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कहीं अकाली दल का किसान आन्दोलन सियासी तो नहीं!

कहते हैं कि सियासत में हर क्षण समीकरण बनते-बिगड़ते रहते हैं। कब, कौन, किसके साथ हो जाए और कौन, कब, किसकी सींची हुई ज़मीन पर अपनी सियासी फ़सल पका ले? कुछ कहा नहीं जा सकता है। ऐसा ही हाल पंजाब की सियासत को लेकर भी है। बताते चलें कृषि क़ानूनों के विरोध में देश भर में संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा चलाये जा रहे किसान आन्दोलन को लेकर केंद्र सरकार भी डरी हुई है। केंद्र सरकार से लेकर भाजपा शासित राज्य सरकारें तक किसान आन्दोलन को समाप्त करने के लिए कोई-न-कोई बीच का रास्ता निकालने में लगी हुई हैं। लेकिन अभी तक कोई समाधान न निकलने से सरकार सकते में है कि कहीं किसान आन्दोलन और उग्र रूप न ले ले।

किसान आन्दोलन में सबसे ज़्यादा किसान पंजाब से भाग ले रहे हैं। इस लिहाज़ा से पंजाब की सियासत में पंजाब के किसानों की भूमिका अहम है। किसान आन्दोलन के चलते दिल्ली की सीमाओं पर लगभग एक साल से हलचल तेज़ है। आये दिन किसानों के प्रदर्शन के चलते पुलिस द्वारा लाठीचार्ज जैसी घटनाएँ होती हैं, जिसमें किसानों की मौतें भी हुई हैं और कई घायल भी हुए हैं।

पंजाब के चुनाव को अभी छ: महीने से कम समय बचा है। इस लिहाज़ा से पंजाब में राजनीतिक ताना-बाना बनता-बिगड़ता रहा है। शिरोमणि अकाली दल (बादल) ने 17 सितंबर को किसानों के अधिकारों के ख़ातिर और कृषि क़ानूनों के विरोध में जो केंद्र सरकार के विरोध में प्रदर्शन किया है, उसके सियासी मायने किसानों के बीच ही नहीं, बल्कि पंजाब की सियासत में बख़ूबी अलग ही निकाले जा रहे हैं।

जानकारों का कहना है कि अकाली दल ने किसानों के समर्थन में जो दिल्ली की सीमाओं पर जो प्रदर्शन किया है, उससे एक साथ कई निशाने साधे गये हैं। एक तो यह कि वो किसानों के सच्चे हितैषी हैं और केंद्र सरकार के विरोध में हैं। साथ ही केंद्र सरकार और पंजाब की सियासत में यह बताया कि उनकी राजनीतिक ज़मीन को कोई भी कम न आँके। शिरोमणि अकाली दल (बादल) का मानना है कि भले ही आज किसान आन्दोलन को लेकर विपक्ष कृषि क़ानून की बात कर रहा है; लेकिन सबसे पहले अगर किसी ने किसानों के पक्ष में आवाज़ उठायी, तो वो है अकाली दल। किसानों के अधिकारों की ख़ातिर अकाली दल की हरसिमरन कौर ने केंद्रीय मंत्री पद इस्तीफ़ा दिया था, जबकि अकाली दल सालोंसाल से भाजपा की राजनीतिक सहयोगी पार्टी भी रही है।

अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल ने प्रदर्शनकारी किसानों को सम्बोधित करते हुए कहा कि केंद्र सरकार तो किसानों के साथ अन्याय कर ही रही है। साथ दिल्ली की आम आदमी पार्टी और कांग्रेस पार्टी किसानों के साथ राजनीति कर किसानों को गुमराह कर रही है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी ही किसान-कृषि विरोधी बिल लायी थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को तब कृषि क़ानूनों को संसद के विरोध के चलते क़ानून वापस लेना पड़ा था। सुखबीर सिंह बादल ने कहा कि कांग्रेस पार्टी और आम आदमी पार्टी प्रमुख व दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल तो किसानों के साथ दिखावा कर रहे हैं।

जानकार सूत्रों का कहना है कि पंजाब में बसपा और अकाली दल का गठबन्धन है। अगले साल उत्तर प्रदेश और पंजाब में विधानसभा के चुनाव होने हैं। दोनों राजनीति दलों पर समय-समय पर यह आरोप लगता रहा है कि इन दोनों राजनीतिक दलों ने विपक्षी दलों के साथ कभी भी किसानों का साथ देने के लिए कोई भी मंच साझा नहीं किया है। अब दोनों राज्यों में चुनावी बिगुल बजने वाला है, तो किसानों के समर्थन में दिल्ली बॉर्डर पर बसपा और अकाली दल ने जो प्रदर्शन किया है, वो किसानों के बीच अपनी पकड़ बनाने के अलावा और कुछ नहीं है। पूर्व केंद्रीय मंत्री हरसिमरन कौर ने कहा कि हरियाणा और केंद्र सरकार ने किसानों पर जो लाठीचार्ज करवाया है, उसे किसान कभी भी नहीं भूलेंगे। क्योंकि किसान तो शान्तिपूर्वक अपनी बात रखने आये थे। केंद्र सरकार किसानों के साथ विश्वासघात कर रही है।

विपक्षी दलों के नेताओं का कहना है कि यह आन्दोलन उस समय अलग से क्यों किया गया? जब सारे देश के किसान एक साथ सरकार के विरोध में आन्दोलन कर रहे हैं। इसका मतलब साफ़ है कि किसानों के आन्दोलन में सेंध लगायी जा रही है, ताकि किसानों के आन्दोलन को कई भागों में बाँटा जा सके। अगर ऐसे ही अलग-अलग किसानों के आन्दोलन हुए, तो किसान आन्दोलन सियासी तालमेल का कारण बन जाएगा।

ग़ौर करने वाली बात तो यह है कि सुखबीर सिंह बादल ने केंद्र की भाजपा सरकार पर जो निशाना साधा, वो तो ठीक है। लेकिन इसके साथ उसने कांग्रेस और आम आदमी पार्टी पर ये आरोप लगाये कि ये दोनों दल किसानों के साथ दिखावे की राजनीति कर रहे हैं और कांग्रेस पार्टी ही कृषि क़ानूनों की जनक है।

फिर बढ़ रहा खाप पंचायतों का दबदबा

***FILE PHOTO*** Sisoli: In this file photo dated 11th Sept., 2013, is seen Bhartaiya Kisan Union President Naresh Tikait addresses the Baliyan Khap panchayat apealing people to maintain peace in the wake of Mujaffarnagar riots, in Sisoli. Supreme Court today, has termed it 'absolutely illlegal', Khap panchayat's interference to stop two consenting adults from marrying each other. PTI Photo (PTI3_27_2018_000141B)

देश की राजधानी दिल्ली में तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में किसानों का आन्दोलन पिछले क़रीबन 10 महीने से जारी है। हालाँकि किसानों का कहना है कि आन्दोलन को पूरा एक साल हो गया है। लेकिन सरकार जानबूझकर आन्दोलन को छोटा और कम समय का बताने की कोशिश कर रही है।

कुल मिलाकर अभी तक किसानों को शान्त करने में विफल रही है। दोनों पक्षों के बीच कई दौर की बातचीत के बाद भी सरकार की ओर से उदासीन रवैये को देखते हुए किसानों के समर्थन में खाप पंचायतें पूरी तरह उतर चुकी हैं। खाप की रणनीति से किसान आन्दोलन को संजीवनी मिल रही है। आमजन भले ही सीधे-सीधे किसान आन्दोलन में शरीक़ नहीं हो पा रहे हों, लेकिन अधिकतर लोग आन्दोलन का समर्थन करते हैं।

पिछले दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज़िला मुज़फ़्फ़रनगर में किसान महापंचायत और हाल ही में बाग़पत में जयंत चौधरी की रस्म पगड़ी में तमाम खाप पंचायतों का शिरकत करना और जयंत चौधरी को समर्थन देना जताता है कि खाप पंचायतें जो पिछले दिनों कुछ कुंद और कमज़ोर पड़ती नज़र आ रही थीं, वे पुन: मज़बूती के साथ उभरी हैं। लम्बे समय से देश की राजधानी दिल्ली में चल रहे किसान आन्दोलन से खाप पंचायतों का जुडऩा जताता है कि खाप पंचायतों का अस्तित्व आज भी कहीं-न-कहीं मज़बूती के साथ खड़ा है। यूँ तो खाप पंचायतों में तमाम 36 जातियाँ होती हैं; लेकिन इसमें अधिक प्रभाव जाट समाज का ही दिखायी पड़ता है। लगातार हो रही किसान पंचायतों में खाप पंचायतें पहले से ज़्यादा मुखर और मज़बूत होकर आगे आयी हैं।

खाप पंचायतों के विषय में ऐतिहासिक दृष्टि से बात की जाए, तो खाप पंचायतें पारम्परिक हैं और कई तरह की होती हैं। कई बार अपने फ़ैसलों को लेकर वे काफ़ी उग्र भी नज़र आती रही हैं। जबकि इन्हें कोई आधिकारिक और संवैधानिक मान्यता प्राप्त नहीं है। पूर्व प्रशासनिक अधिकारी चोब सिंह वर्मा कहते हैं कि मुगल-काल से उत्तर भारत के जाटों की खाप पंचायतें एक सामाजिक ग्राम्य गणतंत्र रही हैं। उत्तर मुगल-काल में जब अफ़ग़ानी आक्रांता थोड़े-थोड़े अंतराल पर सिंध पार करके पंजाब को रौंदते हुए सशस्त्र बलों के साथ दिल्ली की ओर बढ़ते थे; तब अपनी स्त्रियों, बच्चों और सम्पत्ति की रक्षा के लिए जाटों ने समूह बनाने शुरू किये थे। उस समय खापों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने के लिए प्रशासनिक इकाई के रूप में खापों को मान्यता मिली थी। प्रारम्भ में ये समूह गोत्र पर आधारित थे। जाटों में गोत्र व्यवस्था उतनी ही पुरानी है, जितनी कि जाति व्यवस्था। अपना डीएनए ख़ास बनाये रखने के लिए जाट अपने बच्चों के शादी-ब्याह ऐसे दूसरे गोत्रों में करते हैं, जिनसे उनकी माँ और पिता के गोत्र न टकराते हों। इस व्यवस्था से उनका सामाजिक विस्तार भी होता गया और समानता व एकता की भावना भी बलवती होती गयी। हालाँकि बाद के दिनों में गोत्र विशेष के छोटे-मोटे विवादों का निपटारा इनकी खाप पंचायतों में होने लगा, जिनमें विवाद भी रहे।

इतिहास गवाह है कि खाप चौधरियों ने समाज के वजूद को हमेशा मज़बूत किया है। खाप का ढाँचा पिरामिडीय आकार का रखा गया है। नज़दीकी भाई अपना कुटुंब बनाते हैं, कुटुंब मिलकर थोक (पट्टी) निर्मित करते हैं। थोक मिलकर थाम्बा गठित करते हैं, और अन्त में उस गोत्र के थाम्बे मिलकर खाप का गठन करते हैं। सभी खापें मिलकर एक सर्वखाप का गठन करती हैं। कंडेला में यही सर्वखाप पंचायत हुई थी। वैसे सबसे बड़ी सर्वखाप पंचायत (जिसके इस समय नरेश टिकैत प्रमुख हैं) सन् 1936 में बालियान खाप के मुख्यालय सोरम गाँव में हुई थी। उसमें किसानों ने महात्मा गाँधी के आह्वान पर देश की आज़ादी की लड़ाई में बढ़-चढक़र हिस्सा लेने का फ़ैसला किया था।

एक बात समझने की ज़रूरत है। जाटों की नज़र में ज़मीन बहुत ही मूल्यवान होती है। एक जाट कितने भी महँगे बंगले में रहता हो। विदेश में रहता हो। एलीट क्लब का सदस्य हो। करोड़ों के पैकेज वाला वेतन पाता है। परन्तु दूसरों से बातचीत में अपने पास गाँव में पैतृक ज़मीन होने की बात पर वह बड़ा ही गौरवान्वित महसूस करता है, जो उसके ज़मीन से जुड़े होने का प्रमाण है।

खाप ग्रामीणों का संगठन होता है, इसलिए उनके पास किसान नेता व राजनेता अपना मनोबल, संख्या बल और शक्ति प्रदर्शन हासिल करने जाते हैं। ग्रामीण किसान भावुक और भोले-भाले होते हैं और आसानी से भावनाओं में बह जाते हैं। इसी का फ़ायदा राजनीतिक दल उठा लेते हैं। नेता खापों के किसी काम नहीं आते, लेकिन उनका समर्थन ज़रूर अपने सियासी दल में जान फूँकने के लिए लेते रहते हैं। खाप पंचायत एक पुरातन व्यवस्था है, जिसमें एक गोत्र या फिर बिरादरी के सभी गोत्र मिलकर खाप पंचायत बनाते हैं। ये पंचायतें पाँच गाँवों से लेकर सैंकड़ों गाँवों की भी हो सकती हैं।

उदाहरण स्वरूप हरियाणा की मेहम और उत्तर प्रदेश की बालियान बहुत बड़ी खाप पंचायत है। कई ऐसी और भी पंचायतें हैं। जो गोत्र जिस इलाक़े में ज़्यादा प्रभावशाली होता है, उसी का उस खाप पंचायत में ज़्यादा दबदबा होता है। कम जनसंख्या वाले गोत्र भी पंचायत में शामिल होते हैं। लेकिन प्रभावशाली गोत्र की ही खाप पंचायत में अधिक चलती है। जैसे कि आपने पिछले दिनों देखा चौधरी नरेश टिकैत को पंचायत में इसलिए इतना अधिक महत्त्व मिला, क्योंकि उनकी खाप पंचायत के हिसाब से उनका बालियान गोत्र सबसे बड़ा है। बहरहाल खाप पंचायत चलाने का तरीक़ा यह है कि सभी ग्रामीणों को बैठक में बुलाया जाता है, चाहे वे आएँ या न आएँ। और जो भी फ़ैसला लिया जाता है, उसे सर्वसम्मति से लिया गया फ़ैसला माना जाता है और सभी को बाध्य तरीक़े से मान्य होता है। जानकार बताते हैं कि सबसे पहली खाप पंचायतें जाटों की ही थीं। विशेष तौर पर पंजाब-हरियाणा और राजस्थान के देहाती इलाक़ों में भूमिदार जाटों की। प्रशासन और राजनीति में इनका ख़ासा प्रभाव है। जनसंख्या भी ये काफ़ी ज़्यादा हैं। इन राज्यों में जाट एक प्रभावशाली जाति है और इसीलिए उसका दबदबा भी है। हाल-फ़िलहाल में खाप पंचायतों का प्रभाव और महत्त्व घटता दिखायी पड़ रहा था। क्योंकि ये तो पारम्परिक पंचायतें हैं और संविधान के मुताबिक निर्वाचित पंचायतें आ गयी हैं। ज़ाहिर है खाप पंचायत का नेतृत्व गाँव के बुज़ुर्गों और प्रभावशाली लोगों के पास होता है।

