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इरफान पठान ने जाॅर्ज लाॅयड की मौत का जिक्र कर उठाया सवाल

भारत में जारी किसान आंदोलन पर अब दुनियाभर की नजर पड़ गई है। कृषि कानूनों के खिलाफ जहां समर्थन में विदेशी हस्तियां सोशल मीडिया पर ट्वीट कर रही हैं तो वहीं अब सिनेमा जगत के बाद क्रिकेटर भी इस मामले पर अपनी राय रख रहे हैं। इस दौरान सरकार और आम लोगों से सवाल पूछे जा रहे हैं। अब पूर्व भारतीय क्रिकेटर आलराउंडर इरफान पठान ने पूछा है कि जब जॉर्ज फ्लॉयड की अमेरिका में एक पुलिसकर्मी ने हत्या कर दी थी तो भारत ने दुख जताया था।

अंतर्राष्ट्रीय पॉप स्टार रिहाना, ग्रेटा थनबर्ग के अलावा अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भतीजी भी मामले में समर्थन कर चुकी हैं। सचिन तेंदुलकर समेत कई दिग्गज क्रिकेटरों ने इसे भारत का आंतरिक मामला बताया। अब इरफान पठान ने ट्विटर पर सवालिया अंदाज में लिखा कि जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या पर भारत ने दुख जताया लेकिन यह अमेरिका का आंतरिक मसला हो सकता था। इरफान ने ट्वीट किया, जब जॉर्ज फ्लॉयड को अमेरिका में एक पुलिसकर्मी ने बर्बर तरीके से पीट-पीटकर मार दिया था, तब हमारे देश ने दुख जताया था।

बता दें कि अमेरिका में अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में मौत के बाद भारी बवाल हुआ था। पूरे अमेरिका में हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए, जिसमें चार हजार से ज्यादा लोगों की गिरफ्तारी हुई। जब 25 मई को अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड को पुलिस ने पकड़ा, तो उन्होंने कहा कि उन्हें सांस लेने में परेशानी हो रही थी। पुलिस हिरासत में ही उनकी मौत हो गई। बाद में यह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया था। इरफान से पहले आईपीएल टीम सनराइजर्स हैदराबाद के पेसर संदीप शर्मा ने रिहाना का सपॉर्ट करते हुए ट्वीट किया लेकिन बाद में उसे डिलीट कर दिया।

पाॅप स्टार रिहाना ने किसान आंदोलन की एक तस्वीर शेयर करते हुए लिखा, हम इस बारे में क्यों नहीं बात कर रहे हैं? उन्होंने हैशटैग फार्मर प्रॉटेस्ट का इस्तेमाल किया था। इसके बाद बाॅलीवुड के दिग्गज कलाकारों के अलावा राजनेता भी देश के एकजुट होने को लेकर समर्थन करने लगे थे, यहां तक राहुल गांधी ने भी मामले को देश का आंतरिक मामला बताया था।

26 जनवरी हिंसा में आरोपी दीप सिद्धू पर एक लाख का इनाम घोषित

गणतंत्र दिवस परेड के दौरान की दिल्ली में हुई हिंसा और लाल किले पर झंडा फहराने का आरोपी दीप सिद्धू अब भी पुलिस की गिरफ्त से बाहर है। अब दिल्ली पुलिस ने दीप समेत कई अन्य आरोपियों पर इनाम घोषित कर दिया है।
दिल्ली पुलिस ने दीप सिद्धू, जुगराज सिंह, गुरजोत सिंह और गुरजंत सिंह की गिरफ्तारी की सूचना देने वाले को एक लाख रुपये का नकद इनाम देने की घोषणा की है। हिंसा में संलिप्तता के लिए जाजबीर सिंह, बूटा सिंह, सुखदेव सिंह और इकबाल सिंह की गिरफ्तारी के लिए प्रत्येक को 50,000 रुपये देने की घोषणा की गई है।
बता दें कि इससे पहले दीप सिद्धू दो बार सोशल मीडिया के जरिये सफाई दे चुका है। लेकिन तमाम इंटेलिजेंस और पुलिसकर्मी उस तक नहीं पहुंच सके हैं। लक्खा सिधाना भी फेसबुक लाइव हो चुका है। दीप सिद्धू ने कहा था कि वो किसान संगठनों के नेताओं की पोल खोल देंगे, उसने कोई गुनाह नहीं किया है। तिरंगे का अपमान नहीं किया, बल्कि लाल किले पर धार्मिक झंडा और किसानों का झंडा लगाया, ताकि अपनी बात को सरकार तक पहुंचा सकें।
26 की हिंसा और लाल किले मामले पर आज सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई
तीन कृषि कानूनों के विरोध में 26 जनवरी को दिल्ली में हुई हिंसा के मामले से जुड़ी जनहित याचिकाओं पर आज सुप्रीम कोर्ट सुनवाई करेगा। गणतंत्र दिवस के दिन ट्रैक्टर रैली के दौरान प्रदर्शनकारियों ने लालकिले पर चढ़कर धार्मिक झंडा भी फहराया था।  मामले से जुड़ीं 27 जनवरी को दो याचिकाएं दाखिल की गईं थीं।
हरियाणा में किसान महापंचायत आज
जींद के कंडेला गांव में आज होने वाली भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत की महापंचायत में अगली रणनीति बनाने का काम करेगी। यदि भीड़ उम्मीद से अधिक आई तो आंदोलन की रूपरेखा मंच से ही सुनाई जाएगी। नहीं तो आंदोलन की रणनीति के बारे में बाद में लोगों को बताया जाएगा।

जेफ बेजोस ने किया अमेजन का सीईओ पद छोड़ने का ऐलान

दुनिया की दिग्गज कंपनी अमेजन के संस्थापक जेफ बेजोस ने मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) पद से हटने का ऐलान कर दिया है। ई-कॉमर्स इंडस्ट्री में धाक जमाने वाले अमेजन के सीईओ के तौर पर कार्यरत जेफ बेजोस दिसंबर 2021 तक अपना पद छोड़ देंगे। जेफ बेजोस की जगह पर अमेजन वेब सर्विसेज के चीफ एंडी जेसी को यह अहम जिम्मेदारी सौंपी जाएगी।
दुनिया की सबसे अमीर शख्सियत जेफ बेजोस ने कहा कि वो इस साल की तीसरी तिमाही में पद से मुक्त ही जायेंगे। अमेजन वेब सर्विसेज के चीफ एंडी जेसी अगले सीईओ होंगे। यह जानकारी उस समय आई, जब अमेजन के मुनाफे में रिकॉर्ड बढ़ोतरी दर्ज की गई है। अमेजन के कर्मचारियों को लिखी एक चिट्ठी में जेफ बेजोस ने कहा कि वह अमेजन के नए नए इनिशिएटिव से जुड़े रहेंगे। अब उनका फोकस वन डे फंड और बेजोस अर्थ फंड के अलावा अंतरिक्ष अन्वेषण और पत्रकारिता समेत अन्य व्यावसायिक उपक्रमों पर रहेगा।
57 वर्षीय जेफ बेजोस की ने करियर गैराज से अमेजन की शुरुआत की थी। इसके बाद इसे एक वेंचर किया जो बाद में ऑनलाइन रिटेल पर हावी हुआ। इसमें स्ट्रीमिंग म्यूजिक और टेलीविजन, किराये का सामान, क्लाउड कंप्यूटिंग, रोबोटिक्स, आर्टिफिशियर इंटेलिजेंस और अब तो बहुत सी चीज़ें और सेवाएं इसके दायरे में हैं।

15 साल से पुराने वाहन को दोबारा रजिस्टर कराना हुआ महंगा

सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय ने सरकार के सामने सड़कों पर पुराने वाहनों के चलन को घटाने और समाप्त करने के लिए एक प्रस्ताव पेश किया है जिसमें 20 साल से पुराने पैसेंजर वाहन और 15 साल से पुराने कमर्शियल वाहनों के रजिस्ट्रेशन को रिन्यू कराने में लगने वाले फीस 25 गुना बढ़ा दी गई है ।

इस प्रस्ताव के मुताबिक कमर्शियल वाहनों के लिए योग्यता परीक्षण शुल्क 200 रूपय की जगह अब 25,000 रुपय तक ली जा सकती है। मिनी ट्रक और कार पर लगने वाला शुल्क वाहन के हिसाब से 15,000 रुपय से 25,000 रुपय तक लिया जाएगा।

दो-पहिया वाहन के रजिस्ट्रेशन को रिन्यू कराने की फीस में भी बढ़ोतरी करने पर भी नीति बनाई जा रही है, जिसके अंतरगर्त मौजूदा 300 रुपय शुल्क को 2,000 रुपय से 3,000 रुपय तक बढ़ाया जा सकता है।

पैसेंजर वाहनों का रजिस्ट्रेशन 15 साल बाद रिन्यू कराना हेता है जिसके लिए अब 15,000 रुपय तक देना पड़ सकता है, फिलहाल यह शुल्क 600 रुपय है। आगे योग्यता का प्रमाण पत्र लेने के लिए मौजूदा शुल्क ही लगेगा और इसमें कोई बदलाव नहीं किया गया है।

वाहन का रजिस्ट्रेशन रिन्यू कराना अगले 5 साल तक मान्य होगा और इन पांच सालों के बाद वाहन को दोबारा रजिस्टर कराना अनिवार्य होगा।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल ही में पेश किये गये यूनियन बजट  में सबसे बड़ी घोषणाओं में वाहन नष्ट करने की नीति भी शामिल है।

बजट सुनाते हुए वित्त मंत्री ने कहा कि इस नीति से नए वाहनों की खरीद को बढ़ावा मिलेगा जिसके बाद पर्यावरण में प्रदूषण और तेल के आयात दोनों में कटौती होगी।

