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भाजपा ने की 9 उम्मीदवारों की घोषणा, रवनीत सिंह बिट्टू को राजस्थान से बनाया उम्मीदवार

नई दिल्ली : भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने राज्यसभा उपचुनाव के लिए अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। राजस्थान से पार्टी ने कैबिनेट मंत्री रवनीत सिंह बिट्टू को उम्मीदवार बनाया है। बिट्टू कल अपना नामांकन दाखिल करेंगे। यह सीट पूर्व कांग्रेस सांसद केसी वेणुगोपाल के लोकसभा चुनाव जीतने के बाद खाली हुई थी।

राजस्थान में राज्यसभा की एकमात्र सीट के लिए हो रहे इस उपचुनाव में कांग्रेस ने उम्मीदवार नहीं उतारने की घोषणा की है। विधानसभा चुनाव 2023 में भाजपा की जीत के बाद, पार्टी के पास पर्याप्त संख्याबल है, जिससे बिट्टू का राज्यसभा सांसद बनना लगभग सुनिश्चित है।

भाजपा ने मंगलवार को कुल 9 सीटों के लिए राज्यसभा उपचुनाव के उम्मीदवारों की घोषणा की है। राजस्थान के अलावा, पार्टी ने असम से मिशन रंज दास और रामेश्वर तेली, बिहार से मनन कुमार मिश्र, हरियाणा से किरण चौधरी, मध्य प्रदेश से जॉर्ज कुरियन, महाराष्ट्र से धैर्यशील पाटिल, ओडिशा से ममता मोहंता और त्रिपुरा से राजीव भट्टाचार्जी को उम्मीदवार घोषित किया है।

सड़क से खेत तक समस्या बने आवारा पशु

योगेश

पहले कभी कहा जाता था कि चूहे किसानों की फ़सलों का क़रीब 20वाँ हिस्सा चट कर जाते हैं। लेकिन अब चूहों के अलावा लगातार बढ़ते ही जा रहे आवारा पशु भी किसानों के लिए बहुत बड़ी मुसीबत बन चुके हैं। हर राज्य में आवारा पशु फ़सलों का नुक़सान करते हैं, जिसकी ख़बरें भी नहीं आती हैं। खेत से सड़क तक घूमते ये अवारा पशु किसानों पर हमले भी कर देते हैं। यह दु:ख की बात है कि अगर कहीं कोई आवारा पशु किसी किसान पर हमला कर दे और किसान घायल हो जाए या उसकी जान भी चली जाए, तो भी एक छोटी-सी ख़बर अख़बार के किसी कोने में मुश्किल से होती है। पशुधन एवं दुग्ध विकास मंत्री धर्मपाल सिंह ने पिछले साल आवारा साँड के हमले से अगर किसी की मृत्यु हो जाती है, तो उसके परिजनों को 5,00,000 रुपये का मुआवज़ा दिया जाएगा। हालाँकि लोगों पर सिर्फ़ साँड ही नहीं, दूसरे आवारा पशु भी हमला कर देते हैं। सरकार को सभी पशुओं के द्वारा हमला करने पर घायलों और मृतकों के परिजनों को मुआवज़ा देना चाहिए। सरकार को इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि कई मामलों में मृतकों के परिजनों को मुआवज़ा मिलने में परेशानियाँ आती हैं, जो नहीं आनी चाहिए।

आवारा पशुओं द्वारा किसानों की फ़सलों का बहुत नुक़सान होता है, जो बढ़ता ही जा रहा है। लेकिन सरकार इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रही है ओर देश के सभी किसानों को मिलाकर लाखों रुपये का नुक़सान उनकी फ़सलों के उजाड़ के रूप में देखने को मिलता है। पशु जिन किसानों की फ़सलों को उजाड़ देते हैं, उन फ़सलों का किसानों को कोई मुआवज़ा नहीं मिलता और न ही बीमा कम्पनी इसकी भरपाई करती हैं। बीमा कम्पनियाँ किसानों के इस नुक़सान को प्राकृतिक आपदा का हिस्सा नहीं मानती हैं। कई किसानों से आवारा पशुओं के उनकी फ़सलों के नुक़सान के बारे में पूछा, तो ज़्यादातर किसानों ने इसे सबसे बड़ी समस्या बताया। कुछ किसानों ने कहा कि अब पशु हैं, बेचारे वो भी कहाँ जाएँगे। ज़्यादातर किसानों ने कहाँ कि रात को देर तक खेतों की रखवाली करनी पड़ती है। दिन में भी कई बार आवारा पशु खेतों में घुस आते हैं, जिससे बहुत नुक़सान होता है। रामसिंह नाम के किसान ने बताया कि उनकी फ़सलों का पाँचवें से एक-चौथाई हिस्सा तक आवारा जानवर उजाड़ देते हैं, जो बहुत बड़ा नुक़सान है। आवारा पशुओं को भगाने के चलते हर दिन खेतों की रखवाली करनी पड़ती है। अगर फ़सल को पहले की तरह बिना रखवाली के छोड़ दो, तो पूरी फ़सल का नाश हो जाएगा। रामसिंह ने बताया कि अब से 15 साल पहले तक इतने आवारा पशु नहीं थे। जबसे लोगों ने बछड़ों को छोड़ना शुरू कर दिया है, तबसे साँड बहुत हो गये हैं।

ऐसा लगता है कि भारत के किसानों की दशा प्रेमचंद की कहानी पूस की रात के हल्कू की तरह हो गयी है, जो रात भर ठंड में अपनी फ़सल की भी रखवाली करता है और उसकी फ़सल फिर भी नहीं बच पाती है। आज भी भारत के किसान सब्र करने के अलावा और कुछ भी नहीं कर पाते। रही सही कसर प्राकृतिक आपदाएँ पूरा कर देती हैं, जिसकी भरपाई भी बीमा कम्पनी राम भरोसे ही करती हैं। आवारा पशुओं से किसानों की फ़सलों की रक्षा के लिए व्यवस्था बनाने की बात हर राज्य की सरकार कह तो रही है; लेकिन धरातल पर कोई व्यवस्था नज़र नहीं आती। किसान ख़ुद अपनी फ़सलों की रखवाली कर रहे हैं। कुछ सक्षम किसानों ने अपनी फ़सलों की सुरक्षा के लिए खेतों के चारों ओर कटीला तार लगाये हैं। जो किसान तार लगाने में सक्षम नहीं हैं, वे खेतों की रखवाली और धोखे का इस्तेमाल करके पशुओं को भगाने की कोशिश करते हैं। लेकिन आवारा पशु फ़सलों का कम ज़्यादा नुक़सान कर ही देते हैं।

कुछ महीने पहले ही उत्तर प्रदेश के निर्देश पर राज्य के कृषि विभाग ने आवारा पशुओं को भगाने के लिए पशुओं को फ़सलों से दूर रखने वाली गंध के छिड़काव की बात कही थी। लेकिन प्रदेश सरकार पशुओं को फ़सलों से दूर रखने के लिए जिस हरबो लिव दवा के प्रयोग को प्रोत्साहित कर रही है, उससे दवा कम्पनी को तो फ़ायदा हो रहा है, किसानों को नहीं। इस दवा की कीमत काफ़ी है और यह खेतों में काफ़ी ज़्यादा डालनी पड़ती है। राज्य सरकार के कृषि विभाग के अधिकारियों का कहना है कि हरबो लिव नाम की दवा फ़सल की गंध को छिपाकर उसे एक ख़राब गंध में बदलकर फ़सल का स्वाद भी बेहद ख़राब बना देती है। अगर इस दवा लगी फ़सल को पशु खाना भी चाहेंगे, तो खा नहीं सकेंगे। लेकिन अधिकारियों को यह समझना चाहिए कि आवारा पशु सिर्फ़ फ़सल खाते ही नहीं है, बल्कि उसे पैरों से रौंदकर भी ख़राब कर देते हैं। बड़ी फ़सलों में तो वे अपना ठिकाना बना लेते हैं, जिससे फ़सलों को गिरा देते हैं और उसी में आराम करते हैं।

कृषि विभाग के अधिकारियों का दूसरा दावा है कि हरबो लिव दवा दवा से फ़सलों को कोई नुक़सान नहीं पहुँचता है, उलटा ये दवा खेतों की जैविक प्रकृति को बनाए रखती है। इसके अलावा मिटटी के जैविक गुणों को यह दवा बढ़ाती है और उसे ज़्यादा उर्वर बनाती है। हरबो लिव दवा सब्जी, दलहन, तिलहन और अन्य कई फ़सलों के लिए काफ़ी कारागर है।

इसी साल उत्तर प्रदेश दिवस के शुभारंभ के मौके पर 24 जनवरी को लखनऊ के अवध शिल्प ग्राम में आयोजित होने वाले एक कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने कृषि विभाग के तीन स्टाल में से एक हरबो लिव और दूसरी कीटनाशक दवाओं की जानकारी ली। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दूसरी स्टाल पर भी कृषि से सम्बन्धित जानकारी जुटार्यी थी। उस समय उत्तर प्रदेश सरकार ने ये कहा था कि हर हाल में आवारा पशुओं से किसानों की फ़सलों को बचाने का हर संभव प्रयास किया गया है। लेकिन सच्चाई यह है कि आवारा पशुओं का आतंक ख़त्म नहीं हो रहा है और किसान इससे बहुत परेशान हैं। कई किसानों ने बताया कि अधिकारियों से आवारा पशुओं को रोकने की कई बार अपील की, शिकायत की; लेकिन अधिकारी किसानों की शिकायतों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं। अब तो कई किसान आवारा पशुओं के द्वारा फ़सलों के नुक़सान को सोशल मीडिया के ज़रिये बताकर मदद की गुहार लगा रहे हैं।

दैयंतपुर गाँव के प्रधान ने बताया कि इस एक गाँव की फ़सलों को नुक़सान पहुँचाने वाले आवारा पशुओं की संख्या कम से एक हजार से ज़्यादा होगी। इन पशुओं का आतंक इस कदर बढ़ गया है कि किसान दिन-रात फ़सलों की रखवाली करने को मजबूर हैं। किसानों की तरफ से हमने भी कई बार अधिकारियों से शिकायतें कीं, लेकिन कोई हल नहीं निकला। अधिकारी आश्वासन देते हैं और फिर इस समस्या को भूल जाते हैं। पहले ही कई तरह की समस्याओं से जूझ रहे किसान आवारा पशुओं से बहुत परेशान हैं। अगर आवारा पशु इसी तरह बढ़ते रहे, तो किसानों को अपने खेतों को ख़ाली छोड़ना पड़ जाएगा।

उत्तर प्रदेश के हर ज़िले में आज आवारा पशुओं की मौज़ूदगी बहुत ज़्यादा है। किसानों ने बताया कि पहले तो रात को ही आवारा पशु आते थे, लेकिन अब दिन में भी फ़सलों को नुक़सान पहुँचा जाते हैं। आवारा पशु झुंड में चलते हैं, जिन्हें खेतों से भगाना काफ़ी मुश्किल होता है। कई बार आवारा पशु किसानों को भी मारने लगते हैं, जिससे उनकी जान को ख़तरा रहता है। पिछले एक साल में आवारा पशुओं द्वारा किसानों पर हमले की सैकड़ों घटनाएँ सामने आयी हैं। आवारा पशुओं के झुंड में इतने ज़्यादा पशु होते हैं कि उन्हें आसानी से खेतों से भगाया नहीं जा सकता। आवारा पशुओं के हमले के डर से किसान इन पशुओं को मार भी नहीं सकते।

पिछले दिनों सरकार ने कहा था कि उत्तर प्रदेश की गौशालाओं के बेहतर प्रबंधन के लिए उत्तर प्रदेश गौशाला अधिनियम-1964 को पूरे राज्य में लागू किया जाएगा। अभी उत्तर प्रदेश में लगभग 500 गौशालाएँ हैं। उत्तर प्रदेश सरकार की विभिन्न योजनाओं के तहत ये सभी गौशालाएँ चलती हैं। अभी राज्य में और गौशालाएँ खोलने की बात चल रही है। उत्तर प्रदेश सरकार नयी गौशालाओं की बड़ी संख्या बताकर ख़ुद की पीठ थपथपा लेती है। साथ ही ये कह देती है कि प्रदेश में गौशालाएँ बढ़ाने को लेकर सरकार काम कर रही है। लेकिन किसानों को आवारा पशुओं से राहत के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठा रही है। किसानों की माँग है कि सरकार किसी भी तरह आवारा पशुओं से किसानों को छुटकारा दिलाए।

आवारा पशुओं से निपटने के लिए किसानों को अपने स्तर पर भी कुछ कारगर क़दम उठाने पड़ेंगे। इनमें से कई उपाय बड़े ही उपयोगी हैं। किसान अपने खेतों से आवारा पशुओं को भगाने के लिए धोखे का उपयोग सदियों से करते रहे हैं; लेकिन अब उन्हें बोलने या शोर करने वाले पुतले लगाने होंगे, जिनमें रात को रंग-बिरंगी रोशनी की व्यवस्था भी हो। इसके अलावा किसान अपने पालतू पशुओं की पेशाब, गोबर, नीम, कपूर आदि का एक घोल बनाकर फ़सलों पर छिड़काव कर सकते हैं। इस घोल के छिड़काव से आवारा पशु फ़सलों को नहीं खाएँगे। इसके अलावा फ़सलों में रोग और कीट भी नहीं लगेंगे, जिससे किसानों का कीटनाशक दवाओं और आवारा पशुओं को रोकने के लिए हरबो लिव दवा और अन्य दवाओं का छिड़काव नहीं करना पड़ेगा, जिससे उनकी फ़सल तो बच ही जाएगी, पैसा भी बचेगा। इस घोल का एक और फ़ायदा यह है कि इससे मिट्टी को ताक़त और फ़सलों को पोषण मिलेगा, जिससे पैदावार अच्छी होगी। आज कई किसान इस तरह के घोल बनाकर अपनी फ़सलों को कई रोगों और आवारा पशुओं से बचा रहे हैं। केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों तक को पूरे देश के किसानों को ऐसे घोल बनाकर फ़सलों में छिड़काव करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।

