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बिहार विधानसभा चुनाव – 2020: महामारी में महामुकाबला

बिहार का चुनाव पूरे देश की राजनीति को दशा और दिशा तय करने में मदद करता है। देश भर में बिहार के लोग बसते हैं और इस बार बिहार के पिछड़ेपन के लगे ठप्पे को मिटाने के लिए अगले पाँच साल के लिए नयी सरकार चुनने का मौका है। तीन चरणों में चुनाव के बाद 243 सीटों के सस्पेंस से परदा 10 नवंबर को हट जाएगा। कोरोना महामारी में पहली बार हो रहा यह मुकाबला बेहद अहम है। ऐसे दौर में लोकतंत्र में विधानसभा चुनाव का होना ही दिलचस्प हैं, जिसमें 7.29 करोड़ मतदाता अपने जनप्रतिनिधि चुनेंगे। बिहार में पहले चरण में ही चुनाव प्रचार के दौरान रैलियों में उमड़ती भीड़ ने कोरोना वायरस फैलने के खतरे को फिलहाल एक तरह से नकार दिया है। महामारी के बीच चुनाव आयोग ने मतदान के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किये हैं।

दुर्भाग्य से ज़्यादातर राजनेता दशकों से मतदाताओं को लुभाने के लिए तरह-तरह के वादे करते हैं, पर राज्य में पर्याप्त शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं की कमी, प्रति व्यक्ति आय कम होना साथ ही औद्योगिक रूप से राज्य के पिछड़ेपन व गरीबी के साथ ही लोगों में निरक्षरता का 50 फीसदी से ज़्यादा होने से खास बदलाव नहीं दिखा है। लोगों के पास काम या नौकरी के मौके न होने के चलते कुशल और अकुशल दोनों तरह के लोगों को बिहार छोडऩे के लिए मजबूर होना पड़ता है। सियासी दल के तौर पर देखें तो यह चुनाव सत्ताधारी पार्टी जदयू से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और विपक्ष के राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव के लिए अस्तित्व की लड़ाई भी बन गया है।

नीतीश कुमार ने पिछले तीन कार्यकाल से मुख्यमंत्री का महत्त्वपूर्ण पद सँभाला है और एंटी इनकंबेसी के बावजूद सरकार बनाने में सफल रहे हैं। फिलहाल बिहार में जदयू एनडीए का हिस्सा है, जिसमें भाजपा, जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) और बॉलीवुड सेट डिजाइनर से राजनेता बने मुकेश साहनी की विकासशील इन्सान पार्टी (वीआईपी) शामिल हैं। भाजपा 110 सीटों पर चुनाव लड़ रही है और उसने अपने कोटे से 11 सीटें सहयोगी पार्टी वीआईपी को दी हैं। जदयू 115 सीटों पर चुनाव लड़ रही है और उसने अपने कोटे से 7 सीटें हम को दी हैं।

राज्य में मुख्य मुकाबला एनडीए का महागठबंधन से हैं। महागठबंधन में राजद के अलावा कांग्रेस और वामदल शामिल हैं। राजद 144 सीटों पर तो कांग्रेस 70 व वामदल 29 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं। इसके अलावा तीसरा मोर्चा भी मैदान में है, जिसमें मायावती की बसपा, उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा और हैदराबाद के सांसद की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-एत्तेहाद मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) जैसी छोटी पार्टियों ने मिलकर कुशवाहा को अपना मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश किया है। कुशवाहा 2018 तक भाजपा में एनडीए का हिस्सा रह चुके हैं। इसके अलावा बिहार की लोक जनशक्ति पार्टी की भूमिका बेहद दिलचस्प हो गयी है। लोजपा नेता चिराग पासवान ने बिहार में चुनाव लडऩे के लिए खुद को एनडीए से अलग कर लिया है और बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर किसी भी सूरत में वे नीतीश कुमार को देखना नहीं चाहते हैं। इसके अलावा उन्होंने भाजपा के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारे हैं; जबकि जदयू उम्मीदवारों के खिलाफ अपने प्रत्याशी खड़े किये हैं। हाल ही में लोजपा संस्थापक रामविलास पासवान के निधन से राज्य में सहानुभूति वोट मिलने की उम्मीद की जा रही है।

लोजपा अध्यक्ष चिराग पासवान खुला ऐलान कर चुके हैं कि वह नीतीश को अगला मुख्यमंत्री नहीं देखना चाहते; अगर वह फिर से मुख्यमंत्री बनते हैं, तो यह बिहार की जनता की हार होगी। वह एक साक्षात्कार में कह चुके हैं कि मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हनुमान हूँ। इस बीच भाजपा के नेता लोजपा को वोट-कटवा पार्टी कह चुके हैं। वहीं नीतीश पर निशाना साधते हुए तेजस्वी यादव चिराग के प्रति नरम दिखे हैं। चिराग को उम्मीद है कि परिणामों के बाद भाजपा और लोजपा की मिलकर प्रदेश में सरकार बनेगी। इसीलिए उन्होंने चुन-चुनकर जदयू उम्मीदवारों के खिलाफ अपने प्रत्याशी खड़े किये हैं। भाजपा ने दावा किया है कि जदयू नेता नीतीश ही एनडीए के मुख्यमंत्री होंगे, लेकिन दोनों दलों के बीच लम्बे समय से चली आ रही खींचतान से आगे कुछ भी सम्भव हो सकता है। इतना ही नहीं, राजनीतिक हलकों में अटकलें ये भी लगायी जा रही हैं कि अगर मौका मिला और हालात ऐसे हुए तो लोजपा महागठबंधन में शामिल हो सकती है।

केंद्र की एनडीए सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे रामविलास पासवान कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में भी कैबिनेट मंत्री रहे हैं। रामविलास को राजनीति का मौसम वैज्ञानिक कहा जाता था, अब स्वाभाविक है कि उनके बेटे चिराग भी उन्हीं के पद-चिह्नों पर चलेंगे। शायद यही वजह है कि रामविलास के निधन के बाद केंद्र में खाली हुई सीट फिलहाल भरी नहीं गयी है और लोजपा एनडीए का हिस्सा रहेगी या नहीं? यह सम्भवत: बिहार चुनाव के नतीजे ही तय करेंगे। दिलचस्प यह भी है कि महाराष्ट्र की दो पार्टियों, शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने भी अपने उम्मीदवार उतारे हैं। हालाँकि बिहार में इनकी अहमियत बहुत ज़्यादा नहीं है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और उनके बेटे व मंत्री आदित्य ठाकरे शिवसेना के स्टार प्रचारक हैं और राज्य में पार्टी ने 50 सीटों पर वर्चुअल रैलियों की तैयारी की है। शिवसेना की ओर से संजय राउत और राज्यसभा सांसद प्रियंका चतुर्वेदी भी प्रचार कर सकती हैं। राकांपा प्रमुख शरद पवार, उनकी बेटी सुप्रिया सुले, महाराष्ट्र के बारामती से सांसद प्रफुल्ल पटेल अपनी पार्टी के 150 उम्मीदवारों के लिए प्रचार करेंगे।

अगर चुनाव नतीजों में एनडीए जीतती है, तो राजद और कांग्रेस के गठबंधन का भविष्य 2025 तक बनाये रखना तेजस्वी और राहुल दोनों के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। पर महागठबंधन जीतता है, तो वह घटक दलों को केंद्र की मोदी सरकार और और पश्चिम बंगाल में भाजपा का मुकाबला करने के लिए एक समान मोर्चा बनाने का रास्ता खोल सकता है। पश्चिम बंगाल में 2021 में विधानसभा चुनाव होंगे।

सियासी जानकार बताते हैं कि 2020 के बिहार चुनावों में कोरोना संक्रमण के चलते केंद्र सरकार के अचानक लॉकडाउन से लाखों मज़दूरों के बिहार वापसी के लिए मजबूर होने को लेकर बड़ा गुस्सा है। तमाम दु:खद परिस्थितियों में वे अपने गाँव लौटने को मजबूर हुए। यह गुस्सा नीतीश कुमार सरकार के खिलाफ भी है, जिस पर बड़ी संख्या में ऐसे प्रवासी कामगार सरकार को जवाब देने को खुलकर बोल भी रहे हैं।

विपक्ष को उम्मीद है कि प्रवासियों के बीच यह गुस्सा उसके पक्ष में हवा बनाने में मददगार होगा और चुनाव प्रचार में इसका ज़िक्र भी बार-बार किया गया। इसके अलावा विपक्ष भी इस मुद्दे पर हमलावर है। चुनाव प्रचार के पहले चरण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राहुल गाँधी के साथ तेजस्वी यादव ने रैलियों को सम्बोधित कर अपना-अपना विजन को सामने रखा। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी ने मोदी की खिंचाई करते हुए कहा कि बिहार आकर वह मज़दूरों के सामने सिर झुकाते हैं; लेकिन जब वास्तव में उसकी आवश्यकता होती है, तो कुछ नहीं करते हैं। आप हज़ारों किलोमीटर तक पैदल चले, प्यासे और भूखे रहते हैं; लेकिन मोदी ने आपको ट्रेन नहीं दी। बल्कि सरकार की ओर से कहा जाता है कि जो मरता है, मर जाए। नवादा की रैली में राहुल ने कहा कि बिहार की जनता नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी को सही जवाब देगी। तेजस्वी यादव ने कहा कि मुख्यमंत्री ने प्रवासियों की अनदेखी की। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री आवास में 144 दिनों तक घर में ही बन्द रहे। लेकिन अब वह आवास से बाहर निकले हैं। क्यों? तब भी कोरोनो वायरस था और अब भी है। लेकिन अब उन्हें आपका वोट चाहिए, इसलिए निकले हैं।

हालाँकि प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्ष के इस हमले पर कहा कि मुख्यमंत्री ने महामारी से निपटने में अच्छा काम किया है। सासाराम में मोदी ने एक साझा रैली को सम्बोधित करते हुए कहा कि अगर बिहार ने तेज़ी से कार्रवाई नहीं की होती, तो महामारी बहुत-से लोगों की जान ले चुकी होती और क्या हालात होते इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन आज कोविड-19 के बावजूद बिहार में लोकतंत्र के पर्व को अंजाम दिया जा रहा है।

2015 के राज्य और 2019 के आम चुनाव

पिछले 2015 के विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद के साथ अपनी पुरानी प्रतिद्वंद्विता को छोड़ राजद-जदयू-कांग्रेस महागठबंधन में शामिल होकर चुनाव लड़ा था। सामाजिक समीकरणों के ज़रिये महागठबंधन ने 243 में से 178 सीटें जीतकर एनडीए का सफाया कर दिया था। सन् 2015 के चुनाव में भाजपा ने 53, लोजपा ने 2, हम ने एक और रालोसपा दो सीटें जीती थीं। महागठबंधन में राजद 80 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, इसके बावजूद नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने पर सहमति दी थी। जदयू ने 71 सीटें जीती थीं। हालाँकि करीब डेढ़ साल बाद जदयू और राजद में मतभेद के बाद राजद नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करना पड़ा। इसी बीच 2017 में नीतीश कुमार ने गठबंधन से अलग होकर भाजपा के साथ हाथ मिलाकर सरकार बना ली। भाजपा नेताओं का दावा है कि इस बार जातिगत समीकरण एनडीए का पक्षधर है, जो ओबीसी, महादलित और उच्च जाति के वोट बैंक का प्रतिनिधित्व करता है। महागठबंधन को राजद के पारम्परिक यादव, मुस्लिम और ओबीसी वोट बैंक और कांग्रेस के ऊपरी जाति के वोटों के अलावा वाम दलों का समर्थन करने वाले वगों से भी फायदा होने की उम्मीद है।

यह भी अहम है कि बिहार विधानसभा चुनाव से एक साल पहले हुए लोकसभा के 2019 के आम चुनावों में राज्य की 40 लोकसभा सीटों में से 39 सीटें जीती थीं। भाजपा ने 17 लोकसभा सीटें जीती और सहयोगी जदयू को 16, इसके बावजूद केंद्रीय कैबिनेट में उसे एक भी मंत्री पद नहीं मिला।

जदयू दो कैबिनेट मंत्री पद की माँग कर रहा था, पर उसे एक की पेशकश की गयी। लोकसभा 2019 के चुनाव में भाजपा, जदयू और लोजपा के बीच 17-17-6 सीटों का बँटवारा किया गया था। हालाँकि राष्ट्रीय और राज्य चुनावों में मतदान का पैटर्न आमतौर पर अलग-अलग होता है, लेकिन यह देखा जाना बाकी है कि 2019 के लोकसभा चुनाव की बढ़त को एनडीए बरकरार रख पायेगा? इसी तरह, 2020 के राज्य चुनाव यह तय करेंगे कि राजद और कांग्रेस पिछले साल के आम चुनाव में खो चुकी चमक को कितना वापस ला पाते हैं।

प्रचार अभियान के तरीके

एनडीए और महागठबंधन के नेता एक-दूसरे पर आरोपों की बौछार के साथ वोटरों को लुभाने के लिए बड़े-बड़े वादे कर रहे हैं। एनडीए नेता जहाँ राजद के संस्थापक और पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद के 15 साल के कुशासन और भ्रष्टाचार को निशाना बना रहे हैं। वहीं महागठबंधन के नेता पिछले 15 वर्षों के दौरान विकास थमने के लिए नीतीश सरकार को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। बिहार चुनाव अभियान की एक और विशेषता यह है कि जहाँ एनडीए मोदी सरकार की पिछले छ: साल में शुरू की गयीं विकास योजनाओं का गुणगान कर रहा है। वहीं महागठबंधन जदयू-भाजपा की सरकारों के दौरान बेरोजगारी, आर्थिक मंदी, खराब स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली और प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा के मुद्दे उछालकर घेर रहा है। एनडीए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की डबल इंजन की सरकार बता रहे हैं और यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि लालू शासन के 15 साल की तुलना में पिछले 15 साल में विकास हुआ है। जबकि लालू के शासन में वह बिहार में सामाजिक न्याय का चेहरा बने; लेकिन राज्य को बदहाली की ओर ले जाने के आरोप लगाये गये।

चुनाव प्रचार के दौरान विपक्ष को करिश्माई लालू प्रसाद यादव की याद आ रही है, जो चारा घोटाला मामले में जेल में हैं और जमानत होने पर भी अभी रिहा नहीं हुए हैं। फिलहाल उनका रांची के राजेंद्र इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (रिम्स) में इलाज चल रहा है। राजद के अभियान का नेतृत्व उनके बेटे तेजस्वी यादव कर रहे हैं, जो 2015 में नीतीश कुमार के डिप्टी थे। सन् 1990 के दशक से सन् 2005 तक, जब नीतीश कुमार राज्य के लोकप्रिय ओबीसी नेता के रूप में उभरे। इससे पहले तक राजद के संस्थापक लालू प्रसाद यादव, दलित और मुस्लिम वोट बैंक को सफलतापूर्वक साधते रहे ओर चुनाव जीतने में कामयाब रहे। सन् 2015 के चुनावों में लालू प्रसाद ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के विवादास्पद बयान आरक्षण नीति की समीक्षा किये जाने की बात का चुनाव प्रचार में जमकर इस्तेमाल किया था, और एनडी को पिछड़ा वर्ग विरोधी बताया था।