बजट 2021-22 : सेहत पर ज़ोर, आम आदमी व मध्य वर्ग निराश

कोरोना काल में बजट 2021-22 में सेहत का खास ख्याल रखा गया है। स्वास्थ्य का बजट पिछले के 94 हज़ार करोड़ से बढ़ाकर 2,32,846 करोड़ रुपये कर दिया है। यानी स्वास्थ्य बजट में 137 प्रतिशत का इजाफा कर किया गया है। कोरोना टीकाकरण के लिए 35000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। इससे उम्मीद की जा रही है कि सभी को कोविड-19 का मुफ्त टीका मिल सकता है।
आयकर के दायरे में आने वालों को कुछ नहीं मिला है। 75 से अधिक उम्र वालों को सशर्त आईटीआर से छूट देने का ऐलान किया है। कृषि सेस के नाम पर डीजल-पेट्रोल के दामों में इजाफे का का रास्ता ज़रूर खोल दिया है। मध्य वर्ग के लिए खुश होने के लिए कुछ नहीं है। किसानों के लिए आसान कर्ज उपलब्ध कराने के लिए अतिरिक्त राशि की व्यवस्था और मंडियों को मजबूत करने की बात कही गई है। रक्षा बजट और रेलवे का बजट भी बढ़ाया गया है। पर कोई नई रेलगाड़ी का ऐलान नहीं किया गया है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपना सबसे छोटा बजट भाषण पेश करते हुए बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा 49 फीसदी से बढ़ाकर 74 फीसदी करने का ऐलान किया। कई और सरकारी संस्थाओं के निजीकरण का रास्ता खोला। रेलवे के लिए 1.14 लाख करोड़ रुपये का प्रावधान किया। 100 नए सैनिक स्कूल और लेह में केंद्रीय विश्वविद्यालय खोलने का भी निर्मला सीतारमण ने ऐलान किया।
वित्त मंत्री ने इस बजट में प्रधानमंत्री आत्मनिर्भर स्वस्थ योजना लांच की। इसके लिए बजट में 64 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है, जो 6 साल में खर्च किये जायेंगे। 602 जिलों यानी देश के हर जिला स्तर पर एक प्रमुख स्वास्थ्य केंद्र, इंटीग्रेटेड हेल्थ लैब की स्थापना की जाएगी। नौ लैब के साथ ही सरकार ने चार नए वायरोलॉजी संस्थान की स्थापना करने का ऐलान किया है। हालांकि देश की विशाल आबादी को देखते हुए कई स्वास्थ्य विशेषज्ञ इसे नाकाफी बता रहे हैं। भविष्य का ख्याल रखते हुए बीमारियों को काबू करने और निगरानी में ज़रूर मदद मिल सकती है।
देश में 17 हजार हेल्थ सेंटरों की स्थापना की जाएगी। शहरी स्वच्छ भारत मिशन को और अधिक धार देने की घोषणा की गई है। इससे स्वास्थ्य पर आने वाले खर्च में कटौती होगी और लोगों को राहत मिलेगी। 2000 करोड़ रुपये स्वच्छ हवा के लिए भी रखे गए हैं। स्वच्छता मिशन पर भी खास ध्यान दिया गया है।

सोशल मीडिया को कानून के दायरे में लाने की मांग

सोशल मीडिया को कानून के दायरे में लाने की याचिका पर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है। याचिका में सोशल मीडिया के माध्यम से नफरत फैलाने वाले और फेक न्यूज के प्रसार के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाने के लिए अलग से कानून बनाएं जाने की मांग की गई है ।

यह याचिका एडवोकेट विनीत जिंदल ने दायर की है, जिसमें कहा गया है कि जनहित में दायर यह याचिका सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर घृणा और फर्जी समाचार फैलाने में शामिल व्यक्तियों पर आपराधिक केस चलाने और उसपर कानून बनाने की मांग के लिये जारी की जा रही है।

याचिका में केंद्र सरकार, केंद्रीय गृह मंत्रालय, कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय, दूरसंचार मंत्रालय, ट्विटर कम्युनिकेशंस इंडिया प्राइवेट लिमिटेड और फेसबुक इंडिया आदि को प्रतिवादी बनाया गया है।

याचिका की दलील में कहा गया है कि भारत में सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के लिए सोशल मीडिया एक हानिकारक भूमिका निभा रहा है और इस दुरुपयोग को रोकने का समय आ गया है. याचिका में सोशल मीडिया सोशल नेटवर्किंग वेब साइट्स जैसे फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सऐप इत्यादि को घृणा और फर्जी समाचार फैलाने के लिये जिम्मेदार माना गया है।

साथ ही यह तर्क भी दिया गया है कि सोशल नेटवर्किंग साइटें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हैं क्योंकि इनका उपयोग मादक पदार्थों की तस्करी, मनी लॉन्ड्रिंग और मैच फिक्सिंग, आतंकवाद, हिंसा भड़काने और अफवाह फैलाने वाले उपकरण के रूप में किया जा रहा है.

याचिका में केंद्र को एक एसा तंत्र स्थापित करने का निर्देश दिया जाने की  मांग की है जो कम समय सीमा के भीतर ही हेट स्पीच और फर्जी समाचार को अपने आप साइट से हटा दें ताकि नफरत भरे भाषणों या फर्जी समाचारों हर अंकुश लगाया जा सके। और एसे मामलों मे शामिल लोगो पर विशेषज्ञ जांच अधिकारी नियुक्त करने के लिए भी आदेश मांगा गया है.

राष्ट्र शर्मसार – गणतंत्र दिवस पर किसानों की युवा टोली ने सुरक्षा व्यवस्था को धता बता लाल किले पर फहराया अपना झण्डा

केंद्र सरकार के साथ किसान संगठनों की 11 दौर की बातचीत में जब सरकार ने कह दिया कि नये कृषि कानूनों को डेढ़ साल तक टालने से बेहतर विकल्प हमारे पास नहीं है, इसके बाद अगली वार्ता का रास्ता भी एक तरह से बन्द हो गया। लेकिन इससे किसान आन्दोलन नहीं रुका और सबकी निगाहें 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस की किसान परेड यानी ट्रैक्टर रैली पर टिक गयीं। हालाँकि पहले से अंदेशा भी था कि जब हज़ारों की तादाद में ट्रैक्टर राजधानी में प्रवेश करेंगे, जिनके साथ लाखों किसान, खासकर युवा दिल्ली में लाल िकले की ओर बढ़ेंगे और उनको रोकने की कोशिश की जाएगी, तो टकराव मुमकिन है। तमाम कयासों और किन्तु-परन्तु के बावजूद जब किसान राजधानी की सीमाओं के अन्दर घुस रहे थे, तो उनका पुलिसकर्मियों के साथ टकराव हुआ, इसमें जन-धन हानि के साथ एक युवा समर्थक की मौत हुई। मौत कैसे हुई, इस पर भी बवाल मचा। पोस्टमार्टम रिपोर्ट कहती है कि मौत हादसे में हुई। लेकिन परिजनों का कहना है कि नवदीप की मौत पुलिस की गोली से हुई है। युवा किसान का नाम नवदीप था, वह रामपुर, उत्तर प्रदेश के थे। शुरू में यह आरोप भी लगे थे कि नवदीप की मौत पुलिस की गोली से हुई है। वहीं एक वीडियो में उनका टै्रक्टर पुलिस बैरिकेड से टकराकर पलटता नज़र आ रहा है। कुछ लोगों का कहना है कि इस हिंसा में सरकार की भूमिका भी संदिग्ध है। वहीं कुछ लोगों का कहना है कि सरकार और किसान दोनों के अडिय़ल रुख के चलते ही हिंसा पनपी, जिसकी ज़िम्मेदारी प्रशासक के तौर पर निश्चित रूप से सरकार की है और उसे ही इसका हल निकालना होगा। अभी भी सवाल वहीं-का-वहीं है, यानी नये कानूनों पर कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं है, जिससे हालात आगे और भी बदतर हो सकते हैं और टकराव बढ़ सकता है। इसलिए ज़रूरी है कि संवेदनशील और विशेषज्ञों की टीम को लेकर समाधान निकालना ही होगा। क्योंकि यह मामला अब महज़ भारत तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि लाल िकले की घटना के बाद यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गरमा गया है।

देश की राजधानी नई दिल्ली में 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के अवसर पर कृषि कानून के विरोध में किसानों की बेकाबू ट्रैक्टर रैली ने शक्ति प्रदर्शन करके देश के सियासतदानों को साफ बता दिया है कि अगर अभी कृषि कानूनों को वापस नहीं लिया गया, तो आने वाले दिनों में प्रदर्शन और ज़्यादा उग्र हो सकता है। गणतंत्र दिवस पर एक ओर दिल्ली के राजपथ पर देश के शूरवीरों के पराक्रम और शौर्य की गाथाओं का प्रदर्शन और सम्मान किया जा रहा था, तो दूसरी ओर देश के कोने-कोने में अन्नदाता अपने अधिकार और सम्मान को बरकरार रखने के लिए तीनों नये कृषि कानूनों को वापस लेने की माँगों को लेकर प्रदर्शन करके जद्दोजहद कर रहे थे। राजपथ पर पहली बार राफेल लड़ाकू विमान की गर्जना के आगे ट्रैक्टरों की गूँज हावी हो गयी। महज़ दिल्ली ही नहीं, पंजाब-हरियाणा के साथ उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और दक्षिण के कई राज्यों में भी इसका व्यापक प्रभाव देखने को मिला। संगठनों का कहना है कि सरकार किसानों को धमकाना छोड़े और कृषि कानून को वापस ले; ताकि देश का किसान तसल्ली से खेती-बाड़ी कर सके। विदित हो कि ट्रैक्टर रैली का मामला पहले उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) पहुँचा था, जिसमें सीधे दखल देने से उचचतम न्यायालय ने इन्कार कर दिया। उसने कहा कि इस पर दिल्ली पुलिस और सरकार ही फैसला करें। इसके बाद 26 जनवरी को दिल्ली पुलिस ने 37 शर्तों के साथ किसानों को दिल्ली में तीन जगहों से प्रवेश की अनुमति दी थी। इसमें यह भी कहा गया था कि हर प्रवेश द्वार से महज़ 5,000 ट्रैक्टर ही प्रवेश करेंगे, जिनके साथ 5,000 ही किसानों को अनुमति होगी; वह भी एक तय रूट पर। रैली का समय सुबह राजपथ पर परेड पूरी होने के बाद यानी दोपहर 12:00 से शाम बजे तक तय किया गया था। लेकिन कुछ किसानों, खासकर युवाओं की टोली ने सुबह से ही सिंघु बॉर्डर समेत अन्य जगहों पर ट्रैक्टरों के ज़रिये प्रवेश करना शुरू कर दिया। सिंघु बॉर्डर पर एक किसान नेता पर भड़काऊ भाषण देने के भी आरोप लगे हैं। इसके बाद तो जगह-जगह बैरिकेडिंग तोड़कर ट्रैक्टरों को प्रवेश करा दिया गया, साथ ही युवाओं का जोश और उफान मारने लगा। इसका नतीजा यह हुआ कि लाल िकले से पहले आईटीओ पर पुलिस और किसानों के बीच टकराव हो गया। कई जगह ट्रैक्टर और किसानों को रोकने के लिए बसें, ट्रक और ट्रॉले भी लगाये गये थे; लेकिन सब नाकाम साबित हुए। जब किसान लाल िकला पहुँचे, तो वहाँ पर जो घटना हुई उससे न सिर्फ किसान आन्दोलन की किरकिरी हुई, बल्कि इसके संचालकों पर भी उँगलियाँ उठायी गयीं।

