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दिल्ली की सीमाओं पर बढ़ रहे किसान

किसान आन्दोलन को लेकर हर रोज़ नयी हलचल है। एक तरफ़ से सियासी बयानबाज़ी होती है, तो दूसरी तरफ़ से किसान उसका जवाब देते हैं। आन्दोलन में शामिल हो रहे किसान इस बात को लगातार दोहरा रहे हैं कि केंद्र सरकार तीनों कृषि क़ानून वापस लेकर उनके सिर से अंधकारमय भविष्य का डर हटाये, जो कि उनकी खेती को निगल जाना चाहता है। वहीं केंद्र की मोदी सरकार इस मामले को इतना अनसुना कर रही है, जितना कि किसी ग़रीब की गुहार को पुलिस भी अनसुना नहीं करती।

जंतर-मंतर पर लगी किसान संसद भी उठ गयी; लेकिन किसानों के प्रति सरकार की संवेदनाएँ नहीं जागीं। ऐसे में किसानों ने एक बार फिर दिल्ली की सभी सीमाओं पर संख्या बढ़ाने की ठान ली है। शायद इसीलिए गाँवों में धान की फ़सल लगाकर निवृत्त हो चुके किसान बड़ी संख्या में दिल्ली की सीमाओं पर क़रीब 20-25 दिन से लगातार आ रहे हैं। बारिश का मौसम है और किसानों के लिए यह दूसरी बारिश है, जो उन्हें अपनी ज़मीन और खेती बचाने के लिए खुले आसमान के नीचे घर-बार छोडक़र बितानी पड़ रही है। इससे पहले उन्होंने गर्मी और सर्दी के मौसम की मार भी सडक़ों पर झेली है।

किसानों की इधर मुख्य लड़ाई केंद्र सरकार से चल रही है, तो दूसरी तरफ़ उत्तर प्रदेश सरकार उन्हें प्रदेश में प्रदर्शन करने नहीं देना चाहती। किसानों का सीधा-सा उद्देश्य है कि अगर किसानों के साथ न्याय नहीं हुआ, तो केंद्र से लेकर किसी भी प्रदेश में भाजपा की सरकार नहीं बनने दी जाएगी। वैसे सच्चाई यह है कि किसान सरकार से कोई नयी माँग नहीं कर रहे हैं, बल्कि मौज़ूदा केंद्र सरकार द्वारा लाये गये तीन नये कृषि क़ानूनों को वापस करने की माँग कर रहे हैं। उनका कहना है कि जब सरकार उनकी आय दोगुनी करने का वादा करके उनकी खेती और ज़मीन को चंद पूँजीपतियों के हाथ में सौंपने की कोशिश कर रही है, तो इससे अच्छा यही है कि उन्हें सरकार से यह कथित हमदर्दी नहीं चाहिए। इससे तो अच्छा है कि वह पुराने कृषि क़ानून को ही लागू रहने दे। लखनऊ में किसान आन्दोलन करने को लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ किसानों को गिरफ़्तार करने की धमकी दे चुके हैं, तो किसानों ने भी उन्हें गिरफ़्तार करने की चुनौती दे डाली।

दरअसल भाजपा नेतृत्व इस बात को अच्छी तरह जानता है कि उसे सत्ता तक लाने में किसानों की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उसे यह भी अच्छी तरह पता है कि अगर किसानों ने अपना मत (वोट) उसे नहीं दिया, तो उसकी हार निश्चित है। लेकिन फिर भी ज़िद्द पर अडक़र वह यह साबित कर रही है कि पूँजीपतियों के आगे उसके लिए देश का अन्नदाता कुछ भी नहीं। आगे इस मामले में क्या होगा? यह तो बाद की बात है; लेकिन फ़िलहाल आन्दोलन में किसान परिवार की महिलाएँ फिर से बढऩे लगी हैं।

किसानों के साथ षड्यंत्र हुआ, तो ईंट-से-ईंट बजा देंगे : मकिमो

किसान आन्दोलन में एक बार फिर महिलाओं की संख्या बढऩे लगी है। किसान परिवार की ये  महिलाएँ सरकार की नीतियों और तीनों कृषि क़ानूनों के विरोध में संघर्ष का ऐलान कर रही हैं। किसान आन्दोलन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए सरकार और अन्य राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही सियासत पर इन महिलाओं ने दो टूक कहा कि किसान आन्दोलन को सियासी मंच नहीं बनने दिया जाएगा। किसान आन्दोलन से जुड़े नेताओं और महिला किसान व समर्थकों ने ‘तहलका’ को बताया कि देश में किसान आन्दोलन में किसान परिवार की महिलाओं के साथ-साथ अन्य महिलाएँ और उनके परिजन भी आ रहे हैं। आने वाले दिनों में यह संख्या और बढ़ेगी।

महिला किसान मोर्चा (मकिमो) की ओर से कहा गया है कि अगर सरकार ने किसानों के ख़िलाफ़ किसी भी प्रकार की सियासी चाल चली या षड्यंत्र रचा, तो महिला मोर्चा और किसानों का बच्चा-बच्चा खेत-खलियान से उठकर ईंट-से-ईंट बजा देगा। महिला किसान एकता ने सरकार से कहा कि आन्दोलन में हज़ारों लोगों के आने-जाने की अनुमति स्वस्थ्य लोकतंत्र में होती है। लेकिन देश में अब लोकतंत्र का गला घोटा जा रहा है।

एक महिला किसान ने कहा कि सरकार तो आन्दोलन के लिए पास बना रही है, जैसे कोई पार्टी या जलसा चल रहा हो। किसान महिला जसवीर सिंह कौर ने कहा कि केंद्र सरकार को सत्ता में रहने का कोई अधिकार नहीं है। क्योंकि चंद पूँजीपतियों को लाभ देने और सरकार देश के अन्नदाता को ठगने के लिए कृषि क़ानूनों को थोपना चाहती है। लेकिन इन क़ानूनों को देश के किसान कभी लागू नहीं होने देंगे।

किसान आन्दोलन से जुड़े अधिवक्ता चौधरी बीरेन्द्र सिंह ने बताया कि ये किसानों का आन्दोलन 2020 के नबंबर माह से नहीं चल रहा, बल्कि फरवरी, 2018 से चल रहा है। सन् 2018 से किसान क़र्ज़ माफ़ी और एमएसपी और स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू कराने के लिए किसान संघर्ष कर रहे हैं। सरकार ने किसानों का माँगों को तब भी नहीं माना। फिर नये तीन कृषि क़ानूनों को थोपकर किसानों की ज़मीन हथियाने के लिए उसने एक षड्यंत्र रच दिया, जिसे किसानों ने समझ लिया और उन्हें वापस लेने को कहा; लेकिन जब केंद्र सरकार हठी हो गयी, तो किसान भी आन्दोलन करने लगे। अधिवक्ता बीरेन्द्र सिंह ने कहा कि अब तक के इतिहास में जंतर-मंतर पर पहली बार ऐसा हुआ है, जब दिल्ली पुलिस ने सिर्फ़ 200 प्रदर्शनकारियों को ही आन्दोलन में शामिल होने की अनुमति दी है। वह भी देश के अन्नदाता को,  जो कि पूरे देश के लोगों का पेट पालता है। उन्होंने कहा कि यह सभी जानते हैं कि दिल्ली पुलिस किसके इशारे पर काम कर रही है। इसमें पुलिस का क्या दोष है? जबकि जंतर-मंतर तो अन्याय और सरकार की दमनकारी नीतियों के विरोध में आवाज़ उठाने के नाम से जाना जाता है। लेकिन उसके रास्ते आन्दोलनकारियों के लिए धीरे-धीरे बन्द हो रहे हैं। बताते चलें कि 15 अगस्त की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर संयुक्त किसान मोर्चा के आन्दोलन के लिए 22 जुलाई से 9 अगस्त तक प्रदर्शन करने की अनुमति मिली हुई थी।

महिला किसान रोशनी दहिया ने बताया कि किसान क़ानून और शान्ति में विश्वास करते हैं। इसलिए समय जंतर-मंतर पर से प्रदर्शन ख़त्म कर रहे हैं। लेकिन अपनी माँगों को लेकर सिंघू बॉर्डर, ग़ाज़ीपुर बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर और दिल्ली के अन्य बॉर्डर्स पर आन्दोलन जारी रहेगा। किसान समर्थक लेखिका सत्या पहल का कहना है कि देश के इतिहास में अभी तक जितनी भी सरकारें आयी हैं, किसी भी सरकार ने किसानों पर अपनी मर्ज़ी चलाकर तानाशाही नहीं की; जितनी कि केंद्र की मोदी सरकार कर रही है। जब देश में कोरोना-काल चल रहा था, तब सरकार तीनों कृषि क़ानून लेकर आयी। इससे ही सरकार की नीयत में खोट साफ़ दिखता है। देश अभी भी महामारी से जूझ रहा है और देशवासियों को इस समय बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की सख़्त ज़रूरत है। लेकिन केंद्र सरकार इस ओर ध्यान न देकर पूँजीपतियों के हितों के लिए किसानों की ज़मीन और उनकी खेती-बाड़ी छीन लेना चाहती है। लेकिन ज़मीन से जुड़े किसान किसी भी ऐसे क़ानून को नहीं मानेंगे, जो किसान और कृषि के विरोध में हो।

पति सन्तोष के साथ किसान आन्दोलन में शामिल महिला किसान विमला ने बताया कि भाजपा कभी किसानों और मज़दूरों के हित में सोचती ही नहीं है। वह मज़दूरों और किसानों का इस्तेमाल सिर्फ़ सत्ता हथियाने के लिए करती है और फिर दमनकारी नीतियाँ लागू करके उन पर अत्याचार करती है। भाजपा पूँजीपतियों की पार्टी है। इसलिए पूँजीपतियों के बारे में ही सोचती है, जो सामने साफ़-साफ़ दिख रहा है।

