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जूनागढ़ पर पाकिस्तान का दावा

भारत के हालिया इतिहास की दो दिलचस्प घटनाएँ हैं। जम्मू और कश्मीर की रियासत का विलय और जूनागढ़ को सौराष्ट्र में मिलाना, जो अब गुजरात का हिस्सा है। जम्मू-कश्मीर के मामले में पाकिस्तान ने दावा किया कि चूँकि यह मुस्लिम बहुल क्षेत्र था, इसलिए इसका नये बने मुस्लिम होमलैंड में विलय करना चाहिए। हालाँकि जूनागढ़, जो कि हिन्दू बहुल क्षेत्र है; के मामले में उसका कहना है कि यह इसलिए पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए; क्योंकि इसके शासक ने पाकिस्तान के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं। जम्मू-कश्मीर की रियासत के हिन्दू शासक, महाराजा हरि सिंह, नये बने इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान के शासक मुहम्मद अली जिन्ना के साथ स्थायी समझौते पर हस्ताक्षर करते हैं, और राज्य के भविष्य के बारे में अंतिम निर्णय लेने से पहले अपने विषयों के लिए कुछ समय देने का अनुरोध करते हैं। इस प्रकार अगर जूनागढ़ के परिग्रहण को स्वीकार कर लिया जाता है, तो महाराजा के निर्णय को भी चुनौती नहीं दी जा सकती।

महाराजा के साथ समझौते की स्याही सूखने से पहले ही इसे डस्टबिन में फेंक दिया गया था। जिन्ना ने राज्य को बल से साथ मिलाने का फैसला किया। पाकिस्तानी सेना, तब भारत के अन्तिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन के पसन्दीदा ब्रिटिश जनरल सर फ्रैंक मेसर्वी के तहत थी और उन्हें यह कार्य सौंपा गया था। इसे मेसर्वी के लिए एक आसान कार्रवाई माना गया था; क्योंकि राज्य की सडक़ और रेल सम्पर्क पंजाब क्षेत्र के माध्यम से था, जो अब पाकिस्तान के अधीन है। मुस्लिम सैनिकों की एक छोटी-सी टुकड़ी, जिन पर महाराजा का भरोसा था, हमलावर सेना में शामिल हो गये। पाकिस्तानी का नियंत्रण लगभग हो चुका था, जब भारतीय सेना श्रीनगर में प्रवेश कर गयी।

पाकिस्तानी-ब्रिटिश षड्यंत्र को अंतत: भारतीय सेना और कश्मीरी नेता, शेख अब्दुल्ला और उनकी पार्टी, नेशनल कॉन्फ्रेंस ने नाकाम कर दिया था। अब्दुल्ला की पार्टी ने जिन्ना के दो-राष्ट्र सिद्धांत की सदस्यता नहीं ली। उन्होंने मुस्लिम सामंती और भू-स्वामियों वाले पाकिस्तान की भूमि की तुलना में लोकतांत्रिक भारत को प्राथमिकता दी।

ऐसा प्रतीत होता है कि सौभाग्य से जनरल मेसर्वी को फज़ीहत से बचाने के लिए माउंटबेटन ने भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को जोड़-तोड़ करके संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में संघर्ष विराम के लिए मना लिया। इसके बाद मेसर्वी ने फरवरी, 1948 में चुपचाप पाकिस्तान छोड़ दिया और एक और ब्रिटिश सर डगलस ग्रेसी को उनकी जगह नियुक्त किया गया, जो अगले तीन साल तक पद पर रहे; जब तक कि अंग्रेजों को मूल मुस्लिमों में से एक उपयुक्त सेना प्रमुख नहीं मिल गया। ग्रेसी के कार्यकाल में ही पाकिस्तानी सेना की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) बनायी गयी, जो आज जम्मू-कश्मीर में हो रही हिंसा के पीछे है।

जूनागढ़ के मामले में निवर्तमान औपनिवेशिक ताकत और सिन्ध के भू-स्वामियों के पसन्दीदा शाह नवाज़ भुट्टो को नवाब मुहम्मद महाबत खान-तृतीय के दरबार में अपने दीवान या प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त किया गया था। ब्रिटिश रक्षक होने के कारण जूनागढ़ के शासक को उच्च नियुक्तियों के लिए ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति लेनी पड़ती थी। भुट्टो की नियुक्ति से पहले नवाब के संवैधानिक सलाहकार नबी बख्श ने माउंटबेटन से कहा था कि उनका सुझाव था कि जूनागढ़ भारत में शामिल हो। हालाँकि भुट्टो ने इस कोशिश को नाकाम कर दिया।

हालाँकि 15 अगस्त, 1947 को दीवान भुट्टो की सलाह पर नवाब ने पाकिस्तान में विलय का फैसला किया। 13 सितंबर, 1947 को पाकिस्तान ने यह भी अधिसूचित किया कि यह विलय स्वीकार किया जाता है। जूनागढ़ के अधिकांश लोगों ने विद्रोह कर दिया, जिससे राज्य सरकार का पतन होते-होते बचा और भारत को अपनी सेना को जूनागढ़ भेजना पड़ा। दिसंबर, 1947 में एक जनमत संग्रह आयोजित किया गया, जिसमें 91 फीसदी आबादी ने भारत में शामिल होने का समर्थन किया। पाकिस्तान के हक में इस बाद के जनमत संग्रह में केवल 91 मत थे।

इन दोनों घटनाओं के अलग-अलग सन्दर्भ हैं। यदि तत्कालीन शासक का हस्ताक्षरित विलय स्वीकार किया जाता है, तो पाकिस्तान को यह स्वीकार करना होगा कि उसका जम्मू-कश्मीर पर कोई दावा नहीं है। भले यह तर्क स्वीकार कर लिया जाए कि कश्मीरियों ने बहुमत के साथ भारत के साथ जम्मू-कश्मीर के विलय के समर्थन में राज्य विधानसभा में प्रस्ताव पारित किया है। जनमत संग्रह के मुद्दे पर इसने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के बावजूद कब्ज़े वाले कश्मीर के विभिन्न क्षेत्रों से सैनिकों को वापस नहीं किया।

यह व्यापक रूप से माना जाता है कि चीन और नेपाल से प्रेरित पाकिस्तान नयी आक्रामक मुद्राएँअपना रहा है। क्रिकेटर से राजनेता बने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने पाकिस्तान का एक नया नक्शा ही बना डाला है, जिसमें जम्मू-कश्मीर और लद्दाख, सर क्रीक और जूनागढ़ सभी उसके हिस्से में शामिल दिखाये गये हैं। इस बीच एक अल्पकालिक ऋण के रूप में पाकिस्तान को दिये गये एक बिलियन अमेरिकी डॉलर (100 करोड़ अमेरिकी डॉलर) की वापसी की माँग के साथ पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच सम्बन्ध निम्न स्तर पर पहुँच गये हैं। अरब सहयोगी के साथ बकाया निपटाने के लिए पाकिस्तान ने चीन से उच्च ब्याज दरों पर ऋण लिया। उसने इस क्षेत्र को और अधिक चीनी नीतियों के अधीन कर दिया है।

जम्मू-कश्मीर में पाक्सितान के लम्बे समय तक आतंकवादी अभियानों के बावजूद कश्मीर में कोई भी पाकिस्तान में शामिल होने के लिए तैयार नहीं है। एक वर्ग स्वतंत्र कश्मीर के हक में ज़रूर हो सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह नया मानचित्र इमरान खान की सरकार की गिरती साख को बचाने की एक कोशिश हो सकती है।

भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि मानचित्र उसकी एक बेतुकी कसरत के अलावा कुछ नहीं, जो भारत के क्षेत्रों के बिना सिर-पैर के दावे करता रहता है। उन्होंने कहा कि इन हास्यास्पद दावों की न तो कानूनी वैधता है और न ही अंतर्राष्ट्रीय विश्वसनीयता। बयान में कहा गया है कि नये नक्शे के जारी होने से सीमा पार से पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद के इरादों की पुष्टि होती है। इस बीच सेना प्रमुख का समर्थक माने जाने वाले पाकिस्तानी मीडिया ने खान और उनके विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी की चीन से नये ऋण को लेने के मामले में देश को अँधेरे में रखने का आरोप लगातार उनकी आलोचना शुरू कर दी है।

यह अब दुनिया भर को पता चल गया है कि चीन भारत को अपने पड़ोसियों के साथ यथासम्भव विवाद में उलझाये रखने की कोशिश में है। यदि नेपाल में चीनी राजदूत नेपाली सरकार को भारतीय क्षेत्रों पर दावा करने के लिए उकसा सकता है, तो पाकिस्तान का नया दावा भी इस क्षेत्र में चीन की शरारत का हिस्सा हो सकता है।

सन् 2019 में अपनी भारत यात्रा के दौरान चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने माँग की थी कि भारत को जम्मू-कश्मीर को संवैधानिक दर्जा बहाल करना चाहिए। भारत इससे चौंका ज़रूर था। इसके बाद तिब्बत और भारत के बीच लम्बी हिमालयी सीमाओं के साथ चीनी सैन्य गतिविधियाँ शुरू हुईं, जिसके कारण जून 2020 में गलवान की झड़पें हुईं। क्षेत्र में चीन ने ईरान को भारी धनराशि का वादा किया है; लेकिन पश्चिम में निर्यात में गिरावट के कारण ईरान को भारी वित्तीय सहायता की भविष्यवाणी करना मुश्किल है।

पाकिस्तान के भीतर भी इमरान सरकार के तथाकथित साहसिक दावों के कुछ गिने-चुने ही समर्थक हैं। दो प्रमुख राजनीतिक दलों- पाकिस्तान मुस्लिम लीग-एन  (पीएमएल-एन) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) ने अब तक नये नक्शे का समर्थन नहीं किया है। इस बीच पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री शाहिद खाकान अब्बासी की भ्रष्टाचार के मामले में फिर से गिरफ्तारी ने खान सरकार को और कमज़ोर कर दिया है, जो केवल सेना मुख्यालय की मदद से चल रही है। पीएमएल-एन के प्रमुख नेताओं में से एक अब्बासी को लाहौर में उनके वाहन को रोकने के बाद पुलिस हिरासत में ले लिया गया था। गिरफ्तारी वारंट पर राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो (एनएबी) के अध्यक्ष ने हस्ताक्षर किये थे।

एनएबी भ्रष्टट्राचार विरोधी निगरानी तंत्र है, जो केवल राजनेताओं के खिलाफ कार्रवाई करती है; लेकिन भ्रष्ट सैन्य अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती है, जिन्होंने जनता के कल्याण के लिए आवंटित पैसे को हड़पकर भारी धन अर्जित किया है।

अब्बासी 2017 और 2018 के बीच प्रधानमंत्री के रूप में अपने वर्ष के दौरान लिक्विफाइड नेचुरल गैस (एलएनजी) अनुबन्धों पर हस्ताक्षर करने में भ्रष्टाचार के आरोपी हैं। अब्बासी ने भविष्यवाणी की है कि अगर विरोधियों को मामलों में फँसाने ने की ये नीतियाँ जारी रहती हैं, तो पाकिस्तान नहीं बचेगा।

इससे पहले एनएबी ने पूर्व पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को गिरफ्तार किया था; जो पीपीपी के प्रमुख हैं। पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की बेटी मरियम नवाज़ ने भी पहले एक वीडियो जारी किया था, जिसमें भ्रष्टाचार विरोधी न्यायाधीश, जिसने उनके पिता को दोषी ठहराया था; को यह स्वीकार करते हुए दिखाया गया है कि ये फैसले देने के लिए उन्हें ब्लैकमेल किया गया था। हालाँकि न्यायाधीश ने वीडियो की प्रामाणिकता से इन्कार किया था; लेकिन उन्हें उनके पद से निलंबित कर दिया गया था।

विपक्षी नेताओं के खिलाफ इन कार्रवाइयों के बीच देश के भीतर पाकिस्तान के नये नक्शे के गिने-चुने ही समर्थक हैं। यह 4 जुलाई को जारी किया गया था, जो भारत सरकार के संविधान के अनुच्छेद-370 के तहत जम्मू और कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने का एक साल होने के एक दिन पहले जारी किया गया था।

(गोपाल मिश्रा नई दिल्ली स्थित स्वतंत्र स्तंभकार हैं। उपरोक्त उनके निजी विचार हैं।)

ज़हरीली शराब की त्रासदी

पंजाब में ज़हरीली शराब से 121 लोगों की मौत के लिए मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते; क्योंकि यह उनकी सीधी ज़िम्मेदारी बनती है। न ही वह इस संगीन मामले को राजनीतिक दलों के इसे राजनीतिक मुद्दा बनाने का बहाना बनाकर अपना पल्ला झाड़ सकते हैं। बता दें तरनतारन में ज़हरीली शराब के सेवन से सबसे ज़्यादा लोगों की मौत हुई है। उसके बाद अमृतसर और बटाला के लोग ज़्यादा मरे हैं। घटना में मृतकों की संख्या और बढ़ सकती है; क्योंकि अस्पतालों में कई लोग गम्भीर हैं। इस ज़हरीली शराब के चलते बहुत-से लोग आँखों की रोशनी खो चुके हैं, तो कुछ सदमे जैसी हालत में हैं। प्रभावितों में ज़्यादातर गरीब या मध्य वर्ग के हैं। कई परिवारों में तो मुखिया या ज़िम्मेदार व्यक्ति की ही मौत हो गयी, जिससे परिवार के भरण-पोषण का संकट खड़ा हो गया है, क्योंकि घर में और कोई कमाने वाला नहीं है।

समस्या यह है कि बहुत बड़ी संख्या में निम्न और मध्यम वर्गीय लोग नशे के आदी तो हैं, मगर महँगी शराब पी नहीं सकते। इसलिए सस्ती शराब से नशा करते हैं और इसी लालच में बड़ी आसानी से माफिया के चंगुल में फँस जाते हैं। सरकारी ठेके से जितनी शराब उन्हें 50 से 60 रुपये में मिलती है, उतनी शराब तस्करों से उन्हें 20 से 30 रुपये में बड़ी ही आसानी से मुहैया हो जाती थी। हैरत की बात यह है कि राज्य के दूरदराज़ इलाकों से यह अवैध शराब बड़ी आसानी से गाँवों तक बिना किसी रोक-टोक और दिक्कत के पहुँच जाया करती थी। दरअसल शराब माफिया का नेटवर्क इतना बड़ा है कि छोटे से गाँवों में भी इनके कारिंदे आसानी से धन्धा कर रहे हैं। प्रदेश में नकली शराब के लिए कच्चे माल की कोई कमी नहीं है, इसलिए दिन दुनी रात चौगुनी के हिसाब से काम चलता रहा है। सरकारी ठेकों के समान्तर चलने वाली यह अवैध व्यवस्था राज्य में काफी समय से चल रही थी। लेकिन सरकार जान-बूझकर इससे अनजान बनी रही; नतीजा सैकड़ों लोगों को बेवजह मौत का शिकार होना पड़ा।

देश में सबसे ज़्यादा अन्न उत्पादक पंजाब के दामन पर करीब दो दशक से नशे का दाग लगा हुआ है। नतीजतन युवाओं का एक बड़ा वर्ग हेरोईन, ब्राउन शुगर, अफीम, पोस्त, नशीले कैप्सूल, टेबलेट्स और इंजेक्शन का आदी हो चुका है। नशे से राज्य की छवि भी धूमिल हुई है। चुनाव में नशा एक मुद्दे के तौर पर उभरता रहा है। दुर्भाग्य की बात यह कि कोई भी सरकार इस पर नियंत्रण नहीं पा सकी है।

कांग्रेस सरकार ने अपने एजेंडे में इसे वरीयता दी, और नशा तस्करी पर लगाम कसने की कोशिश में कुछ हद तक काबू पाने की मंशा दिखायी; लेकिन इसे खत्म नहीं किया जा सका। राज्य में ड्रग्स माफिया की तरह शराब माफिया भी सक्रिय हैं। इसी के चलते माझा इलाके में बड़ी त्रासदी हो गयी, जिसे समय रहते टाला जा सकता था; अगर सरकार इसे पहले ही गम्भीरता से लेती। जो पुलिस अब गाँव-गाँव जाकर दबिश देकर अवैध शराब बरामद कर रही है। फैक्ट्रियों का पता लगा रही है। धन्धा करने वाले लोगों को पकड़ रही है। क्या पुलिस यह सब पहले नहीं कर सकती थी?

इससे पहले कई थानों में अवैध शराब बिक्री की शिकायतें दर्ज हुईं; लेकिन किसी मामले में कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। यह सब मिलीभगत से चल रहा था। शराब माफिया पुलिस और आबकारी विभाग के संरक्षण में बे-खटके काम कर रहे थे। त्रासदी में अपने बेटे को खो चुकी एक महिला कहती है कि कितनी बार पुलिस को बताया कि गाँव में अवैध रूप से शराब बिक रही है। पुलिस को लोगों (शराब माफिया) के नाम भी बताये; लेकिन पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। अगर की होती, तो उसका बेटा बे-मौत नहीं मरता। वह नशा करता था; लेकिन यह क्या पता था कि कभी वह शराब की जगह ज़हर ही पी लेगा और अपने साथ-साथ पूरे परिवार को भी बर्बाद कर देगा। वह कहती है कि शराब बेचने वाले कहते हैं कि हमारा कुछ नहीं बिगड़ सकता; क्योंकि हमारी पहुँच ऊपर तक है। उनके पास हर माह पैसा पहुँचता है। ऐसे में कोई क्या कर सकता है? सरकार के मुखिया होने के अलावा कैप्टन अमरिंदर सिंह पुलिस और आबकारी मंत्रालय भी सँभालते हैं। दोनों विभागों के कई अधिकारियों की भूमिका संदिग्ध है। इसी के चलते करीब एक दर्जन आबकारी और पुलिस विभाग के लोगों को निलंबित किया जा चुका है। इनमें आबकारी विभाग के दो प्रथम श्रेणी अधिकारी, दो डीएसपी, चार एसएचओ प्रमुख तौर है। इनके अधिकार क्षेत्र में त्रासदी हुई लिहाज़ा प्रथम दृष्टया ड्यूटी में कोताही के आरोप में कार्रवाई की गयी है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुनील जाखड़ का कहना है कि अधिकारियों का निलंबन या बर्खास्ती ही काफी नहीं है, बल्कि इनके खिलाफ ऐसी कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए; जिससे अन्य अधिकारियों को भी सबक मिल सके।

दोनों विभागों के कुछ अधिकारियों के संरक्षण में अवैध शराब का धन्धा खूब पनप रहा था। करोड़ों रुपये के इस धन्धे में कई सफेदपोश लोग भी हैंै। सरकार किसी भी दल की हो, मालिक बदल जाते हैं। पर धन्धा बदस्तूर चलता रहता है। अगर हादसा न होता, तो यह गोरखधन्धा पहले की तरह ही जारी रहता। विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस का प्रमुख मुद्दा राज्य में ड्रग्स को खत्म करने का रहा; क्योंकि अकाली-भाजपा सरकार में कुछ नेताओं पर करोड़ों के ड्रग्स धन्धे में अपरोक्ष हिस्सेदारी के आरोप लगते रहे हैं। राज्य से नशे का अवैध धन्धा खत्म करने और रसूखवाले नेताओं को बेनकाब करके उन्हें जेल में डालने का कांग्रेस का यह वादा काफी असरदार रहा।

कांग्रेस नेता अमरिंदर सिंह जनसभाओं में कहा करते थे, यह उनका अन्तिम चुनाव है। उन्हें एक बार और मुख्यमंत्री बनाओ, फिर देखो क्या होता है; सरकार बनते ही चार सप्ताह के अन्दर पंजाब को नशामुक्त राज्य बना दूँगा। कांग्रेस जीती और सरकार बने तीन साल हो गये कैप्टन अपना वादा पूरा नहीं कर सके। लोग उसे राजनीतिक वादा कहकर मखौल उड़ाने लगे हैं। अकाली, भाजपा और आम आदमी पार्टी के नेता कैप्टन को कमज़ोर प्रशासक के तौर पर आँकते हैं, जबकि उनकी छवि कठोर प्रशासक के तौर पर है। जानकारों की राय में घटना के बाद अमरिंदर सख्त हो जाते हैं; उससे पहले वे नरम ही दिखते हैं। शराब त्रासदी के बाद उन्होंने जिस तरह से कड़ी कार्रवाई की है। वह मिसाल के तौर पर है; लेकिन क्या उन्हें या उनकी सरकार को पूरे राज्य में अवैध शराब के नेटवर्क के बारे में कुछ भी पता नहीं था?

