Home Blog Page 628

अयोध्या में मस्जिद के लिए भी टैक्स में छूट

आख़िर नौ महीने के इंतज़ार के बाद इंडो-इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन को अयोध्या में मस्जिद निर्माण के लिए मिलने वाला चंदा कर (टैक्स) छूट के दायरे में होगा। इसी मुद्दे पर आधारित श्वेता मिश्रा की रिपोर्ट :-

इंडो-इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन (आईआईसीएफ) की देखरेख में मस्जिद के निर्माण के लिए कर (टैक्स) छूट का निर्णय आवेदन किये जाने के क़रीब नौ महीने बाद हुआ है। इंडो-इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन का गठन कर इसमें नौ सदस्यों को शामिल किया गया। अभी छ: और सदस्य ट्रस्ट में जल्द जुड़ेंगे। यह ट्रस्ट अयोध्या में मस्जिद और इस्लामिक सेंटर के निर्माण की निगरानी करेगा। उल्लेखनीय है कि आयकर अधिनियम की धारा-80(जी) निर्दिष्ट राहत कोष और धर्मार्थ संगठनों को दान करने पर उसमें आयकर छूट मिलती है।
फाउंडेशन के अध्यक्ष ज़फ़र फ़ारूक़ ने कहा कि उन्होंने पिछले साल पहली सितंबर को आयकर अधिनियम की धारा-80 जी के तहत कर छूट के लिए आवेदन किया था और आवेदन 21 जनवरी को ख़ारिज कर दिया गया था। उन्होंने 3 फरवरी को फिर से आवेदन किया और 10 मार्च तक सवालों के जवाब दिये। उन्होंने बताया कि आयकर विभाग द्वारा उठायी गयी आपत्तियों की प्रक्रियात्मक देरी ने मस्जिद के निर्माण के लिए मिलने वाले चंदे में दिक़्क़त पैदा की। उन्होंने आरोप लगाया कि प्रमाण-पत्र मिलने में हो रही देरी को देखते हुए विदेशों से भी चंदा अटका हुआ है। अब तक हमें महज़ 20 लाख रुपये मिले हैं। हमने चंदे के लिए कोई अभियान शुरू नहीं किया है। सभी शुभचिन्तकों ने स्वेच्छा से दान दिया है। ट्रस्ट के अधिकारियों ने कहा कि देरी के कारण पूरी परियोजना को रोक दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद राज्य सरकार द्वारा आवंटित पाँच एकड़ ज़मीन पर मस्जिद के साथ परियोजना के तहत राष्ट्र निर्माण में मुसलमानों के योगदान को उजागर करने के लिए एक 300 बिस्तरों वाला सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल, एक इंडो-इस्लामिक रिसर्च सेंटर और एक सामुदायिक रसोई का निर्माण किया जाना है। शोध संस्थान में एक पुस्तकालय और संग्रहालय भी बनाया जाएगा।
ट्रस्ट के सचिव अतहर हुसैन ने कहा कि उन्हें अब प्रमाण पत्र मिल गया है। लेकिन वह चंदा जमा करने के लिए कोई ख़ास अभियान कभी भी शुरू नहीं करेंगे। यह पब्लिक डोमेन में होगा कि हम अन्य सुविधाओं के साथ एक मस्जिद का निर्माण कर रहे हैं। जो लोग चंदा देना चाहते हैं, वे कर सकते हैं। देश और विदेशों में पहले से ही कुछ लोगों ने चंदा देने का वादा किया है। सर्वोच्च न्यायालय के अयोध्या फ़ैसले के बाद गठित ट्रस्ट धारा-80(जी) प्रमाणीकरण के बिना धन की कमी की बात कही जा रही थी, जिससे धर्मार्थ प्रतिष्ठानों को दान के लिए कर में छूट देता है। आयकर विभाग द्वारा उठायी गयी आपत्तियों और सवालों के चलते मस्जिद-अस्पताल परिसर के निर्माण के लिए दान में बाधा उत्पन्न हुई। विदेशी अंशदान नियमन अधिनियम (एफसीआरए) की मंज़ूरी के अभाव में विदेशों से भी अंशदान अवरुद्ध हो गया, जो धारा-80(जी) को अनिवार्य शर्त बनाता है। आईआईसीएफ ने कर छूट जारी न करने पर वित्त मंत्रालय को हस्तक्षेप करने के लिए अनुरोध भेजा था।
कर छूट प्रमाण-पत्र के साथ इंडो-इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन ने अयोध्या विकास प्राधिकरण को मस्जिद की निर्माण योजना सौंपी है, जिसका निर्माण अयोध्या के धन्नीपुर गाँव में किया जाएगा। सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड द्वारा गठित मस्जिद ट्रस्ट ने इन निर्माणों के लिए ग़ैर-मुसलमानों सहित लोगों के एक बड़े वर्ग से दान के लिए बैंक विवरण जारी किया है। बाबरी मस्जिद के बदले ट्रस्ट, इंडो इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन ने दो प्रमुख निजी क्षेत्र के बैंकों में लखनऊ के हेवेट रोड और विभूति खण्ड, गोमती नगर की शाखाओं में दो चालू खाते खोले हैं।
ट्रस्ट के सचिव अतहर हुसैन ने कहा- ‘धन्नीपुर परिसर को साम्प्रदायिक सद्भाव की अनूठी मिसाल पेश करते हुए चिकित्सा, शिक्षण और उपदेश का केंद्र बनाने को हम सभी समुदायों से दान स्वीकार करेंगे। हमने दान प्राप्त करने के लिए एक गेटवे के साथ ट्रस्ट की एक वेबसाइट और पोर्टल बनाने का फ़ैसला किया है; क्योंकि हमें दान करने के इच्छुक लोगों से कई कॉल आ रहे हैं।’ उन्होंने स्पष्ट किया कि धन्नीपुर परिसर के लिए सभी समुदायों से चंदा लिया जाएगा। इसके लिए असम के एक सांसद अब्दुल ख़ालिक़ ने दान करने की पेशकश की है और हमें मुस्लिम भाइयों के साथ हमारे हिन्दू भाई भी चंदा देने के लिए उत्सुक हैं।
अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण के लिए राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट बनाया गया है। 9 नवंबर, 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने फ़ैसले के बाद ने सरकार को तीन महीने के भीतर राम मन्दिर निर्माण के लिए न्यासी बोर्ड के गठन को एक ट्रस्ट बनाने का आदेश दिया था। न्यायालय ने फ़ैसले में कहा था कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस और 1949 में बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखना ग़ैर-क़ानूनी था। फ़ैसले के बाद राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले को निपटाने के बाद मोदी सरकार द्वारा 15 सदस्यीय ट्रस्ट का गठन किया गया था। ट्रस्ट ने नृत्य गोपाल दास को अपना अध्यक्ष चुना था, जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पूर्व प्रमुख सचिव नृपेंद्र मिश्रा को अयोध्या में राम जन्मभूमि मन्दिर की मन्दिर निर्माण समिति का प्रमुख नियुक्त किया गया, जो ट्रस्ट के सदस्यों में शामिल हैं। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील के. परासरन न्यासी बोर्ड के प्रमुख के रूप में, जबकि ट्रस्ट के अन्य सदस्य हैं- जगतगुरु शंकराचार्य, ज्योतिषपीठाधीश्वर स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती जी महाराज इलाहाबाद से, जगतगुरु माधवाचार्य स्वामी विश्व प्रसन्नातीर्थ जी महाराज, पेजावर मठ उडुपी में, हरिद्वार से युगपुरुष परमानंद जी महाराज, पुणे से स्वामी गोविंददेव गिरि जी महाराज और अयोध्या से विमलेंद्र मोहन प्रताप मिश्रा।

सच्चे पर्यावरण रक्षक

दरिपल्ली रामय्या नि:स्वार्थ भाव से लगा चुके हैं एक करोड़ से अधिक पौधे

आजकल लोग एक पौधा लगाकर फोटो खिंचाते हैं और बड़े शौक़ से सोशल मीडिया पर डालते हैं। लेकिन कई लोग ऐसे भी हैं, जो प्रकृति को बचाना और पौधरोपण को अपना धर्म और परम् कर्तव्य समझते हैं। लेकिन दक्षिण भारत में दरिपल्ली रामय्या नाम के एक व्यक्ति ने एक करोड़ से अधिक पौधे लगाकर भी कभी ढिंढोरा नहीं पीटा।


दरिपल्ली रामय्या एक पढ़े-लिखे, प्रकृति प्रेमी, साइकिल पर सफ़र करने वाले सीधे-सादे व्यक्ति हैं, जिन्हें सिर्फ़ इतना अच्छी तरह पता है कि वृक्षों का मनुष्य के जीवन में क्या महत्त्व है। इसी बिना पर अपने जुनून को अंजाम देने में लगे इस अवलिया ने लोगों की परवाह किये बग़ैर इस महान् कार्य को किया, वह भी बिना कोई उपद्रव या शोर किये। पौधरोपण का इतना जुनून कि गाँव के कुछ लोग इन्हें पागल मानते हैं और कहते हैं कि वह सिर्फ़ अपना समय बर्बाद कर रहा है। लेकिन काम जारी है। यह ऐसा था मानो वह जुनूनी हो। इस अवलिया का नाम है दरिपल्ली रामय्या। वह तेलंगाना राज्य के खंमम ज़िले का निवासी है। उनके गाँव के लोग ही इस तरकीब को जानते हैं। इसीलिए कुछ लोग इसे चेट्टला रामय्या भी कहते हैं। तेलुगु के शब्द चेट्टू का अर्थ होता है- वृक्ष। फिर वह झाड़ वाला रामय्या बन गया।


अब हर कोई उसे इस नाम से जानता है। यह रामय्या न केवल बीज बोता है, बल्कि वह उन बीजों का बीजारोपण भी करता है। उन्होंने पेड़ों के महत्त्व के बारे में अपने विभाग के पार्षद को आश्वस्त किया।
उस नगर सेवक की मदद से रामायण ने खंमम ज़िले में एक नहर को चुना। फिर चार किलोमीटर के दायरे में नहर के दोनों किनारों पर कई पेड़ लगाये गये। रामय्या सिर्फ़ पेड़ लगाने पर ही नहीं रुकते, बल्कि पेड़ों के बड़े होने तक उनकी देखभाल ख़ुद साइकिल पर घूम घूम करते हैं। यह छोटे बच्चे की तरह पौधे उगाते हैं। जो पेड़ उग आये हैं, वे कुछ ही दिनों में बड़े पेड़ बन भी जाएँगे। रामय्या द्वारा लगाये गये पेड़ों में असंख्य प्रकार के पेड़ हैं। रामय्या ने बेल, पीपल, कदंब, नीम, चंदन, रक्त चंदन जैसे बड़े पेड़ लगाये। उनका गाँव हरा-भरा है, अकेलेपन के कारण भी रामय्या की पत्नी ने इस काम में उनकी बहुत मदद की है। टिक वृक्ष के बीज कठोर खोल के अन्दर होते हैं और बीज को तोडऩा पड़ता है। रामय्या ने अकेले ही इसे तोडऩे की कोशिश की लेकिन बीज मिलने में लम्बा समय लगा। वह कैसे हुआ? वह भी एक मज़ाक़ है। एक दिन व रामय्या की पत्नी चूल्हे के सामने बैठकर खाना बनाती थी।तब रा को एक आइडिया आया। उसने खोल के बीज के साथ एक बोरी भर दी और वह बीवी को नीचे बैठने लिए हर दिन इस पर बैठकर, खोल फूटते गये और बीज अपने आप बाहर आते गये। हर कोई आश्चर्य करता है कि रामय्या को इस काम से क्या मिलता है? रामय्या कहते हैं कि मैं ऐसा इसलिए करता हूँ, क्योंकि इससे मुझे शान्ति और सन्तोष मिलता है।
‘वृक्षो रक्षति रक्षिता’ के नारे के साथ रामय्या लोगों के सामने आये। जिसका अर्थ है- ‘वृक्ष अपने रक्षकों की रक्षा करते हैं।’ इतना करने के बाद भी वह चुप नहीं बैठे। जीला की लाइब्रेरी से कई वृक्ष लगाने की मालूमात देने की किताबें हासिल कीं। साथ ही वैज्ञानिक तरीक़े से खेती भी करना भी सीखा।
अब वह पौधे बना रहे हैं और उन्हें उस तरह से वितरित भी कर रहे हैं। ऐसा करने के बाद भी, वह नहीं रुकता नहीं है, लेकिन जनजागृति के लिए रामय्या ने तेलुगु भाषा में कुछ श्लोगन बनाये हैं। और उसे जनजागृति के लिए अच्छे रंगों के साथ गाँव की दीवारों पर चित्रित कर दिया है। वह पुरानी कारों से क्लच प्लेट भी लाते हैं और काग़ज़ के टुकड़ों को भी हरा-भरा कर देते हैं। अब लोग भी पेड़ लगाओ, पेड़ लगाओ, प्रकृति से जुड़ो, इस तरह के नारे लिखकर जागरूकता बढ़ा रहे हैं।
एक बार रामय्या अपनी साइकिल से गिर गये और एक दुर्घटना हो गयी। उनके पैर में गम्भीर चोट लगी थी। इससे उनके पैर की हड्डी टूट गयी और कुछ महीनों के लिए उनका बाहर जाना बन्द ही गया। लेकिन उनका काम नहीं रुका। भले पैर जख़्मी है, लेकिन हाथ तो काम कर सकते हैं ना! इसलिए रामय्या ने अपने घर में ही पौधे लगाना जारी रखा। उनका काम बिल्कुल भी नहीं रुका। एक आदमी ने अपने बेटे की शादी के मौक़े पर रामय्या को काम के लिए मदद के रूप में 5,000 रुपये दान किये। उन पैसों को भी रामय्या ने पेड़ लगाने पर भी ख़र्च किया। नस-नस में क़ुदरत का प्यार भरने वाले रामय्या को लोगों ने सलाह दी, जो प्रकृति से प्यार करता हैं, प्रकृति उससे बेइंतेहा प्यार करती हैं।
लोगों ने कहा- ‘रामय्या! जो पेड़ आपने लगाये हैं, उन्हें बेचकर तुम ख़ूब पैसा कमा सकते हो।’ इस पर रामय्या ने कहा- ‘मैंने इस काली माँ के गर्भ से पैदा हुए पेड़ों को बिक्री के लिए नहीं लगाया है। इन पेड़ों से हम सभी को फ़ायदा होगा। इससे स्वच्छ हवा मिलने के साथ-साथ, बारिश और पर्यावरण का संतुलन बनाये रखा जाएगा, इसलिए मैंने इन पेड़ों को लगाया है। प्रकृति हमसे पूछे बिना उन सभी पेड़ों का निर्माण करती है, जो हमारे लिए उपयोगी हैं। वे आपको अच्छे फल-फूल देते हैं। इसलिए प्रकृति की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है।’


वह आगे कहते हैं- ‘आप अपने बच्चों को सिर्फ़ फल ही नहीं खिलाने चाहिए, उन्हें एक पौधा देकर, उन्हें इसे लगाने के लिए कहें। उसे बचपन से इसकी देखभाल करना सिखाएँ। इसका मतलब यह है कि जब बच्चे बड़े हो जाएँगे, तो वे उसी पेड़ के मीठे फल का स्वाद ले पाएँगे। वह ख़ुशी कुछ अलग-सी यादगार अनमोल होगी। जो बच्चे आज छोटे हैं, वे कल के नागरिक होंगे। फिर उन्हें कम उम्र में प्रकृति का ज्ञान दें, ताकि वे बड़े होकर महानता का आनंद ले सकें। मैंने सरकार से कहा कि अगर आप सरकारी ज़मीन में चंदन लगाते हैं और बड़े होने पर उसे बेचते हैं, तो सरकार द्वारा ही इसकी नीलामी की जाएगी। इसका मतलब है कि आपको बहुत पैसा मिलेगा।’ सरकार ने भी रामय्या के इस सुझाव को स्वीकार कर लिया। रामय्या अपने काम के प्रति बहुत-ही वफ़ादार हैं; जिसकी बदौलत उन्हें अब अपने श्रम का फल हर जगह से मिल रहा है। लोग अब उनके इस अनोखे काम की तारीफ़ हर ओर से कर रहे हैं। उन्हें स्वत: ही प्रसिद्धि मिलनी शुरू हो गयी है। कुछ राज्य स्तरीय सरकारी पुरस्कारों के साथ, उन्हें 2017 में भारत सरकार से पद्मश्री पुरस्कार भी मिला है। मशहूर होने की आस और धन पाने की लालसा से परे इस क़ुदरत-प्रेमी दरीपल्ली रामय्या के परिश्रम से क़ुदरत की समृद्धि यूँ ही पल-पल बढ़ती रहे। इसी तीव्र इच्छा से काम करने वाले अवलिया को शत्-शत् नमन।

