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लखीमपुर खीरी में भाजपा नेता के बेटे ने किसानों को गाड़ी से कुचल डाला; 5 किसानों की मौत, इलाके में तनाव

उतर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में एक बड़ी घटना में मंत्री का विरोध कर रहे किसानों के ऊपर भाजपा नेता के बेटे ने गाड़ी चढ़ा दी, जिससे अभी तक 5 किसानों की मौत होने की खबर है। इलाके में जबरदस्त तनाव है और कुछ वाहनों में आगजनी की भी खबर है। वहां धारा 144 लगा दी गयी है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे अमानवीय बताते हुए इस घटना की कड़ी निंदा की है। प्रियंका गांधी कल लखीमपुर खीरी जा रही हैं और किसानों के परिजनों से मिलेगी।

रिपोर्ट्स के मुताबिक प्रदेश के लखीमपुर खीरी में किसान उप मुख्यमंत्री केशव मौर्या का विरोध कर रहे थे। कुछ रिपोर्ट्स में आरोप लगाया गया है कि केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र ने किसानों को धमकाया था। आरोप है कि केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे अभय मिश्र मोनू पर किसानों को गाड़ी से कुचल दिया। कुछ किसान संगठनों ने गोलीबारी करने का आरोप भी लगाया है।

काफिले के एक वाहन के किसानों को रोंदने पर बवाल हुआ। हादसे के बाद किसान गुस्से से भर गए हैं और वहां बहुत ज्यादा तनाव है। लखीमपुर खीरी के डीएम अरविंद चौरसिया ने घटना की पुष्टि की है। अभी तक की जानकारी के मुताबिक पांच किसानों की मौत हो गई है।

घटनास्थल पर हालात बहुत तनावपूर्ण बने हुए हैं। संयुक्त किसान मोर्चा और भारतीय किसान यूनियन के नेता लखीमपुर पहुंच रहे हैं। इससे आशंका बन रही है कि वहां तनाव और बढ़ सकता है। कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी कल लखीमपुर खेरी जा रही हैं और वे किसानों के परिजनों से मिलेंगी।

हजारों की संख्या में किसान वहां पहुंचे हुए हैं। आरोप है कि केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे अभय मिश्र मोनू पर किसानों को गाड़ी से कुचल दिया। कुछ किसान संगठनों ने गोलीबारी करने का आरोप भी लगाया है।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने घट्न को लेकर कहा – ‘जो इस अमानवीय नरसंहार को देखकर भी चुप है, वो पहले ही मर चुका है. लेकिन हम इस बलिदान को बेकार नहीं होने देंगे- किसान सत्याग्रह ज़िंदाबाद !’

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने ट्वीट – ‘ भाजपा देश के किसानों से कितनी नफ़रत करती है? उन्हें जीने का हक नहीं है? यदि वे आवाज उठाएँगे तो उन्हें गोली मार दोगे, गाड़ी चढ़ाकर रौंद दोगे? बहुत हो चुका। ये किसानों का देश है, भाजपा की क्रूर विचारधारा की जागीर नहीं है। किसान सत्याग्रह मजबूत होगा और किसान की आवाज और बुलंद होगी।’

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी भाजपा पर निशाना साधा  है। उन्होंने किसानों पर गाड़ी चढ़ाने को क्रूर कृत्य बतया है। यादव ने कहा कि कि कृषि कानूनों का शांतिपूर्ण विरोध कर रहे किसानों को भाजपा सरकार के गृह राज्यमंत्री के पुत्र द्वारा, गाड़ी से रौंदना घोर अमानवीय और क्रूर कृत्य है।

भवानीपुर में ममता की 58 हजार से जीत, तीनों सीटें टीएमसी को

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी बंगाल की भवानीपुर सीट से विधानसभा उपचुनाव में अब तक के सबसे बड़े अंतर से जीत गईं हैं। वहां भाजपा उम्मीदवार प्रियंका टिबरेवाल  को करारी हार मिली है। टीएमसी ने बाकी दो सीटें भी जीत ली हैं। जीत के बाद ममता ने भवानीपुर के लोगों का आभार जताया साथ ही बाकी की चार सीटों, जहाँ चुनाव जल्द ही होने हैं, के लिए उम्मीदवारों के नामों का ऐलान भी कर दिया।

भवानीपुर विधानसभा सीट से ममता बनर्जी ने भाजपा उम्मीदवार प्रियंका टिबरेवाल को 58,832 वोटों अंतर से हरा दिया है। कुल 21 राउंड की गिनती के बाद ममता को 84,709 वोट मिले। भाजपा की पराजित उम्मीदवार प्रियंका टिबरेवाल को 26,320 वोट ही मिले। टीएमसी कार्यकर्ता कोलकाता में ममता के आवास के बाहर दोपहर से ही जीत का जमकर जश्न मना रहे हैं। ममता की आज की जीत अब तक की उनकी  सबसे बड़ी जीत है। ममता की जीत के बाद उनके आवास के बाहर जश्न मनाया जा रहा है। कार्यकर्ता एक-दूसरे को मिठाई खिला रहे हैं।

जीत के बाद ममता ने अपने घर के बाहर कार्यकर्ताओं को संबोधित किया। ममता ने भवानीपुर के लोगों को धन्यवाद कहा। शानदार जीत के बाद ममता बनर्जी ने कहा – ‘जब से बंगाल विधानसभा चुनाव शुरू हुआ तब से मेरी पार्टी के खिलाफ साजिश होती रही। भवानीपुर छोटी सी जगह है फिर भी यहां 3500 सुरक्षाकर्मी भेजे गए। मेरे पैर को चोट पहुंचाई गई ताकि चुनाव न लड़ सकूं। चुनाव आयोग की आभारी हूं। उन्होंने कहा कि सुवेंदु अधिकारी सिर्फ 28,000 वोटों से जीत दर्ज की थी।’

कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए सीएम ने कहा – ‘कोई भी जीत का जश्न नहीं मनाएंगे। कार्यकर्ता बाढ़ पीड़ितों की मदद करें।’ ममता ने केंद्र सरकार पर भी हमला बोला। ममता ने कहा – ‘नंदीग्राम न जीत पाने की बहुत सारी वजहें हैं। जनता ने बहुत सारी साजिशों को नाकाम किया है। भवानीपुर में 46 फीसदी लोग गैर बंगाली हैं।’

उधर हार के बाद प्रियंका टिबरेवाल ने कहा – ‘मैं शालीनता के साथ हार स्वीकार करती हूँ। ममता बनर्जी को जीत की बधाई। हालांकि, सबने देखा कि ममता ने कैसे जीत हासिल की।’

पश्चिम बंगाल के उपचुनाव में ममता बनर्जी की बड़ी बढ़त, टीएमसी आगे

बंगाल की भवानीपुर विधानसभा सीट पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने शुरू में ही उपचुनाव के लिए पड़े वोटों की गिनती में अच्छी बढ़त बना ली है, जिससे संकेत मिलता है कि वे बड़े अंतर से जीत की तरफ बढ़ रही हैं। दस राउंड की गिनती के बाद अपनी निकटतम प्रतिद्वंदी भाजपा की प्रियंका टिबरेवाल से करीब 32000 मतों की बड़ी बढ़त बनाये हुयी हैं। ममता के लिए यह चुनाव जीतना इसलिए जरूरी है क्योंकि मुख्यमंत्री बने रहने के लिए उन्हें छह महीने के भीतर विधानसभा (या विधान परिषद्) का सदस्य बनना जरूरी है। बंगाल की बाकी दो सीटों पर भी टीएमसी ही आगे चल रही है। उधर ओडिशा में सत्तारूढ़ बीजेडी एकमात्र सीट पर बढ़त बनाए हुए हैं।

अभी तक की रिपोर्ट्स के मुताबिक 29 सितंबर को उपचुनाव के लिए हुए मतदान के बाद आज सुबह सभी सीटों पर वोटों की गिनती चल रही है। बंगाल की भवानीपुर सीट, जहाँ से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी मैदान में हैं, में शुरुआती रुझानों के मुताबिक बनर्जी दस राउंड की गिनती के बाद अपनी निकटतम प्रतिद्वंदी भाजपा की प्रियंका टिबरेवाल से करीब 32000 मतों की बड़ी बढ़त बनाये हुयी हैं।

भवानीपुर में ममता की बड़ी बढ़त को देखते हुए लोग उनके आवास पर अभी से भीड़ जुटनी शुरू हो गयी है और उनकी पार्टी के नेता और समर्थक बड़ी संख्या में वहां उनकी जय के नारे लगा रहे हैं। हाथों में टीएमसी का झंडा लिए यह समर्थक अभी से जश्न के मूड में हैं।

उधर बंगाल की अन्य दो सीटों पर भी टीएमसी की ही बढ़त बनी हुई है। मुर्शिदाबाद जिले के जंगीपुर और समसेरगंज में एक-एक उम्मीदवार की मौत के बाद मतदान स्थगित कर दिया गया था। वहां अब उपचुनाव हुआ है। भवानीपुर में 57 फीसदी से ज्यादा मतदान हुआ था जबकि समसेरगंज और जंगीपुर में क्रमशः 79.92 प्रतिशत और 77.63 प्रतिशत वोट पड़े थे। इन सभी सीटों पर टीएमसी आगे है।

नतीजे 21 चरण की मतगणना के बाद घोषित किए जाएंगे। तीनों निर्वाचन क्षेत्रों में मतगणना केंद्रों के 200 मीटर के दायरे में दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू है।

उधर ओडिशा की ओडिशा में पुरी जिले की पिपली विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव के लिए रविवार सुबह आठ बजे कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच वोटों की गिनती शुरू हुई। सत्तारूढ़ बीजेडी के रुद्रप्रताप महारथी, जनता पार्टी (भाजपा) के आश्रित पटनायक और कांग्रेस उम्मीदवार बिस्वोकेशन हरिचंदन महापात्र सहित 10 उम्मीदवार मैदान में हैं। अभी तक की रिपोर्ट्स के मुताबिक बीजेडी के रुद्रप्रताप महारथी आगे चल रहे हैं।

मुंबई से गोवा जा रहे शिप में रेव पार्टी पर छापा; शाहरुख के बेटे सहित 8 लोगों से पूछताछ, ड्रग्स भी मिलीं

एनसीबी ने मुंबई से गोवा जा रहे जिस क्रूज (शिप) में चल रही रेव पार्टी पर छापा  मारा है, उसमें बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख खान के बेटे आर्यन से भी पूछताछ की जा रही है। रिपोर्ट्स के मुताबिक छापे में ड्रज्स भी मिले हैं। इस मामले में अभी तक 8  लोगों को हिरासत में लेकर उनसे पूछताछ चल रही है। यह घटना कल रात की है। क्रूज प्रबंधन ने सफाई दी है कि उन्होंने ‘फेस्टिव सीजन’ के आधार पर इन लोगों को पार्टी के लिए क्रूज में स्पेस किराए पर दिया था।

पता चला है कि शिप में 600 से ज्यादा लोग थे। इनमें से पार्टी से जुड़े में शामिल 8 लोगों से पूछताछ की जा रही है। इनमें शाहरुख़ के बेटे आर्यन से भी पूछताछ की गयी है। रिपोर्ट्स के मुताबिक नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के अधिकारी सबसे पूछताछ कर रहे हैं। हिरासत में लिए लोगों में दिल्ली की दो महिलाएं भी शामिल हैं।

जानकारी के मुताबिक एनसीबी की छापेमारी के दौरान जहाज से कोकीन के अलावा अन्य तीन तरह के ड्रग्स भी बरामद हुए हैं। पूछताछ के दौरान शाहरुख खान के बेटे आर्यन का कहना है कि उन्होंने पार्टी में शामिल होने के लिए किसी भी तरह का भुगतान नहीं किया था, उन्हें गेस्ट के तौर पर पार्टी में बुलाया गया था। रिपोर्ट्स के मुताबिक आर्यन ने दावा किया है कि पार्टी में उनके नाम पर कई लोगों को बुलाया गया था। पार्टी में क्या होने वाला था इसकी जानकारी उन्हें नहीं थी। हालांकि, एनसीबी के अधिकारियों ने शाहरुख के बेट आर्यन का मोबाइल फोन जब्त कर लिया है और उनके चैट्स खंगाले जा रहे हैं, जिससे रेव पार्टी में आर्यन की भूमिका साफ हो सके।

बताया जा रहा है कि एनसीबी ने जब जहाज पर छापेमारी की तब उस पर करीब 600 हाईप्रोफाइल लोग सवार थे। सभी लोग पार्टी में शामिल होने के लिए जहाज में सवार हुए थे। पार्टी में शामिल होने के लिए टिकट की कीमत 80 हजार से लेकर दो लाख रुपये तक थी। एनसीबी की छापेमारी में रेव पार्टी से हिरासत में ली गई दोनों  महिलाएं दिल्ली की रहने वाली हैं। मुंबई स्थित एनसीबी ऑफिस में सभी से पूछताछ चल रही है।

एनसीबी ने पार्टी के आयोजक को समन भेजा है। उन्हें आज 11 बजे मुंबई स्थित एनसीबी कार्यालय में तलब किया गया। सात घंटे तक चली छापेमारी में एनसीबी को चार तरह के ड्रग्स कोकीन, हशीश, एमडीएमए और मेफेड्रीन बरामद हुए हैं, जिन्हें जब्त कर लिया गया है। जोनल अधिकारी समीर वानखेड़े ने इस ऑपरेशन को अंजाम दिया। वह टीम के साथ यात्री के रूप में क्रूज पर सवार हुए और बीच समुद्र में पार्टी शुरू होते ही एनसीबी ने वहां रेड कर दी। आरोपियों को रंगे हाथों ही पकड़ लिया गया। शिप में छापेमारी के दौरान बॉलीवुड, फैशन और बिजनेस इंडस्ट्री से जुड़े लोग शामिल थे।

उदास है चिनार

मोदी की अमेरिका यात्रा में भी झलकी तालिबान को लेकर कश्मीर की चिन्ता

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने से कश्मीर को लेकर भारत की चिन्ता इस बात से समझी जा सकती है कि क्वाड बैठक के लिए अमेरिका गये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो बाइडन के साथ बैठक से लेकर यूएनजीए के सम्बोधन तक हर मंच पर आतंकवाद का ज़िक्र किया। वैश्विक पटल पर भारत अमेरिका और अन्य देशों से अपनी, विशेष तौर पर कश्मीर की सुरक्षा को लेकर कितना सहयोग हासिल कर पाएगा, यह भविष्य की बात है। लेकिन इतना ज़रूर है कि पाकिस्तान और आतंकियों को तालिबानी अफ़ग़ानिस्तान की धरती का इस्तेमाल देश के ख़िलाफ़ करने की इजाज़त न देने की भारत पूरी कोशिश कर रहा है। पूरे मामले पर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

कश्मीर में यह सुनहरी पतझड़ का मौसम है। चिनार के सुनहरे पत्ते इस मौसम में धरती को अपनी ख़ूबसूरती से ऐसा रंग दे देते हैं, मानों हम स्वर्ग पर उतर आये हों। लेकिन इस ख़ूबसूरती के बीच कश्मीर के लोग एक अनजाने भय से भरे हैं। तुर्की और अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता पर क़ाबिज़ हुए तालिबान और अलक़ायदा जैसे आतंकवादी संगठनों के कश्मीर को लेकर भडक़ाऊ बयानों से यह चिन्ता और गहरी हुई है। इसी चिन्ता के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका की यात्रा हुई है। उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन समेत अन्य राष्ट्राध्यक्षों के सामने आतंकवाद को एक बड़े मुद्दे के रूप में पेश किया। मोदी की पिछले सात साल में अमेरिका की यह सातवीं यात्रा थी और इसका एक बड़ा मक़सद अमेरिका के नये प्रशासन, ख़ासकर राष्ट्रपति जो बाइडन से पहली मुलाक़ात भी थी। हालाँकि भारत की बड़ी चिन्ता कश्मीर को लेकर है; ख़ासकर अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी शासन आने के बाद। भारत उन देशों का मज़बूत समूह बनाना चाहता है, जो आतंकवाद के ख़िलाफ़ एक साझा मंच चाहते हैं। अमेरिका की यात्रा शुरू होने से कुछ घंटे पहले ही जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने आतंकवाद पर बयान जारी किया, उससे साफ़ था कि भारत फ़िलहाल तालिबान को मान्यता पर कोई विचार नहीं कर रहा। दोहा (क़तर) में तालिबान के प्रतिनिधियों से एक महीने पहले भारत के राजदूत की बैठक के बावजूद भारत तालिबान के प्रति सख़्त रूख़ बनाये रखे हुए है। इसकी सबसे बड़ी एक वजह कश्मीर भी है; जिसे लेकर तालिबान, ख़ासकर सत्ता में उसका सहयोगी आतंकवादी संगठन अलक़ायदा ज़हर उगल रहा है।

