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किसान आंदोलन को लेकर 30 जनवरी से अन्ना हजारे का अनशन शुरू

अन्ना हजारे के अनशन की तारीख लगभग तय हो चुकी है। किसानों के मुद्दों पर 30 जनवरी से हजारे अनिश्चितकालीन अनशन करेंगे। हालांकि हजारे को दिल्ली में अनशन के लिए किसी जगह की अनुमति नहीं मिल पाई है जिसके चलते उन्होंने इस समय रालेगण सिद्धि में आंदोलन करने का फैसला किया है।

अन्ना ने किसानों के मुद्दों पर जनवरी के अंतिम सप्ताह में आंदोलन की चेतावनी दी थी। हालांकि, सटीक तारीख की घोषणा नहीं की गई है। अब तक के आंदोलन के इतिहास को देखते हुए, हजारे ने विशेष दिनों के अवसर पर अपना आंदोलन शुरू किया है । इसलिए, इस बार भी, 30 जनवरी शहीद दिवस से हजारों लोगों के साथ आंदोलन शुरू कर रहे हैं ।

हजारे ने कृषि मूल्य आयोग की स्वायत्तता, स्वामीनाथ आयोग की सिफारिशों को लागू करने और तदनुसार कृषि वस्तुओं की कीमतों को तय करने की मांगों को लेकर आंदोलन का आह्वान किया है। हजारे ने दृढ़ संकल्प व्यक्त करते हुए कहा कि यह उनके जीवन का अंतिम आंदोलन होगा।

अन्ना हजारे ने इसके पहले कई दफा पत्र लिखकर दिल्ली में रामलीला मैदान या अन्य स्थानों पर आंदोलन के लिए जगह की अनुमति मांगी थी जिनका उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। जिसे लेकर नाराज हजारे ने केंद्र सरकार और संबंधित एजेंसियों की भी आलोचना की। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सीधे एक पत्र भी लिखा था जिसमें आरोप लगाया गया था कि सरकार उनसे बदले की भावना से व्यवहार कर रही है । उसके बाद से भाजपा नेताओं ने हजारे को मनाने के लिए भागदौड़ शुरू कर दी । भाजपा नेताओं ने हजारे से मुलाकात कर उन्हें आश्‍वस्‍त करने की कोशिश की है कि सरकार किसानों के हित को अनदेखा नहीं कर रही है और वे आंदोलन न करें। लेकिन उन्हें सफलता मिलती नहीं दिख रही है। इस सिलसिले में वरिष्ठ नेता हरिभाऊ बागडे, पूर्व मंत्री गिरीश महाजन, पूर्व मंत्री राधाकृष्ण विखे पाटिल, सांसद डॉ सुजय विखे पाटिल ने हजारे से मुलाकात की है। विपक्ष के नेता देवेंद्र फड़नवीस भी हजारे के संपर्क में हैं। हालांकि, हजारे को अभी तक कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया गया है। इसलिए, उनके आंदोलन का निर्णय दृढ़ है और अगर उन्हें दिल्ली में जगह नहीं मिलती है, तो वह रालेगण सिद्धि में यादव बाबा मंदिर में अनशन शुरू करेंगे।

यह बात अलग है कि अन्ना के आंदोलन को लेकर जहां एक ओर भाजपा परेशान है वहीं राज्य की महा विकास आघाडी सरकार फिलहाल मौन पाले हुए है, दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वह इसे अनदेखी कर रही है । यह बात अलग है यदि अन्ना हजारे को अनशन के लिए दिल्ली में जगह नहीं मिलती तो अनशन महाराष्ट्र के रालेगण सिद्धि से ही शुरू होगा और उसके बंदोबस्त की जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकार पर ही होगी।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वी जयंती पर 23 जनवरी को “पराक्रम दिवस” के रूप में मनाने का फैसला

संस्कृति राज्य मंत्री प्रहलाद सिंह पटेल ने दिल्ली में आज नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वी जयंती को देश के भीतर व बाहर 23 जनवरी को “पराक्रम दिवस” के रूप मे मनाने की घोषणा की है।

पराक्रम दिवस से संबंधित कार्यक्रमों की गतिविधियों के लिए एक उच्च स्तरीय समिति को गठित किया गया है। जिसका नेतृत्व खुद प्रधानमंत्री करेंगे। इस समिति में अलग-अलग क्षेत्रों से 85 लोगों को शामिल किया गया है। जिससे वर्ष भर यह प्रभावी कार्यक्रम चल सकें।

स्मृति समारोह से संबंधित कार्यक्रम की गतिविधियां 23 जनवरी से देश के तीन अलग-अलग हिस्सों में शुरू की जाएगी। जिसमें कलकत्ता, कटक, हरिपुरा शामिल है।

कलकत्ता के विक्टोरिया हॉल में आयोजित कार्यक्रम का उद्घाटन स्वयं प्रधानमंत्री करेंगे। इस समारोह में, नेता जी पर प्रदर्शनी जिसमें विभिन्न शिल्पकृतियों और डिजिटल माध्यमों से नेता जी से संबंधित 125 कहानियों की प्रस्तुति, नेता जी के पत्रों पर एक पुस्तक का लोकार्पण, आजाद हिंद फौज के सभी जीवित सैनिकों का सम्मान, स्मारक डाक टिकट, स्मारक सिक्का भी जारी किया जाएगा।

दूसरा कार्यक्रम, नेता जी सुभाष चंद्र बोस के जन्मस्थान उड़ीसा के कटक में है, जहां पैट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान शामिल होंगे। तीसरा कार्यक्रम, हरीपुरा में आयोजित किया गया है जहां पहली बार नेता जी को कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में नामित किया गया था।

इन कार्यक्रमो के अलावा सभी मंत्रालयों ने नेता जी की जयंती के लिए कुछ न कुछ भेट समर्पित की है। जैसे, खेल मंत्रालय ने वर्षवर फुटबाल टुर्नामेंट, पद यात्रा, साईकलिंग और मेरोथन को नेता जी के नाम पर समर्पित किया है।

पर्यटन मंत्रालय ने “देखो अपना देश” के तहत सभी वैबिनार्स को नेता जी के लिए समर्पित किया है। रक्षा मंत्रालय ने कहा है की बिटिंग रिटरीट में आईएनए की धुन पर “कदम पर कदम बढ़ाए जा” गीत को शामिल किया जाएगा। एयर इंडिया ने नेता जी के चित्र विमानो पर लगाने का फैसला किया है।

शिक्षा विभाग ने पांच भारतीय विश्वविघालयों में नेता जी से संबंधित पांच पीठों की स्थापना करने का फैसला किया है। सूचना प्रसारण मंत्रालय ने नेता जी पर लघु फिल्म में प्रतियोगिता भारत के लिए नेता जी के सपनों को कैसे पूरा किया जाए इसपर एक ऐपिसोड बनाने का फैसला किया है।

भारत सरकार ने व्हाट्सऐप के सीईओ को खत लिखकर नई प्राइवेसी पॉलिसी वापस लेने को कहा

भारत सरकार के इलेक्ट्रॉनिक्स और इंफॉर्मेशन टेक्नालॉजी मंत्रालय ने व्हाट्सऐप के सीईओ विल कैथर्ट को पत्र लिखकर भारतीय यूजर्स के लिए नई टर्म्स ऑफ सर्विस और प्राइवेसी पॉलिसी को वापस लेने की माँग की है।

इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने व्हाट्सऐप को पत्र लिखकर यूजर्स की इंफर्मेशन सिक्यूरिटी पर सवाल उठाये है और व्हाट्सऐप से डेटा की प्राइवेसी और सुरक्षा को लेकर 14 सवाल पूछे हैं।

मंत्रालय ने कहा है कि नई प्राइवेसी पॉलिसी से यूजर्स की सुरक्षा को खतरा हो सकता है। क्योंकी चैट का डेटा बिजनेस अकाउंट से शेयर करने पर फेसबुक की अन्य कंपनियों को यूजर्स के बारे में सारी जानकारी मिल सकती है।

पत्र में मंत्रालय  द्वारा पूछा गाया  है कि ऐसे समय जब भारतीय संसद में पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल पर चर्चा चल रही है, व्हाट्सऐप यह प्राइवेसी पॉलिसी क्यों लाया है? इसमें डेटा के लिए परपज लिमिटेशन का प्रावधान है यानी कंपनी जिस काम के लिए यूजर का डेटा ले रही है केवल उसी के लिए इस्तेमाल कर सकती है और इसके लिए यूजर की सहमति आवश्यक है।

मंत्रालय के मुताबिक, यूजर्स को नई टर्म्स को मानने पर मजबूर करा जा रहा है, या तो यूजर्स को ये पोलिसी माननी होगी या फिर व्हाट्सऐप छोड़ाना होगा।

योरोपीय संघ और भारत में अलग अलग प्राइवेसी पॉलिसी बनाने पर भी मंत्रालय ने ऐतराज जताया है और कहा है कि भारत में व्हाट्सऐप के सबसे अधिक उपयोगकर्ता हैं। इस भेदभाव से पता चलता है कि व्हाट्सऐप भारतीय उपयोगकर्ताओं का सम्मान नहीं करता।

सरकार ने कहा है कि भारतीय नागरिकों के हितों की रक्षा का उसका संप्रुभता का अधिकार है जिस पर किसी भी कीमत पर कोई समझौता नहीं किया जाएगा ।

अविश्वास की लकीर; किसान आन्दोलन : सुप्रीम कोर्ट की पहल पर कानून समर्थक समिति के गठन ने फेरा पानी

यह 14 दिसंबर, 2020 की बात है। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के दफ्तर में एक पत्र पहुँचा। यह पत्र अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति के चेयरमैन भूपेंद्र सिंह मान ने लिखा था। मान ने इस पत्र में सरकार के तीनों कृषि कानूनों का खुलकर समर्थन किया था। यही मान इस चार सदस्यीय समिति के सदस्य के रूप में मनोनीत किये गये, हालाँकि समिति पर कृषि कानूनों का पक्षधर होने के आरोपों के बाद बने दबाव का ही असर था कि 48 घंटे के भीतर मान ने खुद को समिति से अलग कर लिया। चर्चा यह भी रही कि मान को भारतीय किसान यूनियन (मान) ने संगठन से बाहर कर दिया है। बता दें कि समिति को किसानों की माँग पर चर्चा करने और उसकी रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) को देने का ज़िम्मा मिला है। इस समिति के अन्य तीन सदस्य भी पिछले हफ्तों में कृषि कानूनों के हक में बोलते रहे हैं। जब यह लग रहा था कि सर्वोच्च न्यायालय किसानों के लिए न्याय का बड़ा दरवाज़ा खोलने वाला है और उसने तीनों कृषि कानूनों पर अस्थायी रोक का आदेश भी दे दिया, तभी मोदी सरकार के तीन कृषि कानूनों पर चर्चा के लिए जो समिति सामने आयी, उसने उम्मीदों पर पल भर में बर्फ डाल दी। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की कड़ी फटकार लगायी है। किसान संगठनों ने सर्वोच्च न्यायालय का आभार तो जताया, लेकिन इस समिति के चेहरों पर यह कहकर सवाल उठा दिया कि यह सभी कृषि कानूनों के समर्थक रहे हैं, लिहाज़ा हम उससे कोई बात नहीं करेंगे, न ही आन्दोलन खत्म होगा। न सरकार हारी, न किसान जीते। सच तो यह है कि इस सारी कवायद के बाद किसानों और सरकार के बीच खाई और चौड़ी हो गयी है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद किसानों के हक में सबसे ज़्यादा मुखर कांग्रेस ने भी कहा कि तीनों कानून रद्द किये जाने चाहिए; क्योंकि यह कानून किसान-विरोधी हैं।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, इन दो महीनों के बीच समिति किसानों और सरकार के बीच मध्यस्थता की कोशिश भी करेगी। यह देखना होगा कि किसानों का इस पर क्या रुख रहेगा; क्योंकि वे समिति के सदस्यों के हाल के हफ्तों में कानूनों के पक्ष में बोलने को लेकर समिति पर भरोसा नहीं होने की बात कह चुके हैं। किसान शुरू से ही तीनों कृषि कानूनों को खत्म करने की माँग कर रहे हैं। वे सरकार के साथ नौ दौर चली बैठकों में यही कहते रहे हैं कि पहले कृषि कानून रद्द हों तभी वे आन्दोलन रोकेंगे। किसान एमएसपी को भी कानून के दायरे में लाने की मज़बूत माँग कर रहे हैं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय की पहल भले ही सार्थक दिखती हो, बहुत कम सम्भावना है कि दो महीने बाद जब चार सदस्यों की समिति अपनी रिपोर्ट सर्वोच्च अदालत में पेश करेगी, तो इससे कोई मज़बूत हल निकलेगा। समिति की क्या सिफारिशें होंगी? अभी इसे लेकर कुछ नहीं कहा जा सकता है। हो सकता है कि समिति कानून के कुछ बिन्दुओं में संशोधन को कहे, जिसे किसान पहले ही मानने से मना कर चुके हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि यह सब कुछ उनके आन्दोलन को कमज़ोर करने के प्रयास मात्र हैं।

