Home Blog Page 611

‘सरकार ने मृतक किसानों के प्रति दु:ख तक नहीं जताया’

किसान आन्दोलन को लेकर अब दिनदिन सियासत होती जा रही है। क्योंकि जिनके कन्धे पर दायित्व होना चाहिए वे सिर्फ़ अधिकारों की बात कर रहे हैं और जिनको सही मायने अधिकार मिलने चाहिए उन पर दायित्व सौंपा जा रहा है। इससे मामला सुलझने के बजाय उलझता ही जा रहा है। दिल्ली की सीमाओं पर 10 महीने से अधिक समय से संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले देश भर के किसान तीनों कृषि क़ानूनों के विरोध में और अपने अधिकारों की माँगों को लेकर आन्दोलन कर रहे हैं। लेकिन केंद्र सरकार किसानों की माँगों को मानने को तैयार ही नहीं है। इन्हीं मुद्दों पर विशेष संवाददाता राजीव दुबे की पड़ताल :-

बात दायित्व और अधिकार की करें, तो सबसे पहले सरकार का कर्म और धर्म यही बनता है कि जो भी किसानों की समस्या है, उनको सुलझाए और समाधान करे; ताकि देश का किसान अन्नदाता खेतीकिसानी का काम आसानी से करता रहे और देश की अर्थव्यवस्था में बढ़ोतरी और विकास में सहयोगी बने। पर ऐसा नहीं हो रहा है, क्योंकि सरकार किसानों के अधिकारों नज़रअंदाज़ कर रही है। उनके जो अधिकार हैं, उन्हें वह अपने पास रखना चाहती है। और जो दायित्व सरकार को निभाने चाहिए, वो निभाकर किसानों से चाहती है कि वे चुपचाप खेतीकिसानी करें। उनकी मेहनत का फ़ैसला वह करे कि किस भाव में उनके खाद्यान्न बिकेंगे। इसके चलते किसानों का ग़ुस्सा दिनदिन बढ़ता ही जा रहा है। सबसे चौंकाने वाली बात तो यह है कि किसानों की माँगों को लेकर सरकार की कोई सार्थक पहल अभी तक नहीं हुई है।

किसान नेता राकेश टिकैत का कहना है कि सरकार ने कई बार किसानों के साथ धोखा किया है। इसलिए कृषि क़ानूनों और एमएसपी की गारंटी मिलने के बाद भी किसानों की जंग जारी रहेगी। क्योंकि किसानों की अन्य समस्याएँ भी हैं, जिन पर सरकार अभी तक बात करना तो दूर, उनकी बात तक सुनने को तैयार ही नहीं है। अब जो भी माँगों को सरकार मानेगी, उसकी लिखित में सार्वजनिक रिपोर्ट जारी होनी चाहिए, ताकि किसानों के साथ कोई धोखा हो सके। क्योंकि हाल ही में सरकार ने सीजन 2022-23 की ख़रीद के लिए जो न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया है। वह किसानों को गुमराह करने वाला है। किसानों को आँकड़ों में उलझाने वाला है। क्योंकि सरकार सियासी दाँवपेच में माहिर है, जो एमसीपी को बड़ा क़दम बता रही है। उसने किसानों की जेब काटने का काम किया है। हाँ, किसानों को सिसायी दाँव में फँसाने के लिए कुछ फ़सलों में मामूलीसी बढ़ोतरी की है, जिससे किसानों को खुले बाज़ार में अपनी फ़सल बेचने में दिक़्क़त होगी। किसान नेता एडवोकेट बिट्टू तिवारी का कहना है कि जैसेजैसे उत्तर प्रदेश और पंजाब विधानसभा चुनाव नज़दीक आते जाएँगे, वैसेवैसे किसानों को गुमराह करने वाले सरकार के फ़ैसले आते जाएँगे। इसमें देश के मेहनतकश सीधेसादे किसानों को जुमलों में फँसाये जाने का प्रयास किया जाएगा। लेकिन किसान अब सरकार के जुमलों में फँसने वाले नहीं हैं।

किसान युद्धवीर सिंह का कहना है कि भारत कृषि प्रधान देश है और रहेगा। सरकार पूँजीपतियों के हवाले किसानों की ज़मीन करके उनके अधिकारों को हड़पना चाहती है। लेकिन देश के किसान ये नहीं होने देंगे। उनका कहना है कि इस बात से साफ़ अंदाज़ लगाया जा सकता है कि तत्कालीन सरकार किसानों की कितनी विरोधी है। क्योंकि अभी तक 600 से ज़्यादा किसानों की मौत किसान आन्दोलन में हुई है। लेकिन सरकार और सरकार के प्रतिनिधियों तक ने मृतक किसानों के परिजनों की सुध लेने की बात तो छोड़ो, मृतकों के प्रति दु: तक नहीं जताया। इससे किसानों को यह साफ़ लगने लगा है कि सरकार पूरी तरह किसान विरोधी है। भले ही सरकार सियासी लाभ लेने के लिए किसानों को लाभ देने की बात करती है। लेकिन देश के किसान सरकार की मंशा और नीयत से परिचित हैं कि उनके साथ खेल हो रहा है। किसान युद्धवीर का कहना है कि किसानी छोड़ अन्य क्षेत्रों में लोगों ने काफ़ी लाभ कमाया है। दिनदिन विकास भी किया है। लेकिन देश के किसान दिनदिन पिछड़ता ही जा रहे हैं। इसकी बजह साफ़ है कि अभी तक की जितनी भी सरकारें आयी हैं, उन्होंने किसानों के हितों को अनदेखा किया है। मौज़ूदा दौर में किसानों का आन्दोलन देश के किसानों का स्वाभिमानी आन्दोलन बन गया है। किसान अब स्वाभिमान से कोई समझौता को तैयार नहीं हैं। वे हर हाल में तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेने तक आन्दोलन करने की बात पर अडिग हैं। चाहे यह आन्दोलन कितने ही साल क्यों चले।

एमसीडी चुनाव में फिर उठ सकता है अनधिकृत कॉलोनियों का मुद्दा

दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के चुनाव को लेकर छ: महीने से कम का समय बचा है, जिससे दिल्ली की सियासत में हलचल तेज़ हो गयी है। दिल्ली में चाहे विधानसभा का चुनाव हो या फिर एमसीडी चुनाव हो, दिल्ली की अनधिकृत कॉलोनियों का मामला ज़ोर-शोर से उठता रहा है। इस बार भी एमसीडी चुनाव में अनधिकृत कॉलोनी और अधिकृत कॉलोनी का मामला ज़ोर-शोर से उठ सकता है। वजह साफ़ है कि जो अनधिकृत कॉलोनी से अधिकृत कॉलोनी हुई हैं, उसमें अभी भी बुनियादी सुविधाओं की कमी है। लोग बिजली-पानी की क़िल्लत से जूझ रहे हैं। बताते चलें कि दिल्ली में अनधिकृत कॉलोनियों के नाम पर भाजपा और कांग्रेस सहित आम आदमी पार्टी ने जमकर सियासी रोटियाँ सेंकी हैं और लोगों को गुमराह किया है। दिल्ली में जब भी कोई चुनाव होता है, बिना अनधिकृत कॉलोनियों के नाम के सम्भव नहीं होता।

दिल्ली में अनधिकृत कॉलोनी के नाम एक समय कांग्रेस ने पक्की कॉलोनी होने के पक्के सुबूत के रूप में प्रमाण-पत्र तक भी वितरित किये हैं। इसके बाद भाजपा ने कांग्रेस पर अनधिकृत कॉलोनियों के नाम पर जनता को गुमराह करने वाले आरोप लगाये। जब सन् 2015 में आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविन्द केजरीवाल ने चुनावी घोषणा पत्र में वादा किया था। उस घोषणा पत्र के मुताबिक, केंद्र सरकार के साथ मिलकर 1,797 कॉलोनियों को तमाम अड़चनों को दरकिनार कर पक्का कर दिया था, जिसमें सरकारी ज़मीन, खेती वाली ज़मीन और निजी (प्राइवेट) ज़मीन के अलग-अलग चार्ज लगाकर जनता से पक्की कॉलोनी करने को कहा था, ताकि लोग अपने मकान की पक्की रजिस्ट्री करवा सकें। इसका लोगों को लाभ मिला और वे अनधिकृत कॉलोनी से अधिकृत कॉलोनी में आ गये। आम आदमी पार्टी के नेता अमित का कहना है कि जो काम भाजपा और कांग्रेस नहीं कर पायी, वह काम आम आदमी पार्टी ने कर दिया है। आम आदमी पार्टी का मानना है कि संगम बिहार बुराड़ी और सुल्तानपुरी सहित दिल्ली में जो भी अनधिकृत कॉलोनियाँ बची हैं, उन पर काम चल रहा है, ताकि लोगों को जल्द-से-जल्द मालिकाना हक़ मिल सके।