भारत में नहीं हैं पर्याप्त नर्स

भारत 145 करोड़ से ज़्यादा आबादी वाला देश है यानी इस समय विश्व में सबसे अधिक आबादी वाला देश। लेकिन किसी की आर्थिक व सामाजिक प्रगति को गति देने के लिए उस आबादी का स्वस्थ होना अति ज़रूरी है। यूँ तो सरकार भी स्वास्थ्य के क्षेत्र में सुधार करने व स्वास्थ्य सम्बन्धी ढाँचागत निवेश में वृद्धि के दावे पेश करती रहती है और महानगरों में निजी अस्पतालों के बड़े-बड़े भवन दिखायी दे जाते हैं; पर बाहर से जो उजला दिखाने की कोशिश की जा रही है, उसके भीतर बहुत कुछ ऐसा है, जिसे अक्सर दबाया जाता है। रोगी के लिए अस्पताल बहुत महत्त्व रखता है; लेकिन अस्पताल में स्वास्थ्य स्टाफ के द्वारा होने वाली ग़लतियों, लापरवाही से रोगियों, मरीज़ों पर क्या बीतती है, इसे दूर करने की क़वायद बहुत कम नज़र आती है। भारत में 1,000 लोगों पर महज़ 2.06 के अनुपात में नर्स हैं; जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यह संख्या तीन है। इसी तरह विश्व स्वास्थ्य संगठन ने प्रति हज़ार की आबादी के लिए 3.5 बिस्तर की अनुशंसा की है; लेकिन भारत में यह दो से भी कम है। जहाँ तक डॉक्टरों का सवाल है, तो इस बाबत यहाँ फरवरी, 2024 में लोकसभा में तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री द्वारा प्रस्तुत आँकड़े का ज़िक्र किया जा रहा है।

लोकसभा को सूचित किया गया कि भारत में यह अनुपात 834 की आबादी पर एक है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की अनुशंसा के अनुसार, 1,000 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए। सरकार का दावा है कि भारत में डॉक्टर-जनसंख्या अनुपात विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक से बेहतर हो गया है। बहरहाल यह सरकारी आँकड़ा है।

ग़ौरतलब है कि भारत में स्वास्थ्य कर्मचारियों की कमी एक बहुत बड़ी समस्या है, जिसके चलते यहाँ मरीज़ों को सही इलाज नहीं मिल रहा। यही नहीं, ग़लत इलाज का जोखिम भी उन पर बराबर मँडराता रहता है। और नतीजतन कई बार कोई मरीज़ विकलांग हो जाता है या अन्य कोई स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या से घिर जाता है।

भारत में सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, 36.14 लाख नर्सिंग कर्मी हैं यानी नर्स जनसंख्या अनुपात 476 पर एक हो गया है। इसका एक असर यह है कि मरीज़ों के इलाज में गड़बड़ी हो रही है। मेडिकेशन में ग़लतियाँ हो रही हैं। मध्य प्रदेश में एक नर्स ने मरीज़ को एलर्जिक रिएक्शन की जाँच के बिना ही टीका लगा दिया, जिससे उसका दायाँ हाथ सुन्न हो गया और मरीज़ 40 प्रतिशत तक विकलांग हो गया। पंजाब के एक अस्पताल में नर्स ने मरीज़ की नस की जगह धमनी में इंजेक्शन लगा दिया, उसकी तीन उँगलियाँ संक्रमण के चलते काटनी पड़ीं। ऐसी कई घटनाएँ यदा-कदा पढ़ने-सुनने को मिलती रहती हैं।

दरअसल समस्या गहरी है। एक तो प्रति हज़ार की आबादी पर नर्स की संख्या कम है। इस समस्या के भी कई पहलू भी हैं, जिसमें नर्सों को पर्याप्त तकनीकी पेशागत शिक्षा-प्रशिक्षण की कमी। कम संख्या के चलते नर्सों पर काम का अधिक दबाब। अस्पतालों द्वारा कम वेतन पर उनकी नियुक्ति आदि। भारत में क़रीब 5,000 से अधिक नर्सिंग संस्थान हैं, इनमें से 90 प्रतिशत निजी हैं। इनमें हर साल क़रीब 3,00,000 महिला-पुरुष नर्स निकलते हैं। पर उनकी गुणवत्ता की किसे परवाह है। महज़ 20 प्रतिशत संस्थान ही पर्याप्त तकनीकी पेशागत शिक्षा-प्रशिक्षण देते हैं। हज़ारों की संख्या में डिप्लोमा देखकर ही नर्सों को अस्पताल रख लेते हैं। उन्हें उचित प्रशिक्षण दिये बिना ही मरीज़ की देखभाल, दवा देने जैसी सेवाओं में लगा दिया जाता है, जो ग़लत है।

ग़लत इलाज से मरीज़ की मौत, विकलांगता आदि होने पर नर्स को दंडित करने का कोई प्रत्यक्ष क़ानून नहीं है। दुर्लभ मामलों में ही लापरवाही साबित होने पर नर्सों के ख़िलाफ़ धारा-304 और 304(ए) के तहत मुक़दमा चलाया जा सकता है। ये धाराएँ सदोष मानव वध और लापरवाही से मौत की हैं। भारत सरकार ने देश में नर्सों की कमी के मद्देनज़र स्नातक स्तर की नर्सिंग की पढ़ाई कराने वाले संस्थानों की संख्या बढ़ाने पर ध्यान दिया है। 2014-15 से अब तक ऐसे संस्थानों की संख्या में 36 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और नर्सिंग सीट में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। लेकिन संख्या बढ़ाने के साथ-साथ गुणवत्ता पर निगरानी रखना भी सरकार की अहम ज़िम्मेदारी है। लेकिन सवाल यह है कि सरकार इसे लेकर कितनी गंभीर है? नर्सिंग संस्थान खोलने व चलाने की इजाज़त राज्य सरकार देती है। भारतीय नर्सिंग परिषद् मानकों की जाँच करता है। वर्ष 2023 में राष्ट्रीय नर्सिंग सलाहकार आयोग की स्थापना हुई; लेकिन इस आयोग ने अभी तक पूरी तरह से काम शुरू नहीं किया है।

क़र्ज़ लिए बिना क़ज़र्दार हो रही जनता

– महाराष्ट्र सरकार पर क़र्ज़ को विभाजित करें, तो हर व्यक्ति पर है 62,000 से अधिक की देनदारी

देश पर जब क़र्ज़ बढ़ता है, तो देश के हर नागरिक पर क़र्ज़ बढ़ता है। इसी तरह अगर किसी राज्य पर क़र्ज़ बढ़ता है, तो उस राज्य के हर नागरिक पर भी क़र्ज़ बढ़ता रहता है। इसी साल के शुरू में सामने आयीं रिपोर्ट्स के अनुसार, सितंबर, 2023 तक देश पर कुल अंतरराष्ट्रीय क़र्ज़ 205 लाख करोड़ रुपये हो गया था, जो लगातार बढ़ रहा है। ऐसे ही राज्यों पर भी क़र्ज़ बढ़ रहा है। जनवरी-मार्च 2024 तिमाही में राज्यों के अपने उधारी कैलेंडर में भारतीय रिजर्व बैंक ने देश के सभी राज्य द्वारा इस अवधि में 4.13 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ लेने की बात कही थी। रिजर्व बैंक के अनुसार, वित्त वर्ष 2023-24 में अप्रैल से अक्टूबर के बीच राज्यों ने बाज़ार से कुल 2.58 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ लिया था। महाराष्ट्र पर उसकी कुल जीडीपी का 17.9 फ़ीसदी क़र्ज़ था। इसी तरह अपनी-अपनी जीडीपी का गुजरात पर उसकी का 19 फ़ीसदी, छत्तीसगढ़ पर 26.2 फ़ीसदी, हरियाणा पर 29.4 फ़ीसदी, मध्य प्रदेश पर 31.3 फ़ीसदी, झारखण्ड पर 33 फ़ीसदी, उत्तर प्रदेश पर 34.9 फ़ीसदी, बिहार पर 38.6 फ़ीसदी, राजस्थान पर 39.8 फ़ीसदी, पंजाब पर 53.5 फ़ीसदी क़र्ज़ है। इस तरह देश के सभी राज्य क़र्ज़ में डूबे हैं।

समर्थन नामक एक एनजीओ की रिपोर्ट पर भरोसा करें, तो आज की तारीख़ में महाराष्ट्र का हर व्यक्ति क़र्ज़ में डूबा हुआ है। यह क़र्ज़ किसी ने व्यक्तिगत तौर पर नहीं लिया है, बल्कि यह सब सरकार का किया-धरा है। राज्य का राजस्व और राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है, जिसकी वजह से हर व्यक्ति 62,941 रुपये के क़र्ज़ तले डूबा हुआ है। हालाँकि यह क़र्ज़ कई राज्यों की अपेक्षा काफ़ी कम है; लेकिन महाराष्ट्र जैसे कमाऊ राज्य पर, जिसके केंद्र में मुंबई, पुणे जैसे दौलतमंद शहर हैं; इतना क़र्ज़ होना अचम्भित करता है।

एक तरफ़ राज्य पर क़र्ज़ का बोझ और दूसरी तरफ़ राजस्व घाटा इस क़र्ज़ के बोझ को और बढ़ा रहा है। यह राजस्व घाटा शिंदे सरकार की चिंताओं को और बढ़ा रहा है। राज्य की वर्तमान सकल आय और राज्य पर 7.11 लाख करोड़ के क़र्ज़ के बोझ को देखते हुए एनजीओ समर्थन के निष्कर्ष में कहा गया है कि राज्य में प्रत्येक व्यक्ति पर ब्याज सहित 62,941 रुपये का क़र्ज़ है। इसमें यह भी कहा गया है कि इससे वित्तीय संतुलन डगमगाने का भय है। दूसरी तरफ़ सामाजिक सेवाओं के ख़र्च पर भी कैंची चलायी गयी है।

विधानमंडल के मानसून सत्र में वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए राज्य का बजट पेश किया गया। इस बजट की पृष्ठभूमि में एनजीओ समर्थन ने ‘समर्थन बजट अध्ययन केंद्र’ के ज़रिये बजट पर विश्लेषण किया। इसमें एक ओर इस बजट की प्रमुख विशेषताओं का ज़िक्र है, तो दूसरी ओर ख़ामियों की तरफ़ भी इशारा किया गया है। रिपोर्ट बताती है कि राज्य में पूँजीगत व्यय में कोई वृद्धि नहीं हो रही है। राज्य का राजस्व घाटा 20,051 करोड़ रुपये है, जबकि राजकोषीय घाटा 1,10,355 करोड़ रुपये है। राज्य की आय, राजस्व और राजकोषीय घाटे पर टिप्पणी करते हुए समर्थन का कहना है कि वेतन, पेंशन, ब्याज पर ख़र्च में लगातार बढ़ोतरी के कारण राजस्व का घाटा बढ़ रहा है। परिणामस्वरूप, पूँजीगत व्यय को आवश्यक सीमा तक नहीं बढ़ाया जा सका; जो एक चिंता का विषय है। जून, 2022 में राज्य में शिंदे-फडणवीस सरकार सत्ता में आयी। इसके बाद साल 2024-25 में राज्य पर ब्याज समेत कुल क़र्ज़ का बोझ 7,82,991 करोड़ रुपये हो गया है। राज्य की सकल आय 40,67,071 करोड़ रुपये है। इसमें कहा गया है कि राज्य क़र्ज़ और सकल राज्य आय का कुल अनुपात 18.35 प्रतिशत है। इसमें कहा गया है कि राज्य की सकल आय में क़र्ज़ का अनुपात राज्य की वित्तीय स्थिति का संकेतक माना जाता है। साल 2016-17 में जब राज्य में महायुति की सरकार आयी थी, तब राज्य पर कुल 3,64,819 करोड़ रुपये का क़र्ज़ था। उस समय राज्य की सकल आय 31,98,185 करोड़ थी। कुल सरकारी क़र्ज़ का सकल आय से अनुपात 16.60 फ़ीसदी था। अब सकल आय बढ़ने पर भी क़र्ज़ बढ़ रहा है।