हीरों के लिए मध्य प्रदेश सरकार देगी 2.16 लाख पेड़ों की बलि

विरोध में उतरे लाखों लोग, परियोजना रद्द करने की उठायी माँग

मध्य प्रदेश के जंगल केवल इस राज्य की ही नहीं, बल्कि पूरे देश की अनमोल धरोहर हैं। अभी क़रीब एक महीने पहले यहाँ के लाखों हेक्टेयर जंगल आग में जल गये, जिन्हें बचाने की कोशिश के अलावा लोगों ने आवाज़ भी उठायी। अब 20 मई, 2021 को अचानक सोशल मीडिया पर #Save_Buxwaha_forest,#बकस्वाहा_बचाओ_अभियान जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे और छतरपुर ज़िले का बकस्वाहा के जंगल चर्चा में आ गये। दरअसल मध्य प्रदेश के छतरपुर ज़िले के बकस्वाहा में हीरा खनन प्रोजेक्ट के लिए तक़रीबन 2.16 लाख पेड़ों को काटा जाना है। दरअसल 3.42 करोड़ कैरेट हीरे निकालने के लिए 382.131 हेक्टेयर का जंगल तबाह करने की तैयारी राज्य सरकार कर रही है। इतने बड़े जंगल में आँवला के तक़रीबन 3311 और अमलतास के 2035 पेड़ हैं। इसकी शुरुआत भी कर दी गयी है। बकस्वाहा क्षेत्र में हीरा खनन प्रोजेक्ट के लिए पेड़ों का कटान शुरू होने से लोगों में भारी आक्रोश है। इतनी बड़ी संख्या में पेड़ों के कटान को लोग प्रकृति का विनाश बता रहे हैं। देश भर के पर्यावरण संरक्षण से जुड़े 50 से अधिक संगठनों समेत लाखों लोग इस परियोजना के विरोध में उतर आये हैं। पेड़ों का कटान रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका भी दायर की गयी है।

क्या है हीरा खनन प्रोजेक्ट?
मध्य प्रदेश सरकार ने 20 साल पहले छतरपुर ज़िले के बकस्वाहा में बंदर हीरा प्रोजेक्ट के तहत सर्वे शुरू किया था। बंदर हीरा प्रोजेक्ट का कार्य सरकार द्वारा पहले आस्ट्रेलियाई कम्पनी रियो टिंटो ग्रुप को आवंटित की गयी थी। कम्पनी ने लगभग 800 पेड़ भी काट दिये; लेकिन पर्यावरणविदों के विरोध के चलते केंद्रीय वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से उसे एनओसी नहीं मिल पायी। रियो टिंटो द्वारा खदान बन्द किये जाने के बाद मध्य प्रदेश सरकार ने अब यह प्रोजेक्ट दो साल पहले आदित्य बिड़ला ग्रुप को दे दिया। आदित्य बिड़ला ग्रुप के एस्सेल माइनिंग एँड इंडस्ट्रीज लिमिटेड को खनन के लिए हीरा भण्डार वाली 62.64 हेक्टेयर जंगलों की ज़मीन मध्य प्रदेश सरकार ने 50 साल के लिए लीज पर दी है। कम्पनी ने जंगलों की 382.131 हेक्टेयर ज़मीन सरकार से माँगी है। कम्पनी का तर्क है कि बाक़ी 205 हेक्टेयर ज़मीन में खदानों से निकले मलबे को डंप किया जाएगा। बताया जा रहा है कि बकस्वाहा में पन्ना ज़िले के हीरा खदान की अपेक्षा 15 गुना ज़यादा हीरे हैं, जिनकी क़ीमत लगभग 50,000 करोड़ रुपये है।

विरोध में उतरे विधायक
वन विभाग के अनुसार, बकस्वाहा के जंगल में लगभग 2,15,875 पेड़ हैं, जिन्हें प्रोजेक्ट के लिए काटा जाएगा। मध्य प्रदेश के तीन विधायक इस परियोजना के विरोध में उतर आये हैं। मध्य प्रदेश में सरकार को समर्थन दे रहे बिजावर से समाजवादी पार्टी के विधायक राजेश शुक्ला, बण्डा से कांग्रेस विधायक तरवर सिंह लोधी और मनावर विधायक डॉ. हिरालाल अलावा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को पत्र लिखकर पेड़ न काटने और उक्त परियोजना को रद्द करने की माँग की है।
राजेश शुक्ला ने अपने पत्र में कहा है कि वर्तमान में कोविड-19 की विभीषिका के चलते जहाँ लोग अपनों को बचाने के लिए सोना, चाँदी और हीरों को बेचकर ऑक्सीजन ख़रीद रहे हैं, वहीं हीरा खनन प्रोजेक्ट के तहत ऑक्सीजन देते वृक्षों की बलि देने की तैयारी की जा रही है। जब लोग नहीं बचेंगे, तो हीरे किस काम के रहेंगे? उन्होंने केंद्र और राज्य सरकार से अपने निर्णय पर पुन: विचार करने का आग्रह किया है।
बण्डा विधायक तरवर सिंह लोधी ने अपने पत्र में कहा है कि राज्य सरकार जहाँ एक भी पौधा नहीं लगा पा रही है, वहीं प्रकृति के सौंदर्य एवं मानव को जीवन देने वाले बकस्वाहा विकासखण्ड में हीरे की खदान के लिए 2.16 लाख वृक्षों का काटने पर तुली है, जो कि दुर्भाग्यपूर्ण और प्राकृतिक न्याय के ख़िलाफ़ है। यदि बकस्वाहा विकासखण्ड के वृक्षों का कटान तुरन्त नहीं रोका गया, तो समस्त नागरिकों के साथ हम आन्दोलन करने को बाध्य होंगे।
मनावर विधायक डॉ. हिरालाल अलावा ने अपने पत्र में कहा है कि बकस्वाहा में हीरा खनन प्रोजेक्ट के लिए लाखों पेड़ों को काटना सम्पूर्ण मानव समुदाय के लिए किसी त्रासदी से कम नहीं है। जंगल में मौज़ूद लाखों पेड़ प्रतिदिन लाखों मीट्रिक टन ऑक्सीजन बनाते हैं और अत्यधिक मात्रा में वातावरण में मौज़ूद कार्बन डाई आक्साईड को सोखने का काम करते हैं, जिससे हम ग्लोबल वार्मिंग जैसे दुष्प्रभावों से बचे रहते हैं। आज कोरोना महामारी के इस दौर में गम्भीर रूप से कोरोना संक्रमित मरीज़ों के लिए ऑक्सीजन की क्या क़ीमत होती है, यह हम सब जान रहे हैं। ऐसे में जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण ऑक्सीजन बनाने वाले लाखों हरे-भरे पेड़ों की हीरा खनन प्रोजेक्ट के नाम पर भेंट चढ़ाना पर्यावरण के लिए तो गम्भीर ख़तरा है ही, साथ ही परम्परागत रूप से जंगलों में निवास करने वाले लोगों, वन्य जीव प्राणियों के आस्तित्व को ख़त्म करने के ख़तरा जैसा है। जंगल काटे जाने से पारिस्थितिकी तंत्र असन्तुलित होगा, जिससे प्राकृतिक आपदाओं का ख़तरा भी पैदा होगा। डॉ. हिरालाल अलावा ने भी इस परियोजना को अविलम्ब रद्द करने की माँग की है।

एनओसी के बिना कटान
नियम के अनुसार, 40 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र के खनन का प्रोजेक्ट हो, तो उसे केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की मंज़ूरी लेनी पड़ती है। हीरा खदान के लिए 62.64 हेक्टेयर जंगल चिह्नित हैं, जबकि कम्पनी 382.131 हेक्टेयर जंगल माँग रही है। ऐसे में परियोजना को खनन के लिए केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की एनओसी आवश्यक है। वन विभाग में लैंड मैनेजमेंट के अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक सुनील अग्रवाल का कहना है कि प्रपोजल केंद्र सरकार को भेजा चुका है, लेकिन अभी मंज़ूरी नहीं मिली है।

सवालों के घेरे में वन विभाग की सर्वे रिपोर्ट
केंद्र से एनओसी के लिए वन विभाग द्वारा सर्वे कर जो रिपोर्ट तैयार की गयी है, उसमें हीरा खनन प्रोजेक्ट की परिधि में एक लाख पेड़ों का आना बताया गया है। जबकि दूसरी ओर वन विभाग 2,15,875 पेड़ों के काटे जाने की बात कर रहा है। ऐसे में वन विभाग की सर्वे रिपोर्ट पर सवाल उठने लगे हैं। पर्यावरण स्वीकृति (एनओसी) की फाइल केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के पास दिसंबर, 2020 से लम्बित है। अनुमति के सम्बन्ध में वन विभाग की सर्वे रिपोर्ट भी भेजी गयी है, जिसमें एक लाख पेड़ काटे जाने की बात कही गयी है। वन विभाग के अधिकारी कहते हैं कि जितने पेड़ काटे जाएँगे, उतने ही पौधे अन्यत्र राजस्व भूमि पर लगाये भी जाएँगे। जबकि पर्यावरणविद् मानते हैं कि इतनी संख्या में पौधरोपण करना और जंगल तैयार करना असम्भव कार्य है।
मनावर विधायक डॉ. हिरालाल अलावा ने भी वन विभाग के सर्वे रिपोर्ट पर सवाल उठाये हैं। डॉ. अलावा कहते हैं कि सर्वे में हीरा खनन प्रोजेक्ट की परिधि में सिर्फ़ एक लाख पेड़ों का आना बताया गया है, जो कि एक सफ़ेद झूठ है। सभी जानते हैं कि 2.16 लाख पेड़ काटे जाने हैं, तो सर्वे में सिर्फ़ एक लाख पेड़ों का कटान क्यों दर्शाया गया? सर्वे में वन्य जीव प्राणियों की संख्या का कोई ज़िक्र नहीं है। क्या सर्वे रिपोर्ट में तथ्यों को छुपाया गया है? आख़िर जिस प्रोजेक्ट को केंद्रीय वन पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा अभी तक एनओसी नहीं मिला है, उस प्रोजेक्ट में किस आधार पर 2.16 लाख पेड़ों और लाखों छोटे-बड़े पौधों वाले जंगल का विनाश किया जा रहा है?
पत्रकार राजू दुबे कहते हैं कि बकस्वाहा के जंगल बेशक़ीमती पेड़ों और वन्य प्राणियों सहित सघन वन से घिरा है। मई, 2017 में पेश की गयी जियोलॉजी एँड माइनिंग मप्र और रियोटिंटो कम्पनी की रिपोर्ट में इस क्षेत्र में तेंदुआ, भालू, बारहसिंगा, हिरण, मोर सहित कई वन्य प्राणियों के यहाँ मौज़ूद होना बताया गया, इस क्षेत्र में लुप्त हो रहे गिद्ध भी हैं।
ऐसे में वन विभाग के उपरोक्त सर्वे रिपोर्ट पर सवाल उठना लाज़िमी है। आख़िर क्यों दिसंबर में प्रस्तुत की गयी सर्वे रिपोर्ट में पेड़ों की संख्या कम बतायी गयी है? और क्यों दावा किया गया है कि यहाँ पर एक भी वन्य प्राणी नहीं हैं?
वास्तव में यह रिपोर्ट मूर्खता और धूर्तता भरी है, क्योंकि ऐसा कोई जंगल होता ही नहीं है, जहाँ कोई वन्यजीव न रहते हों।

आदिवासियों-परम्परागत वननिवासियों का विरोध
हीरा खदान के आसपास के जंगलों में रहने वाले आदिवासी-परम्परागत वननिवासी भी जंगल काटे जाने का विरोध कर रहे हैं। आदिवासियों-वननिवासियों का कहना है कि अगर जंगल कटे तो वे बर्बाद हो जाएँगे। उनकी जीविका जंगलों पर ही आश्रित है। जंगल से वन सम्पदा के रूप में महुआ, चिरोंजी, गुली, तेंदूपत्ता, चरवा इत्यादि वस्तुएँ प्राप्त होती हैं, जिससे आदिवासियों-वननिवासियों का परिवार पलता है। बकस्वाहा के जंगल पर आश्रित एक आदिवासी महिला ने बताया कि हमारे पास कोई ज़मीन नहीं है। हमारे लिए जंगल ही सब कुछ हैं। इन्हीं से हमारा परिवार पलता है। जंगल नहीं रहे, तो हमारे बच्चे भूखे मर जाएँगे।

हीरों से ज़्यादा ज़रूरी ऑक्सीजन
आज जब कोरोना महामारी के दौरान जब पूरा देश ऑक्सीजन की क़िल्लत से जूझ रहा है, तब लोगों को पेड़ों की अहमियत समझ में आयी है। ख़ुद मध्य प्रदेश में लाखों लोग ऑक्सीजन की कमी से मरे हैं और फिर भी राज्य सरकार पेड़ों को कटवाने पर तुली है। सरकार को स्पष्ट करना चाहिए कि जंगल ज़रूरी है या हीरे?
हीरा खदान के लिए पेड़ों के काटने का बुंदेलखण्ड के कई इलाक़ों में तीव्र विरोध होने लगा है। युवाओं के साथ-साथ शहरों-गाँवों के लोग भी लामबन्द हो रहे हैं। ऑक्सीजन की कमी से हुई मौतों के मद्देनज़र लोगों में यही चर्चा का विषय है कि क्या हीरा खदान जनता की जान से भी ज़रूरी हैं? क्या 2.16 लाख पेड़ों को काटना ज़रूरी हो गया है? इतनी बड़ी संख्या में पेड़ों के कटान का सबसे ज़्यादा विरोध युवा कर रहे हैं। विरोध के लिए युवा सोशल मीडिया साइट व्हाट्स ऐप, फेसबुक और ट्विटर का सहारा ले रहे हैं। ‘सेव_बकस्वाहा_फारेस्ट’ कैंपेन चला रहे हैं। पेड़ काटने के विरोध में देश भर में माहौल तैयार कर रहे हैं। अधिकतर युवा स्टेट्स और पोस्ट के ज़रिये पेड़ कटने का विरोध कर रहे हैं।
बकस्वाहा के जंगल को बचाने के लिए 5 जून को पर्यावरण दिवस के अवसर पर देश भर से पर्यावरणविदों और लोगों ने हीरा खनन प्रोजेक्ट का विरोध करने के लिए छतरपुर ज़िले के बकस्वाहा के जंगलों की ओर कूच किया और इस परियोजना का विरोध किया।

सर्वोच्च न्यायालय में याचिका
बकस्वाहा के जंगलों को बचाने के लिए दिल्ली की नेहा सिंह ने 9 अप्रैल, 2021 को सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की है, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने मंज़ूर कर लिया है। याचिका में कहा गया है कि हीरा के लिए जीनवदायी लाखों पेड़ों की बलि नहीं दी जा सकती। लाखों पेड़ों के कटने से पर्यावरण एवं मानव जीवन को अपूर्णीय क्षति होगी, जिसकी भारपायी सम्भव नहीं है। हीरा खनन हो, लेकिन हमारे जीवन के लिए ज़रूरी पेड़ों की बलि देकर नहीं। जिस क्षेत्र में खनन की अनुमति दी गयी है, वह न्यूनतम जल क्षेत्र है। यहाँ पहले से ही पानी की कमी है। कम्पनी के काम के लिए बड़ी मात्रा में इस इलाक़े से पानी का दोहन होगा, जिससे आसपास का जल स्तर भी प्रभावित होगा। लोगों को पानी की दिक़्क़त होगी और वन्य प्राणी भी प्यासे मरेंगे। लिहाज़ा आदित्य बिड़ला ग्रुप को दी गयी लीज निरस्त की जाए।

बुंदेलखण्ड को रेगिस्तान बनाने की तैयारी
लोगों का कहना है कि सूखे की मार झेल रहे बुंदेलखण्ड को रेगिस्तान बनाने की तैयारी चल रही है। बुंदेलखण्ड क्षेत्र के पथरिया निवासी अंकित पटेल कहते हैं कि भारत की सबसे बडेहीरा भण्डार की जानकारी मिलते ही सरकार ने क़रीब सवा दो लाख पेड़ों को कटवाने की तैयारी कर ली; लेकिन सरकार और उसके प्रशासन को चलाने वाले अधिकारियों ने यहाँ के पर्यावरण पर कोई अध्ययन किया, न ही उसके बारे में कोई भी जानकारी दी। वनों के कटान के बाद यहाँ बीहड़ बन जाएगा। हमारी आने वाली पीढिय़ाँ चंबल के बाद बुंदेलखण्ड के बीहड़ को देखने को तैयार होंगी। यहाँबहने वाली नदियाँ जंगल कटने के बाद लुप्त हो जाएँगी। क्योंकि जंगल है, तो पानी है; और पानी ही जीवन का आधार है। पर्यावरण विज्ञान की दृष्टि से बीहड़ बनना रेगिस्तान बनने की शुरुआत मानी जाती है।
अंकित पटेल कहते हैं कि केन-बेतवा लिंक परियोजना के कारण पन्ना राष्ट्रीय उद्यान का लगभग 72 वर्ग किमी का जंगली क्षेत्र भविष्य में डूब जाएगा, और रही-सही क़सर पूरी करने के लिए राज्य सरकार बकस्वाहा के जंगलों को काटने जा रही है। बकस्वाहा के जंगल कटने से समूचे बुंदेलखण्ड का प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ जाएगा। आख़िर प्रदेश सरकार को बुंदेलखण्ड से कौन-सी समस्या है कि वह इसे भविष्य का रेगिस्तान बनाने के लिए अग्रसर हो रही है।