इस बार महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के दावेदार तेजस्वी अपने अभियान में युवाओं के लिए रोज़गार सृजन के वादे पर ज़ोर दे रहे हैं। उनकी रैलियों में उमड़ती भीड़ ने उनके उत्साह को बढ़ा दिया है। वह यह साबित करने पर तुले हैं कि राज्य की जनता खासकर युवा नीतीश सरकार से खफा है। तेजस्वी ने महागठबंधन की ओर से जारी घोषणा-पत्र में कहा है कि मैं एक विशुद्ध बिहारी हूँ। मेरा डीएनए शुद्ध है। अगर हमारी सरकार बनती हैं, तो पहली कैबिनेट में 10 लाख युवाओं को नौकरी देंगे। वे बार-बार दोहराते हैं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शारीरिक और मानसिक रूप से अब थक गये हैं। नीतीश के 15 साल के शासन के बाद अब तेजस्वी से पूछ रहे हैं कि नौकरी के लिए पैसा कहाँ है? 30 हज़ार करोड़ रुपये के बजट की भरपाई कैसे करेंगे? तेजस्वी कहते हैं कि उनके कार्यकाल में 60 घोटाले किये गये। उनकी जल-जीवन-हरियाली नीति के लिए 24,000 करोड़ रुपये दिये गये, यह सब पैसा भ्रष्टाचार में जा रहा है। विज्ञापनों में अपना चेहरा चमकाने के लिए 500 करोड़ रुपये खर्च किये। तेजस्वी कहते हैं कि इतना सब करने वाला कहे कि पैसा कहाँ से आएगा? इस पर हँसी आती है।

नीतीश कुमार ने यह भी कहा कि बिहार के पास कोई समुद्र नहीं है, इसलिए कोई उद्योग और कारखाने नहीं हैं। तेजस्वी ने कहा कि जीत और हार खेल का हिस्सा हैं; लेकिन लगता है कि मुख्यमंत्री ने अपना संतुलन खो दिया है। बजट में 4.5 लाख नौकरियों के लिए अभी व्यवस्था है। साथ ही देश के औसत से देखें, तो नीति आयोग के अनुसार, बिहार की प्रगति के लिए और 5.5 लाख नौकरियों की आवश्यकता है। अगर आपमें इच्छाशक्ति हो तो यह बिल्कुल सम्भव है। इस बार राजद के साथ ही कांग्रेस के लिए भी ज़्यादा मौका है, जिसने 2015 के चुनावों में 27 सीटें जीती थीं। इस बार वह 70 सीटों पर हाथ आजमा रही है। कांग्रेस का बोले बिहार बदले सरकार नारे के साथ चुनावी मैदान में हैं। शिक्षा, बेरोज़गारी, बढ़ते भ्रष्टाचार, अनियंत्रित अपराध और राज्य सरकार की विफलता को उसने मुद्दा बनाया है। महागठबंधन के लिए कांग्रेस से राहुल गाँधी के अलावा पार्टी प्रमुख सोनिया गाँधी, प्रियंका गाँधी वाड्रा, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, गुलाम नबी आज़ाद, सचिन पायलट, पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, शत्रुघ्न सिन्हा, कीर्ति आज़ाद, मीरा कुमार, रणदीप सुरजेवाला और राज बब्बर चुनाव प्रचार कर रहे हैं।

तेजस्वी यादव के 10 लाख नौकरियों के वादे का मुकाबला करने के लिए भाजपा ने 19 लाख नौकरियों के विकल्प का वादा किया है। इसके अलावा बिहार के सभी लोगों के लिए कोरोना वैक्सीन मुफ्त देने का वादा भी किया है। हालाँकि इसकी सभी दलों ने कड़ी आलोचना की है। कांग्रेस ने भाजपा के घोषणा-पत्र को एक और जुमला करार दिया और बिहार को विशेष दर्जा देने की लम्बे समय से लम्बित माँग पर भगवा दल की चुप्पी पर सवाल उठाये। एनडीए के लिए एक कठिन चुनाव है। भाजपा ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कट्टर हिन्दुत्ववादी नेता की छवि को भुनाने के लिए बिहार में प्रचार कराने को उतारा है। सन् 2019 में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 को हटाने का उल्लेख उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री मोदी दोनों को बार-बार करना पड़ रहा है।

पूर्वी लद्दाख में भारत-चीन सीमा विवाद भी बिहार चुनाव का हिस्सा बन गया है। 15 जून को चीन के सैनिकों के साथ हुई झड़प में 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गये थे। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि बिहार के जाँबाज़ों ने गलवान घाटी में अपनी शहादत दे दी; लेकिन देश का सिर ऊँचा रखा। चीन सीमा और पुलवामा में शहीद बिहार के जवानों को मैं नमन करता हूँ।

चुनाव आयोग की भूमिका

चुनाव आयोग ने दिशा-निर्देश जारी किये हैं और राज्य में चुनाव प्रचार, नामांकन, मतदान और मतगणना के लिए कैसी व्यवस्था हो। इसके साथ ही केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक रणनीति तैयार करने के लिए अपनी टीम बिहार भेजी, ताकि कोरोना वायरस का संक्रमण को फैलने से रोकने में मदद मिले। मतदान से सभी वोटरों की थर्मल स्कैनिंग की व्यवस्था की गयी। मतदान सुबह 7 बजे से शाम 6 बजे तक होगा यानी एक घंटे का अतिरिक्त समय मिलेगा। हालाँकि नक्सल प्रभावित इलाकों में शाम 5 बजे तक ही मतदान होगा। कोरोना वायरस के मरीज़ भी स्वास्थ्य अधिकारियों की देखरेख में मतदान करेंगे। इसके अलावा 80 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों या विकलांग व्यक्ति डाक मतपत्र का विकल्प चुन सकते हैं। मतदान में 7.43 करोड़ एक बार उपयोग वाले दस्ताने, 46 लाख मास्क, 7.6 लाख फेस शील्ड, 7 लाख यूनिट हैंड सैनिटाइजर और छ: लाख पीपीई किट की व्यवस्था की गयी है। सभी मतदाता दस्ताने, मास्क पहनेंगे और हैंड सैनिटाइजर का उपयोग करेंगे। कंटेनमेंट जोन में दिशा-निर्देशों का सख्ती से पालन करना होगा।

चुनाव आयोग ने प्रसारण और टेलीकास्ट के समय को दोगुना कर दिया है। कोरोना संक्रमण को देखते हुए दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो पर बिहार में राजनीतिक दलों के लिए समय आवंटित किया गया है। इसके अलावा सोशल मीडिया जैसे ट्विटर, फेसबुक और यूट्यूब के ज़रिये भी बड़े पैमाने पर प्रचार किया जा रहा है। उम्मीदवारों से उनका सोशल मीडिया अकाउंट की जानकारी भी माँगी गयी है।

किस दल में कितने दागी दावेदार

जब बिहार में चुनाव होते हैं, तो कोई भी दल यह दावा नहीं कर सकता है कि उसके उम्मीदवार बेदाग हैं। हर दल में ऐसे दावेदार हैं, जिन पर गम्भीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। चुनावी हलफनामे के आधार पर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स के अनुसार, राजद ने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले 73 फीसदी और भाजपा ने 72 फीसदी उम्मीदवारों को टिकट दिया है। लोजपा के 49 फीसदी, कांग्रेस के 57 फीसदी, जदयू के 43 फीसदी और बसपा के 31 फीसदी प्रत्याशी दागी हैं।

ओपीनियन पोल में किसकी सरकार

विभिन्न ओपीनियन पोल की मानें तो बिहार में एनडीए को बहुमत मिल रहा है। लेकिन विपक्ष ने इसे नकार दिया और इनको बिका हुआ करार दिया है।

इंडिया टुडे-लोकनीति-सीएसडीएस

एनडीए               138 सीटें

महागठबंधन          93 सीटें

अन्य                   12 सीटें

टाइम्स नाउ-सीवोटर

एनडीए                 160 सीटें

महागठबंधन            76 सीटें

एबीपी-सी वोटर

एनडीए                 151 सीटें

महागठबंधन            74 सीटें

अन्य                     18 सीटें

बिहार बीमारू राज्यों में सबसे नीचे क्यों है?

बिहार विधानसभा के चुनाव तीन चरणों में पूरे होने के साथ नयी सरकार का गठन 29 नवंबर तक हो जाएगा। इस बीच चुनाव प्रचार अपने चरम पर है। पहले चरण में 28 ज़िले तो दूसरे में 10 ज़िलों में मतदान होगा। चुनाव के प्रचार में इस बार केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में लाये गये कृषि सुधारों से जुड़े कानूनों को लेकर विपक्ष जहाँ एनडीए के नेतृत्व वाली बिहार में नीतीश सरकार को घेर रहा है, तो सरकार भी अपने विरोधियों को घेरने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रही है।

इस बार के चुनाव प्रचार में फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की दु:खद मौत जैसे मुद्दों के अलावा बिहार में गरीबी पर चर्चा न होना कहीं ज़्यादा दु:खद है। विडंबना यह है कि लम्बे समय यह बिहार बीमारू राज्य की श्रेणी में हैं और देश में सामाजिक और आर्थिक रूप से सबसे नीचे बरकरार है। 1980 में आर्थिक स्थिति का उल्लेख करते हुए बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के माथे पर बीमारू राज्य का ठप्पा लगा था। हाल के वर्षों में इन राज्यों ने कई मानव विकास संकेतकों पर प्रगति दर्ज की गयी; लेकिन देश को वैश्विक स्तर पर योगदान दिलाने में इन प्रदेशों से ज़्यादा मदद नहीं मिली। मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) में 188 देशों की सूची में भारत की 131वीं रैंक पर ही कायम है। नीति आयोग के अनुसार, पूर्वी भारत के राज्य, खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, एमपी और राजस्थान लगातार सामाजिक रूप से पिछड़े बने हुए हैं, जबकि इन राज्यों में कारोबार को सुगम बनाया गया है; ताकि मानव विकास सूचकांक में सुधार लाया जा सके। देश के राज्यों से सामाजिक बदलावों को लेकर बहुत कम आँकड़े मिलते हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं को लेकर 1998-99 और 2015-16 के बीच के आँकड़े दर्शाते हैं कि बीमारू व अन्य राज्यों में कितना ज़्यादा अन्तर है। करीब दो दशकों में बीमारू राज्य निचले पायदान पर ही हैं, जबकि केरल, पंजाब, गोवा और दिल्ली शीर्ष पर बने हुए हैं। बिहार भारत का सबसे गरीब राज्य बना हुआ है।

बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) अपेक्षाकृत संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम का नया समग्र आकलन हैं, जिसमें वैचारिक और सांख्यिकी समस्याओं में कुछ सुधार देखा गया है, जिसे मानव विकास सूचकांक में उपयोग किया जाता है। एचडीआई को महज़ आय से जोड़े जाने पर इसकी काफी आलोचना की गयी थी। एमपीआई को ऑक्सफोर्ड के सबीना अल्केर और जेम्स फोस्टर ने तैयार किया, जिसमें गरीबी को मापने के लिए 10 संकेतकों का उपयोग किया गया। इनमें तीन अहम आयाम- शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर को रखा गया। अगर व्यक्तिगत तरीके से देखें, तो एक-तिहाई या इससे अधिक देश के लोग सूचकांक के हिसाब से गरीब हैं। सूचकांक के ज़रिये गरीब और उनकी गरीबी के स्तर को मापा जाता है कि वे किन-किन चीज़ों से महरूम हैं। यहाँ तक की इस पैमाने पर भी बिहार सबसे निचले स्तर पर रहा। सांख्यिकी और कार्यक्रम मंत्रालय की रिपोर्ट और कार्यान्वयन (7 जनवरी, 2020 को जारी) के अनुसार, प्रति व्यक्ति आय के मामले में गोवा अव्वल रहा, तो उसके बाद दिल्ली और सिक्किम रहे। इन आँकड़ों के अनुसार, बिहार में प्रति व्यक्ति आय सबसे कम रही। मौज़ूदा कीमत के आधार पर 2018-19 में प्रति व्यक्ति सालाना आय महज़ 43,822 रुपये रही।

प्रति व्यक्ति आय का मतलब आर्थिक इकाई से है; जैसे देश, राज्य या शहर में लोग। इसका आकलन करने के लिए एक इकाई की कुल आय को आबादी से विभाजित किया जाता है।

गोवा की प्रति व्यक्ति आय भारत के औसत से 3.01 गुना अधिक है और सबसे गरीब राज्य बिहार से 7.18 गुना ज़्यादा। बिहार में वर्ष 2018-19 के दौरान 43,822 रुपये सालाना रही; जबकि 2017-18 में यह 38,631 रुपये थी।

गोवा 33 भारतीय राज्यों और केंद्र शसित प्रदेशों में सबसे अमीरों में शीर्ष पर रहा। गोवा की प्रति व्यक्ति सालाना आय 2018-19 के अनुसार 4,67,998 रुपये थी। दूसरे नंबर पर दिल्ली रही जहाँ प्रति व्यक्ति सालाना आय लगभग 3,65,529 रुपये रही; जबकि तीसरे स्थान पर सिक्किम रहा और चौथे स्थान पर चंडीगढ़ व पाँचवें नंबर पर पुड्डुचेरी रहा।

सबसे गरीब राज्यों में बिहार, उत्तर प्रदेश, मणिपुर, झारखंड और असम रहे। नीचे से शीर्ष-5 में शामिल इन राज्यों की औसत घरेलू प्रति व्यक्ति उत्पाद 80 हज़ार रुपये सालाना से भी कम रही।

पलायन और दुर्दशा बड़ा मुद्दा

तमाम मुद्दों के साथ ही कृषि कानूनों को लेकर काफी हंगामा चल रहा है। विपक्ष बिहार में पलायन के मुद्दे को ज़ोरदार तरीके से उठा रहा है, जबकि सत्ताधारी फिर से अपने काम व अन्य मुद्दों के नाम पर वापसी के लिए खूब मेहनत में जुटे हैं। देश में अचानक किये गये लॉकडाउन के दौरान देश भर से बिहार के करीब 30 लाख प्रवासियों हुए थे, जो इस बार के चुनाव में बड़ा मुद्दा बना हुआ है। हालाँकि जिस वजह से बिहार की लम्बे समय से हालत खस्ता है, उससे बाहर निकलने के लिए विकास को मुख्य मुद्दा होना चाहिए था। लेकिन क्या वर्तमान राजनीति में ऐसे मुद्दों पर विचार की कल्पना की जा सकती है?

चुनावी टीका!

बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा का अपने संकल्प पत्र में ‘हर बिहारवासी को ‘कोरोना के नि:शुल्क टीकाकरण’ का वादा संविधान की मूल भावना का अनादर है। क्योंकि एक महामारी / अथवा प्राकृतिक आपदा में कोई राजनीतिक दल, जो केंद्र की सत्ता में विराजमान हो; अलग-अलग राज्यों के लिए अलग-अलग मापदंड नहीं अपना सकता। संविधान में देश के प्रत्येक नागरिक और राज्य से विशेष परिस्थति में एक समान व्यवहार करना भारत की सरकार का नैतिक और संविधानिक ज़िम्मेदारी है। ऐसे में जब वह चुनाव के कारण, सत्ता में आने की शर्त पर सिर्फ बिहार की जनता से उसे मुफ्त में कोरोना-वैक्सीन (टीका) देती या देने का वादा करती है, तो वह दूसरे राज्यों में रह रहे भारत के नागरिकों से भेदभाव की दोषी बनती है। यही नहीं, ऐसा करना और कहना उस बड़े राजनीतिक दल, जो देश की सत्ता चला रहा है; की संवेदनहीनता को भी उजागर करता है, जो एक महामारी को चुनावी लाभ के लिए इस्तेमाल करने का धत्कर्म कर रहा है।

बिहार चुनाव की वजह से कोविड-19 की वैक्सीन सिर्फ बिहार को मुफ्त में देने का भाजपा का संकल्प उसके राष्ट्रवादी होने के दावे के विपरीत सिर्फ चुनाववादी और अवसरवादी होने की झलक पेश करता है। देश की सत्ता में बैठी भाजपा एक महामारी का टीका, जो अभी तैयार भी नहीं हुआ है; को सिर्फ एक राज्य में मुफ्त में देने की घोषणा कैसे कर सकती है। क्या उसकी नज़र में अन्य राज्यों की जनता महामारी से बचाव की दवा की हकदार नहीं? क्या उसकी मुफ्त में कोरोना-टीका देने घोषणा अच्छी और स्वागतयोग्य होते हुए भी अन्य राज्यों के करोड़ों लोगों से भेदभाव नहीं? कोरोना वायरस जैसी माहमारी का टीका अगर बनता है, तो वह राष्ट्र की धरोहर होगा; जिसे कोई एक राजनीतिक दल अपने राजनीतिक या गैर-राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता है। इसलिए इस विषय पर विवाद होना स्वाभाविक है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की यह घोषणा एक महामारी को चुनावी लाभ के लिए इस्तेमाल करने जैसी मानी जाएगी। यही कारण है कि जब उन्होंने इसकी घोषणा की, तो इसका विरोध भी हुआ है। निश्चित ही महामारी ऐसे गम्भीर विषय पर यह भाजपा का निकृष्ट वादा है।

शिवसेना की राज्यसभा सदस्य प्रियंका चतुर्वेदी ने इस मसले को लेकर भाजपा पर तंज कसते हुए कहा है- ‘अब तक वैक्सीन आयी नहीं है। पर चुनावी जुमलों का हिस्सा ज़रूर बन गयी है। क्या केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी सारे राज्यों के लोगों के लिए एक समान नहीं होनी चाहिए?’ बिहार में भाजपा के विरोधी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ने सवाल किया है कि यदि भाजपा सत्ता में नहीं आयी, तो क्या वह लोगों को टीका नहीं देगी? निश्चित ही महामारी ऐसे गम्भीर विषय पर यह भाजपा का निकृष्ट फैसला और वादा है। राजद नेता तेजस्वी यादव ने कहा- ‘कोरोना की वैक्सीन देश की है; भाजपा की नहीं। वैक्सीन का राजनीतिक इस्तेमाल दिखाता है कि इनके पास बीमारी और मौत का भय बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। बिहारी स्वाभिमानी हैं। चंद पैसों में अपने बच्चों का भविष्य नहीं बेचते।’

भाजपा का यह मामला चुनाव आयोग तक चला गया। सामजिक कार्यकर्ता साकेत गोखले ने चुनाव आयोग में शिकायत दर्ज करायी है, जिसमें कहा गया कि भाजपा का सिर्फ बिहार के लोगों को मुफ्त में टीका उपलब्ध कराने का वादा चुनाव के दौरान केंद्र सरकार की शक्तियों का दुरुपयोग है। शिकायत में कहा गया कि यह ऐलान किसी भाजपा नेता ने नहीं, बल्कि देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का किया है।

सवाल खड़ा किया गया कि अभी तक भारत सरकार की ओर से कोई ऐसी नीतिगत और आधिकारिक घोषणा नहीं की गयी है, जिससे यह तय हो सके कि कोरोना-टीका देने का पैमाना क्या होगा? कोरोना वायरस के कारण देश के हर राज्य को नुकसान हुआ है और बिहार की तरह ही हर राज्य के लोग इससे प्रभावित हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आज़ाद ने कहा- ‘भाजपा का यही असली चेहरा है। उसे सिर्फ कुर्सी की चिन्ता है। एक महामारी को भी यह पार्टी राजनीतिक चश्मे से देख रही है। यह बहुत दु:ख की बात है। भाजपा सरकार अस्पतालों में डॉक्टरों और मरीज़ों के लिए तो इंतज़ाम कर नहीं पायी, अब बेशर्मी से इस पर राजनीति कर रही है। उसे तो पूरे देश के लिए यह टीका सरकारी खर्चे पर मुफ्त में करना चाहिए था।’

कांग्रेस नेता शशि थरूर ने भी ट्वीट करके भाजपा पर पर निशाना साधा। उन्होंने लिखा- ‘तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हें वैक्सीन।’ वहीं, सोशल मीडिया पर भी भाजपा को इस घोषणा के लिए विरोध सहना पड़ रहा है। बता दें अमेरिका सहित कई देश अपने नागरिकों को सरकार की तरफ से मुफ्त में कोरोना वायरस का टीका देने का ऐलान कर चुके हैं। ट्रंप सरकार ने तो अमेरिकी संसद में इसकी घोषणा की। क्योंकि किसी भी देश की सरकार के लिए देश का हर नागरिक एक बराबर है।

कटु होते केंद्र-राज्य सम्बन्ध

आखिर केंद्र और राज्यों के बीच शून्य की एक स्थिति पैदा हो गयी है। कारण यह है कि मज़बूत केंद्र शायद राज्यों के प्रति अपने दृष्टिकोण में सहभागिता की भूमिका से दूर चला गया है और इसका नतीजा राज्यों में केंद्र के प्रति सम्मान की कमी के रूप में सामने आया है। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ बहुतायत में प्रतिरोध है। महाराष्ट्र सरकार का बिना उसकी मंज़ूरी के सीबीआई जाँच के फैसले पर रोक लगाना इसका एक उदाहरण है। पश्चिम बंगाल, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड तथा केरल जैसे प्रदेशों में इस बात को लेकर केंद्र के प्रति विकट नाराज़गी है कि केंद्र सरकार राज्यों को जीएसटी की क्षतिपूर्ति के लिए अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करने में विफल रही है।

पंजाब, जो केंद्र के नये कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध-प्रदर्शनों का केंद्र है; ने विधानसभा में केंद्रीय कानूनों को नहीं मानने के लिए बाकायदा प्रस्ताव पास किया है और अपने स्तर पर तीन विधेयक पास किये हैं। यह इस बात का संकेत है कि राज्य इस मसले पर लम्बी लड़ाई लडऩे की तैयारी कर चुका है; भले ही उसे भी अपने ये विधेयक पास करने के लिए राष्ट्रपति की मंज़ूरी की ज़रूरत रहेगी। पंजाब के इन विधेयकों में एमएसपी से नीचे की उपज की बिक्री या खरीद करने पर कम-से-कम तीन साल की कैद का प्रावधान है। राज्य इस कानून के अधीन समवर्ती सूची के तहत लागू केंद्रीय कानूनों में संशोधन कर सकते हैं। हालाँकि उन्हें इसके लिए राष्ट्रपति की सहमति लेनी होगी; क्योंकि इसके बगैर यह कानून लागू नहीं हो सकते।

वास्तव में केंद्र सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र में सुधारों के प्रस्ताव के नाम पर अध्यादेशों का मार्ग अपनाने के बाद से केंद्र व राज्यों में विश्वास की कड़ी टूटी है। इसके बाद बिहार के विधानसभा चुनाव में वहाँ के लोगों को मुफ्त में कोरोना का टीका (वैक्सीन) देने के भाजपा के वादे ने अन्य राज्यों में आक्रोश पैदा किया है। उनका मानना है कि भाजपा ने ऐसा करके सिर्फ चुनाव जीतने के लिए एक महामारी की आड़ लेकर अनैतिक रूप से राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की है। यही नहीं, केंद्र-राज्य सम्बन्धों में एक और खराब मोड़ तब आया, जब उद्धव ठाकरे की महाराष्ट्र सरकार ने सीबीआई की किसी भी जाँच के लिए राज्य की अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया।

केंद्र और राज्य दोनों ही संविधान से अपने अधिकार प्राप्त करते हैं। आज़ादी के पहले चार दशक के दौरान हमने केंद्र और राज्यों के अच्छे सम्बन्धों के तौर पर एक मज़बूत केंद्र और अब की अपेक्षा शानदार राज्य भी देखे हैं। इसके बाद सन् 1989 और सन् 2014 के बीच गठबन्धन युग के चलते क्षेत्रीय दलों के मज़बूत होने के साथ एक कमज़ोर केंद्र और मज़बूत राज्य सामने आये। सन् 2014 के बाद एक मज़बूत केंद्र का उदय हुआ और राज्य फिर कमज़ोर दिखने लगे। लेकिन इन दिनों केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन छिन्न-भिन्न हुआ है; क्योंकि पश्चिम बंगाल, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखण्ड और केरल समेत कई बड़े राज्य विपक्ष के पास हैं। यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी केंद्र और राज्यों की सरकारों को एक निश्चित सीमा की स्वतंत्रता का आश्वासन देने के लिए सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व और परस्पर-निर्भरता दिखाने पर ज़ोर दिया है।

पिछले काफी समय तक हमने अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार में भी काफी तनातनी देखी। बाद में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पाँच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने दोनों सरकारों के बीच सत्ता के टकराव पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया। समय आ गया है जब केंद्र और राज्य, दोनों सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखने के लिए अपने-अपने दृष्टिकोणों का पुनर्निरीक्षण करें; ताकि संघीय मतभेदों से संवैधानिक संकट जैसी स्थिति न बन जाए।

पराली न जलाकर पैसे कमाएँ किसान होने से बचेंगे कई नुकसान

उत्तर भारत में हर साल की तरह बहुत-से किसान फिर से खेतों में पराली जलाने लगे हैं। जागरूकता की कमी और अगली समय पर अगली फसलें बोने की वजह से किसान खेतों में ही पराली जलाते हैं। लेकिन वह भूल जाते हैं कि इससे वातावरण दूषित होने के कारण लोगों को तो नुकसान होता ही है, किसानों को काफी नुकसान होता है। इतना ही नहीं, पराली के धुएँ से फैले प्रदूषण को कम करने के लिए राज्य सरकारों को हर साल काफी खर्चा करना पड़ता है। पराली को जलाने से वातावरण में बेहद नुकसानदायक ज़हरीला धुआँ फैलता है, जिससे वातावरण में कार्बन मोनोऑक्साइड और कार्बन डाई ऑक्साइड जैसी गैसों की परत छाई रहती है।

अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (आईएफपीआरआई) के एक अनुमान के मुताबिक, उत्तर भारत में जलने वाली पराली की वजह से देश को हर साल करीब दो लाख करोड़ रुपये का नुकसान होता है, जो कि केंद्र सरकार के स्वास्थ्य बजट से करीब तीन गुना ज़्यादा है। यह नुकसान वायु प्रदूषण को कम करने, बीमारियों पर लगने वाले खर्च और किसानों को होने वाले नुकसान का योग है। पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत में श्वास सम्बन्धी रोगों से हर वर्ष लाखों लोगों को जान से हाथ धोना पड़ता है। पराली जलने से पैदा होने वाली गैसें ग्लोबल वार्मिंग की समस्या को बढ़ाती हैं। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन पर अंत:सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की तीसरी विशेष रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से भारत के हिमालय क्षेत्र को काफी नुकसान हो रहा है; जिसका भविष्य में लोगों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

कई विशेषज्ञों का मानना है कि पराली या अन्य कृषि अवशेषों को जलाने से फसलों की पैदावार बड़ी मात्रा में घट सकती है। इससे देश में खाद्य सुरक्षा का संकट बढ़ सकता है। जब देश की एक-चौथाई से अधिक जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रही हो और अपनी खाद्य ज़रूरतों के लिए संघर्ष कर रही हो, तो खाद्यान्न पैदावार में कमी सरकार के समक्ष गम्भीर समस्या खड़ी कर सकती है। हाल ही में जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2020 में भारत को 107 देशों में 94वाँ स्थान प्राप्त हुआ है, जो देश की कुपोषण स्थिति को बखूबी बयाँ करता है।

रिपोट्र्स की मानें, तो सबसे ज़्यादा पराली कृषि में अग्रणी दो राज्यों पंजाब और हरियाणा में जलायी जाती है। आईएफपीआरआई ने एक रिपोर्ट में दावा किया है कि अकेले पंजाब में हर साल करीब 44 से 51 मिलियन मीट्रिक टन धान की पराली जलायी जाती है। वहीं हरियाणा में करीब 12 मिलियन टन पराली जलायी जाती है। इससे हवा में प्रदूषण की मात्रा बहुत अधिक बढ़ जाती है, जिससे हर साल अनेक लोगों की मौत होती है। आईएफपीआरआई के अध्ययन के मुताबिक, केवल धान की पराली जलाने से हर साल सैकड़ों लोगों की मौत हो जाती है। गाँव की अपेक्षा शहर में लोगों को ज़्यादा तकलीफ होती है। शहरों में पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चे तथा 59 वर्ष से अधिक के बुजुर्ग सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं। पराली जलाने से दिल्ली, एनसीआर समेत उत्तर भारत के सभी बड़े शहर सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं। पराली जलने से दिल्ली में अक्टूबर के पहले सप्ताह के आखिर में एयर क्वालिटी इंडेक्स 300 से भी ऊपर चला गया था, जिसमें हर दिन बढ़ोतरी होती है।

पराली जलने से होने वाले नुकसान

पराली के जलने से होने वाले नुकसानों की अगर बात करें, तो इससे तकरीबन पाँच तरह के मुख्य नुकसान होते हैं। पहला प्रदूषण फैलता है। दूसरा, फेफड़ों, त्वचा, आँखों के रोग फैलते हैं। तीसरा प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए सरकार को आर्थिक नुकसान होता है। चौथा खेतों में जैविक कीड़े मर जाते हैं, जिससे भूमि की उर्वर क्षमता घट जाती है और पैदाबार कम होती है और पाँचवाँ किसानों को वह आर्थिक नुकसान होता है, जो उन्हें पराली बेचकर मिल सकता था। इसके अलावा पेड़ पौधों और बाकी फसलों को भी प्रदूषण को नुकसान होता है। इसके अलावा पराली जलाने से खेत में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम एवं अन्य सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी हो जाती है। ऐसे में अगली फसल के अच्छे उत्पादकता के लिए किसान और ज़्यादा मात्रा में रासायनिक खादों का प्रयोग करते हैं। इससे उनका खर्च बढ़ता है।

कार्रवाई और ज़ुर्माने का प्रावधान

पराली जलाने से हर साल देश भर में सैकड़ों किसानों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की जाती है। उन पर ज़ुर्माना भी लगाया जाता है; लेकिन किसान पराली जलाने से नहीं चूकते। इसके पीछे उनकी कई दलीलें होती हैं। पहली यह कि पराली खेत में रहेगी, तो वह खेतों की जुताई ठीक से नहीं होने देगी, जिससे अगली फसल ठीक से पैदा नहीं हो सकेगी। दूसरी बात यह कि पराली खेत में पड़ी रही, तो रबी की फसल की बुआई में देरी हो जाएगी। तीसरी बात यह कि पराली का करें क्या? अगर किसानों से यह कहो कि वे इसे बेचकर पैसा कमा सकते हैं, तो उनका जवाब होता है कि सरकारों ने सिर्फ दिखावे के लिए ऐसी सुविधाएँ उपलब्ध कराने को कह तो दिया, पर ऐसी कोई सुविधा नहीं है, जिससे किसान अपनी पराली की बिक्री कर सकें।

उत्तर प्रदेश में पराली जलाने से रोकने के लिए पिछले साल राज्य सरकार ने प्रत्येक ज़िले में बॉयो फ्यूल प्लांट लगाने को कहा था। सरकार ने कहा था कि इन केंद्रों पर अपनी पराली बेचकर किसान लाभ कमा सकते हैं। लेकिन सरकार की यह योजना ठीक से परवान नहीं चढ़ सकी। बता दें कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने 10 दिसंबर, 2015 को उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में फसल अवशेष जलाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। वहीं राज्य सरकारों द्वारा पराली जलाने पर ज़ुर्माने का प्रावधान भी किया है; लेकिन इसके बावजूद पराली जलाने वालों की संख्या में कोई खास कमी नहीं आयी है।