अमरिंदर का गृह ज़िला पटियाला भी अवैध शराब का केंद्र बना हुआ रहा। ज़िले के राजपुरा और घन्नौर में अवैध शराब की फैक्टरियाँ पकड़ी गयी जहाँ से बड़ी मात्रा में शराब राज्य के विभिन्न हिस्सों में सप्लाई होती रही। यह संसदीय क्षेत्र उनकी पत्नी परणीत कौर का भी है। सांसद और मुख्यमंत्री जब एक ही परिवार से हों, हलके में शराब माफिया बड़े स्तर पर सक्रिय हों; तो इसे क्या कहेंगे? घोर लापरवाही और सरकार की नाकामी से ज़्यादा क्या कह सकते हैं?

वैसे सरकार बड़े स्तर पर राज्य स्तरीय कार्रवाई कर रही है। मुख्यमंत्री घटना में सीधी संलिप्तता वालों पर हत्या की धारा-302 लगाने का आदेश दे चुके हैं। वह इसे जान-बूझकर हत्या की घटना ही करार दे रहे हैं। एक हज़ार से ज़्यादा लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी है और अभियान जारी है। राज्य के सीमांत ज़िलों अमृतसर, तरनतारन, गुरदासपुर और पठानकोट में सरकार के समांतर अवैध शराब का धन्धा बरसों पुराना है।

ज़हरीली शराब से सामूहिक मौतों की घटनाएँ देश के किसी-न-किसी हिस्से में होती रहती हैं। अवैज्ञानिक तरीके से केमिकल युक्त शराब बनाने का काम बहुत खतरनाक है। मेथेनॉल, इथेनॉल, स्प्रिट या मेथे-अल्कोहल की मात्रा ज़्यादा हो जाए, तो बनने वाली शराब जानलेवा साबित हो सकती है। तरनतारन, गुरदासपुर और अमृतसर के ग्रामीण इलाकों में यही तो हुआ। शराब पीने के कुछ घंटों में ही ज़हर ने असर दिखाना शुरू किया और सेवन करने वालों में एक के बाद कई लोग मौत की नींद सो गये। ज़्यादा पीने वाले नहीं बच सके, जबकि पीने वाले अस्पतालों में इलाज के बाद ठीक हो गये। कुछ की मौत अस्पताल में भी हुई।

अमृतसर के मुच्छल गाँव में कई लोग ज़हरीली शराब से मरे हैं। ग्रामीण कहते हैं कि ज़हर पीने के बाद बचना मुश्किल ही होता है। लोग घरों तक नहीं पहुँच सके, रास्ते में ही बेहोश होकर गिर पड़े। ऐसा मंजर पहले कभी नहीं देखा, अस्पताल पहुँचाने का मौका भी नहीं मिला। जाँच में फँस जाने के डर से बहुत से परिजनों ने पुलिस-प्रशासन को बताए बिना अंतिम संस्कार कर दिये।

गाँव में कई लोग अवैध शराब का धन्धा बरसों से कर रहे हैं, कई बार उनकी शिकायतें की गयी। पुलिस ने छापे मारे, लेकिन कोई बरामदगी नहीं हुई; तो मामले रफा-दफा होते रहे। पूर्व सरपंच सुखराज सिंह कहते हैं कि देसी तरीके से गुड़ आदि से चोरी-छिपे बनने वाली शराब के बारे में तो लोग जानते हैं; लेकिन केमिकल से बनने वाली विधि के बारे में कोई नहीं जानता। गाँव के हरजीत सिंह पिता बलविंदर सिंह की मौत से सदमे में है। वह बताते हैं कि पुलिस में नामजद शिकायतें दी हैं। पुलिस ने दिखावे के तौर पर कार्रवाई तो की, लेकिन अवैध धन्धा बन्द नहीं हुआ।

केमिकलयुक्त शराब बनाने से लेकर इसकी आपूर्ति के लिए बहुत बड़ा नेटवर्क है। इसके लिए राष्ट्रीय राजमार्गों पर बने खाने के ढाबे भी इनके काम आते हैं। ट्रकों के माध्यम से माल यहाँ उतरता था और फिर उसे जगह-जगह पहुँचा दिया जाता था। हज़ारों लोग इस धन्धे से परोक्ष या अपरोक्ष तौर पर जुड़े हुए थे। पुलिस ने इन ढाबों के मालिकों या प्रबन्धकों पर कार्रवाई की है। कुछेक के पास से केमिकल या शराब भी बरामद हुई है। हरियाणा सीमा पर स्थित शम्भू में झिलमिल ढावा, बनूड में ग्रीन और राजपुरा में छिंदा ढाबों पर पुलिस ने कार्रवाई की है। नकली शराब के काम में महिलाएँ भी कम नहीं है। बलविंदर कौर, दर्शन रानी, फौजन, और त्रिवेणी नामक महिलाएँ गिरफ्तार हुई हैं।

शराब में मिलावट के लिए राज्य में केमिकल्स की उपलब्धता बड़ी आसान है। यही वजह है कि धन्धा बड़े स्तर पर पनप रहा था। पुलिस ने लुधियाना में राजीव जोशी नामक एक पेंट विक्रेता को गिरफ्तार किया है। उसने शराब बनाने में काम आने वाले केमिकल मेथेनॉल (मेथे अल्कोहल) के तीन ड्रम किसी प्रभदीप सिंह नामक व्यक्ति को बेचे थे। इसी से इतनी बड़ी त्रासदी हो गयी; जबकि उसके गोदाम से 284 ड्रम इसी केमिकल के बरामद हुए हैं। राज्य में न जाने ऐसे कितने राजीव जोशी जैसे लोग होंगे, जो ज़्यादा पैसे के लालच में शराब माफिया को यह केमिकल बेचते होंगे। हादसे के बाद सरकार किस तरह से कार्रवाई को अंजाम दे रही है इसका सुबूत इससे मिलता है कि अभी तक एक हज़ार से ज़्यादा लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी है। यह सिलसिला तो अभी शुरू हुआ है। अभी छोटे मोटे लोग ही पकड़े जा रहे हैं, जिनकी आजीविका का साधन ही यही बना हुआ था। ये कमीशन के आधार पर शराब सप्लाई से लेकर बेचने वाले हैं। यह धन्धा करोड़ों का है और छोटे मोटे लोगों के बस की बात नहीं है। बिना संरक्षण राज्य स्तर पर ऐसा काम करने वाले कौन हैं? क्या सरकार उन तक पहुँच पाएगी? अक्सर ऐसे लोग बच ही निकलते हैं क्योंकि उनकी पहुँच ऊपर तक होती है। अब देखना होगा कि सरकार किस मंशा से काम करेगी? सरकार ने दो स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीमें गठित की हैं। दोनों टीमें सहायक पुलिस महानिदेशक (कानून व्यवस्था) ईश्वर सिंह की देख-रेख में काम करेंगी। सरकार ने आरोपियों के खिलाफ ठोस सुबूत जुटाने के आदेश दिये हैं; ताकि ये लोग अदालतों से नहीं बच सकें। इसके लिए पुलिस अधीक्षक स्तर के अधिकारी की सीधी ज़िम्मेदारी लगायी गयी है। अदालत में इनके हस्ताक्षर से ही चालान पेश होने हैं। ऐसे में सुबूतों के अभाव में आरोप साबित नहीं होंगे, तो पुलिस अधिकारी से जवाबदेही होनी तय है। आरोपियों पर पंजाब कंट्रोल ऑफ ऑरगेनाइजेशन क्राइम एक्ट (पीसीओसीए) के तहत कार्रवाई की जानी चाहिए।

मुख्यमंत्री त्रासदी को सीधी हत्या से जोडक़र देख रहे हैं। वह स्पष्ट कह चुके हैं कि कार्रवाई में कोई नरमी बरतने का सवाल ही पैदा नहीं होता। तस्करों ने शराब नहीं, बल्कि ज़हर बेचा है; उन्होंने निर्दोष लोगों की हत्या की है। कृत्य में संलिप्त कोई भी हो बख्शा नहीं जाएगा। घटना में एक कांग्रेस विधायक की संलिप्तता के आरोप लग रहे हैं। विरोधी दल शराब माफिया को सरकारी संरक्षण के आरोप लगा रहे हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री के लिए यह चुनौती जैसा काम होगा।

सरकार बड़े स्तर पर कार्रवाई करके सही दिशा में बढऩे का प्रयास कर रही है; लेकिन मामला अब राजनीतिक हो चला है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंदर केजरीवाल भी शराब त्रासदी की जाँच सी.बी.आई. को देने की माँग कर चुके हैं।

आम आदमी पार्टी के प्रदेश प्रमुख और सांसद भगवंत मान कह चुके हैं कि अमरिंदर सिंह को नाम के आगे कैप्टन लगाने का हक नहीं है। त्रासदी ने उनकी कार्यकुशलता को उजागर कर दिया है। ऐसे में कैप्टन लिखना भारतीय सेना के पद का अपमान है। वह नैतिकता के आधार पर अमरिंदर सिंह को कुर्सी छोडऩे का कहते हैं; क्योंकि घटना के लिए वह सीधे तौर पर उत्तरदायी हैं। आबकारी और पुलिस विभाग उनके पास है, फिर भी इतनी बड़ी त्रासदी हो गयी। ऐसे में वह कार्रवाई के नाम पर बचने का प्रयास करके रहे हैं। जिन लोगों पर संरक्षण का आरोप है; क्या पुलिस उनके खिलाफ जाँच करेगी? अगर करेगी, तो उनके खिलाफ रिपोर्ट होगी? जाँच के नाम पर यह लोगों की आँखों में धूल झोंकने जैसा ही है।

प्रदेश भाजपा और शिरोमणि अकाली दल को सरकार की जाँच पर कतई भरोसा नहीं है। पूर्व मुख्यमंत्री और शिअद अध्यक्ष सुखबीर बादल और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अश्विनी शर्मा मामले की जाँच सी.बी.आई. को सौंपने के हक में है। पंजाब के राज्यपाल वी.पी. सिंह बदनौर को इस बाबत ज्ञापन भी दिया है। विरोधी दलों के अलावा कांग्रेस के दो बड़े नेताओं ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। दोनों प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके हैं और मौजूदा राज्यसभा के सदस्य भी हैं। प्रताप सिंह बाजवा और शमशेर सिंह दूलो त्रासदी के लिए अपनी ही कांग्रेस सरकार को ज़िम्मेदार बता रहे हैं। दोनों राज्यपाल बदनौर को मिलकर सी.बी.आई. जाँच का ज्ञापन दे चुके हैं।

दोनों का अमरिंदर सिंह से राजनीतिक तौर पर 36 का आँकड़ा है। विशेषकर बाजवा और अमरिंदर सिंह, तो एक दूसरे के घोर विरोधी है। बाजवा को राज्य की राजनीति से दूर करने में अमरिंदर सिंह की प्रमुख भूमिका रही है। क्या ऐसे मौके पर सांसदों का ऐसा रुख पार्टी के लिए ठीक है? दोनों आखिर क्यों सी.बी.आई. जाँच के पक्ष में है? क्या उन्हें अपनी सरकार की पुलिस की जाँच पर भरोसा नहीं है? क्या सरकार अपनी जाँच में उन लोगों को बचाना चाहती है; जो उसके बारे में काफी कुछ जानते हैं।

मुख्यमंत्री के नेतृत्व पर सवाल उठाने और सरकार की आलोचना से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुनील जाखड़ काफी नाराज़ हैं। वह भी पार्टी लाइन से हटकर दोनों की आलोचना करने में जुट गये हैं। जाखड़ कहते हैं कि जिस पार्टी ने उन्हें राज्यसभा में सांसद बनाकर भेजा वहाँ वह प्रदेश हित का कोई मुद्दा नहीं उठा रहे। उन्हें प्रदेश या यहाँ के लोगों के हितों की चिन्ता है, तो कुछ करके तो दिखाएँ। वह दोनों की कार्रवाई को अनुशानहीनता मान रहे हैं और कड़ी कार्रवाई के पक्ष में हैं।

वहीं अमरिंदर सिंह जहाँ वैश्विक महामारी के मोर्चे पर लड़ रहे हैं, तो दूसरी तरफ विपक्ष के अलावा उन्हें अपनी ही पार्टी के लोगों के विरोध से जूझना पड़ रहा है। इसी समस्या को लेकर मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह, प्रदेश कांग्रेस सुनील जाखड़ और पुलिस महानिदेशक दिनकर गुप्ता ने तरनतारन जाकर प्रभावितों के परिजनों से मुलाकात की। उन्होंने मामले की निष्पक्ष जाँच कर आरोपियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई का भरोसा दिलाया। विपक्षी दल के लोग भी गाँव-गाँव जाकर प्रभावितों के परिजनों से मिल रहे हैं। सवाल यही है कि क्या कांग्रेस सरकार कोई ऐसी कार्रवाई करेगी, जिससे भविष्य में ऐसी घटना न हो? क्या शराब माफिया को खत्म करने की उसकी मंशा है? सत्ता सँभालने के चार सप्ताह में पंजाब को नशामुक्त राज्य बनाने का वादा अभी अधूरा है मुख्यमंत्री जी!

कांड-दर-कांड

देश के विभिन्न राज्यों में ज़हरीली शराब पीकर सैकड़ों लोग मर चुके हैं। 1978 में बिहार के धनबाद में ज़हरीली शराब से 254 लोगों की जान गयी। वर्ष 1981 में कर्नाटक में 308 लोगों ने जान गँवायी। 1982 में केरल में 77 लोगों की मौत और 1991 में राजधानी दिल्ली में 199 लोग ज़हरीली शराब से मौत की नींद सो गये। 1992 में ओडिसा में 200 लोग और वर्ष 2008 में कर्नाटक और तमिलनाडू में 180 से ज़्यादा लोगों को ज़हरीली शराब ने निगल लिया। 2009 में गुजरात में 136 लोगों ने दम तोड़ा, तो वर्ष 2011 में पश्चिम बंगाल में 167 लोगों को शराब ने लील लिया। इसी वर्ष पश्चिम बंगाल में 167 लोगों की, जबकि 2012 में ओडिसा में 29 लोगों की मौत हुई। 2013 में आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) में 39 लोगों की, जबकि वर्ष 2015 में पश्चिम बंगाल में 182 लोगों ने दम तोड़ा। मुम्बई में वर्ष 2015 में 45 लोगों की और 2016 में बिहार में 16 और वर्ष 2019 में असम में 100 से ज़्यादा लोग ज़हरीली शराब की वजह से मरे।

पीडि़तों को आर्थिक मदद

राज्य सरकार ने मृतकों के परिजनों को पाँच-पाँच लाख रुपये की आर्थिक मदद की घोषणा की है। पहले यह राशि दो लाख रुपये ही थी। पता चला कि प्रभावितों में ज़्यादातर की आर्थिक हालत बहुत ही खस्ता है। रोज़ कमाने और रोज़ खाने वाले लोगों के लिए दो लाख रुपये की राशि कम होगी; लिहाज़ा इसे बढ़ाया गया है। जिन परिवारों में किसी के पास रोज़गार का साधन नहीं है। उन्हें काम देने का भरोसा दिलाया गया है। 92 परिवारों को आर्थिक मदद दे दी गयी है। प्रभावित परिवार चाहते हैं कि सरकार जाँच के बाद आरोपियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई करे, ताकि भविष्य में फिर ऐसी घटना न हो। सस्ती शराब पीने की वजह से मरने वाले गरीब लोग ही होते हैं। कम पैसे में नशा करने के आदी ये लोग खतरा उठाकर नशा करते हैं। देश में ऐसी घटनाएँ हो चुकी हैं, जिनसे सबक लेना चाहिए, लेकिन कोई सबक नहीं लिया जाता। गाँव-गाँव में शराब बिकती है, यह लोगों को पता है; तो फिर पुलिस को ऐसी जानकारी क्यों नहीं होती?

