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लम्बे इंतज़ार के बाद खुले स्कूल

 स्कूलों को करना होगा कोविड प्रोटोकॉल का पालन  कुछ राज्यों में स्कूल खुलते ही बीमार पड़े बच्चे
 बच्चों का भी जल्द होना चाहिए टीकाकरण      तीसरी लहर के आने से डरे हुए हैं अभिभावक

बाज़ारों, शराब के ठेकों, मॉलों, सिनेमाघरों के बाद आख़िरकार अधिकतर राज्यों में स्कूल भी खुल ही गये। कोरोना महामारी के चलते क़रीब सवा साल स्कूलों के बन्द रहने के बाद देश के कई राज्यों में इन्हें खोल दिया गया है। लेकिन कोरोना महामारी के चलते सभी स्कूलों को कोरोना आपातकाल (कोविड प्रोटोकॉल) का पालन कराने के सख़्त निर्देश राज्य सरकारों ने दिये हैं। अभी तक दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, बिहार, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओडिशा में स्कूलों को खोला जा चुका है।
हालाँकि कुछ राज्यों में पूरी तरह से तो कुछ राज्यों में 50 फ़ीसदी छात्र-उपस्थिति के साथ स्कूलों को खोला गया है। वहीं कुछ में 100 फ़ीसदी उपस्थिति की छूट है। कुछ राज्यों में कॉलेज भी खुल गये हैं। वहीं कुछ राज्यों में स्कूल और कॉलेज दोनों ही नहीं खुले हैं। जम्मू एवं कश्मीर में स्कूल, कॉलेज खुलेंगे और कोचिंग सेंटर फ़िलहाल बन्द रहेंगे; लेकिन केवल बड़ी कक्षाओं के शिक्षण व कौशल प्रशिक्षण संस्थानों को खोला जा रहा है। इनमें वही अध्यापक और अन्य कर्मचारी जा सकेंगे, जिन्होंने कोरोना-टीका लगवा लिया है।
लेकिन स्कूल और कॉलेज में जाने की अनुमति के मामले में सभी राज्यों ने अपने-अपने क़ायदे-क़ानून बनाये हैं। मसलन पंजाब की सरकार ने निर्देश दिये हैं कि स्कूलों-कॉलेजों में वही अध्यापक और अन्य कर्मचारी प्रवेश कर सकेंगे, जिन्होंने कोरोना-टीके की दोनों ख़ुराकें ले ली हैं। इसके अलावा यदि किसी बच्चे के माता-पिता या अभिभावक बच्चे को स्कूल भेजने की लिखित अनुमति नहीं देंगे, तो वह बच्चा स्कूल नहीं जा सकेगा। वहीं कर्नाटक में वे ही छात्र कॉलेज जा सकेंगे, जिन्होंने कम-से-कम एक बार कोरोना-टीका लगवा लिया है।

कोरोना आपातकाल लागू
स्कूल खोलने वाले तक़रीबन सभी राज्यों ने कोरोना आपातकाल के पालन के निर्देश के साथ शिक्षा विभागों को बच्चों की शिक्षा आगे बढ़ाने के दिशा-निर्देश दिये हैं। इन दिशा-निर्देशों में दो ग़ज की दूरी-मास्क ज़रूरी, अध्यापकों का टीकाकरण और सभी के लिए सेनिटाइजेशन की व्यवस्था को प्राथमिकता दी जा रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या कोरोना आपातकाल के पालन मात्र से कोरोना वायरस के संक्रमण को रोका जा सकता है? वह भी ऐसे समय में, जब इसकी तीसरी लहर ने दस्तक दे दी है और इस लहर का वायरस बहुत सक्रिय, ताक़तवर, तेज़ी से फैलने वाला बताया जा रहा है। इसमें सन्देह इसलिए भी है; क्योंकि बच्चों से, ख़ासकर सरकारी स्कूलों के बच्चों से नियमों का पालन कराना कोई आसान काम नहीं होगा। दिन भर जारी रहने वाली बच्चों की अजीब और शरारत भरी गतिविधियाँ, लगातार कई घंटे मास्क को लगाकर रखने की प्रतिबद्धता और उन्हें आपसी दूरी बनाकर रख पाना दूभर काम है। ऐसे में यह पूरे भरोस से तो नहीं कहा जा सकता कि स्कूलों में बच्चे सुरक्षित रह पाएँगे।
दूसरी बात हो सकता है कि राज्य सरकारें शुरू-शुरू में मास्क, सैनिटाइजर और बच्चों के दूर-दूर बैठने की व्यवस्था कर भी दें; लेकिन क्या बहुत दिनों तक यह व्यवस्था किसी राज्य के स्कूलों में रह पाएगी? यह सवाल इसलिए भी, क्योंकि देखा गया है कि सरकारी स्कूलों की व्यवस्था पहले से ही ढीली-ढाली है। इसकी एक वजह अगर सरकार, शिक्षा विभाग और स्कूल प्रशासन की तरफ़ से होने वाली लापरवाही है, तो दूसरी वजह अब तक कई कार्यों में हो चुके घोटाले हैं। क्योंकि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि किसी राज्य में मास्क, सैनिटाइजर और दूसरी चीज़ों पर कोई घोटाला नहीं होगा। कुल मिलाकर बच्चों की सुरक्षा की गारंटी शायद ही कोई दे, जो कि बहुत ज़रूरी है। लेकिन उत्तर प्रदेश के राबट्र्सगंज ज़िले के एक स्कूल में कोरोना वायरस के संक्रमण से बचाव के लिए जारी सरकारी दिशा-निर्देशों का पालन न होने पर वहाँ एक पत्रकार ने पहुँचकर वीडियो बनानी चाही, जिस पर वहाँ मौज़ूद अध्यापकों और छात्रों ने पत्रकार से हाथापाई की और उससे गाली-गलौज की।

फीस न दे सके बच्चों का क्या होगा?
जिन राज्य सरकारों ने स्कूलों को खोलने की अनुमति दी है, उन राज्यों में उन बच्चों का क्या होगा, जिनके अभिभावक विद्यालय शुल्क (स्कूल फीस)नहीं भर सके हैं। सरकारी स्कूलों में तो यह दिक़्क़त नहीं है। लेकिन निजी स्कूलों में बहुत सारे बच्चे ऐसे हैं, जिनके अभिभावक उनकी फीस नहीं भर सके हैं। ऐसे स्कूल पिछले साल बिना पढ़ाई कराये ही बच्चों और अभिभावक पर लगातार फीस भरने का दबाव डाल रहे हैं। फीस न देने पर रिजल्ट और टीसी रोकने, बच्चे का रिकॉर्ड ख़राब करने और जबरन फीस वसूलने की धमकियाँ दे रहे हैं। इसके अलावा एक खेल और भी ये स्कूल कर रहे हैं, वह यह कि नयी कक्षा में प्रवेश के नाम पर पूरे साल की फीस ले रहे हैं और फीस आने पर बच्चों को यह कहकर स्कूल से निकाल रहे हैं कि उन्होंने बीते वर्ष की फीस दी है, चालू वर्ष की फीस उन्हें भरनी होगी, तभी वे आगे पढ़ सकेंगे।

सब बच्चे पहुँच सकेंगे स्कूल?
बड़ा सवाल यह भी है कि जो बच्चे पढ़ाई छोडक़र घर बैठ चुके हैं, क्या उन्हें स्कूल वापस बुला पाएँगे? भारत में आज भी कई गाँव हैं, जो शिक्षा में बहुत पिछड़े हुए हैं। ऐसे गाँवों के बच्चों को पढ़ाने के लिए ही मिड-डे मील जैसी योजना सरकार ने शुरू की थी, ताकि स्कूलों में ज़्यादा-से-ज्यादा संख्या में बच्चे आ सकें। कोरोना-काल में न तो स्कूल खुले और न ही मिड-डे मील का कार्यक्रम चल सका। ऐसे में बहुत से बच्चे पढ़ाई छोडक़र घर बैठ गये। दूसरे उन बच्चों की पढ़ाई भी छूट गयी है, जिनके अभिभावक दूसरे राज्यों, शहरों में रहते थे और तालाबंदी के बाद अपने गाँव लौट गये। इसके अलावा कुछ बच्चे परिवार की आर्थिक तंगी के चलते कमाने की ओर अग्रसर हो गये। क्या ऐसे बच्चे दोबारा स्कूल जा सकेंगे?

बाहरी बच्चों का क्या होगा?
एक सवाल यह भी है कि क्या राज्य सरकारें नवोदय जैसे बड़े स्कूलों और उन स्कूलों, जिनमें छात्रावास (हॉस्टल) की व्यवस्था होती है; के छात्रावासों को खोलने की अनुमति देंगी? क्योंकि हर राज्य में ऐसे अनेक स्कूल हैं, जिनमें बच्चों को पढ़ाने के लिए छात्रावास की व्यवस्था होती है। देश में कई स्कूल ऐसे हैं, जो एकल अभिभावक (सिंगल पैरेंट) के बच्चों, अनाथ बच्चों को स्कूल में ही रहने की व्यवस्था देकर पढ़ाते हैं। इसके अलावा कई स्कूल इसी आधार पर बने होते हैं, जो बच्चों को अपने यहाँ रखकर पढ़ाते हैं। अगर इन स्कूलों में बच्चों को रहने की अनुमति नहीं मिलती है, तो वहाँ रहकर अध्ययन करने वाले बच्चों की पढ़ाई सम्भव ही नहीं हो सकेगी।

स्कूल खुलते ही संक्रमित हुए बच्चे
जुलाई में महाराष्ट्र में जैसे ही स्कूल खुले, वहाँ के सोलापुर में एक साथ 613 विद्यार्थी कोरोना की चपेट में आ गये। इससे ज़िला प्रशासन में हडक़ंप मच गया और ज़िले के स्कूलों को बन्द करना पड़ा। हरियाणा स्थित फतेहाबाद के एक स्कूल में भी छ: बच्चे कोरोना संक्रमित मिले। वहीं छत्तीसगढ़ के कुछ स्कूलों में आधा दर्ज़न से ज़्यादा, लुधियाना (पंजाब) में क़रीब 20 और बेंगलूरु (कर्नाटक) के अलग-अलग स्कूलों में सबसे ज़्यादा क़रीब 300 बच्चों के कोरोना संक्रमित होने की ख़बरें हैं।

कुछ अभिभावकों की आपत्ति
राज्य सरकारों ने स्कूल तो खोल दिये, लेकिन बहुत-से बच्चों के अभिभावक उन्हें स्कूल नहीं भेजना चाहते। इन अभिभावकों का कहना है कि जब तक सरकार बच्चों के लिए कोरोना-टीका लेकर नहीं आती है और उनकी सुरक्षा के पूरे इंतज़ाम नहीं करती है, तब तक वे जोखिम नहीं ले सकते। एक नज़रिये से अभिभावकों की बात सही भी है। हालाँकि बच्चों की सुरक्षा की गारंटी तो कोई भी राज्य सरकार नहीं ही देगी। लेकिन कोरोना महामारी की दूसरी लहर का तांडव हम सब देख ही चुके हैं और तीसरी लहर ने भी दस्तक दे दी है। ऐसे में माँ-बाप क्यों न बच्चों की चिन्ता करें? वैसे भी बच्चों में कोरोना संक्रमण होने का $खतरा तीसरी लहर में ज़्यादा बताया जा रहा है। कई राज्यों में बच्चों के कोरोना संक्रमित होने की ख़बरें भी सामने आ रही हैं।

तीसरी लहर आ चुकी है : डॉ. मनीष
दिल्ली के द्वारिका स्थित एक निजी अस्पताल में अपनी सेवाएँ देने वाले डॉ. मनीष कहते हैं कि यह बात किसी से छुपी नहीं है कि देश में कोरोना महामारी की तीसरी लहर दस्तक दे चुकी है। डेल्टा वेरिएंट नाम की इस लहर की चपेट में बच्चे भी आ रहे हैं। हालाँकि भारत सरकार और राज्य सरकारें मिलकर इससे बचाव की कोशिश कर रही हैं। लेकिन इतने भर से काम नहीं चलने वाला। क्योंकि बच्चों और महिलाओं की सुरक्षा के लिए कोरोना-टीका अभी तक नहीं बन सका है। इसके अलावा सभी पात्र लोगों का भी अभी तक टीकाकरण नहीं हो सका है। ऐसे में अगर इस लहर ने दूसरी लहर की तरह तेज़ी पकड़ी, तो एक बार फिर तबाही मच सकती है; जो कि पूरे देश के लिए बहुत परेशानी वाली और दु:खदायी होगी। ऐसे में भारत सरकार को सभी राज्यों से तेज़ी से टीकाकरण करने को कहना चाहिए। इसके अलावा बच्चों और महिलाओं के लिए भी कोरोना-टीका ईज़ाद करने की दिशा में बेहतर क़दम उठाने चाहिए।

