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दिल्ली की तर्ज पर बचाया जाए देश का पर्यावरण

मुंबई की आरे कॉलोनी में पिछली सरकार की सहमति से ढाई हज़ार पेड़ों की कटाई शुरू हुई थी, जिसका वहाँ के लोगों ने विकट विरोध किया था। पुलिस ने विरोध करने वाले लोगों पर लाठियाँ भी बरसायी थीं। यह सब पिछली सरकार के ड्रीम प्रोजेक्ट मेट्रो कार शेड प्रोजेक्ट के लिए किया गया था। अब जब आरे कॉलोनी के 2141 यानी 98 फीसदी पेड़ कट चुके हैं, तब मेट्रो कार शेड प्रोजेक्ट आरे कॉलोनी से कांजुर मार्ग पर शिफ्ट कर दिया गया है। इतना ही नहीं, अब प्रदर्शनकारियों के खिलाफ दर्ज केस भी वापस होंगे। हालाँकि यह वर्तमान त्रिकोणीय सरकार ने किया है।

यहाँ ज़िक्र करना ज़रूरी है कि महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई की आरे कॉलोनी में जब पिछली भाजपा सरकार में इन पेड़ों को काटने का आदेश पारित हुआ, तब कॉलोनी के लोगों ने इसका जमकर विरोध किया; जिसके एवज़ में उन पर उलटी लाठियाँ पड़ीं, उनमें से कई को गिरफ्तार किया गया और उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज किये गये। मेट्रो कार शेड प्रोजेक्ट के लिए यहाँ पूरे दो हज़ार पाँच सौ पेड़ों को काटे जाने की अनुमति दी गयी थी; जो कि पर्यावरण के लिहाज़ से पूरी तरह गैर-कानूनी काम था। लेकिन आजकल की यह रीति बन गयी है कि अब सत्ता में बैठे लोग अपनी ताकत के नशे में बड़ी आसानी से अवैध को वैध और वैध को अवैध ठहरा देते हैं और उनको कोई भी कानून नहीं रोक पाता। अगर जनता इसका विरोध भी करती है, तो उसे पिटाई, जेल और मुकदमों के झंझट के सिवाय कुछ नहीं मिलता। हाल ही में तीन नये कृषि कानूनों को लागू करने के मामले में केंद्र सरकार और हाथरस कांड में उत्तर प्रदेश शासन-प्रशासन की मनमानी इसके दो सबसे ताज़ा उदाहरण हैं। आरे कॉलोनी में भी यही हुआ, वहाँ भी अब से ठीक एक साल पहले अक्टूबर के महीने में पुलिस ने पेड़ काटने के खिलाफ विरोध कर रहे करीब 200 प्रदर्शनकारियों पर डंडे बरसाये और उन्हें हिरासत में लेकर उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज किये। इसके अलावा बाहरी लोग वहाँ न आ सकें, इसके लिए आरे कॉलोनी में आने वाले सभी रास्ते बन्द करके वहाँ के पूरे इलाके में धारा-144 लगा दी थी। सवाल यह है कि क्या यह पर्यावरण के लिहाज़ से ठीक था? जो जुर्म करें, वही बेकुसूरों पर लाठियाँ बरसाएँ, यह कहाँ का और कौन-सा कानून है?

इसका मतलब साफ है कि कानून से ऊपर अब ताकत का स्थान है। वैसे उस समय कि खबरों और सूचनाओं की मानें, तो फणनवीस सरकार पर आरोप लगे थे कि यह सब कुछ वह कुछ माफिया की मिलीभगत से कर रही है। हैरत की बात यह थी कि बॉम्बे हाईकोर्ट ने मेट्रो डिपो बनाने के लिए पेड़ों की कटाई रोकने सम्बन्धी याचिकाएँ खारिज कर दी थीं। यानी कानून भी सत्तासीनों के हाथ की कठपुतली बन जाता है। अब जब वहाँ शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री हैं और कांग्रेस, शिवसेना तथा शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) की त्रिकोणीय सरकार है; आरोपी बनाये गये सभी प्रदर्शनकारियों पर से मुकदमे वापस होंगे और मेट्रो कार शेड प्रोजेक्ट कांजुर मार्ग पर शिफ्ट कर दिया गया है। इस पर महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फणनवीस ने प्रतिक्रिया दी है कि इसका मतलब प्रोजेक्ट जल्दी पूरा नहीं होगा। इस पर वह ट्रोल हो रहे हैं।

वैसे जब महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार बनी थी, तभी उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के कुछ दिन बाद हरित कार्यकर्ताओं के खिलाफ मामलों को वापस लेने की घोषणा की थी; जिसे केबिनेट ने अब मंज़ूरी दी है। इतना ही नहीं, शपथ ग्रहण के दूसरे दिन ठाकरे ने आरे में बनने वाले मेट्रो कार शेड प्रोजेक्ट पर रोक लगा दी थी।

ट्री ट्रांसप्लांटेशन पॉलिसी पास करने वाला पहला राज्य बना दिल्ली

हाल ही में दिल्ली सरकार के मंत्रिमंडल की बैठक में ट्री ट्रांसप्लांटेशन (पेड़ स्थानांतरण) की पॉलिसी को मंज़ूरी मिल चुकी है। इससे दिल्ली अब ट्री ट्रांसप्लांटेशन पॉलिसी को लागू करने वाला देश का पहला राज्य बन गया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस पॉलिसी के बारे में बताया कि ट्री ट्रांसप्लांटेशन पॉलिसी के तहत विकास कार्य में बाधा बन रहे 80 फीसदी पेड़ों को ट्रांसप्लांट किया जाएगा; उन्हें काटा नहीं जा सकेगा। जिस भी कम्पनी / एजेंसी को ट्रांसप्लांटेशन का काम दिया जाएगा, उसे ये सुनिश्चित करना होगा कि उसके द्वारा ट्रांसप्लांट किये जाने वाले 80 फीसदी पेड़ ज़िन्दा रहने चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो जिस कम्पनी / एजेंसी को ठेका दिया जाएगा, उसके भुगतान से नुकसान की राशि काट ली जाएगी, 80 फीसदी से अधिक पेड़ों के जीवित रहने पर ही उसे भुगतान किया जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि हमारी सरकार की कोशिश है कि एक पेड़ का भी नुकसान न हो, फिर भी कहीं-कहीं पेड़ काटे जाते हैं। अब इसकी ज़रूरत नहीं पड़ेगी। अभी तक नियम था कि एक पेड़ काटने के बदले में 10 पौधे रोपे जाएँ। लेकिन पौधे कई साल में पेड़ बन पाते हैं, इसलिए पेड़ों को भी न काटा जाए। कम-से-कम 80 फीसदी पेड़ों को ट्रांसप्लांट किया जाए और साथ में एक पेड़ ट्रांसप्लांट के बदले भी कम-से-कम 10 नये पौधे भी लगाये जाएँ। सब कुछ सुनिश्चित करने के लिए दिल्ली सरकार डेडीकेटेड ट्री ट्रांसप्लांटेशन सेल और स्थानीय समिति बना रही है। स्थानीय समिति ट्रांसप्लांट हुए पेड़ों की जाँच और निगरानी करने के साथ सही ट्रांसप्लांटेशन होने पर प्रमाण पत्र देगी। इसके अलावा जिस एजेंसी को पेड़ों के ट्रांसप्लांटेशन का काम दिया जाएगा, उसका ट्रैक रिकॉर्ड चेक किया जाएगा कि उसने अब तक जो पेड़ ट्रांसप्लांट किये हैं, उनमें 80 फीसदी से अधिक पेड़ जीवित रहे या नहीं।

हाल ही में दिल्ली टेक्निकल यूनिवर्सिटी (डीटीयू) में पेड़ों को ट्रांसप्लांट किया गया है। ट्रांसप्लांटेशन का काम दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की निगरानी में अक्टूबर में शुरू हुआ था। डीटीयू में नयी इमारत का निर्माण होना है। यहाँ से ट्रांसप्लांट किये जाने वाले कुल 111 पेड़ों में से सर्वाधिक 46 कदंब के, 15 जामुन के, 14 पापड़ी के, 10 पेड़ कचनार के, 12 पेड़ नीम के, पाँच कनेर के, दो अलस्टोनिया के और एक-एक शीशम, अमलताश, मचकन तथा सर्फ के पेड़ हैं। इन पेड़ों को ट्रांसप्लांट करने में 7,59,700 रुपये की लागत आयेगी। यानी एक पेड़ पर औसत

6,844 रुपये खर्च हो रहे हैं। हालाँकि ट्रांसप्लांटेशन की यह लागत भी अलग-अलग है, जैसे 30 सेंटीमीटर तक के परिधि वाले एक पेड़ पर 2800 रुपये, 31 से 50 सेंटीमीटर तक परिधि वाले एक पेड़ पर 5,000 रुपये, 51 से 125 सेंटीमीटर वाले पेड़ पर 7,100 रुपये और 126 से 200 सेंटीमीटर तक वाले पेड़ पर 9,200 रुपये की लागत आ रही है। सभी भारी पेड़ों की ट्रांसप्लांटेशन से पहले छंटाई करनी होती है। उसके बाद तने के आधार के पास ज़मीन में पर्याप्त परिधि व गहराई में मशीन से खुदाई की जाती है, फिर जड़ों की मिट्टी को सँभालकर जेसीबी हाईड्रा क्रेनों व ट्रकों की मदद से उन्हें दूसरे स्थान पर लगाने के लिए ले जाया जाता है। जहाँ पेड़ को लगाया जाता है, वहाँ पहले से ही उसी आकार का गड्ढा खोदकर रखा जाता है।

