किसकी मानें, किसकी सुनें

दुनिया में हर खयाल और हर बर्ताव के लोग हैं। अगर कोई दुनिया के हिसाब से जीना चाहे, तो कभी नहीं जी सकता। क्योंकि उसे हर कोई अपने हिसाब से जीने की राह बतायेगा। अपने हिसाब से ढालने की कोशिश करेगा। अपने मतानुसार चलाने की कोशिश करेगा। अपने मज़हब के हिसाब से ज्ञान बाँटेगा। अपनी समझ के हिसाब से हर बात के मानी बतायेगा और अपनी आदतों को सामने वाले व्यक्ति में देखना चाहेगा। दुनिया में ऐसा कौन है, जो खुद को सही न ठहराता हो? कौन है ऐसा, जो यह मानता हो कि वह कुछ भी नहीं है? कौन है ऐसा, जो स्वार्थी न हो? कौन है ऐसा, जो प्रपञ्ची न हो? छल-कपट से रहित हो और परहित की चिन्ता करता हो? शायद ही कोई हो, लेकिन फिर भी कोई खुद को गलत कोई नहीं मानता और चाहता है कि हर व्यक्ति उसके हिसाब से चले, उसकी प्रशंसा करे, उसके पद-चिह्नों पर चले, उसकी श्रद्धा करे, उसका सम्मान करे, उसे नमन करे, उसे सिर पर बैठाये, उसे हर तरह से सुख प्रदान करे। भले ही वह दुनिया का एक सबसे नाकारा व्यक्ति क्यों न हो, उसकी भी यही चाह रहती है। लेकिन इसे प्राकृतिक नियम कहिए या मानव-विकास की प्रक्रिया कि इंसान को दूसरे इंसानों से सीखना तो पड़ता ही है, किसी-न-किसी की श्रद्धा तो करनी ही पड़ती है और एकाध बिरले को छोड़कर सभी को किसी-न-किसी के पद-चिह्नों पर तो चलना ही पड़ता है। तभी हर व्यक्ति का कल्याण सम्भव है। तभी कोई व्यक्ति अपने मन मुताबिक एक रास्ता चुन पाता है। यह अलग बात है कि कोई योग्य बन जाता है और सफल हो जाता है, जबकि कोई अयोग्य रह जाता है और असफल हो जाता है। दोनों ही स्थितियाँ व्यक्ति के आसपास के माहौल, परिवरिश, अपने साथियों और गुरुओं के चुनाव तथा व्यक्ति की मेहनत और उसके कर्म पर ही निर्भर करती हैं।

सवाल यह उठता है कि हम किसकी मानें, किसकी सुनें? दुनिया में सबके अपने-अपने विचार हैं, अपने-अपने तर्क हैं, और सबकी अपनी-अपनी मानसिकता है। हमारे मनोभाव, हमारे विचार जहाँ, जिससे मिलते हैं, वो हमें सही लगता है; और जहाँ, जिससे नहीं मिलते, वह हमें गलत लगता है। यहाँ दिक्कत यह हो सकती है कि लोग, जिनके हम अनुयायी हैं, हमारा बुरा भी सोच सकते हैं। फिर ऐसे में उन्हें हमें परखना होगा, बिना परखे अगर किसी के पीछे चले, तो हमारा अहित भी सम्भव है। तो क्या कोई ऐसा नहीं, जो सिर्फ और सिर्फ हमारे भले की सोचे, जिसके लिए हमारा कल्याण ही सर्वोपरि हो? है; एक ऐसा भी कोई है, जिसकी बात हम सुनें या न सुनें, लेकिन वह हमारे हित की बात कहता है और कभी भी हमारा अहित नहीं कर सकता। हमें उसकी बात सुननी चाहिए, बल्कि गौर से सुननी चाहिए और उस पर पूरी तरह अमल करना चाहिए। यह एक है कौन? यह हमारा अंतर्मन है। लेकिन अफसोस हम अपने मन की सुनते ही नहीं। लोग कहते हैं कि मन तो भटकाता भी है। हाँ, भटकाता है। और भटकायेगा भी, बिल्कुल भटकायेगा; अगर आपने उसे भटकने के लिए छोड़ दिया है। अगर आपने अपने अंतर्मन की नहीं, बल्कि अपने ऊपरी मन की सुनी है, जो लालची है; आलसी है; बुरी चीज़ों का आदी है; क्षणभंगुर सुखों का कामी है और चालाकियों से भरा है। अगर उसमें इंसानियत नहीं है; दूसरों के प्रति सच्चा और निच्छल प्रेम नहीं है; दूसरों का बुरा करने की प्रवृत्ति है; तो वह निश्चित ही तुम्हें भी भटकायेगा। लेकिन अगर आपने अपने अंतर्मन की सुनी है; खुद को इंसानियत, प्यार और परहित के रास्ते पर चलाने का प्रयास किया है; तो निश्चित ही आपको आपका मन हर बुरे काम, हर बुराई और हर मुसीबत से बचायेगा। इससे बड़ी बात यह होगी कि आपको अन्दर से एक खुशी हमेशा मिलती रहेगी। आप अन्दर से सन्तुष्ट रहेंगे और आपके ज्ञान में बढ़ोतरी होगी। आपके चेहरे पर एक चमक रहेगी; होंठों पर एक मुस्कुराहट रहेगी; सुख-दु:ख, दोनों ही स्थितियों में आप खुश रहेंगे।