पंजाब विधानसभा चुनाव 2022 चुनावी बिसात और मोहरे

पंजाब में क़रीब छ: माह होने वाले विधानसभा चुनाव में सम्भवत: मुफ़्त सबसे बड़ा मुद्दा हो सकता है। आम आदमी पार्टी (आप) ने शुरुआती 300 यूनिट बिजली और शिरोमणि अकाली दल (शिअद) ने 400 यूनिट बिजली मुफ़्त देने का शिगूफा छोड़ा है। कांग्रेस मुफ़्त तो नहीं, लेकिन बिजली की दरें तीन रुपये यूनिट तक करने का झाँसा दे रही है। बता दें कि पंजाब बिजली के मामले में आत्मनिर्भर नहीं है। उसे महँगी बिजली ख़रीदनी पड़ रही है। क्योंकि शिअद सरकार ने बिजली कम्पनियों से समझौते ही ऐसे किये थे। अब नतीजा लोग महँगी बिजली के तौर पर भुगत रहे हैं।

दिल्ली की तर्ज पर राज्य में चुनाव से पहले मुफ़्त के कई ऐलान होंगे और पार्टियाँ इसे घोषणा-पत्र में भी जोड़ेंगी। यह फार्मूला दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को दिल्ली में रास आया। वह वहाँ के 200 यूनिट मुफ़्त बिजली, 2000 लीटर मुफ़्त पानी, मुफ़्त वाई-फाई, डीटीसी की बसों में महिलाओं को मुफ़्त यात्रा सुविधा को यहाँ के चुनावी एजेंडे में रखकर चल रहे हैं। पंजाब में आकर केजरीवाल ने बिजली के संदर्भ में तो घोषणा कर की, तो बाज़ी हाथ से निकलने के डर से लगे हाथों शिअद ने इससे बढक़र घोषणा कर दी।

तीनों ही पार्टियाँ किसान आन्दोलन का समर्थन कर रही हैं। लेकिन चुनाव में आशीर्वाद किसे मिलेगा? या उनकी ही कोई पार्टी मैदान में आये? कहना मुश्किल है। पर इसकी सम्भावना से इन्कार नहीं कर सकते। हाल ही में लुधियाना के कारोबारी लोगों ने भारतीय आर्थिक पार्टी (बाप) का गठन किया है। पार्टी ने सभी 117 सीटों पर चुनाव लडऩे और मुख्यमंत्री के तौर पर भारतीय किसान यूनियन (हरियाणा) के अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढ़ूनी का नाम घोषित किया है। यह नाम वैसे ही नहीं; क्योंकि चढ़ूनी गठन कार्यक्रम के दौरान मुख्य अतिथि के तौर पर मौज़ूद थे। ऐसे में चुनाव से पहले कोई किसान-मज़दूर पार्टी भी बन सकती है। क्योंकि संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े कई नेता राजनीति के मैदान में आने के इच्छुक हैं; पर अभी खुलकर सामने नहीं आना चाहते। सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में 117 में 77 सीटें जीतने वाली कांग्रेस में कुछ भी ठीक नहीं है। केंद्रीय आलाकमान चुनाव से पहले सब कुछ ठीक होने की कल्पना कर रहा है; लेकिन स्थिति इसके विपरीत होने वाली है। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू में अभी तलवारें खिंची हुई हैं। प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद सिद्धू संगठन की मज़बूती में लगे हैं; लेकिन मौक़े-ब-मौक़े सरकार की खिंचाई भी कर देते हैं; जो कैप्टन को बिल्कुल गवारा नहीं। पर मजबूरी में सब देखने और सुनने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है।

सिद्धू के पहले कैप्टन की पसन्द का ही अध्यक्ष रहा है। जो उन्होंने चाहा किया। संगठन में बदलाव और टिकट वितरण में उनकी ही चली। क्योंकि पार्टी ने उन्हें प्रमुख चेहरे के तौर पर अधिकृत किया। पर इस बार अभी तक ऐसा नहीं। यह वह भी जानते हैं और पार्टी में उनके विरोधी भी। कांग्रेस में प्रदेशाध्यक्ष कमज़ोर और एक तरह से कहें तो मुख्यमंत्री की कठपुतली से ज़्यादा नहीं रहे हैं; लेकिन इस बार नवजोत सिद्धू हैं। लिहाजा स्थिति कुछ अलग है। प्रदेशाध्यक्ष सिद्धू मुख्यमंत्री से कहीं ज़्यादा प्रभावशाली दिख रहे हैं। राज्य में कांग्रेस का वोट बैंक दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग का है। दोनों की हिस्सेदारी क़रीब 67 फ़ीसदी है। पिछले विस चुनाव में पार्टी का वोट क़रीब 38.5 फ़ीसदी रहा, जिसे वह क़ायम रखना चाहती है। इसका एक बड़ा हिस्सा इन्हीं दोनों वर्गों से रहा।

घोषणा-पत्र में किये वादे पूरे न होने को लेकर दोनों वर्गों में सरकार के प्रति नाराज़गी है। सम्बद्ध मंत्रियों और विधायकों की नाराज़गी दूर करने का काम मुख्यमंत्री का है, जिसमें कैप्टन कुछ हद तक नाकाम रहे हैं। ऐसे में अब सिद्धू ने अपने तौर पर यह ज़िम्मेदारी सँभाल ली है। यह बड़ा काम है और पार्टी की जीत की सम्भावना इसी से निकल सकती है। कैप्टन और सिद्धू में अब भी 36 का आँकड़ा बना हुआ है। प्रदेशाध्यक्ष की ताजपोशी से पहले सिद्धू ने जिस तरह से पार्टी के ज़्यादातर विधायकों और कई मंत्रियों का समर्थन जुटाकर एक तरह से सीधे कैप्टन को चुनौती ही दी थी। वह कसक कैप्टन के मन में है पर पार्टी हित में वे चुप्पी साधे हुए हैं।

केंद्रीय आलाकमान ने कैप्टन को 18 सूत्री कार्यक्रम दिया है। उन्हें इस पर काम करने और चुनाव से पहले बराबर प्रतिपुष्टि (फीड बैक) देने की ताक़ीद की गयी है। इनमें राज्य में बिजली सस्ती करने, नशा कारोबार पर अंकुश, गुरु ग्रंथ साहिब बेअदबी मामले पर गम्भीर कार्रवाई के साथ राज्य में बिजली ख़रीद सौदों की समीक्षा कर ठोस नतीजे पर पहुँचना है। सिद्धू इन्हीं मुद्दों को उठा रहे हैं, जबकि कैप्टन ऐसा नहीं चाहते। सोनिया गाँधी का पूरा ज़ोर कैप्टन और सिद्धू में किसी तरह तालमेल बनाये रखने का है; लेकिन मौज़ूदा हालात ऐसे नहीं है। चुनाव से पहले क्या समीकरण बनते हैं? इस पर काफ़ी कुछ निर्भर करेगा।

कांग्रेस की आंतरिक कलह का सबसे ज़्यादा लाभ आम आदमी पार्टी को मिल सकता है। सन् 2017 विस चुनाव में पार्टी ने लगभग 23 फ़ीसदी वोट हासिल किये और उनके 20 विधायक जीते। पार्टी का पूरा ज़ोर इसी मत-फ़ीसद को बढ़ाने का है इसके लिए मुफ़्त की घोषणाएँ उन्हें ज़्यादा कारगर लगी। फ़िलहाल संगरूर से पार्टी के सांसद भगवंत मान प्रमुख चेहरे के तौर पर हैं; लेकिन वे बहुत प्रभावशाली साबित नहीं हो पा रहे हैं। सांसद होने के नाते वह केंद्र की भाजपा सरकार और राज्य में कांग्रेस में सरकार की आलोचना में सबसे मुखर रहते हैं।

पार्टी शुरू से ही किसान आन्दोलन की समर्थक रही है, नेताओं को लगता है कि चुनाव से पहले अगर स्थिति ऐसी ही बनी रहती है, तो आप ग्रामीण क्षेत्रों में पहले से ज़्यादा बढ़त हासिल करेगी। शहरी क्षेत्रों में पार्टी पहले से ज़्यादा अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद पाले हुए है। राज्य में विपक्षी पार्टी के तौर पर आप की भूमिका ज़्यादा प्रभावशाली नहीं रही है। पार्टी का पूरा ज़ोर ग्रामीण स्तर पर संगठन को मज़बूत करने पर है। पार्टी नेताओं को लगता है कि चुनाव से पहले पार्टी का घोषणा-पत्र ही उनके लिए वरदान साबित होगा। जिस तरह से दिल्ली में मुफ़्त की घोषणाओं ने वहाँ सत्ता का दरवाज़ा खोल दिया था, पंजाब में भी ऐसा होना सम्भव है।

राज्य में आधे दर्ज़न से ज़्यादा अकाली दल हैं। चुनाव में इनका अलग से कोई वजूद नहीं होगा लिहाज़ा उन्हें किसी-न-किसी पार्टी से तालमेल करना पड़ेगा। शिरोमणि अकाली दल से टूटकर बने इन दलों की ज़्यादा हैसियत नहीं है; लेकिन सीधे मुक़ाबले में ये मुख्य दल शिअद को ही नुक़सान पहुँचाएँगे। पिछले चुनाव में शिअद और भाजपा का गठजोड़ था; लेकिन उसका हिस्सा क़रीब 9.4 फ़ीसदी रहा; जबकि भाजपा का वोट 1.8 फ़ीसदी ही था। तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में शिअद ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और भाजपा से रिश्ते तोड़ लिये। इस बार शिअद ने बहुजन समाज पार्टी से गठजोड़ किया है।

पिछले चुनाव में बसपा ने सभी 117 सीटों पर चुनाव लड़ा था; लेकिन एक भी सीट नहीं मिली, और 1.5 फ़ीसदी वोट मिले। बावजूद इसके शिअद ने गठजोड़ किया है। दलितों और अन्य पिछड़ा वर्ग में बसपा का आधार ठीक है। इसी का फ़यदा उठाने के लिए शिअद ने सबसे पहले गठजोड़ की शुरुआत कर दी है। हालाँकि सीटों को लेकर दोनों में कुछ तकरार है; लेकिन इसे दूर किया जा सकता है।

शिअद अध्यक्ष सुखबीर बादल ने पार्टी की सरकार बनने पर शुरुआती 400 यूनिट बिजली मुफ़्त देने की घोषणा की है। इसके अलावा सरकार बनने पर उप मुख्यमंत्री किसी हिन्दू या दलित को बनाने का ऐलान भी किया है। राज्य में सवर्ण वोट 33 फ़ीसदी के क़रीब हैं। सुखबीर की नज़र उप मुख्यमंत्री की बात कह हिन्दुओं के साथ दलित वोट बैंक पर भी है। आने वाले दिनों में आप और शिअद की होड़ ऐसी ही घोषणाओं से होने वाली है। किसान आन्दोलन की वजह से कभी सत्ता में भागीदार रही भाजपा बहुत मुश्किल में है। अकेले तौर पर पार्टी ऐसी स्थिति में नहीं कि ठीकठाक प्रदर्शन कर जाए। फ़िलहाल तो उनके नेताओं और पदाधिकारियों का बाहर निकलना तक मुश्किल हो रहा है। चुनाव से आन्दोलन की दिशा पर पार्टी  का भविष्य तय होगा। शिअद तीनों कृषि क़ानूनों को रद्द करने के पक्ष में है। इसी मुद्दे पर केंद्रीय मंत्री रही हरसिमरत कौर बादल ने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। कांग्रेस और आप शिअद पर आरोप लगाते हैं कि जिस पार्टी ने तीन कृषि क़ानूनों का पास होने के दौरान समर्थन किया वही अब विरोध कर रहे हैं। शिअद अगर तीन कृषि क़ानूनों का संसद में विरोध करती और पास होने से पहले सरकार से हट जाती, तो आज स्थिति कुछ और होती। कांग्रेस और आप नेता शिअद का तीन कृषि क़ानूनों पर किसानों का समर्थन घडिय़ाली आसू बता रहे हैं। इसमें काफ़ी हद तक सच्चाई भी है; क्योंकि समय रहते शिअद ने निर्णायक फ़ैसला नहीं लिया। ऐसे में आन्दोलन का फ़ायदा उसे कितना मिलेगा? यह तो इसकी दिशा तय होने पर ही पता चलेगा।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 अमित शाह के दौरे से गरमायी राजनीति

उत्तर प्रदेश की सियासत में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के दौरे से गरमा गयी है। उनके दौरे से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कार्यकर्ताओं में जोश तो भरा ही है, योगी का सीना भी चौड़ा हो गया है। अब प्रदेश में भाजपा नेता और कार्यकर्ता पूरी ताक़त से चुनावी मैदान में हैं। इसकी वजह यह है कि गृह मंत्री भाजपा पर पूरा ध्यान केंद्रित करते हुए पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं में टीम भावना से काम करने को कह गये। उन्होंने योगी की जमकर तारीफ़ की और स्पष्ट कर दिया कि अब पार्टी के लोग विपक्ष को परिवारवाद और क़ानून व्यवस्था के मुद्दे पर घेरें। इसके साथ ही उन्होंने अपने सहयोगी दलों को भी गठबन्धन का संकेत देते हुए साफ़ कर दिया कि पार्टी में उन्हें पूरा मान-सम्मान मिलेगा।