किसान पेड़ काटें, तो लगता है ज़ुर्माना
मध्य प्रदेश पछले दिनों मध्य प्रदेश के सीहोर ज़िले में एक किसान द्वारा सागौन का पेड़ काटने पर इंडियन काउसिंल ऑफ फॉरेस्ट्री रिसर्च एँड एजुकेशन के रिपोर्ट के आधार पर वन विभाग द्वारा एक करोड़ 21 लाख रुपये का ज़ुर्माना लगाया गया। यह एक तरह से लोगों को पेड़ काटने से रोकने के लिए अनूठा फ़ैसला कहा जा सकता है। लेकिन सवाल उठता है कि यही वन विभाग बकस्वाहा में 2.16 लाख पेड़ों को काटने की परियोजना पर ख़ामोश क्यों है? और बड़ी संख्या में पेड़ों का कटान होने पर भी कम्पनी और दोषियों के ख़िलाफ़ चालान क्यों नहीं कर रहा है? इंडियन काउसिंल ऑफ फॉरेस्ट्री रिसर्च ऐंड एजुकेशन के रिपोर्ट के अनुसार, 2.16 लाख पेड़ों और जल्द ही पेड़ बनने वाले लाखों छोटे-बड़े पौधों वाले जंगल की क्या क़ीमत होगी? इंडियन काउसिंल ऑफ फॉरेस्ट्री रिसर्च ऐंड एजुकेशन के अनुसार, एक पेड़ की औसत उम्र 50 साल मानी गयी है। 50 साल में एक पेड़ 50 लाख क़ीमत की सुविधा देता है तथा 23 लाख 68,000 रुपये क़ीमत का वायु प्रदूषण कम करता है। साथ ही 20 लाख रुपये क़ीमत का भू-क्षरण नियंत्रण करने के साथ-साथ ज़मीन की उर्वरता बढ़ाने का भी काम करता है।

भारत की बात वैश्विक दर्शकों तक पहुँचाएगा डीडी इंटरनेशनल

नरेंद्र मोदी सरकार की सकारात्मक छवि बनाने के लिए पहले केंद्र सरकार के क़रीब 300 वरिष्ठ अधिकारियों की एक कार्यशाला आयोजित की गयी। अब लोक सेवा प्रसारक प्रसार भारती ने डीडी इंटरनेशनल की स्थापना पर विस्तृत परियोजना रिपोर्ट प्रदान करने को परामर्श सेवा दस्तावेज़ के लिए आवेदन (एक्सप्रेशन आफ इंटेरेस्ट) माँगे हैं। सूत्रों का कहना है कि विचार भारत के दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने के लिए ‘बीबीसी’ जैसा चैनल बनाने
का है।
प्रसार भारती की तरफ़ से जारी एक्सप्रेशन ऑफ इंटेरेस्ट (ईओआई), जिसका इस लेखक ने मूल्यांकन किया है; को दूरदर्शन महानिदेशालय, दूरदर्शन भवन, कॉपरनिकस मार्ग, नई दिल्ली ने फाइल नंबर-19(2)2020-21ईआई(पी) टीवी 13/05/2021 के तहत जारी किया था। यह ईओआई दस्तावेज़ ‘डीडी इंटरनेशनल की स्थापना पर विस्तृत परियोजना रिपोर्ट प्रदान करने के लिए परामर्श सेवा के लिए मसौदा’ विषय के तहत है। भरोसेमंद सूत्रों के अनुसार, यह विचार काफ़ी समय पहले की आ गया था; लेकिन शीर्ष अधिकारियों के प्रसार भारती में लगातार बदलाव के चलते यह जल्दी शुरू नहीं हो सका। लेकिन इस प्रस्ताव को उस समय बड़ा बल मिला जब सरकार कोरोना वायरस की दूसरी लहर और ब्लैक फंगस से निपटने के तरीक़े के कारण आलोचना के घेरे में आयी और अंतर्राष्ट्रीय प्रेस में भारत की वैक्सीन नीति की कड़ी आलोचना देखने को मिली।
प्रसार भारती के सीईओ शशि शेखर वेम्पटी ने 25 मार्च, 2021 को ट्वीट कर परियोजना को मंज़ूरी देने और दूरदर्शन इंटरनेशनल के लिए प्रोजेक्ट ब्लू-प्रिंट विकसित करने सहित कई महत्त्वपूर्ण फ़ैसलों के लिए प्रसार भारती बोर्ड को धन्यवाद दिया था। इससे पहले भी जब इस साल की शुरुआत में ‘द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट’ (ईआईयू) की तरफ़ से जारी डेमोक्रेसी इंडेक्स रिपोर्ट में यह बताया गया था कि भारत का ग्राफ नीचे गिरा है। वर्ष 2019 में 6.9 के समग्र स्कोर के साथ देश 51वें स्थान पर था, जो अब नीचे जाकर 6.61 रह गया है। ऐसे में सरकार को भारत के बारे में बताने की आवश्यकता महसूस हुई।
बता दें रिपोर्ट में कहा गया था कि पिछले एक साल में अधिकारियों द्वारा महत्त्वपूर्ण ‘लोकतांत्रिक पतन’ किया गया, जिसके कारण भारत को ‘त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र’ की श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है। ईआईयू द्वारा प्रतिवर्ष ‘डेमोक्रेसी इन सिकनेस एंड हेल्थ’ रिपोर्ट जारी की जाती है। इसमें आज की तारीख़ में नॉर्वे रैंकिंग में शीर्ष पर है और उसके बाद आइसलैंड, स्वीडन, न्यूजीलैंड और कनाडा का स्थान है। इस वर्ष का एक महत्त्वपूर्ण और नया पहलू यह है कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र पर कोरोना वायरस महामारी के प्रभाव को भी मापा गया। वास्तव में एशिया का क्षेत्रीय स्कोर 2013 के बाद से अपने सबसे निचले स्तर तक गिर गया; क्योंकि इन देशों में वायरस के प्रसार को रोकने के लिए सरकारों द्वारा अपनायी गयी नीतियों के परिणामस्वरूप व्यक्तिगत स्वतंत्रता और नागरिक स्वतंत्रता पर कड़े प्रतिबन्ध लगे। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के लोकतांत्रिक सिद्धांत और मूल्य 2014 से दबाव में हैं। इस अवधि के दौरान देश की रैंकिंग में सन् 2014 के 27वें स्थान और 7.92 के स्कोर से वर्तमान 53 के स्कोर के साथ तेज़ गिरावट देखी गयी है।
ईओआई पृष्ठभूमि और उद्देश्य बताता है और यह स्पष्ट करता है कि ईओआई की वैधता अवधि इसके खुलने की तारीख़ से 120 दिनों के लिए होगी। इसमें कहा गया है कि दूरदर्शन, भारत का सार्वजनिक प्रसारक और प्रसार भारती का एक प्रभाग, देश के सबसे बड़े टीवी प्रसारकों में से एक है। दूरदर्शन 91 सार्वजनिक टीवी चैनलों का भारत का सबसे बड़ा नेटवर्क संचालित करता है और भारत का एकमात्र फ्री टू एयर डीटीएच प्लेटफॉर्म (डीडी फ्री डिश) है। यह दावा करता है कि दूरदर्शन का वर्तमान वैश्विक पदचिह्न सी-बैंड उपग्रह वितरण, केयू बैंड डायरेक्ट टू होम वितरण, अन्य देशों में चुनिंदा सार्वजनिक प्रसारकों के साथ द्वि-पाश्र्व वितरण व्यवस्था, ओटीटी और पारंपरिक केबल / डीटीएच वितरण व्यवस्था के साथ चुनिंदा तृतीय पक्षों के संयोजन के माध्यम से है। इसके अलावा प्रसार भारती के वैश्विक डिजिटल प्लेटफॉर्म के माध्यम से लाइव स्ट्रीमिंग के अलावा न्यूज ऑन एयर के साथ-साथ लाइव स्ट्रीमिंग और यूट्यूब जैसे तीसरे पक्ष के प्लेटफॉर्म के माध्यम से ऑन-डिमांड सामग्री भी उपलब्ध करवायी जा रही है।
दूरदर्शन के लिए वैश्विक उपस्थिति सम्भव बनाने और भारत के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय आवाज़ स्थापित करने के रणनीतिक उद्देश्य को देखते हुए डीडी इंटरनेशनल की स्थापना की परिकल्पना की गयी है। इसमें कहा गया है कि इस तरह की परियोजनाओं पर अंतर्राष्ट्रीय प्रसारकों / मीडिया घरानों को सलाह देने के अनुभव वाले प्रतिष्ठित वैश्विक सलाहकारों से विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) के लिए यह ईओआई जारी किया जा रहा है।
प्रसार भारती का कहना है कि ईओआई एक पंजीकृत / निगमित कम्पनी, फर्म या संघ द्वारा जमा किया जा सकता है। संघ के मामले में तीन से अधिक कम्पनियों को अनुमति नहीं दी जाएगी और प्रमुख बोली-दाता को अनुबन्ध में स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिए। मुख्य बोली-दाता परियोजना के लिए ज़िम्मेदार होगा और कम-से-कम तीन वर्षों के लिए अस्तित्व में होना चाहिए। बोली-दाता के पास एक अंतर्राष्ट्रीय प्रसारण मीडिया सेवा स्थापित करने के लिए रणनीति / ऑपरेटिंग मॉडल विकसित करने में एक समान परामर्श / सलाहकार परियोजना को निष्पादित करने का पेशेवर अनुभव होना चाहिए, जिसमें कई भौगोलिक, भाषाओं आदि को शामिल करने वाले सार्वजनिक सेवा प्रसारक के लिए एक शामिल है।
उसके मुताबिक, बोली-दाता के पास लगातार लेखापरीक्षित वार्षिक न्यूनतम होना चाहिए और पिछले तीन वर्षों के लिए प्रति वर्ष 100.00 करोड़ रुपये या उससे अधिक (अन्य अंतर्राष्ट्रीय मुद्राओं में समकक्ष आँकड़े) का कारोबार (पिछले तीन वर्षों की वार्षिक लेखा परीक्षा रिपोर्ट प्रस्तुत करना आवश्यक है) हो। ईओआई की वैधता अवधि इसके खुलने की तारीख़ से 120 दिनों के लिए होगी।
यह सारी चीज़ें तब सामने आयी हैं, जब नरेंद्र मोदी सरकार को कई मामलों में अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की कटु आलोचना झेलनी पड़ी है। अब सरकार के समर्थक भारत के अपने बीबीसी की स्थापना पर ज़ोर दे रहे हैं। ईओआई एक विस्तृत परियोजना रिपोर्ट के साथ आने के लिए एक परामर्श सेवा के लिए 13 मई को जारी किया गया था। डीडी इंटरनेशनल की स्थापना पर कहा गया- ‘दूरदर्शन के लिए वैश्विक उपस्थिति बनाने और भारत के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय आवाज़ स्थापित करने के रणनीतिक उद्देश्य को देखते हुए डीडी इंटरनेशनल की स्थापना की परिकल्पना की गयी है। ईओआई के अनुसार, इसका उद्देश्य ‘वैश्विक और घरेलू महत्त्व दोनों के समकालीन मुद्दों पर विश्व स्तर पर भारत के दृष्टिकोण को स्थापित करना’ और ‘भारत की जानकारी वैश्विक दर्शकों को बताना’ है। यह डीडी इंटरनेशनल को ‘विश्वसनीय, सम्पूर्ण और सटीक वैश्विक समाचार सेवा के माध्यम से भारत पर आधिकारिक वैश्विक मीडिया स्रोत’ बनाने का भी इरादा रखता है। यह स्पष्ट है कि प्रसार भारती ‘डीडी इंडिया सामग्री पर आधारित एक वैश्विक समाचार सेवा’ के लिए एक रणनीति रोडमैप चाहता है।

दस्तावेज़ के अनुसार उद्देश्य
 वैश्विक और घरेलू महत्त्व के समसामयिक मुद्दों पर विश्व स्तर पर भारत के दृष्टिकोण को प्रस्तुत करना।
 दुनिया भर में ब्यूरो स्थापित करना और स्थानों की पहचान करना।
 इसे लागू करने के लिए योजना और रोडमैप * 24&7 विश्व सेवा धाराएँ।
 भूगोल विशिष्ट धाराओं को प्राथमिकता देना।
 लागू करने के लिए योजना और रोडमैप वैश्विक दर्शकों को भारत की जानकारी देने के लिए।
 वैश्विक दर्शकों के लिए सामग्री विकास और वैश्विक सामग्री पुस्तकालय बनाना।
 प्रमुख वैश्विक भाषाओं की पहचान करना और उन्हें प्राथमिकता देना।
 भारत के अन्दर और बाहर स्टूडियो और उत्पादन सुविधाओं सहित वैश्विक सामग्री विकास के लिए आवश्यक प्रमुख कार्य।
 भारत और भारत के बाहर इसके लिए प्रमुख जनशक्ति आवश्यकताएँ।
 इसे लागू करने के लिए योजना और रोडमैप।
 प्रमुख नेटवर्कों / प्लेटफॉर्मों पर प्रायोजित टाइम-स्लॉट।
 डीडी इंडिया सामग्री को रखने के लिए नेटवर्क / प्लेटफॉर्म की पहचान करना और उन्हें प्राथमिकता देना।
 प्रमुख नेटवर्कों / प्लेटफॉर्मों पर वितरण व्यवस्था।
 प्रमुख भौगोलिक क्षेत्रों में वितरण प्लेटफार्मों की पहचान करना और उन्हें प्राथमिकता देना।
 इसे लागू करने के लिए योजना और रोडमैप।
 विश्वसनीय, सम्पूर्ण और सटीक वैश्विक समाचार सेवा के माध्यम से भारत पर आधिकारिक वैश्विक मीडिया स्रोत बनाना।
 डीडी इंडिया सामग्री पर आधारित वैश्विक समाचार सेवा के लिए रणनीति और रोडमैप।
 चुनिंदा समाचार रिपोर्टों का समूहन।
 लाइव इवेंट का वितरण।
 बहुभाषी समर्थन।
 भारत के रणनीतिक हस्तक्षेप के लिए एक माइंडशेयर तैयार करना और भू-राजनीति और वैश्विक अर्थव्यवस्था से दुनिया भर के हितधारक दृष्टिकोण को देखना।
 डीडी इंडिया मार्केटिंग और ब्रांडिंग रणनीति और रोडमैप।
 वेबिनार और कार्यक्रम।
 वैश्विक पुरस्कार और वार्षिक सम्मेलन / शिखर सम्मेलन।
 वैश्विक-बेंचमार्क / वार्षिक रेटिंग / रैंकिंग / प्रकाशन।
 प्रसिद्ध स्तम्भकार।
 ग्लोबल मीडिया फैलोशिप।
 प्रमुख मीडिया संस्थानों में प्रायोजित अध्यक्ष / अनुसंधान।
 ग्लोबल मीडिया एलायंस।
 ग्लोबल मीडिया प्रोफेशनल्स के लिए टैलेंट हब।
 डीडी इंडिया के लिए समग्र मानव संसाधन रणनीति और रोडमैप।
 दुनिया भर के मीडिया पेशेवरों को आकर्षित और जोडऩा।
 समय-साझाकरण / स्वतंत्रता के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्टर।
 एंकर / रिपोर्टर के रूप में वैश्विक प्रतिभा को साथ जोडऩा।
 वैश्विक संचालन / कार्यबल अंतर्राष्ट्रीय संस्था(एँ)।

पंजाब कांग्रेस का संकट हल होने के करीब, सिद्धू से मिलकर अब प्रियंका-राहुल-सोनिया मुलाक़ात

पंजाब में कांग्रेस का संकट हल होने के नजदीक पहुँच रहा है। अहमद पटेल की मौत के बाद कांग्रेस में संकट मोचक की भूमिका संभाल रहीं प्रियंका गांधी से बुधवार पंजाब के पार्टी नेता नवजोत सिंह सिद्धू ने मुलाकात की। इस मुलाकात के दौरान ही प्रियंका राहुल गांधी से मिलने उनके तुगलक रोड स्थित आवास पर गईं। सिद्धू के जाने के बाद प्रियंका गांधी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलने दस जनपथ पहुंचीं। इसके बाद सोनिया गांधी से प्रियंका और राहुल गांधी उनके आवास पर मिले हैं। पंजाब संकट हल करने के लिए बनी तीन सदस्यी समिति की भी बैठक हो रही है।

