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बदलते मोहरे

लचर प्रदर्शन के कारण मुख्यमंत्री बदलने को मजबूर भाजपा

भाजपा अब तक कांग्रेस की सरकारों को गिराकर अपनी सरकारें बना रही थी। अब अपनी ही सरकारों में मुख्यमंत्रियों को ताश के पत्तों की तरह फेंट रही है। विधानसभा चुनावों से पहले भाजपा की इस कसरत ने कांग्रेस, टीएमसी और बाक़ी विपक्ष को यह अवसर दे दिया है कि वह भाजपा के मुख्यमंत्रियों को बदले जाने की वजह उनकी नाकामी को बताये।

उधर भाजपा के भीतर नेताओं में अपने भविष्य को लेकर अस्थिरता की भावना पैदा हो चुकी है। वरिष्ठ नेताओं को लगने लगा है कि उन्हें भी आडवाणी, जोशी और अन्य की तरह मार्गदर्शक मण्डल में बैठा दिया जाएगा। भाजपा में अब ऐसे नेताओं का दायरा बढ़ता जा रहा है, जो यह महसूस करने लगे हैं कि उनकी हैसियत सिर्फ़ मोहरों की रह गयी है। भाजपा में इस उठा-पटक का क्या असर है?

यह केंद्रीय मंत्री और आरएसएस के नज़दीकी नितिन गडकरी के जयपुर वाले बयान से सहज ही समझा जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा- ‘आज के हालात में हर कोई दु:खी है। कोई मंत्री न बनने से दु:खी है, तो मुख्यमंत्री। वे इसलिए दु:खी हैं कि पता नहीं कब हटा दिये जाएँगे।’ बात मज़ाक़ में कही गयी थी। लेकिन राजनीतिक तंज़ ऐसे ही मुहावरे बनाकर कसे जाते हैं।

इसी साल में अब तक भाजपा अपने चार मुख्यमंत्रियों को ठिकाने लगा चुकी है। जनता में सन्देश जा रहा है कि यह मुख्यमंत्री नाकाम हो चुके थे और पार्टी को चुनाव जिताने की स्थिति में नहीं थे, लिहाज़ा उन्हें बदल दिया गया। मुख्यमंत्रियों में अपनी कुर्सी बचाने की चिन्ता है। भाजपा अपने मुख्यमंत्रियों को किस तत्परता से फेंट रही है? इसका बड़ा उदहारण उत्तराखण्ड है, जहाँ पार्टी ने तीन महीने में ही दो मुख्यमंत्री बदल दिये। इससे भाजपा शासित राज्यों में विकास के कामों पर भी बहुत बुरा असर पड़ा है और पार्टी के बीच ही अस्थिरता जैसी स्थिति बन चुकी है। कर्नाटक में जुलाई में ताक़तवर लिंगायत नेता बी.एस. येदियुरप्पा को कुर्सी छोडऩी पड़ी।

अपना नाम ज़ाहिर न करने की शर्त पर भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा कि इन फ़ैसलों से पार्टी को नुक़सान उठाना पड़ सकता है। उनके मुताबिक, ऐसा करने से पार्टी नेतृत्व अपनी असुरक्षा की भावना को उजागर कर रहा है, जो उसके लिए घातक भी साबित हो सकता है। उधर इस विषय पर ‘तहलका’ से बातचीत में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री पवन कुमार बंसल ने कहा- ‘यह साफ़ हो गया है कि राज्यों में भाजपा की सरकारें फ्लॉप (नाकाम) हैं। लोगों में उनकी नाकामी से निराशा है। लेकिन इसमें एक और बात भी है। केंद्र की भाजपा सरकार अपनी नाकामियाँ छिपाने का ठीकरा भी अपने मुख्यमंत्रियों पर ही फोड़ रही है, ताकि लोगों का उनसे ध्यान हटाया जा सके। केंद्रीय मंत्रिमण्डल के हाल के फेरबदल में भी यही किया गया था। यह सन्देश देने की कोशिश की गयी कि ख़राब प्रदर्शन वाले मंत्री हटा दिये गये। जबकि कोविड, महँगाई और अन्य मोर्चों पर सरकार की नाकामी की सीधी ज़िम्मेदारी तो प्रधानमंत्री (पीएमओ) की है, जहाँ से सब कुछ संचालित होता है।’

गुजरात में भाजपा ने जिस तरह भूपेंद्र यादव की नयी सरकार के गठन में विजय रूपाणी के मंत्रिमण्डल के सभी मंत्रियों की छुट्टी करने जैसा प्रयोग किया, उससे ज़ाहिर होता है कि मोदी-शाह के गृह राज्य में लोगों की पिछली सरकार और मंत्रियों से कितनी नाराज़गी रही होगी। अन्यथा ऐसा कभी नहीं होता कि नये मुख्यमंत्री को नया मंत्रिमण्डल देते हुए पुराने सभी मंत्रियों को बाहर कर दिया जाए। इससे तो यही संकेत जाता है कि इन सभी मंत्रियों का प्रदर्शन ख़राब रहा। लेकिन प्रदेशों में मुख्यमंत्री बदलने के पीछे भाजपा आलाकमान का एक और सन्देश भी अपने संगठन के लोगों को है। वह यह कि ‘पार्टी में नरेंद्र मोदी और अमित शाह ही सर्वशक्तिमान हैं।’

मुख्यमंत्री बदलने का संकेत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए भी है। बंगाल के विधानसभा चुनाव में मिली हार के तुरन्त बाद हुए उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव में भाजपा की हार के बाद सर्वशक्तिमान नेतृत्व ने जिस मुख्यमंत्री को सबसे पहले बदलने की क़वायद की थी, वह योगी ही थे। यह क़वायद सफल होती, उससे पहले ही आरएसएस (संघ) का बयान आ गया कि उत्तर प्रदेश के अगले चुनाव भाजपा योगी के ही नेतृत्व में लड़ेगी। इस दौरान योगी भी दिल्ली में तलब किये गये या कहें कि ख़ुद चले गये थे और शीर्ष नेतृत्व से मिले। बहुत-से लोग कहते हैं कि यह कोई बहुत सम्मानजनक मुलाक़ातें नहीं थीं। लगभग उन्हीं दिनों में अपने प्रदेश के कुछ विकास विज्ञापनों और होर्डिंग्स में योगी सरकार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फोटो लगाने से परहेज़ किया था। बहुतों को योगी सरकार का यह फ़ैसला दिलचस्प और कुछ को हैरानी भरा लगा था। कहते हैं भाजपा शीर्ष नेतृत्व में इसे लेकर भी योगी के प्रति बहुत नाराज़गी थी। योगी को बहुत सारे राजनीतिक जानकार नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री की कुर्सी को चुनौती मानते हैं; भले योगी एक प्रधानमंत्री और पार्टी के सर्वोच्च नेता के रूप में मोदी के प्रति पूरा सम्मान दिखाते हैं। राजनीतिक गलियारों में यह कहा जाने लगा है कि योगी की पार्टी के भीतर ही बहुत-सी दुश्वारियाँ हैं।

बहुत दिलचस्प बात तो यह है कि भाजपा के कट्टर हिन्दुत्व समर्थकों वाली टोलियों के बीच योगी भी मोदी की तरह ही लोकप्रिय हैं। कई लोग तो उन्हें मोदी से भी ज़्यादा पसन्द करते हैं। पार्टी के बीच योगी का एक अलग समर्थक वर्ग बन चुका है, जो उनके भाषणों के तरीक़े और धर्म आधारित कटाक्षों का दीवाना है।

यह वही वर्ग है, जो सोशल मीडिया पर अपने सन्देशों में जमकर धर्म आधारित ज़हर उगलता है और योगी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित करता है। इसमें एक सन्देश यह भी है- ‘देश का अगला प्रधानमंत्री मर्यादा पुरषोतम श्रीराम की जन्मभूमि से।’

ज़ाहिर है योगी के यह समर्थक प्रधानमंत्री के उत्तर प्रदेश के वाराणसी से चुनाव जीतकर सांसद बनने के बावजूद उन्हें राज्य का नहीं मानते। दिलचस्प बात यह भी है कि सोशल मीडिया का ही एक वर्ग योगी को भी बाहरी बताता है। इस वर्ग के सन्देश कहते हैं कि योगी तो उत्तराखण्ड के हैं। अब सोशल मीडिया के इस वर्ग के प्रचार के पीछे कौन है? यह तो राम ही जानें। लेकिन यह तय है कि दोनों की ही तरफ़दारी करने वाले भाजपा के ही लोग हैं। बीच में इसी सोशल मीडिया पर यह चर्चा भी ख़ूब चली कि केंद्र उत्तर प्रदेश को चार राज्यों में विभाजित करना चाहता है। कहा जाता है कि यह प्रचार योगी को दबाव में लाने के लिए था। लब्बोलुआब यह है कि भाजपा के भीतर ही सौ लड़ाइयाँ और दाँव-पेच हैं। बाहर से भले कुछ भी दिखे, मगर भाजपा के भीतर भी एक छद्म युद्ध लड़ा जा रहा है, जिसका औज़ार में सोशल मीडिया है।

हाल के महीनों में योगी सरकार ने अपने चार साल के कार्यकाल की उपलब्धियों को लेकर जमकर प्रचार किया है। यह किसी भी भाजपा शासित राज्य के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा है। हालाँकि योगी सरकार की कई मोर्चों पर नाकामियों का ज़िक्र भी मीडिया में ख़ूब हुआ है- क़ानून व्यवस्था से लेकर कोरोना वायरस के कहर के दौरान स्वास्थ्य कुप्रबन्धन, श्मशानों और क़ब्रिस्तानों में लम्बी-लम्बी क़तारों और दुष्कर्म की घटनाओं तक। इसे लेकर भाजपा के ही कुछ बड़े नेता गाहे-बगाहे बोलते रहे हैं। योगी का यह प्रचार सिर्फ़ विधानसभा चुनाव से पहले अपनी विकास पुरुष की छवि गढऩे भर के लिए नहीं है, भाजपा के अंतर्विरोधों से निपटने के लिए भी है। भाजपा में यह पहला मौक़ा नहीं है, जब पहली बार जीते विधायक को मुख्यमंत्री बनाया गया है। हिमाचल में सन् 1997 में पहला चुनाव जीतने के बाद प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमंत्री बनाया गया था। हालाँकि वह इससे पहले तीन बार सांसद और प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रह चुके थे और उनके पास संगठन के अलावा प्रशासनिक अनुभव था। कल्पना करें कि यदि भाजपा उनके बेटे अनुराग ठाकुर को अगले साल के विधानसभा चुनाव के बाद हिमाचल में मुख्यमंत्री का ज़िम्मा देना चाहेगी, तो अनुराग भी पहली बार विधायक बनकर ही मुख्यमंत्री हो जाएँगे। हालाँकि पिता की तरह वह भी चार बार सांसद बनने के अलावा दो बार मंत्री बन चुके हैं। लिहाज़ा उनका प्रशासनिक अनुभव तो है ही।

उत्तर प्रदेश में सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ पहली बार विधायक बनकर ही मुख्यमंत्री बन गये थे। उससे पहले वह पाँच बार सांसद रहे थे। हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर पहली पारी में जब मुख्यमंत्री बने, तो वह विधायक भी पहली बार बने थे। कुछ पुरानी बात करें, तो गुजरात में सन् 2001 में नरेंद्र मोदी को जब मुख्यमंत्री बनाया गया था, तब तो वह विधायक भी नहीं थे। उसके बाद वह दो बार और मुख्यमंत्री बने। आज वह दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री बन चुके हैं। ऐसे प्रयोग कांग्रेस में भी हुए हैं; लेकिन भाजपा ने निश्चित ही यह प्रयोग ज़्यादा किये हैं। इसके पीछे उसका मक़सद भविष्य का नेतृत्व तैयार करने का रहा है।  ख़ात बात यह है कि इसमें आरएसएस की भी बड़ी भूमिका रही है।

 

भाजपा में भी अब आलाकमान

कांग्रेस संगठन से जुड़ा एक शब्द मशहूर रहा है- ‘आलाकमान’। भाजपा दशकों तक इस स्थिति से बचती रही। दूसरे भाजपा में उच्चतम स्तर की ताक़त कांग्रेस के गाँधी परिवार की तरह किसी परिवार के पास नहीं थी। वहाँ भाजपा के अध्यक्ष की अपनी हैसियत थी और प्रधानमंत्री की अपनी। लेकिन अब भाजपा में जिस तरह सारी ताक़त प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के आसपास सिमट गयी है, उसने उन्हें भाजपा की आलाकमान की हैसियत दे दी है। उनकी मर्ज़ी के बिना पत्ता भी भाजपा में नहीं हिलता; यह भाजपा के ही लोग अब खुलकर कहने लगे हैं। मोदी-शाह के अलावा तीसरी किसी ताक़त की भाजपा में यदि चलती है, तो वह आरएसएस है। याद करिए, जब प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा का सन् 2019 का चुनाव जीतने के बाद पार्टी के लोगों को सम्बोधित किया था। मोदी ने सांसदों को सलाह दी थी कि वे बयानबाज़ी से बचें। यह एक तरह से उन्हें सुझाव था कि यह काम आलाकमान का है, आपका नहीं। वही तय करेंगे कि क्या और कितना बोलना है? पिछले कुछ वर्षों पर नज़र डालिए, भाजपा का कोई मंत्री आधिकारिक पत्रकार वार्ता (प्रेस कॉन्फ्रेंस) को छोडक़र कभी चलते-फिरते पत्रकारों से बात करने में हिचकता है। पहले ऐसा कभी नहीं होता था। इसे सत्ता का वैसा ही केंद्रीयकरण कह सकते हैं, जैसा इंदिरा गाँधी के ज़माने में था। इसके नुक़सान बाद में कांग्रेस को उठाने पड़े। उसका संगठन लचर और पंगु हो गया; क्योंकि सरकार और संगठन एक ही व्यक्ति के इर्द-गिर्द सिमट गये। मुख्यमंत्री बदलने की भाजपा की रफ़्तार मोदी-शाह की जोड़ी के समय में बहुत तेज़ हुई है। देखें तो इन दोनों के समय में अब तक 13 राज्यों में भाजपा के 19 मुख्यमंत्री बने हैं। इनमें योगी आदित्यनाथ, हिमंता बिस्व सरमा, सर्वानंद सोनोवाल, देवेंद्र फडऩवीस, त्रिवेंद्र सिंह रावत, तीरथ सिंह रावत, पुष्कर सिंह धामी, जयराम ठाकुर, बिप्लब देब, मनोहर लाल खट्टर, रघुबर दास, लक्ष्मीकांत पारसेकर, प्रमोद सावंत, बीरेन सिंह, पेमा खांडू, आनंदी बेन पटेल, विजय रूपाणी, भूपेंद्र पटेल, बासवराज बोम्मई शामिल हैं। इन 19 में से छ: को पार्टी नेतृत्व हटा चुका है।

“आज के हालात में हर कोई दु:खी है। कोई मंत्री न बनने से दु:खी है, तो मुख्यमंत्री इसलिए दु:खी हैं कि पता नहीं कब हटा दिये जाएँगे। समस्या सबके सामने है। पार्टी में है। पार्टी के बाहर है। परिवार में है। आज़ू-बाज़ू में है।’’

नितिन गडकरी

केंद्रीय मंत्री (जयपुर के एक कार्यक्रम में)

 

अब किसकी बारी?

भाजपा में आजकल बहुत दिलचस्प शर्तें लग रही हैं। वैसे भाजपा से बाहर भी लग रही हैं। शर्त यह कि ‘बताओ अब भाजपा के किस मुख्यमंत्री का नंबर लगने वाला है?’ यानी अब मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने की बारी किसकी है? भाजपा ने जिस तरीक़े और रफ़्तार से मुख्यमंत्री बदले हैं, वह आम जनता में भी दिलचस्पी जगा रहा है। चर्चाओं के मुताबिक, राजस्थान में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया को किनारे कर दिया गया है और भाजपा शायद ही उन्हें अगली बार मुख्यमंत्री बनाए। जहाँ तक मुख्यमंत्रियों की बात है, रूपाणी के बाद अब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का बिस्तर गोल हो सकता है। पार्टी मानती है कि इस बार उनका कार्यकाल बहुत ख़राब रहा है और उनके नेतृत्व में चुनाव में जाने पर पार्टी की लुटिया डूबने की पूरी सम्भावना है। पार्टी वहाँ भी कोई नया चेहरा ला सकती है। हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के प्रदर्शन पर भी ढेरों सवाल हैं। कहा जा रहा है कि बहुत विवादित न होने के बावजूद एक मुख्यमंत्री के रूप में जयराम सरकार की छाप छोडऩे में बुरी तरह नाकाम रहे हैं। यहाँ तक कि उनके अपने गृह ज़िले मंडी में ही लोग ज़्यादा ख़ुश नहीं हैं। इस पहाड़ी सूबे में अगले साल के आख़िर में चुनाव होने हैं। हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर पिछले चुनाव में ही भाजपा को बहुमत नहीं दिला पाये थे और भाजपा को सरकार बनाने के लिए दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी (जजपा) से गठबन्धन करना पड़ा था। खट्टर को दूसरी पारी मिल गयी; लेकिन किसान आन्दोलन से जिस ख़राब तरीक़े से खट्टर ने निपटा है, उससे हरियाणा भाजपा में बहुत बेचैनी है। बहुत सम्भावना कि खट्टर का पत्ता भी पार्टी नेतृत्व काट दे। हरियाणा में वैसे विधानसभा चुनाव अक्टूबर, 2024 होने हैं, लिहाज़ा हो सकता है कि खट्टर को अभी कुछ वक़्त और मिल जाए।

पंजाब में कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक

क्या चन्नी के दम पर भीतरी लड़ाई के नुक़सान की भरपाई कर पाएगी पार्टी?

