Home Blog Page 611

दिल्ली पुलिस प्रमुख के रूप में अस्थाना की नियुक्ति पर सवाल क्यों?

गुजरात कैडर के 1984 बैच के भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी राकेश अस्थाना की सेवानिवृत्ति से चार दिन पहले दिल्ली पुलिस आयुक्त के रूप में हुई नियुक्ति पर सवाल उठने लगे। 27 जुलाई, 2021 को उनकी नियुक्ति हुई। अब अस्थाना का कार्यकाल एक वर्ष और होगा। उनकी इस नियुक्ति पर सर्वोच्च न्यायालय में दो याचिकाएँ दायर कर आरोप लगाया गया है कि इस नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन किया गया है। सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन एनजीओ ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों और केंद्र सरकार के विभिन्न नियमों के कथित उल्लंघन के आधार पर सेवानिवृत्ति से ठीक चार दिन पहले आईपीएस अधिकारी राकेश अस्थाना की दिल्ली के पुलिस आयुक्त के रूप में नियुक्ति को चुनौती दी है। अधिवक्ता प्रशांत भूषण के माध्यम से दायर याचिका में एनजीओ ने राकेश अस्थाना की नियुक्ति के आदेश को रद्द करने की माँग की है।
याचिका में कहा गया है कि अस्थाना को दिल्ली पुलिस आयुक्त के रूप में नियुक्त करने वाली केंद्र की नियुक्ति समिति (एसीसी) और केंद्र द्वारा जारी 27 जुलाई के आदेश को रद्द करने की ज़रूरत है और पुलिस आयुक्त के रूप में नियुक्ति के लिए एजीएमयूटी कैडर से एक अधिकारी को चुनने के लिए एक नयी नियुक्ति प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए। एजीएमयूटी अरुणाचल प्रदेश, गोवा मिजोरम और दिल्ली सहित अन्य केंद्र शासित प्रदेशों के लिए एक कैडर है।
इससे पहले वकील मनोहर लाल शर्मा द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में एक अवमानना याचिका दायर की गयी थी। इसमें कहा गया था कि अस्थाना की नियुक्ति प्रकाश सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय के 13 मार्च, 2019 के फ़ैसले के विपरीत है, जिसमें पुलिस महानिदेशक के रूप में नियुक्ति के लिए किसी भी अधिकारी को छ: महीने के शेष कार्यकाल की आवश्यकता होती है। अस्थाना के पास 27 जुलाई को सेवानिवृत्त होने के लिए चार दिन थे। वकील मनोहर लाल शर्मा द्वारा 30 जुलाई को दायर याचिका में कहा गया है कि अस्थाना की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय के जुलाई, 2018 के फ़ैसले का उल्लंघन है, जिसमें कहा गया था कि संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) को चाहिए कि ऐसी नियुक्तियों के लिए उन अधिकारियों पर विचार करें, जिनकी दो वर्ष की सेवा शेष है।
गृह मंत्रालय के आदेश में कहा गया है कि राकेश अस्थाना, जो सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के महानिदेशक के रूप में कार्यरत थे; को तत्काल प्रभाव से एक वर्ष के कार्यकाल के लिए दिल्ली पुलिस आयुक्त के रूप में नियुक्त किया गया है। इस साल जून में एस.एन. श्रीवास्तव की सेवानिवृत्ति के बाद दिल्ली के पुलिस आयुक्त बालाजी श्रीवास्तव को पुलिस आयुक्त का अतिरिक्त प्रभार दिया गया था।
ग़ौरतलब है कि राकेश अस्थाना पहले भी विवादों में रह चुके हैं। एक एनजीओ कॉमन कॉज ने कुछ साल पहले अस्थाना की विशेष निदेशक के रूप में नियुक्ति को इस आधार पर चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया था कि उनका नाम स्टर्लिंग बायोटेक- एक कम्पनी, जिसकी सीबीआई द्वारा काले धन को वैध बनाने (मनी लॉन्ड्रिंग) के लिए जाँच की जा रही थी; से ज़ब्त की गयी 2011 की डायरी में था। अस्थाना का नाम प्राथमिकी में नहीं था; लेकिन सम्भवत: उनकी अपनी एजेंसी द्वारा चल रही जाँच का विषय था। अस्थाना एक भ्रष्टाचार घोटाले में सीबीआई के विशेष निदेशक आलोक वर्मा के साथ रिश्वतख़ोरी के विवाद में फँस गये थे। दोनों ने एक-दूसरे पर घूसख़ोरी का आरोप लगाया, और बाद में केंद्रीय सतर्कता आयोग की सिफ़ारिश पर सरकार ने उन्हें छुट्टी पर जाने
को कहा।
यह सबसे असामान्य मामला था। क्योंकि देश के इतिहास में पहली बार भारत की प्रमुख पुलिस जाँच एजेंसी के एक सेवारत शीर्ष अधिकारी की नियुक्ति पर सवाल उठाया गया था। ख़ास बात यह थी कि उसी एजेंसी द्वारा भ्रष्टाचार के मामले में उनकी जाँच की जा रही थी। सम्बन्धित व्यक्ति राकेश अस्थाना को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के मंत्रिमंडल की नियुक्ति समिति द्वारा जारी एक आदेश पर सीबीआई के विशेष निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया था। इस नियुक्ति को ग़ैर-सरकारी संगठन कॉमन कॉज द्वारा दायर एक जनहित याचिका (पीआईएल) याचिका के माध्यम से इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि अस्थाना ‘त्रुटिहीन’ व्यक्ति नहीं है।
अस्थाना ने अपने करियर में कई महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य किया है, जिनमें वड़ोदरा के पुलिस महानिरीक्षक, अहमदाबाद शहर के संयुक्त पुलिस आयुक्त और सूरत और वड़ोदरा में पुलिस आयुक्त के पद शामिल हैं। वह 2002 में कुख्यात गोधरा ट्रेन अग्निकांड की जाँच के लिए गुजरात सरकार द्वारा नियुक्त विशेष जाँच दल (एसआईटी) का हिस्सा थे।
अस्थाना कथित तौर पर सत्ता के क़रीब हैं। अप्रैल, 2016 में अस्थाना को सीबीआई के अतिरिक्त निदेशक के रूप में तैनात किया गया था। बाद में उन्होंने अनिल सिन्हा के सीबीआई निदेशक के रूप में पद छोडऩे के बाद कुछ समय के लिए सीबीआई के कार्यवाहक / अंतरिम निदेशक के रूप में भी कार्य किया।
पिछले एक दशक में यह पहली बार था कि सीबीआई का नेतृत्व एक महीने से अधिक समय तक पूर्णकालिक निदेशक द्वारा नहीं किया गया था, यानी जब तक आलोक वर्मा को सीबीआई निदेशक के पद पर नियुक्त नहीं किया गया था। बाद में भारत सरकार द्वारा सीवीसी की सिफ़ारिश पर वर्मा और अस्थाना को छुट्टी पर भेजने पर वर्मा सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करने के लिए गये और अस्थाना दिल्ली उच्च न्यायालय में। दिल्ली उच्च न्यायालय ने वर्मा को छुट्टी पर भेजने के फ़ैसले को रद्द कर दिया और वर्मा को दो महीने बाद सीबीआई निदेशक के रूप में बहाल कर दिया गया। इस निर्देश के साथ कि जब तक चयन समिति भ्रष्टाचार के आरोपों पर उनके भाग्य का फ़ैसला नहीं करती, तब तक वह कोई बड़ा फ़ैसला नहीं लेंगे।
उनके खाते में कई महत्त्वपूर्ण मामले हैं, जिन्हें उन्होंने सफलतापूर्वक सँभाला। राकेश अस्थाना ने अपने करियर में चारा घोटाला सहित कई संवेदनशील मामलों को सँभाला है। एक ऐसा भ्रष्टाचार, जिसमें बिहार के ख़जाने से क़रीब 9.4 बिलियन (940 करोड़) रुपये का गबन शामिल था और इस मामले में पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ नेता लालू प्रसाद यादव के ख़िलाफ़ आरोप-पत्र दायर किया गया था। एक अन्य उच्चस्तरीय (हाई प्रोफाइल) मामले में अस्थाना ने डीजीएमएस महानिदेशक को धनबाद में रिश्वत लेते पकड़ा। उन्हें 26 जुलाई, 2008 को अहमदाबाद में हुए बम विस्फोट की जाँच की ज़िम्मेदारी भी दी गयी थी और उन्होंने कथित तौर पर एक महीने से भी कम समय में मामले को सुलझा लिया था। राकेश अस्थाना ने बापू आसाराम और उनके बेटे नारायण साईं के मामले की भी जाँच की थी। फ़रार नारायण साईं को हरियाणा-दिल्ली सीमा पर पकड़ा गया था।
नव नियुक्त दिल्ली पुलिस आयुक्त का पदभार ग्रहण करने के बाद मीडिया के साथ अपनी पहली बातचीत में अस्थाना ने कहा- ‘दिल्ली पुलिस का अतीत शानदार रहा है। बल द्वारा अतीत में बहुत अच्छा काम किया गया है। बहुत से जटिल मामलों को सुलझाया गया है। दिल्ली पुलिस ने बहुत-सी जटिल परिस्थितियों को सँभाला है। मैं समूह कार्य (टीम वर्क) में विश्वास करता हूँ और मुझे उम्मीद है कि इस समूह कार्य से हम समाज की बेहतरी और शान्ति के प्रसार के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने में सक्षम होंगे।’
इस बीच दिल्ली पुलिस आयुक्त के रूप में अपने पहले बड़े फ़ैसले में राकेश अस्थाना ने सात आईपीएस अधिकारियों का तबादला कर दिया। शायद यह अहसास दिलाते हुए कि वह नये मालिक (बॉस) हैं।
(उपरोक्त विचार लेखक के अपने हैं।)

नियुक्ति को चुनौती देने के आधार
 प्रकाश सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी निर्देशों का उल्लंघन।
 राकेश अस्थाना का कम-से-कम छ: महीने का शेष कार्यकाल नहीं था।
 कम-से-कम दो साल के कार्यकाल के मानदंड को नज़रअंदाज़ किया गया।
 नियम 56(डी) का उल्लंघन, जो यह निर्धारित करता है कि किसी भी सरकारी सेवक को 60 वर्ष की सेवानिवृत्ति की आयु के बाद सेवा में विस्तार प्रदान नहीं किया जाए।
 अखिल भारतीय सेवा (सेवा की शर्तें-अवशिष्ट मामले) नियम, 1960 के नियम-3 के तहत केंद्र के पास अखिल भारतीय सेवा (मृत्यु सह-सेवानिवृत्ति लाभ) नियम, 1958 के नियम-16(1) में अस्थाना को सेवा का विस्तार देने के लिए ढील देने का अधिकार नहीं था।
 कार्मिक विभाग और प्रशिक्षण कार्यालय ज्ञापन दिनाँक 08.11.2004 के तहत निर्धारित अखिल भारतीय सेवा अधिकारियों की अंतर्-संवर्ग प्रतिनियुक्ति पर नीति का उल्लंघन।
 दिल्ली पुलिस आयुक्त की नियुक्ति के लिए कोई यूपीएससी पैनल नहीं बनाया गया था; और दो साल के न्यूनतम कार्यकाल के मानदंड की अनदेखी की गयी।