हालाँकि संचालकों ने इससे पल्ला झाड़ लिया कि जो भी हिंसा हुई वह अराजक तत्त्वों ने की, उनका किसान संगठनों से कोई लेना-देना नहीं है। वे किसानों के समर्थक कतई नहीं हो सकते। पुलिस और अद्र्धसैनिक बलों के जवानों को लाल िकले के गेट से जबरन हटा दिया गया। जोश से भरी युवाओं की टोली इस तरह से लाल िकले पर चढ़ गयी, मानो उसने िकला फतह कर लिया हो। चूँकि सरकार इससे पहले उनकी बातों को गम्भीरता से नहीं ले रही थी, ऐसा उनका मानना है। शायद इसीलिए वे अपनी बात को प्रभावी तरीके से मनवाने के लिए दुनिया को दिखाने के लिए ऐसी हरकत कर बैठे। हालाँकि इस पर कई सवाल खड़े हो गये हैं। पहला यह कि जब दिल्ली की सीमाओं पर किसानों पर लाठियाँ भाँजी जा रही थीं और आँसू गैस के गोले दागे जा रहे थे, तो लाल िकले पर पुलिस इतनी शान्ति से तमाशा क्यों देखती रही? दूसरा, लाल िकले की प्राचीर पर जब युवा चढ़ रहे थे, तब उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? तीसरा, लाल िकले तक मुख्य किसानों को क्यों नहीं पहुँचने दिया गया? कितनी ही जगह किसानों और पुलिस के बीच झड़प हुई, आँसू गैस के गोले दागे गये, लाठियाँ भी भाँजी गयीं, मगर लाल िकले पर घटना ऐसे घटने दी गयी, जैसे कोई फिल्म की शूटिंग चल रही हो। यह घटना इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गयी। 72वें गणतंत्र की इस घटना को शायद देश का कोई नागरिक भुला पाएगा।

गाज़ीपुर से नेशनल हाई-वे के रास्ते दिल्ली में ट्रैक्टर रैली में शामिल किसान सुरजीत और भीरू ने ‘तहलका’ को बताया कि देश को गुमराह करते-करते राजनेता अब किसानों को गुमराह करने में लगे हैं। सुरजीत ने बताया कि 26 नवंबर से 26 जनवरी तक तकरीबन डेढ़ सौ किसानों की जान ठण्ड और दूसरे कारणों से जा चुकी है। लेकिन सरकार ने किसानों की मौत पर दु:ख तक नहीं जताया है। बल्कि किसानों की मौत पर सियासत कर रही है कि ये तो किसान ही नहीं हैं। ऐसे में किसानों को गुस्सा आना स्वाभाविक है। किसान सुरजीत की मानें तो देश का अन्नदाता जब पहले से बने कानूनों से खुश है, तो नये कानूनों की ज़रूरत ही क्या है? नये कानून हम पर क्यों थोपे जा रहे हैं? दिल्ली के अक्षरधाम मन्दिर के पास ट्रैक्टर रैली को रोकने के लिए पुलिस ने आँसू गैस के गोले दागे। इससे झड़पें हुईं, जिसमें किसानों के साथ-साथ कई पुलिसकर्मी भी हुए। लेकिन किसानों का हौसला कम नहीं हुआ, वे आगे बढ़ते गये। आँसू गैस को गोले से घायल किसान मंदीप ने बताया कि वह पिछले दो महीने से किसान आन्दोलन में शामिल हैं। उन्होंने कहा कि हम पुलिस और सरकार से लडऩे के लिए नहीं आये हैं, हम नये कृषि कानूनों को वापस कराने के लिए आये हैं। उन्होंने कहा कि अगर सरकार तीनों कानूनों को वापस नहीं लेती, तो वे अपनी जान तक कुर्बान करने को तैयार हैं। आँसू गैस का गोला लगने से ट्रैक्टर से गिर पडऩे पर किसान सोनू रंधावा ने कहा कि ये सरकार की दमनकारी नीतियों का नतीजा ही है, जिससे देश का अन्नदाता आज परेशान है। सरकार सत्ता के नशे में चूर है और किसानों की एक नहीं सुन रही।

संयुक्त किसान मोर्चा के नेता युद्धवीर सिंह का कहना है कि किसानों की ट्रैक्टर रैली में जो भी उत्पात, उपद्रव और हिंसा हुई है, उसकी वे कड़े शब्दों में निन्दा करते हैं। लेकिन इस हिंसा में किसानों की कोई भूमिका नहीं है। इसमें असामाजिक तत्त्वों के घुसने से माहौल खराब हुआ है। पुलिस को इसकी गहन छानबीन करनी चाहिए। मौज़ूदा हालात को देखते हुए किसानों की माँगों पर सरकार को भी गौर करना चाहिए। क्योंकि किसानों के आन्दोलन के चलते मंडियों के साथ-साथ कारोबार भी काफी हद तक प्रभावित हो रहा है। गाज़ीपुर बॉर्डर पर धरने में बैठे किसान कश्मीरी सिंह का कहना है कि सरकार कहती है कि जो किसानों का समर्थन कर रहे हैं, वे सियासी लोग हैं, किसान। तो सरकार उन सियासतदानों से निपटे। किसानों को बदनाम करने से सरकार को कुछ भी हासिल नहीं होगा। ये किसान कोई विदेश से नहीं आये हैं। जैसा किसान चाहते हैं, वैसा ही सरकार कर दे, तो ठीक है। अन्यथा किसानों का ये आन्दोलन मई, 2024 तक चलेगा। आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार किसानों का इतना बड़ा आन्दोलन देखने को मिला है, जिसमें ऐतिहासिक ट्रैक्टर रैली से इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि सरकार से आगे बड़ा टकराव हो सकता है। क्योंकि देश के किसान खेती-बाड़ी को छोड़कर, तमाम नुकसान उठाकर दिल्ली की सीमाओं पर दो महीने से अधिक समय से बैठे हैं और अब किसी भी हाल में पीछे लौटने को तैयार नहीं हैं। आज़ाद भारत के इतिहास में 72वें गणतंत्र दिवस पर पहली बार ऐसा हुआ कि गणतंत्र लहूलुहान हुआ। कुछ हिंसक भीड़ की वजह से, जिसे सरकार और पुलिस किसान बता रही है और किसान किराये के सियासी तथा उपद्रवी लोग; और कुछ सरकार व किसानों की हठधर्मिता की वजह से। लेकिन इस गणतंत्र में दिल्ली की पाँच तस्वीरें बड़ी साफ देखने को मिलीं, पहली- किसानों की अहिंसक ट्रैक्टर रैली, दूसरी- दिल्ली के बहुत-से लोगों द्वारा किसानों के स्वागत में पोस्टर लेकर खड़े होना, तीसरी- किसानों और पुलिस की हिंसक झड़प, तीसरी लाल िकले पर अभद्रता और लाल िकले के प्राचीर पर धार्मिक झण्डे का फहराया जाने के बावजूद पुलिस की चुप्पी और पाँचवीं- इंटरनेट सेवाएँ बन्द करने की घटना। इसमें दो मामले- झड़प और लाल िकले की घटना से लोकतंत्र शर्मसार हुआ। आईटीओ यानी दिल्ली पुलिस के मुख्यालय पर बेहद तनावपूर्ण माहौल में किसानों ने पुलिस को चेताया कि सरकार ने अगर कानून वापस नहीं लिए, तो भयानक परिणाम भुगतने होंगे। लेकिन इसके बाद पुलिसिया कार्रवाई का खौफ भी किसानों में देखा गया। एक ओर जहाँ बेहद खामोशी थी, तो दूसरी ओर वे सहमे हुए भी थे। अब पुलिस हरकत में आ गयी है, क्योंकि मामले में करीब तीन दर्ज़न  लोगों के खिलाफा एफआईआर दर्ज की गयी है। माना जा रहा है कि पुलिस आरोपियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर सकती है।

ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई हिंसा की निन्दा करते हुए स्वराज इंडिया के नेता व किसान नेता योगेंद्र यादव ने कहा कि हिंसा किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। उन्होंने कहा कि सरकार की हठ की वजह से किसानों को आन्दोलन करने को मजबूर होना पड़ रहा है। लाल िकले पर धार्मिक झण्डा लगाये जाने की निन्दा करते हुए किसान नेता हन्नान मुल्ला ने कहा कि पुलिस की मौज़ूदगी में ये धार्मिक झण्डा लगाया गया है। मामले की जाँच होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि पिछले दो महीने से किसान शान्तिपूर्वक तरीके से आन्दोलन कर रहे हैं। अगर अचानक ये हिंसा हुई है, तो इसके पीछे ज़रूर कोई सियासी चाल है। किसान नेता राकेश टिकैत ने ट्रैक्टर रैली में हुई हिंसा के लिए सरकार और पुलिस को ज़िम्मेदार करार देते हुए कहा कि जब पुलिस ने ट्रैक्टर रैली की अनुमति दी थी, तो किसानों को क्यों रोका गया? इतना हीं नहीं, युवा किसानों को उकसाया तक गया। किसान मंगल सिंह ने ‘तहलका’ को बताया कि सरकार जानबूझकर आन्दोलन को बदनाम करने के लिए किसानों को भड़काया। इसको उन्होंने समझाया कि जब किसान आईटीओ से लाल िकले की ओर कूच कर थे, तब पुलिस ने क्यों नहीं रोका? और तो और नजफगढ़ और द्वारका से किसानों का जत्था ऐलान कर रहा था कि लाल िकले पर झण्डे को फहराने जा रहे हैं, तो भी पुलिस ने क्यों नहीं रोका? इससे साफ ज़ाहिर है कि लाल िकले की घटना कोई स्वत:स्फूर्त नहीं हुई, बल्कि कहीं-न-कहीं कोई बड़ी चूक हुई है या जानबूझकर होने दी गयी है।

इंटरनेट के साथ 50 मेट्रो स्टेशन करने पड़े बन्द

सुरक्षा के तमाम पुख्ता दावों के बावजूद 26 जनवरी को दिल्ली में अफरा-तफरी का आलम हो गया था। आनन-फानन में प्रभावित इलाकों में इंटरनेट सेवाएँ बन्द कर दी गयीं, बाकी जगह भी इंटरनेट की स्पीड कम कर दी गयी। इतना ही नहीं, हरियाणा और पंजाब में भी कई ज़िलों में इंटरनेट सेवाओं को रोक दिया गया। इसके अलावा मोबाइल से एसएमएस भेजने पर भी पाबन्दी लगायी गयी। दिल्ली में सबसे ज़्यादा प्रभावित सीमांत इलाकों के 50 मेट्रो स्टेशनों को बन्द कर दिया गया। इसके अलावा कहीं मेट्रो स्टेशनों पर प्रवेश की अनुमति नहीं थी, तो कहीं बाहर नहीं निकलने की। हिंसक झड़पों में करीब 300 पुलिसकर्मी घायल हुए। दिल्ली पुलिस के संयुक्त सचिव आलोक कुमार का कहना है कि किसानों ने अपना वादा नहीं निभाया है। उन्होंने गणतंत्र की गरिमा पर प्रहार किया है। मामले में सैकड़ों किसानों व उनके समर्थकों को गिरफ्तार किया गया। दिग्गज किसान नेताओं के खिलाफ भी नामजद एफआईआर दर्ज की गयी है।

भाजपा में भी अंतर्कलह!

