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मुकेश अंबानी के लंदन जाने का सच!

हाल ही में जारी वैश्विक धन प्रवासन समीक्षा (ग्लोबल वेल्थ माइग्रेशन रिव्यू) की रिपोर्ट से पता चलता है कि क़रीब 5,000 करोड़पतियों अर्थात् भारत के कुल एचएनआई में से दो फ़ीसदी ने 2020 में देश छोड़ दिया। भारत इस साल की सूची में सबसे ऊपर है, जबकि पिछले साल दूसरे स्थान पर था।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब रिपोट्र्स में इस तरह की ख़बरें आयीं कि एशिया के सबसे अमीर आदमी और रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के अध्यक्ष मुकेश अंबानी लंदन जा रहे हैं, तो बहुत लोगों ने इसे सत्य माना। हालाँकि आरआईएल ने इन ख़बरों का खण्डन किया है।

6 नवंबर को जारी आरआईएल के बयान में कहा गया है कि एक अख़बार ने हाल ही में अंबानी परिवार के लंदन के स्टोक पार्क में आंशिक रूप से रहने की योजना के बारे में जो ख़बर छापी, उसने सोशल मीडिया में अनुचित अटकलों को जन्म दिया है। आरआईएल यह स्पष्ट करना चाहेगी कि चेयरमैन (अंबानी) और उनके परिवार की लंदन या कहीं और स्थानांतरित होने या रहने की कोई योजना नहीं है। रिलायंस समूह ने कहा कि रिलायंस इंडस्ट्रियल इन्वेस्टमेंट्स एंड होल्डिंग्स लिमिटेड, जिसने हाल ही में स्टोक पार्क एस्टेट का अधिग्रहण किया है; स्पष्ट करना चाहती है कि विरासत सम्पत्ति के अधिग्रहण का उद्देश्य इसे एक प्रमुख गोल्फिंग और स्पोर्टिंग रिसॉर्ट के रूप में बढ़ाना है। यह अधिग्रहण समूह के तेज़ी से बढ़ते उपभोक्ता व्यवसाय को जोड़ेगा। साथ ही यह विश्व स्तर पर भारत के प्रसिद्ध आतिथ्य उद्योग के पदचिह्न का भी विस्तार करेगा।

बता दें कि मुकेश अंबानी अपने परिवार के साथ मुम्बई, महाराष्ट्र में 4,00,000 वर्ग फुट के अल्टामोंटे रोड निवास, एंटीलिया में रहते हैं। हाल में ख़बरें आयी थीं कि अंबानी परिवार से लंदन के बकिंघमशायर, स्टोक पार्क में 300 एकड़ के कंट्री क्लब को अपना प्राथमिक निवास बनाने की सम्भावना है। हालाँकि भले ही आरआईएल ने उनके लंदन में बसने की ख़बरों को नकारा है; लेकिन मुकेश ने लंदन में घर तो ख़रीदा ही है।

विदेश में ख़रीदी सम्पत्ति

इन ख़बरों के सच होने के कई कारण हैं। अंबानी परिवार ने इस साल की शुरुआत में स्टोक पार्क की सम्पत्ति 592 करोड़ रुपये में ख़रीदी थी। सम्पत्ति में 49 शयनकक्ष हैं। एक ब्रिटिश डॉक्टर की अध्यक्षता में एक अत्याधुनिक चिकित्सा सुविधा और अन्य लक्जरी सुविधाएँ हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि हाल ही में लंदन में ख़रीदे गये स्टोक पार्क एस्टेट के लिए अंबानी भारत से बाहर जा रहे थे; यह वास्तविक लग रहा था।

भारतीय हिन्दू व्यापारिक समुदाय के बीच एक रिवाज़ है कि वे अपने नये घरों में दीपावली मनाना पसन्द करते हैं। कई परिवारों के मामले में यह त्योहार परिवार के पहले निवास पर मनाया जाता है। यह एक प्रथा है, जो यह सुनिश्चित करने के प्रयासों का प्रतीक है कि धन की देवी या लक्ष्मी घर पर रहती है। लंदन स्थित नये घर में ही अंबानी परिवार द्वारा दीपावली मनाये जाने की अफ़वाह ने ही उनके लंदन बसने की ख़बरों को विश्वसनीय बनाया। लोगों ने ट्वीटर पर सवाल किया कि क्या अंबानी का लंदन निवास उनका स्थायी घर बन रहा है?

बड़े अमीर जा रहे विदेश

पहले भी ऐसी ख़बरें थीं कि सम्पन्न परिवार किसी दूसरे देश में नागरिकता या निवास के बदले बड़े निवेश के माध्यम से विदेश जा रहा है। सन् 2018 में वॉल स्ट्रीट पर मॉर्गन स्टेनली बैंक की एक रिपोर्ट ने भी संकेत दिया था कि सन् 2014 से 23,000 भारतीय करोड़पति देश छोड़ चुके थे। और अब वैश्विक धन प्रवासन समीक्षा की रिपोर्ट में कहा गया कि सिर्फ़ पिछले साल (2020 में) क़रीब 5,000 करोड़पति विदेश चले गये। अभी भारत 6,884 मोटी सम्पति वाले लोगों और 177 अरबपतियों का घर है। हैरानी इस बात की है कि भारत में कोरोना-काल में जब करोड़ों लोग धन-सम्पदा में कमज़ोर हुए, 40 नये अरबपति पैदा हुए।

हालाँकि भारत में निवेश द्वारा नागरिकता में रुचि हमेशा अधिक रही है; लेकिन महामारी के दौरान इसमें काफ़ी वृद्धि हुई है और आने वाले वर्षों में इसके बढऩे की उम्मीद है। विशेषज्ञ बताते हैं कि अमीरों का यह पलायन आंशिक रूप से मार्च, 2020 में संयुक्त राज्य अमेरिका के समान निवास-आधारित कर प्रणाली से नागरिकता-आधारित कर प्रणाली में जाने के लिए था।

अंबानी के मामले में पहले ही कुछ ख़बरों में बताया गया था कि वह इस साल दीपालली नये घर में मनाएँगे और मुम्बई व लंदन के घरों में आते-जाते रहेंगे। इस पर ट्वीटर पर लोगों ने आपत्ति की और कहा कि अंबानी का भारत से बाहर जाने का मतलब देश से पूँजी के बाहर जाने जैसा होगा। इस पर आरआईएल ने तुरन्त प्रतिक्रिया देकर ख़बरों को अफ़वाह बताते हुए उनका खण्डन किया।

दिलचस्प रूप से अंबानी का उदय एक दिलचस्प कहानी है और भारत के सबसे अमीर व्यक्ति का मानना है कि अगर उनके और बिल गेट्स जैसे कॉलेज छोडऩे वाले लोग लाखों अरब डॉलर की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का निर्माण कर सकते हैं, तो कोई भी औसत भारतीय कर सकता है। उन्होंने कहा कि मेरे पिता ने पाँच दशक पहले एक टेबल, कुर्सी और 1,000 रुपये के साथ रिलायंस की स्थापना की थी। यह पहले एक सूक्ष्म उद्योग बना। फिर एक छोटा उद्योग, फिर मध्यम और आज आप हमें बड़ा मान सकते हैं। रिलायंस इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष मुकेश अंबानी ने बात कुछ समय पहले माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्या नडेला के साथ एक फायरसाइड चैट के दौरान कही थी। उन्होंने कहा था कहा था कि अपने स्टैनफोर्ड दिनों से स्टीव (बाल्मर) और बिल (गेट्स) को जानने के मामले में बहुत भाग्यशाली रहे हैं। उन्होंने कहा कि धीरूभाई अंबानी या बिल गेट्स और यही वह शक्ति है, जो भारत को दुनिया के बाक़ी हिस्सों से अलग करती है।

राजनीतिक दोषारोपण

सन् 2014 से दो राजनीतिक दलों-आम आदमी पार्टी और कांग्रेस द्वारा अंबानी परिवार पर हमले किये जा रहे हैं। सन् 2014 में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के फ़ैसले के कारण आरआईएल को देश में प्राकृतिक गैस की क़ीमत को दोगुना करके अप्रत्याशित लाभ के मामले में पूर्व तेल मंत्री वीरप्पा मोइली के साथ मुकेश अंबानी के ख़िलाफ़ मामला दर्ज करने के लिए दिल्ली की भ्रष्टाचार विरोधी शाखा को आदेश दिया था। ऐसे देश में जहाँ राजनीतिक दलों के साथ-साथ व्यापारियों की भी क़िस्मत बनती है, अंबानी का देश की मुख्य विपक्षी पार्टी के लिए राजनीति का केंद्र बनना चिन्ता का विषय है।

बम कांड

इस साल की शुरुआत में मुकेश अंबानी के मुम्बई स्थित आवास एंटीलिया के बाहर एक कार में 20 विस्फोटक जिलेटिन की छड़ें और एक धमकी भरा पत्र मिला था। कार के मालिक ठाणे के एक व्यवसायी मनसुख हिरेन के एक हफ़्ते बाद मृत पाये जाने के बाद मामला और जटिल हो गया। राष्ट्रीय जाँच एजेंसी द्वारा मुम्बई के प्रसिद्ध मुठभेड़ विशेषज्ञ सचिन वाजे की गिरफ़्तारी से देश में और भी बड़ी लहर उठी। उन पर बम धमाकों का मास्टरमाइंड होने का आरोप था। गिरफ़्तार होने से पहले वाजे इस बम मामले में जाँच दल के प्रभारी थे।

अन्य मामले

सन् 2019 में आयकर विभाग की मुम्बई इकाई ने मुकेश अंबानी, उनकी पत्नी नीता अंबानी समेत पूरे अंबानी परिवार को नोटिस भेजा था। कथित तौर पर काला धन अधिनियम के तहत उनकी अघोषित विदेशी आय और सम्पत्ति के लिए यह नोटिस 28 मार्च, 2019 को दिये गये थे।

जानलेवा रही तालाबन्दी

कोरोना महामारी के दौरान 10 फ़ीसदी ज़्यादा लोगों ने आत्महत्या की, यानी हर रोज़ 418 लोगों ने दी जान

देश में आत्महत्याएँ करने की संख्या बढ़ रही है। एनसीआरबी की 2020 की रिपोर्ट में जो इससे भी ज़्यादा चिन्ताजनक बात है वह यह कि कोरोना-काल में हुई तालाबन्दी के दौरान देश भर में आत्महत्याओं का ग्राफ सीधे 10 फ़ीसदी बढ़ गया है। दूसरी चिन्ताजनक बात यह है कि सन् 1967 के बाद सन् 2020 में आत्महत्यायों के सबसे अधिक मामले हुए हैं। अच्छे दिन वाले देश में सन् 2020 में हर रोज़ 418 लोगों ने आत्महत्या कर ली।

चिन्ताजनक पहलू यह भी है कि आत्महत्या करने वालों में ज़्यादातर छात्र और छोटे उद्यमी हैं। ज़ाहिर है अनियोजित तालाबन्दी के नुक़सान के गम्भीर नतीजे अब धीरे-धीरे सामने आने लगे हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट पूरे साल की घटनाओं पर आधारित है। यह वह कालखण्ड है जब देश में लम्बे और अनियोजित तालाबन्दी के कारण लाखों छोटे उद्योग-धन्धे चौपट हो गये और करोड़ों लोग रोज़गार से हाथ धो बैठे। इनमें से ज़्यादातर को अभी तक दोबारा रोज़गार नहीं मिल पाया है।

एनसीआरबी की रिपोर्ट-2020 के जनवरी से दिसंबर तक में हुई घटनाओं पर आधारित है। रिपोर्ट कहती है कि एक साल में आत्महत्या के कुल 1,53,052 मामले सामने आये। पिछले 53 साल में आत्महत्यायों का यह आँकड़ा सबसे बड़ा हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के चौंकाने वाले आँकड़े कहते हैं कि 2019 के मुक़ाबले 2020 में व्यापारियों की आत्महत्यायों की संख्या चिन्ताजनक 50 फ़ीसदी ज़्यादा हो गयी। आत्महत्यायों की किसी भी श्रेणी में यह सबसे बड़ा उछाल है।

देश में आत्महत्या करने वालों की संख्या 2019 के मुक़ाबले 2020 में बढ़ गयी। आँकड़ों के मुताबिक, देश में 2020 में प्रति लाख आबादी पर आत्महत्या संख्या 2019 के मुक़ाबले 10.4 फ़ीसदी से बढक़र 11.3 फ़ीसदी हो गयी। रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 में देश में हर रोज़ 418 लोगों ने अपनी ज़िन्दगी ख़त्म कर ली।

देश में मार्च, 2020 में जल्दबाज़ी में रात 8 बजे घोषित देशव्यापी तालाबन्दी ने करोड़ों लोगों को सडक़ पर ला पटका। रोज़गार से जुड़े लाखों धन्धे बन्द हो गये।

महामारी ने 2020 में ज़मीन पर ज़िन्दगियाँ तो लील ही लीं, करोड़ों ज़िन्दा लोगों के सामने दो जून की रोटी का बड़ा सवाल खड़ा कर दिया। तबाही का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि 2019 की तुलना में 2020 में आत्महत्या करने वालों में किसानों से अधिक व्यापारी रहे। साल 2020 में महामारी के कारण आर्थिक संकट के काले काल के दौरान व्यापारियों की हत्या बताती है कि सरकार लोगों के रोज़गार को नाकाम रही।

एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020 के एक ही साल में 10,677 किसानों की तुलना में 11,716 छोटे-बड़े व्यापारियों ने आत्महत्या जैसा क़दम उठाया। इन 11,716 मौतों में आत्महत्या करने वाले 4,356 ट्रेड्समैन थे और 4,226 वेंडर्स यानी विक्रेता थे। बाक़ी मरने वाले लोगों को अन्य व्यवसायों की श्रेणी में रखा गया है। ये तीन समूह हैं, जिन्हें एनसीआरबी आत्महत्या रिकॉर्ड करते समय व्यापारिक समुदाय के रूप में मानता है। सन् 2019 की तुलना में 2020 में कारोबारी समुदाय के बीच आत्महत्या के मामलों में 29 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई। इस बीच व्यापारियों के बीच आत्महत्या 49.9 फ़ीसदी की उछाल के साथ 2019 में 2,906 से बढक़र 2020 में 4,356 हो गयी।

हाल के दशकों में किसानों ने देश में सबसे ज़्यादा आत्महत्याएँ की हैं। यह व्यापारिक समुदाय से कहीं कम थी। आँकड़े साफ़ ज़ाहिर करते हैं कि व्यापारी कोरोना महामारी और तालाबन्दी के बाद पैदा हुए घोर आर्थिक संकट से सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए और बड़ी संख्या में उन्हें तनाव या डिप्रेशन झेलना पड़ा। जानकारों के मुताबिक, तालाबन्दी के दौरान छोटे व्यवसायों और व्यापारियों को बड़ा नुक़सान हुआ है और इनमें से कई अपने धन्धे समेटने को मजबूर हो गये।

किसानों की दशा ख़राब

 

तमाम सरकारी दावों के बावजूद देश में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला भी बदस्तूर जारी है। एनसीआरबी के आँकड़े ज़ाहिर करते हैं कि सन् 2020 में 2019 की अपेक्षा किसानों (किसान और कृषि मज़दूर) की आत्महत्याओं के मामले लगभग 4 फ़ीसदी बढ़े हैं। यही नहीं देश में कृषि मज़दूरों की आत्महत्या के मामले 18 फ़ीसदी बढ़े हैं। वैसे राज्यों की बात करें, तो महाराष्ट्र 4,006 आत्महत्याओं के साथ सूची में सबसे ऊपर है। इसके बाद कर्नाटक में 2,016, आंध्र प्रदेश में 889, मध्य प्रदेश में 735 और छत्तीसगढ़ में 537 कृषि क्षेत्र से जुड़े लोगों ने आत्महत्या की है।

एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि किसानों और कृषि मज़दूरों में आत्महत्या के मामले रुकने की जगह बढ़ रहे हैं। देश में सन् 2020 के दौरान कृषि क्षेत्र में 10,677 लोगों की आत्महत्या की जो देश में कुल आत्महत्याओं (1,53,052) का 7 फ़ीसदी है। इसमें 5,579 किसान और 5,098 खेतिहर मज़दूरों की आत्महत्याएँ दर्ज हैं।

वैसे 2016 से 2019 के बीच चार साल तक इन आत्महत्यायों में गिरावट दर्ज होने के बावजूद कृषि क्षेत्र में आत्महत्या के मामले बढ़े हैं। सन् 2016 में कुल 11,379 किसान और कृषि मज़दूरों ने आत्महत्या की थी, जबकि 2017 में इसमें गिरावट आयी और संख्या 10,655 रह गयी। सन् 2018 में 10,349 तो 2019 में इस तरह के आत्महत्या के कुल 10,281 मामले सामने आये थे, जबकि सन् 2020 में यह मामले 10,677 हो। गये।

कृषि मज़दूरों की हालत भी देश में जगज़ाहिर है। यदि सन् 2019 से सन् 2020 की तुलना करें, तो सन् 2019 में 5,957 किसान और 4324 कृषि मज़दूरों ने आत्महत्या की थी, जबकि सन् 2020 में यह आँकड़ा क्रमश: 5,579 और 5,098 रहा। यानी कृषि मज़दूरों की आत्महत्या के मामले सन् 2020 में बढ़े हैं। सन् 2020 में आत्महत्या करने वाले 5,579 किसानों में से 5,335 पुरुष थे और 244 महिलाएँ थीं, जबकि आत्महत्या करने वाले 5,098 कृषि मज़दूरों में 4621 पुरुष और 477 महिलाएँ थीं। किसान आन्दोलन के गढ़ पंजाब और हरियाणा में भी स्थिति बदतर है। पंजाब में साल भर में 257 जबकि हरियाणा में 280 आत्महत्या मामले दर्ज हुए। पश्चिम बंगाल, बिहार, नागालैंड, त्रिपुरा, उत्तराखण्ड, चंडीगढ़, दिल्ली, लद्दाख, लक्षद्वीप और पुडुचेरी में शून्य आत्महत्या मामले दर्ज हुए। रिपोर्ट में किसानों और कृषि मज़दूरों को विभाजित करके आँकड़े बताये गये हैं। किसान उन्हें बताया गया है जिनके पास ख़ुद की ज़मीन है और खेती करते हैं। कृषि मज़दूर वे हैं, जिनके पास अपनी ज़मीन तो नहीं; लेकिन उनकी आय का साधन दूसरे किसानों के खेत में काम करके अपनी आजीविका कमाना है।

अवसाद बढ़ा

क़रीब 68 दिन के पहले सबसे लम्बे तालाबन्दी ने देश की निचली आबादी की कमर तोड़ कर रख दी। लोगों में इस दौरान अवसाद बढ़ गया और अत्महत्या के मामलों में आश्चर्यजनक उछाल देखने को मिला। रिपोर्ट से यह भी ज़ाहिर होता है कि तालाबन्दी में सबसे अधिक प्रभावित वे छात्र भी रहे, जो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे। इनमें से कई ऐसे थे, जिनके करियर की उम्र ख़त्म हो रही थी और वही सबसे ज़्यादा अवसाद की चपेट में आये।

इस दौरान न तो स्कूल-कॉलेज खोले गये और न ही दुकान खोलने की इजाज़त दी गयी। शिक्षा मंत्रालय की एक रिपोर्ट ज़ाहिर करती है कि भारत में अभी भी 2.9 करोड़ छात्रों के पास डिजिटल उपकरणों की पहुँच नहीं है। ऑनलाइन शिक्षा जारी रखने के लिए संसाधनों का उपयोग करने में असमर्थता के कारण छात्रों के आत्महत्या करने की कई रिपोट्र्स आयी हैं। हर साल आत्महत्या करने वाले छात्रों की संख्या कुल आँकड़ों का सात से आठ फ़ीसदी होता था, जो साल 2020 में बढक़र 21.2 फ़ीसदी हो गया है। इसके बाद प्रोफेशनल लोगों की संख्या 16.5 फ़ीसदी, दैनिक वेतन पाने वाले 15.67 फ़ीसदी और बेरोज़गार 11.65 फ़ीसदी के आसपास थे।

उधर छोटे उद्यमी, जिन्होंने बैंक कज़ऱ् और अन्य माध्यमों से उद्यम शुरू किया था, तालाबन्दी में उनका कामकाज चौपट हो गया। क़र्ज़ का बोझ ऊपर से आर्थिक तंगी। नतीजे में कई उद्यमियों ने आत्महत्या का रास्ता अपना लिया। विशेषज्ञों के मुताबिक, तालाबन्दी तनाव का सबसे बड़ा ज़रिया बना।

महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा आत्महत्याएँ

एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में सबसे ज़्यादा आत्महत्याएँ महाराष्ट्र में हुईं। वहाँ 19,909 लोगों ने अपनी जान दी। तमिलनाडु में 16,883, मध्य प्रदेश में 14,578, पश्चिम बंगाल में 13,103 और कर्नाटक में 12,259 लोगों ने 2020 में आत्महत्या कर ली। एनसीआरबी की रिपोर्ट में मुताबिक, कुल आत्महत्याओं में  अकेले इन पाँच राज्यों में ही 50.1 फ़ीसदी लोगों ने आत्महत्या का रास्ता अपनाया। अन्य आत्महत्या मामले  जो 49.9 फ़ीसदी आत्महत्याएँ अन्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में हुईं। इस लिहाज़ से देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश सही है। वहाँ 3.1 लोगों ने आत्महत्या का रास्ता अपनाया। यह आँकड़े इस लिहाज़ से अपेक्षाकृत कम लगते हैं कि देश की कुल आबादी के 16.9 फ़ीसदी जनता उत्तर प्रदेश में है। केंद्र शासित प्रदेशों में दिल्ली में सबसे ज़्यादा 3,142 लोगों ने ख़ुदकुशी की। रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में 2020 में आत्महत्या करने वाले लोगों में से कुल 56.7 फ़ीसदी लोगों ने पारिवारिक समस्याओं (33.6 फ़ीसदी), विवाह सम्बन्धी समस्याओं (पाँच फ़ीसदी) और किसी बीमारी (18 फ़ीसदी) के कारण आत्महत्या की।

आत्महत्या के कारण

तालाबन्दी बढऩे के बाद देश में आत्महत्या बढऩे के मामले बढऩे का ख़तरा जताया गया था। एक सर्वे के मुताबिक, तालाबन्दी में भारत के लोगों का मानसिक स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हुआ है। सर्वे के मुताबिक, हर पांच में से एक भारतीय मानसिक बीमारी से जूझ रहा है। लॉकडाउन की घोषणा के बाद कमोवेश पूरी आबादी प्रभावित हुई। चिकित्सा विशेषज्ञों के मुताबिक लाखों लोग बेरोज़गार हुए। इस कारण से लोगों को कई गम्भीर तनावों और रोगों ने घेर लिया है। चिकित्सा जानकारों के मुताबिक, देश में कई ऐसे मामले भी दिखे, जिनमें ऐसे लोगों जो जीवन में कभी मानसिक रोग से नहीं जूझे, वे भी आज परेशानियों का सामना कर रहे हैं। मनोविज्ञानियों के मुताबिक, महामारी के कारण बच्चे भी मानसिक रूप से प्रभावित हुए हैं। इंडियन साइकेट्री सोसायटी (आईपीएस) का एक सर्वे ज़ाहिर करता है कि तालाबन्दी के बाद मानसिक बीमारी के मामले 30 फ़ीसदी तक बढ़े हैं। आज हर पाँचवाँ व्यक्ति मानसिक बीमारी से जूझ रहा है। आईपीएस का कहना है कि बार-बार के तालाबन्दी से आर्थिक परेशानियाँ बढ़ी हैं। इसके अलावा आइसोलेशन ने देश में नया मानसिक संकट पैदा किया है। इन सबसे आत्महत्या के मामले बढ़े हैं।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, अब मानसिक स्वास्थ्य का असर दिख रहा है। वैसे यह संकट काफ़ी देर से चल रहा है और लोग भटकते जा रहे हैं। मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक, बढ़ती घरेलू हिंसा और आइसोलेशन के कारण बच्चों में मानसिक बीमारी बढऩे का ज़्यादा जोखिम है। दिलचस्प बात यह भी है कि तालाबन्दी दौरान भारत में शराब न मिलने के कारण भी लोगों ने आत्महत्या की। वैसे देश में सन् 2017 में केंद्र सरकार ने मेंटल हेल्थकेयर एक्ट लागू किया था। इसके तहत नागरिक सरकारी मदद से अपना मानसिक इलाज करा सकते हैं।

उत्तर प्रदेश में जिन्ना और अब्बाजान!

