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चन्नी ने पंजाब के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, रंधावा और सोनी को कांग्रेस ने उप मुख्यमंत्री बनाया  

चरणजीत सिंह चन्नी पंजाब के नए मुख्यमंत्री बन गए हैं। उन्होंने सोमवार को पंजाब राजभवन में अपने पद की शपथ ली। राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित ने पद और गोपनीयता के शपथ दिलाई। उनके साथ वरिष्ठ विधायक सुखजिंदर सिंह रंधावा और ओपी सोनी ने केबिनेट मंत्री के रूप में शपथ ली। दोनों को उप मुख्यमंत्री का दर्जा दिया गया है। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व अध्यक्ष सोनिया गांधी और अन्य वरिष्ठ नेताओं ने चन्नी को मुख्यमंत्री पद का जिम्मा सँभालने पर बधाई दी है।

शपथ ग्रहण समारोह में कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी उपस्थित रहे। आज सुबह प्रदेश कांग्रेस प्रभारी हरीश रावत ने एक ट्वीट करके कहा था कि पार्टी आने वाला विधानसभा चुनाव प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के नेतृत्व में लड़ेगी। तत्कालीन मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह शपथ ग्रहण में नहीं आये। हालांकि, ख़बरें हैं कि उन्होंने चन्नी को दोपहर के भोजन पर आमंत्रित किया है। इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चन्नी को पंजाब का मुख्यमंत्री बनने पर बधाई दी है।

चन्नी का कांग्रेस ने दलित चेहरे के रूप में विधानसभा चुनाव के नजरिये से मुख्यमंत्री पद पर चयन किया है। रविवार को काफी ऊहापोह के बाद कांग्रेस ने आधिकारिक रूप से चन्नी को विधायक दल का नेता घोषित किया था। जट्ट सिख नवजोत सिंह सिद्धू पहले ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जा चुके हैं। अब हिन्दू सोनी को उप मुख्यमंत्री का दर्जा देकर संतुलन साधने की कोशिश की गयी है।

सरकार में रंधावा मुख्यमंत्री के बाद दूसरे नंबर के मंत्री होंगे। रंधावा के परिवार का  का कांग्रेस से दशकों का रिश्ता रहा है। वे किसान परिवार से हैं और किसान आंदोलन में सरकार की तरफ से किसान नेताओं से बातचीत का जिम्मा सँभालते रहे हैं। उनके पिता संतोख सिंह रंधावा दो बार प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे थे। रंधावा को ‘माझा का सरदार’ कहा जाता है। यह चर्चा है कि उन्हें बहुत महत्वपूर्ण विभाग दिया जा सकता है जिसमें गृह मंत्रालय भी शामिल है।

शपथग्रहण से पहले चरणजीत सिंह चन्नी चमकौर के कतलगढ़ साहिब गुरुद्वारा पहुंचे और परिवार सहित गुरद्वारे में मत्था टेका। कांग्रेस ने चन्नी के रूप में बड़ा फैसला किया है। एक दलित को मुख्य्मंत्री बनाकर कांग्रेस ने भाजपा और अकाली दल-बसपा को झटका देने की कोशिश की है, जिन्होंने हाल में चुनाव के बाद किसी दलित को उप मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा की थी।

शपथ ग्रहण में शामिल होकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सन्देश देने की कोशिश की   है कि चन्नी का चुनाव हाईकमांड का फैसला है और उन्हें पूरा सहयोग दिया जाना चाहिए। राहुल शपथ ग्रहण में कुछ देरी से पहुंचे और आते ही चन्नी से हाथ मिलाकर, उन्हे मुख्य मंत्री बनने की बधाई दी।

चरणजीत सिंह चन्नी पंजाब के नए मुख्यमंत्री होंगे, कांग्रेस विधायक दल का फैसला

यह घड़ी की उस सुई जैसा था जिसे जुए में इस्तेमाल किया जाता है। जिस नंबर पर रुकी, उसी को इनाम। दलित सिख चरणजीत सिंह चन्नी के बारे में यही कहा जा सकता है। अंबिका सोनी, सुनील जाखड़ और नवजोत सिद्धू के नामों के आगे से निकलते हुए सुई चन्नी के नाम के आगे जा रुकी। साल 2015 में विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे चन्नी अब पंजाब के नए मुख्यमंत्री होंगे, भले कुछ महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव तक। उधर पंजाब के विधायकों के फैसले के बाद राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिले हैं। राहुल पंजाब में विधायकों से बातचीत की लगातार अपडेट ले रहे थे।

चन्नी भी अमरिंदर सिंह विरोधी माने जाते हैं। चन्नी ने जल्द ही राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित से मिलकर सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए समय माँगा है। चन्नी के मुख्यमंत्री के रूप में चुनाव की खुशी में लड्डू बंटने की तस्वीरें शायद अमरिंदर को अब और निराश करेंगी !

दो अप्रैल, 1973 में जन्मे चन्नी वरिष्ठ नेता हैं और कांग्रेस के विधायकों ने आज शाम  उनका नाम सर्वसम्मति से तय कर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को अंतिम फैसले के लिए भेजा था। पंजाब कांग्रेस के प्रभारी हरीश रावत और महासचिव अजय माकन ने एक-एक विधायक से बात की और जिस नाम पर सर्वसम्मति बनी वे चन्नी थे। रावत ने ट्ववीट करके इसकी जानकारी दी है।

दो उप मुख्यमंत्री भी पंजाब में होंगे। इसके लिए नाम की घोषणा अभी नहीं की गयी है। चन्नी किसान आंदोलन के दौरान किसानों के संगठनों से सरकार की तरफ से बातचीत करते रहे हैं। खुद भी किसान हैं और खेती की खासी समझ रखते हैं। कांग्रेस आलाकमान के वफादार चन्नी के ऊपर चुनाव तक के इन कुछ महीनों में पार्टी के बीच चली जंग से बिगड़ी छवि को संवारने और चुनाव के बचे वादों को पूरा करने की बड़ी चुनौती है। सीमा की बेल्ट से निकलकर इस पद तक पहुंचे चन्नी को अच्छा प्रशासक माना जाता है।

चन्नी ने मुख्यमंत्री पद के लिए अपना नाम सामने आने के बाद कहा – ‘ पंजाब की खुशहाली, शान्ति और तरक्की के लिए काम करना है। पार्टी एकजुट है। चार महीने तो बहुत होते हैं, काम करने वाला हो तो चार दिन भी बहुत होते हैं। हम (कांग्रेस) मजबूत है।’ एक दलित सिख को मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस ने मास्टर स्ट्रोक चला है और इस से भाजपा सहित अकाली दल के लिए भी। ‘आप’ भी इस मामले में कांग्रेस से मार खा बैठी है।

कल रात से मुख्यमंत्री पद के लिए वरिष्ठ नेता अम्बिका सोनी का नाम लगभग तय कर लिया गया था लेकिन खुद सोनी ने राहुल गांधी के साथ बैठक में नम्रता से पद की दौड़ से खुद को अलग करते हुए किसी सिख को मुख्यमंत्री बनाने पर जोर दिया। सिद्धू का नाम तो दौड़ में था लेकिन पार्टी के रणनीतिकारों का मानना था कि सिद्धू को चुनाव के बाद ही जिम्मेदारी देना बेहतर होगा, क्योंकि यदि अगला चुनाव नतीजा पक्ष में न रहा तो सिद्धू के करियर को धक्का लग सकता है।

चन्नी भले सिद्धू के कट्टर समर्थक न हों, लेकिन उन्हें भी बादल परिवार का विरोधी माना जाता है। चन्नी बेअदबी मामले में भी बहुत मुखर रहे हैं। ऐसे में चन्नी का मुख्यमंत्री बनना बादलों के लिए भी अच्छा नहीं कहा जा सकता, हालांकि, उनका मुख्य विरोध अमरिंदर सिंह तरह सिद्धू के प्रति था। चन्नी सीएम हो जाएंगे, यह शायद बादलों को भी आभास नहीं रहा होगा।

पिछले करीब 35 घंटे के पंजाब कांग्रेस के इस घटनाक्रम में यदि किसी नेता ने सबसे ज्यादा खोया है, वह पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह हैं। इतने वरिष्ठ और अनुभवी नेता कैप्टेन ने नवजोत सिंह सिद्धू को ‘देश का दुश्मन’ तक कह दिया, और हवाला दिया इमरान खान के पीएम पद ग्रहण का जिसमें सिद्धू अपने पुराने क्रिकेटर साथी इमरान खान और पाक सेना के प्रमुख कमर जावेद बाजवा से गले मिलने का। भाजपा के अलावा देश भर में शायद ही कोई और अमरिंदर के इस बेतुके आरोप का समर्थन करेगा। आम लोगों ने भी अमरिंदर के इस ब्यान को ‘मुख्यमंत्री का पद छिनने की निराशा’ माना है। खुद अमरिंदर पर पाकिस्तान की पत्रकार अरुषा से रिश्तों को लेकर ढेरों आरोप लगते रहे हैं। एक दलित सिख को मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस ने मास्टर स्ट्रोक चला है और इस से भाजपा सहित अकाली दल के लिए भी। ‘आप’ भी इस मामले में कांग्रेस से मार खा बैठी है।

इसके अलावा आलाकमान ने जिन चन्नी को अब मुख्यमंत्री बनाया है, वे अब सिद्धू के समर्थक हुए हैं। शनिवार को कांग्रेस विधायक दल की बैठक में पार्टी के 80 में से 78 विधायक उपस्थित थे। कैप्टेन के लिए बहुत मुश्किल होगा कि वे इनमें से कुछ विधायकों को साथ जोड़े रखें। एक बार सरकार बनने के बाद अमरिंदर पंजाब की राजनीति में अकेले पड़ सकते हैं। वैसे भी पंजाब में अभी भी कांग्रेस के लिए चुनाव के बाद दोबारा सत्ता में लौटने की अन्य दलों के मुकाबले सबसे संभावनाएं हैं, यह बात विधायक भी अच्छी तरह समझते हैं।

अमरिंदर सिंह ने पिछले 26 घंटे में जो ब्यान दिए हैं, उससे उन्होंने सोनिया गांधी जैसी अपनी मजबूत समर्थक की सहानुभूति भी खोने का रिस्क ले लिया है। जब उनपर भाजपा में जाने की बातें मीडिया में आ रही थीं, उन्होंने एक बार भी इनका खंडन नहीं किया। उलटे जलियांवाला बाग़ के नवीकरण पर जब राहुल गांधी ने मोदी सरकार के खिलाफ बोला तो कैप्टेन ने एक तरह से पीएम मोदी का पक्ष लिया जो इसका उद्घाटन करने आये थे, जबकि पंजाब में जलियांवाला बाग़ के नवीकरण के खिलाफ माहौल था।

अमरिंदर के साथ यदि विधायक नहीं रहते हैं तो उन्हें कांग्रेस से बाहर जाना भी मुश्किल होगा। बिना विधायकों के भाजपा या कोई और पार्टी 80 साल की उम्र में उन्हें क्यों साथ लेगी। क्या सिर्फ नेतृत्व देने के लिए ?