सामाजिक कार्यकर्ता, विचारक और पत्रकार जसबीर सिंह मलिक कहते हैं कि चौधरियों की चौधराहट ख़त्म करने के लिए चौधरी दोषी नहीं हैं और न खाप पंचायतें दोषी हैं, बल्कि आज की संकुचित मानसिकता की पढ़ी-लिखी जमात ही दोषी है; जो अपने आपको ज़्यादा योग्य समझती है। जबकि उसे खाप के विषय में कुछ भी नहीं मालूम। समाज की पढ़ी-लिखी जमात ने साबित करना चाहा था कि चौधरियों का पतन हो चुका है। कुछ पढ़े-लिखे और राजनीतिक दलों से जुड़े लोग भी अपनी-अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के लिए खाप चौधरियों के ख़िलाफ़ खड़े हुए, जिन्होंने चौधरियों को नुक़सान पहुँचाने का काम किया है।

हालाँकि आज किसान आन्दोलन ने सिद्ध कर दिया कि खाप पंचायतों और उनके चौधरियों में आज भी उतना ही दम है, जिसके लिए वे जाने जाते हैं। जबकि कुछ राजनीति और प्रशासन के साथ खड़े होकर किसान आन्दोलन के अग्रणियों को ख़त्म करने की फ़िराक़ में थे, उसी दिन खाप चौधरी खड़े हुए तो सरकार व प्रशासन क़दम पीछे हटाने के लिए मजबूर हुए और किसान आन्दोलन का वजूद क़ायम हुआ।

कुछ लोगों ने खाप पंचायतों की इस व्यवस्था में बदलाव लाने के लिए या कहें कि इन्हें ख़त्म करने के लिए चौधरी, मुखिया, प्रधान, सरपंच जैसे शब्दों को अलग करके एक कोशिश भी की, लेकिन इसके बावजूद खापों का अस्तित्व बरक़रार रहा। खाप और उनके चौधरी हमेशा प्रजातंत्र में विश्वास रखते आये हैं। दुनिया के किसी भी हिस्से में जहाँ भी प्रजातंत्र / लोकतंत्र है, उसके प्रचारक और प्रसारक खापें और खापों के प्रधान ही रहे हैं।

खाप पंचायत के आधार व्यवस्था, बेदाग़ छवि, प्रजातंत्र, इंसानियत, भाईचारे में विश्वास और पञ्च (पंच) परमेश्वर जैसे मज़बूत और न्यायिक शब्द हैं। इसलिए खाप पंचायतें समाज को बेहतर समझने वाली रही हैं। खाप पंचायतों की निष्पक्ष व्यवस्था धर्म और ऊँच-नीच के भेद-भाव को नहीं मानती। इसमें समाज के हर तबक़े को विचार रखने का हक़ है। इसलिए इसमें सभी 36 बिरादरियों को शामिल किया गया है। यह एक ऐसी पुरातन व्यवस्था है, जिसके ज़रिये समाज के सही और ईमानदार लोगों के हक़ में फ़ैसले लिए जाते रहे हैं। कुछ एक विवावित फ़ैसलों ने खाप पंचायतों पर से लोगों का विश्वास कम ज़रूर किया है, लेकिन यह एक ऐसी निष्पक्ष व्यवस्था रही है, जहाँ अमीर-ग़रीब, मज़दूर-ज़मीदार से लेकर राजा-महाराजा तक सभी को बराबर माना जाता रहा है और एक नज़र से देखा जाता रहा है।

समाज के हक़ों के लिए खाप पंचायतों का हुकूमतों से संघर्ष भी बहुत पुराना है, जो आज भी बरक़रार है। इसकी ताक़त और बानगी का अनुमान मौज़ूदा किसान आन्दोलन से लगाया जा सकता है। इतिहास गवाह है, जब-जब हक़ और सच के लिए आवाज़ उठाने की ज़रूरत पड़ी है, खाप पंचायतों ने हमेशा आगे आकर मोर्चा सँभाला है और अपने तथा दबे-कुचलों के हक़ों के लिए हुकूमतों को झुकने पर मजबूर किया है।

मेरी जानकारी में आता है कि खापें कभी भी किसी भी सरकार के सामने कभी नहीं झुकीं। खाप व्यवस्था ने राजा-महाराजाओं को भी निष्पक्ष इंसाफ़ के लिए मजबूर किया है। खाप पंचायत एक ऐसी निष्पक्ष व्यवस्था है, जिसको कोई बदल नहीं पाया और भविष्य में भी इसकी ऐसी कोई बड़ी सम्भावना भी दिखायी नहीं देती।

बहरहाल खाप पंचायतें दबे-कुचले लोगों और किसानों पर हो रहे सरकारी अत्याचार से किस तरह किस हद तक निपट पाती हैं और सरकार को झुकाने में कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, यह तो आगामी विधानसभा चुनावों में ही पता चल सकेगा, जो आने वाला समय ही बताएगा। फ़िलहाल खाप पंचायतें एकजुट होकर इस लड़ाई को लडऩे के लिए आगे आ चुकी हैं और सरकार को चुनौती भी दे चुकी हैं।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

क्या सरकार को झुका सकेगा किसानों का संघर्ष?

तीन कृषि क़ानूनों का जिस हद तक विरोध होने लगा है, उसकी कल्पना किसानों ने भले ही न की हो; लेकिन केंद्र सरकार ने बिल्कुल भी नहीं की होगी। क़रीब एक साल और दिल्ली की सीमाओं पर 10 माह के बाद आन्दोलन बदस्तूर जारी है और वह भी ज़बरदस्त तरीक़े से। आन्दोलन कब तक चलेगा और इसका पटाक्षेप कैसे होगा? यह कोई नहीं जानता।

अब आन्दोलन मुद्दों के साथ-साथ सरकार की हठधर्मिता पर किसानों की अडिगता और अस्मिता का बन गया है। किसान क़ानूनों को रद्द करने और सरकार इन्हें संशोधन सहित लागू करने पर अड़े हैं। बातचीत के दरवाज़े कमोबेश बन्द हो चुके हैं। कहने को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके लिए एक फोन कॉल की दूरी बता चुके हैं। आज महीनों हो गये वह फोन कॉल सरकार ने नहीं की,तो फिर बर्फ़ की मोटी परत कैसे पिघलेगी?

हालाँकि संयुक्त मोर्चा ने यह तक कहा कि अगर सरकार बातचीत करना चाहे, तो किसान तैयार हैं। केंद्र सरकार के तीन कृषि क़ानूनों का सबसे पहले बड़ा विरोध इसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी देने का था। आन्दोलन के शुरू में अगर केंद्र किसान संगठनों को भरोसे में लेकर बातचीत करती, तो आज यह नौबत नहीं आती। किसान संगठनों की नज़र में तीन कृषि क़ानून काले हैं और इनके लागू होने से कृषि क्षेत्र उनसे निकलकर बड़े कार्पोरेट घरानों के हाथ में चला जाएगा और भविष्य में इसका ख़ामियाज़ा पूरे देश को उठाना पड़ेगा। सरकार मौखिक रूप से इसे नकार रही है, लेकिन इस पर बहस नहीं करना चाहती। वह ऐसा करने से क्यों बच रही है और क्यों जबरन क़ानूनों को लागू करना चाहती है? यह वही जाने।

सरकार ने इन क़ानूनों को किसान हितैषी बताकर इनकी प्रासंगिकता और भविष्य में इससे होने वाले फ़ायदों का मौखिक बयान करके ख़ूब कोशिश की कि किसान उसकी बात मान जाएँ, पर किसानों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

विगत में महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के आन्दोलन विशुद्ध रूप से ग़ैर-राजनीतिक रहे हैं और लगभग सभी कमोबेश सफल रहे, तो उसका श्रेय किसानों की एकता और नेतृत्व को रहा। ये दोनों चीज़ें भी इस आन्दोलन में हैं। फिर क्या कारण है कि आन्दोलन इतना लम्बा खिंच गया और सरकार ने उनकी सुध भी नहीं ली? इसकी एक वजह सरकार की उद्योगपतियों के प्रति हित वाली सोच और किसानों की अनदेखी तो है ही; साथ ही अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग समस्याएँ भी हैं।

संयुक्त किसान मोर्चा में 40 से ज़्यादा किसान-मजदूर संगठन हैं। सभी की अपनी-अपनी सोच और हित हैं। कहने को संयुक्त किसान मोर्चा ही आन्दोलन का नेतृत्व कर रहा है, कोई व्यक्ति विशेष नहीं; लेकिन क्या यह हक़ीक़त है कि कोई केवल किसानों के हित के लिए आन्दोलन से जुड़ा है? ऐसे में भविष्य में यह भी हो सकता है कि सरकार जिन राज्यों में चुनाव हों, वहाँ के किसानों को साधकर आन्दोलन को कमज़ोर कर दे।

दिल्ली सीमा पर भाकियू प्रवक्ता राकेश टिकैत की आँखों से छलके आँसुओं ने किसान आन्दोलन को जैसे नयी दिशा दे दी। टूट रहा आन्दोलन फिर से मज़बूत हुआ और टिकैत जैसे एकछत्र किसान नेता के रूप में उभरे, जो अब तक चले आ रहे हैं। आन्दोलन भाकियू के झण्डे तले हो रहा है, जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष महेंद्र सिंह टिकैत के बड़े बेटे नरेश टिकैत हैं। उनकी सोच और विचार काफ़ी कुछ अपने पिता से मिलते हैं। वह बातचीत से सम्मानजनक समझौता करने के पक्षधर रहे हैं और अब भी उनकी सोच वही है; लेकिन वह कभी-कभार ही सरकार को चुनौती देते दिखे हैं।

लम्बा खिंचता आन्दोलन देश में अस्थिरता पैदा कर सकता है। इसके उदाहरण हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश हैं, जहाँ अस्थिरता जैसा माहौल बन चुका है। इसके लिए किसानों से ज़्यादा ज़िम्मेदार सरकार है, जो बिना चर्चा के उस समय इन क़ानूनों को लायी, जब पूरे देश के लोग घरों में बन्द थे। और जब आन्दोलन हुआ, तो हरियाणा सरकार ने किसानों पर हमले कराये, लाठियाँ पड़वायीं, सडक़ें खुदवायीं, दुश्मन देश की सीमाओं की तरह बैरिकेड लगवाये और पानी की बोछारें करवाने के साथ-साथ आँसू गैस के गोले उन पर फिकवाये। केंद्र सरकार ने भी तो यही सब किया। हरियाणा में तो एसडीएम के आदेश पर पुलिस लाठीचार्ज में एक किसान की मौत भी हो गयी। अब जब किसान सरकार के पीछे पड़े हैं, तो मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री सरकारी कार्यक्रमों में या निजी कार्यों से खुलकर बाहर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। जिस तरह हरियाणा में किसानों पर अत्याचार हुए, वैसे कहीं और नहीं हुए। वहाँ के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर कई तरह की चेतावनियाँ किसानों को दे चुके; लेकिन उनके शासन हुए व्यवहार से किसान इतने ग़ुस्से में हैं कि कई जनप्रतिनिधियों का वे घेराव कर चुके हैं, जो माफ़ी माँगकर या फ़ज़ीहत कराकर ही पीछा छुड़ा सके हैं।

हिसार और करनाल में पुलिस लाठीचार्ज के बाद आन्दोलनकारियों ने सरकार पर दबाव बनाकर कुछ माँगें मनवा लीं। लेकिन हरियाणा सरकार ने आरोपी एसडीएम और पुलिस के ख़िलाफ़ कोई क़दम नहीं उठाया। कब, कहाँ, किसके बयान पर या पुलिस कार्रवाई पर थानों या सचिवालय का घेराव हो जाए? कुछ पता नहीं है।

आन्दोलन से पंजाब भी कम प्रभावित नहीं है। लेकिन वहाँ के हालात हरियाणा के कुछ बेहतर हैं। इसकी एक वजह वहाँ कांग्रेस सरकार का होना है, जो किसानों के प्रति काफ़ी नरम रही है और कृषि क़ानूनों को ग़लत बताती रही है। वहाँ भी नेताओं को डर है; लेकिन किसान मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायकों और नेताओं का हरियाणा के किसानों की तरह पीछा नहीं करते। कांग्रेस ने पहले दिन से ही आन्दोलन को समर्थन दे रखा है, इसलिए भी वहाँ के किसान उस पर हमलावर नहीं रहे। राज्य में नये मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने तो शपथ लेते ही सबसे पहले किसान आन्दोलन को पूरा समर्थन देने की घोषणा करने में देरी नहीं की।

उनसे पहले निवर्तमान मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का भी कमोबेश यही रूख़ था। उन्होंने किसी तरह किसान संगठनों से तालमेल बनाये रखा और राज्य में अस्थिरता पैदा नहीं होने दी। लेकिन वहाँ भी असली परीक्षा तो 2022 में विधानसभा चुनावों के दौरान ही होगी। उत्तर प्रदेश और हरियाणा में पार्टियों, ख़ासकर भाजपा के लिए यह परीक्षा और भी बेचैन करने वाली तथा ख़ास होगी। संयुक्त मोर्चा के पंजाब से जुड़े कुछ किसान-मज़दूर संगठनों को राजनीति में आने से ज़्यादा परहेज़ नहीं है। हरियाणा भाकियू अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढ़ूनी तो बाक़ायदा लुधियाना में कारोबारियों की गठित एक पार्टी में शिरकत कर चुके हैं। जीत के बाद चढ़ूनी को मुख्यमंत्री बनाने का ऐलान भी हो चुका है।