‘तहलका’ की जानकारी के अनुसार,  सरकार और भाजपा के अन्दर भी सब ठीक नहीं चल रहा है। कुछ पार्टी नेताओं की मानें, तो अन्दरखाने मतभेद और कलह का उबाल है, जो लम्बे खिंचते किसान आन्दोलन का नतीजा है। पार्टी में एक बड़ा गुट और कार्यकर्ता नहीं चाहते कि किसानों को कोई परेशानी हो। इललिए वे दबी ज़ुबान या ऑफलाइन यह कह रहे हैं कि तीनों कृषि कानून वापस लेने में सरकार को हिचक नहीं दिखानी चाहिए। लेकिन आलाकमान अपनी ज़िद पर अड़ा है। इससे किसानों का सरकार के प्रति मोह सा भंग हो रहा है। कुछ पार्टी के कार्यकर्ताओं का मानना है कि कोरोना काल में कृषि कानून को लाकर सरकार ने पूँजीपतियों के लिए काम किया है। उससे किसान ही नहीं, बल्कि आम नागरिक भी नाराज़ हैं, जिससे पार्टी को नुकसान हो रहा है।

…और बढ़ेगा किसानों का साहस

दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों को रोकने लिए सरकार नज़र ज़रूर रख रही है, लेकिन यह भी सच है कि किसानों के समर्थन करने वाले लगातार बढ़ रहे हैं। इतना ही नहीं, आन्दोलनकारी किसान सोशल मीडिया के ज़रिये देश भर के किसानों और आम लोगों से जुड़ रहे हैं। टीकरी बॉर्डर में बैठे किसानों का कहना है कि सरकार के रवैये से किसानों का साहस और प्रबल होगा।

इधर, भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता सम्बित पात्रा ने कहा कि 26 जनवरी को किसानों की आड़ में उपद्रवियों ने जो भी किया है, उससे ये आन्दोलन किसानों के हाथों से निकल गया है। उन्होंने कहा कि ये आन्दोलन कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के सहयोग से चल रहा था। लेकिन उनकी पोल खुल गयी है। किसान ऐसा घिनौना काम कर ही नहीं सकते हैं। वहीं कांग्रेस नेता अजय माकन ने कहा कि आज पूरे देश के किसानों में उग्र सोच रखने वाले नेतृत्व को बल मिलेगा और पूरा आन्दोलन अतिवादी तत्त्वों के हाथों में आ जाने का खतरा हो जाएगा। नरमी रखने वालों नेताओं के हाथ से आन्दोलन निकल जाएगा। क्योंकि ये किसान रैली राजनीतिक रूप से मायने रखती है। ऐसे में अगर हिंसा हो रही है, तो ज़रूर चिन्ता का विषय है। जो भी हो, ‘तहलका’ का मानना है कि देश में किसी तरह की हिंसा, उपद्रव या आन्दोलन सिर्फ और सिर्फ पूरे देश और देशवासियों का ही नुकसान करते हैं। इसलिए किसानों और सरकार को जल्द-से-जल्द इस मामले को सुलझा लेना चाहिए, ताकि देश का और नुकसान न हो।

झण्डा फहराने वाला दीप सिद्धू कौन?

दिल्ली के जंतर-मंतर में बैठे किसानों के समर्थन में अन्नदाताओं ने कहा कि दीप सिद्धू भाजपा के एक नेता का रिश्तेदार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के साथ 36 वर्षीय अभिनेता दीप सिद्धू की तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रही हैं। दीप ही आन्दोलन को तहस-नहस करने पर तुला है। पंजाब कांग्रेस की युवा नेता जे.एन. ने बताया कि सोशल मीडिया से लेकर सत्ता के गलियारों में दीप सिद्धू को सब जानते हैं। उनकी पहल पर ही लाल िकले पर धार्मिक झण्डा फहराया गया है। उन्होंने कहा कि दीप सिद्धू को पहले ही आन्दोलन को कुचलने के लिए किसान संगठनों ने अलग कर दिया था। उसके बावजूद वह लाल िकले में पहुँच गया और धार्मिक झण्डा लगा दिया। इसके पीछे भी सियासत की बू आ रही है। उन्होंने कहा कि चाहे जो हो, आन्दोलन तब तक जारी रहेगा, जब तक कृषि कानून वापस नहीं हो जाते। वहीं मामले में दीप सिद्धू का कहना है कि उन्होंने राष्ट्रीय ध्वज को नहीं हटाया है, बल्कि नये कृषि कानून के खिलाफ प्रतीकात्मक रूप से अपना विरोध दर्ज कराया है। उन्होंने कहा कि उन्होंने निशान साहिब और किसान झण्डा साथ लगाये और साथ ही किसान एकता का नारा भी लगाया।

लक्खा सिधाना : कबड्डी खिलाड़ी से लेकर गैंगस्टर और नेता बनने का सफर

हिंसा भड़काने में जिस 42 वर्षीय लक्खा सिधाना का नाम आ रहा है, वह पंजाब के बठिंडा का रहने वाला है। सिधाना कभी अपराध की दुनिया में बड़ा नाम हुआ करता था। बाद में वह राजनीति में आया और फिर समाजसेवा के कामों में लग गया। लक्खा कबड्डी खिलाड़ी भी रह चुका है। खेल से अपराध और फिर राजनीति में आने वाले लक्खा ने किसान आन्दोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। गैंगस्टर लक्खा सिधाना का असली नाम लखबीर सिंह है और डबल एम.ए. है। उस पर हत्या, हत्या के प्रयास और मारपीट के कई आरोप हैं। लक्खा विधानसभा चुनाव भी लड़ चुका है, लेकिन उसकी जमानत ज़ब्त हो गयी थी। सिधाना कुछ साल से पंजाबी सत्कार समिति से जुड़कर पंजाबी भाषा को बचाने के लिए भी काम कर रहा है। इसके अलावा गैंगस्टर पंजाब के युवाओं को बड़े पैमाने पर अपने साथ जोड़ रहा था।

पत्रकारों के खिलाफ एउआईआर की एडिटर्स गिल्ड ने की भत्र्सना

दिल्ली में  26 जनवरी को किसानों के विरोध-प्रदर्शन की रिपोर्टिंग के लिए उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश पुलिस ने वरिष्ठ पत्रकारों के खिलाफ जिस तरह से डराने-धमकाने के लिए एफआईआर दर्ज की है, उसकी एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने भत्र्सना की है। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की अध्यक्ष सीमा मुस्तफा, महासचिव संजय कपूर ने 29 जनवरी को एक लिखित बयान में कहा है- ‘ईजीआई विभिन्न राज्यों में एफआईआर के ज़रिये मीडिया को डराने, परेशान करने और धमकाने का प्रयास करता है।’

पत्र में लिखा गया बयान :-

एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने किसानों के विरोध-प्रदर्शन की रैलियों की रिपोर्टिंग करने पर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के पुलिस प्रशासन द्वारा दोनों राज्यों के वरिष्ठ संपादकों और पत्रकारों (ईजीआई के वर्तमान और पूर्व पदाधिकारियों सहित) के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की तीखे शब्दों में भत्र्सना की है। बता दें कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस को किसानों की ट्रैक्टर रैली में जबरदस्त हिंसा हुई। पत्रकारों ने इस ख़बर, ख़ासकर प्रदर्शनकारी किसानों में से एक किसान की मौत की ख़बर की रिपोर्टिंग की और कुछ ने उसे अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी चलाया। एडिटर्स गिल्ड ने अपने बयान में कहा है- ‘ध्यान देने योग्य बात यह है कि किसानों के दिल्ली कूच के दौरान पुलिस और किसानों के बीच क्या होगा? इसकी रिपोर्टिंग करना पत्रकारिता के लिहाज़ से स्वाभाविक था; क्योंकि यह लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की ज़िम्मेदारी भी है, पत्रकारीय व्यवहार के स्थापित मानदण्डों के अनुरूप भी है और पत्रकारों का काम भी।’  पुलिस  द्वारा दर्ज प्राथमिकी में आरोप लगाया गया है कि पत्रकारों ने जानबूझकर दुर्भावनापूर्ण ट्वीट किये थे, जो कि लाल िकले की घटना का कारण बने।

वहीं एडिटर्स गिल्ड ने कहा है- ‘सच्चाई से कुछ भी दूर नहीं हो सकता। लेकिन पुलिस ने फिर भी पत्रकारों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है। दोनों प्रदेशों की पुलिस द्वारा दर्ज एफआईआर में पत्रकारों पर राजद्रोह कानून, साम्प्रदायिक विद्वेष को बढ़ावा देने और धार्मिक विश्वासों का अपमान करने सहित 10 विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया है। पत्रकारों को इस तरह निशाना बनाने से हमारे लोकतांत्रिक गणराज्य के लिए खड़े पत्रकारिता के मूल्यों पर गम्भीर चोट हुई है। इसका उद्देश्य पत्रकारों को प्रताडि़त करना और उन्हें निष्पक्ष तरीके से काम करने से रोकना है। इसलिए हम माँग करते हैं कि एफआईआर तुरन्त वापस ली जाए और मीडिया को बिना किसी भय और स्वतंत्रता के साथ रिपोर्टिंग करने दी जाए। कई कानूनों, जैसे कि देशद्रोह का इस्तेमाल अक्सर बोलने की स्वतंत्रता को बाधित करने के लिए किया जाता है। हम अपनी पहले की माँग पर भी फिर से ज़ोर देते हैं कि उच्च न्यायपालिका इस तथ्य पर गम्भीरता से संज्ञान ले और दिशा-निर्देश जारी करे कि ऐसे कानूनों का दुरुपयोग न हो। इस तरह के कानूनों का उपयोग स्वतंत्र-निष्पक्ष पत्रकारिता के रास्ते में रोड़े डालने के लिए नहीं करना चाहिए।’

