि नियमों का पालन करने से कोई फायदा नहीं होता।

रिपोर्टर : ईमानदारी से काम करेंगे, तो कितना कमा लेंगे?

सुधीर : ईमानदारी से कुछ भी न कमा पाओगे, और किसी भी काम में न; ….ईमानदारी का जमाना गया।

रिपोर्टर : तो परसेंटेज इतना कम दे रही है xxxx, ….9 प्रतिशत?

सुधीर : जब तुम एग्री हो जाओगे, तो बढ़ा भी सकते हैं; कइयों का बढ़ा दिया है। …हमारा 12 प्रतिशत कर दिया है।

हालांकि फलों और सब्जियों के लिए यह प्रसिद्ध खुदरा नेटवर्क अनधिकृत उत्पादों की बिक्री पर प्रतिबंध लगाता है, जो श्रृंखला के खरीद कार्यालय के बजाय सामान्य बाजारों से प्राप्त होते हैं। सुधीर ने ‘तहलका’ के खुफिया कैमरे पर स्पष्ट रूप से क़ुबूल किया है कि वह नियमित रूप से अपने दो स्टोर्स पर दैनिक उपयोग की ऐसी खुले बाजारों की वस्तुएं बेचता है। उसने खुलासा किया कि हर रात लगभग 2:00 बजे वह बाहरी मंडी से कंपनी की तुलना में कम दरों पर फल और सब्जियां खरीदता है, जिससे उसे पर्याप्त लाभ मिलता है। सिर्फ एक स्टोर से वह फिलहाल 1.50 लाख रुपए प्रतिमाह कमाते हैं।

रिपोर्टर : कितना कमा लेते हो आप इस वाले स्टोर से, xxxx के। ईमानदारी से बताओ?

सुधीर : इस वाले से कम-से-कम 1.5 लाख।

रिपोर्टर : 1.5 लाख महीना?

सुधीर : सब खर्चे-वर्चे काट के।

रिपोर्टर : बुरा नहीं है, पर उसमें बाहर का सामान ले रहे हो आप?

सुधीर : 2:00 बजे सामान लाता हूं। 2:00 बजे जाता हूं मंडी।

रिपोर्टर : तुम फिर वहां से…?

सुधीर : वो खड़ी मेरी ईको (व्हिकल), …व्हाइट वाली।

रिपोर्टर : जिसमें, …जिसमें उस दिन अगरबत्ती लगा रहे थे?

सुधीर : जी! उसमें माल आता है। जो तुम्हें कंपनी की गोभी एक किलो है, …आज रुपीज (रुपए) 39 प्रति किलो गोभी है।

रिपोर्टर : कंपनी का रेट?

सुधीर : जो हम पे करेंगे कंपनी को, …रुपीज 35 पर केजी (प्रति किलो) है।

रिपोर्टर : 4 रुपीज (रुपए) तुम्हारे हो गये?

सुधीर : हम चले गये मंडी, वहां से रुपीज 20 किलो के हिसाब से ले आए।

रिपोर्टर : और सस्ती ले ली…।

सुधीर : वहां से रुपीज 20 पर केजी (प्रति किलोग्राम) ले ली, …और यहां रुपीज 39 केजी में बेच दी। कितने रुपीज बच गये? रुपीज 19…। हमारा जो सामान बिक रहा है, हमारी दो क्रेट बिक रही है, …एक कंपनी का माल, एक यहां का माल।

अब एक फ्रेंचाइजी स्टोर के मालिक सुधीर ने खुले तौर पर स्वीकार किया कि उसके स्टोर में बिक्री के लिए कई अनधिकृत वस्तुओं का भंडार है, जो खुदरा श्रृंखला के सख्त दिशा-निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन है। सुधीर ने खुलासा किया कि श्रृंखला की केवल अधिकृत उत्पादों को प्राप्त करने की नीति के बावजूद वह अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए बाहरी आपूर्तिकर्ताओं से सामान खरीदता है। यहां तक कि उसने नियमित रूप से कंपनी की आपूर्ति को दरकिनार करने की बात भी क़ुबूल की। उसने बताया कि शुरुआत में कंपनी से खरीदारी करने के बाद वह सस्ते विकल्पों के लिए बाहरी विक्रेताओं की ओर रुख करता है। ऐसा लगता है कि अधिक मुनाफे का लालच नियमों का पालन करने की किसी भी बाध्यता पर भारी पड़ता है।

रिपोर्टर : तो अभी क्या-क्या सामान आपके स्टोर पर बाहर का है?

सुधीर : इस बार एक तो सेब (एप्पल) बाहर के हैं। बैंगन, गोभी है। तोरई अभी कंपनी की है और आधी बाहर की है।

रिपोर्टर : मतलब, चार-पांच आइटम बाहर के हैं?

सुधीर : चार-पांच नहीं, बहुत आइटम बाहर के हैं।

रिपोर्टर : कितने आइटम?

सुधीर : बहुत आइटम हैं।

रिपोर्टर : कॉफी एट्स (इत्यादि) भी बाहर की है?