कांग्रेस का संकट बना पंजाब का शराब कांड

पंजाब में ज़हरीली शराब पीने से 121 लोगों की मौत के बाद कांग्रेस के भीतर ही तलवारें खिंच गयी हैं। यह शराब पीने से 29 जुलाई को बड़ी संख्या में लोगों की मौत होने की बात सामने आयी, उसके बाद मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के खिलाफ उनके अपने ही सांसदों ने विरोध का झण्डा बुलन्द कर दिया। इस घटना के विरोध में न सिर्फ विपक्ष, बल्कि सत्तारूढ़ कांग्रेस के सांसदों ने भी शराब बनाने वालों को सरकार की तरफ से राजनीतिक संरक्षण मिलने का आरोप लगाया।

 इस त्रासदी के सम्भावना पहले से ज़ाहिर की जा रही थी। लेकिन उसके बाद जो हुआ वह कोई सोच भी नहीं सकता था। शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने पंजाब के राज्यपाल वी.पी. सिंह बदनोर से आग्रह किया कि पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया जाए, क्योंकि राज्य में अब तक की सबसे त्रासद घटना में 121 लोगों की मौत हो गयी है। हालाँकि मुख्यमंत्री के लिए असली मुसीबतें तब बढ़ीं, जब पंजाब में उनकी अपनी ही पार्टी के दो सांसदों ने मुख्यमंत्री की सार्वजनिक आलोचना कर दी।

अब ऐसा लगता नहीं है कि इस राजनीतिक दंगल का जल्दी अन्त होने वाला नहीं है; क्योंकि अमरिंदर सरकार ने एक सांसद को दिया पंजाब पुलिस का सुरक्षा कवच वापस ले लिया है। यह सांसद प्रताप सिंह बाजवा हैं, जो प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके हैं। कांग्रेस की इस जंग को भाँपते हुए विपक्षी शिरोमणि अकाली दल ने दिल्ली में शीघ्र ही कांग्रेस नेता सोनिया गाँधी के आवास के बाहर विरोध-प्रदर्शन करने की चेतावनी दी है।

शराब कांड की बात करें, तो कहानी की पृष्ठभूमि पर जाने पर पता चलता है कि लॉकडाउन ने पंजाब में शराब की माँग और आपूर्ति में उछाल ला दिया था। इस दौरान पंजाब में नकली शराब बेची जा रही है। इसका ही परिणाम यह है कि शराब से 29 जुलाई को पहले पाँच मौतों की सूचना दी गयी, जो बढक़र तीन ज़िलों में 121 तक पहुँच गयी है। इस शराब को बनाने का आरोप लुधियाना के एक पेंट (रंगरोगन) शॉप के मालिक राजेश जोशी पर है। वह वर्तमान में चल रहे मामले में एक महत्त्वपूर्ण संदिग्ध है।

पंजाब पुलिस ने तीन दशकों में सूबे की इस सबसे वादी त्रासदी के मामले में अब तक 50 से अधिक लोगों को गिरफ्तार करने में कामयाबी हासिल की है। गिरफ्तार लोगों में एक मोगा स्थित हैंड सैनिटाइजर निर्माता रविंदर सिंह भी है। एक मैकेनिकल जैक फैक्ट्री के मालिक सिंह ने 11,000 रुपये प्रति ड्रम के हिसाब से नकली शराब के तीन ड्रम खरीदे थे। प्रत्येक ड्रम में 200 लीटर शराब थी। तीन ड्रम खरीदने में सिंह ने कुल 33,000 रुपये अदा किये थे।

पुलिस ने सिंह के कारोबारी साथी अश्विनी बजाज को भी गिरफ्तार किया, जो मोगा में एक पेंट स्टोर चलाता है। रविंदर सिंह ने अवतार सिंह के रूप में पहचाने गये एक व्यक्ति को सभी तीन ड्रम नकली शराब बेची थी। उसने इसे तरनतारन के पंडोरी गोला गाँव के निवासी हरजीत सिंह को बेच दिया था। हरजीत सिंह के बेटे सतनाम और शमशेर भी सौदे के बारे में जानते थे। हरजीत सिंह ने अवतार सिंह को 50,000 रुपये का भुगतान किया और बाद में शेष राशि का भुगतान करने का वादा किया। लेकिन अधिक लाभ कमाने के लालच में हरजीत और उसके बेटों ने शराब में मिलाबट करके इसे और पतला कर दिया।

मामले की जाँच कर रहे पुलिस अधिकारियों ने कहा कि सतनाम और शमशेर ने शराब को पतला कर दिया और गोविंदर सिंह को 6,000 रुपये में 42 बोतलें बेचीं। उसने शराब को और भी पतला कर दिया और उसकी 46 बोतलें बेच दीं। गोविंदर ने इसे 28 और 29 जुलाई को बलविंदर कौर के बेटों को बेच दिया, जो अमृतसर के मुच्छल का रहने वाला है। कौर को पहले ही गिरफ्तार किया जा चुका है। उसने कथित तौर पर शराब में 50 फीसदी पानी मिलाया और उसे एक दर्ज़न से अधिक लोगों को बेच दिया। शराब का सेवन करने वाले कम-से-कम 12 लोग मुच्छल में मारे गये।

मौतों पर सियासत

इसके तुरन्त बाद राज्य सरकार विपक्षी शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी (आप) के निशाने पर आ गयी, जिन्होंने इस मामले की जाँच विशेष जाँच दल (एसआईटी) से करवाने को महज़ एक धोखा करार दिया। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि कुछ कांग्रेसी नेता, जिनमें एक कैबिनेट मंत्री, एक पूर्व मंत्री, पंजाब के मुख्यमंत्री के धार्मिक सलाहकार के रिश्तेदार और चार पार्टी विधायक इस मामले में शामिल हैं; जो राज्य में शराब का कारोबार चला रहे हैं। अकाली दल के महासचिव और प्रवक्ता डॉ. दलजीत चीमा ने कहा कि एसआईटी सिर्फ एक धोखा है। हम इतनी मौतें होने की घटना की न्यायिक जाँच की माँग करते हैं; क्योंकि शराब माफिया कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार के संरक्षण में चल रहा है।

विपक्षी दलों द्वारा इस मुद्दे को उठाने की उम्मीद थी ही, मुख्यमंत्री के एक फैसले के बाद उनकी ही पार्टी कांग्रेस में उनके प्रतिद्वंद्वी और राज्यसभा सांसद प्रताप सिंह बाजवा और शमशेर सिंह दुल्लो ने राज्यपाल पी.पी. सिंह बदनोर से शिकायत कर दी कि राज्य सरकार की शराब माफिया के साथ मिलीभगत है। यहाँ यह दिलचस्प है कि बाजवा और दुल्लो दोनों ही कांग्रेस आलाकमान के करीबी माने जाते हैं। इन दोनों ने राज्यपाल को जो पत्र भेजा है, उसमें लिखा है कि शराब की तस्करी पर रोक के लिए ज़िम्मेदार दो विभाग (आबकारी व कराधान और गृह) मुख्यमंत्री के पास हैं। दुल्लो ने आरोप लगाया कि उन्होंने इस खतरे के प्रति राज्य सरकार को पहले भी चेताया था; लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गयी।

सीबीआई व ईडी जाँच की माँग

यहाँ यह गौरतलब है कि बाजवा और शमशेर सिंह दुल्लो दोनों ने राज्य में कथित अवैध शराब के कारोबार की सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय से जाँच कराने की माँग की थी; जिसमें 121 लोगों की मौत का दावा किया गया था। अपनी ओर से राज्य कांग्रेस इकाई ने अपने केंद्रीय उच्च कमान को पत्र लिखकर पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए दोनों सांसदों को निष्कासित करने की सिफारिश की है। दिलचस्प बात यह है कि एक त्वरित कार्रवाई में पंजाब सरकार ने कांग्रेस सांसद प्रताप सिंह बाजवा को दी गयी राज्य पुलिस की सुरक्षा को वापस लेने का फैसला किया है। यह कहा गया है कि रिव्यू करने के बाद पता चलता है कि उन्हें (बाजवा को) वास्तव में किसी तरह का खतरा निहित नहीं है और किसी स्थिति में उनके ही मुताबिक अब सीधे केंद्रीय गृह मंत्रालय से उन्हें केंद्रीय सुरक्षा प्राप्त है।

पंजाब सरकार के एक प्रवक्ता ने कहा कि बाजवा को प्रदान किया गया राज्य पुलिस सुरक्षा कवच तबसे बेमानी हो गया था, जब उन्होंने सीधे गृह मंत्री अमित शाह से निजी स्तर पर सुरक्षा प्राप्त की थी। सरकार के प्रवक्ता ने कहा कि किसी भी मामले में मिश्रित सुरक्षा चक्र को अच्छा नहीं माना जाता है, खासकर तब, जब राज्यसभा सांसद ने केंद्रीय सुरक्षा हासिल करते हुए कहा था कि उन्हें राज्य पुलिस पर कोई भरोसा नहीं है।

प्रवक्ता के अनुसार, बाजवा के किये गये दावों के विपरीत उन्हें जो केंद्रीय सुरक्षा मिली  है, वह कांग्रेस नेतृत्व के कहने पर नहीं थी। वास्तव में पंजाब सरकार के सूत्रों के अनुसार, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्य सरकार से उनके (बाजवा के) लिए खतरे के पैमाने को समझने हेतु परामर्श भी नहीं लिया, जो आमतौर पर किसी भी व्यक्ति को केंद्रीय सुरक्षा प्रदान करने से पहले किया जाता है।

सरकारी प्रवक्ता ने यह भी कहा कि बाजवा को एक राज्यसभा सदस्य के रूप में केंद्रीय सुरक्षा प्राप्त करने के लिए सिर्फ सदन में पार्टी के नेता गुलाम नबी आज़ाद से सम्पर्क करने की आवश्यकता थी, जो कि एक आदर्श तरीका है। इसके अलावा उन्हें केंद्रीय गृह मंत्रालय को अपना अनुरोध भेजना चाहिए था। हालाँकि किसी कारणवश गृह मंत्रालय ने बाजवा को सुरक्षा के खतरे के पैमाने को लेकर राज्य सरकार के साथ चर्चा नहीं करने का फैसला किया, जो इस तरह के मामलों में पालन किये जाने वाले मानदण्ड से मेल नहीं खाता।

प्रवक्ता ने यह भी कहा कि प्रताप सिंह बाजवा को वास्तव में इस समय पंजाब पुलिस से बढ़ी हुई सुरक्षा मिल रही है, जिस तरह की सुरक्षा के वह राज्यसभा सांसद होने के नाते हकदार थे। ऐसा इसलिए था, क्योंकि राज्य सरकार ने उन्हें पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के रूप में वापस नहीं लेने का फैसला किया था। आदर्श रूप से बढ़ा हुआ सुरक्षा कवच उनके सांसद बनने के बाद से ही वापस ले लिया जाना चाहिए था; क्योंकि उनके लिए खतरे का स्तर वास्तव में शून्य था। प्रताप सिंह बाजवा को 19 मार्च को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जेड-श्रेणी सुरक्षा कवच प्रदान किया था और आज की तारीख में उनकी निजी सुरक्षा, आवास सुरक्षा और एस्कॉर्ट के लिए 25 सीआईएसएफ कर्मियों के अलावा 2 एस्कॉर्ट चालक भी तैनात हैं। इसके अलावा 23 मार्च तक पंजाब पुलिस के 14 कर्मी भी तैनात थे। हालाँकि कुछ को कोविड-19 सेवा में भेजने के लिए वहाँ से हटाया गया था। इसके उपरान्त उनके पास छ: पंजाब पुलिस कर्मी और ड्राइवर के साथ एक एस्कॉर्ट भी थे, जिन्हें अब वापस बुला लिया गया है।

दूसरी ओर बाजवा ने अपने रुख को सख्त करते हुए मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष सुनील जाखड़ को पार्टी के हित में हटाने की माँग की है। उन्होंने कहा कि अगर मुख्यमंत्री और राज्य प्रमुख को नहीं हटाया जाता है, तो पार्टी का पंजाब में नाम-ओ-निशान मिट जाएगा।

अविश्वास और संदेह के बीच सबसे पहले रूस ले आया कोरोना वैक्सीन

हाल में अमेरिकी शोधकर्ताओं ने दुनिया को बताया कि औसत व्यक्ति के मन में रोज़ना कम-से-कम 6000 खयाल आते हैं। इन शोधकर्ताओं ने एमआरआई तकनीक की मदद से ऐसा तरीका ईजाद किया है, जिससे पता चलता है कि इंसान के दिमाग में कब कोई खयाल पनपता है और कब खत्म होता है? इस शोध का ज़िक्र यहाँ इस सन्दर्भ में किया जा रहा है कि बीते चार महीनों से लगभग सभी के दिमाग में अधिकतर खयालों का वास्ता कोरोना महामारी से ही होगा। लोगों का मानना है कि कोरोना महामारी के संक्रमण को रोकने के लिए मास्क, स्वच्छता, सामाजिक दूरी, वेबिनार, वर्क फ्रॉम होम (घर से काम) का अपना महत्त्व है; लेकिन कोविड-19 को हराने के लिए इसका कारगर इलाज दुनिया के पास होना चाहिए। इधर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि कोरोना वायरस का अचूक इलाज आ पाना मुश्किल है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के निदेशक टेड्रोस ऐडनम ने एक वर्चुअल प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि अभी इसका कोई रामबाण इलाज नहीं है और मुमकिन है कि आगे भी न हो। उन्होंने यह भी कहा कि हालात सामान्य होने में लम्बा वक्त लग सकता है। सभी मुल्कों से मास्क पहनने, सामजिक दूरी बनाये रखने, हाथ धोने और टेस्ट कराने जैसे कदम उठाने में सख्ती बरतने को कहा है। 11 अगस्त को रूस के राष्ट्रपति व्लीदिमीर पुतिन ने कोरोना वैक्सीन बनाने का ऐलान कर दिया। राष्ट्रपति पुतिन ने दावा किया है कि दुनिया की पहली कोरोना वैक्सीन ‘स्पुतनिक वी’ बन गयी है। उन्होंने वैक्सीन के कारगर होने पर मुहर लगाते हुए कहा कि पहला टीका उन्होंने अपनी बेटी को लगवाया है।

रूस के स्वास्थ्य मंत्री का दावा

रूस के स्वास्थ्य मंत्री मिखाइल मुराश्को ने दावा किया कि गामालेवा इंस्टीट्यूट द्वारा बनायी गयी वैक्सीन का परीक्षण पूरा हो चुका है और उसे अनुमति देने की प्रक्रिया चल रही है। गामालेवा संस्था के अधिकारियों का कहना है कि पंजीकरण के तीन से सात दिन के अन्दर यह टीका लोगों के लिए उपलब्ध होगा। स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि पंजीकरण के बाद अक्टूबर माह से देश में बड़े पैमाने पर लोगों के टीकाकरण का काम शुरू किया जाएगा। वैक्सीन के लिए फंड देने वाले रूसी प्रत्यक्ष निवेश कोष के प्रमुख किरिल दिमित्रिण का कहना है कि वैक्सीन के तीसरे चरण का परीक्षण चल रहा है; लेकिन हम संतुष्ट हैं और जल्द ही वैक्सीन की अनुमति मिल जाएगी।

वैक्सीन निर्माण के लिए भारत समेत दुनिया के कई देशों से बातचीत चल रही है। स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि हम हर महीने लाखों डोज तैयार करेंगे और सिन्तबर से नवंबर तक करोड़ों लोगों तक इसे पहुँचा देंगे। रूस ने तो सबसे पहले कोरोना वैक्सीन को लॉन्च करने का जो दावा किया है, उस पर दुनिया भर के वैज्ञानिकों को भरोसा नहीं है। यही नहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तो इस वैक्सीन को लेकर संदेह जताते हुए दुनिया को आगाह किया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रवक्ता क्रिस्टियन लिंडमियर ने कहा कि हमें ऐसी खबरों से सतर्क और सावधान रहना चाहिए। विशेषज्ञों और विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि वैक्सीन का तीन चरणों में मानव परीक्षण किया जाना ज़रूरी है। लेकिन रूस ने जो वैक्सीन बनायी है, उसका तीसरा मानव परीक्षण अब तक पूरा नहीं हुआ है। तीसरे चरण का परीक्षण किये बिना रूस इसे बाज़ार में उतारने की तैयार कर रहा है। लेकिन रूस के स्वास्थ्य मंत्री ने हाल ही में कहा था कि अक्टूबर से आम लोगों को वैक्सीन लगायी जाएगी और साथ-साथ तीसरे चरण का परीक्षण भी चलता रहेगा। यही नहीं जुलाई के तीसरे सप्ताह रूस से यह खबर भी आयी, जिसमें सूत्र रूस के राष्ट्रपति व्लादिमोर पुतिन, शीर्ष राजनेताओं, अधिकारियों और अमीरों को अप्रैल में ही कोरोना वैक्सीन लगा दिये जाने का दावा कर रहे हैं।

वैक्सीन को लेकर संदेह

विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रवक्ता क्रिस्टियन लिंडमियर ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि अगर किसी वैक्सीन की तीसरे चरण का परीक्षण किये बिना ही उसके उत्पादन का लाइसेंस जारी कर दिया जाता है, तो इसे खतरनाक मानना ही पड़ेगा। दरअसल दुनिया में पहली कोरोना वैक्सीन तैयार करने और उसे बाज़ार में उतराने के रूस के दावों को शक की निगाह से देखा जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी वेबसाइट पर क्लीनीकल परीक्षण से गुज़र रही 25 वैक्सीन सूचीबद्ध की हैं, जबकि 139 वैक्सीन अभी प्री-क्लीनीकल स्टेज में हैं। प्रवक्ता ने स्पष्ट किया कि वैक्सीन के असरदार होने के संकेत मिलने और क्लीनिकल परीक्षण के सभी चरणों से गुज़रने में बहुत बड़ा अन्तर होता है। एक सुरक्षित वैक्सीन बनाने को लेकर कई नियम और दिशा-निर्देश बनाये गये हैं। इनका पालन करना बहुत ज़रूरी है। उन्होंने कहा कि इस प्रक्रिया से हमें यह भी पता चलता है कि क्या किसी इलाज या वैक्सीन के साइड इफेक्ट हैं या फिर कहीं इससे फायदे के बजाय नुकसान तो नहीं हो रहा है। रूस सुरक्षित वैक्सीन बनाने के लिए बनाये गये नियमों और दिशा-निर्देशों का पालन नहीं कर रहा है। ब्रिटेन ने 5 अगस्त को कहा कि वह रूस से वैक्सीन नहीं लेगा। टेलीग्राफ की रिपोर्ट के मुताबिक, इतनी तेज़ी से परीक्षण और स्वीकृति की प्रक्रिया के लिए आवेदन पर ब्रिटेन को शक है। दलील यह दी जा रही है कि जब बड़े सारे निर्माता अगले साल वैक्सीन तैयार होने की बात कर रहे हैं, तो रूस इतनी जल्दी वैक्सीन कैसे लॉन्च कर सकता है। गौरतलब है कि ब्रिटेन से पहले अमेरिका ने रूस की वैक्सीन लेने से इन्कार कर चुका है।

अमेरिका नहीं लेगा संदिग्ध वैक्सीन

अमेरिका के महामारी विशेषज्ञ एंथनी फॉसी ने कहा था कि वह रूस और चीन दोनों से ही वैक्सीन नहीं लेंगे; क्योंकि दोनों ही देशों ने इस बारे में पारदर्शिता नहीं बरती है। दुनिया कोरोना से क्यों डरी हुई है? आँकड़े इसकी तस्दीक करते हैं। इस महामारी ने अब तक सात लाख से अधिक लोगों की जान ले ली है। इस हिसाब से हर 15 सेकेंड में एक मरीज़ की मौत हो रही है। सर्वाधिक मौतें अमेरिका, ब्राजील, भारत और मैक्सिको में हुई हैं। कोरोना पीडि़तों की मौत की इतनी भयावह संख्या के साथ ही साथ मौत के बाद उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाता है? ये खबरें अन्दर तक हिला देती हैं। इससे भी उनके परिजन बहुत दु:खी हैं। इसके अलावा मौतों की संख्या ने कई देशों में अन्तिम संस्कार तक का तरीका बदल दिया है। अमेरिका जहाँ सबसे अधिक मौतें हो रही हैं। वहाँ लोग दफनाने की बजाय दाह संस्कार को तरजीह दे रहे हैं, ताकि परिजनों की राख को ताउम्र अपने पास रख सकें या बाद में पूरे तौर तरीके से उनकी विदाई कर सकें। ब्राजील जो मौतों के आँकड़ें के मामले में दूसरे नम्बर पर है, वहाँ अपने तरीके से अन्तिम संस्कार करने की तो छूट है; लेकिन इसके लिए 10 मिनट का समय तय है। परिजनों का कहना है कि इतने वक्त में वे अपनों को आखरी वक्त देखकर ठीक से रो भी नहीं सकते। कोरोना के कारण लोगों में अवसाद बढ़ा है। करोड़ों बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। घर से काम करने ने भी कई समस्याओं को बढ़ाया है। लॉकडाउन में महिलाओं, बच्चों के खिलाफ हिंसा में वृद्धि हुई है। प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा ने सरकारी तंत्र की पोल खोल दी। अर्थ-वयवस्था की हालत क्या है, सब जानते हैं। लिहाज़ा दुनिया इस महामारी को हराने के लिए और ज़िन्दगी को पटरी पर लाने के लिए कोरोना वैक्सीन के आने का बेसब्री से इंतज़ार कर रही है। इस बीमारी से सात लाख से अधिक मौतें हो चुकी हैं। वैश्विक अर्थ-व्यवस्था में 2020 के पहले छ: महीनों में 8 फीसदी की गिरावट आ चुकी है। इस परिदृश्य में वैज्ञानिक इसका कारगर इलाज ढूँढने में तेज़ी से काम कर रहे हैं। जैसे-जैसे वैक्सीन के काम में प्रगति हो रही है, वैसे-वैसे राष्ट्रों के बीच वैक्सीन की अधिक-से-अधिक डोज हासिल करने की होड़ भी हो रही है। इस समय दुनिया भर में 150 कोरोना वैक्सीन पर काम हो रहा है। इनमें से छ: अन्तिम दौर में हैं। अमेरिका की मॅाडर्न इंक का मानव परीक्षण तीसरे चरण में है। अमेरिका जर्मनी कम्पनी फाइजर तीसरे चरण की इजाज़त मिलने का इंतज़ार कर रही है। चीन की सिनोवैक बायोटेक कम्पनी का वैक्सीन परीक्षण के अन्तिम चरण में है। ऑक्सफोर्ड वैक्सीन का दूसरे चरण का परीक्षण खत्म हो गया है।