अमेरिका को लेकर हमेशा यह कहा जाता है कि वह किसी भी देश की मदद से पहले अपने हित देखता है। ऐसे में कश्मीर में आतंकवाद बढऩे के ख़तरे को लेकर यह कहना मुश्किल है कि अमेरिका का नया प्रसाशन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद के इस ख़तरे में कश्मीर को लेकर भारत के साथ कितनी मज़बूती से खड़ा होगा? इसका एक कारण राष्ट्रपति जो बाइडन और उप राष्ट्रपति कमला हैरिस का कश्मीर में मानवाधिकार के मुद्दों पर मुखर होकर बोलना है। दूसरे प्रधानमंत्री मोदी की पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से मित्रता होने के बावजूद कश्मीर और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के मसले पर ट्रंप कभी खुलकर भारत के पक्ष में खड़े नहीं दिखे। इसका बड़ा कारण यह है कि दक्षिण एशिया में अमेरिका पाकिस्तान को एक सहयोगी के रूप में साथ रखना चाहता है।

अनुच्छेद-370 के तहत जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्महोने के बाद अंतरराष्ट्रीय मंचों पर विरोध-प्रदर्शन हुए हैं। वहाँ कश्मीर के मानवाधिकार हनन को लेकर पहले ही कुछ गुट प्रदर्शन करते रहे हैं। हालाँकि भारत ने बार-बार यह कहा है कि कश्मीर भारत का आंतरिक मसला है और इसमें किसी को दख़्ल का कोई अधिकार नहीं। पाकिस्तान में फलने-फूलने वाले आतंकवादी समूह और अब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान और उसके सहयोगी आतंकवादी संगठनों के सत्ता में आने के बाद कश्मीर की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा है। भारत की एक बड़ी चिन्ता चीन का तालिबान के प्रति नरम रूख़ है। पाकिस्तान तो पहले ही तालिबान और आतंकी समूहों को पालता-पोसता रहा है।

प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा से एक बात तो साफ़ हुई है कि प्रधानमंत्री मोदी को अमेरिका के नये प्रशासन के साथ ट्रंप के समय वाली स्थिति बहाल करने में अभी समय लगेगा। नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका के अख़बारों ने मोदी की यात्रा को बहुत ज़्यादा तरजीह नहीं दी, भले ही वहाँ रह रहे कुछ भारतवंशी मोदी की यात्रा से उत्साहित दिखे। उप राष्ट्रपति कमला हैरिस के साथ बातचीत में भी मोदी ने अन्य विषयों के अलावा आतंकवाद पर भी चर्चा की। आतंकवाद के वैश्विक विषय होने के बावजूद दुर्भाग्य से मोदी-हैरिस की बैठक को ज़्यादा कवरेज नहीं मिली। यहाँ तक कि ख़ुद हैरिस ने मोदी की बैठक का अपने ट्वीट में ज़िक्र नहीं किया।

इससे पहले भारत को तब झटका लगा, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के क्वाड वाशिंगटन पहुँचने से ऐन पहले अमेरिका ने भारत को ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के साथ हुए इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में ऑकस रक्षा समझौते में जोडऩे से साफ़ मना कर दिया। वैश्विक कूटनीति के स्तर पर यह भारत के लिए बड़ा झटका था। यह इसलिए भी बहुत आश्चर्यजनक था क्योंकि उस समय मोदी अमेरिका जा रहे थे। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन और ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के साथ त्रिपक्षीय सुरक्षा गठबन्धन ऑकस की 15 सितंबर को घोषणा की थी। विशेषज्ञ मानते हैं कि ऑकस के गठन से क्वाड का महत्त्व कम हुआ है।

चीन से साथ भारत के तनाव और अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की सरकार बनने और कश्मीर में उसकी तरफ़ से ख़ून-ख़ूराबे की आशंका के बीच भारत का ऑकस से बाहर रहना बड़ा नुक़सान तो है ही। हालाँकि विदेश सचिव हर्षवर्धन शृंगला ने ऑकस से भारत को बाहर रखने पर कहा कि अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया का नया सुरक्षा समझौता न तो क्वाड से सम्बन्धित है और न ही समझौते के कारण इसके कामकाज पर कोई प्रभाव पड़ेगा। बता दें ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका तीन देशों के बीच एक सुरक्षा गठबन्धन है, जबकि क्वाड एक मुक्त, खुले, पारदर्शी और समावेशी हिन्द प्रशांत के दृष्टिकोण के साथ एक बहुपक्षीय समूह है।

बता दें ऑकस के तहत ऑस्ट्रेलिया को परमाणु-संचालित पनडुब्बियों का एक बेड़ा अर्थात् परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बियाँ बनाने की तकनीक मिलेगी। इसके पीछे एक कारण चीन का पिछले कुछ अरसे से दक्षिण चीन सागर में सक्रियता बढ़ाना है। ऑस्ट्रेलिया इसे अपने लिए ख़तरा मानता है। अब ऑकस को वैश्विक कूटनीति के लिहाज़ से दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती आक्रामता का मुक़ाबला करने के एक कारगर गठबन्धन के रूप में देखा जा रहा है। यदि भारत इससे जुड़ता, तो यह उसके लिए लाभकारी साबित होता। इसमें कोई दो-राय नहीं कि भारत आतंकवाद से अपने स्तर पर निपटने में सक्षम है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के लिहाज़ से ऑकस में भारत को साथ न रखने के अमेरिका के फ़ैसले से भारत के प्रति अमेरिकी रूख़ का पता तो चलता ही है।

चिन्ता के कारण

 

विशेषज्ञ अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की सरकार बनने और कश्मीर पर उसके असर को लेकर अलग-अलग राय रखते हैं। कुछ का कहना कि तालिबान कश्मीर में हस्तक्षेप नहीं करेगा; क्योंकि इस बार तालिबान का रूख़ थोड़ा बदला हुआ है। हालाँकि अन्य का मानना है कि तालिबानी सरकार में इस बार ताक़त को लेकर संघर्ष है। इसका असर यह होगा कि अलक़ायदा जैसे उसके गुट ख़ुराफ़ात कर सकते हैं।

अलक़ायदा के नेता तो कई बार कश्मीर को लेकर भडक़ाऊ बयान दे चुके हैं। लेकिन विशेषज्ञ यह मानते हैं कि पाकिस्तान कश्मीर में छद्म युद्ध जारी रखेगा। कश्मीर में सक्रिय जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठन हक़्क़ानी नेटवर्क के नज़दीकी हैं, जो पाकिस्तान की ख़ुराक से अब तालिबान सरकार में शामिल हैं। लिहाज़ा कश्मीर में स्थिति ख़राब करने के बड़े ख़तरे तो हैं ही।

भले कुछ विशेषज्ञ मानते हों कि तालिबान पिछली बार के मुक़ाबले इस बार कुछ बदला हुआ दिखता है। लेकिन जाने-माने सामरिक विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी इसे ग़लत मानते हैं। चेलानी कहते हैं- ‘संयुक्त राष्ट्र ने जिसे आतंकवादियों की सूची में शामिल किया है, जिसने बुद्ध की मूर्ति तुड़वायी, वो अफ़ग़ानिस्तान का प्रधानमंत्री है। जिस सिराजुद्दीन हक़्क़ानी को गृह मंत्री बनाया गया है। वो कुख्यात हक़्क़ानी नेटवर्क का है और हम कह रहे हैं कि तालिबान अब पहले वाला नहीं है।’

उधर सेना की चिनार कोर के जीओसी लेफ्टिनेंट जनरल डी.पी. पांडे ने कहा- ‘अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान की हुकूमत का कश्मीर पर कोई असर नहीं होगा। कश्मीर में सुरक्षा की स्थिति पूरे नियंत्रण में है। लिहाज़ा चिन्ता की कोई बात नहीं है। सेना हर किसी से हर तरह की स्थिति से निपटने के लिए तैयार है।’

आरएसएस नेता राम माधव ने हाल में चेताया था कि तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान में आने से भारत के सामने गम्भीर सुरक्षा चुनौतियाँ आ खड़ी हुई हैं। उनके मुताबिक, पाकिस्तान की कुख्यात एजेंसी आईएसआई तालिबान की माई-बाप है और उसके पास पाकिस्तान में प्रशिक्षित 30,000 से अधिक भाड़े के आतंकी हैं। माधव कहते हैं- ‘काबुल की सत्ता में मौज़ूद तालिबान का नेतृत्व अब उन्हें अपने संरक्षक पाक की मदद से कहीं और (कश्मीर में) तैनात करेगा। भारत को गम्भीर सुरक्षा चुनौतियों के लिए तैयार रहना होगा। तालिबान भारत के लिए ख़तरा है।’

जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्महोने के बाद वहाँ राज्य के दो केंद्र शासित प्रदेशों के रूप में टुकड़े किये गये थे। जम्मू-कश्मीर और लेह। लिहाज़ा इन महीनों में जम्मू-कश्मीर बिना किसी जन प्रतिनिधित्व के हैं, जिससे लोगों की दिक़्क़ते बढ़ी हैं। अफ़सरशाही उनकी समस्यायों का घर-द्वार पर वैसा समाधान नहीं कर सकती, जैसा जनप्रतिनिधि कर सकते हैं।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, मोदी सरकार अगले साल जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के चुनाव करवा सकती है। हालाँकि यह उस समय वहाँ की स्थिति पर निर्भर करेगा। वहाँ परिसीमन का काम अभी चल रहा है और इसके अगले साल की शुरुआत तक पूरा हो जाने की सम्भावना है। परिसीमन को लेकर भी कश्मीर के राजनीतिक दल सवाल उठा रहे हैं और उनका आरोप है कि इसके ज़रिये जम्मू-कश्मीर की वास्तविक जनसांख्यिकीय स्थिति को बदलने की कोशिश की जा रही है। प्रदेश भाजपा भी उम्मीद कर रही है कि अगले साल चुनाव हो सकते हैं। ‘तहलका’ से फोन पर बातचीत में जम्मू-कश्मीर भाजपा अध्यक्ष रवींद्र रैना ने कहा- ‘केंद्र शासित प्रदेश में अगले साल विधानसभा चुनाव होने की सम्भावना है। यह काम परिसीमन का काम पूरा होने के बाद ही कराये जाएँगे। आतंकवाद के समर्थक इस केंद्र शासित प्रदेश के लोगों के दुश्मन हैं और उनके साथ क़ानून के मुताबिक कार्रवाई की जाएगी।’

केंद्र सरकार के दावों के विपरीत कश्मीर में आतंकी गतिविधियाँ बदस्तूर जारी हैं। वहाँ सेना की बड़ी मात्रा में उपस्थिति है और आतंकियों का काम इससे कठिन हुआ है। लेकिन इसके बावजूद सीमा पार से घुसपैठ करवायी जा रही है। सितंबर के तीसरे हफ़्ते कश्मीर में पकड़े गये हथियार ज़ाहिर करते हैं कि आतंकियों पर पूरी लगाम कसने में अभी वक़्त लगेगा। भारत के लिए बड़ी चिन्ता की बात यह है कि आतंकियों ने अपनी रणनीति में बदलाव करके अब स्थानीय युवाओं पर फोकस किया है और उन्हें आतंकी संगठनों में भर्ती किया जा रहा है।

समय-समय पर अंतरराष्ट्रीय संगठन यह मान चुके हैं कि कई आतंकी गुटों की पाकिस्तान से दोस्ती है और वह उनकी मदद करता है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि कश्मीरी अवाम में कभी भी अलक़ायदा और तालिबान जैसे आतंकी संगठनों के प्रति सहानुभूति नहीं रही है। लेकिन कश्मीर की अवाम में इस बात को लेकर चिन्ता ज़रूर है कि यह आतंकी संगठन यदि अपनी गतिविधियाँ बढ़ाते हैं, तो इसकी सबसे बड़ी क़ीमत उन्हें ही चुकानी पड़ेगी। निश्चित ही कश्मीर में आतंकवाद के इन वर्षों में कश्मीरी जनता ने बहुत कुछ खोया है।

कश्मीर में आतंकवाद में अब तक जान गँवाने वाले लोगों में 90 फ़ीसदी से ज़्यादा कश्मीरी मुसलमान हैं। उनके अलावा सेना और अर्धसैनिक बलों के जवान, कश्मीरी पंडित और सिख हैं। ऐसे में उन्हें लगता है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने से कश्मीर में अस्थिरता की स्थिति बन सकती है। कश्मीर में भले अनुच्छेद-370 वापस लेकर राज्य का विशेष दर्जा ख़त्मकरने के मोदी सरकार के फ़ैसले से सख़्त नाराज़गी है; लेकिन कश्मीर की जनता तालिबान के प्रति भी सख़्त नफ़रत का भाव रखती है। इसका एक बड़ा कारण 20 साल पहले अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान राज के दौरान कश्मीरियों पर पड़ी मुसीबतें हैं।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पाकिस्तान कश्मीर के अलगाववादी हुर्रियत नेता सईद अली शाह गिलानी के बाद वहाँ इस जगह को भरने के लिए अपने किसी प्यादे को बिठाने की कोशिश कर रहा है। दरअसल गिलानी के नज़दीकी कुछ नेता जेल में हैं, जिनमें मसर्रत आलम और गिलानी का दामाद अल्ताफ़ शाह फंटूश प्रमुख हैं; जबकि एक और नेता अशरफ़ सहराई की जेल में मौत हो गयी थी। इन तीनों को गिलानी का उत्तराधिकारी माना जाता रहा है। हुर्रियत के नरमपंथी धड़े के नेता मीरवाइज उमर फ़ारूक़ सक्रिय नहीं दिख रहे हैं, जबकि जेकेएलएफ के नेता यासीन मालिक कुछ मामलों में सरकार के निशाने पर हैं। जानकारी के मुताबिक, पाकिस्तान अब पीओके में हुर्रियत के नेता अब्दुल्ला गिलानी को आगे करने की साज़िश रच रहा है।

जानकारों का कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के क़ब्ज़े के बाद कश्मीर में विदेशी आतंकियों की तादाद में इज़ाफ़ा हुआ है। एक दशक बाद जम्‍मू-कश्‍मीर में पहली बार विदेशी आतंकवादियों की संख्या में यह इज़ाफ़ा देखा गया है। कुछ रिपोट्र्स में यह दावा किया गया है। तालिबान की जीत के बाद यहाँ पहले से सक्रिय आतंकी संगठनों को ताक़त मिली है। जानकार मानते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने से जम्मू-कश्मीर निश्चित ही एक संवेदनशील इलाक़ा हो गया है। तालिबान के आने न कश्मीर ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया पर असर पड़ेगा।

रिर्पोटस के मुताबिक, अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों के ख़िलाफ़ कुछ ऐसे आतंकवादी संगठनों ने तालिबान की मदद की है, जिनके तार सीधे जम्‍मू-कश्‍मीर से जुड़ते हैं। लश्‍कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्‍मद जैसे आतंकवादी संगठनों ने तालिबान की मदद की है। ज़ाहिर है इस सहयोग के बदले यह आतंकी संगठन तालिबान से मदद की उम्मीद करते होंगे। साफ़ है कि जम्मू-कश्मीर पर तालिबान का बड़ा रोल हो सकता है। भले तालिबान ने अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के समक्ष कहा है कि वह अपनी धरती का उपयोग अन्‍य देशों के ख़िलाफ़ नहीं होने देगा, ज़मानी हक़ीक़त समय में ही पता चलेगी।

भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी भी आशंका ज़ाहिर करते हैं। स्वामी का कहना है- ‘अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर भारत के लिए एक नया ख़तरा पैदा हो गया है। अब सरकार के गम्भीर होने का समय है। पाकिस्तान जल्द ही तालिबानीकृत अफ़ग़ानिस्तान का हिस्सा बन जाएगा।’

पाकिस्तान की हाय-तौबा

पाकिस्तान इस ताक में है कि आतंकी गुटों का कश्मीर के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जा सके। याद रहे अलक़ायदा ने अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान की जीत को यूरोप और पूर्वी एशिया में जनता के लिए अमेरिकी आधिपत्य की बेडिय़ों से मुक्त होने का अवसर बताया था। उसने कश्मीर को इस्लाम के दुश्मनों के चंगुल से मुक्ति दिलाने की बात कही है। हालाँकि अलक़ायदा ने चीन के शिनजियांग में मानवाधिकारों के हनन के बारे में एक शब्द नहीं बोला। यह हैरानी की बात है कि दुनिया भर के मुस्लिम क़ैदियों की बात करने वाले अलक़ायदा को उइगर मुसलमानों की याद नहीं आयी।

