Home Blog Page 751

हाथरस पैदल जा रहे राहुल यूपी पुलिस धक्कामुक्की में नीचे गिरे, प्रियंका के साथ उन्हें हिरासत में लिया पुलिस ने

यमुना एक्सप्रेस-वे पर काफिले को रोकने के बाद पैदल हाथरस जा रहे कांग्रेस नेताओं से यूपी पुलिस ने धक्कामुक्की की है। इस दौरान राहुल गांधी नीचे झाड़ियों के पास गिर गए। अभी तक यह मालूम नहीं है कि उन्हें चोट आई है या नहीं, हालांकि, राहुल इस घटना के बाद काफी देर तक पुलिस अधिकारियों के साथ राहुल की बहस हुई। इसके बाद प्रियंका गांधी और राहुल गांधी को यूपी पुलिस ने हिरासत में ले लिया है।

पुलिस के रोके जाने के बाद राहुल ने यूपी पुलिस के अधिकारियों से पूछा कि उन्हें किस धारा में गिरफ्तार किया जा रहा है। पुलिस ने धारा 188 का हवाला दिया। राहुल ने पूछा 188 में किस आधार पर। फिर पुलिस ने 144 का हवाला दिया जिसपर राहुल ने कहा कि वे अकेले ही हाथरस जाना चाहते हैं, भीड़ लेकर नहीं जायेंगे। हालांकि, इसके बाद उन्हें प्रियंका के साथ हिरासत में ले लिया गया है।

इससे पहले पुलिस के एक अधिकारी के धक्का देने से राहुल नीचे गिर गए। वहां झाड़ियां थीं। प्रियंका और राहुल गांधी हाथरस घटना की पीड़ित परिवार से मिलने उनके वाहन रोके जाने के बाद पैदल ही जा रहे थे। एक्सप्रेस-वे पर काफी हंगामा हुआ है और आरोप के मुताबिक यूपी पुलिस ने लाठीचार्ज भी किया। घटना के बाद राहुल ने कहा कि उन्हें पुलिस के लोगों ने धक्का दिया और लाठी भी मारी। कांग्रेस नेता ने पीएम मोदी पर भी निशाना साधा।

जैसे ही पुलिस ने उनके साथ चल रहे काफिले को यमुना एक्सप्रेस-वे पर पुलिस ने रोका लेकिन सिर्फ राहुल की गाड़ी को जाने की इजाजत दी, उसके बाद राहुल भी गांधी से उतर गए और यूपी की कांग्रेस प्रभारी प्रियंका गांधी के साथ पैदल ही हाथरस के लिए निकल गए हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकर्ताओं और पुलिस में झड़प हो गयी जिसके बाद पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया। इसी दौरान राहुल गांधी ज़मीन पर गिर गए जहाँ झाड़ियाँ थीं। उन्हें एक व्यक्ति ने हाथ बढाकर उठाया , हालांकि, इसके बाद भी राहुल ने कहा कि वे रुकेंगे नहीं और पीड़ित परिवार से जरूर मिलेंगे।

कांग्रेस कार्यकर्ताओं की बड़ी भीड़ दिल्ली से ही उनके काफिले के साथ जा रही थी। रास्ते में पुलिस भी बड़ी संख्या में तैनात की गयी है। लेकिन हाथरस जा रहे कांग्रेस नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के काफिले को रोक दिया गया। यमुना एक्सप्रेस-वे पर काफिले को बैरिकैड के आगे रोका गया। इसके बाद दोनों ही नेता गाड़ी से उतरकर पैदल चलने लगे। कांग्रेस के कई नेता और कार्यकर्ता उनके साथ हैं।

गांधी पीड़िता के परिवार से मिलने हाथरस जा रहे हैं। दिल्ली से दोनों नेता एक ही वाहन में जा रहे थे। पार्टी के बड़े नेता जिनमें यूपी कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू भी हैं, उनके साथ हैं।

बता दें गैंगरेप और अमानुषिकता का शिकार पीड़िता की इलाज के दौरान मौत और उसके बाद आधे रात को यूपी पुलिस के उसके बिना परिवार की मंजूरी के अंतिम संस्कार से देश भर में गुस्सा फ़ैल गया है। कांग्रेस कार्यकर्ता सड़कों पर उतर आए हैं और सरकार विरोधी नारे लगा रहे हैं।

इस बीच प्रियंका गांधी ने ट्वीट कर एक वीडियो शेयर किया है जिसमें लड़की के पिता अपना दर्द सुना रहे हैं। प्रियंका ने ट्वीट में कहा – हाथरस की बेटी के पिता का बयान सुनिए। उन्हें जबरदस्ती ले जाया गया। सीएम से वीसी के नाम पर बस दबाव डाला गया। वो जांच की कार्रवाई से संतुष्ट नहीं हैं। अभी पूरे परिवार को नजरबंद रखा है। बात करने पर मना है। क्या धमकाकर उन्हें चुप कराना चाहती है सरकार? अन्याय पर अन्याय हो रहा है।

पोस्ट मार्टम रिपोर्ट आई
इस बीच हाथरस में गैंगरेप और बर्बरता की शिकार युवती की ऑटोप्सी रिपोर्ट आ गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि लड़की की मौत गैंगरेप के बाद गला दबाने और उसके साथ हुई बर्बर मारपीट से हुई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि युवती की रीढ़ की हड्डी पर भी चोट के निशान थे। ये रिपोर्ट दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल द्वारा जारी की गई है, जहां 20 वर्षीय युवती की मंगलवार को इलाज के दौरान मौत हो गई थी।

उसकी मेडिकल रिपोर्ट में कहा गया है कि युवती के साथ गैंगरेप हुआ था और उसे गला दबाकर मारने की भी कोशिश की गई थी। रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि स्पाइनल इंजूरी की वजह से युवती की मौत हो गई। पीड़ित परिवार के मुताबिक गले पर चोट की वजह से युवती को लकवा मार गया था और इस वजह से वह सांस नहीं ले पा रही थी।

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में कहा गया है कि मरीज का शुरुआती इलाज कमजोर तरीके से किया गया और उसके अटेंडेंट को बताया गया कि मरीज की हालत स्थिर है। बाद में पर्याप्त उपचार के बावजूद रोगी की हालत धीरे-धीरे बिगड़ती गई और उसकी मौत हो गई। उसे सीपीआर भी दिया गया लेकिन हरसंभव कोशिशों के बावजूद उसे बचाया नहीं जा सका। मंगलवार सुबह 8.55 बजे उसकी मौत हो गई।

इस रिपोर्ट के बाद परिवार की तरफ से लगाए जा आरोपों की पुष्टि होती है। निश्चित ही  यह मामला अब गंभीर राजनीतिक मुद्दा बन गया है और योगी सरकार के सामने इस मामले ने बड़ी परेशानी खड़ी कर दी है। कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी, जिन्होंने उन्नाव मामले को भी पूरी ताकत से उठाया था, अब हाथरस परिवार से मिलने जा रही हैं। पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी उनके साथ हैं।

प्रियंका गांधी को रोकने के लिए हाथरस की नाकेबंदी, धारा 144 लगाई, राहुल के साथ दिल्ली से निकलीं

उत्तर प्रदेश के हाथरस की घटना ने जहां देश भर में गुस्से की नई लहर पैदा कर दी है, वहीं राजनीतिक नुक्सान की भरपाई में जुटी योगी सरकार ने परिवार के लिए आर्थिक मदद के साथ-साथ कांग्रेस नेता और यूपी की प्रभारी प्रियंका गांधी को हाथरस में परिवार में न मिलने देने की भी तैयारी कर ली है। प्रशासन ने वहां धारा 144 लगा दी है और हाथरस की सभी सीमाएं सील कर दी हैं। प्रियंका गांधी के हाथरस में परिवार से मिलकर दुःख साझा करने का कार्यक्रम है, वहीं राहुल गांधी के भी वहां जाने की ख़बरें हैं। दोनों दिल्ली से हाथरस के लिए निकल गए हैं। उधर इस दौरान यूपी के ही बलरामपुर में भी रेप की घटना हुई है।

आधी रात को गैंगरेप की पीड़ित लड़की का शव बिना परिवार की मंजूरी के जला देने की यूपी पुलिस की करतूत से हर जगह थू-थू हो रही है। इस घटना से पूरे देश में यूपी में क़ानून व्यवस्था और प्रशासन को लेकर बहुत ख़राब संदेश गया है। यूपी में लगातार इस तरह की घटनाएं हुई हैं, जिससे योगी के नेतृत्व को लेकर भी सवाल इतने लगे हैं।

हाथरस में गैंगरेप और उसके बाद अमानुषिकता की शिकार हुई पीड़िता के परिवार का विरोध जारी है। देश भर में इस परिवार के प्रति सहानुभूति की लहर है और लोगों का गुस्सा फूट पड़ा है।

इस बीच योगी सरकार ने इस घटना के राजनीतिक नुक्सान को महसूस करते हुये कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी को पीड़ित परिवार से न मिलने देने की ठान ली है। प्रशासन ने हाथरस में धरा 144 लगा दी है। पूरी हाथरस की नाकेबंदी कर ली गयी है ताकि परिंदा भी पर न मार सके। प्रियंका के पीड़ित परिवार से मिलने के खबर है। राहुल गांधी भी हाथरस जाकर पीड़ित परिवार से मिलना चाहते हैं।

जानकारी के मुताबिक यदि प्रियंका गांधी और राहुल गांधी को हाथरस की सीमा पर हे रोक लिया जाता है तो दोनों नेता हाथरस की सीमा पर ही धरने पर बैठ सकते हैं। वहां कांग्रेस के नेता पहले से मौजूद हैं। वे हाथरस में भी प्रदर्शन और पीड़ित परिवार के लिए न्याय की मांग कर चुके हैं। हाथरस सीमा पर भारी संख्या में पुलिस तैनात कर दी गयी है।

अनलॉक-5 :  सिनेमा हॉल 50 फीसदी क्षमता के साथ 15 अक्टूबर से खुलेंगे 

कोरोना संक्रमण के बढ़ते मामलों के बीच केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अनलॉक-5 के दिशानिर्देश बुधवार को जारी कर दिए गए हैं। त्योहारों के सीजन को देखते हुए सरकार को छूट बढ़ाने के लिए एक तरह से मजबूर होना पड़ रहा है। दरअसल, अर्थव्यवस्था में अक्टूबर-नवम्बर का बहुत बड़ा रोल रहता है। अनलॉक 5 के तहत सरकार ने सिनेमा हॉल, एंटरटेनमेंट पार्क, स्विमिंग पूल को 15 अक्तूबर से खोलने की अनुमति दे दी है। हालांकि, सिनेमा हॉल को 50 फीसदी क्षमता के साथ ही खोलने की इजाजत दी गई है। इसके लिए अलग से सूचना-प्रसारण मंत्रालय एसओपी जारी करेगा।  31 अक्टूबर तक अंतरराष्ट्रीय उड़ानों का परिचालन भी नहीं होगा।
गृह मंत्रालय के दिशानिर्देशों के अनुसार, स्कूलों और कोचिंग संस्थानों को खोलने को लेकर 15 अक्तूबर के बाद राज्य सरकारें अपने हिसाब से फैसला कर सकेंगी। हालांकि, इस दौरान माता-पिता की सहमति ज़रूरी होगी। नवंबर तक होने वाले भारतीय त्योहार जैसे की नवरात्रि, दशहरा, दीपावली के लिए केंद्र सरकार ने मानक संचालन प्रक्रिया में इस बात का खास ध्यान रखा है कि लोग संक्रमण से बचाव के उपायों के साथ त्योहारों को भी खुशी के साथ मना सकें।
उच्च शिक्षा संस्थानों में केवल पीएचडी और विज्ञान और प्रौद्योगिकी स्ट्रीम में स्नातकोत्तर छात्रों के लिए प्रयोगशाला और प्रयोगात्मक कार्यों की अनुमति होगी। जिन्हें 15 अक्तूबर से खोलने की इजाजत दी गई है। ऑनलाइन और दूरस्थ शिक्षा अब भी विकल्प बना रहेगा। जहां स्कूल ऑनलाइन कक्षाएं संचालित हो रही हैं, वो जारी रहेगी।
सामाजिक, शैक्षणिक, खेल, मनोरंजन, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक और अन्य कार्यक्रमों में सिर्फ 100 लोगों के शामिल होने की इजाजत होगी। कंटेनमेंट जोन में रहने वाले लोगों के इन कार्यक्रमों में शामिल होने पर सख्त पाबंदी रहेगी।
महाराष्ट्र में कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए लॉकडाउन को 31 अक्टूबर तक बढ़ा दिया गया है। हालांकि पांच अक्तूबर से होटल, रेस्टोरेंट, फूड कोर्ट और बार 50 फीसदी क्षमता के साथ खोले जा सकेंगे। इससे पहले, सरकार ने एक सितंबर को शुरू हुए अनलॉक 4.0 में लॉकडाउन के बाद पहली बार मेट्रो सेवाओं को सशर्त फिर से शुरू करने की इजाजत दी थी।