वैक्सीन परीक्षण को भारत तैयार

गौरतलब है कि ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा तैयार कोरोना के टीके को भारत ने मानव परीक्षण की इजाज़त दे दी है। देश की कम्पनी सीरम इंस्टीट्यूट ने चरण-2 और चरण-3 के परीक्षणों के लिए मंज़ूरी हासिल कर ली है। भारत में यह तीसरी वैक्सीन है, जिसे मानवीय परीक्षण की मंज़ूरी मिली है। भारत बायोटेक और कैंडिला के दो वैक्सीन का परीक्षण पहले से ही जारी है। इन दोनों कम्पनियों के परीक्षण का पहला चरण पूरा हो गया है और दूसरा शुरू हो गया है। वैक्सीन पर शोध के लिए कई अमीर मुल्कों की सरकारों ने 74 हज़ार करोड़ से अधिक खर्च किये हैं। कई मुल्कों ने वैक्सीन की करीब चार अरब खुराकें पहले से ही खरीद ली हैं। ऐसा अनुमान है कि इनकी डिलिवरी अगले साल के अन्त तक हो जाएगी। लेकिन यहाँ पर कई सवाल भी साथ-साथ चल रहे हैं। क्या सभी वैक्सीन, जिन पर काम हो रहा है; सफल होंगी? शोधों की रिपोट्र्स बताती हैं कि यदि 10 या इससे अधिक वैक्सीनों का विकास हो रहा है, तो उनमें से केवल एक के असरकारक होने के 90 फीसदी आसार हैं। यह भी कहा जा रहा है कि जिन वैक्सीन का परीक्षण हो रहा है, उनके विफल होने की सम्भावना 20 फीसदी है। कुछ वैक्सीन पूरी सुरक्षा नहीं दे पाएँगी। कोरोना के इलाज के लिए वैक्सीन की एक डोज प्रभावशाली नहीं होगी। ऐसे में कई खुराक लेनी पड़ सकती हैं। वैक्सीन के सभी परीक्षण सफल होने के बाद जब उसे आम लोगों के लिए बाज़ार में उपलब्ध कराने के वास्ते उसके उत्पादन व आम लोगों तक किफायती कीमत पर उपलब्ध होने वाले बिन्दु अहम हैं। कई विशेषज्ञ बताते हैं कि अगले साल के अन्त तक दो अरब खुराकों की ही बिक्री हो पायेगी। वायल, सिरिंज और ज़रूरी केमिकल्स की कमी सामने आयेगी। इस कमी से निपटना एक बहुत बड़ी चुनौती होगी। इसके अलावा अमेरिका, चीन, रूस जैसे मुल्क अपने यहाँ बनी वैक्सीन पहले अपने नागरिकों को देंगे। इसके बाद दूसरे मुल्कों में सप्लाई होगी। जहाँ तक गरीब मुल्कों और वंचित तबकों के बच्चों को कोरोना वैक्सीन मुहैया कराने का सवाल है, वहाँ बिल एंड मेंलिडा गेट्स फाउडेशन मदद के लिए आगे आया है। वैक्सीन के लिए गठित ग्लोबल एलायंस फॉर वैक्सीन एंड इम्युनाइजेशन (गावि एलायंस) संस्था और गेट्स संस्था ने पुणे की सीरम इस्ंटीट्यूट ऑफ इंडिया के साथ गठजोड़ का ऐलान किया है। इसके तहत कम्पनी कम आय वाले मुल्कों के लिए 10 करोड़ डोज बनायेगी। वैक्सीन पहले किसे दिया जाएगा, इसे लेकर आम राय यह बनती नज़र आ रही है कि सबसे पहले फ्रंटलाइन वाले स्वास्थ्यकर्मियों को ही दी जाएगी; ताकि वे स्वस्थ व सुरक्षित रहें और दुनिया को स्वस्थ व सुरक्षित रखने में उनका योगदान बराबर बना रहे।

हिन्दू-धर्म को समझना -5 : शाश्वत् संकट मोचक पुराण

पुराण, जिसका शाब्दिक अर्थ है- प्राचीन लेखन; शास्त्रों के कुछ महत्त्वपूर्ण पहलुओं को संक्षिप्त रूप से उजागर करता है, जो हिन्दू परम्पराओं का मूल है। इन ग्रन्थों को चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर 11वीं शताब्दी तक के लम्बे काल-खण्ड के बीच लिखा गया था और इसका श्रेय हिन्दू ऋषि महर्षि वेद व्यास, जिन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत की भी रचना की थी; को दिया जाता है।

पुराण, सांसारिक जीवन की प्रमुख पहेलियों- जैसे कि दुनिया कैसे बनी और किसने बनायी? आदि का भी वर्णन करके हल बताते हैं। पुराणों में मिथक और वंशावलियाँ भी शामिल हैं, जो धार्मिक कविता के रूप में हैं। इनमें मनुष्य के कर्तव्यों और जीवन के विकास के इतिहास व जीवन महत्त्व को समझाने के लिए कई महाकाव्य कविता की तरह धाराप्रवाह में लिखे गये हैं। इसके दो मुख्य खण्डों में से, पहले वाले मिथक हैं; जो पिछली घटनाओं के बारे में पारम्परिक कहानियों के रूप में हैं, जिनमें आमतौर पर देवी-देवता शामिल होते हैं। दूसरे घटक, जो मिथकों के साथ मेल खाते हैं; वंशक्रम या पूर्वजों और वंशजों की वंशावली हैं। पुराणों में दुनिया के निर्माण, देवताओं की किंवदंतियों और धार्मिक अनुष्ठानों को करने के तरीकों का खुलासा किया गया है।

इन सभी प्रमुख पुराणों में पाँच विशिष्ट संकेत या रेखाएँ हैं; जो उनके अभिन्न दर्शन के बिन्दु हैं। सबसे पहले ब्रह्माण्ड के निर्माण का एक चित्रण है। दुनिया की कई पारम्परिक कहानियाँ कैसे बनायी गयींं? किसने बनायीं? और क्यों बनायीं? उनमें से प्रत्येक में वर्णित हैं। हिन्दू परम्परा में यह माना जाता है कि बुरी ताकतें अक्सर अराजकता और विनाश का कारण बनती हैं, इसलिए दूसरा संकेत ब्रह्माण्ड के नष्ट होने के बाद इसके पुनर्निर्माण को लेकर है।

सबसे प्रसिद्ध संकेत तीसरा है, जो देवी और देवताओं की कहानियों और उनकी वंशावली से सम्बन्धित है। जैसे कि उनके माता-पिता और बच्चे कौन हैं? चौथा संकेत प्राणिक (मौलिक) मनुष्यों और उनके सांसारिक शासनकाल से सम्बन्धित है। पुराणों के पाँचवें और अंतिम चिह्न में प्रसिद्ध सौर और चंद्र राजवंशों का वर्णन है। अनिवार्य रूप से दो प्राणियों में से एक ने सूर्य और दूसरे ने चंद्रमा से वंश का दावा किया, और यह उन राजवंशों की उत्पत्ति की व्याख्या करता है। पुराण स्मृति का एक हिस्सा हैं, अर्थात् गैर-वैदिक शास्त्र। हिन्दू विश्व शीर्षक वाले ग्रन्थ में पुराणों की उपस्थिति 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 16वीं शताब्दी ईसा पूर्व तक की है। आमतौर पर यह माना जाता है कि पुराण आम लोक के वेद हैं। 18 प्रमुख पुराण हैं, जिन्हें लोकप्रिय रूप से महापुराण कहा जाता है, उनमें से छ: भगवान विष्णु से सम्बन्धित हैं, छ: भगवान शिव को समर्पित हैं और छ: भगवान ब्रह्मा को लेकर लिखे गये हैं। इन महापुराणों का वर्णन हिन्दू विश्व ग्रन्थ में निम्नलिखित तरीके से किया गया है :-

छ: विष्णु पुराण, प्रकृति में सात्विक के रूप में प्रतिष्ठित हैं –

(1) विष्णु पुराण में 7000 श्लोक हैं और सच्चे पुराण के सभी गुण हैं। किंवदंती है कि यह पहली बार भगवान ब्रह्मा से ऋषि ऋभु को पता चला था, जिन्होंने इसे ऋषि पुलस्त्य के सामने प्रकट किया था। ऋषि पुलस्त्य ने इसके बाद ऋषि पारासर को दिया, जिसने बदले में इसे अपने शिष्य मैत्रेय के नाम से जाना। विष्णु पुराण का पाठ पारासर और मैत्रेय के बीच एक संवाद का रूप लेता है। इसका मूल उपदेश यह है कि विष्णु विश्व के निर्माता, अनुचर और नियंत्रक हैं; सांसारिक दुनिया एक सामंजस्यपूर्ण प्रणाली के रूप में मौज़ूद है, और सच्चाई के रूप में भगवान विष्णु दुनिया है। यह पुराण इस वर्ग के सभी कामों में सबसे सही और सबसे अच्छा ज्ञात है। यह मौर्य वंश के बारे में बहुत मूल्यवान जानकारी देता है।

(2) नारद पुराण में 3,000 श्लोक शामिल हैं, जिसमें ऋषि नारद मनुष्य के आवश्यक कर्तव्यों का वर्णन करते हैं। एक अन्य सम्बन्धित कार्य, जिसे बृहण के रूप में जाना जाता है। बृहत् नारदिया में 3,500 छन्द हैं। ये पुराण इस्लामिक आक्रमण के बाद की अवधि के हैं, और इस पर एक वास्तविक पुराण की छाप नहीं हैं।

(3) भागवत् पुराण (या श्रीमद् भागवतम्), जो पुराणों में सबसे अधिक मनाया जाता है; 18,000 छन्दों का एक विशाल ग्रन्थ है, जिसे 12 स्कंदों या पुस्तकों में विभाजित किया गया है। सबसे लोकप्रिय हिस्सा 10वीं पुस्तक है, जो भगवान की जीवन कहानी को दर्शाती है। विशेष रूप से श्रीकृष्ण के लडक़पन को। भागवत् पुराण में एक ऋषि और एक राजा के बीच एक संवाद के रूप में व्यक्त किया गया है, जिसे एक पवित्र व्यक्ति को बिना अभिप्राय मारने के लिए एक सप्ताह के भीतर मृत्यु का सामना करना है। अपने उद्धार को सुनिश्चित करने के लिए वह भागवत् पुराण सुनकर सप्ताह बिताता है। भक्ति का सिद्धांत या सर्वोच्च विश्वास, भगवान की भक्ति, गोपियों की भक्ति (जिनके साथ श्रीकृष्ण क्रीड़ा करते थे), आध्यात्मिक भक्ति के प्रतीक के रूप में सामने आये। दिलचस्प बात यह है कि इस पुराण में दिव्य चरित्र राधा का कोई सन्दर्भ नहीं है। कुछ लोगों का मानना है कि यह दक्षिण भारत में 1250 ईस्वी के आसपास लिखा गया था; जबकि अन्य का मानना है कि इसे 900 ईस्वी के आसपास लिखा गया था। इस पुराण की प्रसिद्ध 10वीं पुस्तक का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया है।

(4) गरुड़ पुराण, जिसके कई संस्करण उपलब्ध हैं; को लेकर संदेह है कि क्या इसके वास्तविक मूल संस्करण ही अस्तित्व में हैं? इसका नाम भगवान विष्णु के श्रद्धेय वाहन गरुड़ के नाम पर रखा गया है; लेकिन इसकी सामग्री इसके नाम को सही नहीं ठहराती है। यह मुख्य रूप से मृत्यु के समय या उसके बाद किये जाने वाले अनुष्ठानों, अन्तिम संस्कार समारोहों का विवरण, पूर्व या मृतक के लिए एक नये शरीर का अनुष्ठान निर्माण, आत्मा की यात्रा के विभिन्न चरणों में मृत्यु के बाद के एक नये शरीर में पुनर्जन्म से सम्बन्धित है। यह सूर्योपासना और ज्योतिष से सम्बन्धित है और सम्भवत: मूल रूप से भारतीय-पारसी (इंडो-जोरोस्ट्रियन) है।

(5) पद्म पुराण, छ: पुस्तकों में विभाजित एक व्यापक संकलन है, जो उस समय का वर्णन करता है, जब दुनिया एक सुनहरे कमल (पद्म) के आकार में होती है। इसमें सृष्टि और पृथ्वी, स्वर्ग और अधोलोक के क्षेत्रों का वर्णन है। भक्ति पर एक पूरक को बाद की तारीख में जोड़ा गया है। लेकिन सम्पूर्ण कार्य लगभग ईस्वी सन् 1100 से पहले नहीं हुआ है।

(6) वराह पुराण में लगभग 10,000 श्लोक हैं, और यह 1000 ईस्वी से ज़्यादा पुराना नहीं है। यह भगवान विष्णु से वराह को पता चला था।

छ: शिव पुराणों को गुणवत्ता में तामसिक के रूप में माना जाता है –

(1) मत्स्य पुराण में एक वास्तविक पुराण के सभी गुण हैं। इसका पाठ एक व्यापक मिश्रण है, जो विष्णु और पद्म पुराण और महाभारत से भी बड़े पैमाने पर उधार लिया गया है। यह भगवान विष्णु के एक मत्स्य (मछली) अवतार की गाथा है, जो ऋषि मनु के द्वारा प्रकट माना जाता है। इसमें आंध्र वंश के बारे में कुछ जानकारी है।

(2) कूर्म पुराण, 900 ईसा पूर्व के आसपास का माना जाता है कि जिसमें भगवान विष्णु एक कछुए (कुर्मा) के रूप में जीवन का उद्देश्य बताते हैं। इस पुराण में भगवान महादेव और माँ जगदंबा की पूजा की महिमा है।

(3) लिंग पुराण, 700 ईस्वी के आसपास का कार्य है; जिसमें भगवान शिव पुण्य, धन, सुख और मुक्ति के अर्थ और लिंग का आध्यात्मिक महत्त्व बताते हैं। यह काफी हद तक कर्मकाण्ड है।

(4) वायु पुराण, पुराणों में से सबसे पुराना है, भगवान शिव की कई विशेषताओं और गया की पवित्रता के लिए समर्पित है। इस पुराण का एक रूप, जिसे शिव पुराण भी कहा जाता है, चन्द्रगुप्त प्रथम के शासनकाल के बारे में जानकारी देता है।

(5) स्कंद पुराण, युद्ध के देवता भगवान स्कंद से सम्बन्धित है। सबसे लम्बे पुराणों में से है और इसमें 80,000 से अधिक श्लोक शामिल हैं। हालाँकि समग्र रूप में नहीं, केवल टुकड़ों में। चित्रण के लिए काशी खण्ड है, जिसमें बनारस और वहाँ के शैव मन्दिरों का वर्णन है, और उत्कल खण्ड, जो उड़ीसा का विवरण देता है।

(6) अग्नि पुराण, जिसे आग्नेय पुराण भी कहा जाता है; मूल रूप से अग्नि के देवता अग्नि द्वारा ऋषि वशिष्ठ को बताया गया था। इस विश्वकोश संकलन में कुछ मूल सामग्री के अलावा अन्य कार्यों के कई अंश, अनुष्ठान पूजा, ब्रह्माण्ड विज्ञान, वंशावली कालक्रम, युद्ध कला और ऋषि याज्ञवल्क्य (सदानीरा) से ली गयी विधि पर एक अनुभाग, चिकित्सा ज्ञाता सुश्रुत से ली गयी औषधि पर एक अध्याय, और ऋषि पिंगला और ऋषि पाणिनी से व्याकरण पर हैं।

छ: ब्रह्म पुराण, प्रकृति में राजसिक हैं –

(1) ब्रह्म पुराण, जिसे आदि पुराण या प्रथम पुराण भी कहा जाता है; पुराणों की सभी सूचियों में प्रथम स्थान पर है। सूर्य देव के प्रति अपने समर्पण के कारण, इसे सौर पुराण के नाम से भी जाना जाता है। माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा ने ऋषि मरीचि को इसका पता दिया था। ओडिशा के मन्दिरों आदि के वर्णन के लिए समर्पित कुछ वर्गों के अलावा यह भगवान कृष्ण की जगन्नाथ के रूप में पूजा करता है, जो आंशिक रूप से विष्णु पुराण से लिया गया है।

(2) ब्रह्माण्ड पुराण, ब्रह्मा की संरचना की भव्यता को उजागर करता है, और भविष्य के पूर्वजों का वर्णन करता है। स्कन्द पुराण की तरह यह एक समग्र कार्य के रूप में मौज़ूद नहीं है; लेकिन केवल टुकड़ों में है। लोकप्रिय पुराण रामायण इसी पुराण का एक हिस्सा है। अध्यात्म रामायण की रचना महर्षि व्यास की बतायी गयी है, और इसमें भगवान राम को एक नश्वर नायक के बजाय एक उद्धारकर्ता भगवान और एक तारणहार के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

(3) ब्रह्म-वैवस्वत् पुराण (या ब्रह्म-वैवर्त) मनु सवर्ण पुत्र वैवस्वत् द्वारा ऋषि नारद को बताया गया है। यह तुलनात्मक रूप से देर की तारीख का है, और भगवान कृष्ण और राधा की पूजा में शामिल होते हैं; जिससे यह युगल पति-पत्नी बन जाता है; ताकि उनका प्रेम व्यभिचारी नहीं बल्कि संयुग्मित हो।

(4) मार्कंडेय पुराण, अन्य सभी पुराणों से स्वर में काफी भिन्न है। यह ऋषि मार्कंडेय द्वारा प्रकट किया गया था, जब वेदों में निपुण कुछ विशिष्ट पक्षियों द्वारा सुना गया था। इन पक्षियों ने इसे ऋषि जैमिनी के सामने दोहराया। इसका सम्प्रदाय, अनुष्ठान या ब्रह्म की उपासना के साथ बहुत कम है; लेकिन किंवदंतियों का एक स्वर है। स्वर धर्मनिरपेक्षता का मतलब है- किसी विशेष सिद्धांत की सिफारिश नहीं करना और मुख्य रूप से पुराणों से श्रेष्ठ, मूल रचनाओं से मिलकर बनता है। इस पुराण का एक प्रकरण दुर्गा महात्म्य (जिसे देवी महात्म्य, चण्डीप्रथा, चण्डी सप्तसती कहा जाता है), बाकी की तुलना में पुराना है। यह 13 अध्यायों में 700 छन्दों की कविता है, जो माँ-देवी के रूप में माँ शक्ति की महिमा को समर्पित है, जो समय-समय पर राक्षसों और राक्षसों की दुनिया से छुटकारा पाने के लिए पृथ्वी पर उतरती है। यह खण्ड कई हिन्दू धार्मिक कार्यों में सुनाया जाता है।

(5) भविष्य पुराण, शीर्षक, जिसका अर्थ है- भविष्य पुराण को मनमाना रूप दिया गया है। यह मुख्य रूप से संस्कार और समारोहों की एक पुस्तिका है, जो चरित्र और सामग्री में बहुत अधिक असमान है।

(6) वामन पुराण में विष्णु के एक वामन (बौने) अवतार का वर्णन है। यह भगवान शिव और भगवान विष्णु के बीच अपनी श्रद्धा को विभाजित करता है।

उपरोक्त के अलावा कुछ अन्य पुराण हैं, जिन्हें उप-पुराण या लघु पुराण भी कहा जाता है, जिनमें से कुछ हिन्दू विश्व में सूचीबद्ध हैं।