बता दें वहाँ उइगर मुसलमानों के मानवाधिकार हनन की ख़बरें अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में हैं। कारण साफ़ है कि चीन तालिबान के प्रति नरम रूख़ अपनाये हुए है। तालिबान और सहयोगी आतंकी गुटों को चीन से आर्थिक मदद और प्रोत्साहन मिल रहा है। विशेषज्ञों का कहना कि बदले में चीन अफ़ग़ानिस्तान के संसाधनों का इस्तेमाल अपने लिए करना चाहता है, जिसे एक ख़तरनाक संकेत माना जाएगा। अफ़ग़ानिस्तान में लीथियम का भण्डार है और वह खुले तौर पर अफ़ग़ानिस्तान में बड़े निवेश की योजना बना रहा है। चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर को वह ईरान तक ले जाना चाहता है। अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान दोनों का सहयोग उसका काम आसान कर देगा। ऐसे में कश्मीर को लेकर भारत की चिन्ताएँ वाजिब हैं।

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद पाकिस्तान कश्मीर को लेकर और भडक़ाऊ बातें कहने लगा है। यह ख़तरा बार-बार जताया जाता रहा है कि पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान में अपनी पसन्दीदा सरकार बनने के बाद आतंकवादी समूहों को वहाँ से संचालित करवा सकता है। यही कारण है कि भारत तालिबान पर दबाव बनाने के लिए बार-बार यह दोहरा रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल भारत के ख़िलाफ़ आतंकी गुटों को पनाह या ट्रेनिंग देने के लिए नहीं होना चाहिए।

कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के इरादे वहाँ के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के अमेरिका में संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) में प्रधानमंत्री मोदी के सम्बोधन से ऐन पहले अपने सम्बोधन में सिर्फ़ कश्मीर के मुद्दे को प्रमुखता से उठाने से ज़ाहिर हो जाते हैं। यूएनजीए में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने अपने सम्बोधन में 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद-370 को निरस्त करने के भारत सरकार के फ़ैसले और पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी के निधन के बारे में भी बात की, जिससे उनके इरादे ज़ाहिर होते हैं। यही नहीं, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने हाल ही में एक साक्षात्कार में तालिबान को वैश्विक मान्यता देने की अपील की थी, जबकि पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी संयुक्त राष्ट्र महासभा में तालिबान राज को मान्यता देने की वकालत कर चुके हैं। इमरान ख़ान ने यूएनजीए में यह भी कहा कि अमेरिका में 9/11 हमलों के बाद दुनिया भर के दक्षिणपंथियों (राइट विंग) ने मुसलमानों पर हमले शुरू कर दिये। भारत में इसका सबसे ज़्यादा असर है। वहाँ आरएसएस और भाजपा मुस्लिमों को निशाना बना रहे हैं। कश्मीर में एकतरफ़ा क़दम उठाकर भारत ने जबरन क़ब्ज़ा किया है। मीडिया और इंटरनेट पर पाबंदी है। जनसांख्यिकीय संरचना (डेमोग्राफिक स्ट्रक्चर) को बदला जा रहा है। बहुसंख्यक को अल्पसंख्यक में बदला जा रहा है। यह दुर्भाग्य है कि दुनिया चुनिंदा प्रतिक्रिया ही देती है। यह दोहरे मापदण्ड हैं। सैयद अली शाह गिलानी के परिजनों के साथ अन्याय हुआ। मैं इस सभा से माँग करता हूँ कि गिलानी के परिवार को उनका अन्तिम संस्कार इस्लामी तरीक़े से करने की मंज़ूरी दी जाए।’

हालाँकि इमरान ख़ान के सम्बोधन के बाद संयुक्त राष्ट्र में भारत की प्रथम सचिव स्नेहा दुबे ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में साफ़ कहा कि पाकिस्तान के नेता द्वारा भारत के आंतरिक मामलों को विश्व मंच पर लाने और झूठ फैलाकर इस प्रतिष्ठित मंच की छवि ख़राब करने का एक और प्रयास कर रहे हैं। इस तरह के बयान देने वालों और झूठ बोलने वालों की सामूहिक तौर पर निंदा की जानी चाहिए। ऐसे लोग अपनी मानसिकता के कारण सहानुभूति के पात्र हैं।

दुबे ने कहा- ‘हम सुनते आ रहे हैं कि पाकिस्तान आतंकवाद का शिकार है। यह वह देश है, जिसने ख़ुद आग लगायी है और आग बुझाने वाले के रूप में ख़ुद को पेश करता है। पाकिस्तान आतंकवादियों को इस उम्मीद में पालता है कि वे केवल अपने पड़ोसियों को नुक़सान पहुँचाएँगे। क्षेत्र और वास्तव में पूरी दुनिया को उनकी नीतियों के कारण नुक़सान उठाना पड़ा है। दूसरी ओर वे अपने देश में साम्प्रदायिक हिंसा को आतंकवादी कृत्यों के रूप में छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। समूचे केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर और लद्दाख़ हमेशा भारत का अभिन्न और अविभाज्य हिस्सा थे; हैं; और रहेंगे। इसमें वे क्षेत्र भी शामिल हैं, जो पाकिस्तान के क़ब्ज़े में अवैध रूप से हैं। हम पाकिस्तान से उसके अवैध क़ब्ज़े वाले सभी क्षेत्रों को तुरन्त ख़ाली करने का आह्वान करते हैं।’

अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान की भूमिका से हर कोई वाक़िफ़ है। तालिबान को मदद देने के अलावा पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान की नयी सरकार में हक़्क़ानी नेटवर्क को ताक़त देने के लिए सक्रिय है। चीन भी तालिबान के ख़िलाफ़ प्रतिबन्ध हटाने का आह्वान कर चुका है। चीन ने तो अमेरिका से अनुरोध किया कि वह युद्धग्रस्त देश के रोके गये विदेशी मुद्रा भण्डार को समूह पर राजनीतिक दबाव बनाने के लिए इस्तेमाल नहीं करे।

संयुक्त राष्ट्र और कश्मीर

प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह अमेरिका यात्रा के दौरान संयुक्त राष्ट्र की भूमिका पर भी सवाल उठाया था, उसके पीछे भी एक बड़ा कारण कश्मीर पर यूएन का हालिया बयान था, जिससे भारत नाराज़ था। दरअसल मोदी की अमेरिका यात्रा से कुछ ही दिन पहले संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार उच्चायुक्त मिशेल बैचलेट ने भारत में ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि निवारण अधिनियम (यूएपीए) के इस्तेमाल और जम्मू-कश्मीर में बार-बार अस्थायी रूप से संचार सेवाओं पर पाबन्दी लगाये जाने को चिन्ताजनक बताया था। बता दें जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् के 48वें सत्र में उद्घाटन वक़्तव्य में बैचलेट ने यह बात कही थी। उन्होंने जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद का मुक़ाबला करने और विकास को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार के प्रयासों को तो स्वीकार किया; लेकिन कहा कि इस तरह के प्रतिबन्धात्मक उपायों के परिणामस्वरूप मानवाधिकारों का उल्लंघन हो सकता है और भविष्य में तनाव और असन्तोष बढ़ सकता है।

बैचलेट ने यह भी कहा कि जम्मू-कश्मीर में भारतीय अधिकारियों द्वारा सार्वजनिक सभाओं और संचार सेवाओं पर बार-बार पाबन्दी लगाये जाने का सिलसिला जारी है, जबकि सैकड़ों लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने अधिकार का प्रयोग करने के लिए हिरासत में हैं। साथ ही पत्रकारों को लगातार बढ़ते दबाव का सामना करना पड़ता है। पूरे भारत में ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि (निवारण) अधिनियम का उपयोग चिन्ताजनक है। इसके जम्मू-कश्मीर में सबसे अधिक मामले सामने आये हैं। हालाँकि भारत ने बैचलेट की टिप्पणियों पर सख़्त असहमति जतायी है।

 

“जो देश आतंकवाद को राजनीतिक औज़ार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें यह समझना होगा कि आतंकवाद उनके लिए भी उतना ही बड़ा ख़तरा है, जितना कि वह दुनिया के लिए है। यह तय करना होगा कि अफ़ग़ानिस्तान की धरती का इस्तेमाल आतंकवाद और आतंकी हमलों के लिए न हो पाये। इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि अफ़ग़ानिस्तान का इस्तेमाल कोई देश अपने स्वार्थ के लिए नहीं कर सके। इस वक़्त अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं, बच्चों और अल्पसंख्यकों को मदद की ज़रूरत है और इसमें हमें अपनी ज़िम्मेदारी निभानी ही होगी। हमारे समंदर भी हमारी साझी विरासत हैं। ध्यान रखना होगा कि ओशन रिर्सोसेज (समुद्री संसाधनों) का हम यूज (सदुपयोग) करें, एब्यूज (दुरुपयोग) नहीं। समंदर इंटरनेशन ट्रेड (अंतरराष्ट्रीय व्यापार) की लाइफलाइन (जीवन-रेखा) हैं। इन्हें एक्सपेंशन (विस्तार) और एक्सक्लूजन (काटने) से बचाना होगा। नियमों का पालन हो। इसके लिए दुनिया को एक साथ ‌आवाज़ उठानी होगी।”

नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री (यूएनजीए में अपने सम्बोधन में)

 

“अब गेंद भारत के पाले में है। भारत को कश्मीर में उठाये गये क़दमों को वापस लेना होगा। कश्मीर में बर्बरता और डेमोग्राफिक चेंज (जनसांख्यिकीय बदलाव) बन्द करना होगा। भारत सैन्य ताक़त बढ़ा रहा है। इससे इस क्षेत्र का सैन्य सन्तुलन बिगड़ रहा है। दोनों देशों के पास न्यूक्लियर (परमाणु) हथियार हैं।”

इमरान ख़ान

पाकिस्तानी प्रधानमंत्री (यूएनजीए में अपने सम्बोधन में)

 

कश्मीर में आतंकी

सेना के मुताबिक, कश्मीर में अभी भी 70 से 80 विदेशी आतंकी मौज़ूद हैं। उधर पिछले क़रीब तीन साल में जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों और आतंकवादियों के बीच 400 मुठभेड़ हुई हैं। यह आंकड़े 4 अगस्त को संसद में सरकार की और से बताये गये थे। इन मुठभेड़ों में 85 सुरक्षाकर्मी शहीद हो गये, जबकि 630 आतंकियों को मार गिराया गया। नागरिकों के मरने की संख्या अलग से है। गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने एक लिखित जवाब में जानकारी दी कि मई, 2018 से जून, 2021 तक जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों और आतंकवादियों के बीच 400 मुठभेड़ हुईं। इस साल अभी तक नौ महीनों में सुरक्षाबलों ने मुठभेड़ में 108 आतंकियों को मार गिराया है। इससे ज़ाहिर होता है कि कश्मीर में आतंक अभी ज़िन्दा है। देखा जाए तो कश्मीर में एक बार फिर से हमलों में तेज़ी आयी है। सितंबर में आतंकियों की तरफ़ से लगातार हमलों को बढ़ा दिया गया है। पिछले दिनों में आतंकियों ने कश्मीर में चार हमले किये हैं।

 

अफ़ग़ानिस्तान ख़ुद दोराहे पर

अफ़ग़ानिस्तान तालिबान के आने के दोराहे पर खड़ा दिख रहा है। देश की जनता जहाँ भुखमरी झेलने के मुहाने पर खड़ी है, वहीं दूसरी तरफ़ तालिबान की क्रूरता फिर शुरू हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र ने हाल में कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान में लोगों को रोटी तक के लाले पडऩे की नौबत आ सकती है। अफ़ग़ानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र के विशेष अधिकारी और मानवाधिकार समन्वयक रमीज अकबारोव ने हाल में काबुल में यह कहकर दुनिया भर के लोगों को चिन्ता में डाल दिया कि अफ़ग़ानिस्तान में विश्व खाद्य कार्यक्रम (वल्र्ड फूड प्रोग्राम) के पास मौज़ूद खाद्य स्टॉक सितंबर के आख़िर तक ख़त्महो जाएगा। इसके बाद वहाँ लोगों को ज़रूरी खाद्य सामग्री उपलब्ध कराना नामुमकिन होगा। इसका असर यह हो सकता है कि पाँच साल की कम उम्र के आधे बच्चे अत्यंत कुपोषित की श्रेणी में चले जाएँगे। और तो और अफ़ग़ानिस्तान की एक-तिहाई वयस्क आबादी को पर्याप्त खाना तक नसीब नहीं हो सकेगा। निश्चित ही यह चिन्ताजनक स्थिति है। यह भी रिपोट्र्स हैं कि काबुल में लोग भुखमरी बचने के लिए अपने बच्चे बेचने को मजबूर हो चुके हैं।

अफ़ग़ानिस्तान में काम-धन्धे बन्द हो चुके हैं। जीडीपी बेहद ख़राब हालत में पहुँच चुकी है। ऊपर से देश के सम्पत्ति पहले ही विदेशी संस्थाओं और अमेरिका ने फ्रीज कर दी है। यूएन अफ़ग़ानिस्तान में भुखमरी से लोगों के मरने की बात कह चुका है। ऐसे में काबुल में ग़रीब परिवार अपने बच्चे बेचने को मजबूर हैं। इन घटनाओं के वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं। भुखमरी की इन चिन्ताओं के बीच दूसरी बुरी ख़बर यह है कि तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में लोगों पर पुराने दिनों की तरह ज़ुल्म ढाना शुरू कर दिया है। तालिबान ने शरिया क़ानूनों के तहत लोगों का बर्बर सज़ा देना शुरू कर दिया है। अभी 26 सितंबर को हेरात में एक शख़्स को तालिबान ने मारकर सार्वजनिक तौर पर खम्भे पर लटका दिया। इस घटना का वीडियो सामने आया, जिसे अफ़ग़ानिस्तान के एक पत्रकार हिजबुल्लाह ख़ान ने ट्वीट किया। ट्वीट में ख़ान ने लिखा- ‘तालिबान ने शहरों के अन्दर सार्वजनिक तौर पर सज़ा-ए-मौत देना शुरू कर दिया है।’ यह हेरात का मामला है। तालिबान के संस्थापकों में शामिल मुल्ला नूरुद्दीन तुराबी ने तो यहाँ तक कह दिया कि अफ़ग़ानिस्तान में फाँसी की सज़ा देने, लोगों के हाथ काटने जैसी क्रूर सज़ाएँ जारी रहेंगी। तुराबी ने एक इंटरव्यू में कहा कि वह ग़लती करने वालों को पुराने तरीक़े से ही सज़ा देगा। इसमें महिलाओं को पत्थर मारना और चोरी करने पर हाथ काट देना शामिल है। तुराबी ने कहा कि ग़लती करने वालों की हत्या करने और अंग-भंग किये जाने का दौर जल्द लौटेगा। लेकिन वह सार्वजनिक जगहों पर किसी क़ैदी या आरोपी को फाँसी नहीं देगा, बल्कि क़ैदियों को फाँसी अब जेल में ही दी जाएगी। पहले तालिबान किसी स्टेडियम में या फिर सडक़ों पर किसी शख़्स को फाँसी देकर उसकी लाश को चौराहों पर लटका देता था। लेकिन अब तालिबान उसे सार्वजनिक नहीं करेगा। जिन क़ैदियों को सज़ा देनी होगी, उन्हें चुपचाप ही सज़ा दे दी जाएगी।

बदलते मोहरे

लचर प्रदर्शन के कारण मुख्यमंत्री बदलने को मजबूर भाजपा

भाजपा अब तक कांग्रेस की सरकारों को गिराकर अपनी सरकारें बना रही थी। अब अपनी ही सरकारों में मुख्यमंत्रियों को ताश के पत्तों की तरह फेंट रही है। विधानसभा चुनावों से पहले भाजपा की इस कसरत ने कांग्रेस, टीएमसी और बाक़ी विपक्ष को यह अवसर दे दिया है कि वह भाजपा के मुख्यमंत्रियों को बदले जाने की वजह उनकी नाकामी को बताये।

उधर भाजपा के भीतर नेताओं में अपने भविष्य को लेकर अस्थिरता की भावना पैदा हो चुकी है। वरिष्ठ नेताओं को लगने लगा है कि उन्हें भी आडवाणी, जोशी और अन्य की तरह मार्गदर्शक मण्डल में बैठा दिया जाएगा। भाजपा में अब ऐसे नेताओं का दायरा बढ़ता जा रहा है, जो यह महसूस करने लगे हैं कि उनकी हैसियत सिर्फ़ मोहरों की रह गयी है। भाजपा में इस उठा-पटक का क्या असर है?

