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फेसबुक-वॉट्सऐप पर भाजपा-आरएसएस का है कब्जा, इसके जरिये फैला रहे फेक न्यूज : राहुल

एक मशहूर विदेशी अखबार में छपी खबर को लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने रविवार को आरोप लगाया है कि भाजपा और आरएसएस भारत में फेसबुक और व्हाट्सएप को नियंत्रित करते हैं और इनके जरिये घृणा  फैला रहे हैं। राहुल ने अपने ट्वीट के साथ अखबार में छपी खबर को भी शेयर किया है।

राहुल गांधी ने ट्वीट में लिखा – ‘भाजपा और आरएसएस भारत में फेसबुक और व्हाट्सएप को नियंत्रित करते हैं। वे इसके माध्यम से फर्जी खबरें और नफरत फैलाते हैं और इसका इस्तेमाल मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए करते हैं। आखिरकार, अमेरिकी मीडिया फेसबुक के बारे में सच्चाई के साथ सामने आया है।’

बता दें कांग्रेस नेता ने  जिस खबर को ट्वीट में शेयर किया है उसमें रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर भाजपा नेता टी राजा सिंह के बयान का जिक्र है। रिपोर्ट के मुताबिक टी राजा सिंह का बयान फेसबुक के हेट स्पीच रूल का उल्लंघन करता है लेकिन वो फेसबुक का इस्तेमाल कर पा रहे हैं।

जिस रिपोर्ट का हवाला गांधी ने अपने ट्वीट में दिया है उसमें कहा गया है कि भारत में ऐसे कई लोग हैं जो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर नफरत फैलाते हैं। दरअसल पिछले दिनों अमेरिकी अखबार वॉल स्ट्रीट जनरल ने फेसबुक के कर्मचारियों के हवाले से एक रिपोर्ट शेयर की थी। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में कई लोगों ऐसे हैं जो सोशल प्लेटफॉर्म के जरिए फेक न्यूज और नफरत फैलाने का काम कर रहे हैं।

याद रहे इससे पहले राहुल गांधी ने एक और ट्वीट में चीन के मामले में सीधे पीएम नरेंद्र मोदी पर हमला किया था। उन्होंने कहा कि ‘सिवाय प्रधानमंत्री के सभी को भारतीय सेना की क्षमता और शौर्य पर विश्वास है’।

गांधी ने ट्वीट में कहा – ‘सभी को भारतीय सेना की क्षमता और शौर्य पर विश्वास है।  सिवाय प्रधानमंत्री के – जिनकी कायरता ने ही चीन को हमारी ज़मीन लेने दी। जिनके झूठ से यह सुनिश्चित होगा कि वे इसे बनाए रखेंगे।’

गांधी ने एक और ट्वीट में मोदी सरकार पर हमला बोलते हुए कहा था कि भारत सरकार लद्दाख में चीनी इरादों का सामना करने से डर रही है। जमीनी हकीकत संकेत दे रही है कि चीन तैयारी कर रहा है और मोर्चा साधे है। प्रधानमंत्री के व्यक्तिगत साहस की कमी और मीडिया की चुप्पी की भारत को बहुत भारी कीमत चुकानी होगी।’

इसके अलावा कांग्रेस नेता ने देश में आर्थिक हालात पर भी लगातार ट्वीट किये हैं और इसे लेकर चिंता जताई है। राहुल ने एक ट्वीट में कहा कि शहर में बेरोजगारी की मार से पीड़ितों के लिए मनरेगा जैसी योजना और देशभर के गरीब वर्ग के लिए न्याय योजना लागू करना आवश्यक है। ये अर्थव्यवस्था के लिए भी बहुत फायदेमंद होगा। लूट और पर्यावरण विनाश को रोकने के लिए ईआईए 2020 के मसौदे को वापस लिया जाना चाहिए। क्या सूट-बूट-लूट की सरकार गरीबों का दर्द समझ पाएगी ?

आस्था की नींव, कब आयेगा राम राज्य?

राम निकाई रावरी है, सबही को नीक।

जों यह साँची है सदा, तौ नीको तुलसीक।।

गोस्वामी तुलसीदास के इन शब्दों का अर्थ है- ‘हे श्री रामजी! आपकी अच्छाई से सभी का भला ही होता है। यदि यह बात सच है, तो तुलसीदास का भी सदा कल्याण ही होगा। यही बात जनता भी सोचती है कि राम की कृपा से सभी का भला ही होगा। लेकिन यह भला करेगा कौन? क्या राम पृथ्वी पर उतरकर आयेंगे? नहीं, उनके नाम पर सत्ता चलाने वाले करेंगे; क्योंकि राम तो परलोक सँवारने वाले हैं। लोक तो लोक-शासक ही सँवारेंगे! राम के शासन को लेकर कहीं कहा गया है- राम राज्य में राजा-प्रजा का सम्बन्ध शासक और शासित जैसा न होकर पिता-पुत्र जैसा था। प्रजा की छोटी-छोटी आवश्यकताओं का भी वे पूरा ध्यान रखते थे। अर्थात् उनके राज्य में एक भी व्यक्ति, यहाँ तक कि जीव-जन्तु भी दु:खी नहीं थे। राम ने प्रजा के लिए मर्यादा का हृदय से निर्वहन किया। यही आशा आज की प्रजा को उन लोगों से है, जो राम राज्य का वादा करके सत्ता में आये हैं। अयोध्या में 5 अगस्त को भूमि पूजन के साथ राम मन्दिर के शिलान्यास से आस्था रखने वालों का एक लम्बा इंतज़ार पूरा हुआ है। राम मन्दिर को लेकर भाजपा ने हिन्दुत्व के अपने एक राजनीतिक एजेंडे को पूरा किया है। अब भारत में राम राज्य की परिभाषा को भी प्रतीकों और शब्दों से बाहर निकालकर मूर्त रूप देने की एक बड़ी ज़िम्मेदारी भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की है। प्रधानमंत्री मोदी ने अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के मन्दिर के शिल्यान्यास के साथ भगवान राम को दण्डवत् प्रणाम करके आस्था की नींव रखी है। लोकसभा चुनाव में जनता ने भी अपनी बहुत-सी समस्यायों के हल के लिए पुन: शासन हाथ में देते हुए मोदी से उम्मीद जतायी थी, और इस उम्मीद को फलीभूत करना अब उनकी मर्यादा में शामिल होना चाहिए।

अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण का वादा भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र का हिस्सा था। जनता ने उसे सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुमत से आगे 303 सीटें दीं और सहयोगी दलों (एनडीए) को मिलाकर कुल 353 सीटें दीं; जो कि एक ऐतिहासिक जीत है। ज़ाहिर है राजनीतिक रूप से भाजपा हिन्दुत्व के जिस एजेंडे पर चलती है, उसमें उसके लिए राम मन्दिर के निर्माण का रास्ता साफ करने के लिए यह एक बड़ी जीत है। अब साफ है कि राजनीतिक रूप से अगले लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा बिहार, पश्चिम बंगाल और उसके बाद उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में इसका लाभ लेने की पूरी कोशिश करेगी।

मन्दिर निर्माण पूरा होने का समय करीब तीन साल बताया गया है। ज़ाहिर है अगले लोकसभा चुनाव से पहले तक भाजपा मन्दिर के निर्माण को अपनी उपलब्धि के रूप में जनता के दिमाग में जीवित रखने की कोशिश करेगी। लेकिन 10  साल के शासन के बाद एक एंटी इंकम्बेंसी के साथ भाजपा सिर्फ इसी मुद्दे के सहारे क्या चुनावों की वैतरणी पार कर पायेगी? ज़ाहिर है यह भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती होगी।

पिछले एक साल में मोदी के नेतृत्व वाले शासनकाल में काफी अच्छी-बुरी चीज़ें हुई हैं। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 खत्म करने को लेकर उसके पक्ष और विपक्ष में दोनों स्वर उभरे हैं। जम्मू-कश्मीर में इसके बाद अफसरशाही के हावी होने और भ्रष्टाचार बढऩे से जनता के काम रुकने और उसकी दिक्कतें बढऩे की काफी शिकायतें सामने आ रही हैं। कश्मीर में अभी जनता मन से इस परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पायी है, और आतंकवाद की घटनाएँ एक साल के बाद भी हो रही हैं; भले ही बड़ी संख्या में आतंकवादी मारे भी गये हैं। जम्मू-कश्मीर में मुख्य-धारा के कई नेता अभी जेलों में हैं। केंद्र सरकार की कश्मीर नीति निश्चित ही अभी इम्तिहान के दौर में है। इसके अलावा राम मन्दिर शिलान्यास की तारीख (5 अगस्त) को भाजपा के एक वर्ग ने जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 खत्म करने के जश्न के रूप में पेश करने की कोशिश की है, जिसका सन्देश अच्छा नहीं गया है। इस तरह राम की मर्यादा के विपरीत बात तो हुई ही, इसे बहुत-से लोगों ने भाजपा के अहंकार के रूप में भी देखा है।

एनआरसी और सीएए को लेकर तमाम प्रदर्शन हुए, जिनके बीच काफी विवाद भी उभरे। इससे देश के काफी लोगों में नाराज़गी है। भाजपा ने इस नाराज़गी को दूर करने की पार्टी और सरकारी स्तर पर कोई कोशिश नहीं की, सिवाय एनआरसी पर पलटने के। साल के शुरू में कोरोना महामारी ने देश में पाँव इस ढंग से पसारे कि मुश्किलों का एक बुरा दौर शुरू हो गया। आरोप लगे हैं कि मोदी सरकार को उपाय करने में देर लगी। अचानक लगाये गये लॉकडाउन के बाद करोड़ों लोगों को विस्थापन की मार झेलनी पड़ी। इनमें से कितने ही असमय मारे गये, लाखों पुलिस से पिटे, करोड़ों भूखे-प्यासे सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने गाँव, कस्बे और शहर पहुँचे; जिनमें करोड़ों अभी तक बेरोज़गारी की हालत में अपने घरों में पड़े हैं। अर्थ-व्यवस्था काफी खराब हालत में है, और विशेषज्ञ भविष्य के प्रति चिन्ताजनक संकेत दे रहे हैं।

चीन से सीमा विवाद में प्रधानमंत्री मोदी ने घटनाओं को लेकर छिपाव वाली नीति अपनायी। कहा कुछ गया, ज़मीन पर दिखा कुछ। बाद में शब्दों से लीपापोती की गयी। विपक्ष, खासकर राहुल गाँधी और ममता बनर्जी जैसे बड़े नेताओं ने सरकार को लगातार घेरे रखा। हालाँकि इस विवाद और तनाव के बीच फ्रांस से पाँच ‘रफाल’ भारत मँगवाकर केंद्र सरकार ने इन मुद्दों से इतर देश-भक्ति का माहौल बनाने की कोशिश की।

इस तरह केंद्र सरकार का यह एक साल मिला-जुला रहा है। उसके सामने अब शासन की गम्भीर चुनौतियाँ हैं। कोरोना महामारी से पहले ही पटरी से उतर चुकी अर्थ-व्यवस्था को सँभालना उसके लिए काफी मुश्किल काम रहेगा। कोविड-19 का प्रकोप अपने उच्चतम पर है, और हज़ारों की संख्या में देशवासियों की जान इस महामारी से जा चुकी है, जबकि बड़ी संख्या में लोग इसकी चपेट में हैं। चीन से तनाव अभी जारी है और केंद्र सरकार को इस मोर्चे पर देश की तमाम समस्यायों को नज़र में रखते हुए इससे बहुत समझदारी से निबटना होगा।

भाजपा के लिए राज्यों में पिछले महीनों में काफी चुनौतियाँ पैदा हुई हैं। उसने एक के बाद एक विधानसभा चुनाव हारे हैं। भाजपा लगातार देश में यह सन्देश देने की कोशिश कर रही है कि विपक्ष मृतप्राय हो चुका है। फिर भी जनता देश में एक ही पार्टी की सर्वशक्तिमान सत्ता बनाना चाहेगी, ऐसा नहीं लगता। आपातकाल में इंदिरा गाँधी की ऐसी ही सर्वशक्तिमान सत्ता को जनता ने चुनाव आते ही ध्वस्त कर दिया था। मौज़ूदा सरकार और भाजपा पर देश में चुनी राज्य सरकारें गिराने की तोहमत लगने से भी भाजपा की छवि को ठेस पहुँची है। लिहाज़ा भाजपा को किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए। उसे निश्चित ही अगले लोकसभा चुनाव से पहले के बचे हुए साढ़े तीन साल में एक बड़ी सत्तारोधी लहर से बचने के लिए जनता के बुनियादी मसलों को हल करना ही होगा। राम मन्दिर के बाद मोदी सरकार का फोकस किस स्तर पर लोगों के बुनियादी मुद्दों पर जाता है, यह देखना इसलिए भी दिलचस्प है, और रहेगा; क्योंकि भाजपा के बहुत-से नेताओं ने राम मन्दिर के बाद मथुरा और काशी एजेंडा को पूरा करने का संकल्प किया है। भाजपा में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो हिन्दू राष्ट्र स्थापित करने की बात बहुत ताकत से कहते हैं। भाजपा ने पिछले छ: साल में देश में धर्म-निरपेक्ष शब्द को जिस तरह हिकारत वाला शब्द बनाने की कोशिश की है, उससे उसकी मंशा को समझा जा सकता है।

भाजपा के नेता बार-बार और जान-बूझकर धर्म-निरपेक्ष वर्ग को पाकिस्तान परस्त, मुस्लिम तुष्टिकरण और राष्ट्रद्रोहियों की जमात बताने की कोशिश करते हैं; ताकि जनता के दिमाग में यह बैठाया जा सके कि इस देश को धर्म-निरपेक्षता की कतई ज़रूरत नहीं और भाजपा का हिन्दू राष्ट्र का नारा ही वास्तव में देश के लिए (या कहिए- हिन्दुओं के लिए) श्रेष्ठ है।

अटल बिहारी वाजपेयी तक ही भाजपा में देश और भाजपा पार्टी को धर्म-निरपेक्ष बनाने का चलन रहा। लाल कृष्ण आडवाणी ने तो धर्म-निरपेक्षता पर कांग्रेस के सन्दर्भ में स्यूडो सेकुलरिज्म अर्थात् छद्य धर्म-निरपेक्षता का शब्द गढ़ा; जिसे तब भाजपा का हर नेता कांग्रेस पर कटाक्ष करने के लिए इस्तेमाल करता था। लेकिन सन् 2014 के बाद तो भाजपा ने खुद को धर्म-निरपेक्ष कहलाना और हिन्दुत्ववादी कहलाने से परहेज़ करना ही बन्द कर दिया है। इन वर्षों में भाजपा पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की सोच का साफ और खुला असर दिखा है। ज़ाहिर है वर्तमान भाजपा का यह रास्ता सिर्फ हिन्दू राष्ट्र की तरफ ही जाता है। भाजपा वर्तमान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि पर निर्भर है। विकास के अपने गुजरात मॉडल के साथ भाजपा को बहुमत के साथ सत्ता में लाये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल के पाँच साल में खुद की अपनी छवि वृहद् करने और ब्रांडिंग करने पर पूरा फोकस रखा। उनके नेताओं ने मोदी को अंतर्राष्ट्रीय नेता और दुनिया का सबसे ताकतवर नेता तक स्थापित करने की हमेशा कोशिश की। इन पाँच वर्षों के आिखर में पुलवामा और बालाकोट और उससे पहले सर्जिकल स्ट्राइक के बहाने मोदी को देश को बचा सकने वाला इकलौता नेता बताने की मुहिम भी भाजपा नेताओं के भाषणों और सबसे ज़्यादा भाजपा के बहुत मज़बूत सोशल मीडिया नेटवर्क के ज़रिये हुई है। लेकिन पिछले कुछ महीनों को ध्यान से देखें तो सोशल मीडिया पर भाजपा या संघ की तरफ से ढके-छिपे अंदाज़ में गृह मंत्री अमित शाह की छवि को मोदी के विकल्प के रूप में उभारने की पूरी कोशिश की जाने लगी है। शाह ने भी एक हिन्दूवादी नेता के रूप में अपनी छवि से कभी परहेज़ नहीं किया है। हालाँकि भाजपा में शायद शाह की स्वीकार्यता अभी मोदी के स्तर की नहीं है। यही नहीं, संघ की शाह के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अभी से उभारने की कोशिश भी साफ दिखती है, जो हिन्दुत्व को हमेशा अपने शब्दों और एजेंडे में रखते हैं।

इससे संघ और भाजपा यह सन्देश देना चाहते हैं कि उनके पास उनके एजेंडे (हिन्दुत्व) पर काम कर सकने वाले मज़बूत नेतृत्व की कमी नहीं है। इसका यह भी संकेत जाता है कि आने वाले दिनों में भाजपा राजनीतिक रूप से हिन्दुत्व के मुद्दे को लगातार भुनायेगी। दिल्ली के उत्तम नगर क्षेत्र में भाजपा नेता राजेश वोहरा कहते हैं कि भाजपा आज एक मज़बूत संगठन और बड़ा राजनीतिक दल है, जिसके पास भविष्य के नेतृत्व की कोई कमी नहीं। ‘तहलका’ से बातचीत में राजेश ने कहा- ‘भारत हिन्दू बहुल देश है; लेकिन कांग्रेस और दूसरी सरकारें इसे नज़रअंदाज़ करती रही हैं। आज यदि विकास के साथ-साथ इस दिशा में भी एनडीए सरकार सोच रही है, तो इसे गलत कैसे कहा जाएगा? जनता ने वोट दिया है न! तो इसका मतलब है कि उसे यह रास्ता पसन्द है।’

हालाँकि जाने माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार एस.पी. शर्मा कहते हैं कि 2014 से पहले मोदी सिर्फ विकास की बात करते थे, जो आज उनके एजेंडे में कहीं नहीं दिखता। ‘तहलका’ से बातचीत में शर्मा ने कहा- ‘आज देश में समुदायों के स्तर पर बड़ा विभाजन है। मोदी ने अपने पहले शपथ ग्रहण में पड़ोसी देशों के प्रमुखों को बुलाकर यह सन्देश देने की कोशिश की थी कि वह पड़ोसियों से बेहतर रिश्ते बनाने की बड़ी पहले करेंगे; लेकिन आज हालत यह है कि नेपाल और बांग्लादेश जैसे हमारे मित्र देश भी हमसे विमुख हो गये हैं। चीन से हमारा तनाव चरम पर है। चीन बड़े पैमाने पर पीओके में निर्माण के नाम पर अपना अड्डा जमा चुका है। मोदी सरकार ने गिलगित, बाल्टिस्तान का मौसम भारत के मौसम के साथ दिखाया, तो चीन ने वहाँ डैम बनाना शुरू कर दिया है। पाकिस्तान ने नया नक्शा जारी कर  जम्मू-कश्मीर समेत गिलगित-बाल्टिस्तान, लद्दाख, सर क्रीक और सौराष्ट्र के जूनागढ़ को भी अपना बताया है। चीन को लेकर मोदी सरकार ने जिस तरह सूचनाएँ छिपायीं, उससे भी अच्छा सन्देश नहीं गया है और इसमें उसकी कमज़ोरी झलकती है। जनता के मुद्दों पर उसका फोकस नहीं है, जो आने वाले समय में जनता के बीच बड़े पैमाने पर भाजपा के खिलाफ गुस्सा पैदा कर सकता है; क्योंकि धार्मिक ध्रुवीकरण हमेशा काम नहीं करेगा।’

