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डाँक्टर्स डे पर डाँक्टरों ने कहा  कि स्वास्थ्य के प्रति सजग रहें

राजधानी दिल्ली में आज विश्व डाक्टर्स डे के अवसर पर विभिन्न स्वास्थ्य संगठनों द्वारा जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन किया गया और स्वास्थ्य संबंधी जानकारी दी गयी। आई एम ए के पूर्व अध्यक्ष डाँ नरेन्द्र सैनी का कहना है कि डाक्टरों का काम है मरीजों को बेहत्तर स्वास्थ्य सेवायें मुहैया कराने ताकि, रोगी जल्दी स्वस्थ्य हो जाये। मैक्स अस्पताल के कैथ लैब के डायरेक्टर डाँ विवेका कुमार का कहना है कि कोरोना काल में डाक्टरों ने अपनी जान पर खेल कर मरीजों की जानें बचायी है। डाँक्टर और मरीजों के बीच एक विश्वास का रिश्ता होता है।

डाँ विवेका का कहना है कि कोरोना काल हो, अन्य महामारी हो, डाँक्टरों ने मरीजों के लिये सदैव सकारात्मक काम किया है ताकि, मरीज अपना –जीवन यापन स्वस्थ्य व्यतीत कर सकें। इंडियन हार्ट फाउंडेशन के अध्यक्ष डाँ आर एन कालरा का कहना है कि देश में महामारी काल चल रहा है। ऐसे में डाक्टरों ने अपने फर्ज और दायित्व को निभाया है। उन्होंने इस मौके पर लोगों से अपील की है कि कोरोना काल में सावधानी के तौर पर मास्क लगाये और सोशल डिस्टेसिंग का पालन करें ताकि कोरोना से जल्दी आजादी मिल सकें।

एम्स के मनोरोग विभाग के डाँ अभिजीत का कहना है कि कोरोना काल में मानसिक तनाव के कारण बच्चे, युवा और बुजुर्गों को स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में सावधानी को बरतें और सकारात्मक सोच को अपनाये ताकि मानसिक तनाव हावी ना हो सकें। नियमित व्यायाम  करें और जमकर हसें ताकि दवा से बच सकें। डी एम के पूर्व अध्यक्ष डाँ अनिल बंसल ने बताया कि डाक्टरी पेशा एक जिम्मेदारी का है। जिसमें रोगी को स्वस्थ्य करना उसकी पहली जिम्मेदारी है। जो कोरोना काल में डाक्टरों ने भली भाँति निभायी है।

अमूल दूध हुआ महंगा, 2 रुपये प्रति लीटर की हुई बढ़ोतरी

कोरोना महामारी के दौरान जहां एक तरफ लोगों को बेरोज़गारी जैसी बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है वहीं दूसरी तरफ महंगाई ने आम आदमी की परेशानी को और बढ़ा दिया है। सरसों के तेल के बाद अब लोगों को दूध कंपनी की ओर से एक और बड़ा झटका लगा है, अमूल दूध की कीमत 56 रुपये से बढ़कर 58 रुपये प्रति लीटर हो गई है।

गुरुवार यानी 1 जुलाई से देश के सभी राज्यों में अमूल दूध दो रुपये प्रति लीटर अधिक महंगा मिलेगा। वैसे तो काफी समय से अमूल दूध पर दाम बढ़ने की खबरें सुनने को मिल रही थी। आखिरकार, यह लागू भी हो ही गया।

गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड (जीसीएमएमएफ) यानि देश की बड़ी दूध कंपनियों में से एक है। अमूल के सभी प्रोडक्ट अमूल गोल्ड, अमूल शक्ति, अमूल ताज़ा, अमूल टी-स्पेशल, अमूल स्लिम एंड ट्रिम हो या कोई और प्रोडक्ट सभी पर विक्रेताओं को अब अधिक मूल्य अदा करना होगा।

दूध की बढ़ी कीमतों पर तहलका संवाददाता को एक युवक ने बताया, कोरोना महामारी के कारण पहले से ही नौकरी छूट गई है। उसपर पहले रसोई तेल यानी सरसों के तेल की कीमत बढ़ाकर 163.5 रुपए प्रति किलों की गई, और अब दूध के मूल्य में वृद्धि आम आदमी के जीवन को बेहद कठिन बना रही है।

धर्म-भ्रष्ट लोग

इन दिनों उत्तर प्रदेश में धर्म-परिवर्तन का मामला काफ़ी तूल पकड़े हुए है। इस मामले में कुछ लोगों को गिरफ़्तार भी किया गया है और कुछ की तलाश में पुलिस बतायी जा रही है। ख़ैर, पहले भी उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरे देश में लाखों लोगों ने धर्म-परिवर्तन किया है। लेकिन किसी का जबरन धर्म-परिवर्तन कराना गुनाह है। स्वार्थवश भी धर्म-परिवर्तन अनुचित और अधर्म का कार्य है। लेकिन स्वेच्छा से न यह गुनाह है और न ही अनुचित। ऐसा विद्वतजनों का कहना है।

लेकिन मेरे कुछ सवाल हैं। पहला यह कि धर्म किसने बनाये हैं? दूसरा धर्म का अर्थ क्या है? धर्म कहता क्या है? धर्म का उपयोग किसके लिए और क्यों किया जाता है? क्या कोई धर्म किसी को ख़ुद से बँधे रहने के लिए बाध्य करता है? क्या धर्म का ढिंढोरा पीटने वाले लोग वास्तव में धर्म पर चलते हैं? क्या धर्म किसी को जबरन अपनाने की अपील करता है? या किसी को जबरन अपनी शिक्षाएँ मनवाने के लिए बाध्य करता है? क्या दुनिया में कोई ऐसा पवित्र व्यक्ति है, जो यह सिद्ध कर सके कि वह उन्हीं पूर्वजों की सन्तान है, जिनका न तो कभी धर्म बदला गया, न धर्म डिगा और न किसी अन्य धर्म अथवा जाति के किसी स्त्री / पुरुष का उसके कुल में संसर्ग हुआ है? मेरी नज़र में तो एक भी नहीं है। यानी खुले तौर पर कहना पड़ रहा है कि दुनिया में कोई भी विशुद्ध धर्म या विशुद्ध जाति का नहीं है। अगर किसी का धर्म उसके पूर्वजों के समय से एक है, तो उसकी जाति विशुद्ध नहीं है।

इसीलिए मैं धर्म-जाति के पचड़े में नहीं फँसा। क्योंकि मैं जानता हूँ कि ईश्वर एक है। जीवात्मा एक है। प्रकृति एक है। वायु एकमेव है। जल एकमेव है। ब्रह्माण्ड एक है। यानी सब कुछ अद्वैत है। अगर कुछ द्वैत है, तो वो हैं हमारे अलग-अलग विचार, हमारी अपनी-अपनी समझ। अगर धर्म की बात करें, तो मेरी नज़र में वही व्यक्ति धर्म के मार्ग पर है, जो किसी का नुक़सान किये बिना, किसी का बुरा सोचे बिना, किसी को दु:ख पहुँचाये बिना, किसी को आहत किये बिना, किसी की हत्या किये बिना, किसी के प्रति द्वैष रखे बिना, ईश्वर और उसकी सृष्टि तथा सृष्टि के प्राणियों से किसी भी तरह की शिकायत किये बिना अपनी मेहनत के दम पर जीवनयापन कर रहा है। कौन है ऐसा? यहाँ तो सब स्वार्थ के वश में हैं और स्वार्थ साधने के लिए कुछ भी कर बैठते हैं। यहाँ तक कि उन माँ-बाप को भी दु:ख पहुँचाने से नहीं चूकते, जिन्होंने जीवन दिया है। मेरी नज़र में माँ-बाप को दु:ख पहुँचाने वाले लोग ईश्वर की शरण में भी चले जाएँ, तो भी धर्म और उनका कर्म उन्हें क्षमा नहीं करेगा। ऐसे लोग दिन-रात पूजा, नमाज़, प्रार्थना में भी बैठे रहें, तो भी अधर्मी ही कहे जाएँगे। इसी तरह बाक़ी धर्म कार्यों में से एक में भी ख़रा न उतरने पर भी कोई व्यक्ति धर्म के मार्ग पर नहीं माना जा सकता।

विडम्बना यह है कि हम सबने किताबों को धर्म मान लिया है। और इस क़दर मान लिया है कि अब उनमें दी गयी शिक्षाओं पर भी किसी बिरले को छोड़कर पूरी तरह कोई भी अमल नहीं करता। यानी कह सकते हैं कि दुनिया के 99.99 फ़ीसदी तक लोगों को अपने उस किताबी धर्म पर ही पूरा भरोसा नहीं है, जिसके लिए वे लडऩे-मरने तक पर आमादा हो जाते हैं। शायद इसीलिए ईश्वर पर भी उन्हें भरोसा नहीं है। यही कारण है कि कोई भी अपने  द्वारा स्वीकार किये गये किताबी धर्म से इतर दिये गये ईश्वर के नाम को स्वीकार नहीं करता। दूसरे धर्म में पुकारे गये ईश्वर के नाम को गाली देता है। और अपने किताबी धर्म पर विश्वास इतना कम कि कई बार उसे अपना धर्म बदलना पड़ता है। लेकिन ईश्वर को फिर भी नहीं समझ पाता। क्योंकि उसने कभी ख़ुद को ही नहीं समझा। शायद बाहरी आडम्बरों से मोहवश वह ऐसा नहीं कर पाता। अंतर्मुखी होने से वह डरता है। क्योंकि उसके पापकर्म, उसके अधर्म का मार्ग उसे पीछे नहीं लौटने देते। वह डरता है कि कहीं उसकी सुख-सुविधाएँ न छिन जाएँ। कहीं ईश्वर उसकी परीक्षा न लेने लगे। कहीं सत्य उसके रास्ते में परेशानियों के काँटे न बो दे। इसीलिए वह पैसे की तरफ़ भागता है और पैसा कमाने के लिए तमाम तरह के आडम्बर करता है।

