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शहला पर पिता ने ‘देशद्रोही’ होने का लगाया आरोप, बेटी बोली ‘भ्रष्ट हैं’ वो

जेएनयू की छात्र नेता और जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट की महासचिव रहीं शहला  रशीद के पिता अब्दुल रशीद शोरा ने उनपर ‘जान से मारने की धमकी’ का आरोप लगाया है। यही नहीं उन्होंने अपनी बेटी के कथित तौर पर ‘देश के खिलाफ गतिविधियों में शामिल’ होने का भी आरोप लगाया है और कहा है कि उनकी बेटी को कथित तौर पर ‘विदेशों से फंडिंग मिलती है’। जवाब में रशीद ने पिता को भ्रष्ट बताते हुए उनपर उनकी मां के ‘उत्पीड़न’ और अन्य गंभीर आरोप लगाए हैं।

शहला रशीद पर उनके पिता के आरोपों के बाद यह मामला गरमा गया है। पिता के आरोपों के बाद शहला ने पिता पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उन्होंने अपने पिता को ‘भ्रष्ट’ कहा है और एक वीडियो में पिता के लगये आरोपों को ‘पुराना मामला’ बताया है।

शहला ने अपने ट्वीट में लिखा है – ‘मेरे पिता ने मेरी मां बहन और मुझ पर गंभीर आरोप लगाए हैं तो मैं ये साफ कर दूं कि वो पत्नी को पीटने वाले, दूसरों को गालियां देने वाले इंसान हैं।’ शहला ने पिता को भ्रष्ट बताते हुए उनके आरोपों के बाद उन पर कार्रवाई करने का फैसला करने की भी बात कही है।

शहला रशीद ने आगे कहा – ‘ये कोई सियासी मामला नहीं है। ये हमारा पारिवारिक मामला है। जब से माननीय अदालत ने उनके हमारे घर में दाखिल होने पर रोक लगाई है तभी से वो ऐसी हरकतें करते हुए कानूनी प्रक्रिया को भरमाने की कोशिश कर रहे हैं।’

उधर रशीद के पिता अब्दुल रशीद शोरा ने आरोप लगाया है कि उनकी बेटी कथित तौर पर ‘देश के खिलाफ गतिविधियों में शामिल लोगों के साथ मिलकर एक पार्टी बना चुकी है और उसको देश के खिलाफ गतिविधियों में शामिल होने के लिए 3 करोड़ रुपए के रकम की भी पेशकश की गई’। जम्मू-कश्मीर के एक न्यूज पोर्टल ‘न्यूज वायर’ पर एक वीडियो में यह आरोप लगाए हैं। शोरा के आरोप के मुताबिक ‘उनकी बेटी देश के खिलाफ गतिविधियों में शामिल है’ और ‘मेरे घर में राष्ट्र विरोधी गतिविधियां चल रही हैं’। अब्दुल रशीद ने शहला राशिद के खिलाफ जांच की मांग की है और इसके लिए जम्मू और कश्मीर के पुलिस प्रमुख (डीजीपी) को एक लिखित शिकायत की है।

शहला राशिद का ट्वीट –
Shehla Rashid
@Shehla_Rashid
1) Many of you must have come across a video of my biological father making wild allegations against me and my mum & sis. To keep it short and straight, he’s a wife-beater and an abusive, depraved man. We finally decided to act against him, and this stunt is a reaction to that.

हरियाणा में निर्दलीय विधायक सोमबीर सांगवान ने खट्टर सरकार से वापस लिया समर्थन, किसान आंदोलन के साथ गए

हरियाणा में सरकार का समर्थन कर रहे निर्दलीय विधायक सोमबीर सांगवान ने किसानों के मुद्दे पर खट्टर सरकार के रवैये का विरोध करते हुए उससे अपना समर्थन वापस ले लिया है। हरियाणा के चरखी दादरी से विधायक सांगवान भाजपा-जेजेपी सरकार का अभी तक समर्थन कर रहे थे। सांगवान हाल में सरकार से समर्थन वापस लेने वाले बलराज कुंडू के बाद दूसरे विधायक हैं।

अभी तक हरियाणा विधानसभा में भाजपा के 40, कांग्रेस के 31, जेजेपी के 10, निर्दलीय 7 और एक-एक विधायक एचएलपी और आईएनएलडी का है। वहां कुल 90 सदस्य हैं, जिसमें बहुमत के लिए 46 की संख्या जरूरी चाहिए होती है। लिहाजा सरकार के लिए कोई तात्कालिक खतरा सांगवान के फैसले के बाद नहीं दिखता।

हालांकि, सांगवान का जो समर्थन वापसी का पत्र सामने आया है वो ‘माननीय अध्यक्ष महोदय, हरियाणा सरकार’ को कहकर संबोधित किया गया है, न कि विधानसभा विधानसभा अध्यक्ष को। हाँ, सोमबीर सांगवान ने सोमवार को ही हरयाणा पशुधन विकास बोर्ड के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था।

समर्थन वापसी पर सांगवान ने कहा है कि खट्टर सरकार के साथ के साथ नहीं चल सकते।  सांगवान हाल में सरकार से समर्थन वापस लेने वाले बलराज कुंडू के बाद दूसरे विधायक हैं। उन्होंने खट्टर सरकार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए इस्तीफा दे दिया था।

जानकारी मिली है कि सांगवान किसान आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं और वे इस समय दिल्ली में हैं। एक दिन पहले ही खाप के साथ सर्वजातीय बैठक में सांगवान ने यह फैसला किया था।

दिल्ली में आज 32 किसान संगठनों की सरकार से बातचीत, आंदोलन को लेकर उसके बाद ही करेंगे कोई फैसला

हरियाणा-दिल्ली सीमा के सिंघु बार्डर पर अपनी मांगों को लेकर आंदोलन में जुटे हजारों किसानों की आज 3 बजे सरकार से बातचीत होगी। दो दिन पहले ही मन की बात में पीएम मोदी साफ़ कर चुके हैं कि क़ानून किसी सूरत में वापस नहीं लिए जाएंगे। सरकार की तरफ से बातचीत करने वाली टीम की अगुवाई गृह मंत्री राजनाथ सिंह करेंगे जबकि किसानों का प्रतिनिधित्व उनके 32 संगठनों और किसान संयुक्त मोर्चा के 36 नेता करेंगे। किसानों ने साफ़ कर दिया है कि आंदोलन तभी ख़त्म होगा जब उनकी मांगें मान ली जाएंगी।

सिंघु बार्डर, जहां किसान आंदोलन पर डटे हैं, उन्होंने वहां अपना अस्थाई स्टेज भी बना लिया है। ज्यादातर किसान संगठनों में मुद्दों को लेकर एक राय है। किसानों के 32 संगठनों के नेताओं के अलावा किसान संयुक्त मोर्चा के 4 प्रतिनिधि भी सरकार के साथ बैठक में हिस्सा लेंगे। यह बैठक दिल्ली में विज्ञान भवन में होगी। जबरदस्त ठंड   के बावजूद किसान आंदोलन ख़त्म करने को तैयार नहीं हैं। उनके ज्यादातर प्रतिनिधि यह मान कर चल रहे हैं कि अभी नहीं तो कभी नहीं। उनका कहना है कि अपनी मांगों को मनवाने का यह सबसे बेहतर समय है क्योंकि केंद्र सरकार दबाव में है।