चढ़ूनी तो किसानों को राजनीति के मैदान में उतरने का आमंत्रण दे रहे हैं, ऐसा होने की प्रबल सम्भावना भी है। लेकिन कुल मिलाकर भाजपा का विरोध तय है। पश्चिम बंगाल में भाजपा का विरोध इसका ताज़ा उदाहरण है। इसी के चलते भाजपा में बेचैनी तब और बढ़ी है, जब मुज़फ़्फरनगर में किसान महापंचायत हुई, जिसमें लाखों किसान आकर जुटे और उन्होंने केंद्र सरकार समेत हर राज्य की भाजपा सरकार को चुनौती दे डाली।

पंजाब में आन्दोलनकारी किस पार्टी को समर्थन देंगे? सत्तासीन कांग्रेस को? प्रमुख विपक्षी दल आम आदमी पार्टी (आप) को? या शिरोमणि अकाली दल (शिअद) को? अभी से कुछ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि ये सभी पार्टियाँ किसान आन्दोलन की समर्थक हैं। अगर किसान संगठनों की ओर से कोई पार्टी वजूद में आती है, तो फिर तो स्थिति स्पष्ट ही है, अन्यथा हर पार्टी समर्थन हासिल करने के लिए पूरा ज़ोर लगा देगी। किसानों का समर्थन हासिल करने के लिए कसौटी क्या रहेगी? कौन इसे तय करेगा? और क्या उसको पूरी तरह माना भी जाएगा? यह भी अभी से नहीं कहा जा सकता। पंजाब से पहले उत्तर प्रदेश मिशन तो बाक़ायदा शुरू हो गया है। विशेषकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सरगर्मियाँ बढऩे लगी हैं। किसान आन्दोलन दो ही मुद्दों पर टिका है- एक तीनों कृषि क़ानून रद्द हों और दूसरा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को सरकार क़ानूनी जामा पहनाये।

केंद्र सरकार एमएसपी पर मौखिक आश्वासन तो दे रही में है; लेकिन उसे क़ानूनी का रूप देने या फिर लिखित में करने को तैयार नहीं है। किसान संगठन तीनों कृषि क़ानूनों को रद्द करने के साथ-साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी सरकार से चाहते हैं। उनकी राय में ऐसा होने की स्थिति में ही वे आन्दोलन को समाप्त कर सकते हैं। इसके पहले घर वापसी की कोई सम्भावना नहीं है। वहीं सरकार कृषि क़ानूनों को संशोधन सहित बहाल रखने और न्यूनतम समर्थन मूल्य के मौखिक वादे समेत अन्य मुद्दों को सुलझाने की मंशा रखती है।

अगर अपनी हठ छोडक़र केंद्र सरकार किसानों से बातचीत की राह अब भी निकाले और उन्हें सुने तथा नये कृषि क़ानूनों पर बिन्दुवार बात करे, तो सम्भव है कि किसानों द्वारा क़ानूनों में निकाली जा रही कमियों और अमान्य शर्तों की सच्चाई सामने आये और समाधान निकल सके। इससे सरकार और किसानों की नीयत, दोष, एक-दूसरे पर दोषारोपण की परतें भी खुलेंगी और देश के सामने एक साफ़ तस्वीर उजागर होगी। लेकिन किसानों की कृषि क़ानूनों पर चुनौतियों के बावजूद सरकार ने उसे स्वीकार नहीं किया और न ही क़रीब एक दर्ज़न की विफल बातचीत के बाद दोबारा बातचीत की कोई पहल ही की है। किसान नेता सरकार की उपेक्षा से बहुत नाराज़ हैं। उन्हें लगता है कि इतने बड़े और लम्बे आन्दोलन का भी उस पर कोई असर नहीं है। ऐसा जान-बूझकर किया जा रहा है, ताकि धीरे-धीरे आन्दोलन दम तोड़ जाए; लेकिन हो इसके विपरीत रहा है। आन्दोलन भले ही बीच में कमज़ोर और दिशाहीन लगा हो, लेकिन दोबारा से जब पूरे उफान पर आया, तो केंद्र और राज्य की भाजपा सरकारों के कान खड़े हो गये और उन्हें एक डर भी सताने लगा।

मुज़फ़्फरनगर महापंचायत के बाद भारत बन्द के ऐलान ने भाजपा और उसके केंद्रीय नेतृत्व समेत भाजपा शासित राज्यों के नेतृत्व की नींद उडऩे लगी है। क़रीब एक साल में भी कठिन परिस्थितियों, सरकार की नाफ़रमानी और ज़्यादतियों के बाद भी उनके हौंसले पस्त नहीं हुए।  इसे सरकार भी अच्छी तरह जानती है। आन्दोलन को नाकाम करने के लिए सरकार के साम, दाम, दण्ड, भेद सब नाकाम हो चुके हैं। ऐसे में बातचीत ही सुगम रास्ता है। इसकी पहल किसान संगठनों को नहीं, बल्कि सरकार को करनी चाहिए। मौजूदा स्थिति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसमें निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। लेकिन हैरानी की बात उन्होंने अब तक कोई पहल नहीं की। यह सही फ़ैसला नहीं कहा जा सकता।

रातोंरात प्रसिद्ध होने का पागलपन

आज की पीढ़ी रातोंरात प्रसिद्ध होने के चक्कर में क्या कुछ नहीं करना चाहती। वह भी बिना मेहनत के, बिना समय गँवाये। सोशल मीडिया पर रातोंरात प्रसिद्ध होने की चाहत आज की युवा पीढ़ी में इस क़दर घर कर चुकी है कि सेल्फी लेने और वीडियो बनाने के चक्कर में कई की जान तक चली गयी है, तो कई बार ऐसे लोग दूसरों की जान लेने वाले साबित हुए हैं।

यह चाहत बच्चों से लेकर बड़ों तक में सवार है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि सोशल मीडिया कई लोगों के लिए बड़ी उपलब्धि साबित हुआ है। कुछ लोग जिन्हें कोई जानता भी नहीं था, सोशल मीडिया के ज़रिये रातोंरात स्टार बन गये। लेकिन यह सही सोच के साथ सही काम और मेहनत का भी नतीजा है। जो लोग रातोंरात प्रसिद्ध होने वालों की पीछे की मेहनत को समझे बग़ैर, बिना मेहनत के रातोंरात एक क्लिक से प्रसिद्ध होने की चाहत रखते हैं, उनमें से न जाने कितने ही देश के युवा ज़िन्दगी के उस मोड़ पर लगातार जा रहे हैं, जहाँ उनमें से कई गुमनामी, पागलपन या फिर किसी हादसे का शिकार हो रहे हैं।

इन दिनों सोशल मीडिया की सभी साइट्स पर ऐसी वीडियो की भरमार देखने को मिल जाती है। ताज़ूब की बात यह है कि जहाँ लाखों युवा ख़ुद को प्रसिद्ध करने के लिए सोशल मीडिया पर दिन-रात लगे रहने और वीडियो बनाकर उस पर अपलोड करते रहने के चक्कर में अपने करियर को चौपट कर रहे हैं, वही हज़ारों युवा उन वीडियोज को देखने में अपना समय और करियर दोनों बर्बाद कर रहे हैं। एक शोध में यह बात सामने आयी है कि सोशल मीडिया अकाउंट से लोगों की दिमाग़ी हालत का पता चलता है कि वे किस स्थिति में पहुँच चुके हैं। इससे न केवल वे चिढ़चिढ़े, गुस्सैल, काम न करने की इच्छा वाले, फास्ट फूड ज़्यादा खाने वाले, आलसी और लापरवाह होते जा रहे हैं, बल्कि इससे उनमें आँखों, दिमाग़, लीवर, किडनी, रक्तचाप, शुगर और थाइराइड जैसे रोग भी बढ़ रहे हैं। यहाँ तक कि इस तल में पडक़र कई लोग ख़ुदकुशी तक कर लेते हैं। कुछ डॉक्टरों ने तो चेतावनी तक दी है कि मोबाइल का कम इस्तेमाल करना चाहिए और सोशल मीडिया का तो और भी कम इस्तेमाल करना चाहिए। इससे न केवल कई ज़िन्दगियाँ बच सकती हैं, बल्कि बहुत-से बच्चों का भविष्य बच सकता है। इसकी पहली ज़िम्मेदारी माँ-बाप की बनती है कि वे अपने बच्चों का इस बारे में सही मार्ग-दर्शन करें।

सोशल मीडिया से हो रहे मानवीय नुक़सान के बारे में शोध (रिसर्च) की भारी कमी है। दुनिया में काफ़ी कुछ इस बारे में कहा गया है; लेकिन फिर भी कोई ठोस और ज़मीनी शोध इस मामले में अभी तक नहीं किया गया है। इससे बड़ी बात यह है कि सोशल साइट्स को अभी तक किसी भी मौत के लिए या किसी के किसी बुरी दशा में चले जाने के लिए दुनिया में कहीं भी ज़िम्मेदार नहीं ठहराया गया है। माना जा रहा है कि सोशल मीडिया पर छाये रहने के इस दिमाग़ी जूनून के रोगियों को डॉक्टर और मनोचिकित्सक भी ठीक नहीं कर पा रहे हैं।

क्योंकि सोशल मीडिया पर छाये रहने की चाहत में लोग पागलपन की उस हद तक चले जाते हैं, जहाँ मौत तक हो जाती है। हाल ही में मोहब्बत के शहर आगरा में ऐसा ही नज़ारा देखने को मिला। स्थानीय सूत्रों से पता चला है कि यहाँ अपना वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर अपलोड करने के शौक़ीन कुछ स्थानीय बच्चों ने ख़तरनाक क़दम उठा डाला।

रेलवे पुलिस फोर्स और स्थानीय रेलवे सूत्रों के मुताबिक, राजामंडी और बिल्लोचपुरा स्टेशन के बीच सिकंदरा पुलिया के पास लगभग 12 से 15 वर्ष के कुछ नाबालिग़ बच्चों ने राजामंडी और बिल्लोचपुरा स्टेशनों के बीच सिकंदरा पुलिया के पास कर्नाटका एक्सप्रेस, ट्रेन संख्या 06249 और हबीबगंज से हज़रत निज़ामुद्दीन तक चलने वाली भोपाल एक्सप्रेस, ट्रेन संख्या-02155 पर फुल स्पीड में चलते समय वीडियो बनाने के लिए लगातार पत्थर बरसाये। उपद्रवी बच्चों का मक़सद वीडियो बनाकर उसे सोशल मीडिया पर अपलोड करना था। सूत्रों ने बताया कि इन बच्चों में से कुछ बच्चे सुबह क़रीब 5:45 बजे इन दोनों चलती ट्रेनों पर सामने से मोटे-मोटे पत्थर पूरी ताक़त से फेंक रहे थे और कुछ अपने चेहरे के साथ वीडियो बना रहे थे। इस वारदात को अंजाम देने वाले बच्चों की इस ख़तरनाक हरकत से ट्रेनों के इंजन और बोगियों के शीशे टूट गये। यात्री बाल-बाल बच गये। इस घटना का पता रेलवे विभाग और रेलवे पुलिस फोर्स (आरपीएफ) को तब चला, जब घबराये ट्रेन चालक ने तत्काल ऑपरेटिंग कंट्रोल रूम को सन्देश भेजकर हमले से बचाव की गुहार लगायी। इसके बाद आरपीएफ की एक बड़ी टीम मौक़े पर पहुँची; लेकिन उसके पहुँचते-पहुँचते कुछ बच्चे वहाँ से भाग निकले, फिर भी पुलिस की गिरफ़्त में चार बच्चे आ गये। पूछताछ में उन्होंने अपने बाक़ी साथियों का नाम और पता भी बता दिया, जिसके बाद आरोपी सात और बच्चों को पकड़ा गया।

आरपीएफ सूत्रों के मुताबिक, हिरासत में लिये गये बच्चों में तीन ने चलती ट्रेनों पर पत्थर बरसाने और वीडियो बनाने की बात स्वीकार की। इन सभी पर रेलवे अधिनियम के तहत कार्रवाई की गयी है। बाक़ी के सात बच्चों को चेतावनी देकर उनके परिवार वालों को उन पर क़ाबू रखने की बात कहकर सौंप दिया गया। सभी बच्चे सेक्टर-11 के रहने वाले हैं।

आरपीएफ के मुताबिक, बच्चे नाबालिग़ ज़रूर हैं; लेकिन इतना समझते हैं कि उनकी इस हरकत से ट्रेनों और उनमें बैठे यात्रियों को नुक़सान पहुँच सकता है। बच्चों की हरकत भी इतनी ख़तरनाक थी कि इससे ख़ुद बच्चों की जान जाने से लेकर दूसरा कोई भी बड़ा हादसा हो सकता था, यहाँ तक कि ट्रेन के पलटने या ग़लत ट्रैक पर चल पडऩे या ट्रैक पर से उतरने जैसा भी। बच्चों की इस ख़तरनाक हरकत से कर्नाटका एक्सप्रेस का सामने का और बग़ल में लगा लुकिंग ग्लास टूट गया, वहीं भोपाल एक्सप्रेस की बी-1 बोगी की खिडक़ी का शीशा टूट गया।