यह केंद्रीय मंत्री और आरएसएस के नज़दीकी नितिन गडकरी के जयपुर वाले बयान से सहज ही समझा जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा- ‘आज के हालात में हर कोई दु:खी है। कोई मंत्री न बनने से दु:खी है, तो मुख्यमंत्री। वे इसलिए दु:खी हैं कि पता नहीं कब हटा दिये जाएँगे।’ बात मज़ाक़ में कही गयी थी। लेकिन राजनीतिक तंज़ ऐसे ही मुहावरे बनाकर कसे जाते हैं।

इसी साल में अब तक भाजपा अपने चार मुख्यमंत्रियों को ठिकाने लगा चुकी है। जनता में सन्देश जा रहा है कि यह मुख्यमंत्री नाकाम हो चुके थे और पार्टी को चुनाव जिताने की स्थिति में नहीं थे, लिहाज़ा उन्हें बदल दिया गया। मुख्यमंत्रियों में अपनी कुर्सी बचाने की चिन्ता है। भाजपा अपने मुख्यमंत्रियों को किस तत्परता से फेंट रही है? इसका बड़ा उदहारण उत्तराखण्ड है, जहाँ पार्टी ने तीन महीने में ही दो मुख्यमंत्री बदल दिये। इससे भाजपा शासित राज्यों में विकास के कामों पर भी बहुत बुरा असर पड़ा है और पार्टी के बीच ही अस्थिरता जैसी स्थिति बन चुकी है। कर्नाटक में जुलाई में ताक़तवर लिंगायत नेता बी.एस. येदियुरप्पा को कुर्सी छोडऩी पड़ी।

अपना नाम ज़ाहिर न करने की शर्त पर भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा कि इन फ़ैसलों से पार्टी को नुक़सान उठाना पड़ सकता है। उनके मुताबिक, ऐसा करने से पार्टी नेतृत्व अपनी असुरक्षा की भावना को उजागर कर रहा है, जो उसके लिए घातक भी साबित हो सकता है। उधर इस विषय पर ‘तहलका’ से बातचीत में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री पवन कुमार बंसल ने कहा- ‘यह साफ़ हो गया है कि राज्यों में भाजपा की सरकारें फ्लॉप (नाकाम) हैं। लोगों में उनकी नाकामी से निराशा है। लेकिन इसमें एक और बात भी है। केंद्र की भाजपा सरकार अपनी नाकामियाँ छिपाने का ठीकरा भी अपने मुख्यमंत्रियों पर ही फोड़ रही है, ताकि लोगों का उनसे ध्यान हटाया जा सके। केंद्रीय मंत्रिमण्डल के हाल के फेरबदल में भी यही किया गया था। यह सन्देश देने की कोशिश की गयी कि ख़राब प्रदर्शन वाले मंत्री हटा दिये गये। जबकि कोविड, महँगाई और अन्य मोर्चों पर सरकार की नाकामी की सीधी ज़िम्मेदारी तो प्रधानमंत्री (पीएमओ) की है, जहाँ से सब कुछ संचालित होता है।’

गुजरात में भाजपा ने जिस तरह भूपेंद्र यादव की नयी सरकार के गठन में विजय रूपाणी के मंत्रिमण्डल के सभी मंत्रियों की छुट्टी करने जैसा प्रयोग किया, उससे ज़ाहिर होता है कि मोदी-शाह के गृह राज्य में लोगों की पिछली सरकार और मंत्रियों से कितनी नाराज़गी रही होगी। अन्यथा ऐसा कभी नहीं होता कि नये मुख्यमंत्री को नया मंत्रिमण्डल देते हुए पुराने सभी मंत्रियों को बाहर कर दिया जाए। इससे तो यही संकेत जाता है कि इन सभी मंत्रियों का प्रदर्शन ख़राब रहा। लेकिन प्रदेशों में मुख्यमंत्री बदलने के पीछे भाजपा आलाकमान का एक और सन्देश भी अपने संगठन के लोगों को है। वह यह कि ‘पार्टी में नरेंद्र मोदी और अमित शाह ही सर्वशक्तिमान हैं।’

मुख्यमंत्री बदलने का संकेत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए भी है। बंगाल के विधानसभा चुनाव में मिली हार के तुरन्त बाद हुए उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव में भाजपा की हार के बाद सर्वशक्तिमान नेतृत्व ने जिस मुख्यमंत्री को सबसे पहले बदलने की क़वायद की थी, वह योगी ही थे। यह क़वायद सफल होती, उससे पहले ही आरएसएस (संघ) का बयान आ गया कि उत्तर प्रदेश के अगले चुनाव भाजपा योगी के ही नेतृत्व में लड़ेगी। इस दौरान योगी भी दिल्ली में तलब किये गये या कहें कि ख़ुद चले गये थे और शीर्ष नेतृत्व से मिले। बहुत-से लोग कहते हैं कि यह कोई बहुत सम्मानजनक मुलाक़ातें नहीं थीं। लगभग उन्हीं दिनों में अपने प्रदेश के कुछ विकास विज्ञापनों और होर्डिंग्स में योगी सरकार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फोटो लगाने से परहेज़ किया था। बहुतों को योगी सरकार का यह फ़ैसला दिलचस्प और कुछ को हैरानी भरा लगा था। कहते हैं भाजपा शीर्ष नेतृत्व में इसे लेकर भी योगी के प्रति बहुत नाराज़गी थी। योगी को बहुत सारे राजनीतिक जानकार नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री की कुर्सी को चुनौती मानते हैं; भले योगी एक प्रधानमंत्री और पार्टी के सर्वोच्च नेता के रूप में मोदी के प्रति पूरा सम्मान दिखाते हैं। राजनीतिक गलियारों में यह कहा जाने लगा है कि योगी की पार्टी के भीतर ही बहुत-सी दुश्वारियाँ हैं।

बहुत दिलचस्प बात तो यह है कि भाजपा के कट्टर हिन्दुत्व समर्थकों वाली टोलियों के बीच योगी भी मोदी की तरह ही लोकप्रिय हैं। कई लोग तो उन्हें मोदी से भी ज़्यादा पसन्द करते हैं। पार्टी के बीच योगी का एक अलग समर्थक वर्ग बन चुका है, जो उनके भाषणों के तरीक़े और धर्म आधारित कटाक्षों का दीवाना है।

यह वही वर्ग है, जो सोशल मीडिया पर अपने सन्देशों में जमकर धर्म आधारित ज़हर उगलता है और योगी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित करता है। इसमें एक सन्देश यह भी है- ‘देश का अगला प्रधानमंत्री मर्यादा पुरषोतम श्रीराम की जन्मभूमि से।’

ज़ाहिर है योगी के यह समर्थक प्रधानमंत्री के उत्तर प्रदेश के वाराणसी से चुनाव जीतकर सांसद बनने के बावजूद उन्हें राज्य का नहीं मानते। दिलचस्प बात यह भी है कि सोशल मीडिया का ही एक वर्ग योगी को भी बाहरी बताता है। इस वर्ग के सन्देश कहते हैं कि योगी तो उत्तराखण्ड के हैं। अब सोशल मीडिया के इस वर्ग के प्रचार के पीछे कौन है? यह तो राम ही जानें। लेकिन यह तय है कि दोनों की ही तरफ़दारी करने वाले भाजपा के ही लोग हैं। बीच में इसी सोशल मीडिया पर यह चर्चा भी ख़ूब चली कि केंद्र उत्तर प्रदेश को चार राज्यों में विभाजित करना चाहता है। कहा जाता है कि यह प्रचार योगी को दबाव में लाने के लिए था। लब्बोलुआब यह है कि भाजपा के भीतर ही सौ लड़ाइयाँ और दाँव-पेच हैं। बाहर से भले कुछ भी दिखे, मगर भाजपा के भीतर भी एक छद्म युद्ध लड़ा जा रहा है, जिसका औज़ार में सोशल मीडिया है।

हाल के महीनों में योगी सरकार ने अपने चार साल के कार्यकाल की उपलब्धियों को लेकर जमकर प्रचार किया है। यह किसी भी भाजपा शासित राज्य के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा है। हालाँकि योगी सरकार की कई मोर्चों पर नाकामियों का ज़िक्र भी मीडिया में ख़ूब हुआ है- क़ानून व्यवस्था से लेकर कोरोना वायरस के कहर के दौरान स्वास्थ्य कुप्रबन्धन, श्मशानों और क़ब्रिस्तानों में लम्बी-लम्बी क़तारों और दुष्कर्म की घटनाओं तक। इसे लेकर भाजपा के ही कुछ बड़े नेता गाहे-बगाहे बोलते रहे हैं। योगी का यह प्रचार सिर्फ़ विधानसभा चुनाव से पहले अपनी विकास पुरुष की छवि गढऩे भर के लिए नहीं है, भाजपा के अंतर्विरोधों से निपटने के लिए भी है। भाजपा में यह पहला मौक़ा नहीं है, जब पहली बार जीते विधायक को मुख्यमंत्री बनाया गया है। हिमाचल में सन् 1997 में पहला चुनाव जीतने के बाद प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमंत्री बनाया गया था। हालाँकि वह इससे पहले तीन बार सांसद और प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रह चुके थे और उनके पास संगठन के अलावा प्रशासनिक अनुभव था। कल्पना करें कि यदि भाजपा उनके बेटे अनुराग ठाकुर को अगले साल के विधानसभा चुनाव के बाद हिमाचल में मुख्यमंत्री का ज़िम्मा देना चाहेगी, तो अनुराग भी पहली बार विधायक बनकर ही मुख्यमंत्री हो जाएँगे। हालाँकि पिता की तरह वह भी चार बार सांसद बनने के अलावा दो बार मंत्री बन चुके हैं। लिहाज़ा उनका प्रशासनिक अनुभव तो है ही।

उत्तर प्रदेश में सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ पहली बार विधायक बनकर ही मुख्यमंत्री बन गये थे। उससे पहले वह पाँच बार सांसद रहे थे। हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर पहली पारी में जब मुख्यमंत्री बने, तो वह विधायक भी पहली बार बने थे। कुछ पुरानी बात करें, तो गुजरात में सन् 2001 में नरेंद्र मोदी को जब मुख्यमंत्री बनाया गया था, तब तो वह विधायक भी नहीं थे। उसके बाद वह दो बार और मुख्यमंत्री बने। आज वह दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री बन चुके हैं। ऐसे प्रयोग कांग्रेस में भी हुए हैं; लेकिन भाजपा ने निश्चित ही यह प्रयोग ज़्यादा किये हैं। इसके पीछे उसका मक़सद भविष्य का नेतृत्व तैयार करने का रहा है।  ख़ात बात यह है कि इसमें आरएसएस की भी बड़ी भूमिका रही है।

 

भाजपा में भी अब आलाकमान

कांग्रेस संगठन से जुड़ा एक शब्द मशहूर रहा है- ‘आलाकमान’। भाजपा दशकों तक इस स्थिति से बचती रही। दूसरे भाजपा में उच्चतम स्तर की ताक़त कांग्रेस के गाँधी परिवार की तरह किसी परिवार के पास नहीं थी। वहाँ भाजपा के अध्यक्ष की अपनी हैसियत थी और प्रधानमंत्री की अपनी। लेकिन अब भाजपा में जिस तरह सारी ताक़त प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के आसपास सिमट गयी है, उसने उन्हें भाजपा की आलाकमान की हैसियत दे दी है। उनकी मर्ज़ी के बिना पत्ता भी भाजपा में नहीं हिलता; यह भाजपा के ही लोग अब खुलकर कहने लगे हैं। मोदी-शाह के अलावा तीसरी किसी ताक़त की भाजपा में यदि चलती है, तो वह आरएसएस है। याद करिए, जब प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा का सन् 2019 का चुनाव जीतने के बाद पार्टी के लोगों को सम्बोधित किया था। मोदी ने सांसदों को सलाह दी थी कि वे बयानबाज़ी से बचें। यह एक तरह से उन्हें सुझाव था कि यह काम आलाकमान का है, आपका नहीं। वही तय करेंगे कि क्या और कितना बोलना है? पिछले कुछ वर्षों पर नज़र डालिए, भाजपा का कोई मंत्री आधिकारिक पत्रकार वार्ता (प्रेस कॉन्फ्रेंस) को छोडक़र कभी चलते-फिरते पत्रकारों से बात करने में हिचकता है। पहले ऐसा कभी नहीं होता था। इसे सत्ता का वैसा ही केंद्रीयकरण कह सकते हैं, जैसा इंदिरा गाँधी के ज़माने में था। इसके नुक़सान बाद में कांग्रेस को उठाने पड़े। उसका संगठन लचर और पंगु हो गया; क्योंकि सरकार और संगठन एक ही व्यक्ति के इर्द-गिर्द सिमट गये। मुख्यमंत्री बदलने की भाजपा की रफ़्तार मोदी-शाह की जोड़ी के समय में बहुत तेज़ हुई है। देखें तो इन दोनों के समय में अब तक 13 राज्यों में भाजपा के 19 मुख्यमंत्री बने हैं। इनमें योगी आदित्यनाथ, हिमंता बिस्व सरमा, सर्वानंद सोनोवाल, देवेंद्र फडऩवीस, त्रिवेंद्र सिंह रावत, तीरथ सिंह रावत, पुष्कर सिंह धामी, जयराम ठाकुर, बिप्लब देब, मनोहर लाल खट्टर, रघुबर दास, लक्ष्मीकांत पारसेकर, प्रमोद सावंत, बीरेन सिंह, पेमा खांडू, आनंदी बेन पटेल, विजय रूपाणी, भूपेंद्र पटेल, बासवराज बोम्मई शामिल हैं। इन 19 में से छ: को पार्टी नेतृत्व हटा चुका है।

“आज के हालात में हर कोई दु:खी है। कोई मंत्री न बनने से दु:खी है, तो मुख्यमंत्री इसलिए दु:खी हैं कि पता नहीं कब हटा दिये जाएँगे। समस्या सबके सामने है। पार्टी में है। पार्टी के बाहर है। परिवार में है। आज़ू-बाज़ू में है।’’

नितिन गडकरी

केंद्रीय मंत्री (जयपुर के एक कार्यक्रम में)

 

अब किसकी बारी?

भाजपा में आजकल बहुत दिलचस्प शर्तें लग रही हैं। वैसे भाजपा से बाहर भी लग रही हैं। शर्त यह कि ‘बताओ अब भाजपा के किस मुख्यमंत्री का नंबर लगने वाला है?’ यानी अब मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने की बारी किसकी है? भाजपा ने जिस तरीक़े और रफ़्तार से मुख्यमंत्री बदले हैं, वह आम जनता में भी दिलचस्पी जगा रहा है। चर्चाओं के मुताबिक, राजस्थान में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया को किनारे कर दिया गया है और भाजपा शायद ही उन्हें अगली बार मुख्यमंत्री बनाए। जहाँ तक मुख्यमंत्रियों की बात है, रूपाणी के बाद अब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का बिस्तर गोल हो सकता है। पार्टी मानती है कि इस बार उनका कार्यकाल बहुत ख़राब रहा है और उनके नेतृत्व में चुनाव में जाने पर पार्टी की लुटिया डूबने की पूरी सम्भावना है। पार्टी वहाँ भी कोई नया चेहरा ला सकती है। हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के प्रदर्शन पर भी ढेरों सवाल हैं। कहा जा रहा है कि बहुत विवादित न होने के बावजूद एक मुख्यमंत्री के रूप में जयराम सरकार की छाप छोडऩे में बुरी तरह नाकाम रहे हैं। यहाँ तक कि उनके अपने गृह ज़िले मंडी में ही लोग ज़्यादा ख़ुश नहीं हैं। इस पहाड़ी सूबे में अगले साल के आख़िर में चुनाव होने हैं। हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर पिछले चुनाव में ही भाजपा को बहुमत नहीं दिला पाये थे और भाजपा को सरकार बनाने के लिए दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी (जजपा) से गठबन्धन करना पड़ा था। खट्टर को दूसरी पारी मिल गयी; लेकिन किसान आन्दोलन से जिस ख़राब तरीक़े से खट्टर ने निपटा है, उससे हरियाणा भाजपा में बहुत बेचैनी है। बहुत सम्भावना कि खट्टर का पत्ता भी पार्टी नेतृत्व काट दे। हरियाणा में वैसे विधानसभा चुनाव अक्टूबर, 2024 होने हैं, लिहाज़ा हो सकता है कि खट्टर को अभी कुछ वक़्त और मिल जाए।

पंजाब में कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक

क्या चन्नी के दम पर भीतरी लड़ाई के नुक़सान की भरपाई कर पाएगी पार्टी?

यह 18 सितंबर की सुबह 8:00 बजे के आसपास की बात है। उस समय पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की फोन पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी से बात हो रही थी। सोनिया गाँधी ने कहा- ‘आई एम सॉरी अमरिंदर!’ (मुझे अफ़सोस है अमरिंदर!)। कैप्टन की कुर्सी का फ़ैसला हो चुका था।

इसके कुछ घंटे बाद निराश और कुछ हद तक क्रोधित अमरिंदर जब चंडीगढ़ स्थित पंजाब राजभवन में राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित से मिलकर उन्हें अपना इस्तीफ़ा सौंप रहे थे, लगभग उसी समय शहर में स्थित कांग्रेस भवन में पार्टी के 80 में से 78 विधायक नये मुख्यमंत्री के नाम पर फ़ैसला करने के लिए जुट रहे थे। अमरिंदर उसी पंजाब कांग्रेस में अकेले पड़ चुके थे, जिसके वह वर्षों कैप्टन रहे थे। इसके क़रीब 24 घंटे बाद चंडीगढ़ में चरणजीत सिंह चन्नी का नाम जब नये मुख्यमंत्री के रूप में घोषित हुआ, तो क़रीब 19 किलोमीटर दूर सिसवां स्थित अपने फार्म हाउस में वर्षों से राजनीतिक हलचल में घिरे रहने वाले सांसद पत्नी परनीत कौर के साथ कैप्टन कमोवेश अकेले से बैठे थे। अमरिंदर को आख़िर अपनी कुर्सी क्यों गँवानी पड़ी?