मिलेट राजनय और ज़मीनी हक़ीक़त

भारत को विश्व गुरु बनाने के अपने प्रयासों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सन् 2014 से ही नरम कूटनीति (सॉफ्ट डिप्लोमेसी) का जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं। इसलिए ऐसा हो नहीं सकता था कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की अध्यक्षता के मौक़े को वह ऐसे ही जाने देते। अध्यक्ष घोषित होने के बाद सभी सदस्यों को दिये जाने वाले परम्परागत भोज की मुख्य भोजन-सूची (मैन्यू) में जो ख़ास व्यंजन शामिल किये गये, उनमें रागी, मक्का, कांगनी, वरई जैसे मिलेट (मोटे अनाज) से बने बहुत-से भारतीय व्यंजन भी शामिल थे। मेहमानों को तोहफ़े भी ऐसे ही व्यंजनों के दिये गये, जिन्हें उन्होंने विशेष चाव से ग्रहण किया। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टी.एस. तिरुमूर्ति को इस भोजन-सूची को तैयार करने में कई महीने लगे। इसमें उनकी पत्नी गौरी और भारतीय मिशन के अन्य सदस्यों का सहयोग रहा।
नहीं जानती कि ये व्यंजन हम भारतियों को खाने के लिए मिलेंगे या नहीं; पर हो सकता है कि विदेशी बाज़ार में लोग इन्हें शोक़ से खाएँ। अर्थशास्त्री मानकर चल रहे हैं कि 2021 से 2026 के बीच में मिलेट्स का वैश्विक बाज़ार 4.5 फ़ीसदी हो सकता है। अभी तक जिसे ग़रीबों या जानवरों का आहार माना जाता था; अब भूख, ग़रीबी, कुपोषण व जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं का हल इसमें देखा जा रहा है। माना जा रहा है कि ताँबा, मैग्नीशियम, कैल्शियम, फॉसफोरस, मैगनीज, प्रोटीन, फाइबर और लोहा जैसे विभिन्न पोषक तत्त्वों से भरपूर मोटा अनाज ऐसा उत्तम भोजन (सुपर फूड) है, जिससे व्यक्ति एक स्वस्थ जीवन जी सकता है। विदेशों में इस उत्तम भोजन की माँग तेज़ी से बढ़ रही है। यही कारण है कि भारत सरकार ने सुरक्षा परिषद् के परम्परागत भोज में मेहमानों की मेज़बानी भारत के उत्तम भोजन के परम्परागत व्यंजनों से की।


जैव विविधता से भरे भारत में शायद ही कोई राज्य होगा, जहाँ उसकी जलवायु और ज़मीन के हिसाब से मोटा अनाज न होता हो। सबकी अलग-अलग क़िस्में। अलग-अलग नाम और गुण। एक समय था, जब अधिकांश आमजन का मुख्य भोजन यह मोटा अनाज ही था। पर हरित क्रान्ति के बाद से भारत के मोटे अनाज के उत्पादन क्षेत्र में क़रीब 60 फ़ीसदी की कमी आ चुकी है। फिर भी दुनिया में उत्पादित होने वाले 284 लाख मीट्रिक टन का 41.1 फ़ीसदी मोटा अनाज अकेले भारत में ही पैदा होता है। इस लिहाज़ से आज भी भारत मोटे अनाज का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। जहाँ तक निर्यात का सवाल है, तो सबसे बड़ा उत्पादक देश होते हुए भी भारत पौष्टिक अनाज के निर्यात में अभी शुरुआत ही कर रहा है।
यहाँ मोटे अनाज और पौष्टिक अनाज के अन्तर को समझ लेना ज़रूरी है। मोटे अनाज में जौ और मक्का (मकई) समेत सभी प्रकार के कदन्न (आमतौर पर घटिया माने जाने वाले अनाज) आ जाते हैं। जबकि कृषि वैज्ञानिकों ने पौष्टिक अनाज में भारत में आठ प्रकार के कदन्न- बाजरा, ज्वार, रागी, कांगनी, झिंगौरी, कोदो व कुटकी और चिना को ही शामिल किया है। भारत सरकार के कदन्न विकास निदेशालय के निदेशक रहे डॉ. सुभाष चंद्र के मुताबिक, कुछ मिलेट्स इनसे भी छोटे आकार के होते हैं। पर गुणवत्ता में काफ़ी हल्के होने के कारण उनका उपयोग चारे के रूप में ही ज़्यादा किया जाता है। उनके मुताबिक, मिलेट्स का देसी नाम कदन्न ही है। पर इसकी पौष्टिकता को देखते हुए अब सारी दुनिया में ही इसे ‘पौष्टिक अनाज’ के रूप में जाना जाता है। शास्त्रों में कदन्न को न खाने योग्य अन्न कहा गया है। उस लिहाज़ से तो निदेशालय को अपना नाम बदल देना चाहिए। क्योंकि सन् 2018 में भारत सरकार ने भी कदन्न को पोष्टिक अनाज के रूप में दर्ज़ कर दिया है। पूरी दुनिया में मोटे अनाज की माँग बढऩे का एक बड़ा कारण नीति निर्धारकों, वैज्ञानिकों को यह समझ आ जाना है कि जलवायु परिवर्तन और कुपोषण जैसी समस्याओं से निपटना है, तो कम पानी, कम खाद या बिना खाद, कठोर भूमि व गर्म जलवायु में भी आसानी से उग आने वाले पौष्टिक अनाज व घास (चारे वाली वे फ़सलें, जिनसे अनाज मिलता है) पर फिर से लौटना होगा। उसे उत्पादन व आहार में शामिल करना होगा। रासायनिक खाद से उत्पन्न लासा (गुलेटन) युक्त गेहूँ, धान की उपज और ग्रीन हाउस गैस (पौधाघर वायुरूप द्रव्य) उत्पन्न करने वाली खेती के हमारे तरीक़ों से न तो जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटा जा सकता है और न ही कुपोषण व ग़रीबी की समस्या से। खेती के ये तरीके जनहित में नहीं हैं और प्रकृति की जैव विविधता को भी खत्म करते हैं।
संयुक्त राष्ट्र भी मानकर चल रहा है कि आज दुनिया के सामने समस्या कम उत्पादन की नहीं, समुचित वितरण व उचित पोषण की है। यही कारण है कि अगले सितंबर महीने में होने जा रहे संयुक्त राष्ट्र के ‘खाद्य प्रणाली विश्व सम्मेलन’ में एक पूरा सत्र मिलेट्स पर है। उसमें मिलेट्स को सामान्य भोजन में शामिल किये जाने पर चर्चा तो होगी ही, विभिन्न देशों के स्थानीय मिलेट्स से बने परम्परागत व्यंजन भी भागीदारों को इस सम्मेलन में खाने को मिलेंगे। इसके बाद 2023 में फिर मिलेट्स पर हमें कुछ-कुछ पढऩे और सुनने को मिल जाएगा। क्योंकि संयुक्त राष्ट्र ने उसे ‘मिलेट-वर्ष’ घोषित किया है। इसका प्रस्ताव भारत ने ही किया था, जिसे संयुक्त राष्ट्र ने मान लिया। राजनय के स्तर पर तो यह निश्चय ही बड़ी सफलता है। पर बड़ा सवाल यह है कि इस वर्ष को भारत अपने पक्ष में कितना कर पाएगा?
सन् 2018 भारत में ‘मिलेट ईयर’ घोषित किया गया था। पर वह सरकारी दफ़्तरों, फाइलों और कुछ सभा-सेमिनारों में ही सैर करते हुए पूरा हो गया। किसान या आमजन को उसका कुछ पता ही नहीं चला। एक शोध के सिलसिले में वित्त वर्ष 2019-2020 में दक्षिण गुजरात के आदिवासी गाँवों में किसानों से हुई बातचीत में किसी एक ने भी नहीं कहा कि कृषि विभाग के किसी भी अधिकारी ने उनसे रागी, ज्वार या वरई का क्षेत्र बढ़ाने या इन अनाजों के संशोधित बीज बोने के लिए उनसे कहा हो। वे रागी और वरई की पोषकीय गुणवत्ता व उसके महत्त्व को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं, और इसीलिए उन्हें अपने आहार से अलग करने की सोचते भी नहीं। पर इन अनाजों का मूल्य बाज़ार में बढ़ गया है, यह वे नहीं जानते थे। अपनी साल भर की ज़रूरत के मुताबिक इन्हें कोठार (कुठिया) में भर लेने के बाद वे अतिरिक्त उपज को स्थानीय बाज़ार में बेच देते हैं, जिससे मामूली नक़दी उनके हाथ में आ जाती है। वे तो धान भी इसी तरह बेचते हैं।
पर उसके दाम कुछ ज़्यादा मिल जाते हैं। दाम ज़्यादा मिलने का ही नतीजा है कि दक्षिण गुजरात के पूरे आदिवासी क्षेत्र में धान और गन्ने का रक़बा बढ़ता जा रहा है और रागी, ज्वार व वरई जैसे स्थानीय अनाजों की उपज लगातार कम हो रही है। बावजूद इसके कि वे इन उत्पादों के महत्त्व को जानते हैं। सूरत के साथ लगे आदिवासी क्षेत्र में तो रागी ग़ायब ही हो चुकी है।
वलसाड़ ज़िले के एक किसान ने बताया- ‘रागी, उड़द और तुअर की दाल हमारा मुख्य भोजन है। इसे खाने से हम बीमार नहीं होते। चावल (धान) ज़्यादा नहीं खाते। गर्भवती महिला को अगर कमज़ोरी आने लगे, तो उसे वरई ही खिलायी जाती है। पर इसको हम बहुत-ही थोड़ी मात्रा में उगाते हैं।’
अपने पौषकीय गुणों के कारण आज रागी शहरी बाज़ार में लोकप्रिय हो रही है और काफ़ी महँगी भी मिलती है। पर ग़रीब किसान को उसका लाभ नहीं मिल रहा। जब तक सरकार किसान को इन अनाजों का दाम नहीं दिलवाती, वे गेहूँ, धान के मोह से मुक्त नहीं हो सकते। इस बारे में डॉ. सुभाष चंद्र का कहना है- ‘सभी प्रकार के मिलेट्स में बीजों के संशोधन, उपज के प्रसंस्करण और तकनीक के क्षेत्र में काम किया जा रहा है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् व हैदराबाद में स्थित मिलेट्स शोध केंद्र इस काम को कर रहे हैं। हैदराबाद में ही सेंटर फॉर एक्सीलेंस महिलाओं के साथ मिलकर रेडी-टू-ईट उत्पाद तैयार करने के प्रयास में लगा हुआ है।’ साफ़ है कि केंद्र सरकार अभी तकनीक विकास की उलझनों में ही उलझी हुई है। पर उधर ओडिशा सरकार ने पीडीएस, आँगनबाड़ी और मिड-डे मील का हिस्सा बनाकर मिलेट्स, ख़ासकर रागी को आमजन के आहार में शामिल कर दिया है। वह रागी का रक़बा बढ़ाने में भी कामयाब हो गयी है। पर राज्य के अन्य मिलेट्स की ओर उसका भी ध्यान नहीं है। इससे फिर एक ही अनाज की अधिकता की समस्या खड़ी हो जाएगी।
(लेखिका वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

