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मान्यताओं-प्रथाओं का चक्कर

हमारे देश में कुछ विचित्र मान्यताएँ-प्रथाएँ हैं, जिन्हें अन्धविश्वास कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इनमें से एक सबसे अजीब प्रथा छत्तीसगढ़ में ‘मढ़ई मेले’ के दौरान देखी जाती है। वहाँ पुजारी बच्चा होने का आशीर्वाद देने के लिए फर्श पर पट लेटी विवाहित महिलाओं की पीठ (कटि भाग) पर चलते हैं।

इस बार दीपावली के बाद पहले शुक्रवार को छत्तीसगढ़ के धमतरी ज़िले में यह विचित्र अनुष्ठान हुआ। एक दर्ज़न से अधिक पुजारी और तथाकथित चुड़ैल व्याधि से छुटकारा दिलाने वाले ओझा बच्चा होने का आशीर्वाद देने के बहाने महिलाओं की पीठ पर चले। वहाँ एक पुरानी मान्यता के अनुसार, देवी अंगारमोती मन्दिर में दीपावली के बाद पहले शुक्रवार को मढ़ई मेला आयोजित किया जाता है।

मुख्य बातें

इस साल 50 से अधिक गाँवों की 200 महिलाएँ ज़मीन पर पट लेट गयीं और बाकी गाँववासी यह प्रक्रिया देखने के लिए वहाँ जमा रहे। दर्ज़नों पुजारी और ओझा ने इन महिलाओं को बच्चा होने का आशीर्वाद देने के नाम पर इनकी की पीठ पर चढक़र मंदिर में प्रवेश किया। सभी महिलाएँ ज़मीन पर दण्डवत लेटी रहीं और ये पुजारी तथा ओझा धार्मिक ध्वज लहराते हुए महिलाओं की पीठ पर से होते हुए मन्दिर में पहुँचे। महिलाएँ बच्चे की चाह में खुद को एक साथ कई पुरुषों द्वारा पैरों से रौंदने के लिए तैयार थीं।

मान्यता के चक्कर में हर साल छत्तीसगढ़ के धमतरी में सैकड़ों लोग एक अनुष्ठान करते हैं, जिसके दौरान पुजारी और ओझा बच्चों का आशीर्वाद देने के लिए महिलाओं की पीठ पर चढक़र गुजरते हैं। इस वर्ष अनुष्ठान के दौरान कोरोना वायरस के बावजूद उपस्थित लोगों ने मास्क नहीं पहने थे और न ही आपसी दूरी के नियम का पालन किया। इस प्रथा पर कोई आपत्ति नहीं जताते हुए जनजातियों के हज़ारों लोग, जिनमें हमेशा की तरह पढ़े-लिखे लोग भी शामिल हुए; मन्दिर पहुँचे और मधाई मेले के गवाह बने। माँ बनने की इच्छा रखने वाली नि:संतान महिलाएँ अपने पेट के बल लेटी हुई दिखायी दीं और आदिवासी पुजारी उनकी पीठ पर चढक़र मंत्रों का जाप करते हुए चल रहे थे। उनके हाथों में ध्वज थे और उत्सुक ग्रामीण इस अनुष्ठान को देखकर प्रसन्न हो रहे थे।

मेले की तस्वीरों और वीडियो आदि मेंं लोग बिना मास्क के एक-दूसरे के निकट खड़े देखे जा सकते थे। आदि शक्ति माँ अंगारमोती ट्रस्ट के सचिव आर.एन. ध्रुव कहते हैं- ‘मधाई मेला पिछले 500 साल से हो रहा है। हम उसी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। लोग अनुष्ठान में दृढ़ विश्वास के साथ शामिल होते हैं, जिसका गलत अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए। पूर्व में मेले में भाग लेने के बाद कई विवाहित महिलाओं को पुजारियों-ओझाओं के आशीर्वाद से बच्चे होना चमत्कार ही है।’

छत्तीसगढ़ राज्य महिला आयोग की चेयरपर्सन किरणमयी नायक ने  कहा- ‘इसके लिए बहुत जागरूकता की आवश्यकता है। मैं अपनी टीम के साथ उस जगह का दौरा करूँगी और स्थानीय लोगों की मदद से इस प्रथा को हतोत्साहित करने और महिलाओं को आसान गर्भाधान और माता का आशीर्वाद लेने के सर्वोत्तम तरीकों के बारे में जागरूक करूँगी। हम यह सुनिश्चित करेंगे कि उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस न पहुँचे।’

लव जिहाद की बेतुकी तुकबंदी

क्या ‘लव’ ‘जिहाद’ है? यह सवाल आज लाखों लोगों के जेहन में अनायास घूमने लगा है। इसके लिए दोनों शब्दों और उनके वास्तविक मानी पर गौर करना बहुत ज़रूरी है। एक दौर था, जब कहा गया था कि शादी से पहले प्यार अपराध है। कुछ लोग आज भी यह मानते हैं; लेकिन कुछ समझदार लोग अब इसे पूरी तरह गलत मानते हैं। शादी से पहले प्यार करने वालों को इसके लिए भयंकर-भयंकर सज़ाएँ भी दी जाती रही हैं। आज भी इसके लिए प्रेमी युगल, खासतौर पर लड़कियों को हैवानियत प्रवृत्ति के लोग भयंकर सज़ा दे डालते हैं; फिर चाहे वह उनकी बेटी या बहन क्यों न हो।

अब लव को जिहाद और जिहाद के इस नये मानी को लव से जोडऩे की साज़िश की जा रही है। सही मायने में लव क्या है और जिहाद क्या? इसे समझने के लिए पहले तो लव और जिहाद के सही मायने समझने होंगे। लव का मतलब होता है प्यार और जिहाद शब्द के दो अर्थ होते हैं, एक अपनी इच्छाओं को मारना यानी विरक्त होकर ईश्वर में लीन हो जाना, या सन्त हो जाना। एक तरह से किसी तरह का अनाचार और पाप न करना। और दूसरा है- ईश्वर / इंसानियत के खिलाफ रहने वाले यानी अत्याचारियों के खिलाफ युद्ध छेडऩा। कुल मिलाकर धर्मयुद्ध को जिहाद कहते हैं। लेकिन अब लव जिहाद का रूप समाज के सामने रखा गया है। दरअसल लव यानी प्यार की खिलाफत एक धर्मयुद्ध नहीं है। यह दो लोगों की जीवन बन्धन में बँधने की स्वेच्छा में एक तरह की दखलंदाज़ी है। वहीं, प्यार में यह ज़रूरी नहीं कि कोई शादी ही करे या धर्म-परिवर्तन ही करे। लेकिन झाँसे से शादी करना या धर्म-परिवर्तन कराना गैर-कानूनी ही है। लेकिन अगर कोई खुद से लालच में या अपने हित के लिए धर्म-परिवर्तन करता है या शादी करता है, तो यह उसका निजी फैसला है और हम इसे गैर-कानूनी नहीं कह सकते। दरअसल इसका सही मापदण्ड तभी तय किया जा सकता है, जब धर्म-परिवर्तन करने वाले की नीयत, इच्छा और स्वीकृति का सही-सही पता हो। धर्म-परिवर्तन जिहाद यानी धर्मयुद्ध भी नहीं हो सकता। आज तक दुनिया में महाभारत से बड़ा कोई धर्मयुद्ध नहीं हुआ है; लेकिन वह एक ही धर्म के लोगों, बल्कि एक ही परिवार के बीच हुआ था। धर्मयुद्ध का मतलब है- मानव धर्म यानी इंसानियत को बचाना; न कि किसी के धर्म के खिलाफ कोई युद्ध छेडऩा या उसका साज़िशन धर्म-परिवर्तन कराना। ऐसे में लव को जिहाद से जोडऩा बेतुकी तुकबंदी ही है। हाँ, किसी को झाँसे में लेकर, लालच देकर या धमकी आदि देकर या बन्धक बनाकर धर्म-परिवर्तन कराने या शादी करने-कराने वालों को दोषी माना जाना कानूनी है; लेकिन इसकी सज़ा देना भी कानून का ही काम है। इसके लिए मॉब लिंचिंग या हत्या या प्रताडऩा आदि गैर-कानूनी है।

इन दिनों लव जिहाद पर जिस तरह से बहस छिड़ी हुई है, उस पर चर्चा करने से पहले मैं पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के एक चर्चित मामले का ज़िक्र करना चाहूँगी। उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में अब से करीब आठ-दस महीने पहले एक उच्च वर्ग की लडक़ी ने एक निम्न वर्ग के लडक़े से भागकर शादी कर ली। इस पर लडक़ी के घर वालों ने, जो कि रसूखदार राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखते हैं; लडक़े को जान से मारने का षड्यंत्र रचा। आखिर में किसी तरह लडक़ी को वापस घर बुला लिया और जाने क्या किया कि लडक़े को जी-जान से प्यार करने वाली लडक़ी उसी के खिलाफ बयान जारी करने लगी। एक दूसरा उदाहरण हम किसी भी बड़े घर का ले सकते हैं। मसलन रेणु शर्मा ने शहनवाज़ हुसैन से शादी की थी, दोनों के परिवार वालों ने हल्की-फुल्की आना-कानी के बाद यह रिश्ता स्वीकार कर लिया और आज भी यह रिश्ता बहुत अच्छी तरह चल रहा है। एक और उदाहरण मध्य प्रदेश का है। करीब पाँच साल पहले राजस्थान की एक लडक़ी ने अपनी ही जाति के गुजरात के एक लडक़े से प्रेम-विवाह कर लिया; लेकिन आज तक लडक़ी के घर वालों ने यह रिश्ता मंज़ूर नहीं किया; क्योंकि लडक़ा एक मामूली कारीगर है और लडक़ी लखपति घर की है।

यहाँ सवाल उठता है कि लव जिहाद दो धर्मों के युगलों के बीच प्रेम सम्बन्ध या विवाह कर लेना है या फिर पैसे, पद, प्रतिष्ठा के ताने-बाने पर बुनी हुई एक सुविधाजनक पहेली है; जिसमें वर अगर पैसे वाला है, हैसियत वाला है, तो शादी में कोई दिक्कत नहीं, फिर चाहे वह किसी जाति का हो, किसी धर्म का हो। लेकिन अगर वह गरीब है, तो दिक्कत-ही-दिक्कत, विरोध-ही-विरोध। यह भेदभाव केवल वर पक्ष में ही नहीं होता, बल्कि वधू पक्ष में भी होता है। अगर गरीब घर की लडक़ी है, तो लडक़े वाले भी उसे अपनाना नहीं चाहते। पिछले ही साल मशहूर फिल्म अभिनेत्री ने अमेरिकी गायक निक जोनस से शादी की है। दो धर्मों के लोगों की शादी का विरोध करने वाले लोगों से पूछना चाहिए कि क्या उनकी दृष्टि में यह लव जिहाद नहीं है?

उत्तर प्रदेश में अध्यादेश पास

कथित लव-जिहाद और धर्म-परिवर्तन की घटनाओं पर लगाम कसने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश-2020 को मंज़ूरी दे दी है। राज्यपाल के हस्ताक्षर होते ही इसे कानून बना दिया जाएगा। इस कानून के लागू होने के बाद छल-कपट व जबरन धर्म-परिवर्तन के मामलों में एक से 10 साल तक की सज़ा और ज़ुर्माना हो सकता है। खासकर किसी नाबालिग लडक़ी या अनुसूचित जाति-जनजाति की महिला का छल से या जबरन धर्म-परिवर्तन कराने के मामले में दोषी को तीन से 10 वर्ष तक की सज़ा भुगतनी होगी।

बता दें कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के अपनी मर्ज़ी से दूसरे धर्म में शादी करने पर दखल देने को गलत ठहराने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में कुल 21 प्रस्तावों पर मुहर लगी, जिनमें सर्वाधिक चर्चित धर्म-परिवर्तन विरोधी अध्यादेश को भी स्वीकृति दी गयी है। मध्य प्रदेश सरकार भी लव जिहाद के नाम पर कानून बनाने की तैयारी कर रही है। दरअसल हाल ही में हरियाणा के बल्लभगढ़ में कथित लव जिहाद मामले में मुस्लिम युवक द्वारा हिन्दू युवती की हत्या के बाद से मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश, हरियाणा और कर्नाटक की सरकारों ने इसे लेकर कानून बनाने का ऐलान किया। सरकारों का कहना है कि इसका मकसद लोभ, लालच, दबाव, धमकी या झाँसा देकर शादी की घटनाओं को रोकना है।

इधर असदुद्दीन ओवैसी ने कहा है कि इस तरह का कानून संविधान की धारा-14 और धारा-21 के खिलाफ है। सरकारों को चाहिए कि अगर वह ऐसा करती हैं, तो फिर स्पेशल मैरिज एक्ट को खत्म ही कर दें। कानून की बात करने से पहले उन्हें संविधान को पढऩा चाहिए। उन्होंने कहा कि युवाओं का ध्यान बेरोज़गारी से हटाने के लिए भाजपा इस तरह के हथकंडे अपना रही है।

हाईकोर्ट की पूर्व टिप्पणी पर योगी ने जतायी थी सहमति

उत्तर प्रदेश में लव जिहाद के खिलाफ कानून बनाने से पहले वहाँ के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले पर सहमति जता चुके हैं, जिसमें कहा गया था कि महज़ शादी करने के लिए किया गया धर्म-परिवर्तन अवैध होगा। हालाँकि अब यह फैसला हाईकोर्ट की बड़ी बेंच ने बदल दिया है।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी ने लव जिहाद के खिलाफ कानून बनाने की बात कहते हुए कहा कि जो लोग अपना स्वरूप (धर्म) छिपाकर बहन-बेटियों की इज्जत से खिलवाड़ करते हैं, उनको पहले से चेतावनी है कि अगर वो नहीं सुधरे, तो अब राम नाम सत्य की यात्रा निकलने वाली है। वहीं ऑल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष एवं समाजसेवी शाइस्ता अम्बर ने इस नये कानून के बनाये जाने वाले योगी के बयान पर सख्त नाराज़गी जतायी।

हाईकोर्ट का नया फैसला

हालाँकि लव जिहाद के खिलाफ धर्म पविर्तन वाले पहले के एक फैसले को पलटते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि हर किसी को अपनी पसन्द के व्यक्ति के साथ रहने का अधिकार है, चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो। कोर्ट ने इसे ऐसा करने वाले की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मूल तत्त्व माना है। जस्टिस पंकज नकवी और जस्टिस विवेक अग्रवाल की बेंच ने कुशीनगर के सलामत अंसारी और प्रियंका खरवार उर्फ ​​आलिया की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि अगर दो लोग राज़ी-खुशी से एक साथ रह रहे हैं, तो इस पर किसी को आपत्ति करने का कोई हक नहीं है।

बेंच ने प्रियांशी उर्फ समरीन और नूरजहाँ बेगम उर्फ अंजली मिश्रा के दो मामलों में पाया कि दो बालिगों को अपनी मर्जी से अपने साथी चुने थे। ऐसे में उनकी इस स्वतंत्रता के अधिकार पर कोर्ट का पहले का फैसला उचित नहीं है।

कोर्ट ने कहा कि निजी रिश्तों में दखल किसी व्यक्ति की निजता के अधिकार में गम्भीर अतिक्रमण है, जिसका उसे संविधान के अनुच्छेद-21 में अधिकार प्राप्त है। कोर्ट एक युवती के पिता की ओर से दर्ज करायी गयी एफआईआर भी खारिज कर दी है।

माना जा रहा है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले से प्रदेश सरकार के शादी के लिए युवतियों-महिलाओं का धर्म-परिवर्तन यानी कथित लव जिहाद के खिलाफ कानून के मसौदे को झटका लग सकता है।

क्या होगा नया कानून, कितनी होगी सज़ा

उत्तर प्रदेश में लव जिहाद पर कानून विधि विरुद्ध धर्म-परिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश-2020 के स्वरूप के तहत जबरन धर्म-परिवर्तन पर 15 हज़ार रुपये के ज़ुर्माने के साथ एक से पाँच साल की जेल की सज़ा का प्रावधान है। वहीं अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति समुदाय की महिलाओं और नाबालिग लड़कियों के धर्म-परिवर्तन पर 25 हज़ार रुपये के ज़ुर्माने के अलावा तीन से 10 साल तक के लिए जेल की सज़ा होगी। इस कानून से पहले उत्तर प्रदेश के गृह विभाग ने लव जिहाद को लेकर अध्यादेश का मसौदा तैयार कर लिया था, जिसमें कहा गया था कि प्रलोभन देकर या जबरन या कपटपूर्वक या विवाह के द्वारा धर्म-परिवर्तन कराने को अपराध की श्रेणी में रखा जाएगा। ऐसा करने वाले के साथ-साथ इसमें सहयोग करने वालों को भी आरोपी माना जाएगा और जुर्म साबित होने पर मुजरिम की तरह ही सज़ा दी जाएगी। इन सभी स्थितियों में धर्म-परिवर्तन होने पर आरोपी को ही साबित करना होगा कि ऐसा नहीं हुआ। बिता दें कि कुछ समय पहले प्रदेश के विधि आयोग ने जबरन धर्म-परिवर्तन पर रोकथाम कानून बनाने के लिए यूपी फ्रीडम ऑफ रिलिजन बिल-2019 का प्रस्ताव भी शासन को सौंपा था।