जो किसान नेता आन्दोलन की अगुवाई कर रहे थे उनके खिलाफ केंद्र सरकार ने मुकदमे दर्ज किये हैं। लेकिन 26 जनवरी को दिल्ली में जो कुछ हुआ, वह केंद्र सरकार की साज़िश थी।

अभय चैटाला

(विधानसभा से इस्तीफा देने के बाद)

हिंसा किसी समस्या का हल नहीं है और इस कानून को तुरन्त वापस लिया जाना चाहिए। चोट किसी को भी लगे, नुकसान हमारे देश का ही होगा। देशहित के लिए कृषि-विरोधी कानून वापस लो।

राहुल गाँधी, कांग्रेस नेता

दिल्ली की कानून व्यवस्था और खुफिया तंत्र की नाकामी के लिए गृहमंत्री अमित शाह बर्खास्त हों। हिंसा के लिए सीधे गृहमंत्री ज़िम्मेदार हैं। उपद्रवियों की अगुवाई कर रहे अवांछित तत्त्वों पर मुकदमे दर्ज न कर किसान मोर्चा नेताओं पर मुकदमों ने मोदी सरकार और उपद्रवियों की मिली-भगत तथा साज़िश को बेनकाब कर दिया है।

रणदीप सिंह सुरजेवाला, कांग्रेस नेता

आज भाजपा और मोदी सरकार ये कोशिश कर रही है कि मुद्दा भटक जाए। किसान नेताओं पर मुकदर्म दर्ज किये हैं; जबकि देश का अपमान करने वालों के खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं किया है। हमारा सवाल है कि दीप सिद्धू को अब तक क्यों नहीं गिरफ्तार किया गया है।

राघव चड्ढा, आप नेता

विश्वसनीयता का संकट

रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ और ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल के तत्कालीन मुख्य कार्यकारी अधिकारी पार्थो दासगुप्ता के बीच व्हाट्स ऐप पर साझा की गयी हालिया चैट ने कुछ टीवी चैनल्स की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिये हैं और सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है। सार्वजनिक हो चुकी इस चैट से जहाँ टीवी चैनल की रेटिंग की साज़िश बेनकाब होती है, वहीं गोस्वामी की सरकार के साथ निकटता और बेहद संवेदनशील जानकारी उनको लीक करने के बात भी सामने आती है। सन् 2010 में इसी तरह राडिया टेप विवाद था, जिसने पत्रकारिता की निष्पक्षता पर काली छाया डाली थी और कॉरपोरेट घरानों, पत्रकारों तथा राजनेताओं के बीच साँठगाँठ का खुलासा हुआ था। और अब नवीनतम लीक, प्रस्तावित हवाई हमले की अत्यधिक गुप्त सैन्य सूचनाओं का उपयोग टीआरपी को बढ़ाने के लिए किये जाने की ओर इशारा करती है; जो विज्ञापनों के एक वृहद् राजस्व हिस्से को अपने पाले में करने के लिए है।

हालाँकि कथित लीक चैट्स पर बड़ा और गम्भीर सवाल यह है कि क्या गोस्वामी को फरवरी, 2019 के पुलवामा आतंकी हमले के बाद भारत की तरफ से पाकिस्तान के खिलाफ बालाकोट हवाई हमले करने की योजना की पूर्व जानकारी थी? जो कि दुनिया को हिला देने वाली खबर बन गयी थी। चैट में गोस्वामी ने कथित तौर पर हमला करने की सरकार की योजनाओं का उल्लेख करते हुए कहा कि लोगों को यह घटना ‘उन्माद’ से भर देगी। क्या यह लीक चैट राष्ट्रीय सुरक्षा के बारे में गम्भीर सवाल नहीं खड़े करती? यह चैट टीआरपी में हेराफेरी के आरोप वाली मुम्बई पुलिस की 500 से ज़्यादा पेज की चार्जशीट का हिस्सा है, जिसे मुम्बई पुलिस ने अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया है। यह चैट सोशल मीडिया पर यह काफी वायरल हो गयी है, जिसने एक तरह से विस्फोट किये हैं। अब महाराष्ट्र सरकार मामले में कार्रवाई कर रही है और उसने कानूनी राय माँगी है कि आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम के तहत क्या कार्रवाई की जा सकती है? महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख ने यह पूछते हुए केंद्र सरकार पर हमला किया है कि गोस्वामी की ऐसी संवेदनशील सूचनाओं तक पहुँच कैसे बनी? जो केवल कुछ चुनिंदा सरकारी लोगों को ही पता होती हैं।

लीक चैट्स से ज़ाहिर होता है कि 26 फरवरी, 2019 को पाकिस्तान के बालाकोट में जब भारतीय वायु सेना ने आतंकी संगठन जैश-ए-मोहमद के प्रशिक्षण शिविर को निशाना बनाया था, उस एयर स्ट्राइक की अर्नब को पहले से जानकारी थी। यह एयर स्ट्राइक भारत की तरफ से तब की गयी थी, जब देश में पाकिस्तान के खिलाफ गुस्से की लहर थी; जो पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद द्वारा 14 फरवरी को कश्मीर के पुलवामा में किये गये हमले में 40 सीआरपीएफ जवानों की शहादत के बाद पैदा हुई थी। अब तक न तो टीवी चैनल और न ही सरकार ने इन लीक चैट्स का खण्डन किया है, जिससे यही पता चलता है कि व्यवस्था कितनी सड़ चुकी है। ऐसी खबरें, जो दर्शकों को भावनात्मक रूप से उत्तेजित करती हैं, काफी दिनों तक चलती रहती हैं; क्योंकि चैनल्स दर्शकों के लिए एजेंडा सेट करते हैं। सुशांत सिंह राजपूत की मौत की खबर इसका एक बड़ा उदाहरण है। अनेक मौकों पर समाचार को एक प्रकार के मनोरंजन के रूप में पेश किया जाता है और कई दिनों तक उस पर बहस की जाती है। समय-समय पर मीडिया में कुछ कलंकित लोग हमें इसकी रुग्ण हालत की याद दिलाते हुए इसकी तेज़ी से गिरती हुई साख की तरफ इशारा करते हुए दिखते हैं। क्या यह गन्दगी कभी साफ होगी?

पटरी पर लौटने की राह पर अर्थ-व्यवस्था

क्या हम अर्थ-व्यवस्था के सबसे बुरे दौर से गुजर चुके हैं और क्या अब आगे इससे उबरने की राह सुनिश्चित है? इस सवाल का कोई सटीक जवाब नहीं मिला है। लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की हालिया रिपोर्ट में ऐसे संकेत मिले हैं कि अगले वित्त वर्ष यानी 2021-22 में आर्थिक क्षेत्र में तेज़ी से उछाल दर्ज किया जाएगा। आईएमएफ ने कहा है कि भारत की अगले वित्त वर्ष में विकास दर दो अंकों में रहेगी।

आरबीआई ने कहा है कि हाल ही में वृहद आर्थिक परिदृश्य में बदलाव ने बेहतर विकल्प और परिणाम के संकेत दिये हैं। इससे सकल घरेलू उत्पाद में सकारात्मक कदम और मुद्रास्फीति के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। वित्तीय बाज़ार मज़बूत पोर्टफोलियो प्रवाह के बावजूद सुस्त बना हुआ है। केंद्रीय बैंक के मुताबिक, भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के रिकॉर्ड वार्षिक प्रवाह प्राप्त करने के ट्रैक पर है। यदि ये गतिविधियाँ बनी रहती हैं, तो पुनर्बढ़त (रिकवरी) का समर्थन करने के विकल्प खुल सकते हैं। नये साल की शुरुआत दुनिया भर के देशों में बड़े पैमाने पर कोरोना टीकाकरण अभियान के साथ हुई और महसूस किया गया कि सबसे बुरा दौर अब पीछे छूटने वाला है।

आरबीआई ने कहा है कि हाल के उच्च आवृत्ति संकेतकों से पता चलता है कि अर्थ-व्यवस्था मज़बूत हो रही है और जल्द ही यह सन्तोषजनक स्थिति में होगी। दिसंबर, 2020 के जारी आँकड़ों में  ई-वे बिलों की संख्या सबसे अधिक थी, साथ ही जीएसटी संग्रह भी अब तक का रिकॉर्ड स्तर पर दर्ज किया गया। इससे पता चलता है कि कमायी और खर्च अब त्योहार तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि यह एक आंतरिक गति के पंखों पर फीनिक्स की तरह बढ़ रहा है।

केंद्रीय रिजर्व बैंक का बयान एक अच्छी खबर क्यों है? विभिन्न क्षेत्रों द्वारा विकास और गिरावट दिखाते हैं कि भारत सुधारों की राह पर है। देखा गया कि कोविड-19 के कारण पर्यटन उद्योग सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ। फिक्की-यस बैंक की रिपोर्ट में कहा गया कि भारत पर्यटन के साथ ही बिजलीघर के लिए दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा बाज़ार है। भारत में पर्यटन का सकल घरेलू उत्पाद का 9.2 फीसदी है और इसने सन् 2018 में 2.67 करोड़ नौकरियों के सृजन के साथ 247.3 अरब अमेरिकी डॉलर का कारोबार किया। वर्तमान में यह जीडीपी में योगदान के मामले में 8वाँ सबसे बड़ा देश है।

रिपोर्ट के अनुसार, साल 2029 तक पर्यटन के क्षेत्र में लगभग 5.3 करोड़ लोगों को रोज़गार मिलने की उम्मीद है। सन् 2019 में भारतीय खुदरा उद्योग का मूल्य 790 अरब अमेरिकी डॉलर था। यह देश के सकल घरेलू उत्पाद का 10 फीसदी है और करीब आठ फीसदी लोगों को रोज़गार मुहैया कराता है। पिछले कुछ वर्षों में ऑनलाइन रिटेल (संचार माध्यम से फुटकर बिक्री) में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। एक अनुमान के मुताबिक, पिछले साल ऑनलाइन रिटेल में 30 फीसदी की बढ़ोतरी हुई।