रासायनिक खेती छोड़कर अपनायी जैविक खेती

डॉ. आशा अर्पित

रासायनिक खेती करने से लोगों की सेहत ख़राब हुई है। खेती की ज़मीन ख़राब हुई है। 06 अगस्त को चंडीगढ़ प्रेस क्लब में मीडिया से रूबरू होते हुए गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने बताया कि एक बार कुरुक्षेत्र के गुरुकुल में अपने खेतों में मज़दूरों से पेस्टिसाइड डलवाते समय एक मज़दूर बेहोश हो गया। तत्काल अस्पताल ले जाने के बावजूद उसे दो-तीन दिन बचाया जा सके। उसी समय मैंने सोचा कि कीटनाशक छिड़काव करने वाले की जान तक ले सकते हैं और मैं यह ज़हर फ़सलों में डलवा रहा हूँ। ज़हरीला अनाज, साग-सब्ज़ियाँ गुरुकुल में पढ़ने वाले मासूम बच्चों को खिला रहा हूँ। यह ठीक नहीं है। तब कभी रासायनिक खेती न करने का संकल्प लेकर मैंने कृषि वैज्ञानिकों की सलाह ली और उनके बताये अनुसार जैविक खेती शुरू की। पहले साल खेत से मुझे कुछ नहीं मिला। दूसरे साल जैविक कृषि से 50 फ़ीसदी तथा तीसरे साल 80 फ़ीसदी उत्पादन मिला। लेकिन खेती का ख़र्च कम नहीं हुआ। उस व$क्त विचार आया कि गुरुकुल की 180 एकड़ ज़मीन है, जिन किसानों के पास कुल दो-ढाई एकड़ ज़मीन है, यदि वे इस खेती को करेंगे और उनका उत्पादन नहीं होगा, तो वे गुज़ारा कैसे करेंगे? फिर मेहनत से सुधार करके जैविक खेती को सफल बनाया।

क़ुदरती खेती के बारे में विस्तार से बताया कि कैसे उन्होंने इसमें सफलता हासिल की। राज्यपाल का कहना है कि रासायनिक व जैविक खेती ग्लोबल वार्मिंग को जन्म देती है, जबकि क़ुदरती खेती उसे समाप्त करने का काम करती है। इसमें पानी की खपत 50 फ़ीसदी कम होती है तथा भूमिगत जल स्तर बढ़ता है। प्राकृतिक खेती से भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ेगी। आने वाली पीढ़ियाँ को उपजाऊ भूमि मिलेगी। वह कहते हैं कि जब 50 साल पहले रासायनिक खेती नहीं होती थी तो कोई कैंसर, डायबिटीज, हार्ट अटैक और हाइपरटेंशन जैसे असाध्य रोगों को नहीं जानता था। इन रोगों के निदान के लिए अरबों-ख़रबों रुपये के मेडिकल संस्थान बनाये जा रहे हैं। भारत सरकार सवा लाख करोड़ रुपये वार्षिक यूरिया, डीएपी पर सब्सिडी देती है। यदि क़ुदरती खेती पर फोकस किया जाए, तो ये पैसा देश के अन्य विकास कार्यों के काम में आएगा। हम अगर अच्छा स्वस्थ खाना खाएँगे, तो बीमारियों से भी बचेंगे। हिमाचल के राज्यपाल रहते हुए उन्होंने क़ुदरती खेती के जो प्रयोग किये, उसके बारे में बताया कि वहाँ इस खेती से किसानों की 27 फ़ीसदी आय बढ़ी और 56 फ़ीसदी खेती की लागत कम हो गयी।

उन्होंने बताया कि चार वर्ष तक मैं हिमाचल का गवर्नर रहा। मैंने सोचा राज भवन में बैठकर क्या करूँगा। मैंने गाँव-गाँव घूमना शुरू किया। दो साल में मैंने लगभग 50,000 किसान इस खेती से जोड़ दिये। आज भी हिमाचल प्रदेश की सरकार इस अभियान को चलाए हुए है। लाखों किसान इससे अपनी आमदनी बढ़ा रहे हैं।

आचार्य देवव्रत ने कहा कि आज देश की अवस्था क्या है? देश को आगे कैसे बढ़ाया जाए? इस पर चिंतन होना चाहिए। जब मैं हिमाचल में राज्यपाल नियुक्त हुआ, तब वहाँ 15 अगस्त ऐट होम कार्यक्रम हुआ। फिर हिमाचल में नशा मुक्ति अभियान, पौधरोपण अभियान लंबे समय तक चलाकर 26 जनवरी ऐट होम का मैंने स्वरूप ही बदल दिया। मेरे क़ाफ़िले में तसला, फाबड़ा साथ रहते थे। रास्ते में जहाँ गंदगी दिखी, वहीं सफ़ाई करने में जुट जाता था। बाद में हमारा यह स्वच्छता अभियान काफ़ी लोकप्रिय हुआ। पिछले दिनों दिल्ली में राष्ट्रपति भवन में देश के सभी राज्यपालों के एक सम्मेलन में मैंने अपना प्रस्ताव रखा। अब यह स्वरूप सारे राष्ट्र में बदलने जा रहा है।

जैविक खेती में घाटा क्यों ?

भारत के खाद्यान्न भंडार को भरने के लिए मुख्य रूप से दो फ़सलें गेहूँ और धान का उत्पादन प्राप्त करने के लिए एक एकड़ भूमि में 60 किलो नाइट्रोजन की ज़रूरत पड़ती है। इसकी पूर्ति के लिए एक एकड़ में 300 कुंतल गोबर की खाद चाहिए। यदि किसान के पास एक एकड़ ज़मीन है, तो उसे इस खाद के लिए 15 से 20 पशु पालने होंगे। यदि ये खाद नहीं डाल सकते, तो वर्मी कंपोस्ट से भी इसकी पूर्ति हो सकती है। लेकिन जैविक कृषि में वर्मी कंपोस्ट बनाने वाला केंचुआ विदेश से आयात किया जाता है, जो मिट्टी नहीं खाता। केवल गोबर व काष्ठ ही खाता है। 16 डिग्री से नीचे और 28 डिग्री के ऊपर के तापमान में जीवित नहीं रहता। यह वर्मी कंपोस्ट खेत में डालने से खरपतवार बहुत पैदा होता है और उसे निकालने के लिए लेबर बहुत पड़ती है। तीसरा यदि 300 कुंतल गोबर की खाद एक एकड़ में डालेंगे, तो उसमें से निकलने वाली गैसें वायुमंडल में जाकर ग्लोबल वार्मिंग का कारण बनेंगी।

वैज्ञानिक आधार

कृषि विश्वविद्यालय, हिसार के माइक्रोबायोलॉजी के वैज्ञानिक डॉ. बलजीत सिंह सहारण और उनकी टीम ने गुरुकुल के खेतों में इस खेती का वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग किया। रिसर्च के बाद पाया कि भैंस, बैल, हॉस्टन व जर्सी गाय के गोबर की अपेक्षा भारतीय नस्ल की देसी गाय के एक ग्राम गोबर में 300 करोड़ से भी ज़्यादा बैक्टीरिया हैं। उस टीम ने कुरुक्षेत्र ज़िले की पाँच तहसीलों के रासायनिक खेती करने वाले किसानों के खेतों से मिट्टी के सैंपल लेकर जाँच करवायी गयी, तो एक ग्राम मिट्टी में 30,05,000 सूक्ष्म जीवाणु पाये गये। इसी तरह वैज्ञानिकों ने गुरुकुल कुरुक्षेत्र के फार्म से पाँच जगह से मिट्टी के सैंपल लिए और उनका भी निरीक्षण करवाया, तो एक ग्राम मिट्टी में 181 करोड़ जीवाणु पाये गये। अत: रासायनिक खेती की अपेक्षा क़ुदरती खेती में सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या ज़्यादा पायी गयी।

ग़रीबों को लूटकर फल-फूल रही अमीरी

के.रवि (दादा)

भारत में सिर्फ़ 10 प्रतिशत लोग ही ऐसे होंगे, जिनके पास अथाह पैसा है। ज़ेहन में एक ही सवाल उठता है कि इन चंद अमीरों के पास इतना पैसा आया कहाँ से? इस बात का ही एक प्रतिशत ख़ुलासा विदेशी रिचर्स कम्पनी हिंडनबर्ग की हाल ही में आयी रिपोर्ट करती है, जिसमें अडानी समूह के द्वारा सेबी की चेयरपर्सन माधवी बुच से मिलीभगत करके अरबों रुपये के हेरफेर की घटना सामने आयी है। हिंडनबर्ग की रिपोर्ट इतनी चौंकाने वाली है कि केंद्र सरकार पर भी इसकी आँच आने लगी है। प्रधानमंत्री इस मामले में पहले ही बदनाम हैं कि अडानी उनके मित्र हैं और वह उन्हीं के लिए काम करते हैं। ऐसे आरोपों के बीच कोई सफ़ाई भी नहीं आती। अडानी भी कुछ नहीं बोलते और प्रधानमंत्री भी कुछ नहीं बोलते।

पिछले साल की ही बात है, हिंडनबर्ग कम्पनी ने एक रिपोर्ट जारी करके कहा था कि फेक कम्पनियों के ज़रिये करोड़ों रुपये का घोटाला-घपला हुआ है। इसके बाद अडानी ग्रुप की कम्पनियों को क़रीब 150 अरब डॉलर का नुक़सान हो गया था। अडानी ग्रुप के शेयर तीन महीने तक बुरी तरह लुड़कते रहे थे और 10 दिन के अंदर अडानी दुनिया के 20 टॉप अमीरों की लिस्ट से बाहर हो गये थे। हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आते ही पहले ही महीने में अडानी ग्रुप को क़रीब 80 बिलियन डॉलर से ज़्यादा का नुक़सान हो गया था। अभी इसकी जाँच का मामला साफ़ नहीं हुआ था कि हिंडनबर्ग की एक और रिपोर्ट आ गयी, और अब एक सप्ताह से पहले एक और रिपोर्ट सामने आ गयी है।

हैरानी की बात है कि 03 जनवरी, 2024 को देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने अडानी ग्रुप पर लगे आरोपों की जाँच के लिए सेबी को इसकी जाँच तीन महीने में करके रिपोर्ट पेश करने का निर्देश दिया था। लेकिन अब हिंडनबर्ग का आरोप है कि अडानी और सेबी की प्रमुख माधवी बुच ही मिलकर खेल कर रहे हैं और शेयर मार्केट में लगा लोगों का पैसा लूटने का ये काम सेबी के ज़रिये चल रहा था; जो कि छोटी-छोटी बचत करके वो कुछ फ़ायदा कमाने के लिए लगाते हैं। ऐसा लगता है कि सेबी प्रमुख ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को भी गंभीरता से नहीं लिया। सेबी ख़ुद अडानी ग्रुप के घपले के 26 मामलों की जाँच कर रहा था, जिसमें 24 मामलों की जाँच हो चुकी है; लेकिन दो मामलों पर अभी जाँच रिपोर्ट आनी है। इसे सुप्रीम कोर्ट की अवमानना और सेबी प्रमुख के पद का दुरुपयोग करना ही कहा जाना चाहिए।

अब 10 अगस्त को हिंडनबर्ग ने अपनी ताज़ा रिपोर्ट में सेबी प्रमुख माधबी पुरी बुच के पास अडानी की ओर से इस्तेमाल किये जाने वाले ऑफशोर फंडों में हिस्सेदारी का आरोप लगाया है। हालाँकि सेबी प्रमुख माधवी बुच ने हिंडनबर्ग के आरोपों को नकार दिया है। अडानी ग्रुप ने भी अपने ख़िलाफ़ हिंडनबर्ग के आरोपों को पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया है। लेकिन अब यह मामला एक गहरी निष्पक्ष जाँच का हिस्सा बन चुका है। हिंडनबर्ग के आरोप दुर्भावनापूर्ण और शरारती हैं। लेकिन हिंडनबर्ग कम्पनी ने दावा किया है कि इस घोटाले के उसके पास बहुत सारे सुबूत हैं, जिन्हें वो बारी-बारी से जारी करेगी। हिंडनबर्ग ने इस रिपोर्ट में खुला चैलेंजिंग दावा किया है कि अडानी ग्रुप के द्वारा इस्तेमाल विदेशी फंडों में सेबी प्रमुख माधबी बुच की भी हिस्सेदारी है। अब अडानी ग्रुप को लेकर अमेरिकी शॉर्ट सेलर कम्पनी हिंडनबर्ग रिसर्च के आरोपों का मामला एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया है। देखना होगा कि इस बार सुप्रीम कोर्ट का इस मामले पर क्या फ़ैसला आता है?