अब से कुछ देर पहले दिल्ली में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के घर उच्च स्तरीय बैठक शुरू हुई है जिसमें रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, गृह मंत्री अमित शाह और कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर भी शामिल हैं। इसमें शाम को होने वाली बैठक को लेकर बातचीत का मसौदा तैयार किया जाएगा क्योंकि पीएम मोदी दो दिन पहले ही यह साफ़ कर चुके हैं कि 3 कृषि क़ानून किसी सूरत में वापस नहीं लिए जाएंगे।

सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे किसान संगठनों के नेताओं को कोविड-19 महामारी और सर्दी का हवाला देते हुए 3 दिसंबर की जगह आज बातचीत का न्योता दिया है। कृषि कानून के खिलाफ जारी प्रदर्शन को देखते हुए केंद्र सरकार ने किसानों से बातचीत का यह न्योता दिया है।

सरकार की तरफ से कृषि सचिव संजय अग्रवाल ने 32 किसान यूनियनों के प्रतिनिधियों को पत्र लिख कर आज की बैठक के लिए आमंत्रित किया है। अग्रवाल ने जिन संगठनों को पत्र लिखा है उनमें क्रांतिकारी किसान यूनियन, जम्मुहारी किसान सभा, भारतीाय किसान सभा (दकुदा), कुल हिंद किसान सभा और पंजाब किसान यूनियन शामिल हैं।

उधर दिल्ली की दो सीमाओं पर धरने पर बैठे किसानों का समर्थन करने के लिए पंजाब से और भी किसान दिल्ली के लिए निकल पड़े हैं। किसान संगठनों ने कहा कि अमृतसर क्षेत्र से और भी किसान जो कि गुरु पर्व के लिए रुक गए थे, वो आज आंदोलनस्थल पर पहुंच जाएंगे। प्रदर्शनकारियों ने दिल्ली में प्रवेश के पांचों रास्ते ब्लॉक करने की धमकी दी हुई है।

किसानों का सिंघु और टीकरी बॉर्डर दोनों जगह शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन जारी है। वहां पंजाब और हरियाणा के किसान लगातार छठे दिन जमा हैं। पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश से और किसानों के पहुंचने से गाजीपुर सीमा पर प्रदर्शनकारियों की संख्या बढ़ गई है। आज की बैठक मैं किसानों की समस्या का हल निकल आएगा इसे लेकर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। किसानों की क़ानून वापस लेने की मांग ऐसी मांग है किसपर कभी सहमत नहीं होगी।

एड्स रोगी अपना रोग ना छिपाये, बल्कि उपचार करवायें

विश्व एड्स दिवस के अवसर पर आज देश भर में कार्यक्रमों का आयोजन किया गया और लोगों को जागरूक किया गया। डाँक्टरों ने बताया कि इस साल कोरोना महामारी के चलते तामाम रोगों की जांच प्रभावित हुई है। लोगों ने इलाज कराने में लापरवाही बरती है।

एम्स के डाँ आलोक कुमार का कहना है कि एड्स एच.आई.वी संक्रमित रोगियों से भेदभावपूर्ण व्यवहार ना करें। देश में एड्स रोग के उपचार को लेकर शासन –प्रशासन सतर्क है। समय-समय पर जागरूकता कार्यक्रमों के माध्यम से एड्स रोगियों को इलाज के लिये प्रेरित करते रहते है।

इंडियन हार्ट फांउडेशन के चेयरमैन डाँ आर एन कालरा का कहना है कि एड्स रोगी अपनी बीमारी छिपाये नहीं बल्कि समय रहते उपचार करवाये ताकि रोग का सही उपचार हो सकें। उनका कहना है कि एड्स एक दूसरे को छूने से नहीं होता है। साथ खाना खाने से नहीं होता है। उनका कहना है कि कोरोना काल में एड्स रोगियों को अपने स्वास्थ्य के प्रति ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है। क्योंकि लापरवाही घातक हो सकती है। डाँ कालरा का कहना है कि अगर एड्स रोगी अपना इलाज पूरा लेते रहे और परहेज करता रहे है। तो आम लोगों की तरह सामान्य जीवन यापन कर सकता है।

बंगाल में विधानसभा चुनाव में ममता की पार्टी टीएमसी को समर्थन का गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का ऐलान

पश्चिम बंगाल में हाल में एक मंत्री के पार्टी छोड़ने के बावजूद अगले साल होने वाले चुनाव से पहले मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपनी पार्टी टीएमसी को ताकत देने में जुटी हुई हैं। अब सोमवार को गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम, गिरी गुट ) ने भाजपा पर जबरदस्त हमला करते हुए विधानसभा चुनाव में टीएमसी को समर्थन देने का ऐलान किया है।

ममता बनर्जी को जनता से किये वादे पूरे करने वाला नेता बताते हुए गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेता रोशन गिरी ने कहा कि प्रदेश की जनता भी चाहती है और हम   मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को सत्ता में वापस लेकर आएंगे। गिरी ने आरोप लगाया कि भाजपा ने 2009 से 2020 तक गुट को धोखा दिया और अपने किसी भी वादे पर खरी नहीं उतरी।

रिपोर्ट्स के मुताबिक उन्होंने कहा कि ममता भाजपा से अलग हैं और वो अपने वादे पूरे करती हैं। गिरी ने कहा – ‘हमने यह तय किया है कि हम भाजपा को हराएंगे। उसने हमें धोखा दिया। भाजपा ने 2009 से 2020 तक हमारी एक भी मांग पूरी नहीं की। हम उत्तर बंगाल में ममता बनर्जी का समर्थन करेंगे। हम उन्हें तीसरी बार सीएम के रूप में देखना चाहते हैं। वह अपने वादे पूरे करती हैं।’

गिरी ने दार्जिलिंग इलाके में एक रैली में कहा – ‘भाजपा सरकारों ने लगातार तीन लोकसभा चुनावों से पहले गोरखाओं को आश्वासन दिया था कि पहाड़ियों में राजनीतिक संकट हल हो जाएगा, लेकिन कुछ भी नहीं किया गया। वास्तव में वे एक स्थायी राजनीतिक समाधान खोजने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं रखते हैं।’

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा नेता ने कहा कि गोरखाओं के आने पर केंद्र त्रिपक्षीय वार्ता को एक पूर्वापेक्षा क्यों बनाता है? तेलंगाना, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के निर्माण के लिए त्रिपक्षीय वार्ता की आवश्यकता नहीं थी। उन्होंने कहा – ‘भाजपा के कारण गोरखाओं को 15 साल का नुकसान हुआ। अक्टूबर में गोरखा नेता बिमल गुरुंग के नेतृत्व वाले जीजेएम ने एनडीए छोड़ दिया और टीएमसी के साथ गठबंधन कर लिया, उन्होंने कहा कि भाजपा पहाड़ियों के लिए “एक स्थायी समाधान खोजने में विफल रही।’

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा नेता ने साफ़ कहा कि वे गोरखालैंड की अपनी मांग नहीं छोड़ रहे हैं और 2024 के लोकसभा चुनाव में उस पार्टी को समर्थन देंगे जो अलग राज्य की हमारी मांग को मानेगी।

राहुल गांधी ने किसानों का समर्थन करते हुए देशवासियों से पूछा, सत्य और असत्य की लड़ाई में आप किसके साथ खड़े हैं?