एक गाँव की एक छोटी-सी घटना यहाँ मुझे याद आ रही है। एक व्यक्ति जो दूसरे मज़हब के लोगों से, जो पहले ही संख्या में बहुत कम थे; विकट नफरत करता था। उसकी कोशिश रहती थी कि ये लोग कैसे भी इस गाँव को छोड़कर भाग जाएँ। वह उन्हें हर सम्भव नुकसान पहुँचाने की कोशिश करता, मौका मिलते ही झगड़ा करता। एक बार उसने सर्दियों की रात में दूसरे मज़हब वाले एक व्यक्ति का खोका, जिसमें वह फल बेचा करता था; उठा लिया। खोका तोड़कर उसने जलाने के लिए उसकी लकडिय़ाँ रख लीं और फल खाने के लिए घर में छुपा लिये। सुबह को चारों तरफ शोर हो गया कि शंकर का खोका चोरी हो गया। शंकर  के हिमायतियों ने उससे कहा कि वह थाने में खोका चोरी की रिपोर्ट लिखाये; पर शंकर ने यह कहकर टाल दिया कि उसका खोका ही तो गया है, उसका नसीब नहीं गया है। शंकर हर रोज़ की तरह बाज़ार से फल लाया और उसी जगह ज़मीन पर उन्हें बेचने लगा। धीरे-धीरे समय बीत गया और शंकर ने दूसरा खोका बनवाकर वहाँ लगा लिया। एक दिन चोरी करने वाले व्यक्ति की लड़की को देखने के लिए मेहमान आने वाले थे। वह शंकर के पास फल लेने पहुँचा। शंकर ने उसे फल तौल दिये, पर यह कहकर कि आपकी बेटी का रिश्ता हो रहा है, बेटे का नहीं; जब बेटे का हो, तब महँगे दाम लूँगा, पैसे नहीं लिए। इस बात को सुनकर उस व्यक्ति की आँखें भर आयीं और मन में गहरी पीड़ा और ग्लानि हुई। आत्मगिलानी से उसने शंकर के पैर पकड़ लिये। रुँधे गले से बोला- ‘भैया! मुझे माफ करना, मैंने तुम्हारा…’, शंकर सब समझ चुका था। उसने इतना ही कहा कि मैं जानता हूँ, क्या बात है। पर इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं। जो हुआ, सो हुआ; अब तुमने मन से प्रायश्चित कर लिया है और तुम एक भले इंसान हो चुके हो। वह आदमी शंकर के गले लिपटकर फूट-फूटकर रोने लगा। शंकर ने उसे जैसे-तैसे समझाकर उसे घर भेजा। उसके बाद वह व्यक्ति इतना ईमानदार और सभी से प्रेम करने वाला हो गया कि उसकी अच्छाई की दूर-दूर तक चर्चा होने लगी।