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काबुल से 150 भारतीय भारत लाये गए, पूर्व अफगान राष्ट्रपति गनी के ओमान चले जाने की जानकारी

अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बाद वहां फंसे 150 भारतीय, जिनमें आईटीबीपी के जवान भी शामिल हैं, वापस भारत पहुँच गए हैं। भारत के एक विमान सी-17 ग्लोबमास्टर से इन भारतीयों को वापस लाया गया है। गुजरात के जामनगर में फ्यूलिंग और लंच के बाद यात्रियों को लेकर यही जहाज हिंडन (गाज़ियाबाद) या दिल्ली रवाना होगा। यह भारतीय कहाँ उतारे जाएंगे, सुरक्षा कारणों से इसे अभी जाहिर नहीं किया गया है। अफगानिस्तान में फंसे अन्य भारतीय भी सुरक्षित इलाके में बताये गए हैं और एकाध दिन में उन्हें भी एयरलिफ्ट किया जाएगा। उधर पूर्व अफगान  राष्ट्रपति अशरफ गनी को ताजिकिस्तान में नहीं उतरने देने के बाद उनके ओमान चले जाने की खबर है, जहाँ से वे अमेरिका जा सकते हैं। तालिबान का अभी भी काबुल एयरपोर्ट पर कब्ज़ा नहीं हो पाया है।
इस बीच अपने नागरिकों की सुरक्षित वापसी के लिए भारत सरकार भरसक कोशिश  कर रही है। इसी सिलसिले में एक विमान काबुल एयरपोर्ट से 150 भारतीयों को लेकर आज गुजरात के जामनगर एयरपोर्ट पर उतरा। यह विमान सी-17 ग्लोबमास्टर सैन्य मालवाहक विमान है और काबुल से आने वाले भारतीय नागरिकों में राजदूत रुदेंद्र टंडन और उनके स्टाफ के सदस्यों समेत 150 लोग इसमें आये हैं। विमान सुबह सवा 11 बजे जामनगर एयरपोर्ट पर उतरा जहाँ इसमें फ्यूल भरा गया है। अब यह दिल्ली या हिंडन (गाज़ियाबाद) के लिए रवाना होगा।
इस जहाज में लौटे भारतीयों का जामनगर एयरपोर्ट पर फूल-माला पहनाकर स्वागत किया गया। गुजरात सरकार के मुख्यमंत्री और उनके कुछ मंत्री एयरपोर्ट पर उपस्थित रहे। भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा है कि काबुल से आए इन लोगों को जामनगर में लंच के बाद सी-17 ग्लोबमास्टर एयरक्राफ्ट से ही गाजियाबाद के हिंडन एयरबेस भेजा जाएगा। इसके अलावा अफगानिस्तान में फंंसे अन्य लोगों की वापसी के लिए और विमान भी भेजे गए हैं। अफगानिस्तान में फंसे अन्य भारतीय भी बहरहाल सुरक्षित इलाके में हैं और एक-दो दिन में सबको एयरलिफ्ट कर लिया जाएगा। विदेश मंत्रालय के बयान में कहा गया है कि अफगानिस्तान की घटना पर करीब से नजर बनाए हुए हैं और अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए हर कदम उठा रहे हैं।
उधर अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति अशरफ गनी ओमान में बताये गए हैं। तालिबान के राजधानी काबुल पर कब्जे  के दौरान ही पूर्व राष्ट्रपति एक निजी विमान से ताजिकिस्तान पहुंचे लेकिन उनके विमान को वहां लैंड होने की अनुमति नहीं दी गयी। इसके बाद वह ओमान रवाना हुए और बताया गया है कि पूर्व राष्ट्रपति वहीं हैं। उनके इसके बाद अमेरिका जाने की अटकलें हैं। अशरफ गनी के साथ अफगानिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोहिब भी बताये गए हैं। तालिबान का अभी भी काबुल एयरपोर्ट पर कब्ज़ा नहीं हो पाया है।
उधर खुद अशरफ गनी ने सोशल मीडिया पर कहा कि ‘उन्होंने अफगानिस्तान में खून-खराबे से बचने के लिए देश छोड़ दिया।’ ख़बरों के मुताबिक अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई और राष्ट्रीय सुलह के लिए उच्च परिषद के प्रमुख अब्दुल्ला अब्दुल्ला एक साझा सरकार के लिए तालिबान के साथ बातचीत की कोशिश कर रहे हैं। तालिबान की तरफ से फिलहाल इस बाबत कुछ नहीं कहा गया है।

दिल्ली के छात्र ने सुप्रीम कोर्ट में स्कूलों को खोलने की मांग रखी

हाल ही में 12वीं कक्षा के एक छात्र अमर प्रेम प्रकाश ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर स्कूलों को खोलने की मांग रखी है।

याचिका में कहा गया है कि पिछले साल मार्च अप्रैल से स्कूल बंद होने की वजह से छात्रों पर इसका मनोवैज्ञानिक असर पड़ रहा है। कई छात्र तनाव का भी शिकार हो रहे हैं। याचिका में बताया गया है कि स्कूलों में चल रहे ऑनलाइन क्लास से पढ़ाई ठीक से नही हो पा रही है जिसके कारण छात्रों का सम्पूर्ण विकास नही हो पा रहा है।

सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दाखिल कर छात्र ने आपील की है कि राज्य अपने यहाँ कोरोना सक्रमण के हालत को देखते हुए स्कूल खोलने का निर्णय लें। दिल्ली को छोड़कर ज्यादातर राज्यों में स्कूल-कॉलेज खोले जा चुके हैं।

कोविड के बढ़ते केसिस को देखते हुए कोविड टॉस्कफोर्स ने अभी स्कूल खोलने के पक्ष में राय नहीं दी है। जिसके बाद स्कूलों को खोलने का फैसला टल गया है। वही दिल्ली में अभी प्रशासनिक कार्यों के लिए ही स्कूल खोलने की इजाजत दी गई है।

 

 

देश में बढ़ती भिक्षावृत्ति की वजह

A street beggar gets into the car, Calcutta Kolkata India

भीख माँगना सामाजिक व आर्थिक समस्या है और शिक्षा व रोज़गार के अभाव में कुछ लोग अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भीख माँगने पर मजबूर हैं। कोई भी अपनी मर्ज़ी से भीख माँगना नहीं चाहता। यह टिप्पणी हाल ही में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भिखारियों और भिक्षावृत्ति पर की।

सर्वोच्च न्यायालय ने भिक्षावृत्ति पर यह संवेदनशील टिप्पणी करके समाज को भिखारियों के प्रति अपना नज़रिया बदलने को सन्देश दिया है, तो वहीं सरकार को भी आईना दिखाया है कि भिक्षावृत्ति सरकारी सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रमों व नीतियों के ढाँचों और उनके अमल में ख़ामियों के कारण भी है। ग़ौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करके न्यायालय से आवारा घूमने वालों और भिखारियों को सडक़ों पर घूमने से रोके जाने की माँग की गयी थी और इसके साथ ही सरकार से बेघर लोगों व भिखारियों के पुनर्वास व टीकाकरण करने का आग्रह किया गया था।

इस मामले की सुनवाई करने वाले न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ व न्यायाधीश एम.आर. शाह ने मामले की पहली माँग को स्वीकार नहीं किया और दूसरी माँग के लिए केंद्र व दिल्ली की सरकारों से जवाब तलब किया है। दरअसल सर्वोच्च न्यायालय ने इस जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान कई सवाल सरकार, समाज व आमजन के सम्मुख रखे। अहम सवाल यह किया कि आख़िर ये लोग सडक़ों, धार्मिक, सार्वजनिक स्थानों पर क्यों दिखायी देते हैं? उसकी कोई तो वजह होगी। उन वजहों को समझने और समस्याओं को जड़ से ख़त्म करने के लिए मानवीय व संवेदनशील नज़रिया अपनाने की दरकार है। यह नहीं कि सडक़ों से भिखारियों को हटाने के मुददे पर सम्भ्रात नज़रिये का परिचय देते हुए न्यायालय भीख माँगने पर प्रतिबन्ध लगा दे।

दोनों न्यायाधीशों ने भिक्षावृत्ति की मूल वजहों पर रोशनी डाली, ताकि उन्हें दूर करने की दिशा में वास्तविक क़दम उठाकर आगे बढ़ा जाए। उन्होंने कहा कि शिक्षा और रोज़गार की कमी के चलते बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ही लोग अक्सर भीख माँगने को विवश होते हैं।

यानी सर्वोच्च न्यायालय ने साफ़ कर दिया कि भीख माँगने पर प्रतिबन्ध लगाना ठीक नहीं होगा और इससे भीख माँगने की समस्या का कोई हल नहीं निकलने वाला।

न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि कोई भी भीख नहीं माँगना चाहता और इसके हल के लिए सरकारों को अलग तरीक़े से आगे आना होगा। वैसे अपने नागरिकों को स्वास्थ्य, आश्रय और भोजन सरीखी बुनियादी ज़रूरतें मुहैया कराना हरेक सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शमिल हैं। लेकिन हक़ीक़त कुछ और ही बयाँ करती है।

सन् 2011 की जनगणना के आँकड़े बताते हैं कि उस समय देश में कुल 4,13,670 भिखारी थे। इनमें 2,21,673 पुरुष और 1,91,997 महिला भिखारी थे। सबसे अधिक भिखारी पश्चिम बंगाल में हैं। सन् 2011 में वहाँ इनकी संख्या 81,224 थी। पश्चिम बंगाल व असम में महिला भिखारियों की संख्या पुरुषों से अधिक है। सन् 2011 की जनगणना के मुताबिक, भिक्षावृत्ति में दूसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश है, जहाँ उस समय 65,835 भिखारी थे। जबकि देश की राजधानी दिल्ली में कुल 2,587 भिखारी थे। ज़ाहिर हैं कि बेरोज़गारी और आबादी बढऩे के चलते अब यानी 2021 में भिखारियों के आँकड़ों में स्वाभाविक रूप से बढ़ोतरी हो गयी होगी। इसके अलावा कोविड-19 महामारी ने जिस तरह से वैश्विक ग़रीबी को बढ़ाया है, उसकी चपेट में भारत के लोग भी हैं।

सरकार चुप क्यों?

देश में बढ़ती महँगाई को रोकने में केंद्र सरकार विफल रही है। सम्भव है कि इस कारण भी अपनी रोज़ाना की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में असमर्थ रहने वाले कुछ लोग भिखारी बनने को विवश हुए हों। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ राज्य के आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र बतौर मुख्यमंत्री अपनी उपलब्धियों का विज्ञापनों के ज़रिये ख़ूब प्रचार कर रहे हैं।

बेरोज़गारों को रोज़गार देने की संख्या और युवाओं को कौशल प्रशिक्षण देने के आँकड़ों को तो वह बार-बार समाचार पत्रों, टीवी चैनलों और प्रायोजित साक्षात्कारों में बताते हैं। मगर वह अपने शासनकाल में राज्य में भिखारियों की संख्या, उनकी समस्याओं पर सार्वजनिक तौर पर कुछ नहीं बोलते।

कोई केंद्रीय क़ानून नहीं

भिक्षावृत्ति को लेकर देश में कोई केंद्रीय क़ानून नहीं है। कुछ साल पहले केंद्र सरकार ने भिक्षावृत्ति को ग़ैर-आपराधिक काम तय करने के बाबत एक विधेयक का मसौदा तैयार किया था; लेकिन सरकार स्वैच्छिक और ग़ैर-स्वैच्छिक भिक्षावृत्ति में अन्तर तय करने में ही उलझकर रह गयी। बेशक भिक्षावृत्ति को लेकर देश के 20 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों के अपने-अपने क़ानून हैं; लेकिन ग़ौर करने वाला अहम बिन्दु यह है कि इन क़ानूनों का मुख्य आधार बॉम्बे भिक्षावृत्ति रोकथाम अधिनियम-1959 है।

यह अधिनियम पुलिस और समाज कल्याण विभागों को इजाज़त देता है कि बेघरों और निराश्रित लोगों को पकडक़र हिरासत केंद्रों में भेज दिया जाए। इसके लिए सज़ा का भी प्रावधान है। पुलिस और इस पर अमल कराने वाली एंजेसियाँ अक्सर ग़रीब लोगों को इस क़ानून की आड़ में परेशान करती हैं। भिखारियों को गिरफ़्तार भी कर लेती हैं।

इस सन्दर्भ में तीन साल पहले यानी सन् 2018 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने साफ़ कहा था कि दिल्ली पुलिस भिखारियों को गिरफ़्तार नहीं कर सकती। दिल्ली उच्च न्यायालय ने भिक्षावृत्ति को अपराध बनाने वाले क़ानून बॉम्बे भिक्षावृत्ति रोकथाम अधिनियम-1959 को राजधानी के सन्दर्भ में ख़ारिज कर दिया था। जबकि इससे पहले दिल्ली पुलिस भिखारियों को इस अधिनियम के तहत गिरफ़्तार कर लेती थी।

न्यायालय ने कहा कि इस अधिनियम के तहत दिल्ली में भिक्षावृत्ति को अपराध मानकर इस सम्बन्ध में पुलिस अधिकारी को शक्तियाँ प्रदान करने वाले प्रावधान असंवैधानिक हैं; इसलिए इसे ख़ारिज किया जाता है। अब तक सर्वोच्च न्यायालय और दिल्ली उच्च न्यायालय में भिक्षावृत्ति के कई पहलुओं पर याचिकाएँ दायर हुई हैं और आमतौर पर न्यायालयों ने सरकारों से ठोस पहल करने व इस दिशा में उचित क़दम उठाने के निर्देश भी जारी किये हैं।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने ऐसे मामले की दो जनहित याचिकाओं की सुनवाई के दौरान कहा था कि जिस देश में सरकार अपने लोगों को रोज़गार और भोजन देने में असमर्थ है, वहाँ पर भिक्षावृत्ति को अपराध कैसे माना जा सकता है?

भारत के मौज़ूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश की अर्थ-व्यवस्था के मज़बूत होने के चाहे कितने ही दावे करें, मगर वह कभी बेरोज़गारी, महँगाई पर नहीं बोलते। ग़रीबी कितनी बढ़ी है? इसके चलते कितने लोग सडक़ों पर भीख माँग रहे हैं? यह शायद उनके लिए समस्या नहीं है। जबकि भिक्षावृत्ति का सीधा ताल्लुक़ समाज, उसकी समस्याओं और लोगों की आर्थिक स्थिति से जुड़ा है। क्योंकि कुछ लोगों को शारीरिक लाचारी, ग़रीबी, बेसहारा होने, उचित शिक्षा और रोज़गार न मिल पाने के कारण ही एक विकल्प भिखारी बनना ही नज़र आता है।

हालाँकि देश में ऐसे भी लोग हैं, जो शारीरिक अपंगता, ख़बर स्वास्थ्य और संसाधनों के अभाव के बावजूद मेहनत करके अपनी गुज़र-बसर करते हैं। वहीं कुछ सक्षम लोग भिक्षावृत्ति को पेशा मानकर इसे छोडऩा नहीं चाहते। ऐसे लोग काम ही नहीं करना चाहते और घर-घर जाकर भीख माँगने के अलावा ऐसी जगहों पर खड़े हो जाते हैं, जहाँ लोग धार्मिक कारणों से दान देने के लिए अक्सर आते रहते हैं।

इसके अलावा पूरे देश में ऐसे अनेक माफिया सक्रिय हैं, जो बच्चों से, लोगों से जबरन भीख मँगवाते हैं। इन लोगों के लिए करोड़ों रुपये का धन्धा है। ऐसा नहीं है कि यह बिन्दु न्यायालयों, सरकारों और पुलिस के संज्ञान में नहीं है। ऐसे लोगों की पहचान की जानी चाहिए और उन्हें भीख माँगने व मँगवाने से रोकने के लिए ठोस क़दम सरकारों को उठाने चाहिए। लेकिन यह कार्य समाज के जागरूक लोगों, सामाजिक संगठनों, एनजीओ और पुलिस की दृढ़ इच्छाशक्ति के बग़ैर सम्भव नहीं है।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई में दिल्ली सरकार को जबरन भिक्षावृत्ति कराने वालों पर कार्रवाई के लिए क़ानून बनाने को कहा था। दरअसल माफिया अक्सर बच्चों, लचरों और बुजुर्गों को अपने जाल में फँसाते हैं। जो इनकी गिरफ़त में एक बार आ जाता है, फिर उसका इनके चंगुल से बाहर निकलना बहुत-ही कठिन होता है। एक अनुमान के मुताबिक, देश में क़रीब तीन लाख बाल भिखारी हैं। बाल तस्करी के ज़रिये भी बच्चे भीख मँगवाने वाले गिरोहों तक पहुँचाये जाते हैं। ऐसे बच्चों को शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान किया जाता है। उन्हें नशा करना सिखाया जाता है, ताकि उनकी सोचने की क्षमता कुंद पड़ जाए और वे अपना भला-बुरा न सोच सकें व सवाल करना बन्द कर दें। कई बच्चों को तो विकलांग तक कर दिया जाता है।