सुधीर : कॉफी हमने एक बार कंपनी से मंगवा ली, …उसके बाद हम बाहर से लेते हैं।

जब ‘तहलका’ रिपोर्टर ने सुधीर से पूछा कि क्या वह उन्हें अपने स्टोर में वस्तुओं की आपूर्ति करने वाले बाहरी वितरकों से संपर्क करा सकता है? यह देखते हुए कि हम (रिपोर्टर) उसके माध्यम से नोएडा में एक स्टोर लेने पर विचार कर रहे हैं, उसने तुरंत सहमति दे दी। उसने न केवल वितरक का विवरण साझा करने की पेशकश की, बल्कि यह भी बताया कि खुदरा श्रृंखला की नीतियों का उल्लंघन करते हुए पान मसाला और सिगरेट जैसी प्रतिबंधित वस्तुओं को कैसे बेचा जाए। सुधीर ने स्पष्ट किया कि हालांकि ऐसी गतिविधियां जोखिम भरी हैं; लेकिन अगर सावधानी से व्यापार किया जाए, तो यह काफी लाभदायक हो सकता है।

रिपोर्टर : तो भाई! एक काम करो, …मान लो हम 128 वाला ले लेते हैं, तो हमारे लिए भी बाहर का मंगवा देना फिर।

सुधीर : हम आपको डिस्ट्रीब्यूटर (वितरक) के नंबर दे देंगे।

रिपोर्टर : लोग पान मसाला, सिगरेट रखते हैं?

सुधीर : वो काम अगर तुम छुप करके कर सकते हो, तो कर लो। …अब बाई चांस कस्टमर है, वो बैठा है, तुम सिगरेट दे रहे हो, कल किसी कस्टमर के सामने मांग लिया, …भैया! सिगरेट दे दो। अब तुम कहोगे, हम नहीं बेचते। वो कहेगा, कल तो मैं लेकर गया। तो वो उस चीज को कैच कर (पकड़) लेते हैं।

रिपोर्टर : उस काम में क्या करना पड़ेगा?

सुधीर : कुछ नहीं, जो मैं बता रहा हूं।

रिपोर्टर : आप 1.5 लाख कमा रहे हो; लेकिन सारा सामान बाहर का…? सुधीर भाई! तुम जब बाहर का सामान लेते हो, तो हमारा भी ला देना।

सुधीर : देखो, मैं रुपीज 20 की कॉफी लाया, …तुम्हें रुपीज 25 में बेच रहा हूं, तो जो काम तुम खुद कर सकते, कोई और नहीं कर सकता।

रिपोर्टर : तो तुम हमें डिस्ट्रीब्यूटर (वितरक) के नंबर दे देना।

सुधीर के अनुसार, ईमानदारी अतीत की बात है। उसने साफ कहा कि फायदे के लिए बेईमानी आवश्यक है। उसने ‘तहलका’ रिपोर्टर को बताया कि कैसे वह अपने स्टोर के लिए अनधिकृत वस्तुएं खरीदता है; बावजूद इसके कि यह कंपनी के नियमों के खिलाफ है। इसके अतिरिक्त उसने उत्पादों की बिक्री पर खुदरा नेटवर्क से मिलने वाले कमीशन का भी खुलासा किया। सुधीर ने संकेत दिया कि कंपनी के साथ सम्बन्ध बनाने से कमीशन का प्रतिशत भी बढ़ सकता है; जैसा कि वह खुद इसका फायदा ले रहा है।

सुधीर : तुम सुबह उठकर भंगेल चले जाओ, गाड़ी तो होगी ना तुम्हारे पास?

रिपोर्टर : हां।

सुधीर : भाई! सुबह 5:00 बजे सप्लाई आ रही है, वहां से उठाकर पांच-पांच किलो लाकर यहां मिक्स कर दो।

रिपोर्टर : ईमानदारी से काम करेंगे, तो कितना कमा लेंगे?

सुधीर : ईमानदारी से कुछ भी न कमा पाओगे, और किसी भी काम न, …ईमानदारी का जमाना गया।

रिपोर्टर : तो परसेंटेज कितना कम दे रही है xxxx, ….9 प्रतिशत?

सुधीर : जब तुम एग्री हो जाओगे, तो बढ़ा भी सकती है। कइयों का बढ़ा दिया है, हमारा 12 प्रतिशत कर दिया है।

खुदरा श्रृंखला नियमित रूप से पर्यवेक्षकों (सुपरवाइजरों) को दुकानों में वस्तुओं का निरीक्षण करने, उनके दिशा-निर्देशों का अनुपालन सुनिश्चित करने और अनधिकृत बाहरी उत्पादों को रोकने के लिए भेजती है। हालांकि सुधीर ने खुलासा किया कि उसके भाई ने पर्यवेक्षक को यह सुनिश्चित करने के लिए धमकी दी थी कि वह अनधिकृत सामान बेचे जाने के बारे में चुप रहे। ऐसा लगता है कि डर कभी-कभी तुष्टिकरण के साथ मामलों को नियंत्रण में रखने और अपने मुनाफे को सुरक्षित रखने की स्टोर्स मालिकों की एक चुनी हुई रणनीति है।

रिपोर्टर : अच्छा, इसको सेट कैसे करें, …सुपरवाइजर xxxx को?

सुधीर : सेट तो सब हो जाएगा, पापी पेट का सवाल है। तुम कुछ खाने को दोगे, तो होगा। अभी ये कंपनी के गुण गा रहा है, कल तुम्हारे गाएगा। मगर टूटना मुश्किल से है।

रिपोर्टर : आपने कैसे सेट किया xxxx को?

सुधीर : हमने धमकाकर सेट किया है।

रिपोर्टर : धमकाकर कैसे?