खुदरा (फुटकर) क्षेत्र में दबी हुई माँग में बहुत तेज़ी से उबारने की प्रवृत्ति होती है और लॉकडाउन हटने के बाद इस सेक्टर के उबरने में मदद मिलेगी। लॉकडाउन अवधि के दौरान देश के कुछ हिस्सों में ऑनलाइन रिटेल चालू था और इससे उद्योग के लिए कुछ नुकसानों को दूर करने में मदद मिली, जो आगे भी मिलेगी। कुछ सेक्टर सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए, जैसे- (सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम) एमएसएमई; लेकिन खेती ने इनको राहत पैकेज प्रदान किये। हालाँकि विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को अपनी विकास गति को हासिल करने के मानकों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। समान विकास के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा तक सभी की समान पहुँच एक महत्त्वपूर्ण शर्त है। कोविड-19 महामारी ने भारत में नीति-निर्माताओं को बता दिया है कि शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों को अहमियत देनी होगी। महामारी ने श्रम सुधारों की प्रक्रिया को तेज़ करने का अवसर प्रदान किया है। श्रम सुधारों के साथ वित्तीय समावेशन में मदद मिलेगी, यानी इससे मज़दूरी भी बढ़ेगी साथ ही बेरोज़गारी भी कम होगी। वर्तमान हालात से इतर पहले भारत में सामाजिक सुरक्षा के हिसाब से नीतियाँ बनती थीं। गरीब और कमज़ोर तबका ही लोगों के यहाँ काम करता था। इसमें लोगों को भिक्षा के तौर पर भोजन देना भी संस्कृति का एक हिस्सा था। लेकिन कोविड-19 और लॉकडाउन जैसे संकट ने लोगों को नये सिरे से सोचने को मजबूर कर दिया है। संकट के समय में सरकारों की बजाय पीडि़तों की मदद का एक बड़ा हिस्सा खुद लोगों ने बढ़-चढ़कर दिया; जो समुदाय आधारित सामाजिक सुरक्षा की याद दिलाता है। देश में सभी के लिए राज्य-प्रायोजित सामाजिक सुरक्षा को अभी विकसित किया जाना बाकी है।

भारत में उन्नत डिजिटल तकनीक की उपलब्धता से आसानी से पुन: उन्नति सम्भव है। सनद रहे कि पिछले साल कोरोना के आने के साथ ही केंद्र सरकार ने अचानक लॉकडाउन का ऐलान कर दिया था। इससे बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिक बड़े शहरों से पलायन करने को मजबूर हुए और इसके बाद विकट परेशानियों का सिलसिला शुरू हुआ। श्रमिकों की परेशानियों, भूख-प्यास और मजबूरियों ने हर संवेदनशील शख्स को झकझोर दिया था। हालाँकि कई मामलों में सरकार की असंवेदनशीलता  और गैर-ज़िम्मेदाराना रवैये ने लोगों को असन्तुष्ट भी किया।

राजे का चक्रव्यूह

प्रदेश भाजपा की भगवा राजनीति में इन दिनों जिस तरह अमूर्त रणनीतियों के पासे चले जा रहे हैं, उनमें किसी धारावाहिक से कम नाटकीयता नहीं है। जिस समय भाजपा की सियासी चर्चा में वसुंधरा राजे के बारे में ‘इस्तेमाल करके फेंकने’ वाले शब्द-आडंबर पैकेज की षड्यंत्रकारी बातें चल रही थीं, उस समय वसुंधरा के मन में इस बात की आशंका यकीन में बदलती दिख रही थी। अब जब उन्हें भाजपा नेतृत्व की नीयत में खोट का लगातार अहसास होने लगा, उन्होंने एकाएक अपने समर्थकों को साथ लेकर ‘टीम वसुंधरा’ नाम का संगठन खड़ा करके पार्टी नेतृत्व को हक्का-बक्का कर दिया। वसुंधरा राजे के आकस्मिक विस्फोट का क्या अर्थ लगाया जाए? विश्लेषकों का कहना है कि ऐसा तो हो नहीं सकता कि पार्टी (भाजपा) में बाहर का रास्ता दिखाने के लिए चिह्नित की गयीं राजे महज़ हवा का रुख भाँपने के लिए पतंग उड़ा रही हों।

सूत्रों का कहना है कि फिलहाल तो भाजपा नेतृत्व ने इस उकसावे को अनदेखा कर दिया है और असल नीति बनने तक इंतज़ार करना बेहतर समझा है। राजनीति के इस तूफानी मंजर में भाजपा की प्रदेश कोर कमेटी में वसुंधरा राजे को शामिल करने से तो यही लगता है। विश्लेषकों का कहना है कि विरोध के इस जलसे पर भाजपा की उदास खामोशी का क्या मतलब हुआ? विश्लेषक इसे प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया के कुटिल पैंतरे की संज्ञा देते हैं। उनका कहना है कि दरअसल पूनिया वसुंधरा पर ताबड़तोड़ हमले कर पार्टी में अपने विश्वास का निवेश करना चाहते हैं। लेकिन पूनिया का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उनके बढ़ते हमलों ने प्रदेश की राजनीति में वसुंधरा का कद और ऊँचा कर दिया है। भले ही इस मुद्दे पर दिल्ली का असमंजस चौंकाता है। लेकिन दिल्ली की बेखुदी बेसबब भी तो नहीं, कुछ तो परदादारी है। आखिर इस दोहरे खेल का क्या मतलब है कि एक तरफ तो प्रदेश कार्यकारिणी में वसुंधरा समर्थकों को फटकने तक नहीं दिया।

भाजपा नेतृत्व में डर भी

दूसरी तरफ वसुंधरा को कोर कमेटी में शामिल कर लिया गया है। विश्लेषकों का कहना है कि यह खबरों के सिलसिले को अपने हिसाब से फेंटने और लगातार आ रही बुरी खबरों से ध्यान भटकाने की कोशिश भी हो सकती है। अलबत्ता यह कोई साधारण सियासी गणित नहीं है। इस गोपनीय गणितीय आकलन के जो भी मायने रहे हों, वसुंधरा ने कोर कमेटी की बैठक में जाना तो दूर, उधर का रुख भी नहीं किया। इससे कहीं-न-कहीं भाजपा के शीर्ष नेतृत्व  एक डर तो है कि कहीं आने वाले समय में राजस्थान में वह बहुत कमज़ोर न हो जाए। भले ही प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया अपने दफ्तर में अपनी पीठ ठोंकने की मुद्रा में बैठे हों, लेकिन न तो उनकी कार्रवाइयों में षड्यंत्र छिपाये छिप रहे हैं और न पार्टी नेतृत्व को करार पड़ रहा है। विश्लेषकों का कहना है कि सतीश पूनिया को टकराव के अलावा कोई दूसरी राजनीति नहीं आती। इसलिए उन्होंने गवर्नेंस के मूलभूत कामों पर भी टकराव को ही संवाद बना लिया। बहरहाल फिलहाल तो उपेक्षा के अभिशाप से जूझ रही वसुंधरा कुछ भी कहने की बजाय धौलपुर महल में शाही चुप्पी ओढ़े बैठी हैं। सूत्रों का कहना है कि वसुंधरा ने केंद्रीय नेतृत्व को अपनी शक्ति का अहसास कराने के लिए यह कदम उठाया है। अब तक प्रदेश के 28 ज़िलों में इस संगठन का गठन हो चुका है। समझा जाता है कि यह संगठन वसुंधरा की भाजपा में यथास्थिति में वापसी के लिए प्रभावी मंच साबित हो सकता है। हालाँकि भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया इसे जुगाड़ का नाम दे रहे हैं। बहरहाल वसुंधरा राजे ने तीसरे मोर्चे की सम्भावनाओं का ढक्कन तो खोल ही दिया है। उधर वसुंधरा राजे के धुर विरोधी गिने जाने वाले विधायक मदन दिलावर का कहना है कि टीम वसुंधरा राजे से भाजपा का कोई लेना-देना नहीं है। जिसने भी यह संगठन बनाया, भाजपा से उसका कोई सरोकार नहीं हो सकता। विश्लेषकों का कहना है कि भाजपा नेतृत्व और वसुंधरा राजे के बीच यह लुकाछिपी का खेल विधानसभा चुनावों में भाजपा की पराजय के बाद से ही चल रहा है। इस सियासी पतंग की डोर आरएसएस के हाथों में है। संघ वसुंधरा को सक्रिय राजनीति या चुनावी राजनीति में देखना ही नहीं चाहता। नतीजतन लाख प्रतिरोध के बावजूद वसुंधरा राजे को नेता प्रतिपक्ष नहीं बनने दिया गया। राजे की असहमितयों के बावजूद एक दूरदर्शी फैसले के तहत गुलाब चंद कटारिया को यह पद सौंप दिया गया। जिस वक्त नेता प्रतिपक्ष पद पर कटारिया की ताजपोशी की जा रही थी, वसुंधरा के चेहरे पर खीझ के भाव साफ नज़र आ रहे थे। टीम वसुंधरा के गठन की पटकथा अनायास ही नहीं लिख दी गयी। सूत्रों की मानें तो सम्भवत: यह मकर संक्रांति की पूर्व संध्या थी, जब वसुंधरा के बेहद खास माने जाने वाले भाजपा विधायक प्रताप सिंह सिंघवी के घर पर वसुंधरा गुट के तमाम विधायकों और सांसदों की गुप्त बैठक हुई। यह बैठक विधायकों, सांसदों का जमावड़ा अधिक लग रही थी। इस बैठक में वसुंधरा राजे खुद भी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से वर्चुअली जुड़ी हुई थी। अधिकांश की राय थी कि वसुंधरा राजे अपना अलग राजनीतिक दल बनाएँ और अगले विधानसभा चुनावों की तैयारियाँ शुरू कर दें। हालाँकि बैठक में ठहाकों की गूँज भी थी। लेकिन इन हँसी-ठहाकों के पीछे दर्द भी छिपा था।

दरअसल पिछले दिनों भाजपा नेतृत्व द्वारा प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया को फ्री हैंड दिये जाने के बाद यह बात तकरीबन तय हो चुकी थी कि पूनिया कभी भी वसुंधरा को राजनीतिक वानप्रस्थ पर भेजने के अपने खेल में सफल हो सकते हैं। वसुंधरा समर्थकों का अभिमत था कि फिलहाल केंद्रीय नेतृत्व को गुर्राहट दिखाने की बजाय 2008 और 2013 की दबाव की राजनीति करनी चाहिए। इसके लिए केंद्रीय नेतृत्व से अनुमति लेकर देव दर्शन यात्रा शुरू कर देनी चाहिए। लेकिन इस बीच पूनिया की त्रिपुरा सुन्दरी की यात्रा को लेकर नयी अटकलें शुरू हो गयी हैं।