इसी तरह पिछले साल उत्तराखण्ड के अल्मोडा के सल्ट इलाक़े के मोहित बिष्ट नाम के एक युवक ने टिकटॉक पर रातोंरात प्रसिद्ध होने के चक्कर में अपना वीडियो बनाने के लिए जंगल में ही आग लगा दी। हैरत की बात यह है कि आग जंगल में फैलती गयी और वह युवक आग के साथ अपना वीडियो बनाता रहा, जिसे उसने टिकटॉक पर अपलोड भी किया। आग लगने की ख़बर लोगों में फैल गयी; लेकिन आग कैसे लगी यह तब पता चला, जब उस युवक का वीडियो वायरल हुआ। दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स के हिन्दी विभाग अध्यक्ष एवं एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. रवि शर्मा कहते हैं कि ऐसी मूर्खता का जन्म शिक्षा के अभाव से होता है। शिक्षा का अर्थ केवल विद्यालय में पढऩा-लिखना नहीं है, बल्कि घर में भी अच्छे संस्कारों से भी है। इसीलिए प्रत्येक माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों को विद्यालयों में तो पढ़ाएँ ही, घर में भी संस्कारित करें और उन्हें बताएँ कि मूर्खतापूर्ण हरकतों से उनका क्या नुक़सान हो सकता है? जो कि एक अपराध की श्रेणी में भी आ सकता है। साथ ही यह भी बताएँ कि निजी या सरकारी सम्पत्ति को नुक़सान पहुँचाने से उनकी अपनी भी क्या हानि है? इस सवाल पर कि क्या कोरोना-काल में स्कूलों के बन्द होने से बच्चे इस तरह की हरकतें करने लगे हैं? डॉ. रवि शर्मा कहते हैं कि नहीं, कोरोना-काल में विद्यालयों के बन्द होने से पढऩे वाले बच्चों में चिढ़चिढ़ापन एवं छोटी-मोटी हरकतें तो बढ़ी हैं, परन्तु ट्रेनों पर पत्थर फेंकने तथा दूसरी इसी तरह की बड़ी हरकतें तो वही बच्चे करते हैं, जिनके पास न शिक्षा है और न ही उनके घर से उन्हें किसी तरह के संस्कार मिले होते हैं। इस तरह के बच्चों को यह पता ही नहीं होता कि वे जो कर रहे हैं, वह कितना हानिकारक सिद्ध हो सकता है। ऐसे में ज़रूरी है कि माता-पिता अपने-अपने बच्चों को शिक्षित करें, घर पर भी और विद्यालय भेजकर भी।

सेल्फी और वीडियो तो पढ़े-लिखे लोग भी बनाते हैं, जिसके चलते कई लोगों की जान जाने तक के हादसे देश भर में हो चुके हैं? इस सवाल पर डॉ. रवि शर्मा कहते हैं कि इस तरह का क़दम आत्ममुग्धता के चलते लोग उठा बैठते हैं। ऐसे लोगों के मन-मस्तिष्क में लोगों के बीच प्रसिद्ध होने की सोच घर कर जाती है, जिससे वे इतने आत्ममुग्ध हो जाते हैं। अर्थात् स्वयं को प्रसिद्ध करने की चाह में इतने डूब जाते हैं कि उन्हें यह ज्ञान ही नहीं रहता कि उनके ऐसा करने से कोई दुर्घटना भी हो सकती है। ऐसे कई मामले सामने आते रहते हैं, जिनमें सेल्फी लेने अथवा वीडियो बनाने वालों की जान तक चली गयी है।

इसका एक कारण यह भी है कि सेल्फी लेने और वीडियो बनाने की सनक जिन लोगों में होती है, उन्हें इसमें स्वयं को दूसरों के बीच अलग तरह से प्रस्तुत करने और उस पर लाइक, कमेंट्स पाने का जूनून सवार रहता है। उन्हें इसमें अपनी एक दुनिया दिखायी देती है, जिसकी न कोई लम्बी आयु है और न ही बहुत महत्त्व। पिछले 8-10 साल में जबसे सेल्फी और वीडियो का चलन हमारे देश में बढ़ा है। यह देखा गया है कि बहुत-से लोगों की जान सेल्फी और वीडियो बनाने के चक्कर में तो गयी ही है, साथ ही दूसरों के लिए भी ऐसे हादसे ख़तरा बने हैं। इसी साल जुलाई में हॉन्गकॉन्ग की इंस्टाग्राम स्टार सोफिया मशहूर पाइनएप्पल माउंटेन साइट पर स्थित झरने के साथ सेल्फी लेने के चक्कर में 16 फीट नीचे जा गिरी। इत्तेफ़ाक़ से सोफिया पानी में गिरी, तो बच गयी; लेकिन फिर भी उसे काफ़ी चोट आयी और अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। दिल्ली में भी सेल्फी लेते समय जान जाने के कई हादसे हो चुके हैं। इसलिए ऐसी हरकतों से लोगों को बचना चाहिए, ताकि वे ख़ुद भी सुरक्षित रह सकें और दूसरों की जान भी जोखिम में न पड़े।

कुर्सी ही सबका ईमान, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव-2021

उत्तर प्रदेश में सियासी पैंतरेबाज़ी का हाल यह है कि अब बस कुर्सी ही सभी का ईमान बनकर रह गयी है। इस कुर्सी पाने की लालसा के पीछे समाजसेवा और देशभक्ति कितनी है? यह बात बुद्धिजीवी और सियासी लोग भले ही बख़ूबी समझते हों, मगर आम आदमी की समझ में ये बातें आसानी से नहीं आतीं।

आम आदमी जब परेशान हो जाता है, तो ज़ुबान चलाकर अपनी भड़ास ज़रूर निकाल लेता है, मगर सियासी दाँवपेंच उसकी समझ में नहीं आते। कुछ भी कहो, परन्तु इन दिनों उत्तर प्रदेश के सियासी हालात कुछ ठीक नहीं लगते। इस बार 9वीं सदी के शासक मिहिरभोज की प्रतिमा का उद्घाटन करने की उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की योजना से ग़ुस्साये राजपूत उनके ख़िलाफ़ हो गये हैं। जिन राजपूतों के वे नेता हैं, उन्हीं राजपूतों ने उन्हें आन्दोलन की चेतावनी दे डाली है। मिहिरभोज की प्रतिमा के अनावरण को राजपूतों ने तुष्टिकरण की राजनीति क़रार दिया है और साफ़ कर दिया है कि अगर योगी आदित्यनाथ इस तरह की सियासत करेंगे, तो इसका परिणाम उन्हें ही भोगना होगा। दरअसल प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ राजा मिहिरभोज को गुर्जर समुदाय का शासक कहकर गुर्जर समुदाय को साधने के लिए उनकी प्रतिमा का अनावरण करने की तारीख़ तय कर चुके हैं, जबकि राजपूतों का कहना है कि मिहिरभोज क्षत्रिय राजपूत समुदाय से थे।

बड़ी बात यह है कि किसान आन्दोलन के चलते किसान योगी सरकार से ख़फ़ा हैं। मज़दूर रोटी-रोटी को लेकर ख़फ़ा हैं। युवा रोज़गार को लेकर ख़फ़ा हैं। इस परेशानी से योगी राममन्दिर निर्माण की चाशनी चटाकर पार पा भी लें, परन्तु यहाँ तो योगी के गले में और भी कई फाँसें फँसी हुई हैं। कोरोना महामारी की दो लहरों में हुए मौत के तांडव के बाद अब उत्तर प्रदेश में डेंगू और वायरल बुख़ार का कहर बरस रहा है। लोगों में अब यह चर्चा आम है कि योगी सरकार लोगों को बीमारियों से बचाने के लिए नहीं, बल्कि बीमारों को इलाज न दे पाने में अव्वल है। बड़ी बात यह है कि दोनों ही बीमारियाँ कोरोना महामारी की तरह ही गाँवों में फैल चुकी हैं, जिससे निपटने के लिए सरकार को ज़िला स्तर से लेकर ब्लॉक स्तर तक के अस्पतालों की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को दुरुस्त करना होगा। पूरे प्रदेश में इन दिनों कोई भी ऐसा अस्पताल नज़र नहीं आ रहा है, जहाँ मरीज़ों को बेड मिलने की भी सहूलियत हो। इस बारे में डॉ. विकास ने कहा कि इन दिनों बुख़ार के बहुत मामले प्रदेश भर में आ रहे हैं, ऐसी स्थिति में अगर कोरोना वायरस की तीसरी लहर भी आ गयी, तो हालात बहुत ख़राब हो जाएँगे, जो सँभाले नहीं सँभलेंगे। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह वायरल बुख़ार और डेंगू पर क़ाबू पाने के लिए सार्थक क़दम जल्द से जल्द उठाये।

सपा की चुनौतियाँ होंगी कम?

वहीं अगर समाजवादी पार्टी (सपा) की बात करें, तो वह बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और कांग्रेस के प्रमुख मुस्लिम नेताओं के अपनी तरफ़ आने से मज़बूत हो सकती है। क्या उसकी चुनौतियाँ कम होंगी? यह बात तब उठ रही है, जब असदुद्दीन ओवैसी ने मुस्लिम वोट काटने के लिए उत्तर प्रदेश में डेरा डाल दिया है। क्योंकि ऐसा माना जा रहा है ओवैसी की पार्टी आल इंडिया मजलिसे-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) के चुनाव में उतरने से समाजवादी पार्टी के वोटबैंक के लिए सबसे ज़्यादा नुक़सानदायक साबित होगी। लेकिन सपा में कांग्रेस के सलीम इकबाल शेरवानी के शामिल होने से अखिलेश का सीना गर्व से चौड़ा हो गया है। क्योंकि सलीम मुस्लिमों का पसन्दीदा चेहरा हैं और पाँच बार सांसद रह चुके हैं। राजीव गाँधी से भी उनके दोस्ताना रिश्ते रहे हैं।

68 वर्षीय शेरवानी बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद कांग्रेस छोडक़र समाजवादी पार्टी में चले गये थे। लेकिन सन् 2009 में मुलायम सिंह ने उनकी मनचाही सीट से अपने भतीजे धर्मेंद्र यादव को टिकट दे दिया था, जिससे नाराज़ होकर सलीम फिर कांग्रेस में चले गये थे और अब एक बार फिर वो समाजवादी पार्टी में आ गये हैं।

अलीगढ़ में हुई किसान महापंचायत और सपा के कई कार्यक्रमों में सलीम शामिल रहे हैं। इससे यह भी माना जा रहा है कि उन्हें आजम ख़ान की जगह की भरपाई के लिए पार्टी में लाया गया है। सलीम के अलावा अंसारी भाइयों में सबसे बड़े और ग़ाज़ीपुर के मोहम्मदाबाद से बसपा के पूर्व विधायक सिबगतुल्लाह अंसारी, बसपा सांसद अफ़जल अंसारी और मुख़्तार अंसारी जैसे चेहरे सपा में आ चुके हैं। बता दें कि मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी में जाने की इस वजह से भी ज़्यादा उम्मीदें हैं। क्योंकि किसी और पार्टी के पास उन्हें अपने हित नहीं सुरक्षित नहीं दिखते।

भाजपा की सरकार में असुरक्षा की भावना से भरे मुस्लिमों को यह भी लगता है कि अगर वे आपस में इस बार बँटे, तो उनके वोट डालने का कोई फ़ायदा नहीं होगा। अखिलेश यादव मुस्लिमानों के उनकी तरफ़ झुकाव से इतने आत्मविश्वास से भर गये हैं कि उन्होंने योगी सरकार को इशारों-इशारों में समझा दिया है कि इस बार प्रदेश की सत्ता समाजवादी पार्टी ही सँभालेगी। उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है और इसलिए आगामी चुनाव लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे को बहाल करने के लिए महत्त्वपूर्ण है। अखिलेश का यह कटाक्ष भाजपा की भेदभाव वाली सियासत को लेकर था। पत्रकारिता और प्रचार तंत्र का इस्तेमाल अपने पक्ष में करने वाली योगी सरकार से उन्होंने यह भी कहा कि आज मीडिया के समक्ष समाचारों के प्रकाशन एवं प्रसारण में निष्पक्षता और पारदर्शिता बनाये रखना एक बड़ी चुनौती है। उन्होंने यह बात ही पीटीआई कर्मचारियों के अखिल भारतीय महासंघ की वार्षिक आम सभा की बैठक में कही।

कांग्रेस की आँख-मिचौली

कांग्रेस की आँखमिचौली अभी तक किसी की समझ में नहीं आयी है। इसकी एक वजह यह है कि जो लोग प्रियंका गाँधी को मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहते थे, उनकी उम्मीदों पर ख़ुद प्रियंका गाँधी ने तोड़ दिया है। इसके अलावा उसकी चुनावी रणनीति को लेकर भी कोई तस्वीर उतनी स्पष्ट नहीं दिखती, जितनी की जनता देखना चाहती है।

कई पुराने नेता उसका दामन छोड़ चुके हैं और नये पार्टी में आ चुके हैं। प्रियंका गाँधी पूरे दमख़म से मैदान में हैं, तो वहीं दूसरे नेता अभी उतने सक्रिय नहीं दिखते, जितने कि दिखने चाहिए। हो सकता है कि इसकी वजह उन्हें पार्टी से टिकट मिलने की अनिश्चितता हो, लेकिन फिर भी उन्हें हिम्मत तो दिखानी ही चाहिए। हालाँकि यह अलग बात है कि कांग्रेस हर ख़ास-ओ-आम की समस्याओं पर बड़ी गहराई से ग़ौर कर रही है और ग़रीबों की परेशानियों को सुन रही है।

रालोद हुई मज़बूत

इधर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दबदबा रखने वाले जाटलैंड के चौधरी अजित सिंह की मृत्यु होने के बाद उनकी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) की ज़िम्मेदारी उनके बेटे जयंत चौधरी पर आ गयी है। 19 सितंबर को जयंत चौधरी की पगड़ी रस्म बाग़पत में हुई, जहाँ 32 जातियों और 24 ख़ाफ़ पंचायतों के नेताओं ने उन्हें पगड़ी बाँधकर उत्तर प्रदेश मिशन-2022 के लिए आशीर्वाद दिया।

जयंत चौधरी ने यह रस्म पगड़ी अपने पिता के श्रद्धांजलि समारोह के दौरान करायी, जिसमें प्रदेश के अलावा दूसरे प्रदेशों के भी लोग शामिल हुए। माना जा रहा है कि जयंत चौधरी काफ़ी कमज़ोर हो चुकी अपनी पार्टी को फिर से उसी स्तर पर खड़ा करने की कोशिश करेंगे, जिस मकाम पर उनके दादा चौधरी चरण सिंह पार्टी को पहुँचा गये थे। किसानों की भाजपा सरकारों से नाराज़गी उनके लिए एक बेहतर मौक़ा हो सकता है।

बिगड़े बोल!