नये अवतार में राहुल गाँधी

हाल के महीनों में विपक्ष में तेज़ी से बढ़ी है कांग्रेस नेता की स्वीकार्यता

पेगासस से लेकर कोरोना वायरस और अर्थ-व्यवस्था पर तीखी आवाज़ उठा रहे राहुल गाँधी ने जब अगस्त के शुरू में नेताओं को अपने घर नाश्ते पर बुलाया, तो साफ़ हो गया कि कांग्रेस नेता अब भविष्य की तैयारी के लिया कमर कस चुके हैं। संसद में कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ने जिस तरह पेगासस पर मोदी सरकार को घेरा है और जैसे तेवर उसने दिखाये हैं, उससे साफ़ कि कांग्रेस संगठन को पटरी पर लाने के साथ-साथ अब विपक्षी एकता की धुरी बनने की कोशिश में जुट गयी है।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि राहुल गाँधी को इन तमाम विपक्षी दलों के केंद्र में ख़ुद को स्थापित करने के लिए अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में ज़्यादा-से-ज़्यादा राज्यों में कांग्रेस को सत्ता में वापस लाना होगा। राष्ट्रीय चुनावों में अपनी कमज़ोर स्थिति की भरपाई कांग्रेस विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करके कर सकती है, जो उसके लिए ज़रूरी भी है। राहुल ने हाल के हफ़्तोंमें कई मौक़ों पर विपक्षी बैठकों का नेतृत्व किया है। उन्हें अपने घर नाश्ते पर बुलाया है और मानसून सत्र विपक्ष की रणनीति को लेकर अहम रोल निभाया है। तो क्या यह माना जाये कि राहुल गाँधी एक नये अवतार में मैदान में आये हैं? उनकी तैयारी और रणनीति में बदलाव तो यही संकेत करते हैं।

इसमें कोई दो-राय नहीं है कि देश में कुछ गम्भीर मुद्दे उभरने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति जनता में समर्थन में कमी का अहसास करते ही कांग्रेस सक्रिय हुई है। राहुल गाँधी हाल के महीनों में प्रधानमंत्री मोदी के विरोध के केंद्र में रहे हैं। जनता में एक उनकी पहचान से कोई इन्कार नहीं कर सकता। कांग्रेस अध्यक्ष पद छोडऩे के बाद भी राहुल पार्टी में सर्वोच्च नेता बने हुए हैं, तो इसका कारण उनका पार्टी के बीच एकता की गारंटी होना भी है। ऐसे में यह तो तय ही है कि कांग्रेस की तरफ़ से राहुल गाँधी ही एक नेता के रूप में सामने होंगे। हाल के हफ़्तोंमें उनकी सक्रियता एक अलग स्तर पर दिखने लगी है। उन्होंने विपक्ष के नेताओं को जहाँ अपने यहाँ आमंत्रित किया है, वहीं जम्मू-कश्मीर और कुछ अन्य राज्यों का दौरा भी किया है।

राहुल की चुनाव की राजनीति केलिहाज़ से सक्रियता ज़्यादा दिलचस्प है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 ख़त्म किये जाने के मोदी सरकार के फ़ैसले के बाद राहुल गाँधी पहली बार राज्य के दौरे पर गये। वे कई कार्यक्रमों में शामिल हुए, जिनमें कश्मीरी पंडितों के सबसे महत्त्वपूर्ण मंदिर ‘क्षीर भवानी’ में माथा टेकना भी शामिल है। राजनीतिक क्षेत्रों में राहुल के इस दौरे को ख़ासी तरजीह मिली। राहुल का कश्मीर दौरा ऐसे समय में हुआ है, जब यूटी में परिसीमन निर्धारण की प्रक्रिया जारी है और अगले साल विधानसभा चुनाव करवाये जाने की चर्चा तेज़ है। पिछले क़रीब दो साल में कश्मीर की सियासत में क्या बदलाव आया है, इसे लेकर अभी कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी। तीन महीने हुए ज़िला विकास परिषदों (डीडीसी) के चुनावों के नतीजे ज़ाहिर करते हैं कि कश्मीर में क्षेत्रीय दलों के प्रति लोगों का भरोसा बना हुआ है।

ऐसे में राहुल के दौरे के विधानसभा चुनाव की तैयारियों के अलावा राष्ट्रीय मायने भी हैं। गाँधी ने दौरे में पार्टी की बैठक की, जिसमें प्रदेश प्रभारी रजनी पाटिल, प्रदेश अध्यक्ष जी.ए. मीर, वरिष्ठ नेता रमण भल्ला, एनएसयूआई राष्ट्रीय अध्यक्ष नीरज कुंदन शामिल रहे। दौरे के दूसरे दिन राहुल गाँधी का कश्मीरी पंडितों के सबसे महत्त्वपूर्ण देवस्थान क्षीर भवानी मंदिर पहुँचना ख़ासी चर्चा में रहा। अनुच्छेद-370 ख़त्म होने के बाद इस मंदिर में माथा टेकने पहुँचने वाले राहुल गाँधी पहले राष्ट्रीय नेता हैं। राहुल श्रीनगर की हज़रतबल दरगाह भी पहुँचे, जिसकी कश्मीरी मुस्लिमों में बहुत ज़्यादा मान्यता है। राहुल ने लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘मैं आपके दर्द को समझता हूँ। क्योंकि मैं भी एक कश्मीरी हूँ। कश्मीर की राजनीति में कांग्रेस की हमेशा महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।’

 

राहुल की नाश्ता कूटनीति

 

विपक्ष को एक जुट करने के लिए राहुल गाँधी ने जब लोकसभा और राज्यसभा के 100 से ज़्यादा सांसदों को नाश्ते पर बुलाया, तो इसकी काफ़ी चर्चा रही। दिल्ली के कांस्टीट्यूशनल क्लब में क़रीब 17 राजनीतिक दलों के 155 नेता राहुल की नाश्ता बैठक में जुटे। इसके बाद मानसून सत्र के बाक़ी बचे दिनों की रणनीति भी तय हुई। ज़ाहिर है राहुल की नाश्ता बैठक सफल रही; क्योंकि संसद में इसके बाद उन्हीं मुद्दों पर विपक्ष ने मोदी सरकार को घेरा, जिसका बैठक में फ़ैसला हुआ था। इसके अलावा राहुल गाँधी ने विपक्ष के संसद तक साइकिल मार्च में भी हिस्सा लिया। विपक्षी नेताओं के साथ बैठक में राहुल गाँधी ने कहा- ‘मेरे विचार से सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हम इस शक्ति को एक करते हैं। यह आवाज़ (जनता की) जितनी एकजुट होगी, यह आवाज़ उतनी ही शक्तिशाली होगी और भाजपा-आरएसएस के लिए इसे दबाना उतना ही मुश्किल होगा।’ राहुल की ऐसी बैठकों से बसपा को किनारा करते देखा गया है। इसका एक बड़ा कारण उत्तर प्रदेश की राजनीति है, जहाँ कांग्रेस बहुत तेज़ी से अपनी सक्रियता बढ़ा रही है। बसपा को लगता है कि कांग्रेस के साथ रहना उसके लिए घातक हो सकता है। कुछ-कुछ यही बात सपा को लेकर भी कही जा सकती है, जो कांग्रेस की बढ़ती सक्रियता को लेकर काफ़ी चौकन्नी दिख रही है। हालाँकि सपा अपने प्रतिनिधि विपक्ष की इन बैठकों में भेजती ज़रूर है।

राहुल की इस नाश्ता बैठक में शिवसेना, समाजवादी पार्टी, शरद पवार की एनसीपी, उद्धव ठाकरे की शिवसेना, लालू की राजद, समाजवादी पार्टी, माकपा, भाकपा, आरएसपी, आईयूएमएल, केसीएम, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, नेशनल कॉन्फ्रेंस (जेके), तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), बिहार की लोकतांत्रिक जनता दल (एलजेडी) प्रमुख हैं।

ख़ुद को बदल रहे हैं

कांग्रेस नेता राहुल गाँधी में बदलाव दिख रहा है। अपनी पार्टी में वृहद् वर्ग का समर्थन हासिल करने वाले राहुल का विपक्षी दलों में स्वीकार्यता हासिल करने का यह प्रयास विपक्ष को भी रास आएगा; क्योंकि राहुल की पिछली निष्क्रियता ही थी, जिसने इन दलों को राहुल से दूर रखा हुआ था। राहुल गाँधी मानसून सत्र में पिछले वर्षों के मुक़ाबले अबकी बार कहीं ज़्यादा सक्रिय भूमिका में दिखे हैं। संसदीय कार्यवाही से पहले विपक्ष की बैठकों का नेतृत्व करना ज़ाहिर करता है कि उनकी स्वीकार्यता का दायरा विपक्ष में वृहद् होता जा रहा है।

राहुल गाँधी की इस सक्रियता ने जहाँ विपक्षी ख़ेमे में उम्मीद पैदा की है, वहीं भाजपा में इससे शुरुआती बेचैनी है। भाजपा की हर सम्भव कोशिश रही है कि राहुल गाँधी किसी भी सूरत में विपक्ष के केंद्र में न आने पाएँ। भाजपा को पता है कि राहुल के किसी भी विपक्षी अभियान के केंद्र में आने से न सिर्फ़ मोदी के ख़िलाफ़ राहुल एक सर्वमान्य विपक्षी चेहरा बन जाएँगे, कांग्रेस और राहुल गाँधी को लेकर उसके (भाजपा के) छवि बिगाड़ो अभियान और दुष्प्रचार की भी हवा निकल जाएगी।