विश्व मानवता दिवस पर विशेष दुनिया में जगानी होगी मानवता की अलख

भूमंडलीकरण के इस भौतिकवादी दौर में आज जिस तरह से वैश्विक स्तर पर मानवीय मूल्यों में पतन देखा जा रहा है, वह बेहद दु:खद है। लेकिन मानव मूल्यों और मानवता की रक्षा करना ही मानव का पहला धर्म है। ऐसे ही मानव सेवा में लगे लोगों को उचित सम्मान देने के लिए प्रति वर्ष 19 अगस्त को विश्व मानवता दिवस मनाया जाता है। लोगों में मानवता की भावना जगाने के उद्देश्य से आरम्भ किया गया यह महत्त्वपूर्ण दिवस विपरीत परिस्थितियों में जोखिम उठाकर या अपनी जान की बाज़ी लगाकर मानवता की सेवा करने वाले लोगों को समर्पित है।
आज जहाँ मध्य-पूर्व के देश आपसी संघर्ष और भीषण हिंसा से गुज़र रहे हैं, वहीं दक्षिण एशिया में साम्प्रदायिक राजनीति तथा आतंकवाद ने अपनी जड़ें जमा ली है, जिससे दुनिया के कई हिस्सों में करोड़ों लोग परेशान हैं। आतंकवादी हमले कब, कहाँ हो जाएँ, किसी को इसके बारे में कुछ नहीं पता। आज अमेरिका से लेकर ऑस्ट्रेलिया जैसे लोकतांत्रिक देशों तक में नस्लीय हमले अक्सर देखने को मिल जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में पश्चिमी देशों में विश्व को स्तब्ध करने वाली कई हृदयविदारक घटनाएँ घटी हैं। बेहद निराशाजनक बात यह है कि आज विश्व के कई देशों में मानवाधिकारों का गला घोंटा जा रहा है और भेदभावपूर्ण क़ानून बनाये जा रहे हैं।
दु:खद बात यह है कि दुनिया के अलग-अलग देशों में आज भी करोड़ों लोग तानाशाही शासन व्यवस्था के अन्दर जी रहे हैं, जहाँ उन्हें सामान्य नागरिक अधिकार भी प्राप्त नहीं हैं और उनका लगातर शोषण किया जा रहा है। जबकि कुछ देश तो अलग विचारधारा रखने के कारण अपने ही नागरिकों पर बम बरसा रहे हैं या उन पर भयंकर अत्याचार कर रहे हैं। सीरिया, अफ़ग़ानिस्तान, दक्षिण सूडान, लीबिया, कांगो गणराज्य, नाइजीरिया, म्यांमार जैसे देश इसका सटीक उदाहरण हैं, जहाँ मानवता हर पल कराह रही है। इन देशों में हैवानियत का नंगा नाच जारी है और यहाँ आज गृहयुद्ध जैसे हालात हैं। आतंक और हिंसा की डर की वजह से इन देशों के करोड़ों नागरिक आज दूसरे देशों में शरणार्थी की ज़िन्दगी जीने को मजबूर हैं।
यह दु:खद बात है कि दुनिया के कई देशों के नागरिकों को आज भी दो वक़्त का भोजन तक नसीब नहीं हो पा रहा है। कई लोग यहाँ आज भी भूख से मर रहे हैं और ग़रीबी के कुचक्र में गम्भीर रूप से फँसे हैं। कोरोना महामारी ने लोगों के समक्ष कई तरह की गम्भीर मुसीबतें खड़ी कर दी हैं। हालाँकि बहुतेरे सरकारी संस्थान तथा अंतर्राष्ट्रीय संगठन मानवता की सेवा में लगकर स्थिति को बेहतर बनाने में लगे हैं; लेकिन दुनिया के अनुभव हमें यह बताते हैं कि केवल सरकारी मदद और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रयासों से ऐसी मुसीबतों से पूरी तरह नहीं निपटा जा सकता। हमें इन समस्याओं से निजात पाने के लिए वैश्विक स्तर पर व्यक्तिगत प्रयास करने होंगे, ताकि इस दुनिया को बेहतर बनाया जा सके। आज दुनिया में सैकड़ों क़ानूनों के बावजूद लगातार गम्भीर अपराध घटित हो रहे हैं। हत्या और बलात्कार जैसे संगीन अपराध को आज दुनिया के लगभग हर देश में अंजाम दिया जा रहा है। यह तब है, जब हमारे सभी धार्मिक ग्रन्थ हमें मानवता की सेवा करना सिखाते हैं। आज इंसान अपनों की मदद से ही कतराता है। निजी स्वार्थ मानवता की सेवा पर भारी पड़ता जा रहा है।
आज हर मानव को कबीर दास, गुरु नानक, सन्त रैदास, ज्योतिबा फुले, महात्मा गाँधी, मदर टेरेसा तथा नेल्सन मंडेला जैसी मानवतावादी विभूतियों के जीवन से प्रेरणा लेने की ज़रूरत है।
हमें याद रखना होगा कि हिंसा और युद्ध मानव जीवन की बर्बादी के सबसे बड़े कारण हैं। अहिंसा, प्रेम, दया और मानवता के द्वारा ही हम दुनिया के लोगों की सोच में बदलाव ला सकते हैं और एक दूसरे के प्रति प्यार तथा सम्मान की भावना को बढ़ा सकते हैं। ध्यान रहे कि 19 अगस्त, 2003 में संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिनिधि व मानवतावादी सर्जियो विएरा डी. मेलो और उनके 21 सहकर्मियों को इराक़ की राजधानी बग़दाद में एक आतंकवादी हमले में उड़ा दिया गया था। कुछ वर्षबाद इस दिन को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने विश्व मानवता दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। इस साल यह मिशन 12वें वर्ष में प्रवेश कर गया है। हिंसक संघर्ष, आतंकवाद और गहरी निराशा के इस दौर में यह दिवस हमें बेसहारा तथा ज़रूरतमंद लोगों की सेवा को प्रेरित करता है।
इतिहास हमें सीख देता है कि अहिंसावादी विचारों को अपनाकर ही विश्व में शान्ति स्थापित की जा सकती है। आइए, हम उन लोगों को श्रद्धांजलि दें, जिन्होंने मानव सेवा के लिए बड़े-बड़े जोखिम उठाये और कइयों ने जान तक गँवा दी। साथ ही हम भी मानवता को बचाने का प्रयास करें, तभी सही मायने में विश्व मानवता दिवस सफ़ल होगा।
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं।)

चमकते चेहरों के काले कारनामे

क्या कालिख सफ़ाई अभियान मस्तक देखकर टीका लगाने के मानिंद होती है? अथवा मछलियाँ ही इतनी बड़ी होती हैं कि सरकार के जाल छोटे पड़ जाते हैं? सियासी गणिताई में इन सवालों के जवाब मुश्किल हैं। लेकिन भ्रष्टाचार के इस गटर को खँगालें, तो चौंकाने वाले ऐसे चमकते चेहरों पर कई अलग-अलग मुखौटे नज़र आएँगे, जो अपने धतकर्मों को छिपाने के लिए उन मुखौटों पर शराफ़त का एक बड़ा मुखौटा लगाये मिलेंगे; या फिर लोगों का दुलार पाने के लिए क़िस्म-क़िस्म की नोटंकियाँ करते नज़र आएँगे।
इस फ़ेहरिश्त में नेताओं तो हैं ही, लेकिन अफ़सर भी उनसे कम नहीं हैं। अगर राजस्थान के अफ़सरान की बात रें, तो इस क़तार में पहला नाम प्रशासनिक टाइगर नीरज पवन का है। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री से मान-सम्मान और पुरस्कार पा चुके नीरज लोगों की नज़र में कितने पवित्र थे, इसे समझने के लिए पाली के लोगों का उनके प्रति वह प्यार था, जिसे वह उनकी ईमानदारी देखकर करते थे। दरअसल ज़िला कलेक्टर रहते हुए उनके तबादले के विरोध में पूरा शहर उमड़ पड़ा था। उनके प्रति लोगों के दुलार की वजह की तह में ढेरों मिसालें गिनायी जा सकती हैं। उन्होंने शिकायतों के निस्तारण के लिए ‘हेल्पलाइन 1040’ का गठन किया। कृषि आयुक्त रहे हुए पवन ने ‘कोबरा टीम’का गठन किया; ताकि नक़ली खाद, बीज के कारोबार पर नकेल कसी जा सके। ऐसा पहली बार हुआ, नतीजतन पवन किसानों के चहेते बन गये।
गुर्जर समस्या के समाधान के मामले में नीरज पवन न सिर्फ़ अशोक गहलोत, बल्कि वसुंधरा राजे के भी दुलारे बन गये थे। लोगों का यहाँ तक कहना है कि आईएएस लॉबी में सबसे ज़्यादा रुतबा नीरज पवन का था। नीरज पवन पहले ऐसे अधिकारी थे, जो गाँवों में रात्रि में चौपाल लगाकर लोगों की समस्याएँ सुनते थे। ऐसे प्यारे, दुलारे नौकरशाह जब भ्रष्टाचार की काई पर फिसले, तो लोग सन्न रह गये। इसके बाद तो उनके धत्कर्मों की खिड़कियाँ खुलती चली गयीं। लोगों को हैरत थी कि गंगाजल की तरह पवित्र अफ़सर का कोई बदरंग मुखौटा कैसे हो सकता है? बहरहाल पवन जाँच एजेंसी के दरपेश हैं। लेकिन सवाल है कि मुखौटे पर मुखौटा लगाकर चैन की बंसी बजाने वाले प्रशासनिक अफ़सरों की क़तार आख़िर क्यों ख़त्म होने का नाम नहीं लेती?
इसमें कोई शंका नहीं कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भ्रष्टाचार के प्रति कठोर रवैया रखते हैं, तभी तो भ्रष्टाचारी असरों की एक-एक करके पोल खुलती जा रही है। पिछले ढाई साल इस दृष्टि से सचमुच बेमिसाल रहे कि सरकार के सर्वोच्च स्तरों पर हर महीने भ्रष्टाचार के नये मामले उजागर हुए। लेकिन इसके बावजूद एक साल पहले चार लाख की घूस लेते रंगे हाथों पकड़े गये खनन विभाग के संयुक्त सचिव बी.डी. कुमावत रिहा हो गये।


ऐसे एक नहीं, अनेक प्रकरण हैं; जिनमें एसीबी ने भ्रष्टाचार के आरोपी अफ़सरों को दबोचा; लेकिन उनमें कई बच गये। अगस्त, 2018 में एसीबी ने सार्वजनिक निर्माण विभाग के दो बड़े अफ़सरों डी.पी. सैनी और गुलाब चंद गुप्ता को रिश्वत लेते पकड़ा था। लेकिन इनके ख़िलाफ़ भी कोई ख़ास क़ानूनी कार्रवाई नहीं हो सकी। क्या ये दोनों अफ़सर अपने काले मुखौटों पर शराफ़त का कोई ऐसा मुखौटा लगाये थे, जिसके नीचे दबे धत्कर्म दिखायी नहीं दिये?
अफ़सरों के भ्रष्टाचार और जालसाज़ी को संरक्षण देने का करोड़ी मामला तो बुरी तरह अचंभित करता है। जयपुर से महाराष्ट्र तक रची गयी इस जालसाज़ी में तीन आरएएस स्तर के अफ़सर और चार कनिष्ठ अधिकारी लिप्त थे। लेकिन पता नहीं ऐसा कौन-सा दबाव पड़ा कि राज्य सरकार इन अफ़सरों पर मुक़दमा तक नहीं चला पायी।
दरअसल इन अफ़सरों ने पहले तो 671 एकड़ ज़मीन के लिए निजी क्षेत्र की हस्तियों से मिलकर नियमों के पुर्जे़ उड़ाते हुए ज़मीन के टुकड़े कर डाले फिर उनके नाम से खाताधारकों ने मुम्बई से और फिर करोड़ों का क़र्ज़ ले लिया। घोटाले का बवंडर उठा तो उड़ते तिनकों ने कई कहानियाँ बाँच दीं। जब घोटाले का ख़ुलासा हुआ तो नीयत, बदनीयत के कई खेल भी चल पड़े।


दरअसल महाराष्ट्र सरकार तो चाहती थी कि इस ज़मीन की नीलामी की जाए, जबकि एसीबी के अफ़सर चाहते थे कि भ्रष्टाचार की धाराएँ लगाकर आरोपी अफ़सरों पर मुक़दमा चल भ्रष्टाचार की धाराएँ लगाकर। पर इन अफ़सरों पर भी कोई कार्रवाई न हो सकी। जालसाज़ी के इस खेल की कोडिय़ाँ कैसे चली गयी? इसके केंद्र में भी बीकानेर के चक्रगर्वी गाँव की 671 एकड़ भूमि, जो सिर्फ़ एक ही व्यक्ति के नाम पर थी; जबकि उस व्यक्ति के नाम निर्धारित बीघा से अधिक रक़बा नहीं होना चाहिए। नतीजतन ज़मीन सीलिंग एक्ट में आ गयी। इसे सीलिंग से बचाने के लिए तत्कालीन उप पंजीयन से गठजोड़ कर पक्षों के नाम से ज़मीन की रजिस्ट्री करा दी गयी।
सन् 2014 में मुम्बई में एनएसईएल घोटाला हुआ था, जिसमें यह ज़मीन भी शामिल थी। मुम्बई की इकोनॉमी ऑफिस विंग ने इस ज़मीन को अटैच करके नीलामी की तैयारी कर ली। इसमें भी एक नया खेल चला। खेल की कौडिय़ाँ चलते हुए आरोपी पक्ष ने बीकानेर नगर विकास न्यास में गोल्फ रिसोर्ट के नाम पर ज़मीन 90-ए के तहत करने का प्रस्ताव रख दिया।
दिलचस्प बात है कि मामला सीलिंग एक्ट में लम्बित होने के बावजूद न्यास के सचिव अरुण प्रकाश ने आवेदन स्वीकार कर लिया। अरुण के तबादले के बाद तत्कालीन एडीएम दुर्गेश बिस्सा को न्यास सचिव का चार्ज सौंपा गया। लेकिन उन्होंने अनाधिकृत रूप से 90-ए का आदेश जारी कर दिया। जबकि ऐसा आदेश केवल संभागीय आयुक्त ही जारी कर सकते थे।
इस खेल में जो अफ़सर शामिल थे, वे सरकारी महकमों में अहम पदों पर तैनात थे। इस मामले में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने सन् 2015 में एफआईआर दर्ज की थी। जाँच अधिकारी सी.पी. शर्मा ने पड़ताल में दाग़ी अफ़सरों पर सारे मामले सही पाये। नतीजतन उन्होंने जुलाई, 2018 में आरोपियों के ख़िलाफ़ चार्जशीट पेश करने के लिए अभियोजन की इजाज़त माँगी; लेकिन पता नहीं क्या हुआ? लेकिन आरोपियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हो सकी। इस मामले के जानकार बताते हैं कि सरकार से इजाज़त मिलने पर इस मामले में आदेश जारी किये जाएँगे। लेकिन एक बात यह भी सामने आयी कि फाइल तो अफ़सरों के बीच ही घूम रही है। इस बात की पुष्टि तत्कालीन जाँच अधिकारी सी.पी. शर्मा के बयान से होती है, जिन्होंने कहा था कि अभियोजन के लिए फाइल भेज दी थी। अब आगे की जानकारी अजमेर चौकी के अफ़सर ही दे सकते हैं। इंतज़ार तो इंतज़ार ही होता है।