बुराड़ी निवासी राम अवतार त्यागी का कहना है कि अनधिकृत कॉलोनी को पक्का कराने का काम तो किया जा रहा है, लेकिन ऑनलाइन रजिस्ट्री होने पर तमाम तरह से लोगों को दिक़्क़त आ रही है। आज भी दिल्ली सरकार की लापरवाही के चलते यहाँ पर पानी-बिजली की समस्या विकराल रूप धारण किये हुए है। उनका कहना है कि अभी दिल्ली में 1,453 अनधिकृत कॉलोनियों को अधिकृत होना है। सन् 2014 के बाद से ज़रूर दिल्ली में अनधिकृत कालोनियों को लेकर काम हुआ है, लेकिन सरकारी पार्कों में अनधिकृत कॉलोनियाँ भी बसी हैं, जिन पर केंद्र और दिल्ली सरकार, दोनों चुप्पी साधे हैं। वजह साफ़ है कि सत्ता से जुड़े लोग ही पार्कों में क़ब्ज़ा करके कॉलोनी को बसाने में लगे हैं और जमकर लाभ कमा रहे हैं।

कांग्रेस पार्टी के नेता दिल्ली विधानसभा के उपाध्यक्ष अमरीश गौतम का कहना है कि जो काम कांग्रेस पार्टी ने अनधिकृत कॉलोनियों के नाम किया है, उसी को आम आदमी पार्टी सही तरीक़े से पूरा नहीं कर पा रही है। आज भी इन कॉलोनियों में बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं। कॉलोनियों में सडक़ें तक सही नहीं हैं। नालियाँ-खडज़े भी टूटी हालत में हैं। सीवर की सुविधा नहीं है। उनका कहना है कि चुनाव में ही नहीं, अक्सर दिल्ली वालों के बीच अनधिकृत कॉलोनियों को लेकर असमंजस की स्थिति बनी रहती है कि न जाने कब यहाँ पर बुल्डोजर चल जाए। क्योंकि केंद्र और दिल्ली की सरकारों पर जनता का विश्वास उठ गया है। दोनों पार्टियाँ आपस में मिलकर कॉलोनियों के नाम पर वोट ले लेती हैं। लेकिन जैसे ही सत्ता में आ जाती हैं, तो इस काम को भूल जाती हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया- ‘दिल्ली में अनधिकृत कॉलोनियों के नाम पर सियासत के अलावा कुछ हो नहीं सकता है; क्योंकि दिल्ली देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के अलावा यहाँ पर नई दिल्ली नगर पालिका परिषद् (एनडीएमसी) और दिल्ली डबलपमेंट अथॉरिटी (डीडीए) भी हैं। दिल्ली सरकार तो है ही। इस पर यहाँ आम आदमी पार्टी और भाजपा की अलग-अलग सत्ताएँ हैं। इस लिहाज़ से अनधिकृत कॉलोनियों के नाम पर सियासत ही होती रहेगी।’

अनधिकृत कॉलोनियों को लेकर लम्बे समय तक संघर्ष करने वाले एस.के. शर्मा का कहना है कि आने वाले एमसीडी के चुनाव में राजनीतिक दल 1,453 अनधिकृत कॉलोनियों के नाम पर सियासत करेंगे, ताकि लोगों के वोट हासिल किये जा सकें। इसके अलावा मौज़ूदा दौर में महँगाई, बेरोज़गारी के साथ कोरोना-काल में जो लोगों को स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक़्क़त हुई है, ये सब भी चुनावी मुद्दे बनेंगे।

भाजपा और कांग्रेस के बीच जगह तलाशती आम आदमी पार्टी

दोनों पुरानी पार्टियाँ उत्तराखण्ड की सत्ता में वापसी को बेचैन

पिछले कुछ समय से प्राकृतिक आपदाओं की ज़द में आये उत्तराखण्ड राज्य की जनता भी वर्तमान में राजनीतिक अस्थिरता के घनघोर बादलों से गिरी हुई है। राज्य के पर्वतीय अंचलों में बादल फटने और भूस्खलन की घटनाओं से राजनीतिक दल और नेता भी अछूते नहीं रहे और जैसे-जैसे 2022 के विधानसभा चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, वैसे-वैसे अवसरवादी और दलबदलू नेताओं के चेहरे भी बेनक़ाब हो रहे हैं।

कई दशकों से उत्तराखण्ड के विकास में लगातार बाधक रहीं यहाँ की विषम भौगोलिक परिस्थितियों से मुक़ाबला करने के लिए लम्बे आन्दोलन के बाद बना पृथक राज्य आज राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार का चारागाह बनकर रह गया है। अपने आँचल में चार धामों, हेमकुण्ड साहिब, पिरान कलियर सहित विश्व स्तरीय पर्यटन स्थलों को सँजोये देवभूमि उत्तराखण्ड की जनता स्वयं को इस वजह से ठगा-सा महसूस कर रही है। राज्य आन्दोलनकारी और शहीदों के परिजन भी लाचार और बेबस होकर नेताओं की करतूतों के सामने मूकदर्शक बने रहने को मजबूर हैं।

राजनीतिक अस्थिरता का इससे बड़ा और क्या मख़ौल होगा कि 21 वर्षों में 13 मुख्यमंत्री और 8 राज्यपाल राज्य को मिल चुके हैं। छ: माह बाद राज्य का 14वाँ मुख्यमंत्री शपथ लेगा। क़ायदें से देखा जाए, तो महज़ 16 वर्षों में राज्य को 12 मुख्यमंत्री मिले हैं; क्योंकि पाँच साल का कार्यकाल पूर्ण करने का गौरव भी केवल कांग्रेस के दिग्गज नेता स्वर्गीय नारायण दत्त तिवारी को ही हासिल रहा।

उत्तराखण्ड की पहाड़ी वादियों के राजनीतिक हवा के झोंके ही कुछ ऐसे रहे कि इन 21 वर्षों में प्रमुख राजनीतिक दलों, कांग्रेस और भाजपा, दोनों को ही बराबर-बराबर शासन करने का समय मिला। नये राज्य में भ्रष्टाचार के उपजाऊ अवसरों और महत्त्वाकांक्षाओं से न तो भगवा ही अछूते रहे और न ही खादी यानी कांग्रेसी। जिसको जैसे और जहाँ लूट-खसोट करने का मौक़ा मिला, वह चुका नहीं; चाहे वह विधायक रहा हो या मंत्री। और नौकरशाही से लेकर हर क्षेत्र में दलालों ने भ्रष्टाचार के कीचड़ से तो देवभूमि को कलंकित करके रख ही दिया।

70 सदस्यीय उत्तराखण्ड की विधानसभा में 36 विधायकों वाली पार्टी सरकार बनाने का दावा पेश कर देती है। सन् 2017 से पूर्व किसी भी दल के पास ऐसा प्रचण्ड बहुमत नहीं था, जैसा इस मर्तबा 57 विधायकों का बहुमत भाजपा को मिला था। अब इसे राज्य का दुर्भाग्य कहा जाए या जनता द्वारा दिये गये जनादेश का अनादर कि ख़ुद उत्तराखण्ड राज्य बनाने वाली भाजपा, 57 विधायकों के बहुमत के बावजूद राज्य को स्थायित्व वाली सरकार देने में नाकाम रही और पाँच साल के अन्दर उसने मुख्यमंत्री ऐसे बदले, जैसे किसी ड्राइंग रूम के परदे। भाजपा ने चार साल में तीन मुख्यमंत्री बदल डाले। त्रिवेंद्र सिंह रावत को विधानसभा के बजट सत्र के बीच से बुलाकर इस्तीफ़ा ले लिया गया और सांसद तीर्थ सिंह रावत को बाग़डोर सौंप दी गयी। सांसद तीर्थ सिंह के साथ तो पार्टी ने ऐसा किया, जैसे राशन की लम्बी लाइन में थोड़ी देर के लिए पड़ोस के बच्चे को खड़ा कर देते हैं। चार माह से कम समय में तीर्थ सिंह रावत को भी पार्टी हाईकमान ने पूर्व मुख्यमंत्रियों की क़तार में खड़ा कर दिया और कुर्सी पर बिठा दिया युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को, जो पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोशियारी के शिष्य हैं।

राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का सबसे बड़ा विस्फोट तब हुआ जब मार्च, 2016 में कांग्रेस से बग़ावत करके 10 विधायक तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत को छोडक़र भाजपा के पाले में कूद गये। लेकिन आज हालात ये हैं कि इन 10 कांग्रेसी गौत्र के भाजपा विधायकों का स्वयं भाजपा में भी दम घुट रहा है और इनमें से जो कांग्रेस में वापसी का मन बना रहे हैं, उन्हें वहाँ भी पहले वाली इज़्जत मिलना मुश्किल है। राज्य में कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत और विधायक उमेश शर्मा काऊ खुले तौर पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर भी कर चुके हैं।

अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी 60 पार जाने का दम भर रही है। लेकिन भाजपा में जो 10 विधायक कांग्रेस गोत्र के हैं, उनकी वजह से पार्टी को असहजता तो महसूस हो ही रही है, साथ ही अपने वास्तविक और मूल कार्यकर्ताओं को भी अनजाने में भाजपा कहीं-न-कहीं नाराज़ कर रही है। हालाँकि इस पूरे क्षति नियंत्रण के लिए भारतीय जनता पार्टी ने उत्तराखण्ड में अपना चेहरा युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को ही घोषित किया है। वर्तमान हालात में कांग्रेस को देखा जाए, तो उनके पास खोने को कम है। सदन में उनकी संख्या वैसे ही 11 विधायकों की थी और इंदिरा हृदयेश के देहांत के बाद कांग्रेसी 10 की संख्या में ही हैं।

एक तो सदन में वैसे ही संख्या कम और ऊपर से कांग्रेस का परम्परागत अंतर्कलह; इन हालात में राजनीतिक विश्लेषक भी अगली विधानसभा में कांग्रेस के बारे में कोई स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत करने से कतरा रहे हैं। दिल्ली में लगातार तीन मर्तबा से सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी भी उत्तराखण्ड में अपनी ज़मीन तलाशने को इसलिए मैदान में कूद पड़ी है; क्योंकि दिल्ली की तर्ज पर उत्तराखण्ड में भी 70 सीटों की विधानसभा है और पार्टी को उम्मीद है कि दिल्ली के फार्मूले पर सरकारी स्कूलों और मोहल्ला क्लीनिक की बदौलत उत्तराखण्ड में सत्ता के गलियारों में प्रवेश पाया जा सकता है।

पार्टी ने कर्नल अजय कोठियाल को पार्टी का मुख्यमंत्री चेहरा घोषित किया है। स्वयं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सहित उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया दो-दो बार उत्तराखण्ड का दौरा करके वहाँ की जनता और युवाओं की नब्ज़ टटोलने की कोशिश कर चुके हैं। सत्ता में आने पर उत्तराखण्ड को देश की आध्यात्मिक राजधानी बनाने का वादा करने के साथ-साथ प्रत्येक परिवार को 200 यूनिट मुफ़्त बिजली और पलायन रोकने का वादा आम आदमी पार्टी ने किया है। हालाँकि सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी दल कांग्रेस आम आदमी पार्टी की इन घोषणाओं को कोरे शिगूफ़े क़रार दे रही हैं। लेकिन यह भी सच है कि मतदाता की नब्ज़ टटोलने में माहिर अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में दिवंगत पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा की प्रतिमा का अनावरण करके उनको जो श्रद्धांजलि दी है, उससे कांग्रेस और भाजपा, दोनों पहाड़ में नि:शब्द हैं।

बहरहाल आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बीच आम आदमी पार्टी ने कूदकर समीकरण तो निस्संदेह प्रभावित कर दिये हैं। इधर कांग्रेस की प्रदेश प्रवक्ता गरिमा मेहरा दसौनी के अनुसार, कांग्रेस पार्टी जनता के जीवन में परिवर्तन लाना चाहती है। जिस तरह से उत्तराखण्ड राज्य को बने हुए 21 साल हो जाने के बावजूद प्रदेश में मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। बेरोज़गारी महँगाई अपने चरम पर है। इन सबसे कांग्रेस प्रदेश की जनता को निजात दिलाना चाहती हैं।

भाजपा ने सन् 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान जनता के साथ बहुत बड़े-बड़े वादे किये। जैसे एक साल में 50,000 नौकरियाँ, 100 दिन के अन्दर लोकायुक्त देने का और महँगाई ख़त्म करने का वादा, किसानों का ऋण माफ़ करने का वादा; पर आज उन वादों पर खरा उतरना तो दूर की बात, भाजपा ने उत्तराखण्ड के लोगों के पीठ में छुरा घोंकने का काम किया है। जिस तरह से कोरोना वायरस के संकटकाल में भाजपा नेतृत्व के द्वारा कुप्रबन्धन और अव्यवस्थाएँ प्रदेश में पसरी पड़ी थीं, उससे जनता का भाजपा से मोह भंग हो चुका है। उत्तराखण्ड की जनता से कहा गया कि अगर वह भाजपा को बहुमत देगी, तो उत्तराखण्ड की शक्ल-सूरत बदल दी जाएगी। लेकिन पिछले पौने पाँच साल में प्रदेश के हर वर्ग, हर तबक़े ने ख़ुद को लाचार, बेबस और शोषित ही महसूस किया है। भाजपा की प्रचण्ड बहुमत की सरकार ने प्रदेश के इतिहास में पहली बार कई कीर्तिमान स्थापित किये। जैसे किसानों की आय दोगुनी करने वाली भाजपा ने प्रदेश में दो दर्ज़न से ज़्यादा किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया।

जीएसटी और नोटबन्दी के तले दबे हुए व्यापारियों में से एक व्यापारी ने तो मंत्री के जनता दरबार में आत्महत्या कर ली। भाजपा के तीन तीन दिग्गज नेताओं ने अपने ही दल की महिला कार्यकर्ताओं की अस्मिता के साथ खिलवाड़ किया। लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई।

पहली बार प्रदेश में घर-घर मोबाइल वैन से दारू बाँटी गयी। पहली बार पुलिसकर्मियों के परिजनों को अपने पेट की आग बुझाने के लिए ग्रेड-पे बढ़ाने की गुहार लगाने के लिए सरकार के ख़िलाफ़ सडक़ों पर उतरना पड़ा। प्रदेश में पहली बार देवस्थानम् बोर्ड के गठन के ख़िलाफ़ तीर्थ पुरोहितों को लगातार आन्दोलन करना पड़ा।

ज़िला विकास प्राधिकरण और भू-क़ानून जैसी कुनीतियों से भाजपा ने प्रदेश के नागरिकों का जीना दूभर कर दिया और प्रदेश की भूमि को बाहरी लोगों के हाथों गिरवी रख दिया। कांग्रेस पार्टी ने उत्तराखण्ड के युवाओं से वादा किया है कि रोज़गार के क्षेत्र में उत्तराखण्ड को नंबर-1 राज्य बनाएँगे, मॉडल राज्य बनाएँगे। हमारे घोषणा-पत्र की सभी योजनाएँ महिला केंद्रित होंगी। कांग्रेस पार्टी ने पहले भी जन्म से लेकर एक महिला के वृद्धावस्था तक, हर उम्र में किसी-न-किसी योजना के तहत ग़रीब घर की महिला को लाभान्वित किया। पेंशन लाभार्थियों की संख्या डेढ़ लाख से बढ़ाकर 7.5 लाख कर दी। प्रदेश के अन्दर दो मेडिकल कॉलेज, पाँच इंजीनियरिंग कॉलेज, 17 पॉलीटेक्निक, 27 आईटीआई, 32 डिग्री कॉलेज देने का काम किया।

सिडकुल / पिडकुल और उपनल जैसी संस्थाओं की स्थापना से स्थानीय युवाओं को रोज़गार दिलवाने में कांग्रेस ने ही अहम भूमिका निभायी। लेकिन आज डबल इंजन और प्रचण्ड बहुमत मिलने के बावजूद भाजपा ने जिस तरह से प्रदेश के विकास को तीन-तीन मुख्यमंत्री बदलकर बार-बार अवरुद्ध किया, उससे उसने न सिर्फ़ बेरोज़गारी बढ़ायी, बल्कि महँगाई में भी प्रदेश को देश में सर्वोच्च स्थान पर पहुँचाने का काम किया। कुम्भ, कोरोना जाँच घोटाले से लेकर सूर्य धार झील घोटाला हो या कर्मकार बोर्ड में धाँधली, हर तरफ़ तथाकथित शून्य सहिष्णुता (ज़ीरो टॉलरेन्स) की सरकार में भ्रष्टाचार अपने चरम पर रहा, जिसके ख़िलाफ़ भाजपा के ही विधायक पूरन फत्र्याल को विधानसभा में कार्य स्थगन प्रस्ताव लाना पड़ा। कांग्रेस ने उत्तराखण्ड की जनता से वादा किया है कि हम एक साफ़-सुथरी भ्रष्टाचार मुक्त पारदर्शी सरकार उत्तराखण्ड की जनता को देंगे।