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, उनके ही एक पूर्व राजनीतिक सलाहकार का उन्हें लेकर राहुल गाँधी को दिया गया सुझाव उनके ख़िलाफ़ गया। पी.के. (चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर), जिन्होंने दो महीने पहले ही कैप्टन के राजनीतिक सलाहकार के पद से इस्तीफ़ा दिया था; के इस सुझाव में कहा गया था कि अमरिंदर सिंह के ख़िलाफ़ ज़मीन पर जनता और विधायकों में भी नाराज़गी है और भाजपा से उनकी नज़दीकियों की ख़बरें भी कांग्रेस को नुक़सान पहुँचा रही हैं।

पी.के. से इस बैठक के दौरान राहुल गाँधी जानना चाहते थे कि यदि किसी अनुसूचित जाति (सिख या ग़ैर-सिख) को मुख्यमंत्री बना दिया जाए, तो कैसा रहेगा? इसके कुछ घंटे के भीतर राहुल गाँधी चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब की बाग़डोर सौंपने का फ़ैसला कर चुके थे। यह भी फ़ैसला किया गया कि मज़बूत सन्देश देने के लिए राहुल गाँधी चन्नी के शपथ ग्रहण में शामिल रहेंगे। पत्रकार 19 सितंबर को जब वरिष्ठ नेता सुखजिंदर सिंह रंधावा को भावी मुख्यमंत्री मानकर उनसे बधाई वाले अंदाज़ में बात कर रहे थे, तब भी रंधावा कह रहे थे कि ‘मेरी शपथ हो या किसी और की।’ लेकिन पत्रकार इतने बड़े इशारे को नहीं समझ पाये।

सोनी सोनिया गाँधी की पसन्द थीं। लेकिन ख़ूद उन्होंने सिख को मुख्यमंत्री बनाने के समर्थन के समर्थन वाला बयान दिया, जो सोची-समझी रणनीति थी। दिखावे के लिए चंडीगढ़ में विधायकों की राय लेने की क़वायद की गयी। ख़ूद चन्नी को उनको लेकर किये गये राहुल गाँधी के इस फ़ैसले की जानकारी नहीं थी। चन्नी का राज्यपाल को दिया गया सरकार बनाने के दावे वाला पत्र भी पहले ही तैयार कर लिया गया था और यह प्रभारी हरीश रावत के पास था, जिन्होंने सारे कयास ख़त्म करते हुए करते हुए ट्वीट करके चन्नी को विधायक दल का नेता चुने जाने की जानकारी दी।

अमरिंदर सिंह पंजाब में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा और मज़बूत चेहरा थे, इसमें कोई सवाल ही नहीं था। लेकिन अमरिंदर पिछले चुनाव के वादों, ख़ासकर गुरुग्रन्थ साहिब की बेअदबी के मामले में आरोपियों को सज़ा देने के वादे पर खरे नहीं उतरे थे। दो महीने पहले आलाकमान ने उन्हें अवसर दिया था कि वह इन वादों को पूरा करने के लिए तत्काल ठोस काम शुरू कर दें। लेकिन कैप्टन हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहे। इस दौरान भाजपा से उनकी नज़दीकी बढऩे की अपुष्ट ख़बरें आने लगीं, जिनका कैप्टन ने कोई प्रतिवाद नहीं किया; जिससे उनके प्रति शक की भावना बढ़ी। बादल परिवार से उनकी नज़दीकियों पर तो पहले ही कांग्रेस के विधायक आगबबूला हुए बैठे थे। इस तरह अमरिंदर सत्ता से बाहर हो गये। इतनी जल्दी कि उन्हें कुछ करने का अवसर ही नहीं मिल पाया।

कांग्रेस या कह लीजिए राहुल गाँधी ने अनुसूचित जाति के चन्नी का मुख्यमंत्री के रूप में चयन करके एक तीर से कई शिकार कर लिये हैं। अमरिंदर सिंह से लेकर अकाली दल-बसपा गठबन्धन, आम आदमी पार्टी और भाजपा सब इस चयन से भौचक हैं। बसपा प्रमुख मायावती भी परेशान हुईं। वह जानती हैं कि इसका असर पंजाब से बाहर उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी पड़ेगा। इसलिए उन्होंने परेशानी में ही सही, मगर कहा कि कांग्रेस ने चन्नी को नाम का ही मुख्यमंत्री बनाया है; क्योंकि असली ताक़त किसी और के पास रहेगी। ज़ाहिर है मायावती का मक़सद एक दलित मुख्यमंत्री बनाने से कांग्रेस को मिलने वाले सम्भावित चुनावी लाभ से रोकना रहा होगा। पंजाब में अकाली दल और भाजपा ने दो महीने पहले ही उनकी सरकार बनने की स्थिति में उप मुख्यमंत्री का पद अनुसूचित जाति के विधायक को देने का वादा जनता से किया था। अब कांग्रेस ने इस समुदाय से मुख्यमंत्री ही बना दिया है। क्योंकि चन्नी सिख हैं। इसलिए कांग्रेस के लिए एक सिख राज्य में राजनीतिक लिहाज़ से यह और बेहतर फ़ैसला है। कांग्रेस का चयन एक सिख नहीं होता, तो अकाली दल आदि इस पर बहुत हो-हल्ला करते। लेकिन कांग्रेस ने उनके हाथ से यह हथियार भी छीन लिया।

इसके अलावा चन्नी युवा हैं। उनके सामने लम्बा राजनीतिक करियर है। अभी यह नहीं कहा जा सकता कि आगामी साल 2022 के विधानसभा चुनाव के बाद क्या राजनीतिक स्थिति बनेगी? यदि कांग्रेस सत्ता में लौटती है, तब भी कौन मुख्यमंत्री चुना जाएगा? यह उस समय की परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। अमरिंदर के जाने के बाद दो उप मुख्यमंत्रियों के रूप में कांग्रेस ने एक जट्ट सिख और एक हिन्दू सवर्ण को चुना है, जिससे वह एक सम्पूर्ण राजनीतिक पैकेज देने में सफल रही है।

सिद्धू : हंगामा है क्यों बरपा?

नवजोत सिंह सिद्धू तबीयत से बाग़ी हैं। जब कुछ ग़लत लगता है, तो वह विद्रोह करने में देर नहीं लगाते। भारतीय क्रिकेट टीम का सन् 1996 का इंग्लैंड दौरा इसका सुबूत है। कप्तान मोहम्मद अज़हरूद्दीन से किसी मसले पर उनके खटपट हो गयी। नाराज़ सिद्धू इंग्लैंड दौरा छोडक़र ही भारत लौट आ गये। पंजाब में कांग्रेस की कप्तानी हासिल करने से लेकर अध्यक्ष पद छोडऩे तक की उनकी लड़ाई उनके उस तेवर को ही दर्शाती है। विरोधी भले ही कुछ भी कहें; लेकिन सिद्धू अपनी ही तबीयत के मालिक हैं।

कहा जाता है कि राजनीति में कुछ समझौते करने पड़ते हैं; लेकिन सिद्धू ने न भाजपा में रहते हुए कोई समझौता किया और न अब कांग्रेस में। भाजपा में वह अकाली दल से अलग पार्टी का अपना वजूद पंजाब में तैयार करना चाहते थे; लेकिन भाजपा आलाकमान ने उनकी नहीं सुनी और सिद्धू ने बाग़ी तेवर अपना लिये। यह ठीक है कि मंत्रियों को विभाग बाँटना और अफ़सरों की तैनाती मुख्यमंत्री का विशेषधिकार है और सिद्धू को संगठन पर फोकस करना चाहिए। इसे पार्टी अनुशासन के ख़िलाफ़ भले कह लें; लेकिन सिद्धू ने दाग़ी लोगों पर ही सवाल उठाये थे, जो कांग्रेस के लिए अच्छी ही बात थी। उनके विरोधी आरोप लगाते हैं कि सिद्धू तीन महीने पहले प्रदेश अध्यक्ष बने; लेकिन उनका ध्यान सरकार पर ज़्यादा और संगठन पर कम है। पहले के दो महीने कैप्टन अमरिंदर सिंह को निपटाने में निकल गये और बाद में वह सरकार की नियुक्तियों में उलझ गये। लिहाज़ा संगठन का काम हुआ ही नहीं, जबकि विधानसभा चुनाव को बमुश्किल चार-पाँच महीने ही बचे हैं। हालाँकि चन्नी सरकार से सिद्धू के बाद इस्तीफ़ा देने वाली रज़िया सुल्ताना कहती हैं- ‘सिद्धू ईमानदार नेता हैं और पंजाब के उसूलों की लड़ाई लड़ रहे हैं।’

वैसे पंजाब के सारे घटनाक्रम से कांग्रेस में जिस नेता को सबसे ज़्यादा लाभ पहुँचा, वह नवजोत सिंह सिद्धू ही हैं। वह अपने सबसे बड़े राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी कैप्टन अमरिंदर सिंह को कांग्रेस के बिना किसी बड़े राजनीतिक नुक़सान के निपटाने में सफल रहे हैं। हो सकता है कि अमरिंदर सिंह कांग्रेस से जाने का अन्तिम फ़ैसला जल्दी ही कर लें। यदि ऐसा होता है, तो भले कांग्रेस का इससे नुक़सान हो; लेकिन व्यक्तिगत रूप से सिद्धू का कांग्रेस में सबसे बड़ा राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी पार्टी से बाहर हो जाएगा।

कैप्टन के इरादे

अमरिंदर सिंह जिस तरह अपनी ही पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के ख़िलाफ़ विधानसभा चुनाव में मज़बूत उम्मीदवार उतारने और राहुल-प्रियंका गाँधी को राजनीतिक अपरिपक्व बताने वाली टिप्पणियाँ कर रहे हैं, उससे ज़ाहिर होता है कि कांग्रेस का यह दिग्गज अपनी राह बदलने की तैयारी में है। सवाल हैं- वह जाएँगे किसके साथ? और कब जाएँगे? कितने विधायक उनके साथ जाएँगे? कांग्रेस शायद ख़ूद उन्हें पार्टी से बाहर न करे।

हालाँकि उनकी टिप्पणियों पर वरिष्ठ नेता असहमति जता चुके हैं और कह रहे हैं कि उन जैसे वरिष्ठ नेता से इस तरह के बयानों की उम्म्मीद नहीं की जाती। उनके निशाने पर सिद्धू सबसे ज़्यादा हैं। सिद्धू को ‘राष्ट्र के लिए ख़तरा’ जैसे बयान देकर कैप्टन ने भाजपा की भाषा ही बोली है। चर्चा रही है कि यदि मोदी सरकार विवादित तीन कृषि क़ानूनों को वापस ले ले या ठण्डे बस्ते में डाल दे, तो कैप्टन भाजपा में भी जा सकते हैं। देखा जाए तो क़द्दावर नेता होने के बावजूद अमरिंदर को मुख्यमंत्री पद से हटाने पर जनता में उनके प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखती। चुनाव के वादे पूरे न करने और श्री गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी पर कार्रवाई न होने के कारण जनता में पहले से ही उनके प्रति ग़ुस्सा रहा था। यह तक कहा जा रहा था कि अमरिंदर कांग्रेस को शायद ही अगला चुनाव जिता पाते। कैप्टन के अपने प्रभाव क्षेत्र में ही जनता का कहना है कि अमरिंदर ने तो ख़ूद ही सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में प्रचार करते हुए इसे अपना आख़िरी चुनाव बताकर मत (वोट) माँगे थे। जिन नवजोत सिद्धू से वह टक्कर ले रहे हैं, वह भी उनकी ही तरह जट्ट सिख और सिद्धू हैं। जट्ट सिख मानते हैं कि सिद्धू उनके समुदाय में भविष्य के नेता हैं। लिहाज़ा कैप्टन का सिद्धू को लेकर विरोध उनके गले नहीं उतर रहा। अमरिंदर के सिद्धू के ख़िलाफ़ बयानों का सिद्धू को नहीं, ख़ूद अमरिंदर को नुक़सान हुआ है। एक और क़द्दावर जट्ट सिख नेता सुखजिंदर सिंह रंधावा, जिन्हें अब उप मुख्यमंत्री बना दिया गया है और सरकार में जिनकी नंबर दो की हैसियत है; भी सिद्धू के साथ खड़े दिख रहे हैं। अमरिंदर 80 साल के क़रीब हैं और अपनी पारी खेल चुके हैं। लोग मानते हैं कि उन्हें सिद्धू को अपने उत्तराधिकारी के रूप में समर्थन देना चाहिए था। फ़िलहाल अमरिंदर यह टोह लेने की कोशिश कर रहे हैं कि कितने विधायक उनके साथ आ सकते हैं। अनुसूचित जाति के विधायक चरणजीत सिंह चन्नी को कांग्रेस ने जिस तरह मुख्यमंत्री बनाकर तुरुप का पत्ता चला है, उससे कांग्रेस विधायक दल में किसी बड़े विघटन की सम्भावना नहीं दिखती। अमरिंदर सिर्फ़ एक ही तरीक़े से कांग्रेस सरकार के लिए समस्या बन सकते हैं और वह यह है कि कांग्रेस के 20 से ज़्यादा विधायक राजा अमरिंदर के साथ चले जाएँ। पंजाब की राजनीति पर नज़र रखने वाले जानकार इसकी सम्भावना न के बराबर मानते हैं। ज़मीनी हक़ीक़त आज भी यह है कि चुनाव की दृष्टि से कांग्रेस अभी भी अन्य दलों के मुक़ाबले बेहतर स्थिति में है।

जातियाँ कितनी असरदार?

पंजाब की चुनावी राजनीति पर नज़र दौड़ाएँ, तो ज़ाहिर होता है कि जातियों का चुनाव में असर रहा है। चूँकि कांग्रेस ने पंजाब में अनुसूचित जाति से मुख्यमंत्री बनाया है, तो सबसे पहले पिछले चार विधानसभा चुनावों में अनुसूचित जाति की भूमिका की बात की जाए। इन चार विधानसभा चुनावों में अनुसूचित जाति के बहुसंख्यक वोट कांग्रेस को मिलते रहे हैं; चाहे यह हिन्दू मतदाता हों, या सिख मतदाता।

सन् 2002 के विधानसभा चुनाव में पंजाब में सिख अनुसूचित जातियों के 33 फ़ीसदी मत (वोट) कांग्रेस को और 26 फ़ीसदी मत अकाली-भाजपा गठबन्धन को मिले। सन् 2007 में 49 फ़ीसदी मत कांग्रेस को, जबकि 32 फ़ीसदी मत अकाली-भाजपा गठबन्धन को मिले। सन् 2012 में 51 फ़ीसदी मत कांग्रेस को और 34 फ़ीसदी मत अकाली-भाजपा गठबन्धन को प्राप्त हुए। वहीं सन् 2017 में 41 फ़ीसदी मत कांग्रेस को, 34 फ़ीसदी मत अकाली-भाजपा गठबन्धन को और 19 फ़ीसदी मत आम आदमी पार्टी को मिले। इसी तरह हिन्दू अनुसूचित जातियों में सन् 2002 में 47 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 11 फ़ीसदी ने अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को मतदान किया। सन् 2007 में 56 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, तो 25 फ़ीसदी ने अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को मत डाले। सन् 2012 में 37 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 33 फ़ीसदी ने अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को मतदान किये। वहीं सन् 2017 में 43 फ़ीसदी ने कांग्रेस के, तो 26 फ़ीसदी ने अकाली दल-भाजपा गठबन्धन के पक्ष में मतदान किया। यदि जट्ट सिख मतदाताओं की बात करें तो सन् 2002 में कांग्रेस को 23 फ़ीसदी ने, जबकि अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को 55 फ़ीसदी जट्ट सिख ने मत दिये।