चिकित्सा में भ्रष्टाचार

अपोलो अस्पताल कुछ समय पहले भी संदेह के घेरे में आया था, जब दिल्ली पुलिस ने इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल के 10 लोगों को गिरफ्तार किया था और अस्पताल के गुर्दा रोग विशेषज्ञों से पूछताछ की थी; जिससे देश के मशहूर निजी स्वास्थ्य संस्थान की अनैतिक किडनी रैकेट में कथित मिलीभगत की तरफ इशारा मिलता है। क्या अपोलो अस्पताल के बारे में बहुत अधिक नकारात्मक प्रचार हो गया है? या वास्तव में वह गलत कामों में शामिल है? ‘तहलका’ ने इसे जानने की कोशिश की है।

धोखाधड़ी प्रकरण

वर्तमान मामले में अपोलो अस्पताल की संयुक्त प्रबन्ध निदेशक संगीता रेड्डी, अपोलो अस्पताल की सहायक कम्पनी अपोलो मेडस्किल्स और पाँच प्रमुख अधिकारियों- मुख्य वित्तीय अधिकारी राधाकृष्ण नल्लपति, पूर्व सीईओ के. प्रभाकर, वित्त प्रबन्धक कार्तिक राधाकृष्णन, मुख्य विपणन अधिकारी श्रीधर श्रीनिवास और सीईओ पुलिजाला श्रीनिवास राव के खिलाफ धारा-465 (जालसाज़ी), 468 (धोखाधड़ी के उद्देश्य से जालसाज़ी), 471 (असली के रूप में जाली दस्तावेज़ों का उपयोग) और 420 (धोखाधड़ी) के तहत मामला दर्ज किया गया है।

सर्वोच्च न्यायालय ने चेन्नई स्थित परामर्श फर्म स्किलटेक द्वारा दायर की गयी याचिका पर संगीता रेड्डी को नोटिस जारी किया। इससे पहले मद्रास उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट करते हुए कि पंजीकृत एफआईआर के सम्बन्ध में जाँच चलनी चाहिए, संगीता रेड्डी को अस्थायी अंतरिम राहत दी। बाद की सुनवाई में 29 जुलाई, 2019 को मद्रास उच्च न्यायालय ने मामले की सुनवाई आठ सप्ताह में सुनने का आदेश दिया; क्योंकि यह कानून का एक स्थापित सिद्धांत है कि धारा-482 सीआरपीसी के तहत न तो सत्ता और न ही अनुच्छेद-226 के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करके उच्च न्यायालय शिकायत को खारिज कर सकता है; यदि प्रथम दृष्टया उसे अपराध के रूप में पेश किया गया है। हालाँकि मुकदमे की फाइल रहस्यमय तरीके से करीब एक साल तक गायब रही और अधिवक्ताओं की एक नयी टीम नियुक्त होने के बाद ही फिर से सामने आयी।

गायब फाइलों का रहस्य

मद्रास हाई कोर्ट से फाइलों के गायब होने की खबर को मीडिया ने प्रमुखता से प्रकाशित किया और मामले में इंसाफ न होने के तौर पर इसे एक चाल करार देकर आलोचना की गयी। जुलाई, 2018 में न्यायमूर्ति जी. जयचंद्रन ने कहा कि यह बेहद चिन्ताजनक है कि मामले के बंडल (फाइल्स) जो कि सैकड़ों की संख्या में थे, इस तरह गायब हो गये, जैसे कोई जहाज़ बरमूडा ट्रायंगल में लापता हो जाता है। इसके साथ ही जस्टिस ने मामले की जाँच केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) से कराने का आदेश दिया, जिनमें दस्तावेज़ गायब होने के 100 से अधिक मामले शामिल थे। साथ ही मद्रास हाई कोर्ट ने इसी तरीके से 55 मामलों की फाइलें गायब होने की सीबी-सीआईडी जाँच के भी आदेश दिये।

फॉरेंसिक रिपोर्ट

तमिलनाडु पुलिस की फॉरेंसिक रिपोर्ट में जालसाज़ी की बात साबित हो चुकी थी। बाद में जाली हस्ताक्षर वाले मूल दस्तावेज़ की इलेक्ट्रॉनिक प्रतियाँ तारीख बदलकर पेश की गयीं। इसलिए मूल दस्तावेज़ की तारीख से पहले जाली दस्तावेज़ का मिलान किया जा सका। फॉरेंसिक रिपोर्ट से यह साबित होता है कि दस्तावेज़ों में कई अन्य तरह की खामियाँ भी सामने आयीं, जो संज्ञेय अपराध की श्रेाणी में आती हैं।

पहले के किडनी रैकेट मामले

कुछ समय पहले बॉलीवुड के सुपरस्टार आमिर खान ने अपने लोकप्रिय टी.वी. कार्यक्रम ‘सत्यमेव जयते’ के माध्यम से चिकित्सा पेशे में अनियमितताओं और फर्ज़ीवाड़े को उजागर किया था। इस पर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने काफी हंगामा किया था और आमिर खान से माफी की माँग की थी। लेकिन अभिनेता ने साफ कहा था कि वह किसी भी कानूनी कार्रवाई का सामना करने के लिए तैयार हैं। आमिर ने कहा था कि अगर मेडिकल पेशे का अपमान और बदनामी किसी ने की है, तो यह सम्भवत: उन लोगों द्वारा किया गया है, जो अनैतिक तरीके से प्रैक्टिस कर रहे हैं। उन्होंने साफ किया था कि यह कार्यक्रम किसी भी तरह से डॉक्टरों या चिकित्सा व्यवसाय के खिलाफ नहीं था। इंद्रप्रस्थ अपोलो दिल्ली से 10 लोगों की गिरफ्तारी और नेफ्रोलॉजिस्टों से दिल्ली पुलिस की पूछताछ ने देश में गैर-कानूनी तरीके से किडनी रैकेट (गुर्दा तस्करी) में प्रतिष्ठित निजी स्वास्थ्य संस्थान की मिलीभगत की ओर साफ इशारा किया था। अपोलो अस्पताल के किडनी रैकेट से गुडग़ाँव किडनी रैकेट की याद आ जाती है, जिसके सरगना अमित कुमार को नेपाल से गिरफ्तार किया गया था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गरीब लोगों की किडनी निकालकर अमेरिका, इंग्लैंड आदि देशों के अमीर लोगों में किडनी प्रत्यारोपित करके बड़ी रकम ऐंठे जाने का धंधा चलाया जा रहा था। सन् 2000 के दशक की शुरुआत में अमृतसर में किडनी रैकेट सामने आया था, जिसने 200 करोड़ रुपये की कीमत में गरीब लोगों का शोषण किया था। उन्हें किडनी (गुर्दे) के बदले नाम मात्र के पैसे दिये गये। ये गुर्दे नकली दस्तावेज़ों के माध्यम से अमीर लोगों को प्रत्यारोपित किये गये थे। सन् 2015 में हैदराबाद पुलिस ने एक किडनी रैकेट का भंडाफोड़ किया और एक डॉक्टर को गिरफ्तार किया, जो 30 लाख या ज़्यादा के पैकेज में किडनी दानदाताओं की व्यवस्था और मरीज़ों को सर्जरी के लिए विदेश ले जाने का ज़िम्मा लेता था। भारतीय ट्रांसप्लांट रजिस्ट्री द्वारा संकलित आँकड़ों के अनुसार, सन् 1971 के बाद से देश में किये गये 21,395 किडनी प्रत्यारोपणों में से केवल 783 ही मृत अंग-दाताओं (कैडवर डोनर्स) से मिले। देश में दो लाख से अधिक किडनी की वार्षिक आवश्यकता स्पष्ट रूप से माँग और आपूर्ति के बीच एक बड़ा अन्तर दिखाती है और घोटालेबाज़ों द्वारा गरीबों के शोषण को उजागर करती है। गरीबों से मामूली दाम में खरीदे गये गुर्दे कहीं बड़ी रकम लेकर मरीज़ों में प्रत्यारोपित किये जाते हैं।

अंग और ऊतक प्रत्यारोपण का कार्य मानव अंग और ऊतक अधिनियम-2011 के तहत नियंत्रित होता है। अधिनियम के अनुसार, अंगों को या तो मृत या ब्रेन डेड लोगों से ही उनके परिजनों की सहमति से प्राप्त किया जा सकता है या जीवित अंग-दाताओं द्वारा दान किया जा सकता है। जिन अंग-दाताओं को कानून द्वारा मायता प्राप्त है, वे पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी, पोता-पोती जैसे रिश्तेदार हैं। अन्य जो स्नेह और लगाव से या किसी विशेष कारण से दान कर सकते हैं; लेकिन वित्तीय कारणों के लिए नहीं।

प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट द्वारा प्रमाणित अंग-दाता और अंग-प्राप्तकर्ता, दोनों की तस्वीरों वाले हलफनामों सहित प्रलेखन का एक व्यापक सेट (करार आदि के कागज़ों की प्रतियों का संग्रह) अंग प्रत्यारोपण के लिए आवश्यक है। इसके अलावा कैमरे के सामने साक्षात्कार भी होता है। सम्बन्धित और असंबद्ध अंग-दाताओं के लिए दो अलग-अलग समितियाँ मूल्यांकन करती हैं और मामले को मंज़ूरी देती हैं। सम्बन्धित अंग-दाताओं से जुड़ी प्रक्रियाओं को देखने वाली समिति में अस्पताल के कर्मचारी शामिल हैं; लेकिन यह वे लोग होते हैं, जो इलाज करने वाली टीम का हिस्सा नहीं होते। असम्बन्धित अंग-दाताओं के लिए सरकार द्वारा नामांकित (चयनित) दो व्यक्ति होते हैं, जो मामलों का मूल्यांकन करते हैं।

अपोलो किडनी रैकेट में पुलिस ने पाया कि अस्पताल में ट्रांसप्लांट सर्जन के सहायकों ने फर्ज़ी दस्तावेज़ तैयार किये और उन मरीज़ों के लिए डोनर हासिल किया, जो अंगों के लिए मोटी रकम देने को तैयार थे। ऐसे परिदृश्य में डॉक्टर स्वाभाविक रूप से एक बच निकलने का मार्ग खोज लेते हैं और कहते हैं कि हम डॉक्टर हैं, जाँच एजेंसी नहीं। हमें उन दस्तावेज़ों के हिसाब से चलना होगा, जो हमारे सामने रखे गये हैं। हमारे पास उनकी सत्यता की जाँच करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है।

इस मामले में अपोलो अस्पताल के तीन डॉक्टरों के नाम गिरोह के सरगना राजकुमार राव से पूछताछ के दौरान सामने आये थे, जो कथित तौर पर अलग-अलग राज्यों में काम कर रहे थे और अन्य देशों में इसी तरह के गिरोह के साथ सम्बन्ध स्थापित कर चुके थे। गिरोह के सम्बन्ध में एक गुर्दा रोग विशेषज्ञ के दो व्यक्तिगत सहायकों, कई बिचौलियों और दो महिलाओं सहित दाताओं, गिरोह के मुखिया के अलावा दो गुर्गों सहित 10 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया। इस बात की पुष्टि तत्कालीन पुलिस उपायुक्त मनदीप सिंह रंधावा ने की थी। उत्तर प्रदेश के कानपुर की दो महिलाओं और पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी के एक व्यक्ति सहित तीन दानदाताओं के साथ कोलकाता से कथित मास्टरमाइंड टी. राजकुमार की गिरफ्तारी से पता चला है कि इस कृत्य की जड़ें देश के अन्य हिस्सों में फैल गयी हैं। बृजेश चौहान (40) को पाँच किडनी प्रत्यारोपण के मामलों में शामिल पाया गया था, जिन्हें गिरोह के मुखिया टी. राजकुमार राव द्वारा लाया गया था। यह भी पाया गया कि राव अपने फेसबुक प्रोफाइल के माध्यम से जालंधर में एक पूर्व सहयोगी राज संगम के सम्पर्क में था और प्रत्यारोपण के लिए अग्रिम भुगतान भी स्वीकार कर चुका था। पुलिस को शक था कि कुछ मरीज़ अफगानिस्तान और अफ्रीका के मेडिकल पर्यटक हो सकते हैं। मुखिया पर नेपाल, श्रीलंका और इंडोनेशिया में समान रैकेट चलाने का संदेह था।