राहुल के नये अवतार का एजेंडा साफ़ है- ‘अगले साल उत्तर प्रदेश में और 2024 में देश भर में भाजपा को परास्त करना।’ ख़ुद को अपराजय मानने वाली भाजपा इस कल्पना भर से ही सिहर जाती है कि उसकी ताक़त को चुनौती मिल सकती है। राहुल भाजपा को इसलिए भी खटकते हैं कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा सक्रिय नेता हैं। ऐसे में राहुल विपक्ष की भी ज़रूरत हैं, यह विपक्ष के तमाम बड़े नेता समझते हैं। ऐसे में राहुल यदि सक्रिय होकर विपक्ष का मोदी, भाजपा के ख़िलाफ़ नेतृत्व करते हैं, तो जनता में ज़्यादा बेहतर संकेत जाएगा।

आम जनता में आज भी भाजपा के अलावा यदि किसी राजनीतिक दल की देश भर में पहचान है, तो वह कांग्रेस ही है। बेशक कांग्रेस पिछले दो लोकसभा चुनावों में हारी है, उसका समर्थक वर्ग देश में भाजपा से भी बड़ा है। ऐसे में यदि भाजपा को जनता से झटका मिलता है, तो कांग्रेस कोई भी बड़ा कमाल कर सकती है। भाजपा नेता यह बात समझते हैं।लिहाज़ा आनी वाले समय में राहुल के ख़िलाफ़ वे और सक्रिय होंगे। जैसे-जैसे राहुल की तरफ़ से सरकार विरोध मज़बूत होगा, वे जनता की चर्चा के केंद्र में भी आते जाएँगे। यही कारण है कि अपनी रणनीति में बदलाव लाकर अब राहुल गाँधी बहुत मज़बूती से विपक्षी दलों के बीच एकता पर ज़ोर देने लगे हैं।

हरकिशन सिंह सुरजीत की मृत्यु के बाद के इन वर्षों में सोनिया गाँधी ही विपक्ष की एकता या बैठकों की धुरी रही हैं। लेकिन अब राहुल गाँधी वह स्थान लेते दिख रहे हैं। बीच में ऐसा लगा था कि शायद शरद पवार यह जगह ले लेंगे, लेकिन उनकी आयु और सेहत शायद उन्हें बहुत सक्रिय रहने की इजाज़त नहीं देती। बीच में तो उनके राष्ट्रपति / उप राष्ट्रपति पद के लिए समर्थन जुटाने की ख़बरें भी सोशल मीडिया में फैलीं। ख़ुद पवार ने हालाँकि ऐसी किसी कोशिश से इन्कार किया। ऐसे में राहुल का विपक्षी एकता का केंद्र बनना बहुत हैरानी पैदा नहीं करता।

कांग्रेस के भीतर भी राहुल गाँधी अपनी माँ सोनिया गाँधी की छाया से बाहर निकल चुके हैं; भले पार्टी के फ़ैसलों पर अध्यक्ष के नाते अन्तिम मुहर वही लगाती हैं। हाल के महीनों में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्षों की नियुक्ति राहुल गाँधी की पसन्द से ही हुई है। पार्टी के राज्य नेताओं में भी अब ख़ुद को राहुल गाँधी के नज़दीक दिखाने का चलन बढ़ा है, जो ज़ाहिर करता है कि ये आम कांग्रेस नेता और कार्यकर्ता अब राहुल को ही नेता के रूप में देखने लगे हैं। हाल में राहुल के नाश्ते में शामिल एक विपक्षी नेता ने ‘तहलका’ बातचीत में राहुल के प्रति अपने अनुभव को लेकर कहा- ‘वह ज़ोर देकर यह कहते हैं कि आरएसएस (और भाजपा) के ख़िलाफ़ साथ काम करने की सख़्त ज़रूरत है। वह यह भी कहते हैं कि ऐसा किया जा सकता है। राहुल दूसरे नेताओं से उनके विचार जानने को उत्सुक रहते हैं। उनका व्यवहार दूसरे नेताओं के प्रति बहुत सम्मान भरा होता है और वह आकर्षित करते हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि यदि राहुल पूरी गम्भीरता से मैदान में जुट जाएँ, तो वह भाजपा के लिए बड़ी राजनीतिक चुनौती बनने की क्षमता रखते हैं।’

विपक्षी नेताओं के मुताबिक, यह राहुल गाँधी ही थे, जिन्होंने पेगासस जैसे गम्भीर मामले पर विपक्ष को एकजुट किया। कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खडग़े के संसद कक्ष में हुई बैठक की पूरी ज़िम्मेदारी राहुल गाँधी ने ही सँभाली थी। बाद में पत्रकार वार्ता (प्रेस कॉन्फ्रेंस) में भी मुख्य तौर पर राहुल गाँधी के सम्बोधन के बावजूद उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि दूसरे नेता भी वहाँ बोलें, ताकि विपक्ष का वृहद् प्रतिनिधित्व उजागर हो। संसद के भीतर भी राहुल गाँधी अन्य दलों के नेताओं से सम्पर्क बढ़ाने की कोशिश करने लगे हैं। पेगासस मुद्दे पर उन्होंने (राहुल) अन्य दलों के नेताओं से सदन के भीतर भी जिस तरह चर्चा की वह एक बदले हुए राहुल गाँधी के दर्शन करवाता है। एक सांसद ने कहा- ‘राहुल गाँधी ने संसद सत्र के दौरान साइकिल यात्रा का प्रस्ताव ही नहीं दिया, बल्कि उसका नेतृत्व भी किया। यह पहले नहीं दिखता था। राहुल में यह बदलाव स्वागत योग्य है।’

राहुल के सामने चुनौती संसद के बाहर विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने की रहेगी। कुछ मुद्दों पर संसद भीतर सहमति बनाना ज़रूर सफल रहा है। एक वृहद् लक्ष्य के लिए सभी दलों को एक छतरी के नीचे लाने में अभी समय लगेगा। इसमें दो-राय नहीं कि राहुल ने एक बेहतर शुरुआत की है। आने वाले समय में उनकी कोशिश विपक्ष के ख़ेमे को और विस्तार देने की रहेगी। साथ ही अपने नेतृत्व को विपक्ष के बीच और मज़बूत करने के कोशिश भी राहुल को करनी होगी। यह थोपा नहीं जा सकता, बल्कि भरोसे और कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में जीत दिलवाकर ही हो सकता है। लिहाज़ा राहुल के लिए यह बहुत ज़रूरी रहेगा कि विधानसभा चुनाव में वे कांग्रेस को जितवाकर चुनावी रूप से सफल नेता की अपनी छवि भी मज़बूत करें। आख़िर विपक्ष राहुल को एक करिश्माई नेता होने के नाते ही तो उन्हें अपना नेता मानने की हिम्मत दिखाएगा।

 

ममता की तैयारी

राहुल की ही तरह पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी ख़ुद को राष्ट्रीय भूमिका के लिए तैयार करती दिख रही हैं। लिहाज़ा यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले समय में ख़ुद ममता का राष्ट्रीय भूमिका को लेकर क्या रूख़ रहता है? लेकिन अगस्त के दूसरे हफ़्ते ममता बनर्जी को टीएमसी के संसदीय दल का नेता चुन लिया जाना बहुत दिलचस्प फ़ैसला कहा जाएगा। राजनीति के लिहाज़ से यह एक बड़ा, हैरान करने वाला और अहम फ़ैसला है। क्योंकि ममता न लोकसभा की सदस्य हैं। न लोकसभा या राज्यसभा की ही सदस्य हैं। क्या माना जाए कि आने वाले समय में वह राज्यसभा या लोकसभा में आ सकती हैं? ममता बनर्जी की अपने इस चयन पर टिप्पणी भी बहुत दिलचप्स थी। उन्होंने कहा- ‘क्योंकि वो मुझसे प्यार करते हैं।’ बनर्जी ने भविष्य में केंद्रीय स्तर पर राजनीति करने को लेकर कहा- ‘मैं कोई राजनीतिक ज्योतिषी नहीं हूँ। ये सब कुछ सिचुएशन (परिस्थिति), सिस्टम (तंत्र) और स्ट्रक्चर (संरचना) पर निर्भर करता है।’

ज़ाहिर है आगामी पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद विपक्ष स्थिति को देखकर नेतृत्व को लेकर किसी एक बिन्दु पर फोकस करेगा और नेतृत्व के निर्णय पर पहुँचने का प्रयास करेगा।

विपक्ष की बैठक

राहुल गाँधी जब जम्मू-कश्मीर के दौरे पर थे, उसी शाम कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल विपक्षी पार्टी के नेताओं के साथ अपने घर पर रात्रि भोज (डिनर) का आयोजन कर रहे थे। इस रात्रि भोजन में 15 पार्टियों के क़रीब 45 नेता और सांसद शामिल हुए; जिसमें लम्बे समय तक जेल में रहने वाले लालू यादव, शरद पवार, अखिलेश यादव, डेरेक ओब्रायन, सीताराम येचुरी और संजय राउत जैसे नेता शामिल थे। इसके अलावा बीजेडी के पिनाकी मिश्रा, अकाली दल के नरेश गुजराल और आम आदमी पार्टी के संजय सिंह, सपा से राम गोपाल यादव, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) के महासचिव सीताराम येचुरी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव डी. राजा, नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला, बीजू जनता दल के नेता अमर पटनायक, द्रमुक (द्रविड़ मुनेत्र कषगम) के तिरुचि शिवा और टी.के. एलनगोवन, रालोद (राष्ट्रीय लोक दल) के जयंत चौधरी और टीआरएस (तेलंगाना राष्ट्र समिति)के नेता भी शामिल हुए। वहीं कांग्रेस के गुलाम नबी आज़ाद, पी. चिदंबरम, भूपिंदर सिंह हुड्डा, आनंद शर्मा, मुकुल वासनिक, पृथ्वीराज चव्हाण, मनीष तिवारी और शशि थरूर शामिल थे। विदित हो कि राहुल गाँधी के नाश्ते पर आम आदमी पार्टी न्यौता पाकर भी नहीं गयी थी। सिब्बल की इस रात्रि भोज बैठक में आगामी 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और 2024 के आम चुनाव में विपक्षी एकता मज़बूत करने की बात हुई। भाजपा को निशाने पर रखा गया।