ट्रांसप्लांटेशन पर विवाद भी

इधर दिल्ली के डीटीयू में पेड़ों का ट्रांसप्लांटेशन पर विवाद छिड़ गया है। ट्री एक्सपर्ट और लेखक प्रदीप कृषन ने दिल्ली सरकार के इस काम को गलत मौसम में ट्रांसप्लांट करने की प्रक्रिया बताया है। उन्होंने कहा है कि नीम, अमलतास और जामुन जैसे पेड़ों का ट्रांसप्लांटेशन जनवरी के करीब होना चाहिए था, यह मौसम उनके ट्रांसप्लांट के अनुकूल नहीं है। इसके लिए उन्होंने डीएमआरसी द्वारा असोला में ट्रांसप्लांट किये गये पेड़ों का उदाहरण दिया, उन्होंने कहा कि वो पेड़ जीवित नहीं रह पाये। उन्होंने यह भी कहा कि प्रगति मैदान में भी 1713 पेड़ों का ट्रांसप्लांट किया गया था, जिनमें केवल 36 पेड़ ही जीवित रह सकने की स्थिति में हैं। कृषन ने इस प्रक्रिया को काफी महँगा और कम फायदे वाला बताया है। इस काम के ठेकेदार अशोक कुमार का दावा है कि उनके द्वारा पहले किया गया ट्रांसप्लांटेशन काफी सफल रहा है। उन्होंने कहा कि रानी बाग में एक अस्पताल के निर्माण के दौरान पीडब्ल्यूडी के साथ मिलकर 30 पेड़ ट्रांसप्लांट किये थे। इसके अलावा वल्लभगढ़ में 125 पेड़ और एनडीएमसी के 17 पेड़ ट्रांसप्लांट किये गये, जिनमें 90 फीसदी से अधिक जीवित रहे।

देश में अब तक कहाँ-कहाँ ट्रांसप्लांट हुए हैं पेड़

ऐसा नहीं है कि दिल्ली पेड़ों को ट्रांसप्लांट करने वाला पहला राज्य है, इससे पहले दूसरे राज्यों में भी पेड़ ट्रांसप्लांट किये जा चुके हैं। हालाँकि दिल्ली में जो विधेयक पास हुआ है, यह देश में पहली बार हुआ है। वैसे तो दिल्ली में ही इससे पहले कई जगह पेड़ ट्रांसप्लांट किये जा चुके हैं, लेकिन इसके अलावा हरियाणा के वल्लभगढ़, इंदौर (मध्य प्रदेश),  गुजरात आदि में पेड़ ट्रांसप्लांट किये जा चुके हैं। वैसे भारत में पेड़ों के ट्रांसप्लांटेशन की शुरुआत 2016 में ही हो चुकी थी। भारत में इस तकनीक को आईआईटी ने अंजाम दिया था।

दिल्ली ही नहीं, पूरे देश में है पेड़ों की कमी

पर्यावरण और इंसानों को पेड़ों की आवश्यकता के आधार पर देखें तो एक व्यक्ति पर कम-से-कम 64 पेड़ होने चाहिए; जबकि देखा गया है कि कहीं-कहीं 64 परिवारों पर भी एक पेड़ नहीं है। दिल्ली के अलावा भारत के कई शहरों में कई कॉलोनियाँ ऐसी हैं, जिनमें पेड़ों का बेहद अभाव है। वहीं भारतीय गाँवों में फिर भी पेड़ हैं। एक सर्वे के मुताबिक, करीब तीन दशक पहले भारत में अब से दोगुने से ज़्यादा पेड़ थे। देश में पेड़ों की इतनी तेज़ी से कटाई चिन्तित करती है। सन् 2018 में जारी नेचर जर्नल की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया में एक व्यक्ति के लिए ओसतन करीब 422 पेड़ मौज़ूद हैं; लेकिन भारत में यह संख्या बहुत कम, सिर्फ 35 है। जबकि रूस में सबसे ज़्यादा एक व्यक्ति पर करीब 641 पेड़ मौज़ूद हैं।

रोकना होगा पेड़ों का अवैध कटान

भारत में आज भी जंगलों का अवैध कटान जारी है। कई जगह तो पेड़ों के कटान को लीगल करार दिलवाकर वन विभाग और प्रशासन आदि की सहमति से काटा जाता है। इसी तरह अवैध कटान भी वन विभाग और स्थानीय प्रशासन की जानकारी में ही होते हैं और यह सब चंद पैसों के लालच में चंद लकड़ी माफिया से मिलीभगत करके किया-कराया जाता है। हर राज्य में दिल्ली की तरह पेड़ न काटने पर कानून बनना चाहिए, ताकि हमारा पर्यावरण सुरक्षित रह सके।

लोगों को पेड़ लगाने के लिए किया जाए प्रोत्साहित

भारत के गाँवों में अधिकतर घरों के आँगन में किसी-न-किसी चीज़ का पेड़ अब भी मिल जाता है। हालाँकि शहरों में भी पुराने घरों में या किसी-किसी बड़े घर में पेड़ मिल जाते हैं। यह बहुत अच्छी बात है। केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों को चाहिए कि वे लोगों को अपने-अपने घरों में या घरों के आसपास पेड़ लगाने के लिए प्रोत्साहित करें। जिन घरों में पेड़ लगाने की जगह न हो, उन घरों में अधिक-से-अधिक फुलवारी या छोटे कद के वो पेड़ लगाने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जो गमलों में लग सकते हों।

दिल्ली व अन्य शहरों में लगभग सभी सडक़ों के दोनों किनारों पर अतिक्रमण रहता है। ऐसी सभी सडक़ों पर से अतिक्रमण हटवाकर वहाँ दोनों तरफ पोधरोपण किया जाना चाहिए, ताकि भारतीय शहर हरे-भरे हो सकें। हमारा पर्यावरण जितना शुद्ध होगा, हम उतने ही स्वस्थ होंगे। आज जितना पैसा हर व्यक्ति अपनी बीमारी में लगाता है, अगर उसका 15 फीसदी भी पेड़ लगाने में खर्च कर दे, तो उसके बीमार होने की सम्भावना कम हो जाए।

गाँवों में शिक्षा की ज्योति जला रहा जेएसओ

शिक्षा के बाज़ारीकरण के इस दौर में जब अनेक लोग प्राइवेट स्कूल-कॉलेज खोलकर मोटी कमायी कर रहे हैं, कुछ लोग तथा संगठन अपने दम पर उन बच्चों को शिक्षा और शैक्षणिक सुविधाएँ मुहैया करा रहे हैं, जो सुविधा और संसाधनहीन हैं। कहने का मतलब है कि देश के अनेक गरीब बच्चों को ऐसे लोग या संगठन शिक्षा के संसाधन मुहैया करा रहे हैं; ताकि ये बच्चे भी पढ़-लिखकर अपने जीवन को बेहतर बना सकें। इन प्राइवेट स्कूलों और यहाँतक कोचिंग सेंटरों का धंधा इसी बाज़ारीकरण के चलते पनप रहा है, जिसकी एक वजह ग्रामीण क्षेत्र के अधिकतर सरकारी स्कूलों में बेहतर पढ़ाई का न होना भी है। आज देश के छोटे-छोटे गाँवों में भी प्राइवेट स्कूल खुले मिल जाएँगे। लेकिन गाँवों के लाखों बच्चे उच्च स्तर की शिक्षा हासिल नहीं कर पाते। इसके दो कारण हैं, पहला है अधिकतर गाँवों में उच्च स्तरीय शिक्षण संस्थानों का अभाव और दूसरा गरीबी। ऐसे में हरियाणा में जमींदारा छात्र सभा (जेएसओ) नाम का संगठन गाँवों के बच्चों को मुफ्त में शिक्षा सुविधाएँ मुहैया कराने के लिए आगे आया है। जेएसओ ने गाँवों में आधुनिक लाइब्रेरियाँ खोलनी शुरू कर दी हैं। यह लाइब्रेरियाँ इतनी आधुनिक हैं कि इनके आगे कई सरकारी लाइब्रेरियाँ भी फीकी हैं। इन लाइब्रेरियों में छोटी कक्षाओं से लेकर उच्च शिक्षा और विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी हेतु किताबें मौज़ूद हैं। इतना ही नहीं इस संगठन द्वारा खोली गयी लाइब्रेरियों में कम्प्यूटर, जेनरेटर और पढऩे वालों के लिए स्वच्छ पानी आदि की पूरी व्यवस्था की गयी है।

जमींदारा छात्र सभा के प्रमुख इंद्र्रजीत बराक ने इसे शुरू किया है, जिसमें और भी कई पदाधिकारी तथा सदस्य अपने-अपने स्तर पर आर्थिक तथा अन्य तरह की मदद कर रहे हैं। इंद्रजीत बराक, नवीन चहल और मीत मान ने बताया कि लाइब्रेरी बनाने से पहले गाँव जेएसओ इसके लिए गाँव को गोद लेता है। उन्होंने और संगठन के बाकी सदस्यों ने पहले मालकोष गाँव को गोद लिया और फिर गाँव में यह लाइब्रेरी बनायी। बराक के अनुसार, हम देश भर में ऐसे सदस्य बना रहे हैं, जो समर्थ हैं और गाँवों के ही नहीं शहरों के भी गरीब बच्चों की शिक्षा में कुछ योगदान करना चाहते हैं। सदस्य बनाने के बाद हम ऐसे लोगों से लाइब्रेरी निर्माण में सहयोग की अपील करते हैं और हमें इस काम में सभी की कुछ-न-कुछ मदद मिल भी रही है। उन्होंने कहा कि अभी लाइब्रेरी बनाने की शुरुआत हमने के मालकोष गाँव, चरखी दादरी से की है। इस लाइब्रेरी में आरम्भिक शिक्षा से लेकर उच्च स्तरीय शिक्षा तथा प्रतियोगी परीक्षाओं तक की अधिक-से-अधिक किताबों के अलावा कम्प्यूटर की सुविधा भी है। बच्चों के बैठने की अच्छी व्यवस्था इस लाइब्रेरी में की गयी है। उन्होंने कहा कि लॉकडाउन और कोरोना की वजह से हम थोड़ा पिछड़ गये; लेकिन फिर भी अब तक हरियाणा में तीन लाइब्रेरी बनकर तैयार हो चुकी हैं, जिनमें जल्द ही झज्जर ज़िले भुरावास गाँव और लोहारू ज़िला के बराहलू गाँव में भी बाकी दो लाइब्रेरी भी सुचारू हो जाएँगी। इसके अलावा जल्द ही ज़्यादा-से-ज़्यादा गाँवों में ज़्यादा-से-ज़्यादा लाइब्रेरियाँ बनाने की दिशा में काम किया जाएगा। इंद्रजीत बराक ने बताया कि मालकोष गाँव की लाइब्रेरी गाँव के लोगों की एक समिति बनाकर तैयार की गयी है। इसके लिए हमने सरकार से कोई भी मदद नहीं ली है। हमारा उद्देश्य गाँवों के बच्चों को बेहतरीन शिक्षा के लिए प्रेरित करना और उन्हें पढ़ाई के संसाधन उपलब्ध कराना है।