हर रोज़ नये-नये जुमलों से सनी उत्तर प्रदेश की सियासत एक-दूसरे पर छींटाकसी करती नज़र आ रही है। हार का डर सभी को है। लेकिन जनता में वर्चस्व क़ायम करने के लिए योगी एक बार फिर से कमल खिलाने का दम भर रहे हैं, तो अखिलेश यादव विजय यात्रा करके जीत का दावा कर रहे हैं। वहीं प्रियंका गाँधी उत्तर प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में जाकर हाथ के पंजे को मज़बूत करने की कोशिश में जुटी हैं, तो मायावती परदे के पीछे से राजनीति चल रही हैं।

इन दिनों उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के अब्बाजान कहे जाने पर उन्हें ही इसका शिकार होना पड़ रहा है। इसकी वजह यह है कि उन्होंने ख़ुद अपने सम्बोधन में अब्बाजान शब्द को लम्बे समय तक तकिया कलाम बनाये रखा। सितंबर में जब यह मुद्दा विधान परिषद् में उठा था, तो योगी ने कहा था कि अब्बाजान शब्द कबसे असंसदीय हो गया? इसका मतलब यह हुआ कि अब्बाजान शब्द को योगी साफ़ तौर पर संसदीय घोषित करने की कोशिश कर रहे थे, जिसके बाद सियासी गलियारे में उन्हें अब्बाजान को याद करने वाला जुमला मज़ाक़ बन गया।

भाजपा और योगी ने अयोध्या में भगवान राम के मन्दिर के निर्माण को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप में भुनाने की कोशिश के बीच दीपावली पर 12 लाख दीपक प्रज्ज्वलित करके भव्य दीपोत्सव मनाया, जिससे हिन्दुओं की भावनाएँ एक बार फिर उद्वेलित हुई हैं। लेकिन महँगाई, बेरोज़गारी के बीच कोरोना महामारी के बाद प्रदेश भर में डेंगू ने मौत का जो तांडव किया है, उससे लोग सरकार से ख़ासे नाराज़ भी हैं।

भाजपा के लिए हिन्दुत्व पहले भी सबसे बड़ा मुद्दा था और आज भी सबसे बड़ा मुद्दा है। महँगाई और बेरोज़गारी, स्वास्थ्य अव्यवस्था जैसे मुद्दों पर विपक्ष भले ही उसे घेर ले; लेकिन भाजपा की हिन्दुत्व वाली छवि आज भी काफ़ी मज़बूत है। अयोध्या में पाँचवा भव्य दीपोत्सव मनाकर उसने अपनी इसी छवि को मज़बूत किया है। वैसे बाक़ी मुद्दों पर भी पार्टी रणनीतियाँ बनाकर काम कर रही है। लेकिन काम को लेकर केवल प्रचार के अलावा उसके पास कोई ख़ास नहीं है। इसीलिए वह राम मन्दिर, हिन्दुत्व, जातिवाद के ज़रिये जनाधार जुटाने में लगी है। इतना ही नहीं, भाजपा दूसरे दलों में तोडफ़ोड़ का भी कोई मौक़ा नहीं छोडऩा चाहती और विधानसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में भी वह यही कर रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण गाज़ीपुर  के सैदपुर से विधायक सुभाष पासी को सपा से तोडक़र अपने ख़ेमे में करना है। माना जा रहा है कि पत्नी समेत भाजपा में शामिल हुए सुभाष पासी से योगी को ग़ाज़ीपुर, आजमगढ़ और जौनपुर के कुछ इलाक़ों में दलितों के मतदाताओं का समर्थन मिलेगा। मोदी लहर के बावजूद इन इलाक़ों सुभाष पासी का जल्वा क़ायम है। दूसरा, पूर्वांचल में भाजपा के पास कोई बेहतर दलित चेहरा नहीं था, जिसकी भरपायी उसने सपा के सुभाष पासी को तोडक़र कर ली है। वैसे तो सुभाष पासी इन इलाक़ों में ख़ासे लोकप्रिय हैं; लेकिन देखना यह है कि भाजपा में जाने से वह इस लोकप्रियता को बचा पाएँगे या नहीं।

अखिलेश यादव की बात करें, तो उन्हें चुनाव के समय जिन्ना याद आ गये। माना जा रहा है कि उन्होंने मुस्लिम मत (वोट) बटोरने के लिए बँटवारे के सबसे बड़े क़ुसूरवार मोहम्मद अली जिन्ना को गाँधी, नेहरू और सरदार पटेल की कतार में खड़ा कर दिया है। इस पर उन्हें असदुद्दीन ओवैसी ने जमकर लताड़ा। दरअसल ओवैसी को यह डर है कि इससे अखिलेश मुस्लिम जनाधार अपने पक्ष में कर लेंगे। हालाँकि अखिलेश के जिन्ना को याद करने से भले ही कुछ मुसलमान ख़ुश हुए हों; लेकिन अधिकतर मुस्लिम नाराज़ हुए हैं। भले ही दूसरी पार्टियों से भी मुस्लिम मतदाता ख़ुश नहीं हैं।

इधर अखिलेश यादव ने मायावती की पार्टी में बड़ी सेंधमारी करके उनके छ: विधायकों और भाजपा के एक विधायक को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया है। इतना ही नहीं, अखिलेश और उनके समर्थन में आये ओमप्रकाश राजभर ने ममता बनर्जी के ‘खेला होबे’ की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में नारा दिया है- ‘खदेड़ा होबे’। उन्हें विश्वास है कि जिस तरह ममता बनर्जी ने खेला होबे के नारे से बंगाल को जीता, उसी तरह वे भी खदेड़ा होबे के नारे से उत्तर प्रदेश जीत लेंगे।

अखिलेश को भरोसा है कि इस बार उनकी वापसी होने के आसार हैं। शायद इसीलिए वह कभी भाजपा, कभी मायावती, तो कभी कांग्रेस के जनाधार में सेंधमारी करने में जुटे हैं। कांग्रेस की देखादेखी ही उन्होंने लखीमपुर खीरी की घटना से आहत किसानों के ज़ख़्मों पर मरहम लगाने की कोशिश शुरू की, ताकि प्रदेश के किसानों का दिल जीत सकें। लेकिन इस मामले में वह प्रियंका गाँधी का मुक़ाबला करते नहीं दिख रहे हैं। कुर्सी की आकांक्षा में बीच-बीच में वह भी भाजपा की तरह ग़लतियाँ करते जा रहे हैं। जिन्ना का ज़िक्र करना और उनके सहयोगी ओमप्रकाश राजभर का माफिया मुख़्तार अंसारी से बांदा जेल में जाकर मिलना ऐसी ही ग़लतियाँ हैं। राजभर ने माफिया मुख्तार अंसारी को ग़रीबों का मसीहा बताते हुए उन्हें उनकी इच्छानुसार जगह से चुनाव लडऩे का न्यौता देकर एक ऐसा पासा फेंका है, जो समाजवादी पार्टी के लिए बेहतर क़दम तो नहीं कहा जा सकता। अखिलेश का चुनाव लडऩे से इन्कार करना भी सपा के लिए बहुत बेहतर नहीं तो माना जा रहा है। लेकिन माना जा रहा कि अखिलेश ने यह क़दम अपनी लोकसभा सीट बचाये रखने, भाजपा के निशाने से बचने और अपने चाचा को शिवपाल यादव को ख़ुश करने के लिए उठाया है। उन्होंने जीतने पर प्रदेश में पेट्रोल सस्ता करने का जाल भी फेंक दिया है। अखिलेश की कोशिश है कि राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) और उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया से गठबन्धन करके वह बाज़ीमार लें।

इधर प्रियंका गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में पहले से काफ़ी मज़बूत दिख रही है। माना जा रहा है कि इसका लाभ इस बार कांग्रेस को ज़रूर मिलेगा। यही वजह है कि बसपा, सपा जैसे मज़बूत क्षेत्रीय दलों में ही नहीं सत्ता में मौज़ूद भाजपा को भी कांग्रेस की सक्रियता खटकने लगी है। तीन दशक से कांग्रेस उत्तर प्रदेश की सत्ता से दूर ही नहीं है, बल्कि लगातार कमज़ोर भी हुई है। लेकिन अब इसे मज़बूत करने का बीड़ा प्रियंका गाँधी ने उठाया है और इसमें वह स$फल होती हुई भी दिख रही हैं। हालाँकि उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल करना उनके लिए आसान नहीं है। उनके सहयोगी अभी भी दूसरों की नाव में कूद रहे हैं।

मगर प्रियंका इसकी फ़िक्र किये बग़ैर ही कार्यर्काओं को पार्टी में शामिल करने और योजनाएँ बनाने में चुपचाप जुटी हुई हैं। वह भाजपा की तरह ही सोशल मीडिया के ज़रिये प्रचार कर रही हैं। यूट्यूब व अन्य चैनलों के ज़रिये जनता के मुद्दों को उठाकर सरकार को घेरने की कोशिश में लगी हैं। वह भाजपा की तरह धर्मवाद और जातिवाद की राजनीति में न फँसकर सभी को साथ लेकर चलने की कोशिश करती दिख रही हैं, जिसमें उन्होंने महिलाओं को प्रमुखता दी है और बेरोज़गारी के अलावा किसानों व पीडि़तों के मुद्दों को ज़ोर-शोर से उठा रही हैं। कुल मिलाकर प्रियंका गाँधी सहानुभूति वाली राजनीति कर रही हैं। हालाँकि प्रियंका उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की बंजर ज़मीन उपजाऊ बनाने की कोशिश में लगी हैं। देखना यह है कि वह इस पर 2022 में कितनी फ़सल उगा पाती हैं। उन्होंने जनाधार की फ़सल उगाने के लिए अपनी पूरी ताक़त झोंक दी है और प्रदेश की पाँच करोड़ महिलाओं तक अपनी पहुँच मज़बूत करने के लिए ‘लडक़ी हूँ, लड़ सकती हूँ’ का नारा दिया  है। इस समय उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभन सीटों में कांग्रेस के पास सिर्फ़ एक और विधानसभा की 404 (403+1) में सिर्फ़ सात सीटें ही हैं।

उत्तर प्रदेश में के चुनावी रण में यूँ तो बहुजन समाज पार्टी (बसपा) भी थके हुए महारथी की तरह खड़ी है; लेकिन अभी तक ये स्पष्ट नहीं है कि उसकी लड़ाई किससे है? क्योंकि मायावती सभी पार्टियों पर बरसती दिखायी दे तो रही हैं; लेकिन पहले की तरह ताक़त चुनाव में झोंक नहीं रही हैं। भले ही उन्होंने ब्राह्मण सम्मेलन से लेकर प्रबुद्ध सम्मेलन तक करने का काम किया है। लेकिन बसपा की राजनीति ट्विटर से आगे नज़र नहीं आ रही। दीपावली पर मायावती और उनकी पार्टी बिल्कुल शान्त नज़र आयीं। पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा से जीतकर आये उनके विधायकों में भगदड़ मची है। ऐसा लग रहा है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा को अस्तित्व की लड़ाई लडऩी होगी; क्योंकि 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद वह प्रदेश में लगातार कमज़ोर होती दिख रही है। मायावती 2007 के विधानसभा चुनाव की तरह ब्राह्मण मतदाताओं के ज़रिये बड़ा धमाका करने की तैयारी में हैं। लेकिन उनका दलित मतदाता उनके हाथ से खिसकता दिख रहा है। अब देखना यह है कि क्या बसपा इन्हें पछाडक़र आगे निकल पाएगी?

केंद्र सरकार के ग़रीबों को मुफ़्त राशन योजना से वंचित करने की ख़बरों के बीच उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने प्रधानमंत्री अन्न योजना को होली तक बढ़ाने का ऐलान करके मतदाताओं को भाजपा से टूटने से बचाने का प्रयास किया है। दूसरी तरफ़ उप चुनावों में भाजपा के ख़राब प्रदर्शन के बाद केंद्र की एक्साइज ड्यूटी में कटौती के फ़ैसले के बाद राज्य सरकार ने पेट्रोल-डीजल की क़ीमतों में मामूली कटौती की है। प्रदेश सरकार की दोनों घोषणाएँ लोगों को थोड़ी राहत देने वाली ज़रूर हैं; लेकिन महँगाई से परेशान जनता क्या इतने से सन्तुष्ट होकर फिर से भाजपा को प्रदेश की सत्ता सौंपेगी?

कुल मिलाकर इस समय हर पार्टी अपना क़िला बचाने में लगी है, जिसके चलते सियासी गर्मी बढ़ी हुई  है। लेकिन सत्ता में वापसी किसती होगी। यह तो वक़्त ही बताएगा।

बुंदेलखण्ड की सियासी बयार

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक़ आते जा रहे हैं, शहरों से लेकर गाँवों तक के मतदाताओं में सियासी दल गुणा-भाग कर अपना-अपना जनाधार मज़बूत करने की जुगत में लगे हैं।

उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखण्ड में सियासी हलचल जानने के लिए तहलका संवाददाता ने बुंदेलखण्ड के हिस्से वाले उत्तर प्रदेश के छ: ज़िलों- झाँसी, जालौन, बांदा, महोबा, हमीरपुर और ललितपुर की 19 विधानसभा सीटों के सियासी लोगों से बातचीत की। यहाँ के लोगों का कहना है कि बुंदेलखण्ड के लोगों की उपेक्षा और अनदेखी पहले की सरकारों ने भी की और वर्तमान सरकार भी कर रही है। बुंदेलखण्ड के लोगों को सियासी दलों ने वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल किया है, जिसके कारण बुंदेलखण्ड दिन-ब-दिन पिछड़ता ही गया है। यहाँ बेरोज़गार लोग बड़ी संख्या में हैं। आज भी लोग बिजली-पानी और अन्य बुनियादी ज़रूरतों के लिए जूझ रहे हैं। कुछ लोगों ने बताया इस बार यहाँ के चुनाव परिणाम चौंकाने वाले साबित होंगे। क्योंकि किसान आन्दोलन से लेकर बढ़ती महँगाई के अलावा किसानों को खाद के लिए जूझना पड़ रहा है, जिसके चलते वे समय पर बुवाई नहीं कर पा रहे हैं।

बताते चलें इस बार का विधानसभा चुनाव भाजपा और सपा के बीच सीधी चुनावी टक्कर तो है; लेकिन कांग्रेस के बढ़ते जनाधार और बसपा की चुनावी चुप्पी से चुनावी समीकरण बदल सकते हैं। इसके अलावा इस बार उत्तर प्रदेश की सियासत में दो नयी सियासी पार्टियाँ- आम आदमी पार्टी और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन ज़रूर सेंध लगाएँगी। लोगों का मानना है कि बुंदेलखण्ड में दो दशक से बसपा, सपा और भाजपा को एक तरफ़ा शासन का मौक़ा मिला है। लेकिन इस बार अगर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के साथ औवेसी की पार्टी अगर दमख़म से चुनाव लड़ती है, तो बुंदेलखण्ड में काफ़ी कुछ बदलाव की राजनीति हो सकती है।