यह 18 सितंबर की सुबह 8:00 बजे के आसपास की बात है। उस समय पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की फोन पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी से बात हो रही थी। सोनिया गाँधी ने कहा- ‘आई एम सॉरी अमरिंदर!’ (मुझे अफ़सोस है अमरिंदर!)। कैप्टन की कुर्सी का फ़ैसला हो चुका था।

इसके कुछ घंटे बाद निराश और कुछ हद तक क्रोधित अमरिंदर जब चंडीगढ़ स्थित पंजाब राजभवन में राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित से मिलकर उन्हें अपना इस्तीफ़ा सौंप रहे थे, लगभग उसी समय शहर में स्थित कांग्रेस भवन में पार्टी के 80 में से 78 विधायक नये मुख्यमंत्री के नाम पर फ़ैसला करने के लिए जुट रहे थे। अमरिंदर उसी पंजाब कांग्रेस में अकेले पड़ चुके थे, जिसके वह वर्षों कैप्टन रहे थे। इसके क़रीब 24 घंटे बाद चंडीगढ़ में चरणजीत सिंह चन्नी का नाम जब नये मुख्यमंत्री के रूप में घोषित हुआ, तो क़रीब 19 किलोमीटर दूर सिसवां स्थित अपने फार्म हाउस में वर्षों से राजनीतिक हलचल में घिरे रहने वाले सांसद पत्नी परनीत कौर के साथ कैप्टन कमोवेश अकेले से बैठे थे। अमरिंदर को आख़िर अपनी कुर्सी क्यों गँवानी पड़ी?

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, उनके ही एक पूर्व राजनीतिक सलाहकार का उन्हें लेकर राहुल गाँधी को दिया गया सुझाव उनके ख़िलाफ़ गया। पी.के. (चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर), जिन्होंने दो महीने पहले ही कैप्टन के राजनीतिक सलाहकार के पद से इस्तीफ़ा दिया था; के इस सुझाव में कहा गया था कि अमरिंदर सिंह के ख़िलाफ़ ज़मीन पर जनता और विधायकों में भी नाराज़गी है और भाजपा से उनकी नज़दीकियों की ख़बरें भी कांग्रेस को नुक़सान पहुँचा रही हैं।

पी.के. से इस बैठक के दौरान राहुल गाँधी जानना चाहते थे कि यदि किसी अनुसूचित जाति (सिख या ग़ैर-सिख) को मुख्यमंत्री बना दिया जाए, तो कैसा रहेगा? इसके कुछ घंटे के भीतर राहुल गाँधी चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब की बाग़डोर सौंपने का फ़ैसला कर चुके थे। यह भी फ़ैसला किया गया कि मज़बूत सन्देश देने के लिए राहुल गाँधी चन्नी के शपथ ग्रहण में शामिल रहेंगे। पत्रकार 19 सितंबर को जब वरिष्ठ नेता सुखजिंदर सिंह रंधावा को भावी मुख्यमंत्री मानकर उनसे बधाई वाले अंदाज़ में बात कर रहे थे, तब भी रंधावा कह रहे थे कि ‘मेरी शपथ हो या किसी और की।’ लेकिन पत्रकार इतने बड़े इशारे को नहीं समझ पाये।

सोनी सोनिया गाँधी की पसन्द थीं। लेकिन ख़ूद उन्होंने सिख को मुख्यमंत्री बनाने के समर्थन के समर्थन वाला बयान दिया, जो सोची-समझी रणनीति थी। दिखावे के लिए चंडीगढ़ में विधायकों की राय लेने की क़वायद की गयी। ख़ूद चन्नी को उनको लेकर किये गये राहुल गाँधी के इस फ़ैसले की जानकारी नहीं थी। चन्नी का राज्यपाल को दिया गया सरकार बनाने के दावे वाला पत्र भी पहले ही तैयार कर लिया गया था और यह प्रभारी हरीश रावत के पास था, जिन्होंने सारे कयास ख़त्म करते हुए करते हुए ट्वीट करके चन्नी को विधायक दल का नेता चुने जाने की जानकारी दी।

अमरिंदर सिंह पंजाब में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा और मज़बूत चेहरा थे, इसमें कोई सवाल ही नहीं था। लेकिन अमरिंदर पिछले चुनाव के वादों, ख़ासकर गुरुग्रन्थ साहिब की बेअदबी के मामले में आरोपियों को सज़ा देने के वादे पर खरे नहीं उतरे थे। दो महीने पहले आलाकमान ने उन्हें अवसर दिया था कि वह इन वादों को पूरा करने के लिए तत्काल ठोस काम शुरू कर दें। लेकिन कैप्टन हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहे। इस दौरान भाजपा से उनकी नज़दीकी बढऩे की अपुष्ट ख़बरें आने लगीं, जिनका कैप्टन ने कोई प्रतिवाद नहीं किया; जिससे उनके प्रति शक की भावना बढ़ी। बादल परिवार से उनकी नज़दीकियों पर तो पहले ही कांग्रेस के विधायक आगबबूला हुए बैठे थे। इस तरह अमरिंदर सत्ता से बाहर हो गये। इतनी जल्दी कि उन्हें कुछ करने का अवसर ही नहीं मिल पाया।

कांग्रेस या कह लीजिए राहुल गाँधी ने अनुसूचित जाति के चन्नी का मुख्यमंत्री के रूप में चयन करके एक तीर से कई शिकार कर लिये हैं। अमरिंदर सिंह से लेकर अकाली दल-बसपा गठबन्धन, आम आदमी पार्टी और भाजपा सब इस चयन से भौचक हैं। बसपा प्रमुख मायावती भी परेशान हुईं। वह जानती हैं कि इसका असर पंजाब से बाहर उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी पड़ेगा। इसलिए उन्होंने परेशानी में ही सही, मगर कहा कि कांग्रेस ने चन्नी को नाम का ही मुख्यमंत्री बनाया है; क्योंकि असली ताक़त किसी और के पास रहेगी। ज़ाहिर है मायावती का मक़सद एक दलित मुख्यमंत्री बनाने से कांग्रेस को मिलने वाले सम्भावित चुनावी लाभ से रोकना रहा होगा। पंजाब में अकाली दल और भाजपा ने दो महीने पहले ही उनकी सरकार बनने की स्थिति में उप मुख्यमंत्री का पद अनुसूचित जाति के विधायक को देने का वादा जनता से किया था। अब कांग्रेस ने इस समुदाय से मुख्यमंत्री ही बना दिया है। क्योंकि चन्नी सिख हैं। इसलिए कांग्रेस के लिए एक सिख राज्य में राजनीतिक लिहाज़ से यह और बेहतर फ़ैसला है। कांग्रेस का चयन एक सिख नहीं होता, तो अकाली दल आदि इस पर बहुत हो-हल्ला करते। लेकिन कांग्रेस ने उनके हाथ से यह हथियार भी छीन लिया।

इसके अलावा चन्नी युवा हैं। उनके सामने लम्बा राजनीतिक करियर है। अभी यह नहीं कहा जा सकता कि आगामी साल 2022 के विधानसभा चुनाव के बाद क्या राजनीतिक स्थिति बनेगी? यदि कांग्रेस सत्ता में लौटती है, तब भी कौन मुख्यमंत्री चुना जाएगा? यह उस समय की परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। अमरिंदर के जाने के बाद दो उप मुख्यमंत्रियों के रूप में कांग्रेस ने एक जट्ट सिख और एक हिन्दू सवर्ण को चुना है, जिससे वह एक सम्पूर्ण राजनीतिक पैकेज देने में सफल रही है।

सिद्धू : हंगामा है क्यों बरपा?

नवजोत सिंह सिद्धू तबीयत से बाग़ी हैं। जब कुछ ग़लत लगता है, तो वह विद्रोह करने में देर नहीं लगाते। भारतीय क्रिकेट टीम का सन् 1996 का इंग्लैंड दौरा इसका सुबूत है। कप्तान मोहम्मद अज़हरूद्दीन से किसी मसले पर उनके खटपट हो गयी। नाराज़ सिद्धू इंग्लैंड दौरा छोडक़र ही भारत लौट आ गये। पंजाब में कांग्रेस की कप्तानी हासिल करने से लेकर अध्यक्ष पद छोडऩे तक की उनकी लड़ाई उनके उस तेवर को ही दर्शाती है। विरोधी भले ही कुछ भी कहें; लेकिन सिद्धू अपनी ही तबीयत के मालिक हैं।

कहा जाता है कि राजनीति में कुछ समझौते करने पड़ते हैं; लेकिन सिद्धू ने न भाजपा में रहते हुए कोई समझौता किया और न अब कांग्रेस में। भाजपा में वह अकाली दल से अलग पार्टी का अपना वजूद पंजाब में तैयार करना चाहते थे; लेकिन भाजपा आलाकमान ने उनकी नहीं सुनी और सिद्धू ने बाग़ी तेवर अपना लिये। यह ठीक है कि मंत्रियों को विभाग बाँटना और अफ़सरों की तैनाती मुख्यमंत्री का विशेषधिकार है और सिद्धू को संगठन पर फोकस करना चाहिए। इसे पार्टी अनुशासन के ख़िलाफ़ भले कह लें; लेकिन सिद्धू ने दाग़ी लोगों पर ही सवाल उठाये थे, जो कांग्रेस के लिए अच्छी ही बात थी। उनके विरोधी आरोप लगाते हैं कि सिद्धू तीन महीने पहले प्रदेश अध्यक्ष बने; लेकिन उनका ध्यान सरकार पर ज़्यादा और संगठन पर कम है। पहले के दो महीने कैप्टन अमरिंदर सिंह को निपटाने में निकल गये और बाद में वह सरकार की नियुक्तियों में उलझ गये। लिहाज़ा संगठन का काम हुआ ही नहीं, जबकि विधानसभा चुनाव को बमुश्किल चार-पाँच महीने ही बचे हैं। हालाँकि चन्नी सरकार से सिद्धू के बाद इस्तीफ़ा देने वाली रज़िया सुल्ताना कहती हैं- ‘सिद्धू ईमानदार नेता हैं और पंजाब के उसूलों की लड़ाई लड़ रहे हैं।’

वैसे पंजाब के सारे घटनाक्रम से कांग्रेस में जिस नेता को सबसे ज़्यादा लाभ पहुँचा, वह नवजोत सिंह सिद्धू ही हैं। वह अपने सबसे बड़े राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी कैप्टन अमरिंदर सिंह को कांग्रेस के बिना किसी बड़े राजनीतिक नुक़सान के निपटाने में सफल रहे हैं। हो सकता है कि अमरिंदर सिंह कांग्रेस से जाने का अन्तिम फ़ैसला जल्दी ही कर लें। यदि ऐसा होता है, तो भले कांग्रेस का इससे नुक़सान हो; लेकिन व्यक्तिगत रूप से सिद्धू का कांग्रेस में सबसे बड़ा राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी पार्टी से बाहर हो जाएगा।

कैप्टन के इरादे

अमरिंदर सिंह जिस तरह अपनी ही पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के ख़िलाफ़ विधानसभा चुनाव में मज़बूत उम्मीदवार उतारने और राहुल-प्रियंका गाँधी को राजनीतिक अपरिपक्व बताने वाली टिप्पणियाँ कर रहे हैं, उससे ज़ाहिर होता है कि कांग्रेस का यह दिग्गज अपनी राह बदलने की तैयारी में है। सवाल हैं- वह जाएँगे किसके साथ? और कब जाएँगे? कितने विधायक उनके साथ जाएँगे? कांग्रेस शायद ख़ूद उन्हें पार्टी से बाहर न करे।

हालाँकि उनकी टिप्पणियों पर वरिष्ठ नेता असहमति जता चुके हैं और कह रहे हैं कि उन जैसे वरिष्ठ नेता से इस तरह के बयानों की उम्म्मीद नहीं की जाती। उनके निशाने पर सिद्धू सबसे ज़्यादा हैं। सिद्धू को ‘राष्ट्र के लिए ख़तरा’ जैसे बयान देकर कैप्टन ने भाजपा की भाषा ही बोली है। चर्चा रही है कि यदि मोदी सरकार विवादित तीन कृषि क़ानूनों को वापस ले ले या ठण्डे बस्ते में डाल दे, तो कैप्टन भाजपा में भी जा सकते हैं। देखा जाए तो क़द्दावर नेता होने के बावजूद अमरिंदर को मुख्यमंत्री पद से हटाने पर जनता में उनके प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखती। चुनाव के वादे पूरे न करने और श्री गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी पर कार्रवाई न होने के कारण जनता में पहले से ही उनके प्रति ग़ुस्सा रहा था। यह तक कहा जा रहा था कि अमरिंदर कांग्रेस को शायद ही अगला चुनाव जिता पाते। कैप्टन के अपने प्रभाव क्षेत्र में ही जनता का कहना है कि अमरिंदर ने तो ख़ूद ही सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में प्रचार करते हुए इसे अपना आख़िरी चुनाव बताकर मत (वोट) माँगे थे। जिन नवजोत सिद्धू से वह टक्कर ले रहे हैं, वह भी उनकी ही तरह जट्ट सिख और सिद्धू हैं। जट्ट सिख मानते हैं कि सिद्धू उनके समुदाय में भविष्य के नेता हैं। लिहाज़ा कैप्टन का सिद्धू को लेकर विरोध उनके गले नहीं उतर रहा। अमरिंदर के सिद्धू के ख़िलाफ़ बयानों का सिद्धू को नहीं, ख़ूद अमरिंदर को नुक़सान हुआ है। एक और क़द्दावर जट्ट सिख नेता सुखजिंदर सिंह रंधावा, जिन्हें अब उप मुख्यमंत्री बना दिया गया है और सरकार में जिनकी नंबर दो की हैसियत है; भी सिद्धू के साथ खड़े दिख रहे हैं। अमरिंदर 80 साल के क़रीब हैं और अपनी पारी खेल चुके हैं। लोग मानते हैं कि उन्हें सिद्धू को अपने उत्तराधिकारी के रूप में समर्थन देना चाहिए था। फ़िलहाल अमरिंदर यह टोह लेने की कोशिश कर रहे हैं कि कितने विधायक उनके साथ आ सकते हैं। अनुसूचित जाति के विधायक चरणजीत सिंह चन्नी को कांग्रेस ने जिस तरह मुख्यमंत्री बनाकर तुरुप का पत्ता चला है, उससे कांग्रेस विधायक दल में किसी बड़े विघटन की सम्भावना नहीं दिखती। अमरिंदर सिर्फ़ एक ही तरीक़े से कांग्रेस सरकार के लिए समस्या बन सकते हैं और वह यह है कि कांग्रेस के 20 से ज़्यादा विधायक राजा अमरिंदर के साथ चले जाएँ। पंजाब की राजनीति पर नज़र रखने वाले जानकार इसकी सम्भावना न के बराबर मानते हैं। ज़मीनी हक़ीक़त आज भी यह है कि चुनाव की दृष्टि से कांग्रेस अभी भी अन्य दलों के मुक़ाबले बेहतर स्थिति में है।

जातियाँ कितनी असरदार?

पंजाब की चुनावी राजनीति पर नज़र दौड़ाएँ, तो ज़ाहिर होता है कि जातियों का चुनाव में असर रहा है। चूँकि कांग्रेस ने पंजाब में अनुसूचित जाति से मुख्यमंत्री बनाया है, तो सबसे पहले पिछले चार विधानसभा चुनावों में अनुसूचित जाति की भूमिका की बात की जाए। इन चार विधानसभा चुनावों में अनुसूचित जाति के बहुसंख्यक वोट कांग्रेस को मिलते रहे हैं; चाहे यह हिन्दू मतदाता हों, या सिख मतदाता।

सन् 2002 के विधानसभा चुनाव में पंजाब में सिख अनुसूचित जातियों के 33 फ़ीसदी मत (वोट) कांग्रेस को और 26 फ़ीसदी मत अकाली-भाजपा गठबन्धन को मिले। सन् 2007 में 49 फ़ीसदी मत कांग्रेस को, जबकि 32 फ़ीसदी मत अकाली-भाजपा गठबन्धन को मिले। सन् 2012 में 51 फ़ीसदी मत कांग्रेस को और 34 फ़ीसदी मत अकाली-भाजपा गठबन्धन को प्राप्त हुए। वहीं सन् 2017 में 41 फ़ीसदी मत कांग्रेस को, 34 फ़ीसदी मत अकाली-भाजपा गठबन्धन को और 19 फ़ीसदी मत आम आदमी पार्टी को मिले। इसी तरह हिन्दू अनुसूचित जातियों में सन् 2002 में 47 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 11 फ़ीसदी ने अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को मतदान किया। सन् 2007 में 56 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, तो 25 फ़ीसदी ने अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को मत डाले। सन् 2012 में 37 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 33 फ़ीसदी ने अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को मतदान किये। वहीं सन् 2017 में 43 फ़ीसदी ने कांग्रेस के, तो 26 फ़ीसदी ने अकाली दल-भाजपा गठबन्धन के पक्ष में मतदान किया। यदि जट्ट सिख मतदाताओं की बात करें तो सन् 2002 में कांग्रेस को 23 फ़ीसदी ने, जबकि अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को 55 फ़ीसदी जट्ट सिख ने मत दिये।

सन् 2007 में कांग्रेस को 30 फ़ीसदी ने, अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को 61 फ़ीसदी ने मत दिये। सन् 2012 में कांग्रेस को 31 फ़ीसदी ने, जबकि अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को 52 फ़ीसदी ने मत दिये। वहीं सन् 2017 में 28 फ़ीसदी ने कांग्रेस को और 37 फ़ीसदी ने अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को, जबकि पहली बार चुनाव में उतरी आम आदमी पार्टी को 30 फ़ीसदी जट्ट सिखों ने मत दिये। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा के इतने चुनावों में लगातार अकाली दल के साथ होने के बावजूद ग़ैर-दलित हिन्दुओं ने ज़्यादा समर्थन कांग्रेस का किया। सन् 2002 में 52 फ़ीसदी ग़ैर-अनुसूचित जाति हिन्दुओं ने कांग्रेस को मतदान किया, जबकि अकाली-भाजपा गठबन्धन को सिर्फ़ 26 फ़ीसदी मतदान इन्होंने किया। इसी तरह सन् 2007 में 49 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 38 फ़ीसदी ने अकाली-भाजपा गठबन्धन को मतदान किया। सन् 2012 में 46 फ़ीसदी ने कांग्रेस को,  36 फ़ीसदी ने अकाली-भाजपा गठबन्धन को मत दिये। वहीं सन् 2017 के पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 48 फ़ीसदी ने, अकाली-भाजपा गठबन्धन को 22 फ़ीसदी ने और आम आदमी पार्टी को 23 फ़ीसदी ग़ैर-हिन्दू दलितों के मत मिले।