वहीं मध्य प्रदेश सरकार के नये कानून (मध्य प्रदेश फ्रीडम ऑफ रिलीजन एक्ट 2020) का ड्रॉफ्ट भी तैयार हो चुका है। इसके तहत ताज़ा लव जिहाद के मामले में पाँच साल की सज़ा के प्रावधान के अलावा हो चुकी शादियों के रद्द करने का अधिकार भी फैमिली कोर्ट को दिया जा रहा है। लेकिन पुराने मामलों में कार्रवाई तभी होगी, जब पीडि़त या उसके सगे-सम्बन्धी इसकी शिकायत करते हैं। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी धर्म-परिवर्तन के खिलाफ सख्त कानून बनाने की बात कह चुके हैं। उनका कहना है कि धर्म-परिवर्तन के मामलों से सख्ती से निपटने के लिए कानून बनाया जाएगा, जिसका खाका तैयार कर लिया गया है। मध्य प्रदेश में कथित लव जिहाद के खिलाफ कानून बनाने का पूर्व केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने भी खुलकर समर्थन किया है। उन्होंने कहा कि हिन्दू एक ऐसा धर्म है, जिसमें परिवर्तन किये बिना भी कुरान और बाइबिल पढ़ सकते हैं; इसलिए धर्म-परिवर्तन एक साज़िश है, जिस पर सख्त कानून की ज़रूरत है।

कैसे काम करेगा कानून

अगर किसी को धर्म-परिवर्तन करना है, तो उसे एक महीने पहले अदालत में अर्जी देनी पड़ेगी कि वह अपना धर्म बदलना चाहता है। लेकिन ज़ोर-जबरदस्ती या ताकत या लालच या धोखे की बुनियाद पर की गयी शादी, पहचान छिपाकर की गयी शादी को इस कानून के तहत रद्द माना जाएगा। अगर किसी ने बिना अर्जी के धर्म-परिवर्तन किया, तो उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। अगर शादी के लिए किसी को भरमाया गया या झाँसा देकर शादी की गयी, तो यह कानून की नज़र में जुर्म होगा।

कैसे शुरू हुआ कथित लव जिहाद का विवाद और इसे कैसे तय किया गया

मुस्लिम पुरुषों द्वारा गैर-मुस्लिम युवतियों-महिलाओं से शादी करने, खासकर झाँसा, लालच और धमकी देकर शादी करने को कथित तौर पर लव जिहाद कहा गया है; जिसमें महिला का धर्म-परिवर्तन करके उसे मुसलमान बनाया जाता है। हालाँकि कानूनी रूप से यह शब्द मान्य नहीं है और न ही इसका कहीं लिखित इस्तेमाल किया गया है।

भारत में पहली बार 2009 में तब राष्ट्रीय स्तर पर लव जिहाद का मुद्दा बना, जब पहली बार केरल और उसके बाद कर्नाटक में इस तरह की घटनाएँ बढ़ीं। उस समय केरल हाईकोर्ट में धर्म-परिवर्तन कर शादी यानी कथित लव जिहाद यानी गैर-मुस्लिम युवती से मुस्लिम युवक द्वारा गलत तरीके से शादी करने का मामला आया। इस मामले में नवंबर, 2009 में वहाँ के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक जैकब पुन्नोज ने कहा था कि केरल में ऐसा कोई भी संगठन नहीं मिला, जिसके सदस्य गैर-मुस्लिम लड़कियों को मुस्लिम बनाने के इरादे से प्यार करते हों। दिसंबर, 2009 में न्यायमूर्ति

के.टी. शंकरन ने इस रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया और निष्कर्ष निकाला कि प्रदेश में धर्म-परिवर्तन के जबरदस्ती वाले मामलों के संकेत मिल रहे हैं। तब अदालत ने लव जिहाद मामलों में दो अभियुक्तों की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा था कि पिछले चार वर्षों में इस तरह के 3-4 हज़ार मामले सामने आये हैं।

वहीं, 2010 में तत्कालीन कर्नाटक सरकार ने स्वीकार किया था कि कई महिलाओं ने धर्म-परिवर्तन कर इस्लाम कुबूला है; लेकिन इसके पीछे कोई संगठित प्रयास नहीं किया गया है। सितंबर, 2014 में भी उत्तर प्रदेश पुलिस ने उस दौरान तीन महीनों में लव जिहाद के छ: मामलों की जाँच की, जिनमें से पाँच मामलों मे धर्म-परिवर्तन के प्रयास के सुबूत नहीं मिले। भारत में लव जिहाद के मामलों को लेकर हिन्दू संगठन आज भी चिन्तित हैं, जबकि मुस्लिम संगठन इस तरह की मुहिम को लेकर सदैव इन्कार करते रहे हैं।

धर्म-परिवर्तत के खिलाफ बनने वाले कानून के मुख्य प्रावधान

1. यदि केवल विवाह के मकसद से लडक़ी का धर्म-परिवर्तन किया गया, तो विवाह शून्य घोषित किया जा सकेगा।

2. धर्म-परिवर्तन पर रोक सम्बन्धी कानून बनाने को विधि आयोग विधानसभा में अध्यादेश पारित होने से पहले ही उत्तर प्रदेश फ्रीडम ऑफ रीज़नल बिल बना चुका है।

3. धर्म-परिवर्तन को अपराध माना जाएगा, जो गैर-जमानती होगा। इस पर प्रथम श्रेणी मैजिस्ट्रेट की कोर्ट में अभियोग का मामला चलेगा।

4. जबरन या झाँसे में लेकर धर्म-परिवर्तन या विवाह के लिए धर्म-परिवर्तन के मामले में एक से पाँच साल तक की सज़ा और 15 हज़ार रुपये तक के ज़ुर्माने का प्रावधान है।

5. नाबालिग लडक़ी, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति की महिलाओं का जबरन धर्म परिवर्तन कराने पर दो से तीन से 10 साल तक की सज़ा और कम-से-कम 25 हज़ार रुपये ज़ुर्माने का प्रावधान है।

6. लालच देकर, बहला-फुसलाकर सामूहिक धर्म-परिवर्तन कराने पर अधिकतम 10 साल की सज़ा और 50 हज़ार रुपये ज़ुर्माना लगाया जाएगा।

7. अगर कोई खुद से धर्म-परिवर्तन करना चाहता / चाहती है, तो उसे एक महीने पहले ज़िला मैजिस्ट्रेट को सूचना देनी ज़रूरी होगी, जिसके उल्लंघन पर छ: महीने से लेकर तीन साल तक की सज़ा हो सकती है।

8. यदि कोई संस्था लालच देकर, बहला-फुसलाकर किसी का धर्म-परिवर्तन कराती है, तो संस्था या संगठन के ज़िम्मेदार पदाधिकारियों को दोषी माना जाएगा और वे सज़ावार होंगे।

गिलगित, बाल्टिस्तान में हुए चुनाव

पाकिस्तान की इमरान खान सरकार का गिलगित, बाल्टिस्तान में चुनाव कराने का फैसला भले जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने और अनुच्छेद-370 को निरस्त करने से जुड़ा हो, लेकिन खुद पाकिस्तान सरकार की ही एक एजेंसी को आशंका है कि इससे पाकिस्तान का भारत के हिस्से वाले कश्मीर पर दावा कमज़ोर हो जाएगा। यही नहीं, गिलगित, बाल्टिस्तान में चुनाव का विरोध करने वाले मज़बूत संगठन वहाँ अब पाकिस्तान के खिलाफ नये सिरे से एकजुट हो सकते हैं। चीन जिस तरह गिलगित, बाल्टिस्तान में अपने प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहा है और अब पाकिस्तान ने वहाँ चुनाव करवाये हैं, उससे निश्चित ही इन चुनावों का सख्त विरोध कर रहे भारत की चिन्ता बड़ी है।

विरोधी दलों ने पाकिस्तान सरकार और प्रधानमंत्री इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) पर धाँधली करके चुनाव जीतने का आरोप लगाकर इन नतीजों को मानने से इन्कार कर दिया है। इस चुनाव के ज़रिये इमरान खान सरकार ने गिलगित, बाल्टिस्तान को अपना पाँचवाँ सूबा बनाने की चाल चली है। इस चुनाव में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान की पार्टी पीटीआई ने 23 में से 10 सीटों पर जीत हासिल की और सबसे बड़ा दल बन गयी; जबकि छ:-सात निर्दलीय उम्मीदवारों को भी जीत मिली, जिनकी मदद से पीटीआई सरकार बना रही है। बिलाबल भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) को पाँच, पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ (पीएमएल-एन) को दो, जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम फजल और मजलिस वाहदतुल मुस्लिमीन को एक-एक सीट मिली है।

गिलगित बाल्टिस्तान में पाकिस्तानी सेना के अत्याचारों की कहानियाँ यदा-कदा बाहर आती रही हैं। ज़मीन पर पाकिस्तान का काफी विरोध है। वहाँ आज़ादी की माँग करने वाली एक स्थानीय पार्टी के संस्थापक नेता नवाज़ खान नाजी का कहना है कि अभी जानते हैं कि इमरान खान की पार्टी को सेना का समर्थन है। पाकिस्तान सरकार ने इस इलाके का कोई विकास नहीं किया, उलटे यहाँ के संसाधनों को लूटा है। उधर, गिलगिट-बाल्टिस्तान इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष सेंगे सेरिंग तो कहते हैं कि यह इलाका कभी पाकिस्तान का हिस्सा नहीं हो सकता; क्योंकि यह जम्मू और कश्मीर का क्षेत्र है। वहाँ लोग बलूचिस्तान का उदाहरण देखते हैं और कहते हैं कि वहाँ के लोगों को कभी सुकून से जीने का अधिकार नहीं मिला।

आरोप यह भी रहे हैं कि पाकिस्तान और चीन मिलकर गिलगिट, बाल्टिस्तान को उपनिवेश बनाना चाहते हैं। वहाँ चुनाव करवाने की इमरान खान की चाल को इसकी तरफ एक कदम के रूप में देखा जा रहा है। भारत इमरान खान की सरकार को कड़ी चेतावनी दे चुका है कि वह उन इलाकों से बाहर निकल जाए, जिन पर उसने अवैध कब्ज़ा किया हुआ है। भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव कह चुके हैं कि भारत अपने किसी भी क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति बदलने की पाकिस्तानी सरकार की कोशिशों का सख्त विरोध करता है। पीओके भारत का अभिन्‍न हिस्‍सा है, और रहेगा। गिलगित, बाल्टिस्तान में पाकिस्तान का एक तरह से सैन्य कब्ज़ा रहा है। पाकिस्तान के सेना पर स्थानीय संगठन ज़ोर-ज़ुल्म का आरोप लगाते हैं। यही हालत पीओके की है, जहाँ 2021 में चुनाव होने हैं। गिलगित बाल्टिस्तान चुनाव से पहले ही  पाकिस्तान के विपक्षी नेता पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) के प्रमुख मौलाना फज़लुर्रहमान इमरान सरकार पर आरोप लगाया था कि नतीजे पहले से ही तय कर लिये गये थे और बड़ी संख्या में वहाँ ट्रकों से गेहूँ का वितरण किया गया; ताकि चुनाव में हेराफेरी की जा सके। उनके मुताबिक, इन ट्रकों पर प्रधानमंत्री इमरान खान के चित्रों के साथ बैनर लगे हुए थे। यही नहीं, पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ की उपाध्यक्ष मरयम नवाज़ ने भी इस मसले पर इमरान सरकार पर करारा हमला करते हुए कहा था कि इमरान सरकार वोट नहीं, बूट (जूते) के लायक है। वैसे गिलगित-बाल्टिस्तान के चुनाव को लेकर पाकिस्तान की भीतर मत-विभाजन है।

पाकिस्तान के पीएमओ के तहत काम करने वाली नेशनल सिक्योरिटी डिवीज़न (एनएसडी) के हाल में अपने एक आंतरिक आकलन में कहा था कि इसका फायदा उठाकर भारत जम्मू-कश्मीर में 5 अगस्त, 2019 की अनुच्छेद-370 निरस्त करने की अपनी कार्रवाई को जायज़ ठहरा सकता है। एनएसडी ने कहा था कि इमरान सरकार को पीओके में इसके लिए राजनीतिक विरोध सहना पड़ सकता है। यह बात काफी हद तक सही भी लगती है; क्योंकि जम्मू-कश्मीर के ऑल पार्टी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेता सैयद अली शाह गिलानी की पीओके ब्रांच के प्रमुख सैयद अब्दुल्लाह गिलानी गिलगित, बाल्टिस्तान में चुनाव को विनाशकारी नतीजे वाला फैसला बता चुके हैं।

यह तय है कि इमरान खान के गिलगित बाल्टिस्तान पर जबरन कब्ज़े से वहाँ राजनीतिक विरोध अब और मुखर होगा। अभी तक यह एक स्वायत्त क्षेत्र था और प्रादेशिक विधासभा के साथ वहाँ बाकायदा चुना हुआ मुख्यमंत्री था। वहाँ के लोगों और संगठनों की माँग आज़ादी की रही है और इसके लिए वे भारत से मदद की उम्मीद भी करते रहे हैं। अब चुनाव के बाद वहाँ की स्थिति देखना निश्चित ही दिलचस्प होगा।

प्रधानमंत्री मोदी के आश्वासन के बाद भी संकट में बनारस के बुनकर

बनारस से अपनी पहली लोकसभा जीत के बाद सत्ता में आते ही और फिर 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के बुनकरों, खासकर बनारस के बुनकरों के अच्छे दिन लाने का वादा किया था। लेकिन प्रधानमंत्री ने बुनकरों की आज तक सुध नहीं ली। इससे बनारस के बुनकर खासे हताश, निराश और सरकार से नाराज़ हैं। विश्व विख्यात बनारसी साडिय़ाँ बनाने वाले बुनकर आज संकट में हैं और रोज़ी-रोटी के लिए मोहताज हो रहे हैं। कोरोना-काल शुरू होने के बाद से तो हाल यह है कि इस उद्योग से जुड़े बनारस के लाखों लोग और उनके परिजन आज त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रहे हैं। बता दें कि बनारस के हथकरघा उद्योग को बनारसी साडिय़ों का कुटीर उद्योग माना जाता है, जो अब लगभग ठप होने के कगार पर है। बुनकरों में अपना सदियों पुराना व्यवसाय उजडऩे का खौफ और विकट रोष है और वे आन्दोलन करने की सोच रहे हैं। इसके पीछे कई कारण हैं। हथकरघा उद्योग से जुड़े बेरोज़गार हो रहे बुनकरों का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के देश से किये गये दर्ज़नों वादे अधूरे होने के समय से ही वे लोग इस बात को लेकर आश्वसत नहीं थे कि प्रधानमंत्री उनकी ओर ध्यान देंगे और उनका यह शक सही साबित हुआ। उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में बुनकरों की दशा कितनी खराब है और हज़ारों लोग कैसे इस सदियों पुराने अपने रोज़गार से वंचित हो चुके हैं, अगर यह देखना हो तो कोई बनारस के बुनकरों की दशा देखे, जिससे करीब आठ लाख लोगों और उनके परिजनों का जीवन चलता है।

बता दें कि नवंबर, 2014 में नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार वाराणसी पहुँचकर लालपुर में व्यापार सुविधा केंद्र व शिल्प संग्रहालय का शिलान्यास किया था। वहाँ उनके साथ तत्कालीन केंद्रीय कपड़ा मंत्री संतोष गंगवार भी मौज़ूद थे। उस समय मोदी की केंद्र सरकार ने बुनकरों को आश्वासन दिया था कि इस व्यापार केंद्र पर केंद्र सरकार 147 करोड़ रुपये खर्च करेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तब शिलान्यास के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी कहा था कि कृषि के बाद रोज़गार देने वाला सबसे बड़ा क्षेत्र टेक्सटाइल है। यही एक ऐसा उद्योग है, जिसमें मालिक और मज़दूर के बीच कोई खाई नहीं होती है। उन्होंने कहा था कि इस व्यापार केंद्र की शुरुआत का मकसद बनारस के कपड़ा उद्योग को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाना है। लेकिन आज बनारस का कपड़ा उद्योग ठप होने के कगार पर पहुँच रहा है और प्रधानमंत्री इस खास उद्योग की कोई सुध नहीं ले रहे हैं। यही नहीं तत्कालीन केंद्रीय कपड़ा मंत्री संतोष गंगवार ने कहा था कि केंद्र सरकार देश में हथकरघा व शिल्प से जुड़े व्यवसाय को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाना चाहती है; लेकिन इसके बाद संतोष गंगवार ने भी इस ओर पलटकर नहीं देखा। उत्तर प्रदेश के हथकरघा उद्योग की बदहाली और बुनकरों की आर्थिक तंगी को लेकर इसी जुलाई में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा भी योगी आदित्‍यनाथ की राज्य सरकार पर निशाना साध चुकी हैं। उन्होंने अपनी एक फेसबुक पोस्‍ट में एक अखबार की खबर का ज़िक्र करते हुए लिखा था कि हवाई प्रचार नहीं, आर्थिक मदद का ठोस पैकेज ही बुनकरों को इस तंगहाली से निकाल सकता है।