किसान बना सकते हैं खाद

पराली को न जलाकर किसान उससे जैविक खाद बना सकते हैं। जो कि आगामी फसलों की पैदावार बढ़ाने में काफी महत्त्वपूर्ण साबित होगी। इससे किसानों को उर्वरक खाद का इस्तेमाल काफी कम करना पड़ेगा, जिससे खाद्यान्न शुद्ध और स्वादिष्ट होंगे। इससे स्वास्थ्य में भी सुधार होगा और पराली जलने से होने वाले प्रदूषण से होने वाले नुकसानों में भी कमी आयेगी। किसान इस जैविक खाद को बेचकर पैसा भी कमा सकते हैं। आजकल जैविक खाद काफी महँगी बिकती है।

केंद्र सरकार के प्रयास

पराली जलाने को रोकने के लिए केंद्र सरकार ने पराली के उचित प्रबंधन हेतु हैप्पी सीडर जैसी मशीनों में और अधिक करीब 50 से 80 फीसदी तक सब्सिडी बढ़ा दी है।

पराली प्रबंधन में केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और अन्य एजेंसियों के बीच आपसी सहयोग बढ़ाने के लिए टास्क फोर्स का गठन किया गया है; जिसमें प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव, सम्बन्धित राज्यों के मुख्य सचिव और पर्यावरण सम्बन्धी अधिकारी शामिल हैं।

दिल्ली सरकार के प्रयास

दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण रोकने के लिए दिल्ली सरकार कई सराहनीय कदम उठा चुकी है। इसके लिए दिल्ली सरकार दिल्ली के एनसीआर किनारे वाले गाँवों के साथ-साथ पूरे राज्य में हर साल पानी का छिडक़ाव कराती है। ऑड-इवन से भी प्रदूषण काफी कम होता है। इस साल दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने युद्ध प्रदूषण के विरुद्ध कैंपेन की शुरुआत की है, जिसमें सरकार की तरफ से कई बड़े कदम उठाये जाने की घोषणा की गयी है। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि हर साल हम पराली जलने से पैदा हुए प्रदूषण की समस्या से जूझते हैं, जिससे निपटने के लिए दिल्ली के पास के राज्यों की सभी सरकारें और केंद्र सरकार कोशिश कर रही है। उन्होंने कहा कि हमें इससे पूरी तरह निपटना होगा। उन्होंने बताया कि भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने इसके लिए एक घोल तैयार किया है। किसान इस घोल का छिडक़ाव पराली पर करें, तो इससे वह जल्दी गलकर खाद में तब्दील हो जाएगी। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि इस बार दिल्ली सरकार इस घोल का पराली पर छिडक़ाव करके प्रयोग कर रही है। अगर यह प्रयोग सफल रहा, तो अन्य राज्यों को भी इस बारे में बताया जाएगा।

 किसानों को किया जाए जागरूक लाभों से कराया जाए अवगत

किसानों में जागरूकता की कमी के चलते वे पराली जला देते हैं। ऐसे में उन्हें जागरूक किया जाए और उन्हें पराली बेचकर या उसका खाद बनाकर उसके लाभों से अवगत कराया जाए। वैसे सरकारों के सहयोग से सहकारी समितियों, स्वयं सहायता समूहों और अन्य सामाजिक समूहों की भूमिका को बढ़ाया जा रहा है, साथ ही साथ किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी में और अधिक पारदर्शिता लाने पर बल दिया जा रहा है। केंद्र सरकार ने दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण घटाने के लिए ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान (ग्रेप) लागू किया है। इसके तहत खुले में कचरा जलाने, डीज़ल जनरेटर, ढाबों-रेस्तरों में लकड़ी व कायेले के इस्तेमाल आदि पर प्रतिबन्ध लगाया गया है।

पराली से बनायीं जैविक ईंटें

कहा जाता है कि अगर उपयोग की दृष्टि से देखा जाए, तो दुनिया की हर चीज़ उपयोगी साबित हो सकती है। पिछले दिनों आईआईटी हैदराबाद और अन्य संस्थानों के शोधकर्ताओं ने शोधकर्ताओं ने पराली व अन्य कृषि-कचरे से जैविक ईंटें बनायी हैं; जिनका उपयोग चिनाई यानी भवन निर्माण में किया जा सकता है।

बिक रही पराली

मालवा में बेलरों द्वारा पराली काटने और उसके बंडल बनाने का काम किया जाता है। किसानों से इसकी कटाई और गाँठ बँधायी के बदले में 2000 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से पैसे लिये जाते हैं। इन गाँठों को किसान 125 से 130 रुपये प्रति क्विंटल बेच सकते हैं। इस तरह एक एकड़ मे करीब साढ़े तीन हज़ार से चार हज़ार रुपये तक की पराली निकलती है। देश में कई चीनी मिलें हैं, जो पराली खरीद रही हैं। इसके अलावा किसान पराली से गत्ता और कागज़ बनाने वाली फैक्ट्रियों को भी पराली बेच सकते हैं।

पटाखों से भी होता है बहुत प्रदूषण और बड़ा नुकसान

भारत में पराली के अलावा सबसे ज़्यादा प्रदूषण फैलाने में पटाखे जलाने वाले इज़ाफा करते हैं। आईएफपीआरआई की अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार, पराली और पटाखे जलाने से भारत को हर साल करोड़ों रुपये का नुकसान होता है। आईएफपीआरआई की मानें तो भारत को केवल पटाखे जलाने से हर साल करीब 50 हज़ार करोड़ रुपये का नुकसान होता है।

केंद्र सरकार बनायेगी कानून

इसी अक्टूबर महीने के दूसरे सप्ताह में पराली जलाये जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की खंडपीठ की अध्यक्षता कर रहे मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एस.ए. बोबडे ने कहा कि यह (पराली जलाना) एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है; नहीं तो हवा बहुत खराब हो जाएगी। 16 अक्टूबर को इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस लोकुर की अगुवाई में पैनल बनाकर एनसीसी, राष्ट्रीय सेवा योजना और भारत स्काउट्स की तैनाती का आदेश दिया है और कहा है कि हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव पराली जलाने की गतिविधियों पर पूरी नज़र रखें। जस्टिस लोकुर समिति हर 15 दिन में पराली जलाने की घटनाएँ रोकने के मामले में सुप्रीम कोर्ट को अपनी रिपोर्ट देगी। 26 अक्टूबर को केंद्र सरकार ने इस मामले पर सख्त रवैया अपनाते हुए सुप्रीम कोर्ट में कहा कि वह वायु प्रदूषण और पराली जलाने की समस्या से निपटने के लिए एक व्यापक कानून लाने जा रही है। केंद्र के इस फैसले का सुप्रीम कोर्ट ने स्वागत किया है।

महिला के साथ अमानवीयता की इंतिहा

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा देने वाले हरियाणा में एक महिला के साथ हुए अत्याचार की इंतिहा ने इंसानियत को शर्मसार कर दिया है। प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ अपराध में लगातार बढ़ोतरी देखी गयी है। हाल ही में शादीशुदा 35 साल की महिला को घर में ही पति ने एक साल से अधिक समय तक शौचालय में कैद रखा। उसे न सिर्फ मारा-पीटा जाता था, बल्कि एक तरह से पागल बताकर कई दिनों तक भूखा भी रखा जाता था। इससे महिला हड्डियों का ढाँचा बन गयी। बचाव अभियान का नेतृत्व करने वाली महिला संरक्षण अधिकारी रजनी गुप्ता की मदद से उसे निकाला गया। हरियाणा के पानीपत ज़िले के रिशपुर गाँव में फिलहाल इस महिला को पति को चंगुल से बचा लिया गया है और वह अपने चचेरे भाई के पास है। पति ने दावा किया कि महिला की मानसिक हालत ठीक नहीं थी। लेकिन वह मानसिक रूप से स्वस्थ लग रही है और उसकी हालत देखकर लग रहा है कि उसे लम्बे समय तक भूखा रखा गया। जैसे ही उसे बाहर निकाला, तो उसने सबसे पहले रोटी माँगी। जब नहलाकर उसे दूसरे कपड़े पहनाये गये, तो उसने चूडिय़ाँ और लिपस्टिक की भी माँग की। हालत इतनी खराब हो गयी है कि उसकी टाँगे तक सीधी नहीं हो पा रही हैं।

महिला संरक्षण अधिकारी रजनी गुप्ता ने बताया कि हमने पीडि़त महिला से बात की है, वह मानसिक रूप से ठीक है। 15 अक्टूबर को रजनी टीम के साथ गाँव रिशपुर पहुँची, तो पुलिस भी साथ में थी। नरेश घर के बाहर ताश खेल रहा था। पत्नी रामरती के बारे में पूछने पर वह चुप रहा। जब सख्ती से पूछताछ की, तो वह टीम को घर की पहली मंजिल पर ले गया, जहाँ शौचालय में उसने पत्नी को बंद रखा था। महिला के कपड़े बेहद गंदे थे, शरीर हड्डियों का ढाँचा बन गया था। जैसे ही बाहर निकाला, तो उसके चेहरे में खुशी का भाव दिखा। बताया गया कि रामरती के पिता और भाई की करीब 10 साल पहले मौत हो गयी थी, तबसे उसकी मानसिक हालत खराब बतायी गयी। हालाँकि रामरती सभी को पहचान रही है। उसके तीन बच्चे भी हैं। सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसी अमानवीयता के बारे में इंसान सोच कैसे सकता है? बाद में पुलिस ने भारतीय दंड संहिता की धारा-498 (ए) और 342 के तहत मामला दर्ज कर आरोपी पति नरेश को गिरफ्तार कर लिया है।

हरियाणा में महिलाओं के खिलाफ बढ़े अपराध

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के जारी आँकड़ों के अनुसार, पिछले दो साल में हरियाणा में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में 45 फीसदी की वृद्धि हुई है। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने इसके पीछे तर्क दिया है कि अब राज्य में 34 महिला थाने खोले गये हैं, जिसके बाद महिलाओं के खिलाफ अपराध की शिकायतें दर्ज होने लगी हैं। इससे यहाँ पर अपराध के मामलों में तेज़ी देखी गयी। पहले महिलाएँ संकोच या समाज में बदनामी की वजह से केस दर्ज कराने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थीं; लेकिन अब महिला पुलिस स्टेशनों के खुल जाने से महिलाएँ अपने खिलाफ होने वाले अपराध की रिपोर्ट दर्ज कराने में नहीं हिचक रही हैं। मुख्यमंत्री ने तो यहाँ तक दावा किया कि पुलिस द्वारा शिकायतों के पंजीकरण से कितने लोग संतुष्ट हैं, इसके लिए एक सर्वेक्षण भी कराया गया है।

मुख्यमंत्री ने कहा कि पुलिस अधिकारियों को स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि वे हर अपराध की शिकायत दर्ज करें और सुनिश्चित करें कि हर पीडि़त को न्याय मिले। महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के मामलों की बढ़ती संख्या पर उन्होंने कहा कि परिजन, गैर-सरकारी संगठन और अन्य संगठन युवाओं में महिलाओं के सम्मान के लिए नैतिक मूल्यों के प्रति जागरूकता फैलाएँ।

इधर हरियाणा कांग्रेस अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद कुमारी सैलजा ने कहा कि वर्तमान सरकार के गठन के बाद से राज्य में महिलाओं के खिलाफ अपराध कई गुना बढ़ गये हैं और एनसीआरबी के आंकड़े इसे साबित भी करते हैं। उन्होंने कहा कि हरियाणा सरकार के पास न तो महिला सुरक्षा के लिए कोई नीति है और न ही अपराधों को नियंत्रित करने की कोई मंशा दिखती है। वरिष्ठ कांग्रेस नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने आरोप लगाया कि हरियाणा में भाजपा सरकार की अक्षमता ने एक शान्तिपूर्ण राज्य को अपराध केंद्र के रूप में स्थापित कर दिया है। उन्होंने कहा कि हरियाणा ने महज़ एक साल में अपराधों के 1,08,212 मामले दर्ज किये, यानी औसतन देखें तो बिहार और उत्तर प्रदेश से भी ज़्यादा अपराध राज्य में दर्ज किये गये। राज्य में लगातार पाँचवीं बार अपराध की घटनाओं में वृद्धि हुई है। यहाँ हत्या के 1,140, दुष्कर्म के 1,296, सामूहिक दुष्कर्म के 155 और अपहरण के 5,070 मामले दर्ज किये गये हैं।

लॉकडाउन में कपड़ा उद्योग ठप होने से भीलवाड़ा की अर्थ-व्यवस्था चौपट

संगम स्पिनर्स मिल में पिछले 12 साल से करघा चलाकर अपने परिवार का गुज़र-बसर करने वाले राकेश बैरवा को अहसास तक नहीं था कि एक दिन उन्हें खाने के लाले पड़ जाएँगे। भीलवाड़ा शहर से करीब 10 किलोमीटर दूर स्थित इस पॉवरलूम में पोलिस्टर से कपड़ा बनता है। कोविड का कहर बैरवा पर भी टूटा। रोज़गार का सहारा तो हाथ से फिसला ही लॉकडाउन के बाद नौ दिन तक उनका परिवार खाने को भी तरस गया। बमुश्किल आँसुओं का आवेग रोकते हुए उन्होंने कहा- ‘न तो हमें खाना नसीब हुआ और न ही हम भोजन जुटाने के लिए बाहर जा सके। 12 घंटे करघे के शोर में काम करने के बाद महीने में करीब 7,000 रुपये मिलते थे। इसमें 6 जनों के परिवार का मुश्किल से गुज़ारा हो पाता था। जब मिल बन्द हुई और मेरे पास दो जून के भोजन के लिए पैसे भी नहीं थे।’ बैरवा भीलवाड़ा से लगभग 450 किलोमीटर दूर सवाई माधोपुर ज़िले के आदिवासी गाँव के रहने वाले हैं। पिछले 12 साल से वह संगम मिल्स में काम कर रहे थे। दोनों हाथों से सिर को थामते हुए बैरवा बिलख पड़े- ‘साब जी! किराये के मकान में रह रहे थे। लॉकडाउन घोषित हुआ, तो मकान मालिक ने घर खाली करवा लिया।’

रोज़ी-रोटी गँवाने और बेघर होने वालों की संख्या तो हज़ारों में थी। रुआँसे स्वर में बैरवा ने कहा- ‘साब! हमने हेल्पलाइन के कंट्रोल से बार-बार गुहार की। लेकिन न तो हमारे पास राशन पहुँचा और न ही कोई खैर-खबर लेने पहुँचा। हमें आश्वासन तो ज़रूर मिला कि तुम्हारे लिए टीम राशन लेकर पहुँचने वाली है; लेकिन कहाँ आया कोई!’