इधर उत्तर प्रदेश के मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ के बिगड़े बोल उन्हें ही संकट में डाल रहे हैं। हाल ही में उन्होंने नाम लिए बिना ही कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी पर ऐसी टिप्पणी कर दी, जिससे उन्हें निंदा का सामना करना पड़ा। उन्होंने कहा कि देश में आपदा के समय एक पार्टी के लोग इटली भाग जाते हैं, देवी-देवताओं पर टिप्पणी करना, राम-कृष्ण को नकारना उनकी प्रवृत्ति का हिस्सा है, जो एक्सीडेंटल हिन्दू होगा तो यही होगा। उनके इस एक्सीडेंटल हिन्दू शब्द पर सियासी धड़ों में भी नाराज़गी दिख रही है।

अपनी बुलडोजर नीति का दम्भ भरते हुए भी उन्होंने कह डाला कि निर्दोष लोगों की सम्पत्ति एवं सरकारी सम्पत्ति पर अवैध क़ब्ज़ा करने वालों का एक ही उपचार है- बुलडोजर। पहले डीजीपी आवास के पास एक शत्रु सम्पत्ति पर अवैध क़ब्ज़ा था मैंने कहा कि इसका एक ही उपचार है- बुल्डोजर। कभी-कभी ज़्यादा पंचायत न करके सीधे जवाब देने की ज़रूरत होती है। उनकी अकड़ यहीं नहीं थमी, समाजवादी पार्टी (सपा) पर हमला करते हुए उन्होंने कहा कि पिछली सरकार में पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग बाढ़ में डूबे रहते थे और बच्चे एवं नागरिक इंसेफेलाइटिस और डेंगू की चपेट में आकर तड़पते थे। उस समय, ज़िम्मेदार लोग सैफई में फ़िल्मी हस्तियों के नृत्य का आनंद लेने में व्यस्त रहते थे। मुझे समझ में नहीं आता कि स्वार्थ में लोग राष्ट्र व समाज हित कैसे भूल जाते हैं?

इस टिप्पणी को लेकर भी योगी आदित्यनाथ की ख़ूब भद्द पिट रही है। क्योंकि यह बात उन्होंने तब कही है, जब पूरे उत्तर प्रदेश में हज़ारों लोग वायरल बुख़ार और डेंगू से तड़प रहे हैं; मर रहे हैं। इससे पहले भी प्रदेश वासियों ने स्वास्थ्य अव्यवस्था की वजह से कोरोना और उससे पहले चमकी बुख़ार के चलते मौत का तांडव योगी राज में ही बहुत क़रीब से देखा है।

‘सरकार ने मृतक किसानों के प्रति दु:ख तक नहीं जताया’

किसान आन्दोलन को लेकर अब दिनदिन सियासत होती जा रही है। क्योंकि जिनके कन्धे पर दायित्व होना चाहिए वे सिर्फ़ अधिकारों की बात कर रहे हैं और जिनको सही मायने अधिकार मिलने चाहिए उन पर दायित्व सौंपा जा रहा है। इससे मामला सुलझने के बजाय उलझता ही जा रहा है। दिल्ली की सीमाओं पर 10 महीने से अधिक समय से संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले देश भर के किसान तीनों कृषि क़ानूनों के विरोध में और अपने अधिकारों की माँगों को लेकर आन्दोलन कर रहे हैं। लेकिन केंद्र सरकार किसानों की माँगों को मानने को तैयार ही नहीं है। इन्हीं मुद्दों पर विशेष संवाददाता राजीव दुबे की पड़ताल :-

बात दायित्व और अधिकार की करें, तो सबसे पहले सरकार का कर्म और धर्म यही बनता है कि जो भी किसानों की समस्या है, उनको सुलझाए और समाधान करे; ताकि देश का किसान अन्नदाता खेतीकिसानी का काम आसानी से करता रहे और देश की अर्थव्यवस्था में बढ़ोतरी और विकास में सहयोगी बने। पर ऐसा नहीं हो रहा है, क्योंकि सरकार किसानों के अधिकारों नज़रअंदाज़ कर रही है। उनके जो अधिकार हैं, उन्हें वह अपने पास रखना चाहती है। और जो दायित्व सरकार को निभाने चाहिए, वो निभाकर किसानों से चाहती है कि वे चुपचाप खेतीकिसानी करें। उनकी मेहनत का फ़ैसला वह करे कि किस भाव में उनके खाद्यान्न बिकेंगे। इसके चलते किसानों का ग़ुस्सा दिनदिन बढ़ता ही जा रहा है। सबसे चौंकाने वाली बात तो यह है कि किसानों की माँगों को लेकर सरकार की कोई सार्थक पहल अभी तक नहीं हुई है।

किसान नेता राकेश टिकैत का कहना है कि सरकार ने कई बार किसानों के साथ धोखा किया है। इसलिए कृषि क़ानूनों और एमएसपी की गारंटी मिलने के बाद भी किसानों की जंग जारी रहेगी। क्योंकि किसानों की अन्य समस्याएँ भी हैं, जिन पर सरकार अभी तक बात करना तो दूर, उनकी बात तक सुनने को तैयार ही नहीं है। अब जो भी माँगों को सरकार मानेगी, उसकी लिखित में सार्वजनिक रिपोर्ट जारी होनी चाहिए, ताकि किसानों के साथ कोई धोखा हो सके। क्योंकि हाल ही में सरकार ने सीजन 2022-23 की ख़रीद के लिए जो न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया है। वह किसानों को गुमराह करने वाला है। किसानों को आँकड़ों में उलझाने वाला है। क्योंकि सरकार सियासी दाँवपेच में माहिर है, जो एमसीपी को बड़ा क़दम बता रही है। उसने किसानों की जेब काटने का काम किया है। हाँ, किसानों को सिसायी दाँव में फँसाने के लिए कुछ फ़सलों में मामूलीसी बढ़ोतरी की है, जिससे किसानों को खुले बाज़ार में अपनी फ़सल बेचने में दिक़्क़त होगी। किसान नेता एडवोकेट बिट्टू तिवारी का कहना है कि जैसेजैसे उत्तर प्रदेश और पंजाब विधानसभा चुनाव नज़दीक आते जाएँगे, वैसेवैसे किसानों को गुमराह करने वाले सरकार के फ़ैसले आते जाएँगे। इसमें देश के मेहनतकश सीधेसादे किसानों को जुमलों में फँसाये जाने का प्रयास किया जाएगा। लेकिन किसान अब सरकार के जुमलों में फँसने वाले नहीं हैं।

किसान युद्धवीर सिंह का कहना है कि भारत कृषि प्रधान देश है और रहेगा। सरकार पूँजीपतियों के हवाले किसानों की ज़मीन करके उनके अधिकारों को हड़पना चाहती है। लेकिन देश के किसान ये नहीं होने देंगे। उनका कहना है कि इस बात से साफ़ अंदाज़ लगाया जा सकता है कि तत्कालीन सरकार किसानों की कितनी विरोधी है। क्योंकि अभी तक 600 से ज़्यादा किसानों की मौत किसान आन्दोलन में हुई है। लेकिन सरकार और सरकार के प्रतिनिधियों तक ने मृतक किसानों के परिजनों की सुध लेने की बात तो छोड़ो, मृतकों के प्रति दु: तक नहीं जताया। इससे किसानों को यह साफ़ लगने लगा है कि सरकार पूरी तरह किसान विरोधी है। भले ही सरकार सियासी लाभ लेने के लिए किसानों को लाभ देने की बात करती है। लेकिन देश के किसान सरकार की मंशा और नीयत से परिचित हैं कि उनके साथ खेल हो रहा है। किसान युद्धवीर का कहना है कि किसानी छोड़ अन्य क्षेत्रों में लोगों ने काफ़ी लाभ कमाया है। दिनदिन विकास भी किया है। लेकिन देश के किसान दिनदिन पिछड़ता ही जा रहे हैं। इसकी बजह साफ़ है कि अभी तक की जितनी भी सरकारें आयी हैं, उन्होंने किसानों के हितों को अनदेखा किया है। मौज़ूदा दौर में किसानों का आन्दोलन देश के किसानों का स्वाभिमानी आन्दोलन बन गया है। किसान अब स्वाभिमान से कोई समझौता को तैयार नहीं हैं। वे हर हाल में तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेने तक आन्दोलन करने की बात पर अडिग हैं। चाहे यह आन्दोलन कितने ही साल क्यों चले।

एमसीडी चुनाव में फिर उठ सकता है अनधिकृत कॉलोनियों का मुद्दा

दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के चुनाव को लेकर छ: महीने से कम का समय बचा है, जिससे दिल्ली की सियासत में हलचल तेज़ हो गयी है। दिल्ली में चाहे विधानसभा का चुनाव हो या फिर एमसीडी चुनाव हो, दिल्ली की अनधिकृत कॉलोनियों का मामला ज़ोर-शोर से उठता रहा है। इस बार भी एमसीडी चुनाव में अनधिकृत कॉलोनी और अधिकृत कॉलोनी का मामला ज़ोर-शोर से उठ सकता है। वजह साफ़ है कि जो अनधिकृत कॉलोनी से अधिकृत कॉलोनी हुई हैं, उसमें अभी भी बुनियादी सुविधाओं की कमी है। लोग बिजली-पानी की क़िल्लत से जूझ रहे हैं। बताते चलें कि दिल्ली में अनधिकृत कॉलोनियों के नाम पर भाजपा और कांग्रेस सहित आम आदमी पार्टी ने जमकर सियासी रोटियाँ सेंकी हैं और लोगों को गुमराह किया है। दिल्ली में जब भी कोई चुनाव होता है, बिना अनधिकृत कॉलोनियों के नाम के सम्भव नहीं होता।

दिल्ली में अनधिकृत कॉलोनी के नाम एक समय कांग्रेस ने पक्की कॉलोनी होने के पक्के सुबूत के रूप में प्रमाण-पत्र तक भी वितरित किये हैं। इसके बाद भाजपा ने कांग्रेस पर अनधिकृत कॉलोनियों के नाम पर जनता को गुमराह करने वाले आरोप लगाये। जब सन् 2015 में आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविन्द केजरीवाल ने चुनावी घोषणा पत्र में वादा किया था। उस घोषणा पत्र के मुताबिक, केंद्र सरकार के साथ मिलकर 1,797 कॉलोनियों को तमाम अड़चनों को दरकिनार कर पक्का कर दिया था, जिसमें सरकारी ज़मीन, खेती वाली ज़मीन और निजी (प्राइवेट) ज़मीन के अलग-अलग चार्ज लगाकर जनता से पक्की कॉलोनी करने को कहा था, ताकि लोग अपने मकान की पक्की रजिस्ट्री करवा सकें। इसका लोगों को लाभ मिला और वे अनधिकृत कॉलोनी से अधिकृत कॉलोनी में आ गये। आम आदमी पार्टी के नेता अमित का कहना है कि जो काम भाजपा और कांग्रेस नहीं कर पायी, वह काम आम आदमी पार्टी ने कर दिया है। आम आदमी पार्टी का मानना है कि संगम बिहार बुराड़ी और सुल्तानपुरी सहित दिल्ली में जो भी अनधिकृत कॉलोनियाँ बची हैं, उन पर काम चल रहा है, ताकि लोगों को जल्द-से-जल्द मालिकाना हक़ मिल सके।

बुराड़ी निवासी राम अवतार त्यागी का कहना है कि अनधिकृत कॉलोनी को पक्का कराने का काम तो किया जा रहा है, लेकिन ऑनलाइन रजिस्ट्री होने पर तमाम तरह से लोगों को दिक़्क़त आ रही है। आज भी दिल्ली सरकार की लापरवाही के चलते यहाँ पर पानी-बिजली की समस्या विकराल रूप धारण किये हुए है। उनका कहना है कि अभी दिल्ली में 1,453 अनधिकृत कॉलोनियों को अधिकृत होना है। सन् 2014 के बाद से ज़रूर दिल्ली में अनधिकृत कालोनियों को लेकर काम हुआ है, लेकिन सरकारी पार्कों में अनधिकृत कॉलोनियाँ भी बसी हैं, जिन पर केंद्र और दिल्ली सरकार, दोनों चुप्पी साधे हैं। वजह साफ़ है कि सत्ता से जुड़े लोग ही पार्कों में क़ब्ज़ा करके कॉलोनी को बसाने में लगे हैं और जमकर लाभ कमा रहे हैं।

कांग्रेस पार्टी के नेता दिल्ली विधानसभा के उपाध्यक्ष अमरीश गौतम का कहना है कि जो काम कांग्रेस पार्टी ने अनधिकृत कॉलोनियों के नाम किया है, उसी को आम आदमी पार्टी सही तरीक़े से पूरा नहीं कर पा रही है। आज भी इन कॉलोनियों में बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं। कॉलोनियों में सडक़ें तक सही नहीं हैं। नालियाँ-खडज़े भी टूटी हालत में हैं। सीवर की सुविधा नहीं है। उनका कहना है कि चुनाव में ही नहीं, अक्सर दिल्ली वालों के बीच अनधिकृत कॉलोनियों को लेकर असमंजस की स्थिति बनी रहती है कि न जाने कब यहाँ पर बुल्डोजर चल जाए। क्योंकि केंद्र और दिल्ली की सरकारों पर जनता का विश्वास उठ गया है। दोनों पार्टियाँ आपस में मिलकर कॉलोनियों के नाम पर वोट ले लेती हैं। लेकिन जैसे ही सत्ता में आ जाती हैं, तो इस काम को भूल जाती हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया- ‘दिल्ली में अनधिकृत कॉलोनियों के नाम पर सियासत के अलावा कुछ हो नहीं सकता है; क्योंकि दिल्ली देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के अलावा यहाँ पर नई दिल्ली नगर पालिका परिषद् (एनडीएमसी) और दिल्ली डबलपमेंट अथॉरिटी (डीडीए) भी हैं। दिल्ली सरकार तो है ही। इस पर यहाँ आम आदमी पार्टी और भाजपा की अलग-अलग सत्ताएँ हैं। इस लिहाज़ से अनधिकृत कॉलोनियों के नाम पर सियासत ही होती रहेगी।’