सन् 2007 में कांग्रेस को 30 फ़ीसदी ने, अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को 61 फ़ीसदी ने मत दिये। सन् 2012 में कांग्रेस को 31 फ़ीसदी ने, जबकि अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को 52 फ़ीसदी ने मत दिये। वहीं सन् 2017 में 28 फ़ीसदी ने कांग्रेस को और 37 फ़ीसदी ने अकाली दल-भाजपा गठबन्धन को, जबकि पहली बार चुनाव में उतरी आम आदमी पार्टी को 30 फ़ीसदी जट्ट सिखों ने मत दिये। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा के इतने चुनावों में लगातार अकाली दल के साथ होने के बावजूद ग़ैर-दलित हिन्दुओं ने ज़्यादा समर्थन कांग्रेस का किया। सन् 2002 में 52 फ़ीसदी ग़ैर-अनुसूचित जाति हिन्दुओं ने कांग्रेस को मतदान किया, जबकि अकाली-भाजपा गठबन्धन को सिर्फ़ 26 फ़ीसदी मतदान इन्होंने किया। इसी तरह सन् 2007 में 49 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 38 फ़ीसदी ने अकाली-भाजपा गठबन्धन को मतदान किया। सन् 2012 में 46 फ़ीसदी ने कांग्रेस को,  36 फ़ीसदी ने अकाली-भाजपा गठबन्धन को मत दिये। वहीं सन् 2017 के पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 48 फ़ीसदी ने, अकाली-भाजपा गठबन्धन को 22 फ़ीसदी ने और आम आदमी पार्टी को 23 फ़ीसदी ग़ैर-हिन्दू दलितों के मत मिले।

बात करें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) सिख मतदाताओं के मतों की, तो सन् 2002 में 39 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 32 फ़ीसदी ने  अकाली-भाजपा गठबन्धन को मतदान किया। सन् 2007 में 43 फ़ीसदी ने कांग्रेस को और 43 फ़ीसदी ही ने अकाली-भाजपा गठबन्धन को मतदान किया। सन् 2012 में 44 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 46 फ़ीसदी ने अकाली-भाजपा गठबन्धन को मतदान किया। वहीं सन् 2017 के चुनाव में 37 फ़ीसदी ने कांग्रेस को, 32 फ़ीसदी ने अकाली-भाजपा गठबन्धन को और 19 फ़ीसदी ने आम आदमी पार्टी को मत दिये।

पीएम मोदी से मिले चन्नी; किसानों और करतारपुर कॉरिडोर फिर से खोलने जैसे मुद्दे उठाए

पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने शुक्रवार को दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की और राज्य के मुद्दों के अलावा किसानों- तीन कृषि कानूनों और करतारपुर साहिब कॉरिडोर खोलने को लेकर भी उनसे चर्चा की। चन्नी अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व से भी मुलाकात करेंगे। सम्भावना है कि उनकी नवजोत सिंह सिद्धू के मसले पर भी वरिष्ठ नेताओं से बात होगी।

पीएम से मिलने के बाद मुख्यमंत्री चन्नी ने पत्रकारों को बताया कि उन्होंने आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की। यह बातचीत करीब एक घंटे तक चली। चन्नी ने बताया कि उन्होंने प्रधानमंत्री के समक्ष तीन मुद्दे उठाए।

उन्होंने कहा कि मुलाकात के दौरान उन्होंने धान की सरकारी खरीद का मसला पीएम के सामने रखा। उन्होंने कहा कि एक अक्टूबर से ही धान की खरीद होनी चाहिए न कि 11 अक्टूबर को। सीएम ने इस दौरान कहा कि किसान खुशहाल रहेगा तो पंजाब आगे बढ़ेगा। चन्नी ने कहा – ‘पंजाब ने हमेशा देश के विकास योगदान दिया है।’

पत्रकारों के सवाल पर चन्नी ने इसे एक ‘कर्ट्सी कॉल’ बताया। चन्नी ने कहा – ‘मैने 3 बातें उनके सामने रखी हैं। कोई एजेंडा नहीं था, एक कर्ट्सी कॉल थी। एक मौजूदा मुद्दा है कि पंजाब में धान खरीद सीजन शुरू हो रहा है। पहले ऐसा होता था कि पहली अक्टूबर से खरीद शुरू होती थी लेकिन इस बार सरकार ने 11 अक्तूबर से शुरू की है।’

चन्नी ने आगे कहा – ‘पहले कभी भी खरीद की तारीख पोस्टपोन नहीं हुई। हाँ, प्रीपोन जरूर हुई है। प्रधानमंत्री ने हमारी बातों को सुना है और कहा है कि वे इसका हल ढूंढेंगे। मैने प्रधानमंत्री को कहा है कि जो 3 बिल का झगड़ा है इसे खत्म करें। उन्होंने मेरी बात ध्यान से सुनी है और कहा है कि वो भी इसका कोई हल ढूंढना चाहते हैं और इसी दिशा में चल रहे हैं। किसानों से मैने उनको डायलॉग शुरू करने की बात की है क्योंकि डॉयलॉग से ही बात हल होगी। मैने उनसे कहा है कि तीनों बिल खत्म होना चाहिए।’

सीएम ने कहा कि पाकिस्तान-भारत का करतारपुर साहिबकॉरिडोर को लेकर भी उन्होंने पीएम से बात की। ‘मैंने उनसे कहा कि कोविड के कारण कॉरिडोर जाना बंद हुआ है। अब इसे श्रद्धालुओं के लिए खोल देना चाहिए।’

उन्होंने कहा कि इसके अलावा कुछ ऑर्गेनिक खेती पर भी बात हुई है। सीएम और प्रधानमंत्री के बीच बातचीत होती रहनी चाहिए, अच्छे माहौल और अच्छा प्यार होना चाहिए वो उन्होंने मुझे दिया है, इसके लिए उनका धन्यवाद। हालांकि, पत्रकार से बातचीत में चन्नी ने सिद्धू से जुड़े किसी भी सवाल का जवाब नहीं दिया।

ख़बर का असर… मदद मिलते ही हडिय़ा दारू बेचना छोड़ रहीं महिलाएँ

हडिय़ा दारू के धन्धे से जुड़ी झारखण्ड की महिलाओं को दूसरा काम करने के लिए प्रेरित कर रही सरकार

सम्मान से जीने और सम्मानजनक कार्य करने की इच्छा हर किसी की होती है। अगर सही रास्ता मिल जाये और प्रोत्साहित किया जाए, तो सम्मान से जीने का रास्ता अपनाया जा सकता है। समाज से बुराई को दूर किया जा सकता है। इसे झारखण्ड सरकार की एक छोटे से अभियान ने साबित कर दिया है। सरकार की ‘फूलो झानो आशीर्वाद अभियान’ ने महिलाओं को सम्मान दिलाया। महिलाओं के हाथों को काम मिला, तो हडिय़ा दारू का धन्धा पीछे छूट गया। कुछ ही महीनों में आज राज्य की 13,000 से अधिक महिलाएँ हडिय़ा दारू बेचना छोड़ आय वृद्धि के सम्मानजनक काम में लग गयी हैं।

कहते हैं बूँद-बूँद से घड़ा भरता है। इसी तरह एक-एक करके हडिय़ा दारू बेचने वाली महिलाएँ फूलो-झानो आशीर्वाद योजना से जुड़ती जा रही हैं। इससे स्वरोज़गार व अन्य काम करने वाली महिलाओं का एक कारवाँ बनता जा रहा है। अभी तक राज्य में 25,000 से अधिक हडिय़ा दारू बेचने वाली महिलाओं को चिह्नित किया जा चुका है। ग्रामीण विकास विभाग के अधीन झारखण्ड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसायटी ने राज्य में हडिय़ा दारू बेचने वाली महिलाओं का सर्वे कराया। चिह्नित महिलाओं में से 15,546 महिलाओं का सर्वे काम पूरा हो चुका है। अगस्त तक 13,356 महिलाओं को इस योजना के तहत हडिय़ा दारू बेचने का काम छोडक़र अन्य काम से जुड़ चुकी हैं।

बदलने लगी ज़िन्दगी

राज्य में हडिय़ा दारू निर्माण एवं बिक्री से जुड़ी महिलाओं को सम्मानजनक आजीविका उपलब्ध कराने के लिए सरकार ने पहल की। सबसे पहले हडिय़ा दारू बेचने वाली चिह्नित महिलाओं की काउंसलिंग की गयी। उन्हें सखी मण्डल से जोड़ा गया। उन्हें 10,000 रुपये का ब्याज मुक्त लोन उपलब्ध कराया गया। इसके अतिरिक्त राशि सामान्य दर पर उपलब्ध करायी जा रही है। दुकान खोलने या कोई छोटा कारोबार करने, वनोपज संग्रहण, पशु पालन, मछली पालन, बकरी पालन आदि काम इच्छानुसार चुनने की छूट दी गयी। महिलाओं ने जो भी कार्य को चुना, उन्हें तकनीकी सहायता दी गयी और रोज़गार शुरू करवाया गया। इस तरह राज्य की महिलाओं को आत्मनिर्भर और सम्मानजनक रोज़गार करने का अवसर मिला। 10,000 रुपये की छोटी-सी रक़म ने उनका जीवन बदल दिया।

मुख्यमंत्री ने दिखायी दिलचस्पी

फूलो-झानो योजना से जुड़ी महिलाएँ ख़ुश हैं। पिछले दिनों फूलो-झानो योजनाओं को लेकर एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने महिलाओं से संवाद किया। योजना से जुड़ी नयी महिलाओं को 10,000 का चेक भी दिया गया। मुख्यमंत्री ने योजना के धीरे-धीरे हो रही कामयाबी पर ख़ुशी ज़ाहिर की। उन्होंने महिलाओं का हौसला बढ़ाया। सरकार ने दीदी हेल्पलाइन कॉल सेंटर की भी शुरुआत की। इसके तहत झारखण्ड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसायटी से जुड़ी योजनाओं के बारे में जानकारी सिर्फ़ एक कॉल पर उपलब्ध होगी। राज्य में जिन 13,356 हडिय़ा दारू बेचने वाली महिलाओं को अब तक सहायता मिली है, उनमें दुमका ज़िला अव्वल है। यहाँ पर 2,475 हडिय़ा दारू बेचने वाली महिलाओं को चिह्नित किया गया है। इनमें से 1,342 महिलाओं को सहायता मिल चुकी है; शेष के लिए प्रक्रिया जारी है। इसी तरह लोहरदगा की 1351 महिलाओं और गुमला की 1329 महिलाओं को लाभ मिला है। राज्य के हर ज़िले में अभियान चलाया जा रहा है।

महिलाएँ हुईं ख़ुश

खूँटी की कर्रा प्रखण्ड के छाता गाँव की रहने वाली अनिमा अपने जीवनयापन के लिए हाट-बाज़ार में दारू बनाकर बेचने के काम करती थीं। थोड़ी-बहुत पढ़ी-लिखी होने के बावजूद अवसरों के अभाव में अपनी शिक्षा का सही उपयोग नहीं कर पा रही थीं। फूलो-झानो आशीर्वाद अभियान के तहत अनिमा को 10,000 रुपये की सहायता राशि प्राप्त हुई। अनिमा ने प्राप्त राशि और अपनी जमा पूँजी की मदद से 9,000 रुपये का स्मार्ट फोन और अन्य सामान ख़रीदा। सरकारी मदद से तकनीकी जानकारी ली। बैंक लेन-देन व सुविधाओं की जानकारी ली और पूरी पंचायत में लोगों को घर बैठे (डोर-स्टेप पर) बैंक सम्बन्धी सेवाएँ देने लगीं। अब वह हर दिन 200 से 250 रुपये कमा रही हैं। यह केवल अनिमा की कहानी है। अनिमा की तरह ही बोकारो की रहने वाली अंजू देवी ने बताया कि जिस बाज़ार में पहले वह हडिय़ा दारू बेचती थीं, वहीं एक छोटी से चाय-नाश्ते की दुकान खोल ली है।

इसी तरह की कहानी लातेहार की कौशल्या देवी की है, जिन्होंने मुर्ग़ी पालन का काम शुरू किया है। वहीं देवघर की रूपा देवी ने घर के पास ही सब्ज़ी उपजाकर उसका कारोबार शुरू कर दिया है। इतना ही नहीं ये महिलाएँ हडिय़ा दारू बेचने वाली अन्य महिलाओं को सरकारी सहायता से दूसरा काम शुरू करने के लिए प्रेरित कर रही हैं। कौशल्या ने बताया कि उन्होंने अब तक अपनी परिचित 10 महिलाओं को प्रेरित कर हडिय़ा दारू बेचने के काम को छुड़वाया है।

हडिय़ा दारू बेचने की मजबूरी क्यों?

राज्य में हडिय़ा दारू आम बात रही है। गाँव, क़स्बों से लेकर शहरों तक में यह खुलेआम सडक़ किनारे बिकती है। चूँकि हडिय़ा आदिवासियों की परम्परा और सांस्कृतिक विरासत का एक हिस्सा है। राज्य के आदिवासी समाज में हडिय़ा में बनी दारू, जो पहले दवा ही थी; को एक पारम्परिक पेय पदार्थ माना जाता है। आदिवासियों ने हडिय़ा के मूल रूप में पोषण का ध्यान रखा है। पारम्परिक रूप से जो हडिय़ा पेय तैयार किया जाता है, वह स्वास्थ्य के लिए अच्छा भले ही होता है; लेकिन आख़िर है तो नशा ही। पहले इसे खेती या मेहनत का काम करने वालों की रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्युनिटी) बढ़ाने के लिए लोग सेवन किया करते थे। यह पीलिया, डायरिया, ब्लड प्रेशर, डिहाइड्रेशन जैसी कई बीमारियों को ठीक करने वाली एक औषधि रही है। आदिवासी परम्परा में केवल हडिय़ा शब्द ही है। कालांतर में हडिय़ा का प्रयोग नशे के लिए होने लगा। इसे व्यावसायिक रूप देने के लिए जड़ी-बूटी की जगह स्प्रिंट, यूरिया और अन्य नशे का सामान मिलाया जाने लगा है। इसके अलावा नशे के लिए अधिक मात्रा में धतूरा व अन्य जंगली फल-फूलों का इसमें इस्तेमाल होने लगा और जड़ी-बूटी की मात्रा कम होती गयी। तब इस शब्द के साथ दारू जुड़ गया। अब हडिय़ा दारू शब्द प्रचलन में आ गया है। इसे तैयार करना बहुत आसान है। यह ग्रामीण महिलाओं के लिए रोज़गार का एक बड़ा साधन है। ग़रीब महिलाएँ अपना परिवार चलाने के लिए इस व्यवसाय से जुड़ गयीं। रोज़गार के लिए छोटे-छोटे स्तर पर हडिय़ा तैयार करने लगीं। राज्य में खुले रूप से ज़्यादातर जगहों पर हडिय़ा दारू महिलाएँ ही बेचती हुई नज़र आती हैं। जो छोटे स्तर पर थोड़ा पारम्परिक और थोड़ा नया स्वरूप देकर अपने ही घर में हडिय़ा तैयार करके बेचती हैं। पहले कोई दूसरा रोज़गार न होने के चलते ये महिलाएँ हडिय़ा दारू बेचने का काम करती रही हैं, जिनमें से कुछ अब सरकारी मदद से इससे दूर हो रही हैं। लेकिन अभी भी बहुत-सी महिलाएँ हडिय़ा दारू बेच रही हैं। उन्हें चिह्नित भी किया जा रहा है। हालाँकि महिलाओं को यह काम पसन्द नहीं है और वह कोई अन्य काम चाहती हैं। आर्थिक रूप से कमज़ोर होने कारण उन्हें रास्ता नहीं मिल रहा था। अब सरकार की मदद से उन्होंने नयी सम्मानजनक मंज़िल तलाश कर ली है। लेकिन सवाल यह है कि क्या राज्य में पूरी तरह से हडिय़ा दारू की बिक्री बन्द हो सकेगी?