किसानों को लेकर लगातार मोदी सरकार पर हमला कर रहे कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सोमवार को केंद्र सरकार पर एक और हमला करते हुए देशवासियों से पूछा कि सत्य और असत्य की लड़ाई में आप किसके साथ खड़े हैं ? अन्नदाता किसान या पीएम के पूंजीपति मित्र? उधर किसानों का आंदोलन लगातार जारी है और वे पूरी ताकत से सिंघु बार्डर पर जमे हुए हैं।

किसान एक तरफ मोदी सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ लगातार सड़क पर आंदोलन कर रहे हैं। सोमवार को एक बार फिर आंदोलनकारी किसानों के समर्थन में आवाज उठाते हुए कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर हमला बोला। राहुल ने  कहा कि ये कानून किसान विरोधी हैं और केंद्र सरकार ने इन कानूनों को किसानों के हित के लिए नहीं अपने कुछ उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने के इरादे से बनाया है। ट्वीट में आगे राहुल गांधी ने देशवासियों से पूछा – ‘सत्य और असत्य की लड़ाई में आप किसके साथ खड़े हैं ? अन्नदाता किसान या पीएम के पूंजीपति मित्र ?

एक अन्य वीडियो में कांग्रेस नेता  कहा – ‘किसने आपसे कृषि बिल की मांग की थी।  नाराज किसानों का केंद्र से सवाल ? अपने आधिकारिक ट्विटर अकाउंट से स्पीक अप फॉर फार्मर्स (#SpeakUpForFarmers) हैशटैग के साथ एक वीडियो जारी कर जनता और कांग्रेस कार्यकर्ताओं का राहुल गांधी ने आह्वान किया कि इन किसानों की मदद के लिए आएं, इन्हें खाना खिलाएं और इनके साथ खड़ा होना चाहिए।

राहुल ने वीडियो में आगे कहा – ‘देश भक्ति देश की शक्ति की रक्षा होती है, देश की शक्ति किसान हैं। सवाल उठता है कि आज किसान सड़कों पर क्यों है, हजारों किलोमीटर से चलकर क्यों आ रहा है? ट्रैफिक क्यों रोक रहा है? नरेंद्र मोदी जी कहते हैं कि ये तीन कानून किसान के हित में हैं। अगर ये कानून किसान के हित में हैं तो किसान इतना गुस्सा क्यों है? किसान खुश क्यों नहीं है?’
इसी वीडियो में कांग्रेस नेता ने आगे कहा – ‘भाईयों-बहनों ये कानून नरेंद्र मोदी के दो-तीन मित्रों के लिए हैं। ये कानून किसान से चोरी करने के कानून है और इसलिए हम सबको मिलकर हिंदुस्तान की शक्ति के साथ खड़ा होना पड़ेगा, किसान के साथ खड़ा होना पड़ेगा। जहां भी ये किसान भाई हैं, वहां जनता को, कांग्रेस कार्यकर्ताओं को निकलकर इनकी मदद करनी चाहिए। इनको भोजन देने चाहिए उनके साथ खड़ा होना चाहिए।’

उधर किसानों का आंदोलन लगातार जारी है और वे पूरी ताकत से सिंघु बार्डर पर जमे हुए हैं। किसानों ने साफ़ कर दिया है कि जब तक मोदी सरकार इन तीन किसान विरोधी कानूनों को वापस नहीं लेती, तब तक उनका आंदोलन चलता रहेगा।

राहुल गांधी का ट्वीट –
Rahul Gandhi
@RahulGandhi
देश का किसान काले कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ ठंड में, अपना घर-खेत छोड़कर दिल्ली तक आ पहुँचा है।
सत्य और असत्य की लड़ाई में आप किसके साथ खड़े हैं-
अन्नदाता किसान
या
PM के पूँजीपति मित्र?
#SpeakUpForFarmers

बाबा आमटे की पोती शीतल आमटे ने की आत्महत्या

बाबा आमटे की पोती और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. शीतल आमटे ने सोमवार को खुदकुशी कर ली। प्राप्त जानकारी के अनुसार, शीतल ने महाराष्ट्र के चंद्रपुर में आनंदवन के अपने आवास पर जहरीला इंजेक्शन लगाकर आत्महत्या की। उन्‍हें तुरंत अस्‍पताल पहुंचाया गया, लेकिन डॉक्‍टरों ने उन्‍हें मृत घोषित कर दिया। वह महारोगी सेवा समिति (कुष्ठ सेवा समिति), वरोरा की सीईओ थीं। शीतल को जनवरी, 2016 में विश्व आर्थिक मंच द्वारा यंग ग्लोबल लीडर चुना गया था।
आमटे परिवार ने एक बयान जारी कर कुष्ठ सेवा समिति पर लगाए गंभीर आरोपों से इनकार किया गया है। उन्होंने सोमवार सुबह अपने ट्विटर हैंडल से वार एंड पीस नामक एक पोस्ट भी की थी। सामाजिक कार्यकर्ता मुरलीधर देवीदास आमटे ने अपनी पूरी जिंदगी जरूरतमंदों, खासकर कुष्ठ रोगियों की सेवा के लिए समर्पित कर दी थी। वह लोगों के बीच बाबा आमटे के नाम से मशहूर थे। बाबा आमटे 1914 में महाराष्ट्र में एक धनाढ्य परिवार में पैदा हुए थे। उन्हें 1971 में पद्मश्री, 1988 में मानवाधिकार के क्षेत्र में काम के लिए संयुक्त राष्ट्र पुरस्कार और 1999 में गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनका निधन 9 फरवरी 2008 में आनंदवन में हुआ था।
बताया गया कि शीतल पिछले कुछ दिनों से तनाव में चल रही थीं। महाराष्‍ट्र टाइम्‍स के अनुसार, कुछ दिनों पहले उन्‍होंने आनंदवन के कुष्‍ठ सेवा समिति में चल रहे कामकाज, ट्रस्‍टी और कार्यकर्ताओं पर एक फेसबुक लाइव के जरिये गंभीर आरोप लगाए थे। हालांकि कुछ देर बाद ही इसे हटा लिया गया था।

चौराहे पर कांग्रेस!

कपिल सिब्बल के ट्वीट पर कांग्रेस सांसद कार्ति पी. चिदंबरम ने री-ट्वीट करते हुए लिखा कि पार्टी को आत्मनिरीक्षण, चिन्तन और विस्तृत विचार-विमर्श की ज़रूरत है। बिहार विधानसभा चुनाव में अपने सहयोगियों में सबसे कमज़ोर प्रदर्शन का तमगा कांग्रेस पर ही लगा है। मामला सिर्फ पार्टी में ही उठापटक या बयानबाज़ी तक सीमित नहीं है। राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी के उस बयान से पार्टी की और किरकिरी हुई, जिसमें उन्होंने कांग्रेस को एक ड्रैग पार्टी कहा। उन्होंने कहा कि बिहार में कांग्रेस ने 70 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, लेकिन 70 बड़ी रैलियाँ तक नहीं कीं। उन्होंने यहाँ तक कहा कि जब चुनाव प्रचार चरम पर था, तब राहुल गाँधी शिमला हिल स्टेशन पर प्रियंका जी के घर पर पिकनिक मना रहे थे। क्या पार्टी ऐसे ही चलती है?