अपोलो हॉस्पिटल्स ने एक बयान में कहा था कि सभी सावधानियों को बरता गया था। नकली और जाली दस्तावेज़ों का इस्तेमाल आपराधिक इरादे से इस रैकेट ने किया था। अंग-दान, विशेष रूप से गुर्दा-दान, जो अक्सर एक बड़े रैकेट में तब्दील हो जाता है; ज़ाहिर करता है कि कालाबाज़ारी के कारण प्रत्यारोपण के लिए अंगों की उपलब्धता की कमी रहती है। अंग दान की प्रक्रिया और दस्तावेज़ों की स्क्रीनिंग एक समिति करती है। दिसंबर, 2015 में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री जे.पी. नड्डा ने संसद में इस समस्या पर प्रकाश डाला था। उन्होंने कहा था कि प्रत्यारोपण के लिए मानव अंगों की माँग और आपूर्ति के बीच एक बड़ा अन्तर है। सरकार माँग और आपूर्ति के अन्तर को पाटने के लिए कैडेवर अंगों के दान को बढ़ाने के लिए उच्च प्राथमिकता देती है और बड़ी संख्या में उन लोगों के जीवन को बचाती है, जो समस्या के अंतिम चरण में हैं। नड्डा ने वास्तव में सही जगह निशाना साधा था।

अन्य अस्पतालों में गलत काम

शीर्ष रैंकिंग अस्पतालों के गलत कामों ने अक्सर लोगों के विवेक को हिला दिया है। लेकिन शोर धीरे-धीरे कम हो जाता है और अस्पताल का पाँच सितारा कारोबार फल-फूल रहा है। इस तरह की एक जाँच रिपोर्ट कुछ समय पहले हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर सरकार को सौंपी गयी थी। इसमें गुडग़ाँव के फोर्टिस अस्पताल में सात साल की बच्ची आद्या सिंह की डेंगू से हुई मौत में चिकित्सा लापरवाही के आरोपों पर तीन सदस्यीय विशेषज्ञ समिति ने पाया था कि एम्बुलेंस में अस्पताल द्वारा जीवनदायी सपोर्ट (वेंटिलेटर) वापस लेने जैसी लापरवाही बरती जा रही है और यह कानून के खिलाफ है। बता दें 15 दिन आईसीयू में रखने के बाद लड़की की मौत हो गयी थी, जबकि अस्पताल ने इलाज के खर्च के रूप में परिवार को 16 लाख से अधिक का बिल थमा दिया था। रिपोर्ट कहती है कि चिकित्सा सलाह के खिलाफ छुट्टी की आड़ में अस्पताल अनैतिक तरीके से रोगियों से पेश आता है; जबकि परिचारक अब उपचार जारी नहीं रखना चाहते हैं। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि यह गम्भीर लापरवाही और अनैतिक आचरण है; क्योंकि बच्ची से ऑक्सीजन और जीवन स्पोर्ट को वापस ले लिया गया था। हालाँकि उपचारकर्ता डॉक्टर के ही बयान के अनुसार रोगी न तो ब्रेन डेड था और न ही कोमा में था, बल्कि जीवित था। इसलिए मामले को कार्रवाई के लिए मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया को भेजने की सिफारिश की जाती है, जबकि लड़की का इलाज करने वाले सभी वरिष्ठ डॉक्टरों को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने कहा कि राज्य सरकार ने हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण (हुडा) को फोर्टिस अस्पताल की ज़मीन का पट्टा रद्द करने के लिए कहा था। उन्होंने कहा कि सभी डेंगू रोगियों के बारे में सरकार को सूचित करने के निर्देश थे; लेकिन अस्पताल ऐसा करने में विफल रहा और इस सम्बन्ध में एक नोटिस भी जारी किया गया था। यह मामला सरकारी अस्पतालों में सस्ती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने में उनकी विफलता की तरफ भी अधिकारियों का ध्यान खींचता है, जिसकी मजबूरी के कारण लोगों को इन महँगे पाँच सितारा निजी अस्पतालों में जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। एक सभ्य समाज लोगों को सस्ती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने में सक्षम होना चाहिए। मैक्स अस्पताल, शालीमार बाग के मामले में, दिल्ली सरकार द्वारा गठित एक पैनल ने पाया है कि अस्पताल ने नवजात शिशु को मृत घोषित करने से पहले निर्धारित चिकित्सा मानदंडों का पालन नहीं किया था। इस मामले की रिपोर्ट में पाया गया कि यह जाँचने के लिए कोई ईसीजी नहीं किया गया कि बच्चा जीवित था और बॉडी को बिना किसी लिखित निर्देश के सौंप दिया गया था। रिपोर्ट के मुताबिक, मृत और जीवित जुड़वा बच्चों को अलग-अलग नहीं रखा गया था।

जुड़वाँ बहन-भाई 30 नवंबर को पैदा हुए थे और दोनों को मृत घोषित कर दिया गया और माता-पिता को एक पॉलिथीन बैग में सौंप दिया गया। हालाँकि अन्तिम संस्कार से ठीक पहले, परिवार ने पाया कि नर शिशु साँस ले रहा था। कुछ दिन के बाद पीतमपुरा के एक नर्सिंग होम में शिशु की मृत्यु हो गयी। पुलिस ने इस सिलसिले में एक मामला दर्ज किया है। दिल्ली सरकार ने कथित चिकित्सा लापरवाही के आधार पर तत्काल प्रभाव से मैक्स अस्पताल, शालीमार बाग का लाइसेंस रद्द कर दिया था। इसके अलावा अस्पताल के कीपर को किसी भी नये इनडोर रोगी को स्वीकार करने से रोकने और परिसर में सभी बाहरी उपचार सेवा को तत्काल प्रभाव से बन्द करने का निर्देश दिया गया था। एक ट्वीट में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि हम निजी अस्पतालों के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते हैं; लेकिन अगर मरीज़ों को लूटा जाता है, उन्हें धोखा दिया जाता है और अस्पताल आपराधिक लापरवाही के दोषी हैं, तो एक ज़िम्मेदार सरकार होने के नाते हम ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करेंगे।

मैक्स हेल्थकेयर के अधिकारियों ने लाइसेंस रद्द करने के घंटों बाद जारी एक बयान में कहा कि हमें सुनने का पर्याप्त अवसर नहीं दिया गया है। हम दृढ़ता से मानते हैं कि यह निर्णय कठोर है, भले ही निर्णय एक व्यक्तिगत त्रुटि का नतीजा हो। अस्पताल को ज़िम्मेदार ठहराना अनुचित है और यह रोगियों के उपचार तक पहुँचने की क्षमता को गम्भीर रूप से सीमित कर देगा। यह राष्ट्रीय राजधानी में अस्पताल की सुविधाओं की कमी को बढ़ायेगा। इस बीच अस्पताल ने इस मामले में कथित रूप से शामिल दो डॉक्टरों की सेवाएँ समाप्त कर दीं। बड़े अस्पताल खुद को कैसे समृद्ध कर रहे हैं, यह भारत के प्रतिस्पर्धा आयोग के उप महानिदेशक द्वारा की गयी जाँच से समझा जा सकता है। उन्होंने जाँच में पाया कि मैक्स सुपर-स्पेशियलिटी अस्पताल, पटपडग़ंज, डिस्पोजेबल सिरीज़ की बिक्री पर 275 फीसदी से 525 फीसदी लाभ कमा रहा है। रोगियों को अपने स्वयं के फार्मेसी से ऐसे उत्पादों को खरीदने के लिए मजबूर करने के लिए अपनी स्थिति का दुरुपयोग कर रहा है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि इन मरीज़ों से इस तरह के भारी मुनाफे को निकालना मैक्स समूह के सभी 14 अस्पतालों में प्रचलित था। रिपोर्ट इंगित करती है कि कार्पोरेट अस्पतालों द्वारा मरीज़ों से भारी मुनाफा बनाने की प्रथा व्यापक रूप से प्रचलित है।

चौंकाने वाली बात यह है कि दिल्ली मेडिकल काउंसिल स्वीकार करती है कि उसे मिलने वाली अधिकांश शिकायतें चिकित्सा लापरवाही को लेकर हैं। डीएमसी अध्यक्ष अरुण गुप्ता के अनुसार, लगभग 70 फीसदी शिकायतें निजी अस्पतालों और बाकी सरकारी अस्पतालों के खिलाफ हैं। पिछले दो साल में हमें 521 शिकायतें मिली हैं। उद्धृत प्रत्यक्ष कारण गलत उपचार या अनावश्यक चिकित्सा प्रक्रिया है, जबकि शिकायतों का एक बड़ा कारण अक्सर अधिक बिलिंग है। गौरतलब है कि डीएमसी को सभी राज्य चिकित्सा परिषदों में से सबसे ज़्यादा शिकायतें मिलती हैं। पिछले दो साल में 48 डॉक्टरों को उनके गलत कामों की गम्भीरता के आधार पर अलग-अलग अवधि के लिए परिषद् से उनका पंजीकरण खत्म कर दिया गया है।

युद्धपोत पर तैनाती को तैयार महिला फाइटर

‘रख तू हौसला बुलंद, रख तू हौसला बुलंद

मत बैठ तू अपनी िकस्मत के भरोसे

बदल दे अपनी िकस्मत को मेहनत से

कामयाबी कदम चूमेगी एक-न-एक दिन’

एक समय तो ऐसा था कि महिलाओं को जंग के नाम पर हल्के में लिया जाता था, क्योंकि उन्हें कमज़ोर दिल वाला समझा जाता था; लेकिन बदलते वक्त और समय की माँग ने इसे गलत साबित कर दिया। लैंगिक मतभेद की धारणा को तोड़ते हुए देश की बेटियाँ जब, जहाँ भी ज़रूरत पड़ी, एक कदम आगे ही नज़र आयीं। भारतीय नौसेना के इतिहास में पहली बार दो महिला अफसरों सब-लेफ्टिनेंट कुमुदिनी त्यागी और सब-लेफ्टिनेंट रीति सिंह के युद्धपोत पर तैनाती का रास्ता साफ होना इसका प्रमाण है। इन दोनों जाँबाज़ों को हेलिकॉप्टर स्ट्रीम में ऑब्जर्वर (एयरबोर्न टैक्निशियंस) के पद के लिए चुन लिया गया है।

सब-लेफ्टिनेंट कुमुदिनी त्यागी और सब-लेफ्टिनेंट रीति सिंह समेत 17 अफसरों को 21 सितंबर को ऑब्जर्वर के रूप में स्नातक होने पर विंग्स से सम्मानित किया गया। यानी ये सभी महिलाएँ देश में युद्ध में ज़रूरत पडऩे पर अग्रिम मोर्चे की तैनाती के लिए तैयार हैं। इनमें से दोनों सब-लेफ्टिनेंट तो इसका प्रशिक्षण लेना भी शुरू कर देंगी। कोच्चि में आईएनएस गरुड़ पर एक भव्य कार्यक्रम के माध्यम से उपरोक्त महिला जाँबाज़ों को सम्मानित किया गया। इनमें 13 अफसर रेगुलर बैच से हैं और चार महिला अफसर शॉर्ट सर्विस कमीशन से हैं। ये अफसर भारतीय नौसेना और भारतीय तटरक्षक बल के समुद्री टोही विमानों और पनडुब्बी-रोधी जंगी जहाज़ों में दुश्मनों से लोहा लेने के लिए 24 घंटे मुस्तैद रहने को तैयार होंगी। रियर एडमिरल एंटनी जॉर्ज ने इस अवसर को ऐतिहासिक बताते हुए कहा कि पहली बार भारतीय नौसेना में महिलाओं को हेलिकॉप्टर ऑपरेशन की ट्रेनिंग दी जा रही है। 91वें रेगुलर कोर्स और 22वें एसएससी ऑब्जर्वर कोर्स के अफसरों को एयर नेविगेशन, फ्लाइंग प्रोसिजर, एयर वॉरफेयर, एंटी-सबमरीन वॉरफेयर का प्रशिक्षण दिया गया। यह न सिर्फ महिलाओं में हौसलों की उड़ान भरेगा, बल्कि उनमें एक नया जोश व ज•बा पैदा कर देश की युद्ध कौशल क्षमता को और मज़बूती प्रदान करेगा।  गाज़ियाबाद की रहने वाली सब-लेफ्टिनेंट कुमुदिनी त्यागी और सब-लेफ्टिनेंट रीति सिंह देश की पहली दो बेटियाँ एयरबोर्न टेक्नीशियन होंगी, जिनको युद्धपोत में क्रू के तौर पर तैनात किया जाएगा। अब तक महिलाओं की एंट्री फिक्स्ड विंग एयरक्राफ्ट तक सीमित थी, जो समुद्र तट के पास ही टेक ऑफ और लैंडिंग किया करते थे।