महीना वसूली


राज्य में पैसों के लालची घूसख़ोरों की ताक़त और हिम्मत के आगे अंतर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोध दिवस भी बौना ही रहा। इस दिन भी नोकरशाह घूसख़ोरी का खेल खेलने से बाज़ नहीं आये। इन पर नज़र गड़ाने में भ्रष्टाचार निरोधक विभाग के अधिकारी भी पीछे नहीं रहे। यह बात दिलचस्पी से परे नहीं कि भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने अपने ही एक अफ़सर अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक भैरूलाल मीणा को बँधी हुई माहवार वसूली करते रंगे हाथों पकड़ा। भ्रष्टाचार निरोधक दिवस पर मीणा सुबह अपने दफ़्तर में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ भाषण दे रहे थे। इसके दो घंटे बाद ही वह ख़ुद रिश्वत लेते पकड़ गये। दोसा के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक मनीष अग्रवाल ने पहले ख़ुद रिश्वत माँगी और बाद में दलाल को आगे कर दिया। मनीष अग्रवाल पर हाईवे बनाने वाली एक कम्पनी से 31 लाख और दूसरी कम्पनी सेे 38 लाख वसूलने का आरोप है। मनीष ने पीडि़त को यह कहते हुए धमकाया कि ज़िले का एसपी हूँ। मेरी मर्ज़ी के बग़ैर तेरा काम नहीं चल सकता। दौसा के एसडीएम पुष्कर मित्तल और बांदीकुई एसडीएम पिंकी मीणा भी पाँच लाख रुपये की रिश्वत लेते धरे गये। पेट्रोल पम्प लीज के नवीनीकरण के मामले में एक लाख की रिश्वत लेते पकड़े गये बारां के ज़िला कलेक्टर इंद्रसिंह राव का अब तक का सेवाकाल पूरी तरह दाग़दार रहा है। 31 साल के अपने कार्यकाल में इंद्रसिंह अब तक छ: अलग-अलग कारणों से पदच्युत किये जा चुके हैं। चार साल पहले इन्हें पदोन्नत कर राजस्व मंडल में लगा दिया गया था। लेकिन सन् 2014 में राव बारां कलेक्टर पद पर नियुक्त हो गये। सूत्र इस तैनाती में सियासी मुश्क का हवाला देते हुए कहते हैं कि बारां में राव की तैनाती ऐसे ही तो नहीं हो गयी। इंद्रसिंह अधीक्षक सींखचों के बाहर नहीं आये।

विपक्षी एकता का धरातल

देश की सियासत करवटें बदल रही है। जो कभी पराये हुआ करते थे, उनको अपना बनाया जा रहा है। सारे विपक्षी दल एकजुटता दिखाने के प्रयास कर रहे हैं, ताकि केंद्र सरकार को घेरकर 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा, ख़ासकर मोदी को हराया जा सके। लेकिन सियासी एकता के सूत्र बनते ही टूटने लगते हैं।

देश में मौज़ूदा समय में पेगासस और किसान आन्दोलन जैसे बड़े मुद्दों को लेकर कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े की अगुवाई में सभी विपक्षी दलों ने एकता दिखायी और भाजपा की जन-विरोधी नीतियों को जनता के बीच लाने के लिए आपसी सहमति से रणनीति भी बनी। लेकिन ऐसा क्या हो गया कि यह एकता चंद घंटे के अन्दर ही टूटी-सी दिखने लगी? जब जंतर-मंतर पर 6 जुलाई को किसानों के आन्दोलन तक कांग्रेस की अगुवाई में राहुल गाँधी के नेतृत्व में विपक्षी दलों के नेताओं को पहुँचना था, तो वहाँ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और आम आदमी पार्टी (आप) की ओर से कोई नेता नहीं दिखा।

किसानों के समर्थन में राहुल गाँधी की यात्रा और जंतर-मंतर पर प्रदर्शन में इन तीनों दलों के नेताओं के शामिल न होने पर तरह-तरह के राजनीतिक कयास लगाये जा रहे हैं। यह इसलिए भी, क्योंकि टीएमसी और आप, दोनों पार्टियाँ किसानों के साथ खुलकर खड़ी हैं। बसपा का मानना है आगामी साल में पंजाब और उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं। इसलिए पार्टी उत्तर-प्रदेश और पंजाब में चुनाव को देखते हुए अपनी राजनीति के हिसाब से ही फ़ैसला लेगी; न कि कांग्रेस के मुताबिक। पंजाब में बसपा का गठबन्धन अकाली दल से है। अगर वह कांग्रेस के नेतृत्व में जाती है, तो पंजाब की सियासत में बसपा और अकाली दल गठबन्धन पर विपरीत असर पड़ेगा। ऐसे में अगर कांग्रेस को सही मायने में विपक्षी दलों का साथ चाहिए, तो उसे अकाली दल को भी सम्मान देना पड़ेगा। बसपा का यह भी मानना है कि उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनाव लिहाज़ से बसपा ही एक ऐसी पार्टी है, जो दोनों राज्यों में भाजपा को टक्कर दे सकती है। टीएमसी का कहना है कि सियासत में अपना-पराया बनते देर नहीं लगती है। टीएमसी सूत्रों का कहना है कि कहीं कांग्रेस ममता बनर्जी को रोकने की सियासी चाल तो नहीं चल रही है। वहीं आम आदमी पार्टी का कहना है कि विपक्षी नेता मल्लिकार्जुन खडग़े की अगुवाई में रैली में शामिल होने की बात हुई थी, न कि राहुल गाँधी की अगुवाई में शामिल होने की। इसलिए पार्टी इस रैली से दूर हुई है।

सियासत में एक तीर से कई निशाने साधे जाते हैं। क्षेत्राय दल भली-भाँति जानते हैं कि देश की सियासत में कांग्रेस दूसरे नंबर की सबसे बड़ी पार्टी है। ऐसे में क्षेत्रीय दल अपनी ज़मीन को कांग्रेस के हवाले कैसे कर सकते हैं। क्योंकि माना यह भी जा रहा है कि पंजाब और उत्तर प्रदेश के विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस अपने खोये हुए जनाधार को वापस पाने के लिए रूठे हुए मतदाताओं को लुभाने के प्रयास में है। ऐसे में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के कन्धों पर बंदूक रखकर निशाना साधनी चाहती है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि पंजाब में कांग्रेस को विरोधी लहर का सामना करना पड़ सकता है। पंजाब में कांग्रेस के मौज़ूदा हालात ठीक नहीं बताये जा रहे। पंजाब में प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिद्धू और मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह के बीच सब कुछ ठीक नहीं है, जिसका नुक़सान पार्टी को चुनाव में उठाना पड़ सकता है। हालाँकि राहुल गाँधी के तेज़ी से सक्रिय होने से समीकरण बदल सकते हैं।

बता दें कि आगामी वर्ष 2022 के शुरू में पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं और अन्त में दो अन्य राज्यों के भी चुनाव सम्भव हैं। ऐसे में अगर भाजपा, विशेषकर मोदी का विजयी रथ रोकना है, तो इन राज्यों में भी विपक्षी दलों को ममता बनर्जी की रणनीति अपनाते हुए भाजपा को पश्चिम बंगाल की तरह पटखनी देनी होगी, अन्यथा 2024 में उन्हें हराना बहुत मुश्किल होगा। इसके लिए विपक्षी दलों को निजी स्वार्थ साधने से ज़्यादा एकजुट होना होगा। अन्यथा विपक्षी एकता का धरातल कमज़ोर ही रह जाएगा।

झारखण्ड सरकार गिराने की साज़िश या कुछ और मामला!

झारखण्ड की हेमंत सरकार को गिराने के लिए विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त से राज्य की राजनीति में भूचाल आता, उसके पहले ही तीन लोग पुलिस की गिरफ़्त में आ गये। यूँ तो इस मामले में आरोपियों के बयान और तीन विधायकों का नाम सामने आने के अलावा अभी तक कुछ भी ख़ुलासा नहीं हुआ है। लेकिन राजनीतिक गलियारे में इस कांड को लेकर चर्चा ज़ोरों पर है। इसकी तपिश 3 सितंबर से शुरू होने वाले झारखण्ड विधानसभा के सत्र में दिखेगी। झामुमो के नेतृत्व में चल रही कांग्रेस और राजद गठबंधन वाली हेमंत सरकार को गिराने की साज़िश का आरोप भाजपा पर लग रहा है। लेकिन एक निर्दलीय और कांग्रेस के दो विधायकों के नाम सार्वजनिक होने के बाद मामला दिलचस्प हो गया है। जानकार तो यह भी कर रहे हैं कि इस खेल में इन तीन विधायकों के अलावा परदे के पीछे सत्ताधारी दल के भी कई विधायक हैं। बहरहाल इस कथित साज़िश को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं।

झारखण्ड की राजधानी रांची के एक होटल से 22 जुलाई को राज्य पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किये गये अभिषेक दुबे, अमित सिंह और निवारण प्रसाद महतो ने मौज़ूदा गठबंधन की हेमंत सरकार को गिराने की साज़िश का बयान दिया। उन्होंने विधायकों के नाम लिये बग़ैर ख़ुलासा किया कि वे कांग्रेस विधायकों के सम्पर्क में थे। साथ ही बताया कि यह साज़िश महाराष्ट्र भाजपा के नेता चंद्रशेखर राव बावनकुले और चरण सिंह ने व्यवसायी जयकुमार बेलखेड़े के साथ मिलकर रची है। वह तीन विधायकों को लेकर दिल्ली गये। दिल्ली में द्वारिका स्थित होटल विवांक में भाजपा के कुछ नेताओं से मुलाक़ात करवायी। विधायकों को अग्रिम राशि के तौर पर एक करोड़ रुपये देने थे। जब उन्हें राशि नहीं मिली, तो तीनों विधायक नाराज़ होकर वापस लौट गये। इसके बाद फिर से विधायकों से सम्पर्क शुरू हुआ। इसी सिलिसले में आरोपी रांची स्थित होटल में रुके थे। इन सभी बातों के तीनों आरोपियों ने सुबूत भी दिये हैं। पुलिस ने तीनों आरोपियों के ख़िलाफ़ राजद्रोह, धोखाधड़ी, प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट जैसे कई मामलों के तहत मामला दर्ज किया है। लेकिन दिल्ली जाने के हवाई टिकट मिलने, सोशल मीडिया पर उनकी तस्वीरें वायरल होने और होटल में जाने के सुबूतों की बिना पर कांग्रेस विधायक इरफ़ान अंसारी व उमशंकर अकेला और निर्दलीय विधायक अमित कुमार यादव का नाम निकलकर सामने आया। चर्चा है कि इस कांड का ख़ुलासा कांग्रेस के ही विधायक जयमंगल सिंह द्वारा रांची के एक थाने में सरकार गिराने की साज़िश की एफआईआर दर्ज कराने के कारण हुआ। हालाँकि एफआईआर में भी किसी का नाम नहीं है। इसी एफआईआर के बाद रांची के होटल से तीन लोग पकड़े गये। विधायक दल के नेता आलमगीर ने कह रहे हैं कि पुलिस मामले की जाँच कर रही, सच्चाई सामने आ जायेगी।

कांग्रेस का आरोप और सफ़ार्इ

हमेशा की तरह कांग्रेस ने भाजपा पर राज्य सरकार को अस्थिर करने का आरोप लगाया। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष रामेश्वर उरांव ने तो यहाँ तक कह दिया कि भाजपा बंगाल जीत जाती, तो झारखण्ड सरकार को खा जाती।

सरकार गिराने के मामले में भाजपा पर बहुत-से आरोप हैं। लेकिन यह भी सच है कि कांग्रेस में अंदरूनी कलह कम नहीं है। सरकार के गिरने की चर्चा जब भी आती है, तो सबसे कमज़ोर कड़ी कांग्रेस विधायकों को ही माना जाता है। इसकी मुख्य वजह पार्टी के राष्ट्रीय व प्रदेश नेतृत्व से उनकी नाराज़गी मानी जा रही है। सरकार से नाराज़गी तो है ही। विधायकों में असन्तुष्टि इस बात से ज़ाहिर है कि वे अपने ही प्रदेश अध्यक्ष, मंत्री और सरकार के ख़िलाफ़ बोलने से भी नहीं चूकते। हालाँकि कांग्रेस विधायक दल नेता आलमगीर आलम ने तो यह तक कह दिया कि कोई भी कहीं जा सकता है। साथ जाने का मतलब यह तो नहीं कि सरकार गिराने की साज़िश चल रही थी। हमारे विधायक एकजुट हैं। गठबंधन की सरकार मज़बूत है और अपना कार्यकाल पूरा करेगी। वहीं कांग्रेस के दोनों विधायक इरफ़ान अंसारी और उमाशंकर अकेला ख़ुद को साज़िश के तहत फँसाने की बात कहकर ख़ुद को कांग्रेस का सच्चा सिपाही बता रहे हैं। वे दिल्ली जाने की वजह व्यक्तिगत कार्य बता रहे हैं।