लेकिन हिंडनवर्ग की ख़ुफ़िया जाँच न सिर्फ़ अडानी ग्रुप द्वारा शेयर मार्केट में किये जा रहे घोटालों की हक़ीक़त बताती है, बल्कि दूसरी कई बड़ी कम्पनियों की तरफ़ भी शक की सुई घुमाती है। सेंसेक्स में कम्पनियों को पता होता है कि उनके शेयर कैसे बढ़ाये जाएँगे और कैसे कमज़ोर किये जाएँगे। जब अचानक शेयर बाज़ार उछलता है, तब भी कुछ बड़े पूँजीपतियों के शेयर महँगे करने होते हैं। जब शेयर बाज़ार गिरता है, तब भी इसका फ़ायदा पूँजीपति ही उठाते हैं और घाटा होता है उसे, जो शेयर होल्डर थोड़ी-सी बचत को पैसा बढ़ने की उम्मीद लेकर ख़ून-पसीने की कमायी को शेयर बाज़ार में लगा देते हैं। इस तरह के जनता और सरकार को फँसाकर धनवान बने कई पूँजीपतियों पर हमने अपनी गहरी नज़र रखी हुई है, जिनमें से ज़्यादातर मुम्बई, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गोवा, दिल्ली और गुजरात के धनी व्यापारी हैं।

नेताओं ने शिक्षा को बनाया निजी उद्योग

हिंदुस्तान में शिक्षा की जितनी कालाबाज़ारी होती है, शायद ही किसी दूसरे देश में होती हो। यहाँ शिक्षा को कुछ पूँजीपतियों और नेताओं ने कमायी का धंधा बना लिया है। हिंदुस्तान में ज़्यादातर प्राइवेट स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी माफ़िया के क़ब्ज़े में हैं, जिनमें ज़्यादातर नेता हैं। सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में ही क़रीब 60 फ़ीसदी प्राइवेट शिक्षा संस्थानों के मालिक नेता हैं। वहीं यहाँ के सरकारी शिक्षा संस्थानों की हालत उतनी अच्छी नहीं है। सरकार ने शिक्षा में सुधार करने की जगह उसे राम भरोसे छोड़ रखा है। कहीं अध्यापक कम हैं। कहीं बिल्डिंग जर्जर है। कहीं उचित टॉयलेट की सुविधा नहीं है। कहीं-कहीं तो बिल्डिंग इतनी जर्जर है कि स्कूल के बाहर छात्र-छात्राएँ खुले में पढ़ाई करने को मजबूर हैं। बहुत-से स्कूलों में एक-एक कमरे में क्षमता से ज़्यादा बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं। इन सरकारी शिक्षा संस्थानों में शिक्षा से लेकर व्यवस्था तक में सुधार करने की ज़िम्मेदारी भी सरकार, उसके मंत्रियों, विधायकों और सांसदों की ही है। लेकिन ये सरकारी शिक्षा संस्थानों में कभी कोई सुधार या काम नहीं करना चाहते; क्योंकि अगर सरकारी शिक्षा व्यवस्था अच्छी होगी, तो फिर इनका शिक्षा की कालाबाज़ारी का धंधा तो चौपट ही हो जाएगा। इसलिए आज सरकारी स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटी में अव्यवस्था बढ़ रही है। या फिर उन्हें धीरे-धीरे बंद करने की साज़िशें चल रही हैं, जिससे इन नेताओं के अपने प्राइवेट शिक्षा संस्थान चल सकें।

बहरहाल उत्तर प्रदेश के प्राइवेट स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज के मालिक मोटी फीस और तमाम तरह के ख़र्चे अच्छी पढ़ाई के नाम पर छात्रों से वसूलने के साथ-साथ ड्रेस से लेकर पूरी स्टेशनरी उन्हें बेचकर लाखों से करोड़ों रुपये महीने की कमायी कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के ज़्यादातर पार्टियों के नेता कई-कई स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज के मालिक हैं। ऐसा भी नहीं है कि इनके शिक्षा संस्थानों में बच्चों के भविष्य यानी करियर की बहुत अच्छी संभावनाएँ हों।

दरअसल इन नेताओं को स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी चलाने का लाइसेंस काफ़ी आसानी से मिल जाता है। ग़रीब की तो बात ही इस मामले में नहीं कर सकते; लेकिन किसी मध्यम वर्गीय आम आदमी के लिए लाइसेंस लेना तक़रीबन नामुमकिन है। क्योंकि पहली बात तो यह है कि अब स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटी को खोलना ही बहुत महँगा है; और दूसरी बात यह है कि सरकारी शिक्षा विभाग की इन संस्थानों को चलाने के लिए लाइसेंस देने की प्रक्रिया बहुत कठिन है। इसलिए अगर लाइसेंस लेने की चाहत रखने वाले की किसी नेता या शिक्षा मंत्रालय तक अच्छी पकड़ न हो, तो उसे लाइसेंस शायद न मिले। लेकिन वहीं नेताओं के पास न सिर्फ़ भरपूर पैसे हैं, बल्कि पहुँच भी है। जो नेता सीधे सरकार में ही हैं, उनके लिए किसी स्कूल या कॉलेज या यूनिवर्सिटी का लाइसेंस लेना बाएँ हाथ का खेल है। या यह कहें कि ऐसे नेताओं की फाइल कहीं नहीं अटकती। इसलिए उत्तर प्रदेश में प्राइवेट स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज की संख्या पिछले कुछ ही वर्षों में तेज़ी से बढ़ी है।

बहरहाल, अकेले उत्तर प्रदेश में 74,000 से ज़्यादा प्राइवेट स्कूल हैं। इसमें 50,000 स्कूलों के मालिक नेता हैं, जिसमें लगभग सभी पार्टियों के नेता हैं। इसके अलावा 20,000 प्राइवेट इंटर कॉलेज और 7,000 से ज़्यादा प्राइवेट डिग्री कॉलेज और 35 प्राइवेट यूनिवर्सिटीज भी हैं। कई नेताओं के तो 50 से 100 स्कूल और कॉलेज तक हैं। 35 प्राइवेट यूनिवर्सिटीज में पाँच भाजपा और तीन सपा नेताओं की हैं, जबकि एक यूनिवर्सिटी बसपा नेता के पास है। इसी प्रकार से फ़िरोज़ाबाद के शिकोहाबाद में जेएफ यूनिवर्सिटी के प्रमुख डॉ. सुकेश यादव हैं। एफएफ यूनिवर्सिटी के मालिक डॉ. दिलीप यादव हैं। जौहर यूनिवर्सिटी के मालिक आज़म ख़ान हैं, जिसे बनाने के बाद उन पर ज़मीन क़ब्ज़ाने के गंभीर मामले दर्ज हुए। आज भी यह मामला कोर्ट में चल रहा है। देश की 35 यूनिवर्सिटीज में से तीन यूनिवर्सिटी मथुरा में ही हैं। गोरखपुर की महायोगी गोरखनाथ यूनिवर्सिटी है, जो गोरक्षा पीठ ट्रस्ट के अधीन है। अगर सरकारी शिक्षा संस्थानों की बात करें, तो उत्तर प्रदेश में कुल 172 राजकीय कॉलेज हैं। इसके अलावा सहायता प्राप्त कॉलेजों की संख्या 331 है। लेकिन प्राइवेट कॉलेजों की संख्या 7,372 है। इसी प्रकार से सरकारी यूनिवर्सिटीज में छ: सेंट्रल यूनिवर्सिटी, 34 स्टेट यूनिवर्सिटी, 35 प्राइवेट यूनिवर्सिटी, आठ डीम्ड यूनिवर्सिटी हैं। इस प्रकार से उत्तर प्रदेश में कुल यूनिवर्सिटीज की संख्या 83 हैं, जबकि कुल डिग्री कॉलेजों की संख्या 7,875 है। उत्तर प्रदेश में 22 ऐसी यूनिवर्सिटीज हैं, जिनके प्रमुख या तो व्यवसायी हैं या फिर शिक्षा क्षेत्र से ही जुड़े हुए हैं। ये सभी लोग पैसे वाले हैं और नेताओं के काफ़ी क़रीबी हैं। हालाँकि बताया जाता है कि ये फ़ौरी तौर पर सीधे-सीधे किसी भी पार्टी से नहीं जुड़े हैं।

नेताओं के स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज की संख्या की बात करें, तो महिला पहलवानों से छेड़छाड़ और अन्य के आरोपों से घिरे भाजपा नेता और पूर्व सांसद बृजभूषण शरण सिंह के गोंडा और बहराइच में 54 स्कूल और कॉलेज चल रहे हैं। भाजपा नेता और इसी पार्टी के पूर्व विधायक जय चौबे के संतकबीरनगर में 50 से ज़्यादा स्कूल और कॉलेज हैं। फ़तेहपुर के ज़िला पंचायत अध्यक्ष और भाजपा नेता अजय प्रताप सिंह के निजी स्कूल और कॉलेज 18 से ज़्यादा हैं। अमेठी के भाजपा नेता और पूर्व कैबिनेट मंत्री संजय सिंह के पास क़रीब 13 स्कूल और कॉलेज हैं। भाजपा नेता मनोज सिंह नौ कॉलेजों के मालिक हैं, जिनमें से उनके पास आठ निजी डिग्री कॉलेज, दो इंटर कॉलेज और एक आईटीआई कॉलेज है। हरदोई के भाजपा नेता और एमएलसी अवनीश प्रताप सिंह के पास भी हरदोई ज़िले में ही 10 से ज़्यादा स्कूल और कॉलेज हैं। भाजपा विधायक अनुराग सिंह के पास भी मिर्जापुर में पाँच डिग्री कॉलेज हैं। भाजपा नेता अजय कपूर फैमिली के पास भी कानपुर में केडीएमए चेन में 10 से ज़्यादा स्कूलों और कॉलेजों का मालिकाना हक़ है। भाजपा के ही एक अन्य नेता और मिर्जापुर से ज़िला सहकारी बैंक के चेयरमैन जगदीश सिंह पटेल के पास मिर्जापुर में सात स्कूलों और कॉलेजों का मालिकाना हक़ है। आगरा से विधायक भाजपा नेता छोटे लाल वर्मा पाँच स्कूलों और कॉलेजों के मालिक हैं। मिर्जापुर से विधायक और भाजपा नेता अनुराग सिंह पाँच निजी कॉलेज मिर्जापुर में चला रहे हैं। भाजपा नेता और पूर्व एमएलसी संजयन त्रिपाठी गोरखपुर में 10 से ज़्यादा स्कूलों और कॉलेजों के मालिक बने बैठे हैं। भाजपा नेता और पूर्व विधायक संजय गुप्ता के पास कौशांबी में चार इंटर कॉलेज हैं, एक डिग्री कॉलेज है और बोर्डिंग स्कूल भी है। भाजपा नेता और सुल्तानपुर से विधायक विनोद सिंह के पाँच स्कूलों और कॉलेजों के मालिक हैं। भाजपा नेता अरविंद बंसल के शामली में चार से ज़्यादा स्कूल और कॉलेज हैं। भाजपा नेता और सिद्धार्थनगर से सांसद जगदंबिका पाल के सूर्य ग्रुप ऑफ़ इंस्टीट्यूशन्स के नाम से कई स्कूल और कॉलेज हैं, जिनमें डिग्री कॉलेज और इंजीनियरिंग कॉलेज तक शामिल हैं। भाजपा नेता और जालौन से ज़िला पंचायत अध्यक्ष घनश्याम अनुरागी के जालौन में तीन कॉलेज हैं और इनका एक स्कूल भी है। संभल के भाजपा नेता अजीत यादव भी पास चार स्कूलों और कॉलेजों के मालिक हैं।

इसी प्रकार से बसपा नेता और पूर्व सांसद प्रत्याशी शिव प्रसाद यादव के पास मैनपुरी और इटावा ज़िलों में 100 से ज़्यादा स्कूल और कॉलेज हैं। शिव प्रसाद ने 2024 के लोकसभा चुनाव में बसपा के टिकट पर मैनपुरी से चुनाव लड़ा था। इसके अलावा बसपा के पूर्व विधायक लखीमपुर ज़िले के राजेश गौतम के पास चार स्कूल और कॉलेज हैं। सहारनपुर में बसपा नेता हाजी इक़बाल भी द ग्लोकल यूनिवर्सिटी के मालिक हैं। इसके अलावा सपा के प्रदेश सचिव डॉक्टर जितेंद्र यादव के पास 20 से ज़्यादा स्कूलों और चार कॉलेजों का मालिकाना हक़ है। उनके ज़्यादातर स्कूल फ़र्रुख़ाबाद में हैं। वहीं प्रतापगढ़ के सपा सांसद एस.पी. सिंह पटेल भी 13 स्कूलों और कॉलेजों के मालिक हैं। एलपीएस ग्रुप इन्हीं का है। एसपी सिंह पटेल लखनऊ में भी एक पब्लिक स्कूल के मालिक हैं।

सपा सरकार में मंत्री रहे सिद्धार्थनगर के माता प्रसाद पांडेय के पास भी पाँच स्कूल और कॉलेज हैं। सपा के दिग्गज नेता आज़म ख़ान के पास भी तीन स्कूल और एक यूनिवर्सिटी है। सपा विधायक राकेश प्रताप सिंह के अमेठी में तीन स्कूल-कॉलेज चल रहे हैं। सपा नेता और पूर्व ब्लॉक प्रमुख चंद्रमणि यादव के मऊ में चार स्कूल-कॉलेज चल रहे हैं। इसी प्रकार से प्रतापगढ़ से कांग्रेस सांसद प्रमोद तिवारी के प्रतापगढ़ में छ: से ज़्यादा स्कूल और कॉलेज हैं। वाराणसी के कांग्रेस नेता राजेश्वर पटेल के पास भी पाँच से ज़्यादा स्कूल-कॉलेज हैं। कानपुर के कांग्रेस नेता आलोक मिश्रा के कानपुर में ही डीपीएस ग्रुप के चार स्कूल चल रहे हैं। प्रयागराज की बारा सीट से अपना दल के विधायक वाचस्पति के 15 से ज़्यादा स्कूल-कॉलेज चल रहे हैं। बदायूँ के डीपी यादव के पास आठ स्कूल-कॉलेज हैं। वह सपा, बसपा और भाजपा समेत कई पार्टियों में रह चुके हैं। अभी उन्होंने राष्ट्रीय परिवर्तन दल बना लिया है। इसके अलावा जनसत्ता दल के प्रतापगढ़ के रहने वाले एमएलसी अक्षय प्रताप सिंह भी तीन स्कूलों के मालिक हैं।

