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पंजाब के पूर्व डीजीपी सैनी पर शिकंजा

डॉन को पकडऩा मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है…। अमिताभ बच्चन अभिनीत हिट हिन्दी फिल्म डॉन का यह डायलॉग पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे सुमेध सिंह सैनी पर फिट बैठता है। वह फिल्मी डॉन तो नहीं, लेकिन असल ज़िन्दगी में उससे कम भी नहीं। क्योंकि एक पखवाड़े से ज़्यादा दिनों तक कई राज्यों की पुलिस उन्हें तलाश नहीं सकी। पंजाब, चंडीगढ़, हिमाचल और दिल्ली समेत कई ठिकानों पर देर रात और भौर में छापेमारी की लेकिन सब टीमें बैरंग ही लौटी पर सैनी का कोई सुराग तक नहीं लग सका। गिरफ्तारी के डर से वे बुलेट प्रूफ गाड़ी और दो दर्ज़न सुरक्षाकर्मियों को अपने चंडीगढ़ आवास पर छोड़कर न जाने गायब हो गये। जो व्यक्ति आतंकवादियों के निशाने पर हो वह गिरफ्तारी के डर से बैखौफ होकर अकेला कहाँ चला गया। मौज़ूदा पंजाब पुलिस महानिदेशक दिनकर गुप्ता निश्चित ही हैरान रहे होंगे। उनकी गिरफ्तारी के लिए विशेषतौर पर छ: टीमें गठित की गयी थीं।

आखिर सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी गिरफ्तारी पर करीब एक माह की रोक लगा उन्हें कुछ राहत दे दी है; लेकिन जिस तरह का शिकंजा उन पर कसा गया है, उससे बचना मुश्किल होगा। पहले मोहाली ज़िला अदालत और फिर पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने बलवंत सिंह मुल्तानी मामले में उन्हें अग्रिम जमानत देने से इन्कार कर दिया तो पंजाब पुलिस की जेड पुलिस सुरक्षा छोड़ वह न जाने कहाँ गायब हो गये। ज़िला अदालत ने तो उनके खिलाफ गैर-जमानती गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिये थे। पंजाब में आतंकवाद के दौर में जेएफ रिबैरो, केपीएस गिल के बाद अगर किसी पुलिस अधिकारी का नाम आता है, तो वह सुमेध सिंह सैनी ही हैं। सैनी की कार्यकुशलता पर कोई संदेह नहीं; लेकिन उनके दामन इतने दाग हैं कि वह विवादास्पद हो गये। हिरासत में थर्ड डिग्री और मौत से लेकर फर्ज़ी मुठभेड़ों के लिए भी उन्हें जाना जाता है। जहाँ-जहाँ यह आईपीएस अधिकारी रहा, लोगों के गायब होने के मामले बहुत ज़्यादा हुए। पंजाब में आतंकवाद पर काबू पाने में जिस सुपर कॉप केपीएस गिल का नाम प्रमुख है; सैनी उनके भरोसे के अधिकारी रहे हैं।

सन् 1991 के दौरान चंडीगढ़ में उनकी सरकारी कार को बम से उड़ाने की कोशिश हुई, जिसमें वह तो बच गये; लेकिन तीन पुलिसकर्मियों की मौत हो गयी। इनमें कार चालक अमीन चंद, एएसआई लाल राम और बीआर रेड्डी की मौके पर ही मौत हो गयी, जबकि सैनी और अन्य पुलिसकर्मी रमेश लाल घायल हो गये। यह आतंकवादी हमला था और सैनी उनके निशाने पर थे।

वह उस दौरान चंडीगढ़ के एसएसपी थे। अपने पर जानलेवा हमले को वह कैसे सहन करते लिहाज़ा अपने तौर पर जाँच शुरू की और जल्द पता लग लिया कि इसके पीछे देविंदर पाल भुल्लर का हाथ हो सकता है। बाद में जाँच के दौरान काफी कुछ स्पष्ट हो गया तो पुलिस ने प्रताप सिंह मान, गुरशरण कौर मान, देविंदर पाल भुल्लर, मनमोहन जीत सिंह, मनजीत सिंह, नवनीत सिंह, गुरजंट सिंह बुधसिंहवाला और बलवंत सिंह मुल्तानी के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया। इसी कड़ी में चंडीगढ़ प्रशासन के सिटको में तैनात जूनियर इंजीनियर बलवंत सिंह मुल्तानी को भी उनके मोहाली आवास से पुलिस ले गयी। उसके बाद वह कभी घर नहीं लौटे। पुलिस फाइल में अब भी वह पुलिस हिरासत से भागा आरोपी है, जिसका कोई अता पता नहीं है। 29 साल पुराना यह मामला फिर से खुल गया है और इस बार स्थिति पूरी तरह से बदली हुई है। अब वक्त बदला हुआ है। सैनी पुलिस महानिदेशक पद से सन् 2018 में सेवानिवृत्त हो चुके हैं और पीडि़त परिवार को अब इंसाफ की उम्मीद है।

बलवंत सिंह मुल्तानी के भाई पलविंदर सिंह मुल्तानी की शिकायत पर इसी वर्ष मई में मौहाली ज़िले के मटौर थाने में अपहरण, सुबूत मिटाने, साज़िश रचने की 364, 201, 344, 330, 120बी की धाराएँ जोड़कर प्राथमिकी दर्ज की गयी है। हिरासत में मौत की बात पुष्ट होने के बाद हत्या की धारा-302 जोड़ दी गयी। आरोपियों में सैनी के अलावा छ: अन्य पुलिसकर्मी है। इनमें तब के एएसआई जगीर सिंह और कुलदीप सिंह वादा माफ गवाह बन गये हैं। उन्होंने हिरासत के दौरान बलवंत सिंह मुल्तानी की मौत होने का बयान दर्ज कराया है। दोनों के बयानों के बाद सैनी को लगा अब गिरफ्तारी से बचना मुश्किल है, तो उन्होंने अग्रिम जमानत के लिए अर्जी लगायी। उन्हें एक बार कुछ समय के लिए राहत भी मिली; लेकिन बाद में उनकी अर्जी नामंज़ूर हो गयी, तो वह इस उम्मीद से गायब हो गये कि शायद उच्च न्यायालय से राहत मिल जाए। वहाँ भी जब उनकी अर्ज़ी नामंज़ूर हो गयी और उधर ज़िला अदालत ने उनके खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी कर दिया। अब पुलिस पीछे-पीछे और सैनी आगे-आगे; लेकिन वह कहाँ छिप गये पता नहीं चल सका। जानकारों की राय में पंजाब पुलिस में 36 साल की नौकरी के दौरान सैनी के भरोसेमंद लोगों की कमी नहीं है। ऐसे ही लोग शायद पुलिस टीमों की मूवमेंट की उन्हें जानकारी दे रहे हों, वरना कोई कारण नहीं था कि वह इतने दिन तक बच जाते।

राष्ट्रपति पुलिस पदक से सम्मानित सैनी की छवि जाँबाज़ अफसर की रही है। विशेषकर आतंकवाद के खिलाफ वे बेखौफ काम कर रहे थे। जब तक केपीएस गिल पुलिस महानिदेशक रहे सैनी को आतंकवाद के खिलाफ खुलकर कार्रवाई और काम करने की जैसे छूट थी। यही वजह है कि वे आतंकवादियों की हिट लिस्ट में थे। जब तक सैनी नौकरी में रहे उन्हें ज़बरदस्त सुरक्षा मिली हुई थी। बम धमाके में बचने के बाद तो वह सुरक्षा घेरे में ही चलते थे। सन् 2018 में सेवानिवृत्ति के बाद भी उनकी जान को ध्यान में रखते हुए सरकार की ओर से जेड प्लस सुरक्षा मिली हुई थी।

वादा माफ गवाह बने और कभी सैनी के भरोसेमंद रहे जगीर सिंह ने अदालत को बताया कि किस तरह से बलवंतसिंह मुल्तानी पर हिरासत के दौरान अत्याचार किये गये। अमानवीय अत्याचार की वजह से मुल्तानी की मौत हो गयी और गुप्त तरीके से लाश को खुर्द-बुर्द करने का आदेश अन्य पुलिस अधिकारी को सौंपा गया। बाद में सैनी के निर्देश पर बलवंत मुल्तानी के पास से हथियार की बरामदगी का मामला गुरुदासपुर ज़िले के कादियाँ थाने में बाकायदा प्राथमिकी दर्ज की गयी और अगले ही दिन उसे हिरासत से भागना बता दिया गया। बलवंत के पिता आईएएस दर्शन सिंह को बेटे की जान का खतरा था, लिहाज़ा उन्होंने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में अर्जी दायर की; जबकि पुलिस का पक्ष रहा कि बलवंत हिरासत से भाग निकला है और उसका कोई सुराग नहीं है। मामला बहुत गम्भीर हो गया था; लिहाज़ा सन् 2008 में उच्च न्यायालय के निर्देश पर जाँच का ज़िम्मा सीबीआई को सौंपा गया था। सीबीआई ने पूरे तथ्य जुटाये, लेकिन सन् 2011 सुप्रीम कोर्ट ने कुछ तकनीकी कारणों का हवाला देते हुए इसे रद्द कर दिया। फैसले में कहा गया कि पीडि़त पक्ष फिर से जाँच कराने के लिए स्वतंत्र है। मुल्तानी के परिजनों ने उसके बाद कई बार इंसाफ के लिए कोशिश की; लेकिन सैनी की वजह से सफल नहीं हो सके। पहले वह मौज़ूदा मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के भरोसेमंद भी रहे बाद में उनकी निष्ठा तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल से भी रही। यह इतनी रही कि चार वरिष्ठ अधिकारियों को दरकिनार कर उन्हें पुलिस महानिदेशक बनाया गया। तब वह राज्य के सबसे कम आयु के पुलिस महानिदेशक बने थे।

उनका अच्छा दौर सन् 2018 में ही खराब होने लगा था। उसी साल बेअदबी मामले में प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस ने गोलीबारी की, जिसमें दो की मौत हो गयी और जाँच के बाद ज़िम्मेदार सैनी को माना गया और सरकार ने उनसे प्रमुख की ज़िम्मेदारी वापस ले ली। उसके बाद उनका जलवा फिर कभी बहाल नहीं हो सका। जो अफसर कभी आतंकवादियों के लिए मौत का साया था, अब वही शख्स अब गिरफ्तारी से बचने के लिए छिपता फिर रहा है; लेकिन कब तक आखिर उन्हें अपने किये की सज़ा तो भुगतनी ही पड़ेगी।

वादा माफ गवाह बने जगीर सिंह और कुलदीप सिंह के बयानों में सच्चाई है। नौकरी के दौरान वे सैनी के खिलाफ जाने से डरते थे। अब उन्हें हत्या की धारा जुडऩे से अपनी जान को खतरा हुआ, तो उन्होंने जो कुछ हुआ, बयाँ कर दिया है। बयानों के मुताबिक, चंडीगढ़ के सेक्टर-17 थाने में जब बलवंत मुल्तानी से पूछताछ हुई, तब सैनी खुद वहाँ मौज़ूद थे। उनके साथ तब के इंस्पेक्टर केआईपी सिंह, डीएसपी बलदेव सिंह, इंस्पेक्टर प्रेम मलिक और सतबीर सिंह मौज़ूद थे। मुल्तानी पर अमानवीय अत्याचार किये गये। उनकी गुदा में डंडा घुसेड़ दिया गया, जिसकी वजह से उनकी आँखें निकल आयीं। भयंकर प्रताडऩा के बाद मुल्तानी की मौत हो गयी। बाद में उस पर कादियाँ थाने में हथियार बरामदगी का मामला दर्ज करके उन्हें अदालत से भगौड़ा घोषित कराया। जगीर और कुलदीप के अलावा उस दौरान लॉकअप में बन्द राजेश राजा ने भी मुल्तानी पर पूछताछ के नाम पर अमानवीय अत्याचार के बयान दिये हैं। सैनी पर हमले का मुख्य आरोपी देविंदर पाल सिंह भुल्लर सन् 1993 मे बम धमाकों के दोष में सज़ायाफ्ता है। आतंकवादी गुरजंट सिंह बुधसिंहवाला सन् 1992 में पुलिस मुकाबले में मारा गया, जबकि सन् 1995 में नवनीत सिंह को राजस्थान पुलिस ने ढेर कर दिया था।  सैनी पर हमले की आरोपी रही गुरशरण कौर के मुताबिक, सुमेध सैनी अत्याचार से इतना आतंक पैदा कर देता था कि कोई मामले को आगे बढ़ाने के बारे में सोच भी नहीं सकता था। उनका सैनी पर हमले में कोई लेना-देना तक नहीं था। उनके पति प्रताप सिंह मान और बलवंत सिंह मुल्तानी ने एक साथ इंजीनियरिंग की थी। मुलाकात हुई, तो आपस में एक-दूसरे के घर आने जाने लगे। इसी बात की सज़ा उन्हें व उनके पति को भोगनी पड़ी। किसी मामले में आरोपियों के साथ उनके परिजनों को भी सैनी के निर्देश पर अत्याचार झेलने पड़ते थे।

मुख्य आरोपी देविंदर भुल्लर के पिता और अन्य रिश्तेदार पर खूब अत्याचार किये गये; जबकि उनका अपराध की किसी भी घटना से कोई सरोकार तक नहीं था। सैनी जाँबाज़ पुलिस अधिकारी के तौर पर जाने जाते थे। अपराधियों के लिए वह किसी कहर से कम नहीं थे; लेकिन इसकी आड़ में उन पर मानवाधिकारों का खुलेआम उल्लंघन करने के आरोप लगे। सन् 2013 में यूनाइटेड नेशंस ह्यूमन राइट्स काउंसिल की ओर से उन पर प्रतिकूल टिप्पणी की गयी। यह न केवल सैनी के लिए, बल्कि सरकार के लिए भी शर्मनाक घटना है। सैनी से जुड़े मामलों में न्यायपालिका पर भी दवाब रहता था। उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश ऐसी टिप्पणी कर चुके हैं।  इससे पहले किसी अन्य पुलिस अधिकारी पर ऐसे आरोप कभी नहीं लगे। यह बहुत गम्भीर घटना है और सरकार को समय रहते कार्रवाई करनी चाहिए थी; लेकिन सैनी सरकारों के चहेते अफसर बने रहे। जिस तरह से मुल्तानी मामले में उनके खिलाफ साक्ष्य जुटाये गये हैं, उससे उनका पहले की तरह साफ बच निकलना मुश्किल है।

मुल्तानी के अलावा सुमेध सैनी पर लुधियाना के तीन लोगों- विनोद कुमार, अशोक कुमार और ड्राइवर मुख्तयार सिंह के गायब होने का मामला चल रहा है। सन् 1994 में वहाँ एसएसपी तैनात रहे सैनी ने निजी तौर पर मामले में रुचि ली। आज 26 साल बाद भी तीनों का कोई पता नहीं चल सका है। सन् 2000 में सीबीआई ने इस मामले में चालान पेश किया था। सन् 2004 से मामले की सुनवाई दिल्ली में हो रही है। पंजाब में सैनी मामले को प्रभावित न कर सके, इसलिए इसकी सुनवाई बाहर राज्य में हो रही है। सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए सैनी पेशी में जाने से बच रहे हैं। गायब विनोदकुमार के भाई आशीष 26 साल से इंसाफ का इंतज़ार कर रहे हैं। उनकी माँ अमर कौर इंसाफ का इंतज़ार करते-करते चल बसीं।  मुल्तानी मामले में पीडि़त पक्ष के अधिवक्ता प्रदीप सिंह विर्क के मुताबिक, सैनी को अपने किये की सज़ा भुगतनी पड़ेगी। जब तक वह नौकरी में रहे, उनका दवाब रहा; लेकिन अब वह सब खत्म हो गया है। अब लोग सामने आ रहे हैं। इससे और भी कई मामले खुल सकते हैं।

मुल्तानी के परिजन 29 साल से इंसाफ के लिए संघर्ष कर रहे हैं। रास्ता प्रशस्त हो रहा है। सैनी पर शिकंजा कसा जा रहा है। मुल्तानी मामले में अब धारा-302 भी जुड़ गयी है। विश्वासपात्र पुलिस वाले भी टूट रहे हैं। गवाह खुलकर बोल रहे हैं। अपनी गिरफ्तारी के डर से आज इधर-से-उधर भागने पर मजबूर होना पड़ा है; लेकिन कब तक? आखिर कभी-न-कभी तो अपने किये का हिसाब अदालत में देना ही पड़ेगा।

कार्यकुशलता

सन् 2002 के दौरान पंजाब लोकसेवा आयोग में पैसों के बदले नौकरी मामले का पर्दाफाश हुआ। तब आयोग के अध्यक्ष पूर्व पत्रकार रवि सिद्धू थे। राज्य में पैसों के बदले नौकरियाँ धड़ल्ले से मिलने के आरोप लग रहे थे। शिकायतों के बाद सैनी ने मोर्चा सँभाला और पूरा भंडाफोड़ किया। रवि सिद्धू के पास से अकूत संपत्ति मिली। यह सब नौकरी की एवज़ में जमा किया हुआ धन था। इसका श्रेय सैनी को मिला और उनकी कार्यकुशलता को शीर्ष स्तर से शाबाशी मिली। उन्हें तब भ्रष्टाचार और आतंकवाद खिलाफ लडऩे वाला जाँबाज़ अधिकारी माना जाता था।

कैप्टन पर कार्रवाई

सन् 2007 में सैनी पंजाब विजिलैंस प्रमुख थे। उस दौरान उन्होंने लुधियाना सिटी सेंटर घोटाले के आरोप लगे। सैनी ने कार्रवाई की; जिसकी वजह से कैप्टन अमरिंदर सिंह और उनके बेटे रणइंदर सिंह पर मामला दर्ज हुआ। इससे कैप्टन की मुश्किलें काफी बढ़ीं। बाप-बेटे इस मामले में दोषमुक्त हो चुुके हैं। इस मामले को राजनीति से प्रेरित बताया गया; लेकिन सैनी कार्रवाई से चूके नहीं। इसके बाद से उनका अमरिंदर से 36 का आँकड़ा हो गया था। बलवंत मुल्तानी मामले को राजनीति से जोडऩे को इस संदर्भ में भी देखा जाता है।

नया गाँव मामला

सन् 2005 के दौरान नया गाँव में बलात्कार के एक मामले में सैनी ने राष्ट्रीय दैनिक के एक पत्रकार को हिरासत में लिया था। सैनी की मीडिया में बहुत आलोचना हुई। तब तत्कालीन पुलिस महानिदेशक एसएस विर्क ने सैनी को बिना ठोस सुबूतों के पत्रकार पर कार्रवाई को अनुचित बताया। उससे पहले दोनों में खासा दोस्ताना था। मामले में विर्क के रुख से सैनी खफा हो गये। सन् 2007 में सैनी को मौका मिला, तो उन्होंने एसएस विर्क पर कार्रवाई करने में गुरेज़ नहीं की।

स्कूल कैंटीन में फास्ट फूड बेचना है जुर्म

अर्थ-शास्त्री विवेक देहजिया ने अपने एक लेख में लिखा है कि ‘कोविड-19 की महामारी ने गरीबों, वंचितों और हाशिये के लोगों को बुरी तरह से प्रभावित किया है। कोविड-19 और इसके खिलाफ लड़ाई ने मौज़ूदा आर्थिक और सामाजिक दरारों को गहरा किया है, जिसके और गहरे होने का अंदेशा है। भारत में गरीब व वंचित तबके ने बीमारी की तिहरी मार झेली है।’

ज़ाहिर है दुनिया भर में ऐसे तबकों के बच्चों की संख्या बढ़ेगी और उन पर कुपोषण अपना गहरा असर दिखायेगा, जो पहले से ही एक गम्भीर मुद्दा है। संयुक्त राष्ट्र की पॉलिसी ‘ब्रीफ : द इम्पेक्ट ऑफ कोविड-19 ऑन चिल्ड्रन’ में अनुमान लगाया गया है कि इस महामारी के कारण इस साल अति गरीबी की श्रेणी में 4 करोड़ 20 लाख से 6 करोड़ 60 लाख बच्चे आ सकते हैं। यह संख्या उन बच्चों के अतिरिक्त होगी, जो कि 2019 में पहले से ही इस श्रेणी में हैं।