अनधिकृत कॉलोनियों को लेकर लम्बे समय तक संघर्ष करने वाले एस.के. शर्मा का कहना है कि आने वाले एमसीडी के चुनाव में राजनीतिक दल 1,453 अनधिकृत कॉलोनियों के नाम पर सियासत करेंगे, ताकि लोगों के वोट हासिल किये जा सकें। इसके अलावा मौज़ूदा दौर में महँगाई, बेरोज़गारी के साथ कोरोना-काल में जो लोगों को स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक़्क़त हुई है, ये सब भी चुनावी मुद्दे बनेंगे।

भाजपा और कांग्रेस के बीच जगह तलाशती आम आदमी पार्टी

दोनों पुरानी पार्टियाँ उत्तराखण्ड की सत्ता में वापसी को बेचैन

पिछले कुछ समय से प्राकृतिक आपदाओं की ज़द में आये उत्तराखण्ड राज्य की जनता भी वर्तमान में राजनीतिक अस्थिरता के घनघोर बादलों से गिरी हुई है। राज्य के पर्वतीय अंचलों में बादल फटने और भूस्खलन की घटनाओं से राजनीतिक दल और नेता भी अछूते नहीं रहे और जैसे-जैसे 2022 के विधानसभा चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, वैसे-वैसे अवसरवादी और दलबदलू नेताओं के चेहरे भी बेनक़ाब हो रहे हैं।

कई दशकों से उत्तराखण्ड के विकास में लगातार बाधक रहीं यहाँ की विषम भौगोलिक परिस्थितियों से मुक़ाबला करने के लिए लम्बे आन्दोलन के बाद बना पृथक राज्य आज राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार का चारागाह बनकर रह गया है। अपने आँचल में चार धामों, हेमकुण्ड साहिब, पिरान कलियर सहित विश्व स्तरीय पर्यटन स्थलों को सँजोये देवभूमि उत्तराखण्ड की जनता स्वयं को इस वजह से ठगा-सा महसूस कर रही है। राज्य आन्दोलनकारी और शहीदों के परिजन भी लाचार और बेबस होकर नेताओं की करतूतों के सामने मूकदर्शक बने रहने को मजबूर हैं।

राजनीतिक अस्थिरता का इससे बड़ा और क्या मख़ौल होगा कि 21 वर्षों में 13 मुख्यमंत्री और 8 राज्यपाल राज्य को मिल चुके हैं। छ: माह बाद राज्य का 14वाँ मुख्यमंत्री शपथ लेगा। क़ायदें से देखा जाए, तो महज़ 16 वर्षों में राज्य को 12 मुख्यमंत्री मिले हैं; क्योंकि पाँच साल का कार्यकाल पूर्ण करने का गौरव भी केवल कांग्रेस के दिग्गज नेता स्वर्गीय नारायण दत्त तिवारी को ही हासिल रहा।

उत्तराखण्ड की पहाड़ी वादियों के राजनीतिक हवा के झोंके ही कुछ ऐसे रहे कि इन 21 वर्षों में प्रमुख राजनीतिक दलों, कांग्रेस और भाजपा, दोनों को ही बराबर-बराबर शासन करने का समय मिला। नये राज्य में भ्रष्टाचार के उपजाऊ अवसरों और महत्त्वाकांक्षाओं से न तो भगवा ही अछूते रहे और न ही खादी यानी कांग्रेसी। जिसको जैसे और जहाँ लूट-खसोट करने का मौक़ा मिला, वह चुका नहीं; चाहे वह विधायक रहा हो या मंत्री। और नौकरशाही से लेकर हर क्षेत्र में दलालों ने भ्रष्टाचार के कीचड़ से तो देवभूमि को कलंकित करके रख ही दिया।

70 सदस्यीय उत्तराखण्ड की विधानसभा में 36 विधायकों वाली पार्टी सरकार बनाने का दावा पेश कर देती है। सन् 2017 से पूर्व किसी भी दल के पास ऐसा प्रचण्ड बहुमत नहीं था, जैसा इस मर्तबा 57 विधायकों का बहुमत भाजपा को मिला था। अब इसे राज्य का दुर्भाग्य कहा जाए या जनता द्वारा दिये गये जनादेश का अनादर कि ख़ुद उत्तराखण्ड राज्य बनाने वाली भाजपा, 57 विधायकों के बहुमत के बावजूद राज्य को स्थायित्व वाली सरकार देने में नाकाम रही और पाँच साल के अन्दर उसने मुख्यमंत्री ऐसे बदले, जैसे किसी ड्राइंग रूम के परदे। भाजपा ने चार साल में तीन मुख्यमंत्री बदल डाले। त्रिवेंद्र सिंह रावत को विधानसभा के बजट सत्र के बीच से बुलाकर इस्तीफ़ा ले लिया गया और सांसद तीर्थ सिंह रावत को बाग़डोर सौंप दी गयी। सांसद तीर्थ सिंह के साथ तो पार्टी ने ऐसा किया, जैसे राशन की लम्बी लाइन में थोड़ी देर के लिए पड़ोस के बच्चे को खड़ा कर देते हैं। चार माह से कम समय में तीर्थ सिंह रावत को भी पार्टी हाईकमान ने पूर्व मुख्यमंत्रियों की क़तार में खड़ा कर दिया और कुर्सी पर बिठा दिया युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को, जो पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोशियारी के शिष्य हैं।

राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का सबसे बड़ा विस्फोट तब हुआ जब मार्च, 2016 में कांग्रेस से बग़ावत करके 10 विधायक तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत को छोडक़र भाजपा के पाले में कूद गये। लेकिन आज हालात ये हैं कि इन 10 कांग्रेसी गौत्र के भाजपा विधायकों का स्वयं भाजपा में भी दम घुट रहा है और इनमें से जो कांग्रेस में वापसी का मन बना रहे हैं, उन्हें वहाँ भी पहले वाली इज़्जत मिलना मुश्किल है। राज्य में कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत और विधायक उमेश शर्मा काऊ खुले तौर पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर भी कर चुके हैं।

अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी 60 पार जाने का दम भर रही है। लेकिन भाजपा में जो 10 विधायक कांग्रेस गोत्र के हैं, उनकी वजह से पार्टी को असहजता तो महसूस हो ही रही है, साथ ही अपने वास्तविक और मूल कार्यकर्ताओं को भी अनजाने में भाजपा कहीं-न-कहीं नाराज़ कर रही है। हालाँकि इस पूरे क्षति नियंत्रण के लिए भारतीय जनता पार्टी ने उत्तराखण्ड में अपना चेहरा युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को ही घोषित किया है। वर्तमान हालात में कांग्रेस को देखा जाए, तो उनके पास खोने को कम है। सदन में उनकी संख्या वैसे ही 11 विधायकों की थी और इंदिरा हृदयेश के देहांत के बाद कांग्रेसी 10 की संख्या में ही हैं।

एक तो सदन में वैसे ही संख्या कम और ऊपर से कांग्रेस का परम्परागत अंतर्कलह; इन हालात में राजनीतिक विश्लेषक भी अगली विधानसभा में कांग्रेस के बारे में कोई स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत करने से कतरा रहे हैं। दिल्ली में लगातार तीन मर्तबा से सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी भी उत्तराखण्ड में अपनी ज़मीन तलाशने को इसलिए मैदान में कूद पड़ी है; क्योंकि दिल्ली की तर्ज पर उत्तराखण्ड में भी 70 सीटों की विधानसभा है और पार्टी को उम्मीद है कि दिल्ली के फार्मूले पर सरकारी स्कूलों और मोहल्ला क्लीनिक की बदौलत उत्तराखण्ड में सत्ता के गलियारों में प्रवेश पाया जा सकता है।

पार्टी ने कर्नल अजय कोठियाल को पार्टी का मुख्यमंत्री चेहरा घोषित किया है। स्वयं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सहित उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया दो-दो बार उत्तराखण्ड का दौरा करके वहाँ की जनता और युवाओं की नब्ज़ टटोलने की कोशिश कर चुके हैं। सत्ता में आने पर उत्तराखण्ड को देश की आध्यात्मिक राजधानी बनाने का वादा करने के साथ-साथ प्रत्येक परिवार को 200 यूनिट मुफ़्त बिजली और पलायन रोकने का वादा आम आदमी पार्टी ने किया है। हालाँकि सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी दल कांग्रेस आम आदमी पार्टी की इन घोषणाओं को कोरे शिगूफ़े क़रार दे रही हैं। लेकिन यह भी सच है कि मतदाता की नब्ज़ टटोलने में माहिर अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में दिवंगत पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा की प्रतिमा का अनावरण करके उनको जो श्रद्धांजलि दी है, उससे कांग्रेस और भाजपा, दोनों पहाड़ में नि:शब्द हैं।

बहरहाल आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बीच आम आदमी पार्टी ने कूदकर समीकरण तो निस्संदेह प्रभावित कर दिये हैं। इधर कांग्रेस की प्रदेश प्रवक्ता गरिमा मेहरा दसौनी के अनुसार, कांग्रेस पार्टी जनता के जीवन में परिवर्तन लाना चाहती है। जिस तरह से उत्तराखण्ड राज्य को बने हुए 21 साल हो जाने के बावजूद प्रदेश में मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। बेरोज़गारी महँगाई अपने चरम पर है। इन सबसे कांग्रेस प्रदेश की जनता को निजात दिलाना चाहती हैं।

भाजपा ने सन् 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान जनता के साथ बहुत बड़े-बड़े वादे किये। जैसे एक साल में 50,000 नौकरियाँ, 100 दिन के अन्दर लोकायुक्त देने का और महँगाई ख़त्म करने का वादा, किसानों का ऋण माफ़ करने का वादा; पर आज उन वादों पर खरा उतरना तो दूर की बात, भाजपा ने उत्तराखण्ड के लोगों के पीठ में छुरा घोंकने का काम किया है। जिस तरह से कोरोना वायरस के संकटकाल में भाजपा नेतृत्व के द्वारा कुप्रबन्धन और अव्यवस्थाएँ प्रदेश में पसरी पड़ी थीं, उससे जनता का भाजपा से मोह भंग हो चुका है। उत्तराखण्ड की जनता से कहा गया कि अगर वह भाजपा को बहुमत देगी, तो उत्तराखण्ड की शक्ल-सूरत बदल दी जाएगी। लेकिन पिछले पौने पाँच साल में प्रदेश के हर वर्ग, हर तबक़े ने ख़ुद को लाचार, बेबस और शोषित ही महसूस किया है। भाजपा की प्रचण्ड बहुमत की सरकार ने प्रदेश के इतिहास में पहली बार कई कीर्तिमान स्थापित किये। जैसे किसानों की आय दोगुनी करने वाली भाजपा ने प्रदेश में दो दर्ज़न से ज़्यादा किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया।

जीएसटी और नोटबन्दी के तले दबे हुए व्यापारियों में से एक व्यापारी ने तो मंत्री के जनता दरबार में आत्महत्या कर ली। भाजपा के तीन तीन दिग्गज नेताओं ने अपने ही दल की महिला कार्यकर्ताओं की अस्मिता के साथ खिलवाड़ किया। लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई।

पहली बार प्रदेश में घर-घर मोबाइल वैन से दारू बाँटी गयी। पहली बार पुलिसकर्मियों के परिजनों को अपने पेट की आग बुझाने के लिए ग्रेड-पे बढ़ाने की गुहार लगाने के लिए सरकार के ख़िलाफ़ सडक़ों पर उतरना पड़ा। प्रदेश में पहली बार देवस्थानम् बोर्ड के गठन के ख़िलाफ़ तीर्थ पुरोहितों को लगातार आन्दोलन करना पड़ा।

ज़िला विकास प्राधिकरण और भू-क़ानून जैसी कुनीतियों से भाजपा ने प्रदेश के नागरिकों का जीना दूभर कर दिया और प्रदेश की भूमि को बाहरी लोगों के हाथों गिरवी रख दिया। कांग्रेस पार्टी ने उत्तराखण्ड के युवाओं से वादा किया है कि रोज़गार के क्षेत्र में उत्तराखण्ड को नंबर-1 राज्य बनाएँगे, मॉडल राज्य बनाएँगे। हमारे घोषणा-पत्र की सभी योजनाएँ महिला केंद्रित होंगी। कांग्रेस पार्टी ने पहले भी जन्म से लेकर एक महिला के वृद्धावस्था तक, हर उम्र में किसी-न-किसी योजना के तहत ग़रीब घर की महिला को लाभान्वित किया। पेंशन लाभार्थियों की संख्या डेढ़ लाख से बढ़ाकर 7.5 लाख कर दी। प्रदेश के अन्दर दो मेडिकल कॉलेज, पाँच इंजीनियरिंग कॉलेज, 17 पॉलीटेक्निक, 27 आईटीआई, 32 डिग्री कॉलेज देने का काम किया।

सिडकुल / पिडकुल और उपनल जैसी संस्थाओं की स्थापना से स्थानीय युवाओं को रोज़गार दिलवाने में कांग्रेस ने ही अहम भूमिका निभायी। लेकिन आज डबल इंजन और प्रचण्ड बहुमत मिलने के बावजूद भाजपा ने जिस तरह से प्रदेश के विकास को तीन-तीन मुख्यमंत्री बदलकर बार-बार अवरुद्ध किया, उससे उसने न सिर्फ़ बेरोज़गारी बढ़ायी, बल्कि महँगाई में भी प्रदेश को देश में सर्वोच्च स्थान पर पहुँचाने का काम किया। कुम्भ, कोरोना जाँच घोटाले से लेकर सूर्य धार झील घोटाला हो या कर्मकार बोर्ड में धाँधली, हर तरफ़ तथाकथित शून्य सहिष्णुता (ज़ीरो टॉलरेन्स) की सरकार में भ्रष्टाचार अपने चरम पर रहा, जिसके ख़िलाफ़ भाजपा के ही विधायक पूरन फत्र्याल को विधानसभा में कार्य स्थगन प्रस्ताव लाना पड़ा। कांग्रेस ने उत्तराखण्ड की जनता से वादा किया है कि हम एक साफ़-सुथरी भ्रष्टाचार मुक्त पारदर्शी सरकार उत्तराखण्ड की जनता को देंगे।