सिद्धू और राहुल से मुलाकात के बाद प्रियंका सोनिया गांधी से मिलीं और उसके बाद राहुल-प्रियंका एक साथ सोनिया गांधी से मुलाकात करने पहुंचे। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक सिद्धू के लिए कांग्रेस आलाकमान ने रोल तय कर लिया है और सिद्धू ने इसके लिए सहमति जता दी है। अब कांग्रेस की पंजाब को लेकर बनी समिति बैठक कर रही है। संभावना है जल्द ही पंजाब को लेकर हुए फैसले पर अमल किया जाएगा। हो सकता है समिति सदस्य प्रेस कांफ्रेंस करें।
प्रियंका से मुलाकात के बाद अपने ट्वीटर हैंडल पर सिद्धू ने मुस्कुराते हुए एक तस्वीर डाली है। इस तस्वीर में प्रियंका भी मुस्कुराती हुई दिख रही हैं। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक पंजाब में कांग्रेस का संकट हल होने के करीब है। सिद्धू को पंजाब में उपमुख्यमंत्री या प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का जिम्मा देने के अलावा प्रचार समिति का अध्यक्ष भी बनाया जा सकता है। कांग्रेस ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर महासचिव का पद देने की भी बात की थी।
कांग्रेस ने सिद्धू के लिए जो रोल चुना है उसके लिए सिद्धू ने अपनी सहमति जता दी है। इसकी जानकारी देने ही संभवता प्रियंका गांधी राहुल गांधी से मिलने गईं। प्रियंका इसकी जानकारी सोनिया गांधी को देने गईं। इसके बाद सोनिया-प्रियंका दोनों राहुल गांधी से मुलाकात करने पहुंचीं।
कल राहुल गांधी ने एक ट्वीट में बताया था कि सिद्धू से उनकी कोई मुलाकात नहीं हुई है न अभी तक ऐसी कोई मुलाकात प्रस्तावित है। ऐसा माना जाता है कि राहुल गांधी सिद्धू के सार्वजनिक बयानों से प्रसन्न नहीं थे और यही कारण है कि उन्होंने सिद्धू से मुलाकात नहीं होने की बात ट्वीटर पर सार्वजनिक रूप से बताई। हालांकि, आपतौर पर राहुल ऐसा कभी करते नहीं हैं।
हाल के समय से राज्यों में राहुल गांधी के पसंद के नेताओं को अध्यक्ष का जिम्मा दिया जा रहा है। यह इस बात का संकेत है कि अध्यक्ष का चुनाव होने से पहले ही राहुल पार्टी में मुख्य भूमिका में आ चुके हैं। चुनाव में राज्यों के अध्यक्ष उनकी पसंद के होने से उन्हें आसानी रहेगी। ऐसे में चुनाव होता भी है तो भी राहुल ही अध्यक्ष बनेंगे जो संभवता पार्टी का बहुत बड़ा वर्ग चाहता भी है।
केरल, तेलंगाना और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में राहुल की पसंद के अध्यक्ष बन चुके हैं।
हाल में तेलंगाना में राहुल के भरोसेमंद सांसद रेवंत रेड्डी को पुराने लोगों पर तरजीह देते हुए अध्यक्ष बनाया गया है। वरिष्ठों के तमाम विरोध के बावजूद तेलंगाना में रेवंत रेड्डी को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपने से जाहिर हो गया है कि राहुल का सिक्का पार्टी में चल रहा है।
इसी तरह कुछ समय पहले महाराष्ट्र में नाना पटोले को प्रदेश कांग्रेस का जिम्मा देने का फैसला भी राहुल गांधी का ही है। यह जगजाहिर है कि राहुल गांधी महाराष्ट्र में स शिव सेना-एनसीपी के साथ सरकार में शामिल होने के पक्ष में नहीं थे। राहुल सरकार में शामिल होने से ज्यादा संगठन को मजबूत करने पर जोर दे रहे हैं।
उधर केरल में सुधाकरण को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाकर राहुल गांधी ने वहां पार्टी और संगठन का स्वरुप ही बदल दिया है। यही नहीं वहां वीडी सतीशन को विपक्ष का नेता बना दिया गया है। राहुल केरल से ही सांसद हैओं और हाल में पार्टी वहां सरकार बनाने में सफल नहीं हुई थी। वरिष्ठ नेता रमेश चेन्निथला और पूर्व सीएम ओमान चांडी इससे विचलित हुए और उन्होंने आवाज उठाने की भी कोशिश की लेकिन अंतता राहुल का फैसला उन्हें स्वीकार करना पड़ा।
अब पंजाब की बारी है। देखना है वहां के लिए पार्टी का क्या फैसला आता है। संभावना प्रवल है कि सिद्धू को वहां बड़ी जिम्मेवारी दी जाएगी। यही नहीं वहां किसी दलित विधायक को भई बड़ा पद मिल सकता है।

किसानों को नहीं मिल रही तरबूज की मिठास

कोरोना संक्रमण और लॉकडाउन से किसान हुए बेहाल

तरबूज ज़ायद मौसम की प्रमुख फ़सल है, जो दिसंबर-जनवरी से शुरू होती है। मार्च अन्त से अप्रैल पहले सप्ताह के बीच तरबूज बाज़ार में आने लगता है। अप्रैल, मई और मध्य जून तक बिक्री होती है। मानसून आने के बाद धीरे-धीरे बिक्री कम हो जाती है। यह कम समय में पैदा होने वाली अच्छे मुनाफ़े वाली फ़सल मानी जाती है। लेकिन कोरोना संक्रमण और तालाबंदी ने तरबूज की खेती करने वाले किसानों की कमर तोड़कर रख दी है। रही सही क़सर यास तूफ़ान के कारण बे-मौसम बारिश ने पूरी कर दी। उन्हें उनकी फ़सल का उचित मूल्य नहीं मिल पाया। गिने-चुने कुछ किसानों को थोड़ी-बहुत कमायी हुई भी; लेकिन ज़्यादातर किसान तो लागत मूल्य भी ब-मुश्किल से निकल पाया, तो कुछ किसानों के लिए यह खेती घाटे का सौदा रही। हालाँकि किसानों की बातों से कृषि और हॉर्टिकल्चर विभाग के अधिकारी सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि किसानों को मुनाफ़ा तो हुआ है, लेकिन कम हुआ। ऐसा नहीं है कि उन्हें लागत मूल्य के लिए मोहताज होना पड़ा हो। कुछ किसानों को ओलावृष्टि और यास तूफ़ान के कारण क्षति हुई है। उन्हें मुआवज़ा देने की प्रक्रिया चल रही है।

परेशानी में किसान
देश में किसानों की आय दोगुनी करने की बात लम्बे समय चल रही है। केंद्र से लेकर भाजपा शासित राज्य सरकारें तक इसके लिए प्रयास करने का दावा करती हैं। ह$कीक़त लोगों के सामने है। आज भी देश के किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य नहीं मिल पाता है। अगर देश के किसान ख़ुशहाल होते, तो किसान आन्दोलन नहीं हो रहा होता। हालाँकि दिल्ली के किसान आन्दोलन का असर झारखण्ड में उतना देखने के लिए नहीं मिल रहा, लेकिन यहाँ के किसान इसकी चर्चा ज़रूर करते हैं। खूंटी के किसान वीरेंद्र साहू कहते हैं कि किसान तो हमेशा से मरता रहा है। जिस तरबूज की क़ीमत हमें खेत में 10-15 रुपये किलो मिलनी चाहिए, वह दो से पाँच रुपये किलो में बिक रहा है। बमुश्किल लागत मूल्य मिल जाए, तो बहुत है। सरकार से मदद की उम्मीद तो बेकार ही है। सरकार केवल आय दोगुनी की बात करती है। पाँच साल में कितने किसानों की स्थिति बदली है, देख लें। उनके घर की स्थिति देखकर ही आमदनी का अंदाज़ा लग जाएगा। किसान या तो आन्दोलन करें या क़र्ज के तनाव में आत्महत्या करें।
कृषि विभाग के अधिकारी भले ही किसानों को घाटा होने की बात न क़ुबूलें, लेकिन किसान वीरेंद्र साहू की बात ज़मीनी स्तर पर भी महसूस की जा सकती है। राज्य के हर ज़िला के गाँव से लेकर शहर तक तरबूज पटा हुआ है। हर किसान कुछ दूरी पर तरबूज बेचते हुए लोग दिख जाते हैं। जब अप्रैल की शुरुआत में तरबूज शहरी क्षेत्र के बाज़ार में उतरा था, तब 20 से 25 रुपये प्रति किलो था। तालाबंदी की स$ख्ती और अंतर्ज़िला व अंतर्राज्यीय अवागमन पर रोक लगने के बाद तरबूज का भाव 10 रुपये किलो तक गिर गया। इसके बाद झारखण्ड में यास तूफ़ान का असर 25-26 मई से पड़ा। रही सही क़सर बे-मौसम की बारिश ने पूरी कर दी। शहर के बाज़ार में 5-7 रुपये किलो तरबूज बिकने लगे। वहीं किसान खेतों में दो रुपये किलो तक बेचने को मजबूर हो गये। जून के पहले सप्ताह से आम और लीची के बाज़ार में आने के बाद तो तरबूज का बाज़ार लगभग ख़त्म ही हो गया। किलो की बिक्री की जगह 5-7 रुपये में एक तरबूज (तीन-चार किलो का) देने के लिए भी तैयार थे। बीते साल 2020 में कोरोना की पहली लहर और लॉकडाउन में थोड़ा असर हुआ। इस वर्ष पिछले घाटा को पाटने के लिए अधिक क्षेत्र में पैदावार किया गया। इस वर्ष भी कोरोना, तालाबंदी और तूफ़ान ने किसानों की सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया।

तरबूज की खेती का क्षेत्रफल
अगर झारखण्ड की बात करें, तो बड़े पैमाने पर मुख्य रूप से रांची, खूंटी, लोहरदगा, गुमला और पू. सिंहभूम ज़िले में तरबूज की खेती होती है। इसके अलावा छोटे-छोटे स्तर पर कई अन्य ज़िलों में भी खेती होती है। हॉर्टिकल्चर विभाग से मिली जानकारी के अनुसार, राज्य में इस बार 2,382 हेक्टेयर में तरबूज की खेती की गयी है और लगभग 94,188 मैट्रिक टन उत्पादन हुआ। यह पिछले साल की तुलना में थोड़ा
अधिक है।

बिक्री की चेन पर पड़ा असर
नौकरी छोड़ कर पहली बार तरबूज की खेती करने उतरे सत्येंद्र कुमार कहते हैं एक एकड़ में तरबूज की खेती पर लगभग 60 हज़ार रुपये ख़र्च होते हैं। इसमें बीज, पानी, मज़दूरी आदि सभी ख़र्च शामिल हैं। एक एकड़ में 15 से 20 टन की उपज होती है, जिससे एक से डेढ़ लाख रुपये की कमायी होती है। उन्होंने कहा कि जिन किसानों में 15-20 अप्रैल तक तरबूज बेचा, उन्हें अच्छी क़ीमत मिल गयी। इसके बाद कोरोना संक्रमण बढऩे और तालाबंदी के कारण स्थिति ख़राब हो गयी। बंगाल और उड़ीसा में भी तालाबंदी हो गयी। राज्य के बाहर और अन्दर के व्यापारी खेत तक बहुत ही कम पहुँचने लगे। बिक्री लगभग बन्द हो गयी।
हर साल सीजन में तरबूज की खेती करने वाले राज किशोर कहते हैं कि पिछले वर्ष अन्तिम समय तक पाँच रुपये प्रति किलो तक रेट गया था। इस वर्ष डेढ़ से दो रुपये किलो पहुँच गया। उससे पहले यानी 2019 में अन्तिम रेट 10 रुपये प्रति किलो तक गया था। इस बार तो अन्तिम समय में थोड़े तरबूज खेत में भी सड़ गये।
सबसे अधिक मार छोटे स्तर पर तरबूज पैदा करने वाले किसानों पर पड़ी। कई किसान बैंक या साहुकार से क़र्ज़ लेकर खेती किया। ऐसे ही रांची के बेड़ो प्रखण्ड के प्रेम महतो और चंद्रमोहन महतो ने बताया कि बैंक से क़र्ज़ लेकर सात एकड़ में तरबूज में खेती की थी। पूरा परिवार तीन महीने तक इसके पीछे लगा रहा। जब बेचने का समय आया तो कोरोना संक्रमण बढ़ गया, लॉकडाउन लग गया और बारिश हो गयी। ख़रीददार खेतों तक नहीं आये। शहर जा कर किसी तरह से थोड़ी बहुत तरबूज बेच पाये। इस बार लागत भी नहीं निकल पायी।
तरबूज का कारोबार करने वाले व्यापारी आशुतोष कुमार ने बताया कि शुरू में रेट ठीक था। शहरी क्षेत्र में 20-25 रुपये प्रति किलो तरबूज बिका। लॉकडाउन में स्थिति थोड़ी ख़राब हुई। बिक्री का चेन टूट गया। क़ीमत अचानक से 5-10 रुपये पर आ गयी। इसके बाद यास तूफ़ान में बारिश के कारण मौसम थोड़ा ठंडा हो गया। साथ ही बाज़ार में आम और लीची उतर गया। नतीजतन मई अन्तिम सप्ताह से जून पहले हफ्ते के बीच क़ीमत दो से पाँच रुपये प्रति किलो पहुँच गया। जून पहले सप्ताह के बाद तो दो रुपये किलो पर भी ख़रीददार मिलना कम हो गया।

विभाग का दावा बेचने की व्यवस्था हुई

कृषि विभाग के अधिकारियों का दावा है कि किसानों को तालाबंदी के दौरान मंडी में तरबूज बेचने के लिए विशेष व्यवस्था की गयी थी। शुरू में उन्हें अच्छा रेट भी मिला था। बाद में रेट थोड़ा कम मिला, लेकिन किसानों को घाटा नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि किसानों का तरबूज शहर तक पहुँचे, उन्हें मंडी में जगह मिले, यह सारी व्यवस्था की गयी। इसका लाभ किसानों को मिला।

 

 

“किसानों को तरबूज की खेती का नुक़सान नहीं उठाना पड़े इसका पूरा प्रयास किया गया है। ओला वृष्टि और चक्रवात से कुछ किसानों को नुक़सान हुआ था। राज्य के 24 ज़िलों में 21 ज़िलों से रिपोर्ट मिली इस आधार पर आपदा प्रबन्धन विभाग से 1.30 करोड़ रुपये किसानों को क्षतिपूर्ति के लिए मुहैया कराया गया है और अभी भी आकलन कार्य जारी है। तालाबंदी का असर कम करने के लिए बाज़ार समिति और ई-नैम के ज़रिये बायर और सेलर की मीटिंग करा कर तरबूज बिकवाने का निर्देश दिया गया। तरबूज की बिक्री के लिए सुविधा केंद्र की व्यवस्था की गयी। जहाँ काफ़ी संख्या में किसान और ख़रीदार पहुँचे।”
बादल
कृषि मंत्री, झारखण्ड सरकार

 

 

“मैंने क़रीब 31 एकड़ ज़मीन पर तरबूज की खेती की। इसमें लगभग 400 टन तरबूज हुए थे। बंगाल में जब तक लॉकडाउन नहीं लगा था, तब तक तरबूज का ठीक दाम मिल रहा था। खेत से सात रुपये प्रति किलो बेच रहे थे। बंगाल और झारखण्ड में तालाबंदी के बाद क़ीमत अचानक गिर गयी। इसके बाद यास तूफ़ान के कारण बारिश से और बरबादी हुई। पिछले साल अन्तिम रेट पाँच रुपये किलो तक था और फ़सल बर्बाद नहीं हुआ था। इस बार अन्तिम रेट दो रुपये तक गया और लगभग 40 टन तरबूज खेत में बर्बाद हो गया। किसी तरह से लागत मूल्य मिल पाया। कुछ किसानों को तो घाटा भी हुआ है।”
राजकिशोर
किसान

कोरोना-काल में बढ़ा बालश्रम का चलन

कविता (बदला हुआ नाम) की उम्र क़रीब 13 साल की है और इस साल उसने आठवीं कक्षा पास की है। वह आगे पढऩा चाहती है; लेकिन इस बात की कोई गांरटी नहीं है। कोरोना महामारी के संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए की गयी तालाबंदी के कारण उसके पिता का काम बन्द हो गया। अब कविता बीते कई महीनों से दिल्ली में एक दम्पति के घर घरेलू नौकरानी का काम कर रही है। उसी घर में रहती है, घर का सारा काम करती है, दो छोटे बच्चों को बड़ा भी कर रही है।
मलावी गणराज्य, जो कि एक अफ्रीकी देश है; वहाँ के एक स्कूली बच्चे ने सर्वे करने वाली एक संस्था को बताया कि कोविड-19 के कारण स्कूल बन्द पड़े हैं और मेरे कई पड़सियों ने अपने बच्चें को बाज़ार में सब्ज़ियाँ व फल बेचने के काम पर लगा दिया है। ऐसा क्यों हो रहा है?