भारत, जो कि आबादी के लिहाज़ से दुनिया में दूसरे नम्बर पर है, वहाँ कुपोषित बच्चों की संख्या सरकार के लिए खासतौर पर चिन्ता का विषय है। भारत में 35 फीसदी बच्चे नाटे हैं, 17 फीसदी बच्चे कद के अनुपात में पतले हैं व 33 फीसदी का वज़न कम है। मुल्क में कोविड-19 संक्रमण की रोकथाम के मद्देनज़र सरकार ने लॉकडाउन लगा दिया और 14 लाख आँगनबाड़ी केंद्रों को बन्द कर दिया गया।

गौरतलब है कि आँगनबाड़ी केंद्रों से लाभान्वित होने वाले 6 साल से कम आयु के बच्चों की संख्या करीब 8.2 करोड़ है और 1.9 करोड़ गर्भवती महिलाएँ व बच्चों को स्तनपान कराने वाली महिलाएँ लाभ उठाती हैं। मगर महिला व बाल विकास मंत्रालय ने लॉकडाउन में आँगनबाड़ी केंद्र बन्द कर दिये और आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को लाभार्थियों को घर-घर जाकर राशन वितरित करने के आदेश जारी कर दिये। मगर इस टेक होम राशन वाली व्यवस्था का क्रियान्वयन सही तरीके से नहीं हुआ; ऐसी खबरें सामने आयीं। हाल ही में सर्वोच्च अदालत ने लॉकडाउन के दौरान देश भर में बन्द 14 लाख आँगनबाड़ी केंद्रों को बन्द करने के मुद्दे की जाँच करने पर सहमति जतायी है। दरअसल एक जनहित याचिका में यह दावा किया गया है कि इसके कारण बच्चों में भुखमरी समेत अन्य समस्याएँ उपजी हैं, जिसके बाद सर्वोच्च अदालत ने केंद्र समेत सभी राज्यों को नोटिस जारी किया है। यह याचिका महाराष्ट्र की दीपिका जगतराम साहनी की ओर से दायर की गयी है। गौरतलब है कि महाराष्ट्र कोविड-19 वायरस संक्रमण से बुरी तरह प्रभावित है और लॉकडाउन के दौरान वहाँ से ऐसी खबरें सामने आयीं जो यह बताती भी कि वहाँ लाभार्थी बच्चों व महिलाओं को समय पर राशन मुहैया नहीं कराया गया। आदिवासी इलाकों में यह समस्या विशेष तौर पर बनी रही। आदिवासी इलाकों तक पहुँचना आसान नहीं था और आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को टेक होम राशन वितरित करने के लिए आरम्भ में ज़रूरी सुरक्षा उपकरण भी सरकार की ओर से उपलब्ध नहीं कराये गये थे। महाराष्ट्र सरकार पर यह भी सवाल उठे कि जो राशन लाभार्थियों को बाँटा गया, वह पूरा नहीं था। यानी राशन की पोटली में से कुछ खाघ सामग्री मात्रा में कम थी, और कुछ नहीं थी।

ध्यान देने वाली बात यह हैं कि आँगनबाड़ी केंद्र में जब लाभार्थी बच्चा आता है, तो यह सुनिश्चित होता है कि वहाँ मिलने वाला पौष्टिक आहार वही बच्चा खायेगा। और इस पूरक पौष्टिक आहार से वह बच्चा धीरे-धीरे कुपोषण की श्रेणी से बाहर निकल सकता है। आँगनबाड़ी केंद्रों में अधिकतर अति पिछड़े, गरीब व निम्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चे आते हैं। ऐसे बच्चों के लिए आँगनबाड़ी केंद्रों में मिलने वाला गर्म, ताजा, पौष्टिक आहार ही दिन भर में मिलने वाला सम्भवत: इकलौता विकल्प है। यानी यही आहार उनके शरीरव दिमाग के विकास के लिए आवश्यक पौष्टिक तत्त्वों की पूर्ति करने में अहम भूमिका निभाता है। देश भर में 14 लाख आँगनबाड़ी केंद्र बन्द होने से और टेक होम राशन व्यवस्था के रास्ते में आने वाली बाधाओं के कारण गरीब, वंचित तबकों के बच्चे व महिलाएँ अलग तरह से प्रभावित हुईं। अब देखना यह है कि सर्वोच्च अदालत ने केंद्र व राज्य सरकारों को जो नोटिस जारी किया है, उस पर क्या जवाब सरकार की ओर से अदालत में दिया जाएगा? क्या सरकार असली तथ्य अदालत के सामने रखेगी?

बहरहाल बीते दिनों फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसआई) ने स्कूली बच्चों के स्वास्थ्य को सुधारने की दिशा में एक रेगुलेशन तैयार किया है। इस रेगुलेशन के तहत स्कूल कैंटीन और गेट से 50 मीटर के दायरे में बच्चों को कोल्ड ड्रिंक्स, चिप्स, छोले-भटूरे, पिज्जा, बर्गर, पकौड़े, चाउमीन आदि बेचना अपराध माना जाएगा। इसके उल्लघंन पर फूड सेफ्टी स्टैंडर्ड एक्ट के तहत ज़ुर्माना या जेल भी हो सकती है। इसके अलावा अब स्कूल कैंटीन चलाने के लिए लाइसेंस भी लेना होगा। यह कदम बच्चों में कुपोषण को दूर करने व उन्हें स्वस्थ बनाने के लिए उठाया जा रहा है; ऐसा सरकार का दावा है। सरकार यह बताना चाहती है कि वह मुल्क में कुपोषित बच्चों की संख्या को लेकर फिक्रमंद है और समय-समय पर ऐसे कदम उठाती रहती है, जिससे कुपोषित बच्चों की संख्या कम हो और वह देश के भविष्य यानी स्वस्थ बच्चों की संख्या में इज़ाफा कर सके। मुल्क में मिड-डे मील कार्यक्रम की शुरुआत के पीछे कई लक्ष्यों में एक यह भी था कि स्कूल आने वाले बच्चों में पूरक आहार के ज़रिये कुपोषण को दूर किया जाए। इस मिड-डे मील कार्यक्रम से सरकारी स्कूलों में बच्चों के नामांकन में वृद्धि हुई, सरकार ने काफी प्रंशसा भी बटोरी मगर इस कार्यक्रम के तहत बच्चों को मिलने वाले भोजन की गुणवत्ता पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं। इस स्कीम से लाभान्वित होने वाले करोड़ों बच्चों में से कितनों को लॉकडाडन के दौरान भोजन मिला? इसका सही जवाब किसके पास है? यही नहीं, मुल्क में स्कूल बीते छ: महीने से बन्द हैं; बेशक कई राज्यों ने हाल में प्रयोग के तौर पर कड़ी दिशा-निर्देश के साथ स्कूल खोले हैं और बहुत ही कम बच्चे स्कूल आ रहे हैं।

दरअसल बच्चों का नाटापन, बच्चों का वज़न कद के अनुपात में कम होना, उनका मोटा होना, कुपोषण के कारण होता है। सन् 2012 में वल्र्ड हेल्थ अंसबेली ने मातृ, नवजात व छोटे बच्चों के पोषण के लिए समग्र प्लान को लागू करने सम्बन्धी एक रेजुलेशन को अनुमोदित किया, जिसने 2025 तक 6 वैश्विक पोषण सम्बन्धी लक्ष्यों को हासिल करने पर सहमति बनी और इन 6 लक्ष्यों में कद के अनुपात में कम वज़न वाले बच्चों को कुपोषण को झेलने वाले बच्चों की तादाद कम करके 5 फीसदी से नीचे लाना और उस स्तर को बनाये रखना है। मगर मौज़ूदा महामारी ने तो इन लक्ष्यों को हासिल करने की राह में कई बाधाएँ खड़ी कर दी हैं। संयुक्त राष्ट्र एंजेसियों ने आगाह किया है कि केवल ऐसे बच्चों की ही संख्या में इज़ाफा नहीं होगा, बल्कि बच्चों और महिलाओं में अन्य प्रकार के भी कुपोषण बढ़ेंगे। इसमें नाटापन, सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी, वज़न का अधिक होना व मोटापा भी शामिल है। इसके पीछे खराब खुराक व पोषण सम्बन्धी सेवाओं का बाधित होना भी शामिल है। ब्रिटिश सरकार ने लोगों को स्वस्थ रखने के लिए एक पहल की है। नयी रणनीति के तहत खाद्य स्टोर्स के प्रवेश द्वार व चेकप्वांइट पर मीठे व वसा बढ़ाने वाले खाद्य पदार्थ रखने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। जीवनशैली बेहतर बनाने के लिए अधिक मोबाइल एप्प लॉन्च किये जाएँगे, कुपोषण की एक वजह असंतुलित आहार भी है।

कई अध्ययन इस ओर इशारा करते हैं कि भारत में लोगों में पोषक तत्त्वों व प्रोटीन को लेकर जागरूकता की कमी है। नील्सन ने हाल ही में भारत के 16 शहरों में 2,142 माताओं का सर्वे किया था। इस सर्वे में हिस्सा लेने वाली 85 फीसदी माताओं का मानना है कि प्रोटीन से वज़न बढ़ता है। 10-15 साल के 45 फीसदी बच्चों में प्रोटीन की कमी है। भारत में गत साल जारी समग्र राष्ट्रीय पोषण सर्वे बताता है कि बाल्यावस्था में अधिक वज़न और मोटोपे में भी वृद्धि शुरू हो जाती है, जिसकी वजह से असंक्रामक रोगों का खतरा बढऩे लगता है। जैसे कि स्कूल जाने की आयु वाले बच्चों व किशोरों में मधुमेह का खतरा। भारत में भोजन खपत सम्बन्धी रुझानों से पता चलता है कि बाल खुराक में प्रोटीन की बहुत कमी है और सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की भी बहुत कमी है। और बाल खुराक पर परिवार यानी व्यस्क सदस्यों का प्रभाव रहता है। कई दशकों से आय में वृद्धि होने के बावजूद प्रोटीन आधारित कैलोरी कम ही है और यह बदली भी नहीं है। फलों व सब्ज़ियों में भी कैलोरी कम ही है। अब जब कि कोविड-19 महामारी ने विश्व अर्थ-व्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित किया है। ऐसे में गरीब लोग और गरीब हुए हैं व निम्न व मध्य आय वर्ग की जेब भी खाली हुई है, तो इसका असर उनकी खुराक यानी भोजन की गुणवत्ता पर भी पडऩे लगा है।

महामारी तो अपना असर दिखा ही रही है; लेकिन यह जानना भी महत्त्वपूर्ण है कि गरीबी, शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन और भोजन सम्बन्धी खराब चयन अस्वस्थकारी आहार की ओर ले जा रहे हैं। विश्व भर में पाँच साल से कम आयु वाले बच्चों में तीन में से एक बच्चा कुपोषित है। दो साल से कम आयु वर्ग वाले बच्चों में भी हर दो में से एक बच्चा खराब खुराक पर जीवित है। यूनिसेफ ने बच्चों, भोजन और पोषण पर जारी एक रिपोर्ट में आगाह किया है कि घटिया आहार के नतीजे भुगतने वाले बच्चों की संख्या चिन्ताजनक है। और भोजन प्रणाली की मार उन पर पड़ रही है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि पाँच साल से कम आयु के तीन में से एक बच्चा अर्थात् 200 मिलियन बच्चे या तो कुपोषित हैं या उनका वज़न अधिक है। छ: माह और दो साल की आयु के बीच बच्चों में से तकरीबन तीन में से दो बच्चों को भोजन नहीं खिलाया जा रहा है, जो उनके शरीर व दिमाग को तेज़ी से विकसित करने में सहायक हो। इससे उनके दिमाग के पर्याप्त रूप से विकसित नहीं होने, सीखने में कमज़ोर रहने, कमज़ोर रोग प्रतिरोधक क्षमता, संक्रमण के बढऩे का खतरा और बहुत-से मामलों में मरने का खतरा बना रहता है। लाखों बच्चे अस्वथकारी आहार पर निर्भर हैं; क्योंकि उनके पास बेहतर विकल्प उपलब्ध नहीं है। 149 मिलियन बच्चे नाटे हैं। 340 मिलियन बच्चों में ज़रूरी विटामिन और पोषक तत्त्वों, जैसे कि विटामिन-ए और आयरन की कमी है। 40 मिलियन बच्चों का वज़न अधिक है, मोटे हैं। यूनिसेफ की रिपोर्ट आगाह करती है कि भोजन सम्बन्धी और खिलाने की खराब प्रथाओं की शुरुआत बच्चे की ज़िन्दगी के आरम्भिक दिनों से ही हो जाती है। जैसे ही बच्चे छ: महीने के आसपास की आयु में नरम या ठोस आहार लेना शुरू करते हैं। इनमें अधिकांश को गलत िकस्म का आहार देना शुरू कर दिया जाता है। दुनिया में छ: महीने से लेकर दो साल तक की आयु वर्ग के बच्चों में से करीब 45 फीसदी बच्चों को कभी फल या सब्ज़ियाँ नहीं खिलायी गयींं। तकरीबन 60 फीसदी बच्चे अंडे, डेयरी उत्पाद, मछली या मीट नहीं खाते हैं।

भारत में भी छ: से 23 माह के केवल 42 फीसदी बच्चों को ही प्राप्त खुराक बार-बार दी जाती है। और महज़ 25 फीसदी को ही प्राप्त रूप से विविध आहार बार-बार खिलाया जाता है। छ: से आठ माह के 53 फीसदी शिशुओं को ही वास्तविक समय पर पूरक आहार देना शुरू किया गया। जैसे ही बच्चे बड़े होते हैं, उनका अस्वस्थकारी भोजन से सामना शुरू हो जाता है। स्वास्थ्य के लिए अहितकारी खाद्य पदार्थों के विज्ञापन, मार्केटिंग, केवल महानगर व नगर ही नहीं, बल्कि गाँवों व दूर-दराज़ के इलाकों में तक उनकी उपलब्धता इसकी एक प्रमुख वजह है। यहाँ उच्च प्रसस्करण खाद्य सामग्री, फास्ट फूड, अधिक मीठे पेय पदार्थ सब मिल जाते हैं। निम्न व मध्य आय वाले देशों में स्कूल जाने वाले किशारों में 42 फीसदी किशोर सप्ताह में कम-से-कम एक बार कार्बोनेटेड मीठा सॉफ्ट ड्रिंक (पेय) पीते हैं। और 46 फीसदी सप्ताह में कम-से-कम एक बार फास्ट फूड खाते हैं। उच्च आय वाले मुल्कों में यह दर क्रमश: 62 फीसदी और 49 फीसदी है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि बचपन व किशोरावस्था में अधिक वज़न व मोटोपे का स्तर बढ़ रहा है। 2000 से 2016 के बीच पाँच से 19 आयु वर्ग के बच्चों में अधिक वज़न का अनुपात दोगुना हो गया है। यह संख्या 10 में से एक बच्चे से बढ़कर पाँच में से एक बच्चे तक पहुँच गयी है। दुनिया भर के आँकड़े बताते हैं कि सभी प्रकार के कुपोषण का सबसे अधिक बोझ सबसे गरीब, हाशिये पर रहने वाले बच्चों की ज़िन्दगी पर पड़ता है। सबसे गरीब घरों में 6 माह से लेकर 2 साल तक की आयु वाले बच्चों में से 5 में से एक बच्चा ही स्वस्थ वृद्धि के लिए प्राप्त विविध आहार लेता है।

पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट के फैसले से खनन माफिया की उड़ी नींद

पंजाब में अवैध खनन को गम्भीरता से लेते हुए पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय (हाई कोर्ट) ने राष्ट्रीय राजमार्गों से एक किलोमीटर और राज्य-मार्गों से आधा किलोमीटर की दूरी पर खनन गतिविधियों पर रोक लगा दी है। ये निर्देश 12 सितंबर, 2020 को न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और न्यायमूर्ति हरिंदर सिंह सिद्धू की खंडपीठ ने बख्शीश सिंह द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए दिये, जिसमें उन्होंने कहा था कि नवांशहर, लुधियाना और जालंधर के कई गाँव में सतलुज नदी के किनारे बड़े स्तर पर अवैध खनन गतिविधियाँ चलने से बाढ़ का खतरा पैदा हो गया है।

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के वक्त फैसले ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार समेत उन राज्यों की सरकारों और खनन माफिया के होश उड़ा दिये हैं, जहाँ इससे कम दूरी पर खनन की अनुमति का प्रावधान है। अगर पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के इस फैसले को लेकर पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ता दबाव बनाते हैं, तो ऐसे राज्यों की अनेक खदानें बन्द हो जाएँगी।

क्या है उच्च न्यायालय का फैसला

जालंधर निवासी बख्शीश सिंह ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करके कहा कि नवांशहर, लुधियाना और जालंधर के कई गाँव में सतलुज नदी के किनारे बड़े स्तर पर अवैध खनन गतिविधियाँ की जा रही हैं। उन्होंने कहा कि अवैध खनन गतिविधियाँ इस कदर चल रही हैं कि माफिया ने नदी का मार्ग बदल दिया है; जिससे बाढ़ जैसी स्थिति बन गयी है।

नदी के तल से रेत की खुदाई के लिए भारी मशीनरी तैनात की गयी थी, और अधिकारियों ने अवैध खनन की जाँच के लिए याचिकाकर्ता द्वारा की गयी शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं की। मामले को सुनने के बाद अदालत ने कहा कि नदियों को पूरा अधिकार है कि वो बिना बाधा के बहें। खनिजों की अत्यधिक निकासी से पुलों / राष्ट्रीय राजमार्गों, राज्य राजमार्गों को गम्भीर खतरा है। प्रमुख पुलों से एक किलोमीटर और छोटे पुलों से आधा किलोमीटर की दूरी तक खनन गतिविधियाँ प्रतिबन्धित हैं। इसी तरह राष्ट्रीय राजमार्गों से एक किमी और राज्य के राजमार्गों से आधा किलोमीटर की दूरी पर कोई भी खनन गतिविधि नहीं होगी।

उच्च न्यायालय ने नदी के तल से रेत और बजरी निकालने के लिए जेसीबी आदि जैसे भारी मशीनरी के इस्तेमाल और नदी के तल में तीन मीटर तक खनन गहराई को प्रतिबन्धित करने का निर्देश दिया। साथ ही अदालत ने पंजाब के तीन ज़िलों- नवांशहर, लुधियाना और जालंधर के डीसी और एसएसपी को राज्य में अवैध खनन की जाँच करने और 30 सितंबर को या उससे पहले स्थिति पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए विशेष फ्लाइंग स्क्वाड (उडऩ दस्ता) गठित करने का भी निर्देश दिया। स्क्वाड में पुलिस विभाग के अधिकारियों के अलावा रेवेन्यू और खनन विभाग के अधिकारियों को भी शामिल किये जाने के निर्देश दिये गये। अदालत ने पंजाब सरकार को निर्देश दिये कि राज्य में रेत और बजरी की खरीद-फरोख्त और कालाबाज़ारी को रोकने के लिए ज़रूरी कदम उठाये जाएँ और अवैध खनन गतिविधियों को रोक पाने में असमर्थ अधिकारियों पर राज्य सरकार कड़ी कार्रवाई करे। साथ ही उसे आदेश दिया कि भारी मशीनरी से हो रहे अवैध खनन की जाँच के लिए ड्रोन का भी इस्तेमाल करे और छ: महीने के लिए पुनर्पूर्ति अध्ययन सहित नदी ऑडिट भी करना चाहिए।

चुनौतियाँ

भारत लगभग 64 प्रकार के खनिजों का उत्पादन करता है। देश के अनेक हिस्सों में अक्सर समय-समय पर अवैध खनन से सम्बन्धित मामले अक्सर प्रकाश में आते रहते हैं, जैसे यह आम बात हो। इससे जहाँ सरकार को काफी राजस्व का नुकसान होता है, वहीं दूसरी ओर पर्यावरण, पारिस्थितिकीय तंत्र और जनजीवन को भी प्रभावित करता है। अवैध खनन से तात्पर्य है- बिना लाइसेंस के खनन करना; लाइसेंस प्राप्त क्षेत्र से बाहर खनन करना; स्वीकृत मात्रा से अधिक खनिजों का उत्खनन और लाइसेंस का नवीकरण लम्बित होने के बावजूद खनन करना।