भाजपा पर सन्देह की वजह

जिन राज्यों में भाजपा विपक्ष में अच्छी स्थिति में है, वहाँ सरकार गिराने का आरोप उस लगता रहा है। मध्य प्रदेश, कर्नाटक, गोवा, राजस्थान, पश्चिम बंगाल इसके गवाह हैं। हालाँकि भाजपा सभी आरोपों का हमेशा खण्डन करती रही है। झारखण्ड में सरकार गठन के लिए 41 विधायक चाहिए। मौज़ूदा सरकार के पास झामुमो के 30, कांग्रेस के 18 (झाविमो से गये प्रदीप यादव और बंधु तिर्की को मिलाकर), राजद का एक और राकांपा के एक विधायक को मिलाकर 50 विधायकों का समर्थन है। सीपीआई और दोनों निर्दलीय विधायक स्पष्ट रूप से सरकार के साथ नहीं हैं। हालाँकि दोनों निर्दलीय विधायकों ने राज्यसभा में भाजपा उम्मीदवार का साथ दिया था। भाजपा के 26 विधायकों (झाविमो से गये बाबूलाल मरांडी को मिलाकर) के साथ मुख्य विपक्षी दल है। भाजपा का गठबंधन आजसू के साथ है, जिसके दो विधाय हैं। यानी भाजपा को सरकार बनाने के लिए कम-से-कम 13 विधायकों के समर्थन की ज़रूरत होगी। वहीं सरकार को अल्पमत में लाने के लिए कम-से-कम 10 विधायकों को तोडऩा होगा।

भाजपा कांग्रेस पर ही आक्रामक

इस प्रकरण को लेकर कांग्रेस दो हिस्सों में बँटी है। एक हिस्सा सरकार के साथ मिलकर 20 सूत्रीय कार्यक्रम और निगरानी समिति के बँटवारे के ज़रिये इस मामले को शान्त करने और टिप्पणी से बचने के प्रयास में लगा है। वहीं दूसरे हिस्से के लोग कांग्रेस की फ़ज़ीहत और बदनामी से नाराज़ हैं। वे सरकार को बाहरी समर्थन देकर मामले का पटाक्षेप चाहते हैं। कांग्रेस विधायक दीपिका पांडेय कह रही हैं कि कांग्रेस का चीरहरण हो रहा है।

वहीं भाजपा कांग्रेस पर ही आक्रामक रवैया अपनाये हुए है। भाजपा नेताओं का कहना है कि सरकार के गठबंधन दलों में मतभेद है। सभी एक-दूसरे के ख़िलाफ़ हैं। यह सरकार ख़ुद गिर जाएगी। भाजपा विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी ने कह रहे हैं कि अगर पकड़े गये तीनों आरोपी हैं, तो तीनों विधायक कैसे आरोपी नहीं हैं? पुलिस उनके ख़िलाफ़ मामला दर्ज क्यों नहीं कर रही?

प्रकरण पर सवाल

झारखण्ड सरकार गिराने की साज़िश और विधायकों के ख़रीद-फरोख़्त मामले में सवालों की झड़ी लग रही है। मसलन, तीनों विधायकों का एक साथ जाने का कार्यक्रम कैसे बन गया? तीनों का एक ही पीएनआर पर हवाई टिकट कैसे बुक हुआ? तीनों विधायक दिल्ली में द्वारिका स्थित होटल विवांता में क्या कर रहे थे? दिल्ली में किन भाजपा नेताओं से मुलाक़ात हुई? इरफ़ान, अकेला और अमित साज़िश की बात कर रहे हैं। आख़िर ये साज़िशकर्ता कौन हैं? तीन विधायकों से सरकार गिर नहीं सकती है, तो क्या इस कांड में और भी विधायक हैं? और अगर हैं, तो कौन-कौन हैं? एफआईआर दर्ज कराने वाले विधायक जयमंगल सिंह को किस-किस पर शक था? इस पूरे प्रकरण का मुख्य किरदार कौन है? मुम्बई के दो नेताओं का झारखण्ड से क्या लेना-देना? उनका भाजपा में क्या किरदार है और कितनी पहुँच है? इन सवालों का जवाब देने से सभी दल कतरा रहे हैं, तो पुलिस जवाब तलाशने में धीमी गति से काम कर रही है।

ठंडे बस्ते में मामला!

निर्दलीय विधायक सरयू राय ने इस प्रकरण को लेकर एक ट्वीट में लिखा- ‘विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त से झारखण्ड में सरकार गिराने का बहु-प्रचारित मामला अंतत: राजनीतिक नादानी का नायाब उदाहरण साबित होगा। जाँच अधिकारी अपना काम पूरा कर लेंगे। सम्भव है कि निश्चित निष्कर्ष पर भी पहुँच जाएँगे। मगर इसके पीछे की असली बात सामने लाने में रुचि न सरकार की होगी, न प्रतिपक्ष की।’

सरयू राय की यह बात धीरे-धीरे सही भी लगने लगी है। यह सोचने वाली बात है कि अगर कोई व्यक्ति सरकार गिराने के लिए विधायकों को लेकर दिल्ली जाएगा, तो वह हवाई अड्डे से तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल करेगा? पुलिस की कहानी कितनी हास्यास्पद है?

इस बात का अंदाज़ा इससे भी लगाया जा सकता है कि रांची के एक होटल में अपनी असली पहचान के साथ विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त के लिए कोई रुकेगा और तोलमोल करेगा? अभी तक जो भी बातें सामने आयीं हैं, वो सीधे-सीधे गले नहीं उतर रहीं।

दिल्ली और मुम्बई से पुलिस घूमकर वापस लौटी, पर कोई अधिकारिक बयान नहीं दे रही है। अभी तक जिन तीन विधायकों के नाम सामने आये हैं, उनसे कोई पूछताछ नहीं हुई है।

सूत्रों की मानें, तो पुलिस भी मामले को ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश कर रही है। हालाँकि इस मामले में न्यायालय में एक जनहित याचिका भी दाख़िल की गयी है। अगर न्यायालय का हस्तेक्षप नहीं हुआ, तो हो सकता है कि इस कांड पर से परदा न भी उठे।

 

 

“यह गठबन्धन के अंतर्विरोध का सबसे निकृष्ट उदाहरण है। झामुमो कांग्रेस को अपने नियंत्रण में रखना चाहता है। सत्ता के लिए कांग्रेस कितना समझौता करेगी? कांग्रेस पार्टी कितने दिन अपमान सहती है? यह झारखण्ड की जनता देखना चाहती है। सरकार गिराने की साज़िश और विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त एक स्क्रिप्टेड स्टोरी से ज़्यादा कुछ भी नहीं है। इस स्क्रिप्टेड स्टोरी के लेखक ही सारा माजरा बता सकते हैं।”

दीपक प्रकाश,भाजपा प्रदेश अध्यक्ष

 

“अपने विधायकों से बातचीत करके प्रथम दृष्टया विधायक दल के नेता को जो लगा, उन्होंने मीडिया में वह बयान दिया। वह अपनी रिपोर्ट आलाकमान को भी देंगे। पुलिस अपना काम कर रही है। उस पर कोई दबाव नहीं है; वह जाँच करे। विधायकों के टूटने की कोई बात नहीं। कांग्रेस के विधायक एकजुट हैं। भाजपा सरकार को अस्थिर करना चहती है। लेकिन यह सम्भव नहीं है। इसलिए शासन में धौंस जमाने के लिए सरकार गिराने की अफ़वाह फैलाती रहती है।”

राजेश ठाकुर, कार्यकारी अध्यक्ष कांग्रेस

बच्ची से सामूहिक दुष्कर्म मामला न्याय में देरी क्यों?

परिजनों और समाज के लोगों ने सरकार तथा पुलिस से कहा- ‘दोषियों को हो फाँसी’