क्योंकि वह सोचता है कि अगर पैसा नहीं होगा, तो लोग उस पर हावी हो जाएँगे। उसकी हर अच्छी-बुरी गतिविधि पर नज़र रखेंगे। उसे दबाव में लेंगे। उस पर अत्याचार करेंगे। यह सच भी है। क्योंकि जब किसी के पास अथाह पैसा होता है, तो उस पर धर्म और जाति की कोई मर्यादा, कोई सीमा काम नहीं करती। ऐसा आदमी धर्म बदल ले या दूसरे धर्म में शादी कर ले, तो चलेगा। उसे आदर्श मान लिया जाएगा, लेकिन सि$र्फ अपनेफ़ायदे के लिए। फिर धर्म-परिवर्तन पर इतनी हाय-तौबा क्यों? क्योंकि इसमें भी स्वार्थ-सिद्धि है। स्वार्थ सधे तो गोबर खाने में भी कोई दोष नहीं और अगर न सधे, तो किसी के हाथ का अमृत भी दूषित हो जाता है; धर्म भ्रष्ट कर देता है।

उत्तर प्रदेश में जो हुआ वह सनातन धर्म के लोगों के धर्म-परिवर्तन का मामला है। लेकिन क्या इस मसले पर शोर करने वालोंके पास इस बात का जबाव है कि वे अपने धर्म-बन्धुओं से ही इतनी घृणा क्यों करते आये हैं कि उन्हें अपना धर्म बदलने या एक नया धर्म बनाने के लिए सदियों से मजबूर होना पड़ रहा है। अगर ये दक़ियानूसी लोग ऐसा नहीं करते, तो आज सनातन धर्म के अनुयायी सिकुड़कर मुट्ठी भर नहीं रह गये होते।

ख़्वाब अधूरे रह गये…

मिल्खा सिंह (20/11/1929 —- 18/06/2021)

अधूरे ख़्वाब दिल में लेकर मिल्खा सिंह चले गये। ऐसा ख़्वाब, जो कोई देश-प्रेमी, सभी से प्रेम करने वाला महान् खिलाड़ी ही देख सकता है। यह ख़्वाब था- किसी भारतीय को ओलंपिक खेलों में एथलेटिक्स का पदक जीतते देखने का। यह किसी सामान्य खिलाड़ी का नहीं, बल्कि उस बड़े खिलाड़ी का ख़्वाब था, जिसने न केवल ट्रैक पर अपनी हिम्मत का लोहा मनवाया, बल्कि मौत के साथ भी जमकर जंग लड़ी। एक ख़ला पैदा हो गयी मिल्खा सिंह के जाने के बाद। आँखों के आगे कई मंज़र घूम जाते हैं।बात सन् 1958 की है। कार्डिफ राष्ट्रमंडल खेलों की 400 मीटर दौड़ के फाइनल के लिए तैयारी हो चुकी थी। आठ धावक दौडऩे को तैयार थे। दर्शकों में केवल दो-तीन ही भारतीय थे, जिनमें देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी भी शामिल थीं। दौडऩे वालों में विश्व रिकॉर्डधारी दक्षिण अफ्रीका के मैल्कम क्लाइव स्पेंस भी थे, जिनके होने से ही धावकों के पसीने छूटते थे। सभी की निगाहें उन्हीं पर टिकी थीं। इसी दौड़ में एशियन खेलों में 400 मीटर दौड़ के विजेता ‘उडऩ सिख मिल्खा सिंह भी थे।

पर वह किसी गिनती में नहीं थे। उन्हें ज़्यादातर लोग पहचानते तक नहीं थे। सभी की निगाहें विश्व चैंपियन स्पेंस पर थीं। लेकिन जब दौड़ शुरू हुई, तो कुछ और ही नज़ारा था। एक अनजान-सा धावक मिल्खा सिंह बढ़त पर था। हालाँकि दर्शकों को यह मिल्खा सिंह की शुरूआती जोश की एक बड़ी कोशिश दिख रही थी और वे मानकर चल रहे थे कि बाद में उन्हें विश्व चैंपियन स्पेंस पछाड़ देंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। मिल्खा सिंह ने जो बढ़त ली, वह अंत तक नहीं छोड़ी। बोर्ड पर नाम आया- ‘मिल्खा सिंह भारत अव्वल। दर्शक हतप्रभ थे। हज़ारों भारतीयों की आँखों में ख़ुशी के आँसू छलक आये। सभी दर्शकों की नज़र में एक अनहोनी-सी घट गयी थी; लेकिन हक़ीक़त में एक नया इतिहास लिखा जा चुका था। विश्व चैंपियन दूसरे स्थान पर खिसक गया, जिसका मलाल उसके तथा उसके चाहने वालों के चेहरे पर उस समय साफ़ झलक रहा था। मिल्खा सिंह का समय 46.6 सेकेंड्स था और स्पेंस ने यह दौड़ 46.9 सेकेंड्स में ख़त्म की।

कार्डिफ की इस दौड़ के बारे में मिल्खा सिंह बताते थे कि इस दौड़ की पूरी रणनीति उनके अमेरिकन कोच डॉक्टर ऑर्थर डब्ल्यू हावर्ड ने तैयार की थी। फाइनल दौड़ से पहली रात को वह चारपाई पर मिल्खा सिंह के साथ बैठे और टूटी-फूटी हिन्दी में कहा- ‘मैं तुम्हें स्पेंस की रणनीति के बारे में बताता हूँ और साथ ही यह भी कि तुम्हें क्या करना है?Ó दौड़ जीतने के बाद मिल्खा सिंह ने कहा था- ‘उसी रणनीति के तहत मैंने पहले 350 मीटर में ही अपना पूरा ज़ोर लगा दिया। जैसा डॉक्टर आर्थर ने कहा था, वैसा ही हुआ। स्पेंस अपनी रणनीति भूलकर मेरी रणनीति पर चल पड़ा था। फिनिश लाइन के पास मैंने उसे अपने काँधे के पास पाया, पर तब तक देर हो चुकी थी।Ó कुल मिलाकर मिल्खा सिंह स्वर्ण पदक जीतकर एक इतिहास रच चुके थे, जिसका भरोसा दर्शकों को तो था ही नहीं, स्पेंस को तो बिल्कुल भी नहीं था। कार्डिफ का यह स्वर्ण पदक शायद मिल्खा सिंह की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसके बाद आज तक कोई भारतीय राष्ट्रमंडल खेलों की किसी ट्रैक स्पर्धा में कोई पदक नहीं जीत पाया। इस दौड़ के बारे में ख़ुद मिल्खा सिंह कहते थे कि उन्होंने दौड़ शुरू होने से पहले ज़मीन पर माथा टेका और भगवान से कहा- ‘मैं अपनी पूरी कोशिश करूँगा, पर भारत का सम्मान आपके हाथ है। दौड़ते हुए मैंने देखा कि स्पेंस बिल्कुल मेरे काँधे के पास आ गया है। वह मुझे पकडऩे वाला था, पर मैंने आधा फुट के अन्तर से उसे हरा दिया।

विश्व रिकॉर्ड तोड़ा

कार्डिफ राष्ट्रमंडल खेलों की जीत के दो साल बाद रोम (1960) में मिल्खा सिंह की अग्नि परीक्षा थी। मुक़ाबला बहुत कड़ा था। उस समय विश्व रिकॉर्ड 45.9 सेकेंड का था। सभी धावक इस पर नज़र रखे हुए थे। भारत को मिल्खा सिंह से पदक की उम्मीद थी। इस दौड़ में भी स्पेंस थे, जिन्हें मिल्खा सिंह ने कार्डिफ में हराया था। इसके अलावा अमेरिका के ओटिस डेविस और जर्मनी के कार्ल कौफमैन भी मज़बूत दावेदार थे। दौड़ की शुरुआत में मिल्खा सिंह काफ़ी मज़बूत दिखे पर आधी दौड़ के बाद पिछड़ते नज़र आये। इसके बारे में मिल्खा का कहना है कि उनसे थोड़ी चूक हो गयी और स्पेंस ने एक सेकेंड के 10वें भाग से उन्हें पछाड़कर न केवल कार्डिफ की हार का बदला चुकाया, बल्कि मिल्खा के हाथों से कांस्य पदक भी छीन लिया। ओटिस डेविस और कौफमैन दोनों ने 45 सेकेंड का बैरियर तोड़ा। यह पहला मौक़ा था, जब 400 मीटर की दौड़ 45 सेकेंड्स से कम समय में पूरी की गयी हो। डेविस ने 44.9 सेकेंड्स के साथ नया ओलंपिक और विश्व रिकॉर्ड स्थापित किया। मिल्खा सिंह का समय 45.73 सेकेंड्स रहा। इस तरह पहले चारों ने पिछला विश्व रिकॉर्ड तोड़ दिया।