कैप्टेन अमरिंदर के हटने से यह बात साबित हो गयी है कांग्रेस आलाकमान अब मजबूत फैसले लेने लगी है। पंजाब से निपटने के बाद वह राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पार्टी की जंग को लेकर फैसले कर सकती है।

अमरिंदर ने इस्तीफा दिया, कहा समर्थकों के साथ बात के बाद अगले कदम का फैसला करेंगे

पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह कांग्रेस विधायक दल की 5 बजे बुलाई गयी बैठक से पहले अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। उनके साथ पूरे मंत्रिमंडल ने इस्तीफा दे दिया है। इस्तीफे के बाद अमरिंदर ने जो कहा है उससे लगता है वे नाराज हैं। उन्होंने कहा है कि वे समर्थकों के साथ अगले कदम का फैसला करेंगे। ‘तहलका’  की जानकारी के मुताबिक उनके साथ 4 मंत्री और 7 विधायक ही हैं।

यह पूछने पर कि कांग्रेस अगला मुख्यमंत्री किसे बनाएगी, उन्होंने कहा – ‘औ जिस मर्जी नूं बणाण (वो मर्जी को बनाएं)।’ पत्रकारों से बातचीत में उनके चेहरे से गुस्सा साफ़ झलक रहा था। हालांकि, इतने कम विधायकों के साथ अमरिंदर क्या कर पाएंगे, यह देखने वाली बात होगी। अमरिंदर ने कहा कि वे 4.30 बजे तक कांग्रेस के सीएम थे और अब कांग्रेस में सदस्य हैं। भविष्य का फैसला समर्थकों से बातचीत के बाद करेंगे।

कैप्टेन सिसवां स्थित अपने फ़ार्म हाउस में कुछ मंत्रियों और विधायकों के साथ हैं और संभावना है कि वे कुछ देर बाद वहां से निकलकर राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित से मिलकर अपना इस्तीफा दे सकते हैं। कांग्रेस विधायक दल एक बैठक कर अपना नया नेता चुन सकता है या एक लाइन का प्रस्ताव पास करके इसका फैसला कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर छोड़ सकता है। वैसे मुख्यमंत्री के रूप में जो नाम चर्चा में चल रहे उनमें सुनील झाखड़, अम्बिका सोनी, नवजोत सिंह सिद्धू आदि के नाम चर्चा में हैं।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक कैप्टेन आलाकमान के फैसले के बाद बहुत मजबूत नहीं रह गए हैं क्योंकि बहुमत में कांग्रेस के विधायक उनको बदलने के पक्ष में हैं। जानकारी के मुताबिक कांग्रेस अमरिंदर सिंह को कांग्रेस पार्टी में राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा ओहदा दे सकती है। मीडिया में कैप्टेन के ‘विद्रोह’ की ख़बरें ज़रूर आई हैं, लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा। कैप्टेन को हमेशा से सोनिया गांधी का करीबी माना जाता रहा है।

पंजाब में विधानसभा की कुल 117 सीटें हैं, जिसमें पिछले विधानसभा चुनाव में अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने 77 जीती थीं जबकि उसके बाद कुछ विधायक और उससे जुड़ गए थे। कहा जाता है कि आलाकमान ने कैप्टन को कहा है कि वह  पद छोड़ दें। अमरिंदर के इस्तीफे के बाद पंजाब का नया सीएम बनाए जाने को लेकर तीन नामों पर चर्चा तेज हो गई है और इनमें सुनील जाखड़ का नाम सबसे मजबूत बताया जा रहा है।

पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ को सूबे के नए सीएम के तौर पर सबसे मजबूत दावेदार माना जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि जाखड़ ने शनिवार दोपहर बाद एक ट्वीट में कहा – ‘वाह राहुल गांधी, आपने बेहद उलझी हुई गुत्थी के पंजाबी संस्करण के समाधान का रास्ता निकाला है। आश्चर्यजनक ढंग से नेतृत्व के इस साहसिक फैसले ने न सिर्फ पंजाब कांग्रेस के झंझट को खत्म किया है, बल्कि इसने कार्यकर्ताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया है और अकालियों की बुनियाद हिला दी है।’

सिद्धू के करीबी विधायक और महासचिव परगट सिंह ने कहा है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह को सीएम पद से हटने के लिए कहा गया है। सीएलपी की बैठक बुलाई गई है। बैठक में इन मुद्दों पर चर्चा होगी।

अमरिंदर सिंह के हटने से सिद्धू खेमा खुश होगा और कांग्रेस सिद्धू की एहमियत को समझती है। अकाली दल के सख्त विरोधी सिद्धू कांग्रेस के लिए पंजाब में बहुत उपयोगी हैं। सिद्धू पंजाब का सीएम बनना चाहते हैं और अगले चुनाव में उनके लिए यह अवसर होगा भले अभी किसी और को सीएम बना दिया जाए।

अमेरिका ने माना कि काबुल ड्रोन हमले में सभी आम नागरिक मरे थे

अमेरिका ने स्वीकार किया है कि अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में उसकी तरफ से अगस्त में किए गए ड्रोन हमले में 10 लोग मारे गए थे और वे सभी आम नागरिक थे। पेंटागन के इस ब्यान से साफ़ हो गया है कि इस ड्रोन हमले में कोई इस्लामिक स्टेट चरमपंथी नहीं मारा गया था।

रिपोर्ट्स के मुताबिक यूएस सेंट्रल कमांड के प्रमुख जनरल फ्रैंक मैकेंजी ने स्वीकार किया है कि मरने वाले सभी लोग आम नागरिक थे। उन्होंने जान गंवाने वालों के प्रति अफ़सोस का भी इजहार किया।

उधर एपी की इसी तरह की एक रिपोर्ट में एक अनाम अफगानी अधिकारी के हवाले से अपनी रिपोर्ट में बताया था कि हमले में तीन बच्चों की मौत हुई है। सीएनएन की रिपोर्ट के बाद अमेरिका ने कहा है कि वह जांच कर रहा है कि हमले में नागरिकों की मौत हुई या नहीं और अगर ऐसा हुआ तो ये बेहद दुखद होगा।

याद रहे यह हमला अमेरिका के काबुल से जाने से दो दिन पहले 29 अगस्त को हुआ था। उस समय पेंटागन अधिकारियों ने दावा किया था कि यह सटीक हमला था और इसमें वे चरमपंथी मारे गए थे जो उसके निशाने पर थे। तब अमेरिका ने दावा करते हुए कहा था कि उसने आईएसआईएस के आत्मघाती कार बॉम्बर पर हमला किया  जो काबुल एयरपोर्ट पर हमले की तैयारी में था।

अब पेंटागन ने अपने ब्यान को बदलते हुए कहा है कि इस 10 लोगों की मौत हुई थी और यह सभी आम नागरिक थे। सीएनएन की रिपोर्ट के मुताबिक, काबुल में आतंकी संगठन इस्‍लामिक स्‍टेट खुरासान के आत्‍मघाती बम हमलावर के नाम पर किए गए अमेरिकी ड्रोन हमले में 6 बच्‍चों समेत 10 आम नागरिकों की मौत हो गई थी। रिपोर्ट्स में कहा गया था कि ये सभी 10 लोग एक ही परिवार के सदस्‍य थे।

पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर की ‘अग्निपरीक्षा’, चंडीगढ़ में विधायक दल की आज बैठक बुलाई रावत ने

एक दिन पहले दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और महासचिव प्रियंका गांधी से मिलने के बाद पंजाब प्रदेश कांग्रेस प्रभारी महासचिव हरीश रावत आज चंडीगढ़ जा रहे हैं। वहां आज कांग्रेस विधायकों की बुलाई गयी है। पंजाब कांग्रेस में चल रही लड़ाई के बीच रावत के इस दौरे को महत्वपूर्व माना जा रहा है। सबकी नजर इस बैठक पर है कि क्या भाजपा की तरह कांग्रेस भी विधानसभा चुनाव से पहले पंजाब सहित कुछ राज्यों में अपने मुख्यमंत्री बदलने की कवायद शुरू कर सकती है ?

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक सोनिया गांधी ने रावत से कहा है कि वे जल्दी से जल्दी पंजाब कांग्रेस की जंग पर लगाम लगाएं और कोई फैसला करें। इस संबंध में रावत की दोनों नेताओं से बातचीत भी हुई है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के परगट सिंह सहित अन्य समर्थक विधायक तुरंत विधायक दल की बैठक बुलाने की मांग कर रहे हैं। लिहाजा आज चंडीगढ़ में विधायक दल की बैठक बुलाये जाने को महत्वपूर्ण कहा जा सकता है।

सिद्धू और मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह के बीच चल रही लड़ाई भले पिछले कुछ दिनों में हल्की पड़ी हैं, लेकिन तल्खियां दोनों तरफ बनी हुई हैं। यह माना जा रहा है कि पंजाब कांग्रेस में सीएम अमरिंदर सिंह की मुश्किलें बढ़ रही हैं। उनके भाजपा में जाने की अफवाहों ने भी उनके लिए दिक्क्तें पैदा की हैं।

अब आज शाम 5 बजे पंजाब कांग्रेस के विधायकों की बैठक चंडीगढ़ में होने जा रही है जिसके बाद यह चर्चा है कि आलाकमान अमरिंदर सिंह को लेकर कोई बड़ा फैसला कर सकती है। हाल में भाजपा ने जिस तरह अपने मुख्यमंत्री बदले हैं उससे कांग्रेस नेतृत्व को भी बल मिला है कि विधानसभा चुनाव से पहले वह भी मुख्यमंत्री बदलकर जनता के बीच नए चेहरों के साथ जाए।

विधायक दल की बैठक को लेकर अपने दो ट्वीट में रावत ने कहा कि कांग्रेस विधायक दल (सीएलपी) की बैठक आज शाम 5 बजे पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी कार्यालय, चंडीगढ़ में बुलाई गई है। रावत ने जो महत्वपूर्ण बात ट्वीट में लिखी है कि वह यह है कि ‘ऐसा बड़ी संख्या में विधायकों के अनुरोध पर किया जा रहा है’। बता दें कि इस तरह का अनुरोध वास्तव में सिद्धू समर्थक विधायक ज्यादा कर रहे थे। लिहाजा इस बैठक को महत्वपूर्व समझा जा सकता है।