हैरत की बात यह है कि स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी खोलने के नियम बहुत सख़्त हैं। लेकिन जिनकी पहुँच अच्छी है या जो ख़ुद ही सीधे सरकार में दख़ल रखते हैं, उन्हें लाइसेंस आसानी से मिल जाता है। इन लोगों के स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज में भी नियमों को ताक पर रखकर बहुत कुछ होता है; लेकिन फिर भी उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। क्योंकि इन शिक्षा संस्थानों से होने वाली अंधी कमायी में हिस्सेदारी भी होती ही होगी।

दरअसल, स्कूल या कॉलेज खोलने के लिए क़रीब 17 तरह के दस्तावेज़ ज़रूरी होते हैं, जिनमें ज़मीन की ख़रीद का एफिडेविट, बिल्डिंग का फिटनेस सर्टिफिकेट, कंप्लीशन सर्टिफिकेट, जल बोर्ड से जल परीक्षण रिपोर्ट, बिल्डिंग का साइट प्लान, बैंक से बनवाया गया एफडी के बदले में नो-लोन सर्टिफिकेट के साथ-साथ कई और दस्तावेज़ चाहिए होते हैं। इसके अलावा प्राइवेट स्कूल या कॉलेज या यूनिवर्सिटी चलाने के लिए शिक्षा विभाग के द्वारा जारी सख़्त दिशा-निर्देश और कई सख़्त नियमों का पालन करना होता है। मसलन अगर किसी को शहरी क्षेत्र में 5वीं तक का स्कूल खोलना है, तो उसके लिए स्कूल की बिल्डिंग के अलावा 500 वर्ग गज़ का खेल का मैदान होना ही चाहिए। इसी प्रकार से गाँव में स्कूल खोलना है, तो स्कूल की बिल्डिंग के अलावा 1,000 वर्ग गज़ का खेल का मैदान होना चाहिए। दोनों ही जगह पर कम से कम 270 वर्ग फुट के तीन क्लासरूम, 150 वर्ग फुट का एक स्टाफ रूम और 150 वर्ग फुट का एक प्रिंसिपल रूम होना चाहिए। इसी प्रकार से 8वीं तक के स्कूल में इन सबसे अलग 600 वर्ग फुट की एक विज्ञान प्रयोगशाला भी अनिवार्य है। इसके अलावा इन दोनों प्रकार के स्कूलों में एक 400 वर्ग फुट का अलग कमरा होना चाहिए। इसी प्रकार से शहर में कॉलेज खोलने के लिए 3,000 वर्ग मीटर और गाँव में कॉलेज खोलने के लिए मालिक या ट्रस्ट या कम्पनी या सामाजिक संगठन के पास कम-से-कम 6,000 वर्ग मीटर ज़मीन होनी चाहिए। सभी प्रकार के स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज में बड़ी पार्किंग, बच्चों की सुरक्षा के पूरे इंतज़ाम होने चाहिए। प्री मेडिकल की व्यवस्था होनी चाहिए। लेकिन खेल के मैदान तो दूर की बात, उत्तर प्रदेश में ज़्यादातर स्कूल-कॉलेज छोटी-छोटी बिल्डिंगों में चल रहे हैं, जहाँ न कोई सुरक्षा इंतज़ाम है और न ही पार्किंग की ही व्यवस्था। कई स्कूल और कॉलेज तो भीड़भाड़ वाले इलाक़ों में बिलकुल सड़क पर बने हैं, जहाँ से तेज़ रफ़्तार से दिन भर वाहन गुज़रते हैं। उत्तर प्रदेश में क़रीब 80 फ़ीसदी से ज़्यादा स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटीज में सरकारी मानकों पर खरे नहीं उतर रहे है; लेकिन फिर भी धड़ल्ले से चल रहे हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

असुरक्षित कोचिंग सेंटर

– भारत में बच्चों की जान जोखिम में डालकर चल रहे कई कोचिंग सेंटर्स

इंट्रो- भारत के सभी शहरों, क़स्बों और गाँवों में चलने वाले कोचिंग सेंटर्स में से ज़्यादातर सरकार के दिशा-निर्देशों को ताक पर रखकर चलाये जा रहे हैं। इसकी पड़ताल ‘तहलका’ रिपोर्टर ने ख़ुद एक कोचिंग सेंटर के मालिक से जानकारी लेकर की। हाल ही में दिल्ली में एक कोचिंग सेंटर में पानी भरने से आईएएस की तैयारी करने वाले तीन अभ्यर्थियों की डूबकर दु:खद मौत और छात्रों की आत्महत्या के बढ़ते मामलों के मद्देनज़र ‘तहलका’ द्वारा की गयी पड़ताल से पता चलता है कि कैसे ये कोचिंग सेंटर छात्रों की सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित न करके सरकारी दिशा-निर्देशों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। तहलका एसआईटी की रिपोर्ट :-


‘कोचिंग सेंटर मृत्यु कक्ष बन गये हैं और छात्रों के जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।’ सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के ओल्ड राजिंदर नगर में एक कोचिंग संस्थान के बेसमेंट में आईएएस की तैयारी करने वाले तीन अभ्यर्थियों के डूबने की घटना के सम्बन्ध में केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार को समन जारी किया। मामले पर स्वत: संज्ञान लेते हुए न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने कहा कि यह घटना सभी के लिए आँखें खोलने वाली थी। पीठ ने कहा कि ‘यह भयानक है, जो हम पढ़ रहे हैं। अगर ज़रूरत पड़ी, तो हम इन कोचिंग सेंटर्स को भी बंद कर देंगे। फ़िलहाल कोचिंग ऑनलाइन होनी चाहिए, जब तक कि भवन नियमों और अन्य सुरक्षा मानदंडों का सावधानीपूर्वक पालन न हो। ये स्थान (कोचिंग सेंटर) मौत के घर बन गये हैं। कोचिंग सेंटर इन अभ्यर्थियों के जीवन से खेल रहे हैं, जो देश के विभिन्न हिस्सों से सपने लेकर आते हैं और कड़ी मेहनत कर रहे हैं।’

‘सरकारी अधिकारी सुबह 11:00 बजे, 12:30 बजे या अधिकतम 1:30 बजे तक औचक निरीक्षण के लिए आते हैं। उसके बाद वे जाँच के लिए नहीं आते। इसलिए मैं 16 साल से कम उम्र के नाबालिग़ छात्रों को अपने कोचिंग सेंटर में प्रवेश दूँगा और उनकी कक्षाएँ दोपहर 3:00 बजे आयोजित करूँगा; जिस समय कोई सरकारी अधिकारी जाँच के लिए नहीं आता है। एक दिन कुछ सरकारी अधिकारी निरीक्षण के लिए मेरे कोचिंग सेंटर में आये; लेकिन मैंने अपने सेंटर के ख़िलाफ़ किसी भी कार्रवाई को रोकने के लिए उन्हें रिश्वत दी।’ दिल्ली-एनसीआर में एकलव्य नाम के कई कोचिंग सेंटर्स के मालिक प्रशांत (उनके पहले नाम से जाना जाता है) ने ‘तहलका’ के अंडरकवर रिपोर्टर से यह बात कही।

रिपोर्टर ने अपने दोस्त के 16 साल से कम उम्र के (काल्पनिक) बच्चों को नीट की तैयारी के लिए दाख़िला दिलाने के बहाने नोएडा के सेक्टर-15, एकलव्य की शाखा में प्रशांत से मुलाक़ात की। प्रशांत ने शिक्षा मंत्रालय के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करते हुए उन्हें प्रवेश देने पर सहमति व्यक्त की, जो पूरे भारत में किसी भी कोचिंग संस्थान में 16 वर्ष से कम उम्र के छात्रों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाता है। छात्रों की आत्महत्या के बढ़ते मामलों, आग की घटनाओं, कोचिंग सेंटर्स में सुविधाओं की कमी और उनके द्वारा अपनायी जाने वाली शिक्षण पद्धतियों की शिकायतों के बाद इस साल जनवरी में दिशा-निर्देश जारी किये गये थे। केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुसार, कोचिंग सेंटर 16 वर्ष से कम उम्र के छात्रों का नामांकन नहीं कर सकते, भ्रामक वादे नहीं कर सकते, या रैंक या अच्छे अंकों की गारंटी नहीं दे सकते। कोचिंग संस्थानों को विनियमित करने के लिए दिशा-निर्देश एक क़ानूनी ढाँचे के आवश्यक और निजी कोचिंग सेंटर्स की अनियमितताओं को प्रबंधित करने के लिए तैयार किये गये थे। इन दिशा-निर्देशों के बाद ‘तहलका’ ने यह देखने के लिए एक जाँच की कि कितने कोचिंग सेंटर सरकारी दिशा-निर्देशों का पालन कर रहे हैं। हमें आश्चर्य हुआ कि इस जाँच के दौरान ‘तहलका’ रिपोर्टर न जिन भी कोचिंग सेंटर्स से संपर्क किया, उनमें से किसी ने भी सरकारी दिशा-निर्देशों का पालन करने की ज़हमत नहीं उठायी। इनमें से लगभग सभी खुलेआम सरकारी नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं।

प्रशांत ने न केवल सरकारी दिशा-निर्देशों का उल्लंघन किया, बल्कि यह भी बताया कि कैसे उन्होंने अपने कोचिंग सेंटर को गुप्त रूप से संचालित करके सीओवीआईडी-19 लॉकडाउन के दौरान अधिकारियों को चकमा दिया। प्रशांत ने ‘तहलका’ रिपोर्टर से बात करते हुए कहा- ‘कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान मैं गुप्त रूप से अपना कोचिंग सेंटर चला रहा था। मैंने गेट पर एक आदमी को तैनात कर दिया, ताकि अगर कोई पुलिसकर्मी आये, तो मुझे सूचित कर सकूँ। अधिकारियों को गुमराह करने के लिए मैं अपने सेंटर की सभी लाइटें बंद कर देता था, ताकि उन्हें लगे कि मेरा कोचिंग सेंटर बंद हो गया है। लेकिन मैं सभी कक्षाएँ अपने केंद्र पर ले रहा था। मैंने छात्रों से कहा कि वे बैग नहीं, बल्कि कॉपी और पेन लेकर आएँ। इस तरह मैं लॉकडाउन के दौरान अधिकारियों की आँखों में धूल झोंकने में कामयाब रहा।’

नई दिल्ली के पुराने राजिंदर नगर में एक कोचिंग सेंटर में बाढ़ के कारण तीन यूपीएससी अभ्यर्थियों की मौत की दु:खद घटना को टाला जा सकता था, अगर प्रभारी अधिकारी शहर भर के कई कोचिंग सेंटर्स द्वारा किये गये सुरक्षा उल्लंघनों के बारे में सतर्क रहते। घटना के बाद ख़बरें आ रही हैं कि नोएडा और गुरुग्राम के कई अनियमित कोचिंग संस्थान जाँच के दायरे में हैं। यह पता चला है कि गुरुग्राम में 300 से अधिक कोचिंग सेंटर अग्निशमन विभाग से अनिवार्य अनापत्ति प्रमाण-पत्र (एनओसी) के बिना चल रहे हैं।

यह उजागर करने के लिए कि कोचिंग सेंटर किस तरह से सरकारी दिशा-निर्देशों का उल्लंघन कर रहे हैं; ‘तहलका’ रिपोर्टर ने प्रशांत से नोएडा के सेक्टर-15 में उनके एकलव्य कोचिंग सेंटर में मुलाक़ात की। ‘तहलका’ रिपोर्टर न उनके सामने एक काल्पनिक सौदे का प्रस्ताव रखा कि हमारे मित्र के बच्चे, जो 16 वर्ष से कम उम्र के हैं, नीट की तैयारी के लिए उनके कोचिंग सेंटर में दाख़िला लेना चाहते हैं। प्रशांत बच्चों का नामांकन करने के लिए सहमत हो गये, जो कि सरकारी दिशा-निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन है कि कोई भी कोचिंग सेंटर 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों का नामांकन नहीं कर सकता है।

रिपोर्टर : ठीक है, …क्यूँकि उनको थोड़ा ये था कि गाइडलाइंस आयी हैं ना!

प्रशांत : कितने स्टूडेंट हैं?

रिपोर्टर : कम से कम 8-10 मिल जाएँगे।

प्रशांत : ले आइए, …विजिट करा दीजिए।

रिपोर्टर : दिखा देता हूँ बच्चों को भी, …पैरेंट्स को भी। हैं सब 14-15 साल के…।

प्रशांत : कहो तो मैं अपने टीचर्स से कहूँ, काउंसलिंग कर आए। ऐसी कोई जगह है, जहाँ सारे पैरेंट्स बैठ जाएँ?

रिपोर्टर : नहीं, ऐसी तो नहीं है। कहो तो पार्क में…?

प्रशांत : हाँ; पार्क भी चलेगा। हम खड़े होकर स्पीच दे सकते हैं।

रिपोर्टर : थोड़ा-सा वो यही सोच रहे थे, …जबसे सरकार की गाइडलाइन आयी हैं ना! …16 साल से कम एज के कोचिंग सेंटर में एडमिशन नहीं ले सकते। कहीं ऐसा न हो दिक़्क़त-परेशानी हो जाए? …ये है।

प्रशांत : 3:00 बजे के बाद हम कर सकते हैं। …आप उनको बता दीजिए। …अवेयर कर दीजिए।

रिपोर्टर : कन्फर्म कर दूँ?