सुधीर : छोटे भाई ने बाहर पकड़ लिया था इसको। ख़ूब बात सुनायी थी इसको। एक तो इससे ये बात की, कि जितना माल मंगवाऊंगा, उतना माल आना चाहिए, अगर तुम्हारा कंपनी से एग्रीमेंट साइन है, तो कंपनी से एग्रीमेंट हमारा भी साइन करवाओ। और जो हम माल मंगवाएंगे, वो ही माल आएगा। कंपनी अपनी तरफ से कुछ नहीं भेजेगी। एक-दो क्रेट तो हम भी झेल लेंगे, पर इतना नहीं कि चार-पांच क्रेट भेज दो; …कुछ भी माल भेज दो।

सुधीर ने खुले तौर पर स्वीकार किया कि वह अपने दोनों नोएडा स्टोर्स में बाहरी वस्तुओं का स्टॉक रखता है, जो खुदरा नेटवर्क की नीतियों का सीधा उल्लंघन है। कंपनी केवल शाकाहारी उत्पाद श्रृंखला को बनाये रखने के लिए कड़े नियम लागू करती है। लेकिन सुधीर मोटे फायदे के लिए अनधिकृत उत्पाद बेचकर इन नियमों का उल्लंघन करता है। वह न केवल प्रतिबंधित सामान बेचता है, बल्कि उसने व्यवस्था तंत्र के आसपास काम करने के तरीक़े भी ईजाद कर लिये हैं, जिसमें अंडे और विशिष्ट प्रकार के आटे जैसी वस्तुएं बेचना शामिल है, जिनकी अनुमति ही नहीं है। साफ लगता है कि नैतिक विचारों की परवाह किये बिना खुदरा श्रृंखला और कंपनी के नियमों के प्रति उसकी उपेक्षा ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा कमाने की इच्छा से उत्पन्न हुई होगी।

रिपोर्टर : तो आप जो बाहर का सामान लेते हो, वो 93 वाली स्टोर के लिए भी लेते हो?

सुधीर : हां जी!

रिपोर्टर : कुछ ऐसा आइटम रख सकते हैं, जो अलाउड नहीं है यहां?

सुधीर : हां; बहुत-से आइटम हैं। अंडे नहीं बेच सकते यहां।

रिपोर्टर : कंपनी की तरफ से अलाउड नहीं है?

सुधीर : वेजिटेरियन हैं यहां। आप नहीं बेच सकते। …आप साइड में बेच लो; मगर अंदर नहीं बेच सकते।

रिपोर्टर : आप क्या बेच रहे हो, जो अलाउड नहीं है?

सुधीर : गोल्ड के रस्क (बेकरी के पापे) बेच रहा हूं। बाहर के बेच रहा हूं, जो अलाउड नहीं है। बाहर जो फैन (एक प्रकार का मैदा बिस्किट), रस्क रखे हैं, इनमें बहुत मार्जिन (बचत) है।

रिपोर्टर : ये इसको पता है?

सुधीर : हां; ये इसको पता है। …उसको कहना है, अंदर तुम हमारा माल बेचोगे, बाहर तुम कुछ भी बेचो।

रिपोर्टर : वो, जो तुम कुट्टू आटा बेचते हो?

सुधीर : वो हम सब बाहर से लाते हैं।

रिपोर्टर : कुट्टू आटा अलाउड नहीं है?

सुधीर : नहीं। …अगर आप चेकिंग पर आ जाओ, आपने देख लिया ये क्या चीज है। …भाई! हमने बाहर कर रखा है।

रिपोर्टर : बाहर अगर तुम दो आइटम रख दो, तो कोई दिक़्क़त नहीं है?

सुधीर : आदमी चोरी करेगा ही, और हर बूथ वाला करता है।

अब सुधीर ने खुले तौर पर स्वीकार किया कि फ्रेंचाइजी खुदरा दुकान (रिटेल आउटलेट) चलाने में बाहरी बाजारों से प्राप्त अनधिकृत वस्तुओं को बेचना शामिल है। उसने बताया कि यह प्रथा ऐसे स्टोर्स का प्रबंधन करने वालों के बीच व्यापक है। कई लोग इन ज्यादा मुनाफा देने वाले बाहरी उत्पादों को बेचने का फायदा उठाते हैं। अपने दावे को पुष्ट करने के लिए सुधीर ने ‘तहलका’ रिपोर्टर को दिल्ली की गाजीपुर मंडी का दौरा करने के लिए आमंत्रित किया, जहां उसकी तरह के खुदरा स्टोर्स के कई वाहनों को बाहरी सामान खरीदने के लिए वहां मौजूद देखा जा सकता है। सुधीर के अनुसार, नोएडा की तुलना में दिल्ली के खुले बाजारों में खाद्य पदार्थ काफी सस्ते मिलते हैं, जिससे यह प्रथा राजधानी में और भी प्रचलित है।

रिपोर्टर : हर बूथ वाला बाहर का सामान बेच रहा होगा, वर्ना तो प्रॉफिट (मुनाफा) ही नहीं है?

सुधीर : हां; तुम गाजीपुर मंडी चलना, इतनी गाड़ी दिखाऊंगा तुम्हें xxxx की।

रिपोर्टर : xxxx की गाड़ी गाजीपुर में?