बाघ और शेर के बाद देश में तेंदुए भी बढ़े

भारत सरकार की ओर से 29 जुलाई, 2021 को जारी एक नये अध्ययन में पाया गया है कि देश में तेंदुओं की आधिकारिक तादाद 2014-2018 के दरमियान 63 फ़ीसदी बढ़ गयी है और इसमें बढ़ोतरी जारी है। इसी पर आधारित श्वेता मिश्रा की रिपोर्ट :-

केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने 29 जुलाई को तेंदुओं और उनका शिकार व गिनती को लेकर रिपोर्ट पेश की। इसमें दावा किया गया है कि देश में 12,852 तेंदुए हैं। 2014 में गिने गये 7,910 (कम ज़्यादा के आधार पर 6,566-9,181) थे और इनकी तादाद में बढ़ोतरी दर्ज की गयी। इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया था- ‘अच्छी ख़बर! शेरों और बाघों के बाद तेंदुओं की तादाद बढ़ रही है। पशु संरक्षण की दिशा में काम करने वाले सभी लोगों को बधाई। हमें इन प्रयासों को आगे भी जारी रखना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारे पशु सुरक्षित आवास और माहौल में रहें।’
पर्यावरण मंत्री ने दावा किया कि रिपोर्ट इस बात का प्रमाण है कि बाघों के संरक्षण से पूरे पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण होता है। अखिल भारतीय बाघ आकलन 2018 के दौरान देश के बाघों के क़ब्ज़े वाले राज्यों में जंगल वाले आवासों के भीतर तेंदुए की आबादी का भी अनुमान लगाया गया था। सन् 2018 में भारत के बाघ वाले क्षेत्रों के परिदृश्य में तेंदुए की कुल आबादी 12,852 दर्ज की गयी।
इसे सन् 2014 के आँकड़ों से तुलना करें, तो इसमें उल्लेखनीय वृद्धि हुई है; जो देश के 18 बाघों वाले राज्यों के वनों के आवासों में 7,910 थी। इसमें भारत के 14 टाइगर रिजर्व शामिल किये गये, जिन्हें ग्लोबल कंजर्वेशन एश्योर्ड एंड टाइगर स्टेंडर्ड (सीए-टीएस) की मान्यता प्राप्त है। जिन 14 बाघ अभयारण्यों को मान्यता दी गयी है, उनमें असम में मानस, काजीरंगा और ओरंग, मध्य प्रदेश में सतपुड़ा, कान्हा और पन्ना, महाराष्ट्र में पेंच, बिहार में वाल्मीकि टाइगर रिजर्व, उत्तर प्रदेश में दुधवा, पश्चिम बंगाल में सुंदरवन, केरल में परम्बिकुलम हैं। कर्नाटक के बांदीपुर टाइगर रिजर्व और तमिलनाडु में मुदुमलाई और अनामलाई टाइगर रिजर्व भी इस सूची में शामिल हैं।
ख़ास बात जो रिपोर्ट में कही गयी है, वह यह कि सभी उप-प्रजातियों में भारतीय तेंदुआ अफ्रीका के बाहर सबसे ज़्यादा अपने देश में ही हैं। भारतीय उप महाद्वीप में अवैध शिकार, निवास स्थान का नुक़सान, प्राकृतिक शिकार की कमी और तेंदुओं के आपसी संघर्ष से ख़तरे के तौर पर मानकर इनके कम होने का अनुमान लगाया जाता रहा है। तेंदुआ भी अक्सर आबादी वाले इलाक़ों में नज़र आ जाते हैं, जिससे मनुष्यों के साथ संघर्ष के प्रति उनकी संवेदनशीलता बढ़ जाती है। किसी अन्य बिना बड़े मांसाहारी वाले क्षेत्रों में तेंदुए जैव विविधता संरक्षण के लिए एक छत्र प्रजाति के रूप में हो सकते हैं।
अध्ययन के लिए अखिल भारतीय बाघ आकलन 2018 में बाघों के क़ब्ज़े वाले राज्यों में वन्यजीव क्षेत्र के अन्दर तेंदुए होने का भी अनुमान लगाया गया था। तेंदुओं के क़ब्ज़े वाले अन्य क्षेत्र, जैसे- ग़ैर-वनाच्छादित आवास (कॉफी और चाय के बाग़ान और अन्य भूमि उपयोग, जहाँ से तेंदुओं को जाना जाता है); हिमालय में उच्च ऊँचाई, शुष्क परिदृश्य और अधिकांश पूर्वोत्तर का इलाक़ा इसमें शामिल नहीं किया गया था। इसलिए इनकी तादाद का अनुमान हर लिहाज़ से न्यूनतम के तौर पर माना
जाना चाहिए।
चार प्रमुख बाघ संरक्षण के केंद्र यानी शिवालिक पहाडिय़ों और गंगा के मैदान, मध्य भारत और पूर्वी घाटों, पश्चिमी घाटों और उत्तर पूर्वी पहाडिय़ों और ब्रह्मपुत्र बाढ़ के मैदानी क्षेत्रों में तेंदुए की बहुतायत का अनुमान लगाया गया था।
संख्या की गणना में वृद्धि बेहद मायने रखती है; क्योंकि पिछली शताब्दी में निवास स्थान के नुक़सान, शिकार की कमी, संघर्ष और अवैध शिकार के कारण अफ्रीका और एशिया में उनके वर्तमान वितरण और संख्या में काफ़ी कमी आयी है। तेंदुओं की स्थिति पर हालिया विश्लेषणों से पता चलता है कि अफ्रीका में प्रजातियों की 48-67 फ़ीसदी और एशिया में 83-87 फ़ीसदी का इलाक़ा सिकुड़ गया है। यह भारत में हाल ही में किये गये एक आनुवंशिक अध्ययन के अनुरूप है, जहाँ पिछले 120-200 वर्षों में तेंदुओं की तादाद मानवों के बढ़ते दायरे से 75-90 फ़ीसदी सीमित होने का आकलन है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि प्रजातियों की स्थिति ख़तरे के क़रीब से कमज़ोर स्तर पर आ गयी है।
तेंदुए कैसे ख़तरे में हैं? इसे इस तरह समझ सकते हैं कि पिछले कुछ दिनों में ओडिशा के तीन ज़िलों में पाँच व्यक्तियों से कम-से-कम 10 तेंदुओं की खाल ओडिशा वन विभाग और राज्य पुलिस के विशेष कार्य बल (एसटीएफ) ने एजेंसियों की मदद से ज़ब्त की। इनमें से दो खाल 21 जुलाई, 2021 को बौध और देवगढ़ ज़िलों से ज़ब्त की गयी। मामले में पुलिस ने एक संदिग्ध शिकारी समेत पाँचों आरोपियों को गिरफ़्तार कर लिया है और उनके ख़िलाफ़ अधिनियम की धारा-51 के तहत मामला दर्ज किया। पहले मामले में एसटीएफ कर्मियों ने बौध ज़िले के मनमुंडा थाना अंतर्गत कापासीरा से एक आरोपी के पास से एक तेंदुआ बरामद किया था। एसटीएफ अधिकारियों के अनुसार, उसके पास से एक बंदूक और वस्फिोटक के साथ अन्य आपत्तिजनक सामग्री भी ज़ब्त की गयी। ज़ब्त की गयी तेंदुए की खाल वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत जुर्म में शामिल है। ज़ब्त खाल को रासायनिक जाँच के लिए भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून भेजा गया है। दूसरे मामले में वन विभाग के अधिकारियों ने चार व्यक्तियों से रियामाला वन क्षेत्र के सिदुरकाली वन मार्ग से तेंदुए की खाल के साथ पकड़ा है। अधिकारियों को बताया गया कि संबलपुर ज़िले के रेडाखोल वन प्रभाग के जंगल में तेंदुए की मौत हो गयी।
वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो और ओडिशा व छत्तीसगढ़ के वन अधिकारियों की एक संयुक्त टीम ने 10 जुलाई, 2021 को कालाहांडी के रामपुर और जूनागढ़ में कम-से-कम आठ तेंदुए की खाल ज़ब्त की गयी और सात वन्यजीव तस्करों को गिरफ़्तार किया गया। पिछले एक साल में राज्य से 26 तेंदुओं की खाल ज़ब्त की गयी है; जबकि अकेले एसटीएफ ने 15 तेंदुए की खाल बरामद की है। इन बरामदगियों से साबित होता है कि तेंदुओं का बड़े पैमाने पर शिकार किया जा रहा है। इन संरक्षित जानवरों की खाल की अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बेहद माँग है। अधिकांश तेंदुओं को शिकारियों द्वारा मार दिया जाता है, जब वे शिकार के लिए जंगलों के क़रीब आबादी वाले इलाक़े में घुस जाते हैं। तेंदुए की खाल का मुख्य रूप से अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में पारम्परिक चिकित्सा में उपयोग किया जाता है और इसकी हड्डियों की भी विकट माँग है।
अब प्रकृति के संरक्षण और हिम तेंदुओं की संख्या की गणना के साथ ही उनका संरक्षण करना है। हिम तेंदुओं की तादाद दोगुनी करने का लक्ष्य है। देश में पहली बार हिम तेंदुओं की गणना के लिए वैज्ञानिक विशेषज्ञों की टीम के ज़रिये राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों, लद्दाख़, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के सहयोग से विकसित किया गया है। ग़ौरतलब है कि हिम तेंदुए 12 देशों में पाये जाते हैं। वे भारत, नेपाल, भूटान, चीन, मंगोलिया, रूस, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, किर्गिस्तान, क़ज़ाकिस्तान, ताजिकिस्तान और उजबेकिस्तान हैं।

कहाँ कितने तेंदुए?