तहलका ने उठाया था मुद्दा

‘तहलका’ ने अपने 15 फरवरी के अंक में ‘झारखण्ड में हडिय़ा दारू : क़ानूनन अवैध, लेकिन परम्परा में वैध’ शीर्षक से स्टोरी प्रकाशित की थी। झारखण्ड सरकार के अधिकारियों ने क़ुबूल किया था कि क़ानूनी रूप से हडिय़ा दारू पर पाबन्दी लगाना सम्भव नहीं है। यह झारखण्ड की परम्परा में शामिल है। इसे जागरूकता के ज़रिये ही कम किया जा सकता है। सरकार ने इसके लिए फूलो-झानो आशीर्वाद अभियान शुरू किया है, जिसका बेहतर परिणाम दिखने लगा है। सरकार के इस अभियान से अब एक-के-बाद एक ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएँ जुड़ती जा रही हैं। जिन महिलाओं के हाथ हडिय़ा दारू बनाने और बेचने के लिए उठते थे, उनके हाथ अब स्वरोज़गार व अन्य कामों के लिए उठ रहे हैं।

ख़तरे के मुहाने पर दुनिया

डराने वाली है जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी की रिपोर्ट

मानव के लालच ने दुनिया को ख़तरे के किस ढेर पर लाकर बैठाया है, इसका संकेत जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट से मिलता है। रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि आने वाला समय जीव, जगत के लिए कितना विनाशकारी सिद्ध होने वाला है। पिछले चार-पाँच दशक में प्राकृतिक संसाधनों का जिस स्तर पर दोहन किया गया है, उसने ख़ुद हमारे लिए स्थिति विकराल कर दी है। तापमान बढऩे से हमारी दुश्वारियाँ भी बढऩे वाली हैं। सबसे ज़्यादा चिन्ताजनक बात यह है कि ये परिवर्तन अनुमानित समय से कहीं पहले ही हो रहे हैं। ऐसी ही तमाम स्थितियों और ख़तरों को लेकर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) पर संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट मानव सहित जीव जगत के लिए डराने वाली है। सन् 2013 के बाद यह पहली रिपोर्ट है, जिसमें जलवायु परिवर्तन से जुड़े विज्ञान का व्यापक तौर पर विश्लेषण किया गया है। इसमें कहा गया है कि पृथ्वी की औसत सतह का तापमान साल 2030 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा और यह बढ़ोतरी पूर्वानुमान से एक दशक पहले ही होने जा रही है, जो बहुत चिन्ताजनक है। रिपोर्ट जारी होने के बाद संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा कि आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप-1 रिपोर्ट मानवता के लिए एक कोड रेड है। दुनिया के कई बड़े कार्बन उत्सर्जक देश घोषणा कर चुके हैं कि साल 2050 तक वो कार्बन के मामले में न्यूट्रल हो जाएँगे; यहाँ तक कि चीन ने साल 2060 तक के लिए अन्तिम तिथि तय कर दी है। वहीं भारत ने कहा है कि वह सन् 2005 के स्तर के हिसाब से 2030 तक 33-35 फ़ीसदी कार्बन उत्सर्जन कम करेगा। आईपीसीसी की यह छठी मूल्यांकन रिपोर्ट (एआर-6) का पहला हिस्सा है और इसके बाक़ी दो हिस्से अगले साल जारी किये जाएँगे।

रिपोर्ट के आधार पर संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि भूमंडलीय ऊष्मीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) बहुत तेज़ी से हो रहा है और इसके लिए साफ़तौर पर मानव जाति ही ज़िम्मेदार है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बढ़ते तापमान से दुनिया भर में मौसम से जुड़ी भयंकर आपदाएँ आएँगी। दुनिया पहले ही बर्फ़ की चादरों के पिघलने, समुद्र के बढ़ते स्तर और बढ़ते अम्लीकरण में अपरिवर्तनीय बदलाव झेल रही है। रिपोर्ट के मुताबिक, वायुमण्डल को गर्म करने वाली गैसों का उत्सर्जन जिस तरह से जारी है, उसकी वजह से सिर्फ़ दो दशक में ही तापमान की सीमाएँ टूट चुकी हैं। आईपीसीसी के इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं का मानना है कि मौज़ूदा हालात को देखते हुए यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि इस शताब्दी के अन्त तक समुद्र का जलस्तर लगभग दो मीटर तक बढ़ सकता है। पैनल के शोधकर्ताओं का नेतृत्व करने वाली वैलेरी मैसन-डेलोमोट ने रिपोर्ट में कहा है कि कुछ बदलाव सौ या हज़ारों वर्षों तक जारी रहेंगे। इन्हें केवल उत्सर्जन में कमी से ही धीमा किया जा सकता है।

यह रिपोर्ट आने वाले महीनों में सिलसिलेवार आने वाली कई रिपोट्र्स की पहली कड़ी है, जो ग्लासगो में होने वाले जलवायु सम्मेलन (सीओपी-26) के लिए अहम रहेगी। यह शिखर सम्मलेन नवंबर के पहले पखवाड़े में होना है। रिपोर्ट में कहा गया है कि वार्मिंग गैसों के उत्सर्जन से एक दशक से भी अधिक समय में तापमान की एक महत्त्वपूर्ण सीमा टूट सकती है। संयुक्त राष्ट्र के वैज्ञानिकों ने ऐतिहासिक अध्ययन में कहा है कि जलवायु पर मानवता का हानिकारक प्रभाव हुआ है। मतलब, मानव जाति के लालच को ही जलवायु परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार बताया गया है। इसमें साफ़ कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन से धरती पर मँडरा रहा ख़तरा और भी ज़्यादा विनाशकारी होने वाला है। बता दें कि संयुक्त राष्ट्र के आईपीसीसी की इस रिपोर्ट से क़रीब आठ साल पहले की रिपोर्ट में भी जलवायु परिवर्तन के वैश्विक संकट से दुनिया को आगाह किया गया था। लेकिन नयी रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि त्रासदी दरवाज़े के सामने खड़ी है। यह भी ज़ाहिर होता है कि विशेषज्ञों की रिपोट्र्स में जो चेतावनियाँ दीं, उन पर कोई अमल नहीं हुआ और इंसान ने प्रकृति से खिलवाड़ जारी रखा है।

कार्बन उत्सर्जन के मामले में चीन और अमेरिका के बाद भारत तीसरे स्थान पर है। वह यह भी कह चुका है कि वह पेरिस जलवायु समझौते के अपने वादे को पूरा करने की दिशा में अग्रसर है। लेकिन आईपीसीसी की रिपोर्ट संकेत देती है कि उसका पिछला लक्ष्य पूरा होता नहीं दिख रहा है। भारत ही नहीं, वैश्विक तापमान बढऩे की दिशा में दुनिया के कई देश तेज़ी से कार्बन उत्सर्जन को कम नहीं कर पा रहे हैं।

आईपीसीसी की रिपोर्ट में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश भारत को जलवायु ख़तरे की सन् 2019 की सूची में सातवें पायदान पर रखा गया है, जिसे वह नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता है। संयुक्त राष्ट्र के जलवायु विज्ञान संगठन की इस छठी मूल्यांकन रिपोर्ट में बेहद गम्भीर परिणाम पाये गये हैं, जो बताते हैं कि हमारी पृथ्वी की पर्यावरण प्रणाली ने लगातार होते जलवायु परिवर्तन के कारण पहले ही न ठीक होने वाले परिवर्तन देख लिये हैं।

ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन

यूएनईपी उत्सर्जन गैस रिपोर्ट-2020 ज़ाहिर करती है कि जलवायु संकट को कम करने के लिए कठोर और सख़्त कार्रवाई की ज़रूरत है। इसके मुताबिक, दुनिया अभी भी 21वीं सदी के आख़िर तक तीन डिग्री सेल्सियस से अधिक के तापमान में वृद्धि की ओर बढ़ रही है।

दरअसल शहर पृथ्वी की सतह के केवल दो फ़ीसदी हिस्से को कवर करते हैं, जो जलवायु संकट को बढ़ाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन वर्तमान शहरी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने का लक्ष्य इस सदी के अन्त तक वैश्विक जलवायु परिवर्तन के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए काफ़ी नहीं है। आजकल दुनिया भर की आबादी की 50 फ़ीसदी से अधिक आबादी शहरों में रहती है।

डाउन टू अर्थ की जुलाई की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) की पहली बैलेंस शीट (संतुलन पत्र) प्रस्तुत की गयी थी। इसका उद्देश्य दुनिया भर के 167 अलग-अलग शहरों में ग्रीनहाउस गैसों पर लगाम कसने की कोशिशों के असर को देखना था। रिपोर्ट के मुताबिक, छ: साल पहले दुनिया भर के 170 देशों ने पेरिस समझौते को अपनाया था। इसमें रखे गये लक्ष्य में औसत वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना था। समझौते के बाद कई देशों और शहरों ने ग्रीनहाउस गैसों पर लगाम कसने के लिए लक्ष्य रखे।

रिपोट्र्स के मुताबिक, दुनिया के 167 शहरों में से सबसे ऊपर 25 देश, जो कि कुल का 15 फ़ीसदी हैं; सारे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का 52 फ़ीसदी उत्सर्जित करते हैं। इनमें मुख्य रूप से एशिया के देशों, जैसे- चीन के हैंडन, शंघाई और सूजौ, जापान के टोक्यो और यूरोपीय संघ के देशों में रूस के मास्को तथा तुर्की के इस्तांबुल आदि शामिल हैं। डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट बताती है कि चीन, जो विकासशील देशों की श्रेणी में वर्गीकृत है; में भी ऐसे शहर थे, जहाँ प्रति व्यक्ति उत्सर्जन विकसित देशों के बराबर था। यह बहुत अहम बात है कि कई विकसित देश चीन को उच्च कार्बन उत्पादन शृंखलाओं की भूमिका से जोड़ते हैं।

जर्नल फ्रंटियर्स इन सस्टेनेबल सिटीज के एक अध्ययन के मुताबिक, शोधकर्ताओं ने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोतों की भी पहचान की है। इसके अलावा अध्ययन में सामने आया कि 30 शहरों में सन् 2012 से सन् 2016 के बीच उत्सर्जन में कमी आयी थी। प्रति व्यक्ति सबसे बड़ी कमी वाले शीर्ष चार शहर- ओस्लो, ह्यूस्टन, सिएटल और बोगोटा थे। प्रति व्यक्ति उत्सर्जन में सबसे अधिक वृद्धि वाले शीर्ष चार शहर- रियो डी जनेरियो, कूर्टिबा, जोहान्सबर्ग और वेनिस थे।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 167 शहरों में से 113 ने विभिन्न प्रकार के जीएचजी उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य निर्धारित किये हैं, जबकि 40 ने कार्बन को शून्य करने के लक्ष्य निर्धारित किये हैं। लेकिन यह अध्ययन कई अन्य रिपोट्र्स और शोधों से जुड़ता है, जो बताते हैं कि हम पेरिस समझौते द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने से बहुत दूर हैं।

क्या है आईपीसीसी?

जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी का गठन विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने सन् 1988 में किया था। वैसे आईपीसीसी ख़ुद वैज्ञानिक अनुसंधान में शामिल नहीं होता और दुनिया भर के वैज्ञानिकों को साथ जोडक़र जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित सभी ज़रूरी वैज्ञानिक जानकारियाँ पढऩे और तार्किक निष्कर्ष निकालने का आह्वान करता है।

इसकी रिपोर्ट पृथ्वी की जलवायु स्थिति का सबसे व्यापक वैज्ञानिक मूल्यांकन माना जाता है। वर्तमान रिपोर्ट को मिलाकर आईपीसीसी ने अब तक छ: रिपोट्र्स दी हैं और इनके निष्कर्ष कमोवेश सही निकले हैं। हालाँकि इन पर विभिन्न देशों की सरकारों ने उस स्तर पर ख़तरे से बचने के उपाय नहीं किये हैं। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के 195 सदस्यीय अंतर-सरकारी पैनल में भारत भी एक सदस्य है, जिसने हाल में छठी मूल्यांकन रिपोर्ट जारी की है। आईपीसीसी ने पहली रिपोर्ट सन् 1990 में जारी की थी। इसकी रिपोट्र्स दुनिया भर के लिए पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में मार्गदर्शक का काम करती हैं।

आईपीसीसी की रिपोर्ट तीन वैज्ञानिक वर्क ग्रुप्स (एसडब्ल्यूजी) तैयार करते हैं, जिनमें से ग्रुप-1 की रिपोर्ट जारी हुई है। यह ग्रुप जलवायु परिवर्तन के वैज्ञानिक आधार से सम्बन्धित हिस्से पर काम करता है; जबकि दूसरा वर्किंग ग्रुप सम्भावित प्रभावों, कमज़ोरियों और अनुकूलन के मुद्दों को देखता है। तीसरे ग्रुप के ज़िम्मे वे कार्यवाहियाँ हैं, जो जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए की जा सकती हैं।

आज तक दुनिया भर में अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रमों, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जो भी कार्य योजना (एक्शन प्लान) तैयार की गयी है, वह आईपीसीसी की रिपोट्र्स पर आधारित रही है। जैसे सन् 1990 में आईपीसीसी ने अपनी पहली रिपोर्ट में ही कार्बन उत्सर्जन से वायुमण्डल में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में जबरदस्त बढ़ोतरी को लेकर चेताया था। रिपोर्ट में इसके लिए इंसानी गतिविधियों को ज़िम्मेदार ठहराया गया था।

रिपोर्ट में साफ़ कहा गया था कि दुनिया का तापमान और समुद्र का स्तर तेज़ी से बढ़ रहा है। इस रिपोर्ट का महत्त्व इससे ज़ाहिर हो जाता है कि इसे चिन्ताजनक मानते हुए सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन की बैठकों का मुख्य एजेंडा बनाया था।

दिलचस्प बात यह है कि आईपीसीसी की दूसरी, तीसरी, चौथी और पाँचवीं रिपोट्र्स में भी वायुमण्डल का तापमान बढऩे के ख़तरे के प्रति दुनिया को सचेत किया था। इन रिपोट्र्स में तापमान बढऩे का आँकड़ा और चिन्ताजनक हो गया था। चौथी रिपोर्ट में तो यह भी बताया गया था कि सन् 1970 और सन् 2004 के बीच ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 70 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई। सन् 1997 में आईपीसीसी की रिपोर्ट क्योटो प्रोटोकॉल के लिए वैज्ञानिक आधार बनायी गयी थी। इन रिपोट्र्स में तथ्यों के साथ यह बताया गया था कि मानव इन ख़तरों के पैदा होने के लिए सबसे बड़ा ज़िम्मेदार है।

तीसरी आकलन रिपोर्ट में भविष्यवाणी की गयी थी कि साल 2100 तक समुद्र का स्तर सन् 1990 के स्तर से 80 सेंटीमीटर तक बढ़ सकता है। आईपीसीसी की रिपोर्ट को तब दुनिया भर में बड़ी स्वीकृति मिली, जब चौथी रिपोर्ट को सन् 2007 का नोबेल शान्ति पुरस्कार मिला। सन् 2009 में कोपेनहेगन जलवायु बैठक के लिए भी इसी रिपोर्ट को वैज्ञानिक आधार बनाया गया।

आज से छ: साल पहले पाँचवीं आकलन रिपोर्ट में आईपीसीसी ने साफ़तौर पर कहा कि साल 2100 तक वैश्विक तापमान में अभूतपूर्व वृद्धि से धरती पर प्रजातियों का बड़ा हिस्सा विलुप्त होने का ख़तरा झेल रहा होगा। इस रिपोर्ट में खाने की चीज़ें की कमी होने का भी ज़िक्र था। पेरिस समझौते (2015) का एजेंडा इसी रिपोर्ट के आधार पर तय हुआ था। दिलचस्प यह हुआ कि उस समय डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका की सत्ता सँभाल चुके थे और उन्होंने इस रिपोर्ट से अमेरिका को अलग कर लिया था। हालाँकि जो बाइडन ने ट्रंप के फ़ैसले को पलटते हुए समझौते से अमेरिका को फिर जोड़ दिया।

अब आईपीसी की छठी रिपोर्ट सामने आ गयी है, जिसमें बाक़ायदा तथ्यों के साथ भविष्य के ख़तरों के प्रति सचेत किया गया है। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि सरकारों के लिए उत्सर्जन कटौती को लेकर यह रिपोर्ट गम्भीर स्तर की चेतावनी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि उन्होंने पिछली रिपोर्ट से भी बहुत कुछ सीखा है। हाल के वर्षों में दुनिया ने रिकॉर्ड तोड़ तापमान, जंगलों में आग लगने और विनाशकारी बाढ़ की दर्जनों भयावह घटनाएँ झेली हैं। रिपोर्ट का सार यही है कि मानव ने अपने तात्कालिक लाभ के लिए पर्यावरण का जैसा बँटाधार किया है और उससे जो विनाशकारी परिवर्तन सामने आये हैं, उन्हें आने वाले हज़ारों साल में भी वापस पुरानी स्थिति में नहीं लाया जा सकता है।

 

क्या कहती है रिपोर्ट?