वहीं भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता, विनय गोयल का दावा है कि अटलजी की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने उत्तराखण्ड का निर्माण किया, विशेष राज्य का दर्जा दिया, विशेष औद्योगिक पैकेज दिया और पिछले चुनाव में दिये नारे ‘अटल जी ने बनाया मोदी जी सँवारेंगे’ के अनुरूप ही पार्टी रोडमैप पर काम कर रही है। कोरोना-काल के दुष्प्रभाव के बावजूद डबल ईंजन सरकार में आलवैदर रोड, ऋषिकेश कर्णप्रयाग रेललाइन, भारतमाला आदि बड़ी महत्त्वाकांक्षी योजनाएँ उत्तराखण्ड के विकास की नयी कहानी लिख रही हैं। गोयल का मानना है कि उत्तराखण्ड को रिकॉर्ड तोड़ संसाधन भाजपा ने उपलब्ध कराये; जबकि कांग्रेस की तत्कालीन सरकार ने विषेश औद्योगिक पैकेज समय से पहले ही समाप्त कर विकासशील उत्तराखण्ड पर गहरी चोट की तथा भ्रष्टाचार के नित नये कीर्तिमान स्थापित करने वाली कांग्रेस की तत्कालीन प्रान्तीय एवं राष्ट्रीय सरकारों ने उत्तराखण्ड के विकास के लिए एक भी उल्लेखनीय योजना नहीं दी। जबकि उसमें स्वयं को उत्तराखण्ड का सबसे बड़ा नेता समझने वाले केंद्रीय मंत्री भी रहे और प्रदेश के मुख्यमंत्री भी।

अनेक बार कई सार्वजनिक मंचों एवं मीडिया चैनलों से खुली चुनौती दिये जाने के बाद भी भ्रष्टाचार पर आँखें मूँद लेने वाले ये कांग्रेसी वरिष्ठ नेता अपनी एक भी उपलब्धि बताने में असमर्थ रहे। जनता आश्वस्त है कि उत्तराखण्ड को भाजपा ने ही बनाया और भाजपा ही सँवारेगी।

इसके अतिरिक्त राज्य आन्दोलनकारी मंच के अध्यक्ष प्रदीप कुकरेती को इस बात का गहरा दु:ख है कि 21 वर्ष बीत जाने के बाद भी शहीदों को न्याय नहीं मिल पाया। आज तक कोई भी सरकार राज्य के शहीदों को न्याय नहीं दिला पायी। यहाँ तक किसी सरकार ने शहीदों की पैरोकारी के लिए अधिवक्ताओं का कोई तक पैनल नहीं बनाया। कुकरेती ने अफ़सोस जताते हुए पूछा कि आज 21 वर्षों बाद भी हमारे स्कूल के छात्रों के लिए राज्य की स्थायी राजधानी कहाँ है? इस प्रश्न का जवाब नहीं है। उत्तराखण्ड के साथ ही छत्तीसगढ़ और झारखण्ड भी बने थे; लेकिन वहाँ काफ़ी कुछ बेहतर हुआ है।

दोनों ही दल आज तक कोई स्पष्ट भू-क़ानून / रोज़गार / मूल निवास के साथ पलायन पर कोई ठोस और स्पष्ट नीति नहीं बना पाये। राज्य आन्दोलन में अपने प्राणों की आहूति देने वाले शहीद परमजीत सिंह के पिता नानक सिंह और शहीद सलीम अहमद के पिता अब्दुल रसीद पिछले दो साल से पेंशन के लिए ज़िला प्रशासन के चक्कर काट रहे हैं।

कुकरेती का कहना है कि मेरे द्वारा स्वयं ज़िलाधिकारी से लेकर शासन में गृह सचिव और मुख्यमंत्री तक को अवगत करा दिया गया; परन्तु परिणाम अभी भी शून्य है। यहाँ तक शहीद सलीम अहमद के परिजनों के घर की बिजली काट दी गयी। तब फोन पर उधमसिंह नगर के ज़िलाधिकारी को परिजनों की स्थिति बतायी और लॉकडाउन का हवाला देकर घर की बिजली सुचारू करवायी।

राजस्थान में बाल ‘विवाह का पंजीकरण’ अनिवार्य

राजस्थान विधानसभा में विवाह का अनिवार्य पंजीकरण संशोधन विधेयक पारित

हाल ही में राजस्थान विधानसभा में राज्य सरकार ने राजस्थान में विवाहों का अनिवार्य पंजीकरण संशोधन विधेयक ध्वनिमत से पारित करवा लिया। विपक्ष (भाजपा) और सरकार समर्थित विधायकों ने इस विधेयक का विरोध किया। नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया ने तो इसे काला क़ानून तक कह डाला है। विधानसभा में प्रतिपक्ष नेता गुलाबचंद कटारिया ने जिसे काला क़ानून कहा है, उसे जानना ज़रूरी है।

ग़ौरतलब है कि 17 सितंबर को राजस्थान विधानसभा में पारित क़ानून के मुताबिक, राज्य में होने वाले विवाहों के अनिवार्य पंजीकरण के अंतर्गत अब बाल विवाह का भी क़ानून के तहत पंजीकरण करवाया जा सकेगा। नये क़ानून में यह प्रावधान किया गया है कि अगर शादी के वक़्त लडक़े की आयु 21 साल व लडक़ी की आयु 18 साल से कम है, तो उसके माता-पिता को 30 दिन के भीतर ही इसकी सूचना पंजीकरण अधिकारी को देनी होगी। बाल विवाह के मामले में लडक़ा-लडक़ी के माता-पिता पंजीकरण अधिकारी को तय प्रारूप में ज्ञापन देकर सूचना देंगे। इसके आधार पर वह अधिकारी इस बाल विवाह को पंजीकृत करेगा।

बाल विवाह के पंजीकरण को लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष आमने-सामने आ गये हैं। संसदीय कार्यमंत्री शान्ति धारीवाल ने सरकार की ओर से सफ़ार्इ दी कि बाल विवाह के पंजीकरण का मतलब उन्हें वैधता देना नहीं है। बाल विवाह करने वालों के ख़िलाफ़ पंजीकरण करवाने के बाद भी पहले की ही तरह कार्रवाई की जाएगी। उसमें कोई रियायत नहीं दी गयी है। मंत्री धारीवाल ने तर्क दिया कि सरकार ने यह क़दम सर्वोच्च न्यायालय के सन् 2006 में दिये गये अहम फ़ैसले के मद्देनज़र उठाया है, जिसमें सभी तरह के विवाहों के अनिवार्य पंजीकरण का निर्देश जारी करने का उल्लेख है। मंत्री जहाँ इसके पीछे सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को आधार बता रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सदन में नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया ने कहा कि आप इसे लागू भले ही कर दें, लेकिन यह काला क़ानून ही रहेगा।

ग़ौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 2006 में सीमा बनाम अश्विनी कुमार के मामले में फ़ैसला देते हुए निर्देश दिये थे कि सभी प्रकार के विवाहों का पंजीकरण अनिवार्य होगा। देश में विवाह पंजीकरण अनिवार्य सम्बन्धी कोई केंद्रीय क़ानून नहीं है; लेकिन अधिकतर राज्यों ने अपने-अपने क़ानून बनाये हैं। विवाह पंजीकरण की अहमियत विशेषतौर पर महिलाओं के लिए अधिक है।

अक्सर बिना किसी ऐसे वैध दस्तावेज़ के अभाव में शादीशुदा महिलाओं को छोड़ दिया जाता है। पुरुष दूसरी शादी कर लेते हैं। महिलाएँ कई तरह के शोषण का अधिकार भी होती हैं। कई बार वे छोड़ दिये जाने पर भी पति से मुआवज़ा या हक़ भी नहीं माँग पातीं। ऐसी ही कई समस्याओं को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने विवाह पंजीकरण अनिवार्य करने के निर्देश जारी किये थे। अब राजस्थान सरकार ने अपने राज्य के क़ानून में संशोधन कर बाल विवाह का पंजीकरण भी अनिवार्य कर दिया है। अब इस बात की आशंका जतायी जा रही है कि कहीं आम लोग, ख़ासतौर पर गाँवों में- जहाँ बाल विवाह अधिक होते हैं; इसका मतलब बाल विवाह को वैध बनाने से न ले लें। बेशक सरकार कह रही है कि इस संशोधन का मतलब बाल विवाह के मामलों में कोई रियायत देना नहीं है; लेकिन ज़मीनी स्तर पर सरकार की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। वैसे भी राजस्थान देश के उन राज्यों की सूची में शामिल है, जहाँ बाल विवाह होते हैं।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, राजस्थान में इस समय क़रीब डेढ़ करोड़ बालिका वधू हैं। राजस्थान समाज की पहचान रूढि़वादी समाज वाली है। यहाँ लड़कियों को बोझ मानने वाली मानसिकता बरक़रार है। हालाँकि बाल विवाह को रोकने के लिए क़ानून तो बनाये गये; लेकिन इसके बावजूद यह कुप्रथा चिन्ता का विषय बनी हुई है। दुनिया भर के एक-तिहाई बाल विवाह भारत में होते हैं, जिसके चलते भारत के लिए यह कुप्रथा दुनिया भर में शर्मिंदगी का कारण बनी हुई है। सन् 1929 में शारदा अधिनियम बनाया गया, फिर सन् 1978 में और उसके बाद सन् 2006 में अधिनियम बना।

बाल विवाह को रोकने के लिए भारत सरकार ने 01 नवंबर, 2007 से बाल विवाह निषेध अधिनियम-2006 लागू किया। इसके तहत 21 साल से कम आयु के पुरुष और 18 साल से कम आयु की महिला की शादी को बाल विवाह की श्रेणी में रखा गया है, जिसे दण्डनीय अपराध माना गया है। साथ ही बाल विवाह सम्पन्न कराने वालों को भी इसके तहत दो साल की सज़ा या एक लाख का ज़ुर्माना या दोनों हो सकते हैं। किन्तु किसी महिला को कारावास में दण्डित नहीं किया जा सकता है। इस अधिनियम के तहत किये गये अपराध संज्ञेय और ग़ैर-जमानती हैं। दरअसल यह अधिनियम तीन उद्देश्यों को पूरा करता है- बाल विवाह की रोकथाम, बाल विवाह में शामिल बच्चों की सुरक्षा और अपराधियों पर मुक़दमा चलाना। यह अधिनियम न तो शादी करने वाले किसी पुरुष और न ही नाबालिग़ लडक़े से शादी करने वाली किसी महिला के लिए दण्ड का प्रावधान करता है। क्योंकि यह माना जाता है कि शादी का फ़ैसला अक्सर लडक़े-लडक़ी के परिवार वाले करते हैं और ऐसे फ़ैसलों में उनकी राय नहीं ली जाती और न ही मानी जाती है। इस अधिनियम में बाल विवाह के ख़िलाफ़ शिकायत करने का भी प्रावधान है और बाल विवाहों के मामलों की निगरानी के लिए बाल विवाह निषेध अधिकारी नियुक्त करने की भी व्यवस्था है।

इन अधिकारियों के पास बाल विवाह को रोकने, क़ानून का उल्लघंन करने वालों की रिपोर्ट बनाने, अपराधियों पर आरोप लगाने, जिसमें बच्चों के अभिभावक भी शामिल हो सकते हैं; के अधिकार हैं। इसके अलावा बच्चों को ख़तरनाक और सम्भावित ख़तरनाक हालात से बाहर निकालने का भी अधिकार दिया गया है। क़रीब एक अरब 40 करोड़ की आबादी वाले देश भारत के लिए बाल विवाह को ख़त्म करना एक बहुत बड़ी चुनौती है।

यूनिसेफ की सन् 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में उस समय 22 करोड़ 30 लाख बालिका वधू थीं। इनमें से 10 करोड़ से अधिक की शादी 15 साल की उम्र से पहले ही हो गयी थी। रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश में बालिका वधुओं की संख्य सबसे अधिक 3 करोड़ 60 लाख बतायी गयी। इसके बाद बिहार और पश्चिम बंगाल आते हैं, जहाँ यह संख्या 2 करोड़ 20 लाख प्रति राज्य है। बाल विवाह किसी बच्चे को अच्छे स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा के अधिकार से वंचित करता है। सेंटर फॉर रिसर्च नामक संगठन की निदेशक डॉ. रंजना कुमारी का मानना है कि बाल विवाहों के पीछे सामाजिक व आर्थिक हालात भी ज़िम्मेदार होते हैं। समाज में लड़कियों को लडक़ों से कमतर आँकने और बोझ समझने वाली मानसिकता को दूर करने के लिए बहुत प्रयास करने की ज़रूरत है। इस दिशा में सरकारी योजनाओं का ज़मीन पर अपेक्षित प्रभाव देने के लिए आर्थिक निवेश और सामाजिक पहल की दरकार है।

बाल विवाह का एक सम्बन्ध ग़रीबी और अनपढ़ता से भी है। कोविड-19 महामारी की मार ग़रीब, निम्न आय वाले तबक़ों पर अधिक पड़ी है। ग़रीबी के बढऩे और लॉकडाउन में स्कूलों के लम्बे समय तक बन्द रहने के कारण बाल विवाहों की संख्या में बढ़ोतरी की आंशका जतायी गयी है। बाल विवाह की अधिकतर शिकार लड़कियाँ ही होती हैं और इसके चलते उनका बचपन उनसे छीनकर उन्हें जबरन ऐसी ज़िन्दगी जीने को विवश कर दिया जाता है, जो उनके लिए बहुत जोखिम भरा होता है। देश में लड़कियों, महिलाओं में ख़ून की कमी (एनीमिया) एक बहुत बड़ी समस्या है। अल्पपोषित नाबालिग़ लड़कियाँ शादी के बाद कम उम्र में ही माँ बन जाती हैं, तो वे अधिकतर कुपोषित बच्चों को ही जन्म देती हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन का भी यही कहना है कि 15-19 आयु वर्ग की किशोरियों की मौत का प्रमुख कारण गर्भावस्था या शिशु को जन्म देने सम्बन्धी जटिलताएँ हैं। केंद्र सरकार के लिए यह शर्म से सिर झुका देने वाली बात है कि दुनिया के एक-तिहाई बाल विवाह भारत में होते हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने फरवरी, 2020 में अपने बजटीय भाषण में इस बात का ज़िक्र किया था कि सन् 1978 में सन् 1929 के शारदा एक्ट में संशोधन कर लड़कियों की शादी की नयूनतम उम्र 15 से बढ़ाकर 18 कर दी गयी, जिसका मक़सद बाल विवाह को ख़त्म करना था। अब वक़्त आ गया है कि जबरन और कम आयु में होने वाली शादियों को पूरी तरह से ख़त्म किया जाए, ताकि लड़कियाँ उच्च शिक्षा हासिल कर सकें और अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा कर सकें। दरअसल वित्त मंत्री का इशारा लड़कियों की शादी की उम्र वर्तमान न्यूनतम आयु 18 से और बढ़ाने की ओर था। केंद्र सरकार का मानना है कि सम्भवत: ऐसे क़दम उठाने से बाल विवाह कम हो जाएँ।

दूरसंचार क्षेत्र के लिए मुफ़्त सुविधाएँ ठोस समाधान नहीं!