पहला बड़ा कानूनी पेच यह है कि सर्वोच्च न्यायालय कानून को रद्द नहीं कर सकता। क्योंकि यह संसद में पास हुए हैं। इसलिए संसद में ही इन्हें लेकर कोई फैसला हो सकता है। हाँ, यदि सरकार चाहे, तो इन्हें ठंडे बस्ते में ज़रूर डाल सकती है; जैसा कि अतीत में भी कुछ बार हुआ है। दूसरे, यह बहुत कम सम्भावना है कि समिति कानूनों को रद्द करने की सिफारिश करेगी। क्योंकि समिति के सभी सदस्य समय-समय पर कानूनों के हक में बोल चुके हैं। ऐसे में किसान आन्दोलन के खत्म होने की गुंजाइश सिकुड़ती दिख रही है। सर्वोच्च न्यायालय के 12 जनवरी के अंतरिम फैसले के बाद किसान साफ कह चुके हैं कि न तो वह आन्दोलन स्थगित करेंगे, न समिति के सामने जाएँगे। ऐसे में सरकार और किसानों के बीच तनाव और बढ़ सकता है; क्योंकि सरकार यह कहने की कोशिश करेगी कि किसान सर्वोच्च न्यायालय की बात भी नहीं मान रहे, जबकि सच यह है कि इस सारी कवायद में किसानों की मुख्य माँग ही अनसुनी कर दी गयी है।

सर्वोच्च न्यायालय में क्या हुआ

सर्वोच्च न्यायालय ने किसान आन्दोलन को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान 11 जनवरी को किसान आन्दोलन से निबटने के सरकार के तरीकों को लेकर उसे तगड़ी फटकार लगायी। सर्वोच्च न्यायालय में प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे, जस्टिस ए.एस. बोपन्ना और जस्टिस वी. रामासुब्रमण्यम की पीठ ने किसान आन्दोलन और कृषि कानूनों से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए 12 जनवरी को मोदी सरकार के तीनों कृषि कानूनों के अमल पर अगले आदेश तक रोक लगा दी। साथ ही चार सदस्यों की एक समिति भी बनायी, जिसे पूरे मसले को सुलझाने का ज़िम्मा सौंपा गया है। वैसे यह समिति न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा होगी, जो सीधे सर्वोच्च न्यायालय को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी। इस रिपोर्ट का अध्ययन करने के बाद ही सर्वोच्च न्यायालय किसान आन्दोलन को लेकर अपना अन्तिम फैसला सुनायेगा। यहाँ यह बता देना उचित होगा कि किसानों की सबसे बड़ी माँग तीनों कानूनों को रद्द करने की है।

दो दिन की सुनवाई में घटनाक्रम काफी तेज़ रहा। केंद्र के रवैये पर सर्वोच्च न्यायालय ने निराशा जतायी। प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने कहा- ‘आप कानून होल्ड करेंगे या हम करें? सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से पूछा कि क्या यह नया कृषि कानून कुछ दिन के लिए होल्ड नहीं किया जा सकता? क्योंकि हमें नहीं पता है कि किसानों और सरकार के बीच क्या बातचीत चल रही है।’ प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने सुनवाई के दौरान कहा- ‘आप हल नहीं निकाल पा रहे हैं। लोग मर रहे हैं। आत्महत्या कर रहे हैं। महिलाओं और वृद्धों को भी बैठा रखा है। हम समिति बनाने जा रहे हैं। चाहे आपको हम पर भरोसा हो या नहीं। हम देश का सर्वोच्च न्यायालय हैं। अपना काम करेंगे।’ उन्होंने सरकार से कहा- ‘आन्दोलन सँभालने के आपके तरीके से हम बहुत निराश हैं।’ वहीं किसानों के वकील से जस्टिस बोबडे ने कहा- ‘बुजुर्गों, महिलाओं से कहें कि प्रधान न्यायाधीश चाहते हैं कि आप घर चले जाएँ।’

सर्वोच्च अदालत ने किसान आन्दोलन के दौरान किसानों की मौत पर भी गहरी चिन्ता जतायी और सरकार से पूछा कि वह बताए कि किसानों से क्या बात कर रही है? सर्वोच्च अदालत ने एक मौके पर पूछा कि आप (कृषि) कानून होल्ड कर रहे हैं या नहीं? आप नहीं करते, तो हम कर देंगे। अदालत ने कहा कि वह किसी भी संगठन के आन्दोलन के खिलाफ नहीं है। अदालत ने कहा कि कानूनों की जाँच के लिए समिति बनाएँगे।

अदालत ने केंद्र सरकार से पूछा कि वह बताए कि किस तरह का समझौता कर रहे हैं। हर दिन हालात खराब हो रहे हैं। अदालत ने सरकार से कहा कि हम कृषि मामलों के विशेषज्ञ नहीं हैं। हमारा मकसद समस्या का हल निकलना है।

किसानों के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय की सुनवाई में सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने सफाई देते हुए कहा कि बहुत बड़ी संख्या में किसान संगठन कानून को फायदेमंद मानते हैं। इस पर प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने कहा कि हमारे सामने अब तक कोई नहीं आया है, जो ऐसा कहे। अगर एक बड़ी संख्या में लोगों को लगता है कि कानून फायदेमंद है, तो समिति को बताएँ। आप बताइए कि कानून पर रोक लगाएँगे या नहीं? नहीं तो हम लगा देंगे।

अटॉर्नी जनरल ने कहा कि कानून से पहले एक्सपर्ट समिति बनी। कई लोगों से चर्चा की। पहले की सरकारें भी इस दिशा में कोशिश कर रही हैं। प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि यह दलील काम नहीं आयेगी कि पहले की सरकार ने इसे शुरू किया था। उन्होंने  कहा कि आपने कोर्ट को बहुत अजीब स्थिति में डाल दिया है। लोग कह रहे हैं कि हमें क्या सुनना चाहिए, क्या नहीं? लेकिन हम अपना इरादा साफ कर देना चाहते हैं; इस मसले का हल निकले। अगर आपमें समझ है, तो कानून के अमल पर ज़ोर मत दीजिए। फिर बात शुरू कीजिए। हमने भी रिसर्च किया है। एक समिति बनाना चाहते हैं।

प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि हम यह नहीं कह रहे हैं कि आप कानून को रद्द करें। हम बहुत बकवास सुन रहे हैं कि न्यायालय को दखल देना चाहिए या नहीं। हमारा उद्देश्य सीधा है कि समस्या का समाधान निकले। हमने आपसे पूछा था कि आप कानून को होल्ड पर क्यों नहीं रख देते? उन्होंने कहा कि यह दलील सरकार को मदद नहीं करने वाली कि इसे किसी दूसरे सरकार ने शुरू किया था। किस तरह का समझौता आप कर रहे हैं? यह बताइए।

अटॉर्नी जनरल को रोकते हुए प्रधान न्यायाधीश कहा कि जब हम आपसे कानून की संवैधानिकता के बारे में पूछ रहे हैं, तो आप हमको उसके बारे बताइए; कानून के फायदे के बारे में मत बताइए। केंद्र सरकार को फटकार लागते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि आपने कहा कि हम बात कर रहे हैं। क्या बात कर रहे हैं? किस तरह का सन्धि-वार्ता कर रहे हैं?

सर्वोच्च न्यायालय ने 12 जनवरी को किसान आन्दोलन पर एक बड़े अंतरिम फैसले में मोदी सरकार के तीनों कृषि कानूनों के अमल पर अगले आदेश तक रोक लगा दी। साथ ही इस मसले पर चर्चा के लिए सर्वोच्च अदालत ने चार सदस्यीय समिति का गठन कर दिया, जिसमें भूपेंद्र सिंह मान, प्रमोद जोशी, अशोक गुलाटी और अनिल धनवंत को शामिल किया गया है। अदालत ने कहा कि किन प्रावधानों को हटाया जाए? इस पर समिति काम करेगी। देश की सबसे बड़ी अदालत ने कहा कि समिति अपने लिए बना रहे हैं।

यह समिति तय करेगी कि कानूनों में से कौन-से बिन्दु हटाये जाने चाहिए। समिति की रिपोर्ट के बाद न्यायालय इस पर आदेश देंगे। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि समिति के समक्ष कोई भी जा सकता है। समस्या को बेहतर तरीके से हल करने की हम कोशिश कर रहे हैं। प्रधान न्यायधीश ने कहा कि हम आन्दोलन से प्रभावित लोगों के जीवन, सम्पत्ति से चिन्तित हैं। हम चाहते हैं कि ज़मीनी हकीकत जानने के लिए समिति बने। अदालत ने कहा समिति बनाने से हमें कोई नहीं रोक सकता।

याचिकाकर्ता एम.एल. शर्मा ने कहा कि किसानों को ये डर है कि उनकी ज़मीनें बेच दी जाएगी। किसान अभी भी तीनों कानूनों को रद्द करने की माँग पर अड़े हैं। इस पर प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि कौन कह रहा है कि ज़मीनें बेच दी जाएँगी। इसके जवाब में एम.एल. शर्मा ने कहा कि अगर एक बार किसान कॉरपोरेट हाउस से समझौता करता है, तो उसे शर्तों के मुताबिक ही उत्पाद पैदा करना होगा, नहीं तो उसे हर्ज़ाना देना होगा।  एम.एल. शर्मा ने कहा कि किसान समिति के सामने पेश नहीं होना चाहते हैं।

प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि ये किसने कहा कि ज़मीन बिक जाएगी, किसी भी किसान की ज़मीन नहीं बिकेगी। हम समस्या का समाधान चाहते हैं। प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि हमारे पास निहित अधिकारों के तहत हम कानून को निरस्त भी कर सकते हैं। प्रधान न्यायाधीश ने कहा समिति हम अपने लिए बना रहे हैं। किसी को खुश करने के लिए नहीं। समिति हमें रिपोर्ट देगी और इसके समक्ष कोई भी जा सकता है।

वकील एमएल शर्मा ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी अब तक किसानों से बात करने आगे नहीं आये हैं। इस पर सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि कृषि मंत्री और सरकार के अन्य सीनियर मंत्री किसानों से आठ दौर की बातचीत में शामिल हो चुके हैं। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट फैसले के बाद भी 15 जनवरी को भी सरकार और किसानों के बीच नौवें दौर की फिर बातचीत हुई, जो कि बेनतीजा रही; क्योंकि सरकार और किसान दोनो ही अपने-अपने मुद्दों पर अड़े रहे। हालाँकि अभी दोनों के बीच चर्चा के रास्ते बन्द नहीं हुए हैं और आगे भी रास्ता निकालने के विए बातचीत जारी रहने की उम्मीद है।

इस दौरान केंद्र सरकार ने कृषि कानूनों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में एक हलफनामा भी दायर किया। सरकार ने इसमें कहा है कि कृषि कानूनों को जल्दी में पास नहीं किया गया। सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान यह ज़ाहिर करने की कोशिश की गयी कि कानून जल्दी में पास किया गया है; जबकि ऐसा नहीं है। सरकार ने कहा कि इन कानूनों के लिए दो दशक से बात चल रही थी। ये किसान मित्र कानून हैं। केंद्र ने कहा कि देश भर के किसान इस कानून से खुश हैं; क्योंकि उन्हें ज़्यादा विकल्प दिये गये हैं और उनका कोई अधिकार नहीं लिया गया है। किसानों के साथ लगातार गतिरोध खत्म करने की कोशिश की गयी है।

सर्वोच्च न्यायालय का आदेश आते ही अपनी प्रतिक्रिया में भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने साफ किया है कि किसानों की माँग तीनों कानूनों को रद्द करने की है और वे इससे कम में कुछ नहीं मानेंगे। उन्होंने कहा कि हमारा आन्दोलन जारी रहेगा। टिकैत ने कहा कि हमारी माँग समिति बनाने की नहीं थी। टिकैत ने कहा कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने किसानों के प्रति जो सकारात्मक रुख दिखाया है, उसके लिए हम सर्वोच्च अदालत का आभार व्यक्त करते हैं। उन्होंने कहा कि किसानों की माँग कानून को रद्द करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून बनाने की है। जब तक यह माँग पूरी नही होती, तब तक आन्दोलन जारी रहेगा।