बात करें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) सिख मतदाताओं के मतों की, तो सन् 2002 में 39 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 32 फ़ीसदी ने  अकाली-भाजपा गठबन्धन को मतदान किया। सन् 2007 में 43 फ़ीसदी ने कांग्रेस को और 43 फ़ीसदी ही ने अकाली-भाजपा गठबन्धन को मतदान किया। सन् 2012 में 44 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 46 फ़ीसदी ने अकाली-भाजपा गठबन्धन को मतदान किया। वहीं सन् 2017 के चुनाव में 37 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 32 फ़ीसदी ने अकाली-भाजपा गठबन्धन को और 19 फ़ीसदी ने आम आदमी पार्टी को मत दिये।

पीएम मोदी से मिले चन्नी; किसानों और करतारपुर कॉरिडोर फिर से खोलने जैसे मुद्दे उठाए

पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने शुक्रवार को दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की और राज्य के मुद्दों के अलावा किसानों- तीन कृषि कानूनों और करतारपुर साहिब कॉरिडोर खोलने को लेकर भी उनसे चर्चा की। चन्नी अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व से भी मुलाकात करेंगे। सम्भावना है कि उनकी नवजोत सिंह सिद्धू के मसले पर भी वरिष्ठ नेताओं से बात होगी।

पीएम से मिलने के बाद मुख्यमंत्री चन्नी ने पत्रकारों को बताया कि उन्होंने आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की। यह बातचीत करीब एक घंटे तक चली। चन्नी ने बताया कि उन्होंने प्रधानमंत्री के समक्ष तीन मुद्दे उठाए।

उन्होंने कहा कि मुलाकात के दौरान उन्होंने धान की सरकारी खरीद का मसला पीएम के सामने रखा। उन्होंने कहा कि एक अक्टूबर से ही धान की खरीद होनी चाहिए न कि 11 अक्टूबर को। सीएम ने इस दौरान कहा कि किसान खुशहाल रहेगा तो पंजाब आगे बढ़ेगा। चन्नी ने कहा – ‘पंजाब ने हमेशा देश के विकास योगदान दिया है।’

पत्रकारों के सवाल पर चन्नी ने इसे एक ‘कर्ट्सी कॉल’ बताया। चन्नी ने कहा – ‘मैने 3 बातें उनके सामने रखी हैं। कोई एजेंडा नहीं था, एक कर्ट्सी कॉल थी। एक मौजूदा मुद्दा है कि पंजाब में धान खरीद सीजन शुरू हो रहा है। पहले ऐसा होता था कि पहली अक्टूबर से खरीद शुरू होती थी लेकिन इस बार सरकार ने 11 अक्तूबर से शुरू की है।’

चन्नी ने आगे कहा – ‘पहले कभी भी खरीद की तारीख पोस्टपोन नहीं हुई। हाँ, प्रीपोन जरूर हुई है। प्रधानमंत्री ने हमारी बातों को सुना है और कहा है कि वे इसका हल ढूंढेंगे। मैने प्रधानमंत्री को कहा है कि जो 3 बिल का झगड़ा है इसे खत्म करें। उन्होंने मेरी बात ध्यान से सुनी है और कहा है कि वो भी इसका कोई हल ढूंढना चाहते हैं और इसी दिशा में चल रहे हैं। किसानों से मैने उनको डायलॉग शुरू करने की बात की है क्योंकि डॉयलॉग से ही बात हल होगी। मैने उनसे कहा है कि तीनों बिल खत्म होना चाहिए।’

सीएम ने कहा कि पाकिस्तान-भारत का करतारपुर साहिबकॉरिडोर को लेकर भी उन्होंने पीएम से बात की। ‘मैंने उनसे कहा कि कोविड के कारण कॉरिडोर जाना बंद हुआ है। अब इसे श्रद्धालुओं के लिए खोल देना चाहिए।’

उन्होंने कहा कि इसके अलावा कुछ ऑर्गेनिक खेती पर भी बात हुई है। सीएम और प्रधानमंत्री के बीच बातचीत होती रहनी चाहिए, अच्छे माहौल और अच्छा प्यार होना चाहिए वो उन्होंने मुझे दिया है, इसके लिए उनका धन्यवाद। हालांकि, पत्रकार से बातचीत में चन्नी ने सिद्धू से जुड़े किसी भी सवाल का जवाब नहीं दिया।

ख़बर का असर… मदद मिलते ही हडिय़ा दारू बेचना छोड़ रहीं महिलाएँ

हडिय़ा दारू के धन्धे से जुड़ी झारखण्ड की महिलाओं को दूसरा काम करने के लिए प्रेरित कर रही सरकार

सम्मान से जीने और सम्मानजनक कार्य करने की इच्छा हर किसी की होती है। अगर सही रास्ता मिल जाये और प्रोत्साहित किया जाए, तो सम्मान से जीने का रास्ता अपनाया जा सकता है। समाज से बुराई को दूर किया जा सकता है। इसे झारखण्ड सरकार की एक छोटे से अभियान ने साबित कर दिया है। सरकार की ‘फूलो झानो आशीर्वाद अभियान’ ने महिलाओं को सम्मान दिलाया। महिलाओं के हाथों को काम मिला, तो हडिय़ा दारू का धन्धा पीछे छूट गया। कुछ ही महीनों में आज राज्य की 13,000 से अधिक महिलाएँ हडिय़ा दारू बेचना छोड़ आय वृद्धि के सम्मानजनक काम में लग गयी हैं।

कहते हैं बूँद-बूँद से घड़ा भरता है। इसी तरह एक-एक करके हडिय़ा दारू बेचने वाली महिलाएँ फूलो-झानो आशीर्वाद योजना से जुड़ती जा रही हैं। इससे स्वरोज़गार व अन्य काम करने वाली महिलाओं का एक कारवाँ बनता जा रहा है। अभी तक राज्य में 25,000 से अधिक हडिय़ा दारू बेचने वाली महिलाओं को चिह्नित किया जा चुका है। ग्रामीण विकास विभाग के अधीन झारखण्ड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसायटी ने राज्य में हडिय़ा दारू बेचने वाली महिलाओं का सर्वे कराया। चिह्नित महिलाओं में से 15,546 महिलाओं का सर्वे काम पूरा हो चुका है। अगस्त तक 13,356 महिलाओं को इस योजना के तहत हडिय़ा दारू बेचने का काम छोडक़र अन्य काम से जुड़ चुकी हैं।

बदलने लगी ज़िन्दगी

राज्य में हडिय़ा दारू निर्माण एवं बिक्री से जुड़ी महिलाओं को सम्मानजनक आजीविका उपलब्ध कराने के लिए सरकार ने पहल की। सबसे पहले हडिय़ा दारू बेचने वाली चिह्नित महिलाओं की काउंसलिंग की गयी। उन्हें सखी मण्डल से जोड़ा गया। उन्हें 10,000 रुपये का ब्याज मुक्त लोन उपलब्ध कराया गया। इसके अतिरिक्त राशि सामान्य दर पर उपलब्ध करायी जा रही है। दुकान खोलने या कोई छोटा कारोबार करने, वनोपज संग्रहण, पशु पालन, मछली पालन, बकरी पालन आदि काम इच्छानुसार चुनने की छूट दी गयी। महिलाओं ने जो भी कार्य को चुना, उन्हें तकनीकी सहायता दी गयी और रोज़गार शुरू करवाया गया। इस तरह राज्य की महिलाओं को आत्मनिर्भर और सम्मानजनक रोज़गार करने का अवसर मिला। 10,000 रुपये की छोटी-सी रक़म ने उनका जीवन बदल दिया।

मुख्यमंत्री ने दिखायी दिलचस्पी

फूलो-झानो योजना से जुड़ी महिलाएँ ख़ुश हैं। पिछले दिनों फूलो-झानो योजनाओं को लेकर एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने महिलाओं से संवाद किया। योजना से जुड़ी नयी महिलाओं को 10,000 का चेक भी दिया गया। मुख्यमंत्री ने योजना के धीरे-धीरे हो रही कामयाबी पर ख़ुशी ज़ाहिर की। उन्होंने महिलाओं का हौसला बढ़ाया। सरकार ने दीदी हेल्पलाइन कॉल सेंटर की भी शुरुआत की। इसके तहत झारखण्ड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसायटी से जुड़ी योजनाओं के बारे में जानकारी सिर्फ़ एक कॉल पर उपलब्ध होगी। राज्य में जिन 13,356 हडिय़ा दारू बेचने वाली महिलाओं को अब तक सहायता मिली है, उनमें दुमका ज़िला अव्वल है। यहाँ पर 2,475 हडिय़ा दारू बेचने वाली महिलाओं को चिह्नित किया गया है। इनमें से 1,342 महिलाओं को सहायता मिल चुकी है; शेष के लिए प्रक्रिया जारी है। इसी तरह लोहरदगा की 1351 महिलाओं और गुमला की 1329 महिलाओं को लाभ मिला है। राज्य के हर ज़िले में अभियान चलाया जा रहा है।

महिलाएँ हुईं ख़ुश

खूँटी की कर्रा प्रखण्ड के छाता गाँव की रहने वाली अनिमा अपने जीवनयापन के लिए हाट-बाज़ार में दारू बनाकर बेचने के काम करती थीं। थोड़ी-बहुत पढ़ी-लिखी होने के बावजूद अवसरों के अभाव में अपनी शिक्षा का सही उपयोग नहीं कर पा रही थीं। फूलो-झानो आशीर्वाद अभियान के तहत अनिमा को 10,000 रुपये की सहायता राशि प्राप्त हुई। अनिमा ने प्राप्त राशि और अपनी जमा पूँजी की मदद से 9,000 रुपये का स्मार्ट फोन और अन्य सामान ख़रीदा। सरकारी मदद से तकनीकी जानकारी ली। बैंक लेन-देन व सुविधाओं की जानकारी ली और पूरी पंचायत में लोगों को घर बैठे (डोर-स्टेप पर) बैंक सम्बन्धी सेवाएँ देने लगीं। अब वह हर दिन 200 से 250 रुपये कमा रही हैं। यह केवल अनिमा की कहानी है। अनिमा की तरह ही बोकारो की रहने वाली अंजू देवी ने बताया कि जिस बाज़ार में पहले वह हडिय़ा दारू बेचती थीं, वहीं एक छोटी से चाय-नाश्ते की दुकान खोल ली है।

इसी तरह की कहानी लातेहार की कौशल्या देवी की है, जिन्होंने मुर्ग़ी पालन का काम शुरू किया है। वहीं देवघर की रूपा देवी ने घर के पास ही सब्ज़ी उपजाकर उसका कारोबार शुरू कर दिया है। इतना ही नहीं ये महिलाएँ हडिय़ा दारू बेचने वाली अन्य महिलाओं को सरकारी सहायता से दूसरा काम शुरू करने के लिए प्रेरित कर रही हैं। कौशल्या ने बताया कि उन्होंने अब तक अपनी परिचित 10 महिलाओं को प्रेरित कर हडिय़ा दारू बेचने के काम को छुड़वाया है।

हडिय़ा दारू बेचने की मजबूरी क्यों?

राज्य में हडिय़ा दारू आम बात रही है। गाँव, क़स्बों से लेकर शहरों तक में यह खुलेआम सडक़ किनारे बिकती है। चूँकि हडिय़ा आदिवासियों की परम्परा और सांस्कृतिक विरासत का एक हिस्सा है। राज्य के आदिवासी समाज में हडिय़ा में बनी दारू, जो पहले दवा ही थी; को एक पारम्परिक पेय पदार्थ माना जाता है। आदिवासियों ने हडिय़ा के मूल रूप में पोषण का ध्यान रखा है। पारम्परिक रूप से जो हडिय़ा पेय तैयार किया जाता है, वह स्वास्थ्य के लिए अच्छा भले ही होता है; लेकिन आख़िर है तो नशा ही। पहले इसे खेती या मेहनत का काम करने वालों की रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्युनिटी) बढ़ाने के लिए लोग सेवन किया करते थे। यह पीलिया, डायरिया, ब्लड प्रेशर, डिहाइड्रेशन जैसी कई बीमारियों को ठीक करने वाली एक औषधि रही है। आदिवासी परम्परा में केवल हडिय़ा शब्द ही है। कालांतर में हडिय़ा का प्रयोग नशे के लिए होने लगा। इसे व्यावसायिक रूप देने के लिए जड़ी-बूटी की जगह स्प्रिंट, यूरिया और अन्य नशे का सामान मिलाया जाने लगा है। इसके अलावा नशे के लिए अधिक मात्रा में धतूरा व अन्य जंगली फल-फूलों का इसमें इस्तेमाल होने लगा और जड़ी-बूटी की मात्रा कम होती गयी। तब इस शब्द के साथ दारू जुड़ गया। अब हडिय़ा दारू शब्द प्रचलन में आ गया है। इसे तैयार करना बहुत आसान है। यह ग्रामीण महिलाओं के लिए रोज़गार का एक बड़ा साधन है। ग़रीब महिलाएँ अपना परिवार चलाने के लिए इस व्यवसाय से जुड़ गयीं। रोज़गार के लिए छोटे-छोटे स्तर पर हडिय़ा तैयार करने लगीं। राज्य में खुले रूप से ज़्यादातर जगहों पर हडिय़ा दारू महिलाएँ ही बेचती हुई नज़र आती हैं। जो छोटे स्तर पर थोड़ा पारम्परिक और थोड़ा नया स्वरूप देकर अपने ही घर में हडिय़ा तैयार करके बेचती हैं। पहले कोई दूसरा रोज़गार न होने के चलते ये महिलाएँ हडिय़ा दारू बेचने का काम करती रही हैं, जिनमें से कुछ अब सरकारी मदद से इससे दूर हो रही हैं। लेकिन अभी भी बहुत-सी महिलाएँ हडिय़ा दारू बेच रही हैं। उन्हें चिह्नित भी किया जा रहा है। हालाँकि महिलाओं को यह काम पसन्द नहीं है और वह कोई अन्य काम चाहती हैं। आर्थिक रूप से कमज़ोर होने कारण उन्हें रास्ता नहीं मिल रहा था। अब सरकार की मदद से उन्होंने नयी सम्मानजनक मंज़िल तलाश कर ली है। लेकिन सवाल यह है कि क्या राज्य में पूरी तरह से हडिय़ा दारू की बिक्री बन्द हो सकेगी?

तहलका ने उठाया था मुद्दा

‘तहलका’ ने अपने 15 फरवरी के अंक में ‘झारखण्ड में हडिय़ा दारू : क़ानूनन अवैध, लेकिन परम्परा में वैध’ शीर्षक से स्टोरी प्रकाशित की थी। झारखण्ड सरकार के अधिकारियों ने क़ुबूल किया था कि क़ानूनी रूप से हडिय़ा दारू पर पाबन्दी लगाना सम्भव नहीं है। यह झारखण्ड की परम्परा में शामिल है। इसे जागरूकता के ज़रिये ही कम किया जा सकता है। सरकार ने इसके लिए फूलो-झानो आशीर्वाद अभियान शुरू किया है, जिसका बेहतर परिणाम दिखने लगा है। सरकार के इस अभियान से अब एक-के-बाद एक ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएँ जुड़ती जा रही हैं। जिन महिलाओं के हाथ हडिय़ा दारू बनाने और बेचने के लिए उठते थे, उनके हाथ अब स्वरोज़गार व अन्य कामों के लिए उठ रहे हैं।

ख़तरे के मुहाने पर दुनिया

डराने वाली है जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी की रिपोर्ट

मानव के लालच ने दुनिया को ख़तरे के किस ढेर पर लाकर बैठाया है, इसका संकेत जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट से मिलता है। रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि आने वाला समय जीव, जगत के लिए कितना विनाशकारी सिद्ध होने वाला है। पिछले चार-पाँच दशक में प्राकृतिक संसाधनों का जिस स्तर पर दोहन किया गया है, उसने ख़ुद हमारे लिए स्थिति विकराल कर दी है। तापमान बढऩे से हमारी दुश्वारियाँ भी बढऩे वाली हैं। सबसे ज़्यादा चिन्ताजनक बात यह है कि ये परिवर्तन अनुमानित समय से कहीं पहले ही हो रहे हैं। ऐसी ही तमाम स्थितियों और ख़तरों को लेकर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) पर संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट मानव सहित जीव जगत के लिए डराने वाली है। सन् 2013 के बाद यह पहली रिपोर्ट है, जिसमें जलवायु परिवर्तन से जुड़े विज्ञान का व्यापक तौर पर विश्लेषण किया गया है। इसमें कहा गया है कि पृथ्वी की औसत सतह का तापमान साल 2030 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा और यह बढ़ोतरी पूर्वानुमान से एक दशक पहले ही होने जा रही है, जो बहुत चिन्ताजनक है। रिपोर्ट जारी होने के बाद संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा कि आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप-1 रिपोर्ट मानवता के लिए एक कोड रेड है। दुनिया के कई बड़े कार्बन उत्सर्जक देश घोषणा कर चुके हैं कि साल 2050 तक वो कार्बन के मामले में न्यूट्रल हो जाएँगे; यहाँ तक कि चीन ने साल 2060 तक के लिए अन्तिम तिथि तय कर दी है। वहीं भारत ने कहा है कि वह सन् 2005 के स्तर के हिसाब से 2030 तक 33-35 फ़ीसदी कार्बन उत्सर्जन कम करेगा। आईपीसीसी की यह छठी मूल्यांकन रिपोर्ट (एआर-6) का पहला हिस्सा है और इसके बाक़ी दो हिस्से अगले साल जारी किये जाएँगे।