इंद्रजीत बराक कहते हैं कि अभी लाइब्रेरी बनाने का काम हरियाणा से शुरू हुआ है, जिसे हम दूसरे राज्यों में ले जाएँगे और ग्रामीण लोगों को प्रेरित करेंगे कि वह इस मुहिम में हिस्सा लें, ताकि उनके बच्चे अच्छी शिक्षा ग्रहण करके अपना भविष्य उज्ज्वल कर सकें। उन्होंने कहा कि हमारा लक्ष्य ज़मीनी स्तर पर बेहतर काम करने का है। जमींदारा छात्र संगठन के महासचिव मीत मान बताते हैं कि गाँवों में लाइब्रेरियाँ बनाना एक बहुत ही ज़रूरी तथा खास कदम है, जो कि आज के समय की माँग है। उन्होंने कहा कि जल्द ही पूरे राज्य (हरियाणा) में इसी तरह की एक आधुनिक लाइब्रेरी हर गाँव में खोलने का जेएसओ का लक्ष्य है; ताकि गाँवों के बच्चे पढ़-लिख सकें और धर्म, भाषा, क्षेत्र तथा ज़ात-पात के नाम पर खेली जा रही गन्दी राजनीति का शिकार होने से बचे रहें और एक सही दिशा में चलकर एक बेहतर राष्ट्र का निर्माण करें। संगठन के प्राथमिक सदस्य मालकोष गाँव के निवासी नवीन चहल ने बताया कि किसानों और मज़दूरों के बच्चों की पढ़ाई में कई अड़चने आती हैं, जिन्हें हम बहुत ज़्यादा तो दूर नहीं कर पा रहे हैं; लेकिन गाँव के बच्चों की पढ़ाई न रुके इसके लिए लाइब्रेरी बना रहे हैं, जिनमें गाँवों के बच्चे बिना कोई फीस दिये पढ़ सकते हैं। जब हमने गाँव वालों के सामने यह बात रखी, तो अनेक लोगों ने खुशी-खुशी जो भी सम्भव हो सकी, मदद की। अब मालकोष गाँव की इस लाइब्रेरी में कम्प्यूटर और एकेडमिक किताबें हैं। लाइब्रेरी में पंचायत के सहयोग से इन्वर्टर, बैट्री और सोलर पैनल की व्यवस्था करवा दी गयी है, ताकि बिजली न होने पर बच्चों की पढ़ाई में कोई दखल न पड़े। हम लोग हर 15 दिन में लाइब्रेरी के सम्बन्ध में एक सामाजिक बैठक करते हैं, जिसमें यहाँ पढऩे वाले बच्चों को देश के वर्तमान हालात से अवगत कराया जाता है। चहल बताते हैं कि पहले-पहल इस लाइब्रेरी में बहुत कम बच्चे पढऩे आते थे; लेकिन अब बच्चे की संख्या काफी हो गयी है; यहाँ तक कि पड़ोस के गाँवों के बच्चे भी अब लाइब्रेरी में पढऩे आते हैं। लाइब्रेरी में किसी बच्चे से कोई शुल्क नहीं लिया जाता है। हमने कोई सरकारी मदद भी अब तक नहीं ली है। उन्होंने कहा अब शहरों तक में बहुत-सी सरकारी लाइब्रेरियों की दशा खराब होती जा रही है। आज अनेक सरकारी लाइब्रेरियाँ केवल औपचारिकता पूरी करने के लिए खड़ी हैं, उनमें कई लाइब्रेरियाँ ऐसी हैं, जिनमें आधुनिक कुछ भी नहीं है; वो जैसी वर्षों पहले थीं, आज भी वैसी ही हैं। इसके अलावा गाँव के बच्चों के लिए उन लाइब्रेरियों में जाना इसलिए भी मुश्किल है, क्योंकि वो बहुत दूर होती हैं। इसलिए मालकोष की इस लाइब्रेरी को हम गाँव के बच्चों के लिए नयी रोशनी की किरण भी कह सकते हैं। इस लाइब्रेरी में बच्चों को किताबी ज्ञान देने के अलावा सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भी मज़बूत किया जा रहा है, ताकि वह देश की तरक्की में अपना बहुमूल्य योगदान दे सकें।

बराक ने बताया कि 2013 में मालकोष गाँव में सांसद निधि से एक छोटा-सा पंचायत घर बनाया गया था, जिसका उद्देश्य पंचायत आदि की बैठक आयोजित करना था। लेकिन यह पंचायत घर कई साल से जर्जर हालत में था, जिसकी मरम्मत नहीं हो रही थी। हमने वर्तमान पंचायत समिति से इस पंचायत घर को जेएसओ के नाम अधिकृत करवाया, जिसके बाद इसकी मरम्मत करवाकर, बिजली, पानी, शौचालय और अन्य सुविधाएँ मुहैया कराकर इसे लाइब्रेरी का रूप दे दिया गया। इस काम में अनेक दिक्कतें भी आयी; मसलन शुरू में यह एक राजनीतिक मुद्दा बनने लगा था, लेकिन किसान बिजेन्द्र चहल और अन्य समझदार लोगों की मदद से इस लाइब्रेरी का काम पूरा हुआ और अब इसमें अनेक बच्चे पढ़ते हैं। उन्होंने कहा कि बड़ी बात यह है कि मालकोष गाँव में आज भी मूलभूत सुविधाओं की कमी है, गाँव में पीने का साफ पानी तक उपलब्ध नहीं है। इसके बावजूद हमने और ग्रामीणों ने मिलकर इस गाँव को एक आधुनिक लाइब्रेरी दी है, जो यहाँ के बच्चों का भविष्य उज्ज्वल करने में सहयोग करेगी। उन्होंने कहा कि बड़े सम्मान की बात है कि इस गाँव के हर परिवार का कोई-न-कोई सदस्य सेना में है; लेकिन यह भी अफसोस है कि गाँव का एक भी खिलाड़ी राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर का नहीं है, जिसके लिए बच्चों को अब प्रेरणा भी दी जा रही है। बराक ने कहा कि संविधान के रचयिता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का सपना था कि गाँव-गाँव में शिक्षा की ज्योति जले और हर बच्चा शिक्षित हो। यह लाइब्रेरी बाबा साहब के सपने को साकार करने में मील का पत्थर साबित होगी। आज जब कोरोना वायरस के चलते स्कूल-कॉलेज बन्द हैं और डिजिटल पढ़ाई हो रही है, तब अधिकतर गाँवों के बच्चे, खासकर गरीबों के बच्चे सुविधाओं के अभाव में ऑनलाइन पढ़ाई से वंचित रह रहे हैं। ऐसे बच्चों के लिए भी यह लाइब्रेरी काफी महत्त्वपूर्ण है।

बता दें कि बराक बिल्डिंग मैटेरियल का व्यवसाय करते हैं और अभी तक जमींदारा छात्र सभा संगठन में हर तरह के सहयोग से लेकर वह काफी कुछ कर चुके हैं। उन्होंने बताया कि जेएसओ में अब 10 हज़ार से भी अधिक सदस्य हैं, जिनकी संख्या बढ़ाने के लिए मुहिम चालू है, ताकि ज़्यादा-से-ज़्यादा गाँवों में लाइब्रेरियाँ खोली जा सकें। उन्होंने बताया कि संगठन का मकसद गरीब बच्चों को लाइब्रेरी के ज़रिये वे किताबें और सुविधाएँ मुहैया कराना है, जिनके अभाव में वे पढ़ नहीं पाते। अभी इस कड़ी में एक लाइब्रेरी शुरू हुई है और दो अन्य लाइब्रेरियाँ बनकर तैयार हैं; लेकिन भविष्य में इस मुहिम को पूरे देश में ले जाने की योजना है, जिसे इस संगठन से जुड़ रहे लोगों की मदद से पूरा किया जाएगा।