राजनीति भी तेज़

किसान आन्दोलन को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के केंद्र सरकार को फटकार लगाने के तुरन्त बाद कांग्रेस सक्रिय हो गयी और उसने विपक्ष के प्रमुख नेताओं से सम्पर्क साधा। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने शरद पवार सहित कुछ विपक्षी नेताओं को फोन किया और उनकी इस मसले पर राय ली। मोदी सरकार को घेरने के लिए कांग्रेस बजट सत्र में किसानों के हक में आवाज़ बुलन्द करने की तैयारी कर रही है। इसके लिए विपक्ष के अन्य दलों के साथ वह रणनीति बनाने की तैयारी करने वाली है।

सोनिया गाँधी ने पार्टी प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला को भी आदेश दिया है कि वह किसानों की माँग पर ज़ोर देते हुए पत्रकार वार्ता करके पार्टी का रुख साफ करें। संसद के बजट सत्र से पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया विपक्ष के कई ऐसे नेताओं के सम्पर्क में हैं, जो कृषि कानूनों को लेकर सरकार को घेरने की साझा रणनीति तैयार करने के लिए जल्द ही बैठक करेंगे। संसद सत्र से पहले विपक्षी नेताओं की बैठक बुलाने के मकसद से सोनिया ने उनसे बातचीत करनी आरम्भ भी कर दिया है। सोनिया गाँधी कृषि कानूनों और अर्थ-व्यवस्था की स्थिति पर सरकार को घेरने के लिए साझा रणनीति बनाने के पक्ष में हैं। कांग्रेस पहले से ही तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने की माँग कर रही है।

सोनिया से सलाह के बाद एनसीपी नेता शरद पवार के वामपंथी नेताओं सीताराम येचुरी और डी. राजा से मुलाकात कर चुके हैं। पवार ने येचुरी और राजा से किसान आन्दोलन के मुद्दे पर बात की थी। कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि हम सर्वोच्च न्यायालय और उसकी चिन्ताओं का सम्मान करते हैं। लेकिन इस कानून को रद्द करने के अलावा कोई दूसरा समाधान नहीं है।

आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिश

नए कृषि कानूनों के खिलाफ खड़े किसान आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिश भी बहुत हुई है, जिससे किसान और खफा हुए हैं। उन्हें खालिस्तानी, पाकिस्तानी, पैसे से खीरदे हुए लोग, विरोधी ताकतों के एजेंट और देश विरोधी तक कहा गया है। सोशल मीडिया के ज़रिये यह भी कहा गया कि किसान आन्दोलन से जनता को  दिक्कत हो रही है; जबकि सच यह है कि करीब दो महीने बीत जाने के बाद भी किसान आन्दोलन बहुत शान्तिपूर्ण रहा है और एक भी ऐसी घटना नहीं हुई, जिससे कानून व्यवस्था का मसला बने।

याद कीजिए यूपीए सरकार के शासनकाल में अप्रैल, 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ अण्णा हज़ारे  के आन्दोलन में हज़ारों-लाखों लोग ज़रूर जुटे थे। लेकिन वह लोकपाल विधेयक को लाने के लिए किया गया आन्दोलन था। वहीं दिसंबर, 2012 में निर्भया से बलात्कार और उसकी निर्मम हत्या के बाद लोगों ने सड़कों पर ज़बरदस्त प्रदर्शन किये थे। सोशल मीडिया पर जनता, खासकर युवाओं ने इस कृत्य की जमकर निंदा की थी। लेकिन उस समय किसी ने आन्दोलनकारियों को देशद्रोही या गद्दार का टैग नहीं दिया था। न मनमोहन सिंह सरकार ने आन्दोलन को दबाने या रोकने की कोशिश की थी। सरकार ने तो बलात्कार पीडि़ता को उपचार के लिए सिंगापुर भी भेजा। निर्भया के निधन के बाद सरकार ने दबाव बढऩे पर बलात्कार कानून में समुचित बदलाव किये और स्त्रियों की सुरक्षा के लिए एक नया पोस्को अधिनियम-2012 बनाया।

अन्ना आन्दोलन में सरकार के एक भी प्रतिनिधि ने आन्दोलनकारियों को आतंकवादी या टुकड़े-टुकड़े गैंग जैसे घृणित शब्दों से सम्बोधित नहीं किया। न ही एनडीए की अटल बिहारी के नेतृत्व वाली सरकार में किसी विरोधी या आन्दोलनकर्ता को ऐसे अशोभनीय शब्दों से अपमानित किया गया। बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री और भाजपा के मूर्धन्य नेता अटल बिहारी ने विपक्ष और विरोधी ताकतों का सम्मान करते थे। लेकिन अब पिछले कुछ वर्षों में, जबसे एनडीए की केंद्र में सरकार बनी है, तबसे आन्दोलन करने वालों को देशद्रोही, पाकिस्तानी, टुकड़े-टुकड़े गैंग बताना शुरू कर दिया गया है। इस तरह से जन सामान्य की बात को दबाने को ही लोकतंत्र के लिए खतरा माना जाता है। क्योंकि अपने अधिकार के लिए आन्दोलन करना उचित है। लेकिन दुर्भाग्य से सरकार ही नहीं, मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी आज सरकार की ही बोली बोल रहा है।

बता दें कि पहले भी देश में इस तरह के प्रदर्शन और आन्दोलन हुए हैं, लेकिन तबकी सरकारों ने, अंग्रेजी हुकूमत को छोड़कर; किसानों के आन्दोलन को इस तरह से कुचलने की हिम्मत नहीं की। न यह देखा गया है कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर किसान आन्दोलन को जनता का इतना समर्थन मिला हो।

पूर्व सैनिक किसानों के साथ

यह भी दिलचस्प है कि 80 फीसदी किसानों के बेटे फौज में हैं। यही कारण है कि पूर्व सैनिकों के कुछ संगठन किसान आन्दोलन का समर्थन कर चुके हैं। कई के पदाधिकारी तो किसान आन्दोलन में सीधे हिस्सा ले रहे हैं। वेटरन्स इंडिया पूर्व सैनिकों का संगठन है। इसके राष्ट्रीय संयुक्त सचिव अनुराग लठवाल कहते हैं कि मोदी सरकार को किसानों की सभी माँगें मान लेनी चाहिए थीं। उनका कहना है कि तीनों काले कानूनों को रद्द करना चाहिए। लठवाल कहते हैं कि यदि कानून रद्द नहीं होते हैं, तो देश के पूर्व सैनिक संसद का घेराव करेंगे।

आन्दोलन के बीच किसानों को सेवानिवृत्त जवानों का भी साथ मिल गया है। पंजाब के पूर्व सैनिकों का कहना है कि सरकार ने अगर कानून वापस नहीं लिये और किसानों की माँग नहीं मानी, तो देश भर के सैनिक 26 जनवरी को राष्ट्रपति को तमगे (मेडल) लौटाएँगे। पंजाब में करीब साढ़े तीन लाख सेवानिवृत्त पूर्व सैनिक किसान आन्दोलन के समर्थन में हैं। मोगा से सिंघु बॉर्डर पर आये सेवानिवृत्त सूबेदार जोगेंद्र सिंह ने बताया कि सन् 1965 और सन् 1971 में उन्होंने हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की जंग में हिस्सा लिया था और पाकिस्तानियों के दाँत खट्टे किये थे। अब इस बॉर्डर पर अपनी ही सरकार के किसान विरोधी कानून के खिलाफ सड़क पर आना पड़ा है। जोगेंद्र सिंह ने कहा- ‘यहाँ मैं किसानों की लड़ाई लडऩे आया हूँ। यह हक की आवाज़ है, जो कि खूब ज़ोर से उठेगी।’

गौरतलब है कि सोशल मीडिया में सैनिकों की तरफ से कुछ वीडियो भी सामने आये हैं, जिनमें वे किसानों के हक में बोल रहे हैं। हाल ही में सोशल मीडिया पर कुछ ऐसे वीडियो और भी देखने को मिले में हैं, जिनमें कुछ लोग किसानों के पक्ष में खुलकर बोल रहे हैं भी किया गया था। इनमें कुछ अपने को सैनिक बता चुके हैं। वैसे यह सभी जानते हैं कि किसानों और सैनिकों का सीधा नाता भी रहा है; क्योंकि सेना में अधिकतर जवान किसान परिवारों से हैं। ऐसे में अगर जवान और किसान एक साथ आ गये, तो सरकार के लिए बड़ी मुसीबत का कारण बन सकता है। भले ही सैनिक अनुशासन के कारण खुले रूप से कुछ न कहें; लेकिन जब वे छुट्टी पर घर आ रहे  हैं, तो यह देखने में आया है कि वे किसान आन्दोलन के समर्थन के लिए पहुँच रहे हैं।

भाजपा शासित राज्यों को मुश्किल

किसान आन्दोलन का असर भाजपा शासित राज्यों पर पड़ता दिख रहा है। किसान भाजपा सांसदों, विधायकों, नेताओं के घेराव की चेतावनी पहले ही दे चुके हैं। इसका एक उदहारण हाल में हरियाणा में देखने को मिला, जहाँ करनाल के कैमला गाँव में किसानों की महापंचायत में केन्द्रीय कृषि कानून के फायदे बताने के लिए की गयी सरकार की व्यवस्था धरी-की-धरी रह गयी। किसानों के विरोध के चलते मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को अपना दौरा रद्द करना पड़ा।

कैमला गाँव में किसान-संवाद कार्यक्रम में हुए हंगामे की ज़िम्मेदारी बीकेयू नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने ली। चढ़ूनी ने एक बयान में कहा कि कैमला गाँव में जो घटना हुई है, वो हमने करवायी है। मुख्यमंत्री जहाँ भी रैली करेंगे, हम वहाँ भी ऐसे ही विरोध करेंगे। उन्होंने कहा कि वे हमारे आन्दोलन को तोडऩे के लिए 700 रैलियाँ करेंगे और हम ऐसी भाजपा रैलियों का विरोध करेंगे। बता दें कि कैमला गाँव में प्रदर्शनकारी किसानों ने खट्टर के कार्यक्रम स्थल पर तोडफ़ोड़ कर दी। पुलिस ने कैमला गाँव की ओर किसानों के मार्च को रोकने के लिए उन पर पानी की बौछारें कीं और आँसू गैस के गोले छोड़े; लेकिन प्रदर्शनकारी नहीं रुके।

किसानों ने मंच, कुर्सियाँ, मेजें और गमले तोड़ दिये और अस्थायी हेलीपेड का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया; जहाँ मुख्यमंत्री का हेलीकॉप्टर उतरना था। मुख्यमंत्री वहाँ उतर ही नहीं पाये। बाद में पुलिस ने 71 लोगों को नामजद करते हुए कुल 800 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया। ऐसा माना जा रहा है कि किसान भाजपा शासित प्रदेशों में भविष्य में अपना विरोध नेताओं के घेराव तक ले जा सकते हैं।

आगे क्या करेंगे किसान

किसानों ने 13 जनवरी को लोहड़ी के दिन ‘किसान संकल्प दिवस’ मनाया और तीनों कानूनों की प्रतियाँ जलायीं। अब 18 जनवरी को महिला किसान दिवस मनाया जाएगा। हर गाँव से 10-10 महिलाओं को दिल्ली लाने का कार्यक्रम। इसके बाद 23 जनवरी को सुभाष चंद्र बोस की याद में ‘आज़ाद हिन्द किसान दिवस’ मनाया जाएगा। इस दिन राज्यों में राज्यपालों का घेराव करने का उनका कार्यक्रम है। किसानों की पूरी ताकत  26 जनवरी के आयोजन देखने को मिल सकती है, जब वे राजपथ पर ट्रैक्टर परेड निकालेंगे। इसके लिए एक लाख ट्रैक्टर वहाँ ले जाने की किसानों की योजना है। कई राज्यों से ट्रैक्टर गंतव्य के लिए रवाना हो चुके हैं।

समिति के सदस्य

डॉ. प्रमोद कुमार जोशी : इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक जोशी किसानों और खेती को लेकर कई पुस्तकें लिख चुके हैं। जोशी अनुबन्ध पर खेती (कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग) के प्रबल समर्थक रहे हैं और इस पर खुलकर बोलते रहे हैं। उन्होंने नेशनल एकेडमी ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च मैनेजमेंट हैदराबाद और नई दिल्ली स्थित नेशनल सेंटर फॉर एग्रीकल्चरल इकनॉमिक्स एंड पॉलिसी रिसर्च में बतौर डायरेक्टर काम किया है। इसके अलावा वह इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट और इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च इंस्टीट्यूट के लिए भी सेवाएँ दे चुके हैं।