केंद्रीय गृहमंत्री ने यह भी संकेत दिया है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा गुजरात की थीम पर लड़ेगी। जैसा कि सब जानते हैं कि गुजरात में हर बार भाजपा एंटी इनकमबेंसी की काट के लिए पुराने विधायकों का टिकट काटकर नये चेहरे पर दाँव लगाती है। इस बार उत्तर प्रदेश में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के संकेत से यही ज़ाहिर है, जिसे हमने पिछले लेख में भी उजागर किया था।

माना जा रहा है कि इस बार भाजपा से 100 से ज़्यादा मौज़ूदा विधायकों के टिकट कट सकते हैं और उनकी जगह रुतवेदार नये चेहरों को मैदान में उतारा जा सकता है। लेकिन इससे यह भी सम्भव है कि भाजपा के मौज़ूदा विधायक और उनके समर्थक पार्टी से नाराज़ हो जाएँ और किसी और पार्टी में खिसक जाएँ। यहाँ ध्यान दिला दें कि 2017 में भाजपा ने बिना मुख्यमंत्री के चेहरे के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दम पर विधानसभा चुनाव लड़ा था और प्रदेश की 403 सीटों में से बहुत बड़े बहुमत के साथ 312 सीटें जीतकर रिकॉर्ड बनाया था। मगर इस बार प्रदेश में पार्टी योगी के चेहरे पर चुनाव लड़ रही है और 300 से अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य बना चुकी है। इसके पीछे संघ की भी बड़ी भूमिका है। क्योंकि संघ की वजह से भाजपा में पक्के मतदाताओं की संख्या काफ़ी है, जो कभी भी कहीं नहीं जाएँगे। इधर, चुनाव की रणनीति प्रधानमंत्री ने स्वयं तय की है। 16 अगस्त से उनके नये मंत्रिमंडल में नियुक्त मंत्री अपने-अपने राज्यों में प्रचार कर रहे हैं।

कांग्रेस की रणनीति

प्रियंका गाँधी के पूरी तरह उत्तर प्रदेश में डेरा डाल लेने के बावजूद अभी प्रदेश में कांग्रेस की रणनीति कमज़ोर ही कही जाएगी। यह अलग बात है कि कांग्रेस ने प्रदेश के इस विधानसभा चुनाव में निडर, युवा और नये दावेदारों पर दाँव लगाने की रणनीति बनायी है और क़रीब 38 नेताओं की सूची जारी की है। माना जा रहा है कि कांग्रेस किसी भी हाल में प्रदेश में भाजपा को हराने की काट ढूँढ रही है, जिसके लिए प्रियंका गाँधी मैदान में उतर चुकी हैं।

कुछ राजनीतिक जानकारों का कहना है कि हो न हो, प्रियंका गाँधी प्रदेश में मुख्यमंत्री चेहरा हैं। क्योंकि कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव और उत्तर प्रदेश के प्रभारी राजेश तिवारी यह दावा कर चुके हैं। कांग्रेस की इस रणनीति से भाजपा में एक डर तो बैठा है। हारने का हो न हो, लेकिन सीटें कम होने का तो पक्का है। हालाँकि कांग्रेस का जनाधार पिछले दो दशक में धीरे-धीरे बहुत खिसक चुका है और अब लोग उसमें सुपर नेतृत्व तलाश रहे हैं। अगर प्रियंका पर लोग भरोसा कर गये, तो कोई बड़ी बात नहीं कि कांग्रेस के दिन फिर जाएँ। इसके अलावा कांग्रेस भाजपा से रूठे लोगों को भी टिकट देकर अपनी शाख मज़बूत कर सकती है, जैसा कि उसने पंजाब में किया। क्योंकि भाजपा का किला घर के भेदी ही ढहाएँ, तो ही वह ढह सकता है। कहने का लब्बोलुआब यह है कि कांग्रेस को इस समय अपने अन्दर मज़बूती बनाने के साथ-साथ भाजपा में अन्दरखाने पड़ी फूट का भरपूर फ़ायदा उठाना चाहिए।

समाजवादी पार्टी की स्थिति

समाजवादी पार्टी (सपा) को प्रदेश के 2022 के विधानसभा चुनाव में बहुमत हासिल करने में मुश्किल तो बहुत है, मगर यह नामुमकिन नहीं है। जिस तरह से उसने कुछ ही समय पहले हुए ज़िला पंचायत के त्रिस्तरीय चुनावों में भाजपा को पटखनी दी, उससे यह साफ़ है कि लोग अब उसे एक बड़े विकल्प के रूप में देख रहे हैं। मगर सपा के लोगों को डर है कि भाजपा विधानसभा चुनाव में कोई ऐसा दाँव न चल जाए, जो उसने ज़िला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनावों में चला था। पहले भी गठबन्धन करके चुनाव लड़ चुके सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने दूसरे दलों को संकेत दिया है कि सपा के दरवाज़े गठबन्धन के लिए खुले हैं। लेकिन उन्होंने अपनी इस बात में छोटे दलों की बात कही।

इसका मतलब अखिलेश यादव भाजपा को छोडक़र बाक़ी को सपा से अब छोटा दल मानने लगे हैं और भाजपा के ख़िलाफ़ लड़ रहे दलों के साथ-साथ निर्दलीयों को भी गठबन्धन का न्यौता दे रहे हैं। उन्होंने यह भी कह डाला कि 2022 के चुनाव में कई छोटी पार्टियाँ उनके साथ आएँगी। लेकिन उन्हें अपने इस समय के अनुमानित 18 से 22 फ़ीसदी वोट बैंक को खींचकर 35 फ़ीसदी करना होगा। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अगर अखिलेश को मुस्लिमों ने वोट दे दिया, तो वह जीत सकते हैं।

बहुजन समाज पार्टी

बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती इस बार अपने निश्चित वोट बैंक के अलावा ब्राह्मणों को अपने ख़ेमे में करने की रणनीति बना ही चुकी हैं। मगर इस बार वह सन् 2007 की तरह पिछड़ा वर्ग को भी लुभाने का प्रयास करेंगी। वह इस दाँव में जीत के लिए पिछड़ा वर्ग से प्रत्याशी मैदान में उतारेंगी। वह ब्राह्मणों को टिकट देकर उन्हें अपने ख़ेमें में लाकर कामयाब होना चाहती हैं। क्योंकि ब्राह्मण भाजपा से नाराज़ हैं। अर्थात् बसपा की मुखिया प्रदेश के 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के वोट बैंक में सेंधमारी करना चाह रही हैं। क्योंकि वह जानती हैं कि उनकी जीत सन् 2007 के फार्मूले से ही सम्भव है, जिसकी शुरुआत वह कर चुकी हैं।

सन् 2017 में तो उन्होंने 100 से अधिक मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट देकर धोखा खा लिया। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि 2007 में बसपा के पक्ष में 30 फ़ीसदी वोट पड़ा था, जो कि उसकी सरकार बनाने के लिए पर्याप्त साबित हुआ। लेकिन इस बार उसके खाते में फ़िलहाल 13 से 14 फ़ीसदी वोट है, जिसे मायावती अपनी रणनीति से बढ़ाने में लगी हैं।

अन्य पार्टियाँ

इस बार उत्तर प्रदेश में कई छोटे-बड़े दल भाजपा को हराने की कोशिश में रहेंगे, मगर कुछ दल भाजपा के ही घटक हैं। इनमें ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल मुख्य रूप से शामिल हैं। यह भी ज़ाहिर है कि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) भी भाजपा की ही बी पार्टी बनकर बंगाल की तरह उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के मैदान में उतर रही है। लेकिन इसमें कोई दो-राय नहीं कि भारतीय समाज पार्टी और अपना दल को भाजपा ने उनकी शर्तों पर शामिल किया है। क्योंकि ये दोनों ही पार्टियाँ कुछ समय पहले तक भाजपा से नाराज़ चल रही थीं, जिन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह देकर उसने मनाया है।

इसके अलावा प्रदेश में राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) जैसी पार्टी भी है, जिसका पश्चिमी उत्तर प्रदेश, ख़ासकर मुज़फ़्फ़रनगर, बाग़पत, मेरठ, मथुरा और इन ज़िलों के आसपास के इलाक़ों में ठीकठाक दबदबा है। भले ही उसने पिछले चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया, मगर इस बार उसके पक्ष में काफ़ी वोट जाएँगे। चर्चा है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में बिहार की भाजपा की सहयोगी पार्टी जद(यू)भी 200 सीटों पर मैदान में उतरेगी। मगर निर्दलीयों को भी कम नहीं आँकना चाहिए। क्योंकि उत्तर प्रदेश में निर्दलीय प्रत्याशी ठीकठाक संख्या में जीत हासिल करते हैं। इस बार भी काफ़ी निर्दलीयों के जीतने की उम्मीद है।

मेडिकल कॉलेज पर घमासान

उत्तर प्रदेश में इन दिनों मेडिकल कॉलेज और मूर्तियों पर घमासान मचा हुआ है। दरअसल केंद्र सरकार ने मेडिकल कॉलेज में यूजी और पीजी की पढ़ाई में पिछड़ा वर्ग और आर्थिक रूप से कमज़ोर अगड़ों को आरक्षण देने की बात कही है। अर्थात् भाजपा ने इस बार पिछड़ा वर्ग और अगड़ा वर्ग के कमज़ोर तब$के के आगे आरक्षण का चारा फेंका है। भाजपा के इस दाँव पर दूसरी पार्टियाँ हमलावर हो रही हैं और इसका काट ढूँढ रही हैं। इसके अलावा प्रदेश की योगी सरकार ने नौ मेडिकल कॉलेजों की सौगात प्रदेश को देने का वादा किया है।

राजनीतिक जानकार कहते हैं कि मेडिकल कॉलेज तो समाजवादी पार्टी की देन हैं, जिन्हें लेकर भाजपा दाँव खेल रही है। उनका यह भी कहना है कि विधानसभा चुनाव में सिर्फ़ छ:-सात महीने ही बचे हैं। ऐसे में सवाल यह है कि जिस सरकार ने साढ़े चार साल में शिक्षा पर इतना ध्यान नहीं दिया, वह इतने कम समय में नौ मेडिकल कॉलेज बनाएगी, यह बात समझ से परे है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश सरकार पहले से प्रदेश में खड़े मेडिकल कॉलेजों के नाम बदल रही है, जिसका विरोध भाजपा में ही ख़ूब हो रहा है। सच तो यह है कि भाजपा के प्रदेश सिपहसालार और प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ नाम बदलू हैं, काम करने वाले नहीं। क्योंकि काम करने वाले नाम बदलने में समय नहीं गँवाते।

दिल्ली पुलिस प्रमुख के रूप में अस्थाना की नियुक्ति पर सवाल क्यों?