ऑनलाइन खरीदारी में सावधानी की दरकार

भारत में अक्टूबर से दिसंबर तक त्योहारों का महीना होता है। इन 3 महीनों में हर महीने कोई-न-कोई त्योहार मनाया जाता हैं। पहले दशहरा, फिर दीवाली व छठ, उसके बाद क्रिसमस और फिर न्यू ईयर। तीनों महीने लोग जमकर खरीदारी करते हैं। आजकल ऑनलाइन शॉपिंग का चलन है। इसमें लोगों को दूकान जाने की ज़रूरत नहीं होती है। शॉपिंग मोबाइल पर ही हो जाता है। ई-कारोबारी इन महीनों में अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाना चाहते हैं। इस साल सभी के जीवन में कोरोना वायरस का ग्रहण लगा हुआ है। फिर भी अनलॉक का 5वाँ चरण शुरू होने के कारण आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ी हैं। कल-कारखानों में काम शुरू हो गये हैं। स्व-रोज़गार करने वाले फिर से अपने काम में व्यस्त हो गये हैं।  वैसे कोरोना महामारी के कारण ज़्यादा गहमागहमी रहने की उम्मीद नहीं है। फिर भी आमजन के मन-मस्तिष्क पर त्योहारों का खुमार तो ज़रूर रहेगा। ई-कारोबारी चाहते हैं कि इस साल भी वे अरबों-खरबों का कारोबार करें। ई-वाणिज्यिक कम्पनियाँ, मसलन, टाटा क्लिक, एजियो, मैक्स, शॉपर स्टॉप, लाइफस्टाइल, मिंत्रा, जाबोंग, फ्लिपकार्ट, एमेजॉन आदि अक्टूबर के दूसरे सप्ताह से आकर्षक छूट देने की पेशकश करने वाले हैं। दुर्गा पूजा के बाद भी सेल-महासेल का दौर चलता रहेगा; क्योंकि दीवाली में कारोबारी सबसे ज़्यादा मुनाफा कमाते हैं। वैसे ग्राहकों को ऑनलाइन शॉपिंग के दौरान सावधान रहने की भी ज़रूरत है, क्योंकि इसमें धोखाधड़ी की बहुत ज़्यादा गुंजाइश होती है। ऑनलाइन बाज़ार में सावधानी हटने पर, ठगे जाने की सम्भावना रहती है।

ई-कारोबारी और ग्राहकों की तैयारी

ई-वाणिज्यिक कम्पनियाँ सेल-महासेल कर रही हैं। ई-कारोबारी खाद्य पदार्थ, एनर्जी ड्रिंक्स, फिल्टर कॉफी, बीन बैग्स, एलेक्सा, इलेक्ट्रॉनिक आइटम, होम अपलायंस सहित आमजन की ज़रूरत की हर चीज़ सेल-महासेल में बेचने के लिये तैयार हैं। कोई भी ई-कारोबारी इस मौका को अपनी मुट्ठी से फिसलने नहीं देना चाहता है। पिछले साल ई-कारोबारियों ने इन 3 महीनों में करोड़ों-अरबों की कमायी की थी। वैसे, ग्राहक भी ऑनलाइन बाज़ार लगने का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं। छूट का अधिकतम लाभ लेने के लिए ग्राहक सेल-महासेल के दौरान स्टेट बैंक, आईसीआईसीआई बैंक, एक्सिस बैंक और एचडीएफसी बैंक का क्रेडिट कार्ड रखते हैं, क्योंकि ई-कारोबारी घोषित छूट से अतिरिक्त छूट इन क्रेडिट कार्डों के ज़रिये तुरन्त देते हैं। यह छूट 5 से 10 फीसदी तक होता है। इसलिए जिनके पास इन बैंकों के क्रेडिट कार्ड नहीं होते हैं, वे अपने दोस्तों या रिश्तेदारों से क्रेडिट काड्र्स माँगकर ऑनलाइन शॉपिंग करते हैं।

सस्ते के चक्कर में ज़्यादा खरीदारी

आमतौर पर ऐसे सेल-महासेल की समय-सीमा होती है। ई-कारोबारी ज़्यादा-से-ज़्यादा फायदा उठाने के लिए त्योहारी सीज़न में हर रोज छूट का विज्ञापन प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में देते हैं। इन विज्ञापनों में यह लिखा हुआ होता है कि अमुक तिथि के बाद छूट का लाभ नहीं मिलेगा। कई बार तो ई-कारोबारी उत्पादों की कीमत को एमआरपी से ज़्यादा दिखाकर उस पर छूट देते हैं, ताकि छूट का प्रतिशत ज़्यादा दिखे। यह भी देखा जाता है कि सेल-महासेल के दौरान कुछ ही वस्तुओं पर छूट दी जाती है और यह दिखाया व बताया जाता है कि उन उत्पादों का स्टॉक सीमित है। कहीं स्टॉक खत्म न हो जाए, इस डर से ग्राहक जल्दबाज़ी में उक्त उत्पादों को अधिक कीमत पर खरीद लेते हैं।

ई-कारोबारियों की रणनीति

ई-कारोबारी उत्पादों को ज़्यादा-से-ज़्यादा बेचने के लिए ग्राहकों को तरह-तरह के उपायों से लुभाने की कोशिश करते हैं, जिनमें कूपन कोड, रेफरल पॉइंट्स, जानबूझकर स्टॉक को सीमित दिखाना आदि हैं। ग्राहकों को लुभाने के लिए उन्हें एसएमएस और मेल भेजा जाता है। कई बार उन्हें फोन भी किया जाता है। अक्सर देखा जाता है कि ई-वाणिज्यिक कम्पनियों के पोर्टल पर मोबाइल कुछ सेकेंड में बिक जाते हैं। मोबाइल खरीदने वाले अपने को भाग्यशाली समझते हैं। वहीं निर्धारित समयावधि में मोबाइल नहीं खरीद पाने वाले ग्राहक अपनी िकस्मत को कोसते हैं। बहुत सारे दूसरे उत्पाद भी इसी तर्ज पर बेचे जाते हैं; लेकिन वास्तव में मोबाइल बिकने की जो संख्या बतायी जाती है, वह गलत होती है। इस तरह की रणनीति ग्राहकों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए अपनायी जाती है। यह भी देखा गया है कि ऑनलाइन कारोबारी पुराने मोबाइल, टैब और लैपटॉप को मरम्मत कराकर बेचते हैं, जिनकी कीमत में अन्तर नये उत्पादों से बहुत ज़्यादा नहीं होता है। अनेक बार धोखे में ग्राहक ऐसे पुराने उत्पादों को भी खरीद लेते हैं। ऐसे उत्पाद जल्द ही खराब हो जाते हैं।

एमआरपी के साथ छेड़छाड़

उत्पादों को बेचने के लिए ई-कारोबारी कई तरह के नुस्खे आजमाते हैं। जिन उत्पादों को उन्हें बेचना होता है, उन्हें वे लोकप्रिय बना देते हैं। कई बार उत्पादों को लोकप्रिय बनाने के लिए ई-वाणिज्यिक कम्पनियाँ फर्ज़ी सर्वे का सहारा लेती हैं। फिर तथाकथित लोकप्रिय उत्पादों पर वे भारी-भरकम छूट की पेशकश करती हैं; जबकि नहीं बेचने वाले उत्पादों की कीमत ज़्यादा दिखायी जाती है; ताकि लोग तथाकथित लोकप्रिय उत्पादों को ही खरीदें। गौरतलब है कि छूट देने के बाद भी ई-कारोबारी उत्पादों को उनकी वास्तविक कीमत पर ही बेचते हैं। खरीदे हुए उत्पादों की कीमत मिटा देने के मामले भी देखे जाते हैं। ग्राहक मिटायी हुई कीमत वाले उत्पाद मिलने पर हैरान-परेशान रहता है; क्योंकि ऐसे उत्पाद को लौटाना सम्भव नहीं होता है।

मुफ्त या सस्ती डिलीवरी के नाम पर कमायी

ई-कारोबारी मुफ्त या सस्ती डिलीवरी के भी पैसे लेते हैं। वे इसके लिए कूपन जैसे- प्राइम, गोल्ड, सिल्वर आदि बेचते हैं। जो ग्राहक ऐसे कूपन खरीदते हैं, उन्हें ई-कारोबारी ज़्यादा छूट देने की पेशकश करते हैं। अगर कोई ग्राहक ऐसे कूपन नहीं खरीदता है, तो उन्हें उत्पादों की डिलीवरी 7 से 15 दिनों में की जाती है। कभी-कभी डिलीवरी में एक महीने का भी समय लग जाता है। ऐसे उत्पाद ऑनलाइन भुगतान करने के बाद ही डिलीवर किये जाते हैं। पैसे अधिक समय तक फँसे रहने से ग्राहकों को ब्याज का नुकसान होता है।

सामान बदलने या लौटाने के अपारदर्शी नियम

ऑनलाइन बाज़ार से खरीदे गये बहुत सारे उत्पाद ऐसे होते हैं, जिन्हें ई-वाणिज्यिक कम्पनियाँ न तो बदलती हैं और न ही वापस लेती हैं। उत्पाद के खराब निकलने पर ग्राहक को कस्टमर केयर अधिकारी उत्पाद के सर्विस सेंटर जाने के लिए कहते हैं। वहाँ उत्पाद की केवल मरम्मत की जाती है। ई-वाणिज्यिक कम्पनियों के बहुत सारे नियम-कानून अपारदर्शी होते हैं, जिनकी जानकारी ग्राहकों को नहीं होती है। उदाहरण के तौर पर बहुत सारे उत्पादों में एश्योर्ड लिखा होता है। ऐसे उत्पादों की डिलीवरी में परेशानी नहीं होती है। कुछ उत्पादों को ई-वाणिज्यिक कम्पनियों के ज़रिये खुदरा विक्रेता सीधे ग्राहकों को बेचते हैं। ऐसे उत्पादों के डिटेक्टिव रहने पर ग्राहक को स्वयं विक्रेता को उत्पाद वापस करना पड़ता है और धन वापसी के लिए महीनों फालो-अप करना पड़ता है, तब जाकर उनके पैसे वापस मिल पाते हैं। अगर ग्राहक पड़ा-लिखा नहीं है, तो उनके पैसे डूब भी जाते हैं।