जब व्यवस्था में ही दोष हो और जिम्मेदारी किसी पर तय न हो, तो अराजकता मचनी सुनिश्चित है। मौज़ूदा सियासत कुछ इसी तरह की है कि कोई बड़ी वीभत्स घटना भी केवल सियासत का हिस्सा बन जाती है और पीडि़तों को या तो न्याय मिलता नहीं, या मिलना मुश्किल हो जाता है। शासन-प्रशासन पर ज़िम्मेदारी तय न होने से भी ऐसे कई मामले दबकर रह जाते हैं और दोषी बच जाते हैं। देश की राजधानी दिल्ली के पुराना नागलराया (कैंट एरिया) में कुछ दरिंदों ने नौ साल की बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार करके उसे ज़िन्दा जला दिया। दिल दहला देनी वाली यह घटना दरिंदों की हिम्मत और पुलिस प्रशासन की लापरवाही का जीता-जागता उदाहरण है।
ऐसी घटनाएँ सरकारों और पुलिस को चुनौती देकर ललकारती हैं कि तुम अपराधियों का कुछ नहीं कर सकते। ऐसी वीभत्स घटनाओं की पीड़ा जनता को होती है; लेकिन वह न्याय के लिए कुछ दिन के प्रदर्शन के अलावा कुछ नहीं कर पाती। क़ानून के हाथ बँधे लगते हैं और पुलिस हीला-हवाली का परिचय देते हुए जाँच करती है।
दिल्ली की इस घटना से क्रोधित लोगों ने भी लगातार न्याय की माँग की, तब जाकर दरिंदों को पुलिस हिरासत में न्यायालय ने भेजा। यह तब हुआ, जब न्यायालय में दायर एक याचिका में दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा ने आरोपियों को गवाहों और सुबूतों की पुष्टि करने के लिए पाँच दिन के रिमांड की माँग की। यानी न्याय अभी भी दूर सुबूतों के इंतज़ार में है।
पीडि़त परेशान हैं। न्याय माँग रहे हैं। बच्ची के साथ वहाँ के 55 वर्षीय पुजारी राधेश्याम, सलीम, लक्ष्मीनारायण और कुलदीप ने मासूम के साथ बारी-बारी से बलात्कार किया। जब बच्ची लहूलुहान हो गयी, तो वहीं श्मशान घाट में ज़िन्दा जला दिया। जब परिजनों को इस घटना का पता चला, तो वे और कुछ पड़ोसी दौड़े-दौड़े श्मशान घाट पहुँचे और जलती चिता को पानी से बुझाते हुए बच्ची के बुरी तरह जले शव को बाहर निकाला। लोगों ने पुलिस को इस वीभत्स घटना की तत्काल सूचना दी। ज़िन्दा जली बेटी के पैर और शरीर का कुछ ही हिस्सा जाँच-पड़ताल व पोस्टमार्टम के लिए बचा था। पुलिस ने शव का नज़दीकी अस्पताल में पोस्टामार्टम कराया। पुलिस ने बच्ची की माँ के बयान के आधार पर आरोपियों के ख़िलाफ़ भारतीय दंड संहिता की धारा-302 (हत्या), धारा-376 (बलात्कार) और धारा-506 (आपराधिक धमकी) के साथ-साथ बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो) व एससी / एसटी अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया। मृतक बच्ची के माता-पिता की सहमति के बिना बच्ची के शव का दाह संस्कार कर दिया गया।
घटना से पहले चारों आरोपी घटना स्थल के पास ही बैठकर शराब पी रहे थे। उन्होंने पानी भरने आयी अकेली बच्ची देखी, तो उसे कमरे में ले गये और दरिंदगी दिखा डाली। स्थानीय लोगों ने उन्हें पकडक़र पुलिस के हवाले किया।
ज़िला डीसीपी इंगित प्रताप सिंह का कहना है कि दिल्ली पुलिस इस मामले में 60 दिन के अन्दर ही चार्जशीट दाख़िल कर देगी। जो भी इस घटना से जो भी साक्ष्य जुटाने सम्भव हो सके, उन्हें जुटा लिया गया है। वारदात के वैज्ञानिक सुबूत भी जुटाये गये हैं। आरोपियों के कपड़ों और कमरे को सील कर दिया है। जो जाँच में काम आएँगे। मुख्य आरोपी के घर और शरीर से सभी बायोलॉजिकल सुबूत एकत्रित किये गये हैं, जिसमें कपड़े, अंग वस्त्र (अंडरगार्मेंट), चादर और बच्ची के डीएनए से जुड़े सभी सुबूत शामिल किये गये हैं।
अब अदालत में सुबूत पेश किये जाएँ, तो मृतक बच्ची और उसके परिजनों को न्याय मिले। सबसे बड़े सुबूत के रूप में ज़िन्दा जलती मिली बच्ची कोई मायने नहीं रखती।
घटना वाली जगह के पास के लोगों का कहना है कि पुलिस मामले को दबाने की कोशिश कर रही है, तो नेता आकर दिखावा कर रहे हैं। एक ओर तो केंद्र सरकार कहती है कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ; महिलाओं का सम्मान, राष्ट्र का सम्मान है। वहीं दूसरी ओर अपराधियों पर शिकंजा कसने के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाती। उसके बड़े-बड़े दावों, बड़ी-बड़ी बातों की पोल तब खुलती है, जब किसी के साथ दरिंदगी हो जाती है। पीडि़तों को न्याय के लिए इतना परेशान होना पड़ता है, मानो उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। बहुत-से मामले तो न्याय व्यवस्था में ख़ामी होने और लोकलाज के डर से घर में दबकर रह जाते हैं। देश में बच्चियों से लेकर महिलाओं के साथ आये दिन बलात्कार जैसी घटनाएँ होती रहती हैं। इन घटनाओं की सबसे ज़्यादा शिकार छात्राएँ और कामकाजी महिलाएँ होती हैं।
बाल्मीकि समाज के उदय सिंह गिल ने कहा कि यह घटना 2020 में हुई हाथरस की घटना की याद दिलाती है, जिसमें दरिंदगी के बाद दलित बेटी को तड़पा-तड़पाकर जान से मार दिया गया और पुलिस ने उसके शव को जबरन जला दिया। उनका आरोप है कि तब भी पीडि़त दलित परिवार को पुलिस ने डराया-धमकाया और इस मामले में भी पुलिस डरा-धमका रही है।
दिल्ली की बच्ची के परिजन और उनके पड़ोसी पीडि़त बच्ची को न्याय दिलाने के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं। वे लगातार नागलराया थाने की पुलिस से लेकर केंद्र सरकार तक से दोषियों को फाँसी की सज़ा देने की माँग कर रहे हैं। ‘तहलका’ को पीडि़तों के एक रिश्तेदार और सम्बन्धित समाज के लोगों ने बताया कि कि नौ साल की मासूम बच्ची अपने घर के पास बने श्मसान घाट के बाहर लगे नल से पानी लेने गयी थी। उसी समय वहाँ बैठे शराब पी रहे दरिंदों ने उसके साथ दरिंदगी दिखायी और अधमरा करके उसे ज़िन्दा जला दिया।
बच्ची की माँ सुशीला देवी पिता मोहनलाल का आरोप है कि जब वे पुलिस स्टेशन अपनी बेटी के साथ हुई इस अमानवीय घटना की शिकायत करने पहुँचे, तो पुलिस ने शिकायत सुनने के बजाय, उनसे मारपीट की और मामले को दबाने की कोशिश की। मोहन लाल रोते हुए कहते हैं कि अगर पुलिस चाहती, तो मेरी बेटी बच सकती थी; लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। जब तक इस मामले में थाने में मौज़ूद पुलिस वाले दोषियों को बचाने में लगे हैं, तब तक न्याय मिलना मुश्किल है। नागलराया में इस समय थाने के बाहर से लेकर श्मशान घाट और मुख्य सडक़ पर बाल्मीकि समाज, दलित मोर्चा व अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं का उग्र धरना-प्रदर्शन जारी है। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि सरकार से लेकर दिल्ली पुलिस तक, सब दिखावे के तौर पर काम कर रहे हैं।
बच्ची को न्याय दिलाने के लिए बाल्मीकि समाज के हज़ारों लोग लगातार मोमबत्ती जुलूस (कैंडल मार्च) निकाल रहे हैं। समाजसेवी प्रेमलता सत्यार्थी का कहना है कि दोषियों को फाँसी की सज़ा जल्द-से-जल्द मिलनी चाहिए, ताकि बच्ची और उसके परिजनों को न्याय मिल सके। उन्होंने कहा कि वह समय-समय पर दलित बस्ती से लेकर महिलाओं के बीच जाकर इस बात के लिए जागरूक करती हैं, ताकि किसी भी प्रकार की कोई घटना समाज में न घट सके। उन्होंने कहा कि आज भी समाज में महिलाओं को कुछ लोग गंदी मानसिकता से देखते हैं। इस तरह की घटनाएँ मानव समाज के लिए कलंक हैं।
बाल्मीकि समाज की महिला सुमन का कहना है कि यहाँ का पुजारी और उसके साथी पहले भी महिलाओं के साथ अभद्रता और अनाचार जैसी घटनाओं में शामिल रहे हैं। इस बाबत उनकी शिकायतें भी की गयी हैं; लेकिन कार्रवाई नहीं होने से उनका मनोबल बढ़ा हुआ था और उन्होंने दिल दहला देने वाली इस घटना अंजाम दे दिया। यह घटना हमारे समाज के लिए बेहद दु:खद और पूरे मानव समाज के लिए कलंक है।
बाल्मीकि समाज के युवाओं ने बाइक रैली निकालकर भाजपा, कांग्रेस, आम आपमी पार्टी के साथ-साथ आरएसएस को ललकारा है। उनका कहना है कि राजनीतिक दल दलितों को वोट बैंक तौर पर उपयोग करते हैं, लेकिन उनकी तकलीफ़ों में उनका साथ नहीं देते। बाल्मीकि समाज के युवा दिलीप कुमार का कहना है कि दलित बहन-बेटियों के साथ आये दिन यहाँ पर छेडख़ानी की घटनाएँ होती रहती हैं; लेकिन कार्यवाई के नाम पर कुछ नहीं होता है।
दिल्ली उच्च न्यायालय के अधिवक्ता एवं सामाजिक कार्यकर्ता पीयूष जैन का कहना है कि देश में ऐसे अपराधों को रोकने और अपराधियों से निपटने के लिए क़ानून पहले से मौज़ूद है। लेकिन सियासी तिकड़बाजी और वोट बैंक के चलते ऐसे मामलों को दबाने की कोशिशें की जाती हैं। इसी सियासी हेराफेरी के चलते दोषियों को सज़ा नहीं मिल पाती और पीडि़त को न्याय नहीं मिल पाता। क़ानून तो है पर क़ानूनी व्यवस्था लचर है; जिससे अपराध को बढ़ावा मिलता है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने बच्ची के परिजनों से मिलकर दिलासा दिया और 10 लाख रुपये का मुआवज़ा देने की बात कही। उन्होंने कहा कि दिल्ली पुलिस और क़ानून व्यवस्था को दुरस्त करने की ज़रूरत है। वहीं कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने पीडि़त परिजनों से मुलाक़ात करके हर सम्भव सहायता देने की बात कही। उन्होंने कहा कि वह बच्ची को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करते रहेंगे।
वहीं वामपंथी नेता वृंदा करात ने घटना स्थल पर पहुँचकर पीडि़त परिजनों का दर्द सुना और कहा कि देश में क़ानून व्यवस्था को सुधार की ज़रूरत है। उन्होंने केंद्र सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि आज भी देश की राजधानी दिल्ली में महिलाएँ सुरक्षित नहीं हैं, जो कि बेहद शर्मनाक है।
भीम पार्टी के संस्थापक चंद्रशेखर रावण आज़ाद ने कहा कि केंद्र और दिल्ली, दोनों सरकारों की उदासीनता का नतीजा है, जो आज भी ऐसी आमानवीय घटनाएँ घट रही हैं।
वहीं घटना से ग़ूस्साए लोगों ने दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष आदेश गुप्ता का उस समय जमकर विरोध किया, जब वह परिजनों से मिलने पहुँचे। लोगों ने उनके ख़िलाफ़ नारेबाज़ी की। आदेश गुप्ता ने पीडित परिजनों को आश्वासन दिया कि वह दोषियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट तक संघर्ष करेंगे, ताकि वे बच न पाएँ।

महाराष्ट्र में बारिश से तबाही कब रुकेगी?

महाराष्ट्र में भारी बारिश के कारण भांडुप, विक्रोली, चेंबूर और कोकन के तलिईले गाँव में भी बड़ा भूस्खलन हुआ और सैकड़ों लोग मारे गये। कई परिवार बेसहारा हो गये। करोड़ों की सम्पत्ति का नुक़सान अलग हुआ।
सरकार कहती है कि मुम्बई में रहने वाले भूस्खलन के पीडि़त लोग हमेशा की तरह अनधिकृत घरों में रह रहे थे, इसलिए उन्हें क़ानूनी रूप से मुआवज़ा लेने का कोई अधिकार नहीं है। सरकार ने उदार भूमिका निभाते हुए मानवता की दृष्टि से मुआवज़ा दिया है। मृतक के प्रत्येक वारिस को केंद्र और राज्य सरकारें सात लाख रुपये देंगी, जिसमें पाँच लाख रुपये का अनुदान राज्य सरकार का है।
मुम्बई के चेंबूर माहुल के भारत नगर परिवार की सदस्य पल्लवी युवराज दुपारगुडे नहीं रहीं, उनके दो छोटे बच्चे हैं। उन्हें वारिस के रूप में लाखों रुपये मिलेंगे। उन अनाथ बच्चों की ज़िम्मेदारी फ़िलहाल मृत पल्लवी दुपारगुडे की ससुराल के पास है।
ऐसी घटनाओं में यह सुनिश्चित करने के लिए एक स्थायी नीति तैयार करने की आवश्यकता है कि पीडि़त बच्चों की सभी ज़िम्मेदारियाँ किसकी होंगी? कई बार बच्चे इतने छोटे होते हैं कि उन्हें पता ही नहीं चलता कि उन्हें भारी-भरकम मुआवज़ा मिला है। पिछले कुछ वर्षों से पीडि़तों की संख्या हर बार बढ़ रही है। कुछ वर्ष पहले भीमाशंकर पुणे महामार्ग पर बसा पूरा-का-पूरा गाँव भूस्खलन के कारण ज़मींदोज़ हो गया। सुबह के समय पुणे की ओर आने वाले एसटी के ड्राइवर ने देखा कि हमेशा का सामान्य स्टॉप और गाँव ग़ायब हो गया था। मुम्बई के बाद कोंकण में भी अभी कई जगह मानसून के दौरान ऐसी अजीब चीज़ें हुई हैं। पहाड़ी के पास के गाँव में पहले पहाड़ी से पत्थर गिरने लगते हैं और फिर मिट्टी के टीले, जिसे कोंकण के सामान्य लोग ईश्वर का प्रकोप मानते हैं। वास्तव में यह प्रशासन की नाराज़गी है।
कहा जाता है कि माहुल में निर्माण अनधिकृत है। लेकिन अनौपचारिक और आधिकारिक का मतलब क्या है? मुम्बई में ऐसे भी काम हैं, जिन्हें करने में मध्यम वर्ग के कम पढ़े-लिखे लोगों को भी शर्म आती है। उसके लिए गाँव के लोग चाहिए, जो किसी भी काम में शर्म महसूस न करें; भले ही कम पढ़े-लिखे हों। मुम्बई के आस-पास स्थित गाँवों के लोगों के पास खेती नहीं है। पाँच एकड़ के भीतर एक छोटा जोत वाला किसान होता है। उनका परिवार बढ़ता रहता है। जतीजतन परिवार के सदस्यों की ज़रूरतें उससे पूरी नहीं होतीं और वे अधिक आय के लिए मुम्बई, दिल्ली की ओर पलायन करते हैं। जो मुम्बई में प्रवेश कर जाता है, उसे जहाँ कहीं जगह मिल जाती है, वहीं का हो जाता है। अनधिकृत कहकर इन बस्तियों को सील करना आसान है। लेकिन इन लोगों की ज़रूरत मुम्बई को है और इन लोगों को मुम्बई की। स्लम लॉर्ड या झोंपड़ी दादाओं ने झुग्गियाँ खड़ी कीं। बहुत सस्ते में। यह कहना आसान है कि इन झुग्गियों की वजह से दुर्घटनाएँ होती हैं। ठीकरा फोडऩे के लिए झोंपड़ी दादा अच्छे लगते हैं। लेकिन किसी का सार्वजनिक नाम नहीं लिया जाता। किसी पर दोहरा मापदंड नहीं है। मध्यम वर्ग कहता है कि हम कर (टैक्स) देते हैं और उसी से उनके घर बनते हैं।
केवल झुग्गीवासियों, नगर सेवकों, नेताओं, प्रशासन, पुलिस को पता है कि क़ानून स्थानीय तहसीलदारों, पुलिस निरीक्षकों, वार्ड अधिकारियों पर अनधिकृत रुकावट की ज़िम्मेदारी डालता है। लेकिन इस तरह की झोंपडिय़ों को नेताओं के आशीर्वाद से ही खड़ा किया जाता है। अतिक्रमण रोधी विभाग जब कार्रवाई के लिए तैयार होते हैं, तो यही मंडली आड़े आती है और अतिक्रमणकारी उनके कार्यालयों पर नारेबाज़ी करते हैं। यदि मामला अदालत में जाता है, तो लचर क़ानून व्यवस्था की वजह से भू-माफिया फ़ायदा उठा लेते हैं।
कोई दुर्घटना होने पर पीडि़तों को सरकार से मुआवज़ा पाने के लिए अक्सर मदद लेनी पड़ती है। क्योंकि उनके पास केवल नाम रहता है। दस्तावेज़ या तो मौज़ूद नहीं होते या पानी, बाढ़ और भूस्खलन के चलते नष्ट हो जाते हैं। परेशान होने पर वे कभी सरकार व स्थानीय प्रशासन पर बरस लेते हैं। आख़िरकार व्यवस्था को वे भी समर्पण कर देते हैं। व्यवस्था को तोडऩा आसान नहीं है, इसे तोडऩे के लिए बड़ी राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए। सिर्फ़ घोषणाओं से कुछ नहीं होगा। गाँव से मुम्बई आये लोग भी चाहते हैं कि वे भी बेहतर जीवन जीएँ। इसलिए उसी अवस्था में वे घर बनाकर रहने लगते हैं। लेकिन हर वर्ष विकट बारिश और भूस्खलन उनकी सम्पत्ति, उनके जीवन को नष्ट कर देते हैं। यह स्थिती कब रुकेगी? बेहतर हो समस्या को समझकर महाराष्ट्र सरकार मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की अगुवाई में सही समाधान करे।

दिल्ली की सीमाओं पर बढ़ रहे किसान

किसान आन्दोलन को लेकर हर रोज़ नयी हलचल है। एक तरफ़ से सियासी बयानबाज़ी होती है, तो दूसरी तरफ़ से किसान उसका जवाब देते हैं। आन्दोलन में शामिल हो रहे किसान इस बात को लगातार दोहरा रहे हैं कि केंद्र सरकार तीनों कृषि क़ानून वापस लेकर उनके सिर से अंधकारमय भविष्य का डर हटाये, जो कि उनकी खेती को निगल जाना चाहता है। वहीं केंद्र की मोदी सरकार इस मामले को इतना अनसुना कर रही है, जितना कि किसी ग़रीब की गुहार को पुलिस भी अनसुना नहीं करती।