भाजपा जितना फोकस जनता के मुद्दों से हटाती जाएगी, ये मुद्दे उतने ही विकराल होते जाएँगे। बहुत-से राजनीतिक जानकार यह मानते हैं कि दरअसल पुलवामा की अचानक घटी घटना और उसके बाद के घटनाक्रम ने ही भाजपा को सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में बचाया था; अन्यथा उसका प्रदर्शन शायद साधारण ही रहता। लिहाज़ा भाजपा का जनता के मूल और ज़रूरी मुद्दों से हटना उसके लिए घातक भी साबित हो सकता है। जनता एक सीमा तक ही भावनाओं में बहती है। राजीव गाँधी को सन् 1984 में 400 से ज़्यादा सीटों पर जीत देने वाली जनता ने बोफोर्स जैसा मुद्दा सामने आने के बाद सन् 1989 आते-आते उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया था।

यह भी दिलचस्प है कि भाजपा की चुनावी रैलियों में जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 खत्म करने के मुद्दे को भुनाने की पूरी कोशिश के बावजूद 5 अगस्त, 2019 के बाद हुए विधानसभा चुनावों में उसे पहले हरियाणा, महाराष्ट्र में बहुमत नहीं मिला। यही नहीं, इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) से राम मन्दिर का फैसला आने के बाद भी दिल्ली और झारखण्ड के विधानसभा चुनावों में भाजपा को कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिला। बिहार में जीत अब उसके सामने एक बड़ी चुनौती है। ऐसे में भाजपा के लिए इम्तिहान राम मन्दिर की नींव रखने से खत्म नहीं हुए हैं। जनता उनसे राम राज्य की स्थापना भी चाहती है। देश में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार की घटनाएँ थमी नहीं हैं। करोड़ों लोगों को आज भी दो-जून की रोटी मयस्सर नहीं है। बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी दर्ज़नों मूलभूत समस्याएँ हैं। लाखों बच्चों का बचपन स्कूल की जगह आज भी फुटपाथों पर खप रहा है। महिलाओं के खिलाफ अपराध का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है। अपराधियों की आज भी उतनी ही चलती है, जितनी पहले चलती थी। वे जब चाहें, जिसे चाहें बेरहमी से पीट देते हैं, जान से मार देते हैं और बमुश्किल ही उनका कुछ होता है। कानून व्यवस्था की हालत आज भी पेंदे में है। ऊपर से भाजपा की केंद्र सरकार के समय में धार्मिक आधार पर समुदायों का विभाजन खतरनाक स्तर तक चला गया है; जो भविष्य में एक बड़े खतरे के रूप में सामने आ सकता है।

राम मन्दिर की नींव बहुत स्वागत योग्य कदम होते हुए भी इस देश की जनता की समस्याओं के अन्त का द्वार नहीं खोलती। इसके लिए शासन को भगवान राम की मर्यादाओं पर चलना होगा। जनता को उससे राम राज्य की उम्मीद है। इसलिए यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए एक अवसर भी है कि वह देश में जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए मन्दिर की नींव के बाद विकास की नींव भी रख दें। उन्हें अपने नेताओं का अहंकार खत्म करना होगा। उन्हें अन्याय और भ्रष्टाचार का तंत्र तोडऩा होगा। उन्हें संवैधानिक संस्थाओं की रखवाली करनी होगी, जिनके आज खतरे में होने का आरोप विपक्ष लगातार लगा रहा है। उन्हें सबको साथ लेकर चलना होगा। नहीं तो इस देश की जनता राजनीतिक बनवास भी देती है। कांग्रेस इसका उदहारण है।

मन्दिर निर्माण का सफर 

इसमें कोई दो-राय नहीं कि पिछले तीन दशक से राम मन्दिर भाजपा के सबसे बड़े एजेंडे में रहा है। लेकिन राम मन्दिर का यह सफर बहुत लम्बा और गतिविधियों से भरा रहा है। करीब तीन दशक लम्बे आन्दोलन के बाद अयोध्या में राम जन्मभूमि पर मन्दिर निर्माण का रास्ता 2019 में तब साफ हुआ, जब सर्वोच्च न्यायालय ने मन्दिर के पक्ष में फैसला सुनाया। इस फैसले के बाद मन्दिर निर्माण की पूरी प्रक्रिया और प्रबन्धन हेतु ट्रस्ट की स्थापना के लिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के मुताबिक श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र के नाम से एक न्यास भारत सरकार ने गठित किया।

इसके बाद इसी साल 5 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस न्यास की स्थापना की घोषणा की। मन्दिर निर्माण के लिए इस ट्रस्ट को 2.77 एकड़ की ज़मीन सौंपी गयी थी; जबकि 67.703 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किये जाने की मंज़ूरी दी गयी थी। यह भी दिलचस्प है कि 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद का ढाँचा ढहाये जाने के बाद सीबीआई ने सन् 1993 में जब पहली चार्जशीट दाखिल की थी, तो कुल 48 आरोपियों में आठ शिवसैनिक थे। शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे ने तब कहा था कि अगर बाबरी ढाँचा गिराने में शिव सैनिकों की कोई भूमिका रही है, तो उन्हें उस पर गर्व है।

इतिहास को देखें, तो भारतीय जनता पार्टी की स्थापना 6 अप्रैल, 1980 को हुई। लेकिन राम मन्दिर के प्रति उसने पहली बार सन् 1984 में जाकर कोई प्रतिबद्धता दिखायी। उस समय विवादित ज़मीन पर बाबरी मस्जिद थी। सन् 1984 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा को इंदिरा गाँधी की हत्या से उपजी सहानुभूति के कारण करारी शिकस्त झेलनी पड़ी, तो उसके हिस्से में महज़ दो सीटें आयीं। यह वह समय था, जब भाजपा अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पार्टी ने हिन्दुत्व की सियासत पर फोकस किया। आरएसएस के साथ भाजपा ने पूरी ताकत के साथ राम मन्दिर आन्दोलन का आह्वान किया।

इस पूरे आन्दोलन के दौरान अप्रैल, 1984 में हुई विश्व हिन्दू परिषद् की धर्म संसद भी अहम पड़ाव थी। इसी धर्म संसद में राम मन्दिर को लेकर निर्णायक आन्दोलन छेडऩे का फैसला हुआ था। इसके बाद जुलाई, 1984 में अयोध्या में एक और बैठक हुई और गोरक्ष पीठ के महंत अवैद्यनाथ को श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का अध्यक्ष बनाया गया। भाजपा ने राजनीतिक स्तर पर और विहिप ने सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर इस आन्दोलन की ज़िम्मेदारी उठायी। इसका ही नतीजा हुआ कि सन् 1989 में जब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने विवादित स्थल का ताला खोलने का आदेश दिया, तो विहिप ने उसके पास ही राम मन्दिर की आधारशिला रखी।

इसके बाद यह मन्दिर आन्दोलन बन गया। राजीव गाँधी की कांग्रेस सरकार ने सन् 1986 में विवादित स्थल के ताले खुलवा दिये। इस कदम से आन्दोलन और तेज़ हो गया। सच कहा जाए तो सन् 1949 के बाद ताला खुलना सबसे महत्त्वपूर्ण पड़ाव साबित हुआ। मुस्लिम पक्ष ने राजीव गाँधी सरकार पर आरोप लगाया कि इस दौरान बाबरी मस्जिद की मुख्य गुम्बद के नीचे चुपके से राम की मूर्तियाँ रख दी गयीं। इसके बाद सन् 1989 में हिमाचल प्रदेश के पालमपुर अधिवेशन में भाजपा ने बाकायदा  राम जन्मभूमि को मुक्त कराने और विवादित स्थल पर भव्य राम मन्दिर के निर्माण का प्रस्ताव पारित किया। राम मन्दिर के मुद्दे को भाजपा ने अपने मुख्य राजनीतिक एजेंडे में शामिल कर लिया। इसके बाद भाजपा की राजनीति के शीर्ष पर कट्टर हिन्दुत्व की छवि रखने वाले लालकृष्ण आडवाणी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। अध्यक्ष बनते ही आडवाणी ने राम मन्दिर के पक्ष में माहौल बनाने के लिए सन् 1990 में रथयात्रा शुरू कर दी। भाजपा के दूसरे बड़े नेता मुरली मनोहर जोशी उनके साथ थे। सन् 1990 और सन् 1992 इसके सबसे बड़े साल रहे। सन् 1990 में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने राम मन्दिर के पक्ष में जन समर्थन के लिए रथ यात्रा निकाली, जिसे 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुँचना था। इसके लिए देश भर से लाखों कारसेवक अयोध्या के लिए निकल चुके थे। लालू प्रसाद यादव की सरकार ने आडवाणी का रथ बिहार में रोककर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। हालाँकि कारसेवक अयोध्या के लिए कूच करने लगे। उधर उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली सरकार ने अयोध्या में कारसेवकों के घुसने पर रोक लगा दी। अयोध्या में कफ्र्यू था और भारी संख्या में पीएसी तैनात कर दी गयी थी। हालाँकि अशोक सिंघल, विनय कटियार और उमा भारती जैसे नेता कारसेवकों के साथ न सिर्फ अयोध्या में घुसे, बल्कि विवादित ढाँचे की ओर भी बढ़ गये। इसी बीच विवादित ढाँचे के ऊपर कारसेवकों ने भगवा झण्डा लहरा दिया। परिणामस्वरूप वहाँ अफरा-तफरी मच गयी। पीएसी ने कारसेवकों को खदेडऩे के लिए गोलीबारी की, जिसमें कई कारसेवकों की मौत हो गयी। 6 दिसंबर, 1992 को मन्दिर निर्माण के लिए कारसेवा का आह्वान किया गया था, जिसके बाद लाखों कारसेवक भाजपा, विहिप, बजरंग दल और शिव सेना के नेताओं के नेतृत्व में वहाँ पहुँचे। और देखते-ही-देखते वहाँ बाबरी मस्जिद का विवादित ढाँचा गिरा दिया गया। यह मन्दिर आन्दोलन का सबसे अहम पड़ाव था।

इतिहास की बात करें, तो सन् 1885 में पहली बार फैज़ाबाद की एक अदालत में महंत रघुबीर दास ने मस्जिद के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया था। इसके बाद ही इस आन्दोलन के शुरुआती बीज पड़े थे। हालाँकि वास्तव में इस आन्दोलन की शुरुआत सन् 1949 में हुई थी। विवादित स्थल पर पहले से ही ताला लगा था; लेकिन सन् 1949 में बाबरी ढाँचे के भीतर भगवान राम की मूर्तियाँ मिली थीं और यहीं से आन्दोलन की असल नींव पड़ी। बाद में सरकार ने विवादित स्थल पर ताला जड़ दिया और सभी के प्रवेश पर रोक लगा दी गयी। इसके बाद हिन्दू और मुस्लिम पक्षों ने अदालत में मुकदमे दर्ज करा दिये, जिसका पटाक्षेप 9 नवंबर, 2019 को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के साथ हुआ।

अयोध्या और फैज़ाबाद सीटें

राजनीतिक रूप से देखें, तो अयोध्या विधानसभा सीट पहली बार सन् 1967 में वजूद में आयी, जिसकी फैज़ाबाद संसदीय सीट पर सात बार कांग्रेस का कब्ज़ा रहा है। सरयू नदी के किनारे बसी भगवान राम की नगरी अयोध्या एक दौर में कौशल राज्य की राजधानी हुआ करती थी। नवाबों के दौर में फैज़ाबाद की नींव पड़ी और अवध रियासत की राजधानी बनी। सन् 2018 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने फैज़ाबाद ज़िले का नाम बदलकर अयोध्या कर दिया, हालाँकि यह लोकसभा सीट अभी भी फैज़ाबाद के नाम से ही जानी जाती है। वैसे सन् 1967 के चुनाव में अयोध्या विधानसभा सीट से जनसंघ के बृजकिशोर अग्रवाल ने जीत दर्ज की थी। फैज़ाबाद लोकसभा सीट पर भाजपा का खाता सन् 1991 में खुला, जब विनय कटियार यहाँ से सांसद चुने गये। इसके बाद सन् 1996 में भी कटियार यहाँ से सांसद चुने गये थे; लेकिन सन् 1998 के चुनावों में सपा उम्मीदवार के हाथों विनय कटियार को हार का सामना करना पड़ा। सन् 1999 में वह एक बार फिर चुनाव जीतने में सफल रहे; लेकिन सन् 2004 में बसपा के मित्रसेन यादव से हार गये। इसके बाद सन् 2009 में कांग्रेस से निर्मल खत्री मौदान में उतरे और सांसद चुने गये। सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के लल्लू सिंह यहाँ से सांसद चुने गये, जिन्होंने सन् 2019 में दोबारा यहाँ से चुनाव जीता।

कितनी सुनवाइयाँ

यह जानना भी बहुत दिलचस्प है कि सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले में कुल 39 सुनवाइयाँ हुईं। करीब 165 घंटे दोनों पक्षों की दलीलें सुनी गयीं। हिन्दू पक्षकारों ने पहले 16 दिन में 67.35 घंटे तक मुख्य दलीलें रखीं। वहीं मुस्लिम पक्षकारों ने 18 दिन में 71.35 घंटे तक अपनी मुख्य दलीलें रखीं। यह जानना भी दिलचस्प है कि इतने दिन तक चलने के बावजूद यह देश का सबसे लम्बे समय तक चलने वाला यह सबसे बड़ा फैसला नहीं था। केशवानंद भारती का मामला सबसे लम्बा मुकदमा है, जो 68 दिन तक चला। इस लिहाज़ से अयोध्या ज़मीन विवाद दूसरा सबसे लम्बा मुकदमा है।

इस मामले में कुल 20 याचिकाएँ दायर की गयीं, जिनके प्रमुख याचिकाकर्ता (पक्षकार) रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड हैं। हालाँकि शिया सेंट्रल बोर्ड भी बाद में एक पक्षकार बना। शिया बोर्ड विवादित जगह पर राम मन्दिर ही बनाये जाने का समर्थक रहा।

सर्वोच्च न्यायालय के जिन जजों की बेंच ने इस मामले का फैसला नवम्बर, 2019 को सुनाया, उनमें प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई थे। वह अब राज्यसभा के सदस्य हैं।

उनके अलावा बेंच में जस्टिस शरद अरविंद बोबडे शामिल थे, जो अब सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायधीश हैं। उनके अलावा जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस. अब्दुल नज़ीर भी बेंच के सदस्य थे।

श्रीराम के नाम की तरह ही अयोध्या में बनने वाला भव्य राम मन्दिर भारतीय संस्कृति की समृद्ध विरासत का द्योतक होगा। मुझे विश्वास है कि यहाँ निर्मित होने वाला राम मन्दिर अनंतकाल तक पूरी मानवता को प्रेरणा देगा। भगवान राम की अद्भुत शक्ति देखिए कि इमारतें नष्ट कर दी गयीं; अस्तित्व मिटाने का प्रयास भी बहुत हुआ; लेकिन राम आज भी हमारे मन में बसे हैं, हमारी संस्कृति का आधार हैं। श्रीराम भारत की मर्यादा हैं; मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। राम हमारे मन में गढ़े हुए हैं, हमारे भीतर घुल-मिल गये हैं। कोई काम करना हो, तो प्रेरणा के लिए हम भगवान राम की ओर ही देखते हैं।

हमें आपसी प्रेम, भाईचारे के संदेश से राम मन्दिर की शिलाओं को जोडऩा है। हमने जब-जब राम को माना है, विकास हुआ है; जब भी हम भटके हैं, विनाश हुआ है। सभी की भावनाओं का ध्यान रखना है। सबके साथ से और विश्वास से ही सबका विकास करना है।                 – नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री

(शिलान्यास के बाद अपने सम्बोधन में।)

साल-दर-साल की घटनाएँ

सन् 1528 में मुगल बादशाह बाबर ने उस जगह मस्जिद का निर्माण कराया, जिसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले तक विवादित कहा जाता था। हिन्दू पक्ष का दावा था कि यह जगह भगवान राम की जन्मभूमि है और यहाँ पहले एक मन्दिर था।

सन् 1853 में इस जगह के आसपास पहली बार साम्प्रदायिक सौहार्द को चोट लगी, जब दो समुदायों में दंगे देखने को मिले।

सन् 1859 में तनाव देखते हुए अंग्रेजी शासन ने उस जगह बाड़ लगा दी, जिसे लेकर विवाद था। मुसलमानों को ढाँचे के अन्दर और हिन्दुओं को बाहर चबूतरे पर पूजा करने की इजाज़त दी गयी।

सन् 1949 में ज़मीन को लेकर बड़ा विवाद तब शुरू हुआ, जब 23 दिसंबर, 1949 में भगवान राम की मूर्तियाँ मस्जिद में मिलीं। यह मूर्तियाँ मिलने के बाद हिन्दू पक्ष ने दावा किया कि वहाँ भगवान राम प्रकट हुए हैं। वहीं मुस्लिम पक्ष का आरोप था कि किसी ने चुपचाप मूर्तियाँ वहाँ रखीं। उस समय की उत्तर प्रदेश सरकार ने यह मूर्तियाँ हटाने का आदेश दिया; लेकिन ज़िला मजिस्ट्रेट के.के. नायर ने दंगों और हिन्दुओं की भावनाओं के भडक़ने के भय से इस आदेश को पूरा करने में असमर्थता जतायी। उत्तर प्रदेश सरकार ने इस स्थल को विवादित ढाँचा मानकर वहाँ ताला लगवा दिया।

सन् 1950 में फैज़ाबाद सिविल कोर्ट में दो अर्जियाँ दायर की गयीं। इनमें से एक में राम लला की पूजा की इजाज़त और दूसरे में विवादित ढाँचे में भगवान राम की मूर्ति रखे रहने की इजाज़त माँगी गयी थी। नौ साल बाद सन् 1959 में निर्मोही अखाड़ा ने तीसरी अर्जी दायर की।

सन् 1961 में उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अर्जी दाखिल करके विवादित जगह परकब्ज़े और मूर्तियाँ हटाने की माँग उठायी।

सन् 1984 में विवादित ढाँचे की जगह मन्दिर बनाने के लिए विश्व हिन्दू परिषद् ने एक समिति का गठन किया।

सन् 1986 में याचिकाकर्ता यू.सी. पांडे की याचिका पर फैज़ाबाद के ज़िला जज के.एम. पांडे ने 01 फरवरी, 1986 को हिन्दुओं को पूजा करने की इजाज़त देते हुए ढाँचे पर से ताला हटाने का आदेश दिया।

6 दिसंबर, 1992 को भाजपा, विहिप और शिवसेना समेत अन्य हिन्दू संगठनों के लाखों कार्यकर्ता विवादित ढाँचे पर पहुँचे और उसे ढहा दिया। इस घटना से देश भर में साम्प्रदायिक तनाव पैदा हुआ और दो समुदायों के बीच दंगे भडक़े गये। एक अनुमान के मुताबिक, इस भयावह स्थिति में करीब 2000 लोगों की जान चली गयी।