ग्राहक सेवा प्रभावी नहीं

ई-वाणिज्यिक कम्पनियों का कस्टमर केयर सिस्टम (ग्राहक सेवा) प्रभावी नहीं है। कस्टमर केयर अधिकारी को अपने कम्पनी के दिशा-निर्देशों की जानकारी नहीं होती है। ई-वाणिज्यिक कम्पनियों के आला अधिकारियों के फोन नम्बर भी बेवसाइट पर उपलब्ध नहीं होते हैं। कस्टमर केयर अधिकारी भी बड़े अधिकारी का नम्बर उपलब्ध नहीं कराते हैं। फोन करने पर आमतौर पर हर बार कस्टमर केयर अधिकारी बदल जाते हैं। अगर किसी ग्राहक को कोई समस्या होती है, तो उन्हें हर बार नये सिरे से कस्टमर केयर अधिकारी को पूरी कहानी सुनानी पड़ती है। कस्टमर केयर हेल्पलाइन पर मेल करने से भी समस्या का समाधान नहीं निकल पाता है। मेल में एक बात को बार-बार दोहराया जाता है। ऑनलाइन चैट या व्हाट्सएप पर चैट करने से भी समस्या का समाधान नहीं निकल पाता है। फालो-अप करने से ही समस्या का समाधान निकल जाता है; लेकिन इसमें समय बहुत लगता है। अनेक बार ग्राहकों के पैसे डूब भी जाते हैं।

प्रभावी कानून का अभाव

फिलहाल अपने दोयम दर्जे के उत्पाद बेचने के लिए ई-कारोबारी वैसे यूट्यूबर की मदद लेते हैं। जिनके करोड़ों सब्सक्राइबर होते हैं। यूट्यूबर खराब उत्पाद को भी अच्छा बताते हैं, जिससे उपभोक्ता झाँसे में आ जाता है। ऐसे ई-कारोबारी आमतौर पर उत्पाद को बेचने के बाद वापस नहीं करते हैं। ऐसे उत्पादों को एक्सचेंज करना भी आसान नहीं होता है। अमूमन, ग्राहक बिना टम्र्स एंड कंडीशन देखे ऐसे ई-कारोबारियों से ऑनलाइन खरीदारी कर लेते हैं और उत्पाद को देखने के बाद वे अपना सिर पीट लेते हैं; क्योंकि फोटो से कपड़े या दूसरे उताप्दों की गुणवत्ता को पहचानना सम्भव नहीं होता है। कई बार ऑनलाइन दिखाये गये उत्पाद की जगह दूसरे उत्पाद की डिलिवरी कर दी जाती है, जिन्हें ई-कारोबारी वापस नहीं लेते हैं। एथेनिक प्लस ऐसा ही कपड़ों का एक ऑनलाइन विक्रेता है, जो दोयम दर्जे के वस्त्रों को अधिक कीमत में बेच रहा है। जब ग्राहक पुलिस की शरण में जाते हैं तो वे ई-कारोबारियों के खिलाफ कार्रवाई करने में अपनी असमर्थता जताते हैं; क्योंकि हमारे देश में अभी भी मामले में कारगर कानून का अभाव है। स्पष्ट कानून नहीं होने की वजह से ग्राहक उपभोक्ता फोरम या अन्य अदालतों की शरण में भी नहीं जा पाते हैं।

इसमें दो-राय नहीं है कि ग्राहक पहले से समझदार हुए हैं; लेकिन अभी भी अधिकांश ग्राहक ई-वाणिज्यिक कम्पनियों की लाभ कमाने की रणनीति को नहीं समझ पाते हैं और उनके जाल में फँसकर अपनी मेहनत की कमायी को जाया कर देते हैं। आजकल बाज़ार में कुकरमुत्ते की तरह ऑनलाइन विक्रेता आ गये हैं, जिनमें से अधिकांश का मकसद होता है- ठगी के ज़रिये अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाना। इसलिए ग्राहकों को अनजान ऑनलाइन विक्रेताओं से बचने के अलावा अपने लालच पर भी नियंत्रण करना चाहिए; क्योंकि धोखाधड़ी करने वाले ऑनलाइन विक्रेताओं के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए अभी भी देश में स्पष्ट और पारदर्शी कानून का अभाव है।

सेल हो या महासेल, साल भर चलती रहती है। अक्टूबर में दशहरा के लिए महासेल चली, अब नवंबर में दीपावली, फिर छठ, फिर क्रिसमस और फिर न्यू ईयर। कोरोना-काल में तो ग्राहकों को विशेष सावधानी बरतने की ज़रूरत है, क्योंकि अभी अधिकांश लोग आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं। पैसा व्यर्थ में जाया हो जाने के बाद आसानी से दोबारा हासिल नहीं किया जा सकता है। इसलिए हमें बिना किसी दबाव के समझदारी एवं ज़रूरत के अनुसार खरीदारी करनी चाहिए।

दीवार तो टूटी, लेकिन दिल क्या वाकई जुड़े?

तकरीबन 31 साल हुए, जर्मनी को विभाजित करती दीवार को तोड़े हुए। यह दीवार टूटी तो नवंबर 1989 को। एक साल लगा कागज़ पूरे करने में। दीवार के टूटने पर दोनों ओर के नागरिकों की खुशी का पारावार नहीं था। जर्मनी के एकीकरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। पूरी दुनिया अचभ्भे मेें थी। एक नया इतिहास बना था। दीवार का टूटना और देश का एकीकरण विकास की असीम सम्भावना की ओर संकेत कर रहा था। जिसमें जर्मनी न केवल अखंड, बल्कि और मज़बूत होने का संकल्प ले रहा था। यह खुशी उस संकल्प की थी, जो 3 अक्टूबर, 1990 की याद दिलाता है जब हज़ारों परिवार जो विभाजित हो गये थे; अब फिर एक हो रहे थे। सुख-दु:ख बाँटने का संकल्प ले रहे थे। बड़ी तादाद उन प्रेमियों की थी, जो अपने जीवन के बड़े हिस्से को निरर्थक पाने बैठे थे। उनके चेहरे पर अब उम्मीद की नयी चमक थी।

जर्मनी में बर्लिन ऐतिहासिक शहर है। यहीं है वह मशहूर बैंडेनबर्ग गेट। यह बड़ा ही भव्य गेट है। कई दशकों तक इस उत्तर से पश्चिम जर्मनी और पूर्व जर्मनी के नागरिकों के आने-जाने पर रोक रही। अब यह गेट जर्मनी की एका और आज़ादी की खुशी का प्रतीक है। इसी गेट पर आज आते हैं हाथों में बैनर-पोस्टर लिये मूक प्रदर्शनकारी। तमाम यूरोपियन यूनियन में शामिल विभिन्न देशों के बच्चों के साथ यहीं बड़ा प्रदर्शन करके क्लाइमेट चेंज के खतरे बताये थे ग्रेटा धनबर्ग ने। उसे अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि यहीं से मिली। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बर्लिन शहर भी 1945 में बँट गया था। शहर के बीच कँटीले तार लग गये थे। पूर्व से पश्चिम को दीवार के ज़रिये बँट गया था। यह सिर्फ बँटवारा नहीं था। यह एक देश को पूँजीवाद और माक्र्सवाद में बाँटना था। एक ही शहर के नागरिकों पर यानी एक तरफ आज़ादी और दूसरी तरफ शोषण। दो अलग-अलग विचारधाराएँ। अलग-अलग विचारधाराओं का दबाव।

जर्मन राष्ट्रीय एकता समारोह किसी एक शहर में नहीं, बल्कि देश की राजधानी के अलावा उन तमाम शहरों में मनाये जाते हैं। खासकर जिनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति में लगातार इज़ाफा होता दिखता है। बान में एक छात्रा कैथरीरन ने बताया कि यह समारोह देश की एकता और प्रगति का प्रतीक है, साथ ही यह हमारी खुशी और हमारे इतिहास से जुड़ा है। इसलिए घर-घर उल्लास, उत्साह और शालीनता के साथ अपनी खुशी का इज़हार अनोखे तरीके से करते हैं।

हर साल राष्ट्रीय समारोह बर्लिन से शुरू होता है फिर फ्रैंकफर्त (जर्मनी का प्रमुख वैश्विक केंद्र, जो सम्पन्न है व्यावसायिक, सांस्कृतिक शैक्षणिक, पर्यटन और यातायात में) हनोवर, लेपजिग, डुसेलडर्फ आदि शहरों में बड़ी ही धूमधाम से कम-से-कम तीन दिन तो चलता है। इस दौरान विभिन्न सांस्कृतिक आयोजन होते हैं। संगीत और नृत्य के कार्यक्रम होते हैं। लोगों की रुचियों के लिहाज़ से विभिन्न संग्रहालय, पार्क, रेस्तरां, चिडिय़ाघर, बाज़ार आदि खुले रहते हैं। सभी मिलजुलकर नाचते-गाते, खाते-पीते हैं और अपने सम्पर्क का दायरा बढ़ाते हैं। इस मौके पर विभिन्न दूकानों पर नये-नये उत्पाद भी बाज़ार में अपना आकर्षण बिखेरते दिखायी देते हैं।

एकता समारोहों का केंद्र राजधानी बर्लिन होता है। वहाँ संसद के ऊपरी सदन से इसकी शुरुआत होती है। इस मौके पर चांसलर एंजेला मारकेल ने कहा कि विस्थापितों की समस्या को सभी यूरोपीय देशों को जानते हुए उसके समाधान में परस्पर सहयोग करना होगा। दीवार का टूटना और लोगों का आपस में मिलना जर्मनी के लिए ऐतिहासिक है। आज यह समारोह सिर्फ सरकारी नहीं रहा है। जनता पूरे महीने अलग अलग शहरों की सडक़ों पर मुख्य बाज़ारों, पार्कों, होटलों और रेस्तरां में विभिन्न रंगारंग कार्यक्रमों के साथ समारोह मनाती है।

कोरोना वायरस से यूरोप में फैली महामारी का असर जर्मनी में भी हैै, पर उतना भयावह नहीं है। वहाँ भी मास्क पहनने पर युवा आसानी से राज़ी नहीं होते। इसके खिलाफ कई प्रदर्शन भी हुए। लेकिन समारोह में भागीदारी जताने में कहीं कोई कमी नहीं आयी। पुलिस और प्रशासन अलबत्ता हर पल चौकस रहा। जर्मनी का यह त्योहार कई मायनों में अनोखा है। जर्मन बुद्धिजीवी, राजनीति, समाज-संस्कृति में रुचि लेने वाले राजनीतिक बड़ी बारीकी से इस पर नज़र रखते हैं। वे यह समझने की कोशिश करते हैं कि इस समारोह को मनाने की पीछे क्या-क्या वजह हैं? पूर्व और पश्चिमी जर्मनी में वैचारिक मतभेद नागरिकों में थे। ऐसे में क्या बदलाव दिखा?