जंतर-मंतर पर लगी किसान संसद भी उठ गयी; लेकिन किसानों के प्रति सरकार की संवेदनाएँ नहीं जागीं। ऐसे में किसानों ने एक बार फिर दिल्ली की सभी सीमाओं पर संख्या बढ़ाने की ठान ली है। शायद इसीलिए गाँवों में धान की फ़सल लगाकर निवृत्त हो चुके किसान बड़ी संख्या में दिल्ली की सीमाओं पर क़रीब 20-25 दिन से लगातार आ रहे हैं। बारिश का मौसम है और किसानों के लिए यह दूसरी बारिश है, जो उन्हें अपनी ज़मीन और खेती बचाने के लिए खुले आसमान के नीचे घर-बार छोडक़र बितानी पड़ रही है। इससे पहले उन्होंने गर्मी और सर्दी के मौसम की मार भी सडक़ों पर झेली है।

किसानों की इधर मुख्य लड़ाई केंद्र सरकार से चल रही है, तो दूसरी तरफ़ उत्तर प्रदेश सरकार उन्हें प्रदेश में प्रदर्शन करने नहीं देना चाहती। किसानों का सीधा-सा उद्देश्य है कि अगर किसानों के साथ न्याय नहीं हुआ, तो केंद्र से लेकर किसी भी प्रदेश में भाजपा की सरकार नहीं बनने दी जाएगी। वैसे सच्चाई यह है कि किसान सरकार से कोई नयी माँग नहीं कर रहे हैं, बल्कि मौज़ूदा केंद्र सरकार द्वारा लाये गये तीन नये कृषि क़ानूनों को वापस करने की माँग कर रहे हैं। उनका कहना है कि जब सरकार उनकी आय दोगुनी करने का वादा करके उनकी खेती और ज़मीन को चंद पूँजीपतियों के हाथ में सौंपने की कोशिश कर रही है, तो इससे अच्छा यही है कि उन्हें सरकार से यह कथित हमदर्दी नहीं चाहिए। इससे तो अच्छा है कि वह पुराने कृषि क़ानून को ही लागू रहने दे। लखनऊ में किसान आन्दोलन करने को लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ किसानों को गिरफ़्तार करने की धमकी दे चुके हैं, तो किसानों ने भी उन्हें गिरफ़्तार करने की चुनौती दे डाली।

दरअसल भाजपा नेतृत्व इस बात को अच्छी तरह जानता है कि उसे सत्ता तक लाने में किसानों की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उसे यह भी अच्छी तरह पता है कि अगर किसानों ने अपना मत (वोट) उसे नहीं दिया, तो उसकी हार निश्चित है। लेकिन फिर भी ज़िद्द पर अडक़र वह यह साबित कर रही है कि पूँजीपतियों के आगे उसके लिए देश का अन्नदाता कुछ भी नहीं। आगे इस मामले में क्या होगा? यह तो बाद की बात है; लेकिन फ़िलहाल आन्दोलन में किसान परिवार की महिलाएँ फिर से बढऩे लगी हैं।

किसानों के साथ षड्यंत्र हुआ, तो ईंट-से-ईंट बजा देंगे : मकिमो

किसान आन्दोलन में एक बार फिर महिलाओं की संख्या बढऩे लगी है। किसान परिवार की ये  महिलाएँ सरकार की नीतियों और तीनों कृषि क़ानूनों के विरोध में संघर्ष का ऐलान कर रही हैं। किसान आन्दोलन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए सरकार और अन्य राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही सियासत पर इन महिलाओं ने दो टूक कहा कि किसान आन्दोलन को सियासी मंच नहीं बनने दिया जाएगा। किसान आन्दोलन से जुड़े नेताओं और महिला किसान व समर्थकों ने ‘तहलका’ को बताया कि देश में किसान आन्दोलन में किसान परिवार की महिलाओं के साथ-साथ अन्य महिलाएँ और उनके परिजन भी आ रहे हैं। आने वाले दिनों में यह संख्या और बढ़ेगी।

महिला किसान मोर्चा (मकिमो) की ओर से कहा गया है कि अगर सरकार ने किसानों के ख़िलाफ़ किसी भी प्रकार की सियासी चाल चली या षड्यंत्र रचा, तो महिला मोर्चा और किसानों का बच्चा-बच्चा खेत-खलियान से उठकर ईंट-से-ईंट बजा देगा। महिला किसान एकता ने सरकार से कहा कि आन्दोलन में हज़ारों लोगों के आने-जाने की अनुमति स्वस्थ्य लोकतंत्र में होती है। लेकिन देश में अब लोकतंत्र का गला घोटा जा रहा है।

एक महिला किसान ने कहा कि सरकार तो आन्दोलन के लिए पास बना रही है, जैसे कोई पार्टी या जलसा चल रहा हो। किसान महिला जसवीर सिंह कौर ने कहा कि केंद्र सरकार को सत्ता में रहने का कोई अधिकार नहीं है। क्योंकि चंद पूँजीपतियों को लाभ देने और सरकार देश के अन्नदाता को ठगने के लिए कृषि क़ानूनों को थोपना चाहती है। लेकिन इन क़ानूनों को देश के किसान कभी लागू नहीं होने देंगे।

किसान आन्दोलन से जुड़े अधिवक्ता चौधरी बीरेन्द्र सिंह ने बताया कि ये किसानों का आन्दोलन 2020 के नबंबर माह से नहीं चल रहा, बल्कि फरवरी, 2018 से चल रहा है। सन् 2018 से किसान क़र्ज़ माफ़ी और एमएसपी और स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू कराने के लिए किसान संघर्ष कर रहे हैं। सरकार ने किसानों का माँगों को तब भी नहीं माना। फिर नये तीन कृषि क़ानूनों को थोपकर किसानों की ज़मीन हथियाने के लिए उसने एक षड्यंत्र रच दिया, जिसे किसानों ने समझ लिया और उन्हें वापस लेने को कहा; लेकिन जब केंद्र सरकार हठी हो गयी, तो किसान भी आन्दोलन करने लगे। अधिवक्ता बीरेन्द्र सिंह ने कहा कि अब तक के इतिहास में जंतर-मंतर पर पहली बार ऐसा हुआ है, जब दिल्ली पुलिस ने सिर्फ़ 200 प्रदर्शनकारियों को ही आन्दोलन में शामिल होने की अनुमति दी है। वह भी देश के अन्नदाता को,  जो कि पूरे देश के लोगों का पेट पालता है। उन्होंने कहा कि यह सभी जानते हैं कि दिल्ली पुलिस किसके इशारे पर काम कर रही है। इसमें पुलिस का क्या दोष है? जबकि जंतर-मंतर तो अन्याय और सरकार की दमनकारी नीतियों के विरोध में आवाज़ उठाने के नाम से जाना जाता है। लेकिन उसके रास्ते आन्दोलनकारियों के लिए धीरे-धीरे बन्द हो रहे हैं। बताते चलें कि 15 अगस्त की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर संयुक्त किसान मोर्चा के आन्दोलन के लिए 22 जुलाई से 9 अगस्त तक प्रदर्शन करने की अनुमति मिली हुई थी।

महिला किसान रोशनी दहिया ने बताया कि किसान क़ानून और शान्ति में विश्वास करते हैं। इसलिए समय जंतर-मंतर पर से प्रदर्शन ख़त्म कर रहे हैं। लेकिन अपनी माँगों को लेकर सिंघू बॉर्डर, ग़ाज़ीपुर बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर और दिल्ली के अन्य बॉर्डर्स पर आन्दोलन जारी रहेगा। किसान समर्थक लेखिका सत्या पहल का कहना है कि देश के इतिहास में अभी तक जितनी भी सरकारें आयी हैं, किसी भी सरकार ने किसानों पर अपनी मर्ज़ी चलाकर तानाशाही नहीं की; जितनी कि केंद्र की मोदी सरकार कर रही है। जब देश में कोरोना-काल चल रहा था, तब सरकार तीनों कृषि क़ानून लेकर आयी। इससे ही सरकार की नीयत में खोट साफ़ दिखता है। देश अभी भी महामारी से जूझ रहा है और देशवासियों को इस समय बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की सख़्त ज़रूरत है। लेकिन केंद्र सरकार इस ओर ध्यान न देकर पूँजीपतियों के हितों के लिए किसानों की ज़मीन और उनकी खेती-बाड़ी छीन लेना चाहती है। लेकिन ज़मीन से जुड़े किसान किसी भी ऐसे क़ानून को नहीं मानेंगे, जो किसान और कृषि के विरोध में हो।

पति सन्तोष के साथ किसान आन्दोलन में शामिल महिला किसान विमला ने बताया कि भाजपा कभी किसानों और मज़दूरों के हित में सोचती ही नहीं है। वह मज़दूरों और किसानों का इस्तेमाल सिर्फ़ सत्ता हथियाने के लिए करती है और फिर दमनकारी नीतियाँ लागू करके उन पर अत्याचार करती है। भाजपा पूँजीपतियों की पार्टी है। इसलिए पूँजीपतियों के बारे में ही सोचती है, जो सामने साफ़-साफ़ दिख रहा है।

मिलेट राजनय और ज़मीनी हक़ीक़त

भारत को विश्व गुरु बनाने के अपने प्रयासों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सन् 2014 से ही नरम कूटनीति (सॉफ्ट डिप्लोमेसी) का जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं। इसलिए ऐसा हो नहीं सकता था कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की अध्यक्षता के मौक़े को वह ऐसे ही जाने देते। अध्यक्ष घोषित होने के बाद सभी सदस्यों को दिये जाने वाले परम्परागत भोज की मुख्य भोजन-सूची (मैन्यू) में जो ख़ास व्यंजन शामिल किये गये, उनमें रागी, मक्का, कांगनी, वरई जैसे मिलेट (मोटे अनाज) से बने बहुत-से भारतीय व्यंजन भी शामिल थे। मेहमानों को तोहफ़े भी ऐसे ही व्यंजनों के दिये गये, जिन्हें उन्होंने विशेष चाव से ग्रहण किया। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टी.एस. तिरुमूर्ति को इस भोजन-सूची को तैयार करने में कई महीने लगे। इसमें उनकी पत्नी गौरी और भारतीय मिशन के अन्य सदस्यों का सहयोग रहा।
नहीं जानती कि ये व्यंजन हम भारतियों को खाने के लिए मिलेंगे या नहीं; पर हो सकता है कि विदेशी बाज़ार में लोग इन्हें शोक़ से खाएँ। अर्थशास्त्री मानकर चल रहे हैं कि 2021 से 2026 के बीच में मिलेट्स का वैश्विक बाज़ार 4.5 फ़ीसदी हो सकता है। अभी तक जिसे ग़रीबों या जानवरों का आहार माना जाता था; अब भूख, ग़रीबी, कुपोषण व जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं का हल इसमें देखा जा रहा है। माना जा रहा है कि ताँबा, मैग्नीशियम, कैल्शियम, फॉसफोरस, मैगनीज, प्रोटीन, फाइबर और लोहा जैसे विभिन्न पोषक तत्त्वों से भरपूर मोटा अनाज ऐसा उत्तम भोजन (सुपर फूड) है, जिससे व्यक्ति एक स्वस्थ जीवन जी सकता है। विदेशों में इस उत्तम भोजन की माँग तेज़ी से बढ़ रही है। यही कारण है कि भारत सरकार ने सुरक्षा परिषद् के परम्परागत भोज में मेहमानों की मेज़बानी भारत के उत्तम भोजन के परम्परागत व्यंजनों से की।