आन्दोलन करने को विवश बुनकर

इसी साल अगस्त में बनारस के आर्थिक संकट में फँसे बुनकरों ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बिजली का बिल बढ़ाने और पॉवरलूम पर दी जाने वाली बिजली-सब्सिडी खत्म करने को लेकर राज्य सरकार को आन्दोलन की धमकी दी थी। विदित हो कि बिजली विभाग के अधिनियम के 2006 के करार के मुताबिक, बुनकरों को एक पॉवरलूम पर हरेक महीने केवल 71.5 रुपये ही बिजली का बिल चुकाना पड़ता था, जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने खत्म करके हथकरघा उद्योगों में स्मार्ट मीटर लगा दिये। इससे बुनकरों का बिजली बिल हर महीने के डेढ़ हज़ार से अधिक आने लगा। इससे नाराज़ बुनकरों ने पहले 1 सितंबर से हड़ताल पर जाने की सरकार को चेतावनी दी थी और कहा था कि अगर मुख्यमंत्री ने उनकी परेशानी को समझते हुए मीटर हटाकर पुराने बिल को बहाल नहीं किया, तो वे पॉवरलूम को हमेशा के लिए डिसकनेक्ट (बन्द) करा लेंगे। सरकार ने 4 सितंबर को बिजली बिल पर राहत का आश्वासन दिया, जिससे बुनकर काफी खुश हुए; लेकिन बुनकरों को अब तक बिजली विभाग की तरफ से कोई राहत नहीं मिली है। ऐसे में बुनकर फिर से आन्दोलन की तैयारी कर रहे हैं। बुनकरों की मानें, तो सरकार उन्हें फिर से हड़ताल पर जाने के लिए विवश कर रही है, क्योंकि उन्हें अभी तक बिजली बिलों में कोई राहत नहीं मिली है। इधर कोरोना वायरस के चलते लगे लॉकडाउन ने भी बुनकरों की रोज़ी-रोटी पर हथौड़ा मारा है और अब जब उन्हें उम्मीद थी कि रुका हुआ काम फिर से चलने लगेगा, कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों और सरकार की सख्ती ने उस पर फिर से कुठाराघात कर दिया है।

बता दें कि अगर प्रदेश के सभी बुनकर हड़ताल करते हैं, तो राज्य सरकार को हर महीने तकरीबन 100 करोड़ रुपये के राजस्व का नुकसान होगा, जो कि बढ़े बिजली बिल से मिले राजस्व से कई गुना ज़्यादा होगा। एक अनुमान के मुताबिक, बनारसी साड़ी का सालाना कारोबार तकरीबन 1,000 करोड़ रुपये से भी ज़्यादा का है, जिसमें 300 से 400 करोड़ रुपये का माल हर साल विदेशों को निर्यात होता है। बड़ी विडम्बना यह है कि चीन से अब यार्न आ रहा है, जिस पर 25 फीसदी टैक्स लगा रही है, जिससे बनारस के हथकरघा उद्योग पर एक और कुठाराघात हो रहा है। वर्ष 2007 में बनारस में करीब 5,255 छोटी बड़ी इकाइयाँ थीं। इनमें तकरीबन 20 लाख लोग काम करते थे, और यह कारोबार करीब 7 हज़ार 500 करोड़ रुपये का था। लेकिन अब इनमें से करीब सवा दो हज़ार से अधिक इकाइयाँ बन्द हो चुकी हैं और बाकी इकाइयाँ भी प्रदेश और केंद्र सरकारों की बेरुखी और टैक्स वसूली वाली सोच के चलते बन्द होने के कगार पर हैं। नये पॉवरलूम लगाने की सोच रहे व्यापारियों ने भी अब इस धन्धे से दूरी बना ली है। क्योंकि उनके पुराने उद्योगों में ताले पडऩे की नौबत आ रही है।

पहले ही बहुत अच्छी नहीं थी कमायी

हथकरघा उद्योग पर जिस तरह सरकार बिजली बिल और टैक्स बढ़ाकर इससे जुड़े लोगों की खून-पसीने की कमायी छीनना चाहती है, इसे ठीक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि हथकरघा उद्योग में पहले ही मेहनत बहुत है और कमायी काफी कम। इस काम में बुनाई की बारीकी से लेकर डिजाइन तक का बहुत ध्यान रखा जाता है। अगर किसी साड़ी में एक धागा भी गड़बड़ हो गया, तो सारी मेहनत बेकार हो जाती है और साड़ी के दाम चौथाई से भी कम रह जाते हैं, जो कि कारीगर का मेहनताना भी नहीं होता।

एक हथकरघा कारीगर ने बताया कि एक साड़ी की बुनाई के लिए हर दिन 12 घंटे काम करने पर आठ दिनों में एक साड़ी ही तैयार हो पाती है, जिसके बदले दो हज़ार रुपये मिलते हैं यानी एक कारीगर जब बहुत मेहनत करता है, तब भी वह महीने में आठ से 10 हज़ार रुपये ही मुश्किल से कमा पाता है। ऐसे में अगर घर में कोई आवश्यक खर्चा आ पड़े या कोई बीमार हो जाए, तो कर्ज़ लेने के सिवाय और कोई चारा नहीं होता। अब इस उद्योग के ठप होने से रोज़ी-रोटी का यह छोटा-सा ज़रिया भी सरकार छीनने पर आमादा है। एक अन्य कारीगर ने बताया कि जब प्रधानमंत्री ने बनारस आकर हथकरघा उद्योग को बढ़ावा देने का आश्वासन दिया था, तब हमने सोचा था कि अब शायद हमारे दिन भी बहुरेंगे; लेकिन सब कुछ उल्टा हो गया है। अब न तो प्रधानमंत्री मोदी इस ओर ध्यान देते हैं और न ही मुख्यमंत्री योगी। हम लोग अपने बच्चों को अच्छा खाना, अच्छी शिक्षा तक नहीं दे पाते। अब तो मन करता है कि इस दुनिया को छोडक़र कहीं दूर चले जाएँ। इसी तरह की निराशा बनारस के हथकरघा उद्योग से जुड़े लगभग सभी लोगों में आज देखने को मिलती है।

दस्तकारी का काम भी पड़ा है ठप

यह गर्व की बात है कि बनारस दुनिया का ऐसा इकलौता शहर है, जहाँ दस्तकारी के अलावा करीब 60 तरह के दूसरे कारोबार सदियों होते आ रहे हैं, जिनके उत्पादन की माँग पूरी दुनिया में है। लेकिन आज इनमें से ज़्यादातर कारोबार या तो बन्द हो गये हैं या बन्द होने के कगार पर हैं। अगर आप बनारस के ठठेरी बाज़ार की गलियों से गुजरें, तो यहाँ झेनी-हथौड़ों की आवाज़ अब आपको धीमी पड़ती नज़र आयेगी; क्योंकि यहाँ का कारोबार भी कोरोना वायरस के चलते काफी दिनों से ठप पड़ा है। यहाँ गोप की बनावट, मुगल वंश के पुतले, बंगाली संस्कृति वाले खिलौने, गढ़ाई का काम, बर्तन और सोने-चाँदी के वरक बनाने जैसे दो दर्ज़न से अधिक दस्तकारी के काम होते हैं, जिनके कारीगरों को मंदी का सन्नाटा और रोज़ी-रोटी छिनने का खौफ खाये जा रहा है।

अगर बनारस में बनने वाले लकड़ी के खिलौनों की बात करें, तो इनकी सुन्दर बनावट और नक्काशी किसी को भी बरबस अपनी ओर खींच लेने वाली होती है। ऐसा लगता है कि यहाँ के खिलौने देखने वालों से बातें करना चाहते हैं। इन खिलौनों की सुन्दरता को अगर देखना है, तो बनारस की कश्मीरी गली में जाकर देखा जा सकता है, जहाँ अब लगभग सन्नाटा-सा पसरा हुआ है। वह भी तब, जब देश के प्रधानमंत्री बनारस से ही सांसद हैं और बनारस को क्वेटो बनाने का बीड़ा उठा चुके हैं। लोगों को उनसे काफी उम्मीदें हैं। मेरी इस लेख के माध्यम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से अपील है कि वे बनारस के करोड़ों के हथकरघा उद्योग के साथ-साथ दूसरे उद्योगों को फिर से नयी राह दें और इन उद्योगों से जुड़े लाखों लोगों को रोज़ी-रोटी के संकट से बचाएँ, ताकि बनारस के साथ-साथ देश में खुशहाली का माहौल बन सके।

नीतीश का अग्निपथ

बिहार में सरकार बनने के पहले ही हफ्ते में मुख्यमंत्री नीतीश के एक नज़दीकी मंत्री का पुराने भ्रष्टाचार मामले में इस्तीफा, मुख्यमंत्री के मित्र सुशील मोदी को भाजपा की तरफ से उप मुख्यमंत्री न बनाना, अपेक्षाकृत लो प्रोफाइल वाले दो उप मुख्यमंत्री बनाना, एक भी मुस्लिम चेहरा मंत्रिमंडल में नहीं लेना, महत्त्वपूर्णमंत्रालयों को भाजपा के पाले में रखना और विधानसभा में अपना स्पीकर बनाने का फैसला; यह कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हैं, जो बिहार में काँटे के चुनावी मुकाबले में जीत के एक पखबाड़े के भीतर हुई हैं। इन सभी घटनाओं से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जिस तरीके से सीधे रूप से प्रभावित होते हैं, उससे यह संकेत मिलता है कि नीतीश के लिए आने वाले महीने कितने चुनौती भरे रहने वाले हैं? केंद्र में एनडीए के सहयोगी दल कमोवेश सिमट चुके हैं। मोदी की केंद्र सरकार में भी एक मंत्री को छोडक़र बाकी सभी मंत्री भाजपा के ही रह गये हैं। यह अहसास अब नीतीश कुमार के भीतर भी मज़बूती से जगह बनाने लगा है कि भाजपा एक ऐसी पार्टी है, जो जिनके कन्धों का सहारा लेती है, उन्हीं साथियों को खा जाती है। नीतीश के भीतर यह अहसास चुनाव के दौरान लोजपा की भूमिका, कई सीटों पर जदयू को भाजपा का सहयोग नहीं मिलने और सरकार बनने के बाद की अन्य घटनाओं के बाद जगा है; जिनमें भाजपा नीतीश के प्रति सम्मान का ढोंग तो करती है, लेकिन हकीकत में उसके कदम नीतीश और उनकी पार्टी के प्रति प्रहार करने वाले दिखते हैं।

नीतीश के सामने चुनौतियाँ हैं; लेकिन तात्कालिक नहीं। भाजपा को अभी सहयोगी की ज़रूरत है। भाजपा अगले साल पश्चिम बंगाल और असम और उसके बाद उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव तक का इंतज़ार करेगी। पश्चिम बंगाल भाजपा के लिए सबसे कठिन चुनौती है; जहाँ उसका मुकाबला ज़मीन पर बहुत मज़बूत मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी पार्टी ‘माँ, माटी, मानुष’ के नारे वाली टीएमसी से है। कांग्रेस और वामपंथी भी नाम मात्र की चुनौती के लिए मैदान में रहेंगे। ऐसे में भाजपा एनडीए का चोला अभी ओढ़े रखना चाहती है। साथियों को ज़्यादा छेड़ेगी-छोड़ेगी नहीं। लेकिन हमेशा ऐसी स्थिति नहीं रहेगी; बिहार में भी नहीं। फिलहाल केंद्र में इकलौते राज्यमंत्री रामदास अठावले ही अब एनडीए में सहयोगी दलों के नाम का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं; बाकी सब भाजपा के हैं। हाल में कृषि कानूनों के मुद्दे पर सबसे पुराने सहयोगी शिरोमणी अकाली दल एनडीए से बाहर जा चुका है और उसकी इकलौती मंत्री हरसिमरत कौर भी इस्तीफा दे चुकी हैं। लोजपा के इकलौते मंत्री रामविलास पासवान रहे नहीं और पार्टी ने एनडीए से अलग होकर बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ा। महाराष्ट्र में एनडीए की सहयोगी रही शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर वहाँ सरकार बना रखी है। ऐसे में नीतीश कुमार पूर्व की स्थिति के विपरीत वर्तमान में एक अलग तरह के दबाव में रहेंगे।

यह दबाव उन पर अभी से दिखने लगा है। हो सकता है कि मुख्यमंत्री का पद नीतीश ने इस विचार से लिया हो कि कुछ बेहतर करके विधानसभा चुनाव में तीसरे पायदान पर पहुँची अपनी पार्टी की स्थिति को बेहतर कर सकें। लेकिन यह तय है कि भाजपा किसी भी सूरत में नीतीश और जदयू को अब बिहार में मज़बूत नहीं होने देगी; भले ही वह राज्य में उसकी साथी हो। इसमें कोई दो-राय नहीं कि बिहार में भाजपा भविष्य की तैयारी में जुटी है। हो सकता है कि भाजपा आने वाले समय में नीतीश कुमार को कोई बड़ा पद देने की पेशकश करे। नीतीश वर्तमान स्थिति से वािकफ हैं। भाजपा ने उनके दोस्त माने जाने वाले सुशील मोदी को किनारे करके संघ की पृष्ठभूमि वाले तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी को उप मुख्यमंत्री बना दिया गया है। सभी जानते हैं कि दोनों मुख्यमंत्री की छवि के नहीं हैं, लिहाज़ा भविष्य के लिए मुख्यमंत्री चेहरा भाजपा ने अभी परदे में रखा है। भाजपा ने पूर्व में मंत्री रहे विजय कुमार सिन्हा को विधानसभा अध्यक्ष भी बना दिया है। इससे नीतीश पर अलग से दबाव रहेगा; क्योंकि संकट के समय स्पीकर की भूमिका बहुत अहम हो जाती है।

भाजपा पश्चिम बंगाल और असम चुनावों के बाद रंग दिखायेगी; खासकर अगर वह बंगाल में जीत पायी तो। बिहार में भाजपा इन चुनावों में कोई बहुत अच्छी स्थिति में नहीं पहुँच गयी है। उसकी सीटें भले बढ़ी हैं और 53 से बढक़र 74 हो गयीं हैं, लेकिन उसके पक्ष में पडऩे वाले मत 24.4 फीसदी से घटकर 19.46 फीसदी हो गये हैं। इसके विपरीत बिहार की सबसे बड़ी पार्टी तेजस्वी यादव की राजद की सीटें ज़रूर 81 से 75 रह गयीं, लेकिन पिछली बार के 18.4 फीसदी के मुकाबले इस बार उसे 23.1 फीसदी मत मिले हैं और भाजपा को अब राजद अपनी सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी पार्टी लगती है। सरकार बन जाने के बाद भी जदयू और नीतीश कुमार की तल्खी चिराग पासवान के प्रति कम नहीं हुई है। भाजपा ने अभी तक लोजपा से सम्बन्ध तोडऩे जैसा कोई संकेत नहीं दिया है। चिराग ही नहीं, भाजपा के कई नेताओं के प्रति जदयू और नीतीश कुमार की नाराज़गी है। चुनाव के बाद से नीतीश कुमार और उनके नज़दीकी महसूस कर रहे हैं कि लोजपा ही नहीं, खुद भाजपा के लोगों ने चुनाव में बहुत सीटों पर जदयू के उम्मीदवारों के खिलाफ काम करके उसकी हार सुनिश्चित की। निश्चित ही जदयू नेतृत्व इससे विचलित है और वो भी भविष्य की अपनी रणनीति सोच रहा है। लेकिन इस सबके बावजूद भाजपा अभी नीतीश को अपने साथ की थपकी देती रहेगी।

भाजपा महाराष्ट्र में शिवसेना को धोखा देकर अपनी फज़ीहत देख चुकी है। बिहार में नीतीश यदि नाराज़ हो जाते हैं, तो भाजपा को सबक सिखाने के लिए राजद के रूप में उनके पास विकल्प है। सन् 2015 में दोनों साथ चुनाव लड़ चुके हैं और सरकार साथ चला चुके हैं। जीतनराम मांझी और मुकेश सहनी ऐसे पत्ते हैं, जो हमेशा सत्ता के साथ रहना चाहेंगे। ऐसे में बिहार में भाजपा कोई पंगा अभी नहीं लेगी। भाजपा ने चुनाव के बाद जो सबसे दिलचस्प चीज़ की, वो यह है कि उसने जीत का जश्न बिहार में बड़े हलके स्तर पर किया, जबकि दिल्ली में खूब पटाखे फोड़े। बंगाल आदि के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा गठबन्धन में दरार या लड़ाई का सन्देश नहीं देना चाहती।

 बिहार में भाजपा प्रदेश की योजनाओं को अब अपने हिसाब से चला सकेगी। पार्टी सुशील मोदी को क्यों निपटाना चाहती है? यह अभी समझ से बाहर है। उनके अलावा प्रेम कुमार, नंद किशोर यादव, विनोद नारायण झा जैसे नेता भी सरकार से दूर रखे गये हैं। यादव को लेकर कहा जा रहा है कि उन्हें स्पीकर बनाया जा सकता है। ऐसे में यह सवाल दिलचस्प है कि भाजपा वरिष्ठ नेताओं की जगह नये या सरकार में कम अनुभव वालों को क्यों जगह दे रही है?