कांग्रेस की आलोचना बिहार में सहयोगी कम्युनिस्ट पार्टी ने भी की है। बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का अच्छा प्रदर्शन न हो पाने से महागठबन्धन बिहार में सरकार बनाने में विफल रहा। सीपीआई (एमएल) के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने उम्मीद जतायी है कि अब अगले साल होने वाले पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में वाम मोर्चे से गठबन्धन के साथ कांग्रेस पार्टी सीट साझा करने में अधिक यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनायेगी। इसकी वजह यह भी है कि पश्चिम बंगाल में भगवा पार्टी किसी भी तरह से सत्ता हासिल करने की जुगत में है। भट्टाचार्य ने एक साक्षात्कार में कहा कि पार्टी को पश्चिम बंगाल में सीपीएम-कांग्रेस गठबन्धन में ड्राइवर की सीट पर नहीं होना चाहिए।

विदित हो कि पार्टी में अंतर्कलह को देखते हुए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी तीन समितियों का गठन कर चुकी हैं। खास बात यह है कि इन समितियों में पत्र लिखने वाले असंतुष्टों को भी जगह दी गयी है। इन समितियों के गठन को पार्टी में मचे घमासान के मसले को शान्त किये जाने के तौर पर देखा गया था; लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा।

बिहार विधानसभा चुनाव के बाद कपिल सिब्बल ने कहा कि पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए उसमें व्यापक बदलाव करने होंगे, तो कुछ नेताओं ने उनका विरोध शुरू कर दिया। हालाँकि उन्होंने स्पष्ट किया कि वह कांग्रेसी हैं और हमेशा कांग्रेसी रहेंगे। उन्होंने उम्मीद जतायी कि देश में लोगों को विभाजनकारी राजनीति के खिलाफ कांग्रेस फिर से मज़बूती के साथ राष्ट्र निर्माण में अपने मूल्यों के साथ खड़ी होगी। उन्होंने कहा कि सियासी समझ रखने वाले ऐसे अनुभवी लोगों को साथ लेकर उनसे चर्चा करनी होगी, जो देश की राजनीतिक वास्तविकताओं को समझते हैं। ऐसे लोगों को आगे रखना होगा, जो मीडिया में तत्कालीन स्थितियाँ स्पष्ट कर सकें और लोग कब व क्या सुनना चाहते हैं, यह समझ सकें। हमें गठबन्धन के साथ-साथ लोगों के बीच पहुँचने की ज़रूरत है। अब हम लोगों से अपने पास आने की उम्मीद नहीं कर सकते। अभी हम पहले की तरह मज़बूत नहीं हैं। इसलिए सब ठीक हो जाएगा, कहकर मामले को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।

सिब्बल के इस सार्वजनिक बयान पर लोकसभा में कांग्रेस के नेता और सीडब्ल्यूसी के सदस्य अधीर रंजन चौधरी ने नाराज़गी ज़ाहिर की है। उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया कि जो पार्टी नेतृत्व से नाखुश हैं, वे पार्टी छोडऩे के लिए स्वतंत्र हैं। उन्होंने आश्चर्य जताते हुए पूछा कि बिहार चुनाव के दौरान सिब्बल ने पार्टी के लिए प्रचार क्यों नहीं किया? चौधरी ने कहा कि पार्टी के लिए कुछ भी किये बिना बोलने का मतलब आत्मनिरीक्षण नहीं है। वहीं सिब्बल के बयान का चिदंबरम ने समर्थन किया था।

आज़ादी के बाद देश की सबसे पुरानी पार्टी इस समय बाहरी और अंदरूनी सियासत के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रही है।

हालाँकि कांग्रेस बिल्कुल चुप नहीं बैठी है, लेकिन उसके सरकार पर प्रहार अपर्याप्त हैं। पार्टी कहती रही है कि संविधान के मूल और मूल्यों पर निरंतर हमले किये जा रहे हैं। लेकिन उसे समझना होगा कि भाजपा और उसके सहयोगियों का साम्प्रदायिक और विभाजनकारी एजेंडा राजनीतिक आख्यानों पर हावी हो रहा है। यह महात्मा गाँधी और गणतंत्र देश के संस्थापकों व अन्य के बीच विचारों का संघर्ष है। भय और असुरक्षा के माहौल ने देश को उलझा दिया है। ऐसे में कांग्रेस का कर्तव्य है कि वह इस चुनौती का डटकर मुकाबला करे। कांग्रेस को लोगों को आश्वस्त करना होगा कि वही उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा करेगी और उनको सुरक्षित माहौल प्रदान करेगी। ऐसा कांग्रेस को पुनर्जीवित करके ही किया जा सकता है। इसके लिए प्रगतिशील और लोकतांत्रिक शक्तियों को एकजुट करना होगा। इस समय देश एक गम्भीर सामाजिक और आर्थिक संकट का सामना कर रहा है। बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी, किसान संकट और आर्थिक मंदी ने बड़ी आबादी को हाशिये पर पहुँचा दिया है। कोरोना महामारी ने इन चुनौतियों को और बढ़ाया है। इससे लाखों श्रमिकों की नौकरियाँ चली गयी हैं; काम-धंधा ठप हो गया और कई उद्योग बंद हो चुके हैं। इस आर्थिक संकट के तत्काल निवारण की आवश्यकता है। कांग्रेस को इन मुद्दों को ज़ोर-शोर से उठाकर व्यापक पहल करनी होगी।

पूर्वी लद्दाख में चीन के साथ सीमा पर सैन्य गतिरोध भी गम्भीर चिन्ता का विषय है। भारत की विदेश नीति की हालत, पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्धों का तनाव जो हमेशा मैत्रीपूर्ण रहा है, वह अब गम्भीर हो गया है। इसमें सुधार की व्यापक ज़रूरत है।

2014 और 2019 में आम चुनाव के अलावा विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की स्थिति कमज़ोर हुई है। इसके कारणों की पड़ताल करके तत्काल उनमें सुधार की आवश्यकता है। अन्यथा कांग्रेस इस कदर पतन की ओर चली जाएगी कि उसे दोबारा उबरना मुश्किल हो जाएगा। अपने आधारभूत वोट बैंक का खिसकना और युवाओं का पार्टी पर से विश्वास उठना उसके लिए गम्भीर चिन्ता का विषय है। पिछले दो आम चुनावों में भारत में 18.7 करोड़ वोटर ने पहली बार मतदान किया। 2014 में 10.15 करोड़ और 2019 में 8.55 करोड़ युवा मतदाता जुड़े। युवाओं ने मोदी और भाजपा के लिए भारी मतदान किया। भाजपा का वोट शेयर 2009 में 7.84 करोड़ से बढक़र 2014 में 17.6 करोड़ और 2019 में 22.9 करोड़ हो गया। इसके विपरीत कांग्रेस ने जहाँ 2009 में 1.23 करोड़ वोटर गँवाये। हालाँकि बाद में स्थिति में मामूली सुधार हुआ। लेकिन 2019 के चुनावी फैसले के करीब सवा साल बाद भी कांग्रेस ने अपने प्रदर्शन में निरंतर गिरावट के कारणों का ईमानदारी से आत्मनिरीक्षण नहीं किया है।