जैव विविधता से भरे भारत में शायद ही कोई राज्य होगा, जहाँ उसकी जलवायु और ज़मीन के हिसाब से मोटा अनाज न होता हो। सबकी अलग-अलग क़िस्में। अलग-अलग नाम और गुण। एक समय था, जब अधिकांश आमजन का मुख्य भोजन यह मोटा अनाज ही था। पर हरित क्रान्ति के बाद से भारत के मोटे अनाज के उत्पादन क्षेत्र में क़रीब 60 फ़ीसदी की कमी आ चुकी है। फिर भी दुनिया में उत्पादित होने वाले 284 लाख मीट्रिक टन का 41.1 फ़ीसदी मोटा अनाज अकेले भारत में ही पैदा होता है। इस लिहाज़ से आज भी भारत मोटे अनाज का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। जहाँ तक निर्यात का सवाल है, तो सबसे बड़ा उत्पादक देश होते हुए भी भारत पौष्टिक अनाज के निर्यात में अभी शुरुआत ही कर रहा है।
यहाँ मोटे अनाज और पौष्टिक अनाज के अन्तर को समझ लेना ज़रूरी है। मोटे अनाज में जौ और मक्का (मकई) समेत सभी प्रकार के कदन्न (आमतौर पर घटिया माने जाने वाले अनाज) आ जाते हैं। जबकि कृषि वैज्ञानिकों ने पौष्टिक अनाज में भारत में आठ प्रकार के कदन्न- बाजरा, ज्वार, रागी, कांगनी, झिंगौरी, कोदो व कुटकी और चिना को ही शामिल किया है। भारत सरकार के कदन्न विकास निदेशालय के निदेशक रहे डॉ. सुभाष चंद्र के मुताबिक, कुछ मिलेट्स इनसे भी छोटे आकार के होते हैं। पर गुणवत्ता में काफ़ी हल्के होने के कारण उनका उपयोग चारे के रूप में ही ज़्यादा किया जाता है। उनके मुताबिक, मिलेट्स का देसी नाम कदन्न ही है। पर इसकी पौष्टिकता को देखते हुए अब सारी दुनिया में ही इसे ‘पौष्टिक अनाज’ के रूप में जाना जाता है। शास्त्रों में कदन्न को न खाने योग्य अन्न कहा गया है। उस लिहाज़ से तो निदेशालय को अपना नाम बदल देना चाहिए। क्योंकि सन् 2018 में भारत सरकार ने भी कदन्न को पोष्टिक अनाज के रूप में दर्ज़ कर दिया है। पूरी दुनिया में मोटे अनाज की माँग बढऩे का एक बड़ा कारण नीति निर्धारकों, वैज्ञानिकों को यह समझ आ जाना है कि जलवायु परिवर्तन और कुपोषण जैसी समस्याओं से निपटना है, तो कम पानी, कम खाद या बिना खाद, कठोर भूमि व गर्म जलवायु में भी आसानी से उग आने वाले पौष्टिक अनाज व घास (चारे वाली वे फ़सलें, जिनसे अनाज मिलता है) पर फिर से लौटना होगा। उसे उत्पादन व आहार में शामिल करना होगा। रासायनिक खाद से उत्पन्न लासा (गुलेटन) युक्त गेहूँ, धान की उपज और ग्रीन हाउस गैस (पौधाघर वायुरूप द्रव्य) उत्पन्न करने वाली खेती के हमारे तरीक़ों से न तो जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटा जा सकता है और न ही कुपोषण व ग़रीबी की समस्या से। खेती के ये तरीके जनहित में नहीं हैं और प्रकृति की जैव विविधता को भी खत्म करते हैं।
संयुक्त राष्ट्र भी मानकर चल रहा है कि आज दुनिया के सामने समस्या कम उत्पादन की नहीं, समुचित वितरण व उचित पोषण की है। यही कारण है कि अगले सितंबर महीने में होने जा रहे संयुक्त राष्ट्र के ‘खाद्य प्रणाली विश्व सम्मेलन’ में एक पूरा सत्र मिलेट्स पर है। उसमें मिलेट्स को सामान्य भोजन में शामिल किये जाने पर चर्चा तो होगी ही, विभिन्न देशों के स्थानीय मिलेट्स से बने परम्परागत व्यंजन भी भागीदारों को इस सम्मेलन में खाने को मिलेंगे। इसके बाद 2023 में फिर मिलेट्स पर हमें कुछ-कुछ पढऩे और सुनने को मिल जाएगा। क्योंकि संयुक्त राष्ट्र ने उसे ‘मिलेट-वर्ष’ घोषित किया है। इसका प्रस्ताव भारत ने ही किया था, जिसे संयुक्त राष्ट्र ने मान लिया। राजनय के स्तर पर तो यह निश्चय ही बड़ी सफलता है। पर बड़ा सवाल यह है कि इस वर्ष को भारत अपने पक्ष में कितना कर पाएगा?
सन् 2018 भारत में ‘मिलेट ईयर’ घोषित किया गया था। पर वह सरकारी दफ़्तरों, फाइलों और कुछ सभा-सेमिनारों में ही सैर करते हुए पूरा हो गया। किसान या आमजन को उसका कुछ पता ही नहीं चला। एक शोध के सिलसिले में वित्त वर्ष 2019-2020 में दक्षिण गुजरात के आदिवासी गाँवों में किसानों से हुई बातचीत में किसी एक ने भी नहीं कहा कि कृषि विभाग के किसी भी अधिकारी ने उनसे रागी, ज्वार या वरई का क्षेत्र बढ़ाने या इन अनाजों के संशोधित बीज बोने के लिए उनसे कहा हो। वे रागी और वरई की पोषकीय गुणवत्ता व उसके महत्त्व को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं, और इसीलिए उन्हें अपने आहार से अलग करने की सोचते भी नहीं। पर इन अनाजों का मूल्य बाज़ार में बढ़ गया है, यह वे नहीं जानते थे। अपनी साल भर की ज़रूरत के मुताबिक इन्हें कोठार (कुठिया) में भर लेने के बाद वे अतिरिक्त उपज को स्थानीय बाज़ार में बेच देते हैं, जिससे मामूली नक़दी उनके हाथ में आ जाती है। वे तो धान भी इसी तरह बेचते हैं।
पर उसके दाम कुछ ज़्यादा मिल जाते हैं। दाम ज़्यादा मिलने का ही नतीजा है कि दक्षिण गुजरात के पूरे आदिवासी क्षेत्र में धान और गन्ने का रक़बा बढ़ता जा रहा है और रागी, ज्वार व वरई जैसे स्थानीय अनाजों की उपज लगातार कम हो रही है। बावजूद इसके कि वे इन उत्पादों के महत्त्व को जानते हैं। सूरत के साथ लगे आदिवासी क्षेत्र में तो रागी ग़ायब ही हो चुकी है।
वलसाड़ ज़िले के एक किसान ने बताया- ‘रागी, उड़द और तुअर की दाल हमारा मुख्य भोजन है। इसे खाने से हम बीमार नहीं होते। चावल (धान) ज़्यादा नहीं खाते। गर्भवती महिला को अगर कमज़ोरी आने लगे, तो उसे वरई ही खिलायी जाती है। पर इसको हम बहुत-ही थोड़ी मात्रा में उगाते हैं।’
अपने पौषकीय गुणों के कारण आज रागी शहरी बाज़ार में लोकप्रिय हो रही है और काफ़ी महँगी भी मिलती है। पर ग़रीब किसान को उसका लाभ नहीं मिल रहा। जब तक सरकार किसान को इन अनाजों का दाम नहीं दिलवाती, वे गेहूँ, धान के मोह से मुक्त नहीं हो सकते। इस बारे में डॉ. सुभाष चंद्र का कहना है- ‘सभी प्रकार के मिलेट्स में बीजों के संशोधन, उपज के प्रसंस्करण और तकनीक के क्षेत्र में काम किया जा रहा है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् व हैदराबाद में स्थित मिलेट्स शोध केंद्र इस काम को कर रहे हैं। हैदराबाद में ही सेंटर फॉर एक्सीलेंस महिलाओं के साथ मिलकर रेडी-टू-ईट उत्पाद तैयार करने के प्रयास में लगा हुआ है।’ साफ़ है कि केंद्र सरकार अभी तकनीक विकास की उलझनों में ही उलझी हुई है। पर उधर ओडिशा सरकार ने पीडीएस, आँगनबाड़ी और मिड-डे मील का हिस्सा बनाकर मिलेट्स, ख़ासकर रागी को आमजन के आहार में शामिल कर दिया है। वह रागी का रक़बा बढ़ाने में भी कामयाब हो गयी है। पर राज्य के अन्य मिलेट्स की ओर उसका भी ध्यान नहीं है। इससे फिर एक ही अनाज की अधिकता की समस्या खड़ी हो जाएगी।
(लेखिका वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

नये अवतार में राहुल गाँधी

हाल के महीनों में विपक्ष में तेज़ी से बढ़ी है कांग्रेस नेता की स्वीकार्यता

पेगासस से लेकर कोरोना वायरस और अर्थ-व्यवस्था पर तीखी आवाज़ उठा रहे राहुल गाँधी ने जब अगस्त के शुरू में नेताओं को अपने घर नाश्ते पर बुलाया, तो साफ़ हो गया कि कांग्रेस नेता अब भविष्य की तैयारी के लिया कमर कस चुके हैं। संसद में कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ने जिस तरह पेगासस पर मोदी सरकार को घेरा है और जैसे तेवर उसने दिखाये हैं, उससे साफ़ कि कांग्रेस संगठन को पटरी पर लाने के साथ-साथ अब विपक्षी एकता की धुरी बनने की कोशिश में जुट गयी है।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि राहुल गाँधी को इन तमाम विपक्षी दलों के केंद्र में ख़ुद को स्थापित करने के लिए अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में ज़्यादा-से-ज़्यादा राज्यों में कांग्रेस को सत्ता में वापस लाना होगा। राष्ट्रीय चुनावों में अपनी कमज़ोर स्थिति की भरपाई कांग्रेस विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करके कर सकती है, जो उसके लिए ज़रूरी भी है। राहुल ने हाल के हफ़्तोंमें कई मौक़ों पर विपक्षी बैठकों का नेतृत्व किया है। उन्हें अपने घर नाश्ते पर बुलाया है और मानसून सत्र विपक्ष की रणनीति को लेकर अहम रोल निभाया है। तो क्या यह माना जाये कि राहुल गाँधी एक नये अवतार में मैदान में आये हैं? उनकी तैयारी और रणनीति में बदलाव तो यही संकेत करते हैं।

इसमें कोई दो-राय नहीं है कि देश में कुछ गम्भीर मुद्दे उभरने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति जनता में समर्थन में कमी का अहसास करते ही कांग्रेस सक्रिय हुई है। राहुल गाँधी हाल के महीनों में प्रधानमंत्री मोदी के विरोध के केंद्र में रहे हैं। जनता में एक उनकी पहचान से कोई इन्कार नहीं कर सकता। कांग्रेस अध्यक्ष पद छोडऩे के बाद भी राहुल पार्टी में सर्वोच्च नेता बने हुए हैं, तो इसका कारण उनका पार्टी के बीच एकता की गारंटी होना भी है। ऐसे में यह तो तय ही है कि कांग्रेस की तरफ़ से राहुल गाँधी ही एक नेता के रूप में सामने होंगे। हाल के हफ़्तोंमें उनकी सक्रियता एक अलग स्तर पर दिखने लगी है। उन्होंने विपक्ष के नेताओं को जहाँ अपने यहाँ आमंत्रित किया है, वहीं जम्मू-कश्मीर और कुछ अन्य राज्यों का दौरा भी किया है।

राहुल की चुनाव की राजनीति केलिहाज़ से सक्रियता ज़्यादा दिलचस्प है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 ख़त्म किये जाने के मोदी सरकार के फ़ैसले के बाद राहुल गाँधी पहली बार राज्य के दौरे पर गये। वे कई कार्यक्रमों में शामिल हुए, जिनमें कश्मीरी पंडितों के सबसे महत्त्वपूर्ण मंदिर ‘क्षीर भवानी’ में माथा टेकना भी शामिल है। राजनीतिक क्षेत्रों में राहुल के इस दौरे को ख़ासी तरजीह मिली। राहुल का कश्मीर दौरा ऐसे समय में हुआ है, जब यूटी में परिसीमन निर्धारण की प्रक्रिया जारी है और अगले साल विधानसभा चुनाव करवाये जाने की चर्चा तेज़ है। पिछले क़रीब दो साल में कश्मीर की सियासत में क्या बदलाव आया है, इसे लेकर अभी कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी। तीन महीने हुए ज़िला विकास परिषदों (डीडीसी) के चुनावों के नतीजे ज़ाहिर करते हैं कि कश्मीर में क्षेत्रीय दलों के प्रति लोगों का भरोसा बना हुआ है।

ऐसे में राहुल के दौरे के विधानसभा चुनाव की तैयारियों के अलावा राष्ट्रीय मायने भी हैं। गाँधी ने दौरे में पार्टी की बैठक की, जिसमें प्रदेश प्रभारी रजनी पाटिल, प्रदेश अध्यक्ष जी.ए. मीर, वरिष्ठ नेता रमण भल्ला, एनएसयूआई राष्ट्रीय अध्यक्ष नीरज कुंदन शामिल रहे। दौरे के दूसरे दिन राहुल गाँधी का कश्मीरी पंडितों के सबसे महत्त्वपूर्ण देवस्थान क्षीर भवानी मंदिर पहुँचना ख़ासी चर्चा में रहा। अनुच्छेद-370 ख़त्म होने के बाद इस मंदिर में माथा टेकने पहुँचने वाले राहुल गाँधी पहले राष्ट्रीय नेता हैं। राहुल श्रीनगर की हज़रतबल दरगाह भी पहुँचे, जिसकी कश्मीरी मुस्लिमों में बहुत ज़्यादा मान्यता है। राहुल ने लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘मैं आपके दर्द को समझता हूँ। क्योंकि मैं भी एक कश्मीरी हूँ। कश्मीर की राजनीति में कांग्रेस की हमेशा महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।’

 

राहुल की नाश्ता कूटनीति

 