देश से भिक्षावृत्ति की समस्या ख़त्म हो, इसके लिए सरकार का अपनी समाज कल्याण व आर्थिक कार्यक्रमों व नीतियों का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए। समाज के सबसे वंचित तबक़ों के लोगों की उन तक सुगम पहुँच होनी चाहिए। लाभार्थियों के आँकड़े महज़ काग़ज़ों पर बढ़ाने से कुछ नहीं हासिल होने वाला।

उरूज़ पर फिर हिन्दोस्ताँ होगा

भारत ने वह कर दिखाया, जिसकी उम्मीद बहुत कम लोगों ने की थी। भारत के हॉकी खिलाड़ी न केवल कांस्य का पदक ले आये, बल्कि उन्होंने उन लोगों के मुँह पर एक करारा तमाचा भी जड़ दिया, जो लोग कुछ साल से यहाँ हॉकी का मर्सिया पढऩे में लगे थे। न केवल लडक़ों ने, बल्कि लड़कियों ने अन्तिम चार में पहुँचकर यह साबित कर दिया कि देश के लहू में हॉकी अभी ज़िन्दा है। ध्यान रहे कि ओलंपिक खेलों में महिला हॉकी सन् 1980 में शामिल की गयी थी। उस साल भारत की पुरुष टीम ने भास्करन के नेतृत्व में स्वर्ण पदक जीता था। पर महिला टीम कुछ ख़ास नहीं कर पायी थी। इसके बाद सन् 2012 तक महिला टीम ओलंपिक के लिए क्वालीफाई भी नहीं कर पायी। सन् 2016 रियो ओलंपिक में इस टीम ने दूसरी बार क्वालीफाई किया; पर प्रदर्शन काफ़ी कमज़ोर रहा। इस बार टोक्यो में इस टीम ने सभी को चकित करते हुए न केवल सेमीफाइनल में जगह बनायी, बल्कि इस उपलब्धि को हासिल करने की राह में आयी और ऑस्ट्रेलिया जैसी टीम को भी पस्त किया।

भारत में हॉकी का स्वर्णिम इतिहास रहा है। लेकिन पिछले 41 साल से हम एक पदक के लिए तरस रहे थे। एमेस्ट्रम (1928) से लेकर मेलबर्न (1956) तक इस खेल में हम बादशाह थे। पर रोम (1960) में अपने हमसाया मुल्क पाकिस्तान ने नसीर बुंदा के पहले हाफ के 11वें मिनट में किये गोल से हमसे यह रुतबा छीन लिया। पूरे देश में मातम छा गया। भारत पहली बार रजत (चाँदी) का पदक लेकर लौटा था। टीम के कप्तान लेसली क्लॉडियस का यह चौथा ओलंपिक था, जो अन्तिम भी साबित हुआ। इतना ही नहीं सन् 1962 के एशियाई खेलों में भारत फिर पाकिस्तान से परास्त हो गया। अब लोगों में निराशा फैलने लगी थी। लोग भारतीय हॉकी को बीते दिनों की बात कहने लगे थे। उन्हीं दिनों ग़ज़ब के सेंटर हाफ चरणजीत सिंह को टीम का कप्तान बनाया गया। उन्हीं की अगुआई में टीम सन् 1964 के टोक्यो ओलंपिक पहुँच गयी। टीम में इस नया जोश था। यहाँ भारतीय टीम पूल-2 में थी। उसने अपने अभियान का आग़ाज़ बेल्जियम को 2-0 से हराकर किया। इसके बाद वह जर्मनी और स्पेन से 1-1 से ड्रॉ खेला, हॉन्गकॉन्ग को 6-0 से, मलेशिया को 3-1 से, कनाडा को 3-0 से और हॉलैंड को 2-1 से हराया। उधर पाकिस्तान ने पूल-1 में जापान को 1-0 से, केन्या को 5-2 से, रोडेशिया को 6-0 से, न्यूजीलैंड को 2-0 से और ऑस्ट्रेलिया को 2-1 से हराया। इस प्रकार पूल में पाकिस्तान ने 6 के 6 मैच जीते। उनके ख़िलाफ़ केवल 3 गोल हुए, जबकि उन्होंने लगभग 3 गोल प्रति मैच की औसत से 17 गोल दाग़े।

भारत ने पूल के 7 मैचों में से 5 जीते 2 बराबर रहे। इन मैचों में उन्होंने 18 गोल किये और मात्र 4 गोल खाये। भारत के गोलरक्षक शंकर लक्ष्मण के लिए यह ओलंपिक शानदार रहा।

सेमीफाइनल में भारत ने ऑस्ट्रेलिया को 3-1 से और पाकिस्तान ने स्पेन को 3-0 से हराया।

फाइनल में तीसरी बार भारत पाकिस्तान आमने-सामने थे। सभी को पाकिस्तान का पलड़ा भारी लग रहा था; पर भारत की रक्षा पंक्ति, ख़ासकर गोल में शंकर लक्ष्मण के अद्भुत खेल से भारत ने पाकिस्तान से अपना ताज फिर वापस छीन लिया। भारत के लिए एक मात्र गोल मोहिंदर लाल ने पेनल्टी स्ट्रोक पर किया।

खेल में गिरावट

भारतीय खेल में गिरावट जल्दी ही सामने आने लगी। हालाँकि सन् 1966 में भारत पहली बार एशियन खेलों में हॉकी का स्वर्ण पदक जीता; पर टीम में गुटबाज़ी काफ़ी थी।

हॉकी का पतन

मेक्सिको के लिए चुनी टीम काग़ज़ों पर बहुत मज़बूत थी; पर अन्दरख़ाने टीम भावना की कमी थी। इस ही वजह से पहली और शायद आख़िरी भी, टीम के दो कप्तान- पृथपाल सिंह और गुरबख़्श सिंह बनाये गये। टीम न्यूजीलैंड से अपना पहला ही मैच 1-2 से हर गयी। इतना ही नहीं, सेमीफाइनल में ऑस्ट्रेलिया ने भी हमें हराकर स्वर्ण पदक की दौड़ से बाहर कर दिया। वहाँ हमें पहली बार कांस्य पदक मिला। सन् 1972 के म्यूनिक ओलंपिक में भी हमें कांस्य पदक से ही सन्तोष करना पड़ा।

मॉन्ट्रियल (1976) में पहली बार हॉकी के मैच कृत्रिम मैदान पर खेले गये और भारत सीधा सातवें स्थान पर सरक गया।

मॉस्को (1980) में कई देशों के बायकॉट के कारण स्वर्ण पदक फिर भारत की गोद में आ गिरा। पर इसके बाद स्थिति बद से बदतर होती गयी और लॉस एंजेलिस (1984) में हम  पाँचवें, सिओल (1988) में छठे, बार्सिलोना (1992) में सातवें, अटलांटा (1996) में आठवें, सिडनी (2000) में सातवें, और एथेंस (2004) में सातवें स्थान पर रहे।

बीजिंग (2008) में हम ओलंपिक के लिए क्वालीफाई भी नहीं कर पाये। लंदन (2012) में हमें 12वाँ स्थान मिला। रियो (2016) में हम आठवें स्थान पर थे। पिछले पाँच साल में भारतीय टीम में कई बदलाव किये गये। युवा खिलाडिय़ों पर भरोसा रखा गया और बिना दर जूनियर टीम के कई खिलाड़ी इस टीम में नज़र आ रहे हैं।

आज की हॉकी में स्किल के साथ बेहद दमख़म और मानसिक रूप से मज़बूती ज़रूरी है। हमारी पूरी तरह संतुलित टीम ने मैदान में इसका प्रदर्शन किया। यह भी देखने की बात है की भारत की ओर से 11 खिलाडिय़ों ने गोल किये। पूल के पाँच मैचों में भारत ने 15 गोल किये; जबकि उसके ख़िलाफ़ 13 गोल हुए। क्वार्टर फाइनल में ग्रेट ब्रिटेन के ख़िलाफ़ भारत ने तीन गोल किये और एक खाया।

सेमीफाइनल भारत बेल्जियम से 2-5 से हारा और कांस्य पदक के मैच में उसने जर्मनी को 5-4 से पराजित किया। इस तरह कुल आठ मैचों में भारत ने 25 गोल किये और 23 खाये। भारत के लिए पेनल्टी कॉर्नर विशेषज्ञ हरमनप्रीत सिंह ने 6 और रूपिंदर पाल सिंह ने 4 गोल किये। इस तरह भारत ने 9 गोल शॉर्ट कॉर्नर से और एक पैनेलिटी स्ट्रोक पर बनया। यह स्ट्रोक रूपिंदर पाल ने लगाया था। जहाँ तक बाक़ी खिलाडिय़ों की बात है, तो सिमरनजीत सिंह ने तीन, गुरजंट सिंह ने तीन, दिलप्रीत सिंह ने दो, और मनदीप, वरुण कुमार, विवेक सागर प्रसाद, नीलकांत शर्मा, और शमशेर सिंह ने एक-एक गोल किया।

गोल रक्षक श्रीजेश की तो बात ही क्या। उन्होंने न केवल कई निश्चित गोल बचाये, बल्कि टीम का मार्गदर्शन भी किया। उनका खेल देखकर स्वाभाविक तौर पर भारत को सन् 1964 टोक्यो की स्वर्ण पदक जीत में अहम भूमिका निभाने वाले महान गोल रक्षक शंकर लक्ष्मण की याद ताजा हो आयी।

महिला हॉकी

महिला हॉकी का इतिहास भी काफ़ी पुराना है। रूपा सैनी, अजिंदर कौर, निशा शर्मा, प्रेम माया, सरोज बाला और राजबीर कौर जैसी खिलाडिय़ों ने देश का नाम ऊँचा किया है। यह 80 के दशक की बात है। दिल्ली में आयोजित 1982 के एशियन खेलों में महिला हॉकी को पहली बार शामिल किया गया। वहाँ भारत ने स्वर्ण पदक जीता। उन खेलों में 14 साल की राजबीर कौर का नाम अचानक सामने आया। राजबीर ने सबसे अधिक गोल किये थे।

इसके बाद कोई बड़ी सफलता भारत के हाथ नहीं लगी। इस बीच महिला हॉकी संघ को $खत्म करके उसे पुरुष हॉकी संघ में जोड़ दिया गया और बरसों तक महिला हॉकी अँधेरों में गुम हो गयी। रियो (2016) में जाकर महिला टीम फिर से नज़र आने लगी। इस दौरान उसने जूनियर विश्व कप में तीसरा स्थान भी हासिल कर लिया। पिछले चार साल महिला हॉकी के उत्थान के साल रहे। टीम फर्श से उठकर अर्श तक पहुँच गयी। इसमें शाहबाद अकादमी और उसके कोच बलदेव सिंह की भूमिका अहम रही। टोक्यो में भारत को एक कमज़ोर टीम माना जा रहा था। किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि यह टीम एक खलबली मचा देगी। भारत पहले मैच में जब नीदरलैंड से 1-5 से हर गया, तो टीम के आलोचकों को पक्का हो गया कि यह टीम कुछ ख़ास नहीं कर पाएगी। अगले मैच में भारत को फिर जर्मनी से 0-2 से शिकस्त मिली और तीसरा मैच वह ग्रेट ब्रिटेन से 1-4 से हार गयी। इस तरह उसने पहले तीन मैचों में 11 गोल खा लिये और मात्र दो गोल किये। क्वार्टर फाइनल में स्थान बनाने के लिए उसे अगले दोनों मैच जीतने ज़रूरी थे। वैसे जिन लोगों ने भारत के पिछले तीनों मैच देखे थे, वे इस बात से सहमत थे कि गोलों की संख्या मैचों की असली तस्वीर पेश नहीं करती।

ख़ैर, आयरलैंड के साथ मैच में भारत ने अपना असली रुख़ दिखाया और ताबड़तोड़ हमले जारी रखे। दोनों छोर से भारतीय फॉरवर्ड उनकी डी में घुसते रहे पर गोल न बन सका। आख़िर नवनीत कौर ने दाएँ छोर से मिले एक क्रॉस को बहुत ही ख़ूबसूरती से गोल में डालकर भारत को 1-0 से जीत दिलवा दी। भारत के लिए चिन्ता की बात यह थी कि उनकी ड्रैग फ्लिकर गुरजीत कौर पूरी तरह ऑफ कलर चल रही थीं। क्वार्टर फाइनल में प्रवेश के लिए भारत को दक्षिण अफ्रीका के ख़िलाफ़ अपना अन्तिम लीग मैच जीतना ज़रूरी था। यहाँ वंदना कटारिया का जादू काम आया। उन्होंने तीन पेनल्टी कॉर्नर गोल में बदलकर न केवल देश को जीत दिलायी, बल्कि भारत की ओर से ओलंपिक में हैट्रिक लगाने वाली पहली खिलाड़ी बन गयीं। उनके तीन गोलों की बदौलत भारत इस कड़े मु$काबले को 4-3 से जीतने में सफल रहा। अब क्वार्टर फाइनल में भारत के सामने ऑस्ट्रेलिया था। भारत की जीत की किसी को रत्ती भर भी उम्मीद न थी। सभी यह देख रहे थे कि भारत कितने गोल से हारता है। लेकिन टीम पूरे जोश से खेली और अब तक पेनल्टी कॉर्नर पर कोई गोल नहीं कर पाने वाली गुरजीत कौर ने फार्म में आते हुए पहले ही मौ$के का लाभ उठाकर अपनी टीम को 1-0 की निर्णायक बढ़त दिला दी; जो गोल कीपर सविता पुनिया ने कभी ख़त्म नहीं होने दी। भारत सेमी फाइनल में पहुँच गया। यहाँ उसकी टक्कर अर्जेंटीना से थी। मुक़ाबला बराबर का चला। इस मैच में भी गुरजीत ने दूसरे ही मिनट में मिले पेनल्टी कार्नर को गोल में बदलकर टीम को 1-0 से आगे कर दिया था, पर अर्जेंटीना ने दूसरे क्वार्टर में मारिया के गोल से बराबरी पा ली। अर्जेंटीना के लिए जीत दिलाने वाला गोल भी मारिया ने ही तीसरे क्वार्टर में किया। अन्तिम क्वार्टर में भारत को गोल करने के कई मौक़े मिले पर गोल न हो सका।

कांस्य पदक के लिए हुए मैच में भारत के सामने ग्रेट ब्रिटेन था। वह टीम, जिससे भारत पूल में 1-4 से हर चुका था। पर भारतीय टीम ने उस हार को भूल नयी ताक़त से मैदान सँभाला। पहले क्वार्टर में ग्रेट ब्रिटेन ने भारत को हमले नहीं करने दिये। उसने दो पेनल्टी कॉर्नर भी अर्जित किये पर कोई गोल न हो सका। सविता गोल में एक दीवार बनकर खड़ी रहीं।

दूसरे क्वार्टर में ग्रेट ब्रिटेन ने एक फील्ड गोल और एक पेनल्टी कॉर्नर के गोल बनाकर 2-0 की बढ़त ले ली। लेकिन भारत दबा नहीं; उसने तीसरे पेनल्टी कॉर्नर को गोल में बदलकर इस बढ़त को 1-2 कर दिया। यह ओलंपिक में गुरजीत का तीसरा गोल था। इतना ही नहीं गुरजीत ने अगले मौक़े पर भी गोल दाग़कर न केवल स्कोर बराबर (2-2) किया, बल्कि अपना चौथा गोल भी बना लिया। वंदना कटारिया ने इसे 3-2 करके हाफ टाइम तक भारत को आगे कर दिया।

हाफ टाइम के बाद ग्रेट ब्रिटेन ने अच्छा खेल दिखाया और भारतीय खिलाड़ी अपनी लय खो बैठे और अन्त में भारत 4-3 से पराजित हो गया।

इस हार के बावजूद भारत की महिला हॉकी टीम ने ग़ज़ब कर दिया। लगता है महिला हॉकी भी बुलंदी छूने वाली है। इसका पता चले गा पेरिस (2024) में। तब तक बस इंतज़ार।