प्रशांत : एक दम कर दीजिए सर!

जब प्रशांत 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों का नामांकन करने के लिए सहमत हो गये, तो उन्होंने अपने केंद्र में उन छात्रों के प्रबंधन के लिए अपनी योजना हमारे संवाददाता के साथ साझा की। उन्होंने बताया कि सरकारी अधिकारी आमतौर पर दोपहर 2:00 बजे से पहले औचक निरीक्षण करते हैं। इसलिए पहचान से बचने के लिए वह इन कक्षाओं को दोपहर 3:00 बजे निर्धारित करेंगे।

रिपोर्टर : अच्छा, हमारी सोसायटी में कई बच्चे हैं, जिनको नीट और जेईई की कोचिंग चाहिए; पर हैं वो नाइंथ में। …एज है उनकी कम, 15 साल से। …नाइंथ के हैं, 16 साल से कम, तो कैसे करोगे फिर आप?

प्रशांत : एक बार पूछ लेता हूँ XXXX सर से।

रिपोर्टर : xxxxx कौन?

प्रशांत : xxxxx सर अथॉर्टी में xxxx हैं। वो कह रहे थे ऐसा होगा, तो मेरे को बताना। बात कर लूँगा। यहाँ नोएडा अथॉरिटी में हैं। हो सकता है…।

रिपोर्टर : ठीक।

प्रशांत : स्कूल से बच्चा कै बजे आता है?

रिपोर्टर : स्कूल से आता है 1:00-1:30 पीएम।

प्रशांत : तो हम 3:00 बजे के बाद ही क्लास कर सकते हैं।

रिपोर्टर : ठीक है। …3:00 पीएम के बाद रख लेंगे।

प्रशांत : रख लेंगे। क्यूँकि 3:00 बजे तक जनरली सारे ऑफिसर्स घूमकर चले जाते हैं। विजिट तो होती हैं ना ऑफिसर की, वो 11:00 बजे, 12:00 बजे, मोस्टली ज़्यादा-से-ज़्यादा 1:30 पीएम से पहले…।

रिपोर्टर : अच्छा; इसका मतलब शाम को नहीं आते? शाम को कोई डर नहीं है?

प्रशांत : डर नहीं है।

रिपोर्टर : ओके, शाम को रखते हैं। …3:00 बजे के बाद।

प्रशांत : डन सर!

रिपोर्टर : फाइनल करूँ?

प्रशांत : हाँ, सर!

प्रशांत ने उल्लेख किया कि उनकी एक कक्षा शाम 4:00 बजे के बाद ख़ाली रहती है, जिससे रिपोर्टर ने परिसर के निरीक्षण के लिए ज़िम्मेदार अधिकारियों के बारे में पूछा। उन्होंने बताया कि ये निरीक्षण बेसिक शिक्षा कार्यालय (बीओ) के अधिकारियों द्वारा किये जाते हैं, जो ज़िला शिक्षा अधिकारी (डीओ) के आदेश पर कार्य करते हैं।

प्रशांत : और मेरा एक रूम ख़ाली भी रहता है अभी। …4:00 बजे से पूरी क्लास ख़ाली है।

रिपोर्टर : ये चेक करने वाले कहाँ से आते हैं?

प्रशांत : सर! ये बीओ से आते हैं।

रिपोर्टर : बीओ मतलब?

प्रशांत : बेसिक एजुकेशन ऑफिसर। …ये ब्लॉक लेबल पर होता है, और डीओ उसको ऑर्डर देता है। डिस्ट्रिक्ट एजुकेशन ऑफिसर…डीओ।

प्रशांत ने अब हमारे रिपोर्टर के सामने स्वीकार किया कि वह अपनी अवैध गतिविधियों को छुपाने के लिए सिस्टम में किस हद तक हेरफेर करता है। उन्होंने एक विशेष उदाहरण का ज़िक्र किया, जहाँ उन्होंने अपने कोचिंग सेंटर में औचक निरीक्षण के दौरान सरकारी अधिकारियों को रिश्वत दी थी, इस तथ्य को छुपाते हुए कि वह 16 साल से कम उम्र के छात्रों को निर्देश दे रहे थे। उन्होंने ख़ुलासा किया कि कैसे उन्होंने औचक निरीक्षण के दौरान माता-पिता के रूप में प्रस्तुत अधिकारियों की पहचान की थी, और कैसे उन्होंने जानकारी छिपाकर और बाद में बेसिक शिक्षा अधिकारी (बीएसओ) को रिश्वत देकर स्थिति को नियंत्रित किया था।

रिपोर्टर : वो (जाँच अधिकारी) आ चुके हैं,  …वहाँ आपके इंस्टीट्यूट में?

प्रशांत : हाँ; एक बार आये थे बीओ और दो पुलिस ऑफिसर।

रिपोर्टर : आजकल बच्चों को देखकर एज ही पता नहीं चलती। बच्चों की फिजिक्यू ही ऐसी है, …सब बच्चे नहीं लगते।

प्रशांत : जब आये, तो मुझे बताया नहीं। जैसे आप कैसे पैरेंट्स बनके आये हो। पैरेंट्स ही हो?…हाहाहा (हँसते हुए)… वो पैरेंट्स बनके आये थे। हाँ; असल में तीनों बंदे, …एक यहाँ बैठे और दो यहाँ सोफे पर। अच्छा बाद में बताया- मैं बेसिक एजुकेशन का अधिकारी हूँ। …बहुत बाद में बताया। पूरा जायज़ा ले लिया मेरे से। वो तो अच्छा हुआ मैंने बताया नहीं, मैं पढ़ाता भी हूँ स्कूल के…, ये नाइंथ -टैंथ के बच्चों को।

रिपोर्टर : आपने नहीं बताया?

प्रशांत : हाँ; नहीं बताया। बोले आप पढ़ाते हो? मैंने कहा नहीं सर! फिर बोले- आप रजिस्ट्रेशन दिखाइए। मैंने बोला- ऐज अ पैरेंट आप रजिस्ट्रेशन कैसे देख सकते हो? आप मेरे वेबसाइट पर जाओ, सारा उसमें दिया हुआ है; आप देखो सर! उन्होंने कहा- अच्छा; बताइए आपने एमसीआर में रजिस्टर करवाया है? मैंने कहा- मैंने लोकल अथॉरिटी में कराया हुआ है। और एमसीआर के लिए फाइल दिया हुआ है सर! वहाँ भी सर हो जाएगी। मैंने सीए से बात कर ली है। बोले- लोकल अथॉरिटी में कराया है? मैंने कहा- कराया है सर! मैंने कहा- लोकल अथॉरिटी तो छोड़ो, मैंने भारत सरकार का अति शूक्ष्म लघु उद्योग होता है, उसमें भी कराया है। बोले- अच्छा, दिखाइए उसकी कॉपी। ड्राउर खोला, निकाला दिखा दिया। अच्छा; कोर्स का कुछ पूछ ही नहीं रहा है। जैसे आप पूछ रहे हो। मैं भई सोचूँ, बंदा कोर्स नहीं पूछ रहा है। ऊल-जुलूल पूछ रहा है। ये नहीं कराया, वो नहीं; …इधर-उधर का पूछ रहा है।

रिपोर्टर : आपको डाउट नहीं हुआ?

प्रशांत : मेरे को डाउट हुआ।

रिपोर्टर : ये भी तो पैसे उगाही के साथन हैं?

प्रशांत : फिर डाउट तब हुआ, जब दूसरा जो है ना! कोचिंग वाला, करियर लाउंचर, उसका फोन आया मेरे पास। ऐसा है, हम लोग की कोचिंग की एक टीम है, मीटिंग होती है ना हमारी सैटर्डे-संडे को, या तो सप्ताह में एक दिन, …या 15 दिन में। हम लोग आपस में मिलते हैं एक जगह कोचिंग संचालक होते हैं। उनका फोन आया, प्रशांत सर! वो चेक करने वाला आपके यहाँ आया क्या? मैंने पूछा, कौन? कितने बच्चें हैं? कि सर तीन बच्चे हैं। दो सर प्रिंसिपल और एक सर चेक शर्ट में, पीला-पीला शर्ट में, वो हैं बीएसओ साहब। वही थे। मैंने कहा सर! बीएसओ साहब आपको जो-जो पूछना है, डायरेक्ट पूछो। मैं सर पहचान गया आपको।

रिपोर्टर : अब तो चेहरा पहचान गये आप, …अब तो आ ही नहीं सकता कोई?

प्रशांत : मैंने कहा- आपको मैंने पहचान लिया अब बताओ क्या लोगे, …चाय-कॉफी? वो सर- कुछ नहीं, मैं बात कर लूँगा। उसको सर पैसा भी दिया था।

रिपोर्टर : किसको दिया?

प्रशांत : बीएसओ को, कुछ दे दिया मैंने. …मैनेज कर लो।

रिपोर्टर : मैंने यही तो बोला आपको, ये साधन हैं पैसा उगाही के….।

प्रशांत : हाँ।

प्रशांत ने उन युक्तियों पर भी प्रकाश डाला, जिनका उपयोग उन्होंने सरकारी अधिकारियों को औचक निरीक्षण के दौरान अपने केंद्र में 16 वर्ष से कम उम्र के छात्रों को खोजने से रोकने के लिए किया था। उदाहरण के लिए, उन्होंने आख़िरी केबिन में कक्षाएँ संचालित करने का उल्लेख किया, एक ऐसा स्थान जहाँ निरीक्षण दल शायद ही कभी पहुँचते हैं।

रिपोर्टर : नाइंथ-टैंथ की क्लास आप कैसे करते हो?

प्रशांत : क्लास सर अंदर होती हैं। लास्ट केबिन में। अगर नाइंथ का बच्चा होगा, उसका क्लास अलग लूँगा। टैंथ का होगा, उसका अलग लूँगा। एक साथ मर्ज नहीं किया जाएगा।

रिपोर्टर : हाँ; तो नाइंथ-टैंथ की एज होगी 15-16 साल।

प्रशांत : हाँ; उसको अलग-अलग क्लास में करवाएँगे।

रिपोर्टर : तो आप नाइंथ और टैंथ की यही कराते हैं क्लास?

प्रशांत : हाँ; अंदर है। थोड़ा ठीक रहेगा।

यह ख़ुलासा करते हुए कि कैसे वह 16 साल से कम उम्र के छात्रों का नामांकन करके सरकारी दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करते हैं; प्रशांत ने यह भी बताया कि कैसे उन्होंने कोरोना-काल में लगे लॉकडाउन के दौरान भी नियमों का उल्लंघन किया था। उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने अपने केंद्र में लाइटें बंद करके कक्षाएँ संचालित कीं और किसी भी पुलिस के आगमन के बारे में पहले से जानकारी देने के लिए गेट पर किसी को तैनात किया।

प्रशांत : कोरोना में तीन बार चेक करने आया। मैं ढीठ हूँ, अंदर से बंद करके पढ़ा रहा था बच्चों को।

रिपोर्टर : कोरोना में?

प्रशांत : जी सर! वो बड़े वाले रूम में, मतलब यहाँ पर सब लाइट ऑफ कर दिया, एक ऑफिस बॉय गेट पर रख दिया मैंने, …मैंने बोला- सायरन बजता देखे, तो मुझे बोलना आकर। मैं बच्चों को बोलता था, एक कॉपी लेकर आना, कोई बेग-वैग नहीं। कॉपी बच्चा लाता था, …लड़के भी लड़कियाँ भी। ख़ाली एक कॉपी, वो भी छुपाके, शक न हो।

अब, प्रशांत कोटा में छात्रों पर पड़ने वाले भारी दबाव पर प्रकाश डालते हैं, जो अपनी गहन कोचिंग संस्कृति के लिए जाना जाता है। वह बताते हैं कि पढ़ाई के लंबे और कठिन घंटे, माता-पिता और शिक्षकों दोनों की उच्च अपेक्षाओं के साथ मिलकर, छात्रों के लिए मानसिक रूप से तनावपूर्ण माहौल बनाते हैं। उनका सुझाव है कि यह छात्रों को कगार पर धकेल सकता है, जिससे गंभीर तनाव हो सकता है और कुछ मामलों में तो आत्महत्या भी हो सकती है। प्रशांत छात्रों को इस चुनौतीपूर्ण परिदृश्य से निपटने में मदद करने के लिए व्यक्तिगत परामर्श की पेशकश के महत्त्व पर भी बात करते हैं।

रिपोर्टर : कोटा में इतना दबाव क्यूँ बना देते हैं बच्चों पर?