वहीं भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता, विनय गोयल का दावा है कि अटलजी की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने उत्तराखण्ड का निर्माण किया, विशेष राज्य का दर्जा दिया, विशेष औद्योगिक पैकेज दिया और पिछले चुनाव में दिये नारे ‘अटल जी ने बनाया मोदी जी सँवारेंगे’ के अनुरूप ही पार्टी रोडमैप पर काम कर रही है। कोरोना-काल के दुष्प्रभाव के बावजूद डबल ईंजन सरकार में आलवैदर रोड, ऋषिकेश कर्णप्रयाग रेललाइन, भारतमाला आदि बड़ी महत्त्वाकांक्षी योजनाएँ उत्तराखण्ड के विकास की नयी कहानी लिख रही हैं। गोयल का मानना है कि उत्तराखण्ड को रिकॉर्ड तोड़ संसाधन भाजपा ने उपलब्ध कराये; जबकि कांग्रेस की तत्कालीन सरकार ने विषेश औद्योगिक पैकेज समय से पहले ही समाप्त कर विकासशील उत्तराखण्ड पर गहरी चोट की तथा भ्रष्टाचार के नित नये कीर्तिमान स्थापित करने वाली कांग्रेस की तत्कालीन प्रान्तीय एवं राष्ट्रीय सरकारों ने उत्तराखण्ड के विकास के लिए एक भी उल्लेखनीय योजना नहीं दी। जबकि उसमें स्वयं को उत्तराखण्ड का सबसे बड़ा नेता समझने वाले केंद्रीय मंत्री भी रहे और प्रदेश के मुख्यमंत्री भी।

अनेक बार कई सार्वजनिक मंचों एवं मीडिया चैनलों से खुली चुनौती दिये जाने के बाद भी भ्रष्टाचार पर आँखें मूँद लेने वाले ये कांग्रेसी वरिष्ठ नेता अपनी एक भी उपलब्धि बताने में असमर्थ रहे। जनता आश्वस्त है कि उत्तराखण्ड को भाजपा ने ही बनाया और भाजपा ही सँवारेगी।

इसके अतिरिक्त राज्य आन्दोलनकारी मंच के अध्यक्ष प्रदीप कुकरेती को इस बात का गहरा दु:ख है कि 21 वर्ष बीत जाने के बाद भी शहीदों को न्याय नहीं मिल पाया। आज तक कोई भी सरकार राज्य के शहीदों को न्याय नहीं दिला पायी। यहाँ तक किसी सरकार ने शहीदों की पैरोकारी के लिए अधिवक्ताओं का कोई तक पैनल नहीं बनाया। कुकरेती ने अफ़सोस जताते हुए पूछा कि आज 21 वर्षों बाद भी हमारे स्कूल के छात्रों के लिए राज्य की स्थायी राजधानी कहाँ है? इस प्रश्न का जवाब नहीं है। उत्तराखण्ड के साथ ही छत्तीसगढ़ और झारखण्ड भी बने थे; लेकिन वहाँ काफ़ी कुछ बेहतर हुआ है।

दोनों ही दल आज तक कोई स्पष्ट भू-क़ानून / रोज़गार / मूल निवास के साथ पलायन पर कोई ठोस और स्पष्ट नीति नहीं बना पाये। राज्य आन्दोलन में अपने प्राणों की आहूति देने वाले शहीद परमजीत सिंह के पिता नानक सिंह और शहीद सलीम अहमद के पिता अब्दुल रसीद पिछले दो साल से पेंशन के लिए ज़िला प्रशासन के चक्कर काट रहे हैं।

कुकरेती का कहना है कि मेरे द्वारा स्वयं ज़िलाधिकारी से लेकर शासन में गृह सचिव और मुख्यमंत्री तक को अवगत करा दिया गया; परन्तु परिणाम अभी भी शून्य है। यहाँ तक शहीद सलीम अहमद के परिजनों के घर की बिजली काट दी गयी। तब फोन पर उधमसिंह नगर के ज़िलाधिकारी को परिजनों की स्थिति बतायी और लॉकडाउन का हवाला देकर घर की बिजली सुचारू करवायी।

राजस्थान में बाल ‘विवाह का पंजीकरण’ अनिवार्य

राजस्थान विधानसभा में विवाह का अनिवार्य पंजीकरण संशोधन विधेयक पारित

हाल ही में राजस्थान विधानसभा में राज्य सरकार ने राजस्थान में विवाहों का अनिवार्य पंजीकरण संशोधन विधेयक ध्वनिमत से पारित करवा लिया। विपक्ष (भाजपा) और सरकार समर्थित विधायकों ने इस विधेयक का विरोध किया। नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया ने तो इसे काला क़ानून तक कह डाला है। विधानसभा में प्रतिपक्ष नेता गुलाबचंद कटारिया ने जिसे काला क़ानून कहा है, उसे जानना ज़रूरी है।

ग़ौरतलब है कि 17 सितंबर को राजस्थान विधानसभा में पारित क़ानून के मुताबिक, राज्य में होने वाले विवाहों के अनिवार्य पंजीकरण के अंतर्गत अब बाल विवाह का भी क़ानून के तहत पंजीकरण करवाया जा सकेगा। नये क़ानून में यह प्रावधान किया गया है कि अगर शादी के वक़्त लडक़े की आयु 21 साल व लडक़ी की आयु 18 साल से कम है, तो उसके माता-पिता को 30 दिन के भीतर ही इसकी सूचना पंजीकरण अधिकारी को देनी होगी। बाल विवाह के मामले में लडक़ा-लडक़ी के माता-पिता पंजीकरण अधिकारी को तय प्रारूप में ज्ञापन देकर सूचना देंगे। इसके आधार पर वह अधिकारी इस बाल विवाह को पंजीकृत करेगा।

बाल विवाह के पंजीकरण को लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष आमने-सामने आ गये हैं। संसदीय कार्यमंत्री शान्ति धारीवाल ने सरकार की ओर से सफ़ार्इ दी कि बाल विवाह के पंजीकरण का मतलब उन्हें वैधता देना नहीं है। बाल विवाह करने वालों के ख़िलाफ़ पंजीकरण करवाने के बाद भी पहले की ही तरह कार्रवाई की जाएगी। उसमें कोई रियायत नहीं दी गयी है। मंत्री धारीवाल ने तर्क दिया कि सरकार ने यह क़दम सर्वोच्च न्यायालय के सन् 2006 में दिये गये अहम फ़ैसले के मद्देनज़र उठाया है, जिसमें सभी तरह के विवाहों के अनिवार्य पंजीकरण का निर्देश जारी करने का उल्लेख है। मंत्री जहाँ इसके पीछे सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को आधार बता रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सदन में नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया ने कहा कि आप इसे लागू भले ही कर दें, लेकिन यह काला क़ानून ही रहेगा।

ग़ौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 2006 में सीमा बनाम अश्विनी कुमार के मामले में फ़ैसला देते हुए निर्देश दिये थे कि सभी प्रकार के विवाहों का पंजीकरण अनिवार्य होगा। देश में विवाह पंजीकरण अनिवार्य सम्बन्धी कोई केंद्रीय क़ानून नहीं है; लेकिन अधिकतर राज्यों ने अपने-अपने क़ानून बनाये हैं। विवाह पंजीकरण की अहमियत विशेषतौर पर महिलाओं के लिए अधिक है।

अक्सर बिना किसी ऐसे वैध दस्तावेज़ के अभाव में शादीशुदा महिलाओं को छोड़ दिया जाता है। पुरुष दूसरी शादी कर लेते हैं। महिलाएँ कई तरह के शोषण का अधिकार भी होती हैं। कई बार वे छोड़ दिये जाने पर भी पति से मुआवज़ा या हक़ भी नहीं माँग पातीं। ऐसी ही कई समस्याओं को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने विवाह पंजीकरण अनिवार्य करने के निर्देश जारी किये थे। अब राजस्थान सरकार ने अपने राज्य के क़ानून में संशोधन कर बाल विवाह का पंजीकरण भी अनिवार्य कर दिया है। अब इस बात की आशंका जतायी जा रही है कि कहीं आम लोग, ख़ासतौर पर गाँवों में- जहाँ बाल विवाह अधिक होते हैं; इसका मतलब बाल विवाह को वैध बनाने से न ले लें। बेशक सरकार कह रही है कि इस संशोधन का मतलब बाल विवाह के मामलों में कोई रियायत देना नहीं है; लेकिन ज़मीनी स्तर पर सरकार की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। वैसे भी राजस्थान देश के उन राज्यों की सूची में शामिल है, जहाँ बाल विवाह होते हैं।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, राजस्थान में इस समय क़रीब डेढ़ करोड़ बालिका वधू हैं। राजस्थान समाज की पहचान रूढि़वादी समाज वाली है। यहाँ लड़कियों को बोझ मानने वाली मानसिकता बरक़रार है। हालाँकि बाल विवाह को रोकने के लिए क़ानून तो बनाये गये; लेकिन इसके बावजूद यह कुप्रथा चिन्ता का विषय बनी हुई है। दुनिया भर के एक-तिहाई बाल विवाह भारत में होते हैं, जिसके चलते भारत के लिए यह कुप्रथा दुनिया भर में शर्मिंदगी का कारण बनी हुई है। सन् 1929 में शारदा अधिनियम बनाया गया, फिर सन् 1978 में और उसके बाद सन् 2006 में अधिनियम बना।