झटका: महिला कांग्रेस की अध्यक्ष ने पार्टी छोड़कर तृणमूल का दामन थामा

अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की अध्यक्ष और पूर्व सांसद सुष्मिता देव तृणमूल कांग्रेस यानी टीएमसी में शामिल हो गई हैं। उन्हें ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी व डेरेक ओ ब्रायन ने पार्टी की सदस्यता दिलाई।  इससे पहले सोमवार को ही उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को इस्तीफा भेजा था। पूर्वोत्तर से ताल्लुक रखने वाली सुष्मिता देव राहुल गांधी की करीबी मानी जाती थीं।

सुष्मिता देव ने इस्तीफे की जानकारी सोनिया गांधी को पत्र के माध्यम से दी थी। इससे पहले सुष्मिता देव ने पार्टी के व्हाट्सएप ग्रुप को भी छोड़ दिया था, वहीं ट्विटर पर भी बायो बदल कर पूर्व पार्टी नेता कर लिया था।  सुष्मिता देव 2014 के लोकसभा चुनाव में असम की सिल्चर सीट से कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर सांसद बनी थीं। इसके बाद उन्हें अखिल भारतीय महिला कांग्रेस का कार्यभार भी दिया गया था। लेकिन, असम विधानसभा चुनाव में हार के बाद सुष्मिता देव का इस्तीफा मुसीबत बन सकता है।

ट्विटर ने सुष्मिता का अकाउंट भी लॉक कर दिया था। इसी दौरान उन्होंने खुद को बायो में कांग्रेस पार्टी का पूर्व नेता बताया है। यह कदम सुष्मिता देव ने तब उठाया, जब ट्विटर ने उनके अकाउंट को निलंबित कर दिया है। सुष्मिता भी उन नेताओं में से एक हैं, जिनका ट्विटर अकाउंट राहुल गांधी के साथ निलंबित किया गया है।

कांग्रेस के युवा नेता कार्ति चिदंबरम ने कहा है कि पार्टी को इस पर मंथन करना होगा कि क्यों सुष्मिता देव जैसे युवा लोग उनको छोड़कर चले जा रहे हैं। वहीं, कपिल सिब्बल ने भी इस मामले में ट्वीट करते हुए कहा है कि युवा नेता कांग्रेस को छोड़कर जा रहे हैं और आरोप पुराने बुजुर्ग नेताओं पर लगते हैं। इस तरह पार्टी में एक बार फिर बुजुर्ग बनाम युवा को लेकर बहस और तेज हो सकती है।

सातवें आसमान पर

ओलंपिक खेलों में स्वर्ण सहित 7 पदक से भारत ने जगायीं भविष्य की उम्मीदें

इस साल मोदी सरकार के खेलों के बजट में 325 करोड़ रुपये की कटौती के बावजूद भारत के खिलाडिय़ों ने तमाम अभावों और सुविधाओं की कमी के बीच ओलंपिक इतिहास का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए एक स्वर्ण पदक सहित 7 पदक जीते। भले 135 करोड़ की बड़ी आबादी वाले देश के लिए यह उपलब्धि सागर में अंजुरी भर पानी जैसी हो; लेकिन इससे भविष्य के लिए उम्मीद की नयी किरण जगी है। बशर्ते वर्तमान उपलब्धि के नशे से बाहर निकलकर भविष्य में खेलों पर पूरा ध्यान दिया जाए। भारत को श्रेष्ठ परिणाम दे सकने वाली प्रतिभाओं पर फोकस करके ही दुनिया के नामी खिलाडिय़ों को टक्कर दी जा सकती है और पदकों की संख्या बढ़ायी जा सकती है। तमाम पहलुओं पर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

जमैका के तेज़ धावक उसैन बोल्ट को कौन नहीं जानता। तीन ओलंपिक में उसैन ने 8 स्वर्ण पदक जीते। क्या आपको पता है कि यह 8 स्वर्ण पदक जीतने के लिए उसैन बोल्ट को सिर्फ़ 115 सेकेंड (2 मिनट से भी कम) दौडऩा पड़ा। इन स्वर्ण (गोल्ड) पदकों की बदौलत उसैन ने 119 मिलियन डॉलर कमाये। लेकिन असली बात यह है कि उसैन ने यह अद्भुत उपलब्धि हासिल करने के लिए 20 साल तक कड़ी मेहनत की। कोविड-19 की सख़्त पाबंदियों के बीच हुए टोक्यो ओलंपिक में भारत की इस बार की उपलब्धियाँ भले देश की जनसंख्या के अनुपात में बहुत छोटी दिखती हों, लेकिन एक रास्ता खुला है, जो भविष्य में सही खेल नीति और खिलाडिय़ों के समर्पण से उसे बहुत ऊँचाई तक ले जा सकता है। दुनिया के नामी और रिकॉर्डधारी खिलाडिय़ों को टक्कर दे सकने की क्षमता वाले खिलाडिय़ों और खेलों पर केंद्रित (फोकस) किया जाता है और उन्हें अंतर्राष्ट्रीय सुविधाएँ देकर अगले ओलंपिक से पहले ज़्यादा-से-ज़्यादा अंतर्राष्ट्रीय मुक़ाबलों में भेजा जाता है, तो हम चार साल बाद अपने पदकों की संख्या दोगुनी करने की क्षमता रखते हैं। एक स्वर्ण सहित अभी तक के रिकॉर्ड 7 पदक (मेडल) जीतने की ख़ुशी ही थी कि टोक्यो से लौटे खिलाडिय़ों का पुरज़ोर स्वागत किया गया। एयरपोर्ट पर खेल दीवानों की भीड़ इन खिलाडिय़ों की एक झलक पाने और उन्हें सिर पर बैठाने को उतावली थी।

टोक्यो में भारत ने एथलेटिक्स (स्वर्ण), वेटलिफ्टिंग (रजत), कुश्ती (एक रजत, एक कांस्य), पुरुष हॉकी (कांस्य), बैडमिंटन (कांस्य) और बॉक्सिंग (कांस्य) सहित कुल 7 पदक हासिल किये। इससे पहले भारत ने 2012 के लंदन ओलंपिक में सबसे अधिक 6 पदक जीते थे।

अब अगला ओलंपिक 2024 में पेरिस में होगा। इन तीन वर्षों में भारत के पास स्थितियों के मुताबिक बेहतर खिलाडिय़ों को ओलंपिक मुक़ाबलों में चुनौती दे सकने लायक बनाने का अवसर है। प्रतिभाओं की कमी नहीं है। वरिष्ठ खिलाड़ी पीटी उषा कहती हैं- ‘हमारे लिए सबसे बेहतर है भीड़ की जगह अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के आपपास प्रदर्शन करने वाले खिलाडिय़ों की पहचान करके उन्हें बेहतरीन प्रशिक्षण देकर ज़्यादा-से-ज़्यादा आउटिंग करवाना। इससे उनका एक्सपोजर होगा और वे पदक की दौड़ में शामिल रहेंगे। यही एक स्थिति है, जो हमें ओलंपिक में बेहतर पायदान पर खड़ा कर सकती है।’ भारत की आबादी के लिहाज़ से सात पदक समंदर के पानी में एक बूँद जैसी लगते हैं; लेकिन इसे एक छोटी शुरुआत मान भी लें, तो भी आगे का रास्ता उतना आसान नहीं। हमारे यहाँ अंतर्राष्ट्रीय सुविधाओं का नितांत अभाव है। जो खेल संस्थाएँ बनी हैं, उनमें ग़ैर-खिलाडिय़ों का दबदबा है; जिनका ज़्यादा ध्यान खेलों के पैसे पर रहता है। बाबुओं के सहारे चल रहे हमारे खेल संस्थानों को लेकर कई बार गम्भीर सवाल उठे हैं; लेकिन कोई ध्यान नहीं देता। उलटे यह अव्यवस्था समय के साथ और मज़बूत ही हुई है।

चीन से तुलना करें, तो ज़ाहिर होता है कि हमारे देश में पदक जीतने की ललक कमोवेश शून्य जैसी है। जीतना चाहते हैं। लेकिन न तो बुनियादी मज़बूत ढाँचा है; न कोच हैं; न वैसे प्रोफे नल खेल संस्थान। देश की पहला विश्वविद्यालय अब जाकर बना है, जिसे दिल्ली सरकार ने बनाया है। क्रिकेट को दोष नहीं दिया जा सकता। लेकिन सच यह है कि क्रिकेट ने सब खेलों की जगह ले ली है और बड़े घरानों की थैलियाँ भी क्रिकेट के लिए ही खुलती हैं।

भारत की ओलंपिक की स्थिति की पड़ोसी देश चीन से तुलना करें, तो पता चलता है कि हम कितना पीछे हैं। टोक्यो ओलंपिक से पहले तक भारत ने 121 साल के ओलंपिक इतिहास में महज़ 28 पदक जीते थे। भारत के विपरीत चीन ने इन मुक़ाबलों में पहली बार 1984 में जाकर लॉस एंजेलिस ओलंपिक में भाग लिया था। भारत के विपरीत टोक्यो से पहले तक चीन ने 525 पदक जीत लिये थे, जिनमें 217 स्वर्ण पदक थे। टोक्यो में भी चीन दूसरे नंबर पर रहा और 88 पदक जीते।

यह बहुत दिलचस्प भरी गाथा है कि भारत जैसे देश ने हाल के वर्षों में उभरे आईटी और अन्य क्षेत्रों में तो विश्व विख्यात प्रतिभाएँ दुनिया को दे रहे हैं; लेकिन खेल क्षेत्र में हम आज भी लगभग सि$फर ही हैं। जाने-माने खेल टीकाकार (कमेंटेटर) जसदेव सिंह ने एक बार कहा था कि हमारे माता-पिता खेल मैदान से ज़्यादा खेत को अहमियत देते हैं।

हमारे देश में प्रतिभा की कमी नहीं; लेकिन खेल किसी की भी प्राथमिकता नहीं है। एक पुरानी घटना है, जिसके मुताबिक बास्केटबॉल में खेल प्रतिभाएँ तलाशने के लिए रूस के खेल विशेषज्ञ भारत आये। उन्होंने 125 लडक़ों का चयन किया, जिनकी लम्बाई बास्केटबॉल के लिहाज़ से सही छ: फुट या इससे अधिक थी। इन लडक़ों की शिक्षा से लेकर खाने-पीने और अन्य ख़र्चे सरकार को ही करने थे। लेकिन जब इनके अभिभावकों को मंज़दूरी देने को कहा गया, तो उन्होंने यह कहकर साफ़ इन्कार कर दिया कि इनके खेलों में जाने से हमारी खेती चौपट हो जाएगी; क्योंकि यहाँ काम कौन करेगा?

अब भले कुछ परिवार अपने बच्चों को खेलों में जाने के प्रति सॉफ्ट रहते हैं। लेकिन आज भी ज़्यादातर माता-पिता बच्चों को इंजीनियर या डॉक्टर ही बनाना चाहते हैं। पीटी उषा इसका कारण भारत में खेलों के प्रति माहौल न होने को मानती हैं। उषा कहती हैं- ‘हमारे देश में खेल संस्कृति का नितांत अभाव है। पारिवारिक और सामाजिक भागीदारी भी न के बराबर है और खेल कभी सरकारों की प्राथमिकता नहीं रहे।’

खेल जानकार मानते हैं कि देश में खेल फेडरेशनों पर सियासत बड़े स्तर पर हावी है। साई (स्पोट्र्स अथॉर्टी ऑफर इण्डिया) जैसे देश खेल संगठन पर समय-समय पर दर्ज़नों आरोप लगते रहे हैं। यहाँ तक कि ओलंपिक खेलों में एक विदेशी भारतीय कोच ने भी साई पर गम्भीर आरोप लगाये थे। जानकारों के मुताबिक, भारत में खेल ढाँचा (इंन्फ्रास्ट्रक्चर) और ख़ुराक (डाइट) नाक़ाफी है और खेल ढाँचों में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद बड़े पैमाने पर हावी है। इसके अलावा देश में आज भी ग़रीबी है और खेल से पहले युवाओं के माता-पिता नौकरी को प्राथमिकता देते हैं। सबसे ख़राब बात यह है कि हमारे देश में खिलाडिय़ों को निजी प्रायोजन (स्पॉन्सरशिप) के लिए पापड़ बेलने पड़ते हैं। निजी प्रायोजन विदेशों में आसानी से उपलब्ध होते हैं और कई खिलाड़ी इसी से अपनी ज़रूरतों को पूरा कर लेते हैं, जो भारत के खिलाड़ी आसानी से नहीं कर पाते।

ग़रीब घरों के सितारे

सोशल मीडिया पर जब महिला हॉकी खिलाड़ी सलीमा टेटे के घर की तस्वीरें वायरल हुईं, तो सब स्तब्ध रह गये। खपरैल की छत वाला कच्चा घर और आगे आँगन के ऊपर प्लास्टिक से बना कवर। ओलंपिक हॉकी में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली सलीमा के आर्थिक स्थिति का इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है। यह भी समझा जा सकता है कि कितनी विकट परिस्थितियों में रहकर यह खिलाड़ी देश का नाम रोशन करती हैं। झारखण्ड के सिमडेगा ज़िले के बडक़ीचापर गाँव में सलीमा टेटे घर की ये तस्वीरें वायरल होने के बाद यूजर्स ने काफ़ी कमेंट किये। एक यूजर ने लिखा- ‘देखो, ओलंपिक में देश का सम्मान बढ़ाने वाली लडक़ी का महल।’ अन्य यूजर्स ने भी हॉकी खिलाड़ी की आर्थिक हालत देखकर दु:ख जताया।

सलीमा के पिता सुलक्षण टेटे छोटे किसान हैं और बमुश्किल परिवार का पालन-पोषण करते हैं। सलीमा खेलने के लिए बांस की मोटी छड़ी के साथ लडक़ों के साथ ऊबड़-खाबड़ खेतों में अभ्यास करती थीं। सलीमा जब ओलंपिक में गयीं, तो परिवार के पास टीवी तक नहीं था। परिवारजन मैच देख सकें, इसके लिए प्रशासन ने उन्हें टीवी दिया। एक और डिफेंडर निक्की प्रधान का परिवार भी ग़रीबी में है। खेती से गुज़ारा होता है। पाँच भाई बहनों में दूसरे नंबर की निक्की की तीन बहनें शशि, कान्ति और सरीना भी हॉकी खेलती हैं। ग़रीबी से उठकर निक्की मेहनत के बूते भारतीय टीम में पहुँची है। मिडफील्डर नेहा गोयल की माँ सावित्री ने बेटी को सही जगह पहुँचाने के लिए फैक्ट्री में काम किया। एक और मिडफील्डर निशा वारसी के पिता सोहराब अहमद कपड़े की दुकान पर दर्ज़ी का काम करते हैं। परिवार किराये के मकान में रहता रहा। ज़िन्दगी की इसी जद्दोजहद में पिता को लकवा मार गया। बेटी का सपना पूरा करने लिए माँ मेहरुनिसा ने फैक्ट्री में मज़दूरी की। कप्तान रानी रामपाल फारवर्ड हैं और पिता रामपाल मेहनत मज़दूरी करते थे। रामपाल कोरोना से पीडि़त होने के बाद अब बेड पर हैं। एक समय रानी के माता-पिता के पास बेटी की हॉकी किट और जूते ख़रीदने तक के पैसे नहीं थे।

एक और फॉरवर्ड नवनीत कौर के पिता बूटा सिंह खेती-बाड़ी करते हैं। डिफेंडर उदिता के पिता यशवीर सिंह दूहन पुलिस में थे; लेकिन बीमारी के बाद सन् 2015 में उनका निधन हो गया, जिसके बाद परिवार पर संकटों का पहाड़ टूट पड़ा। माँ गीता देवी ने मुश्किल हालात में उदिता का पालन-षोषण किया। फॉरवर्ड शर्मिला देवी के पिता सुरेश कुमार भी ग़रीब किसान हैं। बहुत मुश्किल से उदिता हॉकी के अपनी मंज़िल तक पहुँच पायीं, जिसमें उनके कोच का भी बड़ा रोल रहा।

वाह! खेल भावना

ओलंपिक में खिलाडिय़ों के बीच स्पर्धा होती है। लेकिन इस बार एक अनुपम उदाहरण ने सबका दिल जीत लिया। ओलंपिक में पुरुषों की ऊँची कूद स्पर्धा के दौरान कतर के मुताज इसा बरशीम और इटली के गियानमार्को टेम्बरी ने स्वर्ण पदक शेयर किया।