महिला पायलट को राफेल की ट्रेनिंग

महिला अफसरों को जंगी जहाज़ों पर तैनाती के बीच ही भारतीय वायुसेना ने भी महिला लड़ाकू पायलट को अत्याधुनिक राफेल लड़ाकू विमानों की फ्लीट को ऑपरेट करने के लिए शॉर्टलिस्ट किया है। अंबाला में भारतीय वायुसेना के राफेल स्क्वाड्रन ने पहली महिला फाइटर को ट्रेनिंग देना भी शुरू कर दिया है। जल्द ही राफेल के लिए महिला पायलट मिल जाएगी। गोल्डन ऐरो स्क्वाड्रन में इस जाँबाज़ महिला फाइटर को शामिल किया जाएगा, जिसमें राफेल विमानों को शामिल किया गया है। अभी तक इस स्क्वाड्रन में पुरुष फाइटर पायलट ही शामिल थे। पिछले महीने ही फ्रांस से पाँच लड़ाकू विमान आये थे; जिनको हाल ही में भारतीय वायुसेना में शामिल किया गया है। हरियाणा के अंबाला एयरबेस में ये पाँच राफेल लड़ाकू विमान हैं। बता दें कि भारत ने फ्रांस से 36 राफेल जेट खरीदे हैं। बाकी 31 अगले साल के अन्त तक आने हैं। फ्लाइट लेफ्टिनेंट शिवांगी सिंह राफेल लड़ाकू विमान उड़ाने वाली पहली महिला पायलट होंगी। वाराणसी निवासी शिवांगी करीब सवा महीने से अंबाला में ट्रेनिंग ले रही हैं। उनकी ट्रेनिंग पूरी होते ही उन्हें यह ज़िम्मेदारी सौंपी जाएगी। अभी वायुसेना में 10 महिला फाइटर पायलट और 18 नेविगेटर हैं। वायुसेना में महिला अधिकारियों की संख्या 1875 है। 2018 में फ्लाइंग ऑफिसर अवनि चतुर्वेदी अकेले लड़ाकू विमान उड़ाने वाली पहली भारतीय महिला बनी थीं। फ्लाइट लेफ्टिनेंट मोहना सिंह और फ्लाइट लेफ्टिनेंट भावना कंठ पहली बार बतौर फाइटर पायलट वायुसेना में शामिल हुई थीं।

बिहार चुनाव की बजी रणभेरी, भाजपा का बड़ा इम्तिहान

बेहद खराब अर्थ-व्यवस्था, लम्बे लॉकडाउन में बढ़ी बेरोज़गारी, महामारी का आँकड़ा एक लाख तक पहुँचने, तीन कृषि विधेयकों के खिलाफ किसान आंदोलन के बीच और चीन के साथ सीमा पर गम्भीर तनाव के बीच बिहार विधानसभा का चुनाव घोषित हो गया है। यह विधानसभा चुनाव केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए भी राजनीतिक रूप से एक बड़ी चुनौती है। देखना दिलचस्प होगा कि 14 नवंबर की दीवाली पर जनता किसे पटाखे फोडऩे का अवसर देती है।

विदित हो कि कोविड-19 के कहर के बीच देश का यह पहला विधानसभा चुनाव है। बिहार के सबसे बड़े नेता लालू प्रसाद यादव जेल में हैं और उनकी पार्टी का नेतृत्व उनके युवा बेटे तेजस्वी यादव के हाथ में है।  इधर नीतीश कुमार भी कम चिंतित नहीं होंगे, क्योंकि जनता उनसे भी खासी नाराज़ है। एक मुख्यमंत्री के नाते उनके काम और लॉकडाउन के दौरान लाखों लोगों के पलायन से उपजी स्थिति ने निश्चित ही एक बड़ी आबादी को नाराज़ किया है। नीतीश को उस स्थिति को भी सँभालना होगा। भाजपा से गठबंधन नीतीश ने चुनाव के बाद बने आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन से तोड़कर बनाया था; जिसके बाद उन्हें महागठबंधन की तरफ से पलटू की संज्ञा दी गयी। इस चुनाव के नतीजे यह भी बताएँगे कि क्या नीतीश का भाजपा के साथ जाना जनता को सही लगा या नहीं? कोविड की पाबंदियाँ निश्चित ही मतदान और नतीजों को प्रभावित करेंगी। बहुत बड़ी संख्या में वोटर मतदान करने निकलेंगे, इसकी सम्भावना बहुत ज़्यादा नहीं दिखती। और यदि निकले, तो इसे नीतीश सरकार के खिलाफ माना जाएगा। खासकर ग्रामीण इलाकों में मतदान प्रतिशत देखना होगा।

नीतीश कुमार नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन (एनडीए) की तस्वीर अभी साफ नहीं है। चिराग पासवान की लोजपा ने पेच फँसा रखा है। लोजपा कह रही है कि वो अपने गठबंधन के साथी जदयू के उम्मीदवारों के खिलाफ उम्मीदवार उतार सकती है। लोजपा सीटों के मामले में भाजपा के खाते की पार्टी है, लिहाज़ा भाजपा को उसे सँभालना होगा। जदयू इस पर अभी चुप है; लेकिन राजग में हाल में शामिल हुए हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) ने लोजपा के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया है। हम लोजपा के खिलाफ उम्मीदवार उतारने का ऐलान कर चुका है। भाजपा के सबसे बड़े चुनाव रणनीतिकार अमित शाह अस्वस्थ हैं और चुनाव का पूरा ज़िम्मा अध्यक्ष जेपी नड्डा के ज़िम्मे है। भाजपा लोजपा को बहुत भाव नहीं दे रही। वह साफ कर चुकी है कि लोजपा को ले-देकर 25 सीट ही देगी। उपेंद्र कुशवाहा के एनडीए में जाने से उसे कितना लाभ मिलेगा? देखना होगा। उधर लालू यादव दूसरे राज्य में जेल में हैं। लेकिन महागठबंधन की रणनीति पर लगातार सक्रिय दिख रहे हैं। आरजेडी के बड़े नेता रघुवंश प्रसाद सिंह का हाल में निधन हो गया, जिससे महागठबंधन उनके अनुभव और जनता में पैठ का लाभ नहीं उठा पायेगा। अन्तिम समय में वह आरजेडी से नाराज़ भी थे और इस्तीफे की घोषणा कर चुके थे।

कुशवाहा के जाने के बावजूद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला का दावा है कि महागठबंधन बिहार में एकजुट है। अब चूँकि चुनाव का ऐलान हो गया है, सभी गठबंधन अपने सहयोगियों का फोकस करेंगे। महागठबंधन के पास केंद्र और राज्य सरकार के खिलाफ बहुत कुछ कहने को है और मुद्दे भी काफी हैं। हालाँकि नीतीश कह रहे हैं कि आकार का काम बेहतर रहा है। यह चुनाव पाबंदियों से भरा होगा।

चुनाव प्रचार सिर्फ वर्चुअल होगा और नामांकन भी ऑनलाइन भरे जा सकेंगे। इसके अलावा राजनीतिक दलों के लिए यह अनिवार्य होगा कि वे वेबसाइट पर उम्मीदवार के खिलाफ आपराधिक मामलों की जानकारी दें। उम्मीदवारों को अखबार में भी इसकी जानकारी देनी होगी। सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर कार्रवाई की जाएगी। कोरोना वायरस की वजह से चुनाव में उम्मीदवार समेत कुल पाँच लोग ही डोर-टू-डोर कैंपेन में हिस्सा लेंगे। चुनाव प्रचार में जनता की सभाओं में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना होगा। ज़ाहिर है कि इस बार बड़ी-बड़ी जनसभाएँ नहीं की जा सकेंगी। नामांकन के दौरान उम्मीदवार के साथ दो से अधिक गाडिय़ाँ नहीं जा सकेंगी। इस बार मतदान का समय बढ़ाया गया है। सुबह 7:00 से शाम 6:00 बजे तक मतदान होगा। नक्सल प्रभावित इलाकों में ऐसा नहीं होगा। इसके अलावा कोविड-19 के मरीज़ अंतिम के घंटे में वोट डाल पाएँगे। महामारी को देखते हुए छ: लाख पीपीई किट राज्य चुनाव आयोग को दी जाएँगी। चुनाव के दौरान 46 लाख से अधिक मास्क, सात लाख हैंड सैनिटाइजर का इस्तेमाल किया जाएगा। एक बूथ पर 1000 मतदाता होंगे। एक लाख से ज़्यादा मतदान केंद्र होंगे।

तीन चरणों में होगा मतदान

चुनाव आयोग ने 25 अगस्त को जब चुनाव के घोषणा की, तो चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने कहा कि सुरक्षा बंदोबस्त और त्योहारों के मद्देनज़र बिहार चुनाव के चरण कम किये गये हैं। चुनाव तीन चरणों में होंगे। पहले चरण में 16 ज़िलों की 71 सीटों के लिए 28 अक्टूबर को, दूसरे चरण में 17 ज़िलों की 94 सीटों के लिए 3 नवंबर को, जबकि तीसरे चरण में 15 ज़िलों की 78 सीटों के लिए 7 नवंबर को मतदान होगा। नतीजे 10 नवंबर को आएँगे।

वर्तमान स्थिति 

बिहार विधानसभा की कुल 243 सीटें हैं, जिसमें आज की एनडीए की 130 सीटें हैं। इनमें जदयू की 69, भाजपा की 54, लोजपा की 2, हम पार्टी की एक सीट है; जबकि निर्दलीय 4 हैं। उधर महागठबंधन की कुल सीटें 101 हैं। इनमें राजद की 73, कांग्रेस की 23, सीपीआई (एमएल) की 3 और एक निर्दलीय उनके साथ है। अन्य दलों में एआईएमआईएम का एक सदस्य है, जबकि 12 सीटें फिलहाल खाली पड़ी हैं।

कृषि विधेयकों के खिलाफ अनवरत आंदोलन पर अन्नदाता

केंद्र सरकार के तीन कृषि अध्यादेशों के खिलाफ देश की विकास दर में 20 फीसदी का हिस्सा देने वाला अन्नदाता (किसान) आज सड़कों पर आंदोलनरत है। खेती से जुड़े तीन अध्यादेशों में ऐसा क्या है? जिस पर किसान वर्ग को ज़रा भी भरोसा नहीं है। किसानों को ही क्यों? सरकार के घटक शिरोमणि अकाली दल (शिअद) को भी ये बिल नागवार गुज़रे हैं। नतीजतन केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल इस्तीफा देकर खुलेआम सरकार के साथ नहीं, बल्कि किसानों के साथ खड़ी दिखायी दीं। उनके इस्तीफे को राजनीति से जोड़कर या दिखावा कहकर नहीं देखा जा सकता।

यह अलग बात है कि उन्होंने इस्तीफा देरी से दिया, पर हिम्मत तो दिखायी। वह चाहतीं, तो हरियाणा में किसानों की पार्टी कही जाने वाली जननायक जनता पार्टी की तरह किसानों की हितैषी बनकर भी मंत्री बनी रह सकती थीं। हरियाणा में जजपा कोटे से उप मुख्यमंत्री बने दुष्यंत चौटाला अब तक अध्यादेशों के खिलाफ एक शब्द तक नहीं बोल सके हैं। इसके विपरीत जजपा के विधायक रामकुमार ने राज्य सरकार को किसान संगठनों से बातचीत करने की माँग की है। उन्होंने लाठीचार्ज की घोर निंदा करते हुए पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई की माँग भी की है। वह कहते हैं किसानों पर दर्ज मामले वापस लेकर उनका भरोसा जीतना चाहिए।

पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह कहते हैं, यह सब दिखावा ही तो है। जब इन प्रस्तावों पर चर्चा हो रही थी, तभी हरसिमरत को विरोध जताते हुए इस्तीफा देना चाहिए था। तब वह चुप क्यों रहीं, अब अध्यादेश आने के बाद वह इस्तीफा देकर किसानों की हितैषी बनने का ड्रामा कर रही हैं। अगर अध्यादेश किसानों के खिलाफ है, तो शिअद को गठबन्धन से अलग हो जाना चाहिए। उन्होंने इस्तीफा कब दिया? जब राज्य में किसान आंदोलन पर उतर आये। जब देखा कि किसान इस मुद्दे पर करो या मरो की नीति पर उतर आये हैं, तब। वैसे देखा जाए तो हरसिमरत पहले ऐसा करतीं, तो भी क्या फर्क पड़ता? सरकार को ऐसा करना ही था। ऐसे में हरसिमरत का कदम एक मायने में ठीक ही कहा जा सकता है।

हरियाणा में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है। यहाँ जननायक जनता पार्टी (जजपा) सरकार में शामिल है, जिसे किसानों की ही पार्टी के तौर पर जाना जाता है। पार्टी नेता दुष्यंत चौटाला सरकार में उप मुख्यमंत्री है। किसानों ने उनके आवास पर प्रदर्शन करके बता दिया है कि वह (किसान) चौटाला के सरकार के साथ वाले रवैये से खुश नहीं हैं। क्योंकि अध्यादेशों का विरोध न करके चौटाला अपरोक्ष रूप से केंद्र सरकार का समर्थन कर रहे हैं। जजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अजय चौटाला तो स्पष्ट कर चुके हैं कि पार्टी का गठबन्धन तोडऩे का कोई विचार नहीं है। रही बात किसानों की, तो उसके लिए हर सम्भव प्रयास करेंगे। उनके हितों पर कुठाराघात नहीं होने देंगे। कैसी बयानबाज़ी है यह? सत्ता में बने रहने की चाह और खुद को किसानों का हितैषी दिखाना, दोनों विरोधीभासी बातें हैं। अध्यादेशों का सबसे पहले विरोध ही हरियाणा में हुआ। कुरुक्षेत्र के पिपली में किसानों ने आंदोलन किया, तो उन पर लाठीचार्ज हुआ; जिसकी चौतरफा आलोचना हुई। किसानों के बचाव में मनोहर लाल खट्टर सरकार नहीं, बल्कि भाजपा संगठन आगे आया।