बुंदेलखण्ड के लोगों का कहना है कि आज भी यहाँ के लोग बिजली की क़िल्लत से जूझ रहे हैं। अगर आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविन्द केजरीवाल दिल्ली की तर्ज पर मुफ़्त बिजली-पानी की सुविधा देते हैं, तो केजरीवाल को जिताने में क्या हर्ज है? अब तक जिस तरह पूरे देश में जाति-धर्म की सियासत होती रही है, उससे कहीं बढक़र बुंदेलखण्ड में जाति-धर्म को लेकर सियासत होती है। लेकिन इस बार बुंदेलखण्ड के लोग जाति-धर्म से हटकर विकास के लिए चुनाव में मतदान करने का मन बना रहे हैं। लोगों का कहना है कि जब पूर्वांचल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विकास हो सकता है, तो बुंदेलखण्ड का विकास क्यों नहीं हो सकता? जबकि बुंदेलखण्ड में 19 विधानसभा सीटों में भाजपा का परचम लहराया था।

बुंदेलखण्ड के लोगों का कहना है कि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी ने बुंदेलखण्ड के लोगों के बीच आकर साफ़ कहा है कि सपा, बसपा और भाजपा ने यहाँ की जनता को गुमराह किया है, जिसके चलते आज भी यहाँ के किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं। उन्होंने कहा कि इस बार के विधानसभा चुनाव में पूरे प्रदेश में कांग्रेस का जनाधार बढ़ेगा।

बुंदेलखण्ड की राजनीति के जानकार संजीव कुमार का कहना है कि इस बार अगर कोई भी सियासी दल सही प्रत्याशी को चुनाव मैदान में उतारता है, तो वह चुनाव जीत सकता है। क्योंकि अभी जो चुनाव जीते हैं, वे रातोंरात भाजपा में शामिल होकर भाजपा लहर में जीतकर तो आ गये हैं; लेकिन उन्होंने बुंदेलखण्ड का विकास न करके, ख़ुद का विकास किया है। यहाँ के लोगों का कहना है कि जब 2017 में बुंदेलखण्ड की चुनावी सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि बुंदेलखण्ड के विकास के लिए बुंदेलखण्ड विकास बोर्ड का गठन किया जाएगा।

विकास बोर्ड का गठन तो हुआ; लेकिन विकास नहीं हुआ। भाजपा के प्रति लोगों के बढ़ते आक्रोश के चलते जीते हुए विधायकों का टिकट कटने कयास लगाये जा रहे हैं, जिसके चलते यहाँ की सियासतदानों में उथल-पुथल सी मची हुई है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अब भी कह रहे हैं कि बुंदेलखण्ड के विकास में कोई बाधा नहीं आने देंगे। जबकि यहाँ के लोगों ने बताया कि योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही प्रदेश की सडक़ों को गड्ढामुक्त करने का वादा किया था; लेकिन सडक़ों की हालत और जर्जर हो गयी।

समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता आशाराम सिंह का कहना है कि अगर सपा का संवर्ग मत (काडर वोट) मुस्लिम-यादव तथा अन्य जातियों के मतदाता मज़बूती के साथ रहे, तो कोई भी राजनीति दल सपा को सरकार बनाने से नहीं रोक सकेगा। आने वाले समय में चौंकाने वाली बात यह हो सकती है कि अगर भाजपा, सपा और बसपा के विधायकों को उनकी पार्टियों ने टिकट नहीं दिये, तो वे किसी दूसरे दल के टिकट पर चुनाव लड़ सकते हैं। इससे यह बात तो साफ़ है कि भाजपा ही नहीं, दूसरे क्षेत्रीय दलों की भी स्थिति बुंदेलखण्ड में बहुत मज़बूत नहीं है।

क्या रालोद का अस्तित्व बचा पाएँगे जयंत?

उत्तर प्रदेश के 2022 के विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आ रहे हैं, प्रदेश की सभी पार्टियाँ कमर कसती नज़र आ रही हैं। लेकिन इन पार्टियों को इस बार के चुनाव में कड़ी चुनौती किसान, ख़ासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट किसान दे रहे हैं। यही वजह है कि सभी पार्टियाँ अपना-अपना अस्तित्व बचाने की चिन्ता सताने लगी है।

अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बात करें, तो वहाँ सिर्फ़ जाट ही नहीं, दूसरी जाति के किसान भी भाजपा से सख़्त नाराज़ हैं। जाटों के साथ-साथ इन मतदाताओं के बीच अपनी पैठ बनाने में जुटे हैं- छोटे चौधरी यानी चौधरी जयंत सिंह। उन्हें किसान आन्दोलन के चलते बल मिला है। लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्हें अपने पिता चौधरी अजित सिंह के गुजर जाने के बाद पिछले कई चुनावों में बुरी तरह कमज़ोर पड़ चुकी अपनी पार्टी की साख और उसके अस्तित्व को बचाना होगा। इसके लिए उत्तर प्रदेश के आगामी साल के विधानसभा चुनाव जयंत के लिए स्वर्णिम अवसर के रूप में सामने हैं, जिन्हें उन्हें अपने राजनीतिक विवेक से जनता में एक नया जोश और विश्वास पैदा करके हर हाल में हासिल करना होगा, अन्यथा अगर यह अवसर उन्होंने गँवा दिया, तो उन्हें भविष्य में राजनीति में अपना क़द और पार्टी का अस्तित्व बचाये रखने की चुनौती हमेशा रहेगी। इसके लिए भले ही वह सपा से गठबन्धन कर लें; लेकिन अपना क़द छोटा करके समझौता न करें।

जानकारी के मुताबिक, रालोद के लिए उन्होंने समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव से 40 सीटों की जो माँग की थी, जिसमें 32 सीटें मिलने पर सहमति बनने की बात सामने आ रही है। माना जा रहा है कि 21 नवंबर को मुलायम सिंह के जन्मदिन पर कार्यक्रम के दौरान सपा के रालोद से गठबन्धन की औपचारिक घोषणा हो सकती है। उनके कार्यकर्ताओं का मानना है कि उससे कम में उन्हें किसी हाल में नहीं मानना है, भले ही यह गठबन्धन हो या न हो। हालाँकि अभी तक तो यही बात सामने आ रही है कि जयंत को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बेल्ट की 32 सीटें सपा छोड़ रही है, जिसका उन्हें राजनीतिक फ़ायदा मिल सकता है। क्योंकि कृषि क़ानूनों के विरोध में आन्दोलन कर रहे किसानों, जिनमें जाट भी शामिल हैं; ने उन्हें रस्म पगड़ी के दौरान जो ज़िम्मेदारी दी है, उससे यह साफ़ है कि जाट मतदाता चौधरी जयंत सिंह की तरफ़ जाटों के नेतृत्व करने वाले नेता की नज़र से देख रहे हैं, जिनसे जाट किसानों को बड़ी उम्मीदें हैं।

ज़ाहिर है कि रालोद की ज़िम्मेदारी अब पूरी तरह चौधरी जयंत सिंह पर आ चुकी है और पार्टी अध्यक्ष के तौर पर यह उनका पहला बड़ा इम्तिहान है, जिसमें जाटों के साथ-साथ मुस्लिम मत भी रालोद के खाते में जाएँ, तो उनकी जीत पक्की है। ऐसा माना जा रहा है, जिसके बग़ैर जाटलैंड में किसी भी पार्टी की जीत सम्भव नहीं है। इसके अलावा अगर दलित वोट का भी कुछ प्रतिशत वोट रालोद को मिल गया, तो फिर उसे अच्छी ख़ासी सीटों पर आसानी से जीत हासिल हो सकती है। केवल जाटों के दम पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 20-22 फ़ीसदी सीटें तो जीती जा सकती हैं; लेकिन 100 फ़ीसदी तो क़तर्इ नहीं।

राजनीतिक जानकारों का मानना है कि अधिकतर जाटों का भाजपा प्रेम अभी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ है, जिसकी वजह भाजपा में जाट नेताओं का होना भी है। अगर जाट नेता भाजपा का दामन छोड़ दें, तो बचे-खुचे भाजपा समर्थक जाटों का भी भाजपा मोह भंग हो जाएगा और इससे भाजपा को उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में ही नहीं, बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव में भी तगड़ा झटका लग सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश को राष्ट्रीय लोकदल का गढ़ माना जाता रहा है। किसान मसीहा चौधरी चरणसिंह से लेकर जयंत चौधरी तक छपरौली, बाग़पत सीना ताने खड़े रहे हैं। तमाम नाराजगी और रूठने मनाने के बावजूद छपरौली ने कभी भी इन परम्परागत सियासत दानों का सिर नीचा नहीं होने दिया। लेकिन सन् 2013 के मुज़फ़्फ़रनगर दंगे और टिकट के ग़लत बँटवारे के चलते रालोद की नाव डूब गयी। स्थिति यहाँ तक आ पहुँची कि रालोद सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में एकमात्र छपरौली की सीट बचा पायी। लेकिन अब रालोद को एक बेहतरीन मौक़ा मिला है, जिसे चौधरी जयंत सिंह को बचना है, जो कि थोड़ा मुश्किल भले है, लेकिन नामुमकिन नहीं। इसके लिए जयंत को खुलकर किसान आन्दोलन के साथ डटकर खड़े रहना होगा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मतदाताओं में एक विश्वास जगाना होगा। हालाँकि यह भी सच है कि किसान आन्दोलन के दौरान जयंत ने किसानों का समर्थन देकर कार्यकर्ताओं में जोश डालने का कार्य किया है। इस दौरान की गयी मेहनत और हाथरस के लाठीचार्ज के परिणामस्वरूप ही वह लोगों में चर्चा का विषय भी बने। लेकिन उन्हें पार्टी को वन मैन आर्मी के तंत्र (मॉडल) से बाहर निकालकार असलियत में लोकतांत्रिक बनाना होगा। फ़िलहाल सवाल यही है कि क्या रालोद का अस्तित्व बचा पाएँगे चौधरी जयंत सिंह?

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

धान की ख़रीद में देरी से बढ़ी कालाबाज़ारी

हरियाणा में ही आढ़तियों के हाथ सस्ते में बेचने को मजबूर है। उन्होंने यह भी बताया कि हरियाणा में अलग-अलग मंडियों में धान का भाव भी अलग-अलग, कहीं 1,100 रुपये प्रति कुंतल, तो कहीं 1,300 रुपये प्रति कुंतल है।

देश के किसान इन दिनों तीन कृषि क़ानूनों के विरोध के साथ-साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी के लिए आन्दोलन कर रहे हैं। वहीं सरकार मौखिक रूप से कई बार कह चुकी है कि एमएसपी है, एमएसपी रहेगी। लेकिन क्या यह सत्य है? शायद नहीं। क्योंकि हर छमाही रबी और ख़रीफ़ की फ़सल बेचने के लिए किसानों को जिस तरह की दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है, उनकी हक़ीक़त जानने के बाद यही कहा जाना उचित लगता है। 10-20 दिन पहले ही धान की फ़सल खेतों से उठा चुके किसानों के लिए सरकारी ख़रीद केंद्रों के खुलने में देरी होना इसका प्रमाण है। यह लेख लिखे जाने तक अनेक ख़रीद केंद्र खुले भी; लेकिन 100 फ़ीसदी नहीं खुले थे। काफ़ी दिनों तक धान की ख़रीद सरकारी ख़रीद केंद्रों पर न होने के चलते ज़रूरतमंद किसानों से आढ़तियों ने औने-पौने भाव में धान ख़रीद लिया। सवाल यह है कि किसान किससे शिकायत करें? सरकार एमएसपी पर गारंटी देना नहीं चाहती और ख़रीद केंद्रों को भी देरी से खोला जाता है। इसके बाद वहाँ भी किसानों के अनाज में अनेक कमियाँ निकालकर करदा काटकर अनाज को तौला जाता है। अगर किसान ख़रीद केंद्रों की शिकायत करें, तो उन पर ख़रीद करने वाले लोग अनाज को गीला और ख़राब बताकर ख़रीदने से मना कर देते हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और बिहार के कई किसानों से तहलका संवाददाता ने ने बात की, तो उन्होंने बताया कि किसानों के साथ अन्याय ही अन्याय हो रहा है।

