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बजट 2021: कोविड-19 से त्रस्त अर्थ-व्यवस्था को पुनर्जीवन देगा वैक्सीन बजट!

कोविड-19 से मार खायी अर्थ-व्यवस्था के बीच अगला वित्तीय बजट पेश हो रहा है। इसमें ‘वी’ अर्थात् वैक्सीन का प्रभाव तो है ही, लेकिन महामारी में लगे अर्थ-व्यवस्था के झटकों के बाद अब विकास दर का ग्राफ कुछ-कुछ ऊपर की तरफ बढ़ता दिख रहा है। इसके साथ बजट में विशेष रूप से प्रत्यक्ष करों की बड़े करदाताओं की श्रेणी पर कोरोना सेस की उम्मीद के बीच पहली बार केंद्रीय बजट पूरी तरह से कागज़ रहित और एक विशेष ऐप के माध्यम से सुलभ हो रहा है।

पहली फरवरी से बजट के बाद के सत्रों में कई आत्मनिर्भर योजनाओं को पहले ही शुरू कर दिया गया है, ताकि लॉकडाउन प्रभावित क्षेत्रों पर कोरोना के प्रभाव को कम करने का लक्ष्य रखा जा सके; जैसे कि 21 लाख करोड़ रुपये के हिस्से के रूप में कोविड आत्मनिर्भर योजना के तहत मार्च में एमएसएमई क्षेत्र के लिए तीन लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त मदद घोषित की गयी।

‘एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड’ प्रत्येक गरीब परिवार को पाँच किलो चावल, पाँच किलो गेहूँ और एक किलो दाल देने का वादा किया गया था और 2.33 करोड़ दैनिक वेतनभोगियों को मनरेगा के लिए 10,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त आवंटन भी घोषित किया गया था। इस बजट में विशेष रूप से उच्च व्यय को आवंटित करने के साथ कृषि के लिए भी कुछ नया है। क्योंकि दिसंबर, 2020 तक बेरोज़गारी दर 10 फीसदी तक बढ़ गयी थी, इसलिए इस पर चर्चा लाज़िम है। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना और साथ ही किसान क्रेडिट कार्ड योजना पर अधिक ध्यान है ही। पिछले साल बजट बाद कोविड-19 पैकेज में सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना में 1.7 लाख करोड़ रुपये आवंटित किये थे। इंफ्रास्ट्रक्चर का खर्च भी बढ़ेगा; क्योंकि सरकार ने 2023 तक इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट के लिए 1.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश कर लिया है। राजकोषीय घाटे की चिन्ता के बावजूद बजट में खपत और रोज़गार बढ़ाने और अर्थ-व्यवस्था में अधिक लिक्विडिटी देने के लिए एक बड़ा कदम आम आदमी पर कर का बोझ कम करना और अधिक क्रय शक्ति देने के साथ-साथ उद्योग को राहत देना भी है। स्वास्थ्य अवसंरचना व्यय को बढ़ावा मिलना ही चाहिए, ताकि पिछले साल महामारी के मद्देनज़र प्रधानमंत्री मोदी की शुरू की गयी आत्मनिर्भर भारत यात्रा के दौरान एमएसएमई पर खर्च का लाभ मिल सके। ई-कॉमर्स और रिटेल सेक्टरों को करों में और विशेष रूप से प्रक्रियाओं में अनुकूल उपचार की उम्मीद है; क्योंकि लॉकडाउन ने ऑनलाइन प्लेटफॉर्म, ई-कॉमर्स और डब्ल्यूएफएच सुविधा पर ज़ोर दिया।

घर से काम (वर्क फ्रॉम होम) लॉकडाउन अवधि में एक बड़े विकल्प के रूप में उभरा है, जिसने लोगों को घर से काम करने की आवश्यकता पैदा की है। इसे रोज़गार या एक वैकल्पिक कार्य प्रारूप के विकल्प के रूप में माना जा सकता है और इस क्षेत्र को बजट से शायद कुछ कर प्रोत्साहन मिलेगा। रियल एस्टेट और हॉस्पिटैलिटी सेक्टर, जो कोविड के दौर में सबसे ज़्यादा प्रभावित रहे हैं, इस बार बजट में वित्त मंत्री से पहले ही सहानुभूति की उम्मीद किये हुए हैं। हाउसिंग क्रेडिट गारंटी स्कीम पर अधिक आवंटन और ब्याज सब्वेंशन स्कीम में प्रधानमंत्री आवास योजना और सभी के लिए िकफायती आवास और किराये के आवास पर काम होगा। पिछले साल की तुलना में अधिक प्रोत्साहन और कमीशन आ रहा है, जिसमें रियल एस्टेट के लिए बजट आवंटन 25,000 करोड़ रुपये आंका गया था। ग्रामीण क्षेत्र और शिक्षा पर विशेष रूप से ध्यान दिये जाने की लोगों ने काफी उम्मीद कर रखी है; क्योंकि शिक्षण संस्थानों को वर्ष के बड़े हिस्से में बन्द कर दिया गया।

अब जबकि लॉकडाउन को हटा दिया गया है, फिर भी कोविड का दुष्प्रभाव असंगठित क्षेत्र पर बहुत गहरा पड़ा है, जो अभी भी कम माँग और श्रमिकों के बड़े पैमाने पर पलायन के बाद चुनौती झेल रहा है। मनरेगा पर अतिरिक्त खर्च के साथ-साथ असंगठित और सूक्ष्म उद्यमों के लिए पैकेज और वोकल फॉर लोकल के तहत कुटीर उद्योगों पर अधिक ज़ोर दिया जाना अपेक्षित रहा। इस बीच आरबीआई और सरकार को कोरोना प्रभावित क्षेत्र को अधिक राहत पहुँचाने के सन्दर्भ में विशेष पैकेज मिले, यह उम्मीद थी ही। प्रभावित उधारकर्ताओं ने एनपीए पर रुख नरम करने और साथ ही अधिस्थगन के सन्दर्भ में कहा था कि सरकार ने पहले ही एक बड़ी घोषणा की थी। राजस्व के साथ प्रत्यक्ष करों में किसी भी रियायत की घोषणा मुश्किल है। हालाँकि कुछ कंज्यूमर गुड प्रोडक्ट्स (सीजीपी) उत्पादों की माँग को बढ़ावा देने के लिए जीएसटी के मोर्चे में कुछ और बदलाव किये जाने का विकल्प है। पीएलआई योजनाओं के साथ-साथ सीएपीईएक्स के प्रोत्साहनों से बजट में शायद बढ़ोतरी होगी; यहाँ तक कि राजकोषीय घाटे के घटने की लागत पर भी। राजस्व संग्रह भी जीएसटी में प्रारम्भिक गिरावट के बाद उत्तरार्ध की अवधि में ठीक होना शुरू हो गया है। अर्थ-व्यवस्था में बदलाव अपेक्षित था ही, फिर भी सरकार के पास अपने राजस्व को पूरक करने के लिए बहुत कम संसाधन हैं। शेयर बाज़ार हर समय ऊँचे स्तर पर है और सरकार इस अवसर का इस्तेमाल पीएसयू शेयरों के विनिवेश के ज़रिये भुनाने में कर सकती है। इन बाधाओं के साथ भविष्य में जीडीपी में बदलाव की उम्मीद है। हालाँकि खपत की माँग को कोरोना वायरस से पूर्व के स्तर पर वापस लाने और अर्थ-व्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए अधिक समय लगेगा। वित्त वर्ष 21 के लिए राजकोषीय घाटा 7.75 फीसदी को पार करने की सम्भावना है। राज्य और केंद्र का साझा वित्तीय घाटा 12.5 फीसदी पार करने की आशंका है।

गिद्ध पत्रकारिता!

ढेरों सवालों / आरोपों को अपने ऊपर ओढ़े हुए यह नये दौर की पत्रकारिता है; टीआरपी और राजनीति की स्याही में गहरे से भीगी पत्रकारिता! इसमें देशभक्ति के नाम पर राजभक्ति है। यानी अब पत्रकारिता की परिभाषा भरोसे की चिन्दी-चिन्दी है। इसका प्रमाण देश की सुरक्षा से जुड़ी खुफिया जानकारियों पर व्हाट्स ऐप चैट्स में अर्नब-पार्थो के लगते शाब्दिक अट्टहास से मिल जाता है। टीआरपी और राजनीतिक आकाओं की बदौलत कैसे कोई पत्रकार दिखावटी देशभक्ति का ड्रामा करता है, यह रिपब्लिक चैनल के प्रमुख अर्नब गोस्वामी गोस्वामी और ब्राडकॉस्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (बार्क) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी पार्थो दासगुप्ता के बीच हुए कथित व्हाट्स ऐप चैट्स से ज़ाहिर हो जाता है, जो अब लीक हो चुकी हैं। यह व्हाट्स ऐप चैट्स 10-20 नहीं हैं। इनकी संख्या इतनी है कि करीब 500 पृष्ठों में आयी है। इन लीक व्हाट्स ऐप चैट्स से कई सवाल पत्रकारिता पर तो उठे ही हैं, राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर भी उठे हैं। आने वाले समय में कुछ और चैट्स लीक हो सकती हैं। दिलचस्प यह भी है कि इस लीक चैट्स का खण्डन अभी तक न तो सरकार ने किया है और न ही अर्नब ने; भले ही इसे जोड़कर कुछ और बातें कही गयी हों।

कश्मीर में कुछ बड़ा होगा! मतलब क्या है? अर्नब गोस्वामी की चैट के इस हिस्से को कश्मीर में अनुच्छेद-370 को खत्म करने से जोड़कर देखा जा रहा है। मोदी नीत केंद्र सरकार ने 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्ज़ा खत्म करके उसे दो हिस्सों में बाँट दिया। कुछ चैट्स 2019 की हैं, जब लोकसभा चुनाव को कुछ महीने थे और इसके बाद ही पुलवामा में भारत के वीर जवानों ही शहादत हुई थी और बालाकोट में भारतीय वायुसेना की कार्रवाई हुई थी। कांग्रेस ने एक पत्रकार वार्ता करके इस सारे मामले की जाँच की माँग की है और इसे देशद्रोह बताया है। कांग्रेस ने कहा है कि इस तरह किसी दुश्मन देश पर हमला करने की एडवांस जानकारी केबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी (सीसीएस) के पाँच सदस्यों और सरकार में एक-दो टॉप के लोगों को ही होती है। इसके बाद हमला कब होना? कहाँ होना है? यह निर्णय वायुसेना लेती है। ऐसे में यह बहुत गम्भीर बात है और सवाल उठता है कि एक निजी चैनल के पत्रकार अर्नब को यह महत्त्वपूर्ण जानकारी किसने दी?

सुरक्षा फैसलों, और वह भी दूसरे देश में सैन्य कार्रवाई के मामले में देश के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ कि उसकी जानकारी कभी किसी पत्रकार के पास पहले से आ गयी हो और वह उसे बड़े लापरवाह तरीके से सोशल मीडिया पर किसी अन्य से साझा कर रहा हो। दूसरे बालाकोट और पुलवामा से जुड़ी जानकारी को लेकर अर्नब और दासगुप्ता की कथित लीक चैट्स में जो बातें कही गयी हैं, उनको लेकर भी ढेरों सवाल उठाते हैं। इसमें ‘बिग मैन’ को लाभ मिलने की बात की गयी है, जिससे बड़ा विवाद पैदा हो गया है। यह माना जा रहा है कि इसमें बिग मैन शब्द प्रधानमंत्री के लिए इस्तेमाल किया गया है, अर्थात् बालाकोट और पुलवामा से उन्हें (भाजपा, विशेषकर प्रधानमंत्री मोदी को) 2019 के लोगसभा चुनाव में राजनीतिक लाभ मिलने की सम्भावना जतायी गयी है। वरना इस तरह के सैन्य अभियान या भारतीय सैनिकों की आतंकवादियों के हाथों शहादत को पहले से ही क्यों बिग मैन को लाभ मिलने से जोड़ा गया है? क्या यह सब पहले से ही तय था? क्योंकि दोनों घटनाएँ 2019 के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले की हैं। ज़ाहिर है देश के एक बड़े पत्रकार के व्हाट्स ऐप चैट लीक ने बहुत गम्भीर सवाल देश के सामने खड़े कर दिये हैं।

सब जानते हैं कि मुम्बई पुलिस टीआरपी स्कैम की जाँच कर रही है। निश्चित ही उसने अपना पक्ष मज़बूत करने के लिए अर्नब और अन्य के मोबाइल फोन खँगाले होंगे। इसमें भी कोई दो-राय नहीं कि यह व्हाट्स ऐप चैट वहीं कहीं से लीक हुई होगी। चैट्स गलत या झूठी होतीं, तो निश्चित ही अर्नब और सरकार ने इनका खण्डन कर दिया होता। अब तक नहीं किया, तो इसका मतलब यही कि इनमें सच्चाई होगी। लेकिन इनमें जो चीज़ें सामने आ गयीं; पहली, वो सिर्फ टीआरपी स्कैम तक सीमित नहीं हैं। देश की सुरक्षा से जुड़े बेहद संवेदनशील मुद्दों पर जिस तरह तफरीह के मूड में चैट हुआ और जिस तरह इसमें राजनीतिक लाभ की बातें हुईं, उन्होंने देश के चौंका दिया है। यह बातें बहुत गम्भीर हैं।

दूसरी, सरकार की देशसेवा पर सवाल उठते हैं। तीन महीने पहले मुम्बई पुलिस ने दावा किया था कि बार्क के पूर्व सीओओ रोमिल रामगढिय़ा ने अर्णब के रिपब्लिक टीवी की लॉन्चिंग के करीब 40 हफ्तों में उनके प्रतिस्पर्धी चैनलों की टीआरपी रेटिंग से छेड़छाड़ की थी, जिससे रिपब्लिक की टीआरपी बढ़ जाए। इसी सिलसिले में पार्थो दासगुप्ता गिरफ्तार हुए और उनका फोन पुलिस ने अपने कब्ज़े में ले लिया। इसके इस चैट में कई काले सच उजागर हुए। एक जगह टीआरपी देने के एवज़ में दासगुप्ता ट्राई पर दबाव डलवाने की बात कर रहे हैं और एक जगह अर्नब से पूछा जा रहा है कि क्या वह किसी एएस से कहकर ट्राई पर नकेल कसवा सकते हैं?

लीक चैट के अन्य कुछ हिस्से बहुत खतरनाक संकेत देते हैं। इनमें देश की सुरक्षा से जुड़ा मामला है और हमारे सैनिकों की शहादत से जुड़ा है। कथित चैट में अर्नब एक जगह दावा कर रहे हैं, उन्हें बालाकोट स्ट्राइक की जानकारी तीन दिन पहले ही हो गयी थी। यह मामला इसलिए गम्भीर है कि इस तरह के ऑप्रेशन बहुत महत्त्वपूर्ण तथा संवेदनशील होते हैं और उन्हें बहुत गोपनीय रखा जाता है, ताकि दुश्मन को भनक भी न लगे। एक पत्रकार को तीन दिन पहले ही इसकी जानकारी हो गयी। निश्चित ही एक बेहद गोपनीय ऑप्रेशन की जानकारी लीक होने से योजना पर पानी फिर सकता था या हमारे देश के जवानों की ज़िन्दगी भी खतरे में पड़ सकती थी।

बहुत-से जानकार अब इसे राष्ट्र की सुरक्षा से खिलवाड़ बता रहे हैं। अब देखना होगा कि क्या इसकी जाँच होगी? कांग्रेस संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) इसकी जाँच की माँग कर चुकी है। कांग्रेस अर्नब को गिरफ्तार करने की माँग कर चुकी है। सरकार ने फिलहाल इस मसले पर चुप्पी साध रखी है। लीक चैट में एक मौके पर अर्नब गोस्वामी अपने चैनल की टीआरपी के लिए दिवंगत पूर्व मंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता अरुण जेटली को भी लपेट लेते हैं। जेटली की मृत्यु को अर्नब के हिन्दी चैनल रिपब्लिक भारत पर एक ‘बड़ी जीत’ की तरह दर्शाया गया। अब कई नेताओं और अन्य हस्तियों ने गोस्वामी की इसके लिए निंदा की है। इन चैट्स के लीक होने के बाद अर्नब और सरकार सवालों के घेरे में हैं। नैतिकता का ढोल पीटने वाले अर्नब आज अनैतिकता की ऊँची मीनार पर बैठे दिख रहे हैं।

याद रहे मुम्बई पुलिस ने पिछले साल 24 दिसंबर को दासगुप्ता को गिरफ्तार किया था। अर्नब गोस्वामी से सीधे जुड़ी 500 से ज़्यादा पन्नों की व्हाट्स ऐप चैट्स आज सोशल मीडिया में वायरल हैं। ‘तहलका’ की जानकरी के मुताबिक, अगले हफ्तों में इस तरह की और चैट्स लीक हो सकती हैं या कोर्ट में बतौर सुबूत पेश की जा सकती हैं। वैसे इस मामले में अभी तक 15 लोगों को गिरफ्तार किया गया है और दो बार (नवंबर और जनवरी में) चार्जशीट भी दायर की गयी हैं और लीक चैट्स चार्जशीट का हिस्सा हैं। अभी कुछ और लोगों की तलाश अधिकारियों को है। अर्नब और दासगुप्ता के बीच कथित व्हाट्स ऐप चैट्स टीआरपी घोटाले में मुम्बई पुलिस के 3,600 पन्नों की पूरक चार्जशीट का हिस्सा हैं, जो 11 जनवरी को दाखिल की गयी।

टीआरपी मामले की बात करें तो चैट्स से ज़ाहिर होता है कि दासगुप्‍ता और अर्नब लगातार सम्पर्क में थे। बार्क के चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर रोमिल रामगढिय़ा और रिपब्लिक टीवी के सीईओ विकास खानचंदानी के बीच हुए चैट भी सामने आये हैं। दासगुप्‍ता फिलहाल न्यायिक हिरासत में हैं, जबकि रामगढिय़ा और खानचंदानी जमानत पर हैं। चैट से ज़ाहिर होता है कि दासगुप्ता ने गोस्वामी के साथ ग्रेन्यूलर डाटा भी शेयर किया था, साथ ही यह भी लिखा था कि बार्क ने इस स्तर के डाटा को किसी और के साथ शेयर नहीं किया है। इसके जवाब में गोस्वामी ने उनकी प्रशंसा की। दासगुप्ता ने रामगढिय़ा को दर्शकों की संख्या पर नज़र रखने के लिए कहा। साथ ही उन्होंने दो चैनलों (रिपब्लिक और टाइम्स नाउ) के बीच अन्तर करने का भी ज़िक्र किया है।

एक अन्य चैट में दासगुप्ता कहते हैं कि एनबीए को जाम कर दिया गया है और वह यह बात बहुत भरोसे के साथ बता रहे हैं। दासगुप्ता एक जगह अर्नब से कहते हैं कि आपके कुछ कहे बिना मैंने आपको सपोर्ट किया है। मैंने बाकी सब चैनलों, लोगों को जाम कर दिया है। मुम्बई क्राइम ब्रांच के प्रमुख मिलिंद भारंबे ने कुछ दिन पहले कहा था कि दोनों के खिलाफ सीआईयू को बार्क के सर्वर से महत्त्वपूर्ण सुबूत मिले हैं। इनसे यह साबित होता है कि इन दोनों आरोपियों ने अर्नब गोस्वामी के साथ साज़िश रची और उसी के तहत रिपब्लिक टीवी को अवैध तरीके से नंबर-1 बनाया गया।

चैट से साफ संकेत मिलते हैं कि बार्क के अधिकारी रिपब्लिक टीवी और रिपब्लिक भारत के पक्ष में रेटिंग बढ़ाने के लिए कुछ हेरफेर कर रहे थे। यह भी पता चलता है कि बार्क के अधिकारी रिपब्लिक टीवी को रेटिंग बढ़ाने की रणनीति भी समझा रहे थे। इसके बदले में अर्नब गोस्‍वामी दासगुप्‍ता को सूचना और प्रसारण मंत्रालय, केबिनेट में फेरबदल और सचिवों की नियुक्तियों जैसी अहम जानकारी उन्‍हें दे रहे थे।

सीआईयू ने कोर्ट में बताया था कि अर्नब ने टीआरपी में हेर-फेर के लिए पार्थो दासगुप्ता को लाखों रुपये दिये थे। दासगुप्ता ने बार्क को गोपनीय डाटा को व्हाट्स ऐप और ई-मेल से अर्नब को लीक किया और बदले में अर्नब के ज़रिये केंद्र सरकार में मीडिया सलाहकार बनाने में मदद माँगी। अर्नब की इससे मोदी सरकार में पैठ ज़ाहिर होती है। यह भी रिपोट्र्स हैं कि सीआईयू के पास अर्नब और पार्थो की मुम्बई के अलग-अलग होटलों में हुई मुलाकातों के भी पुख्ता सुबूत हैं। याद रहे इस मामले की मनी लॉन्ड्रिंग के लिए भी प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) जाँच कर रहा है।

मुम्बई में अर्नब वाला मामला पहले से ही राजनीति के केंद्र में है। अब अर्नब और दासगुप्ता की व्हाट्स ऐप चैट लीक होने के बाद मुम्बई कांग्रेस के नेता सचिन सावंत ने आरोप लगाया कि साफ हो गया है कि टीआरपी घोटाले में भाजपा और मोदी की केंद्र सरकार का भी हाथ है। ज़ाहिर है भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर व्हाट्स ऐप चैट लीक होने के बाद रक्षात्मक होना पड़ा है। विपक्ष यह आरोप लगाता रहा है कि केंद्र की मोदी सरकार और भाजपा टीआरपी घोटाले की जाँच को दबाने की कोशिश कर रही है। अब लीक चैट्स में यह खुलासा हो गया है कि अर्नब गोस्वामी बार-बार यह ज़ाहिर करते हैं कि उनकी सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) और सूचना और प्रसारण मंत्रालय में सीधी पैठ है।