रिपोर्ट के आधार पर संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि भूमंडलीय ऊष्मीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) बहुत तेज़ी से हो रहा है और इसके लिए साफ़तौर पर मानव जाति ही ज़िम्मेदार है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बढ़ते तापमान से दुनिया भर में मौसम से जुड़ी भयंकर आपदाएँ आएँगी। दुनिया पहले ही बर्फ़ की चादरों के पिघलने, समुद्र के बढ़ते स्तर और बढ़ते अम्लीकरण में अपरिवर्तनीय बदलाव झेल रही है। रिपोर्ट के मुताबिक, वायुमण्डल को गर्म करने वाली गैसों का उत्सर्जन जिस तरह से जारी है, उसकी वजह से सिर्फ़ दो दशक में ही तापमान की सीमाएँ टूट चुकी हैं। आईपीसीसी के इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं का मानना है कि मौज़ूदा हालात को देखते हुए यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि इस शताब्दी के अन्त तक समुद्र का जलस्तर लगभग दो मीटर तक बढ़ सकता है। पैनल के शोधकर्ताओं का नेतृत्व करने वाली वैलेरी मैसन-डेलोमोट ने रिपोर्ट में कहा है कि कुछ बदलाव सौ या हज़ारों वर्षों तक जारी रहेंगे। इन्हें केवल उत्सर्जन में कमी से ही धीमा किया जा सकता है।

यह रिपोर्ट आने वाले महीनों में सिलसिलेवार आने वाली कई रिपोट्र्स की पहली कड़ी है, जो ग्लासगो में होने वाले जलवायु सम्मेलन (सीओपी-26) के लिए अहम रहेगी। यह शिखर सम्मलेन नवंबर के पहले पखवाड़े में होना है। रिपोर्ट में कहा गया है कि वार्मिंग गैसों के उत्सर्जन से एक दशक से भी अधिक समय में तापमान की एक महत्त्वपूर्ण सीमा टूट सकती है। संयुक्त राष्ट्र के वैज्ञानिकों ने ऐतिहासिक अध्ययन में कहा है कि जलवायु पर मानवता का हानिकारक प्रभाव हुआ है। मतलब, मानव जाति के लालच को ही जलवायु परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार बताया गया है। इसमें साफ़ कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन से धरती पर मँडरा रहा ख़तरा और भी ज़्यादा विनाशकारी होने वाला है। बता दें कि संयुक्त राष्ट्र के आईपीसीसी की इस रिपोर्ट से क़रीब आठ साल पहले की रिपोर्ट में भी जलवायु परिवर्तन के वैश्विक संकट से दुनिया को आगाह किया गया था। लेकिन नयी रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि त्रासदी दरवाज़े के सामने खड़ी है। यह भी ज़ाहिर होता है कि विशेषज्ञों की रिपोट्र्स में जो चेतावनियाँ दीं, उन पर कोई अमल नहीं हुआ और इंसान ने प्रकृति से खिलवाड़ जारी रखा है।

कार्बन उत्सर्जन के मामले में चीन और अमेरिका के बाद भारत तीसरे स्थान पर है। वह यह भी कह चुका है कि वह पेरिस जलवायु समझौते के अपने वादे को पूरा करने की दिशा में अग्रसर है। लेकिन आईपीसीसी की रिपोर्ट संकेत देती है कि उसका पिछला लक्ष्य पूरा होता नहीं दिख रहा है। भारत ही नहीं, वैश्विक तापमान बढऩे की दिशा में दुनिया के कई देश तेज़ी से कार्बन उत्सर्जन को कम नहीं कर पा रहे हैं।

आईपीसीसी की रिपोर्ट में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश भारत को जलवायु ख़तरे की सन् 2019 की सूची में सातवें पायदान पर रखा गया है, जिसे वह नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता है। संयुक्त राष्ट्र के जलवायु विज्ञान संगठन की इस छठी मूल्यांकन रिपोर्ट में बेहद गम्भीर परिणाम पाये गये हैं, जो बताते हैं कि हमारी पृथ्वी की पर्यावरण प्रणाली ने लगातार होते जलवायु परिवर्तन के कारण पहले ही न ठीक होने वाले परिवर्तन देख लिये हैं।

ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन

यूएनईपी उत्सर्जन गैस रिपोर्ट-2020 ज़ाहिर करती है कि जलवायु संकट को कम करने के लिए कठोर और सख़्त कार्रवाई की ज़रूरत है। इसके मुताबिक, दुनिया अभी भी 21वीं सदी के आख़िर तक तीन डिग्री सेल्सियस से अधिक के तापमान में वृद्धि की ओर बढ़ रही है।

दरअसल शहर पृथ्वी की सतह के केवल दो फ़ीसदी हिस्से को कवर करते हैं, जो जलवायु संकट को बढ़ाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन वर्तमान शहरी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने का लक्ष्य इस सदी के अन्त तक वैश्विक जलवायु परिवर्तन के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए काफ़ी नहीं है। आजकल दुनिया भर की आबादी की 50 फ़ीसदी से अधिक आबादी शहरों में रहती है।

डाउन टू अर्थ की जुलाई की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) की पहली बैलेंस शीट (संतुलन पत्र) प्रस्तुत की गयी थी। इसका उद्देश्य दुनिया भर के 167 अलग-अलग शहरों में ग्रीनहाउस गैसों पर लगाम कसने की कोशिशों के असर को देखना था। रिपोर्ट के मुताबिक, छ: साल पहले दुनिया भर के 170 देशों ने पेरिस समझौते को अपनाया था। इसमें रखे गये लक्ष्य में औसत वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना था। समझौते के बाद कई देशों और शहरों ने ग्रीनहाउस गैसों पर लगाम कसने के लिए लक्ष्य रखे।

रिपोट्र्स के मुताबिक, दुनिया के 167 शहरों में से सबसे ऊपर 25 देश, जो कि कुल का 15 फ़ीसदी हैं; सारे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का 52 फ़ीसदी उत्सर्जित करते हैं। इनमें मुख्य रूप से एशिया के देशों, जैसे- चीन के हैंडन, शंघाई और सूजौ, जापान के टोक्यो और यूरोपीय संघ के देशों में रूस के मास्को तथा तुर्की के इस्तांबुल आदि शामिल हैं। डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट बताती है कि चीन, जो विकासशील देशों की श्रेणी में वर्गीकृत है; में भी ऐसे शहर थे, जहाँ प्रति व्यक्ति उत्सर्जन विकसित देशों के बराबर था। यह बहुत अहम बात है कि कई विकसित देश चीन को उच्च कार्बन उत्पादन शृंखलाओं की भूमिका से जोड़ते हैं।

जर्नल फ्रंटियर्स इन सस्टेनेबल सिटीज के एक अध्ययन के मुताबिक, शोधकर्ताओं ने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोतों की भी पहचान की है। इसके अलावा अध्ययन में सामने आया कि 30 शहरों में सन् 2012 से सन् 2016 के बीच उत्सर्जन में कमी आयी थी। प्रति व्यक्ति सबसे बड़ी कमी वाले शीर्ष चार शहर- ओस्लो, ह्यूस्टन, सिएटल और बोगोटा थे। प्रति व्यक्ति उत्सर्जन में सबसे अधिक वृद्धि वाले शीर्ष चार शहर- रियो डी जनेरियो, कूर्टिबा, जोहान्सबर्ग और वेनिस थे।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 167 शहरों में से 113 ने विभिन्न प्रकार के जीएचजी उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य निर्धारित किये हैं, जबकि 40 ने कार्बन को शून्य करने के लक्ष्य निर्धारित किये हैं। लेकिन यह अध्ययन कई अन्य रिपोट्र्स और शोधों से जुड़ता है, जो बताते हैं कि हम पेरिस समझौते द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने से बहुत दूर हैं।

क्या है आईपीसीसी?

जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी का गठन विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने सन् 1988 में किया था। वैसे आईपीसीसी ख़ुद वैज्ञानिक अनुसंधान में शामिल नहीं होता और दुनिया भर के वैज्ञानिकों को साथ जोडक़र जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित सभी ज़रूरी वैज्ञानिक जानकारियाँ पढऩे और तार्किक निष्कर्ष निकालने का आह्वान करता है।

इसकी रिपोर्ट पृथ्वी की जलवायु स्थिति का सबसे व्यापक वैज्ञानिक मूल्यांकन माना जाता है। वर्तमान रिपोर्ट को मिलाकर आईपीसीसी ने अब तक छ: रिपोट्र्स दी हैं और इनके निष्कर्ष कमोवेश सही निकले हैं। हालाँकि इन पर विभिन्न देशों की सरकारों ने उस स्तर पर ख़तरे से बचने के उपाय नहीं किये हैं। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के 195 सदस्यीय अंतर-सरकारी पैनल में भारत भी एक सदस्य है, जिसने हाल में छठी मूल्यांकन रिपोर्ट जारी की है। आईपीसीसी ने पहली रिपोर्ट सन् 1990 में जारी की थी। इसकी रिपोट्र्स दुनिया भर के लिए पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में मार्गदर्शक का काम करती हैं।

आईपीसीसी की रिपोर्ट तीन वैज्ञानिक वर्क ग्रुप्स (एसडब्ल्यूजी) तैयार करते हैं, जिनमें से ग्रुप-1 की रिपोर्ट जारी हुई है। यह ग्रुप जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक आधार से सम्बन्धित हिस्से पर काम करता है; जबकि दूसरा वर्किंग ग्रुप सम्भावित प्रभावों, कमज़ोरियों और अनुकूलन के मुद्दों को देखता है। तीसरे ग्रुप के ज़िम्मे वे कार्यवाहियाँ हैं, जो जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए की जा सकती हैं।

आज तक दुनिया भर में अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रमों, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जो भी कार्य योजना (एक्शन प्लान) तैयार की गयी है, वह आईपीसीसी की रिपोट्र्स पर आधारित रही है। जैसे सन् 1990 में आईपीसीसी ने अपनी पहली रिपोर्ट में ही कार्बन उत्सर्जन से वायुमण्डल में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में जबरदस्त बढ़ोतरी को लेकर चेताया था। रिपोर्ट में इसके लिए इंसानी गतिविधियों को ज़िम्मेदार ठहराया गया था।

रिपोर्ट में साफ़ कहा गया था कि दुनिया का तापमान और समुद्र का स्तर तेज़ी से बढ़ रहा है। इस रिपोर्ट का महत्त्व इससे ज़ाहिर हो जाता है कि इसे चिन्ताजनक मानते हुए सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन की बैठकों का मुख्य एजेंडा बनाया था।

दिलचस्प बात यह है कि आईपीसीसी की दूसरी, तीसरी, चौथी और पाँचवीं रिपोट्र्स में भी वायुमण्डल का तापमान बढऩे के ख़तरे के प्रति दुनिया को सचेत किया था। इन रिपोट्र्स में तापमान बढऩे का आँकड़ा और चिन्ताजनक हो गया था। चौथी रिपोर्ट में तो यह भी बताया गया था कि सन् 1970 और सन् 2004 के बीच ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 70 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई। सन् 1997 में आईपीसीसी की रिपोर्ट क्योटो प्रोटोकॉल के लिए वैज्ञानिक आधार बनायी गयी थी। इन रिपोट्र्स में तथ्यों के साथ यह बताया गया था कि मानव इन ख़तरों के पैदा होने के लिए सबसे बड़ा ज़िम्मेदार है।

तीसरी आकलन रिपोर्ट में भविष्यवाणी की गयी थी कि साल 2100 तक समुद्र का स्तर सन् 1990 के स्तर से 80 सेंटीमीटर तक बढ़ सकता है। आईपीसीसी की रिपोर्ट को तब दुनिया भर में बड़ी स्वीकृति मिली, जब चौथी रिपोर्ट को सन् 2007 का नोबेल शान्ति पुरस्कार मिला। सन् 2009 में कोपेनहेगन जलवायु बैठक के लिए भी इसी रिपोर्ट को वैज्ञानिक आधार बनाया गया।

आज से छ: साल पहले पाँचवीं आकलन रिपोर्ट में आईपीसीसी ने साफ़तौर पर कहा कि साल 2100 तक वैश्विक तापमान में अभूतपूर्व वृद्धि से धरती पर प्रजातियों का बड़ा हिस्सा विलुप्त होने का ख़तरा झेल रहा होगा। इस रिपोर्ट में खाने की चीज़ें की कमी होने का भी ज़िक्र था। पेरिस समझौते (2015) का एजेंडा इसी रिपोर्ट के आधार पर तय हुआ था। दिलचस्प यह हुआ कि उस समय डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका की सत्ता सँभाल चुके थे और उन्होंने इस रिपोर्ट से अमेरिका को अलग कर लिया था। हालाँकि जो बाइडन ने ट्रंप के फ़ैसले को पलटते हुए समझौते से अमेरिका को फिर जोड़ दिया।

अब आईपीसी की छठी रिपोर्ट सामने आ गयी है, जिसमें बाक़ायदा तथ्यों के साथ भविष्य के ख़तरों के प्रति सचेत किया गया है। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि सरकारों के लिए उत्सर्जन कटौती को लेकर यह रिपोर्ट गम्भीर स्तर की चेतावनी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि उन्होंने पिछली रिपोर्ट से भी बहुत कुछ सीखा है। हाल के वर्षों में दुनिया ने रिकॉर्ड तोड़ तापमान, जंगलों में आग लगने और विनाशकारी बाढ़ की दर्जनों भयावह घटनाएँ झेली हैं। रिपोर्ट का सार यही है कि मानव ने अपने तात्कालिक लाभ के लिए पर्यावरण का जैसा बँटाधार किया है और उससे जो विनाशकारी परिवर्तन सामने आये हैं, उन्हें आने वाले हज़ारों साल में भी वापस पुरानी स्थिति में नहीं लाया जा सकता है।

 

क्या कहती है रिपोर्ट?

रिपोर्ट का लब्बोलुआब यह है कि औद्योगिक-काल के पहले के समय से हुई तापमान वृद्धि कार्बन डाई ऑक्साइड और मीथेन जैसी गर्मी को सोखने वाली गैसों के उत्सर्जन से हुई। इसमें से अधिकतर उत्सर्जन कोयला, तेल, लकड़ी और प्राकृतिक गैस जैसे जीवाश्म ईंधन जलाये जाने के कारण हुए हैं। वैज्ञानिकों ने कहा कि 19वीं सदी से दर्ज किये जा रहे तापमान में हुई वृद्धि में प्राकृतिक वजहों का योगदान बहुत-ही थोड़ा है। ग़ौर करने वाली बात यह है कि पिछली रिपोर्ट में इसके पीछे इंसानी गतिविधियों के ज़िम्मेदार होने की सम्भावना जतायी गयी थी, जबकि इस बार इसे ही सबसे बड़ा कारण माना गया है।

यह सब स्थितियाँ तब बन रही हैं, जब सन् 2015 में 198 देशों ने ऐतिहासिक पेरिस जलवायु समझौते पर दस्तख़त किये थे। इस समझौते का उद्देश्य वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस (3.6 डिग्री फारेनहाइट) से कम रखना था, जो पूर्व औद्योगिक समय की तुलना में सदी के अन्त तक 1.5 डिग्री सेल्सियस (2.7 फारेनहाइट) से अधिक न हो। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। रिपोर्ट में ज़्यादातर शोधार्थियों ने पाँच परिदृश्यों पर ध्यान केंद्रित किया है।

रिपोर्ट के मुताबिक, किसी भी सूरत में दुनिया साल 2030 के दशक में 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान की बढ़ोतरी के आँकड़े को पार कर लेगी। इसमें चिन्ता का सबसे बड़ा कारक यह है कि तापमान की यह वृद्धि पूर्वानुमान से एक दशक पहले ही घटित हो रही है। उन परिदृश्यों में से तीन परिदृश्यों में पूर्व औद्योगिक समय के औसत तापमान से दो डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा की वृद्धि दर्ज की जाएगी।

यह रिपोर्ट काफ़ी विस्तृत है और 3,000 पृष्ठों में है। इसे 234 वैज्ञानिकों / शोधार्थियों ने तैयार किया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि तापमान से समुद्र का स्तर बढ़ रहा है। उधर बर्फ़ का दायरा सिकुड़ रहा है। भयंकर लू, सूखा, बाढ़ और तूफ़ान आने की घटनाएँ बढ़ रही हैं। उष्णकटिबंधीय चक्रवात और मज़बूत तथा बारिश वाले हो रहे हैं, जबकि आर्कटिक महासागर में गर्मियों में बर्फ़ पिघल रही है और इस क्षेत्र में हमेशा जमी रहने वाली बर्फ़ का दायरा घट रहा है।

रिपोर्ट के मुताबिक, वर्तमान स्थिति में यह सब स्थितियाँ और ख़राब होती जाएँगी। शोधार्थियों के मुताबिक, इंसानों द्वारा वायुमण्डल में उत्सर्जित की जा चुकी हरित गैसों के कारण तापमान निर्धारित (लॉक्ड इन) हो चुका है। इसके मायने हैं- ‘यदि उत्सर्जन में नाटकीय रूप से कमी आ भी जाए, तो भी कुछ बदलावों को सदियों तक पलटा नहीं जा सकेगा।’

रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने का वक़्त हाथ से निकल चुका है। आईपीसीसी की रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2100 तक दुनिया का तापमान काफ़ी बढ़ जाएगा। भविष्य में लोगों को प्रचण्ड गर्मी का सामना करना पड़ेगा। कार्बन उत्सर्जन और प्रदूषण नहीं रोका गया, तो तापमान में औसत 4.4 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होगी। अगले दो दशक में तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा। जब इस तेज़ी से पारा चढ़ेगा, तो ग्लेशियर भी पिघलेंगे, जिनका पानी मैदानी और समुद्री इलाकों में तबाही लेकर आएगा।

 

दावा : डूब जाएँगे भारत के 12 शहर!