अशोक गुलाटी : कृषि अर्थशास्त्री गुलाटी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय करने वाले कमीशन फॉर एग्रीकृचर कॉस्ट एंड प्राइजेज के अध्यक्ष रहे हैं। उन्हें खेती के नये कानूनों का मज़बूत समर्थक माना जाता है। नये कृषि कानूनों के बनने के बाद गुलाटी ने कई बार अपने बयानों में कहा है कि कानूनों को रद्द नहीं किया जाना चाहिए। हाँ, उन्होंने किसान आन्दोलन के मसले पर कहा था कि कानूनों को छ: माह तह होल्ड पर रखकर किसानों की शंका का समाधान किया जाना चाहिए। लेकिन उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद भी यही कहा कि किसानों की कानूनों को रद्द करने की माँग उचित नहीं है।

अनिल घनवट : अनिल घनवट महाराष्ट्र के शेतकारी संगठन के अध्यक्ष हैं, जो किसानों का एक संगठन है। घनवट भी नये कृषि कानूनों के समर्थन में बोल चुके हैं। उनका साफ कहना है कि खुली मार्केट व्यवस्था (ओएमएस) किसानों के हक के लिए है; क्योंकि इसके ज़रिये उनके पास अपना उत्पाद बेचने के अधिक विकल्प होंगे। यह उन्हें बेहतर दाम दिलायेगा।

भूपेंद्र सिंह मान : मान भारतीय किसान यूनियन (मान) से जुड़े हैं और अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति के चेयरमैन हैं। खुद किसान हैं। वह सन् 1990 से सन् 1996 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे हैं। मान और उनकी समिति तीनों कानूनों का समर्थन करते हैं। हालाँकि किसानों के चार सदस्यीय समिति के जबरदस्त विरोध के बीच मान ने खुद को इससे अलग कर लिया। (खबर लिखे जाने तक किसी नये सदस्य के नाम की घोषणा नहीं हुई।)

किसान आन्दोलन जारी

केंद्र सरकार के नये कृषि कानून को लेकर किसानों का दिल्ली से सटी सिंघु और अन्य सीमाओं पर शान्तिपूर्ण आन्दोलन तकरीबन दो महीने से जारी है। पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर पूरी ताकत से जमे हुए हैं। उधर अब अन्य जगह से भी किसान ट्रैक्टरों में दिल्ली की तरफ आते जा रहे हैं। किसान लगातार राष्ट्रीय राजधानी को सभी सीमाओं से घेर रहे हैं। इधर सरकार विराट किसान आन्दोलन को देखते हुए सुरक्षा के नाम पर सीमाओं को सील किये हुए है। इन सीमाओं स्थानीय पुलिस के साथ-साथ अतिरिक्त पुलिस बलों की तैनाती की गयी है। सरकार और किसानों के बीच अब तक आठ दौर की बातचीत बेनतीज़ा ही रही है और आखिर में सर्वोच्च न्यायालय को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा है। हालाँकि नतीजा कब तक निकलेगा? नहीं कहा जा सकता।

किसान तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने के बाद ही बातचीत को तैयार हैं, तो वहीं सरकार इन कानूनों को लेकर पीछे हटने को तैयार नहीं। इन सबके बीच एमएसपी और कोर्ट जाने को लेकर भी विवाद खड़ा हो गया है। कृषि कानून में एक ऐसी धारा जुड़ी है, जो किसी भी परिस्थिति में किसानों के कोर्ट जाने के अधिकार को खत्म कर रही है। यह धारा है- कृषक उपज ट्रेड और कॉमर्स कानून। बहुत-से कृषि जानकारों की मानें, तो वह भी इस बात का दावा कर रहे हैं कि इस धारा के तहत जो प्रावधान किये गये हैं, वो संविधान के तहत मान्य नहीं हैं। उनका दावा है कि इससे आम लोगों की परेशानी बढ़ेगी और नौकरशाही के सामने उन्हें इंसाफ नहीं मिल सकेगा।

इस कानून की धारा-13 और धारा-15 को लेकर किसानों के मन में संशय है। धारा-13 यह कहती है कि केंद्र सरकार या उसके अधिकारी, राज्य सरकार या उसके अधिकारी या किसी अन्य अधिकारी के खिलाफ कोई भी मुकदमा या कानूनी कार्यवाही नहीं हो पायेगी। धारा-15 के तहत किसी भी सिविल कोर्ट का इस कानून में कोई अधिकार क्षेत्र नहीं होगा। यह मामला तहत जिस अथॉरिटी  (डीएम, एसडीएम) को अधिकृत किया गया है, सुनवाई हर हाल में वहीं होगी। किसान इन्हीं धाराओं के चलते सरकार से टकराव की मुद्रा में हैं और कानूनों को रद्द करने की माँग कर रहे हैं। किसानों का आरोप है कि इससे उनके कानूनी हक को छीना जा रहा है, जिससे वे धीरे-धीरे अपनी ही ज़मीन पर मज़दूर हो जाएँगे। हालाँकि एसडीएम और अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट के यहाँ अर्जी दाखिल की जा सकेगी। सरकार का दावा है कि इस व्यवस्था के तहत किसानों को त्वरित, सुलभ और कम लागत पर न्याय मिल सकेगा। इन कानूनों में यह भी कहा गया है कि किसी भी विवाद की स्थिति में उसका समाधान स्थानीय स्तर पर 30 दिनों के भीतर हो सकेगा।

भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष दिवाकर सिंह चौधरी का कहना है कि हमें सर्वोच्च न्यायालय पर पूरा भरोसा है; लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से किसानों को इसका ज़्यादा फायदा नहीं होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने आन्दोलन खत्म करने का आदेश भी नहीं दिया है और हमारी माँग तीनों कानूनों को रद्द करने की है। जब तक कानून रद्द नहीं होंगे, तब तक आन्दोलन भी खत्म नहीं होगा।

यह मात्र छलावा है : टिकैत

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से क्या असहमति है?

देखिए, हम सर्वोच्च न्यायालय का सम्मान करते हैं। लेकिन हम तो कृषि कानूनों को रद्द करने की माँग कर रहे हैं। यह नहीं हुआ। ऊपर से जिस समिति का गठन हुआ है, उसके सभी सदस्य कृषि कानूनों के घोर समर्थक हैं। ऐसे में हम न्याय की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? हम तो न्यायालय में गये ही नहीं हैं। हमारी लड़ाई तो सरकार से है। वही कानूनों को रद्द कर सकती है। कानूनों वापसी ही हमारी घर वापसी का रास्ता खोलेगी।

लेकिन समिति के सदस्यों से तो मिलेंगे ना?

हम चार सदस्यों की इस समिति के सामने नहीं जाएँगे। हम उनसे नहीं मिलेंगे। हमें नहीं लगता कि वहाँ हमारी बात गम्भीरता से सुनी जाएगी। क्योंकि समिति के सभी सदस्य कानून के हक में हैं। यह तो एक तरह से सरकार के पक्ष वाली समिति हो गयी।

आन्दोलन को लेकर क्या कहेंगे? क्या फिलहाल इसे स्थगित करेंगे?

यह सारा तामझाम ही आन्दोलन को खत्म करने के लिए रचा गया है। सरकार यही तो चाहती है। लेकिन हम आन्दोलन खत्म करना तो दूर, अब इसे और तेज़ करने वाले हैं। हमारे (किसानों के) प्रति देश भर में समर्थन बढ़ रहा है। दूसरे प्रदेशों से किसान यहाँ कुछ कर रहे हैं। हम एकजुट हैं, और पूरी ताकत से मोदी सरकार के इन काले कानूनों का विरोध करते रहेंगे। किसानों की माँग कानून को रद्द करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर कानून बनाने की है। जब तक यह माँग पूरी नहीं होती, तब तक आन्दोलन जारी रहेगा। हमारा संयुक्त मोर्चा आन्दोलन जारी रखने के हक में कह चुका है।

लेकिन समिति तो सर्वोच्च न्यायालय ने बनायी है, फिर भरोसा क्यों नहीं कर रहे? क्या यह न्यायालय की अवहेलना नहीं?

हम किसी सूरत में न्यायालय के आदेश की अवहेलना नहीं कर रहे। न्यायालय के आदेश की अवहेलना तो भाजपा के लोग करते हैं। हम तो सर्वोच्च न्यायालय को भगवान मानते हैं। सच कहूँ, तो हमें समिति के गठन पर ऐतराज़ नहीं होता, अगर उसमें निष्पक्ष लोग होते। हमारा एतराज़ तो यह है कि समिति में कौन लोग हैं? उनकी विचारधारा क्या है? भूपिंदर सिंह मान पिछले 25 साल से अमेरिकी कम्पनियों की वकालत करते रहे हैं। उन जैसे लोग कैसे किसानों के भाग्यविधाता हो सकते हैं?

भरोसे का अभाव

इस बार ‘तहलका’ में राकेश रॉकी की आवरण कथा इस बात पर प्रकाश डालती है कि किसानों का कृषि कानूनों के खिलाफ 50 से ज़्यादा दिन से विरोध क्यों जारी है? और क्यों सरकार के प्रति उनमें भरोसा नहीं है? पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम इसकी पुष्टि करते हैं। किसानों द्वारा हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर बनी विशेषज्ञ समिति को अस्वीकार कर देना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इस समिति का गठन किसानों और सरकार के बीच मध्यस्थता के लिए किया गया है। समिति को अस्वीकार करने और दूसरी किसान गतिविधियों से साबित होता है कि किसान संगठन परदे के पीछे के खेल को अच्छी तरह से समझ रहे हैं। उन्होंने न केवल अपनी ओर से समिति को खारिज कर दिया है, बल्कि विवादास्पद कानूनों को निरस्त करने तक मंत्रणा प्रक्रिया में भाग लेने से इन्कार कर दिया है। एक मज़ूबत निर्णय लेकर किसान निश्चित ही एक जाल में फँसने से बच गये हैं। उन्होंने आरोप लगाया है कि चुनी गयी समिति के सदस्यों ने कृषि कानूनों के प्रति समर्थन व्यक्त किया है और वास्तव में उनका अविश्वास और संदेह सही साबित हुआ। समिति के चार सदस्यों में से एक, भारतीय किसान यूनियन (मान) के अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह मान ने विवाद पैदा होते ही खुद को इससे अलग कर लिया है। यूनियन के ट्विटर हैंडल पर जारी एक बयान में उन्होंने कहा कि किसान यूनियनों और आम जनता की भावनाओं और आशंकाओं को देखते हुए मैं समिति के सदस्य के रूप में दिया गया पद छोडऩे के लिए तैयार हूँ; ताकि पंजाब और देश के किसानों के हितों से समझौता न हो। समिति का अच्छा होना इसके सदस्यों पर निर्भर है और किसान संगठन शुरू से ही समिति की संरचना को लेकर आशंकित थे।

कड़ाके की ठंड और बारिश जैसी विपरीत परिस्थितियों में दिल्ली की सीमाओं पर शान्तिपूर्वक विरोध-प्रदर्शन कर रहे किसान तीनों नये कृषि कानूनों को निरस्त करने की माँग कर रहे हैं और उन्हें इससे कम में कुछ स्वीकार नहीं है। आन्दोलनकारी किसानों ने लोहड़ी पर्व पर तीनों कृषि कानूनों की प्रतियाँ जलाते हुए कहा कि नये कानून राज्यों के कृषि संरक्षण को कम करते हैं और किसानों को कॉर्पोरेट घरानों की दया पर छोड़ते हैं। दूसरी ओर सरकार का कहना है कि निजी निवेश से कृषि क्षेत्र को बढ़ावा मिलेगा और किसानों की दशा में सुधार होगा। बहरहाल, समाज के विभिन्न वर्गों की भावना और समर्थन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जब तक सरकार किसानों की बात नहीं सुनती है, तब तक मसले का कोई अन्त नहीं हो सकता।

सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने कहा कि ये जीवन और मृत्यु के मामले हैं। हम कानूनों से चिन्तित हैं। हम आन्दोलन से प्रभावित लोगों के जीवन और सम्पत्ति को लेकर चिन्तित हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही अगले आदेश तक कृषि कानूनों के कार्यान्वयन पर रोक लगायी है। गणतंत्र दिवस की परेड के दौरान दिल्ली में किसानों की प्रस्तावित ट्रैक्टर परेड को टालने के लिए अदालत के हस्तक्षेप ने गेंद सरकार के पाले में डाल दी है। यह एक संकट की स्थिति है, जब मानवता पीडि़त है और पहले से ही 100 से अधिक ज़िन्दगियाँ जा चुकी हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही किसानों के आन्दोलन से निपटने के तरीके पर नाखुशी, प्रदर्शनकारियों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के खराब होने के प्रति चिन्ता जतायी है और रक्तपात की चेतावनी दी है। क्योंकि समय जटिलता को हल करने के लिए त्वरित कार्रवाई का है।