राकेश बैरवा जैसे करीब 75 हज़ार लोग भीलवाड़ा की टैक्सटाइल इंडस्ट्री में काम करते हैं। महामारी की विपदा और प्रशासन की अनदेखी से कोई भी अछूता नहीं रहा। राजस्थान के मेवाड़ सम्भाग का भीलवाड़ा भारत का प्रख्यात टैक्सटाइल हब गिना जाता है। सालाना आठ से 10 फीसदी की वृद्धि वाला यह उद्योग सिन्थेटिक धागों, ऊनी कपड़ों, सूती धागों और फेब्रिक्स सरीखे उत्पादों के निर्यात के लिए प्रसिद्ध है। सालाना 1,300 करोड़ का निर्यात करने वाले इस उद्योग की भीलवाड़ा में करीब 400 इकाइयाँ हैं। 25 हज़ार करोड़ सालाना टर्न ओवर वाले इस उद्योग में 75 हज़ार श्रमिक काम करते हैं। इनमें 70 फीसदी महिलाएँ शामिल हैं। यहाँ अधिकतर लोग बिहार, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल और उत्तर प्रदेश के हैं। लॉकडाउन के दौरान भीलवाड़ा टैक्सटाइल इंडस्ट्री 15 से 20 हज़ार करोड़ का नुकसान भुगत चुकी है। अब अनलॉक के बाद भी मुश्किलें कम नहीं हो पा रही हैं। टैक्सटाइल इंडस्ट्री 20 से 25 फीसदी क्षमता से ही काम कर पा रही है। जीडीपी में 15 से 17 फीसदी तक का योगदान देने वाली यह इंडस्ट्री सवा लाख लोगों को सीधा रोज़गार देती है। पहले मंदी भुगत चुका यह उद्योग कारीगरों की कमी और काम की खराब परिस्थितियों से दो-चार होने के बाद अभी भी कोविड के संक्रमण से जूझ रहा है। अनलॉक शुरू होने के बाद आर्थिक गतिविधियाँ धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ रही है। लेकिन लगातार संक्रमण बढऩे, माँग में कमी और मज़दूरों के वापस नहीं आ पाने से कपड़ा मिलें 20 से 25 फीसदी क्षमता पर ही काम कर पा रही है।

मेवाड़ चेम्बर ऑफ कामर्स एंड इंडस्ट्री के महासचिव आर.के. जैन कहते हैं कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद टैक्सटाइल इंडस्ट्री में कारोबार 30 फीसदी तक ही शुरू हो पाया है। लॉकडाउन में बिहार, उत्तर प्रदेश और उड़ीसा से अधिकतर मज़दूर अभी भी वापस नहीं लौटें हैं। हालाँकि शर्टिंग जैसे नये क्षेत्र में कदम रख देने की वजह से 40 फीसदी कारोबार चल रहा है। जैन कहते हैं कि आने वाले दो-तीन महीने इस सेक्टर को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। ज़्यादातर लोग त्योहार, शादी-ब्याह और छोटे-बड़े कार्यक्रमों के लिए खरीदारी करते हैं। लेकिन कोरोना-काल में तंगी की वजह से माँग निकलने की कम उम्मीद है। श्रमिक संगठनों के सूत्रों का कहना है कि केंद्र सरकार की ओर से घोषित आर्थिक पैकेज का लाभ भी टैक्सटाइल सेक्टर को नहीं मिल पाया है। इसके अलावा मोरेटोरियम की सुविधा भी खत्म हो चुकी है। ऐसे में उद्योग के लिए कर्ज़ की ईएमआई भी बोझ बन रही है। वैसे भी औद्योगिक इकाइयाँ तो पहले ही नकदी के संकट  से जूझ रही हैं।

भीलवाड़ा की कहानी को उसके अलग-अलग अध्यायों में देखें, तो हर बात रोमांचित करती है। भारत की टैक्सटाइल सिटी के नाम में प्रख्यात भीलवाड़ा (राजस्थान) की अर्थ-व्यवस्था का सबसे बड़ा स्रोत यह उद्योग है। भारत में बनने वाले कुल पोलिस्टर में 50 फीसदी भीलवाड़ा में बनता है। केंद्र्रीय टैक्सटाइल मंत्रालय ने इसे विराट पॉवरलूम क्लस्टर की संज्ञा से अलंकृत किया है। प्रश्न है कि देश की सबसे बड़ी टैक्सटाइल इंडस्ट्री होने, उत्पादन और निर्यात में अग्रणी होने, जीडीपी में महत्त्वपूर्ण योगदान देने तथा सवा लाख लोगों को रोज़गार देने वाला यह उद्योग विकास की मानक इबारत गढ़ रहा है। प्रदेश की अर्थ-व्यवस्था को ज़बरदस्त उछाल दे रहा है। किन्तु उसे डूबने से बचाने की किसी को कोई फिक्र नहीं है। श्रमिक नेता गुमान सिंह कहते हैं कि ऐसा उपक्रम जो प्रदेश की अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ बना हुआ है और निर्यात के क्षेत्र में जिसका दबदबा है; उसके संरक्षण में सरकार ने उदासीनता ही दिखायी है। वहीं कोविड-2019 के दौरान उद्यमियों और श्रमिकों ने जैसा कुछ भुगता, उसमें संवेदना को झकझोर देने वाली कई कहानियाँ हैं। गुमान सिंह कहते हैं कि ऐसा क्या हुआ कि इस विराट उद्योग में सुधारों की सुगंध मिलने का संयोग ही नहीं बन सका? सूत्रों की मानें तो कोविड-19 की आपदा से पहले भीलवाड़ा टैक्सटाइल हब को जीएसटी के मुद्दे पर व्यापारियों की हड़ताल को लेकर ज़बरदस्ती का खामियाज़ा भुगतना पड़ा; जिससे इंडस्ट्री को करीब 300 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। श्रमिक नेता प्रभुदयाल कहते हैं कि इस हड़ताल का सबसे बड़ा आघात तो 20 हज़ार दिहाड़ी मज़दूरों को झेलना पड़ा है। जीएसटी की खोट ने व्यापारियों की मुरादों पर तो स्यापा डाल दिया, कोरोना-काल में लॉकडाउन ने इसकी गर्दन और मरोड़ दी। प्रभुदयाल कहते हैं कि बेशक इस हड़ताल को भीलवाड़ा टैक्सटाइल ट्रेड फेडरेशन ने पूरा समर्थन किया। तीन रिटर्न से लदे-फदे इस कानून ने ट्रांसपोर्ट को भी खासा नुकसान पहुँचाया। क्लॉथ मर्चेंट एसोसिएशन के सचिव जगदीश सोमानी का कहना है कि टैक्सटाइल उद्योग की जड़ें तो देश का आर्थिक संवर्धन है। ऐसे में इस उद्योग पर जीएसटी की तलवार क्यों? सोमानी कहते हैं कि छोटे-मँझोले व्यापारी जब तक जीएसटी का पेच समझ पाते, उनके धन्धे पर नोटबंदी की चोट कर दी। मीडिया के एक रिपोर्ट की मानें तो भीलवाड़ा टैक्सटाइल उद्योग ने अनचाहे करों की चपेट में आकर अपना चोला बदल लिया है। प्रश्न है कि सबसे तेज़ विकसित होने वाले क्षेत्र पर करों का बोझ सबसे ज़्यादा क्यों? भीलवाड़ा की स्थिति को समझें, तो लगातार हो रहे स्लोडाउन ने इसे झकझोर कर रख दिया है। उत्पादन में 15 से 20 फीसदी की गिरावट आ गयी है। सिंथेटिक वीविंग मिल्स एसोसिएशन के अध्यक्ष संजय पेडीवाल कहते हैं कि स्थितियाँ कतई अनुकूल नहीं हैं। शनिवार और रविवार को अवकाश रखने का क्या मतलब? पेडीवाल कहते हैं कि उत्पादन में गिरावट तो कोविड-2019 से 6 माह पहले शुरू हो गयी थी। नतीजतन श्रमिकों की संख्या में भी 15 से 20 फीसदी की गिरावट आ गयी। श्रमिकों का असंतोष भी बढऩा स्वाभाविक था। वेतन में कटौती ने भी कामगारों को कम्पनियाँ छोडऩे को बाध्य किया। कामगारों की नाराज़गी ने दूरगामी असर दिखाया और टैक्सटाइल हब की करीब 100 से अधिक फैक्ट्रियाँ बन्द हो गयीं। इसका सबसे बड़ा असर तो इसकी मार्केटिंग पर पड़ा। परिणामस्वरूप अनेक राज्यों ने अपने सौदों को रद्द करना शुरू कर दिया। पेडीवाल कहते हैं कि हमारी तुलना में बांग्लादेश और चीन ज़्यादा सुविधा दे रहे हैं। वहाँ से भारत में भारी मात्रा में माल आ रहा है। जब तक इसे नहीं रोका जाएगा, भीलवाड़ा टैक्सटाइल के उत्पादकों की तरफ कौन देखेगा?

पेड़ीवाल कहते हैं कि दक्ष कामगारों की कमी और प्रतिकूल परिस्थितियों ने भीलवाड़ा के टैक्सटाइल उद्योग को इस कदर बदहवास कर दिया है कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा की दौड़ में आना तो दूर, अपनी सामान्य चाल भी नहीं चल पा रहा है; जबकि बांग्लादेश और चीन को प्रतिस्पर्धा में पछाडऩा तो सोच से भी परे है। हम बांग्लादेश और चीन के निर्यात को तभी रोक सकते हैं, जब हम नयी तकनीक को अपनाने में कामयाब हो जाएँ। सबसे बड़ी बात तो बांग्लादेश और चीन के कामगारों की कार्यकुशलता है। जब हम कामगारों को पर्याप्त मज़दूरी भी नहीं दे पाएँगे, तो बांग्लादेश की सप्लाई चेन का कैसे मुकाबला कर सकते हैं। सूत्रों की मानें तो सूती और सिंथेटिक्स धागे से कपड़ा बनाने वाले पॉवरलूम कुशल कारीगरों की मज़दूरी बढ़ाने के नाम पर चुप्पी साध लेते हैं। ऐस में कारीगर कब तक रुक पाएँगे? प्रश्न है कि राज्य सरकार और उद्योगों ने बुनियादी हकीकत को समझने की कितनी कोशिश की है। हालाँकि राज्य सरकार ने उद्योग की कठिनाइयों को स्वीकार भी किया है और इन्हें अतिरंजित भी नहीं माना है; लेकिन उद्योग को आर्थिक संकट से उबरने और मंदी को थामने के लिए क्या किया? यह तो दिखायी नहीं देता।

श्रमिक नेता और अरविंद गुप्ता की मानें तो टैक्सटाइल इंडस्ट्री के सिमटने के कई कारण हैं, जिसमें मुख्य रूप से महँगी बिजली इसकी वजह हैं। टैक्सटाइल इंडस्ट्री को बिजली उपभोग का 7.50 से 8 रुपये प्रति यूनिट का भुगतान करना पड़ता है; जबकि राजस्थान की तुलना में मध्य प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र के पॉवरलूमों को आधे दामों में बिजली मुहैया होती है राज्य में टैक्सटाइल उद्योग को राज्य सरकार से बिजली बहुत महँगे दामों पर खरीदनी पड़ती रही है। चाहे वह छोटी इंडस्ट्री हो या मध्य स्तर की या बड़ी इंडस्ट्री हो। राजस्थान में छोटी इंडस्ट्री के लिए बिजली की दर 6 रुपये से लेकर 6.45 रुपये तक है, जिस पर 65.00 प्रति हॉर्स पॉवर फिक्स चार्ज और लगाया जाता है। मध्यम वर्गीय इंडस्ट्री पर बिजली की दर 7 रुपये की है, जिस पर 75.00 प्रति हॉर्स पॉवर फिक्सड चार्ज और लगता है। गुप्ता कहते हैं कि सरकार ने तकनीकी अपग्रेडेशन फंड की राशि का भी समय पर भुगतान नहीं किया। बांग्लादेश, चीन और इंडोनेशिया तो तरक्की के सूरमा हैं। कच्चा माल और श्रमिकों की उपलब्धि के नज़रिये से देखा जाए तो भारत की अपेक्षा काफी सस्ते हैं। इसकी तरक्की की सम्भावनाओं को कुचलने में तो सबसे बड़ा हाथ नोटबंदी और जीएसटी का है। ऐसे विपरीत माहौल में अर्थ-व्यवस्था पेंदे में नहीं बैठेगी तो क्या होगा? इंडस्ट्री को कामगार मुहैया कराने वाले जॉब ब्रोकर सुदीप ताहिल की मानें तो स्थिति दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है। जब फैक्ट्रियोंं के दरवाज़े ही बन्द हो जाएँगे, तो हमारी भी रकम डूबेगी नहींं तो क्या होगा? सुदीप ताहिल कहते है कि जब पार्टी ही फेल हो जाएगी, तो हमारा भुगतान कहाँ से होगा? पेडीवाल कहते हैं कि हमारा रेडीमेड कपड़ों का कारोबार अच्छा-खासा चल रहा था। प्रतिमाह तीन से चार लाख मीटर कपड़े का उपयोग हो जाता था। अब बमुश्किल एक लाख मीटर कपड़ा ही इस्तेमाल में आ पाता है। सबसे बड़ी मुश्किल तो मार्केट में भुगतान की स्थिति की है, जो बदतर हो चुकी है। ऐसे में कारीगरों, श्रमिकों और फैक्ट्री कर्मचारियों की गुज़र-बसर तो अँधेरे में सिमट गयी है। 35 वर्षीय हरीश गर्ग कामगारों की दुर्दशा का आईना हैं। तीन बच्चों का पिता हरीश कहते हैं कि पिछले छ: महीनों से काम की तलाश में भटक रहे हैं। जहाँ भी जाते हैं, सूखा जवाब मिलता है- मार्केट ही डाऊन है, तो तुमको रोज़गार कहाँ से दें?

राजस्थान की टैक्सटाइल इंडस्ट्रीज में मंदी के पीछे क्या कारण है? इसको समझने के लिए कई घटनाक्रमों को साथ जोडक़र देखना होगा, तभी यह तस्वीर स्पष्ट हो पाएगी। इन घटनाओं से केंद्र और राज्य सरकार की टैक्सटाइल इंडस्ट्रीज की ज़रूरतों और माँगों के प्रति असंवेदनशीलता ही उजागर होती है; जबकि टैक्सटाइल उद्योग कृषि उद्योग के बाद राज्य में सबसे ज़्यादा लोगों को रोज़गार मुहैया कराता है। राजस्थान मिल्स एसोसिएशन के अधिकारियों की मानें तो टैक्सटाइल उद्योग से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तौर पर लगभग पाँच लाख लोग जुड़े हुए हैं।

एम.सी.आई. अधिकारियों के अनुसार, पिछले एक वर्ष में राजस्थान के पॉलिस्टर यार्न उद्योग में 30 से 35 फीसदी तक की गिरावट देखी गयी है और अब इन उद्योगों को पैरों पर खड़े होने के लिए राज्य सरकार की मदद की ज़रूरत है; खासकर बिजली के मामलों में। परन्तु राजस्थान में बिजली की दरें इतनी महँगी हैं कि कोई भी उद्योग सरकार से बिजली कैसे खरीदेगा।

केंद्रीय कृषि कानूनों को पंजाब सरकार की चुनौती

पंजाब देश का पहला राज्य बन गया है, जिसने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद न करने पर दंड का प्रावधान किया है। पास विधेयक के अनुसार, राज्य में केंद्र के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद करने वाले को तीन साल की सज़ा और ज़ुर्माने का प्रावधान रखा गया है। यह कानून बनने के बाद लागू होंगे; क्योंकि इसमें अभी कई तरह की अड़चने आने वाली हैं। हरियाणा में ऐसे किसी विधेयक के आने की सम्भावना न के बराबर है। वहाँ तो सरकार किसानों को केंद्र के तीनों कृषि कानूनों को उनकी िकस्मत बदल देने वाला बता रही है। यह काम पंजाब में भाजपा अपने स्तर पर कर रही हैं। केंद्र के तीनों कृषि कानूनों में कृषि उत्पाद के भण्डारण करने पर कोई रोक नहीं है। पर पंजाब में पास किये विधेयक में ऐसा करने पर रोक रहेगी। पर देश के अन्य हिस्सों का क्या होगा? क्योंकि वहाँ तो किसी तरह की रोक का प्रावधान नहीं होगा।

न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसान का भय अकारण नहीं है। वह इस मुद्दे पर ज़रा भी भ्रमित भी नहीं है, उसे पक्का भरोसा हो गया है कि भविष्य में पहले की तरह गेहूँ और धान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं खरीदा जाएगा। सरकार तय स्टॉक की खरीद के बाद काम बन्द कर देगी और बाकी का काम निजी कारोबारी सँभाल लेंगे। उन्हें नमी या अन्य कारणों का हवाला देकर उत्पाद कम कीमत पर बेचने पर मजबूर होना पड़ेगा। पहले गेहूँ और धान की दोनों राज्यों में हाथ-ओ-हाथ खरीद और भुगतान होता रहा है। 24 घंटे के अन्दर फसल की बिक्री और पैसा मिल जाता था। इस वर्ष वह परम्परा टूटी है। अब धान की सरकारी खरीद न्यूनतम समर्थन पर हो रही है; लेकिन भुगतान हाथ-ओ-हाथ नहीं, बल्कि तीन से चार दिन लग रहे हैं। अभी तो कानून पूरी तरह से सक्रिय भी नहीं हुआ है। बड़े कॉरपोरेट अभी मैदान में उतरे भी नहीं है; बावजूद इसके किसान हलकान हुआ जा रहा है।