यही नहीं, एएस से घनिष्ठ सम्बन्ध के उनके दावे को लेकर विरोधी पार्टियों के नेता इस एएस को मोदी सरकार के एक ताकतवर मंत्री का नाम बता रहे हैं। कांग्रेस माँग कर चुकी है कि एएस नाम का व्यक्ति कौन है? इसकी जाँच हो। यही नहीं, सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर के हवाले से चैट में लिखा गया है कि उन्होंने रिपब्लिक चैनल के खिलाफ मिली शिकायत को दरकिनार कर दिया है। कांग्रेस अब सवाल उठा रही है कि भाजपा को साफ करना चाहिए कि रिपब्लिक चैनल के खिलाफ मिली शिकायत पर कार्रवाई न करके उसे बचाने की कोशिश क्यों की गयी? अब मुम्बई पुलिस की अन्तिम जाँच पर देश भर की नज़रें हैं।

अर्नब को फिलहाल बॉम्बे हाई कोर्ट से 29 जनवरी तक सुरक्षा मिली हुई है। उसके बाद यदि वह इस मामले में गिरफ्तार हुए, तो मुम्बई पुलिस उनके खिलाफ दायर होने वाले पूरक आरोप-पत्र में उनसे जुड़ी और व्हाट्स ऐप चैट्स शामिल कर सकती है। ‘तहलका’ ने इन चैट्स का जो अध्ययन किया है, उसके मुताबिक, अर्नब और पार्थो की 7 जनवरी, 2017 की रात 9:44 बजे की एक चैट में अर्नब कहते हैं कि हम दोनों की व्हाट्स ऐप पर चैट्स और कॉल्स कोई पढ़ और सुन नहीं सकता। यहाँ तक की व्हाट्स ऐप कम्पनी से जुड़े लोग भी। अब यही अति आत्मविश्वास उनके खिलाफ सुबूत बन गया है।

विपक्ष आरोप लगाता रहा है कि भाजपा और केंद्र सरकार टीआरपी में अर्नब को बचाने की कोशिश कर रही है। यह कहा जाता है कि फर्ज़ी टीआरपी मामले में ईडी को केंद्र सरकार ने जानबूझकर डाला। यहाँ तक कि बॉम्बे हाई कोर्ट में एक मौके पर मुम्बई क्राइम ब्रांच ने इस मामले में ईडी के कार्यक्षेत्र को लेकर सवाल उठाये थे। दिलचस्प यह भी है कि ईडी टीआरपी मामले की जाँच मुम्बई में दर्ज एफआईआर के आधार पर नहीं कर रही, बल्कि उस एफआईआर पर कर रही है, जो बहुत गुपचप तरीके से लखनऊ के हज़रतगंज पुलिस स्टेशन में 17 अक्टूबर, 2020 को दर्ज हुई थी। इस एफआईआर पर अगले ही दिन मामला सीबीआई को ट्रांसफर कर दिया गया था। विपक्ष को आशंका रही है कि लखनऊ की एफआईआर पर मुम्बई क्राइम ब्रांच का टीआरपी वाला केस सीबीआई अपने पास न ले ले। वैसे महाराष्ट्र सरकार ने अक्टूबर में एक आदेश जारी करके कहा था कि सीबीआई भविष्य में महाराष्ट्र सरकार की अनुमति के बिना किसी भी केस को सीधे अपने हाथ में नहीं ले सकती। वैसे टीआरपी मामले में सीबीआई की जाँच के स्टेटस की किसी को कोई जानकारी नहीं है; जबकि ईडी ने जनवरी के दूसरे पखवाड़े बॉम्बे हाईकोर्ट को बताया था कि उसकी अब तक की जाँच की स्टेटस रिपोर्ट तैयार है।

बार्क और रिपब्लिक ने क्या कहा

तमाम आरोपों पर बार्क ने अभी तक यही कहा है कि मामला न्यायालय में लम्बित है और जाँच जारी है। लिहाज़ा इस बारे में कुछ नहीं कहना है। उधर रिपब्लिक टीवी नेटवर्क ने एक बयान में कहा कि उसके खिलाफ जो केस दर्ज किया गया है, वह राजनीतिक विद्वेष की भावना से किया है। ये रिपब्लिक को कुचलने का कुछ चैनलों का मिलाजुला प्रयास है। हम सरकार और इस देश के लोगों से अपील करते हैं कि यह अन्याय मत होने दीजिए।

स्ट्राइक की सूचना लीक होना राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा : कांग्रेस

पत्रकार वार्ता करके कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं- ए.के. एंटनी, गुलाम नबी आज़ाद, सुशील कुमार शिंदे, सलमान खुर्शीद और पवन खेड़ा ने कहा कि पत्रकार अर्नब गोस्वामी और बार्क के पूर्व सीओई पार्थो दासगुप्ता के बीच बालाकोट हवाई हमले को लेकर जो व्हाट्स ऐप चैट सामने आये हैं; वो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गम्भीर खतरा हैं और इस पूरे मामले की तुरन्त जाँच होनी चाहिए। पार्टी नेताओं ने कहा कि बालाकोट हवाई हमले की जानकारी एक पत्रकार के पास पहुँचना असामान्य बात है। किसी भी सैन्य कार्रवाई की जानकारी अत्यन्त गोपनीय होती है और इसकी जानकारी सिर्फ पाँच लोगों प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, रक्षा मंत्री, वायु सेना प्रमुख और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के पास ही होती है। इन पाँच लोगों के अलावा इस सूचना को लीक करना गम्भीर अपराध होता है। कांग्रेस ने पूछा कि बालाकोट हवाई हमले की जानकारी पत्रकार अर्नब को कैसे मिली? और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा यह मामला लीक कैसे हुआ? इसकी जाँच ज़रूरी है। इन नेताओं ने कहा कि इस पूरे प्रकरण को पार्टी बजट सत्र के दौरान संसद में उठायेगी और सरकार से इस मुद्दे पर जवाब देने की माँग करेगी। एंटनी ने कहा कि लीक चैट्स में जो तथ्य सामने आये हैं, वो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गम्भीर खतरे की तरफ इशारा करते हैं। इन दोनों के बीच व्हाट्स ऐप पर जो बातचीत हुई है, वह बहुत दु:खद और अत्यंत गम्भीर है। यह बड़ा सवाल है कि एक पत्रकार को बालाकोट हवाई हमले की जानकारी पहले कैसे और किसने दी? यह राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा है। यह साफ है कि सैन्य कार्रवाई से जुड़ी यह अति गोपनीय और अति संवेदनशील सूचना किसी मंत्री या सेना के शीर्ष नेतृत्व ने दी है। यह राष्ट्र विरोधी गतिविधि है और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े इस मामले की व्यापक जाँच कर राष्ट्र विरोधी गतिविधि से जुड़े लोगों को दण्डित किया जाना चाहिए। शिंदे ने कहा कि सरकारी गोपनीय सूचना अधिनियम महत्त्वपूर्ण कानून है और इसका उल्लंघन होना बहुत बड़ा गुनाह माना जाता है। सरकार इस मामले को तत्काल संज्ञान में लेते हुए इस प्रकरण में कार्रवाई करेऔर गुनाहगारों को सज़ा दिलाये। आज़ाद ने कहा कि यहाँ एक तरफ तो राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला है, जिससे किसी भी स्तर पर समझौता नहीं किया जाना चाहिए। उनका कहना है कि एक तो राष्ट्रीय सुरक्षा है और दूसरी तरफ टीआरपी बढ़ाने के लिए साज़िश करने का मामला है, जिसमें ज़्यादा टीआरपी के माध्यम से दबदबा बढ़ाकर ज़्यादा विज्ञापन हासिल करना है। यहाँ दोनों गम्भीर अपराध हुए हैं। टीआरपी बढ़ाने की साज़िश किये जाने का मतलब है कि आप अपनी योग्यता से नहीं, बल्कि आपराधिक साज़िश के माध्यम से टीआरपी में गड़बड़ी करके आगे बढ़े हैं। इसमें बड़ी बात यह है कि इस पूरे प्रकरण में सरकार और एक व्यक्ति के बीच साज़िश हुई है; जो कि सबसे ज़्यादा चिन्ता का विषय है। आज़ाद ने कहा कि इन दोनों स्थितियों की गम्भीरता को देखते हुए बार्क और टीआरपी प्रणाली को राष्ट्रीय सुरक्षा की कीमत पर जारी नहीं रखा जा सकता है। पवन खेड़ा ने कहा कि देश के साथ जो खिलवाड़ मोदी, अमित शाह और अर्नब गोस्वामी ने मिलकर किया है, उससे पूरा देश स्तब्ध है। यह आश्चर्य की बात है कि बड़े-बड़े दिखने वाले लोग कितने बौने हो जाते हैं कि वे मिलकर अपना ईमान एक पत्रकार को बेच रहे हैं।

यह बेहद संगीन मामला है। सरकार को उसी वक्त कार्रवाई करनी चाहिए थी और इस पर प्रतिक्रिया देनी चाहिए थी। मैं खुद सरकार की प्रतिक्रिया का इंतज़ार करता रहा। यह क्या हो रहा है? कि सुरक्षा के ऐसे संवेदनशील मामलों को बिना किसी जाँच के पसरने दिया जा रहा है; जबकि अनाप-शनाप फेसबुक पोस्ट करने वालों को पीट दिया जाता है और जेल में डाल दिया जाता है।रवीश कुमार

वरिष्ठ पत्रकार के एक लेख का हिस्सा

बालाकोट स्ट्राइक की जानकारी बस चार या पाँच लोगों को थी। प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, रक्षा मंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और वायुसेना प्रमुख। और इनमें से ही किसी ने अर्नब गोस्वामी को जानकारी दी है। यह एक आपराधिक कृत्य है। जिसने जानकारी दी और जिस व्यक्ति के पास जानकारी आयी, दोनों के ही खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए; जाँच की जानी चाहिए। लेकिन यह जाँच कभी शुरू ही नहीं होगी। मैं बताता हूँ क्यों? क्योंकि यह जानकारी प्रधानमंत्री ने ही दी होगी।  राहुल गाँधी, कांग्रेस नेता

मैंने पहले भी कहा था कि भाजपा ने राजनीतिक स्वार्थ के लिए सैनिकों की बलि चढ़ायी थी। यह बात आज देश के सैनिक भी कह रहे हैं और भाजपा के पत्रकार के लीक हुए मेसेजेज ने भी यह साबित कर दिया है। भाजपा किसी की सगी नहीं है। वह अपने लाभ के लिए सैनिकों के खिलाफ षड्यंत्र करने से भी पीछे नहीं हटती।शंकर सिंह भगेला

पूर्व मुख्यमंत्री, गुजरात

ये हैं अर्नब गोस्वामी और बार्क के सीईओ के बीच बातचीत के व्हाट्स ऐप चैट्स के कुछ स्क्रीनशॉट। इन स्क्रीनशॉट में कई षड्यंत्र देखे जा सकते हैं कि अर्नब गोस्वामी की सरकार में कितनी पैठ है! यह मीडिया का बेजा इस्तेमाल है। अर्नब और मीडिया अपनी ताकत का इस्तेमाल ब्रोकर के तौर पर कर रहे हैं। किसी भी अन्य देश में, जहाँ कानून का राज है; वहाँ अर्नब गोस्वामी जेल में होते।प्रशांत भूषण

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील

लोकसभा चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने 40 जवानों की बलि चढ़ायी। यह अच्छा है कि भाजपा ने उत्तर प्रदेश और बिहार में तांडव के निर्माताओं और निर्देशकों के खिलाफ मामले दर्ज किये हैं; लेकिन अगर भाजपा सैनिकों की शहादत का अपमान करने के लिए अर्णब गोस्वामी के खिलाफ ऐसे मामले दर्ज करने जा रही है, तो वह एक असली आदमी है। अगर अर्नब गोस्वामी के देशद्रोह की भी चर्चा होती है, तो पुलवामा हमले के शहीदों की आत्माएँ शान्त हो जाएँगी। स्वतंत्रता और राष्ट्रवाद की लड़ाई दूसरों द्वारा लड़ी जाती थी; लेकिन यह राष्ट्र का चौथा स्तम्भ है! सब कुछ किया है, किसे दोष देना है? तांडव जारी है, यह जारी रहेगा।

शिवसेना मुखपत्र सामना में

खेती अगर घाटे का सौदा है, तो इसमें रईसों की रुचि क्यों?

भारत कृषि प्रधान देश है। यहाँ खेती-किसानी में आधी से अधिक आबादी लगी हुई है; लेकिन भारत की कुल जीडीपी में इसका योगदान केवल 16 से 17 फीसदी के आसपास ही रहता है। देश में एक किसान की औसत मासिक आय भी 6,000 रुपये से अधिक नहीं हो पा रही है। यह 200 रुपये रोज़ की औसत दिहाड़ी है, जो कि न्यूनतम मज़दूरी दर से भी बहुत कम है। हज़ारों किसान हर साल आत्महत्या कर रहे हैं। करीब 70 फीसदी किसान खेती के अतिरि‍क्त दैनि‍क कमायी पर निर्भर हैं। ग्रामीण आय में खेती का हिस्सा करीब 40 फीसदी से भी कम है। मेरा सवाल यह है कि अगर खेती-किसानी की स्थिति इतनी बुरी है, तो देश के पूँजीपति (रईस) और उद्योगपति इसकी ओर आकर्षित क्यों हो रहे हैं? कुछ साल पहले जब फिल्मी महानायक अमिताभ बच्चन ने उत्तर प्रदेश के ज़िले बाराबंकी में उनकी पसंदीदा पार्टी (सपा) की सरकार में ज़मीन खरीदी, तो बसपा की सरकार बनते ही मायावती ने उन्हें किसान मानने से इन्कार करते हुए उन पर कड़ी कार्रवाई की।

अमिताभ बच्चन किसान बनना चाहते हैं। बाराबंकी में उन्होंने इसके लिए ज़मीन भी खरीदी। सवाल यह है कि अमिताभ बच्चन, जिनकी हर महीने करोड़ों की कमायी है, किसानी क्यों करना चाहते हैं? इसका जवाब शायद हम सभी को कोरोना-काल में अच्छी तरह मिल चुका है। कोरोना-काल में जब दूसरे उद्योगों की तरह फिल्म उद्योग भी ठप पड़ गया, तब एक मात्र कृषि ही एक ऐसा उद्योग या कहें कि व्यवसाय रहा, जिसमें ताला नहीं लगा। दूसरा पूँजीपतियों और उद्योगपतियों को हर माह जो करोड़ों की आय होती है, उसको कृषि आय बताकर सरकार के आयकर विभाग की आँखों में धूल झोंकने का एक आसान रास्ता बन जाता है, क्योंकि कृषि उपज पर आयकर (इनकम टैक्स) नहीं लगता। इस मामले में अगर हम अमिताभ बच्चन जैसे लोगों को दूरदर्शी कहें, तो कोई हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए। यह कृषि के कभी न बन्द होने की ही वजह है कि लॉकडाउन में जब पूरा देश डर से घरों में बन्द था, तब उद्योगपतियों के फायदे के लिए संसद में तीन नये कृषि कानून बन गये, जिसके चलते किसान कई महीनों से आन्दोलन पर हैं और दो महीने से ज़्यादा समय से दिल्ली की सीमाओं पर बैठे हैं। अगर हम केवल फिल्मी सितारों की बात करें, तो सलमान खान भी खेती करते हैं। फिल्म स्टार जितेंद्र ने भी राजस्थान के बूंदी में ज़मीन खरीदी हुई है। फिल्म डायरेक्टर संजय लीला भंसाली जादौन में ज़मीन खरीद चुके हैं। खेती-बाड़ी (कृषि) को लेकर इन सभी करोड़पतियों की एक ही राय है कि यह फायदे का धन्धा है। लेकिन दूसरी तरफ खेती में हो रहे लगातार घाटे और सिर पर बढ़ते कर्ज़ के चलते हर प्रदेश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। देश के लाखों किसान चिन्ता में तिल-तिल घुट रहे हैं। अगर हम आँकड़े उठाकर देखें, तो पता चलता है कि कम जोत वाले किसान सबसे ज़्यादा आत्महत्या का रुख करते हैं। लेकिन उद्योगपतियों, पूँजीपतियों के कृषि की ओर रुख करने से बार-बार यही सवाल उठता है कि क्या कृषि घाटे का सौदा है? मेरे खयाल से ऐसा बिल्कुल नहीं है। आप सोच रहे होंगे कि फिर ये छोटे-मझोले किसान आत्महत्या क्यों करते हैं? इसका सीधा-सा जवाब है कि खाद, पानी, कीटनाशक सब कुछ काफी महँगा है और खाद्यान्न का वह उचित दाम किसान को कभी नहीं मिलता, जिसका वह हकदार है, उसमें कई हिस्सेदार आ जाते हैं। यह किसान की गलती नहीं है, यह व्यवस्था की गलती है। किसान तो मजबूर है। किसान की न तो इतनी पहुँच है कि वह अपने खाद्यान्न को सीधे उपभोक्ता तक पहुँचा सके और न उसकी इतनी क्षमता है। इसकी एक वजह अधिकतर किसानों का अनपढ़ या कम पढ़ा-लिखा होना है और दूसरी वजह उन्हें उन्नत खेती करने के लिए प्रोत्साहन नहीं मिलना है।

कहीं भुखमरी, तो कहीं अन्न की बर्बादी

वरिष्ठ पत्रकार और चिन्तक नारायण बारेठ कहते हैं कि बड़े दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि आज भी हमारे देश में तकरीबन 20 फीसदी लोग इतना अधिक खाते हैं कि इन 20 फीसदी में से करीब 60 फीसदी को उसे पचाने के लिए जिम जाना पड़ता है। वहीं एक बड़ी आबादी ऐसी है, जिसमें से करीब 65 फीसदी को पोष्टिक आहार नहीं मिलता और करीब 35 फीसदी को भरपेट भोजन ही नसीब नहीं होता। अब तो कोरोना-काल में हम भुखमरी के मामले में और भी आगे निकल गये हैं। हालत यह है कि देश में 92 फीसदी महिलाओं के शरीर में खून की कमी है और करीब 40 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। हालत यह है कि कहीं भुखमरी है और कहीं अन्न की बुरी तरह से बर्बादी हो रही है। पंजाब, हरियाणा में एक संस्था ने ऐसे ही बर्बाद खाने को इकट्ठा करके गरीबों का पेट भराने की एक मुहिम चला रखी है। मेरा सवाल है- क्या ऐसा नहीं हो सकता कि अन्न और दूसरे खाद्य पदार्थों को बर्बाद होने से पहले ही भूखों और गरीबों तक पहुँचा दिया जाए। हम कितनी ही शादियों-पार्टियों में लोगों को खाना बर्बाद करते देखते हैं। वहीं दूसरी तरफ भूख से तड़प-तड़पकर दम तोडऩे वाली दर्ज़नों खबरें अन्दर तक झकझोर देती हैं। यह तब है, जब हमारे यहाँ अनाज की कमी नहीं है। यह दु:खद और विडंबना भरा है कि पिछले सात वर्षों में हम कई मामलों में पिछड़े हैं। सरकारी सेक्टर्स को निजी हाथों में दिया जा रहा है और अब चन्द उद्योगपतियों के हाथों में किसानों की डोर देने की तैयारी भी हो चुकी है।

ऐसे में क्या यह माना जाए कि कृषि को जानबूझकर अब तक मुनाफे से दूर रखा जा है, ताकि किसानों का इस पेशे से मोह भंग हो और वे तंग आकर अपनी ज़मीनें पूँजीपतियों और उद्योगपतियों को सौंपने को मजबूर हो जाएँ। और ऐसा हुआ भी है। हज़ारों-लाखों कृषि भूमि को कहीं पैसे का लालच देकर तो कहीं झाँसे में लेकर तो कहीं डरा-धमकाकर अब तक पूँजीपतियों और उद्योगपतियों के हवाले किया जा चुका है। शायद यही वजह है कि किसान पुत्रों को खेती से ज़्यादा मुनाफे का सौदा ज़मीनों को बेचकर कोई दूसरा धन्धा करना लगता है। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इससे उनकी जड़ कट रही है। ऐसे कई उदाहरण मेरी नज़र में हैं। मसलन एक शिवचरण नाम के किसान के पास तीन बीघा ज़मीन थी, जिसमें वह सब्ज़ियाँ उगाते थे। शिवचरण अनपढ़ थे। उनका इकलौता बेटा नरेश जब बड़ा हुआ, तो अपने परिवार की माली हालत देखकर उसका खेती में मन नहीं लगा। उसने अपने पिता से कहा कि वह बिजनेस करेगा। इकलौते बच्चे की ज़िद थी और इतने पैसे घर में थे नहीं कि उसे बिजनेस कराते। आखिरकार हार खाकर ज़मीन बेच दी और एक बड़ी दुकान लड़के को शहर में खुलवा दी। माँ-बाप गाँव में रह गये और लड़का शहर में बस गया। कुछ ही दिनों में दुकान ठप होने लगी। इधर माँ-बाप की रोजी-रोटी का ज़रिया चला गया और उधर उनका बेटा दु:खी रहने लगा। माँ-बाप की आखिर में बुरी दशा हुई और दोनों उम्र होने से पहले ही बीमारी में चल बसे। बाद में लड़के ने गाँव वाला घर भी बेच दिया और फिर हमेशा के लिए कहीं चला गया। ऐसे कई िकस्से हैं, जो ऐसे लोगों के हैं, जो खेती-बाड़ी का महत्त्व नहीं समझते या इसमें लगातार होते घाटे या निम्न जीवन स्तर से तंग आकर अपनी जड़ यानी खेती की ज़मीन गँवा बैठते हैं और यही पूँजीपति तथा उद्योगपति चाहते भी हैं।

कहने का मतलब यह है कि उद्योगपतियों और पूँजीपतियों के लिए वही ज़मीन फायदे का सौदा हो जाती है, जिस पर एक आम किसान खेती करके जीवनयापन भी नहीं कर पाता। इसके पीछे की वजह क्या है और कहाँ कमी रह जाती है? इस पर हम सभी देशवासियों और खासकर सरकार को विचार करना होगा। मुझे शहर में रहते हुए करीब चार दशक बीत गये और यहाँ मेरा ठीकठाक घर भी है, घर चलाने के लिए रोज़गार भी है, लेकिन मैंने अपनी एक इंच ज़मीन भी आज तक नहीं बेची। क्योंकि मैं जानता हूँ कि ईश्वर न करे, अगर कोई बड़ी आपदा आ गयी, जैसे पिछले साल कोरोना वायरस का कहर टूटा, जिसका साया अब भी है; तो गाँव में कम-से-कम भूखों नहीं मरेंगे।

मुझे बड़ी पीड़ा होती है, जब किसान पुत्र कृषि कार्यों को बड़ी गिरी हुई नज़र से देखते हैं और अपने ही पुस्तैनी काम में शर्म करते हैं। कई बार ऐसे युवाओं की आँखें तब खुलती हैं, जब उनके हाथ से सब कुछ छिन चुका होता है। मैं कहना चाहूँगा कि ऐसे किसान पुत्रों को सोचना चाहिए कि अगर कृषि घाटे का सौदा होता, तो पूँजीपति और उद्योगपति इस क्षेत्र में उतरने के लिए इतनी ताकत क्यों लगाते?