इन दो तस्वीरों से बाल मज़दूरी सरीखी गम्भीर सामाजिक-आर्थिक समस्या के कई पहलुओं पर चर्चा हो सकती है। बहरहाल अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) व यूनिसेफ ने 12 जून को अंतर्राष्ट्रीय बाल श्रम दिवस के मौक़े पर जो रिपोर्ट जारी की है, वह आगाह करती है कि बाल मज़दूरी के उन्मूलन के लिए बनाये गये तमाम राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों, संधियों के बावजूद बीते चार साल में बाल मज़दूरों की संख्या बढ़ी है, जो गहन चिन्ता का विषय है।

20 साल में पहली बार वैश्विक स्तर पर बाल मज़दूरों की संख्या में वृद्धि दर्ज की गयी है। संयुक्त राष्ट्र ने कहा कि दुनिया भर में 10 में से एक बच्चा काम कर रहा है। आईएलओ और यूनिसेफ की संयुक्त रिपोर्ट के मुताबिक, 2016 में बाल मज़दूरों की संख्या 152 मिलियन यानी 15.2 करोड़ थी और यह संख्या बढ़कर 2020 में 160 मिलियन यानी 16 करोड़ हो गयी है। 2020 के ये आँकड़े महामारी शुरू होने से पहले के हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि मौज़ूदा महामारी के कारण लाखों बच्चे बाल मज़दूर बन सकते हैं। वैश्विक स्तर पर बाल मज़दूरी उन्मूलन के प्रयासों का परिणाम आँकड़ों के लिहाज़ से देखें, तो पता चलता है कि सन् 2000 से सन् 2016 के दरमियान बाल मज़दूरों की संख्या में 9 करोड़ 40 लाख की गिरावट दर्ज की गयी; मगर 2016 व 2020 के दरमियान यानी चार साल की अवधि में बाल मज़दूरों की संख्या में आठ करोड़ 40 लाख की वृद्धि दर्ज की गयी। अर्थात् बीते 20 साल में बाल श्रम को ख़त्म करने की दिशा में जो प्रगति हो रही थी, वह अवरुद्ध हो गयी है। अब प्रगति करने की बजाय पीछे की ओर लौटना सबको सचेत कर रहा है कि इस दिशा में तेज़ी से प्रयास करने की ज़रूरत है। चार साल की अवधि में 5-11 आयुवर्ग के बच्चे जो बाल मज़दूर बने हैं, उनकी संख्या बहुत अधिक है। इसी तरह 5-17 आयुवर्ग के बाल मज़दूरों की संख्या इस अवधि में 6.5 करोड़ से बढ़कर 7.9 करोड़ हो गयी है। आईएलओ के मुताबिक, बाल मज़दूरी से अभिप्राय ऐसा कोई भी कार्य जो 18 साल से कम आयु के बच्चों को उनके बचपन से वंचित करता हो, उनकी सम्भावनाओं व गरिमा को उनसे छीनता हो और उनके शारीरिक व मानसिक विकास के लिए नुक़सानदायक हो।

आईएलओ के महानिदेशक गाय राइडर ने कहा- ‘नयी रिपोर्ट हमें आगाह करने वाली है। हम नयी पीढ़ी के बच्चों को जोखिम में जाते हुए नहीं देख सकते। यूनिसेफ की कार्यकारी निदेशक हेनरिटा फोर एक बयान में कहते हैं- ‘हम बाल श्रम के ख़िलाफ़ लड़ाई में ज़मीन खो रहे हैं। और पिछले साल ने उस लड़ाई को और मुश्किल कर दिया है।
पारिवारिक संकट और बन्द स्कूलों के चलते बच्चे कर रहे काम वैश्विक लॉकडाउन के कारण दूसरे साल स्कूल बन्द होने, आर्थिक संकट ने परिवारों को दिल तोडऩे वाले विकल्प लेने पर मजबूर कर दिया है। सवाल यह है कि जब वैश्विक स्तर पर बाल श्रमिकों की संख्या में 2000-2016 के दरमियान गिरावट आ रही थी, तब 2016-2020 यानी इन चार साल के दरमियान ऐसा क्या हुआ कि बाल श्रमिकों की संख्या में वृद्धि हो गयी। जनसंख्या वृद्धि और ग़रीबी के चलते बीते चार साल में सब सहारा अफ्रीका में बाल श्रमिकों की संख्या में डेढ़ करोड़ से अधिक बाल श्रमिक और जुड़ गये। बाल अधिकारों पर और बाल श्रम उन्मूलन के लिए काम करने वाली अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय संस्थांओं की मौज़ूदा चिन्ता की मुख्य वजह यह भी है कि संयुक्त राष्ट्र ने चालू वर्ष 2021 को बाल श्रम उन्मूलन के लिए अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है। और ध्यान देने वाली बात यह भी है कि सतत विकास लक्ष्य 8.7 के अनुसार विश्व से बाल श्रम का उन्मूलन 2025 तक हासिल करना है। लेकिन चार साल में बाल श्रमिकों की संख्या का बढऩा इस लक्ष्य को हासिल करने की राह में रुकावट बन रहा है और इसके साथ-साथ मौज़ूदा कोरोना महामारी ने भी कई चुनौतियाँ सामने लाकर खड़ी कर दी हैं।

कुछ ऐसे क्षेत्र जैसे कि एशिया, लेटिन अमेरिका और कैरेबियन देश, जहाँ 2016 से भी बाल श्रमिकों की संख्या कम करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं; में अब कोरोना वायरस के कारण इस क्षेत्र में हुई प्रगति पर ख़तरा मँडराने लगा है। ग़ौरतलब है कि इस हालिया रिपोर्ट में कोरोना महामारी के कारण बढऩे वाली बाल श्रमिकों की संख्या शमिल नहीं है। महामारी, आर्थिक संकट आदि किस तरह से ग़रीब, मध्यम आय वर्ग के लोगों को प्रभावित करते हैं, उन पुराने अनुमानों व आँकड़ों के मददेनज़र ही नये अनुमान जारी किए जाते हैं। इस रिपोर्ट इस बाबत कहा गया है कि कोरोना महामारी के कारण 2022 तक 90 लाख और बच्चे बाल श्रमिकों की संख्या में जुड़ सकते हैं। एक मॉडल यह भी बताता है कि यह संख्या 4.6 करोड़ भी हो सकती है, अगर उनकी पहुँच अहम सामाजिक संरक्षण तक नहीं होगी। संगठनों का मानना है कि महामारी से सम्बन्धित आर्थिक तंगी और स्कूल बन्द होने के कारण बाल श्रमिकों को अब अधिक घंटे या बदतर परिस्थितियों में काम करना पड़ सकता है।

आर्थिक तंगी की मार सारी दुनिया पर पड़ रही है। कोरोना संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए दुनिया के अधिकतर देशों ने स्कूलों को बन्द कर दिया है। स्कूलों में कुल नामांकित बच्चों में से 90 फ़ीसदी यानी 1.6 अरब बच्चे प्रभावित हुए हैं। बहुत से स्कूलों ने ऑनलाइन शिक्षा का इंतज़ाम किया है; लेकिन इसके साथ यह भी याद रखना होगा कि जिन बच्चों की इंटरनेट तक पहुँच नहीं है, उनकी तादाद अधिक है। मौज़ूदा महामारी में स्कूल बन्द होने के कारण श्रम बाज़ार में बाल श्रमिकों की संख्या बढ़ सकती है। $गरीब व कोरोना वायरस से प्रभावित परिवारों के बच्चों की स्कूल की पढ़ाई बीच में छोडऩे की सम्भावना अधिक है। इस लेख के शुरुआत में कविता का ज़िक्र किया गया है, कोरोना वायरस ने उसकी भी पढ़ाई जारी रखने की सम्भावना को क्षीण कर दिया है। भारत में कविता सरीखे हज़ारों बच्चे होंगे, जिनकी स्कूल में वापसी आसान नहीं दिखती। वे किसी-न-किसी रूप में बाल मज़दूरी करने को विवश होंगे।


नाबालिग़ों से काम कराना ग़ैर-क़ानूनी, फिर भी रोक नहीं
यूँ तो भारत में बाल मज़दूरी ग़ैर-क़ानूनी है और बाल अधिकारों के संरक्षण के लिए कई क़ानून भी हैं। मसलन औद्योगिक विवाद अधिनियम-1947, भारतीय कारख़ाना अधिनियम-1948, बाग़ान श्रम अधिनियम-1951, बाल श्रमिक प्रतिबन्ध एवं नियमन अधिनियम-1986, ये सभी अधिनियम बाल कल्याण के लिए बाल मज़दूरों की सेवाओं, काम के घंटे, मज़दूरी आदि को नियमित करते हैं। बाल श्रमिक प्रतिबन्ध एवं विनियमन अधिनियम-1986 में जुलाई, 2016 में संशोधन किया गया और इस संशोधन विधेयक में 14 साल से कम आयु के बच्चों के लिए परिवार से जुड़े व्यवसाय को छोड़कर विभिन्न क्षेत्रों में काम करने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया गया। 14 साल से कम आयु वाला बच्चा अगर जीविकोपार्जन के लिए काम करे, तो वह बाल मज़दूर कहलाता है और इस पर देश में क़ानूनन प्रतिबन्ध है।

भारत में 14 साल से अधिक आयु के बच्चे ऐसे कार ख़ानों, खदानों में काम नहीं कर सकते, जहाँ अधिक जोखिम है। पर हक़ीक़त यह है कि देश में हर जगह बाल मज़दूर देखने को मिल जाते हैं। चाय की दुकान हो या ढाबा या पंसारी की होम डिलीवरी करने वाला लड़का। भारत में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश में बाल मज़दूरी एक बड़ी समस्या है। सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश सिल्क के लिए विशेष पहचान रखता है। यहाँ बाल मज़ूदर काफ़ी तादाद में काम करते हैं।

देश में कृषि के क्षेत्र में बाल मज़दूरों की संख्या चिन्ता पैदा करती है। देश में बाल मज़दूरी को ख़त्म करने के कई उपायों में एक उपाय निरीक्षक के द्वारा छापा डालना भी है। मगर यहाँ भी अधिकतर मामलों में मिलीभगत सामने आती है। नियोक्ता को छापे की जानकारी पहले ही दी जाती है और वो उस दिन बाल मज़दूरों को काम पर बुलाता ही नहीं है। ग़ौरतलब है कि देश में निरीक्षकों की कमी भी है और उन्हें यही तरीक़े से प्रशिक्षण भी नहीं दिया जाता। बाल मज़दूरी से सम्बन्धित शिकायतों का निपटारा करने में भी लम्बा समय लगता है। सर्वोच्च न्यायालय के वकील राजेश त्यागी का कहना है कि महज़ क़ानून बनाने से किसी भी समस्या का हल नहीं हो जाता। उसके अम्ल के लिए मज़बूत ढाँचा खड़ा करना भी ज़रूरी है। इसके लिए निवेश करना होता है। इसके साथ बाल उन्मूलन के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति बहुत ज़रूरी है, जिसका अपने यहाँ अभाव है।

मोदी की पहल का लब्बोलुआब

जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 24 जून को दिल्ली में अपने आवास पर जम्मू-कश्मीर के नेताओं के साथ बैठक कर रहे थे, उसी दिन यह रिपोर्ट सामने आयी कि कश्मीर में इस साल के पाँच महीनों में सुरक्षा बलों के हाथों मारे गये आतंकवादियों में 56 फ़ीसदी स्थानीय थे। इससे संकेत मिलता है कि हाल के महीनों में कश्मीर के स्थानीय युवकों की आतंकी संगठनों में भर्ती बढ़ी है। पिछले साल 31 दिसंबर तक राज्य भर में मारे गये 203 आतंकियों में 166 स्थानीय और 37 पाकिस्तानी या अन्य विदेशी थे।

‘तहलका की जानकारी के मुताबिक, मोदी सरकार बैकडोर चैनेल्स के ज़रिये आतंकवाद, जम्मू-कश्मीर और अन्य मुद्दों को लेकर पाकिस्तान से बातचीत कर रही है और एनएसए अजीत डोवाल इसमें विशेष भूमिका निभा रहे हैं। भले प्रधानमंत्री की बैठक वाले दिन भारत की विदेश मंत्रालय ने कहा कि कश्मीर भारत का आंतरिक मामला है और पाकिस्तान से सम्बन्धों को लेकर हम पुराने रुख़ पर क़ायम हैं। भारत ने यह भी कहा कि बातचीत के लिए पाकिस्तान को आतंकवाद पर लगाम लगाना होगा। पाकिस्तान बातचीत के लिए माहौल बनाये। उधर भारत परदे के पीछे तालिबान से भी बात कर रहा है और उसका मक़सद दक्षिण एशिया में अपनी भूमिका को वृहद करना है।

उधर प्रधानमंत्री के जम्मू-कश्मीर के नेताओं को बैठक में बुलाने से यह संकेत भी मिलता है कि 5 अगस्त, 2019 को राज्य का विशेष दर्जा ख़त्म करके उसके दो हिस्से करने के बाद भी जम्मू-कश्मीर के मुख्य अनुच्छेद के राजनीतिक दलों, जिन्होंने मिलकर ‘गुपकारÓ के नाम से साझा राजनीतिक मंच बना लिया है, की प्रासांगिकता घाटी में बनी हुई है और उनके बिना वहाँ राजनीतिक प्रक्रिया को शुरू नहीं किया जा सकता। इस बैठक में अनुच्छेद-370 पर कोई बात नहीं हुई और मोदी सरकार बैठक का विषय परिसीमन और भविष्य में चुनाव की सम्भावनाओं तक सीमित रखने में ज़रूर सफल रही, जो उसका मक़सद भी था। हो सकता है भविष्य में इस तरह की एक-दो और बैठकें हों। हाँ, बैठक के बाद बाहर आकर पीडीपी नेता महबूबा मुफ़्ती ने अनुच्छेद-370 की बहाली पर ज़रूर ज़ोर दिया। उन्होंने कहा- ‘वहाँ अनुच्छेद-370 को असंवैधानिक तरीक़े से हटाया गया। लोगों को यह मंज़ूर नहीं। हम प्रजातांत्रिक, संवैधानिक तरीक़े से उसकी बहाली की लड़ाई लड़ेंगे। अगर जम्मू-कश्मीर के लोगों को सुकून मिलता है, तो आपको पाकिस्तान से बात करनी चाहिए। हमारा व्यापार बन्द है। उसे लेकर बात की जानी चाहिए। लोगों पर यूएपीए लगाया जाता है, तख़्ती की जाती वह बन्द होनी चाहिए। जेलों में बन्द राजनीतिक क़ैदी रिहा किये जाने चाहिए। हमारे प्राकृतिक संसाधनों की हिफ़ाज़त हो। जम्मू-कश्मीर के लोग ज़ोर से साँस भी लेते हैं, तो उन्हें जेल में दाल दिया जाता है; ये बन्द होना चाहिए।

संकेत यही हैं कि परिसीमन का काम ख़त्म होने के बाद मोदी सरकार अपनी सहूलियत देखकर जम्मू-कश्मीर में चुनाव करवा सकती है। जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा या नहीं, यह अभी स्पष्ट नहीं है। कांग्रेस ने बैठक में कहा कि जिस तरह से राज्य का विशेष दर्जा ख़त्म हुआ, वो नहीं होना चाहिए था। पार्टी ने अपनी पाँच बड़ी माँगों में जम्मू-कश्मीर को जल्दी स्टेटहुड देने की भी माँग की है। प्रधानमंत्री ने बैठक के अन्त में कहा कि दिल्ली की दूरी और दिल की दूरी कम होगी। साढ़े तीन घंटे तक चली बैठक में जम्मू-कश्मीर के आठ राजनीतिक दलों के 14 नेता शामिल हुए। दिल्ली में प्रधानमंत्री आवास में यह बैठक हुई। जम्मू-कश्मीर के नेताओं के साथ हुई बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि पूर्ण राज्य का दर्जा देने के लिए वचनबद्ध हैं। दिल्ली की दूरी और दिल की दूरी कम होगी। परिसीमन की प्रक्रिया के बाद चुनाव होगा। बैठक के बाद पीडीपी की मुखिया महबूबा मुफ़्ती ने कहा- ‘बहुत ही अच्छे माहौल में बात हुई। 5 अगस्त, 2019 के बाद से जम्मू-कश्मीर के लोग बहुत मुश्किल में हैं। अनुच्छेद-370 को $गैर-क़ानूनी तरीक़े से हटाया गया। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 बहाल हो। मैं फिर कह रही हूँ कि पाकिस्तान से बातचीत हो। लोगों की भलाई के लिए पाकिस्तान से भी बात हो।Ó पूर्व मुख्यमंत्री और एनसी नेता उमर अब्दुल्ला ने कहा- ‘जम्मू-कश्मीर को जो केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया गया वो चाहे जम्मू के लोग हों या कश्मीर के, इसे पसन्द नहीं करते हैं। वहाँ के लोग चाहते हैं कि फ़ौरी तौर पर जम्मू-कश्मीर को रियासत का दर्जा दिया जाए।

पाकिस्तान पड़ोसी देश है, उससे भी बातचीत होनी चाहिए। मुझे लगता है कि पाकिस्तान से बातचीत हो रही है। बन्द कमरे में ही पाक से बातचीत हो रही है। एक मुलाक़ात से दिल की दूरी कम नहीं होगी। दिल्ली और दिल की दूरी कम करने की पहल अच्छी ज़रूर है।Ó कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आज़ाद ने कहा- ‘हमने चर्चा के दौरान बताया कि जिस तरह से स्टेस डिजॉल्व हुआ वो नहीं होना चाहिए था। चुने गये प्रतिनिधियों से पूछे ब$गैर यह किया गया। लेकिन सभी ची•ों कहने के बाद हमने पाँच बड़ी माँगें सरकार के सामने रखीं। हमने माँग रखी कि स्टेटहुड जल्दी देना चाहिए। हमने ये भी माँग की कि कश्मीर के पंडितों को वापस लाएँ और उनके पुर्नवास में मदद करें। राजनीति से जुड़े हुए जो लोग (पॉलिटिक प्रिजनर्स) बन्द हैं, उन्हें छोडऩे की माँग की। हमने सरकार से कहा कि ये पूर्ण राज्य का दर्जा देने का माक़ूल वक़्त है। विधानसभा चुनाव तत्काल करवाने की माँग भी रखी।

जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक हलचल

क्या मोदी सरकार इस केंद्र शासित प्रदेश में चुनाव करवाने की तैयारी में है?