अवैध खनन में सबसे अधिक रेत का खनन होता है। सीमेंट और कंकरीट के निर्माण कार्र्यों में रेत का उपयोग अपरिहार्य है। आबादी बढऩे के साथ-साथ आवास, स्कूल, अस्पताल, सड़क हो या पेयजल भण्डारण से जुड़ी ज़रूरतें सभी कि निर्माण में रेत, सीमेंट, कंकरीट आदि की माँग तेज़ी से बढ़ी है। रेत में भी प्राथमिकता में माँग नदियों से निकलने वाली रेत की है। इसलिए भारत सहित दुनिया भर में ही नदियों से रेत खनन अत्यधिक होने लगा है। गैर-कानूनी रेत खनन का कारोबार पूरे देश में ही आपराधिक हिंसक प्रवृत्तियों के साथ जड़ें जमा चुका है।

गुजरात में साबरमती नदी में रेत का इतना अवैध खनन होता रहा है कि अहमदाबाद, साबरकंठा, गाँधीनगर ज़िलों में इन पर निगाह रखने के लिए 2018 में ड्रोन से निरानी तक की गयी। यह स्थिति तब है, जब 2016 के बाद साबरमती नदी में गाँधीनगर और अहमदाबाद के बीच रेत खनन पूरी तरह से रोक दिया गया था, और इस बीच के क्षेत्र को संवेदनशील घोषित कर दिया गया था। गुजरात सरकार ने स्वीकार किया था कि राज्य में अवैध खनन बहुत गम्भीर समस्या है।

अन्य राज्य भी इस समस्या से बचे नहीं हैं। राज्य विधानसभाओं में भी इस पर चर्चा होती है; लेकिन अवैध रेत खनन नहीं हो रहा है, ऐसा न सत्तारूढ़ दल कहता है और न विपक्ष।

अवैध खनन से खतरा

अवैध अथवा अत्यधिक बालू तथा बजरी का खनन नदी की धारा (बहाव) के साथ-साथ नदी के क्षरण का कारण बनता है। यह जलधारा के तल को हरा कर देता है, जिसके कारण तटों का कटाव बढ़ जाता है। धारा की तली तथा तटों से बालू हटने के कारण नदियों तथा ज्वारनदमुख (पंक मैदान) की गहराई बढऩे से नदी के मुहानों तथा तटीय प्रवेशिकाओं को विस्तारित करती है और नदी के तटीय क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा नदी में समाहित हो जाता है। अत्यधिक बालू खनन पुलों, तटों तथा नज़दीकी संरचनाओं के लिए खतरा पैदा करता है।

इससे भूमित जल स्तर भी प्रभावित होता है। अत्यधिक धारा रेखीय बालू खनन के कारण जलीय तथा तटवर्ती आवासों को नुकसान पहुँचता है। इसके प्रभाव में नदी तल का क्षरण, नदी तल का कठोर हो जाना, नदी तल के समीप जलस्तर में कमी होना तथा जलग्रीवा की अस्थिरता इत्यादि शामिल हैं। लगातार खनन नदी तल को पूर्ण रूप से खनन की गहराई तक नुकसान पहुँचाता है। इससे बरसात के दिनों में जहाँ बाढ़ की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं, वहीं गर्मी के दिनों में लोगों को सूखा और पानी की िकल्लत से जूझना पड़ता है।

क्या आसान है अवैध खनन रोकना?

अवैध रेत खनन पर शिकंजा कस पाना आसान नहीं है। मध्य प्रदेश में नर्मदा समेत अनेक नदियों से अवैध रेत खनन या अन्य खनन के अनेक मामले सामने आते रहते हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री मेधा पाटेकर भी इस मामले को कई बार सरकार के समक्ष रख चुकी हैं।

अनेक पर्यावरणविद्, सामाजिक कार्यकर्ता भी समय-समय पर इन मामलों को उठाते रहे हैं। लेकिन मध्य प्रदेश में अवैध खनन पर शिकंजा नहीं कसा जा सका है। अवैध खनन का मामला सिर्फ मध्य प्रदेश ही नहीं, बल्कि लगभग सभी राज्यों में समय-समय पर प्रकाश में आते रहते हैं।

माफिया का बोलबाला

पिछले साल अप्रैल, 2019 में आंध्र प्रदेश सरकार के अवैध रेत खनन रोकने में असमर्थ रहने पर राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने कुछ निर्देशों के साथ उस पर 100 करोड़ रुपये का अंतरिम दण्ड भी लगाया था। राज्य के मुख्य सचिव को अनियमित रेत खनन पर तुरन्त रोक लाने के आदेशों के साथ-साथ यह भी चेताया गया था कि राज्य प्राकृतिक संसाधनों का ट्रस्टी है और उन्हें पूर्ण संरक्षण प्रदान करना उसकी ज़िम्मेदारी है। निस्संदेह एनजीटी यह जानता है कि रेत खनन का अवैध कारोबार पूरे देश में आपराधिक तत्त्वों और माफिया के कब्ज़े में है और उसके पहले के निर्देश भी विभिन्न राज्यों में दिखावे के लिए स्वीकार की जाती रही हैं।

अवैध खनन में माफिया का इस तरह बोलबाला है कि खनिज ढुलाई वाहन पार-पत्र पर दर्शाये गये माल से दो गुना-तीन गुना माल लेकर बेरोक-टोक बाहर निकाले जाते हैं; लेकिन उस पर किसी की कोई निगरानी नहीं रहती है। ज़्यादातर जगहों पर तो इन ढुलाई वाहनों पर नंबर प्लेट भी नहीं होती। पूरे देश में अवैध रेत खनन का कारोबार माफिया और आपराधिक तत्त्वों के हाथ में है। जो ईमानदार अधिकारी और कर्मचारी रेत माफिया के खिलाफ अभियान चलाते हैं, उन पर रेत से भरे ट्रक, ट्रैक्टर चढ़ा देना, हत्या कर देना, उनका तबादला करवा देना माफिया के लिए आम है। माफिया में ऐसी हिम्मत उनके राजनेताओं, भ्रष्ट अफसरों व आपराधिक तत्त्वों के साथ जग-ज़ाहिर सम्बन्धों से आती है।

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के इस फैसले का मूल उद्देश्य खनिजों का संरक्षण, अवैध खनन की रोकथाम के लिए सुरक्षात्मक कदम उठाना, बालू और बजरी को कानूनी रूप से पर्यावरण हेतु धारणीय और सामाजिक रूप से उत्तरदायी तरीके से सुनिश्चित करना; निकाले गये खनिज की निरानी व परिवहन की प्रभावशीलता में सुधार करना; नदी की साम्यावस्था एवं इसके प्राकृतिक पर्यावरण के लिए पारिस्थितिकी तंत्र के जीर्णोद्धार तथा प्रवाह को सुनिश्चित करना; तटवर्ती क्षेत्रों के अधिकारों तथा आवास की पुनस्र्थापना और पर्यावरण मंज़ूरी की प्रक्रिया को मुख्यधारा में शामिल करना है। यदि इस फैसले को अन्य राज्यों के पर्यावरणविद् एवं सामाजिक कार्यकर्ता मुद्दा बनाते हैं, तो निश्चित ही राजनीतिक मशीनरी पर दबाव बनेगा। लेकिन अवैध खनन पर रोक तभी लगेगी, जब इसके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए राजनीतिक मशीनरी की इच्छाशक्ति, सख्त विनियमन के साथ-साथ विभिन्न हितधारकों को शामिल किया जाए।

खुराफाती चीन से युद्ध होगा या नहीं!

दुनिया भर में अपनी भू-राजनीतिक खुफिया रिपोट्र्स को लेकर विशेष जगह रखने वाले दिग्गज प्लेटफॉर्म स्ट्रैटफॉर की 22 सितंबर की रिपोर्ट ज़ाहिर करती है कि चीन ने भारत की सीमा के नज़दीक डोकलाम तनाव के बाद ही अपना बुनियादी ढाँचा मज़बूत करना शुरू कर दिया था और इन तीन वर्षों में उसने वहाँ अपने एयरबेस, एयर डिफेंस पोजिशन और हेलीपोट्र्स की संख्या दोगुनी से भी ज़्यादा कर ली। हालाँकि इस रिपोर्ट में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात कही गयी है। वह यह है कि चीन का अपने सैन्य बुनियादी ढाँचे में किया जा रहा यह अपग्रेडेशन पूरा होने में काफी वक्त लगेगा और यह कार्य अभी जारी है। रिपोर्ट को आधार मानकर आकलन किया जाए, तो यह सवाल उठता है कि सीमा पर चीन की तरफ से पैदा किया जा रहा तनाव क्या सिर्फ यह देखने के लिए है कि भारत की तैयारी कैसी, किस स्तर और किस रणनीति पर आधारित हो सकती है? बहुत-सी रिपोर्ट हैं, जो ज़ाहिर करती हैं कि चीन फिंगर आठ से फिंगर पाँच पर आ गया है और तमाम बैठकों के बावजूद पीछे जाने को तैयार नहीं है। चीन के साथ युद्ध के काले बादल मँडराने के बीच दोनों के सैन्य अधिकारियों में बातचीत के कई दौर हुए हैं। मॉस्को में विदेश और रक्षा मंत्री मिल चुके हैं; लेकिन चीन यथस्थिति बरकरार रखने को तैयार नहीं है।

रूस की भारत-चीन में किसी सम्भावित युद्ध को टालने की अघोषित कोशिशों के बीच भी चीन अपना काम जारी रखे हुए है। भारत ने भी गलवान की झड़प के बाद सीमा पर किसी भी स्थिति से निपटने के लिए अपनी तैयारी कर ली है। संसद में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह यह बात कह चुके हैं। बहुत-सी चोटियों पर भारत ने कब्ज़ा करके मनोवैज्ञानिक बढ़त बनायी है। हालाँकि यहाँ यह सवाल अभी अनुत्तरित हैं कि कहीं सच में युद्ध हुआ, तो क्या लगातार चीन के खिलाफ बोल रहा और ताइवान को चीन के खिलाफ मदद कर रहा अमेरिका भारत का साथ देगा? भारत ने पिछले एकाध महीने में दूसरे देशों को चीन के खिलाफ खड़ा करने की रणनीति बुनी है; लेकिन वास्तव में भारत को किस-किसका साथ मिलेगा? यह अभी साफ नहीं है। दुनिया के दिग्गज भू-राजनीतिक इंटेलीजेंस प्लेटफॉर्म स्ट्रैटफॉर की रिपोर्ट ज़ाहिर करती है कि चीन भारत के साथ टकराव के लिए लम्बी तैयारी कर रहा है। दरअसल स्ट्रैटफॉर की इस गहन रिपोर्ट में चीन के सैन्य बुनियादी ढाँचे के निर्माण को सेटेलाइट इमेज के विस्तृत विश्लेषण के ज़रिये रेखांकित किया गया है। इस रिपोर्ट को लिखने वाले स्ट्रैटफॉर के वरिष्ठ वैश्विक विश्लेषक सिम टैक का कहना है कि सीमा पर चीनी सैन्य सुविधाओं के निर्माण का समय यह ज़ाहिर करता है कि चीन वर्तमान में सीमा पर तनाव बढ़ाने की जो कोशिश कर रहा है और भारत और चीन के बीच लद्दाख में जैसा गतिरोध चल रहा है, उसे देखते हुए यह चीन की रणनीति का हिस्सा लगता है। टैक ने रिपोर्ट में कहा कि यह प्रयास चीन के सीमावर्ती क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित करने की सोच का हिस्सा हैं।

जैसा रिपोर्ट में कहा गया है, उससे निश्चित ही चीन के खड़े किये इन सैन्य ढाँचों का भारत की सुरक्षा पर सीधा असर पड़ सकता है। टैक की गहन अध्ययन के बाद सेटेलाइट इमेज के विश्लेषण की मदद वाली इस रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि चीन ने 2017 में भारत के साथ डोकलाम गतिरोध के बाद अपनी रणनीति को बदला है। टैक रिपोर्ट में कहता हैं कि चीन को इसे आगे चलकर अपने ऑपरेशंस बढ़ाने में मदद मिल सकती है।

हालाँकि सिम टैक ने इस रिपोर्ट में एक और बहुत महत्त्वपूर्ण बात कही है। उनके मुताबिक, चीन के अपने सैन्य बुनियादी ढाँचे में किये जा रहे इस सुधार (अपग्रेडेशन) को पूरा करने में अभी काफी वक्त है। रिपोर्ट में वे लिखते हैं कि चीन सीमा के नज़दीक जो तैयारी कर रहा है, वह सैन्य बुनियादी ढाँचों के विस्तार और निर्माण का काम है और और यह अभी चल रहा है। टैक का मानना है कि भारत की सीमा पर आज जो चीनी सैन्य गतिविधि दुनिया देख रही है, वो सिर्फ एक दीर्घकालिक उद्देश्य की शुरुआत भर है। रिपोर्ट के मुताबिक, सीमा के नज़दीक चीनी बुनियादी ढाँचे से भारत पर क्या असर होगा, यह स्पष्ट रूप से दिखता है। एक बार इन बुनियादी ढाँचों के पूरा हो जाने पर चीन को इन क्षेत्रों में अपनी गतिविधि बढ़ाने में मदद मिलेगी।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन भारतीय सीमा के नज़दीक कम-से-कम 13 नयी सैन्य पोजिशन का निर्माण कर रहा है। इनमें 3 एयर बेस, 5 स्थायी एयर डिफेंस पोजिशन और 5 हेलीपोट्र्स (चॉपर के उड़ान भरने/उतरने के लिए पट्टी) शामिल हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, इन नये हेलीपोट्र्स में चार का निर्माण मई में लद्दाख गतिरोध के बाद शुरू किया गया है।

इंटेलीजेंस प्लेटफॉर्म स्ट्रैटफॉर की इस एक्सक्लूसिव रिपोर्ट में दिये गये ग्राफिक ज़ाहिर करते हैं कि 2016 में सीमा के इन स्थानों के पास सिर्फ क्रमश: एक-एक हेलीपैड और एयर डिफेंस साइट थे। लेकिन 2017 में डोकलाम गतिरोध के बाद सीमा के नज़दीक एक ईडब्ल्यू स्टेशन और एक एयरबेस सुविधा का निर्माण शुरू हुआ। ग्राफिक के मुताबिक, 2018 में वहाँ सम्भवता कुछ नया नहीं बना; लेकिन पिछले दो साल में सुविधा निर्माण में बहुत तेज़ गति दिखी।

स्ट्रैटफॉर के साल-दर-साल बिन्दुबार बनाये ग्राफिक के मुताबिक, 2019 के बाद चीन ने सैन्य बुनियादी ढाँचे पर बड़े पैमाने पर काम शुरू किया है। इसके मुताबिक, 2019 में एक जमा तीन एयरबेस, चार नये एयर डिफेंस साइट, एक ईडब्ल्यू स्टेशन और एक हेलीपोर्ट पर काम शुरू किया। जबकि 2020 में, खासकर लद्दाख घटनाक्रम के बाद चीन ने चार एयरबेस, चार ही हेलीपोर्ट और एक एयर डिफेंस साइट के निर्माण का काम शुरू किया। इस तरह देखा जाए तो चीन लम्बी अवधि की मज़बूत सैन्य संरचना का निर्माण भारत के साथ सीमा पर कर रहा है।

ऐसा नहीं है कि इन वर्षों में भारत सिर्फ चीन का मुँह देखता रहा है। काम इधर भी हुआ है और सीमा के नज़दीक भारत ने भी सैन्य दृष्टि से निर्माण किये हैं। लेकिन इस रिपोर्ट से जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात सामने आती है, वह यह है कि इस सारे घटनाक्रम का अध्ययन करने वाले सिम टैक को यह लगता है कि चीन अभी इस बुनियादी ढाँचे के विकास पर काम कर रहा है। उनके इस अनुमान से क्या यह माना जाए कि चीन फिलहाल युद्ध नहीं करना चाहता, बल्कि वह सीमा पर तनाव बढ़ाकर सिर्फ भारत की शक्ति, उसके कदमों और रणनीति को तौल भर रहा है? कहना कठिन है। क्योंकि चीन को कभी भी एक भरोसेमंद देश नहीं माना जाता है।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि भारत बार-बार यह कह रहा है कि वह अपनी तरफ से युद्ध शुरू नहीं करेगा; लेकिन यदि उस पर युद्ध थोपा गया, तो वह इसका मुँहतोड़ जवाब देगा। भारत ने लगातार चीन से सैन्य और डिप्लोमैटिक स्तर पर बातचीत की कोशिश की है। भारत भी युद्ध नहीं चाहता। सैन्य स्तर पर भी बैठकों का दौर चल रहा है। हाल में 22 और 23 सितंबर को अधिकारियों के बीच बैठक हुई है। हालाँकि इनमें से कुछ विशेष नहीं निकला है।

इस रिपोर्ट से इतर यदि बात करें, तो ज़ाहिर होता है कि चीन जहाँ अपने क्षेत्र में सीमा पर सैन्य निर्माण कर रहा है, वहीं वह नेपाल जैसे देश को दोस्ती के नाम पर भारत के खिलाफ अपने ठिकाने बनाने के लिए भी मना चुका है। नेपाल में चीन की राजदूत हाओ यांकी इसमें बड़ी भूमिका निभा रही हैं। उनके बहुत से कदमों से नेपाल में विवाद भी पैदा हुए हैं, और खासकर विरोधी दल उन्हें निशाने पर रखते रहे हैं। इस तरह की रिपोट्र्स रही हैं कि यांकी ने हाल में प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली की कुर्सी बचाने में बड़ी भूमिका निभायी और नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच उभरे मतभेदों को दूर करते हुए ओली और प्रचंड दहल के बीच रिश्ते को बेहतर किया।

ओली को लेकर माना जा रहा है कि वो चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ नज़दीकी रिश्ते बना चुके हैं और ड्रैगन इसका फायदा उठाते हुए नेपाल की ज़मीन पर उपेक्षित से रहे हुमला क्षेत्र में करीब नौ भवनों का निर्माण कर चुका है। दिलचस्प यह है कि नेपाली मीडिया में चीन की इस घुसपैठ की तस्वीरें छपी हैं। निश्चित ही इसके बाद ओली पर दबाव बना है। यह कब्रें सच्ची मालूम होती हैं। क्योंकि अखबार में रिपोट्र्स छपने के बाद हुमला के एक वरिष्ठ ज़िला अधिकारी दल बहादुर हमाल ने नौ दिन तक हुमला के लापचा-लिमी क्षेत्र का दौरा किया। नेपाल की एक वेबसाइट खबर हब डॉट काम की रिपोर्ट पर भरोसा करें, तो उसमें लिखा गया है कि इस अधिकारी ने अपने दौरों के दौरान पाया कि नेपाल की ज़मीन पर चीन ने नौ भवन रूपी निर्माण किये हैं। वरिष्ठ अधिकारी की यह रिपोर्ट हमाल ज़िला प्रशासन ने नेपाल के गृह मंत्रालय को भेजी, जिसे जिसे बाद में उसने विदेश मंत्रालय को भेज दिया। नेपाली क्षेत्र में चीन की इस घुसपैठ पर नेपाल के विदेश मंत्रालय ने क्या किया, इसकी जानकारी नहीं है। कहा जा रहा है कि अभी तक नेपाल सरकार ने चीनी अधिकारियों के सामने यह मुद्दा नहीं उठाया है। निश्चित ही भारत के लिए नेपाल में सीमा के नज़दीक यह चीनी घुसपैठ चिन्ता का सबब है।