हाल में हिमाचल के किन्नौर में पहाड़ दरकने की घटना हो या फरवरी में उत्तराखण्ड के चमोली में आयी आपदा। सुपर साइक्लोन ताउते और यास हों और देश के कुछ हिस्सों में हो रही जबरदस्त बारिश। भारत जलवायु से सम्बन्धित जोखिमों का सामना कर रहा है। आईपीसीसी की रिपोर्ट कहती है कि भारत दुनिया के 10 में से छ: सबसे प्रदूषित शहरों का घर है। यही नहीं, भारत लगातार वायु प्रदूषण से जूझ रहा है। सन् 2019 में वायु प्रदूषण के चलते देश में 1.67 मिलियन लोगों का जीवन दाँव पर लगा है। इसकी चपेट में सबसे ज़्यादा ग़रीब, मेहनतकश और शहरों में रोज़ी-रोटी कमाने वाले हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक, दूसरी तरफ़ यह वैश्विक स्तर पर दुनिया का तीसरा सबसे अधिक मीथेन उत्सर्जित करने वाला देश है। इन दोनों प्रदूषकों पर लगाम कसने की चुनौती हमारे सामने खड़ी है। विशेषज्ञों के अनुसार, ग्लोबल वार्मिंग 1.5 डिग्री सेल्सियस तक जाने पर भारत के मैदानी इलाकों में तपिश, अत्यधिक गर्मी और जानलेवा आसमान से बरसती आग जैसी मौसम की मार वाली घटनाएँ में इज़ाफ़ा होना तय है।

विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि अगले 10 साल में जानलेवा गर्मी की घटनाओं में बढ़ोतरी से निपटने के लिए भारतीयों को कमर कस लेनी चाहिए। इनमें 10 वर्ष में 5 गुना तक इज़ाफ़ा मुमकिन है। अगर ग्लोबल वार्मिंग 2 डिग्री सेल्सियस तक होती है, तो देश के अधिकांश मैदानी हिस्सों में तपती गर्मी के चलते जीना दूभर हो जाएगा। रिपोर्ट के मुताबिक, क़रीब 80 साल बाद यानी साल 2100 तक भारत के 12 तटीय शहर समुद्री जलस्तर बढऩे से क़रीब तीन फीट पानी में चले जाएँगे। ओखा, मोरमुगाओ, कांडला, भावनगर, मुम्बई, बेंगलूरु, चेन्नई, तूतीकोरिन (तूतुकुड़ी) और कोच्चि, पारादीप के तटीय इलाक़े छोटे हो जाएँगे। ऐसे में भविष्य में तटीय इलाकों में रह रहे लोगों को सुरक्षित स्थानों पर जाना पड़ेगा। पश्चिम बंगाल का किडरोपोर इलाक़ा, जहाँ पिछले साल तक समुद्री जलस्तर के बढऩे का कोई ख़तरा महसूस नहीं हो रहा है; वहाँ पर भी साल 2100 तक आधा फीट पानी बढ़ जाएगा।

अध्ययन कहता है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते यदि समुद्र का स्तर 50 सेंटीमीटर बढ़ जाता है, तो छ: भारतीय बंदरगाह शहरों चेन्नई, कोच्चि, कोलकाता, मुम्बई, सूरत और विशाखापत्तनम में 28.6 मिलियन लोग तटीय बाढ़ की चपेट में आ जाएँगे। इस बाढ़ के सम्पर्क में आने वाली सम्पत्ति क़रीब 4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की होगी। भारत के वे क्षेत्र, जो समुद्र के स्तर से नीचे होंगे; क्योंकि समुद्र के स्तर में एक मीटर की वृद्धि होगी।

यही नहीं, भारत में वार्षिक औसत वर्षा में वृद्धि का अनुमान है। वर्षा में वृद्धि से भारत के दक्षिणी भागों में अधिक गम्भीर होगी। दक्षिण-पश्चिमी तट पर सन् 1850 से सन् 1900 के सापेक्ष वर्षा में क़रीब 20 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है। यदि हम अपने ग्रह (पृथ्वी) को 4 डिग्री सेल्सियस तक गर्म करते हैं, तो भारत में सालाना वर्षा में क़रीब 40 फ़ीसदी की वृद्धि देखी जा सकती है। ऐसे में अत्यधिक वर्षा जल और बाढ़ से बचने का बंदोबस्त हमारे सामने एक बड़ी चुनौती होगी। क़रीब 7,517 किलोमीटर समुद्र तट के साथ भारत को बढ़ते समुद्री जलस्तर का सामना करना पड़ेगा।

भारत में हिन्दू कुश हिमालय क्षेत्र में (बर्फ़ीले क्षेत्र में) रहने वाले 240 मिलियन लोगों के लिए एक महत्त्वपूर्ण जलापूर्ति है, जिसमें 86 मिलियन भारतीय शामिल हैं; जो संयुक्त रूप से देश के पाँच सबसे बड़े शहरों के बराबर है। पश्चिमी हिमालय के लाहुल-स्पीति (हिमाचल) क्षेत्र में 21वीं सदी की शुरुआत से बड़े पैमाने पर हिमनदियों (ग्लेशियर) को खो रहे हैं। यदि उत्सर्जन में गिरावट नहीं होती है, तो हिन्दू कुश हिमालय में ग्लेशियरों में दो-तिहाई की गिरावट आएगी। ख़ुद भारत सरकार ने पिछले साल जलवायु परिवर्तन के आकलन पर अपनी पहली रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इसमें कहा गया है कि देश में सन् 1951 से सन् 2016 के कालखण्ड में सूखे की गति और तीव्रता तेज़ी से बढ़ी है। रिपोर्ट में गम्भीर चेतावनी दी गयी थी कि सदी के अन्त तक लू का स्तर चार गुना तीव्र हो जाएगा।

यह ख़तरे वल्र्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट की सन् 2019 की वैश्विक रिपोर्ट से मेल खाते हैं, जिसमें कहा गया था कि भारत उन 17 देशों में से एक है, जहाँ पानी को लेकर दबाव बहुत ज़्यादा है। इसमें दिखाया गया है कि भारत मध्य, पूर्व और उत्तरी अफरीका के उन देशों के साथ इस सूची में है, जहाँ भूजल और सतह का जल ख़त्म हो रहा है। भारत सरकार स्वीकार कर चुकी है कि बीते दो दशक में देश में बाढ़ की ज़द में आने वाले इलाकों में बड़ी बढ़ोतरी हुई है।

सीओपी 26 के अध्यक्ष आलोक शर्मा कहते हैं- ‘यदि भारत अब भी कोई क़दम नहीं उठाता है और कार्रवाई नहीं करता है; तो हमारे सामने जीवन, आजीविका और प्राकृतिक आवासों पर सबसे ख़राब प्रभाव की भीषणता खड़ी होगी। आने वाला दशक निर्णायक है और हमें विज्ञान का अनुसरण करते हुए 1.5 डिग्री के लक्ष्य को जीवित रखने के लिए अपनी ज़िम्मेदारी स्वीकार करनी होगी। साल 2030 एमिशन रिडक्शन लक्ष्यों और सदी के मध्य तक नेट ज़ीरो के मार्ग के साथ दीर्घकालिक रणनीतियों के साथ आगे बढक़र और कोयला बिजली को समाप्त करने के लिए अभी से कार्रवाई करके इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग में तेज़ी लाकर वनों की कटाई रोककर और मीथेन उत्सर्जन को कम करके ही हम संकट को टाल सकते हैं।’

रिपोट्र्स कहती हैं कि हिमालयी क्षेत्र में बर्फ़ की नदियों के बार-बार फटने से निचले तटीय क्षेत्रों में बाढ़ के अलावा अन्य कई बुरे प्रभावों का सामना करना पड़ेगा। देश में अगले कुछ दशक में सालाना औसत बारिश में इज़ाफ़ा होगा, ख़ासकर दक्षिणी प्रदेशों में हर साल घनघोर बारिश हो सकती है।

भारत में समुद्री प्रदूषण भी एक बड़े ख़तरे के रूप में हमारे सामने आ रहा है। समुद्र का धरती पर 71 फ़ीसदी हिस्सा है, जिससे 70 फ़ीसदी ऑक्सीजन का उत्पादन होता है। यह सूर्य के नीचे सभी प्राणियों के लिए साँस लेने के लिए ज़रूरी है। समुद्र कई प्रकार की दुर्लभ प्रजातियों का एक जल अभयारण्य है, जो अब विकट प्रदूषण के ख़तरे का सामना कर रहा है। यह न केवल समुद्री जीवों के जीवन को, बल्कि मानव जीवन को भी ख़तरे में डाल देगा। पिछले दिनों समुद्र ने मुम्बई में कई टन कचरा वापस फेंक दिया था। विशेषज्ञों के मुताबिक, तमिलनाडु जैसे तटीय क्षेत्रों में हो रहे परिवर्तन ख़तरे के संकेत कर रहे हैं।

 

रिपोर्ट के सकारात्मक पहलू

रिपोर्ट के कई पूर्वानुमान पृथ्वी पर इंसानों के प्रभाव और आगे आने वाले परिणाम को लेकर गम्भीर चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं; लेकिन आईपीसीसी को कुछ हौसला बढ़ाने वाले संकेत भी मिले हैं। इनमें पहला यह है कि विनाशकारी बर्फ़ की चादर के ढहने और समुद्र के बहाव में अचानक कमी जैसी घटनाओं की कम सम्भावना है। हालाँकि इन्हें पूरी तरह ख़ारिज नहीं किया जा सकता। आईपीसीसी सरकार और संगठनों द्वारा स्वतंत्र विशेषज्ञों की समिति जलवायु परिवर्तन पर श्रेष्ठ सम्भव वैज्ञानिक सहमति प्रदान करने के उद्देश्य से बनायी गयी है। यह वैज्ञानिक वैश्विक तापमान में वृद्धि से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर समय-समय पर रिपोर्ट देते रहते हैं, जो आगे की दिशा निर्धारित करने में अहम होती है।

ख़तरा बढ़ा, बजट घटा

ऐसी स्थिति में जब हम पर्यावरण से जुड़े गम्भीर संकट से दो-चार हैं, केंद्रीय बजट 2021-22 में पर्यावरण मंत्रालय को दी जाने वाली राशि घटा दी गयी। इस वर्ष मंत्रालय के लिए आवंटित कुल बजट 2,869.93 करोड़ रुपये है, जबकि पिछले साल यह 3,100 करोड़ रुपये था। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कितनी राशि आवंटित की गयी है, इसका ज़िक्र भी बजट में नहीं किया गया है। काफ़ी विशेषज्ञों ने कहा है कि यह किसी भी सूरत में ‘ग्रीन बजट’ नहीं कहा सकता है। सरकार ने भले ने 42 शहरी क्षेत्रों में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए अलग से 2,217 करोड़ रुपये की राशि रखी है। हालाँकि सबसे अहम माने जाने वाली जलवायु परिवर्तन कार्य योजना में राशि को 10 करोड़ रुपये घटा दिया गया है।

 

आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप की पहली रिपोर्ट मानवता के लिए ख़तरे का संकेत है। मिल-जुलकर जलवायु त्रासदी को टाला जा सकता है। लेकिन ये रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि इसमें देरी की गुंजाइश नहीं है और अब कोई बहाना बनाने से भी काम नहीं चलेगा। विभिन्न देशों के नेताओं और तमाम पक्षकारों को आगामी जलवायु शिखर सम्मेलन (सीओपी 26) को सफल बनाने में जुट जाना चाहिए।

एंटोनियो गुटरेस

संयुक्त राष्ट्र महासचिव

 

रिपोर्ट की प्रमुख बातें

 पहले हर 50 साल में भीषण गर्मी (हीट वेव) का जो दौर एक बार आता था, वह वर्तमान में हर 10 साल में आना शुरू हो गया है। यही नहीं, बारिश और सूखा भी अब हर दशक के हिसाब से प्रभाव डाल रहा है।

 अगले 20 साल में वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री तक (या इससे भी ज़्यादा) बढ़ जाएगा।

 पूर्व औद्योगिक समय से हुई क़रीब पूरी तापमान वृद्धि कार्बन डाई ऑक्साइड और मीथेन जैसी ऊष्मा को अवशोषित करने वाली गैसों के उत्सर्जन से हुई।

 बढ़ते तापमान का असर समुद्र पर भी पड़ रहा है और उसका स्तर बढ़ रहा है।

 बर्फ़ (गलेशियर) का दायरा सिकुड़ रहा है। इस कारण सूखा, तेज़ गर्मी (लू), बाढ़, तूफ़ान जैसे घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है।

 

हमारे लिए चिन्ता की बात यह है कि पहली बार केंद्र सरकार ने इस बार के बजट में जलवायु परिवर्तन कार्य योजना में आवंटित राशि को 10 करोड़ रुपये कम कर दिया है। जहाँ तक आईपीसीसी रिपोर्ट की बात है, पहले जो बदलाव हमें 100 साल में देखने को मिल रहे थे, वो अब 10 से 20 साल के बीच देखने को मिल रहे हैं। यह बेहद चिन्ताजनक और ख़तरनाक स्थिति है। भारत समेत पूरी दुनिया पर वैश्विक तापमान बढऩे का गहरा प्रभाव पड़ेगा। रिपोर्ट साफ़ संकेत करती है कि इसके नुक़सान की भरपाई नहीं हो सकती है।

गुमान सिंह

पर्यावरण विशेषज्ञ

 

हमारे ग्रह का औसत तापमान पहले ही 1.1 डिग्री तक बढ़ चुका है। बहुत कम देश हैं, जो उत्सर्जन को कम करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाने की दिशा में बढ़ रहे हैं। इस रिपोर्ट में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिस पर हैरत हो। यह रिपोर्ट सिर्फ़ उन्हीं बातों को पुष्ट करती है, जो हम हज़ारों रिपोट्र्स और शोधों से जान चुके हैं कि यह आपातकाल है। हम अब भी सबसे बुरे परिणामों से बच सकते हैं; लेकिन जो कुछ आज चल रहा है, वैसे नहीं। संकट को संकट की तरह समझे बिना तो बिल्कुल भी नहीं।

ग्रेटा थनबर्ग

पर्यावरण अभियानकर्ता

कहीं अकाली दल का किसान आन्दोलन सियासी तो नहीं!

कहते हैं कि सियासत में हर क्षण समीकरण बनते-बिगड़ते रहते हैं। कब, कौन, किसके साथ हो जाए और कौन, कब, किसकी सींची हुई ज़मीन पर अपनी सियासी फ़सल पका ले? कुछ कहा नहीं जा सकता है। ऐसा ही हाल पंजाब की सियासत को लेकर भी है। बताते चलें कृषि क़ानूनों के विरोध में देश भर में संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा चलाये जा रहे किसान आन्दोलन को लेकर केंद्र सरकार भी डरी हुई है। केंद्र सरकार से लेकर भाजपा शासित राज्य सरकारें तक किसान आन्दोलन को समाप्त करने के लिए कोई-न-कोई बीच का रास्ता निकालने में लगी हुई हैं। लेकिन अभी तक कोई समाधान न निकलने से सरकार सकते में है कि कहीं किसान आन्दोलन और उग्र रूप न ले ले।

किसान आन्दोलन में सबसे ज़्यादा किसान पंजाब से भाग ले रहे हैं। इस लिहाज़ा से पंजाब की सियासत में पंजाब के किसानों की भूमिका अहम है। किसान आन्दोलन के चलते दिल्ली की सीमाओं पर लगभग एक साल से हलचल तेज़ है। आये दिन किसानों के प्रदर्शन के चलते पुलिस द्वारा लाठीचार्ज जैसी घटनाएँ होती हैं, जिसमें किसानों की मौतें भी हुई हैं और कई घायल भी हुए हैं।

पंजाब के चुनाव को अभी छ: महीने से कम समय बचा है। इस लिहाज़ा से पंजाब में राजनीतिक ताना-बाना बनता-बिगड़ता रहा है। शिरोमणि अकाली दल (बादल) ने 17 सितंबर को किसानों के अधिकारों के ख़ातिर और कृषि क़ानूनों के विरोध में जो केंद्र सरकार के विरोध में प्रदर्शन किया है, उसके सियासी मायने किसानों के बीच ही नहीं, बल्कि पंजाब की सियासत में बख़ूबी अलग ही निकाले जा रहे हैं।

जानकारों का कहना है कि अकाली दल ने किसानों के समर्थन में जो दिल्ली की सीमाओं पर जो प्रदर्शन किया है, उससे एक साथ कई निशाने साधे गये हैं। एक तो यह कि वो किसानों के सच्चे हितैषी हैं और केंद्र सरकार के विरोध में हैं। साथ ही केंद्र सरकार और पंजाब की सियासत में यह बताया कि उनकी राजनीतिक ज़मीन को कोई भी कम न आँके। शिरोमणि अकाली दल (बादल) का मानना है कि भले ही आज किसान आन्दोलन को लेकर विपक्ष कृषि क़ानून की बात कर रहा है; लेकिन सबसे पहले अगर किसी ने किसानों के पक्ष में आवाज़ उठायी, तो वो है अकाली दल। किसानों के अधिकारों की ख़ातिर अकाली दल की हरसिमरन कौर ने केंद्रीय मंत्री पद इस्तीफ़ा दिया था, जबकि अकाली दल सालोंसाल से भाजपा की राजनीतिक सहयोगी पार्टी भी रही है।

अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल ने प्रदर्शनकारी किसानों को सम्बोधित करते हुए कहा कि केंद्र सरकार तो किसानों के साथ अन्याय कर ही रही है। साथ दिल्ली की आम आदमी पार्टी और कांग्रेस पार्टी किसानों के साथ राजनीति कर किसानों को गुमराह कर रही है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी ही किसान-कृषि विरोधी बिल लायी थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को तब कृषि क़ानूनों को संसद के विरोध के चलते क़ानून वापस लेना पड़ा था। सुखबीर सिंह बादल ने कहा कि कांग्रेस पार्टी और आम आदमी पार्टी प्रमुख व दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल तो किसानों के साथ दिखावा कर रहे हैं।