कई राज्यों में पार्टी छोडऩे वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ समर्थकों में कमी देखी गयी है। सीडब्ल्यूसी प्रभावी रूप से भाजपा सरकार के विभाजनकारी एजेंडे और जनविरोधी नीति के खिलाफ जनमत जुटाने में सही मार्गदर्शन नहीं कर पा रही है। अब जो बैठकें भी होती हैं, वो अंतर्कलह में उलझी होती हैं, जिससे राष्ट्रीय एजेंडा और देश के अहम मुद्दे दब जाते हैं।

सीपीपी के नेताओं की बैठक के वर्षों में सीपीपी नेता और प्रचलित होने वाले संबोधनों को कम कर दिया गया है। मुद्दों पर होने वाली चर्चा भी कुछ समय से बन्द कर दी गयी है। पिछले कई वर्षों में यह भी देखा है कि पीसीसी अध्यक्षों और पदाधिकारियों और डीसीसी अध्यक्षों की नियुक्तियों में देरी हो रही है। राज्य में सम्मान और स्वीकार्यता की कमान सँभालने वाले नेताओं को समय पर नियुक्त नहीं किया जाता है। पीसीसी और ज़िला स्तरीय समितियाँ, राज्य की जनसांख्यिकी के हिसाब से प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। पीसीसी को कार्यात्मक स्वायत्तता नहीं दी जाती है। नेतृत्व के विफल होने पर जवाबदेही भी तय नहीं होती।

युवा और छात्र

कांग्रेस पार्टी ने ऐतिहासिक रूप से नेतृत्व को तवज्जो दी है और इसमें बड़ी संख्या में युवाओं को प्रोत्साहित किया है। युवा नेता एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस के माध्यम से आगे बढ़े। इन नेताओं में वैचारिक स्पष्टता और प्रतिबद्धता थी। वरिष्ठों के अनुभव और युवाओं की ऊर्जा के मिश्रण ने कांग्रेस को मज़बूत और जीवंत बनाये रखा। लेकिन हाल के वर्षों में योग्यता आधारित और सर्वसम्मति समर्थित चयन की संस्थागत प्रक्रिया बाधित हुई है। कैडर फीडिंग संगठनों एनएसयूआई और आईवाईसी में चुनाव की शुरुआत ने संघर्ष और विभाजन पैदा किया है। संसाधन सम्पन्न व्यक्तियों या शक्तिशाली संरक्षकों द्वारा समर्थित लोगों ने इन संगठनों पर कब्ज़ा कर लिया। इसने युवा नेताओं की एक साधारण पृष्ठभूमि से उनकी सेवाएँ पार्टी को नहीं मिल सकीं, जिससे ऊपरी संगठन कमज़ोर हुआ है।

कांग्रेस पार्टी परम्परागत तरीके से राज्यों और राष्ट्रीय स्तर के चुनावों में प्रदर्शन नहीं कर सकी। एआईसीसी के साथ-साथ पीसीसी सत्रों में कोई नियमित विचार-विमर्श नहीं होता है, जो विभिन्न राष्ट्रों के सामाजिक सरोकारों को सम्बोधित करने वाली नीतियों और कार्यक्रमों से जुड़े होते हैं। पार्टी को पुनर्जीवित करने और लाखों कार्यकर्ताओं की भावनाओं को देखते हुए अहम सुझाव पेश हैं-

पूर्णकालिक और प्रभावी नेतृत्व आईसीसी और पीसीसी मुख्यालय में उपलब्ध हो, जिसका असर हर क्षेत्र में नज़र आये।

पीसीसी और ज़िला समितियाँ समावेशी प्रतिनिधित्व वाली होनी चाहिए। पीसीसी को संस्थागत जवाबदेही के लिए स्वायत्तता दी जाए।

देश की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए कांग्रेस आलाकमान से विभाग और प्रकोष्ठों के डीसीसी अध्यक्षों या पदाधिकारियों को नियुक्त करने की प्रथा बन्द की जानी चाहिए। पीसीसी अध्यक्षों और राज्य के प्रभारी के साथ समन्वय के ज़रिये डीसीसी अध्यक्षों की नियुक्ति की जानी चाहिए।

केंद्रीय संसदीय बोर्ड (सीपीबी) को संगठनात्मक मामलों, नीतियों और कार्यक्रमों पर सामूहिक सोच और निर्णय लेने को समिति गठित करे।

एक राष्ट्रव्यापी सदस्यता अभियान शुरू किया जाना चाहिए और नामांकन अभियान प्राथमिकता के आधार पर शुरू हो।

ब्लॉक, पीसीसी प्रतिनिधियों और एआईसीसी सदस्यों के चुनाव पारदर्शी तरीके से कराये जाएँ।

सीडब्ल्यूसी सदस्यों का चुनाव कांग्रेस पार्टी के संविधान के अनुसार हो।

केंद्रीय चुनाव समिति (सीईसी) को संगठनात्मक पृष्ठभूमि और सक्रिय क्षेत्र के जानकारों और अनुभवी नेताओं को शामिल किया जाए।

संसद और विधानसभा उम्मीदवारों के लिए स्क्रीनिंग कमेटी में संगठनात्मक और चुनावी अनुभव वालों को मौका मिले।

स्वतंत्र चुनाव प्राधिकरण हो, जिससे स्वतंत्र, निष्पक्ष व लोकतांत्रिक तरीके से चुना जाए। इसमें वरिष्ठ नेताओं के अनुभव का इस्तेमाल करें।

इसके अलावा वर्तमान चुनौती को लड़ाई में नेतृत्व करने के अवसर में बदलने के लिए कांग्रेस को तैयार रहना चाहिए। फिर से युवाओं, महिलाओं, छात्रों, किसानों, अल्पसंख्यकों, दलितों और कारखाने के श्रमिकों के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर खड़े होने का समय आ गया है। कांग्रेस को भाजपा के एजेंडे का सामना करने और उसे हराने के लिए लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतों के राष्ट्रीय गठबन्धन बनाने की पहल करनी चाहिए। इसके लिए राजनीतिक दलों के एक मंच के नेताओं को लाने का ईमानदार प्रयास किया जाना चाहिए। अभूतपूर्व चुनौतियों के मद्देनज़र कांग्रेस का पुनरुद्धार देश के लिए ज़रूरी है।

हालिया चुनावों में पार्टी के प्रदर्शन ने एक बार फिर कांग्रेस के कामकाज पर सवालिया निशान खड़े किये हैं। पार्टी के भीतर एक लोकतांत्रिक परिवर्तन की माँग बढ़ गयी है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पार्टी अस्तित्व के संकट से गुज़र रही है और पार्टी के पास नेतृत्व के बारे में ठोस निर्णय लेने का उचित समय है। कांग्रेस पार्टी के लिए बेहतर विकल्प यही है कि बहुत ज़्यादा देर हो जाए उससे पहले नेतृत्व की कमान गाँधी या गैर-गाँधी के बीच चयन कर दिया जाना चाहिए। हालाँकि कांग्रेस को उम्मीद है कि कांग्रेस ने हर संकट के बाद उबरने की क्षमता रखती है और पहले भी ऐसे हालात का सामना बखूबी किया है। महज़ फिलहाल इस ऐतिहासिक पार्टी का मकसद खुद को विकल्प के रूप में पेश करना ही नहीं, बल्कि पुनर्जीवित करना होना चाहिए।