करीब आधे देश में बर्ड फ्लू का कहर

30 सितंबर, 2020 को देश को बर्ड फ्लू की बीमारी से मुक्त घोषित किया गया था। लेकिन सिर्फ तीन महीने के बाद ही देश में बर्ड फ्लू (एच5एन1 वयरस) का कहर टूट पड़ा है। कोरोना महामारी के कहर से डरे लोगों में अब बर्ड फ्लू की दहशत है। देश के कई राज्यों को अलर्ट रहने को कहा गया है। मौज़ूदा समय में देश एक साथ कई मोर्चों पर जूझ रहा है। कोरोना  वायरस की वजह से बन्द हुए बाज़ारों ने जैसे-तैसे थोड़ी-बहुत रफ्तार पकड़ी, तो अब बर्ड फ्लू के कारण यह रफ्तार फिर से थम रही है। करीब आधे देश में बर्ड फ्लू का कहर है।

एक अजीब-सा माहौल बाज़ारों में देखा जा रहा है। जहाँ देखो, वहाँ कोरोना के साथ बर्ड फ्लू की चर्चा लोगों में दहशत पैदा कर रही है। दिल्ली की संजय झील की बत्तखों में बर्ड फ्लू के लक्षण पाये जाने से सभी संक्रमित बत्तखों को मारना पड़ा।

दिल्ली में बर्ड फ्लू की दहशत से दिल्ली के चिकन, मटन बाज़ारों, मुर्गा मंडियों को बन्द कर दिया गया था। लेकिन बाद में गाज़ीपुर मुर्गा मंडी के 100 नमूने जाँच के लिए भेजे गये, जो निगेटिव पाये गये। इसके बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस मंडी को खोलने के निर्देश जारी कर दिये। इससे पहले इस कारोबार में लगे छोटे-बड़े व्यापारियों ने ‘तहलका’ संवाददाता से कहा था कि जिस तरह कोरोना वायरस को लेकर सियासत हुई, उसी तरह अब बर्ड फ्लू पर सियासत होती नज़र आ रही है, जिसके कारण चिकन-मीट की दुकानें बन्द करायी जा रही हैं। निरीक्षण और परीक्षण के नाम पर शासन-प्रशासन अपनी-अपनी धौंस जमा रहे हैं। जहाँ देखो वहाँ पर प्रशासन से जुड़े अधिकारी जाँच करने आ जाते हैं। मुर्गा, अंडे को बेचने वाले अपनी दुकानों को खोलने से डर रहे हैं, जिससे चिकन, मीट और अंडों के दामों में गिरावट आ रही है।

गाजीपुर मंडी के मुर्गा व्यापारी सलीम का कहना है कि बर्ड फ्लू कोई नयी बीमारी नहीं है; साल-दो साल में आती रहती है। लोगों की ज़रा-सी सावधानी से, खासकर शहरों में जागरूकता से इस पर काबू पा लिया जाता है। पर इस बार बर्ड फ्लू को कोरोना से ज़्यादा खतरनाक बताकर सीधा चिकन-मीट के बाज़ारों को तोड़ा जा रहा है, जिससे चिकन और मीट के व्यापारियों में रोष है। फैज़ान अख्तर का कहना है कि कई राज्यों में चिकन, मटन और अंडे के व्यापारियों को तंग किया जा रहा है। हरियाणा और मध्य प्रदेश में तो बाज़ारों को अचानक बन्द करवाया जा रहा है, जबकि इस बीमारी का मानव जाति पर कोई बड़ा असर देखने को नहीं मिला है।

चिकन, मीट और अंडे का कारोबार करने वाले गफ्फार का कहना है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) सहित देश के जाने-माने डॉक्टरों ने कई बार कहा कि चिकन, मीट और अंडे को अच्छी तरह से उबालकर, पकाकर खाने से एच5एन1 का खतरा नहीं रहता है। इस जानकारी के बावजूद चिकन, मटन के बाज़ारों को क्यों बन्द कराया जा रहा है? जबकि देश की जीडीपी में मटन, चिकन और अंडे के कारोबार का अहम योगदान है। जानकारों का कहना है कि अगर बर्ड फ्लू के नाम ज़्यादा सख्ती की गयी, तो देश की अर्थ-व्यवस्था पर प्रभाव पड़ेगा और साथ ही लाखों लोग बेरोज़गार जाएँगे। देश तो पहले ही विकट संकट से गुज़र रहा है। दिल्ली की गाज़ीपुर मुर्गा मंडी में मीट का कारोबार करने वाले रहमान धन्धे पर असर पडऩे की बात कही।

बताते चलें कि राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, केरल, हिमाचल प्रदेश पंजाब और दिल्ली समेत करीब 12 राज्यों में बर्ड फ्लू से पक्षियों के मौतें हो रही हैं। इसका नतीजा यह तो नहीं कि देश भर में पक्षियों से जुड़े व्यापार पर सरकार पर शिकंजा कसे। डीएमए के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अनिल बंसल का कहना है कि बर्ड फ्लू ने कई मर्तबा देश में हड़कंप मचाया है और एक-दो सप्ताह के भीतर स्वत: ही चला गया है। पर इस बार कोरोना के कारण इस बीमारी को लेकर एक अजीब-सी दहशत फैलायी जा रही है, जो ठीक नहीं है। डॉ. बंसल का कहना है कि बर्ड फ्लू एक संक्रमित बीमारी है और एच5एन1 वायरस के कारण इसका सीधा असर श्वसन तंत्र पर पड़ता है। इससे बचाव के तौर पर सरकार को चौकस रहने और स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त रखने की ज़रूरत है। केंद्रीय पशुपालन मंत्री संजीव बालियान का कहना है कि बर्ड फ्लू को रोकने के लिए सरकार हर सम्भव प्रयास कर रही है। देश में यह कोई नयी बीमारी नहीं है। इसके पहले 2006 में इसके मामले मिले थे और फिर 2015 से हर साल मामले सामने आते रहे है।  केंद्रीय पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन मंत्री गिरिराज सिंह का कहना है कि देश में प्रवासी पंक्षियों के कारण बर्ड फ्लू आता है। अक्टूबर में दिशा-निर्देश जारी किये गये थे कि सर्दी आने वाली है और सावधानी बरतने की आवश्यकता है।

इंडियन हार्ट फांउडेशन के चेयरमैन डॉ. आर.एन. कालरा का कहना है कि 30 सितंबर, 2020 को ही देश को बर्ड फ्लू मुक्त करने की घोषणा की गयी थी; लेकिन न जाने व्यवस्था में कैसे, कहाँ चूक रह गयी कि तीन महीने बाद ही बर्ड फ्लू का कहर टूट पड़ा, जिससे लोगों में दहशत फैल रही है। डॉ. अभी ये बीमारी पक्षियों से पक्षियों के बीच ही फैली है। अगर इंसानों में फैल गयी, तो कोरोना से भी घातक हो सकती है। इससे बचने के लिए कोरोना वायरस से बचाव के उपायों की तरह ही मुँह में मास्क लगाएँ, संक्रमित क्षेत्र में जाने से बचें, साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें।

अर्थ-व्यवस्था में मज़बूती के लिए कृषि बजट में बढ़ोतरी ज़रूरी

हमें बीते हुए बुरे वक्त से भी भरपूर सीखना चाहिए। क्योंकि वक्त के दिये जख्मों पर मरहम लगाकर ज़िन्दगी के सफर में आगे बढऩे में ही इंसान की भलाई होती है। कोरोना महामारी की त्रासदी के चलते हम बीते साल 2020 को कभी नहीं भूल सकते; लेकिन उससे सीख लेकर आगे बढ़ सकते हैं। कहावत है कि बीते वक्त को रोने से आगे की राह मुश्किल होती है। वैसे भी कोरोना टीका आने की उम्मीद बढ़ गयी है, ऐसे में देशवासियों को अब सुरक्षा उपायों पर ध्यान रखते हुए चिन्ता छोड़कर काम में जुट जाना चाहिए। कहने का मतलब यह है कि 2020 को एक बुरा सपना समझकर हमें भुलाना होगा। 2021 का स्वागत हम सब कर ही चुके हैं। लेकिन अब हमारे सामने, खासकर केंद्र सरकार के सामने कई बड़ी चुनौतियाँ हैं।

इसी फरवरी में सरकार को वित्तीय साल 2021-22 के लिए बजट पेश करना है। ऐसे में सरकार को ध्यान रखना होगा कि वह एक ऐसा बजट पेश करे, जिससे कोरोना वायरस और लम्बे लॉकडाउन के चलते डावाँडोल हो चुके हर क्षेत्र को आर्थिक बल मिलने के साथ-साथ उत्पादों की बिक्री में तेज़ी आ सके। इसके लिए न केवल सरकार को उद्योगों, कम्पनियों और दूसरे धन्धों को बढ़ावा देना होगा, बल्कि रोज़गारों का सृजन करना होगा। हालाँकि राज्य सरकारों को भी इसके लिए मेहनत करनी होगी, लेकिन केंद्र सरकार को इसमें प्रमुख भूमिका निभानी होगी। इस बार ठप पड़े उद्योग धन्धों और कम्पनियों के लिए एक अच्छा बजट पेश करने के साथ-साथ सरकार को कृषि क्षेत्र पर ध्यान देना होगा तथा कृषि क्षेत्र का बजट और बढ़ाना होगा। क्योंकि इस बार तीन नये कृषि कानूनों के चलते किसान आन्दोलन कर रहे हैं और उन्हें भरोसे में लेने के लिए सरकार को एक बेहतर कृषि बजट पेश करना चाहिए, अन्यथा सरकार और किसानों की टकराहट से कृषि उपज पर बुरा असर पड़ सकता है। वैसे उम्मीद है कि सरकार इस बजट में कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान देगी; क्योंकि उसकी कोशिश है कि तीन नये कृषि कानूनों के खिलाफ आन्दोलनरत किसान कुछ सुधारों पर उसकी बात मान जाएँ।

चुनौतियों को अवसर में बदलने की ज़रूरत

कोरोना-काल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि आपदा को अवसर में बदलने की ज़रूरत है। लेकिन अब जब आपदा से कुछ-कुछ निजात मिल रही है, तो अनेक चुनौतियाँ सरकार के सामने हैं। लगभग सभी उद्योग धन्धे मंदी के दौर से गुज़र रहे हैं। हालाँकि सरकार के द्वारा दिये गये जीडीपी के 10 फीसदी आर्थिक योगदान, जिसमें कृषि, एमएसएमई और महिलाओं का खासतौर पर ध्यान रखा गया है; से आर्थिक क्षेत्रों में तेज़ी आने की उम्मीद बनेगी। वैसे सरकार और आर्थिक मामलों के कुछ जानकार मान रहे हैं कि आगामी वित्तीय वर्ष 2021-22 में जीडीपी दर 8 से 9 फीसदी पर रह सकती है। अगर ऐसा होता है, तो हर क्षेत्र में रोज़गार के अवसर बढ़ेंगे। कोरोना-काल की चुनौतियों को अवसर में बदलने की बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले ही कह चुके हैं। ऐसे में उम्मीद है कि केंद्र सरकार चुनौतियों को अवसर में बदलने का भरपूर प्रयास करेगी। सरकार से उम्मीद है कि वह लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्हें रोज़गार तथा स्वरोज़गार के नये अवसर प्रदान करेगी। लेकिन यह इतना आसान नहीं है। नये अवसर तभी मिलने सम्भव होंगे, जब सरकार कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान देगी।