एक चूक का अफ़सोस

रोम में पदक न जीत पाने का मलाल मिल्खा सिंह को ता उम्र रहा। वह अक्सर कहा करते थे- ‘रोम में मैंने एक पदक नहीं खोया, बल्कि आने वाले धावकों के सामने एक आदर्श रखने का बड़ा अवसर गँवा दिया। अगर मैं रोम में पदक जीत जाता, तो आज देश के पास एक आदर्श होता और जमैका की तरह देश के हर घर से एथलीट निकलते। मैं रोम में एक पदक नहीं चूका, बल्कि मैं देश को एक रोल मॉडल और सपने देने से चूक गया। पीटी उषा, श्रीराम सिंह, गुरबचन सिंह रंधावा जैसे धावक भी ओलंपिक पदक से चूके। उनसे भी देश को बहुत उम्मीदें थीं। अगर हम सब पदक जीत गये होते, तो एथलेटिक्स के प्रति युवाओं में वही आकर्षण होता, जो ध्यानचंद के समय हॉकी का और सन् 1983 में क्रिकेट विश्व कप जीतने के बाद क्रिकेट का था।

सच तो यह है कि कोई सच्चा देशभक्त खिलाड़ी ही अपनी हार पर ज़िन्दगी भर पछता सकता है, वरना तो आजकल कुछ ऐसे खिलाड़ी भी हैं, जो अपनी हार पर एक बार भी शर्मिंदा नहीं होते। और ऐसे भी, जो देश की प्रतिष्ठा और खेल में मिले सम्मान को ताक पर रखकर हत्या जैसे जघन्य अपराध तक में शामिल हो चुके हैं।

मक्खन सिंह का खौफ़
सन् 1960 ओलंपिक खेलों में विश्व रिकॉर्ड तोडऩे वाले मिल्खा सिंह को उस समय बड़ा झटका तब लगा, जब 1962 में कोलकाता में आयोजित राष्ट्रीय खेलों में मक्खन सिंह ने मिल्खा सिंह को बुरी तरह पछाड़ दिया। अपने छोटे से खेल जीवन में मक्खन ने राष्ट्रीय स्तर पर 12 स्वर्ण, एक रजत और तीन कांस्य पदक जीते। मिल्खा सिंह ख़ुद कहते थे कि उन्हें सबसे ज़्यादा डर मक्खन सिंह से लगता है। मक्खन को वह एक बेहतरीन धावक मानते थे। मिल्खा सिंह का कहना था कि सन् 1962 के राष्ट्रीय खेलों के बाद उन्होंने 400 मीटर की वैसी दौड़ कभी नहीं देखी। वो मक्खन को पाकिस्तान के अब्दुल ख़ालिक से बेहतर धावक मानते थे।
देखा जाए तो मिल्खा सिंह एक किंवदंती (लेजेंड) थे। वह सभी के प्रेरणा स्रोत भी रहे और उनके कारनामे लोक-कथाओं के रूप में प्रचलित हुए। राष्ट्रीय स्तर पर उनके बेतहाशा रिकॉड्र्स हैं। सन् 1060 का 400 मीटर का उनका राष्ट्रीय रिकॉर्ड 40 साल तक तो नहीं टूटा। उनका सपना था कि उनकी आँखों के सामने कोई भारतीय धावक ओलंपिक का पदक जीते। वह उसे विक्ट्री स्टैंड पर देखना चाहते थे। यह सपना देखने वाला एक महान् खिलाड़ी अब हमारे बीच नहीं रहे। बस रह गये, तो उनके अधूरे ख़्वाब।

‘फ्लाइंग सिख नाम जनरल अयूब ने दिया

पाकिस्तान और भारत के बीच एक दोस्ताना दौड़ करवाने की बात सन् 1960 में चल रही थी। भारत भी तैयार था, पर मिल्खा सिंह मुकर गये। असल में देश के विभाजन के समय उन्होंने वहाँ जो भोगा था, उसकी कड़ुवी यादें इस फ्लाइंग सिख (उडऩ सिख) के ज़ेहन में ताज़ा थीं। उन्होंने बचपन में ख़ून-ख़राबा देखा था। अपने रिश्तेदार मरते देखे थे। वह ख़ुद बड़ी मुश्किल से जान बचाकर भागे थे। इन हालात में वह पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे। पर सवाल देश की अस्मिता का था। आख़िर प्रधानमंत्री पंडित जवाहलाल नेहरू को दख़ल देनी पड़ी। उन्होंने मिल्खा सिंह को बुलाया और उन्हें पाकिस्तान जाने के लिए मना लिया। लगभग 13 साल बाद मिल्खा सिंह उस धरती पर थे, जहाँ से कभी वह शरणार्थी बनकर निकले थे। आज उसी धरती पर उनका स्वागत था। असल में उनका मुक़ाबला पाकिस्तान के धावक अब्दुल ख़ालिद के साथ था।

सभी को एक कड़े मुक़ाबले की आस थी। पर ट्रैक पर मिल्खा सिंह कुछ और ही सोच के साथ उतरे थे। उन्होंने ऐसी दौड़ लगायी कि ख़ालिद कहीं पीछे ही छूट गया। वह मुक़ाबले में भी नहीं था। संयोग से इस दौड़ को देखने पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान भी आये थे। वह मिल्खा की दौड़ पर हैरान थे। उन्होंने वहीं मिल्खा सिंह से कहा- ‘तुम दौड़ते नहीं, उड़ते हो। तुम तो फ्लाइंग सिख (उडऩ सिख) हो। जनरल अयूब ख़ान ने ही मिल्खा सिंह को फ्लाइंग सिख के नाम से सम्बोधित करना शुरू किया, जो आगे चलकर मिल्खा सिंह के नाम का पर्याय बन गया। खिलाड़ी आख़िर खिलाड़ी होते हैं। बाद में ख़ालिद और मिल्खा सिंह के बीच बहुत गहरे सम्बन्ध बन गये थे, जो ताउम्र जारी रहे। ख़ालिद के बेटे ने एक साक्षात्कार में इसकी पुष्टि भी की है।

बिना केंद्र की मंजूरी के असहाय लोगों को बिस्तर पर ही टीका लगवाएगी महाराष्ट्र सरकार

महाराष्ट्र सरकार ने बुधवार को बॉम्बे हाईकोर्ट को बताया कि वह जल्द बिस्तर पर लेटे रहने के मजबूर लोगों को घर-घर जाकर कोविड रोधी टीका लगाने का प्रायोगिक आधार पर कार्यक्रम शुरू करेगी। इसके लिए वह केंद्र सरकार की मंजूरी का इंतजार नहीं करेगी।
महाराष्ट्र के महाधिवक्ता आशुतोष कुंभकोणी ने मुख्य न्यायाधीश दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति जी एस कुलकर्णी की खंडपीठ को बताया कि परीक्षण और प्रायोगिक आधार पर घर-घर जाकर टीकाकरण करने की पहल सबसे पहले पुणे जिले में शुरू की जाएगी। कुंभकोणी ने बताया कि हम घर जा कर टीकाकरण शुरू करने के प्रस्ताव को मंजूरी के लिए प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास नहीं भेजेंगे।
उन्होंने अदालत को बताया कि राज्य सरकार अपना फैसला खुद लेगी। हम पुणे जिले में प्रयोग के आधार पर इस संभावना को देखेंगे।राज्य सरकार ने मंगलवार को अदालत में एक हलफनामा दायर कर कहा था कि इसके लिए कुछ शर्तें लगाई जाएंगी जैसे लाभार्थी के परिवार से लिखित सहमति ली जाएगी और परिवार के डॉक्टर से प्रमाण पत्र लिया जाएगा जिसमें वह टीके का किसी भी तरह का प्रतिकूल प्रभाव होने पर जिम्मेदारी लेगा। अदालत ने बुधवार को कहा कि डॉक्टर से प्रमाण पत्र मांगने की शर्त अव्यावहारिक है।
हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस दीपांकर दत्ता ने कहा कि हम उम्मीद करते हैं कि आप (सरकार) डॉक्टर को प्रमाणित करने के लिए जोर नहीं देंगे। कैसे एक डॉक्टर जिम्मेदारी ले सकता है? ऐसी किसी भी तरह की अव्यावहारिक शर्त मत लगाइए।

निर्मला सीतारमण के राहत उपायों को मिली कैबिनेट से मंजूरी

दिल्ली में आज कैबिनेट और आर्थिक मामलों की केंद्रीय समिति की बैठक हुई थी। जिसके अंतर्गत वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा दो दिन पहले कोरोना महामारी के दौरान घोषित किए गए चौथे राहत पैकेज पर महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए। जिससे की महामारी के दौरान लोगों को सरकार की तरफ से जल्द से जल्द मदद मिल सके

कोविड-19 के दौरान दिक्कतों का सामना कर रहे सभी क्षेत्रों को वित्त मंत्री द्वारा 6 लाख 28 हजार करोड़ की मदद का खाका बताया गया था। जिसे आज की कैबिनेट बैठक में मंजूरी दे दी गई है।

केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बताया कि, इस बैठक में पावर और टेलिकॉम सेक्टर पर अहम फैसले लिए गया है। इसमें पावर डिस्ट्रीब्यूशन रिफॉर्म के लिए 3.03 लाख करोड़ रुपयो व भारत नेट प्रोजेक्ट को 19 हजार करोड़ रूपये के आवंटन को मंजूरी दे दी गई है।

आपको बता दें कि, भारत नेट गांवों में प्रत्येक ग्राम पंचायत में ब्रॉडबैंड कनेक्शन पहुंचाने की एक बड़ी योजना है। इस योजना में केंद्रीय सरकार द्वारा 42 हजार करोड़ रुपये पहले दे दिए जा चुके थे और अब इसमें 19 हजार करोड़ रुपये की अधिक राशि दी जा रही है जिससे की इस मद में कुल राशि 61 हजार करोड़ हो गई है।