किसान नेता और वकील चौधरी वीरेन्द्र सिंह ने बताया कि अब तक के इतिहास में किसानों के साथ बाज़ारों में इतना भेद-भाव नहीं हुआ है, जितना कि अब हो रहा है। उनका कहना है कि बाज़ारों और गेहूँ की बड़ी-बड़ी मंडियों में सत्ता से जुड़े पूँजीपतियों का कारोबार है। सरकार द्वारा निर्धारित भाव को वे मानते नहीं हैं। अपने-अपने हिसाब से ख़रीद-फ़रोख़्त करते हैं। ग़रीब किसान मजबूरी में औने-पौने दाम में उन्हें अनाज बेच देते हैं। सरकार ने जो ख़रीद केंद्र बनाये हैं, वहाँ पर प्रशासन भी मंडियों की भाषा बोलता है। ऐसे आख़िरक़ार न चाहते हुए भी किसान हर हालत लुटता जा रहा है। उन्होंने कहा कि देश में पहले जमाख़ोरी का कारोबार कम हुआ करता था। लेकिन अब सरकार में पूँजीपतियों की तूती बोल रही है और वे सारे क़ानून-क़ायदे ताक पर रखकर जमाख़ोरी करके खाद्यान की कालाबाज़ारी कर रहे हैं। यह एक सच्चाई है कि अब देश के पूँजीपतियों की नज़र कृषि उत्पादों पर टिकी है और वे इस पर अपना आधिपत्य चाहते हैं। किसानों का तो कहना है कि तीन कृषि क़ानून भी सरकार इसी सोच के चलते लायी है और यही वजह है कि उन्हें वापस करना नहीं चाहती।

हरियाणा के किसान राजू सिंह ने बताया कि हरियाणा का किसान अपनी धान की फ़सल को बेचने के लिए भटक रहा है। करनाल, सिरसा और पानीपत में किसानों के ट्रैक्टर के ट्रैक्टर भरे मंडियों में कई-कई दिनों से खड़े हैं। राजू सिंह का कहना है कि पंजाब सरकार धान की सही क़ीमत दे रही है। वहीं हरियाणा सरकार दावा तो कर रही है कि वह धान ख़रीद रही है। लेकिन सच यह है कि वह उन्हीं किसानों का धान ख़रीद रही है, जो सरकार से जुड़े हैं, जिनमें दलाल भी शामिल हैं। असल किसान तो भटक रहे हैं। हरियाणा के किसान पंजाब में जाकर अगर धान बेचें, तो मोटा भाड़ा लगेगा। इसलिए हरियाणा में ही आढ़तियों के हाथ सस्ते में बेचने को मजबूर है। उन्होंने यह भी बताया कि हरियाणा में अलग-अलग मंडियों में धान का भाव भी अलग-अलग, कहीं 1,100 रुपये प्रति कुंतल, तो कहीं 1,300 रुपये प्रति कुंतल है।

धान की खेती में अग्रणी उत्तर प्रदेश के ज़िला बांदा ज़िले की अर्तरा तहसील धान की उत्तर प्रदेश की प्रमुख मंडियों में से एक है। यहाँ पर धान की ख़रीददारी को लेकर किसानों के साथ अजीब से व्यवहार किया जा रहा है। अन्य ज़िलों से जो बिकने को आ रही है। उनके साथ बाज़ार और मंडियों के लोग अपनी मनमर्ज़ी के भाव में धान ख़रीद रहे हैं और जमकर घटतौली कर रहे हैं। हमीरपुर ज़िले के भरुआ सुमेरपुर के किसान दिलीप कुमार ने बताया कि आज देश के किसान मज़ाक़ बन गये हैं। सरकार तो वादे करती है कि यह होगा, वह होगा; लेकिन धरातल पर किसानों के हित में कुछ नहीं हो रहा है। शासन-प्रशासन के लोग और पूँजीपति मिलकर जो खेल किसानों के साथ कर रहे हैं, उस पर सरकार कुछ नहीं करती है। सत्ता से जुड़े लोग अपनी तानाशाही कर रहे हैं। किसानों को मंडियों में न केवल परेशान किया जा रहा है, बल्कि बेइज़्ज़त भी किया जा रहा है, जिससे वे खाद्यान बेचने के दौरान सहमे-सहमे से हैं कि किसी प्रकार उनकी फ़सल बिक जाए।

किसान नेता भूपेन्द्र सिंह का कहना है कि जब तक सरकार स्पष्ट तौर प्रशासन और बाज़ार के बीच ज़िम्मेदारीयाँ तय नहीं करती है, तब तक बाज़ारों में किसान लुटता रहेगा। रामपुर से लेकर हापुड़ तक किसानों ने कई बार उत्तर प्रदेश सरकार से लिखित में शिकायत की है कि किसानों के साथ अगर कोई अन्याय कर रहा है, तो वह सरकार का प्रशासन-तंत्र है। किसान जब अपना अनाज बेचने आता है, तो उसे कई-कई दिन लग जाते हैं। किसान केंद्रों में हर कर्मचारी किसानों से लेन-देन की बात करता है, तब जाकर उसका अनाज बिकता है। मध्य प्रदेश के किसान राजेश कुमार का कहना है कि मौज़ूदा समय किसानों को पैसा की सख़्त ज़रूरत है। वजह साफ़ है कि इस समय किसान रबी की बुवाई में व्यस्त हैं। धान की फ़सल बेचने में वे समय बर्बाद नहीं करना चाहते और उन्हें पैसे की भी ज़रूरत है। इसलिए वे मजबूरन आढ़तियों और सरकारी ख़रीद केंद्रों के कर्मचारियों के हाथों छले जा रहे हैं। उनका कहना है कि अगर सरकार का यही रवैया रहा, तो आने वाले दिनों में किसान धान की फ़सल नहीं उगाएगा। राजेश का कहना है कि मध्य प्रदेश से सटा राज्य छत्तीसगढ़ है। छत्तीसगढ़ कभी धान का कटोरा कहा जाता था; लेकिन अब नहीं कहा जाता है। क्योंकि धान की ख़रीद में कमी और कम भाव की ख़रीद के चलते वहाँ के लोगों ने धान की फ़सल बोना बन्द कर दी है।

मध्य प्रदेश के किसान विनोद कुमार साहू का कहना है कि यह पूँजीपतियों की सोची-समझी चाल है, जिसके तहत धान ही नहीं, किसी भी फ़सल की ख़रीददारी समय पर नहीं की जाती है। पहले डीजल-पेट्रोल के दाम कम थे, तो किराया-भाड़ा भी कम लगता था; लेकिन अब तो वह भी बढ़ गया है। पहले किसान आसानी से दूसरे ज़िले या राज्य में फ़सल बेच देते थे; अब यह सम्भव नहीं है। कुल मिलाकर किसानों को परेशान किया जा रहा है। महँगाई के अलावा बीमारियों का दौर चल रहा है। ऐसे में हर किसान को पैसे की सख़्त ज़रूरत है और इसका फायदा आढ़तिये, पूँजीपति, ख़रीद केंद्रों के कर्मचारी, मंडियों में बैठे दलाल उठा हैं और सरकार एमएसपी का ढोल ऐसे पीटती है, जैसे हक़ीक़त में उसने किसानों पर कोई अहसान कर दिया हो। बड़ी बात तो यह है कि एमएसपी पर किसानों के खाद्यान शायद ही कहीं ख़रीदे जाते हों।

बताते चलें एक दौर में खाद्यान्न खेतों से सीधे ख़रीद केंद्रों पर तुलती थे, बाज़ार में भी उनके दाम ठीकठाक मिल जाते थे। तब किसानों को प्रशासन से मिन्नतें भी नहीं करनी पड़ती थीं और न ही समझौते का सहारा लेना पड़ता था। अब यह हालत है कि ख़रीद केंद्रों पर कर्मचारियों का दबदबा चलता है। वहाँ पुलिस मौज़ूद होती है। टोकन सिस्टम है। बारी आने पर अनाज लिया जाता है और बारी कई दिन तक नहीं आती। जब बारी आती है, तो कई कमियाँ। ऐसे में किसानों का हर तरह से नुक़सान-ही-नुक़सान होता है।

ग़ाज़ीपुर मंडी में व्यापारी महेन्द्र सिंह का कहना है कि किसान और आम जनमानस की समझ से बाहर है कि अलग-अलग राज्यों में धान का भाव अलग-अलग होने का मतलब क्या है? मतलब साफ है कि मंडियों से लेकर सरकारी ख़रीद केंद्रों पर दलालों का बोलबाला है, जो किसानों की मजबूरी का लाभ उठाकर मनमर्ज़ी के भाव तय करके अनाज ख़रीदते हैं। कई बार ख़रीद केंद्रों के कर्मचारी नकद पैसा देकर किसानों का माल ख़रीद रहे हैं और आढ़तियों की तरह जमाख़ोरी करने में लगे हैं। ऐसा नहीं है कि ये सब शासन-प्रशासन को पता नहीं है; सब कुछ पता है और उनकी ही देख-रेख में ही सब हो रहा है। जागरूक और पढ़े-लिखे किसान इसे लेकर उनसे बात भी करते हैं, सरकार से शिकायत की चेतावनी तक देते हैं; लेकिन इससे होता कुछ नहीं।

शुरू से ही किसान आन्दोलन से जुड़ीं किसान नेता सुनीता गौर ने कहा कि जब सरकारें व्यापारियों के हित में काम करती हैं, तो देश की जनता हो या किसान, सबको कुछ-न-कुछ परेशानी होती है। उनका कहना है कि देश में शासन से लेकर प्रशासन तक पूँजीपति व्यापारियों के हित में काम कर रहे हैं। ऐसे में फ़सल में ही क्या, छोटे-छोटे व्यापारों में सेंध लगायी जा रही है।

मौज़ूदा दौर में अगर सबसे ज़्यादा अगर धान की बिक्री को लेकर अगर किसान परेशान है, तो वे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हरियाणा के किसान हैं। यहाँ पर किसानों को अपनी धान को औने-पौने दामों में बेचने का मजबूर होना पड़ रहा है। किसान नेता चौधरी बीरेन्द्र सिंह ने कहा कि आगामी 27 नवंबर को दिल्ली में देश के किसान धान की बिक्री में हो रही घपलेबाज़ी की शिकायत केंद्र सरकार के समक्ष रखेंगे।

रंगीन नफ़रतें

मज़हब ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता बताने वाले नहीं होते, बल्कि मन की आँखें खोलने वाले होते हैं। लेकिन अब लोगों के मन की आँखें ही बन्द होती जा रही हैं। लोग इस क़दर कुछ कट्टपंथियों का अन्धानुकरण करने लगे हैं कि वे अन्धविश्वासी हो चुके हैं। ऐसे लोग किसी एक मज़हब में नहीं, बल्कि हरेक में हैं। ऐसे लोग एकता और सद्भाव की बात करने वालों की नहीं, मज़हबों के नाम पर भडक़ाने वालों की बात मानते हैं। दूसरों के रहन-सहन, वेशभूषा, मज़हब और ख़ान-पान को लेकर चिढ़ रखने की होड़ लग चुकी है। इसी होड़ में रंगे-पुते लोग अब रंगों को लेकर भी नफ़रतों की आग जलने के कगार की ओर बढ़ रहे हैं। यह आग भडक़ाने का काम कौन लोग कर रहे हैं? यह किसी से छिपा नहीं है।

ऐसे लोगों ने अब रंगों को भी मज़हबों के नाम पर बाँट दिया है। मसलन, केसरिया रंग सनातनियों (हिन्दुओं) का है। हरा रंग मुसलमानों का है। सफ़ेद रंग ईसाइयों का है। यहूदियों का पीला रंग है। बौद्धों का गहरा लाल रंग है। सिखों का नीला रंग है। कुछ मज़हबों में एक से अधिक रंगों को भी पसन्द किया जाता है। लेकिन क्या ऐसा कोई रंग है, जो किसी इंसान की ज़िन्दगी में न हो? या वह उससे हमेशा के लिए दूर रहे सके और उसका उपयोग वह कभी न करे? सम्भव ही नहीं है। फिर भी अब रंगों के हिसाब से नफ़रतें पनपने लगी हैं। ख़ासकर सनातन धर्म और इस्लाम धर्म के लोग रंगों को लेकर अब नफ़रतों की आग की लपटों की तरफ़ बढ़ते दिख रहे हैं। लेकिन रंगों को मज़हबी नज़रों से देखने वाले और रंगों के हिसाब से नफ़रतों की आग भडक़ाने वाले किसी भी व्यक्ति को यह समझ नहीं आता कि सभी रंग प्रकृति के हैं और अगर एक भी रंग इनमें से कम कर दिया जाए, तो दूसरे रंगों का न केवल महत्त्व कम होगा, बल्कि बचे हुए रंग फीके भी लगेंगे। एक ही मज़हब के लोगों में, बल्कि एक ही परिवार में भी सबकी पसन्द के अलग-अलग रंग होते हैं। तो क्या उन्हें आपस में नफ़रत करनी चाहिए?