बाल विवाह को रोकने के लिए भारत सरकार ने 01 नवंबर, 2007 से बाल विवाह निषेध अधिनियम-2006 लागू किया। इसके तहत 21 साल से कम आयु के पुरुष और 18 साल से कम आयु की महिला की शादी को बाल विवाह की श्रेणी में रखा गया है, जिसे दण्डनीय अपराध माना गया है। साथ ही बाल विवाह सम्पन्न कराने वालों को भी इसके तहत दो साल की सज़ा या एक लाख का ज़ुर्माना या दोनों हो सकते हैं। किन्तु किसी महिला को कारावास में दण्डित नहीं किया जा सकता है। इस अधिनियम के तहत किये गये अपराध संज्ञेय और ग़ैर-जमानती हैं। दरअसल यह अधिनियम तीन उद्देश्यों को पूरा करता है- बाल विवाह की रोकथाम, बाल विवाह में शामिल बच्चों की सुरक्षा और अपराधियों पर मुक़दमा चलाना। यह अधिनियम न तो शादी करने वाले किसी पुरुष और न ही नाबालिग़ लडक़े से शादी करने वाली किसी महिला के लिए दण्ड का प्रावधान करता है। क्योंकि यह माना जाता है कि शादी का फ़ैसला अक्सर लडक़े-लडक़ी के परिवार वाले करते हैं और ऐसे फ़ैसलों में उनकी राय नहीं ली जाती और न ही मानी जाती है। इस अधिनियम में बाल विवाह के ख़िलाफ़ शिकायत करने का भी प्रावधान है और बाल विवाहों के मामलों की निगरानी के लिए बाल विवाह निषेध अधिकारी नियुक्त करने की भी व्यवस्था है।

इन अधिकारियों के पास बाल विवाह को रोकने, क़ानून का उल्लघंन करने वालों की रिपोर्ट बनाने, अपराधियों पर आरोप लगाने, जिसमें बच्चों के अभिभावक भी शामिल हो सकते हैं; के अधिकार हैं। इसके अलावा बच्चों को ख़तरनाक और सम्भावित ख़तरनाक हालात से बाहर निकालने का भी अधिकार दिया गया है। क़रीब एक अरब 40 करोड़ की आबादी वाले देश भारत के लिए बाल विवाह को ख़त्म करना एक बहुत बड़ी चुनौती है।

यूनिसेफ की सन् 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में उस समय 22 करोड़ 30 लाख बालिका वधू थीं। इनमें से 10 करोड़ से अधिक की शादी 15 साल की उम्र से पहले ही हो गयी थी। रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश में बालिका वधुओं की संख्य सबसे अधिक 3 करोड़ 60 लाख बतायी गयी। इसके बाद बिहार और पश्चिम बंगाल आते हैं, जहाँ यह संख्या 2 करोड़ 20 लाख प्रति राज्य है। बाल विवाह किसी बच्चे को अच्छे स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा के अधिकार से वंचित करता है। सेंटर फॉर रिसर्च नामक संगठन की निदेशक डॉ. रंजना कुमारी का मानना है कि बाल विवाहों के पीछे सामाजिक व आर्थिक हालात भी ज़िम्मेदार होते हैं। समाज में लड़कियों को लडक़ों से कमतर आँकने और बोझ समझने वाली मानसिकता को दूर करने के लिए बहुत प्रयास करने की ज़रूरत है। इस दिशा में सरकारी योजनाओं का ज़मीन पर अपेक्षित प्रभाव देने के लिए आर्थिक निवेश और सामाजिक पहल की दरकार है।

बाल विवाह का एक सम्बन्ध ग़रीबी और अनपढ़ता से भी है। कोविड-19 महामारी की मार ग़रीब, निम्न आय वाले तबक़ों पर अधिक पड़ी है। ग़रीबी के बढऩे और लॉकडाउन में स्कूलों के लम्बे समय तक बन्द रहने के कारण बाल विवाहों की संख्या में बढ़ोतरी की आंशका जतायी गयी है। बाल विवाह की अधिकतर शिकार लड़कियाँ ही होती हैं और इसके चलते उनका बचपन उनसे छीनकर उन्हें जबरन ऐसी ज़िन्दगी जीने को विवश कर दिया जाता है, जो उनके लिए बहुत जोखिम भरा होता है। देश में लड़कियों, महिलाओं में ख़ून की कमी (एनीमिया) एक बहुत बड़ी समस्या है। अल्पपोषित नाबालिग़ लड़कियाँ शादी के बाद कम उम्र में ही माँ बन जाती हैं, तो वे अधिकतर कुपोषित बच्चों को ही जन्म देती हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन का भी यही कहना है कि 15-19 आयु वर्ग की किशोरियों की मौत का प्रमुख कारण गर्भावस्था या शिशु को जन्म देने सम्बन्धी जटिलताएँ हैं। केंद्र सरकार के लिए यह शर्म से सिर झुका देने वाली बात है कि दुनिया के एक-तिहाई बाल विवाह भारत में होते हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने फरवरी, 2020 में अपने बजटीय भाषण में इस बात का ज़िक्र किया था कि सन् 1978 में सन् 1929 के शारदा एक्ट में संशोधन कर लड़कियों की शादी की नयूनतम उम्र 15 से बढ़ाकर 18 कर दी गयी, जिसका मक़सद बाल विवाह को ख़त्म करना था। अब वक़्त आ गया है कि जबरन और कम आयु में होने वाली शादियों को पूरी तरह से ख़त्म किया जाए, ताकि लड़कियाँ उच्च शिक्षा हासिल कर सकें और अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा कर सकें। दरअसल वित्त मंत्री का इशारा लड़कियों की शादी की उम्र वर्तमान न्यूनतम आयु 18 से और बढ़ाने की ओर था। केंद्र सरकार का मानना है कि सम्भवत: ऐसे क़दम उठाने से बाल विवाह कम हो जाएँ।

दूरसंचार क्षेत्र के लिए मुफ़्त सुविधाएँ ठोस समाधान नहीं!

मुफ़्तउपहार हमारे लिए कोई नयी चीज़ नहीं है। यह किसी समस्या को दूर करने का एक तरीक़ा ज़रूर है; लेकिन कोई ठोस समाधान नहीं। सरकार ने समायोजित सकल राजस्व (एजीआर) को फिर परिभाषित करके ठीक ही किया है, चाहे ठोस रूप से नहीं; लेकिन स्पेक्ट्रम के जीवन में 10 साल की वृद्धि करके एक क़दम बढ़ाया है। वित्तीय बाधाओं को दूर करके दूरसंचार क्षेत्र के लिए एक जीवन रेखा प्रदान की है। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सभी स्पेक्ट्रम और एजीआर बक़ाया पर चार साल की मोहलत दी है।

हालाँकि सरकार ने स्थगन अवधि के अन्त में भी शेष बक़ाया राशि को इक्विटी में बदलने का विकल्प बरकरार रखा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या दूरसंचार क्षेत्र जिन समस्यायों का सामना कर रहा है, उनका यह रामबाण इलाज है?