गुजरात कैडर के 1984 बैच के भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी राकेश अस्थाना की सेवानिवृत्ति से चार दिन पहले दिल्ली पुलिस आयुक्त के रूप में हुई नियुक्ति पर सवाल उठने लगे। 27 जुलाई, 2021 को उनकी नियुक्ति हुई। अब अस्थाना का कार्यकाल एक वर्ष और होगा। उनकी इस नियुक्ति पर सर्वोच्च न्यायालय में दो याचिकाएँ दायर कर आरोप लगाया गया है कि इस नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन किया गया है। सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन एनजीओ ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों और केंद्र सरकार के विभिन्न नियमों के कथित उल्लंघन के आधार पर सेवानिवृत्ति से ठीक चार दिन पहले आईपीएस अधिकारी राकेश अस्थाना की दिल्ली के पुलिस आयुक्त के रूप में नियुक्ति को चुनौती दी है। अधिवक्ता प्रशांत भूषण के माध्यम से दायर याचिका में एनजीओ ने राकेश अस्थाना की नियुक्ति के आदेश को रद्द करने की माँग की है।
याचिका में कहा गया है कि अस्थाना को दिल्ली पुलिस आयुक्त के रूप में नियुक्त करने वाली केंद्र की नियुक्ति समिति (एसीसी) और केंद्र द्वारा जारी 27 जुलाई के आदेश को रद्द करने की ज़रूरत है और पुलिस आयुक्त के रूप में नियुक्ति के लिए एजीएमयूटी कैडर से एक अधिकारी को चुनने के लिए एक नयी नियुक्ति प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए। एजीएमयूटी अरुणाचल प्रदेश, गोवा मिजोरम और दिल्ली सहित अन्य केंद्र शासित प्रदेशों के लिए एक कैडर है।
इससे पहले वकील मनोहर लाल शर्मा द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में एक अवमानना याचिका दायर की गयी थी। इसमें कहा गया था कि अस्थाना की नियुक्ति प्रकाश सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय के 13 मार्च, 2019 के फ़ैसले के विपरीत है, जिसमें पुलिस महानिदेशक के रूप में नियुक्ति के लिए किसी भी अधिकारी को छ: महीने के शेष कार्यकाल की आवश्यकता होती है। अस्थाना के पास 27 जुलाई को सेवानिवृत्त होने के लिए चार दिन थे। वकील मनोहर लाल शर्मा द्वारा 30 जुलाई को दायर याचिका में कहा गया है कि अस्थाना की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय के जुलाई, 2018 के फ़ैसले का उल्लंघन है, जिसमें कहा गया था कि संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) को चाहिए कि ऐसी नियुक्तियों के लिए उन अधिकारियों पर विचार करें, जिनकी दो वर्ष की सेवा शेष है।
गृह मंत्रालय के आदेश में कहा गया है कि राकेश अस्थाना, जो सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के महानिदेशक के रूप में कार्यरत थे; को तत्काल प्रभाव से एक वर्ष के कार्यकाल के लिए दिल्ली पुलिस आयुक्त के रूप में नियुक्त किया गया है। इस साल जून में एस.एन. श्रीवास्तव की सेवानिवृत्ति के बाद दिल्ली के पुलिस आयुक्त बालाजी श्रीवास्तव को पुलिस आयुक्त का अतिरिक्त प्रभार दिया गया था।
ग़ौरतलब है कि राकेश अस्थाना पहले भी विवादों में रह चुके हैं। एक एनजीओ कॉमन कॉज ने कुछ साल पहले अस्थाना की विशेष निदेशक के रूप में नियुक्ति को इस आधार पर चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया था कि उनका नाम स्टर्लिंग बायोटेक- एक कम्पनी, जिसकी सीबीआई द्वारा काले धन को वैध बनाने (मनी लॉन्ड्रिंग) के लिए जाँच की जा रही थी; से ज़ब्त की गयी 2011 की डायरी में था। अस्थाना का नाम प्राथमिकी में नहीं था; लेकिन सम्भवत: उनकी अपनी एजेंसी द्वारा चल रही जाँच का विषय था। अस्थाना एक भ्रष्टाचार घोटाले में सीबीआई के विशेष निदेशक आलोक वर्मा के साथ रिश्वतख़ोरी के विवाद में फँस गये थे। दोनों ने एक-दूसरे पर घूसख़ोरी का आरोप लगाया, और बाद में केंद्रीय सतर्कता आयोग की सिफ़ारिश पर सरकार ने उन्हें छुट्टी पर जाने
को कहा।
यह सबसे असामान्य मामला था। क्योंकि देश के इतिहास में पहली बार भारत की प्रमुख पुलिस जाँच एजेंसी के एक सेवारत शीर्ष अधिकारी की नियुक्ति पर सवाल उठाया गया था। ख़ास बात यह थी कि उसी एजेंसी द्वारा भ्रष्टाचार के मामले में उनकी जाँच की जा रही थी। सम्बन्धित व्यक्ति राकेश अस्थाना को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के मंत्रिमंडल की नियुक्ति समिति द्वारा जारी एक आदेश पर सीबीआई के विशेष निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया था। इस नियुक्ति को ग़ैर-सरकारी संगठन कॉमन कॉज द्वारा दायर एक जनहित याचिका (पीआईएल) याचिका के माध्यम से इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि अस्थाना ‘त्रुटिहीन’ व्यक्ति नहीं है।
अस्थाना ने अपने करियर में कई महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य किया है, जिनमें वड़ोदरा के पुलिस महानिरीक्षक, अहमदाबाद शहर के संयुक्त पुलिस आयुक्त और सूरत और वड़ोदरा में पुलिस आयुक्त के पद शामिल हैं। वह 2002 में कुख्यात गोधरा ट्रेन अग्निकांड की जाँच के लिए गुजरात सरकार द्वारा नियुक्त विशेष जाँच दल (एसआईटी) का हिस्सा थे।
अस्थाना कथित तौर पर सत्ता के क़रीब हैं। अप्रैल, 2016 में अस्थाना को सीबीआई के अतिरिक्त निदेशक के रूप में तैनात किया गया था। बाद में उन्होंने अनिल सिन्हा के सीबीआई निदेशक के रूप में पद छोडऩे के बाद कुछ समय के लिए सीबीआई के कार्यवाहक / अंतरिम निदेशक के रूप में भी कार्य किया।
पिछले एक दशक में यह पहली बार था कि सीबीआई का नेतृत्व एक महीने से अधिक समय तक पूर्णकालिक निदेशक द्वारा नहीं किया गया था, यानी जब तक आलोक वर्मा को सीबीआई निदेशक के पद पर नियुक्त नहीं किया गया था। बाद में भारत सरकार द्वारा सीवीसी की सिफ़ारिश पर वर्मा और अस्थाना को छुट्टी पर भेजने पर वर्मा सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करने के लिए गये और अस्थाना दिल्ली उच्च न्यायालय में। दिल्ली उच्च न्यायालय ने वर्मा को छुट्टी पर भेजने के फ़ैसले को रद्द कर दिया और वर्मा को दो महीने बाद सीबीआई निदेशक के रूप में बहाल कर दिया गया। इस निर्देश के साथ कि जब तक चयन समिति भ्रष्टाचार के आरोपों पर उनके भाग्य का फ़ैसला नहीं करती, तब तक वह कोई बड़ा फ़ैसला नहीं लेंगे।
उनके खाते में कई महत्त्वपूर्ण मामले हैं, जिन्हें उन्होंने सफलतापूर्वक सँभाला। राकेश अस्थाना ने अपने करियर में चारा घोटाला सहित कई संवेदनशील मामलों को सँभाला है। एक ऐसा भ्रष्टाचार, जिसमें बिहार के ख़जाने से क़रीब 9.4 बिलियन (940 करोड़) रुपये का गबन शामिल था और इस मामले में पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ नेता लालू प्रसाद यादव के ख़िलाफ़ आरोप-पत्र दायर किया गया था। एक अन्य उच्चस्तरीय (हाई प्रोफाइल) मामले में अस्थाना ने डीजीएमएस महानिदेशक को धनबाद में रिश्वत लेते पकड़ा। उन्हें 26 जुलाई, 2008 को अहमदाबाद में हुए बम विस्फोट की जाँच की ज़िम्मेदारी भी दी गयी थी और उन्होंने कथित तौर पर एक महीने से भी कम समय में मामले को सुलझा लिया था। राकेश अस्थाना ने बापू आसाराम और उनके बेटे नारायण साईं के मामले की भी जाँच की थी। फ़रार नारायण साईं को हरियाणा-दिल्ली सीमा पर पकड़ा गया था।
नव नियुक्त दिल्ली पुलिस आयुक्त का पदभार ग्रहण करने के बाद मीडिया के साथ अपनी पहली बातचीत में अस्थाना ने कहा- ‘दिल्ली पुलिस का अतीत शानदार रहा है। बल द्वारा अतीत में बहुत अच्छा काम किया गया है। बहुत से जटिल मामलों को सुलझाया गया है। दिल्ली पुलिस ने बहुत-सी जटिल परिस्थितियों को सँभाला है। मैं समूह कार्य (टीम वर्क) में विश्वास करता हूँ और मुझे उम्मीद है कि इस समूह कार्य से हम समाज की बेहतरी और शान्ति के प्रसार के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने में सक्षम होंगे।’
इस बीच दिल्ली पुलिस आयुक्त के रूप में अपने पहले बड़े फ़ैसले में राकेश अस्थाना ने सात आईपीएस अधिकारियों का तबादला कर दिया। शायद यह अहसास दिलाते हुए कि वह नये मालिक (बॉस) हैं।
(उपरोक्त विचार लेखक के अपने हैं।)

नियुक्ति को चुनौती देने के आधार
 प्रकाश सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी निर्देशों का उल्लंघन।
 राकेश अस्थाना का कम-से-कम छ: महीने का शेष कार्यकाल नहीं था।
 कम-से-कम दो साल के कार्यकाल के मानदंड को नज़रअंदाज़ किया गया।
 नियम 56(डी) का उल्लंघन, जो यह निर्धारित करता है कि किसी भी सरकारी सेवक को 60 वर्ष की सेवानिवृत्ति की आयु के बाद सेवा में विस्तार प्रदान नहीं किया जाए।
 अखिल भारतीय सेवा (सेवा की शर्तें-अवशिष्ट मामले) नियम, 1960 के नियम-3 के तहत केंद्र के पास अखिल भारतीय सेवा (मृत्यु सह-सेवानिवृत्ति लाभ) नियम, 1958 के नियम-16(1) में अस्थाना को सेवा का विस्तार देने के लिए ढील देने का अधिकार नहीं था।
 कार्मिक विभाग और प्रशिक्षण कार्यालय ज्ञापन दिनाँक 08.11.2004 के तहत निर्धारित अखिल भारतीय सेवा अधिकारियों की अंतर्-संवर्ग प्रतिनियुक्ति पर नीति का उल्लंघन।
 दिल्ली पुलिस आयुक्त की नियुक्ति के लिए कोई यूपीएससी पैनल नहीं बनाया गया था; और दो साल के न्यूनतम कार्यकाल के मानदंड की अनदेखी की गयी।

विश्व मानवता दिवस पर विशेष दुनिया में जगानी होगी मानवता की अलख

भूमंडलीकरण के इस भौतिकवादी दौर में आज जिस तरह से वैश्विक स्तर पर मानवीय मूल्यों में पतन देखा जा रहा है, वह बेहद दु:खद है। लेकिन मानव मूल्यों और मानवता की रक्षा करना ही मानव का पहला धर्म है। ऐसे ही मानव सेवा में लगे लोगों को उचित सम्मान देने के लिए प्रति वर्ष 19 अगस्त को विश्व मानवता दिवस मनाया जाता है। लोगों में मानवता की भावना जगाने के उद्देश्य से आरम्भ किया गया यह महत्त्वपूर्ण दिवस विपरीत परिस्थितियों में जोखिम उठाकर या अपनी जान की बाज़ी लगाकर मानवता की सेवा करने वाले लोगों को समर्पित है।
आज जहाँ मध्य-पूर्व के देश आपसी संघर्ष और भीषण हिंसा से गुज़र रहे हैं, वहीं दक्षिण एशिया में साम्प्रदायिक राजनीति तथा आतंकवाद ने अपनी जड़ें जमा ली है, जिससे दुनिया के कई हिस्सों में करोड़ों लोग परेशान हैं। आतंकवादी हमले कब, कहाँ हो जाएँ, किसी को इसके बारे में कुछ नहीं पता। आज अमेरिका से लेकर ऑस्ट्रेलिया जैसे लोकतांत्रिक देशों तक में नस्लीय हमले अक्सर देखने को मिल जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में पश्चिमी देशों में विश्व को स्तब्ध करने वाली कई हृदयविदारक घटनाएँ घटी हैं। बेहद निराशाजनक बात यह है कि आज विश्व के कई देशों में मानवाधिकारों का गला घोंटा जा रहा है और भेदभावपूर्ण क़ानून बनाये जा रहे हैं।
दु:खद बात यह है कि दुनिया के अलग-अलग देशों में आज भी करोड़ों लोग तानाशाही शासन व्यवस्था के अन्दर जी रहे हैं, जहाँ उन्हें सामान्य नागरिक अधिकार भी प्राप्त नहीं हैं और उनका लगातर शोषण किया जा रहा है। जबकि कुछ देश तो अलग विचारधारा रखने के कारण अपने ही नागरिकों पर बम बरसा रहे हैं या उन पर भयंकर अत्याचार कर रहे हैं। सीरिया, अफ़ग़ानिस्तान, दक्षिण सूडान, लीबिया, कांगो गणराज्य, नाइजीरिया, म्यांमार जैसे देश इसका सटीक उदाहरण हैं, जहाँ मानवता हर पल कराह रही है। इन देशों में हैवानियत का नंगा नाच जारी है और यहाँ आज गृहयुद्ध जैसे हालात हैं। आतंक और हिंसा की डर की वजह से इन देशों के करोड़ों नागरिक आज दूसरे देशों में शरणार्थी की ज़िन्दगी जीने को मजबूर हैं।
यह दु:खद बात है कि दुनिया के कई देशों के नागरिकों को आज भी दो वक़्त का भोजन तक नसीब नहीं हो पा रहा है। कई लोग यहाँ आज भी भूख से मर रहे हैं और ग़रीबी के कुचक्र में गम्भीर रूप से फँसे हैं। कोरोना महामारी ने लोगों के समक्ष कई तरह की गम्भीर मुसीबतें खड़ी कर दी हैं। हालाँकि बहुतेरे सरकारी संस्थान तथा अंतर्राष्ट्रीय संगठन मानवता की सेवा में लगकर स्थिति को बेहतर बनाने में लगे हैं; लेकिन दुनिया के अनुभव हमें यह बताते हैं कि केवल सरकारी मदद और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रयासों से ऐसी मुसीबतों से पूरी तरह नहीं निपटा जा सकता। हमें इन समस्याओं से निजात पाने के लिए वैश्विक स्तर पर व्यक्तिगत प्रयास करने होंगे, ताकि इस दुनिया को बेहतर बनाया जा सके। आज दुनिया में सैकड़ों क़ानूनों के बावजूद लगातार गम्भीर अपराध घटित हो रहे हैं। हत्या और बलात्कार जैसे संगीन अपराध को आज दुनिया के लगभग हर देश में अंजाम दिया जा रहा है। यह तब है, जब हमारे सभी धार्मिक ग्रन्थ हमें मानवता की सेवा करना सिखाते हैं। आज इंसान अपनों की मदद से ही कतराता है। निजी स्वार्थ मानवता की सेवा पर भारी पड़ता जा रहा है।
आज हर मानव को कबीर दास, गुरु नानक, सन्त रैदास, ज्योतिबा फुले, महात्मा गाँधी, मदर टेरेसा तथा नेल्सन मंडेला जैसी मानवतावादी विभूतियों के जीवन से प्रेरणा लेने की ज़रूरत है।
हमें याद रखना होगा कि हिंसा और युद्ध मानव जीवन की बर्बादी के सबसे बड़े कारण हैं। अहिंसा, प्रेम, दया और मानवता के द्वारा ही हम दुनिया के लोगों की सोच में बदलाव ला सकते हैं और एक दूसरे के प्रति प्यार तथा सम्मान की भावना को बढ़ा सकते हैं। ध्यान रहे कि 19 अगस्त, 2003 में संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिनिधि व मानवतावादी सर्जियो विएरा डी. मेलो और उनके 21 सहकर्मियों को इराक़ की राजधानी बग़दाद में एक आतंकवादी हमले में उड़ा दिया गया था। कुछ वर्षबाद इस दिन को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने विश्व मानवता दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। इस साल यह मिशन 12वें वर्ष में प्रवेश कर गया है। हिंसक संघर्ष, आतंकवाद और गहरी निराशा के इस दौर में यह दिवस हमें बेसहारा तथा ज़रूरतमंद लोगों की सेवा को प्रेरित करता है।
इतिहास हमें सीख देता है कि अहिंसावादी विचारों को अपनाकर ही विश्व में शान्ति स्थापित की जा सकती है। आइए, हम उन लोगों को श्रद्धांजलि दें, जिन्होंने मानव सेवा के लिए बड़े-बड़े जोखिम उठाये और कइयों ने जान तक गँवा दी। साथ ही हम भी मानवता को बचाने का प्रयास करें, तभी सही मायने में विश्व मानवता दिवस सफ़ल होगा।
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं।)