घटनाएँ जारी

उधर लद्दाख में भारत-चीन के बीच तनाव की परकाष्ठा इस बात से समझी जा सकती है कि चार दशक से भी ज़्यादा समय बाद वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर तीन बार गोलीबारी हो चुकी है; वह भी 20 दिन के भीतर। इस बात से तनाव के ग्राफ को समझा जा सकता है। गोलीबारी की यह घटनाएँ पहली बार तब हुईं, जब दक्षिणी पैंगॉन्ग की ऊँचाई वाली चोटी पर कब्ज़ा करने की चीन ने कोशिश की। इस दौरान भारत ने चीन के सैनिकों को वापस खदेड़ते हुए उनकी चाल को नाकाम कर दिया। यह घटना 29-31 अगस्त के बीच हुई। इसकी जानकारी सार्वजनिक हुई और भारत सरकार ने भी इसकी जानकारी दी।

हालाँकि इसके बाद भी गोलीबारी की घटना हुई, जिसका एक अंग्रेजी अखबार ने खुलासा किया। यह घटना 7 सितंबर की है, जो मुखपारी की चोटियों पर घटी। यह उस दिन की बात है जिस दिन भारत के रक्षा मंत्री मॉस्को में अपने चीनी समकक्ष से मिलने वाले थे। अगले ही दिन यानी 8 सितंबर को फिर पैंगॉन्ग झील के उत्तरी किनारे पर गोलीबारी हुई थी। कहा जाता है कि इस दौरान दोनों ही पक्षों के जवानों ने 100 से 200 राउंड के बीच फायरिंग की थी। चीनी पक्ष के तरफ से आक्रामकता दिखाने के बाद यह गोलीबारी हुई। याद रहे गलवान घाटी में 15 जून को दोनों पक्षों के बीच हिंसक झड़प हो गयी थी। इस झड़प में भारत के 20 जवान शहीद हो गये थे, जबकि चीन के भी 40 से ज़्यादा सैनिकों की मौत हुई थी।

विदेश मंत्री स्तर की बातचीत में चीन ने पाँच सूत्री सन्धि की बात मानी थी, जिसमें स्थिति को हर कीमत पर बातचीत से तय करने पर सहमति बनी थी; लेकिन साफ दिख रहा है कि चीन बहुत चालाकी से समय लेने की चाल चल रहा है और उसकी मंशा ठीक नहीं है। चीन बार-बार दोहरा रहा है कि वह एक इंच भी नहीं पीछे हटेगा। इससे साफ है कि भारत को चुनौती दे रहा है कि युद्ध करके हमें पीछे हटा सकते हो, तो हटा लो।

भारत ने अभी तक संयम बरता है; लेकिन ऐसा उसके लिए ज़्यादा समय तक करना सम्भव नहीं होगा। भारत युद्ध नहीं चाहता। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह संसद में कह चुके हैं कि इतिहास गवाह है कि भारत ने कभी अपनी तरफ से युद्ध की शुरुआत नहीं की। भारत बातचीत से मसले को सुलझाने की बात कह रहा है। दोनों देशों के सैन्य अधिकारियों की लगातार बैठकें भी हुई हैं; लेकिन कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला है।

संसद में राजनाथ सिंह ने साफ कहा है कि सीमा के मामले में कोई समझौता नहीं किया जाएगा। सिंह ने यह भी भरोसा दिलाया है कि भारत की स्थिति मज़बूत है। हम युद्ध के लिए तैयार हैं; जबकि शान्ति से बेहतर कोई विकल्प नहीं है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि युद्ध की स्थिति बनती है, तो चीन के लिए भी मुश्किलें पैदा होंगी। अमेरिका से लेकर दूसरे कई देश आज की तारीख में चीन से सख्त नाराज़ हैं। इसका सबसे बड़ा कारण कोरोना वायरस का चीन से दुनिया भर में फैलना है। चीन पर नयी विश्व व्यवस्था में मुखिया बनने का भूत सवार है। उसके विपरीत भारत इस दौड़ में कभी शामिल नहीं रहा। चीन की अंतर्राष्ट्रीय छवि पिछले छ: महीने में बहुत धूमिल हुई है। कुछ दिन पहले ताईवान ने चीन की सैन्य पनडुब्बी को मिसाइल से ध्वस्त कर दिया था। चीन हुंकारता रहा, पर कुछ नहीं हुआ। अमेरिका पूरी तरह ताईवान के साथ खड़ा है। इसके विपरीत चीन के पड़ोसी मलेशिया और थाईलैंड तक चीन से दूरी बनाकर रख रहे हैं। भारत इस स्थिति को नज़र में रखे हैं। लिहाज़ा चीन उन तमाम देशों, जो उसे पसन्द नहीं करते, से सम्पर्क साध रहा है।

रूस की भूमिका

यह बात तारीखी है कि सन् 1962 में जब भारत-चीन के बीच युद्ध हुआ था, तब सोवियत संघ का पतन नहीं हुआ था और वह चीन के बहुत करीब था। तब अमेरिका और सोवियत संघ को ही दुनिया की दो ताकतें कहा जाता था। तब युद्ध के दौरान सोवियत संघ के नेता ने इसे अपने भाई और दोस्त के बीच की जंग कहा था। अर्थात् चीन भाई और भारत दोस्त। उसने युद्ध में किसी का साथ नहीं दिया था। अब भारत-चीन में एक बार फिर तनाव चरम पर है और युद्ध के खतरे की बात की जा रही है, रूस अलग तरह की भूमिका में दिख रहा है।

इसका एक बड़ा कारण यह है कि अमेरिका कोविड-19 के बाद आर्थिक रूप से मुश्किल दौर से गुज़र रहा है और उसकी महाशक्ति की भूमिका को के चुनौतियाँ पैदा हुई हैं। इधर भारत और चीन नयी महाशक्तियों के रूप में उभर रहे हैं और दुनिया दो ध्रुवों से बाहर निकलकर बहु ध्रुवीय हो चुकी है। चीन से अमेरिका खार खाता है और वह एशिया प्रशांत क्षेत्र में अपना दबदबा कायम रखना चाहता है। चीन उसे चुनौती दे रहा है, जबकि भारत अमेरिका के साथ खड़ा दिखता है। चीन के भारत के साथ टकराव का यह भी एक बड़ा कारण है।

उधर रूस अपने स्तर पर विश्व में अपनी पुरानी पहचान कायम करने की कोशिश में जी-जान से जुटा है। वह भारत के साथ अपने पुराने सम्बन्धों के कारण बिगाड़ नहीं करना चाहता। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और प्रधानमंत्री मोदी की दोस्ती के कारण पिछले एक साल में भले भारत ने अमेरिका से हथियार खरीदने को प्रमुखता दी है, रूस से भारत के हथियार खरीदी सबसे ज़्यादा रही है। रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि रूस नहीं चाहता चीन और भारत के बीच युद्ध हो। यह कहा जाता है कि डोकलाम में तनाव काम करवाने में रूस की भूमिका रही थी। भले रूस खुलकर सामने न आये, वह चीन और भारत के बीच तनाव कम करने में बड़ी भूमिका निभा सकता है। भले रूस चीन के खिलाफ न जाए, वह भारत के हाल में खरीदे 12 सुखोई-30 एमकेआई और 21 मिग-29 की शीघ्र आपूर्ति करने की बचनवद्धता जता चुका है। इसके बावजूद यह एक तथ्य है कि चीन के साथ रूस के घनिष्ठ सम्बन्ध हैं।

चीन आज की तारीख में रूस से कहीं ज़्यादा आर्थिक सम्पन्न देश है और वह अमेरिका के मुकाबले खुद को इकलौती दूसरी महाशक्ति मानता है। भारत ही उसकी इस महत्त्वाकांक्षा के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा माना जाता है। इसके बावजूद अकेला रूस ऐसा देश है, जिसकी बात चीन मान सकता है। इसका कारण दुनिया में कोविड-19 के बाद बदली परिस्थिति है, जिसमें चीन को पश्चिम के देशों का बड़े पैमाने पर विरोध सहना पड़ा है। ऐसे में रूस उसके लिए आज भी बहुत अहम है।

हालाँकि इसके बावजूद रूस और चीन के बीच अविश्वास की रेखा है। दमेंस्की द्वीप को लेकर 2000 के समझौते के बावजूद रूस चीन को लेकर सजग रहता है। हाल में यह खबरें आयी हैं कि चीन रूस की जासूसी में लिप्त रहा है। यह भी खबरें हैं कि इससे नाराज़ रूस ने चीन को एस-400 मिसाइल की सप्लाई पर फिलहाल रोक लगा दी। बहुत कम सम्भावना है; लेकिन किसी बड़े कारण से रूस और अमेरिका की दोस्ती हो जाती है, तो चीन बड़े संकट में फँस जाएगा।

डोनाल्ड ट्रंप जब राष्ट्रपति बने थे, तब अमेरिका में यह आरोप लगा था कि रूस की एजेंसी केजीबी ने ट्रंप की मदद राष्ट्रपति बनने में की थी। दूसरा रूस के रणनीतिकार चीन के अति महत्त्वाकांक्षी होने के कारण भविष्य में उसे अपने लिए खतरा मानते हैं। ऐसे में रूस की भारत के प्रति भावना सहयोगी वाली दिखती है। वह भारत को कमज़ोर नहीं होने देना चाहता; क्योंकि भारत चीन के लिए आर्थिक और सामरिक रूप से बड़ी चुनौती है। रूस हमेशा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भारत की तरफदारी करता रहा है। रूस जानता है कि चीन जितना ज़्यादा मज़बूत होगा, खुद रूस की स्थिति इससे कमज़ोर होगी। भारत के मामले में ऐसा नहीं है। इसका कारण भारत का विस्तारवादी नहीं होना और यहाँ लोकतंत्र होना है। शायद यही कारण है कि रूस हाल में चीन और भारत के बीच मध्यस्थता के लिए उत्सुक दिखा है, भले परदे के पीछे से।

भारत की रणनीति

एक तरफ जहाँ भारत ने चीन से मुकाबले के लिए सीमा के नज़दीक अपनी तैयारियाँ तेज़ की हैं, वहीं अन्य देशों से भी सहयोग के लिए सम्पर्क साधा है। जापान के साथ भारत के कुछ रक्षा समझौते हुए हैं। सीमा पर भारत सैन्य स्तर पर भी अपनी स्थिति मज़बूत करने में लगा है। सितंबर में भारत ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पर छ: नयी ऊँचाइयों तक पहुँच बनाकर चीन को परेशान कर दिया है। ऊँचाई युद्ध की स्थिति में बढ़त मानी जाती है। मगर हिल, गुरुंग हिल, रेचिन ला, रेजांग ला, मोखपरी और फिंगर चार के पास की ऊँचाइयों पर भारत के जवान मौज़ूद हैं। यह सभी चोटियाँ एलएसी के इस पार हैं।

एलएसी के इस पार भारत की इस चतुराई ने ही चीन को क्रोधित किया है। चोटियों पर डेरा जमा लेने के बाद बौखलाये चीन ने करीब 2800 अतिरिक्‍त सैनिकों की तैनाती रेजांग ला और रेचिन ला के पास कर दी। इसमें पीएलए की इन्‍फैंट्री और आम्र्ड यूनिट्स के जवान शामिल हैं। चीन ने सेना की मोल्‍दो यूनिट को पूरी तरह सक्रिय कर दिया गया है। विशेषज्ञों के मुताबिक, हाल के हफ्तों में चीनी सेना ने सैनिकों की संख्‍या बढ़ायी है। भारत की भी इस पर नज़र है।

भारत ने मैदान में रणनीति के लिए सेना के अलावा राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को ऑपरेशन की मॉनिटरिंग के मोर्चे पर लगाया है। सीडीएस जनरल बिपिन रावत और सेना प्रमुख जनरल मनोज मुकुंद नरवणे इसकी अगुवाई कर रहे हैं। बैठकों के अलावा यह तिकड़ी चीन के कदमों पर भी नज़र रखे हैं। सीमा पर लद्दाख क्षेत्र में चीन की टक्कर की सेना तैनात की गयी है और हथियारों को भी मोर्चे तक पहुँचाया गया है।

चीन के सरकारी मुख पत्र ग्लोबल टाइम्स के प्रचारक का मुकाबला करने के लिए भारत ने भी हाल में सीमा पर अपनी तैयारियों को मीडिया के ज़रिये सामने लाया है। पहले इस तरह की तैयारी बहुत ही सीक्रेट रखी जाती थी; लेकिन मनोवैज्ञानिक बढ़त के इस ज़माने में यह भी अब होने लगा है। यही नहीं, हल में चीन ने पहली बार यह स्वीकार किया है कि गलवान घाटी की झड़प में उसके सैनिकों की भी मौत हुई थी। चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने स्वीकार किया है कि गलवान घाटी में चीन की सेना को नुकसान पहुँचा था और कुछ जवानों की जान गयी थी; हालाँकि अखबार के मुख्य संपादक हू शिजिन ने एक ट्वीट में यह भी कहा कि जहाँ तक मुझे पता है, गलवान घाटी की झड़प में चीनी सेना के जवानों की मरने वाली संख्या भारत के 20 के आँकड़े से कम थी। उन्होंने कहा कि भारत ने चीन के किसी सैनिक को बंदी नहीं बनाया, जबकि चीन ने उस दिन ऐसा किया था।

भारत का तिब्बत कार्ड

पिछले दिनों भारत ने एक विशेष सैन्य टुकड़ी ‘स्पेशल फ्रंटियर फोर्स’ के तिब्बती सैनिक के शहीद होने पर बाकायदा उसकी देह को भारत और तिब्बत के झंडे में लपेटकर अंतिम विदाई दी गयी। भारत की यह तिब्बत रणनीति चीन को परेशान करने के लिए है। चीन इससे परेशान हुआ भी है। तिब्बत निश्चित ही चीन की सबसे कमज़ोर नस है। तिब्बत चीन के लिए दीवार की तरह है। अगर वह मज़बूत है, तो चीन सुरक्षित है, अन्यथा नहीं। भारत ने तिब्बत के रूप में एक गोला फेंका है, जिसकी चिंगारी चीन को भस्म कर सकती है। इससे परेशान चीन ने अब भारत के खिलाफ लड़ाई के लिए तिब्बती फोर्स तैयार करने की तैयारी कर ली है। यह अलग बात है कि चीनी दमन से तिब्बत में बड़े पैमाने पर आक्रोश है और यह विस्फोट चीन को भारी पड़ सकता है। हालाँकि भारत ने तिब्बती फोर्स के शहीद सैनिक को सम्मान देकर और भारत-तिब्बत के साझे झंडे में लपेटकर अंतिम संस्कार के लिए ले जाकर चीन को परेशानी में डाल दिया है। भारत की स्पेशल फ्रंटियर फोर्स में तिब्बती ही हैं, जो अपने देश को आज़ाद करने के संकल्प के लिए कुर्बानियाँ दे रहे हैं। सीमा के उस पार भी उसी नस्ल और क्षेत्र के तिब्बती हैं। अन्तर इतना-सा है कि वह चीन के चंगुल में हैं और ये लोग चीन के चंगुल से आज़ाद हैं। इस बात की पूरी आशंका है कि कहीं यह युद्ध भारत चीन की लपेट में तिब्बत स्वतंत्रता संग्राम के रूप में न बदल जाए। तिब्बती भारत को जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गाँधी और आज तक बहुत उम्मीद से देखते रहे हैं। तिब्बत की निर्वासित सरकार को नेहरू के कांग्रेस राज में हिमाचल के धर्मशाला में बसाया गया था। वहाँ उनका पूरा खयाल रखा जाता है।

क्या अमेरिका देगा भारत का साथ 

कुछ महीने बाद अमेरिका में राष्ट्रपति पद के चुनाव हैं। ऐसे में इन सर्दियों में यदि चीन ने भारत के साथ सैन्य टकराव का फैसला किया, तो क्या अमेरिका भारत का साथ देगा? यह सवाल सभी के ज़ेहन में है। उच्च स्तर पर यह बात बहुत शिद्दत से महसूस की जा रही है कि यदि चीन ने भारत के साथ युद्ध की शुरुआत की, तो अमेरिका भारत के साथ आ खड़ा होगा। इसका एक बड़ा कारण प्रधानमंत्री मोदी की डोनाल्ड ट्रंप से दोस्ती है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा होगा? इसे लेकर जानकारों की अपनी-अपनी राय है। ज़्यादातर का यह मानना है कि ट्रंप क्या फैसला करेंगे? यह एक अनिश्चित सवाल है।

अमेरिका को लेकर बहुत-से जानकार यह भी कहते हैं कि वह जिस देश में एक बार चला जाता है, वहाँ से आसानी से वापस नहीं जाता। बहुत काम लोगों को यह मालूम होगा कि अमेरिका के 42 देशों में सैन्य बेस हैं। तुर्की से लेकर अफगानिस्तान तक। इन देशों में तुर्की, सीरिया, इराक, जॉर्डन, कुवैत, बहरीन, कतर, यूएई, ओमान, अफगानिस्तान, कज़ाखिस्तान, फिलीपींस, ऑस्ट्रेलिया, जिबूती, सोमालिया, बोत्सवाना, कांगो, केन्या, इथोपिया, लेबनान, ट्यूनिशिया, माली, नाइजर, चाड, सेंट्रल अफ्रीका रिपब्लिक, युगांडा, गेबॉन, कैमरून, घाना, बुर्किना फासो, सेनेगल, स्पेन, बेल्जियम, इटली, जर्मनी, ग्रीस, साइप्रस, ब्रिटेन, आयरलैंड, क्यूबा, एसिसन द्वीप (यूके), डियोगा गार्सिया (यूके) शामिल हैं। दूसरा अमेरिका अपने व्यापारिक हितों को सबसे ऊपर रखता है। अमेरिका के पास दुनिया की सबसे आधुनिक सेना और हथियार हैं। दुनिया भर के देशों की सैन्य ताकत का आकलन करने वाली ग्लोबल फायर पॉवर इंडेक्स ने 2019 में 137 देशों की सेनाओं का लेखा-जोखा जारी किया है। इसके अनुसार ताकत के मामले में अमेरिका प्रतिद्वंद्वी देश ईरान से सामरिक शक्ति के मामले में बहुत आगे है। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के मुताबिक, उसके दुनिया में 800 के करीब सैन्य ठिकाने हैं। इनमें 100 से ज़्यादा खाड़ी देश हैं, जहाँ 60 से 70 हज़ार अमेरिकी जवान तैनात हैं। पश्चिम एशिया में 70,906 अमेरिकी फौजी हैं, जबकि तुर्की में 2500, सीरिया में 2000, सऊदी अरब (संख्या पता नहीं), इराक में करीब 6000, जॉर्डन में 2795, कुवैत में 13,000, बहरीन में 7000, कतर में 7000, यूएई में  5000, ओमान में 600, जिबूती (संख्या सार्वजनिक नहीं) और भारत के पड़ोसी अफगानिस्तान में 5000 के करीब (तालिबान से समझौते के बाद) अमेरिकी सैनिक हैं। इस तरह देखा जाए, तो चीन के आसपास किसी देश में अमेरिका के सैनिक नहीं हैं। चीन से अमेरिका का जैसा छत्तीस का आँकड़ा चल रहा है; उसमें यदि वह भारत का साथ देता है, तो उसे अपने सैनिक भारत में उतारने होंगे। सैन्य विशेषज्ञों के मुताबिक, वह हमारे एयरबेस भी इस्तेमाल के लिए लेगा। युद्ध में मदद की स्थिति में अमेरिका भारत के सामने कुछ एयरबेस और अपने कुछ सैनिक स्थायी रूप से यही रखने की शर्त रख सकता है। भारत ऐसा करना पसन्द करेगा या नहीं, यह देखने वाली बात होगी। लेकिन उससे पहले बड़ा सवाल यह है कि मदद के मामले में अमेरिका का रुख रहेगा क्या? राष्ट्रपति ट्रंप को लेकर सभी जानकार मानते हैं कि ट्रंप व्यापारिक समझौतों को सबसे ऊपर रखते हैं। अभी से यह कहा जाने लगा है कि यदि ट्रंप दोबारा सत्ता में आते हैं, तो हो सकता है कि चुनाव के बाद वह चीन के साथ व्यापार के समझौते करने में रुचि दिखाएँ। हाल में संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी दूत रहे बॉल्टन ने हल में कहा था कि ट्रंप निश्चित रूप से भारत का साथ देंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं। ट्रंप भारत-चीन के इतिहास के बारे में लगभग अनभिज्ञ हैं और सिर्फ चार महीने बाद एक मुश्किल चुनाव उनके सामने है। वह खुद को युद्ध में किसी सूरत में नहीं फँसाना चाहेंगे। वैसे अमेरिका के पूर्व उप प्रमुख सचिव एलिस वेल्स ने हाल में कहा था कि चीन जिस तरह भारत की संप्रभुता के खिलाफ हमले कर रहा है, ऐसे में अमेरिका भारत का साथ देने आगे आयेगा। दूसरे अमेरिका के मदद लेने के लिए भारत को उसके गुट में शामिल होना होगा। अभी तक कांग्रेस की सरकारें वैश्विक स्तर पर भारत को एक निष्पक्ष देश के रूप में बनाये रखने में सफल रही हैं। इंदिरा गाँधी के ज़माने में रूस से भारत की दोस्ती और अमेरिका की तत्कालीन सत्ता से गहरे मतभेद थे; लेकिन तब भी भारत रूस के ब्लॉक का देश नहीं माना जाता था।