वोडाफोन, आइडिया और भारती एयरटेल इन नयी घोषणाओं के सबसे बड़े लाभार्थी हैं। इसमें कोई हैरानी नहीं कि भारती एयरटेल के चेयरमैन सुनील भारती मित्तल, रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी, आदित्य बिड़ला ग्रुप के चेयरमैन कुमार मंगलम बिड़ला और वोडाफोन ग्रुप के मुख्य कार्यकारी अधिकारी निक रीड ने इस क़दम का स्वागत किया है। मित्तल ने नीतिगत क़दमों को मौलिक सुधार बताया, जबकि जियो ने उन्हें इस क्षेत्र को मज़बूत करने की दिशा में समयबद्ध क़दम बताया। निक रीड ने सरकार के संकल्प की सराहना करते हुए कहा कि इससे भारत में प्रतिस्पर्धी और टिकाऊ दूरसंचार क्षेत्र मज़बूत होगा। वोडाफोन आइडिया के पतन से विदेशी निवेश आकर्षित करने में भारत की छवि प्रभावित होती। अब इन उपायों से कम्पनी को अल्पावधि में भारत में अपना परिचालन जारी रखने में मदद मिलेगी। सरकार द्वारा घोषित किये गये सुधार दूरसंचार क्षेत्र को अस्थिर करने में एक लम्बा सफ़र तय करेंगे।

सुधारों का स्वागत करते हुए एयरटेल के एमडी और सीईओ गोपाल विट्टल ने कहा कि नये सुधार इस रोमांचक डिजिटल भविष्य में निवेश करने के हमारे प्रयासों को और बढ़ावा देंगे और हमें भारत की डिजिटल अर्थ-व्यवस्था में अग्रणी खिलाडिय़ों में से एक बनाने में सक्षम करेंगे। हालाँकि अभी और अधिक करने की आवश्यकता है, फिर भी उद्योग की उचित वापसी सुनिश्चित करने के लिए यह एक स्थायी टैरिफ व्यवस्था की ओर जानी की कोशिश तो है ही।

भारत के सबसे बड़ी सेवा प्रदाता रिलायंस जियो की मूल कम्पनी रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी ने कहा कि दूरसंचार क्षेत्र अर्थ-व्यवस्था के प्रमुख प्रेरकों में से एक है और भारत को एक डिजिटल समाज बनाने के लिए प्रमुख प्रवर्तक है। भारत सरकार द्वारा सुधारों और राहत उपायों की घोषणा का स्वागत है। यह क़दम उद्योग को डिजिटल इंडिया के लक्ष्यों को हासिल करने में सक्षम बनाएगा। वोडाफोन पर जहाँ सरकार के क़रीब 50,000 करोड़ रुपये बक़ाया हैं, वहीं भारती एयरटेल पर सरकार के क़रीब 26,000 करोड़ रुपये बक़ाया हैं। वास्तव में राहत उपाय (बेलआउट) से घाटे में चल रही वोडाफोन-आइडिया और दो अन्य बड़े खिलाडिय़ों- भारती एयरटेल और रिलायंस जियो दोनों को फ़ायदा होगा। वोडाफोन आइडिया, जो बन्द होने के कगार पर था, उसके पास अन्तर आवृत्ति बैंड में कुल 1,849.6 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम है, जिसमें से 1,714.8 मेगाहर्ट्ज उदारीकृत है और इसका उपयोग किसी भी तकनीक (2जी, 3जी, 4जी या 5जी) के लिए किया जा सकता है। सन् 2014 से सन् 2016 के बीच नीलामी के माध्यम से प्राप्त 1316.8 मेगाहट्र्ज स्पेक्ट्रम केवल साल 2034 से 2036 तक वैध है। इस क़दम से मुख्य रूप से वोडाफोन आइडिया और भारती एयरटेल को लाभ होने की उम्मीद है, जो बड़े एजीआर बक़ाया से दु:खी हैं।

राहत से उनके वित्तीय बोझ को कम करने, क्षेत्र में नौकरियों को बचाने में मदद करने और उद्योग में बहुत ज़रूरी प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित करने की सम्भावना है। याद रहे कि वोडाफोन आइडिया ने अगस्त में अपने 23 जुलाई के आदेश की समीक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया था, जिसमें सरकार को एजीआर बक़ाया की गणना में त्रुटियों को ठीक करने की अनुमति देने के लिए कम्पनियों की याचिका ख़ारिज कर दी गयी थी।

विशेषज्ञों के अनुसार, दूरसंचार क्षेत्र को पुनर्जीवित करने के लिए सबसे अच्छी नीति यह होनी चाहिए कि किसी नवागंतुक को मुफ़्तस्पेक्ट्रम दिया जाए और कम्पनी के एक निश्चित बाज़ार हिस्सेदारी पर क़ब्ज़ा करते ही औसत सकल राजस्व पर लाइसेंस शुल्क लागू किया जाए। भारत अब स्वचालित मार्ग के माध्यम से इस क्षेत्र में 100 फ़ीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देता है। यह एक निवेशक के अनुकूल माहौल में वापसी का संकेत देता है, कम-से-कम काग़ज़ पर तो यही लगता है। वर्तमान में इस क्षेत्र में 100 फ़ीसदी एफडीआई की अनुमति है; लेकिन केवल 49 फ़ीसदी स्वचालित है। उस सीमा से ऊपर के किसी भी निवेश के लिए सरकार की मंज़ूरी की आवश्यकता होती है। केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा 100 फ़ीसदी एफडीआई, एजीआर से सम्बन्धित कम्प्यूटिंग बक़ाया पर राहत, समायोजित सकल राजस्व, बक़ाया पर चार साल की मोहलत और सरकार के लिए स्थगन अवधि समाप्त होने के बाद बक़ाया राशि को इक्विटी में बदलने का विकल्प राहत पैकेज के प्रमुख तत्त्व हैं। सरकारी राजस्व की रक्षा के लिए अधिस्थगन का लाभ उठाने वाली कम्पनियों को ब्याज देना होगा। यह फंड की सीमांत लागत आधारित उधार दर (एमसीएलआर) प्लस दो फ़ीसदी की दर से होगा। अन्य संरचनात्मक सुधार स्पेक्ट्रम उपयोगकर्ता शुल्क और लाइसेंस शुल्क और अन्य शुल्क के बारे में है।

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि पैकेज में कई उपाय शामिल हैं, जिनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण समायोजित सकल राजस्व (एजीआर) बक़ाया पर चार साल की मोहलत है। इसके अलावा एजीआर को युक्तिसंगत बनाया गया है। ग़ैर-दूरसंचार राजस्व को एजीआर की परिभाषा से सम्भावित आधार पर बाहर रखा जाना है।

एजीआर, सरकार और दूरसंचार कम्पनियों के बीच एक शुल्क-साझाकरण तंत्र है, जो लम्बे समय से एक विवादास्पद मुद्दा रहा है। सरकार ने दावा किया है कि एजीआर में दूरसंचार और ग़ैर-दूरसंचार सेवाओं दोनों से सभी राजस्व शामिल होना चाहिए, जबकि कम्पनियों का कहना है कि एजीआर केवल मुख्य सेवाओं से सम्बन्धित होना चाहिए। इसने वोडाफोन आइडिया पर लगभग 59,000 करोड़ रुपये और भारती एयरटेल पर लगभग 44,000 करोड़ रुपये का बोझ डाला है।

एकत्र की गयी जानकारी से पता चलता है कि वोडाफोन आइडिया पर बैंकों का 23,000 करोड़ रुपये से अधिक का बक़ाया है। उसे स्पेक्ट्रम शुल्क पर सरकार को 94,000 करोड़ रुपये का भुगतान भी करना होगा। फिर एजीआर बक़ाया अलग से है। अगर कम्पनी बन्द हो जाती है, तो बैंकों और सरकार को उनके देय राशि का एक अंश ही मिलेगा। कम्पनी आंशिक रूप से सरकार द्वारा लगाये गये कई शुल्कों और कर्तव्यों के कारण। बड़े पैमाने पर क़र्ज़ के कारण दिवालिया होने की ओर बढ़ रही थी। वोडाफोन आइडिया के पतन ने भारत का एकाधिकार कमज़ोर ही किया है।

कुछ महीने पहले कुमार मंगलम बिड़ला ने वोडाफोन आइडिया से ग़ैर-कार्यकारी निदेशक और ग़ैर-कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में इस्तीफ़ा दे दिया था। वेंचर में बिड़ला के पार्टनर वोडाफोन ग्रुप पीएलसी ने भी भारत में अपने ज्वाइंट वेंचर में कोई इक्विटी लगाने से इन्कार कर दिया। नतीजतन कम्पनी को दिवालियेपन का सामना करना पड़ा। वास्तव में अधिस्थगन दूरसंचार क्षेत्र को जीवन का एक नया अवसर देता है; लेकिन इसका लाभ उठाने वाली दूरसंचार कम्पनियों को भुगतान की अवधि के लिए ब्याज का भुगतान करना पड़ता है। उनके पास स्थगन के कारण होने वाले ब्याज भुगतान को इक्विटी में बदलने का विकल्प भी होगा, जिसे सरकार को सौंप दिया जाएगा। इससे पहले विभिन्न लाइसेंस प्राप्त सेवा क्षेत्रों या एलएसए में कई बैंक गारंटियों की आवश्यकता होती थी। अब एक ही बीजी काफ़ी होगा। इसके अलावा लाइसेंस शुल्क और स्पेक्ट्रम उपयोग शुल्क के विलंबित भुगतान के लिए दूरसंचार कम्पनियों को अभी भुगतान की तुलना में दो फ़ीसदी कम ब्याज दर का भुगतान करना होगा। जुर्माने पर ब्याज हटा दिया गया है। अब से आयोजित नीलामी के लिए क़िश्त भुगतान सुरक्षित करने के लिए किसी बीज की आवश्यकता नहीं होगी। उधर भविष्य की नीलामी के लिए स्पेक्ट्रम की अवधि 20 से बढ़ाकर 30 साल कर दी गयी है। भविष्य की नीलामी में हासिल किये गये स्पेक्ट्रम के लिए 10 साल बाद स्पेक्ट्रम के समर्पण की अनुमति दी जाएगी। निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए दूरसंचार क्षेत्र में स्वचालित मार्ग के तहत 100 फ़ीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दी गयी है। कैबिनेट ने इस क्षेत्र में व्यापार करने में आसानी को बेहतर बनाने के उपायों को भी मंज़ूरी दी है।