चमकते चेहरों के काले कारनामे

क्या कालिख सफ़ाई अभियान मस्तक देखकर टीका लगाने के मानिंद होती है? अथवा मछलियाँ ही इतनी बड़ी होती हैं कि सरकार के जाल छोटे पड़ जाते हैं? सियासी गणिताई में इन सवालों के जवाब मुश्किल हैं। लेकिन भ्रष्टाचार के इस गटर को खँगालें, तो चौंकाने वाले ऐसे चमकते चेहरों पर कई अलग-अलग मुखौटे नज़र आएँगे, जो अपने धतकर्मों को छिपाने के लिए उन मुखौटों पर शराफ़त का एक बड़ा मुखौटा लगाये मिलेंगे; या फिर लोगों का दुलार पाने के लिए क़िस्म-क़िस्म की नोटंकियाँ करते नज़र आएँगे।
इस फ़ेहरिश्त में नेताओं तो हैं ही, लेकिन अफ़सर भी उनसे कम नहीं हैं। अगर राजस्थान के अफ़सरान की बात रें, तो इस क़तार में पहला नाम प्रशासनिक टाइगर नीरज पवन का है। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री से मान-सम्मान और पुरस्कार पा चुके नीरज लोगों की नज़र में कितने पवित्र थे, इसे समझने के लिए पाली के लोगों का उनके प्रति वह प्यार था, जिसे वह उनकी ईमानदारी देखकर करते थे। दरअसल ज़िला कलेक्टर रहते हुए उनके तबादले के विरोध में पूरा शहर उमड़ पड़ा था। उनके प्रति लोगों के दुलार की वजह की तह में ढेरों मिसालें गिनायी जा सकती हैं। उन्होंने शिकायतों के निस्तारण के लिए ‘हेल्पलाइन 1040’ का गठन किया। कृषि आयुक्त रहे हुए पवन ने ‘कोबरा टीम’का गठन किया; ताकि नक़ली खाद, बीज के कारोबार पर नकेल कसी जा सके। ऐसा पहली बार हुआ, नतीजतन पवन किसानों के चहेते बन गये।
गुर्जर समस्या के समाधान के मामले में नीरज पवन न सिर्फ़ अशोक गहलोत, बल्कि वसुंधरा राजे के भी दुलारे बन गये थे। लोगों का यहाँ तक कहना है कि आईएएस लॉबी में सबसे ज़्यादा रुतबा नीरज पवन का था। नीरज पवन पहले ऐसे अधिकारी थे, जो गाँवों में रात्रि में चौपाल लगाकर लोगों की समस्याएँ सुनते थे। ऐसे प्यारे, दुलारे नौकरशाह जब भ्रष्टाचार की काई पर फिसले, तो लोग सन्न रह गये। इसके बाद तो उनके धत्कर्मों की खिड़कियाँ खुलती चली गयीं। लोगों को हैरत थी कि गंगाजल की तरह पवित्र अफ़सर का कोई बदरंग मुखौटा कैसे हो सकता है? बहरहाल पवन जाँच एजेंसी के दरपेश हैं। लेकिन सवाल है कि मुखौटे पर मुखौटा लगाकर चैन की बंसी बजाने वाले प्रशासनिक अफ़सरों की क़तार आख़िर क्यों ख़त्म होने का नाम नहीं लेती?
इसमें कोई शंका नहीं कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भ्रष्टाचार के प्रति कठोर रवैया रखते हैं, तभी तो भ्रष्टाचारी असरों की एक-एक करके पोल खुलती जा रही है। पिछले ढाई साल इस दृष्टि से सचमुच बेमिसाल रहे कि सरकार के सर्वोच्च स्तरों पर हर महीने भ्रष्टाचार के नये मामले उजागर हुए। लेकिन इसके बावजूद एक साल पहले चार लाख की घूस लेते रंगे हाथों पकड़े गये खनन विभाग के संयुक्त सचिव बी.डी. कुमावत रिहा हो गये।


ऐसे एक नहीं, अनेक प्रकरण हैं; जिनमें एसीबी ने भ्रष्टाचार के आरोपी अफ़सरों को दबोचा; लेकिन उनमें कई बच गये। अगस्त, 2018 में एसीबी ने सार्वजनिक निर्माण विभाग के दो बड़े अफ़सरों डी.पी. सैनी और गुलाब चंद गुप्ता को रिश्वत लेते पकड़ा था। लेकिन इनके ख़िलाफ़ भी कोई ख़ास क़ानूनी कार्रवाई नहीं हो सकी। क्या ये दोनों अफ़सर अपने काले मुखौटों पर शराफ़त का कोई ऐसा मुखौटा लगाये थे, जिसके नीचे दबे धत्कर्म दिखायी नहीं दिये?
अफ़सरों के भ्रष्टाचार और जालसाज़ी को संरक्षण देने का करोड़ी मामला तो बुरी तरह अचंभित करता है। जयपुर से महाराष्ट्र तक रची गयी इस जालसाज़ी में तीन आरएएस स्तर के अफ़सर और चार कनिष्ठ अधिकारी लिप्त थे। लेकिन पता नहीं ऐसा कौन-सा दबाव पड़ा कि राज्य सरकार इन अफ़सरों पर मुक़दमा तक नहीं चला पायी।
दरअसल इन अफ़सरों ने पहले तो 671 एकड़ ज़मीन के लिए निजी क्षेत्र की हस्तियों से मिलकर नियमों के पुर्जे़ उड़ाते हुए ज़मीन के टुकड़े कर डाले फिर उनके नाम से खाताधारकों ने मुम्बई से और फिर करोड़ों का क़र्ज़ ले लिया। घोटाले का बवंडर उठा तो उड़ते तिनकों ने कई कहानियाँ बाँच दीं। जब घोटाले का ख़ुलासा हुआ तो नीयत, बदनीयत के कई खेल भी चल पड़े।


दरअसल महाराष्ट्र सरकार तो चाहती थी कि इस ज़मीन की नीलामी की जाए, जबकि एसीबी के अफ़सर चाहते थे कि भ्रष्टाचार की धाराएँ लगाकर आरोपी अफ़सरों पर मुक़दमा चल भ्रष्टाचार की धाराएँ लगाकर। पर इन अफ़सरों पर भी कोई कार्रवाई न हो सकी। जालसाज़ी के इस खेल की कोडिय़ाँ कैसे चली गयी? इसके केंद्र में भी बीकानेर के चक्रगर्वी गाँव की 671 एकड़ भूमि, जो सिर्फ़ एक ही व्यक्ति के नाम पर थी; जबकि उस व्यक्ति के नाम निर्धारित बीघा से अधिक रक़बा नहीं होना चाहिए। नतीजतन ज़मीन सीलिंग एक्ट में आ गयी। इसे सीलिंग से बचाने के लिए तत्कालीन उप पंजीयन से गठजोड़ कर पक्षों के नाम से ज़मीन की रजिस्ट्री करा दी गयी।
सन् 2014 में मुम्बई में एनएसईएल घोटाला हुआ था, जिसमें यह ज़मीन भी शामिल थी। मुम्बई की इकोनॉमी ऑफिस विंग ने इस ज़मीन को अटैच करके नीलामी की तैयारी कर ली। इसमें भी एक नया खेल चला। खेल की कौडिय़ाँ चलते हुए आरोपी पक्ष ने बीकानेर नगर विकास न्यास में गोल्फ रिसोर्ट के नाम पर ज़मीन 90-ए के तहत करने का प्रस्ताव रख दिया।
दिलचस्प बात है कि मामला सीलिंग एक्ट में लम्बित होने के बावजूद न्यास के सचिव अरुण प्रकाश ने आवेदन स्वीकार कर लिया। अरुण के तबादले के बाद तत्कालीन एडीएम दुर्गेश बिस्सा को न्यास सचिव का चार्ज सौंपा गया। लेकिन उन्होंने अनाधिकृत रूप से 90-ए का आदेश जारी कर दिया। जबकि ऐसा आदेश केवल संभागीय आयुक्त ही जारी कर सकते थे।
इस खेल में जो अफ़सर शामिल थे, वे सरकारी महकमों में अहम पदों पर तैनात थे। इस मामले में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने सन् 2015 में एफआईआर दर्ज की थी। जाँच अधिकारी सी.पी. शर्मा ने पड़ताल में दाग़ी अफ़सरों पर सारे मामले सही पाये। नतीजतन उन्होंने जुलाई, 2018 में आरोपियों के ख़िलाफ़ चार्जशीट पेश करने के लिए अभियोजन की इजाज़त माँगी; लेकिन पता नहीं क्या हुआ? लेकिन आरोपियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हो सकी। इस मामले के जानकार बताते हैं कि सरकार से इजाज़त मिलने पर इस मामले में आदेश जारी किये जाएँगे। लेकिन एक बात यह भी सामने आयी कि फाइल तो अफ़सरों के बीच ही घूम रही है। इस बात की पुष्टि तत्कालीन जाँच अधिकारी सी.पी. शर्मा के बयान से होती है, जिन्होंने कहा था कि अभियोजन के लिए फाइल भेज दी थी। अब आगे की जानकारी अजमेर चौकी के अफ़सर ही दे सकते हैं। इंतज़ार तो इंतज़ार ही होता है।