दिल्ली में लू चलने से स्वास्थ्य पर विपरीत असर

 

दिल्ली में भले ही मई माह में गर्मी और लू से लोगों को राहत मिली हो पर, जून के आखिरी सप्ताह में लोगों को लू और गर्म हवा से दो-चार होना पड़ रहा है। आलम ये है कि इस साल जून में बरसात ना होने से तापमान में कोई गिरावट दर्ज नहीं की गई है। 29 जून को 43 दिल्ली में अधिकतम तापमान दर्ज किया गया है। जो दस साल में सबसे गर्म दिन 29 जून का रहा है। मौसम विभाग का अनुमान है कि जुलाई के पहले सप्ताह तक हल्की बरसात होने से राहत मिल सकती है।

दिल्ली में लू और गर्मी के कारण लोगों के स्वास्थ्य पर विपरीत गहरा असर पड़ रहा है। जिसके कारण इस कोरोना काल में लोगों को भय के साथ रहना पड़ रहा है। पहले कोरोना, ब्लैक फंगस और अब उस से संबंधित बीमारी होने के कारण जरा से पेट में दर्द होने पर लोगों में बैचैनी देखी जा रही है। सरकारी और निजी अस्पतालों में तो मरीजों का तांता लगा हुआ है। जाने माने आयुर्वेदाचार्य डाँ दिव्यांग देव गोस्वामी का कहना है कि गर्मी का मौसम, सर्दी का मौसम हो या फिर बरसात का मौसम हो स्वास्थ्य के प्रति जरा सी लापरवाही घातक हो सकती है।

क्योंकि अभी कोरोना जरूर कम हुआ है। लेकिन गया नहीं है। उस पर अब डेल्टा वायरस का कहर लोगों को डरा रहा है। डाँ दिव्यांग देव का कहना है कि इस मौसम में घर से तब ही निकलें, जरूरी हो और तरल पदार्थ का सेवन अधिक करें और पेट में दर्द और बुखार हो तो नदरअंदाज ना करें।क्योंकि मौजूदा माहौल और वातावरण में जरा सी लापरवाही घातक साबित हो सकती है।

राजे को लेकर भाजपा में फिर कोलाहल

इन दिनों वसुंधरा समर्थक कोराना के संक्रमण-काल में सेवा का सकारात्मक नमूना गढ़ रहे हैं। इसमें नयी विचारधारा थोपने और भोगोलिक विस्तार जैसा कोई बघार नहीं है। लेकिन अगर कुछ है, तो मज़बूत प्रतिस्पर्धी राजनीति की तपिश; जो प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया को झुलसा रही है। वसुंधरा राजे पर खीझते बेतुके तर्क देते नेता निश्चित रूप से अपने ही राजनीतिक नुक़सान की गारंटी हैं। सूत्रों का कहना है कि पूनिया का प्रचार तंत्र का पंचतंत्र इसे पचा नहीं पा रहा है, उसे इसमें राजनीतिक षड्यंत्र की छाया दिख रही है।
पूनिया को ख़ुद को साबित करने के लिए वैकल्पिक राजनीति का सकारात्मक मॉडल गढऩा चाहिए था, लेकिन वह तो हर क़दम पर फिसल रहे हैं। विश्लेषक कहते हैं कि वसुंधरा मंच के जन रसोई सरीखे सेवातंत्र में अगर साज़िश की कोई मुश्क है, तो पूनिया को ज़्यादा सूझबूझ से प्रतिक्रिया करनी चाहिए थी। जबकि वसुंधरा राजे से टकराव वाला धारावाहिक लम्बा ही खिंचता जा रहा है। चुनावी संवादों में भी पार्टी की भावी नीतियों का कोई ककहरा नहीं था। नतीजतन उप चुनावों में वोटर उनका एक शब्द भी नहीं पचा पाये। बहरहाल भाजपा के राजनीतिक गलियारों में सवालों का सैलाब उमड़ पड़ा है कि वसुंधरा अलहदा कार्यक्रमों के ज़रिये केंद्रीय नेतृत्व पर दबाव बनाने की कोशिश में है। वसुंधरा राजे के निकटतम सूत्र कहते हैं कि वसुंधरा मंच एक सोशल सर्विस है।
कोरोना वायरस के कहर से जूझते लोगों के प्रति हमदर्दी का रचनात्मक इज़हार है। क्या इन कोशिशों को लताड़ा जाना चाहिए। विश्लेषकों का कहना है कि अगर यह कार्यक्रम राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा की डोर में पिरोये हुए होते तो राजे के साक्षात्कार के अंदाज़े बयाँ को क्या कहा जाना चाहिए? जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सात साल के शासन-काल को सर्वोत्तम बताते हुए कहा कि मोदी सरकार ने इस अवधि में ऐसे कई कार्य किये, जो कांग्रेस सपने में भी नहीं सोच सकती। राजे ने कहा कि मोदी के अपूर्व बदलावों से विश्व में भारत का डंका बजा है। कोरोना को लेकर केंद्र सरकार पर की जा रही छींटाकशी को राजे ने ख़ारिज करते हुए कहा कि विपक्ष महामारी को मौक़ा भुनाने के अंदाज़ में देख रहा है। बंगाल चुनावों को लेकर भी राजे ने मोदी का प्रशस्ति गान किया कि भाजपा ने इन चुनावो में ऐतिहासिक बढ़त ली, तीन से बढ़कर 77 तक पहुँची। उन्होंने गहलोत पर तंज़ कसते हुए कहा कि सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को ख़ुश रखने के लिए उनके पास यही एक सटीक फार्मूला है कि खुलकर मोदी की मुख़लिफ़्त करते रहे, जबकि वे अपना घर ही नहीं सँभाल पा रहे। इसलिए अपनी कमियों पर पर्दा डालने के लिए प्रधानमंत्री पर मिथ्या आरोप लगा रहे हैं।
विश्लेषकों का कहना है कि आख़िर क्यों मीडिया को दिये गये वसुंधरा के इस साक्षात्कार को मोदी के प्रति वफ़ादारी से जोड़कर नहीं देखा जा रहा। विश्लेषकों का कहना है कि पूनिया के प्रचार तंत्र ने मेल-मिलाप की सीमाएँ इस क़दर धुँधली कर दी हैं कि राजे का मोदी प्रशंसा अभियान रेत का ग़ुबार बन कर रह गया है। सियासी गलियारों में खदबदा रही सरगोशियों की बात करें, तो जबसे केंद्रीय नेतृत्व ने राजस्थान में नये नेतृत्व के रूप में संघ पृष्ठभूमि के सतीश पूनिया को प्रदेशाध्यक्ष की कमान सौंपी है, तभी से वसुंधरा राजे पार्टी को अन्दरख़ाने में नुक़सान पहुँचाने में लगी हुई हैं। चर्चा तो यह भी है कि भाजपा को नुक़सान पहुँचाने के लिए राजे समर्थक क़द्दावर नेता गुपचुप षड्यंत्र कर रहे हैं। इनका ख़ुलासा होने पर भूचाल आ सकता है, जिससे राजे को बड़ा सियासी नुक़सान हो सकता है।
विश्लेषकों की मानें, तो भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की नज़र में पूनिया लो-प्रोफाइल के नेता हैं; उनके सामने बेशक ढेरों चुनोतियाँ हैं। क्या पूनिया उन्हें पार कर लेंगे? लाख टके का सवाल है कि वसुंधरा को दरकिनार कर क्या पूनिया वैकल्पिक राजनीति का निर्माण कर पाएँगे? क्या पूनिया ऐसा कोई सियासी दाँव खेलने में माहिर है? विश्लेषक कहते हैं कि कोई भी बदलाव नयी उम्मीद लेकर आता है। सूत्रों का कहना है कि पिछले चुनावों में राज्य के लोगों ने मुख्यमंत्री के रूप में राजे को अलविदा ज़रूर कहा था; लेकिन ख़ारिज नहीं किया है।
विश्लेषकों का कहना है कि वसुंधरा राजे बेशक सामंतवाद की उपज रही हों, किन्तु एक प्रवीण राजनेता के तौर पर जनता के साथ संवाद स्थापित करने में ज़्यादा सफल रहीं। वाहवाही लूटने में शिरोमणि रहीं वसुंधरा ने हर अवरोध को पार किया। लेकिन राजनीति की ज़रूरतों को नकारकर वैचारिक ऊर्जा से संचालित होने वाले टकरावों के खेल से नहीं बच पायीं और यही क़दम उन्हें दम्भ की दुनिया में ले गया। ‘ज़िन्दगी से बढ़कर’ होना ही आरएसएस से उनके टकराव की वजह बना। नतीजतन जीत की दो सफल पारियाँ खेलने और पराजय को भी गरिमापूर्ण बनाने वाली इस अनुभवी नेता को आज पार्टी नेतृत्व तन्हा छोडऩे पर तुला है।