क्या कहती है सरकार?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने दूरसंचार क्षेत्र में कई संरचनात्मक और प्रक्रिया सुधारों को मंज़ूरी दी। सरकार कहती है कि उसका निर्णय रोज़गार के अवसरों की रक्षा और सृजन करने, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने, उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने, लिक्विडिटी को बढ़ावा देने, निवेश को प्रोत्साहित करने और दूरसंचार कम्पनियों पर नियामक बोझ को कम करने के लिए है। अपेक्षा ठीक है। लेकिन यह आर्थिक प्रमुखों के क दृष्टिकोण परिवर्तन पर निर्भर है। यह बेहतर होगा कि सरकारी अधिकारियों से इंडिया इंक को वह सम्मान वाला व्यवहार मिले, जिसके वो हक़दार हैं और नये विचारों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। यह दूरसंचार जैसे बीमार क्षेत्रों को फिर से सक्रिय करने में मदद करेगा। कैबिनेट का फ़ैसला एक मज़बूत दूरसंचार क्षेत्र के प्रधानमंत्री के दृष्टिकोण को पुष्ट करता है। प्रतिस्पर्धा और ग्राहकों की पसन्द के साथ समावेशी विकास के लिए अंत्योदय और असम्बद्ध को जोडऩे के लिए हाशिये के क्षेत्रों को मुख्यधारा और सार्वभौमिक ब्रॉडबैंड पहुँच में लाना अहम है। इस पैकेज से 4जी प्रसार को बढ़ावा देने, तरलता बढ़ाने और 5जी नेटवर्क में निवेश के लिए अनुकूल माहौल तैयार करने की भी उम्मीद है।

कांग्रेस में रहूंगा नहीं, भाजपा में जाऊंगा नहीं : अमरिंदर

पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने आज भाजपा की उम्मीदों को झटका देते हुए कहा कि वह कांग्रेस में तो रहेंगे नहीं, लेकिन भाजपा में भी नहीं जायेंगे। भाजपा के लोग पिछले काफी समय से यह प्रचार कर रहे थे कि अमरिंदर भाजपा में शामिल हो रहे हैं और उन्हें कृषि मंत्री बनाया जा रहा है जिससे किसान आंदोलन ख़त्म करने को को लेकर कोई रास्ता निकाला जा सके। हालांकि, आज खुद अमरिंदर सिंह इन अफवाहों की हवा निकाल दी।

अमरिंदर सिंह ने कहा कि वे जल्द ही सोनिया गांधी को अपना इस्तीफा सौंपेंगे। उन्होंने कहा कि वे और अपमान सहन नहीं कर सकते लिहाजा कांग्रेस से इस्तीफा दे देंगे। हालांकि, उन्होंने साफ़ तौर पर भाजपा में शामिल होने की अटकलों पर विराम लगा दिया। कैप्टन ने कहा – ‘नहीं, मैं भारतीय जनता पार्टी में शामिल नहीं होने जा रहा हूँ।

एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में वरिष्ठ नेता ने कहा – ‘मैं भाजपा में शामिल नहीं हो रहा हूं लेकिन कांग्रेस जल्द ही छोड़ूंगा। मुझे और अधिक अपमान सहन नहीं हो रहा है।’ कैप्टेन ने यह भी कहा कि ‘पंजाब में कांग्रेस का पतन हो रहा है और नवजोत सिंह सिद्धू बचकाना हरकत कर रहा है, जिसे पार्टी ने सदस्यता दी थी’।

अमरिंदर सिंह ने कहा – ‘मैं 52 साल से राजनीति में हूं। जिस तरह से मेरे साथ व्यवहार किया गया है उससे मैं अपमानित महसूस  हूँ। सुबह 10.30 बजे कांग्रेस अध्यक्ष कहते हैं कि आप इस्तीफा दें। मैंने कोई सवाल नहीं पूछा। शाम 4 बजे मैं राज्यपाल के पास गया और इस्तीफा दे दिया।’

उन्होंने कहा कि अगर उन्हें ( कांग्रेस नेतृत्व को) मुझ पर संदेह है और 50 साल के काम के बाद मेरी साख दांव पर है, अगर भरोसा नहीं है, तो मेरे पार्टी में रहने का क्या मतलब है?’ याद रहे अमरिंदर सिंह ने पिछले हफ्ते मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था, जिसके बाद चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया गया था। यह माना जाता है कि उनके इस्तीफे का कारण सिद्धू थे, जिनसे उनका छतीस का आंकड़ा है।

सिद्धू-चन्नी के बीच आज 3 बजे बैठक, एकाध विवादित नियुक्ति पलटने पर हो सकती है सहमति

File Photo

पंजाब कांग्रेस में चल रहे घमासान के बीच प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने वाले नवजोत सिंह सिद्धू आज शाम पंजाब भवन में मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी से मिलेंगे। खुद सिद्धू ने एक ट्वीट करके इसकी जानकारी दी है। माना जाता है कि यदि सिद्धू की तरफ से विरोध वाली एकाध नियुक्ति पर यदि फैसला हो जाता है, तो सिद्धू इस्तीफा वापस ले सकते हैं।

अपने ट्वीट में सिद्धू ने लिखा है कि मुख्यमंत्री चन्नी ने उन्हें शाम तीन बजे बातचीत के लिए बुलाया है। सिद्धू ने कहा कि वे इस बैठक में शामिल होंगे। सिद्धू ने कहा – उनका (सीएम) का बातचीत के लिए स्वागत है।

बता दें मंगलवार को नवजोत सिंह सिद्धू ने अचानक पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद पंजाब कांग्रेस में तूफ़ान उठ खड़ा हुआ था। उधर पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह दिल्ली में जिस तरह कल भाजपा के वरिष्ठ नेता और गृह मंत्री अमित शाह और आज राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल से मिले हैं, उसके बाद से यह चर्चा है कि वे पंजाब कांग्रेस में ही अपने राजनीतिक विरोधी नवजोत सिद्धू को घेरने की कोशिश कर रहे हैं।

यही नहीं अमरिंदर सिंह कांग्रेस के बागी नेताओं, जिन्हें जी-23 कहा जाता है, के साथ मिलकर पार्टी नेतृत्व के खिलाफ उनकी आवाज से आवाज मिला सकते हैं। अमरिंदर सिंह को लेकर भले भाजपा में जाने की बातें भी मीडिया में चल रही हैं, अभी तय नहीं है कि वे ऐसा करेंगे, या कब करेंगे।

उधर सिद्धू और चन्नी की आज की बैठक में उन मसलों पर बातचीत की सम्भावना है जिनपर खफा होकर सिद्धू ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया है। इनमें प्रदेश की कुछ नियुक्तियों के भी मसले हैं। पार्टी आलाकमान ने पहले ही निर्देश दिया हुआ है कि पंजाब की इस समस्या का हल प्रदेश इकाई खुद निकाले। उसी सिलसिले में चन्नी ने सम्भवता सिद्धू के साथ बैठक करने का फैसला किया है।

जानकारों का कहना है कि यदि इन मसलों को सुलटा लिया जाता है तो सिद्धू अपना इस्तीफा वापस ले सकते हैं। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो उनकी जगह आलाकमान नया अध्यक्ष बना सकती है, जो उसने पहले ही साफ़ कर दिया है।

जानकारी के मुताबिक के मुताबिक सिद्धू के सलाहकार उन्हें यह सुझाव दे रहे हैं कि उनका कोई कदम ऐसा नहीं होना चाहिए, जिससे यह सन्देश जाए कि उन्होंने पार्टी आलाकमान के खिलाफ  मोर्चेबंदी कर ली है, क्योंकि आलाकमान ने हाल की लड़ाई में उनका साथ दिया है। ऐसे में सिद्धू की कुछ बातें यदि मुख्यमंत्री चन्नी मान लें तो मसले का हल निकल सकता है।

सिद्धू को यह भी बताया गया है कि जितने वे कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण हैं, उतना ही एक मुख्यमंत्री के रूप में चन्नी का भी अपना अधिकार क्षेत्र है। लिहाजा उन्हें फैसले करने का अधिकार रहना चाहिए और और हर फैसले में हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए, नहीं तो उनपर ‘डमी मुख्यमंत्री’ होने का ठप्पा लग जाएगा और विपक्ष इसका फायदा उठाएगा। हाँ, दागी लोगों को ओहदे देने पर बातचीत हो सकती है।

जानकारी के मुताबिक सीएम चन्नी सिद्धू की कुछ मांगों पर सहमति दे सकते हैं, और हाल की एकाध विवादित नियुक्ति पर फैसला पलटा जा सकता है। यह माना जाता है कि इनमें डीजीपी, एक मंत्री की नियुक्ति विवाद के केंद्र में है।

अमित शाह से मिले अमरिंदर; पीएम और कांग्रेस के असंतुष्टों से भी मिलेंगे!