जब दोनों ही खिलाड़ी ऊँची कूद के आख़िरी राउंड में निर्धारित ऊँचाई पर नहीं पहुँच सके। तब उन्हें मैच रेफरी ने अपने पास बुलाकर कहा कि विजेता का निर्धारण होने तक आप लोग अपनी-अपनी जंप जारी रखें। लेकिन कतर के एथलीट मुताज इसा बरशीम ने उनकी बात बीच में ही काटते हुए पूछा कि क्या एक इवेंट में दो विजेता हो सकते हैं, तो रेफरी ने हामी भर दी। ये सुनकर दोनों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। कतर के बरशीम ने तुरन्त अपने प्रतिद्वंद्वी इटली के टम्बेरी को गले लगाकर इस बात की पुष्टि कर दी कि दोनों को साझा रूप से विजेता घोषित किया गया। ओलंपिक खेलों के इतिहास में इस घटना को अविस्मरणीय खेल भावना के लिए हमेशा याद किया जाएगा; क्योंकि इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था।

शर्मनाक लम्हे

टोक्यो ओलंपिक में महिला हॉकी के सेमीफाइनल मु$काबले में अर्जेंटीना से हार के बाद भारतीय हॉकी टीम की खिलाड़ी वंदना कटारिया के घर के बाहर पटाखे फोडऩे और जातिगत टिप्पणी किये जाने की घटना हुई। आरोपियों ने कहा कि कई सारे दलित खिलाडिय़ों की वजह से भारत को हार मिली। निश्चित ही यह शर्मनाक हादसा था।

हरिद्वार के रोशनाबाद गाँव में फॉरवर्ड प्लेयर वंदना कटारिया के घर पर यह घटना हुई। उनके भाई शेखर के आरोप के मुताबिक, टीम की हार से हम सभी दु:खी थे। लेकिन इस बात का गर्व है कि लड़ते हुए हार मिली।

मैच के थोड़े ही देर के बाद घर के बाहर पटाखों का शोर सुनायी दिया। बाहर जाकर देखा तो गाँव के ही उच्च जाति के दो युवक नाच रहे थे। शेखर ने पुलिस में शिकायत दर्ज करवायी, जिसके मुताबिक परिवार के लोग बाहर निकले, तो पटाखे जलाकर डांस कर रहे युवकों ने जातिगत टिप्पणी शुरू कर दी। उन्होंने कहा कि टीम में कई दलित खिलाडिय़ों की वजह से ही हार मिली है। आरोपियों ने कहा कि केवल हॉकी ही नहीं, बल्कि हर एक खेल से दलितों को दूर रखना चाहिए। एफआईआर के मुताबिक, आरोपियों ने परिवार के सदस्यों का अपमान किया और शर्ट उतारकर नाचने लगे। सिडकुल थाने में शिकायत के आधार पर एक आरोपी को गिरफ़्तार भी किया गया।

किसके कितने खिलाड़ी व पदक?

ओलंपिक 2020 के तहत कुल 33 प्रतिस्पर्धाएँ आयोजित हुईं, जिनके लिए कुल 42 स्थानों पर 339 अलग-अलग मैच आयोजित किये गये। टोक्यो ओलंपिक इस साल का खेलों का सबसे बड़ा आकर्षण रहा। इन खेलों में भारत ने 126 एथलीटों का दल भेजा था। भारत के ओलंपिक खेलों में हिस्सा लेना शुरू करने के बाद से यह ओलंपिक इतिहास में भारत का सबसे बड़ा दल रहा।

भारत के अलावा टोक्यो ओलंपिक खेलों में कुल 205 देशों ने हिस्सा लिया। अमेरिका ने इन खेलों के लिए 630 खिलाडिय़ों को भेजा था, जो ओलंपिक 2020 में सबसे बड़ा दल था। अमेरिका ने 39 स्वर्ण पदक समेत कुल 113 पदक जीतकर पहले स्थान पर क़ब्ज़ा किया, जबकि चीन 38 स्वर्ण समेत 88 पदक जीतकर दूसरे स्थान पर रहा।

जापान ने 27 स्वर्ण सहित 58 पदकों सहित तीसरा, ब्रिटेन ने 22 स्वर्ण सहित 65 पदक जीतकर चौथा और रूस के नाम बदलकर आरओसी के नाम से खेले खिलाडिय़ों ने 20 स्वर्ण सहित 71 पदक जीतकर पाँचवाँ स्थान हासिल किया। भारत का 48वाँ स्थान रहा।

चालू वित्त वर्ष में घटाया खेल बजट

भले आज देश के प्रधानमंत्री से लेकर अन्य नेता और सरकारें खिलाडिय़ों की मेहनत का श्रेय लेने की होड़ में हों; लेकिन एक कड़वा सच यह है कि मोदी सरकार ने इस साल खेलों का 230.78 करोड़ रुपये का बजट काट लिया था। कोरोना महामारी के कारण साल भर खेल गतिविधियाँ बन्द रहीं, जिसका लाभ लेते हुए केंद्र की मोदी सरकार ने वर्ष 2021-22 के बजट में खेल और युवा कार्य मंत्रालय को 2,596.14 करोड़ रुपये आवंटित किये, जो पिछले वर्ष के आवंटन से 230.78 करोड़ रुपये कम हैं।

यह आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार हुआ कि ओलंपिक वर्ष में देश की सरकार ने खेल बजट काट दिया हो। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वर्ष 2021-22 के लिए संसद में पेश बजट में कटौती का ज़िक्र किया था। हालाँकि यह पिछले वित्त वर्ष के संशोधित आवंटन से 795.99 करोड़ रुपये अधिक था। वहीं वर्ष 2020-21 के लिए मूल आवंटन 2,826.92 करोड़ रुपये था, जो बाद में घटाकर 1,800.15 करोड़ रुपये कर दिया गया था। मंत्रालय ने शुरुआत में पिछले साल के बजट में खेलों को 2826.92 करोड़ रुपये दिये थे, जो बाद में घटाकर 1,800.15 करोड़ कर दिये गये; क्योंकि कोरोना महामारी के कारण खेल नहीं हो रहे थे। खेलो इंडिया के लिए वित्त वर्ष 2020-21 के बजट में 890.42 करोड़ रुपये आवंटित किये गये थे। संशोधित अनुमान में इसे 328.77 कर दिया गया। वित्त वर्ष 2021-22 में इस मद के लिए परिव्य बढ़ाकर 657.71 करोड़ रुपये कर दिया गया था। वहीं राष्ट्रीय खेल महासंघों के लिए आवंटन पिछले बजट में 245 करोड़ रुपये था, जिसे संशोधित आवंटन बजट अनुमान में 132 करोड़ रुपये कर दिया गया। हालाँकि अगले वित्त वर्ष के लिए बढ़ाकर 280 करोड़ रुपये किया गया।

राष्ट्रीय खेल विकास कोष के लिए 25 करोड़ रुपये दिये गये, जबकि वित्त वर्ष 2020-21 के बजट में संशोधित आवंटन 7.23 करोड़ रुपये है। भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) को मिलने वाले आवंटन में भी इज़ाफ़ा किया गया। साई को 660.41 करोड़ रुपये आवंटित किये गये। जबकि वित्त वर्ष 2020-21 के बजट अनुमान में आवंटन 500 करोड़ रुपये था, जो संशोधित अनुमान में 612.21 करोड़ रुपये हैं। खिलाडिय़ों के लिए प्रोत्साहन का बजट 70 करोड़ रुपये से घटाकर 53 करोड़ रुपये कर दिया गया। वहीं 2010 राष्ट्रमंडल खेल साई स्टेडियमों की मरम्मत का बजट 75 करोड़ रुपये से घटाकर 30 करोड़ रुपये कर दिया गया।

खिलाडिय़ों पर इनामों की बौछार

ओलंपिक में पदक विजेताओं और अन्य राज्यों के खिलाडिय़ों के लिए पुरस्कारों की बड़े पैमाने पर बौछार हुई है। भारत को एथलेटिक्स में पहला स्वर्ण पदक दिलाने वाले स्टार भाला फेंक एथलीट नीरज चोपड़ा पर उनकी इस उपलब्धि के लिए देश भर से शनिवार को पुरस्कारों की बरसात हो रही है। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने राज्य के खिलाड़ी चोपड़ा के लिए छ: करोड़ रुपये के इनाम की घोषणा की है।

भारतीय क्रिकेट बोर्ड (बीसीसीआई) और इंडियन प्रीमियर लीग फ्रेंचाइजी चेन्ई सुपर किंग्स ने भी चोपड़ा को एक-एक करोड़ रुपये का पुरस्कार देने की घोषणा की। बीसीसीआई ने अन्य पदक विजेता भारतीय खिलाडिय़ों को भी नक़द पुरस्कार देने की घोषणा की है। खट्टर ने कहा कि चोपड़ा को पंचकुला में बनने वाले एथलेटिक्स के सेंटर फॉर एक्सीलेंस का प्रमुख बनाया जाएगा। ओलंपिक में व्यक्तिगत स्पर्धा में देश के लिए दूसरा और ट्रैक-ऐंड-फील्ड में पहला स्वर्ण जीतकर नीरज चोपड़ा ने शनिवार को इतिहास रच दिया। खट्टर ने कहा कि‍ हमारी खेल नीति के तहत नीरज को छ: करोड़ रुपये का नक़द पुरस्कार, प्रथम श्रेणी (क्लास वन) की नौकरी और सस्ती दरों पर भूखण्ड (प्लॉट) दिया जाएगा।

अमरिंदर सिंह ने भी चोपड़ा की उपलब्धि की सराहना की और आधिकारिक बयान जारी करके उनके लिए दो करोड़ रुपये के नक़द पुरस्कार की घोषणा की। अमरिंदर ने कहा कि यह समूचे देशवासियों और पंजाबियों के लिए गर्व का मौक़ा है। सेना में कार्यरत नीरज चोपड़ा के परिवार की जड़ें पंजाब में हैं।

हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर ने घोषणा की कि पहलवान रवि दहिया और बजरंग पूनिया के सोनीपत और झज्जर ज़िले स्थित पैतृक गाँवों में इंडोर कुश्ती स्टेडियम बनाया जाएगा। टोक्यो ओलंपिक में हरियाणा के पहलवान रवि दहिया ने रजत और बजरंग पूनिया ने कांस्य पदक जीता। प्रदेश सरकार की पदक नीति के तहत कांस्य पदक जीतने वाले पूनिया को ढाई करोड़ का नक़द इनाम, सस्ती दर पर भूखण्ड और सरकारी नौकरी दी जाएगी। रवि दहिया ओलंपिक में रजत पदक जीतने वाले दूसरे पहलवान हैं। उन्हें चार करोड़ रुपये की इनामी राशि के अलावा प्रथम श्रेणी की नौकरी और हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण का एक भूखण्ड सस्ती दर पर दिया जाएगा। हरियाणा सरकार भारतीय महिला हॉकी टीम का हिस्सा रही प्रदेश की नौ खिलाडिय़ों को भी 50-50 लाख का नक़द इनाम देगी और ओलंपिक की किसी भी स्पर्धा में चौथे स्थान पर आने वाले राज्य के खिलाड़ी को भी इतनी ही र$कम दी जाएगी। बीसीसीआई के सचिव जय शाह ने ट्वीट कर यह घोषणा भी की कि रजत पदक विजेता मीराबाई चानु और रवि दहिया को भी 50-50 लाख रुपये क्रिकेट बोर्ड देगा। मीराबाई चानु ने भारत के लिए टोक्यो ओलंपिक में वेटलिफ्टिंग में पहला पदक जीता था। रवि दहिया ओलंपिक में कुश्ती में सुशील कुमार (2012) के बाद रजत पदक जीतने वाली दूसरे पहलवान हैं। कांस्य पदक विजेता पहलवान बजरंग पूनिया, बॉक्सर लवलीना बारगोहेन और बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु को भी 25-25 लाख रुपये दिये जाएँगे।

देश के लिए हॉकी में 41 साल बाद ओलंपिक पदक जीतने वाली पुरुष हॉकी टीम को भी 1.25 करोड़ रुपये बोर्ड देगा। कई निजी कम्पनियों ने भी खिलाडिय़ों के लिए इनाम और प्रोत्साहन की घोषणा की है। आईपीएल फ्रेंचाइजी चेन्नई सुपर किंग्स चोपड़ा को एक करोड़ का नक़द इनाम देने के अलावा 8758 नंबर की एक विशेष जर्सी भी उनके सम्मान में जारी करेगी। गुरुग्राम स्थित रियेल एस्टेट कम्पनी ऐलान ग्रुप के अध्यक्ष राकेश कपूर ने नीरज चोपड़ा के लिए 25 लाख के इनाम की घोषणा की, तो वहीं इंडिगो ने एक साल के लिए उन्हें असीमित मुफ़्त यात्रा की पेशकश की है।

मणिपुर सरकार ने चानु को एक करोड़ रुपये और नौकरी दी। चोपड़ा हरियाणा के पानीपत ज़िले के खांद्रा गाँव के रहने वाले हैं। अभिनव बिंद्रा ने इससे पहले भारत के लिए सन् 2008 के बीजिंग ओलंपिक में भारत के लिए व्यक्तिगत स्पर्धा में पहली बार निशानेबाज़ी का स्वर्ण पदक जीता था। इससे पहले मणिपुर सरकार ने चानु को एक करोड़ रुपये और सहायक पुलिस अधीक्षक (खेल) का नियुक्ति-पत्र दिया था।

उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भारतीय महिला हॉकी टीम की सदस्य रहीं राज्य की वंदना कटारिया को 25 लाख रुपये के नक़द पुरस्कार की घोषणा की; जबकि झारखण्ड सरकार ने इसी टीम का हिस्सा रहीं अपने राज्य की दो खिलाडिय़ों सलीमा टेटे और निक्की प्रधान को 50-50 लाख रुपये देने की घोषणा की है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी पुरुष हॉकी टीम का हिस्सा रहे प्रदेश के दो खिलाडिय़ों विवेक सागर और नीलाकांत शर्मा के लिए एक-एक करोड़ रुपये के इनाम की घोषणा की है। रेलवे ने भी टोक्यो ओलंपिक में मेडल जीतने वाले खिलाडिय़ों और उनके कोच को नक़द इनाम देने की घोषणा की है। रेलवे ने स्वर्ण जीतने वाले खिलाड़ी को तीन करोड़ रुपये और उनके कोच को 25 लाख रुपये देने का ऐलान किया है। सिल्वर जीतने वाले खिलाड़ी को दो करोड़ और कोच को 20 लाख दिये जाएँगे। ब्रॉन्ज जीतने वाले खिलाडिय़ों को एक करोड़ रुपये और कोच को 15 लाख का इनाम दिया जाएगा। इसके अलावा ओलंपिक में भाग लेने वाले खिलाडिय़ों को 7.5 लाख रुपये दिये जाएँगे। भारतीय ओलंपिक संघ ने मेडल विजेताओं के लिए नक़द इनाम की घोषणा पहले से कर रखी है। इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन (आईओए) ने स्वर्ण जीतने पर 75 लाख रुपये, रजत (सिल्वर) जीतने पर 40 लाख और कांस्य (ब्रॉन्ज) जीतने पर 25 लाख रुपये का इनाम देने की घोषणा की है। अब तक के 5 पदक विजेताओं को इसी हिसाब से इनामी राशि दी जाएगी।

 

कुछ दिलचस्प बातें

 भारतीय हॉकी टीम ने ओलंपिक के हॉकी इवेंट में अपना पहला स्वर्ण पदल सन् 1928 के एम्सटर्डम ओलंपिक में जीता था, जो भारत का पहला ओलंपिक भी था। मेजर ध्यानचंद ने इस पूरे ओलंपिक में अकेले सबसे ज़्यादा 14 गोल दाग़े, जबकि भारतीय टीम ने पाँच मैचों में कुल 29 गोल किये थे। भारतीय हॉकी का यह स्वर्णिम युग कहा जाता है।

 कर्णम मल्लेश्वरी भारत की पहली महिला एथलीट हैं, जिन्होंने ओलंपिक पदक जीता। भारतीय खेलों के लिए गौरव का पहला पल सिडनी 2000 में आया जब कर्णम मल्लेश्वरी ने कांस्य पदक जीता था। ओलंपिक इतिहास में भारत के नाम अब तक कुल 35 पदक हैं। इनमें 10 स्वर्ण, नौ रजत और 16 कांस्य पदक शामिल हैं। सबसे ज़्यादा आठ स्वर्ण पदक भारत ने हॉकी में जीते हैं। भारत ने 2012 लंदन आलंपिक में सर्वाधिक जीते 6 पदकों को पीछे छोड़ते हुए टोक्यो ओलंपिक में 7 पदक अपने नाम किये।