सन् 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने फैसले में विवादित स्थल को सुन्नी वक्फ बोर्ड, रामलला विराजमान और निर्मोही अखाड़ा के बीच तीन बराबर हिस्सों में बाँटने का आदेश दिया।

सन् 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी।

सन् 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट का आह्वान किया। भाजपा के शीर्ष नेताओं पर आपराधिक साज़िश के आरोप दोबारा बहाल किये।

8 मार्च, 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को मध्यस्थता के लिए पैनल को भेजा और उससे आठ हफ्ते के भीतर कार्यवाही पूरी करने को कहा।

01 अगस्त, 2019 को मध्यस्थता पैनल ने अपनी रिपोर्ट पेश की।

02 अगस्त, 2019 को सर्वोच्च अदालत ने कहा कि मध्यस्थता पैनल मामले का समाधान निकालने में विफल रहा।

06 अगस्त, 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या मामले की रोज़ाना सुनवाई शुरू की, जो लगातार 40 दिन चली।

16 अक्टूबर, 2019 को अयोध्या मामले की सुनवाई पूरी हुई। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुरक्षित रखा।

9 नवंबर, 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने मन्दिर के हक में फैसला सुनाया।

5 फरवरी, 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र नाम से एक न्यास की घोषणा की। मन्दिर निर्माण के लिए इस ट्रस्ट को 2.77 एकड़ की ज़मीन सौंपी गयी थी, जबकि 67.703 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किये जाने की मंज़ूरी दी गयी थी।

5 अगस्त, 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अयोध्या में रामजन्मभूमि का भूमि पूजन करके मन्दिर की आधारशिला रखी। इसमें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व राज्य स्तरीय नेता तक पहुँचे; लेकिन मन्दिर आन्दोलन के सबसे बड़ा चेहरा रहे लाल कृष्ण आडवाणी और उनके साथी मुरली मनोहर जोशी के अलावा बजरंग दल के संस्थापक विनय कटियार भी शामिल नहीं हुए।

मन्दिर आन्दोलन से जुड़े साधु-सन्त और नेता

महंत रघुबर दास : अंग्रेजों के दौर में अयोध्या में पहली बार सन् 1853 में निर्मोही अखाड़े ने दावा किया कि मन्दिर को तोडक़र मस्जिद बनवायी गयी। विवाद हुआ, तो प्रशासन ने विवादित स्थल पर मुस्लिमों को अन्दर इबादत और हिन्दुओं को बाहर पूजा की अनुमति दे दी; लेकिन मामला शान्त नहीं हुआ। सन् 1885 में महंत रघुबर दास ने मामले को लेकर फैज़ाबाद अदालत में बाबरी मस्जिद के पास राम मन्दिर के निर्माण की इजाज़त के लिए अपील दायर की और राम चबूतरे को जन्मस्थान बताया और वहाँ एक मण्डप बनाने की माँग की। यह अयोध्या विवाद से जुड़ा हुआ पहला मुकदमा था। उनकी अपील खारिज हो गयी; लेकिन मार्च, 1886 में वह ज़िला जज फैज़ाबाद कर्नल एफईए कैमियर की अदालत में पहुँचे, जिन्होंने फैसले में कहा कि मस्जिद हिन्दुओं की जगह पर बनी है। हालाँकि यह भी कहा कि अब देर हो चुकी है और इतने साल पुरानी गलती को अब सुधारना मुमकिन नहीं है, इसीलिए यथास्थिति रखी जाए।

बैरागी अभिराम दास : बिहार के दरभंगा में पैदा हुए बैरागी अभिराम दास रामानंदी सम्प्रदाय के संन्यासी थे और उनका नाम 22-23 दिसंबर, 1949 की दरम्यानी रात राम जन्म स्थान पर विवादित ढाँचे के भीतर भगवान राम की प्रतिमा के प्रकटीकरण के सम्बन्ध में सामने आया था। इस सम्बन्ध में तत्कालीन प्रशासन द्वारा दायर प्राथमिकी में उन्हें मुख्य अभियुक्त बनाया गया था। अयोध्या में उन्हें योद्धा साधु पुकारा जाता था। हिन्दू महासभा के सदस्य रहे अभिराम दास का सन् 1981 में देहांत हुआ।

देवराहा बाबा : आध्यात्मिक संन्यासी देवराहा बाबा के जन्मस्थान और वर्ष के बारे में जानकारी हमेशा रहस्य में रही है। उत्तर प्रदेश के देवरिया में सरयू नदी के किनारे उनका निवास रहा। डॉ. राजेंद्र प्रसाद, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक को उनका शिष्य माना जाता है। जनवरी, 1984 में प्रयागराज के कुम्भ में आयोजित धर्म संसद की अध्यक्षता उन्होंने ही की थी; जिसमें विभिन्न हिन्दू सम्प्रदायों के धार्मिक एवं आध्यात्मिक नेताओं ने मिलकर 9 नवंबर, 1989 को अयोध्या में राम मन्दिर की नींव रखने का फैसला किया था।

मोरोपन्त पिंगले : नागपुर के मॉरिस कॉलेज के ग्रेजुएट और आरएसएस के प्रचारक पिंगले परदे के पीछे काम करने वाले रणनीतिकार माने जाते हैं। सभी प्रमुख यात्राओं और तमाम देशव्यापी अभियानों को आरम्भ करने में उनकी अहम भूमिका रही। शिला पूजन कार्यक्रम भी इसमें शामिल है; जिसके तहत तीन लाख से भी अधिक ईंटें अयोध्या पहुँचायी गयी थीं।

महंत अवैद्यनाथ : 1980 के दशक के मध्य में महंत अवैद्यनाथ राम मन्दिर आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिए गठित रामजन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के प्रथम प्रमुख और रामजन्मभूमि न्यास समिति के अध्यक्ष थे। वह उत्तर प्रदेश के गोरक्षपीठ के महंत दिग्विजयनाथ के अनुयायी बने और सन् 1940 में संन्यासी के रूप में महंत अवैद्यनाथ का नाम धारण किया। बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में वह भी एक आरोपी बने।

स्वामी वामदेव : सन् 1984 में जयपुर में अखिल भारतीय सम्मेलन के ज़रिये तमाम हिन्दू धार्मिक और आध्यात्मिक नेताओं को एक मंच पर लाने में अहम भूमिका निभायी। तब 400 से भी अधिक हिन्दू धार्मिक नेताओं ने 15 दिन तक विचार मंथन करके आन्दोलन का रोडमैप तैयार किया था। स्वामी वामदेव ने सन् 1990 में अयोध्या में कारसेवकों का आगे बढक़र नेतृत्व किया था। मुलायम सिंह यादव सरकार के आदेश पर पुलिस द्वारा की गयी गोलीबारी में इनमें से कई की मौत हो गयी। स्वामी वामदेव 6 दिसंबर,1992 को अयोध्या में थे, जब बाबरी मस्जिद गिरायी गयी।

श्रीश चंद्र दीक्षित : उत्तर प्रदेश के सेवानिवृत्त डीजीपी श्रीश चंद्र दीक्षित ने राम मन्दिर आन्दोलन में कार सेवकों के लिए नायक की भूमिका निभायी थी। सेवानिवृत्त होने के बाद वह विश्व हिन्दू परिषद् (विहिप) से जुड़ गये और केंद्रीय उपाध्यक्ष बन गये। प्रशासन से नज़रें बचाकर कारसेवकों को अयोध्या पहुँचाना हो या फिर कानून को धता बताकर कार सेवा करवाना; इन कामों में श्रीश चंद्र दीक्षित ने बड़ी भूमिका निभायी थी। सन् 1991 के लोकसभा चुनाव में श्रीश चंद्र दीक्षित काशी से जीतकर सांसद बने।

विष्णु हरि डालमिया : व्यापारी परिवार के डालमिया सन् 1992 से सन् 2005 तक विहिप के अध्यक्ष रहे। वह रामजन्मभूमि आन्दोलन के प्रमुख नेताओं में से एक थे। सन् 1985 में श्रीराम जन्मभूमि न्यास का गठन हुआ, तो उन्हें कोषाध्यक्ष बनाया गया। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उन्हें गिरफ्तार किया गया।

दाऊ दयाल खन्ना : राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के महासचिव के रूप में खन्ना ने मन्दिर आन्दोलन का आधार तैयार करने में अहम भूमिका निभायी थी। आरम्भिक वर्षों में कांग्रेस में रहे खन्ना ने सन् 1983 में एक जनसभा में अयोध्या, मथुरा और काशी (वाराणसी) में मन्दिरों के पुनर्निर्माण का मुद्दा उठाया था। सितंबर, 1984 में बिहार के सीतामढ़ी से मन्दिर आन्दोलन के लिए पहली यात्राओं में से एक की अगुआई की।

कोठारी बन्धु : राम कुमार कोठारी और शरद कुमार कोठारी सगे भाई थे; जो अक्टूबर, 1990 में कारसेवा में भाग लेने के लिए अयोध्या आये थे। उन्होंने कारसेवकों के पहले जत्थे के सदस्यों के रूप में 30 अक्टूबर, 1990 को अयोध्या में कारसेवा की थी। दो दिन बाद, 02 नवंबर को कारसेवा के ही दौरान पुलिस द्वारा चलायी गयी गोली से उनकी मौत हो गयी। इससे देश भर में नाराज़गी के स्वर उभरे। रामजन्मभूमि आन्दोलन में उन्हें नायक और शहीद का दर्जा दिया गया।

के.के. नायर : केरल के अलप्पी के रहने वाले के.के. नायर की भी राम मन्दिर मामले में अहम भूमिका रही। नायर सन् 1949 में फैज़ाबाद के कलेक्टर बने और उसी साल विवादित स्थल पर राम की मूर्ति रखी गयी। कहते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पन्त के कहने के बावजूद नायर ने मूर्ति को हटवाने के आदेश को नहीं माना। नायर सन् 1952 में सेवानिवृत्ति लेकर जनसंघ (जो  इसके संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के निधन के बाद भारतीय जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी के रूप में बदल गया) से जुड़ गये। वह अवध में हिन्दुत्व के बड़े प्रतीक बन गये और बाद में जनसंघ के टिकट पर लोकसभा पहुँचे। उनके अलावा सुरेश बघेल और गोपाल सिंह विशारद का भी आन्दोलन में बड़ा रोल रहा।

अशोक सिंघल : विश्व हिन्दू परिषद् को बड़ी पहचान दिलाने और अशोक सिंघल का राम मन्दिर आन्दोलन में बड़ा योगदान रहा। देश और विदेश में मन्दिर निर्माण के पक्ष में माहौल बनाने और आन्दोलन में उनकी बड़ी और आक्रामक भूमिका रही। सन् 1981 में विहिप से जुडऩे वाले सिंघल के नेतृत्व में ही सन् 1984 में विशाल धर्म संसद का आयोजन किया गया। इसी धर्म संसद में राम मन्दिर निर्माण को लेकर निर्णायक आन्दोलन शुरू करने का संकल्प लिया गया था। इसके अलावा सन् 1989 में अयोध्या में विवादित स्थल के पास राम मन्दिर निर्माण की आधारशिला रखने में भी सिंघल का अहम योगदान था। अपनी फायरब्रांड छवि के कारण सिंघल राम भक्तों और हिन्दुओं के बीच काफी लोकप्रिय हुए। सन् 2015 में उनका निधन हो गया।

लालकृष्ण आडवाणी : आडवाणी ने इस आन्दोलन को राजनीतिक मुद्दा बनाने में सबसे बड़ी भूमिका निभायी थी। भाजपा अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने सन् 1990 में राम मन्दिर निर्माण के लिए जगन्नाथ पुरी से अयोध्या के लिए रथयात्रा निकाली, जिस पर नरेंद्र मोदी की एक तरह से सारथी की भूनिका थी। आडवाणी का लक्ष्य 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुँचना था; लेकिन 23 अक्टूबर को बिहार में लालू प्रसाद यादव की सरकार ने उन्हें रोककर गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद 6 दिसंबर, 1992 को जिस दिन विवादित ढाँचा ढहाया गया था, उस दिन आडवाणी भी वहीं थे। भाजपा, विहिप और बजरंग दल के अन्य नेताओं के साथ वहाँ मौज़ूद आडवाणी आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे और मंच से भाषण दे रहे थे। देखते-ही-देखते कारसेवकों ने विवादित ढाँचा गिरा दिया। इस मामले में आडवाणी समेत मुरली मनोहर जोशी, अशोक सिंघल, गिरिराज किशोर, विनय कटियार, उमा भारती, विष्णु हरि डालमिया और साध्वी ऋतंभरा पर साज़िश का मुकदमा दर्ज किया गया।

कल्याण सिंह : विवादास्पद ढाँचा विध्वंस के दौरान उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह की छवि हिन्दू हृदय सम्राट की बनी। मुख्यमंत्री न रहते हुए भी उन्होंने मन्दिर आन्दोलन में लगातार अहम भूमिका निभायी। सन् 1992 में सर्वोच्च न्यायालय को विवादित ढाँचे की सुरक्षा का हलफनामा दिया। विवादित ढाँचा टूटने के बाद उनकी सरकार बर्खास्त कर दी गयी। कल्याण सिंह बाद में भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। फिर उनका भाजपा में आना-जाना लगा रहा। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में उन्हें राज्यपाल बनाया गया और फिलहाल सक्रिय राजनीति से दूर हैं।

मुरली मनोहर जोशी : भाजपा का प्रमुख चेहरा रहे मुरली मनोहर जोशी ने भी इस आन्दोलन में अहम भूमिका निभायी। आडवाणी की तरह विवादास्पद ढाँचा विध्वंस मामले में आरोपी बनाये गये। अब आडवाणी की तरह ही सक्रिय राजनीति से दूर हैं।

उमा भारती : राम मन्दिर आन्दोलन के दौरान साध्वी उमा भारती जनसभाओं में विहिप और भाजपा की मुख्य वक्ताओं में थीं। उन्होंने सन् 1990 से 1992 के आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभायी। विवादास्पद ढाँचा विध्वंस मामले में आरोपी उमा बाद में वाजपेयी और मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री बनीं। फिलहाल खुद संसदीय राजनीति से दूर हैं।

विनय कटियार : बजरंग दल की स्थापना कटियार ने ही की थी। वह राम मन्दिर आन्दोलन से बहुत सघन रूप से जुड़े रहे। उन्हें इस आन्दोलन का एक बड़ा चेहरा माना जाता है। फैज़ाबाद से वह तीन बार सांसद भी रहे हैं। कटियार भी 5 अगस्त के भूमि पूजन कार्यक्रम में नहीं पहुँचे।

मन्दिर ट्रस्ट के चेहरे

महंत नृत्य गोपाल दास : राम मन्दिर आन्दोलन में जिन प्रमुख सन्तों ने अयोध्या में सडक़ से लेकर न्यायालय तक संघर्ष किया, उनमें सबसे प्रमुख महंत नृत्य गोपाल दास हैं। महंत नृत्य गोपाल दास को श्रीरामजन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट के अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है। दशकों से नृत्यगोपाल दास राम मन्दिर आन्दोलन के संरक्षक की भूमिका में रहे हैं। मन्दिर निर्माण के लिए चंदा जुटाने से लेकर कई काम इन्हीं के नेतृत्व में होते आये हैं। नृत्य गोपाल दास को 6 दिसंबर, 1992 को कारसेवकों के बाबरी मस्जिद ढहाये जाने की घटना के पहले और बाद में कांग्रेस, बसपा और सपा सरकारों की तरफ से कई तरह से विरोध सहना पड़ा।

चंपत राय : विहिप के उपाध्यक्ष चंपत राय लम्बे समय से राम मन्दिर आन्दोलन से जुड़े रहे हैं। राय के पास विहिप के विस्तार का ज़िम्मा भी रहा। चंपत राय को श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव जैसे अहम पद की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है। ट्रस्ट की बैठक हो या राम मन्दिर से सम्बन्धित कोई मुद्दा, चंपत राय द्वारा ही अधिकृत किया जाता रहा है। राम मन्दिर आन्दोलन को राष्ट्रव्यापी जन आन्दोलन बनाने में चंपत राय की अहम भूमिका रही है।

के. परासरन : सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील के.परासरन श्री रामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट में सदस्य हैं। परासरन लम्बे वक्त से सर्वोच्च न्यायालय में हिन्दू पक्ष की पैरवी करते आये हैं। मन्दिर के पक्ष में फैसला आने में इनका अहम योगदान रहा है। परासरन को पद्म भूषण और पद्म विभूषण जैसे सम्मान भी मिल चुके हैं।

नृपेंद्र मिश्रा : अयोध्या में बनने जा रहे राम मन्दिर की सबसे महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी पूर्व आईएएस नृपेंद्र मिश्रा के पास है। मिश्रा राम मन्दिर निर्माण समिति के अध्यक्ष बनाये गये हैं। मिश्रा को निर्माण समिति का अध्यक्ष इसलिए बनाया गया है, ताकि मन्दिर तय सीमा में बिना किसी विवाद के साथ पूरी भव्यता के साथ तैयार हो सके। मिश्रा 1967 बैच के यूपी काडर के आईएएस अधिकारी रहे हैं।

देव गिरि जी महाराज : स्वामी देव गिरी महाराज के पास श्रीराम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के कोषाध्यक्ष की ज़िम्मेदारी है। मन्दिर निर्माण के लिए जुटाये जाने वाले चन्दे का पूरा लेखा-जोखा इन्हीं के पास है। वह रामायण, श्रीभगवत्गीता सहित पौराणिक ग्रन्थों का देश-विदेश में प्रवचन करते हैं। हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती के साथ-साथ संस्कृत भाषा पर भी उनकी अच्छी पकड़ है। गीता परिवार की स्थापना उन्होंने ही की थी।

कामेश्वर चौपाल : कामेश्वर चौपाल बिहार भाजपा के वरिष्ठ नेताओं में हैं। चौपाल राम जन्मभूमि आन्दोलन से जुड़े, फिर विहिप से जुड़े, बाद में भाजपा में आये। उन्हें श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट में दलित समुदाय के सदस्य के तौर पर शामिल किया गया है। सन् 1989 के राम मन्दिर आन्दोलन के समय हुए शिलान्यास में चौपाल ने ही राम मन्दिर की पहली ईंट रखी थी।

देश के बड़े मुद्दे

अर्थ-व्यवस्था : कोरोना वायरस महामारी ने दुनिया भर की अर्थ-व्यवस्था को बेहद प्रभावित किया है। विश्व बैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री, कौशिक बसु ने हाल ही में कहा है कि भारतीय अर्थ-व्यवस्था की हालत नाज़ुक है। सम्भावना है कि सन् 1947 के बाद 2020-21 में सबसे कम विकास होगा। एक ट्वीट में उन्होंने पहले भी कहा था कि देश की आर्थिक वृद्धि सामाजिक मानदण्डों, राजनीतिक संस्कृति और संस्थानों पर निर्भर करती है, और ये सन् 2016 से भारत में खराब हो रहे हैं। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया है कि यदि इन चीज़ों में सुधार नहीं हुआ, तो भारतीय सपना टूट जाएगा। सामाजिक सामंजस्य के टूटने से भारत आहत होने लगा है। भारत की तेज़ आर्थिक मंदी कोविड-19 महामारी से दो साल पहले शुरू हुई थी। अर्थ-व्यवस्था अकेले आर्थिक नीति पर निर्भर नहीं करती है।