उप पुराण निम्नलिखित हैं :-

(1)        आदित्य या आदि पुराण

(2)        आश्चर्य पुराण

(3)        औसानसा (उसानस से)

(4)        भास्कर (या सूर्य या सौर) पुराण

(5)        देवी पुराण

(6)        देवी-भागवत (एक शैव पुराण, जो महान् पुराणों के साथ सूचीबद्ध है।)

(7)        दुर्वासा पुराण

(8)        कालिका (ईसा पूर्व 1350), एक शक्त पाठ, बहुत तांत्रिक सामग्री का स्रोत (मानव बलि) पुराण

(9)        कल्कि पुराण

(10)      कपिला पुराण

(11)      महेश्वर पुराण

(12)      मानव पुराण

(13)      मारीच पुराण

(14)      नंदिकेश्वर पुराण (कुमार द्वारा कथित)

(15)      नारद या वृहान पुराण

(16)      नरसिंह पुराण

(17)      पाराशर (पराशरोक्त) पुराण

(18)      साम्ब पुराण

(19)      सनतकुमार पुराण

(20)      शिवधर्म पुराण

(21)      सुता-संहिता (एक भक्ति पुराण, भागवत की तरह; लेकिन शिव को समर्पित)

(22)      वरुण पुराण

(23)      वैया पुराण

(24)      वृहण (देखें नारद) पुराण

(25)      युग पुराण

सभी पुराणों और उप पुराणों ने युगों के माध्यम से सभी हिन्दुओं के लिए जीवन के सनातन दृष्टिकोण को समृद्ध और निरन्तर बनाये रखा है और इसे शाश्वत् प्रेरणास्रोत के रूप में प्रतिष्ठित किया है।

(अगले अंक में – विश्व स्तर पर लोगों को मंत्रमुग्ध करता है सनातन धर्म)

क्या कच्चे तेल के आयात में वाकई 10 फीसदी कटौती मुमकिन है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मई, 2014 में पद सँभालने के तत्काल बाद ऐलान किया था कि वर्ष 2022 तक भारत की कच्चे तेल पर आयात की निर्भरता को 10 फीसदी कम किया जाएगा। अब छ: साल से अधिक का समय बीत चुका है और इसके लिए तय किये गये लक्ष्य के लिए महज़ दो साल बाकी हैं। कच्चे तेल के आयात में 10 फीसदी की कमी के वादे पर पिछले छ: वर्षों में कितना अमल किया गया है? इसके जवाब में कहने के लिए फिलहाल कुछ भी नहीं है।

कच्चे तेल के आयात में कोई भी कमी करने से पहले दो शर्तें ज़रूरी हैं। पहली, घरेलू उत्पादन में जितनी कमी की जाए, उतनी ही वृद्धि हो। दूसरी, देश में इसकी खपत में पर्याप्त गिरावट दर्ज की जाए। दुर्भाग्य से न तो खपत में कमी आयी है और न ही घरेलू उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है। इसके विपरीत 2014-15 में भारत का कच्चे तेल का उत्पादन 37.46 मिलियन मीट्रिक टन (एमएमटी) था, जो अगले वर्ष में घटकर 36.95 एमएमटी रह गया। इसके बाद प्रत्येक वर्ष उत्पादन में गिरावट जारी रही। 2019-20 में कच्चे तेल का उत्पादन छ: फीसदी घटकर 32.17 एमएमटी हो गया, जो पिछले 18 वर्षों में उत्पादन का सबसे निचला स्तर रहा। इस गिरावट में निजी क्षेत्रों द्वारा संचालित कम्पनियों की हिस्सेदारी 15.5 फीसदी से अधिक थी; जबकि ऑयल इंडिया में उत्पादन में छ: फीसदी की गिरावट आयी। इस दौरान ओएनजीसी के क्रूड उत्पादन में महज़ दो फीसदी की कमी आयी।

उत्पादन में गिरावट के पीछे कई कारण रहे। इनमें से स्थानीय मुद्दों को लेकर पूर्वोत्तर क्षेत्र में अशान्त स्थिति और आन्दोलन रहा, जिससे असम में ओएनजीसी और ऑयल इंडिया दोनों के तेल उत्पादन पर विपरीत असर देखने को मिला। केयर्न ऑयल और गैस उत्पादन में माँग और बाज़ार की वजह से भी प्रभावित हुआ। यहाँ तक कि मौज़ूदा वित्त वर्ष में भी खास सम्भावनाएँ नज़र नहीं आ रही हैं; क्योंकि तेल उत्पादकों की खास दिलचस्पी न होने के कारण वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल की कीमतें कम ही हैं, जिससे इनके उत्पादन स्तर में बढ़ोतरी हुई है।

सरकार अब भी आशावादी

कच्चे तेल के उत्पादन में लगातार गिरावट के बावजूद सरकार अब भी क्रूड ऑयल के आयात में कटौती के अपने लक्ष्य को लेकर आशावादी बनी हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने करीब छ: महीने पहले दोहराया था कि सरकार ने अपने आयात में 10 फीसदी की कमी लाने की दिशा में कुछ निर्णायक कदम उठाये हैं। पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान भी कई बार कह चुके हैं कि सरकार कच्चे तेल पर निर्भरता कम करने के 10 फीसदी कटौती के लक्ष्य को हासिल करने के लिए नयी रणनीति और पहल पर काम कर रही है। निर्धारित लक्ष्य हासिल करने के लिए पेट्रोलियम मंत्रालय की नयी रणनीति और पहल क्या थी? पहली, एक नयी हाइड्रोकार्बन अन्वेषण लाइसेंसिंग नीति शुरू की गयी। दूसरी, छोटे-छोट क्षेत्रों की खोज करके मुद्रीकरण के लिए भण्डार को अनुबन्ध पर दिया गया। तीसरी, 28 जून 2017 को हाइड्रोकार्बन महानिदेशालय द्वारा एक राष्ट्रीय डेटा भण्डार की स्थापना की गयी थी। कुछ अन्य पहलें भी की गयीं, जैसे कि अप्रकाशित क्षेत्रों के 2 डी भूकम्पीय सर्वेक्षण। हालाँकि परिणाम क्या मिला? यह मायने रखता है। इसलिए यह पता लगाने की आवश्यकता है कि इन सभी पहलों से वर्ष 2022 तक कच्चे तेल के आयात को 10 फीसदी कम करने के मुख्य कार्य में कितनी मदद की है?

क्या घरेलू उत्पादन का विस्तार सम्भव है?

वर्तमान में देश में दो प्रमुख सरकारी स्वामित्व वाली ईएंडपी कम्पनियाँ ओएनजीसी और ऑयल इंडिया लिमिटेड हैं; बाकी कुछ निजी और संयुक्त उपक्रम भी हैं। वर्ष 2018-19 में 34.2 एमएमटी के कुल उत्पादन में से ओएनजीसी का हिस्सा अकेले 21.04 एमएमटी था। ऑयल इंडिया ने 3.29 एमएमटी का योगदान दिया और शेष 9.87 एमएमटी निजी और संयुक्त उद्यम संस्थाओं का रहा। इस प्रकार यह आवश्यक है कि ओएनजीसी के अपतटीय और तटवर्ती दोनों क्षेत्रों से उत्पादन 20 फीसदी या इससे भी ज़्यादा बढ़ाया जाए। हालाँकि ऐसा करना उतना आसान नहीं है, जितना कि कह देना। अपने अपतटीय और तटवर्ती क्षेत्रों से इसका वार्षिक उत्पादन लगभग 2013-14 के बाद से 22.25 एमएमटी पर स्थिर बना हुआ है। भले ही ओएनजीसी के अधिकांश तटवर्ती क्षेत्र उत्पादन में गिरावट हुई हो, पर यह 50 साल से अधिक पुराना है; साथ ही इसको श्रेय इसलिए दिया जाता है, क्योंकि इसने न केवल अपने उत्पादन को बरकरार रखा है, बल्कि उत्पादन के लिए आईओआर और ईओआर जैसी नवीनतम तकनीक का प्रयोग करके उत्पादन को बढ़ाया भी है।

भारत हमेशा से क्रूड का आयातक रहा है

कभी-कभी यह बात बताने की ज़रूरत पड़ती है कि भारत हमेशा से कच्चे तेल का आयातक रहा है। 1947 में पेट्रोलियम उत्पादों की घरेलू माँग लगभग 2.2 मिलियन मीट्रिक टन (एमएमटी) थी, जबकि उत्पादन असम से लगभग 0.25 एमएमटी था। 1960-61 में कच्चे तेल का घरेलू उत्पादन केवल 0.45 मिलियन मीट्रिक टन था। 1980-81 तक, इसका उत्पादन 10.51 एमएमटी तक बढ़ गया। सात साल बाद 2018-19 में घरेलू उत्पादन मुश्किल से 34.20 एमएमटी था; जबकि आयात 229 एमएमटी तक पहुँच गया था। यानी करीब 86 फीसदी की कमी। आसान शब्दों में कहें, तो घरेलू कच्चे तेल का उत्पादन भारत की कुल खपत का महज़ 14 फीसदी है।

क्या कच्चे तेल के आयात में 10 फीसदी की कमी लाने की प्रशंसनीय पहल वास्तविकता बन पायेगी या यह सिर्फ एक सपना साबित होगा? क्योंकि भारत में न तो कोई जादू की छड़ी है और न ही समृद्ध तेल के भण्डार हैं- महज़ कुछ जंगली हाथी वाले क्षेत्रों को छोडक़र। हमारी सालाना खपत के जो विकल्प अपनाये भी जा रहे हैं, उसके बावजूद इसमें बढ़ोतरी जारी रहेगी। इसलिए ज़रूरी है कि सच्चाई को समझें और अपने आपको ही धोखा न दें। कड़ुवा सच यही है कि आयातित कच्चे तेल पर हमारी निर्भरता साल-दर-साल बढ़ती जा रही है और आगे भी बढ़ती जाएगी। भारत अमेरिका, चीन, जर्मनी, जापान, इटली, ब्रिटेन, दक्षिण कोरिया, ब्राजील, इंडोनेशिया, मलेशिया, इज़राइल जैसे प्रमुख तेल आयातकों की सूची में शामिल है। इसके बारे में शर्म महसूस करने का कोई कारण नहीं है।

(राज कँवर वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। उपरोक्त विचार लेखक के निजी हैं।)

पंजाबी सिंगर मूसेवाल की मुसीबत बने हथियार

शुभदीप के लिए समय का मौज़ूदा बिल्कुल शुभ नहीं। उनके खिलाफ आम्र्स एक्ट की धारा जैसे मामले दर्ज हो चुके हैं। फिलहाल वह अंतरिम जमानत पर हैं। शुभदीप सिद्धू उर्फ सिद्धू मूसेवाला। पंजाबी के उभरते हुए गायक और देश-विदेश में खूब चर्चित हो रहे हैं। जितनी जल्दी उन्हें शोहरत मिली है, उतनी ही तेज़ी से वह विवादों में फँसते जा रहे हैं। यह किसी कलाकार के लिए बिल्कुल भी बेहतर नहीं; शुभदीप के लिए तो बिल्कुल ही नहीं। फिर भी वह ऐसे विवाद पैदा कर रहे हैं, जिनकी वजह से उनका करियर तबाह हो सकता है और जेल की हवा भी खानी पड़ सकती है।

पंजाब के ज़िला मानसा के गाँव मूसा के शुभदीप के नाम से नहीं, बल्कि सिद्धू मूसेवाला के नाम से ज़्यादा मशहूर है। ज़मीन से जुड़े इस युवा पंजाबी गीतकार और गायक को अंदाज़ा नहीं कि हथियार संस्कृति को बढ़ावा देने वाले गाने उन्हें शोहरत दिलाने से ज़्यादा मुसीबत में डाल सकते हैं। पहले के दर्ज मामलों में सशर्त अंतरिम जमानत के बाद उन्होंने संजू नाम का एलबम बनाया, जिसके गीत से वह फिर विवाद में फँस गये और मोहाली में उनके खिलाफ चौथी प्राथमिकी दर्ज कर ली गयी है। किसी भी कलाकार के लिए ऐसी स्थिति अनुकूल नहीं होती; क्योंकि इससे उसका काम प्रभावित होगा।

आज वह पंजाबी गायकों में सबसे चर्चित और विवादास्पद बन गये हैं। फायरिंग रेंज में पुलिस के संरक्षण में वह एके-47 और रिवॉल्वर से गोलियाँ चलाने का अभ्यास करते दिखे हैं। वह भी ऐसे दौर में, जब कोरोना वायरस के चलते पंजाब में कफ्र्यू था। पुलिस कफ्र्यू का उल्लंघन करने वालों को सडक़ों और गलियों में बेरहमी से पीट रही थी। वहीं मूसेवाला बेखौफ सरकारी फायरिंग रेंज में गोलियाँ दाग रहे थे। जब इस तरह के वीडियो वायरल हुए, तो हंगामा हुआ, शिकायतें आयीं। कुछ समय तक उन पर कार्रवाई नहीं हुई, तो आरोप लगे कि उसका रसूख पुलिस में ऊपर तक है। भारी दवाब के चलते पुलिस को मूसेवाला समेत आठ लोगों पर प्राथमिकी दर्ज करनी पड़ी। इनमें एक एएसआई, दो हेड कांस्टेबल और दो कांस्टेबल भी हैं। फायरिंग रेंज में सब बंदोबस्त कराने के पीछे एक पुलिस अधिकारी के बेटे की भूमिका रही। जाँच के बाद डी.एस.पी. दलजीत विर्क को निलंबित कर दिया गया।

मूसेवाला ने 80 से ज़्यादा गीत गाये हैं, जिनमें कई काफी लोकप्रिय हुए हैं। देश-विदेश में उनके प्रशंसकों की संख्या लाखों में है। उनके कुछ गीत हथियारों से जुड़े हुए हैं; जिन्हें लेकर वह विवादों में फँस चुके हैं। मूसेवाला पहले गायक नहीं, जिनके गानों के शब्दों में हथियारों का इस्तेमाल हुआ है। पंजाबी के कई गाने गाये गये हैं और जो अच्छे खासे चलन में रहे हैं; लेकिन उन्हें लेकर कभी विवाद नहीं हुआ। ऐसे गायकों पर हथियार संस्कृति को बढ़ावा देने के आरोप भी नहीं लगे और वे गाने भी खासे लोकप्रिय रहे। तो फिर मूसेवाला पर ही हथियार संस्कृति को बढ़ावा देने की तोहमतें क्यों लग रही हैं, उनके खिलाफ ही क्यों मामला दर्ज हुआ? तो इसकी वजह पुलिस की मौज़ूदगी में गोलियाँ चलाने का अभ्यास और मामला दर्ज होने के बाद संजू का वह गीत, जिसके शब्द खुलेआम चुनौती देने वाले जैसे हैं।

सहायक पुलिस महानिदेशक अर्पित शुक्ला की राय में लगातार ऐसे ही आरोपों के घिरे रहने के बावजूद फिर उसी ढर्रे का गीत बताता है कि उन्हें किसी की कोई परवाह नहीं है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ के पुलिस महानिदेशकों को स्पष्ट निर्देश है कि शराब, नशा और हिंसा जैसे विषयों को उभारने और उन्हें प्रमोट करने जैसे गीतों या अन्य किसी प्रचार सामग्री को रोका जाए। लिहाज़ा पुलिस को कार्रवाई करनी ही थी; इसलिए उसके खिलाफ मामला दर्ज करना ज़रूरी था।

गीत की एक बानगी देखें- ‘चैनलां ते चर्चा बाली चलदी, गबरू दे नाल सन्तालीस (एके-47) जुडग़ी, घट्टो घट्ट सज़ा पंज साल वट दी, गबरू उत्ते केस जेड़ा संजय दत्त दे…।’ इस गाने को हथियार संस्कृति को बढ़ावा देने के आरोप में पुलिस ने उन पर मामला दर्ज कर लिया; लेकिन मूसेवाला को अब भी शब्दों में ऐतराज़ योग्य कुछ भी नहीं लगता। वह कहते हैं कि जो उनके साथ हुआ, वही तो गाने में है। एके-47 उनके साथ जोड़ी गयी, तो गाने में इसका उल्लेख है।

संजय दत्त को ऐसे ही ऑटोमेटिक हथियार घर में छिपाने के आरोप में पाँच साल का सज़ा हुई थी। जो हकीकत है, उन्होंने वही दुनिया के सामने रखने का प्रयास किया। जो उनकी ज़िन्दगी में हो चुका होता है; जिसे वह हकीकत में देख चुके होते हैं; वह गानों के माध्यम से उसे रखने का प्रयास करते हैं। उनकी मंशा नहीं कि युवा उनके गानों से कोई सीख लें और हथियार उठा लें। वह उदाहरण देते हैं कि हिन्दी फिल्म ‘संजू’ में क्या है? फिल्म स्टार संजय दत्त की ज़िन्दगी पर आधारित हैं, उसमें वहीं तो सब कुछ है जो उन्होंने गाने में है। अगर उनका यह गाना हिंसा को हवा देने या फिर हथियार संस्कृति को बढ़ावा देने वाला है, तो फिर फिल्म संजू पर भी तो कार्रवाई होनी चाहिए। उनसे पहले कई नामी गायक ऐसे ही गाने गा चुके हैं; तब कभी विरोध में कोई आवाज़ नहीं उठी। वह गाने की लोकप्रियता का हवाला देते हैं कि लगभग दो करोड़ लोग इस गाने को शुरुआत में ही देख चुके हैं। देश-विदेश में उनकी बढ़ती लोकप्रियता से ईष्र्या भी उन्हें ऐसे मामलों में फँसाने की साज़िश है। उन्हें साज़िश के तहत ऐसे गम्भीर मामलों में फँसा रहे हैं, ताकि वह पुलिस और अदालतों में उलझे रहें। इस पंजाबी कलाकार को हथियारों का शौक भी है। उनके पास लाइसेंसी हथियार भी हैं। गानों में हथियार संस्कृति को बढ़ावा देने और युवाओं को इस ओर मोडऩे के आरोपों को वह गलत मानते हैं। उनके गानों को सुनकर क्या कोई बन्दूक उठा लेगा? लोगों को समझ है और वे केवल मनोरंजन के लिए गाने सुनते हैं। अगर उनके गानों से पंजाब में हिंसा बढ़ी है, तो वह जेल जाने को तैयार हैं। अगर उनके चार-छ: माह जेल में रहने से पंजाब में अपराध कम होते हैं, तो वह इसके लिए तैयार हैं।

वह अपने को साधारण इंसान मानते हैं। उनके पास दिखावे जैसी कोई बात नहीं है। इतनी लोकप्रियता के बाद वह अपने गाँव मूसेवाल में खेती-बाड़ी करते हैं। उनकी माँ चरण कौर सरपंच हैं और पिता सेना से सेवानिवृत्त है। अभिनय, गीत लिखना और गाना उनका शौक है और अब तो करियर भी इसे बना लिया है। उनका मकसद किसी की भावनाएँआहत करना नहीं, बल्कि गानों के माध्यम से लोगों का मनोरंजन करना है।

समाज से जुड़े विषयों पर उनके गानों को लोगों ने बहुत पसन्द किया है। वह सामाजिक कार्यों में भी हिस्सा लेते हैं। आम आदमी हैं और उनके सरोकारों से मतलब रखते हैं; लेकिन उन्हें अब दूसरे रूप में पेश किया जा रहा है। उन्होंने कैंसर से बचाव के लिए कैंप का आयोजन किया; लेकिन किसी ने संज्ञान नहीं लिया। कुछ लोग उनके खिलाफ गहरी साज़िश के तहत उनकी छवि खराब करने में लगे हैं, जबकि वह ऐसे नहीं हैं।