जम्मू-कश्मीर में 5 अगस्त, 2019 से पहले का दृश्य याद कीजिए; वहाँ अचानक सेना की संख्या बढ़ायी गयी। अब क़रीब ढाई साल बाद केंद्र सरकार ने पिछले दिनों ऐसा ही किया है। चर्चा है कि जम्मू-कश्मीर में कुछ ‘बड़ा होने वाला है। इन घटनाओं के बीच जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा को एक से ज़्यादा बार दिल्ली बुलाया गया और कुछ महत्त्वपूर्ण बैठकें हुईं। इनमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल का भी हस्तक्षेप रहा, लिहाज़ा इन्हें अहम माना जा सकता है। जो बड़ी घटना जून के तीसरे हफ़्ते हुई वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जम्मू-कश्मीर के ‘गुपकार गठबन्धन और कांग्रेस सहित अन्य नेताओं के साथ दिल्ली में बैठक थी। केंद्र शासित प्रदेश में परिसीमन की प्रक्रिया जारी है और चुनाव करवाने के अलावा राज्य के एक और विभाजन की बात भी राजनीतिक $िफज़ाँ में हैं, भले केंद्र इससे इन्कार कर रहा हो। जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा सबसे सम्भावित विकल्प माना जा रहा। वैसे पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने के लिए केंद्र को संसद की मंज़ूरी लेनी अनिवार्य होगी।

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 हटाकर उसका विशेष दर्जा ख़त्म करने के बाद स्थानीय ज़िला विकास परिषद् (डीडीसी) के चुनाव में कश्मीर की राजनीतिक पार्टियों का गुपकार गठबन्धन हावी रहा था। यह आरोप लगाया जाता रहा है कि भाजपा परिसीमन के ज़रिये जम्मू-कश्मीर का सीटों के आधार पर फेरबदल करना चाहती है, ताकि जम्मू का प्रतिनिधित्व (विधानसभा में) कश्मीर से ज़्यादा हो सके। विपक्ष में रहते हुए भाजपा इसकी हमेशा माँग करती रही है। यहाँ तक कि वो जम्मू से भेदभाव का आरोप लगाते हुए हाल के दशकों में आन्दोलन भी करती रही है। जम्मू-कश्मीर को लेकर भाजपा का रुख़ हैरानी वाला रहा है। जिस पीडीपी पर वह 20 साल तक अलगाववादियों के प्रति ‘सॉफ्ट कॉर्नर रखने का आरोप का आरोप लगाती थी, उसी के साथ उसने सरकार बनायी। दो साल से ज़्यादा चली इस सरकार में भाजपा ने जम्मू वाले मसले और परिसीमन को लेकर कुछ नहीं किया। अब जबकि मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र की एनडीए सरकार अनुच्छेद-370 ख़त्म कर चुकी है और कश्मीर के हिस्से से लद्दाख़ के रूप में एक अलग केंद्र शासित राज्य बनाया जा चुका है, भाजपा अब परिसीमन के सहारे जम्मू को राजनीतिक और जनसंख्या के आधार पर कश्मीर से बड़ा करने की कोशिश में है।

लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है। कश्मीर में निश्चित ही ऐसी किसी भी कोशिश का विरोध होगा। वैसे भी अभी तक कश्मीर में अनुच्छेद-370 ख़त्म करने को स्वीकार नहीं किया गया है। भले इसे लेकर खुला विरोध नहीं हुआ है, लेकिन इसका एक कारण पिछले महीनों में वहाँ सेना की बड़ी संख्या होना भी है। दूसरे कोविड-19 के चलते घाटी में ज़िन्दगी का ठहर जाना है।

श्रीनगर में वरिष्ठ पत्रकार माज़िद जहाँगीर ने ‘तहलकाÓ से फोन पर बातचीत में कहा- ‘जम्मू-कश्मीर को लेकर भारत से बाहर जैसी प्रतिक्रिया हुई है, उसे देखते हुए केंद्र सरकार यहाँ ठप पड़ी राजनीतिक गतिविधियों को शुरू करना चाहती है, ताकि कश्मीर को लेकर दुनिया में एक सकारात्मक सन्देश जाए और यह दिखे कि यहाँ स्थिति सामान्य है। चूँकि इसके लिए स्थानीय मुख्य धारा के दलों को साथ लेना ज़रूरी है, उनसे बातचीत का दौर शुरू हुआ है ताकि यह न लगे कि दिल्ली से कश्मीर पर फ़ैसले थोपे जा रहे हैं। यह तो ज़ाहिर ही है कि इन दलों को साथ लिए बिना कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू होना सम्भव नहीं।

परिसीमन पर सवाल
परिसीमन के पहले क़दम के रूप में सरगर्मी तब तेज़ हुई, जब 6 मार्च, 2020 को जम्मू-कश्मीर परिसीमन आयोग का एक साल के लिए गठन किया गया था। सेवानिवृत्त जज रंजन प्रकाश देसाई को इसका चेयरमैन नियुक्त किया गया था। परिसीमन आयोग ने केंद्र शासित प्रदश के सभी 20 उप आयुक्तों से एक रिपोर्ट माँगी। इस रिपोर्ट में मुख्य रूप से 18 बिन्दुओं को शामिल किया गया था। दिलचस्प यह है कि दिल्ली में कमीशन की पहले बैठक और उसके बाद उप आयुक्तों से रिपोर्ट माँगने में कमीशन को गठन के बाद 15 महीने का लम्बा वक़्त लग गया। दरअसल प्रदेश में विधानसभा की सीटें बढ़ाना भी लम्बे समय से प्रस्तावित रहा है। जानकारी के मुताबिक, कुल सात नयी विधानसभा सीटों में से चार सीटें जम्मू और तीन कश्मीर में बढ़ेंगी। हाल में जम्मू-कश्मीर के उप राज्यपाल मनोज सिन्हा की केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से दिल्ली में बैठकें हो चुकी हैं। इन बैठकों में ख़ुफ़िया ब्यूरो (आईबी) के प्रमुख अरविन्द कुमार, रॉ प्रमुख समंत कुमार गोयल, जम्मू-कश्मीर के मुख्य सचिव ए.के. मेहता, जम्मू-कश्मीर डीजीपी दिलबा$ग सिंह और राज्य की डीजीपी सीआईडी रश्मि रंजन स्वैन और अन्य अधिकारी भी उपस्थित रहे हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फ़ारूक़ अब्दुल्ला परिसीमन का विरोध तो नहीं कर रहे; लेकिन इसके अपनायी गयी प्रक्रिया का सख़्त विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि वे राज्य की जनता की लड़ाई लड़ते रहेंगे। फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने फोन पर ‘तहलका से बातचीत में कहा- ‘परिसीमन आयोग का गठन पुनर्गठन क़ानून के तहत किया गया है लिहाज़ा यह गै़र-क़ानूनी है; क्योंकि इस क़ानून को चुनौती वाली याचिका पहले से सर्वोच्च न्यायालय में अभी लम्बित है। जब तक उस पर फ़ैसला नहीं आ जाता, तब तक इस तरह का गठन क़ानूनी रूप से अमान्य है। हालाँकि पार्टी ने केंद्र की बुलायी बैठकों में हिस्सा लेने की हामी ज़रूर भर दी, ताकि यह सन्देश न जाए कि इतनी महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया में उसकी भागीदारी नहीं रही। परिसीमन के बाद केंद्र शासित प्रदेश में अनुसूचित जाति को पहली बार जनसंख्या के हिसाब से प्रतिनिधित्व का अवसर मिलेगा। इसका कारण यह है कि परिसीमन के बाद अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सात विधानसभा सीटों की नामावली (रोस्टर) बदल जाएगी। वैसे तो नियम यह कहता है कि हर दो विधानसभा चुनाव के बाद नामावली बदली जानी चाहिए। लेकिन जम्मू-कश्मीर के मामले में अब तक चार विधानसभा चुनाव हो चुके हैं; पर नामावली को इस दौरान कभी संशोधित नहीं किया गया।

यहाँ भी दिलचस्प यह है कि आरक्षित अनुसूचित जनजाति की यह सभी सीटें जम्मू में ही हैं। इनमें सांबा, चनैनी, रायपुर दोमाना और छंब हैं। चूँकि यह अब आरक्षित सीटों के दायरे से बाहर आनी हैं, आरक्षण में आने वाली सीटों को लेकर राजनीतिक दलों में सक्रियता बढ़ी हुई है। जम्मू-कश्मीर प्रशासन यह संकेत दे रहा है कि परिसीमन प्रक्रिया में पहले से बनी विसंगतियाँ दूर की जा सकती हैं। इसमें ऐसे विधानसभा क्षेत्रों पर भी नज़र रहेगी, जो एक से अधिक ज़िलों में फैले हों। साथ ही ऐसी तहसीलें, पटवार हलक़े, राजस्व गाँव भी, जो एक से ज़्यादा विधानसभा हलक़ों में फैले हों। परिसीमन में प्रवासियों की संख्या भी देखी जाएगी। पूर्वी पाकिस्तान से बँटवारे के समय भारत के इस हिस्से में आये लोगों को भी विधानसभा के लिए मताधिकार दिया जाना है। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा सीटों का जनसंख्या के लिहाज़ से बड़ा असन्तुलन है।

कई सीटें एक लाख मतदाताओं वाली हैं, तो कुछ में 50,000 के आसपास मतदाता हैं। इस बड़े अन्तर को पाटा जा सकता है। इसकी पूरी जानकारी परिसीमन आयोग में उप अ आसपास युक्तों से माँगी है। ज़ाहिर है परिसीमन की प्रक्रिया बहुत संवेदनशील रहने वाली है। जम्मू के प्रतिनिधि, ख़ासकर भाजपा, इस सम्भाग को अधिक सीटों की माँग करते रहे हैं, जबकि कश्मीर के प्रतिनिधि (मुख्य अनुच्छेद की कश्मीरी पार्टियाँ) जनसंख्या संतुलन में परिवर्तन करके कश्मीर को कमज़ोर करने की साज़िश का आरोप लगाते रहे हैं। यह लड़ाई पहले से चल रही है और यदि परिसीमन में बड़ा उलटफेर हुआ, तो ज़ाहिर है इससे कश्मीर में बहुत शोर मचेगा, जो अनुच्छेद-370 और जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को ख़त्म करने का पहले से मुखर विरोध कर रहा है। यहाँ तक की राष्ट्रीय दल कांग्रेस में भी केंद्र के इन फ़ैसलों से बड़े स्तर पर असहमति है। इस मसले पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम का कहना है कि जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाना चाहिए। चिदंबरम ने कहा- ‘कांग्रेस का शुरू से रुख़ रहा है कि जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाना चाहिए, इसमें किसी भी सन्देह या अस्पष्टता नहीं रहनी चाहिए। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को दोबारा लागू किया जाना चाहिए।


सैनिकों की संख्या बढ़ायी
जम्मू-कश्मीर को लेकर मोदी सरकार परदे के पीछे ख़ासी सक्रिय है। ट्रैक-2 पर कूटनीति जारी है। अब तो जम्मू-कश्मीर के नेताओं से प्रधानमंत्री मोदी की बैठक भी हो चुकी है। इस सारी क़वायद के बीच जून के मध्य में जब जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी लम्बे समय के बाद दिल्ली पहुँचे, जिसके बाद चर्चाओं को और बल मिला। लेकिन इस दौरान जो सबसे बड़ा घटनाक्रम हुआ है, वह घाटी में अचानक सुरक्षा बलों की संख्या बढऩा है।
‘तहलका की जानकारी के मुताबिक, मई और जून में सुरक्षा बलों की 50 से 60 के बीच कम्पनियों को जम्मू-कश्मीर रवाना किया गया है। अगस्त, 2019 में जब जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा संसद में बिल के ज़रिये ख़त्म किया गया था, तब भी सूबे में बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की अतिरिक्त तैनाती की गयी थी। हालाँकि 2020 में कोरोना महामारी के चलते हुई तालाबंदी के दौरान इनकी संख्या कम कर दी गयी थी। अब अचानक जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों की अतिरिक्त तैनाती ने चर्चाओं को जन्म दिया है।

घाटी की मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियों का रुख़ पहले बहुत सख़्त था और वो दिल्ली से कोई बातचीत करने के हक़ में नहीं थीं; लेकिन धीरे-धीरे उनका रुख़ कुछ नरम हुआ है। परिसीमन के सख़्त विरोधी रहे पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के सर्वेसर्वा फ़ारूक़ अब्दुल्ला, जिनका घाटी में अन्य किसी भी नेता के मुक़ाबले जनता के बीच सबसे ज़्यादा असर है; भी जून के दूसरे हफ़्ते परिसीमन को लेकर नरम पड़े। फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने कहा कि उनकी पार्टी परिसीमन के ख़िलाफ़ नहीं है और केंद्र से बातचीत के विकल्प खुले रख रही है। इसके बाद ही प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने 24 जून की बैठक की घोषणा की।

जानकारी के मुताबिक, परिसीमन आयोग को सितंबर के आख़िर तक अपना काम पूरा करने की सलाह दी गयी है। यदि मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर का पूर्ण विधानसभा का दर्जा बहाल करने का मन बनाती है या वहाँ केंद्र शासित व्यवस्था के तहत ही चुनाव करवाने की सोच रही है, तो ऐसा दिसंबर और मार्च से पहले या बाद में ही किया जा सकता है। यह चार महीने बर्फबारी के कारण वहाँ चुनाव सम्भव नहीं होते। सेना की संख्या बढ़ाने का एक बड़ा कारण यह हो सकता है कि आतंकवादियों के चुनाव प्रक्रिया में खलल डालने का ख़तरा हो। नई दिल्ली में यह आम विचार है कि पाकिस्तानी सेना, आईएसआई और आतंकवादी कश्मीर में चुनाव नहीं होना देना चाहेंगे। नई दिल्ली में यह भी गहरे से महसूस किया जा रहा है कि सरकार और जम्मू-कश्मीर की जनता के बीच संवाद बिल्कुल ख़त्म हो गया है तथा वहाँ अविश्वास और गहरा हुआ है। भले उप राज्यपाल (लेफ्टिनेंट गवर्नर) राजनीतिक पृृष्ठभूमि के हैं, वह चुने हुए स्थानीय विधायक की तरह जनता से संवाद नहीं रख सकते। सुरक्षा भी इसका एक बड़ा कारण है। डीडीसी के चुनाव के बाद अब मोदी सरकार विधानसभा के चुनाव को लेकर गम्भीर दिख रही है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कश्मीर को लेकर जो कहा जाता है, चुनाव करवाकर उस पर भी विराम लगाया जा सकता है। वर्तमान स्थिति पाकिस्तान के बहुत अनुकूल है और उसने अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर का राग ख़ूब अलापा है। पाकिस्तान कश्मीरी अवाम पर ज़ुल्म की बात अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर करता है, लिहाज़ा इससे भारत की छवि को नुक़सान पहुँचता है। चाहे इन आरोपों में उतना सच न हो। वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सन् 2014 के बाद भारत की यह आम छवि बन रही है कि मुसलामानों से भेदभाव किया जा रहा है। चूँकि कश्मीर मुस्लिम बहुल क्षेत्र है, इसलिए वहाँ पाकिस्तान को प्रोपेगंडा करना और आसान हो जाता है।

कश्मीर में राजनीतिक सक्रियता
इन घटनाओं के बीच जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस नेता उमर अब्दुल्ला तो दिल्ली पहुँचे ही, श्रीनगर में भी महीनों से ठप पड़ी राजनीतिक गतिविधियाँ अचानक तेज़ हुई हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी और माकपा के अलावा अन्य क्षेत्रीय दलों ने एक से ज़्यादा बार बैठकें की हैं। यही नहीं, कश्मीर में अनुच्छेद-370 ख़त्म करने का विरोध करने और इसकी बहाली की माँग के लिए बने गुपकार गठबन्धन की बैठकें शुरू हुई हैं।
कांग्रेस, जम्मू-कश्मीर में ख़ासा प्रभाव रखती है और उसकी 2002 में पीडीपी के नेतृत्व और 2005 में अपनी गुलाम नबी आज़ाद के नेतृत्व वाली गठबन्धन सरकार रही है। हाल के महीनों में कांग्रेस भाजपा और मोदी सरकार के जम्मू-कश्मीर को लेकर रुख़ के ख़िलाफ़ रही है। इसके बावजूद कांग्रेस ने 24 जून की बैठक में हिस्सा लेकर जम्मू-कश्मीर में अपनी सक्रियता जता दी है। इसी दौरान पीडीपी के वरिष्ठ नेता सरताज मदनी, जो महबूबा मुफ़्ती के नज़दीकी रिश्तेदार भी हैं; की अचानक रिहाई और अगले ही दिन पूर्व शिक्षामंत्री नईम अख़्तर की नज़रबंदी समाप्त करने के फ़ैसले भी हुए, जिससे राजनीतिक माहौल को पुनर्जीवित करके के ठोस संकेत मिले। विधानसभा के पूर्व डिप्टी स्पीकर सरताज मदनी और अख़्तर को 21 दिसंबर, 2020 को अहतियात के तौर पर हिरासत में लिये गये थे।

श्रीनगर में 22 जून को गुपकार की बैठक में आख़िर फ़ैसला किया गया कि उसके सभी नेता, जिन्हें दिल्ली से 24 की बैठक में शामिल होने के लिए न्यौता आया है; इस बैठक में शामिल होंगे। इससे पहले पीडीपी के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने बैठक में शामिल होने से इन्कार कर दिया था। बैठक के बाद नेशनल कांग्रेस के प्रमुख फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने घोषणा की कि प्रधानमंत्री मोदी के साथ सर्वदलीय बैठक में कश्मीर के सभी नेता शामिल होंगे। फ़ारूक़ ने कहा कि हम सभी सर्वदलीय बैठक में अपनी बात प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के सामने रखेंगे। केंद्र की ओर से बैठक का कोई भी एजेंडा स्पष्ट नहीं किया गया है। बता दें इससे पहले जम्मू-कश्मीर के चार मुख्यमंत्रियों सहित 14 नेताओं को न्यौता दिया गया था, जिसमें आठ पार्टियाँ- एनसी, पीडीपी, भाजपा, कांग्रेस, जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी, माकपा, पीपुल्स पार्टी और पैंथर्स शामिल थीं।