किसान : सरकार ने हाल में लोकसभा में बताया था कि कृषि ऋण के कारण किसानों की आत्महत्या के बारे में सन् 2016 के बाद से कोई आँकड़ा उपलब्ध नहीं है; क्योंकि गृह मंत्रालय ने अभी तक इसके बारे में रिपोर्ट प्रकाशित नहीं की है। सदन में पेश आँकड़ों के मुताबिक, सन् 2015 में किसानों की आत्महत्या के मामलों की संख्या 3,097 और सन् 2014 में 1,163 थी। हालाँकि मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय को बताया था कि किसानों की आय और सामाजिक सुरक्षा बढ़ाने की तमाम कोशिशों के बावजूद सन् 2013 से हर साल 12,000 से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं।

बेरोज़गारी : देश में कोरोना वायरस और लॉकडाउन ने रोज़गार से जुड़ी समस्याओं को विकराल कर दिया है। रिपोट्र्स के मुताबिक, लॉकडाउन के कारण देश में हर पाँचवाँ व्यक्ति बेरोज़गार हो गया है। इस लॉकडाउन अवधि के दौरान करीब 24 फीसदी लोगों ने अपनी नौकरी गँवायी है। हाल ही में आईएएनएस-सीवोटर के एक सर्वे में बताया गया है कि इस दौरान 21.57 फीसदी लोगों की पूरी तरह छटनी हो गयी है, जबकि 25.92 फीसदी लोग अभी तक उसी आय या वेतन पर सुरक्षा उपायों के तहत काम कर रहे हैं। वहीं 7.09 फीसदी लोग घरों से काम कर रहे हैं और उनके वेतन में किसी प्रकार की कटौती की गयी है या नहीं की गयी है। देश के 23.97 लोगों ने कहा है कि लॉकडाउन लागू होने के बाद उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया।

कोरोना : सरकार के शुरुआती दावों के विपरीत देश में यह रिपोर्ट फाइल होने तक कोविड-19 से मरने वालों की संख्या 50 हज़ार की तरफ बढ़ती दिख रही है। अभी बड़ी संख्या में मरीज़ सामने आ रहे हैं और सरकार के लिए यह महामारी एक बड़ी चुनौती है

पड़ोसी देशों का अतिक्रमण : हाल ही में चीन के अलावा नेपाल ने भारत की सीमा में मौखिक रूप से अतिक्रमण की कोशिश की। चीन की सेना के तो बाकायदा गलवान घाटी में घुसने की बात भी सामने आयी, जिसमें हमारे 20 जवान भी शहीद हो गये। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन की सेना द्वारा किसी भी प्रकार की घुसपैठ से इन्कार किया; लेकिन बाद में रक्षा मंत्रालय ने इस बात की पुष्टि की कि चीन की सेना भारत की सीमा में अतिक्रमण कर रही है। मगर उसके बाद इस पोस्ट को रक्षा मंत्रालय की साइट से हटा लिया गया। हाल में भी खबरें आयीं कि चीन की सेना ने लद्दाख सीमा पर टैंक तैनात किये हैं। लेकिन सरकार अब भी खामोश है। इसके अलावा पाकिस्तान ने हाल ही में अपना नया नक्शा जारी किया है, जिसमें उसने भारत के हिस्से वाले जम्मू-कश्मीर, गिलगित-बाल्टिस्तान, लद्दाख, सर क्रीक और सौराष्ट्र के जूनागढ़ को भी अपने हिस्से में दिखाया है।

कुछ ऐसा होगा राम मन्दिर

राम मन्दिर तीन मंज़िल का होगा। मन्दिर की लम्बाई 280 से 300 फीट होगी; जबकि चौड़ाई 272-280 फीट के आसपास। मन्दिर की ऊँचाई 161 फीट होगी। इसके नये नक्शे में पाँच गुम्बद रखे गये हैं। पूरे मन्दिर में 318 स्तम्भ होंगे और हर तल पर 106 स्तम्भ बनाये जाएँगे। गर्भ गृह और सिंह द्वार के नक्शे में भी कोई बदलाव नहीं होगा। राम मन्दिर के अग्रभाग, सिंह द्वार, नृत्य मण्डप और रंग मण्डप को छोडक़र बाकी सभी हिस्से का नक्शा बदला जाएगा। मन्दिर के नये नक्शे पर वास्तुविद् चंद्रकान्त सोमपुरा काम कर रहे हैं। वास्तुविद् सोमपुरा ने बताया कि राम जन्मभूमि का मन्दिर मॉडल नागर शैली में बना है। उत्तर भारत में यही शैली प्रचलित है। इस मन्दिर के निर्माण में प्राचीन वैदिक परम्परा के सभी मानकों का पालन किया जाएगा। इस मन्दिर के निर्माण के बाद यह अपने आपमें अद्भुत होगा। क्योंकि भारत में यह राम मन्दिर अपने आप में दूसरे मन्दिरों से काफी अलग और अद्भुत होगा। इसके अलावा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मन्दिर के शिखर की परछाई कभी ज़मीन पर नहीं आनी चाहिए। इसका शास्त्रीय निषेध है। यही कारण है कि प्राचीनकाल के मन्दिर तो भव्य होते थे, लेकिन गर्भगृह जहाँ भगवान विराजमान होते हैं, वह अपेक्षाकृत छोटा होता है।

चंद्रकान्त सोमपुरा के दोनों बेटे निखिल और आशीष इंजीनियर हैं; जो मन्दिर के नक्शे में वास्तु के लिहाज़ से बदलाव पर काम करेंगे। सबसे पहले मूल मन्दिर का ढाँचा खड़ा करने पर ही फोकस होगा। इसके लिए 200 फीट गहराई में नींव की खुदाई की जाएगी और स्तम्भ खड़े किये जाएँगे। टीले पर स्थित राम जन्मभूमि के निर्माणाधीन मन्दिर को भूकम्प रोधी बनाने के लिए गहरी नींव खोदी जाएगी। नींव भरने के बाद मन्दिर का ढाँचा खड़ा किया जाएगा। श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय का कहना है कि उन्हें उम्मीद नहीं थी कि मन्दिर निर्माण के लिए 70 एकड़ ज़मीन मिल जाएगी।

मन्दिर भूमि को छोडक़र शेष भूमि पर यात्री सुविधाओं का विकास, दर्शनीय स्थल और भगवान के जीवन चरित्र का गुणगान करते हुई कहानियों के चलचित्र भी डिजिटल तरीके से संचालित होंगे। मन्दिर परिसर में कथा सत्संग के लिए भी स्थान तय किया जाएगा। पुजारियों व कर्मचारियों के आवास की व्यवस्था भी परिसर में होगी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि अयोध्या पर अगले पाँच साल तक सरकार का फोकस बेहतर सडक़ें, हवाई अड्डा और फाइव स्टार होटल जैसी सुविधाएँ देने का होगा।

मन्दिर और राम राज्य

अयोध्या में 5 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा राम मन्दिर के निर्माण के लिए भूमि पूजन करने और आधारशिला रखे जाने से देश और विदेश में लाखों लोग प्रसन्न हुए। उन लोगों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनावी घोषणा-पत्र में किये गये दो वादों (जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को खत्म करने और राम जन्मभूमि पर मन्दिर की स्थापना करने) पर खरे उतरे हैं। राम मन्दिर निर्माण के लिए शिलान्यास कार्यक्रम के महत्त्व को देखते हुए ‘तहलका’ ने कालखण्ड की इस महत्त्वपूर्ण घटना पर अयोध्या और देश में ज़मीनी माहौल पर खबर करने का ज़िम्मा विशेष संवाददाताओं- मुदित माथुर और राकेश रॉकी को सौंपा। निश्चित ही 5 अगस्त की तारीख को अपरोक्ष रूप से एक राजनीतिक घटनाक्रम की तरह बताने का इससे बेहतर मौका भला और क्या हो सकता था? जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 खत्म करने की पहली वर्षगाँठ इसी दिन थी; जिसमें उसे मिला हुआ विशेष राज्य का दर्जा और प्रावधान वापस ले लिये गये थे। तारीख का चयन यह साबित करता है कि राम मन्दिर के निर्माण में राजनीति है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने निश्चित ही एक अच्छे वक्ता, जो वह हैं भी; की तरह राम को समावेशी शासन और लोक कल्याण का प्रतीक बताया। अब सत्तारूढ़ पार्टी के ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे में ‘सबका विश्वास’ जीतने की आवश्यकता है; ताकि लोगों में बहुलवाद, धर्मनिरपेक्षता और सद्भाव का सन्देश जा सके। ऐसे समय में, जब कोविड-19 ने अर्थ-व्यवस्था पर करारा प्रहार किया है और सीमाओं पर अनिश्चितता की स्थिति पैदा हुई है; तब देश में एकजुटता की सख्त ज़रूरत है। यहाँ यह भी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी लोकप्रियता का उपयोग यह सुनिश्चित करने के लिए कर सकते हैं कि उनकी सरकार का रिकॉर्ड राम राज्य की तरह अच्छा हो। उत्तर प्रदेश में महज़ दो साल बाद 2022 में विधानसभा चुनाव होने हैं; साथ ही उस साल देश आज़ादी के 75 साल पूरे होने हीरक जयंती मनायेगा। अयोध्या में राम मन्दिर का निर्माण आगामी 2024 के लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ दल के लिए अच्छा साबित हो सकता है। क्योंकि मन्दिर का निर्माण साढ़े तीन साल के भीतर होना तय है। निश्चित ही चुनावों के लिए यह एक हथियार होगा। हालाँकि चीन, पाकिस्तान और यहाँ तक कि नेपाल द्वारा भी हमारी सीमाओं पर उत्पन्न की गयी तीन-तरफा चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें एकजुट रहने की बहुत आवश्यकता है। लेकिन अर्थ-व्यवस्था दुरुस्त करने की भी तत्काल ज़रूरत है।

यह तथ्य कि मुसलमानों ने कानून के शासन का पालन किया और सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले को स्वीकार किया है; प्रशंसनीय है। भगवान राम ने सभी लोगों की सहानुभूति, करुणा और प्रेम से देखभाल की और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी तमाम नागरिकों तक सद्भावना की इस डोर को पहुँचाना चाहिए, ताकि वास्तव में राम राज्य की स्थापना हो सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद ही कहा है कि राम हमारी विविधता में एकता का सामान्य सूत्र हैं। राम का वर्णन चीन, नेपाल और श्रीलंका में भी मिलता है। राम सबके हैं और राम सबमें हैं। अयोध्या में भव्य राम मन्दिर हमारी संस्कृति की समृद्ध विरासत का प्रतीक होगा और पूरी मानवता को प्रेरित करेगा। प्रधानमंत्री ने ज़ोर दिया कि राम का जीवन और चरित्र ही राम राज्य का रास्ता है। उन्होंने कहा कि भगवान राम ने अपनी सारी प्रजा पर सामान प्रेमवर्षा की साथ ही उन्होंने गरीब और दबे-कुचलों पर खास ध्यान दिया। राष्ट्र ऐसे ही राम राज्य का इंतज़ार कर रहा है।

कांग्रेस भी राम के रंग में

भारत की राजनीति अब धर्म पर आकर टिक गयी है। यह बात राम मन्दिर के मुद्दे पर जीत के बाद भाजपा के पक्ष में जन समर्थन से तय हो गयी है। एक दौर था, जब कांग्रेस पार्टी राम नाम की राजनीति करने पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) वालों पर देश को बाँटने का आरोप लगाती थी। कांग्रेस ने कोई भी मौका ऐसा नहीं छोड़ा, जिसमें सीधे तौर पर भाजपा पर यह आरोप न लगाया हो कि भाजपा राम के नाम पर साम्प्रदायिकता की राजनीति करके समाज में भेदभाव का माहौल पैदा कर रही है। पर आज के माहौल को भाँपते हुए मौज़ूदा वक्त में कांग्रेस पार्टी समझ गयी है कि अब ज़्यादा दिनों तक तुष्टिकरण की राजनीति नहीं की जा सकती है। यही वजह रही कि इस बार अयोध्या में राम मन्दिर के भूमि पूजन से पहले ही कांग्रेस राम के रंग में रंग गयी और खुलकर हिन्दुओं के हितों की बात करने लगी। बताते चले सन् 2014 में जब कांग्रेस पार्टी लोकसभा का चुनाव हार गयी, तो पार्टी के अन्दर इस बात पर सहमति बनी कि तुष्टिकरण के आरोपों को छुड़ाने की कोशिश करने का समय आ गया है। तहलका संवाददाता को कांग्रेस नेताओं और पार्टी समर्थकों ने बताया कि कांग्रेस तो भगवान राम को मानती रही है और मानती रहेगी। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने हमेशा भाजपा द्वारा राम पर की जा रही राजनीति का विरोध किया है; भगवान राम का नहीं।

कहते हैं कि राजनीति में अवसर देखकर पाला बलदने और बयान से पलटने में देर नहीं लगती है। ऐसा ही कांग्रेस के नेताओं ने अयोध्या में भूमि पूजन से पहले सियाराम, रामधुन गाकर और हनुमान चालीसा का पाठ कराकर बता दिया कि कांग्रेस का भी काम राम ही बनाएँगे। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा ने एक तीर से कई निशाने साधते हुए कहा कि अयोध्या में यह सारा कार्यक्रम भगवान राम की कृपा से हो रहा है। इसका सीधा और साफ सियासी मतलब है कि कांग्रेस राम मन्दिर के नाम पर किसी भी विवाद में नहीं पडऩा चाहती और वो भी सरलता के साथ हिन्दुत्व की राजनीति करना चाहती है। प्रियंका गाँधी वाड्रा ने कहा कि भगवान राम, माता सीता और रामायण की गाथा हज़ारों साल से हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक स्मृतियों में प्रकाशपुंज है। यानी राम सबके हैं। गाँधी के रघुपति राघव राजा राम सबको सनमति देने वाले हैं।

वहीं, कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने भूमि-पूजन पर देशवासियों को बधाई देते हुए एक वीडियो भी जारी किया, जिसमें वह रघुपति राघव राजा राम गा रहे हैं। राम भक्ति से कांग्रेस में मनीष तिवारी ने खुद का समर्पण भी दिखाया है। क्योंकि मनीष ने पहले चार सवाल करके पार्टी में जो बवाल किया था, उससे कांग्रेस सकते में आ गयी थी। हालाँकि कांग्रेस के किसी भी नेता ने इसका विरोध नहीं किया; क्योंकि आज कांग्रेस बड़े ही नाज़ुक दौर से गुज़र रही है।

मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भोपाल में अपने निवास पर हनुमान चालीसा का पाठ किया और कहा कि 5 अगस्त का दिन ऐतिहासिक दिन है, जिसका पूरा देश को इंतज़ार था। वह चाँदी की 11 ईंटें अयोध्या भेज रहे हैं। बताते चले कि मध्य प्रदेश के विधान सभा चुनाव 2018 में कमलनाथ ने कथित तौर पर तुष्टिकरण की राजनीति को बल देते हुए हिन्दुत्व की उपेक्षा की थी। तब कमलनाथ की छवि और साख को बट्टा लगा था। माहौल बिगड़ता देख और जनता की मनोदशा को भाँपते हुए कमलनाथ हिन्दुत्व की बात करने लगे और मन्दिर के नाम पर ही सही, पर हिन्दुत्व को गति देने लगे।

कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने कहा कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम सर्वोत्तम मानवीय गुणों का स्वरूप हैं। वे हमारे दिल की गहराइयों में बसी मानवता की मूल भावना हैं। राम प्रेम हैं। वे कभी घृणा में प्रकट नहीं हो सकते हैं।

कांग्रेस नेता अमरीष सिंह ने कहा कि दिल्ली विधानसभा चुनाव 2013 से अब तक हार का कारण यही रहा है कि जब कांग्रेस का प्रत्याशी मतदाता के पास वोट माँगने जाता था, तब मतदाता खुले तौर पर कहता था कि कांग्रेस तुष्टिकरण की राजनीति करती है। ऐसे में कांग्रेस पार्टी चुनाव हार गयी है। अब तो उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव आने वाले हैं, और अयोध्या मन्दिर का मामला वहीं से है। ऐसे में कांग्रेस को भी राम के भरोसे राजनीति करने से परहेज़ नहीं करना चाहिए। क्योंकि आज का दौर विध्वंस की राजनीति का नहीं, बल्कि निर्माण की राजनीति का है।

बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में हार की समीक्षा के लिए बनी ए.के. एंटनी कमेटी की रिपोर्ट के बाद कांग्रेस ने आत्ममन्थन करके खुद को बदलने का काम शुरू किया था। कमेटी ने कहा था कि हार का सबसे बड़ा कारण कांग्रेस का हिन्दू मतदाता से दूर जाना है। उसके बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने नरम हिन्दुत्व का सहारा लिया, जिसका उसको फायदा भी मिला। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद जितने भी चुनाव हुए, उनमें कांग्रेस ने हिन्दुत्व को धार दी है। गुज़रात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रचार में कांग्रेस ने हिन्दुओं को जमकर लुभाया भी है। कांग्रेस पार्टी के नेताओं का कहना है कि देश में आज कोरोना वायरस के संक्रमण-काल में जो काम सत्ताधारी पार्टी कर सकती है, वो विपक्ष नहीं कर सकता। ऐसे में जनता के बीच जाकर जनता के हित का काम करने में भलाई है। वहीं, अगर बिना विवाद के काम करना है, तो राम मन्दिर के नाम पर विवाद से या विवादित बयानबाज़ी से कांग्रेस को बचकर रहना होगा।

सम्भवत: इसी साल बिहार में और 2022 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हैं। ऐसे में कांग्रेस अब राम मन्दिर के सहारे और भगवान श्रीराम के जीवन आदर्शों को साथ लेकर इस अभियान को और गति देना चाहती है। क्योंकि कांग्रेस भली-भाँति जान चुकी है कि मौज़ूदा वक्त में हिन्दी भाषी राज्यों में तुष्टिकरण के सहारे राजनीति नहीं की जा सकती है। इसलिए नरम हिन्दुत्व को अपनाना होगा। कांग्रेस के समर्थक व जानकार हरिश्चंद्र पाठक का कहना है कि कांग्रेस पार्टी ने सदैव धर्म-निरपेक्ष की राजनीति की है और तुष्टिकरण को कभी बढ़ावा नहीं दिया है। इतना ज़रूर रहा है कि तुष्टिकरण के आरोप लगते रहे हैं। कांग्रेस अब भली-भाँति जानती है कि पार्टी ने जिनके चलते तुष्टिकरण का आरोप भी सहा है, वे आज अन्य दलों के पाले में बैठे हैं। ऐसे में अब क्यों न कांग्रेस ही हिन्दुत्व को अपनी राजनीति में गति दें। वैसे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और युवा नेताओं का इस बात पर ज़ोर रहा है कि कांग्रेस पार्टी में जब हिन्दू नेताओं की भरमार है, तो क्यों न हिन्दुत्व को कांग्रेस में शामिल किया जाए? कांग्रेस का कहना है कि सन्