सुरक्षा की सुरंग: हिमाचल के रोहतांग में बनी अटल सुरंग का है सामरिक महत्त्व, 3 अक्टूबर को प्रधानमंत्री करेंगे उद्घाटन

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने इसका सपना देखा, अटल बिहारी वाजपेयी ने मंज़ूरी दी, सोनिया गाँधी ने आधारशिला रखी और अब जल्दी ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 3 अक्टूबर को इसका उद्घाटन करेंगे। वक्त कुछ लम्बा खिंचा; लेकिन लद्दाख के लिए सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अटल टनल अब हिमाचल के रोहतांग में बनकर तैयार है। चीन के साथ सैन्य तनाव के बीच इस सुरंग का बनकर तैयार होना भारतीय सेना के लिए एक सुखद खबर है। भले यह सुरंग नागरिक इस्तेमाल के लिए भी है, इमरजेंसी में रसद लेह-लद्दाख ले जाने के लिए भारतीय सुरक्षा बलों को अब एक कम दूरी वाला मार्ग मिल गया है। यह इसलिए भी बहुत महत्त्वपूर्ण है कि बर्फबारी में यह रास्ता पहले महीनों बन्द रहता था; लेकिन अब साल भर खुला रहेगा। ज़ाहिर है कि आम जनता के लिए भी ज़िन्दगी यहाँ सुगम होने जा रही है।

पिछले साल के आखिर में प्रधानमंत्री मोदी ने अटल बिहारी वाजपेयी की 95वीं जयंती के अवसर पर घोषणा की थी कि इस सुरंग का नाम अटल सुरंग होगा। करीब 9.02 किलोमीटर लम्बी 3000 मीटर की ऊँचाई पर बनी  यह सुरंग दुनिया की सबसे लम्बी सुरंग है। प्रधानमंत्री मोदी 3 अक्टूबर को इसे राष्ट्र को समर्पित करने वाले हैं। सुरंग पूरी होने पर सभी मौसम में लाहुल स्पीति घाटी के सुदूर इलाकों में सम्पर्क सुगम हो जाएगा। यही नहीं इस सुरंग के शुरू होने से मनाली और लेह के बीच की दूरी 46 किलोमीटर कम हो जाएगी। यह आम जनता ही नहीं सेना के लिए भी बहुत लाभकारी होगी।

रोहतांग दर्रे के नीचे रणनीतिक रूप से अहम एक सुरंग बनाने की कल्पना इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री रहते ही कर ली गयी थी। इसे मंज़ूरी मिली सन् 2000 में, जब अटल बिहारी देश के प्रधानमंत्री थे। वाजपेयी ने सुंरग के दक्षिणी हिस्‍से को जोडऩे वाली सड़क की आधारशिला 26 मई, 2002 को रखी। इसके बाद जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार बनी तो 2010 में सुरंग की भी आधारशिला रख दी गयी। यह आधारशिला यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने रखी, जिसके बाद सुरंग का निर्माण शुरू हो गया। तब इस सुरंग की अनुमानित लागत राशि 1500 करोड़ रुपये थी और इसे 2015 तक तैयार करने का लक्ष्य रखा गया था। हालाँकि बीच में कई तरह की अड़चनें आने से इसका लक्ष्य आगे खिसक गया। अड़चन का सबसे कारण था, सेरी नाले में रिसाव होना। इससे चलते इंजीनियरों ने यह लक्ष्य पाँच साल आगे बढ़ा दिया। बनते-बनते इसकी लागत भी बढ़कर करीब 3500 करोड़ रुपये पहुँच गयी।

यही नहीं, शुरू में इसकी लम्बाई भी 8.8 किलोमीटर थी, जो अब 9.02 किलोमीटर हो गयी है।  इसका कारण सुरंग के दोनों छोर पर एवलांच विरोधी सुरंग बनना है। इसके कार सुरंग की लम्बाई 220 मीटर बढ़ गयी है। अर्थात पहले यह 8800 मीटर लम्बी थी, जबकि अब यह 9020 मीटर लम्बी हो गयी है। यह क्षेत्र सड़क और पुल के लिहाज़ से सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) के तहत है। हाल में बीआरओ के बड़े अधिकारी सुरंग के निर्माण के तमाम पहलुओं का जायज़ा ले चुके हैं। बीआरओ के डीजी लेफ्टिनेंट जनरल हरपाल सिंह ने फोन पर ‘तहलका’ से बातचीत में कहा कि केंद्र सरकार की मदद से बीआरओ ने समय-समय पर ज़रूरी सामान उपलब्‍ध करवाया है। सभी के सहयोग से कार्य समय पर पूरा हुआ है। देश के लिए यह सुरंग एक बहुत महत्त्वपूर्ण प्रोजेक्ट है। निश्चित ही अटल सुरंग के निर्माण के रूप में बीआरओ के नाम एक ओर बड़ी उपलव्धि जुडऩे जा रही है। बीआरओ के खाते में इतनी उपलब्धियाँ हैं, जिनकी गिनती करना भी मुश्किल है। बीआरओ के रोहतांग सुरंग परियोजना के चीफ इंजीनियर के.पी. पुरशोथमन ने बताया कि बीआरओ ने अधिकतर कार्य पूरा करने में सफलता पायी है। सुरंग के नॉर्थ पोर्टल सहित दारचा में भव्य पुल बनकर तैयार है।

पूर्वी पीर पंजाल की पर्वत शृंखला में बनी 9.02 किलोमीटर लम्बी यह सुरंग लेह-मनाली राजमार्ग पर है। यह करीब 10.5 मीटर चौड़ी और 5.52 मीटर ऊँची है। सीमा सड़क संगठन ने साल 2009 में शापूरजी पोलोनजी समूह की कम्पनी एफकॉन और ऑस्ट्रिया की कम्पनी स्टारबैग के संयुक्त उपक्रम को इस टनल के निर्माण का ठेका दिया। सुरंग के निर्माण किस कदर बड़े पैमाने पर था, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि एफकॉन ने इस सुरंग के निर्माण में करीब 150 इंजीनियरों और एक हज़ार श्रमिकों को लगाया। एफकॉन के हाइड्रो एंड अंडरग्राउंड बिजनेस निदेशक सतीश परेटकर ने कहा कि यह सुरंग घोड़े के नाल के आकार की है और इसने भारत के इंजीनियरिंग इतिहास में कई कीर्तिमान रचे हैं। इसमें बहुत-से ऐसे काम हैं, जो सुरंग के लिहाज़ से देश में पहली बार हुए हैं।

बता दें अटल सुरंग में डबल लेन सड़क होगी। समुद्र तल से करीब 10 हज़ार फीट की ऊँचाई पर बनी दुनिया की सबसे लम्बी वाहन योग्य सुरंग है। यह देश की पहली ऐसी सुरंग होगी, जिसमें मुख्य सुरंग के भीतर ही बचाव सुरंग भी बनायी गयी है। इससे इसके महत्त्व को समझा जा सकता है। परेटकर के मुताबिक, यह पहली ऐसी सुरंग है, जिसमें रोवा फ्लायर टेक्नोलॉजी का उपयोग किया गया है। उन्होंने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘यह तकनीक विपरीत स्थिति में इंजीनियरों को काम करने में सक्षम बनाती है।’

यह सुरंग 2015 में ही बनकर तैयार हो जाती, यदि सेरी नाला ने समस्याएँ खड़ी नहीं की होतीं। सुरंग निर्माण में देरी की मुख्य वजह 410 मीटर लम्बा सेरी नाला है। यह नाला हर सेकेंड 125 लीटर से अधिक पानी निकालता है। सेरी नाला क्षेत्र में ही सुरंग का दक्षिणी द्वार पड़ता है। कमज़ोर भू-वैज्ञानिक परिस्थितियों के चलते इंजीनियरों को इस क्षेत्र में कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। इसकी वजह से बार-बार सुरंग का दरवाज़ा बन्द हो जाता था।

लगातार बैठकें

कुछ समय पहले बीआरओ के डीजी लेफ्टिनेंट जनरल हरपाल सिंह ने अटल रोहतांग सुरंग के कार्य का जायज़ा लिया था। उन्होंने लगातार सोलंगनाला में बीआरओ रोहतांग सुरंग परियोजना के मुख्यालय में अधिकारियों के साथ बैठकें की हैं। डीजी ने दक्षिण और उत्तर छोर का दौरा किया और कार्य में जुटी स्ट्रॉबेग एफकॉन और समेक कम्पनी के अधिकारियों से भी चर्चा की है। उद्घाटन से पहले वहाँ पूरी तैयारियाँ की गयी हैं। बीआरओ रोहतांग सुरंग परियोजना के चीफ इंजीनियर के.पी. पुरशोथमन डीजी को सुरंग के निर्माण कार्य की लगातार जानकारी देते रहे हैं। बीआरओ दीपक परियोजना के चीफ इंजीनियर एमएस बाघी, कर्नल शशि चौहान, कर्नल उमा शंकर, कर्नल प्रेम जीत, स्ट्रॅाबेग, एफकॉन के प्रोजैक्ट मैनेजर सुनील त्यागी और कम्पनी अधिकारी राजेश अरोड़ा लगातार बैठकों में हिस्सा लेते रहे हैं। उनका कहना है कि सुरंग पूरी तरह राष्ट्र को सौंपे जाने के लिए तैयार है।

सुरंग का सफर

रोहतांग टनल परियोजना पर पहली बार साल 1983 में चर्चा की गयी थी। मई, 1990 में रोहतांग पास पर सुरंग के लिए एक स्टडी की गयी। परियोजना को तकनीकी मंज़ूरी सन् 2003 में मिली, जब वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। स्टडी के आधार पर परियोजना के लिए भू-वैज्ञानिक रिपोर्ट सन् 2004 में प्रस्तुत की गयी। यूपीए की सरकार में सन् 2005 में सुरक्षा पर कैबिनेट कमेटी ने इसे मंज़ूरी प्रदान कर दी। डिजाइन से जुड़ी रिपोर्ट को दिसंबर, 2006 में प्रस्तुत किया गया।  जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। सन् 2007 में सुरंग निर्माण के लिए टेंडर जारी किये गये, जबकि सन् 2010 में यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने रोहतांग सुरंग प्रोजेक्ट का शिलान्यास किया, जिसके बाद उसका निर्माण कार्य शुरू हो गया। करीब 10 हज़ार फुट की ऊँचाई और किसी हाईवे पर बनी यह एकमात्र सबसे लम्बी सुरंग है। इस सुरंग का सामरिक महत्त्व इसे और महत्त्वपूर्ण बना देता है। रक्षा विषेशज्ञों के मुताबिक, सुरंग के निर्माण से भारत को रणनीतिक तौर पर बढ़त मिलेगी। हिमाचल प्रदेश के लिहाज़ से भी यह सुरंग काफी अहम है। हिमाचल और लद्दाख से साल भर अब सड़क सम्पर्क बना रह सकेगा, जो सबसे ज़्यादा सेना के काम आयेगा। इस सुरंग में 15 अक्‍टूबर, 2017 को दोनों छोर तक सड़क निर्माण पूरा कर लिया गया था। वैसे बहुत काम लोगों को जानकारी होगी कि रोहतांग में सुरंग बनाने का सबसे पहले विचार 160 साल पहले आया था। सुरंग का डिजाइन तैयार करने वाली ऑस्ट्रेलियाई कम्पनी स्नोई माउंटेन इंजीनियरिंग ने अपनी वेबसाइट में दावा किया है कि रोहतांग दर्रे पर सुरंग बनाने का पहला विचार 1860 में मोरावियन मिशन ने रखा था। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में रोहतांग दर्रे पर रोप-वे बनाने का प्रस्ताव आया था। हालाँकि मनाली-लेह के बीच साल भर कनेक्टिविटी वाली सड़क निर्माण की परियोजना इंदिरा गाँधी की सरकार के समय बनी।

लाहुल के लोग खुश

सामरिक दृष्टि से अहम रहने वाली रोहतांग सुरंग कबाईली ज़िले लाहुल स्पीति के शून्य से नीचे के तापमान में रहने वाले हज़ारों लोगों के लिए एक नयी सौगात लेकर आयेगी। इस ज़िले में अब साल भर बिजली की समस्या नहीं आयेगी। भारी बर्फबारी में लाहुल क्षेत्र में हमेशा कुछ महीने कमोवेश ब्लैकआउट जैसी स्थिति बन जाती है। अब इन लोगों को सुरंग के भीतर से बिजली की लाइन पहुँचायी जाएगी। साल के आखिर तक यह काम पूरा हो जाएगा। सुरंग के भीतर बिजली लाईन बिछाने का ज़िम्मा ग्रेफ को सौंपा गया है। इसके पूरा बनने से इलाके में बिजली की सप्लाई लाइन की लम्बाई 15 किलोमीटर कम हो जाएगी।

हिमाचल के बिजली विभाग के शिमला में एक वरिष्ठ अधिकारी ने ‘तहलका’ को बताया कि सुरंग के भीतर 33 के.वी. की बिजली लाइन बिछायी जाने की योजना है। फिलहाल लाहुल के लिए रोहतांग दर्रे से होते हुए कोर-कसर और सिस्सू तक बिजली की लाइन बिछायी गयी है, जिससे लाहुल घाटी में बिजली पहुँचायी जाती है। लेकिन भारी बर्फबारी और ग्लेशियर गिरने के कारण बिजली लाइन बार-बार क्षतिग्रस्त होती है, जिससे लाहुल के दुर्गम इलाकों को बिजली सप्लाई ठप पड़ जाती है। अधिकारी के मुताबिक, बिजली लाइन सुरंग के मुहाने तक पोल के ज़रिये, जबकि आगे  पाइप के ज़रिये सुरंग के भीतर से गुज़रेगी। ज़ाहिर है इससे तार को कोई नुकसान पहुँचाने का खतरा भी खत्म हो जाएगा। अधिकारी के मुताबिक, बहुत ज़्यादा सम्भावना है कि आने वाली सर्दियों में लाहुल की जनता को बिजली की समस्या से स्थायी छुटकारा मिल जाएगा।

भविष्य की योजनाएँ

रोहतांग के बाद आगे की योजनाओं का खाका भी खींच लिया गया है। रोहतांग के बाद बारालाचा दर्रा के नीचे 11.25, ला चुगला में 14.77 और तंगलंगला में 7.32 किलोमीटर लम्बी सुरंग बनाने की तैयारी शुरू कर दी गयी है। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, बीआरओ ने फिजिबिलिटी रिपोर्ट पर काम करना शुरू कर दिया है। बता दें कि रोहतांग सुरंग से जहाँ लेह की 46 किलोमीटर की दूरी कम होगी, वहीं नयी सुरंगों सेना और आम जनता को और ज़्यादा लाभ देने वाली साबित होंगी। इनमें से बारालाचा से 19 किलोमीटर, लाचुंगला से 31और तंगलंगला से 24 किलोमीटर दूरी कम होगी। अधिकारियों ने इस संवाददाता को बताया कि जब यह सभी सुरंगे बनकर तैयार हो जाएँगी तब मनाली-लेह मार्ग की दूरी करीब 120 किलोमीटर कम हो जाएगी। निश्चित ही इस मुश्किल इलाके में यह बड़ी उपलब्धि होगी। वर्तमान में मनाली से लेह पहुँचने के लिए 14 घंटे का समय लगता है। हालाँकि रोहतांग टनल दो घंटे का सफर कम कर देगी।

इन सभी तीन प्रतावित सुरंगों के बन जाने से लेह का सफर 10 घंटे का ही रह जाएगा। सड़क के ठीक नीचे आपातकालीन सुरंग का भी निर्माण किया है। अटल सुरंग में 500 मीटर की दूरी पर आपातकालीन द्वार स्थापित किये जा रहे हैं। अत्याधुनिक तकनीक से बन रही इस सुरंग वेंटीलेशन डक्ट लगाये गये हैं। दुर्घटना होने की सूरत में यह वेंटीलेशन डक्ट दूसरे मुसाफिरों का सफर मुश्किल में नहीं पडऩे देंगे। सीसीटीवी कैमरे सुरक्षा की दृष्टि से हर गतिविधि पर नज़र रखेंगे।

अपनी तरह की अनोखी सुरंग

यह सुरंग कई मायनों में अनोखी है। इसमें प्रत्येक 150 मीटर की दूरी पर टेलीफोन लगे हैं। प्रत्येक 60 मीटर की दूरी पर अग्निरोधी यंत्र हैं जबकि हर 250 मीटर की दूरी पर ऑटोमैटिक इंसिडेंट डिटेक्टिव सिस्टम के साथ सीसीटीवी कैमरे लगे हैं। हर एक किलोमीटर के बाद हवा की गुणवत्ता बताने वाले मॉनिटर लगाये हैं तो हर 500 मीटर पर आपातकालीन निकास द्वार हैं। प्रत्येक 2.2 किलोमीटर पर गुफानुमा मोड़ हैं, ताकि बीच में ही आपको वापस मुडऩा हो तो ऐसा कर सकते हैं। इसके अलावा मनाली की तरफ से सुरंग तक पहुँचने के लिए स्नो गैलरी बनी है। सुरंग शुरू होने से पूरा साल मनाली को कनेक्टिविटी मिलती रहेगी। सुरंग के भीतर इमरजेंसी एग्जिट का निर्माण भी किया गया है। सुरंग के भीतर अधिकतम 80 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार हो सकती है। इसमें से हर रोज़ करीब 1,500 ट्रक और 3,000 कारें गुज़र सकेंगे।

जासूसी की साज़िश का पर्दाफाश

जासूसी मामले को लेकर जिस साज़िश का पर्दाफाश हुआ है, उससे साफ है कि देश को नुकसान पहुँचाने के लिए काम करने वाले अपने भी लोग हैं। वैसे जासूसी को लेकर यह नया मामला नहीं है। इसके पहले पाकिस्तान और चीन के लिए जासूसी का काम करने में पत्रकारों, अफसरों की गिरफ्तारियाँ होती रही हैं। अब चीन के लिए जासूसी करने के आरोप में स्वतंत्र पत्रकार राजीव शर्मा सहित दो विदेशियों, जिनमें एक महिला किंग शी और शेर सिंह को दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार किया है। इस मामले में कुछ पत्रकारों ने कहा कि देश में पत्रकारों के खिलाफ साज़िश का खेल चल रहा है। मीडिया के बीच दरारें पैदा करके एक पत्रकार को देश भक्त बताया जा रहा है, तो दूसरे को देशद्रोही। मौज़ूदा वक्त में मीडिया में भटकाव पैदा किया जा रहा है, जिससे मीडिया की विश्वनीयता पर सवाल उठ रहे हैं। इसके पीछे किसकी क्या मंशा है? यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा।