हरीश रावत ने दूसरे ट्वीट में कहा कि पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमिटी दफ्तर में होने वाली  इस बैठक के लिए तैयारी करने को उन्होंने कहा है। उन्होंने पंजाब के तमाम पार्टी  विधायकों से अनुरोध किया है कि वे इस इस बैठक में हिस्सा लें। अपने इस ट्वीट में रावत ने राहुल गांधी, कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू को टैग भी किया है। अगले साल होने वाले पंजाब विधानसभा के चुनाव और प्रदेश कांग्रेस की लड़ाई के बीच इस बैठक को अहम माना जा रहा है।

रावत, जिन्हें कांग्रेस ने उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव की कमान दे रखी है, पंजाब से जल्दी ‘फ्री’ होना चाहते हैं, ताकि अपने राज्य पर फोकस कर सकें। अभी तक बहुत कोशिशों के बाद भी पंजाब में कांग्रेस के दो बड़ों के बीच तनाव कम नहीं हुआ है। हाल में सिद्धू समर्थकों ने कैप्ट

कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली में अकाली दल का प्रदर्शन; कई जगह जाम, बादल हिरासत में  

तीन कृषि कानूनों के लागू होने के एक साल के अवसर पर पंजाब की राजनीतिक पार्टी शिरोमणि अकाली दल (शिअद) ने केंद्र सरकार के खिलाफ शुक्रवार को राजधानी दिल्ली में प्रदर्शन किया। शिरोमणि अकाली दल तीन कृषि कानूनों के अधिनियमन के एक वर्ष पूरा होने पर आज काला दिवस मना रहा है। दिल्ली में आज अकाली आंदोलन के कारण कई जगह लम्बे जाम लगे हैं। इस बीच प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे सुखबीर सिंह बादल और उनकी पूर्व केंद्रीय मंत्री पत्नी हरसिमरत कौर बदल को पुलिस ने हिरासत में ले लिया है।

राजधानी दिल्ली में अकाली कार्यकर्ता तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग के साथ आज संसद तक विरोध मार्च निकाल रहे हैं। प्रदर्शन को देखते हुए बड़ी संख्या में पुलिस तैनात की गयी है। दिल्ली में जगह-जगह पुलिस अकाली कार्यकर्ताओं को रोक रहे हैं, हालांकि संसद मार्ग की तरफ बढ़ रहे हैं।

अकाली दल का विरोध मार्च गुरुद्वारा रकाबगंज साहिब से संसद भवन तक निकाला जा रहा है। इसका नेतृत्व शिअद प्रमुख सुखबीर बादल और पूर्व केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल कर रहे हैं। तीन कृषि कानून 17 सितंबर, 2020 को संसद में पारित हुए थे और सुखबीर सिंह की पत्नी हरसिमरत कौर ने पंजाब में इनके विरोध को देखते हुए केंद्रीय मंत्रिपरिषद से इस्तीफा दे दिया था।

हरसिमरत ने आज कहा कि सैंकड़ों किसानों की आंदोलन के दौरान मौत हो चुकी है।   संख्या में किसान अभी भी राज्य की सीमाओं पर बैठे हैं लेकिन यह सरकार (केंद्र) उदासीन है। तीन कृषि कानूनों को निरस्त होने तक हम अपनी लड़ाई जारी रखेंगे।   कौर ने घटना से जुड़ा वीडियो भी शेयर किया और केंद्र सरकार पर जमकर हमला किया। उन्होंने कहा – ‘देश में अघोषित इमरजेंसी लगी हुई है।’

उन्होंने कहा कि दिल्ली पुलिस द्वारा शहर के एंट्री प्वॉइंट्स सील करना और गुरुद्वारा रकाबजगंज पहुंच रहे अकाली दल के कार्यकर्ताओं को हिरासत में लेना बहुत ही निंदनीय है। पुलिस तीन कृषि कानूनों के खिलाफ होने वाले इस मार्च को विफल करना चाहती है। यह एक अघोषित आपातकाल की तरह है।

इस बीच प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे सुखबीर सिंह बादल और उनकी पूर्व केंद्रीय मंत्री पत्नी हरसिमरत कौर बदल को पुलिस ने हिरासत में ले लिया है।

विराट का टी-20 की कप्तानी छोड़ने का एलान, टेस्ट और वन डे के कप्तान रहेंगे

कप्तानी के बोझ का बल्लेबाजी पर असर पड़ने से चिंतित विराट कोहली ने टी-20 क्रिकेट टीम की कप्तानी छोड़ने का ऐलान किया है। टी-20 विश्व कप के बाद वे इस फार्मेट की कप्तानी नहीं करेंगे। खुद कोहली ने ट्वीट करके यह जानकारी साझा की है।  विराट भारत की टेस्ट और वनडे टीम के कप्तान बने रहेंगे।

कोहली के मुताबिक उन्होंने यह फैसला करने से पहले बीसीसीआई, चयन कर्ताओं से बातचीत की है। उन्होंने कहा कि वे आने वाले टी20 वर्ल्ड कप के बाद इस फॉर्मेट में टीम इंडिया के कप्तान नहीं रहेंगे। हालांकि, कोहली इस फार्मेट में एक बल्लेबाज के तौर पर खेलते रहेंगे। टि्वटर हैंडल पर विराट की इस घोषणा से क्रिकेट के जानकार हैरान हैं। वैसे हाल में खबरें आई थीं कि कोहली किसी एक फॉर्मेट की कप्तानी छोड़ने की सोच रहे हैं।

भारतीय कप्तान ने गुरूवार देर शाम टि्वटर हैंडल पर एक लेटर ट्वीट करते हुए अपने फैसले की घोषणा की। विराट ने लिखा – ‘फैसले लेने से पहले मैंने अपने करीबी लोगों से इस पर खूब चर्चा की है। बीसीसीआई और चयनकर्ताओं से भी बात की।’ कहा जाता है कि कोहली ने मुख्य कोच रवि शास्त्री और सीमित ओवरों में भारतीय टीम के उपकप्तान रोहित शर्मा से भी सलाह मशविरा किया।

बता दें भारतीय क्रिकेट टीम आने वाले टी20 वर्ल्ड कप में 24 अक्टूबर से अपने अभियान की शुरुआत चिर-प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान के खिलाफ करेगी। इस वर्ल्ड कप के बाद विराट कोहली टी20 टीम की कमान छोड़ देंगे। विराट भारत की टेस्ट और वनडे टीम के कप्तान बने रहेंगे।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर हिमाचल को केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने दी 15 मोबाइल मेडिकल यूनिट की सौगात

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 17 सितंबर को अपना 71वां जन्मदिन मनाएंगे। और इस विशेष अवसर को चिह्नित करने के लिए केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण और युवा कार्यक्रम व खेल मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर द्वारा 15 मोबाइल मेडिकल यूनिट हिमाचल भेजी जा रही है। जिसे केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया ने हरी झंडी दिखाकर हिमाचल के लिए रवाना किया।

पहाड़ों पर दूर बसे गांवों में लोगों को मुफ़्त चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के लिए सांसद मोबाइल स्वास्थ्य सेवा हमीरपुर संसदीय क्षेत्र के 5 जिलों, 17 विधानसभाओं, 800 पंचायतों के करीब 5000 गांवों में अपनी सेवा उपलब्ध कराएगी।

मोबाइल स्वास्थ्य सेवा के लाभार्थियों में 65 प्रतिशत महिलाएं व बुजुर्ग शामिल है। व सभी मोबाइल मेडिकल यूनिट अत्याधुनिक चिकित्सा उपकरणों से सुसज्जित है जो कि हिमाचल प्रदेश में लोगों के घर-घर जाकर उन्हें निशुल्क जांच, उपचार और दवाएं उपलब्ध कराएगी।

साथ-ही इस सेवा के अंतर्गत लिपिड प्रोफ़ाइल, एलएफटी, केएफटी, क्रिएटिनिन, यूरिक एसिड, शुगर, ग्लूकोज, हेपेटाइटिस-बी, हेपेटाइटिस-सी, इत्यादि जैसे 40 अलग-अलग प्रकार के टेस्ट व रोगियों को मुफ्त दवाएं उपलब्ध कराई जाऐंगी।

आपको बता दें कि, तीन वर्ष पूर्व शुरू की गयी इस सेवा में 15 मोबाइल मेडिकल यूनिट्स के बेड़े में शामिल होने से उनकी कुल संख्या बढ़कर 32 हो गर्इ है।

 

 

किसानों की हुंकार

महापंचायतों में अन्नदाताओं से सीधी राजनीतिक चुनौती मिलने से भाजपा पसोपेश में किसान देखते-ही-देखते केंद्र सरकार और भाजपा के गले की फाँस बन गये हैं। तीनों कृषि क़ानून वापस लेने की अपनी माँग पूरी न होते देख संयुक्त किसान मोर्चा ने सीधे भाजपा को निशाने पर ले लिया है और भाजपा की राज्य सरकारों समेत केंद्र सरकार को उखाड़ फेंकने की हुंकार भरकर राजनीतिक माहौल को गरमा दिया है। आगामी साल उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में अपनी प्रतिष्ठा बचाने की कोशिश में लगी भाजपा के लिए यह बेचैन करने वाला घटनाक्रम है। किसान आन्दोलन के रूख़, इससे बन रहे राजनीतिक हालात और भविष्य में इसके असर को लेकर बता रहे हैं विशेष संवादाता राकेश रॉकी :-

पिछले क़रीब 10 महीने से अन्नदाता आन्दोलन के लिए लगातार सडक़ पर हैं और केंद्र सरकार उनकी माँगों को अनसुना कर रही है। लेकिन 5 सितंबर को मुज़फ़्फ़रनगर में संयुक्त किसान मोर्चा की महापंचायत ने उसकी नींद उड़ा दी है। अपने दिन-रात खेत में ख़पा देने वाला किसान बिना थके अपनी लड़ाई इस ताक़त से लड़ लेगा, सत्ता में बैठी ताक़तों ने शायद सोचा भी नहीं था। चुनाव की बेला में किसान की अपनी माँगों से हार न मानने की इस ज़िद ने सरकार की साँसें फुला दी हैं। किसान आन्दोलन बढ़ता जा रहा है। पंजाब से लेकर उत्तर प्रदेश तक और देश के दूसरे हिस्सों में किसान मोदी सरकार के तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ अब पूरी ताक़त से आ जुटे हैं। उन्हें पता है कि अगले कुछ ही महीनों में उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव हैं और भाजपा पर दबाव बनाने का यह सही मौक़ा है। शायद यही कारण है कि उन्होंने सीधे-सीधे मोदी सरकार और भाजपा को ही चुनौती दे दी है।