केंद्र की मंशा तो किसान की आय दोगुनी करने की है; पर यह होगा कैसे? जब उसका उत्पाद लागत से कम पर बिकेगा, तो उसकी आय आधी रहने की आशंका ज़्यादा है। कृषि से जुड़ी हर चीज़ पर केंद्र अनुदान की व्यवस्था करे, तो यह सम्भव जान पड़ता है। खाद, बीज, मशीनरी और डीज़ल पर उन्हें विशेष रियायत मिलनी चाहिए। ऐसा तो इन कानूनों में कोई प्रावधान नहीं है। पश्चिमी देशों की तर्ज पर भारत के किसान को कारोबारी बनाना बहुत मुश्किल है। किसानों का एक बड़ा हिस्सा छोटी जोत का है। छोटे और मझौले किसान अपने को बदलना नहीं चाहते। अभी उनकी मानसिकता पारम्परिक खेती की ही है। सरकार देश के किसान को यूरोपीय देशों की तरह अग्रणी बनाना चाहती है। वहाँ तो वृहद स्तर पर सरकारें अनुदान देती हैं। किसानों को किसी भी स्थिति में नुकसान नहीं होता, पर हमारे यहाँ की अर्थ-व्यवस्था तो ऐसी नहीं कि यह कर सके।

केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ सबसे ज़्यादा सक्रियता पंजाब में ही हुई है। हालाँकि आंदोलन की शुरुआत हरियाणा के पिपली (कुरुक्षेत्र) मेें से हुई। जहाँ तीनों बिलों के विरोध में किसान जमा हुए और पुलिस ने लाठीचार्ज किया। हरियाणा में भाजपा-जजपा की गठबंधन सरकार तो शुरू से ही कृषि विधेयकों का समर्थन करती आ रही है। वह केंद्र के खिलाफ नहीं जा सकती; लेकिन पंजाब में कांग्रेस सरकार के साथ ऐसी कोई मजबूरी नहीं; लिहाज़ा उसने विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया और सर्वसम्मति से तीनों कृषि बिलों में संशोधन कर इसे पास कर दिया।

प्रमुख विपक्षी दल आम आदमी पार्टी और शिरोमणि अकाली दल ने भी संशोधिन विधेयकों में सरकार का साथ दिया। यह पहला मौका है कि इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने विपक्ष को साथ जोड़ लिया। इसे दोनों दलों की मजबूरी भी कहा जा सकता है। कृषि प्रधान राज्यों में कोई भी पार्टी किसानों के खिलाफ नहीं जा सकती। उनके हितों से ज़्यादा उन्हें वोट बैंक की चिन्ता रहती है, लिहाज़ा उन्हें सरकार का समर्थन करना ही था।

सवाल यह कि क्या पंजाब सरकार के विशेष सत्र में केंद्र के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ विधेयक पारित करने से किसानों को राहत मिलेगी? क्या इससे पंजाब में पहले जैसी ही व्यवस्था हो जायेगी? क्या इस कदम से पंजाब में किसान पहले की तरह गेहूँ और धान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेच सकेंगे? नये प्रावधान में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया गया है। मगर जब तक राष्ट्रपति इस पर हस्ताक्षर नहीं करते, ये विधेयक कानून का रूप नहीं ले सकेंगे। वहीं पंजाब के राज्यपाल ने भी हस्ताक्षर नहीं किये हैं, वह संवैधानिक और कानूनी राय लेने के बाद ही वह इसके बारे में फैसले लेंगे। सरकार और विपक्षी दलों के प्रतिनिधियों की इस मुद्दे पर राज्यपाल वी.पी. सिंह बदनौर से लम्बी बात हुई है। कहने को मुख्यमंत्री और विपक्ष इस मुद्दे पर आश्वस्त दिखते हैं; लेकिन इनके कानून बनने की सम्भावना बहुत कम ही नज़र आती है।

विशेषज्ञों की राय में केंद्र सरकार के किसी भी कानून को राज्य सरकार इस तरह रद्द नहीं कर सकती। पंजाब विधानसभा के विशेष सत्र में कमोबेश तीनों कृषि कानूनों को एक तरह के रद्द करने का फैसला ही लिया गया है। यह एक तरह से केंद्र को चुनौती ही कहा जा सकता है। ऐसे कानूनों को न्यायालय में तो चुनौती दी जा सकती है; लेकिन उनके खिलाफ विधेयक लाकर उन्हें रद्द नहीं किया जा सकता। तीनों कृषि कानूनों में कहीं भी न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात से इन्कार नहीं किया गया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर कई बार न्यूनतम समर्थन मूल्य में किसी तरह का कोई बदलाव न करने का भरोसा दे चुके हैं; लेकिन किसानों को उनके बयानों या बात पर ज़रा भी भरोसा नहीं है। वे लिखित तौर पर पहले की तरह समर्थन मूल्य पर उत्पाद बिकने की गारंटी चाहते हैं। केंद्र यही गारंटी देने को तैयार नहीं है।

सवाल यह है कि जिस न्यूनतम समर्थन मूल्य की किसान माँग कर रहे हैं, केंद्र सरकार उसकी लिखित गारंटी क्यों नहीं दे रही? क्या कारण है कि देश भर में किसान आंदोलन पर उतारू हैं; विशेषकर पंजाब और हरियाणा में आंदोलन इतना लम्बा खिंच गया है। किसान रेल-पटरियों और टोल टेक्स नाकों पर बैठे हैं। केंद्र अब पहले की तरह दोनों राज्यों से गेहूँ और धान की पूरी खरीद नहीं करना चाहती। वह केवल ज़रूरत के हिसाब से ही खरीद करना चाहती है; बाकी की खरीद का काम बड़े कारोबारियों के हाथों में सौंपना चाहती है। केंद्र सरकार का हज़ारों टन गेहूँ और धान हर वर्ष खराब होता है। उसे बचाया जा सकता है और उसका सदुपयोग भी किया जा सकता है; पर सही में इस तरफ ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार अब न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी नहीं देना चाहती और किसान इस माँग से पीछे नहीं हट सकते। यह उनका एक तरह से अधिकार है। वे दोनों नकदी फसलों के अलावा अन्य किसी की खेती करने के पक्ष नहीं हैं। फसल बदलाव एक बेहतर प्रक्रिया है; लेकिन इसके लिए किसान को लागत मूल्य मिलने की गारंटी चाहिए। उसे जो न्यूनतम समर्थन मूल्य चाहिए, वह कागज़ों में तो है; मगर उस पर खाद्यान्न बिकते नहीं हैं।

पंजाब और हरियाणा में मंडी व्यवस्था बहुत मज़बूत है; इसलिए यहाँ गेहूँ, धान, कपास और अन्य उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बिक जाते हैं। ऐसे राज्यों की क्या बात करें? जहाँ मण्डी-व्यवस्था न के बराबर है, वहाँ मजबूरी में किसानों को औने-पौने दामों में उत्पाद बेचने पर मजबूर होना पड़ता है। नये कृषि कानूनों से पंजाब और हरियाणा में मण्डी-व्यवस्था कायम रह सकेगी, इसमें भी कुछ संदेह लगता है। जब बड़े कॉरपोरेट और किसान सीधे ही सौदा कर सकेंगे, तो मण्डियों का वह स्परूप भला कैसे बचेगा? मण्डी व्यवस्था को मज़बूत करने की ज़रूरत है; जबकि नये कृषि कानूनों के अनुसार यह कमज़ोर हो रही है।

इस्तीफा जेब में…

पंजाब सरकार के इस कदम को केंद्र किस तरह लेगा इस पर कई तरह की अटकलें लग रही हैं। कुछ राज्य में राष्ट्रपति शासन लगने या सरकार को बर्खास्त करने जैसी बातें कर रहे हैं। मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह भी प्रतिक्रिया दे चुके हैं। वह कहते हैं कि वह तो इस्तीफा अपनी जेब में रखते हैं। जब भी ज़रूरत होगी, वह इसके लिए तैयार हैं; पर किसानों के खिलाफ नहीं जाएँगे। वह किसान यूनियनों का कुछ हद तक भरोसा जीतने में सफल भी रहे हैं। किसान रेल रोका आंदोलन को नवंबर के पहले सप्ताह तक टालने पर सहमत हो गये हैं। सब ठीक रहा तो किसान रेल पटरियों से हट जाएँगे। पंजाब में मालगाडिय़ाँ फिर से शुरू हो सकती हैं।

चुनौती देंगे

पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार के प्रति किसानों का रोष बहुत कम है। विधानसभा के विशेष सत्र में तीनों कृषि कानूनों में बड़े स्तर पर संशोधन करने का कदम उन्हें अपने हित में लगा है। अमरिंदर कह चुके हैं कि किसानों के हितों के लिए अगर ज़रूरत हुई तो उनकी सरकार सुप्रीम कोर्ट में नये कृषि कानूनों को चुुनौती देगी। उन्हें उम्मीद है विधानसभा में पास विधेयक राज्यपाल व राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून का रूप लेंगे। इसकी वजह से न्यूनतम समर्थन मूल्य हर हालत में कायम रहेगा। उल्लंघना करने वालों के खिलाफ सज़ा का प्रावधान भी रखा गया है।

जम्मू-कश्मीर में बढ़ी सियासी गर्मी

कश्मीर घाटी के मौसम में ठण्ड घुलने लगी है; लेकिन सियासी पारा चढ़ रहा है। कश्मीर के कमोवेश सभी मुख्य-धारा के नेताओं को महीनों जेल में बंद रखने के बाद अब रिहा कर दिया गया है। मोदी सरकार अब वहाँ क्या पत्ते खोलती है? इस पर सबकी नज़र है। कश्मीर से आने वाली प्रायोजित खबरों से इतर घाटी में अभी भी एक अजीब-सी खामोशी है। घाटी महीनों बंद रही है। वहाँ देश के नेताओं के जाने की अभी भी पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है; भले ही विदेशी प्रतिनिधियों को इस दौरान नई दिल्ली ने जम्मू-कश्मीर की सैर ज़रूर करायी है। सूबे में अभी भी बड़ी संख्या में सेना की मौज़ूदगी है। लेकिन हाल में जेल से रिहा नेताओं ने साझा बैठक करके गुपकार घोषणा का ऐलान किया है, जो यह दर्शाता है कि श्रीनगर और नई दिल्ली के बीच दूरी बढ़ी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है- इस खाई को पाटना।

अभी तक एक-दूसरे का नाम भी नहीं सुनने वाले घाटी के राजनीतिक दल जम्मू-कश्मीर के अनुच्छेद-370 और सूबे का पूर्ण राज्य का दर्जा छीन लेने के मुद्दे पर एकजुट हो गये हैं। दो साल पहले तक भाजपा के साथ सरकार चला रही पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती के तेवर तीखे हैं और वह मोदी की कटु आलोचक बन गयी हैं। भाजपा के नेता के रूप में जो मान्यता कश्मीर में अटल बिहारी वाजपेयी की थी, वैसी नरेंद्र मोदी नहीं बना पाये और अब तो श्रीनगर और नई दिल्ली के बीच इतनी राजनीतिक दूरी बन गयी है कि वहाँ के राजनीतिक दल नई दिल्ली को अपना विरोधी मानने लगे हैं। यह राजनीतिक दल जनता और नई दिल्ली के बीच मज़बूत कड़ी रहे हैं; लिहाज़ा इन्हें दूर करने की नीति अपनाकर मोदी सरकार कैसे सूबे की जनता से संवाद रख पायेगी? यह कहना मुश्किल है।

कश्मीर के वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक हालत ने अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का ध्यान भी तेज़ी से अपनी तरफ खींचा है। निश्चित ही कश्मीर के मुख्य-धारा के जो नेता अपने मुद्दों के लिए नई दिल्ली से बात करते थे, वे अब अंतर्राष्ट्रीय मंचों की तरफ देखने लगे हैं। बहुत-से जानकार मानते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के पास कश्मीर को और मज़बूती से भारत के साथ जोडऩे का एक बहुत बड़ा अवसर था; लेकिन उन्होंने शायद उसे खो दिया है। वर्तमान केंद्र सरकार ने जिस तरह अनुच्छेद-370 खत्म करते हुए कश्मीर की जनता को किनारे कर दिया, उससे उसके प्रति पैदा हुआ अविश्वास समय के साथ और मज़बूत हो गया है। निश्चित ही कश्मीर में शान्ति बहाली के रास्ते में यह अविश्वास बहुत बड़ा रोड़ा रहेगा।

उप राज्यपाल के रूप में अगस्त में एक राजनीतिक व्यक्ति मनोज सिन्हा को भेजकर केंद्र सरकार ने ज़मीनी हकीकत टटोलने की कोशिश की है; लेकिन जो घटनाक्रम वहाँ हो रहा है, वह सुखद संकेत नहीं देता। ऊपर से भाजपा पर यह गम्भीर आरोप बार-बार लग रहा है कि वह मुख्य-धारा की पार्टियों के कुछ नेताओं को तोडक़र कश्मीर में अपने मोहरे के रूप में इस्तेमाल करने की नीति पर चल रही है। कुछ महीने पहले बनी जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी को लेकर भी भाजपा पर आरोप हैं कि इसके पीछे वही है; क्योंकि वह मुख्य-धारा के दलों को किनारे करके अपने मोहरे वहाँ बैठाना करना चाहती है।

निश्चित ही इससे गलत सन्देश जा रहा है; क्योंकि कश्मीर में एक साल पहले तक लोगों में यह भावना नहीं थी कि केंद्र सरकार उन पर अपने मोहरों के ज़रिये शासन करना चाहती है। वहाँ चुनाव से बनने वाली सरकारें लोकप्रिय रही हैं और लोग बड़े पैमाने पर उनका समर्थन करते रहे हैं। यहाँ तक कि आतंकियों और अलगाववादियों के चुनाव-वहिष्कार की चेतावनियों की भी कश्मीरी अवाम ने परवाह नहीं की और जितना बन पड़ा, भारतीय चुनाव आयोग के घोषित चुनाव कार्यक्रमों के तहत इसमें शिरकत की है। इससे ज़ाहिर होता है कि लोग यहाँ नई दिल्ली से वैसी दूरी नहीं मानते थे, जैसा उसे कुछ तत्त्व और भाजपा देश के बाकी हिस्सों में अपने राजनीतिक मंसूबों के लिए बताते रहे हैं।

कश्मीर में अनुच्छेद-370 खत्म करने के साथ-साथ इसका पूरे राज्य का दर्जा जाने से निश्चित ही लोगों में बेचैनी है। अब राजनीतिक दल इस बेचैनी को समझते हुए एकजुट हो गये हैं और केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा सँभाल लिया है। पीडीपी की नेता और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की जेल से रिहाई के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला के आवास पर पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती, पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष सज्जाद लोन, पीपुल्स मूवमेंट के नेता जावेद मीर और माकपा नेता मोहम्मद यूसुफ तारिगामी, जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट के शाह फैसल आदि जुटे और दो घंटे बैठक करके गठबंधन बनाने का फैसला किया। अब्दुल्ला के मुताबिक, गठबंधन का नाम पीपल्स अलायंस फॉर गुपकार डिक्लेरेशन रखा गया है।

बता दें कांग्रेस जैसा देश का बड़ा राजनीतिक दल जम्मू-कश्मीर को लेकर मोदी सरकार के फैसलों से सहमत नहीं रहा है। हाल में इसके वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम ने उन छ: दलों को सलाम किया, जिन्होंने केंद्र के इस निर्णय के खिलाफ एकजुट होने का प्रयास किया है। कांग्रेस नेता ने कहा- ‘मुख्य-धारा की छ: विपक्षी दलों की एकता और साहस को सलाम! जो अनुच्छेद-370 के खिलाफ लडऩे के लिए एक साथ आये हैं; मैं उनसे अपनी माँग के साथ पूरी तरह से खड़े होने की अपील करता हूँ। स्वयंभू राष्ट्रवादियों की तथ्यहीन आलोचना की उपेक्षा करें, जो इतिहास को नहीं पढ़ते हैं। लेकिन इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश करते हैं। अगर मोदी सरकार विशेष प्रावधानों के खिलाफ है, तो फिर नागा मुद्दों को कैसे सुलझाएगी?’