प्रदेशाध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ ने लाठीचार्ज को गलत बताते हुए किसान प्रतिनिधियों से बातचीत करके हल निकालने का भरोसा दिलाया। फिलहाल तीन सांसदों पर आधारित समिति गठित कर दी गयी है, जिसे किसानों से बातचीत करके अपनी रिपोर्ट देनी है। भाजपा सांसद धर्मवीर सिंह, बृजेंद्र सिंह और नायब सिंह सैनी ने क्या बातचीत की और क्या हल निकाला? कुछ भी तो नहीं। वे तो अध्यादेशों की वकालत करते ही नज़र आये। वे पार्टी लाइन से बाहर नहीं जा सकते थे। भारतीय किसान यूनियन हरियाणा के नेता गुरनाम सिंह कहते हैं कि ये विधेयक किसानों की स्थिति बद से बदतर कर देंगे। इन्हें हम स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि हमें हमारा भविष्य पता है। हम करो और मरो की लड़ाई लड़ रहे हैं, क्योंकि यह हमारी अस्मिता का सवाल है। उन्होंने बताया कि हरियाणा और पंजाब में 30 से ज़्यादा किसान यूनियनें विधेयकों के विरोध में हैं। जिस वर्ग के लिए ये विधेयक लाये जा रहे हैं, क्या उनके नेताओं से विचार-विमर्श नहीं किया जा सकता था? अगर किया जाता, तो इतना विरोध न होता और विधेयक इस सूरत में न आते।

यूनियन के प्रवक्ता राकेश बैंस के मुताबिक, केंद्र सरकार ज़बरदस्ती विधेयकों को हम पर थोपना चाहती है, ऐसा हम नहीं होने देंगे। यह मामला कहीं-न-कहीं राज्यों से जुड़ा है; लेकिन राज्य सरकारों से भी इस बारे में चर्चा नहीं की गयी। मंत्रिमंडल में मंत्रणा कर इसे लागू करना ही बताता है कि कहीं नीयत में खोट है। किसानों के समर्थन में हरियाणा कच्चा आड़तिया एसोसिएशन और हरियाणा राइस मिलर्स एसोसिएशन ने भी समर्थन दिया है। उन्हें डर है कि नयी व्यवस्था में उनका काम बहुत कम हो जाएगा। बड़े कार्पोरेट घरानों के हाथ में सब कुछ चला जाएगा। किसान यूनियनों ने साफ कर दिया है कि वे किसान विरोधी विधेयकों का तब कर विरोध करती रहेंगी, जब तक कि सरकार इन्हें वापस नहीं ले लेती। बता दें कि इन विधेयकों के विरोध में 25 सितंबर को पंजाब में रेल रोको आंदोलन भी चलाया गया। यूनियनों ने चेतावनी दी है कि अगर सरकार ने तीनों विधेयक वापस नहीं लिये, तो देशव्यापी आंदोलन किया जाएगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के भरोसा दिलाने के बाद भी अन्नदाता इन्हें लागू न होने देने पर अडिग हैं। सवाल यह कि कोरोना-काल में ऐसे विधेयक लाने की ज़रूरत ही क्यों पड़ी? विधेयक देशहित से जुड़े विषयों पर लाना चाहिए, जिससे करोड़ों लोग लाभान्वित होते हों। यह अनुकूल समय नहीं था, ऐसे विधेयकों को लाने का। फिर ये विधेयक राज्य सरकारों और किसान संगठनों से विचार-विमर्श किये बिना लाये गये। इसका विरोध स्वाभाविक ही था और आंदोलन होने की आशंका केंद्र सरकार को कहीं-न-कहीं ज़रूर होगी, पर व्यापक स्तर पर विरोध का अनुमान रहा नहीं होगा। विधेयकों की प्रतियाँ सरेआम जुलाई जा रही है। प्रधानमंत्री के पुतले जलाये जा रहे हैं। सड़कों पर जाम लगाये जा रहे हैं। राज्यव्यापी बन्द के आह्वान किये जा रहे हैं।

वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने वाली केंद्र सरकार क्या इसी मकसद से ये विधेयक लागू करने जा रही है? कृषि मंत्री संसद में कहते हैं कि विधेयकों को लागू होने दो; देखो, इससे किसानों की ज़िन्दगी कैसे बदलती है? पर इससे पहले मोदी के इस कथित ऐतिहासिक कदम की सराहना ज़रूर करनी पड़ती है। किसान यूनियन के नेता कहते हैं कि ज़िन्दगी तो बदल जाएगी, लेकिन किस रूप में? क्या इसके बारे में भी सोचा गया है। विधेयकों को किसानों के लिए डेथ वारंट बताने वाले कांग्रेस सांसद प्रताप सिंह बाजवा और राहुल गाँधी के इससे किसान को गुलामी की जंजीरों में जकडऩे जैसा बताना गलत तो नहीं है। विधेयकों में न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का हवाला नहीं है। यही वजह है कि किसान इनका विरोध कर रहे हैं। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में गेहूँ और चावल समर्थन मूल्य पर केंद्र सरकार की एजेंसियाँ गारंटी के साथ खरीदती हैं। भविष्य में क्या ऐसा होगा? विधेयकों में गारंटी शब्द का उल्लेख नहीं, बल्कि समर्थन मूल्य कायम रखने की बात है। कायम रहने और गारंटी में दिन रात का अन्तर है? उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में व्यापारी समर्थन मूल्य से नीचे उत्पाद खरीदते हैं; क्योंकि किसान उन्हें लम्बे समय तक रख नहीं सकता। वहाँ समर्थन मूल्य तो है, लेकिन वह किसान को मिल तो नहीं रहा है। बस यही आशंका किसान के मन में है और केंद्र सरकार इस बारे में कुछ नहीं बोल रही। वह समर्थन मूल्य की बात तो कह रही है, लेकिन गारंटी नहीं दे रही कि वह सीजन के दौरान अन्नदाता का दाना-दाना गारंटी के साथ खरीदेगी। समर्थन मूल्य तो है, लेकिन वह किसानों को मिल नहीं रहा। हरियाणा की एक मंडी में बाजरा समर्थन मूल्य से 500 रुपये नीचे रहा है। व्यापारी खरीद रहे हैं; क्योंकि किसान को पैसे की ज़रूरत है। वह भण्डारण नहीं कर सकता, उस पर पहले ही देनदारी है। व्यापारी इसी बाजरे को समर्थन मूल्य से कहीं ज़्यादा बेचेगा। अगर समर्थन मूल्य की गारंटी नहीं जोड़ी जाती, तो निश्चित तौर पर आने वाला किसानों के लिए बहुत बुरा साबित होगा।

पंजाब और हरियाणा में गेहूँ और चावल की बंपर फसल होती है, अभी ये उत्पाद मंडियों में समर्थन मूल्य पर बिक जाते हैं। भविष्य में क्या ऐसी व्यवस्था रहेगी? क्यों नहीं केंद्र सरकार गारंटी शब्द को इसमें जोड़ देती, सब कुछ ठीक हो जाएगा। दो माह के बाद चावल की फसल तैयार हो जाएगी, तब पता चल जाएगा कि समर्थन मूल्य पर कितनी खरीद हो पाती है। अगर पहले जैसी व्यवस्था रही तो सब कुछ ठीक हो जाएगा, वरना इससे भी ज़्यादा स्थिति खराब होने वाली है।

विधेयक लागू होने के बाद किसान देश में कहीं भी अनाज बेचने के लिए स्वतंत्र होगा? इसका क्या मतलब है? क्या मेरठ का किसान अपना उत्पाद पंजाब या हरियाणा कि किसी मंडी में बेचने के लिए आयेगा? जब समर्थन मूल्य एक जैसा है और नियमानुसार उससे नीचे उत्पाद बिक नहीं सकता, तो क्या अन्य राज्यों में उसे ज़्यादा दाम मिलेंगे? कैसी कल्पनाशीलता है। इससे उसका खर्च बढ़ेगा जबकि दाम ज़्यादा मिलने का सवाल ही नहीं होता।

विधेयक से अनाज ज़रूरी सामग्री नहीं रहेगी। कोई भी इसका भण्डारण कर सकेगा उस पर कोई रोक नहीं रहेगी। इससे कालाबाज़ारी बढऩे से कोई इन्कार नहीं कर सकता। किसान के खेत से समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने कौन आयेगा? यह वे भी जानते हैं। छोटे किसानों का क्या होगा? जो अभी तक पास की मंडियों में बेच लेते थे। नयी व्यवस्था में आढ़तियों का काम बहुत कम हो जाएगा। मंडियाँ ऐसे नहीं रहेंगी। ये सब आशंकाएँ और केंद्र की कपोल कल्पनाएँ हैं। सब कुछ वही रहेगा, किसान और इनके नेताओं ने विधेयक की गहराई तक जाने की कोशिश नहीं की। सरकार किसानों के सशक्तिकरण का भरोसा दिलाती है, पर अन्नदाता को इस पर भरोसा नहीं है। उसे लागत के हिसाब से फसल का दाम और समर्थन मूल्य पर उत्पाद की बिक्री गारंटी से हो जाए, यही उसके लिए अच्छा है। रही बात आर्थिक स्थिति की, तो उसमें सुधार की गुंजाइश नहीं है। कर्ज़ के बोझ से दबे किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला अनवरत चला आ रहा है। न्यूनतम समर्थन मूल्य कागज़ों में रहेगा और उत्पाद उससे नीचे के दाम पर बिकेगा, तो किसान कहाँ तक बचा रहेगा।

अनुबंधित खेती के नफे-नुकसान किसान को पता है। भारत का किसान इसे नहीं अपना सकेगा; क्योंकि इसमें काफी कानूनी अड़चनें होती हैं। वह खेती में फसलों का बदलाव तो कर सकता है, पर किसी कॉरपोरेट के अनुबन्ध के अनुुसार उत्पाद नहीं दे सकता। बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने गुज़रात में आलू खरीद के लिए कुछ किसानों से अनुबन्ध किया था। फसल तैयार हुई, तो वह अनुबन्ध के पैमाने पर खरी नहीं उतरी और भुगतान का संकट हो गया। कानूनी अड़चनों का सामना करना पड़ा, वह अलग से। किसान अपनी ही भूमि पर हिस्सेदार की तरह काम नहीं कर सकता। अनुबन्ध की खेती में वह कागज़ों में ज़मीन का मालिक है; लेकिन प्रबन्धन दूसरे के हाथ में होगा। अनुबन्ध आधार पर खेती का प्रयोग भविष्य में यहाँ सफल होने की उम्मीद काफी कम है। कांग्रेस तो तीनों विधेयकों के बिल्कुल ही खिलाफ है। किसान पंजाब के मुख्यमंत्री के गृह ज़िले में ज़ोरदार धरना प्रदर्शन कर रहे हैं। पूरा विपक्ष किसानों के समर्थन में आ जुटा है; लेकिन केंद्र सरकार इस मुद्दे पर अडिग है। राज्य में किसानों ने सबसे पहले पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के गृह गाँव बादल में प्रदर्शन करके रोष जता रहे हैं। रात-दिन यह प्रदर्शन चल रहा है। वहाँ प्रीतम सिंह नामक किसान ने इस दौरान ज़हर भी खा लिया।

किसान नेताओं ने बताया ज़िला मानसा के गाँव अक्कावाली के प्रीतम सिंह विधेयक के बहुत खिलाफ और चिंतित थे। राज्य में भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के एक दर्ज़न से ज़्यादा संगठन किसानों का नेतृत्व कर रहे हैं। इनमें भाकियू एकता (दकोंदा) राजेवाल, उग्राहन और लाखोवाल हैं। किसान नेता हरिंदर सिंह लाखोवाल के मुताबिक, विधेयकों से किसान तबाह हो जाएगा। पंजाब की खेती बर्बाद हो जाएगी। केंद्र सरकार किसानों के आंदोलन को गम्भीरता से नहीं ले रही है, लेकिन आने वाले दिनों में उसे पता चल जाएगा कि हम कहाँ तक जा सकते हैं। आर-पार की इस लड़ाई में क्या किसान अपने हितों को सुरक्षित रखने में सफल हो सकेंगे? क्या केंद्र सरकार किसानों के कथित भ्रम को बातचीत के माध्यम से दूर कर सकेगी? अनगिनत सवाल हैं, पर केंद्र सरकार का मकसद किसी भी तरह विधेयकों को कानून का रूप देना है। खेती की दिशा और किसान की दशा क्या होगी? यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। संवादहीनता से स्थिति बिगड़ रही है। ऐसे में किसानों के भरोसे को जीतना ही सही कदम होगा।