सच तो यह है कि मुज़फ़्फ़रनगर और करनाल की बड़ी महापंचायतों में संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं की सीधे राजनीतिक ललकार ने भाजपा के पसीने छुड़ा दिये हैं और वह दबाव में दिखने लगी है। उत्तर प्रदेश सहित अन्य महीनों में भाजपा को चुनाव झेलने हैं और किसानों के प्रति जनसमर्थन देखते हुए पार्टी के नेताओं के माथे पर सिलवटें हैं। इसी महीने 27 को किसान ‘भारत बन्द’ कर रहे हैं। उन्होंने इसके लिए बाक़ायदा अपना एक कार्यक्रम घोषित कर दिया है। निश्चित है कि किसान अब आर-पार की लड़ाई की तैयारी में हैं।

भाजपा के लिए चिन्ता की बात यह है कि किसान अब सीधे रूप से उसकी सरकार को उखाड़ फेंकने का नारा देने लगे हैं। मोदी सरकार पहले से ही कई मोर्चों पर दबाव झेल रही है। भाजपा की सरकार वाले हरियाणा के करनाल में किसानों पर जिस निर्ममता से लाठीचार्ज करके उन्हें लहूलुहान किया गया, उससे आम आदमी भी रुष्ट हुआ है। इसके बाद किसान और तेज़ी से आन्दोलन को गति देने में जुट गये हैं।

मुज़फ़्फ़रनगर और करनाल की महापंचायतों में किसान नेताओं की भाषा से ज़ाहिर हो गया है कि वे अब राजनीतिक मोर्चे पर भी भाजपा को ललकारने लगे हैं। चुनाव में भाजपा को किसानों की रणनीति भारी पड़ सकती है। मुज़फ़्फ़रनगर की जबरदस्त किसान महापंचायत के पाँच दिन के भीतर ही भाजपा ने उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए अपने प्रभारियों की घोषणा कर दी, जो ज़ाहिर करता है कि वह दबाव में है और उसे चुनाव में अपनी जीत दोहराने को लेकर चिन्ता है। मुज़फ़्फ़रनगर, जो संयुक्त किसान मोर्चा के एक घटक भारतीय किसान युनियन (भाकियू) के नेता राकेश टिकैत का गृह क्षेत्र है; में देश भर के किसानों की जैसी भीड़ जुटी, उसने भाजपा को चिन्ता में डाल दिया है।

किसानों के प्रति मोदी सरकार के रूख़ से आम जनता में भी नाराज़गी दिखती है। इसका एक कारण यह है कि किसानों के बच्चे सेना से लेकर दूसरे क्षेत्रों में रहकर देश की सेवा कर रहे हैं। किसान क़र्ज़ में दबकर आत्महत्या कर रहे हैं और सरकार इसे लेकर कुछ नहीं कर रही। गुजरात सहित कुछ अन्य राज्यों में भाजपा के क़रीबी अमीरों के क़र्ज़ माफ़ करने के आरोप मोदी सरकार पर लगते रहे हैं। लेकिन किसानों की क़र्ज़ माफ़ी की कोई बात इस सरकार ने कभी नहीं की। इसी अगस्त में संसद में एक सवाल के लिखित जबाव में वित्त राज्यमंत्री भागवत किशनराव कराड ने बताया था कि किसानों की क़र्ज़ माफ़ी की सरकार की फ़िलहाल कोई योजना नहीं है। नबार्ड के आँकड़े बताते हैं कि देश के किसानों पर इस समय क़रीब 16.8 लाख करोड़ रुपये का भारी भरकम क़र्ज़ है।

किसानों ने अपने आन्दोलन को अब प्रतिष्ठा से जोड़ लिया है। मोदी सरकार के मंत्री दर्ज़नों बार कह चुके हैं कि कृषि क़ानून किसी भी सूरत में वापस नहीं लिए जाएँगे। लेकिन किसान अब कुछ सुनने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने साफ़ कर दिया है कि वे तब तक घर नहीं लौटेंगे, जब तक तीनों कृषि क़ानून वापस नहीं ले लिए जाते। साफ़ है किसान अब भाजपा और उसकी सरकार से आमने-सामने लड़ाई लडऩे की तैयारी कर चुके हैं।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, बीच में यह ख़बरें सामने आने से किसान और नाराज़ हुए कि भाजपा और केंद्र सरकार में कुछ ताक़तें किसानों की एकता में फूट डालने की कोशिशें कर रही हैं। जानकारी के मुताबिक, सरकार में कुछ लोग चाहते हैं कि किसनों के आन्दोलन को तोड़ देने से ही समस्या का हल निकलेगा। हालाँकि किसानों को इसकी भनक लगते ही उन्होंने अपने बीच ऐसी व्यवस्था की है कि भाजपा या सरकार  इसमें किसी भी सूरत में सफल न हो सके। फ़िलहाल तो किसानों में जबरदस्त एकता दिख रही है और उन्हें मिल रहे जनसमर्थन को देखते हुए इसकी सम्भावना कम ही दिखती है कि किसानों या संयुक्त मोर्चा के नेताओं में दो-फाड़ की नौबत आएगी।

 

भाजपा की चिन्ता

किसान आन्दोलन के बढ़ते दायरे से भाजपा को चुनाव की चिन्ता पैदा हो गयी है। क़रीब 10 महीने से जारी आन्दोलन के प्रति मोदी सरकार ने हमेशा बेपरवाह वाला रवैया दिखाया है। बीच में कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर और अन्य मंत्रियों के किसानों के साथ बैठकों के कई दौर भी हुए; लेकिन सरकार एक बात पर हमेशा अड़ी रही कि तीनों कृषि क़ानून किसी भी सूरत में वापस नहीं होंगे, जबकि किसानों की मुख्य माँग ही यही है। उधर किसानों के आन्दोलन के दौरान कई ऐसे मौक़े आये हैं, जब पुलिस ने उनके ख़िलाफ़ डंडे का सहारा लिया। बिना सरकार के इशारे के यह हो ही नहीं सकता। इससे किसान और भडक़े हैं।

अब जबकि किसानों ने अपना आन्दोलन तेज़ करने की तैयारी कर ली है और इसे तेज़ करने का फ़ैसला करते हुए सीधे भाजपा के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया है, जिससे पार्टी में बेचैनी है। उसे चिन्ता सता रही है कि कहीं किसानों की नाराज़गी भारी न पड़ जाए। किसान आन्दोलन ने उत्तर प्रदेश जैसे बड़े और राजनीतिक रूप से बहुत ही अहम राज्य की राजनीति में समीकरण बदल दिये हैं। मुज़फ़्फ़रनगर की महापंचायत के बाद राजनीतिक असर साफ़ दिखने लगा है। भाजपा पर दबाव उसकी आन्दोलन से निपटने की तैयारियों से ज़ाहिर हो जाता है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम समीकरण फिर बनाने की कोशिशें शुरू हो गयी हैं। किसान आन्दोलन का असर उसमें और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में क़रीब 136 विधानसभा सीटों पर जाटों का व्यापक असर है। इनमें 55 सीटों पर तो जाट-मुस्लिम आबादी क़रीब 40 फ़ीसदी है, जिसमें चुनावी समीकरण बदलने की क्षमता है।

उत्तर प्रदेश में जहाँ भाजपा को टक्कर देने के लिए समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बसपा के अलावा छोटे क्षेत्रीय दल भी कमर कस रहे हैं, वहीं आम आदमी पार्टी का लक्ष्य भी यही है।

प्रियंका गाँधी के उत्तर प्रदेश में मोर्चा सँभालने के बाद पार्टी काफ़ी सक्रिय हुई है। कांग्रेस भी सपा की तरह उभरते समीकरणों पर नज़र रखे हुए है। बसपा आश्चर्यजनक रूप से ख़ामोशी साधे है। भाजपा के प्रति बसपा और मायावती के नरम रूख़ को उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हलक़ों में आश्चर्य से देखा जा रहा है। सच तो यह है कि मायावती से ज़्यादा तो उत्तर प्रदेश में एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी सक्रिय हैं। बसपा की चुनावी तैयारी न के बराबर है। कांग्रेस के सक्रिय होने से उत्तर प्रदेश में राजनीतिक स्थिति दिलचस्प ज़रूर हुई है; लेकिन अभी यह साफ़ नहीं है कि कांग्रेस की रणनीति क्या है और और वह किसके साथ तालमेल कर सकती है? प्रियंका गाँधी के उत्तर प्रदेश में मोर्चा सँभालने के बाद पार्टी काफ़ी सक्रिय हुई है। कांग्रेस भी सपा की तरह उभरते समीकरणों पर नज़र रखे हुए है।

कांग्रेस के नेता यह स्वीकार करते हैं कि उत्तर प्रदेश में पार्टी की स्थिति पहले से कहीं बेहतर हुई है और जनता में प्रियंका गाँधी के प्रति लगाव भी है। लेकिन संगठन कमज़ोर होने से इतना बड़ा चुनाव उसके लिए बड़ी चुनौती रहेगा। प्रत्याशियों के चयन से लेकर गठबन्धन तक की चुनौती है। सपा पहले ही कह चुकी है कि वह कांग्रेस से समझौता नहीं करेगी। दिलचस्प यह है कि कांग्रेस बार-बार कह रही है कि वह अकेले ही चुनाव में उतरेगी। ऐसे में क्या यह माना जाए कि उसे किसानों से समर्थन की उम्मीद है? मुस्लिम समुदाय के अलावा ओबीसी और दलित मत (वोट) मिलने की भी कांग्रेस उम्मीद कर रही है। क्योंकि उसे लगता है कि यदि प्रियंका के नेतृत्व में चुनाव में उतरा जाता है, तो उसे चुनाव में प्रियंका की इंदिरा गाँधी वाली छवि से बड़ा लाभ मिल सकता है।

कांग्रेस ने जिस तरह सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में अचानक 21 सीटें जीत ली थीं, उससे यह तो ज़ाहिर होता है कि पिछले कुछ दशकों में विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकार देख चुकी उत्तर प्रदेश की जनता कांग्रेस को भूली नहीं है और प्रियंका की छवि कांग्रेस को अप्रत्याशित सफलता भी दिला सकती है। एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने कहा कि राह मुश्किल ज़रूर है, लेकिन पार्टी के लिए सम्भावनाओं के द्वार भी बहुत हैं।