मीडिया से उन्हें खासी शिकायतें हैं। वह कहते हैं कि मीडियाकर्मी उनसे जुड़ी छोटी-छोटी बातों को भी सनसनीखेज बनाकर पेश करते हैं। उन्होंने कहा कि मेरे से प्रतिक्रिया लिए बिना बहुत-सी खबरें ऐसी भी प्रकाशित या चलायी गयीं, जो सच से कोसों दूर थी। मामलों से डरकर वह कहीं भागने वाले नहीं। लेकिन खबरें चलने लगीं कि मूसेवाला घर से गायब हो गया है; जबकि वह गाँव में ही रहे। उन्होंने कहा कि वह हर जाँच का सामना करेंगे; क्योंकि उनका पुलिस और न्यायपालिका में पूरा भरोसा है।

वैसे अपने को सही साबित करने के लिए उनके पास तर्क हैं; लेकिन सवाल यह है कि क्या वह अदालत को इससे सन्तुष्ट कर सकेंगे? उनके खिलाफ पहला मामला उनके गृह ज़िला मानसा में दर्ज किया गया। मई के पहले सप्ताह में बरनाला ज़िले में बडबार पुलिस फायरिंग रेंज में एके-47 से फायरिंग करने और बाद में संगरूर ज़िले में लड्डा कोठी फायरिंग रेंज में नौ एमएम पिस्तौल से गोलियाँ चलाने के सन्दर्भ में मामले दर्ज है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में इस बाबत एक जनहित याचिका भी दायर हुई थी, जिसे बाद में रद्द कर दिया गया।

वरिष्ठ साहित्यकार और पंजाब कला परिषद् के अध्यक्ष सुरजीत पातर चाहते हैं कि अश्लील, हिंसा, नशा, हथियार और शराब को बढ़ावा देने वाले गाने समाज के लिए ठीक नहीं हैं। जो चीज़ समाज के हित में नहीं, वह क्यों आनी चाहिए? फिल्मों के लिए सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) जैसा संस्थान है। हर फिल्म को इसकी कसौटी पर कसा जाता है। आपत्तिजनक होने पर उसमें कट या रोकी भी जाती है। पंजाबी एलबम या गानों के लिए ऐसा कोई सरकारी संस्थान नहीं है। पंजाब में इसके लिए प्रयास हुए; लेकिन अभी तक सफलता नहीं मिली है। जब तक कोई ऐसा संस्थान नहीं बनता, ऐसे विवाद पैदा होते रहेंगे।

देश के लिए निशानेबाज़ी में नाम कमा चुकी डीएसपी अवनीत कौर की राय में लोकप्रियता के लिए कुछ भी परोसना क्या सही है। हर फिल्म या गाना ज़रूरी नहीं कि समाज को कोई संदेश दे। बहुत कुछ लोगों के मनोरंजन के लिए होता है; लेकिन उसमें भी किसी की भावनाएँ आहत नहीं होनी चाहिए।

पंजाबी गानों में अश्लीलता के पुट को लेकर कई विवाद होते रहे हैं। दोहरे अर्थों वाले कई गाने खूब लोकप्रिय होते रहे हैं; लेकिन ऐसे गायक लम्बे समय तक टिके नहीं रह सके। सिद्धू मूसेवाला कहते रहे हैं कि जिस तरह से पंजाबी गायकी में उन्होंने मकाम हासिल किया है, वह बहुत लम्बे समय तक बरकरार नहीं रहेगा। जिस तरह से उन्होंने किसी की जगह ली है, आने वाले समय में उनकी जगह कोई और ले लेगा। इतनी जानकारी रखने वाले इस गीतकार और गायक को यह सब पता है, तो फिर जब तक उनका समय है, वह यादगार काम करें; ताकि लोग उन्हें लम्बे समय तक याद रख सकें। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता और समाजसेवी एच.सी. अरोड़ा की राय में पंजाब की समृद्ध संस्कृति रही है। उसे ही आगे बढ़ाये जाने की ज़रूरत है। अश्लीलता, हिंसा और हथियार संस्कृति को बढ़ावा नहीं मिलना चाहिए। ऐसा करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। उन्होंने सिद्धू मूसेवाला मामले में पंजाब के पुलिस महानिदेशक और अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (अपराध) को पत्र लिखकर आग्रह किया है कि ऐसे मामलों में भारतीय दण्ड संहिता की धारा-124 (ए) राजद्रोह को जोड़ा जाना चाहिए; ताकि उन्हें कड़ा दण्ड मिल सके।

विवादों से नाता

मूसेवाला के कई पंजाबी एलबम काफी मकबूल-ओ-मशहूर रहे हैं। वह विभिन्न विषयों पर गाने गाते हैं और लोग उन्हें खूब पसन्द करते हैं। विडम्बना की बात यह कि जिन गीतों में उन्होंने  हथियारों को शामिल किया, ज़्यादा मशहूर वही हुए। फिल्म अभिनेता संजय दत्त की निजी ज़िन्दगी पर आधारित फिल्म ‘संजू’ काफी मशहूर हुई है। लोगों ने उसे सकारात्मक रूप से लिया। बचपन से लेकर अब तक उन्होंने जो ज़िन्दगी में अच्छा-बुरा किया, सब इसमें दिखाया गया है। नशे की गिरफ्त में आना, फिर प्रायश्चित करना और उससे मुक्ति पा लेना। उसके बाद मुम्बई दंगे से पहले दाऊद गैंग के कुछ सदस्यों से परिचय और घातक हथियार एके-56 घर में रख लेना। सब जानते हैं कि उसके बाद क्या हुआ? उन पर टाडा जैसी धारा लगी। अदालत ने उन पर कुछ नरमी दिखायी, इसलिए पाँच साल की कैद काटनी पड़ी थी। उसी फिल्म संजू से प्रेरित होकर मूसेवाला ने अपने गीत से क्या साबित करने की कोशिश की? समझ से परे है। वह गायक के अलावा गीतकार भी हैं। लेकिन उन्हें शब्दों की गम्भीरता का पता नहीं है। अगर होता, तो वह इस एलबम के मुख्य गीत में ऐसे शब्द कतई नहीं लेते, जो समाज को गलत संदेश देते हैं। वह गातें हैं कि जिस तरह से संजू को एके-56 रखने के आरोप में पाँच साल की सज़ा हुई थी, उन पर भी तो वैसा ही आरोप लगाया जा रहा है। तो सज़ा ज़्यादा-से-ज़्यादा पाँच साल की होगी, इससे ज़्यादा नहीं। यह युवा वर्ग को हथियारों के प्रति उकसाने जैसे शब्द हैं और निश्चित तौर पर आपत्तिजनक हैं। इसी के चलते उन पर इस सन्दर्भ में मामला पंजीकृत हुआ है।

‘फँसाने की साज़िश’

सिद्धू मूसेवाला विवादों में हैं; लेकिन वह इसके लिए अपने गीतों से ज़्यादा मीडिया वर्ग, कुछ राजनीतिक लोगों और उनके प्रतिद्वंद्वी पंजाबी गायकों को मानते हैं। वह नामों का खुलासा नहीं करते; क्योंकि इससे और भी विवाद के बढऩे का अंदेशा है। मीडिया तिल का ताड़ बनाकर पेश करता है। वह अपने पुश्तैनी घर पर हैं; लेकिन मीडिया वाले उन्हें फरार बता रहे हैं। उनका कहना है कि भला उन्हें फरार होने की क्या ज़रूरत है? उन्होंने कोई अपराध नहीं किया फिर वह क्यों फरार होंगे? उन्होंने पुलिस और न्यायपालिका पर भरोसा जताते हुए कहा कि उन्हें फँसाने की साज़िशें हो रही हैं। उनकी देश-विदेश में पहचान बनी है। लाखों लोग उनके प्रशंसक हैं। इसी वजह से विरोधी  उनके खिलाफ साज़िश कर रहे हैं। वहीं सरकारी फायरिंग रेंज में लाकडॉउन के दौरान गोलीबारी के अभ्यास में किसी की साज़िश पर मूसेवाला के पास कोई जवाब नहीं है। हथियारों का उन्हें शौक है और उनके पास लाइसेंसी है भी; लेकिन उन्हें सार्वजनिक करना क्या किसी कलाकार के लिए ठीक है? ऐसे मामलों में किसी की कोई साज़िश नहीं। इससे वह इन्कार नहीं कर सकते।

आसान नहीं है आर्थिक सुधारों की डगर

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के अनुसार, कोरोना महामारी के नकारात्मक प्रभावों से निपटने के लिए सरकार खुदरा ऋणों जैसे गृह, कार, पर्सनल (निजी) आदि के िकस्त एवं ब्याज को टालने या मॉरेटोरियम की मियाद बढ़ाने और आतिथ्य, विमानन, रियल एस्टेट आदि क्षेत्रों के ऋण को पुनर्गठित या रिस्ट्रक्चरिंग करने पर विचार कर रही है। फिलहाल ऋण भुगतान में छूट या मॉरेटोरियम की अवधि को 31 अगस्त तक के लिए बढ़ाया गया है, जिसे पुन: बढ़ाने के लिए वित्त मंत्रालय भारतीय रिजर्व बैंक से विमर्श कर रहा है।

इसके अलावा फिक्की की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को सम्बोधित करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि सरकार ऋण पुनर्गठन की सम्भावनाओं पर भी रिजर्व बैंक के साथ चर्चा कर रही है। वित्त मंत्री के अनुसार, ऋण पुनर्गठन की ज़रूरत को सरकार सैद्धांतिक रूप से सही मान रही है। बैंक भी भारतीय रिजर्व बैंक से तीन लाख करोड़ रुपये के कर्ज़ को पुनर्गठित करने की माँग कर रहे हैं। मोटे तौर पर यह ऋण आतिथ्य, विमानन और रियल एस्टेट क्षेत्र से जुड़ा हुआ है; क्योंकि इन क्षेत्रों को कोरोना महामारी की वजह से सबसे ज़्यादा नुकसान उठाना पड़ा है।

अप्रैल, 2020 के अन्त तक बैंकों का होटल क्षेत्र पर 45,862 करोड़ रुपये, विमानन क्षेत्र पर 30,000 करोड़ रुपये और रियल एस्टेट क्षेत्र पर 2.3 लाख करोड़ रुपये बकाया था। रेटिंग एजेंसी इक्रा के मुताबिक, खस्ताहाल विमानन क्षेत्र को अपने अस्तित्व को बचाने के लिए आगामी तीन साल में लगभग 35000 करोड़ रुपये की ज़रूरत होगी। होटल क्षेत्र में कई उधमी कर्ज़ में डूबे हैं। व्यावसायिक परिसम्पत्ति और किराये के कारोबार में भी लगभग 25 फीसदी से ज़्यादा की गिरावट आने की आशंका जतायी जा रही है।

होटल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (एचएआई) के अनुसार, महामारी कोरोना वायरस की वजह से पर्यटन और आतिथ्य क्षेत्र में माँग में 90 फीसदी से अधिक की कमी आ चुकी है। इस क्षेत्र में लगभग 4.5 करोड़ लोगों को रोज़गार मिला हुआ था; लेकिन आज करोड़ों लोगों की नौकरियाँ जा चुकी हैं।

मॉरेटोरियम के तहत बैंक से ऋण लेने वालों को िकस्त एवं ब्याज चुकाने में एक निश्चित अवधि तक के लिए राहत दी जाती है। उदाहरण के तौर पर वर्तमान में 31 अगस्त तक के लिए मॉरेटोरियम की अवधि प्रभावी है, इसलिए इस अवधि तक बैंक से कर्ज़ लेने वालों को िकस्त एवं ब्याज नहीं देना होगा। लेकिन सितंबर में उन्हें इकट्ठे या िकस्तों में िकस्त एवं ब्याज दोनों अपने ऋण खातों में जमा करना होगा, अन्यथा ऋण खाते एनपीए हो जाएँगे।

अमूमन पुनर्गठन के मामले में जब कम्पनियों की माली हालत बहुत ज़्यादा खराब हो जाती है, तो वे बैंकों से ऋण खातों को पुनर्गठित करने के लिए कहते हैं। चूँकि इस विकल्प का चुनाव बैंकों के लिए भी मुफीद होता है, इसलिए वो भारतीय रिजर्व बैंक से नकदी की िकल्लत झेलने वाली कम्पनियों के खातों को पुनर्गठित करने का आग्रह करते हैं। दरअसल कम्पनी के दिवालिया होने पर कम्पनी से बैंक जितनी वसूली कर सकते हैं, उससे कहीं अधिक पैसे बैंक को ऋण खातों के पुनर्गठन से मिलने की उम्मीद होती है। आमतौर पर ऋण की ब्याज दर कम करके या िकस्तों के भुगतान की अवधि में इज़ाफा करके ऋण खातों का पुनर्गठन किया जाता है। इस प्रक्रिया के तहत ऋण के बदले कम्पनी के शेयरों की भी अदला-बदली की जाती है। इसका यह मतलब हुआ कि कम्पनी के शेयरों के बदले बैंक, कम्पनी का कुछ या पूरा ऋण माफ कर सकते हैं। ऋण खातों के पुनर्गठन के तहत कम्पनी बैंक को बांड का कुछ हिस्सा देने के लिए भी राज़ी हो सकते हैं। कम्पनी, बैंक से ब्याज या पूँजी का कुछ हिस्सा माफ करने के लिए भी आग्रह कर सकती है। मामले में बैंक सभी को मॉरेटोरियम या पुनर्गठन का फायदा देने के खिलाफ हैं, जो सही भी है। क्योंकि ऋण चुकाने की हैसियत रखने वाली कई कम्पनियाँ या लोग इस राहत का बेजा फायदा उठा सकते हैं। कुछ लोग आर्थिक रूप से समर्थ होने के बावजूद भी मॉरेटोरियम का फायदा उठा रहे हैं, जिसका वित्तीय क्षेत्र और गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों की सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है। हालाँकि उनके इस कदम से उन्हें ज़्यादा ब्याज चुकाना होगा; क्योंकि बैंक आमतौर पर ऋण खातों में चक्रवृद्धि ब्याज प्रभावित करता है और मॉरेटोरियम का अर्थ ऋण माफी नहीं है।

एक अनुमान के मुताबिक, पहले से गैर-निष्पादित परिसम्पत्ति (एनपीए) से जूझ रहे बैंकों के एनपीए में कोरोना महामारी की वजह से और भी ज़्यादा वृद्धि हो सकती है और एनपीए में भारी इज़ाफा होने के बाद सरकारी बैंकों को नियामकीय शर्तों का अनुपालन करने में परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। क्योंकि इनकी औसत पूँजी पर्याप्तता का अनुपात मार्च, 2020 में 13 फीसदी था; जबकि न्यूनतम पूँजी आवश्यकता सितंबर, 2020 तक बढक़र 11.50 फीसदी होने का अनुमान है। इस तरह सरकारी बैंकों के पास सितंबर महीने में केवल 1.5 फीसदी अधिक पूँजी का कुशन मात्र रह जाएगा, जो मॉरेटोरियम अवधि के समाप्त होने या बड़े कर्ज़ का पुनर्गठन नहीं होने से एनपीए राशि को समायोजित करने में समाप्त हो जाएगा।

वित्तीय जानकारों के अनुसार, वित्त वर्ष 2020-21 में सरकारी बैंकों को नियामकीय शर्तों को पूरा करने के लिए लगभग 50 हज़ार करोड़ रुपये की ज़रूरत होगी। लेकिन सरकार ने अभी तक सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के सम्बन्ध में कोई बात नहीं कही है। हालाँकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में बैंकों के प्रमुखों से बातचीत के दौरान उन्हें यह आश्वासन दिया कि उन्हें पैसों की कमी नहीं होगी। साथ ही उन्हें क्रेडिट ग्रोथ बढ़ाने के लिए भी कहा है। क्योंकि एनपीए होने के डर से सरकारी बैंकों के साथ-साथ निजी बैंक भी कर्ज़ देने में फिलवक्त जोखिम उठाने से बचने की कोशिश कर रहे हैं, जिसके कारण क्रेडिट ग्रोथ में अपेक्षित तेज़ी नहीं आ रही है। भारतीय रिजर्व बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट (एफएसआर) के मुताबिक, बैंकों की ऐसी प्रवृति की वजह से आर्थिक सुधारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। वैसे क्रेडिट ग्रोथ में कमी का एक महत्त्वपूर्ण कारण कर्ज़ की माँग में भारी कमी आना भी है। एफएसआर में कहा गया है कि एए और उसके ऊपर की श्रेणियों को छोड़ दें, तो हर रेटिंग श्रेणी को मिलने वाले ऋण में कमी आयी है। उद्योगों को दिये जाने वाले कर्ज़ में बढ़ोतरी के विश्लेषण से भी पता चलता है कि सरकारी बैंक सिर्फ अच्छी गुणवत्ता वाली कम्पनियों को या अच्छे वित्तीय साख वाले व्यक्तियों को ही कर्ज़ दे रहे हैं। सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा उठाये गये नीतिगत कदमों से वित्तीय बाज़ार की स्थिति में कुछ सुधार आया है और बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को नकदी की िकल्लत का ज़्यादा सामना नहीं करना पड़ रहा है, जिससे उधारी की लागत कम हुई है। फिर भी सरकार विकास वित्त संस्थान या डवलपमेंट फाइनेंस इंस्टीट्यूटशन (डीएफआई) की स्थापना करने पर कार्य कर रही है।

डीएफआई सरकार के स्वामित्व वाली संस्था होगी और उन उद्योगों के लिए ऋण मुहैया करायेगी, जिन्हें वाणिज्यिक ऋणदाताओं से ऋण नहीं मिला है। इस तरह इसका स्वरूप कैसा होगा? निवेश कौन करेगा? आदि की रूपरेखा अभी पूरी तरह से साफ नहीं हुई है। लेकिन कहा जा रहा है कि उद्योगों की ज़रूरतों को पूरा करने में यह महती भूमिका निभा सकता है। रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास के अनुसार, फँसे हुए कर्ज़ या एनपीए से जूझ रहे बैंक उद्योग जगत की बहुत ज़्यादा मदद कर पाने में समर्थ नहीं हैं; इसलिए उद्योगों की बुनियादी ढाँचा वाली परियोजनाओं के लिए रकम जुटाने के लिए नये रास्ते तलाशने होंगे। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर के इस बयान से डीएफआई की अहमियत बढ़ गयी है। गौरतलब है कि इस सन्दर्भ में एक उच्चस्तरीय समिति ने पाँच वर्षों में लगभग 111 लाख करोड़ रुपये की बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के लिए निवेश योजनाएँ भी तैयार की हैं।

कहा जा सकता है कि कोरोना महामारी ने अर्थ-व्यवस्था को बुरी तरह से चौपट कर दिया है। हालाँकि अर्थ-व्यवस्था के पूरी तरह से गतिशील होने के बाद ही कॉरपोरेट क्षेत्र का पूरा नुकसान सामने आयेगा; लेकिन अभी भी अर्थ-व्यवस्था की तस्वीर किसी भी दृष्टिकोण से गुलाबी नहीं है। आम और खास के साथ-साथ उद्योग भी ऋण की िकस्त और ब्याज जमा नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए मॉरेटोरियम अवधि में बढ़ोतरी और बड़े कर्ज़ के पुनर्गठन की माँग की जा रही है। हालाँकि मौज़ूदा स्थिति में सरकार को सभी प्रकार के कर्ज़ को पुनर्गठित करने की ज़रूरत है; तभी आर्थिक सुधारों की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ा जा सकता है।