पार्टी में तत्काल चुनाव हों : आज़ाद

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आज़ाद ने कहा है कि पार्टी को पाँच सितारा संस्कृति छोडऩी होगी; इससे चुनाव नहीं जीते जाते। पार्टी में मज़बूती के लिए ब्लॉक, ज़िला और राज्य स्तर की समितियों के पुनर्गठन के लिए तत्काल चुनाव कराये जाने चाहिए। पदाधिकारियों को भी समझना होगा कि नियुक्ति के साथ ही उनकी ज़िम्मेदारी शुरू हो जाती है। आज़ाद ने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी को पत्र लिखने वाले पार्टी के विद्रोही नहीं, बल्कि सुधारवादी हैं; जो पार्टी की बेहतरी के लिए बोल रहे हैं। हम कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ नहीं हैं। बल्कि हम सुधारों का प्रस्ताव देकर नेतृत्व को मज़बूत कर रहे हैं। आज़ाद ने कहा कि पार्टी को सबसे बड़ा खतरा चापलूसों से है। बहुत-से पदाधिकारी अपना पद बचाने के लिए शीर्ष नेतृत्व की हाँ-में-हाँ मिलाते हैं। इनको लगता है कि हर हाल में पार्टी जीतेगी; जबकि ऐसा नहीं है। जो पार्टी का असली शुभचिन्तक होगा, वह हमेशा सच बतायेगा और उसकी भलाई के लिए सुधार की दिशा में काम करेगा।

नेतृत्व का संकट नहीं : सलमान

पार्टी में मचे घमासान के बीच वरिष्ठ पार्टी नेता सलमान खुर्शीद ने कहा कि कुछ नेताओं की ओर से पार्टी के शीर्ष नेताओं की आलोचना से सहमत नहीं हैं। खुर्शीद ने कहा कि पार्टी में नेतृत्व का संकट नहीं है और सभी सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के समर्थन में हैं। हर व्यक्ति इसे देख सकता है; सिवाय उसके, जो देख नहीं सकता।

पार्टी का दारोमदार किसके कन्धे

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की किताब ‘अ प्रॉमिस्ड लैंड’ में जब कांग्रेस नेता राहुल गाँधी के लिए लिखी एक असहज टिप्पणी की बात सामने आयी तो, भाजपा खेमे के सोशल मीडिया की तरफ से राहुल का खूब मज़ाक उड़ाया गया कि अब तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उनकी खिल्ली उडऩे लगी है। तब किसी ने किताब के इस चैप्टर के अगले ही पैरा के बारे में न बोला, न ही लिखा; जिसमें भाजपा के बाँटने वाले राष्ट्रवाद को लेकर भी कड़ी टिप्पणी की गयी है। क्यों राहुल गाँधी ही आलोचना के घेरे में आते हैं और भाजपा नहीं? इस एकतरफा राजनीति को दुनिया में बहुत-से जानकार भारत के लिए विध्वंस की तरह देखने लगे हैं, जिसमें देश के असली मुद्दों के लिए कोई जगह नहीं है। क्या राहुल गाँधी सचमुच इतने निरीह और अज्ञानी नेता हैं कि उन्हें किसी चीज़ की समझ ही नहीं? कांग्रेस इस पर बँटी हुई है। कांग्रेस में कुछ नेता राहुल गाँधी को भाजपा की दृष्टि से देखने लगे हैं और उन्हें लगता है कि राहुल कांग्रेस को पुनर्जीवित नहीं कर सकते। बाकी वो हैं, जो उन्हें शुद्ध कांग्रेसी की नज़र से देखते हैं और उन्हें लगता है कि राहुल को भाजपा ने एक सतत और सोची-समझी साज़िश के तहत बदनाम किया है। हालाँकि वे यह भी मानते हैं कि भाजपा इस साज़िश में सफल हुई है; लेकिन यह स्थिति बहुत देर तक नहीं रहेगी। अब बिहार चुनाव के निराशाजनक दौर के बाद कांग्रेस के भीतर नेतृत्व को लेकर फिर कुछ वरिष्ठों की ज़ुबाँ तल्ख हुई है। ज़ाहिर है कांग्रेस एक ऐसी विकट स्थिति में है, जिससे बाहर निकलने के लिए उसे कोई आउट ऑफ बॉक्स उपाय खोजना होगा।

बराक ओबामा की किताब की एक टिप्पणी भारत की राजनीति के लिहाज़ से बहुत महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने एक बहुत बड़ी बात कही है कि आज का जो भारत असमानता और हिंसा से ग्रस्त है, यह भारत गाँधी के समाज की कल्पना से मेल नहीं खाता। ओबामा किताब में भाजपा के बिखराव वाले राष्ट्रवाद के उदय के बारे में जब चिन्ता जताते हुए लिखते हैं, तो राहुल को लेकर कहते हैं कि उन्हें उनकी माँ (सोनिया गाँधी) द्वारा तय की गयी नियति को पूरा करने के लिए क्या सफलतापूर्वक मनमोहन सिंह के विकल्प के रूप में रोपित किया जा सकेगा? ज़ाहिर है इसे इस नज़रिये से भी देखा जा सकता है कि क्या राहुल गाँधी भाजपा की इस बिखराब वाली राजनीति का मुकाबला कर पाएँगे?

यहाँ यह जानना भी दिलचस्प है कि राहुल को लेकर ओबामा के एक नर्वस नेता वाले यह विचार करीब पाँच साल पहले की स्थिति पर आधारित हैं और निश्चित ही उसके बाद देश के राजनीतिक माहौल, राहुल गाँधी की सक्रियता और मोदी की प्रसिद्धि में काफी बदलाव आया है। यदि ज़मीनी हकीकत देखें, तो सच यह भी है कि भाजपा की बिखराव वाली नीतियों की जैसी निन्दा राहुल गाँधी ने हाल के महीनों में की है, वैसी ममता बनर्जी को छोडक़र विपक्ष में किसी ने नहीं की। खुद कांग्रेस के भीतर किसी ने राहुल गाँधी जैसा विरोध भाजपा का नहीं किया। प्रधानमंत्री मोदी की छवि भी पहले से काफी धूमिल हुई है।

सच यह भी है कि राहुल गाँधी और ममता बनर्जी के विरोध में तेवर का बहुत अन्तर रहता है। ममता निश्चित ही अपनी बात कहने में मुखर दिखती हैं और राहुल गाँधी को यही तेवर अपनाना पड़ेगा। ऐसी मौके भी आये, जब कांग्रेस के भीतर जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को खत्म करने वाला विधेयक संसद में आने के बाद पार्टी के कई नेता रक्षात्मक दिखे और उन्होंने नरम लाइन पर चलना बेहतर समझा। कांग्रेस के भीतर दोहरी सोच का कारण यह है कि मोदी-शाह की जोड़ी ने भाजपा की जिस कूटनीति को देश के सामने पेश किया है, वह सीधे हिन्दुत्व के एजेंडे की राजनीति है। भाजपा ने खुले रूप से हिन्दू-मुस्लिम के बीच खाई खोदने वाली राजनीतिक राह पकड़ ली है। लव जिहाद जैसे मुद्दों के साथ भाजपा अपने एजेंडे पर खुलकर चल रही है। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के लिए ऐसे में रास्ता आसान नहीं रह गया है। कार्ल माक्र्स ने लिखा था- ‘मुद्दों और अपनी विफलताओं से जनता का ध्यान हटाना है, तो उसे धर्म की अफीम खिला दो।’ कुछ ऐसा ही भारत में हो रहा है। ऐसे में धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस, राहुल गाँधी और विपक्ष की राह कठिन हो जाती है। कांग्रेस के भीतर नेताओं को यह समझना होगा कि यह राजनीतिक स्थिति असाधारण है। इसका मुकाबला जनता को गहरे से प्रभावित करने वाले मुद्दों से ही किया जा सकता है। जनता को इन मुद्दों की अहमियत भाजपा के मुद्दे से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बतानी पड़ेगी। और यह काम कांग्रेस समेत दूसरे सभी विपक्षी दलों को भी करना होगा।