अजीत सिंह की मृत्यु के बाद राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) का ज़िम्मा उनके बेटे जयंत चौधरी पर है। रालोद कांग्रेस के साथ पहले भी गठबन्धन में रही है। हो सकता है कांग्रेस इसका प्रयास अगले चुनाव में भी करे। किसान आन्दोलन ने जिस तरह उत्तर प्रदेश की राजनीति की तस्वीर बदली है, उससे विधानसभा चुनाव से पहले राजनीतिक समीकरणों के बदलने से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। दिलचस्प यह है कि समाजवादी पार्टी को मुस्लिम-जाट के साथ आने की सम्भावना से अपने पक्ष में जो उम्मीद है, वही कांग्रेस को भी है। सपा और कांग्रेस के अलावा बसपा को भी झटका देने के लिए इस बार उत्तर प्रदेश में एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी भी ख़ूब सक्रिय दिख रहे हैं। उन्हें विरोधी दल भाजपा को लाभ देने के लिए दूसरे दलों का वोट कटवा के रूप में चिह्नित कर रहे हैं। हालाँकि ख़ुद ओवैसी इसे सिरे से ख़ारिज़ करते हैं।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि किसान भाजपा से सबसे ज़्यादा नाराज़ हैं और वे चुनाव के समय भी उसके ख़िलाफ़ काम करेंगे। ऐसे में अन्य दलों के पास किसानों के समर्थन की गुंजाइश रहेगी। किसानों के आन्दोलन में राजनीति आने की सबसे बड़ी वजह भी भाजपा ही है। उसने किसान आन्दोलन के प्रति जैसा रूख़ दिखाया और भाजपा समर्थित सोशल मीडिया ने जिस तरह किसानों को ख़ालिस्तानी और पाकिस्तानी समर्थक बताकर उसे जनता की नज़र में गिराने की कोशिश की उससे किसान बहुत ख़फ़ा हुए हैं। अपने ही देश में अपने हक़ के लिए लड़ाई लडऩे पर देश विरोधी क़रार देने से किसान दु:खी हैं। पंजाब से लेकर हरियाणा कर उत्तर प्रदेश के किसानों की ही बात की जाए, तो उनके बेटे बड़ी संख्या में सेना में भर्ती होकर सीमाओं पर देश की सेवा कर रहे हैं। आतंकवादियों और दुश्मन देश की सीमा पर नापाक हरकतों में जान गँवाने वाले सेना के जवानों के किसान अभिभावकों को भला कोई कैसे ख़ालिस्तानी या देश विरोधी क़रार दे सकता है! यही कारण है कि किसान अब भाजपा के ख़िलाफ़ भी लामबन्द हो गये हैं।

उत्तर प्रदेश की ही तरह पंजाब में भी अगले साल विधानसभा चुनाव हैं। पंजाब में किसान आन्दोलन सबसे तीव्र रहा है। सच तो यह कि वर्तमान किसान आन्दोलन की शुरुआत ही पंजाब से हुई। वहाँ सत्तारूढ़ अमरिंदर सिंह सरकार किसानों को लेकर शुरू से ही सहनुभूति वाला रवैया रखती रही है। भाजपा अब पुराने साथी अकाली दल के साथ नहीं है और उसने फ़िलहाल मायावती की बसपा से समझौता कर लिया है। जलियांवाला बाग़ के पुनरुद्धार के मामले में भाजपा को निजी नुक़सान सहना पड़ सकता है; क्योंकि आम लोगों ने पंजाब में इसे पसन्द नहीं किया है। उनका कहना है कि ऐसी धरोहर, जो शहादत से जुड़ी हो, उसे मनोरंजन स्थल नहीं बनाया जा सकता।

ऐसे में पंजाब में किसान चुनाव में बड़ा मुद्दा है। भाजपा ने पंजाब में एक तरह से अपनी क़ब्र ही खोद ली है। किसानों के इतने बड़े विरोध के बाद पंजाब में भाजपा के लिए कुछ ज़्यादा सम्भावना बची नहीं है। हाँ, गाहे-बगाहे मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के भाजपा में आने की अफ़वाहें ज़रूर पार्टी के नेता उछालते रहते हैं। आम आदमी पार्टी किसानों के प्रति सकारात्मक रूख़ ज़रूर अपनाती रही है। लेकिन उसने पंजाब में अपने संगठन में इतने ज़्यादा अंतद्र्वंद्व पैदा कर लिये हैं कि चुनाव आते-आते उसके बिखरने की स्थिति बन जाते हैं। भगवंत मान ख़ुद को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में देखते हैं। लेकिन आम आदमी पार्टी का नेतृत्व दिल्ली की ताक़त को कमज़ोर नहीं करना चाहता।

अकाली दल की पैठ पंजाब के गाँवों में रही है; लेकिन तीन कृषि क़ानूनों के बनने अकाली दल की भाजपा का सहयोगी रहते भूमिका से किसान अप्रसन्न रहे हैं। ऐसे में उसके सामने भी किसानों की नाराज़गी का मसला है। किसान चुनाव के समय क्या रूख़ अपनाते हैं? यह देखना दिलचस्प होगा। हालाँकि यह भी सच है कि किसान संगठनों में कुछ नेता अकाली दल के प्रति सहानुभूति रखते रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस अपने लिए बेहतर सम्भावना देख रही है। हालाँकि यह अलग बात है कि पार्टी में मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के धड़ों में तलवारें तनी हुई हैं।

हरियाणा में अभी चुनाव नहीं हैं; लेकिन भाजपा-जजपा की साझा सरकार की छवि किसानों के विरोधी वाली बन चुकी है। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को किसान अपने ख़िलाफ़ मानते हैं और हाल में करनाल में आन्दोलन कर रहे किसानों पर लाठीचार्ज की घटना, जिसमें घायल एक किसान की बाद में मौत भी हो गयी; के बाद उन्होंने करनाल की महापंचायत को स्थायी धरने में बदल दिया है। वहाँ के एक आईएएस अधिकारी की किसानों का सिर फोडऩे वाली ऑडियो क्लिप सरकार के गले की फाँस बन गयी है। लेकिन मुख्यमंत्री खट्टर अधिकारी के समर्थन में खड़े दिखते हैं।

उधर उत्तर प्रदेश से लगते उत्तराखण्ड में भी अगले साल ही विधानसभा चुनाव हैं। वहाँ किसान न सिर्फ़ सक्रिय हैं, बल्कि बड़ी संख्या में उनके मुज़फ़्फ़रनगर की महापंचायत में आने का भी दावा किया था। महापंचायत में किसान नेताओं ने जब भाजपा को हराने के संकल्प की बात की थी, तो उत्तराखण्ड का भी नाम लिया गया था। दिलचस्प यह कि वहाँ कांग्रेस भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी है और उत्तराखण्ड में उसका वोट बैंक ठीकठाक है। इधर आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल भी अपने प्रत्याशी उतारने का ऐलान कर चुके हैं।

संयुक्त किसान मोर्चा की अपील ने उत्तराखण्ड में भाजपा को रक्षात्मक किया है, जिसने हाल ही में वहाँ अपना मुख्यमंत्री बदला है। जहाँ तक उत्तराखण्ड में किसानों के प्रभाव की बात है, तो क़रीब 25 विधानसभा सीटों पर उनका असर है। उत्तराखण्ड में किसान आन्दोलन पर्वतीय ज़िलों में नहीं पहुँचा है; लेकिन हरिद्वार, देहरादून, नैनीताल और ऊधमसिंह नगर जैसे मैदानी और तराई वाले इलाक़ों में आन्दोलन का कम-ज़्यादा असर है। वैसे भी किसान नेता उत्तराखण्ड में महापंचायत करने की घोषणा कर चुके हैं, जिसके बाद माहौल गरमा सकता है।

सूबे में सिर्फ़ हरिद्वार शहर को छोडक़र अन्य सीटें किसान बहुल हैं। देहरादून में चार, उधमसिंह नगर में नौ और नैनीताल में तीन सीटों पर किसानों का प्रभाव है। पिछले चुनाव के नतीजे देखें, तो हरिद्वार की 11 सीटों में से आठ भाजपा ने जीती थीं। बता दें हरिद्वार शहर को छोड़ अन्य सभी सीटें किसानों के प्रभाव वाली हैं।

उधर देहरादून की 10 सीटों में से ऋषिकेश, डोईवाला, सहसपुर और विकासनगर विधानसभा किसान प्रभाव वाली हैं। उधमसिंह नगर ज़िले की तो सभी सीटें किसान बहुल हैं और नैनीताल में लालकुआँ, हल्द्वानी और कालाढूंगी विधानसभा क्षेत्रों में किसानों का प्रभाव है। उत्तराखण्ड में कांग्रेस ने अपने पुराने नेता हरीश रावत को चुनाव जिताने का ज़िम्मा दिया है। किसान आन्दोलन के असर से इस पहाड़ी राज्य में चुनावी राजनीति दिलचस्प हुई है।

कुल मिलाकर अगर केंद्र सरकार तीनों कृषि क़ानूनों को वापस नहीं लेती है, तो आने वाला लम्बा समय भाजपा के लिए राजनीतिक दृष्टि से बेहद ख़राब हो सकता है।

 