देश की दो तस्वीरें

जब हम गौर से देखते हैं, तो हमारे देश की दो तस्वीरें साफ नज़र आती हैं, एक तस्वीर वो है, जिसमें एक बेटी अपने किसान-मज़दूर बाप की इस लाचारी को देखते हुए कि वह उसकी शादी कैसे और कहाँ से करेगा, आत्महत्या कर लेती है और दूसरी तस्वीर वह है, जहाँ एक उद्योगपति की बेटी अपना एक शौक पूरा करने के लिए करोड़ों रुपये सेकेंडों में पानी की तरह बहा देती है। दोनों ही भारत की बेटियाँ हैं; लेकिन फर्क इतना है कि एक ईमानदार किसान-मज़दूर की बेटी है और दूसरी उस उद्योगपति की बेटी है, जो दूसरों की मेहनत-मज़दूरी काटकर, टैक्स की चोरी करके, यहाँ तक कि काले धन्धे करके दिन-ब-दिन अमीर होता जाता है। एक तरफ 70 फीसदी वह आबादी है, जिसमें परिवारों के मुखिया को पूरी ज़िन्दगी में एक घर बनाना मुश्किल हो जाता है और दूसरी तरफ 30 फीसदी आबादी है, जिसमें परिवारों के पास हर सुख-सुविधा है। इममें से 10 फीसदी के पास तो इतनी सम्पत्ति है कि परिवार के हर सदस्य के पास यहाँ तक कि पैदा होने वाले बच्चे के पास तक इतनी सम्पत्ति होती है, कि अगर वह न भी कमाये, तो भी नौकर-चाकर रखकर ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी बिता सकता है। दरअसल हमने आज़ाद भारत में करोड़पति सांसद मंत्री और विधायक पैदा किये हैं, लेकिन एक आम आदमी को मरने के लिए उसके हाल पर भी नहीं छोड़ा है। उसे कर वसूली से लेकर दूसरे तरह की अवैध वसूली का ज़रिया बनाकर गन्ने की तरह निचोड़कर फटेहाल बना डाला है। क्या यह सूरत बदलनी नहीं चाहिए? ज़रूर बदलनी चाहिए। एक पुराने सर्वे के आँकड़े बताते हैं कि देश के महज़ दो फीसदी लोगों के पास बाकी के 98 फीसदी लोगों के बराबर जितनी सम्पत्ति है।

एक और तस्वीर का ज़िक्र मैं यहाँ करना चाहूँगा। हमारे देश में तकरीबन 8 से 10 फीसदी सांसद ऐसे हैं, जो अपना क्षेत्र छोड़कर दूसरे संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़कर संसद में आते हैं। सवाल यह है कि क्या यह लोग अपने क्षेत्र की चिन्ता छोड़कर दूसरे क्षेत्र के विकास के लिए लालायित रहते हैं? नहीं। दरअसल कड़ुवी सच्चाई यह है कि यह लोग अपने क्षेत्र में अच्छा रिकॉर्ड नहीं होने के चलते, दूसरे क्षेत्र से चुनाव लड़ते हैं, ताकि उन्हें जीत मिल सके; क्योंकि अपने क्षेत्र में उन्हें जीत मिलने से रही। हमारी समस्या यह है कि हम धर्म, जाति को लेकर लड़ते रहते हैं, क्योंकि धर्म पर चलने के बजाय खुद को धर्म का रक्षक मान बैठे हैं। यही वजह है कि आज देश में तकरीबन 30 लाख धार्मिक स्थल होने के बावजूद अपराध बढ़ रहे हैं। अब तो धार्मिक स्थलों पर भी अपराध हो रहे हैं। देश में इसके कई उदाहरण हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश इसका गवाह बना है। अजीब बात है कि हमने 30 लाख के करीब धार्मिक स्थल बना लिये, लेकिन शिक्षण संस्थान तीन लाख भी नहीं बना पाये, अस्पताल एक लाख भी नहीं बना पाये। शराब के ठेके लाखों की संख्या में खोल दिये और उनकी संख्या में बढ़ोतरी ही कर रहे हैं, लेकिन उद्योगों को खत्म करने पर आमादा हैं।  क्या हम ऐसे ही विश्वगुरु भारत का निर्माण करेंगे? आज लाखों लोग सन्त-महात्माओं की शरण में जाते हैं, धार्मिक स्थलों पर जाते हैं; लेकिन संस्कार फिर भी घट रहे हैं। क्या वजह है इसकी? मेरे खयाल से इसकी वजह शिक्षा में कमी और हर हाथ में काम की जगह अधिकतर हाथों में मोबाइल का आना है। मैं देखता हूँ कि अधिकतर किसान पुत्र अपने बूढ़े माता-पिता को खेतों में काम करने को भेज देते हैं और खुद पढ़ाई और दूसरे कामों के नाम पर मोबाइल में व्यस्त रखते हैं। फिर कहते हैं कि खेती में तो नुकसान-ही-नुकसान है। ऐसे युवाओं से मैं यही कहना चाहूँगा कि खेती का घाटा तो अगली फसल में भी पूरा किया जा सकता है, लेकिन आप लोग जो ज़िन्दगी का घाटा कर रहे हो, उसका आपको ताउम्र नुकसान उठाना पड़ेगा। अपने आसपास से नहीं, तो कम-से-कम पूँजीपतियों और उद्योगपतियों के संघर्षों के बारे में पढ़कर ही सीखो, जो अरबों रुपये के मालिक होने के बावजूद दिन-रात मेहनत करते हैं।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

बाइडन-हैरिस का अमेरिका

सन् 1998 की बात है, अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे और भारत के पोखरण में परमाणु परीक्षण से अमेरिका में नाराज़गी थी। जो बाइडन तब प्रमुख डेमोक्रेट नेताओं में शामिल थे। उस समय उन्होंने भारत का पक्ष लिया था। यही नहीं सन् 2006 में जब भारत का अमेरिका से ऐतिहासिक परमाणु समझौता हुआ, तब भी भारत को विशेष अहमियत देने वाला ड्राफ्ट, उस समय उप राष्ट्रपति बाइडन ने ही तैयार किया था। लेकिन भारत के सबसे बड़े गैर-राजनीतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) और दुनिया की सबसे बड़ी और भारत की केंद्रीय सत्ता में विराजमान भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से जुड़े लोगों को बाइडन का अपनी केबिनेट में शामिल न करना भी एक बड़ी बात है। इससे कुछ ऐसे संकेत मिलते हैं कि बाइडेन भारत के प्रति तो झुकाव रखते हैं, लेकिन वह भारत की वर्तमान राजनीति और मुख्य राजनीतिक पार्टी से खुश नहीं हैं। अब जबकि बाइडन राष्ट्रपति बन गये हैं, तब उनका यह रुख बहुत मायने रखता है। क्योंकि बाइडन का यह कदम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका से बेहतर निजी रिश्तों के दावों को भी पलीता है। यह भी भारत के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होगा कि चीन के साथ उनके प्रशासिक रिश्ते कैसे होंगे? बाइडन अभी तक भारत की क्षेत्रीय सम्प्रभुता की रक्षा का समर्थन करते रहे हैं। सम्भावना है कि भारत-अमेरिका के बीच रक्षा सम्बन्धों में भविष्य में और मज़बूती आयेगी।

भारत के लिए सबसे महत्त्वपूर्व अमेरिका से रक्षा सम्बन्ध हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक, ट्रंप के जाने और बाइडन के सत्ता सँभालने के बावजूद दोनों देशों के रक्षा सम्बन्धों पर असर की सम्भावना लगभग न के बराबर है। चीन के साथ सीमा पर तनाव के बीच दोनों देशों में ड्रोन से लेकर ऐंटी एयर मिसाइल जैसे हथियारों की खरीद को लेकर बातचीत की ज़मीन तैयार हो रही है। दोनों देश पहले ही रक्षा और रणनीति क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने पर सहमति जता चुके हैं। चुनाव के समय अमेरिका की घरेलू राजनीति ऐसी थी कि भारत, खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ट्रंप के बहुत करीब माना जाता था। हालाँकि जो बाइडन के राष्ट्रपति बनने के बाद भी घरेलू राजनीति का दोनों देशों के सम्बन्धों पर खास असर पडऩे की सम्भावना नहीं है।

हाल के महीनों में 2+2 स्तर बातचीत ने दोनों देशों के बीच सहयोग की नयी कड़ी शुरू की है। बाइडन की टीम के सदस्य कर्ट कैम्‍पबेल, एंथनी ब्लिंकेन, मिशेल फ्लोरनी आदि को भारत के प्रति काफी सकरात्‍मक रुख रखने वाला माना जाता है। चीन से सीमा तनाव के दौरान ट्रंप के भारत के समर्थन में दिखने से चीन भी काफी खफा रहा था। देखना होगा कि बाइडन का इसे लेकर क्या रुख रहता है। हालाँकि जानकारों का कहना है कि हो सकता है कि बाइडन प्रशासन की चीन को लेकर तल्‍खी ट्रंप के समय जैसी न रहे। ट्रंप की तरह बाइडन के सार्वजनिक मंचों से चीन को कोसने की सम्भावना बहुत कम दिखती है।

बाइडन प्रशासन में उप राष्ट्रपति कमला हैरिस भारतीय मूल की हैं, जो दोनों देशों के बीच रिश्ते निभाने में बड़ा रोल अदा कर सकती हैं। इसके अलावा बाइडन की टीम में भारतीय मूल के 20 अमेरिकियों को जगह मिली है। इसे बहुत महत्त्वपूर्ण कहा जाएगा। वैसे बाइडन के पद ग्रहण से पहले अमेरिका के भावी रक्षा मंत्री जनरल (अवकाश प्राप्त) लॉयड ऑस्टिन ने कहा कि चीन पहले ही क्षेत्रीय प्रभुत्वकारी शक्ति बन चुका है और अब उसका लक्ष्य नियंत्रणकारी विश्वशक्ति बनने का है। उन्होंने क्षेत्र और दुनिया भर में चीन के डराने-धमकाने वाले व्यवहार का उल्लेख करते हुए अमेरिकी सांसदों से ये बातें कहीं। ऑस्टिन ने कहा- ‘वह (चीन) पहले ही क्षेत्रीय प्रभुत्वकारी ताकत है और मेरा मानना है कि अब उसका लक्ष्य नियंत्रणकारी विश्व शक्ति बनने का है। वह हमसे विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा करने के लिए काम कर रहा है और उसके प्रयास नाकाम करने के लिए पूरी सरकार को एक साथ मिलकर विश्वसनीय तरीके से काम करने की ज़रूरत होगी।’ इस बयान से चीन के प्रति अमेरिका की नयी सरकार की सोच का पता लगता है।

एक मौके पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को डोनाल्ड ट्रंप के लिए वोट माँगते हुए देखा गया। देश में इसे लेकर काफी विवाद भी हुआ, हालाँकि भाजपा ने इसे दोनों के दोस्त होने की दुहाई देकर उचित बताया। अब जबकि ट्रंप व्हाइट हाउस से बाहर हो चुके हैं, यह कहा जा सकता है कि भारत को कई क्षेत्रों में इस दोस्ती के बावजूद कोई बड़ा लाभ नहीं मिला। उदाहरण के लिए व्‍यापार के क्षेत्र में भारत को फायदा नहीं हुआ। ट्रंप को लेकर यह साफ हो गया था कि मोदी से दोस्ती के बावजूद उनकी प्राथमिकता अपने देश के हितों की रहती थी। बाइडन प्रशासन में इसमें बड़े बदलाव की उम्मीद कम ही है। यह भी देखना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री मोदी बाइडन के साथ कैसा व्यक्तिगत रिश्ता बना पाते हैं?

यदि बाइडन के हाल के बयानों और उनकी वेबसाइट का गहराई से अध्ययन करें, तो साफ होता है कि वह अमेरिका में देश के बने उत्पादों के बड़े समर्थक दिखते हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि बाइडन प्रशासन में डाटा प्रोटेक्‍शन, लोकलाइजेशन, डिजिटल सर्विस टैक्‍स, इंटेलेक्‍चुअल प्रॉपटी राइट्स या इम्‍पोर्ट ड्यूटी से जुड़ी नीतियाँ, अमेरिकी व्यापार को ध्‍यान में रखकर बनेंगी। हाँ, बाइडन एच-1बी वीज़ा में भारतीयों की हिस्सेदारी और ग्रीनकाड्र्स आधारित रोज़गार में इज़ाफा कर सकते हैं। एजुकेशन सेक्‍टर में ट्रंप प्रशासन के समय तय की गयी स्‍टूडेंट-वीज़ा अवधि सीमित की थी, जिसे बाइडन वापस ले सकते हैं।

टकराव के मुद्दे

यदि पिछले तीन राष्ट्रपतियों बुश, ओबामा और ट्रंप के कार्यकाल को देखा जाए, तो भारत-अमेरिकी सम्बन्धों में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है; लेकिन इनमें सुधार हुआ है। बाइडन के आने से भी भारत-अमेरिकी रिश्तों में खास बदलाव नहीं आयेगा। क्योंकि कोई ऐसा बड़ा कारण सामने नहीं, जिससे लगे कि बाइडन की भारत को लेकर नीति में कोई बड़ा बदलाव आयेगा। अटल बिहारी वाजपेयी के समय दोनों देशों के बीच रिश्तों में जो मज़बूती आयी, जो मनमोहन सिंह के दौर में और भी पक्की हुई। ट्रंप को तो मोदी अपना दोस्त कहते थे और उन्होंने ट्रंप की चुनाव के लिए मदद करने की भी कोशिश की। बाइडन के साथ मोदी के रिश्ते कैसे होते हैं, यह आने वाले समय में साफ हो जाएगा। हालाँकि व्यापार एक क्षेत्र है, जिसमें पहले से दोनों देशों के बीच कुछ समस्याएँ हैं। भारत में मेक इन इंडिया पर जिस तरह का मोदी सरकार का ध्यान है, उससे व्यापार में कुछ आशंकाएँ जानकार व्यक्त करते हैं। लेकिन बाइडन पिछले समय में भारत में सीएए और एनआरसी के अलावा जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को खत्म करने और राज्य का विशेष दर्जा वापस लेने को लेकर असहज टिप्पणियाँ कर चुके हैं।

डेमोक्रेट्स का एक बड़ा वर्ग शुरू से मानवाधिकार को लेकर काफी गम्भीर माना जाता रहा है। यदि आने वाले समय में इस पर बाइडन प्रशासन या डेमोक्रेट्स की तरफ से कोई बात उठती है तो भारत और प्रधानमंत्री मोदी दोनों के लिए मुश्किल घड़ी हो सकती है। अमेरिका ही नहीं, दूसरे कुछ देशों में भी सीएए और एनआरसी के अलावा जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को खत्म करने को लेकर मोदी सरकार विरोधी प्रदर्शन हुए थे। इसके अलावा अमेरिका रक्षा क्षेत्र में अपने व्यापार हितों के प्रति बहुत सतर्क रहता है। मोदी से दोस्ती के बावजूद ट्रंप इस मामले में कभी समझौता करते नहीं दिखे थे। बाइडन उनसे अलग साबित होंगे, इसकी सम्भावना न के बराबर है। भारत के लिए रूस से एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम खरीद को लेकर अमेरिका नाराज़ रहा है। यह मामले सामान्य रूप से चले तो ठीक है, मगर यदि किसी कारणवश गम्भीर रूप लेंगे, तो दोनों देशों के रिश्तों पर इसका काफी विपरीत असर पड़ सकता है।

लेकिन भारत और अमेरिका के बीच रिश्तों की कड़ी को चीन मज़बूत करता है। चीन भारत और अमेरिका दोनों के लिए सामान रूप से चुनौती है। बाइडन भारत से अलग जाकर चीन से दो-दो हाथ नहीं कर सकते। बाइडन अपने चुनाव अभियान के दौरान चीन को लेकर सख्त रुख दिखाते रहे हैं। जानकारों के मुताबिक, चीन के खिलाफ बाइडन भारत को मज़बूत साझीदार बनाना चाहेंगे।

चीन के साथ ही भारत के रिश्तों में पाकिस्तान का भी कोण है। दरअसल अमेरिका की दक्षिण एशिया क्षेत्र में कुछ मजबूरियाँ रही हैं। इन मजबूरियों में एक अफगानिस्तान भी है, जहाँ अमेरिकी सेनाएँ अभी भी हैं। पाकिस्तान अमेरिका के लिए अफगानिस्तान के मामले में महत्त्वपूर्ण है। बाइडन भले पाकिस्तान को लेकर डबल गेम खेलने जैसी टिप्पणी कर चुके हों, लेकिन अफगानिस्तान से अपनी सेनाएँ पूरी तरह वापस करने तक वह पाकिस्तान को साथ लेकर चलेंगे। भारत के लिए समस्या बस यही है कि पाकिस्तान, जहाँ कश्मीर को लेकर इमराम खान के आने के बाद पूरी तरह भारत-विरोधी रुख अिख्तयार कर चुका है, वहीं वह पूरी तरह चीन की गोद में भी बैठ चुका है। ट्रंप के समय में मोदी पाकिस्तान पर कुछ मौकों पर दबाव डालने में सफल रहा था। क्या बाइडन ऐसी ही भूमिका भारत के लिए निभा पाएँगे? कहना कठिन है। वैसे हाल में अमेरिका के मनोनीत रक्षा मंत्री जनरल ऑस्टिन पाकिस्‍तान को भारत-विरोधी आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए इशारों में चेतावनी दे चुके हैं। उन्होंने यह तो कहा कि पाकिस्‍तान ने अफगानिस्तान में शान्ति प्रक्रिया में सकारात्‍मक योगदान दिया है। लेकिन पाकिस्‍तान यह भी कहा कि पाकिस्तान ने भारत विरोधी आतंकवादी गुटों लश्‍कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्‍मद के खिलाफ जो कदम उठाये हैं, वो काफी नहीं हैं। ऑस्टिन ने कहा- ‘मैं अपने कार्यकाल में पाकिस्‍तान पर दबाव डालूँगा कि वह अपनी ज़मीन का इस्‍तेमाल आतंकवादियों के शरणस्‍थली के रूप में न होने दे।’

बाइडन की आव्रजन विधेयक पेश करने की योजना है। इसमें देश में कानूनी दर्जे के बिना रह रहे करीब एक करोड़ 10 लाख लोगों को आठ साल के लिए नागरिकता देने का प्रावधान होगा। एक अनुमान के मुताबिक, इसमें करीब पाँच लाख लोग भारतीय मूल के हैं। यह आव्रजन विधेयक निवर्तमान ट्रंप प्रशासन की कड़ी आव्रजन नीतियों के विपरीत होगा। बाइडन ने चुनाव प्रचार के दौरान ही आव्रजन पर ट्रंप के कदमों को अमेरिकी मूल्यों पर कठोर हमला करार दिया था। तब बाइडन ने कहा था कि वह इस नुकसान की भरपाई करेंगे।

विधेयक के तहत पहली जनवरी, 2021 तक अमेरिका में किसी कानूनी दर्जे के बिना रह रहे लोगों की पृष्ठभूमि की जाँच किये जाने की सम्भावना है। की जाएगी और यदि वे कर जमा करते हैं और अन्य बुनियादी अनिवार्यताएँ पूरी करते हैं, तो उनके लिए पाँच साल के अस्थायी कानूनी दर्जे का मार्ग प्रशस्त होगा या उन्हें ग्रीन कार्ड मिल जाएगा। इसके बाद उन्हें तीन और साल के लिए नागरिकता मिल सकती है। मुस्लिम देशों से लोगों के आगमन पर रोक समेत आव्रजन सम्बन्धी ट्रंप के कदमों को पलटने के लिए बाइडन के कदम उठाने की सम्भावना है। बाइडन ने कहा था कि वह कांग्रेस के साथ वीज़ा प्रणाली, एच 1-बी वीज़ा में सुधार करने के लिए काम करेंगे; ताकि वीज़ा पर रहने वालों को नौकरी स्विच करने की अनुमति मिल सके। इससे भारतीय कामगारों को काफी फायदा हो सकता है। बाइडन ने 1.1 करोड़ अवैध प्रवासियों को वैध बनाने का वादा किया गया था, उनके घोषणा पत्र के अनुसार, इनमें से पाँच लाख भारतीय हैं।

चीन का बदला

चीन डोनाल्ड ट्रंप से कितना नाराज़ था, यह इस बात से ज़ाहिर हो जाता है कि जो बाइडन के सत्ता सँभालते ही चीन ने बड़ा कदम उठाते हुए ट्रंप के राष्ट्रपति काल में अहम पदों पर रहे 28 अधिकारियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इनमें सबसे बड़ा नाम माइक पोम्पियो का है। ट्रंप के राष्ट्रपति कार्यकाल में अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे रॉबर्ट सी.ओ. ब्रायन पर भी चीन ने प्रतिबन्ध लगा दिया। यही नहीं चीन ने चीन-अमेरिका सम्बन्धों को खराब करने और चीन के अंदरूनी मामलों में दखल देने का आरोप लगाते हुए इन नेताओं पर प्रतिबन्धों की घोषणा की। तो क्या यह माना जाए कि चीन बाइडन से बेहतर रिश्तों की उम्मीद किये हुए हैं? क्या वह विशेष रूप से जुड़े लोगों पर प्रतिबन्ध लगाकर बाइडन के प्रति हल्का रुख दिखाना चाहता है?