अभी तक यही माना जाता रहा है कि बिहार में भाजपा केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय को अपना चेहरा बनाना चाहती है। देखना होगा अगले डेढ़ साल में भाजपा उन्हें किस तरह का रोल देती है। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह भी चर्चा में रहे हैं, लिहाज़ा वो अपनी कोशिश करेंगे। लेकिन यह तय है कि भाजपा बिहार में अपने विस्तार में अब कोई कसर नहीं छोड़ेगी। ऐसे में लगता यही है कि बिहार में विस्तार की भाजपा की रणनीति डेढ़-दो साल बाद की दिखेगी, जब उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव हो जाएँगे। वहाँ 2022 में मार्च के आसपास विधानसभा चुनाव होने हैं। सुशील मोदी ने उप मुख्यमंत्री पद से दूर रखे जाने को लेकर एक ट्वीट में अपने दिल का दर्द यह लिखकर बयाँ किया कि उन्हें कार्यकर्ता बने रहने से नहीं रोका जा सकता। इससे साफ है कि इस तरह किनारे कर दिये जाने से वह खुश नहीं हैं। राजनीतिक हलकों में यह सवाल उठ रहा है कि भाजपा नेतृत्व सुशील मोदी के साथ ऐसा अपमान वाला व्यवहार क्यों कर रहा है? इसका एक सरल जवाब यह हो सकता है कि केंद्रीय नेतृत्व नीतीश कुमार के नज़दीकी या उनसे सहानुभूति रखने वाले नेताओं को बिहार में ताकत नहीं देना चाहती। यदि या सच है, तो ज़ाहिर है कि भाजपा बिहार में नीतीश कुमार पर भी मेहरबान नहीं रहेगी और उनसे सहानुभूति रखने वाला कोई होगा नहीं, जो उनका बचाव कर सके।

सुशील के समर्थकों में भी बहुत गुस्सा है। इनमें से ज़्यादातर मानते हैं कि सुशील बिहार की राजनीति में रहना चाहते हैं। बीच में यह चर्चा रही है कि सुशील मोदी को केंद्र की एनडीए सरकार में लाया जा सकता है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि पिछले 13-14 साल की सत्ता में सुशील मोदी ही जदयू से गठबन्धन के असली खेवनहार रहे हैं। सुशील मोदी ही हैं, जिन्होंने लालू-राज से लेकर महागठबन्धन की सरकार तक जनहित के मुद्दों को उठाया और उस सरकार को तुड़वाकर भाजपा-जदयू के गठजोड़ वाली सरकार बनवायी। विधानसभा चुनाव में मोदी कोरोना से संक्रमित हुए; लेकिन जैसे ही स्वस्थ हुए चुनाव प्रचार में कूद गये। हालाँकि उन्होंने पूरा भाजपा पर फोकस न करके पूरे एनडीए के पक्ष में प्रचार किया।

नीतीश के लिए अब बिहार में भाजपा के दो दिग्गज नेताओं भूपेंद्र यादव और नित्यानंद राय के साथ तालमेल रखने की चुनौती होगी, जो सुशील मोदी के विपरीत नीतीश को भी एक विरोधी की ही तरह देखते हैं। इन दोनों का एक ही मकसद है भाजपा को बिहार में अपने बूते की पार्टी बनाना, लिहाज़ा बिहार में नीतीश उनके उतने ही निशाने पर रहेंगे, जितने राजद और कांग्रेस के। नित्यानंद की नज़र मुख्यमंत्री की कुर्सी पर है। भूपेंद्र यादव की रणनीति भी भाजपा का मुख्यमंत्री बनाना है। इन दोनों से अपनी कुर्सी और पार्टी दोनों को बचाना भी नीतीश के लिए एक बड़ी चुनौती होगी।

इतने कमज़ोर भी नहीं सुशासन बाबू

नीतीश भले 43 सीटों पर सिमट गये हों, पर वह इतने कमज़ोर और भाजपा के लिए बहुत आसान निवाला भी नहीं हैं। विधानसभा में विधायकों के संख्या (43) के हिसाब से भी नीतीश कमज़ोर नहीं हैं; क्योंकि अगर वह भाजपा से छिटकते हैं, तो सरकार गिर जाएगी। और अगर वह राजद को समर्थन दे देते हैं, तो भाजपा का महाराष्ट्र की तरह रास्ता पूरी तरह बन्द हो जाएगा। लेकिन उन्हें भाजपा से अपने विधायकों को बचाना होगा; क्योंकि विधायकों की खरीद-फरोख्त में भाजपा माहिर है; कर्नाटक और मध्य प्रदेश इसका बड़ा उदाहरण हैं। ऐसे में नीतीश की ताकत उनके 43 विधायक ही रह सकते हैं। हालाँकि भाजपा सहयोगी दल जदयू के साथ ऐसा करने की जल्दी नहीं सोचेगी, क्योंकि नीतीश को भी ‘पलटूराम’ कहा जाता है। इसलिए उनके अस्तित्व की बात आयेगी, तब तो वह निश्चित ही खतरनाक हो उठेंगे।

लोजपा के भाजपा के साथ तालमेल के बावजूद चिराग का केवल जदयू के खिलाफ उम्मीदवार उतारना और चुनाव के ऐन मध्य में इनकम टैक्स विभाग की जदयू से जुड़े लोगों पर छापेमारी ज़ाहिर करती है कि नीतीश को कमज़ोर करने की कोशिश उनके अपने साथी दल की तरफ से ही हुई थी। यही नहीं, चुनाव प्रचार में भाजपा सांसदों का जदयू की सीटों से किनारा करना भी कुछ संकेत करता है। और तो और सासाराम और पालीगंज जैसी सीटों पर भाजपा के बािगयों का ताल ठोकना भी यही इशारा करता है।

इस तरह देखा जाए तो इस चुनाव में जदयू और नीतीश कुमार राजद-कांग्रेस-वामपंथी गठबंधन से ही नहीं लड़े, बल्कि अपने ही सहयोगी भाजपा और एनडीए सहयोगी लोजपा से भी लड़े। इसके बावजूद जदयू का 43 सीटें निकाल लेना छोटी बात नहीं है। साल 2015 में जब नीतीश राजद-कांग्रेस के साथ मिलकर लड़े थे, तब उन्हें उन दलों का वोट भी खूब मिला था। इस बार भाजपा ने उलटे उनके वोट काटे। यह कमोवेश वैसी थी स्थिति है जैसी 2019 के आखिर में महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में शिवसेना की भाजपा के साथ हुई थी। ऐसे में इस बार भाजपा को जो मिला उसमें सहयोग उसके अपने से बाहर का भी बहुत कुछ था; जबकि जदयू ने जो पाया, वो सारा अपने बूते का था।

कुशवाहा के गठबन्धन ने भी चुनाव में दिलचस्प रोल निभाया। यह देखा गया कि जहाँ भाजपा चुनाव लड़ रही थी वहां उसके उम्मीदवार उस जाति के नहीं थे जो भाजपा के थे। बल्कि उस जाति के थे जो महागठबंधन के उम्मीदवार की थी। नहीं भूलना चाहिए कि एनडीए को मिली 125 सीटों के खिलाफ इस चुनाव में बाकी दलों के 118 उम्मीदवार जीते हैं, जो एनडीए से 7 ही कम हैं। चिराग पासवान की लोजपा ने कई सीटों पर जदयू उम्मीदवारों को हराने में बड़ी भूमिका निभायी। चिराग ने भाजपा के मुख्यमंत्री का नारा दिया था। भले ही ऐसा नहीं हुआ, लेकिन यह कूटनीति भाजपा के काफी काम आयी। भाजपा को मजबूरी में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। क्योंकि नीतीश ने परदे के पीछे के तमाम खेल के बावजूद 43 सीटें जीत लीं। शायद चिराग नीतीश को 20-25 सीटों पर सिमटने की कल्पना कर रहे थे। ऐसा हो जाता तो नीतीश निश्चित ही आज मुख्यमंत्री नहीं होते।

यह माना जाता है कि चुनाव के बाद जब भाजपा कुछ नेताओं के पर कतर रही है, तो इसका कारण खुद को बिहार में और मज़बूत करना भी है, और गुस्सा भी। भाजपा की योजना ही 80-85 सीटें जीतने की थी। सुशील कुमार मोदी भाजपा के इस गुस्से के पहले बड़े शिकार हैं। सुशील मोदी के विरोधी चर्चा में बताते हैं कि वह नीतीश की कुर्सी बचाना चाहते थे। क्योंकि उन्हें विश्वास था कि नीतीश की सरकार में वह उप मुख्यमंत्री तो रहेंगे ही। लेकिन नीतीश के मुख्यमंत्री बनने के बावजूद उनका दुर्भाग्य रहा कि भाजपा आलाकमान ने उन्हें उप मुख्यमंत्री नहीं बनाया। इसके पीछे उनके भाजपा के भीतर ताकतवर विरोधी रहे।

नीतीश की बड़ी कमी रही कि वह प्रचार में अपनी उपलब्धियाँ जनता को सही तरीके से नहीं बता सके। इसके विपरीत प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी हर सभा में केंद्र सरकार की योजनाओं का जमकर प्रचार किया। हालाँकि इस चुनाव से एक और बात साबित हो गयी कि नरेंद्र मोदी को भाजपा भले जीत का श्रेय दे, लेकिन वह पूरे एनडीए को वोट नहीं दिला पाये, अन्यथा जदयू की सीटें ज़्यादा होतीं। शायद उनका मकसद भी यह नहीं था। यहाँ याद करना दिलचस्प होगा कि 2010 के चुनाव में जब नरेंद्र मोदी कहीं तस्वीर में नहीं थे, तब भाजपा एनडीए गठबन्धन ने कहीं बड़ा बहुमत पाया था और उसे 206 सीटें मिली थीं। इधर, भाजपा से भी उसके कई सहयोगी छिटक चुके हैं। ऐसा लगता है कि एनडीए गठबन्धन अब कहने को रह गया है और भाजपा ही अधिकतर सीटों पर काबिज़ होती जा रही है। इसका एक कारण सहयोगियों का भाजपा नेतृत्व से रूठना भी है। लेकिन इससे भाजपा का हित भी बहुत दिनों तक नहीं सधेगा; क्योंकि नाराज़ दल उसे एक-न-एक दिन कमज़ोर कर देंगे। यदि 2014 की बात करें तो एनडीए में 24 दल शामिल थे। चुनाव में एनडीए ने 336 सीटें जीती थीं, जबकि भाजपा ने 282 सीटें। तब अशोक गजपति राजू (टीडीपी) ने भी शपथ ली थी; लेकिन 2019 के चुनाव से पहले ही टीडीपी भाजपा से अलग हो गयी थी। अब अकाली दल  भी उससे अलग हो चुका है।

दिलचस्प यह है कि बिहार में जदयू भाजपा की सहयोगी है और सत्ता में है। लेकिन केंद्रीय मंत्रिमंडल में नीतीश कुमार की पार्टी का कोई सांसद मंत्री नहीं है। एनडीए में होने के नाते केवल उसका केंद्र सरकार को समर्थन है।

कितने शिक्षित विधायक

बिहार चुनाव को लेकर एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार विधानसभा में 94 विधायक 5वीं से 12वीं तक ही पढ़े हैं। बिहार के 10 विधायक ऐसे हैं, जो 8वीं पास हैं और 30 विधायक 10वीं पास हैं। वहीं 53 विधायक 12वीं पास हैं; जबकि 134 विधायकों ने अपनी शैक्षिक योग्यता स्नातक या उससे ऊपर बतायी है। नौ विधायकों ने शैक्षिक योग्यता में सिर्फ साक्षर लिखा है। 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में महिला विधायकों की संख्या 28 (11.5 फीसदी) है, जो पिछली बार 34 (14 फीसदी) थी। सबसे ज़्यादा शिक्षा प्राप्त महिला विधायक कांग्रेस से हैं। चार में तीन स्नाकत्कोत्तर और एक स्नातक हैं। जदयू की नौ विधायकों में से एक स्नाकत्कोत्तर और एक स्नातक (एलएलबी) हैं। एक के पास डॉक्ट्रेट की डिग्री है। जदयू में एक निरक्षर महिला भी विधायक है। राजद की 10 विधायकों में से दो स्नातक और एक डॉक्ट्रेट डिग्रीधारी हैं।

भ्रष्टाचार के मामले

सरकार बनते ही शिक्षा मंत्री मेवालाल चौधरी को भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण इस्तीफा देना पड़ा। ऐसे में जानना ज़रूरी है कि किस पार्टी के कितने विधायकों पर भ्रष्टाचार के मामले हैं।

एडीआर और इलेक्शन वॉच के अध्ययन के अनुसार, नीतीश मंत्रिमंडल  के 14 मंत्रियों में से आठ (57 फीसदी) के खिलाफ आपराधिक मामले हैं। वहीं छ: (43 फीसदी) के खिलाफ गम्भीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। आपराधिक मामलों वाले आठ मंत्रियों में से भाजपा के चार, जदयू के दो और हम और वीआईपी का एक-एक विधायक शामिल है। चौधरी को तो मंत्रिमंडल में शामिल करते ही हंगामा शुरू हो गया था। सन् 2017 में चौधरी के खिलाफ एफआईआर दर्ज होने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उनसे मिलने से भी इन्कार कर दिया था। मेवालाल चौधरी का नाम बीएयू भर्ती घोटाले में सामने आया था और राजभवन के आदेश से उनके खिलाफ 161 सहायक प्रोफेसर और कनिष्ठ वैज्ञानिकों की नियुक्ति के मामले में एक प्राथमिकी दर्ज की गयी थी। घोषित सम्पत्ति के लिहाज़ से चौधरी सबसे अमीर मंत्री हैं। वहीं, 14 मंत्रियों की औसत सम्पत्ति 3.93 करोड़ रुपये है। मेवालाल चौधरी ने अपने शपथ पत्र में आईपीसी के तहत एक आपराधिक मामला और चार गम्भीर मामले घोषित किये हैं। पशुपालन और मत्स्य पालन मंत्री मुकेश सहनी ने पाँच आपराधिक मामलों और गम्भीर प्रकृति के तीन मामलों की घोषणा की है। भाजपा के जिबेश कुमार ने भी पाँच आपराधिक मामलों और गम्भीर प्रकृति के चार मामलों की घोषणा की है। वहीं पाँच अन्य हैं, जिनके खिलाफ अलग-अलग प्रकृति के आपराधिक मामले दर्ज हैं।

भाजपा और राजद का फैलाव

चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करने से ज़ाहिर होता है कि अगड़ी जातियों में भाजपा के साथ-साथ राजद को भी खूब वोट मिले, जबकि जदयू को नहीं मिले। लिहाज़ा भाजपा मानकर चल रही है कि भविष्य में उसका मुकाबला राजद से होगा। भाजपा और राजद में राजपूत विधायकों की जीत में इजाफा हुआ है; जबकि जदयू से कमी आयी है। इस तरह देखा जाए, तो राजद का उच्च जातियों में फैलाव हुआ है और उसने भाजपा को इस मामले में टक्कर दी। नतीजों से पता चलता है कि सवर्ण मतदाताओं ने भाजपा का काफी साथ दिया। हर चार में से एक विधायक सवर्ण जीता है। यादव, कुर्मी और कुशवाहा समुदाय के विधायकों की संख्या में इस बार कमी आयी है।

इस बार चुनाव में भाजपा ने जदयू, वीआईपी और हम पार्टी के साथ मिलकर अगड़ी और पिछड़ी जातियों को साधने का काम किया; लेकिन इसमें फायदा सिर्फ भाजपा को मिला। इस बार करीब 64 विधायक अगड़ी जातियों से चुनकर आये, जिनमें 28 राजपूत विधायक हैं। जबकि 2015 में यह संख्या 20 थी। भाजपा ने 21 राजपूत उमीदवार मैदान में उतारे थे, जिनमें से 15 जीत गये। जदयू के सात में से दो ही जीत सके; अबकी दो वीआईपी टिकट पर जीते। एनडीए के कुल 19 राजपूत विधायक विधानसभा पहुँचे।