नेतृत्व का इम्तिहान

FILE PHOTO: India's Prime Minister Narendra Modi removes his face mask to address a gathering before flagging off the "Dandi March", or Salt March, to celebrate the 75th anniversary of India's Independence, in Ahmedabad, India, March 12, 2021. REUTERS/Amit Dave

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने खड़ी हो चुकी हैं ढेरों चुनौतियाँ

कोरोना महामारी की दूसरी लहर में जनता को जिस मुसीबत से गुज़रना पड़ा, उसने देश की शीर्ष-सत्ता में बैठे लोगों की विश्वसनीयता को कमज़ोर किया है। ऑक्सीजन की कमी से तड़पते लोगों, गाँव-गाँव जलती अनेक चिताओं और नदियों में तैरते शवों ने एक नयी, लेकिन दु:ख भरे भारत की तस्वीर सामने रखी। ज़ाहिर है इस नाकामी का सबसे बड़ा नुक़सान शीर्ष-सत्ता में बैठे लोगों, ख़ासतौर पर प्रधानमंत्री मोदी को हुआ है। हाल के हफ़्तों में कई सर्वे रिपोट्र्स में भी प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता को बड़ा नुक़सान होता दिखाया गया है। ऐसे में ये कयास लगने लगे हैं कि 2024 के लोकसभा चुनाव तक मोदी को अपनी लोकप्रियता बनाये रखने के लिए बड़ी चुनौतियाँ झेलनी पड़ सकती हैं। एक नेता के रूप में मोदी के सामने महँगाई और मंदी से लेकर बेरोज़गारी तक बड़ी चुनौतियाँ हैं। इन्हीं हालात पर बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

देश और देश के बाहर पिछले एक महीने में किये गये सर्वे बताते हैं कि पिछले सात साल की सत्ता के दौरान पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में जबरदस्त कमी आयी है। वह अभी भी देश में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय नेता हैं; लेकिन उनकी लोकप्रियता को ग्रहण लगाने वाली वर्तमान चुनौतियाँ आने वाले समय में राजनीतिक रूप से ज़्यादा विकराल हो सकती हैं। अगले साल छ: राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं, जिनमें पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजपा का मज़बूत $िकला बना उत्तर प्रदेश भी शामिल है; जिसमें हाल के स्थानीय निकाय के चुनावों में पार्टी की लोकप्रियता में बड़ी दरार पड़ी है। हाल की कुछ बड़ी असफलताओं ने प्रधानमंत्री की धार्मिक-राष्ट्रवादी वाली छवि से क़द्दावर हुई विश्वसनीयता को तो नुक़सान पहुँचाया ही है, कोरोना की दूसरी लहर के असाधारण दौर में देश भर में लोगों ने ऑक्सीजन के लिए तड़पते लोगों और जलती हज़ारों चिताओं को देखा, जिसने पहली बार जनता के मन के भीतर यह सन्देह पैदा किया है कि मोदी उनकी हर समस्या का हल नहीं हैं, जिससे उनकी छवि को बट्टा लगा है।

सरकार और भाजपा जानते हैं कि कोरोना प्रबन्धन में गम्भीर नाकामी से बड़ा नुक़सान हुआ है; लिहाज़ा इसकी भरपाई ‘धन्यवाद मोदी जी वाले भारी भरकम ख़र्च के द्वारा ‘मुफ्त कोरोना वैक्सीन जैसे विज्ञापनों से करने की कोशिश हुई है। सात साल में जो दूसरी बड़ी बात भाजपा में देखने को मिली है, वह प्रधानमंत्री मोदी और उत्तर प्रदेश के विख्यात मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बीच खटपट की बड़े स्तर पर हो रही चर्चा है। अब सवाल यह है कि क्या 2024 के लोकसभा चुनाव में अगले 24 महीनों में होने वाले घटनाक्रम मोदी के दोबारा प्रधानमंत्री का चेहरा बनने में रोड़ा बन सकते हैं? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का क्या रोल रहेगा? यह भी बहुत महत्त्वपूर्व है, जो हाल में ‘दिल्ली के विरोधÓ के बावजूद योगी की ढाल बनकर खड़ा होता दिखा है।

भाजपा के भीतर हाल के महीनों में ऐसी कुछ चीज़ो हुई हैं, जो खुलकर बाहर नहीं आयी हैं। यह कहना नितांत ग़लत है कि भाजपा के भीतर एक नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी का बिल्कुल भी विरोध नहीं है। सात साल के बाद भाजपा के भीतर हलचल है, जो बाहर आने के लिए ‘उचित समय और ‘खिड़की ढूँढ रही है। कुछ बड़े मंत्रियों से लेकर कुछ बड़े नेता शीर्ष नेतृत्व की शैली से असहमत हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रिश्तों को लेकर हाल के हफ़्तों में कुछ चीज़ो मीडिया में आयी हैं, जो पूरी तरह ग़लत नहीं हैं और इशारा करती हैं कि भाजपा के भीतर कुछ पक रहा है। ऐसा नहीं होता, तो हर दूसरे दिन उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री बदले जाने की बातें सामने नहीं आतीं। यहाँ तक कि वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह तक का नाम गाहे-ब-गाहे उछलता रहता है। मोदी सरकार में वरिष्ठ मंत्री और आरएसएस के बहुत प्रिय नितिन गडकरी के प्रधानमंत्री बनने के नारे तो 23 जून को हिमाचल के कुल्लू में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की उपस्थिति में तब लग गये, जब गडकरी सूबे के दौरे पर आये हुए थे।

देश के इतिहास पर नज़र डालें, तो दोबारा सत्ता में आये कमोवेश हर प्रधानमंत्री, चाहे वह नेहरू हों या इंदिरा गाँधी हों या मनमोहन सिंह, 7-8 साल के बाद उनके सामने विश्वसनीयता की गम्भीर दिक़्कतें आनी शुरू हुईं। यह वो समय होता है, जब नाराज़ हो रही जनता विपक्ष के सरकार पर आरोपों के प्रति सहानुभूति दिखाने लगती है और उसे यह आरोप सही लगने लगते हैं। भले भाजपा स्वीकार न करे, मगर प्रधानमंत्री मोदी के साथ भी यह दिक़्क़त आती दिख रही है। देश में ज़रूरी चीज़ों की क़ीमतें आसमान छू रही हैं। पेट्रोल-डीजल की क़ीमतें आम आदमी के बस से बाहर जा चुकी हैं। अर्थ-व्यवस्था का बैंड बजा पड़ा है। जीडीपी माइनस में चल रही है। अनियोजित तालाबंदी (लॉकडाउन) के बाद बेरोज़गार हुए 10 करोड़ से ज़्यादा लोगों को दोबारा रोज़गार नहीं मिल पाया है, जिससे बेरोज़गारों की क़तार और लम्बी हो गयी है।

किसानों के प्रति मोदी सरकार ने लगभग असंवेदनशील अंदाज़ में काम किया है। किसान आन्दोलन आज भी जारी है और सरकार समर्थक मीडिया और शोशल मीडिया किसानों को आज भी ख़ालिस्तानी और पाकिस्तानी बता रहा है। अर्थ-व्यवस्था की हालत यह है कि हमारी तुलना बांग्लादेश से होनी लगी है और उसके आर्थिक प्रबन्धन को हमसे बेहतर बताया जा रहा है। मनमोहन सरकार को तो 2011 में स्वयंसेवी अन्ना हजारे के व्यापक प्रभाव वाले जन-आन्दोलन का सामना करना पड़ा था; मोदी ऐसे किसी भी आन्दोलन से बचे रहे हैं। विपक्ष भी सुस्त रहा है। दूसरे पिछले डेढ़ साल में कोरोना के कारण राजनीतिक गतिविधियाँ वैसे ही सीमित-सी हो गयी हैं। यदि ऐसा न होता, तो शायद मोदी सरकार के ख़िलाफ़ सड़कों पर आन्दोलन हो रहे होते।

इसके अलावा हाल के वर्षों में भारतीय लोकतंत्र को चोट पहुँचाने वाली जो सबसे बड़ी बात देखने को मिली है, वह केंद्र और ग़ैर-भाजपा राज्यों के बीच खाई का चौड़ा होना है। इन राज्यों के राजनीतिक नेतृत्व के मन में मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के प्रति तल्ख़ी बढ़ी है, जिसका विकास कार्यक्रमों पर उलटा असर पड़ा है। यह तल्ख़ी किस स्तर की है? इसका अनुमान दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के ‘हर समय झगड़ा ठीक नहींÓ वाले ट्वीट के बाद दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की उस टिप्पणी से लगाया जा सकता है, जिसमें उन्होंने मोदी को ‘झगड़ालू प्रधानमंत्री की संज्ञा दी है।

कोरोना वैक्सीन के वितरण को लेकर भी ग़ैर-भाजपा राज्यों के मुख्यमंत्री भेदभाव का आरोप लगाते रहे हैं। जीएसटी का राज्यों का हिस्सा उन्हें नहीं मिला है। उनकी योजनाओं में केंद्र के हस्तक्षेप से भी राज्य नाख़ुश हैं। पश्चिम बंगाल में टीएमसी के जबरदस्त बहुमत से जीतने की बाद भी वहाँ सरकार को गिराने की तमाम तिकड़में जारी हैं। यहाँ तक कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को सामने आकर कहना पड़ा कि मोदी सरकार बंगाल को विभाजित करने पर तुली है। उन्होंने कहा कि भाजपा का एक वर्ग उत्तर बंगाल को केंद्र शासित प्रदेश बनाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन राज्य में किसी भी ‘फूट डालो और राज करोÓ की नीति को वह सफल नहीं होने देंगी।

विपक्ष की चुनी सरकारों को चुन-चुनकर गिराने की भाजपा की कोशिशें और इसमें वहाँ का राज्यपालों की भूमिका पर भी ढेरों सवाल उठे हैं। अरुणाचल प्रदेश से लेकर कर्नाटक और मध्य प्रदेश तक भाजपा ने कांग्रेस की सरकारों को गिराया है। आम जनता में इसका ग़लत सन्देश गया है और भाजपा की छवि ‘सत्ता की लालची पार्टीÓ की बन गयी है। देश में कोरोना की दूसरी लहर में इस महामारी के बड़े स्तर पर पाँव पसारने के बावजूद बंगाल में जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने अन्तिम समय तक भीड़ भरी जनसभाओं के साथ चुनाव प्रचार जारी रखा, उससे भी ग़लत सन्देश गया।

Chief Minister of Uttar Pradesh state Yogi Adityanath celebrates the party’s victory in Lucknow, India, Thursday, May 23, 2019. Indian Prime Minister Narendra Modi’s party claimed it had won reelection with a commanding lead in Thursday’s vote count, while the stock market soared in anticipation of another five-year term for the pro-business Hindu nationalist leader. (AP Photo/Rajesh Kumar Singh)

दिल्ली में चिन्ता

भले अभी ज्यादा बाहर नहीं आयी है; लेकिन भाजपा के भीतर निश्चित ही खटपट है। उत्तर प्रदेश में हाल के निकाय चुनाव में भाजपा को बड़ी मार पड़ी है। दिल्ली में भाजपा के भीतर इससे भय पसरा है; क्योंकि उत्तर प्रदेश नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए अगले चुनाव में फिर जीत का सबसे बड़ा आधार है और वहाँ भाजपा का कमज़ोर होना उनके सपने को तोड़ सकता है। वैसे भी यहाँ 2014 की 80 सीटों के मुक़ाबले सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की 11 सीटें घटकर 69 रह गयी थीं। वह भी तब, जब वहाँ भाजपा की सरकार है। पार्टी के लिए सबसे बड़ी चिन्ता की बात यह रही है कि मई के शुरू में पंचायत चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में भाजपा की बुरी तरह हार हुई है। इस चुनाव में मोदी के वाराणसी संसदीय क्षेत्र के तहत कुल 40 सीटों में से भाजपा को सि$र्फ आठ सीटें मिलीं। इससे पहले अप्रैल में भी वाराणसी की संस्कृत विश्वविद्यालय के छात्र चुनाव में भाजपा की छात्र इकाई एबीवीपी को बुरी तरह हराकर कांग्रेस की छात्र इकाई एनएसयूआई ने सभी सीटें जीत ली थीं।

इन नतीजों से निश्चित ही दिल्ली में चिन्ता है। बंगाल विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद जब भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने पार्टी की एक टीम लखनऊ भेजी, उसके बाद ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के बीच तनातनी की ख़बरें मीडिया में आनी शुरू हुईं। बिना आग के धुआँ नहीं उठता, लिहाज़ा इन्हें काफ़ी सु$िर्खयाँ मिलीं। अटकलें यह भी रहीं कि पार्टी उत्तर प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन या मंत्रिमंडल विस्तार की सोच रही है।
योगी को नाराज़ करने वाली एक और चर्चा राजनीतिक हलक़ों में गर्म हुई, वह यह कि दिल्ली एक साल बाद के विधानसभा चुनाव से पहले ही उत्तर प्रदेश का विभाजन करने की इच्छुक है। हालाँकि इतने कम समय में ऐसा करना बहुत आसान प्रतीत नहीं होता। अलग पूर्वांचल, बुंदेलखण्ड और हरित प्रदेश की माँग उत्तर प्रदेश में लम्बे समय से होती रही है। मायावती सरकार ने तो बाक़ायदा विधानसभा में इसका प्रस्ताव तक पास करवा लिया था। अलग पूर्वांचल बनता है, तो योगी का गढ़ गोरखपुर उसी के तहत आता है, जहाँ से वह पाँच बार सांसद रहे हैं। चर्चा के मुताबिक, प्रस्तावित पूर्वांचल में 125 विधानसभा सीटें और अधिकतम 25 ज़िले बनाये जा सकते हैं। कहते हैं कि योगी इसे लेकर बिल्कुल सहमत नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में कहावत है कि जिसने पूर्वांचल जीता, उसकी सरकार बनी। वैसे पूर्वांचल के मतदाता को लेकर कहा जाता है कि वह हर बार अपनी पसन्द बदल लेता है। वहाँ कई ऐसे ज़िले हैं, जहाँ भाजपा कमज़ोर है। वहाँ भाजपा की पैठ बढ़ाने के लिए ही योगी सरकार ने पूर्वांचल के विकास की योजना तैयार की थी और उसमें 28 ज़िलों को चुना था, जिन पर फोकस करना था।

इस सारे घटनाक्रम में सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि दिल्ली से बैठक के लिए भाजपा नेताओं की टीम के लखनऊ जाने के दौरान जब उत्तर प्रदेश सरकार में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चा ने तेज़ी पकड़ी, तो आरएसएस का भी बयान आया; जिसमें यह कहा गया कि उत्तर प्रदेश में योगी के नेतृत्व में ही अगले चुनाव होंगे। इसी दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बेहद क़रीबी पूर्व अधिकारी ए.के. शर्मा को उत्तर प्रदेश भेजकर विधानपरिषद् का सदस्य बनाने को भी योगी और मोदी-शाह की जोड़ी के बीच जंग के रूप में लिया गया है। शर्मा वहीं व्यक्ति हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संसदीय क्षेत्र में कोरोना प्रबन्धन का ज़िम्मा दे रखा है। यदि योगी के पक्ष को देखें, तो हाल के महीनों में उनकी सरकार ने अपनी योजनाओं को लेकर बड़े स्तर पर प्रचार का सहारा लिया है। यह माना जाता है कि योगी की टीम में कुछ वरिष्ठ अधिकारी भी शामिल हैं, जो प्रचार की भाषा और कंटेंट का ख़ास ख़याल रखते हैं। विज्ञापनों को बहुत सन्तुलित तरीक़े से जनता के सामने लाने की कोशिश की जाती रही है। कोरोना को लेकर भी इन विज्ञापनों के ज़रिये सरकार की कुशलता का बख़ान किया गया था।
राजनीतिक हलक़ों में यह माना जाता है कि दिल्ली में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में योगी को लेकर राजनीतिक असुरक्षा की भावना रही है। हाल के वर्षों में योगी को जिस तरह हिन्दू नेता के तौर पर और मोदी के बाद प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में उभारा गया है; उससे यह स्थिति बनी है। चुनाव में प्रचार के लिए मोदी जैसी ही माँग भाजपा नेताओं में योगी की भी रहती है। ऐसे में वह स्वाभाविक तौर पर हिन्दुत्व के एजेंडे वाले राजनीतिक दल भाजपा में प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार बन जाते हैं। यह अलग बात है कि एक मुख्यमंत्री के तौर उनका प्रदर्शन बहुत ज़्यादा प्रभावशाली नहीं रहा है; लेकिन इसके बावजूद हिन्दुओं में उनकी अपनी छवि है, जिससे कोई इन्कार नहीं कर सकता।