महीना वसूली


राज्य में पैसों के लालची घूसख़ोरों की ताक़त और हिम्मत के आगे अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोध दिवस भी बौना ही रहा। इस दिन भी नोकरशाह घूसख़ोरी का खेल खेलने से बाज़ नहीं आये। इन पर नज़र गड़ाने में भ्रष्टाचार निरोधक विभाग के अधिकारी भी पीछे नहीं रहे। यह बात दिलचस्पी से परे नहीं कि भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने अपने ही एक अफ़सर अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक भैरूलाल मीणा को बँधी हुई माहवार वसूली करते रंगे हाथों पकड़ा। भ्रष्टाचार निरोधक दिवस पर मीणा सुबह अपने दफ़्तर में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ भाषण दे रहे थे। इसके दो घंटे बाद ही वह ख़ुद रिश्वत लेते पकड़ गये। दोसा के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक मनीष अग्रवाल ने पहले ख़ुद रिश्वत माँगी और बाद में दलाल को आगे कर दिया। मनीष अग्रवाल पर हाईवे बनाने वाली एक कम्पनी से 31 लाख और दूसरी कम्पनी सेे 38 लाख वसूलने का आरोप है। मनीष ने पीडि़त को यह कहते हुए धमकाया कि ज़िले का एसपी हूँ। मेरी मर्ज़ी के बग़ैर तेरा काम नहीं चल सकता। दौसा के एसडीएम पुष्कर मित्तल और बांदीकुई एसडीएम पिंकी मीणा भी पाँच लाख रुपये की रिश्वत लेते धरे गये। पेट्रोल पम्प लीज के नवीनीकरण के मामले में एक लाख की रिश्वत लेते पकड़े गये बारां के ज़िला कलेक्टर इंद्रसिंह राव का अब तक का सेवाकाल पूरी तरह दाग़दार रहा है। 31 साल के अपने कार्यकाल में इंद्रसिंह अब तक छ: अलग-अलग कारणों से पदच्युत किये जा चुके हैं। चार साल पहले इन्हें पदोन्नत कर राजस्व मंडल में लगा दिया गया था। लेकिन सन् 2014 में राव बारां कलेक्टर पद पर नियुक्त हो गये। सूत्र इस तैनाती में सियासी मुश्क का हवाला देते हुए कहते हैं कि बारां में राव की तैनाती ऐसे ही तो नहीं हो गयी। इंद्रसिंह अधीक्षक सींखचों के बाहर नहीं आये।

विपक्षी एकता का धरातल

देश की सियासत करवटें बदल रही है। जो कभी पराये हुआ करते थे, उनको अपना बनाया जा रहा है। सारे विपक्षी दल एकजुटता दिखाने के प्रयास कर रहे हैं, ताकि केंद्र सरकार को घेरकर 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा, ख़ासकर मोदी को हराया जा सके। लेकिन सियासी एकता के सूत्र बनते ही टूटने लगते हैं।

देश में मौज़ूदा समय में पेगासस और किसान आन्दोलन जैसे बड़े मुद्दों को लेकर कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े की अगुवाई में सभी विपक्षी दलों ने एकता दिखायी और भाजपा की जन-विरोधी नीतियों को जनता के बीच लाने के लिए आपसी सहमति से रणनीति भी बनी। लेकिन ऐसा क्या हो गया कि यह एकता चंद घंटे के अन्दर ही टूटी-सी दिखने लगी? जब जंतर-मंतर पर 6 जुलाई को किसानों के आन्दोलन तक कांग्रेस की अगुवाई में राहुल गाँधी के नेतृत्व में विपक्षी दलों के नेताओं को पहुँचना था, तो वहाँ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और आम आदमी पार्टी (आप) की ओर से कोई नेता नहीं दिखा।

किसानों के समर्थन में राहुल गाँधी की यात्रा और जंतर-मंतर पर प्रदर्शन में इन तीनों दलों के नेताओं के शामिल न होने पर तरह-तरह के राजनीतिक कयास लगाये जा रहे हैं। यह इसलिए भी, क्योंकि टीएमसी और आप, दोनों पार्टियाँ किसानों के साथ खुलकर खड़ी हैं। बसपा का मानना है आगामी साल में पंजाब और उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं। इसलिए पार्टी उत्तर-प्रदेश और पंजाब में चुनाव को देखते हुए अपनी राजनीति के हिसाब से ही फ़ैसला लेगी; न कि कांग्रेस के मुताबिक। पंजाब में बसपा का गठबन्धन अकाली दल से है। अगर वह कांग्रेस के नेतृत्व में जाती है, तो पंजाब की सियासत में बसपा और अकाली दल गठबन्धन पर विपरीत असर पड़ेगा। ऐसे में अगर कांग्रेस को सही मायने में विपक्षी दलों का साथ चाहिए, तो उसे अकाली दल को भी सम्मान देना पड़ेगा। बसपा का यह भी मानना है कि उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनाव लिहाज़ से बसपा ही एक ऐसी पार्टी है, जो दोनों राज्यों में भाजपा को टक्कर दे सकती है। टीएमसी का कहना है कि सियासत में अपना-पराया बनते देर नहीं लगती है। टीएमसी सूत्रों का कहना है कि कहीं कांग्रेस ममता बनर्जी को रोकने की सियासी चाल तो नहीं चल रही है। वहीं आम आदमी पार्टी का कहना है कि विपक्षी नेता मल्लिकार्जुन खडग़े की अगुवाई में रैली में शामिल होने की बात हुई थी, न कि राहुल गाँधी की अगुवाई में शामिल होने की। इसलिए पार्टी इस रैली से दूर हुई है।

सियासत में एक तीर से कई निशाने साधे जाते हैं। क्षेत्राय दल भली-भाँति जानते हैं कि देश की सियासत में कांग्रेस दूसरे नंबर की सबसे बड़ी पार्टी है। ऐसे में क्षेत्रीय दल अपनी ज़मीन को कांग्रेस के हवाले कैसे कर सकते हैं। क्योंकि माना यह भी जा रहा है कि पंजाब और उत्तर प्रदेश के विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस अपने खोये हुए जनाधार को वापस पाने के लिए रूठे हुए मतदाताओं को लुभाने के प्रयास में है। ऐसे में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के कन्धों पर बंदूक रखकर निशाना साधनी चाहती है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि पंजाब में कांग्रेस को विरोधी लहर का सामना करना पड़ सकता है। पंजाब में कांग्रेस के मौज़ूदा हालात ठीक नहीं बताये जा रहे। पंजाब में प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिद्धू और मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह के बीच सब कुछ ठीक नहीं है, जिसका नुक़सान पार्टी को चुनाव में उठाना पड़ सकता है। हालाँकि राहुल गाँधी के तेज़ी से सक्रिय होने से समीकरण बदल सकते हैं।

बता दें कि आगामी वर्ष 2022 के शुरू में पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं और अन्त में दो अन्य राज्यों के भी चुनाव सम्भव हैं। ऐसे में अगर भाजपा, विशेषकर मोदी का विजयी रथ रोकना है, तो इन राज्यों में भी विपक्षी दलों को ममता बनर्जी की रणनीति अपनाते हुए भाजपा को पश्चिम बंगाल की तरह पटखनी देनी होगी, अन्यथा 2024 में उन्हें हराना बहुत मुश्किल होगा। इसके लिए विपक्षी दलों को निजी स्वार्थ साधने से ज़्यादा एकजुट होना होगा। अन्यथा विपक्षी एकता का धरातल कमज़ोर ही रह जाएगा।

झारखण्ड सरकार गिराने की साज़िश या कुछ और मामला!

झारखण्ड की हेमंत सरकार को गिराने के लिए विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त से राज्य की राजनीति में भूचाल आता, उसके पहले ही तीन लोग पुलिस की गिरफ़्त में आ गये। यूँ तो इस मामले में आरोपियों के बयान और तीन विधायकों का नाम सामने आने के अलावा अभी तक कुछ भी ख़ुलासा नहीं हुआ है। लेकिन राजनीतिक गलियारे में इस कांड को लेकर चर्चा ज़ोरों पर है। इसकी तपिश 3 सितंबर से शुरू होने वाले झारखण्ड विधानसभा के सत्र में दिखेगी। झामुमो के नेतृत्व में चल रही कांग्रेस और राजद गठबंधन वाली हेमंत सरकार को गिराने की साज़िश का आरोप भाजपा पर लग रहा है। लेकिन एक निर्दलीय और कांग्रेस के दो विधायकों के नाम सार्वजनिक होने के बाद मामला दिलचस्प हो गया है। जानकार तो यह भी कर रहे हैं कि इस खेल में इन तीन विधायकों के अलावा परदे के पीछे सत्ताधारी दल के भी कई विधायक हैं। बहरहाल इस कथित साज़िश को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं।

झारखण्ड की राजधानी रांची के एक होटल से 22 जुलाई को राज्य पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किये गये अभिषेक दुबे, अमित सिंह और निवारण प्रसाद महतो ने मौज़ूदा गठबंधन की हेमंत सरकार को गिराने की साज़िश का बयान दिया। उन्होंने विधायकों के नाम लिये बग़ैर ख़ुलासा किया कि वे कांग्रेस विधायकों के सम्पर्क में थे। साथ ही बताया कि यह साज़िश महाराष्ट्र भाजपा के नेता चंद्रशेखर राव बावनकुले और चरण सिंह ने व्यवसायी जयकुमार बेलखेड़े के साथ मिलकर रची है। वह तीन विधायकों को लेकर दिल्ली गये। दिल्ली में द्वारिका स्थित होटल विवांक में भाजपा के कुछ नेताओं से मुलाक़ात करवायी। विधायकों को अग्रिम राशि के तौर पर एक करोड़ रुपये देने थे। जब उन्हें राशि नहीं मिली, तो तीनों विधायक नाराज़ होकर वापस लौट गये। इसके बाद फिर से विधायकों से सम्पर्क शुरू हुआ। इसी सिलिसले में आरोपी रांची स्थित होटल में रुके थे। इन सभी बातों के तीनों आरोपियों ने सुबूत भी दिये हैं। पुलिस ने तीनों आरोपियों के ख़िलाफ़ राजद्रोह, धोखाधड़ी, प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट जैसे कई मामलों के तहत मामला दर्ज किया है। लेकिन दिल्ली जाने के हवाई टिकट मिलने, सोशल मीडिया पर उनकी तस्वीरें वायरल होने और होटल में जाने के सुबूतों की बिना पर कांग्रेस विधायक इरफ़ान अंसारी व उमशंकर अकेला और निर्दलीय विधायक अमित कुमार यादव का नाम निकलकर सामने आया। चर्चा है कि इस कांड का ख़ुलासा कांग्रेस के ही विधायक जयमंगल सिंह द्वारा रांची के एक थाने में सरकार गिराने की साज़िश की एफआईआर दर्ज कराने के कारण हुआ। हालाँकि एफआईआर में भी किसी का नाम नहीं है। इसी एफआईआर के बाद रांची के होटल से तीन लोग पकड़े गये। विधायक दल के नेता आलमगीर ने कह रहे हैं कि पुलिस मामले की जाँच कर रही, सच्चाई सामने आ जायेगी।

कांग्रेस का आरोप और सफ़ार्इ

हमेशा की तरह कांग्रेस ने भाजपा पर राज्य सरकार को अस्थिर करने का आरोप लगाया। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष रामेश्वर उरांव ने तो यहाँ तक कह दिया कि भाजपा बंगाल जीत जाती, तो झारखण्ड सरकार को खा जाती।

सरकार गिराने के मामले में भाजपा पर बहुत-से आरोप हैं। लेकिन यह भी सच है कि कांग्रेस में अंदरूनी कलह कम नहीं है। सरकार के गिरने की चर्चा जब भी आती है, तो सबसे कमज़ोर कड़ी कांग्रेस विधायकों को ही माना जाता है। इसकी मुख्य वजह पार्टी के राष्ट्रीय व प्रदेश नेतृत्व से उनकी नाराज़गी मानी जा रही है। सरकार से नाराज़गी तो है ही। विधायकों में असन्तुष्टि इस बात से ज़ाहिर है कि वे अपने ही प्रदेश अध्यक्ष, मंत्री और सरकार के ख़िलाफ़ बोलने से भी नहीं चूकते। हालाँकि कांग्रेस विधायक दल नेता आलमगीर आलम ने तो यह तक कह दिया कि कोई भी कहीं जा सकता है। साथ जाने का मतलब यह तो नहीं कि सरकार गिराने की साज़िश चल रही थी। हमारे विधायक एकजुट हैं। गठबंधन की सरकार मज़बूत है और अपना कार्यकाल पूरा करेगी। वहीं कांग्रेस के दोनों विधायक इरफ़ान अंसारी और उमाशंकर अकेला ख़ुद को साज़िश के तहत फँसाने की बात कहकर ख़ुद को कांग्रेस का सच्चा सिपाही बता रहे हैं। वे दिल्ली जाने की वजह व्यक्तिगत कार्य बता रहे हैं।

भाजपा पर सन्देह की वजह

जिन राज्यों में भाजपा विपक्ष में अच्छी स्थिति में है, वहाँ सरकार गिराने का आरोप उस लगता रहा है। मध्य प्रदेश, कर्नाटक, गोवा, राजस्थान, पश्चिम बंगाल इसके गवाह हैं। हालाँकि भाजपा सभी आरोपों का हमेशा खण्डन करती रही है। झारखण्ड में सरकार गठन के लिए 41 विधायक चाहिए। मौज़ूदा सरकार के पास झामुमो के 30, कांग्रेस के 18 (झाविमो से गये प्रदीप यादव और बंधु तिर्की को मिलाकर), राजद का एक और राकांपा के एक विधायक को मिलाकर 50 विधायकों का समर्थन है। सीपीआई और दोनों निर्दलीय विधायक स्पष्ट रूप से सरकार के साथ नहीं हैं। हालाँकि दोनों निर्दलीय विधायकों ने राज्यसभा में भाजपा उम्मीदवार का साथ दिया था। भाजपा के 26 विधायकों (झाविमो से गये बाबूलाल मरांडी को मिलाकर) के साथ मुख्य विपक्षी दल है। भाजपा का गठबंधन आजसू के साथ है, जिसके दो विधाय हैं। यानी भाजपा को सरकार बनाने के लिए कम-से-कम 13 विधायकों के समर्थन की ज़रूरत होगी। वहीं सरकार को अल्पमत में लाने के लिए कम-से-कम 10 विधायकों को तोडऩा होगा।