देश के 48 फ़ीसदी परिवार कृषि पर निर्भर

देश में किसानों की दुर्दशा तब है, जब देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 14 फ़ीसदी से ज़्यादा है। यहाँ यह भी बहुत अहम है कि कोरोना महामारी के चलते बनी आर्थिक मंदी के बीच भी किसानों की हिस्सेदारी का आँकड़ा काफ़ी बेहतर रहा है। राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 10.07 करोड़ परिवार खेती पर निर्भर हैं। यह संख्या देश के कुल परिवारों का 48 फ़ीसदी है। राज्यों के हिसाब से देखें, तो केरल में प्रति परिवार में चार, उत्तर प्रदेश में छ:, मणिपुर 6.4, पंजाब 5.2, बिहार 5.5, हरियाणा 5.3, जबकि कर्नाटक और मध्य प्रदेश में कृषि आधारित परिवार में औसतन 4.5 सदस्य हैं। कोरोना-काल में केवल कृषि ही ऐसा क्षेत्र है, जिसने देश की अर्थ-व्यवस्था को सँभाला है। लेकिन साल 2020 में ही मोदी सरकार ने महामारी के ही दौरान तीन कृषि क़ानूनों को लागू किया, जिनका किसान जबरदस्त विरोध कर रहे हैं। किसानों की इस स्थिति ने यह सवाल तक उठा दिया है कि क्या सही में भारत कृषि प्रधान देश है? देखा जाए, तो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगातार गिरती कृषि हिस्सेदारी, किसानों की गिरती आमदनी, क़र्ज़ में डूबे किसानों द्वारा आत्महत्याएँ, युवाओं का खेती किसानी से मोह भंग होना और जलवायु परिवर्तन से अप्रत्याशित बाढ़, सूखे ने किसानों की कमर तोडक़र रख दी है। आँकड़े बताते हैं कि भारत के 52 फ़ीसदी ज़िलों में किसानों से अधिक संख्या कृषि श्रमिकों की है। बिहार, केरल और पुदुचेरी के सभी ज़िलों में किसानों से ज़्यादा कृषि श्रमिकों की संख्या है। उत्तर प्रदेश में 65.8 मिलियन (6.58 करोड़) आबादी कृषि पर निर्भर है; लेकिन कृषि श्रमिकों की संख्या 51 फ़ीसदी और किसानों की संख्या 49 फ़ीसदी है। सरकार भले ही 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बातें करती है; लेकिन ऐसा कोई सरकारी आँकड़ा हमारे सामने नहीं है, जो यह बता सके कि किसानों की आमदनी हुई कितनी? किसान नेता आँकड़ों सहित बताते रहे हैं कि हाल के वर्षों में कृषि लागत इतनी ज़्यादा हो चुकी है कि किसानों की आमदनी हक़ीक़त में कम हुई है। आमदनी घटने से किसानों की नयी पीढ़ी का किसानी से मोह भंग हुआ है। इसका नतीजा यह हुआ है कि कॉरपोरेट खेतों को खा रहा है। किसान इसीलिए तीन कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि कार्पोरेट बचे खेतों को भी खा जाएगा।

 

किसान आन्दोलनों ने बदली हैं सत्ताएँ

सिर्फ़ उत्तर प्रदेश की ही बात की जाए, तो किसान आन्दोलन सत्ता बदलने का बड़ा माद्दा रखते रहे हैं। इसलिए अब जब उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, मुज़फ़्फ़रनगर में महापंचायत कर किसानों ने सीधे भाजपा को ललकार कर अपनी ताक़त का संकेत तो दे दिया है। यदि पिछले तीन दशक का इतिहास देखें, तो ज़ाहिर होता है कि मुज़फ़्फ़रनगर में किसान महापंचायतें सत्तारूढ़ दलों की क़ब्रगाह साबित होती रही हैं। इतिहास देखें तो ऐसी महापंचायतों की शुरुआत सन् 1987 में हुई थी। सन् 1988 से लेकर सन् 2013 तक मुज़फ़्फ़रनगर में हुई महापंचायतों ने सूबे की राजनीति ही प्रभावित नहीं हुई, सरकारें भी बदल गयीं। भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) का जन्म ही मुज़फ़्फ़रनगर में हुआ, जिसने समय के साथ पूरे पश्चिम उत्तर प्रदेश पर प्रभाव बना लिया। महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में अगस्त, 1987 में मुज़फ़्फ़रनगर के सिसौली में हुई महापंचायत एक बड़े आन्दोलन का आधार बन गयी। किसानों की माँग बिजली और सिंचाई की दरें घटाने के अलावा फ़सल के उचित मूल्य की थीं। टिकैत के नेतृत्व में 35 माँगों पर कांग्रेस की सरकार से टकराव हुआ। किसानों ने जनवरी, 1988 में दिल्ली के वोट क्लब में धरना दिया। इसके बाद सन् 1989 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के चुनाव में कांग्रेस को बड़ा नुक़सान झेलना पड़ा और सत्ता से दोनों जगह हाथ धोना पड़ा। इसके बाद फरवरी, 2003 में महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में भाकियू ने सीधे मायावती सरकार को ललकारते हुए बड़ी महापंचायत की। बाद में एक धरना हुआ, जिस पर पुलिस ने लाठियाँ भाँज दीं। इसके विरोध में हुई महापंचायत में लाखों किसान जुट गये। नतीजा यह हुआ कि साल बाद मायावती के विधायकों की बग़ावत से उनकी सत्ता चली गयी। मुलायम सिंह यादव ने इन विधायकों की मदद से अजित सिंह के रालोद के समर्थन से सरकार बना ली। मायावती का पीछा किसानों ने सन् 2008 में भी नहीं छोड़ा। बिजनौर में टिकैत की मायावती के ख़िलाफ़ जातिसूचक टिप्पणी के बाद टिकैत को गिरफ़्तार करने के आदेश हुए; लेकिन किसानों ने टिकैत के घर जाने वाली सभी सडक़ों को बन्द कर दिया। हालाँकि चार दिन के बाद टिकैत की गिरफ़्तारी हुई और इसके बाद बसपा सरकार के ख़िलाफ़ महापंचायत की गयी। इसमें भी किसानों ने टिकैत के नेतृत्व में सीधे बसपा सरकार को सत्ता से उखाड़ फेंकने का संकल्प किया और सन् 2012 के चुनाव में मायावती सत्ता से बाहर हो गयीं। मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के ही चर्चित कवाल कांड के बाद महेंद्र सिंह टिकैत के बेटे राकेश टिकैत ने सितंबर, 2013 में जाटों की बड़ी महापंचायत की। यह माना जाता है कि नंगला मंदौड की यह पंचायत जाट-मुस्लिम जंग की वजह बनी, जिससे पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाट समुदाय के आक्रोश ने 2017 में सपा की सत्ता छीन ली। इसके बाद ही भाजपा सत्ता में आयी। अब सितंबर, 2021 में मुज़फ़्फ़रनगर में किसानों की महापंचायत में सीधे भाजपा के ख़िलाफ़ किसानों ने बिगुल फूँक दिया है। यह स्थिति सन् 1987 की याद दिलाती है, जब केंद्र में राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी, जबकि राज्य में भी कांग्रेस के सरकार थी। अब फिर केंद्र के साथ-साथ कई राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं और किसानों ने विद्रोही तेवर अपना लिये हैं। ज़ाहिर है भाजपा किसानों के इन तेवरों से रक्षात्मक है।

 

“सिर्फ़ खेती-किसानी नहीं, बल्कि सरकारी संस्थानों के निजीकरण, बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर भी केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ आन्दोलन करना होगा। अडिय़ल सरकार को झुकाने के लिए वोट की चोट ज़रूरी है। देश बचेगा, तभी संविधान बचेगा। सरकार ने रेल, तेल और हवाई अड्डे बेच दिये हैं। किसने सरकार को यह हक़ दिया। ये बिजली बेचेंगे और प्राइवेट करेंगे। सडक़ बेचेंगे और सडक़ पर चलने पर हम लोगों से टैक्स (कर) भी वसूलेंगे। दिल्ली बॉर्डर पर भले हमारी क़ब्रगाह बन जाए, जब तक हमारी माँगें नहीं मानी जाएँगी, तब तक हम वहाँ डटे रहेंगे। वहाँ से नहीं हटेंगे। अगर वहाँ पर हमारी क़ब्रगाह बनेगी, तो भी हम मोर्चा नहीं छोड़ेंगे। बग़ैर जीते वापस घर नहीं जाएँगे।“

राकेश टिकैत

संयुक्त किसान मोर्चा के नेता

 

 

@RahulGandhi

डटा है

निडर है

इधर है

भारत भाग्य विधाता!

#FarmersProtest

किसानों पर क़र्ज़ का बोझ

हाल में पंजाब की अमरिंदर सिंह सरकार ने किसानों के 590 करोड़ रुपये के क़र्ज़ को माफ़ करने की घोषणा की थी। क़र्ज़ माफ़ी मज़दूरों और भूमिहीन कृषक समुदाय के लिए कृषि ऋण माफ़ी योजना के तहत है। पंजाब सरकार का कहना है कि उसने इस योजना के तहत अब तक 5.64 लाख किसानों का 4,624 करोड़ रुपये का क़र्ज़ माफ़ किया है। छत्तीसगढ़ सहित कुछ अन्य राज्यों में भी किसानों के क़र्ज़ माफ़ करने की घोषणाएँ हुई हैं। लेकिन एक सच यह भी है कि किसानों पर इस समय 16.8 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ है।

ये आँकड़े सरकार के हैं, जो अगस्त में एक सवाल के लिखित जवाब में संसद में पेश किये गये थे। इनके मुताबिक, क़र्ज़ में सबसे ज़्यादा तमिलनाडु के किसान हैं। वहाँ किसानों पर 1.89 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ है। संसद में पेश किये गये विवरण (डाटा) के मुताबिक, अग्रणी (टॉप) पाँच राज्यों में तमिलनाडु के किसानों पर 1,89,623.56 करोड़ रुपये, आंध्र प्रदेश के किसानों पर 1,69,322.96 करोड़ रुपये, उत्तर प्रदेश के किसानों पर 1,55,743.87 करोड़ रुपये, महाराष्ट्र के किसानों पर 1,53,658.32 करोड़ रुपये, कर्नाटक के किसानों पर 1,43,365.63 करोड़ रुपये का क़र्ज़ है। जहाँ तक क़र्ज़ वाले बैंक खातों की बात है, तो अग्रणी पाँच राज्यों में तमिलनाडु के 1,64,45,864 खाते, उत्तर प्रदेश के 1,43,53,475 खाते, आंध्र प्रदेश के 1,20,08,351 खाते, कर्नाटक के 1,08,99,165 खाते, महाराष्ट्र के 1,04,93,252 खाते हैं। कम क़र्ज़ वाले अग्रणी पाँच राज्यों की बात करें, तो दमन और दीव के किसानों पर 40 करोड़ रुपये, लक्षद्वीप के किसानों पर 60 करोड़ रुपये, सिक्किम के किसानों पर 175 करोड़ रुपये, लद्दाख़ के किसानों पर 275 करोड़ रुपये और मिजोरम के किसानों पर 554 करोड़ रुपये का क़र्ज़ है। कम क़र्ज़ के किसान खातों वाले अग्रणी पाँच राज्यों में दमन और दीव के 1,857 खाते, लक्षद्वीप के 17,873 खाते, सिक्किम के 21,208 खाते, लद्दाख़ के 25,781 खाते, जबकि दिल्ली के 32,902 खाते शामिल हैं।

 

 

 

 