1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने राम जन्मभूमि का ताला खुलवाया था।

वहीं, भाजपा नेता राजकुमार सिंह का कहना है कि राम मन्दिर निर्माण में जिन लोगों ने अड़ंगा लगाया है, वे आज समझ गये हैं कि देश की राजनीति का अस्तित्व बिना राम के नहीं है।

अयोध्या और ओरछा का रहा है पुराना नाता

अयोध्या में राम जन्म भूमि पूजन के अवसर पर बुन्देलखण्ड की अयोध्या कहे जाने वाले ओरछा के रामराजा मन्दिर में भी दो दिवसीय भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया गया और धूमधाम से उत्सव मनाया गया। ओरछा के रामराजा मन्दिर के पुजारियों और लोगों ने तहलका के विशेष संवाददाता को बताया कि 5 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब अयोध्या में राम मन्दिर का भूमि पूजन कर रहे थे, तब यहाँ पर देश के अन्य राज्यों के लोगों ने ओरछा के राम मन्दिर में आयोजित उत्सव में भाग लिया और पूजा-अर्चना की। अयोध्या और ओरछा पुराना नाता है। ओरछा की महारानी कुँवरि गणेश सन् 1631 में अयोध्या से भगवान राम की प्रतिमा को पुष्य नक्षत्र में ओरछा लायी थीं और यहाँ पर राजा के रूप में विराजित किया था; तबसे उन्हें यहाँ रामराजा सरकार कहकर पुकारा जाता है।

पंडित सन्तोष शर्मा ने बताया कि तबसे आज तक ओरछा में रामराजा सरकार को राजा के रूप में सलामी दी जाती है। ऐसी कथा-मान्यता है कि रामराजा सरकार दिन के समय में ओरछा में रहकर अपना दरबार सजाते हैं तथा रात्रि के समय विश्राम करने अयोध्या चले जाते हैं। जानकारों का मानना है सन् 1631 के 260 साल बाद सन् 1891 में यहाँ की एक और महारानी वृषभानु कुँवरि ने अयोध्या में भव्य कनक भवन मन्दिर का निर्माण कराया था। इसके बाद से ही जब भी अयोध्या राममय होती है, तब ओरछा समेत पूरा बुन्देलखण्ड भी भगवान राम की भक्ति में डूब जाता है। एक लम्बे समय तक कनक मन्दिर की पूजा-अर्चना और अन्य व्यवस्था के लिए ओरछा राजघराने से धन की व्यवस्था की जाती रही है। आज भी मन्दिर में ओरछा राजघराने की महारानी का शिलालेख है। अयोध्या का कनक मन्दिर और ओरछा का रामराजा मन्दिर, दोनों अन्दर से हू-ब-हू दिखते हैं। यानी ओरछा मन्दिर के अन्दर अयोध्या के कनक मन्दिर का-सा अहसास होता है और अयोध्या के कनक मन्दिर के अन्दर ओरछा के रामराजा मन्दिर में होने का-सा अहसास होता है। दोनों मन्दिरों के पूजा मण्डप से लेकर दालान तक बिल्कुल एक जैसे बनाये गये हैं। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा है कि ओरछा के राम ही मध्य प्रदेश के राजा हैं। शिवराज चौहान ने सोशल मीडिया पर लिखा है कि ओरछा में रामराजा विराजते हैं। कोरोना-काल के कारण रामराजा मन्दिर में भक्तों का आना-जाना प्रतिबन्धित था; लेकिन 4 और 5 अगस्त को रामराजा मन्दिर में विशेष सजावट व पुजारियों द्वारा विशेष पूजा-अर्चना की गयी। ओरछा के प्रधान पुजारी रमाकांत शरण महाराज ने बताया कि जिस समय प्रधानमंत्री अयोध्या में भूमि पूजन कर रहे थे, उसी समय ओरछा में शंखनाद और भगवान राम की सशस्त्र सलामी के साथ आरती की गयी। शाम को दीपदान करके दीपोत्सव मनाया गया।

ओरछा के लोगों का कहना है कि अयोध्या मन्दिर के निर्माण को लेकर ज़रूर सियासत हुई है, पर यहाँ के लोगों का अटैचमेंट अयोध्या के प्रति रहा है। रामलला भक्त रामप्रकाश गोस्वामी का कहना है कि जब 6 दिसंबर, 1992 बाबरी मस्जिद का ढाँचा तोड़ा गया था, तब देश में एक अलग-सा माहौल बनने लगा था। तरह-तरह की बातें होने लगी थीं कि अब मन्दिर का निर्माण कानून के फैसले के बाद ही सम्भव होगा। लेकिन भगवान की कृपा से कानून का सुप्रीम फैसला भी आ गया और आज वो घड़ी भी आ गयी, जब मन्दिर निर्माण का सपना साकार होने लगा है। रामशरण पटवारी कहते हैं कि जिसने अयोध्या देखी है, उसने ओरछा को ज़रूर देखने का प्रयास किया है। क्योंकि अयोध्या से ओरछा के लोगों का पुराना नाता है और दोनों मन्दिर एक-से हैं।

 बताते चले मध्य प्रदेश में किसी भी पार्टी की सरकार रही हो, पर राजनीति के अलावा नेताओं का जमावड़ा ओरछा में अक्सर देखा जाता है। 4 और 5 अगस्त को भूमि पूजन के अवसर पर कांग्रेस के सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने भी ओरछा में पूजा की और राम मन्दिर के निर्माण पर खुशी व्यक्त की है। कांग्रेस के कार्यकर्ता पवन चौधरी ने कहा कि भगवान राम सबके हैं और सबमें हैं। मन्दिर अयोध्या का हो या ओरछा का; दोनों मन्दिरों में कांग्रेसीयों ने बढ़-चढक़र भाग लिया और पूजा-अर्चना की है। अयोध्या सरयू नदी पर है, तो ओरछा बेतवा नदी पर है। वहीं बुन्देलखण्ड के लोगों का कहना है कि राम मन्दिर के शिलान्यास से धर्म और आस्था की विजयी तो हुई है, पर बुन्देलखण्ड का विकास काफी रुका है। अब सरकार को चाहिए कि कोरोना-काल में चौपट हुई अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाये और लोगों को रोज़गार दे; ताकि देश में सही मायने में राममय माहौल बन सके। क्योंकि अयोध्या मामले को लेकर विरोध करने वाले अब चुपचाप समर्थन कर रहे हैं। ऐसे में सरकार के पास एक अवसर है कि राम मन्दिर निर्माण के साथ-साथ देश का भी निर्माण करे। बताते चलें कि मध्य प्रदेश के हिस्से वाले बुन्देलखण्ड के टीकमगढ़ ज़िले में ओरछा है, जो उत्तर प्रदेश के ज़िला झाँसी से जुड़ा है। इस लिहाज़ से उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश, दोनों ही प्रदेशों के लिए ओरछा धार्मिक और राजनीतिक स्थली रहा है।

राजस्थान में कांग्रेस सरकार स्थिर, प्रियंका की पहल पर पायलट वापस

राजस्थान की कांग्रेस सरकार में पड़ रही फूट से गहराया तख्तापलट का संकट फिलहाल टल गया है। इसके साथ ही विधायकों की कथित रूप से खरीद-फरोख्त और पायलट खेमे के कांग्रेस विधायकों में उठ रहे बगावत के सुरों पर मचा जारी सियासी घमासान भी लगभग खत्म हो गया है। यह तब हुआ है, जब हर ओर से निंदा झेल रहे सचिन पायलट कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा की पहल पर पार्टी आलाकमान से मिले। हालाँकि सचिन की यह वापसी उनके और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के दिलों में पड़ी दरारों को भरती दिखायी नहीं दे रही है। क्योंकि सचिन पायलट ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी, कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी और पार्टी महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा से कई शिकायतें की हैं। इस मुलाकात में राहुल गाँधी ने पायलट से कहा कि राजस्थान में किसी भी कीमत पर सरकार नहीं गिरनी चाहिए। उन्होंने पायलट को भरोसा दिलाया कि उनकी शिकायतों और माँगों का उचित समाधान किया जाएगा। उनकी शिकायतों की जाँच के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने तीन सदस्यीय समिति का गठन किया है, ताकि पायलट और उनके समर्थक विधायकों द्वारा उठाये गये मुद्दों का समाधान किया जा सके। इस समिति में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा, दो वरिष्ठ नेता के.सी. वेणुगोपाल और अहमद पटेल शामिल हैं। इधर, 13 अगस्त को पार्टी महासचिव के.सी. वेणुगोपाल गहलोत-पायलट में सुलह के लिए राजस्थान पहुँचे।

दरअसल अशोक गहलोत से मतभेदों के चलते सचिन पायलट और उनके समर्थक विधायक बगावत पर उतर आये थे, जिसके बाद मुख्यमंत्री गहलोत ने उन पर सरकार तोडऩे का आरोप लगाया था। हालाँकि आरोप में उन्होंने पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के समक्ष दावे के साथ कुछ सुबूत पेश किये थे, जिसके बाद पायलट को उप मुख्यमंत्री तथा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के पद से हटा दिया गया था। सचिन पायलट की घर वापसी की पहल पर अशोक गहलोत के समर्थकों का कहना है कि सचिन को समय रहते समझ आ गयी। लेकिन उन्हें भविष्य में ऐसी हरकतों से बचकर रहना होगा। वहीं सचिन पायलट के समर्थक खामोश हैं और सचिन की तरह ही कांग्रेस को न छोडऩे का राग अलाप रहे हैं। हालाँकि गहलोत समर्थक अब भी पायलट खेमे से खफा बताये जा रहे हैं। वैसे अगर सचिन कांग्रस से बाहर हो जाते, तो कांग्रेस का गुर्जर वोट प्रभावित होता।

पद का लालच नहीं

कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के सामने अपनी शिकायतों के दौरान सचिन पायलट ने कहा है कि उन्हें पद का लालच नहीं है और न ही वह किसी राजनीतिक दुर्भावना के शिकार हैं। क्योंकि राजनीति में व्यक्तिगत दुर्भावना की कोई जगह नहीं होती। वह तो कांग्रेस में रहकर समाज सेवा करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि हम सभी ने मिलकर पाँच साल तक मेहनत की और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनायी और राज्य सरकार में हम सब भागीदार हैं। लेकिन कुछ सैद्धांतिक मुद्दे हैं, जिन्हें सुना जाना चाहिए। शायद उनका इशारा था कि राज्य के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उन्हें तथा उनके सुझावों को नज़रअंदाज़ करते हैं।

पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व से बातचीत के बाद पायलट काफी खुश नज़र आये। उन्होंने मीडिया को बताया कि मैंने कांग्रेस नेतृत्व के सामने अपनी समस्याओं को रखा है और मुझे खुशी है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी, पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी, प्रियंका गाँधी और अन्य वरिष्ठ नेताओं से मेरी विस्तार से बातचीत हुई, जिसमें उन्हें सहयोग का पूरा आश्वासन मिला है। पार्टी द्वारा सभी पद छीने जाने के सवाल पर पायलट ने कहा कि पार्टी ने पद दिये थे, उसे उनको वापस लेने का पूरा अधिकार है और उन्हें किसी पद का लालच भी नहीं है। वह पार्टी में रहकर जनसेवा करना चाहते हैं। पायलट ने कहा कि उन्हें पार्टी की तरफ से उनके द्वारा उठाये गये मुद्दों के समाधान का पूरा आश्वासन दिया गया है। उन्होंने यह भी कहा कि वह चाहते थे कि सैद्धांतिक और गवर्नेंस के मुद्दों को सुना जाए, ताकि पार्टी और सरकार जनता से किये गये वादों पर खरी उतर सकें, जो वादे करके हम सत्ता में आये थे।

गहलोत की नीतियों के खिलाफ हूँ…

सचिन पायलट ने केंद्रीय नेतृत्व से मुलाकात के बाद भी यही कहा कि उन्हें पार्टी से कोई शिकायत नहीं है और न ही वह पार्टी के खिलाफ हैं। लेकिन वह राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ डटे हुए हैं। इसका मतलब यह है कि गहलोत के साथ उनके मतभेद अभी समाप्त नहीं हुए हैं। सचिन पायलट ने राहुल गाँधी, प्रियंका गाँधी से कहा कि वह कांग्रेस पार्टी के खिलाफ नहीं, बल्कि अशोक गहलोत की नीतियों के खिलाफ हैं। उनकी यह मुखालिफत उसूलों और राज्य में कांग्रेस की सरकार बनने से पहले किये जनता के वादों को लेकर है। राजनीतिक जानकारों की मानें, तो सचिन पायलट अब भले ही कुछ कहें, लेकिन पहले वह भी ज्योतिरादित्य सिंधिया की राह पर ही चले थे। मगर उनका पलड़ा काफी हल्का रहा और उन्हें मजबूरन कांग्रेस नेतृत्व के आगे घुटने टेकने पड़े। राजनीतिक जानकार यह भी कहते हैं कि अशोक गहलोत एक मझे हुए खिलाड़ी हैं और सरकार चलाना जानते हैं। इसीलिए राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बची रह गयी, अन्यथा अब तक तो यहाँ भी मध्य प्रदेश वाला हाल हो चुका होता। कुछ लोगों का कहना है कि पायलट और गहलोत के बीच हुआ मतभेद अब मनभेद में बदल चुका है। इसलिए राजस्थान में सरकार भले ही बची रह गयी, पर इनके बीच हुए मनमुटाव के जख्म भरने मुश्किल हैं।

बागी विधायक भी पलटे

इधर सचिन के घर वापसी की भनक लगते ही राजस्‍थान के निलंबित कांग्रेस विधायक भँवर लाल शर्मा और अन्य विधायक भी पलट गये हैं। शर्मा ने अशोक गहलोत के साथ बैठक के बाद कहा कि वह मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ हैं। बता दें कि यह वही विधायक हैं, जिन पर गहलोत सरकार के खिलाफ कथित तौर पर साज़िश रचने का आरोप लगा था। भँवर लाल शर्मा पर यह आरोप उनका टेप सामने आने के बाद लगा था, जिसमें वह विधायक खरीद-फरोख्त के बिचौलिया संजय जैन के साथ सौदा करते हुए सुने गये थे।

इसके बाद कांग्रेस ने कहा था कि संजय जैन ने भँवर लाल शर्मा को केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत से मिलाया था और वह पैसे लेने-देने की चर्चा कर रहे थे। हालाँकि भँवर लाल शर्मा ने पहले की तरह ही अपने द्वारा किसी भी तरह की साज़िश रचे जाने से इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा कि वह किसी कैम्प नहीं थे, बल्कि अपनी तरफ से वहाँ गये थे और अपनी ही तरफ से वापस आये। बता दें कि जब पार्टी की राज्य इकाई में फूट पड़ रही थी, तब पायलट समर्थक विधायक गुरुग्राम (गुडग़ाँव) के एक होटल में ठहरे थे। भँवर लाल ने उसी होटल (कैम्प) में खुद के शामिल न होने की बात कही। ऑडियो टेप के झूठे होने की बात दोहराते हुए शर्मा ने कहा कि वह मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ हैं।

गहलोत के निशाने पर रहा केंद्र

राजस्थान के कुछ कांग्रेस विधायकों द्वारा राज्य की सत्ता से बगावत करने पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कई बार सीधे केंद्र सरकार को निशाने पर लिया। उन्होंने यहाँ तक कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्य में यह तमाशा को बन्द करवाएँ। अशोक गहलोत ने फिर से आरोप लगाते हुए कहा है कि भाजपा उनकी सरकार को गिराने के लिए विधायकों की खरीद-फरोख्त का बड़ा खेल खेल रही है। इस बार भाजपा का प्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त का खेल बहुत बड़ा है। वह कर्नाटक और मध्य प्रदेश वाला प्रयोग राजस्थान में भी कर रही थी; लेकिन दुर्भाग्य से उसका पर्दाफाश हो गया। गहलोत ने कहा कि उन्हें किसी की परवाह नहीं। उन्हें केवल लोकतंत्र की परवाह है और उनकी लड़ाई किसी व्यक्ति विशेष या दल से न होकर विचारधारा, नीतियों एवं कार्यक्रमों की लड़ाई है; लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई है।

क्या खोयी हुई प्रतिष्ठा वापस पा सकेंगे पायलट

सवाल यह उठता है कि अब जब सचिन पायलट को कांग्रेस नेतृत्व ने राजस्थान वापस भेज दिया है, तो क्या उन्हें कांग्रेस की राजस्थान इकाई में और जनमानस के मन में वह जगह, वह प्रतिष्ठा मिल सकेगी, जो पहले थी। राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि कांग्रेस पार्टी में सचिन के प्रति जो प्रेम है, उसे देखकर लगता है कि सचिन की घर वापसी तो हो गयी है; लेकिन सचिन पायलट को पहले जैसी प्रतिष्ठा नहीं निल सकेगी। क्योंकि जनता की नज़रों में पहले जैसी छवि बनाने में उन्हें लम्बा समय लगेगा।

दरअसल जब मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत और उनके साथ कई विधायकों के भाजपा में शामिल होने के बाद सचिन पालयट ने कहा था कि वह कांग्रेस का दामन कभी नहीं छोड़ेंगे। उस समय यह सुगबुगाहट थी कि सचिन भाजपा में जाने के मूड में हैं। खबरें तो यहाँ तक उड़ी थीं कि सचिन राजस्थान के मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं।

सचिन पायलट ने मुलाकात के दौरान प्रतिबद्धता जतायी है कि वह पार्टी और राजस्थान की कांग्रेस सरकार के हित में काम करेंगे। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी से मुलाकात के दौरान सचिन पायलट ने विस्तार से अपनी शिकायतें बतायी हैं। दोनों के बीच स्पष्ट, खुली और निर्णायक बातचीत हुई; उसके बाद कांग्रेस हित में साथ मिलकर काम करने पर सहमति बनी है।

के.सी. वेणुगोपाल, महासचिव, कांग्रेस

वसुंधरा की तल्खी और बगावत से गुस्साया भाजपा नेतृत्व

राजस्थान में मचे सियासी संग्राम के तूफानी थपेड़ों के बीच जब कई अखबारों की सुॢखयों के साथ छपा कि- ‘गुस्साये भाजपा नेतृत्व ने वसुंधरा राजे को दिल्ली तलब किया’ ऐसे में राजनीतिक हलकों में सवालों का सैलाब उठना ही था। यह बात जुदा है कि राजे ने विवादों में ढलते सवालों का जवाब अपने खास अंदाज़ में दिया कि ‘कृपया संकटों के तमाम अंदेशों को मुल्तवी रखिए…।’ सौम्य मुस्कुराहट के साथ उन्होंने कहा कि नियति ने मुझे जिस ऊँचाई तक पहुँचाया है, फिलहाल उसमें कोई कटौती नहीं होने वाली है।

विश्लेषकों का कहना है कि यह सब कहते हुए राजे एक बार फिर अबूझ पहेली की तरह नज़र आयीं। लेकिन एक खामोश अहसास ज़रूर उनके चेहरे पर हावी होता नज़र आया। जानकारों का कहना है कि हाल की चन्द घटनाओं का गणित समझें तो भाजपा नेतृत्व और वसुंधरा राजे के बीच राजनीतिक टकराव की चिंगारी भडक़ चुकी है। अफवाहों का बाज़ार गर्म है कि भाजपा अध्यक्ष नड्डा और राजे के बीच आपसी मनभेद गहराया हुआ है। राजे राजनीतिक ताकत के रूप में अपनी अहमियत किस कदर गँवा चुकी है? उसका अंदाज़ा नड्डा के दो टूक लफ्ज़ों से हो जाता है कि आपको किसी सूबे का गवर्नर बना दिया जाए। अथवा आप चाहें, तो केंद्रीय राजनीति में आपको सक्रिय कर दिया जाए। विश्लेषकों का कहना है कि राजे कोई नौसिखिया राजनेता नहीं हैं। इस बात को कोई नहीं मान सकता कि राजे भाजपा की बदली हुई राजनीतिक संस्कृति न समझ पायी हों और अब तक अपने अँगूठे को ही घायल करती रही हों। वहीं वसुंधरा ने अवाम की क्या और क्या नहीं के बीच सीमा रेखा खींचते हुए कहा- ‘मैं पार्टी के हर फैसले के साथ हूँ, किन्तु स्वाभिमान से समझौता नहीं कर सकती।’ उन्होंने राजनीतिक विरोधाभास का खुलासा करते हुए कहा कि प्रदेश के कुछ नेता पदीय अधिकार मिलने के साथ ही पार्टी की रीति-नीति भूल गये हैं। क्यों हुआ ऐसा? क्या उन्हें अनुशासन का पाठ नहीं पढ़ाना चाहिए? इससे कई सवाल उठते हैं, मसलन- राजे का इशारा किसकी तरफ था? किसके तौर-तरीके सशंकित करने वाले हैं? आिखर राजे का गुस्सा किस-किस पर फूट रहा था? कांग्रेस की सियासी फिज़ाँ में भाजपा के अदृश्य दाँव-पेंच में राजे की चुप्पी का रहस्य क्या था?