इसके लिए सरकार और बैंक दोनों को मिलकर काम करना होगा। चूँकि जोखिम कम होने पर ऋण के एनपीए होने की सम्भावना कम होती है और ऐसे ऋण अगर एनपीए हो भी जाते हैं, तो उसकी वसूली की उम्मीद बेहतर होती है। इसलिए एनपीए होने की आशंका से कोरोना-काल में बैंक ऋण देने में विशेष सावधानी बरत रहे हैं। अस्तु क्रेडिट में वृद्धि के लिए सरकार को बैंकों को भरोसा देना होगा कि सरकार उनके साथ खड़ी है। बैंकिंग क्षेत्र में बढ़ते एनपीए को देखते हुए सरकार को बैंकों का पुनर्पूंजीकरण भी करना होगा, ताकि सरकारी बैंक पूँजी पर्याप्तता अनुपात मानक का अनुपालन करने में आगामी महीनों में भी सक्षम रहें। इसके अलावा सरकार को सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्योगों के कर्ज़ पर गारंटी योजना के दायरे को अन्य क्षेत्रों के लिए भी बढ़ाना होगा, ताकि आर्थिक सुधारों की रफ्तार तेज़ हो सके।

( सतीश सिंह एसबीआई के कॉरपोरेट केंद्र, मुंबई के आर्थिक अनुसंधान विभाग में मुख्य प्रबन्धक हैं।)

पाखण्डवाद की चपेट में किसान

भारतीय राजनीति में किसान का पक्ष मज़बूती से रखने वाले कई नेता हुए और किसानों की आवाज़ उठाने वाले नेताओं को किसानों ने कभी हताश या निराश नहीं किया। आज न पहले वाले किसान नेता रहे और न ही अपने नेताओं का डटकर जी-जान से साथ देने वाले किसान रहे। आज का राजनीतिक दौर धार्मिकता, पाखण्डवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद में बदल चुका है। यही कारण है कि जब आज किसानों की दुर्दशा व अन्याय की अनदेखी करके उसे बाँटने का काम आज के तथाकथित नेताओं द्वारा किया जा रहा है, टुकड़ों में बाँटकर किसानों पर आसानी से अन्याय किया जा रहा है, तब भी इस अन्याय के खिलाफ पूरे देश के किसान एकजुट नहीं हो पा रहे हैं। किसानों की न्याय की लड़ाई भटक चुकी है। आज की आधुनिक दौड़ में लगे किसानों के पुत्र तो मज़हब, वर्ण, जाति, कुल, गोत्र, क्षेत्र, भाषा, गरीब, अमीर, छोटा, बड़ा, निजी स्वार्थ, गोरक्षा, नयी गौशाला बनवाने, उनके लिए चन्दा माँगने के धर्म और राजनीतिक के ठेकेदारों के प्रोपेगंडा और न जाने कितनी तरह के पागलपन, पाखण्डवाद तथा आडम्बरों में फँसकर बहक रहे हैं; बर्बाद हो रहे हैं। अब किसानों के बच्चे गाँवों में स्कूल या अस्पताल के लिए नहीं, अपितु नये मन्दिर बनवाने, गाँव के पुराने मन्दिरों में साल भर में हर तीन-तीन महीने में भण्डारा करवाने की ज़िम्मेदारी लेकर घूम रहे हैं।

आप अक्सर देखते होंगे गाँव, कस्बों और शहरों में जगराते करने, हरिद्वार से कांवड़ लाने, माता के दरबार में पैदल जाने, नवरात्रे वृत रखने जैसे धार्मिक कार्यों में आगे आकर किसान पुत्र की बजाय धर्म-पुत्र बनकर अपने कीमती समय गँवाकर खुद को धन्य समझ रहे हैं। यह बात मैं इसलिए कह कह रहा हूँ, क्योंकि मेरा ताल्लुक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक किसान परिवार से है और मैं खेती-किसानी से जुड़ा रहा हूँ और आज हो रही किसानों की दुर्दशा तथा किसानों के बच्चों के भटकाव को अच्छी तरह देख रहा हूँ। पिछले कुछ वर्षों में हरिद्वार से कांवड़ का प्रचलन यहाँ पर बहुत तेज़ी से बढ़ा है। जानकारी करने पर पता चला इन कांवड़ यात्रियों में आजकल ओबीसी और अन्य पिछड़ी जातियों के युवा बढ़-चढक़र हिस्सा ले रहें हैं।

पिछले साल मैं अपने गृह ज़िले शामली गया, तो अखबार में फोटो के साथ खबर थी कि शामली के पुलिस निरीक्षक ने कांवडिय़ों के पैर दबाये, अगले दिन मेरठ के कमिश्नर ने हेलीकॉप्टर से फूल बरसाये। जब मैंने अपने गाँव के कुछ युवाओं से हरिद्वार से कांवड़ लाने के विषय में पूछा, तो उनमें से एक ने कहा मैं तो इसके साथ गया था। दूसरे से पूछा, तो उसने बताया कि ‘हम तो एक महीने खूब मौज़-मस्ती करते हैं। ट्रेन से मुफ्त में हरिद्वार पहुँच जाते हैं। आठ दिन वहाँ मस्ती करने के बाद वापसी के रास्ते में अच्छा खाना-पीना, खीर, हलवा और सूखे मेवों से स्वागत होता है। एक महीने बढिय़ा मनोरंजन होता है।’ दु:ख इस बात का है कि इन बच्चों को अपने भविष्य की चिन्ता नहीं है। मोबाइल की दुनिया ही इन्हें असली दुनिया लगती है। और धार्मिकता में चार दिन की चमक-दमक, सेवा-सुश्रुषा इन्हें सन्तुष्ट कर देती है।

इसके अलावा किसानों और कामगारों के पुत्रों में हिन्दू धर्म के खतरे में होने के भय होने की भयंकर बीमारी भी देखी जा रही है, जो उन्हें मृग-मरीचिका की भाँति असल ज़िन्दगी से भटका रही है। उसके तमाम उदाहरण आपको मिल जाएँगे। शहरों में ही नहीं, गाँवों में भी आपने आजकल सोशल मीडिया पर एक और नयी आधुनिक बीमारी देखी होगी कि अगर किसी परिचित व्यक्ति की मृत्यु हो गयी हो, तो तमाम फेसबुक, व्हाट्सएप ग्रुप आदि पर सबसे पहले किसान पुत्र ही बड़ी ज़िम्मेदारी के साथ आरआईपी-आरआईपी (क्रढ्ढक्क-क्रढ्ढक्क) लिखते हैं। जब मैंने इस बारे में कई किसान पुत्रों से इस विषय में पूछा, तो वे बगलें झाँकने लगे। क्योंकि उन्हें इसका अर्थ ही नहीं पता। उनका जवाब मिला- फलाँ ने लिखा था, तो मैंने भी लिख दिया! मैं बताता हूँ; रिप का मतलब होता है- रेस्ट इन पीस। यानी शान्ति से आराम करो। अब ऐसा क्यों कहते हैं? क्योंकि ईसाई मान्यताओं के अनुसार, कयामत के रोज़ कब्रों के अन्दर से सभी उठ खड़े होंगे। जबकि हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, आत्मा अमर है और शरीर नश्वर। इसलिए उसे अग्नि के हवाले कर दिया जाता है। तो हिन्दू मत के अनुसार, रेस्ट इन पीस का मतलब ही नहीं बनता। इसीलिए हमारे यहाँ विनम्र श्रद्धांजलि देते हैं। पर इन बहकते हुए बच्चों को कौन समझाए?

मैं किसानों के बच्चों से सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि किसान पुत्र होने के नाते आपका फर्ज़ बनता है कि आप अपने गौरवान्वित पेशे किसानी के लिए संगठित होकर उस लड़ाई को लड़ें, जो किसान अपने हक-हुकूक के लिए लड़ता आ रहा है। जब किसान धरने-प्रदर्शन करते हैं, तो कोई मज़दूर उसके साथ नहीं आता। कोई धार्मिक पण्डा-पुजारी, कोई मौलवी, कोई व्यापारी या कोई गौशाला प्रमुख, रक्तदान कराने वाले डॉक्टर या संगठन नहीं आते, कोई सेलिब्रिटी फिल्मी सितारें नहीं आते, खिलाड़ी, राजनेता नहीं आते। जब किसी मज़दूर को मज़दूरी न मिले, तो लेबर कोर्ट है। लेकिन किसान को फसल भाव न मिले, तो मण्डी और फण्डी (दलालों) के लिए तो कोई कोर्ट नहीं है। इसलिए अपनी आँखों पर पड़े पर्दे को उतारो और खुद के खेती-किसानी के मुद्दों पर जितना लिख सकते हो, लिखो; जितना बोल सकते हो बोलो; जो कर सकते हो, करो। आज हर रोज़ अनेक किसान आत्महत्या कर रहे हैं; आत्महत्या को मजबूर हैं। उन्हें कहीं साहूकारों, तो कहीं बैंकों के कर्ज़ ने दबोच रखा है। अधिकतर किसानों की तो लागत भी लौटकर नहीं आती। कर्ज़ा न दे पाने के कारण उन्हें पहले पुलिस प्रताडि़त करती है और फिर जेलों में ठूँस देती है। ये किसान जमानत कराने के लिए वकील की फीस तक नहीं जुटा पाते और न ही इनके पक्ष में कोई राजनेता या कोई धर्म का ठेकेदार खड़ा होता है।

क्या हमें उनसे सवाल नहीं पूछना चाहिए? जिन्होंने इन निरीह किसानों के नाम पर किसान संगठन बनाकर दुकानें खोली हुई हैं? जिन्होंने किसानों को सिर्फ वोटबैंक का ज़रिया समझा हुआ है और बड़े राजनेताओं के लिए अपनी-अपनी वोटबैंक की दुकानें खोली हुई हैं। उन दुकानों पर किसानों की मासूमियत और ज•बातों को ऊँचे दामों पर बेचा जा रहा है। वे तथाकथित किसान नेता हैं और इस देश के हर ज़िले, तहसील, ब्लॉक और कस्बे में सरकार और मण्डी-फण्डी की दलाली करते फिरते हैं और किसानों को लूट-लाटकर अपनी सम्पदा में लगातार बढ़ोतरी कर रहे हैं। क्या किसान पुत्रों को इन किसान संगठनों, तथाकथित नेताओं के खिलाफ आवाज़ नहीं उठानी चाहिए? उनकी सम्पत्ति की जाँच की माँग नहीं करनी चाहिए? इसके अलावा क्या हमें राजनीतिक दलों में किसानों का प्रतिनिधित्व कर रहे नेताओं से नहीं पूछना चाहिए कि वे किसानों की अनदेखी क्यों कर रहे हैं? देश के किसानों को मज़हब, वर्ण, जाति, क्षेत्र आदि में क्यों बाँट रहे हैं? अब तो यहाँ तक इन्होंने तथाकथित नेताओं ने किसानों को फसलों के आधार पर बाँट दिया, जैसे कि यह गन्ने का किसान, आलू का किसान, धान का किसान, कपास का किसान और बाजरे का किसान आदि।

अगर इसी तरह चलता रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब किसानों का यह बँटवारा जातिगत बँटवारे की तरह किसानों में भेदभाव का कारण बन जाए। जी हाँ, इसीलिए किसानों को बाँटा जा रहा है। इसका लाभ होगा? क्या किसानों को इसका कोई लाभ है? नहीं; इसका सीधा फायदा सरकारों और पूँजीवादियों को ही होगा और किसान यूँ ही बदहाली की ज़िन्दगी जीता रहेगा। और अगर ऐसे ही बँटता गया, तो भविष्य में और भी बदहाल ज़िन्दगी जीने को मजबूर हो जाएगा। क्योंकि जब महाराष्ट्र और पश्चिम यूपी के गन्ना किसानों को भुगतान नहीं होता, तो आगरा, मथुरा, बदायूँ और फरुखाबाद समेत अन्य जगहों का आलू का किसान खामोश रहता है। जब हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों को धान का वाजिब दाम नहीं मिलता, तो पूरे देश का गन्ने का किसान चुप रहता है। जब प्याज के किसान को बाजिव दाम नहीं मिलता, तो अन्य सब्जियाँ उगाने वाला किसान चुप रहता है। इसके अलावा भी किसान निजी स्वार्थ और न जाने कितने आडम्बर और पाखण्ड दिमाग में रखकर घूम रहा हैं। क्योंकि राजनेताओं द्वारा उसको पिलायी गयी धार्मिक अफीम का नशा उसके दिमाग को सातवें आसमान पर रखता है और वह अपने भले-बुरे की बात भी नहीं समझ पाता। इसलिए जब तक धार्मिकता के नाम पर अन्धविश्वास और आपसी मतभेद का नशा किसानों के सिर से नहीं उतरेगा, तब तक तथाकथित किसान नेता, राजनेता और धर्म के ठेकेदार मिलकर सभी किसानों के नाम पर मलाई चाटते रहेंगे और किसानों का खून भी चूसते रहेंगे। बहरहाल किसान पुत्र होने के नाते मैं कहना चाहता हूँ कि किसान और उनके बच्चे इस बात का ध्यान रखें कि जब तक वे दीनबन्धु छोटूराम, चौधरी चरण सिंह, देवीलाल और कुम्भाराम आर्य जैसे किसी किसान नेता को अपने नेतृत्व की बागडोर नहीं सौंपते और एकजुट नहीं होते, तब तक ऐसे ही लुटते-पिटते रहेंगे; बर्बाद होते रहेंगे।

कहने का मतलब यह है कि इसमें किसानों के घर में पल रहे पढ़े-लिखे बच्चे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। मैं आज के भोले और निरीह किसानों को कहना चाहता हूँ कि आपस में धर्म, जाति, पन्थ और क्षेत्र आदि को भुलाकर देश और किसान हित के बारे में सोचें, एक साथ मिलकर एक-दूसरे से प्यार-व्यवहार का रिश्ता बनाएँ तथा सच का खुलकर साथ दें। तभी किसानों की दयनीय स्थिति बदलेगी। पहले बदली भी है, जैसे 80 साल पहले सर छोटूराम, 50 साल पहले चौधरी चरण सिंह और 30 साल पहले महेंद्र सिंह टिकैत ने बदली थी। बस आज दरकार है उन जैसे दृढ़संकल्पी, साहसी, ईमानदार, किसान-हितैषी शिक्षित युवा किसान पुत्र की! पूँजीवादियों के दबाव में सरकार जिस प्रकार नये-नये कृषि अधिनियम और किसानों का भला करने की आड़ में कई तरह की नीतियाँ लेकर आ रही है, उससे किसानों को कम और पूँजीवादियों और विदेशी कम्पनियों को अधिक लाभ मिलता नज़र आ रहा है। आज के किसानों और खासतौर से किसानों के बच्चों को इस बात को गम्भीरता से समझने की आवश्यकता है कि अगर एक बार किसान पूँजीपति के चंगुल में फँस गया, तो उसका निकलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन हो जाता है। ऐसे में वह जीवन भर सिर्फ छटपटाने के अलावा कुछ नहीं कर पाता और अन्त में या तो आत्महत्या कर लेता है या बेइ•ज़ती की ज़िन्दगी जीता रहता है।

अब भी समय है कि किसान धर्म, जाति, क्षेत्र, छोटे-बड़े और फसलवाद के बँटवारे के चक्कर में न फँसकर एकजुट हों और अपने लिए हक-हुकूक की लड़ाई लड़ें। अगर किसान जल्दी ही नहीं जागे, तो वह दिन दूर नहीं, जब नये मण्डी और कॉन्ट्रेक्ट खेती अधिनियम से किसानों से उनकी ज़मीने छिन जाएँगी; क्योंकि यह खतरा किसानों पर मँडराने लगा है। मध्य प्रदेश में ज़बरन किसानों से ज़मीन छीनने के चक्कर में उनकी खड़ी फसलों को उजाडऩा इसके ताज़ा उदाहरण हैं। कहीं ऐसा न हो कि किसान अपनी ही खेती की ज़मीन में किसी दिन मज़दूर बनकर काम करते नज़र आएँ, जैसा कि साहूकारी के दौर में होता रहा है। कहीं ऐसा न हो कि किसानों का भोलापन और आपसी भेदभाव आने वाली किसान पीढिय़ों के लिए भयानक प्रताडऩा का कारण बन जाए।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक सम्पादक है और यह उनके निजी विचार हैं।)

श्रीलंका में राजपक्षे की जीत के मायने

भारत के चीन के साथ सीमा पर तनाव के बीच पड़ोसी मुल्क श्रीलंका में चुनाव के बाद महिंदा राजपक्षे सत्ता में स्थापित हो गये हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बधाई के जवाब में भले उन्होंने भारत के साथ रिश्तों को मित्र और परिवार जैसा बताया। लेकिन एक सच यह भी है कि उन्हें चीन की तरफ झुकाव रखने वाला नेता माना जाता है। यह राजपक्षे ही थे, जिन्होंने अपने पिछले कार्यकाल में चीन के साथ कई बुनियादी संरचना निर्माण सम्बन्धी समझौते किये थे, जिनमें से एक कर्ज़ा चुकाने में असमर्थ रहने पर रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण हंबनटोटा बंदरगाह 99 साल के लिए चीन को दे देना भी शामिल था। इस समझौते ने एशिया ही नहीं, यूरोप में भी चिन्ता पैदा की थी।

चुनाव में राजपक्षे की पार्टी श्रीलंका पोदुजना पेरमुना (सहयोगियों के साथ श्रीलंका पीपुल्स फ्रंट) ने संवैधानिक परिवर्तनों की भी बात की थी। इसके लिए उसे दो-तिहाई बहुमत चाहिए था, जो उसे मिल गया है। महिंदा के भाई गोतबए राजपक्षे पहले से देश के राष्ट्रपति हैं। महिंदा राजपक्षे ने चुनाव में जाते हुए अपनी पार्टी श्रीलंका पोदुजना की तरफ से संविधान में बदलाव की जो बात कही है, उसमें राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के कार्यकाल की संख्या में बढ़ोतरी और पहले से चल रहे कानूनों में बदलाव शामिल हैं।

राजपक्षे कह चुके हैं कि संविधान में बदलाव करके देश को आर्थिक और सैन्य रूप से सुरक्षित और मज़बूत करना चाहते हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि सैन्य स्तर पर बदलावों में चीन का किस हद तक रोल रहता है? उनके पिछले कार्यकाल में चीन का असर साफ दिखा था। राजपक्षे सिंहली हैं और देखना होगा कि तमिल समुदाय को लेकर उनके फैसले कैसे रहते हैं? हाल के वर्षों में श्रीलंका में सिंहली-बौद्ध और मुस्लिम-तमिल समुदायों के बीच कुछ मसले उभरते देखे गये हैं। राजपक्षे के भाई ही थे, जिन्होंने सत्ता में रहते हुए चरमपंथी संगठन एलटीटीई का खात्मा किया था।

हाल के चुनाव प्रचार में यह देखने में आया है कि श्रीलंका में सिंहली राष्ट्रवाद अलग स्तर पर उभरा है। ज़ाहिर है इससे देश के अल्पसंख्यक समुदायों में चिन्ता बढ़ी है। श्रीलंका के मुस्लिम नेता और लोग पिछले साल ईस्टर पर कुछ इस्लामिक चरमपंथियों द्वारा किये गये बम धमाकों के बाद सिंहली समुदाय के गुस्से के निशाने पर रहे हैं। उन धमाकों में 260 से अधिक लोगों की जान चली गयी थी। यही नहीं, राष्ट्रपति गोतबए राजपक्षे, जो पहले प्रधानमंत्री भी रहे हैं; के ऊपर गृह-युद्ध के दौरान मानवाधिकार हनन के गम्भीर आरोप लगे थे। आरोप यह भी लगे कि विरोध के स्वर दबाने के लिए गोतबए ने उन्हें निशाना बनाया। वैसे, राजपक्षे इन तमाम आरोपों को सिरे से खारिज करते रहे हैं।