तीनों विधेयक पास

कृषि से जुड़े तीनों विधेयक- कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (समर्थन और सरलीकरण) विधेयक-2020, कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा कर करार विधेयक-2020 एवं आवश्यक वस्तु (संसोधन) विधेयक-2020 संसद में पास हो चुके हैं।

हौसले की उड़ान

विलियम शेक्सपियर ने अपनी किताब ‘हेमलेट’ में लिखा है- ‘निर्बलता, तुम्हारा दूसरा नाम स्त्री है।’ लेकिन भारत में ऐसा नहीं है; क्योंकि यहाँ समय-समय पर महिलाओं ने अपने कौशल और पराक्रम से दुनिया भर को चकित किया है। अब लिंग समानता की दिशा में देश में एक बड़ा कदम उठाया गया है और महिलाएँ युद्धक्षेत्र में प्रवेश कर रही हैं। हालाँकि यह कोई नयी बात नहीं है, क्योंकि यहाँ पर रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाएँ भी हुई हैं, जो युद्ध भूमि पर अकेले ही दुश्मनों के हौसले पस्त कर चुकी हैं। लेकिन अब सीमाओं और सम्प्रभुता की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी सशस्त्र बलों के पास रहती है और यदि इन बलों में सीमाओं की रक्षा में अपनी क्षमता दिखाने के लिए महिलाओं को एक स्तरीय अवसर मिलता है, तो इससे बेहतर और कोई घटना नहीं हो सकती। आज महिलाएँ अग्रिम मोर्चों पर सशस्त्र संघर्षों की एक सक्रिय भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं। हाल में चीन के साथ सीमा पर तनाव के बीच लद्दाख के निम्मू की अचानक यात्रा करने के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महिलाओं की प्रशंसा करते हुए कहा कि ‘मैं सीमा पर युद्ध के मैदान में मेरे सामने महिला सैनिकों को देख रहा हूँ और यह दृश्य प्रेरणादायक है।’

राफेल के 17 गोल्डन एरो स्क्वाड्रन का हिस्सा बनने के लिए अंबाला एयरफोर्स स्टेशन पर इन दिनों महिला पायलट को प्रशिक्षित किया जा रहा है। एक महिला पायलट, जो मिग-21 लड़ाकू विमान उड़ा रही हैं; मल्टी-रोल राफेल लड़ाकू विमानों का संचालन करने वाले गोल्डन एरो स्क्वाड्रन में शामिल होने के लिए तैयार हैं। चूँकि राफेल एक बहुत शक्तिशाली विमान है, लिहाज़ा इसके चुनिंदा चालक दल में एक महिला पायलट का होना बहुत महत्त्वपूर्ण है। करीब 23 साल पहले रूस से आयातित सुखोई जेट विमानों के बाद राफेल जेट विमान भारतीय वायुसेना के बेड़े में आये पहले बड़े जेट विमान हैं। अंबाला एयरबेस में 10 सितंबर को पाँच फ्रांस निर्मित बहुउद्देशीय राफेल लड़ाकू विमानों को भारतीय वायु सेना में शामिल किया था।

अब एक ऐतिहासिक पहल के रूप में दो महिला अधिकारी सब-लेफ्टिनेंट कुमुदिनी त्यागी और सब-लेफ्टिनेंट रीति सिंह को भारतीय नौसेना के युद्धपोतों पर तैनात किया जाएगा। वे युद्धपोतों के डेक से काम करने वाली भारत की पहली महिला विमान चालक होंगी। नौसेना आमतौर पर रसद और चिकित्सा क्षेत्र में महिला कर्मचारियों को तैनात करती है। वास्तव में पहले महिलाओं की प्रविष्टि (भर्ती) गोपनीयता की कमी सहित कई कारणों से एक निश्चित विंग एयरक्राफ्ट तक ही सीमित थी। अब महिला अधिकारी लड़ाकों के रूप में काम करने वाली अग्रिम पंक्तियों में होंगी। इस दौरान वायु सेना में महिला अधिकारियों की संख्या बढ़कर 1875 हो गयी है, जिनमें 10 महिला अधिकारी लड़ाकू पायलट और 18 नेविगेटर हैं।

सन् 2015 में एक शुरुआत की गयी थी, जब सरकार ने प्रयोग के रूप में महिलाओं के लिए लड़ाकू क्षेत्र खोलने का फैसला किया था। सन् 2016 में तीन महिला पायलट अवनि चतुर्वेदी, भावना कंठ और मोहना सिंह को फ्लाइंग अफसर के रूप में कमीशन किया गया था। दो साल बाद सन् 2018 में फ्लाइंग अफसर अवनी चतुर्वेदी ने लड़ाकू विमान उड़ाया था। उन्होंने अकेले लड़ाकू विमान उड़ाकर पहली भारतीय महिला होने का गौरव हासिल करके इतिहास रच दिया था। अब रक्षा मंत्रालय ने महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन देने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। निश्चित ही यह एक सकारात्मक खबर है और इससे देश की तमाम बेटियों को सकारात्मक ऊर्जा मिलेगी। इतना ही नहीं, उनमें आगे बढ़कर देश की रक्षा करने का एक नया ज•बा और साहस पैदा होगा।

किसानों के शोषण का इतिहास और अब तक के किसान आंदोलन

हाल ही में केंद्र सरकार ने कृषि उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक-2020, कृषक (सशक्‍तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्‍वासन् और कृषि सेवा पर करार विधेयक-2020 और वस्तु (संशोधन) विधेयक-2020 पास किये। हालाँकि किसानों और विपक्षी दलों के ज़बरदस्त विरोध पर इन तीनों विधेयकों के खिलाफ भाजपा पक्ष के दल भी हो गये हैं। यूँ तो किसानों के शोषण का इतिहास बहुत पुराना है, लेकिन इस आधुनिक और समानता के युग में भी किसानों की दशा खराब है, यह उचित नहीं लगता है। आज दुनिया के कई देशों के किसान, जो कभी गुलामों की ज़िन्दगी जीते थे; भारत के रईसों की-सी ज़िन्दगी गुज़ारते हैं। वहीं जिस भारत के किसान को अन्नदाता और पालनहार कहा गया, वह इतना दु:खी है कि परिवार का मोह छोड़कर आत्महत्या करने जैसा वीभत्स कदम तक उठा लेता है। और यह यूँ ही नहीं होता, बल्कि इसके पीछे एक लम्बे समय की प्रताडऩा, विकट पीड़ा और दिन-रात मेहनत करके रूखी-सूखी खाकर गुज़ारा करने के बावजूद लगातार बढ़ते कर्ज़ तथा हद से ज़्यादा गरीबी के चलते मानसिक अवसाद होता है।

हालाँकि जब-जब किसानों यह पीड़ा असहनीय हुई है, तब-तब उन्होंने आंदोलन भी किये हैं। और इन आंदोलनों ने सरकारों की चूलें हिला दी हैं। ऐसे ही कुछ आंदोलन जो गुलामी के दौर से अब तक हुए हैं, इतिहास में दर्ज हो चुके हैं। इन आंदोलनों में सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध हैं- पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण का सत्याग्रह और बारदोली आंदोलन। सन् 1857 के असफल जन विद्रोह के बाद किसानों ने ही अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोला था। दरअसल किसानों के आंदोलन तभी हुए हैं, जब उनकी ज़मीन या खेती पर से उनके हक को छीनने की कोशिश की गयी है या देश पर आँच आयी है। किसान आंदोलनों का इतिहास बहुत पुराना है। इममें सन् 1874 का दक्कन विद्रोह को आज भी बड़े किसान विद्रोह में गिना जाता है। देश अधिकतर भूभाग पर चला यह में फला-फूला यह किसान विद्रोह सूदखोर साहूकारों के खिलाफ दक्षिण भारत में शुरू हुआ। यह आंदोलन शिरूर तालुका के करडाह गाँव बाबा साहिब देशमुख नामक एक किसान के खिलाफ एक सूदखोर कालूराम द्वारा अदालत से घर की नीलामी की डिग्री प्राप्त करने के बाद शुरू हुआ था। देखते-देखते यह आंदोलन पूरे भारत में साहूकारों के खिलाफ शुरू हो गया और अन्त में साहूकारों को दबना पड़ा। इसी तरह एका आंदोलन उत्तर प्रदेश में शुरू हुआ। यह आंदोलन अनाप-शनाप लगान वसूली के खिलाफ था। इस आंदोलन के सूत्रधार पंडित मदन मोहन मालवीय कहे जा सकते हैं; क्योंकि उनके दिशा-निर्देशन में होमरूल लीग के कार्यकताओं ने सन् 1918 में उत्तर प्रदेश में किसान सभा का गठन किया। इस किसान सभा ने बहुतायत में लगान वसूली के विरोध में सन् 1919 में एका आंदोलन शुरू कर दिया, जिससे लगान वसूलने वालों में खलबली मच गयी थी। कूका विद्रोह कृषि सम्बन्धी समस्याओं की अनदेखी करने वाली अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ चला था। दरअसल कूका संगठन के संस्थापक भगत जवाहरमल थे। उन्होंने ही कूका आंदोलन चलाया और बाद में सन् 1872 में उनके शिष्य बाबा रामसिंह ने इस आंदोलन को और उग्र किया। इस आंदोलन से अंग्रेज इतने तनाव में आ गये कि उन्होंने बाबा रामसिंह को गिरफ्तार करके रंगून (अब यांगून) भेज दिया, जहाँ सन् 1885 में उनका स्वर्गवास हो गया और इधर धीरे-धीरे यह विद्रोह शान्त हो गया। रामोसी किसानों का विद्रोह महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में रामोसी किसानों ने किया, जो ज़मींदारों के अत्याचारों के खिलाफ था। इस विद्रोह की देखा-देखी आंध्र प्रदेश में भी ज़मींदारों के खिलाफ विद्रोह की आग भड़क उठी, जिसके अगुआ सीताराम राजू थे। वह औपनिवेशिक शासन के सख्त खिलाफ थे। यह आंदोलन सन् 1879 से लेकर सन् 1920 तक खूब चला, लेकिन सन् 1922 आते-आते ठंडा पडऩे लगा। इस आंदोलन को भी अंग्रेजों और ज़मींदारों ने साज़िश करके तोड़ दिया। मुंडा आंदोलन भी अंग्रेजों के खिलाफ था, जिसे मुंडा आदिवासियों ने बिरसा मुंडा के नेतृत्व में छेड़ा था। यह आंदोलन अंग्रेजों के जल, जंगल, ज़मीन हड़पने की नीति के खिलाफ था, जो एक प्रकार से किसान आंदोलन ही था। इस आंदोलन से प्रेरित होकर आदिवासी क्षेत्र के आसपास के किसानों को काफी प्रोत्साहन मिला था। इसी तरह ताना भगत आंदोलन बिहार से सन् 1914 में शुरू हुआ। यह आंदोलन लगान की ऊँची दरों, मोटे ब्याज और चौकीदारी कर के खिलाफ किया गया था। यह आंदोलन के प्रमुख सूत्रधार जतरा भगत थे। मोटे कर के खिलाफ होने के साथ-साथ यह एक धार्मिक आंदोलन के रूप में शुरू हुआ, लेकिन इसके राजनीतिक लक्ष्य थे। इसके पीछे का मकसद आदिवासियों को संगठित करके नए पंथ का निर्माण करना था। इसे बिरसा मुंडा आंदोलन का ही विस्तार कहा गया, क्योंकि इसमें मुंडा आंदोलन के मानदंड भी निर्धारित किये गये थे। मोपला विद्रोह केरल के मालाबार क्षेत्र से मोपला किसानों द्वारा सन् 1920 में शुरू हुआ। यह विद्रोह अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ था। इस आंदोलन के मुख्य अगुआ अली मुसलियार थे। इस आंदोलन को उस समय के बड़े क्रान्तिकारियों का सहयोग भी मिला; लेकिन बाद में अंग्रेजों ने बड़ी चालाकी से इस किसान आंदोलन को हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच साम्प्रदायिकता का रंग देकर कुचल दिया। इसी तरह तेभागा आंदोलन सन् 1946 में शुरू हुआ। यह बंगाल का तेभागा आंदोलन सर्वाधिक सशक्त आंदोलन था, जिसमें किसानों ने फ्लाइड कमीशन की सिफारिश के अनुरूप लगान की दर घटाकर एक-तिहाई करने के लिए संघर्ष शुरू किया था। बंगाल का तेभागा आंदोलन को तकरीबन 50 लाख किसानों और खेतिहर मज़दूरों का समर्थन मिला। इसके बाद तेलंगाना आंदोलन आंध्रप्रदेश में ज़मींदारों एवं साहूकारों के शोषण की नीति के खिलाफ सन् 1946 में शुरू हुआ।