सुधीर : मतलब, जैसे हम चले जावें, मेरी गाड़ी है पर्सनल ये होता है; …अब जब तुम xxxx में आ जाओगे, तुम्हें पता चल जाएगा, वो इस दुकान से लाता है। फिर तुम रिटायर हो जाओगे मानो, यहां कम मार्जिन मिलेगा। दिल्ली जाओगे, ज्यादा मार्जिन मिलेगा सब्जी में।

फिर सुधीर से उसके स्टोर में अनधिकृत सामान लाते समय रंगे हाथों पकड़े जाने के संभावित जोखिमों के बारे में पूछा गया, जिसके जवाब में उसने आत्मविश्वास से इस तरह की छापेमारी की संभावना को खारिज कर दिया। यह उसके इस विश्वास को दर्शाता है कि व्यवस्था की जांच के लिए रखे गये लोग इन गतिविधियों पर आंखें मूंदने में या तो उदार हैं, या इसमें शामिल हैं।

रिपोर्टर : अगर तुम माल बाहर से ला रहे हो रात में, …दुकान में रख रहे हो; उसी समय किसी ने छापा मार दिया?

सुधीर : ऐसा नहीं होता।

अब सुधीर ने एक झलक प्रदान की, कि व्यवस्था में हेरफेर कैसे किया जा सकता है? उसने ‘तहलका’ रिपोर्टर को एक रास्ता सुझाया कि इस काम में घाटा होने का बहाना बनाते हुए पर्यवेक्षक से विनती करें और शिकायत करना शुरू कर दें। सुधीर ने दावा किया कि इस रणनीति से पर्यवेक्षक आंखें मूंद लेगा और स्टोर में अनधिकृत बाहरी वस्तुओं की बिक्री की अनुमति दे देगा। हालांकि सुधीर का कहना है कि रिश्वतखोरी काम नहीं कर सकती; लेकिन भावनात्मक अपील से काम चल सकता है।

रिपोर्टर : कितनी तनख्वाह होगी इसकी, xxxx की?

सुधीर : इसकी होगी 40 के (हजार)!

रिपोर्टर : सेंट्रल गवर्नमेंट जॉब (केंद्र सरकार की नौकरी) है, अब तो रिटायर होने वाला होगा?

सुधीर : जी! वैसे ये बहुत मुश्किल टाइम में खाता है। इसके सामने रोओ, बस; …जितना हो सकता है। जब भी आए, रोना शुरू कर दो- ‘अरे सर जी! कहां फंसा दिया। सर जी! ये न बिक रहा, वो न बिक रहा।’ फिर वो सोचता, चलो बेचने दो बाहर का। …कुछ तो कमा ले भाई।

रिपोर्टर : अच्छा; ऐसा है। चाय-पानी पिला दो, जब आए?

सुधीर : हां; अभी तो कोल्ड ड्रिंक पिलायी।

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव : धुरंधर दावेदारों की अग्नि परीक्षा

महाराष्ट्र विधानसभा की 288 सीटों पर 20 नवंबर को मतदान होगा। यह चुनाव सूबे के मुखिया एकनाथ शिंदे, देवेंद्र फडणवीस, उद्धव ठाकरे, शरद पवार और अजित पवार जैसे अहम सियासी चेहरों के लिए किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं होगा। इस चुनाव के ज़रिये 2022 के बाद के राजनीतिक गठबंधन का महाराष्ट्र में पहली बार परीक्षण होने जा रहा है। चुनावी नतीजे तय करेंगे कि इन चेहरों का राजनीतिक भविष्य क्या होगा? सत्ता की भागीदारी में उनका वजूद उनका क़द घटेगा, बढ़ेगा या फिर बना रहेगा। चुनावी नतीजे महाराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य को नया रूप देने में महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं।

महाराष्ट्र के मौज़ूदा मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस वक़्त यूबाटी यानी उद्धव ठाकरे की शिवसेना है, जिसका दावा है कि वह असली शिवसेना है। उद्धव ठाकरे की शिवसेना के बढ़ते जनाधार को नज़रअंदाज़ करना अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लेने जैसा होगा। दो साल पहले शिवसेना को विभाजित करने के बाद शिंदे के लिए मुख्यमंत्री पद पा लेना भले ही एक बड़ी उपलब्धि रही हो; लेकिन जनाधार बढ़ा पाना उनके लिए आज भी एक बड़ी चुनौती है। महिलाओं के लिए शुरू लाडली बहन कल्याण योजना के लाभ मिलने की संभावना के साथ शिंदे की नज़र कम-से-कम 40 और सीटें जीतने और मुख्यमंत्री पद के लिए एक और मौक़ा पाने पर होगी। लेकिन मुख्यमंत्री पद की दौड़ में उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस हैं। पिछली बार जब शिंदे शिवसेना को तोड़कर महाविकास अघाड़ी सरकार का तख़्तापलट करवाने के इनाम में दिल्ली से मुख्यमंत्री पद प्राप्त करने का आशीर्वाद ले चुके थे, तब देवेंद्र फडणवीस को निश्चित ही झटका लगा था; भले ही उन्होंने बिना कुछ बोले सरकार में दूसरे स्तर को स्वीकार कर लिया।

अगर आक्रामक विपक्ष शिंदे के विधायकों के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार और अवसरवाद के आरोपों के लपेटे में लेने में कामयाब हो जाता है और शिवसेना (शिंदे गुट) पर्याप्त संख्या में सीटें नहीं जीत पाती है, तो उसके बिखरने के ख़तरे से इनकार नहीं किया जा सकता है। शिंदे महायुति में रणनीतिकार, सख़्त सौदेबाज़, लोकप्रिय नेता और भीड़ जुटाने वाले के तौर पर अपना चेहरा बनाने में कामयाब रहे हैं; लेकिन इसे बनाये रखना और उसे मतों में तब्दील करना उनके लिए आसान नहीं होगा।