कांग्रेस के भीतर आजकल बीच की लकीर (धर्मनिरपेक्ष) पर चलने को लेकर इसलिए भी भय रहने लगा है, क्योंकि उसकी अपनी ही पूर्व रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि देश की जनता के भीतर यह बात पैठ रही है कि कांग्रेस मुस्लिमों की पार्टी बनकर रह गयी है या मुस्लिमों के प्रति उसका रुझान ज़्यादा है। जबकि सच यह है कि कांग्रेस के पास मुस्लिमों का समर्थन 30 फीसदी भी नहीं रह गया है। हाल के चुनाव नतीजों से यह साफ ज़ाहिर हो जाता है। नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा के लिए आरएसएस ने हिन्दुत्व की जो नयी परिभाषा अब गढ़ी है, उसमें उसका नेता अब चाहे मोदी, शाह या योगी में कोई भी रहे, कांग्रेस और बाकी विपक्ष के लिए स्थिति एक-सी ही रहेगी; तब तक, जब तक कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दल जनता को यह नहीं समझा देते कि भाजपा की लाइन सिर्फ हिन्दू वोटों के लिए है, उनके हितों की रक्षा और इससे उनकी मूल समस्याएँ हल करने के लिए नहीं। कांग्रेस और बाकी विपक्षी दल कोशिश करें, तो वो जनता को मुद्दों पर मतदान करने वाली जनता बनाया जा सकता है। बिहार में विधानसभा के हाल के चुनाव में तेजस्वी यादव ने बहुत आक्रामक तरीके से ज़ात-पात पर मतदान करने वाले इस राज्य में  जोखिम लेकर रोज़गार को चुनाव का मुद्दा बनाकर भाजपा से ज़्यादा सीटें जीतकर यह कर दिखाया।

इसे कांग्रेस में फिर घमासान मच गया है। बिहार चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ 19 ही सीटें मिलने से कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आज़ाद जैसे नेता फिर मुखर हुए हैं। लेकिन यह दौर नेतृत्व की निंदा तक ही सीमित है। सुझाव कहीं से नहीं आ रहा। याद रहे कि दो साल पहले राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत पर इन और बहुत-से पार्टी नेताओं ने राहुल गाँधी को कांग्रेस का एकछत्र नेता कहा था। राहुल कांग्रेस में ऐसे नेता हैं, जो सोनिया गाँधी के विपरीत सोच रखते हैं। जबकि पार्टी में बहुत-से ऐसे नेता हैं, जो इस बात पर ज़ोर देते हैं कि उन्हें सोनिया गाँधी जैसा बनना होगा। लेकिन राहुल के नेतृत्व की आलोचना करते हुए कोई भी नेता विकल्प नहीं सुझाता। भूपेश बघेल जैसे नेता हैं, जो उम्मीद जगाते हैं और वह पूरी तरह राहुल के साथ है।

बहुत पहले उत्तर प्रदेश के नेता जितेंद्र प्रसाद ने सोनिया गाँधी के खिलाफ अध्यक्ष का चुनाव लड़ा था। वह हार गये थे, लेकिन इससे कांग्रेस के भीतर लोकतंत्र की आवाज़ ज़िन्दा रही; भले यह सन्देश भी गया कि गाँधी परिवार ही कांग्रेस में सर्वमान्य नेतृत्व है। आज कौन है, जो चुनाव में राहुल गाँधी के खिलाफ चुनाव में उतर सके? तहलका से बात करते हुए इस सारे विवाद से खुद को अलग रखे हुए कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि पार्टी के पास एक भी ऐसा नेता नहीं, जो पूरी कांग्रेस में गाँधी परिवार के नेताओं की तरह सर्वमान्य नेता होने का दावा कर सके। उन्होंने कहा कि गाँधी परिवार से बाहर का नेतृत्व लाने के लिए तो शरद पवार जैसे पार्टी से बाहर के किसी नेता को इम्पोर्ट करना पड़ेगा; क्योंकि गाँधी परिवार से ज़्यादा सर्वमान्य नेतृत्व कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं के पास नहीं है। उन्होंने कहा कि शायद पार्टी नेता असली समस्या की तरफ नहीं देख रहे और नेतृत्व के इर्द-गिर्द ही घूम रहे हैं। असली समस्या भाजपा के हिन्दुत्व के एजेंडे का पर्दाफाश करते हुए उससे निपटना है और हालात जब माकूल होंगे, तो यही राहुल गाँधी सफल नेता बन जाएँगे।

कांग्रेस के पास इस समय मज़बूत सलाहकार की भी कमी है। अशोक गहलोत जैसा नेता कांग्रेस की ज़रूरत है। राहुल अध्यक्ष हैं ही नहीं, लेकिन भाजपा के निशाने पर सिर्फ वही हैं। भाजपा के बड़े नेताओं से लेकर प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा तक सभी हर मुद्दे पर राहुल गाँधी को निशाने पर रखते हैं। एक-दो नेताओं को छोडक़र कितने कांग्रेस नेता हैं, जो राहुल पर भाजपा नेताओं के हमले के वक्त उन पर मज़बूत जवाबी हमला करते हैं? हाँ, नेतृत्व की आलोचना यदा-कदा करते रहते हैं। राहुल सच में इतने ही कमज़ोर नेता होते, तो भाजपा दिन-रात उनकी निंदा में भला क्यों अपना वक्त बर्बाद करती? कांग्रेस की तरफ से भाजपा को जवाब नहीं मिलने से राहुल गाँधी कांग्रेस की कमज़ोर कड़ी बन गये हैं। राहुल खुद भी ममता बनर्जी जैसे आक्रामक नेता नहीं हैं, जो ईंट का जवाब पत्थर से दे सकें। यही उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है। कोरोना का दबाव कम होते ही कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी; शायद जनवरी या फरवरी तक। इस पर तैयारी शुरू हो चुकी है। यह भी चर्चा है कि यदि चुनाव करवाना पड़ा, तो कांग्रेस ऑनलाइन वोटिंग करायेगी। इसके लिए कांग्रेस प्रतिनिधियों को डिजिटल वोटर कार्ड जारी कर सकती है। कांग्रेस के केंद्रीय चुनाव प्राधिकरण ने 1450 के करीब कांग्रेस नेताओं की एक सूची बनाने का काम भी शुरू किया है। अभी तक तो यही लग रहा है कि राहुल गाँधी अध्यक्ष बनेंगे। कोई आश्चर्यजनक स्थिति बनी, तो प्रियंका गाँधी भी हो सकती हैं। यह दिलचस्प होगा कि क्या गाँधी परिवार के खिलाफ कोई नेता चुनाव में उतरेगा?