उधर तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबन्धन (राजद+कांग्रेस+वामपंथ) ने 18 राजपूत उमीदवार मैदान में उतारे थे, जिनमें से आठ ही जीत सके। इनमें भी राजद के आठ उतारे लोगों में से सात उम्मीदवार शामिल हैं, जबकि कांग्रेस के 10 में से एक ही राजपूत उमीदवार को जीत मिली। एक निर्दलीय जीता। सन् 2015 के चुनाव में भाजपा के नौ, राजद के दो, जदयू के छ: और कांग्रेस के तीन राजपूत उम्मीदवार जीते थे। बिहार में इस बार 12 ब्राह्मण उम्मीदवार जीते हैं। सन् 2015 में 11 ब्राह्मण विधायक जीते थे। भाजपा ने इस बार 12 ब्राह्मण उमीदवारों को टिकट दिया था, जिनमें पाँच जीते। जदयू के दोनों ब्राह्मण जीतीं, जबकि कांग्रेस के नौ में से तीन उम्मीदवारों को जीत मिली। सबसे फायदे में राजद रहा, जिसके चार में से दो उम्मीदवार जीते; जबकि 2015 में एक ही जीता था। तब भाजपा के तीन, जदयू का एक और कांग्रेस के चार उम्मीदवार जीते थे। इस बार तीन कायस्थ समुदाय के विधायक बने जो सभी भाजपा के हैं। साल 2015 में भाजपा के दो और कांग्रेस का एक कायस्थ विधायक था।

इस बार 21 भूमिहार उम्मीदवार जीते हैं, जिनकी संख्या 2015 में 17 थी। सबसे ज़्यादा भाजपा से जीते हैं। उसने 14 भूमिहार मैदान में उतारे, जिनमें आठ जीत गये। जदयू के आठ में से पाँच जीते, जबकि हम पार्टी का एक। महागठबन्धन के टिकट पर छ: भूमिहार उम्मीदवार जीते, जिनमें सबसे ज़्यादा कांग्रेस के 11 में से चार, जबकि राजद और सीपीआई का एक-एक उम्मीदवार जीता। साल 2015 में भाजपा के नौ, जदयू के चार और कांग्रेस के तीन भूमिहार विधायक बने थे। बिहार में इस बार के विधानसभा चुनावों में यादव विधायकों की संख्या भी घटी है। कुल 52 यादव उम्मीदवार जीते हैं, जबकि 2015 में 61 जीते थे। यही नहीं कुर्मी और कुशवाहा विधायकों की संख्या भी घट गयी है। साल 2015 के जीती 16 कुर्मी उम्मीदवारों के मुकाबले इस बार नौ ही जीते। जदयू के 12 में से सात, जबकि भाजपा के दो जीते। महागठबंधन में राजद और कांग्रेस का एक भी उम्मीदवार नहीं जीता। सन् 2015 में जदयू के 13 कुर्मी विधायक सदन में पहुँचे थे। भाजपा, कांग्रेस और राजद के हिस्से में  एक-एक कुर्मी विधायक आया था।

जदयू के लिए सबसे बड़ी चिन्ता बिहार में मुस्लिम विधायकों की संख्या घटना है। इससे कांग्रेस को भी खासा नुकसान हुआ है। इस बार 19 मुस्लिम उम्मीदवार जीते हैं, जबकि 2015 में 24 मुस्लिम विधायक विधानसभा पहुँचे थे। इस बार राजद के टिकट पर सबसे ज़्यादा 8 मुस्लिम जीते, जबकि दूसरे नंबर पर पाँच मुस्लिम विधायकों के साथ ओवैसी की इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन रही। कांग्रेस के चार, भाकपा  (माले) का एक और एक उम्मीदवार बसपा के टिकट पर जीता। जदयू का हाथ खाली रहा, जबकि 2015 में उसके 5 मुस्लिम उम्मीदवार जीते थे। तब राजद के 11, कांग्रेस के 7 और सीपीआई (माले) का एक मुस्लिम विधायक जीता था। यह तमाम आँकड़े जदयू और नीतीश की चिन्ता बढ़ाते हैं। इससे भाजपा को जदयू पर हावी होने का मौका मिलेगा। नीतीश को अपने वोट बैंक पर अब ध्यान देना होगा, नहीं तो भविष्य में उनके सामने काफी दिक्कतें आ सकती हैं।

बेहद निराशाजनक है हिन्दी भाषी राज्यों के कॉलेजों का प्रदर्शन

कोरोना महामारी के बीच केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा शैक्षिक गुणवत्ता के विभिन्न मापदण्डों के आधार पर जून, 2020 में उच्च शैक्षणिक संस्थानों के लिए जारी की गयी राष्ट्रीय संस्थात रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरफ) सूची में कुछ महत्त्वपूर्ण बदलाव देखने को मिले हैं। वर्ष 2016 में जब पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर एनआईआरएफ सूची जारी की गयी थी, तो उसमें महज़ चार श्रेणियों को ही शामिल किया गया था। पिछले साल तक इस सूची में नौ श्रेणियाँ शामिल थीं; लेकिन इस बार इसमें डेंटल श्रेणी को भी जोड़ा गया है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय (अब शिक्षा मंत्रालय) ने इस साल जो 10 अलग-अलग श्रेणियों में रैंकिंग्स जारी की है वो समग्र, विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग, प्रबन्धन, कॉलेज, फार्मेसी, मेडिकल, वास्तुकला, कानून, तथा डेंटल हैं।

इस वर्ष जारी इंडिया रैंकिंग्स 2020 अब तक की पाँचवीं रैंकिंग हैं और हिन्दी भाषी राज्यों के लिए यह रैंकिंग्स कई मायनों में बेहद खास है। कॉलेज कैटेगरी को छोडक़र बाकी के नौ श्रेणियों में हिन्दी राज्यों के प्रदर्शन को अगर हम गौर से देखें, तो इसे सन्तोषजनक कहा जा सकता है; लेकिन कॉलेज श्रेणी में इन राज्यों का प्रदर्शन शुरुआत से लेकर अब तक बेहद निराशाजनक रहा है। जहाँ समग्र और विश्वविद्यालय की रैंकिंग्स श्रेणी में पर्याप्त भौगोलिक विविधता देखने को मिलती है, वहीं कॉलेज श्रेणी की रैंकिंग में कुछ ही राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश का प्रभुत्व है। आश्चर्य की बात यह है कि हिन्दी राज्यों में इस गम्भीर मुद्दे पर कोई ठोस विमर्श नहीं हो रहा है। इन प्रदेशों के मुख्यधारा की ज़्यादातर मीडिया संस्थानों ने या तो इसे केवल सूचनात्मक खबर बनाया है या फिर इस मुद्दे को व्यापक दृष्टिकोण से देखने में वे असफल रहे हैं।

एनआईआरएफ-2020 की सूची के कॉलेज कैटेगरी में टॉप 100 में 88 कॉलेज तीन राज्यों हैं, जबकि एक केंद्र शासित प्रदेश से है। दक्षिण के राज्यों में तमिलनाडु के सबसे ज़्यादा 32, केरल के 20, पूर्वी राज्य पश्चिम बंगाल के 7 तथा देश की राजधानी दिल्ली के 29 कॉलेजों ने देश के टॉप 100 कॉलेजों की सूची में महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया हैं। अगर हम टॉप 200 कॉलेजों की रैंकिंग्स को देखें, तो इन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश के कॉलेजों के आँकड़े और भी बढ़ जाएँ। यह बेहद दु:खद है कि देश के बड़े राज्यों में शामिल उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे हिन्दी भाषी राज्यों से एक भी कॉलेज टॉप 200 में शामिल नहीं हैं। झारखण्ड, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों की भी स्थिति बेहद निराशाजनक है। इन राज्यों का भी कोई कॉलेज टॉप 200 की सूची में शामिल नहीं हैं। अन्य हिन्दी राज्यों की अगर बात करें, तो हरियाणा का एक कॉलेज 49वें स्थान पर है और राजस्थान के दो कॉलेज टॉप 200 में शामिल हैं; लेकिन इन दोनों कॉलेजों की रैंकिंग्स 180 के ऊपर है।

बता दें कि एनआईआरएफ-2020 के समग्र सूची में लगातार दूसरे साल भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास शीर्ष पर बना हुआ है; जबकि विश्वविद्याल-रैंकिंग सूची में हर बार की तरह इस बार भी भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलूरु पहले स्थान पर बना हुआ है।

हिन्दी भाषी राज्यों में राष्ट्रीय स्तर पर कॉलेज कैटेगरी की इस रैंकिंग्स को लेकर एक गम्भीर विमर्श की ज़रूरत है; क्योंकि ऐसा नहीं है कि हिन्दी राज्यों के लिए कॉलेज कैटेगरी के आँकड़े केवल इसी साल निराशाजनक रहे हैं। अगर हम साल 2019 और 2018 की एनआईआरएफ सूची के कॉलेज श्रेणी के टॉप 100 कॉलेजों के रैंकिंग्स देखें, तो आँकड़े करीब 2020 जैसे ही लगते हैं। साल 2019 में भी टॉप 100 कॉलेजों की सूची में 88 कॉलेज और 2018 में 87 कॉलेज उन्हीं तीन राज्यों- तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल तथा केंद्र शासित राज्य दिल्ली के ही थे। साल 2019 में टॉप 100 कॉलेजों की सूची में 35 कॉलेज अकेले तमिलनाडु से थे, जबकि 2018 में इस राज्य का आँकड़ा 38 तक पहुँच गया था। साल 2019 में हिन्दी भाषी राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड से कोई भी कॉलेज टॉप 200 सूची में शामिल नहीं था। इस साल की तरह ही केवल राजस्थान के दो कॉलेजों ने इस रैंकिंग सूची में 180 के बाद अपनी जगह बनायी थी। अगर 2018 में भी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, झारखण्ड तथा छत्तीसगढ़ जैसे हिन्दी भाषी राज्यों से एक भी कॉलेज टॉप 200 कॉलेजों की सूची में शामिल नहीं था, जो बेहद दु:खद है। कुल मिलाकर अब तक कॉलेजों की रैंकिंग्स को देखें, तो सिर्फ 2017 में हिन्दी भाषी राज्यों के कॉलेजों ने टॉप 200 की सूची में सबसे ज़्यादा संख्या में जगह बनायी थी; लेकिन इनमें से कोई भी कॉलेज टॉप 100 में शामिल नहीं था। साल 2017 में जारी रैंकिंग सूची में हिन्दी राज्यों से कुल सात कॉलेजों ने अपना स्थान बनाया था, जिसमें उत्तर प्रदेश से दो, हरियाणा से तीन, मध्य प्रदेश से एक तथा झारखंड से एक कॉलेज शामिल था। बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड जैसे हिन्दी भाषी राज्यों से एक भी कॉलेज इस सूची में शामिल नहीं थे। साल 2016 में कॉलेज कैटेगरी की रैंकिंग को शामिल नहीं किया गया था। ध्यान रहे कि यहाँ राष्ट्रीय स्तर की इस रैंकिंग में हिन्दी राज्यों के कॉलेजों के प्रदर्शन की स्थिति के बारे में बात हो रही हैं, केंद्र शासित प्रदेशों के कॉलेजों के प्रदर्शन के बारे में नहीं। वैसे हिन्दी क्षेत्र में दिल्ली और चंडीगढ़ जैसे केंद्र शासित प्रदेश कॉलेज कैटेगरी के इस राष्ट्रीय स्तर की रैंकिंग्स में काफी बेहतर कर रहे हैं। दिल्ली का मिरांडा हाउस इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जो लगातार चौथे साल कॉलेज रैंकिंग्स में पहले पायदान पर बना हुआ है।

दरअसल एनआईआरएफ-2020 की कॉलेज रैंकिंग हिन्दी राज्यों के सन्दर्भ में कई सवाल खड़े करती है। लगता है कि इन राज्यों की सरकारों और यहाँ उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले निजी संस्थानों ने कॉलेज शिक्षा की गुणवत्ता पर कभी उतना ध्यान ही नहीं दिया, जितना उन्हें देना चाहिए था। इन राज्यों को बहुत वर्ष पहले ही कॉलेज ऑफ एक्सीलेंस बनाने चाहिए थे; जो दुर्भाग्य से आज तक नहीं बने।

सबसे दु:खद बात यह है कि इन राज्यों में जो पुराने प्रसिद्ध कॉलेज थे, वो भी आज राष्ट्रीय स्तर पर शैक्षणिक गुणवत्ता के विभिन्न पैमानों पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं। बिहार और झारखण्ड समेत कुछ अन्य हिन्दी भाषी राज्यों में कुछ कॉलेजों के भवन इतने जर्जर हैं कि वो कभी भी गिर सकते हैं। सच तो यही है कि ये कॉलेज एक लम्बे अरसे से आधुनिकीकरण की राह देख रहे हैं। हाल के वर्षों में इन राज्यों में कॉलेजों के इंफ्रास्ट्रक्टर में कुछ बदलाव देखने को मिले हैं; लेकिन अभी इस दिशा में बहुत सुधार करने होंगे। इन राज्यों के कॉलेजों में प्राध्यापकों की नियमित नियुक्तियाँ भी एक बड़ा मुद्दा है। सच तो यही है कि इन प्रदेशों में सन्बन्धित भर्तियाँ या तो लम्बे समय बाद निकलती हैं या फिर कोर्ट केस में फँस जाती हैं। बिहार समेत कुछ अन्य हिन्दी भाषी राज्यों में हज़ारों की संख्या में ऐसे छात्र भी हैं, जो उच्च शिक्षा के लिए कॉलेजों में नामांकन तो करा लेते हैं, लेकिन वे कॉलेज सिर्फ परीक्षा फार्म भरने और परीक्षा देने ही जाते हैं। ऐसे छात्र बस कहने को नियमित छात्र होते हैं, जबकि वास्तव में या तो ये प्रतियोगी परीक्षाओं में व्यस्त रहते हैं या फिर अपनी अन्य गैर-शैक्षणिक गतिविधियों में। इन्हें नियमित कक्षा में जाना समय की बर्बादी लगता है। हिन्दी राज्यों के ऐसे कॉलेजों में 75 फीसदी उपस्थिति का नियम ज़्यादातर कागज़ों पर ही है, व्यावहारिकता में यह नियम दम तोड़ रहा है। हिन्दी भाषी राज्यों में बहुत-से कॉलेजों के पास हॉस्टल जैसी ज़रूरी सुविधा भी नहीं है। यहाँ विज्ञान विषयों की प्रयोगशालाओं और कम्प्यूटर लैब्स की स्थिति भी अच्छी नहीं है। कुछ हिन्दी राज्यों के पुस्तकालयों में अद्यतन अध्ययन सामग्री तक नहीं है। इन राज्यों के कॉलेजों में नियमित कक्षाएँ भले हों या न हों, लेकिन यहाँ पर छात्र और शिक्षक राजनीति चरम पर देखने को मिलती है; जिसने शैक्षणिक माहौल को और खराब कर दिया है।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि शिक्षा भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची में शामिल समवर्ती सूची का एक विषय है, जिस पर राज्य और केंद्र दोनों कानून बना सकते हैं और दोनों इस क्षेत्र में बेहतरी के लिए काम कर सकते हैं। वर्तमान परिदृश्य में अगर हम अब तक की राष्ट्रीय रैंकिंग्स को समग्रता से मूल्यांकन करें, तो पाएँगे कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में केंद्र सरकार के कई संस्थान देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग श्रेणियों में लगातार बेहतर करते आ रहे हैं। राज्य सरकारों को, खासकर हिन्दी भाषी राज्यों को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काफी सुधार करने की ज़रूरत है, ताकि तमाम मापदण्डों को पूरा करते हुए छात्रों को गुणवतापूर्ण शिक्षा प्रदान की जा सके। शिक्षा के आज इस व्यावसायीकरण के दौर में हमारे देश में हज़ारों निजी शैक्षणिक संस्थान खुले हुए हैं; लेकिन इनमें से कुछ ही निजी संस्थान हिन्दी राज्य समेत देश के अन्य भागों में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं और वे राष्ट्रीय स्तर की इन तमाम रैंकिंग्स श्रेणियों में लगातार टॉप में बने हुए हैं। लेकिन आजकल ज़्यादातर निजी संस्थानों को परम्परागत कोर्सेज से कुछ खास लेना-देना नहीं हैं; उनका ज़ोर प्रोफेशनल कोर्सेज चलाकर अधिक-से-अधिक पैसा कमाना है। हिन्दी राज्यों में ऐसे ढेरों निजी संस्थान हैं, जिनका मकसद सिर्फ लाभ कमाना है और वे इन राज्यों में कॉलेजों से ज़्यादा विश्वविद्यालय खोलने में लगे हुए हैं।