80 के दशक में तो राजे के बिना राजनीति की चर्चा ही नहीं होती थी। शेखावत के बाद यह वसुंधरा के उदय की शुरुआत थी। जल्द ही उन्होंने ख़ुद को न सिर्फ़ नयी भूमिका में स्थापित कर लिया, बल्कि ऐसा विकल्प दिया, जो कभी ग़लती कर ही नहीं सकता था। लेकिन अँधेरे की कोख से जन्म लेने वाली सुबह का इंतज़ार एक रात भी करती है। यही सृष्टि का नियम है; सबके लिए। वसुंधरा भी इसका अपवाद नहीं हैं।
विश्लेषकों का कहना है कि राजे भाजपा की सबसे प्रखर नेता हैं; लेकिन उनका उत्कर्ष ही उनके पराभव की वजह बन रहा है। अलबत्ता यह उनकी निजी ऊर्जा है कि जनता का उन पर वरदहस्त है।
सूत्रों का कहना है कि बिरला की ताजपोशी ही झिंझोड़कर बता गयी थी कि अब मोदी शाह की जोड़ी राजस्थान की राजनीति को वसुंधरा मुक्त करने की जुगत में है। बेशक बिरला की ताजपोशी को अमित शाह की निजी पसन्द बताया जा रहा था। मगर हक़ीक़त समझें, तो इसमें पूरी तरह सियासत का बघार लगा हुआ था। कोई जमाना था, जब बिरला और वसुंधरा राजे के रिश्तों में आत्मीयता रही होगी? लेकिन इतनी भर कि बिरला वसुंधरा मंत्रिमंडल में संसदीय सचिव की दहलीज़ पर ही टिके रहे। सूत्रों की मानें तो इसके बाद रिश्ते कितने तल्ख़ हुए? कहने की ज़रूरत नहीं है।
पिछले चुनावों में जब अमित शाह ने राजस्थान का दौरा किया था, तो उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि जब तक वसुंधरा राजे हैं, प्रदेश में नेतृत्व का मुद्दा नहीं है। अब वही शाह राजस्थान में नये नेतृत्व की बिसात बिछाने में जुटे हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि इस राजनीतिक क़वायद में लोकसभा अध्यक्ष बिरला की भूमिका किस हद तक होगी? सूत्रों का कहना है कि पूरे प्रदेश को केसरिया रंग में रंगने का लक्ष्य लेकर भाजपा का नया फार्मूला सतीश पूनिया हैं। लेकिन क्या यह फार्मूला वसुंधरा राजे को अप्रासंगिक की मुंडेर पर लटकाने में कामयाब हो सकेगा? सवाल यह भी है कि क्या पूनिया पार्टी की आकांक्षाओं को पूरा करने में कामयाब हो पाएँगे? पूनिया के लिए यही सबसे बड़ी चुनोती है।

वसुंधरा की महत्ता समझे नेतृत्व

कोटा लाडपुरा विधानसभा क्षेत्र के पूर्व भाजपा विधायक भवानी सिंह राजावत अपनी तेज़ तर्रार छवि और जुझारू शख़्सियत के लिए जाने जाते हैं। वसुंधरा राजे के समर्थकों की अगली पांत में गिने जाने वाले राजावत भले ही राजे को लेकर पार्टी में मची हलचल से ख़ुश नहीं हैं; लेकिन मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते और ऐसे किसी भी विवाद से बचते रहे हैं, जो दलीय निष्ठा पर सवाल खड़े कर सकता है। क्या वास्तव में पार्टी ख़ेमेबाज़ी के गलियारे से गुज़र रही है? संगठन ने जिस तरह इकतरफ़ा राह पकड़ी है, उसका ख़ामियाज़ा पार्टी ने कितना और कैसे उठाया? इन तथ्यों पर ‘तहलका’ की भवानी सिंह राजावत से बातचीत के कुछ अंश :-

उप चुनावों में भाजपा के कमज़ोर प्रदर्शन के बारे में आप क्या कहेंगे?
उप चुनावों से पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा ने वसुंधरा राजे ने तथा प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया के हाथ मिलवाते हुए कहा था कि एकला चलने से काम नहीं चलेगा, मिलकर चलो। लेकिन क्यों सतीश पूनिया इस नसीहत पर अमल नहीं कर पाये? क्यों उन्होंने उप चुनावों में वसुंधरा राजे को दूर रखा? लेकिन एकजुटता की नसीहत देने वाले नड्डा ने उप चुनावों में राजे को दूर रखा और सतीश पूनिया को ही ‘फ्री हैंड’ दे दिया?
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा प्रखर और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ हैं। उन्होंने जयपुर प्रवास के दौरान प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया से वसुंधरा को साथ लेकर चलने की सलाह दी थी, तो इसकी बड़ी वजह उप चुनावों की फ़िज़ाँ और समय का तक़ाज़ा था। लेकिन पता नहीं क्यों पूनिया दिग्भ्रमित हो बैठे और विराट जनाधार वाली नेता वसुंधरा की उपेक्षा कर बैठे? चुनावी नतीजे क्या हुए? ‘ढाक के तीन पात’।

क्या भाजपा के प्रदेश प्रभारी अरुण सिंह की रणनीति वसुंधरा राजे को उप चुनावों से दूर रखने की थी?
राजे को उप चुनाव से दूर रखना केंद्रीय नेतृत्व की रणनीति का हिस्सा हो सकता था। लेकिन भाजपा के प्रदेश प्रभारी अरुण सिंह के वसुंधरा राजे से बरसों पुराने सम्बन्ध रहे हैं। वह वसुंधरा और केंद्रीय नेतृत्व की दूरियाँ कम कर सकते थे।

राजस्थान में भाजपा का मतलब ही वसुंधरा राजे है, फिर भी केंद्रीय नेतृत्व ने सतीश पूनिया पर दाँव क्यों खेला?
देखिए, जनसंघ से भाजपा तक के 40 साल के राजनीतिक सफ़र में मैंने प्रदेश की भाजपा राजनीति के अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। तीन बार मुख्यमंत्री रहे भैरो सिंह का चुनाव संयोजक भी रहा हूँ। लेकिन राजस्थान के जननायक माने जाने वाले शेखावत भी जोड़-तोड़ से ही सरकार बना पाये। आख़िर पार्टी हाई कमान ने 2002 में वसुंधरा राजे को कमान सौंपी। उन्होंने इतिहास भी रचा। परिवर्तन यात्रा निकालकर 200 में से 120 सीटों पर क़बज़ा किया। वर्ष 2014 में जब उन्होंने 200 में से 162 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत से सरकार बनायी। तभी राजनीतिक हलक़ों में मुहावरा प्रचलित हो गया था कि राजस्थान में वसुंधरा ही भाजपा और भाजपा ही वसुंधरा है।

वसुंधरा समर्थकों का लेटर बम कोटा में ही फूटा है। आप क्या कहना चाहेंगे?
कोटा मे संगठन के पुराने लोगों ने अपनी भड़ास निकाली है। इसलिए लोगों को ऐसा लगने लगा कि कोटा मे बम फूट गया है। बाद में पूरा प्रदेश उबल पड़ा। पंचायतों से लेकर पालिका और निगम चुनाव हार गये। कोटा जैसे गढ़ में हार गये। अब कहने को क्या बचा?

नेता प्रतिपक्ष कटारिया और उप नेता राजेन्द्र सिंह राठौड़ वसुंधरा राजे समर्थकों पर कटाक्ष की भाषा क्यों बोलते हैं? कटारिया कहते हैं कि किसी की मनमर्ज़ी से यह संगठन नहीं चलता? कोर कमेटी की बैठकों में राजे को लेकर संशय क्यों चल रहा है?
इन नेताओं का वसुंधरा राजे समर्थकों पर भाषाई कटाक्ष सुर्ख़ियाँ बटोरने के लिए हो सकता है। कटारिया तो वैसे भी विवादास्पद बयानों के लिए चर्चित हैं। कोर कमेटी की बैठकों में राजे को लेकर संशय का तो कोई आधार ही नहीं है। वसुंधरा राजे तो संस्कारित नेता है, शीर्ष नेतृत्व को उनकी महत्ता समझनी चाहिए।

इजरायल में सत्ता परिवर्तन

(COMBO) This combination of pictures created on May 5, 2021 shows (L to R) Israeli Prime Minister Benjamin Netanyahu addressing supporters at the party campaign headquarters in Jerusalem early on March 24, 2021; and Naftali Bennett of the Yamina (Right) party addressing supporters at the party's campaign headquarters in the Mediterranean coastal city of Tel Aviv early on March 24, 2021, after the end of voting in the fourth national election in two years. (Photos by EMMANUEL DUNAND and Gil COHEN-MAGEN / AFP) (Photo by EMMANUEL DUNAND,GIL COHEN-MAGEN/AFP via Getty Images)

नेफ्टाली बने प्रधानमंत्री, क्या नये गठबन्धन के आने से रुकेगा फिलिस्तीन से संघर्ष या बढ़ जाएगी दरार?