रिपोर्ट का लब्बोलुआब यह है कि औद्योगिक-काल के पहले के समय से हुई तापमान वृद्धि कार्बन डाई ऑक्साइड और मीथेन जैसी गर्मी को सोखने वाली गैसों के उत्सर्जन से हुई। इसमें से अधिकतर उत्सर्जन कोयला, तेल, लकड़ी और प्राकृतिक गैस जैसे जीवाश्म ईंधन जलाये जाने के कारण हुए हैं। वैज्ञानिकों ने कहा कि 19वीं सदी से दर्ज किये जा रहे तापमान में हुई वृद्धि में प्राकृतिक वजहों का योगदान बहुत-ही थोड़ा है। ग़ौर करने वाली बात यह है कि पिछली रिपोर्ट में इसके पीछे इंसानी गतिविधियों के ज़िम्मेदार होने की सम्भावना जतायी गयी थी, जबकि इस बार इसे ही सबसे बड़ा कारण माना गया है।

यह सब स्थितियाँ तब बन रही हैं, जब सन् 2015 में 198 देशों ने ऐतिहासिक पेरिस जलवायु समझौते पर दस्तख़त किये थे। इस समझौते का उद्देश्य वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस (3.6 डिग्री फारेनहाइट) से कम रखना था, जो पूर्व औद्योगिक समय की तुलना में सदी के अन्त तक 1.5 डिग्री सेल्सियस (2.7 फारेनहाइट) से अधिक न हो। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। रिपोर्ट में ज़्यादातर शोधार्थियों ने पाँच परिदृश्यों पर ध्यान केंद्रित किया है।

रिपोर्ट के मुताबिक, किसी भी सूरत में दुनिया साल 2030 के दशक में 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान की बढ़ोतरी के आँकड़े को पार कर लेगी। इसमें चिन्ता का सबसे बड़ा कारक यह है कि तापमान की यह वृद्धि पूर्वानुमान से एक दशक पहले ही घटित हो रही है। उन परिदृश्यों में से तीन परिदृश्यों में पूर्व औद्योगिक समय के औसत तापमान से दो डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा की वृद्धि दर्ज की जाएगी।

यह रिपोर्ट काफ़ी विस्तृत है और 3,000 पृष्ठों में है। इसे 234 वैज्ञानिकों / शोधार्थियों ने तैयार किया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि तापमान से समुद्र का स्तर बढ़ रहा है। उधर बर्फ़ का दायरा सिकुड़ रहा है। भयंकर लू, सूखा, बाढ़ और तूफ़ान आने की घटनाएँ बढ़ रही हैं। उष्णकटिबंधीय चक्रवात और मज़बूत तथा बारिश वाले हो रहे हैं, जबकि आर्कटिक महासागर में गर्मियों में बर्फ़ पिघल रही है और इस क्षेत्र में हमेशा जमी रहने वाली बर्फ़ का दायरा घट रहा है।

रिपोर्ट के मुताबिक, वर्तमान स्थिति में यह सब स्थितियाँ और ख़राब होती जाएँगी। शोधार्थियों के मुताबिक, इंसानों द्वारा वायुमण्डल में उत्सर्जित की जा चुकी हरित गैसों के कारण तापमान निर्धारित (लॉक्ड इन) हो चुका है। इसके मायने हैं- ‘यदि उत्सर्जन में नाटकीय रूप से कमी आ भी जाए, तो भी कुछ बदलावों को सदियों तक पलटा नहीं जा सकेगा।’

रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने का वक़्त हाथ से निकल चुका है। आईपीसीसी की रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2100 तक दुनिया का तापमान काफ़ी बढ़ जाएगा। भविष्य में लोगों को प्रचण्ड गर्मी का सामना करना पड़ेगा। कार्बन उत्सर्जन और प्रदूषण नहीं रोका गया, तो तापमान में औसत 4.4 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होगी। अगले दो दशक में तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा। जब इस तेज़ी से पारा चढ़ेगा, तो ग्लेशियर भी पिघलेंगे, जिनका पानी मैदानी और समुद्री इलाकों में तबाही लेकर आएगा।

 

दावा : डूब जाएँगे भारत के 12 शहर!

हाल में हिमाचल के किन्नौर में पहाड़ दरकने की घटना हो या फरवरी में उत्तराखण्ड के चमोली में आयी आपदा। सुपर साइक्लोन ताउते और यास हों और देश के कुछ हिस्सों में हो रही जबरदस्त बारिश। भारत जलवायु से सम्बन्धित जोखिमों का सामना कर रहा है। आईपीसीसी की रिपोर्ट कहती है कि भारत दुनिया के 10 में से छ: सबसे प्रदूषित शहरों का घर है। यही नहीं, भारत लगातार वायु प्रदूषण से जूझ रहा है। सन् 2019 में वायु प्रदूषण के चलते देश में 1.67 मिलियन लोगों का जीवन दाँव पर लगा है। इसकी चपेट में सबसे ज़्यादा ग़रीब, मेहनतकश और शहरों में रोज़ी-रोटी कमाने वाले हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक, दूसरी तरफ़ यह वैश्विक स्तर पर दुनिया का तीसरा सबसे अधिक मीथेन उत्सर्जित करने वाला देश है। इन दोनों प्रदूषकों पर लगाम कसने की चुनौती हमारे सामने खड़ी है। विशेषज्ञों के अनुसार, ग्लोबल वार्मिंग 1.5 डिग्री सेल्सियस तक जाने पर भारत के मैदानी इलाकों में तपिश, अत्यधिक गर्मी और जानलेवा आसमान से बरसती आग जैसी मौसम की मार वाली घटनाएँ में इज़ाफ़ा होना तय है।

विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि अगले 10 साल में जानलेवा गर्मी की घटनाओं में बढ़ोतरी से निपटने के लिए भारतीयों को कमर कस लेनी चाहिए। इनमें 10 वर्ष में 5 गुना तक इज़ाफ़ा मुमकिन है। अगर ग्लोबल वार्मिंग 2 डिग्री सेल्सियस तक होती है, तो देश के अधिकांश मैदानी हिस्सों में तपती गर्मी के चलते जीना दूभर हो जाएगा। रिपोर्ट के मुताबिक, क़रीब 80 साल बाद यानी साल 2100 तक भारत के 12 तटीय शहर समुद्री जलस्तर बढऩे से क़रीब तीन फीट पानी में चले जाएँगे। ओखा, मोरमुगाओ, कांडला, भावनगर, मुम्बई, बेंगलूरु, चेन्नई, तूतीकोरिन (तूतुकुड़ी) और कोच्चि, पारादीप के तटीय इलाक़े छोटे हो जाएँगे। ऐसे में भविष्य में तटीय इलाकों में रह रहे लोगों को सुरक्षित स्थानों पर जाना पड़ेगा। पश्चिम बंगाल का किडरोपोर इलाक़ा, जहाँ पिछले साल तक समुद्री जलस्तर के बढऩे का कोई ख़तरा महसूस नहीं हो रहा है; वहाँ पर भी साल 2100 तक आधा फीट पानी बढ़ जाएगा।

अध्ययन कहता है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते यदि समुद्र का स्तर 50 सेंटीमीटर बढ़ जाता है, तो छ: भारतीय बंदरगाह शहरों चेन्नई, कोच्चि, कोलकाता, मुम्बई, सूरत और विशाखापत्तनम में 28.6 मिलियन लोग तटीय बाढ़ की चपेट में आ जाएँगे। इस बाढ़ के सम्पर्क में आने वाली सम्पत्ति क़रीब 4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की होगी। भारत के वे क्षेत्र, जो समुद्र के स्तर से नीचे होंगे; क्योंकि समुद्र के स्तर में एक मीटर की वृद्धि होगी।

यही नहीं, भारत में वार्षिक औसत वर्षा में वृद्धि का अनुमान है। वर्षा में वृद्धि से भारत के दक्षिणी भागों में अधिक गम्भीर होगी। दक्षिण-पश्चिमी तट पर सन् 1850 से सन् 1900 के सापेक्ष वर्षा में क़रीब 20 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है। यदि हम अपने ग्रह (पृथ्वी) को 4 डिग्री सेल्सियस तक गर्म करते हैं, तो भारत में सालाना वर्षा में क़रीब 40 फ़ीसदी की वृद्धि देखी जा सकती है। ऐसे में अत्यधिक वर्षा जल और बाढ़ से बचने का बंदोबस्त हमारे सामने एक बड़ी चुनौती होगी। क़रीब 7,517 किलोमीटर समुद्र तट के साथ भारत को बढ़ते समुद्री जलस्तर का सामना करना पड़ेगा।

भारत में हिन्दू कुश हिमालय क्षेत्र में (बर्फ़ीले क्षेत्र में) रहने वाले 240 मिलियन लोगों के लिए एक महत्त्वपूर्ण जलापूर्ति है, जिसमें 86 मिलियन भारतीय शामिल हैं; जो संयुक्त रूप से देश के पाँच सबसे बड़े शहरों के बराबर है। पश्चिमी हिमालय के लाहुल-स्पीति (हिमाचल) क्षेत्र में 21वीं सदी की शुरुआत से बड़े पैमाने पर हिमनदियों (ग्लेशियर) को खो रहे हैं। यदि उत्सर्जन में गिरावट नहीं होती है, तो हिन्दू कुश हिमालय में ग्लेशियरों में दो-तिहाई की गिरावट आएगी। ख़ुद भारत सरकार ने पिछले साल जलवायु परिवर्तन के आकलन पर अपनी पहली रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इसमें कहा गया है कि देश में सन् 1951 से सन् 2016 के कालखण्ड में सूखे की गति और तीव्रता तेज़ी से बढ़ी है। रिपोर्ट में गम्भीर चेतावनी दी गयी थी कि सदी के अन्त तक लू का स्तर चार गुना तीव्र हो जाएगा।

यह ख़तरे वल्र्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट की सन् 2019 की वैश्विक रिपोर्ट से मेल खाते हैं, जिसमें कहा गया था कि भारत उन 17 देशों में से एक है, जहाँ पानी को लेकर दबाव बहुत ज़्यादा है। इसमें दिखाया गया है कि भारत मध्य, पूर्व और उत्तरी अफरीका के उन देशों के साथ इस सूची में है, जहाँ भूजल और सतह का जल ख़त्म हो रहा है। भारत सरकार स्वीकार कर चुकी है कि बीते दो दशक में देश में बाढ़ की ज़द में आने वाले इलाकों में बड़ी बढ़ोतरी हुई है।

सीओपी 26 के अध्यक्ष आलोक शर्मा कहते हैं- ‘यदि भारत अब भी कोई क़दम नहीं उठाता है और कार्रवाई नहीं करता है; तो हमारे सामने जीवन, आजीविका और प्राकृतिक आवासों पर सबसे ख़राब प्रभाव की भीषणता खड़ी होगी। आने वाला दशक निर्णायक है और हमें विज्ञान का अनुसरण करते हुए 1.5 डिग्री के लक्ष्य को जीवित रखने के लिए अपनी ज़िम्मेदारी स्वीकार करनी होगी। साल 2030 एमिशन रिडक्शन लक्ष्यों और सदी के मध्य तक नेट ज़ीरो के मार्ग के साथ दीर्घकालिक रणनीतियों के साथ आगे बढक़र और कोयला बिजली को समाप्त करने के लिए अभी से कार्रवाई करके इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग में तेज़ी लाकर वनों की कटाई रोककर और मीथेन उत्सर्जन को कम करके ही हम संकट को टाल सकते हैं।’

रिपोट्र्स कहती हैं कि हिमालयी क्षेत्र में बर्फ़ की नदियों के बार-बार फटने से निचले तटीय क्षेत्रों में बाढ़ के अलावा अन्य कई बुरे प्रभावों का सामना करना पड़ेगा। देश में अगले कुछ दशक में सालाना औसत बारिश में इज़ाफ़ा होगा, ख़ासकर दक्षिणी प्रदेशों में हर साल घनघोर बारिश हो सकती है।

भारत में समुद्री प्रदूषण भी एक बड़े ख़तरे के रूप में हमारे सामने आ रहा है। समुद्र का धरती पर 71 फ़ीसदी हिस्सा है, जिससे 70 फ़ीसदी ऑक्सीजन का उत्पादन होता है। यह सूर्य के नीचे सभी प्राणियों के लिए साँस लेने के लिए ज़रूरी है। समुद्र कई प्रकार की दुर्लभ प्रजातियों का एक जल अभयारण्य है, जो अब विकट प्रदूषण के ख़तरे का सामना कर रहा है। यह न केवल समुद्री जीवों के जीवन को, बल्कि मानव जीवन को भी ख़तरे में डाल देगा। पिछले दिनों समुद्र ने मुम्बई में कई टन कचरा वापस फेंक दिया था। विशेषज्ञों के मुताबिक, तमिलनाडु जैसे तटीय क्षेत्रों में हो रहे परिवर्तन ख़तरे के संकेत कर रहे हैं।

 

रिपोर्ट के सकारात्मक पहलू

रिपोर्ट के कई पूर्वानुमान पृथ्वी पर इंसानों के प्रभाव और आगे आने वाले परिणाम को लेकर गम्भीर चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं; लेकिन आईपीसीसी को कुछ हौसला बढ़ाने वाले संकेत भी मिले हैं। इनमें पहला यह है कि विनाशकारी बर्फ़ की चादर के ढहने और समुद्र के बहाव में अचानक कमी जैसी घटनाओं की कम सम्भावना है। हालाँकि इन्हें पूरी तरह ख़ारिज नहीं किया जा सकता। आईपीसीसी सरकार और संगठनों द्वारा स्वतंत्र विशेषज्ञों की समिति जलवायु परिवर्तन पर श्रेष्ठ सम्भव वैज्ञानिक सहमति प्रदान करने के उद्देश्य से बनायी गयी है। यह वैज्ञानिक वैश्विक तापमान में वृद्धि से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर समय-समय पर रिपोर्ट देते रहते हैं, जो आगे की दिशा निर्धारित करने में अहम होती है।

ख़तरा बढ़ा, बजट घटा

ऐसी स्थिति में जब हम पर्यावरण से जुड़े गम्भीर संकट से दो-चार हैं, केंद्रीय बजट 2021-22 में पर्यावरण मंत्रालय को दी जाने वाली राशि घटा दी गयी। इस वर्ष मंत्रालय के लिए आवंटित कुल बजट 2,869.93 करोड़ रुपये है, जबकि पिछले साल यह 3,100 करोड़ रुपये था। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कितनी राशि आवंटित की गयी है, इसका ज़िक्र भी बजट में नहीं किया गया है। काफ़ी विशेषज्ञों ने कहा है कि यह किसी भी सूरत में ‘ग्रीन बजट’ नहीं कहा सकता है। सरकार ने भले ने 42 शहरी क्षेत्रों में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए अलग से 2,217 करोड़ रुपये की राशि रखी है। हालाँकि सबसे अहम माने जाने वाली जलवायु परिवर्तन कार्य योजना में राशि को 10 करोड़ रुपये घटा दिया गया है।

 

आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप की पहली रिपोर्ट मानवता के लिए ख़तरे का संकेत है। मिल-जुलकर जलवायु त्रासदी को टाला जा सकता है। लेकिन ये रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि इसमें देरी की गुंजाइश नहीं है और अब कोई बहाना बनाने से भी काम नहीं चलेगा। विभिन्न देशों के नेताओं और तमाम पक्षकारों को आगामी जलवायु शिखर सम्मेलन (सीओपी 26) को सफल बनाने में जुट जाना चाहिए।

एंटोनियो गुटरेस

संयुक्त राष्ट्र महासचिव

 

रिपोर्ट की प्रमुख बातें

 पहले हर 50 साल में भीषण गर्मी (हीट वेव) का जो दौर एक बार आता था, वह वर्तमान में हर 10 साल में आना शुरू हो गया है। यही नहीं, बारिश और सूखा भी अब हर दशक के हिसाब से प्रभाव डाल रहा है।

 अगले 20 साल में वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री तक (या इससे भी ज़्यादा) बढ़ जाएगा।

 पूर्व औद्योगिक समय से हुई क़रीब पूरी तापमान वृद्धि कार्बन डाई ऑक्साइड और मीथेन जैसी ऊष्मा को अवशोषित करने वाली गैसों के उत्सर्जन से हुई।

 बढ़ते तापमान का असर समुद्र पर भी पड़ रहा है और उसका स्तर बढ़ रहा है।

 बर्फ़ (गलेशियर) का दायरा सिकुड़ रहा है। इस कारण सूखा, तेज़ गर्मी (लू), बाढ़, तूफ़ान जैसे घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है।

 

हमारे लिए चिन्ता की बात यह है कि पहली बार केंद्र सरकार ने इस बार के बजट में जलवायु परिवर्तन कार्य योजना में आवंटित राशि को 10 करोड़ रुपये कम कर दिया है। जहाँ तक आईपीसीसी रिपोर्ट की बात है, पहले जो बदलाव हमें 100 साल में देखने को मिल रहे थे, वो अब 10 से 20 साल के बीच देखने को मिल रहे हैं। यह बेहद चिन्ताजनक और ख़तरनाक स्थिति है। भारत समेत पूरी दुनिया पर वैश्विक तापमान बढऩे का गहरा प्रभाव पड़ेगा। रिपोर्ट साफ़ संकेत करती है कि इसके नुक़सान की भरपाई नहीं हो सकती है।

गुमान सिंह

पर्यावरण विशेषज्ञ

 

हमारे ग्रह का औसत तापमान पहले ही 1.1 डिग्री तक बढ़ चुका है। बहुत कम देश हैं, जो उत्सर्जन को कम करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाने की दिशा में बढ़ रहे हैं। इस रिपोर्ट में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिस पर हैरत हो। यह रिपोर्ट सिर्फ़ उन्हीं बातों को पुष्ट करती है, जो हम हज़ारों रिपोट्र्स और शोधों से जान चुके हैं कि यह आपातकाल है। हम अब भी सबसे बुरे परिणामों से बच सकते हैं; लेकिन जो कुछ आज चल रहा है, वैसे नहीं। संकट को संकट की तरह समझे बिना तो बिल्कुल भी नहीं।

ग्रेटा थनबर्ग

पर्यावरण अभियानकर्ता