प्रशांत : सर! चार घंटे कौन क्लास लेता है? लगातार 4:00-4:30 घंटे, …चार घंटा-पाँच घंटा, पैरेंट्स का ऊपर से भी दबाव रहता है। इस बार टेस्ट में अच्छे नंबर नहीं लाया ना! मैं बताऊँगा अभी। और टीचर भी दबाव में, टीचर इसलिए दबाव करता है, टीचर को रिजल्ट चाहिए। बच्चों पर मेंटली प्रेशर आ जाता है। … सुसाइड करेगा, क्या करे? अब मैं इस लड़की को बार-बार बोलूँ- अरे तू फेल होगी, मैं इसलिए बैठा हूँ क्या? मैं तो कहूँगा ना! आप अच्छा करोगे, बहुत अच्छा करोगे। …इस तरह से बोलूँगा। इसलिए हम अपने बुक में लिखते हैं, पर्सनल मेंटर्शिप, पर्सनल लेवल पर भी गाइडेंस देते रहते हैं।

इसके बाद प्रशांत ने नाबालिग़ों को कोचिंग प्रदान करने के लिए विभिन्न कोचिंग शुल्कों का हवाला दिया। शुरुआत में एनईईटी कोचिंग के एक वर्ष के लिए 82,000 रुपये की माँग की। कुछ बातचीत के बाद उन्होंने नामांकन सुरक्षित करने के लिए छूट की पेशकश करते हुए क़ीमत घटाकर 71,500 रुपये कर दी। बातचीत से प्रशांत के अपने संकाय के साथ सावधानीपूर्वक समन्वय का भी पता चलता है, जो प्रतिशत के आधार पर काम करते हैं, और उनका आश्वासन है कि कक्षाओं के समय-निर्धारण में कोई समस्या नहीं होगी।

रिपोर्टर : चार्जेज कितना होगा सर?

प्रशांत : चार्जेज…, सर! एक बार मैं बात कर लेता हूँ अपनी फैकल्टी से, क्यूँकि वो पर्सेंटेज बेस पर हमारे यहाँ काम करते हैं।

रिपोर्टर : फिर भी, एक आइडिया टेंटेटिव?

प्रशांत : सर! दो मिनट का समय दीजिए, पूछ लेता हूँ। …सर! बच्चा नाइंथ से, टैंथ में जाएगा?

रिपोर्टर : हाँ, सर!

प्रशांत : इसमें सर ये ही है, …82 थाउजेंट लेते हैं। 82 के (हज़ार) पर ईयर।

रिपोर्टर : अच्छा; 82 के? …इसकी ज़्यादा है।

प्रशांत : बता रहा हूँ कैसे ज़्यादा है। और अभी सर हम उसका ले लेंगे 71,500 में। …डिस्काउंट दे रहे हैं।

रिपोर्टर : तो 72 के में बोल दूँ?

प्रशांत : हाँ; ईयरली, …रुपीज 71,500, ऊपर-नीचे हम देख लेंगे।

रिपोर्टर : डन कर दूँ फिर?

प्रशांत : हाँ; कर दीजिए। देख लेंगे अभी कैमिस्ट्री वाले को भी बुला लेंगे, …फिजिक्स वाले की क्लास चल रही है।

रिपोर्टर : आपके कोचिंग सेंटर में कोई दिक़्क़त तो नहीं होगी?

प्रशांत : नहीं, कोई दिक़्क़त नहीं है।

प्रशांत : 3:30 पीएम बजे के बाद कभी भी उसको ले सकते हैं।

पता चला है कि इस साल अकेले कोटा में नीट-जेईई की तैयारी कर रहे 15 छात्रों की आत्महत्या से मौत हो गयी है, जबकि पिछले साल शहर में ऐसी 27 मौतें हुई थीं। अधिकारी कोचिंग सेंटर्स के उच्च दबाव वाले माहौल से उत्पन्न होने वाले मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी मुद्दों के समाधान के लिए काम कर रहे हैं। 27 जुलाई को पास के नाले के फटने से कथित तौर पर तीन छात्रों की मौत हो गयी और कई अन्य फँस गये, जिससे दिल्ली के ओल्ड राजिंदर नगर में यूपीएससी उम्मीदवारों के लिए एक कोचिंग संस्थान के बेसमेंट में बाढ़ आ गयी। चौंकाने वाली घटना पर प्रतिक्रिया करते हुए, छात्रों ने कोचिंग सेंटर के बाहर विरोध-प्रदर्शन और नारे लगाये और मौतों के लिए जवाबदेही की माँग की।

देश भर में कोचिंग सेंटर्स को विनियमित करने के प्रयास में शिक्षा मंत्रालय ने इस साल जनवरी में 16 वर्ष से कम उम्र के छात्रों के नामांकन पर रोक लगाने के लिए दिशा-निर्देश पेश किये थे। हालाँकि हमारी जाँच से पता चला है कि कैसे कोचिंग सेंटर इन दिशा-निर्देशों का खुलेआम उल्लंघन करते हैं, यहाँ तक कि राजधानी दिल्ली में भी। इससे 500 किलोमीटर से अधिक दूर स्थित कोटा जैसे शहरों की स्थिति के बारे में चिन्ता पैदा होती है। पुराने राजिंदर नगर में दु:खद मौतों और कोटा में आत्महत्या की चल रही ख़बरों ने राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित किया है।

सरकार द्वारा इन मुद्दों को संबोधित करने और कोचिंग सेंटर्स पर प्रतिबंध लगाने के उद्देश्य से नियम लागू करने के बावजूद कोचिंग सेंटर्स ने आँखें मूँद ली हैं। कई अधिकारी भी दिशा-निर्देशों को सख़्ती से लागू करने में अनिच्छुक दिखायी देते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इन कोचिंग सेंटर्स को छात्रों के जीवन को ख़तरे में डालने वाला ‘मृत्यु कक्ष’ बताया है। क्या ‘तहलका’ की जाँच सरकार को दिशा-निर्देशों का पालन न करने वाले इन सेंटर्स के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई करने के लिए प्रेरित करेगी?

सुरक्षित रेल यात्रा केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी

तमाम दावों के बावजूद भारत में क्यों नहीं थम रहा है ट्रेन दुर्घटनाओं का सिलसिला?

हाल ही में मानसून सत्र के दौरान रेल मंत्री पीयूष गोयल ने लगातार हो रहीं ट्रेन दुर्घटनाओं को छोटी-मोटी घटनाएँ बताया। 12 फरवरी, 2021 को भी उन्होंने कहा था कि लगभग 22 महीनों में ट्रेन दुर्घटनाओं के कारण भारत में एक भी यात्री की मौत नहीं हुई है। साल 2019 में भी उन्होंने कहा था कि भारतीय रेल यात्रा को पहले से ज़्यादा सुरक्षित किया गया है। साल 2018 में भी उन्होंने कहा था कि रेल यात्रा को पहले से ज़्यादा सुरक्षित बनाया जा रहा है। तत्कालीन रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव संसद में दिए गये बयान के मुताबिक, साल 2022 में रेलवे ने क़रीब 5,200 किलोमीटर लंबी नयी पटरियाँ बिछायीं। मंत्री ने कहा था कि मोदी सरकार में हर साल क़रीब 8,000 किलोमीटर ट्रैक को अपग्रेड किया जा रहा है। 100 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से चलने वाली ट्रेनों को समायोजित करने के लिए अधिकांश पटरियों को अपग्रेड किया जा रहा था। पटरियों के एक बड़े हिस्से को 130 किलोमीटर प्रति घंटा तक की गति के लिए बढ़ाया जा रहा था, और एक महत्त्वपूर्ण खंड को अपग्रेड किया जा रहा है। इन पटरियों को 160 किलोमीटर प्रति घंटा तक की हाई स्पीड के लिए तैयार किया जा रहा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पिछले पाँच-छ: वर्षों में तमाम ट्रेनों का, रेलवे स्टोशनों का उद्घाटन करने का रिकॉर्ड तोड़ा है। लेकिन रेलवे में सुधार के नाम पर वो नहीं हुआ, जिसकी उम्मीद थी। ट्रेन दुर्घटनाओं को लेकर उन्होंने भी आश्वासन दिया था। लेकिन किराया बढ़ गया, टिकट कैंसिलेशन चार्जेज भी ख़ूब बढ़ गये, लेकिन ट्रेन दुर्घटनाएँ नहीं रुकीं। वंदे भारत ट्रेन के पशुओं से टकराने पर डैमेज हो जाना और बारिश में इन ट्रेनों की छत का टपकना रेलवे के कामों की पोल खोलती है।

देश में लगातार ट्रेन दुर्घटनाएँ हो रही हैं। कुछ दिन पहले झारखण्ड के टाटानगर के पास चक्रधरपुर में दूसरी बार ट्रेन दुर्घटना हो गयी। इस दुर्घटना में हावड़ा से मुंबई जा रही हावड़ा-सीएसएमटी मेल के 18 डिब्बे पटरी से उतर गये है। इस हादसे में कम-से-कम दो यात्रियों की मौत हो गयी, जबकि 50 लोग घायल हो गये। इस दुर्घटना से दो दिन पहले ही इसी रूट पर एक मालगाड़ी पटरी से उतर गयी थी; लेकिन रेलवे ने इस दुर्घटना को नज़रअंदाज़ कर दिया और दो दिन बाद दूसरी दुर्घटना यात्री ट्रेन की हो गयी। 10 अगस्त के बाद दो ट्रेन दुर्घटनाएँ और हो गयीं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, पिछले 14 महीने में देश में चार बड़ी ट्रेन दुर्घटनाएँ हुईं, जिनमें 320 से ज़्यादा रेल यात्रियों की जान चली गयी, जबकि इससे ज़्यादा लोग घायल हुए।

बता दें कि भारतीय रेलवे का रूट क़रीब एक लाख किमी से ज़्यादा लंबा है, जिस पर दौड़ती यात्री ट्रेनों में हर रोज़ ढाई करोड़ से ज़्यादा यात्री सफ़र करते हैं। इस लंबे रूट पर बिछी पटरियों की हर दिन जाँच होनी चाहिए; लेकिन ऐसा नहीं होता। पटरियों का टूटना, ट्रैक ख़राब होना और उनमें लगी लोहे की कीलों की चोरी होना ट्रेन दुर्घटनाओं की सबसे बड़ी वजह है। साल 2019-20 की रेलवे सुरक्षा रिपोर्ट में सरकार ने माना है कि इस साल 70 फ़ीसदी ट्रेन दुर्घटनाएँ ट्रेनों के पटरी से उतरने से हुईं। इतनी ट्रेन दुर्घटनाएँ साल 2018-19 की दुर्घटनाओं से ज़्यादा थीं। 22 फ़ीसदी ट्रेन दुर्घटनाओं  ट्रेनों में 14 फ़ीसदी दुर्घटनाएँ आग लगने से और आठ फ़ीसदी दुर्घटनाएँ ट्रेनों में टक्कर होने से हुईं। बाक़ी आठ फ़ीसदी दुर्घटनाएँ दूसरी वजहों से हुईं। रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल कुल 33 यात्री ट्रेनें और 40 मालगाड़ियाँ पटरी से उतरीं। इनमें से 17 ट्रेनें ख़राब ट्रैक होने के चलते पटरी से उतरीं।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की साल 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2022 के मुक़ाबले साल 2021 में 38.2 फ़ीसदी ज़्यादा ट्रेन दुर्घटनाएँ हुईं। इस साल कुल 17,993 ट्रेन दुर्घटनाएँ हुईं, जिनमें से अकेले महाराष्ट्र में 19.4 फ़ीसदी ट्रेन दुर्घटनाएँ हुईं। पिछले दिनों की अगर बात करें, तो 14 जून को पश्चिम बंगाल के न्यू जलपाईगुड़ी में कंजनजंगा एक्सप्रेस टुर्घटनाग्रस्त हुई। इस दुर्घटना में कंचनजंगा एक्सप्रेस पटरी पर खड़ी थी और इसी ट्रेक पर एक मालगाड़ी आकर कंचनजंगा एक्सप्रेस के आखिरी तीन कोच बुरी तरह कुचलते हुए उस पर चढ़ गयी। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, इस दुर्घटना में 8 लोगों की मौत हुई और 40 से ज़्यादा लोग घायल हुए। हालाँकि स्थानीय लोगों के दावे कुछ और कह रहे थे। पिछले साल भी इस राज्य में एक भीषण ट्रेन दुर्घटना में दो ट्रेनों के टकराने 233 लोग मारे गये थे और कई घायल हो गये थे।

मोदी सरकार के पिछले 10 वर्षों में हुए बड़े ट्रेन हादसों की बात करें, तो केंद्र सरकार के रेल यात्रा को सुरक्षित बनाने की हकीकत समझ में आ जाएगी। 20 नवंबर 2016 को उत्तर प्रदेश के कानपुर में इंदौर-पटना एक्सप्रेस के पटरी से उतरने सें 150 लोगों की मौत हो गयी थी, जबकि सैकड़ों लोग इस दुर्घटना में घायल हुए। 21 जनवरी, 2017 को आंध्र प्रदेश के कुनेरू स्टेशन के नज़दीक जगदलपुर-भुवनेश्वर हीराखण्ड एक्सप्रेस केपटरी से उतरने पर 41 लोग मारे गये, जबकि इससे कहीं ज़्यादा घायल हुए। 19 अगस्त 2017 को उत्तर प्रदेश कें कथौली रेलवे स्टेशन के पास ट्रैक ख़राब होने के चलते कलिंगा-उत्कल एक्सप्रेस पटरी से उतर गयी थी। इस रेल दुर्घटना में 23 लोगों की मौत हो गयी थी और दज़र्नों लोग घायल हो गये थे। 16 अक्टूबर, 2020 को महाराष्ट्र के करमाड के पास हैदराबाद-मुंबई छत्रपति शिवाजी टर्मिनस एक्सप्रेस और हजूर साहिब नानदेड़-मुंबई छत्रपति शिवाजी टर्मिनस राजधानी स्पेशल के टकराने से हुई दुर्घटना में क़रीब 16 लोग मारे गये, जबकि दज़र्नों घायल हुए। 13 जनवरी, 2022 को पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार में बिकानेर-गुवाहाटी एक्सप्रेस के 12 डिब्बे पटरी से उतरने सें नौ लोग मर गये थे और 36 घायल हुए थे। 02 जून, 2023 को ओडिशा के बालासोर में तीन ट्रेनें एक साथ टकराई थीं, जिससे 296 लोगों की मौत हो गयी थी और 1,200 से ज़्यादा घायल हुए थे। इस ट्रेन दुर्घटना में स्टाफ की ग़लती थी। क्योंकि इस ट्रेक पर पहले से ही एक मालगाड़ी खड़ी थी। कोरोमंडल एक्सप्रेस को पहले अप मेन लाइन पर जाना था, लेकिन ग़लती से इसे बगल की अप लूप लाइन पर ट्रेक दिखाकर भेज दिया। इससे यह यात्री ट्रेन वह पहले से वहां खड़ी मालगाड़ी से टकरा गयी और इसके 21 डिब्बे पटरी से उतर गये, जिसमें से तीन डिब्बे बग़ल की पटरी पर चल रही एक और ट्रेन एसएमवीटी बेंगलूरु-हावड़ा एक्सप्रेस के पिछले हिस्से से टकरा गये।