 भारत ने अब तक 24 ओलंपिक में हिस्सा लिया है, जिसमें 6 ओलंपिक में भारत को एक भी मेडल नसीब नहीं हो सका। भारत की स्टार बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल ने 2012 के लंदन ओलंपिक में देश के लिए कांस्य पदक जीता। नेहवाल ओलंपिक पदक जीतने वाली दूसरी भारतीय महिला खिलाड़ी बनीं। सन् 2012 के लंदन ओलंपिक में बैडमिंटन विमेन सिंगल्स में कांस्य पदक के लिए साइना का मुक़ाबला चीन की शिन वांग से हुआ था। भारतीय महिला वेटलिफ्टर मीराबाई चानू ने टोक्यो ओलंपिक की शुरुआत में सिल्वर मेडल जीतकर भारत का नाम रोशन किया। टोक्यो ओलंपिक में मेडल जीतने वाली वह पहली खिलाड़ी बनीं।

 ओलंपिक की किसी स्पर्धा के फाइनल तक पहुचने वाली प्रथम भारतीय महिला पीटी उषा हैं। वह सेकेंड के 100वें हिस्से के अन्तर से पदक से चूक गयी थीं। इस बार ओलंपिक की व्यक्तिगत स्पर्धा में भारत को 13 साल बाद दूसरा स्वर्ण पदक मिला। बीजिंग ओलंपिक 2008 में पहली बार शूटर अभिनव बिंद्रा ने स्वर्ण पदक जीता था।

 

भारत के पदक विजेता

 

नीरज चोपड़ा (स्वर्ण पदक)

ओलंपिक खेलों में पहली बार हिस्सा ले रहे नीरज चोपड़ा ने भारत के लिए गौरव के सबसे बेहतरीन क्षण दिये। भारतीय टीम ने 13 साल बाद ओलंपिक में स्वर्ण पदक का सूखा ख़त्म किया और ट्रैक ऐंड फील्ड में तो यह भारत का पहला स्वर्ण पदक रहा। टोक्यो में नीरज चोपड़ा ने भारत को यह स्वर्ण पदक दिलाया। उन्होंने 87.58 मीटर भाला फेंक (जैबलिन थ्रो) के साथ भारत की झोली में यह स्वर्ण पदक डाला।

नीरज ने 2021 में ही इंडियन ग्रॉ प्री-3 में 88.07 मीटर भाला फेंक के साथ अपना ही राष्ट्रीय रिकॉर्ड तोड़ा था। जून में पुर्तगाल के लिस्बन में हुए मीटिंग सिडडे डी लिस्बोआ टूर्नामेंट में उन्होंने स्वर्ण पदक अपने नाम किया था। नीरज का लक्ष्य 90 मीटर भाला फेंक करने का है। उनसे पहले सन् 2008 के बीजिंग ओलंपिक में 10 मीटर एयर राइफल के व्यक्तिगत स्पर्धा में अभिनव बिंद्रा एकमात्र स्वर्ण पदक विजेता रहे।

 

मीराबाई चानू (रजत पदक)

टोक्यो ओलंपिक में भारत के पदकों का खाता पहले ही दिन मीराबाई चानू ने रजत पदक के साथ खोला था। चानू ने भारोत्तोलन के 49 किलोवर्ग में कुल 202 किलो (87 किलो + 115 किलो) भार उठाकर भारत के लिए इस प्रतिस्पर्धा में 21 साल बाद ओलंपिक पदक हासिल किया। सिडनी ओलंपिक 2000 के 69 किलो भारोत्तोलन में कर्णम मल्लेश्वरी ने भारत के लिए कांस्य पदक जीता था।

 

पीवी सिंधु (कांस्य पदक)

पिछले ओलंपिक में रजत पदक जीत चुकीं महिला बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु ने टोक्यो में भारत को दूसरा पदक दिलाया। सिंधु ने रियो ओलंपिक में रजत पदक जीता था। टोक्यो में कांस्य पदक जीतकर वे (पहली महिला) दूसरी ऐसी खिलाड़ी बन गयीं, जिन्होंने व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा में दो ओलंपिक पदक हासिल किये हैं। सुशील कुमार ने कुश्ती में बीजिंग ओलंपिक 2008 में कांस्य और लंदन ओलंपिक 2012 में रजत पदक हासिल किये थे।

लवलीना बोरगोहाईं (कांस्य पदक)

मुक्केबाज़ लवलीना बोरगोहाईं ने टोक्यो ओलंपिक में यादगार प्रदर्शन करते हुए कांस्य पदक अपने नाम किया। लवलीना 69 किलो वेल्टरवेट कैटिगरी के सेमीफाइनल में तुर्की की वल्र्ड नंबर-1 बॉक्सर बुसेनाज सुरमेनेली से हार गयी थीं। उन्हें कांस्य पदक मिला। भारत को नौ साल के बाद ओलंपिक बॉक्सिंग में पदक हासिल हुआ है। असम के गोलाघाट ज़िले की लवलीना बॉक्सिंग में ओलंपिक पदक हासिल करने वाली तीसरी भारतीय खिलाड़ी हैं। उनसे पहले विजेंदर सिंह ने सन् 2008 बीजिंग ओलंपिक और मेरी कॉम ने सन् 2012 लंदन ओलंपिक में भारत के लिए बॉक्सिंग में कांस्य पदक हासिल किये थे।

 

 

रवि दहिया (रजत पदक)

भारत को टोक्यो ओलंपिक में दूसरा रजत पदक रवि दहिया ने दिलाया। रवि 57 किलोवर्ग फ्री स्टाइल कुश्ती के फाइनल में दूसरी वरीयता प्राप्त रूसी ओलंपिक समिति के पहलवान जावुर युगुऐव से 4-7 से मात खा गये थे और उन्हें रजत से सन्तोष करना पड़ा था। रवि दहिया ओलंपिक में रजत पदक हासिल करने वाले दूसरे पहलवान हैं। उनसे पहले सुशील कुमार ने सन् 2012 के लंदन ओलंपिक में यह कामयाबी हासिल की थी।

बजरंग पूनिया (कांस्य पदक)

बजरंग पूनिया का यह पहला ओलंपिक था और वे 65 किलोवर्ग फ्री स्टाइल कुश्ती के सेमीफाइनल में हार गये। लेकिन कांस्य पदक के मु$काबले में उन्होंने कज़ाख़िस्तान के दौलेत नियाज़बेक़ोव को कोई मौक़ा नहीं दिया और 8-0 से हराकर पदक हासिल किया। यह टोक्यो ओलंपिक के समाप्त होने से ठीक एक दिन पहले भारत का छठा पदक था।

पुरुष हॉकी टीम

किसी समय हॉकी का पॉवर हाउस कहलाये जाने वाले भारत ने आठ बार ओलंपिक में स्वर्ण जीता है। इस बार चैंपियन भारतीय हॉकी टीम के लिए टोक्यो ओलंपिक बड़ी सफलता लेकर आया; वह भी 41 साल के लम्बे सूखे के बाद। भारतीय टीम लम्बे अरसे के बाद ओलंपिक हॉकी के सेमीफाइनल में पहुँची और वल्र्ड नंबर-1 और टोक्यो में चैंपियन बनी बेल्जियम को कड़ी टक्कर देने के बाद हारी। लेकिन जब मुक़ाबला कांस्य पदक के लिए हुआ, तो भारतीय टीम ने अपनी रफ़्तार से जर्मनी जैसी मज़बूत टीम को मात दे दी। अब ओलंपिक हॉकी में भारत के आठ स्वर्ण, एक रजत और तीन कांस्य पदकों समेत 12 पदक हो गये हैं। यह टोक्यो में भारत का पाँचवाँ पदक रहा।

पदक से चूके, लेकिन प्रतिभा ग़ज़ब

इस ओलंपिक में हमारे कई खिलाड़ी पदक के बहुत पास पहुँचकर भी चूक गये। बहुत सम्भावना थी कि वे पदक अपने नाम कर लेंगे; लेकिन ऐन मौक़े पर वे इससे वंचित रह गये। टीम और व्यक्तिगत स्पर्धा दोनों में। आइए, जानते हैं उन खेलों और खिलाडिय़ों को, जो पदक के बहुत क़रीब पहुँच गये थे :-

महिला हॉकी टीम

अभी तक निचले पायदान पर माने जाने वाली महिला हॉकी टीम ने ऐसा खेल दिखाया कि ख़ुद भारतीय महिला हॉकी के कर्ताधर्ता अवाक् रह गये। टीम ने ऑस्ट्रेलिया जैसी टीम को पानी पिला दिया और सेमीफाइनल तक जा पहुँची। इस टीम की खिलाडिय़ों का प्रदर्शन कमाल का रहा। और भी हैरानी भरी बात यह थी कि यह टीम महज़ अपना तीसरा ओलंपिक खेल रही थी। भारतीय महिला हॉकी टीम कांस्य पदक से भले चूक गयी, लेकिन उसने बता दिया कि आने वाले समय में महिला हॉकी में दुनिया की कोई भी टीम उसे हलक़े में नहीं लेगी। कांस्य पदक मैच में भी वह अपने से कहीं अनुभवी ग्रेट ब्रिटेन की टीम से महज़ एक गोल के अन्तर से 3-4 से हारी। पहले क्वार्टर में कमज़ोर प्रदर्शन के बाद भारतीय टीम ने दूसरे क्वार्टर में शानदार खेल दिखाया और एक मौक़े पर ब्रिटेन की खिलाडिय़ों को हक्का-बक्का कर दिया। चार मिनट में तीन गोल करके भारत ने ब्रिटेन पर जो दबाव बनाया, उसे अगर बरक़रार रख पायी होती, तो कांस्य पदक ब्रिटेन की नहीं, भारत की झोली में होता। पूरे टूर्नामेंट में भारत ने बेहतरीन प्रदर्शन किया। वह पूल-ए में थी और उसने मैच भी सिर्फ़ दो ही जीते थे, जिसके बूते वह क्वार्टर फाइनल में पहुँची थी। लेकिन क्वार्टर फाइनल में भारतीय टीम पूरी तरह बदली हुई दिखी। ऑस्ट्रेलिया को 1-0 से रौंदकर वह सेमीफाइनल में पहुँची। सेमीफाइनल में भारत को अर्जेंटीना ने 2-1 से हरा दिया, जिसके बाद भारत को कांस्य पदक का मैच ब्रिटेन से खेलना पड़ा। टीम ने कमाल का खेल खेला।

हालाँकि अनुभव की कमी से रक्षा पंक्ति भी कुछ मौक़ों पर छिन्न-भिन्न हुई और दाएँ छोर का आक्रमण भी कमज़ोर रहा। इन ग़लतियों ने भले कांस्य पदक भारत की झोली में आने से रोक दिया; लेकिन भविष्य की बड़ी उम्मीद ज़रूर जगा दी। वंदना कटारिया ने टूर्नामेंट में चार गोल दाग़े। यही नहीं, ओलंपिक्स में हैट्रिक मारने वाली वंदना पहली भारतीय बनीं। गोलकीपर सविता पूनिया की कलाई का जादू देखने को मिला, तो ड्रैग फ्लिकर गुरजीत कौर की पेनेल्टी कार्नर को गोल में बदलने की प्रतिभा और मेहनत से निखर सकती है।

अदिति अशोक : हॉकी के बाद बात व्यक्तिगत स्पर्धा की। इसमें 23 वर्षीय गोल्फर अदिति अशोक आख़िरी वक़्त तक पदक की दावेदार बनी रही। दुनिया में गोल्फ में भले अदिति की रैंकिंग 200वीं हो, टोक्यो ओलंपिक में अदिति का नाम हर किसी की ज़ुबान पर था। अदिति ने चार दिन तक ज़्यादातर समय ख़ुद तो दूसरे नंबर पर बनाये रखा। लेकिन चौथे दिन उनका प्रदर्शन थोड़ा ख़राब हुआ, जब जापान और न्यूजीलैंड की गोल्फर्स ने कमाल का प्रदर्शन कर अदिति को चौथे नंबर पर धकेल दिया। अदिति इसके बाद ओवरऑल चौथे नंबर पर रहीं और बेहद क़रीबी अन्तर से पदक गँवा बैठीं।

याद रहे पिछले ओलंपिक में जो रियो में हुआ था, में अदिति 41वें नंबर पर रही थीं। अब टोक्यो में अदिति के प्रदर्शन ने अगली बार के लिए बड़ी उम्मीद जगा दी है। भारत, जहाँ गोल्फ उतना ज़्यादा लोकप्रिय खेल नहीं है, वहाँ अपने प्रदर्शन से खेल को घर-घर में परिचित करवा दिया है। अभी उम्र अदिति के हक़ में है और बहुत ज़्यादा उम्मीद है कि आने वाले समय में वह और ऊपर के पायदान पर पहुँचेगी।

अतनु दास : आर्चरी में अतनु दास (29) ने सिंगल्स इवेंट में कमाल का प्रदर्शन किया। अतनु भारत की उम्दा आर्चर दीपिका कुमारी के पति हैं, जो ख़ुद पदक की मज़बूत दावेदार थीं। तीसरा ओलंपिक्स खेल रहीं दीपिका उम्मीदों पर खरी नहीं उतरीं; लेकिन उनके पति अतनु दास ने लगातार अपने पहले दो मैचों में दुनिया के टॉप आर्चर्स को हराकर सनसनी मचा दी। दास ने पहले ओलंपिक्स टीम इवेंट के सिल्वर मेडलिस्ट चाइनीज ताइपे के डे यु चेंग को हराया। अतनु 6-5 से विजयी हुए। अगले मैच में ओलंपिक्स चैंपियन कोरिया के ओह जिन हाएक को हराकर उन्होंने अपने लिए पदक की मज़बूत सम्भावना जगा दी। अतनु ने कोरियन आर्चर के ख़िलाफ़ शूट ऑफ में गये मैच को 6-5 से अपने नाम किया। याद रहे ओह जिन 2012 के लंदन गेम्स के गोल्ड मेडलिस्ट और टोक्यो गेम्स की गोल्ड मेडलिस्ट कोरियन टीम का हिस्सा थे। लेकिन राउंड ऑफ-16 में दास को जापानी आर्चर से हार झेलनी पड़ी। फुरुकावा ने अतनु को 6-4 से हराया, जो बाद में कांस्य पदक जीते।

अविनाश सबले : स्टीपलचेज (बाधा दौड़) की 3,000 मीटर रेस में भारत की ओर से अविनाश सबले ने दूसरी हीट में 8.18.12 का समय निकाला, जो नया राष्ट्रीय रिकॉर्ड बना। उन्होंने इसके लिए अपना ही पिछले रिकॉर्ड तोड़ा। लेकिन सबले फाइनल तक नहीं पहुँच पाये। कुल मिलाकर 13वें सबसे तेज़ धावक इस ओलंपिक में बने। सबले ने हाल के महीनों में लगातार अपना प्रदर्शन बेहतर किया है। यदि कोशिश करें तो सबले सम्भावना जगा सकते हैं।

रिले टीम

एथलेटिक्स में भारत के पुरुषों की 4 & 400 मीटर रिले टीम फाइनल में तो नहीं पहुँची लेकिन अमोल जैकब, नागनाथन पंडी, निर्मल नोआह टॉम और मुहम्मद अनस की टीम ने टोक्यो में अपने प्रदर्शन से एशियाई रिकॉर्ड तोड़ डाला। टीम ने 3.00.24 मिनट का समय लिया और दूसरी हीट में चौथे नंबर पर रहे। इवेंट की दोनों हीट मिलाकर कुल आठ टीमों को फाइनल में जाना था, जबकि भारतीय टीम ओवरऑल नौवें नंबर पर रही। हालाँकि उनका प्रदर्शन ज़ाहिर करता है कि मेहनत से टीम टॉप की पंक्ति में पहुँच सकती है।