पीतम पुरा में जहाँ राजीव शर्मा का अपना घर है। वहाँ के निवासी भारत कपूर और हेमंत से राजीव शर्मा के बारे में तहलका संवाददाता ने पूछा तो उन्होंने बताया कि राजीव शर्मा एक पत्रकार हैं; लेकिन इस तरह की गतिविधियों में शामिल हो सकते हैं, उस पर किसी को कभी शक नहीं हुआ है। एक पत्रकार ने बताया कि राजीव शर्मा पर नज़र तबसे है, जब वह चीन अखबार ग्लोबल टाइम्स के लिए लेख लिख रहे थे। उनकी हर गतिविधि पर खुफिया एंजेसियों की नज़र थी। अगर सही मायने में राजीव शर्मा चीनी साज़िश में शामिल पाये जाते हैं, तो यह पत्रकारिता के लिए कलंक है। वैसे देखना तो यह होगा कि भारत के विरुद्ध आग उगलने वाले अखबार ग्लोबल टाइम्स में राजीव शर्मा ने अपने लेखों में क्या-क्या लिखा है? क्योंकि भारत चीन के बीच जो सीमा पर विवाद और तनाव चल रहा है। इस दौर में दोनों देशों के लिए मामूली-से-मामूली गतिविधियों पर ही नज़र रखी जा रही है। स्पेशल सेल के पुलिस उपायुक्त संजीव यादव ने बताया कि चीनी खुफिया एंजेसियों ने जनवरी, 2019 से सितंबर, 2020 के बीच राजीव शर्मा को लगभग 45 लाख रुपये दिये हैं। पत्रकार को हर सूचना के लिए 1000 डॉलर मिलते थे।

केंद्रीय खुफिया एजेंसियों ने दिल्ली पुलिस को शर्मा के बारे में जासूसी की सूचना दी थी। इसी आधार पर 14 सितंबर को पीतमपुरा से शर्मा को गिरफ्तार किया गया। बताते चलें कि राजीव किष्किंधा नाम से एक यू ट्यूब चैनल भी चलाते हैं। इस पर भारत-चीन के बीच हुई राजनयिक स्तर और मंत्रियों के वार्तालाप को वह न्यूज के ज़रिये साझा करते थे। इस समय चीन और भारत के बीच तनाव की खबरें भी उक्त पत्रकार ने चैनल पर दी हैं। वैसे यू ट्यूब चैनल चलाने वाले देश के कई और पत्रकार भी पुलिस-रडार पर हैं। दिल्ली प्रेस क्लब में पत्रकारों ने बताया कि राजीव शर्मा कई अखबारों में काम कर चुके हैं। लेकिन 2010 से वह स्वतंत्र पत्रकार के रूप में काम कर रहे हैं और तभी से चीन के मुखपत्र और प्रमुख समाचार पत्र ग्लोबल टाइम्स के लिए नियमित साप्ताहिक कॉलम लिख रहे थे। उसी दौरान चीन की खुफिया एजेंसियों ने उनसे सम्पर्क करके चीन बुलाया था और सूचना के आदान-प्रदान के लिए पैसों का लालच दिया व भारत से जुड़ी गतिविधियों को एकत्र करने वाले वहाँ के दलालों से सम्पर्क भी करवाया। तभी उसकी मुलाकात माइकल नामक एजेंट से होती है। माइकल ने पैसा देकर राजीव शर्मा को विश्वास में लेकर भारत की सीमा से जुड़ी और भारतीय सेना की जानकारी हासिल की, जानकारी सही प्राप्त होने पर उसे शर्मा पर भरोसा हो गया था। शर्मा चीनी एजेंटों के सहयोग से देश-दुनिया में घूमने जाते थे और वहीं पर मीटिंग कर भारत से जुड़ी अहम् जनकारी देते थे। धीरे-धीरे राजीव शर्मा की पकड़ चीनी एजेंटों पर मज़बूत होती जा रही थी। इसी क्रम में चीन के अन्य एजेंटों ने राजीव शर्मा से खुद सम्पर्क साधा और नेपाल के रास्ते कई बार चीन भी बुलाया फिर उसकी मुलाकात जॉर्ज नामक एजेंट से होती है। जॉर्ज ने ही दिल्ली के महिपालपुर में रहने वाले चीनी लोगों से मुलाकात करवायी, जो फर्ज़ी दवा कम्पनी चलाते हैं। फर्ज़ी कम्पनी चलाने वाली चीनी दम्पति झांगचांग और चांग ली ने अपनी कम्पनी में कार्यरत शेर सिंह और क्ंिवग शी के ज़रिये शर्मा से मुलाकात हुई, ये दोनों ही शर्मा के खाते में पैसा ट्रांसफर करते थे।

फिलहाल शर्मा के लेपटॉप की जाँच की जा रही है। शर्मा पीआईबी पत्रकार हैं, सो उनका मंत्रालयों में आना-जाना रहा है। उन्होंने रक्षा मंत्रालय की रिपोर्टिंग भी की है। इस लिहाज़ से सेना के अधिकारियों से उनका सम्पर्क भी है। अगर सही तरीके से जाँच होती है, तो सम्भव है कि नये चेहरे सामने आएँ। सम्भव है कि शर्मा जासूसी कड़ी में एक मोहरा साबित हों।

पत्रकार डी. प्रियरंजन का कहना है कि सोशल मीडिया की पहुँच बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। ऐसे में कुछ लोग यू ट्यूब चैनल चला रहे हैं। कुछ लोग पैसे के लालच में यू ट्यूब चैनल के ज़रिये दुश्मन देशों को गोपनीय जानकारियाँ मुहैया करा रहे हैं। इसलिए सरकार को यू-ट्यूब चैनल वालों पर पैनी नज़र रखनी होगी और कोई गाइडलाइन बनानी होगी, ताकि वे मनमानी न कर सकें। चौंकाने वाली बात यह है कि राजीव शर्मा ने एक पत्रकार के तौर पर दुश्मन देश को वर्षों से अहम् जानकारियाँ मुहैया करायी हैं; पर उन पर किसी की नज़र नहीं गयी। सवाल है कि क्या यह सम्भव है कि वह अकेले इस जासूसी के खेल में ही शामिल हों? या इसमें कुछ ऐसे लोग भी शामिल हैं, जिनका नाम अभी तक सबके सामने नहीं आया है या आना ही नहीं है। जानकारों का कहना है कि कई बार ऐसे मामलों की जड़ें राजनीति की ज़मीन तक जाती हैं। कहीं शर्मा उसी कड़ी का हिस्सा तो नहीं?

हिन्दू-धर्म को समझना-8: माया – एक अवास्तविक वास्तविकता

माया एक बहुत ही आकर्षक वैचारिक अवधारणा है, जिसमें असंख्य स्पष्टीकरण हैं, जो इस बात पर निर्भर करते हैं कि वो किस विचारधारा का प्रचार कर रहे हैं। विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक दृष्टिकोण से तीन मुख्य सिद्धांत हैं। एक अद्वैतवाद है, दूसरा द्वैतवाद है और तीसरा स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा सामने रखा गया है, जिसमें परमात्मा (ब्रह्म), आत्मा और प्रकृति का त्रिकोण है। माया फिर से समझने योग्य है, जब इन तीनों अवधारणाओं में से प्रत्येक को उनके प्रभाव के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न द्रष्टाओं द्वारा समझाया गया हो, तो बहुत ही वास्तविक और प्रशंसनीय लगती है और फिर भी हमेशा की तरह सार बने हुए हैं।

अद्वैत वेदांत

जीवनमुक्ता अवकाश के अनुसार, अद्वैत वेदांत एक जीवमुक्ता, या जो यहाँ और अभी मुक्त हुआ है; ने महसूस किया है कि अकेला ब्रह्म वास्तविक है और दुनिया भ्रम है। इसलिए कोई यह तर्क दे सकता है कि ब्राह्मण के अनुभव में भौतिक शरीर या उसके आसपास की दुनिया के बारे में जागरूकता नहीं होनी चाहिए। लेकिन भौतिक शरीर या संसार की निरंतरता अद्वैत वेदांत के अनुसार मुक्ति के विचार से असंगत नहीं है। लेकिन मुक्ति के बाद एक निश्चित रूप से खुद को शरीर के रूप में सोचता है। हालाँकि मुक्ति के बाद जीव महसूस करता है कि भौतिक शरीर और दुनिया में केवल एक भ्रामक उपस्थिति है। हालाँकि वो मौज़ूद प्रतीत होते हैं, जबकि वो वास्तव में मौज़ूद नहीं हैं। अद्वैत वेदांत मुक्ति के दृष्टिकोण से केवल एक दृष्टिकोण है।

चूँकि भौतिक शरीर वास्तविक नहीं है, इसका निरंतर रूप, या इसका अंतिम रूप से गायब होना, जीवनामुक्ता के लिए कोई समस्या नहीं है। जीवन्तमुक्ता के लिए शरीर और दुनिया एक सपने की तरह हैं। एक साधारण स्वप्नद्रष्टा और जीवन्मुक्ता के बीच एकमात्र अन्तर यह है कि साधारण स्वप्न देखने वाला व्यक्ति स्वप्न देखते समय यह नहीं जानता कि यह स्वप्न है। लेकिन एक जीवमुक्ता हमेशा जानता है कि वह सपने देखने वाला है।

द्वैत वेदांत

वेदांत प्रणाली का द्वैतवादी विद्यालय या द्वैत-विद्यालय, जिसे माधव द्वारा विकसित संवत् स्वतंत्रवाद भी कहा जाता है (आनंदतीर्थ के रूप में भी जाना जाता है), यह सिखाता है कि ईश्वर (सगुण ब्रह्म), व्यक्तिगत आत्माएँ (जीव) और दुनिया (जगत्) सदा से एक-दूसरे से अलग हैं और ये सभी वास्तविक हैं। अलग होने पर भी जीव ब्रह्म का हिस्सा बनते हैं। ईश्वर के सम्बन्ध में जीव एक परमाणु (अणु) की तरह है। ईश्वर स्वतंत्र है; लेकिन जीव और जगत नहीं हैं। वे भगवान पर निर्भर हैं। इस विद्यालय के अनुसार, भगवान सर्वोच्च देवता है। विष्णु, जो इस दुनिया के निर्माता, पालनकर्ता और विध्वंसक हैं; इस दुनिया का कुशल कारण हैं। जबकि मातृ प्रकृति या प्रकृति इसका भौतिक कारक है। विद्यालय जीवनमुक्ति में विश्वास नहीं करता है। आरोही क्रम में यह विद्यालय मोक्ष के चार स्तरों में विश्वास करता है- (1) सलोक्य, (2) सामीप्य, (3) सारूप्य और (4) सायुज्य।  सलोक्य मुक्ति में दिवंगत आत्मा ईश-लोक (विष्णु का वास) में जाती है और वहाँ उनकी उपस्थिति का आनंद लेते हुए रहती है। सामीप्य मुक्ति में दिवंगत आत्मा को विष्णु से अत्यधिक निकटता का आनंद मिलता है। सारूप्य मुक्ति में दिवंगत आत्मा विष्णु के रूप को प्राप्त करती है और तीव्र आनंद प्राप्त करती है। सायुज्य मुक्ति में दिवंगत आत्मा विष्णु में आनंदित हो जाती है।

स्वामी दयानंद सरस्वती ने कहा कि भगवान का कोई रूप नहीं है। वह, जिसके पास शरीर (रूप) है; भगवान नहीं हो सकता है। क्योंकि इस तरह की परिमित क्षमता, विशेष और लौकिक सीमाएँ, भूख, प्यास, पहनने और आँसू, ठण्ड और गर्मी, बुखार, बीमारियाँ आदि हो सकती हैं। केवल आत्माओं के मामले में और भगवान के नहीं। जिस तरह हम लोगों का एक रूप होता है, यानी हमारे पास शरीर होते हैं और उसी कारण से त्रि-परमाणुओं, डाय-परमाणुओं या मटेरिया-रेडिका (बेहतरीन तत्त्वों) पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। इसी तरह यदि परमेश्वर का स्थूल शरीर होता, तो उसके लिए दुनिया को उन ठीक तत्त्वों से बनाना असम्भव होता। भौतिक इंद्रिय-अंगों या हाथों, पैरों और शरीर के अन्य सदस्यों से मुक्त होने के नाते और असीम ऊर्जा, शक्ति और गतिविधि के साथ वह उन चीज़ों को कर सकता है, जो आत्मा और प्रकृति नहीं कर सकते। जैसा कि ईश्वर प्रकृति से अधिक सूक्ष्म है और इसे व्याप्त करता है; वह इसे अपनी चपेट में ले सकता है और इसे ब्रह्माण्ड में बदल सकता है।

आध्यात्मिकता के तीन अलग-अलग दृष्टिकोणों का संक्षिप्त संदर्भ देने के बाद जो माया के गूढ़ पहलू की प्रकृति में अधिक हैं, उस माया का बहुत ही आकर्षक गूढ़ चेहरा, जिसने मुझे हमेशा मंत्रमुग्ध और आश्चर्यचकित किया है, आप सबके साथ साझा करते हैं। यह सामान्य ज्ञान है कि सभी चीजें परमाणुओं से बनी होती हैं- छोटे कण जो कि गति में घूमते हैं; एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं; जब वो थोड़ी दूरी पर होते हैं। लेकिन एक-दूसरे में जोडऩे पर दोहराते हैं।

परमाणु प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन्स नामक कणों से बने होते हैं, जो परमाणुओं के द्रव्यमान और चार्ज के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। इस एक वाक्य में वैज्ञानिक ज्ञान पर सबसे मूल्यवान जानकारी परमाणु पहेली बताती है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि परमाणुओं में एक नाभिक होता है, जिसमें प्रोटॉन और न्यूट्रॉन एक साथ बँधे होते हैं। इलेक्ट्रॉन इस नाभिक गोले के चारों ओर घूमते हैं, और प्रत्येक खोल पूर्ण या प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है- प्रोटॉन की संख्या के साथ संतुलन करने के लिए; सकारात्मक और नकारात्मक चार्ज की संख्या को संतुलित करने के लिए। परमाणु एक पदार्थ की सबसे छोटी इकाई है, जो किसी तत्त्व के सभी रासायनिक गुणों को बनाये रखता है। परमाणु अणुओं को बनाने के लिए गठबन्धन करते हैं, जो तब ठोस, गैस या तरल पदार्थ बनाने के लिए मिलते हैं। उदाहरण के लिए पानी हाइड्रोजन और ऑक्सीजन परमाणुओं से बना है, जो पानी के अणुओं को बनाने के लिए साझा है। कई जैविक प्रक्रियाओं को उनके घटक परमाणुओं में अणुओं को तोडऩे के लिए समर्पित किया जाता है, ताकि उन्हें अधिक उपयोगी अणु में फिर से जोड़ा जा सके।

परमाणुओं में तीन मूल कण होते हैं- प्रोटॉन, इलेक्ट्रॉन और न्यूट्रॉन। परमाणु के नाभिक (केंद्र) में प्रोटॉन (सकारात्मक चार्ज) और न्यूट्रॉन (कोई चार्ज नहीं) होते हैं। प्रोटॉन और न्यूट्रॉन में लगभग समान द्र्रव्यमान होता है, लगभग 1.67 म 10-24 ग्राम, जिसे वैज्ञानिक एक परमाणु द्र्रव्यमान इकाई (एमू) या एक डाल्टन के रूप में परिभाषित करते हैं। परमाणु के सबसे बाहरी क्षेत्रों को इलेक्ट्रॉन गोले कहा जाता है और इसमें इलेक्ट्रॉन (नकारात्मक रूप से आवेशित) होते हैं। प्रत्येक इलेक्ट्रॉन में एक प्रोटॉन (1) के सकारात्मक चार्ज के बराबर एक नकारात्मक चार्ज (-1) होता है। न्यूट्रॉन नाभिक के भीतर पाये जाने वाले अपरिवर्तित कण हैं।

परमाणुओं में उनके मूल कणों की व्यवस्था और संख्या के आधार पर अलग-अलग गुण होते हैं। परमाणु संख्या एक तत्त्व में प्रोटॉन की संख्या है, जबकि द्र्रव्यमान संख्या प्रोटॉन की संख्या और न्यूट्रॉन की संख्या है। आइसोटोप एक तत्त्व के विभिन्न रूप हैं, जिनमें प्रोटॉन की समान संख्या होती है, लेकिन न्यूट्रॉन की एक अलग संख्या होती है। हाइड्रोजन परमाणु (एच) में केवल एक प्रोटॉन, एक इलेक्ट्रॉन और कोई न्यूट्रॉन नहीं होते हैं। यह परमाणु संख्या और तत्त्व की द्र्रव्यमान संख्या (परमाणु संख्या और द्र्रव्यमान संख्या पर अवधारणा) का उपयोग करके निर्धारित किया जा सकता है।

बिना किसी विद्युत आवेश के एक परमाणु इतना मायावी है कि जब तक एक लाख से अधिक बार मौज़ूद हैं, तब तक हमारे पास उन्हें खोजने के लिए पर्याप्त रूप से संवेदनशील साधन नहीं हैं, या इसे किसी अन्य तरीके से व्यक्त करने के लिए, एक अरब अप्रकाशित परमाणु हमारे अवलोकन से बच सकते हैं, जबकि एक दर्ज़न या तो विद्युतीकृत लोगों को कठिनाई के बिना पता चला है। आकार में इलेक्ट्रॉन एक परमाणु के समान सम्बन्ध रखता है, जो कि पृथ्वी की तुलना में एक बेसबॉल है। या जैसा कि एक वैज्ञानिक कहता है, अगर एक हाइड्रोजन परमाणु को एक चर्च के आकार में बढ़ाया जाता था, तो एक इलेक्ट्रॉन उस चर्च में धूल का एक गोला होगा।

इलेक्ट्रॉनों की खोज के तुरन्त बाद यह सोचा गया था कि परमाणु छोटे सौर मंडल की तरह थे, एक नाभिक और इलेक्ट्रॉनों से बने होते हैं, जो सूर्य के चारों ओर ग्रहों की तरह कक्षाओं में घूमते हैं। यह पहचान लें कि आपके शरीर को बनाने वाले बहुत अणु, जो परमाणु का निर्माण करते हैं; जो कभी उच्च द्रव्यमान वाले सितारों के केंद्र होते थे; जो अपनी रासायनिक रूप से समृद्ध गैसों को आकाशगंगा में विस्फोट करते थे; प्राचीन गैस बादलों को ज़िन्दगी के रसायन विज्ञान के साथ समृद्ध करते थे। ताकि हम सभी एक-दूसरे से जैविक रूप से, पृथ्वी से रासायनिक और शेष ब्रह्माण्ड से परमाणु रूप से जुड़े रहें। यह मुझे मुस्कुराने के लिए मजबूर करता है और मैं वास्तव में उसके अन्त में काफी बड़ा महसूस करता हूँ। ऐसा नहीं है कि हम ब्रह्माण्ड से बेहतर हैं, हम ब्रह्माण्ड का हिस्सा हैं। हम ब्रह्माण्ड में हैं और ब्रह्माण्ड हम में है। यह कहना कि दो परमाणुओं में से प्रत्येक इलेक्ट्रॉन के जोड़े को साझा करके बन्द इलेक्ट्रॉन के गोले प्राप्त कर सकता है। यह वैसा ही है, जैसा पति और पत्नी के संयुक्त खाते में कुल दो लाख रुपये हैं और यदि प्रत्येक के पास व्यक्तिगत बैंक खाते में छ:-छ: लाख रुपये हैं, तो यह मतलब हुआ कि व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक के पास आठ लाख रुपये हैं। यदि सीसा धातु के डेसीमीटर के क्यूब में परमाणुओं को एक समान दूरी पर यदि एक शृंखला में रखा जाए, जैसे कि वे सामान्य सीसा धातु में होते हैं, तो परमाणुओं के तार छ: मिलियन मील की दूरी पर पहुँच जाएँगे। यदि अणु संरचनात्मक रूप से समान हो सकते हैं और अभी तक असमान गुणों के साथ हो सकते हैं, तो यह केवल इस आधार पर समझाया जा सकता है कि यह अन्तर अंतरिक्ष में परमाणुओं की एक अलग व्यवस्था के कारण है।