सभी रंगों का एक मतलब होता है। हर रंग कोई-न-कोई सन्देश देता है। किसी प्रेरणा का प्रतीक होता है। मसलन, लाल रंग मंगल, पराक्रम, धन, ख़शी और स्वास्थ्य का प्रतीक होता है। केसरिया (नारंगी) रंग ऐश्वर्य, वीरता, सक्रियता, ख़शी, स्वतंत्रता, ऊर्जा, सामाजिकता, सृजनात्मकता और ध्यान का प्रतीक माना जाता है। इसलिए भारत के राष्ट्रीय ध्वज में भी इसका स्थान सबसे ऊपर आता है। हरा रंग प्रकृति का है और यह शान्ति, शीतलता, सुख और स्फूर्ति का प्रतीक होता है। सफ़ेद रंग को लोग बेरंग समझते हैं। लेकिन सफ़ेद रंग सातों रंगों का मिश्रण होता है, जो कि पवित्रता, शुद्धता, शान्ति, ज्ञान, विद्या गृहण, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और नैतिक स्वच्छता का प्रतीक होता है। पीला रंग मानसिक, बौद्धिक उन्नति के साथ-साथ ज्ञान, विद्या, सुख, शान्ति, योग्यता और एकाग्रता का भी प्रतीक होता है। गेरुआ रंग नयी सुबह, नये उजाले, नयी ऊर्जा, शुद्धिकरण का प्रतीक और आज्ञाकारक तथा ज्ञान प्राप्ति का सूचक होता है। नीला रंग ऊँचाई, गहराई के साथ-साथ बल, पौरुष, वीरता, ठंडक, एकता, वफ़ादारी और सतर्कता का प्रतीक होता है। शान्ति प्रदान करता है। गुलाबी रंग प्रेम, प्रणय, सकारात्मकता, कोमलता, नेतृत्व और सुन्दरता का प्रतीक होता है।

इसी तरह काला रंग अँधेरे, नकारात्मकता का प्रतीक समझा जाता है। लेकिन इस रंग की वजह से ही बाक़ी के सभी रंग प्रकट हो पाते हैं। सोचिए, अगर ब्रह्माण्ड काला नहीं होता, तो चीज़ें दिखतीं कैसे और रंगीन कैसे नज़र आतीं? काले रंग की वजह से ही दूसरे रंगों को हम देख पाते हैं। इसका मतलब यह है कि हर रंग अपने में प्रकृति का, ज़िन्दगी का कोई-न-कोई हिस्सा भरता है और उसे रंगीन करता है। इससे यह सिद्ध होता है कि किसी मज़हब में पसन्द किये जाने वाले रंग का विरोध करने वाले या उस रंग से नफ़रत करने वाले लोग ईश्वर और उसकी संरचना अर्थात् प्रकृति से नफ़रत कर रहे हैं। ज़िन्दगी रंगीन है; रंगहीन नहीं। रंगहीन ज़िन्दगी हो भी नहीं सकती। भले ही किसी की ज़िन्दगी कितनी भी दुश्वार क्यों न हो। ऐसे में किसी रंग के नज़रिये एक-दूसरे से नफ़रत करना मूर्खता नहीं, तो और क्या है? लोगों की इसी मूर्खता का फ़ायदा मज़हबी कट्टरपंथी और राजनीतिक लोग उठा रहे हैं। ये लोग आपकी ज़िन्दगी से कुछ रंग छीनना चाहते हैं। जब वे इसमें कामयाब हो जाएँगे, तब आप अपनी ज़िन्दगी में उन रंगों को न केवल शामिल करने से परहेज़ करेंगे, बल्कि उन रंगों और उन्हें पसन्द करने वालों से नफ़रत करेंगे। आपस में लड़ेंगे, झगड़ेंगे। इसके बाद आपकी आने वाली पीडिय़ाँ इसे परम्परा और संस्कृति मान लेंगी और इस पर तब तक क़ायम रहकर लड़ती-मरती रहेंगी, जब तक वे बड़े विनाश के मुहाने पर नहीं पहुँच जाएँगी।

क्या आप यह चाहते हैं कि आपके बच्चों की ज़िन्दगी इन फ़िज़ूल की उलझनों में बर्बाद हो? जिन रंगों को प्रकृति ने आपको दिया है; आप उनमें से कुछ से इस वजह से नफ़रत क्यों करने पर आमादा हो कि उन्हें किसी दूसरे मज़हब के लोग पसन्द करते हैं। क्या रंगों का भी कोई मज़हब होता है? सभी रंग तो प्रकृति के ही हैं। तो क्या आप प्रकृति से उन रंगों को समाप्त कर दोगे? क्या उन रंगों के, जो आपके मज़हब में प्राथमिकता नहीं पा सके हैं; बग़ैर अपना काम चला सकोगें? क्या आपको मालूम नहीं कि आप जो खाते-पीते हो, पहनते-ओढ़ते हो, देखते हो; सबमें ही सभी रंग भरे हुए हैं। फिर यह पागलपन क्यों? किसके लिए?

कहीं टूट न जाए सब्र का बाँध

 माँग पूरी नहीं करा सका सवा साल का संघर्ष, दिल्ली की सीमाओं पर एक साल से बैठे हैं किसान

 22 नवंबर से सरकार को हर मोर्चे पर घेरेंगे किसान, संसद के शीत सत्र में भी उठाएँगे अपनी आवाज़

तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में किसानों को दिल्ली की सीमाओं पर आन्दोलन करते एक साल हो गया; लेकिन सरकार ने किसानों की माँगें नहीं मानी हैं। अपने हक़ और खेती बचाने के लिए सरकार से साल पर से गुहार लगाते किसान घर होते हुए भी बेघरों की तरह मौसमों की मार सहकर भी कृषि क़ानूनों को ख़त्म करने की अपनी माँग पर अडिग हैं। केंद्र सरकार और भाजपा की राज्य सरकारों के तमाम दबावों और 650 से ज़्यादा किसानों की आन्दोलन के दौरान मौत के बावजूद किसानों ने हौसला और सब्र नहीं खोया।

सरकार को किसानों की सुननी चाहिए, अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि किसानों के साथ-साथ जनता के सब्र का भी बाँध टूट जाए; क्योंकि यह आन्दोलन आज़ाद भारत का सबसे बड़ा आन्दोलन बन चुका है और यह पहली सरकार है, जिसने इतने बड़े आन्दोलन के बावजूद किसानों की अनदेखी की है। अब किसान हर हाल में अपनी लड़ाई में जीत चाहते हैं और इसके लिए केंद्र सरकार को हर मोर्चे पर घेरने की योजना बना चुके हैं। इसके लिए संयुक्त किसान मोर्चा ने एक दिन पहले ही बैठक करके विधिवत् कई फ़ैसले लिये हैं। इन फ़ैसलों में तय किया गया है कि किसान दिल्ली के अलावा पूरे देश में भाजपा और उसकी सरकारों का विरोध करेंगे।

इन विरोधों के फ़िलहाल जो संयुक्त किसान मोर्चा ने तय किया है, उसमें सबसे पहले 22 नवंबर को लखनऊ में किसान महापंचायत का आयोजन होगा। इस महापंचायत की अगुवाई भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता और किसान नेता राकेश टिकैत करेंगे। महापंचायत के बारे में राकेश टिकैत ने कहा है कि 22 नवंबर को लखनऊ में होने वाली किसान महापंचायत ऐतिहासिक होगी, जो कि तीनों काले क़ानूनों और किसान विरोधी भाजपा सरकार के ताबूत में आख़िरी कील साबित होगी। उन्होंने यह भी कहा है कि अब पूर्वांचल में भी आन्दोलन तेज़ किया जाएगा।

इस महापंचायत के बारे में ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर बैठे किसान देवेंद्र सिंह ने कहा कि मुज़फ़्फ़रनगर की महापंचायत से भी बड़ी लखनऊ की महापंचायत होगी, जो कि प्रदेश के किसानों और लोगों को भाजपा सरकार की जनविरोधी नीतियों के बारे में जागरूक करने के लिए आयोजित की जा रही है। उन्होंने कहा कि लॉकडाउन में भाजपा की केंद्र सरकार इन तीन क़ानूनों को लेकर आयी थी, जिसमें किसानों के हाथ से खेती-बाड़ी ही नहीं, उनकी जमीने छीनने तक की योजना बन चुकी है, जिसके चलते किसान इन क़ानूनों का विरोध कर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि केंद्र सरकार यह नहीं चाहती कि लोगों को इन क़ानूनों की हक़ीक़त पता चले, यही वजह है कि वह इन क़ानूनों पर खुली चर्चा करने से कतरा रही है और किसानों की आवाज़ को जबरन दबाने के लगातार प्रयास करती रही है।

अगर इन क़ानूनों की हक़ीक़त आम जनता को पता चल जाए, तो जनता भी सडक़ों पर दिखायी देगी। संयुक्त किसान मोर्चा की बैठक में यह भी तय किया गया है कि 26 नवंबर को किसान दिल्ली में कम-से-कम 500 ट्रैक्टरों के साथ प्रवेश करेंगे। 26 नवंबर को भारत का संविधान सन् 1949 में संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था। इसलिए इस दिन संविधान दिवस भी है। ट्रैक्टर लेकर दिल्ली में प्रवेश करने वाले किसानों में से 500 चयनित किसान 29 नवंबर से शुरू हो रहे संसद के शीतकालीन सत्र में अपनी आवाज़ बुलंद करेंगे। किसानों ने तय किया है कि वे शान्तिपूर्वक अपनी बात सरकार के सामने रखेंगे।

मोर्चा ने निर्णय लिया है कि 29 नवंबर से संसद के शीतकालीन सत्र के समाप्त होने तक हर रोज़ किसान मोर्चा द्वारा चयनित 500 किसान ट्रैक्टर ट्रालियाँ लेकर संसद भवन जाएँगे और अपनी आवाज़ बुलन्द करेंगे, ताकि तानाशाही पर उतरी सरकार को उनकी परेशानी का अहसास हो सके और वह तीनों काले क़ानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर हो सके। वहीं 22 नवंबर से पहले से ही दिल्ली की सीमाओं पर देश भर के किसान एक बार फिर जुटना शुरू होंगे और सरकार को उसके नये क़ानून लाने की ग़लती और अपनी एकता की ताक़त का अहसास कराएँगे।

मोर्चा ने यह भी फ़ैसला किया है कि 28 नवंबर को मुम्बई के आज़ाद मैदान में भी देश भर के किसान एक विशाल किसान-मज़दूर महापंचायत का आयोजन करेंगे। इस महापंचायत का आयोजन महाराष्ट्र के 100 से अधिक संगठनों की ओर से संयुक्त शेतकारी कामगार मोर्चा (एसएसकेएम) के बैनर तले संयुक्त रूप से आयोजित होगा।

बता दें कि किसान सरकार से तीनों कृषि क़ानूनों को समाप्त करने, न्यूनतम समर्थन मूल्य की लिखित गारंटी देने के अलावा किसान हर दिन एक-न-एक नयी माँग भी उठा रहे हैं। इन माँगों में हर राज्य के किसानों की अपनी और राज्यों में अलग-अलग क्षेत्र के किसानों की अपनी-अपनी समस्याएँ शामिल हैं। लेकिन सरकार की मंशा किसानों की किसी भी समस्या को सुनने की नहीं लगती। अगर वह किसानों की परेशानियों को समझती, तो अब तक प्रधानमंत्री, जो कि हर छोटी-बड़ी गतिविधि में दिलचस्पी रखते हैं। मोरों को दाना चुगाते हैं। एक क्रिकेटर की उँगली में चोट लगने पर दु:ख व्यक्त करते हैं; अब तक किसानों से भी बात कर चुके होते।

आन्दोलन तोडऩे की कोशिशें

नये कृषि क़ानूनों के विरोध में किसान आन्दोलन जब से शुरू हुआ है, तभी से केंद्र सरकार इस कोशिश में लगी है कि किसी तरह उसे तोडक़र ख़त्म कर दिया जाए। इसके लिए किसानों के ख़िलाफ़ की गयी साज़िशों के लिए सरकार पर सीधे-सीधे आरोप देना उचित नहीं होगा; लेकिन इसमें कोई दो-राय नहीं कि आन्दोलन के दौरान किसानों पर लाठीचार्ज करने, आँसू गैस के गोले दाग़ने, सडक़ें खोदने, उन पर कीलें ठुकवाने, कंटीले तार लगवाने, भारी बैरिकेड लगवाने, पुलिस और अद्र्धसैन्य बलों से बल प्रयोग करवाने का काम तक सरकार ने किया। किसानों के लिए खाना कहाँ से आ रहा है? उसकी जाँच कराने जैसे काम भी सरकार ने किये? इसके अलावा किसानों पर लगातार अराजक तत्त्वों ने भी हमले किये हैं, जिसमें कई किसानों की जान भी गयी है या यह कहें कि उनकी हत्या कर दी गयी।

इसके बाद इसके अलावा उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी स्थित तिकुनिया क्षेत्र में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी के बेटे अभिषेक मिश्रा मोनू ने केंद्रीय मंत्री की रैली का विरोध करके लौट रहे किसानों पर पीछे से कार चढ़ा दी। इससे ठीक पहले ही ख़ुद अजय मिश्रा ने ही किसानों को खुले शब्दों में धमकी दी थी। इतना ही नहीं, अभी हाल ही में दिल्ली सीमाओं पर किसान आन्दोलन से लौट रही पंजाब की पाँच महिलाओं को बहादुरगढ़ स्थित झज्जर रोड के फुटपाथ पर जाकर डंपर ने रौंद डाला, जिसमें तीन की मौक़े पर ही मौत हो गयी और दो को गम्भीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया।