राज्यों और नेताओं की जंग में उलझी कांग्रेस

संगठन की मज़बूती के प्रयासों को इससे लग रहा है धक्का

क्या पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह भाजपा में जाने की तैयारी कर रहे हैं? पंजाब कांग्रेस के प्रभारी हरीश रावत, जो मीडिया के सामने पंजाब कांग्रेस के संकट की बात को हमेशा अपने अंदाज़ में टाल देते हैं; ने सितंबर के पहले हफ़्ते में अचानक यह कहकर सबको चौंका दिया कि ‘यस, ऑल इस नॉट वेल इन पंजाब कांग्रेस’ (हाँ, पंजाब कांग्रेस में सब कुछ सही नहीं है)। तो क्या पंजाब कांग्रेस में कुछ बड़ा होने वाला है? चर्चा है कि भाजपा मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को पार्टी में शामिल करवाने की जी-तोड़ कोशिश कर रही है। पंजाब ही नहीं छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस नेतृत्व के सामने मुख्यमंत्री पद के लिए दो नेताओं में छिड़ी जंग गम्भीर संकट की तरह खड़ी होती दिख रही है। उधर राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और कभी उनके सहायक (डिप्टी) रहे सचिन पायलट के बीच एक साल में भी सुलह नहीं हो पायी है। कांग्रेस अपनी इन समस्यायों से उबरने की कोशिश कर रही है। यह भी सम्भावना है कि जल्दी ही कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर भी स्थायी व्यवस्था कर लेगी।

कांग्रेस की दिक़्क़त यह है कि केंद्र में उसकी सात साल से सरकार नहीं और जिन राज्यों में है, वहाँ मुख्यमंत्री पद के लिए नेता आपस में लड़ रहे हैं। आलाकमान लाख चाहकर भी इस संकट का हल नहीं निकाल पा रहीं। भाजपा इसे अपने लिए मुफ़ीद मान रही है और उसके क्षेत्रीय नेता अपने भाषणों में कांग्रेस की इस लड़ाई को ख़ूब भुना रहे हैं। कांग्रेस के लिए यह संकट की स्थिति इसलिए भी है; क्योंकि उसे अगले साल कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव लडऩे हैं। कांग्रेस की इस लड़ाई का जनता में निश्चित ही उलटा संकेत जाने के भय से कांग्रेस घिरी है।

पहले पंजाब की बात करते हैं, जहाँ मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के बीच छिड़ी जंग में भाजपा अपने लिए रास्ता तलाश कर रही है। अगस्त के आख़िर में अमरिंदर सिंह जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी से मिलने दिल्ली गये थे, तो वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से भी मिले थे। इसके बाद ही यह चर्चा शुरू हुई कि कैप्टन आलाकमान द्वारा सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने और उसके बाद सिद्धू द्वारा सरकार के ख़िलाफ़ बयानों के बावजूद आलाकमान (राहुल-प्रियंका) के चुप रहने से बहुत ख़फ़ा हैं और वह कोई रास्ता तलाश कर रहे हैं।

क्या अमरिंदर सचमुच दशकों पुरानी अपनी पार्टी कांग्रेस से उम्र के इस मोड़ पर विद्रोह करेंगे? यह एक बड़ा और मुश्किल सवाल है। भाजपा कोशिश कर रही है कि अमरिंदर उसके साथ आ जुड़ें, तो वह पंजाब में किसानों से पैदा हुई अपने ख़िलाफ़ बड़ी नाराज़गी और जलियांवाला बाग़ के सौन्दर्यीकरण से उठे विवाद के दाग़ को किसी हद तक धो सकती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही जलियांवाला बाग़ सौन्दर्यीकरण का आभासी (वर्चुअल) उद्घाटन किया था।

लोगों में इस बात को लेकर बेहद नाराज़गी है कि मोदी सरकार ने अंग्रेजी हुकूमत के ज़ोर-ओ-ज़ुल्म की निशानी को मिटा दिया। लोग इसे शहीदों का अपमान मान रहे हैं, जिनके आगे लोग वहाँ शीश नवाते हैं। वहाँ लाइट शो आयोजित करने से भी लोग बहुत बिफरे हैं। मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के मसले पर मोदी के हक़ वाले बयान को लेकर भी लोग राजनीतिक सन्दर्भ में देख रहे हैं। लेकिन ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, कैप्टन अमरिंदर सिंह भाजपा में नहीं जा रहे हैं। उनके नज़दीकी कम-से-कम तीन नेताओं ने नाम न छापने की शर्त पर ‘तहलका’ के विशेष संवाददाता से बातचीत में इस चर्चा को ‘कोरी बकवास’ बताया। हालाँकि उन्होंने यह बात स्वीकार की कि कैप्टन नाराज़ हैं और उनकी नाराज़गी की बड़ी वजह सिद्धू हैं। इन नेताओं में से एक ने यह बात स्वीकार की कि ‘यदि कैप्टन ज़्यादा नाराज़ हुए, तो अपनी अलग पार्टी बनाने की भी सोची जा सकती है।’

अलग पार्टी की बात इसलिए वज़न रखती है कि यदि ऐसा करके कैप्टन अगले चुनाव में 30 सीटें जीत जाते हैं, तो कांग्रेस से सौदेबाज़ी करके दोबारा मुख्यमंत्री बन सकते हैं। वैसे कैप्टन इस तरह की राजनीति करने के लिए नहीं जाने जाते, क्योंकि उन्हें सोनिया गाँधी का क़रीबी माना जाता है। भले वह राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी के उतने निकट न हों। ऐसे में उनके लिए कांग्रेस छोडक़र जाने की सम्भावना होने के बावजूद यह उतना सरल नहीं दिखता। वैसे भी कांग्रेस यह संकेत दे चुकी है कि अगला चुनाव पार्टी अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में ही लड़ेगी।

चुनाव के लिहाज़ से पंजाब कांग्रेस के लिए कुछ महीने पहले तक बड़ी सम्भावना वाला प्रदेश था। ऐसा नहीं है कि अब उसके लिए अवसर ख़त्म हो गया है। ज़मीनी स्तर पर अभी भी कांग्रेस अपने मुख्य विरोधियों अकाली दल, आप और भाजपा से आगे दिखती है। लेकिन कैप्टन अमरिंदर और सिद्धू की लड़ाई से उसे काफ़ी नुक़सान हुआ है। यदि चुनाव तक अमरिंदर कांग्रेस में ही रहते हैं और दोनों में जंग जारी रहती है, तो विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए काफ़ी बड़ी चुनौतियाँ रहेंगी।

किसान आन्दोलन ने पंजाब की राजनीति में काफ़ी बदलाव लाया है। किसानी पंजाब के सभी वर्गों के लिए अहम रही है। पंजाब में एक उसूलहै कि खेती और संस्कृति (कल्चर और एग्रीकल्चर) को बचाने के लिए कोई भी बलिदान दिया जा सकता है। ऐसे में किसान आन्दोलन कम-से-कम भाजपा के लिए तो गले की फाँस ही बनकर आया है। किसानों का आन्दोलन लगातार जारी है और हाल में हरियाणा के करनाल में किसानों पर भाजपा सरकार की पुलिस के लाठीचार्ज, जिसमें दर्ज़नों किसान लहूलुहान हो गये और एक किसान की मौत भी हो गयी; से भाजपा को हरियाणा में ही नहीं, पंजाब में और भी राजनीतिक नुक़सान हुआ है। पंजाब में किसान आन्दोलन से भाजपा की चुनावी सम्भावनाएँ क्षीण हुई हैं। वैसे भी पंजाब में भाजपा कभी अपने बूते कोई राजनीतिक ताक़त नहीं रही। उसका सहारा अकाली दल रहा है, जिससे फ़िलहाल उसकी दूरी चल रही है। ऐसे में अमरिंदर सिंह भाजपा में जाने का फ़ैसला सिर्फ़ इस कारण से कर लें कि नवजोत सिंह सिद्धू के आने से उनके दोबारा पंजाब का मुख्यमंत्री बनने की सम्भावना क्षीण हुई है; तो यह हैरानी की बात होगी। कारण साफ़ है कि भाजपा में जाने से तो उनके मुख्यमंत्री बनने की कोई सम्भावना दूर-दूर तक नहीं दिखती।

इसका एक ही तरीक़ा हो सकता है कि अमरिंदर सिंह पंजाब में अपनी कोई राजनीतिक पार्टी खड़ी कर लें। इससे वह चुनाव बाद के परिदृश्य के लिहाज़ से अपने राजनीतिक भविष्य का फ़ैसला कर सकते हैं। हालाँकि इसके लिए यह भी ज़रूरी होगा कि वह अपने बूते 30 से ज़्यादा सीटें लेकर आएँ, जो फ़िलहाल सम्भव नहीं दिखता। कारण यह है कि चुनाव अगले साल ही हैं और उन्हें इसकी तैयारी करने के लिए वक़्त भी चाहिए।

पंजाब की राजनीति को समझने वाले मानते हैं कि कांग्रेस में रहकर अमरिंदर के लिए कहीं ज़्यादा सम्भावनाएँ हैं। परदे के पीछे यह भी कहा जाता है कि अमरिंदर कांग्रेस में ही रहे, तो अगले चुनाव में सिद्धू को चुनाव में हरवाने की भी कोशिश हो सकती है, ताकि वह मुख्यमंत्री पद की दौड़ से ही बाहर हो जाएँ। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, अमरिंदर ने कांग्रेस में अभी उम्मीद नहीं छोड़ी है। हाल में करनाल में किसानों पर लाठीचार्ज को लेकर हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के साथ जिस कटुता के स्तर पर अमरिंदर सिंह का ट्विटर वार हुआ है, उससे नहीं लगता वह भाजपा में जाने की सोच रहे हैं।

कांग्रेस के लिए समस्या यह है कि उसे पंजाब की लड़ाई को जल्दी निपटाना होगा; क्योंकि राज्य के प्रभारी हरीश रावत उत्तराखण्ड में व्यस्त होने वाले हैं, जहाँ कांग्रेस उन्हें मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश कर सकती है। सच तो यह है कि रावत ने 3 सितंबर से उत्तराखण्ड में विधानसभा चुनाव के लिए अपनी मुहिम शुरू भी कर दी है। कांग्रेस उत्तराखण्ड में अपने लिए काफ़ी सम्भावनाएँ देख रही हैं। इसलिए वह रावत को लम्बे समय तक पंजाब में नहीं फँसाये रखना चाहती है।

दरअसल पंजाब में कांग्रेस विधायकों में इस बात पर नाराज़गी है कि चुनाव के समय किये गये वादे अमरिंदर सरकार ने पूरी नहीं किये हैं। इसके अलावा धार्मिक रूप से संवेदनशील गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी का मामला भी है, जिसमें कोई ठोस कार्रवाई अभी तक नहीं हुई है। सिद्धू और उनके समर्थक विधायकों के अलावा अन्य विधायक भी यह मसला आलाकमान के सामने उठा चुके हैं। यह माना जाता है कि आलाकमान ने अमरिंदर को चुनाव के वादे चुनाव से पहले पूरे करने को कहा है।