जानकार सूत्रों का कहना है कि पंजाब में बसपा और अकाली दल का गठबन्धन है। अगले साल उत्तर प्रदेश और पंजाब में विधानसभा के चुनाव होने हैं। दोनों राजनीति दलों पर समय-समय पर यह आरोप लगता रहा है कि इन दोनों राजनीतिक दलों ने विपक्षी दलों के साथ कभी भी किसानों का साथ देने के लिए कोई भी मंच साझा नहीं किया है। अब दोनों राज्यों में चुनावी बिगुल बजने वाला है, तो किसानों के समर्थन में दिल्ली बॉर्डर पर बसपा और अकाली दल ने जो प्रदर्शन किया है, वो किसानों के बीच अपनी पकड़ बनाने के अलावा और कुछ नहीं है। पूर्व केंद्रीय मंत्री हरसिमरन कौर ने कहा कि हरियाणा और केंद्र सरकार ने किसानों पर जो लाठीचार्ज करवाया है, उसे किसान कभी भी नहीं भूलेंगे। क्योंकि किसान तो शान्तिपूर्वक अपनी बात रखने आये थे। केंद्र सरकार किसानों के साथ विश्वासघात कर रही है।

विपक्षी दलों के नेताओं का कहना है कि यह आन्दोलन उस समय अलग से क्यों किया गया? जब सारे देश के किसान एक साथ सरकार के विरोध में आन्दोलन कर रहे हैं। इसका मतलब साफ़ है कि किसानों के आन्दोलन में सेंध लगायी जा रही है, ताकि किसानों के आन्दोलन को कई भागों में बाँटा जा सके। अगर ऐसे ही अलग-अलग किसानों के आन्दोलन हुए, तो किसान आन्दोलन सियासी तालमेल का कारण बन जाएगा।

ग़ौर करने वाली बात तो यह है कि सुखबीर सिंह बादल ने केंद्र की भाजपा सरकार पर जो निशाना साधा, वो तो ठीक है। लेकिन इसके साथ उसने कांग्रेस और आम आदमी पार्टी पर ये आरोप लगाये कि ये दोनों दल किसानों के साथ दिखावे की राजनीति कर रहे हैं और कांग्रेस पार्टी ही कृषि क़ानूनों की जनक है।

फिर बढ़ रहा खाप पंचायतों का दबदबा

***FILE PHOTO*** Sisoli: In this file photo dated 11th Sept., 2013, is seen Bhartaiya Kisan Union President Naresh Tikait addresses the Baliyan Khap panchayat apealing people to maintain peace in the wake of Mujaffarnagar riots, in Sisoli. Supreme Court today, has termed it 'absolutely illlegal', Khap panchayat's interference to stop two consenting adults from marrying each other. PTI Photo (PTI3_27_2018_000141B)

देश की राजधानी दिल्ली में तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में किसानों का आन्दोलन पिछले क़रीबन 10 महीने से जारी है। हालाँकि किसानों का कहना है कि आन्दोलन को पूरा एक साल हो गया है। लेकिन सरकार जानबूझकर आन्दोलन को छोटा और कम समय का बताने की कोशिश कर रही है।

कुल मिलाकर अभी तक किसानों को शान्त करने में विफल रही है। दोनों पक्षों के बीच कई दौर की बातचीत के बाद भी सरकार की ओर से उदासीन रवैये को देखते हुए किसानों के समर्थन में खाप पंचायतें पूरी तरह उतर चुकी हैं। खाप की रणनीति से किसान आन्दोलन को संजीवनी मिल रही है। आमजन भले ही सीधे-सीधे किसान आन्दोलन में शरीक़ नहीं हो पा रहे हों, लेकिन अधिकतर लोग आन्दोलन का समर्थन करते हैं।

पिछले दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज़िला मुज़फ़्फ़रनगर में किसान महापंचायत और हाल ही में बाग़पत में जयंत चौधरी की रस्म पगड़ी में तमाम खाप पंचायतों का शिरकत करना और जयंत चौधरी को समर्थन देना जताता है कि खाप पंचायतें जो पिछले दिनों कुछ कुंद और कमज़ोर पड़ती नज़र आ रही थीं, वे पुन: मज़बूती के साथ उभरी हैं। लम्बे समय से देश की राजधानी दिल्ली में चल रहे किसान आन्दोलन से खाप पंचायतों का जुडऩा जताता है कि खाप पंचायतों का अस्तित्व आज भी कहीं-न-कहीं मज़बूती के साथ खड़ा है। यूँ तो खाप पंचायतों में तमाम 36 जातियाँ होती हैं; लेकिन इसमें अधिक प्रभाव जाट समाज का ही दिखायी पड़ता है। लगातार हो रही किसान पंचायतों में खाप पंचायतें पहले से ज़्यादा मुखर और मज़बूत होकर आगे आयी हैं।

खाप पंचायतों के विषय में ऐतिहासिक दृष्टि से बात की जाए, तो खाप पंचायतें पारम्परिक हैं और कई तरह की होती हैं। कई बार अपने फ़ैसलों को लेकर वे काफ़ी उग्र भी नज़र आती रही हैं। जबकि इन्हें कोई आधिकारिक और संवैधानिक मान्यता प्राप्त नहीं है। पूर्व प्रशासनिक अधिकारी चोब सिंह वर्मा कहते हैं कि मुगल-काल से उत्तर भारत के जाटों की खाप पंचायतें एक सामाजिक ग्राम्य गणतंत्र रही हैं। उत्तर मुगल-काल में जब अफ़ग़ानी आक्रांता थोड़े-थोड़े अंतराल पर सिंध पार करके पंजाब को रौंदते हुए सशस्त्र बलों के साथ दिल्ली की ओर बढ़ते थे; तब अपनी स्त्रियों, बच्चों और सम्पत्ति की रक्षा के लिए जाटों ने समूह बनाने शुरू किये थे। उस समय खापों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने के लिए प्रशासनिक इकाई के रूप में खापों को मान्यता मिली थी। प्रारम्भ में ये समूह गोत्र पर आधारित थे। जाटों में गोत्र व्यवस्था उतनी ही पुरानी है, जितनी कि जाति व्यवस्था। अपना डीएनए ख़ास बनाये रखने के लिए जाट अपने बच्चों के शादी-ब्याह ऐसे दूसरे गोत्रों में करते हैं, जिनसे उनकी माँ और पिता के गोत्र न टकराते हों। इस व्यवस्था से उनका सामाजिक विस्तार भी होता गया और समानता व एकता की भावना भी बलवती होती गयी। हालाँकि बाद के दिनों में गोत्र विशेष के छोटे-मोटे विवादों का निपटारा इनकी खाप पंचायतों में होने लगा, जिनमें विवाद भी रहे।

इतिहास गवाह है कि खाप चौधरियों ने समाज के वजूद को हमेशा मज़बूत किया है। खाप का ढाँचा पिरामिडीय आकार का रखा गया है। नज़दीकी भाई अपना कुटुंब बनाते हैं, कुटुंब मिलकर थोक (पट्टी) निर्मित करते हैं। थोक मिलकर थाम्बा गठित करते हैं, और अन्त में उस गोत्र के थाम्बे मिलकर खाप का गठन करते हैं। सभी खापें मिलकर एक सर्वखाप का गठन करती हैं। कंडेला में यही सर्वखाप पंचायत हुई थी। वैसे सबसे बड़ी सर्वखाप पंचायत (जिसके इस समय नरेश टिकैत प्रमुख हैं) सन् 1936 में बालियान खाप के मुख्यालय सोरम गाँव में हुई थी। उसमें किसानों ने महात्मा गाँधी के आह्वान पर देश की आज़ादी की लड़ाई में बढ़-चढक़र हिस्सा लेने का फ़ैसला किया था।

एक बात समझने की ज़रूरत है। जाटों की नज़र में ज़मीन बहुत ही मूल्यवान होती है। एक जाट कितने भी महँगे बंगले में रहता हो। विदेश में रहता हो। एलीट क्लब का सदस्य हो। करोड़ों के पैकेज वाला वेतन पाता है। परन्तु दूसरों से बातचीत में अपने पास गाँव में पैतृक ज़मीन होने की बात पर वह बड़ा ही गौरवान्वित महसूस करता है, जो उसके ज़मीन से जुड़े होने का प्रमाण है।

खाप ग्रामीणों का संगठन होता है, इसलिए उनके पास किसान नेता व राजनेता अपना मनोबल, संख्या बल और शक्ति प्रदर्शन हासिल करने जाते हैं। ग्रामीण किसान भावुक और भोले-भाले होते हैं और आसानी से भावनाओं में बह जाते हैं। इसी का फ़ायदा राजनीतिक दल उठा लेते हैं। नेता खापों के किसी काम नहीं आते, लेकिन उनका समर्थन ज़रूर अपने सियासी दल में जान फूँकने के लिए लेते रहते हैं। खाप पंचायत एक पुरातन व्यवस्था है, जिसमें एक गोत्र या फिर बिरादरी के सभी गोत्र मिलकर खाप पंचायत बनाते हैं। ये पंचायतें पाँच गाँवों से लेकर सैंकड़ों गाँवों की भी हो सकती हैं।

उदाहरण स्वरूप हरियाणा की मेहम और उत्तर प्रदेश की बालियान बहुत बड़ी खाप पंचायत है। कई ऐसी और भी पंचायतें हैं। जो गोत्र जिस इलाक़े में ज़्यादा प्रभावशाली होता है, उसी का उस खाप पंचायत में ज़्यादा दबदबा होता है। कम जनसंख्या वाले गोत्र भी पंचायत में शामिल होते हैं। लेकिन प्रभावशाली गोत्र की ही खाप पंचायत में अधिक चलती है। जैसे कि आपने पिछले दिनों देखा चौधरी नरेश टिकैत को पंचायत में इसलिए इतना अधिक महत्त्व मिला, क्योंकि उनकी खाप पंचायत के हिसाब से उनका बालियान गोत्र सबसे बड़ा है। बहरहाल खाप पंचायत चलाने का तरीक़ा यह है कि सभी ग्रामीणों को बैठक में बुलाया जाता है, चाहे वे आएँ या न आएँ। और जो भी फ़ैसला लिया जाता है, उसे सर्वसम्मति से लिया गया फ़ैसला माना जाता है और सभी को बाध्य तरीक़े से मान्य होता है। जानकार बताते हैं कि सबसे पहली खाप पंचायतें जाटों की ही थीं। विशेष तौर पर पंजाब-हरियाणा और राजस्थान के देहाती इलाक़ों में भूमिदार जाटों की। प्रशासन और राजनीति में इनका ख़ासा प्रभाव है। जनसंख्या भी ये काफ़ी ज़्यादा हैं। इन राज्यों में जाट एक प्रभावशाली जाति है और इसीलिए उसका दबदबा भी है। हाल-फ़िलहाल में खाप पंचायतों का प्रभाव और महत्त्व घटता दिखायी पड़ रहा था। क्योंकि ये तो पारम्परिक पंचायतें हैं और संविधान के मुताबिक निर्वाचित पंचायतें आ गयी हैं। ज़ाहिर है खाप पंचायत का नेतृत्व गाँव के बुज़ुर्गों और प्रभावशाली लोगों के पास होता है।

सामाजिक कार्यकर्ता, विचारक और पत्रकार जसबीर सिंह मलिक कहते हैं कि चौधरियों की चौधराहट ख़त्म करने के लिए चौधरी दोषी नहीं हैं और न खाप पंचायतें दोषी हैं, बल्कि आज की संकुचित मानसिकता की पढ़ी-लिखी जमात ही दोषी है; जो अपने आपको ज़्यादा योग्य समझती है। जबकि उसे खाप के विषय में कुछ भी नहीं मालूम। समाज की पढ़ी-लिखी जमात ने साबित करना चाहा था कि चौधरियों का पतन हो चुका है। कुछ पढ़े-लिखे और राजनीतिक दलों से जुड़े लोग भी अपनी-अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के लिए खाप चौधरियों के ख़िलाफ़ खड़े हुए, जिन्होंने चौधरियों को नुक़सान पहुँचाने का काम किया है।

हालाँकि आज किसान आन्दोलन ने सिद्ध कर दिया कि खाप पंचायतों और उनके चौधरियों में आज भी उतना ही दम है, जिसके लिए वे जाने जाते हैं। जबकि कुछ राजनीति और प्रशासन के साथ खड़े होकर किसान आन्दोलन के अग्रणियों को ख़त्म करने की फ़िराक़ में थे, उसी दिन खाप चौधरी खड़े हुए तो सरकार व प्रशासन क़दम पीछे हटाने के लिए मजबूर हुए और किसान आन्दोलन का वजूद क़ायम हुआ।

कुछ लोगों ने खाप पंचायतों की इस व्यवस्था में बदलाव लाने के लिए या कहें कि इन्हें ख़त्म करने के लिए चौधरी, मुखिया, प्रधान, सरपंच जैसे शब्दों को अलग करके एक कोशिश भी की, लेकिन इसके बावजूद खापों का अस्तित्व बरक़रार रहा। खाप और उनके चौधरी हमेशा प्रजातंत्र में विश्वास रखते आये हैं। दुनिया के किसी भी हिस्से में जहाँ भी प्रजातंत्र / लोकतंत्र है, उसके प्रचारक और प्रसारक खापें और खापों के प्रधान ही रहे हैं।

खाप पंचायत के आधार व्यवस्था, बेदाग़ छवि, प्रजातंत्र, इंसानियत, भाईचारे में विश्वास और पञ्च (पंच) परमेश्वर जैसे मज़बूत और न्यायिक शब्द हैं। इसलिए खाप पंचायतें समाज को बेहतर समझने वाली रही हैं। खाप पंचायतों की निष्पक्ष व्यवस्था धर्म और ऊँच-नीच के भेद-भाव को नहीं मानती। इसमें समाज के हर तबक़े को विचार रखने का हक़ है। इसलिए इसमें सभी 36 बिरादरियों को शामिल किया गया है। यह एक ऐसी पुरातन व्यवस्था है, जिसके ज़रिये समाज के सही और ईमानदार लोगों के हक़ में फ़ैसले लिए जाते रहे हैं। कुछ एक विवावित फ़ैसलों ने खाप पंचायतों पर से लोगों का विश्वास कम ज़रूर किया है, लेकिन यह एक ऐसी निष्पक्ष व्यवस्था रही है, जहाँ अमीर-ग़रीब, मज़दूर-ज़मीदार से लेकर राजा-महाराजा तक सभी को बराबर माना जाता रहा है और एक नज़र से देखा जाता रहा है।

समाज के हक़ों के लिए खाप पंचायतों का हुकूमतों से संघर्ष भी बहुत पुराना है, जो आज भी बरक़रार है। इसकी ताक़त और बानगी का अनुमान मौज़ूदा किसान आन्दोलन से लगाया जा सकता है। इतिहास गवाह है, जब-जब हक़ और सच के लिए आवाज़ उठाने की ज़रूरत पड़ी है, खाप पंचायतों ने हमेशा आगे आकर मोर्चा सँभाला है और अपने तथा दबे-कुचलों के हक़ों के लिए हुकूमतों को झुकने पर मजबूर किया है।

मेरी जानकारी में आता है कि खापें कभी भी किसी भी सरकार के सामने कभी नहीं झुकीं। खाप व्यवस्था ने राजा-महाराजाओं को भी निष्पक्ष इंसाफ़ के लिए मजबूर किया है। खाप पंचायत एक ऐसी निष्पक्ष व्यवस्था है, जिसको कोई बदल नहीं पाया और भविष्य में भी इसकी ऐसी कोई बड़ी सम्भावना भी दिखायी नहीं देती।

बहरहाल खाप पंचायतें दबे-कुचले लोगों और किसानों पर हो रहे सरकारी अत्याचार से किस तरह किस हद तक निपट पाती हैं और सरकार को झुकाने में कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, यह तो आगामी विधानसभा चुनावों में ही पता चल सकेगा, जो आने वाला समय ही बताएगा। फ़िलहाल खाप पंचायतें एकजुट होकर इस लड़ाई को लडऩे के लिए आगे आ चुकी हैं और सरकार को चुनौती भी दे चुकी हैं।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

क्या सरकार को झुका सकेगा किसानों का संघर्ष?

तीन कृषि क़ानूनों का जिस हद तक विरोध होने लगा है, उसकी कल्पना किसानों ने भले ही न की हो; लेकिन केंद्र सरकार ने बिल्कुल भी नहीं की होगी। क़रीब एक साल और दिल्ली की सीमाओं पर 10 माह के बाद आन्दोलन बदस्तूर जारी है और वह भी ज़बरदस्त तरीक़े से। आन्दोलन कब तक चलेगा और इसका पटाक्षेप कैसे होगा? यह कोई नहीं जानता।

अब आन्दोलन मुद्दों के साथ-साथ सरकार की हठधर्मिता पर किसानों की अडिगता और अस्मिता का बन गया है। किसान क़ानूनों को रद्द करने और सरकार इन्हें संशोधन सहित लागू करने पर अड़े हैं। बातचीत के दरवाज़े कमोबेश बन्द हो चुके हैं। कहने को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके लिए एक फोन कॉल की दूरी बता चुके हैं। आज महीनों हो गये वह फोन कॉल सरकार ने नहीं की,तो फिर बर्फ़ की मोटी परत कैसे पिघलेगी?