यह कभी मत मानो कि परमाणु एक जटिल रहस्य है; ऐसा नहीं है। परमाणु वह है, जिसे हम प्रकृति में अंतर्निहित वास्तुकला की तलाश में रखते हैं, जिसकी ईंटें कम-से-कम, यथासम्भव सरल और व्यवस्थित हैं। जैसा कि हम इस शृंखला के माध्यम से परमाणुओं की अदृश्य दुनिया को समझ रहे हैं और अधिक रहस्योद्घाटन करते हैं कि यह छिपा कारण एक दृश्य प्रभाव कैसे पैदा करता है। वर्तमान में कोरोना महामारी के अच्छे और बुरे प्रभावों को दुनिया भर में महसूस किया जा रहा है। इन घटनाओं की यह शृंखला माया की मायावी दुनिया को आकर्षक बनाने के लिए उपयुक्त होगी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी : स्वतंत्र भारत के सबसे परिवर्तनकारी नेतृत्वकर्ता

विश्व के सबसे अधिक जनसमर्थन वाले प्रधानमंत्री, महात्मा गाँधी और सरदार पटेल की भूमि गुजरात के लाल नरेंद्र मोदी अपनी पुस्तक ‘पुष्पांजलि ज्योतिपुंज’ में लिखते हैं- ‘संसार में उन्हीं मनुष्यों का जन्म धन्य है, जो परोपकार और सेवा के लिए अपने जीवन का कुछ भाग अथवा सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर पाते हैं।’ अपनी रचना में उन्होंने राष्ट्र सर्वोपरि को जीवन का मूलमंत्र मानने वाले तपस्वी मनीषियों का पुण्य-स्मरण करते हुए जन्म से मरण तक आद्योपांत व्यक्ति के सामाजिक और राष्ट्र के प्रति दायित्व का बोध कराया है। सच तो यह है कि उन्होंने इस बोध के साथ स्वयं के जीवन को भी आलोकित किया है, जीया है। नरेंद्र मोदी का जीवन दर्शन और जीवन दृश्य महात्मा गाँधी के सदृश श्रेष्ठतम है। गाँधीजी के मानवता, समानता और समावेशी विकास के सिद्धांतों पर चलकर उन्होंने भारत के अब तक के सबसे जनप्रिय प्रधानमंत्री होने का गौरव प्राप्त किया है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में जन सेवा और राष्ट्र धर्म का उन्होंने जो अनुपम आदर्श स्थापित किया है, भारत के सुनहरे भविष्य के लिए अभिनंदनीय है।

जवाहरलाल नेहरू इंदिरा गाँधी और मनमोहन सिंह के बाद चौथे सबसे अधिक समयावधि तक और सबसे अधिक समयावधि तक गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री हैं, जिनका जन्म आज़ादी के बाद हुआ है। ऊर्जावान, समर्पित एवं दृढ़ निश्चयी नरेंद्र मोदी 138 करोड़ भारतीयों की आकांक्षाओं और आशाओं के द्योतक हैं। नव भारत के निर्माण की नींव रखने वाले नरेन्द्र मोदी करोड़ों भारतीयों की उम्मीदों का चेहरा हैं। 26 मई, 2014 से प्रधानमंत्री पद सँभालने के बाद देश को विकास उस शिखर पर ले जाने के लिए वह अग्रसर हैं। पंडित दीन दयाल उपाध्याय के दर्शन से प्रेरणा लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के अंतिम पायदान पर खड़े एक-एक व्यक्ति के पूर्ण विकास को 24 घंटे सातो दिन समर्पित हैं। आज 17 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 70 वर्ष के हो गये। भाजपा इस दिवस को सेवा दिवस और 14 सितंबर से 20 सितंबर तक सेवा सप्ताह के रूप में मनाती है। उन्होंने स्वयं कहा है कि मैं देश का प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि देश का प्रधान सेवक हूँ।

17 सितंबर, 1950 को दामोदरदास मोदी और हीराबा के घर जन्मे नरेंद्र मोदी का बचपन राष्ट्र सेवा की एक ऐसी विनम्र शुरुआत, जो यात्रा अध्ययन और आध्यात्मिकता के जीवंत केंद्र गुजरात के मेहसाणा ज़िले के वडऩगर की गलियों से शुरू होती है। 17 वर्ष की आयु में सामान्यत: बच्चे अपने भविष्य के बारे में और बचपन के इस आखरी पड़ाव का आनंद लेने के बारे में सोचते हैं; लेकिन नरेंद्र मोदी के लिए यह अवस्था पूर्णत: अलग थी। उस आयु में उन्होंने एक असाधारण निर्णय लिया, जिसने उनका जीवन बदल दिया। उन्होंने घर छोडऩे और देश भर में भ्रमण करने का निर्णय कर लिया। स्वामी विवेकानंद की भान्ति उन्होंने भारत के विशाल भू-भाग में यात्राएँ कीं और देश के विभिन्न भागों की विभिन्न संस्कृतियों को अनुभव किया। यह उनके लिए आध्यात्मिक जागृति का समय था और देश के जन-जन की समस्यायों से अवगत होने का भी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक होते हुए उन्हें संगठन कौशल और सेवा धर्म के मर्म और महत्त्व को समझने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अपने व्यस्त दिनचर्या के बीच उन्होंने राजनीति विज्ञान में अपनी डिग्री पूर्ण की। शिक्षा और अध्ययन को उन्होंने सदैव महत्त्वपूर्ण माना। प्रधानमंत्री के रूप में उनकी वाणी और उनकी नीति में इसकी स्पष्ट झलक मिलती है।

7 अक्टूबर, 2001 को नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी। 12 वर्षों में गुजरात में हुए अभूतपूर्व एवं समग्र विकास के आधार पर न केवल भारतीय जनता पार्टी, यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार और नीतिगत पंगुता से त्रस्त पूरे देश ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के एकमात्र विकल्प के रूप में स्वीकार्यता दिलायी। 26 मई 2014 को उनके नेतृत्व में पहली बार किसी गैर-कांग्रेसी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत मिला और वे देश के 15वें प्रधानमंत्री बने। सबका साथ, सबका विकास और एक भारत श्रेष्ठ के मूलमंत्र से उन्होंने देश का जो अभूतपूर्व सर्वांगीण विकास किया, इससे उन्होंने जन-जन के हृदय में अपनी जगह बनायी। जनता-जनार्दन के आशीर्वाद से 2019 के आम चुनाव में उन्हें ऐतिहासिक समर्थन मिला और 30 मई, 2019 को दूसरी बार भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। एक प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की अंतर्दृष्टि, संवेदना, कर्मठता, राष्ट्रदर्शन व सामाजिक सरोकार स्वतंत्र भारत के अब तक के इतिहास में अद्वितीय है। वह जन-जन के प्रिय हैं। उनका ध्येय राष्ट्र है।

मई, 2014 से लेकर सितंबर, 2020 के छ: साल साढ़े तीन महीने के अपने रिकॉर्ड प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल में उन्होंने जन सेवा और राष्ट्र धर्म के जो मानक स्थापित किये हैं, भारतीय राष्ट्र के बेहतर भविष्य के लिए शुभंकर साबित होने वाला है। 14 अप्रैल को उन्होंने कोरोना वायरस को लेकर राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए यजुर्वेद के एक श्लोक का उल्लेख किया था- ‘वयं राष्ट्रे जागृत्य’, अर्थात् हम सभी अपने राष्ट्र को शाश्वत् और जागृत रखेंगे। आज यह पूरे राष्ट्र का, जन-जीवन का संकल्प बन चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नागरिक और राष्ट्र के प्रति सेवा धर्म का जो कर्तव्यपथ तैयार किया है, सम्पूर्ण भारत उनके समक्ष करवद्ध खड़ा है। लेकिन यह राह कम चुनौतयों से भरा नहीं रहा है। आज कोरोना वायरस के दौर में अपेक्षाकृत कम चिकित्सा सुविधा होने के बावजूद उनके नेतृत्व में भारत विश्व में कहीं बेहतर ढंग से इस महामारी से लड़ रहा है।

प्रधानमंत्री मानवता की सेवा में अब तक 103 करोड़ रुपये अपने व्यक्तिगत फण्ड से दे चुके हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान मिले सभी उपहारों की नीलामी करके मिले 89.96 करोड़ रुपये को कन्या केलवनी फण्ड में दिये थे। 2014 में प्रधानमंत्री के रूप में पदभार सँभालने से पहले उन्होंने गुजरात सरकार के कर्मचारियों की बेटियों की पढ़ाई के लिए अपने निजी बचत के 21 लाख रुपये दे दिये। 2015 में मिले उपहारों की नीलामी से 8.35 करोड़ रुपये जुटाये गये थे, जो नमामि गंगे मिशन को समर्पित किये।

2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुम्भ मेले में स्वच्छता कर्मचारियों के कल्याण के लिए बनाये गये फण्ड में अपने निजी बचत से 21 लाख रुपये दिये। 2019 में ही साउथ कोरिया में सियोल पीस प्राइज में मिली 1.3 करोड़ की राशि को स्वच्छ गंगा मिशन को को समर्पित किया। हाल ही में प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उनको मिली स्मृति चिह्नों की नीलामी में 3.40 करोड़ रुपये एकत्र किये गये, उस राशि को भी नमामि गंगे योजना के लिए उन्होंने समर्पित किया। प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में पीएम केयर फण्ड के लिए 2.25 लाख रुपये दिये थे। कोरोना महामारी से लडऩे के लिए जब पीएम केयर फंड की स्थापना की गयी थी, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुरुआती फण्ड के तहत 2.25 लाख रुपये का योगदान दिया। पीएम केयर फण्ड का उपयोग कोरोना से और भविष्य में इस प्रकार की गम्भीर चुनौतियों का शीघ्रता और तत्परता से निपटने के लिए चिकित्सीय ढाँचागत सुविधाओं का निर्माण किया जा रहा है।

आज भारत दशकों नहीं, सदियों के बदलते इतिहास का साक्षी बन रहा है। 500 वर्षों के जनांदोलन और न्यायालयी निर्णय के बाद अयोध्या में भगवान राम के मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में न्यायालयी आदेश पर सरकार ने मंदिर निर्माण ट्रस्ट का गठन किया गया।

5 अगस्त को भारतीय जन आस्था के केंद्र्र और राष्ट्र की सांस्कृतिक नगरी अयोध्या में भगवान राम के मंदिर निर्माण के लिए भूमिपूजन के अवसर पर पधारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा- ‘राम काज किन्हें बिनु, मोहि कहाँ विश्राम।’ उन्होंने न केवल राष्ट्र को, बल्कि पूरे विश्व को साफ संदेश दिया कि जन आस्था के सम्मान और राष्ट्र धर्म के निर्वाह में स्वहित की परवाह नहीं करते। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि भगवान श्रीराम का संदेश, हमारी हज़ारों साल की परम्परा का संदेश, कैसे पूरे विश्व तक निरंतर पहुँचे, कैसे हमारे ज्ञान, हमारी जीवन-दृष्टि से विश्व परिचित हो, ये हम सबकी, हमारी वर्तमान और भावी पीढिय़ों की ज़िम्मेदारी है। उन्होंने विश्वास जताया कि श्रीराम के नाम की तरह ही अयोध्या में बनने वाला ये भव्य राममंदिर भारतीय संस्कृति की समृद्ध विरासत का द्योतक होगा, और वहाँ निर्मित होने वाला राममंदिर अनंतकाल तक पूरी मानवता को प्रेरणा देगा। नरेंद्र मोदी ने भूमिपूजन के अवसर पर कहा कि श्रीराम का मंदिर हमारी संस्कृति का आधुनिक प्रतीक बनेगा। हम भाग्यशाली हैं। जन आस्था और राष्ट्र धर्म के प्रहरी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 5000 वर्ष के भारतीय इतिहास के श्रेष्ठतम जनसेवकों व राष्ट्र रक्षकों में जाने जाएँगे।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वतंत्र भारत के सबसे परिवर्तनकारी नेतृत्व हैं, जिनकी  लोकप्रियता और पराक्रम जहाँ जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी को पीछे छोड़ दिया है, वहीं आर्थिक सुधारों में पी.वी. नरसिम्हा राव और अटल बिहारी वाजपेयी की सफलता से आगे निकल चुके हैं। उन्होंने भारतीयों में अभूतपूर्व आकांक्षा जगायी है। नरेंद्र मोदी के परिवर्तनकारी एवं प्रभावी नेतृत्व में आधुनिक, डिजिटल, भ्रष्टाचार-मुक्त, जवाबदेह और विश्वसनीय सरकार का आविर्भाव हुआ है तथा जनता को भी अभूतपूर्व रूप से भागीदार बना दिया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न केवल राजनीतिक कार्यकर्ता हैं, बल्कि एक कवि हृदय साहित्यकार भी हैं। अपने व्यस्त दिनचर्या के बावजूद उन्होंने दर्ज़न भर पुस्तकें लिखी हैं। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने गुजराती भाषा में 67 कविताएँ लिखी थीं। उनकी इन कविताओं के माध्यम से उनके दर्शन, उनके विचार और उनकी दृष्टि का सहजता के साथ अंदाज़ा लगाया जा सकता है। उनका हिन्दी में एक कविता संग्रह है- साक्षी भाव, जिसमें जगतजननी माँ से संवाद रूप में व्यक्त उनके मनोभावों का संकलन है। जिसमें उनकी अंतर्दृष्टि, संवेदना, कर्मठता, राष्ट्रदर्शन व सामाजिक सरोकार स्पष्ट झलकते हैं। उनकी श्रेष्ठतम रचनाओं में शामिल है- पुष्पांजलि ज्योतिपुंज, जिसमें लिखा है कि संसार में उन्हीं मनुष्यों का जन्म धन्य है, जो परोपकार और सेवा के लिए अपने जीवन का कुछ भाग अथवा संपूर्ण जीवन समर्पित कर पाते हैं। इस पुस्तक में उन्होंने व्यक्ति के जन्म से लेकर उसकी समाज के प्रति दायित्व का बोध कराया है, तथा राष्ट्र सर्वोपरि को जीवन का मूलमंत्र मानने वाले ऐसे ही तपस्वी मनीषियों का पुण्य-स्मरण भी किया है। सोशल हॉर्मोनी नामक पुस्तक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समाज और सामाजिक समरसता के प्रति भावनाओं के प्रबल प्रवाह को शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया है। इस पुस्तक में उनकी समाज के प्रति अद्वितीय दृष्टि और दृष्टिकोण की स्पष्टता है। जहाँ वह एग्जाम वॉरियर्स नामक पुस्तक में अपने बचपन के कई उदाहरणों के माध्यम से बच्चों को परीक्षा के तनाव से निकलने की युक्ति बतायी गयी, वहीं कनवीनिएंट एक्शन में जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय और समाज को सचेत करते हैं और साथ ही इससे निपटने के लिए वैश्विक अभियान में शामिल होने की प्रेरणा भी देते हैं।

भारत के अब तक के सबसे लोकप्रिय एवं यशस्वी प्रधानमंत्री, इतिहास पुरुष नरेंद्र मोदी ने एक ऐसे भविष्य के भारत की नींव रखी है, विश्व में अपनी सनातन श्रेष्ठता को तो पुन: प्राप्त करेगा ही, विश्व का सफल नेतृत्व भी करेगा। नरेंद्र मोदी जी, जीवेम शतम्! जीवेम शतम्!!

(लेखक भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं पूर्व सांसद)

कोचिंग नगरी की अर्थ-व्यवस्था हुई चौपट

कोटा केवल उफनती चंबल के लिए ही मशहूर नहीं है, बल्कि यह शहर देश-परदेश से आने वाले लाखों छात्र-छात्राओं का भी आकर्षण स्थल है, जो इंजीनियर और डाक्टर बनने का सपना पाले प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए यहाँ आते हैं। रोज़गार, खपत और ग्रोथ की सम्भावनाओं के नज़रिये से देखा जाए तो कोटा की अर्थ-व्यवस्था पूरी तरह कोचिंग संस्थानों पर टिकी रही है। कोरोना की भयावह दस्तक से पहले कोटा कारपोरेट से लेकर हर स्तर के व्यापारियों का स्वर्ग था। कोटा के वैभव के िकस्से देश के हर शख्स की ज़ुबान पर थे। इस समृद्धि में कारोबारी, होटल-रेस्तरां से लेकर फुटकर कारोबारी भी बराबर के हिस्सेदार थे। ऑटो चालकों से लेकर पोहा-जलेबी के ठेले लगाने वालों के लिए भी मुनाफे के सुनहरे दिन थे। सन् 2019 की आर्थिक समीक्षा बताती है कि कोटा में ग्रोथ का परचम पूरी तरह कोचिंग क्षेत्र के हाथ में था। लेकिन मार्च, 2020 के बाद कोटा की अर्थ-व्यवस्था अपने इतिहास की सबसे तेज़ विकास दर के बाद ढलान की तरफ लुढ़कनेे लगी। कोरोना की महामारी ने जैसे ही अपने डैने फैलाये, कोटा आने वाले छात्र अपने घरो की दहलीज़ पर ही ठिठक कर रह गये। कोटा की अर्थ-व्यवस्था चोला बदल चुकी थी और छात्रों की चहल-पहल से भरे रहने वाले कोचिंग परिसर में सन्नाटा पसर चुका था। कोचिंग संचालकों ने अपना ध्यान बुनियादी चुनौतियों पर केंद्रित करते हुए ऑनलाइन पढ़ाई का वैकल्पिक मार्ग चुन लिया और अपने राजस्व के स्रोत को सुरक्षित कर लिया। लेकिन 12,000 करोड़ के समानान्तर उद्योग गति नहीं पकड़ सके। सबसे ज़्यादा बंटाधार तो रियल एस्टेट का हुआ, जिसने करोड़ों की पूँजी लगाकर छात्रों को किराये पर चढ़ाने के लिए बड़े-बड़े अपार्टमेंट बना लिये। लेकिन आज इन वीरान इमारतों में बिल्डर्स का दर्द तप रहा है।