नरेंद्र मोदी और अमित शाह के आने के बाद ही भाजपा में यह नियम बना था कि 75 साल की आयु के बाद पार्टी के नेता को सरकारी पद के लिए नहीं चुना जाएगा। साल 2024 में जब लोकसभा के चुनाव होंगे, उस साल सितंबर में मोदी 73 साल के हो जाएँगे। ऐसे में स्वाभाविक ही है कि भाजपा के भीतर प्रधानमंत्री पद की महत्त्वाकांक्षा रखने वाले नेता अपना नाम आगे करेंगे। लेकिन मोदी और योगी के बीच एक बड़ा नाम अमित शाह का भी है, जिन्हें उनके समर्थक अगले प्रधानमंत्री के तौर पर देखते हैं। अमित शाह मोदी से क़रीब 14 साल छोटे हैं और 75 साल की सीमा में भी नहीं आते।
लेकिन भाजपा के भीतर इन सबसे हटकर एक और नेता को प्रधानमंत्री पद के लिए क़तार में माना गया है और वह नितिन गडकरी हैं। ख़ुद गडकरी या उनके समर्थकों ने कभी इसकी इच्छा ज़ाहिर नहीं की; लेकिन उन्हें आरएसएस का सबसे मज़बूत चेहरा इस पद के लिए माना जाता रहा है। गडकरी गम्भीर नेता तो हैं ही, साथ ही जिस तरह उन्होंने मोदी सरकार में अपने विभागों को सँभाला है, उससे उनकी छवि एक मेहनती मंत्री की बनी है; जो ज़मीनी हक़ीक़तों से भी रू-ब-रू होता है। इसके अलावा गडकरी लोकतांत्रिक नेता की छवि भी रखते हैं। भाजपा का अध्यक्ष पद भी उन्हें अचानक ही मिला था और इसके पीछे भी आरएसएस ही था। सबसे बड़ी बात यह है कि विपक्ष में भी गडकरी की मान्यता मोदी, शाह और योगी के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा है।

मोदी की परेशानियाँ
इसमें कोई दो-राय नहीं कि जिस तरह आज की तारीख़ में नरेंद्र मोदी भाजपा में बहुत ज़्यादा ताक़तवर हैं, उन्हें चुनौती देने वाला विपक्ष बिखरा और कमज़ोर-सा है। भाजपा की सबसे बड़ी राजनीतिक विरोधी और देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस संगठन की चुनौतियाँ झेल रही है। मोदी की बड़ी नाकामियों के बावजूद होने की एक बड़ी बजह कांग्रेस का एक राजनीतिक दल के रूप में उनके ख़िलाफ़ कोई बड़ा जन-आन्दोलन खड़ा नहीं कर पाना भी है। यदि देखा जाए, तो पिछले क़रीब डेढ़ साल के भीतर ऐसे कई बड़े अवसर आये, जिन पर मोदी सरकार को घेरा जा सकता था। मोदी सरकार के ख़िलाफ़ ऐसा आन्दोलन नहीं होने से आम जनता का मनोवैज्ञानिक लाभ मोदी को मिला है।

याद करिये 2011 में जब सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को लेकर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के ख़िलाफ़ जन-आन्दोलन शुरू किया था, तो देखते-ही-देखते देश में कांग्रेस के ख़िलाफ़ माहौल बन गया था। हालाँकि यूपीए सरकार की बड़ी उपलब्धियाँ भी थीं और आरटीआई जैसा जनता को ताक़त देने वाला क़ानून भी वो लेकर आयी थी। लेकिन एक बार जब माहौल बना तो बनता ही गया। अन्ना का आन्दोलन भी ख़त्म हो गया, लेकिन लोगों के दिमाग़ में यह बैठा गया कि कांग्रेस ‘भ्रष्टाचारी दलÓ है। देखा जाए तो यूपीए की सरकार ने उन सब मामलों की जाँच की थी, जिसमें भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे और मंत्रियों सहित तमाम आरोपियों को सज़ा भी मिली थी। लेकिन जो माहौल सरकार के ख़िलाफ़ बना था, उसमें कमी नहीं आयी। तीन साल बाद नरेंद्र मोदी ने पहले से बन चुकी कांग्रेस विरोधी इस ज़मीन को अपने लिए शब्दों की जादूगरी से भरे शब्दों से ख़ूब भुनाया। बहुत से लोग यह मानते हैं कि उस समय मोदी की जगह यदि आडवाणी भी भाजपा का नेतृत्व करते, तो भी भाजपा ही जीतती।

यदि पिछले सात साल का रिकॉर्ड देखें, तो मोदी ने जिन सबसे आकर्षक मुद्दों- बड़े पैमाने पर रोज़गार, विकास और भ्रष्टाचार को ख़त्म करना, आदि के बूते चुनाव जीता था और देश की राजनीति के शीर्ष पर आ पहुँचे थे, उनमें ही वह ज़्यादा कुछ नहीं कर पाये हैं। रोज़गार की हालत ख़राब है। उलटे पहले पाँच साल के कार्यकाल में मोदी ने जिन बड़े सुधारों की घोषणाएँ कीं, उन्हें अमलीज़ामा उस स्तर पर नहीं पहना सके। उनके सात साल के कार्यकाल में आर्थिक आँकड़ें बहुत कमज़ोर रहे हैं। बड़े स्तर पर सरकारी या अद्र्ध-सरकारी सम्पत्तियों को बेचा गया है। पाँच ट्रिलियन अर्थ-व्यवस्था का वादा निराशा के सागर में हिचकोले खा रहा है।

उनके वर्तमान कार्यकाल में विकास की रफ्तार बेहद सुस्त है, जिसे कोरोना महामारी ने और ज़्यादा ख़स्ता हालत में ला खड़ा किया है। कुछ घंटे के नोटिस पर लागू लॉकडाउन ने अर्थ-व्यवस्था में गम्भीर गिरावट पैदा की और अक्टूबर, 2020 में औसत पारिवारिक आमदनी पिछले साल के मुक़ाबले 12 फ़ीसदी कम हो गयी। इसका सबसे बड़ा असर ग़रीबों और निम्न मध्यम वर्ग पर पड़ा। अर्थ-व्यवस्था उम्मीद से कहीं ज़्यादा ख़राब हालत में है। महँगाई उच्चतम स्तर पर है। साल 2019 के आख़िर तक यह दावा किया जा रहा था कि 2025 तक हमारी अर्थ-व्यवस्था 2.6 लाख करोड़ डॉलर की हो जाएगी; लेकिन यह अब बहुत लक्ष्य बड़ा लग रहा है। मुद्रास्फीति और तेल के दामों में उछाल भी इसके बड़े कारण हैं। जब मनमोहन सरकार सत्ता से बाहर हुई थी, उस समय भारत का जीडीपी दर कहीं बेहतर सात से आठ फ़ीसदी के बीच थी; लेकिन मोदी सरकार के समय 2019-20 की चौथी तिमाही आते-आते यह बहुत कमज़ोर 3.1 फ़ीसदी के स्तर पर पहुँच गयी।

जब बहुत उम्मीद और जोश से प्रधानमंत्री मोदी ने नवंबर, 2016 में नोटबंदी की घोषणा की थी और दावा किया था कि इससे जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद सहित देश की बहुत-सी समस्याएँ ख़त्म हो जाएँगी; तब लोगों को लगा था कि यह बहुत बड़ा फ़ैसला हुआ है। लेकिन कुछ हफ़्तों ही में अपना ही पैसा लेने के लिए लम्बी क़तारों में दिन-दिन भर खड़ा होने पर जनता का इससे मोहभंग हो गया। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी की दोबारा जीत ने भले नोटबंदी को पीछे डाल दिया, लेकिन उसके बाद सामने आये तथ्य ज़ाहिर करते हैं कि देश को इसका बड़ा नुक़सान उठाना पड़ा है। जीएसटी मोदी सरकार का दूसरा बड़ा फ़ैसला था और अब लगभग यह मान लिया गया है कि इस फ़ैसले ने देश में व्यापार की कमर तोड़ दी। पहले कार्यकाल में बतौर प्रधानमंत्री मोदी देश के युवाओं को वादे के अनुसार रोज़गार देने में नाकाम रहे हैं। हाल में सेंटर फॉर मॉनिटरिंग दि इंडियन इकोनॉमी का एक सर्वे आया था, जिसमें कहा कि 2016 से देश ने कई आर्थिक झटके झेले हैं। नोटबंदी, जीएसटी और 2020 में कोरोना के चलते किश्तों में की गयी तालाबंदी ने रोज़गार कम कर दिया। मोदी सरकार में देश में बेरोज़गारी की दर पिछले 48 साल में सर्वाधिक है। कुछ सर्वे में बताया गया है कि केवल 2021 के इन छ: महीनों में ही क़रीब 2.6 करोड़ लोग अपना रोज़गार गँवा चुके हैं। इससे ग़रीबी रेखा का आँकड़ा भी बढ़ा है और यह 7.5 करोड़ पर पहुँच चुका है। इनमें एक बड़ी संख्या मध्यम वर्ग की है, जिसने सन् 2014 और सन् 2019 के चुनावों में मोदी का सबसे ज़्यादा समर्थन किया था।

यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि देश में हर साल अर्थ-व्यवस्था को दो करोड़ नौकरियाँ चाहिए; लेकिन पिछले एक दशक में यह आँकड़ा महज़ 43 लाख रहा है। अर्थात् इतनी ही नौकरियों का सृजन हो सका। मोदी के महत्त्वाकांक्षी ‘मेक इन इंडिया में भी जिस उत्पादन को जीडीपी का 25 फ़ीसदी बनाने का लक्ष्य था, वह 2020-21 के माली साल तक बमुश्किल 15 फ़ीसदी तक ही पहुँचा है।सच तो यह है कि सबसे ख़राब हालत ही उत्पाद क्षेत्र की हुई है, जो सेंटर फॉर इकोनॉमिक डाटा एंड एनालिसिस के सर्वे से भी ज़ाहिर होती है। उत्पादन क्षेत्र में 2016 से लेकर अब तक नौकरियाँ लगभग आधी ही बची हैं। निर्यात तीसरा बड़ा क्षेत्र है, जहाँ मोदी सरकार की चुनौतियाँ हैं। देश में पिछले क़रीब एक दशक में निर्यात 300 अरब डॉलर पर थम गया है। यहाँ तक कि पिछले पाँच-छ: साल में बांग्लादेश जैसा छोटा देश भारत के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा तेज़ी से निर्यात में, जिसमें उसका वस्त्र उद्योग प्रमुख ज़रिया है, अपना मार्केट शेयर बढ़ा चुका है; जिसका सीधे रूप से भारत पर असर पड़ा है।

हाल के वर्षों में मोदी सरकार ने टैरिफ बढ़ाये हैं। इसका एक कारण ‘आत्मनिर्भर भारत के अपने नारे को मूर्त रूप देने की कोशिश भी है। हाँ, डिजिटल पेमेंट के मामले में भारत ने बड़ी छलाँग लगायी है, जिसका बड़ा श्रेय सरकार समर्थित भुगतान व्यवस्था को भी जाता है।

कृषि क्षेत्र में भी हालत बेहतर नहीं हो सकी है। मोदी सरकार के कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसान आन्दोलन ज़ाहिर करता है कि किसानों और कृषि को उसके महत्त्व के अनुरूप सरकार से समर्थन नहीं मिला है। किसान कह रहे हैं कि क़ानूनों के प्रावधान उनकी आय को कम कर देंगे। देश की बड़ी आबादी कृषि क्षेत्र से जुड़ी है और यह अभी भी रोज़गार का एक बड़ा ज़रिया बना हुआ है; लेकिन सच यह है कि जीडीपी में कृषि का योगदान बहुत कम है। कृषि क्षेत्र की यह हालत तब है, जब मोदी ने वादा किया था कि उनका लक्ष्य किसानों की आय दोगुनी करना है।

कम हुए मोदी-समर्थक

देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समर्थन करने वाला वर्ग हाल के हफ्तों में कुछ बेचैन हुआ है। इसका कारण मोदी का कोरोना वायरस जैसी महामारी के मोर्चे पर नाकाम होना है। लोग मानते हैं कि सबसे बड़े संकट में प्रधानमंत्री ने आँखें मूँद लीं और जनता को उसी के भरोसे छोड़ दिया गया। जिस पैमाने पर ऑक्सीजन की कमी देश में हुई और लोगों की मौत हुई, उससे वे विचलित हुए हैं। ऐसे बहुत लोग हैं, जिन्होंने माना कि इतने बुरे समय में प्रधानमंत्री मोदी का चुप रहना ग़लत था। बहुत-से ऐसे लोग अब मोदी के समर्थक नहीं रहे। यहाँ तक कि सोशल मीडिया पर वे उन सन्देशों का समर्थन करते दिखे हैं, जो मोदी के ख़िलाफ़ हैं। यदि एजेंसियों की बात करें, तो ग्लोबल लीडर्स अप्रूवल रेटिंग ट्रैकर के सर्वे में मोदी की लोकप्रियता में 13 फ़ीसदी की गिरावट बतायी गयी है, जो सात साल में सबसे ज़्यादा है।

तालाबंदी से लोगों का बड़ी संख्या में बेरोज़गार होना भी मोदी के ख़िलाफ़ गया है। वाशिंगटन स्थित प्यू रिसर्च सेंटर के सर्वे के मुताबिक, हाल के महीनों में मध्यम वर्ग के लोगों की संख्या 3.20 करोड़ कम हो गयी है। कोरोना के हाल के संकट में सबसे बड़ी मार मध्यम वर्ग को ही पड़ी है। उधर ‘लोक नीतिÓ के सर्वे के मुताबिक, मोदी के प्रति लोगों में निराशा बढ़ी है। मध्यम वर्ग का बड़ा हिस्सा इसमें शामिल है। प्रधानमंत्री के काम को नापसन्द करने वालों की जो संख्या अगस्त, 2019 में 12 फ़ीसदी थी, वह अप्रैल, 2021 में बढ़कर 28 फ़ीसदी पहुँच गयी है।

मॉर्निंग कंसल्ट ग्लोबल लीडर्स अप्रूवल रेटिंग ट्रैकर और अन्य सर्वे के मुताबिक, अगस्त, 2019 से जनवरी, 2021 के बीच मोदी की अप्रूवल रेटिंग (मानांकन) लगभग 80 फ़ीसदी के आसपास रही। लेकिन अप्रैल, 2021 में यह रेटिंग 67 फ़ीसदी हो गयी। अर्थात् मोदी की लोकप्रियता में 13 फ़ीसदी की कमी आयी है। उधर 13 देशों के राष्ट्राध्यक्षों (ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, भारत, इटली, जापान, मेक्सिको, साउथ-कोरिया, स्पेन, ब्रिटेन और अमेरिका) की अप्रूवल रेटिंग और डिसअप्रूवल रेटिंग को ट्रैक करने वाली मॉर्निंग कंसल्ट की ‘ग्लोबल अप्रूवल रेटिंगÓ के हालिया आँकड़े ज़ाहिर करते हैं कि अभी भी इन 13 देशों के नेताओं में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय होने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी की अप्रूवल रेटिंग में पहली अप्रैल से 11 मई के बीच 10 फ़ीसदी की कमी आयी है। अप्रैल में जो रेटिंग 73 थी, वह 11 मई को घटकर 63 फ़ीसदी हो गयी। उनके डिसअप्रूवल रेटिंग में पहली अप्रैल से 11 मई के बीच 10 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई। हाल में भारतीय पॉलस्टर ओरमैक्स मीडिया के 23 राज्यों के शहरी मतदाताओं के बीच कराये सर्वे में भी प्रधानमंत्री मोदी की अप्रूवल रेटिंग, जो दूसरी लहर से पहले 57 फ़ीसदी थी; वह 11 मई तक 9 फ़ीसदी घटकर 48 फ़ीसदी पर आ गयी।

मोदी की अप्रूवल रेटिंग पहली बार 50 फ़ीसदी के नीचे आयी है। भारतीय टीवी चैनल भी समय समय पर सर्वे करते हैं। हाल में एवीपी न्यूज-सी वोटर के सर्वे में जब जनता से पूछा गया कि क्या दूसरी लहर में प्रधानमंत्री का चुनाव प्रचार करना सही था? तो 58 फ़ीसदी शहरी और 61 फ़ीसदी ग्रामीणों ने ‘नहींÓ में जवाब दिया। एक सवाल यह था कि केंद्र और राज्य सरकारों में से लोग आख़िर किससे ज़्यादा नाराज़ हैं? तो सि$र्फ 17 फ़ीसदी लोगों ने राज्य सरकार से अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की; जबकि केंद्र से नाराज़ रहने वालों की तादाद सर्वे में 24 फ़ीसदी थी। वहीं 54 फ़ीसदी ने बताया कि वह इस बारे में कुछ नहीं बता सकते हैं। लोगों से पूछा गया कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में उनकी सबसे बड़ी नाराज़गी क्या है? जवाब में 44 फ़ीसदी शहरी और 40 फ़ीसदी ग्रामीण लोगों ने कहा कि ‘कोरोना से न निपटना। वहीं 20 फ़ीसदी शहरी लोगों ने और 25 फ़ीसदी ग्रामीण लोगों ने कहा- ‘कृषि क़ानून, जबकि नौ फ़ीसदी शहरी और नौ ग्रामीण लोगों ने कहा कि ‘सीएए पर दिल्ली दंगेÓ। यही नहीं, 10 फ़ीसदी ग्रामीण और सात फ़ीसदी शहरी लोगों ने भारत-चीन सीमा विवाद को भी एक कारण बताया। यह स्नैप पोल 23 से 27 मई के बीच किया गया था।