हालाँकि राजे ने अपनी चुप्पी को सावन मास में पूजा-अर्चना की खातिर धौलपुर प्रवास को वजह बताया। लेकिन सूत्र कहते हैं कि राजे का अतीत इसकी पुष्टि नहीं करता। अनेक मौकों पर अपने दम-खम का परिचय दे चुकी राजे की चुप्पी ज़िम्मेदारी से दूर भागने की कहानी तो नहीं हो सकती। राजे के स्पष्टीकरण में किसी धारावाहिक से कम नाटकीयता नहीं थी। उनका हर सवाल भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया, विधानसभा में प्रतिपक्ष उपनेता राजेन्द्र सिंह राठौड़ और भाजपा के घटक दल के राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चा के नागौर सांसद हनुमान बेनीवाल को कटघरे में खड़ा कर रहा था। सयासत तब और गरमा गयी, जब बेनीवाल ने राजे को सीधे निशाने पर लेेते हुए कहा कि वसुंधरा राजे गहलोत सरकार को बचाने में लगी हुई हैं। राजेे ने अपना पक्ष मज़बूती से रखते हुए कहा कि कैसी विडम्बना है कि पार्टी का बाहरी व्यक्ति, जो घटक दल के नाते पार्टी से जुड़ा है; बिना सिर-पैर का बयान दे। क्या उस पर यकीन कर लिया जाना चाहिए? क्या यह पार्टी में दरार पैदा करने की हिमाकत नहीं है? एक-दूसरे के खिलाफ गोटियाँ बिछाने का काम क्यों किया जा रहा है? कुल मिलाकर पूरे बखेड़े को सियासत और शैतानियत की जुगलबन्दी बताते हुए राजे ने प्रदेश भाजपा की कार्यशैली को ही कटघरे में खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा कि नीतियों की राजनीति ही सियासी दलों का सबसे बड़ा इम्तिहान होती है। लेकिन ता•ज़ुब है कि केंद्रीय नेतृत्व ने अभी तक प्रदेश संगठन की कार्यशैली की समीक्षा करने की ज़हमत ही नहीं उठायी। सूत्र कहते हैं कि बेशक कई मुद्दे राजे की दु:खती रग से जुड़े हैं; लेकिन यह तल्ख हकीकत ही कही जाएगी कि कुछ चर्बीदार नेता बेहतर रणनीतिक हैसियत हासिल करने के लिए अपनी गोटियाँ बिछाने की फिराक में थे।

विश्लेषकों का कहना है कि भले ही सतीश पूनिया, राठौड़ गुट का प्रदेश में कोई जनाधार नहीं है; लेकिन दोनों ही सत्ता परिवर्तन कराकर मुख्यमंत्री बनने की फिराक में हैं। पर क्या इस मशक्कत में भाजपा की ज़मीन खिसक रही है? अगर नहीं, तो भाजपा भी क्यों कांग्रेस की तर्ज पर विधायकों की बाड़ाबन्दी कर रही है? भाजपा ने 8 ज़िलों के 18 विधायकों की बाड़ाबन्दी करते हुए उन्हें गुजरात भेज दिया। सूत्र बताते हैं कि भाजपा ने प्रदेश संगठन की सलाह पर यह कदम उठाया है। भाजपा संगठन की इस कारगुज़ारी पर सफाई देते हुए नेता प्रतिपक्ष गुलाब चंद कटारिया का कहना है कि सरकार गिरने की स्थिति में है। ऐसे में हर तरह की तोडफ़ोड़ की कोशिश है। हम हमारे किसी भी विधायक को सरकार के प्रभाव में नहीं आने देना चाहते। इसलिए सबको सुरक्षित स्थानों पर भेजा गया है। विश्लेषक कहते हैं कि विरोध का धुआँ भाजपा में भी उठ रहा है। 18 विधायकों की इस खेप में वसुंधरा राजे के विधायक कितने हैं?

अब जबकि राजे की जवाबतलबी दुराग्रहों, तल्ख िकस्सों और मोहभंगों की रपटीली राह पर है, तो सम्भावना प्रबल होती जान पड़ती है कि उन्हें दलीय राजनीति में प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया के नेतृत्व में काम करने को कह दिया जाए। सूत्रों की मानें तो राजस्थान में जिस तरह भाजपा की संगठनात्मक गतिविधियाँ बदल रही हैं। तमाम तरह की राजनीतिक गतिविधियों पर पूनिया की पकड़ मज़बूत होती जा रही है। लेकिन राजे को इस खेल कोई तवज्जो मिल पायेगी; यह सोचना भी गलत है। विश्लेषकों का कहना है कि अपने दर्द और स्वाभिमान से इत्तिफाक रखने वाली राजे गर्दन झुका लेंगी, ऐसा सम्भव ही नहीं है। राजे को राजस्थान की राजनीति से बेदखल करना एक दु:स्वप्न तो हो सकता है; हकीकत नहीं।

खास बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पिछले साल भर से राजे से कन्नी काटे हुए हैं। अमित शाह राजे को फिर मिलने का मौका देंगे, इसके भी कोई आसार नहीं है। स्वाभिमानी राजे के पास एक ही आखरी हथियार बचा है- ‘थर्ड फ्रंट।’ यह हथियार राजे पहले भी आजमा चुकी हैं। भाजपा की तेज़तर्रार नेता वसुंधरा राजे के अवचेतन में कहीं-न-कहीं अपना असली रूप दिखाने की बेकरारी रही होगी या फिर कोई नया शिगूफा छोडऩे की भीतर से घंटी बजी होगी। पिछले दशक में हाशिये पर डाल दिये गये राजनीतिक पुरोधाओं के साथ स्नेह मिलन से तो ऐसा ही लगा था। खण्डहर होते नेताओं के सत्ता के स्वप्नीले घरों की चहारदीवारी में हुई इस रहस्यमय मुलाकात को खालिस सद्भावना भेंट तो नहीं कहा जा सकता। अलबत्ता खुद वसुंधरा का चुटीले अंदाज़ में यह कहना था कि राज को राज ही रहने दो। सुॢखयाँ में ढली इस मुलाकात के बारे में राजनीतिक विश्लेषकों का कहना था कि राजनीति और कारोबार में तिलक माथा और मौका देखकर लगाया जाता है। वसुंधरा ने भी बेगानों के माथे पर तिलक लगाने की कोशिश की, तो इसके पीछे दूरगामी राजनीतिक अनुभूति की तीव्रता थी। वसुंधरा के व्यवहार में हमेशा चक्रवर्ती होने की बात झलकती है। यही उनकी प्राण-वायु भी है। प्रदेश भाजपा के मुखिया पूनिया जिस तरह विरोध के ताप में तप रहे हैं, वसुंधरा ने वह तापमान माप लिया है। मगर पूनिया और उनके समर्थक इस सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि राजस्थान में वसुंधरा का मतलब ही भाजपा है।

सम्भवत: यही वजह रही कि राजनीतिक पंडितों ने एक बार फिर तीसरे मोर्चे की सम्भावनाएँ जताते हुए कहा है कि अगर बात बिगड़ी, तो हाशिये पर पड़े राजनीतिक भीष्म पितामह उनकी खातिर शर शय्या पर लेटने से इन्कार नहीं करेंगे। राजनीति के पुरोधाओं ने भी सियासत में जीवन खपाया है, इसलिए उनका अनुसरण करने वाले भी कम नहीं होंगे। सत्ता की राजनीति एक ज़बरदस्त नशा है, जिसकी मामूली खुराक भी थरथराते जिस्मों में फौलाद भर देती है।

बार-बार चुनौतियों से होना पड़ा दो-चार

वसुंधरा राजे का इतिहास खँगालें, तो कहना होगा कि उन्होंने हर मौके और मुद्दे पर अपनी बात मनवाने में कसर नहीं छोड़ी। बात ज़्यादा पुरानी नहीं है, जब तमाम दुरभिसंधियों को धता बताते हुए वसुंधरा राजे जिस तरह अपने भरोसेमंद अशोक परनामी की संगठन के अध्यक्ष पद पर दोबारा ताजपोशी करवाने में निर्णायक और सफल साबित हुईं। संगठन के शिखर पद की इस दौड़ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक अलग ही चेहरा दिखायी दिया था। संघ अपनी कूटनीति के साथ फलक के दोनों सिरों की धुरी पर स्थापित था। इस अबूझ दौड़ में संघ की पहली पसन्द माने जाने वाले सतीश पूनिया थे, तो संघ पृष्ठभूमि के राज्य सभा सांसद नारायण पचारिया भी थे। यहाँ तक कि कभी राजे को गुर्राहट दिखा चुके ओंकार सिंह लाखावत भी पीछे नहीं थे; लेकिन संघ की नज़रें टेढ़ी होने के कारण खुद ही मैदान छोड़ गये। शतरंज की बिसात से पूनिया और पचारिया को इस तर्क के साथ हटा दिया गया कि इनको मौका दिये जाने पर सत्ता और संगठन के बीच दूरी बढ़ सकती थीं। इस सीनेरियो को अलग से देखें, तो संघ के कद्दावर नेता राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री वी. सतीश परनामी के नाम की घोषणा के दौरान वसुंधरा राजे के साथ थे। यहाँ तक कि कभी राजे के धुर-विरोधी रहे रामदास अग्रवाल भी इस मौके पर मौज़ूद थे। यह सतीश वही थे, जो कभी इस पटकथा के खिलाफ थे और कह चुके थे कि मुख्यमंत्री आवास को सत्ता और संगठन का साझा केंद्र नहीं होना चाहिए। जबकि राजनीतिक हलकों में उनकी प्रतिक्रिया पर हैरानी जतायी गयी थी। परनामी की ताजपोशी के मौके पर सहमति के बावजूद राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह क्यों नहीं आये? इसको लेकर राजनीतिक विश्लेषकों की प्रतिक्रिया थी कि उनकी आमद पर सम्भवत: उनका यह कथन ही उनके पाँवों की बेडिय़ाँ बन सकता था कि जिस प्रदेश में भी भाजपा सरकार है, वहाँ मुख्यमंत्री का खास समझा जाने वाला व्यक्ति प्रदेश अध्यक्ष नहीं होना चाहिए। इससे संगठन चौपट हो जाता है।

हालाँकि राजे ने अंदेशों की धुन्ध को यह कहकर साफ कर दिया कि केवल एक व्यक्ति ही परिणाम नहीं ला सकता। प्रदेश अध्यक्ष पद की खींचतान को लेकर चली बातों की बत्तीसी को उन्होंने यह कहकर बन्द कर दिया कि राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को मेरे विरुद्ध पता नहीं क्या कुछ कहा होगा? लेकिन शाह इससे विचलित नहीं हुए। उन्होंने अपना रास्ता अपनाया और अटूट विश्वास जताते हुए कहा कि बेधडक़ अपना काम करें। पार्टी को आगे ले जाने की हर सम्भव कोशिश करें। हम आपके पीछे खड़े हैं। इस हौसला अफजाई से ही अशोक परनामी को फिर से अध्यक्ष बनाया जा सका। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व वसुंधरा राजे से नाराज़ है, क्योंकि उन्होंने राजस्थान में भाजपा की मदद न करते हुए केंद्र को भाजपा की छवि खराब होने से आगाह किया।

मौत के रन-वे!

कोझिकोड विमान हादसे ने इस बात को एक बार फिर साबित कर दिया है कि कैसे हमारे देश में आपात मामलों में भी आपराधिक लापरवाही बरती जाती है। वहाँ के डाउनस्लोप (ढलान) वाले टेबल टॉप रन-वे पर गम्भीर खतरे को इंगित करते हुए 10 साल पहले इसके रन-वे के कम बफर एरिया को बढ़ाने की सिफारिश और खतरे की चेतावनी के बावजूद इस पर कुछ नहीं हुआ।

इस हवाई अड्डे का निरीक्षण करने के बाद डीजीसीए ने एक साल पहले कारण बताओ नोटिस जारी किया था। इसमें कहा गया था कि वहाँ का रखरखाब तय पैमानों के मुताबिक नहीं है। डीजीसीए ने वहाँ रबर डिपॉजिट की बात कही थी। तहलका की जानकारी के मुताबिक, देश भर में 11 हवाई अड्डों को हाई रिस्क की श्रेणी में रखा गया है। फिर भी वहाँ रन-वे के मामलों में पिछले वर्षों में कुछ खास काम नहीं हुआ है। हैरानी की बात यह है कि भारत में आज तक जो बड़े विमान हादसे हुए हैं, उनमें से ज़्यादातर एयर इंडिया या तत्कालीन इंडियन एयरलाइंस के रहे हैं।

तहलका के द्वारा जुटायी जानकारी के मुताबिक, 2010 में जब मंगलूरु में एयर इंडिया एक्सप्रेस विमान हादसे का शिकार हुआ था, तो देश के सभी टेबल टॉप रन-वे को लेकर खतरों को सूचीवद्ध करने की कवायद हुई थी। इस हादसे में 160 लोगों की जान चली गयी थी। लेकिन यह सारी कवायद कागज़ों में ही सीमित रह गयी और उन पर कोई काम नहीं हुआ।

रन-वे के इस खतरे के कारण ही कई अंतर्राष्ट्रीय एयरलाइंस, जिनमें बोइंग 777 और एयरबेस ए-330 जेट विमान शामिल हैं; ने कोझिकोड को अपनी ऑपरेशन स्टेशन्स की सूची से बाहर कर दिया था। केरल में जो चार हवाई अड्डे हैं, उनमें कोझिकोड का रन-वे सबसे छोटा, खतरनाक है, जो दोनों तरफ से खुला है।

देश में कुछ हवाई अड्डे ऐसे हैं, जो पहाड़ी के ऊपर बने हैं। इन हवाई अड्डों पर पट्टी के दोनों या एक तरफ खाई (ढलान) होती है, लिहाज़ा इन टेबल टॉप रन-वे में लैंडिंग का बहुत ज़्यादा जोखिम होता है। करीब 9 साल पहले एयर सेफ्टी एक्सपर्ट और तब सुरक्षा सलाहकार समिति के सदस्य कैप्टन मोहन रंगनाथन ने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा था कि कोझिकोड (उस समय कालीकट) का हवाई अड्डा लैंडिंग के लिए बिल्कुल सुरक्षित नहीं है। लेकिन उनकी चेतावनी और सिफारिशों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया।

तहलका की जानकारी के मुताबिक, ठीक एक साल पहले जुलाई, 2019 में भी इसी हवाई अड्डे पर एक बड़ा हादसा होने से टल गया था। तब एयर इंडिया एक्सप्रेस का ही विमान लैंडिंग के दौरान हादसे का शिकार होते-होते बचा था। स्ट्रिप पर उतरते ही विमान का पिछला हिस्सा रन-वे को छू गया था। हालाँकि विमान और सभी यात्री सुरक्षित बच गये थे।

कालीकट हवाई अड्डे पर पहले भी दुर्घटनाएँ हुई हैं। रिकॉर्ड के मुताबिक, 9 जुलाई, 2012 को एयर इंडिया एक्सप्रेस उड़ान बोइंग 737-800 लैंडिंग के दौरान रन-वे पर फिसल गयी। उस दिन भी भारी बारिश हुई थी। हालाँकि हादसे में किसी सवारी को कोई नुकसान नहीं हुआ। इसके बाद 4 अगस्त, 2017 को लैंडिंग के दौरान स्पाइसजेट का विमान रन-वे पर फिसल गया। इससे विमान का आईएलएस बीकन क्षतिग्रस्त हो गया।

यदि लोबल विमान ट्रैकर की वेबसाइट देखें, तो उस पर दर्शाया गया है कि केरल के कोझिकोड हवाई अड्डे के रन-वे पर हादसे के शिकार एयर इंडिया एक्सप्रेस विमान को कम-से-कम दो बार लैंड कराने की कोशिश की गयी थी। हादसे के बाद नागरिक उड्डयन महानिदेशालय (डीजीसीए) ने कहा कि विमान लैंडिंग के बाद रन-वे पर रोका नहीं जा सका और रन-वे को पार करके घाटी में गिर गया। जानकारी के मुताबिक, इस हवाई अड्डे की बनावट के कारण ही पिछले दिनों लगातार बारिश के कारण भी रन-वे को काफी नुकसान पहुँचा था।

यह बड़ा सवाल है कि जब नौ साल पहले इस हवाई अड्डे पर खतरे को लेकर चेतावनी जारी की गयी थी, तो क्यों उसमें सुधार नहीं किया गया? कोझिकोड में डाउनस्लोप वाला टेबलटॉप रन-वे है। रन-वे के आिखर में बफर एरिया (सुरक्षा की दृष्टि से अतिरिक्त क्षेत्र) पर्याप्त रूप से होना चाहिए, जो वहाँ नहीं है।

नियमों के मुताबिक, इस तरह के हवाई अड्डे में रन-वे के बाद 240 मीटर का ऐसा बफर एरिया होना चाहिए, जो आपातकाल में काम आये। जानकारी के मुताबिक, कोझिकोड के हवाई अड्डे पर यह मात्र 90 मीटर है। हैरानी की बात यह है कि इसे डीजीसीए की मंज़ूरी मिली थी, जिसने खुद एक साल पहले हवाई पट्टी पर रबर डिपॉजिट को लेकर सवाल खड़े किये थे। यही नहीं, वहाँ रन-वे के दोनों तरफ भी स्थान बहुत सँकरा है। वहाँ अनिवार्य रूप से 100 मीटर जगह होनी चाहिए, जो इससे कहीं कम 75 मीटर ही है।