अमित शाह से करीब एक घंटे की मुलाकात के बाद पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस से नाराज चल रहे कैप्टेन अमरिंदर सिंह कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं के खेमे (जी-23) से भी मिल सकते हैं। चर्चा यह भी है कि सीमावर्ती राज्य पंजाब की सुरक्षा और किसानों की मांगों के मसले पर वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल से भी मिल सकते हैं, हालांकि इसकी अभी पुष्टि नहीं हुई है। उधर पंजाब में कांग्रेस अध्यक्ष पद से नवजोत सिंह सिद्धू के इस्तीफे पर अभी भी जंग चली हुई है और कोई हल नहीं निकल पाया है।

कैप्टेन अमरिंदर सिंह, जिन्होंने कल दिल्ली पहुँचने पर एयरपोर्ट पर पत्रकारों से कहा था कि वे किसी भी राजनीतिक नेता से नहीं मिलेंगे, ने 24 घंटे के भीतर आज शाम केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की। समझा जाता है कि उन्होंने नवजोत सिद्धू पर ‘देश की सुरक्षा के लिए खतरा’ वाले जो आरोप लगाए थे, उसी सिलसिले में वे शाह से मिले हैं। इसके अलावा किसानों के मसले पर भी चर्चा होने के कयास हैं।  उनकी मुलाकात एक घंटे तक चली। अभी यह साफ़ नहीं है कि क्या उन्होंने अपने आरोपों के पक्ष में कोई दस्तावेज भी गृह मंत्री को दिए हैं या नहीं।

यह दिलचस्प है कि खुद अमरिंदर सिंह को उनके विरोधी पाकिस्तानी पत्रकार अरूसा से कथित रिश्ते के कारण घेरते रहे हैं। यह लोग आरोप लगाते रहे हैं कि पाकिस्तानी पत्रकार से तब पंजाब के मुख्यमंत्री से मिलना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा हो सकता है।

चर्चा है कि सीमावर्ती राज्य पंजाब की सुरक्षा के मसले पर वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल से भी मिल सकते हैं, हालांकि इसकी अभी पुष्टि नहीं हुई है। अभी यह साफ़ नहीं है कि क्या कैप्टेन भाजपा में जाने की सोच रहे हैं या उनका इरादा सिद्धू को घेरने का ही है। इसका कारण यह भी है कि आज दिन में कांग्रेस के असंतुष्ट खेमे के नेता अचानक काफी सक्रिय दिखे।

कपिल सिब्बत ने जहाँ बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस करके नेतृत्व को फिर घेरने की कोशिश की वहीं गुलाम नबी आज़ाद ने अध्यक्ष सोनिया गांधी को एक पात्र लिखकर सीडब्ल्यूसी की बैठक तत्काल बुलाने की मांग की है। मनीष तिवारी ने भी एक तरह से आलाकमान के खिलाफ ही बात की है। बहुत दिलचस्प बात यह है कि सबने पंजाब की सुरक्षा का मसला उठाया। सबकी एक तरह की भाषा से जाहिर होता है कि यह सब योजनावद्ध तरीके से हो रहा है।

उधर पंजाब में कांग्रेस अध्यक्ष पद से नवजोत सिंह सिद्धू के इस्तीफे पर अभी भी जंग चली हुई है और कोई हल नहीं निकल पाया है। सिद्धू क्या फैसला करेंगे, इसकी अभी कोई जानकरी नहीं है। कहा जा रहा है कि कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें कुछ समय दिया है कि वे अपना इस्तीफा वापस ले लें अन्यथा नए अध्यक्ष को लेकर पार्टी फैसला करेगी।

पंजाब में सिद्धू के पक्ष में दो मंत्रियों के अलावा पार्टी के कुछ पदाधिकारियों ने भी इस्तीफे दिए हैं। आज मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी भी सिद्धू से मिले हैं। फिलहाल कोई हल नहीं निकला है।

यह चर्चा रही है कि कांग्रेस के असंतुष्ट अपना अलग गुट बना सकते हैं या कोई नई पार्टी भी सकते हैं। एनसीपी नेता शरद पवार पहले ही तीसरे मोर्चे को खड़ा करने की कोशिश में जुटे हैं। ऐसे में जी-23 के नेताओं की सक्रियता राजनीतिक लगती है।

सिद्धू का पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा

पंजाब की राजनीति पल-पल बदल रही है। पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के दिल्ली जाने और भाजपा में शामिल होने की चर्चा के बीच प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया है।

सिद्धू ने खुद इस बात की पुष्टि की है कि उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। अपने इस्तीफे में सिद्धू ने कहा कि वे पंजाब के भविष्य से समझौता नहीं कर सकते न ही अपने मूल्यों से। सिद्धू दो महीने पहले ही पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष बनाये गए थे।

सिद्धू ने कहा कि वे कांग्रेस में ही रहेंगे। उनके इस्तीफे पर आलाकमान क्या फैसला करती है, यह देखना होगा।

युवाओं में हार्ट रोग की शिकायतें तेजी से बढ़ी

हर साल की तरहा इस साल भी विश्व हार्ट दिवस के अवसर पर हार्ट रोग विशेषज्ञों ने कहा कि हार्ट रोग अब जागरूकता के अभाव में बुजुर्गों में ही नहीं बल्कि युवाओं को भी अपनी चपेट में ले रहा है। एम्स के हार्ट रोग विशेषज्ञ डाँ राकेश यादव का कहना है कि खान-पान में अनियमितता और तलीय पदार्थों के अत्याधिक सेवन से हार्ट रोग के मामलें बढ़ रहे है। मैक्स अस्पताल के कैथ लैब के डायरेक्टर डाँ विवेका कुमार का कहना है। कि तामाम शोधों से ये जानकारी हासिल हो रही है कि मानसिक तनाव और मोटापा की चपेट में आने से युवाओं को हार्ट रोग की शिकायतें तेजी से बढ़ी है।

डाँ विवेका का कहना है कि मधुमेह, उच्च रक्तचाप और हाई कोलेस्ट्राल के कारण हार्ट रोग की संभावना बढ़ जाती है। उन्होंने बताया कि जिन को सीनें में दर्द के साथ बैचेनी हो और वायें हाथ में दर्द हो तो उसे नजर अंदाज ना करें। मैक्स अस्पताल के हार्ट ट्रांस प्लांट विशेषज्ञ डाँ केवल किशन का कहना है कि चिकित्सा के क्षेत्र में हो रही तरक्की का लाभ मरीजों को मिल रहा है। डाँ केवल ने कहा कि जो रोगी हार्ट ट्रांसप्लांट करवा चुके रोगी भी पूरी तरह से स्वस्थ्य है। डाँ केवल किशन ने बताया कि अभी तक  उन्होंने जितने भी हार्ट रोगियों के हार्ट ट्रांसप्लांट किये वे सामान्य जीवन व स्वस्थ्य जीवन यापन कर रहे है।उन्होंने बताया कि जिन रोगियों के हार्ट कमजोर है। उनको समय रहते इलाज करवाना बहुत जरूरी है।

इंडियन हार्ट फाउंडेशन के अध्यक्ष एवं हार्ट रोग विशेषज्ञ डाँ आर एन कालरा ने बताया कि भागमदौड़ व तनाव भरी जिन्दगी के कारण युवाओं में हार्ट रोग जैसी बीमारी पनप रही है। उनका कहना है कि अगर अचानक घबराहट के साथ पसीना आता हो तो उसे नजरअंदाज ना करें। गले में वाये हाथ में दर्द के साथ बैचेनी को नजर अंदाज ना करें। ये हार्ट रोग के लक्षण हो सकतें है।