यदि याद करें, तो अपने पिछले कार्यकाल में राजपक्षे ने चीन समर्थक रुख ज़ाहिर किया था। कुछ जानकार तो यहाँ तक कहते हैं कि यह राजपक्षे ही हैं, जिन्होंने श्रीलंका को एक तरह से चीन के उपनि‍वेश के रूप में बदल दिया था। उसके बाद भी राजपक्षे के जो बयान आते रहे हैं, उन्हें देखकर नहीं लगता कि राजपक्षे के विचारों और नीतियों में कोई परिवर्तन दिखा हो। अब चूँकि वह प्रधानमंत्री बन गये हैं, तो चीन के प्रति उनका झुकाव इस क्षेत्र में भारत के लिए चिन्ताजनक माना जाएगा।

चीन भारत के साथ तो सीमा पर तनाव में उलझा ही है, उसने नेपाल जैसे देश को भी भारत के खिलाफ कर दिया है। नेपाल ने पिछले कुछ महीनों में खुले रूप से भारत विरोधी रुख दिखाया है। यही नहीं, हाल के महीनों में हमारे मित्र देश माने जाने वाले बांग्लादेश तक का रुख भी बदला है और वह चीन के करीब जाता दिख रहा है। बांग्लादेश पिछले कुछ समय में भारत के कुछ बयानों के कारण नाराज़ दिखा है। पाकिस्तान तो पहले ही चीन की गोद में बैठा है।

ऐसे में श्रीलंका में भी चीन समर्थक राजपक्षे के आने से भारत की दक्षिण एशिया क्षेत्र में चिन्ता निश्चित ही बढ़ेगी। भारत के सेनाध्यक्ष नरवणे अगस्त के पहले पखबाड़े सेना को हर स्थिति के लिए तैयार रहने को कह चुके हैं। चीन को लेकर बहुत-से विशेषज्ञ यह आशंका जाता रहे हैं कि वह सर्दियों में कुछ खुराफात कर सकता है। ऐसे में पड़ोस में चीन समर्थक सत्ताओं का जमाबड़ा भारत के लिए चिन्ता पैदा करने वाला तो माना ही जाएगा, भले अमेरिका और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी से निजी मित्रता के कारण दोस्ती निभाने का इज़हार कर चुके हों।

श्रीलंका में राजपक्षे की प्रधानमंत्री के तौर जीत को लेकर विदेशी मामलों के जानकारों में अलग-अलग राय रही है। अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार डॉ. रहीस सिंह का साफ तौर पर कहना है कि राजपक्षे की जीत से चीन की रणनीति सफल हुई है। इससे भारत को घेरने की उसकी स्ट्रिंग ऑफ पल्र्स नीति को मज़बूत मिली है और निश्चित ही वह राजपक्षे के सत्ता में आने के बाद अब मलक्‍का-जि‍बूती के बीच ‍यू मेरिटाइम रूट नीति को आगे बढ़ाने की कोशिश करेगा। यह भारत के खिलाफ चीन की एक तरह से दोहरी साज़िश जैसा है। सिंह मानते हैं कि दुनिया में अब मनोवैज्ञानिक बढ़त की नीति अपनायी जाने लगी है और भारत को बदलकर आक्रामक रुख अपनाना होगा।

वैसे श्रीलंका में महिंदा राजपक्षे की जीत के बाद उन्हें बधाई देने वाले नरेंद्र मोदी पहले  विदेशी नेताओं में से एक हैं और इसके जवाब में राजपक्षे ने एक ट्वीट के ज़रिये प्रधानमंत्री मोदी का शुक्रिया अदा किया। राजपक्षे ने लिखा- ‘श्रीलंका के लोगों के समर्थन के साथ, दोनों देशों के बीच लम्बे समय से चले आ रहे सहयोग को और आगे बढ़ाने के लिए आपके साथ मिलकर काम करने को उत्साहित हूँ। श्रीलंका और भारत अच्छे मित्र और सहयोगी हैं।’ राजपक्षे ने यह भी कहा कि दोनों पक्ष सभी क्षेत्रों में द्विपक्षीय सम्बन्धों को आगे बढ़ाने और विशेष सम्बन्धों को कोई नयी ऊँचाई पर ले जाने के लिए काम करेंगे। यह देखना दिलचस्प होगा कि राजपक्षे का यह बयान ज़मीनी स्तर पर कितना सही उतरता है? या महज़ औपचारिक ही बनकर रह जाता है?

इस परिप्रेक्ष्य में कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि शायद राजपक्षे भारत को नाराज़ करने से बचने की नीति अपनाएँ। अंतर्राष्‍ट्रीय मामलों के जाने-माने विशेषज्ञ कमर आगा ने श्रीलंका चुनाव नतीजों के बाद कहा कि श्रीलंका अपने स्तर पर चतुराई की नीति पर काम करता है। वह चीन ही नहीं भारत से भी अपने हित के लाभ लेता है। यह देखा गया है कि श्रीलंका ने जहाँ अपनी कुछ परियोजनाएँ चीन को दी हैं, वहीं भारत को भी दी हैं। आगा मानते हैं कि महिंदा राजपक्षे शायद भारत के साथ सम्बन्ध खराब नहीं करना चाहेंगे। ऐसा इसलिए भी, ताकि चीन का उस पर असर एक सीमित स्तर तक ही रहे।

आगा साफ तौर पर मानते हैं कि राजपक्षे की नीति चीन के साथ अच्छे सम्बन्ध रखते हुए भी भारत से रिश्‍ते बनाये रखने की है। श्रीलंका को पता है कि भारत से बेवजह की दुश्‍मनी उसके गले की फाँस भी बन सकती है।

आगा के मुताबिक, नई दिल्ली की राजपक्षे से सम्भवत: सबसे बड़ी यही अपेक्षा रहेगी कि उनका देश चीन को अपने यहाँ सैन्य गतिविधियों की किसी भी सूरत में इजाज़त न दे। इसके अलावा एक बेहतर पक्ष यह भी है कि श्रीलंका के सिंहली और तमिल परस्पर विरोधी समुदाय होने के बावजूद एक मामले में एकजुट हैं कि भारत के साथ श्रीलंका के रिश्‍ते खराब न रहें। राजपक्षे को उनकी इस सोच के एकदम उलट जाना उतना आसान नहीं होगा।

लेकिन इन सब पक्षों के बावजूद यह एक बड़ा सच यह है कि राजपक्षे की पार्टी आरम्भ से ही चीन की करीबी मानी जाती रही है। इसका एक कारण श्रीलंका की आर्थिक स्थिति को मज़बूती प्रदान करने के लिए हाल के वर्षों में चीन का श्रीलंका में बड़े पैमाने पर किया जाता रहा निवेश है। यह दिलचस्प है कि चीन के इस निवेश को राजपक्षे चुनाव प्रचार में अपने विकास मॉडल के रूप में प्रचारित करते रहे हैं। उनका कहना रहा कि इस निवेश का श्रीलंका को फायदा है और जनता ने उन्हें वोट देकर उनकी इस बात पर भरोसा जताया है।

याद रहे चीन ने बंदरगाहों के ज़रिये श्रीलंका में निवेश बढ़ाया है। चीन के इस निवेश के प्रति राजपक्षे परिवार के नेताओं का ज़बरदस्त मोह रहा है। एक समय यह भी आया कि श्रीलंका ने चीन के इस निवेश के चलते भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका की कई परियोजनाओं से खुद को अलग कर लिया। यही नहीं, उसने चीन को हिन्द महासागर में अपने क्षेत्र से आने की मंज़ूरी दी। श्रीलंका का सबसे कमज़ोर पक्ष आर्थिक ढाँचे का बहुत कमज़ोर होना है, जिसका चीन ने हाल के वर्षों में भरपूर फायदा उठाया है। श्रीलंका कर्ज़ में डूबा है और चीन इसका लाभ उठा रहा है। श्रीलंका के कुल कर्ज़ का करीब 12 फीसदी चीन से है, जिससे ज़मीनी स्थिति को समझा जा सकता है।

असैन्य परमाणु समझौता

नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के एक साल के भीतर पड़ोसी देशों से सम्बन्ध सुधारने की अपनी नीति के तहत 2015 में श्रीलंका के साथ एक असैन्य परमाणु समझौते पर दस्तखत किये थे। उस दौरान रक्षा और सुरक्षा सहयोग बढ़ाने पर भी सहमति बनी थी। मोदी और श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना के बीच यह समझौता हुआ था। तब मोदी ने कहा था कि असैन्य परमाणु सहयोग पर द्विपक्षीय समझौता हमारे आपसी विश्वास की एक और अभिव्यक्ति है।

दिलचस्प यह भी था कि श्रीलंका की तरफ से  हस्ताक्षरित अपनी तरह का यह पहला समझौता था। यह सिरीसेना ही थे, जिन्होंने श्रीलंका का राष्ट्रपति बनने के बाद अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए भारत को चुना था। तब राष्ट्रपति चुनाव में सिरीसेना ने महिंदा राजपक्षे को ही मात दी थी, जो अब प्रधानमंत्री बने हैं। हालाँकि उसके बाद दोनों देशों में रिश्तों को लेकर कुछ खास नहीं हुआ है। महिंदा राजपक्षे के चीन के निकट होने के कारण आने वाले समय में भारत के साथ उनके रिश्तों को लेकर पूरे एशिया ही नहीं पश्चिम में भी विशेषज्ञों की नज़र रहेगी।

चुनावी नतीजे

राजपक्षे की पार्टी के नेतृत्व वाले गठबन्धन श्रीलंका पीपल्स फ्रंट ने इस चुनाव में कुल 225 में से 145 सीटें जीतीं। पाँच सीटें उनकी सहयोगी पार्टियों को मिलीं। याद रहे श्रीलंका में एसएलपीपी ने 9 महीने पहले राष्ट्रपति चुनाव भी जीता था, जिसके बाद गोतबए राजपक्षे ने 18 नवंबर को राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी।

महिंदा राजपक्षे सन् 2005 से 2015 तक राष्ट्रपति भी रहे। इसके अलावा वह 2002-2004 और 2018-2019 में विपक्ष के नेता भी रहे हैं। नतीजों से ज़ाहिर होता है कि श्रीलंका में पूर्व राष्ट्रपति रणसिंघे प्रेमदासा के पुत्र सजित प्रेमदासा के नेतृत्व में बना नया गठबन्धन अब श्रीलंका में मुख्य विपक्षी दल के तौर पर उभरकर आया है।

राजपक्षे को देश की सिंहली आबादी में खासी लोकप्रियता हासिल है। वह खुद इसी समुदाय से हैं। श्रीलंका में सिंहली कुल आबादी का करीब 26 फीसदी हैं। यह समुदाय राजपक्षे का इसलिए भी बड़ा समर्थक है, क्योंकि सन् 2009 में अलगाववादी संगठन तमिल लिबरेशन टाइगर्स इलम (एलटीटीई) को खत्म करने का बड़ा श्रेय उन्हें दिया जाता है। श्रीलंका की जनता कोरोना महामारी के वक्त महिंदा के बतौर अंतरिम प्रधानमंत्री रहते प्रदर्शन से भी खुश है। महिंदा 2005 से 2015 तक राष्ट्रपति रहे, जिस दौरान उन्होंने अपनी स्थिति मज़बूत की। उनके इस कार्यकाल के दौरान संविधान संशोधन किया गया और उनके तीसरी बार राष्ट्रपति बनने की राह साफ हुई। एक तरह से इसने उनके परिवार को श्रीलंका की सियासत में स्थापित कर दिया। हालाँकि सन् 2014 में महँगाई और भ्रष्टाचार के आरोपों से महिंदा राजपक्षे की लोकप्रियता को झटका लगा। उन्होंने समय से पहले 2015 में चुनाव करा लिये, जिसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा।

उस राष्ट्रपति चुनाव में महिंदा राजपक्षे को अपने ही सहयोगी रहे मैत्रीपाला सिरीसेना से हार झेलनी पड़ी। उसी साल संसद ने 2015 में एक व्यक्ति के दो बार ही राष्ट्रपति रहने से सम्बन्धित संवैधानिक सीमा को बहाल कर दिया। इससे महिंदा फिर राष्ट्रपति चुनाव नहीं लड़ पाये। तीन साल बाद 2018 में तत्कालीन राष्ट्रपति सिरीसेना ने अचानक प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को हटाकर महिंदा राजपक्षे को कुछ समय के लिए प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। बाद में महिंदा और संसद में उनके समर्थकों ने सत्तारूढ़ पार्टी को छोडक़र एलएसपीपी का दामन थाम लिया, जिसके बाद वह नेता प्रतिपक्ष चुने गये। साल 2019 में उनके छोटे भाई गोतबए देश के राष्ट्रपति चुन लिये गये।

मछुआरों को लेकर रहा है तनाव

भारत और श्रीलंका के बीच मछुआरों का मसला काफी समय से रहा है। श्रीलंका के नौसैनिकों ने कुछ साल पहले जब तमिलनाडु के मछुआरों को गिरफ्तार कर लिया था, तब इस पर खासा बवाल मचा था। तब भारत सरकार ने सख्त एतराज़ जताया था। यही नहीं, इससे तमिलनाडु में भी खासा आक्रोश देखने को मिला था। सन् 2015 में जब प्रधानमंत्री मोदी और श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाला श्रीसेना के बीच परमाणु सन्धि हुई थी, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मछुआरों के मुद्दे पर कहा था कि उन्होंने और सिरीसेना ने इसे सर्वोच्च महत्त्व दिया है। यह दोनों पक्षों के लोगों की आजीविका को प्रभावित करता है। हम इस बात पर सहमत हुए कि इस मुद्दे पर एक रचनात्मक और मानवीय रवैया अपनाया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि हम दोनों पक्षों के मछुआरों के संघों को जल्द मिलने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। उन्हें एक ऐसा समाधान निकालना चाहिए, जिसे दोनों सरकारें आगे बढ़ा सकें। लेकिन उसके बाद स्थितियाँ कई बार जटिल हुई हैं। मछुआरों की जब बात आती है, तो श्रीलंका के काछाथीवू द्वीप का ज़िक्र भी होता है।

रामेश्वरम से तकरीबन 10 मील दूर भारत और श्रीलंका के बीच पाक जलडमरू मध्य में स्थित 280 एकड़ का यह बंजर द्वीप एक समय भारतीय क्षेत्र में शामिल था। काछाथीवू सरकारी दस्तावेज़ों में भारत का हिस्सा बना रहा और यह स्थिति 1974 तक रही। तब श्रीलंका में श्रीमाओ भंडारनायके प्रधानमंत्री थीं और अपने राजनीतिक जीवन के मुश्किल दौर में थीं। सन् 1974 में जब वह भारत की यात्रा पर आयीं, तब उन्हें इंदिरा गाँधी का करीबी माना जाता था। उस समय काछाथीवू को विवादित क्षेत्र मानते हुए एक समझौते के तहत इसे श्रीलंका को सौंपा गया, जिससे भंडारनायके को अपनी राजनीतिक ज़मीन दोबारा पाने में मदद मिली। इंदिरा सरकार की सोच थी कि इससे दोनों देशों के रिश्ते मज़बूत होंगे। समझौते में प्रावधान था कि तमिलनाडु के मछुआरे काछाथीवू के आसपास आगे भी बेरोकटोक मछली पकडऩे आ सकते हैं। लेकिन सन् 1976 में भारत और श्रीलंका के बीच समुद्री सीमा तय करने के लिए एक और समझौता हुआ, जिसमें प्रावधान था कि श्रीलंका समुद्र के विशेष आर्थिक क्षेत्र में भारतीय मछुआरों को मछली पकडऩे की अनुमति नहीं होगी। समझौते के बाद भी तमिलनाडु के मछुआरे काछाथीवू के आस-पास मछली पकडऩे का काम करते रहे।  कुछ साल पहले श्रीलंका की नौसेना ने इस पर आपत्ति जताते हुए कई भारतीय मछुआरों को हिरासत में ले लिया था। कुछ नौसेना की गोलीबारी में मारे गये, जिससे दोनों देशों में तनाव भी बढ़ा। तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि ने तो सन् 2008 में इसके खिलाफ बाकायदा सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल की, जिसमें काछाथीवू द्वीप को श्रीलंका से वापस लेने की माँग थी। हालाँकि अभी तक यथास्थिति बनी हुई है। देखना यह है कि महिंदा राजपक्षे की नयी सरकार का मछुआरों को लेकर क्या रुख रहता है।

श्रीलंका की राजनीति में राजपक्षे परिवार

महिंदा राजपक्षे : राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंगा के शासनकाल में 1994 से 2001 और 1997 से 2001 में मंत्री रहे। कुमारतुंगा ने अप्रैल, 2004 के आम चुनाव के बाद उन्हें प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। महिंदा को साल 2005 में श्रीलंका फ्रीडम पार्टी के राष्ट्रपति उम्मीदवार बने और जीते, जिसके बाद उन्होंने लिट्टे को खत्म करने के अभियान को तेज़ी दी। साल 2009 में लिट्टे के करीब 30 साल के खूनी संघर्ष को खत्म करके महिंदा सिंहली बौद्ध समुदाय में एक तरह हीरो बन गये और 2010 के चुनाव में वह एक बार फिर राष्ट्रपति चुने गये।

गोतबए राजपक्षे : गोतबए महिंदा के छोटे भाई हैं और अप्रैल, 2019 को ईस्टर पर हुए बम धमाकों के बाद श्रीलंका की राजनीति में उन्हें एसएलपीपी ने राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना दिया और वह जीत गये। वैसे गोतबए लिट्टे के खिलाफ असैन्य संघर्ष के दौरान देश के रक्षा सचिव और 1992 में अमेरिका जाने से पहले श्रीलंका सेना में कर्नल के पद पर थे।

बासिल राजपक्षे : महिंदा के छोटे भाई हैं। श्रीलंका के संसदीय चुनाव में बासिल ने ही रणनीति पर काम किया था। बासिल एसएलपीपी के राष्ट्रीय संयोजक हैं और महिंदा के शासनकाल में आर्थिक विकास मंत्री रह चुके हैं। उन्हें एक चतुर राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में जाना जाता है।

चमाल राजपक्षे : महिंदा के बड़े भाई। उनके राष्ट्रपति शासनकाल (2010-15 ) के दौरान चमाल श्रीलंका संसद के स्पीकर रहे। सन् 2019 में गोतबए के राष्ट्रपति बनने के बाद नयी सरकार में चमाल को कृषि और ग्रामीण विकास मंत्रालय दिया गया। वह रक्षा राज्य मंत्री और अन्य महकमों के भी मंत्री रहे।

नमल राजपक्षे : महिंदा के सबसे बड़े पुत्र। करीब 34 साल के नमल पेशे से वकील हैं। हालाँकि उन्हें परिवार का उत्तराधिकारी माना जाता है। वह संसदीय चुनाव में हम्बनटोटा से विजयी रहे हैं। नमल को सत्ता में प्रभावशाली माना जाता है। फिलहाल उनके पास कोई पद नहीं है। हाँ, उन पर धनशोधन के आरोप ज़रूर लग चुके हैं। इसके लिए वह मुकदमा भी झेल रहे हैं। जानकार मानते हैं कि महिंदा के इसी शासनकाल में उन्हें बड़ी ज़िम्मेदारी मिल सकती है, जिसमें राष्ट्रपति का पद भी शामिल है।