इजरायल की राजनीति अचानक बदल गयी है। इतनी कि पहले कभी ऐसी न थी। धुर विरोधी साथ हो गये हैं। नेफ्टाली ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ली है। एक इस्लामिक पार्टी और दूसरी दक्षिणपंथी पार्टी। प्रधानमंत्री (अब पूर्व) बेंजामिन नेतन्याहू की सत्ता से बेदख़ली ने देश में धुर विरोधी विचारधाराओं वाली दो पार्टियों को साथ खड़ा कर दिया है। इजरायल की अरब आबादी की प्रतिनिधि पार्टी यूनाइटेड अरब लिस्ट, जिसे ‘राम’ कहा जाता है, के नेता मंसूर अब्बास ने धुर दक्षिणपंथी नेता नेफ्टाली बेनेट को अपना समर्थन देने का ऐलान करके इजरायल और फिलिस्तीन के बीच गहरी खाई पाट दी। लेकिन बेनेट जैसे कट्टरपंथी नेता हैं और जिस तरह इजरायल को यहूदी राष्ट्र बताते हैं, उससे इसकी सम्भावना क्षीण ही दिखती है।
देश के इतिहास में आज तक किसी चुनाव में एक पार्टी को अपने बूते बहुमत नहीं मिला है। इस बार भी नहीं मिला, लिहाज़ा बेंजामिन नेतन्याहू को सत्ता से बाहर करने के लिए कुछ दल इक्कट्ठे हो गये, जिससे लम्बे समय से सत्ता में बैठे नेतन्याहू का जाना तय हो गया था। मार्च में हुए चुनाव में नेतन्याहू की लिकुड पार्टी को बहुमत नहीं मिला था। दूसरी सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद इजरायली राष्ट्रपति रुवेन रिवलिन ने नेतन्याहू को सरकार बनाने और 2 जून तक बहुमत साबित करने का आदेश दिया था, जिसके सिद्ध न करने पर विपक्षी पार्टियों के गठबन्धन ने नयी सरकार बनाने को लेकर सहमति जता दी, जिसके बाद नेफ्टाली बेनेट ने 13 जून, 2021 को इजरायल के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। दिलचस्प यह है कि बेनेट की यामिना पार्टी की सिर्फ़ छ: सीटें हैं।
नेतन्याहू ने जोड़तोड़ की कोशिश उन्हें सफलता नहीं मिली। उनकी लिकुड पार्टी सहयोगियों को सँभालने में नाकाम रही। इसके बाद उनके विरोधी नेता येर लेपिड ने ऐलान कर दिया कि इजरायल की विपक्षी पार्टियों में नयी सरकार बनाने पर सहमति बन गयी थी। नयी सरकार वाले नये गठबन्धन में इजरायल की आठ पार्टियाँ शामिल हैं। विपक्ष में सत्ता के लिए हुए समझौते के मुताबिक, सबसे पहले यामिना पार्टी के प्रमुख नेता नेफ्टाली बेनेट इजरायल के प्रधानमंत्री बने। दो साल बाद उनकी जगह येश एटिड पार्टी के नेता येर लेपिड प्रधानमंत्री का ज़िम्मा सँभालेंगे। सेंटर-लेफ्ट ब्लू ऐंड व्हाइट, जिसके प्रमुख रक्षा मंत्री बेनी गेंट्ज लेफ्ट विंग मेरेट्ज ऐंड लेबर पार्टी, पूर्व रक्षा मंत्री एविग्डोर लिबरमेन, राष्ट्रवादी ये इजरायल बेटन्यू पार्टी, राइट विंग पार्टी, जिसके प्रमुख पूर्व शिक्षा मंत्री गिडोन भी गठबन्धन में शामिल हैं।

क्या होगा असर
इजरायल में सत्ता परिवर्तन का गाजा पट्टी और भारत सहित दुनिया के अन्य देशों पर भी असर पड़ सकता है। बेंजामिन नेतन्याहू की राजनीति और नीति गठबन्धन सरकार निश्चित ही जारी नहीं रखेगी। विशेषज्ञ नये प्रधानमंत्री नेफ्टाली बेनेट के आने से देश की विदेश नीति के प्रभावित होने को तय मान रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण इस गठबन्धन में शामिल दलों की बहुत अलग-अलग विचारधारा है। ज़ाहिर है गाजा पट्टी, फिलिस्तीन, हमास, ईरान, लेबनान, हिजबुल्लाह, अमेरिका जैसे ज्वलंत मुद्दों को लेकर भी इन पार्टियों के विचार आपस में मेल नहीं खाते मेल नहीं खाते। वैसे मंसूर अब्बास के फ़ैसले की वेस्ट बैंक और गाजा में आलोचना भी हो रही है। गाजा के लोगों का कहना है जब अब्बास से फिलिस्तीनियों से संघर्ष के लिए वोट करने को कहा जाएगा, तो वे क्या करेंगे? क्या वह यह स्वीकार करेंगे कि वह फिलिस्तीनियों की हत्या में हिस्सेदार बने?
सबसे दिलचस्प कारण यह है कि गठबन्धन में शामिल राम पार्टी इजरायली अरब मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है। यह पार्टी फिलिस्तीनियों को उनका हक़ देने की प्रबल पक्षधर है। साथ ही नयी कॉलोनियाँ बनाने की इजरायल की नीति का भी विरोध करती रही है। उसकी माँग रही है कि नयी कॉलोनियाँ बनाने की जगह इजरायल को येरुशलम पर अपना दावा छोड़ देना चाहिए। लेकिन यहाँ बड़ा पेच यह है कि भावी प्रधानमंत्री नेफ्टाली बेनेट धुर दक्षिणपंथी नेता हैं। उन्हें यहूदी राष्ट्र का कट्टर समर्थक माना जाता है। हालाँकि समझौते के मुताबिक, उनके दो साल बाद सत्ता सँभालने वाले गठबन्धन नेता (घोषित) येश एटिड मध्यमार्गी विचारधारा के नेता हैं।
नेतन्याहू को सत्ता से बाहर करने के लिए जब विपक्षी दलों का गठबन्धन बना, तो उसकी तस्वीरें इजरायल ही नहीं, दुनिया के बड़े देशों के मीडिया में भी सुर्ख़ियाँ बनीं। समझौते पर दस्तख़त करते विपक्षी नेताओं की तस्वीर ख़ूब वायरल हुई। इस तस्वीर में मध्यमार्गी येश एटिड, कट्टरपंथी नेफ्टाली बेनेट और मुस्लिमों की प्रतिनिधि राम पार्टी के मंसूर अब्बास हैं। समझौते के बाद इजरायली राष्ट्रपति को विपक्षी दलों ने पहले ही सूचित कर दिया कि वह अगली सरकार बनाने जा रहे हैं। इसके लिए संसद का सत्र बुलाकर विपक्ष को अपना बहुमत साबित करना होगा। ऐसा हो गया तो नेफ्टाली बेनेट इजरायल के नये प्रधानमंत्री की शपथ लेंगे। इस तरह नेतन्याहू के 12 साल के शासन का अन्त हो गया।
राम पार्टी के मंसूर अब्बास (47) इजरायल के सम्भावित प्रधानमंत्री नेफ्टाली बेनेट के साथ गठबन्धन में शामिल हुए हैं। यामिना पार्टी के नेफ्टाली बेनेट को नेतन्याहू से भी ज़्यादा दक्षिणपंथी माना जाता है और वह पूरे वेस्ट बैंक को इजरायल में मिलाने के हिमायती रहे हैं। इसके विपरीत अब्बास की राम पार्टी की बुनियाद रूढि़वादी इस्लामिक विचारधारा वाली है। राम पार्टी के सांसद फिलिस्तीन के समर्थक हैं और पार्टी के चार्टर में फिलिस्तीनियों को उनके अधिकार लौटाने की बात कही गयी है। यही नहीं, अब्बास की पार्टी यहूदीवाद को नस्लवादी और आक्रांताओं की विचारधारा के तौर पर देखती है।

कौन हैं नेफ्टाली
इजरायल के राष्ट्रीय चुनावों में कभी किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला है। पिछले दो साल में ही वहाँ चार बार आम चुनाव हो चुके हैं। हर बार की तरह इन चुनावों में भी किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिल सका। इजरायल की संसद नेसेट में कुल 120 सीटें हैं। इनमें नेफ्टाली बेनेट की यामिना पार्टी के पास छ: सीटें हैं। विपक्ष की जोड़-तोड़ की राजनीति में यामिना पार्टी के चीफ नेफ्टाली बेनेट किंगमेकर बनकर उभरे हैं। हालाँकि उन्हें दो साल बाद समझौते के मुताबिक, अपने विपक्षी गठबन्धन को प्रधानमंत्री पद देना होगा। बेनेट इजरायल डिफेंस फोर्सेज की एलीट कमांडो यूनिट सायरेत मटकल और मगलन के कमांडो रह चुके हैं। सन् 2006 में उन्होंने बेंजामिन नेतन्याहू के नेतृत्व में राजनीति में प्रवेश किया। इसके बाद वे नेतन्याहू के ‘चीफ ऑफ स्टाफ़’ बनाये गये। सन् 2012 में नेफ्टाली द जुइश होम नाम की पार्टी पर संसद के लिए चुने गये। बाद में वे न्यू राइट और यामिना पार्टी से भी नेसेट के सदस्य बने। सन् 2012 से सन् 2020 के बीच नेफ्टाली पाँच बार इजरायली संसद के सदस्य बन चुके हैं। सन् 2019 से 2020 के बीच वह इजरायल के रक्षा मंत्री भी रहे हैं।
नयी सरकार की शर्तों के अनुसार, बेनेट सितंबर, 2023 तक प्रधानमंत्री रहेंगे। उसके बाद लेपिड प्रधानमंत्री बनेंगे और नवंबर, 2025 तक रहेंगे। यह समझौता राम पार्टी के नेता मंसूर अब्बास के साथ आने से हुआ। यह पहली बार होने जा रहा है, जब इजरायल में इस्लामिक पार्टी सत्ताधारी गठबन्धन का हिस्सा बनने जा रही है। वैसे इजरायली संसद में सबसे बड़ी पार्टी नेतन्याहू की लिकुड पार्टी है, जिसके 30 सांसद हैं और दूसरे स्थान पर येर लेपिड की येश एडिट पार्टी है; जिसके 17 सांसद हैं। इजरायल में सरकार बनाने के लिए 61 सांसदों का समर्थन चाहिए। लेकिन किसी भी पार्टी के पास इतने सांसद नहीं हैं। ऐसा तब है, जब पिछले साल स्पष्ट बहुमत के लिए तीन बार चुनाव हो चुके हैं। दरअसल बेनेट के समर्थन पर ही नेतन्याहू की सरकार टिकी थी। बेनेट किंगमेकर की भूमिका में रहे हैं; लेकिन अब किंग की कुर्सी के क़रीब पहुँच चुके हैं।