महाराष्ट्र के मौज़ूदा उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस 2019 में तत्कालीन मुख्यमंत्री के तौर पर राज्य चुनाव अभियान के लिए भाजपा का चेहरा थे। उन्होंने ‘मी पुन्हा येइन’ (मैं वापस आऊँगा) का बयान देकर अपनी अपनी भद्द पिटवा दी थी। 2019 में उनके नेतृत्व में भाजपा ने 105 सीटें जीतीं, जबकि 2014 में 122 सीटें जीती थीं। 2022 में शिवसेना और एनसीपी में विभाजन ने उन्हें सरकार में वापस ला दिया। लेकिन मुख्यमंत्री नहीं, उप मुख्यमंत्री के रूप में। सामाजिक तनावों से बढ़ी क़ानून-व्यवस्था की समस्याओं को लेकर फडणवीस आज बैकफुट पर हैं। मराठा आन्दोलन के नेता जरांगे पाटील ने उन पर निशाना साधा है। आज हालात यह है कि अपना वजूद बनाए रखने के लिए उन्हें देवा भाऊ वाली नयी छवि को मीडिया में चमकाना पड़ रहा है। कहा तो यहाँ तक जाता है कि आलाकमान देवेंद्र से ज़्यादा शिंदे को तवज्जो देता है। अब नतीजे तय करेंगे कि फडणवीस फिर से मुख्यमंत्री बनते हैं या नहीं। और यदि महाराष्ट्र में भाजपा उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पाती है, तो इसका असर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता पर भी पड़ सकता है। लेकिन इसका ठीकरा फडणवीस के माथे पर ही फूटेगा, साथ-ही-साथ उन्हें प्रधानमंत्री मोदी की गुड बुक में बने रहने के लिए जद्दोजहद भी करनी होगी।

शिवसेना (यूबीटी) के पक्ष प्रमुख उद्धव ठाकरे, ठाकरे परिवार के पहले सदस्य हैं, जिन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के तौर पर संवैधानिक पद सँभाला है। उनका सौम्य स्वभाव शिवसेना के परंपरागत वोटरों को उनसे जोड़े रखने में कामयाब रहा है। शिवसेना में दो-फाड़ के बावजूद ठाकरे परिवार के प्रति लोगों की सहानुभूति अभी भी क़ायम है और यही शिवसेना (शिंदे) का तोड़ भी है। 21 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़कर उद्धव ठाकरे ने नौ पर जीत दर्ज की थी। लोकसभा के नतीजों ने साबित कर दिया कि विपरीत स्थिति में भी वह अपना वजूद क़ायम रखने में सफल रहे। विधानसभा चुनावों में दाँव बहुत पेचीदा होंगे और शिवसेना (यूबीटी) फिर से सत्ता-विरोधी भावना पर निर्भर होगी। विधानसभा चुनाव में भी इस बात की असली अग्नि परीक्षा होगी कि दोनों में से कौन-सी सेना प्रमुख है। यह चुनाव उद्धव के लिए उनकी लोकप्रियता, संगठन सामर्थ्य और चातुर्य की परीक्षा होगी। साथ ही इस चुनाव के नतीजे उनकी छवि को एक ऐसे शक्तिशाली नेता के तौर पर मज़बूत करेंगे, जिसने कट्टर हिन्दुत्व के आदर्शों पर आधारित पार्टी को कांग्रेस और एनसीपी के साथ साझा करने के लिए फिर से खड़ा किया और जून, 2022 तक महाविकास अघाड़ी सरकार का सफल नेतृत्व किया। अब तक शिवसेना (यूबीटी) ने अपनी ज़मीन पर क़ब्ज़ा बनाये रखा है। उद्धव ठाकरे अब विपक्ष में मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर सबसे मुफ़ीद शख़्सियत हैं। मुख्यमंत्री बनने की स्थिति में भी हैं। लेकिन उनके प्रत्याशियों की जीती सीटों की संख्या ही यह सुनिश्चित करेगी कि वह इस पद पर दोबारा आ सकते हैं या नहीं।

61 वर्षीय महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष नाना पटोले को पूरा भरोसा है कि पार्टी विधानसभा चुनावों में लोकसभा चुनावों जैसा उल्लेखनीय प्रदर्शन दोहराएगी। उनकी नज़र में हरियाणा में कांग्रेस पार्टी की हार कोई मायने नहीं रखती। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 17 सीटों पर चुनाव लड़ा और 13 सीटें जीतीं। इस दौरान कांग्रेस का एक बा$गी उम्मीदवार भी जीत गया, जिसके बाद पटोले ने मोदी सरकार की किसान-विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ ज़ोरदार घेराव किया। नाना पटोले का मानना है कि जिस तरह से महाविकास अघाड़ी ने सीटों के बँटवारे को लेकर फॉर्मूला तय किया है, उसे देखते हुए महाविकास अघाड़ी गठबंधन के लिए 288 में से 180 विधानसभा सीटें जीतना मुश्किल नहीं होना चाहिए।