शिवालिक हिल्स और गंगा का तराई क्षेत्र
 बिहार – 98 (90-106)
 उत्तराखण्ड – 839 (791-887)
 उत्तर प्रदेश – 316 (277-355)
 कुल – 1,253 (1,158-1,348)

मध्य भारत और पूर्वी घाट
 आंध्र प्रदेश – 492 (461-523)
 तेलंगाना – 334 (318-350)
 छत्तीसगढ़ – 852 (813-891)
 झारखण्ड – 46 (36-56)
 मध्य प्रदेश – 3,421 (3,271-3,571)
 महाराष्ट्र – 1,690 (1,591-1,789)
 ओडिशा – 760 (727-793)
 राजस्थान – 476 (437-515)
 कुल – 8,071 (7,654-8,488)

पश्चिमी घाट
 गोवा – 86 (83-89)
 कर्नाटक – 1,783 (1,712-1,854)
 केरल – 650 (622-678)
 तमिलनाडु – 868 (828-908)
 कुल – 3,387 (3,245-3,529)

पूर्वोत्तर पहाड़ी और ब्रह्मपुत्र का बाढग़्रस्त क्षेत्र
 अरुणाचल प्रदेश (पक्के) – 11 (8-14)
 असम (मानस, नमेरी) – 47 (38-56)
 पश्चिम बंगाल (कोरुमारा, जलदपारा और बक्सा) – 83
(66-100)
 कुल – 141 (115-170)
कुल योग 12,852 (12,172-13,535)

एकता में समझदारी

भारतीय इतिहास के गर्भ में न जाने कितने ही ऐसे उदाहरण दफ़्न हैं, जिन्हें कुरेदने पर पता चलता है कि एकता और प्यार के सरपरस्त भारत से बड़ा और महान् देश दुनिया के किसी कोने में नहीं। जिस तरह से यहाँ हर तरह की मिट्टी है; हर तरह के मौसम हैं; हर तरह की प्रकृति है; हर तरह की वनस्पतियाँ हैं; हर तरह के जीव और हर महज़ब के लोग हैं। ख़ुशी इस बात की होती है कि अधिकतर लोग अपने भारतीय होने पर गर्व महसूस करते हैं और देश के लिए प्राण न्योछावर करने तक को तैयार रहते हैं। मगर अफ़सोस इस बात का है कि एक ही बग़ीचे में खिले हर रंग के फूलों की तरह यहाँ के लोगों के दिलों में मज़हबी, जातीय, वैचारिक, सांस्कृतिक, पारम्परिक और भाषायी भिन्नता इतने गहरे तक बैठी हुई है कि एक-दूसरे से भेदभाव और ईष्र्या भी बहुत करते हैं। यह भेदभाव, ईष्र्या इस क़दर नस्ली भेदभाव में तब्दील हो चुके हैं कि अब इसे ख़त्म करने के लिए कड़े क़ानून की ज़रूरत है।
हमारे इतिहास में एकता और प्यार की सैकड़ों मिसालें हैं। लेकिन अब हम सिसायत के इशारों पर नफ़रतों की विष बेलें बोने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे सिवाय हमारे नाश के और कुछ हासिल नहीं होने वाला। आज के नफ़रत भरे माहौल में मुझे इतिहास के कुछ ऐसे एकता और भाईचारे वाले उदाहरण याद आते हैं, जिन्हें स्कूलों की किताबों में और बुज़ुर्गों की कहानियों में होना चाहिए, ताकि आज की नयी पीढ़ी और आने वाली पीढिय़ों में इस देश की एकता, अखण्डता और आपसी प्यार को ज़िन्दा रखने की सोच पैदा की जा सके।
रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ की दोस्ती को कौन भूल सकता है। इस जोड़ी ने जो क़ुरबानी वतन के लिए दी, उसे प्रलय तक तो नहीं भुलाया जाएगा। इसी तरह नेताजी सुभाष चंद्र बोस के अति विश्वसनीय कर्नल निजामुद्दीन उर्फ़ सैफ़ुद्दीन थे; जो नेता जी के बहुत क़रीबी और वाहन चालक भी थे। इससे पहले के इतिहास में अगर जाएँ, तो भारत में कई ऐसे राजा हुए, जो मुस्लिम थे; लेकिन बड़ी संख्या में उनके राजदरबारी, प्रधानमंत्री, मंत्री सनातनी (हिन्दू) थे। वहीं कई ऐसे सनातनी शासक थे, जिनके क़रीबी और विश्वसनीय मुस्लिम थे। उदाहरण के तौर पर शेरशाह सूरी के प्रधानमंत्री टोडरमल थे। बताते हैं कि शेरशाह सूरी ने टोडरमल के कार्यों और चतुराई को देखकर उन्हें झूँसी स्थित प्रतिष्ठानपुरी का राजा बना दिया था। बाद में टोडरमल अकबर के अधीन काम करने लगे थे। अकबर के नवरत्नों में तानसेन, बीरबल, राजा टोडरमल और राजा मानसिंह जैसे सनातन धर्मी थे। इसी प्रकार महाराणा प्रताप के सेनापति हकीम ख़ाँ सूर थे।
महात्मा गाँधी ने 13 जनवरी, 1948 को विभाजन की त्रासदी से उपजे साम्प्रदायिक उन्माद के ख़िलाफ़ उपवास किया था। वह चाहते थे कि बँटवारा हुआ भी है, तो झगड़ा न हो। क्योंकि झगड़े से सिर्फ़ विनाश ही होगा। दुर्भाग्य से यही हुआ। लाखों लोग दोनों ओर मारे गये। क्या मिला? नफ़रत की एक गहरी खाई। एक ऐसी खाई, जो आज तक नहीं पाटी जा सकी।
विडम्बना यह है कि जबसे मनुष्य ने जन्म लिया है, तबसे अपनों से और शत्रुओं से कितनी ही लड़ाइयाँ हुईं हैं; कितने ही भीषण युद्ध हुए हैं। लेकिन ऐसा नहीं कि इसके चलते हम अपनी ज़िन्दगी भी भेदभाव, ईष्र्या, बैर में गुज़ार दें और झगड़े की इसी भट्ठी में अपने बच्चों को झोंक जाएँ। इससे तो हमारे साथ-साथ उनकी ज़िन्दगी भी बर्बाद ही होगी। कितने ही सन्तों ने, महान् लोगों ने भारत को एकता के सूत्र में बाँधे रखने के लिए अपने आप को आहूत कर दिया। अपनी इच्छाओं, अपने परिवारों की बलि चढ़ा दी और हम आज भी भेदभाव, ईष्र्या और बैर की भट्ठी में जल रहे हैं, जहाँ हम भी राख होकर निकलेंगे।
अभी दुनिया भर में फैली कोरोना वायरस नाम की महामारी से मौतों के बाद यह देखा गया कि ज़्यादातर शवों को स्वजन भी हाथ नहीं लगा रहे थे। ऐसे में हमारे देश के कितने ही मुस्लिम भाइयों ने सनातनियों के शवों का अन्तिम संस्कार उनके परम्परानुसार से किया। वहीं कई सनातन-धर्मियों ने भी मृतक मुस्लिमों की विदाई इस्लाम रीति-रिवाज़ से करायी।
यह एक बड़ा सत्य है कि इस धरती पर किसी का अधिकार नहीं है और न ही संसार से बहुत लम्बा नाता। हम यह भी नहीं जानते कि हमें मरने के बाद जाना कहाँ है? लेकिन एक सत्य अटल है कि सभी में आत्मा का स्वरूप एक जैसा ही है और इससे बड़ा सत्य यह है कि ईश्वर एक ही है। लेकिन फिर भी लोग सियासी और कट्टरपंथी लोगों चक्कर में फँसकर ख़ून-ख़राबा करते हैं।
सच यह है कि राजनीति और धर्म का चोला ओढ़े लोग आम लोगों को बाँटे रखना चाहते हैं। क्योंकि इसके पीछे उनके अपने स्वार्थ निहित हैं। लेकिन यह बात आम लोगों को समझनी होगी कि इस दुनिया में रहकर हम आपस में कितना भी लड़-झगड़ लें, किन्तु मरने के बाद किसी को कोई छुए; कोई भी कपड़े बदले; कोई भी कहीं फेंक दे; जला दे या दफ़्न कर दे; कोई फ़र्क़ नहीं पडऩे वाला। क्योंकि मरने के बाद का एक सत्य यह है कि इस शरीर को इसी मिट्टी में मिल जाना है। यहाँ मुझे मशहूर शायर मुनव्वर राणा की ग़ज़ल के ये अश्आर याद आ रहे हैं :-
‘थकन को ओढ़ के बिस्तर में जा के लेट गये।
हम अपनी क़ब्र-ए-मुक़र्रर में जा के लेट गये।।
तमाम उम्र हम इक दूसरे से लड़ते रहे,
मगर मरे तो बराबर में जा के लेट गये।’’

जल का बढ़ता निजीकरण

बिजली, इंटरनेट के बाद अब जल जैसे प्राकृतिक संसाधन को दिया जा रहा निजी हाथों में

एक पत्रकार का दायित्व होता है कि वह न केवल हो चुकी घटनाओं का विश्लेषण करे, बल्कि यह भी बताए कि क्या होने जा रहा है? वह यह भी बताए कि सरकार क्या कर रही है? किस उद्देश्य से कर रही है? देश व लोगों के सामने निकट भविष्य में सामने आने वाले ख़तरे कौन-से है?