विशेषज्ञों के मुताबिक, हवाई अड्डों पर बारिश के समय टेबल टॉप रन-वे पर जहाज़ों के परिचालन को लेकर कोई दिशा-निर्देश नहीं है। नागर विमानन सचिव और महानिदेशक नागरिक उड्डयन को 17 जून, 2011 को नागर विमानन सुरक्षा सलाहकार समिति (सीएएसएसी) के अध्यक्ष को लिखे पत्र में कैप्टन मोहन रंगनाथन ने कहा था कि रन-वे एंड सेफ्टी एरिया (आरईएसए) की कमी को देखते हुए रन-वे 10 अप्रोच (जहाँ हादसा हुआ) को अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। साथ ही 240 मीटर के आरईएसए को तुरन्त शुरू किया जाना चाहिए और परिचालन को सुरक्षित बनाने के लिए रन-वे की लम्बाई को कम करना होगा।

कोझिकोड के हवाई अड्डे को लेकर सुरक्षा सलाहकार समिति ने कहा था कि यदि कोई विमान रन-वे के भीतर रुकने में असमर्थ है, तो अन्त तक वहाँ कोई आरईएसए नहीं है। आईएलएस स्थानीयकरण एंटीना को एक ठोस संरचना पर रखा गया है और इसके आगे का क्षेत्र ढलान वाला है। इसके मुताबिक, मंगलूरु में एयर इंडिया एक्सप्रेस दुर्घटना ने रन-वे की स्थिति को सुरक्षित बनाने के लिए एएआई को सचेत किया है। हम सीएएसएसी की प्रारम्भिक उप-समूह बैठकों के दौरान आरईएसए का मुद्दा उठा चुके हैं। हमने विशेष रूप से उल्लेख किया था कि आईसीएओ अनुलनक 14 के आवश्यक अनुपालन के लिए दोनों रन-वे के लिए घोषित दूरी को कम करना होगा।

एक साल पहले कोझिकोड हवाई अड्डे का निरीक्षण करने के बाद वहाँ गड़बडिय़ों को देखते हुए डीजीसीए ने बाकायदा हवाई अड्डे को कारण बताओ नोटिस जारी किया था। इस नोटिस में साफ कहा गया था कि हवाई अड्डे पर रखरखाब ज़रूरी पैमानों के मुताबिक नहीं है। तहलका की जानकारी के मुताबिक, कोझिकोड के कालीकट हवाई अड्डे के खिलाफ डीजीसीए ने यह कारण बताओ नोटिस 4 जुलाई, 2019 को जारी किया था। डीजीसीए की टीम ने अपने निरीक्षण के दौरान पाया था कि हवाई अड्डे /रन-वे पर बहुत-सी खामियाँ हैं।

जानकारी के मुताबिक, डीजीसीए की जाँच टीम ने इन खामियों को लेकर हवाई अड्डे  प्रशासन से जवाब तलब किया था। हालाँकि उन्हें कोई सन्तोषजनक जवाब नहीं मिला था।

इस तरह देखा जाये तो एक तरह से डीजीसीए टीम ने इस हवाई अड्डे पर को खामियाँ देखी थीं, वे लैंडिंग के लिहाज़ से खतरनाक थीं। अर्थात् वहाँ लैंडिंग रिस्की थी। लेकिन इसके बावजूद इन खामियों को दूर करने की कोई कोशिश नहीं हुई।

इन खामियों को देखते हुए और हवाई अड्डे प्रशासन की तरफ से असन्तोषजनक उत्तर के बाद उसे 5 जुलाई को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया। यह पता नहीं कि इसके जवाब में कोझिकोड हवाई अड्डे प्रशासन ने क्या कहा? लेकिन उसमें यह ज़रूर कहा गया था कि इन कमियों को सुधारने की कोशिश की जाएगी। लेकिन इस दिशा में कुछ खास हुआ नहीं।

डीजीसीए के कारण बताओ नोटिस में जो बिन्दु उठाये गये थे, उनके मुताबिक इस हवाई अड्डे पर बारिश में जलभराव (वाटर लॉगिंग) की गम्भीर समस्या है। ज़रूरी रखरखाव न होने से पट्टी पर दरारें (क्रैक्स) हैं। यही नहीं जहाज़ों की लैंडिंग से रन-वे पर बड़ी मात्रा में रबर डिपॉजिट हो गया है। इसे हटाया जाना ज़रूरी होता है।

हालाँकि लैंडिंग के लिहाज़ से जो सबसे गम्भीर बिन्दु उठाया गया था, वह रन-वे के आिखर में ढलान (स्लोप) का था। अर्थात् रन-वे पर जहाज़ के किसी कारण आिखर तक चले जाने की स्थिति में उसकी सुरक्षा का गम्भीर रिस्क है।

यही 7 अगस्त के हादसे के मामले में भी हुआ है जब जहाज़ लैंडिंग के बाद रन-वे के आिखर तक चले जाने कारण खाई में लुढक़ गया। बफर जोन में ज़रूरी सुरक्षित क्षेत्र होता, तो हादसा टल सकता था। उस समय जाँच के दौरान हवाई अड्डे पर डिजिटल मेट डिस्प्ले और डिस्टेंट इंडिकेशन विंड इक्यूपमेंट भी आउट ऑफ ऑर्डर पाये गये थे। ज़ाहिर है इस हवाई अड्डे पर इस कार्य के लिए ज़िम्मेदार स्थानीय विभाग सुरक्षा व्यवस्था से जुड़े कदम नहीं उठा पाया था।

कोझिकोड का हादसा

दुबई से आ रहा एयर इंडिया का विमान 7 अगस्त को हादसे का शिकार हो गया। इसमें यह रिपोर्ट लिखे जाने तक 20 लोगों की मौत हो गयी, जिसमें दोनों पायलट भी शामिल हैं। भारी बारिश के चलते रन-वे पर पानी भरा था और लैंडिंग के समय विमान फिसलकर लगभग 35 फीट गहरी खाई में जा गिरा। हादसे में 127 लोग घायल हुए। विमान दुर्घटना जाँच ब्यूरो ने विमान से डिजिटल विमान डेटा रिकॉर्डर और कॉकपिट वॉयस रिकॉर्डर बरामद किये हैं, जिनकी छानबीन से हादसे को लेकर कुछ खुलासे होंगे।

नागरिक उड्डयन मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने भी कोझिकोड हवाई अड्डे का दौरा किया। उन्होंने विमान हादसे में मुआवज़े का भी ऐलान किया है। पीडि़तों को अंतरिम राहत के रूप में मृतकों के परिजन को 10-10 लाख रुपये, गम्भीर रूप से घायलों को दो-दो लाख रुपये और मामूली चोटों का सामना करने वालों को 50-50 हज़ार रुपये की सहयोग राशि देने का ऐलान किया है। साथ ही केरल के मुख्यमंत्री की ओर से मारे गये लोगों के परिजनों को 10-10 लाख रुपये का मुआवज़ा देने की घोषणा की गयी है। दुर्घटना में मारे गये या घायलों की कोरोना टेस्ट रिपोर्ट में एक रिपोर्ट पॉजिटिव आयी है।

हादसे के समय हवाई अड्डे पर तैनात एएसआई अजीत सिंह के मुताबिक, वह 7.30 पर तीसरे राउंड के लिए निकले और इमरजेंसी फायर गेट पर पहुँचे। वह एएसआई मंगल सिंह से बात करने लगे। तभी उन्होंने देखा कि ऊपर से एयर इंडिया एक्सप्रेस की एक विमान डिस्बैलेंस होकर नीचे पैरामीटर रोड की तरफ गिर रहा है। उन्होंने तुरन्त कंट्रोल रूम को सूचित किया, तब तक विमान नीचे गिर चुका था। ड्यूटी पर तैनात जवान ने मीडिया से बातचीत में कहा कि उन्होंने इसके बाद शिफ्ट आईसी को कॉल किया, लाइन में कॉल किया, उसके बाद हवाई अड्डे अथॉरिटी, फायर, हमारी सीआईएसएफ की टीम और लाइन मेंबर्स रेस्क्यू के लिए आ गये।

नियमों का पालन नहीं

देश भर में हवाई अड्डों की समस्याएँ भीतर ही नहीं हैं। हवाई अड्डों के बाहर भी बहुत-से नियमों का उल्लंघन होता है। हवाई अड्डों निर्माण की नियमावली देखें तो रन-वे की दिशा में हवाई अड्डे के छ: किलोमीटर क्षेत्र में कोई बूचडख़ाना नहीं हो सकता है। लेकिन कुछ हवाई अड्डों के पास बूचडख़ाने और मीट-मांस की दुकानें धड़ल्ले से चल रही हैं। जम्मू का हवाई अड्डा भी इनमें से एक है। बूचडख़ाने इसलिए नहीं बनाने दिये जाते, ताकि उस क्षेत्र में पक्षी जमा न हों। पक्षी हादसे का बड़ा कारण बन सकते हैं।

इसके अलावा हवाई अड्डों के पास ऊँचे भवन बनाने को लेकर भी मनाही है। इसके बावजूद देश के कई हवाई अड्डों के नज़दीक ऊँची इमारतें हैं। सबसे ज़्यादा नियम छोटे हवाई अड्डों के आसपास तोड़े जाते हैं। हवाई अड्डों के पास ऊँची इमारतें हादसों का कारण बन सकती हैं या इमरजेंसी लैंडिंग के दौरान हादसे को न्यौता दे सकती हैं।

विस्तार के काम में दिक्कतें 

हादसे के बाद कालीकट हवाई अड्डे के डायरेक्‍टर के. जनार्दन ने कहा कि टेबल टॉप हवाई अड्डे में चौड़ाई वाले विमानों के संचालन में बाधा थी। उनके मुताबिक, रन-वे की लम्बाई को मौज़ूदा 2,850 मीटर से बढ़ाकर 3,150 मीटर तक किया जाना चाहिए, ताकि बड़े विमानों का संचालन किया जा सके।

हालाँकि देश में हवाई अड्डों के विस्तार के लिए अब तक जो सबसे बड़ी बाधा देखी गयी है, वह ज़मीन का इंतज़ाम करना है। बहुत-से हवाई अड्डों के आसपास बस्तियाँ या घर हैं। वहाँ ज़मीन लेना आसान काम नहीं। हालाँकि इसके लिए अच्छी-खासी कीमत अदा की जाती है; लेकिन इसके बावजूद इस काम में बहुत बाधाएँ आती हैं।

खुद जनार्दन भी मानते हैं कि रन-वे का विस्तार करने में बड़ी बाधा भूमि अधिग्रहण में देरी होना है। उनके मुताबिक, रन-वे और सम्बन्धित सुविधाओं के विस्तार के लिए कुल 385 एकड़ ज़मीन की ज़रूरत होती है। जनार्दन के मुताबिक, राज्य सरकार को यह काम मुश्किल लग रहा है; क्योंकि इसमें हवाई अड्डे के आसपास रहने वाले 1,500 परिवारों को हटाने की ज़रूरत है।

कोझिकोड हवाई अड्डे की ही बात की जाए तो यह 13 अप्रैल, 1988 को खुला था। दरअसल, यह अर्थात् कालीकट हवाई अड्डा एयर इंडिया एक्सप्रेस का एक ऑपरेटिंग बेस भी है। वहाँ से मक्का मदीना और जेद्दा को हज की तीर्थयात्रा की हवाई सेवाएँ संचालित होती हैं। इसे एक व्यस्त हवाई अड्डा माना जाता है। इसे 2 फरवरी, 2006 को अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे का दर्जा मिला था। इसे देश के सबसे व्यस्त हवाई अड्डों में एक माना जाता है।

क्या होते हैं टेबल टॉप हवाई अड्डे

पहाड़ी की ऊँचाई पर बने हवाई अड्डे को टेबल-टॉप हवाई अड्डा कहा जाता है। ऐसे  हवाई अड्डों पर उड़ान भरने और लैंडिंग के लिए पायलटों को अतिरिक्त सावधानी की ज़रूरत होती है। साथ ही इसके लिए खास दक्षता भी होनी चाहिए। यह एक तरह से युद्धाभ्यास की तरह ही होती है। ऐसे हवाई अड्डों पर उड़ान तब और कठिन काम बन जाता है, जब मौसम खराब या बारिश वाला हो।

देश में शुद्ध रूप से तीन टेबलटॉप हवाई अड्डे हैं, जहाँ से अनुसूचित उड़ानें संचालित होती हैं। इनमें मंगलूरु, कोझिकोड और लेंगपुई शामिल हैं। हालाँकि हिमाचल प्रदेश के शिमला में जुब्बड़हट्टी हवाई अड्डा भी टेबल टॉप हवाई अड्डा ही है; जहाँ दोनों और खुली जगह है, जो खाई की तरफ ले जाती है। ऐसे हवाई अड्डों पर अंडर शूटिंग और ओवर शूटिंग दोनों का खतरा रहता है। ऐसे में वहाँ थोड़ी-सी असावधानी हादसे का कारण बन सकती है। मंगलूरु हादसे में यही हुआ था।

देश के कमोवेश सभी टेबल टॉप हवाई अड्डों में रन-वे के आसपास लिंकिंग रोड्स (सम्पर्क सडक़ों) की काफी कमी है। इससे हादसे की सूरत में दिक्कत आती हैं। जो सडक़ें हैं, वह या तो बहुत संकीर्ण हैं या सीधी नहीं हैं।

इमरजेंसी में इन सडक़ों में वक्त जाया होता है और बचाव कार्यों में बाधा आती है। वैसे मंगलूरु हवाई अड्डे पर जो नया रन-वे बना है, उसकी लम्बाई 2,450 मीटर है, जो बोइंग 737-800 और एयरबस 320 जैसे विमानों के परिचालन की सुविधा देता है। नया रन-वे 24/06 रात्रि लैंडिंग की सुविधा प्रदान करता है और पहले वाले ऑफसेट आईएलएस से एक आईएलएस कैट वन प्रदान करता है।

बचाव और अनिशमन सेवाओं को भी वहाँ श्रेणी 7 में अपग्रेड किया गया है। लेकिन बरसात इन हवाई अड्डों में अनेक दिक्कतें लेकर आती हैं। इनमें से कुछ जगह बरसात के मौसम में धुन्ध भी रहती है, जो स्थितियों को और कठिन बना देती है। धुन्ध और तेज़ बारिश में वहाँ दृश्यता की समस्या रहती है। मिज़ोरम की राजधानी अज़ावी से 32 किलोमीटर की दूरी पर स्थित, लेंगपुई भी एक टेबलटॉप हवाई अड्डा है। वहाँ 2,500 मीटर लम्बा रन-वे एक पठार के ऊपर स्थित है, जिसके दोनों छोर पर गहरी खाई हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक, वहाँ ऑप्टिकल भ्रम बनता है, जो लैंडिंग के समय थोड़ी-सी चूक होने पर ही हादसे का कारण बन सकता है। वैसे यही चीज़ मंगलूरु और कोझिकोड के हवाई अड्डों में भी है।

हिमाचल प्रदेश के शिमला के जुब्बड़हट्टी हवाई अड्डे पर एक समय में दो छोटे विमान रखने की जगह है। वहाँ कुछ साल पहले भूमि कटाव के कारण यह तीन साल से अधिक समय तक बन्द रहा। बाद में इसे शुरू किया गया; लेकिन इसका रन-वे सिकुड़ गया।

सोर्ड ऑफ ऑनर से सम्मानित थे साठे

कोझीकोड विमान हादसे में एयर इंडिया एक्सप्रेस के शहीद पायलट कैप्टन दीपक वसन्त साठे और को-पायलट अखिलेश कुमार का ट्रैक रिकॉर्ड बेहतर था। दीपक साठे तो देश के बेहतरीन पायलट में एक गिने जाते थे। एयर इंडिया के यात्री विमान से पहले साठे 22 साल तक एयरफोर्स में विंग कमांडर के रूप में सेवा दे चुके थे। उन्होंने अपनी इस सेवा के दौरान मिग-21 जैसे लड़ाकू विमान भी उड़ाये। यही नहीं वे सोर्ड ऑफ ऑनर से सम्मानित पायलट थे। उनके भाई पाकिस्तान से कारगिल युद्ध के दौरान शहीद हो गये थे, जबकि पिता सेना में ब्रिगेडियर रिटायर हुए थे। साठे ने 11 जून, 1981 में एयरफोर्स वाइन किया और कई महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे। कैप्टन साठे को नेशनल डिफेंस एकेडमी के 58वीं कोर्स में गोल्ड मेडल मिला था। इसके बाद उन्होंने एयरफोर्स एकेडमी वाइन की। वहाँ 127वें पायलट कोर्स में उन्होंने टॉप किया और इसके लिए उन्हें सोर्ड ऑफ ऑनर से सम्मानित किया गया। वह काफी समय तक गोल्डन एरो 17 स्क्वार्डन का हिस्सा रहे, जिसे हाल ही में राफेल फाइटर प्लेन की ज़िम्मेदारी दी गयी है। वे 30 जून 2003 को वायुसेना से सेवानिवृत्त हो गये और एयरलाइन कम्पनियों को अपने अनुभव से मदद करनी शुरू की। वह एयर इंडिया एक्सप्रेस की बोइंग 737 फ्लाइट उड़ाने से पहले एयरबस 310 भी उड़ा चुके हैं। हिन्दुस्तान एयरोनॉटिकल के वह टेस्ट पायलट भी रहे। उनकी शानदार परफॉरमेंस के चलते एयरफोर्स एकेडमी ने भी उन्हें सम्मानित किया था। सह-पायलट अखिलेश कुमार के चचेरे भाई बासुदेव ने बताया कि वह बहुत विनम्र और अच्छे व्यवहार वाले व्यक्ति थे। उनकी पत्नी अगले 15-17 दिनों में बच्चे को जन्म देने वाली हैं। वह 2017 में एयर इंडिया में शामिल हुए थे और लॉकडाउन से पहले घर आये थे।

देश के 11 हाई रिस्क हवाई अड्डे

देश में 11 ऐसे हवाई अड्डे हैं, जिन्हें हाई रिस्क की सूची में रखा गया है। जब 2010 मंगलूरु में एयर इंडिया का विमान टेबल टॉप हवाई अड्डे पर हादसे का शिकार हुआ था, उसके बाद नागरिक उड्डयन महानिदेशालय (डी.जी.सी.ए.) ने इन हवाई अड्डों की एक सूची तैयार की थी। इस सूची का मकसद इन हवाई अड्डों पर खतरों को टालने वाले उपाय करना था, ताकि हादसों के खतरे को कम या खत्म किया जा सके। लेकिन इन दस वर्षों में इन हवाई अड्डों पर कुछ काम नहीं हुआ, या नाम मात्र को ही हुआ। इन हवाई हड्डों में केरल के कोझिकोड का हवाई अड्डा भी शामिल है। हाई रिस्क चिह्नित इन हवाई अड्डों में कोझिकोड के अलावा, लेह, भुंतर (कुल्लू, हिमाचल प्रदेश), जुब्बड़हट्टी (शिमला, हिमाचल प्रदेश), पोर्ट ब्लेयर (अंडमान निकोबार), अगरतला (त्रिपुरा), लेंगपुई (मिजोरम), मैंगलोर (कर्नाटक), सतवारी जम्मू (जम्मू कश्मीर), पटना (बिहार) और लातूर (महाराष्ट्र) शामिल हैं। हाई रिस्क श्रेणी में होने के नाते वहाँ कुछ न्यूनतम सुरक्षा उपाय ज़रूरी होते हैं; लेकिन इस स्तर पर कुछ खास नहीं हुआ है या जो हो रहा है, वह कछुए की चाल से हो रहा है।