लेकिन बदलाव दिखा। पिछले 30 साल में खुद विकास करने की चाह ने, आज़ाद रहने, लोकतंत्र को मानने ने एक स्वस्थ, जागरूक मज़बूत जर्मनी को बनाया। जर्मन इतिहास के पन्नों को सँभालते हुए जर्मन एका का बनाये रखते हुए कमज़ोर, परेशान लोगों के साथ पिछले 30 साल में विकास किया। यह बताते हैं समाजशास्त्री डॉक्टर जार्गन मोरहार्ड। इतिहास है, जब पश्चिम जर्मनी यानी फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी (जीडीआर) जर्मन उैयानी पूर्वी जर्मनी थे। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी दो भाग हुआ। यह विभाजन 155 किलोमीटर लम्बी दीवार के ज़रिये हुआ, जिससे बर्लिन वाल रहा। हज़ारों परिवारों ने विभाजन को झेला। आखिर वह घड़ी आयी, जब सारे चेक पोस्ट दोनों देशों के बीच की सीमाओं पर खोल दिये गये। दोनों देशों के नागरिकों के चेहरे खिले। आपसी मेल-जोल बढ़ा। सबने मिलकर एक नये जर्मनी का निर्माण शुरू किया। गरीबी-अमीरी मुद्दा नहीं रहा। परस्पर सहयोग, परिश्रम और वैचारिक आदान प्रदान से देश में खुशहाली आयी।

जर्मनी में बर्लिन एक ऐसा शहर है, जहाँ आधुनिकता के बावजूद इतिहास के पन्ने हमेशा जीवंत दिखते हैं। इतिहास में हमने सँजोये रखा। उससे सीखते हुए विकास करते हैं भारतीय छात्र सूर्यनाथ जो जर्मन भाषा में एडवांस स्टडी कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि कैसे वे पढ़ाई भी करते हैं और जर्मन साहित्य, इहितास और विभिन्न विचारधाराओं को बर्लिन मेंं पैदल घूमते हुए जानते-समझते रहे हैं। जब बर्लिन दीवार टूटी, तो बर्लिन में बने हुए 368 मीटर ऊँचे टीवी टॉवर फरनेशटर्म को गिरा देने की बात हुई। लेकिन उसे बरकरार रखा गया और वहीं से जर्मनी ने प्रसारण व्यवस्था जारी रखी। इसे जर्मन वास्तुकला का एक प्रयोग मान कर दुरुस्त रखा गया।

जब राष्ट्रीय एकता समारोह होते हैं और जाड़ों में कोलोन, बोन मेें कार्निवाल की अगवानी का सिलसिला होता है, तो बर्लिन में ऐतिहासिक स्थलों पर भी रोशनी की झालरें जगमगाती हैं। बड़ी ही सावधानी से इतिहास को चित्रों, तब के प्रतीकों आदि को बड़े ही आकर्षक तरीके से विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित रखा गया है। आप बर्लिन के कठिन दौर को रेख्ता- बर्लिनर डोम, और ओरिएनबर्गर स्ट्रास में घूमते हुए पहचान सकते हैं। बेहद पुराने, और बीती शताब्दी के लम्हों को (वे अच्छे हों या बुरे) उन सबको बर्लिन ने सहेजा है। देखते-समझते हुए आप गुज़रे हुए को आज की चुनौतियों के साथ जान-समझ सकते हैं।

अक्टूबर का पूरा महीना भी जर्मनी के पुराने और नये स्वरूप की झलकी देने के लिए पर्याप्त नहीं है। हालाँकि यह कोशिश रही है कि बर्लिन को उसकी सांस्कृतिक, वैचारिक और ऐतिहासिक पहचान बनाये रखते हुए जर्मन इतिहास और संस्कृति को एक जगह पेश किया जाए। बर्लिन में ईस्ट साइड गैलरी में टूटी दीवार के वे हिस्से आज भी सुरक्षित हैं, जिन पर तब के पश्चिमी जर्मनी के परिवारों के सदस्यों ने अपनी व्यथा को दीवार ही बड़ा कैनवास मानकर रंगों से ग्रैफिटी बनायी। दीवारों पर सिर्फ चित्र नहीं, कविताएँ भी हैं और कार्टून भी। सारी दुनिया के बुद्धिजीवियों के लिए आज भी ऐसी प्रसतुति चुनौती हैं। वे तब के मानव की मानसिक यातना और सोच का धरातल महसूस कर सकते हैं। बुद्धिजीवियों के लिए अनेक म्मूरल और ग्रैफिटी को देखते हुए तब के मानव की यातना और सोच का एक धरातल महसूस किया जा सकता है। जर्मन लोगों ने बर्लिनर माडर 1961-1989 को आज भी सुरक्षित रखा है। जिसे देखकर दुनिया भर के लोग बीते इतिहास की खौफनाक दरिंदगी का एक अहसास ले सकते हैं। बर्लिन वाल आज प्रतीक है उन असंख्य विभाजित परिवारों के अपने जन के बिछड़ जाने का। आज की जर्मन नौजवान पीढ़ी, बर्लिन वाल की ग्रैफिटी देख कर यह अनुमान लगा सकती है कि वे दिन कितने भयावह रहे होंगे। द्वितीय विश्वयुद्ध में हज़ारों गुमनाम यहूदी लोगों को यातनाएँ देते हुए मार दिया गया। उनकी स्मृति में भी बर्लिन में होलोकॉस्ट मेमोरियल है; जहाँ वाहतुकला के ज़रिये एक विशाल स्थल में श्रद्धांजलि दी गयी है। एक अलग संग्रहालय है, जहाँ द्वितीय विश्वयुद्ध की दुर्लभ तस्वीरें, ढेरों नाम और वाकये हैं; साथ ही तब के जर्मनी के अंदर मचे नाजी तांडव की तस्वीरें हैं, जिन्हें देखकर मानवता शर्मसार हो जाती है। नेशनल यूनिटी-डे के बहाने आप कल्पना कर सकते हैं कि उस दौर की जब 9 नवंबर, 1989 की सारी रात पश्चिमी और पूर्वी जर्मनी के नागरिकों की भीड़ हाथ में हथौड़ा और छेनी से उस मायावी दीवार को ढहा दिया; क्योंकि इस दीवार ने उस मायावी दीवार के सदस्यों, रिश्तेदारों और प्रेमियों को मिलने से रोक दिया था। वह पीड़ा थी आज़ादी की। वह पीड़ा थी सही मायने में लोकतंत्र को बचाये रखने की। वह पीड़ा थी गरीब और कमज़ोर के काम करने और प्रगति की ओर बढऩे के लिए आज़ादी की। और इसके बाद दोनों जर्मनी एक हों इसके सारे प्रयास शासकीय तौर पर हुए। यूरोप की जनता ने इस एकीकरण को उचित माना।

लगातार संघर्षों के बावजूद जर्मन जनता ने अपनी मेहनत, सोच और विचारधाराओं का सम्मान करते हुए विभिन्न क्षेत्रों में विकास किया। यह विकास बताता है कि निरंतर सहयोग से कितना कुछ हासिल हो सकता हैै। बर्लिन में ही एक पार्क में कार्ल माक्र्स और फ्रेडरिक एंगेल्स की भव्य मूर्तियाँ हैं। उनके सामने चित्रों से सजे पैनेल पर दूसरे विश्वयुद्ध का ब्यौरा है और दुनिया के विभिन्न देशों में पूँजीवादी और माक्र्सवादी विचारधारा को टकराव की कहानी दी हुई हैं, जिन पर दुनिया भर में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हुए संघर्ष का धुँधलाता ब्यौरा सचित्र है। लोग आते हैं पढ़ते हैं। एक छोटी-सी बच्ची हाथों में एक छोटा-सा गुलदस्ता लिये आती है। वह मूर्तियों के पास ज़मीन पर उसे रखती है। कुछ देर खड़ी रहती है। फिर भागकर अपने परिवार के साथ दूर कहीं ओझल हो जाती है।

एकता की मिसाल

दुनिया बुरे लोगों की बदौलत नहीं, बल्कि अच्छे लोगों की बदौलत चल रही है। क्योंकि अगर बुरे लोगों की वजह से दुनिया चल रही होती, तो यहाँ हर तरफ हाहाकार मची होती। वैसे आजकल बहुत-से बुरे लोग भी दुनिया के अनेक देशों, राज्यों और क्षेत्रों पर हुकूमत कर रहे हैं। यही वजह है कि अब बुरे लोग सरेआम वीभत्सता, दरिंदगी, हैवानियत, शैतानियत, वहशत, पशुता और पागलपन की सारी हदें पार कर देते हैं। लेकिन मैं फिर भी कहूँगा कि यह दुनिया अच्छे लोगों की वजह से ही चल रही है; और चलती रहेगी। हाँ, यह अलग बात है कि कुछ बुरे लोगों की वजह से हर काल, हर शतक, हर दशक, यहाँ तक कि हर रोज़, हर पल, कहीं-न-कहीं खून-खराबा होता रहा है, होता रहेगा; झगड़े होते रहे हैं, होते रहेंगे; सत्ता-सुख, शारीरिक सुख, ऐश-ओ-आराम के लिए छीना-छपटी, मार-काट, लूटपाट, अत्याचार होते रहे हैं, होते रहेंगे। यह सदियों से होता रहा है। इसे रोकना इतना आसान नहीं, या कहें कि इसे रोकना शायद ईश्वर के भी हाथ में नहीं; और अगर है, तो वह समय से पहले इसमें दखल नहीं देना चाहता। लेकिन हम अगर चाहें, तो इसे रोक भी सकते हैं।