हालाँकि संयुक्त मोर्चा ने यह तक कहा कि अगर सरकार बातचीत करना चाहे, तो किसान तैयार हैं। केंद्र सरकार के तीन कृषि क़ानूनों का सबसे पहले बड़ा विरोध इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी देने का था। आन्दोलन के शुरू में अगर केंद्र किसान संगठनों को भरोसे में लेकर बातचीत करती, तो आज यह नौबत नहीं आती। किसान संगठनों की नज़र में तीन कृषि क़ानून काले हैं और इनके लागू होने से कृषि क्षेत्र उनसे निकलकर बड़े कार्पोरेट घरानों के हाथ में चला जाएगा और भविष्य में इसका ख़ामियाज़ा पूरे देश को उठाना पड़ेगा। सरकार मौखिक रूप से इसे नकार रही है, लेकिन इस पर बहस नहीं करना चाहती। वह ऐसा करने से क्यों बच रही है और क्यों जबरन क़ानूनों को लागू करना चाहती है? यह वही जाने।

सरकार ने इन क़ानूनों को किसान हितैषी बताकर इनकी प्रासंगिकता और भविष्य में इससे होने वाले फ़ायदों का मौखिक बयान करके ख़ूब कोशिश की कि किसान उसकी बात मान जाएँ, पर किसानों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

विगत में महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के आन्दोलन विशुद्ध रूप से ग़ैर-राजनीतिक रहे हैं और लगभग सभी कमोबेश सफल रहे, तो उसका श्रेय किसानों की एकता और नेतृत्व को रहा। ये दोनों चीज़ें भी इस आन्दोलन में हैं। फिर क्या कारण है कि आन्दोलन इतना लम्बा खिंच गया और सरकार ने उनकी सुध भी नहीं ली? इसकी एक वजह सरकार की उद्योगपतियों के प्रति हित वाली सोच और किसानों की अनदेखी तो है ही; साथ ही अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग समस्याएँ भी हैं।

संयुक्त किसान मोर्चा में 40 से ज़्यादा किसान-मजदूर संगठन हैं। सभी की अपनी-अपनी सोच और हित हैं। कहने को संयुक्त किसान मोर्चा ही आन्दोलन का नेतृत्व कर रहा है, कोई व्यक्ति विशेष नहीं; लेकिन क्या यह हक़ीक़त है कि कोई केवल किसानों के हित के लिए आन्दोलन से जुड़ा है? ऐसे में भविष्य में यह भी हो सकता है कि सरकार जिन राज्यों में चुनाव हों, वहाँ के किसानों को साधकर आन्दोलन को कमज़ोर कर दे।

दिल्ली सीमा पर भाकियू प्रवक्ता राकेश टिकैत की आँखों से छलके आँसुओं ने किसान आन्दोलन को जैसे नयी दिशा दे दी। टूट रहा आन्दोलन फिर से मज़बूत हुआ और टिकैत जैसे एकछत्र किसान नेता के रूप में उभरे, जो अब तक चले आ रहे हैं। आन्दोलन भाकियू के झण्डे तले हो रहा है, जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष महेंद्र सिंह टिकैत के बड़े बेटे नरेश टिकैत हैं। उनकी सोच और विचार काफ़ी कुछ अपने पिता से मिलते हैं। वह बातचीत से सम्मानजनक समझौता करने के पक्षधर रहे हैं और अब भी उनकी सोच वही है; लेकिन वह कभी-कभार ही सरकार को चुनौती देते दिखे हैं।

लम्बा खिंचता आन्दोलन देश में अस्थिरता पैदा कर सकता है। इसके उदाहरण हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश हैं, जहाँ अस्थिरता जैसा माहौल बन चुका है। इसके लिए किसानों से ज़्यादा ज़िम्मेदार सरकार है, जो बिना चर्चा के उस समय इन क़ानूनों को लायी, जब पूरे देश के लोग घरों में बन्द थे। और जब आन्दोलन हुआ, तो हरियाणा सरकार ने किसानों पर हमले कराये, लाठियाँ पड़वायीं, सडक़ें खुदवायीं, दुश्मन देश की सीमाओं की तरह बैरिकेड लगवाये और पानी की बोछारें करवाने के साथ-साथ आँसू गैस के गोले उन पर फिकवाये। केंद्र सरकार ने भी तो यही सब किया। हरियाणा में तो एसडीएम के आदेश पर पुलिस लाठीचार्ज में एक किसान की मौत भी हो गयी। अब जब किसान सरकार के पीछे पड़े हैं, तो मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री सरकारी कार्यक्रमों में या निजी कार्यों से खुलकर बाहर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। जिस तरह हरियाणा में किसानों पर अत्याचार हुए, वैसे कहीं और नहीं हुए। वहाँ के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर कई तरह की चेतावनियाँ किसानों को दे चुके; लेकिन उनके शासन हुए व्यवहार से किसान इतने ग़ुस्से में हैं कि कई जनप्रतिनिधियों का वे घेराव कर चुके हैं, जो माफ़ी माँगकर या फ़ज़ीहत कराकर ही पीछा छुड़ा सके हैं।

हिसार और करनाल में पुलिस लाठीचार्ज के बाद आन्दोलनकारियों ने सरकार पर दबाव बनाकर कुछ माँगें मनवा लीं। लेकिन हरियाणा सरकार ने आरोपी एसडीएम और पुलिस के ख़िलाफ़ कोई क़दम नहीं उठाया। कब, कहाँ, किसके बयान पर या पुलिस कार्रवाई पर थानों या सचिवालय का घेराव हो जाए? कुछ पता नहीं है।

आन्दोलन से पंजाब भी कम प्रभावित नहीं है। लेकिन वहाँ के हालात हरियाणा के कुछ बेहतर हैं। इसकी एक वजह वहाँ कांग्रेस सरकार का होना है, जो किसानों के प्रति काफ़ी नरम रही है और कृषि क़ानूनों को ग़लत बताती रही है। वहाँ भी नेताओं को डर है; लेकिन किसान मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायकों और नेताओं का हरियाणा के किसानों की तरह पीछा नहीं करते। कांग्रेस ने पहले दिन से ही आन्दोलन को समर्थन दे रखा है, इसलिए भी वहाँ के किसान उस पर हमलावर नहीं रहे। राज्य में नये मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने तो शपथ लेते ही सबसे पहले किसान आन्दोलन को पूरा समर्थन देने की घोषणा करने में देरी नहीं की।

उनसे पहले निवर्तमान मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का भी कमोबेश यही रूख़ था। उन्होंने किसी तरह किसान संगठनों से तालमेल बनाये रखा और राज्य में अस्थिरता पैदा नहीं होने दी। लेकिन वहाँ भी असली परीक्षा तो 2022 में विधानसभा चुनावों के दौरान ही होगी। उत्तर प्रदेश और हरियाणा में पार्टियों, ख़ासकर भाजपा के लिए यह परीक्षा और भी बेचैन करने वाली तथा ख़ास होगी। संयुक्त मोर्चा के पंजाब से जुड़े कुछ किसान-मज़दूर संगठनों को राजनीति में आने से ज़्यादा परहेज़ नहीं है। हरियाणा भाकियू अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढ़ूनी तो बाक़ायदा लुधियाना में कारोबारियों की गठित एक पार्टी में शिरकत कर चुके हैं। जीत के बाद चढ़ूनी को मुख्यमंत्री बनाने का ऐलान भी हो चुका है।

चढ़ूनी तो किसानों को राजनीति के मैदान में उतरने का आमंत्रण दे रहे हैं, ऐसा होने की प्रबल सम्भावना भी है। लेकिन कुल मिलाकर भाजपा का विरोध तय है। पश्चिम बंगाल में भाजपा का विरोध इसका ताज़ा उदाहरण है। इसी के चलते भाजपा में बेचैनी तब और बढ़ी है, जब मुज़फ़्फरनगर में किसान महापंचायत हुई, जिसमें लाखों किसान आकर जुटे और उन्होंने केंद्र सरकार समेत हर राज्य की भाजपा सरकार को चुनौती दे डाली।

पंजाब में आन्दोलनकारी किस पार्टी को समर्थन देंगे? सत्तासीन कांग्रेस को? प्रमुख विपक्षी दल आम आदमी पार्टी (आप) को? या शिरोमणि अकाली दल (शिअद) को? अभी से कुछ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि ये सभी पार्टियाँ किसान आन्दोलन की समर्थक हैं। अगर किसान संगठनों की ओर से कोई पार्टी वजूद में आती है, तो फिर तो स्थिति स्पष्ट ही है, अन्यथा हर पार्टी समर्थन हासिल करने के लिए पूरा ज़ोर लगा देगी। किसानों का समर्थन हासिल करने के लिए कसौटी क्या रहेगी? कौन इसे तय करेगा? और क्या उसको पूरी तरह माना भी जाएगा? यह भी अभी से नहीं कहा जा सकता। पंजाब से पहले उत्तर प्रदेश मिशन तो बाक़ायदा शुरू हो गया है। विशेषकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सरगर्मियाँ बढऩे लगी हैं। किसान आन्दोलन दो ही मुद्दों पर टिका है- एक तीनों कृषि क़ानून रद्द हों और दूसरा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को सरकार क़ानूनी जामा पहनाये।

केंद्र सरकार एमएसपी पर मौखिक आश्वासन तो दे रही में है; लेकिन उसे क़ानूनी का रूप देने या फिर लिखित में करने को तैयार नहीं है। किसान संगठन तीनों कृषि क़ानूनों को रद्द करने के साथ-साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी सरकार से चाहते हैं। उनकी राय में ऐसा होने की स्थिति में ही वे आन्दोलन को समाप्त कर सकते हैं। इसके पहले घर वापसी की कोई सम्भावना नहीं है। वहीं सरकार कृषि क़ानूनों को संशोधन सहित बहाल रखने और न्यूनतम समर्थन मूल्य के मौखिक वादे समेत अन्य मुद्दों को सुलझाने की मंशा रखती है।

अगर अपनी हठ छोडक़र केंद्र सरकार किसानों से बातचीत की राह अब भी निकाले और उन्हें सुने तथा नये कृषि क़ानूनों पर बिन्दुवार बात करे, तो सम्भव है कि किसानों द्वारा क़ानूनों में निकाली जा रही कमियों और अमान्य शर्तों की सच्चाई सामने आये और समाधान निकल सके। इससे सरकार और किसानों की नीयत, दोष, एक-दूसरे पर दोषारोपण की परतें भी खुलेंगी और देश के सामने एक साफ़ तस्वीर उजागर होगी। लेकिन किसानों की कृषि क़ानूनों पर चुनौतियों के बावजूद सरकार ने उसे स्वीकार नहीं किया और न ही क़रीब एक दर्ज़न की विफल बातचीत के बाद दोबारा बातचीत की कोई पहल ही की है। किसान नेता सरकार की उपेक्षा से बहुत नाराज़ हैं। उन्हें लगता है कि इतने बड़े और लम्बे आन्दोलन का भी उस पर कोई असर नहीं है। ऐसा जान-बूझकर किया जा रहा है, ताकि धीरे-धीरे आन्दोलन दम तोड़ जाए; लेकिन हो इसके विपरीत रहा है। आन्दोलन भले ही बीच में कमज़ोर और दिशाहीन लगा हो, लेकिन दोबारा से जब पूरे उफान पर आया, तो केंद्र और राज्य की भाजपा सरकारों के कान खड़े हो गये और उन्हें एक डर भी सताने लगा।

मुज़फ़्फरनगर महापंचायत के बाद भारत बन्द के ऐलान ने भाजपा और उसके केंद्रीय नेतृत्व समेत भाजपा शासित राज्यों के नेतृत्व की नींद उडऩे लगी है। क़रीब एक साल में भी कठिन परिस्थितियों, सरकार की नाफ़रमानी और ज़्यादतियों के बाद भी उनके हौंसले पस्त नहीं हुए।  इसे सरकार भी अच्छी तरह जानती है। आन्दोलन को नाकाम करने के लिए सरकार के साम, दाम, दण्ड, भेद सब नाकाम हो चुके हैं। ऐसे में बातचीत ही सुगम रास्ता है। इसकी पहल किसान संगठनों को नहीं, बल्कि सरकार को करनी चाहिए। मौजूदा स्थिति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसमें निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। लेकिन हैरानी की बात उन्होंने अब तक कोई पहल नहीं की। यह सही फ़ैसला नहीं कहा जा सकता।

रातोंरात प्रसिद्ध होने का पागलपन

आज की पीढ़ी रातोंरात प्रसिद्ध होने के चक्कर में क्या कुछ नहीं करना चाहती। वह भी बिना मेहनत के, बिना समय गँवाये। सोशल मीडिया पर रातोंरात प्रसिद्ध होने की चाहत आज की युवा पीढ़ी में इस क़दर घर कर चुकी है कि सेल्फी लेने और वीडियो बनाने के चक्कर में कई की जान तक चली गयी है, तो कई बार ऐसे लोग दूसरों की जान लेने वाले साबित हुए हैं।

यह चाहत बच्चों से लेकर बड़ों तक में सवार है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि सोशल मीडिया कई लोगों के लिए बड़ी उपलब्धि साबित हुआ है। कुछ लोग जिन्हें कोई जानता भी नहीं था, सोशल मीडिया के ज़रिये रातोंरात स्टार बन गये। लेकिन यह सही सोच के साथ सही काम और मेहनत का भी नतीजा है। जो लोग रातोंरात प्रसिद्ध होने वालों की पीछे की मेहनत को समझे बग़ैर, बिना मेहनत के रातोंरात एक क्लिक से प्रसिद्ध होने की चाहत रखते हैं, उनमें से न जाने कितने ही देश के युवा ज़िन्दगी के उस मोड़ पर लगातार जा रहे हैं, जहाँ उनमें से कई गुमनामी, पागलपन या फिर किसी हादसे का शिकार हो रहे हैं।

इन दिनों सोशल मीडिया की सभी साइट्स पर ऐसी वीडियो की भरमार देखने को मिल जाती है। ताज़ूब की बात यह है कि जहाँ लाखों युवा ख़ुद को प्रसिद्ध करने के लिए सोशल मीडिया पर दिन-रात लगे रहने और वीडियो बनाकर उस पर अपलोड करते रहने के चक्कर में अपने करियर को चौपट कर रहे हैं, वही हज़ारों युवा उन वीडियोज को देखने में अपना समय और करियर दोनों बर्बाद कर रहे हैं। एक शोध में यह बात सामने आयी है कि सोशल मीडिया अकाउंट से लोगों की दिमाग़ी हालत का पता चलता है कि वे किस स्थिति में पहुँच चुके हैं। इससे न केवल वे चिढ़चिढ़े, गुस्सैल, काम न करने की इच्छा वाले, फास्ट फूड ज़्यादा खाने वाले, आलसी और लापरवाह होते जा रहे हैं, बल्कि इससे उनमें आँखों, दिमाग़, लीवर, किडनी, रक्तचाप, शुगर और थाइराइड जैसे रोग भी बढ़ रहे हैं। यहाँ तक कि इस तल में पडक़र कई लोग ख़ुदकुशी तक कर लेते हैं। कुछ डॉक्टरों ने तो चेतावनी तक दी है कि मोबाइल का कम इस्तेमाल करना चाहिए और सोशल मीडिया का तो और भी कम इस्तेमाल करना चाहिए। इससे न केवल कई ज़िन्दगियाँ बच सकती हैं, बल्कि बहुत-से बच्चों का भविष्य बच सकता है। इसकी पहली ज़िम्मेदारी माँ-बाप की बनती है कि वे अपने बच्चों का इस बारे में सही मार्ग-दर्शन करें।

सोशल मीडिया से हो रहे मानवीय नुक़सान के बारे में शोध (रिसर्च) की भारी कमी है। दुनिया में काफ़ी कुछ इस बारे में कहा गया है; लेकिन फिर भी कोई ठोस और ज़मीनी शोध इस मामले में अभी तक नहीं किया गया है। इससे बड़ी बात यह है कि सोशल साइट्स को अभी तक किसी भी मौत के लिए या किसी के किसी बुरी दशा में चले जाने के लिए दुनिया में कहीं भी ज़िम्मेदार नहीं ठहराया गया है। माना जा रहा है कि सोशल मीडिया पर छाये रहने के इस दिमाग़ी जूनून के रोगियों को डॉक्टर और मनोचिकित्सक भी ठीक नहीं कर पा रहे हैं।

क्योंकि सोशल मीडिया पर छाये रहने की चाहत में लोग पागलपन की उस हद तक चले जाते हैं, जहाँ मौत तक हो जाती है। हाल ही में मोहब्बत के शहर आगरा में ऐसा ही नज़ारा देखने को मिला। स्थानीय सूत्रों से पता चला है कि यहाँ अपना वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर अपलोड करने के शौक़ीन कुछ स्थानीय बच्चों ने ख़तरनाक क़दम उठा डाला।

रेलवे पुलिस फोर्स और स्थानीय रेलवे सूत्रों के मुताबिक, राजामंडी और बिल्लोचपुरा स्टेशन के बीच सिकंदरा पुलिया के पास लगभग 12 से 15 वर्ष के कुछ नाबालिग़ बच्चों ने राजामंडी और बिल्लोचपुरा स्टेशनों के बीच सिकंदरा पुलिया के पास कर्नाटका एक्सप्रेस, ट्रेन संख्या 06249 और हबीबगंज से हज़रत निज़ामुद्दीन तक चलने वाली भोपाल एक्सप्रेस, ट्रेन संख्या-02155 पर फुल स्पीड में चलते समय वीडियो बनाने के लिए लगातार पत्थर बरसाये। उपद्रवी बच्चों का मक़सद वीडियो बनाकर उसे सोशल मीडिया पर अपलोड करना था। सूत्रों ने बताया कि इन बच्चों में से कुछ बच्चे सुबह क़रीब 5:45 बजे इन दोनों चलती ट्रेनों पर सामने से मोटे-मोटे पत्थर पूरी ताक़त से फेंक रहे थे और कुछ अपने चेहरे के साथ वीडियो बना रहे थे। इस वारदात को अंजाम देने वाले बच्चों की इस ख़तरनाक हरकत से ट्रेनों के इंजन और बोगियों के शीशे टूट गये। यात्री बाल-बाल बच गये। इस घटना का पता रेलवे विभाग और रेलवे पुलिस फोर्स (आरपीएफ) को तब चला, जब घबराये ट्रेन चालक ने तत्काल ऑपरेटिंग कंट्रोल रूम को सन्देश भेजकर हमले से बचाव की गुहार लगायी। इसके बाद आरपीएफ की एक बड़ी टीम मौक़े पर पहुँची; लेकिन उसके पहुँचते-पहुँचते कुछ बच्चे वहाँ से भाग निकले, फिर भी पुलिस की गिरफ़्त में चार बच्चे आ गये। पूछताछ में उन्होंने अपने बाक़ी साथियों का नाम और पता भी बता दिया, जिसके बाद आरोपी सात और बच्चों को पकड़ा गया।

आरपीएफ सूत्रों के मुताबिक, हिरासत में लिये गये बच्चों में तीन ने चलती ट्रेनों पर पत्थर बरसाने और वीडियो बनाने की बात स्वीकार की। इन सभी पर रेलवे अधिनियम के तहत कार्रवाई की गयी है। बाक़ी के सात बच्चों को चेतावनी देकर उनके परिवार वालों को उन पर क़ाबू रखने की बात कहकर सौंप दिया गया। सभी बच्चे सेक्टर-11 के रहने वाले हैं।