लिहाज़ा ऐसे में भाजपा के लिए रास्ता उतना सरल नहीं है। भले भाजपा कुछ मुद्दों को लेकर कांग्रेस को पाकिस्तान के साथ खड़ा करने की कोशिश करती रही है; लेकिन यदि जम्मू कश्मीर में हालत सामान्य नहीं होते हैं, तो देश की जनता के सामने उसे अपने फैसले को लेकर रक्षात्मक होना पड़ सकता है। इसमें कोई दो-राय नहीं है कि भाजपा किसी भी सूरत में अनुच्छेद-370 को लेकर फैसला नहीं पलटेगी, उलटे वह बिहार की चुनाव सभाओं में कांग्रेस पर अब आरोप लगाने लगी है कि वह सत्ता में आयी, तो अनुच्छेद-370 को बहाल कर देगी। गुपकार की घोषणा में छ: मुख्य-धारा के दलों ने माँग की है कि केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को लागू कर पूर्व स्थिति बहाल करे।

इस गठबन्धन का कहना है कि वह जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में संवैधानिक स्थिति बहाल करने के लिए प्रयास करेगा। फारूक अब्दुल्लाह साफ कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख से जो छीन लिया गया, उसकी बहाली के लिए हम संघर्ष करेंगे। हमारी लड़ाई संवैधानिक है। हम संविधान की बहाली के लिए (जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में) प्रयास करेंगे; जैसा कि 5 अगस्त, 2019 से पहले था। गठबंधन जम्मू-कश्मीर के मुद्दे के समाधान के लिए सभी संबंधित पक्षों से वार्ता भी करेगा। आने वाले समय में हम भविष्य की योजनाओं को लेकर फैसला करेंगे।

5 अगस्त, 2019 को मोदी सरकार ने जब एक चौंकाने वाले फैसले में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटा लिया था और राज्य को दो हिस्सों में बाँटकर दो केंद्र शासित प्रदेश बना दिये थे, तब हर कोई हैरान रह गया था। इतने बड़े बदलाव से पहले प्रदेश के सभी कद्दावर नेताओं को नज़रबन्द कर दिया गया और सैलानियों को कश्मीर से वापस भेज दिया गया। इंटरनेट सेवाएँ बन्द कर दी गयीं, और राज्य को एक तरह के लॉकडाउन में बन्द कर दिया गया। तब भी बहुत-से जानकारों ने इसे बहुत जल्दबाज़ी का फैसला बताया था और कहा था कि इसके दूरगामी नतीजों की चिन्ता नहीं की गयी।

यह माना जाता है कि जम्मू-कश्मीर को लेकर मोदी की केंद्र सरकार की नीति पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजीत डोभाल का बड़ा प्रभाव रहा है। गृह मंत्री अमित शाह भी इस तरह का बड़ा फैसला करके अपनी छवि लोहपुरुष जैसे नेता की बनाना चाहते थे। इसमें कोई दो-राय नहीं कि शाह इस फैसले को लेकर भाजपा के भीतर एक मज़बूत नेता के रूप में खुद को स्थापित करने में सफल रहे हैं। उनके समर्थक तो उन्हें सोशल मीडिया पर अब लोहपुरुष के रूप में ही प्रचारित करते हैं। जम्मू-कश्मीर पर मोदी सरकार के फैसले के बाद ऐसा नहीं कि इसका देश में विरोध नहीं हुआ है।

लोगों ने स्वायत्तता और मानवाधिकार को लेकर आवाज़ें उठायी हैं। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी मसला उठा है। हालाँकि भारत सरकार यह कहती रही है कि यह उसका आंतरिक मामला है। जम्मू-कश्मीर को लेकर मीडिया के बड़े हिस्से में आने वाली एकतरफा रिपोट्र्स के विपरीत सच यह है कि राज्य के हिन्दू बहुल जम्मू में भले अनुच्छेद-370 को लेकर ज़्यादा समर्थन नहीं रहा हो, लेकिन वहाँ भी पूर्ण राज्य का दर्जा खत्म होने से नाराज़गी है। तहलका की जानकारी कहती है कि जनता प्रशासन से संतुष्ट नहीं है; क्योंकि उसके मुद्दे और पेचीदा हो गये हैं तथा समस्याएँ बढ़ी हैं। इसका एक कारण जनप्रतिनिधयों की अनुपस्थिति होना भी है।

इस बार की गर्मियों में जम्मू क्षेत्र में जनता ने बिजली से लेकर स्वास्थ्य सम्बधी बहुत समस्याएँ झेली हैं और कोई उनकी आवाज़ सुनने वाला भी नहीं था। जम्मू के नानक नगर में रहने वाले रविंद्र सिंह कहते हैं- ‘जब हमारे एमएलए थे, तो हम उनके सामने अपनी मुश्किलें रखते थे। समस्या हल हो जाती थी। बिजली की इस बार बहुत ज़्यादा िकल्लत रही, पर कोई सुनने वाला नहीं था।’

इसी तरह अनाज मण्डी के रमन खजुरिया ने कहा- ‘बहुत बुरा हाल है। हमें तो लगता था कि अब सारा कुछ बदल जाएगा; लेकिन उलटा ही हुआ है। हमने मोदी को वोट दिया था; लेकिन जम्मू में कोई बदलाव नहीं आया है। हम निराश हैं। हल नहीं होंगी, तो अफसरों के पास कौन समस्याएँ लेकर जाएगा? हमारा पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल होना चाहिए।’

एक लोकतांत्रिक देश में फैसलों को लेकर सवाल उठना स्वाभाविक है। यही मोदी सरकार के कश्मीर को लेकर फैसलों पर हुआ है। भाजपा सहित सभी राजनीतिक दल कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग तो कहते हैं, लेकिन राजनीतिक मजबूरियों से बाहर नहीं निकलते हुए कश्मीर के साथ महज़ एक ज़मीन के टुकड़े की तरह पेश आते हैं। कांग्रेस और कुछ अन्य विरोधी दलों ने जम्मू-कश्मीर के फैसले को लेकर भले विरोध दर्ज़ कराया; लेकिन यह उतना मज़बूत नहीं था, जितना उसे होना चाहिए था। कांग्रेस के तीन नेताओं ने तो अनुच्छेद-370 को खत्म करने का स्वागत ही कर दिया था, जिनमें से एक भाजपा में जा चुके ज्योतिरादित्य सिंधिया भी हैं।

गुपकार घोषणा

बता दें पिछले साल 4 अगस्त को गुपकार घोषणा का खाका तैयार हुआ था। उस समय अनुच्छेद-370 को लेकर चर्चा चल रही थी। इसमें तब सात पार्टियों ने सर्व-सम्मति से फैसला किया था कि जम्मू कश्मीर की पहचान, स्वायत्तता और उसके विशेष दर्जे को संरक्षित करने के लिए वे मिलकर प्रयास करेंगे। नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, जम्मू-कश्मीर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस, अवामी नेशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस, सीपीआईएम और शाह फैसल के जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट के लोगों ने इस पर हस्ताक्षर किये थे। इस घोषणा के एक दिन बाद ही मोदी सरकार ने संसद में प्रस्ताव लाकर जम्मू-कश्मीर को संविधान से मिला विशेष दर्जा खत्म कर दिया था और साथ ही कश्मीर के नेताओं को नज़रबन्द कर दिया था।

फारूक अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला को तो मार्च में रिहा कर दिया गया, पीडीपी की महबूबा मुफ्ती की रिहाई अक्टूबर में जाकर हुई। इसके तुरन्त बाद एक बैठक करके इन दलों ने गुपकार घोषणा-पत्र को दोहराया गया और इसकी माँगें सामने रखी गयीं। महबूबा मुफ्ती ने रिहाई के बाद कहा- ‘जो दिल्ली (केंद्र) ने हमसे छीना है, वो हम वापस लेंगे और काले दिन के काले इतिहास को मिटाएँगे।’

नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दू बहुल जम्मू में भी नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी का अच्छा खासा वजूद रहा है। खासकर, नेशनल कॉन्फ्रेंस का। पीडीपी के नेता दिवंगत मुफ्ती मोहम्मद सईद तो विधानसभा का चुनाव जम्मू के आरएसपुरा से जीत चुके हैं। ऐसे में इन दलों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। भले जम्मू में भाजपा और कांग्रेस ही प्रमुख राजनीतिक दल हैं। जम्मू के राजनीतिक नेता, खासकर भाजपा नेता राजनीतिक रूप से कश्मीरी भेदभाव का आरोप लगाते रहे हैं। उन्हें लगता है कि अब परिस्थितियाँ बदलेंगी। हालाँकि पिछले एक साल में जम्मू में कुछ खास बदलता नहीं दिखा है।

आसान नहीं राह

फिर भी इसमें कोई दो-राय नहीं कि कश्मीर के नेताओं की राह आसान नहीं है। जम्मू में उन्हें अपने आधार को पुनस्र्थापित करने के लिए वर्तमान हालात में बहुत मशक्कत करनी पड़ेगी। भाजपा की कोशिश एनसी और पीडीपी के मुस्लिम नेताओं को तोडऩे की है; ताकि उन्हें अपने साथ मिलाकर भाजपा का राज्य-व्यापी स्वरूप बनाया जाए। बता दें पीडीपी-भाजपा गठबन्धन सरकार में पीसी के सज्जाद लोन भाजपा कोटे से मंत्री थे। एक मौके पर तो उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की भाजपा की कोशिशें भी सामने आयी थीं। भाजपा अभी तक जम्मू-कश्मीर में अपनी राजनीतिक मंशा पूरी नहीं कर पायी है। यह इस बात से भी साबित होता है कि हाल के फेरबदल में उसने लम्बे समय से जम्मू-कश्मीर में भाजपा के प्रभारी रहे राम माधव को महासचिव पद से हटा दिया गया।

कुल मिलाकर गुपकार घोषणा पर काम करने वाले नेताओं के सामने एक बड़ी चुनौती है। हालाँकि कश्मीर के नेताओं को पक्का भरोसा है कि वे इसमें सफल होने। अपना नाम नहीं छपने की शर्त पर पीडीपी के एक नेता ने तहलका से कहा कि वहाँ जनता में केंद्र के प्रति बहुत नाराज़गी है। लेकिन इस नाराज़गी को दबाने की कोशिश हो रही है; जिसमें भाजपा कामयाब नहीं होगी। ज़ाहिर है आने वाले समय में कश्मीर की सारी राजनीती अनुच्छेद-370 पर सिमटने वाली है। यदि कश्मीर के नेता इसे एक जन-आंदोलन बनाने में सफल रहते हैं, तो केंद्र सरकार के सामने पेचीदगियाँ पैदा होंगी ही।

‘मैं अगर ईमानदारी से कहूँ, तो मुझे हैरानी होगी कि अगर सरकार को कश्मीर में कोई ऐसा शख्स मिल जाए, जो खुद को भारतीय बोले। आप वहाँ किसी से भी बात कर लीजिये। वे खुद को न तो भारतीय मानते हैं और न पाकिस्तानी। पिछले साल 5 अगस्त को दिल्ली (केंद्र सरकार) ने जो किया, वह ताबूत में आखरी कील थी। कश्मीरियों को सरकार पर कोई भरोसा नहीं रह गया है। विभाजन के वक्त घाटी के लोगों का पाकिस्तान जाना आसान था; लेकिन तब उन्होंने गाँधी के भारत को चुना था; न कि मोदी के भारत को।

फारूक अब्दुल्ला, अध्यक्ष नेशनल कॉन्फ्रेंस

जब तक हमारे हाथ में जम्मू-कश्मीर का झण्डा नहीं आ जाता, तब तक हम कोई दूसरा झण्डा नहीं उठा सकते हैं। जब हमारा यह झण्डा वापस आ जायेगा, तो हम वह झण्डा (तिरंगा) भी उठा लेंगे। तिरंगे के साथ हमारा रिश्ता इस झण्डे (जम्मू कश्मीर के झण्डे) से अलग नहीं है।

महबूबा मुफ्ती, अध्यक्ष पीडीपी

दरख्शां अंद्राबी केंद्रीय वक्फ परिषद् की सदस्य और राष्ट्रीय वक्फ विकास समिति की अध्यक्ष होने के साथ-साथ कश्मीर में भाजपा का बड़ा मुस्लिम महिला चेहरा हैं। ‘तहलका’ ने उनसे विभिन्न मुद्दों पर बातचीत की। इसी बातचीत के खास अंश :-

आप कश्मीर की रहने वाली हैं। अनुच्छेद-370 खत्म होने को लेकर कश्मीर का क्या भविष्य देखती हैं?

हम एक नया जम्मू और कश्मीर बनाने के दौर में हैं। हम जम्मू-कश्मीर में पक्षपाती और पैरोकारी राजनीतिक व्यवस्था के प्रभाव से बाहर आ रहे हैं। हम धीरे-धीरे भावुकतावादी मुद्दों के ज़रिये बनी लूट, भ्रष्टाचार और शोषण की राजनीति को बदल रहे हैं; जिसने दशकों से जम्मू-कश्मीर की आबादी की मानसिकता को बर्बाद कर दिया है। भारत के संघ के साथ जम्मू और कश्मीर के वास्तविक और पूर्ण एकीकरण के बाद हम जम्मू और कश्मीर में संघ-कानूनों को लागू कर रहे हैं।

लेकिन प्रशासन पर इसका असर नहीं दिखता?

सार्वजनिक सेवा और शासन में वास्तविक जवाबदेही शुरू हो गयी है। जम्मू और कश्मीर के बीमार ढाँचे को धीरे-धीरे ठीक किया जा रहा है। कई संगठनों का पूरी तरह से पुनर्गठन किया जा रहा है। आम लोगों की मदद से, हम जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक मुख्य-धारा की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पोषित अलगाववादी ताकतों को कुचलने में सफल हो रहे हैं। जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति के बारे में मिथकों का भंडाफोड़ किया गया है। मैं जम्मू-कश्मीर भर में युवाओं में सकारात्मकता की नयी मानसिकता देख रही हूँ। पहली बार लोगों को लगने लगा है कि जम्मू-कश्मीर में पारदर्शिता वाला शासन स्थापित होगा।

लेकिन गुपकार में कश्मीरी नेताओं ने एक प्रस्ताव पास किया है?