मुफ़्तउपहार हमारे लिए कोई नयी चीज़ नहीं है। यह किसी समस्या को दूर करने का एक तरीक़ा ज़रूर है; लेकिन कोई ठोस समाधान नहीं। सरकार ने समायोजित सकल राजस्व (एजीआर) को फिर परिभाषित करके ठीक ही किया है, चाहे ठोस रूप से नहीं; लेकिन स्पेक्ट्रम के जीवन में 10 साल की वृद्धि करके एक क़दम बढ़ाया है। वित्तीय बाधाओं को दूर करके दूरसंचार क्षेत्र के लिए एक जीवन रेखा प्रदान की है। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सभी स्पेक्ट्रम और एजीआर बक़ाया पर चार साल की मोहलत दी है।

हालाँकि सरकार ने स्थगन अवधि के अन्त में भी शेष बक़ाया राशि को इक्विटी में बदलने का विकल्प बरकरार रखा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या दूरसंचार क्षेत्र जिन समस्यायों का सामना कर रहा है, उनका यह रामबाण इलाज है?

वोडाफोन, आइडिया और भारती एयरटेल इन नयी घोषणाओं के सबसे बड़े लाभार्थी हैं। इसमें कोई हैरानी नहीं कि भारती एयरटेल के चेयरमैन सुनील भारती मित्तल, रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी, आदित्य बिड़ला ग्रुप के चेयरमैन कुमार मंगलम बिड़ला और वोडाफोन ग्रुप के मुख्य कार्यकारी अधिकारी निक रीड ने इस क़दम का स्वागत किया है। मित्तल ने नीतिगत क़दमों को मौलिक सुधार बताया, जबकि जियो ने उन्हें इस क्षेत्र को मज़बूत करने की दिशा में समयबद्ध क़दम बताया। निक रीड ने सरकार के संकल्प की सराहना करते हुए कहा कि इससे भारत में प्रतिस्पर्धी और टिकाऊ दूरसंचार क्षेत्र मज़बूत होगा। वोडाफोन आइडिया के पतन से विदेशी निवेश आकर्षित करने में भारत की छवि प्रभावित होती। अब इन उपायों से कम्पनी को अल्पावधि में भारत में अपना परिचालन जारी रखने में मदद मिलेगी। सरकार द्वारा घोषित किये गये सुधार दूरसंचार क्षेत्र को अस्थिर करने में एक लम्बा सफ़र तय करेंगे।

सुधारों का स्वागत करते हुए एयरटेल के एमडी और सीईओ गोपाल विट्टल ने कहा कि नये सुधार इस रोमांचक डिजिटल भविष्य में निवेश करने के हमारे प्रयासों को और बढ़ावा देंगे और हमें भारत की डिजिटल अर्थ-व्यवस्था में अग्रणी खिलाडिय़ों में से एक बनाने में सक्षम करेंगे। हालाँकि अभी और अधिक करने की आवश्यकता है, फिर भी उद्योग की उचित वापसी सुनिश्चित करने के लिए यह एक स्थायी टैरिफ व्यवस्था की ओर जानी की कोशिश तो है ही।

भारत के सबसे बड़ी सेवा प्रदाता रिलायंस जियो की मूल कम्पनी रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी ने कहा कि दूरसंचार क्षेत्र अर्थ-व्यवस्था के प्रमुख प्रेरकों में से एक है और भारत को एक डिजिटल समाज बनाने के लिए प्रमुख प्रवर्तक है। भारत सरकार द्वारा सुधारों और राहत उपायों की घोषणा का स्वागत है। यह क़दम उद्योग को डिजिटल इंडिया के लक्ष्यों को हासिल करने में सक्षम बनाएगा। वोडाफोन पर जहाँ सरकार के क़रीब 50,000 करोड़ रुपये बक़ाया हैं, वहीं भारती एयरटेल पर सरकार के क़रीब 26,000 करोड़ रुपये बक़ाया हैं। वास्तव में राहत उपाय (बेलआउट) से घाटे में चल रही वोडाफोन-आइडिया और दो अन्य बड़े खिलाडिय़ों- भारती एयरटेल और रिलायंस जियो दोनों को फ़ायदा होगा। वोडाफोन आइडिया, जो बन्द होने के कगार पर था, उसके पास अन्तर आवृत्ति बैंड में कुल 1,849.6 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम है, जिसमें से 1,714.8 मेगाहर्ट्ज उदारीकृत है और इसका उपयोग किसी भी तकनीक (2जी, 3जी, 4जी या 5जी) के लिए किया जा सकता है। सन् 2014 से सन् 2016 के बीच नीलामी के माध्यम से प्राप्त 1316.8 मेगाहट्र्ज स्पेक्ट्रम केवल साल 2034 से 2036 तक वैध है। इस क़दम से मुख्य रूप से वोडाफोन आइडिया और भारती एयरटेल को लाभ होने की उम्मीद है, जो बड़े एजीआर बक़ाया से दु:खी हैं।

राहत से उनके वित्तीय बोझ को कम करने, क्षेत्र में नौकरियों को बचाने में मदद करने और उद्योग में बहुत ज़रूरी प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित करने की सम्भावना है। याद रहे कि वोडाफोन आइडिया ने अगस्त में अपने 23 जुलाई के आदेश की समीक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया था, जिसमें सरकार को एजीआर बक़ाया की गणना में त्रुटियों को ठीक करने की अनुमति देने के लिए कम्पनियों की याचिका ख़ारिज कर दी गयी थी।

विशेषज्ञों के अनुसार, दूरसंचार क्षेत्र को पुनर्जीवित करने के लिए सबसे अच्छी नीति यह होनी चाहिए कि किसी नवागंतुक को मुफ़्तस्पेक्ट्रम दिया जाए और कम्पनी के एक निश्चित बाज़ार हिस्सेदारी पर क़ब्ज़ा करते ही औसत सकल राजस्व पर लाइसेंस शुल्क लागू किया जाए। भारत अब स्वचालित मार्ग के माध्यम से इस क्षेत्र में 100 फ़ीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देता है। यह एक निवेशक के अनुकूल माहौल में वापसी का संकेत देता है, कम-से-कम काग़ज़ पर तो यही लगता है। वर्तमान में इस क्षेत्र में 100 फ़ीसदी एफडीआई की अनुमति है; लेकिन केवल 49 फ़ीसदी स्वचालित है। उस सीमा से ऊपर के किसी भी निवेश के लिए सरकार की मंज़ूरी की आवश्यकता होती है। केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा 100 फ़ीसदी एफडीआई, एजीआर से सम्बन्धित कम्प्यूटिंग बक़ाया पर राहत, समायोजित सकल राजस्व, बक़ाया पर चार साल की मोहलत और सरकार के लिए स्थगन अवधि समाप्त होने के बाद बक़ाया राशि को इक्विटी में बदलने का विकल्प राहत पैकेज के प्रमुख तत्त्व हैं। सरकारी राजस्व की रक्षा के लिए अधिस्थगन का लाभ उठाने वाली कम्पनियों को ब्याज देना होगा। यह फंड की सीमांत लागत आधारित उधार दर (एमसीएलआर) प्लस दो फ़ीसदी की दर से होगा। अन्य संरचनात्मक सुधार स्पेक्ट्रम उपयोगकर्ता शुल्क और लाइसेंस शुल्क और अन्य शुल्क के बारे में है।

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि पैकेज में कई उपाय शामिल हैं, जिनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण समायोजित सकल राजस्व (एजीआर) बक़ाया पर चार साल की मोहलत है। इसके अलावा एजीआर को युक्तिसंगत बनाया गया है। ग़ैर-दूरसंचार राजस्व को एजीआर की परिभाषा से सम्भावित आधार पर बाहर रखा जाना है।

एजीआर, सरकार और दूरसंचार कम्पनियों के बीच एक शुल्क-साझाकरण तंत्र है, जो लम्बे समय से एक विवादास्पद मुद्दा रहा है। सरकार ने दावा किया है कि एजीआर में दूरसंचार और ग़ैर-दूरसंचार सेवाओं दोनों से सभी राजस्व शामिल होना चाहिए, जबकि कम्पनियों का कहना है कि एजीआर केवल मुख्य सेवाओं से सम्बन्धित होना चाहिए। इसने वोडाफोन आइडिया पर लगभग 59,000 करोड़ रुपये और भारती एयरटेल पर लगभग 44,000 करोड़ रुपये का बोझ डाला है।

एकत्र की गयी जानकारी से पता चलता है कि वोडाफोन आइडिया पर बैंकों का 23,000 करोड़ रुपये से अधिक का बक़ाया है। उसे स्पेक्ट्रम शुल्क पर सरकार को 94,000 करोड़ रुपये का भुगतान भी करना होगा। फिर एजीआर बक़ाया अलग से है। अगर कम्पनी बन्द हो जाती है, तो बैंकों और सरकार को उनके देय राशि का एक अंश ही मिलेगा। कम्पनी आंशिक रूप से सरकार द्वारा लगाये गये कई शुल्कों और कर्तव्यों के कारण। बड़े पैमाने पर क़र्ज़ के कारण दिवालिया होने की ओर बढ़ रही थी। वोडाफोन आइडिया के पतन ने भारत का एकाधिकार कमज़ोर ही किया है।

कुछ महीने पहले कुमार मंगलम बिड़ला ने वोडाफोन आइडिया से ग़ैर-कार्यकारी निदेशक और ग़ैर-कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में इस्तीफ़ा दे दिया था। वेंचर में बिड़ला के पार्टनर वोडाफोन ग्रुप पीएलसी ने भी भारत में अपने ज्वाइंट वेंचर में कोई इक्विटी लगाने से इन्कार कर दिया। नतीजतन कम्पनी को दिवालियेपन का सामना करना पड़ा। वास्तव में अधिस्थगन दूरसंचार क्षेत्र को जीवन का एक नया अवसर देता है; लेकिन इसका लाभ उठाने वाली दूरसंचार कम्पनियों को भुगतान की अवधि के लिए ब्याज का भुगतान करना पड़ता है। उनके पास स्थगन के कारण होने वाले ब्याज भुगतान को इक्विटी में बदलने का विकल्प भी होगा, जिसे सरकार को सौंप दिया जाएगा। इससे पहले विभिन्न लाइसेंस प्राप्त सेवा क्षेत्रों या एलएसए में कई बैंक गारंटियों की आवश्यकता होती थी। अब एक ही बीजी काफ़ी होगा। इसके अलावा लाइसेंस शुल्क और स्पेक्ट्रम उपयोग शुल्क के विलंबित भुगतान के लिए दूरसंचार कम्पनियों को अभी भुगतान की तुलना में दो फ़ीसदी कम ब्याज दर का भुगतान करना होगा। जुर्माने पर ब्याज हटा दिया गया है। अब से आयोजित नीलामी के लिए क़िश्त भुगतान सुरक्षित करने के लिए किसी बीज की आवश्यकता नहीं होगी। उधर भविष्य की नीलामी के लिए स्पेक्ट्रम की अवधि 20 से बढ़ाकर 30 साल कर दी गयी है। भविष्य की नीलामी में हासिल किये गये स्पेक्ट्रम के लिए 10 साल बाद स्पेक्ट्रम के समर्पण की अनुमति दी जाएगी। निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए दूरसंचार क्षेत्र में स्वचालित मार्ग के तहत 100 फ़ीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दी गयी है। कैबिनेट ने इस क्षेत्र में व्यापार करने में आसानी को बेहतर बनाने के उपायों को भी मंज़ूरी दी है।

क्या कहती है सरकार?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने दूरसंचार क्षेत्र में कई संरचनात्मक और प्रक्रिया सुधारों को मंज़ूरी दी। सरकार कहती है कि उसका निर्णय रोज़गार के अवसरों की रक्षा और सृजन करने, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने, उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने, लिक्विडिटी को बढ़ावा देने, निवेश को प्रोत्साहित करने और दूरसंचार कम्पनियों पर नियामक बोझ को कम करने के लिए है। अपेक्षा ठीक है। लेकिन यह आर्थिक प्रमुखों के क दृष्टिकोण परिवर्तन पर निर्भर है। यह बेहतर होगा कि सरकारी अधिकारियों से इंडिया इंक को वह सम्मान वाला व्यवहार मिले, जिसके वो हक़दार हैं और नये विचारों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। यह दूरसंचार जैसे बीमार क्षेत्रों को फिर से सक्रिय करने में मदद करेगा। कैबिनेट का फ़ैसला एक मज़बूत दूरसंचार क्षेत्र के प्रधानमंत्री के दृष्टिकोण को पुष्ट करता है। प्रतिस्पर्धा और ग्राहकों की पसन्द के साथ समावेशी विकास के लिए अंत्योदय और असम्बद्ध को जोडऩे के लिए हाशिये के क्षेत्रों को मुख्यधारा और सार्वभौमिक ब्रॉडबैंड पहुँच में लाना अहम है। इस पैकेज से 4जी प्रसार को बढ़ावा देने, तरलता बढ़ाने और 5जी नेटवर्क में निवेश के लिए अनुकूल माहौल तैयार करने की भी उम्मीद है।