आरपीएफ के मुताबिक, बच्चे नाबालिग़ ज़रूर हैं; लेकिन इतना समझते हैं कि उनकी इस हरकत से ट्रेनों और उनमें बैठे यात्रियों को नुक़सान पहुँच सकता है। बच्चों की हरकत भी इतनी ख़तरनाक थी कि इससे ख़ुद बच्चों की जान जाने से लेकर दूसरा कोई भी बड़ा हादसा हो सकता था, यहाँ तक कि ट्रेन के पलटने या ग़लत ट्रैक पर चल पडऩे या ट्रैक पर से उतरने जैसा भी। बच्चों की इस ख़तरनाक हरकत से कर्नाटका एक्सप्रेस का सामने का और बग़ल में लगा लुकिंग ग्लास टूट गया, वहीं भोपाल एक्सप्रेस की बी-1 बोगी की खिडक़ी का शीशा टूट गया।

इसी तरह पिछले साल उत्तराखण्ड के अल्मोडा के सल्ट इलाक़े के मोहित बिष्ट नाम के एक युवक ने टिकटॉक पर रातोंरात प्रसिद्ध होने के चक्कर में अपना वीडियो बनाने के लिए जंगल में ही आग लगा दी। हैरत की बात यह है कि आग जंगल में फैलती गयी और वह युवक आग के साथ अपना वीडियो बनाता रहा, जिसे उसने टिकटॉक पर अपलोड भी किया। आग लगने की ख़बर लोगों में फैल गयी; लेकिन आग कैसे लगी यह तब पता चला, जब उस युवक का वीडियो वायरल हुआ। दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स के हिन्दी विभाग अध्यक्ष एवं एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. रवि शर्मा कहते हैं कि ऐसी मूर्खता का जन्म शिक्षा के अभाव से होता है। शिक्षा का अर्थ केवल विद्यालय में पढऩा-लिखना नहीं है, बल्कि घर में भी अच्छे संस्कारों से भी है। इसीलिए प्रत्येक माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों को विद्यालयों में तो पढ़ाएँ ही, घर में भी संस्कारित करें और उन्हें बताएँ कि मूर्खतापूर्ण हरकतों से उनका क्या नुक़सान हो सकता है? जो कि एक अपराध की श्रेणी में भी आ सकता है। साथ ही यह भी बताएँ कि निजी या सरकारी सम्पत्ति को नुक़सान पहुँचाने से उनकी अपनी भी क्या हानि है? इस सवाल पर कि क्या कोरोना-काल में स्कूलों के बन्द होने से बच्चे इस तरह की हरकतें करने लगे हैं? डॉ. रवि शर्मा कहते हैं कि नहीं, कोरोना-काल में विद्यालयों के बन्द होने से पढऩे वाले बच्चों में चिढ़चिढ़ापन एवं छोटी-मोटी हरकतें तो बढ़ी हैं, परन्तु ट्रेनों पर पत्थर फेंकने तथा दूसरी इसी तरह की बड़ी हरकतें तो वही बच्चे करते हैं, जिनके पास न शिक्षा है और न ही उनके घर से उन्हें किसी तरह के संस्कार मिले होते हैं। इस तरह के बच्चों को यह पता ही नहीं होता कि वे जो कर रहे हैं, वह कितना हानिकारक सिद्ध हो सकता है। ऐसे में ज़रूरी है कि माता-पिता अपने-अपने बच्चों को शिक्षित करें, घर पर भी और विद्यालय भेजकर भी।

सेल्फी और वीडियो तो पढ़े-लिखे लोग भी बनाते हैं, जिसके चलते कई लोगों की जान जाने तक के हादसे देश भर में हो चुके हैं? इस सवाल पर डॉ. रवि शर्मा कहते हैं कि इस तरह का क़दम आत्ममुग्धता के चलते लोग उठा बैठते हैं। ऐसे लोगों के मन-मस्तिष्क में लोगों के बीच प्रसिद्ध होने की सोच घर कर जाती है, जिससे वे इतने आत्ममुग्ध हो जाते हैं। अर्थात् स्वयं को प्रसिद्ध करने की चाह में इतने डूब जाते हैं कि उन्हें यह ज्ञान ही नहीं रहता कि उनके ऐसा करने से कोई दुर्घटना भी हो सकती है। ऐसे कई मामले सामने आते रहते हैं, जिनमें सेल्फी लेने अथवा वीडियो बनाने वालों की जान तक चली गयी है।

इसका एक कारण यह भी है कि सेल्फी लेने और वीडियो बनाने की सनक जिन लोगों में होती है, उन्हें इसमें स्वयं को दूसरों के बीच अलग तरह से प्रस्तुत करने और उस पर लाइक, कमेंट्स पाने का जूनून सवार रहता है। उन्हें इसमें अपनी एक दुनिया दिखायी देती है, जिसकी न कोई लम्बी आयु है और न ही बहुत महत्त्व। पिछले 8-10 साल में जबसे सेल्फी और वीडियो का चलन हमारे देश में बढ़ा है। यह देखा गया है कि बहुत-से लोगों की जान सेल्फी और वीडियो बनाने के चक्कर में तो गयी ही है, साथ ही दूसरों के लिए भी ऐसे हादसे ख़तरा बने हैं। इसी साल जुलाई में हॉन्गकॉन्ग की इंस्टाग्राम स्टार सोफिया मशहूर पाइनएप्पल माउंटेन साइट पर स्थित झरने के साथ सेल्फी लेने के चक्कर में 16 फीट नीचे जा गिरी। इत्तेफ़ाक़ से सोफिया पानी में गिरी, तो बच गयी; लेकिन फिर भी उसे काफ़ी चोट आयी और अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। दिल्ली में भी सेल्फी लेते समय जान जाने के कई हादसे हो चुके हैं। इसलिए ऐसी हरकतों से लोगों को बचना चाहिए, ताकि वे ख़ुद भी सुरक्षित रह सकें और दूसरों की जान भी जोखिम में न पड़े।

कुर्सी ही सबका ईमान, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव-2021

उत्तर प्रदेश में सियासी पैंतरेबाज़ी का हाल यह है कि अब बस कुर्सी ही सभी का ईमान बनकर रह गयी है। इस कुर्सी पाने की लालसा के पीछे समाजसेवा और देशभक्ति कितनी है? यह बात बुद्धिजीवी और सियासी लोग भले ही बख़ूबी समझते हों, मगर आम आदमी की समझ में ये बातें आसानी से नहीं आतीं।

आम आदमी जब परेशान हो जाता है, तो ज़ुबान चलाकर अपनी भड़ास ज़रूर निकाल लेता है, मगर सियासी दाँवपेंच उसकी समझ में नहीं आते। कुछ भी कहो, परन्तु इन दिनों उत्तर प्रदेश के सियासी हालात कुछ ठीक नहीं लगते। इस बार 9वीं सदी के शासक मिहिरभोज की प्रतिमा का उद्घाटन करने की उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की योजना से ग़ुस्साये राजपूत उनके ख़िलाफ़ हो गये हैं। जिन राजपूतों के वे नेता हैं, उन्हीं राजपूतों ने उन्हें आन्दोलन की चेतावनी दे डाली है। मिहिरभोज की प्रतिमा के अनावरण को राजपूतों ने तुष्टिकरण की राजनीति क़रार दिया है और साफ़ कर दिया है कि अगर योगी आदित्यनाथ इस तरह की सियासत करेंगे, तो इसका परिणाम उन्हें ही भोगना होगा। दरअसल प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ राजा मिहिरभोज को गुर्जर समुदाय का शासक कहकर गुर्जर समुदाय को साधने के लिए उनकी प्रतिमा का अनावरण करने की तारीख़ तय कर चुके हैं, जबकि राजपूतों का कहना है कि मिहिरभोज क्षत्रिय राजपूत समुदाय से थे।

बड़ी बात यह है कि किसान आन्दोलन के चलते किसान योगी सरकार से ख़फ़ा हैं। मज़दूर रोटी-रोटी को लेकर ख़फ़ा हैं। युवा रोज़गार को लेकर ख़फ़ा हैं। इस परेशानी से योगी राममन्दिर निर्माण की चाशनी चटाकर पार पा भी लें, परन्तु यहाँ तो योगी के गले में और भी कई फाँसें फँसी हुई हैं। कोरोना महामारी की दो लहरों में हुए मौत के तांडव के बाद अब उत्तर प्रदेश में डेंगू और वायरल बुख़ार का कहर बरस रहा है। लोगों में अब यह चर्चा आम है कि योगी सरकार लोगों को बीमारियों से बचाने के लिए नहीं, बल्कि बीमारों को इलाज न दे पाने में अव्वल है। बड़ी बात यह है कि दोनों ही बीमारियाँ कोरोना महामारी की तरह ही गाँवों में फैल चुकी हैं, जिससे निपटने के लिए सरकार को ज़िला स्तर से लेकर ब्लॉक स्तर तक के अस्पतालों की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को दुरुस्त करना होगा। पूरे प्रदेश में इन दिनों कोई भी ऐसा अस्पताल नज़र नहीं आ रहा है, जहाँ मरीज़ों को बेड मिलने की भी सहूलियत हो। इस बारे में डॉ. विकास ने कहा कि इन दिनों बुख़ार के बहुत मामले प्रदेश भर में आ रहे हैं, ऐसी स्थिति में अगर कोरोना वायरस की तीसरी लहर भी आ गयी, तो हालात बहुत ख़राब हो जाएँगे, जो सँभाले नहीं सँभलेंगे। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह वायरल बुख़ार और डेंगू पर क़ाबू पाने के लिए सार्थक क़दम जल्द से जल्द उठाये।

सपा की चुनौतियाँ होंगी कम?

वहीं अगर समाजवादी पार्टी (सपा) की बात करें, तो वह बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और कांग्रेस के प्रमुख मुस्लिम नेताओं के अपनी तरफ़ आने से मज़बूत हो सकती है। क्या उसकी चुनौतियाँ कम होंगी? यह बात तब उठ रही है, जब असदुद्दीन ओवैसी ने मुस्लिम वोट काटने के लिए उत्तर प्रदेश में डेरा डाल दिया है। क्योंकि ऐसा माना जा रहा है ओवैसी की पार्टी आल इंडिया मजलिसे-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) के चुनाव में उतरने से समाजवादी पार्टी के वोटबैंक के लिए सबसे ज़्यादा नुक़सानदायक साबित होगी। लेकिन सपा में कांग्रेस के सलीम इकबाल शेरवानी के शामिल होने से अखिलेश का सीना गर्व से चौड़ा हो गया है। क्योंकि सलीम मुस्लिमों का पसन्दीदा चेहरा हैं और पाँच बार सांसद रह चुके हैं। राजीव गाँधी से भी उनके दोस्ताना रिश्ते रहे हैं।

68 वर्षीय शेरवानी बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद कांग्रेस छोडक़र समाजवादी पार्टी में चले गये थे। लेकिन सन् 2009 में मुलायम सिंह ने उनकी मनचाही सीट से अपने भतीजे धर्मेंद्र यादव को टिकट दे दिया था, जिससे नाराज़ होकर सलीम फिर कांग्रेस में चले गये थे और अब एक बार फिर वो समाजवादी पार्टी में आ गये हैं।

अलीगढ़ में हुई किसान महापंचायत और सपा के कई कार्यक्रमों में सलीम शामिल रहे हैं। इससे यह भी माना जा रहा है कि उन्हें आजम ख़ान की जगह की भरपाई के लिए पार्टी में लाया गया है। सलीम के अलावा अंसारी भाइयों में सबसे बड़े और ग़ाज़ीपुर के मोहम्मदाबाद से बसपा के पूर्व विधायक सिबगतुल्लाह अंसारी, बसपा सांसद अफ़जल अंसारी और मुख़्तार अंसारी जैसे चेहरे सपा में आ चुके हैं। बता दें कि मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी में जाने की इस वजह से भी ज़्यादा उम्मीदें हैं। क्योंकि किसी और पार्टी के पास उन्हें अपने हित नहीं सुरक्षित नहीं दिखते।

भाजपा की सरकार में असुरक्षा की भावना से भरे मुस्लिमों को यह भी लगता है कि अगर वे आपस में इस बार बँटे, तो उनके वोट डालने का कोई फ़ायदा नहीं होगा। अखिलेश यादव मुस्लिमानों के उनकी तरफ़ झुकाव से इतने आत्मविश्वास से भर गये हैं कि उन्होंने योगी सरकार को इशारों-इशारों में समझा दिया है कि इस बार प्रदेश की सत्ता समाजवादी पार्टी ही सँभालेगी। उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है और इसलिए आगामी चुनाव लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे को बहाल करने के लिए महत्त्वपूर्ण है। अखिलेश का यह कटाक्ष भाजपा की भेदभाव वाली सियासत को लेकर था। पत्रकारिता और प्रचार तंत्र का इस्तेमाल अपने पक्ष में करने वाली योगी सरकार से उन्होंने यह भी कहा कि आज मीडिया के समक्ष समाचारों के प्रकाशन एवं प्रसारण में निष्पक्षता और पारदर्शिता बनाये रखना एक बड़ी चुनौती है। उन्होंने यह बात ही पीटीआई कर्मचारियों के अखिल भारतीय महासंघ की वार्षिक आम सभा की बैठक में कही।

कांग्रेस की आँख-मिचौली

कांग्रेस की आँखमिचौली अभी तक किसी की समझ में नहीं आयी है। इसकी एक वजह यह है कि जो लोग प्रियंका गाँधी को मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहते थे, उनकी उम्मीदों पर ख़ुद प्रियंका गाँधी ने तोड़ दिया है। इसके अलावा उसकी चुनावी रणनीति को लेकर भी कोई तस्वीर उतनी स्पष्ट नहीं दिखती, जितनी की जनता देखना चाहती है।

कई पुराने नेता उसका दामन छोड़ चुके हैं और नये पार्टी में आ चुके हैं। प्रियंका गाँधी पूरे दमख़म से मैदान में हैं, तो वहीं दूसरे नेता अभी उतने सक्रिय नहीं दिखते, जितने कि दिखने चाहिए। हो सकता है कि इसकी वजह उन्हें पार्टी से टिकट मिलने की अनिश्चितता हो, लेकिन फिर भी उन्हें हिम्मत तो दिखानी ही चाहिए। हालाँकि यह अलग बात है कि कांग्रेस हर ख़ास-ओ-आम की समस्याओं पर बड़ी गहराई से ग़ौर कर रही है और ग़रीबों की परेशानियों को सुन रही है।

रालोद हुई मज़बूत

इधर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दबदबा रखने वाले जाटलैंड के चौधरी अजित सिंह की मृत्यु होने के बाद उनकी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) की ज़िम्मेदारी उनके बेटे जयंत चौधरी पर आ गयी है। 19 सितंबर को जयंत चौधरी की पगड़ी रस्म बाग़पत में हुई, जहाँ 32 जातियों और 24 ख़ाफ़ पंचायतों के नेताओं ने उन्हें पगड़ी बाँधकर उत्तर प्रदेश मिशन-2022 के लिए आशीर्वाद दिया।

जयंत चौधरी ने यह रस्म पगड़ी अपने पिता के श्रद्धांजलि समारोह के दौरान करायी, जिसमें प्रदेश के अलावा दूसरे प्रदेशों के भी लोग शामिल हुए। माना जा रहा है कि जयंत चौधरी काफ़ी कमज़ोर हो चुकी अपनी पार्टी को फिर से उसी स्तर पर खड़ा करने की कोशिश करेंगे, जिस मकाम पर उनके दादा चौधरी चरण सिंह पार्टी को पहुँचा गये थे। किसानों की भाजपा सरकारों से नाराज़गी उनके लिए एक बेहतर मौक़ा हो सकता है।

बिगड़े बोल!

इधर उत्तर प्रदेश के मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ के बिगड़े बोल उन्हें ही संकट में डाल रहे हैं। हाल ही में उन्होंने नाम लिए बिना ही कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी पर ऐसी टिप्पणी कर दी, जिससे उन्हें निंदा का सामना करना पड़ा। उन्होंने कहा कि देश में आपदा के समय एक पार्टी के लोग इटली भाग जाते हैं, देवी-देवताओं पर टिप्पणी करना, राम-कृष्ण को नकारना उनकी प्रवृत्ति का हिस्सा है, जो एक्सीडेंटल हिन्दू होगा तो यही होगा। उनके इस एक्सीडेंटल हिन्दू शब्द पर सियासी धड़ों में भी नाराज़गी दिख रही है।

अपनी बुलडोजर नीति का दम्भ भरते हुए भी उन्होंने कह डाला कि निर्दोष लोगों की सम्पत्ति एवं सरकारी सम्पत्ति पर अवैध क़ब्ज़ा करने वालों का एक ही उपचार है- बुलडोजर। पहले डीजीपी आवास के पास एक शत्रु सम्पत्ति पर अवैध क़ब्ज़ा था मैंने कहा कि इसका एक ही उपचार है- बुल्डोजर। कभी-कभी ज़्यादा पंचायत न करके सीधे जवाब देने की ज़रूरत होती है। उनकी अकड़ यहीं नहीं थमी, समाजवादी पार्टी (सपा) पर हमला करते हुए उन्होंने कहा कि पिछली सरकार में पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग बाढ़ में डूबे रहते थे और बच्चे एवं नागरिक इंसेफेलाइटिस और डेंगू की चपेट में आकर तड़पते थे। उस समय, ज़िम्मेदार लोग सैफई में फ़िल्मी हस्तियों के नृत्य का आनंद लेने में व्यस्त रहते थे। मुझे समझ में नहीं आता कि स्वार्थ में लोग राष्ट्र व समाज हित कैसे भूल जाते हैं?

इस टिप्पणी को लेकर भी योगी आदित्यनाथ की ख़ूब भद्द पिट रही है। क्योंकि यह बात उन्होंने तब कही है, जब पूरे उत्तर प्रदेश में हज़ारों लोग वायरल बुख़ार और डेंगू से तड़प रहे हैं; मर रहे हैं। इससे पहले भी प्रदेश वासियों ने स्वास्थ्य अव्यवस्था की वजह से कोरोना और उससे पहले चमकी बुख़ार के चलते मौत का तांडव योगी राज में ही बहुत क़रीब से देखा है।