सदियों से आत्मनिर्भर हैंं किसान

जब देश तालाबन्दी के दौरान हर क्षेत्र में कामकाज बन्द हो गया था, तब किसान ही थे, जो अपने खेतों में काम कर रहे थे। इतना ही नहीं, लॉकडाउन में बेरोज़गार हुए मज़दूर जब अपने-अपने घरों को लौटे, तो किसानों ने उन्हें भी सँभाला, काफी हद तक उन्हें रोज़गार भी दिया। यह वह समय था, जब अधिकतर उद्योग, कम्पनियाँ लोगों को नौकरी से निकाल रही थीं। कह सकते हैं कि किसानों ने सरकार को भी यह बता दिया कि आत्मनिर्भर का सही मतलब क्या होता है। सरकार ने तो अब आत्मनिर्भर भारत का नारा दिया है, लेकिन किसान सदियों से आत्मनिर्भर हैं। इतना ही नहीं किसान वो दरियादिल लोग हैं, जो दूसरों का पेट भरने के साथ-साथ देश के अधिकतर मज़दूरों को काम भी देते हैं, जबकि खुद गरीबी में भी जी लेते हैं। अगर बड़े किसानों की बात करें, तो उनकी संख्या बहुत कम होने के बावजूद वे लाखों लोगों को रोज़गार प्रदान करते हैं। लेकिन सदियों से आत्मनिर्भर किसानों ने कभी इस बात का घमंड नहीं किया कि वे दूसरों के लिए क्या करते हैं। आज अगर किसान सड़क पर हैं, तो इसके पीछे उसकी विरासत पर बड़ा खतरा मंडराना है, जिसे किसान क्या कोई भी बर्दाश्त नहीं करेगा। सरकार को चाहिए कि वह किसानों को इस भयंकर ठंड और बारिश के मौसम में खुले में रहने और सोने से बचाने की कवायद करे और जल्द-से-जल्द समस्या का समाधान करे। यह दु:ख की ही बात है कि आन्दोलन में ठंड की वजह से चार दर्जन से अधिक किसानों का बलिदान हो चुका है और सरकार ने एक भी किसान को न तो श्रद्धांजलि दी और न ही उनके परिवार की मदद के लिए कोई कदम उठाया। मुझे बड़े दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि सरकार की किसानों के प्रति यह उदासीनता देश को बदहाली की उस खाई की ओर ले जा रही है, जिसमें किसान ही नहीं, देश के अधिकतर लोग गिरेंगे।

कृषि को हल्के में न ले सरकार

समस्या यह है कि कृषि के विकास को आज तक किसी भी सरकार ने बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं दी; जबकि सच्चाई यह है कि भारत की अधिकतर जनसंख्या कृषि पर ही निर्भर है। हालाँकि कृषि पर ज़रूरत से ज़्यादा लोग निर्भर हैं, जिससे इस क्षेत्र से जुड़े लोगों की आमदनी बहुत कम है। इसकी एक वजह यह भी है कि किसानों को कड़ी और लम्बी मेहनत के बाद भी इसका उतना लाभ नहीं मिल पाता, जितना कि मामूली-सी मेहनत पर बहुत ही कम समय में जमाखोरों को मिल जाता है। सरकार को इस पर लगाम कसनी चाहिए और किसानों तक ज़्यादा-से-ज़्यादा मुनाफा पहुँचाने की दिशा में काम करना चाहिए। उसे कृषि को हल्के में नहीं लेना चाहिए। कृषि क्षेत्र में लोगों की निर्भरता को कम करने के लिए सरकार को दूसरे क्षेत्रों में रोज़गार बढ़ाने होंगे, ताकि कृषि से जुड़े लोगों की आय बढ़ सके और दूसरे क्षेत्रों में भी रोज़गार के साथ-साथ आमदनी बढऩे के रास्ते खुल सकें।

मैं कोई अर्थशास्त्री तो नहीं हूँ, लेकिन सम्पन्न किसान परिवार में जन्मा और पत्रकारिता के माध्यम से संसद तक का सफर करने का सौभाग्य मुझे मिला है, इसलिए इतना ज़रूर जानता हूँ कि देश की अर्थ-व्यवस्था के लिए क्या फायदेमंद है और क्या नुकसानदायक। मेरी नज़र में कृषि ही एक ऐसा बहुआयामी क्षेत्र है, जिसके विकास से दूसरे क्षेत्रों के विकास की राह आसान होगी। इसलिए मेरी सरकार से अपील है कि वह दूसरे क्षेत्रों को मज़बूत करने के साथ-साथ कृषि क्षेत्र को मज़बूती प्रदान करे, ताकि देश के किसानों की आय दोगुनी करने का प्रधानमंत्री मोदी का सपना भी साकार हो सके और किसानों का जीवन भी खुशहाल हो सके। हालाँकि लॉकडाउन के दौरान भी सरकार ने एमएसपी पर गेहूँ की रिकॉर्ड खरीद करके यह तो बता दिया कि वह किसानों के हित में काम करने की इच्छुक है, लेकिन लॉकडाउन में ही तीन नये कृषि कानून लाकर वह फँस गयी। अब दोनों ही तरफ इन कानूनों को लेकर खींचतान इतनी बढ़ गयी है कि किसान करीब दो महीने से दिल्ली की सीमाओं की सड़कों पर आन्दोलन पर बैठे हैं और आठ बार सरकार और किसानों की बीच वार्ता विफल हो चुकी है। इन कृषि कानूनों में संशोधन को सरकार तैयार है, पर किसान इन्हें वापसी की माँग पर अड़े हैं। क्योंकि उन्हें डर है कि नये कृषि कानूनों के दम पर उद्योगपति कृषि भूमि पर कब्ज़ा जमा लेंगे और किसान अपने ही खेतों में मज़दूर हो जाएँगे। अफसोस इस बात का है कि जो किसान दिन-रात मेहनत करके मोटी लागत लगाकर मज़दूरी के बराबर भी नहीं कमा पाता, उसी की उगायी फसलों पर एक बिचौलिया अपनी कम्पनी का लेबल लगाकर कई गुना लाभ कमा लेता है। सरकार इस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगा रही, जबकि किसान को एमएसपी के हिसाब से भी दाम नहीं मिल पाते। यह सभी जानते हैं कि भारत कृषि प्रधान देश है और यह क्षेत्र देश की अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ है। 2020 की दूसरी तिमाही में जब जीडीपी धरातल में -23.9 फीसदी चली गयी थी, तब केवल कृषि क्षेत्र ही था, जो (प्लस) 3.4 फीसदी पर में था।

कृषि पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता

एक बात बताना ज़रूरी समझता हूँ, वह यह कि सर्विस सेक्टर का जीडीपी में योगदान 61.5 फीसदी है, जबकि इससे केवल 25 फीसदी लोगों को ही रोज़गार मिलता है। वहीं कृषि क्षेत्र का जीडीपी में योगदान इससे चौथाई यानी केवल 15.4 फीसदी है, जबकि कृषि क्षेत्र सर्विस सेक्टर की अपेक्षा दोगुने से अधिक लोगों को यानी करीब 53 फीसदी लोगों को रोज़गार देता है। हालाँकि कृषि क्षेत्र से सम्बन्धित अन्य कई रोज़गार भी हैं, जो आँकड़ों में नहीं दिखते; मसलन दुकानदार, खान-पान का छोटा-मोटा धन्धा करने वाले लोग, फल-सब्ज़ी बेचने वाले वे लोग, जिनके रोज़गार की गणना नहीं की जा सकी है और छोटे-मोटे पल्लेदार, जो गाँवों में अनाज की खरीद-फरोख्त करते हैं। इस तरह मेरा मानना है कि कृषि क्षेत्र से रोज़गार पाने वाले लोगों का फीसद और अधिक है। इसलिए सरकार को कृषि क्षेत्र की तरफ विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है। पिछले साल हमने चीन तक को चावल निर्यात किया था। यह कोई नयी बात नहीं है। भारत के खाद्य पदार्थों की दुनिया भर में विकट माँग है, लेकिन कुछ दलाल व्यापारियों और खेती-बाड़ी के प्रति लोगों की उदासीनता के चलते किसानों को उन्नत खेती के तरीके नहीं पता हैं, जिससे हम दुनिया की खाद्य पदार्थों की माँग को पूरा नहीं कर पाते। दूसरे देशों में एक तरफ उन्नत खेती की जाती है, तो दूसरी तरफ कृषि पर बहुत कम लोग निर्भर हैं, जिससे विदेशी किसान काफी सम्पन्न होते हैं।

मेरा मानना है कि लॉकडाउन में आत्मनिर्भर भारत के सपने को पूरा करने के लिए सरकार को देश की जीडीपी में 30 फीसदी और निर्यात में 48 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले एमएसएमई को आत्मनिर्भर बनाना होगा। इसके लिए सरकार को वित्त वर्ष 2021-22 के बजट में एमएसएमई मंत्रालय के लिए भी अन्य बड़े मंत्रालयों की तरह बजटीय प्रावधान करना होगा। ऐसे में सरकार को चाहिए कि कृषि क्षेत्र के लिए सरकार एक विशेष बजट इस वित्तीय वर्ष में पेश होने वाले बजट में पेश करे। पिछली बार वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए सरकार ने 1,42,762 करोड़ रुपए का कृषि बजट पेश किया था, इस बार सरकार को इसे बढ़ाना चाहिए।

अन्य क्षेत्रों में भी हों बड़े बदलाव

कृषि के साथ-साथ सरकार को दूसरे क्षेत्रों में भी बड़े बदलाव और विकास की गति तेज़ करने की ज़रूरत है। वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम ग्लोबर काम्पटिवनेस रिपोर्ट 2019 के मुताबिक, भारत दुनिया में पारदर्शिता के मामले में 66वें, प्रॉपर्टी राइट के मामले में 87वें, कार्पोरेट गवर्नेंस के मामले में 15वें और अकाउंटिंग के मामले में 67वें स्थान पर था। इसी तरह इस रिपोर्ट में यह भी खुलासा हुआ है कि भारत ट्रांसपोर्ट इंफ्रास्ट्रक्चर के मामले में दुनिया में 28वें, रोड कनेक्टिविटी के मामले में 72वें, रोड गुणवत्ता के मामले में 48वें, रेल क्षमता के इस्तेमाल के मामले में 30वें और वायुसेना की क्षमता के इस्तेमाल के मामले में 59वें स्थान पर है। अगर सरकार इन क्षेत्रों में सुधार करती है, तो ज़ाहिर है कि देश और तरक्की करेगा। उम्मीद है कि सरकार 2020 की कोरोना महामारी की त्रासदी को देखते हुए हर क्षेत्र को उबारने के लिए बेहतर कदम उठायेगी।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

वैक्सीन पर बवाल

सुरक्षा के लिहाज़ से जो वैक्सीन (टीका) तैयार होने में कुछ साल लेती है, लेकिन कोरोना वैक्सीन महीनों में तैयार हो गयी। लाखों की जान लेने वाली कोविड-19 महामारी की वैक्सीन शायद बहुत-से सवालों में इसलिए भी घिरी है, क्योंकि इस जल्दी को लेकर दुनिया भर के विशेषज्ञों ने वैक्सीन के साइड इफैक्ट्स का खतरा ज़ाहिर किया है। और इस खतरे को वैक्सीन की पहली खुराक लेने वाले दर्ज़नों लोगों के बीमार पडऩे या कुछ मामलों में मौत हो जाने के बाद बल मिला है। भारत के भोपाल के पीपुल्स मेडिकल कॉलेज में 12 दिसंबर को कोवैक्सीन का ट्रायल टीका लगवाने वाले 47 वर्षीय वॉलंटियर दीपक मरावी की 21 दिसंबर को मौत हो गयी। दीपक के परिजनों ने कोविड वैक्सीन को लेकर सवाल उठाये हैं। उधर अमेरिका के फ्लोरिडा में फाइज़र-बायोएनटेक की वैक्‍सीन की पहली खुराक लेने के दो हफ्ते बाद ही 56 साल की गायनेकोलॉजिस्‍ट डॉ. ग्रेगोरी माइकल की दुर्लभ िकस्म के ब्‍लड डिस्‍ऑर्डर से मौत की खबर मीडिया में आयी। इन घटनाओं को देखते हुए वैक्सीन के जल्दी तैयार किये जाने को लेकर आशंकाओं को बढ़ावा मिला है; भले ही कई विशेषज्ञ इसे 100 फीसदी सुरक्षित बता रहे हैं। इधर आशंकाओं और उम्मीदों के बीच भारत सरकार 16 जनवरी से कोविड टीकाकरण शुरू हो गया है।