अल्पसंख्यक समुदायों के कॉलेज

कॉलेज कैटेगरी की अब तक की राष्ट्रीय रैंकिंग्स को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि उच्च शिक्षा में बहुत बेहतर करने वाले तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल में ईसाई मिशनरियों द्वारा स्थापित और संचालित किये जाने वाले टॉप कॉलेजों की संख्या अच्छी-खासी है। पश्चिम बंगाल के सेंट जेवियर्स कॉलेज, तमिलनाडु के लोयोला और मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज और केरल के मर इवानियोस कॉलेज कुछ ऐसे ही उत्कृष्ट कॉलेज हैं, जो एनआईआरएफ-2020 के टॉप रैंकिंग में शामिल हैं। राजधानी दिल्ली में स्थित देश के बेहतरीन कॉलेजों में शुमार सेंट स्टीफेंस कॉलेज भी अल्पसंख्यक ईसाई मिशनरी का संस्थान है, जो इस वर्ष राष्ट्रीय रैंकिंग्स में चौथे पायदान पर है। हिन्दी भाषी राज्यों में भी ईसाई मिशनरियों के कुछ कॉलेज उच्च शिक्षा में अच्छा कार्य कर रहे हैं; लेकिन यह दु:खद है कि ये कॉलेज राष्ट्रीय रैंकिंग्स में स्थान नहीं बना पा रहे हैं। झारखण्ड के रांची शहर में स्थित सेंट जेवियर्स कॉलेज, बिहार में पटना वीमेंस कॉलेज तथा उत्तर प्रदेश के प्रयागराज (इलाहाबाद) शहर का इविंग क्रिश्चियन कॉलेज आदि कुछ ऐसे ही कॉलेज हैं। इन मिशनरियों द्वारा चलाये जाने वाले कुछ कॉलेजों को स्वायत्तता भी प्राप्त है। एनआईआरएफ सूची के कॉलेज कैटेगरी के अब तक के आँकड़े यही बयाँ कर रहे हैं कि वर्तमान में देश के बहुत सारे राज्यों में आज भी ईसाई मिशनरियाँ उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बेहतर कार्य कर रही हैं। सिख धर्म से सम्बन्धित दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी भी दिल्ली में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

श्री गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज और श्री गुरु गोबिंद सिंह कॉलेज ऑफ कॉमर्स सिख समुदाय के उत्कृष्ट अल्पसंख्यक कॉलेज हैं, जो एनआईआरएफ-2020 के कॉलेज कैटेगरी में टॉप रैंकिंग्स में शामिल रहे हैं। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी ने भी उच्च शिक्षा के लिए पंजाब समेत कुछ अन्य राज्यों में ढेरों कॉलेज खोले हैं, जो अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इस्लाम धर्म से सम्बन्धित व्यक्तिगत प्रयासों से कुछ बेहतरीन कॉलेजों को खोला गया है। केरल के कोझिकोड में फारूक कॉलेज और तमिलनाडु के तिरूचिरापल्ली शहर में स्थित जमाल मोहम्मद कॉलेज ऐसे ही कॉलेज हैं, जो एनआईआरएफ-2020 के कॉलेज कैटेगरी में क्रमश: 54वें और 88वें स्थान पर काबिज़ हैं। इन दोनों कॉलेजों को स्वायत्तता भी प्राप्त हैं। हिन्दी राज्यों में भी मुस्लिम समुदाय द्वारा उच्च शिक्षा से जुड़े कुछ अल्पसंख्यक कॉलेजों को संचालित किया जा रहा हैं, जैसे कि बिहार के गया शहर में स्थित मिर्जा गालिब कॉलेज तथा उत्तर प्रदेश के आजमढ़ में शिब्ली नेशनल कॉलेज; लेकिन इन कॉलेजों को अभी राष्ट्रीय रैंकिंग्स में स्थान बनाने में काफी वक्त लगेगा। यहाँ यह भी नोट करना ज़रूरी है कि बहुत सारे अल्पसंख्यक समुदायों के कॉलेजों को समय-समय पर सरकारी अनुदान मिलता है। अल्पसंख्यक समुदायों के शिक्षा के क्षेत्र में किये जाने वाले प्रयासों को अगर हम ऐतिहासिक सन्दर्भ में देखें, तो पता चलता है कि ईसाई और सिख समुदायों ने संगठन के तौर पर (जैसे कि मिशनरी और गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति को बनाकर) शिक्षा के बेहतर संस्थानों को स्थापित किया; लेकिन मुस्लिम समाज ने जो भी शैक्षणिक संस्थान शुरू किये, उनमें ज़्यादातर व्यक्तिगत आधार पर ही आरम्भ किये हैं, जिनमें मदरसों की संख्या ज़्यादा है। जैन और पारसी जैसे अल्पसंख्यक समुदायों ने भी उच्च शिक्षा में सराहनीय प्रयास किया है।

धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के अलावा रामकृष्ण मिशन और आर्य समाज से जुड़ी संस्थाओं ने भी उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि रामकृष्ण मिशन से जुड़े पश्चिम बंगाल के तीन कॉलेज रामकृष्ण मिशन विद्यामन्दिर, रामकृष्ण मिशन विवेकानंद सेंटेनरी कॉलेज तथा रामकृष्ण मिशन रेजिडेंशियल कॉलेज एनआईआरएफ-2020 की कॉलेज कैटेगरी सूची में टॉप 20 में शामिल हैं। आर्य समाज से जुड़े दयानंद एंग्लो वैदिक (डीएवी) प्रबन्धक समिति ने भी दिल्ली, हरियाणा और पंजाब समेत अन्य राज्यों में कई बेहतरीन कॉलेज खोले हैं, जो उच्च शिक्षा में अच्छा काम कर रहे हैं। एनआईआरएफ-2020 के कॉलेज कैटेगरी की सूची में 9वें स्थान पर काबिज़ दिल्ली का हंसराज कॉलेज इसका बेहतरीन उदाहरण है; जिसका प्रबन्धन इसी समिति द्वारा किया जाता है।

हिन्दी राज्यों में बेहतर सरकारी प्रयास की ज़रूरत

वर्तमान में हिन्दी राज्यों में बड़ी तादाद में विद्यार्थी कॉलेजों में पढ़ रहे हैं और अभी कुछ वर्षों में उच्च शिक्षा को लेकर इनमें आकर्षण बढ़ा हैं। दुर्भाग्य यह है कि इन राज्यों में उत्कृष्ट कॉलेज और बेहतर सुविधाएँ न होने से इन राज्यों के छात्र उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं। हिन्दी राज्यों के लिए दरअसल यह बेहद शर्म की बात है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे विशाल राज्यों से एक भी कॉलेज टॉप 200 में शामिल नहीं हैं। हिमाचल प्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखण्ड जैसे हिन्दी भाषी राज्यों का भी कोई कॉलेज टॉप 200 की सूची में शामिल नहीं है। अन्य हिन्दी राज्यों में हरियाणा और राजस्थान के कॉलेजों का प्रदर्शन भी निराशाजनक ही रहा है। यहाँ यह भी गौर करने वाली बात है कि तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल समेत अन्य कुछ राज्यों में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन करने वाले ईसाई मिशनरियों के कॉलेजों का प्रदर्शन भी हिन्दी राज्यों में बेहद खराब रहा है और इनके सारे कॉलेज एनआईआरएफ सूची के कॉलेज पिछले तीन वर्षों से रैंकिंग सूची से लगातार बाहर हैं। समय की माँग है कि हिन्दी भाषी राज्यों में राज्य सरकारों को उत्कृष्ट कॉलेज मॉडल बनाने पर ज़ोर देना चाहिए, ताकि इन राज्यों के छात्रों का पलायन रोका जा सके और उन्हें अपने ही राज्य में बेहतर शिक्षा दी जा सके। इस कार्य से छात्रों का आर्थिक बोझ तो कम होगा ही, साथ ही हिन्दी राज्यों की अर्थ-व्यवस्था भी थोड़ी मज़बूत होगी। हिन्दी राज्यों की सरकारों को यह भी चाहिए कि जो कॉलेज उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर कार्य कर रहे हैं, उन्हें वो लगातार सम्मानित करें और उन्हें ज़्यादा आर्थिक मदद देने के साथ-साथ स्वायत्तता भी दें; ताकि ऐसे कॉलेज उच्च शिक्षा के सभी ज़रूरी पैमानों पर खरे उतर सकें और दूसरे पिछड़े कॉलेज भी इससे सीख लेकर अपना प्रदर्शन सुधार सकें।

 एनआईआरएफ की रैंकिंग प्रक्रिया से आज देश के सभी कॉलेजों समेत अन्य कैटेगरी के शैक्षणिक संस्थानों को अपना प्रदर्शन सुधारने का मौका मिल रहा है और उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न शैक्षिक मापदण्डों पर खरा उतरते हुए प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है। आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में, जहाँ हर संस्थान अपने को श्रेष्ठ बताता है; भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा की सभी महत्त्वपूर्ण श्रेणियों में रैंकिंग प्रणाली को हर साल जारी करना उच्च शिक्षा के लिहाज़ से एक बेहतर कदम माना जा सकता है। हालाँकि उच्च शिक्षा से जुड़े कुछ विद्वानों तथा संस्थाओं ने इस रैंकिंग प्रणाली की आलोचना भी की है। उनका कहना है कि रैंकिंग में ज़्यादातर सरकारी संस्थानों को ही बेहतर दिखाया जा रहा है। शिक्षा मंत्रालय को रैंकिंग्स से जुड़ी तमाम उलझनों को शीघ्र ही दूर करना चाहिए; ताकि उच्च शिक्षा से जुड़े अधिकतर विद्वानों और संस्थानों को भरोसे में लिया जा सके। इस रैंकिंग को सन् 2015 में शुरू किया गया था और इस वर्ष जारी यह पाँचवीं रैंकिंग हैं। भारत सरकार द्वारा जारी होने के नाते इस रैंकिंग्स प्रणाली पर छात्रों एवं उनके अभिभावकों समेत उच्च शिक्षा से जुड़े लोगों व संस्थाओं का विश्वास धीरे-धीरे मज़बूत होगा और आने वाले समय में इस रैंकिंग प्रणाली का महत्त्व और अधिक बढ़ेगा। सम्भव है कि देश के बहुत सारे छात्र अच्छे करियर की उम्मीद में उन्हीं संस्थानों में प्रवेश लेने की कोशिश करें, जिन उच्च संस्थानों ने वरीयता सूची में बेहतर स्थान बनाया हो।

 (लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पीएचडी स्कॉलर हैं।)

वोटों के लिए छठ पूजा पर फिर सियासत

छठ पूजा को लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सही तो कहा था कि छठ पर्व को सार्वजनिक स्थल पर न मनाएँ और अपने घरों में छठ पूजा करें, ताकि कोरोना वायरस को फैलने से रोका जा सके। मुख्यमंत्री के बयान के सियासी मायने निकाले जाएँ, तो गलत है। कोरोना महामारी दिल्ली में फिर तेज़ी से फैल रही है। दिल्ली डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (डीडीएमए) ने भी कोरोना के बढ़ते मामले को देखते हुए छठ पूजा की सार्वजनिक स्थलों आपत्ति जतायी थी। लेकिन दिल्ली भाजपा ने इसे पूरी तरह से सियासी तूल दे दिया कि केजरीवाल छठ पूजा के विरोध में हैं। दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष आदेश गुप्ता ने कहा कि केजरीवाल पहले रामलीला फिर दीवाली पर पटाखे जलाये जाने का विरोध कर चुके हैं और अब उन्होंने छठ पूजा के नाम पर पूर्वांचल और बिहारवासियों की आस्था और श्रद्धा के पर्व को रोकना चाहा, जिसका भाजपा ने डटकर विरोध किया और दिल्ली में रहने वाले सभी पूर्वांचल और बिहारवासियों ने सोशल डिस्टेंसिंग के साथ छठ पर्व को धूमधाम से मनाया है। छठ पूजा के नाम पर भाजपा और आप पार्टी के बीच जो भी सियासी खेल खेला गया है। उसके पीछे 2022 के दिल्ली नगर निगम चुनाव की रणनीति बनाने की चाल है।

दिल्ली में पूर्वांचल और बिहारवासियों का अच्छा-खासा वोट बैंक है। तहलका संवाददाता को पूर्वांचल और बिहारवासियों ने बताया कि छठ पूजा आस्था का पर्व है। इस पर किसी भी राजनीतिक दल को सियासत नहीं करनी चाहिए। लेकिन क्या करें? अब देश में आस्था और धर्म के नाम पर ही वोट बैंक की राजनीतिकी जान लगी है।

पूर्वांचल निवासी प्रत्युष सिंह का कहना है कि दीपावली के बाद बिहार और पूर्वांचल में छठ का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है; लेकिन इस बार कोरोना वायरस का सभी त्योहारों पर साया रहा है। ऐसे में हमें सावधानी तो बरतनी ही होगी, ताकि इस महामारी से बचा जा सके। उनका कहना है कि सियासत के हटकर देखा जाए तो मुख्यमंत्री केजरीवील ने ठीक ही कहा कि छठ की पूजा घर में ही करें, ताकि महामारी के मामले और न बढ़ें। बिहार निवासी सुदामा तिवारी का कहना है कि इस बार की छठ पूजा यादगार रही। क्योंकि कोरोना के डर सभी को सता रहा है। शासन-प्रशासन की पैनी नज़र रही है। इस बार अधिकतर लोगों ने अपने घरों में ही पूजा-अर्जना कर छठ का पर्व मनाया है। उनका कहना है कि यह तो जगज़ाहिर है कि कोरोना का कहर दिल्ली में ही नहीं, सारे देश में फिर से तेज़ी से फैल रहा है।

आम आदमी पार्टी के सीनियर नेता ने तहलका संवाददाता को बताया कि आगामी दिल्ली नगर निगम के चुनाव के पूर्व ही भाजपा को अपनी हार अभी से दिख रही है, सो उसके नेता अभी से पूर्वांचल और बिहारवासियों को साधने में लगे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि आम आदमी पार्टी का उन्होंने 2020 के विधानसभा के चुनाव में खुलकर साथ दिया है और अब आगामी नगर निगम चुनाव में भी उनका समर्थन मिलेगा। यह भाजपा भी भली-भाँति जानती है, सो अब वह धर्म और आस्था के नाम पर ओछी राजनीति कर रही है। पिछले कई साल से आम आदमी पार्टी छठ पर्व पर बेहतर इंतज़ाम करती रही है। दिल्ली भाजपा के पूर्व अध्यक्ष व सांसद मनोज तिवारी का कहना है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल बाज़ारों, होटलों और सिनेमाघरों को खोलने की बात करते है। साप्ताहिक बाज़ारों में जमकर भीड़ है। शराब की दुकानों में सारे नियमों की धज्जियाँ उड़ायी जा रही हैं। इस पर मुख्यमंत्री को कोई ऐतराज नहीं है। लेकिन पूर्वांचल और बिहार के लोगों से न जाने क्या नफरत है कि वह उनके त्योहार पर रोक लगाना चाहते हैं। यह पूरी तरह से साज़िश का हिस्सा रहा है।

इस पर दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा कि कोरोना के कहर के चलते अभी स्कूलों और कॉलेजों को नहीं खोला जा रहा है। शादियों में भी 50 से ज़्यादा लोगों को जाने की इजाज़त नहीं है। इसलिए हमने छठ पर्व पर भी घरों में पूजा-अर्चना करने की बात की है।

पूर्वांचल मोर्चा के नवीन कुमार का कहना है कि सियासतदानों से ज़्यादा पूर्वांचल और बिहारवासी जानते हैंै कि मौज़ूदा समय में दिल्ली में कोरोना का संक्रमण फिर बढ़ गया है। सियासी लोग बे-वजह मामले को तूल दे रहे हैं। लोगों ने अपने परिवार के साथ घर पर अपने सुलभ तरीके से जल-निधि बनाकर उगते सूर्य को अघ्र्य देकर छठ पर्व मनाया है। उनका भी मानना है कि छठ पूजा घर में करने की सलाह पर कुछ लोगों द्वारा दिल्ली सरकार का विरोध करना भी सियासत का हिस्सा था।

बढ़ती महामारी पर बेबस सरकार

देश में कोरोना वायरस के मामले फिर से बढऩे लगे हैं। दिल्ली, राजस्थान, गुजरात, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार में कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों को आशंका है कि आने वाले दिनों में नये मरीज़ों की संख्या बढ़ सकती है। क्योंकि एक तरफ बिहार में विधानसभा चुनाव के चलते जमकर रैलियाँ की गयीं, तो दूसरी तरफ त्योहारी सीज़न के दौरान देश भर के बाज़ारों में भीड़ इकट्ठी हुई।

देश में दोबारा बढ़ते मामलों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 नवंबर को कोरोना वायरस बढऩे वाले राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ वर्चुअल बैठक करके ताज़ा स्थिति की समीक्षा की। इस बैठक में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन के अलावा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बधेल और गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने हिस्सा लिया। बैठक में अमित शाह ने मुख्यमंत्रियों को कोरोना पर काबू पाने के तीन तरीके बताये।