धोखे की शादी का मकडज़ाल

देश में इन दिनों अनुबन्धित शादी (कॉन्ट्रेक्ट मैरिज) के चलन ने इस पवित्र रिश्ते को जैसे अपवित्र बना दिया है। ठगी और धोखाधड़ी का यह कारोबार बड़े स्तर पर चल रहा है। जो शादियाँ शर्तों पर होती हों, वो वैसे भी लम्बे समय तक नहीं चल सकतीं। फिर इसमें तो सीधे तौर पर अनुबन्ध होता है, जो दोनों परिवारों को मान्य होता है। ऐसा नहीं कि इस आधार पर शादियाँ हवा में होती हैं। ये बाक़ायदा धर्म के अनुसार धूमधाम से होती हैं, जिनमें आनंद कारज (शगुन कार्य) भी होते हैं।
लेकिन ऐसी 10 शादियों में दो से तीन मामले विवाद में आ जाते हैं; जिनमें लडक़ी या लडक़ा जीवनसाथी को धोखा दे देता है। अगर सिर्फ़ पंजाब की अगर बात करें, तो राज्य में इस तरह के मामलों में वर पक्ष के पीडि़त परिवार ज़्यादा होते हैं। मतलब लड़कियाँ दुल्हन बनकर दुल्हे पक्ष का पैसा ख़र्च करा स्पाउस वीजा पर पति को विदेश बुला लेने की शर्त पर विदेश चली जाती हैं और फिर ससुराल पक्ष से किनारा कर लेती हैं। ऐसा नहीं कि अनुबन्धित शादियाँ नाकाम होती हैं। लेकिन ऐसे कई मामले सामने आये हैं, जिनमें साज़िश के तहत वर पक्ष ने धोखा खाया है।
दरअसल दोनों बातें साथ-साथ नहीं चल सकतीं। या तो शादी होगी या फिर कॉन्ट्रेक्ट; लेकिन इसका नाम है कॉन्ट्रेक्ट मैरिज। बावजूद इसके लोग इसे अपना रहे हैं, जिनमें कुछ बाद में ख़ुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं। समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के वैवाहिक विज्ञापनों में बाक़ायदा साफ़तौर पर पैसा ख़र्च करने वाले लडक़े या लडक़ी की माँग का उल्लेख होता है। इसमें इंटरनेशनल इंग्लिश लैंग्वैज टेस्ट सिस्टम (आईईएलटीएस) डिग्री और उसके बैंड (नंबर) लिखे होते हैं। पंजाब में इसे आईलेट्स के नाम से ज़्यादा जाना जाता है। विदेश जाने की पहली सीढ़ी ही यह डिग्री होती है।
कनाडा, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, इंग्लैड, फ्रांस, न्यूजीलैंड आदि देशों में वहाँ के विश्वविद्यालयों में पढऩे के लिए यह डिग्री अनिवार्य होती है। पंजाब में इस डिग्री की जबरदस्त माँग है और राज्य में लाखों की संख्या में इसके इंस्टीट्यूट हैं। जो लडक़ा या लडक़ी मेहनत के बाद भी इस डिग्री को हासिल नहीं कर पाते, वे निराश ज़रूर होते हैं; लेकिन विदेश जाने का सपना उनका क़ायम ही रहता है। इसके लिए वे आईलेट्स डिग्रीधारकों की खोज में रहते हैं और यह तलाश वैवाहिक विज्ञापन पूरी करते हैं।
समाचार पत्र के ऐसे विज्ञापन में कुछ ऐसा उल्लेख होता है- ‘सुंदर, सुशील, गोरी, उच्च शिक्षा और आईलेट्स लडक़ी के लिए लडक़े की ज़रूरत है; जो शादी का सारा ख़र्च उठा सके।’ इसका मक़सद विज्ञापन देने वाले और उसे अपनाने वाले बख़ूबी समझते हैं। ऐसे विज्ञापनों के आधार पर ख़ूब शादियाँ भी हो रही हैं। मगर इनमें सफल कम और असफल ज़्यादा होती हैं। पंजाब में पिछले पाँच साल के दौरान 3,600 से ज़्यादा शिकायतें विदेश मंत्रालय में जा चुकी हैं।
इन शिकायतों में 3,000 पंजाब से जुड़ी हैं। यह संख्या इससे कहीं ज़्यादा भी हो सकती है। क्योंकि बहुत-से लोग लोकलाज के डर से आगे तक शिकायतें नहीं ले जाते। शिकायती मामलों में कुछ की जाँच चल रही है और ज़्यादातर मामले अभी लम्बित ही हैं।
कभी अप्रवासी भारतीय पंजाब की लड़कियों से शादी करने के बाद विदेश चले जाते थे और फिर उनसे रिश्ता तोड़ लेते थे। अब इसके विपरीत कुछ लड़कियाँ ऐसे ही शादियाँ करके युवकों को धोखा दे रही हैं। एक सर्वे के मुताबिक, पंजाब में ऐसी अनुबन्धित शादियों में हर साल 27,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा धन विदेशों में जा रहा है। ज़्यादातर बाहरी देशों के विश्वविद्यालयों में एक साल की शिक्षा का ख़र्च 18 लाख रुपये के आसपास होता है।
ऐसी शादी में 20 से 50 लाख रुपये का ख़र्च लडक़े वालों को इस उम्मीद में उठाना पड़ता है कि शादी के बाद दुल्हन पति को विदेश बुला लेगी और बाद में सब कुछ ठीक हो जाएगा। दुर्भाग्य से बहुत-से मामलों में ऐसा नहीं होता। अनुबन्धित शादियाँ कराने वाले दलालों की भी राज्य में कमी नहीं है। ऐसे लोग लडक़ी या लडक़े के परिजनों को विदेश की नागरिकता मिलने का झाँसा देकर सब तरह के सुखों और ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी का सपना दिखाकर अनुबन्धित शादी के लिए उन्हें तैयार कर लेते हैं।
राज्य में विदेश जाने का चलन कुछ ज़्यादा ही है। इसके लिए कुछ लोग तो ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े अपना लेते हैं। काम की तलाश में नक़ली वीजा और पासपोर्ट से विदेश जाने वाले वहाँ की जेलों में पहुँच जाते हैं और बहुत मुश्किल से किसी तरह अपने घर आ पाते हैं।


अनुबन्धित शादी में तो उन्हें लगता है कि सब कुछ ठीक ही है। कुछ लोग ज़मीन-जायदाद और अन्य तरह की पुश्तैनी सम्पत्ति तक इसी चक्कर में बेच देते हैं। सभी मामलों में ऐसा नहीं है। आज लाखों की संख्या में राज्य के लोग विदेशों में रहते हैं और वहाँ की नागरिकता हासिल करके आराम की ज़िन्दगी व्यतीत कर रहे हैं। लेकिन बात अनुबन्धित शादियों के मामले की हो, तो ज़रूर विचार किया जाना चाहिए।
यह चलन सामाजिक ताने-बाने को बिल्कुल उधेडक़र रख देने वाला है। एक सर्वे के मुताबिक, अनुबन्धित शादियों के हज़ारों मामले प्रकाश में आने के बाद अब भी ऐसी शादियाँ हो रही हैं और लोग धोखा खा रहे हैं। ऐसी शादियाँ ठगी के लिए ही की जाती हैं। ससुराल पक्ष से सारा पैसा ख़र्च कराने के बाद कई लड़कियाँ सम्पर्क पूरी तरह से काट लेती हैं। क्योंकि उसका या उसके परिजनों का मक़सद भी किसी तरह विदेश पहुँच जाने का होता है। अनुबन्धित शादी में पढ़ाई के अलावा रहने और खाने-पीने का ख़र्च वर पक्ष को ही करना पड़ता है।
पंजाब के होशियारपुर ज़िले के गुरप्रीत सिंह नवजोत कौर से शादी कर पछता रहे हैं। लाखों रुपये ख़र्च हो गये। न पत्नी मिली और न विदेश जाने का सपना पूरा हुआ। कांग्रेस सांसद परणीत कौर ने राज्य में अनुबन्धित शादियों के बढ़ते मामलों पर चिन्ता जताते हुए विदेश एस. जयशंकर को पत्र लिखकर पीडि़त परिजनों को इंसाफ़ दिलाने की माँग की है।
विदेश मंत्रालय ऐसे मामलों में बहुत कुछ नहीं कर पा रहा है। क्योंकि ऐसे मामले सम्बन्धित दूतावासों की फाइलों में अटके रहते हैं। आईलेट्स की डिग्री की सहारे लाखों रुपये ख़र्च करके विदेश जाने की तमन्ना युवाओं को पूरी तरह बर्बाद करने का खेल है, जिसमें जालसाज़ों के ख़िलाफ़ कार्रवाई होनी चाहिए। शादी जैसे पवित्र रिश्ते को कारोबार में बदलने वाले जिस तरह से इस खेल में आगे तक बढ़ गये हैं, उसका रुकना मुश्किल है। देखने में आया है कि ज़्यादातर विज्ञापनों और दलालों के माध्यम से होने वाली अनुबन्धित शादियाँ असफल रही हैं। कुछ मामलों में शादी के बाद दुल्हनें पीछा छुड़ाने के लिए दुल्हों को घरेलू हिंसा या अन्य आरोपों में प्रताडि़त करती हैं। अन्त में ऐसी शादी टूट जाती है, जिसका ख़ामियाजा वर पक्ष को भुगतना पड़ता है।
जालंधर-फ़िरोज़पुर मार्ग पर तलवंडी भाई गाँव के अमृतपाल सिंह ऐसे ही भुक्तभोगी हैं। बेटे ओंकार सिंह को विदेश भेजने के इच्छुक अमृतपाल ज़्यादा पैसे वाले नहीं हैं। लेकिन बेटा विदेश जाने का इच्छुक था। लिहाज़ा उन्होंने किसी तरह पैसा जमा किया। उन्होंने ऐसी ही अनुबन्धित शादी की, जिसमें लडक़ी को कनाडा भेजने, वहाँ शिक्षा के अलावा अन्य सभी ख़र्चे उठाने मंज़र किये। शादी हुई और बेटा ओंकार पत्नी जसप्रीत कौर के साथ कनाडा चला भी गया। कुछ दिन बाद अमृतपाल को पता चला कि घरेलू हिंसा के आरोप में वहाँ की पुलिस ने ओंकार को गिरफ़्तार कर लिया है। अमृतपाल के मुताबिक, उनकी बहू जसप्रीत कौर ने तलाक़ न देने की सूरत में ओंकार के ख़िलाफ़ शिकायत दी थी। बेटे को विदेश भेजने की ख़्वाहिश में की अनुबन्धित शादी ने इस परिवार को बिल्कुल बर्बाद कर दिया।
संगरूर ज़िले के मनदीप सिंह की शादी रतनजोत कौर से हुई। लेकिन उनका हश्र भी ऐसा ही हुआ। लुधियाना के हरविंदर ऐसे ही मामले में तीन साल की बेटी के लिए इंसाफ़ की लड़ाई लड़ रहे हैं। शादी के बाद पत्नी सिमरनजोत कौर विदेश गयी, तो वहीं की होकर रह गयी। अब उसका बेटी, पति और परिवार वालों से कोई सम्पर्क नहीं है।

इंतज़ार में दुल्हनें
देश में एक रात की दुल्हनों की कमी नहीं है। कई विदेश में रहने वाले दूल्हे शादी के कुछ दिन बाद उन्हें स्पाउस वीजा पर विदेश बुलाने की बात कहकर यहाँ नौ-दो-ग्यारह हो गये। ऐसे कई मामले सामने आये, जिनमें पहले से शादीशुदा और बच्चों वालों ने शादी की और नये जीवनसाथी की ज़िन्दगी को नर्क बनाकर छोड़ दी। पंजाब में ऐसी पीडि़तों की संख्या 30,000 के क़रीब है, जो शादीशुदा तो हैं; पर उनका पति से कोई सम्पर्क नहीं है। हालाँकि पीडि़त दुल्हनों की संख्या इससे ज़्यादा है। ऐसे बहुत परिवार हैं, जो लोकलाज के डर से शिकायतें नहीं करते। परिजनों ने अपनी बेटियों की शादी अप्रवासी भारतीयों से की, ताकि वे विदेश में ज़्यादा सुख की ज़िन्दगी बसर कर सकें। लेकिन शादी के बाद कितने ही दुल्हे यह कहकर विदेश चले गये कि जल्द ही पत्नी को स्पाउस वीजा पर बुला लेंगे। लेकिन बहुत-से मामलों में ऐसा नहीं हुआ। शुरू में इस तरह की शादियाँ लगभग सफल रहती थीं। लेकिन धीरे-धीरे ऐसी शादियाँ लड़कियों के लिए अभिशाप बन गयीं। उनका यह इंतज़ार शायद कभी ख़त्म न हो। क्योंकि लौटकर नहीं आने वालों की संख्या बहुत है। कई मामले तो दशकों पुराने हैं और कुछेक ने थक-हारकर तलाक़ लेकर या पति से सम्पर्क न होने पर बिना तलाक़ के ही शादी कर ली।
सतविंदर कौर ने तलाक़ लेकर दूसरी शादी कर ली। लेकिन इंसाफ़ के लिए उन्हें लम्बी लड़ाई लडऩी पड़ी। उनके ग़ैर-सरकारी स्वंयसेवी संगठन के माध्यम से सैकड़ों ऐसी पीडि़त महिलाएँ उनसे जुड़ीं। उनके प्रयासों से धोखेबाज़ अप्रवासी भारतीयों के पासपोर्ट रद्द हुए। कई भगौड़े घोषित हुए। कुछ मामलों में समझौतों के बाद प्रभावितों को राहत मिली। सरकारी तौर पर प्रयास ज़्यादा सफल नहीं रहे हैं। पंजाब में इसके लिए विशेष विंग भी है। लेकिन अब भी बहुसंख्यक महिलाएँ इंसाफ़ के इंतज़ार में ही हैं।

लम्बे इंतज़ार के बाद खुले स्कूल

 स्कूलों को करना होगा कोविड प्रोटोकॉल का पालन  कुछ राज्यों में स्कूल खुलते ही बीमार पड़े बच्चे
 बच्चों का भी जल्द होना चाहिए टीकाकरण      तीसरी लहर के आने से डरे हुए हैं अभिभावक

बाज़ारों, शराब के ठेकों, मॉलों, सिनेमाघरों के बाद आख़िरकार अधिकतर राज्यों में स्कूल भी खुल ही गये। कोरोना महामारी के चलते क़रीब सवा साल स्कूलों के बन्द रहने के बाद देश के कई राज्यों में इन्हें खोल दिया गया है। लेकिन कोरोना महामारी के चलते सभी स्कूलों को कोरोना आपातकाल (कोविड प्रोटोकॉल) का पालन कराने के सख़्त निर्देश राज्य सरकारों ने दिये हैं। अभी तक दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, बिहार, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओडिशा में स्कूलों को खोला जा चुका है।
हालाँकि कुछ राज्यों में पूरी तरह से तो कुछ राज्यों में 50 फ़ीसदी छात्र-उपस्थिति के साथ स्कूलों को खोला गया है। वहीं कुछ में 100 फ़ीसदी उपस्थिति की छूट है। कुछ राज्यों में कॉलेज भी खुल गये हैं। वहीं कुछ राज्यों में स्कूल और कॉलेज दोनों ही नहीं खुले हैं। जम्मू एवं कश्मीर में स्कूल, कॉलेज खुलेंगे और कोचिंग सेंटर फ़िलहाल बन्द रहेंगे; लेकिन केवल बड़ी कक्षाओं के शिक्षण व कौशल प्रशिक्षण संस्थानों को खोला जा रहा है। इनमें वही अध्यापक और अन्य कर्मचारी जा सकेंगे, जिन्होंने कोरोना-टीका लगवा लिया है।
लेकिन स्कूल और कॉलेज में जाने की अनुमति के मामले में सभी राज्यों ने अपने-अपने क़ायदे-क़ानून बनाये हैं। मसलन पंजाब की सरकार ने निर्देश दिये हैं कि स्कूलों-कॉलेजों में वही अध्यापक और अन्य कर्मचारी प्रवेश कर सकेंगे, जिन्होंने कोरोना-टीके की दोनों ख़ुराकें ले ली हैं। इसके अलावा यदि किसी बच्चे के माता-पिता या अभिभावक बच्चे को स्कूल भेजने की लिखित अनुमति नहीं देंगे, तो वह बच्चा स्कूल नहीं जा सकेगा। वहीं कर्नाटक में वे ही छात्र कॉलेज जा सकेंगे, जिन्होंने कम-से-कम एक बार कोरोना-टीका लगवा लिया है।