दरअसल सरकारें तेज़ी से निजीकरण पर काम कर रही हैं, जिसे लेकर ज़्यादातर पत्रकार, बुद्धिजीवी, लेखक, नेता और समाजसेवक चुप हैं। लेकिन इससे भविष्य में कम्पनियाँ अधिक काम के बदले कम भुगतान करेंगी; जबकि जनता को हर चीज़ महँगे दामों में ख़रीदने को मजबूर होना पड़ेगा। जैसे बिजली, इंटरनेट आदि का निजीकरण होने से लोगों को इनके भारी दाम चुकाने पड़ते हैं। देश में इन दिनों खाद्यान्नों के निजीकरण की कोशिश हो रही है, तो वहीं कुछ राज्य सरकारें जल के निजीकरण पर काम कर रही हैं। हम पहले से ही जल के निजीकरण का एक नमूना यह देख रहे हैं कि पानी की एक लीटर की बोतल, जिसके अन्दर पानी साफ़ होने की कोई गारंटी नहीं है; 20-25 रुपये की मिलती है। अगर यही एक बोतल पानी हम किसी बड़ी या विदेशी कम्पनी का ख़रीदें, जो कि है हमारे ही यहाँ का; तो वह 50 रुपये से लेकर 550 रुपये से दा तक का मिलता है।

इस हिसाब से अगर पानी पर पूरी तरह पूँजीपतियों का क़ब्ज़ा हो जाएगा, तो सोचिए कि हमें हर काम के लिए पानी ख़रीदना पड़ेगा। महामारी कोरोना वायरस के दौरान बड़ी संख्या में लोग मोटी रक़म चुकाकर ऑक्सीजन ख़रीद चुके हैं। ज़ाहिर है प्रकृति के सबसे बड़े दुश्मन बन चुके मानव द्वारा जिस तेज़ी से जंगल काटे जा रहे हैं, अगर यही स्थिति रही, तो आने वाले क़रीब पाँच-सात दशकों में लोगों को साँस लेने के लिए भी ऑक्सीजन ख़रीदनी पड़ेगी। यानी जिन प्राकृतिक संसाधनों पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और जो चीज़े ईश्वर ने या कहें कि प्रकृति ने हमारे अधिकार के रूप में हमें समान रूप से प्रदान की हैं, उन पर चंद लालची और क्रूर पूँजीपतियों का क़ब्ज़ा हो जाएगा और वे इनकी कालाबाज़ारी करेंगे; इनके मनमाने दाम वसूलेंगे। विडंबना देखिए कि ये पूँजीपति मुफ़्त की चीज़े के बदले हमसे अवैध वसूली करेंगे; जिसे सरकारें वैध घोषित करेंगी!

पेयजल मीटर से शुरुआत

महाराष्ट्र का नागपुर देश का ऐसा पहला बड़ा शहर है, जहाँ की जल व्यवस्था निजी क्षेत्र के हाथों में है। अब राजस्थान में पेयजल मीटर लगाने की शुरुआत हो चुकी है। अब राजस्थान का जलदाय विभाग पायलट प्रोजेक्ट के नाम पर नल में स्मार्ट मीटर लगाकर जयपुर से इसकी शुरुआत कर रहा है। इन मीटर्स की रीडिंग सेंसर के ज़रिये आ सकेगी, जिसे कम्पनी कर्मचारी दफ़्तर में बैठे-बैठे देख सकेंगे, तो उपभोक्ता मोबाइल ऐप पर देख सकेगा कि उसने कब, कितना पानी ख़र्च किया?

हालाँकि यह प्रोजेक्ट 2017 में पिछली सरकार द्वारा लाया गया था। लेकिन इसको पाँच साल के बाद मौज़ूदा सरकार लागू कर रही है। इससे साबित हो जाता है कि किसी भी राजनीतिक दल की सरकार रहे, पूँजीपतियों का काम नहीं रुकता। क्योंकि पार्टी फंड सभी को चाहिए होता है। हालाँकि यह स्थिति केवल राजस्थान में ही नहीं है, इसकी शुरुआत उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश में भी हो चुकी है। शिमला शहर में पेयजल कम्पनी एएमआर चिप वाले 7,000 नये स्मार्ट मीटर लगाने जा रही है। मीटर लगने पर कम्पनी मीटर की रीडिंग कम्प्यूटर पर देख सकेगी और बिल जारी करेगी। इसी तर्ज पर उत्तराखण्ड सरकार भी अब राज्य में पेयजल मीटर अनिवार्य करने जा रही है। इसके पहले मध्य प्रदेश के खंडवा ज़िले में भी यह योजना लागू की गयी थी और इसका ठेका एक निजी कम्पनी को दिया गया था; पर वहाँ यह प्रयोग सफल नहीं हुआ।

इस योजना की शुरुआत प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप (पीपीपी) यानी सार्वजनिक-निजी भागीदारी के ज़रिये हो चुकी है। इसमें पब्लिक पार्टनरशिप कहाँ है? समझ नहीं आता। सरकारों को लगता है कि जल स्रोतों के रख-रखाव से लेकर वितरण तक की ज़िम्मेदारी निजी क्षेत्र के हाथों में सौंपने से जल प्रबन्धन की समस्या का समाधान किया जा सकता है। लेकिन जानकारों का मानना है कि इससे जल माफिया मनमानी करेंगे और आम आदमी जल पर अपने जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित हो जाएगा और उसे उसके इस्तेमाल के लिए उसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी।

सामाजिक कार्यकर्ता और विचारक भंवरलाल गोदारा कहते हैं कि देश के हर शहर, क़स्बे में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जो दो वक़्त का भोजन भी बड़ी मुश्किल से जुटा पाते हैं। सरकार ऐसे समूहों को अनुवृत्ति (सब्सिडी) दरों पर जलापूर्ति करती है। यदि निजी हाथों में जल व्यवस्था चली जाती है, तो इन लोगों का क्या होगा? 21वीं शताब्दी में साफ़ पानी सबसे बड़ी समस्या है। जल उद्योग का वार्षिक राजस्व आज तेल क्षेत्र के राजस्व से तक़रीबन 40 $फीसदी ऊपर जा पहुँचा है। फॉरच्यून पत्रिका की एक पूर्व रिपोर्ट के मुताबिक, ‘20वीं शताब्दी के लिए तेल की जो क़ीमत थी, 21वीं शताब्दी के लिए पानी की वही क़ीमत होगी।’ जलस्रोत सूख ही रहे हैं। सरकारें पानी से भी मुना$फा कमाना चाहती हैं। इसीलिए वो पानी का निजीकरण कर रही हैं। मरेगा कौन? पहले से ही महँगाई, भारी-भरकम कर (टैक्स) और तमाम तरह की परेशानियों के बोझ तले दबा उपभोक्ता।

निजीकरण के ख़तरे

दक्षिणी अमेरिकी देश बोलिविया में सन् 1999 में विश्व बैंक के सुझाव पर बोलिविया सरकार ने क़ानून पारित कर कोचाबांबा की जल प्रणाली का निजीकरण कर दिया था। उन्होंने पूरी जल प्रणाली को एगुअस देल तुनारी नाम की एक कम्पनी को बेच दिया, जो कि स्थानीय व अंतर्राष्ट्रीय सहयोगियों का एक संघ था।

क़ानूनी तौर पर अब कोचाबांबा की ओर आने वाले पानी और यहाँ तक कि वहाँ होने वाली बारिश के पानी पर भी एगुअस देल तुनारी कम्पनी का अधिकार हो गया। निजीकरण के कुछ समय बाद कम्पनी ने घरेलू पानी की क़ीमतों में क़रीब 300 फ़ीसदी की भारी बढ़ोतरी कर दी। कम्पनी के इस ग़ैर-वाजिब निर्णय से लोग सडक़ों पर आ गये। कोचाबांबा में पानी के निजीकरण विरोधी संघर्ष शुरू हुआ, जो लगातार सात साल से अधिक समय तक चला। इस संघर्ष में तीन जानें गयीं और सैकड़ों लोग जख़्मी हुए।

बोलिविया द्वारा जिस निजी कम्पनी को जल पर नियंत्रण रखने का ठेका दिया गया था, उसका एकमात्र उद्देश्य देश के बुनियादी संसाधनों पर क़ब्ज़ा करके सिर्फ़ मुनाफ़ा कमाना था। जबकि इस कम्पनी से जुड़े पूँजीपतियों ने जल संसाधनों पर क़ब्ज़ा करने में कोई निवेश नहीं किया था।

बहरहाल बोलिविया के अनुभव से भारत को सीख लेनी चाहिए। हमारी सरकारों, ख़ासतौर पर केंद्र सरकार को जलक्षेत्र में सार्वजनिक-निजी भागीदारी से बचना चाहिए। इस देश की सभ्यता, संस्कृति और परम्परा दरवाज़े पर आये किसी भी जाने-अनजाने व्यक्ति को जलपान आदि कराने की रही है; जिसे लोग अपना धर्म और पुण्य का काम समझकर करते आये हैं। यह इस बात का प्रतीक है कि हमारे यहाँ प्राकृतिक संसाधनों को ख़रीदने-बेचने की परम्परा कभी नहीं रही। लिहाज़ा सरकारों को ऐसा करने से पहले आत्ममंथन की आवश्यकता है।

इसके बावजूद अगर सरकारें नहीं मानती हैं, तो इसका विरोध करने में सबसे अग्रणी भूमिका विपक्षी दलों, सामाजिक संगठनों, पत्रकारों, बुद्धिजीवी वर्ग, समाजसेवियों और जागरूक लोगों को निभानी चाहिए। यह उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी भी है। क्योंकि आम जनता को तो यह भी पता नहीं होता कि उसके अपने क्षेत्र में क्या हो रहा है? ऐसे में सरकारों की रणनीति के बारे में वह कैसे जान सकती है? जब तक कि देश के जागरूक लोग उसे नहीं बताएँगे। लेकिन आजकल ऐसा होता दिख नहीं रहा है। क्योंकि हमारे निजी स्वार्थ, लालच, गहरी तंद्रा और हमें क्या मतलब की सोच के चलते बिजली तो पूरी तरह से निजी हाथों में जा ही चुकी है। अब पेयजल व्यवस्था पर भी निजी क्षेत्र का क़ब्ज़ा हो गया, तो क्या होगा? अगर हम आज भी नहीं जागे, तो वह दिन दूर नहीं, जब लोगों को विरासत में मिले हर प्राकृतिक संसाधन के उपयोग के लिए मोटी क़ीमत चुकानी पड़ेगी।

(लेखक दैनिक भास्कार के राजनीतिक संपादक हैं।)

काबुल एयरपोर्ट पर लोगों की भारी भीड़, देश छोड़ने के लिये कर रहे है जद्दोजहद

अमेरिकी सेना के जाने के कुछ दिनों बाद ही तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया था। कब्जे के बाद से ही लोग डर के कारण अफगानिस्तान की राजधानी काबुल को छोड़कर भाग रहे है।