चीन ने ट्रंप प्रशासन के इन लोगों पर प्रतिबन्ध की घोषणा करते हुए राष्ट्र की सम्प्रभुता के उल्लंघन का आरोप लगाया। पोम्पियो और अन्य 27 अधिकारी बैन के बाद अब चीन की सीमा में किसी भी तरह की यात्रा नहीं कर सकेंगे। दिलचस्प यही है कि चीन ने यह ऐलान तब किया, जब जो बाइडन का शपथ ग्रहण समारोह हो रहा था। चीन ने आरोप लगाया कि ये सभी लोग चीन-अमेरिका के रिश्तों को खराब करने के ज़िम्मेदार थे। सूची में पोम्पियो के अलावा रॉबर्ट सी. ओब्रायन, पीटर नेवारो, डेविड स्टिलवेल, मैथ्यू पॉटिंगर, एलेक्स अजर, कीथ क्रैच, केली डीके क्राफ्ट, जॉन आर. बोल्टन, स्टीफन जैसे नाम शामिल हैं। अब इन सभी के साथ ही इनके परिवार के सदस्य भी चीन की मुख्य भूमि के अलावा हॉन्गकॉन्ग, मकाऊ में भी प्रतिबन्धित कर दिये गये हैं और वे चीन या चीन की किसी भी कम्पनी के साथ व्यापार भी नहीं कर पाएँगे। भले चीन ने डोनाल्ड ट्रंप को लेकर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया, लेकिन ट्रंप के कार्यकाल में भी चीन के कई अधिकारियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था; जिनमें शिनजियाँग प्रान्त के गवर्नर जैसे लोग नाम शामिल थे। अब चीन के विदेश मंत्रालय ने निवर्तमान अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पेाम्पियो को महाविनाश का पुतला करार दिया और कहा कि उनके द्वारा चीन को नरसंहार और मानवता के विरुद्ध अपराध का दोषी करार दिया जाना केवल रद्दी का एक पुर्ज़ा भर है। बता दें कि चीन के वुहान में कोरोना विषाणु की उत्पति के आरोप अमेरिका और कुछ अन्य देशों ने लगाये थे। अमेरिका में तो इसे लेकर एक मामला भी दर्ज किया गया था। अभी चीन ने बाइडन को लेकर खुले तौर पर कुछ नहीं कहा है। उनके सत्ता सँभालने को लेकर भी कोई अहम प्रतिक्रिया चीन की तरफ से नहीं आयी है। बाइडन ने भी शपथ ग्रहण के बाद खुद अपने भाषण में चीन को लेकर कोई बड़ी नकारात्मक टिप्पणी नहीं की थी। हालाँकि इसके बावजूद यह तय है कि चीन के साथ अमेरिका के रिश्ते कोई मित्रता वाले तो नहीं ही होंगे।

यह माना जा रहा था कि बाइडन शुरुआत में चीन को लेकर कोई बड़ा ऐलान कर सकते हैं, लेकिन उन्होंने चीन से जुड़ा कोई भी बड़ा बयान नहीं किया। वैसे अपने प्रति बाइडन के नज़रिये से चीन भी सतर्क है। विशेषज्ञ बताते हैं कि दोनों देशों के बीच सम्बन्धों में खास बदलाव नहीं आयेगा। अमेरिका में नया राष्ट्रपति बनने के बाद चीन मान रहा है कि अमेरिका कई मुद्दों को लेकर कड़ा रुख रखेगा। हालाँकि चीन के अखबार ग्लोबल टाइम्स की एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि नये प्रशासन के बाद चीन और अमेरिका के बीच कुछ व्यापारिक मसले हल हो सकते हैं। बाइडन टीम के सदस्य जेनेट येलेन कह चुके हैं कि अमेरिका में नया प्रशासन चीन की अमेरिका की अर्थ-व्यवस्था को कमज़ोर करने वाले तरीकों के खिलाफ दूसरे विकल्पों का भी उपयोग करेगा। येलेन, ट्रेजरी सेक्रेटरी चुने गये हैं और उनका साफ मानना है कि चीन की वजह से अमेरिकी कम्पनियों की कीमतें गिर रही हैं।

बाइडन का भाषण

शपथ लेने के बाद अपने पहले सम्बोधन में देश के अब तक के सबसे उम्रदराज़ राष्ट्रपति बाइडन ने घरेलू आतंकवाद और श्वेतों को श्रेष्ठ मानने वाली मानसिकता को हराने की लड़ाई में अमेरिका के सभी नागरिकों से शामिल होने का आह्वान करते हुए कहा कि आज हम एक उम्मीदवार की जीत का नहीं, बल्कि लोकतंत्र के मकसद और लोकतंत्र की जीत का जश्न मना रहे हैं। देश के 46वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने के बाद 78 वर्षीय बाइडन ने न सिर्फ अपने वैश्विक सहयोगियों के साथ सम्बन्धों को दुरुस्त करने का वादा किया, बल्कि देश के लोगों से सच की रक्षा करने और झूठ को हराने का भी आह्वान किया।

नवंबर में घोषित चुनाव परिणाम में बाइडन की जीत को अस्वीकार करने के ट्रंप के प्रयासों का परोक्ष सन्दर्भ देते हुए उन्होंने कहा- ‘आज अमेरिका का दिन है। लोकतंत्र की जीत हुई है।’ कोरोना वायरस संक्रमण और नस्लीय अन्याय के खिलाफ लड़ाई जैसी चुनौतियों का सन्दर्भ देते हुए बाइडन ने कहा- ‘एकजुट होकर हम बहुत कुछ कर सकते हैं। महामारी को हराने, हालात सुधारने, देश को एकजुट करने के लिए एकजुटता ही आगे का रास्ता है।’ बाइडन ने इस बात पर ज़ोर दिया कि वह सभी अमेरिकी नागरिकों के राष्ट्रपति हैं, उन्हें वोट देने वालों के भी और नहीं देने वालों के भी। अपने 21 मिनट लम्बे भाषण में बाइडन ने चुनौती स्वीकार करने और लोकतंत्र बहाल करने के लिए अमेरिकी नागरिकों की प्रशंसा की। उन्होंने क्रोध और विभाजन को शह देने वालों की आलोचना की और उनका विरोध करने वालों से कहा – ‘एक बार मेरी बात सुनें। सच और झूठ सब सामने आते हैं।’

अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए अपने सन्देश में बाइडन ने अमेरिका के साझेदारों के साथ सम्बन्धों को दुरुस्त करने और दुनिया के साथ एक बार फिर साझेदारी बढ़ाने का वादा किया। अनुभवी नेता ने अपने भाषण में कहा- ‘हम शान्ति, प्रगति और सुरक्षा के क्षेत्र में मज़बूत और विश्वस्त साझेदारी होंगे। अमेरिका ने परीक्षा दी है और मज़बूत होकर उभरा है। हम अपने साझेदारों के साथ सम्बन्धों को दुरुस्त करेंगे और एक बार फिर दुनिया के साथ अपना मेल-जोल बढ़ाएँगे।’ बाइडन ने कहा कि हम सिर्फ अपनी शक्ति के आधार पर नेतृत्व नहीं करेंगे, बल्कि उदाहरण पेश करेंगे और उसके आधार पर आगे चलेंगे। हम शान्ति, प्रगति और सुरक्षा के लिए मज़बूत और विश्वस्त साझेदार साबित होंगे। जो बाइडन ने कहा कि देश की सीमाओं के बाहर के लिए उनका सन्देश है कि हम अपने सहयोगियों के साथ रिश्ते फिर सुधारेंगे और दोबारा दुनिया के साथ कूटनीतिक सम्पर्क बहाल करेंगे, तो एक नयी उम्मीद विश्व शान्ति के लिए दिखती है।

कई फैसले पलटे

अमेरिका की सत्ता हाथ में आते ही बाइडन ने पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पेरिस जलवायु समझौते और अमेरिका में मुस्लिम ट्रैवल बैन को खत्म करने जैसे फैसले पलट दिये। नये राष्ट्रपति ने जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते में अमेरिका की फिर से वापसी के लिए उस पर हस्ताक्षर कर दिये।

बाइडन ने पेरिस जलवायु समझौते में दोबारा शामिल होने का ऐलान करते हुए कहा कि देश की जनता से चुनाव के दौरान उन्होंने इसका वादा किया था। इसके अलावा बाइडन ने कोरोना वायरस के खिलाफ जंग तेज़ करने के इरादे से महामारी कोरोना वायरस को रोकने के एक फैसले पर दस्तखत किये। इस आदेश के मुताबिक, उन्होंने मास्क को और सोशल डिस्टेंसिंग को अनिवार्य कर दिया है। बाइडन ने अमेरिका में ट्रंप द्वारा कुछ मुस्लिम देशों और अफ्रीकी देशों के आवागमन पर रोक लगाने जैसे फैसलों को पलटते हुए इस प्रतिबन्ध खत्म कर दिया है। बाइडेन ने मैक्सिको बॉर्डर पर दीवार बनाने के ट्रंप के फैसले को भी पलट दिया और इसके लिए फंडिंग भी रोक दी। इस फैसले के बाद मैक्सिको ने जो बाइडेन की प्रशंसा की। इतना ही नहीं, अमेरिका राष्ट्रपति जो बाइडेन ने राष्ट्रपति बनने के तुरन्त बाद कीस्टोन एक्सएल पाइपलाइन के विस्तार पर भी रोक लगाने के आदेश पर दस्तखत किये हैं।

कीस्टोन एक तेल पाइपलाइन है, जो कच्चे तेल को अल्बर्टा के कनाडाई प्रान्त से अमेरिकी राज्यों इलिनोइस, ओक्लाहोमा और टेक्सास तक ले जाती है। बाइडन ने कीस्टोन एक्सएल पाइपलाइन के खिलाफ बात की थी और यहा कहा था- ‘टार सैंड्स की हमें ज़रूरत नहीं है।’

बाइडन के राष्ट्रपति अभियान का एक प्रमुख वादा कीस्टोन एक्सएल परियोजना को रद्द करने की प्रतिबद्धता थी। भविष्य में बाइडन पूर्व सरकार की ओर से शुरू की गयी कई परियोजनाओं से हाथ खींच सकते हैं। जैसे, अमेरिका अंतर्राष्ट्रीय विकास वित्तपोषण के माध्यम से अर्जेंटीना में फ्रैकिंग और तेल-गैस उत्पादन को प्रोत्साहित करता है, जो पिछली बार वाका मुएर्ता परियोजनाओं के लिए हुआ। निर्वाचित उप राष्ट्रपति कमला हैरिस सहित कई अमेरिकी सीनेटरों ने इसके खिलाफ एक याचिका पर हस्ताक्षर किये थे। बाइडन ने कहा था कि वह वनों की कटाई के लिए ब्राजील के राष्ट्रपति बोल्सोनारो को जवाबदेह ठहराएँगे। अन्य देशों के साथ रैली करने और अॅमेजन की सुरक्षा के लिए 20 अरब डॉलर (करीब 1500 अरब रुपये) का समर्थन देने से शायद यह हासिल किया जा सकता है। हालाँकि स्थानीय ब्राजीलियाई समूह इस बात पर ज़ोर डालते हैं कि यह इस तरह से किया जाना चाहिए, जो ब्राजील की अमेजन के अपने हिस्से पर सम्प्रभुता को स्वीकार करता है और उसका सम्मान करता है।

हिंसा और दबाव

अमेरिका में बीते और नये साल में कुछ घटनाएँ हुईं। इनमें एक तो यह कि डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी सत्ता बचाने के लिए चुनाव में जिस तरह धाँधली के आरोप लगाकर न्यायालयों और प्रशासन पर दबाव बनाने की कोशिश की, उसमें वह सफल नहीं हुए। दो मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने भी ट्रंप की याचिकाएँ खारिज कर दीं। भारत में पिछले कुछ समय में सरकार पर जिस तरह सरकारी संस्थानों को अपनी राजनीति के हिसाब से चलाने के आरोप मोदी सरकार पर लगे हैं, उसे देखते हुए सबक लेने की ज़रूरत है। इसके अलावा जिस तरह वाशिंगटन डीसी स्थित कैपिटल हिल पर ट्रंप के समर्थक हिंसक हो गये और उन्होंने संसद में तोडफ़ोड़ और हिंसा की, जिससे गलत सन्देश गया है। पुलिस के साथ झड़प में गोली लगने से एक महिला समेत चार लोगों की मौत हो गयी। पुलिस को बड़ी मात्रा में विस्फोटक भी मिले। सेना की स्पेशल यूनिट (विशेष टुकड़ी) ने प्रदर्शनकारियों को खदेड़ा। वाशिंगटन में कफ्र्यू भी लगाना पड़ा।

न्यूक्लियर फुटबॉल की पॉवर

अमेरिका के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि कोई निवर्तमान राष्ट्रपति नये राष्ट्रपति को न्यूक्लियर फुटबॉल और कोड दिये बिना व्हाइट हाउस छोड़ गया। डोनाल्ड ट्रंप ने जब व्हाइट हाउस छोड़ा, तो उन्होंने जो बाइडन को यह दोनों चीज़ें नहीं दीं। न्यूक्लियर लॉन्च कोड एक कार्ड पर लिखे होते हैं, जिसे बिस्किट भी कहते हैं। ये न्यूक्लियर बटन जैसी कोई चीज़ नहीं है। दरअसल अमेरिका में पुराने राष्ट्रपति के पद छोडऩे और नये राष्ट्रपति के शपथ लेने के साथ न्यूक्लियर पॉवर का भी ट्रांसफर होता है। दुनिया या दुश्मन को तबाह करने की ताकत नये राष्ट्रपति के पास आ जाती है। यह न्यूक्लियर पॉवर एक काले रंग के ब्रीफकेस में बन्द होती है। इसी को न्यूक्लियर फुटबॉल भी कहते हैं। राष्ट्रपति के पास दो न्यूक्लियर फुटबॉल और उसमें दो सेट न्यूक्लियर लॉन्च कोड रखे होते हैं। न्यूक्लियर कोड एक कार्ड पर लिखे होते हैं, जिसे न्यूक्लियर बिस्किट भी कहते हैं। ये दोनों चीज़ें अमेरिकी राष्ट्रपति के पास हर वक्त रहती हैं। फुटबॉल में परमाणु हमले के लिए कोड होते हैं, इसके ज़रिये ही अमेरिकी राष्ट्रपति पेंटागन को न्यूक्लियर हमले का आदेश दे सकते हैं। ये न्यूक्लियर कोड कभी भी राष्ट्रपति से अलग नहीं होता है, जब अमेरिका में नये राष्ट्रपति शपथ लेते हैं, तो उस दौरान ही ब्रीफकेस भी एक से दूसरे के पास चला जाता है। लेकिन ट्रंप बाइडन के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल नहीं हुए, लिहाज़ा नये राष्ट्रपति को न्यूक्लियर लॉन्च कोड ट्रांसफर नहीं किया और उनके साथ न्यूक्लियर फुटबॉल भी फ्लोरिडा चला गया। हालाँकि इसमें रखे न्यूक्लियर लॉन्च कोड दोपहर 12 बजे और बाइडेन के शपथ लेने के साथ ही डेड हो गये। इसके बाद बाइडन के लिए वॉशिंगटन डीसी के कैपिटल से न्यूक्लियर फुटबॉल और न्यूक्लियर लॉन्च कोड का दूसरा सेट आया, जिसे अमेरिकी सेना के कमांडर इन चीफ ने राष्ट्रपति जो बाइडेन को ट्रांसफर किया।

कहानी कमला हैरिस की

भारतीय मूल की कमला हैरिस के अमेरिका की पहली महिला और अश्वेत उप राष्ट्रपति बनने से दोनों देशों के बीच सम्बन्धों को बेहतर करने को लेकर भारत में उन्हें बड़ी उम्मीद से देखा जा रहा है। बता दें डेमोक्रेट्स में कमला को ‘फीमेल ओबामा’ के नाम से भी पुकारा जाता है और हैरानी की बात यह है कि वह सीनेट की सदस्य भी पहली बार ही बनी हैं। नवम्बर के चुनाव में अपनी जीत के बाद हैरिस ने अपने सम्बोधन में भारत की अपनी पृष्ठभूमि के बारे में गर्व से बताया था। अपनी दिवंगत माँ श्यामला गोपालन, जो एक कैंसर शोधकर्ता और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता थीं; को याद करके कमला भावुक हुई थीं और कहा था कि माँ ने उनके राजनीतिक करियर में इस बड़े दिन के लिए उन्हें तैयार किया था। हैरिस 56 साल की हैं और उन्हें बेहिचक उपलब्धियों की खान कहा जा सकता है। वह सैन फ्रांसिस्को की डिस्ट्रिक्ट अटॉर्नी बनने वाली पहली महिला, पहली भारतवंशी और पहली अफ्रीकी अमेरिकी हैं। राष्ट्रपति बाइडन ने ही उन्हें डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से उप राष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में चुना था। दिलचस्प यह है कि एक ऐसा भी समय था, जब कमला हैरिस अपने प्रतिद्वंद्वी रहे बाइडन की कटु आलोचक थीं। हैरिस सीनेट के तीन एशियाई अमेरिकी सदस्यों में से एक हैं। कमला का जन्म 20 अक्टूबर, 1964 को हुआ। माँ श्यामला गोपालन सन् 1960 में भारत के तमिलनाडु से यूसी बर्कले पहुँची थीं, जबकि उनके पिता डोनाल्ड जे. हैरिस सन् 1961 में ब्रिटिश जमैका से इकोनॉमिक्स में स्नातक की पढ़ाई करने यूसी बर्कले आये थे। यहीं अध्ययन के दौरान दोनों की मुलाकात हुई और मानव अधिकार आन्दोलनों में भाग लेने के दौरान उन्होंने विवाह करने का फैसला कर लिया। हाई स्कूल के बाद हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने वाली कमला जब सात साल की थीं, तो उनके माता-पिता एक-दूसरे से अलग हो गये। कमला और उनकी छोटी बहन माया अपनी माँ के साथ रहीं और उन दोनों के जीवन पर माँ का बहुत प्रभाव रहा। हालाँकि वह दौर अश्वेत लोगों के लिए सहज नहीं था। कमला और माया की परवरिश के दौरान उनकी माँ ने दोनों को अपनी पृष्ठभूमि से जोड़े रखा और उन्हें अपनी साझा विरासत पर गर्व करना सिखाया। वह भारतीय संस्कृति से गहरे से जुड़ी रहीं। हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय में अध्ययन के बाद हैरिस ने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई की और सन् 2003 में वह सैन फ्रांसिस्को की शीर्ष अभियोजक बनीं। सन् 2010 में वह कैलिफोर्निया की अटॉर्नी बनने वाली पहली महिला और पहली अश्वेत व्यक्ति थीं; जबकि सन् 2017 में हैरिस कैलिफोर्निया से जूनियर अमेरिकी सीनेटर चुनी गयीं। कमला ने सन् 2014 में जब अपने साथी वकील डगलस एम्पहॉफ से विवाह किया, तो वह भारतीय-अफ्रीकी और अमेरिकी परम्परा के साथ-साथ यहूदी परम्परा से भी जुड़ गयीं। अब वह अमेरिका की उप राष्ट्रपति हैं और भारत को उन पर गर्व है।

ट्रंप बनाएँगे अपनी पार्टी!