अमरिंदर सिंह के सही राजनीतिक रूख़ का पता दिसंबर तक चलेगा। उनके लिए ग़ुस्सा पैदा करने वाली एक ही बात है और वह है कि उनके जैसे वरिष्ठ नेता के ख़िलाफ़ सिद्धू के बयानों पर कांग्रेस नेतृत्व चुप्पी साध लेता है। अमरिंदर के नज़दीकियों का कहना है कि आलाकमान को इस मामले में हस्तक्षेप करके सिद्धू को चाहिए कि वह कम-से-कम कैप्टन के ख़िलाफ़ व्यक्तिगत हमले न करें।

ऐसे में पंजाब की राजनीति में आने वाले एक-दो महीने काफ़ी अहम हैं। कांग्रेस की राजनीति पंजाब की पूरी राजनीति को प्रभावित करेगी। इसमें कोई दो-राय नहीं कि पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू सूबे में राजनीतिक आधार नहीं रखते। अमृतसर से तीन बार (भाजपा में रहते हुए) सांसद बनना उनकी ज़मीनी राजनीतिक पकड़ को ज़ाहिर करता है। भले सिद्धू अपने बड़बोलेपन के कारण भाजपा और कांग्रेस के भीतर आलोचना का सामना करते रहे हों, राज्य में वह कांग्रेस के लिए वोट हैं; इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। हाँ, यदि अमरिंदर सिंह कहीं भाजपा में ही जाने का फ़ैसला कर लेते हैं, तब पंजाब की चुनावी राजनीति के परिदृश्य पर निश्चित ही असर पड़ेगा। पंजाब जैसी ही समस्या का सामना कांग्रेस छत्तीसगढ़ में भी कर रही है। अनिर्णय की स्थिति से मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और उनके स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंहदेव के बीच जंग छिड़ी हुई है। राज्य के इतिहास में यह पहली बार है कि वहाँ इस तरह की राजनीतिक अस्थिरता की सम्भावना बन रही है। अभी तक यह साफ़ नहीं है कि कांग्रेस के दो गुटों की लड़ाई वहाँ क्या रूप लेगी? बघेल मुख्यमंत्री पद छोडऩा नहीं चाहते और सिंहदेव ढाई साल पहले के वादे के मुताबिक मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं।

कांग्रेस आलाकमान के लिए दिक़्क़त यह है कि उसकी अपनी स्थिति यह कहती है कि मुख्यमंत्री के रूप में बघेल जनता का भरोसा जीतने में सफल रहे हैं। पार्टी को लगता है कि ऐसी स्थिति में बघेल का जाना पार्टी को महँगा भी पड़ सकता है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि सिंहदेव परिपक्व राजनीतिक नेता हैं और राज्य को सँभालने की क्षमता रखते हैं। लेकिन जनता में जैसी छवि बघेल बनाने में सफल रहे हैं, उससे ज़मीन पर कांग्रेस सत्ता के क़रीब तीन साल बाद भी विरोधी भाजपा के मुक़ाबले काफ़ी मज़बूत दिखती है। हालाँकि वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम से उसे नुक़सान की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता।

कांग्रेस की इस लड़ाई को देखते हुए भाजपा ने अभी से जनता के बीच जाना और कार्यक्रमों का आयोजन करना शुरू कर दिया है। भाजपा देख रही है कि यदि कांग्रेस की जंग बढ़ती है, तो सत्ता में उसके लौटने का रास्ता खुल सकता है। पिछले चुनाव में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को तीन-चौथाई बहुमत मिला था, लिहाज़ा उसकी सरकार काफ़ी टिकाऊ रही है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि बघेल सरकार चुनाव से पहले किये वादों पर काम भी कर रही है। लिहाज़ा भाजपा के पास सरकार की निंदा करने के कोई ज़्यादा मुद्दे थे नहीं थे; लेकिन कांग्रेस के दो बड़े नेताओं के बीच सत्ता की लड़ाई से मानों भाजपा की लॉटरी निकल गयी है।

सिंहदेव और बघेल के बीच इस उठापटक से जनता में यह सन्देश जा रहा है कि कांग्रेस के नेता कुर्सी के भूखे हैं। भाजपा यही चाहती थी कि कांग्रेस के बीच ही ऐसे समीकरण बनें कि उसे जनता के बीच बघेल सरकार की खिंचाई करने का मसाला मिल जाए। यह अब उसे मिल गया है और उसने जन भागीदारी वाले कार्यक्रमों के ज़रिये सरकार पर हमले तेज़ कर दिये हैं। कांग्रेस के लिए इस सरकार के सफलता इसलिए भी ज़रूरी है कि उसे 15 साल के लम्बे अंतराल के बाद छत्तीसगढ़ में सत्ता हासिल हुई है।

नेताओं के बार-बार दिल्ली जाने से राज्य की परियोजनाओं और विकास कार्यों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और इसका सीधा असर जनता पर पड़ेगा। कांग्रेस के नेता इसे राजनीति की सामान्य प्रक्रिया बताते हैं और उनका कहना है कि यह सब प्रजातंत्र का हिस्सा है। लेकिन राज्यों में कांग्रेस नेताओं की लड़ाई से आलाकमान की पेचीदगियाँ बढ़ गयी हैं। छत्तीसगढ़ में 2023 में विधानसभा के चुनाव होने हैं और उससे पहले नेतृत्व परिवर्तन से कांग्रेस को नयी शुरुआत करनी पड़ेगी।

छत्तीसगढ़ को लेकर कांग्रेस में यही साफ़ नहीं है कि क्या विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर ढाई-ढाई साल का कोई समझौता हुआ था या नहीं? सिंहदेव के समर्थक इस समझौते के आधार पर ही मुख्यमंत्री पद का दावा कर रहे हैं, जबकि बघेल का ख़ेमा कह रहा है कि ऐसा कोई समझौता हुआ ही नहीं है। पिछले तीन महीने में कांग्रेस में यही जंग चल रही है। देश की सत्ता में इतने दशक तक रही कांग्रेस की इस स्थिति को दयनीय ही कहा जाएगा।

पिछले दो महीने में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल छ: बार से ज़्यादा दिल्ली इसी सिलसिले में जा चुके हैं। उधर मुख्यमंत्री पद पर नज़र गड़ाये बैठे सिंहदेव भी कई बार दिल्ली जा चुके हैं। दिलचस्प यह है कि पार्टी के विधायक और मंत्री भी अपने-अपने नेताओं के साथ दिल्ली पहुँच जाते हैं। ज़ाहिर है इसका असर सरकार के कामकाज पर भी पड़ा  है। कांग्रेस इसे समझ नहीं रही या समझ के भी अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार रही है, यह पता नहीं।

राजस्थान में एक साल से ज़्यादा हो चुका है। सचिन पायलट की पार्टी में अपनी अवस्था को लेकर कुछ माँगें थीं; लेकिन इनका समाधान नहीं हो पाया है। उनके समर्थक विधायकों की शिकायत है कि सरकार में उनकी चलती नहीं, क्योंकि अफ़सर उनकी सुनते नहीं। मंत्रियों की सुझायी परियोजनाएँ ठण्डे बस्ते में पड़ी हैं।

अब यह साफ़ हो चुका है कि कांग्रेस के भीतर सोनिया गाँधी और राहुल-प्रियंका की पसन्द के नेताओं के बीच लकीर खिंच चुकी है। पंजाब से लेकर छत्तीसगढ़ और राजस्थान तक यह लड़ाई शुरू हो चुकी है। ऐसा नहीं है कि 10 जनपथ और राहुल और प्रियंका के बीच कोई खाई पैदा हो गयी है। यह लड़ाई प्रदेश स्तर के नेताओं के मामले तक सीमित है, जहाँ सोनिया गाँधी पुराने नेताओं को खोना नहीं चाहतीं; जबकि राहुल गाँधी अपनी एक टीम खड़ी करना चाहते हैं। लेकिन इसी चक्कर में कांग्रेस की फ़ज़ीहत हो रही है और भाजपा उसका मज़ाक़ उड़ा रही है।

 

कांग्रेस में प्रशांत किशोर आएँगे?

कांग्रेस के बीच आजकल चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की बड़ी चर्चा है। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के राजनीतिक सलाहकार के पद से इस्तीफ़े के बाद उनके कांग्रेस में शामिल होने के कयास लगाये जा रहे हैं। कांग्रेस के नेता इस मसले पर बँटे दिखायी दे रहे हैं। विरोध करने वालों का मानना है कि एक ग़ैर-राजनीतिक चुनावी रणनीतिकार को एक नेता के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। हाल में वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल के घर पर एक बैठक हुई थी, जिसमें प्रशांत किशोर के कांग्रेस में आने की ख़बरों पर भी चर्चा हुई थी। कहते हैं कि कुछ नेताओं ने इस पर विरोध किया था और उनका कहना था कि राजनीति की दिशा राजनीतिक तय करते हैं; चुनावी रणनीतिकार नहीं। हालाँकि इसी बैठक में ऐसे नेता भी थे, जिन्होंने किशोर को पार्टी के लिए लाभकारी बताया और इस बात का समर्थन किया कि उन्हें कांग्रेस में आना चाहिए। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पार्टी नेतृत्व प्रशांत किशोर को पार्टी में शामिल करने के लिए बाक़ायदा सलाह कर रहा है; ताकि सबकी राय जानी जा सके। दो वरिष्ठ नेता ए.के. एंटनी और अंबिका सोनी नेताओं से बातचीत करके जल्दी ही एक रिपोर्ट आलाकमान को देंगे।

 

समितियों का गठन

28 August 2021 Amritsar
The renovated Jallianwala Bagh Martyrs’ Memorial, which has been inaugurated via video conference by Indian Prime Minister Narendra Modi, is seen illuminated in Amritsar on Saturday.
PHOTO-PRABHJOT GILL AMRITSAR

आने वाला समय कांग्रेस के लिए काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। संगठन को सक्रिय करने के लिए सोनिया गाँधी ने हाल में दो समितियों का गठन किया है, जिसमें मनमोहन सिंह के नेतृत्व में एक समिति में जी-23 के नेता गुलाम नबी आज़ाद और दो अन्य नेता भी शामिल हैं। इसके अलावा दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मुद्दों पर देशव्यापी आन्दोलन चलाने के लिए भी एक समिति का गठन किया गया है। इससे यह संकेत मिलता है कि मध्य प्रदेश की राजनीति से राष्ट्रीय राजनीति में मज़बूत किया जा रहा है। कमलनाथ पहले से ही दूसरे दलों से बातचीत के मामले काफ़ी सक्रिय रहे हैं।