इसके अलावा 26 अगस्त, 2023 को तमिलनाडु के मदुरै रेलवे स्टेशन के पास लखनऊ से रामेश्वरम् जा रही ट्रेन में आग लगने से 10 लोगों की जलकर मौत हो गयी, जबकि दज़र्नों लोग झुलस गये। रेलवे रिपोर्ट के मुताबिक, आग निजी डिब्बे में गैस सिलेंडर होने के चलते लगी थी, जिसने बाद में कई डिब्बों को चपेट में ले लिय़ा था। 11 अक्टूबर, 2023 को बिहार के बक्सर में रघुनाथपुर स्टेशन के पास दिल्ली से कामाख्या जा रही नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस के डिब्बे पटरी से उतर गये, जिससे 4 लोग मर गये और 100 से ज़्यादा घायल हो गये। कुछ ही दिन बाद 29 अक्टूबर, 2023 को कोथावलसा मंडल के अलमंदा-कंटाकापल्ली में विशाखा से पलासा जा रही एक विशेष यात्री ट्रेन सिग्नल न मिल पाने से पटरी पर रुक गयी कुछ ही देर में पीछे आ रही एक पैसेंजर ट्रेन ने इसे पीछे से टक्कर मार दी, जिससे आठ लोगों की मौत हो गयी और दज़र्नों घायल हो गये।

भारत में यह पहली बार नहीं है, जब ट्रेन दुर्घटनाएँ हुई हों, इससे पहले भी कई भीषण ट्रेन दुर्घटनाएँ हुई हैं; लेकिन हर साल दज़र्नों ट्रेन दुर्घटनाएँ होने के बावजूद केंद्र सरकार और रेल मंत्रालय दुर्घटनाओं को रोकने में नाकाम हैं। भारत में पिछले 42 वर्षों में 31 से ज़्यादा ट्रेन दुर्घटनाएँ हुई हैं। वहीं चीन, जापान और दूसरे कई देशों में ट्रेनों की स्पीड 150 किलोमीटर प्रति घंटे से 350 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार होने के बावजूद ट्रेन दुर्घटनाएँ नहीं होती हैं। जापान की बुलेट ट्रेन से प्रभावित होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ साल पहले भारत में बुलेट ट्रेन लाने का ऐलान किया था; लेकिन अभी तक बुलेट ट्रेन का कुछ अता-पता नहीं है।

साल 2016 में भारत के पूर्वोत्तर राज्य में आधी रात को 14 ट्रेन के डिब्बे पटरी से उतर गये। इस हादसे में 140 से ज़्यादा यात्री मारे गये, जबकि 200 यात्री घायल हो गये। उस समय के ज़िम्मेदार अधिकारियों ने कहा था कि पटरियों में फ्रेक्चर की वजह से हादसा हुआ। साल 2017 में दक्षिण भारत में देर रात ट्रेन के पटरी से उतरने से कम-से-कम 36 यात्रियों की मौत हो गयी थी और 40 अन्य घायल हो गये थे। पुरानी ट्रेन दुर्घटनाओं की बात करें, तो भारतीय रेल के इतिहास में सबसे ख़तरनाक दुर्घटना 1981 में हुई थी, जिसमें बिहार के पुल से गुज़रते हुए एक यात्री ट्रेन पटरी से उतरकर बागमती नदी में डूब गयीं। हादसे में 800 यात्री मर गये थे। कई लोगों की तो लाशें तक नहीं मिली थीं।

पिछले दिनों रेलवे बोर्ड के एक पूर्व अधिकारी ने ट्रेनों के पटरी से उतरने को रेलवे की सबसे बड़ी परेशानी माना था। उन्होंने कहा था कि पटरी से ट्रेन उतरने की कई वजह हैं। सबसे बड़ी वजह रेलवे ट्रैक पर मैकेनिकल फॉल्ट यानी रेलवे ट्रैक पर लगने वाले उपकरण का ख़राब हो जाना है। इसके अलावा ट्रैक का रखरखाव न होने, कोच ख़राब होने, और गाड़ी चलाने में ग़लती करने से भी ट्रेन दुर्घटनाएँ होती हैं। उन्होंने कहा कि ट्रेन दुर्घटनाएँ रोकने के लिए पटरियों की नियमित मरम्मत होती रहनी चाहिए। क्योंकि लोहे से बनी ट्रेन की पटरियाँ गर्मियों में फैलती हैं और सर्दियों में सिकुड़ती जाती हैं। इसलिए पटरियों का रखरखाव नियमित होना चाहिए। ढीले ट्रैक को कसा जाना चाहिए। स्लीपर बदलना चाहिए। ट्रैक का नियमित निरीक्षण पैदल चलकर या ट्रॉली और लोकोमोटिव से या ख़ाली इंजन से किया जाता रहना चाहिए, क्योंकि ज़रा-सी लापरवाही किसी बड़े हादसे की वजह बन सकती है। इसके अलावा पटरियों पर दरार पड़ने, ट्रेन के डिब्बों को जोड़ने वाले उपकरण के ढीला होने, ट्रेन की बोगी रखने वाले एक्सेल के टूटने से भी ट्रेन दुर्घटनाएँ होती हैं। सभी तरह की कमियाँ दूर करने का एक ही तरीक़ा है कि रेलवे लाइन पर मरम्मत काम हर दिन चलता रहे और थोड़ी भी गड़बड़ी नज़र आते ही उसे तुरंत ठीक किया जाए।

रेलवे के मुताबिक, भारत में हर दिन 12 करोड़ से ज़्यादा लोग 14,000 ट्रेनों से सफ़र करते हैं। रेल सुरक्षा में सुधार के दावों और कई प्रयासों के बावजूद हर साल दज़र्नों दुर्घटनाएँ होती हैं, जिनमें ज़्यादातर दुर्घटनाओं के बाद फिर से ग़लतियाँ दोहराने की बात सामने आती है। रेलवे स्टाफ की ग़लतियों और पुराने सिग्नलिंग उपकरणों के इस्तेमाल से दुर्घटनाओं का सिलसिला नहीं रुक पाता है। भारत में ट्रेन दुर्घटनाओं की वजह से नेहरू सरकार के दौरान रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने दुर्घटना को अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी निभाने में कमी बताते हुए इस्तीफ़ा दे दिया था। इसके बाद अटल बिहारी की सरकार में रेल मंत्री रहे नीतीश कुमार ने भी एक ट्रेन दुर्घटना के बाद इस्तीफ़ा दे दिया था। लेकिन अब तो न रेल मंत्री इस्तीफ़ा देते हैं और न ही किसी ट्रेन दुर्घटना की ज़िम्मेदारी अपने सिर पर लेते हैं। पिछले नौ साल में मोदी सरकार ने चार रेल मंत्री बदले; लेकिन ट्रेन दुर्घटनाएँ नहीं रुकीं। साल 1947 में स्वतंत्रता के बाद बँटवारे में क़रीब 40 प्रतिशत रेलवे ट्रैक पाकिस्तान के हिस्से में चले जाने से भारत सरकार ने रेलवे लाइन बिछाने से लेकर ट्रेनों की संख्या बढ़ाने पर अरबों रुपये ख़र्च किये; लेकिन सुरक्षा के लिहाज़ से भारतीय रेलवे आज भी सवालों के घेरे में ही है।

नियमों को ताक पर रखकर चल रहे कोचिंग सेंटर

सिर्फ़ छ: महीने पहले केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय देश भर में कोचिंग सेंटर्स को विनियमित करने के लिए बुनियादी ढाँचे की आवश्यकताओं, अग्नि शमन, भवन सुरक्षा कोड और अन्य मानकों पर दिशा-निर्देश लेकर आया था। हालाँकि ‘तहलका’ की जाँच से पता चला है कि कोई भी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश इन मानदंडों को गंभीरता से नहीं ले रहा है। ‘तहलका’ के विशेष जाँच दल के लिए विचार करने के लिए यह पर्याप्त है कि कैसे कोचिंग सेंटर नियमों का घोर उल्लंघन करते हुए चल रहे हैं। कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने समान रूप से केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार को समन जारी करते समय यह टिप्पणी थी कि कोचिंग सेंटर ‘मृत्यु कक्ष’ बन गये हैं। बीते दिनों राज्यसभा में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी ज़ोर देकर कहा था कि ये केंद्र (कोचिंग सेंटर) गैस चैंबर से कम नहीं हैं।

हाल ही में दिल्ली के एक कोचिंग सेंटर में आईएएस की तैयारी कर रहे तीन अभ्यर्थियों की डूबने से हुई दर्दनाक मौत और छात्र आत्महत्याओं के बढ़ते मामलों के मद्देनज़र इस अंक की ‘तहलका’ की आवरण कथा ‘असुरक्षित कोचिंग सेंटर’ यह उजागर करती है कि कैसे ये कोचिंग सेंटर छात्र-छात्राओं की सुरक्षा और कल्याण को सुनिश्चित न करते हुए सरकारी दिशा-निर्देशों का मज़ाक़ उड़ा रहे हैं। शिक्षा राज्य मंत्री डॉ. सुकांत मजूमदार द्वारा संसद में दी गयी जानकारी से कोचिंग सेंटर्स के कारोबार में भारी वृद्धि का पता चला कि 2023-24 में कोचिंग व्यवसाय इससे पिछले वर्ष 2022-23 की तुलना में 149 गुना बढ़ गया था। नयी शिक्षा नीति में कोचिंग सेंटर्स पर निर्भरता कम करने वाली प्रणालियाँ पेश करने का दावा किया गया था; लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत।

‘तहलका’ के अंडरकवर रिपोर्टर को कई कोचिंग सेंटर्स के एक मालिक ने बताया कि कैसे सरकारी अधिकारी एक विशेष समय पर औचक निरीक्षण के लिए आते हैं और उसके बाद कोई चेकिंग नहीं होती। अगर कोई निरीक्षण होता भी है, तो कोचिंग मालिक किसी भी कार्रवाई से पहले ही बच निकलने में कामयाब हो जाते हैं। किसी भी कोचिंग सेंटर में 16 वर्ष से कम उम्र के छात्रों के प्रवेश पर रोक लगाने वाले दिशा-निर्देशों का पूर्ण उल्लंघन करने वाले इन कोचिंग सेंटर्स में इस आयु वर्ग के छात्रों की एक बड़ी संख्या देखी जा सकती है। छात्रों की आत्महत्या के बढ़ते मामलों, आग की घटनाओं, कोचिंग सेंटर्स में सुविधाओं की कमी और उनके द्वारा अपनायी जाने वाली शिक्षण पद्धतियों की शिकायतों के बाद इस साल जनवरी में दिशा-निर्देश जारी किये गये थे। आरोप है कि गुरुग्राम में 300 से ज़्यादा कोचिंग सेंटर अग्निशमन विभाग की एनओसी के बिना चल रहे हैं।

जब हमारी टीम आवरण कथा पर काम कर रही थी, कोलकाता में एक सरकारी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में स्नातकोत्तर प्रशिक्षु डॉक्टर की बलात्कार के बाद की गयी हत्या ने देश को झकझोरकर रख दिया। इस घटना से आक्रोशित डॉक्टर्स और मेडिकल छात्रों ने देशव्यापी विरोध-प्रदर्शन शुरू कर दिया। चौंकाने वाली बात यह है कि अनगिनत डॉक्टर्स मरीज़ों को बचाने के लिए अपनी जान की बाज़ी लगाते हैं; फिर भी चिकित्सा समुदाय असुरक्षित है। इसी दौरान एक और ख़बर सामने आयी कि हिंडनबर्ग रिसर्च ने सेबी की चेयरपर्सन माधबी बुच और उनके पति पर निशाना साधा है। हिंडनबर्ग एक अमेरिकी निवेश अनुसंधान फर्म है, जिसका फोकस शॉर्ट-सेलिंग पर है। हो सकता है कि वह पूरी तरह से बोर्ड से ऊपर न हो; लेकिन कोई भी आरोपों से आँखें नहीं मूँद सकता।

आइए, इंतज़ार करें और देखें कि ‘तहलका’ की पड़ताल और आसपास के अन्य घटनाक्रमों के बाद सरकार क्या प्रतिक्रिया देती है? आख़िरकार सीज़र की पत्नी संदेह से ऊपर होनी चाहिए। क्या बहुत ज़रूरी सुधार होंगे?