इसके अलावा इतिहास में सन् 1921 में अलवर में सुअर पालन विरोधी आंदोलन हुआ, सन् 1923 में नीमूचणा किसान आंदोलन हुआ, जो अलवर के महाराजा जयसिंह द्वारा लगान की दर बढ़ाने के खिलाफ था। मारवाड़ में सन् 1923 में मारवाड़ हितकारी सभा द्वारा किसान आंदोलन किया गया। सन् 1926 में बूंदी किसान आंदोलन हुआ, जिसके सूत्रधार पंडित नैनू राम शर्मा थे। यह आंदोनल बूंदी के किसानों ने लगान लाग बाग की ऊँची दरों के खिलाफ था। इस आंदोलन को कुचलने के लिए इन पर गोलियाँ दागी गयीं, जिसमें नानकजी भील नाम के किसान शहीद हो गये थे। राजस्थान के डूंगरपुर, बांसवाड़ा और आसपास के स्थानों पर भील समुदाय के किसानों और पशुपालकों ने अंग्रेजों के खिलाफ बड़ा आंदोलन छेड़ा, जिसमें मध्य प्रदेश के किसानों ने भी भाग लिया। इस आंदोलन के सूत्रधार भक्ति मार्ग के संत भीलों के गुरु ‘गुरु गोविंद’ थे। इस आंदोलन को कुचलने के लिए राजस्थान डूंगरपुर और गुजरात रियासतों ने अंग्रेजों से मिलकर किसानों और पशुपालकों पर गोलियाँ और गोले दाग दिये थे, जिसमें हज़ारों की संख्या में भील किसान और पशुपालक उनके बीवी-बच्चे मारे गये थे।

सन् 1847 में बिजोलिया किसान आंदोलन मशहूर क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक के नेतृत्व में चला था, जो अंग्रेजों के खिलाफ तो था ही, भारत के ज़मींदारों की अनाप-शनाप कर वसूली के खिलाफ भी था। राजस्थान की ज़मीन से उठे इस आंदोलन का प्रभाव इतना ज़बरदस्त था कि पूरे भारत किसानों ने ज़मींदारों के खिलाफ जंग छेड़ दी थी। यहाँ तक कि विजय सिंह पथिक को दिन-रात पुलिस ढूँढती रहती थी। यह आंदोलन करीब 50 साल तक यानी भारत को आज़ादी मिलने तक चला। लेकिन दुर्भाग्य यह था कि विजय सिंह पथिक को लोगों ने आज़ादी मिलते ही भुला दिया। इसके अलावा अखिल भारतीय किसान सभा ने सन् 1923 में एक आंदोलन छेड़ा, जो बिहार किसान सभा के संस्थापक स्वामी सहजानंद सरस्वती में शुरू हुआ। सन् 1928 में आंध प्रान्तीय रैय्यत सभा की स्थापना करने वाले एनजी रंगा ने भी एक आंदोलन छेड़ा, जो काफी समय तक चला। इसी तरह उड़ीसा में मालती चौधरी ने उत्‍कल प्रान्तीय किसान सभा की स्थापना की और ज़मींदारी प्रथा के खिलाफ एक आंदोलन छेड़ा।

देश में आज़ादी के बाद भी अनेक किसान आंदोलन हुए। अगर हाल तीन दशक की बात करें, तो चौधरी चरण सिंह ने देश में किसान समस्याओं के समाधान के लिए सन् 1977 से 79 के बीच और उसके बाद भी अनेक आंदोलन छेड़े, इनमें गन्ना किसानों के लिए उन्होंने काफी संघर्ष किया। इसी तरह चौधरी बंसी लाल, चौधरी देवी लाल ने भी कई किसान आंदोलन खड़े किये। बाद में ये सभी किसान नेता राजनीति में आ गये। हालाँकि अब कोई किसान नेता इन नेताओं की तरह जनसमर्थन वाला नहीं है। इसके अलावा भट्टा पारसौल का किसान आंदोलन बहुत प्रभावशाली था। इस आंदोलन के सूत्रधार कुछ चौधरी किसान थे, जिन्होंने चौधरी केसरी सिंह के नेतृत्व में यह आंदोलन किया। इस आंदोलन का समर्थन करने वाले कई नेता आज भी मंत्री हैं। पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह भी इस आंदोलन के सूत्रधार चौधरी केसरी सिंह से व्यक्तिगत तौर पर जुड़े थे।

2017 में मध्य प्रदेश में मंदसौर किसान आंदोलन बहुत बड़ा आंदोलन था। इस आंदोलन को कुचलने के लिए शिवराज सरकार में पुलिस ने किसानों पर गोलियाँ चला दी थीं। यह आंदोलन किसानों की कुछ माँगों को लेकर था, जिसमें कर्ज़ माफी एक खास माँग थी। इसके अलावा सन् 2018 में महाराष्ट्र में किसान आंदोलन शुरू हुआ, यह भी कर्ज़ माफी की माँग को लेकर किया गया बड़ा आंदोलन था। यह आंदोलन भी भाजपा सरकार में ही हुआ, जिसे कुचलने की हर सम्भव कोशिश की गयी। लेकिन किसानों के उग्र प्रदर्शन और सब्ज़ियों तथा दूध के सड़कों पर बिखरने के अलावा दुनिया भर की निंदा झेल रही महाराष्ट्र सरकार में मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने आखिर किसानों को कई आश्वासन देकर समझौता किया। जून, 2018 के शुरू में चला 10 दिन का बन्द आंदोलन भी काफी उग्र था। इसके अलावा इतिहास में कई आंदोलन ऐसे भी हुए हैं, जो किसानों अर्धनग्न होकर किये। इनमें तमिलनाडु के किसानों का दिल्ली के जंतर-मंतर पर किया गया आंदोलन सबसे ज़्यादा परेशान कर देने वाला था। सन् 2017 में इस आंदोलन में भाग लेने वाले किसानों ने अपना पेशाब तक पिया और चूहों को भी खाया। यह आंदोलन सूखे की मार झेल रहे किसानों ने कर्ज़ माफी के लिए किया था, क्योंकि ठीक एक साल पहले तमिलनाडु के सैकड़ों किसानों ने कर्ज़ के बोझ से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी। इससे पहले दिल्ली के जंतर-मंतर पर ही कई किसान आंदोलन हो चुके हैं। हरियाणा में पैगां पैक्स घोटाले पर जींद और मंदसौर के किसानों ने आंदोलन किया था, जो पूरे हरियाणा में फैला था। पिछले साल हुई बारिश से खराब हुई नरमा कपास की फसल की विशेष गिरदावरी करवाने और मुआवज़े की माँग को लेकर किसानों ने अर्धनग्न होकर विरोध-प्रदर्शन किया।

दु:खद यह है कि सीधे-साधे किसानों को आज भी वो सम्मान और मेहनताना नहीं मिलता, जिसके वे हकदार हैं। किसान कड़ी मेहनत करके भी कम पारिश्रमिक मिलने पर खामोश रहते हैं और अगर कभी बहुत अत्याचार उन पर होता है, तो वे आंदोलन करते हैं। लेकिन उनकी माँगों को अधिकतर अनसुना, अनदेखा करके उनके आंदोलनों को कुचल दिया जाता है या फिर उन्हें आश्वासन देकर शान्त कर दिया जाता है।

कृषि क्षेत्र को मज़बूत करने पर ही सुधरेगी अर्थ-व्यवस्था

इन दिनों कृषि सम्बन्धी तीन नये विधेयकों को लेकर सड़क से लेकर संसद भवन तक हंगामा हो रहा है। हरियाणा और पंजाब में इन विधेयकों के खिलाफ आंदोलन भी शुरू हो चुका है। राज्यसभा में हंगामे के बाद निलंबित किये आठ सांसद संसद परिसर में धरने पर भी बैठे; हालाँकि उन्हें अगले दिन उप सभापति हरिवंश सिंह चाय पिलाने के निमंत्रण देने भी आये थे, पर सांसदों ने मना कर दिया। आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने इन कृषि विधेयकों के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है, तो वहीं पंजाब के अकाली दल की इकलौती मंत्री अपना इस्तीफा दे चुकी हैं। इसके अलावा भाजपा के कई सहयोगी दल और खुद भाजपा नेता केंद्र सरकार के इस निर्णय के पक्ष में नहीं हैं। नाम न छापने की शर्त पर एक भाजपा नेता ने बताया कि वह सरकार की निंदा नहीं करना चाहते, लेकिन सरकार खुद ऐसे काम कर देती है कि अनायास ही मन खट्टा हो जाता है। उन्होंने कहा कि हम ज़मीन से जुड़े हैं और लोगों की प्रतिक्रियाओं से अच्छी तरह वािकफ हैं कि लोग मौज़ूदा सरकार की कितनी कड़ी निंदा करते हैं। किसान मुद्दों पर उन्होंने कहा कि किसान देश की जान हैं, अगर देश में खाद्य पदार्थों की ही कमी हो जाएगी, तो फिर बाकी क्षेत्र तरक्की ही नहीं कर पायेंगे।

एक बड़े किसान चौधरी रमन सिंह का कहना है कि कृषि इस देश का सबसे मुख्य और प्राथमिक ज़रिया है। उन्होंने कहा कि किसान साल में अनेक बार भूखों रहकर भी लगातार काम करता है, देश का पेट भरता है और फिर भी किसी से कोई शिकायत नहीं करता। और अगर अपनी परेशानियाँ बताना भी चाहता है, तो न अफसर सुनते हैं उसकी और न सरकार।

अगर किसानों की दशा और आत्महत्या की बात करें, तो दु:खद आँकड़े सामने आते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 2019 में 42480 किसानों और मज़दूरों ने आत्महत्या की है। देश के अन्नदाताओं और मेहनतकशों द्वारा इस तादाद में हत्या के मामले में एक वरिष्ठ पत्रकार ने टिप्पणी करके लिखा कि 2019 में 42,480 किसानों, खेतीहर मज़दूरों और अन्य क्षेत्र से जुड़े मज़दूरों ने आत्महत्या की, जो काफी दु:खद है। राहुल गाँधी कई बार किसानों और मज़दूरों की आत्महत्या का मुद्दा चुके हैं; लेकिन सरकार ने इस ओर कभी गौर नहीं किया। एक नेशनल अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 में 2018 के मुकाबले किसानों-मज़दूरों की आत्महत्या के मामले 6 प्रतिशत बढ़े। एनसीआरबी के मुताबिक, 2019 में कृषि क्षेत्र से जुड़े कुल 10,281 लोगों ने आत्महत्या की। इनमें से 5,957 किसान थे, जबकि 4,324 खेतिहर मज़दूर थे। वहीं शेष अन्य क्षेत्रों से जुड़े मज़दूर, बेरोज़गार चल रहे मज़दूर तथा दिहाड़ी मज़दूर थे।

सवाल यह है कि आज जब देश की जीडीपी -23.9 फीसदी नीचे चली गयी है, तब उसे कैसे उबारा जाए? केंद्र सरकार समेत बड़े-बड़े अर्थ-शास्त्री इस पर सलाह दे रहे हैं और टिप्पणियाँ कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी अगुआई में चल रही केंद्र सरकार को शुरू से ही चेतावनी देने वाले अर्थशास्त्री और व्यापारी अब सरकार से नाराज़ हैं और केंद्र सरकार से लुढ़कती अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने की अपील कर रहे हैं। बड़ी बात यह है कि आज जब देश की अर्थ-व्यवस्था चौपट हो चुकी है और तकरीबन सभी औद्योगिक क्षेत्र बुरी तरह औंधे मुँह पड़े हैं, तब अकेला कृषि क्षेत्र है, जो 3.4 फीसदी प्लस में है। कह सकते हैं कि आज कृषि क्षेत्र ही है जो अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ बना हुआ है। ऐसे में केंद्र सरकार और देश को चलाने वाली सभी शिख्सयतों को सोचना चाहिए कि कृषि क्षेत्र के उद्धार के बगैर देश की तरक्की सम्भव नहीं है; क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहाँ कृषि ही प्रमुख आय का साधन है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि कृषि क्षेत्र को सुधारकर सभी क्षेत्रों को बुलंदी पर ले जाया जा सकता है। कुछ कृषि विशेषज्ञों और अनुभवी किसानों की राय के आधार पर समझते हैं कि कृषि क्षेत्र में वे सुधार कौन-कौन से हैं, जिनके करने से देश की अर्थ-व्यवस्था सुधर सकती है और लोग सुखी हो सकते हैं।