क्योंकि इंसानियत को ज़िन्दा रखने के लिए दुनिया में धर्म, सत्य और अच्छाई का रास्ता बनाया गया है; ईश्वर की महानता, उसकी व्यापकता, उसकी ताकत, उससे जीव के, खासकर हमारे जन्म-जन्मांतर के रिश्ते को हमें बचपन से समझाया गया है। भले ही हममें से ही कुछ लोगों ने इस दुनिया को नरक बनाकर रखा है, लेकिन हम अगर संकल्प लें, तो इसे रोक सकते हैं।

न जाने कैसे-कैसे लोग हैं? जो दूसरों की रोटी छीनकर खुश होते हैं; दूसरों की लाशों पर जश्न मनाते हैं; दूसरों की हार को अपनी जीत समझते हैं और दूसरों के रोने पर हँसते हैं। ऐसे लोगों के चलते हम बार-बार शर्मसार होते रहते हैं। ऐसे लोग कुछ भी हों, ओहदे और पैसे में कितने भी बड़े और ताकतवर हों; मेरी नज़र में महापापी, परजीवी और नीच ही हैं। मुझे सन् 1990-91 की एक घटना याद आती है। उत्तर प्रदेश के एक गाँव में एक युवक की दिनदहाड़े हत्या कर दी गयी। हत्या का आरोप एक मुस्लिम युवक पर आया। उसे जेल भी हुई। दरअसल गाँव में मज़हबी टकराव हो चुका था और बात इतनी बढ़ गयी थी कि हिन्दुओं और मुसलामनों में लाठियाँ तक चलीं। इनमें मुस्लिम समुदाय का एक लडक़ा पहलवानी करता था और एक साथ कई लठैतों को मार-गिराने की हिम्मत रखता था। वह यूँ तो फिज़ूल किसी से झगड़ा नहीं करता था, लेकिन एक दिन खेतों में उसका दो हिन्दू युवकों से किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया और उसने दोनों को पीट डाला। बस उसके अगले ही दिन, उनमें से एक की लाश जंगल में पड़ी पायी गयी। ज़ाहिराना तौर पर आरोप मुस्लिम युवक पर आना था, सो आया। करीब चार साल बाद वह जमानत पर बाहर आया। उसके आते ही गाँव में फिर वही लड़ाई-झगड़े का माहौल पनप गया। जिस पक्ष के युवक की हत्या हुई थी, उसके दो भाई उसे जान से मारने की फिराक में लग गये। इसी गाँव में उन दिनों एक छोटा-सा मन्दिर भी था। इस मन्दिर में एक बाबा बड़ी शान्ति और सादगी से रहते थे। लेकिन गाँव के कुछ सुलपा (चिलम) पीने वाले लोग बाबा के पास आया-जाया करते थे या फिर पूजा करने आने वाली महिलाएँ, लड़कियाँ बाबा को खुराक आदि दे जाया करती थीं। बाबा को हत्या की सारी कहानी मालूम थी। दरअसल सुलपा पीने वालों के ज़रिये उन्हें गाँव की कई भेदिया बातें बैठे-बिठाये पता लगती रहती थीं। हिन्दू युवक की हत्या की सही जानकारी भी उन्हें इसी तरह मिली। हुआ यूँ- जिस युवक की हत्या हुई, वह पढऩे में काफी तेज़ था; लेकिन पिछड़े समाज से था। वहीं गाँव में उच्च वर्ग के एक अध्यापक थे, जो अपने ही गाँव के जूनियर हाई स्कूल में पढ़ाते थे। अध्यापक को गाँव के लोग और बच्चे माससाब कहकर पुकारा करते थे। यह माससाब देखने में बड़े मीठे और सीधे थे; लेकिन गाँव के दूसरे बच्चों को पढ़ते-बढ़ते देखना इन्हें बिल्कुल रास नहीं आता था। उनका सोचना था कि अगर पिछड़े तबके के बच्चे पढ़-लिख गये, तो उनके इकलौते लडक़े की हैसियत और इज़्ज़त कम होने लगेगी। दूसरा जिस युवक की हत्या हुई, वह माससाब के लडक़े से काफी योग्य था। यह बात माससाब को और भी अखरती थी। सो उन्होंने मौका देख जंगल में अकेले गये पिछड़े वर्ग के उस निर्दोष युवक की हत्या करा दी।

एक दिन देर शाम के समय मृतक के दोनों भाई बाबा के पास आये। उन्हें सुलपा पीना था। पहली बार नशा करने की कोशिश में मन्दिर आये थे; क्योंकि उन्हें मुस्लिम युवक से बदला लेना था। बाबा ने आश्चर्य से उन्हें देखा और नशा न करने की नसीहत दी। लेकिन गर्म खून कहाँ मानने वाला था, सो कह दिया बाबा आज चाहे जो कीमत ले लो, पर सुलपा की दम लगवा दो; आज भगवान शिव की कृपा से कोई बड़ा काम करना है; आप आशीर्वाद दीजिए।

बाबा बड़े मृदुभाषी और मन को पढ़ लेने वाले थे, सो उन्होंने भाँप लिया और प्यार से कहा- ‘होता है बेटा! भाई के जाने का गम बहुत बड़ा होता है। यह गम दुश्मन को मार देने पर भी नहीं जाता।’ बस फिर क्या था, दोनों के मन का गुबार निकल पड़ा। एक ने आँखें नम करते हुए कहा- ‘बाबा! उस कटुआ को नहीं छोड़ेंगे; उसने हमारे घर में मातम किया है।’ बाबा निष्पक्ष और शान्ति-प्रिय थे, सो उन्होंने किसी और अनहोनी की आशंका से दोनों को किसी की हत्या न करने की कसम देते हुए सब कुछ बता दिया। दोनों युवकों ने बाबा के पैर पकड़ लिए और पूछा- ‘बाबा! माससाब का क्या करें?’ बाबा ने कानून का सहारा लेने की सलाह दी। पीडि़तों के कहने पर पुलिस ने दोबारा हत्या की फाइल खोल दी; जाँच हुई। बाबा की बात सही पायी गयी। माससाब को जेल हुई। गाँव में पंचायत हुई। बाबा ने दोनों मज़हबों के लोगों को समझाया कि एकता से रहो, इसी में सबका भला है। उसके बाद गाँव में कभी कोई मज़हबी झगड़ा नहीं हुआ।

मायावती ने कहा, भाजपा को समर्थन से परहेज नहीं, बागी 7 विधायक निलंबित किये

बसपा प्रमुख मायावती, जो हाल के महीनों में भाजपा के साथ काफी नरम दिखी हैं, ने गुरुवार को उत्तर प्रदेश में राज्यसभा चुनाव पर मचे घमासान के बीच सात बागी बसपा विधायकों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है। राज्य सभा चुनाव में बसपा के उम्मीदवार के खिलाफ इन विधायकों पर पार्टी से बगावत का आरोप लगाया गया है। चुनाव में उम्मीदवार उतारने के बाद यह चर्चा तेजी पकड़ गयी है किमायावती भाजपा के अन्य उम्मीदवारों को समर्थन देने के एवज में अपना एक उमीदवार जिताने की रणनीति पर काम कर रही हैं।

बसपा विधायक दल के नेता लालजी वर्मा की रिपोर्ट मायावती को मिलने के बाद गुरुवार को उन्होंने अपने 7 विधायकों को बसपा से निलंबित कर दिया। एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मायावती ने यह ऐलान करते हुए यही भी कहा कि वो सपा को हराने के लिए ताकत लगा देंगी, चाहे विधायकों को भाजपा समेत किसी भी विराेधी पार्टी के उम्मीदवार को वोट क्यों न देना पड़े।

मायावती ने अपने जिन विधायकों को पार्टी से बाहर किया है उनमें असलम राइनी ( भिनगा-श्रावस्ती), असलम अली (ढोलाना-हापुड़), मुजतबा सिद्दीकी (प्रतापपुर-इलाहाबाद), हाकिम लाल बिंद (हांडिया- प्रयागराज), हरगोविंद भार्गव (सिधौली-सीतापुर), सुषमा पटेल ( मुंगरा बादशाहपुर) और वंदना सिंह (सगड़ी-आजमगढ़) हैं। यह माना जाता है कि यह सभी सात विधायक मायावती के भाजपा को समर्थन देने और उससे समर्थन लेने के फैसले के सख्त खिलाफ थे।

उधर आज मायावती ने कहा – ‘हम किसी दूसरे दल से नहीं मिले हैं। हम पर लगे सभी आरोप गलत हैं। साल 2003 में मुलायम ने बसपा तोड़ी उनकी बुरी गति हुई, अब अखिलेश ने यह काम किया है, उनकी बुरी गति होगी। सपा में परिवार के अंदर लड़ाई थी, जिसकी वजह से गठबंधन कामयाब नहीं हुआ। सपा से गठबंधन का हमारा फैसला गलत था।”