भारत में विमान हादसे

-7 जुलाई, 1962 – सिडनी से आ रहा विमान मुम्बई के उत्तर पूर्व में दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। हादसे में कम-से-कम 94 लोगों की मौत हुई थी।

-पहली जनवरी, 1978 – दुबई से मुम्बई के लिए उड़ान भरने वाले एयर इंडिया के विमान के बांद्रा के पास दुर्घटनाग्रस्त हो जाने से 213 लोगों की मौत हो गयी थी।

-21 जून, 1982 – कुआलालंपुर से चेन्नई आ रहे एयर इंडिया के विमान के मुम्बई के सहारा अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर दुम्र्घटनाग्रस्त हो जाने से 99 लोगों की मौत हो गयी थी।

-23 जून, 1985 – मॉट्रियल से लंदन और दिल्ली के रास्ते मुम्बई आ रहा एयर इंडिया का विमान आयरिश हवाई क्षेत्र में दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। हादसे में 329 लोगों मौत हुई थी।

-19 अक्टूबर, 1988 – इंडियन एयरलाइंस का मुम्बई से आ रहा विमान अहमदाबाद हवाई अड्डे पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। हादसे में 130 लोगों की मौत हुई थी।

-14 फरवरी, 1990 – इंडियन एयरलाइंस का मुम्बई से उड़ान भरने वाला विमान बेंगलूरु हवाई अड्डे पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। हादसे में 92 लोगों की मौत हो गयी थी, जबकि 54 को बचा लिया गया था।

-16 अगस्त, 1991 – कोलकाता से उड़ान भरने वाला इंडियन एयरलाइंस का विमान इम्फाल से 40 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में एक पहाड़ी से टकराकर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। हादसे में 69 लोगों की मौत हो गयी थी।

-26 अप्रैल, 1993 – दिल्ली से जयपुर और उदयपुर के रास्ते मुम्बई जा रहा इंडियन एयरलाइंस का विमान औरंगाबाद के पास दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। इस हादसे में 63 लोगों की मौत हो गयी थी, जबकि पाँच को बचा लिया गया था।

-12 नवंबर, 1996 – यह हादसा बेहद अजीब था, क्योंकि ये आसमान में हुआ था। नई दिल्ली में हवाई अड्डे के निकट हरियाणा के चरखी दादरी के ऊपर 4000 मीटर की ऊँचाई पर सउदी एयरलाइंस के बोइंग 747 और कज़ाकिस्तान के इल्यूशिम आईएल 76 की टक्कर हो गयी थी। बोइंग पर सवार 312 और इल्यूशिन पर सवार 37 लोगों की मौत हो गयी थी। इस हादसे में कुल 349 लोगों की मौत हुई थी।

-17 जुलाई, 2000 – एलायंस एयर का विमान पटना हवाई अड्डे के पास दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। हादसे में 60 लोगों की मौत हो गयी थी।

-भारत के बड़े प्लेन हादसों में सन् 2010 में हुआ मंगलूरु प्लेन हादसा शामिल है। एयर इंडिया का एक विमान मंगलूरु एयरपोर्ट पर लैंडिंग के दौरान चट्टान से टकरा गया। हादसे की वजह से 160 लोगों की मौत हो गयी थी।

-साल 2010 में ही जुलाई में बिहार के पटना में एक प्लेन क्रैश हो गया था। ये प्लेन एयरपोर्ट से दो किलोमीटर दूर एक रिहायशी इलाके में क्रैस हुआ, जिसमें 55 लोगों क मौत हो गयी थी।

-जून, 2018 में मुम्बई के भीड़भाड़ वाले एक इलाके में 12 सीटों वाले एक विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने से दोनों पायलटों, दो विमान रखरखाव इंजीनियरों और एक पदयात्री की मौत हो गयी।

यह विमान घाट कोपर टेलीफोन एक्सचेंज के समीप ओल्ड मलिक एस्टेट में दुर्घटनाग्रस्त हुआ।

-कोझिकोड में 7 अगस्त, 2020 को हुए हादसे में यह रिपोर्ट लिखे जाने तक 18 लोगों की मौत हुई, जिसमें दोनों पायलट भी शामिल हैं।

नागरिक उड्डयन महानिदेशालय को साल 2015 में रन-वे के साथ कुछ दिक्कत थी, लेकिन उसे सुलझा लिया गया था। बाद में साल 2019 में इसे मंज़ूरी भी दे दी गयी थी। एयर इंडिया के जंबो जेट्स को भी वहाँ उतारा गया है। हादसे का शिकार विमान उस रन-वे पर किसी कारण से नहीं उतर पाया था, जहाँ उसे उतरना था।

अरविंद सिंह, चेयरमैन, ए.ए.आई.

‘लहू से मेरी पेशानी पे हिन्दुस्तान लिख देना’

इसे कोरोना वायरस जैसी महामारी फैलने का बहाना कहें या सन् 2020 की त्रासदी? इस साल के शुरू से अब तक दुनिया भर में लाखों लोग काल के गाल में समा गये। कई बड़ी हस्तियाँ भी विस्मित कर देने वाली दशा में चल बसीं। ऐसी ही मशहूर-ओ-मकबूल हस्ती, अज़ीम शाइर राहत इंदौरी ने भी 11 अगस्त के दिन दुनिया को अलविदा कह दिया। उनके दुनिया से चले जाने की खबर से दबिस्तान-ए-अदब को एक झटका-सा लगा है। झटका यूँ भी लगा, क्योंकि किसी को भी इसकी कतई उम्मीद नहीं थी कि राहत इंदौरी यूँ अचानक उठकर चले जाएँगे।

उनसे मेरी कुछेक मुलाकातें यूँ ही मुशायरों में शाइर और सामयीन की तरह चलते-फिरते दुआ-सलाम की तरह ही हुई थीं। लेकिन नवंबर, 2019 में जब मैंने ‘तहलका’ में ज़िम्मेदारी सँभाली, तब अपने सम्पादकीय वरिष्ठों से ‘साहित्य’ नाम से साहित्यिक सामग्री प्रकाशित करने की इजाज़त माँगी; जो मुझे सहर्ष मिल भी गयी। तब मैंने निर्णय लिया कि कुछ बड़े शाइरों-कवियों के साक्षात्कार प्रकाशित किये जाएँ। इस फेहरिश्त में दुनिया भर में मशहूर शाइर राहत इंदौरी का नाम भी था। मेरे पास उनका फोन नम्बर नहीं था, जो मैंने उनके अज़ीज़ दोस्त मशहूर शाइर मुनव्वर राणा से लिया। जब मेरी फोन पर मुहतरम राहत इंदौरी से बात हुई, तो मुझे उम्मीद ही नहीं थी कि वह मुझे मेरे नाम से पुकारेंगे।

हो सकता है कि यह मोबाइल एप ट्रू-कलर का कमाल हो या फिर मुमकिन है कि उन्हें उनके साक्षात्कार की मेरी ख्वाहिश के बारे में मुनव्वर राणा साहब ने बता दिया हो। फोन उठते ही आवाज़ आयी- ‘जी, प्रेम भाई! नमस्कार।’ मैंने हैरत भरे अंजाज़ में बड़े अदब से उन्हें सलाम किया और हालचाल पूछने के बाद अपने दिल की बात उनके सामने रखी।

उन्होंने बड़ी मुहब्बत और आत्मीयता से कहा- ‘प्रेम भाई! इंशा अल्लाह जल्द ही दिल्ली आऊँगा और आपसे मिलूँगा।’ ‘ठीक है हुज़ूर! मैं इंतज़ार करूँगा।’ -मैंने कहा और उन्होंने जैसे मुस्कुराते हुए कहा- ‘आपकी मुहब्बतें प्रेम भाई! अल्लाह ने चाहा, तो जल्द मुलाकात होगी। नमस्कार’ मेरे मुँह से निकला- ‘नमस्कार हुज़ूर! अल्लाह हाफिज़।’ उधर से आवाज़ आयी- ‘अल्लाह हाफिज़ प्रेम भाई!’ मेरे कानों में पड़े यह उनके आखरी अल्फाज़ थे, जो 11 अगस्त को उनके दुनिया से अलविदा कह देने की खबर के साथ अचानक मेरे कानों में फिर से गूँज गये। राहत इंदौरी के इंतकाल फरमा जाने की खबर से मैं सन्न था, मेरे मुँह से सिर्फ इतना निकला- ओह! यह क्या हो गया?

राहत इंदौरी ऐसी शिख्सयत थे, जिन्हें दुनिया भर में बेहद मुहब्बत मिली; लेकिन हिन्दुस्सान में ही कुछ लोगों की वजह से उन्हें विवादों का सामना भी करना पड़ा। खैर, मैं उस मामले में नहीं जाना चाहता, लेकिन इतना ज़रूर कहूँगा कि राहत इंदौरी अपने देश और देशवासियों से बहुत मुहब्बत करते थे। यह उनकी शाइरी में कई जगह साफ देखने को मिलता है। हर बात को शाइरी में ढाल देना और गम्भीर-से-गम्भीर बात को हँसते-हँसते बड़े लाजवाब अंदाज़ में कह देना इस अज़ीम शाइर का सबसे बड़ा फन था। वह कहते हैं :-

‘मैं मर जाऊँ तो मेरी एक अलग पहचान लिख देना।

लहू से  मेरी पेशानी पे हिन्दुस्तान लिख देना।।’

‘दो गज़ सही मगर ये मेरी मिल्कियत तो है।

ऐ मौत  तूने  मुझको ज़मींदार कर दिया।।’

‘जनाज़े पर मेरे लिख देना यारो,

मोहब्बत करने वाला जा रहा है।’

मैं उन्हें गलत ठहराने वालों से इतना ही कहना चाहूँगा कि जिसने आपको कभी नफरत नहीं बाँटी, उससे आप नफरत क्यों और कैसे कर सकते हैं? लिखने को बहुत कुछ है और उन पर कई दीवान लिखे जा सकते हैं; लेकिन जगह का अभाव है। अन्त में इतना ही कहना चाहूँगा कि राहत इंदौरी का जिस्म सुपुर्द-ए-खाक हुआ है, पर राहत इंदौरी हिन्दुस्तान की आब-ओ-हवा, हिन्दोस्तानियों के दिलों में ज़िन्दा हैं, ज़िन्दा रहेंगे और दुनिया रहने तक उनकी शाइरी लोगों को उनकी याद दिलाती रहेगी। अंत में :-

नाम हमेशा रहता है, जो लोगों को अज़बर है।

खाक सुपुर्द-ए-खाक हुई, ‘राहत’ दिल के अन्दर है।।

मध्य-पूर्व गठबन्धन में बदलाव अब पाकिस्तान बनाम सऊदी अरब

यह तो सर्वविदित है कि पाकिस्तानी सत्ता का केंद्र सेना मुख्यालय यानी जनरल हेड क्वार्टर (जीएचक्यू) रावलपिंडी है। लेकिन पाकिस्तान में क्रिकेटर से राजनेता बने प्रधानमंत्री इमरान खान ने चीन के बैनर तले तुर्की, ईरान और मलेशिया के साथ नये गठबन्धन को मज़बूत करने के लिए अपने घनिष्ठ मित्र सऊदी अरब से रिश्ते खत्म करने का फैसला किया है।

दोनों देशों के बीच खटास आने के बाद सऊदी अरब ने पाकिस्तान के साथ लम्बे समय के लिए कर्ज़ कर तौर पर माँग के हिसाब से पेट्रोल देने के कुछ बिलियन डॉलर के करार को पिछले दिनों खत्म कर दिया। इससे दोनों सहयोगियों के बीच रिश्तों की खाई बढ़ गयी।

पाकिस्तान को लगता रहा है कि वह परमाणु सम्पन्न देश है और क्षेत्र में इस्लामी सरकार का प्रतिनिधित्व करता है; इसलिए अरब दुनिया को उसकी ज़्यादा ज़रूरत है। आश्चर्यजनक यह भी है कि दोनों देशों के बीच मज़बूत रक्षा और वित्तीय रिश्ते रहे हैं। पाकिस्तानी सेना की एक ब्रिगेड सऊदी अरब की राजधानी रियाद में तैनात है। इसने अरबों को आधुनिक युद्ध के लिए प्रशिक्षण तक दिया है।

पाकिस्तान के बारे में ऐसा माना जाता है कि स्थापित विदेश नीति में बदलाव के लिए जीएचक्यू फैसला करता है और इसमें चीन का असर न हो, ऐसा सम्भव नहीं है। इससे पहले इस तरह का असर अमेरिकी-अरब एजेंडे के हिसाब से होता था। देश में प्रधानमंत्री एक कठपुतली की तरह है, असल में विदेश नीति बदलने का निर्णय तो सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा ही करते हैं। देश के अधिकांश राजनेताओं को भ्रष्ट लोकतंत्र के नाम पर भ्रष्टाचार के आरोपों में फँसा दिया गया। इस तरह बाजवा देश के एकमात्र शासक हैं। वह पाकिस्तान को अंतत: चीनी प्रभाव की ओर ले जा रहे हैं; खासकर जब कोविड-19 को लेकर अमेरिका और चीन एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं। चीन को इस मामले में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी घेरा जा रहा है।

लंदन में पाकिस्तानियों द्वारा संचालित एक लोकतंत्र समर्थक चैनल ने तो इमरान खान को बेशर्म, बेगैरत और गद्दार जैसे शब्दों से सम्बोधित किया। उन्होंने खान के परिवार में भ्रष्टाचार के इतिहास की भी पड़ताल की। इसमें बताया गया कि उनके पिता को तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो के शासन-काल में घूस लेने के जुर्म में सरकारी नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था। इसके अलावा अपने देश से बाहर रहने वाले अधिकांश पाकिस्तानी गृह युद्ध के लिए अपनी सेना को ही ज़िम्मेदार ठहराते हैं, जिससे पूर्वी पाकिस्तान अलग होकर एक अलग देश बांग्लादेश बना। वह तो यहाँ तक कहते हैं कि बाजवा और उनके कठपुतली खान, अंतत: बलूचिस्तान को चीन को सौंप सकते हैं।

अमेरिका ने भारत और अफगानिस्तान के खिलाफ इन देशों के हालात को लेकर गहराई में जाने का दावा करके लगातार दबाव बनाया और वह जीएचक्यू को आश्वस्त करने में कामयाब रहा कि चीन की तुलना में अमेरिका उसके लिए ज़्यादा विश्वसनीय सहयोगी और संरक्षक है। उसे अब पश्चिमी देशों या अरब की ओर देखने की ज़रूरत नहीं है। इस बीच चीन ने भी सऊदी अरब का भारी-भरकम कर्ज़ भुगतान करने के लिए पाकिस्तान को भारी वित्तीय मदद दी है। ईरान-चीन के बीच समझौता होने के साथ शायद पाकिस्तान की ईंधन की ज़रूरत की भरपाई बिना किसी दिक्कत के पूरी हो सकती है। इससे उसकी सऊदी अरब पर निर्भरता की आवश्यकता नहीं होगी।

इससे पहले मध्य-पूर्व में सत्ता समीकरणों में बदलाव की शुरुआत तब हुई थी, जब सितंबर 2019 में सऊदी के अरामको के अबकैद और खराइस में तेल के कुओं पर ड्रोन से हमले किये गये थे। ऐसा माना जाता है कि ये हमले ईरान की ओर से कराये गये। हालाँकि यमन के हूती विद्रोहियों ने हमले किये जाने का दावा किया था। सऊदी अधिकारियों ने बताया था कि इस हमले में ईरानी मिसाइलों और बमों का इस्तेमाल किया गया था।

पाकिस्तान अब तुर्की और मलेशिया के साथ नये गठजोड़ करने की कोशिश कर रहा है। इससे पहले उसने यमन, इराक और लीबिया के क्षेत्र में विवादों पर तटस्थ रहने की नीति अपनायी थी।

जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तान की नीति का समर्थन करने से इस्लामिक देशों के संगठन (ओआईसी) के इन्कार किये जाने के बाद अरब दुनिया से उसकी निराशा बढ़ गयी। सेना के अपने आकलन में चीन के साथ क्षेत्र में पाकिस्तान की बड़ी और मुखर भूमिका का अहसास हुआ। इससे यह भी पता चलता है कि जीएचक्यू ने देश में मूक आवाज़ों को नज़रअंदाज़ करने का भी फैसला किया है। नज़म सेठी जैसे राजनीतिक मामलों के जानकारों ने आगाह किया था कि ऐसा कदम पाकिस्तान के लिए आत्मघाती होगा, यदि वह चीन के साथ गठबन्धन के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे अपने विश्वसनीय सहयोगियों को छोड़ता है। उनका आकलन था कि संयुक्त राज्य अमेरिका की वित्तीय और सैन्य शक्ति का मिलान करने में चीन को एक और दशक लगेगा।

अधिकांश राजनीतिक टिप्पणीकारों का मानना है कि पाकिस्तान को सऊदी अरब जैसे विश्वसनीय मित्र के साथ अपने सम्बन्धों को सुधारना होगा। हालाँकि उनमें से एक वर्ग इस बात से आश्वस्त है कि विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी की नाराज़गी सऊदी के लिए कर्ज़ वापसी की आवेगी प्रतिक्रिया नहीं थी; खासकर तब, जब देश गहरे वित्तीय संकट से जूझ रहा हो। यह भी बताया जा रहा है कि चीन को छोडक़र, पाकिस्तान के नये सहयोगी, मलेशिया और तुर्की देश की ज़रूरतों के लिए बहुत ज़्यादा वित्तीय सहायता देने की स्थिति में नहीं हैं। इसका मतलब है कि हमें सऊदी अरब के साथ अपने सम्बन्धों को लेकर पुनर्विचार करना होगा। यह भी सवाल किया जा रहा है कि पाकिस्तान को सऊदी अरब से नाराज़गी क्यों होनी चाहिए? जब चीन सऊदी अरब के साथ-साथ ईरान से भी अपने अच्छे सम्बन्ध बनाये हुए है। इस बीच चीन की रणनीति यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों से पहले इस क्षेत्र में वह अपने नये गठबन्धनों को और मज़बूत बना ले। पश्चिमी देशों से इतर चीन इस बात के लिए उत्सुक है कि पाकिस्तान इस क्षेत्र में उसकी नीतियों को अपनाये।

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि जीएचक्यू ने चीन की उस राय को गम्भीरता से लिया है; जिसमें कहा गया है कि चुनावों के बाद अमेरिका और चीन के बीच चल रहे व्यापारिक टकराव को खत्म करने के लिए नया दौर शुरू होगा, जिससे उनके व्यापारिक रिश्ते और मज़बूत होंगे।

(गोपाल मिश्रा नई दिल्ली स्थित स्वतंत्र स्तंभकार हैं।)