भाजपा कांग्रेस पर ही आक्रामक

इस प्रकरण को लेकर कांग्रेस दो हिस्सों में बँटी है। एक हिस्सा सरकार के साथ मिलकर 20 सूत्रीय कार्यक्रम और निगरानी समिति के बँटवारे के ज़रिये इस मामले को शान्त करने और टिप्पणी से बचने के प्रयास में लगा है। वहीं दूसरे हिस्से के लोग कांग्रेस की फ़ज़ीहत और बदनामी से नाराज़ हैं। वे सरकार को बाहरी समर्थन देकर मामले का पटाक्षेप चाहते हैं। कांग्रेस विधायक दीपिका पांडेय कह रही हैं कि कांग्रेस का चीरहरण हो रहा है।

वहीं भाजपा कांग्रेस पर ही आक्रामक रवैया अपनाये हुए है। भाजपा नेताओं का कहना है कि सरकार के गठबंधन दलों में मतभेद है। सभी एक-दूसरे के ख़िलाफ़ हैं। यह सरकार ख़ुद गिर जाएगी। भाजपा विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी ने कह रहे हैं कि अगर पकड़े गये तीनों आरोपी हैं, तो तीनों विधायक कैसे आरोपी नहीं हैं? पुलिस उनके ख़िलाफ़ मामला दर्ज क्यों नहीं कर रही?

प्रकरण पर सवाल

झारखण्ड सरकार गिराने की साज़िश और विधायकों के ख़रीद-फरोख़्त मामले में सवालों की झड़ी लग रही है। मसलन, तीनों विधायकों का एक साथ जाने का कार्यक्रम कैसे बन गया? तीनों का एक ही पीएनआर पर हवाई टिकट कैसे बुक हुआ? तीनों विधायक दिल्ली में द्वारिका स्थित होटल विवांता में क्या कर रहे थे? दिल्ली में किन भाजपा नेताओं से मुलाक़ात हुई? इरफ़ान, अकेला और अमित साज़िश की बात कर रहे हैं। आख़िर ये साज़िशकर्ता कौन हैं? तीन विधायकों से सरकार गिर नहीं सकती है, तो क्या इस कांड में और भी विधायक हैं? और अगर हैं, तो कौन-कौन हैं? एफआईआर दर्ज कराने वाले विधायक जयमंगल सिंह को किस-किस पर शक था? इस पूरे प्रकरण का मुख्य किरदार कौन है? मुम्बई के दो नेताओं का झारखण्ड से क्या लेना-देना? उनका भाजपा में क्या किरदार है और कितनी पहुँच है? इन सवालों का जवाब देने से सभी दल कतरा रहे हैं, तो पुलिस जवाब तलाशने में धीमी गति से काम कर रही है।

ठंडे बस्ते में मामला!

निर्दलीय विधायक सरयू राय ने इस प्रकरण को लेकर एक ट्वीट में लिखा- ‘विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त से झारखण्ड में सरकार गिराने का बहु-प्रचारित मामला अंतत: राजनीतिक नादानी का नायाब उदाहरण साबित होगा। जाँच अधिकारी अपना काम पूरा कर लेंगे। सम्भव है कि निश्चित निष्कर्ष पर भी पहुँच जाएँगे। मगर इसके पीछे की असली बात सामने लाने में रुचि न सरकार की होगी, न प्रतिपक्ष की।’

सरयू राय की यह बात धीरे-धीरे सही भी लगने लगी है। यह सोचने वाली बात है कि अगर कोई व्यक्ति सरकार गिराने के लिए विधायकों को लेकर दिल्ली जाएगा, तो वह हवाई अड्डे से तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल करेगा? पुलिस की कहानी कितनी हास्यास्पद है?

इस बात का अंदाज़ा इससे भी लगाया जा सकता है कि रांची के एक होटल में अपनी असली पहचान के साथ विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त के लिए कोई रुकेगा और तोलमोल करेगा? अभी तक जो भी बातें सामने आयीं हैं, वो सीधे-सीधे गले नहीं उतर रहीं।

दिल्ली और मुम्बई से पुलिस घूमकर वापस लौटी, पर कोई अधिकारिक बयान नहीं दे रही है। अभी तक जिन तीन विधायकों के नाम सामने आये हैं, उनसे कोई पूछताछ नहीं हुई है।

सूत्रों की मानें, तो पुलिस भी मामले को ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश कर रही है। हालाँकि इस मामले में न्यायालय में एक जनहित याचिका भी दाख़िल की गयी है। अगर न्यायालय का हस्तेक्षप नहीं हुआ, तो हो सकता है कि इस कांड पर से परदा न भी उठे।

 

 

“यह गठबन्धन के अंतर्विरोध का सबसे निकृष्ट उदाहरण है। झामुमो कांग्रेस को अपने नियंत्रण में रखना चाहता है। सत्ता के लिए कांग्रेस कितना समझौता करेगी? कांग्रेस पार्टी कितने दिन अपमान सहती है? यह झारखण्ड की जनता देखना चाहती है। सरकार गिराने की साज़िश और विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त एक स्क्रिप्टेड स्टोरी से ज़्यादा कुछ भी नहीं है। इस स्क्रिप्टेड स्टोरी के लेखक ही सारा माजरा बता सकते हैं।”

दीपक प्रकाश,भाजपा प्रदेश अध्यक्ष

 

“अपने विधायकों से बातचीत करके प्रथम दृष्टया विधायक दल के नेता को जो लगा, उन्होंने मीडिया में वह बयान दिया। वह अपनी रिपोर्ट आलाकमान को भी देंगे। पुलिस अपना काम कर रही है। उस पर कोई दबाव नहीं है; वह जाँच करे। विधायकों के टूटने की कोई बात नहीं। कांग्रेस के विधायक एकजुट हैं। भाजपा सरकार को अस्थिर करना चहती है। लेकिन यह सम्भव नहीं है। इसलिए शासन में धौंस जमाने के लिए सरकार गिराने की अफ़वाह फैलाती रहती है।”

राजेश ठाकुर, कार्यकारी अध्यक्ष कांग्रेस

बच्ची से सामूहिक दुष्कर्म मामला न्याय में देरी क्यों?

परिजनों और समाज के लोगों ने सरकार तथा पुलिस से कहा- ‘दोषियों को हो फाँसी’