डोनाल्ड ट्रंप जब व्हाइट हाउस छोड़कर फ्लोरिडा जा रहे थे, तब एयरपोर्ट पर अपने समर्थकों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने बहुत महत्त्वपूर्ण बात कही- ‘आप जल्दी ही हमें किसी और रूप में देखेंगे।’ इससे एक तो यह संकेत मिलता है कि राष्ट्रपति के अगले चुनाव के लिए ट्रंप हार की धूल झाड़कर जल्दी ही फिर सक्रिय होने की तैयारी में हैं। वास्तव में ट्रंप के यह कहने के क्या मायने थे? इसे लेकर अमेरिकी मीडिया में कुछ समय से छप रही रिपोट्र्स को भी देखना होगा। इन रिपोट्र्स में दावा किया गया है कि जिस तरह ट्रंप के खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही हुई है और कैपिटल हिल में उनके समर्थकों ने जो किया, उससे रिपब्लिकन पार्टी में उन्हें अगली बार राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाये जाने का विरोध हो सकता है। ऐसे में दोबारा राष्ट्रपति बनने की जबरदस्त ख्वाहिश पाले ट्रंप अपनी ही पार्टी भी बना सकते हैं।

अमेरिकी मीडिया में तो इस नयी पार्टी का नाम तक बता दिया गया है। इसका नाम ‘पैट्रियाट पार्टी’ हो सकता है। ट्रंप ने अपने विदाई भाषण में समर्थकों से कहा था कि जिस आन्दोलन को हमने शुरू किया है, यह केवल शुरुआत है। ट्रंप के इस बयान के बाद अमेरिका में अटकलों का बाज़ार गरम है। उधर वॉल स्‍ट्रीट जनरल की एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि ट्रंप नयी पार्टी बनाने को लेकर समर्थकों से विचार-विमर्श कर चुके हैं। देखना होगा ट्रंप इसे लेकर कितनी गम्भीरता दिखाते हैं। ट्रंप यह तो कह ही चुके हैं कि वह राजनीति में बने रहेंगे और उनका आन्दोलन एक शुरुआत भर है। यहाँ यह बताना दिलचस्प है कि तमाम परम्पराओं को तोड़ते हुए ट्रंप बाइडन के शपथ ग्रहण के समय व्हाइट हाउस छोड़ चुके थे। रिपब्लिकन पार्टी में ट्रंप की घोषणाओं और उनके कदमों-बयानों से बेचैनी महसूस की जा रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक, रिपब्लिकन पार्टी एक बहुत बड़ा धड़ा ट्रंप के साथ है और उनके उग्र राष्ट्रवाद के एजेंडे से सहमत है। जबकि दूसरा धड़ा इसे अलगाववादी एजेंडा मानता है। कैपिटल हिल में हिंसा के बाद रिपब्लिकन पार्टी के नेता मिट मैकॉनल ने ट्रंप पर आरोप लगाया था कि उन्होंने ही अपने समर्थकों को उकसाया। भीड़ के दिमाग में झूठ भरा। यहाँ यह बताना भी बहुत ज़रूरी है कि ट्रंप के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर जब निचले सदन में मतदान हुआ था, तो ट्रंप की ही पार्टी रिपब्लिकन के 10 सांसदों ने ट्रंप के खिलाफ मतदान किया था। फिलहाल रिपब्लिकन पार्टी में मिट मैकॉनल अपनी स्थिति मज़बूत करने में जुटे हैं, जो ट्रंप के बाद पार्टी में सबसे ज़्यादा प्रभावशाली नेता हैं।

सूखा ग्रस्त गाँव में जल संचय से ग्रामीणों ने बदल दी तस्वीर

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था- ‘तीसरा विश्व युद्ध पानी को लेकर होने की सम्भावना है। पर हम प्रयास करें कि वह भारत में न हो।’ अनेक विद्वान भी पानी को लेकर तीसरे विश्व युद्ध की भविष्यवाणी कर चुके हैं। इसलिए बेवजह अनाप-शनाप पानी बहाने वाले लोगों को यह ज़रूर समझना और जानना चाहिए कि यह भविष्यवाणी लोगों ने यूँ ही अकारण नहीं कर दी, बल्कि इसके पीछे वो आँकड़े हैं; जो न केवल हमें चौंकाते हैं, बल्कि चिन्ता में भी डालते हैं। हममें से अधिकतर लोग नहीं जानते कि नदियों को हमारे पूर्वज कितने तप से धरा पर लाये और उन्हें कितनी कुर्बानियाँ देकर भी ज़िन्दा रखा, उनके अस्तित्व को बचाने के लिए बहुत-से नुकसान उठाये। हमारी संस्कृति में नदियाँ, तालाब, कुएँ, बावडिय़ाँ और जल श्रोत पूजनीय, जन-समाज की आस्था का केंद्र थे और इसीलिए इन्हें जीवंत रखने में सभी की सहभागिता थी। लेकिन ओछे ज्ञान, जीने की अकड़, जागरूकता के अभाव, अन्धी-आस्था, आधुनिकता की होड़ और सरकारों की उदासीनता के कारण आज हमारा जनमानस जल-श्रोतों से दूर है; इनके प्रति उदासीन है और उन्हें प्रदूषित कर रहा है। जीवनदायी जल को व्यर्थ में बहाता लापरवाह मनुष्य पीने वाले जल की समाप्ति की भयावहता से अनभिज्ञ है। हमारे ही देश में अब भी सैकड़ों ऐसे गाँव हैं, जहाँ पानी की बूँद-बूँद की कीमत वहाँ के लोग अच्छी तरह जानते हैं। कुल मिलाकर अगर हम सब आज जल संरक्षण के प्रति सचेत नहीं हुए, तो निश्चित ही आने वाले समय में मनुष्य जाति बूँद-बूँद पानी के लिए तरसेगी, आपस में लड़ेगी-मरेगी।

सनातन वैदिक भारतीय संस्कृति के अनेक ग्रन्थों में जल की विभीषिका का वर्णन मिलता है। सतयुग, त्रेता, द्वापर की अनेक घटनाएँ तो प्रमाण ही हैं; परन्तु वर्तमान कलियुग में प्रत्यक्ष सुनने और देखने के बाद प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। दुनिया भर के अलावा भारत के अनेक इलाकों में हर साल पीने योग्य पानी के बिना अकाल-दुर्भिक्ष से तो लोग अभिशप्त हैं और मौत के डर से अपनी जन्मभूमि से पलायन करने के लिए भी मजबूर हो रहे हैं। दुनिया के कई देश पानी की कमी से जूझ रहे हैं और कई शहर खाली हो रहे हैं। जल के बिना सामाजिक और आर्थिक ताना-बाना भी तब टूटता नज़र आ रहा है। जल ही जीवन है। जल में अमृत है, ऊर्जा है, सिद्धि है, गति है, बीमारियों से लडऩे की क्षमता है, वायु को शुद्ध करने की क्षमता है। मानवता के हित में नि:शुल्क पानी पिलाने वाले भारत में नदियाँ बेचना, जल का बाज़ारीकरण समस्या का समाधान नहीं है। बोतल बन्द पानी 15 रुपये से 150 रुपये लीटर तक बिक रहा है। आने वाले समय में इसका कारोबार 160 बिलियन को छू जाने वाला है। गरीब पानी कहाँ से पीयेगा, किसान कहाँ से खेत को पानी देगा? ये बड़े ज्वलंत प्रश्न हैं। बाँधों में नदियों को बाँधकर जल को अपने अधीन करने का कार्य हो रहा है, तो किसान को खेती के लिए पानी कहाँ से मिलेगा? भू-जल कहाँ से रिचार्ज होगा और कृषि प्रधान भारत का किसान पानी के बिना खेत छोड़ देगा, गाँव छोड़ देगा या फिर पानी को गहरे बोर करके प्राप्त करेगा, जिससे खेती-किसानी महँगी तो होगी ही, साथ ही लगातार गिरता भू-जल का स्तर निरंतर और गिरता चला जाएगा। इससे बोर का खर्च और बढ़ेगा, जो कि लम्बे समय तक चल भी नहीं पाएगा। यही नहीं, कम भूमि का छोटा किसान पानी की कमी और महँगी, खर्चीली खेती के कारण स्वत: ही समाप्त हो जाएगा और अन्न देने वाला खुद ही दाने-दाने का मोहताज हो जाएगा।

विकट जलस्रोत, लेकिन लोग प्यासे

वर्तमान में मध्य भारत का सूखाग्रस्त बुंदेलखण्ड ऐसा क्षेत्र है, जहाँ सूखे के दौरान सरकारों ने मालगाड़ी के ज़रिये पीने का पानी भिजवाया। यह ऐसा स्थान जहाँ, जल संसाधनों की प्रचुरता है और कभी यहाँ पानी की मात्रा प्रचुर थी। करीब 35 छोटी-बड़ी नदियाँ यहाँ हैं, जिनमें पाँच बड़ी और 30 प्रदेश स्तर की हैं। इतना ही नहीं, यहाँ करीब 125 छोटे-बड़े बाँध हैं, 27,000 तालाब हैं, 52,000 कुएँ, 300 नाले, 150 बावडिय़ाँ और चंदेल, बुंदेल राजाओं द्वारा स्थापित लगभग 51 परम्परागत और प्राकृतिक जल संसाधन और अनुसंधान केंद्र हैं। एशिया की सबसे बड़ी ग्रामीण पेयजल योजना पाठा चित्रकूट बुंदेलखण्ड में ही है। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा जल की तमाम योजनाओं में अरबों रुपये खर्च करने के बावजूद भी बुंदेलखण्ड आज प्यासा क्यों है? आखिर यहाँ मालगाड़ी से पानी भेजने की नौबत क्यों आयी? क्या कारण रहा है कि सरकारों के अनेक प्रयासों के बावजूद भी समस्या ज्यों-की-त्यों बनी रही। सरकारों ने अपना काम किया, लेकिन जिनके लिए काम किया, उस समाज ने उन कामों के प्रति क्या ज़िम्मेदारी दिखायी? भू-जल संरक्षण करना सरकार का नहीं, समाज का काम है। लेकिन सरकार के कार्यों में उन्होंने क्या सहयोग किया?  क्या केवल भोगी बनकर उपभोग किया और उपलब्ध कराये गये संसाधनों का दोहन करके सरकारों के भरोसे छोड़ दिया? सवाल यह है कि हम दिये गये संसाधनों से समस्या का स्थायी समाधान निकालकर गाँव, शहर प्रदेश और देश की उन्नति में सहायक बने अथवा नहीं? शायद  नहीं। वहीं सरकारों ने भी इस बारे में बेहतर तरीके से नहीं सोचा। क्योंकि यदि ऐसा पुरानी सरकारें सोचतीं, तो सरकार को बुंदेलखण्ड में पीने का पानी मालगाड़ी से नहीं भेजना पड़ता। पानीदार बुंदेलखण्ड फिर से पानी के लिए आत्मनिर्भर होता, स्वावलंबी होता। इन तमाम घटनाओं के बावजूद इनका उपाय अँधेरा-अँधेरा कह देने की बजाय एक छोटा-सा दीपक लेकर उजाला करने में छुपा है।

उमाशंकर ने कर दिखाया कमाल

दृढ़ संकल्पित उमाशंकर पांडे के नेतृत्व में बुंदेलखण्ड के बांदा ज़िले के जखनी गाँव के लोगों ने अपना भरोसा जगाया। अपनी परम्परागत खेती-किसानी का सहारा लिया और बिना किसी सरकारी सहायता, संसाधन के गाँव के बच्चे, बुजुर्ग, जवान स्त्री-पुरुष सभी ने गाँव के जल देव को जगाया। इन लोगों ने अपने गाँव के लिए, अपनी आने वाली पीढयि़ों के लिए सामुदायिक आधार पर फावड़े, कस्सी, डलिया, टोकरा लेकर परम्परागत तरीके से बिना किसी आधुनिक मशीनी-तकनीकी के पानी रोकने का बंदोबस्त किया। सब समझ चुके थे कि पानी बनाया नहीं जा सकता, न ही बादलों को लाकर अपनी इच्छा से बरसाया जा सकता है, लेकिन प्रकृति द्वारा दिए पानी को रोककर पानी की फसल को बोया जा सकता है, संरक्षण से पानी बचाया जा सकता है।

किस तरह किया काम

उमाशंकर ने ग्रामीणों के साथ मिलकर पूरे गाँव ने खेतों की मेड़बन्दी की और पानी की फसल बोने का पुरखों का मन्त्र सिद्ध किया। मेडबन्दी के बाद अब बारी थी कि जल की निरंतर प्राप्ति के लिए पानी की फसल कैसे बोयी  जाए, कैसे पानी की खेती की जाए। जिसके लिए उमाशंकर ने समुदाय के साथ गाँव के पानी का मैनेजमेंट किया, गाँव के तालाबों को पुनर्जीवित करवाया राज समाज सरकार को साथ लिया और खेतों की मेड़ से निकलने वाले अतिरिक्त पानी और गाँव के बचे पानी का रुख तालाबों की ओर मोड़ दिया। यानी खेत का पानी खेत में, गाँव का पानी, गाँव में…। गज़ब की सोच! पहली बारिश होते ही वर्षा की बूँदें जहाँ गिरीं, वही उन्हें रोककर संचित किया। ऊँची मेड़ों के कारण ज़मीन ने जी भरकर पानी पीया। खेतों का पेट भरने के बाद बाहर निकलते पानी ने तालाबों का रुख किया। तालाब पानी से भरने लगे। गाँव के सभी छ:-के-छ: तालाब पानी से लबालब भर गये। यही नहीं, तालाबों के भरने से गाँव के 30 कुएँ भी अपना यौवन दिखाने लगे और कुओं का जलस्तर भी 15 से 20 फीट पर पहुँच गया।

मेड़-मेड़ पर पेड़

गाँव वालों का हौसला बढ़ा, तो काम यहीं नहीं रुका। उन्होंने मेड़-मेड़ पर पोधरोपड़ का काम शुरू कर दिया। लहलहाती फसलों के बीच धीरे-धीरे पेड़ झूमने लगे। मानों कह रहे हों कि अब बादलों से पानी लाने का काम हमारा और उसे रोकने का काम तुम्हारा।

संघर्ष की लम्बी दास्ताँ

इस गाँव को खुशहाल बनाने के लिए उमाशंकर पांडे को पूरे गाँव के साथ लम्बा संघर्ष करना पड़ा। और आखिरकार सूखे बुंदेलखण्ड में लगातार 21 वर्षों की मेहनत रंग लायी। इस जखनी गाँव में कभी खेती नहीं हो पाती थी; लेकिन आज इस गाँव में रिकॉर्ड फसल उत्पादन होता है। पिछले वर्ष ही जखनी के किसानों ने 21,000 कुंतल बासमती धान और 13,000 कुंतल गेहूँ का उत्पादन किया।

इस तरह गेहूँ, धान, चना, तिलहन, दलहन के साथ-साथ सब्ज़ी, दूध और मछली पालन से जखनी के किसान अब समृद्ध और साधन-सम्पन्न होने लगे हैं। यहाँ तक कि चार बीघे के छोटे-से-छोटे किसान के पास भी आज अपना ट्रैक्टर है, वह भी बिना किसी कर्ज़ के।

खेती से जुड़ गये उच्च डिग्रीधारी युवा

20 साल पहले जखनी गाँव बांदा ज़िले का सबसे गरीब गाँव था। यहाँ का एक भी नौजवान गाँव में नहीं था। वर्तमान में 99 फीसदी नौजवान, जो कभी पलायन कर गये थे; वापस आ गये हैं और अपनी परम्परागत खेती करने लगे हैं। इन किसानों में अधिकांश युवा हैं। कोई एम.काम., कोई एम.एससी., कोई पी.एचडी. कोई वी.टेक., कोई एम.एड, कोई बी.एड, तो कोई एल.एल.बी. है। उच्च शिक्षा की डिग्री लेकर शहरों की नौकरी छोड़कर गाँव में खेती कर रहे हैं। आज जखनी गाँव प्रदेश का सबसे सम्पन्न गाँव माना जाता है।

मंडियों में जखनी के खाद्यान्न की बढ़ी माँग

सामुदायिक आधार पर चला यह सिलसिला यहीं नहीं रुका, गल्ला मंडियों में जखनी के किसानों के धान को अधिक मूल्य और सम्मान मिला, तो सब्ज़ी मंडी में भिंडी, बेंगन, प्याज, टमाटर की सर्वाधिक माँग होने लगी। इससे प्रभावित होकर आसपास के लगभग 50 गाँवों के सैकड़ों किसानों ने भी जखनी की तरह खेती करने का संकल्प लिया और उन्होंने हज़ारों बीघा ज़मीन की अपने संसाधनों से मेड़बन्दी कर दी और यहीं से जलग्राम जखनी की जलक्रान्ति सूखे बुंदेलखण्ड में फैलने लगी। गाँव से पलायन कर गये नौजवान अपने खेतों में बिना मज़दूरों के स्वयं काम करने लगे। तालाबों में मछली पालन, दुग्ध उत्पादन और कृषि आधारित रोज़गारों से गाँव खुशहाल होने के साथ-साथ स्वावलंबी बनने लगा। पिछले पाँच वर्षों एक मीटर 34 सेंटीमीटर ज़िले का भू-जलस्तर बढ़ा है। ऐसी रिपोर्ट माइनर एजुकेशन डिपार्टमेंट, उत्तर प्रदेश ने दी है। आज सरकार सूखे बुंदेलखण्ड के चित्रकूट, महोबा, हमीरपुर, जालौन, झाँसी, छतरपुर में सरकारी धान खरीद सेंटर बनाकर धान खरीद रही है। अब यहाँ पानी की वजह से लाखों कुंतल धान पैदा होता है। कृषि विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 10 वर्षों में किसानों ने फसल बोने का रकबा बुंदेलखण्ड में मेड़बन्दी करके तीन लाख हेक्टेयर से अधिक बढ़ाया है। आज बुंदेलखण्ड आत्मनिर्भर हो रहा है। यहाँ के किसानों की अपनी मेहनत की वजह से केंद्र सरकार और राज्य सरकारें उनके साथ खड़ी हैं।

जखनी को मिली जलग्राम की मान्यता

बिना किसी सरकारी सहयोग के सामुदायिक आधार पर आस-पास के गाँवों में फैलती इस जलक्रान्ति की बोछार जब सरकार तक पहुँची, तो किसानों के लिए चिन्तित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चिन्तन को जखनी की जलक्रान्ति ने गति दी। उन्होंने तुरन्त देश भर के सरपंचों को मेड़बन्दी सहित परम्परागत तरीके से जल संरक्षण के लिए पत्र लिखा इस पर पहल की। जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत के निर्देशन पर जलशक्ति मंत्रालय के अधिकारियों ने जखनी का रुख किया। जल सचिव यू.पी. सिंह खुद जखनी के खेतों में आकर किसानों से मिले, उनके कार्य और परिणाम को देखा और तमाम भागदौड़ के बाद सरकार के जलक्रान्ति अभियान के अंतर्गत ग्राम जखनी को सम्पूर्ण भारत के लिए जलग्राम की मान्यता मिली। प्रत्येक ज़िले में जखनी मॉडल पर जलग्राम के लिए दो गाँव चुने गये। वर्तमान में जलक्रान्ति अभियान के अंतर्गत जलशक्ति मंत्रालय ने जखनी मॉडल पर जलग्राम बनाने के लिए देश के 1050 गाँवों की सूची तैयार की है, जो मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध है।

तकनीक को समझने के लिए आने लगे देश-विदेश से विशेषज्ञ

बिना किसी सरकारी सहायता, बिना किसी आधुनिक मशीनी प्रशिक्षण व नवीन ज्ञान तकनीकी के ऋषि-मुनि प्रदत्त खेती-किसानी के परम्परागत तरीकों से केवल सामुदायिक आधार पर उमाशंकर के गाँव जखनी ने सिद्ध कर दिया कि वातानुकूलित कमरों में बैठने से जल की समस्या का समाधान नहीं हो सकता। इसके लिए जनमानस को स्वयं ही जागना होगा। अपने जलाश्य की सुध लेनी होगी और जलाश्य पर बैठकर ही जल का हल निकालना होगा। जखनी से निकली छोटी-सी जल मशाल आज सम्पूर्ण भारत में सामुदायिक प्रयास से जल संरक्षण की चर्चा विश्व स्तर पर होने लगी है। जल संरक्षण की इस तकनीक को जानने, समझने के लिए देश विदेश के जल विशेषज्ञ, सरकार की विशेषज्ञ समिति, 2030 वल्र्ड वाटर रिसोर्स ग्रुप, कृषि प्राद्योगिक विश्वविद्यालय, केंद्रीय भूजल बोर्ड, जल जीवन मिशन (उत्तर प्रदेश), जल संसाधन विभाग के वरिष्ठ अधिकारी, जल वैज्ञानिक, छात्र लगातार जखनी पहुँच रहे हैं; शोध कर रहे हैं। उन किसानों के कार्य पर, जिनके पास कोई डिग्री नहीं, कोई सर्टिफिकेट नहीं; यहाँ तक की शिक्षा का कोई आधारभूत ज्ञान नहीं।

पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से मिली थी प्रेरणा

15 साल पहले पूर्व राष्ट्रपति स्व. अब्दुल कलाम आज़ाद की प्रेरणा और आह्वान से उमाशंकर पांडे ने अपने गाँव को जलग्राम बनाने का संकल्प लिया था। तब साधारण-से दिखने वाले उमाशंकर के संकल्प से लोग अचम्भित थे और सशंकित भी, कि बिना किसी संसाधन और सरकारी सहायता के गाँव का सीधा-सादा किसान कैसे सूखाग्रस्त गाँव को पानीदार बनाएगा? कैसे राष्ट्रपति जी के जलग्राम स्वप्न को पूरा करेगा? कैसे अपने गाँव को पानी की समस्या से उबारेगा? कैसे उमाशंकर की परम्परागत भूजल संरक्षण तकनीक पूरे देश को पानीदार बनाने की दिशा देगी? लेकिन भूजल विशेषज्ञ अविनाश मिश्र की परम्परागत सामुदायिक तकनीक और आचार्य विनोबा भावे के भूदान यज्ञ से मेड़बन्दी यज्ञ की शुरुआत से स्वावलंबन का मंत्र लेकर उमाशंकर पांडे ने जखनी गाँव को जलग्राम बनाकर वह संकल्प पूरा किया। किसी ने नहीं सोचा था कि आने वाले समय में देश के अनेक गाँव जखनी की तर्ज पर जल संरक्षण के परम्परागत तरीके प्रयोग में ला रहे होंगे। लेकिन आज ऐसा हो रहा है।

भले ही कोई डिग्री धारक पढ़ा-लिखा अनुसंधानकर्ता जल संरक्षण के मामले में अधिक शिक्षित हो; लेकिन भारत के अनपढ़ किसानों ने सिद्ध कर दिया कि जल हमारे अपने पुरुषार्थ से ही बच पाएगा। बिना किसी सरकारी सहायता के सामुदायिक आधार पर समाज को फिर से आगे आकर आस्था और संकल्प के साथ अपनी ऋषि आधारित परम्परागत खेती-किसानी से ही जल को बचाना होगा और गाँव-गाँव को जल-स्वावलंबी बनाना होगा। वर्षा बूँदे जहाँ गिरें, वही रोकना होगा। बड़ी बात है कि जलग्राम जखनी के इन योद्धाओं ने न तो कोई सरकार से पुरस्कार के लिए आवेदन किया, न ही सरकारी अनुदान के लिए आवेदन किया और न ही अपमान से डरे। और जीत का नतीजा यह हुआ कि नीति आयोग ने देश  की सबसे महत्त्वपूर्ण वाटर मैनेजमेंट रिपोर्ट-2019 में जखनी गाँव को देश का आदर्श गाँव माना है। तत्कालीन ज़िलाधिकारी (बांदा) ने 470 ग्राम पंचायतों में जखनी मॉडल भू-जल संरक्षण के लिए लागू किया। जल मंत्रालय, भारत सरकार ने सन् 2015 में जलग्राम विधि को उपयुक्त माना। सन् 2016 में 1050 जल ग्राम देश में चिह्नित किये। कुल मिलाकर जब ग्रामीण समाज खड़ा हुआ, तब सरकार खड़ी हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देशन पर ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार ने कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की देखरेख में कोरोना-काल के दौरान सर्वाधिक धनराशि मनरेगा योजना के अंतर्गत ग्राम पंचायतों के माध्यम से जखनी के भूजल संरक्षण मंत्र मेड़बन्दी के आधार पर सूखा प्रभावित राज्यों की तीन लाख से अधिक ग्राम पंचायतों में खर्च की। उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर की ज़िलाधिकारी ने 14 गाँवों को जलग्राम बनाया। कह सकते हैं कि सरकार सुनती है; लेकिन इसके लिए धैर्य चाहिए।

धैर्य और सच्चे संकल्प ने ही जखनी को सिद्धि, प्रसिद्धि, समृद्धि दिलायी। हमें बगैर सरकार की सहायता के सामुदायिक आधार पर परम्परागत तरीके से भू-जल संरक्षण करके जखनी ने जो उदाहरण दिया‌। जखनी की इस जलग्राम क्रान्ति ‘खेत पर मेड़, मेड़-मेड़ पर पेड़’ को पूरे भारत के गाँवों को स्वीकारना होगा; जो जल के लिए होने वाले किसी भी सम्भावित विश्वयुद्ध को टालने का सहज, परम्परागत और स्थायी उपाय है।

कोरोना टीका लगवाने से क्यों कतरा रहे लोग?