त्रिपुरा सुन्दर की आराधना

उल्लेखनीय है कि त्रिपुरा सुन्दरी वसुंधरा राजे की अराध्या है। जब भी राजे राजनीतिक दूरभिसंधियों से दो चार हुईं, उन्होंने त्रिपुरा सुन्दरी के मन्दिर की तरफ ही रुख किया। ऐसे में सतीश पूनिया का त्रिपुरा सुन्दरी जाना और राजसमंद में भाजपा कार्यकर्ताओं को चुनाव की तैयारी के लिए दिशा-निर्देश देना इस बात का साफ संकेत है कि भाजपा संगठन वसुंधरा राजे के खिलाफ उन्हीं हथियारों की आजमाइश कर रहा है, जिनके बूते वसुंधरा दो बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। बहरहाल राजे की देव दर्शन यात्रा के बारे में कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी।

राजनीति के जानकार कहते हैं कि जिस तरह से कांग्रेस के भीतर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व मुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच शीत युद्ध चरम पर है, वहीं भाजपा में भी वसुंधरा राजे और संगठन मुखिया के नाते सतीश पूनिया के बीच सियासी पैंतरेबाज़ी चरम पर है; जिसके और तेज़ होने की सम्भावना जतायी जा रही है। इसे संयोग नहीं कहा जा सकता कि राजस्थान में भाजपा की कलह उस समय सतह पर आयी, जब कॉर्पोरेशन चुनावों में पार्टी ने अपने जयपुर, जोधपुर और कोटा जैसे बड़े िकले गँवा दिये। हालाँकि इसका अंदेशा पहले से ही था कि भाजपा में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। एक वरिष्ठ नेता आंतरिक आकलन का हवाला देते हुए कहते हैं कि पिछले दो साल में यह पहला मौका है, जब किसी चुनावी रण क्षेत्र से वसुंधरा राजे लापता रहीं। चुनावों की बागडोर ऐसे लोग थामे हुए थे, जिनका न कोई रसूख था और न ही कोई तज़ुर्बा। उन्होंने कहा कि बेशक सियासत पैंतरे और चेहरे बदलती है, लेकिन राजस्थान की रेतीली राजनीति में तो भाजपा का मतलब ही वसुंधरा राजे हैं। ऐसे में पार्टी की ओर से उनकी अनदेखी पार्टी को पराजय की ढलान पर लुढ़कने से कैसे रोक पाती?

अवसरवाद की राजनीति!

प्रदेश में चल रहे इस केसरिया कोलाहल को लेकर राजनीतिक जानकारों का नज़रिया कहता है कि राजनीतिक दलों के अपने-अपने हित होते हैं। ऐसे में राजनीति को अवसरवाद का आईना कहना ज़्यादा सटीक होगा। इसलिए किसी नेता का अगला कदम क्या होगा? इस बाबत कयास लगाने का कोई मतलब नहीं है। इस मुकाम पर यह तर्क समझना आसान नहीं हो सकता कि बीती चुनावी फिज़ाँ में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने वसुंधरा राजे की तारीफ में कसीदे पढऩे में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी कि जब तक वसुंधरा हैं, राज्य में नेतृत्व कोई मुद्दा नहीं है। आज वही वसुंधरा नेतृत्व की आँखों का कांटा बन गयी हैं। हालाँकि इस ज़ोर आजमाइश की राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा बौद्धिकता के साथ व्याख्या करते हैं कि अगर नये नेतृत्व को सक्रिय करना है, तो उन्हें काम करने की आज़ादी देनी होगी। इसलिए प्रदेशों में बरसों से जमे पुराने नेताओं को वहाँ से बाहर निकालकर केंद्रीय राजनीति में सक्रिय करना होगा, तभी राज्यों में नया नेतृत्व उभरेगा। चर्चित अनुवादक आलोक राय कहते हैं कि राजनीति जोड़-तोड़ और छल-प्रपंचों की महारत रचने का मैदान बन गया है। इसलिए कैसी भी किसी घटना-परिघटना पर तात्कालिक टिप्पणी करने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो दर्द की गर्द को ज़िन्दगी भर बैठने नहीं देना चाहते। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया भी ऐसे ही हैं। और सियासी रंजिश के ऐसे अलाव को भड़काने के लिए घास-फूँस डालने वालों की कौन-सी कमी रहती है? यह काम विधानसभा में विपक्ष के उप नेता राजेन्द्र सिंह राठौड़ बखूबी कर रहे हैं। सतीश पूनिया यह भूलने को तैयार ही नहीं हैं कि वसुंधरा राजे ने मुख्यमंत्री रहते हुए उन्हें प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनने दिया। दिलचस्प बात है कि इस दौड़ में पूनिया संघ की पहली पसन्द थे; जबकि वसुंधरा राजे दोबारा से ताजपोशी पर तुली हुई थीं।

संघ की पसन्द पूनिया

पार्टी अध्यक्ष अमित शाह तो यहाँ तक कह चुके थे कि जिस प्रदेश में भाजपा की सरकार हो, वहाँ मुख्यमंत्री का खास समझा जाने वाला व्यक्ति प्रदेश अध्यक्ष नहीं होना चाहिए; इससे संगठन चौपट हो जाता है। इस सियासी खींचतान में जिस तरह पूनिया की भद्द उड़ी, उसे न तो पूनिया भूलने को तैयार हैं और न ही संघ। वसुंधरा को लेकर संघ के थिंक टैंक की अनेक आशंकाएँ हैं। संघ के पदाधिकारियों का मानना है कि वसुंधरा शक्तिपुंज बनकर फिर अधिनायकवाद को बढ़ावा दे सकती हैं। तब भाजपा की रीति-नीति के विरुद्ध एक अटपटा परिदृश्य उभर आयेगा। एक आशंका यह भी है कि कालांतर में पार्टी में धृतराष्ट्र, भीष्म और गांधारियों का बोलबाला हो जाएगा; जिसकी परिणिति इस परिदृश्य में होगी कि वसुंधरा का आचरण अहसान करने जैसा हो जाएगा कि उन्हीं के नेतृत्व में भाजपा बहुमत लेकर आयी, अन्यथा किसमें इतनी सामथ्र्य थी?

प्रधानमंत्री के मन में खटास

वसुंधरा की वापसी को लेकर पार्टी नेतृत्व भी विश्वास की लकीर खींचने को तैयार नहीं है। वसुंधरा का रोचक राजनीतिक रोज़नामचा बाँच चुके रणनीतिकार अनेक दृष्टांत गिनाते हैं। प्रधानमंत्री मोदी से तो राजे के रिश्तों में तब खटास आ गयी थी, जब वसुंधरा प्रतिगामी राजनीति की पटरी पर चल पड़ी थी। विश्लेषकों ने तो यहाँ तक कह दिया था कि वसुंधरा को राज्य की नयी गवर्नेंस का सूत्रधार होना चाहिए था, वह अचानक मोदी मॉडल की सबसे कमज़ोर कड़ी बन गयी है। आईपीएल के पूर्व कमिश्नर रहे ललित मोदी को लेकर पासपोर्ट विवाद ने भाजपा नेतृत्व को कितनी मुश्किलों से दो-चार होना पड़ा था। कहने की ज़रूरत नहीं है। इस मुद्दे को लेकर पार्टी में सुलग रही आग आज भी नहीं बुझी है। राजमहल होटल विवाद ने भाजपा नेतृत्व को क्या कुछ नहीं भुगतना पड़ा था? कहने की ज़रूरत नहीं है।

क्या सियासी दाँव समझ चुकी थीं राजे

अतीत के पन्ने पलटें, तो राज्य में समग्र बदलाव का खाका खींचने के लिए केंद्रीय नेतृत्व ने राजे को विकल्प भी दिया था कि आम चुनाव जीतने के बाद विधानसभा सीटों से इस्तीफा दिलवाकर उनके बेटे दुष्यंत को चुनाव लड़वाया जाए, ताकि राज्य की सियासत में युवा सक्रिय भूमिका निभा सकें। लेकिन राजे ने केंद्रीय नेतृत्व के दाँव पर खेलने से साफ इन्कार कर दिया। राजे लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए इसलिए भी तैयार नहीं थीं, क्योंकि इससे उनके बेटे दुष्यंत की उम्मीदवारी खतरे में पड़ जाती; जो इस समय झालावाड़ से सांसद हैं। राजे के निकटवर्ती सूत्रों का कहना है कि वह इस व्यवस्था के पीछे छिपा संदेश पढ़ चुकी थीं। उन्होंने इस बात को भी समझ लिया था कि उन्हें सियासत की किस धुरी पर स्थापित किया जाएगा? सूत्र कहते हैं कि राजे इस मुद्दे पर भी नाराज़गी भरी चुप्पी साधे रही हैं कि उन्हें पार्टी संगठन में उपाध्यक्ष का ओहदा तो बख्श दिया, लेकिन उन्हें लोकसभा चुनावों के लिए बनायी गयी 17 समितियों में से एक में भी जगह क्यों नहीं दी गयी? जबकि इन समितियों में केंद्रीय मंत्रियों, संगठन के पदाधिकारियों और हिन्दी भाषी राज्यों के नेताओं को प्रमुखता से जगह दी गयी। राजे के निकटवर्ती सूत्रों का कहना है कि उन्हें यह कहकर उपाध्यक्ष बनाया गया था कि उन जैसी जनाधार वाली और सक्रिय नेता के दिल्ली जाने से पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर मज़बूती मिल सकती है। निकटवर्तियों का कहना है कि उनकी  (वसुंधरा की) तेज़-तर्रार नेता की छवि और अनुभव का फायदा पार्टी को आम चुनावों में राजस्थान समेत अन्य राज्यों को मिल सकता था, तो फिर समितियों से उन्हें दूर क्यों रखा गया?

राजे इस बात से भी खफा हैं कि लोकसभा चुनावों में भाजपा के सभी मोर्चों की संयुक्त कार्यशाला में लगे बैनर-पोस्टरों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह, दीन दयाल उपाध्याय और सुंदर सिंह भंडारी के ही फोटो क्यों थे? कार्यशाला जब जयपुर में आयोजित हुई, तो प्रदेश की कद्दावर नेता होने के नाते उन्हें भी पोस्टरों में जगह देनी चाहिए थी; लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वसुंधरा के व्यवहार में हमेशा चक्रवर्ती होने की बात झलकती है। बेशक भाजपा नेतृत्व ने वसुंधरा के धुर-विरोधी संघनिष्ठ सतीश पूनिया को प्रदेश का मुखिया बनाकर उन्हें पूरी तरह फ्री हैंड कर दिया है। लेकिन वसुंधरा कहते नहीं अघातीं कि यह पार्टी मेरी माँ विजयाराजे सिंधिया ने बनायी और बढ़ायी है। उनके नाम और काम से ही आज भाजपा शिखर पर पहुँची है। ऐसे में उन्हें (वसुंधरा को) राजनीतिक वानप्रस्थ पर भेजने की तैयारी क्यों?