जब व्यवस्था में ही दोष हो और जिम्मेदारी किसी पर तय न हो, तो अराजकता मचनी सुनिश्चित है। मौज़ूदा सियासत कुछ इसी तरह की है कि कोई बड़ी वीभत्स घटना भी केवल सियासत का हिस्सा बन जाती है और पीडि़तों को या तो न्याय मिलता नहीं, या मिलना मुश्किल हो जाता है। शासन-प्रशासन पर ज़िम्मेदारी तय न होने से भी ऐसे कई मामले दबकर रह जाते हैं और दोषी बच जाते हैं। देश की राजधानी दिल्ली के पुराना नागलराया (कैंट एरिया) में कुछ दरिंदों ने नौ साल की बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार करके उसे ज़िन्दा जला दिया। दिल दहला देनी वाली यह घटना दरिंदों की हिम्मत और पुलिस प्रशासन की लापरवाही का जीता-जागता उदाहरण है।
ऐसी घटनाएँ सरकारों और पुलिस को चुनौती देकर ललकारती हैं कि तुम अपराधियों का कुछ नहीं कर सकते। ऐसी वीभत्स घटनाओं की पीड़ा जनता को होती है; लेकिन वह न्याय के लिए कुछ दिन के प्रदर्शन के अलावा कुछ नहीं कर पाती। क़ानून के हाथ बँधे लगते हैं और पुलिस हीला-हवाली का परिचय देते हुए जाँच करती है।
दिल्ली की इस घटना से क्रोधित लोगों ने भी लगातार न्याय की माँग की, तब जाकर दरिंदों को पुलिस हिरासत में न्यायालय ने भेजा। यह तब हुआ, जब न्यायालय में दायर एक याचिका में दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा ने आरोपियों को गवाहों और सुबूतों की पुष्टि करने के लिए पाँच दिन के रिमांड की माँग की। यानी न्याय अभी भी दूर सुबूतों के इंतज़ार में है।
पीडि़त परेशान हैं। न्याय माँग रहे हैं। बच्ची के साथ वहाँ के 55 वर्षीय पुजारी राधेश्याम, सलीम, लक्ष्मीनारायण और कुलदीप ने मासूम के साथ बारी-बारी से बलात्कार किया। जब बच्ची लहूलुहान हो गयी, तो वहीं श्मशान घाट में ज़िन्दा जला दिया। जब परिजनों को इस घटना का पता चला, तो वे और कुछ पड़ोसी दौड़े-दौड़े श्मशान घाट पहुँचे और जलती चिता को पानी से बुझाते हुए बच्ची के बुरी तरह जले शव को बाहर निकाला। लोगों ने पुलिस को इस वीभत्स घटना की तत्काल सूचना दी। ज़िन्दा जली बेटी के पैर और शरीर का कुछ ही हिस्सा जाँच-पड़ताल व पोस्टमार्टम के लिए बचा था। पुलिस ने शव का नज़दीकी अस्पताल में पोस्टामार्टम कराया। पुलिस ने बच्ची की माँ के बयान के आधार पर आरोपियों के ख़िलाफ़ भारतीय दंड संहिता की धारा-302 (हत्या), धारा-376 (बलात्कार) और धारा-506 (आपराधिक धमकी) के साथ-साथ बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो) व एससी / एसटी अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया। मृतक बच्ची के माता-पिता की सहमति के बिना बच्ची के शव का दाह संस्कार कर दिया गया।
घटना से पहले चारों आरोपी घटना स्थल के पास ही बैठकर शराब पी रहे थे। उन्होंने पानी भरने आयी अकेली बच्ची देखी, तो उसे कमरे में ले गये और दरिंदगी दिखा डाली। स्थानीय लोगों ने उन्हें पकडक़र पुलिस के हवाले किया।
ज़िला डीसीपी इंगित प्रताप सिंह का कहना है कि दिल्ली पुलिस इस मामले में 60 दिन के अन्दर ही चार्जशीट दाख़िल कर देगी। जो भी इस घटना से जो भी साक्ष्य जुटाने सम्भव हो सके, उन्हें जुटा लिया गया है। वारदात के वैज्ञानिक सुबूत भी जुटाये गये हैं। आरोपियों के कपड़ों और कमरे को सील कर दिया है। जो जाँच में काम आएँगे। मुख्य आरोपी के घर और शरीर से सभी बायोलॉजिकल सुबूत एकत्रित किये गये हैं, जिसमें कपड़े, अंग वस्त्र (अंडरगार्मेंट), चादर और बच्ची के डीएनए से जुड़े सभी सुबूत शामिल किये गये हैं।
अब अदालत में सुबूत पेश किये जाएँ, तो मृतक बच्ची और उसके परिजनों को न्याय मिले। सबसे बड़े सुबूत के रूप में ज़िन्दा जलती मिली बच्ची कोई मायने नहीं रखती।
घटना वाली जगह के पास के लोगों का कहना है कि पुलिस मामले को दबाने की कोशिश कर रही है, तो नेता आकर दिखावा कर रहे हैं। एक ओर तो केंद्र सरकार कहती है कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ; महिलाओं का सम्मान, राष्ट्र का सम्मान है। वहीं दूसरी ओर अपराधियों पर शिकंजा कसने के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाती। उसके बड़े-बड़े दावों, बड़ी-बड़ी बातों की पोल तब खुलती है, जब किसी के साथ दरिंदगी हो जाती है। पीडि़तों को न्याय के लिए इतना परेशान होना पड़ता है, मानो उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। बहुत-से मामले तो न्याय व्यवस्था में ख़ामी होने और लोकलाज के डर से घर में दबकर रह जाते हैं। देश में बच्चियों से लेकर महिलाओं के साथ आये दिन बलात्कार जैसी घटनाएँ होती रहती हैं। इन घटनाओं की सबसे ज़्यादा शिकार छात्राएँ और कामकाजी महिलाएँ होती हैं।
बाल्मीकि समाज के उदय सिंह गिल ने कहा कि यह घटना 2020 में हुई हाथरस की घटना की याद दिलाती है, जिसमें दरिंदगी के बाद दलित बेटी को तड़पा-तड़पाकर जान से मार दिया गया और पुलिस ने उसके शव को जबरन जला दिया। उनका आरोप है कि तब भी पीडि़त दलित परिवार को पुलिस ने डराया-धमकाया और इस मामले में भी पुलिस डरा-धमका रही है।
दिल्ली की बच्ची के परिजन और उनके पड़ोसी पीडि़त बच्ची को न्याय दिलाने के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं। वे लगातार नागलराया थाने की पुलिस से लेकर केंद्र सरकार तक से दोषियों को फाँसी की सज़ा देने की माँग कर रहे हैं। ‘तहलका’ को पीडि़तों के एक रिश्तेदार और सम्बन्धित समाज के लोगों ने बताया कि कि नौ साल की मासूम बच्ची अपने घर के पास बने श्मसान घाट के बाहर लगे नल से पानी लेने गयी थी। उसी समय वहाँ बैठे शराब पी रहे दरिंदों ने उसके साथ दरिंदगी दिखायी और अधमरा करके उसे ज़िन्दा जला दिया।
बच्ची की माँ सुशीला देवी पिता मोहनलाल का आरोप है कि जब वे पुलिस स्टेशन अपनी बेटी के साथ हुई इस अमानवीय घटना की शिकायत करने पहुँचे, तो पुलिस ने शिकायत सुनने के बजाय, उनसे मारपीट की और मामले को दबाने की कोशिश की। मोहन लाल रोते हुए कहते हैं कि अगर पुलिस चाहती, तो मेरी बेटी बच सकती थी; लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। जब तक इस मामले में थाने में मौज़ूद पुलिस वाले दोषियों को बचाने में लगे हैं, तब तक न्याय मिलना मुश्किल है। नागलराया में इस समय थाने के बाहर से लेकर श्मशान घाट और मुख्य सडक़ पर बाल्मीकि समाज, दलित मोर्चा व अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं का उग्र धरना-प्रदर्शन जारी है। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि सरकार से लेकर दिल्ली पुलिस तक, सब दिखावे के तौर पर काम कर रहे हैं।
बच्ची को न्याय दिलाने के लिए बाल्मीकि समाज के हज़ारों लोग लगातार मोमबत्ती जुलूस (कैंडल मार्च) निकाल रहे हैं। समाजसेवी प्रेमलता सत्यार्थी का कहना है कि दोषियों को फाँसी की सज़ा जल्द-से-जल्द मिलनी चाहिए, ताकि बच्ची और उसके परिजनों को न्याय मिल सके। उन्होंने कहा कि वह समय-समय पर दलित बस्ती से लेकर महिलाओं के बीच जाकर इस बात के लिए जागरूक करती हैं, ताकि किसी भी प्रकार की कोई घटना समाज में न घट सके। उन्होंने कहा कि आज भी समाज में महिलाओं को कुछ लोग गंदी मानसिकता से देखते हैं। इस तरह की घटनाएँ मानव समाज के लिए कलंक हैं।
बाल्मीकि समाज की महिला सुमन का कहना है कि यहाँ का पुजारी और उसके साथी पहले भी महिलाओं के साथ अभद्रता और अनाचार जैसी घटनाओं में शामिल रहे हैं। इस बाबत उनकी शिकायतें भी की गयी हैं; लेकिन कार्रवाई नहीं होने से उनका मनोबल बढ़ा हुआ था और उन्होंने दिल दहला देने वाली इस घटना अंजाम दे दिया। यह घटना हमारे समाज के लिए बेहद दु:खद और पूरे मानव समाज के लिए कलंक है।
बाल्मीकि समाज के युवाओं ने बाइक रैली निकालकर भाजपा, कांग्रेस, आम आपमी पार्टी के साथ-साथ आरएसएस को ललकारा है। उनका कहना है कि राजनीतिक दल दलितों को वोट बैंक तौर पर उपयोग करते हैं, लेकिन उनकी तकलीफ़ों में उनका साथ नहीं देते। बाल्मीकि समाज के युवा दिलीप कुमार का कहना है कि दलित बहन-बेटियों के साथ आये दिन यहाँ पर छेडख़ानी की घटनाएँ होती रहती हैं; लेकिन कार्यवाई के नाम पर कुछ नहीं होता है।
दिल्ली उच्च न्यायालय के अधिवक्ता एवं सामाजिक कार्यकर्ता पीयूष जैन का कहना है कि देश में ऐसे अपराधों को रोकने और अपराधियों से निपटने के लिए क़ानून पहले से मौज़ूद है। लेकिन सियासी तिकड़बाजी और वोट बैंक के चलते ऐसे मामलों को दबाने की कोशिशें की जाती हैं। इसी सियासी हेराफेरी के चलते दोषियों को सज़ा नहीं मिल पाती और पीडि़त को न्याय नहीं मिल पाता। क़ानून तो है पर क़ानूनी व्यवस्था लचर है; जिससे अपराध को बढ़ावा मिलता है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने बच्ची के परिजनों से मिलकर दिलासा दिया और 10 लाख रुपये का मुआवज़ा देने की बात कही। उन्होंने कहा कि दिल्ली पुलिस और क़ानून व्यवस्था को दुरस्त करने की ज़रूरत है। वहीं कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने पीडि़त परिजनों से मुलाक़ात करके हर सम्भव सहायता देने की बात कही। उन्होंने कहा कि वह बच्ची को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करते रहेंगे।
वहीं वामपंथी नेता वृंदा करात ने घटना स्थल पर पहुँचकर पीडि़त परिजनों का दर्द सुना और कहा कि देश में क़ानून व्यवस्था को सुधार की ज़रूरत है। उन्होंने केंद्र सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि आज भी देश की राजधानी दिल्ली में महिलाएँ सुरक्षित नहीं हैं, जो कि बेहद शर्मनाक है।
भीम पार्टी के संस्थापक चंद्रशेखर रावण आज़ाद ने कहा कि केंद्र और दिल्ली, दोनों सरकारों की उदासीनता का नतीजा है, जो आज भी ऐसी आमानवीय घटनाएँ घट रही हैं।
वहीं घटना से ग़ूस्साए लोगों ने दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष आदेश गुप्ता का उस समय जमकर विरोध किया, जब वह परिजनों से मिलने पहुँचे। लोगों ने उनके ख़िलाफ़ नारेबाज़ी की। आदेश गुप्ता ने पीडित परिजनों को आश्वासन दिया कि वह दोषियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट तक संघर्ष करेंगे, ताकि वे बच न पाएँ।

महाराष्ट्र में बारिश से तबाही कब रुकेगी?

महाराष्ट्र में भारी बारिश के कारण भांडुप, विक्रोली, चेंबूर और कोकन के तलिईले गाँव में भी बड़ा भूस्खलन हुआ और सैकड़ों लोग मारे गये। कई परिवार बेसहारा हो गये। करोड़ों की सम्पत्ति का नुक़सान अलग हुआ।
सरकार कहती है कि मुम्बई में रहने वाले भूस्खलन के पीडि़त लोग हमेशा की तरह अनधिकृत घरों में रह रहे थे, इसलिए उन्हें क़ानूनी रूप से मुआवज़ा लेने का कोई अधिकार नहीं है। सरकार ने उदार भूमिका निभाते हुए मानवता की दृष्टि से मुआवज़ा दिया है। मृतक के प्रत्येक वारिस को केंद्र और राज्य सरकारें सात लाख रुपये देंगी, जिसमें पाँच लाख रुपये का अनुदान राज्य सरकार का है।
मुम्बई के चेंबूर माहुल के भारत नगर परिवार की सदस्य पल्लवी युवराज दुपारगुडे नहीं रहीं, उनके दो छोटे बच्चे हैं। उन्हें वारिस के रूप में लाखों रुपये मिलेंगे। उन अनाथ बच्चों की ज़िम्मेदारी फ़िलहाल मृत पल्लवी दुपारगुडे की ससुराल के पास है।
ऐसी घटनाओं में यह सुनिश्चित करने के लिए एक स्थायी नीति तैयार करने की आवश्यकता है कि पीडि़त बच्चों की सभी ज़िम्मेदारियाँ किसकी होंगी? कई बार बच्चे इतने छोटे होते हैं कि उन्हें पता ही नहीं चलता कि उन्हें भारी-भरकम मुआवज़ा मिला है। पिछले कुछ वर्षों से पीडि़तों की संख्या हर बार बढ़ रही है। कुछ वर्ष पहले भीमाशंकर पुणे महामार्ग पर बसा पूरा-का-पूरा गाँव भूस्खलन के कारण ज़मींदोज़ हो गया। सुबह के समय पुणे की ओर आने वाले एसटी के ड्राइवर ने देखा कि हमेशा का सामान्य स्टॉप और गाँव ग़ायब हो गया था। मुम्बई के बाद कोंकण में भी अभी कई जगह मानसून के दौरान ऐसी अजीब चीज़ें हुई हैं। पहाड़ी के पास के गाँव में पहले पहाड़ी से पत्थर गिरने लगते हैं और फिर मिट्टी के टीले, जिसे कोंकण के सामान्य लोग ईश्वर का प्रकोप मानते हैं। वास्तव में यह प्रशासन की नाराज़गी है।
कहा जाता है कि माहुल में निर्माण अनधिकृत है। लेकिन अनौपचारिक और आधिकारिक का मतलब क्या है? मुम्बई में ऐसे भी काम हैं, जिन्हें करने में मध्यम वर्ग के कम पढ़े-लिखे लोगों को भी शर्म आती है। उसके लिए गाँव के लोग चाहिए, जो किसी भी काम में शर्म महसूस न करें; भले ही कम पढ़े-लिखे हों। मुम्बई के आस-पास स्थित गाँवों के लोगों के पास खेती नहीं है। पाँच एकड़ के भीतर एक छोटा जोत वाला किसान होता है। उनका परिवार बढ़ता रहता है। जतीजतन परिवार के सदस्यों की ज़रूरतें उससे पूरी नहीं होतीं और वे अधिक आय के लिए मुम्बई, दिल्ली की ओर पलायन करते हैं। जो मुम्बई में प्रवेश कर जाता है, उसे जहाँ कहीं जगह मिल जाती है, वहीं का हो जाता है। अनधिकृत कहकर इन बस्तियों को सील करना आसान है। लेकिन इन लोगों की ज़रूरत मुम्बई को है और इन लोगों को मुम्बई की। स्लम लॉर्ड या झोंपड़ी दादाओं ने झुग्गियाँ खड़ी कीं। बहुत सस्ते में। यह कहना आसान है कि इन झुग्गियों की वजह से दुर्घटनाएँ होती हैं। ठीकरा फोडऩे के लिए झोंपड़ी दादा अच्छे लगते हैं। लेकिन किसी का सार्वजनिक नाम नहीं लिया जाता। किसी पर दोहरा मापदंड नहीं है। मध्यम वर्ग कहता है कि हम कर (टैक्स) देते हैं और उसी से उनके घर बनते हैं।
केवल झुग्गीवासियों, नगर सेवकों, नेताओं, प्रशासन, पुलिस को पता है कि क़ानून स्थानीय तहसीलदारों, पुलिस निरीक्षकों, वार्ड अधिकारियों पर अनधिकृत रुकावट की ज़िम्मेदारी डालता है। लेकिन इस तरह की झोंपडिय़ों को नेताओं के आशीर्वाद से ही खड़ा किया जाता है। अतिक्रमण रोधी विभाग जब कार्रवाई के लिए तैयार होते हैं, तो यही मंडली आड़े आती है और अतिक्रमणकारी उनके कार्यालयों पर नारेबाज़ी करते हैं। यदि मामला अदालत में जाता है, तो लचर क़ानून व्यवस्था की वजह से भू-माफिया फ़ायदा उठा लेते हैं।
कोई दुर्घटना होने पर पीडि़तों को सरकार से मुआवज़ा पाने के लिए अक्सर मदद लेनी पड़ती है। क्योंकि उनके पास केवल नाम रहता है। दस्तावेज़ या तो मौज़ूद नहीं होते या पानी, बाढ़ और भूस्खलन के चलते नष्ट हो जाते हैं। परेशान होने पर वे कभी सरकार व स्थानीय प्रशासन पर बरस लेते हैं। आख़िरकार व्यवस्था को वे भी समर्पण कर देते हैं। व्यवस्था को तोडऩा आसान नहीं है, इसे तोडऩे के लिए बड़ी राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए। सिर्फ़ घोषणाओं से कुछ नहीं होगा। गाँव से मुम्बई आये लोग भी चाहते हैं कि वे भी बेहतर जीवन जीएँ। इसलिए उसी अवस्था में वे घर बनाकर रहने लगते हैं। लेकिन हर वर्ष विकट बारिश और भूस्खलन उनकी सम्पत्ति, उनके जीवन को नष्ट कर देते हैं। यह स्थिती कब रुकेगी? बेहतर हो समस्या को समझकर महाराष्ट्र सरकार मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की अगुवाई में सही समाधान करे।