देश में भले ही कोरोना टीके को लेकर उपलब्धि भरी गाथाएँ गायी और सुनायी जा रही हों, लेकिन हकीकत तो कुछ और ही है। लोगों में कोरोना टीका की विश्वसनीयता को लेकर डर और शंकाएँ बरकरार है। हाल यह है कि करीब 25 फीसदी लोग टीका लगवाने के लिए ही आगे आ रहे हैं। इतना ही नहीं, सरकारी कर्मचारियों से लेकर स्वास्थ्यकर्मी तक टीका लगवाले से बच रहे हैं। उनका मानना है कि जल्दबाज़ी में तैयार किया गया टीका कहीं उनको मुसीबत में न डाल दे। दरअसल टीका लगने की शुरुआत (16 जनवरी) के बाद से कुछ की मौतें भी हुई हैं और कुछ लोगों को एलर्जी सहित तामाम स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्कतें हुई हैं, जिससे लोगों में डर बैठ गया है। तहलका संवाददाता ने पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली में लोगों से कोरोना और वैक्सीन को लेकर बात की, तो उन्होंने कहा कि जब कोरोना के मामले कम हो रहे हैं और कोरोना तकरीबन खात्मे की ओर है, तो टीका क्यों लगवाएँ। पंजाब के रोपड़ ज़िले के निवासी जत्थेदार दर्शन सिंह का कहना है कि सरकार अपनी सियासत चमकाने के लिए टीकाकरण का आँकडा बनाने में लगी है; जबकि कोरोना वायरस के मामले कम हो रहे हैं। अब तकरीबन एक से दो फीसदी ही कोरोना के मामले बचे हैं, टीका लगवाकर क्यों जान जोखिम में डालें। उनका कहना है कि दिल्ली की सीमाओं पर दो महीने से किसान बैठे हैं; किसी को कोई कोरोना नहीं हुआ है। तो कोरोना को लेकर सरकार बे-वजह हौवा क्यों बना कर रही है? पंजाब के होशियारपुर निवासी सरदार इन्द्रजीत सहोता का कहना है कि कोरोना को लेकर जो डर बनाया गया था, वो डर चला गया है। अब टीका लगवाने का कोई मतलब नहीं है।

मध्य प्रदेश के सागर ज़िले के बुन्देलखण्ड मेडिकल कॉलेज (बीएमसी), जहाँ करीब 300 स्वास्थ्यकर्मी हैं, के स्वास्थ्य कर्मचारियों और डॉक्टरों तक ने टीका लगवाने से मना कर दिया था। डॉक्टरों व स्वास्थ्यकर्मियों के टीका लगवाने से मना करने पर शासन-प्रशासन ने दबाब बनाया, तब यहाँ के डॉक्टरों को प्रेरणा समिति का गठन करना पड़ा। तब जाकर कुछ स्वास्थ्य कर्मचारियों व सभी ने लगवाने शुरू किये। यही हाल मध्य प्रदेश के छतरपुर, टीकमगढ़ और दमोह ज़िले का है। यहाँ के कर्मचारियों ने पहले तो टीकाकरण के लिए रजिस्ट्रेशन करवा लिया। जब देश में टीके के नुकसान के मामले सामने आये, तो उन्होंने टीका न लगवाने का फैसला कर लिया। स्वास्थ्य कर्मचारियों को पहले एसएमएस और फोन करके भी बुलाया जा रहा है, तब भी वे नहीं जा रहे हैं। स्वास्थ्य का हवाला देकर बच रहे हैं; टीकाकरण की तारीख बढ़वा रहे हैं। जब यह हाल मध्य प्रदेश के स्वास्थ्यकर्मियों और डॉक्टरों का है, तो आम जनता में तो भय फैलना स्वाभाविक है। उत्तर प्रदेश के महोबा, बांदा, झाँसी और कानपुर के लोगों ने तहलका को बताया कि अजीब हालात हैं। एक ओर तो सरकार टीकाकरण को लेकर रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए तामाम कायदे-कानूनों को लागू कर रही है, वहीं रजिस्ट्रेशन होने के बावजूद  टीका लगवाने से डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी तक कतरा रहे हैं। इसका मतलब टीके को लेकर अभी अविश्वास की स्थिति है। यही वजह है कि आम नागरिकों में तामाम तरह की अफवाहें, डर, और आशंकाएँ फैल रही हैं।

दिल्ली, जहाँ पर राष्ट्रीय स्तर की स्वास्थ्य सेवाएँ हैं; के कर्मचारियों बताते हैं कि कोरोना टीके को लेकर सरकार का कहना है कि जिसको टीका लगवाना है, वह लगवा सकता है और जिसको नहीं लगवाना है, वह न लगवाये। यानी की कोई ज़ोर-जबरदस्ती नहीं है। वहीं सरकार टीकाकरण का रिकॉर्ड बनाने के लिए काम कर रही है और टीका लगवाने के लिए दबाव बना रही है। डीएमए के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अनिल बंसल का कहना है कि दिल्ली में सरकारी और निजी अस्पतालों में टीके लग रहे हैं। लेकिन ज़्यादातर लोगों में टीके को लेकर आशंकाएँ हैं कि जल्दबाज़ी में लाया गया टीका कहीं किसी दिक्कत में न डाल दे। इसलिए स्वास्थ्य कर्मचारी हों या आम लोग, अभी पूरी तरह से टीके के नुकसान-फायदे पर नज़र रखे हुए हैं। लगता है पूर भरोसा होने पर लोग इसे लगवाने के लिए तैयार होंगे। डॉ. बंसल ने बताया कि जो कोरोना का भय था, पर अब नहीं रहा। इसके अलावा जिन लोगों को कोरोना हुआ था, वे स्वस्थ्य भी हो गये हैं। ऐसे में लोगों का मानना है कि अब टीकाकरण की क्या ज़रूरत? कुछ लोगों का मामना यह भी है कि जब वैक्सीन आ गयी है, तो दवा और कैप्सूल भी आ सकते हैं, तो दवा के सेवन से ही कोरोना को मात देंगे। उन्हें लगता है कि टीके की तुलना में दवा का रिएक्शन कम होगा।

दिल्ली में जिनका रजिस्ट्रेशन हुआ है, वे वैक्सीन लगवाने किसी कारणवश नहीं आ रहे हैं। तो ऐसे में बिना रजिस्ट्रेशन वालों को वैक्सीन लगाकर आँकड़ों को पूरा किया जा रहा है। मध्य प्रदेश के स्वास्थ्य कर्मचारी राजेश प्रसाद का कहना है कि सरकार ने जो टीका बनवाया है, वो मानक समय से पहले तैयार हो गया है, जिससे लोगों में विश्वास का अभाव है। क्योंकि तमाम बीमारियों के टीकों को लेकर वर्षों से शोध ही चल रहा है, जिसमें एचआईवी भी शामिल है। ऐसे में कोरोना टीके को लेकर जो जल्दबाज़ी दिखायी गयी है, उसे लेकर आशंका है। एम्स के डॉक्टरों का कहना है कि जिस प्रकार कोरोना वायरस और उसके टीके को लेकर सियासत के नफा-नुकसान का खेल खेला जा रहा है, वह ठीक नहीं है। क्योंकि मरीज़ों में भेदभाव और बीमारी का विभाजन नहीं हो सकता है। ऐसे में जिस तरीके से कई चरणों और उम्र को देखकर में टीकाकरण की बात की जा रही है, उससे कोरोना वायरस का निदान नहीं हो सकता। डॉक्टरों का कहना है कि जिन्हें कोरोना संक्रमण की शिकायत या आशंका है, उनको टीका लगना चाहिए, न कि रिकॉर्ड बनाने के लिए इसका उपयोग होना चाहिए। जाने-माने आयुर्वेदाचार्य डॉ. दिव्यांग देव गोस्वामी का कहना है कि कोरोना के कम होते मामले यह बताते हैं कि देश में लोगों ने अपने बल-बूते पर जागरूकता और सोशल डिस्टेंसिंग के माध्यम से कोरोना को काबू कर लिया है। इसलिए सरकार कोरोना टीके को लेकर भी जागरूकता पर बल दे। दिल्ली के कई डॉक्टरों का मानना है कि देश के नागरिकों की इम्युनिटी पॉवर अन्य देशों की तुलना में ठीक है। अब कोरोना वायरस खात्मे की ओर है। ऐसे हालात में अब टीकाकरण को लेकर ज़्यादा शोर-शराबा ठीक नहीं है। सरकार को अब उन मरीज़ों के इलाज पर भी ज़ोर देना चाहिए, जो कोरोना-काल में इलाज नहीं करवा पाये।

टीकाकरण में जातिवादी भेदभाव का आरोप

इधर कोरोना वायरस के टीकाकरण में जातिवादी भेदभाव का आरोप लग रहा है। आरोप यह है कि सबसे पहले निचले तबके (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति) के लोगों का टीकाकरण किया जा रहा है, ताकि अगर कोई शारीरिक या मानसिक नुकसान हो, तो वह निचले तबके के लोगों को हो। आरोप है कि उच्च वर्ग इस इंतज़ार में है कि सब ठीक रहा, तो वह टीका लगवाएगा।

एक वेबसाइट पर प्रकाशित अपने एक लेख में असिस्टेंट प्रो. प्रमोद रंजन ने लिखा है- ‘सभी जानते हैं कि टीका पहले लेने का खतरा उठाने के लिए जिन स्वच्छता कर्मियों को आगे किया जा रहा है, वे भारत में निम्न कही जाने वाली जातियों से आते हैं; जो सदियों से सामाजिक और आर्थिक दमन का शिकार रही हैं। भारत में कोविड-19 का पहला टीका अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में दिया गया। इसके लिए एम्स ने अपने सफाई कर्मचारी मनीष कुमार को चुना। मनीष की जाति का कहीं उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन इस बात की पूरी सम्भावना है कि मनीष दलित समुदाय से आते हैं। क्योंकि भारत में सफाई कर्मचारियों का लगभग शत्-प्रतिशत उन दलित और पिछड़ी जातियों से आता है, जिन्हें जाति-व्यवस्था के अनुसार गन्दे कामों को करने के लिए उपयुक्त माना गया है।’

प्रो. रंजन आगे लिखते हैं- ‘सच्चाई यह है कि भारत का उच्चवर्ग, जो सामान्य तौर पर सामाजिक रूप से उच्च और शिक्षा के क्षेत्र में भी आगे है, वह इंतज़ार करो और देखो की नीति पर चल रहा है। उसके लिए वैक्सीन की राजनीति एक ऐसा समुद्र मंथन है, जिसके बारे में वह अभी कुछ तय नहीं कर पा रहा है। इस मंथन से निकला कलश (टीका) अगर अमृत साबित होगा, तभी वह उसे ग्रहण करेगा; लेकिन उससे पहले उसे पीकर शूद्रों-अतिशूद्रों (मूल हिन्दू मिथक के अनुसार, असुरों-राक्षसों) को चखकर देखना होगा।’

ग्यारह बच्चों की मौत के दोषियों को होगी सज़ा?

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने जम्मू-कश्मीर सरकार से रामनगर क्षेत्र में 11 बच्चों की मौत पर कड़ा संज्ञान लिया है। आदेश में मृतक बच्चों के करीबी परिजनों को तीन-तीन लाख रुपये रिपोर्ट देने को कहा है। आयोग ने इसे घोर लापरवाही बताते हुए कहा कि सरकार की ओर से पहली घटना के बाद गम्भीर प्रयास करती तो इतने बच्चों की मौत नहीं होती। इस मुहिम की शुरुआत सुकेश खजूरिया ने की थी जिसे वे शुरुआत बता रहे हैं। दोषियों को सलाखों के पीछे पहुँचाने के लिए उनके पास पुख्ता सुबूत है और वे सज़ा से बच नहीं सकेंगे।

शिक्षक अशोक कुमार कहते हैं कि उनके दो साल के बच्चे अनिरुद्ध की मौत की वजह यही बेस्ट कोल्ड सीरप रही। इस ज़हरीली दवा ने मेरा बच्चा मुझसे छीन लिया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुआवज़े का आदेश आर्थिक संबल देगा; लेकिन दवा निर्माता कम्पनी के मालिकों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। वे रसूखदार और पैसे वाले हैं; लेकिन बचने नहीं चाहिए। उन्हें कड़ी सज़ा मिले, जो नज़ीर बन सके; ताकि फिर कोई अनिरुद्ध या पंकू जैसे नौनिहालों को मौत न मिले। राष्ट्रीय मीडिया को चाहिए कि वह इस मुद्दे को शिद््दत से उठाये, ताकि हम लोगों को इंसाफ मिल सके।  बता दें कि ‘तहलका’ ने शुरू से ही इस मामले को गम्भीरता से उठाया, ताकि पीडि़तों को न्याय मिल सके।

गोविंदराम, निम्मो देवी, अनिल कुमार और भोली देवी के नौनिहालों की मौत इसी दवा से हुई। प्रभावित परिजनों के मुताबिक, रामनगर में 11 बच्चों की मौत तो सरकारी आँकड़ों में है, पर यह संख्या ज़्यादा है। इसके अलावा अन्य राज्यों में भी निश्चित तौर पर बच्चों की मौतें हुई होंगी, जो बच्चे दवा से किसी तरह बच गये, उनमें कई तरह के विकार पैदा हो गये हैं। जम्मू के ऊधमपुर ज़िले के रामनगर क्षेत्र में दिसंबर, 2019 से जनवरी, 2020 के दौरान एक के बाद एक करके 11 बच्चों की मौत हुई। जाँच के बाद मौत की वजह बेस्ट कोल्ड सीरप का सेवन पाया गया। रीजनल ड्रग टेस्टिंग लैब (आरडीटीएल) में जाँच के दौरान यह मानकों पर खरी नहीं उतरी। हिमाचल के बद्दी में डिजिटल विजन नामक कम्पनी ने यह दवा खाँसी-जुकाम ठीक होने के लिए निर्मित की; लेकिन यह जानलेवा साबित हुई और कम्पनी को पता भी नहीं चला और न जाने कितना उत्पाद अन्य राज्यों में भेज दिया? किस राज्य में कितने बच्चे इस दवा के सेवन से मरे? इसका पता भी नहीं है। जाँच के बाद कम्पनी का लाइसेंस रद्द करके उसे सील किया गया।

25 दिसंबर, 2019 को श्रेयांस ने दम तोड़ दिया। अपने घर पहुँचे तो रामनगर क्षेत्र में दो दिन बाद 27 दिसंबर को तीन साल के बच्चे कनिष्क की मौत की खबर मिली। उसकी मौत की वजह भी हमारे श्रेयांस जैसी रही। उसे भी खाँसी-जुकाम की शिकायत थी। दो दिन बाद 29 दिसंबर को लगभग एक साल की बच्ची जाह्नवी और अगले दिन डेढ़ साल की बच्ची लक्ष्मी को मौत ने निगल लिया। छ: दिन में तीन मौतें! बीमारी एक, दवा भी एक और मौत की वजह भी एक। लेकिन उस समय किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। स्वास्थ्य विभाग इसे अज्ञात बीमारी से होने वाली मौत मानता रहा। बच्चों की मौत का सिलसिला रुका नहीं, तीन दिन बाद नये साल में 2 दिसंबर को चार साल के अमित को भी नहीं बचाया जा सका। अगले दिन तीन साल की सुरभि, दो साल के अनिरुद्ध, एक साल का पंकू, डेढ़ साल के अक्षु, एक वर्षीय नीजू और दो वर्षीय जानू; सब खाँसी-जुकाम जैसी बीमारी के आगे हार गये।

करीब एक माह में 11 मौतों से रामनगर के लोगों में दहशत का माहौल पैदा हो गया। स्वास्थ्य विभाग के अलावा शासन-प्रशासन में हड़कंप मच गया। मौत की एक ही वजह सामने आने पर दवा का पता लगाया गया। सभी बच्चों को उसी डिजिटल विजन नामक कम्पनी की दवा दी गयी थी। उसे देने के बाद ही बच्चों की तबीयत बिगड़ी। फिर दवा को जाँच के लिए चंडीगढ़ की रीजनल ड्रग टेस्टिंग लेबोरेटरी भेजा गया। जाँच में खुलासा हुआ कि कोल्ड बेस्ट पीसी सीरप मानक पर खरी नहीं उतरी और सेंपल फेल हो गया। दवा में डाई एथिलीन ग्लायकोल की मात्रा 34.5 फीसदी पायी गयी, जो तय मात्रा से ज़्यादा थी। इससे यह ज़हर का काम कर रही थी।

ऊमधपुर ज़िले के रामनगर क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत खस्ता है। दूरदराज़ के गाँवों में तो सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएँ न के बराबर हैं। यहाँ के कई गाँव तो सड़कों से भी नहीं जुड़े हैं; जबकि कई गाँव आज के दौर में बिजली से भी वंचित है। रामनगर के अस्पताल में उनकी पहुँच इतनी आसान नहीं दिखती। हालत यह कि कई बार मरीज़ों को परिजन चारपाई पर ही लाने पर विवश हैं। रामनगर के अस्पताल में कई डॉक्टर विशेषज्ञ नहीं है। ऐसे में मरीज़ों को ज़िला अस्पताल ऊधमपुर स्थानांतरित करना पड़ता है। यहाँ से आवागमन के भरपूर साधन नहीं हैं, बावजूद इसके लोग किसी तरह पहुँचने पर मजबूर हैं। कहा जा सकता है कि जम्मू संभाग का यह इलाका स्वास्थ्य सेवाओं में बेहद पिछड़ा हुआ है।

बेस्ट कोल्ड सीरप के सेवन से जिन बच्चों की मौत हुई उनमें, जाह्नवी केवल 11 माह की और सबसे बड़ा अमित चार साल का था। ज़्यादातर बच्चों के परिजन आर्थिक रूप से बेहद कमज़ोर है। मज़दूरी आदि कर किसी तरह घर का काम चलाते हैं। बच्चों के उपचार पर हज़ारों रुपये खर्च किये। बहुत से परिजनों पर उधारी हो गयी, बावजूद इसके बच्चे भी नहीं बचे। उनके मुताबिक, मुआवज़े के आदेश के बाद उन्हें लगता है कि बच्चों को इंसाफ मिलेगा।

इंसाफ की डगर

रामनगर इलाके में 11 बच्चों की मौत और पीडि़त परिवारों को इंसाफ दिलाने की मुहिम में सामाजिक कार्यकर्ता सुकेश चंद्र खजूरिया का विशेष योगदान है। खजूरिया राज्य सरकार की अधिकृत सिटीजन एडवाइजरी समिति के सदस्य भी रह चुके हैं। देशहित से जुड़े मुद्दों और आम लोगों के इंसाफ के लिए वे आवाज़ बुलंद करते रहे हैं। रामनगर के इस मामले वे हर पीडि़त परिवार को जानते हैं, उनके गाँवों तक पहुँच चुके हैं। हर पीडि़त सदस्य उन्हें जानता है, उन पर भरोसा जताता है।