वसुंधरा समर्थकों की पार्टी नेतृत्व को चेतावनी

वसुंधरा समर्थकों ने दबाव की राजनीति का कार्ड खेलते हुए पार्टी हाईकमान को दो-टूक शब्दों में कह दिया है कि अगले विधानसभा चुनावों के लिए वसुंधरा राजे को अधिकृत रूप से मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित कर दिया जाए। राजे के पूर्व मंत्रिमंडलीय सहयोगी और छबड़ा से भाजपा विधायक प्रताप सिंह सिंघवी ने सार्वजनिक रूप से बयान देते हुए पार्टी आलाकमान को कह दिया है कि राजस्थान में अगले विधानसभा चुनावों के लिए वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए। सिंघवी का कहना था कि वसुंधरा राजे राजस्थान में भाजपा की सबसे लोकप्रिय नेता हैं। उन्होंने पार्टी नेतृत्व को चेतावनी भरा मशविरा देते हुए कहा कि अगर वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित नहीं किया, तो पार्टी को पराजय के लिए तैयार रहना चाहिए। उधर भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया का कहना है कि पार्टी से बड़ा कोई चेहरा नहीं है। पार्टी का सिर्फ एक ही चेहरा है और वह नरेंद्र मोदी हैं। सवाल यह है कि क्या पूनिया मोदी के नाम का सहारा लेकर किसी और की राह में रोड़ा बनकर खुद मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनना चाहते हैं। दूसरी तरफ यह सवाल है कि क्या सिंघवी की चेतावनी वाकई वसुंधरा का भाजपा के ही खिलाफ पार्टी बनाकर आगामी विधानसभा के चुनावों में मैदान में कूदने को लेकर है? क्योंकि वसुंधरा राजे पहले दो बार पार्टी नेतृत्व को अपना अलग दल बनाने की धमकी दे चुकी हैं। लेकिन इस बार तो वह संगठन भी बना चुकी हैं। कुल मिलाकर अब गेंद भाजपा नेतृत्व के पाले में है। अगर वह राजस्थान में वसुंधरा नेतृत्व को स्वीकार करता है, तब तो ठीक, अन्यथा लगता तो यही है कि पार्टी में पड़ी फूट अलग ही इतिहास गढ़ेगी। बहरहाल, क्या होना है? यह तो भविष्य ही बतायेगा।

प्रधानजी बनेे पूनिया!

निगम चुनावों में जिस तरह भाजपा की मिट्टी पलीद हुई, उसकी राजनीतिक रणनीति का सबसे दुखांत पहलू क्या रहा? इन दिनों केसरिया खेमे में सबसे ज़्यादा कोलाहल इसी बात को लेकर है। हालाँकि चुनावी नतीजों के बाद एक बनवटी बहस चलाने की कोशिश हो रही है। लेकिन पार्टी के अंदरखाने से रिसती खबरों की बात करें, तो प्रदेश भाजपा में अध्यक्ष के तौर पर सतीश पूनिया ने जबसे पद सँभाला है, भाजपा के हर संगठनात्मक फैसले में संगठन की भूमिका निर्णायक हो गयी है। सही मायनों में देखें, तो प्रधानजी (पूनिया) पार्टी नेतृत्व की खुली छूट के चलते ब्रांड एम्बेसेडर की तरह हो गये हैं। नतीजतन पार्टी को डिपार्टमेंटल स्टोर की तरह चला रहे हैं। यह स्थिति भाजपा के स्वयंभू नेताओं के लिए किस कदर अखरने वाली है, कहने की ज़रूरत नहीं है। विश्लेषकों का कहना है कि जब कोई राजनीतिक दल अपनी प्रगति के लक्ष्य बदलता है, तो उसे चिन्ताओं के आयाम भी बदल लेने चाहिए। अन्यथा बेगानगी दलीय निष्ठा का तियाँ-पाँचा कर देती है। कोई राजनीतिक दल जब तक एक दबाव समूह के रूप में होता है, वह स्वच्छंद तरीके से व्यवहार कर सकता है; लेकिन आज भाजपा दबाव समूह के रूप में है। जबकि सतीश पूनिया की सदारत में पार्टी अनेक सवालों से घिरी है, जो उसकी विरासत और वैचारिक मिशन से मेल नहीं खाते। लेकिन सवाल है कि जब सिद्धांतकार बनकर कारण तलाशेंगे, तो नतीजा समझा जा सकता है। गलतफहमी की खोह की अथाह गहराई में गले-गले तक डूबे पूनिया का मन पढ़ें, तो वही पार्टी का विस्तार हैं; जो कि अपने मन में महाराजा होने जैसा ही है। इसलिए वह ही सम्पर्क मिशन का शुभंकर हैं, वह ही पार्टी के कर्ता-धर्ता हैं और वही प्रधानजी हैं। लेकिन प्रधानजी की पूरी तरह आवभगत में लगे राष्ट्रीय नेतृत्व को शायद ही अंदाज़ा होगा कि उनकी संागठनिक मनमानी थुलथुलेपन का साझेदार हो जाएगी। पार्टी में सदाबहार गुटबन्दी के चलते भले ही पूनिया प्रदेश प्रभारी अविनाश राय खन्ना की विदाई में सफल हो गये; लेकिन क्या उनकी जगह लेने वाले अरुण सिंह पूनिया की कूटनीतिक पच्चीकारी में फँस पाएँगे? सूत्रों का कहना है कि संघ अब तक भाजपा में भेजे गये विश्वस्त स्वयं सेवकों पर निर्भर रहता आया है। किन्तु इसके परिणामों ने इस सोच को आगे बढ़ाने का काम किया है कि राजनीतिक शैली एवं प्रक्रियाओं पर नियंत्रण ज़रूरी है। सूत्रों का कहना है कि कुल मिलाकर पूनिया का मकडज़ाल राजस्थान की राजनीति से वसुंधरा राजे को परे रखने और रजवाड़ी राजनीति की नायिका दीयाकुमारी को लाइम लाइट में लाने का है। लेकिन विश्लेषकों की मानें, तो सियासी दूरंदेशी के मायने में पूनिया वसुंधरा राजे के आगे बहुत बोने हैं। कहीं ऐसा न हो कि आगे चलकर पूनिया पार्टी दफ्तर में सिर्फ गुलदस्ता बनकर रह जाएँ!

मोहरा चुनने की मनमानी

अपने मन की करने के मामले में वसुंधरा राजे की बराबरी भाजपा का शायद ही कोई क्षत्रप कर सके। जब भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने उप चुनावों की पराजय से खफा होकर वसुंधरा राजे के सर्वाधिक भरोसेमंद प्रदेश अध्यक्ष अशोक परनामी को हटाया था, तो उनकी जगह लेने के लिए नये शख्स की राजनीतिक तस्वीर 70 दिनों तक धुँधली ही बनी रही। प्रदेश अध्यक्ष पद पर अपनी पसन्द का नेता बैठाने की जद्दोजहद में दिल्ली में डेरा डाले रहे मुख्यमंत्री के समर्थकों को राष्ट्रीय संगठन महामंत्री रामलाल ने समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि नया प्रदेशाध्यक्ष कौन होगा? हालाँकि सब जानते थे कि इसका फैसला तो पार्टी अध्यक्ष अमित शाह करेंगे। मामले का पटाक्षेप इसलिए भी आसानी से नहीं हो पाया, क्योंकि इसी अखाड़े से चुनावी टिकट बँटवारे का दंगल होना था। बेशक केंद्रीय नेतृत्व ने अपने पसन्दीदा नेता गजेन्द्र सिंह शेखावत का नाम पाले में फेंककर तसल्ली कर ली कि शेखावत के अलावा कोई और नाम कुबूल नहीं। बावजूद इसके वसुंधरा राजे आत्मविश्वास से कितनी लबरेज थीं, इसका मुजाहिरा तो उन्होंने पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात के बाद मीडिया के सवाल पर कर दिया था- ‘आप मेरा चेहरा देखिए…’ इसके साथ ही राजे मुस्कुराते हुए निकल गयीं। आखिरकार पार्टी संगठन के नेता व सांसद भूपेन्द्र यादव, किरोड़ीलाल मीणा और ओम माथुर के साथ लम्बे बहस-मुबाहिसों के बाद नये प्रदेश अध्यक्ष का नाम मदनलाल सैनी पर आकर टिका। भले ही यह नाम कभी सुिर्खयों में ढला हुआ नहीं रहा; लेकिन प्रिंट मीडिया का कयास सही निकला, जिसमें कहा गया था कि नया प्रदेश अध्यक्ष जो भी होगा, अन्य पिछड़ा वर्ग से होगा।

मदनलाल सैनी की तैनाती कैसे हुई और इनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि क्या थी? सूत्रों का कहना है कि प्रदेश अध्यक्ष को लेकर उत्पन्न विवाद पर भाजपा नेता ओम माथुर ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर हस्तक्षेप का आग्रह किया था; साथ ही मशविरा दिया था कि अगर लोगों को गजेन्द्र सिंह शेखावत स्वीकार्य नहीं, तो किसी और की नियुक्ति की जाए। नतीजतन भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की बात मानी और शेखावत को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की ज़िद छोड़ दी। हालाँकि सूत्रों का कहना है कि गजेन्द्र सिंह को नकारने से भाजपा को राजपूत वोट बैंक से हाथ धोना पड़ा। इधर मदन लाल सैनी वह संघ परिवार के अग्रिम संगठन भारतीय मज़दूर संघ के नेता थे; लिहाज़ा उन्हें किसी गुट का मानने का सवाल ही नहीं था। जनाधार की बात करें, तो भी उनके अपने घर शेखावाटी तक में उन्हें कोई नहीं जानता। सवाल यह है कि चुनाव करीब होने की बात देखते हुए क्या भाजपा के पास इतना समय था कि उन्हें जनसम्पर्क की मचान पर बैठाने के लिए लोकप्रियता के पायदान पर लाया जाता? जबकि प्रदेश अध्यक्ष की भूमिका सेनापति की होती है। लेकिन जब सेना ही उन्हें नहीं जानेगी, तो जनता कैसे जान पाएगी?