महाराष्ट्र राजनीतिक के क्षत्रप शरद पवार किसी फिनिक्स से कम नहीं हैं। जब उनके भतीजे अजित पवार ने अपने नेतृत्व के ख़िलाफ़ विद्रोह किया, तो आम धारणा यह थी कि 80 वर्षीय शरद पवार का राजनीतिक करियर ख़त्म हो गया है; क्योंकि 55 में से 44 विधायकों ने एक साथ उनका साथ छोड़ दिया था। लेकिन बारिश में भीगते हुए भाषण देकर हुए शरद पवार ने माहौल बदल डाला। लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान राज्य में तूफ़ान मचा दिया। उन्होंने ग्रामीण संकट और सरकारी एजेंसियों द्वारा राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को निशाना बनाये जाने जैसे मुद्दों को इस क़दर प्रचारित किया कि उनका एनसीपी गुट 10 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़कर आठ सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब रहा। जो अब तक का उनका सबसे बड़ा स्ट्राइक रेट रहा है। पवार ने बारामती से अजित की पत्नी सुनेत्रा पवार की हार भी सुनिश्चित की। लोकसभा चुनावों में उनकी सफलता को देखते हुए उनके अधिकांश पूर्व सहयोगी अब उनके $खेमे में वापस आने की कोशिश कर रहे हैं। शरद पवार को भरोसा है कि महाविकास अघाड़ी एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली महायुति से सत्ता छीन लेने में कामयाब होगी। हालाँकि यह सुनने में भले आसान लगता हो; लेकिन उतना भी आसान नहीं है।

बहुत कम-कम समय के लिए पहले भी चार बार (एक बार सिर्फ़ तीन दिन के लिए) महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री रहे 65 वर्षीय अजित पवार मौज़ूदा समय में भी उप मुख्यमंत्री ही हैं और उनकी हालत इस वक़्त सबसे कमज़ोर मानी जा रही है। हालाँकि अजित पवार अपने चाचा शरद पवार का साथ छोड़कर एक बड़े राजनीतिक पार्टी की कृपा से एनसीपी का नाम और चुनाव चिह्न हासिल करने में सफल रहे; लेकिन लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद से वह काफ़ी चिन्तित हैं। कहा जा रहा है कि उनके कई विधायक उनके चाचा के कैंप में वापस जा रहे हैं। महायुति गठबंधन में भी उनके लिए समर्थन कम होता जा रहा है। उनके सहयोगियों को यक़ीन नहीं है कि अगर शरद पवार अपने पोते युगंधर पवार को बारामती से चुनाव लड़ाते हैं, तो अजित ख़ुद चुनाव जीत भी पाएँगे! ऐसे में अगर उन्हें पर्याप्त संख्या में सीटें नहीं मिलती हैं, तो पार्टी नेता के तौर पर उनके लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा।

सबसे ज़्यादा डर भाजपा, शिवसेना (शिंदे) और एनसीपी (अजित) गुट को है। उन्हें साफ़ दिखायी देने लगा है कि कहीं-न-कहीं अब जनता उनकी तोड़फोड़ की राजनीति से उकता गयी है। वैसे भी तोड़-फोड़ और जोड़-तोड़ की राजनीति का वक़्त ज़्यादा नहीं चलता। जैसे-जैसे मतदान का वक़्त क़रीब आ रहा है, वैसे-वैसे प्रतिद्वंद्विता और राजनीतिक छींटाकशी बढ़ती जा रही है। हर पार्टी दूसरी पार्टी की लकीर छोटी करने और अपनी लकीर बड़ी करने में लगी है। जनता का रुझान बताएगा कि कौन-से गुट व गठबंधन मज़बूत होंगे और कौन-कौन सी पार्टियाँ राज्य में राजनीतिक प्रासंगिकता खो देगी या कमज़ोर हो जाएगी।

दिल्ली का दर्द

दिल्ली के द्वारिका में गैंगवार के बाद रोहिणी क्षेत्र में बने सीआरपीएफ स्कूल में करवा चौथ वाले दिन बम ब्लास्ट होना इस बात का साफ़ संकेत देता है कि दिल्ली देश की राजधानी भले ही है; लेकिन पूरी तरह सुरक्षित नहीं है। देश के गृहमंत्री अमित शाह को इसकी चिन्ता होनी चाहिए। सन् 2019 में अमित शाह देश के गृहमंत्री बने और अब उनका यह दूसरा कार्यकाल है। दिल्ली पुलिस, क़ानून व्यवस्था और जाँच एजेंसियाँ उनकी निगरानी में काम करती हैं। लेकिन अपराधियों के हौंसले इतने बुलंद हैं कि रोहिणी के सीआरपीएफ स्कूल में धमाके के बाद अपराधी ने एक ईमेल से दिल्ली समेत देश भर के सीआरपीएफ स्कूलों को बम से उड़ाने की धमकी तक दे दी।