किसानों में जागरूकता का प्रसार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाली एनडीए सरकार के पहले कार्यकाल में किसानों में खासा उत्साह था। इसकी वजह यह थी कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। इस मामले पर फसलों के बीज विक्रेता लाला राम अवतार करते हैं कि अभी किसानों की दशा बेहद खराब है। हालत यह है कि अधिकतर किसान बीज और खाद भी उधार लेते हैं और चुकाने के समय उन पर भरपूर पैसे तक नहीं होते। इसकी एक बड़ी वजह बीजों, खादों और कीटनाशकों का लगातार महँगा होना है। यहाँ तक कि डीज़ल भी बहुत महँगा हो चुका है, जिसके चलते अब हर किसान परेशान है। वहीं एक बुजुर्ग किसान लालता प्रसाद कहते हैं कि अब किसान मरे या जीए, आज इस पर न तो सरकार चर्चा करती है और न ही कोई पत्रकार इस पर बात करता नज़र आता है। अब टीवी चैनलों पर दिन भर ऐसी खबरें आती हैं, जिनका किसानों-मज़दूरों से कोई लेना-देना नहीं होता, और ऐसी ही खबरों पर चार-छ: लोग दिन भर चिल्लाते रहते हैं। पहले दूरदर्शन पर 24 घंटे में एक-दो घंटे के कृषि कार्यक्रम होते थे, रेडियो पर कृषि कार्यक्रम होते थे, जिससे किसानों को काफी लाभ मिलता था। लालता प्रसाद कहते हैं कि हमारे शुरुआती ज़माने में पूरे गाँव में दो-तीन रेडियो होते थे। रेडियो पर शाम को रामस्वरूप भैया का कृषि जगत कार्यक्रम आता था और दिन में कृषि समाचार। उन दिनों गाँव के दर्ज़नों लोग एक-एक रेडियो को घेरकर बैठते थे और बड़े ध्यान से कार्यक्रम सुनते थे। यही समय था, जब देश में कृषि पैदावार को बहुत बढ़ावा मिला। उन्होंने कहा कि कृषि की पैदावार बढऩे का ही नतीजा था कि अंग्रेजों से लुटा-पिटा देश आज इतनी ऊँचाई पर पहँच गया, अन्यथा पहले इतने उद्योग कहाँ थे।

खाद्यान्न मूल्य निर्धारण में हो सुधार

हमेशा देखा जाता है कि बड़ी मेहनत से अनाज तथा अन्य खाद्यान्न उगाने वाला किसान जिस दाम उन्हें बाज़ार में बेचता है, वह उसकी लागत से बहुत कम मुनाफे वाला या कभी-कभी घाटे वाला ही होता है। वहीं उसी खाद्यान्न को बहुत कम मेहनत करके आगे बेचने वाला बिचौलिया किसानों से कई गुना अधिक लाभ कमा लेता है। प्रो. इरफान कहते हैं कुछ बड़े किसानों को अगर किसान की हर दिन की मेहनत फसल उगाने में जोड़ दी जाए, तो किसान को घाटे के सिवाय कुछ नहीं होता। उस पर अगर किसी कारण से फसल बर्बाद हो जाए, तो और भी मुश्किल हो जाती है। ऐसे में किसानों के द्वारा उगाये खाद्यान्न के मूल्य का सही निर्धारण होना चाहिए तथा बिचौलियों के मुनाफे पर कैंची चलनी चाहिए, ताकि किसानों को घाटा न हो और उन पर कर्ज़ा न चढ़े। इससे किसानों की स्थिति भी सुधरेगी और कृषि में उनकी रुचि भी बनी रहेगी।

किसानों को कृषि ऋण में मिले छूट

हमारे क्षेत्र में मैं ऐसे कई किसानों को जानता हूँ, जो कृषि ऋण के बोझ से बुरी तरह दबे हुए हैं। इन किसानों का खान-पान भी बहुत अच्छा नहीं है। कई किसानों को जेल भी हो चुकी है। कुछ की कुर्की भी हो चुकी है। ये किसान बड़ी मुश्किल से बैंकों से अपनी गर्दनें बचाये जी रहे हैं। किसानों को ब्याज में माफी भी नहीं मिल पाती, ऐसे में फसल बर्बाद होने पर वे कई दफा ब्याज तक नहीं भर पाते और इस तरह कर्ज़ में डूबे रहते हैं। अधिकतर बड़े किसान तो फसल बीमा करा लेते हैं और अगर कोई फसल बर्बाद होती है, तो उसकी भरपाई बीमा कम्पनी कर देती है, लेकिन कई छोटे किसान फसल की बुआई तक के पैसे नहीं जुटा पाते, तो बीमा कहाँ से करायें। ऐसे किसानों को पहले तो बैंकों से कर्ज़ नहीं मिलता और अगर किसी तरह मिल भी जाए, तो उसमें दलाल मोटा पैसा खा जाते हैं। इस तरह पैसा मिलने से पहले ही उसमें बंदरबाँट होना और फिर पूरे पैसे पर ब्याज लगना ही इस तरह कर्ज़ पाने वाले किसानों के लिए बहुत बड़ी रकम हो जाती है। यही वजह है कि वे कर्ज़ चुकाने में असमर्थ हो जाते हैं। दूसरी तरफ जिन किसानों को बैंक कर्ज़ नहीं देते, वे गाँव में अवैध रूप से ब्याज पर पैसा उठाने वालों से 5 से 10 फीसदी तक के मोटे मासिक ब्याज पर पैसा उठा लेते हैं, जिसे चुकाना और भी मुश्किल हो जाता है। मैंने ऐसे ही कर्ज़ के नीचे दबे कुछ किसानों को मजबूरन ज़मीन बेचते देखा है। कृषि ऋण में छूट या ऋण माफी के साथ-साथ किसानों को बीज, खाद और कीटनाशकों पर सब्सिडी मिलनी चाहिए।

किसानों को मिले प्रोत्साहन राशि

2019 में लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों के खातों सीधे 2000 रुपये मासिक देने की बात कही थी। इस प्रोत्साहन राशि का नाम किसान सम्मान निधि था, जो उनके खातों में पहुँची भी रही है। लेकिन अनेक किसानों के खाते बैंकों में नहीं हैं, जिसके चलते उन्हें शुरू में यह प्रोत्साहन राशि नहीं मिली। कुछ अब भी ऐसे किसान हैं, जो इस पैसे से वंचित हैं। हालाँकि ऐसे किसानों की संख्या ज़्यादा नहीं है। लेकिन खेतीहर मज़दूर और बटाईदार इस पैसे से वंचित हैं। इन लोगों को भी प्रोत्साहन राशि मिलनी चाहिए, ताकि इन लोगों को भी परेशानियों में कुछ सहारा मिल सके।

पशुपालन को मिले बढ़ावा

पशुपालन कृषि का पूरक कार्य है। आज के आधुनिक युग में अधिकतर खेती मशीनों से होती है; लेकिन बहुत से किसानों के पास कृषि यंत्रों की सुविधा नहीं है, उनके लिए कृषि कार्यों में पशु ही सहायक हैं। साथ ही दुग्ध और मांस व्यापार का सबसे बड़ा साधन पशु ही हैं। पशुपालन को बढ़ावा देने से देश में दूध की कमी नहीं होगी, जिससे देश की आय बढ़ेगी और मिलावट वाले दूध की बिक्री पर अंकुश लग सकेगा। आज दुधारू पशुओं की कीमतें बहुत हैं और उन्हें पालने में भी मोटा खर्च आता है। राम प्रसाद नाम के एक किसान ने बताया कि पिछले साल वह एक लाख पाँच हज़ार रुपये की गाबिन भैंस खरीदकर लाये थे। महीने भर की उसकी खिलाई का खर्च करीब 3,000 रुपये है। वह जब ब्याती है, तो हर रोज 12-14 लीटर दूध देती है, जिसके बाज़ार में 350 से 400 रुपये मिल जाते हैं। इस हिसाब से 10 से 12,000 रुपये महीने का दूध देती है; लेकिन यह दूध पूरे साल नहीं मिलता और हम दिन रात उसकी सेवा करते हैं, सो अलग। उसकी रखवाली में भी रात को जाग-जागकर देखते हैं। ऐसे में एक लाख पाँच हज़ार रुपये फँसाकर भी उतना मुनाफा नहीं मिलता, जितना मिलना चाहिए। हाँ, उससे पैदा होने वाले पड्डा-पड्डी (नर व मादा बच्चा) से लाभ मिल सकता है; लेकिन उन्हें तीन साल तक पालना पड़ता है, तब वे बिक्री या दूध या खेती के लायक हो पाते हैं। पड्डों की अच्छी कीमत नहीं मिलती, इसलिए पड्डी पैदा होना फायदेमंद माना जाता है। वह कहते हैं कि अगर उन्हें दूध बेचने वाली कम्पनियों की तरह दाम मिल जाएँ, तो उनकी भैंस का दूध हर महीने कम-से-कम 17-18 हज़ार रुपये महीने का बिक सकता है, जो मेहनत और लागत का उचित मूल्य मिलने जैसा होगा। उस हिसाब से दूध के दाम नहीं मिल पाते, जबकि दूध और दूध से बने उत्पाद बेचने वाली कम्पनियाँ मोटा मुनाफा कमाती हैं। इसके चलते किसानों में पशुपालन के प्रति रुचि घटी है। इतना ही नहीं, पिछले कुछ वर्षों से गोरक्षा के नाम पर मारपीट करने वालों के चलते बहुत से किसानों ने पशुपालन कम कर दिया है। गाय पालन तो बहुत-से किसानों ने बन्द कर दिया है।

आधुनिक खेती पर दिया जाए ज़ोर

प्रो. इरफान कहते हैं कि भारत के अधिकतर किसान अब भी उतने जागरूक नहीं हैं; जितने विकसित देशों के हैं। इसकी कई वजहें हैं। पहली तो यह कि यहाँ के अधिकतर किसान अब भी अनपढ़ हैं। दूसरी वजह यह है कि अधिकतर किसान छोटी जोत वाले हैं। तीसरी वजह उन्हें कृषि करने के आधुनिक तरीके पता नहीं हैं। चौथी वजह उन्नत बीजों के न मिलने और अधिकतर कृषि क्षेत्र में सिंचाई के संसाधन न होने से फसलें अच्छी नहीं हो पातीं। पाँचवीं वजह प्राकृतिक आपदाओं से फसलों का नष्ट हो जाना है और छटी वजह सरकारों द्वारा किसानों की अच्छे पैमाने पर मदद का न मिलना है। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में करीब 23 फीसदी किसान ही सरकारी लाभ ले पाते हैं। हालाँकि मौज़ूदा सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली किसान सम्मान निधि से काफी किसान लाभान्वित हो रहे हैं; लेकिन यह सम्मान निधि जारी रहे, तो किसानों का कुछ भला भी हो।

सम्मानित किये जाएँ किसान

किसानों को अच्छी खेती के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर सम्मानित किया जाता है। देश में कुछ जगहों पर लगने वाले कृषि मेलों में भी अच्छी खेती करने वाले किसानों को सम्मानित किया जाता है। लेकिन इसका दायरा बढऩा चाहिए और हर गाँव में किसानों के बीच सम्मान राशि का ऐलान किया जाना चाहिए। इससे किसानों में अच्छी खेती करने का ज•बा पैदा होगा और खेती में उनकी रुचि बढऩे के साथ-साथ पैदावार भी बढ़ेगी।

जैविक खेती पर दिया जाए ज़ोर

आजकल के अधिकतर लोग किसी-न-किसी रोग से पीडि़त हैं। इसका कारण हमारा अनियमित खानपान और अजैविक खादों तथा कीटनाशकों का अधिक मात्रा में उपयोग है। लेकिन भारत में बहुत-से लोग जैविक खेती करते हैं, जिससे खाद्यान्न में स्वाद भी रहता है और रोग भी जल्दी नहीं होते। साथ ही जैविक खाद्यान्न महँगे भी बिकते हैं। बुजुर्ग किसान लालता प्रसाद कहते हैं कि हमारे ज़माने में ची•ों इतनी शुद्ध थीं कि पड़ोसी के घर में बनने वाली सब्ज़ी की खुशबू से पता चल जाता था कि घर में क्या बन रहा है, जबकि आज अपने ही घर में पता नहीं चलता कि रसोई में क्या बन रहा है? वह कहते हैं कि अब पहले जैसा स्वाद अब खाने में नहीं रह गया है। पहले लोग घूरा (उर्वरक खाद बनाने की प्रक्रिया) बनाते थे और अब उर्वरक लाकर खेतों में डाल देते हैं, ऊपर से फसल में कीट लगने पर ज़हरीली दवा छिड़क देते हैं, जबकि पहले कंडे की राख और गोबर-मूत्र आदि का मिश्रण छिड़कते थे, जिससे फसलों पर कीड़े नहीं लगते थे, न ही जानवर फसलों को जल्दी खाते थे। वे कहते हैं कि पहले आज के इतनी बीमारियाँ भी नहीं थीं।