गृहमंत्री ने मुख्यमंत्रियों से कहा कि वे सुनिश्चित करें कि कोरोना वायरस की महामारी के चलते मृत्यु दर एक फीसदी से कम हो और अगर मामले बढ़ते हैं, तो यह दर पाँच फीसदी से कम हो। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री राज्यों में कंटेनमेंट जोन की रणनीति को नया रूप दें। उन्होंने यह भी कहा कि हर राज्य के अधिकारी हर हफ्ते रेड जोन का दौरा करके वहाँ के आँकड़े इकट्ठे करें और उसके हिसाब से किसी विशेष क्षेत्र की स्थिति को बदला जाना चाहिए।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि राष्ट्रीय राजधानी में कोविड-19 की तीसरी लहर की अधिक गम्भीरता के कई कारण है, जिसमें प्रदूषण प्रमुख है। उन्होंने प्रधानमंत्री से अनुरोध किया कि जब तक शहर में संक्रमण की तीसरी लहर का कहर जारी है, तब तक दिल्ली स्थित केंद्र सरकार द्वारा संचालित अस्पतालों में कोरोना वायरस के मरीज़ों के लिए 1000 अतिरिक्त आईसीयू बिस्तर आरक्षित किये जाएँ।

प्रबन्धन की कमी

अब जब कोरोना मरीज़ों की संख्या फिर तेज़ी से बढ़ रही है, तो राज्य सरकारें सख्ती पर उतर आयी हैं। केंद्र व राज्य सरकारें अपनी फिक्रमंदी ज़ाहिर कर रही हैं। यहाँ राज्य सरकारों की कार्यशैली पर भी सवाल उठता है। गर्मियों में जब कोरोना के मामले लगातार तेज़ी से बढ़ रहे थे, तभी स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने सचेत कर दिया था कि आने वाली सर्दियों और त्योहारी मौसम में कोरोना के मामले बढ़ सकते हैं। दिल्ली में फिर कोरोना वायरस तेज़ी से फैल रहा है। नीति आयोग ने पहले ही राजधानी में आने वाले दिनों में प्रति 10 लाख की आबादी में 500 लोगों के संक्रमित होने की आशंका ज़ाहिर की थी। दिल्ली में कोरोना के बढ़ते मामलों को लेकर स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन को सार्वजनिक तौर पर यह स्वीकारने में भी कई दिन लगे कि दिल्ली में कोरोना की तीसरी लहर आ चुकी है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने हाल ही में एक कार्यक्रम में कहा कि हमने कभी यह नहीं सोचा था कि कोरोना चला गया है; लेकिन यह उम्मीद नहीं थी कि इस तरह फिर वापस लौटेगा। अक्टूबर के पहले सप्ताह में संक्रमण की दर पाँच-छ: फीसदी रही, तब लगा था कि वह कम हो गया। विशेषज्ञ कह रहे थे कि प्रदूषण बढऩे के साथ-साथ कोरोना के मामले भी बढ़ेंगे। मौसम में बदलाव व त्योहारी मौसम में कोरोना के मामलों में बढ़ोतरी पर मुख्यमंत्री का यह कहना कि कोरोना इस तरह वापस लौटेगा, ऐसी उन्हें उम्मीद नहीं थी। यह हैरत में डालने के साथ-साथ यह भी बताता है कि प्रशासन ने कोरोना को कितनी आसानी से लिया। शुरू में केरल में कोरोना पर काबू पाने की मिसाल देश भर में दी जाने लगी थी। लेकिन वहाँभी लोगों ने ओणम का त्योहार धूमधाम से मनाया और उसके बाद वहाँ कोरोना के मामलों में वृद्धि की खबरें आने लगीं। केरल सरकार ने भी माना कि कोरोना के मामलों के बढऩे की एक वजह त्योहार भी है। बिहार की राजधानी पटना में दशहरे के बाद कोरोना के मामलों में बढ़ोतरी देखी गयी। यह उदाहरण जब राज्य सरकारों के सामने हैं, तो सवाल उठता है कि राज्य सरकारों ने दीपावली, छठ पूजा आदि त्योहारों के मद्देनज़र कोरोना के फैलाव को रोकने की तैयारी क्यों नहीं की? बाज़ारों में भी विकट भीड़ उमड़ती रही और प्रशासन ने ऐसा कोई उपाय नहीं किया, जिससे इस लोगों से सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कराया जा सके। क्या सरकारें सितंबर से ही स्थानीय स्तर पर ऐसी कोई योजना बनाने पर काम नहीं कर सकती थीं, जिससे वार्ड स्तर पर स्थानीय विधायकों, निगम पार्षदों, रेजीडेंस वेलफेयर एसोसिएशन के सदस्यों के सहयोग से बाज़ार में लोगों की खरीदारी की ऐसी रूपरेखा तैयार की जाती, जिससे भीड़ इकट्ठी ही नहीं होती। कोरोना महामारी में भीड़ प्रबन्धन के सन्दर्भ में अभी तक सरकारें पशोपेश वाली स्थिति में ही नज़र आ रही हैं। एक तरफ उनके सामने लोगों की आजीविका, उनकी और देश की कमज़ोर आर्थिक स्थिति के आँकड़ें घूमते रहते हैं, तो दूसरी तरफ चुनावों में जीत का स्वार्थ नेताओं, सरकारों को बेपरवाह बनाते हैं। प्रधानमंत्री आये दिन अवाम को सीख देते रहते हैं कि कोरोना को हराने के लिए मास्क व दो गज़ की दूरी ज़रूरी है। लेकिन हाल में सम्पन्न बिहार विधानसभा चुनाव में उन्होंने भी ताबड़तोड़ रैलियाँ कीं।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि कोरोना महामारी को हराने के लिए जनता का सहयोग भी ज़रूरी है, लेकिन प्रशासन भी जनता में व्यवहार परिवर्तन के लिए गम्भीरता से लगातार प्रयास जारी रखे। प्रशासन ने शुरू में लॉकडाउन के दौरान सख्ती बरती, लेकिन जैसे-जैसे अनलॉक की प्रक्रिया आगे बढ़ती गयी, वैसे-वैसे प्रशासन सुस्त पड़ता गया और जनता लापरवाह होती गयी। प्रशासन ने मान लिया कि कोरोना के मामलों में कमी आने का मतलब है कि अब कोरोना की विदाई का वक्त आ गया है और जनता को भी लगा कि संक्रमण दर में कमी आने का अर्थ है कि घरों से बाहर बे-वजह घूमना। बहुत-से लोग मास्क से नाक व मुँह को न ढककर, उसे गले में लटकाकर घूमने लगे, बिना मास्क के घूमने लगे। अब जब हालात बेकाबू हो गये हैं तो कई राज्य सरकारों ने सीमित कफ्र्यू लगाने का ऐलान कर दिया है। शादी में मेहमानों की संख्या भी कम कर दी गयी। मास्क नहीं लगाने पर ज़ुर्माने की राशि 500 रुपये से बढ़ाकर 2000 रुपये कर दी गयी। सार्वजनिक स्थल पर थूकने, सिगरेट पीने पर भी 2000 रुपये का ज़ुर्माना लगाने का नियम बना दिया गया। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का कहना है कि ज़ुर्माना राशि बढ़ाने से लोग मास्क पहनेंगे और कोरोना पर काबू पाने में मदद मिलेगी। यह कदम कितना कारगर साबित होगा, यह तो वक्त ही बतायेगा।

कोरोना-टीके पर मँडराते सवाल

इन दिनों विश्व भर में 73 टीकों (वैक्सीन) पर अलग-अलग चरणों में काम चल रहा है। इनमें से छ: का आपात इस्तेमाल शुरू हो गया है। अधिक चर्चा पाँच टीकों की हो रही है। फाइजर टीका बनाने वालों का दावा है कि यह 95 फीसदी असरदार है और दिसंबर में आ सकता है। मॉडर्ना टीके को लेकर दावा है कि यह 94.5 फीसदी प्रभावशाली है। वैक्सीन का तीसरा ट्रायल शुरू हो चुका है। एस्ट्राजेनका के तीसरे चरण के नतीजों का इंतज़ार है। इसकी फरवरी में आने की सम्भावना बतायी जा रही है। रूस में बने स्पुतनिक टीके का इस्तेमाल वहाँ हो रहा है; लेकिन भारत में इसका दूसरे और तीसरे चरण का परीक्षण किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि इस टीके की दो खुराकें दी जाएँगी। इधर चीन ने कोरोना की एक सुपर टीका बनाने का दावा किया है। यह टीका 10 लाख लोगों को लगाया जा चुका है। और किसी में कोई गम्भीर नुकसान भी नज़र नहीं आया है। बेशक इस टीके के परीक्षण का अन्तिम चरण अभी पूरा नहीं हुआ है, मगर चीन की सरकार ने आपात स्थिति में इस प्रायोगिक टीके को मरीज़ों को लगाने की अनुमति दे दी है।

दुनिया बड़ी उम्मीद के साथ कोरोना-टीके का इंतज़ार कर रही है, मगर यह वैक्सीन कितने समय तक लोगों को कोरोना से सुरक्षा कवच प्रदान करेगी, इसे लेकर किसी के पास स्पष्ट जवाब नहीं है। इस बाबत कई अटकलें लगायी जा रही हैं, मसलन वैक्सीन की एक खुराक के बाद अगले साल बूस्टर खुराक की ज़रूरत पड़ेगी। यहाँ भी तस्वीर साफ नहीं है। दरअसल कोरोना-टीके के प्रदर्शन और उसकी क्षमता का सटीक आकलन होना अभी शेष है। यह सवाल भी अपनी जगह बना हुआ है कि क्या टीका आने के बाद कोरोना से प्रभावित गम्भीर मरीज़ों की संख्या कम हो जाएगी? और अगर होगी, तो कितने फीसदी? इसी तरह कोरोना-टीका बनाने वाली कम्पनियों के साथ अमेरिका व ब्रिटेन जैसे विकसित मुल्कों ने पहले ही अधिक मात्रा में वैक्सीन खरीदने के करार कर लिये हैं। गरीब देश इसे पाने की दौड़ में काफी पीछे हैं।

कोरोना पर सियासत हावी

कोरोना महामारी के बढ़ते मामलों को लेकर सरकार ने चिन्ता व्यक्त करके सभी देशवासियों को चिन्ता में डाल दिया है। चिन्तित लोगों का कहना है कि कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों पर फिर अब सियासत हो रही है। क्योंकि अब त्योहार निकल गये हैं और राज्यों के चुनाव भी हो चुके हैं। दुर्गा पूजा से लेकर दीपावली तक और बिहार विधानसभा चुनाव से लेकर अन्य  11 राज्यों के उप चुनावों के दौरान देश में अप्रत्याशित तरीके से देश में कोरोना के मामले घटने लगे थे। जैसे ही चुनाव परिणाम घोषित हुए, बिहार में सरकार बनी और त्योहारों की रौनक कम हुई; फिर से कोरोना के मामले बढऩे लगे।

तहलका संवाददाता को कोरोना महामारी को लेकर जानकारों और डॉक्टरों ने बताया कि अगर देश में इसी तरह सियासत होती रही, तो आने वाले दिनों में कोरोना भयंकर रूप ले लेगा। जहाँ आपदाएँ, विपदाएँ आती हैं, वहाँ कुछ व्यापारिक और सियासी लोग अपना लाभ देखते हैं। दिल्ली के डॉक्टरों का कहना है कि अचानक कोरोना के मामले बढऩे के पीछे दवाओं और वैक्सीन का बाज़ारीकरण है।

मौज़ूदा समय में देश में कोरोना को लेकर लोग आशंकित है कि कोरोना की वापसी में कहीं कोई अनहोनी न हो जाए। सरकार की ओर से कोरोना के बचाव के लिए जो कदम उठाये जा रहे हैं, उससे अधिक परेशान करने के लिए भी प्रयास किये जा रहे हैं। जैसे मास्क न लगाने पर दो हज़ार रुपये का ज़ुर्माना, एक राज्य से दूसरे राज्य में आने-जाने पर कोरोना की जाँच कराना आदि। सरकार की ओर से धरातल पर न के बराबर काम हो रहा है। हो-हल्ला इस कदर हो रहा है कि लोगों के बीच हाहाकार मचा हुआ है।

कोरोना को रोकने में जो भी सरकारी सिस्टम लगा है, वह काफी हद तक नाकाम रहा है। कोरोना के कारण अन्य बीमारियों से पीडि़त मरीज़ों को सही उपचार नहीं मिल पा रहा है। कोरोना वायरस के भय से लोग बड़े शहरों में अपने मरीज़ परिजनों का इलाज कराने से कतरा रहे हैं। हृदय के मरीज़ों, कैंसर, किडनी और लीवर सहित तामाम गम्भीर रोगों से पीडि़त मरीज़ों के इलाज के नाम पर सरकार की ओर से कारगर कदम नहीं उठाये जा रहे हैं, जिसके कारण मरीज़ों की हालत दिन-ब-दिन गम्भीर रोग होती जा रही है और असमय मरने वालों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है।

कोरोना बढ़ते मामले को लेकर जाने-माने ईएनटी विशेषज्ञ डॉक्टर एम.के. तनेजा का कहना है कि देश में हड्डी रोग, नैत्र रोग, त्वचा रोग, गैस्ट्रो सहित अन्य पैथियों के चिकित्सक सरकारी दबाव में या अपनी नौकरी बचाने के लिए आठ महीने से कोरोना वायरस से संक्रमितों का उपचार करें जा रहे हैं; जबकि सच्चाई यह है कि कोरोना के इलाज में चेस्ट के मरीज़ों को मेडिसिन फिजिशियन की ज़रूरत है, जो देश में काफी कम है। तो ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकती है कि कोरोना के मरीज़ों का सही तरीके से इलाज हो रहा है? डॉक्टर तनेजा का कहना है कि पीजी और अंडर पीजी करने वालों को पहले प्रशिक्षित करें और उन्हें अकादमिक सुविधाएँ दी जाएँ, तो वे भी काफी हद तक मरीज़ों का इलाज कर सकते हैं। अन्यथा साधनों और योग्यता के अभाव में कोरोना का उपचार दिखावा होगा। उनका कहना है कि क्षेत्रीय और ज़िला स्तरीय अस्पतालों में कोरोना संक्रमितों के इलाज की तामाम बुनियादी सुविधाओं का अभाव है।

कोरोना वायरस की आड़ में चिकित्सा से जुड़े बहुत-से लोगों में मनमानी पनपी है। कोरोना रोग के अलावा किसी अन्य रोगियों को देखने से पहले सरकारी अस्पताल के डॉक्टर कोरोना की जाँच कराने का दबाव भी बनाते हैं, जिससे काफी लोग अपनी दूसरी बीमारियों का इलाज अपने तरीके से करने में लगे हैं। एम्स के डॉक्टरों का कहना है कि कोरोना एक संक्रमित और छुआछूत की बीमारी है, जिसे सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग) और जागरूकता के माध्यम से कम किया जा सकता है। सरकार इसको करने-कराने में नाकाम है। कोरोना के नाम पर पैसे का जमकर दुरुपयोग किया जा रहा है। कोविड सेंटर बनाये जाने से लेकर विज्ञापन के ज़रिये प्रचार-प्रसार करने तक में जमकर घोटाला किया जा रहा है, जिसका कोरोना की रोकथाम से लेकर दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है।

  बताते चलें कि कोरोना के टीके को लेकर लोगों में एक उम्मीद है कि आने वाले दिनों में कोरोना-टीका आ जायेगा, जिससे कोरोना वायरस से राहत मिलेगी। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं और कोरोना वायरस से निपटने को लेकर उसकी साख कमज़ोर हो रही है।

जानकारों का कहना है कि अगर कोरोना वायरस का टीका आता है, तो इसका मतलब यह नहीं कि जादू की छड़ी हाथ आ जाएगी, जिससे एक साथ कोरोना भगा दिया जाएगा। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व संयुक्त सचिव डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि कोरोना वायरस को रोकने में सरकार के प्रयास सराहनीय नहीं हैं। सरकार को सब मालूम है कि कोरोना वायरस एक घातक महामारी है और लम्बे समय तक रहने वाली है। इसमें विशेष सावधान रहने की ज़रूरत है; लेकिन सरकार अपने हिसाब से काम करती है। सियासत करती है। बिहार के विधानसभा चुनाव और दूसरे 11 राज्यों के उप चुनाव के साथ-साथ त्योहारों के दौरान जो भीड़ देखी गयी है, वो भी बढ़ते कोरोना का एक कारण है। डॉक्टर बंसल का कहना है कि कोरोना की जाँच तो शहरों में हो रही है, सो मामले भी आ रहे हैं, अगर छोटे कस्बों, गाँवों में जाँच हो, तो मरीज़ों की संख्या और भी बढ़ सकती है। मैक्स अस्पताल के कैथ लैब के डायरेक्टर विवेका कुमार का कहना है कि कोरोना के साथ-साथ दूसरे मरीज़ों का भी समय पर इलाज होना चाहिए, ताकि किसी अन्य बीमारी के मरीज़ों की स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्कत न बढ़े और न किसी की इलाज के अभाव में मौत हो।