अपराधी ने अपना नाम कृतिगा देवदिया लिखते हुए ईमेल संदेश लिखा, जिसमें उसने मेथ केस में डीएमके नेता ज़ाफ़र सादिक़ की गिरफ़्तारी और उसके बाद अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ने की बात कहते हुए तमिलनाडु पुलिस के ख़ुफ़िया तंत्र के डीएमके परिवार के आंतरिक मामलों में उलझने और उसका ध्यान एम.के. स्टालिन परिवार से हटाने के लिए केंद्र सरकार के स्कूलों में और उनके आसपास इस तरह के धमाकों को ज़रूरी बताया। धमकी देने वाले ने एम.के. स्टालिन, अर्जुनदुरई राजशंकर, उनकी पत्नी नर्मदा रत्नाकुमार नाडर और इन सबके क़रीबियों को छापेमारी करके मोहरा बनाने पर रोष व्यक्त किया है। ईमेल से लगता है कि धमकी देने वाला व्यक्ति राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मामलों की अच्छी जानकारी रखता है। क्योंकि उसने लिखा है कि वीपी एनआईआईटी टेक के तौर पर अपनी भूमिका के दौरान सीसीटीएनएस अकाउंट के साथ काम करने वाले मणिक्कवसागम रामलिंगम, आईपीएस ज़फ़र सैत और के. राधाकृष्णन द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले रिमोट कंट्रोल सिस्टम्स (आरसीएस) गैलीलियो ऐप में एक गुम कड़ी है।’ उसने उदयनिधि परिवार के चिराग़ इनबन उदयनिधि के अंतरंग होने की बात कहते हुए लिखा- ‘किसी भी क़ीमत पर तमिलनाडु का पॉलिटिकल इंटेल इसे ग़लत समूह में जाने से रोकना चाहेगा। dcblore@ksp.gov.in अकाउंट महत्त्वपूर्ण जानकारी को दबा रहा है और अगले ह$फ्ते होने वाली घटनाओं का गवाह बनेगा।

दिल्ली का इतिहास बहुत पुराना है। इस महानगर को भारत की राजधानी बने 94 साल होने वाले हैं। लेकिन ऐतिहासिक घटनाएँ और किंवदंतियाँ बयान करती हैं कि इस महानगर पर शासकों की नज़र महाभारत-काल से रही है। यही कारण रहा है कि दिल्ली ने अनगिनत आक्रमण झेले हैं। बाहरी घुसपैठियों और देश के अनेक क्रूर शासकों ने दिल्ली पर शासन करने की लालसा से इसे बार-बार तबाह किया है। लेकिन इन आक्रमणों से दिल्ली की ज़्यादातर जनता पर कोई ख़ास फ़$र्क नहीं पड़ा है। यहाँ के एक बड़े तबक़े ने आक्रांताओं द्वारा फैलायी गयी तबाहियों से नुक़सान उठाने के बावजूद उनकी $गुलामी ही स्वीकार की है। दिल्ली का यह दर्द शायद ही कोई समझेगा कि इस राज्य का विकास विदेशी आक्रांताओं और कुछ भारतीय शासकों की महत्त्वाकांक्षाओं की वजह से बार-बार इतना प्रभावित हुआ है कि यह राज्य आज देश की राजधानी होने के बाद भी विकास की उस चरम सीमा तक नहीं पहुँचा है, जिससे इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ी ख्याति हासिल हो सके।

अंग्रेजों की हुकूमत ख़त्म होने बाद दिल्ली पर लूट की नीयत से राजनीतिक हमले लगातार होते रहे हैं। हर राजनीतिक पार्टी के महत्त्वाकांक्षी नेता दिल्ली जीतने का सपना लेकर दिल्ली की छाती पर बैठना चाहते हैं। इसी के चलते दिल्ली के विकास में कोई एक योगदान देता है, तो दूसरा उसे तबाह करने की योजना बना लेता है। विडंबना यह है कि दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश होने के साथ-साथ देश की राजधानी है, जिसमें आधी सत्ता केंद्र सरकार की है, तो आधी सत्ता दिल्ली सरकार और नगर निगम की है। एनडीए की केंद्र सरकार ने उप राज्यपाल की शक्तियाँ जबसे बढ़ा दी हैं, तबसे दिल्ली के विकास में अड़चनें और ज़्यादा आ रही हैं। दिल्ली सरकार का केंद्र सरकार पर काम और दिल्ली के हिस्से का फंड रोकने के आरोप राजनीतिक चाल का हिस्सा हो सकते हैं। लेकिन यह भी तो सच है कि अपने पहले ही कार्यकाल में देश में 100 स्मार्ट सिटी बनाने का दावा करने वाले प्रधानमंत्री मोदी राजधानी दिल्ली तक को विकसित नहीं करवा सके। अब वह अपने कई पुराने वादे भूलकर देश को विकसित करने का सपना दिखा रहे हैं।

2020 में दिल्ली के विधानसभा चुनावों से पहले दंगे भड़के थे। अब अगले साल दिल्ली में फिर विधानसभा चुनाव होंगे। ऐसा लगता है कि इससे पहले ही दिल्ली में दहशत का माहौल बनाने की कोशिश करने वाले अपराधी इस काम में लग गये हैं। यह गृहमंत्री, उनकी पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों की नाकामी है या अपराधियों के बढ़े हुए हौंसलों का परिणाम? नहीं कहा जा सकता। लेकिन दिल्ली की सत्ता की इतनी भूख किसे है? जो दिल्ली को दहलाकर यहाँ की अवाम पर शासन करना चाह रहा है। इस पर केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार, दोनों को ही न सिर्फ़ विचार करना चाहिए, बल्कि विकास का ऐसा ख़ाका खींचना चाहिए, जिसकी दुनिया भर में मिसाल दी जा सके।

जनसंख्या बढ़ाना चाहते हैं दक्षिणी राज्य!