फलते-फूलते कोचिंग उद्योग के चलते शिक्षा के पाटलिपुत्र के नाम से प्रख्यात कोटा की अर्थ-व्यवस्था में जो ठसक आयी थी, वो कोराना की चपेट में आकर अंतहीन दु:स्वप्न में बदल गयी है। गगनचुम्बी होटलों, होस्टलों, ईटिंग ज्वाइंट्स समेत कोचिंग से जुड़े लगभग 300 समानांतर उद्योगों में भारी पूँजी लगाकर दौलत उलीच रहे कारोबारी बुरी तरह पस्ती की हालत में हैं। कोचिंग के तले पूँजी की ज़मीन निहारने में जुटे रहे कारोबारियों को चाँदी की चमक ने इस कदर गाफिल किया  कि उन्हें करोडीलाल से कोड़ीलाल हो जाने का गुमान  तक नहीं हुआ। उनके आनंद की सुखसेज पर सितम तो तब टूटा, जब कोचिंग पर कोरोना का कहर टूटा। आज 24,000 करोड़ का कोचिंग उद्योग चैपट हो चुका है। एलन और रेजोनेंस समेत कोई आधा दर्ज़न मुख्य इकाइयों में बँटे कोचिंग संस्थानों ने छोटे-मोटे ऑपरेशन कर लम्बे-चौड़े स्टॉफ को उँगलियों में समेट लिया है। भविष्य में फलने की उम्मीदें सँजोये कोचिंग संचालक तो डिजिटल शिक्षा की पटरी पर उतर लाये हैं। लेकिन कोचिंग की छत्र छाया में किसी भी अनहोनी से अंजान कारोबारी तो कंगाली की दहलीज़ पर सिर पटक रहे हैं। कोचिंग उद्योग पर आँख मूँदकर भरोसा करने वाले करीब 2,500 कारोबारी कर्ज़ के बोझ में दब चुके हैं और लेनदारों की लानतें झेल रहे हैं। अर्थ-व्यवस्था की ज़रूरी बातों की अनदेखी करने वालों को अब इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। सबसे ज़्यादा मार रियल एस्टेट पर पड़ी, जिसने पिछले दो दशकों में सबसे ज़्यादा निवेश किया। छात्रों के आने की उम्मीद में बैंकों से कर्ज़ लेकर बनायी गयी इन विशाल इमारतों में अब कबूतर पर फडफ़ड़ा रहे हैं। कोई ढाई लाख लोग बेरोज़गारी की चपेट में आ गये हैं। कोटा में हर साल प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग के लिए देश के कोने-कोने से कोई डेढ़ लाख छात्र आते हैं। 30,000 करोड़ के धक्के सेे घबराये हुए कारोबारियों को कर्ज़ का मर्ज बुरी तरह सता रहा है। जोखिम भरे असुरक्षित कर्ज़ के चलते कुछ कारेाबारी आत्महत्या भी कर चुके हैं। बाज़ार टूटने से कारोबारियों के हाथ इस कदर जल गये हैं कि उन्हें कोई मरहम भी नहीं सूझ रहा। कोटा की अर्थ-व्यवस्था को बड़ा आघात तो नौंवे दशक के उत्तराद्र्ध में भी लगा था। इस दौर में कोटा के सबसे बड़े उद्योग जे.के. सिन्थेटिक्स के कपाट बन्द हो गये थे। कोढ़ में खाज तो तब पैदा हुई, जब ओरिएंटल पॉवर और राजस्थान मेंटल सरीखी आधा दर्ज़न औद्योगिक इकाइयों के शटर भी गिर गये। कोटा की अर्थ-व्यवस्था पर बड़ा आघात 2017 में लगा, जब कलपुर्जे बनाकर विदेशों तक में निर्यात करने वाले इंस्ट्रूमेंटेशन लिमिटेड के दरवाज़े बन्द हो गये। नतीजतन कोई 10,000 कर्मचारी बेरोज़गार हो गये। आखिर कोटा की अर्थ-व्यवस्था का नया युग गढऩे की शुरुआत आठवें दशक में हुई। जब जे.के. सिन्थेटिक्स से बेरोज़गार हुए वी.के. बंसल ने एक कमरे में कोचिंग सेंटर की शुरुआत की। बंसल की मेहनत रंग लायी और कोटा वैश्विक फलक में शैक्षिक नगरी की धुरी पर स्थापित हो गया। कोटा व्यापार महासंघ के महासचिव अशोक माहेश्वरी कहते हैं कि कोरोना के आघात ने कोटा की अर्थ-व्यवस्था की चूलें हिला दी हैं। उनका कहना है कि व्यापारियों के इर्द-गिर्द कर्ज़ संकट के पलीते जल रहे हैं। माहेश्वरी कहते हैं इस भयंकर संकट के घाट पर फिसलने की बड़ी ज़िम्मेदारी भी व्यापारियों की है। आखिर क्योंकर वे इस व्यावसायिक मंत्र को भुला बैठे कि निवेश का लक्ष्य सिर्फ एकतरफा नहीं होना चाहिए। ऐसे में अगर किसी एक कारोबार में घाटा हो जाए, तो दूसरे कारोबार से उसकी भरपाई की जा सकती है। माहेश्वरी कहते हैं कि इस घटना ने व्यापारियों को बड़ा सबक दे दिया है कि एक ही कारोबार में भारी भरकम निवेश कर देने का मतलब खुद अपने लिए ही व्यावसायिक बर्बादी का पेचीदा जाल बुन लेना है। हालाँकि इस संताप की बेला में उम्मीदें अभी ज़िन्दा हैं। लघु और मध्यम औद्योगिक इकाइयों के संगठन के संस्थापक अध्यक्ष गोविंदराम मित्तल कहते हैं कि हर रात की सुबह होती है। उनकी आशावादी सोच इस तथ्य से जन्मी है कि जे.के. सिंन्थेटिक्स समेत अनेक औद्योगिक इकाइयों के पराभव के बाद भी कोटा की अर्थ-व्यवस्था औंधी हो गयी थी। लेकिन आखिर वापस पटरी पर लौटी। हालाँकि तमाम नकारात्मक कारकों के चलते कोटा की चरमराती अर्थ-व्यवस्था अवमूल्यन की तलहटी छू रही है। फिर भी आपदा के इस गुबार में उद्धार की आशावादी झिलमिल तो करती ही है कि शायद कोई हवा चले और पासा पलट जाए; लेकिन कभी उद्योगों का सरताज होने वाला कोटा सिर्फ कोचिंग संस्थानों को ही व्यवसाय की धुरी क्यों बना बैठा? कोटा की अर्थ-व्यवस्था कुछ ज़रूरी सुधारों की अनदेखी करने की बड़ी कीमत चुकाने की तरफ बढ़ गयी है। सन् 2015 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की खास योजना मेक इन इंडिया की कड़ी में शिक्षा नगरी कोटा को रक्षा उत्पादों के विनिर्माण का मैन्यूफैक्चरिंग हब बनाना भी शामिल था। इस निर्माण पक्षधर योजना के तहत निजी क्षेत्र के डीसीएम उद्योग समूह की श्रीराम रेयन्स में लाइट बुलेट प्रूफ व्हीकल तथा अनमेड एयर व्हीकल्स का निर्माण किया जाना था। दो साल पहले रेयन्स को इन दोनों रक्षा उत्पादों का लाइसेंस मिल गया था। भारत के निजी क्षेत्र में लगने वाला रक्षा उत्पादों का यह पहला उद्योग था। लेकिन यह योजना अचानक कहां लापता हो गयी। उद्योगपति और राजनेता दोनों ही इस पर मुँह खोलने को तैयार नहीं है। बताते चलें कि दोनों ही रक्षा उत्पादों का डिजाइन उद्योग समूह ने स्वदेशी मॉडल के आधार पर तैयार किया था। इन उत्पादों का उपयोग सेना और अद्र्धसैनिक बलों के लिए होना था। अनमेंड  एक बड़े ड्रोन के आकार का रक्षा उत्पाद होता है। इस आयुध का इस्तेमाल हल्के स्वचालित आग्नेयास्त्रों के विरुद्ध किया जाता है। इसकी मारक शक्ति 500 से 2000 किलोमीटर तक होती है; जबकि जटिल सामरिक परिस्थितियों में शत्रुओं पर मार करने वाला महत्त्वपूर्ण आयुध माना जाता है। सूत्रों की मानें तो उद्योग को 18 महीनों की अवधि में इस आयुध का सैम्पल रक्षा मंत्रालय को सौंपना था। इस दृष्टि से रेयंस के संयत्र को त्रिस्तरीय रक्षकों के घेरे में ले लिया गया था। कोटा स्थित श्रीराम रेयंस के 11 एकड़ परिसर में नयी रक्षा इकाई की शुरुआत केंद्र सरकार के मेक इन इंडिया अभियान की शुरुआत थी। इस अभियान के तहत संयत्र में प्रति वर्ष 3000 और 500 नट निर्माण किया जाना था। सूत्रों का कहना है कि यह रक्षा विनिर्माण इकाई कई छोटी-छोटी इकाइयों के लिए भी अवसर पैदा कर सकती थी। इससे उच्च तकनीक सेवाओं में बड़े पैमाने पर टिकाऊ रोज़गार का सृजन भी हो सकता था। उद्यमियों का कहना है कि इसकी स्थापना आज की परिस्थितियों में कोटा की अर्थ-व्यवस्था को डूबने से बचा सकती थी। एक ताज़ा जानकारी के अनुसार, केंद्र सरकार द्वारा आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत करीब 100 रक्षा उत्पादों के आयात पर रोक लगाकर घरेलू रक्षा उद्योगों को प्रोत्साहित करने की है। विश्लेषकों का कहना है कि कोटा में लगने वाली आयुध फैक्ट्री की योजना का पुनर्जीवित करने का इससे अच्छा कोई मौका नहीं हो सकता। डिफेंस एयरोस्पेस कमेटी के चेयरमैन एस.पी. शुक्ला की मानें तो देश में रक्षा आयुधों का उत्पादन होगा, तो अन्य देश हमारी ताकत का अंदाज़ा नहीं लगा सकेंगे। लेकिन सवाल है कि सरकार इस विलुप्त हुई योजना को चलाने का प्रयास क्यों नहीं कर रही?

धोखाधड़ी का खेल भी

आठवें दशक में औद्योगिक सम्पन्नता के कारण कोटा को कानपुर की संज्ञा दी जाती थी। सरकारी नौकरी की अपेक्षा जे.के. सिंथेटिक्स में काम करना ज़्यादा बेहतर माना जाता था। यह दुर्भाग्य ही रहा कि पारिवारिक विवाद के कारण फैक्ट्री बन्द हो गयी। जिस समय जे.के. बन्द होने के कारण कोटा विषाद में डूबा था। अराफात कम्पनी ने एक उम्मीद की कहानी चलानी शुरू कर दी कि हम यहाँ पर नया उद्योग खड़ा करेंगे। सूत्रों का कहना है कि सिंघानिया उद्योग समूह की जे.के. सिंथेटिक्स की अरबों की सम्पत्ति को अराफात उद्योग समूह ने 69 करोड़ में खरीद लिया। अराफात ग्रुप ने अपनी सदेच्छा जताने की कोशिश में कम्पनी की धुआँ उगलती चिमनियों को भी चालू रखा। यह कोटा की जनता और ज़िला प्रशासन पर भरोसा जताने की कोशिश थी। इस ओट में कम्पनी मालिकों ने भूमि हस्तांतरण आदि की सभी औपचारिकताएँ पूरी कर लीं। यह सौदेबाज़ी भाजपा की वसुंधरा सरकार के कार्यकाल में हुई; लेकिन असल में यह मृग मरीचिका थी। अराफात उद्योग समूह की फैक्ट्री चलाने की कोई मंशा नहीं थी, बल्कि कम्पनी किसी बड़ी सौदेबाज़ी की फिराक में थी। नतीजतन कांग्रेस सरकार ने सत्तारूढ़ होते ही इस सौदे को रद्द कर दिया।

उलटा चोर कोतवाल को डाँटे

Health workers wearing personal protective equipment carry the body of a COVID-19 victim for cremation in Gauhati, India, Thursday, Sept. 10, 2020. India is now second in the world with the number of reported coronavirus infections with over 5.1 million cases, behind only the United States. Its death toll of only 83,000 in a country of 1.3 billion people, however, is raising questions about the way it counts fatalities from COVID-19. (AP Photo/Anupam Nath)

कहते हैं कि कुछ लोग अपनी असफलता का सारा दोष दूसरों पर मढऩे में संकोच तक नहीं करते। ऐसा ही मामला आजकल सरकार का है। जब कोरोना वायरस रफ्तार को रोकने में सरकार असफल-सी रही है, तो उसने सारा दोष जनता पर मढ़ दिया है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन का कहना है कि कोरोना के बढऩे कारण जनता का गैर-ज़िम्मेदाराना रवैया है। लोग अनलॉक प्रक्रिया को गलत समझकर ऐसा मान बेठे हैं कि सब कुछ ठीक हो गया है। जनता को कोरोना से बचाव के लिए सावधानी बरतनी चाहिए। लेकिन ऐसा न होने के कारण कोरोना की रफ्तार बढ़ रही है। वहीं दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन का कहना है कि दिल्ली में जो कोरोना वायरस के मामले बढ़ रहे हैं; उसकी वजह बाहरी लोग हैं। सरकार के ऐसे बयानों से देशवासियों के भीतर एक निराशा पनपी है। कोरोना को लेकर सरकार अपनी असफलता को छिपाने के लिए जनता पर दोषारोपण का जो खेल खेल रही है, उससे सरकार को कुछ हासिल होने वाला नहीं है।

दरअसल कोरोना-मरीज़ों के इलाज के नाम पर प्राइवेट अस्पतालों का सरकारी अस्पतालों के साथ जो साठ-गाँठ का खेल चल रहा है, उस पर सरकार को ज़रूर कड़े कदम उठाने की आवश्यकता है। क्योंकि सरकार भले ही तामाम दावे करे कि कोई प्राइवेट अस्पताल वाले अपने यहाँ कोरोना के मरीज़ों को भर्ती करने से मना नहीं कर सकते; पर ऐसा हो नहीं रहा है। दिल्ली के जो नामी-गिरामी चार-छ: अस्पताल हैं। वहाँ पर गरीब मरीज़ इलाज नहीं करा पाते हैं। दिल्ली के कुछ मध्यम व मल्टी स्पेशिलिटी अस्पताल हैं, वहाँ पर कोरोना के मरीज़ों के साथ भेदभाव वाला रवैया अपनाया जाता है। सबसे चौंकाने वाली यह सामने आ रही है कि इन अस्पतालों में यह डॉक्टर तो खुद डरे हुए हैं कि कहीं कोरोना के मरीज़ ज़्यादा भर्ती हो गये, तो अन्य रोग के मरीज़ इलाज कराने से बचेंगे और डरेंगे, जिससे अस्पताल की कमायी प्रभावित होगी।

ऐसे हालात में सरकारी अस्पतालों- लोकनायक और सफदरजंग में कुछ डॉक्टरों की आपसी साठ-गाँठ से उनको भर्ती कराया जा रहा है। ऐसे में कोरोना वायरस के रोगी अपने इलाज के लिए भटकते रहते हैं। तहलका संवाददाता को दिल्ली के उन पत्रकारों ने आप बीती बतायी, जो कोरोना वायरस की चपेट में आये हैं। पत्रकारों का कहना है कि वे पहले तो लोकनायक अस्पताल में भर्ती हुए थे, चार-पाँच दिनों तक कोई लाभ नहीं हुआ और आधा-अधूरा इलाज देख उनको डर लगा कि सरकारी व्यवस्था में उनकी जान ही न चली जाए। ऐसे में पत्रकारों को नामी-गिरामी प्राइवेट अस्पतालों में जाकर पैसा देकर इलाज कराने को मजबूर होना पड़ा है और अब भी इलाज चल रहा है।

कोरोना के बढ़ते मामले को लेकर जो स्वास्थ्य मंत्रियों ने गैर-ज़िम्मेदाराना बात की है, उस पर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व संयुक्त सचिव डॉ. अनिल बंसल का कहना है कि सरकार ज़रूर अपनी कमी छिपाने के लिए जनता को दोष दे रही है। लेकिन हकीकत तो यह है कि सरकार ने जनवरी से लेकर मार्च तक कोरोना की रोकथाम को लेकर कोई कारगर कदम ही नहीं उठाये हैं, जिसके कारण कोरोना का प्रसार हुआ है; क्योंकि जब कोरोना ने देश में दस्तक दी थी, तब ये आवाज़ें उठी थीं कि कोरोना को लेकर सरकार सख्ती बरते। तब सरकार ताली-थाली बजाने और दिया जलाने में मस्त थी। कोरोना से पहले और अब तक सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का न तो विस्तार किया गया और न ही प्रर्याप्त स्वास्थ्य संसाधनों का। अगर सरकार शहरों से लेकर गाँवों-कस्बों तक कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए लैबों की संख्या बढ़ायी जाती, तो आज यह दिन देखने नहीं पड़ते। डॉ. अनिल बंसल का कहना है कि बीमारी व कोरोना महामारी में सियासत अपने बचाव के लिए जो भी कहें, पर पूर्ववत् सरकारों ने, न वर्तमान सरकार ने कभी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के सुधार को लेकर कोई अमल किया है। अमेरिका स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का 17 फीसदी बजट खर्च करता है। वहीं भारत सरकार में इसके लिए जीडीपी का केवल एक फीसदी ही खर्च करती है, जबकि डब्ल्यूएचओ का कहना है कि भारत जैसे देश में स्वास्थ्य सेवाओं में जीडीपी का 10 फीसदी खर्च होना चाहिए।

इस समय कोरोना वायरस के इलाज के नाम पर गाँवों और कस्बों में ही नहीं, देश की राजधानी दिल्ली में भी झोलाछाप डॉक्टर जमकर मरीज़ों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। दिल्ली में मौज़ूदा समय में कम-से-कम 50,000 से ज़्यादा झोलाछाप डॉक्टर हैंै। इसी तरह बिना प्रमाणित कई लैब भी चल रही हैं, जो किसी भी तरह से लैब के मानक नियमों पर खरी नहीं उतरती हैं। लेकिन सरकार इन लोगों पर कार्रवाई करने से बचती है। इसकी क्या वज़ह है? कह नहीं सकते। कोरोना वायरस के फैलने के बाद इसके बढऩे के मामले में इन झोलाछाप डॉक्टरों और गैर-प्रमाणित लैब वालों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है।

गौर करने वाली बात यह है कि दिल्ली सरकार के अस्पतालों में केंद्रीय और दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य मंत्री अक्सर दौरा करने जाते हैं। इन अस्पतालों में भर्ती मरीज़ों के परिजनों का कहना है कि अगर देश में कोई अन्य बीमारी कोरोना जैसी ही आ गयी, तो क्या होगा? क्योंकि सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर, नर्स व पैरामेडिकल स्टाफ तो खुद कोरोना की चपेट में आ रहे हैं; कई की महामारी से जान भी जा चुकी है। ऐसे में सरकारी अस्पताल में जाते समय कोरोना के मरीज़ के मन में आशंका होती है कि कहीं वह सही न हुआ, तो?

कोरोना वायरस के बहुत ज़्यादा बढऩे के सवाल पर पूर्व प्रशासनिक अधिकारी मोती लाल का कहना है कि अजीब विडम्बना है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारों में आपसी तालमेल न होने के कारण कोरोना के मरीज़ों को न तो केंद्रीय अस्पतालों में सही इलाज मिल पा रहा है और न ही राज्य सरकारों के अस्पतालों मेंं। कोई राज्य अपने नियम बनाकर कोरोना को लेकर सख्ती करता है, तो कोई नहीं करता है। ऐसे हालात में कोरोना की रोकथाम को लेकर मज़ाक-सा किया जा रहा है। लोग बिना मौत के मर रहे हैं। कोई सुनवाई नहीं है। हर रोज़ मरीज़ों की संख्या 90,000 से ज़्यादा आ रही है। 1,000 से ज़्यादा लोग हर रोज़ मर रहे हैं। कोरोना के मरीज़ों की संख्या 60 लाख के पार है, तो मरने वालों का आँकड़ा एक लाख के करीब है।

एम्स के सीनियर डॉक्टरों का कहना है कि कई अस्पतालों तक में कई डॉक्टर्स और पैरामेडिकल स्टाफ तक मुँह पर मास्क नहीं लगाते हैं। यहाँ पर आने वाले मरीज़ से क्या उम्मीद की जाए? डॉक्टरों का कहना है कि जब कोरोना को लेकर 25 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लॉकडाउन की घोषणा की थी, तब ज़रूर लोगों में कोरोना को लेकर डर था। तभी लोगों ने मास्क और सेनेटाइजर का प्रयोग किया था; लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है, जो कोरोना के बढऩे का एक कारण हो सकता है। मैक्स अस्पताल के हार्ट सर्जन डॉ. रजनीश मल्हौत्रा का कहना है कि कोरोना वायरस के मामले बढ़ रहे हैं, जो चिन्ताजनक है। अगर समय कोरोना के बढऩे का सिलसिला यूँ ही चलता रहा तो आने वाले दिनों में घातक परिणाम सामने आ सकते हैं।

कैथ लैब के डायरेक्टर डॉ. विवेका कुमार का कहना है कि कोरोना शरीर के हर अंग को डैमेज करता है। कोरोना की रोकथाम में सही मायने में सोशल डिस्टेंसिंग ही एक इलाज है। कोरोना को लेकर अफवाहें भी खूब फैली है कि कोरोना सर्दी में बढ़ेगा या घटेगा। पर इतना ज़रूर है कि अगर हम सावधानी बरतेंगे तो कोरोना हर रोज़ घटेगा।

कोरोना के प्रकोप को देखकर तो यह स्पष्ट हो गया है कि चिकित्सा के क्षेत्र में भले ही दुनिया कितनी ही तरक्की के दावे कर ले, पर हकीकत में तो यह है कि ज़रा-सी हट के कोई नयी बीमारी आ जाती है, तो हम वैसे ही वहीं खड़े पाते हैं, जहाँ सदियों पहले खड़े होते थे। क्योंकि सात महीने से ज़्यादा का समय बीत गया है, कोरोना वायरस फैले हुए। पूरी दुनिया के चिकित्सक मिलकर अभी तक कोई कारगर उपाय ही नहीं निकाल पाये हैं, जिससे लोग आतंकित और आशंकित है कि कब कोरोना रुकेगा? क्योंकि कोरोना के कारण शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थ, व्यापार और परिवहन सब चौपट है।