कोरोना के मामलों में गिरावट भले ही न आयी हो, लेकिन कोरोना वायरस की जाँच के नाम पर देश में प्रमाणित और गैर-प्रमाणिक लैबों का कोरोबार भी खूब बढ़ा है। जबसे सरकार ने कहा है कि कोरोना वायरस की जाँच आम नागरिक स्वेच्छा से कहीं भी करवा सकते हैं, तबसे लोगों ने अपनी जाँच स्वयं ही लैबों में करवानी शुरू कर दी है, जिससे निजी लैब वालों का कारोबार जमकर फल-फूल रहा है।

दवा कम्पनी में काम करने वाले सचिन का कहना है कि कोरोना के बढ़ते मामलों के पीछे कहीं कोरोना-टीके का बाज़ार मज़बूत करने की साज़िश तो नहीं है? क्योंकि कोरोना-टीका बनाने और सफलता का दावा करने में तामाम नामी-गिरामी कम्पनियाँ लगी हुई हैं। इन कम्पनियों का मकसद है कि कैसे इस महामारी में उन्हें फायदा मिले। इसे लेकर भी एक सुनियोजित तरीके से लोगों में भय का माहौल तैयार किया जा रहा है, ताकि टीके का बाज़ार गर्म रहे, जिसके मार्फत जनता का पैसा खींचा जा सके। आयुर्वेदाचार्य डॉक्टर दिव्यांग देव गोस्वामी का कहना है कि कोरोना को लेकर जो वैक्सीन तैयार की जा रही है, वह आधुनिक चिकित्सा पद्धति की सबसे बड़ी खोज होगी। लेकिन लोगों को यह नहीं समझ लेना चाहिए कि इससे कोरोना वायरस का पूरा उपचार सम्भव हो गया है; यह आसानी से जाने वाला नहीं है। चेचक, हैजा, प्लेग और खसरा जैसी बीमारियों के टीके आने बाद भी ये बीमारियाँ अभी भी काफी परेशान कर रही हैं।

जिस प्रकार कोरोना को लेकर फिर से हाहाकार भरा माहौल बना हुआ है, उससे अधिक माहौल और उत्सुकता कोरोना-टीके को लेकर है। लेकिन भारत एक बड़ी आबादी वाला देश है और अगर टीका आ भी गया, तो भी यहाँ पर इस महामारी से निपटने में समय लगेगा।

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन का कहना है कि स्थानीय तौर पर विकसित एक कोरोना-टीके का परीक्षण अन्तिम चरण में है। वहीं भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् (आईसीएमआर) और निजी कम्पनी भारत बायोटेक ने नवंबर में कोराना-टीके के तीसरे चरण का परीक्षण शुरू कर दिया है। माना जा रहा है कि यह टीका विदेशी कम्पनियों द्वारा तैयार से पहले भारतीयों को मिलेगा।

नेशनल मेडिकल फोरम के चैयरमेन डॉक्टर प्रेम अग्रवाल का कहना है कि सरकार को सारा ज़ोर कोरोना वायरस को रोकने में लगाना चाहिए। कोरोना-टीका जब आयेगा, तब आयेगा। इस समय तो कोरोना वायरस के तेज़ी से फैलते संक्रमण को रोकना ज़रूरी है, जिसके लिए एक बेहतर पहल की आवश्यकता है। क्योंकि कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण के कारण पनपी बेरोज़गारी से लोग आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, जिससे उनका मानसिक तनाव बढ़ रहा है और सामाजिक ताना-बाना बिगड़ रहा है। इंडियन हार्ट फांउडेशन के चैयरमेन डॉक्टर आर.एन. कालरा का कहना है कि कोरोना एक नयी बीमारी है। इस बीमारी को लेकर तामाम शोध चल रहे हैं। इसकी दवा आने में समय लग सकता है। सर्दी के मौसम में अगर कोरोना के फैलाव को रोकना है, तो मास्क लगाने के साथ-साथ आपसी दूरी का विशेष ध्यान देना होगा; अन्यथा घातक परिणाम सामने आ सकते हैं।

आन्दोलन से पंजाब की आर्थिक बदहाली

पंजाब में कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के रेल रोको अभियान से राज्य में आर्थिक बदहाली जैसी स्थिति हो गयी है। लगभग दो माह से राज्य में मालगाडिय़ों की आवाजाही पूरी तरह से बन्द है। सैकड़ों डिब्बे माल से लदे हैं, जबकि इतना ही सामान बिना लदा पड़ा हुआ है। चूँकि किसान रेल पटरियों पर धरना दे रहे हैं। ऐसे में रेलवे विभाग सुरक्षा के नज़रिये से कोई खतरा नहीं उठाना चाहता।

रेल रोको अभियान से अब तक पंजाब को ही 40 हज़ार करोड़ रुपये से अधिक नुकसान हो चुका है। पंजाब सरकार आर्थिक बदहाली से घुटनों पर आ चुकी है। राज्य की माली हालत और ज़्यादा खराब न हो इसके लिए वह रेल यातायात को बहाल कराना चाहती है। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह कृषि कानूनों के खिलाफ और किसानों के साथ खड़े हैं; मगर राज्य की मौज़ूदा स्थिति से वह भी डरे हुए हैं। 21 नवंबर को चंडीगढ़ में किसान संगठनों के प्रतिनिधियों से उनकी बातचीत कुछ हद तक सफल रही। किसान नेता 15 दिन के लिए रेलवे ट्रेक से हटने पर सहमत हो गये। 23 नवंबर से 10 दिसंबर तक राज्य में रेल यातायात बहाल होने का रास्ता खुल गया है। किसान केंद्र सरकार से (मुख्यत: प्रधानमंत्री से) रू-ब-रू होना चाहते हैं। फैसला अब केंद्र सरकार के हाथ में है कि वह क्या करती है?

यह विकल्प कितना कारगर रहता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा, लेकिन इससे एक बात पुष्ट होती है कि बातचीत से समस्या का समाधान सम्भव है। जब राज्य का मुख्यमंत्री अपनी ओर से पहल करते हुए बातचीत करके कुछ हद तक सफल हो सकता है, तो ऐसी पहल के द्वारा प्रधानमंत्री ज़्यादा असरदार और सफल साबित हो सकते हैं। लेकिन वह ऐसा नहीं कर रहे, जिससे केंद्र सरकार की मंशा पर सवालिया निशान लगते हैं। जिस न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी किसान चाहते हैं, वह उसे मंज़ूर नहीं है। यह पक्की बात है कि केंद्र सरकार अब पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और अन्य गेहूँ-चावल उत्पादक राज्यों से पूरा उत्पाद नहीं खरीदना चाहती। वह आधे से ज़्यादा उत्पाद की खरीद को निजी हाथों में देना चाहती है। वह इस खरीद की ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है। यही वजह है कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने में हीला-हवाली कर रही है।

सरकारी व्यवस्था अभी से कितनी गड़बड़ा रही है? इसे एक छोटे-से उदाहरण से समझा जा सकता है। किसान रणबीर सिंह पाल ने 18 अक्टूबर को सरकारी मण्डी में धान बेचे; लेकिन एक महीना बीतने के बाद भी अभी तक उनके खाते में पैसे नहीं आये हैं। वह कहते हैं पहले 24 घंटे के अंदर में नकद भुगतान होता था। किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं थी। नये कृषि कानून बनने के दौरान पहली ही फसल में यह हाल है, तो आगे क्या होगा? रणबीर सिंह जैसे बहुत-से किसानों की यही व्यथा है। उन्हें लगता है किसानों के अच्छे नहीं, बुरे दिन शुरू हो गये हैं। जब सरकारी खरीद पर भुगतान का यह हाल है, तो निजी कारोबारी उनका क्या हाल करेंगे? यह सोचने की बात है। जब हमारे उत्पाद का पैसा ही समय पर नहीं मिलेगा, तो खेती करना ही सम्भव नहीं होगा। उनकी राय में केंद्र सरकार के तीनों कृषि कानून किसानी और किसानों को खत्म करने वाले हैं।

राज्य के औद्योगिक शहर लुधियाना में सैकड़ों इकाइयाँ कच्चे माल की कमी के चलते बन्द होने के कगार पर हैं। ऐसे में फिर से प्रवासी मज़दूरों का पलायन भी हो रहा है। ज़रूरी सामग्री ट्रकों के माध्यम से पहुँच ज़रूर रही है, लेकिन उससे ज़रूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं। रेलवे को तो हज़ारों करोड़ का नुकसान हो रहा है, बावजूद इसके केंद्र सरकार ने किसान संगठनों के प्रतिनिधियों से बातचीत करके हल निकालने का विकल्प नहीं अपनाया है। किसान संगठन बातचीत के लिए तैयार हैं, लेकिन सरकार कृषि कानूनों पर किसानों के विरोध पर ज़रा भी गम्भीर नहीं है। उसे लगता है कि धीरे-धीरे आन्दोलन कमज़ोर होकर अपने आप ही दम तोड़ देगा।

आन्दोलन कमज़ोर ज़रूर हुआ है, लेकिन किसानों ने हिम्मत नहीं हारी है। 26 और 27 को राजधानी दिल्ली कूच करने की ज़बरदस्त तैयारी है। भारतीय किसान यूनियन (एकता-उग्राहन) की ओर से हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को पत्र लिखकर दिल्ली कूच के लिए उन्हें राज्य में प्रवेश की अनुमति माँगी गयी। लेकिन जैसे ही किसानों ने दिल्ली कूट ककिया, उन पर पुलिस ने कई तरह से बल प्रयोग किया। यूनियन के मुताबिक, लाखों किसान राज्य के डबवाली और खन्नौरी सीमा से हरियाणा होकर दिल्ली पहुँचेंगे। भाकियू (एकता-उग्राहन) के सचिव सुखदेव सिंह, कोकरी कलाँ ने कहा कि हम टकराव नहीं चाहते, शान्तिपूर्ण तरीके से आन्दोलन करना चाहते हैं। दिल्ली दरबार को बताना चाहते हैं कि कृषि कानूनों के खिलाफ कितना रोष है? अगर हरियाणा सरकार अनुमति देगी तो ठीक, वरना हमें जहाँ पुलिस रोकेगी वहीं धरने पर बैठ जाएँगे। इससे राज्य की पूरी व्यवस्था चरमरा जाएगी। किसान दिल्ली को जोडऩे वाले पाँच राष्ट्रीय राजमार्गों को पूरी तरह जाम करने का इरादा रखते हैं। प्रस्तावित आन्दोलन के मद्देनजर केंद्र ने अभी तक इसे टालने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किये हैं। यह आन्दोलन की अच्छी बात कही जा सकती है कि किसान शान्तिपूर्वक आन्दोलन कर रहे हैं। किसान संगठन चाहते हैं कि जिस तरह से केंद्र सरकार ने तीनों कृषि कानून बनाये हैं, उसी तरह से एक और चौथा कानून भी बना दिया जाए, जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने की गारंटी हो।

फिलहाल बड़ा मुद्दा न्यूनतम समर्थन मूल्य का ही है, जिस पर केंद्र सरकार गारंटी देना नहीं चाहती और किसान इसे कानूनी मान्यता दिलाने के पक्षधर है। पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष सुनील जाखड़ के मुताबिक, केंद्र सरकार की हठधर्मिता की वजह से आन्दोलन इतना लम्बा खिच रहा है।

कांग्रेस नये कृषि कानूनों के खिलाफ है। वह किसानों की माँगों को जायज़ मानती है। पंजाब की अर्थ-व्यवस्था आन्दोलन की वजह से पटरी से उतर रही है। कृषि प्रधान राज्य पंजाब में खाद, यूरिया और अन्य संकट पैदा हो रहे हैं। नवंबर के अन्त में इनकी माँग और ज़्यादा बढ़ेगी। इसे देखते हुए राज्य सरकार ने प्रयास किये। मुख्यमंत्री के कहने पर किसानों ने 15 दिन रेलवे सेवा बहाल करने पर सहमति दे दी। इस दौरान केंद्र सरकार बातचीत करके किसानों को राहत देती है, तो हालात सुधरेंगे, वरना स्थिति एक पखवाड़े बाद और खराब हो सकती है।

किसानों को खेती-बाड़ी छुड़वा सडक़ों पर धरने-प्रदर्शन पर मजबूर करने वाली केंद्र सरकार तीन नये कृषि कानूनों पर ज़रा भी टस-से-मस नहीं हुई है। दो माह से आन्दोलनरत किसानों से सरकार ने बातचीत का कोई प्रस्ताव तक नहीं दिया। सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास जैसे आदर्श स्लोगन वाली भाजपा किसानों की आँखों की किरकिरी बन गयी है। किसान इन कृषि कानूनों को आत्मघाती बता रहे हैं। वहीं प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री समेत लगभग सभी न इसके फायदे गिनाकर इसे क्रातिकारी कदम बता रहे हैं। तो क्या यह माना जाए कि किसानों को अपनी खेती के अच्छे-बुरे का पता नहीं? वह अन्नदाता है और बहुत कुछ जानता है। वह केवल कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए ही सडक़ों पर नहीं उतरा है, बल्कि उसे अपना अस्तित्त और खेती-किसानी ही खतरे में लग रही है। उसे पहले की तरह न्यूनतम समर्थन (एमएसपी) मूल्य की गारंटी चाहिए, लेकिन वह उसे नहीं मिल पा रही है। प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री न जाने कितनी बार न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने का मौखिक भरोसा किसानों को दे चुके हैं, लेकिन सब बेअसर साबित हुआ है। केंद्र सरकार को किसान यूनियनों के प्रतिनिधियों से बातचीत कर उनका भरोसा जीतने की पहल करनी चाहिए थी। अभी तक एक भी ठोस प्रस्ताव सरकार ने नहीं दिया।

पंजाब में किसानों के रेल रोको आन्दोलन की वजह से हिमाचल, चंडीगढ़ और जम्मू-कश्मीर में आवश्यक वस्तुओं की कमी हो चली है। कोयला आधारित बिजली संयंत्र बड़ी मुश्किल में है। इसके अलावा सीमेंट, खाद और अन्य ज़रूरी सामग्री रेल मार्ग से नहीं पहुँच पा रही है। केंद्र सरकार के पास एक पखवाड़े का पर्याप्त समय है। किसान संगठनों से बातचीत कर कोई हल निकाले इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है? किसान सम्मानपूर्वक आन्दोलन को खत्म कर सकते हैं, बशर्ते केंद्र सरकार की मशा उनके सचमुच कल्याण की हो।

कैप्टन की सफलता

नये कृषि कानून बनाने पर केंद्र सरकार से बेहद खफा आन्दोलनरत किसानों को पंजाब सरकार से पूरा समर्थन और हमदर्दी है। शायद यही वजह रही कि मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने जब किसान प्रतिनिधियों को बातचीत का प्रस्ताव भेजा, तो वे न केवल बातचीत को तैयार हुए, बल्कि मुख्यमंत्री के कहने पर 15 दिन के लिए रेल यातायात को बाधित न करने का वादा किया। यह कैप्टन अमरिंदर सिंह की बड़ी सफलता है। अब केंद्र सरकार को भी चाहिए कि वह किसानों से बातचीत करके उन्हें राहत दे। तभी किसान आन्दोलन समाप्त हो सकता है।

विपक्ष का समर्थन

पंजाब में किसानों को कांग्रेस का ही नहीं, बल्कि भाजपा को छोड़ सभी विपक्षी दलों का समर्थन हासिल है। शिरोमणि अकाली दल के कोटे से केंद्र में मंत्री रहीं हरसिमरत कौर ने तो इसे काला कानून बताते हुए इस्तीफा दे दिया था। शिअद पूरी तरह से किसानों के समर्थन में है, लेकिन राजनीतिक तौर पर उसे ज़्यादा फायदा नहीं मिल रहा। आम आदमी पार्टी भी किसान आन्दोलन को सही कदम बता रही है। पंजाब में कोई भी पार्टी किसानों के खिलाफ नहीं जा सकती। भाजपाइयों की मजबूरी है, उन्हें केंद्र का समर्थन करना ही है। लेकिन राजनीतिक तौर पर भाजपा को नुकसान उठाना पड़ सकता है। वोट बैंक की राजनीति से इतर किसानों के इस आन्दोलन को जायज़ ठहराने के दर्ज़नों तर्क हैं, पर शायद केंद्र सरकार को इससे फर्क नहीं पड़ता। वह किसान संगठनों में फूट पैदा करके आन्दोलन को कमज़ोर करना चाहती है, ताकि बातचीत की नौबत ही न आये।