कोरोना आपातकाल लागू
स्कूल खोलने वाले तक़रीबन सभी राज्यों ने कोरोना आपातकाल के पालन के निर्देश के साथ शिक्षा विभागों को बच्चों की शिक्षा आगे बढ़ाने के दिशा-निर्देश दिये हैं। इन दिशा-निर्देशों में दो ग़ज की दूरी-मास्क ज़रूरी, अध्यापकों का टीकाकरण और सभी के लिए सेनिटाइजेशन की व्यवस्था को प्राथमिकता दी जा रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या कोरोना आपातकाल के पालन मात्र से कोरोना वायरस के संक्रमण को रोका जा सकता है? वह भी ऐसे समय में, जब इसकी तीसरी लहर ने दस्तक दे दी है और इस लहर का वायरस बहुत सक्रिय, ताक़तवर, तेज़ी से फैलने वाला बताया जा रहा है। इसमें सन्देह इसलिए भी है; क्योंकि बच्चों से, ख़ासकर सरकारी स्कूलों के बच्चों से नियमों का पालन कराना कोई आसान काम नहीं होगा। दिन भर जारी रहने वाली बच्चों की अजीब और शरारत भरी गतिविधियाँ, लगातार कई घंटे मास्क को लगाकर रखने की प्रतिबद्धता और उन्हें आपसी दूरी बनाकर रख पाना दूभर काम है। ऐसे में यह पूरे भरोस से तो नहीं कहा जा सकता कि स्कूलों में बच्चे सुरक्षित रह पाएँगे।
दूसरी बात हो सकता है कि राज्य सरकारें शुरू-शुरू में मास्क, सैनिटाइजर और बच्चों के दूर-दूर बैठने की व्यवस्था कर भी दें; लेकिन क्या बहुत दिनों तक यह व्यवस्था किसी राज्य के स्कूलों में रह पाएगी? यह सवाल इसलिए भी, क्योंकि देखा गया है कि सरकारी स्कूलों की व्यवस्था पहले से ही ढीली-ढाली है। इसकी एक वजह अगर सरकार, शिक्षा विभाग और स्कूल प्रशासन की तरफ़ से होने वाली लापरवाही है, तो दूसरी वजह अब तक कई कार्यों में हो चुके घोटाले हैं। क्योंकि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि किसी राज्य में मास्क, सैनिटाइजर और दूसरी चीज़ों पर कोई घोटाला नहीं होगा। कुल मिलाकर बच्चों की सुरक्षा की गारंटी शायद ही कोई दे, जो कि बहुत ज़रूरी है। लेकिन उत्तर प्रदेश के राबट्र्सगंज ज़िले के एक स्कूल में कोरोना वायरस के संक्रमण से बचाव के लिए जारी सरकारी दिशा-निर्देशों का पालन न होने पर वहाँ एक पत्रकार ने पहुँचकर वीडियो बनानी चाही, जिस पर वहाँ मौज़ूद अध्यापकों और छात्रों ने पत्रकार से हाथापाई की और उससे गाली-गलौज की।

फीस न दे सके बच्चों का क्या होगा?
जिन राज्य सरकारों ने स्कूलों को खोलने की अनुमति दी है, उन राज्यों में उन बच्चों का क्या होगा, जिनके अभिभावक विद्यालय शुल्क (स्कूल फीस)नहीं भर सके हैं। सरकारी स्कूलों में तो यह दिक़्क़त नहीं है। लेकिन निजी स्कूलों में बहुत सारे बच्चे ऐसे हैं, जिनके अभिभावक उनकी फीस नहीं भर सके हैं। ऐसे स्कूल पिछले साल बिना पढ़ाई कराये ही बच्चों और अभिभावक पर लगातार फीस भरने का दबाव डाल रहे हैं। फीस न देने पर रिजल्ट और टीसी रोकने, बच्चे का रिकॉर्ड ख़राब करने और जबरन फीस वसूलने की धमकियाँ दे रहे हैं। इसके अलावा एक खेल और भी ये स्कूल कर रहे हैं, वह यह कि नयी कक्षा में प्रवेश के नाम पर पूरे साल की फीस ले रहे हैं और फीस आने पर बच्चों को यह कहकर स्कूल से निकाल रहे हैं कि उन्होंने बीते वर्ष की फीस दी है, चालू वर्ष की फीस उन्हें भरनी होगी, तभी वे आगे पढ़ सकेंगे।

सब बच्चे पहुँच सकेंगे स्कूल?
बड़ा सवाल यह भी है कि जो बच्चे पढ़ाई छोडक़र घर बैठ चुके हैं, क्या उन्हें स्कूल वापस बुला पाएँगे? भारत में आज भी कई गाँव हैं, जो शिक्षा में बहुत पिछड़े हुए हैं। ऐसे गाँवों के बच्चों को पढ़ाने के लिए ही मिड-डे मील जैसी योजना सरकार ने शुरू की थी, ताकि स्कूलों में ज़्यादा-से-ज्यादा संख्या में बच्चे आ सकें। कोरोना-काल में न तो स्कूल खुले और न ही मिड-डे मील का कार्यक्रम चल सका। ऐसे में बहुत से बच्चे पढ़ाई छोडक़र घर बैठ गये। दूसरे उन बच्चों की पढ़ाई भी छूट गयी है, जिनके अभिभावक दूसरे राज्यों, शहरों में रहते थे और तालाबंदी के बाद अपने गाँव लौट गये। इसके अलावा कुछ बच्चे परिवार की आर्थिक तंगी के चलते कमाने की ओर अग्रसर हो गये। क्या ऐसे बच्चे दोबारा स्कूल जा सकेंगे?

बाहरी बच्चों का क्या होगा?
एक सवाल यह भी है कि क्या राज्य सरकारें नवोदय जैसे बड़े स्कूलों और उन स्कूलों, जिनमें छात्रावास (हॉस्टल) की व्यवस्था होती है; के छात्रावासों को खोलने की अनुमति देंगी? क्योंकि हर राज्य में ऐसे अनेक स्कूल हैं, जिनमें बच्चों को पढ़ाने के लिए छात्रावास की व्यवस्था होती है। देश में कई स्कूल ऐसे हैं, जो एकल अभिभावक (सिंगल पैरेंट) के बच्चों, अनाथ बच्चों को स्कूल में ही रहने की व्यवस्था देकर पढ़ाते हैं। इसके अलावा कई स्कूल इसी आधार पर बने होते हैं, जो बच्चों को अपने यहाँ रखकर पढ़ाते हैं। अगर इन स्कूलों में बच्चों को रहने की अनुमति नहीं मिलती है, तो वहाँ रहकर अध्ययन करने वाले बच्चों की पढ़ाई सम्भव ही नहीं हो सकेगी।

स्कूल खुलते ही संक्रमित हुए बच्चे
जुलाई में महाराष्ट्र में जैसे ही स्कूल खुले, वहाँ के सोलापुर में एक साथ 613 विद्यार्थी कोरोना की चपेट में आ गये। इससे ज़िला प्रशासन में हडक़ंप मच गया और ज़िले के स्कूलों को बन्द करना पड़ा। हरियाणा स्थित फतेहाबाद के एक स्कूल में भी छ: बच्चे कोरोना संक्रमित मिले। वहीं छत्तीसगढ़ के कुछ स्कूलों में आधा दर्ज़न से ज़्यादा, लुधियाना (पंजाब) में क़रीब 20 और बेंगलूरु (कर्नाटक) के अलग-अलग स्कूलों में सबसे ज़्यादा क़रीब 300 बच्चों के कोरोना संक्रमित होने की ख़बरें हैं।

कुछ अभिभावकों की आपत्ति
राज्य सरकारों ने स्कूल तो खोल दिये, लेकिन बहुत-से बच्चों के अभिभावक उन्हें स्कूल नहीं भेजना चाहते। इन अभिभावकों का कहना है कि जब तक सरकार बच्चों के लिए कोरोना-टीका लेकर नहीं आती है और उनकी सुरक्षा के पूरे इंतज़ाम नहीं करती है, तब तक वे जोखिम नहीं ले सकते। एक नज़रिये से अभिभावकों की बात सही भी है। हालाँकि बच्चों की सुरक्षा की गारंटी तो कोई भी राज्य सरकार नहीं ही देगी। लेकिन कोरोना महामारी की दूसरी लहर का तांडव हम सब देख ही चुके हैं और तीसरी लहर ने भी दस्तक दे दी है। ऐसे में माँ-बाप क्यों न बच्चों की चिन्ता करें? वैसे भी बच्चों में कोरोना संक्रमण होने का $खतरा तीसरी लहर में ज़्यादा बताया जा रहा है। कई राज्यों में बच्चों के कोरोना संक्रमित होने की ख़बरें भी सामने आ रही हैं।

तीसरी लहर आ चुकी है : डॉ. मनीष
दिल्ली के द्वारिका स्थित एक निजी अस्पताल में अपनी सेवाएँ देने वाले डॉ. मनीष कहते हैं कि यह बात किसी से छुपी नहीं है कि देश में कोरोना महामारी की तीसरी लहर दस्तक दे चुकी है। डेल्टा वेरिएंट नाम की इस लहर की चपेट में बच्चे भी आ रहे हैं। हालाँकि भारत सरकार और राज्य सरकारें मिलकर इससे बचाव की कोशिश कर रही हैं। लेकिन इतने भर से काम नहीं चलने वाला। क्योंकि बच्चों और महिलाओं की सुरक्षा के लिए कोरोना-टीका अभी तक नहीं बन सका है। इसके अलावा सभी पात्र लोगों का भी अभी तक टीकाकरण नहीं हो सका है। ऐसे में अगर इस लहर ने दूसरी लहर की तरह तेज़ी पकड़ी, तो एक बार फिर तबाही मच सकती है; जो कि पूरे देश के लिए बहुत परेशानी वाली और दु:खदायी होगी। ऐसे में भारत सरकार को सभी राज्यों से तेज़ी से टीकाकरण करने को कहना चाहिए। इसके अलावा बच्चों और महिलाओं के लिए भी कोरोना-टीका ईज़ाद करने की दिशा में बेहतर क़दम उठाने चाहिए।

पंजाब विधानसभा चुनाव 2022 चुनावी बिसात और मोहरे

पंजाब में क़रीब छ: माह होने वाले विधानसभा चुनाव में सम्भवत: मुफ़्त सबसे बड़ा मुद्दा हो सकता है। आम आदमी पार्टी (आप) ने शुरुआती 300 यूनिट बिजली और शिरोमणि अकाली दल (शिअद) ने 400 यूनिट बिजली मुफ़्त देने का शिगूफा छोड़ा है। कांग्रेस मुफ़्त तो नहीं, लेकिन बिजली की दरें तीन रुपये यूनिट तक करने का झाँसा दे रही है। बता दें कि पंजाब बिजली के मामले में आत्मनिर्भर नहीं है। उसे महँगी बिजली ख़रीदनी पड़ रही है। क्योंकि शिअद सरकार ने बिजली कम्पनियों से समझौते ही ऐसे किये थे। अब नतीजा लोग महँगी बिजली के तौर पर भुगत रहे हैं।

दिल्ली की तर्ज पर राज्य में चुनाव से पहले मुफ़्त के कई ऐलान होंगे और पार्टियाँ इसे घोषणा-पत्र में भी जोड़ेंगी। यह फार्मूला दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को दिल्ली में रास आया। वह वहाँ के 200 यूनिट मुफ़्त बिजली, 2000 लीटर मुफ़्त पानी, मुफ़्त वाई-फाई, डीटीसी की बसों में महिलाओं को मुफ़्त यात्रा सुविधा को यहाँ के चुनावी एजेंडे में रखकर चल रहे हैं। पंजाब में आकर केजरीवाल ने बिजली के संदर्भ में तो घोषणा कर की, तो बाज़ी हाथ से निकलने के डर से लगे हाथों शिअद ने इससे बढक़र घोषणा कर दी।

तीनों ही पार्टियाँ किसान आन्दोलन का समर्थन कर रही हैं। लेकिन चुनाव में आशीर्वाद किसे मिलेगा? या उनकी ही कोई पार्टी मैदान में आये? कहना मुश्किल है। पर इसकी सम्भावना से इन्कार नहीं कर सकते। हाल ही में लुधियाना के कारोबारी लोगों ने भारतीय आर्थिक पार्टी (बाप) का गठन किया है। पार्टी ने सभी 117 सीटों पर चुनाव लडऩे और मुख्यमंत्री के तौर पर भारतीय किसान यूनियन (हरियाणा) के अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढ़ूनी का नाम घोषित किया है। यह नाम वैसे ही नहीं; क्योंकि चढ़ूनी गठन कार्यक्रम के दौरान मुख्य अतिथि के तौर पर मौज़ूद थे। ऐसे में चुनाव से पहले कोई किसान-मज़दूर पार्टी भी बन सकती है। क्योंकि संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े कई नेता राजनीति के मैदान में आने के इच्छुक हैं; पर अभी खुलकर सामने नहीं आना चाहते। सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में 117 में 77 सीटें जीतने वाली कांग्रेस में कुछ भी ठीक नहीं है। केंद्रीय आलाकमान चुनाव से पहले सब कुछ ठीक होने की कल्पना कर रहा है; लेकिन स्थिति इसके विपरीत होने वाली है। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू में अभी तलवारें खिंची हुई हैं। प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद सिद्धू संगठन की मज़बूती में लगे हैं; लेकिन मौक़े-ब-मौक़े सरकार की खिंचाई भी कर देते हैं; जो कैप्टन को बिल्कुल गवारा नहीं। पर मजबूरी में सब देखने और सुनने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है।

सिद्धू के पहले कैप्टन की पसन्द का ही अध्यक्ष रहा है। जो उन्होंने चाहा किया। संगठन में बदलाव और टिकट वितरण में उनकी ही चली। क्योंकि पार्टी ने उन्हें प्रमुख चेहरे के तौर पर अधिकृत किया। पर इस बार अभी तक ऐसा नहीं। यह वह भी जानते हैं और पार्टी में उनके विरोधी भी। कांग्रेस में प्रदेशाध्यक्ष कमज़ोर और एक तरह से कहें तो मुख्यमंत्री की कठपुतली से ज़्यादा नहीं रहे हैं; लेकिन इस बार नवजोत सिद्धू हैं। लिहाजा स्थिति कुछ अलग है। प्रदेशाध्यक्ष सिद्धू मुख्यमंत्री से कहीं ज़्यादा प्रभावशाली दिख रहे हैं। राज्य में कांग्रेस का वोट बैंक दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग का है। दोनों की हिस्सेदारी क़रीब 67 फ़ीसदी है। पिछले विस चुनाव में पार्टी का वोट क़रीब 38.5 फ़ीसदी रहा, जिसे वह क़ायम रखना चाहती है। इसका एक बड़ा हिस्सा इन्हीं दोनों वर्गों से रहा।

घोषणा-पत्र में किये वादे पूरे न होने को लेकर दोनों वर्गों में सरकार के प्रति नाराज़गी है। सम्बद्ध मंत्रियों और विधायकों की नाराज़गी दूर करने का काम मुख्यमंत्री का है, जिसमें कैप्टन कुछ हद तक नाकाम रहे हैं। ऐसे में अब सिद्धू ने अपने तौर पर यह ज़िम्मेदारी सँभाल ली है। यह बड़ा काम है और पार्टी की जीत की सम्भावना इसी से निकल सकती है। कैप्टन और सिद्धू में अब भी 36 का आँकड़ा बना हुआ है। प्रदेशाध्यक्ष की ताजपोशी से पहले सिद्धू ने जिस तरह से पार्टी के ज़्यादातर विधायकों और कई मंत्रियों का समर्थन जुटाकर एक तरह से सीधे कैप्टन को चुनौती ही दी थी। वह कसक कैप्टन के मन में है पर पार्टी हित में वे चुप्पी साधे हुए हैं।

केंद्रीय आलाकमान ने कैप्टन को 18 सूत्री कार्यक्रम दिया है। उन्हें इस पर काम करने और चुनाव से पहले बराबर प्रतिपुष्टि (फीड बैक) देने की ताक़ीद की गयी है। इनमें राज्य में बिजली सस्ती करने, नशा कारोबार पर अंकुश, गुरु ग्रंथ साहिब बेअदबी मामले पर गम्भीर कार्रवाई के साथ राज्य में बिजली ख़रीद सौदों की समीक्षा कर ठोस नतीजे पर पहुँचना है। सिद्धू इन्हीं मुद्दों को उठा रहे हैं, जबकि कैप्टन ऐसा नहीं चाहते। सोनिया गाँधी का पूरा ज़ोर कैप्टन और सिद्धू में किसी तरह तालमेल बनाये रखने का है; लेकिन मौज़ूदा हालात ऐसे नहीं है। चुनाव से पहले क्या समीकरण बनते हैं? इस पर काफ़ी कुछ निर्भर करेगा।

कांग्रेस की आंतरिक कलह का सबसे ज़्यादा लाभ आम आदमी पार्टी को मिल सकता है। सन् 2017 विस चुनाव में पार्टी ने लगभग 23 फ़ीसदी वोट हासिल किये और उनके 20 विधायक जीते। पार्टी का पूरा ज़ोर इसी मत-फ़ीसद को बढ़ाने का है इसके लिए मुफ़्त की घोषणाएँ उन्हें ज़्यादा कारगर लगी। फ़िलहाल संगरूर से पार्टी के सांसद भगवंत मान प्रमुख चेहरे के तौर पर हैं; लेकिन वे बहुत प्रभावशाली साबित नहीं हो पा रहे हैं। सांसद होने के नाते वह केंद्र की भाजपा सरकार और राज्य में कांग्रेस में सरकार की आलोचना में सबसे मुखर रहते हैं।