इसके कोई मायने नहीं। यह नेता जब जेलों में बंद थे; कश्मीर का कोई व्यक्ति इनके समर्थन में सामने नहीं आया। इन नेताओं के कारण ही आतंकवाद फैला। पथरबाज़ी इन लोगों के कारण हुई। यह नेता अपनी कुर्सी के लिए लोगों की भावनाओं को भडक़ाते रहे। इन लोगों ने युवाओं को इसी में फँसाये रखा; लेकिन अब यह बदल जाएगा। फारूक साहब की अब कुर्सी नहीं है, तो वह चीन को अपना आका समझने लगे हैं। कुर्सी रहती है, तो भारत को अपना देश बताते हैं। यही हाल पीडीपी और महबूबा मुफ्ती का भी है।

क्या अब सूबे का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल होगा? क्योंकि डी-लिमिटेशन को लेकर कश्मीर में आशंकाएँ हैं।

प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि धीरे-धीरे चीज़ें बदलेंगी। भाजपा स्वस्थ लोकतंत्र में विश्वास रखती है। वहाँ डीलिमिटेशन का प्रोसेस शुरू हो रहा है। यह 2011 के सेंसस के आधार पर होगा। केंद्र सरकार की योजनाएँ अब जम्मू-कश्मीर में ज़मीन पर पहुँच रही हैं। बिचौलियों की छुट्टी हो रही है। मैं व्यक्तिगत रूप से इस बात की समर्थक हूँ कि जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र खत्म नहीं होना चाहिए। सूबे के युवा अब नया भविष्य देख रहे हैं।

वरिष्ठ पत्रकार और कश्मीर मामलों की जानकार अनुजा खुशु से भी ‘तहलका’ ने बात की। प्रस्तुत हैं इसके खास अंश :-

कश्मीर में गुपकार में जो हुआ है, वह नयी मुस्लिम लीग की आधारशिला रखने जैसा  है। कश्मीरी नेताओं के इस कदम से देश को सावधान होना चाहिए। गुपकार में जो हुआ, वह देश के दुश्मनों की जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने की चाल है। ये वही नेता हैं, जो भारतीय संविधान की स्थापित संस्थाओं के ज़रिये सत्ता में रहे हैं; पर ये उसी तर्ज पर काम कर रहे हैं, जिस पर सन् 1947 में भारत विभाजन से पहले मुस्लिम लीग ने किया था। भारतीय राज्य और उसके नीति निर्माताओं को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ये लोग भारत के संतुलन को बदलने और जम्मू और कश्मीर के दार-उल-इस्लाम में रूपांतरण की इन कोशिशों को रोकें; ताकि सन् 1990 में कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और धर्म के आधार पर उनके पलायन जैसा दोहराव न हो। समय आ गया है कि जम्मू-कश्मीर का राजनीतिक रूप से पुनर्गठन किया जाए और हिन्दुओं को अंडरग्राउंड और ओवरग्रॉउंड इस्लामिक जिहाद से मुक्ति दिलायी जाए। यदि देश नहीं जागता है, तो गुपकार घोषणा जम्मू-कश्मीर में हिन्दुओं के सर्वनाश का रास्ता खोलेगी। सन् 1947 में भी ऐसा ही हुआ था, जब हिन्दुओं ने मुस्लिम लीग को हल्के में लिया था और परिणाम स्वरूप इस्लामिक पाकिस्तान का निर्माण हुआ।

नशे में उड़ते रायपुर के रसूखदार

27 सितंबर की लॉकडाउन की रात थी। लाखों की आबादी घरों के अन्दर थी और शहर में सिर्फ पुलिस की पेट्रोलिंग गाड़ी का सायरन ही एकमात्र कोलाहल था। लोग सोने की तैयारी कर थे। वीआईपी रोड पर स्थित शहर के सबसे विशालकाय राम मंदिर के कपाट भी बन्द पड़े थे। लेकिन ठीक उसी के सामने स्थित क्वींस क्लब में एक दर्जन से अधिक लोग लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए जन्मदिन का जश्न मना रहे थे। सभी सुर-सुरा-सुन्दरी के रंग रंगे हुए थे। अचानक किसी बात को लेकर गोली चली। नियम-कानून को ताक पर रखकर जश्न मनाने का खुलासा हो गया। पुलिस प्रशासन से लेकर सरकार से भी कई सवाल पूछे गये; मसलन- लॉकडाउन में भी क्लब कैसे  और किसकी इजाज़त से खुला था? जन्मदिन की पार्टी आयोजित करने की अनुमति किसने दी? शराब कहाँ से आयी? वगैरह-वगैरह। वैसे तो क्वींस क्लब में पहले भी लॉकडाउन की धज्जियाँ उड़ायी जाती रही हैं, लेकिन यह मामला कुछ ज़्यादा ही संगीन है। तीन सप्ताह पहले ही शहर के एक होटल में डिस्को डांस होने का वीडियो खासा वायरल हुआ था। पर उसमें हुआ कुछ नहीं। होटल ओलंपिक संघ के एक पदाधिकारी का बताया जाता है; जिसमें एक रिटायर्ड आईएएस का पैसा लगा है।

मगर क्वींस क्लब मामले में खुलासे के बाद सरकार और प्रशासन की खासी किरकिरी हुई; इसलिए कार्रवाई भी तेज़ी के साथ शुरू हुई। चूँकि मामला रसूखदारों से जुड़ा हुआ था, इसलिए पहले राज्य के गृह मंत्री ताम्रध्वज साहू, पुलिस महानिदेशक डी.एम. अवस्थी ने राजधानी के एसएसपी अजय यादव को कड़ी कार्रवाई करने के निर्देश दिये; जिसके बाद नवोदित आईपीएस अजय यादव और अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक अंकिता शर्मा के नेतृत्व में गठित टीम ने तेज़ी से कार्रवाई की और धारा-188, 269, एवं 270 के तहत शहर के व्यापारी नमित जैन, जाने-माने बिल्डर के बेटे हर्षित सिंघानिया, चंपालाल जैन, नेहा जैन, मिनाली सिंघानिया, सूरज शर्मा, संस्कार पाचे, करण सोनवानी, अभिजीत कौर निरंकारी, ट्विंकल सिंह, अमित धवल, मिनल, राजवीर सिंह और हितेश पटेल को आरोपी बनाया। अधिकांश की गिरफ्तारी होने के तुरन्त बाद जमानत भी हो चुकी है।

तेलीबांधा पुलिस थाना प्रभारी रमाकांत साहू के मुताबिक, आरोपी आफताब कुरैशी ने हवाई फायरिंग करने वाले हितेश पटेल के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवायी है। आफताब के मुताबिक, खाने का पार्सल लेने के लिए वह क्वींस क्लब गया हुआ था, तभी अभिजीत कौर निरंकारी नाम की युवती नशे में धुत होकर बाहर आयी। उसने कार को लात मारी। इतने में अधेड़़ हितेश पटेल आ धमका और गोली चला दी; यहीं से बवाल शुरू हुआ। इस घटना के बाद पुलिस ने हितेश पटेल को हत्या का प्रयास और लॉकडाउन उल्लंघन करने के मामले में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया है। पुलिस ने हितेश पटेल पर हत्या की कोशिश का केस दर्ज करने के साथ क्लब संचालक, मैनेजर समेत पार्टी के आयोजक और शामिल होने वाले कुल 19 लोगों के खिलाफ महामारी एक्ट का अपराध कायम किया है। वैशालीनगर भिलाई की ट्विंकल सिंह कौर (25) को गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया, जहाँ से उसे जमानत मिल गयी। ट्विंकल पूर्व में गिरफ्तार एनएसयूआई की पूर्व पदाधिकारी अभिजीत कौर निरंकारी के साथ पार्टी में शामिल हुई थी। वह उसकी रिश्तेदार भी बतायी जाती है।

इस मामले में पुलिस ने क्लब के तीन डायरेक्टर्स- चंपा लाल जैन, नेहा जैन और मिनाली सिंघानिया को भी गिरफ्तार किया। मिनाली राजधानी के रसूखदार बिल्डर सुबोध सिंघानिया की पत्नी हैं, जबकि नेहा जैन क्लब के डायरेक्टर चंपालाल जैन की बहू। तेलीबांधा थाना प्रभारी रमाकांत साहू ने बताया कि घटना के बाद पुलिस ने क्लब के तीनों फरार डायरेक्टर्स को थाने में उपस्थित होने का नोटिस जारी किया था; लेकिन वे हाज़िर नहीं हुए। तब पुलिस ने घर पर दबिश दी। मौके पर तीनों डायरेक्टर मिले। लॉकडाउन के दौरान क्वींस क्लब में बिना अनुमति के जन्मदिन पार्टी के लिए दो कमरे बुक करने के सम्बन्ध में नोटिस दिया गया था। पूछताछ में तीनों ने इसके लिए कोई अनुमति लेना नहीं बताया। इसके बाद तीनों ने थाने में लॉकडाउन के उल्लंघन के दर्ज प्रकरण में कोर्ट से अग्रिम जमानत लेने की जानकारी दी और अग्रिम जमानत के दस्तावेज़ भी पेश किये। इसके आधार पर पुलिस ने तीनों की गिरफ्तारी की कार्रवाई की औपचारिकता पूरी कर जमानत मुचलके पर रिहा कर दिया।

जाँच आगे बढ़ी तो एक नया रैकेट भी पकड़ाया। आरोपियों से पूछताछ में पता चला कि क्लब में नशा भी परोसा जाता था, जिसमें शराब और गाँजा शामिल है। आईपीएस अंकिता शर्मा के नेतृत्व में पुलिस की टीम ने इस दिशा में जाँच आगे बढ़ायी, तो ड्रग तस्कर के बड़े रैकेट का भंडाफोड़ हुआ। हुक्का बार संचालित करने के आरोपी रहे रसूखदार सम्भव पारख और हर्षदीप जुनेजा की गिरफ्तारी हो जाने के बाद अब इनके साथ जुड़े लोगों की सूची तैयार की जा रही है। नामों का खुलासा फिलहाल पुलिस नहीं कर रही है; लेकिन माना जाता है कि इसमें आठ से ज़्यादा रसूखदारों हैं। इनमें दो राजनीतिक दल से जुड़े नेताओं के पुत्र हैं। फिलहाल बिलासपुर से गिरफ्तार अभिषेक शुक्ला, भिलाई से गिरफ्तार आरोपी आशीष जोशी, निकिता पांचाल सहित दो अय युवाओं से पूछताछ जारी है।

रसूखदार हैं ड्रग्स तस्कर

होटल कारोबारी- हर्षदीप जुनेजा और सम्भव पारख पर ड्रग्स के रैकेट से जुड़े होने का आरोप है। पुलिस के मुताबिक, आरोपी अपने होटल में हर सप्ताह ड्रग्स पार्टियाँ आयोजित करते थे। इसमें रायपुर-भिलाई, बिलासपुर, रायगढ़, राजनांदगाँव जैसे शहरों से हाई प्रोफाइल युवक-युवतियाँ आते थे। सुबह 4 बजे तक यहाँ पार्टी होती थी।

एसएसपी अजय यादव ने बताया कि देवेंद्र नगर का हर्षदीप जुनेजा (36) वीआईपी रोड में मोका रेस्टोरेंट चलाता है। गुढियारी का सम्भव पारख (28) क्वींस क्लब में बार-रेस्टोरेंट का काम देखता है। दोनों कारोबारियों का पूर्व में पकड़ गये तस्करों- आशीष जोशी और निकिता पंचाल से सीधा सम्पर्क है। दोनों कारोबारी खुद भी ड्रग्स लेते हैं और सप्लाई भी करते हैं। दोनों का मोबाइल ज़ब्त कर लिया है। उसके चैट से लेकर कॉल डिटेल की जाँच की जा रही है। इस मामले में कुछ और कारोबारियों का नाम सामने आये हैं, जिनकी तलाश की जा रही है।

उधर भिलाई से गिरफ्तार मुख्य ड्रग्स तस्कर अभिषेक शुक्ला यह कुबूल कर चुका है कि वह विधानसभा रोड में स्थित एक होटल में कमरे लेकर 5-6 लोगों की क्लोज़ सर्कल पार्टी आयोजित करता था; ताकि वहाँ पहुँचने वाले लडक़े-लड़कियों को ड्रग्स का चस्का लग जाए। भिलाई से गिरफ्तार आरोपी आशीष जोशी और उसकी महिला मित्र, जो डीजे टॉक्सिक के नाम से जानी जाती है; दोनों प्राइवेट पार्टियाँ करके युवाओं को नशाखोरी के मकडज़ाल में उलझाते थे।

मॉडल और राजनीतिक नेत्री का खेल

हाई प्रोफाइल पार्टी में ड्रग्स सप्लाई करने वाली एक मॉडल निकिता पंचाल को पुलिस ने गिरफ्तार किया है। मॉडल के तार सेक्स रैकेट से भी जुड़े बताये जाते हैं। वह बड़े होटलों की पार्टियों में जाती थी और अमीर घरों के लडक़े-लड़कियों को वह ड्रग्स सप्लाई करती थी। पुलिस ड्रग्स मामले में 12 लोगों को गिरफ्तार कर चुकी है। एसएसपी अजय यादव ने बताया कि जाँच के लिए पुलिस ने 15 मोबाइल बरामद कर फॉरेंसिक लैब भेजे हैं। ड्रग्स मामले में गिरफ्तार युवकों ने ड्रग्स के साथ सेक्स रैकेट चलाने की बात कुबूल की है, जिसे युवतियाँ लीड कर रहीं थीं। ऐसी 11 और युवतियों के मोबाइल नम्बर पुलिस को मिले हैं, जिन्हें तस्कर बुलवाते थे। सभी राजधानी की ही हैं। दूसरी ओर इस काण्ड के आरोपियों में शामिल एक 28 वर्षीय युवती का एक फोटो एक मंत्री के साथ सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। सुना है कि इस युवती ने डेढ़ साल पहले एनएसयूआई के एक राष्ट्रीय पदाधिकारी पर यौन शोषण का आरोप लगाया था, जिससे उसकी नौकरी चली गयी।

आरक्षित ज़मीन पर बना है क्लब

 गोलीकांड के बाद हाउसिंग बोर्ड ने क्वींस क्लब के वास्तविक संचालक हरबक्श सिंह बत्रा की कम्पनी एमिनेट इफ्रास्ट्रक्चर प्रा. लि. को नोटिस जारी करके पूछा है कि बिना अनुमति के उसने दूसरे लोगों को क्वींस क्लब कैसे हस्तांतरित कर दिया?

हाउसिंग बोर्ड के कार्य पालक अभियंता ने नोटिस में कहा है कि सांसदों और विधायकों के लिए विशेष आवासीय योजना की ज़मीन को 2008 में बीओटी के माध्यम से क्वींस क्लब के संचालन हेतु दिया गया था। इसके लिए प्रारम्भिक राशि के रूप में एक करोड़ 70 लाख और प्रत्येक वर्ष 12 लाख रुपये हाउसिंग बोर्ड को देने थे। इसी शर्त के तहत बत्रा की उक्त कम्पनी के साथ अनुबंध हुआ था; लेकिन राशि जमा नही की जा रही थी। बत्रा इसलिए भी दोषी हैं, क्योंकि उन्होंने हाउसिंग बोर्ड से अनुमति लिए बगैर सब-लीज पर क्लब दूसरों को सौंपा है, जिसमें एक मंत्री के बेटे की अघोषित साझेदारी बतायी जाती है।

‘क्वींस क्लब गोलीकाण्ड में पुलिस निष्पक्षता के साथ तेज़ी से आगे बढ़ी है। छोटा हो या बड़ा, सभी आरोपियों की गिरफ्तारियाँ हुई हैं। ड्रग तस्कर भी पकड़ाये हैं। पूछताछ के आधार पर पुलिस आगे बढ़ रही है।’

अजय यादव, पुलिस अधीक्षक, रायपुर

‘लॉकडाउन में नियम और कानून तोडक़र शहर की शान्ति भंग करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जा रही है। पुलिस पर कोई राजनीतिक दबाव नहीं है। रसूखदार लोग भी गिरफ्तार हुए हैं। जहाँ तक राजधानी के हुक्का बारों का सवाल है, पुलिस छापामार अभियान चलाकर कार्यवाही कर रही है। राज्य भर में नशाखोरी के खिलाफ कई प्रकरण बनाये गये हैं।’

डी.एम. अवस्थी, पुलिस महानिदेशक, छत्तीसगढ़