विश्व जनसंख्या दिवस के मौक़े पर 11 जुलाई को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्डा ने कहा कि छोटे परिवार बनाकर विकसित भारत का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी सन् 2047 तक भारत को विकसित भारत में तब्दील करने की बात कर रहे हैं; लेकिन एनडीए के अहम घटक दल टीडीपी के मुखिया चंद्रबाबू नायडू जे.पी. नड्डा के छोटे परिवार की पैरवी से उलट नज़रिया जनता के सामने रख रहे हैं। क्या वह विकसित भारत की राह में रोड़े डाल रहे हैं? 19 अक्टूबर को मुख्यमंत्री नायडू ने कहा कि राज्य सरकार परिवारों को अधिक बच्चे पैदा करने के लिए क़ानून बनाने पर विचार कर रही है, जो जनसंख्या नियंत्रण के उद्देश्य से पहले की नीतियों को पलट देगा।

नायडू ने संकेत दिया है कि दो से अधिक बच्चों वाले परिवारों के लिए संभावित प्रोत्साहन सहित आगे के उपाय भी किये जा रहे हैं। इधर 21 अक्टूबर को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने एक सामूहिक विवाह समारोह में कहा कि अब नव-विवाहित जोड़े कम बच्चे पैदा करने का विचार त्याग सकते हैं। जैसा कि लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों में कमी का परिदृश्य है, यह सवाल उठता है कि हमें ख़ुद को कम बच्चे पैदा करने तक सीमित क्यों रखना चाहिए? दोनों मुख्यमंत्रियों की चिन्ता कम होती आबादी व उससे पैदा हो रही समस्याओं को लेकर है। बेशक दोनों मुख्यमंत्रियों के कारण अलग-अलग हैं; लेकिन दोनों ही जनता से अधिक बच्चे पैदा करने की अपील करते नज़र आ रहे हैं। मुख्यमंत्री नायडू ने एक सभा में कहा कि राज्य में विकास दर बढ़नी चाहिए। सभी को इस बारे में सोचना चाहिए। पहले मैंने जनसंख्या नियंत्रण की वकालत की थी; लेकिन अब हमें भविष्य के लिए जन्म दर बढ़ाने की ज़रूरत है।

इस समय आंध्र के कई गाँवों में केवल बुजुर्ग ही बचे हैं। युवा आबादी शहर चली गयी है। दूसरी तरफ़ एम.के. स्टालिन ने अधिक बच्चों की ज़रूरत को लोकसभा सीटों के परिसीमन से जोड़ दिया। परिसीमन का आधार आबादी है। दक्षिण राज्य केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू और तेलगांना में नेताओं को अपनी आबादी घटने का ख़तरा महसूस होने लगा है और अब वे परिवार नियोजन के विपरीत बच्चे पैदा करने की ढील की वकालत करते नज़र आ रहे हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि केरल सन् 1988 में सबसे पहले कुल प्रजनन दर का लक्ष्य हासिल करने वाला पहला राज्य बना, उसके बाद तमिलनाडू ने सन् 1993 में, आंध्र प्रदेश ने सन् 2001 में और कर्नाटक ने सन् 2005 में अपनी आबादी को तेज़ गति से बढ़ने से रोक दिया।

वर्तमान में भारत में प्रति महिला से जन्म लेने वाले औसत जीवित बच्चों की गणना के हिसाब से कुल प्रजनन दर घटकर दो बच्चे प्रति महिला हो गयी है। केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना में कुल प्रजनन दर राष्ट्रीय औसत दर दो बच्चों से कम है, जबकि बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, मेघालय व मणिपुर में यह राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा है। दक्षिण राज्यों ने आबादी को नहीं बढ़ने में सफलता तेज़ी से हासिल की; लेकिन अब वहाँ बुजुर्गों की आबादी और राज्यों की तुलना में अधिक है। दक्षिण राज्यों के लिए आबादी कम होना इसलिए भी चिन्ता का विषय है; क्योंकि इसके आर्थिक व सियासी प्रभाव भी हैं। देश में जनसंख्या के हिसाब से संसाधनों का वितरण किया जाता है, जिसका ख़ामियाज़ा दक्षिण राज्य भुगत रहे हैं। उदाहरण के तौर पर वित्त आयोग यह निर्धारित करता है कि आबादी के आधार पर राज्यों के बीच राजस्व कर कैसे साझा किया जाए। इस वर्ष उत्तर प्रदेश को 31,962 करोड़ रुपये मिले, जो कि पाँच दक्षिण राज्यों को कुल मिलाकर दी गयी रक़28,152 करोड़ रुपये से अधिक है। जबकि हक़ीक़त यह है कि इन राज्यों का योगदान भारतीय राजस्व में उत्तर प्रदेश से कहीं अधिक है।

देश में जनगणना की शुरुआत अगले साल 2025 में होगी और 2026 में परिसीमन होगा। इस प्रक्रिया में निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या आबादी के हिसाब से फिर से तय होने की चर्चा है। इसके मद्देनज़र दक्षिणी राज्यों की चिन्ता है कि उत्तरी राज्यों की तुलना में संसद के दोनों सदनों में उनका प्रतिनिधित्व कम हो जाएगा। यानी जिन राज्यों ने आबादी को क़ाबू में रखने और सामाजिक विकास के सूचकांक बेहतर रखने में सफलता हासिल की है, वो लोकसभा व राज्यसभा में संख्या की दृष्टि से पीछे रह सकते हैं। वहीं दूसरी ओर नये परिसीमन के बाद अधिक जनसंख्या वाले राज्यों के सांसदों की संख्या लोकसभा व राज्यसभा में अधिक हो जाएगी। इससे दक्षिण राज्यों के लिए दिल्ली और भी दूर हो सकती है। सवाल सियासी ताक़त का भी है। सियासत में संख्याबल बहुत बहुत मायने रखता है।