पार्टी शुरू से ही किसान आन्दोलन की समर्थक रही है, नेताओं को लगता है कि चुनाव से पहले अगर स्थिति ऐसी ही बनी रहती है, तो आप ग्रामीण क्षेत्रों में पहले से ज़्यादा बढ़त हासिल करेगी। शहरी क्षेत्रों में पार्टी पहले से ज़्यादा अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद पाले हुए है। राज्य में विपक्षी पार्टी के तौर पर आप की भूमिका ज़्यादा प्रभावशाली नहीं रही है। पार्टी का पूरा ज़ोर ग्रामीण स्तर पर संगठन को मज़बूत करने पर है। पार्टी नेताओं को लगता है कि चुनाव से पहले पार्टी का घोषणा-पत्र ही उनके लिए वरदान साबित होगा। जिस तरह से दिल्ली में मुफ़्त की घोषणाओं ने वहाँ सत्ता का दरवाज़ा खोल दिया था, पंजाब में भी ऐसा होना सम्भव है।

राज्य में आधे दर्ज़न से ज़्यादा अकाली दल हैं। चुनाव में इनका अलग से कोई वजूद नहीं होगा लिहाज़ा उन्हें किसी-न-किसी पार्टी से तालमेल करना पड़ेगा। शिरोमणि अकाली दल से टूटकर बने इन दलों की ज़्यादा हैसियत नहीं है; लेकिन सीधे मुक़ाबले में ये मुख्य दल शिअद को ही नुक़सान पहुँचाएँगे। पिछले चुनाव में शिअद और भाजपा का गठजोड़ था; लेकिन उसका हिस्सा क़रीब 9.4 फ़ीसदी रहा; जबकि भाजपा का वोट 1.8 फ़ीसदी ही था। तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में शिअद ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और भाजपा से रिश्ते तोड़ लिये। इस बार शिअद ने बहुजन समाज पार्टी से गठजोड़ किया है।

पिछले चुनाव में बसपा ने सभी 117 सीटों पर चुनाव लड़ा था; लेकिन एक भी सीट नहीं मिली, और 1.5 फ़ीसदी वोट मिले। बावजूद इसके शिअद ने गठजोड़ किया है। दलितों और अन्य पिछड़ा वर्ग में बसपा का आधार ठीक है। इसी का फ़यदा उठाने के लिए शिअद ने सबसे पहले गठजोड़ की शुरुआत कर दी है। हालाँकि सीटों को लेकर दोनों में कुछ तकरार है; लेकिन इसे दूर किया जा सकता है।

शिअद अध्यक्ष सुखबीर बादल ने पार्टी की सरकार बनने पर शुरुआती 400 यूनिट बिजली मुफ़्त देने की घोषणा की है। इसके अलावा सरकार बनने पर उप मुख्यमंत्री किसी हिन्दू या दलित को बनाने का ऐलान भी किया है। राज्य में सवर्ण वोट 33 फ़ीसदी के क़रीब हैं। सुखबीर की नज़र उप मुख्यमंत्री की बात कह हिन्दुओं के साथ दलित वोट बैंक पर भी है। आने वाले दिनों में आप और शिअद की होड़ ऐसी ही घोषणाओं से होने वाली है। किसान आन्दोलन की वजह से कभी सत्ता में भागीदार रही भाजपा बहुत मुश्किल में है। अकेले तौर पर पार्टी ऐसी स्थिति में नहीं कि ठीकठाक प्रदर्शन कर जाए। फ़िलहाल तो उनके नेताओं और पदाधिकारियों का बाहर निकलना तक मुश्किल हो रहा है। चुनाव से आन्दोलन की दिशा पर पार्टी  का भविष्य तय होगा। शिअद तीनों कृषि क़ानूनों को रद्द करने के पक्ष में है। इसी मुद्दे पर केंद्रीय मंत्री रही हरसिमरत कौर बादल ने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। कांग्रेस और आप शिअद पर आरोप लगाते हैं कि जिस पार्टी ने तीन कृषि क़ानूनों का पास होने के दौरान समर्थन किया वही अब विरोध कर रहे हैं। शिअद अगर तीन कृषि क़ानूनों का संसद में विरोध करती और पास होने से पहले सरकार से हट जाती, तो आज स्थिति कुछ और होती। कांग्रेस और आप नेता शिअद का तीन कृषि क़ानूनों पर किसानों का समर्थन घडिय़ाली आसू बता रहे हैं। इसमें काफ़ी हद तक सच्चाई भी है; क्योंकि समय रहते शिअद ने निर्णायक फ़ैसला नहीं लिया। ऐसे में आन्दोलन का फ़ायदा उसे कितना मिलेगा? यह तो इसकी दिशा तय होने पर ही पता चलेगा।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 अमित शाह के दौरे से गरमायी राजनीति

उत्तर प्रदेश की सियासत में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के दौरे से गरमा गयी है। उनके दौरे से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कार्यकर्ताओं में जोश तो भरा ही है, योगी का सीना भी चौड़ा हो गया है। अब प्रदेश में भाजपा नेता और कार्यकर्ता पूरी ताक़त से चुनावी मैदान में हैं। इसकी वजह यह है कि गृह मंत्री भाजपा पर पूरा ध्यान केंद्रित करते हुए पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं में टीम भावना से काम करने को कह गये। उन्होंने योगी की जमकर तारीफ़ की और स्पष्ट कर दिया कि अब पार्टी के लोग विपक्ष को परिवारवाद और क़ानून व्यवस्था के मुद्दे पर घेरें। इसके साथ ही उन्होंने अपने सहयोगी दलों को भी गठबन्धन का संकेत देते हुए साफ़ कर दिया कि पार्टी में उन्हें पूरा मान-सम्मान मिलेगा।

केंद्रीय गृहमंत्री ने यह भी संकेत दिया है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा गुजरात की थीम पर लड़ेगी। जैसा कि सब जानते हैं कि गुजरात में हर बार भाजपा एंटी इनकमबेंसी की काट के लिए पुराने विधायकों का टिकट काटकर नये चेहरे पर दाँव लगाती है। इस बार उत्तर प्रदेश में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के संकेत से यही ज़ाहिर है, जिसे हमने पिछले लेख में भी उजागर किया था।

माना जा रहा है कि इस बार भाजपा से 100 से ज़्यादा मौज़ूदा विधायकों के टिकट कट सकते हैं और उनकी जगह रुतवेदार नये चेहरों को मैदान में उतारा जा सकता है। लेकिन इससे यह भी सम्भव है कि भाजपा के मौज़ूदा विधायक और उनके समर्थक पार्टी से नाराज़ हो जाएँ और किसी और पार्टी में खिसक जाएँ। यहाँ ध्यान दिला दें कि 2017 में भाजपा ने बिना मुख्यमंत्री के चेहरे के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दम पर विधानसभा चुनाव लड़ा था और प्रदेश की 403 सीटों में से बहुत बड़े बहुमत के साथ 312 सीटें जीतकर रिकॉर्ड बनाया था। मगर इस बार प्रदेश में पार्टी योगी के चेहरे पर चुनाव लड़ रही है और 300 से अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य बना चुकी है। इसके पीछे संघ की भी बड़ी भूमिका है। क्योंकि संघ की वजह से भाजपा में पक्के मतदाताओं की संख्या काफ़ी है, जो कभी भी कहीं नहीं जाएँगे। इधर, चुनाव की रणनीति प्रधानमंत्री ने स्वयं तय की है। 16 अगस्त से उनके नये मंत्रिमंडल में नियुक्त मंत्री अपने-अपने राज्यों में प्रचार कर रहे हैं।

कांग्रेस की रणनीति

प्रियंका गाँधी के पूरी तरह उत्तर प्रदेश में डेरा डाल लेने के बावजूद अभी प्रदेश में कांग्रेस की रणनीति कमज़ोर ही कही जाएगी। यह अलग बात है कि कांग्रेस ने प्रदेश के इस विधानसभा चुनाव में निडर, युवा और नये दावेदारों पर दाँव लगाने की रणनीति बनायी है और क़रीब 38 नेताओं की सूची जारी की है। माना जा रहा है कि कांग्रेस किसी भी हाल में प्रदेश में भाजपा को हराने की काट ढूँढ रही है, जिसके लिए प्रियंका गाँधी मैदान में उतर चुकी हैं।

कुछ राजनीतिक जानकारों का कहना है कि हो न हो, प्रियंका गाँधी प्रदेश में मुख्यमंत्री चेहरा हैं। क्योंकि कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव और उत्तर प्रदेश के प्रभारी राजेश तिवारी यह दावा कर चुके हैं। कांग्रेस की इस रणनीति से भाजपा में एक डर तो बैठा है। हारने का हो न हो, लेकिन सीटें कम होने का तो पक्का है। हालाँकि कांग्रेस का जनाधार पिछले दो दशक में धीरे-धीरे बहुत खिसक चुका है और अब लोग उसमें सुपर नेतृत्व तलाश रहे हैं। अगर प्रियंका पर लोग भरोसा कर गये, तो कोई बड़ी बात नहीं कि कांग्रेस के दिन फिर जाएँ। इसके अलावा कांग्रेस भाजपा से रूठे लोगों को भी टिकट देकर अपनी शाख मज़बूत कर सकती है, जैसा कि उसने पंजाब में किया। क्योंकि भाजपा का किला घर के भेदी ही ढहाएँ, तो ही वह ढह सकता है। कहने का लब्बोलुआब यह है कि कांग्रेस को इस समय अपने अन्दर मज़बूती बनाने के साथ-साथ भाजपा में अन्दरखाने पड़ी फूट का भरपूर फ़ायदा उठाना चाहिए।

समाजवादी पार्टी की स्थिति

समाजवादी पार्टी (सपा) को प्रदेश के 2022 के विधानसभा चुनाव में बहुमत हासिल करने में मुश्किल तो बहुत है, मगर यह नामुमकिन नहीं है। जिस तरह से उसने कुछ ही समय पहले हुए ज़िला पंचायत के त्रिस्तरीय चुनावों में भाजपा को पटखनी दी, उससे यह साफ़ है कि लोग अब उसे एक बड़े विकल्प के रूप में देख रहे हैं। मगर सपा के लोगों को डर है कि भाजपा विधानसभा चुनाव में कोई ऐसा दाँव न चल जाए, जो उसने ज़िला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनावों में चला था। पहले भी गठबन्धन करके चुनाव लड़ चुके सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने दूसरे दलों को संकेत दिया है कि सपा के दरवाज़े गठबन्धन के लिए खुले हैं। लेकिन उन्होंने अपनी इस बात में छोटे दलों की बात कही।

इसका मतलब अखिलेश यादव भाजपा को छोडक़र बाक़ी को सपा से अब छोटा दल मानने लगे हैं और भाजपा के ख़िलाफ़ लड़ रहे दलों के साथ-साथ निर्दलीयों को भी गठबन्धन का न्यौता दे रहे हैं। उन्होंने यह भी कह डाला कि 2022 के चुनाव में कई छोटी पार्टियाँ उनके साथ आएँगी। लेकिन उन्हें अपने इस समय के अनुमानित 18 से 22 फ़ीसदी वोट बैंक को खींचकर 35 फ़ीसदी करना होगा। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अगर अखिलेश को मुस्लिमों ने वोट दे दिया, तो वह जीत सकते हैं।

बहुजन समाज पार्टी

बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती इस बार अपने निश्चित वोट बैंक के अलावा ब्राह्मणों को अपने ख़ेमे में करने की रणनीति बना ही चुकी हैं। मगर इस बार वह सन् 2007 की तरह पिछड़ा वर्ग को भी लुभाने का प्रयास करेंगी। वह इस दाँव में जीत के लिए पिछड़ा वर्ग से प्रत्याशी मैदान में उतारेंगी। वह ब्राह्मणों को टिकट देकर उन्हें अपने ख़ेमें में लाकर कामयाब होना चाहती हैं। क्योंकि ब्राह्मण भाजपा से नाराज़ हैं। अर्थात् बसपा की मुखिया प्रदेश के 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के वोट बैंक में सेंधमारी करना चाह रही हैं। क्योंकि वह जानती हैं कि उनकी जीत सन् 2007 के फार्मूले से ही सम्भव है, जिसकी शुरुआत वह कर चुकी हैं।

सन् 2017 में तो उन्होंने 100 से अधिक मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट देकर धोखा खा लिया। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि 2007 में बसपा के पक्ष में 30 फ़ीसदी वोट पड़ा था, जो कि उसकी सरकार बनाने के लिए पर्याप्त साबित हुआ। लेकिन इस बार उसके खाते में फ़िलहाल 13 से 14 फ़ीसदी वोट है, जिसे मायावती अपनी रणनीति से बढ़ाने में लगी हैं।

अन्य पार्टियाँ

इस बार उत्तर प्रदेश में कई छोटे-बड़े दल भाजपा को हराने की कोशिश में रहेंगे, मगर कुछ दल भाजपा के ही घटक हैं। इनमें ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल मुख्य रूप से शामिल हैं। यह भी ज़ाहिर है कि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) भी भाजपा की ही बी पार्टी बनकर बंगाल की तरह उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के मैदान में उतर रही है। लेकिन इसमें कोई दो-राय नहीं कि भारतीय समाज पार्टी और अपना दल को भाजपा ने उनकी शर्तों पर शामिल किया है। क्योंकि ये दोनों ही पार्टियाँ कुछ समय पहले तक भाजपा से नाराज़ चल रही थीं, जिन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह देकर उसने मनाया है।

इसके अलावा प्रदेश में राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) जैसी पार्टी भी है, जिसका पश्चिमी उत्तर प्रदेश, ख़ासकर मुज़फ़्फ़रनगर, बाग़पत, मेरठ, मथुरा और इन ज़िलों के आसपास के इलाक़ों में ठीकठाक दबदबा है। भले ही उसने पिछले चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया, मगर इस बार उसके पक्ष में काफ़ी वोट जाएँगे। चर्चा है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में बिहार की भाजपा की सहयोगी पार्टी जद(यू)भी 200 सीटों पर मैदान में उतरेगी। मगर निर्दलीयों को भी कम नहीं आँकना चाहिए। क्योंकि उत्तर प्रदेश में निर्दलीय प्रत्याशी ठीकठाक संख्या में जीत हासिल करते हैं। इस बार भी काफ़ी निर्दलीयों के जीतने की उम्मीद है।

मेडिकल कॉलेज पर घमासान

उत्तर प्रदेश में इन दिनों मेडिकल कॉलेज और मूर्तियों पर घमासान मचा हुआ है। दरअसल केंद्र सरकार ने मेडिकल कॉलेज में यूजी और पीजी की पढ़ाई में पिछड़ा वर्ग और आर्थिक रूप से कमज़ोर अगड़ों को आरक्षण देने की बात कही है। अर्थात् भाजपा ने इस बार पिछड़ा वर्ग और अगड़ा वर्ग के कमज़ोर तब$के के आगे आरक्षण का चारा फेंका है। भाजपा के इस दाँव पर दूसरी पार्टियाँ हमलावर हो रही हैं और इसका काट ढूँढ रही हैं। इसके अलावा प्रदेश की योगी सरकार ने नौ मेडिकल कॉलेजों की सौगात प्रदेश को देने का वादा किया है।

राजनीतिक जानकार कहते हैं कि मेडिकल कॉलेज तो समाजवादी पार्टी की देन हैं, जिन्हें लेकर भाजपा दाँव खेल रही है। उनका यह भी कहना है कि विधानसभा चुनाव में सिर्फ़ छ:-सात महीने ही बचे हैं। ऐसे में सवाल यह है कि जिस सरकार ने साढ़े चार साल में शिक्षा पर इतना ध्यान नहीं दिया, वह इतने कम समय में नौ मेडिकल कॉलेज बनाएगी, यह बात समझ से परे है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश सरकार पहले से प्रदेश में खड़े मेडिकल कॉलेजों के नाम बदल रही है, जिसका विरोध भाजपा में ही ख़ूब हो रहा है। सच तो यह है कि भाजपा के प्रदेश सिपहसालार और प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ नाम बदलू हैं, काम करने वाले नहीं। क्योंकि काम करने वाले नाम बदलने में समय नहीं गँवाते।