हवाई अड्डे पर बेहद अफरा तफरी मची हुई है। देश छोड़कर भागने के लिए लोग जद्दोजहद में लगे है। देश के राष्ट्रपति अशरफ गनी पहले ही देश छोड़कर जा चुके है और उनकी किसी भी प्रकार की सूचना नहीं है कि वे देश छोड़कर कहां गये है। तालिबान के इतिहास में हिंसा इतनी ज्यादा है कि राष्ट्रपति नजीबुल्लाह को जान से मारने की कहानी भी उनके इतिहास में दर्ज है।

एयर इंडिया के विशेष विमान से अफगानिस्तान से दिल्ली पहुंचे लोगों के चेहरे पर तालिबान का खौफ साफ-साफ नजर आ रहा है। इन लोगों में अफगानिस्तान के नेता व मंत्री भी शामिल है। जो भारत मे शरण लेने यहां आए है।

अफगानिस्तान से दिल्ली पहुंचे लोगों की संख्या करीब 200 बताई जा रही है।

काबुल एयरपोर्ट पर गोलीबारी में 5 लोगों की मौत, एयर स्पेस बंद, देश पर तालिबान का कब्जा  

अफगानिस्तान में 20 साल के बाद तालिबान के कब्जे के बीच राजधानी काबुल के एयरपोर्ट पर अमेरिका की सेना की फायरिंग में कम से कम पांच लोगों की मौत होने की रिपोर्ट्स हैं। फायरिंग के बाद एयरपोर्ट पर अफरा-तफरी मचने वाले वीडियो सामने आए हैं। देश पर तालिबान के सम्पूर्ण कब्जे के बाद हजारों लोग काबुल छोड़कर भागने की कोशिश कर रहे हैं। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी के सहयोगियों के साथ रविवार को ही देश छोड़कर कज़ाख़िस्तान चले जाने की रिपोर्ट्स हैं। इस बीच काबुल एयरपोर्ट पर विमान संचालन पर रोक लगा दी गयी है।

काबुल एयरपोर्ट पर सोमवार को हजारों लोगों की भीड़ के चलते हंगामा हुआ जिसके बाद अमेरिकी फौज ने गोलियां चलाई। गोलीबारी में कम से कम 5 लोगों की जान चले जाने की रिपोर्ट्स हैं। एयरपोर्ट पर मची अफरातफरी को देखते हुए यहां से फ्लाइट्स बंद करने की घोषणा की गयी है। फिलहाल एयरपोर्ट पर अमेरिका सेना का कब्ज़ा है और तालिबान वहां कब्ज़ा जमाने की कोशिश कर रहे हैं। तालिबान ने लोगों से अपने घरों में रहने को कहा है, लेकिन दहशत से भरे लोग घर छोड़कर भाग रहे हैं। अमेरिकी सेना हवा में गोलियां चला रही है जिससे लोगों में खौफ भरा है।

अमेरिका ने राजधानी काबुल स्थिति अपने दूतावास को पूरी तरह से खाली कर दिया है। हालांकि दूतावास के कार्यक्रम सभी जरूरी काम काज काबुल एयरपोर्ट से किए जाएंगे जहाँ अमेरिका और फ्रांस समेत कई देशों ने अपने दूतावास बनाए हैं। उधर अमेरिका ने कहा है कि अपने नागरिकों, अपने मित्रों और सहयोगियों की अफगानिस्तान से सुरक्षित वापसी के लिए वह काबुल हवाईअड्डे पर 6,000 सैनिकों को तैनात करेगा। विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने महत्वपूर्ण सहयोगी देशों के अपने समकक्षों से बात की है।

अमेरिका और यूरोपीय संघ के नेतृत्व में 60 से अधिक देशों ने संयुक्त बयान जारी करके अफगानिस्तान में शक्तिशाली पदों पर आसीन लोगों से अनुरोध किया गया है कि वे मानवीय जीवन और संपत्ति की रक्षा की जिम्मेदारी और जवाबदेही लें और सुरक्षा और असैन्य व्यवस्था की बहाली के लिए तुरंत कदम उठाएं। फिलहाल भारत खुद को इन तमाम गतिविधियों से अलग रखे हुए हैं।

इस बीच अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का ब्यान भी सामने आया है। इसमें ट्रम्प ने कहा है – ‘तालिबान का विरोध किए बिना काबुल का पतन होना अमेरिकी इतिहास की सबसे बड़ी हार के रूप में दर्ज होगा। जो बाइडन ने अफगानिस्तान में जो किया वह अपूर्व है। इसे अमेरिकी इतिहास की सबसे बड़ी हार के रूप में याद रखा जाएगा।’ उधर संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की पूर्व राजदूत निक्की हेली ने भी इसे बाइडन प्रशासन की विफलता करार दिया है।

याद रहे तालिबान के काबुल में राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लेने और इसके निर्वाचित नेता अशरफ गनी के अपने वरिष्ठ अधिकारियों के साथ देश छोड़कर ताजिकिस्तान चले जाने के बाद ट्रंप का यह ब्यान सामने आया है। अफगान सुरक्षा बलों के तालिबान के सामने इस बुरी तरह और जल्दी बिना प्रतिरोध के हारने को दुनिया भर में हैरानी से देखा जा रहा है। अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने भी अफगान सेना का जिक्र करते हुए कहा – ‘हमने देखा कि बल देश की रक्षा करने में असमर्थ है और यह हमारे पूर्वानुमान से बहुत ज्यादा जल्दी हुआ है।’

उधर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने अफगानों की जान बचाने और मानवीय सहायता पहुंचाने के मकसद से तालिबान और सभी अन्य पक्षों से संयम बरतने का आग्रह किया है। संयुक्त राष्ट्र के प्रवक्ता स्टीफन दुजारिक ने – ‘संयुक्त राष्ट्र एक शांतिपूर्ण समाधान में योगदान करने, सभी अफगानों, विशेषकर महिलाओं और लड़कियों के मानवाधिकारों की रक्षा करने और जरूरतमंद नागरिकों को जीवन रक्षक मानवीय और महत्वपूर्ण सहायता प्रदान करने के लिए दृढ़ संकल्प है।’

अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सुष्मिता देव ने दिया पार्टी से इस्तीफा

अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की अध्यक्ष व पूर्व सांसद सुष्मिता देव ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखकर पार्टी से इस्तीफा दे दिया है।

सुष्मिता देव असम के सिलचर से लोकसभा सदस्य भी रही है। व उन्हें असम की बंगाली भाषा बराक घाटी में कांग्रेस का एक बड़ा चेहरा माना जाता था। उनके पिता संतोष मोहन देव करीब सात बार सांसद रहे है।

उन्होंने अपने ट्विटर अकाउंट बायो में कुछ बदलाव किए है। बदलाव की गई जानकारी में ‘पूर्व कांग्रेस सदस्य’ और ‘अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष’ लिखा है।

सोनिया गांधी को लिखे पत्र में उन्होंने पार्टी से त्यागपत्र की कोई ठोस वजह नहीं बताई है। लेकिन कहा है कि वे “जन सेवा का एक नया अध्याय शुरू करने जा रही है। व पार्टी में रहकर खुद को मिले मार्गदर्शन के लिए आभार व्यक्त किया है।“

हालांकि, सुष्मिता ने अपने अगले राजनीतिक कदम की जानकारी फिलहाल साझा नहीं की है। परंतु सूत्रों के हवाले से खबर है कि वे तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो सकती है।

सीने के आर-पार हुई चार इंच चौड़ी रॉड, फिर भी बच गए

पंजाब के बठिंडा-भुच्चो मंडी रोड पर एक निजी अस्पताल के पास मिनी ट्रक का टायर फट जाने से वह डिवाइडर से टकरा गया। यहां काम करने वाले हरदीप सिंह की छाती में चार इंच चौड़ी और छह फुट लंबी लोहे की रॉड सीने के आर-पार हो गई। गनीमत रही कि उसे समय से तत्काल अस्पताल पहुंचाकर इलाज शुरू कर दिया गया। वीरवार दोपहर हुए इस भयानक हादसे में उसकी जान बच गई। डॉक्टरों ने करीब साढ़े चार घंटे के आपरेशन के बाद उसकी छाती से रॉड निकाल दी। हादसे के बाद से अस्पताल में ऑपरेशन होने तक हरदीप सिर्फ वाहेगुरु-वाहेगुरु जपते रहे। इलाज के बाद बाद हरदीप बेहतर महसूस कर रहे हैं।

अबोहर के रहने वाले हरदीप सिंह अस्पताल के पास से टाटा एस से जा रहे थे। इसी बीच, टाटा एस का टायर फट गया और लोहे की करीब चार इंच मोटी रॉड उसके सीने से आर-पार हो गई। सीने पार हुई रॉड समेत हरदीप को अस्पताल में भर्ती कराया गया। उसके सीने में घुसी रॉड को देखकर सभी हैरान थे। अस्पताल के सर्जरी के माहिर डॉक्टर सौरभ ढांडा द्वारा उसे तुरंत इमरजेंसी में दाखिल किया गया।जब हरदीप सिंह को अस्पताल लाया गया। हादसे के बारे में हरदीप सिंह ज्यादा कुछ नहीं बता पाया। उसे सिर्फ इतना ही याद था कि हादसा टाटा एस से हुआ।

42 साल के हरदीप सिंह के सीने के आर-पार लोहे के रॉड हादसे का वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हो गया है। उनकी हालत देखकर मौके पर मौजूद लोगों का दिल दहल गया, लेकिन हिम्मत जुटाकर लोगों ने दर्द से कराह रहे हरदीप को तुरंत पास के अस्पताल पहुंचाया। विशेषज्ञों ने पहले कटर से हरदीप के सीने के आर-पार हुई रॉड को काटा गया। इसके बाद ऑपरेशन शुरू किया। रॉड दिल से महज आधा सेंटीमीटर दूर थी। डॉक्टरों का कहना है कि अगर दिल को कुछ नुकसाना हो जाता तो बचाना मुश्किल हो जाता।

करीब साढ़े 4 घंटे के ऑपरेशन के बाद डॉक्टर्स ने उसके सीने के आर-पार हुई रॉड को निकाला। रॉड की वजह से हरदीप की छाती में 4 इंच का छेद हो गया था। अब वह खतरे से बाहर है, लेकिन एहतियातन उसे वेंटिलेटर पर रखा गया है।