यह भी बहुत दिलचस्प है कि भारत में कोरोना वायरस से बचाव के लिए वैक्सीन तैयार करने वाली जो दो कम्पनियाँ पहले एक-दूसरे के खिलाफ ज़हर उगल रही थीं, देश में टीके को लेकर बढ़ रही आशंका भरी आवाज़ों के बीच दोनों अचानक एक-दूसरे के साथ आ खड़ी हुईं। भारत बायोटेक और सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने 5 जनवरी को एक साझा बयान जारी कर कहा कि वो यह बात समझते हैं कि इस समय दुनिया के लोगों और देशों के लिए वैक्सीन की अहमियत क्या है? ऐसे में हम इस बात का प्रण लेते हैं कि कोविड-19 वैक्सीन की उपलब्धता वैश्विक स्तर पर हो सके। इससे पहले तब विवाद हो गया था, जब एम्स के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया ने कहा था कि सिरम की वैक्सीन कोविशील्ड को टीकाकरण के लिए स्वीकृति मिली है, जबकि भारत बायोटेक की वैक्सीन के सम्बन्ध में डाटा पूरा न होने के कारण उसे बैकअप के तौर पर सिर्फ इमरजेंसी में इस्तेमाल किये जाने की स्वीकृति है। इस पर भारत बायोटेक के प्रमुख डॉ. कृष्ण एला खूब गुस्सा हुए थे और उन्होंने कहा था कि ऐसा कुछ नहीं होता। उनके मुताबिक, वैक्सीन वैक्सीन होती है, बैकअप नहीं। लोग हम पर कीचड़ उछालते हैं और हमें अपना कोट साफ करते रहना होता है। वैक्सीनेशन को लेकर एम्स के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया ने हाल में कहा था कि बच्चों का भी वैक्सीनेशन ज़रूरी होगा। हालाँकि उनमें संक्रमण थोड़ा कम होता है। लेकिन इससे पहले बच्चों से जुड़े डाटा का अध्ययन नहीं किया गया है। गुलेरिया के मुताबिक, अभी हमारे पास 5 से 10 साल के बच्चों पर वैक्सीन कितना प्रभावी है? यह डाटा नहीं है। इसलिए अभी हम उन्हें वैक्सीन नहीं दे पाएँगे। गुलेरिया के मुताबिक, वैसे बच्चों में संक्रमण कम होता है; लेकिन जैसे-जैसे स्कूल खुलेंगे, तो बच्चे स्कूल से घरों में संक्रमण लेकर आ सकते हैं और इसका शिकार बुजुर्ग भी हो सकते हैं। इसलिए बाद में बच्चों का भी वैक्सीनेशन ज़रूरी होगा।

क्या कहते हैं विशेषज्ञ

अगर राजनीतिक विरोध को दरकिनार कर दें, तब भी काफी विशेषज्ञ वैक्सीन को लेकर सवाल उठा चुके हैं। ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका और भारत बायोटेक की वैक्सीनों को भारत में मंज़ूरी मिलने के बाद विश्वसनीयता को लेकर कई सवाल उठे हैं। विशेषज्ञों ने वैक्सीन की स्वीकृति प्रक्रिया पर सवालिया निशान लगाये हैं। ज़ाहिर है इससे देश में इस पर बहस शुरू हो गयी है। सबसे पहली प्रतिक्रिया वेल्लूर मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर और महामारियों के खिलाफ वैक्सीनों से जुड़े ग्लोबल संगठन सीईपीआई की उपाध्यक्ष डॉ. गगनदीप कंग के एक इंटरव्यू में सामने आयी, जब उन्होंने कहा कि ट्रायलों में वैक्सीन के असर के बारे में कोई स्टडी या डाटा प्रकाशित या प्रस्तुत नहीं किया जाना हैरान करने की बात है। ऐसा कभी नहीं देखा गया।

देश के बड़े स्वास्थ्य विशेषज्ञों में गिनी जाने वाली कंग ने कहा कि विशेषज्ञों ने दोनों वैक्सीन के स्वीकृत किये जाने की प्रक्रिया पर सवाल खड़े किये हैं, मगर भारत बायोटेक की कोवैक्सीन को लेकर ज़्यादा ऐतराज़ जताया गया है। कंग ने कहा कि असल समस्या कोवैक्सीन के डाटा को लेकर है। कोविशील्ड के बारे में जो भी जानकारियाँ हैं, उनसे कम-से-कम यहाँ तक तो पहुँचा जा सकता है कि वैक्सीन 50 फीसदी से ज़्यादा तो असरदार पायी ही गयी, लेकिन भारत बायोटेक की वैक्सीन सम्बन्धी कोई स्टडी कहाँ है? हालाँकि आईसीएमआर के पूर्व प्रमुख डॉ. आर गंगाखेड़कर वैक्सीन को लेकर सामने आ रही बातों को अफवाह बताते हैं। वह कहते हैं कि लोग अफवाहों पर ध्यान न दें। इस वैक्सीन में पोर्क का कोई अंश नहीं है। वैक्सीन से नपुंसकता जैसी बातें भी बकवास हैं। उन्होंने जनता से कहा कि सोशल मीडिया में कोरोना को लेकर जो मैसेज आते हैं, उसकी सत्यता जाने बिना उसे फॉरवर्ड न करें। लेकिन वैक्सीन की मंज़ूरी के बाद अखिल भारतीय ड्रग एक्शन नेटवर्क ने कहा कि वैक्सीन के प्रभाव को लेकर डाटा नहीं दिया गया। पारदर्शिता नहीं बरती गयी है। इससे बहुत-से सवाल खड़े होते हैं। उनकी प्रतिक्रिया तब आयी थी, जब भारत के ड्रग कंट्रोलर जनरल वीजी सोमानी ने मंज़ूर की गयी वैक्सीन के 110 फीसदी सुरक्षित होने का दावा किया था। वैसे उन्होंने डाटा को लेकर कोई सफाई नहीं दी। एआईडीएएन ने भी कोवैक्सीन की मंज़ूरी को लेकर बयान में सवाल उठाया कि किन प्रावधानों के तहत एसईसी ने इस वैक्सीन की मंज़ूरी के लिए सिफारिश की? यह साफ नहीं है।

ज़ाहिर है विषेशज्ञों की तरफ से ही जब सवाल उठे हैं, तो लोगों में भी अविश्वास पैदा होगा ही। विशेषज्ञों के ज़्यादा सवाल पारदर्शिता और डाटा के अभाव को लेकर हैं।

सवाल यह है आखिर भारतीय नियामक संस्थाएँ लोगों को आश्वस्त क्यों नहीं कर रहीं? वो जवाबदेही से नहीं बच सकतीं। यह महज़ एक टीके की बात नहीं है, बल्कि देश के वृहद् फार्मास्यूटिकल इंडस्ट्री की साख का सवाल है।

वैक्सीन के बाद मौत

वैक्सीन की विश्वसनीयता को लेकर उठ रहे सवालों के बीच तब लोगों की आशंका गहरा गयी, जब मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में कोवैक्सीन का ट्रायल टीका लगवाने वाले 46 साल के वॉलंटियर दीपक मरावी की 21 दिसंबर को मौत हो गयी। दीपक मरावी मज़दूरी करते थे और टीला जमालपुरा की सूबेदार कॉलोनी में किराये के इसी एक कमरे में तीन बच्चों के साथ रहते थे। दीपक ने कोरोना वैक्सीन ट्रायल में हिस्सा लिया था। पहली खुराक के बाद ही तबीयत खराब हो गयी और अस्पताल पहुँचने से पहले दीपक की मौत हो गयी। उनके शव का 22 दिसंबर को पोस्टमार्टम हुआ, जिसकी प्रारम्भिक रिपोर्ट में ज़हर मिलने की पुष्टि हुई। फिलहाल इस मामले में पोस्टमार्टम की फाइनल रिपोर्ट का इंतज़ार है।

उनके पुत्र आकाश के मुताबिक, पिता को 19 दिसंबर को अचानक घबराहट, बेचैनी और जी मिचलाने के साथ उल्टियाँ होने लगीं। उन्होंने इसे सामान्य बीमारी समझकर उसका कहीं इलाज नहीं कराया। आकाश के मुताबिक, खुराक लगवाने के बाद से उसके पिता ने मज़दूरी पर जाना बन्द कर दिया था। उसके पिता कोरोना प्रोटोकॉल का पालन कर रहे थे। दीपक की सेहत 19 दिसंबर को बिगड़ी और 21 दिसंबर को जब उनका निधन हुआ, तब वह घर में अकेले थे। परिजनों ने दीपक की मौत की सूचना उसी दिन पीपुल्स कॉलेज को दे दी थी। आकाश के मुताबिक, खुराक लगवाने के बाद सेहत का हाल जानने अस्पताल से फोन आते रहे थे और 21 दिसंबर को तो पीपुल्स प्रबन्धन से तीन बार फोन आये; लेकिन संस्थान से कोई भी मिलने नहीं आया। पीपुल्स मेडिकल कॉलेज की थर्ड फेज क्लीनिकल ट्रायल टीम ने 21 दिसंबर की दोपहर दीपक के मोबाइल फोन पर वैक्सीन की दूसरी खुराक के लिए फोन किया। यह कॉल आकाश ने रिसीव की। उन्होंने टीम को पिता के निधन की फिर से सूचना दी। इसके बाद एजीक्यूटिव ने कॉल काट दी। उधर कोरोना वैक्सीन निर्माता भारत बायोटेक ने कहा कि भोपाल में एक वैक्सीन वालंटियर की मौत का उनके चिकित्सकीय परीक्षण से कोई सम्बन्ध नहीं है। हैदराबाद स्थित कम्पनी ने कहा कि भोपाल के गाँधी मेडिकल कॉलेज की तरफ से जारी पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत का सम्भावित कारण हृदयाघात बताया गया है। मामला पुलिस ने दर्ज किया है और जाँच कर रही है। इससे पहले भी भारत में बेंगलूरु के एक वॉलंटियर ने कोरोना खुराक के बाद अपनी तबीयत बिगडऩे का आरोप लगाया था।

उधर एक घटना अमेरिका की है, जहाँ फाइज़र-बायोएनटेक का वैक्‍सीन स्वीकृत होने वाली पहली वैक्‍सीन है। अमेरिका मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, फ्लोरिडा में इसकी पहली खुराक लेने के 16 दिन बाद गायनेकोलॉजिस्‍ट डॉ. ग्रेगोरी माइकल की मौत हो गयी। उनकी मौत के बाद सेंटर्स फॉर डिसीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी), फ्लोरिडा के स्वास्थ्य विभाग और मियामी-डेड मेडिकल ए‍जामिनर्स ऑफिस ने मामले की जाँच शुरू कर दी है। माइकल की मौत को एक दुर्लभ कंडीशन से जोड़ा गया है, जो शरीर में रक्त के थक्के बनने की क्षमता को प्रभावित करती है। इस घटना के बाद फाइज़र ने भी इस मामले में अलग से अपनी जाँच शुरू कर दी है। कम्पनी ने स्वीकार किया है कि डॉक्टर की मौत गम्भीर थ्रोम्बोसाइटोपेनिया के अत्यधिक असामान्य क्‍लीनिकल केस के कारण हुई थी। हालाँकि को खुराक लेने से 41 वर्षीय सोनिया एसेवेडो कोई साइड इफेक्‍ट नहीं हुआ था।

कैसे होगा टीकाकरण

डीसीजीआई ने भारत बायोटेक की स्वदेशी तौर पर विकसित कोवैक्सीन को 12 साल से अधिक उम्र के बच्चों पर क्लीनिकल ट्रायल करने की अनुमति दे दी है। सरकार की मंज़ूरी के मुताबिक, सीरम इंस्टीट्यूट की कोविशिल्ड को 18 साल से अधिक उम्र वाले लोगों को दिया जाएगा। वैक्सीनेशन के बाद भी लोगों को कोविड 19 गाइडलाइन का पालन करने को कहा गया है। उन्हें मास्क पहनने और सैनिटाइजेशन करने को कहा गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि वैक्सीनेशन के बाद लोगों के शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होगी, जिससे कि वो इस वायरस का सामना कर सकें। कहा जा रहा है कि वैक्सीनेशन के बाद लोगों में वायरस से लडऩे की क्षमता विकसित होगी। लेकिन दोबारा कोरोना नहीं होगा, इसका दावा किसी ने नहीं किया है।

सरकार ने को-विन मोबाइल एप्लीकेशन बनायी है, जो वैक्सीनेशन शुरू होने पर मौज़ूद होगी। इसके अलावा जिस व्यक्ति को वैक्सीन का खुराक दी जाएगी, उसे पहले ही फोन पर सन्देश आ जाएगा। यानी जिसे वैक्सीन का खुराक मिलना है, तो उसे फोन पर तारीख, वक्त और जगह की जानकारी खुद ही आयेगी। वैसे वैक्सीन लगवानी है या नहीं, ये किसी भी व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर है। यानी कोई इसके लिए मना भी कर सकता है। जिन लोगों को शुरुआती चरणों में वैक्सीन मिल रही है, उनकी लिस्ट जारी की जाएगी; जिसके आधार पर सभी को अपना रजिस्ट्रेशन करवाना होगा। इसके लिए पहले फोन पर सन्देश आयेगा। रजिस्ट्रेशन के लिए ड्राइविंग लाइसेंस / वोटर आईडी कार्ड / पैन कार्ड / आधार कार्ड / पासपोर्ट, बैंक खाते की पासबुक, मनरेगा कार्ड, स्वास्थ्य मंत्रालय का हेल्थ आईडी कार्ड में से किसी भी डॉक्यूमेंट की ज़रूरत रहेगी।