विपक्ष को एक जुट करने के लिए राहुल गाँधी ने जब लोकसभा और राज्यसभा के 100 से ज़्यादा सांसदों को नाश्ते पर बुलाया, तो इसकी काफ़ी चर्चा रही। दिल्ली के कांस्टीट्यूशनल क्लब में क़रीब 17 राजनीतिक दलों के 155 नेता राहुल की नाश्ता बैठक में जुटे। इसके बाद मानसून सत्र के बाक़ी बचे दिनों की रणनीति भी तय हुई। ज़ाहिर है राहुल की नाश्ता बैठक सफल रही; क्योंकि संसद में इसके बाद उन्हीं मुद्दों पर विपक्ष ने मोदी सरकार को घेरा, जिसका बैठक में फ़ैसला हुआ था। इसके अलावा राहुल गाँधी ने विपक्ष के संसद तक साइकिल मार्च में भी हिस्सा लिया। विपक्षी नेताओं के साथ बैठक में राहुल गाँधी ने कहा- ‘मेरे विचार से सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हम इस शक्ति को एक करते हैं। यह आवाज़ (जनता की) जितनी एकजुट होगी, यह आवाज़ उतनी ही शक्तिशाली होगी और भाजपा-आरएसएस के लिए इसे दबाना उतना ही मुश्किल होगा।’ राहुल की ऐसी बैठकों से बसपा को किनारा करते देखा गया है। इसका एक बड़ा कारण उत्तर प्रदेश की राजनीति है, जहाँ कांग्रेस बहुत तेज़ी से अपनी सक्रियता बढ़ा रही है। बसपा को लगता है कि कांग्रेस के साथ रहना उसके लिए घातक हो सकता है। कुछ-कुछ यही बात सपा को लेकर भी कही जा सकती है, जो कांग्रेस की बढ़ती सक्रियता को लेकर काफ़ी चौकन्नी दिख रही है। हालाँकि सपा अपने प्रतिनिधि विपक्ष की इन बैठकों में भेजती ज़रूर है।

राहुल की इस नाश्ता बैठक में शिवसेना, समाजवादी पार्टी, शरद पवार की एनसीपी, उद्धव ठाकरे की शिवसेना, लालू की राजद, समाजवादी पार्टी, माकपा, भाकपा, आरएसपी, आईयूएमएल, केसीएम, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, नेशनल कॉन्फ्रेंस (जेके), तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), बिहार की लोकतांत्रिक जनता दल (एलजेडी) प्रमुख हैं।

ख़ुद को बदल रहे हैं

कांग्रेस नेता राहुल गाँधी में बदलाव दिख रहा है। अपनी पार्टी में वृहद् वर्ग का समर्थन हासिल करने वाले राहुल का विपक्षी दलों में स्वीकार्यता हासिल करने का यह प्रयास विपक्ष को भी रास आएगा; क्योंकि राहुल की पिछली निष्क्रियता ही थी, जिसने इन दलों को राहुल से दूर रखा हुआ था। राहुल गाँधी मानसून सत्र में पिछले वर्षों के मुक़ाबले अबकी बार कहीं ज़्यादा सक्रिय भूमिका में दिखे हैं। संसदीय कार्यवाही से पहले विपक्ष की बैठकों का नेतृत्व करना ज़ाहिर करता है कि उनकी स्वीकार्यता का दायरा विपक्ष में वृहद् होता जा रहा है।

राहुल गाँधी की इस सक्रियता ने जहाँ विपक्षी ख़ेमे में उम्मीद पैदा की है, वहीं भाजपा में इससे शुरुआती बेचैनी है। भाजपा की हर सम्भव कोशिश रही है कि राहुल गाँधी किसी भी सूरत में विपक्ष के केंद्र में न आने पाएँ। भाजपा को पता है कि राहुल के किसी भी विपक्षी अभियान के केंद्र में आने से न सिर्फ़ मोदी के ख़िलाफ़ राहुल एक सर्वमान्य विपक्षी चेहरा बन जाएँगे, कांग्रेस और राहुल गाँधी को लेकर उसके (भाजपा के) छवि बिगाड़ो अभियान और दुष्प्रचार की भी हवा निकल जाएगी।

राहुल के नये अवतार का एजेंडा साफ़ है- ‘अगले साल उत्तर प्रदेश में और 2024 में देश भर में भाजपा को परास्त करना।’ ख़ुद को अपराजय मानने वाली भाजपा इस कल्पना भर से ही सिहर जाती है कि उसकी ताक़त को चुनौती मिल सकती है। राहुल भाजपा को इसलिए भी खटकते हैं कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा सक्रिय नेता हैं। ऐसे में राहुल विपक्ष की भी ज़रूरत हैं, यह विपक्ष के तमाम बड़े नेता समझते हैं। ऐसे में राहुल यदि सक्रिय होकर विपक्ष का मोदी, भाजपा के ख़िलाफ़ नेतृत्व करते हैं, तो जनता में ज़्यादा बेहतर संकेत जाएगा।

आम जनता में आज भी भाजपा के अलावा यदि किसी राजनीतिक दल की देश भर में पहचान है, तो वह कांग्रेस ही है। बेशक कांग्रेस पिछले दो लोकसभा चुनावों में हारी है, उसका समर्थक वर्ग देश में भाजपा से भी बड़ा है। ऐसे में यदि भाजपा को जनता से झटका मिलता है, तो कांग्रेस कोई भी बड़ा कमाल कर सकती है। भाजपा नेता यह बात समझते हैं।लिहाज़ा आनी वाले समय में राहुल के ख़िलाफ़ वे और सक्रिय होंगे। जैसे-जैसे राहुल की तरफ़ से सरकार विरोध मज़बूत होगा, वे जनता की चर्चा के केंद्र में भी आते जाएँगे। यही कारण है कि अपनी रणनीति में बदलाव लाकर अब राहुल गाँधी बहुत मज़बूती से विपक्षी दलों के बीच एकता पर ज़ोर देने लगे हैं।

हरकिशन सिंह सुरजीत की मृत्यु के बाद के इन वर्षों में सोनिया गाँधी ही विपक्ष की एकता या बैठकों की धुरी रही हैं। लेकिन अब राहुल गाँधी वह स्थान लेते दिख रहे हैं। बीच में ऐसा लगा था कि शायद शरद पवार यह जगह ले लेंगे, लेकिन उनकी आयु और सेहत शायद उन्हें बहुत सक्रिय रहने की इजाज़त नहीं देती। बीच में तो उनके राष्ट्रपति / उप राष्ट्रपति पद के लिए समर्थन जुटाने की ख़बरें भी सोशल मीडिया में फैलीं। ख़ुद पवार ने हालाँकि ऐसी किसी कोशिश से इन्कार किया। ऐसे में राहुल का विपक्षी एकता का केंद्र बनना बहुत हैरानी पैदा नहीं करता।

कांग्रेस के भीतर भी राहुल गाँधी अपनी माँ सोनिया गाँधी की छाया से बाहर निकल चुके हैं; भले पार्टी के फ़ैसलों पर अध्यक्ष के नाते अन्तिम मुहर वही लगाती हैं। हाल के महीनों में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्षों की नियुक्ति राहुल गाँधी की पसन्द से ही हुई है। पार्टी के राज्य नेताओं में भी अब ख़ुद को राहुल गाँधी के नज़दीक दिखाने का चलन बढ़ा है, जो ज़ाहिर करता है कि ये आम कांग्रेस नेता और कार्यकर्ता अब राहुल को ही नेता के रूप में देखने लगे हैं। हाल में राहुल के नाश्ते में शामिल एक विपक्षी नेता ने ‘तहलका’ बातचीत में राहुल के प्रति अपने अनुभव को लेकर कहा- ‘वह ज़ोर देकर यह कहते हैं कि आरएसएस (और भाजपा) के ख़िलाफ़ साथ काम करने की सख़्त ज़रूरत है। वह यह भी कहते हैं कि ऐसा किया जा सकता है। राहुल दूसरे नेताओं से उनके विचार जानने को उत्सुक रहते हैं। उनका व्यवहार दूसरे नेताओं के प्रति बहुत सम्मान भरा होता है और वह आकर्षित करते हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि यदि राहुल पूरी गम्भीरता से मैदान में जुट जाएँ, तो वह भाजपा के लिए बड़ी राजनीतिक चुनौती बनने की क्षमता रखते हैं।’

विपक्षी नेताओं के मुताबिक, यह राहुल गाँधी ही थे, जिन्होंने पेगासस जैसे गम्भीर मामले पर विपक्ष को एकजुट किया। कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खडग़े के संसद कक्ष में हुई बैठक की पूरी ज़िम्मेदारी राहुल गाँधी ने ही सँभाली थी। बाद में पत्रकार वार्ता (प्रेस कॉन्फ्रेंस) में भी मुख्य तौर पर राहुल गाँधी के सम्बोधन के बावजूद उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि दूसरे नेता भी वहाँ बोलें, ताकि विपक्ष का वृहद् प्रतिनिधित्व उजागर हो। संसद के भीतर भी राहुल गाँधी अन्य दलों के नेताओं से सम्पर्क बढ़ाने की कोशिश करने लगे हैं। पेगासस मुद्दे पर उन्होंने (राहुल) अन्य दलों के नेताओं से सदन के भीतर भी जिस तरह चर्चा की वह एक बदले हुए राहुल गाँधी के दर्शन करवाता है। एक सांसद ने कहा- ‘राहुल गाँधी ने संसद सत्र के दौरान साइकिल यात्रा का प्रस्ताव ही नहीं दिया, बल्कि उसका नेतृत्व भी किया। यह पहले नहीं दिखता था। राहुल में यह बदलाव स्वागत योग्य है।’

राहुल के सामने चुनौती संसद के बाहर विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने की रहेगी। कुछ मुद्दों पर संसद भीतर सहमति बनाना ज़रूर सफल रहा है। एक वृहद् लक्ष्य के लिए सभी दलों को एक छतरी के नीचे लाने में अभी समय लगेगा। इसमें दो-राय नहीं कि राहुल ने एक बेहतर शुरुआत की है। आने वाले समय में उनकी कोशिश विपक्ष के ख़ेमे को और विस्तार देने की रहेगी। साथ ही अपने नेतृत्व को विपक्ष के बीच और मज़बूत करने के कोशिश भी राहुल को करनी होगी। यह थोपा नहीं जा सकता, बल्कि भरोसे और कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में जीत दिलवाकर ही हो सकता है। लिहाज़ा राहुल के लिए यह बहुत ज़रूरी रहेगा कि विधानसभा चुनाव में वे कांग्रेस को जितवाकर चुनावी रूप से सफल नेता की अपनी छवि भी मज़बूत करें। आख़िर विपक्ष राहुल को एक करिश्माई नेता होने के नाते ही तो उन्हें अपना नेता मानने की हिम्मत दिखाएगा।

 

ममता की तैयारी

राहुल की ही तरह पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी ख़ुद को राष्ट्रीय भूमिका के लिए तैयार करती दिख रही हैं। लिहाज़ा यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले समय में ख़ुद ममता का राष्ट्रीय भूमिका को लेकर क्या रूख़ रहता है? लेकिन अगस्त के दूसरे हफ़्ते ममता बनर्जी को टीएमसी के संसदीय दल का नेता चुन लिया जाना बहुत दिलचस्प फ़ैसला कहा जाएगा। राजनीति के लिहाज़ से यह एक बड़ा, हैरान करने वाला और अहम फ़ैसला है। क्योंकि ममता न लोकसभा की सदस्य हैं। न लोकसभा या राज्यसभा की ही सदस्य हैं। क्या माना जाए कि आने वाले समय में वह राज्यसभा या लोकसभा में आ सकती हैं? ममता बनर्जी की अपने इस चयन पर टिप्पणी भी बहुत दिलचप्स थी। उन्होंने कहा- ‘क्योंकि वो मुझसे प्यार करते हैं।’ बनर्जी ने भविष्य में केंद्रीय स्तर पर राजनीति करने को लेकर कहा- ‘मैं कोई राजनीतिक ज्योतिषी नहीं हूँ। ये सब कुछ सिचुएशन (परिस्थिति), सिस्टम (तंत्र) और स्ट्रक्चर (संरचना) पर निर्भर करता है।’

ज़ाहिर है आगामी पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद विपक्ष स्थिति को देखकर नेतृत्व को लेकर किसी एक बिन्दु पर फोकस करेगा और नेतृत्व के निर्णय पर पहुँचने का प्रयास करेगा।

विपक्ष की बैठक

राहुल गाँधी जब जम्मू-कश्मीर के दौरे पर थे, उसी शाम कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल विपक्षी पार्टी के नेताओं के साथ अपने घर पर रात्रि भोज (डिनर) का आयोजन कर रहे थे। इस रात्रि भोजन में 15 पार्टियों के क़रीब 45 नेता और सांसद शामिल हुए; जिसमें लम्बे समय तक जेल में रहने वाले लालू यादव, शरद पवार, अखिलेश यादव, डेरेक ओब्रायन, सीताराम येचुरी और संजय राउत जैसे नेता शामिल थे। इसके अलावा बीजेडी के पिनाकी मिश्रा, अकाली दल के नरेश गुजराल और आम आदमी पार्टी के संजय सिंह, सपा से राम गोपाल यादव, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) के महासचिव सीताराम येचुरी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव डी. राजा, नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला, बीजू जनता दल के नेता अमर पटनायक, द्रमुक (द्रविड़ मुनेत्र कषगम) के तिरुचि शिवा और टी.के. एलनगोवन, रालोद (राष्ट्रीय लोक दल) के जयंत चौधरी और टीआरएस (तेलंगाना राष्ट्र समिति)के नेता भी शामिल हुए। वहीं कांग्रेस के गुलाम नबी आज़ाद, पी. चिदंबरम, भूपिंदर सिंह हुड्डा, आनंद शर्मा, मुकुल वासनिक, पृथ्वीराज चव्हाण, मनीष तिवारी और शशि थरूर शामिल थे। विदित हो कि राहुल गाँधी के नाश्ते पर आम आदमी पार्टी न्यौता पाकर भी नहीं गयी थी। सिब्बल की इस रात्रि भोज बैठक में आगामी 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और 2024 के आम चुनाव में विपक्षी एकता मज़बूत करने की बात हुई। भाजपा को निशाने पर रखा गया।