फिलिस्तीन से रिश्ता
बहुत-से जानकार मानते हैं कि बेनेट के प्रधानमंत्री बनने से फिलिस्तीन के साथ इजरायल की तनातनी बढ़ सकती है। हाल के महीनों में दोनों देशों के बीच ख़ूब ख़ून-ख़राबा हुआ है। बेनेट वेस्ट बैंक और पूर्वी येरुशलम को इजरायल में मिलाने की बात करते हैं; लेकिन दोनों इलाक़े सन् 1967 में हुए मध्य-पूर्व के युद्ध के बाद से इजरायल के पास ही हैं। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय इसे इजरायल का अवैध नियंत्रण मानता है। समस्या यह है कि प्रधानमंत्री बेनेट खुले तौर पर इजरायल को एक यहूदी राष्ट्र कहते हैं, जिसका मतलब है- इजरायल में अरब मूल के लोग दोयम दर्जे के नागरिक हैं। बेनेट पू्र्वी येरुशलम और वेस्ट बैंक में यहूदी बस्तियाँ बसाने का समर्थन करते हैं और फिलिस्तीन अतिवादियों को जेल नहीं, बल्कि मौत की सज़ा देने के हिमायती हैं। बेनेट नेतन्याहू के वफ़ादार थे; लेकिन सन् 2009 में अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के कारण उनसे अलहदा हो गये थे।
बहुत-से जानकार मानते हैं कि बेनेट के प्रधानमंत्री बनने से मध्य-पूर्व के इस्लामिक देशों से इजरायल के रिश्ते और ख़राब हो सकते हैं। इसी साल मई में आधा महीने तक जब इजरायल और हमास के बीच हिंसक संघर्ष हुआ, तब इस्लामिक देश खुले रूप से हमास के साथ दिखे थे। तुर्की और पाकिस्तान, इजरायल के ख़िलाफ़ काफ़ी मुखर रहे थे। सऊदी अरब समेत कई इस्लामिक देश और दुनिया के बाक़ी देश भी चाहते हैं कि फिलिस्तीन एक स्वतंत्र मुल्क बने, जिसकी राजधानी पूर्वी येरुशलम हो; लेकिन बेनेट इजरायल से लगे फिलीस्तीन को अलग देश बनाने की माँग को ख़ारिज करते रहे हैं। ईरान के प्रति भी बेनेट नीति आक्रामक रही है। हाल में ईरानी कुद्स बलों के प्रमुख ने कहा था कि यहूदियों को यूरोप और अमेरिका लौट जाना चाहिए। ऐसे में बेनेट के प्रधानमंत्री बनने के बाद ईरान से तनाव बढ़ सकता है। देखना यही दिलचस्प होगा कि ऐसे में राम पार्टी के प्रमुख अब्बास का क्या रुख़ रहता है? सफल व्यापारी भी रह चुके बेनेट अपना टेक स्टार्ट-अप 14.5 करोड़ डॉलर में बेचकर सन् 2005 में राजनीति में कूद गये थे। कुछ जानकार इस सरकार भविष्य को लेकर भी आशंकित हैं। इजरायल में बेनेट एक स्थायी सरकार दे पाएँगे, अभी पक्का नहीं कहा जा सकता। यहाँ तक कि उनके एक सांसद पहले ही गठबन्धन के ख़िलाफ़ मतदान करने की बात कह चुके हैं।

मैं स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूँ कि जब सरकार हमारे समर्थन पर बन रही है, तो हम अरब समाज के लिए कई उपलब्धियाँ हासिल करने और सरकार के महत्त्वपूर्ण फ़ैसले प्रभावित करने की स्थिति में भी होंगे। गठबन्धन को लेकर हुए समझौते में अरब क़स्बों में अपराध पर लग़ाम लगाने और इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने के लिए 16 अरब डॉलर से ज़्यादा धनराशि आवंटित किये जाने का प्रावधान शामिल किया गया है। इसके अलावा अरब गाँवों में बिना अनुमति के घर गिराने पर रोक और बेदूंइन गाँवों को आधिकारिक मान्यता देने की भी बात शामिल है।

मंसूर अब्बास
मुस्लिम नेता और गठबन्धन सहयोगी

माननीयों को पेंशन क्यों?