मायावती ने विधायकों को लेकर कहा कि 7 विधायक निलंबित किए गए हैं। बागी विधायकों की सदस्यता रद्द की जाएगी। ये षड्यंत्र कामयाब नहीं होगा। एमएलसी के चुनाव में सपा को जवाब देंगे।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, एनडीपीएस एक्ट के तहत पुलिस अधिकारी के समक्ष बयान सबूत नहीं

एक बड़े फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार को नशीले पदार्थों से जुड़े एक मामले में कहा है कि एनडीपीएस एक्ट के तहत किसी पुलिस अधिकारी के समक्ष आरोपी के बयान को सबूत नहीं माना जा सकता। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि इसे अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए आधार नहीं बनाया जा सकता।

सर्वोच्च अदालत की तीन जजों की खंडपीठ ने बहुमत से दिए गए अपने फैसले में यह राय दी। अदालत ने कहा कि एनडीपीएस कानून की धारा 53 के तहत एक पुलिस अधिकारी को दिया गया इकबालिया बयान एक सबूत के रूप में अकाट्य बयान नहीं माना जाएगा। इस कानून के तहत अपराध के लिए एक अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए ध्यान में नहीं लिया जा सकता।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने 2:1 के बहुमत से फैसला सुनाया। बता दें नशीले पदार्थों के सेवन और तस्करी को लेकर नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) मुंबई, बेंगलुरु औऱ अन्य शहरों में लगातार ड्रग पेडलर पर शिकंजा कसने के दौरान सर्वोच्च अदालत का यह यह फैसला आया है। सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध हालात में मौत के बाद मुंबई में इसे लेकर कई फिल्मी सितारों से पूछताछ हाल के दिनों में हुई है।

पहले चरण के बाद राजद-कांग्रेस गठबंधन का 55 सीटें जीतने का दावा, एनडीए ने कहा उसी की बनेगी दोबारा से सरकार

बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान के बाद आरजेडी-कांग्रेस महागठबंधन ने मतदाताओं में अपने प्रति जबरदस्त उत्साह की बात कहते हुए 55 सीटें जीतने का दावा किया है और कहा है कि एनडीए सिंगल आंकड़े तक सिमट जाएगा। हालांकि, बिहार जेडीयू के अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह ने कहा है कि चुनाव के बाद एनडीए की ही सरकार बनेगी।

पहले चरण में बुधवार को बिहार के 16 जिलों की 71 विधानसभा सीटों पर मतदान हुआ था। मतदान का अंतिम प्रतिशत 53.54 रहा है। कल शाम छह बजे तक मतदान हुआ था। अब पहले चरण के मतदान के बाद आरजेडी-कांग्रेस महागठबंधन इ अपनी बड़ी जीत का दावा किया है। एनडीए ने भी दावा किया है उसके बहुमत की सरकार बनेगी।

मतदान के बाद महागठबंधन ने दावा किया है कि पहले चरण में मतदाताओं के उत्साह से साफ़ हो गया है कि नतीजों किए बाद आरजेडी-कांग्रेस-वामपंथी सरकार बनना तय है। उसके दावे के मुताबिक पहले चरण में उसे 55 सीटों पर बड़ी जीत मिल रही है और यह संख्या बढ़ भी सकती है। आरजेडी, कांग्रेस और वामदलों के गठबंधन ने यह भी दावा किया कि सत्ताधारी भाजपा-जदयू गठबंधन ईकाई अंक में सिमट जाए, तो हैरानी नहीं होना चाहिए। साथ महागठबंधन ने अपने कार्यकर्ताओं से कहा है कि वो इस फार्मूले को याद रखें कि जबतक नीतिस्त सरकार की विदाई नहीं हो जाती, तब तक कार्यकर्ता बिलकुल ढिलाई न बरतें और पूरी ताकत से जनता के बीच बने रहें।

हालांकि, मतदान के बाद अपनी प्रतिक्रिया में बिहार जेडीयू के अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह ने कहा कि बिहार की 16 जिलों की जनता ने इस चरण में एनडीए सरकार की वापसी तय कर दी है। उन्होंने कहा – ‘चुनाव के पहले फेज ने बिहार की जनता का मिजाज बता दिया है। नीतीश कुमार के नेतृत्व में एक बार फिर अपार बहुमत के साथ एनडीए सरकार की वापसी होने जा रही है। 15 साल बनाम 15 साल के एनडीए के उद्घोष को जनता ने गंभीरता से लिया। लोगों ने कुशासन के उस दौर को याद किया। न्याय के साथ विकास की जो तस्वीर खींची गयी, लोगों ने उसपर अपना भरोसा कायम रखा है।”

कहां-कितने वोट
पहले चरण में, भागलपुर जिला के कहलगांव में 54.10 प्रतिशत और सुल्तानगंज में 54.30 प्रतिशत, बांका जिला के अमरपुर में 57.00 प्रतिशत, धौरैया में 62.50 प्रतिशत, बांका में 60.97 प्रतिशत, कटोरिया में 60.84 प्रतिशत और बेलहर में 56.98 प्रतिशत वोट पड़े। मुंगेर जिला के तारापुर में 47.00 प्रतिशत, मुंगेर में 47.80 प्रतिशत और जमालपुर में 47.24 प्रतिशत, लखीसराय जिला के सूर्यगढ़ा में 55.80 प्रतिशत और लखीसराय में 55.10 प्रतिशत, शेखपुरा जिला के शेखपुरा में 56.22 प्रतिशत और बरबीघा में 55.66 प्रतिशत मतदान हुआ।

बता दें पहले चरण में कुल 1,066 उम्मीदवारो मैदान में थे, जिनमें 114 महिलाएं हैं।  जदयू ने इन 71 सीटों में 35 पर अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे जबकि उसकी सहयोगी भाजपा ने 29, विपक्षी राजद ने 42 और 20 पर कांग्रेस के उम्मीदवार मैदान में थे। जोजपा ने भी 41 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे।

वेबिनार कर मार्ग ईआरपी ने बनाया विश्व कीर्तिमान

मार्ग ईआरपी ने दुनिया का सबसे बड़ा वेबिनार कर गिनीज बुक रिकार्ड में नाम दर्ज कराया है। एक बिजनेस वेबिनार में 84023 लोगों ने भाग लिया। वेबिनार लगभग ढ़ाई घंटे तक चला। मार्ग ईआरपी के चेयरमैन ठाकुर अनूप सिंह का कहना है कि मध्यम व लघु व्यापार को बढ़ावा देने के लिये ऐसे वेबिनार आयोजित किये जायेगे।उन्होंने बताया कि मार्ग ईआरपी भारत की ईआरपी प्रदान करने वाली प्रमुख कम्पनियों में से एक है। एप्लिकेशन सोफ्टवेयर द्दारा जीएसटी से संम्बंधित लेनदेन को सुविधाजनक बनाकर मार्ग ईआरपी अपना प्रमुख किरदार निभाती है।

जो मध्यम और लघु व्यापार को उचित कौशल प्रदान करती है।जाने-माने बिजनेश कोच और मोटिवेशनल स्पीकर डाँ विवेक बिंद्रा का कहना है कि अब तक का सबसे बड़ा वेबिनार होने होने पर खुशी की बात है । उनका कहना है कि इस वेबिनार को आयोजित करने वाली कंपनी बड़ा बिजनेस और वेबिनार को तकनीकी तौर पर अपने प्लेटफार्म पर कंडक्ट करवाने वाली कंम्पनी मार्ग ईआरपी दोनों ही भारतीय कम्पनियां है।बताते चलें देश के फार्मा और एफ एम सी जी सेक्टर का 50 प्रतिशत से ज्यादा ईआरपी बिजनेस संभालती है।उन्होंने बताया कि आगे होने वाले वाले वेबिनार में एक लाख से ज्यादा प्रतिभागियों की संख्या हो जायेगी, जो विश्व के सारे कीर्तिमान तोड़ेगी।

ब्रेन स्ट्रोक से बचना है तो करें व्यायाम

हर साल की  भाँति इस साल भी विश्व स्ट्रोक दिवस (29 अक्टूबर) के अवसर विशेषज्ञों का कहना है कि जागरूकता के अभाव में और खान-पान में अनियमितता के कारण स्ट्रोक(लकवा) के मामले तेजी से बढ़ रहे है।

एम्स के न्यूरोसर्जन डाँ ए श्रीवास्तव का कहना है कि जिनको डायबिटीज, मोटापा,  हाई कोलेस्ट्राल और नशे की आदि होती है उनको स्ट्रोक पड़ने की ज्यादा संभावना रहती है। डाँ श्रीवास्तव का कहना है कि स्ट्रोक पडने की वजह साफ है कि शरीर में खून का थक्का जमने लगता है। जिससे ब्लड का सर्कुलेशन सही नहीं हो पाता है।मैक्स अस्पताल के हार्ट रोग विशेषज्ञ डाँ विवेका कुमार का कहना है कि हार्ट रोग और ब्रेन स्ट्रोक में अगर समय पर उपचार मिल जाये तो रोगी कम समय में सही ठीक हो जाता है।अन्यथा लम्बे समय तक इलाज चलता है।

जीबी पंत अस्पताल के न्यूरोसर्जन डाँ देवाशीष का कहना है कि स्ट्रोक पडने की हालत में अगर रोगी को 5 घंटे के भीतर खून के थक्के को घोलने वाली दवा दी जाये तो रोगी की विक्लांगता को रोका जा सकता है।उनका कहना है कि हार्ट रोग ,कैंसर के बाद स्ट्रोक से मौतें तेजी से हो रही है। अगर समय रहते इलाज और नियमित व्यायाम किया जाये तो हार्ट अटैक और ब्रेन अटैक जैसी बीमारी से बचा जा सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि अगर एक अंग में अचानक कमजोरी हो और बोलने में दिक्कत आ रही है तो न्यूरो विशेषज्ञ को अवश्य दिखायें।