ऐसा लगता है कि पार्टी नेतृत्व ने शायद हर चुनाव में पराजय को ही अपनी नियति मान लिया है। बिहार ही नहीं, उप चुनावों के नतीजों से भी ऐसा लग रहा है कि देश के लोग कांग्रेस पार्टी को भाजपा का प्रभावी विकल्प नहीं मान रहे हैं।

कपिल सिब्बल

पार्टी में किसी तरह का नेतृत्व संकट नहीं है। जो अन्धा नहीं है, उसे साफ नज़र आ रहा है कि सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को पूरा समर्थन है। मैं उन नेताओं (सिब्बल और चिदंबरम) के बिहार नतीजों पर चिन्ता वाले बयान से असहमत नहीं हूँ, लेकिन किसी को भी बाहर जाकर मीडिया और दुनिया से यह कहने की क्या ज़रूरत है कि हमें यह करना होगा।

सलमान खुर्शीद

चुनाव में हार के लिए मैं पार्टी नेतृत्व को दोष नहीं देता; लेकिन हमने ज़मीनी स्तर पर जनता से सम्पर्क खो दिया है। पाँच सितारा होटल वाली राजनीति हमारा नुकसान कर रही है। जब तक हम हर स्तर पर कांग्रेस की कार्यशैली में बदलाव नहीं लाते, चीज़ें नहीं बदलेंगी। नेतृत्व को चाहिए कि वह पार्टी कार्यकर्ताओं को एक कार्यक्रम दे और पदों के लिए चुनाव कराये।

गुलाम नबी आज़ाद

राहुल गाँधी के साथ पूरी कांग्रेस पार्टी खड़ी है। वह मज़बूत और जनता के मुद्दों से जुड़े नेता हैं। उनकी शराफत को कमज़ोरी समझने वाले बहुत बड़ी भूल में हैं।

सुष्मिता देव

भँवर में कांग्रेस

जब देश की अर्थ-व्यवस्था गम्भीर गिरावट का सामना कर रही है, कोविड-19 के मामलों में जबरदस्त बढ़ोतरी हो रही है और सीमाओं पर तनाव है, तब भी कांग्रेस केंद्र सरकार को घेरने में नाकाम दिख रही है। दरअसल कांग्रेस ने केंद्र सरकार को उसकी नाकामियों पर घेरने के अब तक कई बेहतरीन अवसर खो दिये हैं। पता नहीं क्यों मुख्य विपक्षी दल निश्चित ही केंद्र के खिलाफ आक्रामक अभियान चलाने के लिए बहुत बेहतर स्थिति में नहीं दिखता? देश का यह सबसे पुराना राजनीतिक दल लम्बे समय से दोहरी चुनौतियों से जूझ रहा है। इसमें पहली चुनौती है- अभी तक एक पूर्णकालिक अध्यक्ष का चुनाव नहीं हो पाना और दूसरी बड़ी चुनौती है- पार्टी के आंतरिक संकटों को हल करना।

इसे लेकर पिछले दिनों कांग्रेस के 23 नेताओं ने पार्टी में सुधारों की माँग को लेकर सोनिया गाँधी को एक पत्र लिखा था, जिसे पार्टी में विद्रोह का लेटर बम कहा गया और कई नेता इस पर नाराज़ हुए। अब पूर्व केंद्रीय मंत्री और पार्टी के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने बिहार चुनाव के नतीजों के बाद तल्ख भाषा में कहा है कि हम हाल के चुनावों पर कोई चर्चा नहीं कर रहे हैं; ऐसा लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व ने इस स्थिति को ही पार्टी की नियति मान लिया है। सिब्बल की एक सफल वकील और एक सफल प्रवक्ता के रूप में भले ख्याति है और वह केंद्र में कांग्रेस के कार्यकाल में कई मंत्रालय भी सँभाल चुके हैं; लेकिन इस बयान के बाद पार्टी में उनके खिलाफ आवाज़ें उठ रही हैं और उनकी आलोचना हो रही है। लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने असंतुष्टों से बहुत कड़े शब्दों में बाहर जाने का सुझाव देते हुए कहा है कि वे (असंतुष्ट नेता) नयी पार्टी बना सकते हैं या ऐसी पार्टी में जा सकते हैं, जो उनकी रुचि के अनुरूप हो।

कोई भी पार्टी भीतरी कलह से पूरी तरह सुरक्षित होने का दावा नहीं कर सकती; लेकिन जब कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी के प्रदर्शन को लेकर उसके 23 वरिष्ठ नेता पार्टी नेतृत्व को पत्र लिखते हैं, तो नेतृत्व को नींद से जागना चाहिए; मगर स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं बदला। 2019 के लोकसभा चुनाव में हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए राहुल गाँधी के अध्यक्ष पद छोडऩे के बाद से अभी तक पार्टी के पास पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं है; जबकि अध्यक्ष पद के चुनाव की चर्चा चलते-चलते 15 महीने से ज़्यादा बीत चुके हैं। पार्टी के कुछ नेता अभी भी लेटर बम फोडऩे वाले 23 नेताओं पर प्रहार करने में अपनी ऊर्जा खर्च करने में लगे हैं।

नयी समितियों के गठन को छोडक़र पार्टी के भीतर कोई आत्मनिरीक्षण नहीं किया गया है, जो यह बताता है कि पार्टी व्यापक सुधारों के लिए तैयार नहीं है। पार्टी के पदाधिकारियों का कहना है कि कुछ वरिष्ठ नेता अध्यक्ष चुनाव को टालने के लिए नेतृत्व पर ज़ोर दे रहे हैं; क्योंकि उन्हें खुद के दरकिनार किये जाने का डर सता रहा है। इनमें से कई नेता लम्बे समय से चुनाव नहीं लड़े हैं और ज़मीनी हकीकत से दूर हैं। जो भी हो फिलहाल गाँधी परिवार को यह समझने की ज़रूरत है कि पार्टी अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता तभी जारी रख सकती है, जब या तो वो खुद (गाँधी परिवार) नेतृत्व छोड़ दे, या पार्टी में स्वार्थ साधने की कोशिशों में लगे रहने वाले नेताओं की अनदेखी करके दमदार तरीके से मैदान में उतरे; केंद्र की नीतियों के खिलाफ भी और आगामी चुनावों में जीत के लिए भी। मौज़ूदा सरकार पर हमले के लिए मुद्दों का इतना बारूद उपलब्ध है कि उसे खुद की कमियों को सुधारने के लिए मजबूर किया जा सकता है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की ज़िम्मेदारी है कि वह लम्बे समय से अटके संगठनात्मक सुधार की घोषणा करे और आंतरिक असंतोष को खत्म करे। हालाँकि सबसे बड़ा सवाल शेक्सपियर की पंक्तियों- ‘यह हो सकता, या नहीं हो सकता’ में निहित है। क्या कांग्रेस इस अवसर का लाभ उठाते हुए सरकार के सामने खड़ी होगी? जो एक मुख्य विपक्षी दल होने के नाते उसकी पहली ज़िम्मेदारी है; या फिर इस बड़े अवसर को हाथ से जाने दे!