इतने पर भी सरकार ने किसानों के प्रति संवेदनशील रवैया नहीं अपनाया और उन्हें आतंकवादी, ख़ालिस्तानी, दलाल, व्यापारी, दंगाई और न जाने क्या-क्या साबित करने की कोशिश की। अराजक तत्त्वों द्वारा किसानों पर हमले और उनकी हत्याओं के मामले में कई बार भाजपा और सरकार तक पर सीधे-सीधे आरोप लगे, लेकिन उसने इसकी परवाह किये बग़ैर किसानों के प्रति अपना शत्रुभाव का रवैया जारी रखा, जिसके चलते लखीमपुर में किसानों पर कार चढ़ाने जैसी घटना हुई। लेकिन किसानों के हौसले सरकार और भाजपा की इस नीति से पस्त नहीं हुए, बल्कि उन्होंने अब और दृढ़ संकल्पित होकर सरकार से लोहा लेने की ठान ली है, जिसका असर एक बार फिर बड़े स्तर पर दिखेगा।

ज़ाहिर है इसका असर सरकार पर सीधे-सीधे भले न पड़े; लेकिन उसे जनाक्रोश तो झेलना पड़ेगा, जो अब दिख भी रहा है। ये देश में ही नहीं, विदेशों में भी दिखायी दिया है।

दो दीये, शहीदों के लिए

इस दीपावली पर राकेश टिकैत व संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं ने किसानों के साथ आन्दोलन के दौरान मृत्यु को प्राप्त हुए किसानों और देश के लिए सीमाओं पर शहीद हुए जवानों को याद करते हुए उनकी याद में दीप प्रज्ज्वलित किये और उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की। इस श्रद्धांजलि सभा का आयोजन ‘दो दीये, शहीदों के लिए’ के नाम से किया गया। इस दौरान राकेश टिकैत ने कहा कि केंद्र सरकार ने 22 जनवरी को किसानों से आख़िरी बार औपचारिक बात की थी।

अब पंजाब और हरियाणा से क़रीब सवा साल से भी पहले शुरू हुए आन्दोलन के बाद अपने हक़ के लिए दिल्ली की सीमाओं पर आकर एक साल से अपने हक़ के लिए खुले आसमान के नीचे परेशान बैठे किसानों ने सरकार को 26 नवंबर तक का अन्तिम चेतावनी (अल्टीमेटम) दिया है। अगर वह अब भी नहीं मानी, तो किसान अपने ट्रैक्टरों के साथ दो घंटे के स्टैंडबाय मोड पर होंगे। उन्होंने कृषि क़ानूनों के वापस होने तक आन्दोलन के समाप्त न होने का संकेत देते हुए साफ़ कहा कि अगर सरकारें पाँच साल चल सकती हैं, तो किसान आन्दोलन भी पाँच साल तक चल सकता है। बता दें कि किसानों की माँगें न मान लेने तक राकेश टिकैत ने घर न लौटने की कसम खाई हुई है और तबसे वह लगातार देश भर में किसानों को जागरूक करने के लिए भ्रमण कर रहे हैं।

किसानों के पक्ष में खड़े दल

किसान आन्दोलन के पक्ष में शुरू से ही कई दल आ खड़े हुए थे, जिनमें कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, रालोद, सपा, अकाली दल प्रमुख हैं। लेकिन किसान आन्दोलन के पक्ष में बढ़ता जनसमर्थन देख कुछ अन्य छोटे-बड़े दल भी किसानों के समर्थन में आ खड़े हुए हैं। लम्बे समय से चुप्पी साधे रखने वाली उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा प्रमुख मायावती ने भी किसान आन्दोलन का अब समर्थन कर दिया है। इतना ही नहीं, भाजपा के कुछ नेता भी दबी ज़ुबान से तो कुछ खुले तौर पर किसान आन्दोलन का समर्थन करने लगे हैं। कई तो इस्तीफ़ा दे चुके हैं या पार्टी बदल चुके हैं। लेकिन दु:ख की बात यह है कि सभी दल किसानों के साथ जनाधार के स्वार्थ के चक्कर में खड़े हुए हैं।

केंद्र पर फिर बरसे मलिक

शुरू से ही किसान आन्दोलन के पक्ष में खड़े मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक एक बार फिर केंद्र सरकार पर जमकर बरसे हैं। उन्होंने साफ़ कहा है कि देश में इतना बड़ा आन्दोलन आज तक नहीं चला। दिल्ली के नेता एक कुत्ते के मरने पर भी संवेदना प्रकट करते हैं; लेकिन उनमें से किसी ने भी 600 किसानों की मौत पर दु:ख तक नहीं जताया।

अपने आलोचकों को निशाने पर लेते हुए सत्यपाल मलिक ने कहा-‘मैं अगर कृषि क़ानून के मुद्दे पर कहूँगा, तो विवाद हो जाएगा। मेरे कुछ शुभचिन्तक इस इंतज़ार में हैं कि मैं हटूँ। कुछ लोग सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं कि राज्यपाल साहब, अगर इतना महसूस कर रहे हो, तो इस्तीफ़ा क्यों नहीं दे देते हैं? मुझे आपके पिताजी ने राज्यपाल नहीं बनाया था और न मैं वोट से बना था। मुझे दिल्ली में दो-तीन बड़े लोगों ने राज्यपाल बनाया था और मैं उनकी ही इच्छा के विरुद्ध बोल रहा हूँ। जब वे मुझसे कह देंगे कि हमें दिक़्क़त है, पद छोड़ दो; तो मैं इस्तीफ़ा देने में एक मिनट भी नहीं लगाऊँगा।’

उन्होंने कहा कि मैंने पहले भी कहा था कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी दे दे, किसान आन्दोलन समाप्त हो जाएगा। फ़िलहाल किसान आन्दोलन एक बार फिर अपने उफान पर आने को है। इसमें आगे क्या होगा? यह तो सरकार व किसानों के निर्णयों पर ही निर्भर करेगा।

गोयल बोले, फिर बनेगी सरकार

इधर केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने टाइम्स नाउ समिट-2021 में एक तरह से किसानों का मनोबल कम करने के मक़सद से कहा है कि उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे बहुत अच्छे आएँगे। भाजपा अपने मित्र दलों के साथ वहाँ एक बार फिर पूर्ण और अच्छे बहुमत की सरकार लेकर आएगी। हालाँकि उनके ऐसा कहने के पीछे आत्मविश्वास है या अतिविश्वास? यह तो नहीं कहा जा सकता। लेकिन उनके इस बयान में किसानों की अनदेखी करने और चुनाव जीतने का अतिविश्वास से भरे होने पर लोग सवालिया निशान लगा रहे हैं?

केंद्रीय मंत्री ने यह भी कहा कि सरकार तीन नये कृषि क़ानूनों पर विरोध कर रहे किसानों से बात करने के लिए तैयार है। लेकिन सवाल यह है कि सरकार किस तरह तैयार है? और अगर तैयार है, तो कृषि क़ानूनों पर खुलकर चर्चा क्यों नहीं करती? वह कृषि क़ानूनों को अपनी तरफ़ से अच्छा बताने की बजाय उन पर चर्चा करे और उनमें जो भी शर्तें, नियम हैं, उनके फ़ायदे-नुक़सान एक-एक करके गिनाये। इससे जनता को भी सही मायने में समझ में आएगा कि कृषि क़ानूनों को लेकर सरकार ग़लत है या किसान? लेकिन यह देखा गया है कि सरकार लगातार खुली बातचीत से बचती रही है। इसका मतलब क्या है? यह बताने की ज़रूरत नहीं है। इसे चोर की दाढ़ी में तिनका वाले मुहावरे से समझना ही पर्याप्त होगा।

डेंगू का डंक

कोरोना महामारी की दोनों लहरों में लोगों को जिन परेशानियों का सामना करना पड़ा उसने यह साबित कर दिया कि अगर कोई बीमारी महामारी का रूप ले ले, तो देश की स्वास्थ्य व्यवस्था जवाब दे जाती है। इन दिनों तेज़ी से फैलते डेंगू ने भी यही साबित कर दिया है। कुछ राज्यों में तो हाल यह है कि मरीज़ों को समय पर सही इलाज मिलना तो दूर, जाँच तक समय पर नहीं हो पा रही है। संक्रमण मुक्त पलंग (बेड) तक हर जगह मौज़ूद नहीं हैं, जिससे  संक्रमण और बढ़ रहा है।

डेंगू के इतने मरीज़ बढ़ रहे हैं कि सरकारी अस्पतालों में ही नहीं, बल्कि निजी अस्पतालों में बेड के लिए उन्हें भटकना पड़ रहा है। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के जर्जर इसकी मूल वजह स्वास्थ्य सेवाओं का लगातार होता निजीकरण और कार्पोरेट अस्पतालों का विस्तार होना है।

गम्भीर बात यह है कि सरकारी अस्पतालों में भी अब डॉक्टरों की नियुक्तियाँ अनौपचारिक (एडहॉक) या अनुबन्ध (कॉन्ट्रेक्ट) पर एक या दो साल के लिए होने लगी हैं। इसके चलते डॉक्टर्स या तो मन से सेवाएँ नहीं देते या फिर नियमित होने के लिए संघर्ष करते रहते हैं। इतना ही नहीं, अस्पतालों में डॉक्टर्स, पैरामैडिकल स्टाफ और नर्स की कमी के चलते मरीज़ इलाज के लिए भटकते रहते हैं और कई बार इलाज न मिलने या समय पर इलाज न मिलने पर दम तोड़ देते हैं। भारत में स्वास्थ्य सेवाओं में कमियों को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) कई बार आगाह कर चुका है। लेकिन सरकार ने सरकारी स्वास्थ्य सेवाएँ बेहतर करने की जगह उनके निजीकरण का विस्तार ही किया है।

मौज़ूदा समय में दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश समेत कई अन्य प्रदेशों में डेंगू ने पिछले महीने से पैर पसार रखे हैं। जब भी कोई बीमारी महामारी का रूप लेती है, तो व्यवस्था के अभाव की वजह से मरीज़ों को झोलाछाप डॉक्टरों तक से इलाज कराने को मजबूर होना पड़ता है।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व संयुक्त सचिव डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि कोई भी संक्रमित बीमारी हो, अगर उसका समय रहते पक्का इलाज न हो तो वह भयंकर रूप ले-लेती है। मौज़ूदा समय में डेंगू तेज़ी से फैल रहा है। देश के ग़रीब लोग सरकारी अस्पतालों पर ही निर्भर हैं। कहीं-कहीं सरकारी अस्पतालों की दशा बहुत ख़राब है। सरकारी अस्पतालों की लैबों में जाँच रिपोर्ट ही दो से तीन दिन में मिलती है; जबकि डेंगू में रक्त की तुरन्त जाँच और प्लेटलेट्स की गिनती बहुत ज़रूरी होती है। लेकिन समय पर जाँच रिपोर्ट न मिलने के चलते मरीज़ों को ख़तरा बढ़ जाता है और डेंगू के सही आँकड़े भी नहीं आ पाते। डॉक्टर बंसल कहते हैं कि भारत में स्वास्थ्य बजट भी बहुत कम है।

दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन (डीएमए) के अध्यक्ष डॉक्टर अश्विनी डालमिया कहते हैं कि डेंगू हर साल कहर बनकर आता है। डेंगू फैलाने वाला एडीज इजिप्टी मच्छर साफ़ पानी और घरों में पनपता है। यही वजह है कि इन मच्छरों की संख्या बढऩे पर डेंगू भी तेज़ी से फैलता है। ऐसे में घरों की सफ़ार्इ, साफ़ पानी को भी ढककर रखने, पानी जमा न होने देने और मच्छरों को मारने वाली दवा से ही इसका इलाज ज़रूरी है। साथ ही इन दिनों में होने वाले बुख़ार को लोग सामान्य न समझें और इलाज के साथ-साथ सबसे पहले डेंगू की जाँच कराएँ, ताकि अगर मरीज़ को डेंगू है, तो समय रहते उसका इलाज हो सके।

डेंगू विरोधी अभियान में गत आठ साल से काम करने वाले डॉक्टर दिव्यांग देव गोस्वामी का कहना है कि कई राज्यों में डेंगू के तेज़ी से विस्तार के लिए सरकार की उदासीनता और स्वास्थ्य एजेंसियाँ ज़िम्मेदार हैं। जब हर साल अक्टूबर और नवंबर में डेंगू फैलता है, तो सरकार डेंगू से निपटने के लिए कोई पुख़्ता इंतज़ाम क्यों नहीं करती है? दबाओं का छिडक़ाव पहले होता था; लेकिन अब नहीं होता। साल में दो-चार बार धुआँ छोडऩे वाले आते हैं, जिससे मच्छर तो नहीं मरते, प्रदूषण ज़रूर फैल जाता है। देश में स्वास्थ्य विभाग एक बड़ा बाज़ार बनकर ऊभर रहा है, जिसके चलते पैसा कमाने के लालच में कार्पोरेट घराने इस क्षेत्र में पाँव पसारते जा रहे हैं और आम आदमी की पहुँच से इलाज दूर होता जा रहा है। बीमारियों को एक सुनियोजित तरीक़े से बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके पीछे दवा कम्पनियों और जाँच केंद्रों का कारोबारी स्वार्थ भी है। डॉक्टर गोस्वामी का कहना है कि कई राज्यों में मरीज़ों के लिए बेड तक उपलब्ध नहीं हैं। कई अस्पतालों में मानवता को झझकोर देनी वाली घटनाएँ घट रही हैं।