भारत में वैक्सीन मुफ्त मिलेगी या फिर नहीं? यह तस्वीर अभी साफ नहीं है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कह चुके हैं कि उनके प्रदेश में जनता को मुफ्त में टीका लगेगा। देश के स्वास्थ्य मंत्री का कहना है कि स्वास्थ्यकर्मियों को यह मुफ्त दी जाएगी। भारत में वैक्सीन की कुल दो खुराक दी जानी हैं। पहली और दूसरी खुराक के बीच कुल 28 दिन का अन्तर होगा। विशेषज्ञों का कहना है कि सभी को वैक्सीन की पूरी खुराक लेनी चाहिए। एंटीबॉडी बनने के बाद ही कोरोना से लड़ाई मज़बूत होती है। सरकार ने शुरुआती चरण में स्वास्थ्यकर्मी, कोविड वॉरियर्स और कुछ अन्य को वैक्सीन देने की लिस्ट बनायी है। हालाँकि उनके परिजनों को अभी यह वैक्सीन नहीं दी जाएगी। अन्य लोगों का नंबर तभी आयेगा, जब सरकार आगे की रणनीति पर काम करेगी। चूँकि वैक्सीन के आपात इस्तेमाल की ही मंज़ूरी मिली है, अत: यह अभी बाज़ार में खुले में उपलब्ध नहीं होगी।

कोरोना के खिलाफ लड़ाई में भारत ने ऐतिहासिक कदम बढ़ाया है और 16 जनवरी से देश में टीकाकरण अभियान शुरू कर रहे हैं। प्राथमिकता हमारे डॉक्टर, स्वास्थ्यकर्मी, फ्रंटलाइन वर्कर्स, जिसमें सफाई कर्मचारी भी शामिल हैं; और उन्हें वैक्सीन दी जाएगी।’’

नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री

भारत में टीकाकरण कार्यक्रम

इसमें कोई दो-राय नहीं की लोगों पर महामारी ने जिस तरह हमला किया, जिस तरह भारत में करोड़ों श्रमिकों को अनियोजित लॉकडाउन के कारण सड़कों पर पैदल सैंकड़ों किलीमीटर दूर घर जाने को मजबूर होना पड़ा, अपना रोज़गार खोना पड़ा, उससे वे अभी भी नहीं उबर पाये हैं। भारत में कोरोना से अब तक करीब 1.52 लाख लोगों की जान जा चुकी है, जबकि 10.45 करोड़ लोग संक्रमित हुए हैं। ऐसे में लोगों को वैक्सीन का बेसब्री से इंतज़ार है, इसमें कोई शक नहीं। अब देश में कोरोना का टीकाकरण कार्यक्रम 16 जनवरी से शुरू हो गया। सबसे पहले 3 करोड़ स्वास्थ्यकर्मियों और फ्रंटलाइन योद्धाओं को कोरोना टीका लगाया जाएगा। इसके बाद 50 साल से ज़्यादा उम्र के लोगों को और बाद में दूसरे लोगों को। देश में कोरोना की स्थिति को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समीक्षा बैठक बुलायी, जिसमें टीकाकरण अभियान को शुरू करने का फैसला किया गया। निर्णय के मुताबिक, सबसे पहले स्वास्थ्यकर्मियों और फ्रंटलाइन वर्कर्स को टीका लगाया जाएगा, जिनकी अनुमानित संख्या लगभग 3 करोड़ है। इसके बाद 50 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों और इससे कम उम्र के उन लोगों को टीके लगेंगे, जो पहले से ही किसी गम्भीर बीमारी से पीडि़त हैं। ऐसे लोगों की संख्या करीब 27 करोड़ है। बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने देश भर में कोरोना टीकाकरण की तैयारियों के बारे में जानकारी ली। इस दौरान मोदी ने को-विन वैक्सीन डिलीवरी मैनेजमेंट सिस्टम के बारे में भी जानकारी ली। को-विन से कोरोना टीकाकरण की रीयल टाइम निगरानी, वैक्सीन के स्टॉक्स से जुड़ीं सूचनाएँ, उन्हें स्टोर करने के तापमान और जिन लोगों को वैक्सीन लगनी है, उन्हें ट्रैक करने जैसे काम होंगे। अब तक करीब एक करोड़ से ज़्यादा लाभार्थियों ने को-विन पर पंजीकरण कराया है। इसके आलावा देश भर में तीन चरणों में ड्राई रन भी आयोजित किया गया है। पहले चरण का ड्राई रन 28-29 दिसंबर चार राज्यों में करने के बाद 2 जनवरी को सभी राज्यों में चलाया गया। इसके बाद 8 जनवरी को 33 राज्यों (हरियाणा, हिमाचल और अरुणाचल को छोड़कर) और केंद्र शासित प्रदेशों में वैक्सीन का ड्राई रन हुआ। भारत सरकार ने सीरम इंस्टीट्यूट की कोविशिल्ड और भारत बॉयोटेक की कोवैक्सीन को इमरजेंसी इस्तेमाल की मंज़ूरी दी है। वैक्सीन को मंज़ूरी मिलने के बाद से लोग टीकाकरण अभियान की शुरुआत का इंतज़ार कर रहे हैं। टीकाकरण कार्यक्रम के मुताबिक, एक बूथ पर हर सत्र में 100 से 200 लोगों को टीका लगाया जाएगा। उन पर 30 मिनट तक नज़र रखी जाएगी, ताकि प्रतिक्रिया जाँची जा सके। टीकाकरण केंद्र पर एक बार में एक ही व्यक्ति को टीका लगाया जाएगा। कोविन ऐप में पहले से रजिस्टर लोगों को ही टीका लगाया जाएगा। ऑन द स्पॉट रजिस्ट्रेशन नहीं होगा। देश के दूर-दराज़ इलाकों में कोरोना वैक्सीन पहुँचाने के लिए भारतीय वायुसेना मदद करेगी।

वैक्सीन को लेकर विवाद ठीक नहीं है, देश के लोगों को नियामक संस्थाओं पर भरोसा करना चाहिए। डाटा के व्यापक अध्ययन के बाद ही वैक्सीन के इस्तेमाल की इजाज़त दी गयी है। इसलिए देश के लोगों को नियामक संस्थाओं, वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं पर भरोसा करना चाहिए। दोनों वैक्सीन सुरक्षित और प्रभावी हैं। विशेषज्ञ समिति ने इसके बारे में अध्ययन किया है, तभी इसकी स्वीकृति दी है। अगर हमारी नियामक संस्थाओं ने हरी झंडी दी है, तो हमें उन पर यकीन करना चाहिए और आगे बढऩा चाहिए। वैक्सीन के साइड इफेक्ट में हल्का बुखार, एलर्जी हो सकती है; लेकिन ये साधारण-सी बात है। टीकाकरण हमें इस बीमारी से बाहर निकाल पायेगा। यूरोप में हालात अच्छे नहीं हैं, वहाँ एक बार फिर से लॉकडाउन लगाना पड़ रहा है। अगर हम विवाद में पड़कर वैक्सीन लगवाने में देरी करते हैं और अगर इस बीच ब्रिटेन का म्यूटेंट वायरस हमारे यहाँ आता है, तो कोरोना के खिलाफ जंग में अब तक की हमारी कामयाबी बेकार हो सकती है।

डॉ. रणदीप गुलेरिया, निदेशक, एम्स

कोवैक्सीन को इस्तेमाल की मंज़ूरी देना खतरनाक हो सकता है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन कोरोना वैक्सीन पर कृपया स्पष्टीकरण दें। कोवैक्सीन का अभी तक चरण तीसरे चरण का परीक्षण नहीं हुआ है। समय से पहले मंज़ूरी देना खतरनाक हो सकता है। डॉ. हर्षवर्धन आपको इसे स्पष्ट करना चाहिए। परीक्षण पूरा होने तक इसके उपयोग से बचा जाना चाहिए। भारत में इस बीच एस्ट्राजेनेका वैक्सीन का इस्तेमाल किया जा सकता है।

 शशि थरूर, कांग्रेस नेता

देश में वैक्सीन बने यह खुशी और गर्व की बात है। लेकिन यहाँ सवाल वैक्सीन के ट्रायल के असर को लेकर कोई स्टडी नहीं आने को लेकर है। यह वास्तव में हैरानी की बात है। समस्या कोवैक्सीन के डाटा पर है; क्योंकि कोविशील्ड के विपरीत उसके बारे में जानकारियाँ या स्टडी हमारे सामने नहीं है।

डॉ. गगनदीप कंग, उपाध्यक्ष, सीईपीआई

टीके पर सियासत

इसे देश की विडंबना कहें या इस दौर का चलन कि हर काम में यहाँ सियासत होने लगती है। मौज़ूदा समय में कोरोना टीका की विश्वनीयता को लेकर सियासत हो रही है। कोरोना टीका आने के पहले ही यह सरकार और विपक्षी सियासी पार्टियों के बीच फँसती नज़र आ रही है। ऐसे माहौल में अगर यह टीका किसी भी मरीज़ में किसी कारणवश असफल होता है, तो इस पर बवाल होना तय है। फिलहाल इस पर चर्चा गरम है।

तहलका संवाददाता ने इसे लेकर सिसायतदानों और चिकित्सकों से बात की। कुछ सियासतदान टीका न लगवाने की बात कह चुके हैं, तो डॉक्टर भी कोरोना टीके के प्रयोग को लेकर आशंकित हैं। दिल्ली के डॉक्टरों का कहना है कि कोरोना से लडऩे और उभरने के लिए जिस प्रकार कोरोना टीके को सियासी बनाया जा रहा है, उससे शंका तो पनपी है। क्योंकि डॉक्टर ही मेडिकल सिस्टम भी तो किसी-न-किसी रूप में किसी पार्टी से जुड़ा है। वैक्सीन पर उठे सियासी सवालों पर डॉक्टरों का कहना है कि बिना टीके के ही अगर कोरोना धीरे-धीरे ही सही काबू हो रहा था, तो कोरोना टीके को लेकर विश्व में पहले भारत को अपना नाम दर्ज करवाने की क्या जल्दबाज़ी है?

फिलहाल कौन-सा टीका कब लगेगा और इसकी क्या कीमत होगी? इस पर तस्वीर साफ नहीं है। बताते चलें देश में ऑक्सफोर्ड से बने कोविडशील्ड और भारत बायोटेक की कोवैक्सीन को आपातकाल स्थिति में मंज़ूरी मिली है। देश में इन दोनों टीके को लेकर अफवाहों का दौर भी चल रहा है। वहीं इन दोनों वैक्सीन को लेकर बाज़ार में जबरदस्त लॉबिंग भी देखी जा रही है।

वैक्सीन को लेकर एम्स के डायरेक्टर डॉ. रणदीप गुलेरिया का कहना है कि कोविडशील्ड और कोवैक्सीन, दोनों ही वैक्सीनों सुरक्षित बता रहे हैं। आईसीएमआर के डायरेक्टर जनरल (डीजी) डॉ. बलराम भार्गव का कहना है कि बड़े ही शोध से सफलता मिली है। इसलिए वैक्सीन को लेकर किसी प्रकार की कोई शंका करना गलत है।

आईसीएमआर के पूर्व डीजी डॉ. वी.एम. कटोच का कहना है कि कोरोना टीका पूरी तरह से सुरक्षित है। वैज्ञानिकों ने शोध के दौरान सभी पहलुओं पर कड़ी मेहनत की है और इसके लिए सभी मापदण्डों का पालन किया है। मैक्स अस्पताल के कैथलैब के डायरेक्टर डॉ. विवेका कुमार ने भी कोरोना वैक्सीन पर भरोसा जताया है। इधर उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव कह चुके हैं कि वह कोरोना टीका नहीं लगवाएँगे। क्योंकि उन्हें भाजपा पर भरोसा नहीं है। अखिलेश का आरोप है कि कोरोना की आड़ में भाजपा सरकार महँगाई, अन्याय और बेरोज़गारी  के आँकड़े छिपा रही है। अखिलेश यादव के बयान पर भाजपा के नेताओं ने कहा कि अब दवा और वैक्सीन को राजनीतिक पार्टियों के साथ जोड़ा जाएगा। क्या समाजवादी पार्टी अलग से अपनी वैक्सीन बनवा रही है या बनवाएगी? उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य व उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह का कहना है कि अखिलेश यादव राजनीतिक स्तर पर इतने गिर जाएँगे कि वैक्सीन पर भी सियासत करेंगे, यह उम्मीद नहीं थी। उन्होंने कहा कि अखिलेश यादव ने टीका बनाने वाले वैज्ञानिकों व चिकित्सकों का अपमान किया है। उन्हें माँफी माँगनी चाहिए।