जब कोई व्यक्ति सरकारी सेवा में जाता है, तो उसके पीछे एक बड़ी वजह यह होती है कि उसे बुढ़ापे में पेंशन मिलती रहेगी, जिससे बच्चों द्वारा उसे रोटी न देने की अवस्था में भी उसे किसी के आगे दो वक़्त की रोटी के लिए मोहताज नहीं होना पड़ेगा। लेकिन पिछले समय सरकार ने कई सरकारी विभागों की पेंशन योजना को बन्द करने का ऐलान करके उन कर्मचारियों-अधिकारियों को सकते में डाल दिया है, जो इसी आस में मेहनत-मशक़्क़त करके सरकारी नौकरी में आये थे। हालाँकि कहा जा रहा है कि इस लाभ से वही सरकारी कर्मचारी वंचित होंगे, जिनकी नियुक्ति सन् 2009 के बाद के हुई होगी।
इस मामले में हाल ही में सरकार ने कहा है कि कर्मचारी अब नेशनल पेंशन सिस्टम को छोड़कर पुरानी पेंशन स्कीम का लाभ 31 मई, 2021 तक ले सकते हैं। इसके लिए आवेदन की तारीख़ 5 मई थी, जो अब निकल चुकी है। इस प्रावधान में स्पष्ट किया गया है कि इस योजना के तहत आवेदन न करने वाले कर्मचारियों को नेशनल पेंशन सिस्टम के प्रावधानों के तहत फ़ायदा मिलता रहेगा। लेकिन जो भी कर्मचारी 01 जनवरी, 2004 से 28 अक्टूबर, 2009 के बीच में नियुक्त हुए हैं, उन्हें सीसीएस पेंशन के तहत ही पेंशन का लाभ मिल सकेगा। इसी तरह अर्धसैनिक बलों को पेंशन नहीं मिलेगी। समझ नहीं आता कि सैन्य संगठनों के लिए वन रैंक वन पेंशन की बात करने वाली सरकार अब सैनिकों की पेंशन देने में भी असमर्थ क्यों है?
सवाल है कि जब अपनी नौकरी करने के लिए या देश सेवा के लिए कोई व्यक्ति अपना पूरा जीवन लगा देता है, तो उसे पेंशन क्यों नहीं मिलनी चाहिए? जबकि इसी देश में उस व्यक्ति को भी आजीवन पेंशन मिलती है, जो केवल एक दिन के लिए भी संसद का सदस्य बन जाता है। भारत सरकार की ओर से हर ऐसे नेता को पेंशन दिये जाने की व्यवस्था है, जो एक भी बार, एक भी दिन के लिए चुनकर संसद में गया है। इसी तरह विधानसभा चुनाव जीतने वाले विधायकों के लिए पेंशन की व्यवस्था है। सर्वोच्च न्यायालय ने 16 अप्रैल, 2018 को भी एक याचिका को ख़ारिज कर दिया था। उसके बाद कुछ महीने पहले सेवानिवृत्त सांसदों को दी जाने वाली पेंशन और अन्य भत्तों के ख़िलाफ़ फिर एक याचिका को सर्वोच्च न्यायालय ने ख़ारिज कर दिया था। इसमें सांसदों को मिलने वाली पेंशन व अन्य भत्तों को ख़त्म करने की माँग की गयी थी। न्यायालय ने केंद्र सरकार के तर्क को सही ठहराया था कि पूर्व सांसदों को कार्यकाल समाप्त होने के बाद पद की गरिमा को बनाये रखने के लिए पेंशन व अन्य भत्ते दिया जाना उचित है। यानी सांसदों को पेंशन और सभी भत्ते इसी तरह मिलते रहेंगे। तो फिर उन लोगों को कम-से-कम पेंशन क्यों नहीं मिलनी चाहिए, जो 60-62 साल की उम्र तक सरकारी सेवा में रहते हैं।
संसद सदस्य वेतन, भत्ता और पेंशन अधिनियम, 1954 के अनुसार, एक पूर्व सांसद को 20,000 रुपये महीना पेंशन और पाँच साल से अधिक सेवाकाल हो, तो उसे सेवानिवृत्ति पर 1,500 रुपये अलग से हर माह दिये जाते हैं।
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और पूर्व सांसद योगी आदित्यनाथ समिति ने सांसदों की पेंशन राशि बढ़ाकर 35,000 रुपये महीने करने की सिफ़ारिश की थी। बड़ी बात यह है कि सभी सुविधाओं को भोगने वाले ये लोग पेंशन भी नहीं छोडऩा चाहते, तो उम्र भर सेवा करने वालों की पेंशन पर आँच क्यों?
एक सांसद को तब भी पेंशन मिलने लगती है, जब उसने एक दिन भी सांसदी सँभाली हो। इसमें एक अजब-ग़जब बात यह है कि सांसदों और विधायकों को दो-दो, तीन-तीन बार पेंशन लेने तक का हक़ है। मसलन कोई व्यक्ति पहले विधायक रहा हो और बाद में सांसद बना हो या पहले सांसद और बाद में विधायक बना हो, तो उसे दो-दो पेंशन मिलती हैं। इतना ही नहीं, इनके पति, पत्नी या आश्रित को भी परिवार गुज़ारा भत्ता (फेमिली पेंशन) की सुविधा है। मतलब अगर किसी सांसद या पूर्व सांसद या विधायक या मंत्री की मृत्यु हो जाती है, तो उसके पति या पत्नी या आश्रितों को आजीवन आधी पेंशन दी जाती है। इसके अलावा सभी को मुफ़्त रेल यात्रा की सुविधा दी जाती है। पूर्व सांसदों को किसी एक सहयोगी के साथ ट्रेन में द्वितीय श्रेणी एसी में मुफ़्त यात्रा की सुविधा है; जबकि अकेले यात्रा करने पर प्रथम श्रेणी एसी की सुविधा है।
इन्हीं सब बातों से आहत होकर सनातन धर्म परिषद् के संस्थापक नंदकिशोर मिश्रा ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है। उन्होंने भारत के सभी नागरिकों से यह अपील की है कि वे इस याचिका के पक्ष में खड़े हों, ताकि इन माननीयों को मिलने वाली इस सुविधा को ख़त्म किया जा सके और देश का एक बड़ा ख़र्चा बच सके। उन्होंने याचिका में कहा है कि 2018 के सुधार अधिनियम के तहत सांसदों को पेंशन नहीं मिलनी चाहिए। क्योंकि राजनीति कोई नौकरी या रोज़गार नहीं, बल्कि एक नि:शुल्क सेवा है। राजनीति लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत एक चुनाव है, जिसमें सेवानिवृत्ति के बाद भी किसी को फिर से उसी स्तर / पद के लिए चुना जा सकता है। उन्होंने याचिका में कहा है कि वर्तमान में उन्हें सेवा के पाँच साल पूरे न होने पर भी पेंशन मिलती है। इसमें एक और बड़ी गड़बड़ी यह है कि अगर कोई व्यक्ति पहले पार्षद रहा हो, फिर विधायक बन जाए और फिर सांसद बन जाए; तो उसे एक नहीं, बल्कि तीन-तीन पेंशनें मिलती हैं। यह देश के नागरिकों साथ बहुत बड़ा विश्वासघात है, जो तुरन्त बन्द होना चाहिए।
याचिका में यह भी माँग की गयी है कि केंद्रीय वेतन आयोग के साथ संसद सदस्यों, सांसदों का वेतन भत्ता संशोधित किया जाना चाहिए और इनको आयकर (इनकम टैक्स) के दायरे में लाया जाना चाहिए।
वर्तमान में वे स्वयं के लिए मतदान करके मनमाने ढंग से अपने वेतन व भत्ते बढ़ा लेते हैं और उस समय सभी राजनीतिक दलों के सुर एक हो जाते हैं। सांसदों को अपनी वर्तमान स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली त्यागनी चाहिए और भारतीय जन-स्वास्थ्य के समान स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में भाग लेना चाहिए। इसके अलावा किसी माननीय का इलाज विदेश में नहीं, भारत में ही होना चाहिए। अगर किसी को विदेश में करवाना हो, तो वह अपने ख़र्च से करवाए। इनको मिलने वाली अनेक छूटें, मुफ़्त घर, मुफ़्त राशन, मुफ़्त बिजली, मुफ़्त पानी, मुफ़्त फोन बिल जैसी सभी रियायतें समाप्त होनी चाहिए। हैरत यह है कि ये लोग न केवल ऐसी बहुत-सी रियायतें प्राप्त करते हैं, बल्कि नियमित रूप से इन्हें बढ़ाते भी रहते हैं। इससे देश की बड़ी पूँजी इसी में चली जाती है।
यही नहीं, याचिका में यह भी माँग की है कि अपराधी प्रवति के नेताओं को चुनाव लडऩे से रोका जाए। संदिग्ध व्यक्तियों को दण्डित रिकॉर्ड, आपराधिक आरोप, झूठे वादों और अतीत या वर्तमान को देखकर संसद से प्रतिबन्धित किया जाना चाहिए। कार्यालय में राजनेताओं के कारण होने वाले वित्तीय नुक़सान की वसूली उनके परिवारों, नामांकित व्यक्तियों और दोषियों की सम्पत्तियों से की जानी चाहिए। सांसद, विधायक भी सामान्य भारतीय लोगों पर लागू सभी क़ानूनों का समान रूप से पालन करें। नागरिकों द्वारा एलपीजी गैस सब्सिडी का कोई समर्पण नहीं होना चाहिए, जब तक सांसदों और विधायकों को उपलब्ध सब्सिडी, संसद कैंटीन में सब्सिडी वाले भोजन सहित अन्य रियायतें वापस नहीं ले ली जातीं। नंदकिशोर मिश्रा कहते हैं कि संसद में सेवा करना एक सम्मान है, लूटपाट के लिए एक आकर्षक करियर नहीं। इनकी मुफ़्त रेल और हवाई जहाज की यात्रा की सुविधा बन्द हो। आख़िर आम आदमी क्यों उठाये इनकी मौज़-मस्ती का ख़र्च?
नंदकिशोर मिश्रा कहते हैं कि यदि प्रत्येक व्यक्ति कम-से-कम 20 लोगों से सम्पर्क करता है, तो भारत में अधिकांश लोगों को यह सन्देश प्राप्त करने में केवल तीन दिन लगेंगे। क्या आपको नहीं लगता कि यह मुद्दा उठाने का सही समय है? क्योंकि अगर हम 2018 के आँकड़े देखें, तो पता चलता है कि देश में विधायकों पर हर साल क़रीब 1100 करोड़ रुपये, सांसदों पर हर साल क़रीब 30 अरब रुपये का ख़र्च होता है। इसके अलावा इनकी सुरक्षा पर करोड़ों रुपये का ख़र्च अलग होता है। वहीं एक आम नागरिक मूलभूत सुविधाओं को भी तरसता है।
हैरानी की बात यह है कि जिसकी वजह से केंद्र और राज्यों की सरकारें सवालों के घेरे में हैं कि सांसदों और विधायकों की सेवानिवृत्ति पर उन्हें या उसके परिवार को जीवन भर के लिए पेंशन का प्रावधान हो जाता है, तो किसी सरकारी कर्मचारी के लिए यह क्यों सुविधा नहीं है? बल्कि उन्हें तो चंद रुपये की अपनी वाजिब पेंशन के लिए सरकारी कार्यालयों के चक्कर काटकर जूते घिसने पड़ते हैं। अगर आज के हालात के हिसाब से देखा जाए, तो सांसदों और विधायकों की पेंशन से सम्बन्धित नियमों में अनेक कमियाँ नज़र आती हैं।
पूर्व सांसदों के लिए पेंशन की व्यवस्था सभी लोकतंत्रात्मक देशों में है। परन्तु उन्हें पेंशन उस दिन से मिलती है, जब वे उतनी आयु के हो जाते हैं, जो उस देश में शासकीय कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की आयु है। जैसे यदि फ्रांस में शासकीय कर्मचारी की सेवानिवृत्ति की आयु 60 वर्ष है, तो वहाँ के हर सांसद को 60 वर्ष का होने के बाद ही पेंशन मिलेगी।
बात पेंशन की हो या वेतन की, भारत की अर्थ-व्यवस्था को देखते हुए यह सार्वजनिक हित में नहीं है। इन नियमों में तत्काल परिवर्तन की ज़रूरत है। कम-से-कम सांसदों और विधायकों का वह अधिकार समाप्त कर देना चाहिए, जिसके चलते वे स्वयं अपने वेतन-भत्ते निर्धारित कर लेते हैं। मेरे ख़याल से विदेशों की तरह यहाँ भी पेंशन के नियमों में परिवर्तन करके पेंशन पाने की आयु-सीमा शासकीय कर्मचारी की सेवानिवृत्ति की आयु-सीमा के समान होनी चाहिए।
ग़ौरतलब है कि पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने इस प्रकार की पहल की तो थी, परन्तु उन्हें समर्थन प्राप्त नहीं हुआ। वेतन और पेंशन सम्बन्धी नियमों में परिवर्तन न होने से जनप्रतिनिधियों की प्रतिष्ठा पर जो प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, वह जारी रहेगा और संसद की प्रजातांत्रिक विश्वसनीयता पर भी सवाल उठेंगे। हमारे संविधान ने संसद और विधानमंडल को सरकार की वित्तीय गतिविधियों पर पूरा नियंत्रण रखने का अधिकार दिया है। संसद और विधानमंडल की स्वीकृति के बिना सरकार एक पैसा भी ख़र्च नहीं कर सकती। परन्तु माननीयों द्वारा पेंशन के अधिकार का उपयोग स्वयं के लाभ के लिए किया जाता रहा है, जो कि एक दृष्टि से अनैतिक है।
आज ऐसा लगता है कि जनप्रतिनिधि अपने हित में सरकारी कोष का दुरुपयोग कर रहे हैं। इससे जनप्रतिनिधियों और जनता के बीच में अविश्वास की खाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जो स्वस्थ लोकतांत्रिक समाज को क़ायम रखने में बाधक सिद्ध हो सकती है। आज समय की माँग है कि जनप्रतिनिधियों को अपने चाल-चलन से आदर्श स्थापित करना चाहिए।
(लेखक दैनिक भास्कर
के राजनीतिक सम्पादक हैं।)