तहलका संवाददाता ने उत्तर प्रदेश, दिल्ली और हरियाणा के सरकारी अस्पतालों की जानकारी जुटायी, जहाँ देखने में आया कि स्वास्थ व्यवस्था में उत्तर प्रदेश की दशा सबसे ज़्यादा ख़राब है। वहाँ डेंगू से मरने वालों की संख्या भी इसकी गवाह है। एक मरीज़ ने बताया कि अब तो डेंगू कुछ कम हो रहा है; लेकिन जब डेंगू के मामले चरम पर थे, तब एक-एक बेड पर कई-कई मरीज़ डाले जा रहे थे। इतने पर भी अनेक मरीज़ अस्पतालों में इलाज के लिए भटक रहे थे। कई-कई दिन बेड की चादरें नहीं बदली जा रही थीं। डॉक्टर भी क्या करें, जब संसाधन ही नहीं होंगे, तो इलाज कैसे होगा? एक चौंकाने वाली बात यह भी सामने आयी कि कुछ सरकारी डॉक्टर मरीज़ों को निजी अस्पतालों में भेज रहे थे। अब यह साँठगाँठ की वजह से होता है या अव्यवस्था की वजह से? नहीं कह सकते।

पद्म सम्मान -2021 ग्रामीण विभूतियों ने रचा इतिहास

ईमानदार, मेहनती और परिस्थितियों से लडऩे वालों के प्रेरणास्रोत है पद्मश्री मंजम्मा जोगतन का संघर्ष

देश के बड़े सम्मानों में गिने जाने वाले पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री मिलना गौरव की बात है। साल 2021 के लिए दिये जाने वाले इन पुरस्कारों में सबसे ख़ास बात यह रही कि ग्रामीण क्षेत्र के लोगों ने शहर में रहने वालों की तुलना में ज़्यादा पुरस्कार प्राप्त किये। लेकिन दु:खद यह है कि इन सम्मानों पर कुछ नाम वे भी लिख दिये जाते हैं, जो असल में उनके हक़दार नहीं होते। लेकिन कुछ विभूतियाँ वास्तव में ये सम्मान पाने की हक़दार होती हैं। ख़ैर, हम इस समय इस बहस में नहीं पड़ेंगे। हम हाल ही में मिले इन सम्मानों से नवाज़ी गयी विभूतियों का संक्षिप्त परिचय देकर आज उस विभूति का ज़िक्र करेंगे, जिसने अपने जीवन में कला को जीवंत करने की नीयत से जीवन की परेशानियों की परवाह किये बग़ैर दिन-रात मेहनत की, जिसे यह भी पता नहीं था कि जीवन में उसे कोई सम्मान भी मिलेगा।

हाल ही में मिले इन 119 सम्मानों में सात पद्म विभूषण से सम्मानित विभूतियों में जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे को सार्वजनिक मामलों के लिए, तमिलनाडु के संगीत निदेशक, गायक एस.पी. बालासुब्रमण्यम को मरणोपरांत कला के क्षेत्र में, कर्नाटक डॉक्टर बेले मोनप्पा हेगड़े को चिकित्सा के क्षेत्र में, संयुक्त राज्य अमेरिका के नरिंदर सिंह कपनी को विज्ञान एवं तकनीक में मरणोपरांत क्षेत्र में, दिल्ली के मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान को अध्यात्म के लिए, दिल्ली के बी.बी. लाल को पुरातत्व के क्षेत्र में और ओडिशा के सुदर्शन साहू को मूर्तिकला के क्षेत्र में सम्मान दिया गया।

इसके अलावा 10 पद्म भूषण- केरल की कृष्णन नायर शांताकुमारी को कला (पाश्र्व गायन) के क्षेत्र में, असम के तरुण गोगोई को मरणोपरांत, पूर्व केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान (बिहार) को मरणोपरांत, गुजरात के केशुभाई पटेल को मरणोपरांत, हरियाणा के तरलोचन सिंह और मध्य प्रदेश की सुमित्रा महाजन को सार्वजनिक मामलों के लिए, कर्नाटक के चंद्रशेखर कंबरा को साहित्य एंव शिक्षा के क्षेत्र में, उत्तर प्रदेश के नृपेंद्र मिश्र को नागरिक सेवाओं के लिए, उत्तर प्रदेश के कल्बे सादिक को मरणोपरांत अध्यात्म के क्षेत्र में एवं महाराष्ट्र के रजनीकांत देवीदास को उद्योग के क्षेत्र में सम्मानपूर्वक महामहिम राष्ट्रपति के हाथों दिये गये।

इसी तरह पद्मश्री पाने वाले 102 लोगों में पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में कर्नाटक की तुलसी गौड़ा, महाराष्ट्र की राहीबाई सोमा पोपेर और राजस्थान के हिम्मताराम भांभू जी को पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में, मंजम्मा जोगतन को कला के क्षेत्र में, शिक्षा के क्षेत्र में मंगलोर के हरेकाला हजब्बा, समाज कल्याण के लिए अयोध्या के मोहम्मद शरीफ़, कला के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश के गुलफाम अहमद के अलावा करतार पारस राम सिंग, बॉम्बे जयश्री, बालन पुठेरी, अंशु जमसेनपा, श्रीकांत डालर, दुलारी देवी, भूपेंद्र कुमार सिंह संजय, चरन लाल सपरू, मंगल सिंह हाजोवेरी, करतार सिंह, अली मानिकफन, सुब्बु अरुमुगम, क़ाज़ी सज्जाद अली ज़ाहिर, मौमा दास, पी.वी. सिंधु, मेरी कॉम, आनंद महिंद्रा, पंडित छन्नूलाल मिश्र, कंगना रनोट और सिंगर अदनान सामी के अलावा अन्य 75 लोग शामिल रहे।

ग़ौरतलब हो की विभिन्न क्षेत्रों में विशेष योगदान देने वालों को देश के राष्ट्रपति द्वारा पद्म विभूषण सम्मान से, असाधारण और प्रतिष्ठित सेवा के लिए पद्म भूषण एवं उच्च क्रम की विशिष्ट सेवा और किसी भी क्षेत्र में विशिष्ट सेवा के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया जाता है।

पद्मश्री मंजम्मा जोगतन का संघर्ष

भारत देश के दक्षिण के 7 तालुका वाले ज़िला बेल्लारी है। कुल 8,461 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल और दो लाख 63 हज़ार से अधिक आबादी वाले इस ज़िले में 13 क़स्बे और 552 गाँव हैं। प्रति 1000 पुरुषों पर 983 महिलाओं वाले इस ज़िले में एक बड़ी आबादी अनपढ़ और पिछड़ी है।

ऐसे ही लोगों में से बेल्लारी ज़िले के कल्लुकम्बा गाँव में हनुमंतैया और जयलक्ष्मी के परिवार में 18 अप्रैल, 1964 में जन्मीं एक जोगतीन (जोगनिया ) मंजम्मा जोगती उर्फ़ मंजुनाथ शेट्टी ने भारतीय कन्नड़ थिएटर अभिनेत्री, गायिका और उत्तरी कर्नाटक के लोकनृत्य जोगती नृत्य में ख़ुद को स्थापित किया। लेकिन उन्होंने जिन परिस्थितियों में ख़ुद को स्थापित किया, वह क़ाबिल-ए-तारीफ़ है।  एक भगोड़े भिखारी से लेकर लोक कला के राज्य के शीर्ष संस्थान का नेतृत्व करने तक की मंजम्मा की असाधारण जीवन कहानी अब  स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा है।

पद्मश्री मिलने के बाद ख़ुशी के आँसू आँखों में भरकर मंजम्मा बोलीं कि इस प्यार और प्रशंसा ने मुझे अभिभूत कर दिया है। मैंने अपना पूरा जीवन इस स्वीकृति और प्यार के लिए तरसते हुए बिताया है। वह कहती हैं जब मैं पहली बार इस कुर्सी पर (पद्मश्री सम्मान के लिए) बैठी तो मेरे हाथ काँप रहे थे। मैं वहाँ विपरीत दिशा में बैठी थी और तत्कालीन राष्ट्रपति को नमस्ते सर! कहने में भी घबरा जा रही थी। मेरे जैसे किसी ने कभी इस तरह आसमान तक पहुँचने का सपना कैसे देखा होगा?

अकल्पनीय दर्द झेल चुकीं मंजूनाथ ने एक महिला के रूप में पहचान बनानी शुरू की, इससे पहले उनके पास न तो तन ढकने के लिए ठीक से कपड़े थे और न पेट भरने के लिए रोटी का इंतज़ाम था। वह एक तौलिया के बराबर कपड़ा लपेटकर रहती थीं। उन्हें कामों में अपनी माँ की मदद करना, स्कूल की लड़कियों के साथ रहना, नाचना और कपड़े पहनना पसन्द था। उनके जीवन में विकट कष्ट रहे, प्रताडि़त की गयीं और एक समय ऐसा आया जब उन्होंने आत्महत्या तक की कोशिश की। एक समय ऐसा भी आया वह घर छोडक़र चली गयीं और पेट भरने के लिए भीख माँगने लगीं। एक दिन छ: लोगों ने उसके साथ बलात्कार करके लूट लिया। इस बार भी उनके मन में कई विचार कौंधे, कभी सोचा कि बलात्कारियों को मार दें, तो कभी सोचा कि आत्महत्या कर लें। लेकिन फिर दावणगेरे के पास एक बस स्टैंड पर उन्होंने एक पिता-पुत्र को लोकगीत गाते और नाचते देखा। बस यहीं से उन्होंने ठान लिया कि उन्हें नृत्य में कुछ बड़ा करना है। मंजम्मा को तब यह नहीं पता था कि कला उनके जीवन में अधिक परिवर्तनकारी भूमिका निभायेगी। एक साथी जोगप्पा ने उसे हागरिबोम्मनहल्ली के एक लोक कलाकार कलव्वा से मिलवाया। इस पर मंजम्मा का कहती है कि मुझे आज भी वह दिन याद है, जब कलव्वा ने मुझे उसके सामने नृत्य करने के लिए कहा था; जिसे आप लोग ऑडिशन कहते हैं। उसने मेरे चेहरे पर मेकअप करने के लिए किसी को लिया और मुझे याद है कि मैं आईने को देख रही थी और बहुत शर्मिंदगी  महसूस कर रही थी। मैं बहुत साँवली थी और इस मेकअप ने मुझे गोरा और सुन्दर बना दिया था। मैंने कलव्वा गाते हुए नृत्य किया। जल्द ही उसने मुझे नाटकों में छोटी भूमिकाओं के लिए और फिर बड़ी मुख्य भूमिकाओं के लिए भी आमंत्रित करना  शुरू कर दिया। मेरे जीवन को विस्तार देने में मेरे माता-पिता की बड़ी भूमिका रही है।

बता दें कि मंजम्मा को सन् 2010 में राज्योत्सव पुरस्कार से नवाज़ा गया। सन्  2019 में वह लोक कला के लिए मंजम्मा कर्नाटक जनपद अकादमी का नेतृत्व करने वाली पहली ट्रांसवुमन बनीं। जनवरी, 2021 में भारत सरकार ने लोक कला के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए पद्मश्री पुरस्कार की घोषणा की।

कंगना का बड़बोलापन

बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना रनौत ने पद्मश्री सम्मान लेने के दौरान जिस तरह का बयान दिया, उसकी हर तरफ़ जमकर निंदा हो रही है। उन्होंने अपने बयान कि ‘1947 में तो भीख में आज़ादी मिली थी, असली आज़ादी तो 2014 में मिली है’ न केवल देश, बल्कि देश की आज़ादी के लिए लडऩे और शहीद होने वाले बलिदानियों का भी अपमान किया है। सबसे ज़्यादा दु:खद उनके इस बयान पर राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक चुप्पी साधे रहे। भला ऐसे बयान देने वाले व्यक्ति को देश के सर्वोच्च लोग सुन कैसे सके? यह सवाल उनसे ही पूछा जाना चाहिए।  हालाँकि जागरूक बुद्धिजीवियों, समाजसेवियों, आम लोगों ने सोशल मीडिया पर उन्हें बुरी तरह घेरा है। वहीं भाजपा सांसद वरुण गाँधी ने कंगना को आड़े हाथों लेते हुए लिखा कि यह एक राष्ट्र विरोधी कार्य है और इसे इस तरह से बाहर किया जाना चाहिए। लेकिन कंगना ने उनके इस बयान पर पलटवार करते हुए उन्हें महात्मा गाँधी के कटोरे में भीख मिली जैसी बात कहकर उन्हें बहस के लिए उकसाने का काम किया। सवाल यह है कि आख़िर कंगना रनौत किससे बूते इतना उछल रही हैं कि वह यह तमीज़ भी भूल गयीं कि देश के बलिदानियों का सम्मान करना भी भूल गयीं? कंगना की इस हरकत के लिए आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य प्रीति शर्मा मेनन ने कंगना के बयान को देशद्रोही और भडक़ाऊ करार देते हुए मुम्बई पुलिस को एक आवेदन प्रस्तुत किया है, जिसमें उन्होंने भारतीय दण्ड संहिता की धारा-504, 505 और 124(ए) के तहत अभिनेत्री के देशद्रोही और भडक़ाऊ बयानों के लिए कार्रवाई का अनुरोध किया है। कंगना के ख़िलाफ़ अन्य कई एफआईआर दर्ज करायी गयी हैं।