जाँच रिपोर्ट से लेकर अन्य दस्तावेज़ उनके पास है। राष्ट्रीय मानवाधिकार और राष्ट्रीय बाल सुरक्षा आयोग तक वे पहुँच गये हैं। उनकी पहल पर ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मृतक बच्चों के करीबी परिजनों को तीन-तीन लाख रुपये मुआवज़े का आदेश दिया है। जम्मू के अलावा यह मामला हरियाणा और हिमाचल से जुड़ा है। इसके लिए उन्हें काफी भागदौड़ भी करनी पड़ती है। वह कहते हैं कि थककर बैठने वालों में वह नहीं है। जिनके बच्चे ज़हरीली दवा की वजह से मौत के शिकार हो गये, वह उनके साथ पहले दिन से खड़े हैं। अभी तो आयोग ने जम्मू-कश्मीर सरकार की लापरवाही को मद्देनजर रखते हुए मुआवज़े के आदेश दिये हैं। बच्चों की मौत के दोषी तो दवा निर्माता कम्पनी के मालिक है। उनके खिलाफ संगीन आरोप है। पुख्ता सुबूत हैं, उन्हें सलाखों के पीछे जाना ही होगा। इससे बच्चे तो वापस नहीं आ सकेंगे, लेकिन उनके परिजनों को लगेगा कि हाँ, कुछ इंसाफ ज़रूर हुआ है।

विधानसभा में उठा मुद्दा

हिमाचल प्रदेश राज्य विधानसभा में भी यह मामला उठ चुका है। दवा कम्पनी राज्य में है लिहाज़ा सरकार की कड़ी कार्रवाई की दरकार है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर विधानसभा में कह चुके हैं कि आरोपियों पर कड़ी कार्रवाई होगी। उन्होंने बेस्ट कोल्ड सीरप दवा का उल्लेख करते हुए कहा कि यह दवा जाँच में मानकों पर खरी नहीं उतरी है। यह कम्पनी की बहुत बड़ी खामी है। इस प्रकरण में कड़ी कार्रवाई होगी। यह राज्य की प्रतिष्ठा से जुड़ा मामला है लिहाज़ा किसी तरह की ढील नहीं बरती जाएगी। जाँच रिपोर्ट आते ही शीर्ष अफसरों को तुरन्त प्रभाव से कार्रवाई के निर्देश दिये गये।

निर्माता कम्पनी डिजिटल विजन

हिमाचल प्रदेश के ज़िला सिरमौर के कालाअंब स्थित दवा कम्पनी डिजिटल विजन का कारोबार देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में है। सन् 2009 में स्थापित कम्पनी का टर्नओवर 45 करोड़ के आसपास है। यहाँ 250 से ज़्यादा कर्मचारी काम करते हैं। कम्पनी का स्वामित्व पुरुषोत्तम गोयल और कोनिक गोयल का है। कम्पनी अफगानिस्तान, श्रीलंका, नाइजीरिया, सूडान, घाना, कांगो, म्यांमार, नेपाल, कंबोडिया, वियतनाम, आयरलैंड और स्पेन तक फैला है। आयरलैंड में तो कम्पनी का पंजीकृत दफ्तर भी है। कुल 165 से ज़्यादा दवाइयों का उत्पादन यहाँ होता है। टेबलेट-केप्सूल से लेकर इंजेक्शन तक यहाँ तैयार होते हैं। रामनगर में बच्चों की मौत के लिए डिजिटल विजन कम्पनी ही प्रमुख तौर पर ज़िम्मेदार है। हिमाचल के बद्दी, बरोटीवाल और कालाअंब क्षेत्र दवा उद्योग का गढ़ है। यहाँ साढ़े चार सौ से ज़्यादा इकाइयाँ हैं। दवा कम्पनियों को सरकार की ओर के विशेष छूट दी जाती है।

क्या भावनात्मक बुद्धिमत्ता ज़रूरी है?

आप भावनात्मक तरीके से मूर्ख बनाना बन्द कीजिए! ऐसे वाक्यों का मतलब यह भी है कि किसी को भावनात्मक तरीके से जुडऩे के लिए खुद को चोट नहीं पहुँचानी चाहिए। अगर किसी व्यक्ति का अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं है, तो उसे तकनीकी रूप से कम बुद्धिमान माना जाता है। यह भी माना जाता है कि जो लोग हल्की-फुल्की बातों पर अन्दर से टूट जाते हैं, वे ज़्यादा बुद्धिमान नहीं होते और उन्हें अपरिपक्व कहा जाता है।

आमतौर पर बुद्धिमान लोगों को ऊँची सोच वाला माना जाता है। लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि भावनात्मक बुद्धिमत्ता (ईक्यू) बुद्धिमत्ता भागफल (आईक्यू) से कहीं ज़्यादा मायने रखती है। विशेष रूप से कारोबार की दुनिया में देखें, तो सबसे सक्षम और प्रभावी व्यक्ति उच्च ईक्यू वाले ही होते हैं। वास्तव में पारम्परिक बुद्धि परीक्षणों पर औसत अंक वाले लोग 70 फीसदी उच्च आईक्यू वाले लोगों को हरा देते हैं, और इसका कारण भावनात्मक बुद्धिमत्ता होती है। 2020 में वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम ने भावनात्मक बुद्धिमत्ता को स्थान दिया है। क्योंकि सफलता के लिए शीर्ष 10 सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यस्थल कौशल श्रमिकों की आवश्यकता होती है। हाल के वर्षों में इसे प्रबन्धन का एक बेहद महत्त्वपूर्ण कारक माना जाने लगा है। कहते हैं कि हर चीज़ की अति बुरी होती है। इसलिए अत्यधिक संवेदनशील लोग लगातार भावनात्मक बारीिकयों से वािकफ होते हैं। ये लोग दूसरों को आसानी से अपने ऊपर हावी होने देते हैं। वहीं जो लोग भावनाओं पर नियंत्रण रखते हैं, वे भावनात्मक लोगों से अपना काम निकालते हैं, जिससे उन्हें ठेस पहुँचती है, जो निरंतर चिन्ता की वजह बनती है।

क्या है भावनात्मक बुद्धिमत्ता?

क्या आप अक्सर आवेगपूर्ण ‌स्थिति में रहते हैं? ऐसी बातें कहते हैं, जिन्हें आप जानते हैं कि आपको बाद में पछताना नहीं चाहिए? या क्या आप अपनी भावनाओं से वंचित और भावनात्मक रूप से सुन्न महसूस करते हैं? तो सम्भवत: आपको अपनी भावनात्मक बुद्धिमत्ता पर ध्यान देने की आवश्यकता है। हममें से ज़्यादातर लोगों का मानना ​है कि भावनात्मक बुद्धिमत्ता को परिभाषित करना मुश्किल हो सकता है। भावनात्मक बुद्धिमत्ता अपने आपमें और एक के निर्णयों को दूसरों के प्रभावों को पहचानने के तरीके को प्रबन्धित करने की क्षमता का वर्णन करती है। ईक्यू के मुख्य कारकों में आत्म-जागरूकता, स्व-प्रबन्धन, सामाजिक जागरूकता और सम्बन्ध प्रबन्धन शामिल हैं। प्रत्येक क्षेत्र में निहित, सहानुभूति, सकारात्मक दृष्टिकोण, आत्म-नियंत्रण, उपलब्धि, अनुकूलनशीलता, प्रभाव, संघर्ष प्रबन्धन, संगठनात्मक जागरूकता, संरक्षक, टीमवर्क, प्रेरणादायक नेतृत्व सहित 12 ईआई कौशल हैं। इन कौशलों को प्राथमिक स्थान के रूप में भावनाओं के साथ अधिक-से-अधिक जुड़ाव की आवश्यकता होती है और यह किसी भी इच्छुक शख्स की विकास प्राथमिकताओं का एक हिस्सा होना चाहिए। इसके अलावा भावनात्मक बुद्धिमत्ता चिन्ता को कम करने, कुशलता से बात करने, दूसरों के साथ सहानुभूति रखने, चुनौतियों पर विजय प्राप्त करने और तर्कों को हल करने में अपनी भावनाओं को पहचानने, समझने और सकारात्मक तरीके से उपयोग करने की क्षमता है। जब आप अपनी भावनाओं को बेहतर ढंग से जानने और समझने की क्षमता विकसित करते हैं, तो आपको यह जानना आसान हो जाएगा कि दूसरे के प्रति कितने संवेदनशील हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान भावनात्मक बुद्धिमत्ता महत्त्वपूर्ण साबित हुई और इसने विभिन्न रोगों से निपटने के लिए मार्गदर्शन का काम किया। क्योंकि कोविड-19 महामारी के दौरान भावनात्मक बुद्धिमत्ता की कहीं ज़्यादा ज़रूरत महसूस की गयी। अनिश्चितता के समय में अपनी खुद की भावनाओं को पहचानने और बेहतर ढंग से सँभालने की क्षमता आपको अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने की सुविधा प्रदान करती है।

हालाँकि भावनात्मक बुद्धिमत्ता हमें एक कठिन परिस्थिति से निपटने और विभिन्न बीमारियों से जूझने में मदद करती है। भावनात्मक बुद्धिमत्ता हमारे मस्तिष्क को भावनात्मक संकट से निपटने की क्षमता का समर्थन करती है। यह लचीलापन हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत रखता है और हमें कई बीमारियों से बचाता है। भावना अब नैदानिक​​ सिद्धांत के केंद्र में है और मनोवैज्ञानिक परिवर्तन के रूप में देखा जाता है। मनोवैज्ञानिक तरुण साह के अनुसार, भावनात्मक बुद्धिमत्ता का एकीकरण कई विषयों से समझ सकते हैं। क्योंकि इस बात पर आम सहमति है कि भावनात्मक बुद्धिमत्ता का काम सन्तुष्टि, तनाव स्तर, परलोक पर ध्यान है और सकारात्मक वातावरण को सुविधाजनक बनाने में मदद करता है। एडवांस प्रैक्टिस नर्सिंग क्या है? इमोशनल इंटेलिजेंस एक ऐसा सिद्धांत है, जो नर्सिंग प्रैक्टिस के लिए ज़रूरी हो सकता है। क्योंकि इसमें मरीज़ की देखभाल और प्रभाव, निर्णय लेने, महत्त्वपूर्ण सोच और बड़े पैमाने पर नर्सों की प्रैक्टिस के महत्त्व को प्रभावित करने की क्षमता है। तबाही के समय हमारे घरों, कार्यस्थलों और सार्वजनिक क्षेत्र में स्वस्थ परिवेश को बनाये रखने के लिए सहानुभूति, आत्म-नियमन और सकारात्मक सम्बन्धों की आवश्यकता होती है। इस प्रकार नीति निर्माताओं को इस कठिनाई को जीतने के लिए भावनात्मक बुद्धिमत्ता (ईआई) की सराहना, वकालत और चैनलाइज करना आवश्यक है।

भावनात्मक बुद्धिमत्ता का महत्त्व

होशियार लोग अकादमिक रूप से प्रतिभाशाली हो सकते हैं; लेकिन जीवन में हमेशा पूरे नहीं होते। आप लोगों को सामाजिक रूप से अक्षम और काम पर या अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों में असफल देख सकते हैं। जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए बौद्धिक क्षमता या बुद्धिमत्ता भागफल (आईक्यू) अपने आपमें पर्याप्त नहीं है। वास्तव में आईक्यू अच्छे अंक प्राप्त करने में मदद कर सकता है, लेकिन यह ईक्यू अन्तिम परीक्षा का सामना करते समय आपके तनाव और भावनाओं को प्रबन्धित करने में मदद करेगा।

भावनात्मक बुद्धिमत्ता केवल उतनी ही बेहतर है, जितनी कि बेहतर बुद्धिमत्ता भागफल। जब आपके रिश्तों, करियर और व्यक्तिगत लक्ष्यों में खुशी और सफलता की बात करता है। तनाव को संतुलन में लाओ और अप्रिय भावनाओं को सहन करना सीखो, जो किसी व्यक्ति के मज़बूत भावनात्मक स्तर को दर्शाती है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कितने चिन्तित या भावनात्मक रूप से नियंत्रण से बाहर हैं। यदि आपके पास अच्छी भावनात्मक बुद्धिमत्ता है, तो जीवन आसान और अधिक संतोषप्रद हो जाता है।

तरुण साह ने कहा है कि भावनात्मक बुद्धिमत्ता आपके दैनिक जीवन के कई अलग-अलग पहलुओं को प्रभावित करती है, जैसे कि आप किस तरह से व्यवहार करते हैं और कैसे आप दूसरों के साथ बातचीत करते हैं। आप अन्य लोगों के साथ अच्छी तरह से सम्बन्ध बनाने के लिए भावनाओं की समझ का उपयोग कर सकते हैं। बेहतर रिश्ते बनाकर अधिक-से-अधिक सफलता प्राप्त कर सकते हैं और ज़्यादा सुखद जीवन जी सकते हैं।

भावनात्मक बुद्धिमत्ता का निर्माण कैसे करें

ये प्रमुख कौशल एक व्यक्ति को भावनात्मक बुद्धि विकसित करने में मदद करते हैं :-

  1. आत्म-प्रबन्धन : भावनात्मक बुद्धिमत्ता के निर्माण के लिए तनाव का प्रबन्धन पहला कदम है। स्वस्थ तरीकों से अपनी भावनाओं को प्रबन्धित करना। जैसे- पहल करना, प्रतिबद्धताओं को पूरा करना और बदलती परिस्थितियों के अनुसार खुद को अनुकूलित करना, आप आवेगी भावनाओं और व्यवहारों को नियंत्रित करने में सक्षम होंगे। स्वयं से अनजान होना पर्याप्त नहीं है। एक को अपनी भावनाओं से निपटने में सक्षम होना चाहिए। अपनी क्षमता और खामियों की खोज करें और जानें कि वे आपके विचारों और व्यवहार को कैसे प्रभावित करते हैं? और तदनुसार कार्य करें।
  2. आत्म-जागरूकता : आत्म-जागरूकता में तीन स्तरों पर अपने और अपने व्यवहार को समझना शामिल है- 1) आप क्या कर रहे हैं? 2) आप इसके बारे में कैसा महसूस करते हैं? और 3) आप अपने बारे में क्या नहीं जानते? हममें से अधिकांश लोग यह नहीं जानते हैं कि हम कैसे कार्य करते हैं और हम आधा समय क्या करते हैं? हम ऑटोपायलट- व्हाट्स ऐप, इंस्टाग्राम पर हैं और तस्वीरें इत्यादि पोस्ट करते हैं; ईमेल चेक करते हैं। अपने स्वयं के लिए जगह ढूँढना और अपने जीवन के बारे में सोचना, इन दिनों सोशल मीडिया पर विचरण के कारण मुश्किल हो जाता है। वास्तव में हम आमतौर पर इन विकृतियों में शामिल होते हैं, ताकि बहुत-सी असहज भावनाओं से बचा जा सके, जो हमें लगातार प्रभावित करती हैं। भावनात्मक बुद्धिमत्ता का निर्माण करने के लिए हमें स्वयं के बारे में अधिक जागरूक होना चाहिए।
  3. सामाजिक जागरूकता : सामाजिक जागरूकता में भावनाओं को स्वीकार करना शामिल है। इससे हम अन्य लोगों की चिन्ताओं को, भावनात्मक संकेतों से समझ सकते हैं। सामाजिक ज़िन्दगी आराम से गुजरती है और एक समूह या संगठन में शक्ति को गतिशीलता मिलती है। यदि आप अच्छे सम्बन्धों को विकसित करने और उन्हें बनाये रखने में सक्षम हैं, तो स्पष्ट रूप से संवाद करें; दूसरों को प्रेरित करें और प्रभावित करें। एक टीम में अच्छा काम करें। क्योंकि संघर्ष व प्रबन्धन जैसे गुण आपकी सामाजिक चेतना दिखाते हैं।
  4. सम्बन्ध प्रबन्धन : भावनात्मक बुद्धिमत्ता के विकास का सम्पूर्ण बिन्दु अंतत: जीवन में स्वस्थ सम्बन्धों को प्रोत्साहित करता है। हममें से बहुत-से लोग अपनी भावनाओं से वंचित हैं; विशेष रूप से सुदृढ़ भावनाएँ; जैसे कि क्रोध, उदासी, भय। क्योंकि बचपन से हमें अपनी भावनाओं को छिपाना सिखाया जाता है। इसलिए हम अपनी भावनाओं को दबाने का प्रयास करते हैं। लेकिन हम अपनी भावनाओं को अस्वीकार कर सकते हैं या दबा सकते हैं, मगर उन्हें समाप्त नहीं कर सकते। वो अभी भी वहाँ हैं, चाहे हम उनके बारे में जानते हों, या नहीं। एक शून्य हमेशा हमारे भीतर कहीं रहता है। रिश्ते अंतत: हमारे मूल्यों को व्यक्त करने का तरीका हैं। हमारी भावनाएँ उस व्यक्ति के लिए कार्यों को प्रोत्साहित करके उन मूल्यों को पूरा करती हैं। दुर्भाग्य से अपनी सभी भावनाओं से जुड़े बिना, हम तनाव के प्रबन्धन को पूरी तरह से नहीं समझ सकते हैं। स्वस्थ रिश्ते बनाने के लिए अपनी भावनाओं को पहचानें।
  5. प्रेरणा : प्रेरणापूर्ण ध्यान और ऊर्जा के साथ चीज़ों को करने का प्रयास करने के लिए एक महत्त्वपूर्ण घटक है। यह समूह या टीम का नेतृत्व करते समय एक ज़िम्मेदारी को बेहतर तरीके से सँभालने में मदद करता है। इसमें कुछ करने के हमारे व्यक्तिगत कारण शामिल हैं; यह हमारी ड्राइव, पहल, प्रतिबद्धता, आसासा और पैसे या मान्यता से परे कुछ हासिल करने की दृढ़ता का एक संयोजन है। अनुसंधान से पता चलता है कि आशावाद एकल सबसे बड़ा व्यवहार है, जो हमारे जीवन को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।
  6. सहानुभूति : अपनी बात पर अडिग रहते हुए दूसरों को पहचानने में सक्षम होना? इस घटक को सहानुभूति कहा जाता है। यह कुशलता से काम करने के लिए लोगों के एक बड़े समूह के साथ काम करते समय होने वाली अपार गुणवत्ता है। अच्छी तरह से निर्मित भावनात्मक बुद्धिमत्ता वाला नेता टीम के सदस्यों के सफल प्रदर्शन की पहचान को जानता है और उसकी सराहना करता है।
  7. ध्यान : ध्यान और गहरी साँस लेना लोगों को वर्तमान में रहने और मन तथा शरीर में बेहतर स्थिरता प्राप्त करने के लिए अधिक नियंत्रण प्रदान करने में सक्षम बनाता है। गहरी साँस लेने से शरीर को ऊर्जा मिलती है, जो नकारात्मक विचारों को बदलने और व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए आवश्यक है।

उच्च ईक्यू विकसित करने की आदतें

अपनी (भावनात्मक बुद्धिमत्ता) ईक्यू को बढ़ाने का सबसे प्रभावी तरीका नियमित आदतों में शामिल करें, जिससे तार्किक और भावनात्मक दिमाग के बीच संचार को मज़बूत किया जा सकता है। आत्म-जागरूकता में दोहन करना और सचेतन का अभ्यास करना मस्तिष्क को मज़बूत करने और इसके तर्कसंगत और भावनात्मक क्षेत्रों के बीच सम्बन्ध बनाने के लिए शानदार तरीके हैं। भावनात्मक रूप से बुद्धिमान लोग अपनी भावनाओं को नोटिस करते हैं, जो हमेशा आसान नहीं होते हैं; लेकिन इसे नियमित रूप से पूरी तन्मयता या ध्यान-अभ्यास के ज़रिये बेहतर बनाया जा सकता है।

 भावनात्मक रूप से बुद्धिमान लोग भी, जब उनका तनाव का स्तर बढ़ता है और वे तनाव को अपने ऊपर लेने की अनुमति नहीं देते हैं; पहचानने की आदत में पड़ जाते हैं। इसके बजाय वे तनाव को कम करने और शान्त रहने के लिए स्वस्थ आदतों का निर्माण करते हैं। व्यायाम इसमें बहुत मदद कर सकता है। इसके अतिरिक्त, उच्च ईक्यू वाले लोग सकारात्मकता को एक नियमित अभ्यास बनाते हैं। यहाँ तक ​​कि जब चीज़ें गम्भीर दिखती हैं, तो वे कृतज्ञता और सकारात्मकता पा सकते हैं। यह उन्हें सक्रिय रहने की अनुमति देता है, जो उन्हें सबसे कठिन समय के दौरान सर्वोत्तम सम्भावित निर्णय लेने की क्षमता देता है।

अफगानी महिलाओं में फिर दहशत!

कतर की राजधानी दोहा में अफगानी सरकार के अधिकारियों व तालिबान के बीच जारी शान्ति-वार्ता के दरमियान 17 जनवरी को अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में बन्दूकधारियों ने एक कार पर गोलीबारी की, जिसमें उच्च अदालत में कार्यरत दो महिला न्यायधीशों को मौत हो गयी। यह आलेख लिखे जाने तक किसी भी संगठन ने हमले की ज़िम्मेदारी नहीं ली थी, लेकिन अफगान सरकार का मानना है कि इस हमले के पीछे तालिबान का हाथ हो सकता है। गौरतलब है कि यह वारदात 17 जनवरी को हुई यानी ठीक दो दिन बाद जब अमेरिकी प्रशासन ने 15 जनवरी को बयान जारी कर कहा कि उसने अफगानिस्तान में अपने बलों की संख्या 5,000 से कम करके 2,500 कर दी है। यूँ तो बीते कई महीनों से अफगानिस्तान में पत्रकारों, डॉक्टरों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की हत्याओं के मामले सामने आ रहे हैं, लेकिन उच्च अदालत की दो महिला न्यायधीशों को निशाना बनाने वाली घटना से अफगानिस्तान में महिलाओं की हिफाज़त, उनके खिलाफ हिंसा, महिला अधिकारों को खतरे वाला मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन गया है। सवाल यह है कि क्या यह घटना कतर में जारी शान्ति-वार्ता में तालिबान के ऊपर महिलाओं के प्रति उनके रूढ़ नज़रिये में बदलाव लाने के लिए दबाव डालने का काम करेगी। बहरहाल अफगानिस्तान की आधी आबादी यानी औरतें, लड़कियाँ इस समय सुकून की ज़िन्दगी नहीं जी पा रही हैं, उन्हें चिन्ता शान्ति-वार्ता के आगामी नतीजों को लेकर है कि कहीं उनके संविधानप्रदत्त अधिकारों में कटौती न हो जाए और वे आगे बढऩे की बजाय पीछे न धकेल दी जाएँ।

उल्लेखनीय है कि अमेरिका और तालिबान के बीच अफगानिस्तान से 19 साल के बाद अमेरिकी सैनिकों की वापसी सम्बन्धी समझौता 29 फरवरी, 2020 को हुआ था। समझौते में कहा गया है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी 18 महीनों के भीतर होगी, बशर्ते तालिबान आतंकवादी समूहों से लडऩे की प्रतिबद्धता का सम्मान करे। इस समझौते के अनुसार, आगामी मई तक अमेरिका अपनी शेष सेना को भी वापस बुला लेगा। लेकिन अमेरिका के नये राष्ट्रपति जो बाइडन आने वाले समय में इस सन्दर्भ में क्या रुख अपनाते हैं? यह देखना होगा। पर अफगानी महिलाओं पर उनके सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक अधिकारों में कटौती होने का खतरा मँडराने लगा है। उन्हें भय है कि सन् 2004 में बने जिस संविधान ने उन्हें मर्दों के बराबर अधिकार दिये, कहीं उनमें कटौती न हो जाए। फिर से 2001 से पहले वाला महिला अधिकारों को दबाने वाला माहौल व नियम उन पर हावी न हो जाए। दो दशक पूर्व यानी सन् 2001 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू. बुश ने अफगानिस्तान पर हमला करके इसे वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ जंग बताया था, इसके साथ ही यह भी कहा गया था कि उनकी मंशा अफगानिस्तान की महिलाओं को बेहतर ज़िन्दगी जीने व उनके मौलिक अधिकारों की बहाली के लिए अनुकूल अवसर मुहैया कराना भी है। दरअसल सोवियत संघ के द्वारा अफगानिस्तान पर कब्ज़ा करने से पहले और युद्ध के कुछ वर्षों तक भी वहाँ महिलाओं की स्थिति अधिक खराब नहीं थी। विशेषतौर पर शहरी महिलाओं की। उन्हें शिक्षा हासिल करने का अधिकार था। वे पेशेवर करियर में भी थीं। न्यायपालिका व अफगान की संसद में भी नज़र आती थीं। सन् 1964 के अफगानी संविधान का मसौदा तैयार करने में भी उन्होंने अहम भूमिका निभायी। यह तथ्य सर्वविदित है कि सन् 1979 में सोवियत संघ के अफगानिस्तान पर कब्ज़े व उसके बाद मुजाहिदीन के उदय से, जिसने इस मुल्क को इस्लामिक स्टेट में तब्दील कर दिया; यहाँ उस दौरान बहुत कुछ बदल गया। हालात बद से बदतर होते चले गये। सन् 1990 के शुरुआत में अफगानिस्तान में तालिबान के ज़ोर पकडऩे से सिर्फ मुल्क की ही नहीं, बल्कि महिलाओं की हालत भी पिछड़ती चली गयी। उन्हें फिर से पारम्परिक लैंगिक भूमिकाओं में धकेल दिया गया। मर्द-औरत के बीच भेदभाव वाली संस्कृति ज़ोर पकड़ती गयी। लड़कियों के पढऩे पर कई पाबन्दियाँ लगा दी गयीं। नौकरी करने तक की इजाज़त नहीं थी। स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुँच बहुत ही सीमित थी। बुर्काअनिवार्य कर दिया गया। घर के बाहर बिना मर्द के निकलने पर मनाही थी और यह मर्द भी परिवार का सदस्य होना चाहिए था। परम्पराओं के बोझ से लदी तकरीबन हर लड़की और फिर जल्द ही दहशत से गुलाम औरत में तब्दील होती गयी। जिसकी न तो अपनी ज़िन्दगी के अहम फैसलों में कोई सुनवाई होती और न ही किसी भी पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक फैसलों में उसे जगह मिलती थी। मर्द का साया ही उस पर शासन करता, चाहे वह घर की चहारदीवारी में हो या घर की दहलीज़ के बाहर। गृहयुद्ध में पतियों, भाइयों व पिता के मारे जाने से महिलाओं की स्थिति सामाजिक व आर्थिक रूप से और भी कमज़ोर होती चली गयी। एकल महिलाओं, विधवाओं और बच्चों की मुश्किलें तालिबान शासन में बराबर बढ़ती ही चली गयीं। युवा लड़कियों, महिलाओं पर यौन-दुराचार के झूठे आरोप लगाकर उन्हें जेलों में बन्द कर दिया गया। ऑनर किलिंग की घटनाएँ आम हो गयी थीं। अमेरिका ने जब सन् 2001 में आतंकवाद का सफाया करने की दलील देकर अफगानिस्तान के आतंकवादी ठिकानों पर हमले किये और उसके बाद वहाँ सरकार बनवाने में मदद की, तब अफगानिस्तान में 2004 में जो संविधान बना, उसे बनाने में महिलाओं ने अहम योगदान दिया।

अफगानिस्तान के अखबार ‘द डेली आउटलुक’ ने हाल ही में अपने सम्पदाकीय में लिख है-‘तालिबानी शासन के बाद के संविधान को लोकतांत्रिक मूल्यों और इस्लामी उसूलों, दोनों के आधार पर अनुमोदित किया गया था और इन दोनों के बीच के सामंजस्य को देश-दुनिया ने भी स्वीकार किया। नज़ीर के तौर पर यह संविधान संयुक्त राष्ट्र चार्टर और यूनिवर्सल डिक्लियरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स को अपनी मान्यता देता है। मानवाधिकारों की इस सार्वभौमिक घोषणा के तहत प्रत्येक मनुष्य को वो तमाम अधिकार और स्वतंत्रता हासिल हैं, जिनकी इसमें घोषणा की गयी है और किसी को भी नस्ल, रंग, लिंग, भाषा, क्षेत्र, धर्म, राजनीतिक या अन्य विचार, राष्ट्रीय या सामाजिक पृष्ठभूमि, सम्पत्ति, जन्म या अन्य किसी हैसियत के आधार पर इनसे वंचित नहीं किया जा सकता।’

मौज़ूदा संविधान में लैंगिक भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है। और संवैधानिक रूप से मर्द और औरत, दोनों को बराबर हक हासिल हैं, और ऐसे हक बताते हैं कि औरतें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक गतिविधियों में भागीदारी और फौज व पुलिस सेवा में योगदान की हकदार हैं। उल्लेखनीय है कि इस मुल्क के मौज़ूदा संविधान के अनुच्छेद-83 में संसद के निचले सदन में महिलाओं के लिए 27 फीसदी तथा ऊपरी सदन के लिए 50 फीसदी सीटों के आरक्षण की व्यवस्था की गयी है। आज यहाँ पर महिलाएँ टैक्सी ड्राइवर हैं, टीवी एंकर हैं, संसद में हैं, बैंक में भी नज़र आती हैं और न्यायाधीश की कुर्सी पर भी। अपने राष्ट्र को आगे ले जानी वाली प्रगतिशील नीतियों को बनाने वाली समितियों व उन्हें लागू कराने वाले बोर्ड का हिस्सा भी हैं। सन् 2003 में यहाँ प्राइमरी शिक्षा में नामांकित लड़कियों की दर 10 फीसदी से भी कम थी, जो सन् 2017 में यह बढ़कर 33 फीसदी तक पहुँच गयी। यह उल्लेखनीय नहीं है, लेकिन दर बढ़ रही है। इसी तरह सैंकडरी शिक्षा में यह दर छ: फीसदी से बढ़कर 39 फीसदी तक पहुँच गयी है। 2020 तक अफगान सिविल सेवकों में 21 फीसदी महिलाएँ थी, जबकि तालिबान शासन के दौरान यह तादाद लगभग शून्य थी। इस 21 फीसदी में 16 फीसदी महिलाएँ वरिष्ठ प्रबन्धन स्तर पर अपनी सेवाएँ दे रही हैं। अफगान संसद में 27 फीसदी महिलाएँ हैं। सवाल यह है कि जब अफगानी अधिकारियों और तालिबान के नुमाइंदों के बीच शान्ति वार्ता का दौर जारी है, तो क्या इस शान्ति वार्ता की मेज पर महिलाओं को हासिल मौज़ूदा हकों को संवैधानिक तौर पर बरकरार रखने का लिखित ठोस आश्वासन तालिबान से लिया जाएगा? इसके अलावा भविष्य में भी मुल्क की लड़कियों, औरतों को आगे बढऩे के लिए प्रोत्साहित करने वाली सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक नीतियों व कार्यक्रमों में उनकी हिस्सेदारी को और मज़बूत करने पर भी बातचीत होनी चाहिए। लेकिन मौज़ूदा हकीकत यह है कि दोहा में जारी शान्ति-वार्ता में तालिबान अफगानी औरतों के हकों और उनकी स्वतंत्रता के बारे में बात करने से कतरा रहा है।

अफगान सरकार की ओर से वार्ता के लिए गठित कमेटी में चार महिलाएँ हैं, लेकिन तालिबान की वार्ता टीम में कोई भी महिला नहीं है। इस बाबत वह खामोश है। पर यह गम्भीर मुद्दा है और इस मुल्क की शिक्षित, जागरूक, सशक्त महिलाएँ उनके अधिकारों को कमज़ोर करने वाली किसी भी शान्ति-वार्ता को मनाने से इन्कार करती हैं। क्योंकि वे ऐसी शान्ति-वार्ता चाहती हैं, जिसमें तालिबान कमज़ोर स्थिति में नज़र आये। वे नहीं चाहतीं कि तालिबान इतना मज़बूत होकर सामने आये कि वह मौज़ूदा संविधान को फिर से लिखे और महिलाओं को गुलाम बना डाले।

अफगानी महिलाएँ इस बात से भी भयभीत हैं कि तालिबान अगर हावी हो गया, तो उनकी ही ज़िन्दगी नहीं, बल्कि छोटी बच्चियों का भविष्य भी तबाह हो जाएगा और वे फिर से यौन तथा शारीरिक शोषण की शिकार होने लगेंगी। आज भी अफगानिस्तान के कुछ इलाकों में तालिबान का दबदबा है और वहाँ की लड़कियों-औरतों पर कई तरह की पांबदियाँ साफ नज़र आती हैं। अमेरिका में राष्ट्रपति जो बाइडन ने 20 जनवरी को कार्यभार सँभाला है, वह अफगानी महिलाओं को हासिल अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता को बरकरार रखने के लिए क्या हस्तक्षेप करेंगे? क्या वह कोई रणनीति अपनाएँगे? इस पर अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की नज़र है। क्या इसका खुलासा 29 फरवरी से पहले हो सकता है? क्योंकि करीब 18 महीने की बातचीत के बाद 29 फरवरी, 2020 को अमेरिका व तालिबान के बीच सैन्य समझौता हुआ था, इस 29 फरवरी इसका एक साल पूरा हो जाएगा। यूँ तो तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का यह फर्ज़ बनता है कि वे तालिबान पर इतना दबाव बनाएँ कि उसे यह गारंटी देनी ही पड़े कि वह औरतों पर अपनी मानसिकता, शरिया कानून की अपनी व्याख्या नहीं थोपेगा। लेकिन अभी तक तो ऐसा नहीं हुआ है, शायद भविष्य में हो!

झारखण्ड में हडिय़ा-दारू कानून अवैध, लेकिन परम्परा में वैध

झारखण्ड में रहने वाले या राज्य के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी रखने वाले सभी लोग हडिय़ा-दारू शब्द से वािकफ हैं। क्योंकि राज्य में हडिय़ा-दारू आम बात है। बड़े-तो-बड़े बच्चे तक इसके बारे में जानते हैं। गाँव-देहात क्या, बीच शहर में भी यह खुलेआम सड़क किनारे बिकती है। दरअसल झारखण्ड में हडिय़ा-दारू भले ही कानून अवैध हो, लेकिन परम्परा में यह वैध है और कानून पर परम्परा इतनी भारी है कि इसकी बिक्री को सरकार के लिए रोक पाना आसान नहीं है। इसलिए सरकार कानूनी रूप से नहीं, लोगों में जागरूकता फैलाकर इस अभिशाप से मुक्ति का रास्ता अपनाने का प्रयास कर रही है।

हडिय़ा परम्परा और सांस्कृतिक विरासत

हडिय़ा आदिवासियों की परम्परा और सांस्कृतिक विरासत का एक हिस्सा है। इसमें चावल के साथ-साथ सात तरह की जड़ी-बूटी मिलायी जाती है। ये जड़ी-बूटी मेडिसनल प्लांट की होती हैं। चावल को पकाने के बाद इसे ठंडा किया जाता है। चावल के अलावा गेहूँ व मडुवा भी मिलाया जाता है। रानू, धतूर समेत अन्य जड़ी-बूटियाँ पीसकर पके हुए चावल में उन्हें मिलाया जाता है। इसके बाद इस पके हुए चावल को किसी बर्तन (खासकर मिट्टी के बर्तन) में तीन-चार दिन किण्वन, एक तरह के ठण्डे ज़मीनी उबाल (फर्मेंटेशन) के लिए रख दिया जाता है। तीन-चार दिन बाद इसमें पानी मिलाकर हडिय़ा-दारू तैयार की जाती है।

आदिवासी समाज के लिए आम पेय पदार्थ

राज्य के आदिवासी समाज में हडिय़ा-दारू को एक अच्छा पेय पदार्थ माना जाता है। आदिवासियों ने इसके मूल रूप में पोषण का ध्यान रखा है। आदिवासी समाज और हडिय़ा व महुआ पर रिसर्च करने वाली राज्य महिला आयोग की पूर्व सदस्य वासवी किड़ो कहती हैं कि पारम्परिक रूप से जो हडिय़ा तैयार की जाती है, वह स्वास्थ्य के लिए अच्छी होती है। इसमें जिस रानू को मिलाया जाता है, उसमें हाई कैलोरी होती है। साथ ही यह प्रोटीन का भी अच्छा स्रोत है। किड़ो ने कहा असल में आदिवासियों का यह खास पेय रोज़मर्रा की ज़रूरतों या फिर नशे के लिए नहीं बनाया गया, बल्कि इसे खासतौर पर घर में किसी धार्मिक आयोजन के लिए या फिर मेहमानों के लिए बनाया जाता रहा है। खेती या मेहनत का काम करने वालों के बल, खासकर रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए हडिय़ा, जिसे कुछ लोग हडिय़ा-दारू भी कहते हैं; दी जाती रही है। यह पीलिया, डायरिया, ब्लड प्रेशर, डिहाइड्रेशन जैसी कई बीमारियों को ठीक करती है।

विकृत होकर जुड़ गया दारू शब्द

राज्य में आम बोलचाल की भाषा में हडिय़ा के साथ दारू शब्द जुड़ गया है। लेकिन हडिय़ा अलग और दारू अलग शब्द है। आदिवासी परम्परा में केवल हडिय़ा शब्द ही है। इसमें दारू शब्द इसलिए भी जुड़ गया, क्योंकि अब में हडिय़ा का उपयोग नशे के लिए भी होने लगा है। इसे व्यावसायिक रूप देने के लिए जड़ी-बूटी की जगह स्प्रीट, यूरिया व अन्य नशे का सामान मिलाया जाने लगा। इसके अलावा नशे के लिए अधिक मात्रा में धतूर व अन्य जंगली फल-फूल का इस्तेमाल होने लगा और जड़ी-बूटी की मात्रा कम होती गई। तब इस शब्द के साथ दारू जुड़ गया। अब हडिय़ा-दारू शब्द प्रचलन में आ गया है।

महिलाओं के लिए रोज़गार का ज़रिया

हडिय़ा-दारू का प्रयोग जब नशे के लिए होने लगा, तो इसने एक व्यावसायिक रूप ले लिया। राज्य में लोग अवैध रूप से विभिन्न जगहों पर बड़े पैमाने पर इसे बनाने लगे। धीरे-धीरे अनेक गरीब महिलाएँ अपना परिवार चलाने के लिए इस व्यवसाय से जुड़ गयीं। रोज़गार के लिए छोटे-छोटे स्तर पर हडिय़ा तैयार करने लगी।

महिलाएँ ही इस पेशे से ज़्यादा जुड़ी हैं और राज्य में खुले रूप से ज़्यादातर जगहों पर हडिय़ा-दारू महिलाएँ ही इसे बेचती हुई नज़र आती हैं। वे छोटे स्तर पर थोड़ा पारम्परिक और थोड़ा नया स्वरूप देकर अपने ही घर में हडिय़ा तैयार कर बेचती हैं। हडिय़ा बेचने वाली एक महिला ने बताया कि एक गिलास हडिय़ा 10 रुपये में बिकता है। एक दिन में दो-तीन सौ रुपये की कमायी हो जाती है। इससे घर का खर्च चलता है। बच्चों को पढ़ाती भी हूँ। महिला ने कहा यह काम करना अच्छा नहीं लगता। लेकिन दूसरा काम शुरू करने के लिए पैसे नहीं हैं। अगर दूसरा रोज़गार मिल जाए, तो इस काम को छोड़ दूँ।

हडिय़ा-दारू के खिलाफ महिलाओं ने ही छेड़ी जंग

राज्य में हडिय़ा के साथ-साथ महुआ का भी प्रचलन धीरे-धीरे बढ़ गया। हडिय़ा और महुआ को विकृत रूप देकर बड़े पैमाने पर इसे व्यवसायिक रूप देकर बेचा जाने लगा। इससे गरीब परिवार बर्बाद होने लगे। तब राज्य के कई गाँवों की महिलाएँ जागरूक हुईं और इसके खिलाफ आवाज़ बुलन्द करने लगी हैं। राज्य के कई हिस्सों में महिलाओं ने ही हडिय़ा-दारू के खिलाफ जंग छेड़ रखी है, जिसमें कई स्वयं सेवी संगठन भी मदद कर रहे हैं। महिलाएँ हडिय़ा-दारू को नष्ट करती हैं।

इसी क्रम में रांची से सटे एक गाँव आरा-केरम पूरी तरह से नशा मुक्त गाँव बन गया है। इस गाँव की चर्चा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों अपने मन की बात कार्यक्रम में भी की थी।

महिलाओं को रोज़गार से जोड़ रही सरकार

राज्य सरकार जानती है कि हडिय़ा-दारू को कानूनी रूप से दबाकर बन्द नहीं किया सकता है। नतीजतन सरकार हडिय़ा-दारू की खामियाँ बताकर, महिलाओं को रोज़गार देकर इससे मुक्ति का रास्ता तलाश रही है। सरकार ने हाल में तीन योजनाएँ शुरू की हैं। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा कि सरकार का संकल्प है कि हमारी माँएँ-बहनें सड़कों पर हडिय़ा-दारू नहीं बेचेंगी। इसके लिए उन्हें आत्मनिर्भर बनाया जाएगा। इसी के मद्देनज़र सरकार ने फूलो झानो आशीर्वाद योजना, आजीविका संवर्धन हुनर अभियान (आशा) और पलाश ब्रांड के ज़रिये ग्रामीण महिलाओं को रोज़गार से जोडऩे के लिए कार्यक्रम शुरू किये हैं।

हडिय़ा और दारू अलग-अलग शब्द हैं। पारम्परिक हडिय़ा स्वास्थ्य के लिए अच्छी होती है। साथ ही जड़ी-बूटी और महुआ के जो बाई प्रोडक्ट है, वह भी स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। इसने धीरे-धीरे विकृत रूप ले लिया है। हडिय़ा-दारू के साथ महुआ की अवैध बिक्री रुकनी चाहिए। सरकार को इसके विकृत रूप को समाप्त कर वैध बनाना चाहिए। इसके बाई प्रोडक्ट पर ध्यान देना चाहिए। इसका बाई प्रोडक्ट काफी लाभदायक साबित होगा। महिलाओं को रोज़गार से जोड़कर ही इस पर काबू पाया जा सकता है।वासवी किड़ो

आदिवासी मामलों की जानकार व

पूर्व सदस्य, राज्य महिला आयोग

राज्य में हडिय़ा-दारू अवैध है। इसका बड़े पैमाने पर जहाँ भी निर्माण होता है, विभाग द्वारा कार्रवाई की जाती है। राज्य में समय-समय पर छापा मारा जाता। बड़ी मात्रा में अवैध रूप से चल रहे हडिय़ा-दारू को नष्ट किया जाता है। क्योंकि यह परम्परा में शामिल है, इसलिए छोटे-छोटे स्तर पर कार्रवाई सम्भव नहीं है। इसके लिए सरकार की ओर से जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है। महिलाओं को हडिय़ा-दारू बेचना छोड़कर दूसरे रोज़गार से जुडऩे के लिए प्रेरित किया जा रहा है। सरकार उन्हें दूसरा रोज़गार शुरू करने में भी मदद कर रही है।विनय कुमार चौबे

सचिव, उत्पाद एवं मद्य निषेध विभाग,

झारखण्ड